गन्धर्व
सुदर्शन वशिष्ठ
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गन्धर्व
जब धौलाधार बर्फ से भर गई, तब।
जब बर्फ में चांदनी चमकने लगी, तब। जब चांदनी में दरख़्तों के साए दिखने लगे, तब।
तब वह उतरता है पहाड़ से। धीेरे... धीेरे... धीरे...। सफेद कपड़े पहने। लम्बा ऊनी चोला, घुटनों से नीचे तक झूलता। कमर में कस कर कई लपेटे डाले उभरा हुआ काला ऊनी डोरा। बांसुरी, कभी डोरे के बीच खोंसी हुई, कभी हाथ में। जब चलता है, बांसुरी के एक सिरे से झूलती रंग बिरंगी डोरियां हिलती हैं बार बार। तब लगता है, बांसुरी की मधुर और मादक तान पहाड़ी दर पहाड़ी तैर रही है, लहरों की तरह, घाटियों को भरती हुई। जैसे बर्फ गिरती है एकदम चुपचाप, निःशब्द ; वैसे ही यह तान हौले हौले लिपटती सी महसूस होती है, सुनाई नहीं पड़ती। मौन स्वर का एहसास होता है। जैसे ठण्ड बरसती है बेआवाज। जैसे साज पड़े रहते हैं बेजान...ढोल, नगाड़े, खड़ताल....उन में आवाज होने का एहसास बना रहता है बराबर।
आधा देव, आधा दानव; आधा पशु, आधा मानव है वह।
ऊनी चोला लहराता है। नंगी टांगें एक सिरहन पैदा करती हैं। वह बर्फ में नंगे पांव चलता है। ठण्ड का उस पर कोई असर नहीं होता। जहां पैर पड़ता है, बर्फ लाजवंती की तरह पिघल जाती है।
ऊंचे पहाड़ों में बर्फ गिरने पर सभी जानवर, पक्षी नीचे तलहटी में उतर आते हैं। लम्बी पूछों वाले रंग बिरंगे पक्षी, रीछ भालू। वैसे ही उतरता है वह, सफेद बाघ कर तरह दबे पांव.....। रात के धुंधलके में कभी उसका मुंह घोड़े सा दिखता है। कभी वह बहुत लम्बा दिखता है, कभी आदमकद....नौजवान, तगड़ा गभरू गद्दी जिसकी भूरी मूंछें अभी निकली ही हैं। उसके चोले में नवजात मेमना होता है, हाथ में छोटा नरेलू जिससे कभी कभी तम्बाकू का कश खींच मुंह से ऐसा सुगन्धित धुआं छोड़ता है कि पूरे वातावरण में कस्तूरी सी गन्ध बिखर जाती है।
पहाड़िया कहते हैं उसे, कहीं नारसिंघ। पहाड़िया नवविवाहित दुल्हनों को ‘लग' जाता है। नवयुवतियों और विशेषकर नवविवाहितों को उससे बचा कर रखना होता है। गद्दी लोग विवाह से पहले पहाड़िए को मनाते हैं। धूप टिक्का करते हैं कि मेहर रखना मालका, हमारी इज्जत अब आपके हाथ है। एक बार वह लग जाए तो हटता नहीं चाहे पुजारी चेलों से लाख तन्त्र मन्त्र करवाओ।
फिर भी देवता के पुजारी चेलों से डरता है पहाड़िया। पहुंचे हुए संत महात्माओं से घबराता है। स्वर्गाश्रम जैसी पवित्र और सुच्ची जगहों में आने से भी कतराता है।
जहां पहाड़ियों धीरे धीरे नीचे उतरती हैंं वहां बीच में कहीं न कहीं एक प्लेटफार्म सा बन जाता है। ऐसी समतल जगहों में जनबस्तियां बसती हैं।
धौलाधार के प्रागण में, ऐसी ही एक समतल तलहटी में उगा है स्वर्गाश्रम। ढलान के बीच उड़नतश्तरी सा टिका हुआ। रात को एक अलौकिक प्रकाश उगता है यहां। तब सच में ही यह आकाश में टिका स्वर्ग लगता है।
आश्रम से धौलाधार की बर्फीली चोटियां ठीक सामने दिखती हैं, ऐसी कि हाथ फैलाने पर छू लो। आश्रम के एक सिरे पर विशालकाय शिवलिंग स्थापित है जो सीधा पहाड़ से बातें करता है। लम्बी सीढ़ी लगाओ तो यहां से सीधे पहाड़ पर पहुंच जाओ। लिंग का रंग भी पहाड़ जैसा है। कभी लगता है पहाड़ ही शिवलिंग है और लिंग ही पहाड़। कभी लगता है पहाड़ का एक हिस्सा ही लिंग रूप में स्थापित हो गया है। इतना बड़ा शिवलिंग दूर दूर तक नहीं।
जब गुनगुनी धूप की अदृश्य चादर बिछती तो स्वामी मुक्तानंद आंगन में दीवान पर आ विराजते। बात तब की है जब यहां झूला नहीं लगा था, प्रवचन के लिए माईक भी नहीं था। भक्तजन नीचे बिछी दरियों पर बैठ जाते। नया नया आश्रम बना था, भक्तजन भी कम थे। वे बिना माईक ही प्रवचन देते। उनकी आवाज पर्वर्तों से टकराती। कण्ठ में माधुर्य और गाम्भीर्य था :
‘‘जीवन क्या है.....एक सपना। तुम रात को सोए। सपने में महल देखे, चौबारे देखे, राजपाट देखा। नगर ग्राम देखे, जंगल पहाड़ देखे। कभी तुम हंसे, कभी रोए। जब जागे तो कुछ न था।.....ऐसा ही है जीवन। तुम कई कुछ देखते हो, भोगते हो। वास्तव में कुछ नहीं है...वास्तविकता कुछ और ही है....।''
मीठी धूप में मादक आवाज का ऐसा असर होता कि आधे श्रोता सच में ही सो जाते। वे तभी जागते जब लंगर से हलुवे की सौंधी सौंधी वास नथूनों में घुसती।
‘‘इस पहाड़ के पीछे देखा है किसी ने, क्या है!'' जब वे पूछते तो लोग चौंकते।
‘‘यही तो जिज्ञासा है,‘‘ वे कह उठते, ‘‘व्यक्ति को जिज्ञासु होना चाहिए।''
बचपन में पहाड के बीच बने वी के आकार के एक संकरे रास्ते को दिखा बापू कहते, ये धरमदुआरी है, इसी द्वार से जीव धर्मराज के पास जाता है। दस जमात तक गांव के स्कूल में पढ़ते हुए बदामो ने आश्रम में आ कर गुनना सीखा, जिज्ञासु होने का अर्थ भी जाना।
जब आश्रम में कोई न रहता, बदामो नित्यप्रति आश्रम के अंदर बाहर झाड़ू लगाती, साफ सफाई करती, पौधों को पानी देती। पूरा आश्रम बापू के जिम्मे रहता। यह सब मेरा ही है...वह सोचने लगी थी।....तुम्हारी पुत्री बहुत नेकदिल और गुणवती है रामसरन! इसके विवाह में जल्दवाजी न करना, देखभाल कर ही करना, अरे! तुम लोग बड़ी छोटी उम्र में कन्याओं को ब्याह देते हो, यह अच्छी बात नहीं; समझाते स्वामीजी।
उसका रंग बादामी था। मां उसे ‘बदामो' नाम से पुकारने लगी। पहाड़ी लड़कियों की काया टहनी सी होती है जो बचपने में ही झाड़ बुहार से ले कर हवा और छाया तक देती है। ऐसे ही बदामो छुटपन से ही स्वामी मुक्तानंद की टहल सेवा में जुट गई और अनायास ही आश्रम की अंदरूनी स्थायी सदस्य बन गई।
‘‘यह नाम तो सांसारिक है,' कहते हुए स्वामी मुक्तानंद ने उसे नाम दिया ‘‘सुकन्या''। छोटी थी तो सभी उसे बुलाते...कन्या! इधर आओ, कन्या! पानी लाओ, कन्या! यहां गोबर से लीप दो, कन्या! कन्या पुष्प लाओ, गंगाजल लाओ!.....धूप लाओ, दीप लाओ।
‘‘नाम वह अच्छा, जो अर्थपूर्ण हो, जिसके उच्चारण में कठिनाई न आए। हमारे पुराणों में नाम का बड़ा महत्व है। जैसा व्यक्ति, वैसा नाम। वेदव्यास, वशिष्ठ से ले कर भीष्म, युधिष्ठिर, कर्ण, विकर्ण, दुर्योधन; सब नाम सार्थक।'' स्वामीजी कहते।
सुकन्या की वय के साथ आश्रम फलने फूलने लगा। एक समय था, जब सर्दियों में आश्रम सूना हो जाता। वह कमरों, बरामदे, आंगन में झाड़ू लगाती। एक कोठीनुमा घर ही आश्रम था उस समय। स्वामीजी गर्मियों में आते तो दो तीन चेले साथ होते। बीच बीच में मैदानों से भक्तगण स्वामीजी की सुध लेने के लिए आते रहते।
पहले पहल यह आश्रम गर्मियों में कुछ दिन ठहरने के लिए ही बनाया था। मुख्य आश्रम तो राजस्थान में था। जब स्वामीजी आते तो कुछ भक्त भी आते रहते। किसी समय इसे इतना विकसित करना पड़ेगा, यह शायद स्वामीजी ने भी नहीं सोचा था।
धीरे धीरे जब भक्तों की संख्या बढ़ने लगी, आश्रम का विस्तार होता गया। आसपास के ग्रामीणों से, फिर सरकार से और जमीन ली। बडा सा लंगर हॉल बना। लेक्चर हॉल, साधना कक्ष और छोटे छोटे आश्रमनुमा कॉटेज जिन्हें व्यास, वशिष्ठ, गौतम, कपिल आदि ऋषि मुनियों के नाम से कुटीर नाम दिया गया।
बीच में आम, अमरूद, अनार, कचनार और नींबू, लुकाठ लगाए। हरसिंगार के पेड़ों के साथ नीलकांटा लगाया गया जिसे हर साल काट कर मनचाहा आकार दिया जाता। पेड़ों के बीच रास्ता, रास्ते के साथ फूलों की क्यारियां, जहां गेंदे के साथ कई तरह के मैदानी फूल। हर कुटीर की दीवारों का सहारा लिए फैलती चमेली, रातरानी और रंगीन कागजी फूल।
सर्दियों में लम्बी पूंछों वाले बड़े बड़े पक्षी पहाड़ से नीचे आ जाते तो गर्मियों में कई तरह की चिड़ियाएं, पहाड़ी मैना, तोतों के झुण्ड। बरसात में ऊंचे पत्थर पर बैठ तीतर बोलते तो आम्रमंजरियांें की गन्ध दूर दूर तक फैलती। घाटी के नीचे बहती नदी की सायं सायं और पक्षियों के कलरव से आश्रम में एक दिव्य संगीत गूंजता।
गर्मियों में गैरिक वस्त्र धारण किए सन्यासी विचरण करते तो लगता धौलाधार की वादी में यह कोई दिव्य स्थान है। सच में यहां ऋषि मुनि, देवता स्वर्ग से उतर आए हैं। जहां कभी ढोर डंगर चरा करते थे, भेड़ बकरियां मिमियाती थीं, लोग अन्धेरा होने पर इस ओर नहीं आते थे वहां मधुर घण्टियों और मन्त्रोच्चारण की ध्वनियों से वातावरण गूंजने लगा। स्वामी मुक्तानंद कहतेेे :
‘‘धरती का अपना भाग्य होता है। कहीं वन बने, कहीं उपवन बने। कहीं खेत बने, खलिहान बने। कहीं सर तो कहीं ऊसर। कहीं डगर तो कहीं नगर बने। कहीं नहर बने, कहीं महल बने। कहीं वैश्यालय बने, कहीं शिवालय बने। कहीं शस्त्रागार बने, कहीं कारागार बने। कहीं बियावान बने, कहीं श्मशान बने।''
लोग कहते स्वामी मुक्तानंद की उम्र डेढ़ सौ बरस से अधिक है, कोई कहता दो सौ बरस। स्वामीजी का चेहरा अभी भी लाल लाल था। शरीर भारी होने से चलने फिरने में तकलीफ होती थी। जब वे आसन पर विराजमान रहते, चेहरे से आयु का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था। भगवां चोले का कोई अंत नहीं पा सका.....लोग कहते। भक्तों को वे बादाम, गरी और दाख बांटते थे। उनके चोले का लम्बा खीसा कभी भी खाली नहीं होता।
आश्रम के चारों ओर ऊंची दीवार लगा दी। केवल एक बड़़ा सा मुख्य द्वार रखा जहां से बिना आज्ञा प्रवेश निषेध। दीवार के साथ केले के पेड़ लगाए जो साल भर में ही दीवारों से बाहर झांकने लगे।
संयोग ऐसा हुआ कि महीने में चार दिन जब सुकन्या का आश्रम में प्रवेश निषेध हुआ तभी मुख्यद्वार में पटि्टका लग गई :‘‘बिना आज्ञा प्रवेश वर्जित है।''
खुले प्रांगण में अतिरिक्त प्रवचन के लिए भीतर एक बड़ा हॉल बन गया जिसमें हजार से ऊपर भक्त आराम से बैठ सकते थे। ऊंचे मंच पर गाव तकियों के आगे बहुत ही बारीक दो माईक हमेशा लगे रहते जिनकी आवाज छोटे छोटे गुप्त स्पीकरों से गूंजती। स्वामी जी की आवाज़ तो वैसे भी गहन और गम्भीर थी। माईक से गुजरने पर और भी लरजती सी फैलतीः
‘‘साधना के लिए घर छोड़ना जरूरी नहीं। घर गृहस्थी छोड़ना तो पलायन करना है। मैं तो कहता हूं, चाहें तो सन्यासी भी घर न छोड़ें। आश्रम में सन्यासियों के रहने की व्यवस्था है। यहां रहना जरूरी तो नहीं। कहीं रहने मात्र से, कुछ पहनने मात्र से व्यक्ति सन्यासी नहीं हो जाता। व्यक्ति ने कुछ भी होना हो, मन से होना है। आश्रम में रहे , न रहे; गैरिक वस्त्र धारण कर,े न करे। गैरिक वस्त्र भी जरूरी नहीं। माथे पर चंदन, गले में कण्ठी माला....जरूरी नहीं। परंपरा के अनुसार संस्कार में बहुत कुछ जरूरी बना दिया है जो जरूरी नहीं। लोग हैं कि भौतिक सामग्री की तरह आध्यात्मिक सामग्री भी इकट्ठा किए जा रहे हैं... इकट्ठा किए जा रहे हैं....।''
स्वामीजी के प्रवचन से हॉल में बैठे भक्त, साधक धीेरे धीरे एकदम विरक्त होते जाते। प्रसाद, लंगर की महक से जागते और सांसारिक प्रपंच की ओर पुनः अनुरक्त होते।
सांय के सत्संग में जब शिव स्तुति के बाद माता की भेंटें गाई जातीं तो आसपास के गांवों से आई महिलाएं अपने बाल बिखेर ‘खेलना' शुरू कर देतीं। कुछ खड़ी हो कर नाचने लग जातीं। कुछ तो आंखें बंद कर भावावेश में तेजी से बाहें लहरातीं। कुछ पालथी मार जोर जोर से सिर घुमाते हुए बालों को घुमातीं तो माहौल डरावना हो उठता। इस तरह ‘खेलना' गांव के गूर चेलों के सामने होता है, ये सब अंधविश्वास की निशानी है। स्वामीजी ऐसे प्रपंच अपने सत्संग में नहीं चाहते थे। जब नीचे से संभ्रांत भक्त आने लगे तो धीरे धीरे गांव के लोगों पर रोक लगने लगी।
‘‘यह साधना जागे हुए लोगों के लिए है, सोए हुओं के लिए नहीं। साधना में मनुष्य को ऊपर उठना है, अघ्यात्म में जाना है, सांसारिक अंधकूप में नहीं खोना है।'' स्वामी कहते।
स्वामीजीने आश्रम में महिलाओं का प्रवेश वर्जित तो नहीं किया, कोई अकेली महिला रात्रि को आश्रम में नहीं रूक सकती थी। न ही किसी को साध्वी बनने की अनुमति थी। साधक या सन्यासी केवल पुरूष ही बन सकता था। साधक पुरूष आश्रम में रह सकता था। सन्यासी तो रहते ही थे। किसी सन्यासी को महिला की ओर आंख उठा कर देखने की अनुमति नहीं थी। इस मामले में वे भगवान बुद्ध का उदाहरण देते। हां, विश्वासपात्र भक्त लोग कुटिरों में सपरिवार आ कर ठहर सकते थे।
‘‘अरे! ये तो घनश्याम हैं...मेरे श्याम हैं। इनके पैर छुए कभी! इतने नरम हैं जैसे रूई। और हाथ...सिर पर हाथ रखें तो लगे गुंधा हुआ आटा रख दिया है। हथेलियां जैसे बच्चे का नरम पेट। जब स्वामीजी पास से गुजरते तो महिलाएं उन्हें छूने के लिए बेताब हो जातीं और भावुकता में आंखाें से झर झर आंसू बहने लगते। स्वामीजी शिव के उपासक थे, स्वयं को शिव का अनुचर मानते। आश्रम में विशालकाय शिवलिंग के होते हुए, प्रतिदिन शिव स्नान का जल प्रसाद में ग्रहण करते हुए भी महिलाओं को उन में कृष्ण दिखलाई पड़ते।
कोई कहता स्वामीजी एम.एस.सी. हैं, कोई कहता डाक्टरी पास कर रखी है। बहुत बड़ी पोस्ट पर थे, अचानक सब त्याग दिया, पायलट बाबा की तरह। माना जाता था कि स्वामीजी ने कोई सिद्धि की हुई है। सिद्धि के कारण उनके पास अपार शक्तियां हैं। जिसके सिर पर वे हाथ रख दें, वह धन्य हो जाता। विश्वास तो यह था, कई शक्तियों के स्वामी दो सौ वर्ष के होंगे किंतु देखने में पैंसठ सत्तर से ऊपर लगते। इतनी वय हो जाने पर भी स्वामी जी का चेहरा दमकता था। शरीर स्थूल हो जाने पर भी हाथ पांव से जैसे खून टपकता।
स्वामीजी के आने से पहले खूश्बू का एक झौंका आता। जब वे गुजरते तो चंदन की खूश्बू चारों ओर फैल जाती। खड़े होते तो जैसे चंदन के पेड़ हों।
आश्रम के पूरे वातावरण में चंदन अग्गरबत्तियों की महक फैली रहती। सात्विक सुगन्धित हवा से पूरा आश्रम भरा भरा रहता। कहीं पूजा अर्चना हो रही है, कहीं यज्ञ चल रहा है, कहीं होम हवन हो रहा है।
गर्मियों में गैरिक वस्त्र धारण किए सन्यासी, श्वेत वस्त्र धारण किए भक्त; सादी मगर मंहगी साड़ियों में महिलाएं, चुलबुलाते बच्चे; इतने लोग आ जाते कि पूरा आश्रम किलकारियां मार उठता। श्वेत परिधान में महिला अनुयायियों का एक टोला गुजर जाए तो सारा वातावरण महक उठता। अब विदेशी भक्त भी आने गले थे। सभी भक्ति भाव में मगन और मस्त हुए यहां तहां विचरण करते। हर कोई गाता हुआ और नाचता हुआ सा प्रतीत होता। महिलाओं को खाना बनाने या परोसने की कोई चिंता नहीं। समय समय पर चाय, नाश्ता, भोजन के वूफे लगे रहते। अब आश्रम में बहुतेरे स्थायी सेवादार तैनात कर दिए गए थे। आसपास के ग्रामीणों को भी बरतन मांजने, भोजन पकाने से ले कर स्टोर आदि को सम्भालने के काम योग्यता के अनुसार काम मिल गए थे। आज भी सुकन्या के परिवार की महत्ता कम नहीं हुई थी। सुकन्या के बापू मुख्य द्वार पर बैठते। आगन्तुकों का परिचय लेते और जांच परख कर भीतर जाने की इजाजत देते।
यूं तो स्वामीजी के साथ तीन चार सन्यासी हमेशा साथ रहते किंतु स्वामी असीमानंद विशेष अनुयायी था उनका। सादा साए की तरह साथ रहता। कभी लगता उनका दत्तक पुत्र ही हो।
स्वामी असीमानंद.....जब पहली बार आया तो लड़का सा था। भूरी मूंछें भी पूरी तरह नही उगी थीं। लगता, बचपन में ही सन्यासी हो गया है। दूसरी बार आया तो शरीर भरने लगा था। जैसे पहाड़ में हर साल छिंज मेलों में कुश्ती के लिए नए नए युवा पहलवान पंजाब, हरियाणा से आते। जब वे अगले साल आते तो उनका जिस्म भरा भरा और और ताकतवर होता। गांव के लोग उनकी ताकत और कुश्ती के करतबों को देख हैरान होते रहते। एक साल में ही वे बचेल से गभरू बन जाते।
हर साल चार पांच युवा सन्यासी अवश्य बनते जो स्थायी रूप से आश्रम में ही रहते थे। पहले मुख्य आश्रम में हर वर्ष वसंत में दीक्षांत समारोह होता जिसमें इच्छुक युवाओं को सन्यासी बनाया जाता। अब यह समारोह गर्मियों में यहां भी होने लगा था।
तीसरे वर्ष जब असीमानंद ने आश्रम में प्रवेश किया तो धीर गम्भीर युवा सन्यासी का रूप था। सिंदूरी रंग, नारंंगी चेहरा, काली घनी भौंहें। चौड़े कन्धों पर जब गैरिक उत्तरीय छितरा कर गिरता तो निर्वस्त्र पुष्ट वक्षःस्थल में स्पंदन होने लगता। घुटे हुए गोल सिर में जब छोटे छोटे बाल उगने लगते तो सुराही की तरह लम्बी व सुडौल गर्दन का रंग और ओजस्वी लगता। लम्बी सुतवां नाक के ऊपर पूरे माथे पर जब लाल पीले चंदन का लेप लगता तो तेजस्वी आंखों में एक अनोखी चमक आ जाती। जब वे देखते तो दृष्टि जैसे एकदम आरपार हो जाती।
पूजागृह में ध्यान साधना, पूजा अर्चना का सारा काम स्वामी असीमानंद ने सम्भाल लिया था। मुक्तानंद आश्रम के कृत्यों से अब मुक्ति पाना चाहते थे। सांसारिक प्रपंच तो कब का छोड़ दिया था, अब यह नया प्रपंच था। असीमानंद को अब एक सशक्त उत्तराधिकारी के रूप में भी देखा जाने लगा था।
प्रभुजी! तुम चंदन हम पानी......असीमानंद कहते : ‘‘इस ससांर में कुछ चीजें ऐसी हैं जिनका अकेले का अस्तित्व कुछ नहीं। सूखा चंदन घिसो, बूरा बनेगा। दीपक बिन बाती या बिन तेल नहीं जलेगा। ऐेसे ही प्रकृति भी एक तत्व से पूरी नहीं होती.......जैसे शिव और शक्ति। बल्कि ज्यादा चीजें मिलने से कुछ और ही बनता है, अद्भुत। संकरणता में शक्ति है।''
इस बार सुकन्या ने चंदन घिसा तो उसमें एक अलग तरह की महक थी। जब फूलों की टोकरी सजाई तो अजीब सी पुलकन हुई।
जब उसकी लम्बी पतली उंगलियों में चंदन की परत चढ़ी तो पता नहीं चला कि कितनी है। चंदन और उंगलियों का रंग एक था। उसका रंग बादाम की तरह नहीं, चंदन की तरह है। चंदन में महक भी होती है। इसे ऐसे पत्थर पर घिसा जाता है जो देखने में मुलायम लगता है। उसका नाम ऐसा होनी चाहिए था जिस का अर्थ चंदन हो या कहीं न कहीं चंदन का भाव हो।
पूजा के समय असीमानंद को फूल अक्षत, धूप दीप प्रस्तुत करती बार सुकन्या के लिए समय ठहर गया। कब पूजा सामग्री जुटाई, कब पूता आरम्भ हुई, कब खतम भी हो गई, कुछ पता नहीं चला। जब असीमानंद ने दोनों हाथों मेंं दबा कर जोर से शंख फूंका तो मन सहम गया सुकन्या का।
पूजा के बाद असीमानंद ने पूजा के फूल भक्तों की ओर फैंके तो गैंदे का एक बड़ा सा फूल उसकी गोदी में आ गिरा.....अपने आप सीधा गोदी में फूल का गिर जाना शुभ होता है। गोद भरना कितना सुखदायी है।
स्वामीजी के शिथिल हो जाने पर प्रातःकाल और सायं का प्रवचन स्वामी असीमानंद करने लगे। असीमानंद की वाणी स्वामीजी से भी आकर्षक थी....कुछ जादूई सी। लरजती और मरमराती धीमी नदी सी। धीर गम्भीर समुद्र सी। उसके भीतर क्या उथल पुथल हो रही है, इसका अंदाजा लगाना कठिन था।
‘‘वेदव्यास के पुत्र शुकदेव का नाम सुना है...जब उनका जन्म हुआ माता उन्हें छोड़ का स्वर्ग चली गई। वह स्वर्गलोक की अप्सरा था। शुकदेव को जंगल में शुकों अर्थात् तोतों ने अपने पंखों से छिपा कर रखा। शुकदेव ब्रह्मज्ञानी हो गए। बचपन में वे बिना कोई वस्त्र धारण किए जा रहे थे तो राह में खड़ी महिलाओं ने उन से कोई संकोच नहीं किया। वे इतने ऊपर उठ चुके थे, अपने पिता से भी आगे। ब्रह्मज्ञानी हो गए थे वे। एक ओर ब्रह्मज्ञानी और दूसरी ओर एक बालक के समान।......हम देख रहे हैं इस क्षेत्र में तो शुक ही शुक है। अभी भी तोतों की आवाज आ रही है। एक ओर तो तोता कामदेव का वाहन है, दूसरी ओर गंधर्व को भी शुक कहते हैं। यक्ष, गन्धर्व और किन्नरों में गंधर्व, गायन में प्रवीण थे। गन्धर्व स्त्रियों पर आसक्त होते हैं तो गन्धर्व ही उनके कौमार्य की रक्षा भी करते हैंं। इनमें आसक्ति भी है तो रक्षण का प्रबल भाव भी है। गन्धर्व कमलदलों का आसीन रहते हैं। उनकी जंघाओं पर अप्सराएं विराजमान रहती हैं। गन्धर्व चतुर्भजी होते हैं जिनके हाथों में बहुमूल्य हार, जवाहारात और चंवर रहते हैं।... ये आकाश में स्वछन्द उड़ते रहते हैं। ऐसी अनेक बातें, जो विरोधाभासी भी हैं, हमारे पौराणिक ग्रन्थों में विद्यमान हैं। इनके गूढ़ रहस्य हैं।''
जब असीमानंद बोलते तो मन होता सुनते ही रहे। उनकी जिह्वा मेें सरस्वती का वास था और वाणी में वीणा की मिठास। बीच बीच में वे कुछ पद गाकर भी सुनाते। आश्रम में कुछ सन्यासी गायन वादन में प्रवीण थे जो प्रवचन के समय बांसुरी धुन, तबला, हारमोनियम या सिंथेराइजर जैसे आधुनिक वाद्य बजाना भी जानते थे।
‘‘सांसों की माला पे सिमरूं मैं पी का नाम'' स्वामी असीमानंद को बेहद प्रिय था। इसके साथ मंजे हुए गायक कभी ‘‘बुलेशाह असमानी उडदेयां फड़दा, जेहड़ा घर बैठया ओहनू फड़दा ही नई'' जैसे सूफी गायन में डूब जाते :
‘‘कन्नी मुंदरां पा के मत्थे तिलक लगा के
नी मैं जाणा जोगी दे नाल़.....
एह जोगी नइर्ं कोई रूप है रब्ब दा
भेस जोगी दा इस नू फबदा
एह जोगी मेरी अखां बिच बसेया
नि मैं इस जोगी हुण होर न जोगी
नि मैं जाणा जोगी दे नाल़......।''
स्वामी इसकी व्याख्या करते हुए खुदा और बंदे, मनुष्य और ईश्वर के आत्मीय प्रेम कोमलकांत भाषा में डूब जातेः
‘‘मन्त्र की तरह है यह काव्य। या काव्य ही मन्त्र है। ऐसे सूत्र वाक्य जैसे घड़े में गंगा। जिस तरह मन्त्रों के कई अर्थ खुलते हैं, उसी तरह कविता के, गायन के कई अर्थ खुलते हैं। तभी मन्त्रों की ऋचाओं की कई व्याख्याएं हुईं। अर्थ अभी भी जाने नहीं गए।''
स्वामी असीमानंद की वाणी बांसुरी धुन के साथ गूंजती :
‘‘प्रेम कोई परिंदों से सीखे, गायन गन्धर्वों से सीखे, नृत्य तरंगों से सीखे, जीना कीट पतंगों से सीखे। मनुष्य को सीखने के लिए कहीं नहीं जाना है.....इस सृष्टि में आसपास ही बिखरा है सब। पग पग पर अपने आसपास के वातावरण से सीखता है मनुष्य। एक कीट का जीवन कितना है! वह उसे ही जीता है। एक तितली का जीवन कितना है! वह भी जीती है। एक पत्ता, एक कली, एक फूल। पूरी प्रकृति अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीती है। एक फूल जीता है सुगन्ध के लिए, फूल जीता है मानव के लिए, फूल जीता है, दानव के लिए और जीता है भगवान के लिए। ऐसे ही तुम भी जियो। जीवन छोटा है, कोई बात नहीं। तुम जियों दूसरों के लिए।''
ऐसे प्रवचनों के बाद सुकन्या को सपने में गन्धर्व आते। चतुर्भज गन्धर्व गायन करते हुए। कभी कभी तो दिन में भी लगता, गन्धर्व केले के पेड़ों के बीच से, फूलों की क्यारियों से होता हुआ निकला है, गैरिक धोती, उत्तरीय लपेटे। जिसके गले में बेश्कीमती हार है, कानों में सोने के कुण्डल हैं। हाथों में वाद्य ले रखे हैं।
कभी लगता यह गन्धर्व और कोई नहीं, स्वामी असीमानंद है। और वह....वह एक अप्सरा है। गन्धर्व दो हाथों में गेंदे के बड़े बड़े फूलों के हार लिए और दो हाथों में अक्षय मणियां लिए आश्रम के उपवन में प्रकट हुआ है। कभी लगता गन्धर्व नहीं एक जोगी आंगन में खड़ा है। कीर्तन भवन में कोई गा रहा है : एह जोगी घर आवे मेरे.....एह जोगी।
‘‘मुझे भी सन्यासिन बनाओ। मैं गृहस्थ सन्यासिन नहीं बनूंगी, सच को सन्यासिन बनूंगी। भगवां चोला पहनूंगी।'' सुकन्या ने विनयपूर्वक कहा असीमानंद से।
कुछ बोले नहीं असीमानंद। एक क्षण भरपूर दृष्टि से देखा सुकन्या की ओर। उनकी दृष्टि जैसे सुकन्या को भेद गई। उसका दिल धक् धक् उठा। माथे पर पसीना आ गया।
‘‘मैं सच कह रही हूं। मजाक नहीं है यह।'' साहस कर सूखे कण्ठ से बोली।
‘‘स्वामीजी किसी महिला को नहीं मानते आश्रम में.....कोई महिला यहां सन्यासी हो कर नहीं रह सकती।'' असीमानंद के स्वर में दृढ़ता थी।
‘‘मैं तो बीस बीस घण्टे यहीं रहती हूं। रात को बस सोने जाती हूं घर। कभी तो रात रात भर सोना नहीं हो पाता।''
दृष्टि झुकाए चुप रहे असीमानंद।
‘‘सच कह रही हूं।....मजाक नहीं है।''
चेहरा कठोर बनाते तेजी से बाहर निकल गए असीमानंद।
कभी खुल कर मुसकाते नहीं असीमानन्द। कैसे हैं न! यदि मुसकरएं तो कितने मोहक लगें.....बिल्कुल श्रीकृष्ण। जैसे महाभारत सीरियल में आते हैं। सौम्य, भव्य, हर संकट में सदा मुसकाते हुए।
आज दीक्षा का दिन था। क्या पुरूष, क्या महिला; दीक्षा सब को दी जाती थी। दीक्षित हो कर गृहस्थ अपने को स्थायी शिष्य मान कर धन्य हो जाते। दीक्षित हो जाने पर अपने गुरू पर, आश्रम पर उनका अधिकार हो जाता। जब चाहें बेराकटोक आ जा सकते थे। दीक्षित भक्त को रूद्राक्ष की माला दी जाती जिसे वे हर समय धारण कर सकते थे। यही दीक्षित भक्त की पहचान भी थी।
साधना कक्ष में सब आंखें मूंदे बैठे थे। मौन, शान्त।
स्वामी असीमानंद कर आवाज गूंजी : ‘‘शान्त हो जाएं।''
उन्होंने पूरा सांस पेट में भरने के और धीरे धीरे निकालने के बाद प्राणायाम करने की विधि बताई हालांकि ये विधियां पहले भी कई बार बताई जा चुकी थीं। दीक्षा के समय कोई गलती न हो अतः स्वामीजी बेहद सतर्क थे। दीक्षा से पूर्व प्राणायाम की सब प्रक्रियाओं से निर्विरोध गुजरना आवश्यक है।
..... प्राणायाम शुद्धि के लिए है.....मानसिक शुचिता के लिए। सांस का भीतर आना, बाहर जाना; इसे महसूस करना आदि सब क्रियाएं मनुष्य को सजग बनाती हैं। योग क्रियाएं यदि शारीरिक शुद्धि के लिए है तो प्राणायाम मानसिक शुद्धि के लिए। इससे पहले मन को भीतर तक बिलकुल खाली करना होता है। पूरी तरह समर्पण कर दें। आप एकदम खाली हो जाएं....भीतर कुछ न रहे। न अच्छा, न बुरा।
.... जो ध्वनियां आपके कानों में आ रही हैं, उन्हें बेरोकटोक आने दें। पक्षियों का चहचहाना, नदी की सायं सायं, घण्टियों की मधुर ध्वनि; सब आने दें। नासिका से जो गन्ध प्रवेश कर रही है, करने दें। कलियाें की महक, फूलों की सुगन्ध। जो अच्छे या बुरे विचार आ रहे हैं, उन्हें भी आने दें। बेरोकटोक आने दें, जाने दें।
सब को सहज स्वीकार करते हुए अपनी आंखें बंद रखें।
एकाएक सन्नाटा छा गया। जैसे जंगल; शान्त और एकान्त....यह मौन नहीं था।
पल पल बीता। क्षण क्षण गुजरा।
एकाएक माथे के बीचोंबीच अंगूठे का स्पर्श महसूस किया सुकन्या ने। नेह भरा, कोमल स्पर्श। अंगूठा ठीक उसके माथे के बीचोंबीच था, भौंहों के ऊपर। हाथ से बिखरी चंदन जैसी कस्तूरी गन्ध सांसों से उसके शरीर के रोम रोम में समा गई। सारे शरीर में एकदम रोमांच हो उठा। बिजली के करंट सी कोई चीज उसके पूरे शरीर को झकझोर गई। कपाल ले कर ले कर पैर के अंगूठे तक।
जैसे शक्तिपात हुआ। माथे से कोई लहर नस नस में, रोम रोम में समा गई। रोंगटे खड़े हो गए। शरीर, मन और आत्मा तक थरथरा गई। वह पारे सी कांप उठी.... थर थर....थर थर....थर थर।
पता नहीं कितनी देर वह मन्त्रमुग्ध सी, बेसुध, वहां बैठी रही या यूं समझो पड़ी रही।
लग रहा था, उसके सिवा साधना कक्ष में कोई नहीं है। कभी लगता, नहीं तो सभी दीक्षित होने वाले साधक पालथी मार शान्त भाव से यहीं तो बैठे हैं।
आसपास कोई है या वह अकेली ही है, पता नहीं। कितना ही समय बीत गया।
देर बाद बांसुरी की मधुर तान धीमे धीमे सुनाई पड़ी.... यह कोई सपना तो नहीं....!
अंततः स्वामीजी का मधुर स्वर गूंजाः
‘‘सभी अपने को महसूस करें। सभी अपने शरीर में प्रवेश करें......आसपास की ध्वनियां सुनें, वातावरण को महसूस करें।''
बांसुरी की धुन अब तेज होने लगी। कई साज बज उठे।
‘‘सभी अपने अपने स्थान पर खड़े हो नृत्य कर सकते हैं। आंखें बंद ही रखें।''
संगीत की धुन तेज होती गई। लगा, सभी उठ कर नृत्य करने लगे हैं....धीमे धीमे।
धीरे धीरे संगीत विलीन होता गया। नृत्य भी थम गया। नृत्य के बाद पुनः सभी बैठ गए। कुछ देर बाद स्वर गूंजाः ‘‘चाहें तो जब भी इच्छा हो, धीरे धीरे आंखें खोल सकते हैं।''
आंखें खोलने को कितनी देर मन नहीं हुआ। मन कर रहा था, बंद ही रहने दें। खोलने पर भी लगा, बंद ही हैं। देर तक वह शिथिल हो वहीं पड़ी रही।
रूद्राक्ष की माला पहने घर गई तो मां को कहाः
‘‘देखो, मां! मैं जोगन बन गई।.... अम्मा! मैं सच ही जोगण बन जाणा।'' मचलती हुई बोली सुकन्या।
‘‘चुप कर। मूई तू पाग्गल! तेरे होणे बस्सणे के दिन हैं... जोग्गण बणणा। तेरा ब्याह करणा अब... तेरे बापू गल्ल पक्की करणे लगे हैं।''
सर्दियां उतरने लगीं। उधर धौलाधार में पहली बर्फ की परत चढ़ी उधर भक्तों की संख्या घटने लगी। स्वामीजी अब ठण्ड सहन नहीं कर पाते थे अतः नीचे जाने की तैयारियां आरम्भ हो गईं। सुकन्या ने फिर मां से कहा :
‘‘अम्मा! मैंने भी चले जाना स्वामीजी के साथ।.....सच्ची, मैंने जोगण बनना।''
‘‘चुप कर।'' मां ने डांटा, ‘‘मूई तू जोगण.....औरत भी कब्भी जोगण बनी है! स्वामीजी भी नहीं मानते। अगले महीने तेरा ब्याह है।''
बिना कोई आहट किए दबे पांव ठण्ड उतरी। नदी में पानी घटा। घाटी गहरी धुंध में डूबने लगी। आश्रम सुनसान हो गया।
चुपचाप ताज़ा ताज़ा बर्फ गिरी है। धौलाधार की चोटियां चांदी सी चमकने लगीं हैं। पहाड़ से पशु पक्षी तलहटी में नीचे उतरने लगे हैं।
जब धौलाधार बर्फ से भर गई, तब।
जब बर्फ में चांदनी चमकने लगी, तब। जब चांदनी में साए डरावने लगने लगे, तब।
तब वह उतरता है पहाड़ से। धीेरे... धीेरे... धीरे...। सफेद कपड़े पहने। लम्बा ऊनी चोला, घुटनों से नीचे तक झूलता। उसकी बांसुरी की मधुर और मादक तान पहाड़ी दर पहाड़ी तैरती है, लहरों की तरह, घाटियों को भरती हुई। जैसे बर्फ गिरती है एकदम चुपचाप, निःशब्द ; जैसे ठण्ड बरसती है बेआवाज। जैसे साज पड़े रहते हैं बेजान...गुणीजन जानते हैं, उन में आवाज छिपी रहती है।
ऐसे में वह भी उतरता है धीरे...धीरे....धीरे। पहाड़िया कहते हैं उसे। लोग नहीं जानते वह गन्धर्व है जो नवविवाहिताओं को लग जाता है। आसक्त होता है तो उनका रक्षक भी है।
आंगन में बर्फ सुस्ता रही थी। पहाड़ के पीछे उजास फैलते ही देहरे के पास धूप और पानी का लोटा रखा रामसरन ने। पत्नी की गोद में उठाए मेमने पर पानी के छींटे दिए तो वह सिहर कर गोद से छिटका और आंगन में उछलने लगा। पहाड़ की ओर हाथ जोड़ धूप दिखाते हुए गिड़गिड़ाया रामसरन :
‘‘गलती फलती माफ करना....मेहर रखणा मालका!''
‘‘अभिनंदन''
94180—85595 011—2620858
कृष्ण निवास
लोअर पंथा घाटी शिमला — 171009