Tyag in Hindi Short Stories by Rajesh Kumar Srivastav books and stories PDF | त्याग

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त्याग

त्याग

राजेश कुमार श्रीवास्तव

अपनी कार से उतर कर मैंने सीधे ऑफ़िस के अपने केबिन में प्रवेश किया। बैग को टेबल पर रखा और उस पर रखे कागज़ात तथा फ़ाइलों पर नज़र डाली। आज बहुत कम काम निपटाने थे। एक-एक कर मैं उन फ़ाइलों और कागज़ात को उलट-पुलट कर देखने लगा। अचानक मेरी नज़र एक बंद लिफ़ाफ़े पर पड़ी। शायद कल की डाक से आया था। यह लिफ़ाफ़ा किसी और ने नहीं, मेरे आँफिस के पिउन द्वारा भेजा गया था। जिसकी मृत्यु पिछले सप्ताह नदी में डूब जाने से हो गई थी। मैंने उस बंद लिफ़ाफ़े पर लगे पोस्ट-ऑफ़िस के स्टैम्प पर नज़र डाली यह लिफ़ाफ़ा उसने अपनी मृत्यु के दो दिन पहले पोस्ट किया था। ठीक जिस दिन से वह छुट्टी पर था। हाथों में लिफ़ाफ़ा लिए-लिए मुझे ऑफ़िस में उसके साथ बिताए पाँच साल की यादें ताज़ा हो गईं।

नाटे क़द काठी का, गठीला बदन, रंग गेहुंआ, ऑफ़िस में हाफ़ पेंट और हाफ़ बाँहों वाला खाकी शर्ट पहने उसकी उम्र का अनुमान लगाना मुश्किल था। हालाँकि जब पाँच साल पहले मैंने इस ऑफ़िस में ज्वाइन किया था तब वह लगभग चौवन वर्ष का होने वाला था। मुझे देखते ही उसने पहले सलाम साब कहा था फिर मेरे हाथों से मेरा बैग लेकर मेरे केविन में टेबल पर रखते हुए कहा था- "साब जी इस टेबल पर बैठने वाले साब लोगों की मैंने पिछले पैंतीस सालों से सेवा की है। अब आपको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझसे कहिएगा।"

मैंने जब उससे उसका नाम जानना चाहा तो उसने अपने दोनों हाथों को जोड़कर तथा सर को झुका कर कहा, "साब जी ऐसे तो हमार नाम रामसहाय सहानी है लेकिन ऑफ़िस में बाबू लोग हमके रामू काका कहत है।"

"तब तो मैं भी आप को रामू काका ही कहकर पुकारूँगा।"

"जैसी मर्ज़ी आपकी साब।"

"घर में कौन-कौन है?" मैंने उससे परिचय बढ़ाना चाहा।

"साब, मेहरी थी। उ तो पिछले साल ही चल बसी। बड़ी बीमार रहती थी। दुई गो बेटी थी। मेहरी के ज़िंदा रहते ओहकनि के शादी-बिआह कई देहनी साब। सब अपना-अपना घर में रहत है। एगो बिटवा है साब। ओहकरा का आदमी ना बनावे पाइनि साब जी।"

"पढ़ाई-लिखाई कहाँ तक किया है आपका बेटा?" मैंने उससे पूछा।

"कहवाँ पढ़ाई-लिखाई कइलख ससुरा। आवारा निकल गवा साब। चौथी तक केहुँग पढ़ा है। ओहकरे चिंता त हमके खाय जात ह।"

"अभी क्या करता है?"

"कुछु नहीं करता है साब। दिन भर आवारागर्दी करत है। रात को दारू पीकर आवत है। हमार मेहरी के कवनों मरे का उमर था। उ त ओहकरे चिंता में बीमार पड़ गई और मर गई।"

"कितना उमर है उसका?"

"साब, बाइस बरस का हो गवा है लेकिन बुद्धि एको पैसा का नहीं है। मेहरी के मर जाने के बाद लोगों ने कहा कि शादी करा दो तो सुधर जाएगा और घर चलाने वाला भी मिल जाएगा तो मैंने उसकी शादी भी करवा दी लेकिन उसमे कवनो सुधार नहीं आया। उलटे वह अपनी मेहरिया को ही रोज मारने पीटने लगा। एक दिन वह भागकर अपने मायके चली गई फिर नाही आई।"

मुझे उसके घरेलू कहानी बहुत रोचक लग रही थी। लेकिन मेरा इस ऑफ़िस में पहला दिन था और मुझे अपना काम भी समझना था, बाक़ी के सहकर्मियों से परिचय करना था इसलिए मैंने बात आगे नहीं बढ़ाई।

फिर मैं समय मिलते ही उसके घर का समाचार लेता। उसके बात-चीत से मुझे महसूस हुआ की वह अपने बेटे के भविष्य के लिए बहुत चिंतित रहता था।

वह अपने बेटे की करतूत को अक्सर मुझसे साझा करता।

एक दिन उसने मुझसे बताया कि वह अपनी बहु के मायके गया था। उसने बहु को बहुत समझाया कि तुम उसके साथ रहोगी तो धीरे-धीरे सुधर जाएगा। बहु आने को तैयार थी लेकिन उसके माता-पिता ने उसे साफ़ शब्दों में कह दिया कि जब तक वह कोई काम नहीं करता और शराब पीना नहीं बंद करता तब तक वे अपने बेटी को ससुराल नहीं भेजेंगे।

एक दिन जब मैंने उसे देखा तो उसके चेहरे पर चोट के कुछ निशान दिखाई दिए। मैंने उससे पूछा- "क्या हुआ रामू काका, चोट कैसे लगी?"

उसने बड़े उदास मन से कहना शुरू किया- "क्या कहूँ साब जी। कल रात में शराब के नशे में हमार बिटवा ने हमको बहुत मारा।"

"क्यों मारा?" मुझे यह सुनकर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था।

"साब जी रुपया माँग रहा था। वेतन मिलते ही आधे से ज्यादा वेतन तो वही ले लेता है। बाकी के आधे में किसी तरह घर का ख़र्चा और उधारी सोध करता हूँ। अब महीना का अंत चल रहा है तो मैं कहाँ से रुपया दूँ साब जी। इसी बात पर मुझसे लड़ने लगा और मुझपर हाथ चला दिया। मैंने जब उसे रोकना चाहा तो मुझे बहुत मारा।"

"तुम उसके हाथ में पैसे क्यों देते हो?"

"साब देता कहाँ हूँ ज़बरदस्ती छीन लेता है।"

"तुम उसके लिए कुछ काम की व्यवस्था क्यों नहीं कर देते कम से कम अपना और अपने पत्नी का तो पेट पालता।"

"साहब कौन रखेगा उसको काम पे? कुछ रुपया लगाकर एक दुकान खोल दिया था वह भी नहीं चला पाया। सब बेचकर दारू और जुए में उड़ा दिया। रिक्शा ख़रीद दिया था कि उसे चलकर कुछ कमाएगा तो वो भी किसी से बेचकर जुए में उड़ा दिया। मेहरी के सब गहने, घर के सारे बर्तन बेंच दिए है ससुरे ने।"

"तो तुम उसे घर से निकल क्यों नहीं देते? अपने माथे पर पड़ेगा तो सब सीख जाएगा।"

"नाही साब कैसे निकाल दूँ। वह मेरा एकमात्र औलाद है। मैं मरूँगा तो उसी के हाथों मुझे मुक्ति मिलेगी साब जी। मेरे घर का चिराग है साब। जब तक मैं ज़िंदा हूँ तब तक उसके लिए कुछ न कुछ तो कर ही जाऊँगा आखिर जब मैंने उसकों जनम दिया है तो करम भी देना मेरा ही जिम्मेवारी है न साब।"

मुझे उसे अपने बेटे के प्रति आये इस अचानक प्रेम से ग़ुस्सा भी आ रहा था और उसके इस सोच से आश्चर्य भी हो रहा था। उसे लगता था की वो अपने बेटे को कहीं सेट ना करके अपनी ज़िम्मेवारी नहीं निभा पा रहा है।

अक्सर वो इस बात का रोना रोता कि वह अपने बेटे को लायक़ नहीं बना पा रहा है।

उसकी बातचीत से लगा कि उसने बेटे को बचपन के लाड-प्यार ने उसे बिगाड़ दिया। दो बेटियों के बाद एक बेटा हुआ था। उसकी देख-भाल में पति-पत्नी ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन बेटे ने उनके लाड-प्यार का जम कर मज़ा उठाया था। बहुत कम उमर में ही वह नशे का आदी बन गया था। अक्सर नशे में धुत होकर वह घर आता। अपनी माँ और बहनों से लड़ता। घर से गहने और कीमती वस्तुएँ चुराकर बेच देता और जुआ खेल जाता। माँ उसके इस स्वभाव से बहुत दुखी रहती। बेटियों के शादी में अच्छा-ख़ासा ख़र्च हुआ। काफ़ी कर्ज़ ले लिए गए थे। उसे सोध किया जा रहा था। घर में अब बेचने लायक़ कुछ नहीं बचा था। अब वह माँ से हमेशा पैसे के लिए लड़ता। बात-बात पर मारने पर उतारू हो जाता। हाथा-पायी भी कर लेता। माँ चिंतित रहने लगी। फिर धीरे-धीरे बीमार रहने लगी और अचानक एक दिन चल बसी। रामू काका के साथ काम करते हुए मुझे पाँच साल हो गए थे। पंद्रह दिन पहले ही मुझे प्रोन्नति मिली थी। मेरी बदली का भी आदेश आ गया था। अगले महीने मुझे दूसरे जगह पर चले जाने था।

जब रामू काका को यह समाचार मिला तो वह मेरे पास आये और बोले -

"साब जी अब तो आप हमहन के छोड़के चले जाइएगा।"

"हाँ वो तो जाना पड़ेगा। लेकिन आप की बहुत याद आयेगी। आप को भूल पाना मुश्किल है।" "साब जाते-जाते मेरी एक विनती सुन लेहल जात तो बहुत मेहरबानी होत।"

"क्या बात है बोलो?"

"साब आप तो अब बड़े साब हो गए है। मेरे बेटे को कसहु सेट कर देते तो मैं निश्चिंत हो जाता।'

मैं उनकी बातों को सुनकर मुस्कुराने लगा और बोला, "यह तो सरकारी ऑफ़िस है और यहाँ किसी को नौकरी देना किसी के बस की बात नहीं। यहाँ तो केवल कम्पीटिशन के माध्यम से ही नौकरी मिलती है।"

फिर वे हाथ जोड़कर कहने लगे, "कोई उपाय कीजिए साब जी। हमार नौकरी औरो एक साल का है। उसके बाद उसका क्या होगा साब जी। कवनो रास्ता निकलिए।"

मैंने हँसते-हँसते मज़ाकिया अंदाज़ में उनसे कहा- "तो फिर आपको मरना होगा तभी आपके जगह पर आपके बेटे की नौकरी होगी।"

इतना कह कर मैं अपने काम में व्यस्त हो गया था।

अगले दिन रामू काका छुट्टी का आवेदन लेकर मेरे पास पहुँचे।

मैंने उन्हें दो दिनों की छुट्टी मंज़ूर की लेकिन पाँच दिनों के बाद भी जब वे ऑफ़िस नहीं आये तो उनके घर पर खबर भिजवायी गयी। पता चला की वे नदी में नहाने गए थे। उन्हें तैरना नहीं आता था वे उसी में डूब कर मर गए।

इस समाचार को सुन कर पूरा ऑफ़िस सन्न रह गया था। काम और व्यवहार से वे हमारे ऑफ़िस में सबके चहेते थे।

मैं उनकी इन यादों में इस तरह खो गया था की मुझे लिफ़ाफ़े को खोलने की सुध नहीं रही।

तुरंत मैंने लिफ़ाफ़े को खोला। उसमे एक छोटे से कागज़ के टुकड़े में रामू काका ने जो लिखा था वह पढ़कर मैं अपनी आँसू नहीं रोक पाया।

उसमें लिखा था – "साब जी मैं आपकी सलाह मान ले रहा हूँ। आप हमर बिटवा को मेरी जगह पर जरूर नौकरी दिलवा दीजिएगा। जब बाप का सब फर्ज निभाए है तो इस अंतिम फ़र्ज़ को निभाने से मैं पीछे काहे हटू साब। नमस्कार।"