Sunaina in Hindi Moral Stories by Jahnavi Suman books and stories PDF | सुनैना

Featured Books
Categories
Share

सुनैना

सुनैना…।

आज का पूरा दिन चाँदनी चौक में व्यतीत किया, हाँ तुम्हारी ही खातिर गई थी।

इस आशा के साथ गई थी, कि तुम वहाँ ज़रूर आओगी।

अंग्रेजी हिसाब से अक्टूबर और हिंदी के कैलेंडर में आश्विन कृष्ण पक्ष, जो चल रहा है, अर्थात पितृ पक्ष चल रहा है।

सुना है, इस धरती से हमेशा - हमेशा के लिए विदा लेने वाली सभी देह, आत्मा के रूप इस पखवाड़े में धरती पर आती हैं।

यदि ईश्वर ने यह अवसर तुम्हें प्रदान किया, तो तुम चांदनी चौक में ज़रूर आओगी।

मैं जानती हूँ, इस ब्रह्मांड में कहीं भी तुम चली जाओ। कितना भी आकर्षक स्वर्ग तुम्हे क्यूँ न मिल जाए, लेकिन कहीं भी जाकर तुम, चांदनी चौक को नहीं भूल सकती।

यहीं तो तुम्हारे प्राण बसा करते थे। यहाँ की हवेली छोड़ कर भले ही तुम नॉएडा में जाकर बस गई थीं, लेकिन हर दूसरे दिन, तुम चांदनी चौक आने का कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेती थीं। यही सोच कर तुम्हारी तिथि पर आज यहाँ चली आई। पूरा दो दिन यहीँ बिताया, लेकिन तुम नहीं आईं। बस तुम्हारी बेबस यादें ही. आकर कभी रुलाती और कभी दुलारती रहीं।

तुमने शायद एक दिन मज़ाक में कहा था, "मैं मर भी गई तो, चांदनी चॉक की 'फ्रूट चार्ट' खाने ज़रूर आऊँगी। " तुम्हारे चले जाने के बाद, ये शब्द, तुम्हारे मुंह से निकली अमृत वाणी लग रहे हैं ।

बार बार लग रहा था, तुम पीछे से आकर कंधे को थपथपाओगी। तुम्हारी उसी पुरानी खिलखिलाहट के साथ हम, बातों के सैलाब में डूब जाएँगे।

फिर सोचा इतने दिन बाद मिलेंगे पता नहीं कुछ बोल भी पाऊँगी या नहीं। सोच रही थी, न जाने कैसे लिबास में आओगी, किस आकर में दिखोगी, क्या पहले वाला रूप रंग होगा तुम्हारा या कुछ बदली बदली नज़र आओगी। जाने कैसा होगा उस जहाँ का पहनावा, कही तुम्हें, लोग एलियन न समझ लें और तुम्हारा और हमारा यहाँ मिलना तमाशा न बन जाए ।

न जाने क्यों इतना कठोर विशवास था कि तुम आओगी, इसी विशवास से, मैंने तुम्हारी पसंद का फ्रूट चाट का पत्ता भी खरीद लिया था, दो बजे तक तो उसकी सारी चाट बिक जाती है। सोचा तुम्हारे आने तक चाट न बची तो ?

तुम्हारी पसंद का ज्यादा मसाले वाला फ्रूट चाट का पत्ता, जिसे हाथ में पकडे -पकडे मैंने, लाजपतराय मार्किट से खारी बावली तक न जाने कितने फेरे लगाए । हर बार इस आशा से कदम बढ़ते रहे, तुम कहीं न कहीं मिल ही जाओगी। बाज़ार में भीड़ बढती रही और मेरे मन में सन्नाटा गहराता रहा।

फ्रूट चाट के फलों का पानी रिसता रहा और आखिर छूट गया हाथ से, फ्रूट चाट का पत्ता। आते जाते साइकिल रिक्शा और ठेलो के पहियों से चूर चूर हो गए सारे फ़ल। बिखर गया चाट का मसला यहाँ- वहाँ।

कुछ देर बाद वहाँ झाड़ू फेरने वाला भी आ गया, उसने मेरी ओर ऐसे देखा, जैसे कह रहा हो, "अनपढ़-गँवार चाट का पत्ता भी पकड़ना नहीं आता।" सचमुच मेरा गला रुंध गया तुम साथ होती थीं, तो मुझे किसी के कहने, देखने का कोई असर नहीं पड़ता था।

मन हो रहा था तुम्हें चिल्ला -चिल्ला कर आवाज़ दूं। आसमान का सीना चीर कर खींच लूँ तुम्हें।

तुम्हारे ऊपर क्रोध भी आ रहा था, कि तुम्हें मेरी इस बेबस हालत पर ज़रा भी तरस नहीं आ रहा। क्यों नहीं आ जाती तुम।

जलेबी वाले की गर्मागर्म जलेबियों की मीठी सुगंध मेरी भूख बढ़ा रही थी

सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम और शाम अँधेरी रात में बदल गई। बाज़ार की रोनक दम तोड़ने लगी। एक -एक करके दुकानों के शटर गिरने लगे। फूटपाथ ग़रीबों के आशियाने में तब्दील हो गए। चलती फिरती गलियां, मकानों के भीतर कैद हो गई।यहाँ -वहाँ कौने में दुबककर भिखारी अपना, दिनभर का जुटाया पैसा गिन रहे थे।

भला हो उस रिक्शे वाले का जिसने मुझे चिल्लाकर कहा, "आख़िरी मेट्रो का टाइम है, मेट्रो स्टेशन चलना है क्या ?" और मै स्वयं को घर वापिस आने के लिए मना पाई।

मैं बुझे मन से घर लौट आई। मम्मी -पापा परेशान घर के बाहर खेड़े थे। मेरे पहुँचते ही मम्मी ने कहा, कहाँ रह गईं थी, ऋचा, फोन भी नहीं उठा रही थी। पापा का तो गुस्से से मुंह लाल हो गया था। मैंने हडबडा कर, पर्स से फोन निकला, उफ्फ दो सो आठ मिस्ड कॉल थी। मम्मी ने फिर पूछा कहाँ गई थी, मैंने कहा, "सुनैना से मिलने। " मम्मी के माथे पर त्योरियां चढ़ गई। मम्मी ने कहा, "सुनैना तो दो साल पहले। .' मैंने बीच में ही बात काटते हुए कहा, "तो क्या हुआ, क्या मरने वाले इस महीने पृथ्वी पर विचरण नहीं करते?" मम्मी ने पापा से कहा, "हमारी ऋचा, पागल हो गई है, कल मनोवैज्ञानिक के पास ले जाना।

मैं चुपचाप अपने कमरे में चली गई। शीशे में अपना चेहरा देख रही थी, क्या मैं सचमुच पागल हो गईं हूँ। क्या सचमुच मेरी परम प्रिय मित्र की 'मृत्यु' ने मेरे मानसिक संतुलन को हिला दिया है। दो साल से मैं स्वयं को, किसी कार्य से नहीं जोड़ पा रहीं हूँ। लेकिन यह मेरा पागल पन है, क्या, जो मैंने आज सुनैना की प्रतीक्षा की। क्या इस महीने में सब घरों में पंडितों को यह समझ कर भोजन नहीं कराया जाता है, कि यह भोजन पितरों को प्राप्त होगा। यानी इस महीने, इस लोक और उस परलोक का कोई गुप्त मार्ग अवश्य खुलता होगा।

बरसों से चली आ रही इस परम्परा को, मैंने दिल से स्वीकार कर लिया तो, मै अपनों की ही दृष्टि मैं पागल घोषित हो गई।

हमारे वेद, पुराणों में ही तो लिखा है। आत्मा अजर अमर है, आत्मा कभी नहीं मरती। आत्मा शरीर से पृथक हो कर भी इस ब्रह्मांड में उपस्थित रहती है।

अरे ! मैं तो भूल ही गई मैंने सुनैना के लिए जलेबी का दोना भी तो खरीदा था, सारा रस बैग में टपक गया होगा।

ऋचा, ऋचा ! मम्मी जोर ज़ोर से चिल्ला रहीं थी।

मैं मम्मी के पास ड्राइंग रूम में गई, मम्मी थर्र- थर्र कांप रहीं थीं, उनके होंठ नीले पड़ गए थे वह बड़ी मुश्किल से कह पाई कि, एक साया तेरे बैग में कुछ टटोल रहा था।

अब सबका भयभीत होना स्वभाविक था। मैंने कांपते हाथों से बैग को देखा, तो जलेबी का डॉना गयब। थी। मैने पापा से कहा, वो वह सुनैना ही थी। मैं चीख रही थी।

पापा ने कहा, " भला मर कर भी कोई वापिस आता है? इस पगली को कोई समझाता क्यों नहीं?सुनैना से मिलना संभव नहीं? पापा ज़ोर से चिल्ल्ला रहे थे असंभव।"

मैंने मम्मी की ओर देखा मम्मी ने भी पापा की बात का समर्थन करते हुए कहा, "तेरे पापा ठीक कह रहे हैं। इस दुनिया से जाने वाला कभी वापिस नहीं आया।"

पापा ने फिर से कहना शुरू किया, "शरीर एक मशीन की तरह है। मशीन खराब तो बस सब कबाड़ है। जब शरीर ही नष्ट हो गया तो वो कहाँ से वापिस आएगा सुनैना तो मर चुकी है और कोई मर कर कैसे वापिस आ सकता है। "

मैं ज़ोर ज़ोर से रो रही थी। क्या फिर यह सब झूठ है, पंडितों को मृत व्यक्ति की पसंद का भोजन कराना और यह आशा रखना की यह भोजन उस मृत व्यक्ति तक पहुँच जायेगा।

पापा गुस्से से लाल पीला हो रहे थे, "जलेबी का दोना लेकर रखा, तुमने सुनैना के लिए, वाह! क्या अक्ल पाई है ऋचा तुमने। चांदनी चौक में मरी हुई सहेली का इंतज़ार किया जा रहा था, वह स्वर्ग से उतरेगी और दोनों हाथों में हाथ डाल लालकिला घूमने जाएँगी।"

पापा बोलते ही जा रहे थे, "क्या फायदा हुआ तुम्हारी पढ़ाई लिखाई का? भूतो का इंतज़ार किया जा रहा है। अरे भूत का मतलब है पास्ट, यानी जो बीत गया। जब बिता हुआ समय ही वापिस नहीं आ सकता तो कालग्रस्त व्यक्ति कैसे वापिस आ सकता है।"

मैं अभी भी रो रही थी क्या सुनैना से मिलना संभव नहीं? पापा ज़ोर से चिल्ल्ला रहे थे "असंभव।"पापा ने फिर से कहना शुरू किया, " शरीर एक मशीन की तरह है। मशीन खराब तो बस सब कबाड़ है। जब शरीर ही नष्ट हो गया तो वो कहाँ से वापिस आएगा ।"

तभी बड़े भाई साहिब तालियां बजाते हुए कमरे में प्रवेश करते है और बोलना शुरू करते है, "वाह ऋचा को क्या सही बात समझाई है आप दोनों ने। लेकिन कभी इस बात पर आप लोगो ने स्वयं अम्ल नहीं किया। दादा और दादी की बुढ़ापे में कितनी दुर्गति हुई, तब कभो आपके मन में ये विचार नहीं आया कि इस लोक को छोड़ने के बाद, ये कभी वापिस नहीं आएंगे। ये कुछ दिन के मेहमान है, थोड़ा समय इनके लिए भी निकाल लें। दो प्यार भरे शब्द इनके साथ भी बोल लें। इनकी पसंद का कुछ बना दें, कुछ इनके लिए बाज़ार से मंगवा दे। तब तो दोनों आपको सर का बोझ लगते थे। अब उनके संसार से विदा लेने के बाद आप क्यों झूठा आडम्बर करते हैं। क्यों उनकी पूण्य तिथि पर पंडितों के लिए पकवान बनाये जाते हैं। गहने कपडे दान किये जाते है। अब क्या लाभ मिलेगा उनको इन सबका?

भाई साहिब की आवाज़ भरभरा गई थी और आँखे नाम हो चुकी थी। पापा _मम्मी स्वयं को शर्मिदा महसूस कर रहे थे।

भाई साहिब मेरी आँखों आंसू पोंछते हुए बोले, "बहना वो काले लिबास में कोई साया नहीं मैं ही था। सुनैना कभी अपनी पसंद की जलेबियाँ खाने के लिए वापिस नहीं आएगी। तुम्हे यही इस धरती पर कहीं न कही कोई दूसरी सुनैना मिल जायेगी, बस अपना देखने का नजरिया बदल लो।"

"हमारी सोसाइटी में कितने बुज़ुर्ग है जिनको देखने सुनने वाला कोई नहीं। दादा -दादी की पुण्य तिथि पर पंडितो को पकवान खिलाने की बजाय उन बुजर्गों के लिए कुछ करके देखों अपने दादी -दादा यही वापिस मिल जायेंगे।"

पापा भाई साहिब की पीठ पर हाथ थपथपाते हुए बोले, " बेटा तूने हमारी आँखे खोल दी। जो अपने माता -पिता के लिए नहीं कर सका, इन बुज़ुर्गों के लिए अवश्य करूँगा।

मम्मी ने कहा इस बार दादी की पुण्य तिथि को पंडितों को नहीं पीड़ितो को खाना दूंगी।

सुमन शर्मा