अष्टावक्र
आशीष कुमार त्रिवेदी
महाभारत के वन पर्व में अष्टावक्र की कथा का वर्णन है। अष्टावक्र महान ज्ञानी थे।
अष्टावक्र संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है आठ स्थानों से मुड़ा हुआ। अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों पर टेढ़ा था।
उद्दालक जिनका वर्णन छांदोग्य उपनिषद में हुआ है एक महान ऋषि थे। उनके आश्रम में अनेक शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। उन्हीं में से कहोड़ नामक शिष्य ऋषि उद्दालक को बहुत प्रिय था। इस शिष्य के साथ उन्होंने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कर दिया।
सुजाता जब गर्भवती हुई तो नित्य अपने पिता व पति की उन कक्षाओं में बैठती थी जिनमें वेद और दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। गर्भावस्था में माँ जिस वातावरण में रहती है या जो करती है उसका प्रभाव होने वाली संतान पर पड़ता है। सुजाता की कामना थी कि उसकी संतान ज्ञानी हो। अतः वह इन कक्षाओं में जो भी पढ़ाया जाता उसे बहुत ध्यान से सुनती थी।
अपनी माता के माध्यम से गर्भ में पल रहा बालक भी सब कुछ सुनता था। एक बार कहोड़ वेद मंत्रों का पाठ कर रहे थे। लेकिन एक स्थान पर उनका उच्चारण त्रुटिपूर्ण था। गर्भस्त शिशु ने जब त्रुटिपूर्ण उच्चारण सुना तो उसने गर्भ के भीतर से ही अपने पिता को इस विषय में अवगत कराया। ऐसा आठ अवसरों पर हुआ। अंतिम बार कहोड़ को क्रोध आ गया। उन्होंने श्राप दे दिया कि तुमने आठ बार मेरी त्रुटि बता कर मेरा अपमान किया है। अतः जन्म के समय से ही तुम्हारा शरीर आठ स्थानों पर वक्र होगा। बालक जब जन्मा तो उसका शरीर आठ जगहों पर टेढ़ा था। अतः उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।
अष्टावक्र के जन्म से पहले उनकी माता सुजाता ने कहोड़ से कहा कि वह राजा जनक के दरबार में जाकर कुछ धन अर्जित करें। कहोड़ जब राजा जनक के दरबार में पहुँचे तो वहाँ वंदनी नामक दार्शनिक ने उन्हें शास्त्रार्थ की चुनौती दी। वंदनी इससे पूर्व कई ज्ञानियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर चुका था। शर्त के अनुसार जो भी उससे हारता उसे जल में डूब कर प्राण देने पड़ते थे। कहोड़ भी वंदनी से पराजित हो गए। अतः जल में डूब कर उन्होंने प्राण दे दिए।
अष्टावक्र का जन्म उनके पिता की मृत्यु के बाद हुआ। वह अपने नाना उद्दालक के आश्रम में ही पलने लगा। उन्हें ही अपना पिता मानता था। अपने समवयस्क मामा श्वेतकेतु को अपना भाई। वह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि था। जल्द ही उसने वेद और दर्शन का ज्ञान प्राप्त कर लिया। जब अष्टावक्र बारह वर्ष का हुआ तो उसे अपने पिता के विषय में पता चला। यह ज्ञात होने पर कि किस प्रकार वंदनी द्वारा शास्त्रार्थ में पराजित होने पर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए उसने वंदनी को शास्त्रार्थ में पराजित करने का निश्चय किया।
अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर राजा जनक के दरबार में पहुँचा। उसने राजा जनक से वंदनी के साथ शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट की। पहले राजा जनक ने स्वयं कुछ प्रश्नोत्तर किए। उसके ज्ञान से प्रभावित होने के बाद उन्होंने वंदनी के साथ शास्त्रार्थ करने की अनुमति दे दी। अष्टावक्र ने वंदनी को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। अब वंदनी को पानी में डूब कर अपने प्राण देने थे। वंदनी ने अपना वास्तविक रूप प्रस्तुत किया। वह वरुण देव का पुत्र था। उसने बताया कि जितने भी ऋषि उससे पराजित होकर जल में डूबे थे वह मरे नहीं थे। बल्कि वरुण देव द्वारा किए जा रहे यज्ञ का संचालन कर रहे थे। अब वह यज्ञ पूरा हो गया है। अतः अष्टावक्र के पिता सहित सभी ऋषि वापस उसी जगह पर आ गए हैं जहाँ वे जल में डूबे थे।
राजा जनक के साथ अष्टावक्र जब उस स्थान पर पहुँचे तो कहोड़ एवं अन्य ऋषि वहाँ उपस्थित थे। अष्टावक्र ने अपने पिता को प्रणाम किया। सभी ने अष्टावक्र की जय जयकार की।
उद्दालक ऋषि के आश्रम पहुँचने पर कहोड़ ने सुजाता के समक्ष अष्टावक्र को समंग नदी में डुबकी लगाने को कहा। अष्टावक्र जब जल से बाहर आया तो उसके शरीर की वक्रता समाप्त हो चुकी थी।
अष्टावक्र की कथा का एक और रूप प्रचलित है। पिता के श्राप के कारण उसका जन्म आठ स्थानों पर वक्र शरीर के साथ हुआ। जब वह बारह वर्ष का था तो कहोड़ धन अर्जित करने के लिए राजा जनक के दरबार में गए। वहाँ वंदनी के साथ उन्हें इस शर्त पर शास्त्रार्थ करना पड़ा कि यदि पराजित हुए तो जल में डूब कर प्राण देने पड़ेंगे। दोनों में शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। लेकिन कहोड़ कमज़ोर पड़ रहे थे। जब यह सूचना अष्टावक्र तक पहुँची तो वह पिता की सहायता के लिए राजा जनक के दरबार में पहुँचा। अष्टावक्र के पहुँचने पर वहाँ मौजूद लोगों ने उसकी वक्रता का उपहास किया। इस पर अष्टावक्र ने कहा "यह तो मूर्खों की सभा है।" राजा जनक ने उसके इस कथन का कारण पूंछा। अष्टावक्र ने कहा "इन्हें केवल मेरा शरीर दिख रहा है। उसके भीतर विराजित आत्मा के दर्शन नहीं कर पाए। अतः यह सब मूर्ख हैं।"
राजा जनक उसके उत्तर से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उसे वंदनी के साथ हो रहे शास्त्रार्थ में अपने पिता की सहायता करने की अनुमति दे दी। अष्टावक्र ने अपने ज्ञान से वंदनी को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया।
राजा जनक ज्ञानियों का बहुत सम्मान करते थे। अष्टावक्र के ज्ञान से अभिभूत होकर उन्होंने उसे अपना गुरू मान लिया और उससे ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना की।
अष्टावक्र गीता राजा जनक द्वारा उससे आत्मसाक्षात्कार के संबंध में पूंछे गए प्रश्नों का उत्तर है। यह अद्वैतवाद का एक महान ग्रंथ है।
अष्टावक्र एक महान दार्शनिक थे। उनका मानना था कि सत्य का ज्ञान पोथियां पढ़ने से नहीं होता। सत्य आपके चारों तरफ है। वह आपके भीतर विद्यमान है। उसे समझने के लिए आत्म मंथन कर स्वयं को जानना आवश्यक है। संस्कारों का पालन कर वाह्य रूप से तो प्रगति हो सकती है किंतु आत्मज्ञान नहीं।
हमारा समस्त ज्ञान हमें केवल भौतिक रूप से प्रगति करने के योग्य बनाता है। यह ज्ञान हमें स्वयं को समझने में सहायता नहीं करता।
अष्टावक्र वक्र के पिता कहोड़ का क्रोध में अपनी अजन्मी संतान को श्राप देना तथा राजा जनक की सभा में उपस्थित विद्वानों द्वारा अष्टावक्र की कुरूपता का उपहास करना इस बात का उदाहरण है। कहोड़ एवं दरबार में उपस्थित विद्वान शास्त्रों के ज्ञाता तो थे किंतु आत्मज्ञानी नहीं।
वर्तमान समय में भी हमारा सारा ध्यान बाहरी प्रगति पर ही है। आज हम बाहरी दिखावे पर अधिक ध्यान देते हैं। बहुत से लोग अपने शरीर की बनावट या रूप को लेकर परेशान रहते हैं। कई लोग तो अवसाद का शिकार भी हो जाते हैं। अष्टावक्र की कथा उन्हें संदेश देती है कि यदि आप अपने गुणों का विकास करें तो शारीरिक कमियों के बावजूद भी सम्मान पा सकते हैं।