फिर उठ, निरंतर चल चला चल
रुके बिन, चल चला चल, रुक मत, झुक मत
फिर उठ,निरंतर चल चला चल ||
क्यों कहता तू जीवन निष्फल ?,
क्या जरूरत आन पड़ी तूझे ?,
क्या नही मिला तूझे जीवन से ?,
सोच, फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१||
साथ किसी का नही मिला ?,
ये दोष जीवन पर क्यों मढ़ता है,
कांटे बहुत होंगे विजय पथ पर,
पर पुष्प भी होंगे कभी, थोडा इंतजार तो बनता है,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||२||
उतार-चढ़ाव तो ‘सत्य’ है,
भागना तो सरासर ‘असत्य’ है
यह सोच, तू क्या करने चला था ?,
क्या, उसके बाद तू सफल था?,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||३||
भागना है तो आगे भाग, बाधाओं को पीछे छोड़,
जो है साथ खड़ा, जो हर वक्त साथ चला,
ले साथ उसे,छोड़ना नही साथ उसका, ले शपथ,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||४||
जो नहीं कोई साथ खड़ा, छोड़ उसे, बढ़ आगे,
हर वक्त देख सिर्फ अपने आप को,
फिर देख खुद में पाप को,
पहचान ले अपने दोष को, सुधारता, चल चला चल,
नहीं मिले दोष अगर,’विजय’ पथ पे तुझे, दे मत सफ़ाई,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||५||
बने ‘रिश्ते’ निभाता चल,
‘जरूरत’ से नही, ‘चाहत’ से बनाता चल,
पर एक हाथ से ताली बजा मत,
ठोक हाथ पथ पर,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||६||
जरूरत के रिश्ते टूटने का कभी दुःख मत कर,
जरूरत से उपजे रिश्ते नहीं, ये याद रख,
उम्र है ये कर्म की, स्वधर्म से करता चल,
रख ध्यान रिश्तों में धर्म का,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||७||
कोई भूले अगर रिश्ते में धर्म को,
फिर भी तू स्वधर्म से रिश्ते निभाता चल,
हर वार पर नैतिक प्रतिकार करता चल,
पैर पर गिरे ‘कुल्हाड़ी’ या पड़े ‘पैर’ कुल्हाड़ी पे,
सोच, पीड़ा किसे होगी ?,
कम होगी या ज्यादा होगी,
निश्चित ही हर जख्म की पीड़ा सिर्फ ‘धर्म’ को होगी,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||८||
याद रख ‘जख्म’ है तो, ‘दवा’ है,
‘दवा’ है तो, ‘जख्म’ भी होंगे,
‘सुख’ है तो, ‘दुख’ है,
‘दुख’ के बाद तो, कभी दिन ‘अपने’ भी होंगे,
अति वह जहर है प्यारे,
व्यर्थ है जिसके आगे, छल बल सारे,
इसलिए ज्यादा सोच मत, बढ आगे,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||९||
दुःख का सूरज कब डूबेगा,
है जबाब इसका किसी के पास ?,
फिर कैसे मिलेगा उसी का उत्तर,
तुझे तुच्छ मनुष्य के पास,
मैं नहीं कहता, नहीं है श्रीराम आज,
पर है रावण घर-घर में आज,
मै नहीं कहता, नहीं है वह विभीषण आज,
जो सत्मार्ग का रास्ता बतलाये,
पर है शकुनी मंथरा घर-घर में आज,
बेशक न ही ‘राम’ की मर्यादा है आज,
न ही ‘कृष्ण’ की चपलता,
पर तू रख मत अपनी मर्यादा ताक पर,
ऐसा करके इन्सान कहाँ है संभलता ?,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१०||
नहीं है आज अन्याय के खिलाफ ‘अर्जुन’ सा महारथी,
तभी तो नहीं है आज ‘कृष्ण’ सा सारथी,
भीष्म पितामह की तरह सब मजबूर है,
पता होने पर भी सत्य से कोसो दूर है,
इस सत्य को समय रहते जान ले,
स्वधर्म पे चलने की मन में ठान ले,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||११||
शकुनी की तभी, गली दाल थी,
जब अनुज कोरवों ने उसे महत्व् दिया,
मंथरा भी तभी सफल थी
जब कैकेयी ने उसे स्वीकार किया, ले सबक,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१२||
आज नए, नहीं है षड्यंत्रकारी,
कालांतर में भी पड़े थे, सारे,सुखद परिवारो पर भारी,
रखते थे वे सभी उस समय भी, परिवार में अपनी दावेदारी,
देख कर बाधाओं को मत किया कर, मन को भारी,
भारी मन सिद्ध होता है जैसे हो चलती हुई ‘आरी’,
अभिमन्यु को क्यों भूल गया,जो अकेला था सब पे भारी,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१३||
परेशानियों से डर कर, यदि आज तू भागेगा,
होगी हार, ‘धर्म’ की ही,
सोच, फिर उस हार का जिम्मेदार ‘तू’ ही तो बाजेगा,
यही तो श्रीकृष्ण ने गीता में उपदेश दिया,
तभी तो पार्थ ने अन्याय का प्रतीकार किया,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१४||
जब द्रोपती को जीत लाया कुटिया पर कुंती-पुत्र,
कुंती ने बिना देखे-समझे बाटने को कह दिया,
सभी की तरह द्रोपती भी थी असमंझस में,
विधाता ने मेरे साथ ये कैसा खेल किया,
श्रीकृष्ण ने कहा –हैं विद्यमान पञ्च गुण पांड्वो में,
जो पूर्व जन्म में द्रोपती को शिव जी ने वर में दिया,
था परिणाम यह स्वयं द्रोपती के वर का,
पर दोष ‘सास’ को भी मिला, समझ इसे,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१५||
यह देख, दोष किसे नहीं मिला,
क्या सवाल श्रीराम पे नहीं उठा,
मत जा दोषारोपण पर तू,
खुद, खुदका आकलन कर तू,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१६||
हो भले तेरी हार, पर कर निरंतर प्रयास,
‘धर्म’ की जीत के लिए हर हाल में,
नहीं तो क्या मुह दिखायेगा,
जाकर काल के ग्रास में,
‘स्वधर्म’ को नहीं बचा पाना भी महापाप है,
सोच मत हार-जीत के बारे में,ये सब अनायास है,
खुद को स्वधर्म पे लिए जा,
धर्म की लड़ाई लडे जा,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१७||
अन्याय करने से ज्यादा, अन्याय सहना संगीन पाप है
चाहे हो सामने कितना ही संख्या बल,
चाहे हो कितने ही ज्ञानी बलशाली महापुरुष
गुरु द्रोण,कर्ण,भीष्म,नारायणी सेना का,
‘सो कोरव’ साथ पाकर भी,
पराजित न कर पाए ‘पांच पांडव’ और अपने से आधी सेना को,
क्या यह काफी नहीं तुझे साहस दिलाने को,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१८||
सोच क्या कसूर था परम ज्ञानी गंगा-पुत्र का,
अन्याय पर आवाज नहीं उठाई,
यही तो एकमात्र कसूर था शक्तिशाली भीष्म का.
जो आज खड़े है अधर्म के पाले में,
बेशक निभाया होगा राजधर्म
क्या नहीं निभाना चाहिए था चिर हरण पर, पितामह-धर्म?,,
सोच, तू कहाँ खड़ा रहना चाहता है ?,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||१९||
क्या कहा कृष्ण ने रण में,
जो खड़े समक्ष तुम्हारे, परिजन सारे,
वहीँ मेरे समक्ष, खड़े है अन्यायी, सारे के सारे,
मत बन कर्महीन,मजबूर मत कर, मुझे,शपथ आज तोड़ने पर,
धर विकराल रूप तत्पर हुए ‘श्रीधर’,
यह देख अर्जुन घबराया,तुरंत ही उसे, अपना फर्ज याद आया,
कहा शांत हो मनोहर, मुझे समझ में सब आया
अब तू सोच, तुझे समझ में क्या आया?
क्या तुझे भी है इंतजार कृष्ण के विकराल रूप का?
तो सुन बन पहले नर - तभी मिलेंगे नारायण
जब बनेगा नर, हर कण में दिखेंगे नारायण,
छोड़ हार –जीत की आशा,
‘विजय’ पथ पर कर्म किये जा,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||२०||
जब रण में भीष्म पड़े, अर्जुन के बाणों की शय्या पर,
संध्या होने पर महसूस हुई प्यास, ‘भीष्म’ को लेटे-लेटे शय्या पर,
तब अर्जुन ने अपना पोत्र धर्म निभाया,
जिसको रण में स्वयं किया घायल,
उसको धरती फाड़ कर, गंगा सा पवित्र जल पिलाया,
जलधारा से नीर पीकर, तृप्त हो गए गंगा-पुत्र,
पुत्र की कर्मशीलता देख, गदगद होकर, अश्रु रोक न पाए गंगा-पुत्र,
जानकर इसको ये समझ, चले न अन्य ‘कोई’, अपने धर्म पर,
तुझे धर्म-पथ से विमुख नहीं होना है,
फिर उठ, निरंतर चल चला चल ||२१||
‘विजय’ कुमार शर्मा