क्रम
1 - दीपक और बाती
2 - लाठी ( एक सहारा –एक प्रहार )
3 - दीपावली
दीपक और बाती
दीपक से बनी रोशनी, बना दीपक बाती से,
जिस बाती से है वजूद दीपक का, आओ लगाए उसे छाती से ।
बाती बिन दीपक का कोई वजूद नहीं,
रोशनी लेश मात्र भी वहाँ मौजूद नही।
दीपक जलता हुआ, सबको दिखता है,
बाती के बिना जलाकर देखो, दीपक कितना जलता है?
जिस बाती से है.......... (१)
दीपक सिर्फ दिखावा करता जलने का,
वास्तव में सौभाग्य है उसका, साथ मिला उसे बाती का।
जो खुद जलकर न्योछावर खुद को करती है,
तम को भगाने में, पीछे जो बिल्कुल नही हटती है।
जिस बाती से........ (२)
परिवार में भी दिया और बाती बसते है,
खुद हम क्यों, दोनो को फिर अलग समझते है |
बेटो को ‘कुल का दीपक’, मान उत्सव मनाते है,
बेटियो को पैदा होने पहले ही, क्यों मरवाते है ।
जिस बाती से........ (३)
पुरुष होना ही यदि सबूत, कुल दीपक होने से है,
महिला होना भी वजूद, उसका बाती होने से है |
परिवार के लिए दीपक को, रोशनी जो हँसकर देती है,
अपनी इच्छाओं को मारकर भी, वह हँस कर जी लेती है ।
जिस बाती से........ (४)
बाती के न रहने से, रोशनी भी न हो पाएगी,
बेटों के लिए बहुए, फिर न मिल पायेगी |
बेटीयों बिन, घर में खुशियाँ कहाँ से आएगी,
बाती के बिना, फिर रौशनी, दीपक में कहाँ से आएगी?,
बिना रौशनी के विजय ये दुनिया ही वीरान हो जाएगी |
जिस बाती से…...….. (५)
***
लाठी
एक सहारा - एक प्रहार
माना था जिन्हें, माँ-बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी |
बेटे से लाठी प्रहार की उम्मीद, कौनसा बाप रखता है ?
वह तो लाठी मानकर उसको, बुढ़ापे में कमर अपनी सीधी ही चाहता है |
लाठी जब माँ –बाप का सहारा है बनती, कमर उनकी है तनती,
लाठी जब उन्ही पे प्रहार है बनती, जैसे दिल में छेद ड्रिल है करती |
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (१)
आज बेटे-बहु बनते जरुर लाठी माँ –बाप की,
बस प्रहार ने जगह ले रखी थी, जब जरुरत थी उन्हें सहारे की,
खुद का खून नहीं चूक रहा आज, खून बाप का बहाने में,
पता नहीं डूबा रहता है वह, कौनसे अफसाने में,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (२)
कहते है बेटो से भली है बेटियां, जो प्यार देगी उन्हें बुढ़ापे में,
होकर बहुए,बेटी समान,फिर क्यों करती फर्क माँ-बाप और सास–ससुर में,
जब बेटा भूलता है माँ –बाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी,
तब बहु ने, बेटी बनकर क्यों नहीं, मती उसकी सुधारी?,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (३)
कैसे आता है कोई बेटा, ज़माने के बहकाने में ?,
कैसे ढूंढता है खुशियां, वह माँ-बाप को ही त्यागने में,
जब बहु मारती है यदि, सास-ससुर को लाठी,
तो क्यों नहीं नापता बेटा, उसकी कद काठी,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (४)
सास को गाल निकालकर बहु, क्यों, जबान करती अपनी मोटी,
क्यों लगती है बेटे को, पत्नी की, ये हरकत भी छोटी मोटी,
सास-ससुर में जब बेटे को, भगवान् दिखता है,
तो फिर जन्मदाताओ में कैसे बेटे को शैतान दिखता है,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (५)
बहुए चाहती है उसके माँ-बाप का, ख्याल रखे उसके भाई और भोजाई,
फिर क्यों भूलती है की, वे भी है,किसी बेटी के, भाई और भोजाई,
ख्याल क्यों नहीं करती वह भी उनका, साथ ले कर, अपने हरजाई को,
खुद करके,क्यों नहीं सिखाते, ‘सेवा’ करना अपनी संतान को,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (६)
जब नहीं किया उन्होंने ऐसा व्यवहार अपने मात–पिता पर,
तो तुमने ये कहाँ से सीखा, जो उठा रहे हो लाठी उसी पिता पर,
सीखा हो अगर उसी पिता से, मात –पिता पर लाठी उठाना,
तो हरकत ये है तुम्हारी भी, उसी तरह ही बचकाना,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (७)
पिता–पुत्र के रिश्तो में ये कौनसी मर्यादा है डाली,
आज जो चल रहा जिस ‘डाल’, कल को संतान उसकी भी चलेगी, उसी ‘डाली’,
किसी से भी सीखने का बहाना नहीं चलेगा, प्रहार वाली लाठी की सफाई में,
जब ‘विजय’ की कलम बनी है ‘लाठी’, सबकी खिचाई में,
माना था जिन्हें,माँ बाप ने बुढ़ापे की लाठी,
वही खूब करते है, आज ‘प्रहार’ बन लाठी | (८)
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दीपावली
सभ्यता इंतजार में है आज वही दिन वापस पाने को,
जगाना चाह रही मानव को, प्रकृति से शुद्ध हवा पाने को |
जब दीप जलाकर दिया अयोध्या ने सम्मान श्रीराम को,
जहाँ बनाये गए पकवान, देख शुभ घडी आने को |
घरों को रोशन किया दीपो से,अमावस्या के तम हटाने को,
जहाँ बांटी गयी थी मिठाइयाँ, जश्न मनाने को |
कितने सार्थक तरीके अपनाते थे मानव, तब जश्न मनाने को,
सभ्यता इंतजार में है....... || १ ||
जब घर घर मिटटी के दीपक जलते थे,
सब ख़ुशी से घरो में केंडल लाइट डिनर का अनुभव पाते थे |
दीपक भी सोंधी खुशबु वातावरण में घोलते थे,
बच्चे,बुढ्ढे, जीव-जंतु सब चैन से साँस ले पाते थे |
कोई करेगा आज प्रयास प्रदुषण मुक्त, दिवाली मनाने को,
सभ्यता इंतजार में है........ || २ ||
आज जश्न भी कृतिम हो गया,
रोशनी अधिक होकर भी अँधेरा अजीब छा गया,
पटाखों के धुंए से वातावरण दुर्गंधित हो गया,
साँस लेना तो जैसे दूभर हो गया,
खुद पहल करके क्या तैयार है हम परिवर्तन लाने को,
सभ्यता इंतजार में है........ || ३ ||
पटाखों से नहीं है दिवाली, है बल्कि ये दीपो की वह अवली,
जिनके जलने से रौशनी से भी तेज फेलती है खुशहाली,
परिवार सहित खुशियाँ मनाने का, सुन्दर मोका है दिवाली,
क्यों पटाखे जलाकर हम करते,उस रात को जहरीले धुंए वाली,
पहल करेगा क्या मानव, आज प्रकृति बचाने को?,
सभ्यता इंतजार में है.......... || ४ ||
दीपावली खो चुकी आज अपनी पहचान ‘दीपो की अवली’ की,
दीपक को छोड़ सजावट होने लगी जो चायनीज झालर की |
कृतिम रौशनी और पटाखे आज दिवाली की पहचान है,
दो-चार मिटटी के दीपक जलाकर,जैसे हम करते इस पर अहसान है |
क्यों प्रयास नहीं करते हम दिवाली का वजूद बचाने को,
सभ्यता इंतजार में है........|| ५ ||
“विजय” कुमार शर्मा
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