द्रोपदी का चीर हरण
‘हिज-हाईनेस’ के राज में एक बार ‘माफिया शक्ति’ का भयानक जोर हो गया |
’हिज हाईनेस’ घोर चिंता में डूब गए |
मंत्री-संतरी, सब को एक काम में लगाया गया कि वो जानकारी दें कि माफियाओं का पावर कितना है ?
उनकी मारक क्षमता क्या है ?
कितने रेंज तक उनकी मिसाइलें काम कर सकती हैं?
वे क्या –क्या उखाड सकते हैं ?
वे राज –काज में कितना दखल रख सकते हैं ?
आने वाले चनाव में उनका क्या रोल होगा ?
हिज हाईनेस ने मंत्री-मंडल से मुखातिब होके पूछा, कब तक रिपोर्ट मिल जाएगी ? मंत्री लोग एक-दूसरे का मुह ताकने लगे |
हाईनेस ने कहा, हम ज्यादा इंतिजार नहीं कर सकते पांडुरंगो| सामने चुनाव है | जनता को धुले हुए मुँह दिखाना है |
एक-एक विभाग की समीक्षा बैठक होने लगी |
‘महंगाई और माफिया’ पर इकानामिस्ट के विचार मांगे गए |
उन्होंने उदाहरण सहित व्याख्या किया | देश में महंगाई, ‘डिमांड और सप्लाई’ के सिद्धांत पर आधारित है जहाँ पनाह! उसे न आप बदल सकते हैं न हम |
प्याज की डिमांड है, उत्पादकता नही, सप्लाई नही, तो दाम बढ़ेंगे ही जनाबे-आला | मगर हमारी राय में दाम आसमान छूने लगे, ये समझ से परे है| इसमें, कहीं न कहीं जमाखोर- माफियाओं का खेल जरूर है |
इन जमाखोर-माफियाओं को कसना पडेगा, वरना हुजूर की गद्दी इन पावर-‘फुलो’ के आगे पिचक जायेगी |
हाईनेस ये जानिये कि, एक सरकार के ‘पाए’ इसी के चलते उखड गए थे |
हम इनके पावर और मारक क्षमता से आगाह किये देते हैं |
इनकी मारक क्षमता के जद में, जनता जब आती है तो सड़कों में तमाशा चालु हो जाता है | दंगे-फसाद, बंद-घेराव, लूट –बलात्कार सरकार को बदनाम करने के लिए प्रायोजित किये जाते हैं |
हुजूर! कोई माफियामाँ के पेट से नहीं जन्मता, वे हमारे बीच के लोग होते है|
गलत परवरिश, अशिक्षा, गलत संगत, और धाँसू-रसूखदार लोगों की दबंगई के प्रश्रय से, बिगड गए होते हैं |
इनको सरकारी आश्रय-प्रश्रय जब मिलने लगता है तब ये अमरबेल की तरह परजीवी बन कर, शासन रूपी समूचे पेड़ को चूसने लग जाते हैं |
आप आगे और जानना चाहते है तो, मैं आपको बेताल का किस्सा सुनाता हूँ |
अथ, बेताल ने समय काटने की गरज से राजा को यूँ सुनाया ;
एक राज में कुछ बेरोजगार बनिए थे | माँ-बाप ने नकारा समझ कर उन्हें घर-निकाला कर दिया था |
वे भटकते हुए पडौसी राज में पहुच गए |
वहाँ एक ने अपने को कुशल कारीगर बताया, दुसरे ने कहा कि वो कब्र खोदने में माहिर है, तीसरे ने कहा कि पारखी है, कुछ भी ले आओ एक्सपर्ट ओपीनियन हाजिर, चौथे ने कहा कि वो बोलने में ‘पंडित-ज्ञाता’ है |
चारों को उनके कहे मुताबिक़ काम मिल गया | उस राज में लोग बहुत ही भले-भोले थे | वे अपनी समस्या लेकर पहुचने लगे |
कारीगर के पास कोई पहुचता तो वो कहता मुझसे काम करवाओगे तो बहुत महंगा पडेगा | यूँ करो कि काम दूसरा करे, मैं उसे सलाह देता रहूँगा, चाहे तो फीस दे देना|
लोगों को उसकी बात जमती | वे अपने मकान का काम ठेकेदारों से करवाते, कारीगर एक्सपर्ट अपनी राय देता, नहीं खिडकी इधर पूरब में रहेगी, धुप मिलेगी, नीद जल्दी खिलेगी, वास्तु दोष नहीं रहेगा | वास्तु-वास्तु के नाम पर कि तब्दीलियाँ करवा देता | उसके दोस्त पूछते यार, वहा सब तो ठीक था, मगर तूने अपनी टाग क्यों अडाई ? वो कहता अगर टाग न अड़ाऊ तो भूखों मरू ? मुझे कौन पूछेगा ?
कब्र खोदने वाला, बिना काम के बैठे रहता | लोग मरते न थे |
एक दिन वह, पडौस के दुसरे राज में गया, राजा से मिला, बुदबुदाया | वापस लौट आया |
पडौसी राजा, अपने दुश्मन राज को सबक सिखाने, रोज वहाँ के लोगों के चार सर काट के भिजवाने का हुकुम दे दिया | दिन फिरे, कब्र खोदने वाले को, धन-दौलत, राहत- आराम सब मिला | s
पारखी के पास लोग आते, अपनी दुविधा बताते | सोने की चीज, हीरे –जवाहरात, खेती-बाडी की खरीद –फरोक्त में उसकी सलाह ली जाने लगी | वो सुनारों का, जौहरियों का दलाल हो गया| अपनी तारीफ के चलते उनको मुह-मागी रकम मिलने लगी| उसके भी दिन फिरे | दाल-रोटी चल निकली |
चौथे के काम में विघ्न ज्यादा था |
राज में ज्यादा बोलने वाले को ठूस दिया जता था |
वो इसी बात को मुद्दा बना कर लोगो को, अपने पक्ष में करने लगा| उसकी बातों में ललकार होती | उपर उठने-उठाने का आव्हान होता |
वो बरदास्त करने की हदें बताते –बताते लोगों में कब राजद्रोह का बिगुल फूक दिया पता ही नहीं चला |
राजा की नीद तब खुली जब, सत्ता, अब गई –तब गई के कगार में पहुच गई |
राजा ने समझौता करने में भलाई समझी, उसे बातचीत का न्योता दिया | वो आधे राज का हकदार हो गया |
चारों मिलकर माफिया-राज बरसों तक चलाते रहे |
फाइल गुमाने का सुख
कन्छेदी उस दिन उतरा हुआ मुह लेकर शाम को घर आया, मैंने पूछ क्यों क्या बात है बड़े उदास दिख रहे हो ? वो बोला हाँ भाई उदास होने का कारण तो है, कोई खुशी से तो अपना चेहरा लटकता नहीं | मैंने कहा साफ –साफ बताओ, किसी से कुछ कहा-सुनी वाली बात हो गई क्या, तुम आए दिन खामोखा हर किसी से आफिस में आफिस के बाहर भिडते रहते हो |
नहीं भाई, आप तो हमेशा मुझे लड़ने–झगडने वालो की केटीगिरी के समझते हैं, मै वैसा हूँ नहीं| दूसरे लोग ही मुझसे टकराते हैं तो जवाब देना चाहिए के नहीं ? मैंने कहा जरूर देनी चाहिए, मगर जवाब देने में रोनी सूरत कहाँ बनती है ? बताओ क्या हुआ ?
कन्छेदी ने बताया, हमारे आफिस में आजकल फाइल-फाइल का खेल चल रहा है| किसी के टेबल में खुले में फाइल रखी हो तो गायब हो जाती है | बड़े बाबू को हमने रिफंड की फाइल अपने हाथ से दी थी, वे साफ मुकर गए कि उन तक फाइल आई ही नहीं | रिफंड अगर पार्टी को समय पे ण मिले तो हंगामा हो जाएगा | सब ओरीजनल डाक्यूमेंट फैल में होते हैं | रि-कास्ट करके नया भी नही बनाया जा सकता | अब पार्टी को क्या बताऊँ, समझ में नहीं आ रहा है |
मैंने पूछा, सब जगह तलाश कर लिया, ड्राअर, अलमीरा, डिस्पेच सब जगह फिर से चेक करो, जायेगी कहाँ ?
अरे हम इतना भी नही जानते कि गुम फाइल को कहाँ –कहाँ ढूढा जा सकता है ? हमने पूरी ताकत फाइल ढूढने में झोक दी, और तो और अपने कलीग्स, प्यून को भी अच्छी –खासी मेहनत करवा दी| सब बेकार | मिलने की होती तो गुमती ही क्यू ?
मैंने पूछा, किसी का हाथ तो नहीं ?
उसने कहा, शक करने में क्या ? हर चेहरा देख के लगता है, हो न हो इसी का काम है |
फिर अब क्या होगा ?
कन्छेदी मायूसी से बोला, चार्ज शीट, सस्पेंशन, इन्क्वारी |
अब काम करने का मजा ही नहीं रहा | ज़रा सा ढंग का चार्ज मिलता नहीं कि आफिस वाले जलने लगते हैं |
टांग खिचाई में लग जाते हैं | बॉस के अनाप-शनाप कान भरने की होड सी लगी रहती है|
मैंने पूछा, ऐसा पहले भी कभी हुआ है ? कन्छेदी ने कहा, जब से सुपरवाइजर आये हैं, तब से आए दिन किसी न किसी की फाइल का लोचा होते रहता है | रुटीन की आम फाइल तो निपटते रहती है मगर जहां मेडिकल, टी.ए. बिल भुगतान हो वे सब जाने कब कहन गायब हो जाती है | हडकंप सा मचा रहता है | जिस किसी को देखो वही पूछता है, मेडिकल वाली दिखी क्या ? दूसरा बताता है, अपनी टी.ए वाली ही कब से नहीं मिल रही है, क्या बताये ?
मैंने कन्छेदी से कहा, कन्छेदी, जितना तुम बता रहे थे मर्ज उतना बड़ा नहीं है |
कन्छेदी ने मेरी तरफ आश्चर्य-मिश्रित मुह-फाड अंदाज में देखा, मतलब मै समझा नहीं |
मैंने कहा, देखो तुम्हारी फाइल गुमी-उमी नही | ये प्रायोजित गुमने-गुमाने का खेल है | सुपरवाइजर, एक तीर से दो निशाने लगा रहा है | नया है, मुह से बोलता नहीं, हथकंडो से उगलवाता है | कल वो पार्टी को बुलावायेगा, तुम्हे उसके सामने हडकायेगा, फाइल ढूढ के तुरंत लाने को कहेगा, पार्टी को आश्वस्त करेगा कि जैसे ही फाइल मिलती है वो रिफंड पास करवा देगा |
हप्ते भर बाद, कन्छेदी डिब्बे भर मिठाई के साथ आया| मै फाइल प्रसंग भूल ही गया था|
उसने कहा, प्रभु आप तो अन्तर्यामी हो| हुबहू वैसा ही हुआ जैसा आपने कहा था| सुपरवाइजर ने पार्टी को बुलवाया, मुझे हडकाया, उसे आश्वासन दिया कि वो देख लेगा | पार्टी के जाने के बाद मुझसे कहा कि ठीक से अपने टेबल, ड्रार देख के आओ, फाइल के पैर तो होते नहीं कि अपने आप कही चली जायेगी ? और सच में फाइल मेरे टेबल के नीचे पड़ी मिल गई |
उनने रिफंड का चेक बनाया, पार्टी को थमाया |
रिवाइज्ड रेट में, डील करने वाले, सबों को ‘भाई-चारा’ भुगतान मिला |
मिठाई का टुकड़ा मुह में रखते हुए, मुझे लगा “जैसे उनके दिन फिरे” वाली बात केवल किस्से कहानियों में नहीं होती, हर गुमी हुई फाइल्स में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहती है |
भागते भूत की लंगोटी .....
बेगम......! ‘ताजमहल जरुर बनेगा’....... ये शाहजहाँ का वादा है |
पिछले चार-सौ सालो सुनते आ रही हूँ, ताजमहल जरुर बनेगा, ताजमहल जरुर बनेगा ......
लेकिन ताजमहल बनेगा कब ....?
बेगम की यह कोफ्त, अकेले निरीह उखड़े हुए शहंन्शाह पर नहीं है |
सैकड़ों छोटे-छोटे शहंन्शाह हैं, जिनकी बेगमो को “छोटे-मझोले किस्म के ताजमहल” बनाने का वादा आये दिन किया जाता है | या यूँ कहे कि अनेको बेगमें इस दौर में, झासे में रखी जा रही हैं |
कहीं लोंन का चक्कर है तो कही मुनिस्पेलटी वाले नक्सा पास नहीं कर रहे हैं |
‘धांसू शहंशाह’ लोग अगर इनका काट ले भी आयें तो, प्लाट में जाकर देखने पर, अलग नजारा, देखने को मिलता है |
भैसे बंधी हैं, भइय्या जी काबिज हैं | दूध दुहे जा रहे हैं |
प्लाट पर पहुचते ही, वे कहने लगते हैं, गरमी के दिनों में भैसे कम दूध देती हैं, अभी नये ग्राहक को दूध-सप्लाई नही की जा सकती |
आप कहेंगे, भाई जी ये प्लाट हमारा है ...हम इसमे काम करवाने के लिए नक्शा पास करवा लाये हैं |
वे दो-चार भैस लगाने वालो को, बुलवा लेते हैं, हमें डाटने लगते हैं, प्लाट लेने में जल्दबाजी काहे करते हैं आप लोग ? प्लाट लेके खुले भैस –सांड को चरने के लिए छोड़ देते हैं| कोई आके ‘खूटा’ गडिया दे, तो पलट के देखने नहीं आते | अब गरिया रहे हैं | प्लाट लिए तो फिर देखना मागता कि नइ ? पिछले बीस साल से झांकने काहे नहीं आये ? अब कहोगे प्लाट छोडो....... ऐसा होता है क्या ....?
बीस साल पहले आते बाबू, .... तो हम अपना कब्जा बड़े आराम से कहीं, नजूल जमीन में नही न कर लेते,,,,, |
अब तक हमें,.... वो क्या कहते हैं, सरकार से पट्टा- वट्टा भी मिल गया होता|
देखो साफ कहे देते हैं .......मतलब की बात सुन लो .......अब अगर अपनी जमीन छुडवाना हो, तो तब और अब की कीमत का डिफरेंस दे दो| किस्सा खतम कर देंगे,,,,,, खूटा-खम्भा सब उखाड़ लेगे ....|
भैइय्या के कहने के अंदाज से हमे लग गया कि, खूटा जोर का गडा है, उखाड़ने में नानी जरुर याद आ जायेगी |
हम उनके डिफरेंस मागने के गणित पर, तीस से चालीस लाख का अनुमान लगा के हकबका गए ?
पुचकारने- धमकाने के तरीको पर आगे अध्ययन-मनन, करने की सोच के वहां से लौट जाना, बेहतर लगा सो लौट आये |
“कोर्ट –कचहरी की सोचना भी मत”, ..... ये हमारे सभी मिलाने –जुलने वालो की राय थी|
जमीन का मामला पचासों साल खीच लेता है, इसमे हमारी भी राय ‘दो’ नहीं थी, .......क्या करते ?
मान-मनव्वल पर, वे ‘दस’ में राजी हुए |
भैय्ये के लिए ‘भागते-भुत की लंगोटी’ हमारे लिए ‘दस लाख’, यानी पूरे कपडे के शो रूम में रखे, कपड़ों की थान के बराबर की पड़ी |
हमें सहगल साहब का गाना “एक बंगला बने न्यारा......” इस वाकिये को हरदम याद दिलाता रहेगा |
सुशील यादव