मोहन राकेश
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मोहन राकेश नई कहानी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मोहन राकेश का जन्म ८ जनवरी १९२५ को अमृतसर में हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी और अंग्रेजी में एम ए किया। जीविकोपार्जन के लिये अध्यापन। कुछ वर्षो तक श्सारिकाश् के संपादक। आषाढ़ का एक दिनश्, आधे अधूरे और लहरों के राजहंस के रचनाकार। श्संगीत नाटक अकादमीश् से सम्मानित। ३ जनवरी १९७२ को नयी दिल्ली में आकस्मिक निधन।
मोहन राकेश को कहानी के बाद सफलता नाट्य—लेखन के क्षेत्र में मिली । मोहन राकेश को हिन्दी नाटक हिन्दी नाटकों का अग्रदूत भी कह सकते हैं। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास—यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैंय किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नजर आता है।
वह दूर से दिखाई देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी।
फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। निःसन्देह, वह मिस पाल ही थी। यह तो खैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में रहती हैं, पर इस तरह अचानक उनसे भेंट हो जाएगी, यह नहीं सोचा था। और उसे सामने देखकर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह स्थायी रूप से कुल्लू और मनाली के बीच उस छोटे से गांव में रही होगी। वह दिल्ली से नौकरी छोड़कर आई थी, तो लोगों ने उसके बारे में क्या—क्या नहीं सोचा था !
बस रायसन के डाकखाने के पास पहुंच कर रुक गई। मिस पाल डाकखाने के बाहर खड़ी पोस्टमास्टर से कुछ बात कर रही थीं। हाथ में वह एक थैला लिए थी। बस के रुकने पर न जाने किस बात के लिए पोस्टमास्टर को धन्यवाद देती हुई वह बस की तरफ मुड़ी। तभी मैं उतरकर सामने पहुंच गया। एक आदमी के अचानक सामने आ जाने से मिस पाल थोड़ा अचकचा गई, मगर मुझे पहचानते ही उसका चेहरा खुशी और उत्साह से खिल गया !
रणजीत तुम ? उसने कहा, तुम यहां कहां से टपक पड़े ?
मैं इस बस से मनाली आ रहा हूं। मैंने कहा।
अच्छा ! मनाली तुम कब से आए हुए थे ?
आठ दस दिन हुए, आया था। आज वापस जा रहा हूं।
आज ही जा रहे हो ? मिस पाल के चेहरे से आधा उत्साह गायब हो गया, श्देखो कितनी बुरी बात है कि आठ—दस दिन से तुम यहां हो और मुझसे मिलने की तुमने कोशिश भी नहीं की। तुम्हें यह तो पता ही था कि मैं कुल्लू में हूं।
हां, यह तो पता था, पर यह पता नहीं था कि कुल्लू के किस हिस्से में हो। अब भी तुम अचानक ही दिखायी दे गईं, नहीं मुझे कहां से पता चलता कि तुम इस जंगल को आबाद कर रही हो ?
सचमुच बहुत बुरी बात है, मिस पाल उलाहने के स्वर में बोली, तुम इतने दिनों से यहां हो और मुझसे तुम्हारी भेंट आज हुई आज जाने के वक्त...।
ड्राइवर जोर—जोर से हार्न बजाने लगा। मिस पाल ने कुछ चिढ़कर ड्राइवर की तरफ देखा और एक साथ झिड़कने और क्षमा माँगने के स्वर में कहा, बस जी एक मिनट। मैं भी इसी बस से कुल्लू चल रही हूँ। मुझे कुल्लू की एक सीट दीजिए। थैंक यू वेरी मच ! और फिर मेरी तरफ मुड़कर बोली, तुम इस बस से कहां तक जा रहे हो ?
आज तो इस बस से जोगिन्दरनगर जाऊंगा। वहां एक दिन रहकर कल सुबह आगे की बस पकड़ूंगा।
ड्राइवर अब और जोर से हार्न बजाने लगा। मिस पाल ने एक बार क्रोध और बेबसी के साथ उसकी तरफ देखा और बस के दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए बोली, अच्छा कुल्लू तक तो हम लोगों का साथ है ही, और बात कुल्लू पहुंचकर करेंगे। मैं तो कहती हूं कि तुम दो—चार दिन यहीं रुको, फिर चले जाना।
बस में पहले ही बहुत भीड़ थी। दो—तीन आदमी वहाँ से और चढ़ गए थे, जिससे अन्दर खड़े होने की जगह भी नहीं रही थी। मिस पाल दरवाजे के अन्दर जाने लगीं तो कण्डक्टर ने हाथ बढ़ाकर उसे रोक दिया। मैंने कण्डक्टर से बहुतेरा कहा कि अन्दर मेरी वाली जगह खाली है, मिस साहब वहां बैठ जाएंगी और मैं भीड़ में किसी तरह खड़ा होकर चला जाऊंगा, मगर कण्डक्टर एक बार जिद पर अड़ा तो अड़ा ही रहा कि और सवारी वह नहीं ले सकता। मैं अभी उससे बात ही कर रहा था कि ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। मेरा सामान बस में था, इसलिए मैं दौड़कर चलती बस पर सवार हो गया। दरवाजे से अन्दर जाते हुए मैंने एक बार मुड़कर मिस पाल की तरफ देख लिया। वह इस तरह अचकचाई—सी खड़ी थी जैसे कोई उसके हाथ से उसका सामान छीन कर भाग गया हो और उसे समझ न आ रहा हो कि उसे अब क्या करना चाहिए।
बस हल्के—हल्के मोड़ काटती कुल्लू की तरफ बढ़ने लगी। मुझे अफसोस होने लगा कि मिस पाल को बस में जगह नहीं मिली तो मैंने क्यों न अपना सामान वहां उतरवा लिया। मेरा टिकट जोगिन्दरनगर का था, पर यह जरूरी नहीं था कि उस टिकट से जोगिन्दरनगर तक जाऊं ही। मगर मिस पाल से भेंट कुछ ऐसे आकस्मिक ढंग से हुई थी और निश्चय करने के लिए समय इतना कम था कि मैं यह बात उस समय सोच भी नहीं सका था। थोड़ा—सा समय और मिलता, तो मैं जरूर कुछ देर के लिए वहां उतर जाता। उतने समय में तो मिस पाल से कुशल—समाचार भी नहीं पूछ सका था, हालांकि मन में उसके सम्बन्ध में जानने की उत्सुकता थी। उसके दिल्ली छोड़ने के बाद लोग उसके बारे में जाने क्या—क्या बातें करते रहे थे। किसी का ख्याल था कि उसने कुल्लू में एक रिटायर्ड अंग्रेज मेजर से शादी कर ली है और मेजर ने अपने सेब के बगीचे उसके नाम कर दिए हैं। किसी की सूचना थी कि उसे वहां की सरकार की तरफ से वजीफा मिल रहा है और वह करती वरती कुछ नहीं है, बस घूमती और हवा खाती है। कुछ ऐसे लोग भी थे जिनका कहना था कि मिस पाल का दिमाग खराब हो गया है और सरकार उसे इलाज के लिए अमृतसर के पागलखाने में भेज रही है। मिस पाल एक दिन अचानक अपनी लगी हुई पांच सौ की नौकरी छोड़कर चली आई थी, उससे लोगों में उसके बारे में तरह—तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं।
जिन दिनों मिस पाल ने त्यागपत्र दिया, मैं दिल्ली में नहीं था। लम्बी छुट्टी लेकर बाहर गया था। मिस पाल के नौकरी छोड़ने का कारण मैं काफी हद तक जानता था। वह सूचना विभाग में हम लोगों के साथ काम करती थी और राजेन्द्रनगर में हमारे घर से दस—बारह घर छोड़कर रहती थी। दिल्ली में भी उसका जीवन काफी अकेला था, क्योंकि दफ्तर के ज्यादातर लोगों से उसका मनमुटाव था और बाहर के लोगों से वह मिलती बहुत कम थी। दफ्तर का वातावरण उसके अपने अनुकूल नहीं लगता था। वह वहां एक—एक दिन जैसे गिनकर काटती थी। उसे हर एक से शिकायत थी कि वह घटिया किस्म का आदमी है, जिसके साथ उसका बैठना नहीं हो सकता।
ये लोग इतने ओछे और बेईमान हैं, वह कहा करती, इतनी छोटी और कमीनी बातें करते हैं कि मेरा इनके बीच काम करो हर वक्त दम घुटता रहता है। जाने क्यों ये लोग इतनी छोटी—छोटी बातों पर एक—दूसरे से लड़ते हैं और अपने छोटे—छोटे स्वाथोर्ं के लिए एक—दूसरे को कुचलने की कोशिश करते रहते हैं।
मगर उस वातावरण में उसके दुखी रहने का मुख्य कारण दूसरा था, जिसे वह मुंह से स्वीकार नहीं करती थी। लोग इस बात को जानते थे, इसलिए जान—बूझकर उसे छोड़ने के लिए कुछ—न—कुछ कहते रहते थे। बुखारिया तो रोज ही उसके रंग—रूप पर कोई न कोई टिप्पण़ी कर देता था।
क्या बात है मिस पाल, आज रंग बहुत निखर रहा है !
दूसरी तरफ वह जोरावरसिंह बात जोड़ देता, आजकल मिस पाल पहले से स्लिम भी तो हो रही है।
मिस पाल इन संकेतों से बुरी तरह से परेशान हो उठती और कई बार ऐसे मौके पर कमरे से उठकर चली जाती। उसकी पोशाक पर भी लोग तरह—तरह की टिप्पणियां करते रहते थे। वह शायद अपने मुटापे की क्षतिपूर्ति के लिए बाल छोटे कटवाती थी और बनावसिंगार से चिढ़ होने पर भी रोज काफी समय मेकअप पर खर्च करती थी। मगर दफ्तर में दाखिल होते ही उसे किसी न किसी मुंह से ऐसी बात सुनने को मिल जाती थी, मिस पाल, नई कमीज की डिजाइन बहुत अच्छा है। आज तो गजब ढा रही हो तुम !
मिस पाल को इस तरह की बातें दिल में चुभ जाती थीं। जितनी देर दफ्तर में रहती, उसका चेहरा गंभीर बना रहता। जब पांच बजते, तो वह इस तरह अपनी मेज से उठती जैसे कोई सजा भोगने के बाद उसे छुट्टी मिली हो। दफ्तर से उठकर वह सीधी अपने घर चली जाती और अगले दिन सुबह दफ्तर के लिए निकलने तक वहीं रहती। दफ्तर के लोगों से तंग आ जाने की वजह से ही वह और लोगों से भी मेल—जोल नहीं रखना चाहती थी। मेरा घर पास होने की वजह से, या शायद इसलिए कि दफ्तर के लोगों में मैं ही ऐसा था जिसने उसे कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था, वह कभी शाम को हमारे यहां चली आती थी। मैं अपनी बूआ के पास रहता था और मिस पाल मेरी बुआ और उनकी लड़कियों से काफी घुल—मिल गई थी। कई बार घर के कामों में वह उनका हाथ बंटा देती थी। किसी दिन हम उसके यहां चले जाते थे। वह घर में समय बिताने के लिए संगीत और चित्रकला का अभ्यास करती थी। हम लोग पहुंचे तो उसके कमरे में सितार की आवाज आ रही होती या वह रंग और कूचियां लिए किसी तश्वीर में उलझी होती।
मगर जब वह उन दोनों में कोई भी काम न कर रही होती तो अपने तख्त पर बिछे मुलायम गद्दे पर दो तकियों के बीच लेटी छत को ताक रही होती। उसके गद्दे पर जो झीना रेशमी कपड़ा बिछा रहता था, उसे देखकर मुझे बहुत चिढ़ होती थी। मन करता था कि उसे खींचकर बाहर फेंक दूं। उसके कमरे में सितार, तबला रंग, कैनवस, तस्वीरें कपड़े तथा नहाने और चाय बनाने का सामान इस तरह उलझे—बिखरे रहते थे कि बैठने के लिए कुरसियों का उद्धार करना एक समस्या हो जाती थी। कभी मुझे उसके झीने रेशमी कपड़े वाले तख्त पर बैठना पड़ जाता तो मुझे मन में बहुत परेशानी होती। मन करता कि जितनी जल्दी हो सके उठ जाऊं। मिस पाल अपने कमरे के चारों तरफ खोज कर कहां से एक चायदानी और तीन—चार टूटी प्यालियां निकाल लेतीं और हम लोगों को श्फर्स्ट क्लास बोहिमयन कॉफीश् पिलाने की तैयारी करने लगती। कभी वह हम लोगों को अपनी बनाई तस्वीरे दिखाती और हम तीनों—मैं और मेरी दो बंहने—अपना अज्ञान छिपाने के लिए उसकी प्रशंसा कर देते मगर कई बार वह हमसे उदास मिलती और ठीक ढंग से बात भी न करती। मेरी बहनें ऐसे मौके पर उससे चिढ़ जातीं और कहतीं कि वे उसके यहां फिर न आएंगी। मगर मुझे ऐसे अवसर पर मिस पाल से ज्यादा सहानुभूति होती।
आखिरी बार जब मैं मिस पाल के यहां गया, मैंने उसे बहुत ही उदास देखा था। मेरा उन दिनों एपेंडसाइटिस का आपरेशन हुआ था और मैं कई दिन अस्पताल में रहकर आया था। मिस पाल उन दिनों रोज अस्पताल में खबर पूछने आती रही थी। बूआ अस्पताल में मेरे पास रहती थी पर खाने—पीने का सामान इकट्ठा करना उनके लिए मुश्किल था मिस पाल सुबह—सुबह आकर सब्जियां और दूध दे जाती थी। जिस दिन मैं उसके यहां गया, उससे एक ही दिन पहले मुझे अस्पताल से छुट्टी मिली थी और मैं अभी काफी कमजोर था। फिर भी उसने मेरे लिए जो तकलीफ उठाई थी, उसके लिए मैं उसे धन्यवाद देना चाहती थी।
मिस पाल ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी और कमरा बन्द किए अपने गद्दे पर लेटी थी मुझे पता लगा कि शायद वह सुबह से नहाई भी नहीं है।
क्या बात है, मिस पाल ? तबियत तो ठीक है ? मैंने पूछा।
तबीयत ठीक है, उसने कहा, मगर मैं नौकरी छोड़ने की सोच रही हूं।
क्यों ? कोई खास बात हुई है क्या ?
नहीं, खास बात क्या होगी ? बात बस इतनी ही है मैं ऐसे लोगों के बीच कामकर ही नहीं सकती मैं सोच रही हूं कि दूर के किसी खूबसूरत—से पहाड़ी इलाके में चली जाऊं और वहां रहकर संगीत और चित्रकला का ठीक से अभ्यास करूं। मुझे लगता है, मैं खामखाह यहां अपनी जिन्दगी बरबाद कर रही हूं। मेरी समझ में नहीं आता कि इस तरह की जिन्दगी जीने का आखिर मतलब क्या है ? सुबह उठती हूं, दफ्तर चली जाती हूं। वहां सात—आठ घंटे खराब करती हूं, खाना खाती हूं सो जाती हूं। यह सारा का सारा सिलसिला मुझे बिलकुल बेमानी लगता है। मैं सोचती हूं कि मेरी जरूरतें ही कितनी हैं ? मैं कहीं और जाकर एक छोटा—सा कमरा या शैक लूं तो थोड़ा—सा जरूरत का सामान अपने पास रखकर पचास—साठ या सौ रुपये में गुजारा कर सकती हूं। यहां मैं जो पांच सो लेती हूं, वे पांच के पांच सौ हर महीने खर्च हो जाते हैं। किस तरह खर्च हो जाते हैं, यह खुद मेरी समझ में नहीं आता। पर अगर जिन्दगी इसी तरह चलती है, तो क्यों खामखाह दफ्तर आने—जाने का भार ढोती रहूं ? बाहर रहने में कम से कम अपनी स्वतन्त्रता होगी। मेरे पास कुछ रुपये पहले के हैं, मुझे प्राविडेंट फंड के मिल जाएंगे। इतने में एक छोटी सी जगह पर मेरा काफी दिन गुजारा हो सकता है। मैं ऐसी जगह रहना चाहती हूं जहां यहां की—ही गन्दगी न हो और लोग इस तरह की छोटी हरकतें न करते हों। ठीक से जीने के लिए इन्सान को कम से कम इतना तो महसूस होना चाहिए कि उसके आसपास का वातावरण उजला और साफ है, और वह एक मेंढक की तरह गंदले पानी में नहीं जी रहा।
मगर तुम यह कैसे कह सकती हो कि जहां तुम जाकर रहोगी, वहां हर चीज वैसी ही होगी जैसी तुम चाहती हो ? मैं तो समझता हूं कि इन्सान जहां भी चला जाए, अच्छी और बुरी तरह की चीजें उसे अपने आसपास मिलेंगी ही। तुम यहां के वातावरण से घबराकर कहीं और जाती हो, तो यह कैसे कहा जा सका है कि वहां का वातावरण भी तुम्हें ऐसा ही नहीं लगेगा ? इसलिए मेरे ख्याल से नौकरी छोड़ने की बात तुम गलत सोचती हो। तुम यहीं रहो और अपना संगीत और चित्रकला का अभ्यास करती रहो। लोग जैसी बातें करते है करने दो।
साढ़े सात साल के बाद वे लोग लाहौर से अमृतसर आये थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज्यादा चाव उन घरों और बाजारों को फिर से देखने का था जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराये हो गये थे। हर सडक पर मुसलमानों की कोई—न—कोई टोली घूमती नजर आ जाती थी। उनकी आँखें इस आग्रह के साथ वहाँ की हर चीज को देख रही थीं जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक अच्छा—खासा आर्काण—केन्द्र हो।
तंग बाजारों में से गुजरते हुए वे एक—दूसरे को पुरानी चीजों की याद दिला रहे थे...देख—फतहदीना, मिसरी बाजार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गयी हैं! उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारिन की भट्ठी थी, जहाँ अब वह पानवाला बैठा है।...यह नमक मंडी देख लो, खान साहब! यहाँ की एक—एक लालाइन वह नमकीन होती है कि बस...!
बहुत दिनों के बाद बाजारों में तुर्रेदार पगडियाँ और लाल तुरकी टोपियाँ नजर आ रही थीं। लाहौर से आये मुसलमानों में काफी संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्हें विभाजन के समय मजबूर होकर अमृतसर से जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आये अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर कहीं उनकी आँखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफसोस घिर आता—वल्लाह! कटरा जयमलसिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? क्या इस तरफ के सब—के—सब मकान जल गये थे?...यहाँ हकीम आसिफअली की दुकान थी न? अब यहाँ एक मोची ने कब्जा कर रखा है?
और कहीं—कहीं ऐसे भी वाक्य सुनाई दे जाते—वली, यह मस्जिद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरुद्वारा नहीं बना दिया!
जिस रास्ते से भी पाकिस्तानियों की टोली गुजरती, शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक उस तरफ देखते रहते। कुछ लोग अब भी मुसलमानों को आते देखकर आशंकित से रास्ते से हट जाते, जबकि दूसरे आगे बढकर उनसे बगलगीर होने लगते। ज्यादातर वे आगन्तुकों से ऐसे—ऐसे सवाल पूछते—कि आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमीगेट का बाजार पूरा नया बना है? कृणनगर में तो कोई खास तब्दीली नहीं आयी? वहाँ का रिश्वतपुरा क्या वाकई रिश्वत के पैसे से बना है?...कहते हैं, पाकिस्तान में अब बु+र्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है?... इन सवालों में इतनी आत्मीयता झलकती थी कि लगता था, लाहौर एक शहर नहीं, हजारों लोगों का सगा—सम्बन्धी है, जिसके हाल जानने के लिए वे उत्सुक हैं। लाहौर से आये लोग उस दिन शहर—भर के मेहमान थे जिनसे मिलकर और बातें करके लोगों को बहुत खुशी हो रही थी।
बाजार बाँसाँ अमृतसर का एक उजड़ा—सा बाजार है, जहाँ विभाजन से पहले ज्यादातर निचले तबके के मुसलमान रहते थे। वहाँ ज्यादातर बाँसों और शहतीरों की ही दुकानें थीं जो सब की सब एक ही आग में जल गयी थीं। बाजार बाँसाँ की वह आग अमृतसर की सबसे भयानक आग थी जिससे कुछ देर के लिए तो सारे शहर के जल जाने का अन्देशा पैदा हो गया था। बाजार बाँसाँ के आसपास के कई मुहल्लों को तो उस आग ने अपनी लपेट में ले ही लिया था। खैर, किसी तरह वह आग काबू में आ गयी थी, पर उसमें मुसलमानों के एक—एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार—चार, छरू—छरू घर जलकर राख हो गये थे। अब साढ़े सात साल में उनमें से कई इमारतें फिर से खड़ी हो गयी थीं, मगर जगह—जगह मलबे के ढेर अब भी मौ+जूद थे। नई इमारतों के बीच—बीच वे मलबे के ढेर एक अजीब वातावरण प्रस्तुत करते थे।
बाजार बाँसाँ में उस दिन भी चहल—पहल नहीं थी क्योंकि उस बाजार के रहने वाले ज्यादातर लोग तो अपने मकानों के साथ ही शहीद हो गये थे, और जो बचकर चले गये थे, उनमें से शायद किसी में भी लौटकर आने की हिम्मत नहीं रही थी। सिर्फ एक दुबला—पतला बुड्ड्ढढा मुसलमान ही उस दिन उस वीरान बाजार में आया और वहाँ की नयी और जली हुई इमारतों को देखकर जैसे भूलभुलैयाँ में पड़ गया। बायीं तरफ जानेवाली गली के पास पहुँचकर उसके पैर अन्दर मुडने को हुए, मगर फिर वह हिचकिचाकर वहाँ बाहर ही खड़ा रह गया। जैसे उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही गली है जिसमें वह जाना चाहता है। गली में एक तरफ कुछ बच्चे कीड़ी—कीड़ा खेल रहे थे और कुछ फासले पर दो स्त्रियाँ ऊँची आवाज में चीखती हुई एक—दूसरी को गालियाँ दे रही थीं।
सब कुछ बदल गया, मगर बोलियाँ नहीं बदलीं! बुड्ढे मुसलमान ने धीमे स्वर में अपने से कहा और छड़ी का सहारा लिये खड़ा रहा। उसके घुटने पाजामे से बाहर को निकल रहे थे। घुटनों से थोड़ा ऊपर शेरवानी में तीन—चार पैबन्द लगे थे। गली से एक बच्चा रोता हुआ बाहर आ रहा था। उसने उसे पुचकारा, इधर आ, बेटे! आ, तुझे चिज्जी देंगे, आ! और वह अपनी जेब में हाथ डालकर उसे देने के लिए कोई चीज ढूँढने लगा। बच्चा एक क्षण के लिए चुप कर गया, लेकिन फिर उसी तरह होंठ बिसूरकर रोने लगा। एक सोलह—सत्रह साल की लडकी गली के अन्दर से दौड़ती हुई आयी और बच्चे को बाँह से पकडकर गली में ले चली। बच्चा रोने के साथ—साथ अब अपनी बाँह छुड़ाने के लिए मचलने लगा। लडकी ने उसे अपनी बाँहों में उठाकर साथ सटा लिया और उसका मुँह चूमती हुई बोली, चुप कर, खसम—खाने! रोएगा, तो वह मुसलमान तुझे पकडकर ले जाएगा! कह रही हूँ, चुप कर!
बुड्ढे मुसलमान ने बच्चे को देने के लिए जो पैसा निकाला था, वह उसने वापस जेब में रख लिया। सिर से टोपी उतारकर वहाँ थोड़ा खुजलाया और टोपी अपनी बगल में दबा ली। उसका गला खुश्क हो रहा था और घुटने थोड़ा काँप रहे थे। उसने गली के बाहर की एक बन्द दुकान के त+ख्ते का सहारा ले लिया और टोपी फिर से सिर पर लगा ली। गली के सामने जहाँ पहले ऊँचे—ऊँचे शहतीर रखे रहते थे, वहाँ अब एक तिमंजिला मकान खड़ा था। सामने बिजली के तार पर दो मोटी—मोटी चीलें बिल्कुल जड़—सी बैठी थीं। बिजली के खम्भे के पास थोड़ी धूप थी। वह कई पल धूप में उड़ते जरोर्ं को देखता रहा। फिर उसके मुँह से निकला, या मालिक!
एक नवयवुक चाबियों का गुच्छा घुमाता गली की तरफ आया। बुड्ढे को वहाँ खड़े देखकर उसने पूछा, कहिए मियाँजी, यहाँ किसलिए खड़े हैं?
बुड्ढे मुसलमान को छाती और बाँहों में हल्की—सी कँपकँपी महसूस हुई। उसने होंठों पर जबान फेरी और नवयुवक को ध्यान से देखते हुए कहा, बेटे, तेरा नाम मनोरी है न?
नवयुवक ने चाबियों के गुच्छे को हिलाना बन्द करके अपनी मुट्ठी में ले लिया और कुछ आश्चर्य के साथ पूछा, आपको मेरा नाम कैसे मालूम है?
साढ़े सात साल पहले तू इतना—सा था, कहकर बुड्ढे ने मुस्कराने की कोशिश की।
आप आज पाकिस्तान से आये हैं?
हाँ! पहले हम इसी गली में रहते थे, बुड्ढे ने कहा, मेरा लडका चिरागदीन तुम लोगों का दर्जी था। तकसीम से छरू महीने पहले हम लोगों ने यहाँ अपना नया मकान बनवाया था।
ओ, गनी मियाँ! मनोरी ने पहचानकर कहा।
हाँ, बेटे मैं तुम लोगों का गनी मियाँ हूँ! चिराग और उसके बीवी—बच्चे तो अब मुझे मिल नहीं सकते, मगर मैंने सोचा कि एक बार मकान की ही सूरत देख लूँ! बुड्ढे ने टोपी उतारकर सिर पर हाथ फेरा, और अपने आँसुओं को बहने से रोक लिया।
तुम तो शायद काफी पहले यहाँ से चले गये थे, मनोरी के स्वर में संवेदना भर आयी।
हाँ, बेटे यह मेरी बदब+ख्ती थी कि मैं अकेला पहले निकलकर चला गया था। यहाँ रहता, तो उसके साथ मैं भी... कहते हुए उसे एहसास हो आया कि यह बात उसे नहीं कहनी चाहिए। उसने बात को मुँह में रोक लिया पर आँखों में आये आँसुओं को नीचे बह जाने दिया।
छोड़ो गनी मियाँ, अब उन बातों को सोचने में क्या रखा है? मनोरी ने गनी की बाँह अपने हाथ में ले ली। चलो, तुम्हें तुम्हारा घर दिखा दूँ।
गली में खबर इस तरह फैली थी कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है जो रामदासी के लडके को उठाने जा रहा था...उसकी बहन वक्त पर उसे पकड़ लायी, नहीं तो वह मुसलमान उसे ले गया होता। यह खबर मिलते ही जो स्त्रियाँ गली में पीढ़े बिछाकर बैठी थीं, वे पीढ़े उठाकर घरों के अन्दर चली गयीं। गली में खेलते बच्चों को भी उन्होंने पुकार—पुकारकर घरों के अन्दर बुला लिया। मनोरी गनी को लेकर गली में दाखिल हुआ, तो गली में सिर्फ एक फेरीवाला रह गया था, या रक्खा पहलवान जो कुएँ पर उगे पीपल के नीचे बिखरकर सोया था। हाँ, घरों की खिड़कियों में से और किवाड़ों के पीछे से कई चेहरे गली में झाँक रहे थे। मनोरी के साथ गनी को आते देखकर उनमें हल्की चेहमेगोइयाँ शुरू हो गयीं। दाढ़ी के सब बाल सफेद हो जाने के बाव+जूद चिरागदीन के बाप अब्दुल गनी को पहचानने में लोगों को दिक्कत नहीं हुई।
वह था तुम्हारा मकान, मनोरी ने दूर से एक मलबे की तरफ इशारा किया। गनी पल—भर ठिठककर फटी—फटी आँखों से उस तरफ देखता रहा। चिराग और उसके बीवी—बच्चों की मौत को वह काफी पहले स्वीकार कर चुका था। मगर अपने नये मकान को इस शक्ल में देखकर उसे जो झुरझुरी हुई, उसके लिए वह तैयार नहीं था। उसकी जबान पहले से और खुश्क हो गयी और घुटने भी ज्यादा काँपने लगे।
यह मलबा? उसने अविश्वास के साथ पूछ लिया।
मनोरी ने उसके चेहरे के बदले हुए रंग को देखा। उसकी बाँह को थोड़ा और सहारा देकर जड़—से स्वर में उत्तर दिया, तुम्हारा मकान उन्हीं दिनों जल गया था।
गनी छड़ी के सहारे चलता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुँच गया। मलबे में अब मिट्टी ही मिट्टी थी जिसमें से जहाँ—तहाँ टूटी और जली हुई ईंटें बाहर झाँक रही थीं। लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से कब का निकाला जा चुका था। केवल एक जले हुए दरवाजे का चौखट न जाने कैसे बचा रह गया था। पीछे की तरफ दो जली हुई अलमारियाँ थीं जिनकी कालिख पर अब सफेदी की हल्की—हल्की तह उभर आयी थी। उस मलबे को पास से देखकर गनी ने कहा, यह बाकी रह गया है, यह? और उसके घुटने जैसे जवाब दे गये और वह वहीं जले हुए चौखट को पकडकर बैठ गया। क्षण—भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा सटा और उसके मुँह से बिलखने की—सी आवाज निकली, हाय ओए चिरागदीना!
जले हुए किवाड़ का वह चौखट मलबे में से सिर निकाले साढ़े सात साल खड़ा तो रहा था, पर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गयी थी। गनी के सिर के छूने से उसके कई रेशे झडकर आसपास बिखर गये। कुछ रेशे गनी की टोपी और बालों पर आ रहे। उन रेशों के साथ एक केंचुआ भी नीचे गिरा जो गनी के पैर से छरू—आठ इंच दूर नाली के साथ—साथ बनी ईंटों की पटरी पर इधर—उधर सरसराने लगा। वह छिपने के लिए सूराख ढूँढ़ता हुआ जरा—सा सिर उठाता, पर कोई जगह न पाकर दो—एक बार सिर पटकने के बाद दूसरी तरफ मुड़ जाता।
खिड़कियों से झाँकनेवाले चेहरों की संख्या अब पहले से कहीं ज्यादा हो गयी थी। उनमें चेहमेगोइयाँ चल रही थीं कि आज कुछ—न—कुछ जरूर होगा...चिरागदीन का बाप गनी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की वह सारी घटना आज अपने—आप खुल जाएगी। लोगों को लग रहा था जैसे वह मलबा ही गनी को सारी कहानी सुना देगा—कि शाम के वक्त चिराग ऊपर के कमरे में खाना खा रहा था जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया—कहा कि वह एक मिनट आकर उसकी बात सुन ले। पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था। वहाँ के हिन्दुओं पर ही उसका काफी दबदबा था—चिराग तो खैर मुसलमान था। चिराग हाथ का कौर बीच में ही छोडकर नीचे उतर आया। उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियाँ, किश्वर और सुलताना, खिड़कियों से नीचे झाँकने लगीं। चिराग ने ड्योढ़ी से बाहर कदम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज के कॉलर से पकडकर अपनी तरफ खींच लिया और गली में गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। चिराग उसका छुरेवाला हाथ पकडकर चिल्लाया, रक्खे पहलवान, मुझे मत मार! हाय, कोई मुझे बचाओ! ऊपर से जुबैदा, किश्वर और सुलताना भी हताश स्वर में चिल्लाईं और चीखती हुई नीचे ड्योढ़ी की तरफ दौड़ीं। रक्खे के एक शागिर्द ने चिराग की जद्दोजेहद करती बाँहें पकड़ लीं और रक्खा उसकी जाँघों को अपने घुटनों से दबाए हुए बोला, चीखता क्यों है, भैण के...तुझे मैं पाकिस्तान दे रहा हूँ, ले पाकिस्तान! और जब तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना नीचे पहुँचीं, चिराग को पाकिस्तान मिल चुका था।
आसपास के घरों की खिड़कियाँ तब बन्द हो गयी थीं। जो लोग इस दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाजे बन्द करके अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था। बन्द किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीखने की आवाजें सुनाई देती रहीं। रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान दे दिया, मगर दूसरे तबील रास्ते से। उनकी लाशें चिराग के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पायी गयीं।
दो दिन चिराग के घर की छानबीन होती रही थी। जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका, तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी थी। रक्खे पहलवान ने तब कसम खायी थी कि वह आग लगाने वाले को जिन्दा जमीन में गाड़ देगा क्योंकि उस मकान पर नजर रखकर ही उसने चिराग को मारने का निश्चय किया था। उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन—सामग्री भी ला रखी थी। मगर आग लगानेवाले का तब से आज तक पता नहीं चल सका था। अब साढ़े सात साल से रक्खा उस मलबे को अपनी जायदाद समझता आ रहा था, जहाँ न वह किसी को गाय—भैंस बाँधने देता था और न ही खुमचा लगाने देता था। उस मलबे से बिना उसकी इजाजत के कोई एक ईंट भी नहीं निकाल सकता था।
लोग आशा कर रहे थे कि यह सारी कहानी जरूर किसी न किसी तरह गनी तक पहुँच जाएगी...जैसे मलबे को देखकर ही उसे सारी घटना का पता चल जाएगा। और गनी मलबे की मिट्टी को नाखूनों से खोद—खोदकर अपने ऊपर डाल रहा था और दरवाजे के चौखट को बाँह में लिये हुए रो रहा था, बोल, चिरागदीना, बोल! तू कहाँ चला गया, ओए? ओ किश्वर! ओ सुलताना! हाय, मेरे बच्चे ओएऽऽ! गनी को पीछे क्यों छोड़ दिया, ओएऽऽऽ!
और भुरभुरे किवाड़ से लकड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे।
पीपल के नीचे सोए रक्खे पहलवान को जाने किसी ने जगा दिया, या वह खुद ही जाग गया। यह जानकर कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी आया है और अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया जिससे उसे खाँसी आ गयी और उसने कुएँ के फर्श पर थूक दिया। मलबे की तरफ देखकर उसकी छाती से धौंकनी की—सी आवाज निकली और उसका निचला होंठ थोड़ा बाहर को फैल आया।
गनी अपने मलबे पर बैठा है, उसके शागिर्द लच्छे पहलावन ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा।
मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है! पहलवान ने झाग से घरघराई आवाज में कहा।
मगर वह वहाँ बैठा है, लच्छे ने आँखों में एक रहस्यमय संकेत लाकर कहा।
बैठा है, बैठा रहे। तू चिलम ला! रक्खे की टाँगें थोड़ी फैल गयीं और उसने अपनी नंगी जाँघों पर हाथ फेर लिया।
मनोरी ने अगर उसे कुछ बता—वता दिया तो...? लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण ढंग से कहा।
मनोरी की क्या शामत आयी है?
लच्छा चला गया।
कुएँ पर पीपल की कई पुरानी पत्तियाँ बिखरी थीं। रक्खा उन पत्तियों को उठा—उठाकर अपने हाथों में मसलता रहा। जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर चिलम उसके हाथ में दी, तो उसने कश खींचते हुए पूछा, और तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?
नहीं।
ले, और उसने खाँसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी। मनोरी गनी की बाँह पकड़े मलबे की तरफ से आ रहा था। लच्छा उकड़ूँ होकर चिलम के लम्बे—लम्बे कश खींचने लगा। उसकी आँखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की तरफ लगी रहतीं।
मनोरी गनी की बाँह थामे उससे एक कदम आगे चल रहा था—जैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुएँ के पास से बिना रक्खे को देखे ही निकल जाए। मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया। कुएँ के पास पहुँचते न पहुँचते उसकी दोनों बाँहें फैल गयीं और उसने कहा, रक्खे पहलवान!
रक्खे ने गरदन उठाकर और आँखें जरा छोटी करके उसे देखा। उसके गले में अस्पट—सी घरघराहट हुई, पर वह बोला नहीं।
रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं? गनी ने बाँहें नीची करके कहा, मैं गनी हूँ, अब्दुल गनी, चिरागदीन का बाप!
पहलवान ने ऊपर से नीचे तक उसका जायजा लिया। अब्दुल गनी की आँखों में उसे देखकर एक चमक—सी आ गयी थी। सफेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुर्रियाँ भी कुछ फैल गयी थीं। रक्खे का निचला होंठ फडका। फिर उसकी छाती से भारी—सा स्वर निकला, सुना, गनिया!
गनी की बाँहें फिर फैलने को हुईं, पर पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गयीं। वह पीपल का सहारा लेकर कुएँ की सिल पर बैठ गया।
ऊपर खिड़कियों में चेहमेगोइयाँ तेज हो गयीं कि अब दोनों आमने—सामने आ गये हैं, तो बात जरूर खुलेगी...फिर हो सकता है दोनों में गाली—गलौज भी हो।...अब रक्खा गनी को हाथ नहीं लगा सकता। अब वे दिन नहीं रहे।...बड़ा मलबे का मालिक बनता था!...असल में मलबा न इसका है, न गनी का। मलबा तो सरकार की मलकियत है! मरदूद किसी को वहाँ गाय का खूँटा तक नहीं लगाने देता!...मनोरी भी डरपोक है। इसने गनी को बता क्यों नहीं दिया कि रक्खे ने ही चिराग और उसके बीवी—बच्चों को मारा है!...रक्खा आदमी नहीं साँड है! दिन—भर साँड की तरह गली में घूमता है!...गनी बेचारा कितना दुबला हो गया है! दाढ़ी के सारे बाल सफेद हो गये हैं!...
गनी ने कुएँ की सिल पर बैठकर कहा, देख रक्खे पहलान, क्या से क्या हो गया है! भरा—पूरा घर छोडकर गया था और आज यहाँ यह मिट्टी देखने आया हूँ! बसे घर की आज यही निशानी रह गयी है! तू सच पूछे, तो मेरा यह मिट्टी भी छोडकर जाने को मन नहीं करता! और उसकी आँखें फिर छलछला आयीं।
पहलवान ने अपनी टाँगें समेट लीं और अंगोछा कुएँ की मुँडेर से उठाकर कन्धे पर डाल लिया। लच्छे ने चिलम उसकी तरफ बढ़ा दी। वह कश खींचने लगा।
तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह? गनी किसी तरह अपने आँसू रोककर बोला, तुम लोग उसके पास थे। सब में भाई—भाई की—सी मुहब्बत थी। अगर वह चाहता, तो तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसमें इतनी भी समझदारी नहीं थी?
ऐसे ही है, रक्खे को स्वयं लगा कि उसकी आवाज में एक अस्वाभाविक—सी गूँज है। उसके होंठ गाढ़े लार से चिपक गये थे। मूँछों के नीचे से पसीना उसके होंठ पर आ रहा था। उसे माथे पर किसी चीज का दबाव महसूस हो रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी।
पाकिस्तान में तुम लोगों के क्या हाल हैं? उसने पूछा। उसके गले की नसों में एक तनाव आ गया था। उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुँह में खींचकर गली में थूक दिया।
क्या हाल बताऊँ, रक्खे, गनी दोनों हाथों से छड़ी पर बोझ डालकर झुकता हुआ बोला, मेरा हाल तो मेरा खुदा ही जानता है। चिराग वहाँ साथ होता, तो और बात थी।...मैंने उसे कितना समझाया था कि मेरे साथ चला चल। पर वह जिद पर अड़ा रहा कि नया मकान छोडकर नहीं जाऊँगा—यह अपनी गली है, यहाँ कोई खतरा नहीं है। भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में खतरा न हो, पर बाहर से तो खतरा आ सकता है! मकान की रखवाली के लिए चारों ने अपनी जान दे दी!...रक्खे, उसे तेरा बहुत भरोसा था। कहता था कि रक्खे के रहते मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मगर जब जान पर बन आयी, तो रक्खे के रोके भी न रुकी।
रक्खे ने सीधा होने की चेटा की क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी बहुत दर्द कर रही थी। अपनी कमर और जाँघों के जोड़ पर उसे सख्त दबाव महसूस हो रहा था। पेट की अंतडियों के पास से जैसे कोई चीज उसकी साँस को रोक रही थी। उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था और उसके तलुओं में चुनचुनाहट हो रही थी। बीच—बीच में नीली फुलझडियाँ—सी ऊपर से उतरती और तैरती हुई उसकी आँखों के सामने से निकल जातीं। उसे अपनी जबान और होंठों के बीच एक फासला—सा महसूस हो रहा था। उसने अंगोछे से होंठों के कोनों को साफ किया। साथ ही उसके मुँह से निकला, हे प्रभु, तू ही है, तू ही है, तू! ही है!
गनी ने देखा कि पहलवान के होंठ सूख रहे हैं और उसकी आँखों के गिर्द दायरे गहरे हो गये हैं। वह उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोला, जो होना था, हो गया रक्खिआ! उसे अब कोई लौटा थोड़े ही सकता है! खुदा नेक की नेकी बनाये रखे और बद की बदी माफ करे! मैंने आकर तुम लोगों को देख लिया, सो समझूँगा कि चिराग को देख लिया। अल्लाह तुमहें सेहतमन्द रखे! और वह छड़ी के सहारे उठ खड़ा हुआ। चलते हुए उसने कहा, अच्छा रक्खे, पहलवान!
रक्खे के गले से मद्धिम—सी आवाज निकली। अंगोछा लिये हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गये। गनी हसरत—भरी नजर से आसपास देखता हुआ धीरे—धीरे गली से बाहर चला गया।
ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेहमेगोइयाँ चलती रहीं—कि मनोरी ने गली से बाहर निकलकर जरूर गनी को सब कुछ बता दिया होगा कि गनी के सामने रक्खे का तालू कैसे खुश्क हो गया था!...रक्खा अब किस मुँह से लोगों को...मलबे पर गाय बाँधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! कितनी अच्छी थी वह! रक्खे मरदूद का घर...न घाट, इसे किसी की माँ—बहन का लिहाज था?
थोड़ी देर में स्त्रियाँ घरों से गली में उतर आयीं। बच्चे गली में गुल्ली—डंडा खेलने लगे। दो बारह—तेरह साल की लड़कियाँ किसी बात पर एक—दूसरी से गुत्थम—गुत्था हो गयीं।
रक्खा गहरी शाम तक कुएँ पर बैठ खंखारता और चिलम फूँकता रहा। कई लोगों ने वहाँ गुजरते हुए उससे पूछा, रक्खे शाह, सुना है आज गनी पाकिस्तान से आया था?
हाँ, आया था, रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया।
फिर?
फिर कुछ नहीं। चला गया।
रात होने पर रक्खा रोज की तरह गली के बाहर बायीं तरफ की दुकान के त+ख्ते पर आ बैठा। रोज वह रास्ते से गुजरने वाले परिचित लोगों को आवाज दे—देकर पास बुला लेता था और उन्हें सट्टे के गुर और सेहत के नुस्खे बताता रहता था। मगर उस दिन वह वहाँ बैठा लच्छे को अपनी वैनो देवी की उस यात्रा का वर्णन सुनाता रहा जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी। लच्छे को भेजकर वह गली में आया, तो मलबे के पास लोकू पंडित की भैंस को देखकर वह आदत के मुताबिक उसे धक्के दे—देकर हटाने लगा, तत—तत...तत—तत...!!
भैंस को हटाकर वह सुस्ताने के लिए मलबे के चौखट पर बैठ गया। गली उस समय सुनसान थी। कमेटी की बत्ती न होने से वहाँ शाम से ही अँधेरा हो जाता था। मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज करता बह रहा था। रात की खामोशी को काटती हुई कई तरह की हल्की—हल्की आवाजें मलबे की मिट्टी में से सुनाई दे रही थीं...च्यु—च्यु—च्यु...चिक्—चिक्—चिक्...किरीरीरीरी—चि...। एक भटका हुआ कौआ न जाने कहाँ से उडकर उस चौखट पर आ बैठा। इससे लकड़ी के कई रेशे इधर—उधर छितरा गये। कौए के वहाँ बैठते न बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्राकर उठा और जोर—जोर से भौंकने लगा—वऊ—अऊ—वउ! कौआ कुछ देर सहमा—सा चौखट पर बैठा रहा, फिर पंख फडफड़ाता कुएँ के पीपल पर चला गया। कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की तरफ मुँह करके भौंकने लगा। पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज में बोला, दुर् दुर् दुर्...दुरे! मगर कुत्ता और पास आकर भौंकने लगा—वऊ—अउ—वउ—वउ—वउ—वउ...।
पहलवान ने एक ढेला उठाकर कुत्ते की तरफ फेंका। कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ। पहलवान कुत्ते को माँ की गाली देकर वहाँ से उठ खड़ा हुआ और धीरे—धीरे जाकर कुएँ की सिल पर लेट गया। उसके वहाँ से हटते ही कुत्ता गली में उतर आया और कुएँ की तरफ मुँह करके भौंकने लगा। काफी देर भौंकने के बाद जब उसे गली में कोई प्राणी चलता—फिरता नजर नहीं आया, तो वह एक बार कान झटककर मलबे पर लौट गया और वहाँ कोने में बैठकर गुर्राने लगा।
कमरे में दाखिल होते ही मनोरमा चौंक गयी। काशी उसकी साड़ी का पल्ला सिर पर लिए ड्रेसिंग टेबल के पास खड़ी थी। उसके होंठ लिपस्टिक से रँगे थे और चेहरे पर बेहद पाउडर पुता था, जिससे उसका साँवला चेहरा डरावना लग रहा था। फिर भी वह मुग्धभाव से शीशे में अपना रूप निहार रही थी। मनोरमा उसे देखते ही आपे से बाहर हो गयी।
माई, उसने चिल्लाकर कहा, यह क्या कर रही है?
काशी ने हड़बड़ाकर साड़ी का पल्ला सिर से हटा दिया और ड्रेसिंग टेबल के पास से हट गयी। मनोरमा के गुस्से के तेवर देखकर पल—भर तो वह सहमी रही, फिर अपने स्वाँग का ध्यान हो आने से हँस दी।
बहनजी, माफी दे दें, उसने मिन्नत के लहजे में कहा, कमरा ठीक कर रही थी, शीशे के सामने आयी, तो ऐसे ही मन कर आया। आप मेरी तनखाह में से पैसे काट लेना।
तनखाह में से पैसे काट लेना! मनोरमा और भी भडक उठी, पन्द्रह रुपये तनखाह है और बेगम साहब साढ़े छरू रुपये लिपस्टिक के कटवाएँगी। कमबख्त रोज प्लेटें तोड़ती है, मैं कुछ नहीं कहती। घी, आटा, चीनी चुराकर ले जाती है, और मैं देखकर भी नहीं देखती। सारा स्टाफ शिकायत करता है, कुछ काम नहीं करती, किसी का कहा नहीं मानती। कमेटी के मेम्बर अलग मेरी जान खाते हैं कि इसे दफा करो, रोज—रोज अपना रोना लेकर हमारे यहाँ आ मरती है। मैं फिर भी तरह दे जाती हूँ कि निकाल दिया, तो दर—बदर मारी—मारी न फिरे—और उसका तू मुझे यह बदला देती है? कमीनी कहीं की!
उसने बेंत की कुर्सी को इस तरह अपनी तरफ खींचा, जैसे उसी ने कोई अपराध किया हो, और उस पर बैठकर माथे को अपने ठंडे हाथ से मल लिया। काशी चुपचाप रही।
चालीस की होने को आयी, मगर बाँकपन की चाह अब भी बाकी है! मनोरमा फिर बड़बड़ाई। छिनाल कहीं की!
सिर की झटककर उसने आँखें मूँद लीं। दिन—भर की स्कूल की बकझक से दिमाग वैसे ही खाली हो रहा था। शरीर भी थका था। वह उस समय पब्लिक लाइब्रेरी से होकर मिलिट्री लाइंज का बड़ा राउंड लगाकर आयी थी। निकली यह सोचकर थी कि घूमने से मन में कुछ ताजगी आएगी, मगर लौटते हुए मन पर अजब भारीपन छा गया था। क्वार्टर से आधी मील दूर भी जब सूरज डूब गया था। तब कुछ क्षणों के लिए उसे अपना—आप हल्का—हल्का—सा लगा था। हवा, पेड़ों के हिलते पत्ते और अस्तव्यस्त बिखरे बादलों के टुकड़े, हर चीज में एक मादक स्पर्श का अनुभव हुआ था। सडक पर फैली सन्ध्या की फीकी चाँदनी धीरे—धीरे रंग पकड़ रही थी। वह साड़ी का पल्ला पीछे को कसकर कई कदम तेज—तेज चल गयी। मगर टैंकी के मोड़ तक पहुँचते—पहुँचते सारा उत्साह गायब हो गया। जब स्कूल के गेट के पास पहुँची तो अन्दर पैर रखने को भी मन नहीं था। मगर उसने किसी तरह मन को बाँधा और लोहे के गेट को हाथ से धकेल दिया। गर्ल्ज हाई स्कूल की हेड मिस्ट्रेस रात को देर तक सडकों पर अकेली कैसे घूम सकती थी? बुझे मन से क्वार्टर की सीढ़ियाँ चढ़ी, तो यह माजरा सामने आ गया।
उसने आँखें खोलीं, तो काशी को उसी तरह खड़ी देखकर उसका गुस्सा और बढ़ गया। जैसे उसे आशा थी कि उसके आँखें बन्द करने और खोलने के बीच काशी सामने से हट जाएगी।
अब खड़ी क्यों है? उसने डाँटकर कहा, जा यहाँ से।
काशी के चेहरे पर डाँट का कोई खास असर दिखाई नहीं दिया। वह बल्कि पास आकर फर्श पर बैठ गयी।
बहनजी, हाथ जोड़ रही हूँ, माफी दे दो। उसने मनोरमा के पैर पकड़ लिये। मनोरमा पैर हटाकर कुर्सी से उठ खड़ी हुई।
तुझसे कह दिया है इस वक्त चली जा, मुझे तंग न कर। कहकर वह खिड़की की तरफ चली गयी। काशी भी उठकर खड़ी हो गयी।
चाय बना दूँ? उसने कहा। घूमकर थक गयी होंगी।
तू जा, मुझे चाय—वाय नहीं चाहिए।
तो खाना ले आती हूँ।
मनोरमा कुछ न कहकर मुँह दूसरी तरफ किये रही।
बहनजी, मिन्नत कर रही हूँ माफी दे दो।
मनोरमा चुप रही। सिर्फ उसने सिर को हाथ से दबा लिया।
सिर में दर्द है तो सिर दबा देती हूँ। काशी अपने हाथ पल्ले से पोंछने लगी।
तुझसे कह दिया है जा, मेरा सिर क्यों खा रही है? मनोरमा ने चिल्लाकर कहा। काशी चोट खायी—सी पीछे हट गयी। पल—भर अवाक् भाव से मनोरमा की तरफ देखती रही। फिर निकलकर बरामदे में चली गयी। वहाँ से कुछ कहने के लिए मुड़ी, मगर बिना कहे चली गयी। जब तक लकड़ी के जीने पर उसके पैरों की आवाज सुनाई देती रही, मनोरमा खिड़की के पास खड़ी रही। फिर आकर सिर दबाए बिस्तर पर लेट गयी।
उसे लगा इसमें सारा कसूर उसी का है। और कोई हेड मिस्ट्रेस होती, तो कब का इस औरत को निकालकर बाहर करती। वह जितना उसे तरह देती थी, उतना ही वह उसकी कमजोरी का फायदा उठाती थी। उसके बच्चों की भी वह कितनी शैतानियाँ बर्दाश्त करती थी! दिन—भर उसके क्वार्टर की सीढियों पर शोर मचाते रहते थे और स्कूल के कम्पाउंड को गन्दा करते रहते थे। उसने एक बार उन्हें गोलियाँ ला दी थीं। तब से उसे देखते ही उसकी साड़ी से चिपटकर गोलियाँ माँगने लगते थे। उसने कितना चाहा था कि वे साफ रहना सीख जाएँ। बड़ी लडकी कुन्ती की तो चड्ढियाँ भी उसने अपने हाथ से सी दी थीं। मगर उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वे उसी तरह गन्दे रहते थे और उसी तरह गुलगपाड़ा मचाए रखते थे। पिछली बार इन्स्पेक्शन के दिन उन्होंने कम्पाउंड के फर्श पर कोयले से लकीरें खींच दी थीं जिससे दूसरी बार सारे कम्पाउंड की सफाई करानी पड़ी थी। कई बार वे बाहर से आये अतिथियों के सामने जीभें निकाल देते थे। वही थी जो सब बर्दाश्त किए जाती थी।
कुछ देर वह छत की तरफ देखती रही। फिर उठकर बरामदे में चली गयी। लकड़ी के बरामदे में अपने ही पैरों की आवाज से शरीर में कँपकँपी भर गयी। उसने मुँडेर के खम्भे पर हाथ रख लिया। अहाते में खुली चाँदनी फैली थी। ईंटों के फर्श पर सीमेंट की लकीरें एक इन्द्रजाल—सी लगती थीं। स्कूल के बरामदे में पड़े डेस्क—स्टूल और ब्लैकबोर्ड ऐसे लग रहे थे जैसे डरावनी सूरतोंवाले भूत—प्रेत अपने गार के अन्दर से बाहर झाँक रहे हों। देवदार का घना जंगल जैसे ठंडी चाँदनी के स्पर्श से सिहर रहा था। वैसे बिलकुल सन्नाटा था।
काशी के क्वार्टर में इस वक्त इतनी खामोशी कभी नहीं होती थी। आमतौर पर नौ—दस बजे तक उसके बच्चे चीखते—चिल्लाते रहते थे। उस समय लग रहा था जैसे उस क्वार्टर में कोई रहता ही न हो। रोशनदान में गत्ते लगे रहने से यह भी पता नहीं चल रहा था कि अन्दर लालटेन जल रही है या नहीं। मनोरमा ने खम्भे को और भी अच्छी तरह थाम लिया जैसे पास में उसका वही एक आत्मीय हो जिसे वह अपने प्रति सचेत रखना चाहती हो। देवदारों के झुरमुटों में से गुजरती हवा की आवाज पास आयी और दूर चली गयी।
कुन्ती! मनोरमा ने आवाज दी।
उसकी आवाज को भी हवा दूर, बहुत दूर ले गयी। जंगल की सरसराहट फिर एक बार बहुत पास चली आयी। काशी के क्वार्टर का दरवाजा खुला और कुन्ती अपने में सिमटती—सी बाहर निकली। मनोरमा ने सिर के इशारे से उसे ऊपर आने को कहा। कुन्ती ने एक बार अपने क्वार्टर की तरफ देखा और—और भी सिमटती हुई ऊपर चली आयी।
तेरी माँ क्या कर रही है? मनोरमा ने कोशिश की कि उसकी आवाज रूखी न लगे।
कुछ भी नहीं। कुन्ती ने सिर हिलाकर कहा।
कुछ तो कर रही होगी...।
रो रही है।
क्यों, रो क्यों रही है?
कुन्ती चुप रही। मनोरमा भी चुप रहकर नीचे देखने लगी।
तुम लोगों ने रोटी नहीं खायी? पल—भर रुककर उसने पूछा।
रात की बस से बापू को आना है। माँ कहती थी, सब लोग उसके आने पर ही रोटी खाएँगे।
मनोरमा के सामने जैसे सब कुछ स्पट हो गया। तीन साल के बाद अजुध्या आ रहा है, यह बात काशी उसे बता चुकी थी। तभी आज आईने के सामने जाने पर उसके मन में पाउडर और लिपस्टिक लगाने की इच्छा जाग आयी थी। उसके बच्चे भी शायद इसलिए आज इतने खामोश थे। उनका बापू आ रहा था...बापू...जिसे उन्होंने तीन साल से देखा नहीं था, और जिसे शायद वे पहचानते भी नहीं थे। या शायद पहचानते थे—एक मोटी सख्त आवाज और तमाचे जडने वाले हाथों के रूप में...।
जा, और अपनी माँ को ऊपर भेज दे, उसने कुन्ती का कन्धा थपथपा दिया, कहना, मैं बुला रही हूँ।
कुन्ती बाँहें और कन्धे सिकोड़े नीचे चली गयी। थोड़ी देर में काशी ऊपर आ गयी। उसकी आँखें लाल थीं और वह बार—बार पल्ले से अपनी नाक पोंछ रही थी।
मैंने जरा—सी बात कह दी और तू रोने लगी? मनोरमा ने उसे देखते ही कहा।
बहनजी, नौकर—मालिक का रिश्ता ही ऐसा है!
गलत काम करने पर जरा भी कुछ कह दो तो तू रोने लगती है! मनोरमा जैसे किसी टूटी हुई चीज को जोडने लगी, जा, अन्दर गुसलखाने से हाथ—मुँह धो आ।
मगर काशी नाक और आँखें पोंछती हुई वहीं खड़ी रही। मनोरमा एक हाथ से दूसरे हाथ की उँगलियाँ मसलने लगी, अजुध्या आज आ रहा है? उसने पूछा।
काशी ने सिर हिला दिया।
कुछ दिन रहेगा या जल्दी चला जाएगा?
चिट्ठी में तो यही लिखा है कि ठेका उठाकर चला जाएगा।
मनोरमा जानती थी कि अजुध्या की खानदानी जमीन पर सेब के कुछ पेड़ हैं, जिनका हर साल ठेका उठता है। पिछले साल काशी ने सवा सौ में ठेका दिया था और उससे पिछले साल डेढ़ सौ में। पिछले साल अजुध्या ने उसे बहुत सख्त चिट्ठी लिखी थी। उसका ख्याल था कि काशी ठेकेदारों से कुछ पैसे अलग से लेकर अपने पास रख लेती है। इसलिए इस बार काशी ने उसे लिख दिया था कि ठेका उठाने के लिए वह आप ही वहाँ आयेय वह रुपये—पैसे के मामले में किसी की बात सुनना नहीं चाहती। पाँच साल हुए अजुध्या ने उसे छोडकर दूसरी औरत कर ली थी और उसे लेकर पठानकोट में रहता था। वहीं उसने एक छोटी—सी परचून की दुकान डाल रखी थी। काशी को वह खर्च के लिए एक पैसा भी नहीं भेजता था।
सिर्फ ठेका उठाने के लिए ही पठानकोट से आ रहा है? मनोरमा ने ऐसे कहा जैसे सोच कुछ और ही रही हो। आधे पैसे तो उसके आने—जाने में निकल जाएँगे।
मैंने सोचा इस बहाने एक बार यहाँ हो जाएगा, और बच्चों से मिल जाएगा! काशी की आवाज फिर कुछ भीग गयी, फिर उसकी तसल्ली भी हो जाएगी कि आजकल इन सेवों का डेढ़ सौ कोई नहीं देता।
अजीब आदमी है! मनोरमा हमदर्दी के स्वर में बोली, अगर सचमुच तू कुछ पैसे रख भी ले तो क्या है? आखिर तू उसी के बच्चों को तो पाल रही है। चाहिए तो यह कि हर महीने वह तुझे कुछ पैसे भेजा करे। उसकी जगह वह इस तरह की बातें करता है।
बहनजी, मर्द के सामने किसी का बस चलता है? काशी की आवाज और भीग गयी।
तो तू क्यों उससे नहीं कहती कि...? कहते—कहते मनोरमा ने अपने को रोक लिया। उसे याद आया कि कुछ दिन हुए एक बार सुशील की चिट्ठी आने पर काशी उससे इसी तरह की बातें पूछती रही थी जो उसे अच्छी नहीं लगी थीं। काशी ने कई सवाल पूछे थे—कि बाबूजी आप इतना कमाते हैं तो उससे नौकरी क्यों कराते हैं? कि उनके अभी तक कोई बच्चा—अच्चा क्यों नहीं हुआ? और कि वह अपनी तनखाह अपने ही पास रखती है या बाबूजी को भी कुछ भेजती है! तब उसने काशी की बातों को हँसकर टाल दिया था, मगर अपने अन्दर उसे महसूस हुआ था कि उसके मन की कोई बहुत कमजोर सतह उन बातों से छू गयी है और उसका मन कई दिन तक उदास रहा था।
रोटी ले आऊँ? काशी ने आवाज को थोड़ा सहेजकर पूछा।
नहीं, मुझे अभी भूख नहीं है, मनोरमा ने काफी मुलायम स्वर में कहा जिससे काशी को विश्वास हो जाए कि अब वह बिलकुल नाराज नहीं है। जब भूख लगेगी, मैं खुद निकालकर खा लूँगी। तू जाकर अपने यहाँ का काम पूरा कर ले, अजुध्या अब आनेवाला ही होगा। आखिरी बस नौ बजे पहुँच जाती है।
काशी चली गयी तो भी मनोरमा खम्भे का सहारा लिये काफी देर खड़ी रही। हवा तेज हो गयी थी। उसे अपने मन में बेचौनी महसूस होने लगी। उसे वे दिन याद आये जब ब्याह के बाद वह और सुशील साथ—साथ पहाड़ों पर घूमा करते थे। उन दिनों लगता था कि उस रोमांच के सामने दुनिया की हर चीज हेच है। सुशील उसका हाथ भी छू लेता तो शरीर में एक ज्वार उठ आता था और रोयाँ—रोयाँ उस ज्वार में बह चलता था। देवदार के जंगल की सारी सरसराहट जैसे शरीर में भर जाती थी। अपने को उसके शरीर में खो देने के बाद जब सुशील उससे दूर हटने लगता तो यह उसे और भी पास कर लेना चाहती थी। वह कल्पना में अपने को एक छोटे—से बच्चे को अपने में लिये हुए देखती और पुलकित हो उठती। उसे आश्चर्य होता कि क्या सचमुच एक हिलती—डुलती काया उसके शरीर के अन्दर से जन्म ले सकती है। कितनी बार वह सुशील से कहती थी कि वह आश्चर्य को अपने अन्दर अनुभव करके देखना चाहती है। मगर सुशील इसके हक में नहीं था। वह नहीं चाहता था कि अभी कुछ साल वे एक बच्चे को घर में आने दें। उससे एक तो उसका फिगर खराब होने का डर था, फिर उसकी नौकरी का भी सवाल था। सुशील नहीं चाहता था कि वह नौकरी छोडकर बस घर—गृहस्थी के लायक ही हो रहे। साल—छरू महीने में सुशील को अपनी बहन उम्मी का ब्याह करना था। उसके दो छोटे भाई कॉलेज में पढ़ रहे थे। उन दिनों उनके लिए एक—एक पैसे की अपनी कीमत थी। वह कम—से—कम चार—पाँच साल एहतियात से चलना चाहता था। हजार चाहने पर भी वह सुशील के सामने हठ नहीं कर सकी थी। मगर जब भी सुशील के हाथ उसके शरीर को सहला रहे होते तो एक अज्ञात शिशु उसकी बाँहों में आने के लिए मचलने लगता। वह जैसे उसकी किलकारियाँ सुनती और उसके कोमल शरीर के स्पर्श का अनुभव करती। ऐसे क्षणों में कई बार सुशील का चेहरा उसके लिए बच्चे का चेहरा बन जाता और वह उसे अच्छी तरह अपने साथ सटा लेती। उसका मन होता कि उसे थपथपाए और लोरियाँ दे।
सुशील की चिट्ठी आये इस बार बहुत दिन हो गये थे। उसने उसे लिखा भी था कि वह जल्दी जवाब दिया करे, क्योंकि उसकी चिट्ठी न आने से अपना अकेलापन उसके लिए असह्यड्ढ हो जाता है। कई दिनों से वह सोच रही थी कि सुशील को दूसरी चिट्ठी लिखे, मगर स्वाभिमान उसे इससे रोकता था। क्या सुशील को इतनी फुर्सत भी नहीं थी कि उसे कुछ पंक्तियाँ ही लिख दे?
हवा का तेज झोंका आया। देवदारों की सरसराहट कई—कई घाटियाँ पार करती दूर के आकाश में जाकर खो गयी। सामने की पहाड़ी के साथ—साथ रोशनी के दो दायरे रेंगते आ रहे थे। शायद पठानकोट से आखिरी बस आ रही थी। चाँदनी में गेट की मोटी सला+खें चमक रही थीं। हवा धक्के दे—देकर जैसे गेट का ताला तोड़ देना चाहती थी। मनोरमा ने एक लम्बी साँस ली और अन्दर को चल दी। वह अपने को उस समय रोज से कहीं ज्यादा अकेली महसूस कर रही थी।
अगली शाम मनोरमा घूमकर लौटी, तो कम्पाउंड में दाखिल होते ही ठिठक गयी। काशी के क्वार्टर से बहुत शोर सुनाई दे रहा था। अजुध्या जोर से गाली बकता हुआ काशी को पीट रहा था। काशी गला फाड़—फाडकर रो रही थी। मनोरमा गुस्से से भन्ना उठी। कमेटी के नियम के मुताबिक किसी मर्द को स्कूल की चारदीवारी में रात को ठहरने की इजाजत नहीं थी। उसने खास रियायत करके उसे वहाँ ठहरने की इजाजत दी थी। और वह आदमी था कि वहाँ रहकर इस तरह की हरकत कर रहा था! मनोरमा का ध्यान काशी को पड़ती मार की तरफ नहीं गया, इसी तरफ गया कि जो कुछ हो रहा है, उसमें स्कूल की बदनामी है और स्कूल की बदनामी का मतलब है हेड—मिस्ट्रेस की बदनामी...।
वह तेजी से क्वार्टर की सीढ़ियाँ चढ़ गयी। खट्—खट्—खट्—उसके सैंडिल लकड़ी के जीने पर आवाज कर उठे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। काशी को बुलाकर कहे कि अजुध्या को +फौरन वहाँ से भेज दे? या अजुध्या को ही बुलाकर डाँटे और कहे कि वह सुबह होने तक वहाँ से चला जाए?
बरामदे में पैर रखते ही उसने देखा कि कुन्ती एक कोने में सहमी—सी बैठी है और डरी हुई आँखों से नीचे की तरफ देख रही है। जैसे उनकी माँ को पड़ती मार की चोट उसे भी लग रही हो। मनोरमा सोच नहीं सकी कि वह लडकी उस वक्त उसके क्वार्टर में क्यों बैठी है।
क्या बात है? उसने अपना गुस्सा दबाकर पूछा।
माँ ने कहा था आपको रोटी खिला दूँ...। कुन्ती उसकी तरफ इस तरह डरी—डरी आँखों से देखने लगी जैसे उसे आशंका हो कि बहनजी अभी उसे बाँह से पकड़ लेंगी और पीटने लगेंगी।
तू मुझे रोटी खिलाएगी?
कुन्ती ने उसी डरे हुए भाव से सिर हिला दिया।
तुम्हारे क्वार्टर में यह क्या हो रहा है? मनोरमा ने ऐसे पूछा जैसे जो हो रहा था, उसके लिए कुन्ती भी कुछ हद तक उत्तरदायी हो। कुन्ती के होंठ फडकने लगे और दो बूँदें आँखों से नीचे बह आयीं।
वह किस बात के लिए तेरी माँ को पीट रहा है? मनोरमा ने फिर पूछा।
कुन्ती ने कमीज से आँखें पोंछीं और अपनी रुलाई दबाए हुए बोली, उसने माँ के ट्रंक से सारे पैसे निकाल लिये हैं। माँ ने उसका हाथ रोका, तो उसे पीटने लगा।
इस आदमी का दिमाग खराब है! मनोरमा गुस्से से भडक उठी, अभी यहाँ से निकालकर बाहर करूँगी तो इसके होश दुरुस्त हो जाएँगे।
कुन्ती कुछ देर सुबकती रही। फिर बोली, कहता है, माँ ने ठेकेदारों से अलग से पैसे ले—लेकर अपने पास जमा किये हैं। इस बार उसने दो सौ में ठेका दिया है। माँ के पास अपने साठ—सत्तर रुपये थे। वे सब उसने ले लिये हैं।
कुन्ती के भाव में कुछ ऐसी दयनीयता थी कि मनोरमा ने उसके मैले कपड़ों की चिन्ता किये बिना उसे अपने से सटा लिया।
रोती क्यों है? उसने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा, मैं अभी उससे तेरी माँ के रुपये लेे दूँगी। तू चल अन्दर।
रसोईघर में जाकर मनोरमा ने खुद कुन्ती का मुँह धो दिया और मोढ़ा लेकर बैठ गयी। कुन्ती ने प्लेट में रोटी दे दी, तो वह चुपचाप खाने लगी। वही खाना काशी ने बनाया होता, तो वह गुस्से से चिल्ला उठती। सब चपातियों की सूरतें अलग—अलग थीं, और वे आधी कच्ची और आधी जली हुई थीं। दाल के दाने पानी से अलग थे। मगर उस वक्त वह मशीनी ढंग से रोटी के कौर तोड़ती और दाल में भिगोकर निगलती रही—उसी तरह जैसे रोज दफ्तर में बैठकर कागजों पर दस्तखत करती थीं, या अध्यापिकाओं की शिकायतें सुनकर उन्हें जवाब देती थी। कुन्ती ने बिना पूछे एक और रोटी उसकी प्लेट में डाल दी, तो वह थोड़ा चौंक गयी।
नहीं, और नहीं चाहिए, कहते हुए उसने इस तरह हाथ बढ़ा दिया, जैसे रोटी अभी प्लेट में पहुँची न हो। फिर अनमने भाव से छोटे—छोटे कौर तोडने लगी।
नीचे शोर बन्द हो गया था। कुछ देर बाद गेट के खुलने और बन्द होने की आवाज सुनाई दी। उसने सोचा कि अजुध्या कहीं बाहर जा रहा है। कुन्ती रोटीवाला डिब्बा बन्द कर रही थी। वह उससे बोली, नीचे जाकर अपनी माँ से कह देना कि गेट को वक्त से ताला लगा दे। रात—भर गेट खुला न रहे।
कुन्ती चुपचाप सिर हिलाकर काम करती रही।
और कहना कि थोड़ी देर में ऊपर हो जाए।
उसका स्वर फिर रूखा हो गया था। कुन्ती ने एक बार इस तरह उसकी तरफ देखा जैसे वह उसकी किताब का एक मुश्किल सबक हो जो बहुत कोशिश करने पर भी समझ में न आता हो। फिर सिर हिलाकर काम में लग गयी।
रात को काफी देर तक काशी मनोरमा के पास बैठी रही। उसे इस बात की उतनी शिकायत नहीं थी कि अजुध्या ने उसके ट्रंक से उसके रुपये निकाल लिये, जितनी इस बात की थी कि अजुध्या तीन साल बाद आया भी तो बच्चों के लिए कुछ लेकर नहीं आया। वह उसे बताती रही कि उसकी सौत ने किसी सन्त से वशीकरण ले रखा है। तभी अजुध्या उसकी कोई बात नहीं टालता। वह जिस ज्योतिषी से पूछने गयी थी, उसने उसे बताया था कि अभी सात साल तक वह वशीकरण नहीं टूट सकता। मगर उसने यह भी कहा था कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब उसकी सौत के बच्चे उसके बच्चों का जूठा खाएँगे और उनके उतरे हुए कपड़े पहनेंगे। वह उसी दिन की आस पर जी रही थी।
मनोरमा उसकी बातें सुनती हुई भी नहीं सुन रही थी। उसके मन में रह—रहकर यह बात कौंध जाती थी कि सुशील की चिट्ठी नहीं आयी...उसकी चिट्ठी गये महीने के करीब हो गया, मगर सुशील ने जवाब नहीं दिया...। उसके बालों की एक लट उडकर माथे पर आ गयी थी। वह हल्का—हल्का स्पर्श उसके शरीर में विचित्र—सी सिहरन भर रहा था। कुछ क्षणों के लिए वह भूल गयी कि काशी उसके सामने बैठी है और बातें कर रही है। माथे की लट हिलती तो उसे लगता कि वह एक बच्चे के कोमल रोयों को छू रही है। उसे उन दिनों की याद आयी जब सुशील की उँगलियाँ देर—देर तक उसके सिर के बालों से खेलती रहती थीं, और बार—बार उसके होंठ उसके शरीर के हर धडकते भाग पर झुक आते थे...। इस बार सुशील ने चिट्ठी लिखने में न जाने क्यों इतने दिन लगा दिये थे। रोज डाक से कितनी—कितनी चिट्ठियाँ आती थीं। मगर सारी डाक हेड मिस्ट्रेस के नाम की ही होती थी। कई दिनों से मनोरमा सचदेव के नाम कोई भी चिट्ठी नहीं आयी थी...। वह इस बार छुट्टियों के बाद आते हुए सुशील से कहकर आयी थी कि जल्दी ही उसके लिए एक गर्म कोट का कपड़ा भेजेगी। उम्मी के लिए भी एक शाल भेजने को उसने कहा था। सुशील कहीं इसलिए तो नाराज नहीं था कि वह दोनों में से कोई भी चीज नहीं भेज पायी थी?
काशी उठकर जाने लगी, तो मनोरमा को फिर अपने अकेलेपन के एहसास ने घेर लिया। देवदार के जंगल की घनी सरसराहट, दूर की घाटी में रावी के पानी पर चमकती चाँदनी और उसकी उनींदी आँखें—इन सबमें जैसे कोई अदृश्य सूत्र था, काशी बरामदे के पास पहुँच गयी तो उसने उसे वापस बुला लिया और कहा कि वह गेट को ठीक से ताला लगाकर सोए और जानकर कुन्ती को उसके पास भेज दे—आज वह वहाँ उसके पास सो रहेगी।
आधी रात तक उसे नींद नहीं आयी। खिड़की से दूर तक धुला—निखरा आकाश दिखाई देता था। हवा का जरा—सा झोंका आता, तो चीड़ों और देवदारों की पंक्तियाँ तरह—तरह की नृत्य—मुद्राओं में बाँहें हिलाने लगतीं। पत्तों और टहनियों पर से फिसलकर आती हवा का शब्द शरीर को इस तरह रोमांचिक करता कि शरीर में एक जड़ता—सी छा जाती। कुछ देर वह खिड़की की सिल पर सिर रखे चारपपाई पर बैठी रही। क्षण—भर के लिए आँखें मुँद जातीं, तो खिड़की की सिल सुशील की छाती का रूप ले लेती। उसे महसूस होता कि हवा उसे दूर, बहुत दूर लिये जा रही है—चीड़ों—देवदारों के जंगल और रावी के पानी के उस तरफ...। जब वह खिड़की के पास से हटकर चारपाई पर लेटी, तो रोशनदान से छनकर आती चाँदनी का एक चौकोर टुकड़ा साथ की चारपाई पर सोई कुन्ती के चेहरे पर पड़ रहा था। मनोरमा चौंक गयी। कुन्ती पहले कभी उसे उतनी सुन्दर नहीं लगी थी। उसके पतले—पतले होंठ आम की लाल—लाल नन्ही पत्तियों की तरह खुले थे। उसे और पास से देखने के लिए वह कुहनियों के बल उसकी चारपाई पर झुक गयी। फिर सहसा उसने उसे चूम लिया। कुन्ती सोई—सोई एक बार सिहर गयी।
मनोरमा तकिये पर सिर रखे देर तक छत की तरफ देखती रही। जब हल्की—हल्की नींद आँखों पर छाने लगी, तो वह गेट के खुलने और बन्द होने की आवाज से चौंक गयी। कुछ ही देर में काशी के क्वार्टर से फिर अजुध्या के बड़बड़ाने की आवाज सुनाई देने लगी। वह उस समय शराब पिये हुए था। मनोरमा के शरीर में फिर एक गुस्से की झुरझुरी उठी। उसने अच्छी तरह अपने को कम्बलों में लपेटकर उस आवाज को भुला देने का प्रयत्न किया। मगर नींद आ जाने पर भी वह आवाज उसके कानों में गूँजती रही...।
दो दिन बाद अजुध्या चला गया, तो मनोरमा ने आराम की साँस ली। उसे रह—रहकर लगता था कि किसी भी क्षण वह अपने पर काबू खो देगी, और चपरासी से धक्के दिलाकर उस आदमी को स्कूल के कम्पाउंड से निकलवा देगी। वह आदमी शक्ल से ही कमीना नजर आता था। उसके बड़े—बड़े मैले दाँत, काले होंठ और खूँखार जानवर जैसी चुभती आँखें देखकर लगता था कि उस आदमी को ऐसी शक्ल के लिए ही उम्र—कैद की सजा होनी चाहिए। उसके चले जाने के बाद उसका मन काफी हल्का हो गया। दफ्तर के कुछ काम जो वह कई दिनों से टाल रही थी, उसने उसी दिन बैठकर पूरे कर दिये। उस दिन शाम की डाक से उसे सुशील की चिट्ठी भी मिल गयी।
उसने चिट्ठी दफ्तर में नहीं खोली। स्टेनो से और चिट्ठियों का डिक्टेशन अगले दिन लेने के लिए कहकर क्वार्टर में चली आयी। चारपाई पर बैठकर उसने पेपर नाइफ से धीरे—धीरे लिफाफा खोला—जैसे उसे चोट न पहुँचाना चाहती हो। चिट्ठी दफ्तर के कागज पर बहुत जल्दी—जल्दी लिखी गयी थी। मनोरमा को अच्छा नहीं लगा, मगर फिर भी उसने एक—एक पंक्ति उत्सुकता के साथ पढ़ी। सुशील ने लिखा था कि जल्दी ही एक जगह उम्मी की सगाई तय हो रही है। लडका अच्छी नौकरी पर है, सभी ने यह रिश्ता पसन्द किया है। हो सके तो वह उम्मी की शाल जल्दी भेज दे। अब उम्मी के ब्याह के लिए भी उन लोगों को कुछ पैसे बचाकर रखने चाहिए। अन्त में उसने उसे अपनी सेहत का ध्यान रखने को लिखा था। मधुर आलिंगन तथा अनेकानेक चुम्बनों के साथ चिट्ठी समाप्त हुई थी।
मनोरमा काफी देर चिट्ठी हाथ में लिये बैठी रही। उसे पढकर मधुर आलिंगन और अनेकानेक चुम्बनों का कुछ भी स्पर्श महसूस नहीं हुआ था। ऐसे लगा था जैसे वह एक चश्मे से पानी पीने के लिए झुकी हो और उसके होंठ गीले रेत से छूकर रह गये हों, चिट्ठी उसने ड्राअर में डाल दी और दफ्तर में लौट गयी।
रात को खाना खाने के बाद वह चिट्ठी का जवाब लिखने बैठी। मगर कलम हाथ में लेते ही दिमाग जैसे बिलकुल खाली हो गया। उसे लगा कि उसके पास लिखने के लिए कुछ भी नहीं है। पहली पंक्ति लिखकर वह देर तक कागज को नाखून से कुरेदती रही। आखिर बहुत सोचकर उसने कुछ पंक्तियाँ लिखीं। पढने पर उसे लगा कि वह चिट्ठी उन चिट्ठियों से खास अलग नहीं, जो वह दफ्तर में बैठकर क्लर्क को डिक्टेड कराया करती है। चिट्ठी में बात इतनी ही थी कि उसे इस बात का अफसोस है कि वह शाल और कोट का कपड़ा अभी नहीं भेज पायी। जल्दी ही वह ये दोनों चीजें भेज देगी। और अन्त में उसकी तरफ से भी मधुर आलिंगन और अनेकानेक चुम्बन...।
रात को वह देर तक सोचती रही कि कौन—कौन—सा खर्च कम करके वह चालीस—पचास रुपया महीना और बचा सकती है। दूध पीना बन्द कर दे? कपड़े खुद धोया करे? काशी से काम छुड़ाकर रोटी खुद बनाया करे? ज्यादा खर्च तो काशी की वजह से ही होता था। वह चीजें माँगकर भी ले जाती थी और चुराकर भी। मगर उसने पहले भी आजमाकर देखा था कि वह स्कूल का काम करती हुई साथ अपनी रोटी नहीं बना सकती। ऐसे मौ+कों पर या तो वह दूध—डबलरोटी खाकर रह जाती थी या कुछ भी छौंक—भूनकर पेट भर लेती थी।
अगले दिन से उसने खाने—पीने में कई तरह की कटौतियाँ कर दीं। काशी से कह दिया कि दूध वह सिर्फ चाय के लिए ही लिया करे और दाल—सब्जी में घी बहुत कम इस्तेमाल किया करे। बिस्कुट और फल भी उसने बन्द कर दिये। कुछ दिन तो बचत के उत्साह में निकल गये, मगर फिर उसे अपने स्वास्थ्य पर इन कटौतियों का असर दिखाई देने लगा। दो बार क्लास में पढ़ाते हुए उसे चक्कर आ गया। मगर उसने अपना हठ नहीं छोड़ा। उस महीने की तनखाह मिलने पर उसने शाल के लिए चालीस रुपये अलग निकालकर रख दिये। रुपये रखते समय उसके चेहरे का भाव ऐसा था जैसे सुशील उसके सामने खड़ा हो और वह उसे चिढ़ाना चाहती हो कि देख लो, इस तरह की बचत से शाल और कोट के कपड़े खरीदे जाते हैं। उसके स्वभाव में वैसे भी कुछ चिड़चिड़ापन आ गया था। वह बात—बेबात हर एक पर झल्ला उठती थी।
एक दिन स्कूल जाने से पहले वह आईने के सामने खड़ी हुई, तो कुछ चौंक गयी। उसे लगा कि उसके चेहरे का रंग काफी पीला पड़ गया है। उस दिन दफ्तर में बैठे हुए उसके सिर में सख्त दर्द हो आया और वह बारह बजे से पहले ही उठकर क्वार्टर में आ गयी। बरामदे में पहुँचकर उसने देखा कि काशी उसके पैरों की आवाज सुनते ही जल्दी से अलमारी बन्द करके चूल्हे की तरफ गयी है। उसने रसोईघर में जाकर अलमारी खोल दी।
घी का डिब्बा खुला पड़ा था और उसमें उँगलियों के निशान बने थे। मनोरमा ने काशी की तरफ देखा। उसके मुँह पर कच्चे घी की कनियाँ लगी थीं और वह ओट करके अपनी उंगलियाँ दोपट्टे से पोंछ रही थी। मनोरमा एकदम आपे से बाहर हो गयी। पास जाकर उसने उसे चोटी से पकड़ लिया।
चोट्टी! उसने चिल्लाकर कहा, मैं इसीलिए सूखी सब्जी खाती हूँ कि तू कच्चा घी हजम किया करे? शरम नहीं आती कमजात? जा, अभी निकल जा यहाँ से। मैं आज से तेरी सूरत भी नहीं देखना चाहती। उसने उसकी पीठ पर एक लात जमा दी, काशी औंधे मुँह गिरने को हुई, मगर अपने हाथों के सहारे सँभल गयी। पल—भर वह दर्द से आँखें मूँदे रही। फिर उसने मनोरमा के पैर पकड़ लिये। मुँह से उससे कुछ नहीं कहा गया।
मैं तुझे चौबीस घंटे का नोटिस दे रही हूँ, मनोरमा ने पैर छुड़ाते हुए कहा, कल इस वक्त तक स्कूल का क्वार्टर खाली हो जाना चाहिए। सुबह ही क्लर्क तेरा हिसाब कर देगा। उसके बाद तूने इस कम्पाउंड में कदम भी रखा तो...। और वह हटकर वहाँ से आने लगी। काशी ने बढकर फिर उसके पैर पकड़ लिये।
बहनजी, पैर छू रही हूँ, माफी दे दो, उसने मुश्किल से कहा। मनोरमा ने फिर भी पैर झटके से छुड़ा लिये। उसका एक पैर पीछे पड़ी चायदानी को जा लगा, चायदानी टूट गयी। बिखरते हुए टुकड़ों की आवाज ने क्षण—भर के लिए दोनों को स्तब्ध कर दिया। फिर मनोरमा ने अपना निचला होंठ काटा और दनदनाती हुई वहाँ से निकल गयी। कमरे में आकर उसके माथे पर बाम लगाया और सिर—मुँह लपेटकर लेट गयी।
शाम की डाक से फिर सुशील की चिट्ठी मिली। उसमें वही सब बातें थीं। उम्मी की सगाई हो गयी थी। पिछले इतवार वे लोग उस लडके के साथ पिकनिक पर गये थे। उम्मी ने एक कोने में कुछ पंक्तियाँ लिखकर खुद अपनी शाल के लिए अनुरोध किया था। साथ यह भी लिखा था कि भाभी को सब लोग बहुत—बहुत याद करते हैं। पिकनिक के दिन तो उन्होंने उसे बहुत ही मिस किया।
चिट्ठी पढने के बाद बड़े राउंड पर घूमने निकल गयी। मन में बहुत झुँझलाहट भर रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह झुँझलाहट काशी पर है, अपने पर या सुशील पर। न जाने क्यों उसे लगा कि सडक पर कंकड़—पत्थर पहले से कहीं ज्यादा हैं, और वह गोल सडक न जाने कितनी लम्बी हो गयी है। रास्ते में दो बार उसे थककर पत्थरों पर बैठना पड़ा। घर में एक—डेढ़ फलार्ंग पहले उसकी चप्पल टूट गयी। वह रास्ता बहुत मुश्किल से कटा। उसे लगा न जाने कब से वह घिसटती हुई उस गोल सडक पर चल रही है और आगे भी न जाने कब तक उसे इसी तरह चलते रहना है...।
गेट के पास पहुँचकर सुबह की घटना फिर उसके दिमाग में ताजा हो आयी। काशी के क्वार्टर में फिर खामोशी छाई थी। मनोरमा को एक क्षण के लिए ऐसा महसूस हुआ कि काशी क्वार्टर खाली करके चली गयी है, और उस बड़े कम्पाउंड में उस समय वह बिलकुल अकेली है। उसका मन सिहर गया। उसने कुन्ती को आवाज दी। कुन्ती लालटेन लिये अपने क्वार्टर से बाहर निकल आयी।
तेरी माँ कहाँ है? मनोरमा ने पूछा।
अन्दर है, और कुन्ती ने एक बार अन्दर की तरफ देख लिया।
क्या कर रही है?
कुछ नहीं कर रही। बैठी है।
मनोरमा ने देखा, काशी का क्वार्टर काफी खस्ता हालत में है। दरवाजे का चौखट काफी कमजोर पड़ गया था जिससे दरवाजा निकलकर बाहर आ जाने को था। रोज वह उस क्वार्टर के सामने से कई—कई बार गुजरती थी, रोज ही उस दरवाजे को देखती थी, मगर पहले कभी उसका ध्यान उस पर नहीं रुका था।
इस क्वार्टर में काफी मरम्मत की जरूरत है, कहकर वह जैसे क्वार्टर का मुआइना करने के लिए अन्दर चली गयी। काशी उसे देखते ही उठकर उसके पास आ गयी। मनोरमा ने एक बार उसकी तरफ देख लिया मगर उससे कोई बात नहीं की। क्वार्टर की दीवारें पीली पडकर अब स्याह होने लगी थीं। एक रोशनदान भी दीवार से निकलकर नीचे गिर आने को था। छत में चारों तरफ मकड़ी के जाले लगे थे जो आपस में मिलकर एक बड़े—से चन्दोवे का रूप लिये थे। कमरे में जो थोड़ा—बहुत सामान था, वह इधर—उधर अस्त—व्यस्त पड़ा था। एक तरफ तीन बच्चे एक ही थाली में रोटी खा रहे थे, वही पानी जैसी दाल थी जो एक दिन कुन्ती ने उसके लिए बनाई थी और अलग—अलग सूरतों वाली खुश्क रोटियाँ...। उसे देखकर बच्चों के हाथ और मुँह चलने बन्द हो गये। सबसे छोटा लडका जो करीब चार साल का था, लोई में लिपटा एक कोने में लेटा था। उसकी आँखें मनोरमा के साथ—साथ कमरे में घूम रही थीं।
परसू को क्या हुआ है? बीमार है? मनोरमा ने बिना काशी की तरफ देखे जैसे दीवार से पूछा और बच्चे के पास चली गयी। परसू अपने पैर के अँगूठे की सीध में देखने लगा।
इसे सूखा हो गया है, काशी ने धीरे से कहा।
मनोरमा ने बच्चे के गालों को सहलाया और उसके सिर पर हाथ फेर दिया।
डॉक्टर को दिखाया है? उसने पूछा।
दिखाया था, काशी ने कहा, उसने दस टीके बताये हैं। दो—दो रुपये का एक टीका आता है। बोलते—बोलते उसका गला भर आया।
लगवाए नहीं? अब मनोरमा ने उसकी तरफ देखा।
कैसे लगवाती? काशी की आँखें जमीन की तरफ झुक गयीं, जितने रुपये थे वे सब तो वह निकालकर ले गया था।...मैं इसे काँसे की कटोरी मलती हूँ। कहते हैं, उससे ठीक हो जाता है।
बच्चा बिटर—बिटर उन दोनों की तरफ देख रहा था। मनोरमा ने एक बार फिर उसके गाल को सहला दिया और बाहर चल दी। कुन्ती दहलीज के पास खड़ी थी। वह रास्ता छोडकर हट गयी।
इस क्वार्टर में अभी सफेदी होनी चाहिए, मनोरमा ने चलते—चलते कहा, यहाँ की हवा में तो अच्छा—भला आदमी बीमार हो सकता है।
काशी के क्वार्टर से निकलकर वह धीरे—धीरे अपने क्वार्टर का जीना चढ़ी। ठक्—ठक् की आवाज, अकेला बरामदा, कमरा। कमरे में जो चीजें वह बिखरी छोड़ गयी थी, वे अब करीने से रखी थीं। बीच की मेज पर रोटी की ट्रे ढककर रख दी गयी थी। केतली में पानी भरकर स्टोव पर रख दिया गया था। कोट उतारकर शाल ओढ़ते हुए उसने बरामदे में पैरों की आवाज सुनी। काशी चुपचाप आकर दरवाजे के पास खड़ी हो गयी।
क्या बात है? मनोरमा ने रू+खी आवाज में पूछा।
रोटी खिलाने आयी हूँ, काशी ने धीमी ठहरी हुई आवाज में कहा, चाय का पानी भी तैयार है। कहें तो पहले चाय बना दूँ।
मनोरमा ने एक बार उसकी तरफ देखा और आँखें हटा लीं। काशी ने कमरे में आकर प्लग का बटन दबा दिया। पानी आवाज करने लगा।
मनोरमा एक किताब लेकर बैठ गयी। थोड़ी देर में काशी चाय का प्याला बनाकर उसके पास ले आयी। मनोरमा ने किताब बन्द कर दी और हाथ बढ़ाकर प्याली ले ली। काशी के होंठों पर सूखी—सी मुस्कराहट आ गयी।
बहनजी, कभी नौकर से गलती हो जाए तो इतना गुस्सा नहीं करते, उसने कहा।
रहने दे ये सब बातें, मनोरमा ने झिडककर कहा, आदमी से एक बार बात कही जाए तो उसे लग जाती है। मगर तेरे जैसे लोग भी हैं जिन्हें बात कभी छूती ही नहीं। बच्चे सूखी दाल—रोटी खाकर रहते हैं और माँ को खाने को कच्चा घी चाहिए। ऐसी माँ किसी ने नहीं देखी होगी।
काशी का चेहरा ऐसे हो गया जैसे किसी ने उसे अन्दर से चीर दिया हो। उसकी आँखों में आँसू भर आये।
बहनजी, इन बच्चों को पालना न होता, तो मैं आज आपको जीती नजर न आती, उसने कहा, एक अभागा भूखे पेट से जन्मा था, वह सूखे से पड़ा है। अब दूसरा भी उसी तरह आएगा तो उसे जाने क्या रोग लगेगा!
मनोरमा को जैसे किसी ने ऊँचे से धकेल दिया। चाय के घूँट भरते हुए भी उसके शरीर में कई ठंडी सिहरनें भर गयीं। वह पल—भर चुप रहकर काशी की तरफ देखती रही।
तेरे पैर फिर भारी हैं? उसने ऐसे पूछा जैसे उसे इस पर विश्वास ही न आ रहा हो।
काशी के चेहरे पर जो भाव आया उसमें नई ब्याहता का—सा संकोच भी था और एक हताश झुँझलाहट भी। उसने सिर हिलाया और एक ठंडी साँस लेकर दरवाजे की तरफ देखने लगी। मनोरमा को पल—भर के लिए लगा कि अजुध्या उसके सामने खड़ा मुस्करा रहा है। उसने चाय की प्याली पीकर रख दी। काशी प्याली उठाकर बाहर ले गयी। मनोरमा को लगा कि उसकी बाँहें ठंडी होती जा रही हैं। उसने शाल को पूरा खोलकर अच्छी तरह लपेट लिया। काशी बाहर से लौट आयी।
रोटी कब खाएँगी? उसने पूछा।
मगर मनोरमा ने जवाब देने की जगह उससे पूछ लिया, डॉक्टर ने कहा था कि दस टीके लगवाने से बच्चा ठीक हो जाएगा?
काशी ने खामोश रहकर सिर हिलाया और दूसरी तरफ देखने लगी। मैं तुझे बीस रुपये दे रही हूँ, मनोरमा ने कुरसी से उठते हुए कहा, कल जाकर टीके ले आना।
उसने ट्रंक से अपना बटुआ निकाला और बीस रुपये निकालकर मेज पर रख दिये। उसे आश्चर्य हो रहा था कि उसकी बाँहें इस कदर ठंडी क्यों हो गयी हैं। उसने बाँहों को अच्छी तरह अपने में सिकोड़ लिया।
खाना खाने के बाद वह देर तक बरामदे में कुर्सी डालकर बैठी रही। उसे महसूस हो रहा था कि उसके सारे शरीर में एक अजीब—सी सिहरन दौड़ रही है। वह ठीक से नहीं समझ पा रही थी कि वह सिहरन क्या है और क्यों शरीर के हर रोम में उसका अनुभव हो रहा है। जैसे उस सिहरन का सम्बन्ध किसी बाहरी चीज से न होकर उसके अपने आपसे ही थाय जैसे उसी की वजह से उसे अपना—आप बिलकुल खाली लग रहा था। हवा बहुत तेज थी और देवदार का जंगल जैसे सिर धुनता हुआ कराह रहा था। हुआँ...हुआँ...हुआँ...हवा के झोंके उमड़ती लहरों की तरह शरीर को घेर लेते थे और शरीर उनमें बेबस—सा हो जाता था। उसने शाल को कसकर बाँहों पर लपेट लिया। लोहे का गेट हवा के धक्के खाता हुआ आवाज कर रहा था। पल—भर के लिए उसकी आँखें मुँद गयीं, तो उसे लगा कि अजुध्या अपने स्याह होंठ खोले उसके सामने खड़ा मुस्करा रहा है और लोहे का गेट चीरता हुआ धीरे—धीरे खुल रहा है। उसने सिहरकर आँखें खोल लीं और अपने माथे को छुआ। माथा बर्फ की तरह ठंडा था। वह कुर्सी से उठ खड़ी हुई। उठते हुए शाल कन्धे से उतर गया और साड़ी का पल्ला हवा में फडफड़ाने लगा। बालों की कई लटें उडकर सामने आ गयीं और उसके माथे को सहलाने लगीं।
कुन्ती! उसने कमजोर स्वर में आवाज दी। आवाज हवा के समन्दर में कागज की नाव की तरह डूब गयी।
कुन्ती! उसने फिर आवाज दी। इस बार काशी अपने क्वार्टर से बाहर निकल आयी।
कुन्ती जाग रही हो, तो उसे मेरे पास भेज दे। आज वह यहीं सो रहेगी, कहते हुए मनोरमा को महसूस हुआ कि वह किस हद तक काशी और उसके बच्चों पर निर्भर करती है, और उन लोगों का पास होना उसके लिए कितना जरूरी है।
कुन्ती सो गयी है, मगर मैं अभी उसे जगाकर भेज देती हूँ, कहकर काशी अपने क्वार्टर में जाने लगी।
सो गयी है, तो रहने दे। जगाकर भेजने की जरूरत नहीं। मनोरमा बरामदे से कमरे में आ गयी। कमरे में आकर उसने दरवाजा इस तरह बन्द किया जैसे हवा एक ऐसा आदमी हो जिसे वह अन्दर आने से रोकना चाहती हो। वह अपने में बहुत कमजोर महसूस कर रही थी। रजाई ओढकर वह बिस्तर पर लेट गयी। उसकी आँखें छत की कडियों पर से फिसलने लगीं। वह आँखें बन्द नहीं करना चाहती थी। जैसे उसे डर था कि आँखें बन्द करते ही अजुध्या के मुस्कराते हुए स्याह होंठ फिर सामने आ जाएँगे। वह अपना ध्यान बँटाने के लिए सोचने लगी कि सुबह सुशील को चिट्ठी में क्या—क्या लिखना है। लिख दे कि यहाँ अकेली रहकर उसे डर लगता है और वह उसके पास चली आना चाहती है? और...और भी जो इतना कुछ वह महसूस करती है, क्या वह सब उसे लिख पाएगी? लिखकर सुशील को समझा सकेगी कि उसे अपना—आप इतना खाली—खाली क्यों लगता है, और वह अपने इस अभाव को भरने के लिए उससे क्या चाहती है?
माथे पर आयी लटें उसने हटाई नहीं थीं। वह हल्का—हल्का स्पर्श उसकी चेतना में उतर रहा था। कुछ ही देर में वह महसूस करने लगी कि साथ ही चारपाई पर एक नन्हा—सा बच्चा सोया है, उसके नन्हे—नन्हे होंठ आम की पत्तियों की तरह खुले हैं, और उसके सिर के नरम बाल उडकर मुँह पर आ रहे हैं। वह कुहनी के बल होकर उस बच्चे को देखती रही...और फिर जैसे उसे चूमने के लिए उस पर झुक गयी।