Kanchan in Hindi Women Focused by Namita Gupta books and stories PDF | कंचन

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कंचन

कंचन

टिन टिन की आवाज मेरे कान गूंज रही थी लेकिन उधर से फोन कोई नही उठा रहा था। मैंने दो बार काल की लेकिन फोन नही उठाया किसी ने। मन ने कहा लगता कंचन किसी काम मे व्यस्त है तभी तो उसने फोन रिसीव नहीं किया। चलो फिर कर लेंगे मन ही मन मे यह सोचते हुए मैने फोन रख दिया।

मन फिर भी किसी काम मे नही लग रहा था। कंचन जबसे ससुराल आई थी तबसे उसका कोई हाल चाल नहीं पता चल पाया था । मन अजीब अनमना सा हो रहा था।

आज भी उसे याद है जब कंचन की शादी अट्ठारह की पूरी होते ही भाभी ने कर दी । मैंने भरपूर विरोध किया कि कंचन की उम्र अभी विवाह योग्य नहीं हुई हैं और न ही इसकी पढाई पूरी हुई हैं। अभी यह तन और मन दोनो तरह से यह अविकसित है, अभी तो यह खुद ही बच्ची लगती है। लेकिन भाभी नही मानी और उसकी शादी कर दी । उस दिन विवाह के समय सजी सवंरी गुडिया जैसी लग रही थी । कंचन छोटे कद की दुबली पतली गोरी आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी। विदाई के समय कंचन बच्चों की तरह बिलख बिलख कर रो रही थी। उसे रोता देख कर मेरा मन भी दहाडे मारकर रो रहा था, क्यों कि मैंने भी उसे अपने बच्चों की तरह पाला था । स्कूल से आने के बाद वो सीधे मेरे पास ही आ जाती और यही पर पढाई लिखाई, खेलना, खाना, पीना सब मेरे ही पास होता था । उसके ढेर सारे सवालो के जवा मेरे ही पास मिलते थे।

अभी उसके विवाह को पाँच वर्ष ही बीते थे तभी एक दिन मालुम हुआ कि उसके पति का अचानक देहांत हो गया । एक दिन वो मुझसे मिलने आई औंर मुझसे लिपट कर खूब रोई उस दिन हम दोनों बहुत रोएँ । उसका उजडा उखडा, चेहरा और अस्त, व्यस्त कपडे देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने उसे ढाढस बधाया, करीने से उसके बाल बाँधकर माथे पर छोटी सी बिंदी लगा दी, उसका चेहरा फिर से खिल उठा। मैंने हमेशा उसे ऐसे ही रहने की हिदायत दी । जल्दी ही उसकी नौकरी एक इग्लिश मीडियम स्कूल मे लगवा दी । जहाँ उसने अपने बच्चे का एडमिशन करवा दिया । इससे वह अपने बच्चे का भी ध्यान रख लेती थी। अपनी मेहनत औंर लगन से एडमिनिस्ट्रेशन और बच्चों प्यारी मैम हो गई थी । एक तरफ नौकरी दूसरी तरफ परिवार के लोग ही उसे बोझ समझने लगे थे। अब आए दिन उससें तकरार होने लगीं। त्रस्त होकर वह मेरे पास आ जाती कुछ दिन मेरे पास रहती तब तक मैं उसे प्यार से समझा कर रिफ्रेश कर देती तब वह अपने घर चली जाती । दो वर्ष कंचन ग्रेजुएट थी। जल्दी ही उसकी नौकरी एक इंग्लिश मीडियम स्कूल मे लगवा दी जहाँ पर उसने अपने बच्चे का एडमिशन करवा दिया। अपनी मेहनत औंर लगन से एडमिनिस्ट्रेशन और बच्चों की प्यारी मैम बन गई थी। दो वर्ष बीतते ही एक अच्छा घर परिवार देख कर उसका पुनः विवाह कर दिया ।

आज कंचन की पहली विदाई थी | वो ससुराल से पहली बार मायके आ रही थी। पापा व चाचा व सभी लोग उसे विदा कराने उसके ससुराल गए थे | वापसी में वो बहुत खुश लग रही थी, खूब चहक-चहक कर अपने ससुराल की बातें बता रही थी | चाचा उसे घर छोड़कर वापस अपने घर आ गए | मैंने चाचा के आते ही पूछ डाला “कंचन कैसी है ? खूब खुश है न ?”

चाचा ने संक्षिप्त सा उत्तर देते हुए कहा- “हाँ, बहुत खुश है |” बाकी उससे मिलने पर पूछ लेना | वो मिलने तो आएगी ही |”

“हाँ, हाँ, मुझसे मिलने तो आयेंगी ही” सर हिलाकर “ठीक है तभी उसके हाल-चाल पूछूँगी |” सोचती हुई मै अपने काम में मगन हो गई |

चार – पाँच दिन हो गये न कंचन आई और न ही उसका कोई फ़ोन आया | मैंने फ़ोन भी किया वो उठा ही नहीं | मेरा मन अनेक दुर्भावनाओं से ग्रसित होने लगा | मन में अनेक तरह के विचार सर उठाने लगे | मैंने याद किया- तो याद पड़ा मैंने उसकी ससुराल में भी कई बार फ़ोन किया अक्सर फ़ोन नहीं उठा | एक बार कंचन ने ही उठाया था तो कहने लगी “चाची जी, मैं बिजी रहती हूँ घर में कोई न कोई कार्यक्रम होता रहता है | इसलिये वक्त नहीं मिल पाता है बात करने का | मैं जब वहा आऊँगी तब ढेर सारी बातें करुँगी आपसे, ठीक है चाची जी, अच्छा मैं रात में बात करुँगी, कहकर फ़ोन काट दिया |

मैंने भी उसकी व्यवस्ता व नए नवेलेपन को समझते हुये ध्यान नहीं दिया | खैर जब आयेगी तो ढेर सी बातें होंगी | चलो वो वहाँ खुश है यह सोचकर बड़ी तसल्ली हुई | वह कब आई और कब चली गयी पता ही नही चला।

अब तो छह महीने बीत चुके थे कंचन के विवाह को न कंचन आई और न उसका कोई फ़ोन आया | मैं मन ही मन खुद पर झल्लाने लगी- “जब खुद की बेटी नहीं है तो फिर दूसरे की बेटी पर जोर कैसा ?” हाय रे | मूर्ख मन क्यों इतनी उडान भरने लगता है | इस से गैरो को भी अपना मानने लगता है | मन ही मन “मैं ही क्यों वो भी तो चाची जी यह है, चाची जी वो है | चाची ऐसा है, चाची जी वैसा है | “दिन रात अपने सुख-दुःख की बातें करते थकती नहीं थी |” वह मेरी काफी मुँह लगी थी। बेटा कालेज से घर आ गया था, उसे खाना खिलाकर मैं फिर लेट गई। मेरे ख्यालों मे फिर कंचन छा गई।

मैंने बचपन से ही उसको लाड-प्यार किया था खिलाया, पिलाया व दुलार किया था | मुझसे जो भी फरमाइश करती तो झट उसे बना कर खिलाने में अपार संतोष मिलता था । उसके कमजोर शरीर को देखकर मैंने उसे कितना समझाया और उसे कितनी हिम्मत व साहस भरा बेटी, अपने व अपने बच्चे के लिए जीवन तो जीना ही पड़ेगा | उसे बहुत समझाया और संधर्ष के लिए तैयार किया । उसने भी वादा किया कि चाहे कितना भी संघर्ष क्यों न हो वह पीछे नही हठेगी ।

लेकिन घर में (माता-पिता के पास) आए दिन उसके रहने से क्लेश होता रहा | क्योकि माँ-पिता व भाई नहीं चाहते थे कि वो यहाँ रहे इसलिए जरा-जरा सी बात पर रोज लड़ाई झगडा होता रहता था | वो अक्सर इस झगड़े से ऊबकर मेरे पास आ जाती, मै उसको प्यार-से खिलाती-पिलाती और परिस्थितियों से लडने की हिम्मत व साहस देती । जब भी आती तो आपने बालो में मसाज मुझसे ही कराती थी | कहती चाची जी- “आपके हाथ में जादू है, मेरे सर का दर्द बिल्कुल ठीक हो जाता है | :

यहाँ आकार मै बिल्कुल रिफ्रेश, व रिचार्ज हो जाती हूँ |” हँसते हुए कहती और मै भी उसकी इस ख़ुशी में निहाल हो जाती |

एक दिन वो बात करते-करते कहने लगी “चाची जी मुझे तो अपने माता-पिता से व किसी से वो प्यार नहीं मिला जो प्यार मुझे आप सबसे मिलता है |” चाची जी “आप मेरी चाची नहीं मेरी सगी माँ से बढ़कर मेरी माँ है |”

यह सुनकर मन कितना खुश हुआ “चलो मुझे भी कम से कम बेटी का प्यार तो मिला |”

एक बेटी का प्यार क्या होता है ? क्या उसकी कसक व पीड़ा होती है ? यह विचार व प्रेम भाव आते ही मन हिलोरे मारने लगता था | मेरा भी मन होता था कि कंचन मेरे पास आये और मुझे भी अपने हाल-चाल बताए और अपने प्यार सेवह मुझे भी सराबोर कर दे |

जब-जब वह अपने मम्मी पापा से मिलने घर आती तब-तब मै उसकी राह देखती और हर वो चीज बनाती जो उसको औंर उसके बच्चे को पसंद थी, । मगर हर बार यह आस अधूरी ही रह जाती | कंचन अपने मायके आती और वही से ही वो अपनी ससुराल चली जाती |

आज सात महीने बीत गये थे कंचन को देखे बिना | मुझे रहा न गया, मैंने फिर उसको फ़ोन किया | बड़े मुश्किल से फ़ोन उठाया- हैलो ! कौन ?

हैलो ! कंचन मै चाची बोल रही हूँ | बहुत दिन हुए तुमसे मिली नहीं, घर आ जाओ मुझसे भी मिल जाओ आकर |”

“क्या चाची जी आप हर समय फ़ोन करती हो, अभी भी आप मुझे बच्ची समझती है | मै नहीं आ सकती मिलने, | मै अपने मम्मी-पापा के पास व अपनी ससुराल में खुश हूँ | मुझे डिस्टर्व मत किया करे | कहते हुए उसने फ़ोन काट दिया | मेरे भी हाथ से फ़ोन छिटक कर दूर जा गिरा |

उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से मै हतप्रभ रह गई | मै ठगी सी भरभरा कर सोफे पर गिर पड़ी |

“ओह ! क्या कोई ऐसा भी हो सकता है ?”

“क्या प्यार व भावनाओ का कोई मोल नहीं होता है ? क्या अपने मतलब के लिए किसी की भावनाओ से ऐसे खिलवाड़ किया जाता है ?”

“क्या हर रिश्ता-नाता इतना सतही होता है | व कमजोर कि जब तक चाहो इस्तेमाल करो और मतलब निकल जाने पर तोड़ कर फेंक दो |” ऐसे अनेक सवाल मेरे किंकर्तब्य विमूढ़ मस्तिष्क को मथ रहे थे |”

“ओह” एक फीकी हँसी हँसते हुए –“मै भी किस मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ रही थी |”

द्वारा-

नमिता गुप्ता

लखनऊ, उत्तरप्रदेश