Kahaniya apni si in Hindi Moral Stories by Sangeeta Gandhi books and stories PDF | कहानियाँ अपनी सी

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कहानियाँ अपनी सी

समय का अंतराल

डॉ संगीता गांधी

मानसी झूले में लेटी नन्ही परी को देख भाव विभोर थी साक्षात् ईश्वर का वरदानमानसी को सदैव एक बिटिया की चाह थीवो एक बड़ी कंपनी में अधिकारी थीविवाह के बारे में मानसी ने कभी नही सोचा सच तो ये है कि वो विवाह करना ही नहीं चाहती थी पढाई फिर कैरिअर काम इन सब में कब जीवन के 40 वर्ष बीत गए मानसी को पता ही नहीं चला

मानसी अचानक अतीत की स्मृतियों में खो गयी एक छोटे से कस्बे में उसका जन्म हुआ था उससे पूर्व तीन बड़ी बहन थीं भरा पूरा परिवार था दादा -दादी , चाचा -चाची का परिवार और उसका परिवार सब एक साथ रहते थे चाची दादी की प्रिय थी कारण उसके दो बेटे ही थे

"दो बेटों को जन्म देना दादी की नज़र में स्त्री का सर्वोपरि गुण था "....

माँ घर की सबसे बेकार वस्तु थी ! ..सारे घर का काम करने वाली मशीन ! उसके बाद भी सारा दिन दादी की गालियां खाने के लिए अभिशप्त साथ ही मानसी के दादा और पिता की मार खा कर भी ...खुद को धन्य मानने को बाध्य !....

चार बेटियों को जन्म देने का पाप किया था मां ने तो मार खाना उसकी नियति थी ! मानसी और उसकी बहनों के साथ बचपन से ही बुरा व्यवहार हुआ हर समय ताने -उलाहने ,चाची के बेटों के सामने उनकी हैसियत नोकरानी से ज्यादा नहीं थी ......मानसी तो सबसे ज्यादा शोषण का शिकार रही चौथी सन्तान वो भी --बेटी ! दादी दिन भर उसे दुत्कारती .....मानसी का मां से गहरा लगाव था मां के सबसे निकट रही मां उसे गोद में लेकर छुप छुप का रोती थी मानसी सोचती थी -बड़ी होकर वो मां को इस दर्द से मुक्त कराएगी .....कस्बे के सरकारी स्कूल से बारहवीं पास करते करते पिता ने बहनों की शादी करा दी ..... मानसी के लिए भी रिश्ता ढूंढा जाने लगा मानसी ने विद्रोह कर दिया आगे पढ़ूंगी ,नोकरी करुँगी खूब क्लेश हुआ माँ को गालियां और मार पड़ी ऐसी बेटी पैदा करने के लिए !मानसी स्कॉलरशिप लेकर शहर आ गयी यहां पढ़ने लगी ,साथ ही रात में कॉल सेंटर में काम करती ......देखते देखते समय गुज़र गया मानसी एक अच्छे पद पर कार्यरत हुई विडम्बना ये रही की जिस " माँ " के लिए उसने इतनी लड़ाई लड़ी वो ही उसकी सफलता देखने को जीवित नहीं रही मानसी के घर छोड़ने के 2 वर्ष बाद ही उसका देहांत हो गया था मानसी अतीत से बाहर आयी अनाथ आश्रम में झूले में लेटी नन्हीं परी को गोद लेने का निर्णय मानसी को आत्मिक शान्ति दे रहा था एक सिंगल मदर के रूप में जीवन जीने का निश्चय वो पहले ही कर चुकी थी सारी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थीं आज मानसी को नन्ही बच्ची को सदा के लिए अपनी बेटी कहने का अधिकार मिलने वाला था अनाथाश्रम के संचालक ने बच्ची मानसी को सौंपी उसके गोद में आते ही मानसी को लगा --" मां रूप बदल कर उसकी गोद में आ गयी एक समय मां उसे गोद में लेकर रोया करती थी आज वो बच्ची को गोद में लेकर रो रही थी पर ये ख़ुशी के आंसू थे मां का जो कर्ज उस पर था वो इस बच्ची को अच्छी तरह परवरिश देकर और सारे सुख देकर वो चुकायेगी ........”मानसी ने बच्ची का नाम रखा ..."देवी " ....जो मां का नाम था कल "देवी " उसकी माँ थी और आज "देवी " उसकी बेटी हैकल मानसी का नन्हा हाथ देवी के हाथ में था आज देवी का नन्हा हाथ मानसी के हाथ में है .......पर आज समय का अंतराल है ......देवी मां मजबूर थी ! मानसी सशक्त है वो मां रूपी देवी बेटी के नन्हे हाथों को सशक्त बनायेगी“राजकुमारी की आज़ादी “

“अम्मी ,बता कौन था मेरा बाप ?”मृत्यु शैय्या पर लेटी मेहंदी को झकझोरते हुए उसका बेटा लगातार पूछ रहा था अस्सी साल की उम्र में मेहंदी से उसका बेटा अतीत के पन्नों को उजाले में लाने की मांग कर रहा था मेहंदी का शरीर निष्क्रिय हो रहा था पर स्मृतियों की खिड़की से छन छन कर बीती हवा मन का स्पर्श कर रही थी दिमाग के तंतुओं में गुज़रा जीवन साकार होने लगा शायद एक युग पुराना समय मेहंदी को अपने साथ बहा ले जा रहा था देश तब बंटा नहीं था एक पहाड़ी कस्बे का छोटा सा घर ! आंगन में खेलती दस साल की बच्ची ! “ रानो H,अपनी बेटी को कुछ घर का काम सिखा !सारा दिन खेलती रहती है ओर दो साल में ससुराल जाएगी तो जूते खाएगी !”----दादी रोज़ की तरह माँ को ताने मार रही थी माँ काम करते हुए मुस्कुरा कर मेरी ओर देखती है -” मेरी बेटी राजकुमारी है कितने सुंदर हाथ हैं इसके नाज़ुक ,फूल से ,इन हाथों से काम कैसे काम कराउँ ?”ये माँ की भावना थी पर समाज कोमलता नहीं देखता उसकी गिद्ध दृष्टि ओर स्वार्थ शरीर के कण कण से अपना काम निकालने के बहाने खोजता है तेरह साल की मेहंदी का विवाह पच्चीस साल के दुहाजू से हो रहा है ! हाँ ,विवाह ! तब वो मेहंदी नहीं थी तब वो मंदिरा थी माँ का दिया सुंदर नाम ! माँ सिर्फ नाम दे सकी ,क़िस्मत नहीं माँ बहुत रोयी थी ,मेरी फूल सी बेटी ओर इतना बड़ा दूल्हा ,दो बच्चों का बाप ! बापू ने एक बार घूर कर देखा ! माँ ने शादी की तैयारी कर दी मंदिरा ससुराल में थी बहुत बड़ा बीस लोगों का कुनबा ! सब एक साथ एक ही हवेली में रहते थे उसके हाथों की मेहंदी कब छुटी !पता न चला फूल से नाज़ुक हाथ अब कपड़ों की पण्ड धोते ! चार पहर राख से बड़े बड़े पीतल के बर्तन ,देगचियाँ मांजते मांजते सारी कोमलता पिघलने लगी ! तिस पर लात ,घूंसे व सौत के दो बच्चों की जिम्मेदारी ! माँ जाने किस राजकुमारी की बात करती थी !देश में तब उथल पुथल का दौर था आज़ादी मिलने की संभावना के साथ साथ देश के बंटवारे की मांग ज़ोर पकड़ रही थी कुछ जगह दंगा -फसाद शुरू हो चुका था सोलह साल की मंदिरा की गोद में नन्हा बालक आ चुका था मंदिरा समझ नहीं पा रही थी की लोग क्यों एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं ? कल तक एक साथ रहने ,खाने -पीने वाली कौमें आज कैसे एक दूसरे के खून की प्यासी हो गयी हैं “ मंदिरा ,तेरे मायके वालों को बवालियों ने कत्ल कर दिया है कोई न बचा ” -पति ने आ कर ये ख़बर दी मंदिरा “ रोज़ ताने मारने वाली दादी , कभी जिसने सिर पर प्यार का हाथ न रखा वो बापू नहीं रहे !” मंदिरा को दुख न हो रहा था पर माँ ! उसकी मधुर स्मृति रह रह कर कलेजा छलनी कर रही थी माहौल में नफ़रत का ज़हर बढ़ता जा रहा था कब ,कहाँ ,कौन दुश्मन हो जाये !कोई न जानता था “ दरवाज़ा खोलो ! अल्लाह हु अकबर !”एक बड़ी भीड़ मंदिरा की हवेली को घेरे खड़ी थी सारा परिवार सहमा सा कोने कोने में दुबका था “ तोड़ दो दरवाज़ा ,काफिरों की बोटी बोटी काट डालो !”पहला वार जेठ ,देवर ढेर सास , ससुर पर दूसरा वार बच्चों को तलवारों की नोक पर उठा कर टुकड़े टुकड़े कर दिए गए मंदिरा के पति को गली में ले जा कर चार टुकड़े किए गए घर की सारी स्त्रियाँ अब गुलाम थीं ! जो चाहे करो ! मंदिरा हवेली की सबसे ऊपर की मंज़िल पर पुराना सामान रखने वाली कोठरी में दुबकी थी मासूम बच्चा गोद में था “ कोई नहीं अब यहाँ ,चलो अब "कोठरी के बाहर मंदिरा ने ये आवाज़ सुनी न जाने कितने वक़्त तक वो कोठरी में छुपी रही अचानक बच्चा रोया , ममता डर पर हावी हुई मंदिरा कोठरी से बाहर आयी ऊपर से लेकर नीचे तक खून का तालाब बना था चिथड़े चिथड़े लाशें सीढ़ियों से लेकर आंगन तक फैली थीं पति की लाश के चार टुकड़े दरवाज़े की दहलीज़ पर पड़े थे सोलह साल की मंदिरा अब विधवा थी बिल्कुल अकेली एक दुधमुंहे बच्चे के साथ न कोई आगे न पीछे ! यहाँ बैठ सोग मनाए ! आत्महत्या कर ले ! या अपने बच्चे की ख़ातिर जीने का संघर्ष करे !सैकड़ों प्रश्न मंदिरा पर चाबुक की तरह बरस रहे थे बच्चा रो रहा था उसकी आवाज़ बाहर तक जा रही थी यहाँ रुकने का अर्थ था तलवार की नोक पर अपने बच्चे को झूलते देखना स्वयं उसका क्या होगा ? ये तो मंदिरा में सोचने की शक्ति भी न थी हवेली के पीछे के दरवाजे से रात के अंधेरे में मंदिरा निकली मंज़िल पता नहीं थी बस एक धुन बच्चे को बचा ले डरावनी रात के काले सायों से बचते बचाते एक कब्रिस्तान पहुंची इससे महफूज़ जगह उसे ओर कोई न लगी “ ए कौन है तू ! “ कब्रिस्तान में दुबकी हुई मंदिरा को लाठी से टटोलते हुए बुजुर्ग ने कहा मंदिरा चुप ! क्या कहे ? दिमाग़ सुन्न था “ कहाँ से आयी है ? क्या मज़हब है ? पहनावे से तो मुस्लिम न दिखती ? यहाँ मुसलमानों के कब्रिस्तान में क्या कर रही है ? और ये बच्चा ! चुरा के लायी है क्या !”मंदिरा ने कस कर बच्चे को सीने से लगा लिया ” ये मेरा बच्चा है ” और “ मैं …!”मंदिरा कुछ कहती ,इससे पहले बूढ़े की टटोलती नज़रें उसके शरीर का मुआयना कर चुकी थीं “ कोई भी हो ! क्या फर्क पड़ता है ! ओरत है इतना काफ़ी है ,ऊपर से जवान ,खूबसूरत ! काम की चीज़ है दंगाइयों से बची पर क़िस्मत की कालिख ने पीछा न छोड़ा सोलह साल की अकेली मंदिरा अब बूढ़े रफ़ीक़ के निक़ाह में थी तीन बीवियों और दर्ज़न भर बच्चों ,नाती - पोतों वाले रफ़ीक़ की चौथी बीवी !रफ़ीक़ ने बच्चे को बक्श दिया था किसी कोने में पड़ा रहेगा ,माँ तो मेरी हुई ! मंदिरा अब मेहंदी बानो थी अबोध बिना नाम का बच्चा अब अब्दुल था देश आज़ाद हो चुका था पर मंदिरा गुलाम ! मंदिरा उर्फ मेहंदी बानो अपने अंतर्मन के ज्वारों में जलते अंगारों पर लोटती थी “ मैं मंदिरा या मेहंदी बानो ! पहले पिता ने मासूम बचपन को रौंदते हुए बड़ी उम्र के दुहाजू संग बांध दिया वहां लात - घूंसे खाती थी अब किस्मत ने बूढ़े रफ़ीक़ की चौथी बीवी का तमगा दिया तीन तीन सौतनों के तानों ,गालियों से दिन चढ़ता है ओर रात बूढ़े रफ़ीक़ के साथ ज़िंदा लाश बन गुज़रती है !” “ आज़ाद देश की - मैं ,मंदिरा उर्फ मेहंदी बानो कब आज़ादी पाऊंगी ?”बीसवीं सदी के अंतिम साल हैं मंदिरा अस्सी साल की हो चुकी है घर की एक कोठरी में बेटे -बहु ने पटक रखा हैएक फोल्डिंग पर निर्जीव देह को रगड़ रगड़ कर घसीट रही है पन्द्रह साल की उम्र में अब्दुल को पता चल गया था कि रफ़ीक़ उसका पिता नहीं है बहुत झगड़ा ,माँ से बेइंतहा नफ़रत करने लगा कुरेद कुरेद कर पूछता -” मेरा बाप कौन था ?” क्या कहती ? सब तो खत्म हो गए थे अब्दुल मानने को तैयार न था उसे लगता मंदिरा ने किसी वजह से उसके पिता को छोड़ दिया वो कहता “ अम्मी ,तेरा चाल -चलन ठीक न होगा ! इसीलिए रफ़ीक़ संग भाग आयी या मेरे बाप ने तुझे घर से निकाल दिया !”पिता ,पति ,शौहर के बाद मंदिरा को दुखों की सौगात देने वालों में बेटे का नाम भी जुड़ गया “ अम्मी, बता कौन था मेरा बाप !” अब्दुल मंदिरा को कुरेद रहा है मंदिरा जा रही है ! स्मृतियों में बरसों पुरानी माँ की छवि उभरी ! माँ कह रही है -” मेरी बेटी तो राजकुमारी है ! माँ ,तेरी राजकुमारी तेरे पास आ रही है ! “ --मौत की गोद में मंदिरा उर्फ मेहंदी निश्चेष्ट है सालों पहले देश आज़ाद हुआ था ! आज वो आज़ाद हो गयी स्मृति शेष यादों के पिटारे में असंख्य स्मृतियां होती हैं उन में से कुछ स्मृतियां मधुर सुगन्ध की तरह जीवन को महकाती रहती हैंऐसी ही एक पुरानी मधुर स्मृति ' उसके ' जीवन का हिस्सा थी बरसों बाद दिल्ली आने पर वो स्मृति केंद्र में स्थिर हो गयी कितना इंतज़ार रहता था उसे ! रोज बस के टाइम से कितना पहले ही स्टॉप पर पहुँच जाता था वो आएगी और उसे देखेगा कभी उस से बात नहीं हुई कौन थी ,क्या नाम था ,क्या करती थी ..?कुछ नहीं जानता था बस यूँ ही दोनों एक दूसरे को देखते और अपनी अपनी बस आने पर चले जाते उसकी दिल्ली में नोकरी लगी थी परिवार बिहार के मुजफ्फरपुर में था यहाँ अकेला किराये पर रहता था उसे ' वो ' अच्छी लगी थी बहुत गोरा रंग ,बड़ी बड़ी आँखें .. शायद कश्मीर की थी ...वो ऐसे ही अपने मन में सोचता वो आती हुई दिखती रोज की तरह दोनों एक दूसरे को देखते ...बस आतीऔर वो चले जाते यह 1970 का समय था ..... आज की तरह का खुलापन नहीं था बात करने की कभी हिम्मत नहीं हुई आज तो लड़के -लड़कियों को देखता है तो अपने ज़माने से अनायास तुलना करता है तब समाज कितना बन्द था वो तो वैसे भी एक छोटे शहर से था कभी परिवार से बाहर किसी लडक़ी से खुल कर बात न की थी दोस्ती तो बहुत दूर की बात थी आजकल तो लड़के -लड़कियों की दोस्ती ,चैटिंग ,घूमना सब कितना आम है उसे याद आया दोनो का एक दूसरे को देखना चल ही रहा था कि अचानक एक रोज़ पिताजी का तार (टेलीग्राम) आया ...दादाजी चल बसे वो तुरंत ऑफिस से ही गाँव की और निकल पड़ा 15 दिन गाँव में रहा इतनी ही छुट्टी मिल पायी थी दिल्ली वापिस आया बहुत बैचनी से सुबह का इंतज़ार करने लगा ...बस स्टॉप पर पहुँचने का ! सुबह हुई ..वो जैसे उड़ कर स्टॉप पर पहुंचा 2 घंटे बीत गए ..वो नहीं आई ! उसने अपनी दो बस छोड़ दीं पर वो नहीं आई इस तरह कई दिन बीत गए...वो रोज उसका इंतज़ार करता ...पर वो नहीं आई समय बीतता गया 6 महीने हो गए थेवो नहीं आई फिर उसकी ट्रान्सफर पटना में हो गयी शादी हो गयी सालों साल बीत गए !.. ..अब 2017 का साल था वो न जाने कितने समय बाद दिल्ली आया था उसकी बिटिया के ससुराल के एक रिश्तेदार के यहाँ शादी थी इस सिलसिले में वो दिल्ली आया था बाकि परिवार नहीं आ पाया अब वो पत्नी के साथ पटना में ही रहता है .....स्टेशन पर ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था गाड़ी लेट थी यूँ ही प्लेटफार्म पर टहल रहा थाएक बहुत प्यारा 3 साल का बच्चा खेल रहा था उसके पास एक अधेड़ " महिला " उसे पकड़ने की कोशिश कर रही थी " आँखों पर मोटा चश्मा ,बालों में उगती हुई चांदी शरीर से थोड़ी भारी ,रंग बहुत गोरा " .कुल मिलाकर कहा जा सकता था की ......." खँडहर कहता है इमारत शानदार थी "....अचानक वो चोंका ......अरे ये तो " वो " है वो बस स्टॉप ,वो लड़की ....सब जीवंत हो गए वो भी उसे देख रही थी शायद उसने भी उसे पहचान लिया था कुछ क्षण सब मौन रहा आज उसने हिम्मत की .........पास जाकर नमस्ते की ! उसने भी नमस्ते का जवाब दिया ! " बड़ा प्यारा बच्चा है ""हाँ मेरा पोता है " .....वो पूछना चाहता था ......" तुम फिर बस स्टॉप पर क्यों नहीं आई मैंने कितना इंतज़ार किया ." आज मैं अपने दिल की सारी बाते करना चाहता था तभी मेरी ट्रेन आ गयी ........बहुत मन हुआ उसका फोन नंबर ले लूँ ! पर अब क्या होगा इस से !क्यों " मैं अतीत को वर्तमान पर लाद रहा हूँ " ?जो मधुर " स्मृतियाँ " हैं ...उन्हें ही " शेष " रहने दूँ !बस उसे पुनः नमस्ते किया और चुपचाप ट्रेन में बैठ गया " पुरानी मधुर स्मृतियों की यादों के साथ" मेरी वही पूंजी थी ' स्मृति शेष '!

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