रंगभूमि
प्रेमचंद
अध्याय 47
संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँ, वृक्ष अभी तक ज्यों-के-त्यों खड़े थे। वह छोटा-सा नीम का वृक्ष अब सूरदास की झोंपड़ी का निशान बतलाता था, फूस लोग बटोर ले गए थे। भूमि समतल की जा रही थी और कहीं-कहीं नए मकानों की दाग-बेल पड़ चुकी थी। केवल बस्ती के अंतिम भाग में एक छोटा-सा खपरैल का मकान अब तक आबाद था, जैसे किसी परिवार के सब प्राणी मर गए हों, केवल एक जीर्ण-शीर्ण, रोग-पीड़ित, बूढ़ा नामलेवा रह गया हो। यही कुल्सूम का घर है, जिसे अपने वचनानुसार, सूरदास की खातिर से मि. जॉन सेवक ने गिराने नहीं दिया है। द्वार पर नसीमा और साबिर खेल रहे हैं और ताहिर अली एक टूटी हुई खाट पर सिर झुकाए बैठे हुए हैं। ऐसा मालूम होता है कि महीनों से उनके बाल नहीं बने। शरीर दुर्बल है, चेहरा मुरझाया हुआ, ऑंखें बाहर को निकल आई हैं। सिर के बाल भी खिचड़ी हो गए हैं। कारावास के कष्टों और घर की चिंताओं ने कमर तोड़ दी है। काल-गति ने उन पर बरसों का काम महीनों में कर डाला है। उनके अपने कपड़े, जो जेल से छूटते समय वापस मिले हैं, उतारे के मालूम होते हैं। प्रात:काल वह नैनी जेल से आए हैं और अपने घर की दुर्दशा ने उन्हें इतना क्षुब्धा कर रखा है कि बाल बनवाने तक की इच्छा नहीं होती। उनके ऑंसू नहीं थमते, बहुत मन को समझाने पर भी न हीं थमते। इस समय भी उनकी ऑंखों में ऑंसू भरे हुए हैं। उन्हें रह-रहकर माहिर अली पर क्रोधा आता है और वह एक लम्बी साँस खींचकर रह जाते हैं। वे कष्ट याद आ रहे हैं, जो उन्होंने खानदान के लिए सहर्ष झेले थे-वे सारी तकलीफें, सारी कुरबानियाँ,सारी तपस्याएँ बेकार हो गईं। क्या इसी दिन के लिए मैंने इतनी मुसीबतें झेली थीं? इसी दिन के लिए अपने खून से खानदान के पेड़ को सींचा था? यही कड़घवे फल खाने के लिए? आखिर मैं जेल ही क्यों गया था? मेरी आमदनी मेरे बाल-बच्चों की परवरिश के लिए काफी थी। मैंने जान दी खानदान के लिए। अब्बा ने मेरे सिर जो बोझ रख दिया था, वही मेरी तबाही का सबब हुआ। गजब खुदा का। मुझ पर यह सितम! मुझ पर यह कहर! मैंने कभी नए जूते नहीं पहने, बरसों कपड़े में थिगलियाँ लगा-लगाकर दिन काटे, बच्चे मिठाइयों को तरस-तरसकर रह जाते थे, बीबी को सिर के लिए तेल भी मयस्सर न होता था, चूड़ियाँ पहनना नसीब न था, हमने फाके किए, जेवर और कपड़ों की कौन कहे, ईद के दिन भी बच्चों को नए कपड़े न मिलते थे, कभी इतना हौसला न हुआ कि बीबी के लिए एक लोहे का छल्ला बनवाता! उलटे उसके सारे गहने बेच-बेचकर खिला दिए। इस सारी तपस्या का यह नतीजा! और वह भी मेरी गैरहाजिरी में। मेरे बच्चे इस तरह घर से निकाल दिए गए, गोया किसी गैर के बच्चे हैं, मेरी बीबी को रो-रोकर दिन काटने पड़े, कोई ऑंसू पोंछनेवाला भी नहीं हुआ, और मैंने इसी लौंडे के लिए गबन किया था? इसी के लिए अमानत की रकम उड़ाई थी! क्या मैं मर गया था? अगर वे लोग मेरे बाल-बच्चों को अच्छी तरह इज्जत-आबरू के साथ रखते, तो क्या मैं ऐसा गया-गुजरा था कि उनके एहसान का बोझ उतारने की कोशिश न करता! न दूधा-घी खिलाते, न तंजेब-अध्दी पहनाते, रूखी रोटियाँ ही देते, गजी-गाढ़ा ही पहनाते; पर घर में तो रखते! वे रुपयों के पान खा जाते होंगे, और यहाँ मेरी बीबी को सिलाई करके अपना गुजर-बसर करना पड़ा। उन सबों से तो जॉन सेवक ही अच्छे, जिन्होंने रहने का मकान तो न गिरवाया, मदद करने के लिए आए तो।
कुल्सूम ने ये विपत्तिा के दिन सिलाई करके काटे थे। देहात की स्त्रिायाँ उसके यहाँ अपने कुरतियाँ, बच्चों के लिए टोप और कुरते सिलातीं। कोई पैसे दे जातीं, कोई अनाज। उसे भोजन-वस्त्रा का कष्ट न था। ताहिर अली अपनी समृध्दि के दिनों में भी इससे ज्यादा सुख न दे सके थे। अंतर केवल यह था कि तब सिर पर अपना पति था, अब सिर पर कोई न था। इस आश्रयहीनता ने विपत्तिा को और भी असह्य बना दिया था। अंधाकार में निर्जनता और भी भयप्रद हो जाती है।
ताहिर अली सिर झुकाए शोक-मग्न बैठे थे कि कुल्सूम ने द्वार पर आकर कहा-शाम हो गई और अभी तक कुछ नहीं खाया। चलो, खाना ठंडा हुआ जाता है।
ताहिर अली ने सामने के ख्रडहरों की ओर ताकते हुए कहा-माहिर थाने ही में रहते हैं या कहीं और मकान लिया है?
कुल्सूम-मुझे क्या खबर, यहाँ तब से झूठों भी तो नहीं आए। जब ये मकान खाली करवाए जा रहे थे, तब एक दिन सिपाहियों को लेकर आए थे। नसीमा और साबिर चचा-चचा कह के दौड़े, पर दोनों को दुतकार दिया।
ताहिर-हाँ, क्यों न दुताकरते, उनके कौन होते थे!
कुल्सूम-चलो, दो लुकमे खा लो।
ताहिर-माहिर मियाँ से मिले बगैर मुझे दाना-पानी हराम है।
कुल्सूम-मिल लेना, कहीं भागे जाते हैं।
ताहिर-जब तक जी-भर उनसे बात न कर लूँगा, दिल को तस्कीन न होगी।
कुल्सूम-खुदा उन्हें खुश रखे, हमारी भी तो किसी तरह कट ही गई। खुदा ने किसी-न-किसी हीले से रोजी पहुँचा तो दी। तुम सलामत रहोगे,तो हमारी फिर आराम से गुजरेगी, और पहले से ज्यादा अच्छी तरह। दो को खिलाकर खायँगे। उन लोगों ने जो कुछ किया, उसका सबाब और अजाब उनको खुदा से मिलेगा।
ताहिर-खुदा ही इंसाफ करता, तो हमारी यह हालत क्यों होती? उसने इंसाफ करना छोड़ दिया।
इतने में एक बुढ़िया सिर पर टोकरी रखे आकर खड़ी हो गई और बोली-बहू, लड़कों के लिए भुट्टे लाई हूँ, क्या तुम्हारे मियाँ आ गए?
कुल्सूम बुढ़िया के साथ कोठरी में चली गई। उसके कुछ कपड़े सिए थे। दोनों में इधार-उधार की बातें होने लगीं।
ऍंधोरी रात नदी की लहरों की भाँति पूर्व दिशा से दौड़ी चली आती थी। वे ख्रडहर ऐसे भयानक मालूम होने लगे, मानो कोई कबरिस्तान है। नसीमा और साबिर, दोनों आकर ताहिर अली की गोद में बैठ गए।
नसीमा ने पूछा-अब्बा, अब तो हमें छोड़कर न जाओगे?
साबिर-अब जाएँगे, तो मैं इन्हें पकड़ लूँगा। देखें, कैसे चले जाते हैं।
ताहिर-मैं तो तुम्हारे लिए मिठाइयाँ भी नहीं लाया।
नसीमा-तुम तो हमारे अब्बाजान हो। तुम नहीं थे, तो चचा ने हमें अपने पास से भगा दिया था।
साबिर-पंडाजी ने हमें पैसे दिए थे, याद है न नसीमा?
नसीमा-और सूरदास की झोंपड़ी में हम-तुम जाकर बैठे, तो उसने हमें गुड़ खाने को दिया था। मुझे गोद में उठाकर प्यार करता था।
साबिर-उस बेचारे को एक साहब ने गोली मार दी अब्बा! मर गया।
नसीमा-यहाँ पलटन आई थी अब्बा, हम लोग मारे डर के घर से न निकलते थे, क्यों साबिर?
साबिर-निकलते, तो पलटनवाले पकड़ न ले जाते!
बच्चे तो बाप की गोद में बैठकर चहक रहे थे; किंतु पिता का धयान उनकी ओर न था। वह माहिर अली से मिलने के लिए विकल हो रहे थे, अब अवसर पाया, तो बच्चों से मिठाई लाने का बहाना करके चल खड़े हुए! थाने पर पहुँचकर पूछा, तो मालूम हुआ कि दारोगाजी अपने मित्राों के साथ बँगले में विराजमान हैं। ताहिर अली बँगले की तरफ चले! वह फूस का अठकोना झोंपड़ा था, लताओं और बेलों से सजा हुआ। माहिर अली ने बरसात में सोने और मित्राों के साथ विहार करने के लिए इसे बनवाया था। चारों तरफ से हवा जाती थी। ताहिर अली ने समीप जाकर देखा, तो कई भद्र पुरुष मसनद लगाए बैठे हुए थे। बीच में पीकदान रखा हुआ था। खमीरा तम्बाकू धाुऑंधार उड़ रहा था। एक तश्तरी में पान-इलायची रखे हुए थे। दो चौकीदार खड़े पंखा झल रहे थे। इस वक्त ताश की बाजी हो रही थी। बीच-बीच में चुहल भी हो जाती थी। ताहिर अली की छाती पर साँप लोटने लगा। यहाँ ये जलसे हो रहे हैं, यह ऐश का बाजार गर्म है, और एक मैं हूँ कि कहीं बैठने का ठिकाना नहीं, रोटियों के लाले पड़े हैं। यहाँ जितना पान-तम्बाकू में उड़ जाता होगा, उतने में मेरे बाल-बच्चों की परवरिश हो जाती। मारे क्रोधा के ओठ चबाने लगे। खून खौलने लगा। बेधाड़क मित्रा-समाज में घुस गए और क्रोधा तथा ग्लानि से उन्मत्ता होकर बोले-''माहिर! मुझे पहचानते हो, कौन हूँ? गौर से देख लो। बढ़े हुए बालों और फटे हुए कपड़ों ने मेरी सूरत इतनी नहीं बदल डाली है कि पहचाना न जा सकूँ। बदहाली सूरत को नहीं बदल सकती। दोस्तो, आप लोग शायद न जानते होंगे, मैं इस बेवफा, दगाबाज, कमीने आदमी का भाई हूँ। इसके लिए मैंने क्या-क्या तकलीफें उठाईं, यह मेरा खुदा जानता है। मैंने अपने बच्चों को, अपने कुनबे को, अपनी जात को इसके लिए मिटा दिया, इसकी माँ और इसके भाइयों के लिए मैंने वह सब कुछ सहा, जो कोई इंसान कह सकता है। इसी की जरूरतें पूरी करने के लिए, इसके शौक और तालीम का खर्च पूरा करने के लिए मैंने कर्ज लिए, अपने आका की अमानत में खयानत की और जेल की सजा काटी। इन तमाम नेकियों का यह इनाम है कि इस भले आदमी ने मेरे बाल-बच्चों की बात भी न पूछी। यह उसी दिन मुरादाबाद से आया, जिस दिन मुझे सजा हुई थी। मैंने इसे ताँगे पर आते देखा, मेरी ऑंखों में ऑंसू छलक आए, मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा कि मेरा भाई अभी आकर मुझे दिलासा देगा और खानदान को सँभालेगा। पर यह एहसान-फरामोश आदमी सीधा चला गया, मेरी तरफ ताका तक नहीं, मुँह फेर लिया। उसके दो-चार दिन बाद यह अपने भाइयों के साथ यहाँ चला आया, मेरे बच्चों को वहीं वीराने में छोड़ दिया। यहाँ मजलिस सजी हुई है, ऐश हो रहा है, और वहाँ मेरे ऍंधोरे घर में चिराग-बत्ती का भी ठिकाना नहीं। खुदा अगर मुंसिफ होता, तो इसके सिर पर उसका कहर बिजली बनकर गिरता। लेकिन उसने इंसाफ करना छोड़ दिया। आप लोग इस जालिम से पूछिए कि क्या मैं इसी सूलूक और बेदरदी के लायक था, क्या इसी दिन के लिए मैंने फकीरों की-सी जिंदगी बसर की थी? इसको शरमिंदा कीजिए, इसके मुँह में कालिख लगाइए, इसके मुँह पर थूकिए। नहीं, आप लोग इसके दोस्त हैं, मुरौवत के सबब इंसाफ न कर सकेंगे। अब मुझी को इंसाफ करना पड़ेगा। खुदा गवाह है और खुद इसका दिल गवाह है कि आज तक मैंने इसे कभी तेज निगाह से भी नहीं देखा, इसे खिलाकर खुद भूखों रहा, इसे पहनाकर खुद नंगा रहा। मुझे याद नहीं आता कि मैंने कब नए जूते पहने थे, कब नए कपड़े बनवाए थे, इसके उतारों ही पर मेरी बसर होती थी। ऐसे जालिम पर अगर खुदा का अजाब नहीं गिरता, तो इसका सबब यही है कि खुदा ने इंसाफ करना छोड़ दिया।
ताहिर अली ने जलप्रवाह के वेग से अपने मनोद्गार प्रकट किए और इसके पहले कि माहिर अली कुछ जवाब दें, या सोच सकें कि क्या जवाब दूँ, या ताहिर अली को रोकने की चेष्टा करें, उन्होंने झपटकर कलमदान उठा लिया, उसकी स्याही निकाल ली और माहिर अली की गरदन जोर से पकड़कर स्याही मुँह पर पोत दी, तब तीन बार उन्हें झुक-झुककर सलाम किया और अंत में यह कहकर वहीं बैठ गए-मेरे अरमान निकल गए, मैंने आज से समझ लिया कि तुम मर गए और तुमने तो मुझे पहले ही से मरा हुआ समझ लिया है। बस, हमारे दरमियान इतना ही नाता था। आज यह भी टूट गया। मैं अपनी सारी तकलीफों का सिला और इनाम पा गया। अब तुम्हें अख्तियार है, मुझे गिरफ्तार करो, मारो-पीटो, जलील करो। मैं यहाँ मरने ही आया हूँ, जिंदगी से जी भर गया, दुनिया रहने की जगह नहीं, यहाँ इतनी दगा है,इतनी बेवफाई है, इतना हसद है, इतना कीना है कि यहाँ जिंदा रहकर कभी खुशी नहीं मयस्सर हो सकती।
माहिर अली स्तम्भित-से बैठे रहे। पर उनके एक मित्रा ने कहा-मान लीजिए, इन्होंने बेवफाई की...
ताहिर अली बोले-मान क्या लूँ साहब, भुगत रहा हूँ, रो रहा हूँ, मानने की बात नहीं है।
मित्रा ने कहा-मुझसे गलती हुई, इन्होंने जरूर बेवफाई की; लेकिन आप बुजुर्ग हैं, यह हरकत शराफत से बईद है कि किसी को सरे मजलिस बुरा-भला कहा जाए और उसके मुँह में कालिख लगा दी जाए।
दूसरे मित्रा बोले-शराफत से बईद ही नहीं है, पागलपन है, ऐसे आदमी को पागलखाने में बंद कर देना चाहिए।
ताहिर-जानता हूँ, शराफत से बईद है; लेकिन मैं शरीफ नहीं हूँ, पागल हूँ, दीवाना हूँ, शराफत ऑंसू बनकर ऑंखों से बह गई। जिसके बच्चे गलियों में, दूकानों पर भीख माँगते हों, जिसकी बीवी पड़ोसियों का आटा पीसकर अपना गुजर करे, जिसकी कोई खबर लेनेवाला न हो, जिसके रहने का घर न हो, जिसके पहनने को कपड़े न हों, वह शरीफ नहीं हो सकता, और न वही आदमी शरीफ हो सकता है, जिसकी बेरहमी के हाथों मेरी यह दुर्गत हुई। अपने जेल से लौटनेवाले भाई को देखकर मुँह फेर लेना अगर शराफत है, तो यह भी शराफत है। क्यों मियाँ माहिर,बोलते क्यों नहीं? याद है, तुम नई अचकन पहनते थे, और जब तुम उतारकर फेंक दिया करते थे, तो मैं पहन लेता था! याद है, तुम्हारे फटे जूते गठवाकर मैं पहना करता था! याद है, मेरा मुशाहरा कुल 25 रुपये माहवार था, और वह सब-का-सब मैं तुम्हें मुरादाबाद भेज दिया करता था! याद है, जरा मेरी तरफ देखो तुम्हारे तम्बाकू का खर्च मेरे बाल-बच्चों के लिए काफी हो सकता था। नहीं, तुम सब कुछ भूल गए। अच्छी बात है, भूल जाओ, न मैं तुम्हारा भाई हूँ, न तुम मेरे भाई हो। मेरी सारी तकलीफों का मुआवजा यही स्याही है, जो तुम्हारे मुँह पर लगी हुई है। लो, रुखसत, अब तुम फिर यह सूरत न देखोगे, अब हिसाब के दिन तुम्हारा दामन न पकडँर्ऌगा। तुम्हारे ऊपर मेरा कोई हक नहीं है।
यह कहकर ताहिर अली उठ खड़े हुए और उसी ऍंधोरे में जिधार से आए थे, उधार चले गए, जैसे हवा का एक झोंका आए और निकल जाए। माहिर अली ने बड़ी देर बाद सिर उठाया और फौरन साबुन से मुँह धाोकर तौलिए से साफ किया। तब आईने में मुँह देखकर बोले-आप लोग गवाह रहें, मैं इनको इस हरकत का मजा चखाऊँगा।
एक मित्रा-अजी, जाने भी दीजिए, मुझे तो दीवाने-से मालूम होते हैं।
दूसरे मित्रा-दीवाने नहीं, तो और क्या हैं, यह भी कोई समझदारों का काम है भला!
माहिर अली-हमेशा से बीवी के गुलाम रहे; जिस तरफ चाहती है, नाक पकड़कर घुमा देती है। आप लोगों से खानगी दुखड़े क्या रोऊँ, मेरे भाइयों की और माँ की मेरी भावज के हाथों जो दुर्गत हुई है, वह किसी दुश्मन की भी न हो। कभी बिला रोये दाना न नसीब होता था। मेरी अलबत्ताा यह जरा खातिर करते थे। आप समझते रहे होंगे कि इसके साथ जरा जाहिरदारी कर दो, बस, जिंदगी-भर के लिए मेरा गुलाम हो जाएगा। ऐसी औरत के साथ निबाह क्योंकर होता। यह हजरत तो जेल में थे, वहाँ उसने हम लोगों को फाके कराने शुरू किए। मैं खाली हाथ,बड़ी मुसीबत में पड़ा। वह तो कहिए, दवा-दविश करने से यह जगह मिल गई, नहीं तो खुदा ही जानता है, हम लोगों की क्या हालत होती?हम नेहार मुँह दिन-के-दिन बैठे रहते थे, वहाँ मिठाइयाँ मँगा-मँगाकर खाई जाती थीं। मैं हमेशा से इनका अदब करता रहा, यह उसी का इनाम है, जो आपने दिया है। आप लोगों ने देखा, मैंने इतनी जिल्लत गवारा की; पर सिर तक नहीं उठाया, जबान नहीं खोली ,नहीं, एक धाक्का देता, तो बीसों लुढ़कनियाँ खाते। अब भी दावा कर दूँ, तो हजरत बँधो-बँधो फिरें, लेकिन तब दुनिया यही कहेगी कि बड़े भाई को जलील किया।
एक मित्रा-जाने भी दो म्याँ, घरों में ऐसे झगड़े होते ही रहते हैं। बेहयाओं की बला दर, मरदों के लिए शर्म नहीं है। लाओ, ताश उठाओ,अब तक तो एक बाजी हो गई होती।
माहिर अली-कसम कलामेशरीफ की, अम्माँजान ने अपने पास के दो हजार रुपये इन लोगों को खिला दिए, नहीं तो 25 रुपये में यह बेचारे क्या खाकर सारे कुनबे का खर्च सँभालते।
एक कांस्टेबिल-हुजूर, घर-गिरस्ती में ऐसा हुआ ही करता है। जाने दीजिए जो हुआ, सो हुआ, वह बड़े हैं, आप छोटे हैं, दुनिया उन्हीं को थूकेगी, आपकी बड़ाई होगी।
एक मित्रा-कैसा शेर-सा लपका हुआ आया, और कलमदान से स्याही निकालकर मल ही तो दी। मानता हूँ।
माहिर अली-हजरत, इस वक्त दिल न जलाइए, कसम खुदा की, बड़ा मलाल है।
ताहिर अली यहाँ से चले, तो उनकी गति में वह व्यग्रता न थी। दिल में पछता रहे थे कि नाहक अपनी शराफत में बट्टा लगाया। घर आए, तो कुल्सूम ने पूछा-कहाँ गायब हो गए थे? राह देखते-देखते ऑंखें थक गईं। बच्चे रोकर सो गए कि अब्बा फिर चले गए।
ताहिर अली-जरा माहिर अली से मिलने गया था।
कुल्सूम-इसकी ऐसी क्या जल्दी थी! कल मिल लेते। तुम्हें यों फटेहाल देखकर शरमाए तो न होंगे?
ताहिर अली-मैंने उसे वह लताड़ सुनाई कि उम्र-भर न भूलेगा। जबान तक न खुली। उसी गुस्से में मैंने उसके मुँह में कालिख भी लगा दी।
कुल्सूम का मुख मलिन हो गया। बोली-तुमने बड़ी नादानी का काम किया। कोई इतना जामे से बाहर हो जाता है! यह कालिख तुमने उनके मुँह में नहीं लगाई, अपने मुँह पर लगाई है, तुम्हारे जिंदगी-भर के किए-धारे पर स्याही फिर गई। तुमने अपनी सारी नेकियों को मटियामेट कर दिया। आखिर यह तुम्हें सूझी क्या? तुम तो इतने गुस्सेवर कभी न थे। इतना सब्र न हो सका कि अपने भाई ही थे, उनकी परवरिश की,तो कौन-सी हातिम की कब्र पर लात मारी। छी-छी! इंसान किसी गैर के साथ भी नेकी करता है, तो दरिया में डाल देता है, यह नहीं कि कर्ज वसूल करता फिरे। तुमने जो कुछ किया, खुदा की राह में किया, अपना फर्ज समझकर किया। कर्ज नहीं दिया था कि सूद के साथ वापस ले लो! कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहे, न रखा। अभी दुनिया उनको हँसती थी, देहातिनियाँ भी उनको कोसने दे जाती थीं। अब लोग तुम्हें हँसेंगे। दुनिया हँसे या न हँसे, इसकी परवा नहीं। अब तक खुदा और रसूल की नजरों में यह खतावार थे, अब तुम खतावार हो।
ताहिर अली ने लज्जित होकर कहा-हिमाकत हो तो गई, मगर मैं तो बिल्कुल पागल हो गया था।
कुल्सूम-भरी महफिल में उन्होंने सिर तक न उठाया, फिर भी तुम्हें गैरत न आई? मैं तो कहूँगी, तुमसे कहीं शरीफ वही हैं, नहीं तुम्हारी आबरू उतार लेना उनके लिए क्या मुश्किल था!
ताहिर अली-अब यही खौफ है कि कहीं मुझ पर दावा न कर दे।
कुल्सूम-उनमें तुमसे ज्यादा इंसानियत है।
कुल्सूम ने इतना लज्जित किया कि ताहिर अली रो पड़े और देर तक रोते रहे। फिर बहुत मनाने पर खाने उठे और खा-पीकर सोए।
तीन दिन तक तो वे इसी कोठरी में पड़े रहे। कुछ बुध्दि काम न करती थी कि कहाँ जाएँ, क्या करें, क्योंकर जीवन का निर्वाह हो। चौथे दिन धार से नौकरी तलाश करने निकले, मगर कहीं कोई सूरत न निकली। सहसा उन्हें सूझी कि क्यों न जिल्दबंदी का काम करूँ; जेलखाने मेें वह यह काम सीख गए थे। इरादा पक्का हो गया। कुल्सूम ने भी पसंद किया। बला से थोड़ा मिलेगा, किसी के गुलाम तो न रहोगे। सनद की जरूरत नौकरी के लिए ही है, जेल भुगतनेवालों की कहीं गुजर नहीं। व्यवसाय करनेवालों के लिए किसी सनद की जरूरत नहीं,उनका काम ही उनकी सनद है। चौथे दिन ताहिर अली ने यह मकान छोड़ दिया और शहर के दूसरे मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान लेकर जिल्दबंदी का काम करने लगे।
उनकी बनाई हुई जिल्दें बहुत सुंदर और सुदृढ़ होती हैं। काम की कमी नहीं है, सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। उन्होंने अब दो-तीन जिल्दबंद नौकर रख लिए हैं, और शाम तक दो-तीन रुपये की मजदूरी कर लेते हैं। इतने समृध्द वह कभी न थे।