झबरी चुड़ैल और रमकलिया
गांव के दक्खिन टोला में आज सुबह से ही हलचल थी। माधो कुर्मी के घर बड़ी भीड़ थी। बाउर की कोई खबर मिली थी शायद। बाउर, माधो का बेटा है जो लगभग एक साल पहले से बहराइच में बाबा की दरगाह से गायब हो गया था। तब से उसकी कोई खबर नही थी। आज जब लोगों को पता चला कि किसी गांव वाले ने उसे गनेशपुर में किसी ढाबे पर बर्तन मांजते देखा था तो लोग हाल लेने माधो के घर की ओर चल पड़े। बाउर की माई फुलमतिया का रो-रो के बुरा हाल था। पूछ-तांछ और बातचीत के बाद तय हुआ कि पांचू महतो जो आठ दर्जा पास थे उन्हें सच्चाई पता लगाने के लिए भेजा जाय। लोगों ने चंदा कर रास्ते की भाड़े की व्यवस्था की, आखिर बाउर गाँव का ही लड़का था।
उत्तर प्रदेश के अति पिछड़े जिलों में से एक बलरामपुर जनपद में राप्ती नदी के किनारे स्थित एक गांव लखनापुर में माधो अपनी पत्नी फुलमतिया, पुत्र बाउर और बहू रामकली के साथ रहता था । माधो के दो लड़के थे। बड़ा लड़का बड़कऊ अपने परिवार सहित परदेस कमाने गया था। बड़कऊ कभी-कभार ही गांव आता था, हाँ कुछ पैसे जरूर भेजता रहता था परिवार की मदद के लिए। माधो के पास कोई कामधाम नही था वो अक्सर बीमार ही रहता था। उसे खैनी खाने और बीड़ी पीने लत थी दिन भर ‘खों-खों’ खांसता रहता था और सालभर अपनी दो बीघे की खेती करता रहता था। फुलमतिया घर चलाने के लिए गांव के ही स्कूल में खाना बनाती थी और कुछ छोटे-मोटे काम भी करती थी। बाउर का असली नाम ननके था पर सब उसे बाउर ही कहते थे। बाउर का दिमाग बचपन से ही कुछ खिसक गया था। वह लगभग 25 साल का पट्ठा जवान था। उसके माँ-बाप ने उसके इलाज के लिए कोशिश की। पहले गाँव के झोलाछाप डॉक्टर से, पर लाभ न हुआ। एक दिन पड़ोसी राधे ने सलाह दी, ’भैया ई कौनो परेत के साया है लरिका के ऊपर, देखत नाही कइसन दौरा घूमत है । मजाल है कि दुइ मनई रोक पावे। हम तौ कहित है कौनो ओझा-सोखा का देखाव वही से ठिकाई।‘ गांव में भूत-प्रेत पर बड़ा विश्वास था। अक्सर महिलाओं पर माई आती रहती थी। जब कभी ऐसा होता तो वो महिला अपने बाल फैलाकर बुरी तरह हाथ-पैर पटकती, सर को जोर-जोर झटकती या घुमाती और जाने क्या-क्या बकती-चिल्लाती। गाँव वाले इसे ‘अभुवाना’ कहते थे। अभुवाना भी एक कला है जो सबके बस की बात नहीं । जिन औरतों ने हाल ही में अभुवाना शुरू किया था उनकी मुख मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं और हाथ-पैरों के संचालन में सामंजस्य का अभाव साफ दिखता था पर जिन औरतों पर माई की कृपा कई बार हो चुकी थी उनका अभुवाना ऐसा जबरदस्त प्रभाव उत्पन्न करता था की लोग उसे घेर कर श्रद्धा से सर झुका लेते। कुछ दूसरे रुपया-पैसा भी चढ़ा जाते । माधो और फुलमतिया को भी यही शंका थी पर ज्यादातर भूत-प्रेत का साया महिलाओं पर ही होता था इसलिए थोड़े संकोच में थे । पर एक दिन फुलमतिया के साथ स्कूल में काम करने वाली राधा ने कहा, ‘होइ सकत है झबरी चुड़ैल पकरे होय। ओझा से मिलि लेव एक बार।‘ फुलमतिया को भी बात ठीक लगी। गाँव भर में पश्चिम के पीपल की चुड़ैल की चर्चा थी ... डर इतना कि शाम होते ही कोई उस ओर जाता भी नहीं था। कहते थे कि उसपर झबरी का भूत रहता है। झबरी नीच टोला की लड़की थी जो किसी ऊंचे घर के लड़के से प्रेम करती थी। दोनो में संबंध की बात जब पता चली तो सम्पन्न लोगों ने मिथ्याभिमान में झबरी को मारकर शव इसी पीपल पर लटका दिया था । उसका क्रिया-कर्म भी न होने पाया इससे वह भुता गयी थी । पूरे गांव में उसकी दहशत थी। अब दोनों किसी ओझा की तलाश में जुट गए। पता चला कि दूर के किसी गांव में कोई नामी ओझा रहता था जो बिना रुपिया-पैसा लिए इलाज करता था। ये भक्त की इच्छा पर था कि वो जो चाहे फल-फूल चढ़ा दे । माधो को और क्या चाहिए था। वह फुलमतिया और बाउर के साथ पहुंच गया ओझा के पास । ओझा ने सारी बात सुनकर अपना जाल-बवाल फैलाया । कभी नीबू काटा, कभी झाडू से पीटा, कभी फ़र्ज़ी मंत्रोच्चार किया। फिर बाउर को ओझा के मुस्टंडों ने पकड़ कर मिर्ची का धुंवा सुंघाया जब वो बुरी तरह खांसने लगा और उसकी आंख-नाक सबसे पानी गिरने लगा, रो-रोकर आंख लाल हो गयी तो फिर उसे ओझा ने झाड़ू से इतना पीटा कि वह सुस्त पड़ गया। अब ओझा ने बताया, ‘गाँव के पच्छिम मा जौन पीपर है वही के चुड़ैल पकरे है। बड़ी मुश्किल से भगाये हैं आज, लेकिन अभी इलाज चली। ई भभूती खवाएव लरिका के दूनो जून औ अगले महीना फिर लइ आएव।‘ उनलोगों ने अपनी श्रद्धा से बताशा, लोबान, अगरबत्ती और राशन के साथ कुछ पैसा भी चढ़ाया। इसीतरह तीन-चार महीना इलाज के बाद भी कोई फायदा नही हुआ और कभी सीधा(राशन) कभी हवन आदि के नाम पर अच्छा पैसा भी खर्च हुआ वो अलग । इधर बाउर और भी उग्र होता जा रहा था। फुलमतिया परेशान थी। एक दिन उसका दुखड़ा सुनकर स्कूल के अध्यापक ने सलाह दी, ‘ये ओझा तुम लोगों को मूर्ख बना रहा है। भूत-प्रेत कुछ नहीं होता। लड़का बीमार है, उसका इलाज कराओ किसी अच्छे हॉस्पिटल में। ऐसा करो इसे गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में दिखा लो । सही इलाज होगा तो ठीक हो जाएगा।‘ फुलमतिया को यकीन तो नहीं था पर जब उसने ये सुना कि वहां इलाज मुफ्त होगा तो उसने सोचा कि दिखाने में कोई हर्ज नहीं। वह उसे वहां ले गयी पर इससे पहले कि बाउर ठीक होता एक दिन वह वहां से भाग गया। हारकर वह भी लौट आयी। अब बाउर दिन भर गांव में यहाँ-वहाँ घूमता रहता। वह अक्सर अपने अंदाज में रामायण सीरियल का कोई एक ही संवाद बार-बार सुनाता जिसे बचपन मे कभी गाँव मे ही देखा था। गाँव के बच्चे अक्सर उसे परेशान करते जिन्हें वह मारने के लिए दौड़ाता, कभी जानवरों की आवाज निकलता, कभी उनकी चाल की नकल करता, उसे घोड़े की चाल पसंद थी उसके टॉप की आवाज वह मुंह से टक-टक करके निकलता और वैसे ही कूद-कूदकर चलने की नकल करता, फिर घोड़े की तरह जोर से हिनहिनाता और भाग जाता। वह किसी से भी लड़ जाता। सब परेशान थे उससे पर सबसे अधिक दुखी थी उसकी पत्नी।
रामकली का विवाह बाउर के साथ बचपन मे ही हो गया था। वह कहने को तो विवाहित थी पर विवाहित जीवन का कोई सुख उसे कभी मिला ही नहीं उसके हिस्से में थी आर्थिक तंगी, भूख और पागल पति जो अक्सर उसे पीटता या नोचता-खसोटाता था। रामकली तीखे नयन-नक्श वाली औरत थी। उसका रूप-रंग ऐसा था कि अति साधारण कपड़ो में भी वह गाँव के ऊंचे घरों की सजी-संवरी औरतों को पीछे छोड़ देती थी । उसके सुंदर रूप और दुर्भाग्य की चर्चा गांव भर में थी । गाँव के निठल्ले भौजी-भौजी करते उसके आस-पास मंडराते रहते थे। पर, अब इस कठिनाई की काली छाया उसके तन-मन पर स्पष्ट दिखने लगी थी । उसका रूप बुझ सा गया था मुख मलिन हो गया था । वह गुमसुम सी अपने घर मे पड़ी रहती और किसी से कोई बात नही करती थी । फुलमतिया को उस गाय जैसी बहू की बड़ी चिंता थी जिसने उसके बाउर को बाउर होने के बावजूद भी छोड़ा नहीं था वरना इन जातियों में गांवो में ऐसी घटनाएं सामान्य बात थी। वह कहती, ‘रमकलिया बहुत संतोखी औ सेवाभाव वाली है। बड़ी सवेरे नहाई के संकर जी का जल चढ़ावत है भगवान जरूर ओहिके सुनिहै एक दिन’।
इस बीच फुलमतिया को कहीं से खबर मिली कि बहराइच में किसी मजार पर कोई बाबा है जो बड़ा से बड़ा भूत से भी छुटकारा दिला देते है। उनके यहाँ इससे पीड़ित लीगों की बड़ी भीड़ लगती है। यह सुनकर उसे भी उम्मीद जगी। उसने बाउर को वहां दिखाने का निश्चय किया। सारी जानकारी करने के बाद उसने स्कूल से छुट्टी ले ली और अपनी जगह अपनी बहू रामकली को ‘औजी’ पर लगा दिया। वह महीने भर का राशन-पानी बांध कर बाउर के साथ बाबा के मजार पर चली गयी। रामकली स्कूल में बच्चों के बीच कुछ बोलने-बतियाने लगी तो उसका मन लगने लगा। वह बड़े मन से बच्चों को खाना बनाकर खिलाती, बच्चे भी खुश थे।
लगभग महीने भर बाद फुलमतिया वापस आई. लोगों ने उससे हाल पूछा तो उसने कहा, ’बाबा बताईन है कि बहुत शातिर चुड़ैल पकरे है । महीना भर मजार पर दिया और अगरबत्ती जलावैक पड़ी औ ई काम जौ बाउर के मेहरारू करी तो जल्दी औ शर्तिया फायदा होई।‘ इस शर्तिया फायदा के लिए अब रामकली अपने ससुर के साथ वहां भेज दी गयी । बड़कऊ को जब पता चला तो उसने विरोध किया और कहा कि उसकी मेहनत का पैसा कोई बाबा खा जाय ये उसे मंजूर नही और पैसा भेजना बंद कर दिया। धीरे-धीरे के कई महीने गुजर गए। बीच-बीच मे रामकली गांव आती रहती थी। अब वह पहले से ठीक दिखती थी। माधो भी राशन, पैसा आदि लेने गांव आता रहता था। पूछने पर बताया कि वहीं एक कमरा मिला है जहां वो लोग रहते और बनाते-खाते है। रामकली सुबह-शाम मजार पर दिया-बत्ती करती है और शाम को बाबा दुआ पढ़ कर झाड़-फूंक करता है फिर वह बाबा की कोठरी साफ करती है। बहुत लगन से सेवा कर रही थी रामकली। पर एक बार जब माधो गांव आया तो उसने बताया कि बाउर कहीं गायब हो गया है उसने उसे बहुत ढूंढा पर वह नही मिला। फिर उसने कहा, ‘ बाबा कहे है कि ओहका चुड़ैल पकरि लै गयी है... लेकिन परेशानी कै बात नाइ है... ऊ बउरा का रमकलिया के बार मा बाँधि कै घसीट लइहै।‘ फिर क्या था बाउर के गायब होने की खबर पूरे गांव में फैल गयी। फुलमतिया ने रोना-धोना मचा दिया। लोगों ने समझाया कि वह रामकली को वापस बुला ले, जब बाउर ही नही है तो इलाज होगा किसका। लोगों के दबाव में रामकली वापस बुला ली गयी। पर ये क्या? गांव आते ही रामकली पर माई आ गयी । वह रहते-रहते बेहोश हो जाती। होश में आती तो बाबा के पास जाने की रट लगा देती। कहती,’ तू लोग हम्मे काहे वापस बुलाये... बाबा कहे रहे कि हमरे बार मा बाँधि के बुला लइहै उनका.. बाबा के पूजा छूट जाइ... हमका वहीं भेज देव।‘ फुलमतिया ने रहस्योद्घाटन किया, ‘बाबा बउरा के केस कै ट्रांसफर रमकलिया पा कइ दिहिन है इहेलिये अइसन करत है ई।‘ खबर पाकर रामकली का बाप उसे लिवाने आ गया। उसने कहा कि वह उसे कहीं और ‘बैठा’ देगा अभी उम्र ही कितनी है। पहाड़ जैसी जिंदगी कैसे कटेगी? पर उसने साफ मना कर दिया। थकहार कर एक बार फिर माधो उसे लेकर बाबा के पास चला गया। इस बीच रामकली के व्यवहार में एक अंतर स्पष्ट दिखाई देता था कि जब वह बाबा के पास होती तो ठीक रहती पर गांव आते ही पगला जाती। समय बीतता रहा पर बाउर का कोई पता नही चल रहा था। माधो बीमार पड़ गया था सो वह भी गांव लौट आया। अब रमकलिया ही वहाँ दिया-बत्ती कर रही थी। गाँव वाले तरह-तरह की बातें कर रहे थे। कोई कहता कि बाबा रमकलिया को अफीम खिलता है, कोई कहता कि जादू से अपने वश में किये है, कोई कहता कि बाउर को बाबा ने ही गायब किया होगा, कोई कहता कहीं मर-मरा गया होगा कहीं, जितनी मुंह उतनी बातें। लोगों में अबतक पक्का यकीन था कि बाबा ने अपनी नाजायज इच्छा की पूर्ति के लिए रमकलिया को फंसा रखा है। स्कूल के मास्टर साहब ने भी फुलमतिया को समझाया, ’ऐसे ढोंगी बाबाओं के अड्डों पर सैकड़ों कुकर्म होते है.... लड़का तो गायब है ही... अब माधो से कहो कि रामकली को लेकर लौट आये वरना वो भी हाथ से चली जायेगी।‘ पर फुलमतिया ने बताया, ’बाबा बताये है कि बाउरा पर दुइ केस रहा ... अभी एक हल हुआ है एक बाकी है।‘ मास्टर साहब ने भी माथा पीट लिया।
आज फिर दक्खिन टोला में फिर बड़ी भीड़ थी। पांचू महतो वापस आये थे। उन्होंने बताया कि वहां बाउर का कोई पता नही चला पर उसके जैसा कोई था वहां जरूर। फुलमतिया खुशी से बोल पड़ी, ’हमार लड़िका जिन्दा है। कबौ तो आई। सब बाबा के किरपा औ रमकलिया के सेवा कै परताप है। बहुत सेवाभाव है रमकलिया मा। बिल्कुल देबी है। जैसे साबित्री आपन मरद जियाए रहीं वैसे ही रमकलिया भी बउरा का लइ कै आई।‘
आज साल भर बाद भी बाउर का कोई पता नहीं है। रामकली वहीं मजार पर सेवा कर रही है। अब वह गांव नहीं आती। उसका राशन भी नहीं जाता है। कभी-कभी बाउर के यहाँ-वहाँ दिखने की खबर आती रहती है। माधो को लगता है कि अब बाउर नहीं लौटेगा पर फुलमतिया का विश्वास अडिग है। गाँव के निठल्लों को बाउर का नहीं पर भौजी का इंतजार आज भी है।
समाप्त
राजन द्विवेदी
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