प्रतीति (व्यंग्य)
प्रदीप कुमार साह
मदारी अपने चारो तरफ घेरा बनाए खड़ी तमाशाई भीड़ को देखा तो अपना डमरू जोर-जोर से बजाने लगा. कुछ समय तक डमरू बजानेके पश्चात मदारी को जब महसूस हुआ कि सभी तमाशाई का ध्यान उसकी तरफ पूर्णतः आकृष्ट हो गया तब जमूरा को संबोधित किया और उससे पूछा, "जमूरा, गौर से देखकर बताओ कि भीड़ में वास्तव में कैसे-कैसे लोगबाग पधारे हैं?"
मदारी के प्रश्नोत्तर के परिप्रेक्ष्य में जमूरा भी दो पंजे पर खड़ा हुआ और अगला दोनों पंजा को अपने चेहरा से टिका दिया. फिर पंजे के उंगलियों को मोड़कर कुछ पोला-वृताकार अजीब आकृति बनाया और साथ में अपनी आँखें भी अत्यधिक फैला दिया. फिर उस आकृति को अपनी आँखों के सामने तक ले आया और अपना सिर अर्ध-वृताकार परिधि में अपने दाँया-बाँया घुमाया.
तब जमूरा के उस अजीबो-गरीब करतब के संबंध में मदारी ने भाष्य किया,"अच्छा, सभी दर्शक हैं." भाष्य-पश्चात पुनः मदारी अपना डमरू बजाने लगा और कुछ समय तक डमरू बजाने के पश्चात पुनः जमुरा से प्रश्न किया," किंतु वह सब देखना क्या चाहते हैं?" तब जमूरा एक-दो बार अपनी जगह पर कूद-कूदकर संकेत किया कि वह सब खेल देखने के इच्छुक लोगबाग हैं.
ततपश्चात मदारी बोला,"साहब लोग, जमूरा अभी-अभी बताया कि आप सभी दर्शक-दीर्घा हैं और जमूरा के करतब देखने के इच्छुक हैं. यदि वह तथ्य पूर्णत: या अंशतः भी सत्य है तो कृपया जमूरा का करतल ध्वनि से प्रोत्साहन कीजिए." मदारी के आग्रह पर सभी जमकर करतल ध्वनि उत्पन्न किये. जमूरा का उत्साहवर्धन करने पर मदारी ने सबका कोटिशः धन्यवाद व्यक्त किया.
ततपश्चात मदारी पुनः जमूरा से पूछा,"जमूरा, सभी दर्शक तुम्हारे उत्साह वर्धन हेतु प्रयत्न किये, अब तो अपना करतब उन्हें दिखाओगे न?" जमूरा अपना सिर हिलाकर अपनी सहमति का संकेत किया. तब मदारी अधिकाधिक तेज आवाज में अपना डमरू बजाते हुये बोला,"साहब लोग, जमूरा सहर्ष अपना करतब दिखाने तैयार है. तब जोरदार करतल-ध्वनि पुनः क्यों न हो?"
मदारी के आग्रह पर पुनः जोरदार सामूहिक करतल ध्वनि हुई. तब मदारी बोला,"मेहरवान-कद्रदान, जमूरा दर्शक को अपना करतब दिखाता है क्योंकि उसे भी मालूम है कि लोगबाग को वैसा कुछ प्रतीति कराया जाये जो रोजमर्रा से विचलित उनके मन को शांत करा सके. सबके मन को सुख और प्रसन्नता की अनुभूति हो. ततपश्चात उसे भी पारिश्रमिक-लाभ की प्राप्ति हो."
थोड़ा ठहरकर मदारी पुनः बोला,"दर्शक और पाठक भी सदैव उदार, साहसी और संयमी होते हैं तथा अच्छा-बुरा के परीक्षण में सदैव समर्थ होते हैं. पुनः वह एक भीड़ मात्र के रूप कदापि नहीं होते, क्योंकि वह मूलतः सामान्यजन उर्फ़ जनता-जनार्दन हैं. पुनः प्रत्येक सामान्यजन एक कर्तव्य निष्ठ नागरिक के साथ-साथ एक दर्शक-परीक्षक भी हैं जिनकी नजर से कुछ भी छिपता नहीं है."
उक्त कथन-पश्चात मदारी जोर-जोर से डमरू बजाने लगा. थोड़ी देर तक डमरू बजाते रहने के पश्चात पुनः बोला,"मेहरवान-कद्रदान, साहब-लोग, उक्त विचार से जो सहमत होते हैं और अपना पारिश्रमिक लाभ ईमानदारी से प्राप्त करते हैं, वह संभवत: जमूरा कहलाता है. वह पारिश्रमिक प्राप्ति हेतु छल-बल प्रयोग से गलत प्रतीति करवाने के भ्रमित पथ पर कदापि अग्रसित नहीं होते.
वह सदैव उस तथ्य को अमल में लाते हैं कि रहो सीधा-सदा, निभाओ बाप-दादा. वह किसी सुयोग्य पतित की भाँति प्राणहरण-भय की प्रतीति कराते नहीं फिरते. संभवत: भयादोहन करना उसके प्रकृतिनुरूपक पेशा नहीं हैं. अपितु पतितपावन के नर-वेश में निर्बाध विचरण करते हुये संभवतः संपूर्ण जगत को जन्म-मृत्यु-मोक्ष के भवबंधन के भवभय से स्वांगवश भी अवगत कराते नहीं!"
"मदारी, यह अनाप-शनाप बकते क्या जा रहे हो?"तभी किसी दर्शक ने मदारी को टोका. तब मदारी बोला,"साहब लोग, वह किसी मदारी का कल्पित कथन नहीं है, बल्कि वह संसारिक वास्तविकता है जो सदियों से स्वयं दृष्टिगोचर है. संसार में एकमात्र जमूरा का वह कर्तव्य है कि वह ईमानदारी से पारिश्रमिक अर्जित करे. पुनः अपने कर्तव्यपालन में वह कभी मर्यादाहीन नजर भी नहीं आता."
ततपश्चात डमरू बजाते हुये मदारी पुनः बोला,"वैसे तो वह तथ्य स्वयंसिद्ध ही है कि एकमात्र जमूरा में सच्चाई और कर्तव्यनिष्ठा इत्यादि वृहत सद्गुण के पालन-अनुपालन की योग्यता है, चाहे वह किसी भी स्वरूप में हो. वह स्वरूप एक माता-पिता का हो सकता है जो आजीवन तो अपने संतान के हित संरक्षण में तत्पर रहते हैं किंतु अपनी वृद्धावस्था उन्हें संतान से उपेक्षित रहकर गुजारने पड़ते हैं.
वह कृषि-कर्मरत अन्नदाता कृषक, मजदूर या राष्ट्रीय सुरक्षा में तत्पर सैन्य बल अथवा कुछेक शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, व्यापारी इत्यादि के स्वरूप भी में हो सकते हैं. वह संसार संचालन के मजबूत आधार तो नि:संदेह हैं, किंतु उसका भाव सदैव मामूली प्रतीत होता है. जैसे प्रेम-भाव से संपूर्ण संसार का मजबूती से समन्वय होता है किंतु उसका मान्य भाव पतला-धागा तुल्य निर्धारित है.
तथापि प्रेम के संबंध में उपरोक्त तथ्य से वाकिफ रहने के पश्चात भी रोजमर्रा के व्यक्तिगत कार्य निपटाते हुये कभी प्रेम नामक निरीह चीज-वस्तु की चिंता कभी नहीं व्यापता. वास्तव में हमारा अटल विश्वास उस निरीह वस्तु पर अधिकाधिक आश्रित है और वह कभी विश्वासघात नहीं करता. वह सिलसिला सृष्टि के आरंभकाल से अनवरत जारी है. निःसंदेह तब जमूरा उसी श्रेणी का कोई प्राणी है.
किंतु अपनी उक्त कमजोरी पर स्वयं ही किसी सज्जन अर्थात किसी भले मानुस को तनिक भी लज्जित महसूस होना कदाचित उचित प्रतीत नहीं होता. अपितु उस परिस्थिति से निवृत्ति हेतु थ्री इडियट के मुख्य किरदार के वक्तव्य से कुछ सीख लेनी चाहिये कि अपना दिल भी न स्वभाव से बड़ा डरपोक होता है, बात-बेबात डरता है. इसलिये दिल को हमेशा समझाना चाहिये कि ऑल इज वेल.
नाना पाटिकर के डॉयलॉग तो याद हैं न कि सौ में अस्सी बेईमान, फिर भी मेरा देश महान? डॉयलॉग को दुहराने से तत्समय मन के क्षोभ काफूर हो जायेंगे. होकर मजबूर मैं चला जैसे सदाबहार नगमे भी भुलाया जा नहीं सकता. उसे गुनगुनाते हुये प्रतीति कीजिए कि आप शीघ्रता से मानसिक क्षोभके संसार से बाहर आ रहें हैं. कदाचित कामयाबी आपकी डगर में अब लोटपोट रही होगी.
श्रीमानों, यदि अब भी संदेह है कि इतने उपाय के वावजूद मानसिक ताप से कदाचित निवृत्ति पा नहीं सकते और बात प्रतीति करने-करवाने से संबंधित ही चल पड़ी है तब एक कारगर उपाय बताना अभी शेष है. किंतु उपाय से पहले यह जानना अधिक उचित है कि प्रतीति क्या चीज-वस्तु है? किंतु आदिकाल से अनेक ग्रंथ उसकी महत्तादि बताते-बताते अंतत: नेति-नेति कहने-रटने लगे.
अतः उसके स्थूल रूप पर ही विचार हो!..तो, वह स्त्रीलिंग शब्द है और उसके शाब्दिक आकार लघु हैं. उच्चारण-श्रवण में वह क्रमशः अतिशय सुकोमल और मधुर प्रतीत होता है.वह प्रकृति शब्द की प्यारी सखी भी प्रतीत होता है. उससे प्रकृति के समान ही विस्तृत भाव-बोध होता है. पुनः उसका तुलनात्मक अध्ययन हो और समानार्थी में कोई अंग्रेजी शब्द न हो, वह एक बड़ी भूल नहीं है क्या?"
वक्तव्यांत में प्रश्न चिन्ह के रहस्यात्मक प्रयोग के पश्चात मदारी जोर-जोर से अपना डमरू बजाने लगा. किंतु कुछ समय पश्चात ही अगले वक्तव्य के माध्यम से धीरे-धीरे से स्वयं उस रहस्य से पर्दा उठाने लगा,"तो, फीलिंग-परसेप्शन इत्यादि अंग्रेजी शब्द प्रतीति या प्रतीति करना के समानार्थी हैं, किंतु 'प्रतीति कराना' वास्ते 'फील गुड' शब्द एकमात्र उपयुक्त समानार्थी प्रतीत होता है.
किंतु उस शब्द से जमूरा सदैव अनभिज्ञ होते हैं, क्योंकि वह शब्द जनप्रतिनिधि और कुछेक पत्रकार के शब्दकोश में उपलब्ध हैं जिसका प्रयोग करना भी वह ही बखूबी जानते हैं. प्रमाणतः वर्षो से कश्मीर में आतंकवाद की समस्या है. किंतु आजादी प्राप्ति के सात दशक तक कश्मीर समस्या के वास्तविक कारण मालूम हो नहीं पाया. किंतु अब मुफ़्ती सरकार महती रहस्योद्घाटन में सफल हुई.
खैर, जब देश को वह रहस्य पता चल ही चूका है कि कश्मीर समस्या केवल आतंकवाद प्रायोजित नहीं अपितु पाकिस्तान सह चीन प्रायोजित भी है, तब समस्या का उपचार भी निःसन्देह संभव है. जैसे महीना दिन से राज्य में शांति-व्यवस्था कायम रखने में अक्षम ममता सरकार को तभी मालूम हुआ कि उसके राज्य में भी चीन प्रायोजित अस्थिरता है. तभी वह राज्य की शांति-व्यवस्था हेतु सक्रिय हुई.
अभी मिडिया में इस विषय पर भी चर्चा जोर-शोर से चली कि भारत पर चीन प्रायोजित पानी बम का अटैक हुआ और भारत का एक सूबा उससे बुरी तरह प्रभावित हुआ. यह दीगर बात है कि तभी चीन-प्रायोजित पानी-बम अटैक की पहुँच से दूर सूबा-ए-बिहार भी अप्रायोजित बाढ से बुरी तरह प्रभावित हुआ. यह तथ्य भी दीगर है कि तब वहाँ अन्य कारणवश सूबा के सत्तापक्ष-विपक्ष परेशान थे.
उत्तर प्रदेश में खतौली के पास कलिंग उत्कल एक्सप्रेस पटरी से उतर गई. प्रारंभिक जांच में पता चला कि ट्रेन के ड्राइवर को ट्रैक की मरम्मत की जानकारी नहीं देने की लापरवाही थी. किंतु साथ-साथ यह कयास भी लगाया जाता रहा कि ट्रेन हादसा के पीछे आतंकी के हाथ हो सकते हैं. दुर्घटनास्थल से हथौड़ा, रिंच-पाना मिलने से संबंधित खबर सुनकर तो सामान्य जन-मानस अजीब-अजीब कयास लगाये.
कहने लगे कि चीन समर्थित होने से आतंकियों के तौर-तरीका भी बदलकर बेहद किफायती किंतु अधिक घातक हो गये. अब वह गोला-बारूद की जगह प्राथमिकता से भावनात्मक लगाव का झाँसा खर्च करते हैं और कुछेक भारतीय को बहकाते हैं. फिर, उससे हथौड़ा मारवा-मारवाकर रेलवे ट्रैक उखड़वाते हैं. उससे कम खर्च में अधिकाधिक भारतीय जान-माल का नुकसान होता है.
खैर, दीगर बात यह है कि देश में व्याप्त नौकरशाही भी उसी नक्शे कदम का अनुसरण करता प्रतीत होता है और ऑक्सिजन की कमी से गोरखपुर में देश के लगभग सतर नौनिहाल को असमय ही संसार से अलविदा कहना पड़ता है. पुनः डेरा प्रमुख राम रहीम की चरण पादुका की भूमिका में नौकरशाही हरियाणा में असमय ही तीस लोग की जीवन लीला लीलने में सहायक नजर आती है.
किंतु छोड़िये भी जनाब! देश में तो रोज भिन्न-भिन्न मुद्दे पर चर्चा में प्रति घँटा समस्या का समाधान रहित निष्कर्ष निकलते हैं. तब देशवासी महती तरस खाते हैं, किंतु उस तरस का केंद्र-बिंदु तो राष्ट्रीय राजकुमार तक सीमित होती है. किंतु भलमनसाहत और नेतागीरी की हैसियत में अंतर की प्रतीति तो प्रत्यक्षत: उत्तरप्रदेश के सीधे-सादे स्वास्थ्य मंत्री गोरखपुर दुर्घटना-समय में करा पाते हैं.
देश के कई हिस्सा उग्रवाद से पीड़ित हैं. यद्यपि देश के गरिमामय संविधान के माकूल वैकल्पिक संविधान जैसा कुछ भी चीज-वस्तु उग्रवादी तत्वके पास परिकल्पित नहीं, तथापि वह दंभ भरते हैं कि देशके संविधान से लोगों का शोषण होता है क्योंकि भ्रष्ट नौकरशाही और लचर राजनैतिक इच्छा-शक्ति उसे पंगु बनाये है. तब क्रियाशील उग्रवादी विचारधारा अनुचित-प्रतिबंधित क्यों?
किंतु यह तथ्य सदैव अनुत्तरित रहता है कि जब गरिमामय संविधान जो समुचित अवसर प्रदान करती है कि बहुपक्ष अपनी-अपनी बात रखें और संविधानपीठ उसे सुने, तब देश का हित नहीं सधता और वह टालमटोल की रवैयावाली नौकरशाही पर नकेल कस नहीं सकता तब एक अपिपक्व अथवा उग्रवादी व्यवस्था वह कार्य पूरा क्यों करेगा, जिसका स्वभाव ही अव्यवस्था है?
सबसे अधिक विचारणीय तथ्य तो यह है कि एक विध्वंसक विचारधारा समाज में सृजनात्मकता कहाँ से लाएगी? सृजनात्मक विचारधारा रहित समाज क्या एक सृजनात्मक-सभ्य-समाजिक व्यक्ति या समाज अथवा देश का निर्माण कर सकता है? फिर सृजनात्मकता से रहित क्या किसी भी सभ्यता के सम्पोषक किसी समाज, देश या विश्व का कदाचित कोई अस्तित्व हो सकता?
किंतु इतना स्पष्ट तो आवश्य है कि प्रत्येक पंथ और विचारधारा पूर्णरूपेण उसके प्रतिनिधित्व पर आश्रित हैं. फिर एक व्यक्ति प्रतिनिधित्व तभी कर सकता, जब उसके रग में खून की जगह फकत राजनीती दौड़ती हो अर्थात वह दूसरे को फिल गुड कराने में दक्ष या सक्षम हो. तभी बगैर सार्थक जवाब के उक्त विचारधारा अंकुरित हो सकता है और कदाचित विस्तार भी पा सकता है.
किंतु श्रीमान, कहते हैं कि गर हौसला बुलंद है तो प्रत्येक समस्या का समाधान सुलभ है. तब बेपरवाह नौकरशाही जैसी समस्या का समाधान संभव क्यों नहीं? किंतु हम प्रथम मुद्दे पर ही वापस आते हैं और जानते हैं कि हमारे पास मानसिक ताप से निवृति का अंतिम उपाय क्या है? एक क्षण अपनी आँखें बंद कीजिए और धारणा कीजिये कि जमूरा ही माता-पिता, हमारे पूर्वज या उनके चिर ऋणी कोई सगा-संबंधी हैं.
पुनः धारणा कीजिए कि हमारी सुख-सुविधा और भलाई के लिये उनकी अवैतनिक नियुक्ति हुई हैं. पुनः कर्तव्यनिष्ठा, सच्चाई इत्यादि वृहत सद्गुण के अनुपालन का एकमात्र अधिभार भी उन्हें ही प्राप्त है. वैसा करना उनका नैतिक कर्तव्य है और उसके प्रतिफल का उपभोग करना तथा उनके विपरीत कर्म करना आपके नैतिक कर्तव्य हैं. सुनिश्चित कीजिए कि आपके दुःख दूर करने हेतु उक्त धारणा ही अचूक उपाय हैं.
(समाप्त)