Pagla Bhagat in Hindi Short Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | पगला भगत

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पगला भगत

पगला भगत

आशीष कुमार त्रिवेदी

ठाकुर हृदय नारायण सिंह गाँव के ज़मींदार थे। किंतु दूसरे ज़मींदारों जैसे एब उनमें नहीं थे। वह केवल अपनी ज़मींदारी बढ़ाने के विषय में ही सोंचते नहीं रहते थे। उन्हें प्रजा के हितों का भी खयाल रहता था। ज़मींदारी के काम के अलावा उनका अधिकतर वक्त आध्यात्मिक चिंतन एवं धर्म ग्रंथों के अध्यन में ही बीतता था। चतुर्मास में वह अमरूद के बागीचे में बने छोटे से भवन में निवास करते थे। इसे सभी बागीचे वाले मकान के नाम से जानते थे। इस दौरान जब तक अति आवश्यक ना हो वह किसी से भेंट नहीं करते थे। केवल उनका विश्वासपात्र सेवक ही उनके साथ रहता था।

पीढ़ियों से ठाकुर साहब के परिवार में भगवान शिव की उपासन हो रही थी। गाँव का भव्य शिव मंदिर इनके पुरखों का ही बनवाया हुआ था। श्रावण मास में हर वर्ष बड़े पैमाने पर रुद्राभिषेक का आयोजन होता था। इसका आयोजन ठाकुर साहब के प्रतिनिधित्व में ही हेता था। इस शिव मंदिर में एक अनूठी परंपरा प्रचलित थी। जब भी ठाकुर परिवार के तत्कालीन मुखिया की मृत्यु होती तो उनकी चिता की भस्म से शिवलिंग का श्रृंगार किया जाता था। ठाकुर साहब बहुत ही विनम्र स्वभाव के थे। अपने परायों सभी के सुख दुःख का ध्यान रखते थे। लेकिन अच्छे लोगों के भी शत्रु होते हैं। ठाकुर साहब के सौतेले भाई तेज नारायण सिंह उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे. ठकुर साहब का प्रजा के प्रति वात्सल्य भाव उन्हें रास नहीं आता था। उन्हें लगता था यदि इसी प्रकार रियाया से नरमी बरती गई और उनका लगान माफ किया जाता रहा तो ज़मींदारी का नाश होते देर नहीं लगेगी। फिर उनके और आगे की पीढ़ी के लिए क्या बचेगा।

इसके अलावा उनकी नाराज़गी का एक और कारण था जो इससे भी बड़ा था। दरअसल उनके पिता की दो पत्नियां थीं. तेज नारायण की माँ बड़ी थीं और ठाकुर साहब की माँ छोटी। किंतु ठाकुर हृदय नारायण उम्र में चार माह बड़े थे। अतः ज़मींदारी का अधिकार उन्हें प्राप्त हो गया. यह बात तेज नारायण को नागवार गुज़री। उनका विचार था चूंकी उनकी माँ पद में बड़ी थीं अतः ज़मींदारी पर उनका हक़ था। अतः वह ठाकुर साहब को रास्ते से हटाने का मौका तलाश रहे थे।

भोला अपनी मड़ैया के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे बैठा अपनी ही मस्ती में भजन गा रहा था। आज भी उसकी पत्नी दुलारी ने रोज की तरह झगड़ा शुरू कर दिया था। अतः वह हमेशा की तरह पेड़ के नीचे आकर बैठ गया। भोला मरे हुए जानवरों का चमड़ा उतारने का काम करता था। अपने काम में वह इतना माहिर था कि आस पास के कई गाँवों के ज़मींदार या कोई सरकारी हाकिम जब भी कोई शिकार करते तो चमड़ा उतारने के लिए उसे ही बुलाया जाता। इसी से उसकी थोड़ी बहुत कमाई हो जाती थी। किंतु यह काम रोज़ नहीं मिलता था। दुलारी मेहनत मजूरी कर जो थोड़ा बहुत कमा लेती थी उसी से घर चलता था। अतः आए दिन फाके की नौबत रहती थी।

दुलारी का भाई शहर में चमड़े के कारखाने में काम करता था। उसने कई बार भोला को भी चलने को कहा। लेकिन भोला तो अपनी ही धुन में लीन था। वह भगवान शिव का भक्त था। उसका रोम रोम शिव को समर्पित था। रात दिन भोलेनाथ की महिमा का गान करता रहता था। इसमें इतना लीन हो जाता कि भूख प्यास भी उसे नहीं सताती थी। सभी उसे पगला भगत कह कर बुलाते थे। लेकिन उसका कंठ बहुत सुरीला था। जब भाव में लीन होकर वह भजन गाता तो सुनने वाला भले ही नास्तिक क्यों ना हो उसका हृदय श्रृद्धा से भर जाता था। भोला अपनी धुन का पक्का था। जाति व्यवस्था के कारण मंदिर में प्रवेश का उसे अधिकार नहीं था। किंतु रोज़ दूर से ही भोलेनाथ को शीश नवा कर चला आता था। दुलारी अक्सर शिकायत करती कि जब मंदिर में घुसने नहीं देते तो वहाँ क्यों जाते हो। तब उसे समझाते हुए कहता कि ना घुसने दें पर भोलेनाथ तो देखते हैं कि मैं उनके द्वार पर आया था और शिवजी तो कण कण में समाए हैं। उसकी ऐसी बातें सुन कर दुलारी चिढ़ जाती और बड़बड़ाने लगती। ऐसे में भोला उससे उलझने के स्थान पर घर से बाहर निकल जाता और कहीं एकांत में बैठ कर भोलेनाथ के चिंतन में लीन हो जाता था।

दोपहर भर तेज़ बारिश होने के बाद अभी अभी थमी थी। कुछ ही समय पहले भोला पड़ोस के गाँव के ज़मींदार के यहाँ से मारे गए हिरण का चमड़ा उतार कर लौटा था। दिन भर का थका हुआ था। अतः अपनी मड़ैया में बैठा चिलम पी रहा था और धीमे स्वर में भजन गा रहा था। आज वह बहुत संतुष्ट था। ज़मींदार साहब ने उसके काम की तारीफ की थी और उसे अच्छा मेहनताना भी दिया था। अच्छे पैसे देख दुलारी भी खुश थी। इन सब के लिए वह मन ही मन शिवजी को धन्यवाद दे रहा था। सांझ ढल रही थी। तभी दरवाज़े पर किसी ने भोला को पुकारा। भोला ने बाहर आकर देखा तो ठाकुर साहब का सेवक था। सेवक ठाकुर साहब का संदेश ले कर आया था। ठाकुर साहब ने उसे बागीचे वाले मकान पर फौरन मिलने बुलाया था।

सेवक चला गया लेकिन भोला समझ नहीं पा रहा था कि उसे इस प्रकार बुलाने के पीछे कारण क्या था। इन दिनों तो वह जब तक बहुत आवश्यक ना हो किसी से मिलते नहीं। कहीं उससे कुछ अनुचित तो नही हो गया। वह उधेड़बुन में था किंतु जाना तो ज़रूरी था।

भोला की भक्ति और उसके सुरीले कंठ की चर्चा जब से ठाकुर साहब के कानों में भी पड़ी थी वह उससे मिलने को उत्सुक थे। किंतु उन्हें एक संकोच था। वह गाँव के ज़मींदार थे और भोला निम्न जाति का। वह बार बार अपने मन को समझाते किंतु हर बार उससे मिलने को और उत्सुक हो जाते। हर बार उनका दिल तर्क करता कि भले ही वह ठाकुर हों और भोला चर्मकार किंतु दोनों ही भोलेनाथ के भक्त हैं। अतः इस नाते भोला से मिलने में कोई हर्ज़ नहीं. इस तर्क से आश्वस्त हो उन्होंने भोला को मिलने बुलाया। लेकिन अभी भी एक हिचक थी अतः उन्होंने शाम ढलने तक प्रतीक्षा करने के बाद बुलावा भेजा था।

ठाकुर साहब अपने कक्ष में बैठे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे। हलांकि उनका मन लग नही रहा था। वह भोला के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी उनके सेवक ने आकर भोला के आने की सूचना दी। ठाकुर साहब ने आदेश दिया कि उसे कमरे में भेज दे। सेवक को आश्चर्य हुआ कि भोला को कमरे में भेजने को कह रहे हैं। अतः उसने फिर से कहा कि भोला आया है। ठाकुर साहब उसके असमंजस को समझ गए " जानता हूँ. तुम वही करो जो कहा है। " सेवक चुपचाप चला गया। भोला ने इस प्रकार सकुचाते हुए कक्ष में प्रवेश किया जैसे कोई सफ़ेद वस्त्र को छूते हुए संकोच करता है कि कहीं वह मैला न हो जाए। वह उन्हें प्रणाम कर चुप चाप खड़ा हो गया।

ठाकुर साहब उठे, पुस्तक अलमारी में रख दी और कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया। भोला को बैठने का संकेत किया। वह फ़र्श पर उकड़ू बैठा गया। ठाकुर साहब जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए। कुछ क्षण रुक कर बोले " सुना है तुम भोलेनाथ के भक्त हो। बहुत सुंदर भजन गाते हो। हमें भी कुछ सुनाओ। "

ठाकुर साहब की बात सुनकर भोला सकुचा गया " हम का गाएंगे हुजूर ये तो भोले बाबा की किरपा है कि कंठ से कुछ फूट जाता है। "

"पर लोग तो कुछ और ही कहते हैं। उनका तो कहना है कि अगर नास्तिक भी तुम्हें गाते हुए सुन ले तो उसके मन में श्रद्धा जाग उठे। " ठाकुर साहब ने कहा।

" लोग तो बढ़ा चढ़ा कर बोलते हैं। पर जदि आपका हुकुम है तो कैसे टाल सकते हैं। " यह कह कर भोला पालथी मार कर बैठ गया और आँख बंद कर गाने लगा।

उधर कुछ अज्ञात लोग दबे पांव बागीचे वाले भवन में घुसे। उनके हाथों में मशालें थीं। एक के हाथ में मिट्टी के तेल का डब्बा था। सर्वप्रथम उन्होंने ठाकुर साहब के सेवक को अपने नियंत्रण में ले लिया।

गाते हुए भोला पूर्णतया तल्लीन हो गया था। सारा वातावरण ही शिवमय हो उठा। ठाकुर साहब भाव विभोर हो गए और उनकी आँखों से आंसू बहने लगे। अपनी भावनाओं पर वह काबू नही रख पा रहे थे। अचानक ही वह उठे और उन्होंने कंधे से पकड़ कर भोला को उठाया और उसे कंठ से लगा लिया। उनके इस आकस्मिक आचरण से भोला घबरा गया। स्वयं को अलग कर बोला " ई का किए हुजूर हमको छू के खुद को भरस्ट कर लिए। "

भर्राए कंठ से ठाकुर साहब बोले " तुम तो पारस हो भोला. तुम्हें स्पर्श कर तो मिट्टी भी सोना बन जाए। " अपने ह्रदय के भावों को शब्दों व्यक्त करने में वह स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। उन्होंने अपने हाथ में पहना हुआ स्वर्ण का कड़ा निकाल कर भोला को पहना दिया। इस स्थिति से भोला भी गदगद था। दोनो ही अपने अपने भावों में लीन थे।

उधर संपूर्ण भवन आग की लपटों की चपेट में था। कक्ष धूंए से भर गया। ठाकुर साहब द्वार खोलने के लिए दौड़े। किंतु उन लोगों ने बाहर से कुंडी लगा दी थी। भोला और ठाकुर साहब दोनों कक्ष मे फंस गए। सारा भवन जल कर राख हो गया।

पुलिस को ठाकुर साहब के कक्ष में दो बुरी तरह जले शव मिले। उनकी शिनाख़्त कठिन थी। एक शव के हाथ में सोने का कड़ा था। लोगों ने उसे ही ठाकुर साहब का शव मान लिया। उसका पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर दिया गया। चिता की भस्म से शिव का श्रृंगार किया गया। जो भोला कभी मंदिर की सीढ़ियां भी नही छू सका आज उसी की भस्म से उसके आराध्य का श्रंगार हो रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे स्वयं शिव आज उस पगले भगत का आलिंगन करने हेतु बाहें फैलाए खड़े हों।

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