पराभव
मधुदीप
भाग - इक्कीस
श्रद्धा बाबू थका-सा पलंग पर लेटा हुआ सारी स्थिति पर विचार कर रहा था | आज पुनः एकबार उसकी दृष्टि सामने दिवार पर टंगे स्वामी दयानन्द के चित्र पर जमी हुई थी | एक दिन उन्हीं की प्रेरणा से तो उसने नियोग विधि द्वारा सन्तान प्राप्ति का निश्चय किया था | उस दिन उसने सोचा था कि यह सब कुछ उचित और धर्म के अनुकूल है | उसने इस विधि को आदर्श समझकर ही अपनाया था |
आज स्थिति बदल चुकी थी | उसने उस आदर्श को अपना तो लिया था मगर वह उसे सहन नहीं कर सका था | बच्चे के जन्म से खुशी होने की अपेक्षा उसे ऐसा लगा था जैसे कि वह बच्चा उसकी सबसे बड़ी हार है | जब-जब भी वह उस बच्चे को देखता उसकी पराजय उसके सामने आ खड़ी होती | इस पराजय से वह अन्दर-ही-अन्दर टूट गया था | बच्चे और मनोरमा से उसे घृणा हो गई थी और वह अपनी राह से भटक गया था |
मनोरमा आज घर छोड़कर चली गई थी | वह सोच उठा कि इसमें मनोरमा का क्या दोष है जो उसे घर छोड़कर जाना पड़ा | उसने तो कोई अपराध नहीं किया अपितु उसने तो उसकी इच्छा के लिए अपनी भावनाओं और संस्कारों के विपरीत उसकी आज्ञा का पालन किया था | जब मनोरमा ने चलते हुए अपना अपराध पूछा तो वह कुछ भी तो नहीं कह सका था | सच तो यह था कि उसका कोई अपराध होता तो वह उसे बताता |
लेकिन वह भी क्या करे? वह बालक को किसी भी तरह तो सहन नहीं कर पाता | उसे सामने देखकर वह अपने वश में नहीं रह पाता | उसने अपने जीवन में आदर्शवादिता के कारण गलत निर्णय ले लिया था मगर चाहकर भी तो अपने संस्कारों को नहीं छोड़ सका था |
"इस सबके लिए मैं ही अपराधी हूँ | भगवान कभी मुझे क्षमा नहीं करेंगे |" पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए वह बुदबुदा उठा | अधिक सोचने से सिर में चक्कर-सा आने लगा था, उसने आँखें बन्द कर लीं |
कुछ देर के पश्चात् स्वप्न में श्रद्धा बाबू ने देखा-मनोरमा कृष्ण को खींचती हुई तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ी जा रही है | कृष्ण भूख और प्यास से चिल्ला रहा है लेकिन मनोरमा सिर पर ट्रंक रखे उसे गोद में उठाकर भागती जा रही है |
तभी एक विशालकाय काली-सी परछाई अचानक वहाँ उभरती है और मनोरमा तथा बच्चे को अपनी मुठ्ठी में बन्द कर लेती है | वह यह देखकर डर जाता है मगर साहस करके किसी तरह उस परछाईं के पीछे भागता है | लेकिन न जाने उसके पाँवों को क्या हो गया है, वे उठ ही नहीं रहे हैं | जैसे किसी ने पाँवों में पत्थर बाँध दिए हों | वह बल लगाकर पैरों को उठता है मगर इससे पहले ही वह परछाईं उन दोनों को लेकर उड़ जाती है |
"कृष्ण...|" चीखकर श्रद्धा बाबू उठ बैठा | पहली बार श्रद्धा बाबू के मुख से बच्चे का नाम निकला था |
एक झटके के साथ पलंग को छोड़ श्रद्धा बाबू स्वामी जी की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया |
"मैं अन्धकार में भटक गया था स्वामी जी! मुझे प्रकाश दिखलाओ |" वह बुदबुदा रहा था-"मैं बच्चे को अपनाऊँगा | मैं बहुत अधिक पराजित हो चुका हूँ | मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूँ स्वामी जी | मैं मनोरमा को लौटाकर ले आऊँगा | मुझे क्षमा कारण प्रभु |"
"हे प्रभु! मुझे शक्ति दो | मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो | शराब ने मेरी बुद्धि भ्रष्ट कर दी थी | मैं अब कभी शराब को हाथ नहीं लगाऊँगा |" बुदबुदाते हुए श्रद्धा बाबू ने अलमारी में छिपाई हुई शराब की बोलत निकालकर फर्श पर पटक दी | कमरे में दूर-दूर तक काँच फैल गया और तरह पदार्थ पर बहने लगा |
"मैं मनोरमा को लाउँगा, मैं कृष्ण को लाउँगा | कृष्ण...मेरे बच्चे...|" कहता हुआ वह घर से स्टेशन की ओर चल दिया |
राह में जिन व्यक्तियों ने भी उसे देखा, उन्होंने समझा कि शायद वह पागल हो गया है |
ज्यों-ज्यों गाड़ी आने का समय निकट आता जा रहा था, अन्धेरा घना होता जा रहा था | हवा में ठण्ड बढ़ गई थी | तेज चलती ठण्डी हवा से बालक कृष्ण का शरीर काँपने लगा था |
मनोरमा ने ट्रंक से निकालकर एक और कमीज कृष्ण को पहना दी |
"मम्मी घर चलो ना!" कृष्ण ने कहा |
"अपना घर कहीं नहीं है बेटे |" एक आह के साथ मनोरमा ने कहा |
"तो हम कहाँ जाएँगे मम्मी?" आश्चर्य से बालक ने पूछा |
"नाना के घर बेटे |"
"वहाँ पर कौन-कौन हैं मम्मी |"
"मुझे डर लगता है मम्मी |"
"डर किस बात कर है बेटे, मैं तेरे पास हूँ |" मनोरमा ने कह तो दिया था मगर बढ़ते हुए अन्धकार को देखकर उसका मन भी काँप रहा था |
स्टेशन पर अभी तक कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था | स्टेशन मास्टर के कमरे में एक लैम्प जल रहा था | उसकी आती हुई रोशनी की लकीर पास ही प्लेटफार्म पर पड़ रही थी | शायद आज स्टेशन की लाइट गुल थी |
मनोरमा सामने लगे सिग्नल की ओर ताक रही थी | गाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए एक-एक पल उसके लिए पहाड़ बनता जा रहा था |
तभी स्टेशन मास्टर के कमरे के पास लगी घंटी बजी | यह शीघ्र ही गाड़ी आने का संकेत था | मनोरमा को घंटी की आवाज से बड़ा ही चैन मिला |
टिकट खिड़की से मनोरमा के गाँव का टिकट लेकर श्रद्धा बाबू प्लेटफार्म पर आ गया | वह सोच भी नहीं सकता था कि मनोरमा अभी तक वहाँ होगी | इधर-उधर टहलते हुए वह गाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा | उसे प्लेटफार्म पर अपने सिवा कोई अन्य यात्री दिखाई नहीं दे रहा था |
टहलते हुए वह एक स्थान पर ठिठक गया | सामने बेंच पर कोई नारी आकृति बच्चे को लिए बैठी थी | रोशनी की एक लकीर उसके पास ही पड़ रही थी मगर वह उसे धुँधले-से प्रकाश में उस आकृति को पहचानने में असमर्थ था | एक पल को उसे मनोरमा और कृष्ण का भ्रम हुआ मगर तत्काल ही अपने विचार को मिथ्या समझ, वह दूसरी ओर बढ़ गया |
वह वहाँ से हटकर दूसरी ओर बढ़ तो गया था मगर अन्दर कहीं से उसे सुनाई दे रहा था कि वह नारी आकृति मनोरमा ही है | वह तेजी से पलटकर उसकी ओर बढ़ा |
"मनोरमा!" उस आकृति के पास जाकर वह पुकार उठा |
मनोरमा अपने पति की आवाज सुनकर चकित रह गई थी | सामने गाड़ी की रोशनी दिखाई दे रही थी |
"मुझे क्षमा कर दो मनोरमा! मैंने तुम पर और अपने बच्चे पर बहुत अत्याचार किए हैं |" पत्नी को पहचानकर श्रद्धा बाबू ने कहा |
"आपका बच्चा?" मनोरमा आश्चर्य से कह उठी |
"हाँ मनोरमा, मेरा बच्चा! कृष्ण मेरा अपना बच्चा है | मैं भटक गया था | मुझे माफ कर दो मनोरमा | मैं पराजित हो चुका हूँ...मैं हार चुका हूँ...तुम जीत गई हो मनोरमा | मुझे अपना लो मनोरमा |" कहते हुए श्रद्धा बाबू उसके पाँवों की ओर झुक गया |
गाड़ी स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई थी |
"कैसी बात करते हो | देखो, लोग हमारी तरफ देख रहे हैं |" कहते हुए मनोरमा ने अपने पति के दोनों हाथ थाम लिए | खड़ी गाड़ी के सामनेवाले डिब्बे से कितनी ही निगाहें उन्हें देख रही थीं |
एक सीटी के साथ गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ने लगी |
"एक बार अपने मुँह से कह दो मनोरमा, तुमने मुझे क्षमा कर दिया है | मैं हारा हुआ व्यक्ति हूँ | मैंने तुमसे बहुत ऊँचा उठाना चाहा था लेकिन तुमने मुझे पराजित कर दिया है |" कहते हुए उसने दो आँसू पत्नी के कन्धे पर टपका दिए |
"आपकी कोई हार नहीं हुई स्वामी | हार सदा ही बुराई की होती है | आप व्यर्थ ही स्वयं को पराजित अनुभव कर रहे हैं |" मनोरमा ने गम्भीरता से कहा |
"मैं सब बुराइयों को छोड़ दूँगा मनोरमा!"
"चलो घर चलें, देर हो रही है |"
बालक कृष्ण अवाक्-सा अपने माता-पिता को देख रहा था | श्रद्धा बाबू ने आगे बढ़कर उसे गोद में ले लिया |
"कहाँ जा रही हो मम्मी?" कृष्ण आश्चर्य से कह उठा |
"अपने घर बेटा!" एक विश्वास के साथ मनोरमा ने कहा और अपने पाँव आगे बढ़ा दिए |
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