Rangbhumi in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | रंगभूमि - संपूर्ण

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रंगभूमि - संपूर्ण

रंगभूमि

प्रेमचंद


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अध्याय 1

शहर अमीरों के रहने और क्रय—विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैंए जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस—पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती हैए न शहरी छिड़काव के छींटेए न शहरी जल—खेतों का प्रवाह। सड़क के किनारे छोटे—छोटे बनियों और हलवाइयों की दूकानें हैंए और उनके पीछे कई इक्केवालेए गाड़ीवानए ग्वाले और मजदूर रहते हैं। दो—चार घर बिगड़े सफेदपोशों के भी हैंए जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है। इन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार रहता हैए जिसे लोग सूरदास कहते हैं। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती हैए न काम की। सूरदास उनका बना—बनाया नाम हैए और भीख माँगना बना—बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत्—प्रसिध्द हैं—गाने—बजाने में विशेष रुचिए हृदय में विशेष अनुरागए अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेमए उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य द्रष्टि बंद और अंतर्द्रष्टि खुली हुई।

सूरदास एक बहुत ही क्षीणकायए दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित्‌ भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। श्दाता! भगवान्‌ तुम्हारा कल्यान करें—श् यही उसकी टेक थीए और इसी को वह बार—बार दुहराता था। कदाचित्‌ वह इसे लोगों की दया—प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को वह अपनी जगह पर बैठे—बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलताए तो वह उसके पीछे दौड़ने लगताए और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा—गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रातरूकाल से संध्या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ—पूस की बदली और वायु तथा जेठ—वैशाख की लू—लपट में भी उसे नागा न होता था।

कार्तिक का महीना था। वायु में सुखद शीतलता आ गई थी। संध्या हो चुकी थी। सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत्‌ बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे। गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढ़ील दीं। उनके पछाईं बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे। गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिए। कोई चादर पर आटा गूंधाता थाए कोई गोल—गोल बाटीयाँ बनाकर उपलों पर सेंकता था। किसी को बरतनों की जरूरत न थी। सालन के लिए घुइएँ का भुरता काफी था। और इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थीए बैठे बाटीयाँ सेंकते और गाते थे। बैलों के गले में बँधी हुई घंटीयाँ मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा—क्यों भगतए ब्याह करोगेघ्

सूरदास ने गर्दन हिलाकर कहा—कहीं है डौलघ्

गनेस—हाँए है क्यों नहीं। एक गाँव में एक सुरिया हैए तुम्हारी ही जात—बिरादरी की हैए कहो तो बातचीत पक्की करूँघ् तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटीयाँ लगें।

सूरदास—कोई जगह बतातेए जहाँ धान मिलेए और इस भिखमंगी से पीछा छूटे। अभी अपने ही पेट की चिंता हैए तब एक अंधी की और चिंता हो जाएगी। ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता। बेड़ी ही हैए तो सोने की तो हो।

गनेस—लाख रुपये की मेहरिया न पा जाओगे। रात को तुम्हारे पैर दबाएगीए सिर में तेल डालेगीए तो एक बार फिर जवान हो जाओगे। ये हड्डियाँ न दिखाई देंगी।

सूरदास—तो रोटीयों का सहारा भी जाता रहेगा। ये हड्डियाँ देखकर ही तो लोगों को दया आ जाती है। मोटे आदमियों को भीख कौन देता हैघ् उलटे और ताने मिलते हैं।

गनेस—अजी नहींए वह तुम्हारी सेवा भी करेगी और तुम्हें भोजन भी देगी। बेचन साह के यहाँ तेलहन झाड़ेगी तो चार आने रोज पाएगी।

सूरदास—तब तो और भी दुर्गति होगी। घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुँह दिखाने लायक भी न रहूँगा।

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आईए सूरदास उसके पीछे श्दाता! भगवान्‌ तुम्हारा कल्यान करेंश् कहता हुआ दौड़ा।

फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफिया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे—चिट्टे आदमी थे। बुढ़़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। पहनावा ऍंगरेजी थाए जो उन पर खूब खिलता था। मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज सेवक को काल—गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थींए और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थीए जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी। प्रभु सेवक की मसें भीग रही थींए छरहरा डीलए इकहरा बदनए निस्तेज मुखए अॉंखों पर ऐनकए चेहरे पर गम्भीरता और विचार का गाढ़़ा रंग नजर आता था। अॉंखों से करुणा की ज्योति—सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति—सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफिया बड़ी—बड़ी रसीली अॉंखोंवालीए लज्जाशील युवती थी। देह अति कोमलए मानो पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्यए मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थीए जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा—इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगाघ्

मि. जॉन सेवक बोले—इस देश के सिर से यह बला न—जाने कब टलेगीघ् जिस देश में भीख माँगना लज्जा की बात न होए यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन—वृत्ति बना लेंए जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार होए उसके उध्दार में अभी शताब्दियों की देर है।

प्रभु सेवक—यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या—लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थीए किंतु वे लोग माया—मोह से मुक्त रहकर ज्ञान—प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मणए जो जमींदार हैंए घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैंए दिन—भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी सम्बंधी की मृत्यु का हीला करके भीख माँगते हैंए शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैंए पैसे जल्द रुपये बन जाते हैंए और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं।

मिसेज सेवक—साईसए इस अंधे से कह दोए भाग जाएए पैसे नहीं हैं।

सोफिया—नहीं मामाए पैसे हों तो दे दीजिए। बेचारा आधो मील से दौड़ा आ रहा हैए निराश हो जाएगा। उसकी आत्मा को कितना दुरूख होगा।

माँ—तो उससे किसने दौड़ने को कहा थाघ् उसके पैरों में दर्द होता होगा।

सोफिया—नहींए अच्छी मामाए कुछ दे दीजिएए बेचारा कितना हाँफ रहा है। प्रभु सेवक ने जेब से केस निकालाय किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकलाए और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज होने का भय था। बहन से बोले—सोफीए खेद हैए पैसे नहीं निकले। साईसए अंधे से कह दोए धीरे—धीरे गोदाम तक चला आएय वहाँ शायद पैसे मिल जाएँ।

किंतु सूरदास को इतना संतोष कहाँघ् जानता थाए गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगाय कहीं गाड़ी आगे बढ़़ गईए तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी। गाड़ी का पीछा न छोड़ाए पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गयाए जैसे वृक्षों के बीच में ठूँठ खड़ा हो। हाँफते—हाँफते बेदम हो रहा था।

मि. जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़़त खोल रखी थी। ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा—कहिए खाँ साहबए चमड़े की आमदनी कैसी हैघ्

ताहिर—हुजूरए अभी जैसी होनी चाहिएए वैसी तो नहीं हैय मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।

जॉन सेवक—कुछ दौड़—धूप कीजिएए एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस—पास के देहातों में चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आस—पास के चमार यहाँ रोज आएँगेए और आपको उनसे मेल—जोल करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी—छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिएए ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगाए जिस दिन शहर के दो—चार धानी—मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गईए तो कई दिनों की दौड़धूप ठिकाने लग जाती है।

ताहिर—हुजूरए मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगाए तो वह यह काम करेगा ही क्योंघ् मगर हुजूर ने मेरी जो तनख्वाह मुकर्रर की हैए उसमें गुजारा नहीं होता। बीस रुपये का तो गल्ला भी काफी नहीं होताए और सब जरूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्म्त तो नहीं पड़तीय मगर आपसे न कहूँए तो किससे कहूँघ्

जॉन सेवक—कुछ दिन काम कीजिएए तरक्की होगी न। कहाँ है आपका हिसाब—किताब लाइएए देखूँ।

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़़े पर बैठ गए। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिर अली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जाँच करने लगे। दो—चार पन्ने उलट—पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले—अभी आपको हिसाब—किताब लिखने का सलीका नहीं हैए उस पर आप कहते हैंए तरक्की कर दीजिए। हिसाब बिलकुल आईना होना चाहिएय यहाँ तो कुछ पता नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदाए और कितना माल रवाना किया। खरीदार को प्रति खाता एक आना दस्तूरी मिलती हैए वह कहीं दर्ज ही नहीं है!

ताहिर—क्या उसे भी दर्ज कर दूँघ्

जॉन सेवक—क्योंए वह मेरी आमदनी नहीं हैघ्

ताहिर—मैंने तो समझा कि वह मेरा हक है।

जॉन सेवक—हरगिज नहींए मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ। (त्योरियाँ बदलकर) मुलाजिमों का हक है! खूब! आपका हक तनख्वाहए इसके सिवा आपको कोई हक नहीं है।

ताहिर—हुजूरए अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।

जॉन सेवक—अब तक आपने इस मद में जो रकम वसूल की हैए वह आमदनी में दिखाइए। हिसाब—किताब के मामले में मैं जरा भी रिआयत नहीं करता।

ताहिर—हुजूरए बहुत छोटी रकम होगी।

जॉन सेवक—कुछ मुजायका नहींए एक ही पाई सहीय वह सब आपको भरनी पड़ेगी। अभी वह रकम छोटी हैए कुछ दिनों में उसकी तादाद सैकड़ों तक पहुँच जाएगी। उस रकम से मैं यहाँ एक संडे—स्कूल खोलना चाहता हूँ। समझ गएघ् मेम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है। अच्छा चलिएए वह जमीन कहाँ है जिसका आपने जिक्र किया थाघ्

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था। यहाँ आस—पास के जानवर चरने आया करते थे। जॉन सेवक यह जमीन लेकर यहाँ सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे। प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था। जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी जमीन देखने चलीं। पिता और पुत्रा ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा। कहाँ कारखाना होगाए कहाँ गोदामए कहाँ दफ्तरए कहाँ मैनेजर का बँगलाए कहाँ श्रमजीवियों के कमरेए कहाँ कोयला रखने की जगह और कहाँ से पानी आएगाए इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं। अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिर अली से पूछा—यह किसकी जमीन हैघ्

ताहिर—हुजूरए यह तो ठीक नहीं मालूमए अभी चलकर यहाँ किसी से पूछ लूँगाए शायद नायकराम पंडा की हो।

साहब—आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैंघ्

ताहिर—मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी।

जॉन सेवक—अजीए बेचेगा उसका बापए उसकी क्या हस्ती हैघ् रुपये के सत्तारह आने दीजिएए और आसमान के तारे मँगवा लीजिए। आप उसे मेरे पास भेज दीजिएए मैं उससे बातें कर लूँगा।

प्रभु सेवक—मुझे तो भय है कि यहाँ कच्चा माल मिलने में कठिनाई होगी। इधार लोग तम्बाकू की खेती कम करते हैं।

जॉन सेवक—कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा। किसान को ऊख या जौ—गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिस जिन्स के पैदा करने में अपना लाभ देखेगा वही पैदा करेगा। इसकी कोई चिंता नहीं है। खाँ साहबए आप उस पण्डे को मेरे पास कल जरूर भेज दीजिएगा।

ताहिर—बहुत खूबए उसे कहूँगा।

जान सेवक—कहूँगा नहींए उसे भेज दीजिएगा। अगर आपसे इतना भी न हो सकाए तो मैं समझूँगाए आपको सौदा पटाने का जरा भी ज्ञान नहीं।

मिसेज सेवक—(ऍंगरेजी में) तुम्हें इस जगह पर कोई अनुभवी आदमी रखना चाहिए था।

जान सेवक—(ऍंगरेजी में) नहींए मैं अनुभवी आदमियों से डरता हूँ। वे अपने अनुभव से अपना फायदा सोचते हैंए तुम्हें फायदा नहीं पहुँचाते। मैं ऐसे आदमियों से कोसों दूर रहता हूँ।

ये बातें करते हुए तीनों आदमी फिटन के पास गए। पीछे—पीछे ताहिर अली भी थे। यहाँ सोफिया खड़ी सूरदास से बातें कर रही थी। प्रभु सेवक को देखते ही बोली—श्प्रभुए यह अंधा तो कोई ज्ञानी पुरुष जान पड़ता हैए पूरा फिलासफर है।श्

मिसेज सेवक—तू जहाँ जाती हैए वहीं तुझे कोई—न—कोई ज्ञानी आदमी मिल जाता है। क्यों रे अंधेए तू भीख क्यों माँगता हैघ् कोई काम क्यों नहीं करताघ्

सोफिया—(ऍंगरेजी में) मामाए यह अंधा निरा गँवार नहीं है।

सूरदास को सोफिया से सम्मान पाने के बाद ये अपमानपूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए। अपना आदर करनेवाले के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है। सिर उठाकर बोला—भगवान्‌ ने जन्म दिया हैए भगवान्‌ की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती।

मिसेज सेवक—तेरे भगवान्‌ ने तुझे अंधा क्यों बना दियाघ् इसलिए कि तू भीख माँगता फिरेघ् तेरा भगवान्‌ बड़ा अन्यायी है।

सोफिया—(ऍंगरेजी में) मामाए आप इसका अनादर क्यों कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है।

सूरदास—भगवान्‌ अन्यायी नहीं हैए मेरे पूर्व—जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किए हैंए वैसे फल भोग रहा हूँ। यह सब भगवान्‌ की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता—बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगाघ्

सोफिया—मैं अगर अंधी होतीए तो खुदा को कभी माफ न करती।

सूरदास—मिस साहबए अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैंए भगवान का इसमें कोई दोष नहीं।

सोफिया—मामाए यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुधिर से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दियाए तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैंघ् अन्य मतावलम्बियों की भाँति हमारी जाति में अमीर—गरीबए अच्छे—बुरेए लँगड़े—लूलेए सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका क्या कारण हैघ्

मिसेज सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा—मिस साहबए अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लियाए तो संसार में अंधेर मच जाए।

मिसेज सेवक—सोफीए बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी—सी बात तेरी समझ में नहीं आतीए हालाँकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है।

प्रभु सेवक—(सूरदास से) तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्योंघ्

सूरदास—हाँ जब तक हम वैरागी न होंगेए दुरूख से नहीं बच सकते।

जॉन सेवक—शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दुरूख हैय यह हमें दुरूखों से क्योंकर मुक्त कर सकता हैघ्

सूरदास—साहबए वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने ओर जटा बढ़़ाने को पाखंड बताया है। वैराग तो मन से होता है। संसार में रहेए पर संसार का होकर न रहे। इसी को वैराग कहते हैं।

मिसेज सेवक—हिंदुओं ने ये बातें यूनान के जवपबे से सीखी हैंय किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दुरूख—सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिलेंए तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।

जॉन सेवक—हाँए इसे कुछ मत दोए देखोए क्या कहता है। अगर जरा भी भुन—भुनायाए तो हंटर से बातें करूँगा। सारा वैराग भूल जाएगा। माँगता है भीख धोले—धोले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता हैए उस पर दावा यह है कि वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरोए क्लब होते हुए बँगले चलो।

सोफिया—मामाए कुछ तो जरूर दे दोए बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था।

प्रभु सेवक—ओहोए मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।

जॉन सेवक—हरगिज नहींए कुछ मत दोए मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हूँ।

गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी अॉंखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहाए मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे—पीछे चला। सहसा सोफिया ने कहा—सूरदासए खेद हैए मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगीए तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा।

अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भलीभाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआए पर बेपरवाही से बोला—मिस साहबए इसकी क्या चिंताघ् भगवान्‌ तुम्हारा कल्याण करें। तुम्हारी दया चाहिएए मेरे लिए यही बहुत है।

सोफिया ने माँ से कहा—मामाए देखा आपनेए इसका मन जरा भी मैला नहीं हुआ।

प्रभु सेवक—हाँए दुरूखी तो नहीं मालूम होता।

जॉन सेवक—उसके दिल से पूछो।

मिसेज सेवक—गालियाँ दे रहा होगा।

गाड़ी अभी धीरे—धीरे चल रही थी। इतने में ताहिर अली ने पुकारा—हुजूरए यह जमीन पंडा की नहींए सूरदास की है। यह कह रहे हैं।

साहब ने गाड़ी रुकवा दीए लज्जित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखाए गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आएए और नम्र भाव से बोले—क्यों सूरदासए यह जमीन तुम्हारी हैघ्

सूरदास—हाँ हुजूरए मेरी ही है। बाप—दादों की इतनी ही तो निशानी बच रही है।

जॉन सेवक—तब तो मेरा काम बन गया। मैं चिंता में था कि न—जाने कौन इसका मालिक है। उससे सौदा पटेगा भी या नहीं। जब तुम्हारी हैए तो फिर कोई चिंता नहीं। तुम—जैसे त्यागी और सज्जन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा। जब तुम्हारे पास इतनी जमीन हैए तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा हैघ्

सूरदास—क्या करूँ हुजूरए भगवान्‌ की जो इच्छा हैए वह कर रहा हूँ।

जॉन सेवक—तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जाएगी। बसए यह जमीन मुझे दे दो। उपकार का उपकारए और लाभ का लाभ। मैं तुम्हें मुँह—माँगा दाम दूँगा।

सूरदास—सरकारए पुरुखों की यही निशानी हैए बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगाघ्

जॉन सेवक—यहीं सड़क पर एक कुअॉं बनवा दूँगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।

सूरदास—साहबए इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल—भर चरी नहीं है। आस—पास के सब ढ़ोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगाए तो ढ़ोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा।

जॉन सेवक—कितने रुपये साल चराई के पाते होघ्

सूरदास—कुछ नहींए मुझे भगवान्‌ खाने—भर को यों ही दे देते हैंए तो किसी से चराई क्यों लूँघ् किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकताए तो इतना ही सही।

जॉन सेवक—(आश्चर्य से) तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी हैघ् सोफिया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों—बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धान्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते होए तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगेघ् मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूगा

सूरदास—सरकारए यह जमीन मेरी है जरूरए लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूँए कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगेघ्

जॉन सेवक—यहाँ एक कारखाना खोलूँगाए जिससे देश और जाति की उन्नति होगीए गरीबों का उपकार होगाए हजारों आदमियों की रोटीयाँ चलेंगी। इसका यश भी तुम्हीं को होगा।

सूरदास—हुजूरए मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।

जॉन सेवक—अच्छी बात हैए पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूँगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न होगा। तुम जिस तरह खुश होगेए उसी तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर)ए मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया थाए उस अपमान को क्षमा करो।

सूरदास—हुजूरए मैं रुपये लेकर क्या करूँगाघ् धर्म के नाते दो—चार पैसे दे दीजिएए तो आपका कल्याण मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।

जॉन सेवक—तुम्हें दो—चार पैसे क्या दूँघ् इसे ले लोए धार्मार्थ ही समझो।

सूरदास—नहीं साहबए धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया हैए अब यह धर्म नहीं रहा।

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह कियाए किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिए। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।

मिसेज सेवक ने पूछा—क्या बातें हुईंघ्

जॉन सेवक—है तो भिखारीए पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता थाए न लिए।

मिसेज सेवक—है कुछ आशाघ्

जॉन सेवक—जितना आसान समझता थाए उतना आसान नहीं है। गाड़ी तेज हो गई।

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अध्याय 2

सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे—धीरे घर चला। रास्ते में चलते—चलते सोचने लगा—यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थेए मुझे कुत्तो से भी नीचा समझाय लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी हैए कैसी लल्लो—चप्पो करने लगे। इन्हें मैं अपनी जमीन दिए देता हूँ। पाँच रुपये दिखाते थेए मानो मैंने रुपये देखे ही नहीं। पाँच तो क्याए पाँच सौ भी देंए तो भी जमीन न दूँगा। मुहल्लेवालों को कौन मुँह दिखाऊँगा। इनके कारखाने के लिए बेचारी गउएँ मारी—मारी फिरें! ईसाइयों को तनिक भी दया—धर्म का विचार नहीं होता। बसए सबको ईसाई ही बनाते फिरते हैं। कुछ नहीं देना थाए तो पहले ही दुत्कार देते। मील—भर दौड़ाकर कह दियाए चल हट। इन सबों में मालूम होता हैए उसी लड़की का स्वभाव अच्छा है। उसी में दया—धर्म है। बुढ़़िया तो पूरी करकसा हैए सीधो मुँह बात ही नहीं करती। इतना घमंड! जैसे यही विक्टोरिया हैं। राम—रामए थक गया। अभी तक दम फूल रहा है। ऐसा आज तक कभी न हुआ था कि इतना दौड़ाकर किसी ने कोरा जवाब दे दिया हो। भगवान्‌ की यही इच्छा होगी। मनए इतने दुरूखी न हो। माँगना तुम्हारा काम हैए देना दूसरों का काम है। अपना धान हैए कोई नहीं देताए तो तुम्हें बुरा क्यों लगता हैघ् लोगों से कह दूँ कि साहब जमीन माँगते थेघ् नहीं सब घबरा जाएँगे। मैंने जवाब तो दे दियाए अब दूसरों से कहने का परोजन ही क्याघ्

यह सोचता हुआ वह अपने द्वार पर आया। बहुत ही सामान्य झोंपड़ी थी। द्वार पर एक नीम का वृक्ष था। किवाड़ों की जगह बाँस की टहनियों की एक टट्टी लगी हुई थी। टट्टी हटाई। कमर से पैसों की छोटी—सी पोटली निकालीए जो आज दिन—भर की कमाई थी। तब झोपड़ी की छान टटोलकर एक थैली निकालीए जो उसके जीवन का सर्वस्व थी। उसमें पैसों की पोटली बहुत धीरे से रखी कि किसी के कानों में भनक भी न पड़े। फिर थैली को छान में छिपाकर वह पड़ोस के एक घर से आग माँग लाया। पेड़ों के नीचे कुछ सूखी टहनियाँ जमाकर रखी थींए उनसे चूल्हा जलाया। झोंपड़ी में हलका—सा अस्थिर प्रकाश हुआ। कैसी विडम्बना थीघ् कितना नैराश्य—पूर्ण दारिद्रय था! न खाटए न बिस्तरय न बरतनए न भाँड़े। एक कोने में एक मिट्टी का घड़ा थाए जिसकी आयु का कुछ अनुमान उस पर जमी हुई काई से हो सकता था। चूल्हे के पास हाँडी थी। एक पुरानाए चलनी की भाँति छिद्रों से भरा हुआ तवाए एक छोटी—सी कठौती और एक लोटा। बसए यही उस घर की सारी संपत्ति थी। मानव—लालसाओं का कितना संक्षिप्त स्वरूप! सूरदास ने आज जितना नाज पाया थाए वह ज्यों—का—त्यों हाँडी में डाल दिया। कुछ जौ थेए कुछ गेहूँए कुछ मटरए कुछ चनेए थोड़ी—सी जुआर और मुट्ठीभर चावल। ऊपर से थोड़ा—सा नमक डाल दिया। किसकी रसना ने ऐसी खिचड़ी का मजा चखा हैघ् उसमें संतोष की मिठास थीए जिससे मीठी संसार में कोई वस्तु नहीं। हाँडी को चूल्हे पर चढ़़ाकर वह घर से निकलाए द्वार पर टट्टी लगाई और सड़क पर जाकर एक बनिए की दूकान से थोड़ा—सा आटा और एक पैसे का गुड़ लाया। आटे को कठौती में गूँधा और तब आधा घंटे तक चूल्हे के सामने खिचड़ी का मधुर आलाप सुनता रहा। उस धुंधले प्रकाश में उसका दुर्बल शरीर और उसका जीर्ण वस्त्र मनुष्य के जीवन—प्रेम का उपहास कर रहा था।

हाँडी में कई बार उबाल आएए कई बार आग बुझी। बार—बार चूल्हा फँकते—फूँकते सूरदास की आंखों से पानी बहने लगता था। अॉंखें चाहे देख न सकेंए पर रो सकती हैं। यहाँ तक कि वह श्षड़रस युक्त अवलेह तैयार हुआ। उसने उसे उतारकर नीचे रखा। तब तवा चढ़़ाया और हाथों से रोटीयाँ बनाकर सेंकने लगा। कितना ठीक अंदाज था। रोटीयाँ सब समान थीं—न छोटीए न बड़ीय न सेवड़ीए न जली हुई। तवे से उतार—उतारकर रोटीयों को चूल्हे में खिलाता थाए और जमीन पर रखता जाता था। जब रोटीयाँ बन गईं तो उसने द्वार पर खड़े होकर जोर से पुकारा—श्मिट्ठूए आओ बेटाए खाना तैयार है।श् किंतु जब मिट्ठू न आयाए तो उसने फिर द्वार पर टट्टी लगाईए और नायकराम के बरामदे में जाकर श्मिट्ठू—मिट्ठूश् पुकारने लगा। मिट्ठू वहीं पड़ा सो रहा थाए आवाज सुनकर चौंका। बारह—तेरह वर्ष का सुंदर हँसमुख बालक था। भरा हुआ शरीरए सुडौल हाथ—पाँव। यह सूरदास के भाई का लड़का था। माँ—बाप दोनों प्लेग में मर चुके थे। तीन साल से उसके पालन—पोषण का भार सूरदास ही पर था। वह इस बालक को प्राणों से भी प्यारा समझता था। आप चाहे फाके करेए पर मिट्ठू को तीन बार अवश्य खिलाता था। आप मटर चबाकर रह जाता थाए पर उसे शकर और रोटीए कभी घी और नमक के साथ रोटीयाँ खिलाता था। अगर कोई भिक्षा में मिठाई या गुड़ दे देताए तो उसे बड़े यत्न से अंगोछे के कोने में बाँध लेता और मिट्ठू को ही देता था। सबसे कहताए यह कमाई बुढ़़ापे के लिए कर रहा हूँ। अभी तो हाथ—पैर चलते हैंए माँग—खाता हूँय जब उठ—बैठ न सकूँगाए तो लोटा—भर पानी कौन देगाघ् मिट्ठू को सोते पाकर गोद में उठा लियाए और झोंपड़ी के द्वार पर उतारा। तब द्वार खोलाए लड़के का मुँह धुलवायाए और उसके सामने गुड़ और रोटीयाँ रख दीं। मिट्ठू ने रोटीयाँ देखींए तो ठुनककर बोला—मैं रोटी और गुड़ न खाऊँगा। यह कहकर उठ खड़ा हुआ।

सूरदास—बेटाए बहुत अच्छा गुड़ हैए खाओ तो। देखोए कैसी नरम—नरम रोटीयाँ हैं। गेहूँ की हैं।

मिट्ठू—मैं न खाऊँगा।

सूरदास—तो क्या खाओगे बेटाघ् इतनी रात गए और क्या मिलेगाघ्

मिट्ठू—मैं तो दूध—रोटी खाऊँगा।

सूरदास—बेटाए इस जून खा लो। सबेरे मैं दूध ला दूँगा।

मिट्ठू रोने लगा। सूरदास उसे बहलाकर हार गयाए तो अपने भाग्य को रोता हुआ उठाए लकड़ी सँभाली और टटोलता हुआ बजरंगी अहीर के घर आयाए जो उसके झोंपड़े के पास ही था। बजरंगी खाट पर बैठा नारियल पी रहा था। उसकी स्त्री जमुनी खाना पकाती थी। अॉंगन में तीन भैंसें और चार—पाँच गायें चरनी पर बँधी हुई चारा खा रही थीं। बजरंगी ने कहा—कैसे चले सूरेघ् आज बग्घी पर कौन लोग बैठे तुमसे बातें कर रहे थेघ्

सूरदास—वही गोदाम के साहब थे।

बजरंगी—तुम तो बहुत दूर तक गाड़ी के पीछे दौड़ेए कुछ हाथ लगाघ्

सूरदास—पत्थर हाथ लगा। ईसाइयों में भी कहीं दया—धर्म होता है। मेरी वही जमीन लेने को कहते थे।

बजरंगी—गोदाम के पीछेवाली नघ्

सूरदास—हाँ वहींए बहुत लालच देते रहेए पर मैंने हामी नहीं भरी।

सूरदास ने सोचा थाए अभी किसी से यह बात न कहूँगाए पर इस समय दूध लेने के लिए खुशामद जरूरी थी। अपना त्याग दिखाकर सुर्खरू बनना चाहता था।

बजरंगी—तुम हामी भरतेए तो यहाँ कौन उसे छोड़े देता था। तीन—चार गाँवों के बीच में वही तो जमीन है। वह निकल जाएगीए तो हमारी गायें और भैंसें कहाँ जाएँगीघ्

जमुनी—मैं तो इन्हीं के द्वार पर सबको बाँध आती।

सूरदास—मेरी जान निकल जाएए तब तो बेचूँ ही नहींए हजार—पाँच सौ की क्या गिनती। भौजीए एक घूँट दूध हो तो दे दो। मिठुआ खाने बैठा है। रोटी और गुड़ छूता ही नहींए बसए दूध—दूध की रट लगाए हुए है। जो चीज घर में नहीं होतीए उसी के लिए जिद करता है। दूध न पाएगा तो बिना खाए ही सो रहेगा।

बजरंगी—ले जाओए दूध का कौन अकाल है। अभी दुहा है। घीसू की माँए एक कुल्हिया दूध दे दे सूरे को।

जमुनी—जरा बैठ जाओ सूरेए हाथ खाली होए तो दूँ।

बजरंगी—वहाँ मिठुआ खाने बैठा हैए तैं कहती हैए हाथ खाली हो तो दूँ। तुझसे न उठा जाएए तो मैं आऊँ।

जमुनी जानती थी कि यह बुध्दू दास उठेंगेए तो पाव के बदले आधा सेर दे डालेंगे। चटपट रसोई से निकल आई। एक कुल्हिया में आधा पानी लियाए ऊपर से दूध डालकर सूरदास के पास आई और विषाक्त हितैषिता से बोली—यह लोए लौंडे की जीभ तुमने ऐसी बिगाड़ दी है कि बिना दूध के कौर नहीं उठाता। बाप जीता थाए तो भर—पेट चने भी न मिलते थेए अब दूध के बिना खाने ही नहीं उठता।

सूरदास—क्या करूँ भाभीए रोने लगता हैए तो तरस आता है।

जमुनी—अभी इस तरह पाल—पोस रहे हो कि एक दिन काम आएगाए मगर देख लेनाए जो चुल्लू—भर पानी को भी पूछे। मेरी बात गाँठ बाँध लो। पराया लड़का कभी अपना नहीं होता। हाथ—पाँव हुएए और तुम्हें दुत्कारकर अलग हो जाएगा। तुम अपने लिए साँप पाल रहे हो।

सूरदास—जो कुछ मेरा धरम हैए किए देता हूँ। आदमी होगाए तो कहाँ तक जस न मानेगा। हाँए अपनी तकदीर ही खोटी हुईए तो कोई क्या करेगा। अपने ही लड़के क्या बड़े होकर मुँह नहीं फेर लेतेघ्

जमुनी—क्यों नहीं कह देतेए मेरी भैंसें चरा लाया करे। जवान तो हुआए क्या जन्मभर नन्हा ही बना रहेगाघ् घीसू ही का जोड़ी—पारी तो है। मेरी बात गाँठ बाँध लो। अभी से किसी काम में न लगायाए तो खिलाड़ी हो जाएगा। फिर किसी काम में उसका जी न लगेगा। सारी उमर तुम्हारे ही सिर फुलौरियाँ खाता रहेगा।

सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। दूध की कुल्हिया लीए और लाठी से टटोलता हुआ घर चला। मिट्ठू जमीन पर सो रहा था। उसे फिर उठायाए और दूध में रोटीयाँ भिगोकर उसे अपने हाथ से खिलाने लगा। मिट्ठू नींद से गिरा पड़ता थाए पर कौर सामने आते ही उसका मुँह आप—ही—आप खुल जाता। जब वह सारी रोटीयाँ खा चुका हैए तो सूरदास ने उसे चटाई पर लिटा दियाए और हाँडी से अपनी पँचमेल खिचड़ी निकालकर खाई। पेट न भराए तो हाँड़ी धोकर पी गया। तब फिर मिट्ठू को गोद में उठाकर बाहर आयाए द्वार पर टट्टी लगाई और मंदिर की ओर चला।

यह मंदिर ठाकुरजी का थाए बस्ती के दूसरे सिरे पर। ऊँची कुरसी थी। मंदिर के चारों तरफ तीन—चार गज का चौड़ा चबूतरा था। यही मुहल्ले की चौपाल थी। सारे दिन दस—पाँच आदमी यहाँ लेटे या बैठे रहते थे। एक पक्का कुअॉं भी थाए जिस पर जगधार नाम का एक खोमचेवाला बैठा करता था। तेल की मिठाइयाँए मूँगफलीए रामदाने के लड्डू आदि रखता था। राहगीर आतेए उससे मिठाइयाँ लेतेए पानी निकालकर पीते और अपनी राह चले जाते। मंदिर के पुजारी का नाम दयागिरि थाए जो इसी मंदिर के समीप एक कुटीया में रहते थे। सगुण ईश्वर के उपासक थेए भजन—कीर्तन को मुक्ति का मार्ग समझते थे और निर्वाण को ढ़ोंग कहते थे। शहर के पुराने रईस कुँअर भरतसिंह के यहाँ मासिक वृत्ति बँधी हुई थी। इसी से ठाकुरजी का भोग लगता था। बस्ती से भी कुछ—न—कुछ मिल ही जाता था। निरूस्पृह आदमी थाए लोभ छू भी नहीं गया थाए संतोष और धीरज का पुतला था। सारे दिन भगवत्—भजन में मग्न रहता था। मंदिर में एक छोटी—सी संगत थी। आठ—नौ बजे रात कोए दिन भर के काम—धांधो से निवृत्ता होकरए कुछ भक्तजन जमा हो जाते थेए और घंटे—दो घंटे भजन गाकर चले जाते थे। ठाकुरदीन ढ़ोलक बजाने में निपुण थाए बजरंगी करताल बजाता थाए जगधार को तँबूरे में कमाल थाए नायकराम और दयागिरि सारंगी बजाते थे। मँजीरेवालों की संख्या घटती—बढ़़ती रहती थी। जो और कुछ न कर सकताए वह मँजीरा ही बजाता था। सूरदास इस संगत का प्राण था। वह ढ़ोलए मँजीरेए करतालए सारंगीए तँबूरा सभी में समान रूप से अभ्यस्त थाए और गाने में तो आस—पास के कई मुहल्लों में उसका जवाब न था। ठुमरी—गजल से उसे रुचि न थी। कबीरए मीराए दादूए कमालए पलटू आदि संतों के भजन गाता था। उस समय उसका नेत्राहीन मुख अति आनंद से प्रफुल्लित हो जाता था। गाते—गाते मस्त हो जाताए तन—बदन की सुधि न रहती। सारी चिंताएँए सारे क्लेश भक्ति —सागर में विलीन हो जाते थे।

सूरदास मिट्ठू को लिए पहुँचाए तो संगत बैठ चुकी थी। सभासद आ गए थेए केवल सभापति की कमी थी। उसे देखते ही नायकराम ने कहा—तुमने बड़ी देर कर दीए आधा घंटे से तुम्हारी राह देख रहे हैं। यह लौंडा बेतरह तुम्हारे गले पड़ा है। क्यों नहीं इसे हमारे ही घर से कुछ माँगकर खिला दिया करते।

दयागिरि—यहाँ चला आया करेए तो ठाकुरजी के प्रसाद ही से पेट भर जाए।

सूरदास—तुम्हीं लोगों का दिया खाता है या और किसी काघ् मैं तो बनाने—भर को हूँ।

जगधार—लड़कों को इतना सिर चढ़़ाना अच्छा नहीं। गोद में लादे फिरते होए जैसे नन्हा—सा बालक हो। मेरा विद्याधार इससे दो साल छोटा है। मैं उसे कभी गोद में लेकर नहीं फिरता।

सूरदास—बिना माँ—बाप के लड़के हठी हो जाते हैं। हाँए क्या होगाघ्

दयागिरि—पहले रामायण की एक चौपाई हो जाए।

लोगों ने अपने—अपने साज सँभाले। सुर मिला और आधा घंटे तक रामायण हुई।

नायकराम—वाह सूरदास वाह! अब तुम्हारे ही दम का जलूसा है।

बजरंगी—मेरी तो कोई दोनों अॉंखें ले लेए और यह हुनर मुझे दे देए तो मैं खुशी से बदल लूँ।

जगधार—अभी भैरों नहीं आयाए उसके बिना रंग नहीं जमता।

बजरंगी—ताड़ी बेचता होगा। पैसे का लोभ बुरा होता है। घर में एक मेहरिया है और एक बुढ़़िया माँ। मुआ रात—दिन हाय—हाय पड़ी रहती है। काम करने को तो दिन है हीए भला रात को तो भगवान्‌ का भजन हो जाए।

जगधार—सूरे का दम उखड़ जाता हैए उसका दम नहीं उखड़ता।

बजरंगी—तुम अपना खोंचा बेचोए तुम्हें क्या मालूमए दम किसे कहते हैं। सूरदास जितना दम बाँधते हैंए उतना दूसरा बाँधोए तो कलेजा फट जाए। हँसी—खेल नहीं है।

जगधार—अच्छा भैयाए सूरदास के बराबर दुनिया में कोई दम नहीं बाँध सकता। अब खुश हुए।

सूरदास—भैयाए इसमें झगड़ा काहे काघ् मैं कब कहता हूँ कि मुझे गाना आता है। तुम लोगों का हुक्म पाकरए जैसा भला—बुरा बनता हैए सुना देता हूँ।

इतने में भैरों भी आकर बैठ गया। बजरंगी ने व्यंग करके कहा—क्या अब कोई ताड़ी पीनेवाला नहीं थाघ् इतनी जल्दी क्यों दूकान बढ़़ा दीघ्

ठाकुरदीन—मालूम नहींए हाथ—पैर भी धोए हैं या वहाँ से सीधो ठाकुरजी के मंदिर में चले आए। अब सफाई तो कहीं रह ही नहीं गई।

भैरों—क्या मेरी देह में ताड़ी पुती हुई हैघ्

ठाकुरदीन—भगवान्‌ के दरबार में इस तरह न आना चाहिए। जात चाहे ऊँची हो या नीचीय पर सफाई चाहिए जरूर।

भैरों—तुम यहाँ नित्य नहाकर आते होघ्

ठाकुरदीन—पान बेचना कोई नीच काम नहीं है।

भैरों—जैसे पानए वैसे ताड़ी। पान बेचना कोई ऊँचा काम नहीं है।

ठाकुरदीन—पान भगवान्‌ के भोग के साथ रखा जाता है। बड़े—बड़े जनेऊधारीए मेरे हाथ का पान खाते हैं। तुम्हारे हाथ का तो कोई पानी नहीं पीता।

नायकराम—ठाकुरदीनए यह बात तो तुमने बड़ी खरी कही। सच तो हैए पासी से कोई घड़ा तक नहीं छुआता।

भैरों—हमारी दूकान पर एक दिन आकर बैठ जाओए तो दिखा दूँए कैसे—कैसे धार्मात्मा और तिलकधारी आते हैं। जोगी—जती लोगों को भी किसी ने पान खाते देखा हैघ् ताड़ीए गाँजाए चरस पीते चाहे जब देख लो। एक—से—एक महात्मा आकर खुशामद करते हैं।

नायकराम—ठाकुरदीनए अब इसका जवाब दो। भैरों पढ़़ा—लिखा होताए तो वकीलों के कान काटता।

भैरों—मैं तो बात सच्ची कहता हूँए जैसे ताड़ी वैसे पानए बल्कि परात की ताड़ी को तो लोग दवा की तरह पीते हैं।

जगधार—यारोए दो—एक भजन होने दो। मान क्यों नहीं जाते ठाकुरदीनघ् तुम्हें हारेए भैरों जीताए चलो छुट्टी हुई।

नायकराम—वाहए हार क्यों मान लें। सासतरार्थ है कि दिल्लगी। हाँए ठाकुरदीन कोई जवाब सोच निकालो।

ठाकुरदीन—मेरी दूकान पर खड़े हो जाओए जी खुश हो जाता है। केवड़े और गुलाब की सुगंधा उड़ती है। इसकी दूकान पर कोई खड़ा हो जाएए तो बदबू के मारे नाक फटने लगती है। खड़ा नहीं रहा जाता। परनाले में भी इतनी दुगर्ंधा नहीं होती।

बजरंगी—मुझे जो घंटे—भर के लिए राज मिल जाताए तो सबसे पहले शहर—भर की ताड़ी की दूकानों में आग लगवा देता।

नायकराम—अब बताओ भैरोंए इसका जवाब दो। दुगर्ंधा तो सचमुच उड़ती हैए है कोई जवाबघ्

भैरों—जवाब एक नहींए सैकड़ों हैं। पान सड़ जाता हैए तो कोई मिट्टी के मोल भी नहीं पूछता। यहाँ ताड़ी जितनी ही सड़ती हैए उतना ही उसका मोल बढ़़ता है। सिरका बन जाता हैए तो रुपये बोतल बिकता हैए और बड़े—बड़े जनेऊधारी लोग खाते हैं।

नायकराम—क्या बात कही है कि जी खुश हो गया। मेरा अख्तियार होताए तो इसी घड़ी तुमको वकालत की सनद दे देता। ठाकुरदीनए अब हार मान जाओए भैरों से पेश न पा सकोगे।

जगधार—भैरोंए तुम चुप क्यों नहीं हो जातेघ् पंडाजी को तो जानते होए दूसरों को लड़ाकर तमाशा देखना इनका काम है। इतना कह देने में कौन—सी मरजादा घटी जाती है कि बाबाए तुम जीते और मैं हारा।

भैरों—क्यों इतना कह दूँघ् बात करने में किसी से कम हूँ क्याघ्

जगधार—तो ठाकुरदीनए तुम्हीं चुप हो जाओ।

ठाकुरदीन—हाँ जीए चुप न हो जाऊँगाए तो क्या करूँगा। यहाँ आए थे कि कुछ भजन—कीर्तन होगाए सो व्यर्थ का झगड़ा करने लगे। पंडाजी को क्याए इन्हें तो बेहाथ—पैर हिलाए अमिर्तियाँ और लड्डू खाने को मिलते हैंए इन्हें इसी तरह की दिल्लगी सूझती है। यहाँ तो पहर रात से उठकर फिर चक्की में जुतना है।

जगधार—मेरी तो अबकी भगवान्‌ से भेंट होगीए तो कहूँगाए किसी पंडे के घर जन्म देना।

नायकराम—भैयाए मुझ पर हाथ न उठाओए दुबला—पतला आदमी हूँ। मैं तो चाहता हूँए जलपान के लिए तुम्हारे ही खोंचे से मिठाइयाँ लिया करूँए मगर उस पर इतनी मक्खियाँ उड़ती हैंए ऊपर इतना मैल जमा रहता है कि खाने को जी नहीं चाहता।

जगधार—(चिढ़़कर) तुम्हारे न लेने से मेरी मिठाइयाँ सड़ तो नहीं जातीं कि भूखों मरता हूँघ् दिन—भर में रुपया—बीस आने पैसे बना ही लेता हूँ। जिसे सेंत—मेत में रसगुल्ले मिल जाएँए वह मेरी मिठाइयाँ क्यों लेगाघ्

ठाकुरदीन—पंडाजी की आमदनी का कोई ठिकाना नहीं हैए जितना रोज मिल जाएए थोड़ा ही हैय ऊपर से भोजन घाते में। कोई अॉंख का अंधाए गाँठ का पूरा फँस गयाए तो हाथी—घोड़े जगह—जमीनए सब दे दिया। ऐसा भागवान और कौन होगाघ्

दयागिरि—कहीं नहीं ठाकुरदीनए अपनी मेहनत की कमाई सबसे अच्छी। पंडों को यात्रियों के पीछे दौड़ते नहीं देखा है।

नायकराम—बाबाए अगर कोई कमाई पसीने की हैए तो वह हमारी कमाई है। हमारी कमाई का हाल बजरंगी से पूछो।

बजरंगी—औरों की कमाई पसीने की होती होगीए तुम्हारी कमाई तो खून की है। और लोग पसीना बहाते हैंए तुम खून बहाते हो। एक—एक जजमान के पीछे लोहू की नदी बह जाती है। जो लोग खोंचा सामने रखकर दिन—भर मक्खी मारा करते हैंए वे क्या जानेंए तुम्हारी कमाई कैसी होती हैघ् एक दिन मोरचा थामना पड़ेए तो भागने को जगह न मिले।

जगधार—चलो भीए आए हो मुँहदेखी कहनेए सेर—भर दूध ढ़ाई सेर बनाते होए उस पर भगवान्‌ के भगत हो।

बजरंगी—अगर कोई माई का लाल मेरे दूध में एक बूँद पानी निकाल देए तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। यहाँ दूध में पानी मिलाना गऊ—हत्या समझते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचेंए और भोले—भाले बच्चों को ठगें।

जगधार—अच्छा भाईए तुम जीतेए मैं हारा। तुम सच्चेए तुम्हारा दूध सच्चा। बसए हम खराबए हमारी मिठाइयाँ खराब। चलो छुट्टी हुई।

बजरंगी—मेरे मिजाज को तुम नहीं जानतेए चेता देता हूँ। सच कहकर कोई सौ जूते मार लेए लेकिन झूठी बात सुनकर मेरे बदन में आग लग जाती है।

भैरों—बजरंगीए बहुत बढ़़कर बातें न करोए अपने मुँह मियाँ—मिट्ठू बनने से कुछ नहीं होता है। बसए मुँह न खुलवाओए मैंने भी तुम्हारे यहाँ का दूध पिया है। उससे तो मेरी ताड़ी ही अच्छी है।

ठाकुरदीन—भाईए मुँह से जो चाहे ईमानदार बन लेय पर अब दूध सपना हो गया। सारा दूध जल जाता हैए मलाई का नाम नहीं। दूध जब मिलता थाए तब मिलता थाए एक अॉंच में अंगुल—भर मोटी मलाई पड़ जाती थी।

दयागिरि—बच्चाए अभी अच्छा—बुरा कुछ मिल तो जाता है। वे दिन आ रहे हैं कि दूध अॉंखों में अॉंजने को भी न मिलेगा।

भैरों—हाल तो यह है कि घरवाली सेर के तीन सेर बनाती हैए उस पर दावा यह कि हम सच्चा माल बेचते हैं। सच्चा माल बेचोए तो दिवाला निकल जाए। यह ठाट एक दिन न चले।

बजरंगी—पसीने की कमाई खानेवालों का दिवाला नहीं निकलताय दिवाला उनका निकलता हैए जो दूसरों की कमाई खा—खाकर मोटे पड़ते हैं। भाग को सराहो कि शहर में होय किसी गाँव में होतेए तो मुँह में मक्खियाँ आतीं—जातीं। मैं तो उन सबोंकों को पापी समझता हूँए जो औने—पौने करकेए इधार का सौदा उधार बेचकर अपना पेट पालते हैं। सच्ची कमाई उन्हीं की हैए जो छाती फाड़कर धरती से धान निकालते हैं।

बजरंगी ने बात तो कहीए लेकिन लज्जित हुआ। इस लपेट में वहाँ के सभी आदमी आ जाते थे। वह भैरोंए जगधार और ठाकुरदीन को लक्ष्य करना चाहता थाए पर सूरदासए नायकरामए दयागिरिए सभी पापियों की श्रेणी में आ गए।

नायकराम—तब तो भैयाए तुम हमें भी ले बीते। एक पापी तो मैं ही हूँ कि सारे दिन मटरगस्ती करता हूँए और वह भोजन करता हूँ कि बड़ों—बड़ों को मयस्सर न हो।

ठाकुरदीन—दूसरा पापी मैं हूँ कि शौक की चीज बेचकर रोटीयाँ कमाता हूँ। संसार में तमाोली न रहेंए तो किसका नुकसान होगाघ्

जगधार—तीसरा पापी मैं हूँ कि दिन—भर औन—पौन करता रहता हूँ। सेव और खुम खाने को न मिलेंए तो कोई मर न जाएगा।

भैरों—तुमसे बड़ा पापी मैं हूँ कि सबको नसा खिलाकर अपना पेट पालता हूँ। सच पूछोए तो इससे बुरा कोई काम नहीं। आठों पहर नशेबाजों का साथए उन्हीं की बातें सुननाए उन्हीं के बीच रहना। यह भी कोई जिंदगी है!

दयागिरि—क्यों बजरंगीए साधु—संत तो सबसे बड़े पापी होंगे कि वे कुछ नहीं करतेघ्

बजरंगी—नहीं बाबाए भगवान्‌ के भजन से बढ़़कर और कौन उद्यम होगाघ् राम—नाम की खेती सब कामों से बढ़़कर है।

नायकराम—तो यहाँ अकेले बजरंगी पुन्यात्मा हैए और सब—के—सब पापी हैंघ्

बजरंगी—सच पूछोए तो सबसे बड़ा पापी मैं हूँ कि गउओं का पेट काटकरए उनके बछड़ों को भूखा मारकर अपना पेट पालता हूँ।

सूरदास—भाईए खेती सबसे उत्ताम हैए बान उससे मध्दिम हैय बसए इतना ही फरक है। बान को पाप क्यों कहते हैंए और क्यों पापी बनते होघ् हाँ सेवा निरघिन हैए और चाहो तो उसे पाप कहो। अब तक तो तुम्हारे ऊपर भगवान्‌ की दया हैए अपना—अपना काम करते होय मगर ऐसे बुरे दिन आ रहे हैंए जब तुम्हें सेवा और टहल करके पेट पालना पड़ेगाए जब तुम अपने नौकर नहींए पराए के नौकर हो जाओगेए तब तुममें नीतिधरम का निशान भी न रहेगा।

सूरदास ने ये बातें बड़े गंभीर भाव से कहींए जैसे कोई ऋषि भविष्यवाणी कर रहा हो। सब सन्नाटे में आ गए। ठाकुरदीन ने चिंतित होकर पूछा—क्यों सूरेए कोई विपत आने वाली है क्याघ् मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर डर लग रहा है। कोई नई मुसीबत तो नहीं आ रही हैघ्

सूरदास—हाँए लच्छन तो दिखाई देते हैंए चमड़े के गोदामवाला साहब यहाँ एक तमाकू का कारखाना खोलने जा रहा है। मेरी जमीन माँग रहा है। कारखाने का खुलना ही हमारे ऊपर विपत का आना है।

ठाकुरदीन—तो जब जानते ही होए तो क्यों अपनी जमीन देते होघ्

सूरदास—मेरे देने पर थोड़े ही है भाई। मैं दूँए तो भी जमीन निकल जाएगीए न दूँए तो निकल जाएगी। रुपयेवाले सब कुछ कर सकते हैं।

बजरंगी—साहब रुपयेवाले होंगेए अपने घर के होंगे। हमारी जमीन क्या खाकर ले लेंगेघ् माथे गिर जाएँगेए माथे! ठट्ठा नहीं है।

अभी ये ही बातें हो रही थीं कि सैयद ताहिर अली आकर खड़े हो गएए और नायकराम से बोले—पंडाजीए मुझे आपसे कुछ कहना हैए जरा इधार चले आइए।

बजरंगी—उसी जमीन के बारे में कुछ बातचीत करनी है नघ् वह जमीन न बिकेगी।

ताहिर—मैं तुमसे थोड़े ही पूछता हूँ। तुम उस जमीन के मालिक—मुख्तार नहीं हो।

बजरंगी—कह तो दियाए वह जमीन न बिकेगीए मालिक—मुख्तार कोई हो।

ताहिर—आइए पंडाजीए आइएए इन्हें बकने दीजिए।

नायकराम—आपको जो कुछ कहना हो कहिएय ये सब लोग अपने ही हैंए किसी से परदा नहीं है। सुनेंगेए तो सब सुनेंगेए और जो बात तय होगीए सबकी सलाह से होगी। कहिएए क्या कहते हैंघ्

ताहिर—उसी जमीन के बारे में बातचीत करनी थी।

नायकराम—तो उस जमीन का मालिक तो आपके सामने बैठा हुआ है। जो कुछ कहना हैए उसी से क्यों नहीं कहतेघ् मुझे बीच में दलाली नहीं खानी है। जब सूरदास ने साहब के सामने इनकार कर दियाए तो फिर कौन—सी बात बाकी रह गईघ्

बजरंगी—इन्होंने सोचा होगा कि पंडाजी को बीच में डालकर काम निकाल लेंगे। साहब से कह देनाए यहाँ साहबी न चलेगी।

ताहिर—तुम अहीर हो नए तभी इतने गर्म हो रहे हो। अभी साहब को जानते नहीं होए तभी बढ़़—बढ़़कर बातें कर रहे हो। जिस वक्त साहब जमीन लेने पर आ जाएँगेए ले ही लेंगेए तुम्हारे रोके न रुकेंगे। जानते होए शहर के हाकिमों से उनका कितना रब्त—जब्त हैघ् उनकी लड़की की मँगनी हाकिम—जिला से होनेवाली है। उनकी बात को कौन टाल सकता हैघ् सीधो सेए रजामंदी के साथ दे दोगेए तो अच्छे दाम पा जाओगेय शरारत करोगेए तो जमीन भी निकल जाएगीए कौड़ी भी हाथ न लगेगी। रेलों के मालिक क्या जमीन अपने साथ लाए थेघ् हमारी ही जमीन तो ली हैघ् क्या उसी कायदे से यह जमीन नहीं निकल सकतीघ्

बजरंगी—तुम्हें भी कुछ तय—कराई मिलनेवाली होगीए तभी इतनी खैरखाही कर रहे हो।

जगधार—उनसे जो कुछ मिलनेवाला होए वह हमीं से ले लीजिएए और उनसे कह दीजिएए जमीन न मिलेगी। आप लोग झाँसेबाज हैंए ऐसा झाँसा दीजिए कि साहब की अकिल गुम हो जाए।

ताहिर—खैरख्वाही रुपये के लालच से नहीं है। अपने मालिक की अॉंख बचाकर एक कौड़ी भी लेना हराम समझता हूँ। खैरख्वाही इसलिए करता हूँ कि उनका नमक खाता हूँ।

जगधार—अच्छा साहबए भूल हुईए माफ कीजिए। मैंने तो संसार के चलन की बात कही थी।

ताहिर—तो सूरदासए मैं साहब से जाकर क्या कह दूँघ्

सूरदास—बसए यही कह दीजिए कि जमीन न बिकेगी।

ताहिर—मैं फिर कहता हूँए धोखा खाओगे। साहब जमीन लेकर ही छोड़ेंगे।

सूरदास—मेरे जीते—जी तो जमीन न मिलेगी। हाँए मर जाऊँ तो भले ही मिल जाए।

ताहिर अली चले गएए तो भैरों बोला—दुनिया अपना ही फायदा देखती है। अपना कल्याण होए दूसरे जिएँ या मरें। बजरंगीए तुम्हारी तो गायें चरती हैंए इसलिए तुम्हारी भलाई तो इसी में है कि जमीन बनी रहे। मेरी कौन गाय चरती हैघ् कारखाना खुलाए तो मेरी बिक्री चौगुनी हो जाएगी। यह बात तुम्हारे धयान में क्यों नहीं आईघ् तुम सबकी तरफ से वकालत करनेवाले कौन होघ् सूरे की जमीन हैए वह बेचे या रखेए तुम कौन होते होए बीच में कूदनेवालेघ्

नायकराम—हाँ बजरंगीए जब तुमसे कोई वास्ता—सरोकार नहींए तो तुम कौन होते हो बीच में कूदनेवालेघ् बोलोए भैरों को जवाब दो।

बजरंगी—वास्ता—सरोकार कैसे नहींघ् दस गाँवों और मुहल्लों के जानवर यहाँ चरने आते हैं। वे कहाँ जाएँगेघ् साहब के घर कि भैरों केघ् इन्हें तो अपनी दूकान की हाय—हाय पड़ी हुई है। किसी के घर सेंधा क्यों नहीं मारतेघ् जल्दी से धानवान हो जाओगे।

भैरों—सेंधा मारो तुमय यहाँ दूध में पानी नहीं मिलाते।

दयागिरि—भैरोंए तुम सचमुच बड़े झगड़ालू हो। जब तुम्हें प्रियवचन बोलना नहीं आताए तो चुप क्यों नहीं रहतेघ् बहुत बातें करना बुध्दिमानी का लक्षण नहींए मूर्खता का लक्षण है।

भैरों—ठाकुरजी के भोग के बहाने से रोज छाछ पा जाते हो नघ् बजरंगी की जय क्यों न मनाओगे!

नायकराम—पट्ठा बात बेलाग कहता है कि एक बार सुनकर फिर किसी की जबान नहीं खुलती।

ठाकुरदीन—अब भजन—भाव हो चुका। ढ़ोल—मँजीरा उठाकर रख दो।

दयागिरि—तुम कल से यहाँ न आया करोए भैरों।

भैरों—क्यों न आया करेंघ् मंदिर तुम्हारा बनवाया नहीं है। मंदिर भगवान्‌ का है। तुम किसी को भगवान्‌ के दरबार में आने से रोक दोगेघ्

नायकराम—लो बाबाजीए और लोगेए अभी पेट भरा कि नहींघ्

जगधार—बाबाजीए तुम्हीं गम खा जाओए इससे साधु—संतों की महिमा नहीं घटती। भैरोंए साधु—संतों की बात का तुम्हें बुरा न मानना चाहिए।

भैरों—तुम खुशामद करोए क्योंकि खुशामद की रोटीयाँ खाते हो। यहाँ किसी के दबैल नहीं हैं।

बजरंगी—ले अब चुप ही रहना भैरोंए बहुत हो चुका। छोटा मुँहए बड़ी बात।

नायकराम—तो भैरों को धामकाते क्या होघ् क्या कोई भगोड़ा समझ लिया हैघ् तुमने जब दंगल मारे थेए तब मारे थेए अब तुम वही नहीं हो। आजकल भैरों की दुहाई है।

भैरों नायकराम के व्यंग्य—हास्य पर झल्लाया नहींए हँस पड़ा। व्यंग्य में विष नहीं थाए रस था। संखिया मरकर रस हो जाती है।

भैरों का हँसना था कि लोगों ने अपने—अपने साज सँभालेए और भजन होने लगा। सूरदास की सुरीली तान आकाश—मंडल में यों नृत्य करती हुई मालूम होती थीए जैसे प्रकाश—ज्योति जल के अंतस्तल में नृत्य करती है—

श्श्झीनी—झीनी बीनी चदरिया।

काहे कै तानाए काहे कै भरनीए कौन तार से बीनी चदरियाघ्

इँगला—पिंगला ताना—भरनीए सुखमन तार से बीनी चदरिया।

आठ कँवल—दस—चरखा डोलेए पाँच तत्ताए गुन तीनी चदरियाय

साईं को सियत मास दस लागैए ठोक—ठोक कै बीनी चदरिया।

सो चादर सुर—नर—मुनि ओढ़़ैंए ओढ़़िकै मैली कीनी चदरियाय

दास कबीर जतन से ओढ़़ीए ज्यों—की—त्यों धार दीनी चदरिया।श्श्

बातों में रात अधिक जा चुकी थी। ग्यारह का घंटा सुनाई दिया। लोगों ने ढ़ोलक—मँजीरे समेट दिए। सभा विसर्जित हुई। सूरदास ने मिट्ठू को फिर गोद में उठायाए और अपनी झोंपड़ी में लाकर टाट पर सुला दिया। आप जमीन पर लेट रहा

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अध्याय 3

मि. जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि. ईश्वर सेवक ने सेना—विभाग में पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया थाए और अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलताए और न हमें उसकी खोज करने की विशेष जरूरत है। हाँ इतनी बात अवश्य निश्चित है कि प्रभु ईसा की शरण जाने का गौरव ईश्वर सेवक को नहींए उनके पिता को था। ईश्वर सेवक को अब भी अपना बाल्य जीवन कुछ—कुछ याद आता थाए जब वह अपनी माता के साथ गंगास्नान को जाया करते थे। माता की दाह—क्रिया की स्मृति भी अभी न भूली थी। माता के देहांत के बाद उन्हें याद आता था कि मेरे घर में कई सैनिक घुस आए थेए और मेरे पिता को पकड़कर ले गए थे। इसके बाद स्मृति विशृंखल हो जाती थी। हाँए उनके गोरे रंग और आकृति से यह सहज ही अनुमान किया जा सकता था कि वह उच्चवंशीय थेए और कदाचित्‌ इसी सूबे में उनका पूर्व निवास भी था।

यह बँगला उस जमाने में बना थाए जब सिगरा में भूमि का इतना आदर न था। अहाते में फूल—पत्तिायों की जगह शाक—भाजी और फलों के वृक्ष थे। यहाँ तक कि गमलों में भी सुरुचि की अपेक्षा उपयोगिता पर अधिक धयान दिया गया था। बेलें परवलए कद्दूए कुँदरूए सेम आदि की थींए जिनसे बँगले की शोभा होती थी और फल भी मिलता था। एक किनारे खपरैल का बरामदा थाए जिसमें गाय—भैंस पली हुई थीं। दूसरी ओर अस्तबल था। मोटर का शौक न बाप को थाए न बेटे को। फिटन रखने में किफायत भी थी और आराम भी। ईश्वर सेवक को तो मोटरों से चिढ़़ थी। उनके शोर से उनकी शांति में विघ्न पड़ता था। फिटन का घोड़ा अहाते में एक लम्बी रस्सी से बाँधकर छोड़ दिया जाता था। अस्तबल से बाग के लिए खाद निकल आती थीए और केवल एक साईस से काम चल जाता। ईश्वर सेवक गृह—प्रबंध में निपुण थेए और गृह—कायोर्ं में उनका उत्साह लेश—मात्रा भी कम न हुआ था। उनकी आराम—कुर्सी बंगले के सायबान में पड़ी रहती थी। उस पर वह सुबह से शाम तक बैठे जॉन सेवक की फिजूलखर्ची और घर की बरबादी का रोना रोया करते थे। वह अब भी नियमित रूप से पुत्रा को घंटे—दो—घंटे उपदेश दिया करते थेए और शायद इसी उपदेश का फल था कि जॉन सेवक का धान और मान दिनोंदिन बढ़़ता जाता था। श्किफायतश् उनके जीवन का मूल तत्तव था। और इसका उल्लंघन उन्हें असह्य था। वह अपने घर में धान का अपव्यय नहीं देख सकते थेए चाहे वह किसी मेहमान ही का धान क्यों न हो। धार्मानुरागी इतने थे कि बिला नागा दोनों वक्त गिरजाघर जाते। उनकी अपनी अलग सवारी थी। एक आदमी इस तामजान को खींचकर गिरजाघर के द्वार तक पहुँचा आया करता था। वहाँ पहुँचकर ईश्वर सेवक उसे तुरंत घर लौटा देते थे। गिरजा के अहाते में तामजान की रक्षा के लिए किसी आदमी के बैठे रहने की जरूरत न थी। घर आकर वह आदमी और कोई काम कर सकता था। बहुधा उसे लौटाते समय वह काम भी बतलाया करते थे। दो घंटे बाद वह आदमी जाकर उन्हें खींच लाता था। लौटती बार वह यथासाधय खाली हाथ न लौटते थेए कभी दो—चार पपीते मिल जातेए कभी नारंगियाँए कभी सेर—आधा—सेर मकोय। पादरी उनका बहुत सम्मान करता था। उनकी सारी उम्मत (अनुयायियों की मंडली) में इतना वयोवृध्द और दूसरा आदमी न थाए उस पर धर्म का इतना प्रेमी! वह उसके धार्मोपदेशों को जितनी तन्मयता से सुनते थे और जितनी भक्ति से कीर्तन में भाग लेते थेए वह आदर्श कही जा सकती थी।

प्रातरूकाल था। लोग जलपान करके या छोटी हाजिरी खाकरए मेज पर से उठे थे। मि. जॉन सेवक ने गाड़ी तैयार करने का हुक्म दिया। ईश्वर सेवक ने अपनी कुरसी पर बैठे—बैठे चाय का एक प्याला पिया थाए और झ्रुझला रहे थे कि इसमें शकर क्यों इतनी झोंक दी गई है। शकर कोई नियामत नहीं कि पेट फाड़कर खाई जाएए एक तो मुश्किल से पचती हैए दूसरे इतनी महँगी। इसकी आधी शकर चाय को मजेदार बनाने के लिए काफी थी। अंदाज से काम करना चाहिए थाए शकर कोई पेट भरने की चीज नहीं है। सैकड़ों बार कह चुका हूँए पर मेरी कौन सुनता है। मुझे तो सबने कुत्ता समझ लिया है। उसके भूँकने की कौन परवा करता हैघ्

मिसेज सेवक ने धार्मानुराग और मितव्ययिता का पाठ भलीभाँति अभ्यस्त किया था। लज्जित होकर बोली—पापाए क्षमा कीजिए। आज सोफी ने शकर ज्यादा डाल दी थी। कल से आपको यह शिकायत न रहेगीए मगर करूँ क्याए यहाँ तो हलकी चाय किसी को अच्छी ही नहीं लगती।

ईश्वर सेवक ने उदासीन भाव से कहा—मुझे क्या करना हैए कुछ कयामत तक तो बैठा रहूँगा नहींए मगर घर के बरबाद होने के ये ही लक्षण हैं। ईसूए मुझे अपने दामन में छुपा।

मिसेज सेवक—मैं अपनी भूल स्वीकार करती हूँ। मुझे अंदाज से शकर निकाल देनी चाहिए थी।

ईश्वर सेवक—अरेए तो आज यह कोई नई बात थोड़े ही है! रोज तो यही रोना रहता है। जॉन समझता हैए मैं घर का मालिक हूँए रुपये कमाता हूँए खर्च क्यों न करूँघ् मगर धान कमाना एक बात हैए उसका सद्व्‌यय करना दूसरी बात। होशियार आदमी उसे कहते हैंए जो धान का उचित उपयोग करे। इधार से लाकर उधार खर्च कर दियाए तो क्या फायदाघ् इससे तो न लाना ही अच्छा। समझाता ही रहाय पर इतनी ऊँची रास का घोड़ा ले लिया। इसकी क्या जरूरत थीघ् तुम्हें घुड़दौड़ नहीं करना है। एक टट्टू से काम चल सकता था। यही न कि औरों के घोड़े आगे निकल जातेए तो इसमें तुम्हारी क्या शेखी मारी जाती थी। कहीं दूर जाना नहीं पड़ता। टट्टू होताए छरू सेर की जगह दो सेर दाना खाता। आखिर चार सेर दाना व्यर्थ ही जाता है नघ् मगर मेरी कौन सुनता हैघ् ईसूए मुझे अपने दामन में छुपा। सोफीए यहाँ आ बेटीए कलामेपाक सुना।

सोफिया प्रभु सेवक के कमरे में बैठी हुई उनसे मसीह के इस कथन पर शंका कर रही थी कि गरीबों के लिए आसमान की बादशाहत हैए और अमीरों का स्वर्ग में जाना उतना ही असम्भव हैए जितना ऊँट का सुई की नोक में जाना। उसके मन में शंका हो रही थीए क्या दरिद्र होना स्वयं कोई गुण हैए और धानी होना स्वयं कोई अवगुणघ् उसकी बुध्दि इस कथन की सार्थकता को ग्रहण न कर सकती थी। क्या मसीह ने केवल अपने भक्तों को खुश करने के लिए ही धान की इतनी निंदा की हैघ् इतिहास बतला रहा है कि पहले केवल दीनए दुरूखीए दरिद्र और समाज के पतित जनता ने ही मसीह के दामन में पनाह ली। इसीलिए तो उन्होंने धान की इतनी अवहेलना नहीं कीघ् कितने ही गरीब ऐसे हैंए जो सिर से पाँव तक अधर्म और अविचार में डूबे हुए हैं। शायद उनकी दुष्टता ही उनकी दरिद्रता का कारण है। क्या केवल दरिद्रता उनके सब पापों का प्रायश्चित्त कर देगीघ् कितने ही धानी हैंए जिनके हृदय आईने की भाँति निर्मल हैं। क्या उनका वैभव उनके सारे सत्कमोर्ं को मिटा देगाघ्

सोफिया सत्यासत्य के निरूपण में सदैव रत रहती थी। धर्मतत्तवों को बुध्दि की कसौटी पर कसना उसका स्वाभाविक गुण थाए और जब तक तर्क—बुध्दि स्वीकार न करेए वह केवल धर्म—ग्रंथों के आधार पर किसी सिध्दांत को न मान सकती थी। जब उसके मन में कोई शंका होतीए तो वह प्रभु सेवक की सहायता से उसके निवारण की चेष्टा किया करती।

सोफिया—मैं इस विषय पर बड़ी देर से गौर कर रही हूँय पर कुछ समझ में नहीं आता। प्रभु मसीह ने दरिद्रता को इतना महत्व क्यों दिया और धान—वैभव को क्यों निषिध्द बतलायाघ्

प्रभु सेवक—जाकर मसीह से पूछा।

सोफिया—तुम क्या समझते होघ्

प्रभु सेवक—मैं कुछ नहीं समझताए और न कुछ समझना ही चाहता हूँ। भोजनए निद्रा और विनोदए ये ही मनुष्य—जीवन के तीन तत्तव हैं। इसके सिवा सब गोरखधंधा है। मैं धर्म को बुध्दि से बिल्कुल अलग समझता हूँ। धर्म को तोलने के लिए बुध्दि उतनी ही अनुपयुक्त हैए जितना बैंगन तोलने के लिए सुनार का काँटा। धर्म धर्म हैए बुध्दिए बुध्दि। या तो धर्म का प्रकाश इतना तेजोमय है कि बुध्दि की अॉंखें चौंधिया जाती हैंए या इतना घोर अंधकार है कि बुध्दि को कुछ नजर ही नहीं आता। इन झगड़ों में व्यर्थ सिर खपाती हो। सुनाए आज पापा चलते—चलते क्या कह गए!

सोफिया—नहींए मेरा धयान उधार न था।

प्रभु सेवक—यही कि मशीनों के लिए शीघ्र आर्डर दे दो। उस जमीन को लेने का इन्होंने निश्चय कर लिया। उसका मौका बहुत पसंद आया। चाहते हैं कि जल्द—से—जल्द बुनियाद पड़ जाएए लेकिन मेरा जी इस काम से घबराता है। मैंने यह व्यवसाय सीखा तोय पर सच पूछोए तो मेरा दिल वहाँ न लगता था। अपना समय दर्शनए साहित्यए काव्य की सैर में काटता था। वहाँ के बड़े—बड़े विद्वानों और साहित्य—सेवियों से वार्तालाप करने में जो आनंद मिलता थाए वह कारखाने में कहाँ नसीब थाघ् सच पूछोए तो मैं इसीलिए वहाँ गया ही था। अब घोर संकट में पड़ा हुआ हूँ। अगर इस काम में हाथ नहीं लगाताए तो पापा को दुरूख होगाए वह समझेंगे कि मेरे हजारों रुपये पानी में गिर गए! शायद मेरी सूरत से घृणा करने लगें। काम शुरू करता हूँ तो यह भय होता है कि कहीं मेरी बेदिली से लाभ के बदले हानि न हो। मुझे इस काम में जरा भी उत्साह नहीं। मुझे तो रहने को एक झोंपड़ी चाहिए और दर्शन तथा साहित्य का एक अच्छा—सा पुस्तकालय। और किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता। यह लोए दादा को तुम्हारी याद आ गई। जाओए नहीं तो वह यहाँ आ पहुँचेंगे और व्यर्थ की बकवास से घंटों समय नष्ट कर देंगे।

सोफिया—यह विपत्ति मेरे सिर बुरी पड़ी है। जहाँ पढ़़ने कुछ बैठी कि इनका बुलावा पहुँचा। आजकल श्उत्पत्तिश् की कथा पढ़़वा रहे हैं। मुझे एक—एक शब्द पर शंका होती है। कुछ बोलूँए तो बिगड़ जाएँ। बिल्कुल बेगार करनी पड़ती है।

मिसेज सेवक बेटी को बुलाने आ रही थीं। अंतिम शब्द उनके कानों में पड़ गए। तिलमिला गईं। आकर बोलीं—बेशकए ईश्वर—ग्रंथ पढ़़ना बेगार हैए मसीह का नाम लेना पाप हैए तुझे तो उस भिखारी अंधे की बातों में आनंद आता हैए हिंदुओं के गपोड़े पढ़़ने में तेरा जी लगता हैय ईश्वर—वाक्य तो तेरे लिए जहर है। खुदा जानेए तेरे दिमाग में यह खब्त कहाँ से समा गया है। जब देखती हूँए तुझे अपने पवित्र धर्म की निंदा ही करते देखती हूँ। तू अपने मन में भले ही समझ ले कि ईश्वर—वाक्य कपोल—कल्पना हैए लेकिन अंधे की अॉंखों में अगर सूर्य का प्रकाश न पहुँचेए तो सूर्य का दोष नहींए अंधे की अॉंखों का ही दोष है! आज तीन—चौथाई दुनिया जिस महात्मा के नाम पर जान देती हैए जिस महान्‌ आत्मा की अमृत—वाणी आज सारी दुनिया को जीवन प्रदान कर रही हैए उससे यदि तेरा मन विमुख हो रहा हैए तो यह तेरा दुर्भाग्य है और तेरी दुर्बुध्दि है। खुदा तेरे हाल पर रहम करे।

सोफिया—महात्मा ईसा के प्रति कभी मेरे मुँह से कोई अनुचित शब्द नहीं निकला। मैं उन्हें धर्मए त्याग और सद्विचार का अवतार समझती हूँ! लेकिन उनके प्रति श्रध्दा रखने का यह आशय नहीं है कि भक्तों ने उनके उपदेशों में जो असंगत बातें भर दी हैं या उनके नाम से जो विभूतियाँ प्रसिध्द कर रखी हैंए उन पर भी ईमान लाऊँ! औरए यह अनर्थ कुछ प्रभु मसीह ही के साथ नहीं किया गयाए संसार के सभी महात्माओं के साथ यही अनर्थ किया गया है।

मिसेज सेवक—तुझे ईश्वर—ग्रंथ के प्रत्येक शब्द पर ईमान लाना पड़ेगाए वरना तू अपनी गणना प्रभु मसीह के भक्तों में नहीं कर सकती।

सोफिया—तो मैं मजबूर होकर अपने को उनकी उम्मत से बाहर समझ्रूगीय क्योंकि बाइबिल के प्रत्येक शब्द पर ईमान लाना मेरे लिए असम्भव है!

मिसेज सेवक—तू विधार्मिणी और भ्रष्टा है। प्रभु मसीह तुझे कभी क्षमा न करेंगे!

सोफिया—अगर धार्मिक संकीर्णता से दूर रहने के कारण ये नाम दिए जाते हैंए तो मुझे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

मिसेज सेवक से अब जब्त न हो सका। अभी तक उन्होंने कातिल वार न किया था। मातृस्नेह हाथों को रोके हुए था। लेकिन सोफिया के वितंडावाद ने अब उनके धैर्य का अंत कर दिया! बोलीं—प्रभु मसीह से विमुख होनेवाले के लिए इस घर में जगह नहीं है।

प्रभु सेवक—मामाए आप घोर अन्याय कर रही हैं। सोफिया यह कब कहती हैए कि मुझे प्रभु मसीह पर विश्वास नहीं हैघ्

मिसेज सेवक—हाँए वह यही कह रही हैए तुम्हारी समझ का फेर है। ईश्वर—ग्रंथ पर ईमान न लाने का और क्या अर्थ हो सकता हैघ् इसे प्रभु मसीह के अलौकिक कृत्यों पर अविश्वास और उनके नैतिक उपदेशों पर शंका है। यह उनके प्रायश्चित्त के तत्तव को नहीं मानतीए उनके पवित्र आदेशों को स्वीकार नहीं करतीं।

प्रभु सेवक—मैंने इसे मसीह के आदेशों का उल्लंघन करते कभी नहीं देखा।

सोफिया—धार्मिक विषयों में मैं अपनी विवेक—बुध्दि के सिवा और किसी के आदेशों को नहीं मानती।

मिसेज सेवक—मैं तुझे अपनी संतान नहीं समझतीए और तेरी सूरत नहीं देखना चाहती।

यह कहकर सोफिया के कमरे में धुस गईंए और उसकी मेज पर से बौध्द—धर्म और वेदांत के कई ग्रंथ उठाकर बाहर बरामदे में फेंक दिए! उसी आवेश में उन्हें पैरों से कुचला और जाकर ईश्वर सेवक से बोलीं—पापाए आप सोफी को नाहक बुला रहे हैंए वह प्रभु मसीह की निंदा कर रही है।

मि. ईश्वर सेवक ऐसे चौंकेए मानो देह पर आग की चिनगारी गिर पड़ी होए और अपनी ज्योति—विहीन अॉंखों को फाड़कर बोले—क्या कहाए सोफी प्रभु मसीह की निंदा कर रही है! सोफीघ्

मिसेज सेवक—हाँ—हाँए सोफी। कहती हैए मुझे उनकी विभूतियों परए उनके उपदेशों और आदेशों परए विश्वास नहीं है।

ईश्वर सेवक—(ठंडी साँस खींचकर) प्रभु मसीहए मुझे अपने दामन में छुपाए अपनी भटकती हुई भेड़ों को सच्चे मार्ग पर ला। कहाँ है सोफीघ् मुझे उसके पास ले चलोए मेरे हाथ पकड़कर उठाओ। खुदाए मेरी बेटी के हृदय को अपनी ज्योति से जगा। मैं उसके पैरों पर गिरूँगाए उसकी मिंनतें करूँगाय उसे दीनता से समझाऊँगा। मुझे उसके पास तो ले चलो।

मिसेज सेवक—मैं सब कुछ करके हार गई। उस पर खुदा की लानत है। मैं इनका मुँह नहीं देखना चाहती।

ईश्वर सेवक—ऐसी बातें न करो। वह मेरे खून का खूनए मेरी जान की जानए मेरे प्राणों का प्राण है। मैं उसे कलेजे से लगाऊँगा। प्रभु मसीह ने विधार्मियों को छाती से लगाया थाए कुकर्मियों को अपने दामन में शरण दी थीए वह मेरी सोफिया पर अवश्य दया करेंगे। ईसूए मुझे अपने दामन में छुपा।

जब मिसेज सेवक ने अब भी सहारा न दियाए तो ईश्वर सेवक लकड़ी के सहारे उठे और लाठी टेकते हुए सोफिया के कमरे में द्वार पर आकर बोले—बेटी सोफीए कहाँ हैघ् इधार आ बेटीए तुझे गले से लगाऊँ। मेरा मसीह खुदा का दुलारा बेटा थाए दीनों का सहायकए निर्बलों का रक्षकए दरिद्रों का मित्रए डूबतों का सहाराए पापियों का उध्दारकए दुखियों का पार लगानेवाला! बेटीए ऐसा और कौन—सा नबी हैए जिसका दामन इतना चौड़ा होए जिसकी गोद में संसार के सारे पापोंए सारी बुराइयों के लिए स्थान होघ् वही एक ऐसा नबी हैए जिसने दुरात्माओं कोए अधार्मियों कोए पापियों को मुक्ति की शुभ सूचना दीए नहीं तो हम—जैसे मलिनात्माओं के लिए मुक्ति कहाँ थीघ् हमें उबारनेवाला कौन थाघ्

यह कहकर उन्होंने सोफी को हृदय से लगा लिया। माता के कठोर शब्दों ने उसके निर्बल क्रोध को जागृत कर दिया था। अपने कमरे में आकर रो रही थीए बार—बार मन उद्विग्न हो उठता था। सोचती थीए अभीए इसी क्षणए इस घर से निकल जाऊँ। क्या इस अनंत संसार में मेरे लिए जगह नहीं हैघ् मैं परिश्रम कर सकती हूँए अपना भार आप सँभाल सकती हूँ। आत्मस्वातंत्रय का खून करके अगर जीवन की चिंताओं से निवृत्ति हुईए तो क्याघ् मेरी आत्मा इतनी तुच्छ वस्तु नहीं है कि उदर पालने के लिए उसकी हत्या कर दी जाए। प्रभु सेवक को अपनी बहन से सहानुभूति थी। धर्म पर उन्हें उससे कहीं कम श्रध्दा थी। किंतु वह अपने स्वतंत्रा विचारों को अपने मन ही में संचित रखते थे। गिरजा चले जाते थेए पारिवारिक प्रार्थनाओं में भाग लेते थेय यहाँ तक कि धार्मिक भजन भी गा लेते थे। वह धर्म को गम्भीर विचार के क्षेत्र से बाहर समझते थे। वह गिरजा उसी भाव से जाते थेए जैसे थिएटर देखने जाते। पहले अपने कमरे से झाँककर देखा कि कहीं मामा तो नहीं देख रही हैंय नहीं तो मुझ पर वज्र—प्रहार होने लगेंगे। तब चुपके से सोफिया के पास आए और बोले—सोफीए क्योंए नादान बनती होघ् साँप के मुँह में उँगली डालना कौन—सी बुध्दिमानी हैघ् अपने मन में जो विचार रखए जिन बातों को जी चाहेए मानोय जिनको जी न चाहेए न मानोय पर इस तरह ढ़िंढ़ोरा पीटने से क्या फायदाघ् समाज में नक्कू बनने की क्या जरूरतघ् कौन तुम्हारे दिल के अंदर देखने जाता है!

सोफिया ने भाई को अवहेलना की द्रष्टि से देखकर कहा—धर्म के विषय में मैं कर्म को वचन के अनुरूप ही रखना चाहती हूँ। चाहती हूँए दोनों से एक ही स्वर निकले। धर्म का स्वाँग भरना मेरी क्षमता से बाहर है। आत्मा के लिए मैं संसार के सारे दुरूख झेलने को तैयार हूँ। अगर मेरे लिए इस घर में स्थान नहीं हैए तो ईश्वर का बनाया हुआ विस्तृत संसार तो है! कहीं भी अपना निर्वाह कर सकती हूँ। मैं सारी विडम्बनाएँ सह लूँगीए लोक—निंदा की मुझे चिंता नहीं हैय मगर अपनी ही नजरों में गिरकर मैं जिंदा नहीं रह सकती। अगर यही मान लूँ कि मेरे लिए चारों तरफ से द्वार बंद हैए तो भी मैं आत्मा को बेचने की अपेक्षा भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।

प्रभु सेवक—दुनिया उससे कहीं तंग हैए जितना तुम समझती हो।

सोफिया—कब्र के लिए तो जगह निकल ही आएगी।

सहसा ईश्वर सेवक ने जाकर उसे छाती से लगा लियाए और अपने भक्ति—गद्‌गद नेत्रा—जल से उसके संतप्त हृदय को शांत करने लगे। सोफिया को उनकी श्रध्दालुता पर दया आ गई। कौन ऐसा निर्दय प्राणी हैए जो भोले—भाले बालक के कठघोड़े का उपहास करके उसका दिल दुरूखाएए उसके मधुर स्वप्न को विशृंखल कर देघ्

सोफिया ने कहा—दादाए आप आकर इस कुर्सी पर बैठ जाएँए खड़े—खड़े आपको तकलीफ होती है।

ईश्वर सेवक—जब तक तू अपने मुख से न कहेगी कि मैं प्रभु मसीह पर विश्वास करती हूँए तब तक मैं तेरे द्वार परए यों हीए भिखारियों की भाँति खड़ा रहूँगा।

सोफिया—दादाए मैंने यह कभी नहीं कहा कि मैं प्रभु ईसू पर ईमान नहीं रखतीए या मुझे उन पर श्रध्दा नहीं है। मैं उन्हें महान्‌ आदर्श पुरुष और क्षमा तथा दया का अवतार समझती हूँए और समझती रहूँगी।

ईश्वर सेवक ने सोफिया के कपोलों का चुम्बन करके कहा—बसए मेरा चित्ता शांत हो गया। ईसू तुझे अपने दामन में लें। मैं बैठता हूँए मुझे ईश्वर—वाक्य सुनाए कानों को प्रभु मसीह की वाणी से पवित्र कर।

सोफिया इनकार न कर सकी। श्उत्पत्तिश् का एक परिच्छेद खोलकर पढ़़ने लगी। ईश्वर सेवक अॉंखें बंद करके कुर्सी पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगे। मिसेज सेवक ने यह —श्य देखा और विजयगर्व से मुस्कराती हुई चली गईं।

यह समस्या तो हल हो गईय पर ईश्वर सेवक के मरहम से उसके अंतरूकरण का नासूर न अच्छा हो सकता था। आए—दिन उसके मन में धार्मिक शंकाएँ उठती रहती थीं और दिन—प्रतिदिन उसे अपने घर में रहना दुस्सह होता जाता था। शनैरू—शनैरू प्रभु सेवक की सहानुभूति भी क्षीण होने लगी। मि. जॉन सेवक को अपने व्यावसायिक कामों से इतना अवकाश ही न मिलता था कि उसके मानसिक विप्लव का निवारण करते। मिसेज सेवक पूर्ण निरंकुशता से उस पर शासन करती थीं। सोफिया के लिए सबसे कठिन परीक्षा का समय वह होता थाए जब वह ईश्वर सेवक को बाइबिल पढ़़कर सुनाती थी। इस परीक्षा से बचने के लिए वह नित्य बहाने ढ़ूँढ़़ती रहती थी। अतरू अपने कृत्रिम जीवन से उसे घृणा होती जाती थी। उसे बार—बार प्रबल अंतरूप्रेरणा होती कि घर छोड़कर कहीं चली जाऊँ और स्वाधीनता होकर सत्यासत्य की विवेचना करूँय पर इच्छा व्यवहार—क्षेत्र में पैर रखते हुए संकोच से विवश हो जाती थी। पहले प्रभु सेवक से अपनी शंकाएँ प्रकट करके वह शांत—चित्ता हो जाया करती थीय पर ज्यों—ज्यों उनकी उदासीनता बढ़़ने लगीय सोफिया के हृदय से भी उनके प्रति प्रेम और आदर उठने लगा। उसे धारणा होने लगी कि इनका मन केवल भोग और विलास का दास हैए जिसे सिध्दांतों से कोई लगाव नहीं। यहाँ तक कि उनकी काव्य—रचनाएँ भीए जिन्हें वह पहले बड़े शौक से सुना करती थीए अब उसे कृत्रिम भावों से परिपूर्ण मालूम होतीं। वह बहुधा टाल दिया करती कि मेरे सिर में दर्द हैए सुनने को जी नहीं चाहता। अपने मन में कहतीए इन्हें उन सद्‌भावों और पवित्र आवेगों को व्यक्त करने का क्या अधिकार हैए जिनका आधार आत्म—दर्शन और अनुभव पर न हो।

एक दिन जब घर से सब प्राणी गिरजाघर जाने लगेए तो सोफिया ने सिरदर्द का बहाना किया। अब तक वह शंकाओं के होते हुए भी रविवार को गिरजाघर चली जाया करती थी। प्रभु सेवक उसका मनोभाव ताड़ गएए बोले—सोफी गिरजा जाने में तुम्हें क्या आपत्ति हैघ् वहाँ जाकर आधा घंटे चुपचाप बैठे रहना कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं।

प्रभु सेवक बड़े शौक से गिरजा जाया करते थेए वहाँ उन्हें बनाव और दिखावए पाखंड और ढ़कोसलों की दार्शनिक मीमांसा करने और व्यंग्योक्तियों के लिए सामग्री जमा करने का अवसर मिलता था। सोफिया के लिए आराधाना विनोद की वस्तु नहींए शांति और तृप्ति की वस्तु थी। बोली—तुम्हारे लिए आसान होए मेरे लिए मुश्किल ही है।

प्रभु सेवक—क्यों अपनी जान बवाल में डालती होघ् मामा का स्वभाव तो जानती हो।

सोफिया—मैं तुमसे परामर्श नहीं चाहतीए अपने कामों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हूँ!

मिसेज सेवक ने आकर पूछा—सोफीए क्या सिर में दर्द इतना है कि गिरजे तक नहीं चल सकतींघ्

सोफिया—जा क्यों नहीं सकतीय पर जाना नहीं चाहती।

मिसेज सेवक—क्योंघ्

सोफिया—मेरी इच्छा। मैंने गिरजा जाने की प्रतिज्ञा नहीं की है।

मिसेज सेवक—क्या तू चाहती है कि हम कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहेंघ्

सोफिया—हरगिज नहींए मैं सिर्फ इतना ही चाहती हूँ क आप मुझे चर्च जाने के लिए मजबूर न करें।

ईश्वर सेवक पहले ही अपने तामजान पर बैठकर चल दिए थे। जॉन सेवक ने आकर केवल इतना पूछा—क्या बहुत ज्यादा दर्द हैघ् मैं उधार से कोई दवा लेता आऊँगाए जरा पढ़़ना कम कर दो और रोज घूमने जाया करो।

यह कहकर वह प्रभु सेवक के साथ फिटन पर आ बैठे। लेकिन मिसेज सेवक इतनी आसानी से उसका गला छोड़ने वाली न थीं। बोलीं—तुझे ईसू के नाम से इतनी घृणा हैघ्

सोफिया—मैं हृदय से उनकी श्रध्दा करती हूँ।

माँ—तू झूठ बोलती है।

सोफिया—अगर दिल में श्रध्दा न होतीए तो जबान से कदापि न कहती।

माँ—तू प्रभु मसीह को अपना मुक्तिदाता समझती हैघ् तुझे यह विश्वास है कि वही तेरा उध्दार करेंगेघ्

सोफिया—कदापि नहीं। मेरा विश्वास है कि मेरी मुक्तिए अगर मुक्ति हो सकती हैए तो मेरे कमोर्ं से होगी।

माँ—तेरे कमोर्ं से तेरे मुँह में कालिख लगेगीए मुक्ति न होगी।

यह कहकर मिसेज सेवक फिटन पर जा बैठीं। संध्या हो गई थी। सड़क पर ईसाइयों के दल—के—दल कोई ओवरकोट पहनेए कोई माघ की ठंड से सिकुड़े हुएए खुश गिरजे चले जा रहे थेए पर सोफिया को सूर्य की मलिन ज्योति भी असह्य हो रही थीए वह एक ठंडी साँस खींचकर बैठ गई। श्तेरे कमोर्ं से तेरे मुँह में कालिख लगेगीश्—ये शब्द उसके अंतरूकरण को भाले के समान बेधाने लगे। सोचने लगी—मेरी स्वार्थ—सेवा का यही उचित दंड है। मैं भी केवल रोटीयों के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रही हूँए अपमान और अनादर के झोंके सह रही हूँ। इस घर में कौन मेरा हितैषी हैघ् कौन हैए जो मेरे मरने की खबर पाकर आँसू की चार बूँदें गिरा देघ् शायद मेरे मरने से लोगों को खुशी होगी। मैं इनकी नजरों में इतनी गिर गई हूँ। ऐसे जीवन पर धिक्कार है। मैंने देखे हैं हिंदू—घरानों में भिन्न—भिन्न मतों के प्राणी कितने प्रेम से रहते हैं। बाप सनातन—धार्मावलम्बी हैए तो बेटा आर्यसमाजी। पति ब्रह्मसमाज में हैए तो स्त्री पाषाण—पूजकों में। सब अपने—अपने धर्म का पालन करते हैं। कोई किसी से नहीं बोलता। हमारे यहाँ आत्मा कुचली जाती है। फिर भी यह दावा है कि हमारी शिक्षा और सभ्यता विचार—स्वातंत्रय के पोषक हैं। हैं तो हमारे यहाँ भी उदार विचारों के लोगए प्रभु सेवक ही उनकी एक मिसाल हैए पर इनकी उदारता यथार्थ में विवेकशून्यता है। ऐसे उदार प्राणियों से तो अनुदार ही अच्छे। इनमें कुछ विश्वास तो हैए निरे बहुरूपिए तो नहीं हैं। आखिर मामा अपने दिल में क्या समझती है कि बात—बात पर वाग्बाणों से छेदने लगती हैंघ् उनके दिल में यही विचार होगा कि इसे कहीं और ठिकाना नहीं हैए कोई इसका पूछनेवाला नहीं है। मैं इन्हें दिखा दूँगी कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूँ। अब इस घर में रहना नरकवास के समान है। इस बेहयाई की रोटीयाँ खाने से भूखों मर जाना अच्छा है। बला से लोग हँसेंगेए आजाद तो हो जाऊँगी। किसी के ताने—मेहने तो न सुनने पड़ेंगे।

सोफिया उठीए और मन में कोई स्थान निश्चित किए बिना ही अहाते से बाहर निकल आई। उस घर की वायु उसे दूषित मालूम होती थी। वह आगे बढ़़ती जाती थीय पर दिल में लगातार प्रश्न हो रहा थाए कहाँ जाऊँघ् जब वह घनी आबादी में पहुँचीए तो शोहदों ने उस पर इधार—उधार से आवाजें कसनी शुरू कीं। किंतु वह शर्म से सिर नीचा करने के बदले उन आवाजों और कुवासनामयी द्रष्टियों का जवाब घृणायुक्त नेत्रों से देती चली जाती थीए जैसे कोई सवेग जल—धारा पत्थरों को ठुकराती हुई आगे बढ़़ती चली जाए। यहाँ तक कि वह उस खुली हुई सड़क पर आ गईए जो दशाश्वमेधा घाट की ओर जाती है।

उसके जी में आयाए जरा दरिया की सैर करती चलूँ। कदाचित्‌ किसी सज्जन से भेंट हो जाए। जब तक दो—चार आदमियों से परिचय न होए और वे मेरा हाल न जानेंए मुझसे कौन सहानुभूति प्रकट करेगाघ् कौन मेरे हृदय की बात जानता हैघ् ऐसे सदय प्राणी सौभाग्य ही से मिलते हैं। जब अपने माता—पिता अपने शत्रु हो रहे हैंए तो दूसरों से भलाई की क्या आशाघ्

वह इसी नैराश्य की दशा में चली जा रही थी कि सहसा उसे एक विशाल प्रासाद देख पड़ाए जिसके सामने बहुत चौड़ा हरा मैदान था। अंदर जाने के लिए एक ऊँचा फाटक थाए जिसके ऊपर एक सुनहरा गुम्बद बना था। इस गुम्बद में नौबत बज रही थीए फाटक से भवन तक सुर्खी की एक रविश थीए जिसके दोनों ओर बेलें और गुलाब की क्यारियाँ थीं। हरी—हरी घास पर बैठे कितने ही नर—नारी माघ की शीतल वायु का आनंद ले रहे थे। कोई लेटा हुआ थाए कोई तकिएदार चौकियों पर बैठा सिगार पी रहा था।

सोफिया ने शहर में ऐसा रमणीक स्थान न देखा था। उसे आश्चर्य हुआ कि शहर के मध्य भाग में भी ऐसे मनोरम स्थान मौजूद हैं। वह एक चौकी पर बैठ गई और सोचने लगी—अब लोग चर्च से आ गए होंगे। मुझे घर में न देखकर चौंकेंगे तो जरूरय पर समझेंगेए कहीं घूमने गई होगी। अगर रात—भर यहीं बैठी रहूँए तो भी वहाँ किसी को चिंता न होगीए आराम से खा—पीकर सोएँगे। हाँए दादा को अवश्य दुरूख होगाए वह भी केवल इसीलिए कि उन्हें बाइबिल पढ़़कर सुनानेवाला कोई नहीं। मामा तो दिल में खुश होंगी की अच्छा हुआए अॉंखों से दूर हो गई। मेरा किसी से परिचय नहीं। इसी से कहाए सबसे मिलते रहना चाहिएए न जाने कब किससे काम पड़ जाए। मुझे बरसों रहते हो गए और किसी से राह—रस्म न पैदा की। मेरे साथ नैनीताल में यहाँ के किसी रईस की लड़की पढ़़ती थीए भला—सा नाम था। हाँए इंदु। कितना कोमल स्वभाव था! बात—बात से प्रेम टपका पड़ता था। हम दोनों गले में बाँहें डाले टहलती थीं। वहाँ कोई बालिका इतनी सुंदर और ऐसी सुशील न थी। मेरे और उसके विचारों में कितना सा—श्य था! कहीं उसका पता मिल जाताए तो दस—पाँच दिन उसी के यहाँ मेहमान हो जाती। उसके पिता का अच्छा—सा नाम था। हाँए कुँवर भरतसिंह। पहले यह बात धयान में न आईए नहीं तो एक कार्ड लिखकर डाल देती। मुझे भूल तो क्या गई होगीए इतनी निष्ठुर तो न मालूम होती थी। कम—से—कम मानव—चरित्र का तो अनुभव हो जाएगा।

मजबूरी में हमें उन लोगों की याद आती हैए जिनकी सूरत भी विस्मृत हो चुकी होती है। विदेश में हमें अपने मुहल्ले का नाई या कहार भी मिल जाएए तो हम उसके गले मिल जाते हैंए चाहे देश में उससे कभी सीधो मुँह बात भी न की हो।

सोफिया सोच रही थी कि किसी से कुँवर भरतसिंह का पता पूछूँए इतने में भवन में सामनेवाले पक्के चबूतरे पर फर्श बिछ गया। कई आदमी सितारए बेलाए मृदंग लेए आ बैठेए और इन साजों के साथ स्वर मिलाकर कई नवयुवक एक स्वर से गाने लगे रू

श्शांति—समर में कभी भूलकर धैर्य नहीं खोना होगाय

वज्र—प्रहार भले सिर पर होए नहीं किंतु रोना होगा।

अरि से बदला लेने का मन—बीज नहीं बोना होगाय

घर में कान तूल देकर फिर तुझे नहीं सोना होगा।

देश—दाग को रुधिर वारि से हर्षित हो धोना होगाय

देश—कार्य की सारी गठरी सिर पर रख ढ़ोना होगा।

अॉंखें लालए भवें टेढ़़ी करए क्रोध नहीं करना होगाय

बलि—वेदी पर तुझे हर्ष से चढ़़कर कट मरना होगा।

नश्वर है नर—देहए मौत से कभी नहीं डरना होगाय

सत्य—मार्ग को छोड़ स्वार्थ—पथ पैर नहीं धारना होगा।

होगी निश्चय जीत धर्म की यही भाव भरना होगाय

मातृभूमि के लिए जगत में जीना औश् मरना होगा।श्

संगीत में न लालित्य थाए न माधुर्यय पर वह शक्तिए वह जागृति भरी हुई थीए जो सामूहिक संगीत का गुण हैए आत्मसमर्पण और उत्कर्ष का पवित्र संदेश विराट आकाश मेंए नील गगन में और सोफिया के अशांत हृदय में गूँजने लगा। वह अब तक धार्मिक विवेचन ही में रत रहती थी। राष्ट्रीय संदेश सुनने का अवसर उसे कभी न मिला था। उसके रोम—रोम से वही धवनिए दीपक—से ज्योति के समान निकलने लगी—

श्मातृभूमि के लिए जगत में जीना औश् मरना होगा।श्

उसके मन में एक तरंग उठी कि मैं भी जाकर गानेवालों के साथ गाने लगती। भाँति—भाँति के उद्‌गार उठने लगे—मैं किसी दूसरे देश में जाकर भारत कार् आत्तानाद सुनाती। यहीं खड़ी होकर कह दूँए मैं अपने को भारत—सेवा के लिए समर्पित करती हूँ। अपने जीवन के उद्देश्य पर एक व्याख्यान देती—हम भाग्य के दुरूखड़े रोने के लिएए अपनी अवनत दशा पर आँसू बहाने के लिए नहीं बनाए गए हैं।

समा बँधा हुआ थाए सोफिया के हृदय की अॉंखों के सामने इन्हीं भावों के चित्र नृत्य करते हुए मालूम होते थे।

अभी संगीत की धवनि गूँज ही रही थी कि अकस्मात्‌ उसी अहाते के अंदर एक खपरैल के मकान में आग लग गई। जब तक लोग उधार दौड़ेए अग्नि की ज्वाला प्रचंड हो गई। सारा मैदान जगमगा उठा। वृक्ष और पौधो प्रदीप्त प्रकाश के सागर में नहा उठे। गानेवालों ने तुरंत अपने—अपने साज वहीं छोड़े धोतियाँ ऊपर उठाईंए आस्तीनें चढ़़ाईं और आग बुझाने दौड़े। भवन से और भी कितने ही युवक निकल पड़े। कोई कुएँ से पानी लाने दौड़ाए कोई आग के मुँह में घुसकर अंदर की चीजें निकाल—निकालकर बाहर फेंकने लगा। लेकिन कहीं वह उतावलापनए वह घबराहटए वह भगदड़ए वह कुहरामए वह श्दौड़ो—दौड़ोश् का शोरए वह स्वयं कुछ न करके दूसरों को हुक्म देने का गुल न थाए जो ऐसी दैवी आपदाओं के समय साधारणतरू हुआ करता है। सभी आदमी ऐसे सुचारु और सुव्यवस्थित रूप से अपना—अपना काम कर रहे थे कि एक बूँद पानी भी व्यर्थ न गिरने पाता थाए और अग्नि का वेग प्रतिक्षण घटता जाता था। लोग इतनी निर्भयता से आग में कूदते थेए मानो वह जलकुंडहै।

अभी अग्नि का वेग पूर्णतरू शांत न हुआ था कि दूसरी तरफ से आवाज आई—श्दौड़ो—दौड़ोए आदमी डूब रहा है।श् भवन के दूसरी ओर एक पक्की बावली थीए जिसके किनारे झाड़ियाँ लगी हुई थींए तट पर एक छोटी—सी नौका खूँटी से बँधी हुई पड़ी थी। आवाज सुनते ही आग बुझानेवाले दल से कई आदमी निकलकर बावली की तरफ लपकेए और डूबनेवाले को बचाने के लिए पानी में कूद पड़े। उनके कूदने की आवाज श्धाम! धाम!श् सोफिया के कानों में आई। ईश्वर का यह कैसा प्रकोप कि एक ही साथ दोनों प्रधान तत्तवों में विप्लव! और एक ही स्थान पर! वह उठकर बावली की ओर जाना ही चाहती थी कि अचानक उसने एक आदमी को पानी का डोल लिए फिसलकर जमीन पर गिरते देखा। चारों ओर अग्नि शांत हो गई थीय पर जहाँ वह आदमी गिरा थाए वहाँ अब तक अग्नि बड़े वेग से धाधाक रही थी। अग्नि—ज्वाला विकराल मुँह खोले उस अभागे मनुष्य की तरफ लपकी। आग की लपटें उसे निगल जातींय पर सोफिया विद्युत—गति से ज्वाला की तरफ दौड़ी और उस आदमी को खींचकर बाहर निकाल लाई। यह सब कुछ क्षण—मात्रा में हो गया। अभागे की जान बच गईय लेकिन सोफिया का कोमल गात आग की लपट से झुलस गया। वह ज्वालाओं के घेरे से बाहर आते ही अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी।

सोफिया ने तीन दिन तक अॉंखें न खोलीं। मन न जाने किन लोकों में भ्रमण किया करता था। कभी अद्‌भुतए कभी भयावह —श्य दिखाई देते। कभी ईसा की सौम्य मूर्ति अॉंखों के सामने आ जातीए कभी किसी विदुषी महिला के चंद्रमुख के दर्शन होतेए जिन्हें यह सेंट मेरी समझती।

चौथे दिन प्रातरूकाल उसने अॉंखें खोलींए तो अपने को एक सजे हुए कमरे में पाया। गुलाब और चंदन की सुगंधा आ रही थी। उसके सामने कुरसी पर वही महिला बैठी हुई थीए जिन्हें उसने सुषुप्तावस्था में सेंट मेरी समझा थाए और सिरहाने की ओर एक वृध्द पुरुष बैठे थेए जिनकी अॉंखों से दया टपकी पड़ती थी। इन्हीं को कदाचित्‌ उसनेए अर्ध्‌द चेतना की दशा मेंए ईसा समझा था। स्वप्न की रचना स्मृतियों की पुनरावृत्ति—मात्रा होती है।

सोफिया ने क्षीण स्वर में पूछा—मैं कहाँ हूँघ् मामा कहाँ हैंघ्

वृध्द पुरुष ने कहा—तुम कुँवर भरतसिंह के घर में हो। तुम्हारे सामने रानी साहबा बैठी हुई हैंए तुम्हारा जी अब कैसा हैघ्

सोफिया—अच्छी हूँए प्यास लगी है। मामा कहाँ हैंए पापा कहाँ हैंए आप कौन हैंघ्

रानी—यह डॉक्टर गांगुली हैंए तीन दिन से तुम्हारी दवा कर रहे हैं। तुम्हारे पापा—मामा कौन हैंघ्

सोफिया—पापा का नाम मि. जॉन सेवक है। हमारा बँगला सिगरा में है।

डॉक्टर—अच्छाए तुम मि. जॉन सेवक की बेटी होघ् हम उसे जानता हैय अभी बुलाता है।

रानी—किसी को अभी भेज दूँघ्

सोफिया—कोई जल्दी नहीं हैए आ जाएँगे। मैंने जिस आदमी को पकड़कर खींचा थाए उसकी क्या दशा हुईघ्

रानी—बेटीए वह ईश्वर की कृपा से बहुत अच्छी तरह है। उसे जरा भी अॉंच नहीं लगी। वह मेरा बेटा विनय है। अभी आता होगा। तुम्हीं ने तो उसके प्राण बचाए। अगर तुम दौड़कर न पहुँच जातींए तो आज न जाने क्या होता। मैं तुम्हारे ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकती। तुम मेरे कुल की रक्षा करनेवाली देवी हो।

सोफिया—जिस घर में आग लगी थीए उसके आदमी सब बच गएघ्

रानी—बेटीए यह तो केवल अभिनय थाए विनय ने यहाँ एक सेवा—समिति बना रखी है! जब शहर में कोई मेला होता हैए या कहीं से किसी दुर्घटना का समाचार आता हैए तो समिति वहाँ पहुँचकर सेवा—सहायता करती है। उस दिन समिति की परीक्षा के लिए कुँवर साहब ने वह अभिनय किया था।

डॉक्टर—कुँवर साहब देवता हैए कितने गरीब लागों की रक्षा करता है। यह समितिए अभी थोड़े दिन हुएए बंगाल गई थी। यहाँ सूर्य—ग्रहण का स्नान होनेवाला है। लाखों यात्राी दूर—दूर से आएँगे। उसके लिए यह सब तैयारी हो रही है।

इतने में एक युवती रमणी आकर खड़ी हो गई। उसके मुख से उज्ज्वल दीपक के समान प्रकाश की रश्मियाँ छिटक रही थीं। गले में मोतियों के हार के सिवा उसके शरीर पर कोई आभूषण न था। उषा की शुभ्र छटा मूर्तिमान्‌ हो गई थी।

सोफिया ने उसे एक क्षण—भर देखाए तब बोली—इंदुए तुम यहाँ कहाँघ् आज कितने दिनों के बाद तुम्हें देखा हैघ्

इंदु चौंक पड़ी। तीन दिन से बराबर सोफिया को देख रही थीए खयाल आता था कि इसे कहीं देखा हैय पर कहाँ देखा हैए यह याद न आती थी। उसकी बातें सुनते ही स्मृति जागृत हो गईए अॉंखें चमक उठींए गुलाब खिल गया। बोली—ओहो! सोफीए तुम होघ्

दोनों सखियाँ गले मिल गईं। यह वही इंदु थीए जो सोफिया के साथ नैनीताल में पढ़़ती थी। सोफिया को आशा न थी कि इंदु इतने प्रेम से मिलेगी। इंदु कभी पिछली बातें याद करके रोतीए कभी हँसतीए कभी गले मिल जाती। अपनी माँ से उसका गुणानुवाद करने लगी। माँ उसका प्रेम देखकर फूली न समाती। अंत में सोफिया ने झेंपे हुए कहा—इंदुए ईश्वर के लिए अब मेरी और ज्यादा तारीफ न करोए नहीं तो मैं तुमसे न बोलूँगी। इतने दिनों तक कभी एक खत भी न लिखाए मुँह—देखे का प्रेम करती हो।

रानी—नहीं बेटी सोफीए इंदु मुझसे कई बार तुम्हारी चर्चा कर चुकी है। यहाँ किसी से हँसकर बोलती तक नहीं। तुम्हारे सिवा मैंने इसे किसी की तारीफ करते नहीं सुना।

इंदु—बहनए तुम्हारी शिकायत वाजिब हैए पर करूँ क्याए मुझे खत नहीं लिखना आता। एक तो बड़ी भूल यह हुई कि तुम्हारा पता नहीं पूछाए और अगर पता मालूम भी होताए तो भी मैं खत न लिख सकती। मुझे डर लगता है कि कहीं तुम हँसने न लगो। मेरा पत्र कभी समाप्त ही न होताए और न जाने क्या—क्या लिख जाती।

कुँवर साहब को मालूम हुआ कि सोफिया बातें कर रही हैए तो वह भी उसे धन्यवाद देने के लिए आए। पूरे छरू फीट के मनुष्य थेए बड़ी—बड़ी अॉंखेंए लम्बे बालए लम्बी दाढ़़ीए मोटे कपड़े का एक नीचा कुरता पहने हुए थे। सोफिया ने ऐसा तेजस्वी स्वरूप कभी न देखा था। उसने अपने मन में ऋषियों की जो कल्पना कर रखी थीए वह बिल्कुल ऐसी ही थी। श्इस विशाल शरीर में बैठी हुई विशाल आत्मा को वह दोनों नेत्रों से ताक रही थी। सोफी ने सम्मान—भाव से उठना चाहाय पर कुँवर साहब मधुर ए सरल स्वर में बोले—बेटीए लेटी रहोए तुम्हें उठने में कष्ट होगा। लोए मैं बैठ जाता हूँए तुम्हारे पापा से मेरा परिचय हैए पर क्या मालूम था कि तुम मि. सेवक की बेटी हो। मैंने उन्हें बुलाया हैए लेकिन मैं कहे देता हूँए मैं अभी तुम्हें न जाने दूँगा। यह कमरा अब तुम्हारा हैए और यहाँ से चले जाने पर भी तुम्हें एक बार नित्य यहाँ आना पड़ेगा। (रानी से) जाह्नवीए यहाँ प्यानो मँगवाकर रख दो। आज मिस सोहराबजी को बुलवाकर सोफिया का एक तैल चित्र खिंचवाओ। सोहराबजी ज्यादा कुशल हैय पर मैं नहीं चाहता कि सोफिया को उनके सामने बैठना पड़े। वह चित्र हमें याद दिलाता रहेगा कि किसने महान्‌ संकट के अवसर पर हमारी रक्षा की।

रानी—कुछ नाज भी दान करा दूँघ्

यह कहकर रानी ने डॉक्टर गांगुली की ओर देखकर अॉंखें मटकाईं। कुँवर साहब तुरंत बोले—फिर वही ढ़कोसले! इस जमाने में जो दरिद्र हैए उसे दरिद्र होना चाहिएए जो भूखों मरता हैए उसे भूखों मरना चाहिएय जब घंटे—दो घंटे की मिहनत से खाने—भर को मिल सकता हैए तो कोई सबब नहीं कि क्यों कोई आदमी भूखों मरे। दान ने हमारी जाति में जितने आलसी पैदा कर दिए हैंए उतने सब देशों ने मिलकर भी न पैदा किए होंगे। दान का इतना महत्व क्यों रखा गयाए यह मेरी समझ में नहीं आता।

रानी—ऋषियों ने भूल की कि तुमसे सलाह न ले ली।

कुँवर—हाँए मैं होताए तो साफ कह देता—आप लोग यह आलस्यए कुकर्म और अनर्थ का बीज बो रहे हैं। दान आलस्य का मूल है और आलस्य सब पापों का मूल है। इसलिए दान ही सब पापों का मूल हैए कम—से—कम पोषक तो अवश्य ही है। दान नहींए अगर जी चाहता होए तो मित्रों को एक भोज दे दो।

डॉक्टर गांगुली—सोफियाए तुम राजा साहब का बात सुनता हैघ् तुम्हारा प्रभु मसीह तो दान को सबसे बढ़़कर महत्व देता हैए तुम कुँवर साहब से कुछ नहीं कहताघ्

सोफिया ने इंदु की ओर देखाए और मुस्कराकर अॉंखें नीची कर लींए मानो कह रही थी कि मैं इनका आदर करती हूँए नहीं तो जवाब देने में असमर्थ नहीं हूँ।

सोफिया मन ही मन इन प्राणियों के पारस्परिक प्रेम की तुलना अपने घरवालों से कर रही थी। आपस में कितनी मुहब्बत है। माँ—बाप दोनों इंदु पर प्राण देते हैं। एक मैं अभागिनी हूँ कि कोई मुँह भी नहीं देखना चाहता। चार दिन यहाँ पड़े हो गएए किसी ने खबर तक न ली। किसी ने खोज ही न की होगी। मामा ने तो समझा होगाए कहीं डूब मरी। मन में प्रसन्न हो रही होंगी कि अच्छा हुआए सिर से बला टली। मैं ऐसे सहृदय प्राणियों में रहने योग्य नहीं हूँ। मेरी इनसे क्या बराबरी।

यद्यपि यहाँ किसी के व्यवहार में दया की झलक भी न थीए लेकिन सोफिया को उन्हें अपना इतना आदर—सत्कार करते देखकर अपनी दीनावस्था पर ग्लानि होती थी। इंदु से भी शिष्टाचार करने लगी। इंदु उसे प्रेम से श्तुमश् कहती थीय पर वह उसे श्आपश् कहकर सम्बोधित करती थी।

कुँवर साहब कह गए थेए मैंने मि. सेवक को सूचना दे दी हैए वह आते ही होंगे। सोफिया को अब यह भय होने लगा कि कहीं वह आ न रहे हों। आते—ही—आते मुझे अपने साथ चलने को कहेंगे। मेरे सिर फिर वही विपत्ति पड़ेगी। इंदु से अपनी विपत्ति कथा कहूँए तो शायद उसे मुझसे कुछ सहानुभूति हो। वह नौकरानी यहाँ व्यर्थ ही बैठी हुई है। इंदु आई भीए तो उससे कैसे बातें करूँगी। पापा के आने के पहले एक बार इंदु से एकांत में मिलने का मौका मिल जाताए तो अच्छा होता। क्या करूँए इंदु को बुला भेजूँघ् न जाने क्या करने लगी। प्यानो बजाऊँए तो शायद सुनकर आए।

उधार इंदु भी सोफिया से कितनी ही बातें करना चाहती थी। रानीजी के सामने उसे दिल की बातें करने का अवसर न मिला था। डर रही थी कि सोफिया के पिता उसे लेते गएए तो मैं फिर अकेली हो जाऊँगी। डॉक्टर गांगुली ने कहा था कि इन्हें ज्यादा बातें मत करने देनाए आज और आराम से सो लेंए तो फिर कोई चिंता न रहेगी। इसलिए वह आने का इरादा करके भी रह जाती थी। आखिर नौ बजते—बजते वह अधीर हो गई। आकर नौकरानी को अपना कमरा साफ करने के बहाने से हटा दिया और सोफिया के सिरहाने बैठकर बोली—क्यों बहनए बहुत कमजोरी तो नहीं मालूम होतीघ्

सोफिया—बिल्कुल नहीं। मुझे तो मालूम होता है कि मैं चंगी हो गई।

इंदु—तुम्हारे पापा कहीं तुम्हें अपने साथ ले गएए तो मेरे प्राण निकल जाएँगे। तुम भी उनकी राह देख रही हो। उनके आते ही खुश होकर चली जाओगीए और शायद फिर कभी याद न करोगी।

यह कहते—कहते इंदु की अॉंखें सजल हो गईं। मनोभावों के अनुचित आवेश को हम बहुधा मुस्कराहट से छिपाते हैं। इंदु की अॉंखों में आँसू भरे हुए थेए पर वह मुस्करा रही थी।

सोफिया बोली—आप मुझे भूल सकती हैंए पर मैं आपको कैसे भूलूँगीघ्

वह अपने दिल का दर्द सुनाने ही जा रही थी कि संकोच ने आकर जबान बंद कर दीए बात फेरकर बोली—मैं कभी—कभी आपसे मिलने आया करूँगी।

इंदु—मैं तुम्हें यहाँ से अभी पंद्रह दिन तक न जाने दूँगी। धर्म बाधक न होताए तो कभी न जाने देती। अम्माँजी तुम्हें अपनी बहू बनाकर छोड़तीं। तुम्हारे ऊपर बेतरह रीझ गई हैं। जहाँ बैठती हैंए तुम्हारी ही चर्चा करती हैं। विनय भी तुम्हारे हाथों बिका हुआ—सा जान पड़ता है। तुम चली जाओगीए तो सबसे ज्यादा दुरूख उसी को होगा। एक बात भेद की तुमसे कहती हूँ। अम्माँजी तुम्हें कोई चीज तोहफा समझकर देंए तो इनकार मत करनाए नहीं तो उन्हें बहुत दुरूख होगा।

इस प्रेममय आग्रह ने संकोच का लंगर उखाड़ दिया। जो अपने घर में नित्य कटु शब्द सुनने का आदी होए उसके लिए उतनी मधुर सहानुभूति काफी से ज्यादा थी। अब सोफी को इंदु से अपने मनोभावों को गुप्त रखना मैत्री के नियमों के विरुध्द प्रतीत हुआ। करुण स्वर में बोली—इंदुए मेरा वश चलता तो कभी रानी के चरणों को न छोड़तीए पर अपना क्या काबू हैघ् यह स्नेह और कहाँ मिलेगाघ्

इंदु यह भाव न समझ सकी। अपनी स्वाभाविक सरलता से बोली—कहीं विवाह की बातचीत हो रही है क्याघ्

उसकी समझ में विवाह के सिवा लड़कियों के इतना दुरूखी होने का कोई कारण न था।

सोफिया—मैंने तो इरादा कर लिया है कि विवाह न करूँगी।

इंदु—क्योंघ्

सोफिया—इसलिए कि विवाह से मुझे अपनी धार्मिक स्वाधीनता त्याग देनी पड़ेगी। धर्म विचार—स्वतंत्रता का गला घोंट देता है। मैं अपनी आत्मा को किसी मत के हाथ नहीं बेचना चाहती। मुझे ऐसा ईसाई पुरुष मिलने की आशा नहींए जिसका हृदय इतना उदार हो कि वह मेरी धार्मिक शंकाओं को दरगुजर कर सके। मैं परिस्थिति से विवश होकर ईसा को खुदा का बेटा और अपना मुक्तिदाता नहीं मान सकतीए विवश होकर गिरजाघर में ईश्वर की प्रार्थना करने नहीं जाना चाहती। मैं ईसा को ईश्वर नहीं मान सकती।

इंदु—मैं तो समझती थीए तुम्हारे यहाँ हम लोगों के यहाँ से कहीं ज्यादा आजादी हैय जहाँ चाहोए अकेली जा सकती हो। हमारा तो घर से निकलना मुश्किल है।

सोफिया—लेकिन इतनी धार्मिक संकीर्णता तो नहीं हैघ्

इंदु—नहींए कोई किसी को पूजा—पाठ के लिए मजबूर नहीं करता। बाबूजी नित्य गंगास्नान करते हैंए घंटों शिव की आराधाना करते हैं। अम्माँजी कभी भूलकर भी स्नान करने नहीं जातींए न किसी देवता की पूजा करती हैंय पर बाबूजी कभी आग्रह नहीं करते। भक्ति तो अपने विश्वास और मनोवृत्ति पर ही निर्भर है। हम भाई—बहन के विचारों में आकाश—पताल का अंतर है। मैं कृष्ण की उपासिका हूँए विनय ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करताय पर बाबूजी हम लोगों से कभी कुछ नहीं कहतेए और न हम भाई—बहन में कभी इस विषय पर वाद—विवाद होता है।

सोफिया—हमारी स्वाधीनता लौकिक और इसलिए मिथ्या है। आपकी स्वाधीनता मानसिक और इसलिए सत्य है। असली स्वाधीनता वही हैए जो विचार के प्रवाह में बाधक न हो।

इंदु—तुम गिरजे में कभी नहीं जातींघ्

सोफिया—पहले दुराग्रह—वश जाती थीए अबकी नहीं गई। इस पर घर के लोग बहुत नाराज हुए। बुरी तरह तिरस्कार किया गया।

इंदु ने प्रेममयी सरलता से कहा—वे लोग नाराज हुए होंगेए तो तुम बहुत रोयी होगी। इन प्यारी अॉंखों से आँसू बहे होंगे। मुझसे किसी का रोना नहीं देखा जाता।

सोफिया—पहले रोया करती थीए अब परवा नहीं करती।

इंदु—मुझे तो कभी कोई कुछ कह देता हैए तो हृदय पर तीर—सा लगता है। दिन—दिन भर रोती ही रह जाती हूँ। आँसू ही नहीं थमते। वह बात बार—बार हृदय में चुभा करती है। सच पूछोए तो मुझे किसी के क्रोध पर रोना नहीं आताए रोना आता है अपने ऊपर कि मैंने उन्हें क्यों नाराज कियाए क्यों मुझसे ऐसी भूल हुई।

सोफिया को भ्रम हुआ कि इंदु मुझे अपनी क्षमाशीलता से लज्जित करना चाहती हैए माथे पर शिकन पड़ गई। बोली—मेरी जगह पर आप होतींए तो ऐसा न कहतीं। आखिर क्या आप अपने धार्मिक विचारों को छोड़ बैठतींघ्

इंदु—यह तो नहीं कह सकती कि क्या करतीय पर घरवालों को प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करती।

सोफिया—आपकी माताजी अगर आपको जबरदस्ती कृष्ण की उपासना करने से रोकेंए तो आप मान जाएँगीघ्

इंदु—हाँए मैं तो मान जाऊँगी। अम्माँ को नाराज न करूँगी। कृष्ण तो अंतर्यामी हैंए उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उपासना की जरूरत नहीं। उपासना तो केवल अपने मन के संतोष के लिए है।

सोफिया—(आश्चर्य से) आपको जरा भी मानसिक पीड़ा न होगीघ्

इंदु—अवश्य होगीय पर उनकी खातिर मैं सह लूँगी।

सोफिया—अच्छाए अगर वह आपकी इच्छा के विरुध्द आपका विवाह करना चाहें तोघ्

इंदु—(लजाते हुए) वह समस्या तो हल हो चुकी। माँ—बाप ने जिससे उचित समझाए कर दिया। मैंने जबान तक नहीं खोली।

सोफिया—अरेए यह कबघ्

इंदु—इसे तो दो साल हो गए। (अॉंखें नीची करके) अगर मेरा अपना वश होताए तो उन्हें कभी न वरतीए चाहे कुँवारी ही रहती। मेरे स्वामी मुझसे प्रेम करते हैंए धान की कोई कमी नहीं। पर मैं उनके हृदय के केवल चतुथार्ंश की अधिकारिणी हूँए उसके तीन भाग सार्वजनिक कामों में भेंट होते हैं। एक के बदले चौथाई पाकर कौन संतुष्ट हो सकता हैघ् मुझे तो बाजरे की पूरी बिस्कुट के चौथाई हिस्से से कहीं अच्छी मालूम होती है। क्षुधा तो तृप्त हो जाती हैए जो भोजन का यथार्थ उद्देश्य है।

सोफिया—आपकी धार्मिक स्वाधीनता में तो बाधा नहीं डालतेघ्

इंदु—नहीं। उन्हें इतना अवकाश कहाँघ्

सोफिया—तब तो मैं आपको मुबारकबाद दूँगी।

इंदु—अगर किसी कैदी को बधाई देना उचित होए तो शौक से दो।

सोफिया—बेड़ी प्रेम की हो तोघ्

इंदु—ऐसा होताए तो मैं तुमसे बधाई देने को आग्रह करती। मैं बँधा गईए वह मुक्त हैं। मुझे यहाँ आए तीन महीने होने आते हैंय पर तीन बार से ज्यादा नहीं आएय और वह भी एक—एक घंटे के लिए। इसी शहर में रहते हैंए दस मिनट में मोटर आ सकती हैय पर इतनी फुर्सत किसे है। हाँए पत्रों से अपनी मुलाकात का काम निकालना चाहते हैंए और वे पत्र भी क्या होते हैंए आदि से अंत तक अपने दुरूखड़ों से भरे हुए। आज यह काम हैए कल वह काम हैय इनसे मिलने जाना हैए उनका स्वागत करना है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गएए राज्य मिल गया। जब देखोए वही धुन सवार! और सब कामों के लिए फुर्सत है। अगर फुर्सत नहीं हैए तो सिर्फ यहाँ आने की। मैं तुम्हें चिताए देती हूँए किसी देश—सेवक से विवाह न करनाए नहीं तो पछताओगी। तुम उसके अवकाश के समय की मनोरंजन—सामग्री—मात्रा रहोगी।

सोफिया—मैं तो पहले ही अपना मन स्थिर कर चुकीय सबसे अलग—ही—अलग रहना चाहती हूँए जहाँ मेरी स्वाधीनता में बाधा डालनेवाला कोई न हो। मैं सत्पथ पर रहूँगीए या कुपथ पर चलूँगीए यह जिम्मेवारी भी अपने ही सिर लेना चाहती हूँ। मैं बालिग हूँ और अपना नफा—नुकसान देख सकती हूँ। आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहतीय क्योंकि रक्षा का कार्य पराधीनता के सिवा और कुछ नहीं।

इंदु—क्या तुम अपने मामा और पापा के अधीन नहीं रहना चाहतींघ्

सोफिया—नए पराधीनता में प्रकार का नहींए केवल मात्राओं का अंतर है।

इंदु—तो मेरे ही घर क्यों नहीं रहतींघ् मैं इसे अपना सौभाग्य समझ्रूगी! और अम्माँजी तो तुम्हें अॉंखों की पुतली बनाकर रखेंगी। मैं चली जाती हूँए तो वह अकेले घबराया करती हैं। तुम्हें पा जाएँ तो फिर गला न छोड़ें। कहो तो अम्माँ से कहूँघ् यहाँ तुम्हारी स्वाधीनता में कोई दखल न देगा। बोलोए कहूँ जाकर अम्माँ सेघ्

सोफिया—नहींए अभी भूलकर भी नहीं। आपकी अम्माँजी को जब मालूम होगा कि इसके माँ—बाप इसकी बात नहीं पूछतेए मैं उनकी अॉंखों से भी गिर जाऊँगी। जिसकी अपने घर में इज्जत नहींए उसकी बाहर भी इज्जत नहीं होती।

इंदु—नहीं सोफीए अम्माँजी का स्वभाव बिल्कुल निराला है। जिस बात से तुम्हें अपने निरादर का भय हैए वही बात अम्माँजी के आदर की वस्तु है। वह स्वयं अपनी माँ से किसी बात पर नाराज हो गई थींए तब से मैके नहीं गईं। नानी मर गईंय पर अम्माँ ने उन्हें क्षमा नहीं किया। सैकड़ों बुलावे आएय पर उन्हें देखने तक न गईं। उन्हें ज्यों ही यह बात मालूम होगीए तुम्हारी दूनी इज्जत करने लगेंगी।

सोफी ने अॉंखों में आँसू भरकर कहा—बहनए मेरी लाज अब आप ही के हाथ में है।

इंदु ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर कहा—वह मुझे अपनी लाज से कम प्रिय नहीं है।

उधार मि. जॉन सेवक को कुँवर साहब का पत्र मिलाए तो जाकर स्त्री से बोले—देखाए मैं कहता न था कि सोफी पर कोई संकट आ पड़ा। यह देखोए कुँवर भरतसिंह का पत्र है। तीन दिनों से उनके घर पड़ी हुई है। उनके एक झोंपड़े में आग लग गई थीए वह भी उसे बुझाने लगी। वहीं लपट में आ गई।

मिसेज सेवक—ये सब बहाने हैं। मुझे उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं रहा। जिसका दिल खुदा से फिर गयाए उसे झूठ बोलने का क्या डरघ् यहाँ से बिगड़कर गई थीए समझा होगाए घर से निकलते ही फूलों की सेज बिछी हुई मिलेगी। जब कहीं शरण न मिलीए तो यह पत्र लिखवा दिया। अब आटे—दाल का भाव मालूम होगा। यह भी सम्भव हैए खुदा ने उसके अविचार का यह दंड दिया हो।

मि. जॉन सेवक—चुप भी रहोए तुम्हारी निर्दयता पर मुझे आश्चर्य होता है। मैंने तुम—जैसी कठोर हृदया स्त्री नहीं देखी।

मिसेज सेवक—मैं तो नहीं जाती। तुम्हें जाना होए तो जाओ।

जॉन सेवक—मुझे तो देख रही होए मरने की फुरसत नहीं है। उसी पाँड़ेपुरवाली जमीन के विषय में बातचीत कर रहा हूँ। ऐसे मूँजी से पाला पड़ा है कि किसी तरह चंगुल में नहीं आता। देहातियों को जो लोग सरल कहते हैंए बड़ी भूल करते हैं। इनसे ज्यादा चालाक आदमी मिलना मुश्किल है। तुम्हें इस वक्त कोई काम नहीं हैए मोटर मँगवाए देता हूँए शान से चली जाओए और उसे अपने साथ लेती आओ।

ईश्वर सेवक वहीं आराम—कुरसी पर अॉंखें बंद किए ईश्वर—भजन में मग्न बैठे थे। जैसे बहरा आदमी मतलब की बात सुनते ही सचेत हो जाता हैए मोटरकार का जिक्र सुनते ही धयान टूट गया। बोले—मोटरकार की क्या जरूरत हैघ् क्या दस—पाँच रुपये काट रहे हैं। यों उड़ाने से तो कारूँ का खजाना भी काफी न होगा। क्या गाड़ी पर न जाने से शान में फर्क आ जाएगाघ् तुम्हारी मोटर देखकर कुँवर साहब रोब में न आएँगेए उन्हें खुदा ने बहुतेरी मोटरें दी है। प्रभुए दास को अपनी शरण में लोए अब देर न करोए मेरी सोफी बेचारी वहाँ बेगानों में पड़ी हुई हैए न जाने इतने दिन किस तरह काटे होंगे। खुदा उसे सच्चा रास्ता दिखाए। मेरी अॉंखें उसे ढ़ूँढ़़ रही हैं। वहाँ उस बेचारी का कौन पुछत्तार होगाए अमीरों के घर में गरीबों का कहाँ गुजर!

जॉन सेवक—अच्छा ही हुआ। यहाँ होतीए तो रोजाना डॉक्टर की फीस न देनी पड़तीघ्

ईश्वर सेवक—डॉक्टर का क्या काम था। ईश्वर की दया से मैं खुद थोड़ी—बहुत डॉक्टरी कर लेता हूँ। घरवालों का स्नेह डॉक्टर की दवाओं से कहीं ज्यादा लाभदायक होता है। मैं अपनी बच्ची को गोद में लेकर कलामे—पाक सुनाताए उसके लिए खुदा से दुआ माँगता।

मिसेज सेवक—तो आप ही चले जाइए!

ईश्वर सेवक—सिर और अॉंखों सेए मेरा ताँगा मँगवा दो। हम सबों को चलना चाहिए। भूले—भटके को प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है। मैं भी चलता हूँ। अमीरों के सामने दीन बनना पड़ता है। उनसे बराबरी का दावा नहीं किया जाता।

जॉन सेवक—मुझे अभी साथ न ले जाइएए मैं किसी दूसरे अवसर पर जाऊँगा। इस वक्त वहाँ शिष्टाचार के सिवा और कोई काम न होगा। मैं उन्हें धन्यवाद दूँगाए वह मुझे धन्यवाद देंगे। मैं इस परिचय को दैवी प्रेरणा समझता हूँ। इतमीनान से मिलूँगा। कुँवर साहब का शहर में बड़ा दबाव है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान उनके दामाद हैं। उनकी सहायता से मुझे पाँड़ेपुरवाली जमीन बड़ी आसानी से मिल जाएगी। सम्भव हैए वह कुछ हिस्से भी खरीद लें। मगर आज इन बातों का मौका नहीं है।

ईश्वर सेवक—मुझे तुम्हारी बुध्दि पर हँसी आती है। जिस आदमी से राह—रस्म पैदा करके तुम्हारे इतने काम निकल सकते हैंए उससे मिलने में भी तुम्हें इतना संकोचघ् तुम्हारा समय इतना बहुमूल्य है कि आधा घंटे के लिए भी वहाँ नहीं जा सकतेघ् पहली ही मुलाकात में सारी बातें तय कर लेना चाहते होघ् ऐसा सुनहरा अवसर पाकर भी तुम्हें उससे फायदा उठाना नहीं आताघ्

जॉन सेवक—खैरए आपका अनुरोध हैए तो मैं ही चला जाऊँगा। मैं एक जरूरी काम कर रहा थाए फिर कर लूँगा। आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं। (स्त्री से) तुम तो चल रही होघ्

मिसेज सेवक—मुझे नाहक ले चलते होय मगर खैरए चलो।

भोजन के बाद चलना निश्चित हुआ। अंगरेजी प्रथा के अनुसार यहाँ दिन का भोजन एक बजे होता था। बीच का समय तैयारियों में कटा। मिसेज सेवक ने अपने आभूषण निकालेए जिनसे वृध्दावस्था ने भी उन्हें विरक्त नहीं किया था। अपना अच्छे—से—अच्छा गाउन और ब्लाउज निकाला। इतना शृंगार वह अपनी बरस—गाँठ के सिवा और किसी उत्सव में न करती थीं। उद्देश्य था सोफिया को जलानाए उसे दिखाना कि तेरे आने से मैं रो—रोकर मरी नहीं जा रही हूँ। कोचवान को गाड़ी धोकर साफ करने का हुक्म दिया गया। प्रभु सेवक को भी साथ ले चलने की राय हुई। लेकिन जॉन सेवक ने जाकर उसके कमरे में देखाए तो उसका पता न था। उसकी मेज पर एक दर्शन—ग्रंथ खुला पड़ा था। मालूम होता थाए पढ़़ते—पढ़़ते उठकर कहीं चला गया है। वास्तव में यह ग्रंथ तीन दिनों से इसी भाँति पड़ा हुआ था। प्रभु सेवक को उसे बंद करके रख देने का अवकाश न था। वह प्रातरूकाल से दो घड़ी रात तक शहर का चक्कर लगाया करता। केवल दो बार भोजन करने घर आता था। ऐसा कोई स्कूल न थाए जहाँ उसने सोफी को न ढ़ूँढ़़ा हो। कोई जान—पहचान का आदमीए कोई मित्र ऐसा न थाए जिसके घर जाकर उसने तलाश न की हो। दिन—भर की दौड़—धूप के बाद रात को निराश होकर लौट आताए और चारपाई पर लेटकर घंटों सोचता और रोता। कहाँ चली गईघ् पुलिस के दफ्तर में दिन—भर में दस—दस बार जाता और पूछताए कुछ पता चलाघ् समाचार—पत्रों में भी सूचना दे रखी थी। वहाँ भी रोज कई बार जाकर दरियाफ्त करता। उसे विश्वास होता जाता था कि सोफी हमसे सदा के लिए विदा हो गई। आज भीए रोज की भाँतिए एक बजे थका—माँदाए उदास और निराश लौटकर आयाए तो जॉन सेवक ने शुभ सूचना दी—सोफिया का पता मिल गया।

प्रभु सेवक का चेहरा खिल उठा। बोला—सच! कहाँघ् क्या उसका कोई पत्र आया हैघ्

जॉन सेवक—कुँवर भरतसिंह के मकान पर है। जाओए खाना खा लो। तुम्हें भी वहाँ चलना है।

प्रभु सेवक—मैं तो लौटकर खाना खाऊँगा। भूख गायब हो गई। है तो अच्छी तरहघ्

मिसेज सेवक—हाँए हाँए बहुत अच्छी तरह है। खुदा ने यहाँ से रूठकर जाने की सजा दे दी।

प्रभु सेवक—मामाए खुदा ने आपका दिल न जाने किस पत्थर का बनाया है। क्या घर से आप ही रूठकर चली गई थीघ् आप ही ने उसे निकालाए और अब भी आपको उस पर जरा भी दया नहीं आतीघ्

मिसेज सेवक—गुमराहों पर दया करना पाप है।

प्रभु सेवक—अगर सोफी गुमराह हैए तो ईसाइयों में 100 में 99 आदमी गुमराह हैं! वह धर्म का स्वाँग नहीं दिखाना चाहतीए यही उसमें दोष हैय नहीं तो प्रभु मसीह से जितनी श्रध्दा उसे हैए उतनी उन्हें भी न होगीए जो ईसा पर जान देते हैं।

मिसेज सेवक—खैरए मालूम हो गया कि तुम उसकी वकालत खूब कर सकते हो। मुझे इन दलीलों को सुनने की फुरसत नहीं।

यह कहकर मिसेज सेवक वहाँ से चली गईं। भोजन का समय आया। लोग मेज पर बैठे। प्रभु सेवक आग्रह करने पर भी न गया। तीनों आदमी फिटन पर बैठेए तो ईश्वर सेवक ने चलते—चलते जॉन सेवक से कहा—सोफी को जरूर साथ लानाए और इस अवसर को हाथ से न जाने देना। प्रभु मसीह तुम्हें सुबुध्दि देए सफल मनोरथ करें।

थोड़ी देर में फिटन कुँवर साहब के मकान पर पहुँच गई। कुँवर साहब ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। मिसेज सेवक ने मन में सोचा थाए मैं सोफिया से एक शब्द भी न बोलूँगीए दूर से खड़ी देखती रहूँगी। लेकिन जब सोफिया के कमरे में पहुँची और उसका मुरझाया हुआ चेहरा देखाए तो शोक से कलेजा मसोस उठा। मातृस्नेह उबल पड़ा। अधीर होकर उससे लिपट गईं। अॉंखों से आँसू बहने लगे। इस प्रवाह में सोफिया का मनोमालिन्य बह गया। उसने दोनों हाथ माता की गर्दन में डाल दिएए और कई मिनट तक दोनों प्रेम का स्वर्गीय आनंद उठाती रहीं। जॉन सेवक ने सोफिया का माथा चूमाय किंतु प्रभु सेवक अॉंखों में आँसू—भरे उसके सामने खड़ा रहा। आलिंगन करते हुए उसे भय होता था कि कहीं हृदय फट न जाए। ऐसे अवसरों पर उसके भाव और भाषाए दोनों ही शिथिल हो जाते थे।

जब जॉन सेवक सोफी को देखकर कुँवर साहब के साथ बाहर चले गएए तो मिसेज सेवक बोलीं—तुझे उस दिन क्या सूझी कि यहाँ चली आईघ् यहाँ अजनबियों में पड़े—पड़े तेरी तबीयत घबराती रही होगी। ये लोग अपने धान के घमंड में तेरी बात भी न पूछते होंगे।

सोफिया—नहीं मामाए यह बात नहीं है। घमंड तो यहाँ किसी में छू भी नहीं गया है। सभी सहृदयता और विनय के पुतले हैं। यहाँ तक कि नौकर—चाकर भी इशारों पर काम करते हैं। मुझे आज चौथे दिन होश आया है। पर इन लोगों ने इतने प्रेम से सेवा—शुश्रूषा न की होतीए तो शायद मुझे हफ्तों बिस्तर पर पड़े रहना पड़ता। मैं अपने घर में भी ज्यादा—से—ज्यादा इतने ही आराम से रहती।

मिसेज सेवक—तुमने अपनी जान जोखिम में डाली थीए तो क्या ये लोग इतना भी करने से रहेघ्

सोफिया—नहीं मामाए ये लोग अत्यंत सुशील और सज्जन हैं। खुद रानीजी प्रायरू मेरे पास बैठी पंखा झलती रहती हैं। कुँवर साहब दिन में कई बार आकर देख जाते हैंए और इंदु से तो मेरा बहनापा—सा हो गया है। यही लड़की हैए जो मेरे साथ नैनीताल में पढ़़ा करती थी।

मिसेज सेवक—(चिढ़़कर) तुझे दूसरों में सब गुण—ही—गुण नजर आते हैं। अवगुण सब घरवालों ही के हिस्से में पड़े हैं। यहाँ तक कि दूसरे धर्म भी अपने धर्म से अच्छे हैं।

प्रभु सेवक—मामाए आप तो जरा—जरा—सी बात पर तिनक उठती हैं। अगर कोई अपने साथ अच्छा बरताव करेए तो क्या उसका एहसान न माना जाएघ् कृतघ्नता से बुरा कोई दूषण नहीं है।

मिसेज सेवक—यह कोई आज नई बात थोड़े ही है। घरवालों की निंदा तो इसकी आदत हो गई है। यह मुझे जताना चाहती है कि ये लोग इसके साथ मुझसे ज्यादा प्रेम करते हैं। देखूँए यहाँ से जाती हैए तो कौन—सा तोहफा दे देते हैं। कहाँ हैं तेरी रानी साहबघ् मैं भी उन्हें धन्यवाद दे दूँ। उनसे आज्ञा ले लो और घर चलो। पापा अकेले घबरा रहे होंगे।

सोफिया—वह तो तुमसे मिलने को बहुत उत्सुक थीं। कब की आ गई होतींए पर कदाचित्‌ हमारी बीच में बिना बुलाए आना अनुचित समझती होंगी।

प्रभु सेवक—मामाए अभी सोफी को यहाँ दो—चार दिन और आराम से पड़ी रहने दीजिए। अभी इसे उठने में कष्ट होगा। देखिएए कितनी दुर्बल हो गई है!

सोफिया—रानीजी भी यही कहती थीं कि अभी मैं तुम्हें जाने न दूँगी।

मिसेज सेवक—यह क्यों नहीं कहती कि तेरा ही जी यहाँ से जाने को नहीं चाहता। वहाँ तेरा इतना प्यार कौन करेगा!

सोफिया—नहीं मामाए आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं। मैं अब यहाँ एक दिन भी नहीं रहना चाहती। इन लोगों को मैं अब और कष्ट नहीं दूँगी। मगर एक बात मुझे मालूम हो जानी चाहिए। मुझ पर फिर तो अत्याचार न किया जाएगाघ् मेरी धार्मिक स्वतंत्रता में फिर तो कोई बाधा न डाली जाएगीघ्

प्रभु सेवक—सोफीए तुम व्यर्थ इन बातों की क्यों चर्चा करती होघ् तुम्हारे साथ कौन—सा अत्याचार किया जाता हैघ् जरा—सी बात का बतंगड़ बनाती हो।

मिसेज सेवक—नहींए तूने यह बात पूछ लीए बहुत अच्छा कया। मैं भी मुगालते में नहीं रखना चाहती। मेरे घर में प्रभु मसीह के द्रोहियों के लिए जगह नहीं है।

प्रभु सेवक—आप नाहक उससे उलझती हैं। समझ लीजिएए कोई पगली बक रही है।

मिसेज सेवक—क्या करूँए मैंने तुम्हारी तरह दर्शन नहीं पढ़़ा। यथार्थ को स्वप्न नहीं समझ सकती। यह गुण तो तत्तवज्ञानियों ही में हो सकता है। यह मत समझो कि मुझे अपनी संतान से प्रेम नहीं है। खुदा जानता हैए मैंने तुम्हारी खातिर क्या—क्या कष्ट नहीं झेले। उस समय तुम्हारे पापा एक दफ्तर में क्लर्क थे। घर का सारा काम—काज मुझी को करना पड़ता था। बाजार जातीए खाना पकातीए झाड़ई लगातीय तुम दोनों ही बचपन में कमजोर थेए नित्य एक—न—एक रोग लगा ही रहता था। घर के कामों से जरा फुरसत मिलती तो डॉक्टर के पास जाती। बहुधा तुम्हें गोद में लिए—ही—लिए रातें कट जातीं। इतने आत्मसमर्पण से पाली हुई संतान को जब ईश्वर से विमुख होते देखती हूँए तो मैं दुरूख और क्रोध से बावली हो जाती हूँ। तुम्हें मैं सच्चाए ईमान का पक्काए मसीह का भक्त बनाना चाहती थी। इसके विरुध्द जब तुम्हें ईसू से मुँह मोड़ते देखती हूँय उनके उपदेशए उनके जीवन और उनके अलौकिक कृत्यों पर शंका करते पाती हूँए तो मेरे हृदय के टुकड़े—टुकड़े हो जाते हैंए और यही इच्छा होती है कि इसकी सूरत न देखूँ। मुझे अपना मसीह सारे सांसर सेए यहाँ तक कि अपनी जान से भी प्यारा है।

सोफिया—आपको ईसू इतना प्यारा हैए तो मुझे भी अपनी आत्माए अपना ईमान उससे कम प्यारा नहीं है। मैं उस पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं सह सकती।

मिसेज सेवक—खुदा तुझे इस अभक्ति की सजा देगा। मेरी उससे यही प्रार्थना है कि वह फिर मुझे तेरी सूरत न दिखाए।

यह कहकर मिसेज सेवक कमरे के बाहर निकल आईं। रानी और इंदु उधार से आ रही थीं। द्वार पर उनसे भेंट हो गई। रानीजी मिसेज सेवक के गले लिपट गई और कृतज्ञतापूर्ण शब्दों का दरिया बहा दिया। मिसेज सेवक को इस साधु प्रेम में बनावट की बू आई। लेकिन रानी को मानव—चरित्र का ज्ञान न था। इंदु से बोलीं—देखए मिस सोफिया से कह देए अभी जाने की तैयारी न करे। मिसेज सेवकए आप मेरी खातिर से सोफिया को अभी दो—चार दिन यहाँ रहने देंए मैं आपसे सविनय अनुरोध करती हूँ। अभी मेरा मन उसकी बातोें से तृप्त नहीं हुआए और न उसकी कुछ सेवा ही कर सकी। मैं आपसे वादा करती हूँए मैं स्वयं उसे आपके पास पहुँचा दूँगी। जब तक वह यहाँ रहेगीए आपसे दिन में एक बार भेंट तो होती ही रहेगीघ् धान्य हैं आपए जो ऐसी सुशीला लड़की पाई! दया और विवेक की मूर्ति है। आत्मत्याग तो इसमें कूट—कूटकर भरा हुआ है।

मिसेज सेवक—मैं इसे अपने साथ चलने के लिए मजबूर नहीं करती। आप जितने दिन चाहेंए शौक से रखें।

रानी—बस—बसए मैं इतना ही चाहती थी। आपने मुझे मोल ले लिया। आपसे ऐसी ही आशा भी थी। आप इतनी सुशीला न होतींए तो लड़की में ये गुण कहाँ से आतेघ् एक मेरी इंदु है कि बातें करने का भी ढ़ंग नहीं जानती। एक बड़ी रियासत की रानी हैय पर इतना भी नहीं जानती कि मेरी वार्षिक आय कितनी है! लाखों के गहने संदूक में पड़े हुए हैंए उन्हें छूती तक नहीं। हाँए सैर करने को कह दीजिएए तो दिन—भर घूमा करे। क्यों इंदुए झूठ कहती हूँघ्

इंदु—तो क्या करूँए मन—भर सोना लादे बैठी रहूँघ् मुझे तो इस तरह अपनी देह को जकड़ना अच्छा नहीं लगता।

रानी—सुनीं आपने इसकी बातेंघ् गहनों से इसकी देह जकड़ जाती है! आइएए अब आपको अपने घर की सैर कराऊँ। इंदुए चाय बनाने को कह दे।

मिसेज सेवक—मिस्टर सेवक बाहर खड़े मेरा इंतजार कर रहे होंगे। देर होगी।

रानी—वाहए इतनी जल्दी। कम—से—कम आज यहाँ भोजन तो कर ही लीजिएगा। लंच करके हवा खाने चलेंए फिर लौटकर कुछ देर गप—शप करें। डिनर के बाद मेरी मोटर आपको घर पहुँचा देगी।

मिसेज सेवक इनकार न कर सकीं। रानीजी ने उनका हाथ पकड़ लियाए और अपने राजभवन की सैर कराने लगीं। आधा घंटे तक मिसेज सेवक मानो इंद्र—लोक की सैर करती रहीं। भवन क्या थाए आमोदए विलासए रसज्ञता और वैभव का क्रीड़ास्थल था। संगमरमर के फर्श पर बहुमूल्य कालीन बिछे हुए थे। चलते समय उनमें पैर धाँस जाते थे। दीवारों पर मनोहर पच्चीकारीय कमरों की दीवारों में बड़े—बड़े आदम—कद आईनेय गुलकारी इतनी सुंदर कि अॉंखें मुग्धा हो जाएँय शीशे की अमूल्य—अलभ्य वस्तुएँए प्राचीन चित्रकारों की विभूतियाँय चीनी के विलक्षण गुलदानय जापानए चीनए यूनान और ईरान की कला—निपुणता के उत्ताम नमूनेय सोने के गमलेय लखनऊ की बोलती हुई मूर्तियाँय इटली के बने हुए हाथी—दाँत के पलँगय लकड़ी के नफीस ताकय दीवारगीरेंय किश्तियाँय अॉंखों को लुभानेवालीए पिंजड़ों में चहकती हुई भाँति—भाँति की चिड़ियाँय अॉंगन में संगमरमर का हौज और उसके किनारे संगमरमर की अप्सराएँ—मिसेज सेवक ने इन सारी वस्तुओं में से किसी की प्रशंसा नहीं कीए कहीं भी विस्मय या आनंद का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उन्हें आनंद के बदलेर् ईर्ष्‌या हो रही थी।र् ईर्ष्‌या में गुणग्राहकता नहीं होती। वह सोच रही थीं—एक यह भाग्यवान्‌ हैं कि ईश्वर ने इन्हें भोग—विलास और आमोद—प्रमोद की इतनी सामग्रियाँ प्रदान कर रखी हैं। एक अभागिनी मैं हूँ कि एक झोंपड़े में पड़ी हुई दिन काट रही हूँ। सजावट और बनावट का जिक्र ही क्याए आवश्यक वस्तुएँ भी काफी नहीं। इस पर तुर्रा यह कि हम प्रातरू से संध्या तक छाती फाड़कर काम करती हैंए यहाँ कोई तिनका तक नहीं उठाता। लेकिन इसका क्या शोकघ् आसमान की बादशाहत में तो अमीरों का हिस्सा नहीं। वह तो हमारी मीरास होगी। अमीर लोग कुत्तों की भाँति दुतकारे जाएँगेए कोई झाँकने तक न पाएगा।

इस विचार से उन्हें कुछ तसल्ली हुई।र् ईर्ष्‌या की व्यापकता ही साम्यवाद की सर्वप्रियता का कारण है। रानी साहब को आश्चर्य हो रहा था कि इन्हें मेरी कोई चीज पसंद न आईए किसी वस्तु का बखान न किया। मैंने एक—एक चित्र और एक—एक प्याले के लिए हजारों खर्च किए हैं। ऐसी चीजें यहाँ और किसके पास हैं। अब अलभ्य हैंए लाखों में भी न मिलेंगी। कुछ नहींए बन रही हैंए या इतना गुण—ज्ञान ही नहीं है कि इनकी कद्र कर सकें।

इतने पर भी रानीजी को निराशा नहीं हुई। उन्हें अपने बाग दिखाने लगीं। भाँति—भाँति के फूल और पौधो दिखाए। माली बड़ा चतुर था। प्रत्येक पौदे का गुण और इतिहास बतलाता जाता था—कहाँ से आयाए कब आयाए किस तरह लगाया गयाए कैसे उसकी रक्षा की जाती हैय पर मिसेज सेवक का मुँह अब भी न खुला। यहाँ तक कि अंत में उसने एक ऐसी नन्हीं—सी जड़ी दिखाईए जो येरुसलम से लाई गई थी। कुँवर साहब उसे स्वयं बड़ी सावधानी से लाए थेए और उसमें एक—एक पत्ती निकलना उनके लिए एक—एक शुभ सम्वाद से कम न था। मिसेज सेवक ने तुरंत उस गमले को उठा लियाए उसे अॉंखों से लगाया और पत्तिायों को चूमा। बोलीं—मेरी सौभाग्य है कि इस दुर्लभ वस्तु के दर्शन हुए।

रानी ने कहा—कुँवर साहब स्वयं इसका बड़ा आदर करते हैं। अगर यह आज सूख जाएए तो दो दिन तक उन्हें भोजन अच्छा न लगेगा।

इतने में चाय तैयार हुई। मिसेज सेवक लंच पर बैठीं। रानीजी को चाय से रुचि न थी। विनय और इंदु के बारे में बातें करने लगीं। विनय के आचार—विचारए सेवा—भक्ति और परोपकार—प्रेम की सराहना कीए यहाँ तक कि मिसेज सेवक का जी उकता गया। इसके जवाब में वह अपनी संतानों का बखान न कर सकती थीं।

उधार मि. जॉन सेवक और कुँवर साहब दीवानखाने में बैठे लंच कर रहे थे। चाय और अंडों से कुँवर साहब को रुचि न थी। विनय भी इन दोनों वस्तुओं को त्याज्य समझते थे। जॉन सेवक उन मनुष्यों में थेए जिनका व्यक्तित्व शीघ्र ही दूसरों को आकर्षित कर लेता है। उनकी बातें इतनी विचारपूर्ण होती थीं कि दूसरे अपनी बातें भूलकर उन्हीं की सुनने लगते थे। औरए यह बात न थी कि उनका भाषण शब्दाडम्बर—मात्रा होता हो। अनुभवशील और मानव—चरित्र के बड़े अच्छे ज्ञाता थे। ईश्वरदत्ता प्रतिभा थीए जिसके बिना किसी सभा में सम्मान नहीं प्राप्त हो सकता। इस समय वह भारत की औद्योगिक और व्यावसायिक दुर्बलता पर अपने विचार प्रकट कर रहे थे। अवसर पाकर उन साधानों का भी उल्लेख करते जाते थेए जो इस कुदशा—निवारण के लिए उन्होंने सोच रखे थे। अंत में बोले—हमारी जाति का उध्दार कला—कौशल और उद्योग की उन्नति में है। इस सिगरेट के कारखाने से कम—से—कम एक हजार आदमियों के जीवन की समस्या हल हो जाएगी और खेती के सिर से उनका बोझ टल जाएगा। जितनी जमीन एक आदमी अच्छी तरह जोत—बो सकता हैए उसमें घर—भर का लगा रहना व्यर्थ है। मेरा कारखाना ऐसे बेकारों को अपनी रोटी कमाने का अवसर देगा।

कुँवर साहब—लेकिन जिन खेतों में इस वक्त नाज बोया जाता हैए उन्हीं खेतों में तम्बाकू बोई जाने लगेगी। फल यह होगा कि नाज और महँगा हो जाएगा।

जॉन सेवक—मेरी समझ में तम्बाकू की खेती का असर जूटए सनए तेलहन और अफीम पर पड़ेगा। निर्यात जिंस कुछ कम हो जाएगी। गल्ले पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता। फिर हम उस जमीन को भी जोत में लाने का प्रयास करेंगेए जो अभी तक परती पड़ी हुई है।

कुँवर साहब—लेकिन तम्बाकू कोई अच्छी चीज तो नहीं। इसकी गणना मादक वस्तुओं में है और स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ता है।

जॉन सेवक—(हँसकर) ये सब डॉक्टरों की कोरी कल्पनाएँ हैंए जिन पर गम्भीर विचार करना हास्यास्पद है। डॉक्टरों के आदेशानुसार हम जीवन व्यतीत करना चाहेंए तो जीवन का अंत ही हो जाए। दूध में सिल के कीड़े रहते हैंए घी में चरबी की मात्रा अधिक हैए चाय और कहवा उत्तोजक हैंए यहाँ तक कि साँस लेने से भी कीटाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। उनके सिध्दांतों के अनुसार समस्त संसार कीटों से भरा हुआ हैए जो हमारे प्राण लेने पर तुले हुए हैं। व्यवसायी लोग इन गोरख—घंधों में नहीं पड़तेय उनका लक्ष्य केवल वर्तमान परिस्थितियों पर रहता है। हम देखे हैं कि इस देश में विदेश से करोड़ों रुपये के सिगरेट और सिगार आते हैं। हमारा कर्तव्य है कि इस धान—प्रवाह को विदेश जाने से रोकें। इसके बगैर हमारा आर्थिक जीवन कभी पनप नहीं सकता।

यह कहकर उन्होंने कुँवर साहब को गर्वपूर्ण नेत्रों से देखा। कुँवर साहब की शंकाएँ बहुत कुछ निवृत्ता हो चुकी थीं। प्रायरू वादी को निरुत्तार होते देखकर हम दिलेर हो जाते हैं। बच्चा भी भागते हुए कुत्तो पर निर्भय होकर पत्थर फेंकता है।

जॉन सेवक निरूशंक होकर बोले—मैंने इन सब पहलुओं पर विचार करके ही यह मत स्थिर कियाए और आपके इस दास को (प्रभु सेवक की ओर इशारा करके) इस व्यवसाय का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा। मेरी कम्पनी के अधिकांश हिस्से बिक चुके हैंए पर अभी रुपये नहीं वसूल हुए। इस प्रांत में अभी सम्मिलित व्यवसाय करने का दस्तूर नहीं। लोगों में विश्वास नहीं। इसलिए मैंने दस प्रति सैकड़े वसूल करके काम शुरू कर देने का निश्चय किया है। साल—दो—साल में जब आशातीत सफलता होगी और वार्षिक लाभ होने लगेगाए तो पूँजी आप—ही—आप दौड़ी आएगी। छत पर बैठा हुआ कबूतर श्आ—आश् की आवाज सुनकर सशंक हो जाता है और जमीन पर नहीं उतरताय पर थोड़ा—सा दाना बखेर दीजिएए तो तुरंत उतर आता है। मुझे पूरा विश्वास है कि पहले ही साल हमें 25 प्रति सैकड़े लाभ होगा। यह प्रास्सपेक्ट्‌स हैए इसे गौर से देखिए। मैंने लाभ का अनुमान करने में बड़ी सावधानी से काम लिया हैय बढ़़ भले ही जाएए कम नहीं हो सकता।

कुँवर साहब—पहले ही साल 25 प्रति सैकड़ेघ्

जॉन सेवक—जी हाँए बड़ी आसानी से। आपसे मैं हिस्से लेने के लिए विनय करताए पर जब तक एक साल का लाभ दिखा न दूँए आग्रह नहीं कर सकता। हाँ इतना अवश्य निवेदन करूँगा कि उस दशा में सम्भव हैए हिस्से बराबर पर न मिल सकें। 100 रुपये के हिस्से शायद 200 रुपये पर मिलें।

कुँवर साहब—मुझे अब एक ही शंका और है। यदि इस व्यवसाय में इतना लाभ हो सकता हैए तो अब तक ऐसी और कम्पनियाँ क्यों न खुलींघ्

जॉन सेवक—(हँसकर) इसलिए कि अभी तक शिक्षित समाज में व्यवसाय—बुध्दि पैदा नहीं हुई। लोगों की नस—नस में गुलामी समाई हुई है। कानून और सरकारी नौकर के सिवा और किसी ओर निगाह जाती ही नहीं। दो—चार कम्पनियाँ खुलीं भीए किंतु उन्हें विशेषज्ञों के परामर्श और अनुभव से लाभ उठाने का अवसर न मिला। अगर मिला भीए तो बड़ा महँगा पड़ा! मशीनरी मँगाने में एक के दो देने पड़ेए प्रबंध अच्छा न हो सका। विवश होकर कम्पनियों को कारबार बंदर करना पड़ा। यहाँ प्रायरू सभी कम्पनियों का यही हाल है। डाइरेक्टरों की थैलियाँ भरी जाती हैंए हिस्से बेचने और विज्ञापन देने में लाखों रुपये उड़ा दिए जाते हैंए बड़ी उदारता से दलालों का आदर—सत्कार किया जाता हैए इमारतों में पूँजी का बड़ा भाग खर्च कर दिया जाता है। मैनेजर भी बहु—वेतन—भोगी रखा जाता है। परिणाम क्या होता हैघ् डाइरेक्टर अपनी जेब भरते हैंए मैनेजर अपना पुरस्कार भोगता हैए दलाल अपनी दलाली लेता हैय मतलब यह कि सारी पूँजी ऊपर—ही—ऊपर उड़ जाती है। मेरा सिध्दांत हैए कम—से—कम खर्च और ज्यादा—से—ज्यादा नफा। मैंने एक कौड़ी दलाली नहीं दीए विज्ञापनों की मद उड़ा दी। यहाँ तक कि मैनेजर के लिए भी केवल 500 रुपये ही वेतन देना निश्चित किया हैए हालाँकि किसी दूसरे कारखाने में एक हजार सहज ही में मिल जाते। उस पर घर का आदमी। डाइरेक्टर के बारे में भी मेरा यही निश्चय है कि सफर—खर्च के सिवा और कुछ न दिया जाए।

कुँवर साहब सांसारिक पुरुष न थे। उनका अधिकांश समय धर्म—ग्रंथों के पढ़़ने में लगता था। वह किसी ऐसे काम में शरीक न होना चाहते थेए जो उनकी धार्मिक एकाग्रता में बाधक हो। धूतोर्ं ने उन्हें मानव—चरित्र का छिद्रान्वेषी बना दिया था। उन्हें किसी पर विश्वास न होता था। पाठशालाओं और अनाथालयों को चंदे देते हुए वह बहुत डरते रहते थे और बहुधा इस विषय में औचित्य की सीमा से बाहर निकल जाते थे—सुपात्राों को भी उनसे निराश होना पड़ता था। पर संयमशीलता जहाँ इतनी सशंक रहती हैए वहाँ लाभ का विश्वास होने पर उचित से अधिक निरूशंक भी हो जाती है। मिस्टर जॉन सेवक का भाषण व्यावसायिक ज्ञान से परिपूर्ण थाय पर कुँवर साहब पर इससे ज्यादा प्रभाव उनके व्यक्तित्व का पड़ा। उनकी द्रष्टि में जॉन सेवक अब केवल धान के उपासक न थेए वरन्‌ हितैषी मित्र थे। ऐसा आदमी उन्हें मुगालता न दे सकता था। बोले—जब आप इतनी किफायत से काम करेंगेए तो आपका उद्योग अवश्य सफल होगाए इसमें कोई संदेह नहीं। आपको शायद अभी मालूम न होए मैंने यहाँ एक सेवा—समिति खोल रखी है। कुछ दिनों से यही खब्त सवार है। उसमें इस समय लगभग एक सौ स्वयंसेवक हैं। मेले—ठेले में जनता की रक्षा और सेवा करना उसका काम है। मैं चाहता हूँ कि उसे आर्थिक कठिनाइयों से सदा के लिए मुक्त कर दूँ। हमारे देश की संस्थाएँ बहुधा धानाभाव के कारण अल्पायु होती हैं। मैं इस संस्था को सु—ढ़़ बनाना चाहता हूँ और मेरी यह हार्दिक अभिलाषा है कि इससे देश का कल्याण हो। मैं किसी से इस काम में सहायता नहीं लेना चाहता। उसके निर्विघ्न संचालन के लिए एक स्थायी कोष की व्यवस्था कर देना चाहता हूँ। मैं आपको अपना मित्र और हितचिंतक समझकर पूछता हूँए क्या आपके कारखाने में हिस्से ले लेने से मेरा उद्देश्य पूरा हो सकता हैघ् आपके अनुमान में कितने रुपये लगाने से एक हजार की मासिक आमदनी हो सकती हैघ्

जॉन सेवक की व्यावसायिक लोलुपता ने अभी उनकी सद्‌भावनाओं को शिथिल नहीं किया था। कुँवर साहब ने उनकी राय पर फैसला छोड़कर उन्हें दुविधा में डाल दिया। अगर उन्हें पहले से मालूम होता कि यह समस्या सामने आवेगीए तो नफा का तखमीना बताने में ज्यादा सावधान हो जाते। गैरों से चालें चलना क्षम्य समझा जाता हैय लेकिन ऐसे स्वार्थ के भक्त कम मिलेंगेए जो मित्रों से दगा करें। सरल प्राणियों के सामने कपट भी लज्जित हो जाता है।

जॉन सेवक ऐसा उत्तर देना चाहते थेए जो स्वार्थ और आत्माए दोनों ही को स्वीकार हो। बोले—कम्पनी की जो स्थिति हैए वह मैंने आपके सामने खोलकर रख दी है। संचालन—विधि भी आपको बतला चुका हूँ। मैंने सफलता के सभी साधानों पर निगाह रखी है। इस पर भी सम्भव है मुझसे भूलें हो गई होंए और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मनुष्य विधाता के हाथों का खिलौना—मात्रा है। उसके सारे अनुमानए सारी बुध्दिमत्तााए सारी शुभ—चिंताएँ नैसर्गिक शक्तियों के अधीन हैं। तम्बाकू की उपज बढ़़ाने के लिए किसानों को पेशगी रुपये देने ही पड़ेंगे। एक रात का पाला कम्पनी के लिए घातक हो सकता है। जले हुए सिगरेट का एक टुकड़ा कारखाने को खाक में मिला सकता है। हाँए मेरी परिमित बुध्दि की दौड़ जहाँ तक हैए मैंने कोई बात बढ़़ाकर नहीं कही है। आकस्मिक बाधाओं को देखते हुए आप लाभ के अनुमान में कुछ और कमी कर सकते हैं।

कुँवर साहब—आखिर कहाँ तकघ्

जॉन सेवक—20 रुपये सैकड़े समझिए।

कुँवर साहब—और पहले वर्षघ्

जॉन सेवक—कम—से—कम 15 रुपये प्रति सैकड़े।

कुँवर साहब—मैं पहले वर्ष 10 रुपये और उसके बाद 15 रुपये प्रति सैकड़े पर संतुष्ट हो जाऊँगा।

जॉन सेवक—तो फिर मैं आपसे यही कहूँगा कि हिस्से लेने में विलम्ब न करें। खुदा ने चाहाए तो आपको कभी निराशा न होगी।

सौ—सौ रुपये के हिस्से थे। कुँवर साहब ने 500 हिस्से लेने का वादा किया और बोले—कल पहली किस्त के दस हजार रुपये बैंक द्वारा आपके पास भेज दूँगा।

जॉन सवक की ऊँची—से—ऊँची उड़ान भी यहाँ तक न पहुँची थीय पर वह इस सफलता पर प्रसन्न न हुए। उनकी आत्मा अब भी उनका तिरस्कार कर रही थी कि तुमने एक सरल—हृदय सज्जन पुरुष को धोखा दिया। तुमने देश की व्यावसायिक उन्नति के लिए नहींए अपने स्वार्थ के लिए यह प्रयत्न किया है। देश के सेवक बनकर तुम अपनी पाँचों उँगलियाँ घी में रखना चाहते हो। तुम्हारा मनोवांछित उद्देश्य यही है कि नफे का बड़ा भाग किसी—न—किसी हीले से आप हज्म करो। तुमने इस लोकोक्ति को प्रमाणित कर दिया कि श्बनिया मारे जानए चोर मारे अनजान।श्

अगर कुँवर साहब के सहयोग से जनता में कम्पनी की साख जम जाने का विश्वास न होताए तो मिस्टर जॉन सेवक साफ कह देते कि कम्पनी इतने हिस्से आपको नहीं दे सकती। एक परोपकारी संस्था के धान को किसी संदिग्धा व्यवसाय में लगाकर उसके अस्तित्व को खतरे में डालना स्वार्थपरता के लिए भी कड़घवा ग्रास थाय मगर धान का देवता आत्मा का बलिदान पाए बिना प्रसन्न नहीं होता। हाँए इतना अवश्य हुआ कि अब तक वह निजी स्वार्थ के लिए यह स्वाँग भर रहे थेए उनकी नीयत साफ नहीं थीए लाभ को भिन्न—भिन्न नामों से अपने ही हाथ में रखना चाहते थे। अब उन्होंने निरूस्पृह होकर नेकनीयती का व्यवहार करने का निश्चय किया। बोले—मैं कम्पनी के संस्थापक की हैसियत से इस सहायता के लिए हृदय से आपका अनुगृहीत हूँ। खुदा ने चाहाए तो आपको आज के फैसले पर कभी पछताना न पड़ेगा। अब मैं आपसे एक और प्रार्थना करता हूँ। आपकी कृपा ने मुझे धाृष्ट बना दिया है। मैंने कारखाने के लिए जो जमीन पसंद की हैए वह पाँड़ेपुर के आगे पक्की सड़क पर स्थित है। रेल का स्टेशन वहाँ से निकट है और आस—पास बहुत—से गाँव हैं। रकबा दस बीघे का है। जमीन परती पड़ी हुई है। हाँए बस्ती के जानवर उसमें चरने आया करते हैं। उसका मालिक एक अंधा फकीर है। अगर आप उधार कभी हवा खाने गए होंगेए तो आपने उस अंधे को अवश्य देखा होगा।

कुँवर साहब—हाँ—हाँए अभी तो कल ही गया थाए वही अंधा है नए काला—कालाए दुबला—दुबलाए जो सवारियों के पीछे दौड़ा करता हैघ्

जॉन सेवक—जी हाँए वही—वही। वह जमीन उसकी हैय किंतु वह उसे किसी दाम पर नहीं छोड़ना चाहता। मैं उसे पाँच हजार तक देता थाय पर राजी न हुआ। वह बहुत झक्की—सा है। कहता हैए मैं वहाँ धर्मशालाए मंदिर और तालाब बनवाऊँगा। दिन—भर भीख माँगकर तो गुजर करता हैए उस पर इरादे इतने लम्बे हैं। कदाचित्‌ मुहल्लेवालों के भय से उसे कोई मामला करने का साहस नहीं होता। मैं एक निजी मामले में सरकार से सहायता लेना उचित नहीं समझताय पर ऐसी दशा में मुझे इसके सिवा दूसरा कोई उपाय भी नहीं सूझता। औरए फिर यह बिल्कुल निजी बात भी नहीं है। म्युनिसिपैलिटी और सरकार दोनों ही को इस कारखाने से हजारों रुपये साल की आमदनी होगीए हजारों शिक्षित और अशिक्षित मनुष्यों का उपकार होगा। इस पहलू से देखिएए तो यह सार्वजनिक काम हैए और इसमें सरकार से सहायता लेने में मैं औचित्य का उल्लंघन नहीं करता। आप अगर जरा तवज्जह करेंए तो बड़ी आसानी से काम निकल जाए।

कुँवर साहब—मेरा उस फकीर पर कुछ दबाव नहीं हैए और होता भीए तो मैं उससे काम न लेता।

जॉन सेवक—आप राजा साहब चतारी...

कुँवर साहब—नहींए मैं उनसे कुछ नहीं कह सकता। वह मेरे दामाद हैंए और इस विषय में मेरा उनसे कहना नीति—विरुध्द है। क्या वह आपके हिस्सेदार नहीं हैंघ्

जॉन सेवक—जी नहींए वह स्वयं अतुल सम्पत्ति के स्वामी होकर भी धानियों की उपेक्षा करते हैं। उनका विचार है कि कल—कारखाने पूँजीवालों का प्रभुत्व बढ़़ाकर जनता का अपकार करते हैं। इन्हीं विचारों ने तो उन्हें यहाँ प्रधान बना दिया।

कुँवर साहब—यह तो अपना—अपना सिध्दांत है। हम द्वैधा जीवन व्यतीत कर रहे हैंए और मेरा विचार यह है कि जनतावाद के प्रेमी उच्च श्रेणी में जितने मिलेंगेए उतने निम्न श्रेणी में न मिल सकेंगे। खैरए आप उनसे मिलकर देखिए तो। क्या कहूँए शहर के आस—पास मेरी एक एकड़ जमीन भी नहीं हैए नहीं तो आपको यह कठिनाई न होती। मेरे योग्य और जो काम होए उसके लिए हाजिर हूँ।

जॉन सेवक—जी नहींए मैं आपको और कष्ट देना नहीं चाहताए मैं स्वयं उनसे मिलकर तय कर लूँगा।

कुँवर साहब—अभी तो मिस सोफिया पूर्ण स्वस्थ होने तक यहीं रहेंगी नघ् आपको तो इसमें कोई आपत्ति नहीं हैघ्

जॉन सेवक इस विषय में सिर्फ दो—चार बातें करके यहाँ से विदा हुए। मिसेज सेवक फिटन पर पहले ही से आ बैठी थीं। प्रभु सेवक विनय के साथ बाग में टहल रहे थे। विनय ने आकर जॉन सेवक से हाथ मिलाया। प्रभु सेवक उनसे कल फिर मिलने का वादा करके पिता के साथ चले। रास्ते में बातें होने लगीं।

जॉन सेवक—आज एक मुलाकात में जितना काम हुआए उतना महीनों की दौड़—धूप से भी न हुआ था। कुँवर साहब बड़े सज्जन आदमी हैं। 50 हजार के हिस्से ले लिए। ऐसे ही दो—चार भले आदमी और मिल जाएँए तो बेड़ा पार है।

प्रभु सेवक—इस घर के सभी प्राणी दया और धर्म के पुतले हैं। विनयसिंह जैसा वाक्—मर्मज्ञ नहीं देखा। मुझे तो इनसे प्रेम हो गया।

जॉन सेवक—कुछ काम की बातचीत भी कीघ्

प्रभु सेवक—जी नहींए आपके नजदीक जो काम की बातचीत हैए उन्हें उसमें जरा भी रुचि नहीं। वह सेवा का व्रत ले चुके हैंए और इतनी देर तक अपनी समिति की ही चर्चा करते रहे।

जॉन सेवक—क्या तुम्हें आशा है कि तुम्हारा यह परिचय चतारी के राजा साहब पर भी कुछ असर डाल सकता हैघ् विनयसिंह राजा साहब से हमारा कुछ काम निकलवा सकते हैंघ्

प्रभु सेवक—उनसे कहे कौनए मुझमें तो इतनी हिम्मत नहीं। उन्हें आप स्वदेशानुरागी संन्यासी समझिए। मुझसे अपनी समिति में आने के लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया है।

जॉन सेवक—शरीक हो गए नघ्

प्रभु सेवक—जी नहींए कह आया हूँ कि सोचकर उत्तर दूँगा। बिना सोचे—समझे इतना कठिन व्रत क्योंकर धारण कर लेता।

जॉन सेवक—मगर सोचने—समझने में महीनों न लगा देना। दो—चार दिन में आकर नाम लिखा लेना। तब तुम्हें उनसे कुछ काम की बातें करने का अधिकार हो जाएगा। (स्त्री से) तुम्हारी रानीजी से कैसी निभीघ्

मिसेज सेवक—मुझे तो उनसे घृणा हो गई। मैंने किसी में इतना घमंड नहीं देखा।

प्रभु सेवक—मामाए आप उनके साथ घोर अन्याय कर रही हैं।

मिसेज सेवक—तुम्हारे लिए देवी होंगीए मेरे लिए तो नहीं हैं।

जॉन सेवक—यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि तुम्हारी उनसे न पटेगी। काम की बातें न तुम्हें आती हैंए न उन्हें। तुम्हारा काम तो दूसरों में ऐब निकालना है। सोफी को क्यों नहीं लाईंघ्

मिसेज सेवक—वह आए भी तोए या जबरन घसीट लातीघ्

जॉन सेवक—आई नहीं या रानी ने आने नहीं दियाघ्

प्रभु सेवक—वह तो आने को तैयार थीए किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाए।

जॉन सेवक—इन्हें यह शर्त क्यों मंजूर होने लगी!

मिसेज सेवक—हाँए इस शर्त पर मैं उसे नहीं ला सकती। वह मेरे घर रहेगीए तो मेरी बात माननी पड़ेगी।

जॉन सेवक—तुम दोनों में एक का भी बुध्दि से सरोकार नहीं। तुम सिड़ी होए वह जिद्दी है। उसे मना—मनूकर जल्दी लाना चाहिए।

प्रभु सेवक—अगर मामा अपनी बात पर अड़ी रहेंगीए तो शायद वह फिर घर न जाए।

जॉन सेवक—आखिर जाएगी कहाँघ्

प्रभु सेवक—उसे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं। रानी उस पर जान देती हैं।

जॉन सेवक—यह बेल मुँढ़़े चढ़़ने की नहीं है। दो में से एक को दबना पड़ेगा।

लोग घर पहुँचेए तो गाड़ी की आहट पाते ही ईश्वर सेवक ने बड़ी स्नेहमयी उत्सुकता से पूछा—सोफी आ गई नघ् आए तुझे गले लगा लूँ। ईसू तुझे अपने दामन में ले।

जॉन सेवक—पापाए वह अभी यहाँ आने के योग्य नहीं है। बहुत अशक्त हो गई है। दो—चार दिन बाद आवेगी।

ईश्वर सेवक—गजब खुदा का! उसकी यह दशा हैए और तुम सब उसे उसके हाल पर छोड़ आए! क्या तुम लोगों में जरा भी मानापमान का विचार नहीं रहा! बिल्कुल खून सफेद हो गयाघ्

मिसेज सेवक—आप जाकर उसकी खुशामद कीजिएगाए तो आवेगी। मेरे कहने से तो नहीं आई। बच्ची तो नहीं कि गोद में उठा लातीघ्

जॉन सेवक—पापाए वहाँ बहुत आराम से है। राजा और रानीए दोनों ही उसके साथ प्रेम करते हैं। सच पूछिएए तो रानी ही ने उसे नहीं छोड़ा।

ईश्वर सेवक—कुँवर साहब से कुछ काम की बातचीत भी हुईघ्

जॉन सेवक—जी हाँए मुबारक हो। 50 हजार की गोटी हाथ लगी।

ईश्वर सेवक—शुक्र हैए शुक्र हैए ईसूए मुझ पर अपना साया कर। यह कहकर वह फिर आराम—कुर्सी पर बैठ गए।

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अध्याय 4

चंचल प्रकृति बालकों के लिए अंधे विनोद की वस्तु हुआ करते हैं। सूरदास को उनकी निर्दय बाल—क्रीड़ाओं से इतना कष्ट होता था कि वह मुँह—अंधोरे घर से निकल पड़ता और चिराग जलने के बाद लौटता। जिस दिन उसे जाने में देर होतीए उस दिन विपत्ति में पड़ जाता था। सड़क परए राहगीरों के सामनेए उसे कोई शंका न होती थीय किंतु बस्ती की गलियों में पग—पग पर किसी दुर्घटना की शंका बनी रहती थी। कोई उसकी लाठी छीनकर भागताय कोई कहता—सूरदासए सामने गङ्‌ढ़ा हैए बाईं तरफ हो जाओ। सूरदास बाएँ घूमताए तो गङ्‌ढ़े में गिर पड़ता। मगर बजरंगी का लड़का घीसू इतना दुष्ट था कि सूरदास को छेड़ने के लिए घड़ी—भर रात रहते ही उठ पड़ता। उसकी लाठी छीनकर भागने में उसे बड़ा आनंद मिलता था।

एक दिन सूर्योदय के पहले सूरदास घर से चलेए तो घीसू एक तंग गली में छिपा हुआ खड़ा था। सूरदास को वहाँ पहुँचते ही कुछ शंका हुई। वह खड़ा होकर आहट लेने लगा। घीसू अब हँसी न रोक सका। झपटकर सूरे का डंडा पकड़ लिया। सूरदास डंडे को मजबूत पकड़े हुए था। घीसू ने पूरी शक्ति से खींचा। हाथ फिसल गयाए अपने ही जोर में गिर पड़ाए सिर में चोट लगीए खून निकल आया। उसने खून देखाए तो चीखता—चिल्लाता घर पहुँचा। बजरंगी ने पूछाए क्यों रोता है रेघ् क्या हुआघ् घीसू ने उसे कुछ जवाब न दिया। लड़के खूब जानते हैं कि किस न्यायशाला में उनकी जीत होगी। आकर माँ से बोला—सूरदास ने मुझे ढ़केल दिया। माँ ने सिर की चोट देखीए तो अॉंखों में खून उतर आया। लड़के का हाथ पकड़े हुए आकर बजरंगी के सामने खड़ी हो गई और बोली—अब इस अंधे की शामत आ गई है। लड़के को ऐसा ढ़केला कि लहूलुहान हो गया। उसकी इतनी हिम्मत! रुपये का घमंड उतार दँगी।

बजरंगी ने शांत भाव से कहा—इसी ने कुछ छेड़ा होगा। वह बेचारा तो इससे आप अपनी जान छिपाता फिरता है।

जमुनी—इसी ने छेड़ा थाए तो भी क्या इतनी बेदर्दी से ढ़केलना चाहिए था कि सिर फूट जाए! अंधों को सभी लड़के छेड़ते हैंय पर वे सबसे लठियाँव नहीं करते फिरते।

इतने में सूरदास भी आकर खड़ा हो गया। मुख पर ग्लानि छाई हुई थी। जमुनी लपककर उसके सामने आई और बिजली की तरह कड़ककर बोली—क्यों सूरेए साँझ होते ही रोज लुटीया लेकर दूध के लिए सिर पर सवार हो जाते हो और अभी घिसुआ ने जरा लाठी पकड़ लीए तो उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि सिर फूट गया। जिस पत्ताल में खाते होए उसी में छेद करते हो। क्योंए रुपये का घमंड हो गया है क्याघ्

सूरदास—भगवान्‌ जानते हैंए जो मैंने घीसू को पहचाना हो। समझाए कोई लौंडा होगाए लाठी को मजबूत पकड़े रहा। घीसू का हाथ फिसल गयाए गिर पड़ा। मुझे मालूम होता कि घीसू हैए तो लाठी उसे दे देता। इतने दिन हो गएए लेकिन कोई कह दे कि मैंने किसी लड़के को झूठमूठ मारा है। तुम्हारा ही दिया खाता हूँए तुम्हारे ही लड़के को मारूँगाघ्

जमुनी—नहींए अब तुम्हें घमंड हुआ है। भीख माँगते होए फिर भी लाज नहीं आतीए सबकी बराबरी करने को मरते हो। आज मैं लहू का घूँट पीकर रह गईय नहीं तो जिन हाथों से तुमने उसे ढ़केला हैए उसमें लूका लगा देती।

बजरंगी जमुनी को मना कर रहा थाए और लोग भी समझा रहे थेए लेकिन वह किसी की न सुनती थी। सूरदास अपराधियों की भाँति सिर झुकाए यह वाग्बाण सह रहा था। मुँह से एक शब्द भी न निकालता था।

भैरों ताड़ी उतारने जा रहा थाए रुक गयाए और सूरदास पर दो—चार छींटे उड़ा दिए—जमाना ही ऐसा हैए सब रोजगारों से अच्छा भीख माँगना। अभी चार दिन पहले घर में भूँजी भाँग न थीए अब चार पैसे के आदमी हो गए हैं। पैसे होते हैंए तभी घमंड होता हैय नहीं क्या घमंड करेंगे हम और तुमए जिनकी एक रुपया कमाई हैए तो दो खर्च है!

जगधार औरों से तो भीगी बिल्ली बना रहता थाए सूरदास को धिक्कारने के लिए वह भी निकल पड़ा। सूरदास पछता रहा था कि मैंने लाठी क्यों न छोड़ दीए कौन कहे कि दूसरी लकड़ी न मिलती। जगधार और भैरों के कटु वाक्य को सुन—सुनकर वह और भी दुरूखी हो रहा था। अपनी दीनता पर रोना आता था। सहसा मिठुआ भी आ पहुँचा। वह भी शरारत का पुतला थाए घीसू से भी दो अंगुल बढ़़ा हुआ। जगधार को देखते ही यह सरस पद गा—गाकर चिढ़़ाने लगा—

लालू का लाल मुँहए जगधार का कालाए

जगधार तो हो गया लालू का साला।

भैरों को भी उसने एक स्वरचित पद सुनाया रू

भैरोंए भैरोंए ताड़ी बेचए

या बीबी की साड़ी बेच।

चिढ़़नेवाले चिढ़़ते क्यों हैंए इसकी मीमांसा तो मनोविज्ञान के पंडित ही कर सकते हैं। हमने साधारणतया लोगों को प्रेम और भक्ति के भाव ही से चिढ़़ते देखा है। कोई राम या कृष्ण के नामों से इसलिए चिढ़़ता है कि लोग उसे चिढ़़ाने ही के बहाने से ईश्वर के नाम लें। कोई इसलिए चिढ़़ता है कि बाल—वृंद उसे घेरे रहें। कोई बैंगन या मछली से इसलिए चिढ़़ता है कि लोग इन अखाद्य वस्तुओं के प्रति घृणा करें। सारांश यह कि चिढ़़ना एक दार्शनिक क्रिया है। इसका उद्देश्य केवल सत्—शिक्षा है। लेकिन भैरों और जगधार में यह भक्तिमयी उदारता कहाँघ् वे बाल—विनोद का रस लेना क्या जानेंघ् दोनों झल्ला उठे। जगधार मिठुआ को गाली देने लगाय लेकिन भैरों को गालियाँ देने से संतोष न हुआ। उसने लपककर उसे पकड़ लिया। दो—तीन तमाचे जोर—जोर से मारे और बड़ी निष्ठुरता से उसके कान पकड़कर खींचने लगा। मिठुआ बिलबिला उठा। सूरदास अब तक दीन भाव से सिर झुकाए खड़ा था। मिठुआ का रोना सुनते ही उसकी त्योरियाँ बदल गईं। चेहरा तमतमा उठा। सिर उठाकर फूटी हुई अॉंखों से ताकता हुआ बोला—भैरोंए भला चाहते होए तो उसे छोड़ दोय नहीं तो ठीक न होगा। उसने तुम्हें कौन—सी ऐसी गोली मार दी थी कि उसकी जान लिए लेते हो। क्या समझते हो कि उसके सिर पर कोई है ही नहीं! जब तक मैं जीता हूँए कोई उसे तिरछी निगाह से नहीं देख सकता। दिलावरी तो जब देखता कि किसी बड़े आदमी से हाथ मिलाते। इस बालक को पीट लियाए तो कौन—सी बड़ी बहादुरी दिखाई!

भैरों—मार की इतनी अखर हैए तो इसे रोकते क्यों नहींघ् हमको चिढ़़ाएगाए तो हम पीटेंगे—एक बार नहींए हजार बारय तुमको जो करना होए कर लो।

जगधार—लड़के को डाँटना तो दूरए ऊपर से और सह देते हो। तुम्हारा दुलारा होगाए दूसरे क्यों...

सूरदास—चुप भी रहोए आए हो वहाँ से न्याय करने। लड़कों को तो यह बात ही होती हैय पर कोई उन्हें मार नहीं डालता। तुम्हीं लोगों को अगर किसी दूसरे लड़के ने चिढ़़ाया होताए तो मुँह तक न खोलते। देखता तो हूँए जिधार से निकलते होए लड़के तालियाँ बजाकर चिढ़़ाते हैंय पर अॉंखें बंद किए अपनी राह चले जाते हो। जानते हो न कि जिन लड़कों के माँ—बाप हैंए उन्हें मारेंगेए तो वे अॉंखें निकाल लेंगे। केले के लिए ठीकरा भी तेज होता है।

भैरों—दूसरे लड़कों की और उसकी बराबरी हैघ् दरोगाजी की गालियाँ खाते हैंए तो क्या डोमड़ों की गालियाँ भी खाएँघ् अभी तो दो ही तमाचे लगाए हैंए फिर चिढ़़ाएए तो उठाकर पटक दूँगाए मरे या जिए।

सूरदास—(मिट्ठू का हाथ पकड़कर) मिठुआए चिढ़़ा तोए देखूँ यह क्या करते हैं। आज जो कुछ होना होगाए यहीं हो जाएगा।

लेकिन मिठुआ के गालों में अभी तक जलन हो रही थीए मुँह भी सूज गया थाए सिसकियाँ बंद न होती थीं। भैरों का रौद्र रूप देखाए तो रहे—सहे होश भी उड़ गए। जब बहुत बढ़़ावे देने पर भी उसका मुँह न खुलाए तो सूरदास ने झुँझलाकर कहा—अच्छाए मैं ही चिढ़़ाता हूँए देखूँ मेरा क्या बना लेते हो!

यह कहकर उसने लाठी मजबूत पकड़ लीए और बार—बार उसी पद की रट लगाने लगा मानो कोई बालक अपना सबक याद कर रहा हो—

भैरोंए भैरोंए ताड़ी बेचए

या बीबी की साड़ी बेच।

एक ही साँस में उसने कई बार यही रट लगाई। भैरों कहाँ तो क्रोध से उन्मत्ता हो रहा थाए कहाँ सूरदास का यह बाल—हठ देखकर हँस पड़ा। और लोग भी हँसने लगे। अब सूरदास को ज्ञात हुआ कि मैं कितना दीन और बेकस हूँ। मेरे क्रोध का यह सम्मान है! मैं सबल होताए तो मेरा क्रोध देखकर ये लोग थर—थर काँपने लगतेय नहीं तो खड़े—खड़े हँस रहे हैंए समझते हैं कि हमारा कर ही क्या सकता है। भगवान्‌ ने इतना अपंग न बना दिया होताए तो क्यों यह दुर्गत होती। यह सोचकर हठात्‌ उसे रोना आ गया। बहुत जब्त करने पर भी अॉंसू न रुक सके।

बजरंगी ने भैरों और जगधार दोनों को धिक्कारा—क्या अंधे से हेकड़ी जताते हो! सरम नहीं आतीघ् एक तो लड़के का तमाचों से मुँह लाल कर दियाए उस पर और गरजते हो। वह भी तो लड़का ही हैए गरीब का हैए तो क्याघ् जितना लाड़—प्यार उसका होता हैए उतना भले घरों के लड़कों का भी नहीं होता है। जैसे और सब लड़के चिढ़़ाते हैंए वह भी चिढ़़ाता है। इसमें इतना बिगड़ने की क्या बात है। (जमुनी की ओर देखकर) यह सब तेरे कारण हुआ। अपने लौंडे को डाँटती नहींए बेचारे अंधे पर गुस्सा उतारने चली है।

जमुनी सूरदास का रोना देखकर सहम गई थी! जानती थीए दीन की हाय कितनी मोटी होती है। लज्जित होकर बोली—मैं क्या जानती थी कि जरा—सी बात का इतना बखेड़ा हो जाएगा। आ बेटा मिट्ठूए चल बछवा पकड़ लेए तो दूध दुहूँ।

दुलारे लड़के तिनके की मार भी नहीं सह सकते। मिट्ठू दूध की पुचकार से भी शांत न हुआए तो जमुनी ने आकर उसके अॉंसू पोंछे और गोद में उठाकर घर ले गई। उसे क्रोध जल्द आता थाय पर जल्द ही पिघल भी जाती थी।

मिट्ठू तो उधार गयाए भैरों और जगधार भी अपनी—अपनी राह चलेए पर सूरदास सड़क की ओर न गया। अपनी झोंपड़ी में जाकर अपनी बेकसी पर रोने लगा। अपने अंधेपन पर आज उसे जितना दुरूख हो रहा थाए उतना और कभी न हुआ था। सोचाए मेरी यह दुर्गत इसलिए न है कि अंधा हूँए भीख माँगता हूँ। मसक्कत की कमाई खाता होताए तो मैं भी गरदन उठाकर न चलताघ् मेरा भी आदर—मान होताय क्यों चिऊँटी की भाँति पैरों के नीचे मसला जाता! आज भगवान्‌ ने अपंग न बना दिया होताए तो क्या दोनों आदमी लड़के को मारकर हँसते हुए चले जातेए एक—एक की गरदन मरोड़ देता। बजरंगी से क्यों नहीं कोई बोलता! घिसुआ ने भैरों की ताड़ी का मटका फोड़ दिया थाए कई रुपये का नुकसान हुआय लेकिन भैरों ने चूँ तक न की। जगधार को उसके मारे घर से निकलना मुश्किल है। अभी दस—ही—पाँच दिनों की बात हैए उसका खोंचा उलट दिया था। जगधार ने चूँ तक न की। जानते हैं न कि जरा भी गरम हुए कि बजरंगी ने गरदन पकड़ी। न जाने उस जनम में ऐसे कौन—से आपराधा किए थेए जिसकी यह सजा मिल रही है। लेकिन भीख न माँगूँए तो खाऊँ क्याघ् और फिर जिंदगी पेट ही पालने के लिए थोड़े ही है। कुछ आगे के लिए भी तो करना है। नहीं इस जनम में तो अंधा हूँ हीए उस जनम में इससे भी बड़ी दुर्दशा होगी। पितरों का रिन सिर सवार हैए गयाजी में उनका सराधा न कियाए तो वे भी क्या समझेंगे कि मेरे वंश में कोई है! मेरे साथ तो कुल का अंत ही है। मैं यह रिन न चुकाऊँगाए तो और कौन लड़का बैठा हुआ हैए जो चुका देगाघ् कौन उद्दम करूँघ् किसी बड़े आदमी के घर पंखा खींच सकता हूँए लेकिन यह काम भी तो साल भर में चार ही महीने रहता हैए बाकी महीने क्या करूँगाघ् सुनता हूँ अंधे कुर्सीए मोढ़़ेए दरीए टाट बुन सकते हैंए पर यह काम किससे सीखूँघ् कुछ भी होए अब भीख न माँगूँगा।

चारों ओर से निराश होकर सूरदास के मन में विचार आया कि इस जमीन को क्यों न बेच दूँ। इसके सिवा अब मुझे और कोई सहारा नहीं है। कहाँ तक बाप—दादों के नाम को रोऊँ! साहब उसे लेने को मुँह फैलाए हुए हैं। दाम भी अच्छा दे रहे हैं। उन्हीं को दे दूँ। चार—पाँच हजार बहुत होते हैं। अपने घर सेठ की तरह बैठा हुआ चौन की बंसी बजाऊँगा। चार आदमी घेरे रहेंगेए मुहल्ले में अपना मान होने लगेगा। ये ही लोगए जो आज मुझ पर रोब जमा रहे हैंए मेरा मुँह जोहेंगेए मेरी खुशामद करेंगे। यही न होगाए मुहल्ले की गउएँ मारी—मारी फिरेंगीय फिरेंए इसको मैं क्या करूँघ् जब तक निभ सकाए निभाया। अब नहीं निभताए तो क्या करूँघ् जिनकी गायें चरती हैंए कौन मेरी बात पूछते हैंघ् आज कोई मेरी पीठ पर खड़ा हो जाताए तो भैरों मुझे रुलाकर यों मूँछों पर ताव देता हुआ न चला जाता। जब इतना भी नहीं हैए तो मुझे क्या पड़ी है कि दूसरों के लिए मरूँघ् जी से जहान हैय जब आबरू ही न रहीए तो जीने पर धिक्कार है।

मन में यह विचार स्थिर करके सूरदास अपनी झोंपड़ी से निकला और लाठी टेकता हुआ गोदाम की तरफ चला। गोदाम के सामने पहुँचाए तो दयागिरि से भेंट हो गई। उन्होंने पूछा—इधार कहाँ चले सूरदासघ् तुम्हारी जगह तो पीछे छूट गई।

सूरदास—जरा इन्हीं मियाँ साहब से कुछ बातचीत करनी है।

दयागिरि—क्या इसी जमीन के बारे मेंघ्

सूरदास—हाँए मेरा विचार है कि यह जमीन बेचकर कहीं तीर्थयात्रा करने चला जाऊँ। इस मुहल्ले में अब निबाह नहीं है।

दयागिरि—सुनाए आज भैरों तुम्हें मारने की धमकी दे रहा था।

सूरदास—मैं तरह न दे जाताए तो उसने मार ही दिया था। सारा मुहल्ला बैठा हँसता रहाए किसी की जबान न खुली कि अंधे—अपाहिज आदमी पर यह कुन्याव क्यों करते हो। तो जब मेरा कोई हितू नहीं हैए तो मैं क्यों दूसरों के लिए मरूँघ्

दयागिरि—नहीं सूरेए मैं तुम्हें जमीन बेचने की सलाह न दूँगा। धर्म का फल इस जीवन में नहीं मिलता। हमें अॉंखें बंद करके नारायन पर भरोसा रखते हुए धर्म—मार्ग पर चलते रहना चाहिए। सच पूछोए तो आज भगवान्‌ ने तुम्हारे धर्म की परीक्षा ली है। संकट ही में धीरज और धर्म की परीक्षा होती है। देखोए गुसाईंजी ने कहा है रू

श्आपत्ति—काल परखिये चारी। धीरजए धर्मए मित्र अरु नारी।श्

जमीन पड़ी हैए पड़ी रहने दो। गउएँ चरती हैंए यह कितना बड़ा पुण्य है। कौन जानता हैए कभी कोई दानीए धार्मात्मा आदमी मिल जाएए और धर्मशालाए कुअॉंए मंदिर बनवा देए तो मरने पर भी तुम्हारा नाम अमर हो जाएगा। रही तीर्थ—यात्राए उसके लिए रुपये की जरूरत नहीं। साधु—संत जन्म—भर यही किया करते हैंय पर घर से रुपयों की थैली बाँधकर नहीं चलते। मैं भी शिवरात्रि के बाद बद्रीनारायण जानेवाला हूँ। हमारा—तुम्हारा साथ हो जाएगा। रास्ते में तुम्हारी एक कौड़ी न खर्च होगीए इसका मेरा जिम्मा है।

सूरदास—नहीं बाबाए अब यह कुन्याव नहीं सहा जाता। भाग्य में धर्म करना नहीं लिखा हुआ हैए तो कैसे धर्म करूँगा। जरा इन लोगों को भी तो मालूम हो जाए कि सूरे भी कुछ है।

दयागिरि—सूरेए अॉंखें बंद होने पर भी कुछ नहीं सूझता। यह अहंकार हैए इसे मिटाओए नहीं तो यह जन्म भी नष्ट हो जाएगा। यही अहंकार सब पापों का मूल है—

श्मैं अरु मोर तोर तैं मायाए जेहि बस कीन्हें जीव निकाया।श्

न यहाँ तुम होए न तुम्हारी भूमिय न तुम्हारा कोई मित्र हैए न शत्रु हैय जहाँ देखो भगवान्—ही—भगवान्‌ हैं—

श्ज्ञान—मान जहँ एकौ नाहींए देखत ब्रह्म रूप सब गाहीं।श्

इन झगड़ों में मत पड़ो।

सूरदास—बाबाजीए जब तक भगवान्‌ की दया न होगीए भक्ति और वैराग्य किसी पर मन न जमेगा। इस घड़ी मेरा हृदय रो रहा हैए उसमें उपदेश और ज्ञान की बातें नहीं पहुँच सकतीं। गीली लकड़ी खराद पर नहीं चढ़़ती।

दयागिरि—पछताओगे और क्या।

यह कहकर दयागिरि अपनी राह चले गए। वह नित्य गंगा—स्नान को जाया करते थे।

उनके जाने के बाद सूरदास ने अपने मन में कहा—यह भी मुझी को ज्ञान का उपदेश करते हैं। दीनों पर उपदेश का भी दाँव चलता हैए मोटों को कोई उपदेश नहीं करता। वहाँ तो जाकर ठकुरसुहाती करने लगते हैं। मुझे ज्ञान सिखाने चले हैं। दोनों जून भोजन मिल जाता है न! एक दिन न मिलेए तो सारा ज्ञान निकल जाए।

वेग से चलती हुई गाड़ी रुकावटों को फाँद जाती है। सूरदास समझाने से और भी जिद पकड़ गया। सीधो गोदाम के बरामदे में जाकर रुका। इस समय यहाँ बहुत—से चमार जमा थे। खालों की खरीद हो रही थी। चौधारी ने कहा—आओ सूरदासए कैसे चलेघ्

सूरदास इतने आदमियों के सामने अपनी इच्छा न प्रकट कर सका। संकोच ने उसकी जबान बंद कर दी। बोला—कुछ नहींए ऐसे ही चला आया।

ताहिर—साहब इनसे पीछेवाली जमीन माँगते हैंए मुँह—माँगे दाम देने को तैयार हैं! पर यह किसी तरह राजी नहीं होते। उन्होंने खुद समझायाए मैंने कितनी मिंनत कीय लेकिन इनके दिल में कोई बात जमती ही नहीं।

लज्जा अत्यंत निर्लज्ज होती है। अंतिम काल में भी जब हम समझते हैं कि उसकी उलटी साँसें चल रही हैंए वह सहसा चौतन्य हो जाती हैए और पहले से भी अधिकर् कर्तव्यशील हो जाती है। हम दुरावस्था में पड़कर किसी मित्र से सहायता की याचना करने को घर से निकलते हैंए लेकिन मित्र से अॉंखें चार होते ही लज्जा हमारे सामने आकर खड़ी हो जाती है और हम इधार—उधार की बातें करके लौट आते हैं। यहाँ तक कि हम एक शब्द भी ऐसा मुँह से नहीं निकलने देतेए जिसका भाव हमारी अंतर्वेदना का द्योतक हो।

ताहिर अली की बातें सुनते ही सूरदास की लज्जा ठट्ठा मारती हुई बाहर निकल आई। बोला—मियाँ साहबए वह जमीन तो बाप—दादों की निसानी हैए भला मैं उसे बय या पट्टा कैसे कर सकता हूँघ् मैंने उसे धरम काज के लिए संकल्प कर दिया है।

ताहिर—धरम काज बिना रुपये के कैसे होगाघ् जब रुपये मिलेंगेए तभी तो तीरथ करोगेए साधु—संतों की सेवा करोगेय मंदिर—कुअॉं बनवाओगेघ्

चौधारी—सूरेए इस बखत अच्छे दाम मिलेंगे। हमारी सलाह तो यही है कि दे दोए तुम्हारा कोई उपकार तो उससे होता नहीं।

सूरदास—मुहल्ले—भर की गउएँ चरती हैंए क्या इससे पुन्न नहीं होताघ् गऊ की सेवा से बढ़़कर और कौन पुन्न का काम हैघ्

ताहिर—अपना पेट पालने के लिए तो भीख माँगते फिरते होए चले हो दूसरों के साथ पुन्न करने। जिनकी गायें चरती हैंए वे तो तुम्हारी बात भी नहीं पूछतेए एहसान मानना तो दूर रहा। इसी धरम के पीछे तुम्हारी यह दसा हो रही हैए नहीं तो ठोकरें न खाते फिरते।

ताहिर अली खुद बड़े दीनदार आदमी थेए पर अन्य धामोर्ं की अवहेलना करने में उन्हें संकोच न होता था। वास्तव में वह इस्लाम के सिवा और किसी धर्म को धर्म ही नहीं समझते थे।

सूरदास ने उत्तोजित होकर कहा—मियाँ साहबए धरम एहसान के लिए नहीं किया जाता। नेकी करके दरिया में डाल देना चाहिए।

ताहिर—पछताओगे और क्या। साहब से जो कुछ कहोगेए वही करेंगे। तुम्हारे लिए घर बनवा देंगेए माहवार गुजारा देंगेय मिठुआ को किसी मदरसे में पढ़़ने को भेज देंगेए उसे नौकर रखा देंगेए तुम्हारी अॉंखों की दवा करा देंगेए मुमकिन हैए सूझने लगे। आदमी बन जाओगेए नहीं तो धाक्के खाते रहोगे।

सूरदास पर और किसी प्रलोभन का असर तो न हुआय हाँए द्रष्टि—लाभ की सम्भावना ने जरा नरम कर दिया। बोला—क्या जनम के अंधों की दवा भी हो सकती हैघ्

ताहिर—तुम जनम के अंधे हो क्याघ् तब तो मजबूरी है। लेकिन वह तुम्हारे आराम के इतने सामान जमा कर देंगे कि तुम्हें अॉंखों की जरूरत ही न रहेगी।

सूरदास—साहबए बड़ी नामूसी होगी। लोग चारों ओर से धिक्कारने लगेंगे।

चौधारी—तुम्हारी जायदाद हैए बय करोए चाहे पट्टा लिखोए किसी दूसरे को दखल देने की क्या मजाल है!

सूरदास—बाप—दादों का नाम तो नहीं डुबाया जाता।

मूखोर्ं के पास युक्तियाँ नहीं होतींए युक्तियों का उत्तर वे हठ से देते हैं। युक्ति कायल हो सकती हैए नरम हो सकती हैए भ्रांत हो सकती हैय हठ को कौन कायल करेगाघ्

सूरदास की जिद से ताहिर अली को क्रोध आ गया। बोले—तुम्हारी तकदीर में भीख माँगना लिखा हैए तो कोई क्या कर सकता है। इन बड़े आदमियों से अभी पाला नहीं पड़ा है। अभी खुशामद कर रहे हैंए मुआवजा देने पर तैयार हैंय लेकिन तुम्हारा मिजाज नहीं मिलताए और वही जब कानूनी दाँव—पेंच खेलकर जमीन पर कब्जा कर लेंगेए दो—चार सौ रुपये बरायनाम मुआवजा दे देंगेए तो सीधो हो जाओगे। मुहल्लेवालों पर भूले बैठे हो। पर देख लेनाए जो कोई पास भी फटके। साहब यह जमीन लेंगे जरूरए चाहे खुशी से दोए चाहे रोकर।

सूरदास ने गर्व से उत्तर दिया—खाँ साहबए अगर जमीन जाएगीए तो इसके साथ मेरी जान भी जाएगी।

यह कहकर उसने लकड़ी सँभाली और अपने अव्‌ पर आ बैठा।

उधार दयागिरि ने जाकर नायकराम से यह समाचार कहा। बजरंगी भी बैठा था। यह खबर सुनते ही दोनों के होश उड़ गए। सूरदास के बल पर दोनों उछलते रहेए उस दिन ताहिर अली से कैसी बातें कींए और आज सूरदास ने ही धोखा दिया। बजरंगी ने चिंतित होकर कहा—अब क्या करना होगा पंडाजीए बताओघ्

नायकराम—करना क्या होगाए जैसा किया हैए वैसा भोगना होगा। जाकर अपनी घरवाली से पूछो। उसी ने आज आग लगाई थी। जानते तो हो कि सूरे मिठुआ पर जान देता हैए फिर क्यों भैरों की मरम्मत नहीं की। मैं होताए तो भैरों को दो—चार खरी—खोटी सुनाए बिना न जाने देताए और नहीं तो दिखावे के लिए सही। उस बेचारे को भी मालूम हो जाता कि मेरी पीठ पर है कोई। आज उसे बड़ा रंज हुआ हैए नहीं तो जमीन बेचने का कभी उसे धयान ही न आया था।

बजरंगी—अरेए तो अब कोई उपाय निकालोगे या बैठकर पिछली बातों के नाम को रोएँ!

नायकराम—उपाय यही है कि आज सूरे आएए तो चलकर उसके पैरों पर गिरोए उसे दिलासा दोए जैसे राजी होए वैसे राजी करोए दादा—भैया करोए मान जाए तो अच्छाए नहीं तो साहब से लड़ने के लिए तैयार हो जाओए उनका कब्जा न होने दोए जो कोई जमीन के पास आएए मारकर भगा दो। मैंने तो यही सोच रखा है। आज सूरे को अपने हाथ से बना के दूधिया पिलाऊँगा और मिठुआ को भर—पेट मिठाइयाँ खिलाऊँगा। जब न मानेगाए तो देखी जाएगी।

बजरंगी—जरा मियाँ साहब के पास क्यों नहीं चले चलतेघ् सूरदास ने उससे न जाने क्या—क्या बातें की हों। कहीं लिखा—पढ़़ी कराने को कह आया होए तो फिर चाहे कितनी ही आरजू—बिनती करोगेए कभी अपनी बात न पलटेगा।

नायकराम—मैं उस मुंशी के द्वार पर न जाऊँगा। उसका मिजाज और भी आसमान पर चढ़़ जाएगा।

बजरंगी—नहीं पंडाजीए मेरी खातिर से जरा चले चलो।

नायकराम आखिर राजी हुए। दोनों आदमी ताहिर अली के पास पहुँचे। वहाँ इस वक्त सन्नाटा था। खरीद का काम हो चुका था। चमार चले गए थे। ताहिर अली अकेले बैठे हुए हिसाब—किताब लिख रहे थे। मीजान में कुछ फर्क पड़ता था। बार—बार जोड़ते थे! पर भूल पर निगाह न पहुँचती थी। सहसा नायकराम ने कहा—कहिए मुंसीजीए आज सूरे से क्या बातचीत हुईघ्

ताहिर—अहाए आइए पंडाजीए मुआफ कीजिएगाए मैं जरा मीजान लगाने में मसरूफ थाए इस मोढ़़े पर बैठिए। सूरे से कोई बात तय न होगी। उसकी तो शामतें आई हैं। आज तो धमकी देकर गया है कि जमीन के साथ मेरी जान भी जाएगी। गरीब आदमी हैए मुझे उस पर तरस आता है। आखिर यही होगा कि साहब किसी कानून की रूह से जमीन पर काबिज हो जाएँगे। कुछ मुआवजा मिलाए तो मिलाए नहीं तो उसकी भी उम्मीद नहीं।

नायकराम—जब सूरे राजी नहीं हैए तो साहब क्या खाके यह जमीन ले लेंगे! देख बजरंगीए हुई न वही बातए सूरे ऐसा कच्चा आदमी नहीं है।

ताहिर—साहब को अभी आप जानते नहीं हैं।

नायकराम—मैं साहब और साहब के बापए दोनों को अच्छी तरह जानता हूँ। हाकिमों की खुशामद की बदौलत आज बड़े आदमी बने फिरते हैं।

ताहिर—खुशामद ही का तो आजकल जमाना है। वह अब इस जमीन को लिए बगैर न मानेंगे।

नायकराम—तो इधार भी यही तय है कि जमीन पर किसी पर कब्जा न होने देंगेए चाहे जान जाए। इसके लिए मर मिटेंगे। हमारे हजारों यात्राी आते हैं। इसी खेत में सबको टीका देता हूँ। जमीन निकल गईए तो क्या यात्रियों को अपने सिर पर ठहराऊँगाघ् आप साहब से कह दीजिएगाए यहाँ उनकी दाल न गलेगी। यहाँ भी कुछ दम रखते हैं। बारहों मास खुले—खजाने जुआ खेलते हैं। एक दिन में हजारों के वारे—न्यारे हो जाते हैं। थानेदार से लेकर सुपरीडंट तक जानते हैंए पर मजाल क्या कि कोई दौड़ लेकर आए। खून तक छिपा डाले हैं।

ताहिर—तो आप ये सब बातें मुझसे क्यों कहते हैंए क्या मैं जानता नहीं हूँघ् आपने सैयद रजा अली थानेदार का नाम तो सुना ही होगाए मैं उन्ही का लड़का हूँ। यहाँ कौन पंडा हैए जिसे मैं नहीं जानता।

नायकराम—लीजिएए घर ही बैदए तो मरिए क्योंघ् फिर तो आप अपने घर ही के आदमी हैं। दरोगाजी की तरह भला क्या कोई अफसर होगा। कहते थेए बेटाए जो चाहे करोए लेकिन मेरे पंजे में न आना। मेरे द्वार पर फड़ जाती थीए वह कुर्सी पर बैठे देखा करते थे। बिलकुल घराँव हो गया था। कोई बात बनी—बिगड़ीए जाके सारी कथा सुना देता था। पीठ पर हाथ फेरकर कहते—बस जाओए अब हम देख लेंगे। ऐसे आदमी अब कहाँघ् सतजुगी लोग थे। आप तो अपने भाई ही ठहरेए साहब को धाता क्यों नहीं बतातेघ् आपको भगवान्‌ ने विद्या—बुध्दि दी हैए बीसों बहाने निकाल सकते हैं। बरसात में पानी जमता हैए दीमक बहुत हैए लोनी लगेगीए ऐसे ही और कितने बहाने हैं।

ताहिर—पंडाजीए जब आपसे भाईचारा हो गयाए तो क्या परदा है। साहब पल्ले सिरे का घाघ है। हाकिमों से उसका बड़ा मेल—जोल है। मुफ्त में जमीन ले लेगा। सूरे को तो चाहे सौ—दो—सौ मिल भी रहेंए मेरा इनाम—इकराम गायब हो जाएगा। आप सूरे से मुआमला तय करा दीजिएए तो उसका भी फायदा होए मेरा भी फायदा हो और आपका भी फायदा हो।

नायकराम—आपको वहाँ से इनाम—इकराम मिलनेवाला होए वह हमीं लोगों से ले लीजिए। इसी बहाने कुछ आपकी खिदमत करेंगे। मैं तो दरोगाजी को जैसा समझता थाए वैसा ही आपको समझता हूँ।

ताहिर—मुआजल्लाहए पंडाजीए ऐसी बात न कहिए। मैं मालिक की निगाह बचाकर एक कौड़ी लेना भी हराम समझता हूँ। वह अपनी खुशी से जो कुछ दे देंगेए हाथ फैलाकर ले लूँगाय पर उनसे छिपाकर नहीं। खुदा उस रास्ते से बचाए। वालिद ने इतना कमायाए पर मरते वक्त घर में एक कौड़ी कफन को भी न थी।

नायकराम—अरे यारए मैं तुम्हें रुसवत थोड़े ही देने को कहता हूँ। जब हमारा—आपका भाईचारा हो गयाए तो हमारा काम आपसे निकलेगाए आपका काम हमसे। यह कोई रुसवत नहीं।

ताहिर—नहीं पंडाजीए खुदा मेरी नीयत को पाक रखेए मुझसे नमकहरामी न होगी। मैं जिस हाल में हूँ उसी में खुश हूँए जब उसके करम की निगाह होगीए तो मेरी भलाई की कोई सूरत निकल ही आएगी।

नायकराम—सुनते हो बजरंगीए दरोगाजी की बातें। चलोए चुपके से घर बैठोए जो कुछ आगे आएगीए देखी जाएगी। अब तो साहब ही से निबटना है।

बजरंगी के विचार में नायकराम ने उतनी मिंनत—समाजत न की थीए जितनी करनी चाहिए थी। आए थे अपना काम निकालने के हेकड़ी दिखाने। दीनता से जो काम निकल जाता हैए वह डींग मारने से नहीं निकलता। नायकराम ने तो लाठी कंधो पर रखीए और चले। बजरंगी ने कहा—मैं जरा गोरुओं को देखने जाता हूँए उधार से होता हुआ आऊँगा। यों बड़ा अक्खड़ आदमी थाए नाक पर मक्खी न बैठने देता। सारा मुहल्ला उसके क्रोध से काँपता थाए लेकिन कानूनी कारवाइयों से डरता था। पुलिस और अदालत के नाम ही से उसके प्राण सूख जाते थे। नायकराम को नित्य ही अदालत से काम रहता थाए वह इस विषय में अभ्यस्त थे। बजरंगी को अपनी जिंदगी में कभी गवाही देने की भी नौबत न आई थी। नायकराम के चले आने के बाद ताहिर अली भी घर गएय पर बजरंगी वहीं आस—पास टहलता रहा कि वह बाहर निकलेंए तो अपना दुरूखड़ा सुनाऊँ।

ताहिर अली के पिता पुलिस—विभाग के कांस्टेबिल से थानेदारी के पद तक पहुँचे थे। मरते समय कोई जायदाद तक न छोड़ीए यहाँ तक कि उनकी अंतिम क्रिया कर्ज से की गईय लेकिन ताहिर अली के सिर पर दो विधवाओं और उनकी संतान का भार छोड़ गए। उन्होंने तीन शादियाँ की थीं। पहली स्त्री से ताहिर अली थेए दूसरी से माहिर अली और जाहिर अलीए और तीसरी से जाबिर अली। ताहिर अली धैर्यशील और विवेकी मनुष्य थे। पिता का देहांत होने पर साल—भर तक तो रोजगार की तलाश में मारे—मारे फिरे। कहीं मवेशीखाने की मुहर्रिरी मिल गईए कहीं किसी दवा बेचनेवाले के एजेेंट हो गएए कहीं चुंगी—घर के मुंशी का पद मिल गया। इधार कुछ दिनों से मिस्टर जॉन सेवक के यहाँ स्थायी रूप से नौकर हो गए थे। उनके आचार—विचार अपने पिता से बिलकुल निराले थे। रोजा—नमाज के पाबंद और नीयत के साफ थे। हराम की कमाई से कोसों भागते थे। उनकी माँ तो मर चुकी थींय पर दोनों विमाताएँ जीवित थीं। विवाह भी हो चुका थाय स्त्री के अतिरिक्त एक लड़का था—साबिर अलीए और एक लड़की—नसीमा। इतना बड़ा कुटुम्ब था और 30 रुपये मासिक आय! इस महँगी के समय मेंए जबकि इससे पँचगुनी आमदनी में सुचारु रूप से निर्वाह नहीं होताए उन्हें बहुत कष्ट झेलने पड़ते थेय पर नीयत खोटी न होती थी। ईश्वर—भीरुता उनके चरित्र का प्रधान गुण थी। घर में पहुँचेए तो माहिर अली पढ़़ रहा थाए जाहिर और जाबिर मिठाई के लिए रो रहे थेए और साबिर अॉंगन में उछल—उछलकर बाजरे की रोटीयाँ खा रहा था। ताहिर अली तख्त पर बैठे गए और दोनों छोटे भाइयों को गोद में उठाकर चुप कराने लगे। उनकी बड़ी विमाता ने जिनका नाम जैनब थाए द्वार पर खड़ी होकर नायकराम और बजरंगी की बातें सुनी थीं। बजरंगी दस ही पाँच कदम चला था कि माहिर अली ने पुकारा—सुनो जीए ओ आदमी! जरा यहाँ आनाए तुम्हें अम्माँ बुला रही हैं।

बजरंगी लौट पड़ाए कुछ आस बँधी। आकर फिर बरामदे में खड़ा हो गया। जैनब टाट के परदे की आड़ में खड़ी थींए पूछा—क्या बात थी जीघ्

बजरंगी—वही जमीन की बातचीत थी। साहब इसे लेने को कहते हैं। हमारा गुजर—बसर इसी जमीन से होता है! मुंसीजी से कह रहा हूँए किसी तरह इस झगड़े को मिटा दीजिए। नजर—नियाज देने को भी तैयार हूँए मुआ मुंसीजी सुनते ही नहीं।

जैनब—सुनेंगे क्यों नहींए सुनेंगे न तो गरीबों की हाय किस पर पड़ेगीघ् तुम भी तो गँवार आदमी होए उनसे क्या कहने गएघ् ऐसी बातें मरदों से कहने की थोड़ी ही होती हैं। हमसे कहतेए हम तय करा देते।

जाबिर की माँ का नाम था रकिया। वह भी आकर खड़ी हो गईं। दोनों महिलाएँ साये की तरह साथ—साथ रहती थीं। दोनों के भाव एकए दिल एकए विचार एकए सौतिन का जलापा नाम को न था। बहनों का—सा प्रेम था। बोली—और क्याए भला ऐसी बातें मरदों से की जाती हैंघ्

बजरंगी—माताजीए मैं गँवार आदमीए इसका हाल क्या जानूँ। अब आप ही तय करा दीजिए। गरीब आदमी हूँए बाल—बच्चे जिएँगे।

जैनब—सच—सच कहनाए यह मुआमला दब जाएए तो कहाँ तक दोगेघ्

बजरंगी—बेगम साहबए 50 रुपये तक देने को तैयार हूँ।

जैनब—तुम भी गजब करते होए 50 रुपये ही में इतना बड़ा काम निकालना चाहते होघ्

रकिया—(धीरे से) बहनए कहीं बिदक न जाए।

बजरंगी—क्या करूँए बेगम साहबए गरीब आदमी हूँ। लड़कों को दूध—दही जो कुछ हुकुम होगाए खिलाता रहूँगाय लेकिन नगद तो इससे ज्यादा मेरा किया न होगा।

रकिया—अच्छाए तो रुपयों का इंतजाम करो। खुदा न चाहाए तो सब तय हो जाएगा।

जैनब—(धीरे से) रकियाए तुम्हारी जल्दबाजी से मैं आजिज हूँ।

बजरंगी—माँजीए यह काम हो गयाए तो सारा मुहल्ला आपका जस गायगा।

जैनब—मगर तुम तो 50 रुपये से आगे बढ़़ने का नाम ही नहीं लेते। इतने तो साहब ही दे देंगेए फिर गुनाह बेलज्जत क्यों किया जाए।

बजरंगी—माँजीए आपसे बाहर थोड़े ही हूँ। दस—पाँच रुपये और जुटा दूँगा।

बजरंगी—बसए दो दिन की मोहलत मिल जाए। तब तक मुंसीजी से कह दीजिएए साहब से कहें—सुनें।

जैनब—वाह महतोए तुम तो बड़े होशियार निकले। सेंत ही में काम निकालना चाहते हो। पहले रुपये लाओए फिर तुम्हारा काम न होए तो हमारा जिम्मा।

बजरंगी दूसरे दिन आने का वादा करके खुश—खुश चला गयाए तो जैनब ने रकिया से कहा—तुम बेसब्र हो जाती हो। अभी चमारों से दो पैसे खाल लेने पर तैयार हो गईं। मैं दो आने लेतीए और वे खुशी से देते। यही अहीर पूरे सौ गिनकर जाता। बेसब्री से गरजमंद चौकन्ना हो जाता है। समझता हैए शायद हमें बेवकूफ बना रही हैं जितनी ही देर लगाओए जितनी बेरुखी से काम लोए उतना एतबार बढ़़ता है।

रकिया—क्या करूँ बहनए मैं डरती हूँ कि कहीं बहुत सख्ती से निशाना खता न कर जाए।

जैनब—वह अहीर रुपये जरूर लाएगा। ताहिर को आज ही से भरना शुरू कर दो। बसए अजाब का खौफ दिलाना चाहिए। उन्हें हत्थे चढ़़ाने का यही ढ़ंग है।

रकिया—और कहीं साहब न मानेए तोघ्

जैनब—तो कौन हमारे ऊपर नालिश करने जाता है।

ताहिर अली खाना खाकर लेटे थे कि जैनब ने जाकर कहा—साहब दूसरों की जमीन क्यों लिए लेते हैंघ् बेचारे रोते फिरते हैं।

ताहिर—मुफ्त थोड़े ही लेना चाहते हैं! उसका माकूल मुआवजा देने पर तैयार हैं।

जैनब—यह तो गरीबों पर जुल्म है।

रकिया—जुल्म ही नहीं हैए अजाब है। भैयाए तुम साहब से साफ—साफ कह दोए मुझे इस अजाब में न डालिए। खुदा ने मेरे आगे भी बाल—बच्चे दिए हैंए न जाने कैसी पड़ेए कैसी न पड़ेय मैं यह अजाब सिर पर न लूँगा।

जैनब—गँवार तो हैं हीए तुम्हारे ही सिर हो जाएँ। तुम्हें साफ कह देना चाहिए कि मैं मुहल्लेवालों से दुश्मनी मोल न लूँगाए जान—जोखिम की बात है।

रकिया—जान—जोखिम तो है हीए ये गँवार किसी के नहीं होते।

ताहिर—क्या आपने भी कुछ अफवाह सुनी हैघ्

रकिया—हाँए ये सब चमार आपस में बातें करते जा रहे थे कि साहब ने जमीन लीए तो खून की नदी बह जाएगी। मैंने तो जब से सुना हैए होश उड़े जा रहे हैं।

जैनब—होश उड़ने की बात ही है।

ताहिर—मुझे सब नाहक बदनाम कर रहे हैं। मैं लेने मेंए न देने में। साहब ने उस अंधे से जमीन की निस्बत बातचीत करने का हुक्म दिया था। मैंने हुक्म की तामील कीए जो मेरा फर्ज थाय लेकिन ये अहमक यही समझ रहे हैं कि मैंने ही साहब को इस जमीन की खरीदारी पर आमादा किया हैय हालाँकि खुदा जानता हैए मैंने कभी उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।

जैनब—मुझे बदनामी का खौफ तो नहीं हैय हाँए खुदा के कहर से डरती हूँ। बेकसों की आह क्यों सिर पर लोघ्

ताहिर—मेरे ऊपर क्यों अजाब पड़ने लगाघ्

जैनब—और किसके ऊपर पड़ेगा बेटाघ् यहाँ तो तुम्हीं होए साहब तो नहीं बैठे हैं। वह तो भुस में आग लगाकर दूर से तमाशा देखेंगेए आई—गई तो तुम्हारे सिर जाएगी। इस पर कब्जा तुम्हें करना पड़ेगा। मुकदमे चलेंगेए तो पैरवी तुम्हें करनी पड़ेगी। ना भैयाए मैं इस आग में नहीं कूदना चाहती।

रकिया—मेरे मैके में एक कारिंदे ने किसी काश्तकार की जमीन निकाल ली थी। दूसरे ही दिन जवान बेटा उठ गया। किया उसने जमींदार ही के हुक्म सेए मगर बला आई उस गरीब के सिर। दौलतवालों पर अजाब भी नहीं पड़ता। उसका वार भी गरीबों पर ही पड़ता है। हमारे बच्चे रोज ही नजर और आसेब की चपेट में आते रहते हैंय पर आज तक कभी नहीं सुना कि किसी अंगरेज के बच्चे को नजर लगी हो। उन पर बलैयात का असर ही नहीं होता।

यह पते की बात थी। ताहिर अली को भी इसका तुजुर्बा था। उनके घर के सभी बच्चे गंडों और तावीजों से मढ़़े हुए थेए उस पर भी आए दिन झाड़—फूँक और राई—नोन की जरूरत पड़ा ही करती थी।

धर्म का मुख्य स्तम्भ भय है। अनिष्ट की शंका को दूर कीजिएए फिर तीर्थ—यात्राए पूजा—पाठए स्नान—धयानए रोजा—नमाजए किसी का निशान भी न रहेगा। मसजिदें खाली नजर आएँगीए और मंदिर वीरान!

ताहिर अली को भय ने परास्त कर दिया। स्वामिभक्ति औरर् कर्तव्य—पालन का भाव ईश्वरीय कोप का प्रतिकार न कर सका।

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अध्याय 5

चतारी के राजा महेंद्रकुमार सिंह यौवनावस्था ही में अपनी कार्य—दक्षता और वंश प्रतिष्ठा के कारण म्युनिसिपैलिटी के प्रधान निर्वाचित हो गए थे। विचारशीलता उनके चरित्र का दिव्य गुण थी। रईसों की विलास—लोलुपता और सम्मान—प्रेम का उनके स्वभाव में लेश भी न था। बहुत ही सादे वस्त्र पहनतेए ठाठ—बाट से घृणा थी और व्यसन तो उन्हें छू तक न गया था। घुड़दौड़ए सिनेमाए थिएटरए राग—रंगए सैर और शिकारए शतरंज या ताशबाजी से उन्हें कोई प्रयोजन न था। हाँए अगर कुछ प्रेम थाए तो उद्यान—सेवा से। वह नित्य घंटे—दो—घंटे अपनी वाटीका में काम किया करते थे। बसए शेष समय नगर के निरीक्षण और नगर—संस्था के संचालन में व्यतीत करते थे। राज्याधिकारियों से वह बिला जरूरत बहुत कम मिलते थे। उनके प्रधानत्व में शहर के केवल उन्हीं भागों को सबसे अधिक महत्व न दिया जाता थाए जहाँ हाकिमों के बँगले थे। नगर की अंधोरी गलियों और दुगर्ंधामय परनालों की सफाई सुविस्तृत सड़कों और सुरम्य विनोद—स्थानों की सफाई से कम आवश्यक न समझी जाती थी। इसी कारण हुक्काम उनसे खिंचे रहते थेए उन्हें दम्भी और अभिमानी समझते थे किंतु नगर के छोटे—से—छोटे मनुष्य की भी उनसे अभिमान या अविनय की शिकायत न थी। हर समय हरएक प्राणी से प्रसन्न—मुख मिलते थे। नियमों का उल्लंघन करने के लिए उन्हें जनता पर जुर्माना करने का अभियोग चलाने की बहुत कम जरूरत पड़ती थी। उनका प्रभाव और सद्‌भाव कठोर नीति को दबाए रखता था। वह अत्यंत मितभाषी थे। वृध्दावस्था में मौन विचार—प्रौढ़़ता का द्योतक होता हैए और युवावस्था में विचार—दारिद्रय काय लेकिन राजा साहब का वाक्—संयम इस धारणा को असत्य सिध्द करता था। उनके मुँह से जो बात निकलती थीए विवेक और विचार से परिष्कृत होती थी। एक ऐश्वर्यशाली ताल्लुकदार होने पर भी उनकी प्रवृत्ति साम्यवाद की ओर थी। सम्भव हैए यह उनके राजनीतिक सिध्दांतों का फल होय क्योंकि उनकी शिक्षाए उनका प्रभुत्वए उनकी परिस्थितिए उनका स्वार्थए सब इस प्रवृत्ति के प्रति प्रतिकूल थाय पर संयम और अभ्यास ने अब इसे उनके विचार—क्षेत्र से निकालकर उनके स्वभाव के अंतर्गत कर दिया था। नगर निर्वाचन—क्षेत्रों के परिमार्जन में उन्होंने प्रमुख भाग लिया थाए इसलिए शहर के अन्य रईस उनसे सावधान रहते थेय उनके विचार में राजा साहब का जनतावाद केवल उनकी अधिकार—रक्षा का साधान था। वह चिरकाल तक इस सामान्य पद का उपभोग करने के लिए यह आवरण धारण किए हुए थे। पत्रों में भी कभी—कभी इस पर टीकाएँ होती रहती थींए किंतु राजा साहब इनका प्रतिवाद करने में अपनी बुध्दि और समय का अपव्यय न करते थे। यशस्वी बनना उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। पर वह खूब जानते थे कि इस महान्‌ पद पर पहुँचने के लिए सेवा—और निरूस्वार्थ सेवा—के सिवा और कोई मार्ग नहीं है।

प्रातरूकाल था। राजा साहब स्नान—धयान से निवृत्ता होकर नगर का निरीक्षण करने जा ही रहे थे कि इतने में मिस्टर जॉन सेवक का मुलाकाती कार्ड पहुँचा। जॉन सेवक का राज्याधिकारियों से ज्यादा मेल—जोल थाए उनकी सिगरेट कम्पनी के हिस्सेदार भी अधिकांश अधिकारी लोग थे। राजा साहब ने कम्पनी की नियमावली देखी थीय पर जॉन सेवक से उनकी कभी भेंट न हुई थी। दोनों को एक दूसरे पर वह अविश्वास थाए जिसका आधार अफवाहों पर होता है। राजा साहब उन्हें खुशामदी और समय—सेवी समझते थे। जॉन सेवक को वह एक रहस्य प्रतीत होते थे। किंतु राजा साहब कल इंदु से मिलने गए थे। वहाँ सोफिया से उनकी भेंट हो गई थी। जॉन सेवक की कुछ चर्चा आ गई। उस समय मि. सेवक के विषय में उनकी धारणा बहुत कुछ परिवर्तित हो गई थी। कार्ड पाते ही बाहर निकल आएए और जॉन सेवक से हाथ मिलाकर अपने दीवानखाने में ले गए। जॉन सेवक को वह किसी योगी की कुटी—सा मालूम हुआए जहाँ अलंकारए सजावट का नाम भी न था। चंद कुर्सियों और एक मेज के सिवा वहाँ और कोई सामान न था। हाँए कागजों और समाचार—पत्रों का एक ढ़ेर मेज पर तितर—बितर पड़ा हुआ था।

हम किसी से मिलते ही अपने सूक्ष्म बुध्दि से जान जाते हैं कि हमारे विषय में उसके क्या भाव हैं। मि. सेवक को एक क्षण तक मुँह खोलने का साहस न हुआए कोई समयोचित भूमिका न सूझती थी। एक पृथ्वी से और दूसरा आकाश से इस अगम्य सागर को पार करने की सहायता माँग रहा था। राजा साहब को भूमिका तो सूझ गई थी—सोफी के देवोपम त्याग और सेवा की प्रशंसा से बढ़़कर और कौन—सी भूमिका होती—किंतु कतिपय मनुष्यों को अपनी प्रशंसा सुनने से जितना संकोच होता हैए उतना ही किसी दूसरे की प्रशंसा करने से होता है। जॉन सेवक में यह संकोच न था। वह निंदा और प्रशंसा दोनों ही के करने में समान रूप से कुशल थे। बोले—आपके दर्शनों की बहुत दिनों से इच्छा थीय लेकिन परिचय न होने के कारण न आ सकता था। औरए साफ बात यह है कि (मुस्कराकर) आपके विषय में अधिकारियों के मुख से ऐसी—ऐसी बातें सुनता थाए जो इस इच्छा को व्यक्त न होने देती थीं। लेकिन आपने निर्वाचन—क्षेत्रों को सुगम बनाने में जिस विशुध्द देश—प्रेम का परिचय दिया हैए उसने हाकिमों की मिथ्याक्षेपों की कलई खोल दी।

अधिकारियों के मिथ्याक्षेपों की चर्चा करके जॉन सेवक ने अपने वाक्—चातुर्य को सिध्द कर दिया। राजा साहब की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए इससे सुलभ और कोई उपाय नहीं था। राजा साहब को अधिकारियों से यही शिकायत थीए इसी कारण उन्हें अपने कायोर्ं के सम्पादन में कठिनाई पड़ती थीए विलम्ब होता थाए बाधाएँ उपस्थित होती थीं। बोले—यह मेरा दुर्भाग्य है कि हुक्काम मुझ पर इतना अविश्वास करते हैं। मेरा अगर कोई अपराध हैए तो इतना ही कि जनता के लिए भी स्वास्थ्य और सुविधाओं को उतना ही आवश्यक समझता हूँए जितना हुक्काम और रईसों के लिए।

मिस्टर सेवक—महाशयए इन लोगों के दिमाग को कुछ न पूछिए। संसार इनके उपयोग के लिए है। और किसी को इसमें जीवित रहने का भी अधिकार नहीं है। जो प्राणी इनके द्वारा पर अपना मस्तक न घिसेए वह अपवादी हैए अशिष्ट हैए राजद्रोही हैय और जिस प्राणी में राष्ट्रीयता का लेश—मात्रा भी आभास हो—विशेषतरू वह जो यहाँ कला—कौशल और व्यवसाय को पुनर्जीवित करना चाहता होए दंडनीय है। राष्ट्र—सेवा इनकी द्रष्टि में सबसे अधाम पाप है। आपने मेरे सिगरेट के कारखाने की नियमावली तो देखी होगीघ्

महेंद्र—जी हाँए देखी थी।

जॉन सेवक—नियमावली का निकलना कहिए कि एक सिरे से अधिकारी वर्ग की निगाहें मुझसे फिर गईं। मैं उनका कृपा—भाजन थाए कितने ही अधिकारियों से मेरी मैत्री थी। किंतु उसी दिन से मैं उनकी बिरादरी से टाट—बाहर कर दिया गयाए मेरा हुक्का—पानी बंद हो गया। उनकी देखा—देखी हिंदुस्तानी हुक्काम और रईसों ने भी आनाकानी शुरू की। अब मैं उन लोगों की द्रष्टि में शैतान से भी ज्यादा भयंकर हूँ।

इतनी लम्बी भूमिका के बाद जॉन सेवक अपने मतलब पर आए। बहुत सकुचाते हुए अपना उद्देश्य प्रकट किया। राजा साहब मानव—चरित्र के ज्ञाता थेए बने हुए तिलकधारियों को खूब पहचानते थे। उन्हें मुगालता देना आसान न था। किंतु समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें अपनी धर्म—रक्षा के हेतु अविचार की शरण लेनी पड़ी। किसी दूसरे अवसर पर वह इस प्रस्ताव की ओर अॉंख उठाकर भी न देखते। एक दीन—दुर्बल अंधे की भूमि कोए जो उसके जीवन का एकमात्र आधार होए उसके कब्जे से निकालकर एक व्यवसायी को दे देना उनके सिध्दांत के विरुध्द था। पर आज पहली बार उन्हें अपने नियम को ताक पर रखना पड़ा। यह जानते हुए कि मिस सोफिया ने उनके एक निकटतम सम्बंधी की प्राण—रक्षा की हैए यह जानते हुए कि जॉन सेवक के साथ सद्व्‌यवहार करना कुँवर भरतसिंह को एक भारी ऋण से मुक्त कर देगाए वह इस प्रस्ताव की अवहेलना न कर सकते थे। कृतज्ञता हमसे वह सब कुछ करा लेती हैए जो नियम की द्रष्टि से त्याज्य है। यह वह चक्की हैए जो हमारे सिध्दांतों और नियमों को पीस डालती है। आदमी जितना ही निरूस्पृह होता हैए उपकार का बोझ उसे उतना ही असह्य होता है। राजा साहब ने इस मामले को जॉन सेवक क़्ी इच्छानुसार तय कर देने का वचन दियाए और मिस्टर सेवक अपनी सफलता पर फूले हुए घर आए।

स्त्री ने पूछा—क्या तय कर आएघ्

जॉन सेवक—वहीए जो तय करने गया था।

स्त्री —शुक्र हैए मुझे आशा न थी।

जॉन सेवक—यह सब सोफी के एहसान की बरकत है। नहीं तो यह महाशय सीधो मुँह से बात करनेवाले न थे। यह उसी के आत्मसमर्पण की शक्ति हैए जिसने महेन्द्रकुमार सिंह जैसे अभिमानी और बेमुरौवत आदमी को नीचा दिखा दिया। ऐसे तपाक से मिलेए मानो मैं उनका पुराना दोस्त हूँ। यह असाधय कार्य थाए और सफलता के लिए मैं सोफी का आभारी हूँ।

मिसेज सेवक—(क्रुध्द होकर) तो तुम जाकर उसे लिवा लाओए मैंने तो मना नहीं किया है। मुझे ऐसी बातें क्यों बार—बार सुनाते होघ् मैं तो अगर प्यासी मरती भी रहूँगीए तो उससे पानी न माँगूँगी। मुझे लल्लो—चप्पो नहीं आती। जो मन में हैए वही मुख में है। अगर वह खुदा से मुँह फेरकर अपनी टेक पर —ढ़़ रह सकती हैए तो मैं अपने ईमान पर —ढ़़ रहते हुए क्यों उसकी खुशामद करूँ।

प्रभु सेवक नित्य एक बार सोफिया से मिलने जाया करते था। कुँवर साहब और विनयए दोनों ही की विनयशीलता और शालीनता ने उसे मंत्र—मुग्धा कर दिया था। कुँवर साहब गुणज्ञ थे। उन्होंने पहले ही दिनए एक निगाह में ताड़ लिया कि वह साधारण बुध्दि का युवक नहीं है। उन पर शीघ्र ही प्रकट हो गया कि इसकी स्वाभाविक रुचि साहित्य—दर्शन की ओर है। वाणिज्य और व्यापार से इसे उतनी ही भक्ति हैए जितनी विनय की जमींदारी से। इसलिए वह प्रभु सेवक से प्रायरू साहित्य और काव्य आदि विषयों पर वर्तालाप किया करते थे। वह उसकी प्रवृत्तियों को राष्ट्रीयता के भावों से अलंकृत कर देना चाहते थे। प्रभु सेवक को भी ज्ञात हो गया कि यह महाशय काव्य—कला के मर्मज्ञ हैं। इनसे उसे वह स्नेह हो गया थाए जो कवियों को रसिक जनों से हुआ करता है। उसने इन्हें अपनी कई काव्य—रचनाएँ सुनाई थींए और उनकी उदार अभ्यर्थनाओं से उस पर एक नशा—सा छाया रहता था। वह हर वक्त रचना—विचार में निमग्न रहता। यह शंका और नैराश्यए जो प्रायरू नवीन साहित्य—सेवियों को अपनी रचनाओं के प्रचार और सम्मान के विषय में हुआ करता हैए कुँवर साहब के प्रोत्साहन के कारण विश्वास और उत्साह के रूप में परिवर्तित हो गया था। वही प्रभु सेवकए जो पहले हफ्तों कलम न उठाता थाए अब एक—एक दिन में कई कविताएँ रच डालता। उसके भावोद्‌गारों में सरिता के—से प्रवाह और बाहुल्य का आविर्भाव हो गया था। इस समय वह बैठा हुआ कुछ लिख रहा था। जॉन सेवक को आते देखकर वहाँ आया कि देखूँए क्या खबर लाए हैं। जमीन के मिलने में जो कठिनाइयाँ उपस्थित हो गई थींए उनसे उसे आशा हो गई थी कि कदाचित्‌ कुछ दिनों तक इस बंधान में न फँसना पड़े। जॉन सेवक की सफलता ने वह आशा भंग कर दी। मन की इस दशा में माता के अंतिम शब्द उसे बहुत प्रिय मालूम हुए। बोला—मामाए अगर आपका विचार है कि सोफी वहाँ निरादर और अपमान सह रही हैए और उकताकर स्वयं चली आवेगीए तो आप बड़ी भूल कर रही हैं। सोफी अगर वहाँ बरसों रहेए तो भी वे लोग उसका गला न छोड़ेंगे। मैंने इतने उदार और शीलवान प्राणी ही नहीं देखे। हाँए सोफी का आत्माभिमान इसे स्वीकार न करेगा कि वह चिरकाल तक उनके आतिथ्य और सज्जनता का उपभोग करें। इन दो सप्ताहों में वह जितनी क्षीण हो गई हैए उतनी महीनों बीमार रहकर भी न हो सकती थी। उसे संसार के सब सुख प्राप्त हैंय किंतु जैसे कोई शीतप्रधान देश का पौधा उष्ण देश में आकर अनेकों यत्न करने पर भी दिन—दिन सूखता जाता हैए वैसी ही दशा उसकी भी हो गई है। उसे रात—दिन यही चिंता व्याप्त रहती है कि कहाँ जाऊँए क्या करूँघ् अगर आपने जल्द उसे वहाँ से बुला न लियाए तो आपको पछताना पड़ेगा। वह आजकल बौध्द और जैन—ग्रंथों को देखा करती हैए और मुझे आश्चर्य न होगाए अगर वह हमसे सदा के लिए छूट जाए।

जॉन सेवक—तुम तो रोज वहाँ जाते होए क्यों अपने साथ नहीं लातेघ्

मिसेज सेवक—मुझे इसकी चिंता नहीं है। प्रभु मसीह का द्रोही मेरे यहाँ आश्रय नहीं पा सकता।

प्रभु सेवक—गिरजे न जाना ही अगर प्रभु मसीह का द्रोही बनना हैए तो लीजिए आज से मैं भी गिरजे न जाऊँगा। निकाल दीजिए मुझे भी घर से।

मिसेज सेवक—(रोकर) तो यहाँ मेरा ही क्या रखा है। अगर मैं ही विष की गाँठ हूँए तो मैं मुँह के कालिख लगाकर क्यों न निकल जाऊँ। तुम और सोफी आराम से रहोए मेरा भी खुदा मालिक है।

जॉन सेवक—प्रभुए तुम मेरे सामने अपनी माँ का निरादर नहीं कर सकते।

प्रभु सेवक—खुदा न करेए मैं अपनी माँ का निरादर करूँ। लेनिक मैं दिखावे के धर्म के लिए अपनी आत्मा पर यह अत्याचार न होने दूँगा। आप लोगों की नाराजी के खौफ से अब तक मैंने इस विषय में कभी मुँह नहीं खोला। लेकिन जब देखता हूँ कि और किसी बात में तो धर्म की परवा नहीं की जातीए और सारा धार्मानुराग दिखावे के धर्म पर ही किया जा रहा हैए तो मुझे संदेह होने लगता है कि इसका तात्पर्य कुछ और तो नहीं!

जॉन सेवक—तुमने किस बात में मुझे धर्म के विरुध्द आचरण करते देखाघ्

प्रभु सेवक—सैकड़ों ही बातें हैंए एक हो तो कहूँ।

जॉन सेवक—नहींए एक ही बतलाओ।

प्रभु सेवक—उस बेकस अंधे की जमीन परए कब्जा करने के लिए आप जिन साधानों का उपयोग कर रहे हैंए क्या वे धर्मसंगत हैंघ् धर्म का अंत वहीं हो गयाए जब उसने कहा दिया कि मैं अपनी जमीन किसी तरह न दूँगा। जब कानूनी विधानों सेए कूटनीति सेए धमकियों से अपना मतलब निकालना आपको धर्मसंगत मालूम होता होय पर मुझे तो वह सर्वथा अधर्म और अन्याय ही प्रतीत होता है।

जॉन सेवक—तुम इस वक्त अपने होश में नहीं होए मैं तुमसे वाद—विवाद नहीं करना चाहता। पहले जाकर शांत हो जाओए फिर मैं तुम्हें इसका उत्तर दूँगा।

प्रभु सेवक क्रोध से भरा हुआ अपने कमरे में आया और सोचने लगा कि क्या करूँ। यहाँ तक उसका सत्याग्रह शब्दों ही तक सीमित थाए अब उसके क्रियात्मक होने का अवसर आ गयाए पर क्रियात्मक शक्ति का उसके चरित्र में एकमात्र अभाव था। इस उद्विग्न दशा में वह कभी एक कोट पहनताए कभी उसे उतारकर दूसरा पहनताए कभी कमरे के बाहर चला जाताए कभी अंदर आ जाता। सहसा जॉन सेवक आकर बैठ गएए और गम्भीर भाव से बोले—प्रभुए आज तुम्हारा आवेश देखकर मुझे जितना दुरूख हुआ हैए उससे कहीं अधिक चिंता हुई है। मुझे अब तक तुम्हारी व्यावहारिक बुध्दि पर विश्वास थाय पर अब विश्वास उठ गया। मुझे निश्चय था कि तुम जीवन और धर्म के सम्बंध को भलीभाँति समझते होय पर अब ज्ञात हुआ कि सोफी और अपनी माता की भाँति तुम भी भ्रम में पड़े हुए हो। क्या तुम समझते हो कि मैं और मुझ—जैसे और हजारों आदमीए जो नित्य गिरजे आते हैंए भजन गाते हैंए अॉंखें बंद करके ईश—प्रार्थना करते हैंए धार्मानुराग में डूबे हुए हैंघ् कदापि नहीं। अगर अब तक तुम्हें नहीं मालूम हैए तो अब मालूम हो जाना चाहिए कि धर्म केवल स्वार्थ—संगठन है। सम्भव हैए तुम्हें ईसा पर विश्वास होए शायद तुम उन्हें खुदा का बेटा या कम—से—कम महात्मा समझते होए पर मुझे तो यह भी विश्वास नहीं है। मेरे हृदय में उनके प्रति उतनी ही श्रध्दा हैए जितनी किसी मामूली फकीर के प्रति। उसी प्रकार फकीर भी दान और क्षमा की महिमा गाता फिरता हैए परलोक के सुखों का राग गाया करता है। वह भी उतना ही त्यागीए उतना ही दीनए उतना ही धर्मरत है। लेकिन इतना अविश्वास होने पर भी मैं रविवार को सौ काम छोड़कर गिरजे अवश्य जाता हूँ। न जाने से अपने समाज में अपमान होगाए उसका मेरे व्यवसाय पर बुरा असर पड़ेगा। फिर अपने ही घर में अशांति फैल जाएगी। मैं केवल तुम्हारी माता की खातिर से अपने ऊपर यह अत्याचार करता हूँए और तुमसे भी मेरा यही अनुरोध है कि व्यर्थ का दुराग्रह न करो। तुम्हारी माता क्रोध के योग्य नहींए दया के योग्य हैं। बोलोए तुम्हें कुछ कहना हैघ्

प्रभु सेवक—जी नहीं।

जॉन सेवक—अब तो फिर इतनी उच्छृंखलता न करोगेघ्

प्रभु सेवक ने मुस्कराकर कहा—जी नहीं।

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अध्याय 6

धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैंए वहाँ एक अवगुण भी हैय वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना—शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली ने जब से अपनी दोनों विमाताओं की बाते सुनी थींए उनके हृदय में घोर अशांति हो रही थी। बार—बार खुदा से दुआ माँगते थेए नीति—ग्रंथों से अपनी शंका का समाधान करने की चेष्टा करते थे। दिन तो किसी तरह गुजराए संध्या होते ही वह मि. जॉन सेवक के पास पहुँचे और बड़े विनीत शब्दों में बोले—हुजूर की खिदमत में इस वक्त एक खास अर्ज करने के लिए हाजिर हुआ हूँ। इर्शाद हो तो कहूँ।

जॉन सेवक—हाँ—हाँए कहिएए कोई नई बात है क्याघ्

ताहिर—हुजूर उस अंधे की जमीन लेने का खयाल छोड़ देंए तो बहुत ही मुनासिब हो। हजारों दिक्कतें हैं। अकेला सूरदास ही नहींए सारा मुहल्ला लड़ने पर तुला हुआ है। खासकर नायकराम पंडा बहुत बिगड़ा हुआ है। वह बड़ा खौफनायक आदमी है। जाने कितनी बार फौजदारियाँ कर चुका है। अगर ये सब दिक्कतें किसी तरह दूर भी हो जाएँए तो भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि इसके बजाए किसी दूसरी जमीन की फिक्र कीजिए।

जॉन सेवक—यह क्योंघ्

ताहिर—हुजूरए यह सब अजाब का काम है। सैंकड़ों आदमियों का काम उस जमीन से निकलता हैए सबकी गायें वहीं चरती हैंए बरातें ठहरती हैंए प्लेग के दिनो में लोग वहीं झोंपड़े डालते हैं। वह जमीन निकल गईए तो सारी आबादी को तकलीफ होगीए और लोग दिल में हमें सैंकड़ों बददुआएँ देंगे। इसका अजाब जरूर पड़ेगा।

जॉन सेवक—(हँसकर) अजाब तो मेरी गरदन पर पड़ेगा नघ् मैं उसका बोझ उठा सकता हूँ।

ताहिर—हुजूरए मैं भी तो आप ही के दामन से लगा हुआ हूँ। मैं उस अजाब से कब बच सकता हूँघ् बल्कि मुहल्लेवाले मुझी को बागी समझते हैं। हुजूर तो यहाँ तशरीफ रखते हैंए मैं तो आठों पहर उनकी अॉंखों के सामने रहूँगाए नित्य उनकी नजरों में खटकता रहूँगाए औरतें भी राह चलते दो गालियाँ सुना दिया करेंगी। बाल—बच्चों वाला आदमी हूँय खुदा जाने क्या पड़ेए क्या न पड़े। आखिर शहर के करीब और जमीनें भी तो मिल सकती हैं।

धर्मभीरुता जड़वादियों की द्रष्टि में हास्यास्पद बन जाती है। विशेषतरू एक जवान आदमी में तो यह अक्षम्य समझी जाती है। जॉन सेवक ने कृत्रिम क्रोध धारण करके कहा—मेरे भी बाल—बच्चे हैं। जब मैं नहीं डरताए तो आप क्यों डरते हैंघ् क्या आप समझते हैं कि मुझे अपने बाल—बच्चे प्यारे नहींए या मैं खुदा से नहीं डरताघ्

ताहिर—आप साहबे—एकबाल हैंए आपको अजाब का खौफ नहीं। एकबाल वालों से अजाब भी काँपता है। खुदा का कहर गरीबों ही पर गिरता है।

जॉन सेवक—इस नए धर्म—सिध्दांत के जन्मदाता शायद आप ही होंगेय क्योंकि मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि ऐश्वर्य से ईश्वरीय कोप भी डरता है। बल्कि हमारे धर्म—ग्रंथों में तो धानिकों के लिए स्वर्ग का द्वार ही बंद कर दिया गया है।

ताहिर—हुजूरए मुझे इस झगड़े से दूर रखेंए तो अच्छा हो।

जॉन सेवक—आज आपको इस झगड़े से दूर रखूँए कल आपको यह शंका हो कि पशु—हत्या से खुदा नाराज होता हैए आप मुझे वालों की खरीद से दूर रखेंए तो मैं आपको किन—किन बातों से दूर रखूँगाए और कहाँ—कहाँ ईश्वर के कोप से आपकी रक्षा करूँगाघ् इससे तो कहीं अच्छा यही है कि आपको अपने ही से दूर रखूँ। मेरे यहाँ रहकर आपको ईश्वरीय कोप का सामना करना पड़ेगा।

मिसेज सेवक—जब आपको ईश्वरीय कोप का इतना भय हैए तो आपसे हमारे यहाँ काम नहीं हो सकता।

ताहिर—मुझे हुजूर की खिदमत से इनकार थोड़े ही हैए मैं तो सिर्फ...

मिसेज सेवक—आपको हमारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना पड़ेगाए चाहे उससे आपका खुदा खुश हो या नाखुश। हम अपने कामों में आपके खुदा को हस्तक्षेप न करने देंगे।

ताहिर अली हताश हो गए। मन को समझाने लगे—ईश्वर दयालु हैए क्या वह देखता नहीं कि मैं कैसी बेड़ियों में जकड़ा हुआ हूँ। मेरा इसमें क्या वश हैघ् अगर स्वामी की आज्ञाओं को न मानूँए तो कुटुम्ब का पालन क्योंकर हो। बरसों मारे—मारे फिरने के बाद तो यह ठिकाने की नौकरी हाथ आई है। इसे छोड़ दूँए तो फिर उसी तरह की ठोकरें खानी पड़ेंगी। अभी कुछ और नहीं हैए तो रोटी—दाल का सहारा तो है। गृहचिंता आत्मचिंतन की घातिका है।

ताहिर अली को निरुत्तार होना पड़ा। बेचारे अपने स्त्री के सारे गहने बेचकर खा चुके थे। अब एक छल्ला भी न था। माहिर अली अंगरेजी पढ़़ता था। उसके लिए अच्छे कपड़े बनवाने पड़तेए प्रतिमास फीस देनी पड़ती। जाबिर अली और जाहिर अली उर्दू मदरसे में पढ़़ते थेय किंतु उनकी माता नित्य जान खाया करती थीं कि इन्हें भी अंगरेजी मदरसे में दाखिल करा दोए उर्दू पढ़़ाकर क्या चपरासगिरी करानी हैघ् अंगरेजी थोड़ी भी आ जाएगीए तो किसी—न—किसी दफ्तर में घुस ही जाएँगे। भाइयों के लालन—पालन पर उनकी आवश्यकताएँ ठोकर खाती रहती थीं। पाजामे में इतने पैबंद लग जाते थे कि कपड़े का यथार्थ रूप छिप जाता था। नए जूते तो शायद इन पाँच बरसों में उन्हें नसीब ही नहीं हुए। माहिर अली के पुराने जूतों पर संतोष करना पड़ता था। सौभाग्य से माहिर अली के पाँव बड़े थे। यथासाधय यह भाइयों को कष्ट न होने देते थे। लेकिन कभी हाथ तंग रहने के कारण उनके लिए नए कपड़े न बनवा सकतेए या फीस देने में देर हो जातीए या नाश्ता न मिल सकताए या मदरसे में जलपान करने के लिए पैसे न मिलतेए तो दोनों माताएँ व्यंग्यों और कटूक्तियों से उनका हृदय छेद डालती थीं। बेकारी के दिनों में वह बहुधाए अपना बोझ हलका करने के लिएए स्त्री और बच्चों को मैके पहुँचा दिया करते थे। उपहास से बचने के खयाल से एक—आधा महीने के लिए बुला लेतेए और फिर किसी—न—किसी बहाने से विदा कर देते। जब से मि. जॉन सेवक की शरण आए थेए एक प्रकार से उनके सुदिन आ गए थेय कल की चिंता सिर पर सवार न रहती थी। माहिर अली की उम्र पंद्रह से अधिक हो गई थी। अब सारी आशाएँ उसी पर अवलम्बित थीं। सोचतेए जब माहिर मैटी्रक पास हो जाएगाए तो साहब से सिफारिश कराके पुलिस में भरती करा दूँगा। पचास रुपये से क्या कम वेतन मिलेगा! हम दोनों भाइयों की आय मिलाकर 80 रुपये हो जाएगी। तब जीवन का कुछ आनंद मिलेगा। तब तक जाहिर अली भी हाथ—पैर सम्भाल लेगाए फिर चौन ही चौन है। बसए तीन—चार साल की और तकलीफ है। स्त्री से बहुधा झगड़ा हो जाता। वह कहा करती—ये भाई—बंद एक भी काम न आएँगे। ज्यों ही अवसर मिलाए पर झाड़कर निकल जाएँगेए तुम खड़े ताकते रह जाओगे। ताहिर अली इन बातों पर स्त्री से रूठ जाते। उसे घर में आग लगाने वालीए विष की गाँठ कहकर रुलाते।

आशाओं और चिंताओं से इतना दबा हुआ व्यक्ति मिसेज सेवक के कटु वाक्यों का क्या उत्तर देता! स्वामी के कोप ने ईश्वर के कोप को परास्त कर दिया। व्यथित कंठ से बोले—हुजूर का नमक खाता हूँए आपकी मरजी मेरे लिए खुदा के हुक्म का दरजा रखती है। किताबों में आका को खुश करने का वही सबाब लिखा हैए जो खुदा को खुश रखने का है। हुजूर की नमकहरामी करके खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा!

जॉन सेवक—हाँए अब आप आए सीधो रास्ते पर। जाइएए अपना काम कीजिए। धर्म और व्यापार को एक तराजू तौलना मूर्खता है। धर्म धर्म हैए व्यापार व्यापारय परस्पर कोई सम्बंध नहीं। संसार में जीवित रहने के लिए किसी व्यापार की जरूरत हैए धर्म की नहीं। धर्म तो व्यापार का शृंगार है। वह धानाधीशों ही को शोभा देता है। खुदा आपको समाई देए अवकाश मिलेए घर में फालतू रुपये होंए तो नमाज पढ़़िएए हज कीजिएए मसजिद बनवाइएए कुएँ खुदवाइएय तब मजहब हैए खाली पेट खुदा को नाम लेना पाप है।

ताहिर अली ने झुककर सलाम किया और घर लौट आए।

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अध्याय 7

संध्या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ—पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ाए इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था और प्राणपण से समय—चक्र को पलट देना चाहता था। बादल भी थेए बूँदें भी थींए ठंडी हवा भी थीए कुहरा भी था। इतनी विभिन्न शक्तियों के मुकाबिले में ऋतुराज की एक न चलती। लोग लिहाफ में यों मुँह छिपाए हुए थेए जैसे चूहे बिलों में से झाँकते हैं। दूकानदार अंगीठियों के सामनेए बैठे हाथ सेंकते थे। पैसों के सौदे नहींए मुरौवत के सौदे बेचते थे। राह चलते लोग अलाव पर यों गिरते थेए मानो दीपक पर पतंगे गिरते हों। बड़े घरों की स्त्रियाँ मनाती थीं—मिसराइन न आएए तो आज भोजन बनाएँए चूल्हे के सामने बैठने का अवसर मिले। चाय की दूकानों पर जमघट रहता था। ठाकुरदीन के पान छबड़ी में पड़े सड़ रहे थेय पर उसकी हिम्मत न पड़ती थी कि उन्हें फेरे! सूरदास अपनी जगह पर तो आ बैठा थाय पर इधार—उधार से सूखी टहनियाँ बटोरकर जला ली थीं और हाथ सेंक रहा था। सवारियाँ आज कहाँ! हाँए कोई इक्का—दुक्का मुसाफिर निकल जाता थाए तो बैठे—बैठे उसका कल्याण मना लेता था। जब से सैयद ताहिर अली ने उसे धामकियाँ दी थींए जमीन के निकल जाने की शंका उसके हृदय पर छाई रहती थी। सोचता—क्या इसी दिन के लिएए मैंने इस जमीन का इतना जतन किया थाघ् मेरे दिन सदा यों ही थोड़े ही रहेंगेए कभी तो लच्छमी प्रसन्न होंगी! अंधों की आँखें न खुलेंय पर भाग खुल सकता है। कौन जानेए कोई दानी मिल जाएए या मेरे ही हाथ में धीरे—धीरे कुछ रुपये इकट्ठे हो जाएँए बनते देर नहीं लगती। यही अभिलाषा थी कि यहाँ एक कुआँ और एक छोटा—सा मंदिर बनवा देताए मरने के पीछे अपनी कुछ निशानी रहती। नहीं तो कौन जानेगा कि अंधा कौन था। पिसनहारी ने कुआँ खुदवाया थाए आज तक उसका नाम चला जाता है। झक्कड़ साईं ने बावली बनवाई थीए आज तक झक्कड़ की बावली मशहूर है। जमीन निकल गईए तो नाम डूब जाएगा। कुछ रुपये मिले भीए तो किस काम केघ्

नायकराम उसे ढ़ाढ़़स देता रहता था—तुम कुछ चिंता मत करोए कौन माँ का बेटा हैए जो मेरे रहते तुम्हारी जमीन निकाल ले। लहू की नदी बहा दूँगा। उस किरंटे की क्या मजालए गोदाम में आग लगा दूँगाए इधार का रास्ता छुड़ा दूँगा। वह है किस गुमान में! बस तुम हामी न भरना। किंतु इन शब्दों से जो तस्कीन होती थीए वह भैरों और जगधार कीर् ईर्ष्‌यापूर्ण वितंडाओं से मिट जाती थीए और वह एक लम्बी साँस खींचकर रह जाता था।

वह इन्हीं विचारों में मग्न था कि नायकराम कंधो पर लट्ठ रखेए एक अंगोछा कंधो पर डालेए पान के बीड़े मुँह में भरेए आकर खड़ा हो गया और बोला—सूरदासए बैठे टापते ही रहोगेघ् साँझ हो गईए हवा खानेवाले अब इस ठंड में न निकलेंगे। खाने—भर को मिल गया कि नहींघ्

सूरदास—कहाँ महाराजए आज तो एक भागवान से भी भेंट न हुई।

नायकराम—जो भाग्य में थाए मिल गया। चलोए घर चलें। बहुत ठंड लगती होए तो मेरा यह अंगोछा कंधो पर डाल लो। मैं तो इधार आया था कि कहीं साहब मिल जाएँए तो दो—दो बातें कर लूँ। फिर एक बार उनकी और हमारी भी हो जाए।

सूरदास चलने को उठा ही था कि सहसा एक गाड़ी की आहट मिली। रुक गया। आस बँधी। एक क्षण में फिटन आ पहुँची। सूरदास ने आगे बढ़़कर कहा—दाताए भगवान्‌ तुम्हारा कल्यान करेंए अंधे की खबर लीजिए।

फिटन रुक गईए और चतारी के राजा साहब उतर पड़े। नायकराम उनका पंडा था। साल में दो—चार सौ रुपये उनकी रियासत से पाता था। उन्हें आशीर्वाद देकर बोला—सरकार का इधार कैसे आना हुआघ् आज तो बड़ी ठंड है।

राजा साहब—यही सूरदास हैए जिसकी जमीन आगे पड़ती हैघ् आओए तुम दोनों आदमी मेरे साथ बैठ जाओए मैं जरा उस जमीन को देखना चाहता हूँ।

नायकराम—सरकार चलेंए हम दोनों पीछे—पीछे आते हैं।

राजा साहब—अजी आकर बैठ जाओए तुम्हें आने में देर होगीए और मैंने अभी संध्या नहीं की है।

सूरदास—पंडाजीए तुम बैठ जाओए मैं दौड़ता हुआ चलूँगाए गाड़ी के साथ—ही—साथ पहुँचूँगा।

राजा साहब—नहीं—नहींए तुम्हारे बैठने में कोई हरज नहीं हैए तुम इस समय भिखारी सूरदास नहींए जमींदार सूरदास हो।

नायकराम—बैठो सूरेए बैठो। हमारे सरकार साक्षात्‌ देवरूप हैं।

सूरदास—पंडाजीए मैं...

राजा साहब—पंडाजीए तुम इनका हाथ पकड़कर बिठा दोए यों न बैठेंगे।

नायकराम ने सूरदास को गोद में उठाकर गद्दी पर बैठा दियाए आप भी बैठेए और फिटन चली। सूरदास को अपने जीवन में फिटन पर बैठने का यह पहला ही अवसर था। ऐसा जान पड़ता था कि मैं उड़ा जा रहा हूँ। तीन—चार मिनट में जब गोदाम पर गाड़ी रुक गई और राजा साहब उतर पड़ेए तो सूरदास को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी क्योंकर आ गए।

राजा साहब—जमीन तो बड़े मौके की है।

सूरदास—सरकारए बाप—दादों की निसानी है।

सूरदास के मन में भाँति—भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं—क्या साहब ने इनको यह जमीन देखने के लिए भेजा हैघ् सुना हैए यह बड़े धार्मात्मा पुरुष हैं। तो इन्होंने साहब को समझा क्यों न दियाघ् बड़े आदमी सब एक होते हैंए चाहे हिंदू हों या तुर्कय तभी तो मेरा इतना आदर कर रहे हैंए जैसे बकरे की गरदन काटने से पहले उसे भर—पेट दाना खिला देते हैं। लेकिन मैं इनकी बातों में आनेवाला नहीं हूँ।

राजा साहब—असामियों के साथ बंदोबस्त हैंघ्

नायकराम—नहीं सरकारए ऐसे ही परती पड़ी रहती हैए सारे मुहल्ले की गऊएं यहीं चरने आती हैं। उठा दी जाएए तो 200 रुपये से कम नफा न होए पर यह कहता हैए जब भगवान्‌ मुझे यों ही खाने—भर को देते हैंए तो इसे क्यों उठाऊँ।

राजा साहब—अच्छाए तो सूरदास दान लेता ही नहींए देता भी है। ऐसे प्राणियों के दर्शन ही से पुण्य होता है।

नायकराम की निगाह में सूरदास का इतना आदर कभी न हुआ था। बोले—हुजूरए उस जन्म का कोई बड़ा भारी महात्मा है।

राजा साहब—उस जन्म का नहींए इस जन्म का महात्मा है।

सच्चा दानी प्रसिध्दि का अभिलाषी नहीं होता। सूरदास को अपने त्याग और दान के महत्व का ज्ञान ही न था। शायद होताए तो स्वभाव में इतनी सरल दीनता न रहतीए अपनी प्रशंसा कानों को मधुर लगती है। सभ्य द्रष्टि में दान का यही सर्वोत्ताम पुरस्कार है। सूरदास का दान पृथ्वी या आकाश का दान थाए जिसे स्तुति या कीर्ति की चिंता नहीं होती। उसे राजा साहब की उदारता में कपट की गंधा आ रही थी। वह यह जानने के लिए विकल हो रहा था कि राजा साहब का इन बातों से अभिप्राय क्या है।

नायकराम राजा साहब को खुश करने के लिए सूरदास का गुणानुवाद करने लगे—धार्मावतारए इतने पर भी इन्हें चौन नहीं है। यहाँए धर्मशालाए मंदिर और कुआँ बनवाने का विचार कर रहे हैं।

राजा साहब—वाहए तब तो बात ही बन गई। क्यों सूरदासए तुम इस जमीन में से 9 बीघे मिस्टर जॉन सेवक को दे दो। उनसे जो रुपये मिलेंए उन्हें धर्म—कार्य में लगा दो। इस तरह तुम्हारी अभिलाषा भी पूरी हो जाएगी और काम भी निकल जाएगा। दूसरों से इतने अच्छे दाम न मिलेंगे। बोलोए कितने रुपये दिला दूँघ्

नायकराम सूरदास को मौन देखकर डरे कि कहीं यह इनकार कर बैठाए तो मेरी बात गई! बोले—सूरेए हमारे मालिक को जानते हो नए चतारी के महाराज हैंए इसी दरबार से हमारी परवरिस होती है। मिनिसपलटी के सबसे बड़े हाकिम हैं। आपके हुक्म बिना कोई अपने द्वार पर खूँटा भी नहीं गाड़ सकता। चाहेंए तो सब इक्केवालों को पकड़वा लेंए सारे शहर का पानी बंद कर दें।

सूरदास—जब आपका इतना बड़ा अखतियार हैए तो साहब को कोई दूसरी जमीन क्यों नहीं दिला देतेघ्

राजा साहब—ऐसे अच्छे मौके पर शहर में दूसरी जमीन मिलनी मुश्किल है। लेकिन तुम्हें इसके देने में क्या आपत्ति हैघ् इस तरह न जाने कितने दिनों में तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। यह तो बहुत अच्छा अवसर हाथ आयाए रुपये लेकर धर्म—कार्य में लगा दो।

सूरदास—महाराजए मैं खुशी से जमीन न बेचूँगा।

नायकराम—सूरेए कुछ भंग तो नहीं खा गएघ् कुछ खयाल हैए किससे बातें कर रहे हो!

सूरदास—पंडाजीए सब खियाल हैए आँखें नहीं हैंए तो क्या अक्किल भी नहीं है! पर जब मेरी चीज है ही नहींए तो मैं उसका बेचनेवाला कौन होता हूँघ्

राजा साहब—यह जमीन तो तुम्हारी ही हैघ्

सूरदास—नहीं सरकारए मेरी नहींए मेरे बाप—दादों की है। मेरी चीज वही हैए जो मैंने अपने बाँह—बल से पैदा की हो। यह जमीन मुझे धारोहर मिली हैए मैं इसका मालिक नहीं हूँ।

राजा साहब—सूरदासए तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई। अगर और जमींदारों के दिल में ऐसे ही भाव होतेए तो आज सैकड़ों घर यों तबाह न होते। केवल भोग—विलास के लिए लोग बड़ी—बड़ी रियासतें बरबाद कर देते हैं। पंडाजीए मैंने सभा में यही प्रस्ताव पेश किया है कि जमींदारों को अपनी जायदाद बेचने का अधिकार न रहेए लेकिन जो जायदाद धर्म—कार्य के लिए बेची जाएए उसे मैं बेचना नहीं कहता।

सूरदास—धारमावतारए मेरा तो इस जमीन के साथ इतना ही नाता है कि जब तक जिऊँए इसकी रक्षा करूँए और मरूँए तो इसे ज्यों—की—त्यों छोड़ जाऊँ।

राजा साहब—लेकिन यह तो सोचो कि तुम अपनी जमीन का एक भाग केवल इसलिए दूसरे को दे रहे हो कि मंदिर बनवाने के लिए रुपये मिल जाएँ।

नायकराम—बोलो सूरेए महाराज की इस बात का क्या जवाब देते होघ्

सूरदास—मैं सरकार की बातों का जवाब देने जोग हूँ कि जवाब दूँघ् लेकिन इतना तो सरकार जानते ही हैं कि लोग उँगली पकड़ते—पकड़ते पहुँचा पकड़ लेते हैं।

साहब पहले तो न बोलेंगेए फिर धीरे—धीरे हाता बना लेंगेए कोई मंदिर में जाने न पाएगाए उनसे कौन रोज—रोज लड़ाई करेगा।

नायकराम—दीनबंधुए सूरदास ने यह बात पक्की कहीए बड़े आदमियों से कौन लड़ता फिरेगाघ्

राजा साहब—साहब क्या करेंगेए क्या तुम्हारा मंदिर खोदकर फेंक देंगेघ्

नायकराम—बोलो सूरेए अब क्या कहते होघ्

सूरदास—सरकारए गरीब की घरवाली गाँव—भर की भावज होती है। साहब किरस्तान हैंए धरमशाले में तमाकू का गोदाम बनाएँगेए मंदिर में उनके मजूर सोएँगेए कुएँ पर उनके मजूरों का अड्डा होगाए बहू—बेटीयाँ पानी भरने न जा सकेंगी। साहब न करेंगेए साहब के लड़के करेंगे। मेरे बाप—दादों का नाम डूब जाएगा। सरकारए मुझे इस दलदल में न फँसाइए।

नायकराम—धारमावतारए सूरदास की बात मेरे मन में भी बैठती है। थोड़े दिनों में मंदिरए धरमशालाए कुआँए सब साहब का हो जाएगाए इसमें संदेह नहीं।

राजा साहब—अच्छाए यह भी मानाय लेकिन जरा यह भी तो सोचो कि इस कारखाने से लोगों को क्या फायदा होगा। हजारों मजदूरए मिस्त्री ए बाबूए मुंशीए लुहारए बढ़़ई आकर आबाद हो जाएँगेए एक अच्छी बस्ती हो जाएगीए बनियों की नई—नई दूकानें खुल जाएँगीए आस—पास के किसानों को अपनी शाक—भाजी लेकर शहर न जाना पड़ेगाए यहीं खरे दाम मिल जाएँगे। कुँजड़ेए खटीकए ग्वालेए धोबीए दरजीए सभी को लाभ होगा। क्या तुम इस पुण्य के भागी न बनोगेघ्

नायकराम—अब बोलो सूरेए अब तो कुछ नहीं कहना हैघ् हमारे सरकार की भलमंसी है कि तुमसे इतनी दलील कर रहे हैं। दूसरा हाकिम होता तो एक हुकुमनामे में सारी जमीन तुम्हारे हाथ से निकल जाती।

सूरदास—भैयाए इसीलिए न लोग चाहते हैं कि हाकिम धारमात्मा होए नहीं तो क्या देखते नहीं हैं कि हाकिम लोग बिना डाम—फूल—सूअर के बात नहीं करते। उनके सामने खड़े होने का तो हियाव ही नहीं होताए बातें कौन करता। इसीलिए तो मानते हैं कि हमारे राजों—महाराजों का राज होताए जो हमारा दुरूख—दर्द सुनते। सरकार बहुत ठीक कहते हैंए मुहल्ले की रौनक जरूर बढ़़ जाएगीए रोजगारी लोगों को फायदा भी खूब होगा। लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़़ेगीए वहाँ ताड़ी—शराब का भी तो परचार बढ़़ जाएगाए कसबियाँ भी तो आकर बस जाएँगीए परदेशी आदमी हमारी बहू—बेटीयों को धूरेंगेए कितना अधरम होगा! दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी के लालच से दौड़ेंगेए यहाँ बुरी—बुरी बातें सीखेंगे और अपने बुरे आचरन अपने गाँव में फैलाएँगे। दिहातों की लड़कियाँए बहुएँ मजूरी करने आएँगी और यहाँ पैसे के लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक शहरों में है। वही रौनक यहाँ हो जाएगी। भगवान्‌ न करेंए यहाँ वह रौनक हो। सरकारए मुझे इस कुकरम और अधरम से बचाएँ। यह सारा पाप मेरे सिर पड़ेगा।

नायकराम—दीनबंधुए सूरदास बहुत पक्की बात कहता है। कलकत्तााए बम्बईए अहमदाबादए कानपुरए आपके अकबाल से सभी जगह घूम आया हूँए जजमान लोग बुलाते रहते हैं। जहाँ—जहाँ कल—कारखाने हैंए वहाँ यही हाल देखा है।

राजा साहब—क्या बुराइयाँ तीर्थस्थान में नहीं हैंघ्

सूरदास—सरकारए उनका सुधार भी तो बड़े आदमियों ही के हाथ में हैए जहाँ बुरी बातें पहले ही से हैंए वहाँ से हटाने के बदले उन्हें और फैलाना तो ठीक नहीं है।

राजा साहब—ठीक कहते हो सूरदासए बहुत ठीक कहते हो। तुम जीतेए मैं हार गया। जिस वक्त मैंने साहब से इस जमीन को तय करा देने का वादा किया थाए ये बातें मेरे धयान में न आई थीं। अब तुम निश्चिंत हो जाओए मैं साहब से कह दूँगाए सूरदास अपनी जमीन नहीं देता। नायकरामए देखोए सूरदास को किसी बात की तकलीफ न होने पाएए अब मैं चलता हूँ। यह लो सूरदासए यह तुम्हारी इतनी दूर आने की मजूरी है।

यह कहकर उन्होंने एक रुपया सूरदास के हाथ में रखा और चल दिए।

नायकराम ने कहा—सूरदासए आज राजा साहब भी तुम्हारी खोपड़ी को मान गए।

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अध्याय 8

सोफिया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला—सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आताय पर कभी उससे घर का कुशल—समाचार न पूछती। वह कभी हवा खाने भी न जाती कि कहीं मामा से साक्षात्‌ न हो जाए। यद्यपि इंदु ने उसकी परिस्थिति को सबसे गुप्त रखा थाय पर अनुमान से सभी प्राणी उसकी यथार्थ दशा से परिचित हो गए थे। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यह ख्याल रहता था कि कोई ऐसी बात न होने पावेए जो उसे अप्रिय प्रतीत हो! इंदु को तो उससे इतना प्रेम हो गया था कि अधिकतर उसी के पास बैठी रहती। उसकी संगति में इंदु को भी धर्म और दर्शन के ग्रंथों से रुचि होने लगी।

घर टपकता होए तो उसकी मरम्मत की जाती हैय गिर जाएए तो उसे छोड़ दिया जाता है। सोफी को जब ज्ञात हुआ कि इन लोगों को मेरी सब बातें मालूम हो गईं तो उसने परदा रखने की चेष्टा करनी छोड़ दीय धर्म—ग्रंथों के अधययन में डूब गई। पुरानी कुदूरतें दिल से मिटने लगीं। माता के कठोर वाक्य—बाणों का घाव भरने लगा। वह संकीर्णताए जो व्यक्तिगत भावों और चिंताओं को अनुचित महत्व दे देती हैए इस सेवा और सद्व्‌यवहार के क्षेत्र में आकर तुच्छ जान पड़ने लगी। मन ने कहाए यह मामा के दोष नहींए उनकी धार्मिक अनुदारता का दोष हैय उनका विचारक्षेत्र परिमित हैए उनमें विचार—स्वातंत्रय का सम्मान करने की क्षमता ही नहींए मैं व्यर्थ उनसे रुष्ट हो रही हूँ। यही एक काँटा थाए जो उसके अंतस्तल में सदैव खटकता रहता था। जब वह निकल गयाए तो चित्ता शांत हो गया। उसका जीवन धर्म—ग्रंथों के अवलोकन और धर्म—सिध्दांतों के मनन तथा चिंतन में व्यतीत होने लगा। अनुराग अंतर्वेदना की सबसे उत्ताम औषधि है।

किंतु इस मनन और अवलोकन से उसका चित्ता शांत होता होए यह बात न थी। नाना प्रकार की शंकाएँ नित्य उपस्थित होती रहती थीं—जीवन का उद्देश्य क्या हैघ् प्रत्येक धर्म में इसके विविधा उत्तर मिलते थेय पर एक भी ऐसा नहीं मिलाए जो मन में बैठ जाए। ये विभूतियाँ क्या हैंए क्या केवल भक्तों की कपोल—कल्पनाएँ हैंघ् सबसे जटील समस्या यह थी कि उपासना का उद्देश्य क्या हैघ् ईश्वर क्यों मनुष्यों से अपनी उपासना करने का अनुरोध करता हैए इससे उसका क्या अभिप्राय हैघ् क्या वह अपनी ही सृष्टि से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न होता हैघ् वह इन प्रश्नों की मीमांसा में इतनी तल्लीन रहती कि कई—कई दिन कमरे के बाहर न निकलतीए खाने—पीने की सुधि न रहतीए यहाँ तक कि कभी—कभी इंदु का आना उसे बुरा मालूम होता।

एक दिन प्रातरूकाल वह कोई धर्मग्रंथ पढ़़ रही थी कि इंदु आकर बैठ गई। उसका मुख उदास था। सोफिया उसकी ओर आकृष्ट न हुईए पूर्ववत्‌ पुस्तक देखने में मग्न रही। इंदु बोली—सोफीए अब यहाँ दो—चार दिन की और मेहमान हूँए मुझे भूल तो न जाओगीघ्

सोफी ने बिना सिर उठाए ही कहा—हाँ।

इंदु—तुम्हारा मन तो अपनी किताबों में बहल जाएगाए मेरी याद भी न आएगीय पर मुझसे तुम्हारे बिना एक दिन न रहा जाएगा।

सोफी ने किताब की तरफ देखते हुए कहा—हाँ।

इंदु—फिर न जाने कब भेंट हो। सारे दिन अकेले पड़े—पड़े बिसूरा करूँगी।

सोफी ने किताब का पन्ना उलटकर कहा—हाँ।

इंदु से सोफिया की निष्ठुरता अब न सही गई। किसी और समय वह रुष्ट होकर चली जातीए अथवा उसे स्वाध्याय में मग्न देखकर कमरे में पाँव ही न रखतीय किंतु इस समय उसका कोमल हृदय वियोग—व्यथा से भरा हुआ थाए उसमें मान का स्थान नहीं थाए रोकर बोली—बहनए ईश्वर के लिए जरा पुस्तक बंद कर दोय चली जाऊँगीए तो फिर खूब पढ़़ना। वहाँ से तुम्हें छेड़ने न आऊँगी।

सोफी ने इंदु की ओर देखाए मानो समाधि टूटी! उसकी अॉंखों में अॉंसू थेए मुख उतरा हुआए सिर के बाल बिखरे हुए। बोली—अरे! इंदुए बात क्या हैघ् रोती क्यों होघ्

इंदु—तुम अपनी किताब देखोए तुम्हें किसी के रोने—धोने की क्या परवा है! ईश्वर ने न जाने क्यों मुझे तुझ—सा हृदय नहीं दिया।

सोफिया—बहनए क्षमा करनाए मैं एक बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। अभी तक वह गुत्थी नहीं सुलझी। मूर्तिपूजा को सर्वथा मिथ्या समझती थी। मेरा विचार था कि ऋषियों ने केवल मूखोर्ं की आधयात्मिक शांति के लिए यह व्यवस्था कर दी हैय आज से मैं मूर्ति—पूजा की कायल हो गई। लेखक ने इसे वैज्ञानिक सिध्दांतों से सिध्द किया हैए यहाँ तक कि मूर्तियों का आकार—प्रकार भी वैज्ञानिक नियमों ही के आधार पर अवलम्बित बतलाया है।

इंदु—मेरे लिए बुलावा आ गया। तीसरे दिन चली जाऊँगी।

सोफिया—यह तो तुमने बुरी खबर सुनाईए फिर मैं यहाँ कैसे रहूँगीघ्

इस वाक्य में सहानुभूति नहींए केवल स्वहित था। किंतु इंदु ने इसका आशय यह समझा कि सोफी को मेरा वियोग असह्य होगा। बोली—तुम्हारा जी तो किताबों में बहल जाएगा। हाँए मैं तुम्हारी याद में तड़पा करूँगी। सच कहती हूँए तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी चित्ता से न उतरेगीए यह मोहिनी मूर्ति अॉंखों के सामने फिरा करेगी। बहनए अगर तुम्हें बुरा न लगेए तो एक याचना करूँ। क्या यह सम्भव नहीं हो सकता कि तुम भी कुछ दिन मेरे साथ रहोघ् तुम्हारे सत्संग में मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। मैं इसके लिए तुम्हारी सदैव अनुगृहीत रहूँगी।

सोफिया—तुम्हारे प्रेम के बंधान में बँधी हुई हूँए जहाँ चाहोए ले चलो। चाहूँ तो जाऊँगीए न चाहूँ तो भी जाऊँगी। मगर यह तो बताओए तुमने राजा साहब से भी पूछ लिया हैघ्

इंदु—यह ऐसी कौन—सी बात हैए जिसके लिए उनकी अनुमति लेनी पड़े। मुझसे बराबर कहते रहते हैं कि तुम्हारे लिए एक लेडी की जरूरत हैए अकेले तुम्हारा जी घबराता होगा। यह प्रस्ताव सुनकर फूले न समाएँगे।

रानी जाह्नवी तो इंदु की विदाई की तैयारियाँ कर रही थींए और इंदु सोफिया के लिए लैस और कपड़े आदि ला—लाकर रखती थी। भाँति—भाँति के कपड़ों से कई संदूक भर दिए। वह ऐसे ठाठ से ले जाना चाहती थी कि घर की लौंडियाँ—बाँदियाँ उसका उचित आदर करें। प्रभु सेवक को सोफी का इंदु के साथ जाना अच्छा न लगता था। उसे अब भी आशा थी कि मामा का क्रोध शांत हो जाएगा और वह सोफी को गले लगाएँगी। सोफी के जाने से वैमनस्य का बढ़़ जाना निश्चित था। उसने सोफी को समझायाय किंतु वह इंदु का निमंत्रण अस्वीकार न करना चाहती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब घर न जाऊँगी।

तीसरे दिन राजा महेंद्रकुमार इंदु को विदा कराने आएए तो इंदु ने और बातों के साथ सोफी को साथ ले चलने का जिक्र छेड़ दिया। बोली—मेरी जी वहाँ अकेले घबराया करता हैए मिस सोफिया के रहने से मेरा जी बहल जाएगा।

महेंद्र.—क्या मिस सेवक अभी तक वहीं हैंघ्

इंदु—बात यह है कि उनके धार्मिक विचार स्वतंत्रा हैंए और उनके घरवाले उनके विचारों की स्वतंत्रता सहन नहीं कर सकते। इसी कारण वह अपने घर नहीं जाना चाहतीं।

महेंद्र.—लेकिन यह तो सोचोए उनके मेरे घर में रहने से मेरी कितनी बदनामी होगी। मि. सेवक को यह बात बुरी लगेगीए और यह नितांत अनुचित है कि मैं उनकी लड़की कोए उनकी मरजी के बगैरए अपने घर में रखूँ। सरासर बदनामी होगी।

इंदु—मुझे तो इसमें बदनामी की कोई बात नहीं नजर आती। क्या सहेली अपनी सहेली के यहाँ मेहमान नहीं होतीघ् सोफी का स्वभाव भी तो ऐसा उच्छृंखल नहीं है कि वह इधार—उधार घूमने लगेगी।

महेंद्र.—वह देवी सहीय लेकिन ऐसे कितने ही कारण हैं कि मैं उनका तुम्हारे साथ जाना उचित नहीं समझता हूँ। तुममें यह बड़ा दोष है कि कोई काम करने से पहले उसके औचित्य का विचार नहीं करतीं। क्या तुम्हारे विचार में कुल—मर्यादा की अवहेलना करना कोई बुराई नहींघ् उनके घरवाले यही तो चाहते हैं कि वह प्रकट रूप से अपने धर्म के नियमों का पालन करें। अगर वह इतना भी नहीं कर सकतींए तो मैं यही कहूँगा कि उनका विचार—स्वातंत्रय औचित्य की सीमा से बहुत आगे बढ़़ गया है।

इंदु—किंतु मैं तो उनसे वादा कर चुकी हूँ। कई दिन से मैं इन्हीं तैयारियों में व्यस्त हूँ। यहाँ अम्माँ से आज्ञा ले चुकी हूँ। घर के सभी प्राणीए नौकर—चाकर जानते हैं वह मेरे साथ जा रही हैं। ऐसी दशा में अगर मैं उन्हें न ले गईए तो लोग अपने मन में क्या कहेंगेघ् सोचिएए इसमें मेरी कितनी हेठी होगी। मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँगी।

महेंद्र.—बदनामी से बचने के लिए सब कुछ किया जा सकता है। तुम्हें मिस सेवक से कहते शर्म आती होए तो मैं कह दूँ। वह इतनी नादान नहीं हैं कि इतनी मोटी—सी बात न समझें।

इंदु—मुझे उनके साथ रहते—रहते उनसे इतना प्रेम हो गया है कि उनसे एक दिन भी अलग रहना मेरे लिए असाधय—सा जान पड़ता है। इसकी तो खैर परवा नहींय जानती हूँए कभी—न—कभी उनसे वियोग होगा हीय इस समय मुझे सबसे बड़ी चिंता अपनी बात खोने की है। लोग कहेंगेए बात कहकर पलट गई। सोफी ने पहले साफ इनकार कर दिया था। मेरे बहुत कहने—सुनने पर राजी हुई थी। आप मेरी खातिर से अब की मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिएए फिर मैं आपसे पूछे बगैर कोई काम न करूँगी।

महेंद्रकुमार किसी तरह राजी न हुए। इंदु रोईए अनुनय—विनय कीए पैरों पड़ीए वे सभी मंत्र फूँकेए जो कभी निष्फल ही न होतेय पर पति का पाषाण—हृदय न पसीजाय उन्हें अपना नाम संसार की सब वस्तुओं से प्रिय था।

जब महेंद्रकुमार बाहर चले गएए तो इंदु बहुत देर तक शोकावस्था में बैठी रही। बार—बार यही खयाल आता—सोफी अपने मन में क्या कहेगी। मैंने उससे कह रखा है कि मेरे स्वामी मेरी कोई बात नहीं टालते। अब वह समझेगीए वह इसकी बात भी नहीं पूछते। बात भी ऐसी ही हैए इन्हें मेरी क्या परवा हैघ् बातें ऐसी करेंगेए मानो इनसे उदार संसार में कोई प्राणी न होगाए पर वह सब कोरी बकवास हैघ् इन्हें तो यही मंजूर है कि यह दिन—भर अकेली बैठी अपने नाम को रोया करे। दिल में जलते होंगे कि सोफी के साथ इसके दिन आराम से गुजरंगे। मुझे कैदियों की भाँति रखना चाहते हैं। इन्हें जिद करना आता हैए तो मैं भी क्या जिद नहीं कर सकतीघ् मैं भी कहे देती हूँ आप सोफी को न चलने देंगेए तो मैं भी न जाऊँगी। मेरा कर ही क्या सकते हैंए कुछ नहीं। दिल में डरते हैं कि सोफी के जाने से घर का खर्च बढ़़ जाएगा। स्वभाव के कृपण तो हैं ही। उस कृपणता को छिपाने के लिए बदनामी का बहाना निकाला है। दुरूखी आत्मा दूसरों की नेकनीयती पर संदेह करने लगती है।

संध्या—समय जब जाह्नवी सैर करने चलींए तो इंदु ने उनसे यह समाचार कहाए और आग्रह किया कि तुम महेंद्र को समझाकर सोफी को ले चलने पर राजी कर दो। जाह्नवी ने कहा—तुम्हीं क्यों नहीं मान जातींघ्

इंदु—अम्माँए मैं सच्चे हृदय से कह रही हूँए मैं जिद नहीं करती। अगर मैंने पहले ही सोफिया से न कह दिया होताए तो मुझे जरा भी दुरूख न होताय पर सारी तैयारियाँ करके अब उसे न ले जाऊँए तो वह अपने दिल में क्या कहेगी। मैं उसे मुँह नहीं दिखा सकती। यह इतनी छोटी—सी बात है कि अगर मेरा जरा भी ख्याल होताए तो वह इंकार न करते। ऐसी दशा में आप क्योंकर आशा कर सकती हैं कि मैं उनकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करूँघ्

जाह्नवी—वह तुम्हारे स्वामी हैंए उनकी सभी बातें तुम्हें माननी पड़ेंगी।

इंदु—चाहे वह मेरी जरा—जरा—सी बातें भी न मानेंघ्

जाह्नवी—हाँए उन्हें इसका अख्तियार है। मुझे लज्जा आती है कि मेरे उपदेशों का तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। मैं तुम्हें पति—परायणा सती देखना चाहती हूँए जिसे अपने पुरुष की आज्ञा या इच्छा के सामने अपने मानापमान का जरा भी विचार नहीं होता। अगर वह तुम्हें सिर के बल चलने को कहेंए तो भी तुम्हारा धर्म है कि सिर के बल चलो। तुम इतने में ही घबरा गईंघ्

इंदु—आप मुझसे वह करने को कहती हैंए जो मेरे लिए असम्भव है।

जाह्नवी—चुप रहोए मैं तुम्हारे मुँह ऐसी बातें नहीं सुन सकती। मुझे भय हो रहा है कि कहीं सोफी के विचार—स्वातंत्रय का जादू तुम्हारे ऊपर भी तो नहीं चल गया!

इंदु ने इसका कुछ उत्तर न दिया। भय होता था कि मेरे मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल पड़ेए जिससे अम्माँ के मन में यह संदेह और भी जम जाएए तो बेचारी सोफी का यहाँ रहना कठिन हो जाए। वह रास्ते—भर मौन धारण किए बैठी रही। जब गाड़ी फिर मकान पर पहुँचीए और वह उतरकर अपने कमरे की ओर चलीए तो जाह्नवी ने कहा—बेटीए मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँए महेंद्र से इस विषय में अब एक शब्द भी न कहनाए नहीं तो मुझे बहुत दुरूख होगा।

इंदु ने माता को मर्माहत भाव से देखा और अपने कमरे में चली गई। सौभाग्य से महेंद्रकुमार भोजन करके सीधो बाहर चले गएए नहीं तो इंदु के लिए अपने उद्‌गारों का रोकना अत्यंत कठिन हो जाता। उसके मन में रह—रहकर इच्छा होती थी कि चलकर सोफिया से क्षमा माँगूँए साफ—साफ कह दूँ—बहनए मेरा कुछ वश नहीं है। मैं कहने को रानी हूँए वास्तव में मुझे उतनी स्वाधीनता भी नहीं हैए जितनी मेरे घर की महरियों को। लेकिन यह सोचकर रह जाती थी कि पति—निंदा मेरी धर्म—मर्यादा के प्रतिकूल है। सोफी की निगाहों से गिर जाऊँगी। वह समझेगीए इसमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है।

नौ बजे विनयसिंह उससे मिलने आए। वह मानसिक अशांति की दशा में बैठी हुई अपने संदूकों में से सोफी के लिए खरीदे हुए कपड़े निकाल रही थी और सोच रही थी कि इन्हें उनके पास कैसे भेजूँ। खुद जाने का साहस न होता था। विनयसिंह को देखकर बोली—क्यों विनयए अगर तुम्हारी स्त्री अपनी किसी सहेली को कुछ दिनों के लिए अपने साथ रखना चाहेए तो तुम उसे मना कर दोगेए या खुश होगेघ्

विनय—मेरे सामने यह समस्या कभी आएगी ही नहींए इसलिए मैं इसकी कल्पना करके अपने मस्तिष्क को कष्ट नहीं देना चाहता।

इंदू—यह समस्या तो पहले ही उपस्थित हो चुकी है।

विनय—बहनए मुझे तुम्हारी बातों से डर लग रहा है।

इंदु—इसीलिए कि तुम अपने को धोखा दे रहे होय लेकिन वास्तव में तुम उससे बहुत गहरे पानी में होए जितना तुम समझते हो। क्या तुम समझते हो कि तुम्हारा कई—कई दिनों तक घर में न आनाए नित्य सेवा—समिति के कामों में व्यस्त रहनाए मिस सोफिया की ओर अॉंख उठाकर न देखनाए उसके साये से भागनाए उस अंतर्द्‌वंद्व को छिपा सकता हैए जो तुम्हारे हृदय—तल में विकराल रूप से छिड़ा हुआ हैघ् लेकिन याद रखनाए इस द्वंद्व की एक झंकार भी न सुनाई देए नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। सोफिया तुम्हारा इतना सम्मान करती हैए जितना कोई सती अपने पुरुष का भी न करती होगी। वह तुम्हारी भक्ति करती है। तुम्हारे संयमए त्याग और सेवा ने उसे मोहित कर लिया है। लेकिन अगर मुझे धोखा नहीं हुआ हैए तो उसकी भक्ति में प्रणय का लेश भी नहीं। यद्यपि तुम्हें सलाह देना व्यर्थ हैए क्योंकि तुम इस मार्ग की कठिनाइयों को खूब जानते होए तथापि मैं तुमसे यही अनुरोध करती हूँ कि तुम कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाओ। तब तक कदाचित्‌ सोफी भी अपने लिए कोई—न—कोई रास्ता ढ़ूँढ़़ निकालेगी। सम्भव हैए इस समय सचेत हो जाने से दो जीवनों का सर्वनाश होने से बच जाए।

विनय—बहनए जब सब कुछ जानती हो हीए तो तुमसे क्या छिपाऊँ। अब मैं सचेत नहीं हो सकता। इन चार—पाँच महीनों में मैंने जो मानसिक ताप सहन किया हैए उसे मेरा हृदय ही जानता है। मेरी बुध्दि भ्रष्ट हो गई हैए मैं अॉंखें खोकर गढ़़े में गिर रहा हूँए जान—बूझकर विष का प्याला पी रहा हूँ। कोई बाधाए कोई कठिनाईए कोई शंका अब मुझे सर्वनाश से नहीं बचा सकती। हाँए इसका मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि इस आग की एक चिनगारी या एक लपट भी सोफी तक न पहुँचेगी। मेरा सारा शरीर भस्म हो जाएए हड्डियाँ तक राख हो जाएँय पर सोफी को उस ज्वाला की झलक तक न दिखाई देगी। मैंने भी यही निश्चय किया है कि जितनी जल्दी हो सकेए मैं यहाँ से चला जाऊँ—अपनी रक्षा के लिए नहींए सोफी की रक्षा के लिए। आह! इससे तो यह कहीं अच्छा था कि सोफी ने मुझे उसी आग में जल जाने दिया होताय मेरा परदा ढ़ँका रह जाता। अगर अम्माँ को यह बात मालूम हो गईए तो उनकी क्या दशा होगी। इसकी कल्पना ही से मेरे रोएँ खड़े हो जाते हैं। बसए अब मेरे लिए मुँह में कालिख लगाकर कहीं डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है।

यह कहकर विनयसिंह बाहर चले गए। इंदु श्बैठो—बैठोश् कहती रह गई। वह इस समय आवेश में उससे बहुत ज्यादा कह गए थेए जितना वह कहना चाहते थे। और देर तक बैठतेए तो न जाने और क्या—क्या कह जाते। इंदु की दशा उस प्राणी की—सी थीए जिसके पैर बँधो हों और सामने उसका घर जल रहा हो। वह देख रही थीए यह आग सारे घर को जला देगीय विनय के ऊँचे—ऊँचे मंसूबेए माता की बड़ी—बड़ी अभिलाषाएँए पिता के बड़े—बड़े अनुष्ठानए सब विधवंस हो जाएँगे। वह इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी सारी रात करवटें बदलती रही। प्रातरूकाल उठीए तो द्वार पर उसके लिए पालकी तैयार खड़ी थी। वह माता के गले से लिपटकर रोईए पिता के चरणों को अॉंसुओं से धोया और घर से चली। रास्ते में सोफी का कमरा पड़ता था। इंदु ने उस कमरे की ओर ताका भी नहीं। सोफी उठकर द्वार पर आईए और अॉंखों में अॉंसू भरे हुए उससे हाथ मिलाया। इंदु ने जल्दी से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़़ गई।

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अध्याय 9

सोफिया इस समय उस अवस्था में थीए जब एक साधारण हँसी की बातए एक साधारण अॉंखों का इशाराए किसी का उसे देखकर मुस्करा देनाए किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करनाए ऐसी हजारों बातेंए जो नित्य घरों में होती हैं और जिनकी कोई परवा भी नहीं करताए उसका दिल दुरूखाने के लिए काफी हो सकती थीं। चोट खाए हुए अंग को मामूली—सी ठेस भी असह्य हो जाती है। फिर इंदु का बिना उससे कुछ कहे—सुने चला जाना क्यों न दुरूखजनक होता! इंदु तो चली गईय पर वह बहुत देर तक अपने कमरे के द्वार पर मूर्ति की भाँति खड़ी सोचती रही—यह तिरस्कार क्योंघ् मैंने ऐेसा कौन—सा अपराध किया हैए जिसका मुझे यह दंड मिला हैघ् अगर उसे यह मंजूर न था कि मुझे साथ ले जातीए तो साफ—साफ कह देने में क्या आपत्ति थीघ् मैंने उसके साथ चलने के लिए आग्रह तो किया न था! क्या मैं इतना नहीं जानती कि विपत्ति में कोई किसी का साथी नहीं होताघ् वह रानी हैए उसकी इतनी ही कृपा क्या कम थी कि मेरे साथ हँस—बोल लिया करती थी! मैं उसकी सहेली बनने के योग्य कब थीय क्या मुझे इतनी समझ भी न थी! लेकिन इस तरह अॉंखें फेर लेना कौन—सी भलमंसी है! राजा साहब ने न माना होगाए यह केवल बहाना है। राजा साहब इतनी—सी बात को कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। इंदु ने खुद ही सोचा होगा—वहाँ बड़े—बड़े आदमी मिलने आवेंगेए उनसे इसका परिचय क्योंकर कराऊँगी। कदाचित्‌ यह शंका हुई हो कि कहीं इसके सामने मेरा रंग फीका न पड़ जाए। बसए यही बात हैए अगर मैं मूर्खाए रूप—गुणविहीना होतीए तो वह मुझे जरूर साथ ले जातीय मेरी हीनता से उसका रंग और चमक उठता। मेरा दुर्भाग्य!

वह अभी द्वार पर खड़ी ही थी कि जाह्नवी बेटी को विदा करके लौटींए और सोफी के कमरे में आकर बोलीं—बेटीए मेरा अपराध क्षमा करोए मैंने ही तुम्हें रोक लिया। इंदु को बुरा लगाए पर करूँ क्याए वह तो गई ही तुम भी चली जातींए तो मेरा दिन कैसे कटताघ् विनय भी राजपूताना जाने को तैयार बैठे हैंए मेरी तो मौत हो जाती। तुम्हारे रहने से मेरा दिल बहलता रहेगा। सच कहती हूँ बेटीए तुमने मुझ पर कोई मोहिनी—मंत्र फूँक दिया है।

सोफिया—आपकी शालीनता हैए जो ऐसा कहती हैं। मुझे खेद हैए इंदु ने जाते समय मुझसे हाथ भी न मिलाया।

जाह्नवी—केवल लज्जावश बेटीए केवल लज्जावश। मैं तुझसे कहती हूँए ऐसी सरल बालिका संसार में न होगी। तुझे रोककर मैंने उस पर घोर अन्याय किया है। मेरी बच्ची का वहाँ जरा भी जी नहीं लगताय महीने—भर रह जाती हैए तो स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। इतनी बड़ी रियासत हैए महेंद्र सारा बोझा उसी के सिर डाल देते हैं। उन्हें तो म्युनिसिपैलिटी ही से फुरसत नहीं मिलती। बेचारी आय—व्यय का हिसाब लिखते—लिखते घबरा जाती हैए उस पर एक—एक पैसे का हिसाब! महेंद्र को हिसाब रखने की धुन है। जरा—सा फर्क पड़ाए तो उसके सिर हो जाते हैं। इंदु को अधिकार हैए जितना चाहे खर्च करेए पर हिसाब जरूर लिखे। राजा साहब किसी की रू—रियासत नहीं करते। कोई नौकर एक पैसा भी खा जाएए तो उसे निकाल देते हैंय चाहे उसने उनकी सेवा में अपना जीवन बिता दिया हो। यहाँ मैं इंदु को कभी कड़ी निगाह से नहीं देखतीए चाहे घी का घड़ा लुढ़़का दे। वहाँ जरा—जरा—सी बात पर राजा साहब की घुड़कियाँ सुननी पड़ती हैं। बच्ची से बात नहीं सही जाती। जवाब तो देती नहीं—और यही हिंदू स्त्री का धर्म है—पर रोने लगती है। वह दया की मूर्ति है। कोई उसका सर्वस्व खा जाएए लेकिन ज्यों ही उसके सामने आकर रोयाए बस उसका दिल पिघला। सोफीए भगवान्‌ ने मुझे दो बच्चे दिएए और दोनों ही को देखकर हृदय शीतल हो जाता है। इंदु जितनी ही कोमल प्रकृति और सरल हृदया हैए विनय उतना ही धर्मशील और साहसी है। थकना तो जानता ही नहीं। मालूम होता हैए दूसरों की सेवा करने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। घर में किसी टहलनी को भी कोई शिकायत हुईए और सब काम छोड़कर उसकी दवा—दारू करने लगा। एक बार मुझे ज्वर आने लगा था—इस लड़के ने तीन महीने तक द्वार का मुँह नहीं देखा। नित्य मेरे पास बैठा रहताए कभी पंखा झलताए कभी पाँव सहलाताए कभी रामायण और महाभारत पढ़़कर सुनाता। कितना कहतीए बेटा जाओए घूमो—फिरोय आखिर ये लौंडियाँ—बाँदियाँ किस दिन काम आएँगीए डॉक्टर रोज आते ही हैंय तुम क्यों मेरे साथ सती होते होय पर किसी तरह न जाता। अब कुछ दिनों से सेवा—समिति का आयोजन कर रहा है। कुँवर साहब को जो सेवा—समिति से इतना प्रेम हैए वह विनय ही के सत्संग का फल हैए नहीं तो आज से तीन साल पहले इनका—सा विलासी सारे नगर में न था। दिन में दो बार हजामत बनती थी। दरजनों धोबी और दरजी कपड़े धोने और सीने के लिए नौकर थे। पेरिस से एक कुशल धोबी कपड़े सँवारने के लिए आया था। कश्मीर और इटली के बावरची खाना पकाते थे। तसवीरों का इतना व्यसन था कि कई बार अच्छे चित्र लेने के लिए इटली तक की यात्रा की। तुम उन दिनों मंसूरी रही होगी। सैर करने निकलतेए तो सशस्त्रा सवारों का एक दल साथ चलता। शिकार खेलने की लत थीए महीनों शिकार खेलते रहते। कभी कश्मीरए कभी बीकानेरए कभी नेपालए केवल शिकार खेलने जाते। विनय ने उनकी काया ही पलट दी। जन्म का विरागी है। पूर्व—जन्म में अवश्य कोई ऋषि रहा होगा।

सोफी—आपके दिल में सेवा और भक्ति के इतने ऊँचे भाव कैसे जागृत हुएघ् यहाँ तो प्रायरू रानियाँ अपने भोग—विलास में ही मग्न रहती हैंघ्

जाह्नवी—बेटीए यह डॉक्टर गांगुली के सदुपदेश का फल है। जब इंदु दो साल की थीए तो मैं बीमार पड़ी। डॉक्टर गांगुली मेरी दवा करने के लिए आए। हृदय का रोग थाए जी घबराया करताए मानो किसी ने उच्चाटन—मंत्र मार दिया हो। डॉक्टर महोदय ने मुझे महाभारत पढ़़कर सुनाना शुरू किया। उसमें मेरा ऐसा जी लगा कि कभी—कभी आधी रात तक बैठी पढ़़ा करती। थक जाती तो डॉक्टर साहब से पढ़़वाकर सुनती। फिर तो वीरतापूर्ण कथाओं के पढ़़ने का मुझे ऐसा चस्का लगा कि राजपूतों की ऐसी कोई कथा नहींए जो मैंने न पढ़़ी हो। उसी समय से मेरे मन में जातिप्रेम का भाव अंकुरित हुआ। एक नई अभिलाषा उत्पन्न हुई—मेरी कोख से भी कोई ऐसा पुत्रा जन्म लेताए जो अभिमंयुए दुर्गादास और प्रताप की भाँति जाति का मस्तक ऊँचा करता। मैंने व्रत लिया कि पुत्रा हुआए तो उसे देश और जाति के हित के लिए समर्पित कर दूँगी। मैं उन दिनों तपस्विनी की भाँति जमीन पर सोतीए केवल एक बार रूखा भोजन करतीए अपने बरतन तक अपने हाथ से धोती थी। एक वे देवियाँ थींए जो जाति की मर्यादा रखने के लिए प्राण तक दे देती थींय एक मैं अभागिनी हूँ कि लोक—परलोक की सब चिंताएँ छोड़कर केवल विषय—वासनाओं में लिप्त हूँ। मुझे जाति की इस अधोगति को देखकर अपनी विलासिता पर लज्जा आती थी। ईश्वर ने मेरी सुन ली। तीसरे साल विनय का जन्म हुआ। मैंने बाल्यावस्था ही से उसे कठिनाइयों का अभ्यास कराना शुरू किया। न कभी गद्दों पर सुलातीए न कभी महरियों और दाइयों की गोद में जाने देतीए न कभी मेवे खाने देती। दस वर्ष की अवस्था तक केवल धार्मिक कथाओं द्वारा उसकी शिक्षा हुई। इसके बाद मैंने डॉक्टर गांगुली के साथ छोड़ दिया। मुझे उन्हीं पर पूरा विश्वास थाय और मुझे इसका गर्व है कि विनय की शिक्षा—दीक्षा का भार जिस पुरुष पर रखाए वह इसके सर्वथा योग्य था। विनय पृथ्वी के अधिकांश प्रांतों का पर्यटन कर चुका है। संस्कृत और भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त योरप की प्रधान भाषाओं का भी उसे अच्छा ज्ञान है। संगीत का उसे इतना अभ्यास है कि अच्छे—अच्छे कलावंत उसके सामने मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकते। नित्य कम्बल बिछाकर जमीन पर सोता है और कम्बल ही ओढ़़ता है। पैदल चलने में कई बार इनाम पा चुका है। जलपान के लिए मुट्ठी—भर चनेए भोजन के लिए रोटी और सागए बस इसके सिवा संसार के और सभी भोज्य पदार्थ उसके लिए वर्जित—से हैं। बेटीए मैं तुझसे कहाँ तक कहूँए पूरा त्यागी है। उसके त्याग का सबसे उत्ताम फल यह हुआ कि उसके पिता को भी त्यागी बनना पड़ा। जवान बेटे के सामने बूढ़़ा बाप कैसे विलास का दास बना रह सकता! मैं समझती हूँ कि विषय—भोग से उनका मन तृप्त हो गयाए और बहुत अच्छा हुआ। त्यागी पुत्रा का भोगी पिताए अत्यंत हास्यास्पद —श्य होता। वह मुक्त हृदय से विनय के सत्कायोर्ं में भाग लेते हैं और कह सकती हूँ कि उनके अनुराग के बगैर विनय को कभी इतनी सफलता न प्राप्त होती। समिति में इस समय एक सौ नवयुवक हैंए जिनमें कितने ही सम्पन्न घरों के हैं। कुँवर साहब की इच्छा है कि समिति के सदस्यों की पूर्ण संख्या पाँच सौ तक बढ़़ा दी जाए। डॉक्टर गांगुली इस वृध्दावस्था में भी अदम्य उत्साह से समिति का संचालन करते हैं। वही इसके अधयक्ष हैं। जब व्यवस्थापक सभा के काम से अवकाश मिलता हैए तो नित्य दो—ढ़ाई घंटे युवकों को शरीर—विज्ञान—सम्बंधी व्याख्यान देते हैं। पाठयक्रम तीन वषोर्ं में समाप्त हो जाता हैय तब सेवा—कार्य आरम्भ होता है। अब की बीस युवक उत्ताीर्ण होंगेए और यह निश्चय किया गया है कि वे दो साल भारत का भ्रमण करेंय पर शर्त यह है कि उनके साथ एक लुटीयाए डोरए धोती और कम्बल के सिवा और सफर का सामान न हो। यहाँ तक कि खर्च के लिए रुपये भी न रखे जाएँ। इससे कई लाभ होंगे—युवकों को कठिनाइयों का अभ्यास होगाए देश की यथार्थ दशा का ज्ञान होगाए द्रष्टि—क्षेत्र विस्तीर्ण हो जाएगाए और सबसे बड़ी बात यह है कि चरित्र बलवान्‌ होगाए धैर्यए साहसए उद्योगए संकल्प आदि गुणों की वृध्दि होगी। विनय इन लोगों के साथ जा रहा हैए और मैं गर्व से फूली नहीं समाती कि मेरा पुत्रा जाति—हित के लिए यह आयोजन कर रहा हैए और तुमसे सच कहती हूँए अगर कोई ऐसा अवसर आ पड़े कि जाति—रक्षा के लिए उसे प्राण भी देना पड़ेए तो मुझे जरा भी शोक न होगा। शोक तब होगाए जब मैं उसे ऐश्वर्य के सामने सिर झुकाते यार् कर्तव्य के क्षेत्र से हटते देखूँगी। ईश्वर न करेए मैं वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ। मैं नहीं कह सकती कि उस वक्त मेरे चित्ता की क्या दशा होगी। शायद मैं विनय के रक्त की प्यासी हो जाऊँय शायद इन निर्बल हाथों में इतनी शक्ति आ जाए कि मैं उसका गला घोंट दूँ।

यह कहते—कहते रानी के मुख पर एक विचित्र तेजस्विता की झलक दिखाई देने लगीए अश्रुपूर्ण नेत्रों में आत्मगौरव की लालिमा प्रस्फुटीत होने लगी। सोफिया आश्चर्य से रानी का मुँह ताकने लगी। इस कोमल काया में इतना अनुरक्त और परिष्कृत हृदय छिपा हुआ हैए इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी।

एक क्षण में रानी ने फिर कहा—बेटीए मैं आवेश में तुमसे अपने दिल की कितनी ही बातें कह गईय पर क्या करूँए तुम्हारे मुख पर ऐसी मधुर सरलता हैए जो मेरे मन को आकर्षित करती है। इतने दिनों में मैंने तुम्हें खूब पहचान लिया। तुम सोफी नहींए स्त्री के रूप में विनय हो। कुँवर साहब तो तुम्हारे ऊपर मोहित हो गए हैं। घर में आते हैंए तो तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। यदि धार्मिक बाधा न होतीए तो (मुस्कराकर) उन्होंने मिस्टर सेवक के पास विनय के विवाह का संदेशा कभी का भेज दिया होता!

सोफी का चेहरा शर्म से लाल हो गयाए लम्बी—लम्बी पलकें नीचे को झुक गईं और अधारों पर एक अति सूक्ष्मए शांतए मृदुल मुस्कान की छटा दिखाई दी। उसने दोनों हाथों से मुँह छिपा लिया और बोली—आप मुझे गालियाँ दे रही हैंए मैं भाग जाऊँगी।

रानी—अच्छाए शर्माओ मत। लोए यह चर्चा ही न करूँगी। मेरा तुमसे यही अनुरोध है कि अब तुम्हें यहाँ किसी बात का संकोच न करना चाहिए। इंदु तुम्हारी सहेली थीए तुम्हारे स्वभाव से परिचित थीए तुम्हारी आवश्यकताओं को समझती थी। मुझमें इतनी बुध्दि नहीं। तुम इस घर को अपना घर समझोए जिस चीज की जरूरत होए निस्संकोच भाव से कह दो। अपनी इच्छा के अनुसार भोजन बनवा लो। जब सैर करने को जी चाहेए गाड़ी तैयार करा लो। किसी नौकर को कहीं भेजना चाहोए भेज दोय मुझसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मुझसे कुछ कहना होए तुरंत चली आओय पहले से सूचना देने का काम नहीं। यह कमरा अगर पसंद न होए तो मेरे बगलवाले कमरे में चलोए जिसमें इंदु रहती थी। वहाँ जब मेरा जी चाहेगाए तुमसे बातें कर लिया करूँगी। जब अवकाश होए मुझे इधार—उधार के समाचार सुना देना। बसए यह समझो कि तुम मेरी प्राइवेट सेक्रेटरी हो।

यह कहकर जाह्नवी चली गई। सोफी का हृदय हलका हो गया। उसे बड़ी चिंता हो रही थी कि इंदु के चले जाने पर यहाँ मैं कैसे रहूँगीए कौन मेरी बात पूछेगाए बिन—बुलाए मेहमान की भाँति पड़ी रहूँगी। यह चिंता शांत हो गई।

उस दिन से उसका और भी आदर—सत्कार होने लगा। लौंडियाँ उसका मुँह जोहती रहतींए बार—बार आकर पूछ जाती—मिस साहबए कोई काम तो नहीं हैघ् कोचवान दोनों जून पूछ जाता—हुक्म हो तो गाड़ी तैयार करूँ। रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठतीं। सोफी को अब मालूम हुआ कि उनका हृदय स्त्री —जाति के प्रति सदिच्छाओं से कितना परिपूर्ण था। उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी। वह उनके जड़वाद कोए उनके मिथ्यावाद कोए उनके स्वार्थवाद को भारत की अधोगति का मुख्य कारण समझती थीं। इन विषयों पर सोफी से घंटों बातें किया करतीं।

इस कृपा और स्नेह ने धीरे—धीरे सोफी के दिल से विरानेपन के भावों को मिटाना शुरू किया। उसके आचार—विचार में परिवर्तन होने लगा। लौंडियों से कुछ कहते हुए अब झेंप न होतीए भवन के किसी भाग में जाते हुए अब संकोच न होताय किंतु चिंताएँ ज्यों—ज्यों घटती थींए विलास—प्रियता बढ़़ती थी। उसके अवकाश की मात्रा में वृध्दि होने लगी। विनोद से रुचि होने लगी। कभी—कभी प्राचीन कवियों के चित्रों को देखतीए कभी बाग की सैर करने चली जातीए कभी प्यानो पर जा बैठतीय यहाँ तक कि कभी—कभी जाह्नवी के साथ शतरंज भी खेलने लगी। वस्त्राभूषण से अब वह उदासीनता न रही। गाउन के बदले रेशमी साड़ियाँ पहनने लगी। रानीजी के आग्रह में कभी—कभी पान भी खा लेती। कंघी—चोटी से प्रेम हुआ। चिंता त्यागमूलक होती है। निश्चिंतता का आमोद—विनोद से मेल है।

एक दिनए तीसरे पहरए वह अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़़ रही थी। गरमी इतनी सख्त थी कि बिजली के पंखे और खस की टट्टियों के होते हुए भी शरीर से पसीना निकल रहा था। बाहर लू से देह झुलसी जाती थी। सहसा प्रभु सेवक आकर बोले—सोफीए जरा चलकर एक झगड़े का निर्णय कर दो। मैंने एक कविता लिखी हैए विनयसिंह को उसके विषय में कई शंकाएँ हैं। मैं कुछ कहता हूँए वह कुछ कहते हैंय फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ा गया है। जरा चलो।

सोफी—मैं काव्य सम्बंधी विवाद का क्या निर्णय करूँगीए पिंगल का अक्षर तक नहीं जानतीए अलंकारों का लेश—मात्रा भी ज्ञान नहींय मुझे व्यर्थ ले जाते हो।

प्रभु सेवक—उस झगड़े का निर्णय करने के लिए पिंगल जानने की जरूरत नहीं। मेरे और उनके आदर्श में विरोध है। चलो तो।

सोफी अॉंगन से निकलीए तो ज्वाला—सी देह में लगी। जल्दी—जल्दी पग उठाते हुए विनय के कमरे में आईए जो राजभवन के दूसरे भाग में था। आज तक वह यहाँ कभी न आई थी। कमरे में कोई सामान न था। केवल एक कम्बल बिछा हुआ था और जमीन पर ही दस—पाँच पुस्तकें रखी हुई थीं। न पंखाए न खस की टट्टीए न परदेए न तसवीरें। पछुआ सीधो कमरे में आती थी। कमरे की दीवारें जलते तवे की भाँति तप रही थीं। वहीं विनय कम्बल पर सिर झुकाए बैठे हुए थे। सोफी को देखते ही वह उठ खड़े हुए और उसके लिए कुर्सी लाने दौड़े।

सोफी—कहाँ जा रहे हैंघ्

प्रभु सेवक—(मुस्कराकर) तुम्हारे लिए कुर्सी लाने।

सोफी—वह कुर्सी लगाएँगे और मैं बैठूँगी! कितनी भद्दी बात है!

प्रभु सेवक—मैं रोकता भीए तो वह न मानते।

सोफी—इस कमरे में इनसे कैसे रहा जाता हैघ्

प्रभु सेवक—पूरे योगी हैं। मैं तो प्रेम—वश चला आता हूँ।

इतने में विनय ने एक गद्देदार कुर्सी लाकर सोफी के लिए रख दी। सोफी संकोच और लज्जा से गड़ी जा रही थी। विनय की ऐसी दशा हो रही थीए मानो पानी में भीग रहे हैं। सोफी मन में कहती थी—कैसा आदर्श जीवन है! विनय मन में कहते थे—कितना अनुपम सौंदर्य है! दोनों अपनी—अपनी जगह खड़े रहे! आखिर विनय को एक उक्ति सूझी। प्रभु सेवक की ओर देखकर बोले—हम और तुम वादी हैंए खड़े रह सकते हैंए पर न्यायाधाीश का तो उच्च स्थान पर बैठना ही उचित है।

सोफी ने प्रभु सेवक की ओर ताकते हुए उत्तर दिया—खेल में बालक अपने को भूल नहीं जाता।

अंत में तीनों प्राणी कम्बल पर बैठे। प्रभु सेवक ने अपनी कविता पढ़़ सुनाई। कविता माधुर्य में डूबी हुईए उच्च और पवित्र भावों से परिपूर्ण थी। कवि ने प्रसादगुण कूट—कूटकर भर दिया था। विषय था—एक माता का अपनी पुत्री को आशीर्वाद। पुत्री ससुराल जा रही हैय माता उसे गले लगाकर आशीर्वाद देती है—पुत्रीए तू पति—परायण होए तेरी गोद फलेए उसमें फूल के—से कोमल बच्चे खेलेंए उनकी मधुर हास्य—धवनि से तेरा घर और अॉंगन गूँजे। तुझ पर लक्ष्मी की कृपा हो। तू पत्थर भी छूएए तो कंचन हो जाए। तेरा पति तुझ पर उसी भाँति अपने प्रेम की छाया रखेए जैसे छप्पर दीवार को अपनी छाया में रखता है।

कवि ने इन्हीं भावों के अंतर्गत दाम्पत्य जीवन का ऐसा सुललित चित्र खींचा था कि उसमें प्रकाशए पुष्प और प्रेम का आधिक्य थाय कहीं अंधोरी घाटीयाँ न थींए जिनमें हम गिर पड़ते हैंय कहीं वे काँटे न थेए जो हमारे पैरों में चुभते हैंय कहीं वह विकार न थाए जो हमें मार्ग से विचलित कर देता है। कविता समाप्त करके प्रभु सेवक ने विनयसिंह से कहा—अब आपको इसके विषय में जो कुछ कहना होए कहिए।

विनयसिंह ने सकुचाते हुए उत्तर दिया—मुझे जो कुछ कहना थाए कह चुका।

प्रभु सेवक—फिर से कहिए।

विनयसिंह—बार—बार वही बातें क्या कहूँ।

प्रभु सेवक—मैं आपके कथन का भावार्थ कर दूँघ्

विनयसिंह—मेरे मन में एक बात आईए कह दीय आप व्यर्थ उसे इतना बढ़़ा रहे हैं।

प्रभु सेवक—आखिर आप उन भावों को सोफी के सामने प्रकट करते क्यों शर्माते हैंघ्

विनयसिंह—शर्माता नहीं हूँए लेकिन आपसे मेरा कोई विवाद नहीं है। आपको मानव—जीवन का यह आदर्श सर्वोत्ताम प्रतीत होता हैए मुझे वह अपनी वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल जान पड़ता है। इसमें झगड़े की कोई बात नहीं है।

प्रभु सेवक—(हँसकर) हाँए यही तो मैं आपसे कहलाना चाहता हूँ कि आप उसे वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल क्यों समझते हैंघ् क्या आपके विचार में दाम्पत्य जीवन सर्वथा निंद्य हैघ् औरए क्या संसार के समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिएघ्

विनयसिंह—यह मेरा आशय कदापि नहीं कि संसार के समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिएय मेरा आशय केवल यह था कि दाम्पत्य जीवन स्वार्थपरता का पोषक है। इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहींए और इस अधोगति की दशा मेंए जबकि स्वार्थ हमारी नसों में कूट—कूटकर भरा हुआ हैए जब कि हम बिना स्वार्थ के कोई काम या कोई बात नहीं करतेए यहाँ तक कि माता—पुत्रा—सम्बंध में—गुरु—शिष्य—सम्बंध में—पत्नी—पुरुष—सम्बंध में स्वार्थ का प्राधान्य हो गया हैए किसी उच्चकोटी के कवि के लिए दाम्पत्य जीवन की सराहना करना—उसकी तारीफों के पुल बाँधना—शोभा नहीं देता। हम दाम्पत्य सुख के दास हो रहे हैं। हमने इसी को अपने जीवन का लक्ष्य समझ रखा है। इस समय हमें ऐसे व्रतधारियों कीए त्यागियों कीए परमार्थ—सेवियों की आवश्यकता हैए जो जाति के उध्दार के लिए अपने प्राण तक दे दें। हमारे कविजनों को इन्हीं उच्च और पवित्र भावों को उत्तोजित करना चाहिए। हमारे देश में जनसंख्या जरूरत से ज्यादा हो गई है। हमारी जननी संतान—वृध्दि के भार को अब नहीं सँभाल सकती। विद्यालयों मेंए सड़कों परए गलियों में इतने बालक दिखाई देते हैं कि समझ में नहीं आताए ये क्या करेंगे। हमारे देश में इतनी उपज भी नहीं होती कि सबके के लिए एक बार इच्छापूर्ण भोजन भी प्राप्त हो। भोजन का अभाव ही हमारे नैतिक और आर्थिक पतन का मुख्य कारण है। आपकी कविता सर्वथा असामयिक है। मेरे विचार में इससे समाज का उपकार नहीं हो सकता। इस समय हमारे कवियों कार् कर्तव्य है त्याग का महत्व दिखानाए ब्रह्मचर्य में अनुराग उत्पन्न करनाए आत्मनिग्रह का उपदेश करना। दाम्पत्य तो दासत्व का मूल है और यह समय उसके गुण—गान के लिए अनुकूल नहीं है।

प्रभु सेवक—आपको जो कुछ कहना थाए कह चुकेघ्

विनयसिंह—अभी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय इतना ही काफी है।

प्रभु सेवक—मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि बलिदान और त्याग के आदर्श की मैं निंदा नहीं करता। वह मनुष्य के लिए सबसे ऊँचा स्थान हैय और वह धान्य हैए जो उसे प्राप्त कर ले। किंतु जिस प्रकार कुछ व्रतधारियों के निर्जल और निराहार रहने से अन्न और जल की उपयोगिता में बाधा नहीं पड़तीए उसी प्रकार दो—चार योगियों के त्याग से दाम्पत्य जीवन त्याज्य नहीं हो जाता। दाम्पत्य मनुष्य के सामाजिक जीवन का मूल है। उसका त्याग कर दीजिएए बस हमारे सामाजिक संगठन का शीराजा बिखर जाएगाए और हमारी दशा पशुओं के समान हो जाएगी। गार्हस्थ्य को ऋषियों ने सर्वोच्च धर्म कहा हैय और अगर शांत हृदय से विचार कीजिए तो विदित हो जाएगा कि ऋषियों का यह कथन अत्युक्ति—मात्रा नहीं है। दयाए सहानुभूतिए सहिष्णुताए उपकारए त्याग आदि देवोचित गुणों के विकास के जैसे सुयोग गार्हस्थ्य जीवन में प्राप्त होते हैंए और किसी अवस्था में नहीं मिल सकते। मुझे तो यहाँ तक कहने में संकोच नहीं है कि मनुष्य के लिए यही एक ऐसी व्यवस्था हैए जो स्वाभाविक कही जा सकती है। जिन कृत्यों ने मानव—जाति का मुख उज्ज्वल कर दिया हैए उनका श्रेय योगियों को नहींए दाम्पत्य—सुख—भोगियों को है। हरिश्चंद्र योगी नहीं थेए रामचंद्र योगी नहीं थेए कृष्ण त्यागी नहीं थेए नेपोलियन त्यागी नहीं थाए नेलसन योगी नहीं था। धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में त्यागियों ने अवश्य कीर्ति—लाभ की हैय लेकिन कर्मक्षेत्र में यश का सेहरा भोगियों के ही सिर बँधा है। इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता कि किसी जाति का उध्दार त्यागियों द्वारा हुआ हो। आज भी हिंदुस्तान में 10 लाख से अधिक त्यागी बसते हैंय पर कौन कह सकता है कि उनसे समाज का कुछ उपकार हो रहा है। सम्भव हैए अप्रत्यक्ष रूप से होता होय पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता। फिर यह आशा क्योंकर की जा सकती है कि दाम्पत्य जीवन की अवहेलना से जाति का विशेष उपकार होगाघ् हाँए अगर अविचार को उपकार कहेंए तो अवश्य उपकार होगा।

यह कथन समाप्त करके प्रभु सेवक ने सोफिया से कहा—तुमने दोनों वादियों के कथन सुन लिएए तुम इस समय न्यास के आसन पर होए सत्यासत्य का निर्णय करो।

सोफी—इसका निर्णय तुम आप ही कर सकते हो। तुम्हारी समझ में संगीत बहुत अच्छी चीज हैघ्

प्रभु सेवक—अवश्य।

सोफी—लेकिनए अगर किसी के घर में आग लगी हुई होए तो उसके निवासियों को गाते—बजाते देखकर तुम उन्हें क्या कहोगेघ्

प्रभु सेवक—मूर्ख कहूँगाए और क्या।

सोफी—क्योंए गाना तो कोई बुरी चीज नहींघ्

प्रभु सेवक—तो यह साफ—साफ क्यों नहीं कहतीं कि तुमने इन्हें डिग्री दे दीघ् मैं पहले ही समझ रहा था कि तुम इन्हीं की तरफ झुकोगी।

सोफी—अगर यह भय थाए तो तुमने मुझे निर्णायक क्यों बनाया थाघ् तुम्हारी कविता उच्च कोटी की है। मैं इसे सवार्ंग—सुंदर कहने को तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारार् कर्तव्य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश—बंधुओं के हित में लगाओ। अवनति की दशा में शृंगार और प्रेम का राग अलापने की जरूरत नहीं होतीए इसे तुम भी स्वीकार करोगे। सामान्य कवियों के लिए कोई बंधान नहीं है—उन पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है। लेकिन तुम्हें ईश्वर ने जितनी ही महत्व पूर्ण शक्ति प्रदान की हैए उतना ही उत्तरदायित्व भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा है।

जब सोफिया चली गईए तो विनय ने प्रभु सेवक से कहा—मैं इस निर्णय को पहले ही से जानता था। तुम लज्जित तो न हुए होगेघ्

प्रभु सेवक—उसने तुम्हारी मुरौवत की है।

विनयसिंह—भाईए तुम बड़े अन्यायी हो। इतने युक्तिपूर्ण निर्णय पर भी उनके सिर इलजाम लगा ही दिया। मैं तो उनकी विचारशीलता का पहले ही से कायल थाए आज से भक्त हो गया। इस निर्णय ने मेरे भाग्य का निर्णय कर दिया। प्रभुए मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी आसानी से लालसा का दास हो जाऊँगा। मैं मार्ग से विचलित हो गयाए मेरा संयम कपटी मित्र की भाँति परीक्षा के पहले ही अवसर पर मेरा साथ छोड़ गया। मैं भली भाँति जानता हूँ कि मैं आकाश के तारे तोड़ने जा रहा हूँ—वह फल खाने जा रहा हूँए जो मेरे लिए वर्जित है। खूब जानता हूँए प्रभुए कि मैं अपने जीवन को नैराश्य की वेदी पर बलिदान कर रहा हूँ। अपनी पूज्य माता के हृदय पर कुठाराघात कर रहा हूँए अपनी मर्यादा की नौका को कलंक के सागर में डुबा रहा हूँए अपनी महत्तवाकांक्षाओं को विसर्जित कर रहा हूँय पर मेरा अंतरूकरण इसके लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। सोफिया मेरी किसी तरह नहीं हो सकतीय पर मैं उसका हो गयाए और आजीवन उसी का रहूँगा।

प्रभु सेवक—विनयए अगर सोफी को यह बात मालूम हो गईए तो वह यहाँ एक क्षण भी न रहेगीय कहीं वह आत्महत्या न कर ले। ईश्वर के लिए यह अनर्थ न करो।

विनयसिंह—नहीं प्रभुए मैं बहुत जल्द यहाँ से चला जाऊँगाए ओर फिर कभी न आऊँगा। मेरा हृदय जलकर भस्म हो जाएय पर सोफी को अॉंच भी न लगने पावेगी। मैं दूर देश में बैठा हुआ इस विद्याए विवेक और पवित्रता की देवी की उपासना किया करूँगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँए मेरे र्प्रेम में वासना का लेश भी नहीं है। मेरे जीवन को सार्थक बनाने के लिए यह अनुराग ही काफी है। यह मत समझो कि मैं सेवा—धर्म का त्याग कर रहा हूँ। नहींए ऐसा न होगाए मैं अब भी सेवा—मार्ग का अनुगामी रहूँगाय अंतर केवल इतना होगा कि निराकार की जगह साकार कीए अ—श्य की जगह —श्यमान की भक्ति करूँगा।

सहसा जाह्नवी ने आकर कहा—विनयए जरा इंदु के पास चले जाओए कई दिन से उसका समाचार नहीं मिला। मुझे शंका हो रही हैए कहीं बीमार तो नहीं हो गई। खत भेजने में विलम्ब तो कभी न करती थी!

विनय तैयार हो गए। कुरता पहनाए हाथ में सोटा लिया और चल दिए। प्रभु सेवक सोफी के पास आकर बैठ गए और सोचने लगे—विनयसिंह की बातें इससे कहूँ या न कहूँ। सोफी ने उन्हें चिंतित देखकर पूछा—कुँवर साहब कुछ कहते थेघ्

प्रभु सेवक—उस विषय में तो कुछ नहीं कहते थेय पर तुम्हारे विषय में ऐसे भाव प्रकट किएए जिनकी सम्भावना मेरी कल्पना में भी न आ सकती थी।

सोफी ने क्षण—भर जमीन की ओर ताकने के बाद कहा—मैं समझती हूँए पहले ही समझ जाना चाहिए थाय पर मैं इससे चिंतित नहीं हूँ। यह भावना मेरे हृदय में उसी दिन अंकुरित हुईए जब यहाँ आने के चौथे दिन बाद मैंने अॉंखें खोलींए और उस अर्ध्‌दचेतना की दशा में एक देव—मूर्ति को सामने खड़े अपनी ओर वात्सल्य—द्रष्टि से देखते हुए पाया। वह द्रष्टि और वह मूर्ति आज तक मेरे हृदय पर अंकित है और सदैव अंकित रहेगी।

प्रभु सेवक—सोफीए तुम्हें यह कहते हुए लज्जा नहीं आतीघ्

सोफिया—नहींए लज्जा नहीं आती। लज्जा की बात ही नहीं है। वह मुझे अपने प्रेम के योग्य समझते हैंए यह मेरे लिए गौरव की बात है। ऐसे साधु—प्रकृतिए ऐसे त्यागमूर्तिए ऐसे सदुत्साही पुरुष की प्रेम—पात्राी बनने में कोई लज्जा नहीं। अगर प्रेम—प्रसाद पाकर किसी युवती को गर्व होना चाहिएए तो वह युवती मैं हूँ। यही वरदान थाए जिसके लिए मैं इतने दिनों तक शांत भाव से धैर्य धारण किए हुए मन में तप कर रही थी। वह वरदान आज मुझे मिल गया हैए तो यह मेरे लिए लज्जा की बात नहींए आनंद की बात है।

प्रभु सेवक—धर्म—विरोध के होते हुए भीघ्

सोफिया—यह विचार उन लोगों के लिए हैए जिनके प्रेम वासनाओें से युक्त होते हैं। प्रेम और वासना में उतना ही अंतर हैए जितना कंचन और काँच में। प्रेम की सीमा भक्ति से मिलती हैए और उनमें केवल मात्रा का भेद है। भक्ति में सम्मान और प्रेम में सेवाभाव का आधिक्य होता है। प्रेम के लिए धर्म की विभिन्नता कोई बंधान नहीं है। ऐसी बाधाएँ उस मनोभाव के लिए हैंए जिसका अंत विवाह हैए उस प्रेम के लिए नहींए जिसका अंत बलिदान है।

प्रभु सेवक—मैंने तुम्हें जता दियाए यहाँ से चलने के लिए तैयार रहो।

सोफिया—मगर घर पर किसी से इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं।

प्रभु सेवक—इससे निश्चिंत रहो।

सोफिया—कुछ निश्चय हुआए यहाँ से उनके जाने का कब इरादा हैघ्

प्रभु सेवक—तैयारियाँ हो रही हैं। रानीजी को यह बात मालूम हुईए तो विनय के लिए कुशल नहीं। मुझे आश्चर्य न होगाए अगर मामा से इसकी शिकायत करें।

सोफिया ने गर्व से सिर उठाकर कहा—प्रभुए कैसी बच्चो की—सी बातें करते होघ् प्रेम अभय का मंत्र है। प्रेम का उपासक संसार की समस्त चिंताओं और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।

प्रभु सेवक चले गएए तो सोफिया ने किताब बंद कर दी और बाग में आकर हरी घास पर लेट गई। उसे आज लहराते हुए फूलों मेंए मंद—मंद चलनेवाली वायु मेंए वृक्षों पर चहकनेवाली चिड़ियों के कलरव मेंए आकाश पर छाई लालिमा में एक विचित्र शोभाए एक अकथनीय सुषमाए एक अलौकिक छटा का अनुभव हो रहा था। वह प्रेम—रत्न पा गई थी।

उस दिन के बाद एक सप्ताह हो गयाए पर विनयसिंह ने राजपूताने को प्रस्थान न किया। वह किसी—न—किसी हीले से दिन टालते जाते थे। कोई तैयारी न करनी थीए फिर भी तैयारियाँ पूरी न होती थीं। अब विनय और सोफियाए दोनों ही को विदित होने लगा कि प्रेम कोए जब वह स्त्री और पुरुष में होए वासना से निर्लिप्त रखना उतना आसान नहींए जितना उन्होंने समझा था। सोफी एक किताब बगल में दबाकर प्रातरूकाल बाग में जा बैठती। शाम को भी कहीं और सैर करने न जाकर वहीं आ जाती। विनय भी उससे कुछ दूर पर लिखते—पढ़़तेए कुत्तो से खेलते या किसी मित्र से बातें करते अवश्य दिखाई देते। दोनों एक दूसरे की ओर दबी अॉंखों से देख लेते थेय पर संकोचवश कोई बातचीत करने में अग्रसर न होता था। दोनों ही लज्जाशील थेय पर दोनों इस मौन भाषा का आशय समझते थे। पहले इस भाषा का ज्ञान न था। दोनों के मन में एक ही उत्कंठाए एक ही विकलताए एक ही तड़पए एक ही ज्वाला थी। मौन भाषा से उन्हें तस्कीन न होतीय पर किसी को वार्तालाप करने का साहस न होता। दोनों अपने—अपने मन में प्रेम—वार्ता कीर् नई—नई उक्तियाँ सोचकर आते और यहाँ आकर भूल जाते। दोनों ही व्रतधारीए दोनों ही आदर्शवादी थेय किंतु एक का धर्मग्रंथों की ओर ताकने को जी न चाहता थाए दूसरा समिति को अपने निर्धारित विषय पर व्याख्यान देने का अवसर भी न पाता था। दोनों ही के लिए प्रेम—रत्न प्रेम—मद सिध्द हो रहा था।

एक दिनए रात कोए भोजन करने के बाद सोफिया रानी जाह्नवी के पास बैठी हुई कोई समाचार—पत्र पढ़़कर सुना रही थी कि विनयसिंह आकर बैठ गए। सोफी की विचित्र दशा हो गईए पढ़़ते—पढ़़ते भूल जाती कि कहाँ तक पढ़़ चुकी हूँए और पढ़़ी हुई पंक्तियों को फिर पढ़़ने लगतीए वह भी अटक—अटककरए शब्दों पर अॉंखें न जमतीं। वह भूल जाना चाहती थी कि कमरे में रानी के अतिरिक्त कोई और बैठा हुआ हैए पर बिना विनय की ओर देखे ही उसे दिव्य ज्ञान—सा हो जाता था कि अब वह मेरी ओर ताक रहे हैंए और तत्क्षण उसका मन अस्थिर हो जाता। जाह्नवी ने कई बार टोका—सोती तो नहीं होघ् क्या बात हैए रुक क्यों जाती होघ् आज तुझे क्या हो गया है बेटीघ् सहसा उनकी द्रष्टि विनयसिंह की ओर फिरी—उसी समय जब वह प्रेमातुर नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे थे। जाह्नवी का विकसितए शांत मुख—मंडल तमतमा उठाए मानो बाग में आग लग गई। अग्निमय नेत्रों से विनय की ओर देखकर बोलीं—तुम कब जा रहे होघ्

विनयसिंह—बहुत जल्द।

जाह्नवी—मैं बहुत जल्द का आशय यह समझती हूँ कि तुम कल प्रातरूकाल ही प्रस्थान करोगे।

विनयसिंह—अभी साथ जानेवाले कई सेवक बाहर गए हुए हैं।

जाह्नवी—कोई चिंता नहीं। वे पीछे चले जाएँगेए तुम्हें कल प्रस्थान करना होगा।

विनयसिंह—जैसी आज्ञा।

जाह्नवी—अभी जाकर सब आदमियों को सूचना दे दो। मैं चाहती हूँ कि तुम स्टेशन पर सूर्य के दर्शन करो।

विनय—इंदु से मिलने जाना है।

जाह्नवी—कोई जरूरत नहीं। मिलने—भेंटने की प्रथा स्त्रियों के लिए हैए पुरुषों के लिए नहींए जाओ।

विनय को फिर कुछ कहने की हिम्मत न हुईए आहिस्ता से उठे और चले गए।

सोफी ने साहस करके कहा—आजकल तो राजपूताने में आग बरसती होगी!

जाह्नवी ने निश्चयात्मक भाव से कहा—

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कर्तव्य कभी आग और पानी की परवा नहीं करता। जाओए तुम भी सो रहोए सवेरे उठना है।

सोफी सारी रात बैठी रही। विनय से एक बार मिलने के लिए उसका हृदय तड़फड़ा रहा था—आह! वह कल चले जाएँगेए और मैं उनसे विदा भी न हो सकूँगी। वह बार—बार खिड़की से झाँकती कि कहीं विनय की आहट मिल जाए। छत पर चढ़़कर देखाय अंधकार छाया हुआ थाए तारागण उसकी आतुरता पर हँस रहे थे। उसके जी में कई बार प्रबल आवेग हुआ कि छत पर से नीचे बाग में कूद पड़ूँए उनके कमरे में जाऊँ और कहूँ—मैं तुम्हारी हूँ! आह! अगर सम्प्रदाय ने हमारे और उनके बीच में बाधा न खड़ी कर दी होतीए तो वह इतने चिंतित क्यों होतेए मुझको इतना संकोच क्यों होताए रानी मेरी अवहेलना क्यों करतींघ् अगर मैं राजपूतानी होती तो रानी सहर्ष मुझे स्वीकार करतींए पर मैं ईसा की अनुचरी होने के कारण त्याज्य हूँ। ईसा और कृष्ण में कितनी समानता हैय पर उनके अनुचरों में कितनी विभिन्नता! कौन कह सकता है कि साम्प्रदायिक भेदों ने हमारी आत्माओं पर कितना अत्याचार किया है!

ज्यों—ज्यों रात बीतती थीए सोफी का दिल नैराश्य से बैठा जाता था—हायए मैं यों ही बैठी रहूँगी और सबेरा हो जाएगाए विनयए चले जाएँगे। कोई भी तो नहींए जिसके हाथों एक पत्र लिखकर भेज दूँ। मेरे ही कारण तो उन्हें यह दंड मिल रहा है। माता का हृदय भी निर्दय होता है। मैं समझी थीए मैं ही अभागिनी हूँय पर अब मालूम हुआए ऐसी माताएँ और भी हैं!

तब वह छत पर से उतरी और अपने कमरे में जाकर लेट रही। नैराश्य ने निद्रा की शरण लीय पर चिंता की निद्रा क्षुधावस्था का विनोद है—शांति—विहीन और नीरस। जरा ही देर सोई थी कि चौंककर उठ बैठी। सूर्य का प्रकाश कमरे में फैल गया थाए और विनयसिंह अपने बीसों साथियों के साथ स्टेशन जाने को तैयार खड़े थे। बाग में हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई थी।

वह तुरंत बाग में आ पहुँची और भीड़ को हटाती हुई यात्रियों के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। राष्ट्रीय गान हो रहा थाए यात्राी नंगे सिरए नंगे पैरए एक—एक कुरता पहनेए हाथ में लकड़ी लिएए गरदनों में एक—एक थैली लटकाए चलने को तैयार थे। सब—के—सब प्रसन्न—वदनए उल्लास से भरे हुएए जातीयता के गर्व से उन्मत्ता थेए जिनको देखकर दर्शकों के मन गौरवान्वित हो रहे थे। एक क्षण में रानी जाह्नवी आईं और यात्रियों के मस्तक पर केशर के तिलक लगाए। तब कुँवर भरतसिंह ने आकर उनके गलों में हार पहनाए। इसके बाद डॉक्टर गांगुली ने चुने हुए शब्दों में उन्हें उपदेश दिया। उपदेश सुनकर यात्राी लोग प्रस्थित हुए। जयजयकार की धवनि सहख्—सहख् कठों से निकलकर वायुमंडल को प्रतिधवनित करने लगी। स्त्रियों और पुरुषों का एक समूह उनके पीछे—पीछे चला। सोफिया चित्रवत्‌ खड़ी यह —श्य देख रही थी। उसके हृदय में बार—बार उत्कंठा होती थीए मैं भी इन्हीं यात्रियों के साथ चली जाऊँ और अपने दुरूखित बंधुओं की सेवा करूँ। उसकी अॉंखें विनयसिंह की ओर लगी हुई थीं। एकाएक विनयसिंह की अॉंखें उसकी ओर फिरींय उनमें कितना नैराश्य थाए कितनी मर्म—वेदनाए कितनी विवशताए कितनी विनय! वह सब यात्रियों के पीछे चल रहे थेए बहुत धीरे—धीरेए मानो पैरों में बेड़ी पड़ी हो। सोफिया उपचेतना की अवस्था में यात्रियों के पीछे—पीछे चलीए और उसी दशा में सड़क पर आ पहुँचीय फिर चौराहा मिलाए इसके बाद किसी राजा का विशाल भवन मिलाय पर अभी तक सोफी को खबर न हुई कि मैं इनके साथ चली आ रही हूँ। उसे इस समय विनयसिंह के सिवा और कोई नजर ही न आता था। कोई प्रबल आकर्षण उसे खींचे लिए जाता था। यहाँ तक कि वह स्टेशन के समीप के चौराहे पर पहुँच गई। अचानक उसके कानों में प्रभु सेवक की आवाज आईए जो बड़े वेग से फिटन दौड़ाए चले आते थे।

प्रभु सेवक ने पूछा—सोफीए तुम कहाँ जा रही होघ् जूते तक नहींए केवल स्लीपर पहने हो!

सोफिया पर घड़ों पानी पड़ गया—आह! मैं इस वेश में कहाँ चली आई! मुझे सुधि ही न रही। लजाती हुई बोली—कहीं तो नहीं!

प्रभु सेवक—क्या इन लोगों के साथ स्टेशन तक जाओगीघ् आओए गाड़ी पर बैठ जाओ। मैं भी वहीं चलता हूँ। मुझे तो अभी—अभी मालूम हुआ कि ये लोग जा रहे हैंए जल्दी से गाड़ी तैयार करके आ पहुँचाए नहीं तो मुलाकात भी न होती।

सोफी—मैं इतनी दूर निकल आईए और जरा भी ख्याल न आया कि कहाँ जा रही हूँ।

प्रभु सेवक—आकर बैठ न जाओ। इतनी दूर आई होए तो स्टेशन तक और चली चलो।

सोफी—मैं स्टेशन न जाऊँगी। यहीं से लौट जाऊँगी।

प्रभु सेवक—मैं स्टेशन से लौटता हुआ आऊँगा। आज तुम्हें मेरे साथ घर चलना होगा।

सोफी—मैं वहाँ न जाऊँगी।

प्रभु सेवक—बड़े पापा नाराज होंगे। आज उन्होंने तुम्हें बहुत आग्रह करके बुलाया है।

सोफी—जब तक मामा मुझे खुद आकर न ले जाएँगीए उस घर में कदम न रखूँगी।

यह कहकर सोफी लौट पड़ीए और प्रभु सेवक स्टेशन की तरफ चल दिए।

स्टेशन पर पहुँचकर विनय ने चारों तरफ अॉंखें फाड़—फाड़कर देखाए सोफी न थी।

प्रभु सेवक ने उसके कान में कहा—धर्मशाले तक यों ही रात के कपड़े पहने चली आई थीए वहाँ से लौट गई। जाकर खत जरूर लिखिएगाए वरना वह राजपूताने जा पहुँचेगी।

विनय ने गद्‌गद कंठ से कहा—केवल देह लेकर जा रहा हूँए हृदय यहीं छोड़े जाता हूँ।

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अध्याय 10

बालकों पर प्रेम की भाँति द्वेष का असर भी अधिक होता है। जबसे मिठुआ और घीसू को मालूम हुआ था कि ताहिर अली हमारा मैदान जबरदस्ती ले रहे हैंए तब से दोनों उन्हें अपना दुश्मन समझते थे। चतारी के राजा साहब और सूरदास में जो बातें हुई थींए उनकी उन दोनों को खबर न थी। सूरदास को स्वयं शंका थी कि यद्यपि राजा साहब ने आश्वासन दियाए पर शीघ्र ही यह समस्या फिर उपस्थित होगी। जॉन सेवक साहब इतनी आसानी से गला छोड़नेवाले नहीं हैं। बजरंगीए नायकराम आदि भी इसी प्रकार की बातें करते रहते थे। मिठुआ और घीसू इन बातों को बड़े प्रेम से सुनतेए और उनकी द्वेषाग्नि और भी प्रचंड होती थी। घीसू जब भैंसे लेकर मैदान जाता तो जोर—जोर से पुकारता—देखेंए कौन हमारी जमीन लेता हैए उठाकर ऐसा पटकूँ कि वह भी याद करे। दोनों टाँगें तोड़ दूँगा। कुछ खेल समझ लिया है! वह जरा था भी कड़े दमए कुश्ती लड़ता था। बजरंगी खुद भी जवानी में अच्छा पहलवान था। घीसू को वह शहर के पहलवानों की नाक बना देना चाहता थाए जिससे पंजाबी पहलवानों को भी ताल ठोकने की हिम्मत न पड़ेए दूर—दूर जाकर दंगल मारेए लोग कहें—श्यह बजरंगी का बेटा है।श् अभी से घीसू को अखाड़े भेजता था। घीसू अपने घमंड में समझता था कि मुझे जो पेच मालूम हैंए उनसे जिसे चाहूँए गिरा दूँ। मिठुआ कुश्ती तो न लड़ता थाय पर कभी—कभी अखाड़े की तरफ जा बैठता था। उसे अपनी पहलवानी की डींग मारने के लिए इतना काफी थी। दोनों जब ताहिर अली को कहीं देखतेए तो सुना—सुनाकर कहते—दुश्मन जाता हैए उसका मुँह काला। मिठुआ कहता—जै शंकरए काँटा लगे न कंकरए दुश्मन को तंग कर। घीसू कहता—बम भोलाए बैरी के पेट में गोलाए उससे कुछ न जाए बोला।

ताहिर अली इन छोकरों की छिछोरी बातें सुनते और अनसुनी कर जाते। लड़कों के मुँह क्या लगें। सोचते—कहीं ये सब गालियाँ दे बैठेंए तो इनका क्या बना लूँगा। वे दोनों समझतेए डर के मारे नहीं बोलतेए और शेर हो जाते। घीसू मिठुआ पर उन पेचों का अभ्यास करताए जिनसे वह ताहिर अली को पटकेगा। पहले यह हाथ पकड़ाय फिर अपनी तरफ खींचाय तब वह हाथ गर्दन में डाल दिया और अडंगी लगाईए बस चित। मिठुआ फौरन गिर पड़ता थाए और उसे इस पेच के अद्‌भुत प्रभाव का विश्वास हो जाता था।

एक दिन दोनों ने सलाह की—चलकर मियाँजी के लड़कों की खबर लेनी चाहिए। मैदान में जाकर जाहिर और जाबिर को खेलने के लिए बुलायाए और खूब चपतें लगाईं। जाबिर छोटा थाए उसे मिठुआ ने दाबा। जाहिर और घीसू का जोड़ थाय लेकिन घीसू अखाड़ा देखे हुए थाए कुछ दाँव—पेच जानता ही थाए आन—की—आन में जाहिर को दबा बैठा। मिठुआ ने जाबिर के चुटकियाँ काटनी शुरू कीं। बेचारा रोने लगा। घीसू ने जाहिर को कई घिस्से दिएए वह भी चौंधिया गयाय जब देखा कि यह तो मार ही डालेगाए तो उसने फरियाद मचाई। इन दोनों का रोना सुनकर नन्हा—सा साबिर एक पतली—सी टहनी लिएए अकड़ता हुआ पीड़ितों की सहायता करने आयाए और घीसू को टहनी से मारने लगा। जब इस शस्त्रा—प्रहार का घीसू पर कुछ असर न हुआए तो उसने इससे ज्यादा चोट करनेवाला बाण निकाला—घीसू पर थूकने लगा। घीसू ने जाहिर को छोड़ दियाए और साबिर के दो—तीन तमाचे लगाए। जाहिर मौका पाकर फिर उठाए और अबकी ज्यादा सावधान होकर घीसू से चिमट गया। दोनों में मल्ल—युध्द होने लगा। आखिर घीसू ने सावधान उसे फिर पटका और मुश्कें चढ़़ा दीं। जाहिर को अब रोने के सिवा कोई उपाय न सूझाए जो निर्बलों का अंतिम आधार है। तीनों की आर्तधवनि माहिर अली के कान में पहुँची। वह इस समय स्कूल जाने को तैयार थे। तुरंत किताबें पटक दीं और मैदान की तरफ दौड़े। देखाए तो जाबिर और जाहिर नीचे पड़े हाय—हाय कर रहे हैं और साबिर अलग बिलबिला रहा है! कुलीनता का रक्त खौल उठाय मैं सैयद पुलिस के अफसर का बेटाए चुंगी के मुहर्रिर का भाईए अंगरेजी के आठवें दरजे का विद्यार्थी! यह मूर्खए उजड्ड अहीर का लौंडाए इसकी इतनी मजाल कि मेरे भाइयों को नीचा दिखाए! घीसू के एक ठोकर लगाई और मिठुआ के कई तमाचे। मिठुआ तो रोने लगाय किंतु घीसू चिमड़ा था। जाहिर को छोड़कर उठाए हौसले बढ़़े हुए थेए दो मोरचे जीत चुका थाए ताल ठोककर माहिर अली से भी लिपट गया। माहिर का सफेद पाजामा मैला हो गयाए आज ही जूते में रोगन लगाया थाए उस पर गर्द पड़ गईय सँवारे हुए बाल बिखर गएए क्रोधोंन्मत्ता होकर घीसू को इतनी जोर से धक्का दिया कि वह दो कदम पर जा गिरा। साबिरए जाहिरए जाबिरए सब हँसने लगे। लड़कों की चोट प्रतिकार के साथ ही गायब हो जाती है। घीसू इनको हँसते देखकर और भी झुँझलायाय फिर उठा और माहिर अली से लिपट गया। माहिर ने उसका टेंटुआ पकड़ा और जोर से दबाने लगे। घीसू समझाए अब मराए यह बिना मारे न छोड़ेगा। मरता क्या न करताए माहिर के हाथ में दाँत जमा दिएय तीन दाँत गड़ गएए खून बहने लगा। माहिर चिल्ला उठेए उसका गला छोड़कर अपना हाथ छुड़ाने का यत्न करने लगेय मगर घीसू किसी भाँति न छोड़ता था। खून बहते देखकर तीनों भाइयोें ने फिर रोना शुरू किया। जैनब और रकिया यह हंगामा सुनकर दरवाजे पर आ गईं। देखा तो समरभूमि रक्त से प्लावित हो रही हैए गालियाँ देती हुई ताहिर अली के पास आईं। जैनब ने तिरस्कार भाव से कहा—तुम यहाँ बैठे खालें नोच रहे होए कुछ दीन—दुनिया की भी खबर है! वहाँ वह अहीर का लौंडा हमारे लड़कों का खून—खच्चर किए डालता है। मुए को पकड़ पातीए तो खून ही चूस लेती।

रकिया—मुआ आदमी है कि देव—बच्चा है! माहिर के हाथ में इतनी जोर से दाँत काटा है कि खून के फौवारे निकल रहे हैं। कोई दूसरा मर्द होताए तो इसी बात पर मुए को जीता गाड़ देता।

जैनब—कोई अपना होताए तो इस वक्त मूड़ीकाटे को कच्चा ही चबा जाता।

ताहिर अली घबराकर मैदान की ओर दौड़े। माहिर के कपड़े खून से तर देखेए तो जामे से बाहर हो गए। घीसू के दोनों कान पकड़कर जोर से हिलाए और तमाचे—पर—तमाचे लगाने शुरू किए। मिठुआ ने देखाए अब पिटने की बारी आईय मैदान हमारे हाथ से गयाए गालियाँ देता हुआ भागा। इधार घीसू ने भी गालियाँ देनी शुरू कीं। शहर के लौंडे गाली की कला में सिध्दहस्त होते हैं। घीसू नई—नई अछूती गालियाँ दे रहा था और ताहिर अली गालियों का जवाब तमाचों से दे रहे थे। मिठुआ ने जाकर इस संग्राम की सूचना बजरंगी को दी—सब लोग मिलकर घीसू को मार रहे हैंए उसके मुँह से लहू निकल रहा है। वह भैंसें चरा रहा थाए बस तीनों लड़के आकर भैसों को भगाने लगे। घीसू ने मना कियाए तो सबों ने मिलकर माराए और बड़े मियाँ भी निकलकर मार रहे हैं। बजरंगी यह खबर सुनते ही आग हो गया। उसने ताहिर अली की माताओं को 50 रुपये दिए थे और उस जमीन को अपनी समझे बैठा था। लाठी उठाई और दौड़ा। देखाए तो ताहिर अली घीसू के हाथ—पाँव बँधावा रहे हैं। पागल हो गयाए बोला—बसए मुंशीजीए भला चाहते होए तो हट जाओय नहीं तो सारी सेखी भुला दूँगाए यहाँ जेहल का डर नहीं हैए साल—दो—साल वहीं काट आऊँगाए लेकिन तुम्हें किसी काम का न रखूँगा। जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है। इसीलिए तुम्हें 50 रुपये दिए हैं। क्या वे हराम के रुपये थेघ् बसए हट ही जाओए नहीं तो कच्चा चबा जाऊँगाय मेरा नाम बजरंगी है!

ताहिर अली ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि घीसू ने बाप को देखते ही जोर से छलाँग मारी और एक पत्थर उठाकर ताहिर अली की तरफ फेंका। वह सिर नीचा न कर लेंए तो माथा फट जाए। जब तक घीसू दूसरा पत्थर उठाएए उन्होंने लपककर उसका हाथ पकड़ा और इतनी जोर से ऐंठा कि वह श्अहा मरा! अहा मरा!श् कहता हुआ जमीन पर गिर पड़ा। अब बजरंगी आपे से बाहर हो गया। झपटकर ऐसी लाठी मारी कि ताहिर अली तिरमिराकर गिर पड़े। कई चमारए जो अब तक इसे लड़कों का झगड़ा समझकर चुपचाप बैठे थेए ताहिर अली को गिरते देखकर दौड़े और बजरंगी को पकड़ लिया। समर—क्षेत्र में सन्नाटा छा गया। हाँए जैनब और रकिया द्वार पर खड़ी शब्द—बाण चलाती जाती थीं—मूड़ीकाटे ने गजब कर दियाए इस पर खुदा का कहर गिरेए दूसरा दिन देखना नसीब न होए इसकी मैयत उठेए कोई दौड़कर साहब के पास जाकर क्यों इत्तिला नहीं करता! अरे—अरे चमारोए बैठे मुँह क्या ताकते होए जाकर साहब को खबर क्यों नहीं देतेय कहना—अभी चलिए। साथ लानाए कहना—पुलिस लेते चलिएए यहाँ जान देने नहीं आए हैं।

बजरंगी ने ताहिर अली को गिरते देखाए तो सँभल गयाए दूसरा हाथ न चलाया। घीसू का हाथ पकड़ा और घर चला गया। यहाँ घर में कुहराम मचा। दो चमार जॉन सेवक के बँगले की तरफ गए। ताहिर अली को लोगों ने उठाया और चारपाई पर लादकर कमरे में लाए। कंधो पर लाठी पड़ी थीए शायद हड़डी टूट गई थी। अभी तक बेहोश थे। चमारों ने तुरंत हल्दी पीसी और उसे गुड़—चूने में मिलाकर उनके कंधो में लगाया। एक आदमी लपककर पेड़े के पत्तो तोड़ लायाए दो आदमी बैठकर सेंकने लगे। जैनब और रकिया तो ताहिर अली की मरहम—पट्टी करने लगींए बेचारी कुल्सूम दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। पति की ओर उससे ताका भी न जाता था। गिरने से उनके सिर में चोट आ गई थी। लहू बहकर माथे पर जम गया था। बालों में लटें पड़ गई थींए मानो किसी चित्रकार के ब्रुश में रंग सूख गया हो। हृदय में शूल उठ रहा थाय पर पति के मुख की ओर ताकते ही उसे मूर्छा—सी आने लगती थीए दूर खड़ी थीय यह विचार भी मन में उठ रहा था कि ये सब आदमी अपने दिल में क्या कहते होंगे। इसे पति के प्रति जरा भी प्रेम नहींए खड़ी तमाशा देख रही है। क्या करूँए उनका चेहरा न जाने कैसा हो गया है। वही चेहराए जिसकी कभी बलाएँ ली जाती थींए मरने के बाद भयावह हो जाता हैए उसकी ओर द्रष्टिपात करने के लिए कलेजे को मजबूत करना पड़ता है। जीवन की भाँति मृत्यु का भी सबसे विशिष्ट आलोक मुख ही पर पड़ता है। ताहिर अली की दिन—भर सेंक—बाँध हुईए चमारों ने इस तरह दौड़—धूप कीए मानो उनका कोई अपना इष्ट मित्र है। क्रियात्मक सहानुभूति ग्राम—निवासियों का विशेष गुण है। रात को भी कई चमार उनके पास बैठे सेंकते—बाँधते रहे! जैनब और रकिया बार—बार कुल्सूम को ताने देतीं—बहनए तुम्हारा दिल भी गजब का है। शौहर का वहाँ बुरा हाल हो रहा है और तुम यहाँ मजे से बैठी हो। हमारे मियाँ के सिर में जरा—सा दर्द होता थाए तो हमारी जान नाखून में समा जाती थी। आजकल की औरतों का कलेजा सचमुच पत्थर का होता है। कुल्सूम का हृदय इन बाणों से बिंधा जाता थाय पर यह कहने का साहस न होता था कि तुम्हीं दोनों क्यों नहीं चली जातींघ् आखिर तुम भी तो उन्हीं की कमाई खाती होए और मुझसे अधिक। किंतु इतना कहतीए तो बचकर कहाँ जातीए दोनों उसके गले पड़ जातीं। सारी रात जागती रही। बार—बार द्वार पर जाकर आहट ले आती थी। किसी भाँति रात कटी। प्रातरूकाल ताहिर अली की अॉंखें खुलींय दर्द से अब भी कराह रहे थेय पर अब अवस्था उतनी शोचनीय न थी। तकिये के सहारे बैठ गए। कुल्सूम ने उन्हें चमारों से बातें करते सुना। उसे ऐसा जान पड़ा कि इनका स्वर कुछ विकृत हो गया है। चमारों ने ज्यों ही उन्हें होश में देखाए समझ गए कि अब हमारी जरूरत नहीं रहीए अब घरवाली की सेवा—शुश्रूषा का अवसर आ गया। एक—एक करके विदा हो गए। अब कुल्सूम ने चित्ता सावधान किया और पति के पास आ बैठी। ताहिर अली ने उसे देखाए तो क्षीण स्वर में बोले—खुदा ने हमें नमकहरामी की सजा दी है। जिनके लिए अपने आका का बुरा चेताए वही अपने दुश्मन हो गए।

कुल्सूम—तुम यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देतेघ् जब तक जमीन का मुआमला तय न हो जाएगाए एक—न—एक झगड़ा—बखेड़ा रोज होता रहेगाए लोगों से दुश्मनी बढ़़ती जाएगी। यहाँ जान थोड़े ही देना है। खुदा ने जैसे इतने दिन रोजी दी हैए वैसे ही फिर देगा। जान तो सलामत रहेगी।

ताहिर—जान तो सलामत रहेगीए पर गुजर क्योंकर होगाए कौन इतना दिए देता हैघ् देखती हो कि अच्छे—अच्छे पढ़़े—लिखे आदमी मारे—मारे फिरते हैं।

कुल्सूम—न इतना मिलेगाए न सहीय इसका आधा तो मिलेगा! दोंनों वक्त न खाएँगेए एक ही वक्त सहीय जान तो आफत में न रहेगी।

ताहिर—तुम एक वक्त खाकर खुश रहोगीए घर में और लोग भी तो हैंए उनके दुरूखड़े रोज कौन सुनेगाघ् मुझे अपनी जान से दुश्मनी थोड़े ही हैय पर मजबूर हूँ। खुदा को जो मंजूर होगाए वह पेश आएगा।

कुल्सूम—घर के लोगों के पीछे क्या जान दे दोगेघ्

ताहिर—कैसी बातें करती होए आखिर वे लोग कोई गैर तो नहीं हैंघ् अपने ही भाई हैंए अपनी माँएँ हैं। उनकी परवरिश मेरे सिवा और कौन करेगाघ्

कुल्सूम—तुम समझते होगेए वे तुम्हारे मोहताज हैंय मगर उन्हें तुम्हारी रत्ती—भर भी परवा नहीं। सोचती हैंए जब तक मुफ्त का मिलेए अपने खजाने में क्यों हाथ लगाएँ। मेरे बच्चे पैसे—पैसे को तरसते हैं और वहाँ मिठाइयों की हाँड़ियाँ आती हैंए उनके लड़के मजे से खाते हैं। देखती हूँ और अॉंखें बंद कर लेती हूँ।

ताहिर—मेरा जो फर्ज हैए उसे पूरा करता हूँ। अगर उनके पास रुपये हैंए तो इसका मुझे क्यों अफसोस होए वे शौक से खाएँए आराम से रहें। तुम्हारी बातों से हसद की बू आती है। खुदा के लिए मुझसे ऐसी बातें न किया करो।

कुल्सूम—पछताओगेय जब समझाती हूँए मुझ ही पर नाराज होते होय लेकिन देख लेनाए कोई बात न पूछेगा।

ताहिर—यह सब तुम्हारी नियत का कसूर है।

कुल्सूम—हाँए औरत हूँए मुझे अक्ल कहाँ! पड़े तो होए किसी ने झाँका तक नहीं। कलक होतीए तो यों चौन से न बैठी रहतीं।

ताहिर अली ने करवट लीए तो कंधो में असह्य वेदना हुई। श्आह—आहश् करके चिल्ला उठे। माथे पर पसीना आ गया। कुल्सूम घबराकर बोली—किसी को भेजकर डॉक्टर को क्यों नहीं बुला लेतेघ् कहीं हड़डी पर जरब न आ गया हो।

ताहिर—हाँए मुझे भी ऐसा ही खौफ होता हैए मगर डॉक्टर को बुलाऊँ तो उसकी फीस के रुपये कहाँ से आवेंगेघ्

कुल्सूम—तनख्वाह तो अभी मिली थीए क्या इतनी जल्द खर्च हो गईघ्

ताहिर—खर्च तो नहीं हो गईए लेकिन फीस की गुंजाइश नहीं है। अबकी माहिर की तीन महीने की फीस देनी होगी। 12 रुपये तो फीस ही के निकल जाएँगेए सिर्फ 18 रुपये बचेंगे! अभी तो पूरा महीना पड़ा हुआ है। क्या फाके करेंगेघ्

कुल्सूम—जब देखोए माहिर की फीस का तकाजा सिर पर सवार रहता है। अभी दस दिन हुएए फीस दी नहीं गईघ्

ताहिर—दस दिन नहीं हुएए एक महीना हो गया।

कुल्सूम—फीस अबकी न दी जाएगी। डॉक्टर की फीस उनकी फीस से जरूरी है। वह पढ़़कर रुपये कमाएँगेए तो मेरे घर न भरेंगे। मुझे तो तुम्हारी ही जान का भरोसा है।

ताहिर—(बात बदलकर) इन मुजियों की जब तक अच्छी तरह तंबीह न हो जाएगीए शरारत से बाज न आएँगे।

कुल्सूम—सारी शरारत इसी माहिर की थी। लड़कों में लड़ाई—झगड़ा होता ही रहता है। यह वहाँ न जाता तो क्यों मुआमला इतना तूल खींचताघ् इस पर जो अहीर के लौंडे ने जरा दाँत काट लियाए तो तुम भन्ना उठे।

ताहिर—मुझे तो खून के छींटे देखते ही जैसे सिर पर भूत सवार हो गया।

इतने में घीसू की माँ जमुनी आ पहुँची। जैनब ने उसे देखते ही तुरंत बुला लिया और डाँटकर कहा—मालूम होता हैए तेरी शामत आ गई है।

जमुनी—बेगम साहबए शामत नहीं आई हैए बुरे दिन आए हैंए और क्या कहूँ। मैं कल ही दही बेचकर लौटीए तो यह हाल सुना। सीधो आपकी खिदमत में दौड़ीय पर यहाँ बहुत—से आदमी जमा थेए लाज के मारे लौट गई। आज दही बेचने नहीं गई। बहुत डरते—डरते आई हूँ। जो कुछ भूल—चूक हुईए उसे माफ कीजिएए नहीं तो उजड़ जाएँगेए कहीं ठिकाना नहीं है।

जैनब—अब हमारे किए कुछ नहीं हो सकता। साहब बिना मुकदमा चलाए न मानेंगेए और वह न चलाएँगेए तो हम चलाएँगे। हम कोई धुनिये—जुलाहे हैंघ् यों सबसे दबते फिरेंए तो इज्जत कैसे रहेघ् मियाँ के बाप थानेदार थेय सारा इलाका नाम से काँपता थाए बड़े—बड़े रईस हाथ बाँधो सामने खड़े रहते थे। उनकी औलाद क्या ऐसी गई—गुजरी हो गई कि छोटे—छोटे आदमी बेइज्जती करें। तेरे लौंडे ने माहिर को इतनी जोर से दाँत काटा कि लहू—लुहान हो गयाय पट्टी बाँधो पड़ा है। तेरे शौहर ने आकर लड़के को डाँट दिया होताए तो बिगड़ी बात बन जाती।लेकिन उसने तो आते—ही—आते लाठी का वार कर दिया। हम शरीफ लोग हैंए इतनी रियायत नहीं कर सकते।

रकिया—जब पुलिस आकर मारते—मारते कचूमर निकाल देगीए तब होश आएगाय नजर—नियाज देनी पड़ेगीए वह अलग। तब आटे—दाल का भाव मालूम होगा।

जमुनी को अपने पति के हिस्से का व्यावहारिक ज्ञान भी मिला था। इन धमकियों से भयभीत न होकर बोली—बेगम साहबए यहाँ इतने रुपये कहाँ धरे हैंए दूध—पानी करके दस—पाँच रुपये बटोरे हैं। वहीं तक अपनी दौड़ है। इस रोजगार में अब क्या रखा है! रुपये का तीन पसेरी तो भूसा मिलता है। एक रुपये में एक भैंस का पेट नहीं भरता। उस पर खलीए बिनौलीए भूसीए चोकर सभी कुछ चाहिए। किसी तरह दिन काट रहे हैं। आपके बाल—बच्चों को साल—छरू महीने दूध पिला दूँगी।

जैनब समझ गई कि यह अहीरन कच्ची गोटी नहीं खेली है। इसके लिए किसी दूसरे ही मंत्र का प्रयोग करना चाहिए। नाक सिकोड़कर बोली—तू अपना दूध अपने घर रखए यहाँ दूध—घी के ऐसे भूखे नहीं हैं। यह जमीन अपनी हुई जाती हैय जितने जानवर चाहूँगीए पाल लूँगी। मगर तुझसे कहे देती हूँ कि तू कल से घर में न बैठने पाएगी। पुलिस की रपट तो साहब के हाथ में हैय पर हमें भी खुदा ने ऐसा इल्म दिया है कि जहाँ एक नक्श लिखकर दम किया कि जिन्नात अपना काम करने लगें। जब हमारे मियाँ जिंदा थेए तो एक बार पुलिस के एक बड़े अंगरेज हाकिम से कुछ हुज्जत हो गई। बोला—हम तुमको निकाल देंगे। मियाँ ने कहाए हमें निकाल दोगेए तो तुम भी आराम से न बैठोगे। मियाँ ने आकर मुझसे कहा। मैंने उसी रात को सुलेमानी नक्श लिखकर दम कियाए उसकी मेम साहब का पूरा हमल गिर गया। दौड़ा हुआ आयाए खुशामदें कींए पैरों पर गिराए मियाँ से कसूर मुआफ करायाए तब मेम की जान बची। क्यों रकियाए तुम्हें याद है नघ्

रकिया—याद क्यों नहीं हैए मैंने ही तो दुआ पढ़़ी थीय साहब रात को दरवाजे पर पुकारता था।

जैनब—हम अपनी तरफ से किसी की बुराई नहीं चाहतेय लेकिन जब जान पर आ बनती हैए तो सबक भी ऐसा दे देते हैं कि जिंदगी भर न भूलें। अभी अपने पीर से कह देंए तो खुदा जाने क्या गजब ढ़ाए। तुम्हें याद है रकियाए एक अहीर ने उन्हें दूध में पानी मिलाकर दिया थाए उनकी जबान से इतना ही निकला—जाए तुझसे खुदा समझें। अहीर ने घर आकर देखाए तो उसकी 200 रुपये की भैंस मर गई थी।

जमुनी ने ये बातें सुनींए तो होश उड़ गए। अन्य स्त्रियों की भाँति वह भी थानाए पुलिसए कचहरी और दरबार की अपेक्षा भूत—पिशाचों से ज्यादा डरी रहती थी। पास—पड़ोस में पिशाच—लीला देखने के अवसर आए दिन मिलते ही रहते थे। मुल्लाओं के यंत्र—मंत्र कहीं ज्यादा लागू होते हैंए यह भी मानती थी। जैनब बेगम ने उसकी पिशाच—भीरुता को लक्षित करके अपनी विषय चातुरी का परिचय दिया। जमुनी भयभीत होकर बोली—नहीं बेगम साहबए आपको भी भगवान्‌ ने बाल—बच्चे दिए हैंए ऐसा जुलुम न कीजिएगाए नहीं तो मर जाऊँगी।

जैनब—यह भी न करेंए वह भी न करेंए तो इज्जत कैसे रहेघ् कल को तेरा अहीर फिर लट्ठ लेकर आ पहुँचे तोघ् खुदा ने चाहाए तो अब वह लट्ठ उठाने लायक रह ही न जाएगा।

जमुनी थरथराकर पैरों पर गिर पड़ी और बोली—बीबीए जो हुकुम होए उसके लिए हाजिर हूँ।

जैनब ने चोट—पर—चोट लगाई और जमुनी के बहुत रोने—गिड़गिड़ाने पर 25 रुपये लेकर जिन्नात से उसे अभय—दान दिया। घर गईए रुपये लाकर दिए और पैरों पर गिरीय मगर बजरंगी से यह बात न कही। वह चली तो जैनब ने हँसकर कहा—खुदा देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। इसका तो सान—गुमान भी न था। तुम बेसब्र हो जाती होए नहीं तो मैंने कुछ—न—कुछ और ऐंठा होता। सवार को चाहिए कि बाग हमेशा कड़ी रखे।

सहसा साबिर ने आकर जैनब से कहा—आपको अब्बा बुलाते हैं। जैनब वहाँ गईए तो ताहिर अली को पड़े कराहते देखा। कुल्सूम से बोली—बीबीए गजब का तुम्हारा जिगर है। अरे भले आदमीए जाकर जरा मूँग का दलिया पका दे। गरीब ने रात को कुछ नहीं खायाए इस वक्त भी मुँह में कुछ न जाएगाए तो क्या हाल होगाघ्

ताहिर—नहींए मेरा कुछ खाने को जी नहीं चाहता। आपको इसलिए तकलीफ दी है कि अगर आपके पास कुछ रुपये होंए तो मुझे कर्ज के तौर पर दे दीजिए। मेरे कंधों में बड़ा दर्द हैए शायद हड्डी टूट गई हैए डॉक्टर को दिखाना चाहता हूँय मगर उसकी फीस के लिए रुपयों की जरूरत है।

जैनब—बेटाए भला सोचो तोए मेरे पास रुपये कहाँ से आएँगेए तुम्हारे सिर की कसम खाकर कहती हूँ। मगर तुम डॉक्टर को बुलाओ ही क्योंघ् तुम्हें सीधो साहब के यहाँ जाना चाहिए। यह हंगामा उन्हीं की बदौलत तो हुआ हैए नहीं तो यहाँ हमसे किसी को क्या गरज थी। एक इक्का मँगवा लो और साहब के यहाँ चले जाओ। वह एक रुक्की लिख देंगेए तो सरकारी शिफाखाने में खासी तरह इलाज हो जाएगा। तुम्हीं सोचोए हमारी हैसियत डॉक्टर बुलाने की हैघ्

ताहिर अली के दिल में यह बात बैठ गई। माता को धन्यवाद दिया। सोचाए न जाने यही बात मेरी समझ में क्यों नहीं आई। इक्का मँगवायाए लाठी के सहारे बड़ी मुश्किल से उस पर सवार हुए और साहब के बँगले पर पहुँचे।

मिस्टर सेवकए राजा महेंद्रकुमार से मिलने के बादए कम्पनी के हिस्से बेचने के लिए बाहर चले गए थे और उन्हें लौटे हुए आज तीन दिन हो गए थे। कल वह राजा साहब से फिर मिले थेय मगर जब उनका फैसला सुनाए तो बहुत निराश हुए। बहुत देर तक बैठे तर्क—वितर्क करते रहेय लेकिन राजा साहब ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया। निराश होकर आए और मिसेज सेवक से सारा वृत्तांत कह सुनाया।

मिसेज सेवक को हिंदुस्तानियों से चिढ़़ थी। यद्यपि इसी देश के अन्न—जल से उनकी सृष्टि हुई थीए पर अपने विचार से हजरत ईसा की शरण में आकरए वह हिंदुस्तानियों के अवगुणों से मुक्त हो चुकी थीं। उनके विचार में यहाँ के आदमियों को खुदा ने सज्जनताए सहृदयताए उदारताए शालीनता आदि दिव्य गुणों से सम्पूर्णतरू वंचित रक्खा है। वह योरपीय सभ्यता की भक्त थीं और आहार—विहार में उसी का अनुसरण करती थींय खान—पानए वेश—भूषाए रहन—सहनए सब अंगरेजी थीय मजबूरी केवल अपने साँवले रंग से थी। साबुन के निरंतर प्रयोग और अन्य रासायनिक पदाथोर्ं का व्यवहार करने पर भी मनोकामना पूरी होती न थी। उनके जीवन की एकमात्र यही अभिलाषा थी कि हम ईसाइयों की श्रेणी से निकलकर अंगरेजों में जा मिलेंए हमें लोग साहब समझेंए हमारा रब्त—जब्त अंगरेजों से होए हमारे लड़कों की शादियाँ ऐंग्लो इंडियन या कम—से—कम उच्च श्रेणी के यूरोपियन लोगों से हों। सोफी की शिक्षा—दीक्षा अंगरेजी ढ़ंग पर हुई थीय किंतु वह माता के बहुत आग्रह करने पर भी अंगरेजी दावतों और पार्टीयों में शरीक होती न थीए और नाच से तो उसे घृणा ही थी। किंतु मिसेज सेवक इन अवसरों को हाथ से न जाने देती थींए यों काम न चलता तो विशेष प्रयत्न करके निमंत्रण—पत्र मँगवाती थीं। अगर स्वयं उनके मकान पर दावतें और पार्टीयाँ बहुत कम होती थींए तो इसका कारण ईश्वर सेवक की कृपणता थी।

यह समाचार सुनकर मिसेज सेवक बोलीं—देख ली हिन्दुस्तानियों की सज्जनताघ् फूले न समाते थे। अब तो मालूम हुआ कि ये लोग कितने कुटील और विश्वासघातक हैं। एक अंधे भिखारी के सामने तुम्हारी यह इज्जत है। पक्षपात तो इन लोगों की घुट्टी में पड़ा हुआ हैए और यह उन बड़े—बड़े आदमियों का हाल हैए जो अपनी जाति के नेता समझे जाते हैंए जिनकी उदारता पर लोगों को गर्व है। मैंने मिस्टर क्लार्क से एक बार चर्चा की थी। उन्होंने तहसीलदारों को हुक्म दे दिया कि अपने—अपने इलाके में तम्बाकू की पैदावार बढ़़ाओ। यह सोफी के आग में कूदने का पुरस्कार है! जरा—सा म्युनिसिपैलिटी का अख्तियार क्या मिल गयाए सबों के दिमाग फिर गए। मिस्टर क्लार्क कहते थे कि अगर राजा साहब जमीन का मुआमला न तय करेंगेए तो मैं जाब्ते से उसे आपको दिला दूँगा।

मिस्टर जोजफ क्लार्क जिला के हाकिम थे। अभी थोड़े ही दिनों से यहाँ आए थे। मिसेज सेवक ने उनसे रब्त—जब्त पैदा कर लिया था। वास्तव में उन्होंने क्लार्क को सोफी के लिए चुना था। दो—एक बार उन्हें अपने घर बुला भी चुकी थीं। गृह—निर्वासन से पहले दो—तीन बार सोफी से उनकी मुलाकात भी हो चुकी थीय किंतु वह उनकी ओर विशेष आकृष्ट न हुई थी। तो भी मिसेज सेवक इस विषय में अभी निराश न हुई थीं। क्लार्क से कहती थीं—सोफी मेहमानी करने गई है। इस प्रकार अवसर पाकर उनकी प्रेमाग्नि को भड़काती रहती थी।

जॉन सेवक ने लज्जित होकर कहा—मैं क्या जानता थाए यह महाशय भी दगा देंगे। यहाँ उनकी बड़ी ख्याति हैए अपने वचन के पक्के समझे जाते हैं। खैरए कोई मुजायका नहीं। अब कोई दूसरा उपाय सोचना पड़ेगा।

मिसेज सेवक—मैं मिस्टर क्लार्क से कहूँगी। पादरी साहब से भी सिफारिश कराऊँगी।

जॉन सेवक—मिस्टर क्लार्क को म्युनिसिपैलिटी के मुआमलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं।

जॉन सेवक इसी चिंता में पड़े हुए थे कि इस हंगामे की खबर मिली। सन्नाटे में आ गए। पुलिस को रिपोर्ट की। दूसरे दिन गोदाम जाने का विचार कर ही रहे थे कि ताहिर अली लाठी टेकते हुए आ पहुँचे। आते—आते एक कुरसी पर बैठ गए। इक्के के हचकोलों ने अंधामुआ—सा कर दिया था।

मिसेज सेवक ने अंगरेजी में कहा—कैसी सूरत बना ली हैए मानो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है!

जॉन सेवक—कहिए मुंशीजीए मालूम होता हैए आपको बहुत चोट आई। मुझे इसका बड़ा दुरूख है।

ताहिर—हुजूरए कुछ न पूछिएए कम्बख्तों ने मार डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

जॉन सेवक—और इन्हीं दुष्टों की आप मुझसे सिफारिश कर रहे थे।

ताहिर—हुजूरए अपनी खता की बहुत सजा पा चुका। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मेरी गरदन की हड्डी पर जरब आ गया है।

जॉन सेवक—यह आपकी भूल है। हड्डी टूट जाना कोई मामूली बात नहीं है। आप यहाँ तक किसी तरह न आ सकते थे। चोट जरूर आई हैए मगर दो—चार रोज मालिश कर लेने से आराम हो जाएगा। आखिर यह मारपीट हुई क्योंघ्

ताहिर—हुजूरए यह सब उसी शैतान बजरंगी अहीर की हरकत है।

जॉन सेवक—मगर चोट खा जाने ही से आप निरापराध नहीं हो सकते। मैं इसे आपकी नादानी और असावधानी समझता हूँ। आप ऐसे आदमियों से उलझे ही क्योंघ् आपको मालूम हैए इसमें मेरी कितनी बदनामी हैघ्

ताहिर—मेरी तरफ से ज्यादती तो नहीं हुई।

जॉन सेवक—जरूर हुईए वरना देहातों में आदमी किसी से छेड़कर लड़ने नहीं आते। आपको इस तरह रहना चाहिए कि लोगों पर आपका रोब रहे। यह नहीं कि छोटे—छोटे आदमियों को आपसे मार—पीट करने की हिम्मत हो।

मिसेज सेवक—कुछ नहींए यह सब इनकी कमजोरी है। कोई राह चलते किसी को नहीं मारता।

ईश्वर सेवक कुरसी पर पड़े—पड़े बोले—खुदा के बेटेए मुझे अपने साये में लेए सच्चे दिल से उसकी बंदगी न करने की यही सजा है।

ताहिर अली को ये बातें घाव पर नमक के समान लगीं। ऐसा क्रोध आया कि इसी वक्त कह दूँए जहन्नुम में जाए तुम्हारी नौकरीय पर जॉन सेवक को उनकी दुरवस्था से लाभ उठाने की एक युक्ति सूझ गई। फिटन तैयार कराई और ताहिर अली को लिए हुए राजा महेंद्रकुमार के मकान पर जा पहुँचे। राजा साहब शहर का गश्त लगाकर मकान पर पहुँचे ही थे कि जॉन सेवक का कार्ड पहुँचा। झुँझलाएए लेकिन शील आ गयाए बाहर निकल आए। मिस्टर सेवक ने कहा—क्षमा कीजिएगाए आपको कुसमय कष्ट हुआए किंतु पाँड़ेपुरवालों ने इतना उपद्रव मचा रखा है कि मेरी समझ में नहीं आताए आपके सिवा किसका दामन पकड़ूँ। कल सबों ने मिलकर गोदाम पर धावा कर दिया। शायद आग लगा देना चाहते थेए पर आग तो न लगा सकेय हाँए यह मेरे एजेंट हैंए सब—के—सब इन पर टूट पड़े। इनको और इनके भाइयों को मारते—मारते बेदम कर दिया। इतने पर भी उन्हें तस्कीन न हुईए जनाने मकान में घुस गएय और अगर स्त्रियाँ अंदर से द्वार न बंद कर लें तो उनकी आबरू बिगड़ने में कोई संदेह न था। इनके तो ऐसी चोटें लगी हैं कि शायद महीनों चलने—फिरने लायक न होंए कंधो की हड्डी टूट गई है।

महेंद्रकुमार सिंह स्त्रियों का बड़ा सम्मान करते थे। उनका अपमान होते देखकर तैश में आ जाते थे। रौद्र रूप धारण करके बोले—सब जनाने में घुस गए!

जॉन सेवक—किवाड़ तोड़ना चाहते थेए मगर चमारों ने धामकाया तो हट गए।

महेंद्रकुमार—कमीने! स्त्रियों पर अत्याचार करना चाहते थे!

जॉन सेवक—यही तो इस ड्रामा का सबसे लज्जास्पद अंश हैं।

महेंद्रकुमार—लज्जास्पद नहीं महाशयए घृणास्पद कहिए।

जॉन सेवक—अब यह बेचारे कहते हैं कि या तो मेरी इस्तीफा लीजिएए या गोदाम की रक्षा के लिए चौकीदारों का प्रबंध कीजिए। स्त्रियाँ इतनी भयभीत हो गई हैं कि वहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहतीं। यह सारा उपद्रव उसी अंधे की बदौलत हो रहा है।

महेंद्रकुमार—मुझे तो वह बहुत गरीबए सीधा—सा आदमी मालूम होता हैय मगर है छँटा हुआ। उसी की दीनता पर तरस खाकर मैंने निश्चय किया था कि आपके लिए कोई दूसरी जमीन तलाश करूँ। लेकिन जब उन लोगों ने शरारत पर कमर बाँधी है और आपको जबरदस्ती वहाँ से हटाना चाहते हैंए तो इसका उन्हें अवश्य दंड मिलेगा।

जॉन सेवक—बसए यही बात हैए वे लोग मुझे वहाँ से निकाल देना चाहते हैं। अगर रिआयत की गईए तो मेरे गोदाम में जरूर आग लग जाएगी।

महेंद्रकुमार—मैं खूब समझ रहा हूँ। यों मैं स्वयं जनवादी हूँ और उस नीति का हृदय से समर्थन करता हूँय पर जनवाद के नाम पर देश में जो अशांति फैली हुई हैए उसका मैं घोर विरोधी हूँ। ऐसे जनवाद से तो धानवादए एकवादए सभी वाद अच्छे हैं। आप निश्चिंत रहिए।

इसी भाँति कुछ देर और बातें करके राजा साहब को खूब भरकर जॉन सेवक विदा हुए। रास्ते में ताहिर अली सोचने लगे—साहब को मेरी दुर्गति से अपना स्वार्थ सिध्द करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। क्या ऐसे धानी—मानीए विशिष्टए विचारशील विद्वान्‌ प्राणी भी इतने स्वार्थ—भक्त होते हैं!

जॉन सेवक अनुमान से उनके मन के भाव ताड़ गए। बोले—आप सोच रहे होंगेए मैंने बातों इतना रंग क्यों भराए केवल घटना का यथार्थ वृत्तांत क्यों न कह सुनायाय किंतु सोचिएए बिना रंग भरे मुझे यह फल प्राप्त हो सकताघ् संसार में किसी काम का अच्छा या बुरा होना उसकी सफलता पर निर्भर है। एक व्यक्ति राजसत्ता का विरोध करता है। यदि अधिकारियों ने उसका दमन कर दियाए तो वह राजद्रोही कहा जाता हैए और प्राणदंड पाता है। यदि उसका उद्देश्य पूरा हो गयाए तो वह अपनी जाति का उध्दारकर्ता और विजयी समझा जाता हैए उसके स्मारक बनाए जाते हैं। सफलता में दोषों को मिटाने की विलक्षण शक्ति है। आप जानते हैंए दो साल पहले मुस्तफा कमाल क्या थाघ् बागीए देश उसके खून का प्यासा था। आज वह अपनी जाति का प्राण है। क्योंघ् इसलिए कि वह सफल—मनोरथ हुआ। लेकिन कई साल पहले प्राणभय से अमेरिका भागा थाए आज वह प्रधान है। इसलिए कि उसका विद्रोह सफल हुआ। मैंने राजा साहब को स्वपक्षी बना लियाए फिर रंग भरने का दोष कहाँ रहाघ्

इतने में फिटन बँगले पर आ पहुँची। ईश्वर सेवक ने आते ही आते पूछा—कहोए क्या कर आएघ्

जॉन सेवक ने गर्व से कहा—राजा को अपना मुरीद बना आया। थोड़ा—सा रंग तो जरूर भरना पड़ाए पर उसका असर बहुत अच्छा हुआ।

ईश्वर सेवक—खुदाए मुझ पर दया—द्रष्टि कर। बेटाए रंग मिलाए बगैर भी दुनिया का कोई काम चलता हैघ् सफलता का यही मूल—मंत्र हैए और व्यवसाय की सफलता के लिए तो यह सर्वथा अनिवार्य है। आपके पास अच्छी—से—अच्छी वस्तु हैय जब तक आप स्तुति नहीं करतेए कोई ग्राहक खड़ा ही नहीं होता। अपनी अच्छी वस्तु को अमूल्यए दुर्लभए अनुपम कहना बुरा नहीं। अपनी औषधि को आप सुधा—तुल्यए रामबाणए अक्सीरए ऋषि—प्रदत्ताए संजीवनीए जो चाहेंए कह सकते हैंए इसमें कोई बुराई नहीं। किसी उपदेशक से पूछोए किसी वकील से पूछोए किसी लेखक से पूछोए सभी एक स्वर से कहेंगे कि रंग और सफलता समानार्थक हैं। यह भ्रम है कि चित्रकार ही को रंगों की जरूरत होती है। अब तो तुम्हें निश्चय हो गया कि वह जमीन मिल जाएगीघ्

जॉन सेवक—जी हाँए अब कोई संदेह नहीं।

यह कहकर उन्होंने प्रभु सेवक को पुकारा और तिरस्कार करके बोले—बैठे—बैठे क्या कर रहे होघ् जरा पाँड़ेपुर क्यों नहीं चले जातेघ् अगर तुम्हारा यही हाल रहाए तो मैं कहाँ तक तुम्हारी मदद करता फिरूँगा।

प्रभु सेवक—मुझे जाने में कोई आपत्ति नहींय पर इस समय मुझे सोफी के पास जाना है।

जॉन सेवक—पाँड़ेपुर से लौटते हुए सोफी के पास बहुत आसानी से जा सकते हो।

प्रभु सेवक—मैं सोफी से मिलना ज्यादा जरूरी समझता हूँ।

जॉन सेवक—तुम्हारे रोज—रोज मिलने से क्या फायदाए जब तुम आज तक उसे घर लाने में सफल नहीं हो सकेघ्

प्रभु सेवक के मुँह से ये शब्द निकलते—निकलते रह गए—मामा ने जो आग लगा दी हैए वह मेरे बुझाए नहीं बुझ सकी। तुरंत अपने कमरे में आएए कपड़े पहने और उसी वक्त ताहिर अली के साथ पाँड़ेपुर चलने को तैयार हो गए। ग्यारह बज चुके थेए जमीन से आग की लपट निकल रही थीए दोपहर का भोजन तैयार थाए मेज लगा दी गई थीय किंतु प्रभु सेवक माता ओर पिता के बहुत आग्रह करने पर भी भोजन पर न बैठे। ताहिर अली खुदा से दुआ कर रहे थे कि किसी तरह दोपहरी यहीं कट जाएए पंखे के नीचे टट्टियों से छनकर आने वाली शीतल वायु ने उनकी पीड़ा को बहुत शांत कर दिया थाय किंतु प्रभु सेवक के हठ ने उन्हें यह आनंद न उठाने दिया।

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अध्याय 11

भैरों पासी अपनी माँ का सपूत बेटा था। यथासाधय उसे आराम से रखने की चेष्टा करता रहता था। इस भय से कि कहीं बहू सास को भूखा न रखेए वह उसकी थाली अपने सामने परसा लिया करता था और उसे अपने साथ ही बैठाकर खिलाता था। बुढ़़िया तम्बाकू पीती थी। उसके वास्ते एक सुंदरए पीतल से मढ़़ा हुआ नारियल लाया था। आप चाहे जमीन पर सोयेए पर उसे खाट पर सुलाता। कहताए इसने न जाने कितने कष्ट झेलकर मुझे पाला—पोसा हैय मैं इससे जीते—जी कभी उरिन नहीं हो सकता। अगर माँ का सिर भी दर्द करता तो बेचौन हो जाताए ओझे—सयाने बुला लाता। बुढ़़िया को गहने—कपड़े का भी शौक था। पति के राज में जो सुख न पाए थेए वे बेटे के राज में भोगना चाहती थी। भैरों ने उसके लिए हाथों के कड़ेए गले की हँसली और ऐसी ही कई चीजें बनवा दी थीं। पहनने के लिए मोटे कपड़ों की जगह कोई रंगीन छींट लाया करता था। अपनी स्त्री को ताकीद करता रहता था कि अम्माँ को कोई तकलीफ न होने पाए। इस तरह बुढ़़िया का मन बढ़़ गया था। जरा—सी कोई बात इच्छा के विरुध्द होतीए तो रूठ जाती और बहू को आड़े हाथों लेती। बहू का नाम सुभागी था। बुढ़़िया ने उसका नाम अभागी रख छोड़ा था। बहू ने जरा चिलम भरने में देर कीए चारपाई बिछाना भूल गईए या मुँह से निकलते ही उसका पैर दबाने या सिर की जुएँ निकालने न आ पहुँचीए तो बुढ़़िया उसके सिर हो जाती। उसके बाप और भाइयों के मुँह में कालिख लगातीए सबों की दाढ़़ियाँ जलातीए और उसे गालियों ही से संतोष न होताए ज्योंही भैरों दूकान से आताए एक—एक की सौ—सौ लगाती। भैरों सुनते ही जल उठताए ण्कभी जली—कटी बातों से और कभी डंडों से स्त्री की खबर लेता। जगधार से उसकी गहरी मित्रता थी। यद्यपि भैरों का घर बस्ती के पश्चिम सिरे पर थाए और जगधार का घर पूर्व सिरे परए किंतु जगधार की यहाँ बहुत आमद—रफ्त थी। यहाँ मुफ्त में ताड़ी पीने को मिल जाती थीए जिसे मोल लेने के लिए उसके पास पैसे न थे। उसके घर में खानेवाले बहुत थेए कमानेवाला अकेला वही था। पाँच लड़कियाँ थींए एक लड़का और स्त्री । खोंचे की बिक्री में इतना लाभ कहाँ कि इतने पेट भरे और ताड़ी—शराब भी पिए! वह भैरों की हाँ—में—हाँ मिलाया करता था। इसलिए सुभागी उससे जलती थी।

दो—तीन साल पहले की बात हैए एक दिनए रात के समयए भैरों और जगधार बैठे हुए ताड़ी पी रहे थे। जाड़ों के दिन थेय बुढ़़िया खा—पीकरए अंगीठी सामने रखकरए आग ताप रही थी। भैरों ने सुभागी से कहा—थोड़े—से मटर भून ला। नमकए मिर्चए प्याज भी लेती आना। ताड़ी के लिए चिखने की जरूरत थी। सुभागी ने मटर तो भूनेए लेकिन प्याज घर में न था। हिम्मत न पड़ी कि कह दे—प्याज नहीं है। दौड़ी हुई कुँजड़े की दूकान पर गई। कुँजड़ा दूकान बंद कर चुका था। सुभागी ने बहुत चिरौरी कीए पर उसने दूकान न खोली। विवश होकर उसने भूने हुए मटर लाकर भैरों के सामने रख दिए। भैरों ने प्याज न देखाए तो तेवर बदले। बोला—क्या मुझे बैल समझती है कि भुने हुए मटर लाकर रख दिएए प्याज क्यों नहीं लाईघ्

सुभागी ने कहा—प्याज घर में नहीं हैए तो क्या मैं प्याज हो जाऊँघ्

जगधार—प्याज के बिना मटर क्या अच्छे लगेंगेघ्

बुढ़़िया—प्याज तो अभी कल ही धोले का आया था। घर में कोई चीज तो बचती ही नहीं। न जाने इस चुड़ैल का पेट है या भाड़।

सुभागी—मुझसे कसम ले लोए जो प्याज हाथ से भी छुआ हो। ऐसी जीभ होतीए तो इस घर में एक दिन भी निबाह न होता।

भैरों—प्याज नहीं थाए तो लाई क्यों नहींघ्

जगधार—जो चीज घर में न रहेए उसकी फिकर रखनी चाहिए।

सुभागी—मैं क्या जानती थी कि आज आधी रात को प्याज की धुन सवार होगी।

भैरों ताड़ी के नशे में था। नशे में भी क्रोध का—सा गुण हैए निर्बलों ही पर उतरता है। डंडा पास ही धारा थाए उठाकर एक डंडा सुभागी को मारा। उसके हाथ की सब चूड़ियाँ टूट गईं। घर से भागी। भैरों पीछे दौड़ा। सुभागी एक दूकान की आड़ में छिप गई। भैरों ने बहुत ढ़ूँढ़़ाए जब उसे न पाया तो घर जाकर किवाड़ बंद कर लिए और फिर रात भर खबर न ली। सुभागी ने सोचाए इस वक्त जाऊँगी तो प्राण न बचेंगे। पर रात—भर रहूँगी कहाँघ् बजरंगी के घर गई। उसने कहा—नाए बाबाए मैं यह रोग नहीं पालता। खोटा आदमी हैए कौन उससे रार मोल ले! ठाकुरदीन के द्वार बंद थे। सूरदास बैठा खाना पका रहा था। उसकी झोपड़ी में घुस गई और बोली—सूरेए आज रात—भर मुझे पड़े रहने दोए मारे डालता हैए अभी जाऊँगीए तो एक हड्डी भी न बचेगी।

सूरदास ने कहा—आओए लेट रहोए भोरे चली जानाए अभी नसे में होगा।

दूसरे दिन जब भैरों को यह बात मालूम हुईए तो सूरदास से गाली—गलौज की और मारने की धमकी दी। सुभागी उसी दिन से सूरदास पर स्नेह करने लगी। जब अवकाश पातीए तो उसके पास आ बैठतीए कभी—कभी उसके घर में झाड़ू लगा जातीए कभी घरवालों की अॉंख बचाकर उसे कुछ दे जातीए मिठुआ को अपने घर बुला ले जाती और उसे गुड़—चबेना खाने को देती।

भैरों ने कई बार उसे सूरदास के घर से निकलते देखा। जगधार ने दोनों को बातें करते हुए पाया। भैरों के मन में संदेह हो गया कि जरूर इन दोनों में कुछ साठ—गाँठ हैए तभी से वह सूरदास से खार खाता था। उससे छेड़कर लड़ता। नायकराम के भय से उसकी मरम्मत न कर सकता था। सुभागी पर उसका अत्याचार दिनोंदिन बढ़़ता जाता था और जगधारए शांत स्वभाव होने पर भीए भैरों का पक्ष लिया करता था।

जिस दिन बजरंगी और ताहिर अली में झगड़ा हुआ थाए उसी दिन भैरों और सूरदास में संग्राम छिड़ गया। बुढ़़िया दोपहर को नहाई थी सुभागी उसकी धोती छाँटना भूल गई। गरमी के दिन थे हीए रात को 9 बजे बुढ़़िया को फिर गरमी मालूम र्हुई। गरमियों के दिनों में दो बार स्नान करती थीए जाड़ों में दो महीने में एक बार! जब वह नहाकर धोती माँगने लगीए तो सुभागी को याद आई। काटो तो बदन में लहू नहीं। हाथ जोड़कर बोली—अम्माँए आज धोती धोने की याद नहीं रही। तुम जरा देर मेरी धोती पहन लोए तो मैं उसे छाँटकर अभी सुखाए देती हूँ।

बुढ़़िया इतनी क्षमाशील न थीए हजारों गालियाँ सुनाईं और गीली धोती पहने बैठी रही। इतने में भैरों दूकान से आया और सुभागी से बोला—जल्दी खाना लाए आज संगत होनेवाली है। आओ अम्माँए तुम भी खा लो।

बुढ़़िया बोली—नहाकर गीली धोती पहने बैठी हूँ। अब अपने हाथों धोती धो लिया करूँगी।

भैरों—क्या इसने धोती नहीं धोईघ्

बुढ़़िया—वह अब मेरी धोती क्यों धोने लगी। घर की मालकिन है। यही क्या कम है कि एक रोटी खाने को दे देती है!

सुभागी ने बहुत कुछ उज्र कियाय किंतु भैरों ने एक न सुनीए डंडा लेकर मारने दौड़ा। सुभागी भागी और आकर सूरदास के घर में घुस गई। पीछे—पीछे भैरों भी वहीं पहुँचा। झोपड़े में घुसा और चाहता था कि सुभागी का हाथ पकड़कर खींच ले कि सूरदास उठकर खड़ा हो गया और बोला—क्या बात है भैरोंए इसे क्यों मार रहे होघ्

भैरों गर्म होकर बोला—द्वार पर से हट जाओए नहीं तो पहले तुम्हारी हड्डीयां तोड़ूँगाए सारा बगुलाभगतपन निकल जाएगा। बहुत दिनों से तुम्हारा रंग देख रहा हूँए आज सारी कसर निकाल लूँगा।

सूरदास—मेरा क्या छैलापन तुमने देखाघ् बसए यही न कि मैंने सुभागी को घर से निकाल नहीं दियाघ्

भैरों—बसए अब चुप ही रहना। ऐसे पापी न होतेए तो भगवान्‌ ने अॉंखें क्यों फोड़ दी होतीं। भला चाहते होए तो सामने से हट जाओ।

सूरदास—मेरे घर में तुम उसे न मारने पाओगेय यहाँ से चली जाएए तो चाहे जितना मार लेना।

भैरों—हटता है सामने से कि नहींघ्

सूरदास—मैं अपने घर यह उपद्रव न मचाने दूँगा।

भैरों ने क्रोध में आकर सूरदास को धक्का दिया। बेचारा बेलाग खड़ा थाए गिर पड़ाए पर फिर उठा और भैरों की कमर पकड़कर बोला—अब चुपके से चले जाओए नहीं तो अच्छा न होगा!

सूरदास था तो दुबला—पतलाए पर उसकी हड्डीयां लोहे की थीं। बादल—बूँदीए सरदी—गरमी झेलते—झेलते उसके अंग ठोस हो गए थे। भैरों को ऐसा ज्ञात होने लगाए मानो कोई लोहे का शिकंजा है। कितना ही जोर मारताए पर शिकंजा जरा भी ढ़ीला न होता था। सुभागी ने मौका पायाए तो भागी। अब भैरों जोर—जोर से गालियाँ देने लगा। मुहल्लेवाले यह शोर सुनकर आ पहुँचे। नायकराम ने मजाक करके कहा—क्यों सूरेए अच्छी सूरत देखकर अॉंखें खुल जाती हैं क्या मुहल्ले ही मेंघ्

सूरदास—पंडाजीए तुम्हें दिल्लगी सूझी है और यहाँ मुख में कालिख लगाई जा रही है। अंधा थाए अपाहिज थाए भिखारी थाए नीच थाए चोरी—बदमासी के इलजाम से तो बचा हुआ था! आज वह इलजाम भी लग गया।

बजरंगी—आदमी जैसा आप होता हैए वैसा ही दूसरों को समझता है।

भैरों—तुम कहाँ के बड़े साधु हो। अभी आज ही लाठी चलाकर आए हो। मैं दो साल से देख रहा हूँए मेरी घरवाली इससे आकर अकेले में घंटों बातें करती है। जगधार ने भी उसे यहाँ से रात को आते देखा है। आज हीए अभीए उसके पीछे मुझसे लड़ने को तैयार था।

नायकराम—सुभा होने की बात ही है। अंधा आदमी देवता थोड़े ही होता हैए और फिर देवता लोग भी तो काम के तीर से नहीं बचे। सूरदास तो फिर भी आदमी हैए और अभी उमर ही क्या हैघ्

ठाकुरदीन—महाराजए क्यों अंधे के पीछे पड़े हुए हो। चलोए कुछ भजन—भाव हो।

नायकराम—तुम्हें भजन—भाव सूझता हैए यहाँ एक भले आदमी की इज्जत का मुआमला आ पड़ा है। भैरोंए हमारी एक बात मानोए तो कहें। तुम सुभागी को मारते बहुत होए इससे उसका मन तुमसे नहीं मिलता। अभी दूसरे दिन बारी आती हैए अब महीने में दो बार से ज्यादा न आने पाए।

भैरों देख रहा था कि मुझे लोग बना रहे हैं। तिनककर बोला—अपनी मेहरिया हैए मारते—पीटते हैंए तो किसी का साझा हैघ् जो घोड़ी पर कभी सवार ही नहीं हुआए वह दूसरों को सवार होना क्या सिखाएगाघ् वह क्या जानेए औरत कैसे काबू में रहती हैघ्

यह व्यंग नायकराम पर थाए जिसका अभी तक विवाह नहीं हुआ था। घर में धान थाए यजमानों की बदौलत किसी बात की चिंता न थीए ण् किंतु न जाने क्यों अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ था। वह हजार—पाँच सौ रुपये से गम खाने को तैयार थाय पर कहीं शिप्पा न जमता था। भैरों ने समझा थाए नायकराम दिल में कट जाएँगेय मगर वह छँटा हुआ शहरी गुंडा ऐसे व्यंगों को कब धयान में लाता था। बोला—कहो बजरंगी इसका कुछ जवाब दो औरत कैसे बस में रहती हैघ्

बजरंगी—मार—पीट से नन्हा—सा लड़का तो बस में आता नहींए औरत क्या बस में आएगी।

भैरों—बस में आए औरत का बापए औरत किस खेत की मूली है! मार से भूत भागता है।

बजरंगी—तो औरत भी भाग जाएगीए लेकिन काबू में न आएगीघ्

नायकराम—बहुत अच्छी कही बजरंगीए बहुत पक्की कहीए वाह—वाह! मार से भूत भागता हैए तो औरत भी भाग जाएगी। अब तो कट गई तुम्हारी बातघ्

भैरों—बात क्या कट जाएगीए दिल्लगी हैघ् चूने को जितना ही कूटोए उतना ही चिमटता है।

जगधार—ये सब कहने की बातें हैं। औरत अपने मन से बस में आती हैए और किसी तरह नहीं।

नायकराम—क्यों बजरंगीए नहीं है कोई जवाबघ्

ठाकुरदीन—पंडाजीए तुम दोनों को लड़ाकर तभी दम लोगेय बिचारे अपाहिज आदमी के पीछे पड़े हो।

नायकराम—तुम सूरदास को क्या समझते होए यह देखने ही में इतने दुबले हैं। अभी हाथ मिलाओए तो मालूम हो। भैरोंए अगर इन्हें पछाड़ दोए तो पाँच रुपये इनाम दूँ।

भैरों—निकल जाओगे।

नायकराम—निकलनेवाले को कुछ कहता हूँ। यह देखोए ठाकुरदीन के हाथ में रखे देता हूँ।

जगधार—क्या ताकते हो भैरोंए ले पड़ो।

सूरदास—मैं नहीं लड़ता।

नायकराम—सूरदासए देखोए नाम—हँसाई मत कराओ। मर्द होकर लड़ने से डरते होघ् हार ही जाओगे या और कुछ!

सूरदास—लेकिन भाईए मैं पेंच—पाच नहीं जानता। पीछे से यह न कहनाए हाथ क्यों पकड़ा। मैं जैसे चाहूँगाए वैसे लड़ूँगा।

जगधार—हाँ—हाँए तुम जैसे चाहनाए वैसे लड़ना।

सूरदास—अच्छा तो आओए कौन आता है!

नायकराम—अंधे आदमी का जीवट देखना। चलो भैरोंए आओ मैदान में।

भैरों—अंधे से क्या लड़ूँगा!

नायकराम—बसए इसी पर इतना अकड़ते थेघ्

जगधार—निकल आओ भैरोंए एक झपट्टे में तो मार लोगे!

भैरों—तुम्हीं क्यों नहीं लड़ जातेए तुम्हीं इनाम ले लेना।

जगधार को रुपयों की नित्य चिंता रहती थी। परिवार बड़ा होने के कारण किसी तरह चूल न बैठती थीए घर में एक—न—एक चीज घटी ही रहती थी। धानोपार्जन के किसी उपाय को हाथ से न छोड़ना चाहता था। बोला—क्यों सूरेए हमसे लड़ोगेघ्

सूरदास—तुम्हीं आ जाओए कोई सही।

जगधार—क्यों पंडाजीए इनाम दोगे नघ्

नायकराम—इनाम तो भैरों के लिए थाए लेकिन कोई हरज नहीं! हाँए शर्त यह है कि एक ही झपट्टे में गिरा दो।

जगधार ने धोती ऊपर चढ़़ा ली और सूरदास से लिपट गया। सूरदास ने उसकी एक टाँग पकड़ ली और इतनी जोर से खींचा कि जगधार धाम से गिर पड़ा। चारों तरफ से तालियाँ बजने लगीं।

बजरंगी बोला—वाहए सूरदासए वाह! नायकराम ने दौड़कर उसकी पीठ ठोंकी।

भैरों—मुझे तो कहते थेए एक ही झपट्टे में गिरा दोगेए तुम कैसे गिर गएघ्

जगधार—सूरे ने टाँग पकड़ लीए नहीं तो क्या गिरा लेते। वह अड़ंगा मारता कि चारों खाने चित गिरते।

नायकराम—अच्छाए तो एक बाजी और हो जाए।

जगधार—हाँ—हाँए अबकी देखना।

दोनों योध्दाओं में फिर मल्ल—युध्द होने लगा। सूरदास ने अबकी जगधार का हाथ पकड़कर इतने जोर से ऐंठा कि वह श्आह! आह!श् करता हुआ जमीन पर बैठ गया। सूरदास ने तुरंत उसका हाथ छोड़ दिया और गरदन पकड़कर दोनों हाथों से ऐसा दबोचा कि जगधार की अॉंखें निकल आईंय नायकराम ने दौड़कर सूरदास को हटा लिया। बजरंगी ने जगधार को उठाकर बिठाया और हवा करने लगा।

भैरों ने बिगड़कर कहा—यह कोई कुश्ती है कि जहाँ पकड़ पायाए वहीं धार दबाया। यह तो गँवारों की लड़ाई हैए कुश्ती थोड़े ही है।

नायकराम—यह बात तो पहले तय हो चुकी थी।

जगधार सँभलकर उठ बैठा और चुपके से सरक गया। भैरों भी उसके पीछे चलता हुआ। उनके जाने के बाद यहाँ खूब कहकहे उड़ेए और सूरदास की खूब पीठ ठोंकी गई। सबको आश्चर्य हो रहा था कि सूरदास—जैसा दुर्बल आदमी जगधार—जैसे मोटे—ताजे आदमी को कैसे दबा बैठा। ठाकुरदीन यंत्र—मंत्र का कायल था। बोला—सूरे को किसी देवता का इष्ट है। हमें भी बताओ सूरेए कौन—सा मंत्र जगाया थाघ्

सूरदास—सौ मंत्रों का मंत्र हिम्मत है। ये रुपये जगधार को दे देनाए नहीं तो मेरी कुशल नहीं है!

ठाकुरदीन—रुपये क्यों दे दूँए कोई लूट हैघ् तुमने बाजी मारी हैए तुमको मिलेंगे।

नायकराम—अच्छा सूरदासए ईमान से बता दोए सुभागी को किस मंत्र से बस में कियाघ् अब तो यहाँ सब लोग अपने ही हैंए कोई दूसरा नहीं है। मैं भी कहीं कँपा लगाऊँ।

सूरदास ने करुण स्वर में कहा—पंडाजीए अगर तुम भी मुझसे ऐसी बातें करोगेए तो मैं मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँगा। मैं पराई स्त्री को अपनी माताए बेटीए बहन समझता हूँ। जिस दिन मेरा मन इतना चंचल हो जाएगाए तुम मुझे जीता न देखोगे। यह कहकर सूरदास फूट—फूटकर रोने लगा। जरा देर में आवाज सँभालकर बोला—भैरों रोज उसे मारता है। बिचारी कभी—कभी मेरे पास आकर बैठ जाती है। मेरा अपराध इतना ही है कि मैं उसे दुतकार नहीं देता। इसके लिए चाहे कोई बदनाम करेए चाहे जो इलजाम लगाएए मेरा जो धरम थाए वह मैंने किया। बदनामी के डर से जो आदमी धरम से मुँह फेर लेए वह आदमी नहीं है।

बजरंगी—तुम्हें हट जाना थाए उसकी औरत थीए मारता चाहे पीटताए तुमसे मतलबघ्

सूरदास—भैयाए अॉंखों देखकर रहा नहीं जाताए यह तो संसार का व्यवहार हैय पर इतनी—सी बात पर कोई बड़ा कलंक तो नहीं लगा देता। मैं तुमसे सच कहता हूँए आज मुझे जितना दुरूख हो रहा हैए उतना दादा के मरने पर भी न हुआ था। मैं अपाहिजए दूसरों के टुकड़े खानेवाला और मुझ पर यह कलंक! (रोने लगा)

नायकराम—तो रोते क्यों हो भले आदमीए अंधे हो तो क्या मर्द नहीं होघ् मुझे तो कोई यह कलंक लगाताए तो और खुश होता। ये हजारों आदमी जो तड़के गंगा—स्नान करने जाते हैंए वहाँ नजरबाजी के सिवा और क्या करते हैं! मंदिरों में इसके सिवा और क्या होता है! मेले—ठेलों में भी यही बहार रहती है। यही तो मरदों के काम हैं। अब सरकार के राज में लाठी—तलवार का तो कहीं नाम नहीं रहाए सारी मनुसाई इसी नजरबाजी में रह गई है। इसकी क्या चिंता! चलो भगवान का भजन होए यह सब दुरूख दूर हो जाएगा।

बजरंगी को चिंता लगी हुई थी—आज की मार—पीट का न जाने क्या फल होघ् कल पुलिस द्वार पर आ जाएगी। गुस्सा हराम होता है। नायकराम ने आश्वासन दिया—भले आदमीए पुलिस से क्या डरते होघ् कहोए थानेदार को बुलाकर नचाऊँए कहो इंस्पेक्टर को बुलाकर चपतियाऊँ। निश्चिंत बैठे रहोए कुछ न होने पाएगा। तुम्हारा बाल भी बाँका हो जाएए तो मेरा जिम्मा।

तीनों आदमी यहाँ से चले। दयागिरि पहले ही से इनकी राह देख रहे थे। कई गाड़ीवान और बनिए भी आ बैठे थे। जरा देर में भजन की तानें उठने लगीं। सूरदास अपनी चिंताओं को भूल गयाए मस्त होकर गाने लगा। कभी भक्ति से विह्नल होकर नाचताए उछलने—कूदने लगताए कभी रोताए कभी हँसता। सभा विसर्जित हुई तो सभी प्राणी प्रसन्न थेए सबके हृदय निर्मल हो गए थेए मलिनता मिट गई थीए मानो किसी रमणीक स्थान की सैर करके आए हों। सूरदास तो मंदिर के चबूतरे ही पर लेटा और लोग अपने—अपने घर गए। किंतु थोड़ी ही देर बाद सूरदास को फिर उन्हीं चिंताओं ने आ घेरा—मैं क्या जानता था कि भैरों के मन में मेरी ओर से इतना मैल हैए नहीं तो सुभागी को अपने झोंपड़े में आने ही क्यों देता। जो सुनेगाए वही मुझ पर थूकेगा। लोगों को ऐसी बातों पर कितनी जल्द विश्वास आ जाता है। मुहल्ले में कोई अपने दरवाजे पर खड़ा न होने देगा। ऊँह! भगवान्‌ तो सबके मन की बात जानते हैं। आदमी का धरम है कि किसी को दुरूख में देखेए तो उसे तसल्ली दे। अगर अपना धरम पालने में भी कलंक लगता हैए तो लगेए बला से। इसके लिए कहाँ तक रोऊँघ् कभी—न—कभी तो लोगों को मेरे मन का हाल मालूम ही हो जाएगा।

किंतु जगधार और भैरों दोनों के मन में ईर्ष्‌या का फोड़ा पक रहा था। जगधार कहता था—मैंने तो समझा थाए सहज में पाँच रुपये मिल जाएँगेए नहीं तो क्या कुत्तो ने काटा था कि उससे भिड़ने जाताघ् आदमी काहे का हैए लोहा है।

भैरों—मैं उसकी ताकत की परीक्षा कर चुका हूँ। ठाकुरदीन सच कहता हैए उसे किसी देवता का इष्ट है।

जगधार—इष्ट—विष्ट कुछ नहीं हैए यह सब बेफिकरी है। हम—तुम गृहस्थी के जंजाल में फँसे हुए हैंए नोन—तेल—लकड़ी की चिंता सिर पर सवार रहती हैए घाटे—नफे के फेर में पड़े रहते हैं। उसे कौन चिंता हैघ् मजे से जो कुछ मिल जाता हैए खाता है और मीठी नींद सोता है। हमको—तुमको रोटी—दाल भी दोनों जून नसीब नहीं होती है। उसे क्या कमी हैए किसी ने चावल दिएए कहीं मिठाई पा गयाए घी—दूध बजरंगी के घर से मिल ही जाता है। बल तो खाने से होता है।

भैरों—नहींए यह बात नहीं। नसा खाने से बल का नास हो जाता है।

जगधार—कैसी उलटी बातें करते होय ऐसा होताए तो फौज में गोरों को बारांडी क्यों पिलाई जातीघ् अंगरेज सभी शराब पीते हैंए तो क्या कमजोर होते हैंघ्

भैरों—आज सुभागी आती हैए तो गला दबा देता हूँ।

जगधार—किसी के घर में छिपी बैठी होगी।

भैरों—अंधे ने मेरी आबरू बिगाड़ दी। बिरादरी में यह बात फैलेगीए तो हुक्का बंद हो जाएगाए भात देना पड़ जाएगा।

जगधार—तुम्हीं तो ढ़िंढ़ोरा पीट रहे हो। यह नहींए पटकनी खाई थीए तो चुपके से घर चले आते। सुभागी घर आती तो उससे समझते। तुम लगे वहीं दुहाई देने।

भैरों—इस अंधे को मैं ऐसा कपटी न समझता थाए नहीं तो अब तक कभी उसका मजा चखा चुका होता। अब उस चुड़ैल को घर में न रखूँगा। चमार के हाथों यह बेआबरुई!

जगधार—अब इससे बड़ी और क्या बदनामी होगीए गला काटने का काम है।

भैरों—बसए यही मन में आता है कि चलकर गँड़ासा मारकर काम तमाम कर दूँ। लेकिन नहींए मैं उसे खेला—खेलाकर मारूँगा। सुभागी का दोष नहीं। सारा तूफान इसी ऐबी अंधे का खड़ा किया हुआ है।

जगधार—दोष दोनों का है।

भैरों—लेकिन छेड़छाड़ तो पहले मर्द ही करता है। उससे तो अब मुझे कोई वास्ता नहीं रहाए जहाँ चाहे जाएए जैसे चाहे रहे। मुझे तो अब इसी अंधे से भुगतना है। सूरत से कैसा गरीब मालूम होता हैए जैसे कुछ जानता ही नहींए और मन में इतना कपट भरा हुआ है। भीख माँगते दिन जाते हैंए उस पर भी अभागे की अॉंखें नहीं खुलतीं। जगधारए इसने मेरा सिर नीचा कर दिया। मैं दूसरों पर हँसा करता थाए अब जमाना मुझ पर हँसेगा। मुझे सबसे बड़ा मलाल तो यह है कि अभागिन गई भीए तो चमार के साथ गई। अगर किसी ऐसे आदमी के साथ जातीए जो जात—पाँत मेंए देखने—सुनने मेंए धान—दौलत में मुझसे बढ़़कर होताए तो मुझे इतना रंज न होता। जो सुनेगाए अपने मन में यही कहेगा कि मैं इस अंधे से भी गया—बीता हूँ।

जगधार—औरतों का सुभाव कुछ समझ में नहीं आताय नहीं तोए कहाँ तुम और कहाँ वह अंधा। मुँह पर मक्खियाँ भिनका करती हैंए मालूम होता हैए जूते खाकर आया है।

भैरों—और बेहया कितना बड़ा है! भीख माँगता हैए अंधा हैय पर जब देखो हँसता ही रहता है। मैंने उसे कभी रोते ही नहीं देखा।

जगधार—घर में रुपये गड़े हैंय रोए उसकी बला। भीख तो दिखाने की माँगता है।

भैरों—अब रोएगा। ऐसा रुलाऊँगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा।

यों बातें करते हुए दोनों अपने—अपने घर गए। रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात्‌ सूरदास की झोंपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने—अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम—के—दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थीए ज्वालाएँ लपक—लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं। कभी उनका आकार किसी मंदिर के स्वर्ण—कलश का—सा हो जाता थाए कभी वे वायु के झोंकों से यों कम्पित होने लगती थींए मानो जल में चाँद का प्रतिबिम्ब है। आग बुझाने का प्रयत्न किया जा रहा थाय पर झोंपड़े की आगए ईर्ष्‌या की आग की भाँति कभी नहीं बुझती। कोई पानी ला रहा थाए कोई यों ही शोर मचा रहा थाय किंतु अधिकांश लोग चुपचाप खड़े नैराश्यपूर्ण द्रष्टि से अग्निदाह को देख रहे थेए मानो किसी मित्र की चिताग्नि है।

सहसा सूरदास दौड़ा हुआ आया और चुपचाप ज्वाला के प्रकाश में खड़ा हो गया।

बजरंगी ने पूछा—यह कैसे लगी सूरेए चूल्हे में तो आग नहीं छोड़ दी थीघ्

सूरदास—झोंपड़े में जाने का कोई रास्ता ही नहीं हैघ्

बजरंगी—अब तो अंदर—बाहर सब एक हो गया है। दीवारें जल रही हैं।

सूरदास—किसी तरह नहीं जा सकताघ्

बजरंगी—कैसे जाओगेघ् देखते नहीं होए यहाँ तक लपटें आ रही हैं!

जगधार—सूरेए क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया थाघ्

नायकराम—चूल्हा ठंडा किया होताए तो दुसमनों का कलेजा कैसे ठंडा होता।

जगधार—पंडाजीए मेरा लड़का काम न आएए अगर मुझे कुछ भी मालूम हो। तुम मुझ पर नाहक सुभा करते हो।

नायकराम—मैं जानता हूँ जिसने लगाई है। बिगाड़ न दूँए तो कहना।

ठाकुरदीन—तुम क्या बिगाड़ोगेए भगवान आप ही बिगाड़ देंगे। इसी तरह जब मेरे घर में चोरी हुई थीए तो सब स्वाहा हो गया।

जगधार—जिसके मन में इतनी खुटाई होए भगवान उसका सत्यानाश कर दें।

सूरदास—अब तो लपट नहीं आती।

बजरंगी—हाँए फूस जल गयाए अब धारन जल रही है।

सूरदास—अब तो अंदर जा सकता हूँघ्

नायकराम—अंदर तो जा सकते होय पर बाहर नहीं निकल सकते। अब चलो आराम से सो रहोय जो होना थाए हो गया। पछताने से क्या होगाघ्

सूरदास—हाँए सो रहूँगाए जल्दी क्या है।

थोड़ी देर में रही—सही आग भी बुझ गई। कुशल यह हुई कि और किसी के घर में आग न लगी। सब लोग इस दुर्घटना पर आलोचनाएँ करते हुए विदा हुए। सन्नाटा छा गया। किंतु सूरदास अब भी वहीं बैठा हुआ था। उसे झोंपड़े के जल जाने का दुरूख न थाए बरतन आदि के जल जाने का भी दुरूख न थाय दुरूख था उस पोटली काए जो उसकी उम्र—भर की कमाई थीए जो उसके जीवन की सारी आशाओं का आधार थीए जो उसकी सारी यातनाओं और रचनाओं का निष्कर्ष थी। इस छोटी—सी पोटली में उसकाए उसके पितरों का और उसके नामलेवा का उध्दार संचित था। यही उसके लोक और परलोकए उसकी दीन—दुनिया का आशा—दीपक थी। उसने सोचा—पोटली के साथ रुपये थोड़े ही जल गए होंगेघ् अगर रुपये पिघल भी गए होंगेए तो चाँदी कहाँ जाएगीघ् क्या जानता था कि आज यह विपत्ति आनेवाली हैए नहीं तो यहीं न सोता। पहले तो कोई झोंपड़ी के पास आता ही नय और अगर आग लगाता भीए तो पोटली को पहले ही निकाल लेता। सच तो यों है कि मुझे यहाँ रुपये रखने ही न चाहिए थे। पर रखता कहाँघ् मुहल्ले में ऐसा कौन हैए जिसे रखने को देताघ् हाय! पूरे पाँच सौ रुपये थेए कुछ पैसे ऊपर हो गए थे। क्या इसी दिन के लिए पैसे—पैसे बटोर रहा थाघ् खा लिया होताए तो कुछ तस्कीन होती। क्या सोचता था और क्या हुआ! गया जाकर पितरों को पिंडा देने का इरादा किया था। अब उनसे कैसे गला छूटेगाघ् सोचता थाए कहीं मिठुआ की सगाई ठहर जाएए तो कर डालूँ। बहू घर में आ जायए तो एक रोटी खाने को मिले! अपने हाथों ठोंक—ठोंककर खाते एक जुग बीत गया। बड़ी भूल हुई। चाहिए था कि जैसे—जैसे हाथ में रुपये आतेए एक—एक काम पूरा करता जाता। बहुत पाँव फैलाने का यही फल है!

उस समय तक राख ठंडी हो चुकी थी। सूरदास अटकल से द्वार की ओर झोंपड़े में घुसाय पर दो—तीन पग के बाद एकाएक पाँव भूबल में पड़ गया। ऊपर राख थीए लेकिन नीचे आग। तुरंत पाँव खींच लिया और अपनी लकड़ी से राख को उलटने—पलटने लगाए जिससे नीचे की आग भी जल्द राख हो जाए। आधा घंटे में उसने सारी राख नीचे से ऊपर कर दीए और तब फिर डरते—डरते राख में पैर रखा। राख गरम थीए पर असह्य न थी। उसने उसी जगह की सीधा में राख को टटोलना शुरू कियाए जहाँ छप्पर में पोटली रखी थी। उसका दिल धाड़क रहा था। उसे विश्वास था कि रुपये मिलें या न मिलेंए पर चाँदी तो कहीं गई ही नहीं। सहसा वह उछल पड़ाए कोई भारी चीज हाथ लगी। उठा लियाय पर टटोलकर देखाए तो मालूम हुआ ईंट का टुकड़ा है। फिर टटोलने लगाए जैसे कोई आदमी पानी में मछलियाँ टटोले। कोई चीज हाथ न लगी। तब तो उसने नैराश्य की उतावली और अधीरता के साथ सारी राख छान डाली। एक—एक मुट्ठी राख हाथ में लेकर देखी। लोटा मिलाए तवा मिलाए किंतु पोटली न मिली। उसका वह पैरए जो अब तक सीढ़़ी पर थाए फिसल गया और अब वह अथाह गहराई में जा पड़ा। उसके मुख से सहसा एक चीख निकल आई। वह वहीं राख पर बैठ गया और बिलख—बिलखकर रोने लगा। यह फूस की राख न थीए उसकी अभिलाषाओं की राख थी। अपनी बेबसी का इतना दुरूख उसे कभी न हुआ था।

तड़का हो गयाए सूरदास अब राख के ढ़ेर को बटोरकर एक जगह कर रहा था। आशा से ज्यादा दीर्घजीवी और कोई वस्तु नहीं होती।

उसी समय जगधार आकर बोला—सूरेए सच कहनाए तुम्हें मुझ पर तो सुभा नहीं हैघ्

सूरे को सुभा तो थाए पर उसने इसे छिपाकर कहा—तुम्हारे ऊपर क्यों सुभा करूँगाघ् तुमसे मेरी कौन—सी अदावत थीघ्

जगधार—मुहल्लेवाले तुम्हें भड़काएँगेए पर मैं भगवान से कहता हूँए मैं इस बारे में कुछ नहीं जानता।

सूरदास—अब तो जो कुछ होना थाए हो चुका। कौन जानेए किसी ने लगा दीए या किसी की चिलम से उड़कर लग गईघ् यह भी तो हो सकता है कि चूल्हे में आग रह गई हो। बिना जाने—बूझे किस पर सुभा करूँघ्

जगधार—इसी से तुम्हें चिता दिया कि कहीं सुभे में मैं भी न मारा जाऊँ।

सूरदास—तुम्हारी तरफ से मेरा दिल साफ है।

जगधार को भैरों की बातों से अब यह विश्वास हो गया कि उसी की शरारत है। उसने सूरदास को रुलाने की बात कही थी। उस धमकी को इस तरह पूरा किया। वह वहाँ से सीधो भैरों के पास गया। वह चुपचाप बैठा नारियल का हुक्का पी रहा थाए पर मुख से चिंता और घबराहट झलक रही थी। जगधार को देखते ही बोला—कुछ सुनाय लोग क्या बातचीत कर रहे हैंघ्

जगधार—सब लोग तुम्हारे ऊपर सुभा करते हैं। नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी।

भैरों—यहाँ ऐसी धमकियों की परवा नहीं है। सबूत क्या है कि मैंने लगाईघ्

जगधार—सच कहोए तुम्हीं ने लगाईघ्

भैरों—हाँए चुपके से एक दियासलाई लगा दी।

जगधार—मैं कुछ—कुछ पहले ही समझ गया थाय पर यह तुमने बुरा किया। झोंपड़ी जलाने से क्या मिलाघ् दो—चार दिन में फिर दूसरी झोंपड़ी तैयार हो जाएगी।

भैरों—कुछ होए दिल की आग तो ठंडी हो गई! यह देखो!

यह कहकर उसने एक थैली दिखाईए जिसका रंग धुएँ से काला हो गया था। जगधार ने उत्सुक होकर पूछा—इसमें क्या हैघ् अरे! इसमें तो रुपये भरे हुए हैं।

भैरों—यह सुभागी को बहका ले जाने का जरीबाना है।

जगधार—सच बताओए ये रुपये कहाँ मिलेघ्

भैरों—उसी झोंपड़े में। बड़े जतन से धारन की आड़ में रखे हुए थे। पाजी रोज राहगीरों को ठग—ठगकर पैसे लाता थाए और इसी थैली में रखता था। मैंने गिने हैं। पाँच सौ से ऊपर हैं। न जाने कैसे इतने रुपये जमा हो गए! बचा को इन्हीं रुपयों की गरमी थी। अब गरमी निकल गई। अब देखूँ किस बल पर उछलते हैं। बिरादरी को भोज—भात देने का सामान हो गया। नहीं तोए इस बखत रुपये कहाँ मिलतेघ् आजकल तो देखते ही होए बल्लमटेरों के मारे बिकरी कितनी मंदी है।

जगधार—मेरी तो सलाह है कि रुपये उसे लौटा दो। बड़ी मसक्कत की कमाई है। हजम न होगी।

जगधार दिल का खोटा आदमी नहीं थाय पर इस समय उसने यह सलाह उसे नेकनीयती से नहींए हसद से दी थी। उसे यह असह्य था कि भैरों के हाथ इतने रुपये लग जाएँ। भैरों आधो रुपये उसे देताए तो शायद उसे तस्कीन हो जातीय पर भैरों से यह आशा न की जा सकती थी। बेपरवाही से बोला—मुझे अच्छी तरह हजम हो जाएगी। हाथ में आए हुए रुपये को नहीं लौटा सकता। उसने तो भीख ही माँगकर जमा किए हैंए गेहूँ तो नहीं तौला था।

जगधार—पुलिस सब खा जाएगी।

भैरों—सूरे पुलिस में न जाएगा। रो—धोकर चुप हो जाएगा।

जगधार—गरीब की हाय बड़ी जान—लेवा होती है।

भैरों—वह गरीब है! अंधा होने से ही गरीब हो गयाघ् जो आदमी दूसरों की औरतों पर डोरे डालेए जिसके पास सैकड़ों रुपये जमा होंए जो दूसरों को रुपये उधार देता होए वह गरीब हैघ् गरीब जो कहोए तो हम—तुम हैं। घर में ढ़ूँढ़़ आओए एक पूरा रुपया न निकलेगा। ऐसे पापियों को गरीब नहीं कहते। अब भी मेरे दिल का काँटा नहीं निकला। जब तक उसे रोते न देखूँगाए यह काँटा न निकलेगा। जिसने मेरी आबरू बिगाड़ दीए उसके साथ जो चाहे करूँए मुझे पाप नहीं लग सकता।

जगधार का मन आज खोंचा लेकर गलियों का चक्कर लगाने में न लगा। छाती पर साँप लोट रहा था—इसे दम—के—दम में इतने रुपये मिल गएए अब मौज उड़ाएगा। तकदीर इस तरह खुलती है। यहाँ कभी पड़ा हुआ पैसा भी न मिला। पाप—पुन्न की कोई बात नहीं। मैं ही कौन दिन—भर पुन्न किया करता हूँघ् दमड़ी—छदाम—कौड़ियों के लिए टेनी मारता हूँ! बाट खोटे रखता हूँए तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचता हूँ। ईमान गँवाने पर भी कुछ नहीं लगता। जानता हूँए यह बुरा काम हैय पर बाल—बचों को पालना भी तो जरूरी है। इसने ईमान खोयाए तो कुछ लेकर खोयाए गुनाह बेलज्जत नहीं रहा। अब दो—तीन दूकानों का और ठेका ले लेगा। ऐसा ही कोई माल मेरे हाथ भी पड़ जाताए तो जिंदगानी सुफल हो जाती।

जगधार के मन में ईर्ष्‌या का अंकुर जमा। वह भैरों के घर से लौटा तो देखा कि सूरदास राख को बटोरकर उसे आटे की भाँति गूँधा रहा है। सारा शरीर भस्म से ढ़का हुआ है और पसीने की धारें निकल रही हैं। बोला—सूरेए क्या ढ़ूँढ़़ते होघ्

सूरदास—कुछ नहीं। यहाँ रखा ही क्या था! यही लोटा—तवा देख रहा था।

जगधार—और वह थैली किसकी हैए जो भैरों के पास हैघ्

सूरदास चौंका। क्या इसीलिए भैरों आया थाघ् जरूर यही बात है। घर में आग लगाने के पहले रुपये निकाल लिए होंगे।

लेकिन अंधे भिखारी के लिए दरिद्रता इतनी लज्जा की बात नहीं हैए जितना धान। सूरदास जगधार से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था। वह गया जाकर पिंड दान करना चाहता थाए मिठुआ का ब्याह करना चाहता थाए कुअॉं बनवाना चाहता थाय किंतु इस ढ़ंग से कि लोगों को आश्चर्य हो कि इसके पास रुपये कहाँ से आएए लोग यही समझें कि भगवान्‌ दीन जनों की सहायता करते हैं। भिखारियों के लिए धान—संचय पाप—संचय से कम अपमान की बात नहीं है। बोला—मेरे पास थैली—वैली कहाँघ् होगी किसी की। थैली होतीए तो भीख माँगताघ्

जगधार—मुझसे उड़ते होघ् भैरों मुझसे स्वयं कह रहा था कि झोंपड़े में धारन के ऊपर यह थैली मिली। पाँच सौ रुपये से कुछ बेसी हैं।

सूरदास—वह तुमसे हँसी करता होगा। साढ़़े पाँच रुपये तो कभी जुड़े ही नहींए साढ़़े पाँच सौ कहाँ से आते!

इतने में सुभागी वहाँ आ पहुँची। रात—भर मंदिर के पिछवाड़े अमरूद के बाग में छिपी बैठी थी। वह जानती थीए आग भैरों ने लगाई है। भैरों ने उस पर जो कलंक लगाया थाए उसकी उसे विशेष चिंता न थीए क्योंकि वह जानती थी किसी को इस पर विश्वास न आएगा। लेकिन मेरे कारण सूरदास का यों सर्वनाश हो जाएए इसका उसे बड़ा दुरूख था। वह इस समय उसको तस्कीन देने आई थी। जगधार को वहाँ खड़े देखाए तो झिझकी। भय हुआए कहीं यह मुझे पकड़ न ले। जगधार को वह भैरों ही का दूसरा अवतार समझती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब भैरों के घर न जाऊँगीए अलग रहूँगी और मेहनत—मजूरी करके जीवन का निर्वाह करूँगी। यहाँ कौन लड़के रो रहे हैंए एक मेरा ही पेट उसे भारी है नघ् अब अकेले ठोंके और खाएए और बुढ़़िया के चरण धो—धोकर पिएए मुझसे तो यह नहीं हो सकता। इतने दिन हुएए इसने कभी अपने मन से धोले का सेंदुर भी न दिया होगाए तो मैं क्यों उसके लिए मरूँघ्

वह पीछे लौटना ही चाहती थी कि जगधार ने पुकारा—सुभागीए कहाँ जाती हैघ् देखी अपने खसम की करतूतए बेचारे सूरदास को कहीं का न रखा।

सुभागी ने समझाए मुझे झाँसा दे रहा है। मेरे पेट की थाह लेने के लिए यह जाल फेंका है। व्यंग से बोली—उसके गुरु तो तुम्हीं होए तुम्हीं ने मंत्र दिया होगा।

जगधार—हाँए यही मेरा काम हैए चोरी—डाका न सिखाऊँए तो रोटीयाँ क्योंकर चलें!

सुभागी ने फिर व्यंग किया—रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्याघ्

जगधार—ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूँगाघ् जब तक समझता थाए भला आदमी हैए साथ बैठता थाए हँसता—बोलता थाए ताड़ी भी पी लेता थाए कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना हैए आप ऐेसे धार्मात्मा तो हैं!)य लेकिन आज से कभी उसके पास बैठते देखाए तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाएए गरीबों के रुपये चुरा ले जाएए वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँए लौटा दोए तो लड़ने पर तैयार होता है।

सूरदास—फिर वही रट लगाए जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपये नहीं थेए कहीं और जगह से मार लाया होगाय मेरे पास पाँच सौ रुपये होतेए तो चौन की बंसी न बजाताए दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारताघ्

जगधार—सूरेए अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपये नहीं हैए तो मैं न मानूँगा। मैंने अपनी अॉंखों से वह थैली देखी है। भैरों ने अपने मुँह से कहा है कि यह थैली झोंपड़े में धारन के ऊपर मिली। तुम्हारे बात कैसे मान लूँघ्

सुभागी—तुमने थैली देखी हैघ्

जगधार—हाँए देखी नहीं तो क्या झूठ बोल रहा हूँघ्

सुभागी—सूरदासए सच—सच बता दोए रुपये तुम्हारे हैं!

सूरदास—पागल हो गई है क्याघ् इनकी बातों में आ जाती है! भला मेरे पास रुपये कहाँ से आतेघ्

जगधार—इनसे पूछए रुपये न थेए तो इस घड़ी राख बटोरकर क्या ढ़ूँढ़़ रहे थेघ्

सुभागी ने सूरदास के चेहरे की तरफ अन्वेषण की द्रष्टि से देखा। उसकी उस बीमार की—सी दशा थीए जो अपने प्रियजनों की तस्कीन के लिए अपनी असह्य वेदना को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहा हो। जगधार के निकट आकर बोली—रुपये जरूर थेए इसका चेहरा कहे देता है।

जगधार—मैंने थैली अपनी अॉंखों से देखी है।

सुभागी—अब चाहे वह मुझे मारे या निकालेए पर रहूँगी उसी के घर। कहाँ—कहाँ थैली को छिपाएगाघ् कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर यह बिपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगीए मुझे चौन न आएगी।

यह कहकर वह सूरदास से बोली—तो अब रहोगे कहाँघ्

सूरदास ने यह बात न सुनी। वह सोच रहा था—रुपये मैंने ही तो कमाए थेए क्या फिर नहीं कमा सकताघ् यही न होगाए जो काम इस साल होताए वह कुछ दिनों के बाद होगा। मेरे रुपये थे ही नहींए शायद उस जन्म में मैंने भैरों के रुपये चुराए होंगे। यह उसी का दंड मिला है। मगर बिचारी सुभागी का अब क्या हाल होगाघ् भैरों उसे अपने घर में कभी न रखेगा। बिचारी कहाँ मारी—मारी फिरेगी! यह कलंक भी मेरे सिर लगना था। कहीं का न हुआ। धान गयाए घर गयाए आबरू गईय जमीन बच रही हैए यह भी न जानेए जाएगी या बचेगी। अंधापन ही क्या थोड़ी बिपत थी कि नित ही एक—न—एक चपत पड़ती रहती है। जिसके जी में आता हैए चार खोटी—खरी सुना देता है।

इन दुरूखजनक विचारों से मर्माहत—सा होकर वह रोने लगा। सुभागी जगधार के साथ भैरों के घर की ओर चली जा रही थी और यहाँ सूरदास अकेला बैठा हुआ रो रहा था।

सहसा वह चौंक पड़ा। किसी ओर से आवाज आई—तुम खेल में रोते हो!

मिठुआ घीसू के घर से रोता चला आता थाए शायद घीसू ने मारा था। इस पर घीसू उसे चिढ़़ा रहा था—खेल में रोते हो!

सूरदास कहाँ तो नैराश्यए ग्लानिए चिंता और क्षोभ के अपार जल में गोते खा रहा थाए कहाँ यह चेतावनी सुनते ही उसे ऐसा मालूम हुआए किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया। वाह! मैं तो खेल में रोता हूँ। कितनी बुरी बात है! लड़के भी खेल में रोना बुरा समझते हैंए रोनेवाले को चिढ़़ाते हैंए और मैं खेल में रोता हूँ। सच्चे खिलाड़ी कभी रोते नहींए बाजी—पर—बाजी हारते हैंए चोट—पर—चोट खाते हैंए धाक्के—पर—धाक्के सहते हैंय पर मैदान में डटे रहते हैंए उनकी त्योरियों पर बल नहीं पड़ते। हिम्मत उनका साथ नहीं छोड़तीए दिल पर मालिन्य के छींटे भी नहीं आतेए न किसी से जलते हैंए न चिढ़़ते हैं। खेल में रोना कैसाघ् खेल हँसने के लिएए दिल बहलाने के लिए हैए रोने के लिए नहीं।

सूरदास उठ खड़ा हुआए और विजय—गर्व की तरंग में राख के ढ़ेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा।

आवेग में हम उद्दिष्ट स्थान से आगे निकल जाते हैं। वह संयम कहाँ हैए जो शत्रु पर विजय पाने के बाद तलवार को म्यान में कर लेघ्

एक क्षण में मिठुआए घीसू और मुहल्ले के बीसों लड़के आकर इस भस्म—स्तूप के चारों ओर जमा हो गए और मारे प्रश्नों के सूरदास को परेशान कर दिया। उसे राख फेंकते देखकर सबों को खेल हाथ आया। राख की वर्षा होने लगी। दम—के—दम में सारी राख बिखर गईए भूमि पर केवल काला निशान रह गया।

मिठुआ ने पूछा—दादाए अब हम रहेंगे कहाँघ्

सूरदास—दूसरा घर बनाएँगे।

मिठुआ—और कोई फिर आग लगा देघ्

सूरदास—तो फिर बनाएँगे।

मिठुआ—और फिर लगा देघ्

सूरदास—तो हम भी फिर बनाएँगे।

मिठुआ—और कोई हजार बार लगा देघ्

सूरदास—तो हम हजार बार बनाएँगे।

बालकों को संख्याओं से विशेष रुचि होती है। मिठुआ ने फिर पूछा—और जो कोई सौ लाख बार लगा देघ्

सूरदास ने उसी बालोचित सरलता से उत्तर दिया—तो हम भी सौ लाख बार बनाएँगे।

जब वहाँ राख की चुटकी भी न रहीए तो सब लड़के किसी दूसरे खेल की तलाश में दौड़े। दिन अच्छी तरह निकल आया था। सूरदास ने भी लकड़ी सँभाली और सड़क की तरफ चला। उधार जगधार वहाँ से नायकराम के पास गयाय और यहाँ भी यह वृत्तांत सुनाया। पंडा ने कहा—मैं भैरों के बाप से रुपये वसूल करूँगाए जाता कहाँ हैए उसकी हडिडयों से रुपये निकालकर दम लूँगाए अंधा अपने मुँह से चाहे कुछ कहे या न कहे।

जगधार वहाँ से बजरंगीए दयागिरिए ठाकुरदीन आदि मुहल्ले के सब छोटे—बड़े आदमियों से मिला और यह कथा सुनाई। आवश्यकतानुसार यथार्थ घटना में नमक—मिर्च भी लगाता जाता था। सारा मुहल्ला भैरों का दुश्मन हो गया।

सूरदास तो सड़क के किनारे राहगीरों की जय मना रहा थाए यहाँ मुहल्लेवालों ने उसकी झोंपड़ी बसानी शुरू की। किसी ने फूस दियाए किसी ने बाँस दिएए किसी ने धारन दीए कई आदमी झोंपड़ी बनाने में लग गए। जगधार ही इस संगठन का प्रधान मंत्री था। अपने जीवन में शायद ही उसने इतना सदुत्साह दिखाया हो। ईर्ष्‌या में तम—ही—तम नहीं होताए कुछ सत्‌ भी होता है। संध्या तक झोंपड़ी तैयार हो गईए पहले से कहीं ज्यादा बड़ी और पायदार। जमुनी ने मिट्टी के दो घड़े और दो—तीन हाँड़ियाँ लाकर रख दीं। एक चूल्हा भी बना दिया। सबने गुट कर रखा था कि सूरदास को झोंपड़ी बनने की जरा भी खबर न हो। जब वह शाम को आएए तो घर देखकर चकित हो जाएए और पूछने लगेए किसने बनाईए तब सब लोग कहेंए आप—ही—आप तैयार हो गई।

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अध्याय 12

प्रभु सेवक ताहिर अली के साथ चलेए तो पिता पर झल्लाए हुए थे—यह मुझे कोल्हू का बैल बनाना चाहते हैं। आठों पहर तम्बाकू ही के नशे में डूबा पड़ा रहूँए अधिकारियों की चौखट पर मस्तक रगड़ूँए हिस्से बेचता फिरूँए पत्रों में विज्ञापन छपवाऊँए बस सिगरेट की डिबिया बन जाऊँ। यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं धान कमाने की कल नहीं हूँए मनुष्य हूँए धान—लिप्सा अभी तक मेरे भावों को कुचल नहीं पाई है। अगर मैं अपनी ईश्वरदत्ता रचना—शक्ति से काम न लूँए तो यह मेरी कृतघ्नता होगी। प्रकृति ने मुझे धानोपार्जन के लिए बनाया ही नहींय नहीं तो वह मुझे इन भावों से क्यों भूषित करती। कहते तो हैं कि अब मुझे धान की क्या चिंताए थोड़े दिनों का मेहमान हूँए मानो ये सब तैयारियाँ मेरे लिए हो रही हैं। लेकिन अभी कह दूँ कि आप मेरे लिए यह कष्ट न उठाइएए मैं जिस दशा में हूँए उसी में प्रसन्न हूँए तो कुहराम मच जाए! अच्छी विपत्ति गले पड़ीए जाकर देहातियों पर रोब जमाइएए उन्हें धामकाइएए उनको गालियाँ सुनाइए। क्योंघ् इन सबों ने कोई नई बात नहीं की है। कोई उनकी जायदाद पर जबरदस्ती हाथ बढ़़ाएगाए तो वे लड़ने पर उतारू हो ही जाएँगे। अपने स्वत्वों की रक्षा करने का उनके पास और साधान ही क्या हैघ् मेरे मकान पर आज कोई अधिकार करना चाहेए तो मैं कभी चुपचाप न बैठूँगा। धैर्य तो नैराश्य की अंतिम अवस्था का नाम है। जब तक हम निरुपाय नहीं हो जातेए धैर्य की शरण नहीं लेते। इन मियाँजी को भी जरा—सी चोट आ गईए तो फरियाद लेकर पहुँचे। खुशामदी हैए चापलूसी से अपना विश्वास जमाना चाहता है। आपको भी गरीबों पर रोब जमाने की धुन सवार होगी। मिलकर नहीं रहते बनता। पापा की भी यही इच्छा है। खुदा करेए सब—के—सब बिगड़ खड़े होंए गोदाम में आग लगा दें और इस महाशय की ऐसी खबर लें कि यहाँ से भागते ही बने। ताहिर अली से सरोष होकर बोले—क्या बात हुई कि सब—के—सब बिगड़ खड़े हुएघ्

ताहिर—हुजूरए बिल्कुल बेसबब। मैं तो खुद ही इन सबों से जान बचाता रहता हूँ।

प्रभु सेवक—किसी कार्य के लिए कारण का होना आवश्यक हैय पर आज मालूम हुआ कि वह भी दार्शनिक रहस्य हैए क्योंघ्

ताहिर—(बात न समझकर) जी हाँए और क्या!

प्रभुसेवक—जी हाँए और क्या के क्या मानीघ् क्या आप बात भी नहीं समझतेए या बहरेपन का रोग हैघ् मैं कहता हूँए बिना चिनगारी के आग नहीं लग सकतीय आप फरमाते हैंए जी हाँए और क्या। आपने कहाँ तक शिक्षा पाई हैघ्

ताहिर—(कातर स्वर से) हुजूरए मिडिल तक तालीम पाई थीए पर बदकिस्मती से पास न हो सका। मगर जो काम कर सकता हूँए वह मिडिल पास कर देए तो जो जुर्माना कहिएए दूँ। बहुत दिनों तक चुंगी में मुंशी रह चुका हूँ।

प्रभु सेवक—तो फिर आपके पांडित्य और विद्वता पर किसे शंका हो सकती है! आपके कथन के आधार पर मुझे मान लेना चाहिए कि आप शांत बैठे हुए पुस्तकावलोकन में मग्न थेए या सम्भवतरू ईश्वर—भजन में तन्मय हो रहे थेए और विद्रोहियों का एक सशस्त्रा दल पहुँचकर आप पर हमले करने लगा।

ताहिर—हुजूर तो खुद ही चल रहे हैंए मैं क्या अर्ज करूँए तहकीकात कर लीजिएगा।

प्रभु सेवक—सूर्य को सिध्द करने के लिए दीपक की जरूरत नहीं होती। देहाती लोग प्रायरू बड़े शांतिप्रिय होते हैं। जब तक उन्हें भड़काया न जाएए लड़ाई—दंगा नहीं करते। आपकी तरह उन्हें ईश्वर—भजन से रोटीयाँ नहीं मिलतीं। सारे दिन सिर खपाते हैंए तब रोटीयाँ नसीब होती हैं। आश्चर्य है कि आपके सिर पर जो कुछ गुजरीए उसके कारण भी नहीं बता सकते। इसका आशय इसके सिवा और क्या हो सकता है कि या तो आपको खुदा ने बहुत मोटी बुध्दि दी हैए या आप अपना रोब जमाने के लिए लोगों पर अनुचित दबाव डालते हैं।

ताहिर—हुजूरए झगड़ा लड़कों से शुरू हुआ। मुहल्ले के कई लड़के मेरे लड़कों को मार रहे थे। मैंने जाकर उन सबों की गोशमाली कर दी। बसए इतनी जरा—सी बात पर लोग चढ़़ आए।

प्रभु सेवक—धान्य हैंए आपके साथ भगवान्‌ ने उतना अन्याय नहीं किया हैए जितना मैं समझता था। आपके लड़कों में और मुहल्ले के लड़कों में मार—पीट हो रही थी। अपने लड़कों के रोने की आवाज सुनी और आपका खून उबलने लगा। देहातियों के लड़कों की इतनी हिम्मत कि आपके लड़कों को मारें! खुदा का गजब! आपकी शराफत यह अत्याचार न सह सकी। आपने औचित्यए दूरदर्शिता और सहज बुध्दि को समेटकर ताक पर रख दिया और उन दुस्साहसी लड़कों को मारने दौड़े। तो अगर आप—जैसे सभ्य पुरुष को बाल—संग्राम में हस्तक्षेप करते देखकर और लोग भी आपका अनुसरण करेंए तो आपको शिकायत न होनी चाहिए। आपको दुनिया में इतने दिनों तक रहने के बाद यह अनुभव हो जाना चाहिए था कि लड़कों के बीच में बूढ़़ों को न पड़ना चाहिए। इसका नतीजा बुरा होता है। मगर आप इस अनुभव से वंचित थेए तो आपको इस पाठ के लिए प्रसन्न होना चाहिएए जिससे आपको एक परमावश्यक और महत्व पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके लिए फरियाद करने की जरूरत न थी।

फिटन उड़ी जाती थी और उसके साथ ताहिर अली के होश भी उड़े जाते थे—मैं समझता थाए इन हजरत में ज्यादा इंसानियत होगीय पर देखता हूँ तो यह अपने बाप से भी दो अंगुल ऊँचे हैं। न हारी मानते हैंए न जीती। ये ताने बर्दाश्त नहीं हो सकते। कुछ मुफ्त में तनख्वाह नहीं देते। काम करता हूँए मजदूरी लेता हूँ। तानों—ही—तानों में मुझे कमीनाए अहमकए जाहिलए सब कुछ बना डाला। अभी उम्र में मुझसे कितने छोटे हैं! माहिर से दो—चार साल बड़े होंगेय मगर मुझे इस तरह आड़े हाथों ले रहे हैंए गोया मैं नादान बच्चा हूँ! दौलत ज्यादा होने से अक्ल भी ज्यादा हो जाती है। चौन से जिंदगी बसर होती हैए जभी ये बातें सूझ रही हैं। रोटीयों के लिए ठोकरें खानी पड़तींए तो मालूम होताए तजुर्बा क्या चीज है। आप कोई बात एतराज के लायक देखेंए तो उसे समझाने का हक हैए इसकी मुझे शिकायत नहींय पर जो कुछ कहोए नरमी और हमदर्दी के साथ। यह नहीं कि जहर उगलने लगोए कलेजे को चलनी बना डालो।

ये बातें हो रही थीं कि पाँड़ेपुर आ पहुँचा। सूरदास आज बहुत प्रसन्नचित्ता नजर आता था। और दिन सवारियों के निकल जाने के बाद दौड़ता था। आज आगे ही से उनका स्वागत कियाए फिटन देखते ही दौड़ा। प्रभु सेवक ने फिटन रोक दी और कर्कश स्वर में बोले—क्यों सूरदासए माँगते हो भीखए बनते हो साधु और काम करते हो बदमाशों काघ् मुझसे फौजदारी करने का हौसला हुआ हैघ्

सूरदास—कैसी फौजदारी हुजूरघ् मैं अंधा—अपाहिज आदमी भला क्या फौजदारी करूँगा।

प्रभु सेवक—तुम्हीं ने तो मुहल्लेवालों को साथ लेकर मेरे मुंशीजी पर हमला किया था और गोदाम में आग लगाने को तैयार थेघ्

सूरदास—सरकारए भगवान से कहता हूँए मैं नहीं था। आप लोगों का माँगता हूँए जान—माल का कल्यान मनाता हूँए मैं क्या फौजदारी करूँगाघ्

प्रभु सेवक—क्यों मुंशीजीए यही अगुआ था नघ्

ताहिर—नहीं हुजूरए इशारा इसी का थाए पर यह वहाँ न था।

प्रभु सेवक—मैं इन चालों को खूब समझता हूँ। तुम जानते होगेए इन धमकियों से ये लोग डर जाएँगेए मगर एक—एक से चक्की न पिसवाईए तो कहना कि कोई कहता था। साहब को तुमने क्या समझा है! अगर हाकिमों से झूठ भी कह देंए तो सारा मुहल्ला बँधा जाए। मैं तुम्हें जताए देता हूँ।

फिटन आगे बढ़़ीए तो जगधार मिला। खोंचा हथेली पर रखेए एक हाथ से मक्खियाँ उड़ाता चला जाता था। प्रभु सेवक को देखते ही सलाम करके खड़ा हो गया। प्रभु सेवक ने पूछा—तुम भी कल फौजदारी करनेवालों में थेघ्

जगधार—सरकारए मैं टके का आदमी क्या खाके फौजदारी करूँगाए और बिचारे सूरदास की क्या मजाल है कि सरकार के सामने अकड़ दिखाए। अपनी ही बिपत में पड़ा हुआ है। किसी ने रात को बिचारे की झोंपड़ी में आग लगा दी। बरतन—भाँड़ा सब जल गया। न जाने किस—किस जतन से कुछ रुपये जुटाए थेय वे भी लुट गए। गरीब ने सारी रात रो—रोकर काटी है। आज हम लोगों ने उसका झोंपड़ा बनाया है। अभी छुट्टी मिली हैए तो खोंचा लेकर निकला हूँ। हुकुम होए तो कुछ खिलाऊँ। कचालू खूब चटपटे हैं।

प्रभु सेवक का जी ललचा गया। खोंचा उतारने को कहा और कचालूए दही—बड़ेए फुलौड़ियाँ खाने लगे। भूख लगी हुई थी। ये चीजें बहुत प्रिय लगीं। कहा—सूरदास ने तो यह बात मुझसे नहीं कहीघ्

जगधार—वह कभी न कहेगा। कोई गला भी काट लेए तो शिकायत न करेगा।

प्रभुसेवक—तब तो वास्तव में कोई महापुरुष है। कुछ पता न चलाए किसने झोंपड़े में आग लगाई थीघ्

जगधार—सब मालूम हो गयाए हुजूरए पर किया क्या जाए। कितना कहा गया कि उस पर थाने में रपट कर देए मुआ कहता हैए कौन किसी को फँसाए! जो कुछ भाग में लिखा थाए वह हुआ। हुजूरए सारी करतूत इसी भैरों ताड़ीवाले की है।

प्रभु सेवक—कैसे मालूम हुआघ् किसी ने उसे आग लगाते देखाघ्

जगधार—हुजूरए वह खुद मुझसे कह रहा था। रुपयों की थैली लाकर दिखाई। इससे बढ़़कर और क्या सबूत होगाघ्

प्रभु सेवक—भैरों के मुँह पर कहोगेघ्

जगधार—नहीं सरकारए खून हो जाएगा।

सहसा भैरों सिर पर ताड़ी का घड़ा रखे आता हुआ दिखाई दिया। जगधार ने तुरंत खोंचा उठायाए बिना पैसे लिए कदम बढ़़ाता हुआ दूसरी तरफ चल दिया। भैरों ने समीप आकर सलाम किया। प्रभु सेवक ने अॉंखें दिखाकर पूछा—तू ही भैरों ताड़ीवाला है नघ्

भैरों—(काँपते हुए) हाँ हुजूरए मेरा ही नाम भैरों है।

प्रभु सेवक—तू यहाँ लोगों के घरों में आग लगाता फिरता हैघ्

भैरों—हुजूरए जवानी की कसम खाता हूँए किसी ने हुजूर से झूठ कह दिया है।

प्रभु सेवक—तू कल मेरे गोदाम पर फौजदारी करने में शरीक थाघ्

भैरों—हुजूर का ताबेदार हूँए आपसे फौजदारी करूँगा। मुंसीजी से पूछिएए झूठ कहता हूँ या सच। सरकारए न जाने क्यों सारा मोहल्ला मुझसे दुश्मनी करता है। अपने घर में एक रोटी खाता हूँए वह भी लोगों से नहीं देखा जाता। यह जो अंधा हैए हुजूरए एक ही बदमास है। दूसरों की बहू—बेटीयों पर बुरी निगाह रखता है। माँग—माँगकर रुपये जोड़ लिए हैंए लेन—देन करता है। सारा मोहल्ला उसके कहने में है। उसी के चेले बजरंगी ने फौजदारी की है। मालमस्त हैए गाएं—भैंसे हैंए पानी मिला—मिलाकर दूध बेचता है। उसके सिवा किसका गुरदा है कि हुजूर से फौजदारी करे!

प्रभु सेवक—अच्छा! इस अंधे के पास रुपये भी हैंघ्

भैरों—हुजूरए बिना रुपये के इतनी गरमी और कैसे होगी! जब पेट भरता हैए तभी तो बहू—बेटीयों पर निगाह डालने की सूझती है।

प्रभु सेवक—बेकार क्या बकता हैए अंधा आदमी क्या बुरी निगाह डालेगाघ् मैंने तो सुना हैए वह बहुत सीधा—सादा आदमी है।

भैरों—आपका कुत्ता आपको थोड़े ही काटता हैए आप तो उसकी पीठ सुहलाते हैंय पर जिन्हें काटने दौड़ता हैए वे तो उसे इतना सीधा न समझेंगे।

इतने में भैरों की दूकान आ गई। ग्राहक उसकी राह देख रहे थे। वह अपनी दूकान में चला गया। तब प्रभु सेवक ने ताहिर अली से कहा—आप कहते हैंए सारा मुहल्ला मिलकर मुझे मारने आया था। मुझे इस पर विश्वास नहीं आता। जहाँ लोगों में इतना बैर—विरोध हैए वहाँ इतना एका होना असम्भव है। दो आदमी मिलेए दोनों एक—दूसरे के दुश्मन। अगर आपकी जगह कोई दूसरा होताए तो इस वैमनस्य से मनमाना फायदा उठाता। उन्हें आपस में लड़ाकर दूर से तमाशा देखता। मुझे तो इन आदमियों पर क्रोध के बदले दया आती है।

बजरंगी का घर मिला। तीसरा पहर हो गया था। वह भैसों की नाँद में पानी डाल रहा था। फिटन पर ताहिर अली के साथ प्रभु सेवक को बैठे देखाए तो समझ गया—मियाँजी अपने मालिक को लेकर रोब जमाने आए हैं। जानते हैंए इस तरह मैं दब जाऊँगा। साहब अमीर होंगेए अपने घर के होंगे। मुझे कायल कर दें तो अभी जो जुरमाना लगा देंए वह देने को तैयार हूँय लेकिन जब मेरा कोई कसूर नहींए कसूर सोलहों आने मियाँ ही का हैए तो मैं क्यों दबूँघ् न्याय से दबा लेंए पद से दबा लेंए लेकिन भबकी से दबनेवाले कोई और होंगे।

ताहिर अली ने इशारा कियाए यही बजरंगी है। प्रभु सेवक ने बनावटी क्रोध धारण करके कहा—क्यों बेए कल के हंगामे में तू भी शरीक थाघ्

बजरंगी—शरीक किसके साथ थाघ् मैं अकेला था।

प्रभु सेवक—तेरे साथ सूरदास और मुहल्ले के और लोग न थेय झूठ बोलता है!

बजरंगी—झूठ नहीं बोलताए किसी का दबैल नहीं हूँ। मेरे साथ न सूरदास था और न मोहल्ले का कोई दूसरा आदमी। मैं अकेला था।

घीसू ने हाँक लगाई—पादड़ी! पादड़ी!

मिठुआ बोला—पादड़ी आयाए पादड़ी आया!

दोनों अपने हमजोलियों को यह आनंद—समाचार सुनाने दौड़ेए पादड़ी गाएगाए तसवीरें दिखाएगाए किताबें देगाए मिठाइयाँ और पैसे बाँटेगा। लड़कों ने सुनाए तो वे भी इस लूट का माल बँटाने दौड़े। एक क्षण में वहाँ बीसों बालक जमा हो गए। शहर के दूरवर्ती मोहल्लों में अंगरेजी वस्त्रधारी पुरुष पादड़ी का पर्याय है। नायकराम भंग पीकर बैठे थेए पादड़ी का नाम सुनते ही उठेए उनकी बेसुरी तानों में उन्हें विशेष आनंद मिलता था। ठाकुरदीन ने भी दूकान छोड़ दीए उन्हें पादड़ियों से धार्मिक वाद—विवाद करने की लत थी। अपना धर्मज्ञान प्रकट करने के ऐसे सुंदर अवसर पाकर न छोड़ते थे। दयागिरि भी आ पहुँचेए पर जब लोग पहुँचे तो भेद फिटन के पास खुला। प्रभु सेवक बजरंगी से कह रहे थे—तुम्हारी शामत न आएए नहीं तो साहब तुम्हें तबाह कर देंगे। किसी काम के न रहोगे। तुम्हारी इतनी मजाल!

बजरंगी इसका जवाब देना ही चाहता था कि नायकराम ने आगे बढ़़कर कहा—उस पर आप क्यों बिगड़ते हैंए फौजदारी मैंने की हैए जो कहना होए मुझसे कहिए।

प्रभु सेवक ने विस्मित होकर पूछा—तुम्हारा क्या नाम हैघ्

नायकराम को कुछ तो राजा महेंद्रकुमार के आश्वासनए कुछ विजया की तरंग और कुछ अपनी शक्ति के ज्ञान ने उच्छृंखल बना दिया था। लाठी सीधी करता हुआ बोला—लट्ठमार पाँड़े!

इस जवाब में हेकड़ी की जगह हास्य का आधिक्य था। प्रभु सेवक का बनावटी क्रोध हवा हो गया। हँसकर बोले—तब तो यहाँ ठहरने में कुशल नहीं हैए कहीं बिल खोदना चाहिए।

नायकराम अक्खड़ आदमी था। प्रभु सेवक के मनोभाव न समझ सका। भ्रम हुआ—यह मेरी हँसी उड़ा रहे हैंए मानो कह रहे हैं कि तुम्हारी बकवास से क्या होता हैए हम जमीन लेंगे और जरूर लेंगे। तिनककर बोला—आप हँसते क्या हैंए क्या समझ रखा है कि अंधे की जमीन सहज ही में मिल जाएगीघ् इस धोखे में न रहिएगा।

प्रभु सेवक को अब क्रोध आया। पहले उन्होंने समझा थाए नायकराम दिल्लगी कर रहा है। अब मालूम हुआ कि वह सचमुच लड़ने पर तैयार है। बोले—इस धोखे में नहीं हूँए कठिनाइयों को खूब जानता हूँ। अब तक भरोसा था कि समझौते से सारी बातें तय हो जाएँगीए इसीलिए आया था। लेकिन तुम्हारी इच्छा कुछ और होए तो वही सही। अब तक मैं तुम्हें निर्बल समझता थाए और निर्बलों पर अपनी शक्ति का प्रयोग न करना चाहता था। पर आज जाना कि तुम हेकड़ होए अपने बल का घमंड है। इसलिए अब हम तुम्हें भी अपने हाथ दिखाएँए तो कोई अन्याय नहीं है।

इन शब्दों में नेकनीयती झलक रही थी। ठाकुरदीन ने कहा—हुजूरए पंडाजी की बातों का खियाल न करें। इनकी आदत ही ऐसी हैए जो कुछ मुँह में आयाए बक डालते हैं। हम लोग आपके ताबेदार हैं।

नायकराम—आप दूसरों के बल पर कूदते होंगेए यहाँ अपने हाथों के बल का भरोसा करते हैं। आप लोगों के दिल में जो अरमान होंए निकाल डालिए। फिर न कहना कि धोखे में वार किया। (धीरे से) एक ही हाथ में सारी किरस्तानी निकल जाएगी।

प्रभु सेवक—क्या कहाए जरा जोर से क्यों नहीं कहतेघ्

नायकराम—(कुछ डरकर) कह तो रहा हूँए जो अरमान होए निकाल डालिए।

प्रभु सेवक—नहींए तुमने कुछ और कहा है।

नायकराम—जो कुछ कहा हैए वही फिर कह रहा हूँ। किसी का डर नहीं है।

प्रभु सेवक—तुमने गाली दी है।

यह कहते हुए प्रभु सेवक फिटन से नीचे उतर पड़ेए नेत्रों से ज्वाला—सी निकलने लगीए नथुने फड़कने लगेए सारा शरीर थरथराने लगाए एड़ियाँ ऐसी उछल रही थीं मानो किसी उबलती हुई हाँड़ी का ढ़कना है। आकृति विकृत हो गई थी। उनके हाथ में केवल एक पतली—सी छड़ी थी। फिटन से उतरते ही वह झपटकर नायकराम के कल्ले पर पहुँच गएए उसके हाथ से लाठी छीनकर फेंक दीय और ताबड़तोड़ कई बेंत लगाए। नायकराम दोनों हाथों से वार रोकता पीछे हटता जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि वह अपने होश में नहीं है। वह यह जानता था कि भद्र पुरुष मार खाकर चाहे चुप रह जाएँए गाली नहीं सह सकते। कुछ तो पश्चात्ताापए कुछ आघात की अविलम्बिता और कुछ परिणाम के भय ने उसे वार करने का अवकाश ही न दिया। इन अविरल प्रहारों से वह चौंधिया—सा गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रभु सेवक उसके जोड़ के न थेय किंतु उसमें वह सत्साहसए वह न्याय—पक्ष का विश्वास न थाए जो संख्या और शस्त्रा तथा बल की परवा नहीं करता।

और लोग भी हतबुध्दि—से खड़े रहेय किसी ने बीच—बचाव तक न किया। बजरंगी नायकराम के पसीने की जगह खून बहानेवालों में था। दोनों साथ खेले और एक ही अखाड़े में लड़े थे। ठाकुरदीन और कुछ न कर सकता थाए तो प्रभु सेवक के सामने खड़ा हो सकता थाय किंतु दोनों—के—दोनों सुम—गुम—से ताकते रहे। यह सब कुछ पल मारने में हो गया। प्रभु सेवक अभी तक बेंत चलाते ही जाते थे। जब छड़ी से कोई असर न होते देखाए तो ठोकर चलानी शुरू की। यह चोट कारगर हुई। दो—ही—तीन ठोकरें पड़ी थीं कि नायकराम जाँघ में चोट खाकर गिर पड़ा। उसके गिरते ही बजरंगी ने दौड़कर प्रभु सेवक को हटा दिया और बोला—बस साहबए बसए अब इसी में कुशल है कि आप चले जाइएए नहीं तो खून हो जाएगा।

प्रभु सेवक—हमको कोई चरकटा समझ लिया है बदमाशए खून पी जाऊँगाए गाली देता है!

बजरंगी—बसए अब बहुत न बढ़़िएए यह उसी गाली का फल है कि आप यों खड़े हैंय नहीं तो अब तक न जाने क्या हो गया होता।

प्रभु सेवक क्रोधोन्माद से निकलकर विचार के क्षेत्र में पहुँच चुके थे। आकर फिटन पर बैठ गए और घोड़े को चाबुक माराए घोड़ा हवा हो गया।

बजरंगी ने जाकर नायकराम को उठाया। घुटनों में बहुत चोट आई थीए खड़ा न हुआ जाता था। मालूम होता थाए हड़डी टूट गई है। बजरंगी का कंधा पकड़कर धीरे—धीरे लँगड़ाते हुए घर चले।

ठाकुरदीन ने कहा—नायकरामए भला या बुराए भूल तुम्हारी थी। ये लोग गाली नहीं बर्दाश्त कर सकते।

नायकराम—अरेए तो मैंने गाली कब दी थी भाईए मैंने तो यही कहा था कि एक ही हाथ में किरस्तानी निकल जाएगी। बसए इसी पर बिगड़ गया।

जमुनी अपने द्वार पर खड़े—खड़े यह तमाशा देख रही थी। आकर बजरंगी को कोसने लगी—खड़े मुँह ताकते रहेए और वह लौंडा मार—पीटकर चला गयाए सारी पहलवानी धारी रह गई।

बजरंगी—मैं तो जैसे घबरा गया।

जमुनी—चुप भी रहो। लाज नहीं आती। एक लौंडा आकर सबको पछाड़ गया। यह तुम लोगों के घमंड की सजा है।

ठाकुरदीन—बहुत सच कहती हो जमुनीए यह कौतुक देखकर यही कहना पड़ता है कि भगवान को हमारे गरूर की सजा देनी थीए नहीं तो क्या ऐसे—ऐसे जोधा कठपुतलियों की भाँति खड़े रहते! भगवान्‌ किसी का घमंड नहीं रखते।

नायकराम—यही बात होगी भाईए मैं अपने घमंड में किसी को कुछ न समझता था।

ये बातें करते हुए लोग नायकराम के घर आए। किसी ने आग बनाईए कोई हल्दी पीसने लगा। थोड़ी देर में मुहल्ले के और लोग आकर जमा हो गए। सबको आश्चर्य होता था कि नायकराम—जैसा फेकैत और लठैत कैसे मुँह की खा गया। कहाँ सैकड़ों के बीच से बेदाग निकल आता थाए कहाँ एक लौंडे ने लथेड़ डाला। भगवान की मरजी है।

जगधार हल्दी का लेप करता हुआ बोला—यह सारी आग भैरों की लगाई हुई है। उसने रास्ते ही में साहब के कान भर दिए थे। मैंने तो देखाए उसकी जेब में पिस्तौल भी था।

नायकराम—पिस्तौल और बंदूक सब देखूँगाए अब तो लाग पड़ गई।

ठाकुरदीन—कोई अनुष्ठान करवा दिया जाए।

नायकराम—इसे बीच बाजार में फिटन रोककर मारूँगाए फिर कहीं मुँह दिखाने लायक न रहेगा। अब मन में यही ठन गई है।

सहसा भैरों आकर खड़ा हो गया। नायकराम ने ताना दिया—तुम्हें तो बड़ी खुशी हुई होगी भैरों!

भैरों—क्यों भैयाघ्

नायकराम—मुझ पर मार न पड़ी है!

भैरों—क्या मैं तुम्हारा दुसमन हूँ भैयाघ् मैंने तो अभी दूकान पर सुना। होस उड़ गए। साहब देखने में तो बहुत सीधा—सादा मालूम होता था। मुझसे हँस—हँसकर बातें कींए यहाँ आकर न जाने कौन भूत उस पर सवार हो गया।

नायकराम—उसका भूत मैं उतार दूँगाए अच्छी तरह उतार दूँगाए जरा खड़ा तो होने दो। हाँए जो कुछ राय होए उसकी खबर वहाँ न होने पाएए नहीं तो चौकन्ना हो जाएगा।

बजरंगी—यहाँ हमारा ऐसा कौन बैरी बैठा हुआ हैघ्

जगधार—यह न कहोए घर का भेदी लंका दाहे। कौन जानेए कोई आदमी साबासी लूटने के लिएए इनाम लेने के लिएए सुर्खरू बनने के लिएए वहाँ सारी बातें लगा आए!

भैरों—मुझी पर शक कर रहे हो नघ् तो मैं इतना नीच नहीं हूँ कि घर का भेद दूसरों में खोलता फिरूँ। इस तरह चार आदमी एक जगह रहते हैंए तो आपस में खटपट होती ही हैय लेकिन इतना कमीना नहीं हूँ कि भभीखन की भाँति अपने भाई के घर में आग लगवा दूँ। क्या इतना नहीं जानता कि मरने—जीने मेंए बिपत—सम्पत में मुहल्ले के लोग ही काम आते हैंघ् कभी किसी के साथ विश्वासघात किया हैघ् पंडाजी कह देंए कभी उनकी बात दुलखी हैघ् उनकी आड़ न होतीए तो पुलिस ने अब तक मुझे कब का लदवा दिया होताए नहीं तो रजिस्टर में नाम तक नहीं है।

नायकराम—भैरोंए तुमने अवसर पड़ने पर कभी साथ नहीं छोड़ाए इतना तो मानना ही पड़ेगा।

भैरों—पंडाजीए तुम्हारा हुक्म होए तो आग में कूद पड़ईँ।

इतने में सूरदास भी आ पहुँचा। सोचता आता था—आज कहाँ खाना बनाऊँगाए इसकी क्या चिंता हैय बसए नीम के पेड़ के नीचे बाटीयाँ लगाऊँगा। गरमी के तो दिन हैंए कौन पानी बरस रहा है। ज्यों ही बजरंगी के द्वार पर पहुँचा कि जमुनी ने आज का सारा वृत्तांत कह सुनाया। होश उड़ गए। उपले—ईंधान की सुधि न रही। सीधो नायकराम के यहाँ पहुँचा। बजरंगी ने कहा—आओ सूरेए बड़ी देर लगाईए क्या अभी चले आते होघ् आज तो यहाँ बड़ा गोलमाल हो गया।

सूरदास—हाँए जमुनी ने मुझसे कहा। मैं तो सुनते ही ठक रह गया।

बजरंगी—होनहार थीए और क्या। है तो लौंडाए पर हिम्मत का पक्का है। जब तक हम लोग हाँ—हाँ करेंए तब तक फिटन पर से कूद ही तो पड़ा और लगा हाथ—पर—हाथ चलाने।

सूरदास—तुम लोगों ने पकड़ भी न लियाघ्

बजरंगी—सुनते तो होए जब तक दौड़ेंए तब तक तो उसने हाथ चला ही दिया।

सूरदास—बड़े आदमी गाली सुनकर आपे से बाहर हो जाते हैं।

जगधार—जब बीच बाजार में बेभाव की पड़ेंगीए तब रोएँगे। अभी तो फूले न समाते होंगे।

बजरंगी—जब चौक में निकलेए तो गाड़ी रोककर जूतों से मारें।

सूरदास—अरेए अब जो हो गयाए सो हो गयाए उसकी आबरू बिगाड़ने से क्या मिलेगाघ्

नायकराम—तो क्या मैं यों ही छोड़ दूँगा! एक—एक बेंत के बदले अगर सौ—सौ जूते न लगाऊँ तो मेरा नाम नायकराम नहीं। यह चोट मेरे बदन पर नहींए मेरे कलेजे पर लगी है। बड़ों—बड़ों का सिर नीचा कर चुका हूँए इन्हें मिटाते क्या देर लगती है! (चुटकी बजाकर) इस तरह उड़ा दूँगा!

सूरदास—बैर बढ़़ाने से कुछ फायदा न होगा। तुम्हारा तो कुछ न बिगड़ेगाए लेकिन मुहल्ले के सब आदमी बँधा जाएँगे।

नायकराम—कैसी पागलों की—सी बातें करते हो। मैं कोई धुनिया—चमार हूँ कि इतनी बेइज्जती कराके चुप हो जाऊँघ् तुम लोग सूरदास को कायल क्यों नहीं करते जीघ् क्या चुप होके बैठ रहूँघ् बोलो बजरंगीए तुम लोग भी डर रहे हो कि वह किरस्तान सारे मुहल्ले को पीसकर पी जाएगाघ्

बजरंगी—औरों की तो मैं नहीं कहताए लेकिन मेरा बस चलेए तो उसके हाथ—पैर तोड़ दूँए चाहे जेहल ही क्यों न काटना पड़े। यह तुम्हारी बेइज्ज्ती नहीं हैए मुहल्ले भर के मुँह में कालिख लग गई है।

भैरों—तुमने मेरे मुँह से बात छीन ली। क्या कहूँए उस वक्त मैं न थाए नहीं तो हड़डी तोड़ डालता।

जगधार—पंडाजीए मुँह—देखी नहीं कहताए तुम चाहे दूसरों के कहने—सुनने में आ जाओए लेकिन मैं बिना उसकी मरम्मत किए न मानूँगा।

इस पर कई आदमियों ने कहा—मुखिया की इज्जत गईए तो सबकी गई। वही तो किरस्तान हैंए जो गली—गली ईसा मसीह के गीत गाते फिरते हैं। डोमड़ाए चमारए जो गिरजा में जाकर खाना खा लेए वही किरस्तान हो जाता है। वही बाद को कोट—पतलून पहनकर साहब बन जाते हैं।

ठाकुरदीन—मेरी तो सलाह यही है कि कोई अनुष्ठान कर दिया जाए।

नायकराम—अब बताओ सूरेए तुम्हारी बात मानूँ या इतने आदमियों कीघ् तुम्हें यह डर होगा कि कहीं मेरी जमीन पर अॉंच न आ जाएए तो इससे तुम निश्चिंत रहो। राजा साहब ने जो बात कह दीए उसे पत्थर की लकीर समझो। साहब सिर रगड़कर मर जाएँए तो भी अब जमीन नहीं पा सकते।

सूरदास—जमीन की मुझे चिंता नहीं है। मरूँगाए तो सिर पर लाद थोड़े ही ले जाऊँगा। पर अंत में यह सारा पाप मेरे ही सिर पड़ेगा। मैं ही तो इस सारे तूफान की जड़ हूँए मेरे ही कारन तो यह रगड़—झगड़ मची हुई हैए नहीं तो साहब को तुमसे कौन दुसमनी थी।

नायकराम—यारोए सूरे को समझाओ।

जगधार—सूरेए सोचोए हम लोगों की कितनी बेआबरूई हुई है!

सूरदास—आबरू को बनाने—बिगाड़नेवाला आदमी नहीं हैए भगवान्‌ है। उन्हीं की निगाह में आबरू बनी रहनी चाहिए। आदमियों की निगाह में आबरू की परख कहाँ है। जब सूद खानेवाला बनियाए घूस लेनेवाला हाकिम और झूठ बोलनेवाला गवाह बेआबरू नहीं समझा जाताए लोग उसका आदर—मान करते हैंए तो यहाँ सच्ची आबरू की कदर करने वाला कोई है ही नहीं।

बजरंगी—तुमसे कुछ मतलब नहींए हम लोग जो चाहेंगेए करेंगे।

सूरदास—अगर मेरी बात न मानोगेए तो मैं जाके साहब से सारा माजरा कह सुनाऊँगा।

नायकराम—अगर तुमने उधार पैर रखाए तो याद रखनाए वहीं खोदकर गाड़ दूँगा। तुम्हें अंधा—अपाहिज समझकर तुम्हारी मुरौवत करता हूँए नहीं तो तुम हो किस खेत की मूली! क्या तुम्हारे कहने से अपनी इज्जत गँवा दूँए बाप—दादों के मुँह में कालिख लगवा दूँ! बड़े आए हो वहाँ से ज्ञानी बनके। तुम भीख माँगते होए तुम्हें अपनी इज्जत की फिकिर न होए यहाँ तो आज तक पीठ में धूल नहीं लगी।

सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। चुपके से उठा और मंदिर के चबूतरे पर जाकर लेट गया। मिठुआ प्रसाद के इंतजार में वहीं बैठा हुआ था। उसे पैसे निकालकर दिए कि सत्तू —गुड़ खा ले। मिठुआ खुश होकर बनिए की दूकान की ओर दौड़ा। बच्चों को सत्तू और चबेना रोटीयों से अधिक प्रिय होता है।

सूरदास के चले जाने के बाद कुछ देर तक लोग सन्नाटे में बैठे रहे। उसके विरोध ने उन्हें संशय में डाल दिया था। उसकी स्पष्टवादिता से सब लोग डरते थे। यह भी मालूम था कि वह जो कुछ कहता हैए उसे पूरा कर दिखाता है। इसलिए आवश्यक था कि पहले सूरदास से निबट लिया जाए। उसे कायल करना मुश्किल था। धमकी से भी कोई काम न निकल सकता था। नायकराम ने उस पर लगे हुए कलंक का समर्थन करके उसे परास्त करने का निश्चय किया। बोला—मालूम होता हैए उन लोगों ने अंधे को फोड़ लिया है।

भैरों—मुझे भी यही संदेह होता है।

जगधार—सूरदास फूटनेवाला आदमी नहीं है।

बजरंगी—कभी नहीं।

ठाकुरदीन—ऐसा स्वभाव तो नहीं हैए पर कौन जाने। किसी की नहीं चलाई जाती। मेरे ही घर चोरी हुईए तो क्या बाहर के चोर थेघ् पड़ोसियों की करतूत थी। पूरे एक हजार का माल उठ गया। और वहीं के लोगए जिन्होंने माल उड़ायाए अब तक मेरे मित्र बने हुए हैं। आदमी का मन छिन—भर में क्या से क्या हो जाता है!

नायकराम—शायद जमीन का मामला करने पर राजी हो गया होय पर साहब ने इधार अॉंख उठाकर भी देखाए तो बँगले में आग लगा दूँगा। (मुस्कराकर) भैरों मेरी मदद करेंगे ही।

भैरों—पंडाजीए तुम लोग मेरे ऊपर सुभा करते होए पर मैं जवानी की कसम खाता हूँए जो उसके झोंपड़े के पास भी गया होऊँ। जगधार मेरे यहाँ आते—जाते हैंए इन्हीं से ईमान से पूछिए।

नायकराम—जो आदमी किसी की बहू—बेटी पर बुरी निगाह करेए उसके घर में आग लगाना बुरा नहीं। मुझे पहले तो विश्वास नहीं आता थायपर आज उसके मिजाज का रंग बदला हुआ है।

बजरंगी—पंडाजीए सूर को तुम आज 30 बरसों से देख रहे हो। ऐसी बात न कहो।

जगधार—सूरे में और चाहे जितनी बुराइयाँ होंए यह बुराई नहीं है।

भैरों—मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमने हक—नाहक उस पर कलंक लगाया। सुभागी आज सबेरे आकर मेरे पैरों पर गिर पड़ी और तब से घर से बाहर नहीं निकली। सारे दिन अम्माँ की सेवा—टहल करती रही।

यहाँ तो ये बातें होती रहीं कि प्रभु सेवक का सत्कार क्योंकर किया जाएगा। उसी के कार्यक्रम का निश्चय होता रहा। उधार प्रभु सेवक घर चलेए तो आज के कृत्य पर उन्हें वह संतोष न थाए जो सत्कार्य का सबसे बड़ा इनाम है। इसमें संदेह नहीं कि उनकी आत्मा शांत थी।

कोई भला आदमी अपशब्दों को सहन नहीं कर सकताए और न करना ही चाहिए। अगर कोई गालियाँ खाकर चुप रहेए तो इसका अर्थ यही है कि वह पुरुषार्थहीन हैए उसमें आत्माभिमान नहीं। गालियाँ खाकर भी जिसके खून में जोश न आएए वह जड़ हैए पशु हैए मृतक है।

प्रभु सेवक को खेद यह थी कि मैंने यह नौबत आने ही क्यों दी। मुझे उनसे मैत्री करनी चाहिए थी। उन लोगों को ताहिर अली के गले मिलाना चाहिए थाय पर यह समय—सेवा किससे सीखूँघ् उँह! ये चालें वह चलेए जिसे फैलने की अभिलाषा होए यहाँ तो सिमटकर रहना चाहते हैं। पापा सुनते ही झल्ला उठेंगे। सारा इलजाम मेरे सिर मढ़़ेंगे। मैं बुध्दिहीनए विचारहीनए अनुभवहीन प्राणी हूँ। अवश्य हूँ। जिसे संसार में रहकर सांसारिकता का ज्ञान न होए वह मंदबुध्दि है। पापा बिगड़ेंगेए मैं शांत भाव से उनका क्रोध सह लूँगा। अगर वह मुझसे निराश होकर यह कारखाना खोलने का विचार त्याग देंए तो मैं मुँह—माँगी मुराद पा जाऊँ।

किंतु प्रभु सेवक को कितना आश्चर्य हुआए जब सारा वृत्तांत सुनकर भी जॉन सेवक के मुख पर क्रोध का कोई लक्षण न दिखाई दियाय यह मौन व्यंग्य और तिरस्कार से कहीं ज्यादा दुस्सह था। प्रभु सेवक चाहते थे कि पापा मेरी खूब तम्बीह करेंए जिसमें मुझे अपनी सफाई देने का अवसर मिलेए मैं सिध्द कर दूँ कि इस दुर्घटना का जिम्मेदार मैं नहीं हूँ। मेरी जगह कोई दूसरा आदमी होताए तो उसके सिर भी यही विपत्ति पड़ती। उन्होंने दो—एक बार पिता के क्रोध को उकसाने की चेष्टा कीय किंतु जॉन सेवक ने केवल एक बार उन्हें तीव्र द्रष्टि से देखाए और उठकर चले गए। किसी कवि की यशेच्छा श्रोताओं के मौन पर इतनी मर्माहत न हुई होगी।

मिस्टर जॉन सेवक छलके हुए दूध पर अॉंसू न बहाते थे। प्रभु सेवक के कार्य की तीव्र आलोचना करना व्यर्थ था।वह जानते थे कि इसमें आत्मसम्मान कूट—कूटकर भरा हुआ है। उन्होंने स्वयं इस भाव का पोषण किया था। सोचने लगे—इस गुत्थी को कैसे सुलझाऊँघ् नायकराम मुहल्ले का मुखिया है। सारा मुहल्ला इसके इशारों का गुलाम है। सूरदास तो केवल स्वर भरने के लिए है। औरए नायकराम मुखिया ही नहींए शहर का मशहूर गुंडा भी है। बड़ी कुशल हुई कि प्रभु सेवक वहाँ से जीता—जागता लौट आया। राजा साहब बड़ी मुश्किलों से सीधो हुए थे! नायकराम उनके पास जरूर फरियाद करेगाए अबकी हमारी ज्यादती साबित होगी। राजा साहब को पूँजीवालों से यों ही चिढ़़ हैए यह कथा सुनते ही जामे से बाहर हो जाएँगे। फिर किसी तरह उनका मुँह सीधा न होगा। सारी रात जॉन सेवक इसी उधोड़बुन में पड़े रहे। एकाएक उन्हें एक बात सूझी। चेहरे पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी। सम्भव हैए यह चाल सीधी पड़ जाएए तो फिर बिगड़ा हुआ काम सँवर जाए। सुबह को हाजिरी खाने के बाद फिटन तैयार कराई और पाँड़ेपुर चल दिए।

नायकराम ने पैरों में पट्टियाँ बाँध ली थींए शरीर में हल्दी की मालिश कराए हुए थेए एक डोली मँगवा रखी थी और राजा महेंद्रकुमार के पास जाने को तैयार थे। अभी मुहूर्त में दो—चार पल की कसर थी। बजरंगी और जगधार साथ जानेवाले थे। सहसा फिटन पहुँचीए तो लोग चकित हो गए। एक क्षण में सारा मुहल्ला आकर जमा हो गयाए आज क्या होगाघ्

जॉन सेवक नायकराम के पास जाकर बोले—आप ही का नाम नायकराम पाँड़े है नघ् मैं आपसे कल की बातों के लिए क्षमा माँगने आया हूँ। लड़के ने ज्यों ही मुझसे यह समाचार कहाए मैंने उसको खूब डाँटाए और रात ज्यादा न हो गई होतीए तो मैं उसी वक्त आपके पास आया होता। लड़का कुमार्गी और मूर्ख है। कितना ही चाहता हूँ कि उसमें जरा आदमीयत आ जाएए पर ऐसी उलटी समझ है कि किसी बात पर धयान ही नहीं देता। विद्या पढ़़ने के लिए विलायत भेजाए वहाँ से भी पास हो आयाय पर सज्जनता न आई। उसकी नादानी का इससे बढ़़कर और क्या सबूत होगा कि इतने आदमियों के बीच में वह आपसे बेअदबी कर बैठा। अगर कोई आदमी शेर पर पत्थर फेंकेए तो उसकी वीरता नहींए उसका अभिमान भी नहींए उसकी बुध्दिहीनता है। ऐसा प्राणी दया के योग्य हैय क्योंकि जल्द या देर में वह शेर के मुँह का ग्रास बन जाएगा। इस लौंडे की ठीक यही दशा है। आपने मुरौवत न की होतीए क्षमा से न काम लिया होताए तो न जाने क्या हो जाता। जब आपने इतनी दया की हैए तो दिल से मलाल भी निकाल डालिए।

नायकराम चारपाई पर लेट गएए मानो खड़े रहने में कष्ट हो रहा हैए और बोले—साहबए दिल से मलाल तो न निकलेगाए चाहे जान निकल जाए। इसे हम लोगों की मुरौवत कहिएए चाहे उनकी तकदीर कहिए कि वह यहाँ से बेदाग चले गएय लेकिन मलाल तो दिल में बना हुआ है। वह तभी निकलेगाए जब या तो मैं न रहूँगा या वह न रहेंगे। रही भलमनसीए भगवान्‌ ने चाहा तो जल्द ही सीख जाएँगे। बसए एक बार हमारे हाथ में फिर पड़ जाने दीजिए। हमने बड़े—बड़े को भलामानुस बना दियाए उनकी क्या हस्ती है।

जॉन सेवक—अगर आप इतनी आसानी से उसे भलमनसी सिखा सकेंए तो कहिए आप ही के पास भेज दूँय मैं तो सब कुछ करके हार गया।

नायकराम—बोलो भाई बजरंगीए साहब की बातों का जवाब दोए मुझसे तो बोला नहीं जाताए रात कराह—कराहकर काटी है। साहब कहते हैंए माफ कर दोए दिल में मलाल न रखो। मैं तो यह सब व्यवहार नहीं जानता। यहाँ तो ईंट का जवाब पत्थर से देना सीखा है।

बजरंगी—साहब लोगों का यही दस्तूर है। पहले तो मारते हैंए और जब देखते हैं कि अब हमारे ऊपर भी मार पड़ा चाहती हैए तो चट कहते हैंए माफ कर दोय यह नहीं सोचते कि जिसने मार खाई हैए उसे बिन मारे कैसे तस्कीन होगी।

जॉन सेवक—तुम्हारा यह कहना ठीक हैए लेकिन यह समझ लो कि क्षमा बदले के भय से नहीं माँगी जाती। भय से आदमी छिप जाता हैए दूसरों की मदद माँगने दौड़ता हैए क्षमा नहीं माँगता। क्षमा आदमी उसी वक्त माँगता हैए जब उसे अपने अन्याय और बुराई का विश्वास हो जाता हैए और जब उसकी आत्मा उसे लज्जित करने लगती है। प्रभु सेवक से तुम माफी माँगने को कहोए तो कभी न राजी होगा। तुम उसकी गरदन पर तलवार चलाकर भी उसके मुँह से क्षमा—याचना का एक शब्द नहीं निकलवा सकते। अगर विश्वास न होए तो इसकी परीक्षा कर लोए इसका कारण यही है कि वह समझता हैए मैंने कोई ज्यादती नहीं की। वह कहता हैए मुझे उन लोगों ने गालियाँ दीं। लेकिन मैं इसे किसी तरह नहीं मान सकता कि आपने उसे गालियाँ दी होंगी। शरीफ आदमी न गालियाँ देता हैए न गालियाँ सुनता है। मैं जो क्षमा माँग रहा हूँए वह इसलिए कि मुझे यहाँ सरासर उसकी ज्यादती मालूम होती है। मैं उसके दुर्वव्यवहार पर लज्जित हूँए और मुझे इसका दुरूख है कि मैंने उसे यहाँ क्यों आने दिया। सच पूछिएए तो अब मुझे यही पछतावा हो रहा है कि मैंने इस जमीन को लेने की बात ही क्यों उठाई। आप लोगों ने मेरे गुमाश्ते को माराए मैंने पुलिस में रपट तक न की। मैंने निश्चय कर लिया कि अब इस जमीन का नाम न लूँगा। मैं आप लोगों को कष्ट नहीं देना चाहताए आपको उजाड़कर अपना घर नहीं बनाना चाहता। अगर तुम लोग खुशी से दोगे तो लूँगाए नहीं तो छोड़ दूँगा। किसी का दिल दुरूखाना सबसे बड़ा अधर्म कहा गया है। जब तक आप लोग मुझे क्षमा न करेंगेए मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।

उद्दंडता सरलता का केवल उग्र रूप है। साहब के मधुर वाक्यों ने नायकराम का क्रोध शांत कर दिया। कोई दूसरा आदमी इतनी ही आसानी से उसे साहब की गरदन पर तलवार चलाने के लिए उत्तोजित कर सकता थाय सम्भव थाए प्रभु सेवक को देखकर उसके सिर पर खून सवार हो जाताय पर इस समय साहब की बातों ने उसे मंत्रमुग्धा—सा कर दिया। बोला—कहो बजरंगीए क्या कहते होघ्

बजरंगी—कहना क्या हैए जो अपने सामने मस्तक नवातेए उसके सामने मस्तक नवाना ही पड़ता है। साहब यह भी तो कहते हैं कि अब इस जमीन से कोई सरोकार न रखेंगेए तो हमारे और इनके बीच में झगड़ा ही क्या रहाघ्

जगधार—हाँए झगड़े का मिट जाना ही अच्छा है। बैर—विरोध से किसी का भला नहीं होता।

भैंरों के—छोटे साहब को चाहिए कि आकर पंडाजी से खता माफ करावें। अब वह कोई बालक नहीं हैं कि आप उनकी ओर से सिपारिस करें। बालक होतेए तो दूसरी बात थीए तब हम लोग आप ही को उलाहना देते। वह पढ़़े—लिखे आदमी हैंए मूँछ—दाढ़़ी निकल आई है। उन्हें खुद आकर पंडाजी से कहना—सुनना चाहिए।

नायकराम—हाँए यह बात पक्की है। जब तक वह थूककर न चाटेंगेए मेरे दिल से मलाल न निकलेगा।

जॉन सेवक—तो तुम समझते हो कि दाढ़़ी—मूँछ आ जाने से बुध्दि आ जाती हैघ् क्या ऐसे आदमी नहीं देखे हैंए जिनके बाल पक गए हैंए दाँत टूट गए हैंए और अभी तक अक्ल नहीं आईघ् प्रभु सेवक अगर बुध्दू न होताए तो इतने आदमियों के बीच में और पंडाजी—जैसे पहलवान पर हाथ न उठाता। उसे तुम कितना ही दबाओए पर मुआफी न माँगेगा। रही जमीन की बातए अगर तुम लोगों की मरजी है कि मैं इस मुआमले को दबा रहने दूँए तो यही सही। पर शायद अभी तक तुम लोगों ने इस समस्या पर विचार नहीं कियाए नहीं तो कभी विरोध न करते। बतलाइए पंडाजीए आपको क्या शंका हैघ्

नायकराम—भैंरों केए इसका जवाब दो। अब तो साहब ने तुमको कायल कर दिया!

भैरों—कायल क्या कर दियाए साहब यही कहते हैं न कि छोटे साहब को अक्कल नहीं हैय तो वह कुएँ में क्यों नहीं कूद पड़तेए अपने दाँतों से अपना हाथ क्यों नहीं काट लेतेघ् ऐसे आदमियों को कोई कैसे पागल समझ लेघ्

जॉन सेवक—जो आदमी न समझे कि किस मौके पर कौन काम करना चाहिएए किस मौके पर कौन बात करनी चाहिएए वह पागल नहीं तो और क्या हैघ्

नायकराम—साहबए उन्हें मैं पागल तो किसी तरह न मानूँगा। हाँ आपका मुँह देखके उनसे बैर न बढ़़ाऊँगा। आपकी नम्रता ने मेरा सिर झुका दिया है। सच कहता हूँए आपकी भलमनसी और शराफत ने मेरा गुस्सा ठंडा कर दियाए नहीं तो मेरे दिल में न जाने कितना गुबार भरा हुआ था। अगर आप थोड़ी देर और न आतेए तो आज शाम तक छोटे साहब अस्पताल में होते। आज तक कभी मेरी पीठ में धूल नहीं लगी। जिंदगी में पहली बार मेरा इतना अपमान हुआ और पहली बार मैंने क्षमा करना भी सीखा। यह आपकी बुध्दि की बरकत है। मैं आपकी खोपड़ी को मान गया। अब साहब की दूसरी बात का जवाब दो बजरंगी।

बजरंगी—उसमें अब काहे का सवाल—जवाब। साहब ने तो कह दिया कि मैं उसका नाम न लूँगा। बसए झगड़ा मिट गया।

जॉन सेवक—लेकिन अगर उस जमीन के मेरे हाथ में आने से तुम्हारा सोलहों आने फायदा होए तो भी तुम हमें न लेने दोगेघ्

बजरंगी—हमारा फायदा क्या होगाए हम तो मिट्टी में मिल जाएँगे।

जॉन सेवक—मैं तो दिखा दूँगा कि यह तुम्हारा भ्रम है। बतलाओए तुम्हें क्या एतराज हैघ्

बजरंगी—पंडाजी के हजारों यात्री आते हैंए वे इसी मैदान में ठहरते हैं। दस—दसए बीस—बीस दिन पड़े रहते हैंए वहीं खाना बनाते हैंए वहीं सोते भी हैं। सहर के धरमसालों में देहात के लोगों को आराम कहाँघ् यह जमीन न रहेए तो कोई यात्री यहाँ झाँकने भी न आए।

जॉन सेवक—यात्रीयों के लिएए सड़क के किनारेए खपरैल के मकान बनवा दिए जाएँए तो कैसाघ्

बजरंगी—इतने मकान कौन बनवाएगाघ्

जॉन सेवक—इसका मेरा जिम्मा। मैं वचन देता हूँ कि यहाँ धर्मशाला बनवा दूँगा।

बजरंगी—मेरी और मुहल्ले के आदमियों की गायें—भैंसे कहाँ चरेंगीघ्

जॉन सेवक—अहाते में घास चराने का तुम्हें अख्तियार रहेगा। फिरए अभी तुम्हें अपना सारा दूध लेकर शहर जाना पड़ता है। हलवाई तुमसे दूध लेकर मलाईए मक्खनए दही बनाता हैए और तुमसे कहीं ज्यादा सुखी है। यह नफा उसे तुम्हारे ही दूध से तो होता है! तुम अभी यहाँ मलाई—मक्खन बनाओए तो लेगा कौनघ् जब यहाँ कारखाना खुल जाएगाए तो हजारों आदमियों की बस्ती हो जाएगीए तुम दूध की मलाई बेचोगेए दूध अलग बिकेगा। इस तरह तुम्हें दोहरा नफा होगा। तुम्हारे उपले घर बैठे बिक जाएँगे। तुम्हें तो कारखाना खुलने से सब नफा—ही—नफा है।

नायकराम—आता है समझ में न बजरंगीघ्

बजरंगी—समझ में क्यों नहीं आताए लेकिन एक मैं दूध की मलाई बना लूँगाए और लोग भी तो हैंए दूध खाने के लिए जानवर पाले हुए हैं। उन्हें तो मुसकिल पड़ेगी।

ठाकुरदीन—मेरी ही एक गाय है। चोरों का बस चलताए तो इसे भी ले गए होते। दिन—भर वह चरती है। साँझ सबेरे दूध दुहकर छोड़ देता हूँ। धोले का भी चारा नहीं लेना पड़ता। तब तो आठ आने रोज का भूसा भी पूरा न पड़ेगा।

जॉन सेवक—तुम्हारी पान की दूकान है नघ् अभी तुम दस—बारह आने पैसे कमाते होगे। तब तुम्हारी बिक्री चौगुनी हो जाएगी। इधार की कमी उधार पूरी हो जाएगी। मजदूरों को पैसे की पकड़ नहीं होतीय काम से जरा फुरसत मिली कि कोई पान पर गिराय कोई सिगरेट पर दौड़ा। खोंचेवाले की खासी बिक्री होगीए और शराब—ताड़ी का पूछना ही क्याए चाहो तो पानी को शराब बनाकर बेचो। गाड़ीवालों की मजदूरी बढ़़ जाएगी। यही मोहल्ला चौक की भाँति गुलजार हो जाएगा। तुम्हारे लड़के अभी शहर पढ़़ने जाते हैंए तब यहीं मदरसा खुल जाएगा।

जगधार—क्या यहाँ मदरसा भी खुलेगाघ्

जॉन सेवक—हाँए कारखाने के आदमियों के लड़के आखिर पढ़़ने कहाँ जाएँगेघ् अंगरेजी भी पढ़़ाई जाएगी।

जगधर—फीस कुछ कम ली जाएगीघ्

जॉन सेवक—फीस बिलकुल ही न ली जाएगीए कम—ज्यादा कैसी!

जगधार—तब तो बड़ा आराम हो जाएगा।

नायकराम—जिसका माल हैए उसे क्या मलेगाघ्

जॉन सेवक—जो तुम लोग तय कर दो। मैं तुम्हीं को पंच मानता हूँ। बसए उसे राजी करना तुम्हारा काम है।

नायकराम—वह राजी ही है। आपने बात—की—बात में सबको राजी कर लियाए नहीं तो यहाँ लोग मन में न जाने क्या—क्या समझे बैठे थे। सच हैए विद्या बड़ी चीज है।

भैरों—वहाँ ताड़ी की दूकान के लिए कुछ देना तो न पड़ेगाघ्

नायकराम—कोई और खड़ा हो गयाए तो चढ़़ा—ऊपरी होगी ही।

जॉन सेवक—नहींए तुम्हारा हक सबसे बढ़़कर समझा जाएगा।

नायकराम—तो फिर तुम्हारी चाँदी है भैरों!

जॉन सेवक—तो अब मैं चलूँ पंडाजीए अब आपके दिल में मलाल तो नहीं हैघ्

नायकराम—अब कुछ कहलाइए नए आपका—सा भलामानुस आदमी कम देखा।

जॉन सेवक चले गए तो बजरंगी ने कहा—कहीं सूरे राजी न हुएए तोघ्

नायकराम—हम तो राजी करेंगे! चार हजार रुपये दिलाने चाहिए। अब इसी समझौते में कुशल है। जमीन रह नहीं सकती। यह आदमी इतना चतुर है कि इससे हम लोग पेस नहीं पा सकते। यों निकल जाएगी तो हमारे साथ यह सलूक कौन करेगाघ् सेंत में जस मिलता होए तो छोड़ना न चाहिए।

जॉन सेवक घर पहुँचे तो डिनर तैयार था। प्रभु सेवक ने पूछा—आप कहाँ गए थेघ् जॉन सेवक ने रूमाल से मुँह पोंछते हुए कहा—हरएक काम करने की तमीज चाहिए। कविता रच लेना दूसरी बात हैए काम कर दिखाना दूसरी बात। तुम एक काम करने गएए मोहल्ले—भर से लड़ाई ठानकर चले आए। जिस समय मैं पहुँचा हूँए सारे आदमी नायकराम के द्वार पर जमा थे। वह डोली में बैठकर शायद राजा महेंद्रसिंह के पास जाने को तैयार था। मुझे सबों ने यों देखा जैसे फाड़ जाएँगे। लेकिन मैंने कुछ इस तरह धैर्य और विनय से काम लियाए उन्हें दलीलों और चिकनी—चुपड़ी बातों में ऐसा ढ़र्रे पर लाया कि जब चलाए तो सब मेरा गुणानुवाद कर रहे थे। जमीन का मुआमला भी तय हो गया। उसके मिलने में अब कोई बाधा नहीं है।

प्रभु सेवक—पहले तो सब उस जमीन के लिए मरने—मारने पर तैयार थे।

जॉन सेवक—और कुछ कसर थीए तो वह तुमने जाकर पूरी कर दी। लेकिन याद रखोए ऐसे विषयों में सदैव मार्मिक अवसर पर निगाह रखनी चाहिए। यही सफलता का मूल—मंत्र है। शिकारी जानता हैए किस वक्त हिरन पर निशाना मारना चाहिए। वकील जानता हैए अदालत पर कब उसकी युक्तियों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ सकता है। एक महीना नहींए एक दिन पहलेए मेरी बातों का इन आदमियों पर जरा भी असर न होता। कल तुम्हारी उद्दंडता ने वह अवसर प्रस्तुत कर दिया। मैं क्षमाप्रार्थी बनकर उनके सामने गया। मुझे दबकरए झुककरए दीनता सेए नम्रता से अपनी समस्या को उनके सम्मुख उपस्थित करने का अवसर मिला। यदि उनकी ज्यादती होतीए तो मेरी ओर से भी कड़ाई की जाती। उस दशा में दबना नीति और आचरण के विरुध्द होता। ज्यादती हमारी ओर से हुईए बस यही मेरी जीत थी।

ईश्वर सेवक बोले—ईश्वरए इस पापी को अपनी शरण में ले। बर्फ आजकल बहुत महँगी हो गई हैए फिर समझ में नहीं आताए क्यों इतनी निर्दयता से खर्च की जाती है। सुराही का पानी काफी ठंडा होता है।

जॉन सेवक—पापाए क्षमा कीजिएए बिना बर्फ के प्यास ही नहीं बूझती।

ईश्वर सेवक—खुदा ने चाहा बेटाए तो उस जमीन का मुआमला तय हो जाएगा। आज तुमने बड़ी चतुरता से काम किया।

मिसेज सेवक—मुझे इन हिंदुस्तानियों पर विश्वास नहीं आता। दगाबाजी कोई इनसे सीख ले। अभी सब—के—सब हाँ—हाँ कह रहे हैंए मौका पड़ने पर सब निकल जाएँगे। महेंद्रसिंह ने नहीं धोखा दियाघ् यह जाति ही हमारी दुश्मन है। इनका वश चलेए तो एक ईसाई भी मुल्क में न रहने पाए।

प्रभु सेवक—मामाए यह आपका अन्याय हैघ् पहले हिंदुस्तानियों की ईसाइयों से कितना ही द्वेष रहा होए किंतु अब हालत बदल गई है। हम खुद अंगरेजों की नकल करके उन्हें चिढ़़ाते हैं। प्रत्येक अवसर पर अंगरेजों की सहायता से उन्हें दबाने की चेष्टा करते हैं। किंतु यह हमारी राजनीतिक भ्रांति है। हमारा उध्दार देशवासियों से भ्रातृभाव रखने में हैए उन पर रोब जमाने में नहीं। आखिर हम भी तो इसी जननी की संतान हैं। यह असम्भव है कि गोरी जातियाँ केवल धर्म के नाते हमारे साथ भाईचारे का व्यवहार करें। अमेरिका के हबशी ईसाई हैंए लेकिन अमेरिका के गोरे उनके साथ कितना पाशविक और अत्याचारपूर्ण बर्ताव करते हैं! हमारी मुक्ति भारतवासियों के साथ है।

मिसेज सेवक—खुदा वह दिन न लाए कि हम इन विधार्मियों की दोस्ती को अपने उध्दार का साधान बनाएँ। हम शासनाधिकारियों के सहधार्मी हैं। हमारा धर्मए हमारी रीति—नीतिए हमारा आहार—व्यवहार अंगरेजों के अनुकूल है। हम और वे एक कलिसिया मेंए एक परमात्मा के सामनेए सिर झुकाते हैं। हम इस देश में शासक बनकर रहना चाहते हैंए शासित बनकर नहीं। तुम्हें शायद कुँवर भरतसिंह ने यह उपदेश दिया है। कुछ दिन और उनकी सोहबत रहीए तो शायद तुम भी ईसू से विमुख हो जाओ।

प्रभु सेवक—मुझे तो ईसाइयों में जागृति के विशेष लक्षण नहीं दिखाई देते।

जॉन सेवक—प्रभु सेवकए तुमने बड़ा गहन विषय छेड़ दिया। मेरे विचार में हमारा कल्याण अंगरेजों के साथ मेल—जोल करने में है। अंगरेज इस समय भारतवासियों की संयुक्त शक्ति से चिंतित हो रहे हैं। हम अंगरेजों से मैत्री करके उन पर अपनी राजभक्ति का सिक्का जमा सकते हैंए और मनमाने स्वत्व प्राप्त कर सकते हैं। खेद यही है कि हमारी जाति ने अभी तक राजनीतिक क्षेत्र में पग ही नहीं रखा। यद्यपि देश में हम अन्य जातियों से शिक्षा में कहीं आगे बढ़़े हुए हैंय पर अब तक राजनीति पर हमारा कोई प्रभाव नहीं है। हिंदुस्तानियों में मिलकर हम गुम हो जाएँगेए खो जाएँगे। उनसे पृथक्‌ रहकर विशेष अधिकार और विशेष सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।

ये ही बातें हो रही थीं कि एक चपरासी ने आकर एक खत दिया। यह जिलाधीश मिस्टर क्लार्क का खत था। उनके यहाँ विलायत से कई मेहमान आए हुए थे। क्लार्क ने उनके सम्मान में एक डिनर दिया थाए और मिसेज सेवक तथा मिस सोफिया सेवक को उसमें सम्मिलित होने के लिए निमंत्रित किया था। साथ ही मिसेज सेवक से विशेष अनुरोध भी किया था कि सोफिया को एक सप्ताह के लिए अवश्य बुला लीजिए।

चपरासी के चले जाने के बाद मिसेज सेवक ने कहा—सोफी के लिए यह स्वर्ण—संयोग है।

जॉन सेवक—हाँए है तोय पर वह आएगी कैसेघ्

मिसेज सेवक—उसके पास यह पत्र भेज दूँघ्

जॉन सेवक—सोफी इसे खोलकर देखेगी भी नहीं। उसे जाकर लिवा क्यों न हीं लातींघ्

मिसेज सेवक—वह तो आती ही नहीं।

जॉन सेवक—तुमने कभी बुलाया ही नहींए आती क्योंकरघ्

मिसेज सेवक—वह आने के लिए कैसी शर्त लगाती है!

जॉन सेवक—अगर उसकी भलाई चाहती होए तो अपनी शतोर्ं को तोड़ दो।

मिसेज सेवक—वह गिरजा न जाएए तो भी जबान न खोलूँघ्

जॉन सेवक—हजारों ईसाई कभी गिरजा नहीं जातेए और अंगरेज तो बहुत कम आते हैं।

मिसेज सेवक—प्रभु मसीह की निंदा करेए तो भी चुप रहूँघ्

जॉन सेवक—वह मसीह की निंदा नहीं करतीए और न कर सकती है। जिसे ईश्वर ने जरा भी बुध्दि दी हैए वह प्रभु मसीह का सच्चे दिल से सम्मान करेगा। हिंदू तक ईसू का नाम आदर के साथ लेते हैं। अगर सोफी मसीह को अपना मुक्तिदाताए ईश्वर का बेटा या ईश्वर नहीं समझतीए तो उस पर जब्र क्यों किया जाएघ् कितने ही ईसाइयों को इस विषय में शंकाएँ हैं चाहे वे उन्हें भयवश प्रकट न करें। मेरे विचार में अगर कोई प्राणी अच्छे कर्म करता है और शुध्द विचार रखता हैए तो वह उस मसीह के उस भक्त से कहीं श्रेष्ठ हैए जो मसीह का नाम तो जपता हैए पर नीयत का खराब है।

ईश्वर सेवक—या खुदाए इस खानदान पर अपना साया फैला। बेटाए ऐसी बातें जबान से न निकालो। मसीह का दास कभी सन्मार्ग से नहीं फिर सकता। उस पर प्रभु मसीह की दयाद्रष्टि रहती है।

जॉन सेवक—(स्त्री से) तुम कल सुबह चली जाओए रानी से भेंट भी हो जाएगी और सोफी को भी लेती आओगी।

मिसेज सेवक—अब जाना ही पड़ेगा। जी तो न हीं चाहताय पर जाऊँगी। उसी की टेक रहे!

सूरदास संध्या समय घर आयाए और सब समाचार सुनेए तो नायकराम से बोला—तुमने मेरी जमीन साहब को दे दीघ्

नायकराम—मैंने क्यों दीघ् मुझसे वास्ताघ्

सूरदास—मैं तो तुम्हीं को सब कुछ समझता था और तुम्हारे ही बल पर कूदता थाए पर आज तुमने भी साथ छोड़ दिया। अच्छी बात है। मेरी भूल थी कि तुम्हारे बल पर फूला हुआ था। यह उसी की सजा है। अब न्याय के बल पर लड़ूँगाए भगवान ही का भरोसा करूँगा।

नायकराम—बजरंगीए जरा भैरों को बुला लोए इन्हें सब बातें समझा दें। मैं इनसे कहाँ तक मगज लगाऊँ।

बजरंगी—भैरों को क्यों बुला लँए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता। भैरों को इतना सिर चढ़़ा दियाए इसी से तो उसे घमंड हो गया है।

यह कहकर बजरंगी ने जॉन सेवक की सारी आयोजनाएँ कुछ बढ़़ा—घटाकर बयान कर दीं और बोला बताओए जब कारखाने से सबका फायदा हैए तो हम साहब से क्यों लड़ेंघ्

सूरदास—तुम्हें विश्वास हो गया कि सबका फायदा होगाघ्

बजरंगी—हाँए हो गया। मानने—लायक बात होती हैए तो मानी ही जाती है।

सूरदास—कल तो तुम लोग जमीन के पीछे जान देने पर तैयार थेए मुझ पर संदेह कर रहे थे कि मैंने साहब से मेल कर लियाए आज साहब के एक ही चकमे में पानी हो गएघ्

बजरंगी—अब तक किसी ने ये सब बातें इतनी सफाई से न समझाई थीं। कारखाने से सारे मुहल्ले काए सारे शहर का फायदा है। मजूरों की मजूरी बढ़़ेगीए दूकानदारों की बिक्री बढ़़ेगी। तो अब हमें तो झगड़ा नहीं है। तुमको भी हम यही सलाह देते हैं कि अच्छे दाम मिल रहे हैंए जमीन दे डालो। यों न दोगेए तो जाबते से ले ली जाएगी। इससे क्या फायदाघ्

सूरदास—अधर्म और अविचार कितना बढ़़ जाएगाए यह भी मालूम हैघ्

बजरंगी—धान से तो अधर्म होता ही हैए पर धान को कोई छोड़ नहीं देता।

सूरदास—तो अब तुम लोग मेरा साथ न दोगेघ् मत दो। जिधार न्याय हैए उधार किसी की मदद की इतनी जरूरत भी नहीं है। मेरी चीज हैए बाप—दादों की कमाई हैए किसी दूसरे का उस पर कोई अखतियार नहीं है। अगर जमीन गईए तो उसके साथ मेरी जान भी जाएगी।

यह कहकर सूरदास उठ खड़ा हुआ और अपने झोंपड़े के द्वार पर आकर नीम के नीचे लेट रहा

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अध्याय 13

विनयसिंह के जाने के बाद सोफिया को ऐसा प्रतीत होने लगा कि रानी जाह्नवी मुझसे खिंची हुई हैं। वह अब उसे पुस्तकें तथा पत्र पढ़़ने या चिट्ठियाँ लिखने के लिए बहुत कम बुलातींय उसके आचार—व्यवहार को संदिग्धा द्रष्टि से देखतीं। यद्यपि अपनी बदगुमानी को वह यथासाधय प्रकट न होने देतींए पर सोफी को ऐसा खयाल होता कि मुझ पर अविश्वास किया जा रहा है। वह जब कभी बाग में सैर करने चली जाती या कहीं घूमने निकल जातीए तो लौटने पर उसे ऐसा मालूम होता कि मेरी किताबें उलट—पलट दी गई हैं। वह बदगुमानी उस वक्त और असह्य हो जातीए जब डाकिए के आने पर रानीजी स्वयं उसके हाथ से पत्र आदि लेतीं और बड़े धयान से देखतीं कि सोफिया का कोई पत्र तो नहीं है। कई बार सोफिया को अपने पत्रों के लिफाफे फटे हुए मिले। वह इस कूटनीति का रहस्य खूब समझती थी। यह रोक—थाम केवल इसलिए है कि मेरे और विनयसिंह के बीच में पत्र—व्यवहार न होने पाए। पहले रानीजी सोफिया से विनय और इंदु की चर्चा अकसर किया करतीं। अब भूलकर भी विनय का नाम न लेतीं। यह प्रेम की पहली परीक्षा थी।

किंतु आश्चर्य यह था कि सोफिया में अब वह आत्माभिमान न था। जो नाक पर मक्खी न बैठने देती थीए वह अब अत्यंत सहनशील हो गई थी। रानीजी से द्वेष करने के बदले वह उनकी संशय—निवृत्ति के लिए अवसर खोजा करती थी। उसे रानीजी का बर्ताव सर्वथा न्यायसंगत मालूम होता था। वह सोचती—इनकी परम अभिलाषा है कि विनय का जीवन आदर्श हो और मैं उनके आत्मसंयम में बाधक न बनूँ। मैं इन्हें कैसे समझाऊँ कि आपकी अभिलाषा को मेरे हाथों जरा—सा भी झोंका न लगेगा। मैं तो स्वयं अपना जीवन एक ऐसे उद्देश्य पर समर्पित कर चुकी हूँए जिसके लिए वह काफी नहीं। मैं स्वयं किसी इच्छा को अपने उद्देश्य मार्ग का काँटा न बनाऊँगी। लेकिन उसे यह अवसर न मिलता था। जो बातें जबान पर नहीं आ सकतींए उनके लिए कभी अवसर नहीं मिलता।

सोफी को बहुधा अपने मन की चंचलता पर खेद होता। वह मन को इधार से हटाने के लिए पुस्तकावलोकन में मग्न हो जाना चाहतीयलेकिन जब पुस्तक सामने खुली रहती और मन कहीं और जा पहुँचताए तो वह झुँझलाकर पुस्तक बंद कर देती और सोचती—यह मेरी क्या दशा है! क्या माया यह कपट—रूप धारण करके मुझे सन्मार्ग से विचलित करना चाहती हैघ् मैं जानकर क्यों अनजान बनी जाती हूँघ् अब प्रतिज्ञा करती हूँ कि मैं इस काँटे को हृदय से निकाल डालूँगी।

लेकिन प्रेम—ग्रस्त प्राणियों की प्रतिज्ञा कायर की समर—लालसा हैए जो द्वंद्वी की ललकार सुनते ही विलुप्त हो जाती है। सोफिया विनय को तो भूल जाना चाहती थीय पर इसके साथ ही शंकित रहती थी कि कहीं वह मुझे भूल न जाएँ। जब कई दिनों तक उनका कोई समाचार नहीं मिलाए तो उसने समझा—मुझे भूल गएए जरूर भूल गए। मुझे उनका पता मालूम होताए तो कदाचित्‌ रोज एक पत्र लिखतीए दिन में कई—कई पत्र भेजतीयपर उन्हें एक पत्र लिखने का भी अवकाश नहीं! वह मुझे भूल जाने का उद्योग कर रहे हैं। अच्छा ही है। वह एक क्रिश्चियन स्त्री से क्यों प्रेम करने लगेघ् उनके लिए क्या एक—से—एक परम सुंदरीए सुशिक्षिताए प्रेमपरायण राजकुमारियाँ नहीं हैंघ्

एक दिन इन भावनाओं ने उसे इतना व्याकुल किया कि वह रानी के कमरे में जाकर विनय के पत्रों को पढ़़ने लगी और एक क्षण में जितने पत्र मिलेए सब पढ़़ डाले। देखूँए मेरी ओर कोई संकेत है या नहींय कोई वाक्य ऐसा हैए जिसमें से प्रेम की सुगंधा आएघ् किंतु ऐसा शब्द एक भी न मिलाए जिससे वह खींच—तानकर भी कोई गुप्त आशय निकाल सकती। हाँए उस पहाड़ी देश में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता थाए उनका विस्तार से उल्लेख किया गया था। युवावस्था को अतिशयोक्ति से प्रेम है। हम बाधाओं पर विजय पाकर नहींए उनकी विशद व्याख्या करके अपना महत्व बढ़़ाना चाहते हैं। अगर सामान्य ज्वर हैए तो वह सन्निपात कहा जाता है। एक दिन पहाड़ों में चलना पड़ाए तो वह नित्य पहाड़ों से सिर टकराना कहा जाता है। विनयसिंह के पत्र ऐसी ही वीर—कथाओं से भरे हुए थे सोफिया यह हाल पढ़़कर विकल हो गई। वह इतनी विपत्ति झेल रहे हैंए और मैं यहाँ आराम से पड़ी हूँ! वह इसी उद्वेग में अपने कमरे में आई और विनय को एक लम्बा पत्र लिखाए जिसका एक—एक शब्द प्रेम में डूबा हुआ था। अंत में उसने बड़े प्रेम—विनीत शब्दों में प्रार्थना की कि मुझे अपने पास आने की आज्ञा दीजिएए मैं अब यहाँ नहीं रह सकती। उसकी शैली अज्ञात रूप से कवित्वमय हो गई। पत्र समाप्त करके वह उसी वक्त पास ही के लेटरबक्स में डाल आई।

पत्र डाल आने के बाद जब उसका उद्वेग शांत हुआ तोए उसे विचार आया कि मेरा रानीजी के कमरे में छिपकर जाना और पत्रों को पढ़़ना किसी तरह उचित न था। वह सारे दिन इसी चिंता में पड़ी रही। बार—बार अपने को धिक्कारती ईश्वर! मैं कितनी अभागिनी हूँ! मैंने अपना जीवन सच्चे धर्म की जिज्ञासा पर अर्पण कर दिया थाए बरसों से सत्य की मीमांसा में रत हूँय पर वासना की पहली ही ठोकर में नीचे गिर पड़ी। मैं क्यों इतनी दुर्बल हो गई हूँघ् क्या मेरा पवित्र उद्देश्य वासनाओं के भँवर में पड़कर डूब जाएगाघ् मेरी आदत इतनी बुरी हो जाएगी कि मैं किसी की वस्तुओं की चोरी करूँगीए इसकी मैंने कभी कल्पना भी न की थी। जिनका मुझ पर इतना विश्वासए इतना भरोसाए इतना प्रेमए इतना आदर हैए उन्हीं के साथ मेरा यह विश्वासघात! अगर अभी यह दशा हैए तो भगवान्‌ ही जानेए आगे चलकर क्या दशा होगी। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि जीवन का अंत हो जाए! आह्‌ वह पत्रए जो मैं अभी छोड़ आई हूँए वापस मिल जाताए तो मैं फाड़ डालती।

वह इसी चिंता और ग्लानि में बैठी हुई थी कि रानीजी कमरे में आईं। सोफिया उठ खड़ी हुई और अपनी अॉंखें छिपाने के लिए जमीन की ओर ताकने लगी। किंतु अॉंसू पी जाना आसान नहीं है। रानी ने कठोर स्वर में पूछा—सोफीए क्यों रोती हैघ्

जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैंए तो यथार्थ बात आप—ही—आप हमारे मुँह से निकल पड़ती है। सोफी हिचकती हुई बोली—जीए कुछ नहीं...मुझसे एक अपराध हो गया हैए आपसे क्षमा माँगती हूँ।

रानी ने और भी तीव्र स्वर में पूछा—क्या बात हैघ्

सोफी—आज जब आप सैर करने गई थींए तो मैं आपके कमरे में चली गई थी।

रानी—क्या काम थाघ्

सोफी लज्जा से आरक्त होकर बोली—मैंने आपकी कोई चीज नहीं छुई।

रानी—मैं तुम्हें इतना नीच नहीं समझती।

सोफी—एक पत्र देखना था।

रानी—विनयसिंह काघ्

सोफिया ने सिर झुका लिया। वह अपनी द्रष्टि में स्वयं इतनी पतित हो गई थी कि जी चाहता थाए जमीन फट जाती और मैं उसमें समा जाती। रानी ने तिरस्कार के भाव से कहा—सोफीए तुम मुझे कृतघ्न समझोगीए मगर मैंने तुम्हें अपने घर में रखकर बड़ी भूल की। ऐसी भूल मैंने कभी न की थी। मैं न जानती थी कि तुम आस्तीन का साँप बनोगी। इससे बहुत अच्छा होता कि विनय उसी दिन आग में जल गया होता। तब मुझे इतना दुरूख न होता। मैं तुम्हारे आचरण को पहले न समझी। मेरी अॉंखों पर परदा पड़ा था। तुम जानती होए मैंने क्यों विनय को इतनी जल्द यहाँ से भगा दियाघ् तुम्हारे कारणए तुम्हारे प्रेमाघातों से बचाने के लिए लेकिन अब भी तुम भाग्य की भाँति उसका दामन नहीं छोड़तीं। आखिर तुम उससे क्या चाहती होघ् तुम्हें मालूम हैए तुमसे उसका विवाह नहीं हो सकता। अगर मैं हैसियत और कुल—मर्यादा का विचार न करूँए तो भी तुम्हारे और हमारे बीच में धर्म की दीवार खड़ी है। इस प्रेम का फल इसके सिवा और क्या होगा कि तुम अपने साथ उसे भी ले डूबोगी और मेरी चिर संचित अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दोगीघ् मैं विनय को ऐसा मनुष्य बनाना चाहती हूँए जिस पर समाज को गर्व होए जिसके हृदय में अनुराग होए साहस होए धैर्य होए जो संकटों के सामने मुँह न मोड़ेए जो सेवा के हेतु सदैव सिर को हथेली पर लिए रहेए जिसमें विलासिता का लेश भी न होए जो धर्म पर अपने को मिटा दे। मैं उसे सपूत बेटाए निश्छल मित्र और निरूस्वार्थ सेवक बनाना चाहती हूँ। मुझे उसके विवाह की लालसा नहींए अपने पोतों को गोद में खेलाने की अभिलाषा नहीं। देश में आत्मसेवी पुरुषों और संतान—सेवी माताओं का अभाव नहीं है। धरती उनके बोझ से दबी जाती है। मैं अपने बेटे को सच्चा राजपूत बनाना चाहती हूँ। आज वह किसी की रक्षा के निमित्त अपने प्राण दे देए तो मुझसे अधिक भाग्यवती माता संसार में न होगी। तुम मेरे इस स्वर्ण—स्वप्न को विच्छिन्न कर रही हो। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ सोफीए अगर तुम्हारे उपकार के बोझ से दबी न होतीए तो तुम्हें इस दशा में विष देकर मार्ग से हटा देना अपना कर्तव्य समझती। मैं राजपूतनी हूँए मरना भी जानती हूँ और मारना भी जानती हूँ। इसके पहले कि तुम्हें विनय से पत्र—व्यवहार करते देखूँए मैं तुम्हारा गला घोंट दूँगी। तुमसे भिक्षा माँगती हूँए विनय को अपने प्रेम—पाश में फँसाने की चेष्टा न करोए नहीं तो इसका फल बुरा होगा। तुम्हें ईश्वर ने बुध्दि दी हैए विवेक दिया है। विवेक से काम लो। मेरे कुल का सर्वनाश न करो।

सोफी ने रोते हुए कहा—मुझे आज्ञा दीजिएए आज चली जाऊँ।

रानी कुछ नर्म होकर बोलीं—मैं तुम्हें जाने को नहीं कहती। तुम मेरे सिर और अॉंखों पर रहोए (लज्जित होकर) मेरे मुँह से इस समय जो कटु शब्द निकले हैंए उनके लिए क्षमा करो। वृध्दावस्था बड़ी अविनयशील होती है। यह तुम्हारा घर है। शौक से रहो। विनय अब शायद फिर न आएगा। हाँए वह शेर का सामना कर सकता हैय पर मेरे क्रोध का सामना नहीं कर सकता। वह वन—वन की पत्तियाँ तोड़ेगाए पर घर न आएगा। अगर तुम्हें उससे प्रेम हैए तो अपने को उसके हित के लिए बलिदान करने को तैयार हो जाओ। अब उसकी जीवन—रक्षा का केवल एक ही उपाय है। जानती होए वह क्या हैघ्

सोफी ने सिर हिलाकर कहा—नहीं।

रानी—जानना चाहती होघ्

सोफी ने सिर हिलाकर कहा—हाँ।

रानी—आत्मसमर्पण के लिए तैयार होघ्

सोफी ने फिर सिर हिलाकर कहा—हाँ।

रानी—तो तुम किसी सुयोग्य पुरुष से विवाह कर लो। विनय को दिखा दो कि तुम उसे भूल गईंए तुम्हें उसकी चिंता नहीं है। यही नैराश्य उसको बचा सकता है। हो सकता है कि यह नैराश्य उसे जीवन से विरक्त कर देए वह ज्ञान—लाभ का आश्रय लेए जो नैराश्य का एकमात्र शरणस्थल हैए पर सम्भावना होने पर भी इस उपाय के सिवा दूसरा अवलम्ब नहीं है। स्वीकार करती होघ्

सोफी रानी के पैरों पर गिर पड़ी और रोती हुई बोली—उनके हित के लिए...कर सकती हूँ।

रानी ने सोफी को उठाकर गले लगा लिया और करुण स्वर में बोलीं—मैं जानती हूँए तुम उसके लिए सब कुछ कर सकती हो। ईश्वर तुम्हें इस प्रतिज्ञा को पूरा करने का बल प्रदान करें।

यह कहकर जाह्नवी वहाँ से चली गईं। सोफी एक कोच पर बैठ गई और दोनों हाथों से मुँह छिपाकर फूट—फूटकर रोने लगी। उसका रोम—रोम ग्लानि से पीड़ित हो रहा था। उसे जाह्नवी पर क्रोध न था। उसे उन पर असीम श्रध्दा हो रही थी। कितना उच्च और पवित्र उद्देश्य है! वास्तव में मैं ही दूध की मक्खी हूँए मुझको निकल जाना चाहिए। लेकिन रानी का अंतिम आदेश उसके लिए सबसे कड़घवा ग्रास था। वह योगिनी बन सकती थीय पर प्रेम को कलंकित करने की कल्पना ही से घृणा होती थी। उसकी दशा उस रोगी की—सी थीए जो किसी बाग में सैर करने जाए और फल तोड़ने के अपराध में पकड़ लिया जाए। विनय के त्याग ने उसे उनका भक्त बना दिया। भक्ति ने शीघ्र ही प्रेम का रूप धारण किया और वही प्रेम उसे बलात्‌ नारकीय अंधकार की ओर खींचे लिए जाता था। अगर वह हाथ—पैर छुड़ाती हैए तो भय है—वह इसके आगे कुछ न सोच सकी। विचार—शक्ति शिथिल हो गई। अंत में सारी चिंताएँए सारी ग्लानिए सारा नैराश्यए सारी विडम्बना एक ठंडी साँस में विलीन हो गई।

शाम हो गई थी। सोफिया मन—मारे उदास बैठी बाग की तरफ टकटकी लगाए ताक रही थीए मानो कोई विधवा पति—शोक में मग्न हो। सहसा प्रभु सेवक ने कमरे में प्रवेश किया।

सोफिया ने प्रभु सेवक से कोई बात नहीं की। चुपचाप अपनी जगह मूर्तिवत्‌ बैठी रही। वह उस दशा को पहुँच गई थीए जब सहानुभूति से भी अरुचि हो जाती है। नैराश्य की अंतिम अवस्था विरक्ति होती है।

लेकिन प्रभु सेवक अपनी नई रचना सुनाने के लिए इतने उत्सुक हो रहे थे कि सोफी के चेहरे की ओर उनका धयान ही न गया। आते—ही—आते बोले—सोफीए देखोए मैंने आज रात को यह कविता लिखी है। जरा धयान देकर सुनना। मैंने अभी कुँवर साहब को सुनाई है। उन्हें बहुत आनंद आई।

यह कहकर प्रभु सेवक ने मधुर स्वर में अपनी कविता सुनानी शुरू की। कवि ने मृत्युलोक के एक दुरूखी प्राणी के हृदय के भाव व्यक्त किए थेए जो तारागण को देखकर उठे। वह एक—एक चरण झूम—झूमकर पढ़़ते थे और दो—दोए तीन—तीन बार दुहराते थेय किंतु सोफिया ने एक बार भी दाद न दीए मानो वह काव्य—रस—शून्य हो गई थी। जब पूरी कविता समाप्त हो गईए तो प्रभु सेवक ने पूछा—इसके विषय में तुम्हारा क्या विचार हैघ्

सोफिया ने कहा—अच्छी तो है।

प्रभु सेवक—मेरी सूक्तियों पर तुमने धयान नहीं दिया। तारागण की आज तक किसी कवि ने देवात्माओं से उपमा नहीं दी है। मुझे तो विश्वास है कि इस कविता के प्रकाशित होते ही कवि—समाज में हलचल मच जाएगी।

सोफिया—मुझे तो याद आता है कि शेली और वर्ड्‌सवर्थ इस उपमा को पहले ही बाँध चुके हैं। यहाँ के कवियों ने भी कुछ ऐसा ही वर्णन किया है। कदाचित्‌ ह्यूगो की एक कविता का शीर्षक भी यही है। सम्भव हैए तुम्हारी कल्पना उन कवियों से लड़ गई हो।

प्रभु सेवक—मैंने काव्य—साहित्य तुमसे बहुत ज्यादा देखा हैय पर मुझे कहीं यह उपमा नहीं दिखाई दी।

सोफिया—खैरए हो सकता हैए मुझी को याद न होगा। कविता बुरी नहीं है।

प्रभु सेवक—अगर कोई दूसरा कवि यह चमत्कार दिखा देए तो उसकी गुलामी करूँ।

सोफिया—तो मैं कहूँगीए तुम्हारी निगाह में अपनी स्वाधीनता का मूल्य बहुत ज्यादा नहीं है।

प्रभु सेवक—तो मैं भी यही कहूँगा कि कवित्व के रसास्वादन के लिए अभी तुम्हें बहुत अभ्यास करने की जरूरत है।

सोफिया—मुझे अपने जीवन में इससे अधिक महत्व के काम करने हैं। आजकल घर के क्या समाचार हैंघ्

प्रभु सेवक—वही पुरानी दशा चली आती है। मैं तो आजिज आ गया हूँ। पापा को अपने कारखाने की धुन लगी हुई हैए और मुझे उस काम से घृणा है। पापा और मामाए दोनों हरदम भुनभुनाते रहते हैं। किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता। कहीं ठिकाना नहीं मिलताए नहीं तो इस माया के घोंसले में एक दिन भी न रहता। कहाँ जाऊँए कुछ समझ में नहीं आता।

सोफिया—बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने गुणी और विद्वान्‌ होकर भी तुम्हें अपने निर्वाह का कोई उपाय नहीं सूझता। क्या कल्पना के संसार में आत्मसम्मान का कोई स्थान नहीं हैघ्

प्रभु सेवक—सोफीए मैं और सब कुछ कर सकता हूँए पर गृह—चिंता का बोझ नहीं उठा सकता। मैं निर्द्‌वंद्वए निश्चिंतए निर्लिप्त रहना चाहता हूँ। एक सुरम्य उपवन मेंए किसी सघन वृक्ष के नीचेए पक्षियों का मधुर कलरव सुनता हुआ काव्य—चिंतन में मग्न पड़ा रहूँए यही मेरे जीवन का आदर्श है।

सोफिया—तुम्हारी जिंदगी इसी भाँति स्वप्न देखने में गुजरेगी।

प्रभु सेवक—कुछ होए चिंता से तो मुक्त हूँए स्वच्छंद तो हूँ!

सोफिया—जहाँ आत्मा और सिध्दांतों की हत्या होती होए वहाँ से स्वच्छंदता कोसों भागती है। मैं इसे स्वच्छंदता नहीं कहतीए यह निर्लज्जता है। माता—पिता की निर्दयता कम पीड़ाजनक नहीं होतीए बल्कि दूसरों का अत्याचार इतना असह्य नहीं होताए जितना माता—पिता का।

प्रभु सेवक—उँहए देखा जाएगाए सिर पर जो आ जाएगीए झेल लूँगाए मरने के पहले ही क्यों रोऊँघ्

यह कहकर प्रभु सेवक ने पाँड़ेपुर की घटना बयान की और इतनी डींग मारी कि सोफी चिढ़़कर बोली—रहने भी दोए एक गँवार को पीट लियाए तो कौन—सा बड़ा काम किया। अपनी कविताओं में तो अहिंसा के देवता बन जाते होए वहाँ जरा—सी बात पर इतने जामे से बाहर हो गए!

प्रभु सेवक—गाली सह लेताघ्

सोफिया—जब तुम मारनेवाले को मारोगेए गाली देनेवाले को भी मारोगेए तो अहिंसा का निर्वाह कब करोगेघ् राह चलते तो किसी को कोई नहीं मारता। वास्तव में किसी युवक को उपदेश करने का अधिकार नहीं हैए चाहे उसकी कवित्व—शक्ति कितनी ही विलक्षण हो। उपदेश करना सिध्द पुरुषों ही का काम है। यह नहीं कि जिसे जरा तुकबंदी आ गईए वह लगा शांति और अहिंसा का पाठ पढ़़ाने। जो बात दूसरों को सिखलाना चाहते होए वह पहले स्वयं सीख लो।

प्रभु सेवक—ठीक यही बात विनय ने भी अपने पत्र में लिखी है। लोए याद आ गया। यह तुम्हारा पत्र है। मुझे याद ही न रही थी। यह प्रसंग न आ जाताए तो जेब में रखे ही लौट जाता।

यह कहकर प्रभु सेवक ने एक लिफाफा निकालकर सोफिया के हाथ में रख दिया। सोफिया ने पूछा—आजकल कहाँ हैंघ्

प्रभु सेवक—उदयपुर के पहाड़ी प्रांतों में घूम रहे हैं। मेरे नाम जो पत्र आया हैए उसमें तो उन्होंने साफ लिखा है कि मैं इस सेवा कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझमें उतनी सहनशीलता नहींए जितनी होनी चाहिए। युवावस्था अनुभव—लाभ का समय है। अवस्था प्रौढ़़ हो जाने पर ही सार्वजनिक कायोर्ं में सम्मिलित होना चाहिए। किसी युवक को सेवा—कार्य करने को भेजना वैसा ही हैए जैसे किसी बच्चे वैद्य को रोगियों के कष्टनिवारण के लिए भेजना।

प्रभु सेवक चले गएए तो सोफिया सोचने लगी—यह पत्र पढ़ूँ या न पढ़़ूँघ् विनय इसे रानीजी से गुप्त रखना चाहते हैंए नहीं तो यहीं के पते से भेजतेघ् मैंने अभी रानीजी को वचन दिया हैए उनसे पत्र—व्यवहार न करूँगी। इस पत्र को खोलना उचित नहीं। रानीजी को दिखा दूँ। इससे उनके मन में मुझ पर जो संदेह हैए वह दूर हो जाएगा। मगर न जाने क्या बातें लिखी हैं। सम्भव हैए कोई ऐसी बात होए जो रानी के क्रोध को और भी उत्तोजित कर दे। नहींए इस पत्र को गुप्त ही रखना चाहिए। रानी को दिखाना मुनासिब नहीं।

उसने फिर सोचा—पढ़़ने से क्या फायदाए न जाने मेरे चित्ता की क्या दशा हो। मुझे अब अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा। जब इस प्रेमांकुर को जड़ से उखाड़ना ही हैए तो उसे क्यों सीचूँघ् इस पत्र को रानी के हवाले कर देना ही उचित है।

सोफिया ने और ज्यादा सोच—विचार नहीं किया। शंका हुईए कहीं मैं विचलित न हो जाऊँ। चलनी में पानी नहीं ठहरता।

उसने उसी वक्त वह पत्र ले जाकर रानी को दे दिया। उन्होंने पूछा—किसका पत्र हैघ् यह तो विनय की लिखावट जान पड़ती है। तुम्हारे नाम आया है नघ् तुमने लिफाफा खोला नहींघ्

सोफिया—जी नहीं।

रानी ने प्रसन्न होकर कहा—मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँए पढ़़ो। तुमने अपना वचन पालन कियाए इससे मैं बहुत खुश हुई।

सोफिया—मुझे क्षमा कीजिए।

रानी—मैं खुशी से कहती हूँए पढ़़ोय देखोए क्या लिखते हैंघ्

सोफिया—जी नहीं।

रानी ने पत्र ज्यों—का—त्यों संदूक में बंद कर दिया। खुद भी नहीं पढ़़ा। कारणए यह नीति—विरुध्द था। तब सोफिया से बोली—बेटीए अब मेरी तुमसे एक और याचना है। विनय को एक पत्र लिखो और उसमें स्पष्ट लिख दोए हमारा और तुम्हारा कल्याण इसमें है कि हममें केवल भाई और बहन का सम्बंध रहे। तुम्हारे पत्र से यह प्रकट होना चाहिए कि तुम उनके प्रेम की अपेक्षा उनके जातीय भावों की ज्यादा कद्र करती हो। तुम्हारा यह पत्र मेरे और उनके पिता के हजारों उपदेशों से अधिक प्रभावशाली होगा। मुझे विश्वास हैए तुम्हारा पत्र पाते ही उनकी चेष्टाएँ बदल जाएँगी और वहर् कर्तव्य—मार्ग पर सु—ढ़़ हो जाएँगे। मैं इस कृपा के लिए जीवन—पयर्ंत तुम्हारी आभारी रहँगी।

सोफी ने कातर स्वर में कहा—आपकी आज्ञा पालन करूँगी।

रानी—नहींए केवल मेरी आज्ञा का पालन करना काफी नहीं है। अगर उससे यह भासित हुआ कि किसी की प्रेरणा से लिखा गया हैए तो उसका असर जाता रहेगा।

सोफिया—आपको पत्र लिखकर दिखा दूँघ्

रानी—नहींए तुम्हीं भेज देना।

सोफिया जब वहाँ से आकर पत्र लिखने बैठीए तो उसे सूझता ही न था कि क्या लिखूँ। सोचने लगी—वह मुझे निर्मम समझेंगेय अगर लिख दूँए मैंने तुम्हारा पत्र पढ़़ा ही नहींए तो उन्हें कितना दुरूख होगा! कैसे कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम नहीं करतीघ्

वह मेज पर से उठ खड़ी हुई और निश्चय कियाए कल लिखूँगी। एक किताब पढ़़ने लगी। भोजन का समय हो गया। नौ बज गए। अभी वह मुँह—हाथ धोकर बैठी ही थी कि उसने रानी को द्वार से अंदर की ओर झाँकते देखा। समझीए किसी काम से जा रही होंगीए फिर किताब देखने लगी। पंद्रह मिनट भी न गुजरे थे कि रानी फिर दूसरी तरफ से लौटीं और कमरे में झाँका।

सोफी को उनका यों मँडलाना बहुत नागवार मालूम हुआ। उसने समझा—यह मुझे बिल्कुल काठ की पुतली बनाना चाहती हैं। बसए इनके इशारों पर नाचा करूँ। इतना तो नहीं हो सका कि जब मैंने बंद लिफाफा उनके हाथ में रख दियाए तो मुझे खत पढ़़कर सुना देतीं। आखिर मैं लिखूँ क्याघ् नहीं मालूमए उन्होंने अपने खत में क्या लिखा हैघ् सहसा उसे धयान आया कि कहीं मेरा पत्र उपदेश के रूप में न हो जाए। वह इसे पढ़़कर शायद मुझसे चिढ़़ जाएँ। अपने प्रेमियों से हम उपदेश और शिक्षा की बातें नहींए प्रेम और परितोष की बातें सुनना चाहते हैं। बड़ी कुशल हुईए नहीं तो वह मेरा उपदेश—पत्र पढ़़कर न जाने दिल में क्या समझते। उन्हें खयाल होताए गिरजा में उपदेश सुनते—सुनते इसकी प्रेम—भावनाएँ निर्जीव हो गई हैं। अगर वह मुझे ऐसा पत्र लिखतेए तो मुझे कितना बुरा मालूम होता! आह! मैंने बड़ा धोखा खाया। पहले मैंने समझा थाए उनसे केवल आधयात्मिक प्रेम करूँगी। अब विदित हो रहा है कि आधयात्मिक प्रेम या भक्ति केवल धर्म—जगत्‌ ही की वस्तु है। स्त्री —पुरुष में पवित्र प्रेम होना असम्भव है। प्रेम पहले उँगली पकड़कर तुरंत ही पहुँचा पकड़ता है। यह भी जानती हूँ कि यह प्रेम मुझे ज्ञान के ऊँचे आदर्श से गिरा रहा है। हमें जीवन इसलिए प्रदान किया गया है कि सद्विचारों और सत्कायोर्ं से उसे उन्नत करें और एक दिन अनंत ज्योति में विलीन हो जाएँ। यह भी जानती हूँ कि जीवन नश्वर हैए अनित्य है और संसार के सुख अनित्य और नश्वर हैं। यह सब जानते हुए भी पतंग की भाँति दीपक पर गिर रही हूँ। इसीलिए तो कि प्रेम में वह विस्मृति हैए जो संयमए ज्ञान और धारणा पर परदा डाल देती है। भक्तजन भीए आधयात्मिक आनंद भोगते रहते हैंए वासनाओं से मुक्त नहीं हो सकते। जिसे कोई बलात्‌ खींचे लिए जाता होए उससे कहना कि तू मत जाए कितना बड़ा अन्याय है!

पीड़ित प्राणियों के लिए रात एक कठिन तपस्या है। ज्यों—ज्यों रात गुजरती थीए सोफी की उद्विग्नता बढ़़ती जाती थी। आधी रात तक मनोभावों से निरंतर संग्राम करने के बाद अंत को उसने विवश होकर हृदय के द्वार प्रेम—क्रीड़ाओं के लिए उन्मुक्त कर दिएए जैसे किसी रंगशाला का व्यवस्थापक दर्शकों की रेल—पेल से तंग आकर शाला का पट सर्वसाधारण के लिए खोल देता है। बाहर का शोर भीतर के मधुर —स्वर—प्रवाह में बाधक होता है। सोफी ने अपने को प्रेम—कल्पनाओं की गोद में डाल दिया। अबाध रूप से उनका आनंद उठाने लगीरू

श्क्यों विनयए तुम मेरे लिए क्या—क्या मुसीबतें झेलोगेघ् अपमानए अनादरए द्वेषए माता—पिता का विरोधए तुम मेरे लिए यह सब विपत्ति सह लोगेघ् लेकिन धर्मघ् वह देखोए तुम्हारा मुख उदास हो गया। तुम सब कुछ करोगेय पर धर्म नहीं छोड़ सकते। मेरी भी यही दशा है। मैं तुम्हारे साथ उपवास कर सकती हूँए तिरस्कारए अपमानए निंदाए सब कुछ भोग सकती हूँए पर धर्म को कैसे त्याग दूँघ् ईसा का दामन कैसे छोड़ दूँघ् ईसाइयत की मुझे परवा नहींए वह केवल स्वाथोर्ं का संघटन हैय लेकिन उस पवित्र आत्मा से क्योंकर मुँह मोड़ूँए जो क्षमा और दया का अवतार थीघ् क्या यह सम्भव नहीं कि मैं ईसा के दामन से लिपटी रहकर भी अपनी प्रेमाकांक्षाओं को तृप्त करूँघ् हिंदू—धर्म की उदार छाया में किसके लिए शरण नहींघ् आस्तिक भी हिंदू हैंए नास्तिक भी हिंदू हैंए तैंतीस करोड़ देवताओं को माननेवाला भी हिंदू है। जहाँ महावीर के भक्तों के लिए स्थान हैए बुध्ददेव के भक्तों के लिए स्थान हैए वहाँ क्या ईसू के भक्त के लिए स्थान नहीं हैघ् तुमने मुझे अपने प्रेम का निमंत्रण दिया हैए मैं उसे अस्वीकार क्यों करूँघ् मैं भी तुम्हारे साथ सेवा—कार्य में रत हो जाऊँगीए तुम्हारे साथ वनों में विचरूँगीए झोंपड़ी में रहूँगी।श्

आहए मुझसे बड़ी भूल हुई। मैंने नाहक वह पत्र रानीजी को दे दिया। मेरा पत्र थाए मुझे उसके पढ़़ने का पूरा अधिकार था। मेरे और उनके बीच प्रेम का नाता हैए जो संसार के और सभी सम्बंधों से पवित्र और श्रेष्ठ है। मैं इस विषय में अपने अधिकार को त्यागकर विनय के साथ अन्याय कर रही हूँ। नहींए मैं उनसे दगा कर रही हूँ। मैं प्रेम को कलंकित कर रही हूँ। उनके मनोभावों का उपहास कर रही हूँ। यदि वह मेरा पत्र बिना पढ़़े ही फाड़कर फेंक देतेए तो मुझे इतना दुरूख होता कि उन्हें कभी क्षमा न करती। क्या करूँघ् जाकर रानीजी से वह पत्र माँग लूँघ् उसे देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हो सकती। मन में चाहे कितना ही बुरा मानेंए पर मेरी अमानत मुझे अवश्य दे देंगी। वह मेरी मामा की भाँति अनुदार नहीं हैं। मगर मैं उनसे माँगू क्योंघ् वह मेरी चीज हैए किसी अन्य प्राणी का उस पर कोई दावा नहीं। अपनी चीज ले लेने के लिए मैं किसी दूसरे का एहसान क्यों उठाऊँघ्

ग्यारह बज रहे थे। भवन में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। नौकर—चाकर सब सो गए थे। सोफिया ने खिड़की से बाहर बाग की ओर देखा। ऐसा मालूम होता था कि आकाश से दूध की वर्षा हो रही है। चाँदनी खूब छिटकी हुई थी। संगमरमर की दोनों परियाँए जो हौज के किनारे खड़ी थींए उसे निस्स्वर संगीत की प्रकाशमयी प्रतिमाओं—सी प्रतीत होती थींए जिससे सारी प्रकृति उल्लसित हो रही थी।

सोफिया के हृदय में प्रबल उत्कंठा हुई कि इसी क्षण चलकर अपना पत्र लाऊँ। वह —ढ़़ संकल्प करके अपने कमरे से निकली और निर्भय होकर रानीजी के दीवानखाने की ओर चली। वह अपने हृदय को बार—बार समझा रही थी—मुझे भय किसका हैए अपनी चीज लेने जा रही हूँयकोई पूछे तो उससे साफ—साफ कह सकती हूँ। विनयसिंह का नाम लेना कोई पाप नहीं है।

किंतु निरंतर यह आश्वासन मिलने पर भी उसके कदम इतनी सावधानी से उठते थे कि बरामदे के पक्के फर्श पर भी कोई आहट न होती थी। उसकी मुखाकृति से वह अशांति झलक रही थीए जो आंतरिक दुश्चिंता का चिद्द है। वह सहमी हुई अॉंखों से दाहिने—बाएँए आगे—पीछे ताकती जाती थी। जरा—सा भी कोई खटका होताए तो उसके पाँव स्वतरू रुक जाते थे और वह बरामदे के खम्भों की आड़ में छिप जाती थी। रास्ते में कई कमरे थे। यद्यपि उनमें अंधोरा थाए रोशनी गुल हो चुकी थीए तो भी वह दरवाजे पर एक क्षण के लिए रुक जाती थीए कि कोई उनमें बैठा न हो। सहसा एक टेरियन कुत्ताए जिसे रानीजी बहुत प्यार करती थींए सामने से आता हुआ दिखाई दिया। सोफी के रोयें खड़ा हो गए। इसने जरा भी मुँह खोलाए और सारे घर में हलचल हुई। कुत्तो ने उसकी ओर सशंक नेत्रों से देखा और अपने निर्णय की सूचना देना ही चाहता था कि सोफिया ने धीरे से उसका नाम लिया और उसे गोद में उठाकर उसकी पीठ सहलाने लगी। कुत्ता दुम हिलाने लगाए लेकिन अपनी राह जाने के बदले वह सोफिया के साथ हो लिया। कदाचित्‌ उसकी पशु—चेतना ताड़ रही थी कि कुछ दाल में काला जरूर है। इस प्रकार पाँच कमरों के बाद रानीजी का दीवानखाना मिला। उसके द्वार खुले हुए थेए लेकिन अंदर अंधोरा था। कमरे में बिजली के बटन लगे हुए थे। उँगलियों की एक अति सूक्ष्म गति से कमरे में प्रकाश हो सकता था। लेकिन इस समय बटन का दबाना बारूद के ढ़ेर में दियासलाई से कम भयकारक न था। प्रकाशसे वह कभी इतनी भयभीत न हुई थी। मुश्किल तो यह थी कि प्रकाश के बगैर वह सफल—मनोरथ भी न हो सकती थी। यही अमृत भी था और विष भी। उसे क्रोध आ रहा था कि किवाड़ों में शीशे क्यों लगे हुए हैंघ् परदे हैंए वे भी इतने बारीक कि आदमी का मुँह दिखाई देता है। घर न हुआए कोई सजी हुई दूकान हुई। बिल्कुल अंगरेजी नकल है। और रोशनी ठंडी करने की जरूरत ही क्या थीघ् इससे तो कोई बहुत बड़ी किफायत नहीं हो जाती।

हम जब किसी तंग सड़क पर चलते हैंए तो हमें सवारियों का आना—जाना बहुत ही कष्टदायक जान पड़ता है। जी चाहता है कि इन रास्तों पर सवारियों के आने की रोक होनी चाहिए। हमारा अख्तियार होताए तो इन सड़कों पर कोई सवारी न आने देतेए विशेषतरू मोटरों को। लेकिन उन्हीं सड़कों पर जब हम किसी सवारी पर बैठकर निकलते हैंए तो पग—पग पर पथिकों को हटाने के लिए रुकने पर झुँझलाते हैं कि ये सब पटरी पर क्यों नहीं चलतेए ख्वामख्वाह बीच में धाँसे पड़ते हैं। कठिनाइयों में पड़कर परिस्थिति पर क्रुध्द होना मानव—स्वभाव है।

सोफिया कई मिनट तक बिजली के बटन के पास खड़ी रही। बटन दबाने की हिम्मत न पड़ती थी। सारे अॉंगन में प्रकाश फैल जाएगाए लोग चौंक पड़ेंगे। अंधोरे में सोता हुआ मनुष्य भी उजाला फैलते ही जाग पड़ता है। विवश होकर उसने मेज को टटोलना शुरू किया। दावात लुढ़़क गईए स्याही मेज पर फैल गई और उसके कपड़ों पर दाग पड़ गए। उसे विश्वास था कि रानी ने पत्र अपने हैंडबैग में रखा होगा। जरूरी चिट्ठियाँ उसी में रखती थीं। बड़ी मुश्किल से उसे बैग मिला। वह उसमें से एक—एक—पत्र निकालकर अंधोरे में देखने लगी। लिफाफे अधिकांश एक ही आकार के थेए निगाहें कुछ काम न कर सकीं। आखिर इस तरह मनोरथ पूरा न होते देखकर उसने हैंडबैग उठा लिया और कमरे से बाहर निकली। सोचाए मेरे कमरे में अभी तक रोशनी हैए वहाँ वह पत्र सहज ही में मिल जाएगा। इसे लाकर फिर यहीं रख दूँगी। लेकिन लौटती बार वह इतनी सावधानी से पाँव न उठा सकी। आती बार वह पग—पग पर इधार—उधार देखती हुई आई थी। अब बड़े वेग से चली जा रही थीए इधार—उधार देखने की फुरसत न थी। खाली हाथ उज्र की गुंजाइश थी। रँगे हुए हाथों के लिए कोई उज्रए कोई बहाना नहीं है।

अपने कमरे में पहुँचते ही सोफिया ने द्वार बंद कर दिया और परदे डाल दिए। गरमी के मारे सारी देह पसीने से तर थीए हाथ इस तरह काँप रहे थेए मानो लकवा गिर गया हो। वह चिट्ठियों को निकाल—निकालकर देखने लगी। और पत्रों को केवल देखना ही न थाए उन्हें अपनी जगह सावधानी से रखना भी था। पत्रों का एक दफ्तर सामने थाए बरसों की चिट्ठियाँ वहाँ निर्वाण सुख भोग रही थीं। सोफिया को उनकी तलाशी लेते घंटों गुजर गएए दफ्तर समाप्त होने को आ गयाय पर वह चीज न मिली। उसे अब कुछ—कुछ निराशा होने लगीय यहाँ तक कि अंतिम पत्र भी उलट—पलटकर रख दिया गया। तब सोफिया ने एक लम्बी साँस ली। उसकी दशा उस मनुष्य की—सी थीए जो किसी मेले में अपने खोए हुए बंधु को ढ़ूँढ़़ता होय वह चारों ओर अॉंखें फाड़—फाड़कर देखता हैए उसका नाम लेकर जोर—जोर से पुकारता हैए उसे भ्रम होता हैयवह खड़ा हैए लपककर उसके पास जाता है और लज्जित होकर लौट आता है। अंत में वह निराश होकर जमीन पर बैठ जाता और रोने लगता है।

सोफिया भी रोने लगी। वह पत्र कहाँ गयाघ् रानी ने तो उसे मेरे सामने ही इसी बैग में रख दिया थाघ् उनके और सभी पत्र यहाँ मौजूद हैं। क्या उसे कहीं और रख दियाघ् मगर आशा उस घास की भाँति हैए जो ग्रीष्म के ताप से जल जाती हैए भूमि पर उसका निशान तक नहीं रहताए धरती ऐसी उज्ज्वल हो जाती हैए जैसे टकसाल का नया रुपयाय लेकिन पावस की बूँद पड़ते ही फिर जली हुई जड़ें पनपने लगती हैं और उसी शुष्क स्थल पर हरियाली लहराने लगती है।

सोफिया की आशा फिर हरी हुई। कहीं मैं कोई पत्र छोड़ तो नहीं गई। उसने दुबारा पत्रों को पढ़़ना शुरू किया और ज्यादा धयान देकर। एक—एक लिफाफे को खोलकर देखने लगी कि कहीं रानी ने उसे किसी दूसरे लिफाफे में रख दिया हो। जब देखा कि इस तरह तो सारी रात गुजर जाएगीए तो उन्हीं लिफाफों को खोलने लगीए जो भारी—भारी मालूम होते थे। अंत को यह शंका भी मिट गई। उस लिफाफे का कहीं पता न था। अब आशा की जड़ें भी सूख गईंए पावस की बूँद न मिली।

सोफिया चारपाई पर लेट गईए मानो थक गई हो। सफलता में अनंत सजीवता होती हैए विफलता में असह्य अशक्ति। आशा मद हैए निराशा मद का उतार। नशे में हम मैदान की तरफ दौड़ते हैंए सचेत होकर हम घर में विश्राम करते हैं। आशा जड़ की ओर ले जाती हैए निराशा चौतन्य की ओर। आशा अॉंखें बंद कर देती हैए निराशा अॉंखें खोल देती है। आशा सुलानेवाली थपकी हैए निराशा जगानेवाला चाबुक।

सोफिया को इस वक्त अपनी नैतिक दुर्बलता पर क्रोध आ रहा था—मैंने व्यर्थ ही अपनी आत्मा के सिर पर यह अपराध मढ़़ा। क्या मैं रानी से अपना पत्र न माँग सकती थीघ् उन्हें उसके देने में जरा भी विलम्ब न होता। फिर मैंने वह पत्र उन्हें दिया ही क्योंघ् रानीजी को कहीं मेरा यह कपट—व्यवहार मालूम हो गयाय और अवश्य ही मालूम हो जाएगाए तो वह मुझे अपने मन में क्या समझेंगीघ् कदाचित्‌ मुझसे नीच और निकृष्ट कोई प्राणी न होगा।

सहसा सोफिया के कानों में झाड़ू लगाने की आवाज आई। वह चौंकीए क्या सबेरा हो गयाघ् परदा उठाकर द्वार खोलाए तो दिन निकल आया था। उसकी अॉंखों में अंधोरा छा गया। उसने बड़ी कातर द्रष्टि से हैंडबैग की ओर देखा और मूर्ति के समान खड़ी रह गई। बुध्दि शिथिल हो गई। अपनी दशा और अपने कृत्य पर उसे ऐसा क्रोध आ रहा था कि गरदन पर छुरी फेर लूँ। कौन—सा मुँह दिखाऊँगीघ् रानी बहुत तड़के उठती हैंए मुझे अवश्य ही देख लेंगी। किंतु अब और हो ही क्या सकता हैघ् भगवन्! तुम दीनों के आधार—स्तम्भ होए अब लाज तुम्हारे हाथ है। ईश्वर करेए अभी रानी न उठी हों। उसकी इस प्रार्थना में कितनी दीनताए कितनी विवशताए कितनी व्यथाए कितनी श्रध्दा और कितनी लज्जा थी! कदाचित्‌ इतने शुध्द हृदय से उसने कभी प्रार्थना न की होगी!

अब एक क्षण भी विलम्ब करने का अवसर न था। उसने बैग उठा लिया और बाहर निकली। आत्म—गौरव कभी इतना पद—दलित न हुआ होगा। उसके मुँह में कालिख लगी होती हैए तो शायद वह इस भाँति अॉंखें चुराती हुई न जाती! कोई भद्र पुरुष अपराधी के रूप में बेड़ियाँ पहने जाता हुआ भी इतना लज्जित न होगा! जब वह दीवानखाने के द्वार पर पहुँचीए तो उसका हृदय यों धाड़कने लगाए मानो कोई हथौड़ा चला रहा हो। वह जरा देर ठिठकीए कमरे में झाँककर देखाए रानी बैठी हुई थीं। सोफिया की इस समय जो दशा हुईए उसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। वह गड़ गईए कट गईए सिर पर बिजली गिर पड़तीए नीचे की भूमि फट जातीए तो भी कदाचित्‌ वह इस महान्‌ संकट के सामने उसे पुष्प—वर्षा या जल—विहार के समान सुखद प्रतीत होती। उसने जमीन की ओर ताकते हुए हैंडबैग चुपके से ले जाकर मेज पर रख दिया। रानी ने उसकी ओर उस द्रष्टि से देखाए जो अंतस्तल पर शर के समान लगती है। उसमें अपमान भरा हुआ थाय क्रोध न थाए दया न थीए ज्वाला न थीए तिरस्कार था—विशुध्दए सजीव और सशब्द।

सोफिया लौटना ही चाहती थी कि रानी ने पूछा—विनय का पत्र ढ़ूँढ़़ रही थींघ्

सोफिया अवाक्‌ रह गई। मालूम हुआए किसी ने कलेजे में बर्छी मार दी।

रानी ने फिर कहा—उसे मैंने अलग रख दिया हैए मँगवा दूँघ्

सोफिया ने उत्तर न दिया। उसके सिर में चक्कर—सा आने लगा। मालूम हुआए कमरा घूम रहा है।

रानी ने तीसरा बाण चलाया—क्या यही सत्य की मीमांसा हैघ्

सोफिया मूर्छित होकर फर्श पर गिर पड़ी।

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अध्याय 14

सोफिया को होश आया तो वह अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई थी। कानों में रानी के अंतिम शब्द गूँज रहे थे—क्या यही सत्य की मीमांसा हैघ् वह अपने को इस समय इतनी नीच समझ रही थी कि घर का मेहतर भी उसे गालियाँ देताए तो शायद सिर न उठाती। वह वासना के हाथों में इतनी परास्त हो चुकी थी कि अब उसे अपने सँभलने की कोई आशा न दिखाई देती थी। उसे भय होता था कि मेरा मन मुझसे वह सब कुछ करा सकता हैए जिसकी कल्पना—मात्रा से मनुष्य का सिर लज्जा से झुक जाता है। मैं दूसरों पर कितना हँसती थीए अपनी धार्मिक प्रवृत्ति पर कितना अभिमान करती थीए मैं पुनर्जन्म और मुक्तिए पुरुष और प्रकृति जैसे गहन विषयों पर विचार करती थीए और दूसरों को इच्छा तथा स्वार्थ का दास समझकर उनका अनादर करती थी। मैं समझती थीए परमात्मा के समीप पहुँच गई हूँए संसार की उपेक्षा करके अपने को जीवनमुक्त समझ रही थीय पर आज मेरी सद्‌भक्ति का परदाफाश हो गया। आह! विनय को ये बातें मालूम होंगीए तो वह अपने मन में क्या समझेंगेघ् कदाचित्‌ मैं उनकी निगाहों में इतनी गिर जाऊँगी कि वह मुझसे बोलना भी पसंद न करें। मैं अभागिनी हूँए मैंने उन्हें बदनाम कियाए अपने कुल को कलंकित कियाए अपनी आत्मा की हत्या कीए अपने आश्रयदाताओं की उदारता को कलुषित किया। मेरे कारण धर्म भी बदनाम हो गयाए नहीं तो क्या आज मुझसे यह पूछा जाता—क्या यही सत्य की मीमांसा हैघ्

उसने सिरहाने की ओर देखा। अलमारियों पर धर्म—ग्रंथ सजे हुए रखे थे। उन ग्रंथों की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। यही मेरे स्वाध्याय का फल है! मैं सत्य की मीमांसा करने चली थी और इस बुरी तरह गिरी कि अब उठना कठिन है।

सामने दीवार पर बुध्द भगवान्‌ का चित्र लटक रहा था। उनके मुख पर कितना तेज था! सोफिया की अॉंखें झुक गईं। उनकी ओर ताकते हुए उसे लज्जा आती थी। बुध्द के अमरत्व का उसे कभी इतना पूर्ण विश्वास न हुआ था। अंधकार में लकड़ी का कुंदा भी सजीव हो जाता है। सोफी के हृदय पर ऐसा ही अंधकार छाया हुआ था।

अभी नौ बजे का समय थाए पर सोफिया को भ्रम हो रहा था कि संध्या हो रही है। वह सोचती थी—क्या मैं सारे दिन सोती रह गईए किसी ने मुझे जगाया भी नहीं! कोई क्यों जगाने लगाघ् यहाँ अब मेरी परवा किसे हैए और क्यों हो! मैं कुलक्षणा हूँए मेरी जात से किसी का उपकार न होगाए जहाँ रहूँगीए वहीं आग लगाऊँगी। मैंने बुरी साइत में इस घर में पाँव रखे थे। मेरे हाथों यह घर वीरान हो जाएगाए मैं विनय को अपने साथ डूबो दूँगीए माता का शाप अवश्य पड़ेगा। भगवन्ए आज मेरे मन में ऐसे विचार क्यों आ रहे हैंघ्

सहसा मिसेज सेवक कमरे में दाखिल हुईं। उन्हें देखते ही सोफिया को अपने हृदय में एक जलोद्‌गार—सा उठता हुआ जान पड़ा। वह दौड़कर माता के गले से लिपट गई। यही अब उसका अंतिम आश्रय था। यहीं अब उसे वह सहानुभूति मिल सकती थीए जिसके बिना उसका जीना दूभर थाय यहीं अब उसे वह विश्रामए वह शांतिए वह छाया मिल सकती थीए जिसके लिए उसकी संतप्त आत्मा तड़प रही थी। माता की गोद के सिवा यह सुख—स्वर्ग और कहाँ हैघ् माता के सिवा कौन उसे छाती से लगा सकता हैए कौन उसके दिल पर मरहम रख सकता हैघ् माँ के कटु शब्द और उसका निष्ठुर व्यवहारए सब कुछ इस सुख—लालसा के आवेग में विलुप्त हो गया। उसे ऐसा जान पड़ाए ईश्वर ने मेरी दीनता पर तरस खाकर मामा को यहाँ भेजा है। माता की गोद में अपना व्यथित मस्तक रखकर एक बार फिर उसे बल और धैर्य का अनुभव हुआए जिसकी याद अभी तक दिल से न मिटी थी। वह फूट—फूट रोने लगी। लेकिन माता की अॉंखों में अॉंसू न थे। वह तो मिस्टर क्लार्क के निमंत्रण का सुख—सम्वाद सुनाने के लिए अधीर हो रही थीं। ज्यों ही सोफिया के अॉंसू थमेए मिसेज सेवक ने कहा—आज तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। मिस्टर क्लार्क ने तुम्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया है।

सोफिया ने उत्तर न दिया। उसे माता की यह बात भद्दी मालूम हुई।

मिसेज सेवक ने फिर कहा—जब से तुम यहाँ आई होए वह कई बार तुम्हारा कुशल—समाचार पूछ चुके हैं। जब मिलते हैंए तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। ऐसा सज्जन सिविलियन मैंने नहीं देखा। उनका विवाह किसी अंगरेज के खानदान में हो सकता हैए और यह तुम्हारा सौभाग्य है कि वह अभी तक तुम्हें याद करते हैं।

सोफिया ने घृणा से मुँह फेर लिया। माता की सम्मान—लोलुपता असह्य थी। न मुहब्बत की बातें हैंए न आश्वासन के शब्दए न ममता के उद्‌गार। कदाचित्‌ प्रभु मसीह ने भी निमंत्रित किया होताए तो वह इतनी प्रसन्न न होती।

मिसेज सेवक बोलीं—अब तुम्हें इनकार न करना चाहिए। विलम्ब से प्रेम ठंडा हो जाता है और फिर उस पर कोई चोट नहीं पड़ सकती। ऐसा स्वर्ण—सुयोग फिर न हाथ आएगाए एक विद्वान्‌ ने कहा है—प्रत्येक प्राणी को जीवन में केवल एक बार अपने भाग्य की परीक्षा का अवसर मिलता हैए और वही भविष्य का निर्णय कर देता है। तुम्हारे जीवन में यह वही अवसर है। इसे छोड़ दियाए तो फिर हमेशा पछताओगी।

सोफिया ने व्यथित होकर कहा—अगर मिस्टर क्लार्क ने मुझे निमंत्रित न किया होताए तो शायद आप मुझे याद भी न करतींघ्

मिसेज सेवक ने अवरुध्द कंठ से कहा—मेरे मन में जो कुछ हैए वह तो ईश्वर ही जानता हैय पर ऐसा कोई दिन नहीं जाता कि मैं तुम्हारे और प्रभु के लिए ईश्वर से प्रार्थना न करती होऊँ। यह उन्हीं प्रार्थनाओं का शुभ फल है कि तुम्हें यह अवसर मिला है।

यह कहकर मिसेज सेवक जाह्नवी से मिलने गईं। रानी ने उनका विशेष आदर न किया। अपनी जगह पर बैठे—बैठे बोलीं—आपके दर्शन तो बहुत दिनों के बाद हुए।

मिसेज सेवक ने सूखी हँसी हँसकर कहा—अभी मेरी वापसी की मुलाकात आपके जिम्मे बाकी है।

रानी—आप मुझसे मिलने आईं ही कबघ् पहले भी सोफिया से मिलने आई थींए और आज भी। मैं तो आज आपको एक खत लिखनेवाली थीए अगर बुरा न मानिए तो एक बात पूछूँघ्

मिसेज सेवक—पूछिएए बुरा क्यों मानूँगी।

रानी—मिस सोफिया की उम्र तो ज्यादा हो गईए आपने उसकी शादी की कोई फिक्र की या नहींघ् अब तो उसका जितनी जल्दी विवाह हो जाएए उतना ही अच्छा। आप लोगों में लड़कियाँ बहुत सयानी होने पर ब्याही जाती हैं।

मिसेज सेवक—इसकी शादी कब की हो गई होतीए कई अंगरेज बेतरह पीछे पड़ेए लेकिन यह राजी ही नहीं होती। इसे धर्म—ग्रंथों से इतनी रुचि है कि विवाह को जंजाल समझती है। आजकल जिलाधीश मिस्टर क्लार्क के पैगाम आ रहे हैं। देखूँए अब भी राजी होती है या नहीं। आज मैं उसे ले जाने ही के इरादे से आई हूँ। मैं हिंदुस्तानी ईसाइयों से नाते नहीं जोड़ना चाहती। उनका रहन—सहन मुझे पसंद नहीं हैए और सोफी जैसी सुशिक्षिता लड़की के लिए कोई अंगरेज पति मिलने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती।

जाह्नवी—मेरे विचार में विवाह सदैव अपने स्वजातियों में करना चाहिए। योरपियन लोग हिंदुस्तानी ईसाइयों का बहुत आदर नहीं करतेए और अनमेल विवाहों का परिणाम अच्छा नहीं होता।

मिसेज सेवक—(गर्व के साथ) ऐसा कोई योरपियन नहीं हैए जो मेरे खानदान में विवाह करना मर्यादा के विरुध्द समझे। हम और वे एक हैं। हम और वे एक ही खुदा को मानते हैंए एक ही गिरजा में प्रार्थना करते हैं और एक ही नबी के अनुचर हैं। हमारा और उनका रहन—सहनए खान—पानए रीति—व्यवहार एक है। यहाँ अंगरेजों के समाज मेंए क्लब मेंए दावतों में हमारा एक—सा सम्मान होता है। अभी तीन—चार दिन हुएए लड़कियों को इनाम देने का जलसा था। मिस्टर क्लार्क ने खुद मुझे उस जलसे का प्रधान बनाया और मैंने ही इनाम बाँटे। किसी हिंदू या मुसलमान लेडी को यह सम्मान न प्राप्त हो सकता था।

रानी—हिंदू या मुसलमानए जिन्हें कुछ भी अपने जातीय गौरव का खयाल हैए अंगरेजों के साथ मिलना—जुलना अपने लिए सम्मान की बात नहीं समझते। यहाँ तक कि हिंदुओं में जो लोग अंगरेजों से खान—पान रखते हैंए उन्हें लोग अपमान की द्रष्टि से देखते हैंए शादी—विावह का तो कहना ही क्या! राजनीतिक प्रभुत्व की बात और है। डाकुओं का एक दल विद्वानों की एक सभा को बहुत आसानी से परास्त कर सकता है। लेकिन इससे विद्वानों का महत्व कुछ कम नहीं होता। प्रत्येक हिंदू जानता है कि मसीह बौध्द काल में यहीं आए थेए यहीं उनकी शिक्षा हुई थी और जो ज्ञान उन्होंने यहाँ प्राप्त कियाए उसी का पश्चिम में प्रचार किया। फिर कैसे हो सकता है कि हिंदू अंगरेजों को श्रेष्ठ समझेंघ्

दोनों महिलाओं में इसी तरह नोक—झोंक होती रही। दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाना चाहती थींय दोनों एक दूसरे के मनोभावों को समझती थीं। कृतज्ञता या धन्यवाद के शब्द किसी के मुँह से न निकले। यहाँ तक कि जब मिसेज सेवक विदा होने लगींए तो रानी जाह्नवी उनको पहुँचाने के लिए कमरे के द्वार तक भी न गईं। अपनी जगह पर बैठे—बैठे हाथ बढ़़ा दिया और अभी मिसेज सेवक कमरे ही में थीं कि अपना समाचार—पत्र पढ़़ने लगीं।

मिसेज सेवक सोफिया के पास आईंए तो वह तैयार थी। किताबों के गट्ठर बँधो हुए थे। कई दासियाँ इधार—उधार इनाम के लालच में खड़ी थीं। मन मं प्रसन्न थींए किसी तरह यह बला टली। सोफिया बहुत उदास थी। इस घर को छोड़ते हुए उसे दुरूख हो रहा था। उसे अपने उद्दिष्ट स्थान का पता न था। उसे कुछ मालूम न था कि तकदीर कहाँ ले जाएगीए क्या—क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगीए जीवन—नौका किस घाट लगेगी। उसे ऐसा मालूम हो रहा था कि विनयसिंह से फिर मुलाकात न होगीए उनसे सदा के लिए बिछुड़ रही हूँ। रानी की अपमान—भरी बातेंए उनकी भर्त्‌सना और अपनी भ्रांति सब कुछ भूल गई। हृदय के एक—एक तार से यही धवनि निकल रही थी—अब विनय से फिर भेंट न होगी।

मिसेज सेवक बोलीं—कुँवर साहब से भी मिल लूँ।

सोफिया डर रही थी कि कहीं मामा को रात की घटना की खबर न मिल जाएए कुँवर साहब कहीं दिल्लगी—ही—दिल्लगी में कह न डालें। बोली—उनसे मिलने में देर होगीए फिर मिल लीजिएगा।

मिसेज सेवक—फिर किसे इतनी फुर्सत है!

दोनों कुँवर साहब के दीवानखाने में पहुँचीं। यहाँ इस वक्त स्वयंसेवकों की भीड़ लगी हुई थी। गढ़़वाल प्रांत में दुर्भिक्ष का प्रकोप था। न अन्न थाए न जल। जानवर मरे जाते थेए पर मनुष्यों को मौत भी न आती थीय एड़ियाँ रगड़ते थेए सिसकते थे। यहाँ से पचास स्वयंसेवकों का एक दलए पीड़ितों का कष्ट निवारण करने के लिए जानेवाला था। कुँवर साहब इस वक्त उन लोगों को छाँट रहे थेय उन्हें जरूरी बातें समझा रहे थे। डॉक्टर गांगुली ने इस वृध्दावस्था में भी इस दल का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था। दोनों आदमी इतने व्यस्त थे कि मिसेज सेवक की ओर किसी ने धयान न दिया। आखिर वह बोलीं—डॉक्टर साहबए आपका कब जाने का विचार हैघ्

कुँवर साहब ने मिसेज सेवक की तरफ देखा और बड़े तपाक से आगे बढ़़कर हाथ मिलायाए कुशल—समाचार पूछा और ले जाकर एक कुर्सी पर बैठा दिया। सोफिया माँ के पीछे जाकर खड़ी हो गई।

कुँवर साहब—ये लोग गढ़़वाल जा रहे हैं। आपने पत्रों में देखा होगाए वहाँ लोगों पर कितना घोर संकट पड़ा हुआ है।

मिसेज सेवक—खुदा इन लोगों का उद्योग सफल करें। इनके त्याग की जितनी भी प्रशंसा की जाएए कम है। मैं देखती हूँए यहाँ इनकी खास तादाद है।

कुँवर साहब—मुझे इतनी आशा न थीए विनय की बातों पर विश्वास न होता थाए सोचता थाए इतने वालंटीयर कहाँ मिलेंगे। सभी को नवयुवकों के निरुत्साह का रोना रोते हुए देखता थाए श्इनमें जोश नहीं हैए त्याग नहीं हैए जान नहीं हैए सब अपने स्वार्थ—चिंतन में मतवाले हो रहे हैं। कितनी ही सेवा—समितियाँ स्थापित हुईं पर एक भी पनप न सकी। लेकिन अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोगों को हमारे नवयुवकों के विषय में कितना भ्रम हुआ था। अब तक तीन सौ नाम दर्ज हो चुके हैं। कुछ लोगों ने आजीवन सेवा—धर्म पालन करने का व्रत लिया है। इनमें कई आदमी तो हजारों रुपये माहवार की आय पर लात मारकर आए हैं। इनका सत्साहस देखकर मैं बहुत आशावादी हो गया हूँ।

मिसेज सेवक—मिस्टर क्लार्क कल आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे। ईश्वर ने चाहाए तो आप शीघ्र सी.आई.ई. होंगे और मुझे आपको बधाई देने का अवसर मिलेगा।

कुँवर साहब—(लजाते हुए) मैं इस सम्मान के योग्य नहीं हूँ। मिस्टर क्लार्क मुझे इस योग्य समझते हैंए तो वह उनकी कृपा—द्रष्टि है। मिस सेवकए तैयार रहनाए कल तीन बजे के मेल से ये लोग सिधारेंगे। प्रभु ने भी आने का वादा किया है।

मिसेज सेवक—सोफी तो आज घर जा रही है। (मुस्कराकर) शायद आपको जल्द ही इसका कन्यादान देना पड़े। (धीरे से) मिस्टर क्लार्क जाल फैला रहे हैं।

सोफिया शर्म से गड़ गई। उसे अपनी माता के ओछेपन पर क्रोध आ रहा था—इन सब बातों का ढ़िंढ़ोरा पीटने की क्या जरूरत हैघ् क्या यह समझती हैं कि मि. क्लार्क का नाम लेने से कुँवर साहब रोब में आ जाएँगेघ्

कुँवर साहब—बड़ी खुशी की बात है। सोफीए देखोए हम लोगों को और विशेषतरू अपने गरीब भाइयों को न भूल जाना। तुम्हें परमात्मा ने जितनी सहृदयता प्रदान की हैए वैसा ही अच्छा अवसर भी मिल रहा है। हमारी शुभेच्छाएँ सदैव तुम्हारे साथ रहेंगी। तुम्हारे एहसान से हमारी गरदन सदा दबी रहेगी। कभी—कभी हम लोगों को याद करती रहना। मुझे पहले न मालूम थाए नहीं तो आज इंदु को अवश्य बुला भेजता। खैरए देश की दशा तुम्हें मालूम है। मिस्टर क्लार्क बहुत ही होनहार आदमी हैं। एक दिन जरूर यह इस देश के किसी प्रांत के विधाता होंगे। मैं विश्वास के साथ यह भविष्यवाणी कर सकता हूँ। उस वक्त तुम अपने प्रभावए योग्यता और अधिकार से देश को बहुत कुछ लाभ पहुँचा सकोगी। तुमने अपने स्वदेशवासियों की दशा देखी हैए उनकी दरिद्रता का तुम्हें पूर्ण अनुभव है। इस अनुभव का उनकी सेवा और सुधार में सद्व्‌यय करना।

सोफिया मारे शर्म के कुछ बोल न सकी। माँ ने कहा—आप रानीजी को जरूर साथ लाइएगा। मैं कार्ड भेजूँगी।

कुँवर साहब—नहीं मिसेज सेवकए मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे खेद है कि मैं उस उत्सव में सम्मिलित न हो सकूँगा। मैंने व्रत कर लिया है कि राज्याधिकारियों से कोई सम्पर्क न रखूँगा। हाकिमों की कृपा—द्रष्टिए ज्ञात या अज्ञात रूप से हम लोगों को आत्मसेवी और निरंकुश बना देती है। मैं अपने को इस परीक्षा में नहीं डालना चाहताय क्योंकि मुझे अपने ऊपर विश्वास नहीं है। मैं अपनी जाति में राजा और प्रजा तथा छोटे और बड़े का विभेद नहीं करना चाहता। सब प्रजा हैंए राजा है वह भी प्रजा हैए रंक है वह भी प्रजा है। झूठे अधिकार के गर्व से अपने सिर को नहीं फिराना चाहता।

मिसेज सेवक—खुदा ने आपको राजा बनाया है। राजों ही के साथ तो राजा का मेल हो सकता है। अंगरेज लोग बाबुओं को मुँह नहीं लगातेए क्योंकि इससे यहाँ के राजों का अपमान होता है।

डॉ. गांगुली—मिसेज सेवकए यह बहुत दिनों तक राजा रह चुका हैए अब इसका जी भर गया है। मैं इसका बचपन का साथी हूँ। हम दोनों साथ—साथ पढ़़ते थे। देखने में यह मुझसे छोटा मालूम होता हैए पर कई साल बड़ा है।

मिसेज सेवक—(हँसकर) डॉक्टर के लिए यह तो कोई गर्व की बात नहीं है।

डॉ. गांगुली—हम दूसरों का दवा करना जानते हैंए अपना दवा करना नहीं जानता। कुँवर साहब उसी बखत से च्मेपउपेज है। उसी च्मेपउपेउ ने इसकी शिक्षा में बाधा डाली। अब भी इसका वही हाल है। हाँए अब थोड़ा फेरफार हो गया है। पहले कर्म से भी निराशावादी था और वचन से भी। अब इसके वचन और कर्म में सा—श्य नहीं है। वचन से तो अब भी च्मेपउपेज हैय पर काम वह करता हैए जिसे कोई पक्का व्चजपउपेज ही कर सकता है।

कुँवर साहब—गांगुलीए तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो। मुझमें आशावादिता के गुण ही नहीं हैं। आशावादी परमात्मा का भक्त होता हैए पक्का ज्ञानीए पूर्ण ऋषि। उसे चारों ओर परमात्मा की ही ज्योति दिखाई देती है। इसी में उसे भविष्य पर अविश्वास नहीं होता। मैं आदि से भोग—विलास का दास रहा हूँय वह दिव्य ज्ञान न प्राप्त कर सकाए जो आशावादिता की कु़जी है। मेरे लिए च्मेपउपेउ के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मिसेज सेवकए डॉक्टर महोदय के जीवन का सार है—आत्मोत्सर्ग। इन पर जितनी विपत्तियाँ पड़ींए वे किसी ऋषि को नास्तिक बना देतीं। जिस प्राणी के सात बेटे जवान हो—होकर दगा दे जाएँए पर वह अपनेर् कर्तव्य—मार्ग से जरा भी विचलित न होए ऐसा उदाहरण विरला ही कहीं मिलेगा। इनकी हिम्मत तो टूटना जानती ही नहींए आपदाओं की चोटें इन्हें और भी ठोस बना देती हैं। मैं साहसहीनए पौरुषहीन प्राणी हूँ। मुझे यकीन नहीं आता कि कोई शासक जाति शासितों के साथ न्याय और साम्य का व्यवहार कर सकती है। मानव—चरित्र को मैं किसी देश मेंए किसी काल मेंए इतना निष्काम नहीं पाता। जिस राष्ट्र ने एक बार अपनी स्वाधीनता खो दीए वह फिर उस पद को नहीं पा सकता। दासता ही उसकी तकदीर हो जाती है। किंतु हमारे डॉक्टर बाबू मानव—चरित्र को इतना स्वार्थी नहीं समझते। इनका मत है कि हिंसक पशुओं के हृदय में भी अनंत ज्योति की किरणें विद्यमान रहती हैंए केवल परदे को हटाने की जरूरत है। मैं अंगरेजों की तरफ से निराश हो गया हूँए इन्हें विश्वास है कि भारत का उध्दार अंगरेज—जाति ही के द्वारा होगा।

मिसेज सेवक—(रुखाई से) तो क्या आप यह नहीं मानते कि अंगरेजों ने भारत के लिए जो कुछ किया हैए वह शायद ही किसी जाति ने किसी जाति या देश के साथ किया होघ्

कुँवर साहब—नहींए मैं यह नहीं मानता।

मिसेज सेवक—(आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार और भी किसी काल में हुआ थाघ्

कुँवर साहब—मैं उसे शिक्षा ही नहीं कहताए जो मनुष्य को स्वार्थ का पुतला बना दे।

मिसेज सेवक—रेलए तारए जहाजए डाकए ये सब विभूतियाँ अंगरेजों ही के साथ आईं!

कुँवर साहब—अंगरेजों के बगैर भी आ सकती थींए और अगर आई भी हैं तो अधिकतर अंगरेजों ही के लाभ के लिए।

मिसेज सेवक—ठीक हैए ऐसा न्याय—विधान पहले कभी न था।

कुँवर साहब—ठीक हैए ऐसा न्याय—विधान कहाँ थाए जो अन्याय को न्याय और असत्य को सत्य सिध्द कर दे! यह न्याय नहींए न्याय का गोरखधंधा है।

सहसा रानी जाह्नवी कमरे में आईं। सोफिया का चेहरा उन्हें देखते ही सूख गयाए वह कमरे के बाहर निकल आईए रानी के सामने खड़ी न रह सकी। मिसेज सेवक को भी शंका हुई कि कहीं चलते—चलते रानी से फिर न विवाद हो जाए। वह भी बाहर चली आईं। कुँवर साहब ने दोनों को फिटन पर सवार कराया। सोफिया ने सजल नेत्रों से कर जोड़कर कुँवरजी को प्रणाम किया। फिटन चली। आकाश पर काली घटा छाई हुई थीए फिटन सड़क पर तेजी से दौड़ी चली जाती थी और सोफिया बैठी रो रही थी। उसकी दशा उस बालक की—सी थीए जो रोटी खाता हुआ मिठाईवाले की आवाज सुनकर उसके पीछे दौड़ेए ठोकर खाकर गिर पड़ेए पैसा हाथ से निकल जाए और वह रोता हुआ घर लौट आवे द्य

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अध्याय 15

राजा महेंद्रकुमार सिंह यद्यपि सिध्दांत के विषय में अधिकारियों से जौ—भर भी न दबते थेय पर गौण विषयों में वह अनायास उनसे विरोध करना व्यर्थ ही नहींए जाति के लिए अनुपयुक्त भी समझते थे। उन्हें शांत नीति पर जितना विश्वास थाए उतना उग्र नीति पर न थाए विशेषतरू इसलिए कि वह वर्तमान परिस्थिति में जो कुछ सेवा कर सकते थेए वह शासकों के विश्वासपात्रा होकर ही कर सकते थे। अतएव कभी—कभी उन्हें विवश होकर ऐसी नीति का अवलम्बन करना पड़ता थाए जिससे उग्र नीति के अनुयायियों को उन पर उँगली उठाने का अवसर मिलता था। उनमें यदि कोई कमजोरी थीए तो यह कि वह सम्मान—लोलुप मनुष्य थेय और ऐसे अन्य मनुष्यों की भाँति वह बहुत औचित्य की द्रष्टि से नहींए ख्याति लाभ की द्रष्टि से अपने आचरण का निश्चय करते थे। पहले उन्होंने न्याय—पक्ष लेकर जॉन सेवक को सूरदास की जमीन दिलाने से इनकार कर दिया थाय पर अब उन्हें इसके विरुध्द आचरण करने के लिए बाधय होना पड़ रहा था। अपने सहवर्गियों को समझाने के लिए तो पाँड़ेपुरवालों को ताहिर अली के घर में घुसने पर उद्यत होना ही काफी थाय पर यथार्थ में जॉन सेवक और मिस्टर क्लार्क की पारस्परिक मैत्री ने ही उन्हें अपना फैसला पलट देने को प्रेरित किया था। पर अभी तक उन्होंने बोर्ड में इस प्रस्ताव को उपस्थित न किया था। यह शंका होती थी कि कहीं लोग मुझे एक धानी व्यापारी के साथ पक्षपात करने का दोषी न ठहराने लगें। उनकी आदत थी कि बोर्ड में प्रस्ताव रखने के पहले वह इंदु सेए और इंदु न होतीए तो अपने इष्ट—मित्रों से परामर्श कर लिया करते थेय उनके सामने अपना पक्ष—समर्थन करकेए उनकी शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करकेए अपना इतमीनान कर लेते थे। यद्यपि इस तर्कयुध्द से कोई अंतर न पड़ताए वह अपने पक्ष पर स्थिर रहतेय पर घंटे—दो घंटे के विचार—विनिमय से उनको बड़ा आश्वासन मिलता था।

तीसरे पहर का समय था। समिति के सेवक गढ़़वाल जाने के लिए स्टेशन पर जमा हो रहे थे। इंदु ने गाड़ी तैयार करने का हुक्म दिया। यद्यपि बादल घिरा हुआ था और प्रतिक्षण गगन श्याम वर्ण हुआ जाता थाए किंतु सेवकों को विदा करने के लिए स्टेशन पर जाना जरूरी था। जाह्नवी ने उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। वह जाने को तैयार ही थी कि राजा साहब अंदर आए और इंदु को कहीं जाने को तैयार देखकर बोले—कहाँ जाती होए बादल घिरा हुआ है।

इंदु—समिति के लोग गढ़़वाल जा रहे हैं। उन्हें विदा करने स्टेशन जा रही हूँ। अम्माँजी ने बुलाया भी है।

राजा—पानी अवश्य बरसेगा।

इंदु—परदा डाल दूँगीय और भीग भी गईए तो क्याघ् आखिर वे भी तो आदमी ही हैंए जो लोक—सेवा के लिए इतनी दूर जा रहे हैं।

राजा—न जाओए तो कोई हरज हैघ् स्टेशन पर भीड़ बहुत होगी।

इंदु—हरज क्या होगाए मैं जाऊँ या न जाऊँय वे लोग तो जाएँगे हीए पर दिल नहीं मानता। वे लोग घर—बार छोड़कर जा रहे हैंए न जाने क्या—क्या कष्ट उठाएँगेए न जाने कब लौटेंगेए मुझसे इतना भी न हो कि उन्हें विदा कर आऊँघ् आप भी क्यों नहीं चलतेघ्

राजा—(विस्मित होकर) मैंघ्

इंदु—हाँ—हाँए आपके जाने में कोई हरज हैघ्

राजा—मैं ऐसी संस्थाओं में सम्मिलित नहीं होता!

इंदु—कैसी संस्थाओं मेंघ्

राजा—ऐसी ही संस्थाओं में!

इंदु—क्या सेवा—समितियों से सहानुभूति रखना भी आपत्तिजनक हैघ् मैं तो समझती हूँए ऐसे शुभ कायोर्ं में भाग लेना किसी के लिए भी लज्जा या आपत्ति की बात नहीं हो सकती।

राजा—तुम्हारी समझ में और मेरी समझ में बड़ा अंतर है। यदि मैं बोर्ड का प्रधान न होताए यदि मैं शासन का एक अंग न होताए अगर मैं रियासत का स्वामी न होताए तो स्वच्छंदता से प्रत्येक सार्वजनिक कार्य में भाग लेता। वर्तमान स्थिति में मेरा किसी संस्था में भाग लेना इस बात का प्रमाण समझा जाएगा कि राज्याधिकारियों को उससे सहानुभूति है। मैं यह भ्रांति नहीं फैलाना चाहता। सेवा समिति युवकों का दल हैए और यद्यपि इस समय उसने सेवा का आदर्श अपने सामने रखा है और वह सेवा—पथ पर ही चलने की इच्छा रखती हैय पर अनुभव ने सिध्द कर दिया है कि सेवा और उपकार बहुधा ऐसे रूप धारण कर लेते हैंए जिन्हें कोई शासन स्वीकार नहीं कर सकता और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसे उसका मूलोच्छेद करने के प्रयत्न करने पड़ते हैं। मैं इतना बड़ा उत्तरदायित्व अपने सिर पर नहीं लेना चाहता।

इंदु—तो आप इस पद को त्याग क्यों नहीं देतेघ् अपनी स्वाधीनता का क्यों बलिदान करते हैंघ्

राजा—केवल इसलिए कि मुझे विश्वास है कि नगर का प्रबंध जितनी सुंदरता से मैं कर सकता हूँए और कोई नहीं कर सकता। नगरसेवा का ऐसा अच्छा और दुर्लभ अवसर पाकर मैं अपनी स्वच्छंदता की जरा भी परवा नहीं करता। मैं एक राज्य का अधीश हूँ और स्वभावतरू मेरी सहानुभूति सरकार के साथ है। जनवाद और साम्यवाद का सम्पत्ति से वैर है। मैं उस समय तक साम्यवादियों का साथ न दूँगाए जब तक मन में यह निश्चय न कर लूँ कि अपनी सम्पत्ति त्याग दूँगा। मैं वचन से साम्यवाद का अनुयायी बनकर कर्म से उसका विरोधी नहीं बनना चाहता। कर्म और वचन में इतना घोर विरोध मेरे लिए असह्य है। मैं उन लोगों को धूर्त और पाखंडी समझता हूँए जो अपनी सम्पत्ति को भोगते हुए साम्य की दुहाई देते फिरते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि साम्यदेव के पुजारी बनकर वह किस मुँह से विशाल प्रासादों में रहते हैंए मोटर—बोटों में जल—क्रीड़ा करते हैं और संसार के सुखों का दिल खोलकर उपभोग करते हैं। अपने कमरे से फर्श हटा देना और सादे वस्त्र पहन लेना ही साम्यवाद नहीं है। यह निर्लज्ज धूर्तता हैए खुला हुआ पाखंड है। अपनी भोजनशाला के बचे—खुचे टुकड़ों को गरीबों के सामने फेंक देना साम्यवाद को मुँह चिढ़़ानाए उसे बदनाम करना है।

यह कटाक्ष कुँवर साहब पर था। इंदु समझ गई। त्योरियाँ बदल गईंए किंतु उसने जब्त किया और इस अप्रिय प्रसंग को समाप्त करने के लिए बोली—मुझे देर हो रही हैए तीन बजनेवाले हैंए साढ़़े तीन पर गाड़ी छूटती हैए अम्माँजी से मुलाकात हो जाएगीए विनय का कुशल—समाचार भी मिल जाएगा। एक पंथ दो काज होंगे।

राजा साहब—जिन कारणों से मेरा जाना अनुचित हैए उन्हीं कारणों से तुम्हारा जाना अनुचित है। तुम जाओ या मैं जाऊँए एक ही बात है।

इंदु उसी पाँव अपने कमरे में लौट आई और सोचने लगी—यह अन्याय नहींए तो और क्या हैघ् घोर अत्याचार! कहने को तो मैं रानी हूँए लेकिन इतना अख्तियार भी नहीं कि घर से बाहर जा सकूँ। मुझसे तो लौंडियाँ ही अच्छी हैं। चित्ता बहुत खिन्न हुआए अॉंखें सजल हो गईं। घंटी बजाई और लौंडी से कहा—गाड़ी खुलवा दोए मैं स्टेशन न जाऊँगी।

महेंद्रकुमार भी उसके पीछे—पीछे कमरे में जाकर बोले—कहीं सैर क्यों नहीं कर आतींघ्

इंदु—नहींए बादल घिरा हुआ हैए भीग जाऊँगी।

राजा साहब—क्या नाराज हो गईंघ्

इंदु—नाराज क्यों हूँघ् आपके हुक्म की लौंडी हूँ। आपने कहाए मत जाओए न जाऊँगी।

राजा साहब—मैं तुम्हें विवश नहीं करना चाहता। यदि मेरी शंकाओं को जान लेने के बाद भी तुम्हें वहाँ जाने में कोई आपत्ति नहीं दिखलाई पड़तीए तो शौक से जाओ। मेरा उद्देश्य केवल तुम्हारी सद्‌बुध्दि को प्रेरित करना था। मैं न्याय के बल से रोकना चाहता हूँए आज्ञा के बल से नहीं। बोलोए अगर तुम्हारे जाने से मेरी बदनामी होए तो तुम जाना चाहोगीघ्

यह चिड़िया के पर काटकर उसे उड़ाना था। इंदु ने उड़ने की चेष्टा ही न की। इस प्रश्न का केवल एक ही उत्तर हो सकता था—कदापि नहींए यह मेरे धर्म के प्रतिकूल है। किंतु इंदु को अपनी परवशता इतनी अखर रही थी कि उसने इस प्रश्न को सुना ही नहींए या सुना भीए तो उस पर धयान न दिया। उसे ऐसा जान पड़ाए यह मेरे जले पर नमक छिड़क रहे हैं। अम्माँ अपने मन में क्या कहेंगीघ् मैंने बुलायाए और नहीं आई! क्या दौलत की हवा लगीघ् कैसे क्षमा—याचना करूँघ् यदि लिखूँए अस्वस्थ हूँए तो वह एक क्षण में यहाँ आ पहुँचेंगी और मुझे लज्जित होना पड़ेगा। आह! अब तक तो वहाँ पहुँच गई होती। प्रभु सेवक ने बड़ी प्रभावशाली कविता लिखी होगी। दादाजी का उपदेश भी मार्के का होगा। एक—एक शब्द अनुराग और प्रेम में डूबा होगा। सेवक—दल वर्दी पहने कितना सुंदर लगता होगा!

इन कल्पनाओं ने इंदु को इतना उत्सुक किया कि वह दुराग्रह करने को उद्यत हो गई। मैं तो जाऊँगी। बदनामी नहींए पत्थर होगी। ये सब मुझे रोक रखने के बहाने हैं। तुम डरते होय अपने कमोर्ं के फल भोगोय मैं क्यों डरूँघ् मन में यह निश्चय करके उसने निश्चयात्मक रूप से कहा—आपने मुझे जाने की आज्ञा दे दीए मैं जाती हूँ।

राजा ने भग्न हृदय होकर कहा—तुम्हारी इच्छाए जाना चाहती होए शौक से जाओ।

इंदु चली गईए तो राजा साहब सोचने लगे—स्त्रियाँ कितनी निष्ठुरए कितनी स्वच्छंदताप्रियए कितनी मानशील होती हैं! चली जा रही हैंए मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। इसकी जरा भी चिंता नहीं कि हुक्काम के कानों तक यह बात पहुँचेगीए तो वह मुझे क्या कहेंगे। समाचार—पत्रों के संवाददाता यह वृत्तांत अवश्य ही लिखेंगेए और उपस्थित महिलाओं में चतारी की रानी का नाम मोटे अक्षरों में लिखा हुआ नजर आएगा। मैं जानता कि इतना हठ करेगीए तो मना ही क्यों करताए खुद भी साथ जाता। एक तरफ बदनाम होताए तो दूसरी ओर बखान होता। अब तो दोनों ओर से गया। इधार भी बुरा बनाए उधार भी बुरा बना। आज मालूम हुआ कि स्त्रियों के सामने कोरी साफगोई नहीं चलतीए वे लल्लो—चप्पो ही से राजी रहती हैं।

इंदु स्टेशन की तरफ चलीय पर ज्यों—ज्यों आगे बढ़़ती थीए उसका दिल एक बोझ से दबा जाता था। मैदान में जिसे हम विजय कहते हैंए घर में उसी का नाम अभिनयशीलताए निष्ठुरता और अभद्रता है। इंदु को इस विजय पर गर्व न था। अपने हठ का खेद था। सोचती जाती थी—वह मुझे अपने मन में कितनी अभिमानिनी समझ रहे होंगे। समझते होंगेए जब यह जरा—जरा बातों में यों अॉंखें फेर लेती हैए जरा—जरा—से मतभेद में यों लड़ने के लिए तैयार हो जाती हैए तो किसी कठिन अवसर पर इससे सहानुभूति की क्या आशा की जा सकती है! अम्माँजी यह सुनेंगीए तो मुझी को बुरा कहेंगी। निस्संदेह मुझसे भूल हुई। लौट चलूँ और उनसे अपने अपराध क्षमा कराऊँ। मेरे सिर पर न जाने क्यों भूत सवार हो जाता है। अनायास ही उलझ पड़ी! भगवान्‌ मुझे कब इतनी बुध्दि होगी कि उनकी इच्छा के सामने सिर झुकाना सीखूँगीघ्

इंदु ने बाहर की तरफ सिर निकालकर देखाए स्टेशन का सिगनल नजर आ रहा था। नर—नारियों के समूह स्टेशन की ओर दौड़े चले जा रहे थे। सवारियों का ताँता लगा हुआ था। उसने कोचवान से कहा—गाड़ी फेर दोए मैं स्टेशन न जाऊँगीए घर की तरफ चलो।

कोचवान ने कहा—सरकार अब तो आ गएय वह देखिएए कई आदमी मुझे इशारा कर रहे हैं कि घोड़ों को बढ़़ाओए गाड़ी पहचानते हैं।

इंदु—कुछ परवा नहींए फौरन घोड़े फेर दो।

कोचवान—क्या सरकार की तबीयत कुछ खराब हो गई क्याघ्

इंदु—बक—बक मत करोए गाड़ी लौटा ले चलो।

कोचवान ने गाड़ी फेड़ दी। इंदु ने एक लम्बी साँस ली और सोचने लगी—सब लोग मेरा इंतजार कर रहे होंगेय गाड़ी देखते ही पहचान गए थे। अम्माँ कितनी खुश हुई होंगीय पर गाड़ी लौटते देखकर उन्हें और अन्य सब आदमियों को कितना विस्मय हुआ होगा! कोचवान से कहा—जरा पीछे फिरकर देखोए कोई आ तो नहीं रहा हैघ्

कोचवान—हुजूरए कोई गाड़ी तो आ रही।

इंदु—घोड़ों को तेज कर दोए चौगाम छोड़ दो।

कोचवान—हुजूरए गाड़ी नहींए मोटर हैए साफ मोटर है।

इंदु—घोड़ों को चाबुक लगाओ।

कोचवान—हुजूरए यह तो अपनी ही मोटर मालूम होती हैए हींगनसिंह चला रहे हैं। खूब पहचान गयाए अपनी ही मोटर है।

इंदु—पागल होए अपनी मोटर यहाँ क्यों आने लगीघ्

कोचवान—हुजूरए अपनी मोटर न होए तो जो चोर की सजाए वह मेरी। साफ नजर आ रही हैए वही रंग है। ऐसी मोटर इस शहर में दूसरी है ही नहीं।

इंदु—जरा गौर से देखो।

कोचवान—क्या देखूँ हुजूरए वह आ पहुँचीए सरकार बैठे हैं।

इंदु—ख्वाब तो नहीं देख रहा है!

कोचवान—लीजिएए हुजूरए यह बराबर आ गई।

इंदु ने घबराकर बाहर देखाए तो सचमुच अपनी ही मोटर थी। गाड़ी के बराबर आकर रुक गई और राजा साहब उतर पड़े कोचवान ने गाड़ी रोक दी। इंदु चकित होकर बोली—आप कब आ गएघ्

राजा—तुम्हारे आने के पाँच मिनट बाद मैं भी चल पड़ा।

इंदु—रास्ते में तो कहीं नहीं दिखाई दिए।

राजा—लाइन की तरफ से आया हूँ। इधार की सड़क खराब है। मैंने समझाए जरा चक्कर तो पड़ेगाए मगर जल्द पहुँचूँगा। तुम स्टेशन के सामने से कैसे लौट आईंघ् क्या बात हैघ् तबियत तो अच्छी हैघ् मैं तो घबरा गया। आओए मोटर पर बैठ जाओ। स्टेशन पर गाड़ी आ गई हैए दस मिनट में छूट जाएगी। लोग उत्सुक हो रहे हैं।

इंदु—अब मैं न जाऊँगी। आप तो पहुँच ही गए थे।

राजा—तुम्हें चलना ही पड़ेगा।

इंदु—मुझे मजबूर न कीजिएए मैं न जाऊँगी।

राजा—पहले तो तुम यहाँ आने के लिए इतनी उत्सुक थींए अब क्यों इनकार कर रही होघ्

इंदु—आपकी इच्छा के विरुध्द आई थी। आपने मेरे कारण अपने नियम का उल्लंघन किया हैए तो मैं किस मुँह से वहाँ जा सकती हूँघ् आपने मुझे सदा के लिए शालीनता का सबक दे दिया।

राजा—मैं उन लोगों से तुम्हें लाने का वादा कर आया हूँ। तुम न चलोगीए तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा।

इंदु—आप व्यर्थ इतना आग्रह कर रहे हैं। आपको मुझसे नाराज होने का यह अंतिम अवसर था। अब फिर इतना दुस्साहस न करूँगी।

राजा—एंजिन सीटी दे रहा है।

इंदु—ईश्वर के लिए मुझे जाने दीजिए।

राजा ने निराश होकर कहा—जैसी तुम्हारी इच्छा! मालूम होता हैए हमारे और तुम्हारे ग्रहों में कोई मौलिक विरोध हैए जो पग—पग पर अपना फल दिखलाता रहता है।

यह कहकर वह मोटर पर सवार हो गएए और बड़े वेग से स्टेशन की तरफ से चले। बग्घी भी आगे बढ़़ी। कोचवान ने पूछा—हुजूर गईं क्यों नहींघ् सरकार बुरा मान गए।

इंदु ने इसका कुछ जवाब न दिया। वह सोच रही थी—क्या मुझसे फिर भूल हुईघ् क्या मेरा जाना उचित थाघ् क्या वह शुध्द हृदय से मेरे जाने के लिए आग्रह कर रहे थे या एक थप्पड़ लगाकर दूसरा थप्पड़ लगाना चाहते थेघ् ईश्वर ही जानें। वही अंतर्यामी हैंए मैं किसी के दिल की बात क्या जानूँ!

गाड़ी धीरे—धीरे आगे बढ़़ती जाती थी। आकाश पर छाए हुए बादल फटते जाते थेय पर इंदु के हृदय पर छाई हुई घटा प्रतिक्षण और भी घनी होती जाती थी—आह! क्या वस्तुतरू हमारे ग्रहों में कोई मौलिक विरोध हैए जो पग—पग पर मेरी आकांक्षाओं को दलित करता रहता हैघ् मैं कितना चाहती हूँ कि उनकी इच्छा के विरुध्द एक कदम भी न चलूँय किंतु यह प्रकृति—विरोध मुझे हमेशा नीचा दिखाता है। अगर वह शुध्द मन से अनुरोध कर रहे थेए तो मेरा इनकार सर्वथा असंगत था। आह! उन्हें मेरे हाथों फिर कष्ट पहुँचा। उन्होंने अपनी स्वाभाविक सज्जनता से मेरा अपराध क्षमा किया और मेरा मान रखने के लिए अपने सिध्दांत की परवा न की। समझे होंगेए अकेली जाएगीए तो लोग खयाल करेंगेए पति की इच्छा के विरुध्द आई हैए नहीं तो क्या वह भी न आतेघ् मुझे इस अपमान से बचाने के लिए उन्होंने अपने ऊपर इतना अत्याचार किया। मेरी जड़ता से वह कितने हताश हुए हैंए नहीं तो उनके मुँह से यह वाक्य कदापि न निकलता। मैं सचमुच अभागिनी हूँ।

इन्हीं विषादमय विचारों में डूबी हुई वह चंद्रभवन पहुँची और गाड़ी से उतरकर सीधो राजा साहब के दीवानखाने में जा बैठी। अॉंखें चुरा रही थी कि किसी नौकर—चाकर से सामना न हो जाए। उसे ऐसा जान पड़ता था कि मेरे मुख पर कोई दाग लगा हुआ है। जी चाहता थाए राजा साहब आते—ही—आते मुझ पर बिगड़ने लगेंए मुझे खूब आड़े हाथों लेंए हृदय को तानों से चलनी कर देंए यही उनकी शुध्द—हृदयता का प्रमाण होगा। यदि वह आकर मुझसे मीठी—मीठी बातें करने लगेंए तो समझ जाऊँगीए मेरी तरफ से उनका दिल साफ नहीं हैए यह सब केवल शिष्टाचार है। वह इस समय पति की कठोरता की इच्छुक थी। गरमियों में किसान वर्षा का नहींए ताप का भूखा होता है।

इंदु को बहुत देर तक न बैठना पड़ा। पाँच बजते—बजते राजा साहब आ पहुँचे। इंदु का हृदय धाक—धाक करने लगाए वह उठकर द्वार पर खड़ी हो गई। राजा साहब उसे देखते ही बड़े मधुर स्वर से बोले—तुमने आज जातीय उद्‌गारों का एक अपूर्व —श्य देखने का अवसर खो दिया। बड़ा ही मनोहर —श्य था। कई हजार मनुष्यों ने जब यात्रियों पर पुष्प—वर्षा कीए तो सारी भूमि फूलों से ढ़ँक गई। सेवकों का राष्ट्रीय गान इतना भावमयए इतना प्रभावोत्पादक था कि दर्शक—वृंद मुग्धा हो गए। मेरा हृदय जातीय गौरव से उछला पड़ता था। बार—बार यही खेद होता है कि तुम न हुईं। यही समझ लो कि मैं उस आनंद को प्रकट नहीं कर सकता। मेरे मन में सेवा—समिति के विषय में जितनी शंकाएँ थींए वे सब शांत हो गईं। यही जी चाहता था कि मैं भी सब कुछ छोड़—छाड़कर इस दल के साथ चला जाता। डॉक्टर गांगुली को अब तक मैं निरा बकवादी समझता था। आज मैं उनका उत्साह और साहस देखकर दंग रह गया। तुमसे बड़ी भूल हुई। तुम्हारी माताजी बार—बार पछताती थीं।

इंदु को जिस बात की शंका थीए वह पूरी हो गई। सोचा—यह सब कपटलीला है। इनका दिल साफ नहीं है। यह मुझे बेवकूफ समझते हैं और बेवकूफ बनाना चाहते हैं। इन मीठी बातों की आड़ में कितनी कटुता छिपी हुई है। चिढ़़कर बोली—मैं जातीए तो आपको जरूर बुरा मालूम होता।

राजा—(हँसकर) केवल इसलिए कि मैंने तुम्हें जाने से रोका थाघ् अगर मुझे बुरा मालूम होताए तो मैं खुद क्यों जाताघ्

इंदु—मालूम नहींए आप क्या समझकर गए। शायद मुझे लज्जित करना चाहते होंगे।

राजा—इंदुए इतना अविश्वास मत करो। सच कहता हूँए मुझे तुम्हारे जाने का जरा मलाल न होता। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पहले मुझे तुम्हारी जिद बुरी लगीय किंतु जब मैंने विचार कियाए तो मुझे अपना आचरण सर्वथा अन्यायपूर्ण प्रतीत हुआ। मुझे ज्ञात हुआ कि तुम्हारी स्वेच्छा को इतना दबा देना सर्वथा अनुचित है। अपने इसी अन्याय का प्रायश्चित्त करने के लिए मैं स्टेशन गया। तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई कि हुक्काम का विश्वासपात्रा बने रहने के लिए अपनी स्वाधीनता का बलिदान क्यों करते होए नेकनाम रहना अच्छी बात हैए किंतु नेकनामी के लिए सच्ची बातों में दबना अपनी आत्मा की हत्या करना है। अब तो तुम्हें मेरी बातों का विश्वास आयाघ्

इंदु—आपकी दलीलों का जवाब नहीं दे सकतीय लेकिन मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि जब मुझसे कोई भूल हो जाएए तो आप मुझे दंड दिया करेंए मुझे खूब धिक्कारा करें। अपराध और दंड में कारण और कार्य का सम्बंध हैए और यही मेरी समझ में आता है। अपराधी के सिर तेल चुपड़ते मैंने किसी को नहीं देखा। मुझे यह अस्वाभाविक जान पड़ता है। इससे मेरे मन में भाँति—भाँति की शंकाएँ उठने लगती हैं।

राजा—देवी रूठती हैंए तो लोग उन्हें मनाते हैं। इसमें अस्वाभाविकता क्या है!

दोंनों में देर तक सवाल—जवाब होता रहा। महेंद्र बहेलिए की भाँति दाना दिखाकर चिड़िया फँसाना चाहते थे और चिड़िया सशंक होकर उड़ जाती थी। कपट में से कपट ही पैदा होता है। वह इंदु को आश्वासित न कर सके। तब वह उनकी व्यथा को शांत करने का भार समय पर छोड़कर एक पत्र पढ़़ने लगे और इंदु दिल पर बोझ रखे हुए अंदर चली गई।

दूसरे दिन राजा साहब ने दैनिक पत्र खोलाए तो उसमें सेवकों की यात्रा का वृत्तांत बड़े विस्तार से प्रकाशित हुआ था। इसी प्रसंग में लेखक ने राजा साहब की उपस्थिति पर भी टीका की थी रू

श्इस अवसर पर म्युनिसिपैलिटी के प्रधान राजा महेंद्रकुमार सिंह का मौजूद होना बड़े महत्व की बात है। आश्चर्य है कि राजा साहब—जैसे विवेकशील पुरुष ने वहाँ जाना क्यों आवश्यक समझाघ् राजा साहब अपने व्यक्तित्व को अपने पद से पृथक्‌ नहीं कर सकते और उनकी उपस्थिति सरकार को उलझन में डालने का कारण हो सकती है। अनुभव ने यह बात सिध्द कर दी है कि सेवा—समितियाँ चाहे कितनी शुभेच्छाओं से भी गर्भित होंए पर कालांतर में वे विद्रोह और अशांति का केंद्र बन जाती हैं। क्या राजा साहब इसका जिम्मा ले सकते हैं कि यह समिति आगे चलकर अपनी पूर्ववर्ती संस्थाओं का अनुसरण न करेगीघ् श्

राजा साहब ने पत्र बंद करके रख दिया और विचारमग्न हो गए! उनके मुँह से बेअख्तियार निकल गया—वही हुआ जिसका मुझे डर था। आज क्लब जाते—ही—जाते मुझ पर चारों ओर से संदेहात्मक द्रष्टि पड़ने लगेगी। कल ही कमिश्नर साहब से मिलने जाना हैए उन्होंने पूछा तो क्या कहूँगाघ् इस दुष्ट सम्पादक ने मुझे बुरा चरका दिया। पुलिसवालों की भाँति इस समुआय में भी मुरौवत नहीं होतीए जरा भी रिआयत नहीं करते। मैं इसका मुँह बंद रखने के लिएए इसे प्रसन्न रखने के लिए कितने यत्न किया करता हूँय आवश्यक और अनावश्यक विज्ञापन छपवाकर इसकी मुट्ठियाँ गरम करता रहता हूँय जब कोई दावत या उत्सव होता हैए तो सबसे पहले इसे निमंत्रण भेजता हूँय यहाँ तक कि गत वर्ष म्युनिसिपैलिटी से इसे पुरस्कार भी दिला दिया था। इन सब खातिरदारियों का यह उपहार है! कुत्तो की दुम को सौ वषोर्ं तक गाड़ रखोए तो भी टेढ़़ी—की—टेढ़़ी। अब अपनी मान—रक्षा क्योंकर करूँ। इसके पास जाना तो उचित नहीं। क्या कोई बहाना सोचूँघ्

राजा साहब बड़ी देर तक इसी पेसोपेश में पड़े रहे। कोई ऐसी बात सोच निकालना चाहते थेए जिससे हुक्काम की निगाहों में आबरू बनी रहेए साथ ही जनता के सामने भी अॉंखें नीची न करनी पड़ेंय पर बुध्दि कुछ काम न करती थी। कई बार इच्छा हुई कि चलकर इंदु से इस समस्या को हल करने में मदद लूँए पर यह समझकर कि कहीं वह कह दे कि श्हुक्काम नाराज होते हैंए तो होने दोए तुम्हें उनसे क्या सरोकारय अगर वे तुम्हें दबाएँए तो तुरंत त्याग—पत्र भेज दोश्ए तो फिर मेरे लिए निकलने का कोई रास्ता न रहेगाए उससे कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी।

वह सारी रात इसी चिंता में डूबे रहे। इंदु भी कुछ गुमसुम थी। प्रातरूकाल दो—चार मित्र आ गए और उसी लेख की चर्चा की। एक साहब बोले—मैं कमिश्नर से मिलने गया थाए तो वह उसी लेख को पढ़़ रहा था और रह—रहकर जमीन पर पैर पटकता था।

राजा साहब के होश और भी उड़ गए। झट उन्हें एक उपाय सूझ गया। मोटर तैयार कराई और कमिश्नर के बँगले पर जा पहुँचे। यों तो यह महाशय राजा साहब का कार्ड पाते ही बुला लिया करते थेए आज अरदली ने कहा—साहब एक जरूरी काम कर रहे हैंए मेम साहब बैठी हैंए आप एक घंटा ठहरें।

राजा साहब समझ गए कि लक्षण अच्छे नहीं हैं। बैठकर एक अंगरेजी पत्रिका के चित्र देखने लगे—वाहए कितने साफ और सुंदर चित्र हैं! हमारी पत्रिकाओं में कितने भद्दे चित्र होते हैंए व्यर्थ ही कागज लीप—पोतकर खराब किया जाता है। किसी ने बहुत कियाए तो बिहारीलाल के भावों को लेकर एक सुंदरी का चित्र बनवा दिया और उसके नीचे उसी भाव का दोहा लिख दियाय किसी ने पद्‌माकर के कवित्ता को चित्रित किया। बसए इसके आगे किसी की अक्ल नहीं दौड़ती।

किसी तरह एक घंटा गुजरा और साहब ने बुलाया। राजा साहब अंदर गए तो साहब की त्योरियाँ चढ़़ी हुई देखीं। एक घंटे इंतजार से झुँझला गए थेए खड़े—खड़े बोले—आपको अवकाश होए तो मैं कुछ कहूँए नहीं तो फिर कभी आऊँगा।

कमिश्नर साहब ने रुखाई से पूछा—मैं पहले आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि इस पत्र ने आपके विषय में जो आलोचना की हैए वह आपकी नजर से गुजरी हैघ्

राजा साहब—जी हाँए देख चुका हूँ।

कमिश्नर—आप इसका कोई जवाब देना चाहते हैंघ्

राजा साहब—मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझताय अगर इतनी—सी बात पर मुझ पर अविश्वास किया जा सकता है और मेरी बरसों की वफादारी का कुछ विचार नहीं किया जाताए तो मुझे विवश होकर अपना पद—त्याग करना पड़ेगा। अगर आप वहाँ जातेए तो क्या इस पत्र को इतना साहस होता कि आपके विषय में यही आलोचना करताघ् हरगिज नहीं। यह मेरे भारतवासी होने का दंड है। जब तक मुझ पर ऐसी द्वेषपूर्ण टीका—टीप्पणी होती रहेगीए मैं नहीं समझ सकता कि अपनेर् कर्तव्य का कैसे पालन कर सकूँगा।

कमिश्नर ने कुछ नरम होकर कहा—गवर्नमेंट के हर एक कर्मचारी का धर्म है कि किसी को अपने ऊपर ऐेसे इलजाम लगाने का अवसर न दे।

राजा साहब—मैं जानता हूँ आप लोगों को यह किसी तरह भूल नहीं सकते कि मैं भारतवासी हूँए इसी प्रकार मेरे बोर्ड के सहयोगियों के लिए यह भूल जाना असम्भव है कि मैं शासन का एक अंग हूँ। आप जानते हैं कि मैं बोर्ड में मिस्टर जॉन सेवक को पाँड़ेपुर की जमीन दिलाने का प्रस्ताव करनेवाला हूँय लेकिन जब तक मैं अपने आचरण से यह सिध्द न कर दूँगा कि मैंने स्वतरूए बगैर किसी दबाव केए केवल प्रजा के हित के लिए यह प्रस्ताव उपस्थित किया हैए उसकी स्वीकृति की कोई आशा नहीं है। यही कारण हैए जो मुझे कल स्टेशन पर ले गया था।

कमिश्नर की बाँछें खिल गईं। हँस—हँसकर बातें बनाने लगा।

राजा साहब—ऐसी दशा में क्या आप समझते हैंए मेरा जवाब देना जरूरी हैघ्

कमिश्नर—नहीं—नहींए कभी नहीं।

राजा साहब—मुझे आपसे पूरी सहायता मिलनी चाहिए।

कमिश्नर—मैं यथाशक्ति आपकी सहायता करूँगा।

राजा साहब—बोर्ड ने मंजूर भी कर लियाए तो मुहल्लेवालों की तरफ से फसाद की आशंका है।

कमिश्नर—कुछ परवा नहींए मैं सुपरिंटेंडेंट—पुलिस को ताकीद कर दूँगा कि वह आपको मदद करते रहें।

राजा साहब यहाँ से चलेए तो ऐसा मालूम होता थाए मानो आकाश पर चल रहे हों। यहाँ से वह मि. क्लार्क के पास गए और वहाँ भी इसी नीति से काम लिया। दोपहर को घर आए। उनके हृदय में यह खयाल खटक रहा था कि इस बहाने से मेरा काम तो निकल गयाय लेकिन मैं सूरदास के साथ कहीं ऐसी ज्यादती तो नहीं कर रहा हूँ कि अंत में मुझे नगरवासियों के सामने लज्जित होना पड़ेघ् इसी विषय में बातचीत करने के लिए वह इंदु के पास आए और बोले—तुम कोई जरूरी काम तो नहीं कर रही होघ् मुझे एक बात में तुमसे कुछ सलाह करनी है।

इंदु डरी कि कहीं सलाह करते—करते वाद—विवाद न होने लगे। बोली—काम तो कुछ नहीं कर रही हूँय लेकिन मैं आपको कोई सलाह देने के योग्य नहीं हूँ। परमात्मा ने मुझे इतनी बुध्दि नहीं दी। मुझे तो उन्होंने केवल खानेए सोने और आपको दिक करने के लिए बनाया है।

राजा साहब—तुम्हारे दिक करने ही में तो मजा मिलता है। बतलाओए सूरदास की जमीन के बारे में तुम्हारी क्या राय हैघ् तुम मेरी जगह होतीं तो क्या करतींघ्

इंदु—आखिर आपने क्या निश्चय कियाघ्

राजा साहब—पहले तुम बताओए तो फिर मैं बताऊँगा।

इंदु—मेरी राय में तो सूरदास से उसके बाप—दादों की जायदाद छीन लेना अन्याय होगा।

राजा साहब—तुम्हें मालूम है कि सूरदास को इस जायदाद से कोई लाभ नहीं होताए केवल इधार—उधार के ढ़ोर चरा करते हैंघ्

इंदु—उसे यह इतमीनान तो है कि जमीन मेरी है। मुहल्लेवाले उसका एहसान तो मानते ही होंगेघ् उसकी धर्म—प्रवृत्ति पुण्य कार्य से संतुष्ट होगी।

राजा साहब—लेकिन मैं नगर के मुख्य व्यवस्थापक की हैसियत से एक व्यक्ति के यथार्थ या कल्पित हित के लिए नगर का हजारों रुपये का नुकसान तो नहीं करा सकताघ् कारखाना खुलने से हजारों मनुष्यों की जीविका चलेगीए नगर की आय में वृध्दि होगीए सबसे बड़ी बात यह है कि उस अमित धान का भाग देश में रह जाएगाए जो सिगरेट के लिए अन्य देशों को देना पड़ता है।

इंदु ने राजा के मुँह की ओर तीव्र द्रष्टि से देखा। सोचा—इनका अभिप्राय क्या हैघ् पूँजीपतियों से तो इन्हें विशेष प्रेम नहीं है। यह तो सलाहए नहींए बहस है। क्या अधिकारियों के दबाव से इन्होंने जमीन को मिस्टर सेवक के अधिकार में देने का फैसला कर लिया है और मुझसे अपने निश्चय का अनुमोदन कराना चाहते हैंघ् इनके भाव से तो कुछ ऐसा ही प्रकट हो रहा है। बोली—इस द्रष्टिकोण से तो यही न्यायसंगत है कि सूरदास की जमीन छीन ली जाए।

राजा साहब—भईए इतनी जल्द पहलू बदलने की सनद नहीं। अपनी उसी युक्ति पर स्थिर रहो। मैं केवल सलाह नहीं चाहताए मैं यह देखना चाहता हूँ कि तुम इस विषय में क्या—क्या शंकाएँ कर सकती होए और मैं उनका संतोषजनक उत्तर दे सकता हूँ या नहींघ् मुझे जो कुछ करना थाए कर चुकाय अब तुमसे तर्क करके अपना इतमीनान करना चाहता हूँ।

इंदु—अगर मेरे मुँह से कोई अप्रिय शब्द निकल जाएए तो आप नाराज तो न होंगेघ्

राजा साहब—इसकी परवा न करोए जातीय सेवा का दूसरा नाम बेहयाई है। अगर जरा—जरा—सी बात पर नाराज होने लगेंए तो हमें पागलखाने जाना पड़े।

इंदु—यदि एक व्यक्ति के हित के लिए आप नगर का अहित नहीं करना चाहते तो क्या सूरदास ही ऐसा व्यक्ति हैए जिसके पास दस बीघे जमीन होघ् ऐसे लोग भी तो नगर में हैंए जिनके पास इससे कहीं ज्यादा जमीन है। कितने ही ऐसे बँगले हैंए जिनका घेरा दस बीघे से अधिक है। हमारे बँगले का क्षेत्र पंद्रह बीघे से कम न होगा। मि. सेवक के बँगले का भी पाँच बीघे से कम का घेरा नहीं है और दादाजी का भवन तो पूरा एक गाँव है। आप इनमें से कोई भी जमीन इस कारखाने के लिए ले सकते हैं। सूरदास की जमीन में तो मोहल्ले के ढ़ोर चरते हैं। अधिक नहींए तो एक मोहल्ले का फायदा तो होता ही है। इन हातों से तो एक व्यक्ति के सिवा और किसी का कुछ फायदा नहीं होताए यहाँ तक कि कोई उनमें सैर भी नहीं कर सकताए एक फूल या पत्ती भी नहीं तोड़ सकता। अगर कोई जानवर अंदर चला जाएए तो उसे तुरंत गोली मार दी जाए।

राजा साहब—(मुस्कराकर) बड़े मार्के की युक्ति है। कायल हो गया। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं। लेकिन शायद मालूम नहीं कि उस अंधे को तुम जितना दीन और असहाय समझती होए उतना नहीं है। सारा मोहल्ला उसकी हिमायत करने पर तैयार हैय यहाँ तक कि लोग मि. सेवक के गुमाश्ते के घर में घुस गएए उनके भाइयों को माराए आग लगा दीए स्त्रियों तक की बेइज्जती की।

इंदु—मेरे विचार में तो यह इस बात का एक और प्रमाण है कि उस जमीन को छोड़ दिया जाए। उस पर कब्जा करने से ऐसी घटनाएँ कम न होंगीए बढ़़ेंगी। मुझे तो भय हैए कहीं खून—खराबा न हो जाए।

राजा साहब—जो लोग स्त्रियों की बेइज्जती कर सकते हैंए वे दया के योग्य नहीं।

इंदु—जिन लोगों की जमीन आप छीन लेंगेए वे आपके पाँव न सहलाएँगे।

राजा साहब—आश्चर्य हैए तुम स्त्रियों के अपमान को मामूली बात समझ रही हो।

इंदु—फौज के गोरेए रेल के कर्मचारीए नित्य हमारी बहनों का अपमान करते रहते हैंए उनसे तो कोई नहीं बोलता। इसीलिए कि आप उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। अगर लोगों ने उपद्रव किया हैए तो अपराधियों पर मुकदमा दायर कीजिएए उन्हें दंड दिलाइए। उनकी जायदाद क्यों जब्त करते हैंघ्

राजा साहब—तुम जानती होए मि. सेवक की यहाँ के अधिकारियों से कितनी राह—रस्म है। मिस्टर क्लार्क तो उनके द्वार के दरबान बने हुए हैं। अगर मैं उनकी इतनी सेवा न कर सकाए तो हुक्काम का विश्वास मुझ पर से उठ जाएगा।

इंदु ने चिंतित स्वर में कहा—मैं नहीं जानती थी कि प्रधान की दशा इतनी शोचनीय होती है।

राजा साहब—अब तो मालूम हो गया। बतलाओए अब मुझे क्या करना चाहिएघ्

इंदु—पद—त्याग।

राजा साहब—मेरे पद त्याग से जमीन बच सकेगीघ्

इंदु—आप दोष—पाप से तो मुक्त हो जाएँगे!

राजा साहब—ऐसी गौण बातों के लिए पद—त्याग हास्यजनक है।

इंदु को अपने पति के प्रधान होने का बड़ा गर्व था। इस पद को वह बहुत श्रेष्ठ और आदरणीय समझती थी। उसका ख्याल था कि यहाँ राजा साहब पूर्ण रूप से स्वतंत्रा हैंए बोर्ड उनके अधाीन हैए जो चाहते हैंए करते हैंए पर अब विदित हुआ कि उसे कितना भ्रम था। उसका गर्व चूर—चूर हो गया। उसे आज ज्ञात हुआ कि प्रधान केवल राज्याधिकारियों के हाथों का खिलौना है। उनकी इच्छा से जो चाहे करेए उनकी इच्छा के प्रतिकिूल कुछ नहीं कर सकता। वह संख्या का बिंदु हैए जिसका मूल्य केवल दूसरी संख्याओं के सहयोग पर निर्भर है। राजा साहब की पद—लोलुपता उसे कुठाराघात के समान लगी। बोली—उपहास इतना निंद्य नहीं हैए जितना अन्याय। मेरी समझ में नहीं आता कि आपने इस पद की कठिनाइयों को जानते हुए भी क्यों इसे स्वीकार किया। अगर आप न्याय—विचार से सूरदास की जमीन का अपहरण करतेए तो मुझे आपसे कोई शिकायत न होतीय लेकिन केवल अधिकारियों के भय से या बदनामी से बचने के लिए न्याय—पथ से मुँह फेरना अत्यंत अपमानजनक है। आपको नगरवासियों और और विशेषतरू दीनजनों के स्वत्व की रक्षा करनी चाहिए। अगर हुक्काम किसी पर अत्याचार करेंए तो आपको उचित है कि दुखियों की हिमायत करें। निजी हानि—लाभ की चिंता न करके हुक्काम का विरोध करेंए सारे नगर में—सारे देश में—तहलका मचा देंए चाहे इसके लिए पद—त्याग ही नहींए किसी बड़ी—से—बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़े। मैं राजनीति के सिध्दांतों से परिचित नहीं हूँ। पर आपका जो मानवीय धर्म हैए वह आपसे कह रही हूँ। मैं आपको सचेत किए देती हूँ कि आपने अगर हुक्काम के दबाव से सूरदास की जमीन लीए तो मैं चुपचाप बैठी न रह सकूँगी। स्त्री हूँ तो क्याय पर दिखा दूँगी कि सबल—से—सबल प्राणी भी किसी दीन को आसानी से पैरों—तले नहीं कुचल सकता।

यह कहते—कहते इंदु रुक गई। उसे धयान आ गया कि मैं आवेश में आकर औचित्य की सीमा से बाहर होती जाती हूँ। राजा साहब इतने लज्जित हुए कि बोलने को शब्द न मिलते थे। अंत में शरमाते हुए बोमले—तुम्हें मालूम नहीं कि राष्ट्र के सेवकों को कैसी—कैसी मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं। अगर वे अपनेर् कर्तव्य का निर्भय होकर पालन करने लगेंए तो जितनी सेवा वे अब कर सकते हैंए उतनी भी न कर सकें। मि. क्लार्क और मि. सेवक में विशेष घनिष्ठता हो जाने के कारण परिस्थिति बिलकुल बदल गई है। मिस सेवक जब से तुम्हारे घर से गई हैए मि. क्लार्क नित्य ही उन्हीं के पास बैठे रहते हैंए इजलास पर नहीं जातेए कोई सरकारी काम नहीं करतेए किसी से मिलते तक नहीं। मिस सेवक ने उन पर मोहिनी—मंत्र—सा डाल दिया है। दोनों साथ—साथ सैर करने जाते हैंए साथ—साथ थिएटर देखने जाते हैं। मेरा अनुमान है कि मि. सेवक ने वचन दे दिया है।

इंदु—इतनी जल्दी! अभी उसे हमारे यहाँ से गए एक सप्ताह से ज्यादा न हुआ होगा।

राजा साहब—मिसेज सेवक ने पहले से ही सब कुछ पक्का कर रखा था। मिस सेवक के वहाँ जाते ही प्रेम—क्रीड़ा शुरू हो गई।

इंदु ने अब तक सोफिया को एक साधारण ईसाई की लड़की समझ रखा था। यद्यपि वह उससे बहन का—सा बर्ताव करती थीए उसकी योग्यता का आदर करती थीए उससे प्रेम करती थीए किंतु दिल में उसे अपने से नीचा समझती थी। पर मि. क्लार्क से उसके विवाह की बात ने उसके हृद्‌गत भावों को आंदोलित कर दिया। सोचने लगी—मि. क्लार्क से विवाह हो जाने के बाद जब सोफिया मिसेज क्लार्क बनकर मुझसे मिलेगीए तो अपने मन में मुझे तुच्छ समझेगीय उसके व्यवहार मेंए बातों मेंए शिष्टाचार में बनावटी नम्रता की झलक होगीए वह मेरे सामने जितना ही झुकेगीए उतना ही मेरा सिर नीचा करेगी। यह अपमान मेरे सहे न सहा जाएगा। मैं उससे नीची बनकर नहीं रह सकती। इस अभागे क्लार्क को क्या कोई योरपियन लेडी न मिलती थी कि सोफिया पर गिर पड़ा! कुल का नीचा होगाए कोई अंगरेज उससे अपनी लड़की का विवाह करने पर राजी न होता होगा। विनय इसी छिछोरी स्त्री पर जान देता है। ईश्वर ही जानेए अब उस बेचारे की क्या दशा होगी। कुलटा हैए और क्या। जाति और कुल का प्रभाव कहाँ जाएगाघ् सुंदरी हैए सुशिक्षित हैए चतुर हैए विचारशील हैए सब कुछ सहीय पर है तो ईसाइन। बाप ने लोगों को ठग—ठगाकर कुछ धान और सम्मान प्राप्त कर लिया है। इससे क्या होता है। मैं तो अब भी उससे वही पहले का—सा बर्ताव करूँगी। जब तक वह स्वयं आगे न बढ़़ेगीए हाथ न बढ़़ाऊँगी। लेकिन मैं चाहे जो कुछ करूँए उस पर चाहे कितना ही बड़प्पन जताऊँए उसके मन में यह अभिमान तो अवश्य ही होगा कि मेरी एक कड़ी निगाह उसके पति के सम्मान और अधिकार को खाक में मिला सकती है। सम्भव हैए वह अब और भी विनीत भाव से पेश आए। अपने सामर्थ्‌य का ज्ञान हमें शीलवान बना देता है। मेरा उससे मान करनाए तनना हँसी मालूम होगी। उसकी नम्रता से तो उसका ओछापन ही अच्छा। ईश्वर करेए वह मुझसे सीधो मुँह बात न करेए तब देखनेवाले उसे मन में धिक्कारेंगे इसी में अब मेरी लाज रह सकती हैय पर वह इतनी अविचारशील कहाँ है!

अंत में इंदु ने निश्चय किया—मैं सोफिया से मिलूँगी ही नहीं। मैं अपने रानी होने का अभिमान तो उससे कर ही नहीं सकती। हाँए एक जाति—सेवक की पत्नी बनकरए अपने कुलगौरव का गर्व दिखाकर उसकी उपेक्षा कर सकती हूँ।

ये सब बातें एक क्षण में इंदु के मन में आ गईं। बोली—मैं आपको कभी दबने की सलाह न दूँगी।

राजा साहब—और यदि दबना पड़ेघ्

इंदु—तो अपने को अभागिनी समझूँगी।

राजा साहब—यहाँ तक तो कोई हानि नहींय पर कोई आंदोलन तो न उठाओगीघ् यह इसलिए पूछता हूँ कि तुमने अभी मुझे यह धमकी दी है।

इंदु—मैं चुपचाप न बैठूँगी। आप दबेंए मैं क्यों दबूँघ्

राजा साहब—चाहे मेरी कितनी ही बदनामी हो जाएघ्

इंदु—मैं इसे बदनामी नहीं समझती।

राजा साहब—फिर सोच लो। यह मानी हुई बात है कि वह जमीन मि. सेवक को अवश्य मिलेगी। मैं रोकना भी चाहूँए तो नहीं रोक सकताए और यह भी मानी हुई बात है कि इस विषय में तुम्हें मौनव्रत का पालन करना पड़ेगा।

राजा साहब अपने सार्वजनिक जीवन में अपनी सहिष्णुता और मृदु व्यवहार के लिए प्रसिध्द थेय पर निजी व्यवहारों में वह इतने क्षमाशील न थे। इंदु का चेहरा तमतमा उठाए तेज होकर बोली—अगर आपको अपना सम्मान प्यारा हैए तो मुझे भी अपना धर्म प्यारा है।

राजा साहब गुस्से के मारे वहाँ से उठकर चले गए और इंदु अकेली रह गई।

साठ—आठ दिनों तक दोनों के मुँह में दही जमा रहा। राजा साहब कभी घर में आ जातेए तो दो—चार बातें करके यों भागतेए जैसे पानी में भीग रहे हों। न वह बैठतेए न इंदु उन्हें बैठने को कहती। उन्हें यह दुरूख था कि इसे मेरी जरा भी परवाह नहीं है। पग—पग पर मेरा रास्ता रोकती है। मैं अपना पदत्याग दूँए तब इसे तस्कीन होगी। इसकी यही इच्छा है कि सदा के लिए दुनिया से मुँह मोड़ लूँए संसार से नाता तोड़ लूँए घर में बैठा—बैठा राम—नाम भजा करूँए हुक्काम से मिलना—जुलना छोड़ दूँए उनकी अॉंखों में गिर जाऊँए पतित हो जाऊँ। मेरे जीवन की सारी अभिलाषाएँ और कामनाएँ इसके सामने तुच्छ हैंए दिल में मेरे सम्मान—भक्ति पर हँसती है। शायद मुझे नीचए स्वार्थी और आत्मसेवी समझती है। इतने दिनों तक मेरे साथ रहकर भी इसे मुझसे प्रेम नहीं हुआए मुझसे मन नहीं मिला। पत्नी पति की हितचिंतक होती हैए यह नहीं कि उसके कामों का मजाक उड़ाएए उसकी निंदा करे। इसने साफ कह दिया है कि मैं चुपचाप न बैठूँगी। न जाने क्या करने का इरादा है। अगर समाचारपत्रों में एक छोटा—सा पत्र भी लिख देगीए तो मेरा काम तमाम हो जाएगाए कहीं का न रहूँगाए डूब मरने का समय होगा। देखूँए यह नाव कैसे पार लगती है।

इधार इंदु को दुरूख था कि ईश्वर ने इन्हें सब कुछ दिया हैए यह हाकिमों से क्यों इतना दबते हैंए क्यों इतनी ठकुरसुहाती करते हैंए अपने सिध्दांतों पर स्थिर क्यों नहीं रहतेए उन्हें क्यों स्वार्थ के नीचे रखते हैंए जाति—सेवा का स्वाँग क्यों भरते हैंघ् वह भी कोई आदमी हैए जिसने मानापमान के पीछे धर्म और न्याय का बलिदान कर दिया होघ् एक वे योध्दा थेए जो बादशाहों के सामने सिर न झुकाते थेए अपने वचन परए अपनी मर्यादा पर मर मिटते थे। आखिर लोग इन्हें क्या कहते होंगे। संसार को धोखा देना आसान नहीं। इन्हें चाहे भ्रम हो कि लोग मुझे जाति का सच्चा भक्त समझते हैंय पर यथार्थ में सभी इन्हें पहचानते हैं। सब मन में कहते होंगेए कितना बना हुआ आदमी है!

शनैरू—शनैरू उसके विचारों में परिवर्तन होने लगा—यह उनका कसूर नहीं हैए मेरा कसूर है। मैं क्यों उन्हें अपने आदर्श के अनुसार बनाना चाहती हूँघ् आजकल प्रायरू इसी स्वभाव के पुरुष होते हैं। उन्हें संसार चाहे कुछ कहेए चाहे कुछ समझेए पर उनके घरों में तो कोई मीन—मेख नहीं निकालता। स्त्री कार् कर्तव्य है कि अपने पुरुष की सहगामिनी बने। पर प्रश्न यह हैए क्या स्त्री का अपने पुरुष से पृथक्‌ कोई अस्तित्व नहीं हैघ् इसे तो बुध्दि स्वीकार नहीं करती। दोनों अपने कर्मानुसार पाप—पुण्य के अधिकारी होते हैं। वास्तव में यह हमारे भाग्य का दोष हैए ण्अन्यथा हमारे विचारों में क्यों इतना भेद होताघ् कितना चाहती हूँ कि आपस में कोई अंतर न होने पाएए कितना बचाती हूँए पर आए दिन कोई—न—कोई विघ्न उपस्थित हो ही जाता है। अभी एक घाव नहीं भरने पाया था कि दूसरा चरका लगा। क्या मेरा सारा जीवन यों ही बीतेगाघ् हम जीवन में शांति की इच्छा रखते हैंए प्रेम और मैत्री के लिए जान देते हैं। जिसके सिर पर नित्य नंगी तलवार लटकती होए उसे शांति कहाँघ् अंधेर तो यह है कि मुझे चुप भी नहीं रहने दिया जाता। कितना कहती थी कि मुझे इस बहस में न घसीटीएए इन काँटों में न दौड़ाइएए पर न माना। अब जो मेरे पैरों में काँटे चुभ गएए दर्द से कराहती हूँए तो कानों पर उँगली रखते हैं। मुझे रोने की स्वाधीनता भी नहीं। श्जबर मारे और रोने न दे।श् आठ दिन गुजर गएए बात भी नहीं पूछी कि मरती हो या जीती। बिल्कुल उसी तरह पड़ी हूँए जैसे कोई सराय हो। इससे तो कहीं अच्छा था कि मर जाती। सुख गयाए आराम गयाए पल्ले क्या पड़ाए रोना और झींकना। जब यही दशा हैए तो कब तक निभेगीए श्बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगीघ् श् दोनों के दिल एक दूसरे से फिर जाएँगेए कोई किसी की सूरत भी न देखना चाहेगा।

शाम हो गई थी। इंदु का चित्ता बहुत घबरा रहा था। उसने सोचाए जरा अम्माँ जी के पास चलूँ कि सहसा राजा साहब सामने आकर खड़े हो गए। मुख निष्प्रभ हो रहा थाए मानो घर में आग लगी हुई हो। भय—कम्पित स्वर में बोले—इंदुए मिस्टर क्लार्क मिलने आए हैं। अवश्य उसी जमीन के सम्बंध में कुछ बातचीत करेंगे। अब मुझे क्या सलाह देती होघ् मैं एक कागज लाने का बहाना करके चला आया हूँ।

यह कहकर उन्होंने बड़े कातर नेत्रों से इंदु की ओर देखाए मानो सारे संसार की विपत्ति उन्हीं के सिर आ पड़ी होए मानो कोई देहाती किसान पुलिस के पंजे में फँस गया हो। जरा साँस लेकर फिर बोले—अगर मैंने इनसे विरोध कियाए तो मुश्किल में फँस जाऊँगा। तुम्हें मालूम नहींए इन अंगरेज हुक्काम के कितने अधिकार होते हैं। यों चाहूँए तो इसे नौकर रख लूँए मगर इसकी एक शिकायत में मेरी सारी आबरू खाक में मिल जाएगी। ऊपरवाले हाकिम इसके खिलाफ मेरी एक भी न सुनेंगे। रईसों को इतनी स्वतंत्रता भी नहींए जो एक साधारण किसान को है। हम सब इनके हाथों के खिलौने हैंय जब चाहेंए जमीन पर पटककर चूर—चूर कर दें। मैं इसकी बात दुलख नहीं सकता। मुझ पर दया करोए मुझ पर दया करो!

इंदु ने क्षमा—भाव से देखकर कहा—मुझसे आप क्या करने को कहते हैंघ्

राजा साहब—यही कि या तो मौन रहकर इस अत्याचार का तमाशा देखोए या मुझे अपने हाथों से थोड़ी—सी संखिया दे दो।

राजा साहब की इस कापुरुषता और विवशताए उनके भय—विकृत मुखमंडलए दयनीय दीनता तथा क्षमा—प्रार्थना पर इंदु करुणार्द्र हो गई—इस करुणा में सहानुभूति न थीए सम्मान न था। यह वह दया थीए जो भिखारी को देखकर किसी उदार प्राणी के हृदय में उत्पन्न होती है। सोचा—हा! इस भय का भी कोई ठिकाना है! बच्चे हौआ से भी इतना न डरते होंगे। मान लियाए क्लार्क नाराज ही हो गयाए तो क्या करेगाघ् पद से वंचित नहीं कर सकताए यह उसके सामर्थ्‌य के बाहर हैय रियासत जब्त नहीं कर सकताए हाहाकार मच जाएगा। अधिक—से—अधिक इतना कर सकता है कि अफसरों को शिकायत लिख भेजे। पर इस समय इनसे तर्क करना व्यर्थ है। इनके होश—हवास ठिकाने नहीं हैं। बोली—अगर आप समझते हैं कि क्लार्क की अप्रसन्नता आपके लिए दुस्सह हैए तो जिस बात से वह प्रसन्न होए वही कीजिए। मैं वादा करती हूँ कि आपके बीच में मुँह न खोलूँगी। जाइएए साहब को देर हो रही होगीए कहीं इसी बात पर न नाराज हो जाएँ!

राजा साहब इस व्यंग्य से दिल में ऐंठकर रह गए। नन्हा—सा मुँह निकल आया। चुपके से उठे और चले गएए वैसे हीए जैसे गरज का बावला आसामी महाजन के इनकार से निराश होकर उठे। इंदु के आश्वासन से उन्हें संतोष न हुआ। सोचने लगे—मैं इसकी नजरों में गिर गया। बदनामी से इतना डरता थाए पर घर ही में मुँह दिखाने लायक न रहा।

राजा साहब के जाते ही इंदु ने एक लम्बी साँस ली और फर्श पर लेट गई। उसके मुँह से सहसा ये शब्द निकले—इनका हृदय से कैसे सम्मान करूँघ् इन्हें अपना उपास्य देव कैसे समझूँघ् नहीं जानतीए इस अभक्ति के लिए क्या दंड मिलेगा। मैं अपने पति की पूजा करना चाहती हूँय पर दिल पर मेरा काबू नहीं! भगवन्! तुम मुझे इस कठिन परीक्षा में क्यों डाल रहे होघ्

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अध्याय 16

अरावली की पहाड़ियों में एक वट—वृक्ष के नीचे विनयसिंह बैठे हुए हैं। पावस ने उस जन—शून्यए कठोरए निष्प्रभए पाषाणमय स्थान को प्रेमए प्रमोद और शोभा से मंडित कर दिया हैए मानो कोई उजड़ा हुआ घर आबाद हो गया हो। किंतु विनय की द्रष्टि इस प्राकृतिक सौंदर्य की ओर नहींय वह चिंता की उस दशा में हैंए जब अॉंखें खुली रहती हैं और कुछ नहीं सूझताय कान खुले रहते हैं और कुछ सुनाई नहीं देताय बाह्य चेतना शून्य हो गई है। उनका मुख निस्तेज हो गया हैए शरीर इतना दुर्बल कि पसलियों की एक—एक हड़डी गिनी जा सकती है।

हमारी अभिलाषाएँ ही जीवन का स्रोत हैंय उन्हीं पर तुषारपात हो जाएए तो जीवन का प्रवाह क्यों न शिथिल हो जाए!

उनके अंतस्तल में निरंतर भीषण संग्राम होता रहता है। सेवा—मार्ग उनका धयेय था। प्रेम के काँटें उसमें बाधक हो रहे थे। उन्हें अपने मार्ग से हटाने के लिए वह सदैव यत्न करते रहते हैं। कभी—कभी वह आत्मग्लानि से विकल होकर सोचते हैंए सोफी ने मुझे उस अग्नि—कुंड से निकाला ही क्यों। बाहर की आग केवल देह का नाश करती हैए जो स्वयं नश्वर हैए भीतर की आग अनंत आत्मा का सर्वनाश कर देती है।

विनय को यहाँ आए कई महीने हो गएय पर उनके चित्ता की अशांति समय के साथ बढ़़ती ही जाती है। वह आने को तो यहाँ लज्जावश आ गए थेय पर एक—एक घड़ी एक—एक युग के समान बीत रही है। पहले उन्होंने यहाँ के कष्टों को खूब बढ़़ा—चढ़़ाकर अपनी माता को पत्र लिखे। उन्हें विश्वास था कि अम्माँजी मुझे बुला लेंगी। पर वह मनोरथ पूरा न हुआ। इतने ही में सोफिया का पत्र मिल गयाए जिसने उनके धैर्य के टीमटीमाते हुए दीपक को बुझा दिया। अब उनके चारों ओर अंधोरा था। वह इस अंधोरे में चारों ओर टटोलते फिरते थे और कहीं राह न पाते थे। अब उनके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। कोई निश्चित मार्ग नहीं हैए बेमाँझी की नाव हैए जिसे एकमात्र तरंगों की दया का ही भरोसा है।

किंतु इस चिंता और ग्लानि की दशा में भी वह यथासाधय अपनेर् कर्तव्य का पालन करते जाते हैं। जसवंतनगर के प्रांत में एक बच्चा भी नहीं हैए जो उन्हें न पहचानता हो। देहात के लोग उनके इतने भक्त हो गए हैं कि ज्यों ही वह किसी गाँव में जा पहुँचते हैंए सारा गाँव उनके दर्शनों के लिए एकत्रा हो जाता है। उन्होंने उन्हें अपनी मदद आप करना सिखाया है। इस प्रांत के लोग अब वन्य जंतुओं को भगाने के लिए पुलिस के यहाँ नहीं दौड़े जातेए स्वयं संगठित होकर उन्हें भगाते हैंय जरा—जरा—सी बात पर अदालतों के द्वार नहीं खटखटाने जातेए पंचायतों में समझौता कर लेते हैंय जहाँ कभी कुएँ न थेए वहाँ अब पक्के कुएँ तैयार हो गए हैंय सफाई की ओर भी लोग धयान देने लगे हैं। दरवाजों पर कूड़े—करकट के ढ़ेर नहीं जमा किए जाते। सारांश यह कि प्रत्येक व्यक्ति अब केवल अपने ही लिए नहींए दूसरों के लिए भी हैय वह अब अपने को प्रतिद्वंद्वियों से घिरा हुआ नहींए मित्रों और सहयोगियों से घिरा हुआ समझता है। सामूहिक जीवन का पुनरुध्दार होने लगा है।

विनय को चिकित्सा का भी अच्छा ज्ञान है। उनके हाथों सैकड़ों रोगी आरोग्य—लाभ कर चुके हैं। कितने ही घरए जो परस्पर के कलह से बिगड़ गए थेए फिर आबाद हो गए हैं। ऐसी अवस्था में उनका जितना सेवा—सत्कार करने के लिए लोग तत्पर रहते हैंए उसका अनुमान करना कठिन नहींय पर सेवकों के भाग्य में सुख कहाँघ् विनय को रूखी रोटीयों और वृक्ष की छाया के अतिरिक्त और किसी वस्तु से प्रयोजन नहीं। इस त्याग और विरक्ति ने उन्हें उस प्रांत में सर्वमान्य और सर्वप्रिय बना दिया है।

किंतु ज्यों—ज्यों उनमें प्रजा की भक्ति होती जा रही हैए प्रजा पर उनका प्रभाव बढ़़ता जाता हैए राज्य के अधिकारी वर्ग उनसे बदगुमान होते जाते हैं। उनके विचार में प्रजा दिन—दिन सरकश होती जाती है। दारोगाजी की मुट्ठियाँ अब गर्म नहीं होतींए कामदार और अन्य कर्मचारियों के यहाँ मुकदमे नहीं आतेए कुछ हत्थे नहीं चढ़़ताय यह प्रजा में विद्रोहात्मक भाव के लक्षण नहींए तो क्या हैघ् ये ही विद्रोह के अंकुर हैंए इन्हें उखाड़ देने ही में कुशल है।

जसवंतनगर से दरबार को नित्य नई—नई सूचनाएँ—कुछ यथार्थए कुछ कल्पित—भेजी जाती हैंए और विनयसिंह को जाब्ते के शिकंजे में खींचने का आयोजन किया जाता है। दरबार ने इन सूचनाओं से आशंकित होकर कई गुप्तचरों को विनय के आचार—विचार की टोह लगाने के लिए तैनात कर दिया हैय पर उनकी निरूस्पृह सेवा किसी को उन पर आघात करने का अवसर नहीं देती।

विनय के पाँव में बेवाय फटी थीय चलने में कष्ट होता था। बरगद के नीचे ठंडी—ठंडी हवा जो लगीए तो बैठे—बैठे सो गए। अॉंख खुलीए तो दोपहर ढ़ल चुकी थी। झपटकर उठ बैठेए लकड़ी सँभाली और आगे बढ़़े। आज उन्होंने जसवंतनगर में विश्राम करने का विचार किया था। दिन भागा चला जाता था। तीसरे पहर के बाद सूर्य की गति तीव्र हो जाती है। संध्या होती जाती थी और अभी जसवंतनगर का कहीं पता न था। इधार बेवाय के कारण एक—एक कदम उठाना दुस्सह था। हैरान थेए क्या करूँघ् किसी किसान का झोंपड़ा भी नजर न आता था कि वहाँ रात काटें। पहाड़ों में सूर्यास्त ही से हिंसक पशुओं की आवाजें सुनाई देने लगती हैं। इसी हैसबैस में पड़े हुए थे कि सहसा उन्हें दूर से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। उसे देखकर वह इतने प्रसन्न हुए कि अपनी राह छोड़कर कई कदम उसकी तरफ चले। समीप आयाए तो मालूम हुआ कि डाकिया है। वह विनय को पहचानता था। सलाम करके बोला—इस चाल से तो आप आधी रात को भी जसवंतनगर न पहुँचेंगे।

विनय—पैर में बेवाय फट गई हैए चलते नहीं बनता। तुम खूब मिले। मैं बहुत घबरा रहा था कि अकेले कैसे जाऊँगा। अब एक से दो हो गएए कोई चिंता नहीं है। मेरा भी कोई पत्र हैघ्

डाकिए ने विनयसिंह के हाथ में एक पत्र रख दिया। रानीजी का पत्र था। यद्यपि अंधोरा हो रहा थाए पर विनय इतने उत्सुक हुए कि तुरंत लिफाफा खोलकर पत्र पढ़़ने लगे। एक क्षण में उन्होंने पत्र समाप्त कर दिया और तब एक ठंडी साँस भरकर लिफाफे में रख दिया। उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि गिरने का भय हुआ। जमीन पर बैठ गए। डाकिए ने घबराकर पूछा—क्या कोई बुरा समाचार हैघ् आपका चेहरा पीला पड़ गया है।

विनय—नहींए कोई ऐसी खबर नहीं। पैरों में दर्द हो रहा हैए शायद मैं आगे न जा सकूँगा।

डाकिया—यहाँ इस बीहड़ में अकेले पड़े रहिएगाघ्

विनय—डर क्या है!

डाकिया—इधार जानवर बहुत हैंए अभी कल एक गाय उठा ले गए।

विनय—मुझे जानवर भी न पूछेंगे। तुम जाओए मुझे यहीं छोड़ दो।

डाकिया—यह नहीं हो सकताए मैं भी यहीं पड़ रहूँगा।

विनय—तुम मेरे लिए क्यों अपनी जान संकट में डालते होघ् चले जाओए घड़ी रात गए तक पहुँच जाओगे।

डाकिया—मैं तो तभी जाऊँगाए जब आप भी चलेंगे। मेरी जान की कौन हस्ती है। अपना पेट पालने के सिवा और क्या करता हूँ। आपके दम से हजारों का भला होता है। जब आपको अपनी चिंता नहीं हैए तो मुझे अपनी क्या चिंता है।

विनय—भाईए मैं तो मजबूर हूँ। चला ही नहीं जाता।

डाकिया—मैं आपको कंधो पर बैठाकर ले चलूँगाय पर यहाँ न छोड़ूँगा।

विनय—भाईए तुम बहुत दिक कर रहे हो। चलोए लेकिन मैं धीरे—धीरे चलूँगा। तुम न होतेए तो आज मैं यहीं पड़ रहता।

डाकिया—आप न होतेए तो मेरी जान की कुशल न थी। यह न समझिए कि मैं केवल आपकी खातिर इतनी जिद कर रहा हूँए मैं इतना पुण्यात्मा नहीं हूँ। अपनी रक्षा के लिए आपको साथ लिए चलता हूँ। (धीरे से) मेरे पास इस वक्त ढ़ाई सौ रुपये हैं। दोपहर को एक जगह सो गयाए बस देर हो गई। आप मेरे भाग्य से मिल गएए नहीं तो डाकुओं से जान न बचती।

विनय—यह तो बड़े जोखिम की बात है। तुम्हारे पास कोई हथियार हैघ्

डाकिया—मेरे हथियार आप हैं। आपके साथ मुझे कोई खटका नहीं है। आपको देखकर किसी डाकू की मजाल नहीं कि मुझ पर हाथ उठा सके। आपने डकैतों को भी वश में कर लिया है।

सहसा घोड़ों की टॉप की आवाज कान में आई। डाकिए ने घबराकर पीछे देखा। पाँच सवार भाले उठाएए घोड़े बढ़़ाए चले आते थे। उसके होश उड़ गएए काटो तो बदन में लहू नहीं। बोला—लीजिएए सब आ ही पहुँचे। इन सबों के मारे इधार रास्ता चलना कठिन हो गया है। बड़े हत्यारे हैं। सरकारी नौकरों को तो छोड़ना ही नहीं जानते। अब आप ही बचाएँए तो मेरी जान बच सकती है।

इतने में पाँचों सवार सिर पर आ पहुँचे। उनमें से एक ने पुकारा—अबेए ओ डाकिएए इधार आए तेरे थैले में क्या हैघ्

विनयसिंह जमीन पर बैठे हुए थे। लकड़ी टेककर उठे कि इतने में एक सवार ने डाकिए पर भाले का वार किया। डाकिया सेना में रह चुका था। वार को थैले पर रोका। भाला थैले के आर—पार हो गया। वह दूसरा वार करनेवाला ही था कि विनय सामने आकर बोले—भाइयोए यह क्या अंधोर करते हो! क्या थोड़े—से रुपयों के लिए एक गरीब की जान ले लोगेघ्

सवार—जान इतनी प्यारी हैए तो रुपये क्यों नहीं देताघ्

विनय—जान भी प्यारी है और रुपये भी प्यारे हैं। दो में से एक भी नहीं दे सकता।

सवार—तो दोनों ही देने पड़ेंगे।

विनय—तो पहले मेरा काम तमाम कर दो। जब तक मैं हूँए तुम्हारा मनोरथ न पूरा होगा।

सवार—हम साधु—संतों पर हाथ नहीं उठाते। सामने से हट जाओ।

विनय—जब तक मेरी हड्डीयां तुम्हारे घोड़ों के पैरों—तले न रौंदी जाएँगीए मैं सामने से न हटूँगा।

सवार—हम कहते हैंए सामने से हट जाओ। क्यों हमारे सिर हत्या का पाप लगाते होघ्

विनय—मेरा जो धर्म हैए वह मैं करता हूँय तुम्हारा जो धर्म होए वह तुम करो। गरदन झुकाए हुए हूँ।

दूसरा सवार—तुम कौन होघ्

तीसरा सवार—बेधा हुआ हैए मार दो एक हाथए गिर पड़ेए प्रायश्चित्त कर लेंगे।

पहला सवार—आखिर तुम हो कौनघ्

विनय—मैं कोई हूँए तुम्हें इससे मतलबघ्

दूसरा सवार—तुम तो इधार के रहनेवाले नहीं जान पड़ते। क्यों बे डाकिएए यह कौन हैंघ्

डाकिया—यह तो नहीं जानताए पर इनका नाम है विनयसिंह। धार्मात्मा और परोपकारी आदमी हैं। कई महीनों से इस इलाके में ठहरे हुए हैं।

विनय का नाम सुनते ही पाँचों सवार घोड़ों से कूद पड़े और विनय के सामने हाथ बाँधकर खड़े हो गए। सरदार ने कहा—महाराजए हमारा अपराध क्षमा कीजिए। हमने आपका नाम सुना है। आज आपके दर्शन पाकर हमारा जीवन सफल हो गया। इस इलाके में आपका यश घर—घर गाया जा रहा है। मेरा लड़का घोड़े से गिर पड़ा था। पसली की हड़डी टूट गई थी। जीने की कोई आशा न थी। आप ही के साथ के एक महाराज हैं इंद्रदत्ता। उन्होंने आकर लड़के को देखाए तो तुरंत मरहम—पट्टी की और एक महीने तक रोज आकर उसकी दवा—दारू करते रहे। लड़का चंगा हो गया। मैं तो प्राण भी दे दूँए तो आपसे उऋण नहीं हो सकता। अब हम पापियों का उध्दार कीजिए। हमें आज्ञा दीजिए कि आपके चरणों की रज माथे पर लगाएँ। हम तो इस योग्य भी नहीं हैं।

विनय ने मुस्कराकर कहा—अब तो डाकिए की जान न लोगेघ् तुमसे हमें डर लगता है।

सरदार—महाराजए हमें अब लज्जित न कीजिए। हमारा अपराध क्षमा कीजिए। डाकिया महाशयए तुम आज किसी भले आदमी का मुँह देखकर उठे थेए नहीं तो अब तक तुम्हारा प्राण—पखेरू आकाश में उड़ता होता। मेरा नाम सुना है नघ् वीरपालसिंह मैं ही हूँए जिसने राज्य के नौकरों को नेस्तनाबूद करने का प्रण कर लिया है।

विनय—राज्य के नौकरों पर इतना अत्याचार क्यों करते होघ्

वीरपाल—महाराजए आप तो कई महीनों से इस इलाके में हैंए क्या आपको इन लोगों की करतूतें मालूम नहीं हैंघ् ये लोग प्रजा को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। इनमें न दया हैए न धर्म। हैं हमारे ही भाईबंदए पर हमारी ही गरदन पर छुरी चलाते हैं। किसी ने जरा साफ कपड़े पहनेए और ये लोग उसके सिर हुए। जिसे घूस न दीजिएए वही आपका दुश्मन है। चोरी कीजिएए डाके डालिएए घरों में आग लगाइएए गरीबों का गला काटीएए कोई आपसे न बोलेगा। बसए कर्मचारियों की मुट्ठियाँ गर्म करते रहिए। दिन—दहाड़े खून कीजिएए पर पुलिस की पूजा कर दीजिएए आप बेदाग छूट जाएँगेए आपके बदले कोई बेकसूर फाँसी पर लटका दिया जाएगा। कोई फरियाद नहीं सुनता। कौन सुनेए सभी एक ही थैली के चट्टे—बट्टे हैं। यही समझ लीजिए कि हिंसक जंतुओं का एक गोल हैए सब—के—सब मिलकर शिकार करते हैं और मिल—जुलकर खाते हैं। राजा हैए वह काठ का उल्लू। उसे विलायत में जाकर विद्वानों के सामने बड़े—बड़े व्याख्यान देने की धुन है। मैंने यह किया और वह कियाए बस डीगें मारना उसका काम है। या तो विलायत की सैर करेगाए या यहाँ अंगरेजों के साथ शिकार खेलेगाए सारे दिन उन्हीं की जूतियाँ सीधी करेगा। इसके सिवा उसे कोई काम नहींए प्रजा जिए या मरेए उसकी बला से। बसए कुशल इसी में है कि कर्मचारी जिस कल बैठाएँ उसी कल बैठिएए शिकायत न कीजिएए जबान न हिलाइएए रोइएए तो मुँह बंद करके। हमने लाचार होकर इस हत्या—मार्ग पर पग रखा है। किसी तरह तो इन दुष्टों की अॉंखें खुलें। इन्हें मालूम हो कि हमें भी दंड देनेवाला कोई है। ये पशु से मनुष्य हो जाएँ।

विनय—मुझे यहाँ की स्थिति का कुछ ज्ञान तो थाय पर यह न मालूम था कि दशा इतनी शोचनीय है। मैं अब स्वयं राजा साहब से मिलूँगा और यह सारा वृत्तांत उनसे कहूँगा।

वीरपाल—महाराजए कहीं ऐसी भूल भी न कीजिएगाए नहीं तो लेने के देने पड़ जाएँगे। यह अंधेर—नगरी है। राजा में इतना ही विवेक होताए तो राज्य की यह दशा ही क्यों होतीघ् वह उलटे आप ही के सिर हो जाएगा।

विनय—इसकी चिंता नहीं। संतोष तो हो जाएगा कि मैंने अपनेर् कर्तव्य का पालन किया! मुझे तुमसे भी कुछ कहना है। तुम्हारा यह विचार कि इन हत्याकांडों से अधिकारीवर्ग प्रजापरायण हो जाएगाए मेरी समझ में निर्मूल और भ्रमपूर्ण है। रोग का अंत करने के लिए रोगी का अंत कर देना न बुध्दि—संगत हैए न न्याय—संगत। आग आग से शांत नहीं होतीए पानी से शांत होती है।

वीरपाल—महाराजए हम आपसे तर्क तो नहीं कर सकतेय पर इतना जानते हैं कि विष विष ही से शांत होता है। जब मनुष्य दुष्टता की चरम सीमा पर पहुँच जाता हैए उसमें दया और धर्म लुप्त हो जाता हैए जब उसके मनुष्यत्व का सर्वनाश हो जाता हैए जब वह पशुओं के—से आचरण करने लगता हैए जब उसमें आत्मा की ज्योति मलिन हो जाती हैए तब उसके लिए केवल एक ही उपाय शेष रह जाता हैए और वह है प्राणदंड। व्याघ्र—जैसे हिंसक पशु सेवा से वशीभूत हो सकते हैं! पर स्वार्थ को कोई दैविक शक्ति परास्त नहीं कर सकती।

विनय—ऐसी शक्ति है तो। हाँए केवल उसका उचित उपयोग करना चाहिए।

विनय ने अभी बात भी न पूरी की थी कि अकस्मात्‌ किसी तरफ से बंदूक की आवाज कानों में आई। सवारों ने चौंककर एक—दूसरे की तरफ देखा और एक तरफ घोड़े छोड़ दिए। दम—के—दम में घोड़े पहाड़ों में जाकर गायब हो गए। विनय की समझ में कुछ न आया कि बंदूक की आवाज कहाँ से आई और पाँचों सवार क्यों भागे। डाकिए से पूछा—ये सब किधार जा रहे हैंघ्

डाकिया—बंदूक की आवाज ने किसी शिकार की खबर दी होगीए उसी तरफ गए हैं। आज किसी सरकारी नौकर की जान पर जरूर बनेगी।

विनय—अगर यहाँ के कर्मचारियों का यही हाल हैए जैसा इन्होंने बयान किया तो मुझे बहुत जल्द महाराज की सेवा में जाना पड़ेगा।

डाकिया—महाराजए अब आपसे क्या परदा हैय सचमुच यही हाल है। हम लोग तो टके के मुलाजिम ठहरेए चार पैसे ऊपर से न कमाएँ तो बाल—बच्चों को कैसे पालेंय तलब हैए वह साल—साल भर तक नहीं मिलतीए लेकिन यहाँ तो जितने ही ऊँचे ओहदे पर हैए उसका पेट भी उतना ही बड़ा है।

दस बजते—बजते दोंनों आदमी जसवंतनगर पहुँच गए। विनय बस्ती के बाहर ही एक वृक्ष के नीचे बैठ गए और डाकिए से जाने को कहा। डाकिए ने उनसे अपने घर चलने का बहुत आग्रह किया। जब वह किसी तरह न राजी हुएए तो अपने घर से उनके वास्ते भोजन बनवा लाया। भोजन के उपरांत दोनों आदमी उसी जगह लेटे। डाकिया उन्हें अकेला छोड़कर घर न आया। वह तो थका थाए लेटते ही सो गयाए पर विनय को नींद कहाँ! रानीजी के पत्र का एक—एक शब्द उनके हृदय में काँटे के समान चुभ रहा था। रानी ने लिखा था—तुमने मेरे साथए और अपने बंधुओं के साथ दगा की है। मैं तुम्हें कभी क्षमा न करूँगी। तुमने मेरी अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दिया। तुम इतनी आसानी से इंद्रियों के दास हो जाओगेए इसकी मुझे लेश—मात्रा भी आशंका न थी। तुम्हारा वहाँ रहना व्यर्थ हैए घर लौट आओ और विवाह करके आनंद से भोग—विलास करो। जाति—सेवा के लिए जिस आचरण की आवश्यकता हैए जिस मनोबल की आवश्यकता हैए वह तुमने नहीं पाया और न पा सकोगे। युवावस्था में हम लोग अपनी योग्यताओं की बृहत्—कल्पनाएँ कर लेते हैं। तुम भी उसी भ्रांति में पड़ गए। मैं तुम्हें बुरा नहीं कहती। तुम शौक से लौट आओए संसार में सभी अपने—अपने स्वार्थ में रत हैंए तुम भी स्वार्थ—चिंतन में मग्न हो जाओ। हाँए अब मुझे तुम्हारे ऊपर वह घमंड न होगाए जिस पर मैं फूली हुई थी। तुम्हारे पिताजी को अभी यह वृत्तांत मालूम नहीं है। वह सुनेंगेए तो न जाने उनकी क्या दशा होगी। किंतु यह बात अगर तुम्हें अभी नहीं मालूम हैए तो मैं बताए देती हूँ कि अब तुम्हें अपनी प्रेम—क्रीड़ा के लिए कोई दूसरा क्षेत्र ढ़ूँढ़़ना पड़ेगाय क्योंकि मिस सोफिया की मँगनी मि. क्लार्क से हो गई है और दो—चार दिन में विवाह भी होनेवाला है। यह इसीलिए लिखती हूँ कि तुम्हें सोफिया के विषय में कोई भ्रम न रहे और विदित हो जाए कि जिसके लिए तुमने अपने जीवन की और अपने माता—पिता की अभिलाषाओं का खून कियाए उसकी द्रष्टि में तुम क्या हो!

विनय के मन में ऐसा उद्वेग हुआ कि इस वक्त सोफिया सामने आ जातीए तो उसे धिक्कारता—यही मेरे अनंत हृदयानुराग का उपहार हैघ् तुम्हारे ऊपर मुझे कितना विश्वास थाए पर अब ज्ञात हुआ कि वह तुम्हारी प्रेमक्रीड़ा मात्रा थी। तुम मेरे लिए आकाश की देवी थीं। मैंने तुम्हें एक स्वर्गीय आलोकए दिव्य ज्योति समझ रखा था। आह! मैं अपना धर्म तक तुम्हारे चरणों पर निछावर करने को तैयार था। क्या इसीलिए तुमने मुझे ज्वालाओं के मुख से निकाला थाघ् खैरए जो हुआए अच्छा हुआ। ईश्वर ने मेरे धर्म की रक्षा कीए यह व्यथा भी शांत ही हो जाएगी। मैं तुम्हें व्यर्थ ही कोस रहा हूँ। तुमने वही कियाए जो इस परिस्थिति में अन्य स्त्रियाँ करतीं। मुझे दुरूख इसलिए हो रहा है कि मैं तुमसे कुछ और ही आशाएँ रखता था। यह मेरी भूल थी। मैं जानता हूँ कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं था। मुझमें वे गुण कहाँ हैंए जिनका तुम आदर कर सकतींय पर यह भी जानता हूँ कि मेरी जितनी भक्ति तुम में थी और अब भी हैए उतनी शायद ही किसी—किसी में हो सकती है। क्लार्क विद्वानए चतुरए योग्य गुणों का आगार ही क्यों न होए लेकिन अगर मैंने तुम्हें पहचानने में धोखा नहीं खाया हैए तो तुम उसके साथ प्रसन्न न रह सकोगी।

किंतु इस समय उन्हें इस नैराश्य से कहीं अधिक वेदना इस विचार से हो रही थी कि मैं माताजी की नजरों में गिर गया—उन्हें कैसे मालूम हुआघ् क्या सोफी ने उन्हें मेरा पत्र तो नहीं दिखा दियाघ् अगर उसने ऐसा किया हैए तो वह मुझ पर इससे अधिक कठोर आघात न कर सकती थी। क्या प्रेम निठुर होकर द्वेषात्मक भी हो जाता हैघ् नहींए सोफी पर यह संदेह करके मैं उस पर अत्याचार न करूँगा। समझ गयाए इंदु की सरलता ने यह आग लगाई है। उसने हँसी—हँसी में कह दिया होगा। न जाने उसे कभी बुध्दि होगी या नहीं। उसकी तो दिल्लगी हुईए और यहाँ मुझ पर जो बीत रही हैए मैं ही जानता हूँ।

यह सोचते—सोचते विनय के मन में प्रत्याघात का विचार उत्पन्न हुआ। नैराश्य में प्रेम भी द्वेष का रूप धारण कर लेता है। उनकी प्रबल इच्छा हुई कि सोफिया को एक लम्बा पत्र लिखूँ और उसे जी भरकर धिक्कारूँ। वह इस पत्र की कल्पना करने लगे—त्रियाचरित की कथाएँ पुस्तकों में बहुत पढ़़ी थींए पर कभी उन पर विश्वास न आता था। मुझे यह गुमान ही न होता था कि स्त्री ए जिसे परमात्मा ने पवित्रए कोमल तथा देवोपम भावों का आगार बनाया हैए इतनी निर्दय और इतनी मलिन हृदय हो सकती हैय पर यह तुम्हारा दोष नहींए यह तुम्हारे धर्म का दोष हैए जहाँ प्रेम—व्रत का कोई आदर्श नहीं है। अगर तुमने हिंदू—धर्म—ग्रंथों का अधययन किया हैए तो तुमको एक नहींए अनेक ऐसी देवियों के दर्शन हुए होंगेए जिन्होंने एक बार प्रेम—व्रत धारण कर लेने के बाद जीवन पयर्ंत परपुरुष की कल्पना भी नहीं की। हाँए तुम्हें ऐसी देवियाँ भी मिली होंगीए जिन्होंने प्रेम—व्रत लेकर आजीवन अक्षय वैधाव्य का पालन किया। मि. क्लार्क की सहयोगिनी बनकर तुम एक ही छलाँग में विजित से विजेताओं की श्रेणी में पहुँच जाओगीए और बहुत सम्भव हैए इसी गौरव—कामना ने तुम्हें यह वज्राघात करने पर आरूढ़़ किया होय पर तुम्हारी अॉंखें बहुत जल्द खुलेंगी और तुम्हें ज्ञात होगा कि तुमने अपना सम्मान बढ़़ाया नहींए खो दिया है।

इस भाँति विनय ने दुष्कल्पनाओं की धुन में दिल का खूब गुबार निकाला। अगर इन विषाक्त भावों का एक छींटा भी सोफिया पर छिड़क सकताए तो उस विरहिणी की न जाने क्या दशा होती। कदाचित्‌ उसकी जान ही पर बन जाती। पर विनयसिंह को स्वयं अपनी क्षुद्रता पर घृणा हुई—मेरे मन में ऐसे कुविचार क्यों आ रहे हैं। उसका परम कोमल हृदय ऐसे निर्दय आघातों को सहन नहीं कर सकता। उसे मुझसे प्रेम था। मेरा मन कहता है कि अब भी उसे मेरे प्रति सहानुभूति है। मगर मेरे ही समान वह भी धर्मए र्‌ कर्‌तव्यए समाज और प्रथा की बेड़ियों में बँधी हुई है। हो सकता है कि उसके माता—पिता ने उसे मजबूर किया हो और उसने अपने को उनकी इच्छा पर बलिदान कर दिया हो। यह भी हो सकता है कि माताजी ने उसे मेरे प्रेम—मार्ग से हटाने के लिए यह उपाय निकाला हो। वह जितनी ही सहृदय हैंए उतनी ही क्रोधशील भी। मैं बिना जाने—बूझे सोफिया पर दोषोरोपण करके अपनी उच्छृंखलता का परिचय दे रहा हूँ।

इसी उद्विग्न दशा में करवटें बदलते—बदलते विनय की अॉंखें झपक गईं। पहाड़ी देशों में रातें बड़ी सुहावनी होती हैं। एक ही झपकी में तड़का हो गया। मालूम नहीं वह कब तक पड़े सोया करतेय लेकिन पानी के झींसे मुँह पर पड़ेए तो घबड़ाकर उठ बैठे। बादल घिरे हुए थे और हलकी—हलकी फुहार पड़ रही थी। जसवंतनगर चलने का विचार करके उठे थे कि कई आदमियों को घोड़े भगाए अपनी तरफ आते देखा। समझेए शायद वीरपालसिंह और उनके साथी होंगेय पर समीप आएए तो मालूम हुआ कि रियासत की पुलिस के आदमी हैं। डाकिया उनके पास ही सोया हुआ थाए पर उसका कहीं पता न थाए वह पहले ही उठकर चला गया था।

अफसर ने पूछा—तुम्हारा ही नाम विनयसिंह हैंघ्

श्जी हाँ।श्

श्कल रात को तुम्हारे साथ कई आदमियों ने यहाँ पड़ाव डाला थाघ् श्

श्जी नहींए मेरे साथ केवल यहाँ के डाकघर का एक डाकिया था।श्

श्तुम वीरपालसिंह को जानते होघ् श्

श्इतना ही जानता हूँ कि वह मुझे रास्ते में मिल गयाए वहाँ से कहाँ गयाए यह मैं नहीं जानता।श्

श्तुम्हें यह मालूम था कि वह डाकू हैघ् श्

श्उसने यहाँ के राजकर्मचारियों के विषय में इसी शब्द का प्रयोग किया था।श्

श्इसका आशय मैं यह समझता हूँ कि तुम्हें यह बात मालूम थी।श्

श्आप इसका जो आशय चाहेंए समझें।

श्उसने यहाँ से तीन मील पर सरकारी खजाने की गाड़ी लूट ली है और एक सिपाही की हत्या कर डाली है। पुलिस को संदेह है कि यह संगीन वारदात तुम्हारे इशारे से हुई है। इसलिए हम तुम्हें गिरफ्तार करते हैं।श्

श्यह मेरे ऊपर घोर अन्याय है। मुझे उस डाके और हत्या की जरा भी खबर नहीं है।श्

श्इसका फैसला अदालत से होगा।श्

श्कम—से—कम मुझे इतना पूछने का अधिकार तो है कि पुलिस को मुझ पर यह संदेह करने का क्या कारण हैघ् श्

श्उसी डाकिए का बयान हैए जो रात को तुम्हारे साथ यहाँ सोया था।श्

विनय ने विस्मित होकर कहा—यह उसी डाकिए का बयान है!

श्हाँए उसने घड़ी रात रहे इसकी सूचना दी। अब आपको विदित हो गया होगा कि पुलिस आप—जैसे महाशयों से कितनी सतर्क रहती है।श्

मानव—चरित्र कितना दुर्बोधा और जटील हैए इसका विनय को जीवन में पहली ही बार अनुभव हुआ। इतनी श्रध्दा और भक्ति की आड़ में इतनी कुटीलता और पैशाचिकता!

दो सिपाहियों ने विनय के हाथों में हथकड़ी डाल दीए उन्हें एक घोड़े पर सवार कराया और जसवंतनगर की ओर चले।

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अध्याय 17

विनयसिंह छरू महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किया करते हैं। जब इस नीति से काम नहीं चलता दिखाई देताए तो प्रलोभन से काम लेते हैं और फिर वही पुरानी नीति ग्रहण करने लगते हैं। विनयसिंह पहले अन्य कैदियों के साथ रखे गए थेए लेकिन जब उन्होंने अपराधियों को उनकी ओर बहुत आकृष्ट होते देखाए तो इस भय से कि कहीं जेल में उपद्रव न हो जाएय उन्हें सबसे अलग एक काल—कोठरी में बंद कर दिया। कोठरी बहुत तंग थीए एक भी खिड़की न थीए दोपहर को अंधोरा छाया रहता थाए दुगर्ंधा इतनी कि नाक फटती थी। चौबीस घंटे में केवल एक बार द्वार खुलताए रक्षक भोजन रखकर फिर द्वार बंद कर देता। विनय को कष्ट सहने की बान पड़ गई थीए भूख—प्यास सह सकते थेए ओढ़़न—बिछावन की उन्हें जरूरत न थीए इससे उन्हें कोई विशेष कष्ट न होता थाय पर अंधकार और दुगर्ंधा उनके लिए बिलकुल नई सजा थी। भीतर उनका दम घुटने लगता था। निर्मलए स्वच्छ वायु में साँस लेने के लिए वह तड़प—तड़प कर रह जाते थे। ताजी हवा कितनी बहुमूल्य होती हैए इसका अब उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा था। किंतु दूरव्यवहारों को सहते हुए भी वह दुरूखी या भग्न—हृदय न होते थे। इन कठिन परीक्षाओं ही में उन्हें जाति का उध्दार दिखाई देता था। वह अपने मन में कहते थे—यह कठिन व्रत निष्फल नहीं जा सकता। जब तक हम कठिनाइयाँ झेलना न सीखेंगेए जब तक हम भोग—विलास का परित्याग न करेंगेए हमसे देश का कुछ उपकार नहीं हो सकता। यही विचार उन्हें धैर्य देता रहता था।

किंतु जब सोफिया की कलुषता की याद आ जातीए तो उनका सारा धैर्यए उत्साह और आत्मोत्सर्ग नैराश्य में विलीन हो जाता था। वह अपने को कितना ही समझाते कि सोफिया ने जो कुछ कियाए विवश होकर किया होगाय पर इस युक्ति से उन्हें संतोष न होता था—क्या सोफिया स्पष्ट नहीं कह सकती थी कि मैं विवाह नहीं करना चाहतीघ् विवाह के विषय में माता—पिता की इच्छा हमारे यहाँ निश्चयात्मक हैय लेकिन ईसाइयों में स्त्री की इच्छा ही प्रधान समझी जाती है। अगर सोफिया को क्लार्क से प्रेम न थाए तो क्या वह उन्हें कोरा जवाब न दे सकती थीघ् यथार्थ में कोमल जाति का प्रेम—सूत्रा भी कोमल होता हैए जो जरा—से झटके से टूट जाता है। जब सोफिया—जैसी विचारशीलए आन पर जान देनेवालीए सिध्दांत—प्रियए उन्नत—हृदय युवती यों विचलित हो सकती हैए तो दूसरी स्त्रियों से क्या आशा की जा सकती हैघ् इस जाति पर विश्वास करना ही व्यर्थ है। सोफी ने मुझे सदा के लिए सचेत कर दियाए ऐसा पाठ हृदयंगम करा दियाए जो कभी न भूलेगा। जब सोफिया दगा कर सकती हैए तो ऐसी कौन स्त्री हैए जिस पर विश्वास किया जा सकेघ् आह! क्या जानता था कि इतना त्यागए इतनी सरलताए इतनी सदाकांक्षा भी अंत में स्वार्थ के सामने सिर झुका देगी। अब जीवन—पयर्ंत स्त्री की ओर अॉंख उठाकर भी न देखूँगा। उससे यों दूर रहूँगाए जैसे काली नागिन से। उससे यों बचकर चलूँगाए जैसे काँटे से। किसी से घृणा करना सज्जनता और औचित्य के विरुध्द हैय मगर अब इस जाति से घृणा करूँगा।

इस नैराश्यए शोक और चिंता में पड़े—पड़े कभी—कभी वह इतना व्यग्र हो जाते कि जी में आता—चलकर उस वज्र हृदया के सामने दीवार से सिर टकराकर प्राण दे दूँए जिसमें उसे भी ग्लानि हो। मैं यहाँ अग्निकुंडमें जल रहा हूँए हृदय में फफोले पड़े हुए हैंए वहाँ किसी को खबर भी नहींए आमोद—प्रमोद का आनंद उठाया जा रहा है। उसकी अॉंखों के सम्मुख एड़ियाँ रगड़—रगड़कर प्राण देताए तो उसे भी अपनी कुटीलता और निर्दयता पर लज्जा आती। भगवन्ए मुझे इन दुश्चिंताओं के लिए क्षमा करना। मैं दुरूखी हूँए वह भी मेरे स—श नैराश्य की आग में जलती! क्लार्क उसके साथ उसी भाँति दगा करताए जैसे उसने मेरे साथ की है! अगर मेरी अहित—कामना में सत्य का कुछ भी अंश है और प्रेम—मार्ग से विमुख होने का कुछ भी दंड हैए तो एक दिन अवश्य उसे भी शोक और व्यथा के अॉंसू बहाते देखूँगा। यह असम्भव है कि खूने—नाहक रंग न लाए।

लेकिन यह नैराश्य सर्वथा व्यथाकारक ही न थाए उसमें आत्मपरिष्कार के अंकुर भी छिपे हुए थे। विनय के हृदय में फिर वह सद्‌भाव जागृत हो गयाए जिसे प्रेम की कल्पनाओं ने निर्जीव बना डाला था। नैराश्य ने स्वार्थ का संहार कर दिया।

एक दिन विनयसिंह रात के समय लेटे सोच रहे थे कि न जाने मेरे साथियों पर क्या गुजरीए मेरी ही तरह वे भी तो विपत्ति में नहीं फँस गएए किसी की कुछ खबर ही नहीं कि सहसा उन्हें अपने सिरहाने की ओर एक धामाके की आवाज सुनाई दी। वह चौंक पड़ेए और कान लगाकर सुनने लगे। मालूम हुआ कि कुछ लोग दीवार खोद रहे हैं। दीवार पत्थर की थीय मगर बहुत पुरानी थी। पत्थरों के जोड़ों में लोनी लग गई थी। पत्थर की सिलें आसानी से अपनी जगह छोड़ती जाती थीं। विनय को आश्चर्य हुआ—ये कौन लोग हैंघ् अगर चोर हैंए तो जेल की दीवार तोड़ने से इन्हें क्या मिलेगाघ् शायद समझते हैंए जेल के दारोगा का यही मकान है। वह इसी हैस—बैस में थे कि अंदर प्रकाश की एक झलक आई। मालूम हो गया कि चोरों ने अपना काम पूरा कर लिया। सेंधा के सामने जाकर बोले—तुम कौन होघ् यह दीवार क्यों खोद रहे होघ्

बाहर से आवाज आई—हम आपके पुराने सेवक हैं। हमारा नाम वीरपालसिंह है।

विनय ने तिरस्कार के भाव से कहा—क्या तुम्हारे लिए किसी खजाने की दीवारें नहीं हैंए जो जेल की दीवार खोद रहे होघ् यहाँ से चले जाओए नहीं तो मैं शोर मचा दूँगा।

वीरपाल—महाराजए हमसे उस दिन बड़ा अपराध हुआए क्षमा कीजिए। हमें न मालूम था कि केवल एक क्षण हमारे साथ रहने के कारण आपको यह कष्ट भोगना पड़ेगाए नहीं तो हम सरकारी खजाना न लूटते। हमको रात—दिन यही चिंता लगी हुई थी कि किसी भाँति आपके दर्शन करें और आपको इस संकट से निकालें। आइएए आपके लिए घोड़ा हाजिर है।

विनय—मैं अधार्मियों के हाथों अपनी रक्षा नहीं कराना चाहता। अगर तुम समझते हो कि मैं इतना बड़ा अपराध सिर पर रखे हुए जेल से भागकर अपनी जान बचाऊँगाए तो तुम धोखे में हो। मुझे अपनी जान इतनी प्यारी नहीं है।

वीरपाल—अपराधी तो हम हैंए आप तो सर्वथा निरापराध हैंए आपके ऊपर तो अधिकारियों ने यह घोर अन्याय किया है। ऐसी दशा में आपको यहाँ से निकल जाने में कुछ पसोपेश न करना चाहिए।

विनय—जब तक न्यायालय मुझे मुक्त न करेए मैं यहाँ से किसी तरह नहीं जा सकता।

वीरपाल—यहाँ के न्यायालयों से न्याय की आशा रखना चिड़िया से दूध निकालना है। हम सब—के—सब इन्हीं अदालतों के मारे हुए हैं। मैंने कोई अपराध नहीं किया थाए मैं अपने गाँव का मुखिया थाय किंतु मेरी सारी जायदाद केवल इसीलिए जब्त कर ली गई कि मैंने एक असहाय युवती को इलाकेदार के हाथों से बचाया था। उसके घर में वृध्दा माता के सिवा और कोई न था। हाल में विधवा हो गई थी। इलाकेदार की कुद्रष्टि उस पर पड़ गई और वह युवती को उसके घर से निकाल ले जाने का प्रयास करने लगा। मुझे टोह मिल गई। रात को ज्यों ही इलाकेदार के आदमियों ने वृध्दा के घर में घुसना चाहाए मैं अपने कई मित्रों को साथ लेकर वहाँ जा पहुँचा और उन दुष्टों को मारकर घर से निकाल दिया। बसए इलाकेदार उसी दिन से मेरा जानी दुश्मन हो गया। मुझ पर चोरी का अभियोग लगाकर कैद करा दिया। अदालत अंधी थीए जैसा इलाकेदार ने कहाए वैसा न्यायाधाीश ने किया। ऐसी अदालतों से आप व्यर्थ न्याय की आशा रखते हैं।

विनय—तुम लोग उस दिन मुझसे बातें करते—करते बंदूक की आवाज सुनकर ऐसे भागे कि मुझे तुम पर अब विश्वास ही नहीं आता।

वीरपाल—महाराजए कुछ न पूछिएए बंदूक की आवाज सुनते ही हमें उन्माद—सा हो गया। हमें जब रियासत से बदला लेने का अवसर मिलता हैए तो हम अपने को भूल जाते हैं। हमारे ऊपर कोई भूत सवार हो जाता है। रियासत ने हमारा सर्वनाश कर दिया है। हमारे पुरखों ने अपने रक्त से इस राज्य की बुनियाद डाली थीए आज यह राज्य हमारे रक्त का प्यासा हो रहा है। हम आपके पास से भागेए तो थोड़ी ही दूर पर अपने गोल के कई आदमियों को रियासत के सिपाहियों से लड़ते पाया। हम पहुँचते ही सरकारी आदमियों पर टूट पड़ेए उनकी बंदूकें छीन लींए एक आदमी को मार गिराया और रुपयों की थैलियाँ घोड़ों पर लादकर भाग निकले। जब से सुना है कि आप हमारी सहायता करने के संदेह में गिरफ्तार किए गए हैंए तब से इसी दौड़—धूप में हैं कि आपको यहाँ से निकाल ले जाएँ। यह जगह आप—जैसे धर्मपरायणए निर्भीक और स्वाधीनता पुरुषों के लिए उपयुक्त नहीं है। यहाँ उसी का निबाह हैए जो पल्ले दर्जे का घाघए कपटीए पाखंडी और दुरात्मा होए अपना काम निकालने के लिए बुरे—से—बुरा काम करने से भी न हिचके।

विनयसिंह ने बड़े गर्व से उत्तर दिया—अगर तुम्हारी बातें अक्षरशरू सत्य होंए तो भी मैं कोई ऐसा काम न करूँगाए जिससे रियासत की बदनामी हो। मुझे अपने भाइयों के साथ में विष का प्याला पीना मंजूर हैय पर रोकर उनको संकट में डालना मंजूर नहीं। इस राज्य को हम लोगों ने सदैव गौरव की द्रष्टि से देखा हैए महाराजा साहब को आज भी हम उसी श्रध्दा की द्रष्टि से देखते हैं। वह उन्हीं सांगा और प्रताप के वंशज हैंए जिन्होंने हिंदू—जाति की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। हम महाराजा को अपना रक्षकए अपना हितैषीए क्षत्रिय—कुल—तिलक समझते हैं। उनके कर्मचारी सब हमारे भाई—बंद हैं। फिर यहाँ की अदालत पर क्यों न विश्वास करेंघ् वे हमारे साथ अन्याय भी करेंए तो भी हम जबान न खोलेंगे। राज्य पर दोषारोपण करके हम अपने को उस महान्‌ वस्तु के अयोग्य सिध्द करते हैंए जो हमारे जीवन का लक्ष्य और इष्ट है।

श्धोखा खाइएगा।श्

श्इसकी कोई चिंता नहीं।श्

श्मेरे सिर से कलंक कैसे उतरेगाघ् श्

श्अपने सत्कायोर्ं से।श्

वीरपाल समझ गया कि यह अपने सिध्दांत से विचलित न होंगे। पाँचों आदमी घोड़ों पर सवार हो गए और एक क्षण में हेमंत के घने कुहरे ने उन्हें अपने परदे में छिपा लिया। घोड़ों की टाप की धवनि कुछ देर तक कानों में आती रहीए ण् फिर वह भी गायब हो गई।

अब विनय सोचने लगे—प्रातरूकाल जब लोग यह सेंधा देखेंगेए तो दिल में क्या खयाल करेंगेघ् उन्हें निश्चय हो जाएगा कि मैं डाकुओं से मिला हुआ हूँ और गुप्त रीति से भागने की चेष्टा कर रहा हूँ। लेकिन नहींए जब देखेंगे कि मैं भागने का अवसर पाकर भी न भागाए तो उनका दिल मेरी तरफ हो जाएगा। यह सोचते हुए उन्होंने पत्थर के टुकड़े चुनकर सेंधा को बंद करना शुरू किया। उनके पास केवल एक हलका—सा कम्बल थाए ण् और हेमंत की तुषार—सिक्त वायु इस सूराख से सन—सन आ रही थी। खुले मैदान में शायद उन्हें कभी इतनी ठंड न लगी थी। हवा सुई की भाँति रोम—रोम में चुभ रही थी। सेंधा बंद करने के बाद वह लेट गए। प्रातरूकाल जेलखाने में हलचल मच गई। नाजिमए इलाकेदारए सभी घटना—स्थल पर पहुँच गए। तहकीकात होने लगी। विनयसिंह ने सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। अधिकारियों को बड़ी चिंता हुई कि कहीं वे ही डाकू इन्हें निकाल न ले जाएँ। उनके हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेड़ियाँ डाल दी गईं। निश्चय हो गया कि इन पर आज ही अभियोग चलाया जाए। सशस्त्रा पुलिस उन्हें अदालत की ओर ले चली। हजारों आदमियों की भीड़ साथ हो गई। सब लोग यही कह रहे थे—हुक्काम ऐसे सज्जनए सहृदय और परोपकारी पुरुष पर अभियोग चलाते हैंए बुरा करते हैं। बेचारे ने न जाने किस साइत में यहाँ कदम रखे थे। हम तो अभागे हैं हीए हमें पिछले कमोर्ं का फल भोगने में अपने हाल पर छोड़ देतेए व्यर्थ इस आग में कूदे। कितने ही लोग रो रहे थे। निश्चय था कि न्यायाधाीश इन्हें कड़ी सजा देगा। प्रतिक्षण दर्शकों की संख्या बढ़़ती जाती थी और पुलिस को भय हो रहा था कि कहीं ये लोग बिगड़ न जाएँ। सहसा एक मोटर आई और शोफर ने उतरकर पुलिस अफसर को एक पत्र दिया। सब लोग धयान से देख रहे थे कि देखेंए अब क्या होता है। इतने में विनयसिंह मोटर पर सवार कराए गए और मोटर हवा हो गई। सब लोग चकित रह गए।

जब मोटर कुछ दूर चली गईए तो विनय ने शोफर से पूछा—मुझे कहाँ लिए जाते होघ् शोफर ने कहा—आपको दीवान साहब ने बुलाया है।

विनय ने और कुछ न पूछा। उन्हें उस समय भय के बदले हर्ष हुआ कि दीवान साहब से मिलने का यह अच्छा अवसर मिला। अब उनसे यहाँ की स्थिति पर बातें होंगी। सुना हैए विद्वान्‌ आदमी हैं। देखूँए इस नीति का क्योंकर समर्थन करते हैं।

एकाएक शोफर बोला—यह दीवान एक ही पाजी है। दया करना तो जानता ही नहीं। एक दिन बचा को इसी मोटर से ऐसा गिराऊँगा कि हड़डी —पसली का पता न लगेगा।

विनय—जरूर गिराओए ऐसे अत्याचारियों की यही सजा है।

शोफर ने कुतूहलपूर्ण नेत्रों से विनय को देखा। उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ। विनय के मुँह से ऐसी बात सुनने की उसे आशा न थी। उसने सुना था कि वह देवोपम गुणों के आगार हैंए उनका हृदय पवित्र है। बोला—आपकी भी यही इच्छा हैघ्

विनय—क्या किया जाएए ऐसे आदमियों पर और किसी बात का तो असर ही नहीं होता।

शोफर—अब तक मुझे यही शंका होती थी कि लोग मुझे हत्यारा कहेंगेय लेकिन जब आप—जैसे देव—पुरुष की यह इच्छा हैए तो मुझे क्या डरघ् बचा बहुत रात को निकला करते हैं। एक ठोकर में तो काम तमाम हो जाएगा।

विनय यह सुनकर ऐसा चौंकेए मानो कोई भयंकर स्वप्न देखा हो। उन्हें ज्ञात हुआ कि मैंने एक द्वेषात्मक भाव का समर्थन करके कितना बड़ा अनर्थ किया। अब उनकी समझ में आया कि विशिष्ट पुरुषों को कितनी सावधानी से मुँह खोलना चाहिएए क्योंकि उनका एक—एक शब्द प्रेरणा—शक्ति से परिपूर्ण रहता है। वह मन में पछता रहे थे कि मेरे मुँह से ऐसी बात निकली ही क्योंए और किसी भाँति कमान से निकले हुए तीर को फेर लाने का उपाय सोच रहे थे कि इतने में दीवान साहब का भवन आ गया। विशाल फाटक पर दो सशस्त्रा सिपाही खड़े थे और फाटक से थोड़ी दूर पर पीतल की दो तोपें रखी हुई थीं। फाटक पर मोटर रुक गई और दोनों सिपाही विनयसिंह को अंदर ले चले। दीवान साहब दीवानखाने में विराजमान थे। खबर पाते ही विनय को बुला लिया।

दीवान साहब का डील ऊँचाए शरीर सुगठित और वर्ण गौर था। अधोड़ हो जाने पर भी उनकी मुखश्री किसी खिले हुए फूल के समान थी। तनी हुई मूँछें थींए सिर पर रंग—बिरंगीए उदयपुरी पगियाए देह पर एक चुस्त शिकारी कोटए नीचे उदयपुरी पाजामा और एक भारी ओवरकोट। छाती पर कई तमगे और सम्मान—सूचक चिद्द शोभा दे रहे थे। उदयपुरी रिसाले के साथ योरपीय महासमर में सम्मिलित हुए थे और वहाँ कई अवसरों पर अपने असाधारण पुरुषार्थ से सेना—नायकों को चकित कर दिया। यह उसी सुकीर्ति का फल था कि वह इस पद पर नियुक्त हुए थे। सरदार नीलकंठसिंह नाम था। ऐसा तेजस्वी पुरुष विनयसिंह की निगाहों से कभी न गुजरा था।

दीवान साहब ने विनय को देखते ही मुस्कराकर उन्हें एक कुर्सी पर बैठने का संकेत किया और बोले—ये आभूषण तो आपकी देह पर बहुत शोभा नहीं देतेय किंतु जनता की द्रष्टि में इनका जितना आदर हैए उतना मेरे इन तमगों और पट्टियों का कदापि नहीं है। यह देखकर मुझे आपसे डाह होए तो कुछ अनुचित हैघ्

विनय ने समझा थाए दीवान साहब जाते—ही—जाते गरज पड़ेंगेए लाल—पीली अॉंखें दिखाएँगे। वह उस बर्ताव के लिए तैयार थे! अब जो दीवान साहब की सहृदयतापूर्ण बातें सुनींए तो संकोच में पड़ गए। उस कठोर उत्तर के लिए यहाँ कोई स्थान न थाए जिसे उन्होंने मन में सोच रखा था। बोले—यह तो कोई ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं हैए जिसके लिए आपको डाह करना पड़े।

दीवान साहब—(हँसकर) आपके लिए दुर्लभ नहीं हैय पर मेरे लिए तो दुर्लभ है। मुझमें यह सत्साहसए सदुत्साह नहीं हैए जिसके उपहार—स्वरूप ये सब चीजें मिलती हैं। मुझे मालूम हुआ कि आप कुँवर भरतसिंह के सुपुत्रा हैं। उनसे मेरा पुराना परिचय है। अब वह शायद मुझे भूल गए हों। कुछ तो इस नाते से कि आप मेरे पुराने मित्र के बेटे हैं और कुछ इस नाते से कि आपने इस युवावस्था में विषय—वासनाओं को त्यागकर लोक—सेवा का व्रत धारण किया हैए मेरे दिल में आपके प्रति विशेष प्रेम और सम्मान है। व्यक्तिगत रूप से मैं आपकी सेवाओं को स्वीकार करता हूँ और इस थोड़े—से समय में आपने रियासत का जो कल्याण किया हैए उसके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। मुझे खूब मालूम है कि आप निरापराध हैं और डाकुओं से आपका कोई सम्बंध नहीं हो सकता। इसका मुझे गुमान तक नहीं है। महाराजा साहब से भी आपके सम्बंध में घंटे—भर बातें हुईं। वह भी मुक्त कंठ से आपकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन परिस्थितियाँ हमें आपसे यह याचना करने के लिए मजबूर कर रही हैं कि बहुत अच्छा होए अगर आप...अगर आप प्रजा से अपने को अलग रखें। मुझे आपसे यह कहते हुए बहुत खेद हो रहा है कि अब यह रियासत आपका सत्कार करने का आनंद नहीं उठा सकती।

विनय ने अपने उठते हुए क्रोध को दबाकर कहा—आपने मेरे विषय में जो सद्‌भाव प्रकट किए हैंए उनके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। पर खेद है कि मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता। समाज की सेवा करना ही मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य है और समाज से पृथक्‌ होकर मैं अपना व्रत भंग करने में असमर्थ हूँ।

दीवान साहब—अगर आपके जीवन का मुख्य उद्देश्य यही हैए तो आपको किसी रियासत में आना उचित न था। रियासतों को आप सरकार की हरमसरा समझिएए जहाँ सूर्य के प्रकाश का भी गुजर नहीं हो सकता। हम सब इस हरमसरा के हब्शी ख्वाजासरा हैं। हम किसी की प्रेम—रस—पूर्ण द्रष्टि को इधार उठने न देंगे। कोई मनचला जवान इधार कदम रखने का साहस नहीं कर सकता। अगर ऐसा होए तो हम अपने पद के अयोग्य समझे जाएँ। हमारा रसीला बादशाहए इच्छानुसार मनोविनोद के लिएए कभी—कभी यहाँ पदार्पण करता है। हरमसरा के सोए भाग्य उस दिन जग जाते हैं। आप जानते हैंए बेगमों की सारी मनोकामनाएँ उनकी छवि—माधुरीए हाव—भाव और बनाव—सिंगार पर ही निर्भर होती हैंए नहीं तो रसीला बादशाह उनकी ओर अॉंख उठाकर भी न देखे। हमारे रसीले बादशाह पूर्वीय राग—रस के प्रेमी हैंय उनका हुक्म है कि बेगमों का वस्त्राभूषण पूर्वीय होए शृंगार पूर्वीय होए रीति—नीति पूर्वीय होए उनकी अॉंखें लज्जापूर्ण होंए पश्चिम की चंचलता उनमें न आने पाएए उनकी गति मरालों की गति की भाँति मंद होए पश्चिम की ललनाओं की भाँति उछलती—कूदती न चलेंए वे ही परिचारिकाएँ होंए वे ही हरम की दारोगाए वे ही हब्शी गुलामए वे ही ऊँची चहारदीवारीए जिसके अंदर चिड़िया भी न पर मार सके। आपने इस हरमसरा में घुस आने का दुस्साहस किया हैए यह हमारे रसीले बादशाह को एक अॉंख नहीं भाताए और आप अकेले नहीं हैंए आपके साथ समाज—सेवकों का एक जत्था है। इस जत्थे के सम्बंध में भाँति—भाँति की शंकाएँ हो रही हैं। नादिरशाही हुक्म है कि जितनी जल्द हो सकेए यह जत्था हरमसरा से दूर हटा दिया जाए। यह देखिएए पोलिटीकल रेजिडेंट ने आपके सहयोगियों के कृत्यों की गाथा लिख भेजी है। कोई कोर्ट में कृषकों की सभाएँ बनाता फिरता हैय कोई बीकानेर में बेगार की जड़ खोदने पर तत्पर हो रहा हैय कोई मारवाड़ में रियासत के उन करों का विरोध कर रहा हैए जो परम्परा से वसूल होते चले आए हैं। आप लोग साम्यवाद का डंका बजाते फिरते हैं। आपका कथन हैय प्राणि—मात्रा खाने—पहनने और शांति से जीवन व्यतीत करने का समान स्वत्व है। इस हरमसरा में इन सिध्दांतों और विचारों का प्रचार करके आप हमारी सरकार को बदगुमान कर देंगेए और उसकी अॉंखें फिर गईंए तो संसार में हमारा कहीं ठिकाना नहीं है। हम आपको अपने कु़ज में आग न लगाने देंगे।

हम अपनी दुर्बलताओं को व्यंग्य की ओट में छिपाते हैं। दीवान साहब ने व्यंग्योक्ति का प्रयोग करके विनय की सहानुभूति प्राप्त करनी चाही थीय पर विनय मनोविज्ञान से इतने अनभिज्ञ न थेए उनकी चाल भाँप गए और बोले—हमारा अनुमान था कि हम अपनी निरूस्वार्थ सेवा से आपको अपना हमदर्द बना लेंगे।

दीवान साहब—इसमें आपकी पूरी सफलता हुई है। हमको आपसे हार्दिक सहानुभूति हैए लेकिन आप जानते ही हैं कि रेजिडेंट साहब की इच्छा के विरुध्द हम तिनका तक नहीं हिला सकते। आप हमारे ऊपर दया कीजिएए हमें इसी दशा में छोड़ दीजिएए हम जैसे पतितों का उध्दार करने में आपको यश के बदले अपयश ही मिलेगा।

विनय—आप रेजिडेंट के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध क्यों नहीं करतेघ्

दीवान साहब—इसलिए कि हम आपकी भाँति निरूस्पृह और निरूस्वार्थ नहीं हैं। सरकार की रक्षा में हम मनमाने कर वसूल करते हैंए मनमाने कानून बनाते हैंए मनमाने दंड देते हैंए कोई चूँ नहीं कर सकता। यही हमारी कारगुजारी समझी जाती हैए इसी के उपलक्ष्य में हमको बड़ी—बड़ी उपाधियाँ मिलती हैंय पद की उन्नति होती है। ऐसी दशा में हम उनका विरोध क्यों करेंघ्

दीवान साहब की इस निर्लज्जता पर झुँझलाकर विनयसिंह ने कहा—इससे तो यह कहीं अच्छा था कि रियासतों का निशान ही न रहता।

दीवान साहब—इसीलिए तो हम आपसे विनय कर रहे हैं कि अब किसी और प्रांत की ओर अपनी दया—द्रष्टि कीजिए।

विनय—अगर मैं जाने से इनकार करूँघ्

दीवान साहब—तो मुझे बड़े दुरूख के साथ आपको उसी न्यायालय के सिपुर्द करना पड़ेगाए जहाँ न्याय का खून होता है।

विनय—निरापराधघ्

दीवान साहब—आप पर डाकुओं की सहायता का अपराध लगा हुआ है।

विनय—अभी आपने कहा है कि आपको मेरे विषय में ऐसी शंका नहीं।

दीवान साहब—वह मेरी निजी राय थीए यह मेरी राजकीय सम्मति है।

विनय—आपको अख्तियार है।

विनयसिंह फिर मोटर पर बैठेए तो सोचने लगे—जहाँ ऐसे—ऐसे निर्लज्जए अपनी अपकीर्ति पर बगलें बजानेवाले कर्णधार हैंए उस नौका को ईश्वर ही पार लगाएए तो लगे। चलोए अच्छा ही हुआ। जेल में रहने से माताजी को तस्कीन होगी। यहाँ से जान बचाकर भागताए तो वह मुझसे बिल्कुल निराश हो जातीं। अब उन्हें मालूम हो जाएगा कि उनका पत्र निष्फल नहीं हुआ। चलूँए अब न्यायालय का स्वाँग भी देख लूँ।

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अध्याय 18

सोफिया घर आईए तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका थाय अपनी ही निगाहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध थाए न अपने माता—पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध थाए जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थीए जिसने उसे काँटों में उलझा दिया था। उसने निश्चय कियाए मन को पैरों से कुचल डालूँगीए उसका निशान मिटा दूँगी। दुविधा में पड़कर वह अपने मन को अपने ऊपर शासन करने का अवसर न देना चाहती थीए उसने सदा के लिए मुँह बंद कर देने का —ढ़़ संकल्प कर लिया था। वह जानती थीए मन का मुँह बंद करना नितांत कठिन हैय लेकिन वह चाहती थीए अब अगर मनर् कर्तव्यमार्ग से विचलित होए तो उसे अपने अनौचित्य पर लज्जा आएय जैसे कोई तिलकधारी वैष्णव शराब की भट्ठी में जाते हुए झिझकता है और शर्म से गर्दन नहीं उठा सकताए उसी तरह उसका मन भी संस्कार के बंधानों में पड़कर कुत्सित वासनाओं से झिझके। इस आत्मदान के लिए वह कलुषता और कुटीलता का अपराध सिर पर लेने को तैयार थीयआजीवन नैराश्य और वियोग की आग में जलने के लिए तैयार थी। वह आत्मा से उस अपमान का बदला लेना चाहती थीए जो उसे रानी के हाथों सहना पड़ा था। उसका मन शराब पर टूटता थाए वह उसे विष पिलाकर उसकी प्यास बुझाना चाहती थी। उसने निश्चय कर लिया थाए अपने को मि. क्लार्क के हाथों में सौंप दूँगी। आत्मदान का इसके सिवा और कोई साधान न था।

किंतु उसका आत्मसम्मान कितना ही दलित हो गया होए बाह्य सम्मान अपने पूर्ण ओज पर था। अपने घर में उसका इतना आदर—सत्कार कभी न हुआ था। मिसेज सेवक की अॉंखों में वह कभी इतनी प्यारी न थी। उनके मुख से उसने कभी इतनी मीठी बातें न सुनी थीं। यहाँ तक कि वह अब उसकी धार्मिक विवेचनाओं से भी सहानुभूति प्रकट करती थीं। ईश्वरोपासना के विषय में भी अब उस पर अत्याचार न किया जाता था। वह अब अपनी इच्छा की स्वामिनी थीए और मिसेज सेवक यह देखकर आनंद से फूली न समाती थीं कि सोफिया सबसे पहले गिरजाघर पहुँच जाती थी। वह समझती थींए मि. क्लार्क के सत्संग से यह सुसंस्कार हुआ है।

परंतु सोफिया के सिवा यह और कौन जान सकता है कि उसके दिल पर क्या बीत रही है। उसे नित्य प्रेम का स्वाँग भरना पड़ता थाए जिससे उसे मानसिक घृणा होती थी। उसे अपनी इच्छा के विरुध्द कृत्रिम भावों की नकल करनी पड़ती थी। उसे प्रेम और अनुराग के वे शब्द तन्मय होकर सुनने पड़ते थेए जो उसके हृदय पर हथौड़ों की चोटों की भाँति पड़ते थे। उसे उन अनुरक्त चितवनों का लक्ष्य बनना पड़ता थाए जिनके सामने वह अॉंखें बंद कर लेना चाहती थी। मिस्टर क्लार्क की बातें कभी—कभी इतनी रसमयी हो जाती थीं कि सोफी का जी चाहता थाए इस स्वरचित रहस्य को खोल दूँए इस कृत्रिम जीवन का अंत कर दूँय लेकिन इसके साथ ही उसे अपनी आत्मा की व्यथा और जलन में एकर् ईर्ष्‌यामय आनंद का अनुभव होता था। पापी तेरी यही सजा हैए तू इसी योग्य हैय तूने मुझे जितना अपमानित किया हैए उसका तुझे प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।

इस भाँति वह विरहिणी रो—रोकर जीवन के दिन काट रही थी और विडम्बना यह थी कि वह व्यथा शांत होती नजर न आती थी। सोफिया अज्ञात रूप से मि. क्लार्क से कुछ खिंची हुई रहती थीय हृदय बहुत दबाने पर भी उनसे न मिलता था। उसका यह खिंचाव क्लार्क की प्रेमाग्नि को और भी उत्तोजित करता रहता था। सोफिया इस अवस्था में भी अगर उन्हें मुँह न लगाती थीए तो इसका मुख्य कारण मि. क्लार्क की धार्मिक प्रवृत्ति थी। उसकी निगाह में धार्मिकता से बढ़़कर कोई अवगुण न था। वह इसे अनुदारताए द्वेषए अहंकार और संकीर्णता का द्योतक समझती थी। क्लार्क दिल—ही—दिल समझते थे कि सोफिया को मैं अभी नहीं पा सकाए और इसलिए बहुत उत्सुक होने पर भी उन्हें सोफिया से प्रस्ताव करने का साहस न होता था। उन्हें यह पूर्ण विश्वास न होता था कि मेरी प्रार्थना स्वीकृत होगी। किंतु आशा—सूत्रा उन्हें सोफिया के दामन से बाँधो हुए था।

इसी प्रकार एक वर्ष से अधिक गुजर गया और मिसेज सेवक को अब संदेह होने लगा कि सोफिया कहीं हमें सब्ज बाग तो नहीं दिखा रही हैघ् आखिर एक दिन उन्होंने सोफिया से कहा—मेरी समझ में नहीं आताए तू रात—दिन मि. क्लार्क के साथ बैठी—बैठी क्या किया करती है! क्या बात हैघ् क्या वह प्रोपोज (प्रस्ताव) ही नहीं करतेए या तू ही उनसे भागी—भागी फिरती हैघ्

सोफिया शर्म से लाल होकर बोली—वह प्रोपोज ही नहीं करना चाहतेए तो क्या मैं उनकी जबान हो जाऊँघ्

मिसेज सेवक—यह तो हो ही नहीं सकता कि स्त्री चाहे और पुरुष प्रस्ताव न करे। वह तो आठों पहर अवसर देखा करता है। तू ही उन्हें फटकने न देती होगी।

सोफिया—मामाए ऐसी बातें करके मुझे लज्जित न कीजिए।

मिसेज सेवक—कसूर तुम्हारा हैए और अगर तुम दो—चार दिन में मि. क्लार्क को प्रोपोज करने का अवसर न दोगीए तो फिर तुम्हें रानी साहबा के पास भेज दूँगी और फिर बुलाने का नाम भी न लूँगी।

सोफी थर्रा गई। रानी के पास लौटकर जाने से मर जाना कहीं अच्छा था। उसने मन में ठान लिया—आज वह करूँगीए जो आज तक किसी स्त्री ने न किया होगा। साफ कह दूँगीए मेरे घर का द्वार मेरे लिए बंद है। अगर आप मुझे आश्रय देना चाहते होए तो दीजिएए नहीं तो मैं अपने लिए कोई और रास्ता निकालूँ। मुझसे प्रेम की आशा न रखिए। आप मेरे स्वामी हो सकते हैंए प्रियतम नहीं हो सकते। यह समझकर आप मुझे अंगीकार करते होंए तो कीजिएय वरना फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाइएगा।

संध्या हो गई थी। माघ का महीना थाय उस पर हवाए फिर बादलय सर्दी के मारे हाथ—पाँव अकड़े जाते थे। न कहीं आकाश का पता थाए न पृथ्वी का। चारों तरफ कुहरा—ही—कुहरा नजर आता था। रविवार था। ईसाई स्त्रियाँ और पुरुष साफ—सुथरे कपड़े और मोटे—मोटे ओवरकोट पहने हुए एक—एक करके गिरजाघर में दाखिल हो रहे थे। एक क्षण में जॉन सेवकए उनकी स्त्री ए प्रभु सेवक और ईश्वर सेवक फिटन से उतरे। और लोग तुरंत अंदर चले गएए केवल सोफिया बाहर रह गई। सहसा प्रभु सेवक ने बाहर आकर पूछा—क्यों सोफीए मिस्टर क्लार्क अंदर गएघ्

सोफिया—हाँए अभी—अभी गए हैं।

प्रभु सेवक—और तुमघ्

सोफिया ने दीन भाव से कहा—मैं भी चली जाऊँगी।

प्रभु सेवक—आज तुम बहुत उदास मालूम होती हो।

सोफिया की अॉंखें अश्रुपूर्ण हो गईं। बोली—हाँ प्रभुए आज मैं बहुत उदास हूँ। आज मेरे जीवन में सबसे महान्‌ संकट का दिन हैए क्योंकि आज मैं क्लार्क को प्रोपोज करने के लिए मजबूर करूँगी। मेरा नैतिक और मानसिक पतन हो गया। अब मैं अपने सिध्दांतों पर जान देनेवालीए अपने ईमान को ईश्वरीय इच्छा समझनेवालीए धर्म—तत्तवों को तर्क की कसौटी पर रखनेवाली सोफिया नहीं हूँ। वह सोफिया संसार में नहीं है। अब मैं जो कुछ हूँए वह अपने मुँह से कहते हुए मुझे स्वयं लज्जा आती है।

प्रभु सेवक कवि होते हुए भी उस भावना—शक्ति से वंचित थाए जो दूसरों के हृदय में पैठकर उनकी दशा का अनुभव करती है। वह कल्पना—जगत्‌ में नित्य विचरता रहता था और ऐहिक सुख—दुरूख से अपने को चिंतित बनाना उसे हास्यास्पद जान पड़ता था। ये दुनिया के मेले हैंए इनमें क्यों सिर खपाएँए मनुष्य को भोजन करना और मस्त रहना चाहिए। यही शब्द सोफिया उसके मुख से सैकड़ों बार सुन चुकी थी। झुँझलाकर बोला—तो इसमें रोने—धोने की क्या जरूरत हैघ् मामा से साफ—साफ क्यों नहीं कह देतींघ् उन्होंने तुम्हें मजबूर तो नहीं किया हैघ्

सोफिया ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा—प्रभुए ऐसी बातों से दिल न दुरूखाओ। तुम क्या जानोए मेरे दिल पर क्या गुजर रही है। अपनी इच्छा से कोई विष का प्याला नहीं पीता। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता हो कि मैं तुमसे अपनी सैकड़ों बार की कही हुई कहानी न कहती होऊँ। फिर भी तुम कहते होए तुम्हें मजबूर किसने कियाघ् तुम तो कवि होए तुम इतने भाव—शून्य कैसे हो गएघ् मजबूरी के सिवा आज मुझे कौन यहाँ खींच लायाघ् आज मेरी यहाँ आने की जरा भी इच्छा नहीं थीय पर यहाँ मौजूद हूँ। मैं तुमसे सत्य कहती हूँए धर्म का रहा—सहा महत्व भी मेरे दिल से उठ गया। मूखोर्ं को यह कहते हुए लज्जा नहीं आती कि मजहब खुदा की बरकत है। मैं कहती हूँए वह ईश्वरीय कोप है—दैवी वज्र हैए जो मानव जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है। इसी कोप के कारण आज मैं विष का घूँट पी रही हूँ। रानी जाह्नवी जैसी सहृदय महिला के मुझसे यों अॉंखें फेर लेने का और क्या कारण थाघ् मैं उस देव—पुरुष से क्यों छल करतीए जिसकी हृदय में आज भी उपासना करती हूँए और नित्य करती रहूँगीघ् अगर यह कारण न होताए तो मुझे अपनी आत्मा को यह निर्दयतापूर्ण दंड देना ही क्यों पड़ताघ् मैं इस विषय पर जितना ही विचार करती हूँए उतना ही धर्म के प्रति अश्रध्दा बढ़़ती है। आह! मेरी निष्ठुरता से विनय को कितना दुरूख हुआ होगाए इसकी कल्पना ही से मेरे प्राण सूख जाते हैं। वह देखोए मि. क्लार्क बुला रहे हैं। शायद सरमन (उपदेश) शुरू होनेवाला है। चलना पड़ेगाए नहीं तो मामा जीता न छोड़ेंगी।

प्रभु सेवक तो कदम बढ़़ाते हुए जा पहुँचेय सोफिया दो—ही—चार कदम चली थी कि एकाएक उसे सड़क पर किसी के गाने की आहट मिली। उसने सिर उठाकर चहारदीवारी के ऊपर से देखाए एक अंधा आदमीए हाथ में ख्रजरी लिएए यह गीत गाता हुआ चला जाता है रू

भईए क्यों रन से मुँह मोड़ैघ्

वीरों का काम है लड़नाए कुछ नाम जगत में करनाए

क्यों निज मरजादा छोड़ैघ्

भईए क्यों रन से मुँह मोड़ैघ्

क्यों जीत की तुझको इच्छाए क्यों हार की तुझको चिंताए

क्यों दुरूख से नाता जोड़ैघ्

भईए क्यों रन से मुँह मोड़ैघ्

तू रंगभूमि में आयाए दिखलाने अपनी मायाए

क्यों धरम—नीति को तोड़ैघ्

भईए क्यों रन से मुँह मोड़ैघ्

सोफिया ने अंधे को पहचान लियाय सूरदास था। वह इस गीत को कुछ इस तरह मस्त होकर गाता था कि सुननेवालों के दिल पर चोट—सी लगती थी। लोग राह चलते—चलते सुनने को खड़े हो जाते थे। सोफिया तल्लीन होकर यह गीत सुनती रही। उसे इस पद में जीवन का सम्पूर्ण रहस्य कूट—कूटकर भरा हुआ मालूम होता था रू

तू रंगभूमि में आयाए दिखलाने अपनी मायाए

क्यों धरम—नीति को तोड़ैघ् भईए क्यों रन से मुँह मोड़ैघ्

राग इतना सुरीलाए इतना मधुर ए इतना उत्साहपूर्ण थाए कि एक समाँ—सा छा गया। राग पर ख्रजरी की ताल और भी आफत करती थी। जो सुनता थाए सिर धुनता था।

सोफिया भूल गई कि मैं गिरजे में जा रही हूँए सरमन की जरा भी याद न रही। वह बड़ी देर तक फाटक पर खड़ी यह श्सरमनश् सुनती रही। यहाँ तक कि सरमन समाप्त हो गयाए भक्तजन बाहर निकलकर चले। मि. क्लार्क ने आकर धीरे से सोफिया के कंधो पर हाथ रखाए तो वह चौंक पड़ी।

क्लार्क—लार्ड बिशप का सरमन समाप्त हो गया और तुम अभी तक यहीं खड़ी हो!

सोफिया—इतनी जल्द! मैं जरा इस अंधे का गाना सुनने लगी। सरमन कितनी देर हुआ होगाघ्

क्लार्क—आधा घंटे से कम न हुआ होगा। लार्ड बिशप के सरमन संक्षिप्त होते हैंय पर अत्यंत मनोहर। मैंने ऐसा दिव्य ज्ञान में डूबा हुआ उपदेश आज तक न सुना थाए इंग्लैंड में भी नहीं। खेद हैए तुम न आईं।

सोफिया—मुझे आश्चर्य होता है कि मैं यहाँ आधा घंटे तक खड़ी रही!

इतने में मिस्टर ईश्वर सेवक अपने परिवार के साथ आकर खड़े हो गए। मिसेज सेवक ने क्लार्क को मातृस्नेह से देखकर पूछा—क्यों विलियमए सोफी आज के सरमन के विषय में क्या कहती हैघ्

क्लार्क—यह तो अंदर गईं ही नहीं।

मिसेज सेवक ने सोफिया को अवहेलना की द्रष्टि से देखकर कहा—सोफीए यह तुम्हारे लिए शर्म की बात है।

सोफी लज्जित होकर बोली—मामाए मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं इस अंधे का गाना सुनने के लिए जरा रुक गईए इतने में सरमन समाप्त हो गया!

ईश्वर सेवक—बेटीए आज सरमन सुधा—तुल्य थाए जिसने आत्मा को तृप्त कर दिया। जिसने नहीं सुनाए वह उम्र—भर पछताएगा। प्रभुए मुझे अपने दामन में छिपा। ऐसा सरमन आज तक न सुना था।

मिसेज सेवक—आश्चर्य है कि उस स्वर्गोपम सुधा—वृष्टि के सामने तुम्हें यह ग्रामीण गान अधिक प्रिय मालूम हुआ!

प्रभुसेवक—मामाए यह न कहिए। ग्रामीणों के गाने में कभी—कभी इतना रस होता हैए जो बड़े—बड़े कवियों की रचनाओं में भी दुर्लभ है।

मिसेज सेवक—अरेए यह तो वही अंधा हैए जिसकी जमीन हमने ले ली है। आज यहाँ कैसे आ पहुँचाघ् अभागे ने रुपये न लिएए अब गली—गली भीख माँगता फिरता है।

सहसा सूरदास ने उच्च स्वर में कहा—दुहाई है पंचोए दुहाई। सेवक साहब और राजा साहब ने मेरी जमीन जबरदस्ती छीन ली है। हम दुखियों की फरियाद कोई नहीं सुनता। दुहाई है!

श्दुरबल को न सताइएए जाकी मोटी हाय।

मुई खाल की साँस सों सार भसम ह्नै जाएश्

क्लार्क ने मि. सेवक से पूछा—उसकी जमीन तो मुआवजा देकर ली गई थी नघ् अब यह कैसा झगड़ा हैघ्

मि. सेवक—उसने मुआवजा नहीं लिया। रुपये खजाने में जमा कर दिए गए हैं। बदमाश आदमी है।

एक ईसाई बैरिस्टर नेए जो चतारी के राजा साहब के प्रतियोगी थेए सूरदास से पूछा—क्यों अंधेए कैसी जमीन थीघ् राजा साहब ने कैसे ले लीघ्

सूरदास—हुजूरए मेरे बाप—दादों की जमीन है। सेवक साहब वहाँ चुरुट बनाने का कारखाना खोल रहे हैं। उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है। दुहाई है सरकार कोए दुहाई पंचोए गरीब की कोई नहीं सुनता।

ईसाई बैरिस्टर ने क्लार्क से कहा—मेरे विचार में व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी की जमीन पर कब्जा करना मुनासिब नहीं है।

क्लार्क—बहुत अच्छा मुआवजा दिया गया है।

बैरिस्टर—आप किसी को मुआवजा लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकतेए जब तक आप यह न सिध्द कर दें कि आप जमीन को किसी सार्वजनिक कार्य के लिए ले रहे हैं।

काशी आयरन वर्क्स के मालिक मिस्टर जॉन बर्ड नेए जो जॉन सेवक के पुराने प्रतिद्वंद्वी थेए कहा—बैरिस्टर साहबए क्या आपको नहीं मालूम है कि सिगरेट का कारखाना खोलना परम परमार्थ हैघ् सिगरेट पीनेवाले आदमी को स्वर्ग पहुँचने में जरा भी दिक्कत नहीं होती।

प्रोफेसर चार्ल्‌स सिमियनए जिन्होंने सिगरेट के विरोध में एक पैंफ्लेट लिखा थाए बोले—अगर सिगरेट के कारखाने के लिए सरकार जमीन दिला सकती हैए तो कोई कारण नहीं है कि चकलों के लिए न दिलाए। सिगरेट के कारखाने के लिए जमीन पर कब्जा करना उस धारा का दुरुपयोग करना है। मैंने अपने पैम्फलेट में संसार के बड़े—से—बड़े विद्वानों और डॉक्टरों की सम्मतियाँ लिखी थीं। स्वास्थ्य—नाश का मुख्य कारण सिगरेट का बहुत प्रचार है। खेद हैए उस पैम्फलेट की जनता ने कदर न की।

काशी रेलवे यूनियन के मंत्री मिस्टर नीलमणि ने कहा—ये सभी नियम पूँजीपतियों के लाभ के लिए बनाए गए हैंए और पूँजीपतियों ही को यह निश्चय करने का अधिकार दिया गया है कि उन नियमों का कहाँ व्यवहार करें। कुत्तो को खाल की रखवाली सौंपी गई है। क्यों अंधेए तेरी जमीन कुल कितनी हैघ्

सूरदास—हुजूरए दस बीघे से कुछ ज्यादा ही होगी। सरकारए बाप—दादों की यही निसानी है। पहले राजा साहब मुझसे मोल माँगते थेए जब मैंने न दियाए तो जबरदस्ती ले ली। हुजूरए अंधा—अपाहिज हूँए आपके सिवा किससे फरियाद करूँघ् कोई सुनेगा तो सुनेगाए नहीं भगवान्‌ तो सुनेंगे!

जॉन सेवक अब वहाँ पल भर भी न ठहर सके। वाद—विवाद हो जाने का भय था और संयोग से उनके सभी प्रतियोगी एकत्रा हो गए थे। मिस्टर क्लार्क भी सोफिया के साथ अपनी मोटर पर आ बैठे। रास्ते में जॉन सेवक ने कहा—कहीं राजा साहब ने इस अंधे की फरियाद सुन लीए तो उनके हाथ—पाँव फूल जाएँगे।

मिसेज सेवक—पाजी आदमी है। इसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं करा देतेघ्

ईश्वर सेवक—नहीं बेटाए ऐसा भूलकर भी न करनाय नहीं तो अखबारवाले इस बात का बतंगड़ बनाकर तुम्हें बदनाम कर देंगे। प्रभुए मेरा मुँह अपने दामन में छिपा और इस दुष्ट की जबान बंद कर दे।

मिसेज सेवक—दो—चार दिन में आप ही शांत हो जाएगा। ठेकेदारों को ठीक कर लिया नघ्

जॉन सेवक—हाँए काम तो आजकल में शुरू हो जानेवाला हैए मगर इस मूजी को चुप करना आसान नहीं है। मुहल्लेवालों को तो मैंने फोड़ लियाए वे सब इसकी मदद न करेंगेय मगर मुझे आशा थीए उधार से सहारा न पाकर इसकी हिम्मत टूट जाएगी। वह आशा पूरी न हुई। मालूम होता हैए बड़े जीवट का आदमी हैए आसानी से काबू में आनेवाला नहीं है। राजा साहब का म्युनिसिपल बोर्ड में अब वह जोर नहीं रहाय नहीं तो कोई चिंता न थी। उन्हें पूरे साल—भर तक बोर्डवालों की खुशामद करनी पड़ीए तब जाकर वह प्रस्ताव मंजूर करा सके। ऐसा न होए बोर्डवाले फिर कोई चाल चलें।

इतने में राजा महेंद्रकुमार की मोटर सामने आकर रुकी। राजा साहब बोले—आपसे खूब मुलाकात हुई। मैं आपके बँगले से लौटा आ रहा हूँ। आइएए हम और आप सैर कर आएँ। मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।

जब जॉन सेवक मोटर पर आ बैठेए तो बातें होने लगीं। राजा साहब ने कहा—आपका सूरदास तो एक ही दुष्ट निकला। कल से सारे शहर में घूम—घूमकर गाता है और हम दोनों को बदनाम करता है। अंधे गाने में कुशल होते ही हैं। उसका स्वर बहुत ही लोचदार है। बात—की—बात में हजारों आदमी घेर लेते हैं। जब खूब जमाव हो जाता हैए तो यह दुहाई मचाता है और हम दोनों को बदनाम करता है।

जॉन सेवक—अभी चर्च में आ पहुँचा था। बस वही दुहाई देता था। प्रोफेसर सिमियनए मि. नीलमणि आदि महापुरुषों को तो आप जानते ही हैंए उसे और भी उकसा रहे हैं। शायद अभी वहीं खड़ा हो।

महेंद्रकुमार—मिस्टर क्लार्क से तो कोई बातचीत नहीं हुईघ्

जॉन सेवक—थे तो वह भीए उनकी सलाह है कि अंधे को पागलखाने भेज दिया जाए। मैं मना न करताए तो वह उसी वक्त थानेदार को लिखते।

महेंद्रकुमार—आपने बहुत अच्छा कियाए उन्हें मना कर दिया। उसे पागलखाने या जेलखाने भेज देना आसान हैय लेकिन जनता को यह विश्वास दिलाना कठिन है कि उसके साथ अन्याय नहीं किया गया। मुझे तो उसकी दुहाई—तिहाई की परवा न होतीय पर आप जानते हैंए हमारे कितने दुश्मन हैं। अगर उसका यही ढ़ंग रहाए तो दस—पाँच दिनों में हम सारे शहर में नक्कू बन जाएँगे।

जॉन सेवक—अधिकार और बदनामी का तो चोली—दामन का साथ है। इसकी चिंता न कीजिए। मुझे तो यह अफसोस है कि मैंने मुहल्लेवालों को काबू में लाने के लिए बड़े—बड़े वादे कर लिए। जब अंधे पर किसी का कुछ असर न हुआए तो मेरे वादे बेकार हो गए।

महेंद्रकुमार—अजीए आपकी तो जीत—ही—जीत हैय गया तो मैं। इतनी जमीन आपको दस हजार से कम में न मिलती। धर्मशाला बनवाने में आपके इतने ही रुपये लगेंगे। मिट्टी तो मेरी खराब हुई। शायद जीवन में यह पहला ही अवसर है कि मैं जनता की अॉंखों में गिरता हुआ नजर आता हूँ। चलिए जरा पाँड़ेपुर तक हो आएँ। सम्भव हैए मुहल्लेवालों को समझाने का अब भी कुछ असर हो।

मोटर पाँड़ेपुर की तरफ चली। सड़क खराब थीय राजा साहब ने इंजीनियर को ताकीद कर दी थी कि सड़क की मरम्मत का प्रबंध किया जाएय पर अभी तक कहीं कंकड़ भी न नजर आता था। उन्होंने अपनी नोटबुक में लिखाए इसका जवाब तलब किया जाए। चुंगीघर पहुँचेए तो देखा कि चुंगी का मुंशी आराम से चारपाई पर लेटा हुआ है और कई गाड़ियाँ सड़क पर रवन्ने के लिए खड़ी हैं। मुंशीजी ने मन में निश्चय कर लिया है कि गाड़ी पीछे एक रुपये लिए बिना रवन्ना न दूँगाए नहीं तो गाड़ियों को यहीं रात—भर खड़ी रखूँगा। राजा साहब ने जाते—ही—जाते गाड़ीवालों को रवन्ना दिला दिया और मुंशीजी के रजिस्टर पर यह कैफियत लिख दी। पाँड़ेपुर पहुँचेए तो अंधोरा हो चला था। मोटर रुकी। दोनों महाशय उतरकर मंदिर पर आए। नायकराम लुंगी बाँधो हुए भंग घोंट रहे थेए दौड़े हुए आए। बजरंगी नाद में पानी भर रहा थाए आकर खड़ा हो गया। सलाम—बंदगी के पश्चात्‌ जॉन सेवक ने नायकराम से कहा—अंधा तो बहुत बिगड़ा हुआ है।

नायकराम—सरकारए बिगड़ा तो इतना है कि जिस दिन डौंड़ी पिटीए उस दिन से घर नहीं आया। सारे दिन शहर में घूमता हैय भजन गाता है और दुहाई मचाता है।

राजा साहब—तुम लोगों ने कुछ समझाया नहींघ्

नायकराम—दीनबंधुए अपने सामने वह किसी को कुछ समझता ही नहीं। दूसरा आदमी होए तो मार—पीट की धमकी से सीधा हो जाएय पर उसे तो डर—भय जैसे छू ही नहीं गया। उसी दिन से घर नहीं आया।

राजा साहब—तुम लोग उसे समझा—बुझाकर यहाँ लाओ। सारा संसार छान आए होय एक मूर्ख को काबू में नहीं ला सकतेघ्

नायकराम—सरकारए समझाना—बुझाना तो मैं नहीं जानताए जो हुकुम होए हाथ—पैर तोड़कर बैठा दूँए आज ही चुप हो जाएगा।

राजा साहब—छीए छीए कैसी बातें करते हो! मैं देखता हूँए यहाँ पानी का नल नहीं है। तुम लोगों को तो बहुत कष्ट होता होगा। मिस्टर सेवकए आप यहाँ नल पहुँचाने का ठेका ले लीजिए।

नायकराम—बड़ी दया है दीनबंधुए नल आ जाए तो क्या कहना है।

राजा साहब—तुम लोगों ने कभी इसके लिए दरख्वास्त ही नहीं दी।

नायकराम—सरकारए यह बस्ती हद—बाहर है।

राजा साहब—कोई हरज नहींए नल लगा दिया जाएगा।

इतने में ठाकुरदीन ने आकर कहा—सरकारए मेरी भी कुछ खातिरी हो जाए।

यह कहकर उसने चाँदी के वरक में लिपटे हुए पान के बीड़े दोनों महानुभावों की सेवा में अर्पित किए। मि. सेवक कोए अंगरेजी वेश—भूषा रहने पर भीए पान से घृणा न थीए शौक से खाया। राजा साहब मुँह में पान रखते हुए बोले—क्या यहाँ लालटेनें नहीं हैंघ् अंधोरे में तो बड़ी तकलीफ होती होगीघ्

ठाकुरदीन ने नायकराम की ओर मार्मिक द्रष्टि से देखाए मानो यह कह रहा है कि मेरे बीड़ों ने यह रंग जमा दिया। बोला—सरकारए हम लोगों की कौन सुनता हैघ् अब हुजूर की निगाह हो गई हैए तो लग ही जाएगी। बसए और कहीं नहींए इसी मंदिर पर एक लालटेन लगा दी जाए। साधु—महात्मा आते हैंए तो अंधोरे में उन्हें कष्ट होता है। लालटेन से मंदिर की शोभा बढ़़ जाएगी। सब आपको आसीरवाद देंगे।

राजा साहब—तुम लोग एक प्रार्थना—पत्र भेज दो।

ठाकुरदीन—हुजूर के प्रताप से दो—एक साधु—संत रोज ही आते रहते हैं। अपने से जो कुछ हो सकता हैए उनका सेवा—सत्कार करता हूँए नहीं तो यहाँ और कौन पूछने वाला है! सरकारए जब से चोरी हो गईए तब से हिम्मत टूट गई।

दोनों आदमी मोटर पर बैठनेवाले ही थे कि सुभागी एक लाल साड़ी पहनेए घूँघट निकालेए आकर जरा दूर पर खड़ी हो गईए मानो कुछ कहना चाहती है। राजा साहब ने पूछा—यह कौन हैघ् क्या कहना चाहती हैघ्

नायकराम—सरकारए एक पासिन है। क्या है सुभागीए कुछ कहने आई हैघ्

सुभागी—(धीरे से) कोई सुनेगाघ्

राजा साहब—हाँए हाँए कहए क्या कहती हैघ्

सुभागी—कुछ नहीं मालिकए यही कहने आई थी कि सूरदास के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। अगर उनकी फरियाद न सुनी गईए तो वह मर जाएँगे।

जॉन सेवक—उसके मर जाने के डर से सरकार अपना काम छोड़ देघ्

सुभागी—हुजूरए सरकार का काम परजा को पालना है कि उजाड़नाघ् जब से यह जमीन निकल गई हैय बेचारे को न खाने की सुधा हैए न पीने की। हम गरीब औरतों का तो वही एक आधार हैए नहीं तो मुहल्ले के मरद कभी औरतों को जीता न छोड़ते और मरदों की मिलीभगत है। मरद चाहे औरत के अंग—अंगए पोर—पोर काट डालेए कोई उसको मने नहीं करता। चोर—चोर मौसेरे भाई हो जाते हैं। वही एक बेचारा था कि हम गरीबों की पीठ पर खड़ा हो जाता था।

भैरों भी आकर खड़ा हो गया था। बोला—हुजूरए सूरे न होताए तो यह आपके सामने खड़ी न होती। उसी ने जान पर खेलकर इसकी जान बचाई थी।

राजा साहब—जीवट का आदमी मालूम होता है।

नायकराम—जीवट क्या है सरकारए बस यह समझिए कि हत्या के बल जीतता है।

राजा साहब—बसए यह बात तुमने बहुत ठीक कहीए हत्या ही के बल जीतता है। चाहूँए तो आज पकड़वा दूँय पर सोचता हूँए अंधा हैए उस पर क्या गुस्सा दिखाऊँ। तुम लोग उसके पड़ोसी होए तुम्हारी बात कुछ—न—कुछ सुनेगा ही। तुम लोग उसे समझाओ। नायकरामए हम तुमसे बहुत जोर देकर कहे जाते हैं।

एक घंटा रात जा चुकी थी। कुहरा और भी घना हो गया था। दूकानों के दीपकों के चारों तरफ कोई मोटा कागज—सा पड़ा हुआ जान पड़ता था। दोनों महाशय विदा हुएय पर दोनों ही चिंता में डूबे हुए थे। राजा साहब सोच रहे थे कि देखेंए लालटेन और पानी के नल का कुछ असर होता है या नहीं। जॉन सेवक को चिंता थी कि कहीं मुझे जीती जिताई बाजी न खोनी पड़े।

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अध्याय 19

सोफिया अपनी चिंताओं में ऐसी व्यस्त हो रही थी कि सूरदास को बिल्कुल भूल—सी गई थी। उसकी फरियाद सुनकर उसका हृदय काँप उठा। इस दीन प्राणी पर इतना घोर अत्याचार! उसकी दयालु प्रकृति यह अन्याय न सह सकी। सोचने लगी—सूरदास को इस विपत्तिा से क्योंकर मुक्त करूँघ् इसका उध्दार कैसे होघ् अगर पापा से कहूँ तो हर्गिज न सुनेंगे। उन्हें अपने कारखाने की ऐसी धुन सवार है कि वह इस विषय में मेरे मुँह से एक शब्द सुनना भी पसंद न करेंगे। बहुत सोच—विचार के बाद उसने निश्चय किया—चलकर इंदु से प्रार्थना करूँ। अगर वह राजा साहब से जोर देकर कहेगीए तो सम्भव हैए राजा साहब मान जाएँ। पिता से विरोधा करके उसे बड़ा दुरूख होता थाय पर उसकी धार्मिक द्रष्टि में दया का महत्तव इतना ऊँचा था कि उसके सामने पिता के हानि—लाभ की कोई हस्ती न थी। जानती थीए राजा साहब दीन—वत्सल हैं और उन्होंने सूरदास पर केवल मि. क्लार्क की खातिर वज्राघात किया है। जब उन्हें ज्ञात हो जाएगा कि मैं उस काम के लिए उनकी जरा भी कृतज्ञ न हूँगीए तो शायद वह अपने निर्णय पर पुनरू विचार करने के लिए तैयार हो जाएँ। यहाँ ज्यों ही यह बात खुलेगीए सारा घर मेरा दुश्मन हो जाएगाय पर इसकी क्या चिंताघ् इस भय से मैं अपनार् कत्ताव्य तो नहीं छोड़ सकती। इसी हैस—बैस में तीन दिन गुजर गए। चौथे दिन प्रातरूकाल वह इंदु से मिलने चली। सवारी किराए की थी। सोचती जाती थी—ज्यों ही अंदर कदम रखूँगीए इंदु दौड़कर गले लिपट जाएगीए शिकायत करेगी कि इतने दिनों के बाद क्यों आई हो। हो सकता है कि आज मुझे आने भी न दे। वह राजा साहब को जरूर राजी कर लेगी। न जाने पापा ने राजा साहब को कैसे चकमा दिया। यही सोचते—सोचते वह राजा साहब के मकान पर पहुँच गई और इंदु को खबर दी। उसे विश्वास था कि मुझे लेने के लिए इंदु खुद निकल जाएगीए किंतु 15 मिनट इंतजार करने के बाद एक दासी आई और उसे अंदर ले गई। सोफिया ने जाकर देखा कि इंदु अपने बैठने के कमरे में दुशाला ओढ़़ेए ऍंगीठी के सामने एक कुर्सी पर बैठी हुई हैं। सोफिया ने कमरे में कदम रखाए तब भी इंदु कुर्सी से न उठीए यहाँ तक कि सोफिया ने हाथ बढ़़ायाए तब भी रुखाई से हाथ बढ़़ा देने के सिवा इंदु मुँह से कुछ न बोली। सोफिया ने समझाए इसका जी अच्छा नहीं है। बोली—सिर में दर्द है क्याघ् उसकी समझ ही में न आता था कि बीमारी के सिवा इस निष्ठुरता का और भी कोई कारण हो सकता है। इंदु ने क्षीण स्वर में कहा—नहींए अच्छी तो हूँ। इस सर्दी—पाले में तो तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ! सोफिया मानशीला स्त्राी थी। इंदु की इस निष्ठुरता से उसके दिल पर चोट—सी लगी। पहला विचार तो हुआ कि उलटे पाँव वापस जाऊँय मगर यह सोचकर कि यह बहुत ही हास्यजनक बात होगीए उसने दुस्साहस करके एक कुर्सी खींची और उस पर बैठ गई। श्आपसे मिले साल—भर से अधिक हो गया।श् श्हाँए मुझे कहीं आने—जाने की फुरसत कम रहती है। मड़ियाहू की रानी साहब एक महीने में तीन बार आ चुकी हैंए मैं एक बार भी न जा सकी।श् सोफिया दिल में हँसती हुई व्यंग से बोली—जब रानियों को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त होताए तो मैं किस गिनती में हूँ! क्या कुछ रियासत का काम भी देखना पड़ता हैघ् श्कुछ नहींए और सब कुछ। राजा साहब को जातीय कायोर्ं से अवकाश ही नहीं मिलताए तो घर का कारोबार देखनेवाला भी तो कोई चाहिए। मैं भी देखती हूँ कि जब इन्हीं कामों की बदौलत उनका यह सम्मान हैए जो बड़े—से—बड़े हाकिमों को भी प्राप्त नहीं हैए तो उनसे ज्यादा छेड़—छाड़ नहीं करती।श् सोफिया अभी तक न समझ सकी कि इंदु की अप्रसन्नता का कारण क्या है। बोली—आप बड़ी भाग्यशालिनी हैं कि इस तरह उनके सत्कायोर्ं में हाथ बँटा सकती हैं। राजा साहब की सुकीर्ति आज सारे शहर में छाई हुई हैय लेकिन बुरा न मानिएगाए कभी—कभी वह भी मुँह—देखी कर जाते हैं और बड़ों के आगे छोटों की परवा नहीं करते। श्शायद उनकी यह पहली शिकायत हैए जो मेरे कान में आई है।श् श्हाँए दुर्भाग्यवश यह काम मेरे ही सिर पड़ा। सूरदास को तो आप जानती ही हैं। राजा साहब ने उसकी जमीन पापा को दे दी है। बेचारा आजकल गली—गली दुहाई देता फिरता है। पिता के विरुध्द एक शब्द भी मुँह से निकालना मेरे लिए लज्जास्पद हैए यह समझती हूँ। फिर भी यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि इस मौके पर राजा साहब को एक दीन प्राणी पर ज्यादा दया करनी थी।श् इंदु ने सोफिया को प्रश्नसूचक नेत्राों से देखकर कहा—आजकल पिता से भी अनबन है क्याघ् सोफिया ने गर्व से कहा—न्याय औरर् कत्ताव्य के सामने पिताए पुत्रा या पति का पक्षपात न किया जाएए तो कोई लज्जा की बात नहीं है। श्तो तुम्हें पहले अपने पिता ही को सन्मार्ग पर लाना चाहिए था। राजा साहब ने जो कुछ कियाए तुम्हारी खातिर कियाए और तुम्हीं उन पर इलजाम रखती होघ् कितने शोक की बात है! उन्हें मि. सेवकए मि. क्लार्क या संसार के किसी अन्य व्यक्ति से दबने की जरूरत नहीं हैय किंतु इस अवसर पर उन्होंने तुम्हारे पापा का पक्ष न लिया होताए तो शायद सबसे पहले तुम्हीं उन पर कृतघ्नता का दोषारोपण करतीं। सूरदास पर यह अन्याय इसलिए किया गया कि तुमने एक संकट में विनय की रक्षा की हैए और तुम अपने पिता की बेटी हो।श् सोफिया ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला गई। बोली—अगर मैं जानती कि मेरी उस क्षुद्र सेवा का यों प्रतिकार किया जाएगाए तो शायद विनयसिंह के समीप न जाती। क्षमा कीजिएए मुझसे भूल हुई कि आपके पास यह शिकायत लेकर आई। सुना करती थीए अमीरों में स्थिरता नहीं होती। आ इसका प्रमाण मिल गया। लीजिएए जाती हूँ। मगर इतना कहे जाती हूँ कि चाहे पापा मेरा मुँह देखना भी पाप समझेंए पर मैं इस विषय में कदापि चुप न बैठूँगी। इंदु कुछ नरम होकर बोली—आखिर तुम राजा साहब से क्या चाहती होघ् श्क्या ऐश्वर्य पाकर बुध्दि भी मंद हो जाती हैघ् श्मैं प्यादे से वजीर नहीं बनी हूँ।श् श्खेद हैए आपने अब तक मेरा आशय नहीं समझा।श् श्खेद करने से तो बात मेरी समझ में न आएगी।श् श्मैं चाहती हूँ कि सूरदास की जमीन उसे लौटा दी जाए।श् श्तुम्हें मालूम हैए इसमें राजा साहब का कितना अपमान होगाघ् श् श्अपमान अन्याय से अच्छा है।श् श्यह भी जानती हो कि जो कुछ हुआए तुम्हारे...मि. क्लार्क की प्रेरणा से हुआ हैघ् श् श्यह तो नहीं जानतीय क्योंकि इस विषय में मेरी उनसे कभी बातचीत नहीं हुई। लेकिन जानती भीए तो राजा साहब की मान—हानि के विचार से पहले राजा साहब ही से अनुनय—विनय करना उचित समझती। अपनी भूल अपने ही हाथों सुधार जाएए तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।श् इंदु को चोट लगी। समझाए यह मुझे धामकी दे रही है। मि. क्लार्क के अधिकार पर इतना अभिमान! तनकर बोली—मैं नहीं समझती कि किसी राज्याधिकारी को बोर्ड के फैसले में भी दखल देने का मजाज हैए और चाहे एक दिन अंधो पर अत्याचार ही क्यों न करना पड़ेए राजा साहब अपने फैसले को बहाल रखने के लिए कोई बात उठा न रखेंगे। एक राजा का सम्मान एक क्षुद्र न्याय से कहीं ज्यादा महत्तव की वस्तु है। सोफिया ने व्यथित होकर कहा—इसी क्षुद्र न्याय के लिए सत्यवादी पुरुषों ने सिर कटवा दिए हैं। इंदु ने कुर्सी की बाँह पर हाथ पटककर कहा—न्याय का स्वाँग भरने का युग अब नहीं रहा। सोफिया ने कुछ उत्तार न दिया। उठ खड़ी हुई और बोली—इस कष्ट के लिए क्षमा कीजिएगा। इंदु ऍंगीठी की आग उकसाने लगी। सोफिया की ओर अॉंख उठाकर भी न देखा। सोफिया यहाँ से चलीए तो इंदु के दूरव्यवहार से उसका कोमल हृदय विदीर्ण हो रहा था। सोचती जाती थी—वह हँसमुखए प्रसन्न चित्ता विनोदशील इंदु कहाँ हैघ् क्या ऐश्वर्य मानव—प्रकृति को भी दूषित कर देता हैघ् मैंने तो आज तक कभी इसको दिल दुरूखानेवाली बात नहीं कही। क्या मैं ही कुछ और हो गई हूँए या वही कुछ और हो गई हैघ् इसने मुझसे सीधो मुँह बात भी नहीं की। बात करना तो दूरए उलटे और गालियाँ सुनाईं। मैं इस पर कितना विश्वास करती थीघ् समझती थीए देवी है। आज इसका यथार्थ स्वरूप दिखाई पड़ा। लेकिन मैं इसके ऐश्वर्य के सामने क्यों सिर झुकाऊँघ् इसने अकारणए निष्प्रयोजन ही मेरा अपमान किया। शायद रानीजी ने इसके कान भरे हों। लेकिन सज्जनता भी कोई चीज है। सोफिया ने उसी क्षण इस अपमान का पूराय बल्कि पूरे से भी ज्यादा बदला लेने का निश्चय कर लिया। उसने यह विचार न किया—सम्भव हैए इस समय किसी कारण इसका मन खिन्न रहा होए अथवा किसी दुर्घटना ने इसे असमंजस में डाल रखा हो। उसने तो सोचा—ऐसी अभद्रताए ऐसी दुर्जनता के लिए दारुण—से—दारुण मानसिक कष्टए बड़ी—से—बड़ी आर्थिक क्षतिए तीव्र—से—तीव्र शारीरिक व्यथा का उज्र भी काफी नहीं। इसने मुझे चुनौती दी हैए स्वीकार करती हूँ। इसे अपनी रियासत का घमंड हैए मैं दिखा दूँगी कि यह सूर्य का स्वयं प्रकाश नहींए चाँद की पराधाीन ज्योति है। इसे मालूम हो जाएगा कि राजा और रईसए सब—के—सब शासनाधिकारियों के हाथों के खिलौने हैंए जिन्हें वे अपनी इच्छा के अनुसार बनाते—बिगाड़ते रहते हैं। दूसरे ही दिन से सोफिया ने अपनी कपट—लीला आरम्भ कर दी। मि. क्लार्क से उसका प्रेम बढ़़ने लगा। द्वेष के हाथों की कठपुतली बन गई। अब उनकी प्रेम—मधुर बातें सिर झुकाकर सुनतीए उनकी गर्दन में बाँहें डालकर कहती—तुमने प्रेम करना किससे सीखाघ् दोनों अब निरंतर साथ नजर आतेए सोफिया दफ्तर में साहब का गला न छोड़तीए बार—बार चिट्ठियाँ लिखती—जल्द आओेए मैं तुम्हारी बाट जोह रही हूँ। और यह सारा प्रेमाभिनय केवल इसलिए था कि इंदु से अपमान का बदला लूँ। न्याय—रक्षा का अब उसे लेश—मात्रा धयान न थाए केवल इंदु का दर्प—मर्दन करना चाहती थी। एक दिन वह मि. क्लार्क को पाँड़ेपुर की तरफ सैर कराने ले गई। जब मोटर गोदाम के सामने से होकर गुजरीए तो उसने ईंट और कंकड़ के ढ़ेरों की ओर संकेत करके कहा—पापा बड़ी तत्परता से काम कर रहे हैं। क्लार्क—हाँए मुस्तैद आदमी हैं। मुझे तो उनकी श्रमशीलता पर डाह होती है। सोफी—पापा ने धार्म—अधार्म का विचार नहीं किया। कोई माने या न मानेए मैं तो यही कहूँगी कि अंधो के साथ अन्याय हुआ। क्लार्क—हाँए अन्याय तो हुआ। मेरी तो बिल्कुल इच्छा न थी। सोफी—तो आपने क्यों अपनी स्वीकृति दीघ् क्लार्क—क्या करताघ् सोफी—अस्वीकार कर देते। साफ लिख देना चाहिए था कि इस काम के लिए किसी की जमीन नहीं जब्त की जा सकती। क्लार्क—तुम नाराज न हो जातींघ् सोफी—कदापि नहीं। आपने शायद मुझे अब तक नहीं पहचाना। क्लार्क—तुम्हारे पापा जरूर ही नाराज हो जाते। सोफी—मैं और पापा एक नहीं हैं। मेरे और उनके आचार—व्यवहार में दिशाओं का अंतर है। क्लार्क—इतनी बुध्दि होतीए तो अब तक तुम्हें कब का पा गया होता। मैं तुम्हारे स्वभाव और विचारों से परिचित न था। समझाए शायद यह अनुमति मेरे लिए हितकर हो। सोफी—सारांश यह कि मैं ही इस अन्याय की जड़ हूँ। राजा साहब ने मुझे प्रसन्न करने के लिए बोर्ड में यह प्रस्ताव रखा। आपने भी मुझी को प्रसन्न करने के लिए स्वीकृति प्रदान की। आप लोगों ने मेरी तो मिट्टी ही खराब कर दी। क्लार्क—मेरे सिध्दांतों से तुम परिचित हो। मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके यह प्रस्ताव स्वीकार किया है। सोफी—आपने अपने ऊपर जब्र नहीं किया हैए मेरे ऊपर किया हैए और आपको इसका प्रायश्चित्ता करना पड़ेगा। क्लार्क—मैं न जानता था कि तुम इतनी न्यायप्रिय हो। सोफी—मेरी तारीफ करने से इस पाप का प्रायश्चित्ता न होगा। क्लार्क—मैं अंधो को किसी दूसरे गाँव में इतनी ही जमीन दिला दूँगा। सोफिया—क्या उसी की जमीन उसे नहीं लौटाई जा सकतीघ् क्लार्क—कठिन है। सोफिया—असम्भव तो नहीं हैघ् क्लार्क—असम्भव से कुछ ही कम है। सोफिया—तो समझ गईए असम्भव नहीं हैए आपको यह प्रायश्चित्ता करना ही पड़ेगा। कल ही उस प्रस्ताव को मंसूख कर दीजिए। क्लार्क—प्रियेए तुम्हें मालूम नहींए उसका क्या परिणाम होगा। सोफिया—मुझे इसकी चिंता नहीं। पापा को बुरा लगेगाए लगे। राजा साहब का अपमान होगाए हो। मैं किसी के लाभ या सम्मान—रक्षा के लिए अपने ऊपर पाप का भार क्यों लूँघ् क्यों ईश्वरीय दंड की भागिनी बनूँघ् आप लोगों ने मेरी इच्छा के विरुध्द मेरे सिर पर एक महान्‌ पातक का बोझ रख दिया है। मैं इसे सहन नहीं कर सकती। आपको अंधो की जमीन वापस करनी पड़ेगी। ये बातें हो ही रही थीं कि सैयद ताहिर अली ने सोफिया को मोटर में बैठे जाते देखाए तो तुरंत आकर सामने खड़े हो गए और सलाम किया। सोफी ने मोटर रोक दी और पूछा—कहिए मुंशीजीए इमारत बनने लगीघ् ताहिर—जी हाँए कल दाग—बेल पड़ेगीय पर मुझे यह बेल मुड़े चढ़़ती नहीं नजर आती। सोफिया—क्योंघ् क्या कोई वारदात हो गईघ् ताहिर—हुजूरए जब से इस अंधो ने शहर में आह—फरियाद शुरू की हैए तब से अजीब मुसीबतों का सामना हो गया है। मुहल्लेवाले तो अब नहीं बोलतेए लेकिन शहर के शोहदे—लुच्चे रोजाना आकर मुझे धामकियाँ देते हैं। कोई घर में आग लगाने को आमादा होता हैए कोई लूटने को दौड़ता हैए कोई मुझे कत्ल करने की धामकी देता है। आज सुबह कई सौ आदमी लाठियाँ लिए आ गए और गोदाम को घेर लिया। कुछ लोग सीमेंट और चूने के ढ़ेरों को बखेरने लगेए कई आदमी पत्थर की सिलों को तोड़ने लगे। मैं तनहा क्या कर सकता थाघ् यहाँ मजदूर खौफ के मारे जान लेकर भागे। कयामत का सामना था। मालूम होता थाए अब आन—की—आन में महशर बरपा हो जाएगा। दरवाजा बंद किए बैठा अल्लाह—अल्लाह कर रहा था कि किसी तरह हंगामा फरो हो। बारे दुआ कबूल हुई। ऐन उसी वक्त अंधा न जाने किधार से आ निकला और बिजली की तरह कड़ककर बोला—श्तुम लोग यह ऊधाम मचाकर मुझे क्यों कलंक लगा रहे होघ् आग लगाने से मेरे दिल की आग न बूझेगीए लहू बहाने से मेरा चित्ता शांत न होगा। आप लोगों की दुआ से यह आग और जलन मिटेगी। परमात्मा से कहिएए मेरा दुरूख मिटाए। भगवान्‌ से विनती कीजिएए मेरा संकट हरे। जिन्होंने मुझ पर जुलुम किया हैए उनके दिल में दया—धारम जागेए बस मैं आप लोगों से और कुछ नहीं चाहता।श् इतना सुनते ही कुछ लोग तो हट गएय मगर कितने ही आदमी बिगड़कर बोले—तुम देवता होए तो बने रहोय हम देवता नहीं हैंए हम तो जैसे के साथ तैसा करेंगे। उन्हें भी तो गरीबों पर जुल्म करने का मजा मिल जाए।—यह कहकर वे लोग पत्थरों को उठा—उठाकर पटकने लगे। तब इस अंधो ने वह काम कियाए जो औलिया ही कर सकते हैं। हुजूरए मुझे तो कामिल यकीन हो गया कि कोई फरिश्ता है। उसकी बातें अभी तक कानों में गूँज रही हैं। उसकी तसवीर अभी तक अॉंखों के सामने खिंची हुई है। उसने जमीन से एक बड़ा—सा पत्थर का टुकड़ा उठा लिया और उसे अपने माथे के सामने रखकर बोला—अगर तुम लोग अभी भी मेरी विनती न सुनोगेए तो इसी दम इस पत्थर से सिर टकराकर जान दे दूँगा। मुझे मर जाना मंजूर हैय पर यह अंधोर नहीं देख सकता। उसके मुँह से इन बातों का निकलना था कि चारों तरफ सन्नाटा छा गया। जो जहाँ थाए वह वहीं बुत बन गया। जरा देर में लोग आहिस्ता—आहिस्ता रुखसत होने लगे और कोई आधा घंटे में सारा मजमा गायब हो गया। सूरदास उठा और लाठी टेकता हुआ जिधार से आया थाए उसी तरफ चला गया। हुजूरए मुझे तो पूरा यकीन है कि वह इंसान नहीं कोई फरिश्ता है। सोफी—उसे किसी से इन दुष्टों के आने की खबर मिल गई होगी। ताहिर—हुजूरए मेरा तो कयास है कि उसे इल्म गैब है। सोफी—(मुस्कराकर) आपने पापा को इत्तिाला नहीं दीघ् ताहिर—हुजूरए तब से मौका ही नहीं मिला। खुद बाल—बच्चों को तनहा छोड़कर नहीं जा सकता। आदमी सब पहले ही भाग गए थे। इसी फिक्र में खड़ा था कि हुजूर की मोटर नजर आई। क्लार्क—यह अंधा जरूर कोई असाधारण पुरुष है। सोफी—तुम उससे दो—चार बातें करके देखो। उसके आधयात्मिक और दार्शनिक विचार सुनकर चकित हो जाओगे। साधु भी है और दार्शनिक भी। कहीं हम उसके विचारों को व्यवहार में ला सकतेए तो निश्चय सांसारिक जीवन सुखमय हो जाता। जाहिल हैए बिल्कुल निरक्षरय लेकिन उसका एक—एक वाक्य विद्वानों के बड़े—बड़े ग्रंथों पर भारी है। मोटर चलीए तो सोफी बोली—आप लोग ऐसे साधुजनों पर भी अन्याय करने से बाज नहीं आतेए जो अपने शत्रुओं पर एक कंकड़ भी उठाकर नहीं फेंकता। प्रभु मसीह में भी तो यही गुण सर्वप्रधान था। क्लार्क—प्रियेए अब लज्जित न करो। इसका प्रायश्चित्ता निश्चय होगा। सोफी—राजा साहब इसका घोर विरोधा करेंगे। क्लार्क—थुह! उनमें इतना नैतिक साहस नहीं है। वह जो कुछ करते हैंए हमारा रुख देखकर करते हैं। इस वजह से उन्हें कभी असफलता नहीं होती। हाँए उनमें यह विशेष गुण है कि वह हमारे प्रस्तावों का रूपांतर करके अपना काम बना लेते हैं और उन्हें जनता के सामने ऐसी चतुरता से उपस्थित करते हैं कि लोगों की द्रष्टि में उनका सम्मान बढ़़ जाता है। हिंदुस्तानी रईसों और राजनीतिज्ञों में आत्मविश्वास का बड़ा अभाव होता है। वे हमारी सहायता से वह कर सकते हैंए जो हम नहीं कर सकतेय पर हमारी सहायता के बिना कुछ भी नहीं कर सकते। मोटर सिगरा आ पहुँची। सोफिया उतर पड़ी। क्लार्क ने उसे प्रेम की द्रष्टि से देखाए हाथ मिलाया और चले गए। छब्बीस अरावली की हरी—भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा हैए जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूधा की धारेंए प्रेमोद्‌गार से विकलए उबलतीए मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बालक के नन्हे—से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण—किरणों में नहाकर माता का स्नेह—सुंदर गात निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल—निकालकर माता के स्नेह—प्लावित मुख की ओर देखता हैए हुमुकता है और मुस्कराता हैय पर माता बार—बार उसे अंचल से ढ़ँक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाए। सहसा तोप के छूटने की कर्ण—कटु धवनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठाए बालक गोद में चिमट गया। फिर वही भयंकर धवनि! माँ दहल उठीए बालक चिमट गया। फिर तो लगातार तोपें छूटने लगीं। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गए। आज रियासत के नए पोलिटीकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं। मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आए एक महीन गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातोंए दावतोंए नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार—बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहतीय पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेडऌर्ँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गयाए तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा—इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगाए और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगताए जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी। क्लार्क भी सहमत हो गए। एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैंए बड़ी धूमधाम से उनका स्वागत होता हैए सलामियाँ उतारी जाती हैंए मान—पत्रा मिलते हैंए मुख्य—मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओंए चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है। वह बड़े धयान से कैदियों कोए उनके भोजनालयों कोए जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने धयान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थीए मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता थाए जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। पर सोफिया के अविरल प्रयत्न से उनकी दशा सुधारने लगी है। आज जसवंतनगर के मेजबानों को सेवा—सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बाए अर्थात्‌ वहाँ के राजकर्मचारीए पगड़ियाँ बाँधो इधार—उधार दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश—हवास ठिकाने नहीं हैंए जैसे नींद में किसी ने भेड़ियों का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसज्जित कराए हैंए जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया हैए बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिए हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तार दिया है। सड़कों के दोनों तरफ सशस्त्रा सिपाहियों की सफें खड़ी कर दी गई हैं कि प्रजा की अशांति का कोई चिद्द भी न नजर आने पाए। सभाएँ करने की मनाही कर दी गई है। संधया हो गई थी। जुलूस निकला। पैदल और सवार आगे—आगे थे। फौजी बाजे बज रहे थे। सड़कों पर रोशनी हो रही थीए पर मकानों मेंए छतों पर अंधाकार छाया हुआ था। फूलों की वर्षा हो रही थीए पर छतों से नहींए सिपाहियों के हाथों से। सोफी सब कुछ समझती थीए पर क्लार्क की अॉंखों पर परदा—सा पड़ा हुआ था। असीम ऐश्वर्य ने उनकी बुध्दि को भ्रांत कर दिया है। कर्मचारी सब कुछ कर सकते हैंए पर भक्ति पर उनका वश नहीं होता। नगर में कहीं आनंदोत्साह का चिद्द नहीं हैए सियापा—सा छाया हुआ हैए न पग—पग पर जय—धवनि हैए न कोई रमणी आरती उतारने आती हैए न कहीं गाना—बजाना है। मानो किसी पुत्रा—शोकमग्न माता के सामने विहार हो रहा हो। कस्बे का गश्त करके सोफीए क्लार्कए सरदार नीलकंठ और दो—एक उच्च कर्मचारी तो राजभवन में आकर बैठेए और लोग बिदा हो गए। मेज पर चाय लाई गई। मि. क्लार्क ने बोतल से शराब उड़ेलीए तो सरदार साहबए जिन्हें इसकी दुगर्ंधा से घृणा थीए खिसककर सोफिया के पास आ बैठे और बोले—जसवंतनगर आपको कैसा पसंद आयाघ् सोफिया—बहुत ही रमणीक स्थान है। पहाड़ियों का —श्य अत्यंत मनोहर है। शायद कश्मीर के सिवा ऐसी प्राकृतिक शोभा और कहीं न होगी। नगर की सफाई से चित्ता प्रसन्न हो गया। मेरा तो जी चाहता हैए यहाँ कुछ दिनों रहूँ। नीलकंठ डरे। एक—दो दिन तो पुलिस और सेना के बल से नगर को शांत रखा जा सकता हैए पर महीने—दो महीने किसी तरह नहीं। असम्भव है। कहीं ये लोग यहाँ जम गएए तो नगर की यथार्थ स्थिति अवश्य ही प्रकट हो जाएगी। न जाने उसका क्या परिणाम हो। बोले—यहाँ की बाह्य छटा के धोखे में न आइए। जलवायु बहुत खराब है। आगे आपको इससे कहीं सुंदर स्थान मिलेंगे। सोफिया—कुछ भी होए मैं यहाँ दो हफ्ते अवश्य ठहरूँगी। क्यों विलियमए तुम्हें यहाँ से जाने की कोई जल्दी तो नहीं हैघ् क्लार्क—तुम यहाँ रहोए तो मैं दफन होने को तैयार हूँ। सोफिया—लीजिए सरदार साहबए विलियम को कोई आपत्तिा नहीं है। सोफिया को सरदार साहब को दिक करने में मजा आ रहा था। नीलकंठ—फिर भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि जसवंतनगर बहुत अच्छी जगह नहीं है। जलवायु की विषमता के अतिरिक्त यहाँ की प्रजा में अशांति के बीज अंकुरित हो गए हैं। सोफिया—तब तो हमारा यहाँ रहना और भी आवश्यक है। मैंने किसी रिसायत में यह शिकायत नहीं सुनी। गवर्नमेंट ने रियासतों को आंतरिक स्वाधाीनता प्रदान कर दी है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि रियासतों में अराजकता के कीटाणुओं को सेये जाने दिया जाए। इसका उत्तारदायित्व अधिकारियों पर हैए और गवर्नमेंट को अधिकार है कि वह इस असावधानी का संतोषजनक उत्तार माँगे। सरदार साहब के हाथ—पाँव फूल गए। सोफिया से उन्होंने यह बात निश्शंक होकर कही थी। उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर—भेंट ने अपना काम कर दिखाया। कुछ बेतकल्लुफ—से हो गए थे। यह फटकार पड़ीए तो अॉंखें चौंधिया गईं। कातर स्वर में बोले—मैं आपको विश्वास दिलाता हूँए कि यद्यपि रियासत पर इस स्थिति का उत्तारदायित्व हैय पर हमने यथासाधय इसके रोकने की चेष्टा की और अब भी कर रहे हैं। यह बीज उस दिशा से आयाए जिधार से उसके आने की सम्भावना न थीय या यों कहिए कि विष—बिंदु सुनहरे पात्राों में लाए गए। बनारस के रईस कुँवर भरतसिंह के स्वयंसेवकों ने कुछ ऐसे कौशल से काम लिया कि हमें खबर तक न हुई। डाकुओं से धान की रक्षा की जा सकती हैए पर साधुओं से नहीं। सेवकों ने सेवा की आड़ में यहाँ की मूर्ख प्रजा पर ऐसे मंत्रा फूँके कि उन मंत्राों के उतारने में रियासत को बड़ी—बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषतरू कुँवर साहब का पुत्रा अत्यंत कुटील प्रकृति का युवक है। उसने इस प्रांत में अपने विद्रोहात्मक विचारों का यहाँ तक प्रचार किया कि इसे विद्रोहियों का अखाड़ा बना दिया। उसकी बातों में कुछ ऐसा जादू होता था कि प्रजा प्यासों की भाँति उसकी ओर दौड़ती थी। उसके साधु भेषए उसके सरलए निरूस्पृह जीवनए उसकी मृदुल सहृदयता और सबसे अधिक उसके देवोपम स्वरूप ने छोटे—बड़े सभी पर वशीकरण—सा कर दिया था। रियासत को बड़ी चिंता हुई। हम लोगों की नींद हराम हो गई। प्रतिक्षण विद्रोह की आग भड़क उठने की आशंका होती थी। यहाँ तक कि हमें सदर से सैनिक सहायता भेजनी पड़ी। विनयसिंह तो किसी तरह गिरफ्तार हो गयाय पर उसके अन्य सहयोगी अभी तक इलाके में छिपे हुए प्रजा को उत्तोजित कर रहे हैं। कई बार यहाँ सरकारी खजाना लुट चुका है। कई बार विनय को जेल से निकाल ले जाने का दुष्प्रयत्न किया जा चुका हैए और कर्मचारियों को नित्य प्राणों की शंका बनी रहती है। मुझे विवश होकर आपसे यह वृत्ताांत कहना पड़ा। मैं आपको यहाँ ठहरने की कदापि राय न दूँगा। अब आप स्वयं समझ सकती हैं कि हम लोगों ने जो कुछ कियाए उसके सिवा और क्या कर सकते थे। सोफिया ने बड़ी चिंता के भाव से कहा—दशा उससे कहीं भयंकर हैए जितना मैं समझती थी। इस अवस्था में विलियम का यहाँ से जानार् कत्ताव्य के विरुध्द होगा। वह यहाँ गवर्नमेंट के प्रतिनिधि होकर आए हैंए केवल सैर—सपाटे करने के लिए नहीं। क्यों विलियमए तुम्हें यहाँ रहने में कोई आपत्तिा तो नहीं हैघ् यहाँ की रिपोर्ट भी तो करनी पड़ेगी। क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा—तुम्हारी इच्छा होए तो मैं नरक में भी स्वर्ग का सुख ले सकता हूँ। रहा रिपोर्ट लिखनाए वह तुम्हारा काम है। नीलकंठ—मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि रियासत को सँभालने के लिए कुछ और समय दीजिए। अभी रिपोर्ट करना हमारे लिए घातक होगा। इधार तो यह अभिनय हो रहा थाए सोफिया प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान थीए ऐश्वर्य चँवर हिलाता थाए अष्टसिध्दि हाथ बाँधो खड़ी थी। उधार विनय अपनी ऍंधोरी कालकोठरी में म्लान और क्षुब्धा बैठा हुआ नारी जाति की निष्ठुरता और असहृदयता पर रो रहा था। अन्य कैदी अपने—अपने कमरे साफ कर रहे थेए उन्हें कल नए कम्बल और नए कुरते दिए गए थेए जो रियासत में एक नई घटना थी। जेल कर्मचारी कैदियों को पढ़़ा रहे थे—मेम साहब पूछेंए तुम्हें क्या शिकायत हैए तो सब लोग एक स्वर से कहनाए हुजूर के प्रताप से हम बहुत सुखी हैं और हुजूर के जान—माल की खैर मनाते हैं। पूछेंए क्या चाहते होए तो कहनाए हुजूर की दिनोंदिन उन्नति होए इसके सिवा हम कुछ नहीं चाहते। खबरदारए जो किसी ने सिर ऊपर उठाया और कोई बात मुँह से निकालीए खाल उधोड़ ली जाएगी। कैदी फूले न समाते थे। आज मेम साहब की आमद की खुशी में मिठाइयाँ मिलेंगी। एक दिन की छुट्टी होगी। भगवान उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभागों पर इतनी दया करती हैं। —कतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कम्बल पड़ा हुआ हैए छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों—का—त्यों तह किया हुआ रखा हैए वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक—एक रोम सेए मस्तिष्क के एक—एक अणु सेए हृदय की एक—एक गति से यही आवाज आ रही है—सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा। उसने सोचना शुरू किया—सोफिया यहाँ क्यों आ रही हैघ् क्या मेरा अपमान करना चाहती हैघ् सोफीए जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थीए क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैरों से कुचलना चाहती हैघ् इतनी निर्दयताए और मुझ जैसे अभागे परए जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहींए वह इतनी वज्र—हृदया नहीं हैए उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि. क्लार्क की शरारत हैए वह मुझे सोफी के सामने लज्जित करना चाहते हैंय पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगाए मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहींए मुझे बलात्‌ ले जाएय जिसका जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ। साफ कह दूँगाए मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम हैए तो हुआ करेए मुझे ऐसे नियम की परवाह नहींए जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हँए दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैंए क्या प्रजा को पीस ही डालेंगेघ् अब भी तो मुश्किल से आधो आदमी बच रहे होंगेए सैकड़ों निकाल दिए गएए सैकड़ों जेल में ठूँस दिए गएए क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैंघ् सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर में बोला—तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरेए तुमने तो अभी कुरता भी नहीं बदलाए कम्बल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहींघ् विनय—हुक्म तो मिलाए मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा। दारोगा ने और गरम होकर कहा—इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का—सा सलूक किया जाए। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आए हैंए इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता। विनय—यह बतलाइए कि मुझे पोलिटीकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगाघ् दारोगा—और यह कम्बल और कुरता किसलिए दिया गया हैय कभी और भी किसी ने यहाँ नया कम्बल पाया हैघ् तुम लोगों के तो भाग्य खुल गए। विनय—अगर आप मुझ पर इतनी रियायत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करेंए तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ। दारोगा—कैसे बेसिर—पैर की बातें करते हो जीए मेरा कोई अख्तियार हैघ् तुम्हें जाना पड़ेगा। विनय ने बड़ी नम्रता से कहा—मैं आपका यह एहसान कभी न भूलँगा। किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जातेए पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था। बोले—मगर भाईए यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाए। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जाएँगेए मेम साहब को जेलों को देखने की धुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैंए मेम साहब उनसे भी बढ़़—चढ़़कर हैं। सच पूछो तो जो कुछ हैंए वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गईंए तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जाएगीए हम भी पिस जाएँगे। विनय—मालूम होता हैए मेम साहब का बड़ा दबाव है। दारोगा—दबाव! अजीए यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटीकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने—भर को हैं। नजर—भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है। विनय—आप मेरे साथ इतनी रियाअत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँए अगर वह मुझे नाम लेकर बुलाएँगीए तो मैं चला जाऊँगा। दारोगा—सरदार साहब मुझे जीता निगल जाएँगे। विनय—मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा। दारोगा—मैं बुरा आदमी हूँए मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े—बड़ों की गरदनें ढ़ीली कर दी हैं। विनय—अपने को कोसने का आपको अधिकार हैय पर आज जानते हैंए मैं जब्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ। दारोगा—भाईए तुम विचित्रा प्राणी होए उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा हैए और फिर भी अपनी जिद किए जाते हो। लेकिन तुम्हें अपनी जान भारी हैए मुझे अपनी जान भारी नहीं है। विनय—क्या शहर खाली कराया जा रहा हैघ् यह क्योंघ् दारोगा—मेम साहब का हुक्म हैए और क्याए जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैंए मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले तो इसे खुदवाकर फेंक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाएए सदर से मदद माँगी गई है। दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़़ाकर बयान कियाए इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुध्द होकर अधिकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किए और जनता को यह खबर मिलीए तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जानेए मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा होए उनमें उद्दंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहींए हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धौर्य से काम लेना चाहिए। दारोगा से पूछा—मेम साहब यहाँ किस वक्त आएँगीघ् दारोगा—उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धोखा देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगीए जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इसी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालोय कपड़े बदल लोय कौन जानेए आज ही आ जाएँ। विनय—अच्छी बात हैय आप जो कुछ कहते हैंए सब कर लूँगा। अब आप निश्ंचित हो जाएँ। दारोगा—सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगेघ् विनय—जी नहींय आप मुझे सबसे पहले अॉंगन में मौजूद पाएँगे। दारोगा—मेरी शिकायत तो न करोगेघ् विनय—शिकायत करना मेरी आदत नहींए इसे आप खूब जानते हैं। दारोगा चला गया। ऍंधोरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ू लगाईए कपड़े बदलेए कम्बल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थेए जिससे किसी की द्रष्टि उनकी ओर आकृष्ट होय वह अपनी निरपेक्षता से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गयाए पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत में निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराए और कैदियों को विश्राम करने का हुक्म दिया। विनय लेटेए तो सोचने लगे—सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गयाघ् वही लज्जा और विनय की मूर्तिए वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देवी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल थाए कितना दयाशीलए उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्रा थेए उसका स्वभाव कितना सरल थाए उसकी एक—एक द्रष्टि हृदय पर कालिदास की एक—एक उपमा की—सी चोट करती थीए उसके मुँह से जो शब्द निकलता थाए वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्ता को आलोकित कर देता था। ऐसा मालूम होता थाए केवल पुष्प—सुगंधा से उसकी सृष्टि हुई हैए कितना निष्कपटए कितना गम्भीरए कितना मधुर सौंदर्य था! वह सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है! चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ थाए मानो कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के अॉंगन में दारोगा के जानवर न बँधो थेए न बरामदों में घास के ढ़ेर थे। आज किसी कैदी को जेल—कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़ेए किसी ने सिपाहियों की चम्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबंधियों के नजरानों का बाँट—बखरा न होता था। कमरों में दीपक थेए दरवाजे खुले रखे गए थे। विनय के मन में प्रश्न उठाए क्यों न भाग चलूँघ् मेरे समझाने से कदाचित्‌ लोग शांत हो जाएँ। सदर सेना आ रही हैए जरा—सी बात पर विप्लव हो सकता है। यदि मैं शांतिस्थापना करने में सफल हुआए तो वह मेरे इस अपराधा का प्रायश्चित्ता होगा। उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखाए कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया तोघ् लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था। इस हैस—बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुकों की सूचना दी। दारोगाए डॉक्टरए वार्डरए चौकीदार हड़बड़ाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजीए कैदी मैदान में निकल आएए उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गयाए और उसी क्षण सोफियाए मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए। सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस द्रष्टि में प्रतीक्षा न थीए उत्सुकता न थीए भय थाए विकलता थीए अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया थाए जो उसे यहाँ तक खींच लाई थीए जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिध्दांतों का बलिदान किया थाए उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थीए जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाए। सहसा उसने विनय को सिर झुकाए खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआए नेत्राों में ऍंधोरा छा गया। घर वही थाए पर उजड़ा हुआए घास—पात से ढ़ंका हुआए पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ थाए जिस पर कवित्व की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का—सा विशाल वृक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ूँए उसे अश्रु—जल से धोऊँए उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात्‌ विनयसिंह मूख्रच्छत होकर गिर पड़ेए एक आर्तधवनि थीए जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई। सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल—कूद मचाने लगा—अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेंगीए इसकी हालत इतनी नाजुक थीए तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं रखाय बड़ी मुसीबत में फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहींए इसने दम साधा हैए बना हुआ हैए मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बच्चाए जाने दो मेम साहब कोए तो देखनाए तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाएए फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गयाए किसी कैदी को आज तक यों मूख्रच्छत होते नहीं देखा। हाँए किस्सों में लोगों को बात—बात में बेहोश हो जाते पढ़़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या। दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा थाए उधार सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रहे थे—यह वही युवक हैए जिसने रियासत में ऊधाम मचा रखा है। सोफी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहाए हट जाओए और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थींए मेज पर जरी का मेजपोश थाए उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जलपान की सामग्रियां चुनी हुई थीं। तजवीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया। उसकी करुणा और दया प्रसिध्द थीए किसी को आश्चर्य न हुआ। जब कमरे में कोई न रहाए तो सोफी ने खिड़कियों पर परदे डाल दिए और विनय का सिर अपनी जाँघ पर रखकर अपनी रूमाल उस पर झलने लगी। अॉंसू की गरम—गरम बूँदें उसकी अॉंखों से निकल—निकलकर विनय के मुख पर गिरने लगीं। उन जल—बिंदुओ में कितनी प्राणप्रद शक्ति थी! उनमें उसकी समस्त मानसिक और आत्मिक शक्ति भरी हुई थी। एक—एक जल—बिंदु उसके जीवन का एक—एक बिंदु था। विनयसिंह की अॉंखें खुल गईं। स्वर्ग का एक पुष्प अक्षयए अपारए सौरभ में नहाया हुआए हवा के मृदुल झोकों से हिलताए सामने विराज रहा था। सौंदर्य की सबसे मनोहरए सबसे मधुर छवि वह हैए जब वह सजल शोक से आर्द्र होता हैए वही उसका आधयात्मिक स्वरूप होता है। विनय चौंककर उठे नहींय यही तो प्रेम—योगियों की सिध्दि हैए यही तो उनका स्वर्ग हैए यही तो स्वर्ग—साम्राज्य हैए यही तो उनकी अभिलाषाओं का अंत हैए इस स्वर्गीय आनंद में तृप्ति कहाँ! विनय के मन में करुण भावना जागृत हुई—काशए इसी भाँति प्रेम—शय्या पर लेटे हुए सदैव के लिए ये अॉंखें बंद हो जातीं! सारी आकांक्षाओं का लय हो जाता। मरने के लिए इससे अच्छा और कौन—सा अवसर होगा! एकाएक उन्हें याद आ गयाए सोफी को स्पर्श करना भी मेरे लिए वर्जित है। उन्होंने तुरंत अपना सिर उसकी जाँघ पर से खींच लिया और अवरुध्द कंठ से बोले—मिसेज क्लार्कए आपने मुझ पर बड़ी दया कीए इसके लिए आपका अनुगृहीत हूँ। सोफिया ने तिरस्कार की द्रष्टि से देखकर कहा—अनुग्रह गालियों के रूप में नहीं प्रकट किया जाता। विनय ने विस्मित होकर कहा—ऐसा घोर अपराधा मुझसे कभी नहीं हुआ। सोफिया—ख्वाहमखाह किसी शख्स के साथ मेरा सम्बंधा जोड़ना गाली नहीं तो क्या हैघ् विनय—मिस्टर क्लार्कघ् सोफिया—क्लार्क को मैं तुम्हारी जूतियों का तस्मा खोलने के योग्य भी नहीं समझती। विनय—लेकिन अम्माँजी ने...। सोफिया—तुम्हारी अम्माँजी ने झूठ लिखा और तुमने उस पर विश्वास करके मुझ पर घोर अन्याय किया। कोयल आम न पाकर भी निम्बौड़ियों पर नहीं गिरती। इतने में क्लार्क ने आकर पूछा—इस कैदी की क्या हालत हैघ् डॉक्टर आ रहा हैए वह इसकी दवा करेगा। चलोए देर हो रही है। सोफिया ने रुखाई से कहा—तुम जाओए मुझे फुरसत नहीं। क्लार्क—कितनी देर तक तुम्हारी राह देखूँ। सोफिया—यह मैं नहीं कह सकती। मेरे विचार में एक मनुष्य की सेवा करना सैर करने से कहीं अधिक आवश्यक है। क्लार्क—खैरए मैं थोड़ी देर और ठहरूँगा। यह कहकर वह बाहर चले गएए तब सोफी ने विनय के माथे से पसीना पोंछते हुए कहा—विनयए मैं डूब रही हूँए मुझे बचा लो। मैंने रानीजी की शंकाओं को निवृत्ता करने के लिए यह स्वाँग रचा था। विनय ने अविश्वाससूचक भाव से कहा—तुम यहाँ क्लार्क के साथ क्यों आईं और उनके साथ कैसे रहती होघ् सोफिया का मुख—मंडल लज्जा से आरक्त हो गया। बोली—विनयए यह मत पूछोए मगर मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँए मैंने जो कुछ कियाए तुम्हारे लिए किया। तुम्हें इस कैद से निकालने के लिए मुझे इसके लिए सिवा और कोई उपाय न सूझा। मैंने क्लार्क को प्रमाद में डाल रखा है। तुम्हारे ही लिए मैंने यह कपट—वेष धारण किया है। अगर तुम इस वक्त कहोए सोफीए तू मेरे साथ जेल में रहए तो मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँगी। अगर तुम मेरा हाथ पकड़कर कहोए तू मेरे साथ चल तो आज ही तुम्हारे साथ चलूँगी। मैंने तुम्हारा दामन पकड़ लिया है और अब उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकतीय चाहे तुम ठुकरा ही क्यों न दो। मैंने आत्मसम्मान तक तुम्हें समर्पित कर दिया है। विनयए यह ईश्वरीय विधान हैए यह उसकी ही प्रेरणा हैय नहीं तो इतना अपमान और उपहास सहकर तुम मुझे जिंदा न पाते। विनय ने सोफी के दिल की थाह लेने के लिए कहा—अगर यह ईश्वरीय विधान हैए तो उसने हमारे और तुम्हारे बीच में यह दीवार क्यों खड़ी कर दी हैघ् सोफिया—यह दीवार ईश्वर ने नहीं खड़ी कीए आदमियों ने खड़ी की है। विनय—कितनी मजबूत है! सोफिया—हाँए मगर दुर्भेद्य नहीं। विनय—तुम इसे तोड़ सकोगीघ् सोफिया—इसी क्षणए तुम्हारी अॉंखों के एक इशारे पर। कोई समय थाए जब मैं उस दीवार को ईश्वरकृत समझती थी और उसका सम्मान करती थीए पर अब उसका यथार्थ स्वरूप देख चुकी। प्रेम इन बाधाओं की परवा नहीं करताए यह दैहिक सम्बंधा नहींए आत्मिक सम्बंधा है। विनय ने सोफी का हाथ अपने हाथ में लियाए और उसकी ओर प्रेम—विह्नल नेत्राों से देखकर बोले—तो आज से तुम मेरी होए और मैं तुम्हारा हूँ। सोफी का मस्तक विनय के हृदय—स्थल पर झुक गयाए नेत्राों से जल—वर्षा होने लगीए जैसे काले बादल धारती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी न निकलाए मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोधा हैए पर शुष्क और दाह—युक्तय आनंद की सीमा भी कंठावरोधा हैए पर आर्द्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक—एक अंग मेंए नाड़ियों की एक—एक गति मेंए आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोकों या लहरों के प्रवाह के साथ डावाँडोल न होगीए वरन्‌ सुव्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी। विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंधा थीए प्रकाश में प्राणए किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व न थाए जो देखने में अप्रियए सुनने में कटुए छूने में कठोर और स्वाद में कड़घई हो। वहाँ के फूलों में काँटे न थेए सूर्य में इतनी उष्णता न थीए जमीन पर व्याधियाँ न थींए दरिद्रता न थीए चिंता न थीए कलह न थाए एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम—सरोवर में विहार कर रहे थे। इस सुख—स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरसए कितना निराशाजनक थाए यह ऍंधोरी कोठरी कितनी भयंकर! सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा—डालिर्ंगए अब विलम्ब न करोए बहुत देर हो रही हैए सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा। सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुण—कम्पित स्वर में बोली—घबराना नहींए मैं कल फिर आऊँगी। विनय को ऐसा जान पड़ाए मानो नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह मर्माहत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आईए फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली—मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनों यहाँ से चले जाएँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं। सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुरए उत्सुकए प्रेम में डूबे हुए शब्द किसी मधुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूँजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक औषधियाँ सेवन कराईं। पलंग पर नर्म बिछौना थाए तकिए लगे थेए पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक—एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता थाए और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा—मैं बिलकुल अच्छा हूँए आप सब जाएँए शाम को आइएगा। डॉक्टर साहब डरते—डरते बोले—आपको जरा नींद आ जाएए तो मैं चला जाऊँ। विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद आ जाएगी। डॉक्टर अपने अपराधों की क्षमा माँगते हुए चले गए। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकायाए जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा थाए मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगाय पर वह अभिलाषा पूरी न हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा—सत्कार में कोई कसर न रखनाए नहीं तो मेम साहब जहन्नुम में भेज देंगी। शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक हैए जितनी धयान के लिए वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ—अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआए तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ सम्बध्द हैं। सोफी के प्रेम—पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित कियाए इसीलिए उन्होंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जाएगा। दुरूख तो पिताजी को भी होगाय पर वे मुझे क्षमा कर देंगेए उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुध्दि—ही—बुध्दि हैय पिताजी में हृदय और बुध्दि दोनों हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँघ् मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँए जो संसार में किसी ने न किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैंए जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया होघ् स्वार्थ के साथ जाति का धयान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया हैए किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। फिर जाति के अधिकारियों में न्याय और विवेक नहींए प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहींए उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधो के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता हैघ् शनैरू—शनैरू भावनाओं ने जीवन की सुख—सामग्रियाँ जमा करनी शुरू कीं—चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा—सा मकान बनवाऊँगाए साफए खुला हुआए हवादारए ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति से निवास करेंगे। आडम्बर बढ़़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगाए क्यारियाँ बनाऊँगाए कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूँगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधाकर कहूँगा—सरकारए कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा—रानीजीए कुछ निगाह हो जाए। कभी—कभी सोफी भी पौधों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर—भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल गात पसीने से और सुंदर वस्त्रा पानी से भीग जाएगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलँगा। कभी—कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगीए डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनंद कहाँए वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता हैए उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डाँड़ा चलाऊँगाए सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी—कभी प्रभु सेवक भी आएँगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगेए जहाँ मंगल बाँहें फैलाए हमारा इंतजार कर रहा है। सोफी और क्लार्क की आज संधया समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजेेंं सज गईं और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किएए तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा—उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियमए तुमने देखाए उसका मुख कितना पीला पड़ गया थाघ् क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुध्द उत्तार दिया—मरूच्छा में बहुधा मुख पीला हो जाता है। सोफी—वही तो मैं भी कह रही थी कि उसकी दशा अच्छी नहींए नहीं तो मरूच्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराधा की काफी सजा पा चुका हैए उसे मुक्त कर देना उचित होगा। नीलकंठ—मेम साहबए उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहींए यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जाएगा। बड़ा ही जिद्दी हैए रियासत से बाहर जाने पर राजी ही नहीं होता। क्लार्क—ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है। सोफी ने उत्तोजित होकर कहा—मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय—शून्य हो! क्लार्क—मुझे तुम्हारा जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं। सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की द्रष्टि से देखा। यह गर्वए यह आत्मगौरव कहाँ से आयाघ् तिरस्कार भाव से बोली—एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। क्लार्क—साम्राज्य—रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया सेए जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता होए उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता होए किसी दुरूखी जीव को सांत्वना मिलती होए उसका मैं कायल हूँए और मुझे गर्व है कि मैं उस सम्पत्तिा से वंचित नहीं हूँय लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर देए विद्रोहियों को सर उठाने का अवसर देए प्रजा में अराजकता का प्रचार करेए उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहींए पागलपन समझता हूँ। सोफी के मुख—मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दीए पर उसने जब्त किया। कदाचित्‌ इतने धौर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धार्म—परायणता का सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता है। नर्म होकर बोली—हाँए इस विचार—द्रष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर न गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाएए तो फिर इस रियासत में कदम न रखेगाए और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धानी है। नीलकंठ—क्या आपसे उसने वादा किया हैघ् सोफी—हाँए वादा ही समझिएए मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ। नीलकंठ—इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता। क्लार्क—जब तक उसका लिखित प्रार्थना—पत्रा मेरे सामने न आएए मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता। नीलकंठ—हाँए यह तो परमावश्यक ही है। सोफी—प्रार्थना—पत्रा का विषय क्या होगाघ् क्लार्क—सबसे पहले वह अपना अपराधा स्वीकार करे और अपनी राजभक्ति का विश्वास दिलाने के बाद हलफ लेकर कहे कि इस रियासत में फिर कदम न रखूँगा। उसके साथ जमानत भी होनी चाहिए। तो नकद रुपये होंए या प्रतिष्ठित आदमियों की जमानत। तुम्हारी जमानत का मेरी द्रष्टि में कितना ही महत्तव होए जाब्ते में उसका कुछ मूल्य नहीं। दावत के बाद सोफी राजभवन में आईए तो सोचने लगी—यह समस्या क्योंकर हल होघ् यों तो मैं विनय की मिंनत—समाजत करूँए तो वह रियासत से चले जाने पर राजी हो जाएँगेय लेकिन कदाचित्‌ वह लिखित प्रतिज्ञा न करेंगे। अगर किसी भाँति मैंने रो—धोकर उन्हें इस बात पर राजी कर लियाए तो यहाँ कौन प्रतिष्ठित आदमी उनकी जमानत करेगाघ् हाँए उनके घर से नकद रुपये आ सकते हैं! पर रानी साहब कभी इसे मंजूर न करेंगी। विनय को कितने ही कष्ट सहने पड़ेंए उन्हें इस पर दया न आएगी। मजा तो जब है कि लिखित प्रार्थना—पत्रा और जमानत की कोई शर्त ही न रहे। वह अवैधा रूप से मुक्त कर दिए जाएँ। इसके सिवा कोई उपाय नहीं। राजभवन विद्युत—प्रकाश से ज्योतिर्मय हो रहा था। भवन के बाहर चारों तरफ सावन की काली घटा थी और अथाह अंधाकार। उस तिमिर—सागर में प्रकाशमय राजभवन ऐसा मालूम होता थाए मानो नीले गगन पर चाँद निकला हो। सोफी अपने सजे हुए कमरे में आईने के सामने बैठी हुई उन सिध्दियों को जगा रही हैए जिनकी शक्ति अपार है—आज उसने मुद्दत के बाद बालों में फूल गूँथे हैंए फीरोजी रेशम की साड़ी पहनी है और कलाइयों में कंगन धारण किए हैं। आज पहली बार उसने उन लालित्य—प्रसारिणी कलाओं का प्रयोग किया हैए जिनमें स्त्रिायाँ निपुण होती हैं। यह मंत्रा उन्हीं को आता है कि क्योंकर केशों की एक तड़पए अंचल की एक लहर चित्ता को चंचल कर देती है। आज उसने मिस्टर क्लार्क के साम्राज्यवाद को विजय करने का निश्चय किया हैए वह आज अपनी सौंदर्य—शक्ति की परीक्षा करेगी। रिमझिम बूँदें गिर रही थींए मानो मौलसिरी के फूल झड़ रहे हों। बूँदों में एक मधुर स्वर था। राजभवनए पर्वत—शिखर के ऊपरए ऐसा मालूम होता थाए मानो देवताओं ने आनंदोत्सव की महफिल सजाई है। सोफिया प्यानो पर बैठ गई और एक दिल को मसोसनेवाला राग गाने लगी। जैसे ऊषा की स्वर्ण—छटा प्रस्फुटीत होते ही प्रकृति के प्रत्येक अंग को सजग कर देती हैए उसी भाँति सोफी की पहली ही तान ने हृदय में एक चुटकी—सी ली। मिस्टर क्लार्क आकर एक कोच पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगेए मानो किसी दूसरे ही संसार में पहुँच गए हैं। उन्हें कभी कोई नौका उमड़े हुए सागर में झकोले खाती नजर आतीए जिस पर छोटी—छोटी सुंदर चिड़ियाँ मँडराती थीं। कभी किसी अनंत वन में एक भिक्षुकए झोली कंधो पर रखेए लाठी टेकता हुआ नजर आता। संगीत से कल्पना चित्रामय हो जाती है। जब तक सोफी गाती रहीए मिस्टर क्लार्क बैठे सिर धुनते रहे। जब वह चुप हो गईए तो उसके पास गए और उसकी कुर्सी की बाँहों पर हाथ रखकरए उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर बोले—इन उँगलियों को हृदय में रख लूँगा। सोफी—हृदय कहाँ हैघ् क्लार्क ने छाती पर हाथ रखकर कहा—यहाँ तड़प रहा है। सोफी—शायद होए मुझे तो विश्वास नहीं आता। मेरा तो खयाल हैए ईश्वर ने तुम्हें हृदय दिया ही नहीं। क्लार्क—सम्भव हैए ऐसा ही हो। पर ईश्वर ने जो कसर रखी थीए वह तुम्हारे मधुर स्वर ने पूरी कर दी। शायद उसमें सृष्टि करने की शक्ति है। सोफी—अगर मुझमें यह विभूति होतीए तो आज मुझे एक अपरिचित व्यक्ति के सामने लज्जित न होना पड़ता। क्लार्क ने अधाीर होकर कहा—क्या मैंने तुम्हें लज्जित कियाघ् मैंने! सोफी—जी हाँए आपने। मुझे आज तुम्हारी निर्दयता से जितना दुरूख हुआए उतना शायद और कभी न हुआ था। मुझे बाल्यावस्था से यह शिक्षा दी गई है कि प्रत्येक जीव पर दया करनी चाहिएए मुझे बताया गया है कि यही मनुष्य का सबसे बड़ा धार्म है। धार्मिक ग्रंथों में भी दया और सहानुभूति ही मनुष्य का विशेष गुण बतलाई गई है। पर आज विदित हुआ कि निर्दयता का महत्तव दया से कहीं अधिक है। सबसे बड़ा दुरूख मुझे इस बात का है कि अनजान आदमी के सामने मेरा अपमान हुआ। क्लार्क—खुदा जानता है सोफीए मैं तुम्हारा कितना आदर करता हूँ। हाँए इसका खेद मुझे अवश्य है कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करने के लिए बाधय हुआ। इसका कारण तुम जानती ही हो। हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता हैए जब तक प्रजा पर हमारा आतंक छाया रहेए जब तक वह हमें अपना हितचिंतकए अपना रक्षकए अपना आश्रय समझती रहेए जब तक हमारे न्याय पर उसका अटल विश्वास हो। जिस दिन प्रजा के दिल से हमारे प्रति विश्वास उठ जाएगाए उसी दिन हमारे साम्राज्य का अंत हो जाएगा। अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य हैए तो व्यक्तिगत भावों और विचारों को यहाँ कोई महत्तव नहीं। साम्राज्य के लिए हम बड़े—से—बड़े नुकसान उठा सकते हैंए बड़ी—से—बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय हैए और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेश—मात्रा भी शंका होए उसे हम कुचल डालना चाहते हैंए उसका नाश कर देना चाहते हैंए उसके साथ किसी भाँति की रिआयतए सहानुभूति यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते। सोफी—अगर तुम्हारा खयाल है कि मुझे साम्राज्य से इतना प्रेम नहींए जितना तुम्हें हैए और मैं उसके लिए इतने बलिदान नहीं सह सकतीए जितने तुम कर सकते होए तो तुमने मुझे बिलकुल नहीं समझा। मुझे दावा हैए इस विषय में मैं किसी से जौ—भर भी पीछे नहीं। लेकिन यह बात मेरे अनुमान में भी नहीं आती कि दो प्रेमियों में कभी इतना मतभेद हो सकता है कि सहृदयता और सहिष्णुता के लिए गुंजाइश न रहेए और विशेषतरू उस दशा में जबकि दीवार के कानों के अतिरिक्त और कोई कान भी सुन रहा हो। दीवान देश—भक्ति के भावों से शून्य हैय उसकी गहराई और उसके विस्तार से जरा भी परिचित नहीं। उसने तो यही समझा होगा कि जब इन दोनों में मेरे सम्मुख इतनी तकरार हो सकती हैए तो घर पर न जाने क्या दशा होगी। शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया। उसने औरों से भी यह वृत्ताांत कहा होगा। मेरी तो नाक—सी कट गई। समझते होए मैं गा रही हूँ। यह गाना नहींए रोना है। जब दाम्पत्य के द्वार पर यह दशा हो रही हैए जहाँ फूलों सेए हर्षनादों सेए प्रेमालिंगनों सेए मृदुल हास्य से मेरा अभिवादन होना चाहिए थाए तो मैं अंदर कदम रखने का क्योंकर साहस कर सकती हूँघ् तुमने मेरे हृदय के टुकड़े—टुकड़े कर दिए। शायद तुम मुझे ैमदजपउमदजंस समझ रहे होगेय पर अपने चरित्रा को मिटा देना मेरे वश की बात नहीं। मैं अपने को धान्यवाद देती हूँ कि मैंने विवाह के विषय में इतनी दूर—द्रष्टि से काम लिया। यह कहते—कहते सोफी की अॉंखों से टप—टप अॉंसू गिरने लगे। शोकाभिनय में भी बहुधा यथार्थ शोक की वेदना होने लगती है। मिस्टर क्लार्क खेद और असमर्थता का राग अलापने लगेय पर न उपयुक्त शब्द ही मिलते थेए न विचार। अश्रु—प्रवाह तर्क और शब्द—योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा—सोफीए मुझे क्षमा करोए वास्तव में मैं न समझता था कि इस जरा—सी बात से तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा होगी। सोफी—इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। तुम मेरे गुलाम नहीं हो कि मेरे इशारों पर नाचो। मुझमें वे गुण नहींए जो पुरुषों का हृदय खींच लेते हैंए न वह रूप हैए न वह छवि हैए न वह उद्दीपन—कला। नखरे करना नहीं जानतीए कोप—भवन में बैठना नहीं जानती। दुरूख केवल इस बात का है कि उस आदमी ने तो मेरे एक इशारे पर मेरी बात मान ली और तुम इतना अनुनय—विनय करने पर भी इनकार करते जाते हो। वह भी सिध्दांतवादी मनुष्य हैय अधिकारियों की यंत्राणाएँ सहींए अपमान सहाए कारागार की ऍंधोरी कोठरी में कैद होना स्वीकार कियाए पर अपने वचन पर सु—ढ़़ रहा। इससे कोई मतलब नहीं कि उसकी टेक जा थी या बेजाए वह उसे जा समझता था। वह जिस बात को न्याय समझता थाए उससे भय या लोभ या दंड उसे विचलित नहीं कर सके। लेकिन जब मैंने नरमी के साथ उसे समझाया कि तुम्हारी दशा चिंताजनक हैए तो उसके मुख से ये करुण शब्द निकले—श्मेम साहबए जान की तो परवा नहींए अपने मित्राों और सहयोगियों की द्रष्टि में पतित होकर जिंदा रहना श्रेय की बात नहींय लेकिन आपकी बात नहीं टालना चाहता। आपके शब्दों में कठोरता नहींए सहृदयता हैए और मैं अभी तक भाव—विहीन नहीं हुआ हूँ। मगर तुम्हारे ऊपर मेरा कोई मंत्रा न चला। शायद तुम उससे बड़े सिध्दांतवादी होए हालांकि अभी इसकी परीक्षा नहीं हुई। खैरए मैं तुम्हारे सिध्दांतों से सौतियाडाह नहीं करना चाहती। मेरी सवारी का प्रबंधा कर दोए मैं कल ही चली जाऊँगी और फिर अपनी नादानियों से तुम्हारे मार्ग का कटंक बनने न आऊँगी। मिस्टर क्लार्क ने घोर आत्मवेदना के साथ कहा—डालिर्ंगए तुम नहीं जानतींए यह कितना भयंकर आदमी है। हम क्रांति सेए षडयंत्राों सेए संग्राम से इतना नहीं डरतेए जितना इस भाँति के धौर्य और धुन से। मैं भी मनुष्य हूँ सोफीए यद्यपि इस समय मेरे मुँह से यह दावा समयोचित नहीं पर कम—से—कम उस पवित्रा आत्मा के नाम परए जिसका मैं अत्यंत दीनभक्त हूँए मुझे यह कहने का अधिकार है—मैं उस युवक का हृदय से सम्मान करता हूँ। उसके —ढ़़ संकल्प कीए उसके साहस कीए उसकी सत्यवादिता की दिल से प्रशंसा करता हँ। जानता हूँए वह एक ऐश्वर्यशाली पिता का पुत्रा है और राजकुमारों की भाँति आनंद—भोग में मग्न रह सकता हैय पर उसके ये ही सद्‌गुण हैंए जिन्होंने उसे इतना अजेय बना रखा है। एक सेना का मुकाबला करना इतना कठिन नहींए जितना ऐसे गिने—गिनाए व्रतधारियों काए जिन्हें संसार में कोई भय नहीं है। मेरा जाति—धार्म मेरे हाथ बाँधो हुए है। सोफी को ज्ञात हो गया कि मेरी धामकी सर्वथा निष्फल नहीं हुई। विवशता का शब्द जबान परए खेद का भाव मन में आयाए और अनुमति की पहली मंजिल पूरी हुई। उसे यह भी ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे हाव—भाव का इतना असर नहीं हो सकताए जितना बलपूर्ण आग्रह था। सिध्दांतवादी मनुष्य हाव—भाव का प्रतिकार करने के लिए अपना दिल मजबूत कर सकता हैए वह अपने अंतरूकरण के सामने अपनी दुर्बलता स्वीकार नहीं कर सकताए लेकिन दुराग्रह के मुकाबले में वह निष्क्रिय हो जाता है। तब उसकी एक नहीं चलती। सोफी ने कटाक्ष करते हुए कहा—अगर तुम्हारा जातीयर् कत्ताव्य तुम्हें प्यारा हैए तो मुझे भी आत्मसम्मान प्यारा है। स्वदेश की अभी तक किसी ने व्याख्या नहीं कीय पर नारियों की मान—रक्षा उसका प्रधान अंग है और होनी चाहिएए इससे तुम इनकार नहीं कर सकते। यह कहकर वह स्वामिनी—भाव से मेज के पास गई और एक डाकेट का पत्रा निकालाए जिस पर एजेंट आज्ञा—पत्रा लिखा करता था। क्लार्क—क्या करती हो सोफीघ् खुदा के लिए जिद मत करो। सोफी—जेल के दारोगा के नाम हुक्म लिखूँगी। यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई। क्लार्क—यह अनर्थ न करो सोफीए गजब हो जाएगा। सोफी—मैं गजब से क्याए प्रलय से भी नहीं डरती। सोफी ने एक—एक शब्द का उच्चारण करते हुए आज्ञा—पत्रा टाइप किया। उसने एक जगह जान—बूझकर एक अनुपयुक्त शब्द टाइप कर दियाए जिसे एक सरकारी पत्रा में न आना चाहिए। क्लार्क ने टोका—यह शब्द मत रखो। सोफी—क्योंए धान्यवाद न दूँघ् क्लार्क—आज्ञा—पत्रा में धान्यवाद का क्या जिक्रघ् कोई निजी थोड़े ही है। सोफी—हाँए ठीक हैए यह शब्द निकाले देती हूँ। नीचे क्या लिखूँ। क्लार्क—नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं। केवल मेरा हस्ताक्षर होगा। सोफी ने सम्पूर्ण आज्ञा—पत्रा पढ़़कर सुनाया। क्लार्क—प्रियेए यह तुम बुरा कर रही हो। सोफी—कोई परवा नहींए मैं बुरा ही करना चाहती हूँ। हस्ताक्षर भी टाइप कर दूँघ् नहींए (मुहर निकालकर) यह मुहर किए देती हूँ। क्लार्क—जो चाहो करो। जब तुम्हें अपनी जिद के आगे कुछ बुरा—भला नहीं सूझताए तो क्या कहूँघ् सोफी—कहीं और तो इसकी नकल न होगीघ् क्लार्क—मैं कुछ नहीं जानता। यह कहकर मि. क्लार्क अपने शयन—गृह की ओर जाने लगे। सोफी ने कहा—आज इतनी जल्दी नींद आ गईघ् क्लार्क—हाँए थक गया हूँ। अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्रा से रियासत में तहलका पड़ जाएगा। सोफी—अगर तुम्हें इतना भय हैए तो मैं इस पत्रा को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाए। बैठते होए या देखोए यह लिफाफा फाड़ती हूँ। क्लार्क कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गए और बोले—लो बैठ गयाए क्या कहती होघ् सोफी—कहती कुछ नहीं हूँए धान्यवाद का गीत सुनते जाओ। क्लार्क—धान्यवाद की जरूरत नहीं। सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे। उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तकघ् इस क्रीड़ा का कोई अंत भी हैघ् इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिंता से मुक्त कर दिया—आह! काशए अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उद्दीप्त किया और तब सहसा प्यानो बंद कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहेए जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो। सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्रा खींचने में काटीए पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखतीए तो विदित होताए धूप की जगह छाँह हैए छाँह की जगह धूपए लाल रंग का आधिक्य हैए बाग में अस्वाभाविक रमणीयताए पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियालीए नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्रुटीयों को सुधारने लगतीए तो सारा —श्य जरूरत से ज्यादा नीरसए उदास और मलिन हो जाता। उसकी धार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। अब ईश्वर ही उसका कर्णधार थाए वह अपने कर्माकर्म के गुणदोष से मुक्त थी। प्रातरूकाल वह उठीए तो मि. क्लार्क सो रहे थे। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चलीए जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े। उसके जेल पहुँचते ही हलचल—सी पड़ गई। चौकीदार अॉंखें मलते हुए दौड़—दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागेए याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गए सोए थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल—कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैम्प न बुझा थाए मानो विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगंधा उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम किया और वह उन्हें लिए विनय के कमरे में आई। देखाए तो नींद में है। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हलकी—सी मुस्कराहट हैय मानो फूल पर किरणें चमक रही हों। सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था। सोफी ने डॉक्टर से पूछा—रात को इसकी कैसी दशा थीघ् डॉक्टर—हुजूरए कई बार मरूच्छा आईय पर मैं एक क्षण के लिए भी यहाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गईए तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है। सोफी—हाँए मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरे जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ की जलवायु इसके लिए अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँए तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँए और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्कराकर) डॉक्टर साहबए मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँए पर खतरे—जान नहीं। जब कमरे में एकांत हो गयाए तो सोफी ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धाीरे—धाीरे उसका माथा सहलाने लगी। विनय की अॉंखें खुल गईं। इस तरह झपटकर उठाए जैसे नींद में किसी नदी से फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो। सोफी ने मुस्कराकर कहा—तुम अभी तक सो रहे होय मेरी अॉंखों की तरफ देखोए रात—भर नहीं झपकीं। विनय—संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठी नींद न लूँए तो मुझसा भाग्यहीन और कौन होगाघ् सोफी—मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाए। नींद का सुख अभाव में हैए जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छाए अब तैयार हो जाओ। विनय—किस बात के लिएघ् सोफी—भूल गएघ् इस अंधाकार से प्रकाश में आने के लिएए इस काल—कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँय तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा—पत्रा मेरी जेब में है। कोई अपमानसूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओए चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट जाऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूँगीए और फिर विधाता भी हमें अलग न कर सकेगा। विनयसिंह की दशा उस बालक की—सी थीए जो मिठाइयों के खोंचे को देखता हैए पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगीए मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैंए मालूम होता हैए दाँत किसी रसकु़ड में फिसल पडे। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैंए उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधाी होती है कि खाता ही चला जाए। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहींए किससे माँगेगी ज्यादा हठ करूँगाए तो रोने लगेंगी। सजल नेत्रा होकर बोला—सोफीए मैं भाग्यहीन आदमी हूँए मुझे इसी दशा मेंं रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधाता ने दुरूख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम...। सोफी ने बात काटकर कहा—विनयए मैं विपत्तिा ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख—सम्पन्न होतेए अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होताए अगर तुम वासनाओं के दास होतेए तो कदाचित्‌ मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है। विनय—अम्माँजी को तुम जानती होए वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी। सोफी—तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोधा को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहींए तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँए तो उनका हृदय पिघल जाएगा। विनय ने सोफी को स्नेहपूर्ण नेत्राों से देखकर कहा—तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिंदू—धार्म पर जान देती हैं। सोफी—मैं भी हिंदू—धार्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिलीए वह गोपियों की प्रेम—कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतारए जिसने गोपियों को प्रेम—रस पान करायाए जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगायाए जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्रा कियाए उसी की चेरी बनकर जाऊँगीए तो वह कौन सच्चा हिंदू हैए जो मेरी उपेक्षा करेगाघ् विनय ने मुस्कराकर कहा—उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दियाघ् मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम—कथा सर्वथा भक्त—कल्पना है। सोफी—हो सकती है। प्रभु मसीहा को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना—मात्रा है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई हैघ् लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्रा कीर्ति के भक्त हैंए और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहींए सूक्ष्म कल्पना से हुई हो। ये व्यक्तियों के नाम हों न होंए पर आदशोर्ं के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक—एक आदर्श है। विनय—सोफीए मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफीए तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाएए तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों की जंजीर चाहे न बन सकोए पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच—समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधान से मुक्त हुआए तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जाएगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफीए मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो। मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल चरित्राए विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँए मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसी दूसरी जगह प्रस्थान कर दो। सोफी—क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते होघ् विनय—नहीं—नहींए इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाए। कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। मैं तो समझता हूँए सरदार साहब ने तुम्हारी रक्षा के लिए यह व्यवस्था की हैए पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं। सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क—वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति—रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा—क्या ऐसा हुक्म दिया गया हैघ् विनय—हाँए मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था। सोफी—मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जाएगाए पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा। विनय—नहीं सोफीए मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा —श्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी द्रष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगाघ् तुम्हें पाकर मेरा जीवन नीरस हो जाएगाए मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जाएगी। सोफीए मेरे मुँह से न जाने क्या—क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राजसिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्ता हो जाएए तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरी तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ। सोफी—मेरी स्मरण—शक्ति इतनी शिथिल नहीं है। विनय—कम—से—कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करोय क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया हैए मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा। सोफी ने गम्भीर भाव से कहा—जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल हृदय समझती थीए तुम उससे कहीं बढ़़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँए और इसलिए कहती हूँए जैसी तुम्हारी इच्छा। पर शायद तुम्हें मालूम नहीं कि युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिए मना करोए उसी तरफ लपकेगा। अगर तुम आत्मप्रशंसा करतेए अपने कृत्यों की अप्रत्यक्ष रूप से डींग मारतेए तो शायद मुझे तुमसे अरुचि हो जाती। अपनी त्रुटीयों और दोषों का प्रदर्शन करके तुमने मुझे और भी वशीभूत कर लिया। तुम मुझसे डरते होए इसलिए तुम्हारे सम्मुख न आऊँगीए पर रहूँगी तुम्हारे ही साथ। जहाँ—जहाँ तुम जाओगेए मैं परछाईं की भाँति तुम्हारे साथ रहूँगी। प्रेम एक भावनागत विषय हैए भावना से ही उसका पोषण होता हैए भावना ही से वह जीवित रहता है और भावना से ही लुप्त हो जाता है। वह भौतिक वस्तु नहीं है। तुम मेरे होए यह विश्वास मेरे प्रेम को सजीव और सतृष्ण रखने के लिए काफी है। जिस दिन इस विश्वास की जड़ हिल जाएगीए उसी दिन इस जीवन का अंत हो जाएगा। अगर तुमने यही निश्चय किया है कि इस कारागार में रहकर तुम अपने जीवन के उद्देश्य को अधिक सफलता के साथ पूरा कर सकते होए तो इस फैसले के आगे सिर झुकाती हूँ। इस विराग ने मेरी द्रष्टि में तुम्हारे आदर को कई गुना बढ़़ा दिया है। अब जाती हूँ। कल शाम को फिर आऊँगी। मैंने इस आज्ञा—पत्रा के लिए जितना त्रिाया—चरित्रा खेला हैए वह तुमसे बता दूँए तो तुम आश्चर्य करोगे। तुम्हारी एक श्नहींश् ने मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर दिया। क्लार्क कहेगाए मैं कहता थाए वह राजी न होगाए कदाचित्‌ व्यंग्य करेय पर कोई चिंता नहींए कोई बहाना कर दूँगी। यह कहते—कहते सोफी के सतृष्ण अधार विनयसिंह की तरफ झुकेए पर वह कोई पैर फिसलनेवाले मनुष्य की भाँति गिरते—गिरते सँभल गई। धाीरे से विनयसिंह का हाथ दबाया और द्वार की ओर चलीय पर बाहर जाकर फिर लौट आई और अत्यंत दीन भाव से बोली—विनयए तुमसे एक बात पूछती हूँ। मुझे आशा हैए तुम साफ—साफ बतला दोगे। मैं क्लार्क के साथ यहाँ आईए उससे कौशल कियाए उसे झूठी आशाएँ दिलाईं और अब उसे मुगालते में डाले हुए हूँ। तुम इसे अनुचित तो नहीं समझतेए तुम्हारी द्रष्टि में मैं कलंकिनी तो नहीं हूँघ् विनय के पास इसका एक ही सम्भावित उत्तार था। सोफी का आचरण उसे आपत्तिाजनक प्रतीत होता था। उसे देखते ही उसने इस बात को आश्चर्य के रूप में प्रकट भी किया था। पर इस समय वह इस भाव को प्रकट न कर सका। यह कितना बड़ा अन्याय होताए कितनी घोर निर्दयता! वह जानता था कि सोफी ने जो कुछ किया हैए वह एक धार्मिक तत्तव के अधाीन होकर। वह इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझ रही है। अगर ऐसा न होताए तो शायद अब तक वह हताश हो गई होती। ऐसी दशा में कठोर सत्य वज्रपात के समान होता। श्रध्दापूर्ण तत्परता से बोले—सोफीए तुम यह प्रश्न करके अपने ऊपर और उससे अधिक मेरे ऊपर अन्याय कर रही हो। मेरे लिए तुमने अब तक त्याग—ही—त्याग किए हैंए सम्मानए समृध्दिए सिध्दांत एक की भी परवा नहीं की। संसार में मुझसे बढ़़कर कृतघ्न और कौन प्राणी होगाए जो मैं इस अनुराग का निरादर करूँ। यह कहते—कहते वह रुक गया। सोफी बोली—कुछ और कहना चाहते होए रुक क्यों गएघ् यही न कि तुम्हें मेरा क्लार्क के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। जिस दिन मुझे निराशा हो जाएगी कि मैं मिथ्याचरण से तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकतीए उसी दिन मैं क्लार्क को पैरों से ठुकरा दूँगी। इसके बाद तुम मुझे प्रेम—योगिनी के रूप में देखोगेए जिसके जीवन का एकमात्रा उद्देश्य होगा तुम्हारे ऊपर समर्पित हो जाना।

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अध्याय 20

मि. क्लार्क ने मोटर से उतरते ही अरदली को हुक्म दिया—डिप्टी साहब को फौरन हमारा सलाम दो। नाजिरए अहलमद और अन्य कर्मचारियों को भी तलब किया गया। सब—के—सब घबराए—यह आज असमय क्यों तलबी हुईए कोई गलती तो नहीं पकड़ी गईघ् किसी ने रिश्वत की शिकायत तो नहीं कर दीघ् बेचारों के हाथ—पाँव फूल गए।

डिप्टी साहब बिगड़े—मैं कोई साहब का जाती नौकर नहीं हूँ कि जब चाहाए तलब कर लिया। कचहरी के समय के भीतर जितनी बार चाहेंए तलब करेंय लेकिन यह कौन—सी बात है कि जब जी में आयाए सलाम भेज दिया। इरादा कियाए न चलूँय पर इतनी हिम्मत कहाँ कि साफ—साफ इनकार कर दें। बीमारी का बहाना करना चाहाय मगर अरदली ने कहा—हुजूरए इस वक्त न चलेंगेए तो साहब बहुत नाराज होंगे। कोई बहुत जरूरी काम हैए तभी तो मोटर से उतरते ही आपको सलाम दिया।

आखिर डिप्टी साहब को मजबूर होकर आना पड़ा। छोटे अमलों ने जरा भी चूँ न कीए अरदली की सूरत देखते ही हुक्का छोड़ाए चुपके से कपड़े पहनेए बच्चों को दिलासा दिया और हाकिम के हुक्म को अकाल—मृत्यु समझते हुएए गिरते—पड़ते बँगले पर आ पहुँचे। साहब के सामने आते ही डिप्टी साहब का सारा गुस्सा उड़ गयाए इशारों पर दौड़ने लगे। मि. क्लार्क ने सूरदास की जमीन की मिसिल मँगवाईए उसे बड़े गौर से पढ़़वाकर सुनाए तब डिप्टी साहब से राजा महेंद्रकुमार के नाम एक परवाना लिखवायाए जिसका आशय यह था—पाँड़ेपुर में सिगरेट के कारखाने के लिए जो जमीन ली गईए वह उस धारा के उद्देश्य के विरुध्द हैए इसलिए मैं अपनी अनुमति वापस लेता हूँ। मुझे इस विषय में धोखा दिया गया है और एक व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कानून का दुरुपयोग किया गया है।

डिप्टी साहब ने दबी जबान से शंका की—हुजूरए अब आपको वह हुक्म मंसूख करने का मजाज नहींय क्योंकि सरकार ने उसका समर्थन कर दिया है।

मिस्टर क्लार्क ने कठोर स्वर में कहा—हमीं सरकार हैंए हमने वह कानून बनाया हैए हमको सब अख्तियार है। आप अभी राजा साहब को परवाना लिख देंए कल लोकल गवर्नमेंट को उसकी नकल भेज दीजिएगा। जिले के मालिक हम हैंए सूबे की सरकार नहीं। यहाँ बलवा हो जाएगाए तो हमको इंतजाम करना पड़ेगाए सूबे की सरकार यहाँ न आएगी।

अमले थर्रा उठेए डिप्टी साहब को कोसने लगे—यह क्यों बीच में बोलते हैं। ऍंगरेज हैए कहीं गुस्से में आकर मार बैठेए तो उसका क्या ठिकाना। जिले का बादशाह हैए जो चाहेए करेए अपने से क्या मतलब।

डिप्टी साहब की छाती भी धाड़कने लगीए फिर जबान न खुली। परवाना तैयार हो गयाए साहब ने उस पर हस्ताक्षर कियाए उसी वक्त एक अरदली राजा साहब के पास परवाना लेकर पहुँचा। डिप्टी साहब वहाँ से उठेए तो मि. जॉन सेवक को इस हुक्म की सूचना दे दी।

जॉन सेवक भोजन कर रहे थे। यह समाचार सुनाए तो भूख गायब हो गई। बोले—यह मि. क्लार्क को क्या सूझीघ्

मिसेज सेवक ने सोफी की ओर तीव्र द्रष्टि से देखकर पूछा—तूने इनकार तो नहीं कर दियाघ् जरूर कुछ गोलमाल किया है।

सोफिया ने सिर झुकाकर कहा—बसए आपका गुस्सा मुझी पर रहता हैए जो कुछ करती हूँए मैं ही करती हूँ।

ईश्वर सेवक—प्रभु मसीहए इस गुनहगार को अपने दामन में छिपा। मैं आखिर तक मना करता रहा कि बुङ्‌ढ़े की जमीन मत लोय मगर कौन सुनता है। दिल में कहते होंगेए यह तो सठिया गया हैए पर यहाँ दुनिया देखे हुए हैं। राजा डरकर क्लार्क के पास आया होगा।

प्रभु सेवक—मेरी भी यही विचार है। राजा साहब ने स्वयं मिस्टर क्लार्क से कहा होगा। आजकल उनका शहर से निकलना मुश्किल हो रहा है। अंधो ने सारे शहर में हलचल मचा दी है।

जॉन सेवक—मैं तो सोच रहा थाए कल शांति—रक्षा के लिए पुलिस के जवान माँगूँगाए इधार यह गुल खिला! कुछ बुध्दि काम नहीं करती कि क्या बात हो गई।

प्रभु सेवक—मैं तो समझता हूँए हमारे लिए इस जमीन को छोड़ देना ही बेहतर होगा। आज सूरदास न पहुँच जाताए तो गोदाम की कुशल न थीए हजारों रुपये का सामान खराब हो जाता। यह उपद्रव शांत होनेवाला नहीं है।

जॉन सेवक ने उनकी हँसी उड़ाते हुए कहा—हाँए बहुत अच्छी बात हैए हम सब मिलकर उस अंधो के पास चलें और उसके पैरों पर सिर झुकाएँ। आज उसके डर से जमीन छोड़ दूँए कल चमड़े की आढ़़त तोड़ दूँए परसों यह बँगला छोड़ दूँ और इसके बाद मुँह छिपाकर यहाँ से कहीं चला जाऊँ। क्योंए यही सलाह है नघ् फिर शांति—ही—शांति हैए न किसी से लड़ाईए न किसी से झगड़ा। यह सलाह तुम्हें मुबारक रहे। संसार शांति भूमि नहींए समर भूमि है। यहाँ वीरों और पुरुषार्थियों की विजय होती हैए निर्बल और कायर मारे जाते हैं। मि. क्लार्क और राजा महेंद्रकुमार की हस्ती ही क्या हैए सारी सरकार भी अब इस जमीन को मेरे हाथों से नहीं छीन सकती। मैं सारे शहर में हलचल मचा दूँगाए सारे हिंदुस्तान को हिला डालूँगा। अधिकारियों की स्वेच्छाचारिता की यह मिसाल देश के सभी पत्राों में उध्दाृत की जाएगीए कौंसिलों और सभाओं में एक नहींए सहस्र—सहस्र कंठों से घोषित की जाएगी और उसकी प्रतिधवनि ऍंगरेजी पार्लियामेंट तक में पहुँचेगी। यह स्वजातीय उद्योग और व्यवसाय का प्रश्न है। इस विषय में समस्त भारत के रोजगारीए क्या हिंदुस्तानी और क्या ऍंगरेजए मेरे सहायक होंगेय और गवर्नमेंट कोई इतनी निर्बुध्दि नहीं है कि वह व्यवसायियों की सम्मिलित धवनि पर कान बंद कर ले। यह व्यापार—राज्य का युग है। योरप में बड़े—बड़े शक्तिशाली साम्राज्य पूँजीपतियों के इशारों पर बनते—बिगड़ते हैंए किसी गवर्नमेंट का साहस नहीं कि उनकी इच्छा का विरोधा करे। तुमने मुझे समझा क्या हैए वह नरम चारा नहीं हूँए जिसे क्लार्क और महेंद्र खा जाएँगे!

प्रभु सेवक तो ऐसे सिटपिटाए कि फिर जबान न खुली। धाीरे से उठकर चले गए। सोफिया भी एक क्षण के लिए सन्नाटे में आ गई। फिर सोचने लगी—अगर पापा ने आंदोलन किया भीए तो उसका नतीजा कहीं बरसों में निकलेगाए और यही कौन कह सकता है कि क्या नतीजा होगाय अभी से उसकी क्या चिंताघ् उसके गुलाबी ओठों पर विजय—गर्व की मुस्कराहट दिखाई दी। इस समय वह इंदु के चेहरे का उड़ता हुआ रंग देखने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर सकती थी—काशए मैं वहाँ मौजूद होती! देखती तो कि इंदु के चेहरे पर कैसी झेंप है। चाहे सदैव के लिए नाता टूट जाताय पर इतना जरूर कहती—देखा अपने राजा साहब का अधिकार और बलघ् इसी पर इतना इतराती थींघ् किंतु क्या मालूम था कि क्लार्क इतनी जल्दी करेंगे।

भोजन करके वह अपने कमरे में गई और रानी इंदु के मानसिक संताप का कल्पनातीत आनंद उठाने लगी—राजा साहब बदहवासए चेहरे का रंग उड़ा हुआए आकर इंदु के पास बैठ जाएँगे। इंदु देवी लिफाफा देखेगीए अॉंखों पर विश्वास न आएगाय फिर रोशनी तेज करके देखेंगीए तब राजा के अॉंसू पोछेंगी—आप व्यर्थ इतने खिन्न होते हैंए आप अपनी ओर से शहर में डुग्गी पिटवा दीजिए कि हमने सूरदास की जमीन सरकार से लड़कर वापस दिला दी। सारे नगर में आपके न्याय की धूम मच जाएगी। लोग समझेंगेए आपने लोकमत का सम्मान किया है। खुशामदी टट्टू कहीं का! चाल से विलियम को उल्लू बनाना चाहता था। ऐसी मुँह की खाई है कि याद ही करेगा। खैरए आज न सहीए कलए परसोंए नरसोंए कभी तो इंदुदेवी से मुलाकात होगी ही। कहाँ तक मुँह छिपाएँगी।

यह सोचते—सोचते सोफिया मेज पर बैठ गई और इस वृत्ताांत पर एक प्रहसन लिखने लगी।र् ईष्या से कल्पना—शक्ति उर्वर हो जाती है। सोफिया ने आज तक कभी प्रहसन न लिखा था। किंतु इस समयर् ईष्या के उद्‌गार में उसने एक घंटे के अंदर चार —श्यों का एक विनोदपूर्ण ड्रामा लिख डाला। ऐसी—ऐसी चोट करनेवाली अन्योक्तियाँ और हृदय में चुटकियाँ लेनेवाली फबतियाँ लेखनी से निकलीं कि उसे अपनी प्रतिभा पर स्वयं आश्चर्य होता था। उसे एक बार यह विचार हुआ कि मैं यह क्या बेवकूफी कर रही हूँ। विजय पाकर परास्त शत्रु को मुँह चिढ़़ाना परले सिरे की नीचता हैए परर् ईष्या में उसने समाधान के लिए एक युक्ति ढ़ूँढ़़ निकाली—ऐसे कपटीए सम्मान—लोलुपए विश्वास—घातकए प्रजा के मित्रा बनकर उसकी गर्दन पर तलवार चलानेवालेए चापलूस रईसों की यही सजा हैए उनके सुधार का एकमात्रा साधान है। जनता की निगाहों में गिर जाने का भय ही उन्हें सन्मार्ग पर ला सकता है। उपहास का भय न होए तो वे शेर हो जाएँए अपने सामने किसी को कुछ न समझें।

प्रभु सेवक मीठी नींद सो रहे थे। आधाी रात बीत चुकी थी। सहसा सोफिया ने आकर जगायाए चौंककर उठ बैठे और यह समझकर कि शायद इसके कमरे में चोर घुस आए हैंए द्वार की ओर दौड़े। गोदाम की घटना अॉंखों के सामने फिर गई। सोफी ने हँसते हुए उनका हाथ पकड़ लिया और पूछा—कहाँ भागे जाते होघ्

प्रभु सेवक—क्या चोर हैंघ् लालटेन जला लूँघ्

सोफिया—चोर नहीं हैए जरा मेरे कमरे में चलोए तुम्हें एक चीज सुनाऊँ। अभी लिखी है।

प्रभु सेवक—वाह—वाह! इतनी—सी बात के लिए नींद खराब कर दी। क्या फिर सबेरा न होताए क्या लिखा हैघ्

सोफिया—एक प्रहसन है।

प्रभु सेवक—प्रहसन! कैसा प्रहसनघ् तुमने प्रहसन लिखने का कब से अभ्यास कियाघ्

सोफिया—आज ही। बहुत जब्त किया कि सबेरे सुनाऊँगीय पर न रहा गया।

प्रभु सेवक सोफिया के कमरे में आए और एक ही क्षण में दोनों ने ठट्ठे मार—मारकर हँसना शुरू किया। लिखते समय सोफिया को जिन वाक्यों पर जरा भी हँसी न आई थीए उन्हीं को पढ़़ते समय उससे हँसी रोके न रुकती थी। जब कोई हँसनेवाली बात आ जातीए तो सोफी पहले ही से हँस पड़तीए प्रभु सेवक मुँह खोले हुए उसकी ओर ताकताए बात कुछ समझ में न आतीए मगर उसकी हँसी पर हँसताए और ज्यों ही बात समझ में आ जातीए हास्य—धवनि और भी प्रचंड हो जाती। दोनों के मुख आरक्त हो गएए अॉंखों से पानी बहने लगाए पेट में बल पड़ गएए यहाँ तक कि जबड़ों में दर्द होने लगा। प्रहसन के समाप्त होते—होते ठट्ठे की जगह खाँसी ने ले ली। खैरियत थी कि दोनों तरफ से द्वार बंद थेए नहीं तो उस निरूस्तब्धाता में सारा बँगला हिल जाता।

प्रभु सेवक—नाम भी खूब रखाए राजा मुछेंद्रसिंह। महेंद्र और मुछेंद्र की तुक मिलती है! पिलपिली साहब के हंटर खाकर मुछेंद्रसिंह का झुक—झुककर सलाम करना खूब रहा। कहीं राजा साहब जहर न खा लें।

सोफिया—ऐसा हयादार नहीं है।

प्रभु सेवक—तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो।

थोड़ी देर में दोनों अपने—अपने कमरे में सोये। सोफिया प्रातरूकाल उठी और मि. क्लार्क का इंतजार करने लगी। उसे विश्वास था कि वह आते ही होंगेए उनसे सारी बातें स्पष्ट रूप से मालूम होंगीए अभी तो केवल अफवाह सुनी है। सम्भव हैए राजा साहब घबराए हुए उनके पास अपना दुरूखड़ा रोने के लिए आए होंय लेकिन आठ बज गए और क्लार्क का कहीं पता न था। वह भी तड़के ही आने को तैयार थेय पर आते हुए झेंपते थे कि कहीं सोफिया यह न समझे कि इस जरा—सी बात का मुझ पर एहसान जताने आए हैं। इससे अधिक भय यह था कि वहाँ लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगाए या तो मुझे देखकर लोग दिल—ही—दिल में जलेंगेए या खुल्लमखुल्ला दोषारोपण करेंगे। सबसे ज्यादा खौफ ईश्वर सेवक का था कि कहीं वह दुष्टए पापीए शैतानए काफिर न कह बैठें। वृध्द आदमी हैंए उनकी बातों का जवाब ही क्याघ् इन्हीं कारणों से वह आते हुए हिचकिचाते थे और दिल में मना रहे थे कि सोफिया ही इधार आ निकले।

नौ बजे तक क्लार्क का इंतजार करने के बाद सोफिया अधाीर हो उठी। इरादा कियाए मैं ही चलूँ कि सहसा मि. जॉन सेवक आकर बैठ गए और सोफिया को क्रोधोन्मत्ता नेत्राों से देखकर बोले—सोफीए मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। तुमने मेरे सारे मंसूबे खाक में मिला दिए।

सोफिया—मैंने क्या कियाघ् मैं आपका आशय नहीं समझी।

जॉन सेवक—मेरा आशय यह है कि तुम्हारी ही दुष्प्रेरणा से मि. क्लार्क ने अपना पहला हुक्म रद्द किया है।

सोफिया—आपको भ्रम है।

जॉन सेवक—मैंने बिना प्रमाण के आज तक किसी पर दोषारोपण नहीं किया। मैं अभी इंदुदेवी से मिलकर आ रहा हूँ। उन्होंने इसके प्रमाण दिए कि यह तुम्हारी करतूत है।

सोफिया—आपको विश्वास है कि इंदु ने मुझ पर जो इलजाम रखा हैए वह ठीक हैघ्

जॉन सेवक—उसे असत्य समझने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है।

सोफिया—उसे सत्य समझने के लिए यदि इंदु का वचन काफी हैए तो उसे असत्य समझने के लिए मेरा बचन क्यों काफी नहीं हैघ्

जॉन सेवक—सच्ची बात विश्वासोत्पादक होती है।

सोफिया—यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अपनी बातों में वह नमक—मिर्च नहीं लगा सकतीय लेकिन मैं इसका आपको विश्वास दिलाती हूँ कि इंदु ने हमारे और विलियम के बीच में द्वेष डालने के लिए यह स्वाँग रचा है।

जॉन सेवक ने भ्रम में पड़कर कहा—सोफी मेरी तरफ देख। क्या तू सच कह रही हैघ्

सोफिया ने लाख यत्न किए कि पिता की ओर निश्शंक द्रष्टि से देखेय किंतु अॉंखें आप—ही—आप झुक गईं। मनोवृत्तिा वाणी को दूषित कर सकती हैय अंगों पर उसका जोर नहीं चलता। जिह्ना चाहे निरूशब्द हो जाएय पर अॉंखें बोलने लगती हैं। मिस्टर जॉन सेवक ने उसकी लज्जा—पीड़ित अॉंखें देखीं और क्षुब्धा होकर बोले—आखिर तुमने क्या समझकर ये काँटे बोएघ्

सोफिया—आप मेरे ऊपर घोर अन्याय कर रहे हैं। आपको विलियम ही से इसका स्पष्टीकरण कराना चाहिए। हाँए इतना अवश्य कहूँगी कि सारे शहर में बदनाम होने की अपेक्षा मैं उस जमीन का आपके अधिकार से निकल जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।

जॉन सेवक—अच्छा! तो तुमने मेरी नेकनामी के लिए यह चाल चली हैघ् तुम्हारा बहुत अनुगृहीत हूँ। लेकिन यह विचार तुम्हें बहुत देर में हुआ। ईसाई—जाति यहाँ केवल अपने धार्म के कारण इतनी बदनाम है कि उससे ज्यादा बदनाम होना असम्भव है। जनता का वश चलेए तो आज हमारे सारे गिरजाघर मिट्टी के ढ़ेर हो जाएँ। ऍंगरेजों से लोगों को इतनी चिढ़़ नहीं है। वे समझते हैं कि ऍंगरेजों का रहन—सहन और आचार—व्यवहार स्वजातीय है—उनके देश और जाति के अनुकूल है। लेकिन जब कोई हिंदुस्तानीए चाहे वह किसी मत का होए ऍंगरेजी आचरण करने लगता हैए तो जनता उसे बिलकुल गया—गुजरा समझ लेती हैए वह भलाई या बुराई के बंधानों से मुक्त हो जाता हैय उससे किसी को सत्कार्य की आशा नहीं होतीए उसके कुकमोर्ं पर किसी को आश्चर्य नहीं होता। मैं यह कभी न मानूँगा कि तुमने मेरी सम्मान—रक्षा के लिए यह प्रयास किया है। तुम्हारा उद्देश्य केवल मेरे व्यापारिक लक्ष्यों का सर्वनाश करना है। धार्मिक विवेचनाओं ने तुम्हारी व्यावहारिक बुध्दि को डावाँडोल कर दिया है। तुम्हें इतनी समझ भी नहीं है कि त्याग और परोपकार केवल एक आदर्श है—कवियों के लिएए भक्तों के मनोरंजन के लिएए उपदेशकों की वाणी को अलंकृत करने के लिए। मसीहए बुध्द और मूसा के जन्म लेने का समय अब नहीं रहाए धान—ऐश्वर्य निंदित होने पर भी मानवीय इच्छाओं का स्वर्ग है और रहेगा। खुदा के लिए तुम मुझ पर आने धार्म—सिध्दांतों की परीक्षा मत करोए मैं तुमसे नीति और धार्म के पाठ नहीं पढ़़ना चाहता। तुम समझती होए खुदा ने न्यायए सत्य और दया का तुम्हीं को इजारेदार बना दिया हैए और संसार में जितने धानीमानी पुरुष हैंए सब—के—सब अन्यायीए स्वेच्छाचारी और निर्दयी हैंए लेकिन ईश्वरीय विधान की कायल होकर भी तुम्हारा विचार है कि संसार में असमता और विषमता का कारण केवल मनुष्य की स्वार्थपरायणता हैए तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने धार्म—ग्रंथों का अनुशीलन अॉंखें बंद करके किया हैए उनका आशय नहीं समझा। तुम्हारे इस दूरव्यवहार से मुझे जितना दुरूख हो रहा हैए उसे प्रकट करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैंए और यद्यपि मैं कोई वली या फकीर नहीं हूँय लेकिन याद रखनाए कभी—न—कभी तुम्हें पितृद्रोह का खमियाजा उठाना पड़ेगा।

अहित—कामना क्रोधा की पराकाष्ठा है। श्इसका फल तुम ईश्वर से पाओगीश्—वह वाक्य कृपाण और भाले से ज्यादा घातक होता है। जब हम समझते हैं कि किसी दुष्कर्म का दंड देने के लिए भौतिक शक्ति काफी नहीं हैए तब हम आधयात्मिक दंड का विधान करते हैं। उसने न्यून कोई दंड हमारे संतोष के लिए काफी नहीं होता।

जॉन सेवक ये कोसने सुनाकर उठ गए। किंतु सोफिया को इन दुर्वचनों से लेशमात्रा भी दुरूख न हुआ। उसने यह ऋण भी इंदु ही के खाते में दर्ज किया और उसकी प्रतिहिंसा ने और उग्र रूप धारण कियाए उसने निश्चय किया—इस प्रहसन को आज ही प्रकाशित करूँगी। अगर एडीटर ने न छापाए तो स्वयं पुस्तकाकार छपवाऊँगी और मुफ्त बाँटूँगी। ऐसी कालिख लग जाए कि फिर किसी को मुँह न दिखा सके।

ईश्वर सेवक ने जॉन सेवक की कठोर बातें सुनींए तो बहुत नाराज हुए। मिसेज सेवक को भी यह व्यवहार बुरा लगा। ईश्वर सेवक ने कहा—न जाने तुम्हें अपने हानि—लाभ का ज्ञान कब होगा। बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है। तुम्हें इस अवसर पर इतने धौर्य और गम्भीरता से काम लेना था कि जितनी क्षति हो चुकी हैए उसकी पूर्ति हो जाए। घर का एक कोना गिर पड़ेए तो सारा घर गिरा देना बुध्दिमत्ताा नहीं है। जमीन गई तो ऐसी कोई तदबीर सोचो कि उस पर फिर तुम्हारा कब्जा हो। यह नहीं कि जमीन के साथ अपनी मान—मर्यादा भी खो बैठो। जाकर राजा साहब को मि. क्लार्क के फैसले की अपील करने पर तैयार करो और मि. क्लार्क से अपना मेल—जोल बनाए रखो। यह समझ लो कि उनसे तुम्हें कोई नुकसान ही नहीं पहुँचा। सोफी को बरहम करके तुम क्लार्क को अनायास अपना शत्रु बना रहे हो। हाकिमों तक पहुँच रहेगीए तो ऐसी कितनी ही जमीनें मिलेंगी। प्रभु मसीहए मुझे अपने दामन में छिपाओ और यह संकट टालो।

मिसेज सेवक—मैं तो इतनी मिंनतों से उसे यहाँ लाई और तुम सारे किए—धारे पर पानी फेरे देते हो।

ईश्वर सेवक—प्रभुए मुझे आसमान की बादशाहत दे। अगर यही मान लिया जाए कि सोफी के इशारे से यह बात हुईए तो भी हमें उससे कोई शिकायत न होनी चाहिएए बल्कि मेरे दिल में तो उसका सम्मान और बढ़़ गया हैए उसे खुदा ने सच्ची रोशनी प्रदान की हैए उसमें भक्ति और विश्वास की बरकत है। उसने जो कुछ किया हैए उसकी प्रशंसा न करना न्याय का गला घोंटना है। प्रभु मसीह ने अपने को दीन—दुरूखी प्राणियों पर बलिदान कर दिया। दुर्भाग्य से हममें उतनी श्रध्दा नहीं। हमें अपनी स्वार्थपरता पर लज्जित होना चाहिए। सोफी के मनोभावों की उपेक्षा करना उचित नहीं। पापी पुरुष किसी साधु को देखकर दिल में शरमाता हैए उससे वैर नहीं ठानता।

जॉन सेवक—यह न भक्ति है और न धार्मानुरागए केवल दुराग्रह और द्वेष है।

ईश्वर सेवक ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपनी लकड़ी टेकते हुए सोफी के कमरे में आए और बोले—बेटीए मेरे आने से तुम्हारा कोई हरज तो नहीं हुआघ्

सोफिया—नहीं—नहींए आइएए बैठिए।

ईश्वर सेवक—ईसूए इस गुनाहगार को ईमान की रोशनी दे। अभी जॉन सेवक ने तुम्हें बहुत कुछ बुरा—भला कहा हैए उन्हें क्षमा करो। बेटीए दुनिया में खुदा की जगह अपना पिता ही होता हैए उसकी बातों का बुरा न मानना चाहिए। तुम्हारे ऊपर खुदा का हाथ हैए खुदा की बरकत है। तुम्हारे पिता का सारा जीवन स्वार्थ—सेवा में गुजरा है और वह अभी तक उसका उपासक है। खुदा से दुआ करो कि उसके हृदय का अंधाकार ज्ञान की दिव्य ज्योति से दूर कर दे। जिन लोगों ने हमारे प्रभु मसीह को नाना प्रकार के कष्ट दिए थेए उनके विषय में प्रभु ने कहा था—खुदाए उन्हें मुआफ कर। वे नहीं जानते कि हम क्या करते हैं।

सोफी—मैं आपसे सच कहती हूँए मुझे पापा की बातों का जरा भी मलाल नहीं हैय लेकिन वह मुझ पर मिथ्या दोष लगाते हैं। इंदु की बातों के सामने मेरी बातों को कुछ समझते ही नहीं।

ईश्वर सेवक—बेटीए यह उनकी भूल है। मगर तुम अपने दिल से उन्हें क्षमा कर दो। सांसारिक प्राणियों की इतनी निंदा की गई हैय पर न्याय से देखोए तो वे कितनी दया के पात्रा हैं। आखिर आदमी जो कुछ करता हैए अपने बाल—बच्चों के लिए ही तो करता है—उन्हीं के सुख और शांति के लिएए उन्हीं को संसार की वक्र द्रष्टि से बचाने के लिए वह निंदाए अपमानए सब कुछ सहर्ष सह लेता हैए यहाँ तक कि अपनी आत्मा और धार्म को भी उन पर अर्पित कर देता है। ऐसी दशा में जब वह देखता है कि जिन लोगों के हित के लिए मैं अपना रक्त और पसीना एक कर रहा हूँए वे ही मुझसे विरोधा कर रहे हैंए तो वह झुँझला जाता है। तब उसे सत्यासत्य का विवेक नहीं रहता। देखोए क्लार्क से भूलकर भी इन बातों का जिक्र न करनाए नहीं तो आपस में मनोमालिन्य बढ़़ेगा। वचन देती होघ्

ईश्वर सेवक जब उठकर चले गएए तो प्रभु सेवक ने आकर पूछा—वह प्रहसन कहाँ भेजाघ्

सोफिया—अभी तो कहीं नहीं भेजाए क्या भेज ही दूँघ्

प्रभु सेवक—जरूर—जरूरए मजा आ जाएगाए सारे शहर में धूम मच जाएगी।

सोफिया—जरा दो—एक दिन देख लूँ।

प्रभु सेवक—शुभ कार्य में विलम्ब न होना चाहिएए आज ही भेजोए मैंने भी आज अपनी कथा समाप्त कर दी। सुनाऊँघ्

सोफिया—हाँ—हाँए पढ़़ो।

प्रभु सेवक ने अपनी कविता सुनानी शुरू की। एक—एक शब्द करुण रस में सराबोर था। कथा इतनी दर्दनाक थी कि सोफी की अॉंखों से अॉंसू की झड़ी लग गई। प्रभु सेवक भी रो रहे थे। क्षमा और प्रेम के भाव एक—एक शब्द से उसी भाँति टपक रहे थेए जैसे अॉंखों से अॉंसू की बूँदें। कविता समाप्त हो गईए तो सोफी ने कहा—मैंने कभीए अनुमान भी न किया था कि तुम इस रस का आस्वादन इतनी कुशलता से करा सकते हो! जी चाहता हैए तुम्हारी कलम चूम लूँ। उफ! कितनी अलौकिक क्षमा है! बुरा न माननाए तुम्हारी रचना तुमसे कहीं ऊँची है। ऐसे पवित्राए कोमल और ओजस्वी भाव तुम्हारी कलम से कैसे निकल आते हैंघ्

प्रभु सेवक—उसी तरहए जैसे इतने हास्योत्पादक और गर्वनाशक भाव तुम्हारी कलम से निकले। तुम्हारी रचना तुमसे कहीं नीची है।

सोफी—मैं क्याए और मेरी रचना क्या। तुम्हारा एक—एक छंद बलि जाने के योग्य है। वास्तव में क्षमा मानवीय भावों में सर्वोपरि है। दया का स्थान इतना ऊँचा नहीं। दया वह दाना हैए जो पोली धारती पर उगता है। इसके प्रतिकूल क्षमा वह दाना हैए जो काँटों में उगता है। दया वह धारा हैए जो समतल भूमि पर बहती हैए क्षमा कंकड़ों और चट्टानों में बहनेवाली धारा है। दया का मार्ग सीधा और सरल हैए क्षमा का मार्ग टेढ़़ा और कठिन है। तुम्हारा एक—एक शब्द हृदय में चुभ जाता है। आश्चर्य हैए तुममें क्षमा का लेश भी नहीं है!

प्रभु सेवक—सोफीए भावों के सामने आचरण का कोई महत्तव नहीं है। कवि का कर्मक्षेत्रा सीमित होता हैए पर भावक्षेत्रा अनंत और अपार है। उसी प्राणी को तुच्छ मत समझोए जो त्याग और निवृत्तिा का राग अलापता होए पर स्वयं कौड़ियों पर जान देता हो। सम्भव हैए उसकी बाणी किसी महान्‌ पापी के हृदय में जा पहुँचे।

सोफी—जिसके वचन और कर्म में इतना अंतर होए उसे किसी और ही नाम से पुकारना चाहिए।

प्रभु सेवक—नहीं सोफीए यह बात नहीं है। कवि के भाव बतलाते हैं कि यदि उसे अवसर मिलताए तो वह क्या कुछ हो सकता था। अगर वह अपने भावों की उच्चता को न प्राप्त कर सकाए तो इसका कारण केवल यह है कि परिस्थिति उसके अनुकूल न थी।

भोजन का समय आ गया। इसके बाद सोफी ने ईश्वर सेवक को बाइबिल सुनाना शुरू किया। आज की भाँति विनीत और शिष्ट वह कभी न हुई थी। ईश्वर सेवक की ज्ञान—पिपासा उसकी चेतना को दबा बैठी थी। निद्रावस्था ही उनकी आंतरिक जागृति थी। कुरसी पर लेटे हुए वह खर्राटे ले—लेकर देव—ग्रंथ का श्रवण करते थे। पर आश्चर्य यह था कि पढ़़नेवाला उन्हें निद्रा—मग्न समझकर ज्यों ही चुप हो जाताए वह तुरंत बोल उठते—हाँ—हाँए पढ़़ोए चुप क्यों होए मैं सुन रहा हूँ।

सोफी को बाइबिल का पाठ करते—करते संधया हो गईए तो उसका गला छूटा। ईश्वर सेवक बाग में टहलने चले गए और प्रभु सेवक को सोफी से गपशप करने का मौका मिला।

सोफी—बड़े पापा एक बार पकड़ पाते हैंए तो फिर गला नहीं छोड़ते।

प्रभु सेवक—मुझसे बाइबिल पढ़़ने को नहीं कहते। मुझसे तो क्षण—भर भी वहाँ न बैठा जाए। तुम न जाने कैसे बैठी पढ़़ती रहती हो।

सोफी—क्या करूँए उन पर दया आती है।

प्रभु सेवक—बना हुआ है। मतलब की बात पर कभी नहीं चूकता। यह सारी भक्ति केवल दिखाने की है।

सोफी—यह तुम्हारा अन्याय है। उनमें और चाहे कोई गुण न होए पर प्रभु मसीह पर उनका —ढ़़ विश्वास है। चलोए कहीं सैर करने चलते होघ्

प्रभु सेवक—कहाँ चलोगीघ् चलोए यहीं हौज के किनारे बैठकर कुछ काव्य—चर्चा करें। मुझे तो इससे ज्यादा आनंद और किसी बात में नहीं मिलता।

सोफी—चलोए पाँड़ेपुर की तरफ चलें। कहीं सूरदास मिल गयाए तो उसे यह खबर सुनाएँगे।

प्रभु सेवक—फूला न समाएगाए उछल पड़ेगा।

सोफी—जरा शह पा जाएए तो इस राजा को शहर से भगाकर ही छोड़े।

दोनों ने सड़क पर आकर एक ताँगा किराए पर किया और पाँड़ेपुर चले। सूर्यास्त हो चुका था। कचहरी के अमले बगल में बस्ते दबाएए भीरुता और स्वार्थ की मूर्ति बने चले आते थे। बँगलों में टेनिस हो रहा था। शहर के शोहदे दीन—दुनिया से बेखबर पानवालों की दूकानों पर जमा थे। बनियों की दूकानों पर मजदूरों की स्त्रिायाँ भोजन की सामग्रियाँ ले रही थीं। ताँगा बरना नदी के पुल पर पहुँचा था कि अकस्मात्‌ आदमियों की एक भीड़ दिखाई दी। सूरदास खंजरी बजाकर गा रहा था। सोफी ने ताँगा रोक दिया और ताँगेवाले से कहा—जाकर उस अंधो को बुला ला।

एक क्षण में सूरदास लाठी टेकता हुआ आया और सिर झुकाकर खड़ा हो गया।

सोफी—मुझे पहचानते हो सूरदासघ्

सूरदास—हाँए भला हुजूर ही को न पहचानूँगा!

सोफी—तुमने तो हम लोगों को सारे शहर में खूब बदनाम किया।

सूरदास—फरियाद करने के सिवा मेरे पास और कौन बल थाघ्

सोफी—फरियाद का क्या नतीजा निकलाघ्

सूरदास—मेरी मनोकामना पूरी हो गई। हाकिमों ने मेरी जमीन मुझे दे दी। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई काम तन—मन से किया जाएए और उसका कुछ फल न निकले। तपस्या से तो भगवान्‌ मिल जाते हैं। बड़े साहब के अरदली ने कल रात ही को मुझे यह हाल सुनाया। आज पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराना है। कल घर चला जाऊँगा।

प्रभु सेवक—मिस साहब ही ने बड़े साहब से कह—सुनकर तुम्हारी जमीन दिलवाई है। इनके पिता और राजा साहब दोनों ही इनसे नाराज हो गए हैं। इनकी तुम्हारे ऊपर बड़ी दया है।

सोफी—प्रभुए तुम बड़े पेट के हलके हो। यह कहने से क्या फायदा कि मिस साहब ने जमीन दिलवाई हैघ् यह तो कोई बहुत बड़ा काम नहीं है।

सूरदास—साहबए यह तो मैं उसी दिन जान गया थाए जब मिस साहब से पहले—पहल बातें हुई थीं। मुझे उसी दिन मालूम हो गया कि इनके चित्ता में दया और धारम है। इसका फल भगवान्‌ इनको देंगे।

सोफी—सूरदासए यह मेरी सिफारिश का फल नहींए तुम्हारी तपस्या का फल है। राजा साहब को तुमने खूब छकाया। अब थोड़ी—सी कसर और है। ऐसा बदनाम कर दो कि शहर में किसी को मुँह न दिखा सकेंए इस्तीफा देकर अपने इलाके की राह लें।

सूरदास—नहीं मिस साहबए यह खिलाड़ियों की नीति नहीं है। खिलाड़ी जीतकर हारनेवाले खिलाड़ी की हँसी नहीं उड़ाताए उससे गले मिलता है और हाथ जोड़कर कहता है—श्भैयाए अगर हमने खेल में तुमसे कोई अनुचित बात कही होए या कोई अनुचित व्योहार किया होए तो हमें माफ करना।श् इस तरह दोनों खिलाड़ी हँसकर अलग होते हैंए खेल खतम होते ही दोनों मित्रा बन जाते हैंए उनमें कोई कपट नहीं रहता। मैं आज राजा साहब के पास गया था और उनके हाथ जोड़ आया। उन्होंने मुझे भोजन कराया। जब चलने लगा तो बोलेए मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ हैए कोई शंका मत करना।

सोफिया—ऐसे दिल के साफ तो नहीं हैंए मौका पाकर अवश्य दगा करेंगेए मैं तुमसे कहे देती हूँ।

सूरदास—नहीं मिस साहबए ऐसा मत कहिए। किसी पर संदेह करने से अपना चित्ता मलिन होता है। वह विद्वान्‌ हैंए धार्मात्मा हैंए कभी दगा नहीं कर सकते। और जो दगा ही करेंगेए तो उन्हीं का धारम जाएगाय मुझे क्याए मैं फिर इसी तरह फरियाद करता रहूँगा। जिस भगवान्‌ ने अबकी बार सुना हैए वही भगवान्‌ फिर सुनेंगे।

प्रभु सेवक—और जो कोई मुआमला खड़ा करके कैद करा दिया तोघ्

सूरदास—(हँसकर) इसका फल उन्हें भगवान्‌ से मिलेगा। मेरा धारम तो यही है कि जब कोई मेरी चीज पर हाथ बढ़़ाएए तो उसका हाथ पकड़ लूँ। वह लड़ेए तो लड़ूँए और उस चीज के लिए प्रान तक दे दूँ। चीज मेरे हाथ आएगीए इससे मुझे मतलब नहींय मेरा काम तो लड़ना हैए और वह भी धारम की लड़ाई लड़ना। अगर राजा साहब दगा भी करेंए तो मैं उनसे दगा न करूँगा।

सोफिया—लेकिन मैं तो राजा साहब को इतने सस्ते न छोड़ँगी।

सूरदास—मिस साहबए आप विद्वान्‌ होकर ऐसी बातें करती हैंए इसका मुझे अचरज है। आपके मुँह से ये बातें शोभा नहीं देतीं। नहींए आप हँसी कर रही हैं। आपसे कभी ऐसा काम नहीं हो सकता।

इतने में किसी ने पुकारा—सूरदासए चलो ब्राह्मण लोग आ गए हैं।

सूरदास लाठी टेकता घाट की ओर चला। ताँगा भी चला।

प्रभु सेवक ने कहा—चलोगी मि. क्लार्क की तरफघ्

सोफिया ने कहा—नहींए घर चलो।

रास्ते में कोई बातचीत नहीं हुई। सोफिया किसी विचार में मग्न थी। दोनों आदमी सिगरा पहुँचेए तो चिराग जल चुके थे। सोफी सीधो अपने कमरे में गईए मेज का ड्राअर खोलाए प्रहसन का हस्त—लेख निकाला और टुकड़े—टुकड़े करके जमीन पर फेंक दिया।

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अध्याय 21

सूरदास के आर्तनाद ने महेंद्रकुमार की ख्याति और प्रतिष्ठा को जड़ से हिला दिया। वह आकाश से बातें करनेवाला कीर्ति—भवन क्षण—भर में धाराशायी हो गया। नगर के लोग उनकी सेवाओं को भूल—से गए। उनके उद्योग से नगर का कितना उपकार हुआ थाए इसकी किसी को याद ही न रही। नगर की नालियाँ और सड़केंए बगीचे और गलियाँए उनके अविश्रांत प्रयत्नों की कितनी अनुगृहीत थीं! नगर की शिक्षा और स्वास्थ्य को उन्होंने किस हीनावस्था से उठाकर उन्नति के मार्ग पर लगाया थाए इसकी ओर कोई धयान ही न देता था। देखते—देखते युगांतर हो गया। लोग उनके विषय में आलोचनाएँ करते हुए कहते—अब वह जमाना नहीं रहाए जब राजे—रईसों के नाम आदर से लिए जाते थेए जनता को स्वयं ही उनमें भक्ति होती थी। वे दिन बिदा हो गए। ऐश्वर्य—भक्ति प्राचीन काल की राज्य—भक्ति ही का एक अंश थी। राजाए जागीरदारए यहाँ तक कि अपने जमींदार पर प्रजा सिर कटा देती थी। यह सर्वमान्य नीति—सिध्दांत था कि राजा भोक्ता हैए प्रजा भोग्य है। यही सृष्टि का नियम थाए लेकिन आज राजा और प्रजा में भोक्ता और भोग्य का सम्बंधा नहीं हैए अब सेवक और सेव्य का सम्बंधा है। अब अगर किसी राजा की इज्जत हैए तो उसकी सेवा—प्रवृत्तिा के कारणए अन्यथा उसकी दशा दाँतों—तले दबी हुई जिह्ना की—सी है। प्रजा को भी उस पर विश्वास नहीं आता। जब जनता उसी का सम्मान करती हैए उसी पर न्योछावर होती हैए जिसने अपना सर्वस्व प्रजा पर अर्पित कर दिया होए जो त्याग—धान का धानी हो। जब तक कोई सेवा—मार्ग पर चलना नहीं सीखताए जनता के दिलों में घर नहीं कर पर पाता।

राजा साहब को अब मालाूम हुआ कि प्रसिध्दि श्वेत वस्त्रा के स—श हैए जिस पर एक धाब्बा भी नहीं छिप सकता। जिस तरफ उनकी मोटर निकल जातीए लोग उन पर आवाजें कसतेए यहाँ तक कि कभी—कभी तालियाँ भी पड़तीं। बेचारे बड़ी विपत्तिा में फँसे हुए थे। ख्याति—लाभ करने चले थेए मर्यादा से भी हाथ धोया। और अवसरों पर इंदु से परामर्श कर लिया करते थेए इससे हृदय को शांति मिलती थीए पर अब वह द्वार भी बंद था। इंदु से सहानुभूति की कोई आशा न थी।

रात के नौ बजे थे। राजा साहब अपने दीवानखाने में बैठे हुए इसी समस्या पर विचार कर रहे थे—लाोग कितने कृतघ्न होते हैंय मैंने अपने जीवन के सात वर्ष उनकी निरंतर सेवा में व्यतीत कर दिए। अपना कितना समयए कितना अनुभवए कितना सुख उनकी नजर किया! उसका मुझे आज यह उपहार मिल रहा है कि एक अंधा भिखारी मुझे सारे शहर में गालियाँ देता फिरता है और कोई उसकी जबान नहीं पकड़ताए बल्कि लोग उसे और भी उकसाते और उत्तोजित करते हैं। इतने सुव्यवस्थित रूप से अपने इलाके का प्रबंधा करताए तो अब तक निकासी में लाखों रुपये की वृध्दि हो गई होती। एक दिन वह था कि जिधार से निकल जाता थाए लोग खड़े हो—होकर सलाम करते थेए सभाओं में मेरा व्याख्यान सुनने के लिए लोग उत्सुक रहते थे और मुझे अंत में बोलने का अवसर मिलता थाय और एक दिन यह है कि मुझ पर तालियाँ पड़ती हैं और मेरा स्वाँग निकालने की तैयारियाँ की जाती हैं। अंधो में फिर भी विवेक हैए नहीं तो बनारस के शोहदे दिन—दहाड़े मेरा घर लूट लेते।

सहसा अरदली ने आकर मि. क्लार्क का आज्ञा—पत्रा उनके सामने रख दिया। राजा साहब ने चौंककर लिफाफा खोलाए तो अवाक्‌ रह गए। विपत्तिा—पर—विपत्तिा! रही—सही इज्जत भी खाक में मिल गई।

चपरासी—हुजूरए कुछ जवाब देंगेघ्

राजा साहब—जवाब की जरूरत नहीं।

चपरासी—कुछ इनाम नहीं मिला। हुजूर ही...

राजा साहब ने उसे और कुछ न कहने दिया। जेब से एक रुपया निकालकर फेंक दिया। अरदली चला गया।

राजा साहब सोचने लगे—दुष्ट को इनाम माँगते शर्म भी नहीं आतीए मानो मेरे नाम कोई धान्यवाद—पत्रा लाए हैं। कुत्तो हैंए और क्याए कुछ न दोए तो काटने दौड़ेंए झूठी—सच्ची शिकायतें करें। समझ में नहीं आताए क्लार्क ने क्यों अपना हुक्म मंसूख कर दिया। जॉन सेवक से किसी बात पर अनबन हो गई क्याघ् शायद सोफिया ने क्लार्क को ठुकरा दिया। चलोए यह भी अच्छा ही हुआ। लोग यह तो कहेंगे ही कि अंधो ने राजा साहब को नीचा दिखा दियाय पर इस दुहाई से तो गला छूटेगा।

उनकी दशा इस समय उस आदमी की—सी थीए जो अपने मुँह—जोर घोड़े के भाग जाने पर खुश हो। अब हव्यिों के टूटने का भय तो नहीं रहा। मैं घाटे में नहीं हूँ। अब रूठी रानी भी प्रसन्न हो जाएँगी। इंदु से कहूँगाए मैंने ही मिस्टर क्लार्क से अपना फैसला मंसूख करने के लिए कहा है।

वह कई दिन से इंदु से मिलने न गए थे। अंदर जाते हुए डरते थे कि इंदु के तानों का क्या जवाब दूँगा। इंदु भी इस भय से उनके पास न आती थी कि कहीं फिर मेरे मुँह से कोई अप्रिय शब्द न निकल जाए। प्रत्येक दाम्पत्य—कलह के पश्चात्‌ जब वह उसके कारणों पर शांत हृदय से विचार करती थीए तो उसे ज्ञात होता था कि मैं ही अपराधिन हूँए और अपने दुराग्रह पर उसे हार्दिक दुरूख होता था। उसकी माता ने बाल्यावस्था ही से पातिव्रत्य का बड़ा ऊँचा आदर्श उसके सम्मुख रहा था। उस आदर्श से गिरने पर वह मन—ही—मन कुढ़़ती और अपने को धिक्कारती थी—मेरा धार्म उनकी आज्ञा का पालन करना है। मुझे तन—मन से उनकी सेवा करनी चाहिए। मेरा सबसे पहलार् कत्ताव्य उनके प्रति हैए देश और जाति का स्थान गौण हैय पर मेरा दुर्भाग्य बार—बार मुझेर् कत्ताव्य—मार्ग से विचलित कर देता है। मैं इस अंधो के पीछे बरबस उनसे उलझ पड़ी। वह विद्वान हैंए विचारशील हैं। यह मेरी धाृष्टता है कि मैं उनकी अगुआई करने का दावा करती हूँ। जब मैं छोटी—छोटी बातों में मानापमान का विचार करती हूँए तो उनसे कैसे आशा करूँ कि वह प्रत्येक विषय में निष्पक्ष हो जाएँ।

कई दिन तक मन में यह खिचड़ी पकाते रहने के कारण उसे सूरदास से चिढ़़ हो गई। सोचा—इसी अभागे के कारण मैं यह मनस्ताप भोग रही हूँ। इसी ने यह मनोमालिन्य पैदा कराया है। आखिर उस जमीन से मुहल्लेवालों ही का निस्तार होता है नए तो जब उन्हें कोई आपत्तिा नहीं हैए तो अंधो की क्यों नानी मरती है! किसी की जमीन पर कोई जबरदस्ती क्यों अधिकार करेए यह ढ़कोसला हैए और कुछ नहीं। निर्बल जन आदिकाल से ही सताये जाते हैं और सताये जाते रहेंगे। जब यह व्यापक नियम हैए तो क्या एक कमए क्या एक ज्यादा।

इन्हीं दिनों सूरदास ने राजा साहब को शहर में बदनाम करना शुरू कियाए तो उसके ममत्व का पलड़ा बड़ी तेजी से दूसरी ओर झुका। उसे सूरदास के नाम से चिढ़़ हो गई—यह टके का आदमी और इसका इतना साहस कि हम लोगों के सिर चढ़़े। अगर साम्यवाद का यही अर्थ हैए तो ईश्वर हमें इससे बचाए। यह दिनों का फेर हैए नहीं तो इसकी क्या मजाल थी कि हमारे ऊपर छींटे उड़ाता।

इंदु दीन जनों पर दया कर सकती थी—दया में प्रभुत्व का भाव अंतर्हित है—न्याय न कर सकती थीए न्याय की भित्तिा साम्य पर है। सोचती—यह उस बदमाश को पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर देतेघ् मुझसे तो यह अपमान न सहा जाता। परिणाम कुछ होताए पर इस समय तो इस बुरी तरह पेश आती कि देखनेवालों के रोयें खड़े हो जाते।

वह इन्हीं कुत्सित विचारों में पड़ी हुई थी कि सोफिया ने जाकर उसके सामने राजा साहब पर सूरदास के साथ अन्याय करने का अपराधा लगायाए खुली हुई धामकी दे गई। इंदु को इतना क्रोधा आया कि सूरदास को पातीए तो उसका मुँह नोच लेती। सोफिया के जाने के बाद वह क्रोधा में भरी हुई राजा साहब से मिलने आईय पर बाहर मालूम हुआ कि वह कुछ दिन के लिए इलाके पर गए हुए हैं। ये दिन उसने बड़ी बेचौनी में काटे। अफसोस हुआ कि गए और मुझसे पूछा भी नहीं!

राजा साहब जब इलाके से लौटेए तो उन्हें मि. क्लार्क का परवाना मिला। वह उस पर विचार कर रहे थे कि इंदु उनके पास आई और बोली—इलाके पर गए और मुझे खबर तक न हुईए मानो मैं घर में हूँ ही नहीं।

राजा ने लज्जित होकर कहा—ऐसा ही एक जरूरी काम था। एक दिन की भी देर हो जातीए तो इलााके में फौजदारी हो जाती। मुझे अब अनुभव हो रहा है कि ताल्लुकेदारों के अपने इलाके पर न रहने से प्रजा को कितना कष्ट होता है।

श्इलाके में रहतेए तो कम—से—कम इतनी बदनामी तो न होती।श्

श्अच्छाए तुम्हें भी मालूम हो गया। तुम्हारा कहना न मानने में मुझसे बड़ी भूल हुई। इस अंधो ने ऐसी विपत्तिा में डाल दिया कि कुछ करते—धारते नहीं बनता। सारे शहर में बदनाम कर रहा है। न जाने शहरवालों को इससे इतनी सहानुभूति कैसे हो गई। मुझे इसकी जरा भी आशंका न थी कि शहरवालों को मेरे विरुध्द खड़ा कर देगा।श्

श्मैंने तो जब से सुना है कि अंधा तुम्हें बदनाम कर रहा हैए तब से ऐसा क्रोधा आ रहा है कि वश चलेए तो उसे जीता चुनवा दूँ।

राजा साहब ने प्रसन्न होकर कहा—तो हम दोनों घूम—घामकर एक ही लक्ष्य पर आ पहुँचे।

श्इस दुष्ट को ऐसा दंड देना चाहिए कि उम्र—भर याद रहे।श्

श्मिस्टर क्लार्क ने इसका फैसला खुद ही कर दिया। सूरदास की जमीन वापस कर दी गई।श्

इंदु को ऐसा मालूम हुआ कि जमीन धाँस रही है और मैं उसमें समाई जा रही हूँ। वह दीवार न थाम लेतीए तो जरूर गिर पड़ती—सोफिया ने मुझे यों नीचा दिखाया है। मेरे साथ वह कूटनीति चली है। हमारी मर्यादा को धूल में मिलाना चाहती है। चाहती है कि मैं उसके कदम चूमूँ। कदापि नहीं।

उसने राजा साहब से कहा—अब आप क्या करेंगेघ्

श्कुछ नहींए करना क्या है। सच पूछोए तो मुझे इसका जरा भी दुरूख नहीं है। मेरा तो गला छूट गया।श्

श्और हेठी कितनी हुई!श्

श्हेठी जरूर हुईय पर इस बदनामी से अच्छी है।श्

इंदु का मुख—मंडल गर्व से तमतमा उठा। बोली—यह बात आपके मुँह से शोभा नहीं देती। यह नेकनामी—बदनामी का प्रश्न नहीं हैए अपनी मर्यादा—रक्षा का प्रश्न है। आपकी कुल—मर्यादा पर आघात हुआ हैए उसकी रक्षा करना आपका परम धार्म हैए चाहे उसके लिए न्याय के सिध्दांतों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। मि. क्लार्क की हस्ती ही क्या हैए मैं किसी सम्राट्‌ के हाथों भी अपनी मर्यादा की हत्या न होने दूँगीए चाहे इसके लिए मुझे अपना सर्वस्वए यहाँ तक कि प्राण भी देना पड़े। आप तुरंत गवर्नर को मि. क्लार्क के न्याय—विरुध्द हस्तक्षेप की सूचना दीजिए। हमारे पूर्वजों ने ऍंगरेजों की उस समय प्राण—रक्षा की थीए जब उनकी जानों के लाले पड़े हुए थे। सरकार उन एहसानों को मिटा नहीं सकती। नहींए आप स्वयं जाकर गवर्नर से मिलिएए उनसे कहिए कि मि. क्लार्क के हस्तक्षेप से मेरा अपमान होगाए मैं जनता की द्रष्टि में गिर जाऊँगा और शिक्षित—वर्ग को सरकार में लेश—मात्रा विश्वास न रहेगा। साबित कर दीजिए कि किसी रईस का अपमान करना दिल्लगी नहीं है।

राजा साहब ने चिंतित स्वर में कहा—मि. क्लार्क से सदा के लिए विरोधा हो जाएगा। मुझे आशा नहीं है कि उनके मुकाबले में गवर्नर मेरा पक्ष ले। तुम इन लोगों को जानती नहीं हो। इनकी अफसरी—मातहती दिखाने—भर की हैए वास्तव में सब एक हैं। एक जो करता हैए सब उसका समर्थन करते हैं। व्यर्थ की हैरानी होगी।

श्अगर गवर्नर न सुनेंए तो वाइसराय से अपील कीजिए। विलायत जाकर वहाँ के नेताओं से मिलिए। यह कोई छोटी बात नहीं हैए आपके सिर पर एक महान्‌ उत्तारदायित्व का भार आ पड़ा हैए उसमें जौ—भर भी दबना आपको सदा के लिए कलंकित कर देगा।श्

राजा साहब ने एक मिनट तक विचार करके कहा—तुम्हें यहाँ के शिक्षितों का हाल मालूम नहीं है। तुम समझती होगी कि वे मेरी सहायता करेंगेए या कम—से—कम सहानुभूति ही दिखाएँगेय पर जिस दिन मैंने प्रत्यक्ष रूप से मि. क्लार्क की शिकायत कीए उसी दिन से लोग मेरे घर आना—जाना छोड़ देंगे। कोई मुँह तक न दिखाएगा। लोग रास्ता कतराकर निकल जाएँगे। इतना ही नहींए गुप्त रूप से क्लार्क से मेरी शिकायत करेंगे और मुझे हानि पहुँचाने में कोई बात उठा न रखेंगे। हमारे भद्र समाज की नैतिक दुर्बलता अत्यंत लज्जाजनक है। सब—के—सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के आश्रित हैं। जब तक उन्हें मालूम है कि हुक्काम से मेरी मैत्राी हैए तभी तक मेरा आदर—सत्कार करते हैं। जिस दिन उन्हें मालूम होगा कि जिलाधाीश की निगाह मुझसे फिर गईए उसी दिन से मेरे मान—सम्मान की इति समझो। अपने बंधुओं की यही दुर्बलता और कुटील स्वार्थ—लोलुपता हैए जो हमारे निर्भीकए सत्यवादी और हिम्मत के धानी नेताओं को हताश कर देती है।

राजा साहब ने बहुत हीले—हवाले किएए परिस्थिति का बहुत ही दुराशापूर्ण चित्रा खींचाए लेकिन इंदु अपने धयेय से जौ—भर भी न टली। वह उनके हृदय में उस सोये हुए भाव को जगाना चाहती थीए जो कभी प्रताप और साँगाए टीपू और नाना के नाम पर लहालोट हो जाता था। वह जानती थी कि वह भाव प्रभुत्व—प्रेम की घोर निद्रा में मग्न हैए मरा नहीं। बोली—अगर मान लें कि आपकी सारी शंकाएँ पूरी हो जाएँए आपका सम्मान मिट जाएए सारा शहर आपका दुश्मन हो जाएए हुक्काम आपको संदेह की द्रष्टि से देखने लगेंए यहाँ तक कि आपके इलाके के जब्त होने की नौबत भी आ जाएए तब भी मैं आपसे यही कहती जाऊँगीए अपने स्थान पर अटल रहिए। यही हमारा क्षात्रा धार्म है। आज ही यह बात समाचार—पत्राों में प्रकाशित हो जाएगी और सारी दुनिया नहींए तो कम—से—कम समस्त भारत आपकी ओर उत्सुक नेत्राों से देखेगा कि आप जातीय गौरव की कितने धौर्यए साहस और त्याग के साथ रक्षा करते हैं। इस संग्राम में हमारी हार भी महान्‌ विजय का स्थान पाएगीय क्योंकि वह पशु—बल की नहींए आत्मबल की लड़ाई है। लेकिन मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि आपकी शंकाएँ निर्मूल सिध्द होंगी। एक कर्मचारी के अन्याय की फरियाद सरकार के कानों में पहुँचाकर आप उस सु—ढ़़ राजभक्ति का परिचय देंगेए सरकार की उस न्याय—रीति पर पूर्ण विश्वास की घोषणा करेंगेए जो साम्राज्य का आधार है। बालक माता के सामने रोयेए हठ करेए मचलेय पर माता की ममता क्षण—मात्रा भी कम नहीं होती। मुझे तो निश्चय है कि सरकार अपने न्याय की धाक जमाने के लिए आपका और भी सम्मान करेगी। जातीय आंदोलन के नेता प्रायरू उच्च कोटी की उपाधियों से विभूषित किए जाते हैंए औरए कोई कारण नहीं कि आपको भी वही सम्मान न प्राप्त हो।

यह युक्ति राजा साहब को विचारणीय जान पड़ी। बोले—अच्छाए सोचूँगा। इतना कहकर चले गए।

दूसरे दिन सुबह जॉन सेवक राजा साहब से मिलने आए। उन्होंने भी यही सलाह दी कि इस मुआमले में जरा भी न दबना चाहिए। लड़ूँगा तो मैंए आप केवल मेरी पीठ ठोकते जाइएगा। राजा साहब को कुछ ढ़ाढ़़स हुआए एक से दो हुए। संधया समय वह कुँवर साहब से सलाह लेने गए। उनकी भी यही राय हुई। डॉक्टर गांगुली तार द्वारा बुलाए गए। उन्होंने यहाँ तक जोर दिया कि श्आप चुप भी हो जाएँगेए तो मैं व्यवस्थापक सभा में इस विषय को अवश्य उपस्थित करूँगा। सरकार हमारे वाणिज्य—व्यवसाय की ओर इतनी उदासीन नहीं रह सकती। यह न्याय—अन्याय या मानापमान का प्रश्न नहीं हैए केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धाा का प्रश्न है।श्

राजा साहब इंदु से बोले—लो भाईए तुम्हारी ही सलाह पक्की रही। जान पर खेल रहा हूँ।

इंदु ने उन्हें श्रध्दा की द्रष्टि से देखकर कहा—ईश्वर ने चाहा तो आपकी विजय ही होगी।

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अध्याय 22

सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगाए तो मेरी कुछ—न—कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय न नजर आता थाए जो दिनों—दिन बरसात की घास के समान बढ़़ते जाते थे। वह स्वयं बड़ी किफायत से रहते थे। ईद के अतिरिक्त कदाचित्‌ और कभी दूधा उनके कंठ के नीचे न जाता था। मिठाई उनके लिए हराम थी। पान—तम्बाकू का उन्हें शौक ही न था। किंतु वह खुद चाहे कितने ही किफायत करेंए घरवालों की जरूरत में काट—कपट करना न्याय—विरुध्द समझते थे। जैनब औैर रकिया अपने लड़कों के लिए दूधा लेना आवश्यक समझती थीं। कहतीं—यही तो लड़कों के खाने—पीने की उम्र हैए इसी उम्र में तो उनकी हव्यिाँ चौड़ी—चकली होती हैंए दिल और दिमाग बढ़़ते हैं। इस उम्र में लड़को को मुकब्बी खाना न मिलेए तो उनकी सारी जिंदगी बरबाद हो जाती है।

लड़कों के विषय में यह कथन सत्य हो या नहींय पर पान—तम्बाकू के विषय में ताहिर अली की विमाताएँ जिस युक्ति का प्रतिपादन करती थींए उसकी सत्यता स्वयंसिध्द थी—स्त्रिायों का इनके बगैर निबाह ही नहीं हो सकता। कोई देखे तो कहेए क्या इनके यहाँ पान तक मयस्सर नहींए यही तो अब शराफत की एक निशानी रह गई हैए मामाएँ नहींए खवासें नहींए तो क्या पान से भी गए। मदोर्ं को पान की ऐसी जरूरत नहीं। उन्हें हाकिमों से मिलना—जुलना पड़ता हैए पराई बंदगी करते हैंए उन्हें पान की क्या जरूरत!

विपत्तिा यह थी कि माहिर और जाबिर तो मिठाइयाँ खाकर ऊपर से दूधा पीते और साबिर और नसीमा खड़े मुँह ताका करते। जैनब बेगम कहतीं—इनके गुड़ के बाप कोल्हू हीए खुदा के फजल से जिंदा हैं। सबको खिलाकर खिलाएँए तभी खिलाना कहलाए। सब कुछ तो उन्हीं की मुट्ठी में हैए जो चाहें खिलाएँए जैसे चाहें रखेंय कोई हाथ पकड़नेवाला हैघ्

वे दोनों दिन—भर बकरी की तरह पान चबाया करतींए कुल्सूम को भोजन के पश्चात्‌ एक बीड़ा भी मुश्किल से मिलता था। अपनी इन जरूरतों के लिए ताहिर अली से पूछने या चादर देखकर पाँव फैलाने की जरूरत न थी।

प्रातरूकाल था। चमड़े की खरीद हो रही थी। सैकड़ों चमार बैठे चिलम पी रहे थे। यही एक समय थाए जब ताहिर अली को अपने गौरव का कुछ आनंद मिलता था। इस वक्त उन्हें अपने महत्तव का हलका—सा नशा हो जाता था। एक चमार द्वार पर झाड़ू लगाताए एक उनका तख्त साफ करताए एक पानी भरता। किसी को साग—भाजी लाने के लिए बाजार भेज देते और किसी से लकड़ी चिराते। इतने आदमियों को अपनी सेवा में तत्पर देखकर उन्हें मालूम होता था कि मैं भी कुछ हूँ। उधार जैनब और रकिया परदे में बैठी पानदान का खर्च वसूल करतीं। साहब ने ताहिर अली को दस्तूरी लेने से मना किया थाए स्त्रिायों को पान—पत्तो का खर्च लेने का निषेधा न किया था। इस आमदनी से दोनों ने अपने—अपने लिए गहने बनवा लिए थे। ताहिर अली इस रकम का हिसाब लेना छोटी बात समझते थे।

इसी समय जगधार आकर बोला—मुंसीजीए हिसाब कब तक चुकता कीजिएगाघ् मैं कोई लखपती थोड़े ही हूँ कि रोज मिठाइयाँ देता जाऊँए चाहे दाम मिलें या न मिलें। आप जैसे दो—चार गाहक और मिल जाएँए तो मेरा दिवाला ही निकल जाए। लाइएए रुपये दिलवाइएए अब हीला—हवाला न कीजिएए गाँव—मुहल्ले की बहुत मुरौवत कर चुका। मेरे सिर भी तो महाजन का लहना—तगादा है। यह देखिए कागदए हिसाब कर दीजिए।

देनदारों के लिए हिसाब का कागज यमराज का परवाना है। वे उसकी ओर ताकने का साहस नहीं कर सकते। हिसाब देखने का मतलब हैए रुपये अदा करना। देनदार ने हिसाब का चिट्ठा हाथ में लिया और पानेवाले का हृदय आशा से विकसित हुआ। हिसाब का परत हाथ में लेकर फिर कोई हीला नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि देनदारों को खाली हाथ हिसाब देखने का साहस नहीं होता।

ताहिर अली ने बड़ी नम्रता से कहा—भईए हिसाब सब मालूम हैए अब बहुत जल्द तुम्हारा बकाया साफ हो जाएगा। दो—चार दिन और सब्र करो।

जगधार—कहाँ तक सबर करूँ साहबघ् दो—चार दिन करते—करते तो महीनों हो गए। मिठाइयाँ खाते बखत तो मीठी मालूम होती हैंए दाम देते क्यों कड़घवा लगता हैघ्

ताहिर—बिरादरए आजकल जरा तंग हो गया हूँए मगर अब जल्द कारखाने का काम शुरू होगाए मेरी भी तरक्की होगी। बसए तुम्हारी एक—एक कौड़ी चुका दूँगा।

जगधार—ना साहबए आज तो मैं रुपये लेकर ही जाऊँगा। महाजन के रुपये न दूँगाए तो आज मुझे छटाँक—भर भी सौदा न मिलेगा। भगवान्‌ जानते हैंए जो मेरे घर में टका भी हो। यह समझिए कि आप मेरा नहींए अपना दे रहे हैं। आपसे झूठ बोलता होऊँए तो जवानी काम न आएए रात बाल—बच्चे भूखे ही सो रहे। सारे मुहल्ले में सदा लगाईए किसी ने चार आने पैसे न दिए।

चमारों के चौधारी को जगधार पर दया आ गई। ताहिर अली से बोला—मुंशीजीए मेरा पावना इन्हीं को दे दीजिएए मुझे दो—चार दिन में दीजिएगा।

ताहिर—जगधारए मैं खुदा को गवाह करके कहता हूँए मेरे पास रुपये नहीं हैंए खुदा के लिए दो—चार दिन ठहर जाओ।

जगधार—मुंसीजीए झूठ बोलना गाय खाना हैए महाजन के रुपये आज न पहँचेए तो कहीं का नहीं रहूँगा।

ताहिर अली ने घर में आकर कुल्सूम से कहा—मिठाईवाला सिर पर सवार हैए किसी तरह टलता ही नहीं। क्या करूँए रोकड़ में से दस रुपये निकालकर दे दूँघ्

कुल्सूम ने चिढ़़कर कहा—जिसके दाम आते हैंए वह सिर पर सवार होगा ही! अम्माँजान से क्यों नहीं माँगतेघ् मेरे बच्चों को तो मिठाई मिली नहींय जिन्होंने उचक—उचककर खाया—खिलाया हैए वे दाम देने की बेर क्यों भीगी बिल्ली बनी बैठी हुई हैंघ्

ताहिर—इसी मारे तो मैं तुमसे बात कहता नहीं। रोकड़ से ले लेने में क्या हरज हैघ् तनख्वाह मिलते ही जमा कर दूँगा।

कुल्सूम—खुदा के लिए कहीं यह गजब न करना। रोकड़ को काला साँप समझो। कहीं आज ही साहब रकम की जाँच करने लगे तोघ्

ताहिर—अजी नहींए साहब को इतनी फुरसत कहाँ कि रोकड़ मिलाते रहें!

कुल्सूम—मैं अमानत की रकम छूने को न कहूँगी। ऐसा ही हैए तो नसीमा का तौक उतारकर कहीं गिरो रख दोए और तो मेरे किए कुछ नहीं हो सकता।

ताहिर अली को दुरूख तो बहुत हुआय पर करते क्या। नसीमा का तौक निकालते थेए और रोते थे। कुल्सूम उसे प्यार करती थी और फुसलाकर कहती थीए तुम्हें नया तौक बनवाने जा रहे हैं। नसीमा फूली न समाती थी कि मुझे नया तौक मिलेगा।

तौक माल में लिए हुए ताहिर अली बाहर निकलेए और जगधार को अलग ले जाकर बोले—भईए इसे ले जाओए कहीं गिरो रखकर अपना काम चलाओ। घर में रुपये नहीं हैं।

जगधार—उधार सौदा बेचना पाप हैए पर करूँ क्याए नगद बेचने लगूँए तो घूमता ही रह जाऊँ।

यह कहकर उसने सकुचाते हुए तौक ले लिया और पछताता हुआ चला गया। कोई दूसरा आदमी अपने ग्राहक को इतना दिक करके रुपये न वसूल करता। उसे लड़की पर दया आ ही जातीए जो मुस्कराकर कह रही थीए मेरा तौक कब बनाकर लाओगेघ् परंतु जगधार गृहस्थी के असह्य भार के कारण उससे कहीं असज्जन बनने पर मजबूर थाए जितना वह वास्तव में था।

जगधार को गए आधा घंटा भी न गुजरा था कि बजरंगी त्योरियाँ बदले हुए आकर बोला—मुंशीजीए रुपये देने होंए तो दीजिएए नहीं तो कह दीजिएए बाबाए हमसे नहीं हो सकताय बसए हम सबर कर लें। समझ लेंगे कि एक गाय नहीं लगीं रोज—रोज दौड़ाते क्यों हैंघ्

ताहिर—बिरादरए जैसे इतने दिनों तक सब्र किया हैए थोड़े दिन और करो। खुदा ने चाहाए तो अबकी तुम्हारी एक पाई भी न रहेगी।

बजरंगी—ऐसे वादे तो आप बीसों बार कर चुके हैं।

ताहिर—अबकी पक्का वादा करता हूँ।

बजरंगी—तो किस दिन हिसाब कीजिएगाघ्

ताहिर अली असमंजस में पड़ गएए कौन—सा दिन बतलाएँ। देनदारों को हिसाब के दिन का उतना ही भय होता हैए जितना पापियों को। वेश्दो—चारश्ए श्बहुत जल्दश्ए श्आज—कल मेंश् आदि अनिश्चयात्मक शब्दों की आड़ लिया करते हैं। ऐसे वादे पूरे किए जाने के लिए नहींए केवल पानेवालों को टालने के लिए किए जाते हैं। ताहिर अली स्वभाव से खरे आदमी थे। तकाजों से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। वह तकाजों से उतना ही डरते थेए जितना शैतान से। उन्हें दूर से देखते ही उनके प्राण—पखेरू छटपटाने लगते थे। कई मिनट तक सोचते रहेए क्या जवाब दूँए खर्च का यह हाल हैए और तरक्की के लिए कहता हूँए तो कोरा जवाब मिलता है। आखिरकार बोले—दिन कौन—सा बताऊँए चार—छरू दिन में जब आ जाओगेए उसी दिन हिसाब हो जाएगा।

बजरंगी—मुंशीजीए मुझसे उड़नघाइयाँ न बताइए। मुझे भी सभी तरह के ग्राहकों से काम पड़ता है। अगर दस दिन में आऊँगाए तो आप कहेंगेए इतनी देर क्यों कीए अब रुपये खर्च हो गए। चार—पाँच दिन में आऊँगाए तो आप कहेंगेए अभी तो रुपये मिले ही नहीं। इसलिए मुझे कोई दिन बता दीजिएए जिसमें मेरा भी हरज न हो और आपको भी सुबीता हो।

ताहिर—दिन बता देने में मुझे कोई उज्र न होताए लेकिन बात यह है कि मेरी तनख्वाह मिलने की कोई तारीख मुकर्रर नहीं हैय दो—चार दिनों का हेर—फेर हो जाता है। एक हफ्ते के बाद किसी लड़के को भी भेज दोगेए तो रुपये मिल जाएँगे।

बजरंगी—अच्छी बात हैए आप ही का कहना सही। अगर अबकी वादाखिलाफी कीजिएगाए तो फिर माँगने न आऊँगा।

बजरंगी चला गयाए तो ताहिर अली डींग मारने लगे—तुम लोग समझते होगेए ये लोग इतनी—इतनी तलब पाते हैंए घर में बटोरकर रखते होंगेए और यहाँ खर्च का यह हाल है कि आधा महीना भी नहीं खत्म होता और रुपये उड़ जाते हैं। शराफत रोग हैए और कुछ नहीं।

एक चमार ने कहा—हुजूरए बड़े आदमियों का खर्च भी बड़ा होता है। आप ही लोगों की बदौलत तो गरीबोें की गुजर होती है। घोड़े की लात घोड़ा ही सह सकता है।

ताहिर—अजीए सिर्फ पान में इतना खर्च हो जाता है कि उतने में दो आदमियों का अच्छी तरह गुजर हो सकता है।

चमार—हुजूरए देखते नहीं हैंए बड़े आदमियों की बड़ी बात होती है।

ताहिर अली के अॉंसू अच्छी तरह न पुँछने पाए थे कि सामने से ठाकुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। बेचारे पहले ही से कोई बहाना सोचने लगे। इतने में उसने आकर सलाम किया और बोला—मुंशीजीए कारखाने में कब से हाथ लगेगाघ्

ताहिर—मसाला जमा हो रहा है। अभी इंजीनियर ने नक्शा नहीं बनाया हैए इसी वजह से देर हो रही है।

ठाकुरदीन—इंजीनियर ने भी कुछ लिया होगाघ् बड़ी बेईमान जात है हुजूरए मैंने भी कुछ दिन ठेकेदारी की हैय जो कमाता थाए इंजीनियरों को खिला देता था। आखिर घबराकर छोड़ बैठा। इंजीनियर के भाई डॉक्टर होते हैं। रोगी चाहे मरता होए पर फीस लिए बिना बात न सुनेंगे। फीस के नाम से रिआयत भी करोगेए तो गाड़ी के किराए और दवा के दाम में कस लेंगेए (हिसाब का परत दिखाकर) जरा इधार भी एक निगाह हो जाए।

ताहिर—सब मालूम हैए तुमने गलत थोड़े ही लिखा होगा।

ठाकुरदीन—हुजूरए ईमान हैए तो सब कुछ है। साथ कोई न जाएगा। तो मुझे क्या हुकुम होता हैघ्

ताहिर—दो—चार दिन की मुहलत दो।

ठाकुरदीन—जैसी आपकी मरजी। हुजूरए चोरी हो जाने से लाचार हो गयाए नहीं तो दो—चार रुपयों की कौन बात थी। उस चोरी में तबाह हो गया। घर में फूटा लोटा तक न बचा। दाने को मुहताज हो गया हुजूर! चोरों को अॉंखों के सामने भागते देखाए उनके पीछे दौड़ा। पागलखाने तक दौड़ता चला गया। ऍंधोरी रात थीए ऊँच—खाल कुछ न सूझता था। एक गढ़़े में गिर पड़ा। फिर उठा। माल बड़ा प्यारा होता है। लेकिन चोर निकल गए थे। थाने में इत्ताला कीए थानेदारों की खुशामद की। मुदा गई हुई लच्छमी कहीं लौटती हैं। तो कब आऊँघ्

ताहिर—तुम्हारे आने की जरूरत नहींए मैं खुद भिजवा दूँगा।

ठाकुरदीन—जैसी आपकी खुशीए मुझे कोई उजर नहीं है। मुझे तगादा करते आप ही सरम आती है। कोई भलामानुस हाथ में पैसे रहते हुए टालमटोल नहीं करताए फौरन निकालकर फेंक देता है। आज जरा पान लेने जाना थाए इसीलिए चला आया था। सब न हो सकेए तो थोड़ा—बहुत दे दीजिए। किसी तरह काम न चलाए तब आपके पास आया। आदमी पहचानता हूँ हुजूरए पर मौका ऐसा ही आ पड़ा है।

ठाकुरदीन की विनम्रता और प्रफुल्लित सहृदयता ने ताहिर अली को मुग्धा कर दिया। तुरंत संदूक खोला और पाँच रुपये निकालकर उसके सामने रख दिए। ठाकुरदीन ने रुपये उठाए नहींए एक क्षण कुछ विचार करता रहाए तब बोला—ये आपके रुपये हैं कि सरकारी रोकड़ के हैंघ्

ताहिर—तुम ले जाओए तुम्हें आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने सेघ्

ठाकुरदीन—नहीं मुंशीजीए यह न होगा। अपने रुपये होंए तो दीजिएए मालिक की रोकड़ होए तो रहने दीजिएय फिर आकर ले जाऊँगा। आपके चार पैसे खाता हूँए तो आपको अॉंखों से देखकर गढ़़े में न गिरने दूँगा। बुरा मानिएए तो मान जाइएए इसकी चिंता नहींए साफ बात करने के लिए बदनाम हूँए आपके रुपये यों अलल्ले—तलल्ले खर्च होंगेए तो एक दिन आप धोखा खाएँगे। सराफत ठाटबाट बढ़़ने में नहीं हैए अपनी आबरू बचाने में है।

ताहिर अली ने सजल नयन होकर कहा—रुपये लेते जाओ।

ठाकुरदीन उठ खड़ा हुआ और बोला—जब आपके पास होंए तब देना।

अब तक तो ताहिर अली को कारखाने के बनने की उम्मीद थी। इधार आमदनी बढ़़ीए उधार मैंने रुपये दिएय लेकिन जब मि. क्लार्क ने अनिश्चित समय तक के लिए कारखाने का काम बंद करवा दियाए तब ताहिर अली का अपने लेनदारों को समझाना मुश्किल हो गया। लेनदारों ने ज्यादा तंग करना शुरू किया। ताहिर अली बहुत चिंतित रहने लगेए बुध्दि कुछ काम न करती थी। कुल्सूम कहती थी—ऊपर का खर्च सब बंद कर दिया जाए। दूधाए पान और मिठाइयों के बिना आदमी को कोई तकलीफ नहीं हो सकती। ऐसे कितने आदमी हैं जिन्हें इस जमाने में ये चीजें मयस्सर हैंघ् और की क्या कहूँए मेरे ही लड़के तरसते हैं। मैं पहले भी समझा चुकी हूँ और अब फिर समझाती हूँ कि जिनके लिए तुम अपना खून और पसीना एक कर रहे होए वे तुम्हारी बात भी न पूछेंगे। पर निकलते ही साफ उड़ न जाएँए तो कहना। अभी से रुख देख रही हूँ। औरों को सूद पर रुपये दिए जाते हैंए जेवर बनवाए जाते हैंय लेकिन घर के खर्च को कभी कुछ माँगोए तो टका—सा जवाब मिलता हैए मेरे पास कहाँ। तुम्हारे ऊपर इन्हें कुछ तो रहम आना चाहिए। आज दूधाए मिठाइयाँ बंद कर दोए तो घर में रहना मुश्किल हो जाए।

तीसरा पहर था। ताहिर अली बरामदे में उदास बैठे हुए थे। सहसा भैरों आकर बैठ गयाए और बोला—क्यों मुंशीजीए क्या सचमुच अब यहाँ कारखाना न बनेगाघ्

ताहिर—बनेगा क्यों नहींए अभी थोड़े दिनों के लिए रुक गया है।

भैरों—मुझे तो बड़ी आशा थी कि कारखाना बन गयाए तो मेरा बिकरी—बट्टा बढ़़ जाएगाय दूकान पर बिक्री बिल्कुल मंदी है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ सबेरे थोड़ी देर बैठा करूँ। आप मंजूर कर लेंए तो अच्छा हो। मेरी थोड़ी—बहुत बिकरी हो जाएगी। आपको भी पान खाने के लिए कुछ नजर कर दिया करूँगा।

किसी और समय ताहिर अली ने भैरों को डाँट बताई होती। ताड़ी की दूकान खोलने की आज्ञा देना उनके धार्म—विरुध्द था। पर इस समय रुपये की चिंता ने उन्हें असमंजस में डाल दिया। इससे पहले भी धानाभाव के कारण उनके कर्म और सिध्दांतों में कई बार संग्राम हो चुका थाए और प्रत्येक अवसर पर उन्हें सिध्दांतों ही का खून करना पड़ा था। आज वही संग्राम हुआ और फिर सिध्दांतों ने परिस्थितियों के सामने सिर झुका दिया। सोचने लगे—क्या करूँघ् इसमें मेरा क्या कसूरघ् मैं किसी बेजा खर्च के लिए शरा को नहीं तोड़ रहा हूँए हालत ने मुझे बेबस कर दिया है। कुछ झेंपते हुए बोले—यहाँ ताड़ी की बिकरी न होगी।

भैरों—हुजूरए बिकरी तो ताड़ी की महक से होगी। नसेबाजों की ऐसी आदत होती है कि न देखेंए तो चाहे बरसों न पिएँए पर नसा सामने देखकर उनसे नहीं रहा जाता।

ताहिर—मगर साहब के हुक्म के बगैर मैं कैसे इजाजत दे सकता हूँघ्

भैरों—आपकी जैसी मरजी! मेरी समझ में तो साहब से पूछने की जरूरत ही नहीं। मैं कौन यहाँ दूकान रखूँगा। सबेरे एक घड़ा लाऊँगाए घड़ी—भर में बेचकर अपनी राह लूँगा। उन्हें खबर ही न होगी कि यहाँ कोई ताड़ी बेचता है।

ताहिर—नमकहरामी सिखाते होए क्योंघ्

भैरों—हुजूरए इसमें नमकहरामी काहे कीए अपने दाँव—घात पर कौन नहीं लेताघ्

सौदा पट गया। भैरों एकमुश्त 15 रुपये देने को राजी हो गया। जाकर सुभागी से बोला—देखए सौदा कर आया न! तू कहती थीए वह कभी न मानेंगेए इसलाम हैंए उनके यहाँ ताड़ी—सराब मना हैए पर मैंने कह न दिया था कि इसलाम होए चाहे बाम्हन होए धारम—करम किसी में नहीं रह गया। रुपये पर सभी लपक पड़ते हैं। ये मियाँ लोग बाहर ही से उजले कपड़े पहने दिखाई देते हैं। घर में भूनी भाँग नहीं होती। मियाँ ने पहले तो दिखाने के लिए इधार—उधार कियाए फिर 15 रुपये में राजी हो गए। पंद्रह रुपये तो पंद्रह दिन में सीधो हो जाएँगे।

सुभागी पहले घर की मालकिन बनना चाहती थीए इसलिए रोज डंडे खाती थी। अब वह घर—भर की दासी बनकर मालकिन बनी हुई है। रुपये—पैसे उसी के हाथ में रहते हैं। सासए जो उसकी सूरत से जलती थीए दिन में सौ—सौ बार उसे आशीर्वाद देती है। सुभागी ने चटपट रुपये निकालकर भैरों को दिए। शायद दो बिछुड़े हुए मित्रा इस तरह टूटकर गले न मिलते होंगेए जैसे ताहिर अली इन रुपयों पर टूटे। रकम छोटी थी इसके बदले में उन्हें अपने धार्म की हत्या करनी पड़ी थी। लेनदार अपने—अपने रुपये ले गए। ताहिर अली के सिर का बोझ हलका हुआए मगर उन्हें बहुत रात तक नींद न आई। आत्मा की आयु दीर्घ होती है। उसका गला कट जाएए पर प्राण नहीं निकलते।

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अध्याय 23

अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहाए उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावतरू करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास की विजय होते ही यह सहानुभूति स्पर्ध्दा के रूप में प्रकट हुई। यह शंका पैदा हुई कि सूरदास मन में हम लोगों को तुच्छ समझ रहा होगा। कहता होगाए जब मैंने राजा महेंद्रकुमार सिंह—जैसों को नीचा दिखा दियाए उनका गर्व चूर—चूर कर दियाए तो ये लोग किस खेत की मूली हैं। सारा मुहल्ला उससे मन—ही—मन खार खाने लगा। केवल एक ठाकुरदीन थाए जो अब भी उसके पास आया—जाया करता था। उसे अब यकीन हो गया था कि सूरदास को अवश्य किसी देवता का इष्ट हैए उसने जरूर कोई मंत्रा सिध्द किया हैए नहीं तो उसकी इतनी कहाँ मजाल कि ऐसे—ऐसे प्रतापी आदमियों का सिर झुका देता। लोग कहते हैंए जंत्रा—मंत्रा सब ढ़कोसला है। यह कौतुक देखकर भी उनकी अॉंखें नहीं खुलतीं।

सूरदास के स्वभाव में भी अब कुछ परिवर्तन हुआ। धौर्यशील वह पहले ही से थाय पर न्याय और धार्म के पक्ष में कभी—कभी उसे क्रोधा आ जाता था। अब उसमें अग्नि का लेशांश भी न रहाय घूर थाए जिस पर सभी कूड़े फेंकते हैं। मुहल्लेवाले राह चलते उसे छेड़तेए आवाजें कसतेए ताने मारतेय पर वह किसी को जवाब न देताए सिर झुकाए भीख माँगने जाता और चुपके से अपनी झोंपड़ी में आकर पड़ रहता। हाँए मिठुआ के मिजाज न मिलते थेए किसी से सीधो मुँह बात न करता। कहताए यह कोई न समझे कि अंधा भीख माँगता हैए अंधा बड़े—बड़ों की पीठ में धूल लगा देता है। बरबस लोगों को छेड़ताए भले आदमियों से बतबढ़़ाव कर बैठता। अपने हमजोलियों से कहताए चाहूँ तो सारे मुहल्ले को बँधावा दूँ। किसानों के खेतों से बेधाड़क चनेए मटरए मूलीए गाजर उखाड़ लाताय अगर कोई टोकताए तो उससे लड़ने को तैयार हो जाता था। सूरदास को नित्य उलहने मिलने लगे। वह अकेले में मिठुआ को समझाताय पर उस पर कुछ असर न होता था। अनर्थ यह था कि सूरदास की नम्रता और सहिष्णुता पर तो किसी की निगाह न जाती थीए मिठुआ की लनतरानियों और दुष्टताओं पर सभी की निगाह पड़ती थी। लोग यहाँ तक कह जाते थे कि सूरदास ने ही उसे सिर चढ़़ा लिया हैए बछवा खूँटे ही के बल कूदता है।र् ईष्या बाल—क्रीड़ाओं को भी कपट—नीति समझती है।

आजकल सोफिया मि. क्लार्क के साथ सूरदास से अकसर मिला करती थी। वह नित्य उसे कुछ—न—कुछ देती और उसकी दिलजोई करती। पूछती रहतीए मुहल्लेवाले या राजा साहब के आदमी तुम्हें दिक तो नहीं कर रहे हैं। सूरदास जवाब देताए मुझ पर सब लोग दया करते हैंए मुझे किसी से शिकायत नहीं है। मुहल्लेवाले समझते थेए वह बड़े साहब से हम लोगों की शिकायत करता है। अन्योक्तियों द्वारा यह भाव प्रकट भी करते—श्सैंयाँ भये कोतवालए अब डर काहे काश्घ् श्प्यादे से फरजी भयोए टेढ़़ो—टेढ़़ो जाए।श् एक बार किसी चोरी के सम्बंधा में नायकराम के घर में तलाशी हो गई। नायकराम को संदेह हुआए सूरदास ने यह तीर मारा है। इसी भाँति एक बार भैरों से आबकारी के दारोगा ने जवाब तलब किया। भैरों ने शायद नियम के विरुध्द आधाी रात तक दूकान खुली रखी थी। भैरों का भी शुभा सूरदास ही पर हुआए इसी ने यह चिनगारी छोड़ी है। इन लोगों के संदेह पर तो सूरदास को बहुत दुरूख न हुआए लेकिन जब सुभागी खुल्लमखुल्ला उसे लांछित करने लगीए तो उसे बहुत दुरूख हुआ। उसे विश्वास था कि कम—से—कम सुभागी को मेरी नीयत का हाल मालूम है। उसे मुझको इन लोगों के अन्याय से बचाना चाहिए थाए मगर उसका मन भी मुझसे फिर गया।

इस भाँति कई महीने गुजर गए। एक दिन रात को सूरदास खा—पीकर लेटा हुआ था कि किसी ने आकर चुपके से उसका हाथ पकड़ा। सूरदास चौंकाए पर सुभागी की आवाज पहचानकर बोला—क्या कहती हैघ्

सुभागी—कुछ नहींए जरा मड़ैया में चलोए तुमसे कुछ कहना है।

सूरदास उठा और सुभागी के साथ झोंपड़ी में आकर बोला—कहए क्या कहती हैघ् अब तो तुझे भी मुझसे बैर हो गया है। गालियाँ देती फिरती हैए चारों ओर बदनाम कर रही है। बतलाए मैंने तेरे साथ कौन—सी बुराई की थी कि तने मेरी बुराई पर कमर बाँधा लीघ् और लोग मुझे भला—बुरा कहते हैंए मुझे रंज नहीं होताय लेकिन जब तुझे ताने देते सुनता हूँए तो मुझे रोना आता हैए कलेजे में पीड़ा—सी होने लगती है। जिस दिन भैरों की तलबी हुई थीए तूने कितना कोसा था। सच बताए क्या तुझे भी सक हुआ था कि मैंने ही दारोगाजी से शिकायत की हैघ् क्या तू मुझे इतना नीच समझती हैघ् बता।

सुभागी ने करुणावरुध्द कंठ से उत्तार दिया—मैं तुम्हारा जितना आदर करती हूँए उतना और किसी का नहीं। तुम अगर देवता होतेए तो भी इतनी ही सिरधा से तुम्हारी पूजा करती।

सूरदास—मैं क्या घमंड करता हूँघ् साहब से किसकी शिकायत करता हूँघ् जब जमीन निकल गई थीए तब तो लोग मुझसे न चिढ़़ते थे। अब जमीन छूट जाने से क्यों सब—के—सब मेरे दुसमन हो गए हैंघ् बताए मैं क्या घमंड करता हूँघ् मेरी जमीन छूट गई हैए तो कोई बादसाही मिल गई है कि घमंड करूँगाघ्

सुभागी—मेरे मन का हाल भगवान जानते होंगे।

सूरदास—तो मुझे क्यों जलाया करती हैघ्

सुभागी—इसलिए।

यह कहकर उसने एक छोटी—सी पोटली सूरदास के हाथ में रख दी। पोटली भारी थी। सूरदास ने उसे टटोला और पहचान गया। यह उसी की पोटली थीए जो चोरी गई थी। अनुमान से मालूम हुआ कि रुपये भी उतने ही हैं। विस्मित होकर बोला—यह कहाँ मिलीघ्

सुभागी—तुम्हारी मिहनत की कमाई हैए तुम्हारे पास आ गई। अब जतन से रखना।

सूरदास—मैं न रखूँगा। इसे ले जा।

सुभागी—क्योंघ् अपनी चीज लेने में कोई हरज हैघ्

सूरदास—यह मेरी चीज नहींय भैरों की चीज है। इसी के लिए भैरों ने अपनी आत्मा बेची हैय महँगा सौदा लिया है। मैं इसे कैसे लू लूँघ्

सुभागी—मैं ये सब बातें नहीं जानती। तुम्हारी चीज हैए तुम्हें लेनी पड़ेगी। इसके लिए मैंने अपने घरवालों से छल किया है। इतने दिनों से इसी के लिए माया रच रही हूँ। तुम न लोगेए तो इसे मैं क्या करूँगीघ्

सूरदास—भैरों को मालूम हो गयाए तो तुम्हें जीता न छोड़ेगा।

सुभागी—उन्हें न मालूम होने पाएगा। मैंने इसका उपाय सोच लिया है।

यह कहकर सुभागी चली गई। सूरदास को और तर्क—वितर्क करने का मौका न मिला। बड़े असमंजस में पड़ा—ये रुपये लूँ या क्या करूँघ् यह थैली मेरी है या न हींघ् अगर भैरों ने इसे खर्च कर दिया होताए तोघ् क्या चोर के घर चोरी करना पाप नहींघ् क्या मैं अपने रुपये के बदले उसके रुपये ले सकता हूँघ् सुभागी मुझ पर कितनी दया करती है! वह इसीलिए मुझे ताने दिया करती थी कि यह भेद न खुलने पाए।

वह इसी उधोड़बुन में पड़ा हुआ था कि एकाएक श्चोर—चोर!श् का शोर सुनाई दिया। पहली ही नींद थी। लोग गाफिल सो रहे थे। फिर आवाज आई—श्चोर—चोर!श्

भैरों की आवाज थी। सूरदास समझ गयाए सुभागी ने यह प्रपंच रचा है। अपने द्वार पर पड़ा रहा। इतने में बजरंगी की आवाज सुनाई दी—किधार गयाए किधारघ् यह कहकर वह लाठी लिए ऍंधोरे में एक तरफ दौड़ा। नायकराम भी घर से निकले और श्किधार—किधारश् करते हुए दौड़े। रास्ते में बजरंगी से मुठभेड़ हो गई। दोनों ने एक दूसरे को चोर समझा। दोनों ने वार किया और दोनों चोट खाकर गिर पड़े। जरा देर में बहुत—से आदमी जमा हो गए। ठाकुरदीन ने पूछा—क्या—क्या ले गयाघ् अच्छी तरह देख लेनाए कहीं छत में न चिमटा हुआ हो। चोर दीवार से ऐसा चिमट जाते हैं कि दिखाई नहीं देते।

सुभागी—हायए मैं तो लुट गई। अभी तो बैठी—बैठी अम्माँ का पाँव दबा रही थी। इतने में न जाने मुआ कहाँ से आ पहुँचा।

भैरों—(चिराग से देखकर) सारी जमा—जथा लुट गई। हाय राम!

सुभागी—हायए मैंने उसकी परछाईं देखीए तो समझी यही होंगे। जब उसने संदूक पर हाथ बढ़़ायाए तो भी समझी यही होंगे।

ठाकुरदीन—खपरैल पर चढ़़कर आया होगा। मेरे यहाँ जो चोरी हुई थीए उसमें भी चोर सब खपरैल पर चढ़़कर आए थे।

इतने में बजरंगी आया। सिर से रुधिर बह रहा थाए बोला—मैंने उसे भागते देखा। लाठी चलाई। उसने भी वार किया। मैं तो चक्कर खाकर गिर पड़ाय पर उस पर भी ऐसा हाथ पड़ा है कि सिर खुल गया होगा।

सहसा नायकराम हाय—हाय करते आए और जमीन पर गिर पड़े। सारी देह खून से तर थी।

ठाकुरदीन—पंडाजीए तुमसे भी उसका सामना हो गया क्याघ्

नायकराम की निगाह बजरंगी की ओर गई। बजरंगी ने नायकराम की ओर देखा। नायकराम ने दिल में कहा—पानी का दूधा बनाकर बेचते होय अब यह ढ़ंग निकाला है। बजरंगी ने दिल में कहा—जात्रिायों को लूटते होए अब मुहल्लेवालों ही पर हाथ साफ करने लगे।

नायकराम—हाँ भईए यहीं गली में तो मिला। बड़ा भारी जवान था।

ठाकुरदीन—तभी तो अकेले दो आदमियों को घायल कर गया। मेरे घर में जो चोर पैठे थेए वे सब देव मालूम होते थे। ऐसे डील—डौल के तो आदमी ही नहीं देखे। मालूम होता हैए तुम्हारे ऊपर उसका भरपूर हाथ पड़ा।

नायकराम—हाथ मेरा भी भरपूर पड़ा है। मैंने उसे गिरते देखा। सिर जरूर फट गया होगा। जब तक पकड़ूँए निकल गया।

बजरंगी—हाथ तो मेरा भी ऐसा पड़ा है कि बच्चा को छठी का दूधा याद आ गया होगा। चारों खाने चित गिरा था।

ठाकुरदीन—किसी जाने हुए आदमी का काम है। घर के भेदिए बिना कभी चोरी नहीं होती। मेरे यहाँ सबों ने मेरी छोटी लड़की को मिठाई देकर नहीं घर का सारा भेद पूछ लिया थाघ्

बजरंगी—थाने में जरूर रपट करना।

भैरों—रपट ही करके थोड़े ही रह जाऊँगा। बच्चा से चक्की न पिसवाऊँए तो कहना। चाहे बिक जाऊँए पर उन्हें भी पीस डालूँगा। मुझे सब मालूम है।

ठाकुरदीन—माल—का—माल ले गयाए दो आदमियों को चुटैल कर गया। इसी से मैं चोरों के नगीच नहीं गया था। दूर ही से श्लेना—देनाश् करता रहा। जान सलामत रहेए तो माल फिर आ जाता है।

भैरों को बजरंगी पर शुभा न थाए न नायकराम परय उसे जगधार पर शुभा था। शुभा ही नहींए पूरा विश्वास था। जगधार के सिवा किसी को न मालूम था कि रुपये कहाँ रखे हुए हैं। जगधार लठैत भी अच्छा था। वह पड़ोसी होकर भी घटनास्थल पर सबसे पीछे पहुँचा था। ये सब कारण उसके संदेह को पुष्ट करते थे।

यहाँ से लोग चलेए तो रास्ते में बातें होने लगीं। ठाकुरदीन ने कहा—कुछ अपनी कमाई के रुपये तो थे नहींए वही सूरदास के रुपये थे।

नायकराम—पराया माल अपने घर आकर अपना हो जाता है।

ठाकुरदीन—पाप का दंड जरूर भोगना पड़ता हैए चाहे जल्दी होए चाहे देर।

बजरंगी—तुम्हारे चोरों को कुछ दंड न मिला।

ठाकुरदीन—मुझे कौन किसी देवता का इष्ट था। सूरदास को इष्ट है। उसकी एक कौड़ी भी किसी को हजम नहीं हो सकतीए चाहे कितना ही चूरन खाए। मैं तो बदकर कहता हूँ अभी उसके घर की तलासी ली जाएए तो सारा माल बरामद हो जाए।

दूसरे दिन मुँह—ऍंधोरे भैरों ने कोतवाली में इत्ताला दी। दोपहर तक दारोगाजी तहकीकात करने आ पहुँचे। जगधार की खानातलाशी हुईए कुछ न निकला। भैरों ने समझाए इसने माल कहीं छिपा दियाए उस दिन से भैरों के सिर एक भूत—सा सवार हो गया। वह सबेरे ही दारोगाजी के घर पहुँच जाताए दिन—भर उनकी सेवा—टहल किया करताए चिलम भरताए पैर दबाताए घोड़े के लिए घास छील लाताए थाने के चौकीदारों की खुशामद करताए अपनी दूकान पर बैठा हुआ सारे दिन इसी चोरी की चर्चा किया करता—क्या कहूँए मुझे कभी ऐसी नींद न आती थीए उस दिन न जाने कैसे सो गया। अगर बँधावा न दूँए तो नाम नहीं। दारोगाजी ताक में हैं। उसमें सब रुपये ही नहीं हैं असरफियाँ भी हैं। जहाँ बिकेगीए बेचनेवाला तुरंत पकड़ा जाएगा।

शनैरू—शनैरू भैरों को मुहल्ले—भर पर संदेह होने लगा। औरए जलते तो लोग उससे पहले ही थेए अब सारा मुहल्ला उसका दुश्मन हो गया। यहाँ तक कि अंत में वह अपने घरवालों ही पर अपना क्रोधा उतारने लगा। सुभागी पर फिर मार पड़ने लगी—तूने मुझे चौपट कियाए तू इतनी बेखबर न होतीए तो चोर कैसे घर में घुस आताघ् मैं तो दिन—भर दौरी—दूकान करता हूँय थककर सो गया। तू घर में पड़े—पड़े क्या किया करती हैघ् अब जहाँ से बनेए मेरे रुपये लाए नहीं तो जीता न छोड़ईँगा। अब तक उसने अपनी माँ का हमेशा अदब किया थाए पर अब उसकी भी ले—दे मचाता—तू कहा करती हैए मुझे रात को नींद ही नहीं आतीए रात भर जागती रहती हूँ। उस दिन तुझे कैसे नींद आ गईघ् सारांश यह कि उसके दिल में किसी की इज्जतए किसी का विश्वासए किसी का स्नेह न रहा। धान के साथ सद्‌भाव भी दिल से निकल गए। जगधार को देखकर तो उसकी अॉंखों में खून उतर आता था। उसे बार—बार छेड़ता कि यह गरम पड़ेए तो खबर लूँय पर जगधार उससे बचता रहता था। वह खुली चोटें करने की अपेक्षा छिपे वार करने में अधिक कुशल था।

एक दिन संधया समय जगधार ताहिर अली के पास आकर खड़ा हो गया। ताहिर अली ने पूछा—कैसे चले जीघ्

जगधार—आपसे एक बात कहने आया हूँ। आबकारी के दारोगा अभी मुझसे मिले थे। पूछते थे—भैरों गोदाम पर दूकान रखता है कि नहींघ् मैंने कहा—साहबए मुझे नहीं मालूम। तब चले गएए पर आजकल में वह इसकी तहकीकात करने जरूर आएँगे। मैंने सोचाए कहीं आपकी भी सिकायत न कर देंए इसलिए दौड़ा आया।

ताहिर अली ने दूसरे ही दिन भैरों को वहाँ से भगा दिया।

इसके कई दिन बाद एक दिनए रात के समय सूरदास बैठा भोजन बना रहा था कि जगधार ने आकर कहा—क्यों सूरेए तुम्हारी अमानत तो तुम्हें मिल गई नघ्

सूरदास ने अज्ञात भाव से कहा—कैसी अमानतघ्

जगधार—वही रुपयेए जो तुम्हारी झोंपड़ी से उठ गए थे।

सूरदास—मेरे पास रुपये कहाँ थेघ्

जगधार—अब मुझसे न उड़ोए रत्ताी—रत्ताी बात जानता हूँए और खुश हूँ कि किसी तरह तुम्हारी चीज उस पापी के चंगुल से निकल आई। सुभागी अपनी बात की पक्की औरत है।

सूरदास—जगधारए मुझे इस झमेले में न घसीटोए गरीब आदमी हूँ। भैरो के कान में जरा भी भनक पड़ गईए तो मेरी जान तो पीछे लेगाए पहले सुभागी का गला घोंट देगा।

जगधार—मैं उससे कहने थोड़े ही जाता हूँय पर बात हुई मेरे मन की। बचा ने इतने दिनों तक हलवाई की दूकान पर खूब दादे का फातिहा पढ़़ाए धारती पर पाँव ही न रखता थाए अब होश ठिकाने आ जाएँगे।

सूरदास—तुम नाहक मेरी जान के पीछे पड़े हो।

जगधार—एक बार खिलखिलाकर हँस दोए तो मैं चला जाऊँ। अपनी गई हुई चीज पाकर लोग फूले नहीं समाते। मैं तुम्हारी जगह होताए तो नाचता—कूदताए गाता—बजाताए थोड़ी देर के लिए पागल हो जाता। इतना हँसताए इतना हँसता कि पेट में बावगोला पड़ जाताय और तुम सोंठ बने बैठे हो! लेए हँसो तो।

सूरदास—इस बखत हँसी नहीं आती।

जगधार—हँसी क्यों नहीं आएगीय मैं तो हँसा दूँगा।

यह कहकर उसने सूरदास को गुदगुदाना शुरू किया। सूरदास विनोदशील आदमी था। ठट्ठे मारने लगा।र् ईष्यामय परिहास का विचित्रा —श्य था। दोनों रंगशाला के नटों की भाँति हँस रहे थे और यह खबर न थी कि इस हँसी का परिणाम क्या होगा। शाम की मारी सुभागी इसी वक्त बनिए की दूकान से जिंस लिए आ रही थी। सूरदास के घर से अट्टहास की आकाशभेदी धवनि सुनीए तो चकराई। अंधो कुएँ में पानी कैसाघ् आकर द्वार पर खड़ी हो गई और सूरदास से बोली—आज क्या मिल गया है सूरदासए जो फूले नहीं समातेघ्

सूरदास ने हँसी रोककर कहा—मेरी थैली मिल गईय चोर के घर में छिछोर पैठा।

सुभागी—तो सब माल अकेले हजम कर जाओगेघ्

सूरदास—नहींए तुझे भी एक कंठी ला दूँगाए ठाकुरजी का भजन करना।

सुभागी—अपनी कंठी धार रखोए मुझे एक सोने का कंठा बनवा देना।

सूरदास—तब तो तू धारती पर पाँव ही न रखेगी!

जगधार—इसे चाहे कंठा बनवाना या न बनवानाए इसकी बुढ़़िया को एक नथ जरूर बनवा देना। पोपले मुँह पर नथ खूब खिलेगीए जैसे कोई बंदरिया नथ पहने हो।

इस पर तीनों ने ठट्ठा मारा। संयोग से भैरों भी उसी वक्त थाने से चला आ रहा था। ठट्ठे की आवाज सुनीए तो झोंपड़ी के अंदर झाँकाए ये आज कैसे गुलछर्रे उड़ रहे हैं। यह तिगड्डम देखाए तो अॉंखों में खून उतर आयाए जैसे किसी ने कलेजे पर गरम लोहा रख दिया हो। क्रोधा से उन्मत्ता हो उठा। सुहागी को कठोर—से—कठोरए अश्लील—से—अश्लील दुर्वचन कहेए जैसे कोई सूरमा अपनी जान बचाने के लिए अपने शस्त्राों का घातक—से—घातक प्रयोग करे—तू कुलटा हैए मेरे दुसमनों के साथ हँसती हैए फाहसा कहीं कीए टके—टके पर अपनी आबरू बेचती है। खबरदारए जो आज से मेरे घर में कदम रखाए खून चूस लूँगा। अगर अपनी कुशल चाहती हैए तो इस अंधो से कह देए फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाएय नहीं तो इसकी और तेरी गरदन एक ही गँड़ासे से काटूँगा। मैं तो इधार—उधार मारा—मारा फिरूँए और यह कलमुँही यारों के साथ नोक—झोंक करे! पापी अंधो को मौत भी नहीं आती कि मुहल्ला साफ हो जाताए न जाने इसके करम में क्या—क्या दुरूख भोगना लिखा है। सायद जेहल में चक्की पीसकर मरेगा।

यह कहता हुआ वह चला गया। सुभागी के काटो तो बदन में खून नहीं। मालूम हुआए सिर पर बिजली गिर पड़ी। जगधार दिल में खुश हो रहा थाए जैसे कोई शिकारी हरिन को तड़पते देखकर खुश हो। कैसा बौखला रहा है! लेकिन सूरदासघ् आह! उसकी वही दशा थीए जो किसी सती की अपना सतीत्व खो देने के पश्चात्‌ होती है। तीनों थोड़ी देर तक स्तम्भित खड़े रहे। अंत में जगधार ने कहा—सुभागीए अब तू कहाँ जाएगीघ्

सुभागी ने उसकी ओर विषाक्त नेत्राों से देखकर कहा—अपने घर जाऊँगी! और कहाँघ्

जगधार—बिगड़ा हुआ है प्रान लेकर छोड़ेगा।

सुभागी—चाहे मारेए चाहे जिलाएए घर तो मेरा वही हैघ्

जगधार—कहीं और क्यों नहीं पड़ रहतीए गुस्सा उतर जाए तो चली जाना।

सुभागी—तुम्हारे घर चलती हूँए रहने दोगेघ्

जगधार—मेरे घर! मुझसे तो वह यों ही जलता हैए फिर तो खून ही कर डालेगा।

सुभागी—तुम्हें अपनी जान इतनी प्यारी हैए तो दूसरा कौन उससे बैर मोल लेगाघ्

यह कहकर सुभागी तुरंत अपने घर की ओर चली गई। सूरदास ने हाँ—नहीं कुछ न कहा। उसके चले जाने के बाद जगधार बोला—सूरे तुम आज मेरे घर चलकर सो रहो। मुझे डर लग रहा है कि भैरों रात को कोई उपद्रव न मचाए। बदमाश आदमी हैए उसका कौन ठिकानाए मार—पीट करने लगे।

सूरदास—भैरों को जितना नादान समझते होए उतना वह नहीं है। तुमसे कुछ न बोलेगाय हाँए सुभागी को जी—भर मारेगा।

जगधार—नशे में उसे अपनी सुधा—बुधा नहीं रहती।

सूरदास—मैं कहता हूँए तुमसे कुछ न बोलेगा। तुमने अपने दिल की कोई बात नहीं छिपाई हैए तुमसे लड़ाई करने की उसे हिम्मत न पड़ेगी।

जगधार का भय शांत तो न हुआय पर सूरदास की ओर से निराश होकर चला गया। सूरदास सारी रात जागता रहा। इतने बड़े लांछन के बाद उसे अब यहाँ रहना लज्जाजनक जान पड़ता था। अब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाने के सिवा उसे और उपाय न सूझता था—मैंने तो कभी किसी की बुराई नहीं कीए भगवान्‌ मुझे क्यों यह दंड दे रहे हैंघ् यह किन पापों का प्रायश्चित्ता पड़ रहा हैघ् तीरथ—यात्राा से चाहे यह पाप उतर जाए। कल कहीं चल देना चाहिए। पहले भी भैरों ने मुझ पर यही पाप लगाया था। लेकिन तब सारे मुहल्ले के लोग मुझे मानते थेए उसकी यह बात हँसी में उड़ गई। उलटे लोगों ने उसी को डाँटा। अबकी तो सारा मुहल्ला मेरा दुश्मन हैए लोग सहज ही में विश्वास कर लेंगेए मुँह में कालिख लग जाएगी। नहींए अब यहाँ से भाग जाने ही में कुसल है। देवताओं की सरन लूँए वह अब मेरी रच्छा कर सकते हैं। पर बेचारी सुभागी का क्या हाल होगाघ् भैरों अबकी उसे जरूर छोड़ देगा। इधार मैं भी चला जाऊँगा तो बेचारी कैसे रहेगीघ् उसके नैहर में भी तो कोई नहीं है। जवान औरत हैए मिहनत—मजूरी कर नहीं सकती। न जाने कैसी पड़ेए कैसी न पड़े। चलकर एक बार भैरों से अकेले में सारी बातें साफ—साफ कह दूँ। भैरों से मेरी कभी सफाई से बातचीत नहीं हुई। उसके मन में गाँठ पड़ी हुई है। मन में मैल रहने ही से उसे मेरी ओर से ऐसा भरम होता है। जब तक उसका मन साफ न हो जाएए मेरा यहाँ से जाना उचित नहीं। लोग कहेंगेए काम किया थाए तभी तो डरकर भागाय न करताए तो डरता क्योंघ् ये रुपये भी उसे फेर दूँ। मगर जो उसने पूछा कि ये रुपये कहाँ मिलेए तो सुभागी का नाम न बताऊँगाए कह दूँगाए मुझे झोंपड़ी में रखे हुए मिले। इतना छिपाए बिना सुभागी की जान न बचेगी। लेकिन परदा रखने से सफाई कैसे होगीघ् छिपाने का काम नहीं है। सब कुछ आदि से अंत तक सच—सच कह दूँगा। तभी उसका मन साफ होगा।

इस विचार से उसे बड़ी शांति मिलीए जैसे किसी कवि को उलझी हुई समस्या की पूर्ति से होती है।

वह तड़के ही उठा और जाकर भैरों के दरवाजे पर आवाज दी। भैरों सोया हुआ था। सुभागी बैठी रो रही थी। भैरों ने उसके घर पहुँचते ही उसकी यथाविधि ताड़ना की थी। सुभागी ने सूरदास की आवाज पहचानी। चौंकी कि यह इतने तड़के कैसे आ गया! कहीं दोनों में लड़ाई न हो जाए। सूरदास कितना बलिष्ठ हैए यह बात उससे छिपी न थी। डरी कि सूरदास ही रात की बातों का बदला लेने न आया हो। यों तो बड़ा सहनशील हैए पर आदमी हैए क्रोधा आ गया होगा। झूठा इलजाम सुनकर क्रोधा आता ही है। कहीं गुस्से में आकर इन्हें मार न बैठे। पकड़ पाएगाए तो प्रान ही लेकर छोड़ेगा। सुभागी भैरों की मार खाती थीए घर से निकाली जाती थीए लेकन यह मजाल न थी कि कोई बाहरी आदमी भैरों को कुछ कहकर निकल जाए। उसका मुँह नोच लेती। उसने भैरों को जगाया नहींए द्वार खोलकर पूछा—क्या है सूरेए क्या कहते होघ्

सूरदास के मन में बड़ी प्रबल उत्कंठा हुई कि इससे पूछूँए रात तुझ पर क्या बीतीय लेकिन जब्त कर गया—मुझे इससे वास्ताघ् उसकी स्त्राी है। चाहे मारेए चाहे दुलारे। मैं कौन होता हूँ पूछनेवाला। बोला—भैरों क्या अभी सोते हैंघ् जरा जगा देए उनसे कुछ बातें करनी हैं।

सुभागी—कौन बात हैए मैं भी सुनूँघ्

सूरदास—ऐसी ही एक बात हैए जरा जगा तो दे।

सुभागी—इस बखत जाओए फिर कभी आकर कह देना।

सूरदास—दूसरा कौन बखत आएगा। मैं सड़क पर जा बैठूँगा कि नहींघ् देर न लगेगी।

सुभागी—और कभी तो इतने तड़के न आते थेए आज ऐसी कौन—सी बात हैघ्

सूरदास ने चिढ़़कर कहा—उसी से कहूँगाए तुझसे कहने की बात नहीं है।

सुभागी को पूरा विश्वास हो गया कि यह इस समय आपे में नहीं है। जरूर मारपीट करेगा। बोली—मुझे मारा—पीटा थोड़े ही थाय बस वहीं जो कुछ कहा—सुनाए वही कह—सुनकर रह गए।

सूरदास—चलए तेरे चिल्लाने की आवाज मैंने अपने कानों सुनी।

सुभागी—मारने को धामकाता थाय बसए मैं जोर से चिल्लाने लगी।

सूरदास—न मारा होगा। मारता भीए तो मुझे क्याए तू उसकी घरवाली हैय जो चाहे करेए तू जाकर उसे भेज दे। मुझे एक बात कहनी है।

जब अब भी सुभागी न गई तो सूरदास ने भैरों का नाम लेकर जोर—जोर से पुकारना शुरू किया। कई हाँकों के बाद भैरों की आवाज सुनाई दी—कौन हैए बैठोए आता हूँ।

सुभागी यह सुनते ही भीतर गई और बोली—जाते होए तो एक डंडा लेते जाओए सूरदास हैए कहीं लड़ने न आया हो।

भैरों—चल बैठए लड़ाई करने आया है! मुझसे तिरिया—चरित्तार मत खेल।

सुभागी—मुझे उसकी त्योरियाँ बदली हुई मालूम होती हैंए इसी से कहती हूँ।

भैरों—यह क्यों नहीं कहती कि तू उसे चढ़़ाकर लाई है। वह तो इतना कीना नहीं रखता। उसके मन में कभी मैल नहीं रहता।

यह कहकर भैरों ने अपनी लाठी उठाई और बाहर आया। अंधा शेर भी होए तो उसका क्या भयघ् एक बच्चा भी उसे मार गिराएगा।

सूरदास ने भैरों से कहा—यहाँ और कोई तो नहीं हैघ् मुझे तुमसे एक भेद की बात करनी है।

भैरों—कोई नहीं है। कहोए क्या बात कहते होघ्

सूरदास—तुम्हारे चोर का पता मिल गया।

भैरों—सचए जवानी कसमघ्

सूरदास—हाँए सच कहता हूँ। वह मेरे पास आकर तुम्हारे रुपये रख गया। और तो कोई चीज नहीं गई थीघ्

भैरों—मुझे जलाने आए होए अभी मन नहीं भराघ्

सूरदास—नहींए भगवान्‌ से कहता हूँए तुम्हारी थैली मेरे घर में ज्यों—की—त्यों पड़ी मिली।

भैरों—बड़ा पागल थाए फिर चोरी काहे को की थीघ्

सूरदास—हाँए पागल ही था और क्या।

भैरों—कहाँ हैए जरा देखूँ तोघ्

सूरदास ने थैली कमर से निकालकर भैरों को दिखाई। भैरों ने लपककर थैली ले ली। ज्यों—की—त्यों बंद थी।

सूरदास—गिन लोए पूरे हैं कि नहींघ्

भैरों—हैंए पूरे हैंए सच बताओए किसने चुराया थाघ्

भैरों को रुपये मिलने की इतनी खुशी न थीए जितनी चोर का नाम जानने की उत्सुकता। वह देखना चाहता था कि मैंने जिस पर शक किया थाए वही है कि कोई और।

सूरदास—नाम जानकर क्या करोगेघ् तुम्हें अपने माल से मतलब है कि चोर के नाम सेघ्

भैरों—नहींए तुम्हें कसम हैए बता दोए है इसी मुहल्ले का नघ्

सूरदास—हाँए है तो मुहल्ले ही काय पर नाम न बताऊँगा।

भैरों—जवानी की कसम खाता हूँए उससे कुछ न कहूँगा।

सूरदास—मैं उसको वचन दे चुका हूँ कि नाम न बताऊँगा। नाम बता दूँए और तुम अभी दंगा करने लगोए तबघ्

भैरों—विसवास मानोए मैं किसी से न बोलूँगा। जो कसम कहोए खा जाऊँ। अगर जबान खोलूँए तो समझ लेनाए इसके असल में फरक है। बात और बाप एक है। अब और कौन कसम लेना चाहते होघ्

सूरदास—अगर फिर गएए तो यहीं तुम्हारे द्वार पर सिर पटककर जान दे दूँगा।

भैरों—अपनी जान क्यों दे दोगेए मेरी जान ले लेनाय चूँ न करूँगा।

सूरदास—मेरे घर में एक बार चोरी हुई थीए तुम्हें याद है नघ् चोर को ऐसा सुभा हुआ होगा कि तुमने मेरे रुपये लिए हैं। इसी से उसने तुम्हारे यहाँ चोरी कीए और मुझे रुपये लाकर दे दिए। बसए उसने मेरी गरीबी पर दया कीए और कुछ नहीं। उससे मेरा और कोई नाता नहीं है।

भैरों—अच्छाए यह सब सुन चुकाए नाम तो बताओ।

सूरदास—देखोए तुमने कसम खाई है।

भैरों—हाँए भाईए कसम से मुकरता थोड़ा ही हूँ।

सूरदास—तुम्हारी घरवाली और मेरी बहन सुभागी।

इतना सुनना था कि भैरों जैसे पागल हो गया। घर में दौड़ा हुआ गया और माँ से बोला—अम्माँए इसी डाइन ने मेरे रुपये चुराए थे। सूरदास अपने मुँह से कह रहा है। इस तरह मेरा घर मूसकर यह चुड़ैल अपने धाींगड़ों का घर भरती। उस पर मुझसे उड़ती थी। देख तोए तेरी क्या गत बनाता हूँ। बताए सूरदास झूठ कहता है कि सचघ्

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा—सूरदास झूठ बोलते हैं।

उसके मुँह से बात पूरी न निकलने पाई थी कि भैरों ने लकड़ी खींचकर मारी। वार खाली गया। इससे भैरों का क्रोधा और भी बढ़़ा। वह सुभागी के पीछे दौड़ा। सुभागी ने एक कोठरी में घुसकर भीतर से द्वार बंद कर लिया। भैरों ने द्वार पीटना शुरू किया। सारे मुहल्ले में हुल्लड़ मच गयाए भैरों सुभागी को मारे डालता है। लोग दौड़ पड़े। ठाकुरदीन ने भीतर जाकर पूछा—क्या है भैरोंए क्यों किवाड़ तोड़े डालते होघ् भले आदमीए कोई घर के आदमी पर इतना गुस्सा करता है!

भैरों—कैसा घर का आदमी जी! ऐसे घर के आदमी का सिर काट लेना चाहिएए जो दूसरों से हँसे। आखिर मैं काना हूँए कतरा हूँए लूला हूँए लँगड़ा हूँए मुझमें क्या ऐब हैए जो यह दूसरों से हँसती हैघ् मैं इसकी नाक काटकर तभी छोड़ूँगा। मेरे घर जो चोरी हुई थीए वह इसी चुड़ैल की करतूत थी। इसी ने रुपये चुराकर सूरदास को दिए थे।

ठाकुरदीन—सूरदास को!

भैरों—हाँ—हाँए सूरदास को। बाहर तो खड़ा हैए पूछते क्यों नहींघ् उसने जब देखा कि अब चोरी न पचेगीए तो लाकर सब रुपये मुझे दे गया है।

बजरंगी—अच्छाए तो रुपये सुभागी ने चुराए थे!

लोगों ने भैरों को ठंडा किया और बाहर खींच लाए। यहाँ सूरदास पर टीप्पणियाँ होने लगीं। किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि साफ—साफ कहेघ् सब—के—सब डर रहे थे कि कहीं मेम साहब से शिकायत न कर दे। पर अन्योक्तियों द्वारा सभी अपने मनोविचार प्रकट कर रहे थे। सूरदास को आज मालूम हुआ कि पहले कोई मुझसे डरता न थाए पर दिल में सब इज्जत करते थेय अब सब—के—सब मुझसे डरते हैंय पर मेरी सच्ची इज्जत किसी के दिल में नहीं है। उसे इतनी ग्लानि हो रही थी कि आकाश से वज्र गिरे और मैं यहीं जल—भुन जाऊँ।

ठाकुरदीन ने धाीरे से कहा—सूरे तो कभी ऐसा न था। आज से नहींए लड़कपन से देखते हैं।

नायकराम—पहले नहीं थाए अब हो गया। अब तो किसी को कुछ समझता ही नहीं।

ठाकुरदीन—प्रभुता पाकर सभी को मद हो जाता हैए पर सूरे में तो मुझे कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती।

नायकराम—छिपा रुस्तम है! बजरंगीए मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।

बजरंगी—(हँसकर) पंडाजीए भगवान्‌ से कहता हूँए मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।

भैरों—और मुझसे जो सच पूछोए तो जगधार पर सक था।

सूरदास सिर झुकाए चारों ओर से ताने और लताड़ें सुन रहा था। पछता रहा था—मैंने ऐसे कमीने आदमी से यह बात बताई ही क्यों। मैंने तो समझा थाए साफ—साफ कह देने से इसका दिल साफ हो जाएगा। उसका यह फल मिला! मेरे मुँह में तो कालिख लग ही गईए उस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा। भगवान्‌ अब कहाँ गएए क्या कथा—पुरानों ही में अपने सेवकों को उबारने आते थेए अब क्यों नहीं आकाश से कोई दूत आकर कहता कि यह अंधा बेकसूर है।

जब भैरों के द्वार पर यह अभिनय होते हुए आधा घंटे से अधिक हो गयाए तो सूरदास के धौर्य का प्याला छलक पड़ा। अब मौन बने रहना उसके विचार में कायरता थीए नीचता थी। एक सती पर इतना कलंक थोपा जा रहा है और मैं चुपचाप खड़ा सुनता हूँ। यह महापाप है। वह तनकर खड़ा हो गया और फटी हुई अॉंखें फाड़कर बोला—यारोए क्यों बिपत के मारे हुए दुखियों पर यह कीचड़ फेंक रहे होए ये छुरियाँ चला रहे होघ् कुछ तो भगवान्‌ से डरो। क्या संसार में कहीं इंसाफ नहीं रहाघ् मैंने तो भलमनसी की कि भैरों के रुपये उसे लौटा दिए। उसका मुझे यह फल मिल रहा है! सुभागी ने क्यों यह काम किया और क्यों मुझे रुपये दिए यह मैं न बताऊँगा लेकिन भगवान्‌ मेरी इससे भी ज्यादा दुर्गत करेंए अगर मैंने सुभागी को अपनी छोटी बहन के सिवा कभी कुछ और समझा हो। मेरा कसूर इतना ही है कि वह रात को मेरी झोंपड़ी में आई थी। उस बखत जगधार वहाँ बैठा था। उससे पूछो कि हम लोगों में कौन—सी बातें हो रही थीं। अब इस मुहल्ले में मुझ—जैसे अंधो—अपाहिज आदमी का निबाह नहीं हो सकता। जाता हूँय पर इतना कहे जाता हूँ कि सुभागी पर जो कलंक लगाएगाए उसका भला न होगा। वह सती हैए सती को पाप लगाकर कोई सुखी नहीं हो सकता। मेरा कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ हैय जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगाए वह चुटकी—भर आटा दे देगा। अब यहाँ से दाना—पानी उठता है। पर एक दिन आवेगाए जब तुम लोगों को सब बातें मालूम हो जाएँगीए और तब तुम जानोगे कि अंधा निरपराधा था।

यह कहकर सूरदास अपनी झोंपड़ी की तरफ चला गया।

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अध्याय 24

सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफिया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमानए लज्जाए तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत्रिाम प्रेम का स्वाँग भरना कहीं दुस्सह प्रतीत होता था। सोचती थीए मैं जल से बचने के लिए आग में कूद पड़ी। प्रकृति बल—प्रयोग सहन नहीं कर सकती। उसने अपने मन को बलात्‌ विनय की ओर से खींचना चाहा थाए अब उसका मन बड़े वेग से उनकी ओर दौड़ रहा था। इधार उसने भक्ति के विषय में कई ग्रंथ पढ़़े थे और फलतरू उसके विचारों में एक रूपांतर हो गया था। अपमान और लोक—निंदा का भय उसके दिल से मिटने लगा था। उसके सम्मुख प्रेम का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित हो गया थाए जहाँ अहंकार की आवाज नहीं पहुँचती। त्यागपरायण तपस्वी को सोमरस का स्वाद मिल गया था और उसके नशे में उसे सांसारिक भोग—विलासए मान—प्रतिष्ठा सारहीन जान पड़ती थी। जिन विचारों से प्रेरित होकर उसने विनय से मुँह फेरने और क्लार्क से विवाह करने का निश्चय किया थाए वे अब उसे नितांत अस्वाभाविक मालूम होते थे। रानी जाह्नवी से तिरस्कृत होकर अपने मन का दमन करने के लिए उसने अपने ऊपर यह अत्याचार किया था। पर अब उसे नजर ही न आता था कि मेरे आचरण में कलंक की कौन—सी बात थीए उसमें अनौचित्य कहाँ था। उसकी आत्मा अब उस निश्चय का घोर प्रतिवाद कर रही थीए उसे जघन्य समझ रही थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैंने विनय के स्थान पर क्लार्क को प्रतिष्ठित करने का फैसला कैसे किया। मि. क्लार्क में सद्‌गुणों की कमी नहींए वह सुयोग्य हैंए शीलवान्‌ हैंए उदार हैंए सहृदय हैं। वह किसी स्त्राी को प्रसन्न रख सकते हैंए जिसे सांसारिक सुख—भोग की लालसा हो। लेकिन उनमें वह त्याग कहाँए वह सेवा का भाव कहाँए वह जीवन का उच्चादर्श कहाँए वह वीर—प्रतिज्ञा कहाँए वह आत्मसमर्पण कहाँघ् उसे अब प्रेमानुराग की कथाएँ और भक्ति—रस—प्रधान काव्यए जीव और आत्माए आदि और अनादिए पुनर्जन्म और मोक्ष आदि गूढ़़ विषयों की व्यावख्या से कहीं आकर्षक मालूम होते थे। इसी बीच में उसे कृष्ण का जीवन—चरित्रा पढ़़ने का अवसर मिला और उसने उस भक्ति की जड़ हिला दीए जो उसे प्रभु मसीह से थी। वह मन में दोनों महान्‌ पुरुषों की तुलना किया करती। मसीह की दया की अपेक्षा उसे कृष्ण के प्रेम से अधिक शांति मिलती थी। उसने अब तक गीता ही के कृष्ण को देखा था और मसीह की दयालुताए सेवाशीलता और पवित्राता के आगे उसे कृष्ण का रहस्यमय जीवन गीता की जटील दार्शनिक व्याख्याओं से भी दुर्बोधा जान पड़ता था। उसका मस्तिष्क गीता के विचारोत्कर्ष के सामने झुक जाता थाए पर उसने मन में भक्ति का भाव न उत्पन्न होता था। कृष्ण के बाल—जीवन को उसने भक्तों की कपोल—कल्पना समझ रखा था। और उस पर विचार करना ही व्यर्थ समझती थी। पर अब ईसा की दया इस बाल—क्रीड़ा के सामने नीरस थी। ईसा की दया में आधयात्मिकता थीए कृष्ण के प्रेम में भावुकताय ईसा की दया आकाश की भाँति अनंत थीए कृष्ण का प्रेम नवकुसुमितए नवपल्लवित उद्यान की भाँति मनोहरय ईसा की दया जल—प्रवाह की मधुर धवनि थीए कृष्ण का प्रेम वंशी की व्याकुल टेरय एक देवता थाए दूसरा मनुष्यय एक तपस्वी थाए दूसरा कविय एक में जागृति और आत्मज्ञान थाए दूसरे में अनुराग और उन्मादय एक व्यापारी थाए हानि—लाभ पर निगाह रखनेवालाए दूसरा रसिया थाए अपने सर्वस्व को दोनों हाथों लुटानेवालाय एक संयमी थाए दूसरा भोगी। अब सोफिया का मन नित्य इसी प्रेम—क्रीड़ा में बसा रहता थाए कृष्ण ने उसे मोहित कर लिया थाए उसे अपनी वंशी की धवनि सुना दी थी।

मिस्टर क्लार्क का लौकिक शिष्टाचार अब उसे हास्यास्पद मालूम होता था। वह जानती थी कि यह सारा प्रेमालाप एक परीक्षा में भी सफल नहीं हो सकता। वह बहुधा उनसे रुखाई करती। वह बाहर से मुस्कराते हुए आकर उसकी बगल में कुर्सी खींचकर बैठ जातेए और वह उनकी ओर अॉंखें उठाकर भी न देखती। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी धार्मिक अश्रध्दा से मिस्टर क्लार्क के धार्मपरायण हृदय को कठोर आधात पहुँचाया। उन्हें सोफिया एक रहस्य—सी जान पड़ती थीए जिसका उद्धाटन करने में वह असमर्थ थे। उसका अनुपम सौंदर्यए उसकी हृदयहारिणी छविए उसकी अद्‌भुत विचारशीलता उन्हें जितने जोर से अपनी ओर खींचती थीए उतनी ही उसकी मानशीलताए विचार—स्वाधाीनता और अनम्रता उन्हें भयभीत कर देती थी। उसके सम्मुख बैठे हुए वह अपनी लघुता का अनुभव करते थेए पग—पग पर उन्हें ज्ञात होता था कि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। इसी वजह से इतनी घनिष्ठता होने पर भी उन्हें उसे वचनबध्द करने का साहस न होता था। मिसेज सेवक आग में ईंधान डालती रहती थीं—एक ओर क्लार्क को उकसातींए दूसरी ओर सोफी को समझातीं—तू समझती हैए जीवन में ऐसे अवसर बार—बार आते हैंए यह तेरी गलती है। मनुष्य को केवल एक अवसर मिलता हैए और वही उसके भाग्य का निर्णय कर देता है।

मि. जॉन सेवक ने भी अपने पिता के आदेशानुसार दोरुखी चाल चलनी शुरू की। वह गुप्त रूप से तो राजा महेंद्रकुमार सिंह की कल घुमाते रहते थेय पर प्रकट रूप से मिस्टर क्लार्क के आदर—सत्कार में कोई बात उठा न रखते थे। रहे मि. ईश्वर सेवकए वह तो समझते थेए खुदा ने सोफिया को मिस्टर क्लार्क ही के लिए बनाया है। वह अकसर उनके यहाँ आते थे और भोजन भी वहीं कर लेते थे। जैसे कोई दलाल ग्राहक को देखकर उसके पीछे—पीछे हो लेता हैए और उसे किसी दूसरी दूकान पर बैठने नहीं देताए वैसे ही वह मिस्टर क्लार्क को घेरे रहते थे कि कोई ऊँची दूकान उन्हें आकर्षित न कर ले। मगर इतने शुभेच्छुकों के रहते हुए भी मिस्टर क्लार्क को अपनी सफलता दुर्लभ मालूम होती थी।

सोफिया को इन दिनों बनाव—सिंगार का बड़ा व्यसन हो गया था। अब तक उसने माँग—चोटी या वस्त्रााभूषण की कभी चिंता न की थी। भोग—विलास से दूर रहना चाहती थी। धार्म—ग्रंथों की यही शिक्षा थीए शरीर नश्वर हैए संसार असार हैए जीवन मृग—तृष्णा हैए इसके लिए बनाव—सँवार की जरूरत नहीं। वास्तविक शृंगार कुछ और ही हैए उसी पर निगाह रखनी चाहिए। लेकिन अब तक वह जीवन को इतना तुच्छ न समझती थी। उसका रूप कभी इतने निखार पर न था। उसकी छवि—लालसा कभी इतनी सजग न थी।

संधया हो चुकी थी। सूर्य की शीतल किरणेंए किसी देवता के आशीर्वाद की भाँतिए तरु—पुंजों के हृदय को विहसित कर रही थीं। सोफिया एक कु़ज में खड़ी आप—ही—आप मुस्करा रही थी कि मिस्टर क्लार्क की मोटर आ पहुँची। वह सोफिया को बाग में देखकर सीधो उसके पास आए और एक कृपा—लोलुप द्रष्टि से देखकर उसकी ओर हाथ बढ़़ा दिया। सोफिया ने मुँह फेर लियाए मानो उनके बढ़़े हुए हाथ को देखा ही नहीं।

सहसा एक क्षण बाद उसने हास्य—भाव से पूछा—आज कितने अपराधियों को दंड दियाघ्

मिस्टर क्लार्क झेंप गए। सकुचाते हुए बोले—प्रियेए यह तो रोज की बातें हैंए इनकी क्या चर्चा करूँघ्

सोफी—तुम यह कैसे निश्चय करते हो कि अमुक अपराधाी वास्तव में अपराधाी हैघ् इसका तुम्हारे पास कोई यंत्रा हैघ्

क्लार्क—गवाह तो रहते हैं।

सोफी—गवाह हमेशा सच्चे होते हैंघ्

क्लार्क—कदापि नहीं। गवाह अकसर झूठे और सिखाए हुए होते हैं।

सोफी—और उन्हीं गवाहों के बयान पर फैसला करते हो!

क्लार्क—इसके सिवा और उपाय ही क्या है!

सोफी—तुम्हारी असमर्थता दूसरे की जान क्यों लेघ् इसीलिए कि तुम्हारे वास्ते मोटरकारए बँगलाए खानसामेए भाँति—भाँति की शराब और विनोद के अनेक साधान जुटाए जाएँघ्

क्लार्क ने हतबुध्दि की भाँति कहा—तो क्या नौकरी से इस्तीफा दे दूँघ्

सोफिया—जब तुम जानते हो कि वर्तमान शासन—प्रणाली में इतनी त्रुटीयाँ हैंए तो तुम उसका एक अंग बनकर निरपराधियों का खून क्यों करते होघ्

क्लार्क—प्रियेए मैंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया।

सोफिया—और बिना विचार किए ही नित्य न्याय की हत्या किया करते हो। कितने निर्दयी हो!

क्लार्क—हम तो केवल कल के पुर्जे हैंए हमें ऐसे विचारों से क्या प्रयोजनघ्

सोफी—क्या तुम्हें इसका विश्वास है कि तुमने कोई अपराधा नहीं कियाघ्

क्लार्क—यह दावा कोई मनुष्य नहीं कर सकता।

सोफी—तो तुम इसीलिए दंड से बचे हुए हो कि तुम्हारे अपराधा छिपे हुए हैंघ्

क्लार्क—यह स्वीकार करने को जी तो नहीं चाहताय विवश होकर स्वीकार करना पड़ेगा।

सोफी—आश्चर्य है कि स्वयं अपराधाी होकर तुम्हें दूसरे अपराधियों को दंड देते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती!

क्लार्क—सोफीए इसके लिए तुम फिर कभी मेरा तिरस्कार कर लेना। इस समय मुझे एक महत्तव के विषय में तुमसे सलाह लेनी है। खूब विचार करके राय देना। राजा महेंद्रकुमार ने मेरे फैसले की अपील गवर्नर के यहाँ की थीए इसका जिक्र तो मैं तुमसे कर ही चुका हूँ। उस वक्त मैंने समझा थाए गवर्नर अपील पर धयान न देंगे। एक जिले के अफसर के खिलाफ किसी रईस की मदद करना हमारी प्रथा के प्रतिकूल हैए क्योंकि इससे शासन में विघ्न पड़ता हैय किंतु 6—7 महीनों में परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई हैए राजा साहब ने अपनी कुल—मर्यादाए —ढ़़ संकल्प और तर्क—बुध्दि से इतनी अच्छी तरह काम लिया है कि अब शायद फैसला मेरे खिलाफ होगा। काउंसिल में हिंदुस्तानियों का बहुमत हो जाने के कारण अब गवर्नर का महत्तव बहुत कम हो गया है। यद्यपि वह काउंसिल के निर्णय को रद्द कर सकते हैंए पर इस अधिकार से वह असाधारण अवसरों पर ही काम ले सकते हैं। अगर राजा साहब की अपील वापस कर दी गईए तो दूसरे ही दिन देश में कुहराम मच जाएगा और समाचार—पत्राों को विदेशी राज्य के एक नए अत्याचार पर शोर मचाने का वह मौका मिल जाएगा जो वे नित्य खोजते रहते हैं। इसलिए गवर्नर ने मुझसे पूछा है कि यदि राजा साहब के अॉंसू पोंछे जाएँए तो तुम्हें कुछ दुरूख तो न होगाघ् मेरी समझ में नहीं आताए इसका क्या उत्तार दूँ। अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका।

सोफी—क्या इसका निर्णय करना मुश्किल हैघ्

क्लार्क—हाँए इसलिए मुश्किल है कि जन—सम्मत्तिा से राज्य करने की जो व्यवस्था हम लोगों ने खुद की हैए उसे पैरों—तले कुचलना बुरा मालूम होता है। राजा कितना ही सबल होए पर न्याय का गौरव रखने के लिए कभी—कभी राजा को भी सिर झुकाना पड़ता है। मेरे लिए कोई बात नहींए फैसला मेरे अनुकूल हो प्रतिकूलए मेरे ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ताय बल्कि प्रजा पर हमारे न्याय की धाक और बैठ जाती है। (मुस्कराकर) गवर्नर ने मुझे इस अपराधा के लिए दंड भी दिया है। वह मुझे यहाँ से हटा देना चाहते हैं।

सोफिया—क्या तुम्हें इतना दबना पड़ेगाघ्

क्लार्क—हाँए मैं रियासत का पोलिटीकल एजेंट बना दिया जाऊँगाए यह पद बड़े मजे का है। राजा तो केवल नाम के लिए होता हैए सारा अख्तियार तो एजेंट ही के हाथों में रहता है। हममें जो बड़े भाग्यशाली होते हैंए उन्हीं को यह पद प्रदान किया जाता है।

सोफिया—तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।

मिस्टर क्लार्क इस व्यंग से मन में कटकर रह गए। उन्होंने समझा था सोफी यह समाचार सुनकर फूली न समाएगीए और तब मुझे उससे यह कहने का अवसर मिलेगा कि यहाँ से जाने के पहले हमारा दाम्पत्य सूत्रा में बँधा जाना आवश्यक है। श्तब तो तुम बड़े भाग्यशाली होए श् इस निर्दय व्यंग ने उनकी सारी अभिलाषाओं पर पानी फेर दिया। इस वाक्य में वह निष्ठुरताए वह कटाक्षए वह उदासीनता भरी हुई थीए जो शिष्टाचार की भी परवा नहीं करती। सोचने लगे—इसकी सम्मति की प्रतीक्षा किए बिना मैंने अपनी इच्छा प्रकट कर दीए कहीं यह तो इसे बुरा नहीं लगाघ् शायद समझती हो कि अपनी स्वार्थ—कामना से यह इतने प्रसन्न हो रहे हैंए पर उस बेकस अंधो की इन्हें जरा भी परवा नहीं कि उस पर क्या गुजरेगी। अगर यही करना थाए तो यह रोग ही क्यों छेड़ा था। बोले—यह तो तुम्हारे फैसले पर निर्भर है।

सोफी ने उदासीन भाव से उत्तार दिया—इन विषयों में तुम मुझसे चतुर हो।

क्लार्क—उस अंधो की फिक्र है।

सोफी ने निर्दयता से कहा—उस अंधो के खुदा तुम्हीं नहीं हो।

क्लार्क—मैं तुम्हारी सलाह पूछता हूँ और तुम मुझी पर छोड़ती जाती हो।

सोफी—अगर मेरी सलाह से तुम्हारा अहित होए तोघ्

क्लार्क ने बड़ी वीरता से उत्तार दिया—सोफीए मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँघ्

सोफी—(हँसकर) इसके लिए मैं तुम्हारी बहुत अनुगृहीत हूँ।

इतने में मिसेज सेवक वहाँ आ गईं और क्लार्क से हँस—हँसकर बातें करने लगीं। सोफी ने देखाए अब मिस्टर क्लार्क को बनाने का मौका नहीं रहाए तो अपने कमरे में चली आई। देखाए तो प्रभु सेवक वहाँ बैठे हैं। सोफी ने कहा—इन हजरत को अब यहाँ से बोरिया—बँधाना सँभालना पड़ेगा। किसी रियासत के एजेंट होंगे।

प्रभु सेवक—(चौंककर) कबघ्

सोफी—बहुत जल्द। राजा महेंद्रकुमार इन्हें ले बीते।

प्रभु सेवक—तब तो तुम यहाँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हो!

सोफी—मैं इनसे विवाह न करूँगी।

प्रभु सेवक—सचघ्

सोफी—हाँए मैं कई दिन से यह फैसला कर चुकी हूँए पर तुमसे कहने का मौका न मिला।

प्रभु सेवक—क्या डरती थीं कि कहीं मैं शोर न मचा दूँघ्

सोफी—बात तो वास्तव में यही थी।

प्रभु सेवक—मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मुझ पर इतना अविश्वास क्यों करती होघ् जहाँ तक मुझे याद हैए मैंने तुम्हारी बात किसी से नहीं कही।

सोफी—क्षमा करना प्रभु! न जाने क्यों मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। तुममें अभी कुछ ऐसा लड़कपन हैए कुछ ऐसे खुले हुए निर्द्‌वंद्व मनुष्य हो कि तुमसे कोई बात कहते उसी भाँति डरती हूँए जैसे कोई आदमी वृक्ष की पतली टहनी पर पैर रखते डरता है।

प्रभु सेवक—अच्छी बात हैए यों ही मुझसे डरा करो। वास्तव में मैं कोई बात सुन लेता हूँए तो मेरे पेट में चूहे दौड़ने लगते हैं और जब तक किसी से कह न लूँए मुझे चौन ही नहीं आता। खैरए मैं तुम्हें इस फैसले पर बधाई देता हूँ। मैंने तुमसे स्पष्ट तो कभी नहीं कहाय पर कई बार संकेत कर चुका हूँ कि मुझे किसी दशा में क्लार्क को अपना बहनोई बनाना पसंद नहीं है। मुझे न जाने क्यों उनसे चिढ़़ है। वह बेचारे मेरा बड़ा आदर करते हैंय पर अपना जी उनसे नहीं मिलता। एक बार मैंने उन्हें अपनी एक कविता सुनाई थी। उसी दिन से मुझे उनसे चिढ़़ हो गई है। बैठे सोंठ की तरह सुनते रहेए मानो मैं किसी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हूँ। कविता का ज्ञान ही नहीं। उन्हें देखकर बस यही इच्छा होती है कि खूब बनाऊँ। मैंने कितने ही मनुष्यों को अपनी रचना सुनाई होगीए पर विनय—जैसा मर्मज्ञ और किसी को नहीं पाया। अगर वह कुछ लिखें तो खूब लिखें। उनका रोम—रोम काव्यमय है।

सोफी—तुम इधार कभी कुँवर साहब की तरफ नहीं गए थेघ्

प्रभु सेवक—आज गया था और वहीं से चला आ रहा हूँ। विनयसिंह बड़ी विपत्तिा में पड़ गए हैं। उदयपुर के अधिकारियों ने उन्हें जेल में डाल रखा है।

सोफिया के मुख पर क्रोधा या शोक का कोई चिद्द न दिखाई दिया। उसने यह न पूछाए क्यों गिरफ्तार हुएघ् क्या अपराधा थाघ् ये सब बातें उसने अनुमान कर लीं। केवल इतना पूछा—रानीजी तो वहाँ नहीं जा रही हैंघ्

प्रभु सेवक—न! कुँवर साहब और डॉक्टर गांगुलीए दोनों जाने को तैयार हैंय पर रानी किसी को नहीं जाने देतीं। कहती हैंए विनय अपनी मदद आप कर सकता है। उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं।

सोफिया थोड़ी देर तक गम्भीर विचार में स्थिर बैठी रही। विनय की वीर मूर्ति उसकी अॉंखों के सामने फिर रही थी। सहसा उसने सिर उठाया और निश्चायात्मक भाव से बोली—मैं उदयपुर जाऊँगी।

प्रभु सेवक—वहाँ जाकर क्या करोगीघ्

सोफी—यह नहीं कह सकती कि वहाँ जाकर क्या करूँगी। अगर और कुछ न कर सकूँगीए तो कम—से—कम जेल में रहकर विनय की सेवा तो करूँगीए अपने प्राण तो उन पर निछावर कर दूँगी। मैंने उनके साथ जो छल किया हैए चाहे किसी इरादे से किया होए वह नित्य मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभा करता है। उससे उन्हें जो दुरूख हुआ होगाए उसकी कल्पना करते ही मेरा चित्ता विकल हो जाता है। मैं अब उस छल का प्रायश्चित्ता करूँगीए किसी और उपाय से नहींए तो अपने प्राणों ही से।

यह कहकर सोफिया ने खिड़की से झाँकाए तो मि. क्लार्क अभी तक खड़े मिसेज सेवक से बातें कर रहे थे। मोटरकार भी खड़ी थी। वह तुरंत बाहर आकर मि. क्लार्क से बोली—विलियमए आज मामा से बातें करने ही में रात खत्म कर दोगेघ् मैं सैर करने के लिए तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ।

कितनी मंजुल वाणी थी! कितनी मनोहारिणी छवि सेए कमल—नेत्राों में मधुर हास्य का कितना जादू भरकरए यह प्रेम—ाचना की गई थी! क्लार्क ने क्षमाप्रार्थी नेत्राों से सोफिया को देखा—यह वही सोफिया हैए जो अभी एक ही क्षण पहले मेरी हँसी उड़ा रही थी! तब जल पर आकाश की श्यामल छाया थीए अब उसी जल में इंदु की सुनहरी किरण नृत्य कर रही थीए उसी लहराते हुए जल की कम्पितए विहसितए चंचल छटा उसकी अॉंखों में थी। लज्जित होकर बोले—प्रियेए क्षमा करोए मुझे याद ही न रहीए बातों में देर हो गई।

सोफिया ने माता को सरल नेत्राों से देखकर कहा—मामाए देखती हो इनकी निष्ठुरताए यह अभी से मुझसे तंग आ गए हैं। मेरी इतनी सुधि न रही कि झूठे ही पूछ लेतेए सैर करने चलोगीघ्

मिसेज सेवक—हाँए विलियमए यह तुम्हारी ज्यादती है। आज सोफी ने तुम्हें रँगे हाथों पकड़ लिया। मैं तुम्हें निर्दोष समझती थी और सारा दोष उसी के सिर रखती थी।

क्लार्क ने कुछ मुस्कराकर अपनी झेंप मिटाई और सोफिया का हाथ पकड़कर मोटर की तरफ चले। पर अब भी उन्हें शंका हो रही थी कि मेरे हाथ में नाजुक कलाई हैए वह कोई वस्तु है या केवल कल्पना और स्वप्न। रहस्य और भी दुर्भेद्य होता हुआ दिखाई देता था। यह कोई बंदर को नचानेवाला मदारी है या बालकए जो बंदर को दूर से देखकर खुश होता हैए पर बंदर के निकट आते ही भय से चिल्लाने लगता है!

जब मोटर चलीए तो सोफिया ने कहा—एजेंट के अधिकार तो बड़े होते हैंए वह चाहे तो किसी रियासत के भीतरी मुआमिलों में भी हस्तक्षेप कर सकता हैए क्योंघ्

क्लार्क ने प्रसन्न होकर कहा—उसका अधिकार सर्वत्राए यहाँ तक कि राजा के महल के अंदर भीए होता है। रियासत का कहना ही क्याए वह राजा के खाने—सोनेए आराम करने का समय तक नियत कर सकता है। राजा किससे मिलेए किससे दूर रहेए किसका आदर करेए किसकी अवहेलना करेए ये सब बातें एजेंट के अधाीन हैं। वह यहाँ तक निश्चय कर सकता है कि राजा की मेज पर कौन—कौन—से प्याले आएँगेए राजा के लिए कैसे और कितने कपड़ों की जरूरत हैए यहाँ तक कि वह राजा के विवाह का भी निश्चय करता है। बसए यों समझो कि वह रियासत का खुदा होता है।

सोफिया—तब तो वहाँ सैर—सपाटे का खूब अवकाश मिलेगा। यहाँ की भाँति दिन—भर दफ्तर में तो न बैठना पड़ेगाघ्

क्लार्क—वहाँ कैसा दफ्तरए एजेंट का काम दफ्तर में बैठना नहीं है। वह वहाँ बादशाह का स्थानापन्न होता है।

सोफिया—अच्छाए जिस रियासत में चाहोए जा सकते होघ्

क्लार्क—हाँए केवल पहले कुछ लिखा—पढ़़ी करनी पड़ेगी। तुम कौन—सी रियासत पसंद करोगीघ्

सोफिया—मुझे तो पहाड़ी देशों से विशेष प्रेम है। पहाड़ों के दामन में बसे हुए गाँवए पहाड़ों की गोद में चरनेवाली भेड़ें और पहाड़ों से गिरनेवाले जल—प्रपातए ये सभी —श्य मुझे काव्यमय प्रतीत होते हैं। मुझे मालूम होता हैए वह कोई दूसरा ही जगत्‌ हैए इससे कहीं शांतिमय और शुभ्र। शैल मेरे लिए एक मधुर स्वप्न है। कौन—कौन—सी रियासतें पहाड़ों में हैंघ्

क्लार्क—भरतपुरए जोधापुरए कश्मीरए उदयपुर...

सोफिया—बसए तुम उदयपुर के लिए लिखो। मैंने इतिहास में उदयपुर की वीरकथाएँ पढ़़ी हैं और तभी से मुझे उस देश को देखने की बड़ी लालसा है। वहाँ के राजपूत कितने वीरए कितने स्वाधाीनता—प्रेमीए कितने आन पर जान देनेवाले होते थे! लिखा हैए चित्ताौड़ में जितने राजपूतों ने वीरगति पाईए उनके जनेऊ तौले गएए तो 75 मन निकले। कई हजार राजपूत—स्त्रिायाँ एक साथ चिता पर बैठकर राख हो गईं। ऐसे प्रणवीर प्राणी संसार में शायद ही और कहीं हों।

क्लार्क—हाँए वे वृत्ताांत मैंने भी इतिहास में देखे हैं। ऐसी वीर जाति का जितना सम्मान किया जाएए कम है। इसीलिए उदयपुर का राजा हिंदू राजों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। उनकी वीर—कथाओं में अतिशयोक्ति से बहुत काम लिया गया हैए फिर भी यह मानना पड़ेगा कि इस देश में इतनी जाँबाज और कोई जाति नहीं है।

सोफिया—तुम आज भी उदयपुर के लिए लिखो और सम्भव होए तो हम लोग एक मास के अंदर यहाँ से प्रस्थान कर दें।

क्लार्क—लेकिन कहते हुए डर लगता है...तुम मेरा आशय समझ गई होगी...यहाँ से चलने के पहले मैं तुमसे वह चिर—सिंचित...मेरा जीवन...

सोफिया ने मुस्कराकर कहा—समझ गईए उसके प्रकट करने का कष्ट न उठाओ। इतनी मंदबुध्दि नहीं हूँय लेकिन मेरी निश्चय—शक्ति अत्यंत शिथिल हैए यहाँ तक कि सैर करने के लिए चलने का निश्चय भी मैं घंटों के सोच—विचार के बाद करती हूँ। ऐसे महत्तव के विषय मेंए जिसका सम्बंधा जीवन—पयर्ंत रहेगाए मैं इतनी जल्द कोई फैसला नहीं कर सकती। बल्कि साफ तो यों है कि अभी तक मैं यही निर्णय नहीं कर सकी कि मुझ—जैसी निर्द्‌वंद्वए स्वाधाीन—विचार—प्रिय स्त्राी दाम्पत्य जीवन के योग्य है भी या नहीं। विलियमए मैं तुमसे हृदय की बात कहती हूँए गृहिणी—जीवन से मुझे भय मालूम होता है। इसलिए जब तक तुम मेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित न हो जाओए मैं तुम्हारे हृदय में झूठी आशाएँ पैदा करके तुम्हें धोखे में नहीं डालना चाहती। अभी मेरा और तुम्हारा परिचय केवल एक वर्ष का है। अब तक मैं तुम्हारे लिए केवल एक रहस्य हूँ। क्योंए हूँ या नहींघ्

क्लार्क—हाँ सोफी! वास्तव में अभी मैं तुम्हें अच्छी तरह नहीं पहचान पाया हूँ।

सोफिया—फिर ऐसी दशा में तुम्हीं सोचोए हम दोनों का दाम्पत्य सूत्रा में बँधा जाना कितनी बड़ी नादानी है। मेरे दिल की जो पूछोए तो मुझे एक सहृदयए सज्जन विचारशील और सच्चरित्रा पुरुष के साथ मित्रा बनकर रहनाए उसकी स्त्राी बनकर रहने से कम आनंददायक नहीं मालूम होता। तुम्हारा क्या विचार हैए यह मैं नहीं जानतीए लेकिन मैं सहानुभूति और सहवास को वासनामय सम्बंधा से कहीं महत्तवपूर्ण समझती हूँ।

क्लार्क—किंतु सामाजिक और धािार्मक प्रथाएँ ऐसे सम्बंधों को...

सोफिया—हाँए ऐसे सम्बंधा अस्वाभाविक होते हैं और साधारणतरू उन पर आचरण नहीं किया जा सकता। मैं भी इसे सदैव के लिए जीवन का नियम बनाने को प्रस्तुत नहीं हूँय लेकिन जब तक हम एक दूसरे को अच्छी तरह समझ न लेंए जब तक हमारे अंतरूकरण एक दूसरे के सामने आईने न बन जाएँए उस समय तक मैं ऐसे ही सम्बंधा को आवश्यक समझती हूँ।

क्लार्क—मैं तुम्हारी इच्छाओं का दास हूँ। केवल इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन वह घर हैए जिसमें कोई रहनेवाला नहींयवह दीपक हैए जिसमें उजाला नहींय वह कवित्ता हैए जिसमें रस नहीं।

सोफिया—बसए बस। यह प्रेमियों की भाषा केवल प्रेम—कथाओं के ही लिए शोभा देती है। यह लोए पाँड़ेपुर आ गए। ऍंधोरा हो रहा है। सूरदास चला गया होगा। यह हाल सुनेगाए तो उस गरीब का दिल टूट जाएगा।

क्लार्क—उसके निर्वाह का कोई और प्रबंधा कर दूँघ्

सोफिया—इस भूमि से उसका निर्वाह नहीं होता था—केवल मुहल्ले के जानवर चरा करते थे। वह गरीब हैए भिखारी हैए पर लोभी नहीं। मुझे तो वह कोई साधु मालूम होता है।

क्लार्क—अंधो कुशाग्र बुध्दि और धार्मिक होते हैं।

सोफिया—मुझे तो उसके प्रति बड़ी श्रध्दा हो गई है। यह देखोए पापा ने काम शुरू कर दिया। अगर उन्होंने राजा की पीठ न ठोकी होतीए तो उन्हें तुम्हारे सम्मुख आने का कदापि साहस न होता।

क्लार्क—तुम्हारे पापा बड़े चतुर आदमी हैं। ऐसे ही प्राणी संसार में सफल होते हैं। कम—से—कम मैं तो यह दोरुखी चाल न चल सकता।

सोफिया—देख लेनाए दो—ही—चार वषोर्ं में मुहल्ले में कारखाने के मजदूरों के मकान होंगेए यहाँ का एक मनुष्य भी न रहने पाएगा।

क्लार्क—पहले तो अंधो ने बड़ा शोर—गुल मचाया था। देखेंए अब क्या करता हैघ्

सोफिया—मुझे तो विश्वास है कि वह चुप होकर कभी न बैठेगाए चाहे इस जमीन के पीछे जान ही क्यों न चली जाए।

क्लार्क—नहीं प्रियेए ऐसा कदापि न होने पाएगा। जिस दिन यह नौबत आएगीए सबसे पहले सूरदास के लिए मेरे कंठ से जय—धवनि निकलेगीए सबसे पहले मेरे हाथ उस पर फूलों की वर्षा करेंगे।

सोफिया ने क्लार्क को आज पहली बार सम्मानपूर्ण प्रेम की द्रष्टि से देखा।

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अध्याय 25

साल—भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्रा का पृष्ठ रणक्षेत्रा था और शृंखलित सूरमों की जगह सूरमों से कहीं बलवान्‌ दलीलें। मनों स्याही बह गईए कितनी ही कलमें काम आईं। दलीलें कट—कटकर रावण की सेना की भाँति फिर जीवित हो जाती थीं। राजा साहब बार—बार हतोत्साह हो जातेए सरकार से मेरा मुकाबला करना चींटी का हाथी से मुकाबला करना है। लेकिन मिस्टर जॉन सेवक और उनसे अधिक इंदु उन्हें ढ़ाढ़़स देती रहती थी। शहर के रईसों ने हिम्मत से कमए स्वार्थ—बुध्दि से अधिक काम लिया। उस विनयपत्रा परए जो डॉक्टर गांगुली ने नगर—निवासियों की ओर से गवर्नर की सेवा में भेजने के लिए लिखा थाए हस्ताक्षर करने के समय अधिकांश सज्जन बीमार पड़ गएए ऐसे असाधय रोग से पीड़ित हो गए कि हाथ में कलम पकड़ने की शक्ति न रही। कोई तीर्थ—यात्राा करने चला गयाए कोई किसी परमावश्यक काम से कहीं बाहर रवाना हो गयाए जो गिने—गिनाए लोग कोई हीला न कर सकेए वे भी हस्ताक्षर करने के बाद मिस्टर क्लार्क से क्षमा—प्रार्थना कर आए—हुजूरए न जाने उसमें क्या लिखा थाए हमारे सामने तो केवल सादा कागज आया थाए हमसे यही कहा गया कि यह पानी का महसूल घटाने की दरखास्त है। हमें मालूम होता है कि उस पत्रा पर पीछे से हुजूर की शिकायत लिखी जाएगीए तो हम भूलकर भी कलम न उठाते। हाँए जिन महानुभावों ने सिगरेट कम्पनी के हिस्से लिए थेए उन्हें विवश होकर हस्ताक्षर करने पड़े। हस्ताक्षर करनेवालों की संख्या यद्यपि बहुत न थीय पर डॉक्टर गांगुली को व्यवस्थापक सभा में सरकार से प्रश्न करने के लिए एक बहाना मिल गया। उन्होंने अदम्य उत्साह और धौर्य के साथ प्रश्नों की बाढ़़ जारी रखी। सभा में डॉक्टर महोदय का विशेष सम्मान थाए कितने ही सदस्यों ने उनके प्रश्नों का समर्थन कियाए यहाँ तक कि डॉक्टर गांगुली के एक प्रस्ताव पर अधिकारियों को बहुमत से हार माननी पड़ी। इस प्रस्ताव से लोगों को बड़ी—बड़ी आशाएँ थींए किंतु जब इसका भी कुछ असर न हुआए तो जगह—जगह सरकार पर अविश्वास प्रकट करने के लिए सभाएँ होने लगीं। रईसों और जमींदारों की तो भय के कारण जबान बंद थीय किंतु मधयम श्रेणी के लोगों ने खुल्लमखुल्ला इस निरंकुशता का विरोधा करना शुरू किया। कुँवर भरतसिंह को उनका नेतृत्व प्राप्त हुआ और यह स्पष्ट शब्दों में कहने लगे—अब हमें अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। हमारा उध्दार अपने ही हाथों होगा। महेंद्रकुमार भी गुप्त रूप से इस दल को प्रोत्साहित करने लगे। डॉक्टर गांगुली के बहुत कुछ आश्वासन देने पर भी शासकों पर उन्हें अश्रध्दा हो गई। निराशा निर्बलता से उत्पन्न होती हैय पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है।

रात के नौ बज गए थे। विनयसिंह को कारावास—दंड का समाचार पाकर कुँवर साहब ने अपने हितैषियों को इस स्थिति पर विचार करने के लिए आमंत्रिात किया था। डॉक्टर गांगुलीए जॉन सेवकए प्रभु सेवकए राजा महेंद्रकुमार और कई अन्य सज्जन आए हुए थे। इंदु भी राजा साहब के साथ आई थी और अपनी माता से बातें कर रही थी। कुँवर साहब ने नायकराम को बुला भेजा था और वह कमरे के द्वार पर बैठे हुए तम्बाकू मल रहे थे।

महेंद्रकुमार बोले—रियासतों पर सरकार का बड़ा दबाव है। वे अपंग हैं और सरकार के इशारे पर चलने के लिए मजबूर हैं।

भरतसिंह ने राजा साहब का खंडन किया—जिससे किसी का उपकार न हो और जिसके व्यक्तित्व का आधार ही अपकार पर होए उसका निशान जितनी जल्द मिट जाएए उतना ही अच्छा। विदेशियों के हाथों में अन्याय का यंत्रा बनकर जीवित रहने से तो मर जाना ही उत्ताम है।

डॉक्टर गांगुली—वहाँ का हाकिम लोग खुद पतित है। डरता है कि रियासत में स्वाधाीन विचारों का प्रचार हो जाएगाए तो हम प्रजा को कैसे लूटेगा। राजा मनसद लगाकर बैठा रहता हैए उसका नौकर—चाकर मनमाना राज करता है।

जॉन सेवक ने पक्षपात—रहित होकर कहा—सरकार किसी रियासत को अन्याय करने के लिए मजबूर नहीं करती। हाँए चूँकि वे अशक्त हैंए अपनी रक्षा आप नहीं कर सकतींए इसलिए ऐसे कामों में जरूरत से ज्यादा तत्पर हो जाती हैंए जिनसे सरकार के प्रसन्न होने का उन्हें विश्वास होता है।

भरतसिंह—विनय कितना नम्रए सुशीलए सुधाीर हैए यह आप लोगों से छिपा नहीं। मुझे इसका विश्वास ही नहीं हो सकता कि उसकी जात से किसी का अहित हो सकता है।

प्रभु सेवक कुँवर साहब के मुँह लगे हुए थे। अब तक जॉन सेवक के भय से न बोले थेय पर अब न रहा गया। बोले—क्योंए क्या पुलिस से चोरों का अहित नहीं होताघ् क्या साधुओं से दुर्जनों का अहित नहीं होताघ् और फिर गऊ जैसे पशु की हिंसा करनेवाले क्या संसार में नहीं हैंघ् विनय ने दलित किसानों की सेवा करनी चाही थी। उसी का यह उन्हें उपहार मिला है। प्रजा की सहन—शक्ति की भी कोई सीमा होनी चाहिए और होती है। उसकी अवहेलना करके कानून कानून ही नहीं रह जाता। उस समय उस कानून को भंग करना ही प्रत्येक विचारशील प्राणी कार् कत्ताव्य हो जाता है। अगर आज सरकार का हुक्म हो कि सब लोग मुँह में कालिख लगाकर निकलेंए तो इस हुक्म की उपेक्षा करना हमारा धार्म हो जाएगा। उदयपुर के दरबार को कोई अधिकार नहीं है कि वह किसी को रियासत से निकल जाने पर मजबूर करे।

डॉक्टर गांगुली—उदयपुर ऐसा हुक्म दे सकता है। उसको अधिकार है।

प्रभु सेवक—मैं उसे स्वीकार नहीं करता। जिस आज्ञा का आधार केवल पशु—बल होए उसका पालन करना आवश्यक नहीं। अगर उदयपुर में कोई उत्तारदायित्वपूर्ण सरकार होती और वह बहुमत से यह हुक्म देतीए तो दूसरी बात थी। लेकिन जब कि प्रजा ने कभी दरबार से यह इच्छा नहीं कीए बल्कि वह विनयसिंह पर जान देती हैए तो केवल अधिकारियों की स्वेच्छा हमको उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए बाधय नहीं कर सकती।

राजा साहब ने इधार—उधार भीत नेत्राों से देखा कि यहाँ कोई मेरा शत्रु तो नहीं बैठा हुआ है। जॉन सेवक भी त्योरियाँ बदलने लगे।

डॉक्टर गांगुली—हम दरबार में लड़ नहीं सकता।

प्रभु सेवक—प्रजा को अपने स्वत्व की रक्षा के लिए उत्तोजित तो कर सकते हैं।

भरतसिंह—इसका परिणाम विद्रोह के सिवा और क्या हो सकता हैए और विद्रोह का दमन करने के लिए दरबार सरकार से सहायता लेगा। हजारों बेकसों का खून हो जाएगा।

प्रभु सेवक—जब तक हम खून से डरते रहेंगेए हमारे स्वत्व भी हमारे पास आने से डरते रहेंगे। उनकी रक्षा भी तो खून ही से होगी। राजनीति का क्षेत्रा समरक्षेत्रा से कम भयावह नहीं है। उसमें उतरकर रक्तपात से डरना कापुरुषता है।

जॉन सेवक से अब जब्त न हुआ। बोले—तुम—जैसे भावुक युवकों को ऐसे गहन राजनीतिक विषयों पर कुछ करने के पहले अपने शब्दों को खूब तौल लेना चाहिए। यह अवसर शांत और शीतल विचार से काम लेने का है।

प्रभु सेवक ने दबी जबान से कहाय मानो मन में यह कह रहा है—शीतल विचार कायरता का दूसरा नाम है।

डॉक्टर गांगुली—मेरे विचार में भारतीय सरकार की सेवा में डेपुटेशन जाना चाहिए।

भरतसिंह—सरकार कह देगीए हमें दरबार के आंतरिक विषय में दखल देने का अधिकार नहीं।

महेंद्रकुमार—दरबार ही के पास क्यों न डेपुटेशन भेजा जाएघ्

जॉन सेवक—हाँए यही मेरी भी सलाह है। राज्य के विरुध्द आंदोलन करना राज्य को निर्बल बना देता है और प्रजा को उद्दंड। राज्य—प्रभुत्व का प्रत्येक दशा में अक्षुण्ण रहना आवश्यक हैए अन्यथा उसका फल वही होगाए जो आज साम्यवाद का व्यापक रूप धारण कर रहा है। संसार ने तीन दशाब्दियों तक जनवाद की परीक्षा की और अंत में हताश हो गया। आज समस्त संसार जनवाद के आतंक से पीड़ित है। हमारा परम सौभाग्य है कि वह अग्नि—ज्वाला अभी तक हमारे देश में नहीं पहुँचीए और हमें यत्न करना चाहिए कि उससे भविष्य में भी निश्शंक रहें।

कुँवर भरतसिंह जनवाद के बड़े पक्षपाती थे। अपने सिध्दांत का खंडन होते देखकर बोले—फूस का झोंपड़ा बनाकर आप अग्नि—ज्वाला से निश्शंक रह ही नहीं सकते। बहुत सम्भव है कि ज्वाला के बाहर से न आने पर भी घर ही की एक चिनगारी उड़कर उस पर गिर पड़े। आप झोंपड़ा रखिए ही क्यों! जनवाद आदर्श व्यवस्था न होय पर संसार अभी उससे उत्ताम कोई शासन—विधान नहीं निकाल सका है। खैरए जब यह सिध्द हो गया कि हम दरबार पर कोई असर नहीं डाल सकतेए तो सब्र करने के सिवा और क्या किया जा सकता है। मैं राजनीतिक विषयों से अलग रहना चाहता हूँए क्योंकि उससे कोई फायदा नहीं। स्वाधाीनता का मूल्य रक्त है। जब हममें उसके देने की शक्ति ही नहीं हैए तो व्यर्थ में कमर क्यों बाँधोंए पैंतरे क्यों बदलेंए ताल क्यों ठोंकेंघ् उदासीनता ही में हमारा कल्याण है।

प्रभु सेवक—यह तो बहुत मुश्किल है कि अॉंखों से अपना घर लुटते देखूँ और मुँह न खोलूँ।

भरतसिंह—हाँए बहुत मुश्किल हैए पर अपनी वृत्तिायों को साधाना पड़ेगा। उसका यही उपाय है कि हम कुल्हाड़ी का बेंट न बनें। बेंट कुल्हाड़ी की मदद न करेए तो कुल्हाड़ी कठोर और तेज होने पर भी हमें बहुत हानि नहीं पहुँचा सकती। यह हमारे लिए घोर लज्जा की बात है कि हम शिक्षाए ऐश्वर्य या धान के बल पर शासकों के दाहिने हाथ बनकर प्रजा का गला काटें और इस बात पर गर्व करें कि हम हाकिम हैं।

जॉन सेवक—शिक्षित वर्ग सदैव से राज्य का आश्रित रहा है और रहेगा। राज्य—विमुख होकर वह अपना अस्तित्व नहीं मिटा सकता।

भरतसिंह—यही तो सबसे बड़ी विपत्तिा है। शिक्षित वर्ग जब तक शासकों का आश्रित रहेगाए हम अपने लक्ष्य के जौ भर भी निकट न पहुँच सकेंगे। उसे अपने लिए थोड़े—बहुत थोड़े दिनों के लिए कोई दूसरा ही अवलम्ब खोजना पड़ेगा।

राजा महेंद्रसिंह बगलें झाँक रहे थे कि यहाँ से खिसक जाने का कोई मौका मिल जाए। इस वाद—विवाद का अंत करने के इरादे से बोले—तो आप लोगों ने क्या निश्चय कियाघ् दरबार की सेवा में डेपुटेशन भेजा जाएगाघ्

डॉक्टर गांगुली—हम खुद जाकर विनय को छुड़ा लाएगा।

भरतसिंह—अगर वधिक ही से प्राण—याचना करनी हैए तो चुप रहना ही अच्छाए कम—से—कम बात तो बनी रहेगी।

डॉक्टर गांगुली—फिर वही च्मेपउपेउ का बात। हम विनय को समझाकर उसे यहाँ आने पर राजी कर लेगा।

रानी जाह्नवी ने इधार आते हुए इस वाक्य के अंतिम शब्द सुन लिए। गर्वसूचक भाव से बोलीं—नहीं डॉक्टर गांगुलीए आप विनय पर यह कृपा न कीजिए। यह उसकी पहली परीक्षा है। इसमें उसको सहायता देना उसके भविष्य को नष्ट करना है। वह न्यायपक्ष पर हैए उसे किसी से दबने की जरूरत नहीं। अगर उसने प्राण—भय से इस अन्याय को स्वीकार कर लियाए तो सबसे पहले मैं ही उसके माथे पर कालिमा का टीका लगा दूँगी।

रानी के ओजपूर्ण शब्दों ने लोगों को विस्मित कर दिया। ऐसा जान पड़ता था कि कोई देवी आकाश से यह संदेश सुनाने के लिए उतर आई है।

एक क्षण के बाद भरतसिंह ने रानी के शब्दों का भावार्थ किया—मेरे खयाल में अभी विनयसिंह को उसी दशा में छोड़ देना चाहिए। यह उसकी परीक्षा है। मनुष्य बड़े—से—बड़े काम जो कर सकता हैए वह यही है कि आत्मरक्षा के लिए मर मिटे। यही मानवीय जीवन का उच्चतम उद्देश्य है। ऐसी ही परीक्षाओं में सफल होकर हमें वह गौरव प्राप्त हो सकता है कि जाति हम पर विश्वास कर सके।

गांगुली—रानी हमारी देवी हैं। हम उनके सामने कुछ नहीं कह सकता। पर देवी लोगों का बात संसारवालों के व्यवहार के योग्य नहीं हो सकता। हमको पूरा आशा है कि हमारा सरकार जरूर बोलेगा।

रानी—सरकार की न्यायशीलता का एक —ष्टांत तो आपके सामने ही है। अगर अब भी आपको उस पर विश्वास होए तो मैं यही कहूँगी कि आपको कुछ दिनों किसी औषधि का सेवन करना पड़ेगा।

गांगुली—दो—चार दिन में यह बात मालूम हो जाएगा। सरकार को भी तो अपनी नेकनामी—बदनामी का डर है।

महेंद्रकुमार बहुत देर के बाद बोले—राह देखते—देखते तो अॉंखें पथरा गईं। हमारी आशा इतनी चिरंजीवी नहीं।

सहसा टेलीफोन की घंटी बोली। कुँवर साहब ने पूछा—कौन महाशय हैंघ्

श्मैं हूँ प्राणनाथ। मिस्टर क्लार्क का तबादला हो गया।श्

श्कहाँघ् श्

श्पोलिटीकल विभाग में जा रहे हैं। ग्रेड कम कर दिया गया है।श्

डॉक्टर गांगुली—अब बोलिएए मेरा बात सच हुआ कि नहींघ् आप लोग कहता थाए सरकार का नीयत बिगड़ा हुआ है। पर हम कहता थाए उसको हमारा बात मानना पड़ेगा।

महेंद्रकुमार—अजीए प्राणनाथ मसखरा हैए आपसे दिल्लगी कर रहा होगा।

भरतसिंह—नहींए मुझसे तो उसने कभी दिल्लगी नहीं की।

रानी—सरकार ने इतने नैतिक साहस से शायद पहली ही बार काम लिया है।

गांगुली—अब वह जमाना नहीं हैए जब सरकार प्रजा—मत की उपेक्षा कर सकता था। अब काउंसिल का प्रस्ताव उसे मानना पड़ता है।

भरतसिंह—जमाना तो वही हैए और सरकार की नीति में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें जरूर कोई—न—कोई राजनीतिक रहस्य है।

जॉन सेवक—व्यापारी मंडल ने मेरे र्प्रस्ताव को स्वीकार करके गवर्नमेंट के छक्के छुड़ा दिए।

महेंद्रकुमार—मेरा डेपुटेशन बड़े मौके से पहुँचा था।

गांगुली—मैंने काउंसिल को ऐसा संघटीत कर दिया था कि हमको इतना बड़ा मेजारिटी कभी नहीं मिला।

इंदु रानी के पीछे खड़ी थी। बोली—विनयपत्रा पर मेरे ही उद्योग से इतने आदमियों के नाम आए थे। मुझे तो विश्वास हैए यह उसी की करामात है।

नायकराम अब तक चुपचाप बैठे हुए थे। उनकी समझ में न आता था कि यहाँ क्या बातें हो रही हैं। टेलीफोन की बात उनकी समझ में आई। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि लोग सफलता का सेहरा अपने—अपने सिर बाँधा रहे हैं। ऐसे अवसर पर भला वह कब चूकनेवाले थे। बोले—सरकारए यहाँ भी गाफिल बैठनेवाले नहीं हैं। सिविल सारजंट के कान में यह बात डाल दी थी कि राजा साहब की ओर से पूरा एक हजार लठैत जवान तैयार बैठा हुआ है। उनका हुक्म बहाल न हुआए तो खून—खच्चर हो जाएगाए शहर में तूफान आ जाएगा। उन्होंने लाट साहब से यह बात जरूर ही कही होगी।

महेंद्रकुमार—मैं तो समझता हूँए यह तुम्हारी धामकियों ही की करामात है।

नायकराम—धार्मावतारए धामकियाँ कैसीए खून की नदी बह जाती। आपका ऐसा अकबाल है कि चाहूँए तो एक बार शहर लुटवा दूँ। ये लाल साफे खड़े मुँह ताकते रह जाएँ।

प्रभु सेवक ने हास्य—भाव से कहा—सच पूछिएए तो यह उस कविता का फल हैए जो मैंने श्हिंदुस्तान—रिव्यूश् में लिखी थी।

रानी—प्रभुए तुमने यह चपत खूब लगाई। डॉक्टर गांगुली अपना सिर सुहला रहे हैं। क्यों डॉक्टरए बैठी या नहींघ् एक तुच्छ सफलता पर आप लोग इतने फूले नहीं समाते! इसे विजय न समझिएए यह वास्तव में पराजय हैए जो आपको अपने अभीष्ट से कोसों दूर हटा देती हैए आपके गले में फंदे को और भी मजबूत कर देती है। बाजेवाले सरदी में बाजे को आग से सेंकते हैंए केवल इसीलिए कि उसमें से कर्ण मधुर स्वर निकले। आप लोग भी सेके जा रहे हैंए अब चोटों के लिए पीठ मजबूत कर लीजिए।

यह कहती हुई जाह्नवी अंदर चली गईंय पर उनके जाते ही इस तिरस्कार का असर भी जाता रहाए लोग फिर वही राग अलापने लगे।

महेंद्रकुमार—क्लार्क महोदय भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था।

गांगुली—अब इससे कौन इनकार कर सकता है कि ये लोग कितने न्यायप्रिय होते हैं।

जॉन सेवक—अब जरा उस अंधो की भी खबर लेनी चाहिए।

नायकराम—साहबए उसको हार—जीत का कोई गम नहीं है। उस जमीन की दस गुनी भी मिल जाएए तो भी वह इसी तरह रहेगा।

जॉन सेवक—मैं कल ही से मिल में काम लगा दूँगा। जरा मिस्टर क्लार्क को भी देख लूँ।

महेंद्रकुमार—मैं तो अभिवादन—पत्रा न दूँगा। उनकी तरफ से कोशिश तो होगीए पर बोर्ड का बहुमत मेरे साथ है।

गांगुली—ऐसा हाकिम लोग को अभिवादन—पत्रा देने का काम नहीं।

महेंद्रकुमार के पेट में चूहे दौड़ रहे थे कि इंदु से भी इस सुख—सम्वाद पर बातें करूँ। यों तो बहुत ही गम्भीर पुरुष थेय पर इस विजय ने बालोचित उल्लास से विह्नल कर दिया था। एक नशा—सा छाया हुआ था। रानी के जाने के जरा देर बार वह विहसित मुखए प्रसन्न चित्ताए अज्ञात भाव से अकड़तेए गर्व से मस्तक उठाए अंदर दाखिल हुए। इंदु रानी के पास बैठी हुई थी। खड़ी होकर बोली—आखिर साहब बहादुर को बोरिया—बँधाना सँभालना पड़ा न!

महेंद्रकुमार सिंह रानी के सामने अपना कुत्सित आनंद न प्रकट कर सके। बोले—हाँए अब तो टलना ही पड़ेगा।

इंदु—अब कल मैं इन लेडी साहब का कुशल—समाचार पूछँगीए जो धारती पर पाँव न रखती थींए अपने आगे किसी को कुछ समझती ही न थीं। बुलाकर दावत करूँघ्

महेंद्रकुमार—कभी न आएगीए और जरूरत ही क्या है!

इंदु—जरूरत क्यों नहीं! झेंपेगी तोए सिर तो नीचा हो जाएगा। न आएगीए न सही। अम्माँए आपने तो देखा हैए सोफिया पहले कितनी नम्र और मिलनसार थीय लेकिन क्लार्क से विवाह की बातचीत होते ही मिजाज आसमान पर चढ़़ गया।

रानी ने गम्भीर भाव से कहा—बेटीए यह तुम्हारा भ्रम है। सोफिया मिस्टर क्लार्क से कभी विवाह न करेगी। अगर मैं आदमियों को कुछ पहचान सकती हूँ तो देख लेनाए मेरी बात ठीक उतरती है या नहीं।

इंदु—अम्माँए क्लार्क से उसकी मँगनी हो गई है। सम्भव हैए गुप्त रूप से विवाह भी हो गया हो। देखती नहीं होए दोनों कितने घुले—मिले रहते हैं।

रानी—कितने ही घुले—मिले रहेंय पर उनका विवाह न हुआ हैए न होगा। मैं अपनी संकीर्णता के कारण सोफिया की कितनी ही उपेक्षा करूँयकिंतु वह सती हैए इसमें अणुमात्रा भी संदेह नहीं। उसे लज्जित करके तुम पछताओगी।

इंदु—अगर वह इतनी उदार हैए तो आपके बुलाने से अवश्य आएगी।

रानी—हाँए मुझे पूर्ण विश्वास है।

इंदु—तो बुला भेजिएए मुझे दावत का प्रबंधा क्यों न करना पड़ेघ्

रानी—तुम यहाँ बुलाकर उसका अपमान करना चाहती हो। मैं तुमसे अपने हृदय की बात कहती हूँए अगर वह ईसाइन न होतीए तो आज के पाँचवें वर्ष मैं उससे विनय का विवाह करती और इसे अपना धान्य भाग समझती।

इंदु को ये बातें कुछ अच्छी न लगीं। उठकर अपने कमरे में चली गई। एक क्षण में महेंद्रकुमार भी वहाँ पहुँच गए और दोनों डींगें मारने लगे। कोई लड़का खेल में जीतकर भी इतना उन्मत्ता न होता होगा।

उधार दीवानखाने से भी सभा उठ गई। लोग अपने—अपने घर गए। जब एकांत हो गयाए तो कुँवर साहब ने नायकराम को बुलाकर कहा—पंडाजीए तुमसे मैं एक काम लेना चाहता हूँए करोगेघ्

नायकराम—सरकारए हुकुम होए तो सिर देने को हाजिर हैं। ऐसी क्या बात है भलाघ्

कुँवर—देखोए दुनियादारी मत करो। मैं जो काम लेना चाहता हूँए वह सहज नहीं। बहुत समयए बहुत बुध्दिए बहुत बल व्यय करना पड़ेगा। जान—जोखिम भी है। अगर दिल इतना मजबूत होए तो हामी भरोए नहीं साफ—साफ जवाब दे दोए मैं कोई यात्राी नहीं कि तुम्हें अपनी धाक बिठाना जरूरी हो। मैं तुम्हें जानता हूँ और तुम मुझे जानते हो। इसलिए साफ बातचीत होनी चाहिए।

नायकराम—सरकारए आपसे दुनियादारी करके भगवान्‌ को क्या मुँह दिखाऊँगा! आपका नमक तो रोम—रोम में सना हुआ है। अगर मेरे काबू की बात होगीए तो पूरी करूँगाए चाहे जान ही पर क्यों न आ बने। आपके हुकुम देने की देर है।

कुँवर—विनय को छुड़ाकर ला सकते होघ्

नायकराम—दीनबंधुए अगर प्राण देकर भी ला सकूँगाए तो उठा न रखूँगा।

कुँवर—तुम जानते होए मैंने तुमसे यह सवाल क्यों किया! मेरे यहाँ सैकड़ों आदमी हैं। खुद डॉक्टर गांगुली जाने को तैयार हैं। महेंद्र को भेज दूँए तो वह भी चले जाएँगे। लेकिन इन लोगों के सामने मैं अपनी बात नहीं छेड़ना चाहता। सिर पर यह इलजाम नहीं लेना चाहता कि कहते कुछ हैंए और करते कुछ। धार्म संकट में पड़ा हुआ हूँ। पर बेटे की मुहब्बत नहीं मानती। हूँ तो आदमीए काठ का कलेजा तो नहीं हैघ् कैसे सब्र करूँघ् उसे बड़े—बड़े अरमानों से पाला हैए वही एक जिंदगी का सहारा है। तुम उसे किसी तरह अपने साथ लाओ। उदयपुर के अमले और कर्मचारी देवता नहींए उन्हें लालच देकर जेल में जा सकते होए विनयसिंह से मिल सकते होए अमलों की मदद से उन्हें बाहर ला सकते होए यह कुछ कठिन नहीं। कठिन है विनय को आने पर राजी करना। वह तुम्हारी बुध्दि और चतुरता पर छोड़ता हूँ। अगर तुम मेरी दशा का ज्ञान उन्हें करा सकोगेए तो मुझे विश्वास हैए वह आएँगे। बोलोए कर सकते हो यह कामघ् इसका मेहनताना एक बूढ़़े बाप के आशीर्वाद के साथ और जो कुछ चाहोगेए पेश करूँगा।

नायकराम—महाराजए कल चला जाऊँगा। भगवान्‌ ने चाहाए तो उन्हें साथ लाऊँगाए नहीं तो फिर मुँह न दिखाऊँगा।

कुँवर—नहीं पंडाजीए जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि मैं कितना विकल हूँए तो वह चले आएँगेय वह अपने बाप की जान को सिध्दांत पर बलिदान न करेंगे। उनके लिए मैंने अपने जीवन की कायापलट कर दीए यह फकीरी भेष धारण कियाए क्या वह मेरे लिए इतना भी न करेंगे! पंडाजीए सोचोए जिस आदमी ने हमेशा मखमली बिछौनों पर आराम किया होए उसे इस काठ के तख्त पर आराम मिल सकता हैघ् विनय का प्रेम ही वह मंत्रा हैए जिसके वश होकर मैं यह कठिन तपस्या कर रहा हूँ। जब विनय ने त्याग का व्रत ले लियाए तो मैं किस मुँह से बुढ़़ापे में भोग—विलास में लिप्त रहताघ् आह! ये सब जाह्नवी के बोए हुए काँटे हैं। उसके आगे मेरी कुछ नहीं चलती। मेरा सुख—स्वर्ग उसी के कारण नरक तुल्य हो रहा है। उसी के कारण मेरा प्यारा विनय मेरे हाथों से निकला जाता हैए ऐसा पुत्रा—रत्न खोकर यह संसार मेरे लिए नरक हो जाएगा। तुम कल जाओगेघ् मुनीम से जितने रुपये चाहोए ले लो।

नायकराम—आपके अकबाल से किसी बात की कमी नहीं। आपकी दया चाहिएए आपने इतने प्रतापी होकर जो त्याग किया हैए वह कोई दूसरा करताए तो अॉंख निकल पड़ती। त्याग करना कोई हँसी है! यहाँ तो घर में भूँजी भाँग नहींए जात्रिायों की सेवा—टहल न करेंए तो भोजन का ठिकाना भी न होय पर बूटी की ऐसी चाट पड़ गई है कि एक दिन न मिलेए तो बावला हो जाता हूँ। कोई आपकी तरह क्या खाके त्याग करेगाघ्

कुँवर—यह तो मानी हुई बात है कि तुम गएए तो विनय को लेकर ही लौटोगे। अब यह बताओ कि मैं तुम्हें क्या दक्षिणा दूँघ् तुम्हारी सबसे बड़ी अभिलाषा क्या हैघ्

नायकराम—सरकार की कृपा बनी रहेए मेरे लिए यह कुछ कम नहीं।

कुँवर—तो इसका आशय यह है कि तुम मेरा काम नहीं करना चाहतेघ्

नायकराम—सरकारए ऐसी बात न कहें। आप मुझे पालते हैंए आपका हुकुम न बजा लाऊँगाए तो भगवान्‌ को क्या मुँह दिखाऊँगा। और फिर आपका काम कैसाए अपना ही काम है।

कुँवर—नहीं भाईए मैं तुम्हें सेंत में इतना कष्ट नहीं देना चाहता। यह सबसे बड़ा सलूक हैए जो तुम मेरे साथ कर रहे हो। मैं भी तुम्हारे साथ वही सलूक करना चाहता हूँए जिसे तुम सबसे बड़ा समझते हो। तुम्हारे कै लड़के हैंघ्

नायकराम ने सिर झुकाकर कहा—धार्मावतारए अभी तो ब्याह ही नहीं हुआ।

कुँवर—अरेए यह क्या बात है! आधाी उम्र गुजर गई और तुम अभी कुँआरे ही बैठे हो!

नायकराम—सरकारए तकदीर के सिवा और क्या कहूँ!

इन शब्दों में इतनी ममार्ंतक वेदन भरी हुई थी कि कुँवर साहब पर नायकराम की चिरसंचित अभिलाषा प्रकट हो गई। बोले—तो तुम घर में अकेले ही रहते होघ्

नायकराम—हाँए धार्मावतारए भूत की भाँति अकेला ही पड़ा रहता हूँ। आपके अकबाल से दो खंड का मकान हैए बाग—बगीचे हैंए गायें—भैंसें हैंय पर रहनेवाला कोई नहींए भोगनेवाला कोई नहीं। हमारी बिरादरी में उन्हीं का ब्याह होता हैए जो बड़े भाग्यवान होते हैं।

कुँवर—(मुस्कराकर) तो तुम्हारा विवाह कहीं ठहरा दूँ।

नायकराम—महाराजए ऐसी तकदीर कहाँघ्

कुँवर—तकदीर मैं बना दूँगाए मगर यह कैद तो नहीं है कि कन्या बहुत ऊँचे कुल की होघ्

नायकराम—दीनबंधुए कन्याओं के लिए ऊँचा—नीचा कुल नहीं देखा जाता। कन्या और गऊ तो पवित्रा हैं। ब्राह्मण के घर आकर और भी पवित्रा हो जाती हैं। फिर जिसने दान लियाए संसार—भर का पाप हजम कियाए तो फिर औरत की क्या बात है। जिसका ब्याह नहीं हुआए सरकारए उसकी जिंदगी दो कौड़ी की।

कुँवर—अच्छी बात हैए ईश्वर ने चाहाए तो लौटते ही दूल्हा बनोगे। तुमने पहले कभी चर्चा ही नहीं की।

नायकराम—सरकारए यह बात आपसे क्या कहता। अपने हेलियों—मेलियों के सिवा और किसी से चर्चा नहीं की। कहते लाज आती है। जो सुनेगाए वह समझेगाए इसमें कोई—न—कोई ऐब जरूर है। कई बार लबारियों की बातों में आकर सैकड़ों रुपये गँवाए। अब किसी से नहीं कह सकता। भगवान्‌ के आसरे बैठा हूँ।

कुँवर—तो कल किस गाड़ी से जाओगेघ्

नायकराम—हुजूरए डाक से चला जाऊँगा।

कुँवर—ईश्वर करेए जल्द लौटो। मेरी अॉंखेंए तुम्हारी ओर रहेंगी। यह लोए खर्च के लिए लेते जाओ।

यह कहकर कुँवर साहब ने मुनीम को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा। मुनीम ने नायकराम को अपने साथ आने का इशारा किया और अपनी गद्द पर बैठाकर बोला—बोलोए कितना हमाराए कितना तुम्हाराघ्

नायकराम—क्या यह भी कोई दक्षिणा हैघ्

मुनीम—रकम तो तुम्हारे हाथ जाती हैघ्

नायकराम—मेरे हाथ में नहीं आतीए विनयसिंह के पास भेजी जा रही है। बच्चाए मुसीबत में भी मालिक से नमकहरामी करते हो! उनके ऊपर तो बिपत पड़ी है और तुम्हें अपना घर भरने की धुन है। तुम जैसे लालचियों को तो ऐसी जगह मारेए जहाँ पानी न मिले।

मुनीम ने लज्जित होकर नोटों का एक पुलिंदा नायकराम को दे दिया। नायकराम ने गिनकर नोटों को कमर में बाँधा और मुनीम से बोले—मेरी कुछ दक्षिणा दिलवाते होघ्

मुनीम—कैसी दक्षिणाघ्

नायकराम—नगद रुपयों की। नौकरी प्यारी है कि नहींघ् जानते होए यहाँ से निकाल दिए जाओगेए तो कहीं भीख न मिलेगी। अगर भला चाहते होए तो पचास रुपये की गव्ी बायँ हाथ से बढ़़ा दोए नहीं तो जाकर कुँवर साहब से जड़े देता हूँ। खड़े—खड़े निकाल दिए जाओगे। जानते हो कि नहीं रानीजी कोघ् निकाले भी जाओगे और गर्दन भी नापी जाएगी। ऐसी बेभाव की पड़ेगी कि चाँद गंजी हो जाएगी।

मुनीम—गुरुए अब यारों ही से यह गीदड़ भभकी! इतने रुपये मिल गएए कौन कुँवर विनयसिंह रसीद लिख देते हैं।

नायकराम—रुपये लाते हो कि नहींए बोलो चटपटघ्

मुनीम—गुरुए तुम तो...

नायकराम—रुपये लाते हो कि नहींघ् यहाँ बातों की फुरसत नहीं। चटपट सोचो। मैं चला। याद रखोए कहीं भीख न मिलेगी।

मुनीम—तो यहाँ मेरे पास कहाँ है! यह तो सरकारी रकम है।

नायकराम—अच्छाए तो हैंडनोट लिख दो।

मुनीम—गुरुए जरा इधार देखोए गरीब आदमी हूँ।

नायकराम—तुम गरीब हो बच्चा! हराम की कौड़ियाँ खाकर मोटे पड़ गए होए उस पर गरीब बनते हो। लिखो चटपट। कुँवर साहब जरा भी मुरौवत न करेंगे। यों ही मुझे इतने रुपये दिला दिए हैं। बसए मेरे कहने—भर की देर है। गबन का मुकदमा चल जाएगा बेटाए समझेघ् लाओए बाप की पूजा करो। तुम—जैसे घाघ रोज थोड़े ही फँसते हैं।

मुनीम ने नायकराम की त्योरियों से भाँप लिया कि यह अब बिना दक्षिणा लिए न छोड़ेगा। चुपके से 25 रुपये निकालकर उसके हाथ में रखे और बोला—पंडितए अब दया करोए ज्यादा न सताओ।

नायकराम ने रुपये मुट्ठी में किए और बोले—ले बचाए अब किसी को न सतानाए मैं तुम्हारी टोह में रहूँगा।

नायकराम चले गएए तो मुनीम ने मन में कहा—ले जाओए समझ लेंगेए खैरात किया।

कुँवर भरतसिंह उस वक्त दीवानखाने के द्वार पर खड़े थे। आज वायु की शीतलता में आनंद न था। गगन—मंडल में चमकते हुए तारागण व्यंग—द्रष्टि की भाँति हृदय में चुभते थे। सामनेए वृक्षों के क्ं़ज में विनय की स्मृति—मूर्तिए श्यामएण् करुण स्वर की भाँति कम्पितए धाएँ की भाँति असम्बध्दए यों निकलती हुई मालूम हुईए जैसे किसी संतप्त हृदय से हाय की धवनि निकलती है।

कुँवर साहब कई मिनट तक खड़े रोते रहे। विनय के लिए उनके अंतरूकरण से इस भाँति शुभेच्छाएँ निकल रही थींए जैसे उषाकाल में बाल—सूर्य की स्निग्धाए मधारए मंदए शीतल किरणें निकलती हैं।

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अध्याय 26

अरावली की हरी—भरी झूमती हुई पहाड़ियों के दामन में जसवंतनगर यों शयन कर रहा हैए जैसे बालक माता की गोद में। माता के स्तन से दूधा की धारेंए प्रेमोद्‌गार से विकलए उबलतीए मीठे स्वरों में गाती निकलती हैं और बालक के नन्हे—से मुख में न समाकर नीचे बह जाती हैं। प्रभात की स्वर्ण—किरणों में नहाकर माता का स्नेह—सुंदर गात निखर गया है और बालक भी अंचल से मुँह निकाल—निकालकर माता के स्नेह—प्लावित मुख की ओर देखता हैए हुमुकता है और मुस्कराता हैय पर माता बार—बार उसे अंचल से ढ़ँक लेती है कि कहीं उसे नजर न लग जाए।

सहसा तोप के छूटने की कर्ण—कटु धवनि सुनाई दी। माता का हृदय काँप उठाए बालक गोद में चिमट गया।

फिर वही भयंकर धवनि! माँ दहल उठीए बालक चिमट गया।

फिर तो लगातार तोपें छूटने लगीं। माता के मुख पर आशंका के बादल छा गए। आज रियासत के नए पोलिटीकल एजेंट यहाँ आ रहे हैं। उन्हीं के अभिवादन में सलामियाँ उतारी जा रही हैं।

मिस्टर क्लार्क और सोफिया को यहाँ आए एक महीन गुजर गया। जागीरदारों की मुलाकातोंए दावतोंए नजरानों से इतना अवकाश ही न मिला कि आपस में कुछ बातचीत हो। सोफिया बार—बार विनयसिंह का जिक्र करना चाहतीय पर न तो उसे मौका ही मिलता और न यही सूझता कि कैसे वह जिक्र छेडऌर्ँ। आखिर जब पूरा महीना खत्म हो गयाए तो एक दिन उसने क्लार्क से कहा—इन दावतों का ताँता तो लगा ही रहेगाए और बरसात बीती जा रही है। अब यहाँ जी नहीं लगताए जरा पहाड़ी प्रांतों की सैर करनी चाहिए। पहाड़ियों में खूब बहार होगी। क्लार्क भी सहमत हो गए।

एक सप्ताह से दोनों रियासतों की सैर कर रहे हैं। रियासत के दीवान सरदार नीलकंठ राव भी साथ हैं। जहाँ ये लोग पहुँचते हैंए बड़ी धूमधाम से उनका स्वागत होता हैए सलामियाँ उतारी जाती हैंए मान—पत्रा मिलते हैंए मुख्य—मुख्य स्थानों की सैर कराई जाती है। पाठशालाओंए चिकित्सालयों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का निरीक्षण किया जाता है। सोफिया को जेलखानों के निरीक्षण का बहुत शौक है। वह बड़े धयान से कैदियों कोए उनके भोजनालयों कोए जेल के नियमों को देखती है और कैदखानों के सुधार के लिए कर्मचारियों से विशेष आग्रह करती है। आज तक कभी इन अभागों की ओर किसी एजेंट ने धयान न दिया था। उनकी दशा शोचनीय थीए मनुष्यों से ऐसा व्यवहार किया जाता थाए जिसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है। पर सोफिया के अविरल प्रयत्न से उनकी दशा सुधारने लगी है। आज जसवंतनगर के मेजबानों को सेवा—सत्कार का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और सारा कस्बाए अर्थात्‌ वहाँ के राजकर्मचारीए पगड़ियाँ बाँधो इधार—उधार दौड़ते फिरते हैं। किसी के होश—हवास ठिकाने नहीं हैंए जैसे नींद में किसी ने भेड़ियों का स्वप्न देखा हो। बाजार कर्मचारियों ने सुसज्जित कराए हैंए जेल के कैदियों और शहर के चौकीदारों ने कुलियों और मजदूरों का काम किया हैए बस्ती का कोई प्राणी बिना अपना परिचय दिए हुए सड़कों पर नहीं आने पाता। नगर के किसी मनुष्य ने इस स्वागत में भाग नहीं लिया है और रियासत ने उनकी उदासीनता का यह उत्तार दिया है। सड़कों के दोनों तरफ सशस्त्रा सिपाहियों की सफें खड़ी कर दी गई हैं कि प्रजा की अशांति का कोई चिद्द भी न नजर आने पाए। सभाएँ करने की मनाही कर दी गई है।

संधया हो गई थी। जुलूस निकला। पैदल और सवार आगे—आगे थे। फौजी बाजे बज रहे थे। सड़कों पर रोशनी हो रही थीए पर मकानों मेंए छतों पर अंधाकार छाया हुआ था। फूलों की वर्षा हो रही थीए पर छतों से नहींए सिपाहियों के हाथों से। सोफी सब कुछ समझती थीए पर क्लार्क की अॉंखों पर परदा—सा पड़ा हुआ था। असीम ऐश्वर्य ने उनकी बुध्दि को भ्रांत कर दिया है। कर्मचारी सब कुछ कर सकते हैंए पर भक्ति पर उनका वश नहीं होता। नगर में कहीं आनंदोत्साह का चिद्द नहीं हैए सियापा—सा छाया हुआ हैए न पग—पग पर जय—धवनि हैए न कोई रमणी आरती उतारने आती हैए न कहीं गाना—बजाना है। मानो किसी पुत्रा—शोकमग्न माता के सामने विहार हो रहा हो।

कस्बे का गश्त करके सोफीए क्लार्कए सरदार नीलकंठ और दो—एक उच्च कर्मचारी तो राजभवन में आकर बैठेए और लोग बिदा हो गए। मेज पर चाय लाई गई। मि. क्लार्क ने बोतल से शराब उड़ेलीए तो सरदार साहबए जिन्हें इसकी दुगर्ंधा से घृणा थीए खिसककर सोफिया के पास आ बैठे और बोले—जसवंतनगर आपको कैसा पसंद आयाघ्

सोफिया—बहुत ही रमणीक स्थान है। पहाड़ियों का —श्य अत्यंत मनोहर है। शायद कश्मीर के सिवा ऐसी प्राकृतिक शोभा और कहीं न होगी। नगर की सफाई से चित्ता प्रसन्न हो गया। मेरा तो जी चाहता हैए यहाँ कुछ दिनों रहूँ।

नीलकंठ डरे। एक—दो दिन तो पुलिस और सेना के बल से नगर को शांत रखा जा सकता हैए पर महीने—दो महीने किसी तरह नहीं। असम्भव है। कहीं ये लोग यहाँ जम गएए तो नगर की यथार्थ स्थिति अवश्य ही प्रकट हो जाएगी। न जाने उसका क्या परिणाम हो। बोले—यहाँ की बाह्य छटा के धोखे में न आइए। जलवायु बहुत खराब है। आगे आपको इससे कहीं सुंदर स्थान मिलेंगे।

सोफिया—कुछ भी होए मैं यहाँ दो हफ्ते अवश्य ठहरूँगी। क्यों विलियमए तुम्हें यहाँ से जाने की कोई जल्दी तो नहीं हैघ्

क्लार्क—तुम यहाँ रहोए तो मैं दफन होने को तैयार हूँ।

सोफिया—लीजिए सरदार साहबए विलियम को कोई आपत्तिा नहीं है।

सोफिया को सरदार साहब को दिक करने में मजा आ रहा था।

नीलकंठ—फिर भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि जसवंतनगर बहुत अच्छी जगह नहीं है। जलवायु की विषमता के अतिरिक्त यहाँ की प्रजा में अशांति के बीज अंकुरित हो गए हैं।

सोफिया—तब तो हमारा यहाँ रहना और भी आवश्यक है। मैंने किसी रिसायत में यह शिकायत नहीं सुनी। गवर्नमेंट ने रियासतों को आंतरिक स्वाधाीनता प्रदान कर दी है। लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि रियासतों में अराजकता के कीटाणुओं को सेये जाने दिया जाए। इसका उत्तारदायित्व अधिकारियों पर हैए और गवर्नमेंट को अधिकार है कि वह इस असावधानी का संतोषजनक उत्तार माँगे।

सरदार साहब के हाथ—पाँव फूल गए। सोफिया से उन्होंने यह बात निश्शंक होकर कही थी। उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर—भेंट ने अपना काम कर दिखाया। कुछ बेतकल्लुफ—से हो गए थे। यह फटकार पड़ीए तो अॉंखें चौंधिया गईं। कातर स्वर में बोले—मैं आपको विश्वास दिलाता हूँए कि यद्यपि रियासत पर इस स्थिति का उत्तारदायित्व हैय पर हमने यथासाधय इसके रोकने की चेष्टा की और अब भी कर रहे हैं। यह बीज उस दिशा से आयाए जिधार से उसके आने की सम्भावना न थीय या यों कहिए कि विष—बिंदु सुनहरे पात्राों में लाए गए। बनारस के रईस कुँवर भरतसिंह के स्वयंसेवकों ने कुछ ऐसे कौशल से काम लिया कि हमें खबर तक न हुई। डाकुओं से धान की रक्षा की जा सकती हैए पर साधुओं से नहीं। सेवकों ने सेवा की आड़ में यहाँ की मूर्ख प्रजा पर ऐसे मंत्रा फूँके कि उन मंत्राों के उतारने में रियासत को बड़ी—बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। विशेषतरू कुँवर साहब का पुत्रा अत्यंत कुटील प्रकृति का युवक है। उसने इस प्रांत में अपने विद्रोहात्मक विचारों का यहाँ तक प्रचार किया कि इसे विद्रोहियों का अखाड़ा बना दिया। उसकी बातों में कुछ ऐसा जादू होता था कि प्रजा प्यासों की भाँति उसकी ओर दौड़ती थी। उसके साधु भेषए उसके सरलए निरूस्पृह जीवनए उसकी मृदुल सहृदयता और सबसे अधिक उसके देवोपम स्वरूप ने छोटे—बड़े सभी पर वशीकरण—सा कर दिया था। रियासत को बड़ी चिंता हुई। हम लोगों की नींद हराम हो गई। प्रतिक्षण विद्रोह की आग भड़क उठने की आशंका होती थी। यहाँ तक कि हमें सदर से सैनिक सहायता भेजनी पड़ी। विनयसिंह तो किसी तरह गिरफ्तार हो गयाय पर उसके अन्य सहयोगी अभी तक इलाके में छिपे हुए प्रजा को उत्तोजित कर रहे हैं। कई बार यहाँ सरकारी खजाना लुट चुका है। कई बार विनय को जेल से निकाल ले जाने का दुष्प्रयत्न किया जा चुका हैए और कर्मचारियों को नित्य प्राणों की शंका बनी रहती है। मुझे विवश होकर आपसे यह वृत्ताांत कहना पड़ा। मैं आपको यहाँ ठहरने की कदापि राय न दूँगा। अब आप स्वयं समझ सकती हैं कि हम लोगों ने जो कुछ कियाए उसके सिवा और क्या कर सकते थे।

सोफिया ने बड़ी चिंता के भाव से कहा—दशा उससे कहीं भयंकर हैए जितना मैं समझती थी। इस अवस्था में विलियम का यहाँ से जानार् कत्ताव्य के विरुध्द होगा। वह यहाँ गवर्नमेंट के प्रतिनिधि होकर आए हैंए केवल सैर—सपाटे करने के लिए नहीं। क्यों विलियमए तुम्हें यहाँ रहने में कोई आपत्तिा तो नहीं हैघ् यहाँ की रिपोर्ट भी तो करनी पड़ेगी।

क्लार्क ने एक चुस्की लेकर कहा—तुम्हारी इच्छा होए तो मैं नरक में भी स्वर्ग का सुख ले सकता हूँ। रहा रिपोर्ट लिखनाए वह तुम्हारा काम है।

नीलकंठ—मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि रियासत को सँभालने के लिए कुछ और समय दीजिए। अभी रिपोर्ट करना हमारे लिए घातक होगा।

इधार तो यह अभिनय हो रहा थाए सोफिया प्रभुत्व के सिंहासन पर विराजमान थीए ऐश्वर्य चँवर हिलाता थाए अष्टसिध्दि हाथ बाँधो खड़ी थी। उधार विनय अपनी ऍंधोरी कालकोठरी में म्लान और क्षुब्धा बैठा हुआ नारी जाति की निष्ठुरता और असहृदयता पर रो रहा था। अन्य कैदी अपने—अपने कमरे साफ कर रहे थेए उन्हें कल नए कम्बल और नए कुरते दिए गए थेए जो रियासत में एक नई घटना थी। जेल कर्मचारी कैदियों को पढ़़ा रहे थे—मेम साहब पूछेंए तुम्हें क्या शिकायत हैए तो सब लोग एक स्वर से कहनाए हुजूर के प्रताप से हम बहुत सुखी हैं और हुजूर के जान—माल की खैर मनाते हैं। पूछेंए क्या चाहते होए तो कहनाए हुजूर की दिनोंदिन उन्नति होए इसके सिवा हम कुछ नहीं चाहते। खबरदारए जो किसी ने सिर ऊपर उठाया और कोई बात मुँह से निकालीए खाल उधोड़ ली जाएगी। कैदी फूले न समाते थे। आज मेम साहब की आमद की खुशी में मिठाइयाँ मिलेंगी। एक दिन की छुट्टी होगी। भगवान उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभागों पर इतनी दया करती हैं।

—कतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कम्बल पड़ा हुआ हैए छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों—का—त्यों तह किया हुआ रखा हैए वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक—एक रोम सेए मस्तिष्क के एक—एक अणु सेए हृदय की एक—एक गति से यही आवाज आ रही है—सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा। उसने सोचना शुरू किया—सोफिया यहाँ क्यों आ रही हैघ् क्या मेरा अपमान करना चाहती हैघ् सोफीए जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थीए क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैरों से कुचलना चाहती हैघ् इतनी निर्दयताए और मुझ जैसे अभागे परए जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहींए वह इतनी वज्र—हृदया नहीं हैए उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि. क्लार्क की शरारत हैए वह मुझे सोफी के सामने लज्जित करना चाहते हैंय पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगाए मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहींए मुझे बलात्‌ ले जाएय जिसका जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ। साफ कह दूँगाए मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम हैए तो हुआ करेए मुझे ऐसे नियम की परवाह नहींए जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हँए दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैंए क्या प्रजा को पीस ही डालेंगेघ् अब भी तो मुश्किल से आधो आदमी बच रहे होंगेए सैकड़ों निकाल दिए गएए सैकड़ों जेल में ठूँस दिए गएए क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैंघ्

सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर में बोला—तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरेए तुमने तो अभी कुरता भी नहीं बदलाए कम्बल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहींघ्

विनय—हुक्म तो मिलाए मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा।

दारोगा ने और गरम होकर कहा—इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का—सा सलूक किया जाए। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आए हैंए इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता।

विनय—यह बतलाइए कि मुझे पोलिटीकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगाघ्

दारोगा—और यह कम्बल और कुरता किसलिए दिया गया हैय कभी और भी किसी ने यहाँ नया कम्बल पाया हैघ् तुम लोगों के तो भाग्य खुल गए।

विनय—अगर आप मुझ पर इतनी रियायत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करेंए तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ।

दारोगा—कैसे बेसिर—पैर की बातें करते हो जीए मेरा कोई अख्तियार हैघ् तुम्हें जाना पड़ेगा।

विनय ने बड़ी नम्रता से कहा—मैं आपका यह एहसान कभी न भूलँगा।

किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जातेए पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था। बोले—मगर भाईए यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाए। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जाएँगेए मेम साहब को जेलों को देखने की धुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैंए मेम साहब उनसे भी बढ़़—चढ़़कर हैं। सच पूछो तो जो कुछ हैंए वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गईंए तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जाएगीए हम भी पिस जाएँगे।

विनय—मालूम होता हैए मेम साहब का बड़ा दबाव है।

दारोगा—दबाव! अजीए यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटीकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने—भर को हैं। नजर—भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है।

विनय—आप मेरे साथ इतनी रियाअत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँए अगर वह मुझे नाम लेकर बुलाएँगीए तो मैं चला जाऊँगा।

दारोगा—सरदार साहब मुझे जीता निगल जाएँगे।

विनय—मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा।

दारोगा—मैं बुरा आदमी हूँए मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े—बड़ों की गरदनें ढ़ीली कर दी हैं।

विनय—अपने को कोसने का आपको अधिकार हैय पर आज जानते हैंए मैं जब्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ।

दारोगा—भाईए तुम विचित्रा प्राणी होए उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा हैए और फिर भी अपनी जिद किए जाते हो। लेकिन तुम्हें अपनी जान भारी हैए मुझे अपनी जान भारी नहीं है।

विनय—क्या शहर खाली कराया जा रहा हैघ् यह क्योंघ्

दारोगा—मेम साहब का हुक्म हैए और क्याए जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैंए मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले तो इसे खुदवाकर फेंक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाएए सदर से मदद माँगी गई है।

दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़़ाकर बयान कियाए इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुध्द होकर अधिकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किए और जनता को यह खबर मिलीए तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जानेए मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा होए उनमें उद्दंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहींए हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धौर्य से काम लेना चाहिए। दारोगा से पूछा—मेम साहब यहाँ किस वक्त आएँगीघ्

दारोगा—उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धोखा देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगीए जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इसी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालोय कपड़े बदल लोय कौन जानेए आज ही आ जाएँ।

विनय—अच्छी बात हैय आप जो कुछ कहते हैंए सब कर लूँगा। अब आप निश्ंचित हो जाएँ।

दारोगा—सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगेघ्

विनय—जी नहींय आप मुझे सबसे पहले अॉंगन में मौजूद पाएँगे।

दारोगा—मेरी शिकायत तो न करोगेघ्

विनय—शिकायत करना मेरी आदत नहींए इसे आप खूब जानते हैं।

दारोगा चला गया। ऍंधोरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ू लगाईए कपड़े बदलेए कम्बल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थेए जिससे किसी की द्रष्टि उनकी ओर आकृष्ट होय वह अपनी निरपेक्षता से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गयाए पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत में निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराए और कैदियों को विश्राम करने का हुक्म दिया। विनय लेटेए तो सोचने लगे—सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गयाघ् वही लज्जा और विनय की मूर्तिए वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देवी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल थाए कितना दयाशीलए उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्रा थेए उसका स्वभाव कितना सरल थाए उसकी एक—एक द्रष्टि हृदय पर कालिदास की एक—एक उपमा की—सी चोट करती थीए उसके मुँह से जो शब्द निकलता थाए वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्ता को आलोकित कर देता था। ऐसा मालूम होता थाए केवल पुष्प—सुगंधा से उसकी सृष्टि हुई हैए कितना निष्कपटए कितना गम्भीरए कितना मधुर सौंदर्य था! वह सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है!

चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ थाए मानो कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के अॉंगन में दारोगा के जानवर न बँधो थेए न बरामदों में घास के ढ़ेर थे। आज किसी कैदी को जेल—कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़ेए किसी ने सिपाहियों की चम्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबंधियों के नजरानों का बाँट—बखरा न होता था। कमरों में दीपक थेए दरवाजे खुले रखे गए थे। विनय के मन में प्रश्न उठाए क्यों न भाग चलूँघ् मेरे समझाने से कदाचित्‌ लोग शांत हो जाएँ। सदर सेना आ रही हैए जरा—सी बात पर विप्लव हो सकता है। यदि मैं शांतिस्थापना करने में सफल हुआए तो वह मेरे इस अपराधा का प्रायश्चित्ता होगा। उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखाए कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया तोघ् लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था।

इस हैस—बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुकों की सूचना दी। दारोगाए डॉक्टरए वार्डरए चौकीदार हड़बड़ाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजीए कैदी मैदान में निकल आएए उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गयाए और उसी क्षण सोफियाए मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए।

सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस द्रष्टि में प्रतीक्षा न थीए उत्सुकता न थीए भय थाए विकलता थीए अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया थाए जो उसे यहाँ तक खींच लाई थीए जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिध्दांतों का बलिदान किया थाए उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थीए जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाए। सहसा उसने विनय को सिर झुकाए खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआए नेत्राों में ऍंधोरा छा गया। घर वही थाए पर उजड़ा हुआए घास—पात से ढ़ंका हुआए पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ थाए जिस पर कवित्व की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का—सा विशाल वृक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ूँए उसे अश्रु—जल से धोऊँए उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात्‌ विनयसिंह मूख्रच्छत होकर गिर पड़ेए एक आर्तधवनि थीए जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई। सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल—कूद मचाने लगा—अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेंगीए इसकी हालत इतनी नाजुक थीए तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं रखाय बड़ी मुसीबत में फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहींए इसने दम साधा हैए बना हुआ हैए मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बच्चाए जाने दो मेम साहब कोए तो देखनाए तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाएए फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गयाए किसी कैदी को आज तक यों मूख्रच्छत होते नहीं देखा। हाँए किस्सों में लोगों को बात—बात में बेहोश हो जाते पढ़़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या।

दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा थाए उधार सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रहे थे—यह वही युवक हैए जिसने रियासत में ऊधाम मचा रखा है। सोफी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहाए हट जाओए और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थींए मेज पर जरी का मेजपोश थाए उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जलपान की सामग्रियां चुनी हुई थीं। तजवीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया। उसकी करुणा और दया प्रसिध्द थीए किसी को आश्चर्य न हुआ। जब कमरे में कोई न रहाए तो सोफी ने खिड़कियों पर परदे डाल दिए और विनय का सिर अपनी जाँघ पर रखकर अपनी रूमाल उस पर झलने लगी। अॉंसू की गरम—गरम बूँदें उसकी अॉंखों से निकल—निकलकर विनय के मुख पर गिरने लगीं। उन जल—बिंदुओ में कितनी प्राणप्रद शक्ति थी! उनमें उसकी समस्त मानसिक और आत्मिक शक्ति भरी हुई थी। एक—एक जल—बिंदु उसके जीवन का एक—एक बिंदु था। विनयसिंह की अॉंखें खुल गईं। स्वर्ग का एक पुष्प अक्षयए अपारए सौरभ में नहाया हुआए हवा के मृदुल झोकों से हिलताए सामने विराज रहा था। सौंदर्य की सबसे मनोहरए सबसे मधुर छवि वह हैए जब वह सजल शोक से आर्द्र होता हैए वही उसका आधयात्मिक स्वरूप होता है। विनय चौंककर उठे नहींय यही तो प्रेम—योगियों की सिध्दि हैए यही तो उनका स्वर्ग हैए यही तो स्वर्ग—साम्राज्य हैए यही तो उनकी अभिलाषाओं का अंत हैए इस स्वर्गीय आनंद में तृप्ति कहाँ! विनय के मन में करुण भावना जागृत हुई—काशए इसी भाँति प्रेम—शय्या पर लेटे हुए सदैव के लिए ये अॉंखें बंद हो जातीं! सारी आकांक्षाओं का लय हो जाता। मरने के लिए इससे अच्छा और कौन—सा अवसर होगा!

एकाएक उन्हें याद आ गयाए सोफी को स्पर्श करना भी मेरे लिए वर्जित है। उन्होंने तुरंत अपना सिर उसकी जाँघ पर से खींच लिया और अवरुध्द कंठ से बोले—मिसेज क्लार्कए आपने मुझ पर बड़ी दया कीए इसके लिए आपका अनुगृहीत हूँ।

सोफिया ने तिरस्कार की द्रष्टि से देखकर कहा—अनुग्रह गालियों के रूप में नहीं प्रकट किया जाता।

विनय ने विस्मित होकर कहा—ऐसा घोर अपराधा मुझसे कभी नहीं हुआ।

सोफिया—ख्वाहमखाह किसी शख्स के साथ मेरा सम्बंधा जोड़ना गाली नहीं तो क्या हैघ्

विनय—मिस्टर क्लार्कघ्

सोफिया—क्लार्क को मैं तुम्हारी जूतियों का तस्मा खोलने के योग्य भी नहीं समझती।

विनय—लेकिन अम्माँजी ने...।

सोफिया—तुम्हारी अम्माँजी ने झूठ लिखा और तुमने उस पर विश्वास करके मुझ पर घोर अन्याय किया। कोयल आम न पाकर भी निम्बौड़ियों पर नहीं गिरती।

इतने में क्लार्क ने आकर पूछा—इस कैदी की क्या हालत हैघ् डॉक्टर आ रहा हैए वह इसकी दवा करेगा। चलोए देर हो रही है।

सोफिया ने रुखाई से कहा—तुम जाओए मुझे फुरसत नहीं।

क्लार्क—कितनी देर तक तुम्हारी राह देखूँ।

सोफिया—यह मैं नहीं कह सकती। मेरे विचार में एक मनुष्य की सेवा करना सैर करने से कहीं अधिक आवश्यक है।

क्लार्क—खैरए मैं थोड़ी देर और ठहरूँगा।

यह कहकर वह बाहर चले गएए तब सोफी ने विनय के माथे से पसीना पोंछते हुए कहा—विनयए मैं डूब रही हूँए मुझे बचा लो। मैंने रानीजी की शंकाओं को निवृत्ता करने के लिए यह स्वाँग रचा था।

विनय ने अविश्वाससूचक भाव से कहा—तुम यहाँ क्लार्क के साथ क्यों आईं और उनके साथ कैसे रहती होघ्

सोफिया का मुख—मंडल लज्जा से आरक्त हो गया। बोली—विनयए यह मत पूछोए मगर मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँए मैंने जो कुछ कियाए तुम्हारे लिए किया। तुम्हें इस कैद से निकालने के लिए मुझे इसके लिए सिवा और कोई उपाय न सूझा। मैंने क्लार्क को प्रमाद में डाल रखा है। तुम्हारे ही लिए मैंने यह कपट—वेष धारण किया है। अगर तुम इस वक्त कहोए सोफीए तू मेरे साथ जेल में रहए तो मैं यहाँ आकर तुम्हारे साथ रहूँगी। अगर तुम मेरा हाथ पकड़कर कहोए तू मेरे साथ चल तो आज ही तुम्हारे साथ चलूँगी। मैंने तुम्हारा दामन पकड़ लिया है और अब उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकतीय चाहे तुम ठुकरा ही क्यों न दो। मैंने आत्मसम्मान तक तुम्हें समर्पित कर दिया है। विनयए यह ईश्वरीय विधान हैए यह उसकी ही प्रेरणा हैय नहीं तो इतना अपमान और उपहास सहकर तुम मुझे जिंदा न पाते।

विनय ने सोफी के दिल की थाह लेने के लिए कहा—अगर यह ईश्वरीय विधान हैए तो उसने हमारे और तुम्हारे बीच में यह दीवार क्यों खड़ी कर दी हैघ्

सोफिया—यह दीवार ईश्वर ने नहीं खड़ी कीए आदमियों ने खड़ी की है।

विनय—कितनी मजबूत है!

सोफिया—हाँए मगर दुर्भेद्य नहीं।

विनय—तुम इसे तोड़ सकोगीघ्

सोफिया—इसी क्षणए तुम्हारी अॉंखों के एक इशारे पर। कोई समय थाए जब मैं उस दीवार को ईश्वरकृत समझती थी और उसका सम्मान करती थीए पर अब उसका यथार्थ स्वरूप देख चुकी। प्रेम इन बाधाओं की परवा नहीं करताए यह दैहिक सम्बंधा नहींए आत्मिक सम्बंधा है।

विनय ने सोफी का हाथ अपने हाथ में लियाए और उसकी ओर प्रेम—विह्नल नेत्राों से देखकर बोले—तो आज से तुम मेरी होए और मैं तुम्हारा हूँ।

सोफी का मस्तक विनय के हृदय—स्थल पर झुक गयाए नेत्राों से जल—वर्षा होने लगीए जैसे काले बादल धारती पर झुककर एक क्षण में उसे तृप्त कर देते हैं। उसके मुख से एक शब्द भी न निकलाए मौन रह गई। शोक की सीमा कंठावरोधा हैए पर शुष्क और दाह—युक्तय आनंद की सीमा भी कंठावरोधा हैए पर आर्द्र और शीतल। सोफी को अब अपने एक—एक अंग मेंए नाड़ियों की एक—एक गति मेंए आंतरिक शक्ति का अनुभव हो रहा था। नौका ने कर्णधार का सहारा पा लिया था। अब उसका लक्ष्य निश्चित था। वह अब हवा के झोकों या लहरों के प्रवाह के साथ डावाँडोल न होगीए वरन्‌ सुव्यवस्थित रूप से अपने पथ पर चलेगी।

विनय भी दोनों पर खोले हुए आनंद के आकाश में उड़ रहे थे। वहाँ की वायु में सुगंधा थीए प्रकाश में प्राणए किसी ऐसी वस्तु का अस्तित्व न थाए जो देखने में अप्रियए सुनने में कटुए छूने में कठोर और स्वाद में कड़घई हो। वहाँ के फूलों में काँटे न थेए सूर्य में इतनी उष्णता न थीए जमीन पर व्याधियाँ न थींए दरिद्रता न थीए चिंता न थीए कलह न थाए एक व्यापक शांति का साम्राज्य था। सोफिया इस साम्राज्य की रानी थी और वह स्वयं उसके प्रेम—सरोवर में विहार कर रहे थे। इस सुख—स्वप्न के सामने यह त्याग और तप का जीवन कितना नीरसए कितना निराशाजनक थाए यह ऍंधोरी कोठरी कितनी भयंकर!

सहसा क्लार्क ने फिर आकर कहा—डालिर्ंगए अब विलम्ब न करोए बहुत देर हो रही हैए सरदार साहब आग्रह कर रहे हैं। डॉक्टर इस रोगी की खबर लेगा।

सोफी उठ खड़ी हुई और विनय की ओर से मुँह फेरकर करुण—कम्पित स्वर में बोली—घबराना नहींए मैं कल फिर आऊँगी।

विनय को ऐसा जान पड़ाए मानो नाड़ियों में रक्त सूखा जा रहा है। वह मर्माहत पक्षी की भाँति पड़े रहे। सोफी द्वार तक आईए फिर रूमाल लेने के बहाने लौटकर विनय के कान में बोली—मैं कल फिर आऊँगी और तब हम दोनों यहाँ से चले जाएँगे। मैं तुम्हारी तरफ से सरदार नीलकंठ से कह दूँगी कि वह क्षमा माँगते हैं।

सोफी के चले जाने के बाद भी ये आतुरए उत्सुकए प्रेम में डूबे हुए शब्द किसी मधुर संगीत के अंतिम स्वरों की भाँति विनय के कानों में गूँजते रहे। किंतु वह शीघ्र ही इहलोक में आने के लिए विवश हुआ। जेल के डॉक्टर ने आकर उसे दफ्तर ही में एक पलंग पर लिटा दिया और पुष्टिकारक औषधियाँ सेवन कराईं। पलंग पर नर्म बिछौना थाए तकिए लगे थेए पंखा झला जा रहा था। दारोगा एक—एक क्षण में कुशल पूछने के लिए आता थाए और डॉक्टर तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेता था। यहाँ तक कि विनय ने इन शुश्रूषाओं से तंग आकर डॉक्टर से कहा—मैं बिलकुल अच्छा हूँए आप सब जाएँए शाम को आइएगा।

डॉक्टर साहब डरते—डरते बोले—आपको जरा नींद आ जाएए तो मैं चला जाऊँ।

विनय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि आपके बिदा होते ही मुझे नींद आ जाएगी। डॉक्टर अपने अपराधों की क्षमा माँगते हुए चले गए। इसी बहाने से विनय ने दारोगा को भी खिसकायाए जो आज शील और दया के पुतले बने हुए थे। उन्होंने समझा थाए मेम साहब के चले जाने के बाद इसकी खूब खबर लूँगाय पर वह अभिलाषा पूरी न हो सकी। सरदार साहब ने चलते समय जता दिया था कि इनके सेवा—सत्कार में कोई कसर न रखनाए नहीं तो मेम साहब जहन्नुम में भेज देंगी।

शांत विचार के लिए एकाग्रता उतनी ही आवश्यक हैए जितनी धयान के लिए वायु की गति तराजू के पलड़ों को बराबर नहीं होने देती। विनय को अब विचार हुआ—अम्माँजी को यह हाल मालूम हुआए तो वह अपने मन में क्या कहेंगी। मुझसे उनकी कितनी मनोकामनाएँ सम्बध्द हैं। सोफी के प्रेम—पाश से बचने के लिए उन्होंने मुझे निर्वासित कियाए इसीलिए उन्होंने सोफी को कलंकित किया। उनका हृदय टूट जाएगा। दुरूख तो पिताजी को भी होगाय पर वे मुझे क्षमा कर देंगेए उन्हें मानवीय दुर्बलताओं से सहानुभूति है। अम्माँजी में बुध्दि—ही—बुध्दि हैय पिताजी में हृदय और बुध्दि दोनों हैं। लेकिन मैं इसे दुर्बलता क्यों कहूँघ् मैं कोई ऐसा काम नहीं कर रहा हूँए जो संसार में किसी ने न किया हो। संसार में ऐसे कितने प्राणी हैंए जिन्होंने अपने को जाति पर होम कर दिया होघ् स्वार्थ के साथ जाति का धयान रखनेवाले महानुभावों ही ने अब तक जो कुछ किया हैए किया है। जाति पर मर मिटनेवाले तो उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। फिर जाति के अधिकारियों में न्याय और विवेक नहींए प्रजा में उत्साह और चेष्टा नहींए उसके लिए मर मिटना व्यर्थ है। अंधो के आगे रोकर अपना दीदा खोने के सिवा और क्या हाथ आता हैघ्

शनैरू—शनैरू भावनाओं ने जीवन की सुख—सामग्रियाँ जमा करनी शुरू कीं—चलकर देहात में रहूँगा। वहीं एक छोटा—सा मकान बनवाऊँगाए साफए खुला हुआए हवादारए ज्यादा टीमटाम की जरूरत नहीं। वहीं हम दोनों सबसे अलग शांति से निवास करेंगे। आडम्बर बढ़़ाने से क्या फायदा। मैं बगीचे में काम करूँगाए क्यारियाँ बनाऊँगाए कलमें लगाऊँगा और सोफी को अपनी दक्षता से चकित कर दूँगा। गुलदस्ते बनाकर उसके सामने पेश करूँगा और हाथ बाँधाकर कहूँगा—सरकारए कुछ इनाम मिले। फलों की डालियाँ लगाऊँगा और कहूँगा—रानीजीए कुछ निगाह हो जाए। कभी—कभी सोफी भी पौधों को सींचेगी। मैं तालाब से पानी भर—भर दूँगा। वह लाकर क्यारियों में डालेगी। उसका कोमल गात पसीने से और सुंदर वस्त्रा पानी से भीग जाएगा। तब किसी वृक्ष के नीचे उसे बैठाकर पंखा झलँगा। कभी—कभी किश्ती में सैर करेंगे। देहाती डोंगी होगीए डाँड़े से चलनेवाली। मोटरबोट में वह आनंद कहाँए वह उल्लास कहाँ! उसकी तेजी से सिर चकरा जाता हैए उसके शोर से कान फट जाते हैं। मैं डोंगी पर डाँड़ा चलाऊँगाए सोफिया कमल के फूल तोड़ेगी। हम एक क्षण के लिए अलग न होंगे। कभी—कभी प्रभु सेवक भी आएँगे। ओह! कितना सुखमय जीवन होगा! कल हम दोनों घर चलेंगेए जहाँ मंगल बाँहें फैलाए हमारा इंतजार कर रहा है।

सोफी और क्लार्क की आज संधया समय एक जागीरदार के यहाँ दावत थी। जब मेजें सज गईं और एक हैदराबाद के मदारी ने अपने कौतुक दिखाने शुरू किएए तो सोफी ने मौका पाकर सरदार नीलकंठ से कहा—उस कैदी की दशा मुझे चिंताजनक मालूम होती है। उसके हृदय की गति बहुत मंद हो गई है। क्यों विलियमए तुमने देखाए उसका मुख कितना पीला पड़ गया थाघ्

क्लार्क ने आज पहली बार आशा के विरुध्द उत्तार दिया—मरूच्छा में बहुधा मुख पीला हो जाता है।

सोफी—वही तो मैं भी कह रही थी कि उसकी दशा अच्छी नहींए नहीं तो मरूच्छा ही क्यों आती। अच्छा हो कि आप उसे किसी कुशल डॉक्टर के सिपुर्द कर दें। मेरे विचार में अब वह अपने अपराधा की काफी सजा पा चुका हैए उसे मुक्त कर देना उचित होगा।

नीलकंठ—मेम साहबए उसकी सूरत पर न जाइए। आपको ज्ञात नहींए यहाँ जनता पर उसका कितना प्रभाव है। वह रियासत में इतनी प्रचंड अशांति उत्पन्न कर देगा कि उसे दमन करना कठिन हो जाएगा। बड़ा ही जिद्दी हैए रियासत से बाहर जाने पर राजी ही नहीं होता।

क्लार्क—ऐसे विद्रोही को कैद रखना ही अच्छा है।

सोफी ने उत्तोजित होकर कहा—मैं इसे घोर अन्याय समझती हूँ और मुझे आज पहली बार यह मालूम हुआ कि तुम इतने हृदय—शून्य हो!

क्लार्क—मुझे तुम्हारा जैसा दयालु हृदय रखने का दावा नहीं।

सोफी ने क्लार्क के मुख को जिज्ञासा की द्रष्टि से देखा। यह गर्वए यह आत्मगौरव कहाँ से आयाघ् तिरस्कार भाव से बोली—एक मनुष्य का जीवन इतनी तुच्छ वस्तु नहीं।

क्लार्क—साम्राज्य—रक्षा के सामने एक व्यक्ति के जीवन की कोई हस्ती नहीं। जिस दया सेए जिस सहृदयता से किसी दीन प्राणी का पेट भरता होए उसके शारीरिक कष्टों का निवारण होता होए किसी दुरूखी जीव को सांत्वना मिलती होए उसका मैं कायल हूँए और मुझे गर्व है कि मैं उस सम्पत्तिा से वंचित नहीं हूँय लेकिन जो सहानुभूति साम्राज्य की जड़ खोखली कर देए विद्रोहियों को सर उठाने का अवसर देए प्रजा में अराजकता का प्रचार करेए उसे मैं अदूरदर्शिता ही नहींए पागलपन समझता हूँ।

सोफी के मुख—मंडल पर एक अमानुषीय तेजस्विता की आभा दिखाई दीए पर उसने जब्त किया। कदाचित्‌ इतने धौर्य से उसने कभी काम नहीं लिया था। धार्म—परायणता का सहिष्णुता से वैर है। पर इस समय उसके मुँह से निकला हुआ एक अनर्गल शब्द भी उसके समस्त जीवन का सर्वनाश कर सकता है। नर्म होकर बोली—हाँए इस विचार—द्रष्टि से बेशक वैयक्तिक जीवन का कोई मूल्य नहीं रहता। मेरी निगाह इस पहलू पर न गई थी। मगर फिर भी इतना कह सकती हूँ कि अगर वह मुक्त कर दिया जाएए तो फिर इस रियासत में कदम न रखेगाए और मैं यह निश्चय रूप से कह सकती हूँ कि वह अपनी बात का धानी है।

नीलकंठ—क्या आपसे उसने वादा किया हैघ्

सोफी—हाँए वादा ही समझिएए मैं उसकी जमानत कर सकती हूँ।

नीलकंठ—इतना तो मैं भी कह सकता हूँ कि वह अपने वचन से फिर नहीं सकता।

क्लार्क—जब तक उसका लिखित प्रार्थना—पत्रा मेरे सामने न आएए मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता।

नीलकंठ—हाँए यह तो परमावश्यक ही है।

सोफी—प्रार्थना—पत्रा का विषय क्या होगाघ्

क्लार्क—सबसे पहले वह अपना अपराधा स्वीकार करे और अपनी राजभक्ति का विश्वास दिलाने के बाद हलफ लेकर कहे कि इस रियासत में फिर कदम न रखूँगा। उसके साथ जमानत भी होनी चाहिए। तो नकद रुपये होंए या प्रतिष्ठित आदमियों की जमानत। तुम्हारी जमानत का मेरी द्रष्टि में कितना ही महत्तव होए जाब्ते में उसका कुछ मूल्य नहीं।

दावत के बाद सोफी राजभवन में आईए तो सोचने लगी—यह समस्या क्योंकर हल होघ् यों तो मैं विनय की मिंनत—समाजत करूँए तो वह रियासत से चले जाने पर राजी हो जाएँगेय लेकिन कदाचित्‌ वह लिखित प्रतिज्ञा न करेंगे। अगर किसी भाँति मैंने रो—धोकर उन्हें इस बात पर राजी कर लियाए तो यहाँ कौन प्रतिष्ठित आदमी उनकी जमानत करेगाघ् हाँए उनके घर से नकद रुपये आ सकते हैं! पर रानी साहब कभी इसे मंजूर न करेंगी। विनय को कितने ही कष्ट सहने पड़ेंए उन्हें इस पर दया न आएगी। मजा तो जब है कि लिखित प्रार्थना—पत्रा और जमानत की कोई शर्त ही न रहे। वह अवैधा रूप से मुक्त कर दिए जाएँ। इसके सिवा कोई उपाय नहीं।

राजभवन विद्युत—प्रकाश से ज्योतिर्मय हो रहा था। भवन के बाहर चारों तरफ सावन की काली घटा थी और अथाह अंधाकार। उस तिमिर—सागर में प्रकाशमय राजभवन ऐसा मालूम होता थाए मानो नीले गगन पर चाँद निकला हो। सोफी अपने सजे हुए कमरे में आईने के सामने बैठी हुई उन सिध्दियों को जगा रही हैए जिनकी शक्ति अपार है—आज उसने मुद्दत के बाद बालों में फूल गूँथे हैंए फीरोजी रेशम की साड़ी पहनी है और कलाइयों में कंगन धारण किए हैं। आज पहली बार उसने उन लालित्य—प्रसारिणी कलाओं का प्रयोग किया हैए जिनमें स्त्रिायाँ निपुण होती हैं। यह मंत्रा उन्हीं को आता है कि क्योंकर केशों की एक तड़पए अंचल की एक लहर चित्ता को चंचल कर देती है। आज उसने मिस्टर क्लार्क के साम्राज्यवाद को विजय करने का निश्चय किया हैए वह आज अपनी सौंदर्य—शक्ति की परीक्षा करेगी।

रिमझिम बूँदें गिर रही थींए मानो मौलसिरी के फूल झड़ रहे हों। बूँदों में एक मधुर स्वर था। राजभवनए पर्वत—शिखर के ऊपरए ऐसा मालूम होता थाए मानो देवताओं ने आनंदोत्सव की महफिल सजाई है। सोफिया प्यानो पर बैठ गई और एक दिल को मसोसनेवाला राग गाने लगी। जैसे ऊषा की स्वर्ण—छटा प्रस्फुटीत होते ही प्रकृति के प्रत्येक अंग को सजग कर देती हैए उसी भाँति सोफी की पहली ही तान ने हृदय में एक चुटकी—सी ली। मिस्टर क्लार्क आकर एक कोच पर बैठ गए और तन्मय होकर सुनने लगेए मानो किसी दूसरे ही संसार में पहुँच गए हैं। उन्हें कभी कोई नौका उमड़े हुए सागर में झकोले खाती नजर आतीए जिस पर छोटी—छोटी सुंदर चिड़ियाँ मँडराती थीं। कभी किसी अनंत वन में एक भिक्षुकए झोली कंधो पर रखेए लाठी टेकता हुआ नजर आता। संगीत से कल्पना चित्रामय हो जाती है।

जब तक सोफी गाती रहीए मिस्टर क्लार्क बैठे सिर धुनते रहे। जब वह चुप हो गईए तो उसके पास गए और उसकी कुर्सी की बाँहों पर हाथ रखकरए उसके मुँह के पास मुँह ले जाकर बोले—इन उँगलियों को हृदय में रख लूँगा।

सोफी—हृदय कहाँ हैघ्

क्लार्क ने छाती पर हाथ रखकर कहा—यहाँ तड़प रहा है।

सोफी—शायद होए मुझे तो विश्वास नहीं आता। मेरा तो खयाल हैए ईश्वर ने तुम्हें हृदय दिया ही नहीं।

क्लार्क—सम्भव हैए ऐसा ही हो। पर ईश्वर ने जो कसर रखी थीए वह तुम्हारे मधुर स्वर ने पूरी कर दी। शायद उसमें सृष्टि करने की शक्ति है।

सोफी—अगर मुझमें यह विभूति होतीए तो आज मुझे एक अपरिचित व्यक्ति के सामने लज्जित न होना पड़ता।

क्लार्क ने अधाीर होकर कहा—क्या मैंने तुम्हें लज्जित कियाघ् मैंने!

सोफी—जी हाँए आपने। मुझे आज तुम्हारी निर्दयता से जितना दुरूख हुआए उतना शायद और कभी न हुआ था। मुझे बाल्यावस्था से यह शिक्षा दी गई है कि प्रत्येक जीव पर दया करनी चाहिएए मुझे बताया गया है कि यही मनुष्य का सबसे बड़ा धार्म है। धार्मिक ग्रंथों में भी दया और सहानुभूति ही मनुष्य का विशेष गुण बतलाई गई है। पर आज विदित हुआ कि निर्दयता का महत्तव दया से कहीं अधिक है। सबसे बड़ा दुरूख मुझे इस बात का है कि अनजान आदमी के सामने मेरा अपमान हुआ।

क्लार्क—खुदा जानता है सोफीए मैं तुम्हारा कितना आदर करता हूँ। हाँए इसका खेद मुझे अवश्य है कि मैं तुम्हारी उपेक्षा करने के लिए बाधय हुआ। इसका कारण तुम जानती ही हो। हमारा साम्राज्य तभी तक अजेय रह सकता हैए जब तक प्रजा पर हमारा आतंक छाया रहेए जब तक वह हमें अपना हितचिंतकए अपना रक्षकए अपना आश्रय समझती रहेए जब तक हमारे न्याय पर उसका अटल विश्वास हो। जिस दिन प्रजा के दिल से हमारे प्रति विश्वास उठ जाएगाए उसी दिन हमारे साम्राज्य का अंत हो जाएगा। अगर साम्राज्य को रखना ही हमारे जीवन का उद्देश्य हैए तो व्यक्तिगत भावों और विचारों को यहाँ कोई महत्तव नहीं। साम्राज्य के लिए हम बड़े—से—बड़े नुकसान उठा सकते हैंए बड़ी—से—बड़ी तपस्याएँ कर सकते हैं। हमें अपना राज्य प्राणों से भी प्रिय हैए और जिस व्यक्ति से हमें क्षति की लेश—मात्रा भी शंका होए उसे हम कुचल डालना चाहते हैंए उसका नाश कर देना चाहते हैंए उसके साथ किसी भाँति की रिआयतए सहानुभूति यहाँ तक कि न्याय का व्यवहार भी नहीं कर सकते।

सोफी—अगर तुम्हारा खयाल है कि मुझे साम्राज्य से इतना प्रेम नहींए जितना तुम्हें हैए और मैं उसके लिए इतने बलिदान नहीं सह सकतीए जितने तुम कर सकते होए तो तुमने मुझे बिलकुल नहीं समझा। मुझे दावा हैए इस विषय में मैं किसी से जौ—भर भी पीछे नहीं। लेकिन यह बात मेरे अनुमान में भी नहीं आती कि दो प्रेमियों में कभी इतना मतभेद हो सकता है कि सहृदयता और सहिष्णुता के लिए गुंजाइश न रहेए और विशेषतरू उस दशा में जबकि दीवार के कानों के अतिरिक्त और कोई कान भी सुन रहा हो। दीवान देश—भक्ति के भावों से शून्य हैय उसकी गहराई और उसके विस्तार से जरा भी परिचित नहीं। उसने तो यही समझा होगा कि जब इन दोनों में मेरे सम्मुख इतनी तकरार हो सकती हैए तो घर पर न जाने क्या दशा होगी। शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया। उसने औरों से भी यह वृत्ताांत कहा होगा। मेरी तो नाक—सी कट गई। समझते होए मैं गा रही हूँ। यह गाना नहींए रोना है। जब दाम्पत्य के द्वार पर यह दशा हो रही हैए जहाँ फूलों सेए हर्षनादों सेए प्रेमालिंगनों सेए मृदुल हास्य से मेरा अभिवादन होना चाहिए थाए तो मैं अंदर कदम रखने का क्योंकर साहस कर सकती हूँघ् तुमने मेरे हृदय के टुकड़े—टुकड़े कर दिए। शायद तुम मुझे ैमदजपउमदजंस समझ रहे होगेय पर अपने चरित्रा को मिटा देना मेरे वश की बात नहीं। मैं अपने को धान्यवाद देती हूँ कि मैंने विवाह के विषय में इतनी दूर—द्रष्टि से काम लिया।

यह कहते—कहते सोफी की अॉंखों से टप—टप अॉंसू गिरने लगे। शोकाभिनय में भी बहुधा यथार्थ शोक की वेदना होने लगती है। मिस्टर क्लार्क खेद और असमर्थता का राग अलापने लगेय पर न उपयुक्त शब्द ही मिलते थेए न विचार। अश्रु—प्रवाह तर्क और शब्द—योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता। बड़ी मुश्किल से उन्होंने कहा—सोफीए मुझे क्षमा करोए वास्तव में मैं न समझता था कि इस जरा—सी बात से तुम्हें इतनी मानसिक पीड़ा होगी।

सोफी—इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। तुम मेरे गुलाम नहीं हो कि मेरे इशारों पर नाचो। मुझमें वे गुण नहींए जो पुरुषों का हृदय खींच लेते हैंए न वह रूप हैए न वह छवि हैए न वह उद्दीपन—कला। नखरे करना नहीं जानतीए कोप—भवन में बैठना नहीं जानती। दुरूख केवल इस बात का है कि उस आदमी ने तो मेरे एक इशारे पर मेरी बात मान ली और तुम इतना अनुनय—विनय करने पर भी इनकार करते जाते हो। वह भी सिध्दांतवादी मनुष्य हैय अधिकारियों की यंत्राणाएँ सहींए अपमान सहाए कारागार की ऍंधोरी कोठरी में कैद होना स्वीकार कियाए पर अपने वचन पर सु—ढ़़ रहा। इससे कोई मतलब नहीं कि उसकी टेक जा थी या बेजाए वह उसे जा समझता था। वह जिस बात को न्याय समझता थाए उससे भय या लोभ या दंड उसे विचलित नहीं कर सके। लेकिन जब मैंने नरमी के साथ उसे समझाया कि तुम्हारी दशा चिंताजनक हैए तो उसके मुख से ये करुण शब्द निकले—श्मेम साहबए जान की तो परवा नहींए अपने मित्राों और सहयोगियों की द्रष्टि में पतित होकर जिंदा रहना श्रेय की बात नहींय लेकिन आपकी बात नहीं टालना चाहता। आपके शब्दों में कठोरता नहींए सहृदयता हैए और मैं अभी तक भाव—विहीन नहीं हुआ हूँ। मगर तुम्हारे ऊपर मेरा कोई मंत्रा न चला। शायद तुम उससे बड़े सिध्दांतवादी होए हालांकि अभी इसकी परीक्षा नहीं हुई। खैरए मैं तुम्हारे सिध्दांतों से सौतियाडाह नहीं करना चाहती। मेरी सवारी का प्रबंधा कर दोए मैं कल ही चली जाऊँगी और फिर अपनी नादानियों से तुम्हारे मार्ग का कटंक बनने न आऊँगी।

मिस्टर क्लार्क ने घोर आत्मवेदना के साथ कहा—डालिर्ंगए तुम नहीं जानतींए यह कितना भयंकर आदमी है। हम क्रांति सेए षडयंत्राों सेए संग्राम से इतना नहीं डरतेए जितना इस भाँति के धौर्य और धुन से। मैं भी मनुष्य हूँ सोफीए यद्यपि इस समय मेरे मुँह से यह दावा समयोचित नहीं पर कम—से—कम उस पवित्रा आत्मा के नाम परए जिसका मैं अत्यंत दीनभक्त हूँए मुझे यह कहने का अधिकार है—मैं उस युवक का हृदय से सम्मान करता हूँ। उसके —ढ़़ संकल्प कीए उसके साहस कीए उसकी सत्यवादिता की दिल से प्रशंसा करता हँ। जानता हूँए वह एक ऐश्वर्यशाली पिता का पुत्रा है और राजकुमारों की भाँति आनंद—भोग में मग्न रह सकता हैय पर उसके ये ही सद्‌गुण हैंए जिन्होंने उसे इतना अजेय बना रखा है। एक सेना का मुकाबला करना इतना कठिन नहींए जितना ऐसे गिने—गिनाए व्रतधारियों काए जिन्हें संसार में कोई भय नहीं है। मेरा जाति—धार्म मेरे हाथ बाँधो हुए है।

सोफी को ज्ञात हो गया कि मेरी धामकी सर्वथा निष्फल नहीं हुई। विवशता का शब्द जबान परए खेद का भाव मन में आयाए और अनुमति की पहली मंजिल पूरी हुई। उसे यह भी ज्ञात हुआ कि इस समय मेरे हाव—भाव का इतना असर नहीं हो सकताए जितना बलपूर्ण आग्रह था। सिध्दांतवादी मनुष्य हाव—भाव का प्रतिकार करने के लिए अपना दिल मजबूत कर सकता हैए वह अपने अंतरूकरण के सामने अपनी दुर्बलता स्वीकार नहीं कर सकताए लेकिन दुराग्रह के मुकाबले में वह निष्क्रिय हो जाता है। तब उसकी एक नहीं चलती। सोफी ने कटाक्ष करते हुए कहा—अगर तुम्हारा जातीयर् कत्ताव्य तुम्हें प्यारा हैए तो मुझे भी आत्मसम्मान प्यारा है। स्वदेश की अभी तक किसी ने व्याख्या नहीं कीय पर नारियों की मान—रक्षा उसका प्रधान अंग है और होनी चाहिएए इससे तुम इनकार नहीं कर सकते।

यह कहकर वह स्वामिनी—भाव से मेज के पास गई और एक डाकेट का पत्रा निकालाए जिस पर एजेंट आज्ञा—पत्रा लिखा करता था।

क्लार्क—क्या करती हो सोफीघ् खुदा के लिए जिद मत करो।

सोफी—जेल के दारोगा के नाम हुक्म लिखूँगी।

यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई।

क्लार्क—यह अनर्थ न करो सोफीए गजब हो जाएगा।

सोफी—मैं गजब से क्याए प्रलय से भी नहीं डरती।

सोफी ने एक—एक शब्द का उच्चारण करते हुए आज्ञा—पत्रा टाइप किया। उसने एक जगह जान—बूझकर एक अनुपयुक्त शब्द टाइप कर दियाए जिसे एक सरकारी पत्रा में न आना चाहिए। क्लार्क ने टोका—यह शब्द मत रखो।

सोफी—क्योंए धान्यवाद न दूँघ्

क्लार्क—आज्ञा—पत्रा में धान्यवाद का क्या जिक्रघ् कोई निजी थोड़े ही है।

सोफी—हाँए ठीक हैए यह शब्द निकाले देती हूँ। नीचे क्या लिखूँ।

क्लार्क—नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं। केवल मेरा हस्ताक्षर होगा।

सोफी ने सम्पूर्ण आज्ञा—पत्रा पढ़़कर सुनाया।

क्लार्क—प्रियेए यह तुम बुरा कर रही हो।

सोफी—कोई परवा नहींए मैं बुरा ही करना चाहती हूँ। हस्ताक्षर भी टाइप कर दूँघ् नहींए (मुहर निकालकर) यह मुहर किए देती हूँ।

क्लार्क—जो चाहो करो। जब तुम्हें अपनी जिद के आगे कुछ बुरा—भला नहीं सूझताए तो क्या कहूँघ्

सोफी—कहीं और तो इसकी नकल न होगीघ्

क्लार्क—मैं कुछ नहीं जानता।

यह कहकर मि. क्लार्क अपने शयन—गृह की ओर जाने लगे। सोफी ने कहा—आज इतनी जल्दी नींद आ गईघ्

क्लार्क—हाँए थक गया हूँ। अब सोऊँगा। तुम्हारे इस पत्रा से रियासत में तहलका पड़ जाएगा।

सोफी—अगर तुम्हें इतना भय हैए तो मैं इस पत्रा को फाड़े डालती हूँ। इतना नहीं गुदगुदाना चाहती कि हँसी के बदले रोना आ जाए। बैठते होए या देखोए यह लिफाफा फाड़ती हूँ।

क्लार्क कुर्सी पर उदासीन भाव से बैठ गए और बोले—लो बैठ गयाए क्या कहती होघ्

सोफी—कहती कुछ नहीं हूँए धान्यवाद का गीत सुनते जाओ।

क्लार्क—धान्यवाद की जरूरत नहीं।

सोफी ने फिर गाना शुरू किया और क्लार्क चुपचाप बैठे सुनते रहे।

उनके मुख पर करुण प्रेमाकांक्षा झलक रही थी। यह परख और परीक्षा कब तकघ् इस क्रीड़ा का कोई अंत भी हैघ् इस आकांक्षा ने उन्हें साम्राज्य की चिंता से मुक्त कर दिया—आह! काशए अब भी मालूम हो जाता कि तू इतनी बड़ी भेंट पाकर प्रसन्न हो गई! सोफी ने उनकी प्रेमाग्नि को खूब उद्दीप्त किया और तब सहसा प्यानो बंद कर दिया और बिना कुछ बोले हुए अपने शयनागार में चली गई। क्लार्क वहीं बैठे रहेए जैसे कोई थका हुआ मुसाफिर अकेला किसी वृक्ष के नीचे बैठा हो।

सोफी ने सारी रात भावी जीवन के चित्रा खींचने में काटीए पर इच्छानुसार रंग न दे सकी। पहले रंग भरकर उसे जरा दूर से देखतीए तो विदित होताए धूप की जगह छाँह हैए छाँह की जगह धूपए लाल रंग का आधिक्य हैए बाग में अस्वाभाविक रमणीयताए पहाड़ों पर जरूरत से ज्यादा हरियालीए नदियों में अलौकिक शांति। फिर ब्रुश लेकर इन त्रुटीयों को सुधारने लगतीए तो सारा —श्य जरूरत से ज्यादा नीरसए उदास और मलिन हो जाता। उसकी धार्मिकता अब अपने जीवन में ईश्वरीय व्यवस्था का रूप देखती थी। अब ईश्वर ही उसका कर्णधार थाए वह अपने कर्माकर्म के गुणदोष से मुक्त थी।

प्रातरूकाल वह उठीए तो मि. क्लार्क सो रहे थे। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। उसने शोफर को बुलाकर मोटर तैयार करने का हुक्म दिया और एक क्षण में जेल की तरफ चलीए जैसे कोई बालक पाठशाला से घर की तरफ दौड़े।

उसके जेल पहुँचते ही हलचल—सी पड़ गई। चौकीदार अॉंखें मलते हुए दौड़—दौड़कर वर्दियाँ पहनने लगे। दारोगाजी ने उतावली में उलटी अचकन पहनी और बेतहाशा दौड़े। डॉक्टर साहब नंगे पाँव भागेए याद न आया कि रात को जूते कहाँ रखे थे और इस समय तलाश करने की फुरसत न थी। विनयसिंह बहुत रात गए सोए थे और अभी तक मीठी नींद के मजे ले रहे थे। कमरे में जल—कणों से भीगी हुई वायु आ रही थी। नरम गलीचा बिछा हुआ था। अभी तक रात का लैम्प न बुझा थाए मानो विनय की व्यग्रता की साक्षी दे रहा था। सोफी का रूमाल अभी तक विनय के सिरहाने पड़ा हुआ था और उसमें से मनोहर सुगंधा उड़ रही थी। दारोगा ने जाकर सोफी को सलाम किया और वह उन्हें लिए विनय के कमरे में आई। देखाए तो नींद में है। रात की मीठी नींद से मुख पुष्प के समान विकसित हो गया है। ओठों पर हलकी—सी मुस्कराहट हैय मानो फूल पर किरणें चमक रही हों। सोफी को विनय आज तक कभी इतना सुंदर न मालूम हुआ था।

सोफी ने डॉक्टर से पूछा—रात को इसकी कैसी दशा थीघ्

डॉक्टर—हुजूरए कई बार मरूच्छा आईय पर मैं एक क्षण के लिए भी यहाँ से न टला। जब इन्हें नींद आ गईए तो मैं भोजन करने चला गया। अब तो इनकी दशा बहुत अच्छी मालूम होती है।

सोफी—हाँए मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है। आज वह पीलापन नहीं है। मैं अब इससे यह पूछना चाहती हूँ कि इसे किसी दूसरे जेल में क्यों न भिजवा दूँ। यहाँ की जलवायु इसके लिए अनुकूल नहीं है। पर आप लोगों के सामने यह अपने मन की बातें न कहेगा। आप लोग जरा बाहर चले जाएँए तो मैं इसे जगाकर पूछ लूँए और इसका ताप भी देख लूँ। (मुस्कराकर) डॉक्टर साहबए मैं भी इस विद्या से परिचित हूँ। नीम हकीम हूँए पर खतरे—जान नहीं।

जब कमरे में एकांत हो गयाए तो सोफी ने विनय का सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया और धाीरे—धाीरे उसका माथा सहलाने लगी। विनय की अॉंखें खुल गईं। इस तरह झपटकर उठाए जैसे नींद में किसी नदी से फिसल पड़ा हो। स्वप्न का इतना तत्काल फल शायद ही किसी को मिला हो।

सोफी ने मुस्कराकर कहा—तुम अभी तक सो रहे होय मेरी अॉंखों की तरफ देखोए रात—भर नहीं झपकीं।

विनय—संसार का सबसे उज्ज्वल रत्न पाकर भी मीठी नींद न लूँए तो मुझसा भाग्यहीन और कौन होगाघ्

सोफी—मैं तो उससे भी उज्ज्वल रत्न पाकर और भी चिंताओं में फँस गई। अब यह भय है कि कहीं वह हाथ से न निकल जाए। नींद का सुख अभाव में हैए जब कोई चिंता नहीं होती। अच्छाए अब तैयार हो जाओ।

विनय—किस बात के लिएघ्

सोफी—भूल गएघ् इस अंधाकार से प्रकाश में आने के लिएए इस काल—कोठरी से बिदा होने के लिए। मैं मोटर लाई हूँय तुम्हारी मुक्ति का आज्ञा—पत्रा मेरी जेब में है। कोई अपमानसूचक शर्त नहीं है। केवल उदयपुर राज्य में बिना आज्ञा के न आने की प्रतिज्ञा ली गई है। आओए चलें। मैं तुम्हें रेल के स्टेशन तक पहुँचाकर लौट जाऊँगी। तुम दिल्ली पहुँचकर मेरा इंतजार करना। एक सप्ताह के अंदर मैं तुमसे दिल्ली में आ मिलूँगीए और फिर विधाता भी हमें अलग न कर सकेगा।

विनयसिंह की दशा उस बालक की—सी थीए जो मिठाइयों के खोंचे को देखता हैए पर इस भय से कि अम्माँ मारेंगीए मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकता। मिठाइयों के स्वाद याद करके उसकी राल टपकने लगती है। रसगुल्ले कितने रसीले हैंए मालूम होता हैए दाँत किसी रसकु़ड में फिसल पडे। अमिर्तियाँ कितनी कुरकुरी हैंए उनमें भी रस भरा होगा। गुलाबजामुन कितनी सोंधाी होती है कि खाता ही चला जाए। मिठाइयों से पेट नहीं भर सकता। अम्माँ पैसे न देंगी। होंगे ही नहींए किससे माँगेगी ज्यादा हठ करूँगाए तो रोने लगेंगी। सजल नेत्रा होकर बोला—सोफीए मैं भाग्यहीन आदमी हूँए मुझे इसी दशा मेंं रहने दो। मेरे साथ अपने जीवन का सर्वनाश न करो। मुझे विधाता ने दुरूख भोगने ही के लिए बनाया है। मैं इस योग्य नहीं कि तुम...।

सोफी ने बात काटकर कहा—विनयए मैं विपत्तिा ही की भूखी हूँ। अगर तुम सुख—सम्पन्न होतेए अगर तुम्हारा जीवन विलासमय होताए अगर तुम वासनाओं के दास होतेए तो कदाचित्‌ मैं तुम्हारी तरफ से मुँह फेर लेती। तुम्हारे सत्साहस और त्याग ही ने मुझे तुम्हारी तरफ खींचा है।

विनय—अम्माँजी को तुम जानती होए वह मुझे कभी क्षमा न करेंगी।

सोफी—तुम्हारे प्रेम का आश्रय पाकर मैं उनके क्रोधा को शांत कर लूँगी। जब वह देखेंगी कि मैं तुम्हारे पैरों की जंजीर नहींए तुम्हारे पीछे उड़नेवाली रज हूँए तो उनका हृदय पिघल जाएगा।

विनय ने सोफी को स्नेहपूर्ण नेत्राों से देखकर कहा—तुम उनके स्वभाव से परिचित नहीं हो। वह हिंदू—धार्म पर जान देती हैं।

सोफी—मैं भी हिंदू—धार्म पर जान देती हूँ। जो आत्मिक शांति मुझे और कहीं न मिलीए वह गोपियों की प्रेम—कथा में मिल गई। वह प्रेम का अवतारए जिसने गोपियों को प्रेम—रस पान करायाए जिसने कुब्जा का डोंगा पार लगायाए जिसने प्रेम के रहस्य दिखाने के लिए ही संसार को अपने चरणों से पवित्रा कियाए उसी की चेरी बनकर जाऊँगीए तो वह कौन सच्चा हिंदू हैए जो मेरी उपेक्षा करेगाघ्

विनय ने मुस्कराकर कहा—उस छलिया ने तुम पर भी जादू डाल दियाघ् मेरे विचार में तो कृष्ण की प्रेम—कथा सर्वथा भक्त—कल्पना है।

सोफी—हो सकती है। प्रभु मसीहा को भी तो कल्पित कहा जाता है। शेक्सपियर भी तो कल्पना—मात्रा है। कौन कह सकता है कि कालिदास की सृष्टि पंचभूतों से हुई हैघ् लेकिन इन पुरुषों के कल्पित होते हुए भी हम उनकी पवित्रा कीर्ति के भक्त हैंए और वास्तविक पुरुषों की कीर्ति से अधिक। शायद इसीलिए कि उनकी रचना स्थूल परमाणु से नहींए सूक्ष्म कल्पना से हुई हो। ये व्यक्तियों के नाम हों न होंए पर आदशोर्ं के नाम अवश्य हैं। इनमें से प्रत्येक पुरुष मानवीय जीवन का एक—एक आदर्श है।

विनय—सोफीए मैं तुमसे तर्क में पार न पा सकूँगा। पर मेरा मन कह रहा है कि मैं तुम्हारी सरल हृदयता से अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। मैं तुमसे हृदय की बात कहता हूँ सोफीए तुम मेरा यथार्थ रूप नहीं देख रही हो। कहीं उस पर निगाह पड़ जाएए तो तुम मेरी तरफ ताकना भी पसंद न करोगी। तुम मेरे पैरों की जंजीर चाहे न बन सकोए पर मेरी दबी हुई आग को जगानेवाली हवा अवश्य बन जाओगी। माताजी ने बहुत सोच—समझकर मुझे यह व्रत दिया है। मुझे भय होता है कि एक बार मैं इस बंधान से मुक्त हुआए तो वासना मुझे इतने वेग से बहा ले जाएगी कि फिर शायद मेरे अस्तित्व का पता ही न चले। सोफीए मुझे इस कठिनतम परीक्षा में न डालो। मैं यथार्थ में बहुत दुर्बल चरित्राए विषयसेवी प्राणी हूँ। तुम्हारी नैतिक विशालता मुझे भयभीत कर रही है। हाँए मुझ पर इतनी दया अवश्य करो कि आज यहाँ से किसी दूसरी जगह प्रस्थान कर दो।

सोफी—क्या मुझसे इतनी दूर भागना चाहते होघ्

विनय—नहीं—नहींए इसका और ही कारण है। न जाने क्योंकर यह विज्ञप्ति निकल गई है कि जसवंतनगर एक सप्ताह के लिए खाली कर दिया जाए। कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। मैं तो समझता हूँए सरदार साहब ने तुम्हारी रक्षा के लिए यह व्यवस्था की हैए पर लोग तुम्हीं को बदनाम कर रहे हैं।

सोफी और क्लार्क का परस्पर तर्क—वितर्क सुनकर सरदार नीलकंठ ने तत्काल यह हुक्म जारी कर दिया था। उन्हें निश्चय था कि मेम साहब के सामने साहब की एक न चलेगी और विनय को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए पहले ही से शांति—रक्षा का उपाय करना आवश्यक था। सोफी ने विस्मित होकर पूछा—क्या ऐसा हुक्म दिया गया हैघ्

विनय—हाँए मुझे खबर मिली है। कोई चपरासी कहता था।

सोफी—मुझे जरा भी खबर नहीं। मैं अभी जाकर पता लगाती हूँ और इस हुक्म को मंसूख करा देती हूँ। ऐसी ज्यादती रियासतों के सिवा और कहीं नहीं हो सकती। यह सब तो हो जाएगाए पर तुम्हें अभी मेरे साथ चलना पड़ेगा।

विनय—नहीं सोफीए मुझे क्षमा करो। दूर का सुनहरा —श्य समीप आकर बालू का मैदान हो जाता है। तुम मेरे लिए आदर्श हो। तुम्हारे प्रेम का आनंद मैं कल्पना ही द्वारा ले सकता हूँ। डरता हूँ कि तुम्हारी द्रष्टि में गिर न जाऊँ। अपने को कहाँ तक गुप्त रखूँगाघ् तुम्हें पाकर मेरा जीवन नीरस हो जाएगाए मेरे लिए उद्योग और उपासना की कोई वस्तु न रह जाएगी। सोफीए मेरे मुँह से न जाने क्या—क्या अनर्गल बातें निकल रही हैं। मुझे स्वयं संदेह हो रहा है कि मैं अपने होश में हूँ या नहीं। भिक्षुक राजसिंहासन पर बैठकर अस्थिर चित्ता हो जाएए तो कोई आश्चर्य नहीं। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। मेरी तुमसे यही अंतिम प्रार्थना है कि मुझे भूल जाओ।

सोफी—मेरी स्मरण—शक्ति इतनी शिथिल नहीं है।

विनय—कम—से—कम मुझे यहाँ से जाने के लिए विवश न करोय क्योंकि मैंने निश्चय कर लिया हैए मैं यहाँ से न जाऊँगा। कस्बे की दशा देखते हुए मुझे विश्वास नहीं है कि मैं जनता को काबू में रख सकूँगा।

सोफी ने गम्भीर भाव से कहा—जैसी तुम्हारी इच्छा। मैं तुम्हें जितना सरल हृदय समझती थीए तुम उससे कहीं बढ़़कर कूटनीतिज्ञ हो। मैं तुम्हारा आशय समझती हूँए और इसलिए कहती हूँए जैसी तुम्हारी इच्छा। पर शायद तुम्हें मालूम नहीं कि युवती का हृदय बालक के समान होता है। उसे जिस बात के लिए मना करोए उसी तरफ लपकेगा। अगर तुम आत्मप्रशंसा करतेए अपने कृत्यों की अप्रत्यक्ष रूप से डींग मारतेए तो शायद मुझे तुमसे अरुचि हो जाती। अपनी त्रुटीयों और दोषों का प्रदर्शन करके तुमने मुझे और भी वशीभूत कर लिया। तुम मुझसे डरते होए इसलिए तुम्हारे सम्मुख न आऊँगीए पर रहूँगी तुम्हारे ही साथ। जहाँ—जहाँ तुम जाओगेए मैं परछाईं की भाँति तुम्हारे साथ रहूँगी। प्रेम एक भावनागत विषय हैए भावना से ही उसका पोषण होता हैए भावना ही से वह जीवित रहता है और भावना से ही लुप्त हो जाता है। वह भौतिक वस्तु नहीं है। तुम मेरे होए यह विश्वास मेरे प्रेम को सजीव और सतृष्ण रखने के लिए काफी है। जिस दिन इस विश्वास की जड़ हिल जाएगीए उसी दिन इस जीवन का अंत हो जाएगा। अगर तुमने यही निश्चय किया है कि इस कारागार में रहकर तुम अपने जीवन के उद्देश्य को अधिक सफलता के साथ पूरा कर सकते होए तो इस फैसले के आगे सिर झुकाती हूँ। इस विराग ने मेरी द्रष्टि में तुम्हारे आदर को कई गुना बढ़़ा दिया है। अब जाती हूँ। कल शाम को फिर आऊँगी। मैंने इस आज्ञा—पत्रा के लिए जितना त्रिाया—चरित्रा खेला हैए वह तुमसे बता दूँए तो तुम आश्चर्य करोगे। तुम्हारी एक श्नहींश् ने मेरे सारे प्रयास पर पानी फेर दिया। क्लार्क कहेगाए मैं कहता थाए वह राजी न होगाए कदाचित्‌ व्यंग्य करेय पर कोई चिंता नहींए कोई बहाना कर दूँगी।

यह कहते—कहते सोफी के सतृष्ण अधार विनयसिंह की तरफ झुकेए पर वह कोई पैर फिसलनेवाले मनुष्य की भाँति गिरते—गिरते सँभल गई। धाीरे से विनयसिंह का हाथ दबाया और द्वार की ओर चलीय पर बाहर जाकर फिर लौट आई और अत्यंत दीन भाव से बोली—विनयए तुमसे एक बात पूछती हूँ। मुझे आशा हैए तुम साफ—साफ बतला दोगे। मैं क्लार्क के साथ यहाँ आईए उससे कौशल कियाए उसे झूठी आशाएँ दिलाईं और अब उसे मुगालते में डाले हुए हूँ। तुम इसे अनुचित तो नहीं समझतेए तुम्हारी द्रष्टि में मैं कलंकिनी तो नहीं हूँघ्

विनय के पास इसका एक ही सम्भावित उत्तार था। सोफी का आचरण उसे आपत्तिाजनक प्रतीत होता था। उसे देखते ही उसने इस बात को आश्चर्य के रूप में प्रकट भी किया था। पर इस समय वह इस भाव को प्रकट न कर सका। यह कितना बड़ा अन्याय होताए कितनी घोर निर्दयता! वह जानता था कि सोफी ने जो कुछ किया हैए वह एक धार्मिक तत्तव के अधाीन होकर। वह इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझ रही है। अगर ऐसा न होताए तो शायद अब तक वह हताश हो गई होती। ऐसी दशा में कठोर सत्य वज्रपात के समान होता। श्रध्दापूर्ण तत्परता से बोले—सोफीए तुम यह प्रश्न करके अपने ऊपर और उससे अधिक मेरे ऊपर अन्याय कर रही हो। मेरे लिए तुमने अब तक त्याग—ही—त्याग किए हैंए सम्मानए समृध्दिए सिध्दांत एक की भी परवा नहीं की। संसार में मुझसे बढ़़कर कृतघ्न और कौन प्राणी होगाए जो मैं इस अनुराग का निरादर करूँ।

यह कहते—कहते वह रुक गया। सोफी बोली—कुछ और कहना चाहते होए रुक क्यों गएघ् यही न कि तुम्हें मेरा क्लार्क के साथ रहना अच्छा नहीं लगता। जिस दिन मुझे निराशा हो जाएगी कि मैं मिथ्याचरण से तुम्हारा कुछ उपकार नहीं कर सकतीए उसी दिन मैं क्लार्क को पैरों से ठुकरा दूँगी। इसके बाद तुम मुझे प्रेम—योगिनी के रूप में देखोगेए जिसके जीवन का एकमात्रा उद्देश्य होगा तुम्हारे ऊपर समर्पित हो जाना।

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अध्याय 27

नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा होकर उदयपुर रवाना हुए। रेल के मुसाफिरों को बहुत जल्द उनसे श्रध्दा हो गई। किसी को तम्बाकू मलकर खिलातेए किसी के बच्चे को गोद में लेकर प्यार करते। जिस मुसाफिर को देखतेए जगह नहीं मिल रही हैए इधार—उधार भटक रहा हैए जिस कमरे में जाता हैए धाक्के खाता हैए उसे बुलाकर अपनी बगल में बैठा लेते। फिर जरा देर में सवालों का ताँता बाँधा देते—कहाँ मकान हैघ् कहाँ जाते होघ् कितने लड़के हैंघ् क्या कारोबार होता हैघ् इन प्रश्नों का अंत इस अनुरोधा पर होता कि मेरा नाम नायकराम पंडा हैय जब कभी काशी जाओए मेरा नाम पूछ लोए बच्चा—बच्चा जानता हैय दो दिनए चार दिनए महीनेए जब तक इच्छा होए आराम से काशीवास करोय घर—द्वारए नौकर—चाकर सब हाजिर हैंए घर का—सा आराम पाओगेय वहाँ से चलते समय जो चाहोए दे दोए न दोए घर आकर भेज दोए इसकी कोई चिंता नहीं। यह कभी मत सोचोए अभी रुपये नहीं हैंए फिर चलेंगे। शुभ काम के लिए महूरत नहीं देखा जाताए रेल का किराया लेकर चल खड़े हो। काशी में तो मैं हूँ हीए किसी बात की तकलीफ न होगी। काम पड़ जाए तो जान लड़ा देंए तीरथ—जात्राा के लिए टालमटोल मत करो। कोई नहीं जानताए कब बड़ी जात्राा करनी पड़ जाएए संसार के झगड़े तो सदा लगे ही रहेंगे।

दिल्ली पहुँचेए तो कई नए मुसाफिर गाड़ी में आए। आर्य समाज के किसी उत्सव में जा रहे थे। नायकराम ने उनसे वही जिरह शुरू की। यहाँ तक कि एक महाशय गर्म होकर बोले—तुम हमारे बाप—दादे का नाम पूछकर क्या करोगेघ् हम तुम्हारे फंदे में फँसनेवाले नहीं हैं। यहाँ गंगाजी के कायल नहीं और न काशी ही को स्वर्गपुरी समझते हैं।

नायकराम जरा भी हताश नहीं हुए। मुस्कराकर बोले—बाबूजीए आप आरिया होकर ऐसा कहते हैं। आरिया लोगों ही ने तो हिंदू—धारम की लाज रखीए नहीं तो अब तक सारा देश मुसलमान—किरसतान हो गया होता। हिंदू—धारम के उध्दारक होकर आप काशी को भला कैसे न मानेंगे! उसी नगरी में राजा हरिसचंद की परीक्षा हुई थीए वहीं बुध्द भगवान ने अपना धारम—चक्र चलाया थाए वहीं शंकर भगवान्‌ ने मंडल मिसिर से सास्त्राार्थ किया थाय वहाँ जैनी आते हैंए बौध्द आते हैंए वैस्नव आते हैंए वह हिंदुओं की नगरी नहीं हैए सारे संसार की नगरी वही है। दूर—दूर के लोग भी जब तक काशी के दरसन न कर लेंए उनकी जात्राा सुफल नहीं होती। गंगाजी मुकुत देती हैंए पाप काटती हैंए यह सब तो गँवारों को बहलाने की बातें हैं। उनसे कहो कि चलकर उस पवित्रा नगरी को देख आओए जहाँ कदम—कदम पर आरिया जाति के निसान मिलते हैंए जिसका नाम लेते ही सैकड़ों महात्माओंए रिसियों—मुनियों की याद आ जाती हैए तो उनकी समझ में यह बात न आएगी। पर जथारथ में बात यही है। कासी का महातम इसीलिए है कि वह आरिया जाति की जीति—जागती पुरातन पुरी है।

इन महाशयों को फिर काशी की निंदा करने का साहस न हुआ। वे मन में लज्जित हुए और नायकराम के धार्मिक ज्ञान के कायल हो गएए हालाँकि नायकराम ने ये थोड़े—से वाक्य ऐसे अवसरों के लिए किसी व्याख्याता के भाषण से चुनकर रट लिए थे।

रेल के स्टेशन पर वह जरूर उतरते और रेल के कर्मचारियों का परिचय प्राप्त करते। कोई उन्हें पान खिला देताए कोई जलपान करा देता। सारी यात्राा समाप्त हो गईए पर वह लेटे तक नहींए जरा भी अॉंख नहीं झपकी। जहाँ दो मुसाफिरों को लड़ते—झगड़ते देखतेए तुरंत तीसरे बन जाते और उनमें मेल करा देते। तीसरे दिन वह उदयपुर पहुँच गए और रियासत के अधिकारियों से मिलते—जुलतेए घूमते—घामते जसवंतनगर में दाखिल हुए। देखाए मिस्टर क्लार्क का डेरा पड़ा हुआ है। बाहर से आने—जानेवालों की बड़ी जाँच—पड़ताल होती हैए नगर का द्वार बंद—सा हैए लेकिन पंडे को कौन रोकताघ् कस्बे में पहुँचकर सोचने लगेए विनयसिंह से क्योंकर मुलाकात होघ् रात को तो धार्मशाला में ठहरेए सबेरा होते ही जेल के दारोगा के मकान में जा पहुँचे। दारोगाजी सोफी को बिदा करके आए थे और नौकर को बिगड़ रहे थे कि तूने हुक्का क्यों नहीं भराए इतने में बरामदे में पंडाजी की आहट पाकर बाहर निकल आए। उन्हें देखते ही नायकराम ने गंगा—जल की शीशी निकाली और उनके सिर पर जल छिड़क दिया।

दारोगाजी ने अन्यमनस्क होकर कहा—कहाँ से आते होघ्

नायकराम—महाराजए अस्थान तो परागराज हैय पर आ रहा हूँ बड़ी दूर से। इच्छा हुईए इधार भी जजमानों को आसीरबाद देता चलूँ।

दारोगाजी का लड़काए जिसकी उम्र चौदह—पंद्रह वर्ष की थीए निकल आया। नायकराम ने उसे नख से शिख तक बड़े धयान से देखाए मानो उसके दर्शनों से हार्दिक आनंद प्राप्त प्राप्त हो रहा है और तब दारोगाजी से बोले—यह आपके चिरंजीव पुत्रा हैं नघ् पिता—पुत्रा की सूरत कैसी मिलती है दूर से ही पहचाना जाए। छोटे ठाकुर साहबए क्या पढ़़ते होघ्

लड़के ने कहा—ऍंगरेजी पढ़़ता हूँ।

नायकराम—यह तो मैं पहले ही समझ गया था। आजकल तो इसी विद्या का दौरदौरा हैए राजविद्या ठहरी। किस दफे में पढ़़ते हो भैयाघ्

दारोगा—अभी तो हाल ही में ऍंगरेजी शुरू की हैए उस पर भी पढ़़ने में मन नहीं लगातेए अभी थोड़ी ही पढ़़ी है।

लड़के ने समझाए मेरा अपमान हो रहा है। बोला—तुमसे से तो ज्यादा पढ़़ा हूँ।

नाकयराम—इसकी कोई चिंता नहींए सब आ जाएगाए अभी इनकी औस्था ही क्या है। भगवान की इच्छा होगीए तो कुल का नाम रोसन कर देंगे। आपके घर पर कुछ जगह—जमीन भी हैघ्

दारोगाजी ने अब समझा। बुध्दि बहुत तीक्ष्ण न थी। अकड़कर कुर्सी पर बैठ गए और बोले—हाँए चित्ताौर के इलाके में कई गाँव हैं। पुरानी जागीर है। मेरे पिता महाराना के दरबारी थे। हल्दीघाटी की लड़ाई में राना प्रताप ने मेरे पूर्वजों को यह जागीर दी थी। अब भी मुझे दरबार में कुर्सी मिलती है और पान—इलायची से सत्कार होता है। कोई कार्य—प्रयोजन होता हैए तो महाराना के यहाँ से आदमी आता है। बड़ा लड़का मरा थाए तो महाराना ने शोकपत्रा भेजा था।

नायकराम—जागीरदार का क्या कहना! जो जागीरदारए वही राजाय नाम का फरक है। असली राजा तो जागीरदार ही होते हैंए राज तो नाम के हैं।

दारोगा—बराबर राजकुल से आना—जाना लगा रहता है।

नायकराम—अभी इनकी कहीं बातचीत तो नहीं हो रही हैघ्

दारोगा—अजीए लोग तो जान खा रहे हैंए रोज एक—न—एक जगह से संदेशा आता रहता हैय पर मैं सबों को टका—सा जवाब देता हूँ। जब तक लड़का पढ़़—लिख न लेए तब तक उसका विवाह कर देना नादानी है।

नायकराम—यह आपने पक्की बात कही। जथारथ में ऐसा ही होना चाहिए। बड़े आदमियों की बुध्दि भी बड़ी होती है। पर लोक—रीति पर चलना ही पड़ता है। अच्छाए अब आज्ञा दीजिएए कई जगह जाना है। जब तक मैं लौटकर न आऊँए किसी को जवाब न दीजिएगा। ऐसी कन्या आपको न मिलेगी और न ऐसा उत्ताम कुल ही पाइएगा।

दारोगा—वाह—वाह! इतनी जल्दी चले जाइएगाघ् कम—से—कम भोजन तो कर लीजिए। कुछ हमें भी तो मालूम हो कि आप किस का संदेसा लाए हैंघ् वह कौन हैंय कहाँ रहते हैंघ्

नायकराम—सब कुछ मालूम हो जाएगाए पर अभी बताने का हुक्म नहीं है।

दारोगा ने लड़के से कहा—तिलकए अंदर जाओए पंडितजी के लिए पान बनवा लाओए कुछ नाश्ता भी लेते आना।

यह कहकर तिलक के पीछे—पीछे खुद अंदर चले गए और गृहिणी से बोले—लो कहीं से तिलक के ब्याह का संदेसा आया है। पान तश्तरी में भेजना। नाश्ते के लिए कुछ नहीं हैघ् वह तो मुझे पहले ही मालूम था। घर में कितनी ही चीज आएए दुबारा देखने को नहीं मिलती। न जाने कहाँ के मरभुखे जमा हो गए हैं। अभी कल ही एक कैदी के घर से मिठाइयों का पूरा थाल आया थाए क्या हो गयाघ्

स्त्राी—इन्हीं लड़कों से पूछोए क्या हो गया। मैं तो हाथ से छूने की भी कसम खाती हूँ। यह कोई संदूक में बंद करके रखने की चीज तो है नहीं। जिसका जब जी चाहता हैए निकालकर खाता है। कल से किसी ने रोटीयों की ओर नहीं ताका।

दारोगा—तो आखिर तुम किस मरज की दवा होघ् तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जो चीज घर में आएए उसे यत्न से रखोए हिसाब से खर्च करो। वह लौंडा कहाँ गयाघ्

स्त्राी—तुम्हीं ने तो अभी उसे डाँटा थाए बस चला गया। कह गया है कि घड़ी—घड़ी की डाँट—फटकार बरदाश्त नहीं हो सकती।

दारोगा—यह और मुसीबत हुई। ये छोटे आदमी दिन—दिन सिर चढ़़ते जाते हैंए कोई कहाँ तक इनकी खुशामद करेए अब कौन बाजार से मिठाइयाँ लाएघ् आज तो किसी सिपाही को भी नहीं भेज सकताए न जाने सिर से कब यह बला टलेगी। तुम्हीं चले जाओ तिलक!

तिलक—शर्बत क्यों नहीं पिला देतेघ्

स्त्राी—शकर भी तो नहीं है। चले क्यों नहीं जातेघ्

तिलक—हांए चले क्यों नहीं जाते! लोग देखेंगे हजरत मिठाई लिए जाते हैं।

दारोगा—तो इसमें क्या गाली हैए किसी के घर चोरी तो नहीं कर रहे होघ् बुरे काम से लजाना चाहिएए अपना काम करने में क्या लाजघ्

तिलक यों तो लाख सिर पटकने पर भी बाजार न जातेए पर इस वक्त अपने विवाह की खुशी थीए चले गए। दारोगाजी ने तश्तरी में पान रखे और नायकराम के पास लाए।

नायकराम—सरकारए आपके घर पान नहीं खाऊँगा।

दारोगा—अजीए अभी क्या हरज हैए अभी तो कोई बात भी नहीं हुई।

नायकराम—मेरा मन बैठ गयाए तो सब ठीक समझिए।

दारोगा—यह तो आपने बुरी पख लगाई। यह बात नहीं हो सकती कि आप हमारे द्वार पर आएँ और हम बिना यथेष्ट आदर—सत्कार किए आपको जाने दें। मैं तो मान भी जाऊँगाए पर तिलक की माँ किसी तरह राजी न होंगी।

नायकराम—इसी से मैं यह संदेसा लेकर आने से इनकार कर रहा था। जिस भले आदमी के द्वार पर जाइएए वह भोजन और दच्छिना के बगैर गला नहीं छोड़ता। इसी से तो आजकल कुछ लबाड़ियों ने बर खोजने को ब्यौसाय बना लिया है। इससे यह काम करते हुए और भी संकोच होता है।

दारोगा—ऐसे र्धूत्ता यहाँ नित्य ही आया करते हैंय पर मैं तो पानी को भी नहीं पूछता। जैसा मुँह होता हैए वैसा बीड़ा मिलता है। यहाँ तो आदमी को एक नजर देखा और उसकी नस—नस पहचान गया। आप यों न जाने पाएँगे।

नायकराम—मैं जानता कि आप इस तरह पीछे पड़ जाएँगेए तो लबाड़ियों ही की—सी बातचीत करता। गला तो छूट जाता।

दारोगा—यहाँ ऐसा अनाड़ी नहीं हूँए उड़ती चिड़िया पहचानता हूँ।

नायकराम डट गए। दोपहर होते—होते बच्चे—बच्चे से उनकी मैत्राी हो गई। दारोगाइन ने भी पालागन कहला भेजा। इधार से भी आशीर्वाद दिया गया। दारोगा तो दस बजे दफ्तर चले गए। नायकराम के लिए पूरियाँ—कचौरियाँए चटनीए हलवा बड़ी विधि से बनाया गया। पंडितजी ने भीतर जाकर भोजन किया। रायताए दहीय स्वामिनी ने स्वयं पंखा झला। फिर तो उन्होंने और रंग जमाया। लड़के—लड़कियों के हाथ देखे। दारोगाइन ने भी लजाते हुए हाथ दिखाया। पंडितजी ने अपने भाग्य—रेखा—ज्ञान का अच्छा परिचय दिया। और भी धाक जम गई। शाम को दारोगाजी दफ्तर से लौटेए तो पंडितजी शान से मसनद लगाए बैठे हुए थे और पड़ोस के कई आदमी उन्हें घेरे खड़े थे।

दारोगा ने कुर्सी पर लेटकर कहा—यह पद तो इतना ऊँचा नहींए और न ही वेतन ही कुछ ऐसा अधिक मिलता हैए पर काम इतना जिम्मेदारी का है कि केवल विश्वासपात्राों को ही मिलता है। बड़े—बड़े आदमी किसी—न—किसी अपराधा के लिए दंड पाकर आते हैं। अगर चाहूँए तो उनके घरवालों से एक—एक मुलाकात के लिए हजारों रुपये ऐंठ लूँय लेकिन अपना यह ढ़ंग नहीं। जो सरकार से मिलता हैए उसी को बहुत समझता हूँ। किसी भीरु पुरुष का तो यहाँ घड़ी—भर निबाह न हो। एक—से—एक खूनीए डकैतए बदमाश आते रहते हैंए जिनके हजारों साथी होते हैंय चाहें तो दिन—दहाड़े जेल को लुटवा लेंए पर ऐसे ढ़ंग से उन पर रोब जमाता हूँ कि बदनामी भी न हो और नुकसान भी न उठाना पड़े। अब आज—ही—कल देखिएए काशी के कोई करोड़पति राजा हैं महाराजा भरतसिंहए उनका पुत्रा राजविद्रोह के अभियोग में फँस गया है। हुक्काम तक उसका इतना आदर करते हैं कि बड़े साहब की मेम साहब दिन में दो—दो बार उसका हाल—चाल पूछने आती हैं और सरदार नीलकंठ बराबर पत्राों द्वारा उसका कुशल—समाचार पूछते रहते हैं। चाहूँ तो महाराजा भरतसिंह से एक मुलाकात के लिए लाखों रुपये उड़ा लूँय पर यह अपना धार्म नहीं।

नायकराम—अच्छा! क्या राजा भरतसिंह का पुत्रा यहीं कैद हैघ्

दारोगा—और यहाँ सरकार को किस पर इतना विश्वास हैघ्

नायकराम—आप—जैसे महात्माओं के दरसन दुरलभ हैं। किंतु बुरा न मानिएए तो कहूँए बाल—बच्चों का भी धयान रखना चाहिए। आदमी घर से चार पैसे कमाने ही के लिए निकलता है।

दारोगा—अरेए तो क्या कोई कसम खाई हैए पर किसी का गला नहीं दबाता। चलिएए आपको जेलखाने की सैर कराऊँ। बड़ी साफ—सुथरी जगह है। मेरे यहाँ तो जो कोई मेहमान आता हैए उसे वहीं ठहरा देता हूँ। जेल के दारोगा की दोस्ती से जेल की हवा खाने के सिवा और क्या मिलेगाघ्

यह कहकर दारोगा मुस्कराए। वह नायकराम को किसी बहाने से यहाँ से टालना चाहते थे। नौकर भाग गया थाए कैदियों और चपरासियों से काम लेने का मौका न था। सोचाए अपने हाथ चिलम भरनी पड़ेगीए बिछावन बिछाना पड़ेगाए मर्यादा में बाधा उपस्थित होगीए घर का परदा खुल जाएगा। इन्हें वहाँ ठहरा दूँगाए खाना भिजवा दूँगाए परदा ढ़का रह जाएगा।

नायकराम—चलिएए कौन जानेए कभी आपकी सेवा में आना ही पड़े। पहले से ठौर—ठिकान देख लूँ। महाराजा साहब के लड़के ने कौन कसूर किया थाघ्

दारोगा—कसूर कुछ नहीं थाए बस हाकिमों की जिद है। यहाँ देहातों में घूम—घूमकर लोगों को उपदेश करता थाए बसए हाकिमों को उस पर संदेह हो गया कि यह राजविद्रोह फैला रहा है। यहाँ लाकर कैद कर दिया। मगर आप तो अभी उसे देखिएगा हीए ऐसा गम्भीरए शांतए विचारशील आदमी आज तक मैंने नहीं देखा। हाँए किसी से दबा नहीं। खुशामद करके चाहे कोई पानी भरा लेंय पर चाहें कि रोब से उसे दबा लेंए तो जौ—भर भी न दबेगा।

नायकराम दिल में खुश था कि बड़ी अच्छी साइत में चला था कि भगवान्‌ आप ही सब द्वार खोल देते हैं। देखूँए अब विनयसिंह से क्या बात होती है। यों तो वह न जाएँगेए पर रानीजी की बीमारी का बहाना करना पड़ेगा। वह राजी हो जाएँए यहाँ से निकाल ले जाना तो मेरा काम है। भगवान्‌ की इतनी दया हो जातीए तो मेरी मनो—कामना पूरी हो जातीए घर बस जाताए जिंदगी सुफल हो जाती।

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अध्याय 28

सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार—स्थल में भाँति—भाँति की शंकाएँ होने लगीं। मन एक भीरु शत्रु हैए जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफी सामने बैठी थीए उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी के पीठ फेरते ही उसने ताल ठोकनी शुरू की—न जाने मेरी बातों का सोफिया पर क्या असर हुआ। कहीं वह यह तो नहीं समझ गई कि मैंने जीवन—पयर्ंत के लिए सेवा—व्रत धारण कर लिया है। मैं भी कैसा मंद बुध्दि हूँए उसे माताजी की अप्रसन्नता का भय दिलाने लगाए जैसे भोले—भाले बच्चों की आदत होती है कि प्रत्येक बात पर अम्माँ से कह देने की धामकी देते हैं। जब वह मेरे लिए इतना आत्मबलिदान कर रही हैए यहाँ तक कि धार्म के पवित्रा बंधान को भी तोड़ देने के लिए तैयार हैए तो उसके सामने मेरा सेवा—व्रत औरर् कत्ताव्य का ढ़ोंग रचना सम्पूर्णतरू नीति—विरुध्द है। मुझे वह मन में कितना निष्ठुरए कितना भीरुए कितना हृदय—शून्य समझ रही होगी। माना कि परोपकार आदर्श जीवन हैय लेकिन स्वार्थ भी तो सर्वथा त्याज्य नहीं। बड़े—से—बड़ा जाति—भक्त भी स्वार्थ ही की ओर झुकता है। स्वार्थ का एक भाग मिटा देना जाति—सेवा के लिए काफी है। यही प्राकृतिक नियम है। आह! मैंने अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारी। वह कितनी गर्वशीला हैए फिर भी मेरे लिए उसने क्या—क्या अपमान न सहे! मेरी माता ने उसका जितना अपमान कियाए उतना कदाचित्‌ उसकी माता ने किया होताए तो वह उसका मुँह न देखती। मुझे आखिर सूझी क्या! निस्संदेह मैं उसके योग्य नहीं हूँए उसकी विशाल मनस्विता मुझे भयभीत करती हैय पर क्या मेरी भक्ति मेरी त्रुटीयों की पूर्ति नहीं कर सकतीघ् जहाँगीर—जैसा आत्म—सेवीए मंद बुध्दि पुरुष अगर नूरजहाँ को प्रसन्न रख सकता हैए तो क्या मैं अपने आत्मसमर्पण सेए अपने अनुराग से उसे संतुष्ट नहीं कर सकताघ् कहीं वह मेरी शिथिलता से अप्रसन्न होकर मुझसे सदा के लिए विरक्त न हो जाए! यदि मेरे सेवा—व्रतए मातृभक्ति और संकोच का यह परिणाम हुआए तो यह जीवन दुस्सह हो जाएगा।

आह! कितना अनुपम सौंदर्य है! उच्च शिक्षा और विचार से मुख पर कैसी आधयात्मिक गम्भीरता आ गई है! मालूम होता हैए कोई देवी इंद्रलोक से उतर आई हैए मानो बहिर्जगत्‌ से उसका कोई सम्बंधा ही नहींए अंतर्जगत्‌ ही में विचरती है। विचारशीलता स्वाभाविक सौंदर्य को कितना मधुर बना देती है! विचारोत्कर्ष ही सौंदर्य का वास्तविक शृंगार है। वस्त्रााभूषणों से तो उसकी प्राकृतिक शोभा ही नष्ट हो जाती हैए वह कृत्रिाम और वासनामय हो जाता है। टनसहंत शब्द ही इस आशय को व्यक्त कर सकता है। हास्य और मुस्कान में जो अंतर हैए धूप और चाँदनी में जो अंतर हैए संगीत और काव्य में जो अंतर हैए वही अंतर अलंकृत और परिष्कृत सौंदर्य में है। उसकी मुस्कान कितनी मनोहर हैए जैसे बसंत की शीतल वायुए या किसी कवि की अछूती सूझ। यहाँ किसी रूपमयी सुंदरी से बातें करने लगेए तो चित्ता मलिन हो जाता है या तो शीन—काफ ठीक नहींए या लिंग—भेद का ज्ञान नहीं। सोफी के लिए व्रतए नियमए सिध्दांत की उपेक्षा करना क्षम्य ही नहींए श्रेयस्कर भी है। यह मेरे लिए जीवन और मरण का प्रश्न है। उसके बगैर मेरा जीवन एक सूखे वृक्ष की भाँति होगाए जिसे जल की अविरत वर्षा भी पल्लवित नहीं कर सकती। मेरे जीवन की उपयोगिताए सार्थकता ही लुप्त हो जाएगी। जीवन रहेगाए पर आनंद—विहीनए प्रेम—विहीनए उद्देश्य—विहीन!

विनय इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि दारोगाजी आकर बैठ गए और बोले—मालूम होता हैए अब यह बला सिर से जल्द ही टलेगी। एजेंट साहब यहाँ से कूच करनेवाले हैं। सरदार साहब ने शहर में डौंड़ी फिरवा दी है कि अब किसी को कस्बे से बाहर जाने की जरूरत नहीं। मालूम होता हैए मेम साहब ने यह हुक्म दिया है।

विनय—मेम साहब बड़ी विचारशील महिला हैं।

दारोगा—यह बहुत ही अच्छा हुआए नहीं तो अवश्य उपद्रव हो जाता और सैकड़ों जानें जातीं। जैसा तुमने कहाए मेम साहब बड़ी विचारशील हैंयहालांकि उम्र अभी कुछ नहीं।

विनय—आपको खूब मालूम है कि वह कल यहाँ से चली जाएँगीघ्

दारोगा—हाँए और क्या सुनी—सुनाई कहता हूँघ् हाकिमों की बातों की घंटे—घंटे टोह लगती है। रसद और बेगारए जो एक सप्ताह के लिए ली जानेवाली थीए बंद कर दी गई है।

विनय—यहाँ फिर न आएँगीघ्

दारोगा—तुम तो इतने अधाीर हो रहे होए मानो उन पर आसक्त हो।

विनय ने लज्जित होकर कहा—मुझसे उन्होंने कहा था कि कल तुम्हें देखने आऊँगी।

दारोगा—कह दिया होगाए पर अब उनकी तैयारी है। यहाँ तो खुश हैं कि बेदाग बच गएए नहीं तो और सभी जगह जेलरों पर जुरमाने किए हैं।

दारोगाजी चले गएए तो विनय सोचने लगा—सोफिया ने कल आने का वादा किया था। क्या अपना वादा भूल गईघ् अब न आएगीघ् यदि एक बार आ जातीए तो मैं उसके पैरों पर गिरकर कहताए सोफीए मैं अपने होश में नहीं हूँ। देवी अपने उपासक से इसलिए तो अप्रसन्न नहीं होती कि वह उसके चरणों को स्पर्श करते हुए भी झिझकता है। यह तो उपासक की अश्रध्दा का नहींए असीम श्रध्दा का चिद्द है।

ज्यों—ज्यों दिन गुजरता थाए विनय की व्यग्रता बढ़़ती जाती थी। मगर अपने मन की व्यथा किससे कहे। उसने सोचा—रात को यहाँ से किसी तरह भागकर सोफी के पास जा पहुँचूँ। हा दुर्दैवए वह मेरी मुक्ति का आज्ञा—पत्रा तक लाई थीए उस वक्त मेरे सिर पर न जाने कौन—सा भूत सवार था।

सूर्यास्त हो रहा था। विनय सिर झुकाए दफ्तर के सामने टहल रहा था। सहसा उसे धयान आया—क्यों न फिर बेहोशी का बहाना करके गिर पड़ूँ। यहाँ सब लोग घबरा जाएँगे और जरूर सोफी को मेरी खबर मिल जाएगी। अगर उसकी मोटर तैयार होगीए तो एक बार मुझे देखने आ जाएगी। पर यहाँ तो स्वाँग भरना भी नहीं आता। अपने ऊपर खुद ही हँसी आ जाएगी। कहीं हँसी रुक न सकीए तो भद्द हो जाएगी। लोग समझ जाएँगेए बना हुआ है। काशए इतना मूसलाधार पानी बरस जाता कि वह घर के बाहर निकल ही न सकती। पर कदाचित इंद्र को भी मुझसे बैर हैए आकाश पर बादल का कहीं नाम नहींए मानो किसी हत्यारे का दयाहीन हृदय हो। क्लार्क ही को कुछ हो जाताए तो आज उसका जाना रुक जाता।

जब ऍंधोरा हो गयाए तो उसे सोफी पर क्रोधा आने लगा—जब आज ही यहाँ से जाना थाए तो उसने मुझसे कल आने का वादा ही क्यों कियाए मुझसे जान—बूझकर झूठ क्यों बोलीघ् क्या अब कभी मुलाकात ही न होगीय तब पूछूँगा। उसे खुद समझ जाना चाहिए था कि यह इस वक्त अस्थिर चित्ता हो रहा है। उससे मेरे चित्ता की दशा छिपी नहीं है। वह उस अंतर्द्‌वंद्व को जानती हैए जो मेरे हृदय में इतना भीषण रूप धारण किए हुए है। एक ओर प्रेम और श्रध्दा हैए तो दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञाए माता की अप्रसन्नता का भय और लोक—निंदा की लज्जा। इतने विरुध्द भावों के समागम से यदि कोई अनर्गल बातें करने लगेए तो इसमें आश्चर्य ही क्या। उसे इस दशा में मुझसे खिन्न न होना चाहिए था। अपनी प्रेममय सहानुभूति से मेरी हृदयाग्नि को शांत करना चाहिए था। अगर उसकी यही इच्छा है कि मैं इसी दशा में घुल—घुलकर मर जाऊँए तो यही सही। यह हृदय—दाह जीवन के साथ ही शांत होगा। आह! ये दो दिन कितने आनंद के दिन थे! रात हो रही हैए फिर उसी ऍंधोरीए दुगर्ंधामय कोठरी में बंद कर दिया जाऊँगाए कौन पूछेगा कि मरते हो या जीते। इस अंधाकार में दीपक की ज्योति दिखाई भी दीए तो जब तक वहाँ पहुँचूँए नजरों से ओझल हो गई।

इतने में दारोगाजी फिर आए। पर अब की वह अकेले न थेए उनके साथ एक पंडितजी भी थे। विनयसिंह को ख्याल आया कि मैंने इन पंडितजी को कहीं देखा हैय पर याद न आता थाए कहाँ देखा है। दारोगाजी देर तक खड़े पंडितजी से बातें करते रहे। विनयसिंह से कोई न बोला। विनय ने समझाए मुझे धोखा हुआए कोई और आदमी होगा। रात को सब कैदी खा—पीकर लेटे। चारों ओर के द्वार बंद कर दिए गए। विनय थराथरा रहा था कि मुझे भी अपनी कोठरी में जाना पड़ेगाय पर न जाने क्योंए उसे वहीं पड़ा रहने दिया गया।

रोशनी गुल कर दी गई। चारों ओर सन्नाटा छा गया। विनय उसी उद्विग्न दशा में खड़ा सोच रहा थाए कैसे यहाँ से निकलूँ। जानता था कि चारों तरफ से द्वार बंद हैंए न रस्सी हैए न कोई यंत्राए न कोई सहायकए न कोई मित्रा। तिस पर भी यह प्रतीक्षा भाव से द्वार पर खड़ा था कि शायद कोई हिकमत सूझ जाए। निराशा में प्रतीक्षा अंधो की लाठी है।

सहसा सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। विनय ने समझाए कोई चौकीदार होगा। डरा कि मुझे यहाँ खड़ा देखकर कहीं उसके दिल में संदेह न हो जाए। धाीरे—से कमरे की ओर चला। इतना भीरु वह कभी न हुआ था। तोप के सामने खड़ा सिपाही भी बिच्छू को देखकर सशंक हो जाता है।

विनय कमरे में गए ही थे कि पीछे से वह आदमी भी अंदर आ पहुँचा। विनय ने चौंककर पूछा—कौनघ्

नायकराम बोले—आपका गुलाम हूँए नायकराम पंडा!

विनय—तम यहाँ कहाँघ् अब याद आयाए आज तुम्हीं तो दारोगा के साथ पगड़ी बाँधो खड़े थेघ् ऐसी सूरत बना ली थी कि पहचान ही में न आते थे। तुम यहाँ कैसे आ गएघ्

नायकराम—आप ही के पास तो आया हूँ।

विनय—झूठे हो। यहाँ कोई यजमानी है क्याघ्

नायकराम—जजमान कैसेए यहाँ तो मालिक ही हैं।

विनय—कब आएए कबघ् वहाँ तो सब कुशल हैघ्

नायकराम—हाँए सब कुशल ही है। कुँवर साहब ने जब से आपका हाल सुना हैए बहुत घबराए हुए हैंए रानीजी बीमार हैं।

विनय—अम्माँजी कब से बीमार हैंघ्

नायकराम—कोई एक महीना होने आता है। बसए घुली जाती हैं। न कुछ खाती हैंए न पीती हैंए न किसी से बोलती हैं। न जाने कौन रोग है कि किसी बैदए हकीमए डॉक्टर की समझ ही में नहीं आता। दूर—दूर के डॉक्टर बुलाए गए हैंए पर मरज की थाह किसी को नहीं मिलती। कोई कुछ बताता हैए कोई कुछ। कलकत्तो से कोई कविराज आए हैंए वह कहते हैंए अब यह बच नहीं सकतीं। ऐसी घुल गई हैं कि देखते डर लगता है। मुझे देखाए तो धाीरे से बोलीं—पंडाजीए अब डेरा कूच है। अब मैं खड़ा—खड़ा रोता रहा।

विनय ने सिसकते हुए कहा—हाय ईश्वर! मुझे माता के चरणों के दर्शन भी न होंगे क्या।

नायकराम—मैंने जब बहुत पूछाए सरकार किसी को देखना चाहती हैंए तो अॉंखों में अॉंसू भरकर बोलींए एक बार विनय को देखना चाहती हूँए पर भाग्य में देखना बदा नहीं हैए न जाने उसका क्या हाल होगा।

विनय इतना रोये कि हिचकियाँ बँधा गईं। जब जरा आवाज काबू में हुईए तो बोले—अम्माँजी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा था। अब चित्ता व्याकुल हो रहा है। कैसे उनके दर्शन पाऊँगाघ् भगवान्‌ न जाने किन पापों का यह दंड मुझे दे रहे हैं।

नायकराम—मैंने पूछाए हुक्म होए तो जाकर उन्हें लिवा लाऊँघ् इतना सुना था कि वह जल्दी से उठकर बैठ गईं और मेरा हाथ पकड़कर बोलीं—तुम उसे लिवा लाओगेघ् नहींए वह न आएगाए वह मुझसे रूठा हुआ है। कभी न आएगा। उसे साथ लाओए तो तुम्हारा बड़ा उपकार होगा। इतना सुनते ही मैं वहाँ से चल खड़ा हुआ। अब विलम्ब न कीजिएए कहीं ऐसा न हो कि माता की लालसा मन ही में रह जाएए नहीं तो आपको जनम—भर पछताना पडेगा।

विनय—कैसे चलूँगा।

नायकराम—इसकी चिंता मत कीजिएए ले तो मैं चलूँगा। जब यहाँ तक आ गयाए तो यहाँ से निकलना क्या मुसकिल है।

विनय कुछ सोचकर बोले—पंडाजीए मैं तो चलने को तैयार हूँय पर भय यही है कि कहीं अम्माँजी नाराज न हो जाएँए तुम उनके स्वभाव को नहीं जानते।

नायकराम—भैयाए इसका कोई भय नहीं है। उन्होंने तो कहा है कि जैसे बनेए वैसे लाओ। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि माफी माँगनी पड़ेए तो इस औसर पर माँग लेनी चाहिए।

विनय—तो चलोए कैसे चलते होघ्

नायकराम—दिवाल फांदकर निकल जाएँगेए यह कौन मुसकिल है!

विनयसिंह को शंका हुई कि कहीं किसी की निगाह पड़ गईए तो! सोफी यह सुनेगीए तो क्या कहेगीघ् सब अधिकारी मुझ पर तालियाँ बजाएँगे। सोफी सोचेगीए बडे सत्यवादी बनते थेए अब वह सत्यवादिता कहाँ गई! किसी तरह सोफी को यह खबर दी जा सकतीए तो वह अवश्य आज्ञा—पत्रा भेज देतीय पर यह बात नायकराम से कैसे कहूँ।

विनय—पकड़े गएए तो!

नायकराम—पकड़ेगा कौनघ् यहाँ कच्ची गोली नहीं खेले हैं। सब आदमियों को पहले ही से गाँठ रखा है।

विनय—खूब सोच लो। पकड़े गएए तो फिर किसी तरह न छुटकारा न होगा।

नायकराम—पकड़े जाने का तो नाम ही न लो। यह देखोए सामने कई ईंटें दिवाल से मिलाकर रखी हुई हैं। मैंने पहले ही से यह इंतजाम कर लिया है। मैं ईंटों पर खड़ा हो जाऊँगा। आप मेरे कंधो पर चढ़़कर इस रस्सी को लिए हुए दिवाल पर चढ़़ जाइएगा। रस्सी उस तरफ फेंक दीजिएगा। मैं इसे इधार मजबूत पकड़े रहूँगाए आप उधार धाीरे से उतर जाइएगा। फिर वहाँ आप रस्सी को मजबूत पकड़े रहिएगाए मैं भी इधार से चला आऊँगा। रस्सी बड़ी मजबूत हैए टूट नहीं सकती। मगर हाँए छोड़ न दीजिएगाए नहीं तो मेरी हड्डी—पसली टूट जाएगी।

यह कहकर नायकराम रस्सी का पुलिंदा लिए हुए ईंटों के पास जाकर खड़े हो गए। विनय भी धाीरे—धाीरे चले। सहसा किसी चीज के खटकने की आवाज आई। विनय ने चौंककर कहा—भाईए मैं न जाऊँगा। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। माताजी के दर्शन करना मेरे भाग्य में नहीं है।

नायकराम—घबराइए मतए कुछ नहीं है।

विनय—मेरे तो पैर थरथरा रहे हैं।

नायकराम—तो इसी जीवट पर चले थे साँप के मुँह में उँगली डालनेघ् जोखिम के समय पद—सम्मान का विचार नहीं रहता।

विनय—तुम मुझे जरूर फँसाओगे।

नायकराम—मरद होकर फँसने से इतना डरते हो! फँस ही गएए तो कौन चूड़ियाँ मैली हो जाएँगी! दुसमन की कैद से भागना लज्जा की बात नहीं।

यह कहकर वह ईंटों पर खड़ा हो गया और विनय से बोला—मेरे कंधो पर आ जाओ।

विनय—कहीं तुम गिर पडेए तोघ्

नायकराम—तुम्हारे जैसे पाँच सवार हो जाएँए तो लेकर दौड़ईँ। धारम की कमाई में बल होता है।

यह कहकर उसने विनय का हाथ पकड़कर उसे अपने कंधो पर ऐसी आसानी से उठा लियाए मानो कोई बच्चा है।

विनय—कोई आ रहा है।

नायक—आने दो। यह रस्सी कमर में बाँधा लो और दिवाल पकड़कर चढ़़ जाओ।

अब विनय ने हिम्मत मजबूत की। यही निश्चयात्मक अवसर था। सिर्फ एक छलाँग की जरूरत थी। ऊपर पहुँच गएए तो बेड़ा पार हैय न पहुँच सके तो अपमानए लज्जाए दंड सब कुछ है। ऊपर स्वर्ग हैए नीचे नरकय ऊपर मोक्ष हैए नीचे माया—जाल। दीवार पर चढ़़ने में हाथों के सिवा और किसी चीज से मदद न मिल सकती थी। विनय दुर्बल होने पर भी मजबूत आदमी थे। छलाँग मारी और बेड़ा पार हो गयाय दीवार पर जा पहुँचे और रस्सी पकड़कर नीचे उतर पड़े। दुर्भाग्य—वश पीछे दीवार से मिली हुई गहरी खाई थीए जिसमें बरसात का पानी भरा हुआ था। विनय ने ज्यों ही रस्सी छोड़ीए गर्दन तक पानी में डूब गए और बड़ी मुश्किल से बाहर निकले। तब रस्सी पकड़कर नायकराम को इशारा किया। वह मँजा हुआ खिलाड़ी था। एक क्षण में नीचे आ पहुँचा। ऐसा जान पड़ता था कि वह दीवार पर बैठा थाए केवल उतरने की देर थी।

विनय—देखनाए खाई है।

नायकराम—पहले ही देख चुका हूँ। तुमसे बताने की याद ही न रही।

विनय—तुम इस काम में निपुण हो। मैं कभी न निकल सकता। किधार चलोगेघ्

नायकराम—सबसे पहले तो देवी के मंदिर चलूँगाए वहाँ से फिर मोटर पर बैठकर इसटेसन की ओर। ईश्वर ने चाहाए तो आज के तीसरे दिन घर पहुँच जाएँगे। देवी सहाय न होतींए तो इतनी जल्दी और इतनी आसानी से यह काम न होता। उन्होंने यह संकट हरा। उन्हें अपना खून चढ़़ाऊँगा।

अब दोनों आजाद थे। विनय को ऐसा मालूम हो रहा था कि मेरे पाँव आप—ही—आप उठे जाते हैं। वे इतने हलके हो गए थे। जरा देर में दोनों आदमी सड़क पर आ गए।

विनय—सबेरा होते ही दौड़—धूप शुरू हो जाएगी।

नायकराम—तब तक हम लोग यहाँ से सौ कोस पर होंगे।

विनय—घर से भी तो वारंट द्वारा पकड़ मँगा सकते हैं।

नायकराम—वहाँ की चिंता मत करो। वह अपना राज है।

आज सड़क पर बड़ी हलचल थी। सैकड़ों आदमी लालटेनें लिए कस्बे में छावनी की तरफ जा रहे थे। एक गोल इधार से आता थाए दूसरा उधार से। प्रायरू लोगों के हाथों में लाठियाँ थीं। विनयसिंह को कुतूहल हुआए आज यह भीड़—भीड़ कैसी! लोगों पर वह निरूस्तब्धा तत्परता छाई थीए जो किसी भयंकर उद्वेग की सूचक होती है। किंतु किसी से कुछ पूछ न सकते थे कि कहीं वह पहचान न जाए।

नायकराम—देवी के मंदिर तक तो पैदल ही चलना पड़ेगा।

विनय—पहले इन आदमियों से तो पूछोए कहाँ दौड़े जा रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई।

नायकराम—होगीए हमें इन बातों से क्या मतलबघ् चलोए अपनी राह चलें।

विनय—नहीं—नहींए जरा पूछो तो क्या बात हैघ्

नायकराम ने एक आदमी से पूछाए तो ज्ञात हुआ कि नौ बजे के समय एजेंट साहब अपनी मेम साहब के साथ मोटर पर बैठे हुए बाजार की तरफ से निकले। मोटर बड़ी तेजी से जा रही थी। चौराहे पर पहुँचीए तो एक आदमीए जो बाईं ओर से आ रहा थाए मोटर से नीचे दब गया। साहब ने आदमी को दबते हुए देखाय पर मोटर को रोका नहीं। यहाँ तक कि कई आदमी मोटर के पीछे दौड़े। बाजार के इस सिरे तक आते—आते मोटर को बहुत—से आदमियों ने घेर लिया। साहब ने आदमियों को डाँटा कि अभी हट जाओ। जब लोग न हटेए तो उन्होंने पिस्तौल चला दी। एक आदमी तुरंत गिर पड़ा। अब लोग क्रोधोन्माद की दशा में साहब के बँगले पर जा रहे थे।

विनय ने पूछा—वहाँ जाने की क्या जरूरत हैघ्

एक आदमी—जो कुछ होना हैए वह हो जाएगा। यही न होगाए मारे जाएँगे। मारे तो यों ही जा रहे हैं। एक दिन तो मरना है ही। दस—पाँच आदमी मर गएए तो कौन संसार सूना हो जाएगाघ्

विनय के होश उड़ गए। यकीन हो गया कि आज कोई उपद्रव अवश्य होगा। बिगड़ी हुई जनता वह जल—प्रवाह हैए जो किसी के रोके नहीं रुकता। ये लोग झल्लाए हुए हैं। इस दशा में इनसे धौर्य और क्षमा की बातें करना व्यर्थ है। कहीं ऐसा न हो कि ये लोग बँगले को घेर लें। सोफिया भी वहीं है। कहीं उस पर आघात कर बैठे। दुरावेश में सौजन्य का नाश हो जाता है। नायकराम से बोले—पंडाजीए जरा बँगले तक होते चलें।

नायकराम—किसके बँगले तकघ्

विनय—पोलिटीकल एजेंट के।

नायकराम—उनके बँगले पर जाकर क्या कीजिएगाघ् क्या अभी तक परोपकार से जी नहीं भराघ् ये जानेंए वह जानेंए हमसे—आपसे मतलबघ्

विनय—नहीं मौका नाजुक हैए वहाँ जाना जरूरी है।

नायकराम—नाहक अपनी जान के दुसमन हुए हो। वहाँ कुछ दंगा हो जाएए तो! मरद हैं हीए चुपचाप खड़े मुँह तो देखा न जाएगा। दो—चार हाथ इधार या उधार चला ही देंगे। बसए धार—पकड़ हो जाएगी। इससे क्या फायदाघ्

विनय—कुछ भी होए मैं यहाँ यह हंगामा होते देखकर स्टेशन नहीं जा सकता।

नायकराम—रानीजी तिल—तिल पर पूछती होंगी।

विनय—तो यहाँ कौन हमें दो—चार दिन लग जाते हैं। तुम यहीं ठहरोए मैं अभी आता हूँ।

नायकराम—जब तुम्हें कोई भय नहीं हैए तो यहाँ कौन रोनेवाला बैठा हुआ है। मैं आगे—आगे चलता हूँ। देखनाए साथ न छोड़ना। यह ले लोए जोखिम का मामला है। मेरे लिए यह लकड़ी काफी है।

यह कहकर नायकराम ने एक दो नलीवाली पिस्तौल कमर से निकालकर विनय के हाथ में रख दी। विनय पिस्तौल लिए हुए आगे बढ़़ा। जब राजभवन के निकट पहुँचेए तो इतनी भीड़ देखी कि एक—एक कदम चलना मुश्किल हो गयाए और भवन से एक गोली के टप्पे पर तो उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा। सिर—ही—सिर दिखाई देते थे। राजभवन के सामने एक बिजली की लालटेन जल रही थी और उसके उज्ज्वल प्रकाश में हिलताए मचलताए रुकताए ठिठकता हुआ जन—प्रवाह इस तरह भवन की ओर चला रहा थाए मानो उसे निगल जाएगा। भवन के सामनेए इस प्रवाह को रोकने के लिएए वरदीपोश सिपाहियों की एक कतारए संगीनें चढ़़ाएए चुपचाप खड़ी थी और ऊँचे चबूतरे पर खड़ी होकर सोफी कुछ कह रही थीय पर इस हुल्लड़ में उसकी आवाज सुनाई न देती थी। ऐसा मालूम होता था कि किसी विदुषी की मूर्ति हैए जो कुछ कहने का संकेत कर रही है।

सहसा सोफिया ने दोनों हाथ ऊपर उठाए। चारों ओर सन्नाटा छा गया। सोफी ने उच्च और कम्पित स्वर में कहा—मैं अंतिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ कि यहाँ से शांति के साथ चले जाओए नहीं तो सैनिकों को विवश होकर गोली चलानी पड़ेगी एक क्षण के अंदर यह मैदान साफ हो जाना चाहिए।

वीरपालसिंह ने सामने आकर कहा—प्रजा अब ऐसे अत्याचार नहीं सह सकती।

सोफी—अगर लोग सावधानी से रास्ता चलेंए तो ऐसी दुर्घटना क्यों हो!

वीरपाल—मोटरवालों के लिए भी कोई कानून है या नहींघ्

सोफी—उनके लिए कानून बनाना तुम्हारे अधिकार में नहीं है।

वीरपाल—हम कानून नहीं बना सकतेए पर अपनी प्राण—रक्षा तो कर सकते हैंघ्

सोफी—तुम विद्रोह करना चाहते हो और उसके कुफल का भार तुम्हारे सिर पर होगा।

वीरपाल—हम विद्रोही नहीं हैंए मगर यह नहीं हो सकता कि हमारा एक भाई किसी मोटर के नीचे दब जाएए चाहे वह मोटर महारानी ही की क्यों न होए और हम मुँह न खोलें।

सोफी—वह संयोग था।

वीरपाल—सावधानी उस संयोग को टाल सकती थी। अब हम उस वक्त तक यहाँ से न जाएँगेए जब तक हमें वचन न दिया जाएगा कि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं के लिए अपराधाी को उचित दंड मिलेगाए चाहे वह कोई हो।

सोफी—संयोग के लिए कोई वचन नहीं दिया जा सकता। लेकिन...

सोफी कुछ और कहना चाहती थी कि किसी ने एक पत्थर उसकी तरफ फेंकाए जो उसके सिर में इतनी जोर से लगा कि वह वहीं सिर थामकर बैठ गई। यदि विनय तत्क्षण किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर जनता को आश्वासन देतेए तो कदाचित्‌ उपद्रव न होताए लोग शांत होकर चले जाते। सोफी का जख्मी हो जाना जनता का क्रोधा शांत करने को काफी न था। किंतु जो पत्थर सोफी के सिर में लगाए वही कई गुने आघात के साथ विनय के हृदय में लगा। उसकी अॉंखों में खून उतर आयाए आपे से बाहर हो गया। भीड़ को बलपूर्वक हटाताए आदमियों को ढ़केलताए कुचलता सोफी के बगल में जा पहुँचाए पिस्तौल कमर से निकाली और वीरपालसिंह पर गोली चला दी। फिर क्या थाए सैनिकों को मानो हुक्म मिल गयाए उन्होंने बंदूकें छोड़नी शुरू कीं। कुहराम मच गयाए लेकिन फिर भी कई मिनट तक लोग वहीं खड़े गोलियों का जवाब ईंट—पत्थर से देते रहे। दो—चार बंदूकें इधार से भी चलीं। वीरपाल बाल—बाल बच गया और विनय को निकट होने के कारण पहचानकर बोला—आप भी उन्हीं में हैंघ्

विनय—हत्यारा!

वीरपाल—परमात्मा हमसे फिर गया है।

विनय—तुम्हें एक स्त्राी पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आतीघ्

चारों तरफ से आवाजें आने लगीं—विनयसिंह हैंए यह कहाँ से आ गएए यह भी उधार मिल गएए इन्हीं ने तो पिस्तौल छोड़ी है!

श्शायद शर्त पर छोड़े गए हैं।श्

श्धान की लालसा सिर पर सवार है।श्

श्मार दो एक पत्थरए सिर फट जाएए यह भी हमारा दुश्मन है।श्

श्दगाबाज है।श्

श्इतना बड़ा आदमी और थोड़े—से धान के लिए ईमान बेच बैठा।श्

बंदूकों के सामने निहत्थे लोग कब तक ठहरते! जब कई आदमी अपने पक्ष के लगातार गिरेए तो भगदड़ गच गईय कोई इधार भागाए कोई उधार। मगर वीरपालसिंह और उसके साथ के पाँचों सवारए जिनके हाथों में बंदूकें थींए राजभवन के पीछे की ओर से विनयसिंह के सिर पर आ पहुँचे। ऍंधोरे में किसी की निगाह उन पर न पड़ी। विनय ने पीछे की तरफ घोड़ों की टाप सुनीए तो चौंकेए पिस्तौल चलाईए पर वह खाली थी।

वीरपाल ने व्यंग करके कहा—आप तो प्रजा के मित्रा बनते थेघ्

तुम जैसे हत्यारों की सहायता करना मेरा नियम नहीं है।

वीरपाल—मगर हम उससे अच्छे हैंए जो प्रजा की गरदन पर अधिकारियों से मिलकर छुरी चलाए।

विनय क्रोधावेश में बाज की तरह झपटे कि उसके हाथ से बंदूक छीन लेंए किंतु वीरपाल के एक सहयोगी ने झपटकर विनयसिंह को नीचे गिरा दियाए दूसरा साथी तलवार लेकर उसी तरफ लपका ही था कि सोफीए जो अब तक चेतना—शून्य दशा में भूमि पर पड़ी थीए चीख मारकर उठी और विनयसिंह से लिपट गई। तलवार अपने लक्ष्य पर न पहुँचकर सोफी के माथे पर पड़ी। इतने में नायकराम लाठी लिए हुए आ पहुँचा और लाठियाँ चलाने लगा। दो विद्रोही आहत होकर गिर पड़े। वीरपाल अब तक हतबुध्दि की भाँति खड़ा था। न उसे ज्ञात था कि सोफी को पत्थर किसने माराय न उसने अपने सहयोगियों ही को विनय पर आघात करने के लिए कहा था। यह सब कुछ उसकी अॉंखों के सामनेए पर उसकी इच्छा के विरुध्द हो रहा था। पर अब अपने साथियों को देखकर वह तटस्थ न रह सका। उसने बंदूक का कु़दा तौलकर इतनी जोर से नायकराम के सिर में मारा कि उसका सिर फट गया और एक पल में उसके तीनों साथी अपने आहत साथियों को लेकर भाग निकले। विनयसिंह सँभलकर उठेए तो देखा कि बगल में नायकराम खून से तर अचेत पड़ा है और सोफी का कहीं पता नहीं। उसे कौन ले गयाए क्यों ले गयाए कैसे ले गयाए इसकी उन्हें खबर न थी।

मैदान में एक आदमी भी न था। दो—चार लाशें अलबत्ताा इधार—उधार पड़ी हुई थीं।

मिस्टर क्लार्क कहाँ थेघ् तूफान उठा और गयाए आग लगी और बुझीए पर उनका कहीं पता तक नहीं। वह शराब के नशे में मस्तए दीन—दुनिया से बेखबरए अपने शयनागार में पड़े हुए थे। विद्रोहियों का शोर सुनकर सोफी भवन से बाहर निकल आई थी। मिस्टर क्लार्क को इसलिए जगाने की चेष्टा न की थी कि उनके आने से रक्तपात का भय था। उसने शांत उपायों से शांति—रक्षा करनी चाही थी कि उसी का यह फल था। वह पहले सतर्क हो जातीए तो कदाचित्‌ स्थिति इतनी भयावह न होने पाती।

विनय ने नायकराम को देखा। नाड़ी का पता न थाए अॉंखें पथरा गई थीं। चिंता शोक और पश्चात्तााप से चित्ता इतना विकल हुआ कि वह रो पड़े। चिंता थी माता कीए उसके दर्शन भी न करने पायाय शोक था सोफिया काए न जाने उसे कौन ले गयाय पश्चात्तााप था अपनी क्रोधाशीलता पर कि मैं ही इस सारे विद्रोह और रक्तपात का कारण हूँ। अगर मैंने वीरपाल पर पिस्तौल न चलाई होतीए तो यह उपद्रव शांत हो जाता।

आकाश में श्यामल घन—घटा छाई हुई थीए पर विनय के हृदयाकाश पर छाई हुई शोक—घटा उससे कहीं घनघोरए अपार और असूझ थी।

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अध्याय 29

मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश—बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थेए पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थेए उसे काबू से बाहर न होने देते थे। पर आज सोफी ने जान—बूझकर उन्हें मात्राा से अधिक पिला दी थीए बढ़़ावा देती जाती थी—वाह! इतनी हीए एक ग्लास तो और लो। अच्छाए यह मेरी खतिर सेए वाह! अभी तुमने मेरे स्वास्थ्य का प्याला तो पिया ही नहीं। सोफी ने विनय से कल मिलने का वादा किया थाए पर उनकी बातें उसे एक क्षण के लिए भी चौन न लेने देती थीं। वह सोचती थी—विनय ने आज ये नए बहाने क्यों ढ़ूँढ़़ निकालेघ् मैंने उनके लिए धार्म की भी परवा न कीए फिर भी वह मुझसे भागने की चेष्टा कर रहे हैं। अब मेरे पास और कौन—सा उपाय हैघ् क्या प्रेम का देवता इतना पाषाण हृदय हैए क्याए वह बड़ी—से—बड़ी पूजा पाकर भी प्रसन्न नहीं होताघ् माता की अप्रसन्नता का इतना भय उन्हें कभी न था। कुछ नहींए अब उनका प्रेम शिथिल हो गया है। पुरुषों का चित्ता चंचल होता हैए उसका एक और प्रमाण मिल गया। अपनी अयोग्यता का कथन उनके मुँह से कितना अस्वाभाविक मालूम होता है। वह जो इतने उदारए इतने विरक्तए इतने सत्यवादीए इतनेर् कत्ताव्यनिष्ठ हैंए मुझसे कहते हैंए मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ! हाय! वह क्या जानते हैं कि मैं उनसे कितनी भक्ति रखती हूँए मैं इस योग्य भी नहीं कि उनके चरण स्पर्श करूँ। कितनी पवित्रा आत्मा हैए कितने उज्ज्वल विचारए कितना आलौकिक आत्मोत्सर्ग! नहींए वह मुझसे दूर रहने ही के लिए ये बहाने कर रहे हैं। उन्हें भय है कि मैं उनके पैरों की जंजीर बन जाऊँगीए उन्हेंर् कत्ताव्य—मार्ग से हटा दूँगीए उनको आदर्श से विमुख कर दूँगी। मैं उनकी इस शंका का कैसे निवारण करूँघ्

दिन—भर इन्हीं विचारो में व्यग्र रहने के बाद संधया को वह इतनी व्याकुल हुई कि उसने रात ही को विनय से फिर मिलने का निश्चय किया। उसने क्लार्क को शराब पिलाकर इसीलिए अचेत कर दिया कि उसे किसी प्रकार का संदेह न हो। जेल के अधिकारियों से उसे कोई भय न था। वह इस अवसर को विनय से अनुनय—विनय करने मेंए उनके प्रेम को जगाने मेंए उनकी शंकाओं को शांत करने में लगाना चाहती थीयपर उसका यह प्रयास उसी के लिए घातक सिध्द हुआ। मिस्टर क्लार्क मौके पर पहुँच सकतेए तो शायद स्थिति इतनी भयंकर न होतीए कम—से—कम सोफी को ये दुर्दिन न देखने पड़ते। क्लार्क अपने प्राणों से उसकी रक्षा करते। सोफी ने उनसे दगा करके अपना ही सर्वनाश कर लिया था। अब वह न जाने कहाँ और किस दशा में थी। प्रायरू लोगों का विचार था कि विद्रोहियों ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को आभूषणों के लोभ से अपने साथ ले गए। केवल विनयसिंह इस विचार से सहमत न थे। उन्हें विश्वास था कि सोफी अभी जिंदा है। विद्रोहियों ने जमानत के तौर पर उसे अपने यहाँ कैद कर रखा हैए जिसमें संधि की शतरे तय करने में सुविधा हो। सोफी रियासत को दबाने के लिए उनके हाथों में एक यंत्रा के समान थी।

इस दुर्घटना से रियासत में तहलका मच गया। अधिकारी वर्ग आपसे डरते थेए प्रजा आपको। अगर रियासत के कर्मचारियों ही तक बात रहतीए तो विशेष चिंता की बात न थीए रियासत खून के बदले खून लेकर संतुष्ट हो जातीए ज्यादा—से—ज्यादा एक जगह चार का खून कर डालती। पर सोफी के बीच में पड़ जाने से समस्या जटील हो गई थीए मुआमला रियासत के अधिकार—क्षेत्रा के बाहर पहुँच गया थाए यहाँ तक कि लोगों को भय थाए रियासत पर कोई जवाल न आ जाए। इसलिए अपराधियों की पकड़—धाकड़ में असाधारण तत्परता से काम लिया जा रहा था। संदेहमात्रा में लोग फाँस दिए जाते थे और उनको कठोरतम यातनाएँ दी जाती थीं। साक्षी और प्रमाण की कोई मर्यादा न रह गई थी। इन अपराधियों के भाग्य—निर्णय के लिए एक अलग न्यायालय खोल दिया गया था। उसमें मँजे हुए प्रजा—द्रोहियों को छाँट—छाँटकर नियुक्त किया गया था। यह अदालत किसी को छोड़ना न जानती थी। किसी अभियुक्त को प्राण—दंड देने के लिए एक सिपाही की शहादत काफी थी। सरदार नीलकंठ बिना अन्न—जलए दिन—के—दिन विद्रोहियों की खोज लगाने में व्यस्त रहते थे। यहाँ तक कि हिज हाइनेस महाराजा साहब स्वयं शिमलाए दिल्ली और उदयपुर एक किए हुए थे। पुलिस—कर्मचारियों के नाम रोज ताकिदें भेजी जाती थीं। उधार शिमला से भी ताकीदों का ताँता बँधा हुआ था। ताकीदों के बाद धामकियाँ आने लगीं। उसी अनुपात में यहाँ प्रजा पर भी उत्तारोत्तार अत्याचार बढ़़ता जाता था। मि. क्लार्क को निश्चय था कि इस विद्रोह में रियासत का हाथ भी अवश्य था। अगर रियासत ने पहले ही से विद्रोहियों का जीवन कठिन कर दिया होताए तो वे कदापि इस भाँति सिर न उठा सकते। रियासत के बड़े—बड़े अधिकारी भी उनके सामने जाते काँपते थे। वह दौरे पर निकलतेए तो एक ऍंगरेजी रिसाला साथ ले लेते और इलाके—के—इलाके उजड़वा देतेए गाँव—के—गाँव तबाह करवा देतेए यहाँ तक कि स्त्रिायों पर भी अत्याचार होता। औरए सबसे अधिक खेद की बात यह थी कि रियासत और क्लार्क के इन सारे दुष्कृत्यों में विनय भी मनसा—वाचा—कर्मणा सहयोग करते थे। वास्तव में उन पर प्रमाद का रंग छाया हुआ था। सेवा और उपकार के भाव हृदय से सम्पूर्णतरू मिट गए थे। सोफी और उसके शत्रुओं का पता लगाने का उद्योगए यही एक काम उनके लिए रह गया था। मुझे दुनिया क्या कहती हैए मेरे जीवन का क्या उद्देश्य हैए माताजी का क्या हाल हुआए इन बातों की ओर अब उनका धयान ही न जाता था। अब तो वह रियासत के दाहिने हाथ बने हुए थे। अधिकारी समय—समय पर उन्हें और भी उत्तोजित करते रहते थे। विद्रोहियों के दमन में कोई पुलिस का कर्मचारीए रिसायत का कोई नौकर इतना हृदयहीनए विचारहीनए न्यायहीन न बन सकता था। उनकी राज—भक्ति का पारावार न थाए या यों कहिए कि इस समय वह रियासत के कर्णधार बन हुए थेए यहाँ तक कि सरदार नीलकंठ भी उनसे दबते थे। महाराजा साहब को उन पर इतना विश्वास हो गया था कि उनसे सलाह लिए बिना कोई काम न करते। उनके लिए आने—जाने की कोई रोक—टोक न थी। और मि. क्लार्क से तो उनकी दाँतकाटी रोटी थी। दोनों एक ही बँगले में रहते थे और अंतरंग में सरदार साहब की जगह पर विनय की नियुक्ति की चर्चा की जाने लगी थी।

प्रायरू साल—भर तक रियासत में यही आपाधापी रही। जब जसवंतनगर विद्रोहियों से पाक हो गयाए अर्थात्‌ वहाँ कोई जवान आदमी न रहाए तो विनय ने स्वयं को सोफी का सुराग लगाने के लिए कमर बाँधाी। उनकी सहायता के लिए गुप्त पुलिस के कई अनुभवी आदमी तैनात किए गए। चलने की तैयारियाँ होने लगीं। नायकराम अभी तक कमजोर थे। उनके बचने की आशा ही न रही थीय पर जिंदगी बाकी थीए बच गए। उन्होंने विनय को जाने पर तैयार देखाए तो साथ चलने को निश्चय किया। आकर बोले—भैयाए मुझे भी साथ ले चलोए मैं यहाँ अकेला न रहूँगा।

विनय—मैं कहीं परदेश थोड़े ही जाता हूँ। सातवे दिन यहाँ आया करूँगाए तुमसे मुलाकात हो जाएगी।

सरदार नीलकंठ वहीं बैठे हुए थे बोले— अभी तुम जाने के लायक नहीं हो।

नायकराम—सरदार साहबए आप भी इन्हीं की—सी कहते हैं। इनके साथ न रहूँगाए तो रानीजी को कौन मुँह दिखाऊँगा!

विनय—तुम यहाँ ज्यादा आराम से रह सकोगेए तुम्हारे ही भले की कहता हूँ।

नायकराम—सरदार साहबए अब आप ही भैया को समझाइए। आदमी एक घड़ी की नहीं चलाताए तो एक हफ्ता तो बहुत है। फिर मोरचा लेना है वीरपालसिंह सेए जिसका लोहा मैं भी मानता हूँ। मेरी कई लाठियाँ उसने ऐसी रोक लीं कि एक भी पड़ जातीए तो काम तमाम हो जाता। पक्का फेकैत। क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी हैघ्

नीलकंठ—हाँए वीरपाल है तो एक शैतान। न जाने कबए किधार सेए कितने आदमियों के साथ टूट पड़े। उसके गोइंदे सारी रियासत में फैले हुए हैं।

नायकराम—तो ऐसे जोखिम में कैसे इनका साथ छोड़ दूँघ् मालिक की चाकरी में जान भी निकल जाएए तो क्या गम हैए और यह जिंदगानी किसलिए!

विनय—भाईय बात यह है कि मैं अपने साथ किसी गैर की जान जोखिम में नहीं डालना चाहता।

नायकराम—हाँए अब आप मुझे गैर समझते हैंए तो दूसरी बात है। हाँए गैर तो हूँ हीय गैर न होताए तो रानीजी के इशारे पर कैसे यहाँ दौड़ा आताए जेल में जाकर कैसे बाहर निकाल लाता और साल—भर तक खाट क्यों सेताघ् सरदार साहबए हुजूर ही अब इंसाफ कीजिए। मैं गैर हूँघ् जिसके लिए जान हथेली पर लिए फिरता हूँए वही गैर समझता है।

नीलकंठ—विनयसिंहए यह आपका अन्याय है। आप इन्हें गैर क्यों कहते हैंघ् अपने हितैषियों को गैर कहने से उन्हें दुरूख होता है।

नायकराम— बसए सरदार साहबए हुजूर ने लाख रुपये की बात कह दी। पुलिस के आदमी गैर नहीं हैं और मैं गैर हूँ!

विनय—अगर गैर कहने से तुम्हें दुरूख होता हैए तो मैं यह शब्द वापस लेता हूँ! मैंने गैर केवल इस विचार से कहा था कि तुम्हारे सम्बंधा में मुझे घरवालों को जवाब देना पडेगा। पुलिसवालों के लिए तो मुझसे कोई जवाब न माँगेगा।

नायकराम—सरदार साहबए अब आप ही इसका जवाब दीजिए। यह मैं कैसे कहूँ कि मुझसे कुछ हो गयाए तो कुँवर साहब कुछ पूछ—ताछ न करेंगेए उनका भेजा हुआ आया ही हूँ। भैया को जवाबदेही तो जरूर करनी पड़ेगी।

नीलकंठ—यह माना कि तुम उनके भेजे हुए आए होय मगर तुम इतने अबोधा नहीं हो कि तुम्हारी हानि—लाभ की जिम्मेदारी विनयसिंह के सिर हो। तुम अपना अच्छा—बुरा आप सोच सकते हो। क्या कुँवर साहब इतना भी न समझेंगेघ्

नायकराम—अब कहिए धार्मावतारए अब तो मुझे ले चलना पड़ेगाए सरदार साहब ने मेरी डिग्री कर दी। मैं कोई नाबालिग नहीं हूँ कि सरकार के सामने आपको जवाब देना पड़े।

अंत में विनय ने नायकराम को साथ ले चलना स्वीकार किया और दो—तीन दिन पश्चात्‌ दस आदमियों की एक टोलीए भेष बदलकरए सब तरह लैस होकरए टोहिए कुत्ताों के साथ लिएए दुर्गम पर्वतों में दाखिल हुई। पहाड़ोेंं से आग निकल रही थी। बहुधा कोसों तक पानी की एक बूँद भी न मिलतीय रास्ते पथरीलेए वृक्षों का पता नहीं। दोपहर को लोग गुफाओं में विश्राम करते थेए रात को बस्ती से अलग किसी चौपाल या मंदिर में पड़े रहते। दो—दो आदमियों का संग था। चौबीस घंटो में एक बार सब आदमियों को एक स्थान पर जमा होना पड़ता था। दूसरे दिन का कार्यक्रम निश्चय करके लोग फिर अलग—अलग हो जाते थे। नायकराम और विनयसिंह की एक जोड़ी थी। नायकराम अभी तक चलने—फिरने में कमजोर थाए पहाडो की चढ़़ाई में थककर बैठ जाताए भोजन की मात्राा भी बहुत कम हो गई थीए दुर्बल इतना हो गया था कि पहचानना कठिन था। किंतु विनयसिंह पर प्राणों को न्योछावर करने को तैयार रहता था। यह जानता था कि ग्रामीणों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिएए विविधा स्वभाव और श्रेणी के मनुष्यों से परिचित था। जिस गाँव में पहुँचताए धूम मच जाती कि काशी के पंडाजी पधारे हैं। भक्तजन जमा हो जातेए नाई—कहार आ पहुँचतेए दूधा—घीए फल—फूलए शाक—भाजी आदि की रेल—पेल हो जाती। किसी मंदिर के चबूतरे पर खाट पड़ जातीए बाल—वृध्दए नर—नारी बेधाड़क पंडाजी के पास आते और यथाशक्ति दक्षिणा देते। पंडाजी बातों—बातों में उनसे गाँव का समाचार पूछ लेते। विनयसिंह को अब ज्ञात हुआ कि नायकराम साथ न होतेए तो मुझे कितने कष्ट झेलने पड़ते। वह स्वभाव से मितभाषीए संकोचशीलए गम्भीर आदमी थे। उनमें वह शासन—बुध्दि न थीए जो जनता पर आतंक जमा लेती हैए न वह मधुर वाणीए जो मन को मोहती है। ऐसी दशा में नायकराम का संग उनके लिए दैवी सहायता से कम न था।

रास्ते में कभी—कभी हिंसक जंतुओं से मुठभेड़ हो जाती। ऐसे अवसरों पर नायकराम सीनासिपर हो जाता था। एक दिन चलते—चलते दोपहर हो गया। दूर तक आबादी का कोई निशान न था। धूप की प्रखरता से एक—एक पग चलना मुश्किल था। कोई कुअॉं या तालाब भी नजर न आता था। सहसा एक ऊँचा टीकरा दिखाई दिया। नायकराम उस पर चढ़़ गया कि शायद ऊपर से कोई गाँव या कुअॉं दिखाई दे। उसने शिखर पर पहुँचकर इधार—उधार निगाह दौड़ाईए तो दूर पर एक आदमी जाता हुआ दिखाई दिया। उसके हाथ में एक लकड़ी और पीठ पर एक थैली थी। कोई बिना वर्दी का सिपाही मालूम होता था। नायकराम ने उसे कोई बार जोर—जोर से पुकाराए तो उसने गर्दन फेरकर देखा। नायकराम उसे पहचान गए। यह विनयसिंह के साथ का एक स्वयंसेवक था। उसे इशारे से बुलाया और टीले से उतरकर उसके पास आए। इस सेवक का नाम इंद्रदत्ता था।

इंद्रदत्ता ने पूछा—तुम यहाँ कैसे आ फँसे जीघ् तुम्हारे कुँवर कहाँ हैंघ्

नायकराम—पहले यह बताओ कि यहाँ कोई गाँव भी हैए कहीं दाना—पानी मिल सकता हैघ्

इंद्रदत्ता—जिसके राम धानीए उसे कौन कमी! क्या राजदरबार ने भोजन की रसद नहीं लगाईघ् तेली से ब्याह करके तेल का रोना!

नायकराम—क्या करूँए बुरा फँस गया हूँए न रहते बनता हैए न जाते।

इंद्रदत्ता—उनके साथ तुम भी अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो। कहाँ हैं आजकलघ्

नायकराम—क्या करोगेघ्

इंद्रदत्ता—कुछ नहींए जरा मिलना चाहता था।

नायकराम—हैं तो वह भी। यहीं भेंट जो जाएगी। थैली में कुछ हैघ्

यों बातें करते हुए दोनों विनयसिंह के पास पहुँचे। विनय ने इंद्रदत्ता को देखाए तो शत्रु—भाव से बोला—इंद्रदत्ताए तुम कहाँघ् घर क्यों नहीं गएघ्

इंद्रदत्ता—आपसे मिलने की बड़ी आकांक्षा थी। आपसे कितनी ही बातें करनी हैं। पहले यह बतलाइए कि आपने यह चोला क्यों बदलाघ्

नायकराम—पहले तुम अपनी थैली में से कुछ निकालोए फिर बातें होंगी।

विनयसिंह अपनी कायापलट का समर्थन करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बोले—इसलिए कि मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। मैं पहले समझता था कि प्रजा बड़ी सहनशील और शांतिप्रिय है। अब ज्ञात हुआ कि वह नीच और कुटील है। उसे ज्यों ही अपनी शक्ति का कुछ ज्ञान हो जाता हैए वह उसका दुरुपयोग करने लगती है। जो प्राणी शक्ति का संचार होते ही उन्मत्ता हो जाएए उसका अशक्तए दलित रहना ही अच्छा है। गत विद्रोह इसका ज्वलंत प्रमाण है। ऐसी दशा में मैंने जो कुछ किया और कर रहा हूँए वह सर्वथा न्यायसंगत और स्वाभाविक है।

इंद्रदत्ता—क्या आपके विचार में प्रजा को चाहिए कि उस पर कितने ही अत्याचार किए जाएँए वह मुँह न खोलेघ्

विनय—हाँए वर्तमान दशा में यही उसका धार्म है।

इंद्रदत्ता—उसके नेताओं को भी यही आदर्श उसके सामने रखना चाहिएघ्

विनय—अवश्य!

इंद्रदत्ता—तो जब आपने जनता को विद्रोह के लिए तैयार देखाए तो उसके सम्मुख खड़े होकर धौर्य और शांति का उपदेश क्यों नहीं दियाघ्

विनय—व्यर्थ था। उस वक्त कोई मेरी न सुनता।

इंद्रदत्ता—अगर न सुनताए तो क्या आपका यह धार्म नहीं था कि दोनों दलों के बीच में खड़े होकर पहले खुद गोली का निशाना बनतेघ्

विनय—मैं अपने जीवन को इतना तुच्छ नहीं समझता।

इंद्रदत्ता—जो जीवन सेवा और परोपकार के लिए समर्पण हो चुका होए उसके लिए इससे उत्ताम और कौन मृत्यु हो सकती थीघ्

विनय—आग में कूदने का नाम सेवा नहीं है। उसे दमन करना ही सेवा है।

इंद्रदत्ता—अगर वह सेवा नहीं हैए तो दीन जनता कीए अपनी कामुकता पर आहुति देना भी सेवा नहीं है। बहुत सम्भव था कि सोफिया ने अपनी दलीलों से वीरपालसिंह को निरुत्तार कर दिया होता। किंतु आपने विषय के वशीभूत होकर पिस्तौल का पहला वार कियाए और इसलिए इस हत्याकांड का सारा भार आपकी ही गरदन पर है और जल्द या देर में आपको इसका प्रायश्चित्ता करना पड़ेगा। आप जानते हैंए प्रजा को आपके नाम से कितनी घृणा हैघ् अगर कोई आदमी आपको यहाँ देखकर पहचान जाएए तो उसका पहला काम यह होगा कि आपके ऊपर तीर चलाए। आपने यहाँ की जनता के साथए अपने सहयोगियों के साथए अपनी जाति के साथ और सबसे अधिक अपनी पूज्य माता के साथ जो कुटील विश्वासघात किया हैए उसका कलंक कभी आपके माथे से न मिटेगा। कदाचित्‌ रानीजी आपको देखेंए तो अपने हाथों से आपकी गरदन पर कटार चला दें। आपके जीवन से मुझे यह अनुभव हुआ कि मनुष्य का कितना नैतिक पतन हो सकता है।

विनय ने कुछ नम्र होकर कहा—इंद्रदत्ताए अगर तुम समझते हो कि मैंने स्वार्थवश अधिकारियों की सहायता कीए तो तुम मुझ पर घोर अन्याय कर रहे हो। प्रजा का साथ देने में जितनी आसानी से यश प्राप्त होता हैए उससे कहीं अधिक आसानी से अधिकारियों का साथ देने में अपयश मिलता है। यह मैं जानता था। किंतु सेवक का धार्म यश और अपयश का विचार करना नहीं हैए उसका धार्म सन्मार्ग पर चलना है। मैंने सेवा का व्रत धारण किया हैए और ईश्वर न करे कि वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँए जब मेरे सेवाभाव में स्वार्थ का समावेश हो। पर इसका आशय यह नहीं है कि मैं जनता का अनौचित्य देखकर भी उसका समर्थन करूँ। मेरा व्रत मेरे विवेक की हत्या नहीं कर सकता।

इंद्रदत्ता—कम—से—कम इतना तो आप मानते ही हैं कि स्वहित के लिए जनता का अहित न करना चाहिए।

विनय—जो प्राणी इतना न मानेए वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।

इंद्रदत्ता—क्या आपने केवल सोफिया के लिए रियासत की समस्त प्रजा को विपत्तिा में नहीं डाला और अब भी उसका सर्वनाश करने की धुन में नहीं हैंघ्

विनय—तुम मुझ पर यह मिथ्या दोषारोपण करते हो। मैं जनता के लिए सत्य से मुँह नहीं मोड़ सकता। सत्य मुझे देश और जातिए दोनों से प्रिय है। जब तक मैं समझता था कि प्रजा सत्य—पक्ष पर हैए मैं उसकी रक्षा करता था। जब मुझे विदित हुआ कि उसने सत्य से मुँह मोड़ लियाए मैंने भी उससे मुँह मोड़ लिया। मुझे रियासत के अधिकारियों से कोई आंतरिक विरोधा नहीं है। मैं वह आदमी नहीं हूँ कि हुक्काम को न्याय पर देखकर भी अनायास उनसे बैर करूँए और न मुझसे यह हो सकता है कि प्रजा का विद्रोह और दुराग्रह पर तत्पर देखकर भी उसकी हिमायत करूँ। अगर कोई आदमी मिस सोफिया की मोटर के नीचे दब गया तो यह एक आकस्मिक घटना थी। सोफिया ने जान—बूझकर तो उस पर से मोटर को चला नहीं दिया। ऐसी दशा में जनता का उस भाँति उत्तोजित हो जानाए इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि वह अधिकारियों को बलपूर्वक अपने वश में करना चाहती है। आप सोफिया के प्रति मेरे आचरण पर आक्षेप करके मुझ पर ही अन्याय नहीं कर रहे हैंए वरन्‌ अपनी आत्मा को भी कलंकित कर रहे हैं।

इंद्रदत्ता—ये हजारों आदमी निरपराधा क्यों मारे गएघ् क्या यह भी प्रजा ही का कसूर थाघ्

विनय—यदि आपको अधिकारियों की कठिनाइयों का कुछ अनुभव होताए तो आप मुझसे कदापि यह प्रश्न न करते। इसके लिए आप क्षमा के पात्रा हैं। साल—भर पहले जब अधिकारियों से मेरा कोई सम्बंधा न थाए कदाचित्‌ मैं भी ऐसा ही समझता था। किंतु अब मुझे अनुभव हुआ कि उन्हें ऐसे अवसरों पर न्याय का पालन करने में कितनी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है। मैं यह स्वीकार नहीं करता कि अधिकार पाते ही मनुष्य का रूपांतर हो जाता है। मनुष्य स्वभावतरू न्याय—प्रिय होता है। उसे किसी को बरबस कष्ट देने से आनंद नहीं मिलताए बल्कि उतना ही दुरूख और क्षोभ होता हैए जितना किसी प्रजासेवक हो। अंतर केवल इतना ही है कि प्रजासेवक किसी दूसरे पर दोषारोपण करके अपने को संतुष्ट कर लेता हैए यहीं उसकेर् कत्ताव्य की इतिश्री हो जाती हैय अधिकारियों को यह अवसर प्राप्त नहीं होता। वे आप अपने आचरण की सफाई नहीं पेश कर सकते। आपको खबर नहीं कि हुक्काम ने अपराधियों को खोज निकालने में कितनी दिक्कतें उठाईं। प्रजा अपराधियों को छिपा लेती थी और राजनीति के किसी सिध्दांत का उस पर कोई असर न होता था। अतएव अपराधियों के साथ निरपराधियों का फँस जाना सम्भव ही था। फिर आपको मालूम नहीं है कि इस विद्रोह ने रियासत को कितने महान्‌ संकट में डाल दिया है। ऍंगरेजी सरकार को संदेह है कि दरबार ने ही यह सारा षडयंत्रा रचा था। अब दरबार कार् कत्ताव्य है कि वह अपने को इस आक्षेप से मुक्त करेए और जब तक मिस सोफिया का सुराग नहीं मिल जाताए रियासत की स्थिति अत्यंत चिंतामय है। भारतीय होने के नाते मेरा धार्म है कि रियासत के मुख पर से कालिमा को मिटा दूँय चाहे इसके लिए मुझे कितना ही अपमानए कितना ही लांछनए कितना ही कटु वचन क्यों न सहना पड़ेए चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएँ। जाति—सेवक की अवस्था कोई स्थायी रूप नहीं रखतीए परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कल मैं रियासत का जानी दुश्मन थाए आज उसका अनन्य भक्त हूँ और इसके लिए मुझे लेशमात्रा भी लज्जा नहीं।

इंद्रदत्ता—ईश्वर ने आपको तर्क बुध्दि दी है और उससे आप दिन को रात सिध्द कर सकते हैंय किंतु आपकी कोई उक्ति प्रजा के दिल से इस खयाल को नहीं दूर कर सकती कि आपने उसके साथ दगा दी और इस विश्वासघात की जो यंत्राणा आपको सोफिया के हाथों मिलेगीए उससे आपकी अॉंखें खुल जाएँगी।

विनय ने इस भाँति लपककर इंद्रदत्ता का हाथ पकड़ लियाए मानो वह भागा जा रहा हो और बोले—तुम्हें सोफिया का पता मालूम हैघ्

इंद्रदत्ता—नहीं।

विनय—झूठ बोलते हो!

इंद्रदत्ता—हो सकता है।

विनय—तुम्हें बताना पड़ेगा।

इंदद्रत्ता—आपको अब मुझसे यह पूछने का अधिकार नहीं रहा। आपका या दरबार का मतलब पूरा करने के लिए मैं दूसरों की जान संकट में नहीं डालना चाहता। आपने एक बार विश्वासघात किया है और फिर कर सकते हैं।

नायकराम—बता देंगेए आप क्यों इतना घबराए जाते हैं। इतना तो बता ही दो भैया इंद्रदत्ताए कि मेम साहब कुशल से हैं नघ्

इंद्रदत्ता—हाँए बहुत कुशल से हैं और प्रसन्न हैं। कम—से—कम विनयसिंह के लिए कभी विकल नहीं होतीं। सच पूछोए तो उन्हें अब इनके नाम से घृणा हो गई है।

विनय—इंद्रदत्ताए हम और तुम बचपन के मित्रा हैं। तुम्हें जरूरत पडेए तो मैं अपने प्राण तक दे दूँय पर तुम इतनी जरा—सी बात बतलाने से इनकार कर रहे हो। यही दोस्ती हैघ्

इंद्रदत्ता—दोस्ती के पीछे दूसरों की जान क्यों विपत्तिा में डालूँघ्

विनय—मैं माता के चरणों की कसम खाकर कहता हूँए मैं इसे गुप्त रख्रूगा। मैं केवल एक बार सोफिया से मिलना चाहता हूँ।

इंद्रदत्ता—काठ की हाँड़ी बार—बार नहीं चढ़़ती।

विनय—इंद्रए मैं जीवनपयर्ंत तुम्हारा उपकार मानूँगा।

इंद्रदत्ता—जी नहींए बिल्ली बख्शेए मुरगा बाँड़ा ही अच्छा।

विनय—मुझसे जो कसम चाहेए ले लो।

इंद्रदत्ता—जिस बात के बतलाने का मुझे अधिकार नहींए उसे बतलाने के लिए आप मुझसे व्यर्थ आग्रह कर रहे हैं।

विनय—तुम पाषाण—हृदय हो।

इंद्रदत्ता—मैं उससे भी कठोर हूँ। मुझे जितना चाहिएए कोस लीजिएए पर सोफी के विषय में मुझसे कुछ न पूछिए।

नायकराम—हाँ भैयाए बस यही टेक चली जाएय मरदों का यही काम है। दो टूक कह दिया कि जानते हैंए लेकिन बतलाएँगे नहींए चाहे किसी को भला लगे या बुरा।

इंद्रदत्ता—अब तो कलई खुल गई नघ् क्यों कुँवर साहब महाराजए अब तो बढ़़—बढ़़कर बातें न करोगेघ्

विनय—इंद्रदत्ताए जले पर नमक न छिड़को। जो बात पूछता हूँए बतला दोय नहीं तो मेरी जान को रोना पड़ेगा। तुम्हारी जितनी खुशामद कर रहा हूँए उतनी आज तक किसी की नहीं की थीय पर तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं होता।

इंद्रदत्ता—मैं एक बार कह चुका कि मुझे जिस बात के बतलाने का अधिकार नहीं वह किसी तरह न बताऊँगा। बसए इस विषय में तुम्हारा आग्रह करना व्यर्थ है। यह लोए अपनी राह जाता हूँ। तुम्हें जहाँ जाना होए जाओ!

नायकराम—सेठजीए भागो मतए मिस साहब का पता बताए बिना न जाने पाओगे।

इंद्रदत्ता—क्या जबरदस्ती पूछोगेघ्

नायकराम—हाँए जबरदस्ती पूछूँगा। बाम्हन होकर तुमसे भिक्षा माँग रहा हूँ और तुम इनकार करते होए इसी पर धार्मात्माए सेवकए चाकर बनते हो! यह समझ लो बाम्हन भीख लिए बिना द्वार से नहीं जाताय नहीं पाताए तो धारना देकर बैठ जाता हैए और फिर ले ही कर उठता है।

इंद्रदत्ता—मुझसे ये पंडई चालें न चलोए समझे! ऐसे भीख देनेवाले कोई और होंगे।

नायकराम—क्यों बाप—दादों का नाम डुबाते हो भैयाघ् कहता हूँए यह भीख दिए बिना अब तुम्हारा गला नहीं छूट सकता।

यह कहते हुए नायकराम चट जमीन पर बैठ गएए इंद्रदत्ता के दोनों पैर पकड़ लिएए उन पर अपना सिर रख दिया और बोले—अब तुम्हारा जो धारम होए वह करो। मैं मूरख हूँए गँवार हूँए पर बाम्हन हूँ। तुम सामरथी पुरुष हो। जैसा उचित समझोए करो।

इंद्रदत्ता अब भी न पसीजेए अपने पैरों को छुड़ाकर चले जाने की चेष्टा कीए पर उनके मुख से स्पष्ट विदित हो रहा था कि इस समय बडे असमंजस में पडे हुए हैंए और इस दीनता की उपेक्षा करते हुए अत्यंत लज्जित हैं। वह बलिष्ठ पुरुष थेए स्वयंसेवकों में कोई उनका—सा दीर्घकाय युवक न था। नायकराम अभी कमजोर थे। निकट था कि इंद्रदत्ता अपने पैरों को छुड़ाकर निकल जाएँ कि नायकराम ने विनय से कहा—भैयाए खड़े क्या देखते होघ् पकड़ लो इनके पाँवए देखूँए यह कैसे नहीं बताते।

विनयसिंह कोई स्वार्थ सिध्द करने के लिए खुशामद करना भी अनुचित समझते थेए पाँव पर गिरने की बात ही क्या। किसी संत—महात्मा के सामने दीन भाव प्रकट करने से उन्हें संकोच न थाए अगर उससे हार्दिक श्रध्दा हो। केवल अपना काम निकालने के लिए उन्होंने सिर झुकाना सीखा ही न था। पर जब उन्होंने नायकराम को इंद्रदत्ता के पैरों पर गिरते देखाए तो आत्मसम्मान के लिए कोई स्थान न रहा। सोचाए जब मेरी खातिर नायकराम ब्राह्मण होकर यह अपमान सहन कर रहा हैए तो मेरा दूर खड़े शान की लेना मुनासिब नहीं। यद्यपि एक क्षण पहले इंद्रदत्ता से उन्होंने अविनय—पूर्ण बातें की थीं और उनकी चिरौरी करते हुए लज्जा आती थीए पर सोफी का समाचार भी इसके सिवा अन्य किसी उपाय से मिलता हुआ नहीं नजर आता था। उन्होंने आत्म—सम्मान को भी सोफी पर समर्पण कर दिया। मेरे पास यही एक चीज हैए जिस मैंने अभी तक तेरे हाथों में न दिया था। आज वह भी तेरे हवाले करता हूँ। आत्मा अब भी सिर न झुकाना चाहती थीए पर कमर झुक गई। एक पल में उनक हाथ इंद्रदत्ता के पैरों के पास पहुँचे। इंद्रदत्ता ने तुरंत पैर खींच लिए और विनय को उठाने की चेष्टा करते हुए बोले—विनयए यह क्या अनर्थ करते होए हैंए हैं!

विनय की दशा उस सेवक की—सी थीए जिसे उसके स्वामी ने थूककर चाटने का दंड दिया हो। अपनी अधोगति पर रोना आ गया।

नायकराम ने इंद्रदत्ता से कहा—भैयाए मुझे भिच्छुकर समझकर दुतकार सकते थेय लेकिन अब कहो।

इंद्रदत्ता संकोच में पड़कर बोले—विनयए क्यों मुझे इतना लज्जित कर रहे हो! मैं वचन दे चुका हूँ कि किसी से यह भेद न बताऊँगा।

नायकराम—तुमसे कोई जबरदस्ती तो नहीं कर रहा है। जो अपना धारम समझोए वह करोए तुम आप बुध्दिमान हो।

इंद्रदत्ता ने खिन्न होकर कहा—जबरदस्ती नहींए तो और क्या है! गरज बावली होती हैए पर आज मालूम हुआ कि वह अंधाी भी होती है। विनयए व्यर्थ ही अपनी आत्मा पर यह अन्याय कर रहे हो। भले आदमीए क्या आत्मगौरव भी घोलकर पी गएघ् तुम्हें उचित था कि प्राण देकर भी आत्मा की रक्षा करते। अब तुम्हें ज्ञात हुआ होगा कि स्वार्थ—कामना मनुष्य को कितना पतित कर देती है। मैं जानता हूँए एक वर्ष पहले सारा संसार मिलकर भी तुम्हारा सिर न झुका सकता थाए आज तुम्हारा यह नैतिक पतन हो रहा है! अब उठोए मुझे पाप में न डुबाओ।

विनय को इतना क्रोधा आया कि इसके पैरों को खींच लूँ और छाती पर चढ़़ बैठूँ। दुष्ट इस दशा में भी डंक मारने से बाज नहीं आता। पर यह विचार करके कि अब तो जो कुछ होना थाए हो चुकाए ग्लानि—भाव से बोले—इंद्रदत्ताए तुम मुझे जितना पामर समझते होए उतना नहीं हूँय पर सोफी के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूँ। मेरा आत्म—सम्मानए मेरी बुध्दिए मेरा पौरुषए मेरा धार्म सब कुछ प्रेम के हवन—कु़ड में स्वाहा हो गया। अगर तुम्हें अब भी मुझ पर दया न आएए तो मेरी कमर से पिस्तौल निकालकर एक निशाने से काम तमाम कर दो।

यह कहते—कहते विनय की अॉंखों में अॉंसू भर आए। इंद्रदत्ता ने उन्हें उठाकर कंठ से लगा लिया और करुण भाव से बोले—विनयए क्षमा करोए यद्यपि तुमने जाति का अहित किया हैए पर मैं जानता हूँ कि तुमने वही कियाए जो कदाचित्‌ उस स्थिति में मैं या कोई भी अन्य प्राणी करता। मुझे तुम्हारा तिरस्कार करने का अधिकार नहीं। तुमने अगर प्रेम के लिए आत्ममर्यादा को तिलांजलि दे दीए तो मैं भी मैत्राी और सौजन्य के लिए अपने वचन से विमुख हो जाऊँगा। जो तुम चाहते होए वह मैं बता दूँगा। पर इससे तुम्हें कोई लाभ न होगाय क्योंकि मिस सोफिया की द्रष्टि में तुम गिर गए होए उसे अब तुम्हारे नाम से घृणा होती है। उससे मिलकर तुम्हें दुरूख होगा।

नायकराम—भैयाए तुम अपनी—सी कर दोए मिस साहब को मनाना—जनाना इनका काम है। आसिक लोग बड़े चलते—पुरजे होते हैंए छँटे हुए सोहदेए देखने ही को सीधो होते हैं। मासूक को चुटकी बजाते अपना कर लेते हैं। जरा अॉंखों में पानी भरकर देखाए और मासूक पानी हुआ।

इंद्रदत्ता—मिस सोफिया मुझे कभी क्षमा न करेंगीय लेकिन अब उनका—सा हृदय कहाँ से लाऊँ। हाँए एक बात बतला दो। इसका उत्तार पाए बिना मैं कुछ न बता सकूँगा।

विनय—पूछो।

इंद्रदत्ता—तुम्हें वहाँ अकेले जाना पड़ेगा। वचन दो कि खुफिया पुलिस का कोई आदमी साथ न रहेगा।

विनय—इससे तुम निश्चिंत रहो।

इंद्रदत्ता—अगर तुम पुलिस के साथ गएए तो सोफिया की लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।

विनय—मैं ऐसी मूर्खता करूँगा ही क्यों!

इंद्रदत्ता—यह समझ लो कि मैं सोफी का पता बताकर उन लोगों के प्राण तुम्हारे हाथों में रखे देता हूँए जिनकी खोज में तुमने दाना—पानी हराम कर रखा है।

नायकराम—भैयाए चाहे अपनी जान निकल जाएए उन पर कोई रेप न आने पाएगा। लेकिन यह भी बता दो कि वहाँ हम लोगों की जान का जोखम तो नहीं हैघ्

इंद्रदत्ता—(विनय से) अगर वे लोग तुमसे बैर साधाना चाहतेए तो अब तक तुम लोग जीते न रहते। रियासत की समस्त शक्ति भी तुम्हारी रक्षा न कर सकती। उन लोगों को तुम्हारी एक—एक बात की खबर मिलती रहती है। यह समझ लो कि तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। उतने प्रजा—द्रोह के बाद अगर तुम अभी जिंदा होए तो यह मिस सोफिया की कृपा है। अगर मिस सोफिया की तुमसे मिलने की इच्छा होतीए तो इससे ज्यादा आसान कोई काम न थाए लेकिन उनकी तो यह हालत है कि तुम्हारे नाम ही से चिढ़़ती हैं। अगर अब भी उनसे मिलने की अभिलाषा होए तो मेरे साथ आओ।

विनयसिंह को अपनी विचार—परिवर्तक शक्ति पर विश्वास था। इसकी उन्हें लेशमात्रा भी शंका न थी कि सोफी मुझसे बातचीत न करेगी। हाँए खेद इस बात का था कि मैंने सोफी ही के लिए अधिकारियों को जो सहायता दीए उसका परिणाम यह हुआ। काशए मुझे पहले ही मालूम हो जाता कि सोफी मेरी नीति को पसंद नहीं करतीए वह मित्राों के हाथ में है और सुखी हैए तो मैं यह अनीति करता ही क्योंघ् मुझे प्रजा से कोई बैर तो था नहीं। सोफी पर भी तो इसकी कुछ—न—कुछ जिम्मेवारी है। वह मेरी मनोवृत्तिायों को जानती थी। क्या वह एक पत्रा भेजकर मुझे अपनी स्थिति की सूचना न दे सकती थी! जब उसने ऐसा नहीं कियाए तो उसे अब मुझ पर त्यौरियाँ चढ़़ाने का क्या अधिकार हैघ्

यह सोचते वह इंद्रदत्ता के पीछे—पीछे चलने लगे। भूख—प्यास हवा हो गई।

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अध्याय 30

शहर अमीरों के रहने और क्रय—विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैंए जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस—पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती हैए न शहरी छिड़काव के छींटेए न शहरी जल—खेतों का प्रवाह। सड़क के किनारे छोटे—छोटे बनियों और हलवाइयों की दूकानें हैंए और उनके पीछे कई इक्केवालेए गाड़ीवानए ग्वाले और मजदूर रहते हैं। दो—चार घर बिगड़े सफेदपोशों के भी हैंए जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है। इन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार रहता हैए जिसे लोग सूरदास कहते हैं। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती हैए न काम की। सूरदास उनका बना—बनाया नाम हैए और भीख माँगना बना—बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत्—प्रसिध्द हैं—गाने—बजाने में विशेष रुचिए हृदय में विशेष अनुरागए अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेमए उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य द्रष्टि बंद और अंतर्द्रष्टि खुली हुई।

सूरदास एक बहुत ही क्षीणकायए दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित्‌ भीख माँगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। श्दाता! भगवान्‌ तुम्हारा कल्यान करें—श् यही उसकी टेक थीए और इसी को वह बार—बार दुहराता था। कदाचित्‌ वह इसे लोगों की दया—प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलनेवालों को वह अपनी जगह पर बैठे—बैठे दुआएँ देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलताए तो वह उसके पीछे दौड़ने लगताए और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा—गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रातरूकाल से संध्या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था। यहाँ तक कि माघ—पूस की बदली और वायु तथा जेठ—वैशाख की लू—लपट में भी उसे नागा न होता था।

कार्तिक का महीना था। वायु में सुखद शीतलता आ गई थी। संध्या हो चुकी थी। सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत्‌ बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे। गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढ़ील दीं। उनके पछाईं बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे। गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिए। कोई चादर पर आटा गूंधाता थाए कोई गोल—गोल बाटीयाँ बनाकर उपलों पर सेंकता था। किसी को बरतनों की जरूरत न थी। सालन के लिए घुइएँ का भुरता काफी था। और इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थीए बैठे बाटीयाँ सेंकते और गाते थे। बैलों के गले में बँधी हुई घंटीयाँ मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा—क्यों भगतए ब्याह करोगेघ्

सूरदास ने गर्दन हिलाकर कहा—कहीं है डौलघ्

गनेस—हाँए है क्यों नहीं। एक गाँव में एक सुरिया हैए तुम्हारी ही जात—बिरादरी की हैए कहो तो बातचीत पक्की करूँघ् तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटीयाँ लगें।

सूरदास—कोई जगह बतातेए जहाँ धान मिलेए और इस भिखमंगी से पीछा छूटे। अभी अपने ही पेट की चिंता हैए तब एक अंधी की और चिंता हो जाएगी। ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता। बेड़ी ही हैए तो सोने की तो हो।

गनेस—लाख रुपये की मेहरिया न पा जाओगे। रात को तुम्हारे पैर दबाएगीए सिर में तेल डालेगीए तो एक बार फिर जवान हो जाओगे। ये हड्डियाँ न दिखाई देंगी।

सूरदास—तो रोटीयों का सहारा भी जाता रहेगा। ये हड्डियाँ देखकर ही तो लोगों को दया आ जाती है। मोटे आदमियों को भीख कौन देता हैघ् उलटे और ताने मिलते हैं।

गनेस—अजी नहींए वह तुम्हारी सेवा भी करेगी और तुम्हें भोजन भी देगी। बेचन साह के यहाँ तेलहन झाड़ेगी तो चार आने रोज पाएगी।

सूरदास—तब तो और भी दुर्गति होगी। घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुँह दिखाने लायक भी न रहूँगा।

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आईए सूरदास उसके पीछे श्दाता! भगवान्‌ तुम्हारा कल्यान करेंश् कहता हुआ दौड़ा।

फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफिया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे—चिट्टे आदमी थे। बुढ़़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे। पहनावा ऍंगरेजी थाए जो उन पर खूब खिलता था। मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज सेवक को काल—गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थींए और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थीए जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी। प्रभु सेवक की मसें भीग रही थींए छरहरा डीलए इकहरा बदनए निस्तेज मुखए अॉंखों पर ऐनकए चेहरे पर गम्भीरता और विचार का गाढ़़ा रंग नजर आता था। अॉंखों से करुणा की ज्योति—सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति—सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफिया बड़ी—बड़ी रसीली अॉंखोंवालीए लज्जाशील युवती थी। देह अति कोमलए मानो पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्यए मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हों। सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थीए जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मँजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा—इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगाघ्

मि. जॉन सेवक बोले—इस देश के सिर से यह बला न—जाने कब टलेगीघ् जिस देश में भीख माँगना लज्जा की बात न होए यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन—वृत्ति बना लेंए जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार होए उसके उध्दार में अभी शताब्दियों की देर है।

प्रभु सेवक—यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या—लाभ करते समय भीख माँगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थीए किंतु वे लोग माया—मोह से मुक्त रहकर ज्ञान—प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मणए जो जमींदार हैंए घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैंए दिन—भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी सम्बंधी की मृत्यु का हीला करके भीख माँगते हैंए शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैंए पैसे जल्द रुपये बन जाते हैंए और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं।

मिसेज सेवक—साईसए इस अंधे से कह दोए भाग जाएए पैसे नहीं हैं।

सोफिया—नहीं मामाए पैसे हों तो दे दीजिए। बेचारा आधो मील से दौड़ा आ रहा हैए निराश हो जाएगा। उसकी आत्मा को कितना दुरूख होगा।

माँ—तो उससे किसने दौड़ने को कहा थाघ् उसके पैरों में दर्द होता होगा।

सोफिया—नहींए अच्छी मामाए कुछ दे दीजिएए बेचारा कितना हाँफ रहा है। प्रभु सेवक ने जेब से केस निकालाय किंतु ताँबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकलाए और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज होने का भय था। बहन से बोले—सोफीए खेद हैए पैसे नहीं निकले। साईसए अंधे से कह दोए धीरे—धीरे गोदाम तक चला आएय वहाँ शायद पैसे मिल जाएँ।

किंतु सूरदास को इतना संतोष कहाँघ् जानता थाए गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगाय कहीं गाड़ी आगे बढ़़ गईए तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी। गाड़ी का पीछा न छोड़ाए पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहाँ तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गयाए जैसे वृक्षों के बीच में ठूँठ खड़ा हो। हाँफते—हाँफते बेदम हो रहा था।

मि. जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़़त खोल रखी थी। ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा—कहिए खाँ साहबए चमड़े की आमदनी कैसी हैघ्

ताहिर—हुजूरए अभी जैसी होनी चाहिएए वैसी तो नहीं हैय मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।

जॉन सेवक—कुछ दौड़—धूप कीजिएए एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आस—पास के देहातों में चक्कर लगाया कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूँ। तब आस—पास के चमार यहाँ रोज आएँगेए और आपको उनसे मेल—जोल करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी—छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिएए ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगाए जिस दिन शहर के दो—चार धानी—मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गईए तो कई दिनों की दौड़धूप ठिकाने लग जाती है।

ताहिर—हुजूरए मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगाए तो वह यह काम करेगा ही क्योंघ् मगर हुजूर ने मेरी जो तनख्वाह मुकर्रर की हैए उसमें गुजारा नहीं होता। बीस रुपये का तो गल्ला भी काफी नहीं होताए और सब जरूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्म्त तो नहीं पड़तीय मगर आपसे न कहूँए तो किससे कहूँघ्

जॉन सेवक—कुछ दिन काम कीजिएए तरक्की होगी न। कहाँ है आपका हिसाब—किताब लाइएए देखूँ।

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़़े पर बैठ गए। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिर अली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जाँच करने लगे। दो—चार पन्ने उलट—पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले—अभी आपको हिसाब—किताब लिखने का सलीका नहीं हैए उस पर आप कहते हैंए तरक्की कर दीजिए। हिसाब बिलकुल आईना होना चाहिएय यहाँ तो कुछ पता नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदाए और कितना माल रवाना किया। खरीदार को प्रति खाता एक आना दस्तूरी मिलती हैए वह कहीं दर्ज ही नहीं है!

ताहिर—क्या उसे भी दर्ज कर दूँघ्

जॉन सेवक—क्योंए वह मेरी आमदनी नहीं हैघ्

ताहिर—मैंने तो समझा कि वह मेरा हक है।

जॉन सेवक—हरगिज नहींए मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ। (त्योरियाँ बदलकर) मुलाजिमों का हक है! खूब! आपका हक तनख्वाहए इसके सिवा आपको कोई हक नहीं है।

ताहिर—हुजूरए अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।

जॉन सेवक—अब तक आपने इस मद में जो रकम वसूल की हैए वह आमदनी में दिखाइए। हिसाब—किताब के मामले में मैं जरा भी रिआयत नहीं करता।

ताहिर—हुजूरए बहुत छोटी रकम होगी।

जॉन सेवक—कुछ मुजायका नहींए एक ही पाई सहीय वह सब आपको भरनी पड़ेगी। अभी वह रकम छोटी हैए कुछ दिनों में उसकी तादाद सैकड़ों तक पहुँच जाएगी। उस रकम से मैं यहाँ एक संडे—स्कूल खोलना चाहता हूँ। समझ गएघ् मेम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है। अच्छा चलिएए वह जमीन कहाँ है जिसका आपने जिक्र किया थाघ्

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था। यहाँ आस—पास के जानवर चरने आया करते थे। जॉन सेवक यह जमीन लेकर यहाँ सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे। प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था। जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी जमीन देखने चलीं। पिता और पुत्रा ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा। कहाँ कारखाना होगाए कहाँ गोदामए कहाँ दफ्तरए कहाँ मैनेजर का बँगलाए कहाँ श्रमजीवियों के कमरेए कहाँ कोयला रखने की जगह और कहाँ से पानी आएगाए इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं। अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिर अली से पूछा—यह किसकी जमीन हैघ्

ताहिर—हुजूरए यह तो ठीक नहीं मालूमए अभी चलकर यहाँ किसी से पूछ लूँगाए शायद नायकराम पंडा की हो।

साहब—आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैंघ्

ताहिर—मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी।

जॉन सेवक—अजीए बेचेगा उसका बापए उसकी क्या हस्ती हैघ् रुपये के सत्तारह आने दीजिएए और आसमान के तारे मँगवा लीजिए। आप उसे मेरे पास भेज दीजिएए मैं उससे बातें कर लूँगा।

प्रभु सेवक—मुझे तो भय है कि यहाँ कच्चा माल मिलने में कठिनाई होगी। इधार लोग तम्बाकू की खेती कम करते हैं।

जॉन सेवक—कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा। किसान को ऊख या जौ—गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिस जिन्स के पैदा करने में अपना लाभ देखेगा वही पैदा करेगा। इसकी कोई चिंता नहीं है। खाँ साहबए आप उस पण्डे को मेरे पास कल जरूर भेज दीजिएगा।

ताहिर—बहुत खूबए उसे कहूँगा।

जान सेवक—कहूँगा नहींए उसे भेज दीजिएगा। अगर आपसे इतना भी न हो सकाए तो मैं समझूँगाए आपको सौदा पटाने का जरा भी ज्ञान नहीं।

मिसेज सेवक—(ऍंगरेजी में) तुम्हें इस जगह पर कोई अनुभवी आदमी रखना चाहिए था।

जान सेवक—(ऍंगरेजी में) नहींए मैं अनुभवी आदमियों से डरता हूँ। वे अपने अनुभव से अपना फायदा सोचते हैंए तुम्हें फायदा नहीं पहुँचाते। मैं ऐसे आदमियों से कोसों दूर रहता हूँ।

ये बातें करते हुए तीनों आदमी फिटन के पास गए। पीछे—पीछे ताहिर अली भी थे। यहाँ सोफिया खड़ी सूरदास से बातें कर रही थी। प्रभु सेवक को देखते ही बोली—श्प्रभुए यह अंधा तो कोई ज्ञानी पुरुष जान पड़ता हैए पूरा फिलासफर है।श्

मिसेज सेवक—तू जहाँ जाती हैए वहीं तुझे कोई—न—कोई ज्ञानी आदमी मिल जाता है। क्यों रे अंधेए तू भीख क्यों माँगता हैघ् कोई काम क्यों नहीं करताघ्

सोफिया—(ऍंगरेजी में) मामाए यह अंधा निरा गँवार नहीं है।

सूरदास को सोफिया से सम्मान पाने के बाद ये अपमानपूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए। अपना आदर करनेवाले के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है। सिर उठाकर बोला—भगवान्‌ ने जन्म दिया हैए भगवान्‌ की चाकरी करता हूँ। किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती।

मिसेज सेवक—तेरे भगवान्‌ ने तुझे अंधा क्यों बना दियाघ् इसलिए कि तू भीख माँगता फिरेघ् तेरा भगवान्‌ बड़ा अन्यायी है।

सोफिया—(ऍंगरेजी में) मामाए आप इसका अनादर क्यों कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है।

सूरदास—भगवान्‌ अन्यायी नहीं हैए मेरे पूर्व—जन्म की कमाई ही ऐसी थी। जैसे कर्म किए हैंए वैसे फल भोग रहा हूँ। यह सब भगवान्‌ की लीला है। वह बड़ा खिलाड़ी है। घरौंदे बनाता—बिगाड़ता रहता है। उसे किसी से बैर नहीं। वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगाघ्

सोफिया—मैं अगर अंधी होतीए तो खुदा को कभी माफ न करती।

सूरदास—मिस साहबए अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैंए भगवान का इसमें कोई दोष नहीं।

सोफिया—मामाए यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता। अगर प्रभु ईसू ने अपने रुधिर से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दियाए तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैंघ् अन्य मतावलम्बियों की भाँति हमारी जाति में अमीर—गरीबए अच्छे—बुरेए लँगड़े—लूलेए सभी तरह के लोग मौजूद हैं। इसका क्या कारण हैघ्

मिसेज सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा—मिस साहबए अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है। अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लियाए तो संसार में अंधेर मच जाए।

मिसेज सेवक—सोफीए बड़े अफसोस की बात है कि इतनी मोटी—सी बात तेरी समझ में नहीं आतीए हालाँकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है।

प्रभु सेवक—(सूरदास से) तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए। क्योंघ्

सूरदास—हाँ जब तक हम वैरागी न होंगेए दुरूख से नहीं बच सकते।

जॉन सेवक—शरीर में भभूत मलकर भीख माँगना स्वयं सबसे बड़ा दुरूख हैय यह हमें दुरूखों से क्योंकर मुक्त कर सकता हैघ्

सूरदास—साहबए वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख माँगने की जरूरत नहीं। हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने ओर जटा बढ़़ाने को पाखंड बताया है। वैराग तो मन से होता है। संसार में रहेए पर संसार का होकर न रहे। इसी को वैराग कहते हैं।

मिसेज सेवक—हिंदुओं ने ये बातें यूनान के ैजवपबे से सीखी हैंय किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है। यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दुरूख—सुख का असर न पड़े। इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिलेंए तो दिल में हजारों गालियाँ देगा।

जॉन सेवक—हाँए इसे कुछ मत दोए देखोए क्या कहता है। अगर जरा भी भुन—भुनायाए तो हंटर से बातें करूँगा। सारा वैराग भूल जाएगा। माँगता है भीख धोले—धोले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता हैए उस पर दावा यह है कि वैरागी हूँ। (कोचवान से) गाड़ी फेरोए क्लब होते हुए बँगले चलो।

सोफिया—मामाए कुछ तो जरूर दे दोए बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था।

प्रभु सेवक—ओहोए मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही।

जॉन सेवक—हरगिज नहींए कुछ मत दोए मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हूँ।

गाड़ी चली। सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी अॉंखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहाए मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है। वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे—पीछे चला। सहसा सोफिया ने कहा—सूरदासए खेद हैए मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं। फिर कभी आऊँगीए तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा।

अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं। सूरदास स्थिति को भलीभाँति समझ गया। हृदय को क्लेश तो हुआए पर बेपरवाही से बोला—मिस साहबए इसकी क्या चिंताघ् भगवान्‌ तुम्हारा कल्याण करें। तुम्हारी दया चाहिएए मेरे लिए यही बहुत है।

सोफिया ने माँ से कहा—मामाए देखा आपनेए इसका मन जरा भी मैला नहीं हुआ।

प्रभु सेवक—हाँए दुरूखी तो नहीं मालूम होता।

जॉन सेवक—उसके दिल से पूछो।

मिसेज सेवक—गालियाँ दे रहा होगा।

गाड़ी अभी धीरे—धीरे चल रही थी। इतने में ताहिर अली ने पुकारा—हुजूरए यह जमीन पंडा की नहींए सूरदास की है। यह कह रहे हैं।

साहब ने गाड़ी रुकवा दीए लज्जित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखाए गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आएए और नम्र भाव से बोले—क्यों सूरदासए यह जमीन तुम्हारी हैघ्

सूरदास—हाँ हुजूरए मेरी ही है। बाप—दादों की इतनी ही तो निशानी बच रही है।

जॉन सेवक—तब तो मेरा काम बन गया। मैं चिंता में था कि न—जाने कौन इसका मालिक है। उससे सौदा पटेगा भी या नहीं। जब तुम्हारी हैए तो फिर कोई चिंता नहीं। तुम—जैसे त्यागी और सज्जन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा। जब तुम्हारे पास इतनी जमीन हैए तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा हैघ्

सूरदास—क्या करूँ हुजूरए भगवान्‌ की जो इच्छा हैए वह कर रहा हूँ।

जॉन सेवक—तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जाएगी। बसए यह जमीन मुझे दे दो। उपकार का उपकारए और लाभ का लाभ। मैं तुम्हें मुँह—माँगा दाम दूँगा।

सूरदास—सरकारए पुरुखों की यही निशानी हैए बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊँगाघ्

जॉन सेवक—यहीं सड़क पर एक कुअॉं बनवा दूँगा। तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा।

सूरदास—साहबए इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल—भर चरी नहीं है। आस—पास के सब ढ़ोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगाए तो ढ़ोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा।

जॉन सेवक—कितने रुपये साल चराई के पाते होघ्

सूरदास—कुछ नहींए मुझे भगवान्‌ खाने—भर को यों ही दे देते हैंए तो किसी से चराई क्यों लूँघ् किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकताए तो इतना ही सही।

जॉन सेवक—(आश्चर्य से) तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी हैघ् सोफिया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो। मैंने बड़ों—बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा। तुम धान्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते होए तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगेघ् मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूगा

सूरदास—सरकारए यह जमीन मेरी है जरूरए लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूँए कुछ कह नहीं सकता। आप इसे लेकर क्या करेंगेघ्

जॉन सेवक—यहाँ एक कारखाना खोलूँगाए जिससे देश और जाति की उन्नति होगीए गरीबों का उपकार होगाए हजारों आदमियों की रोटीयाँ चलेंगी। इसका यश भी तुम्हीं को होगा।

सूरदास—हुजूरए मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता।

जॉन सेवक—अच्छी बात हैए पूछ लो। मैं फिर तुमसे मिलूँगा। इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न होगा। तुम जिस तरह खुश होगेए उसी तरह खुश करूँगा। यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर)ए मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया थाए उस अपमान को क्षमा करो।

सूरदास—हुजूरए मैं रुपये लेकर क्या करूँगाघ् धर्म के नाते दो—चार पैसे दे दीजिएए तो आपका कल्याण मनाऊँगा। और किसी नाते से मैं रुपये न लूँगा।

जॉन सेवक—तुम्हें दो—चार पैसे क्या दूँघ् इसे ले लोए धार्मार्थ ही समझो।

सूरदास—नहीं साहबए धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया हैए अब यह धर्म नहीं रहा।

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह कियाए किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिए। तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे।

मिसेज सेवक ने पूछा—क्या बातें हुईंघ्

जॉन सेवक—है तो भिखारीए पर बड़ा घमंडी है। पाँच रुपये देता थाए न लिए।

मिसेज सेवक—है कुछ आशाघ्

जॉन सेवक—जितना आसान समझता थाए उतना आसान नहीं है। गाड़ी तेज हो गई।

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अध्याय 31

भैरों के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोंपड़ी में आकर सोचने लगाए क्या करूँ कि सहसा दयागिरि आ गए और बोले—सूरदासए आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैंए इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया—जाल में क्यों पड़े हो। क्यों नहीं मेरे साथ कहीं तीर्थयात्राा करने चलतेघ्

सूरदास—यही तो मैं भी सोच रहा हूँ। चलोए तो मैं भी निकल पडऌर्ँ।

दयागिरि—हाँए चलोए तब मैं मंदिर का कुछ ठिकाना कर लूँ। यहाँ कोई नहींए जो मेरे पीछे यहाँ दिया—बत्ताी तक कर देए भोग—भाग लगाना तो दूर रहा।

सूरदास—तुम्हें मंदिर से कभी छुट्टी न मिलेगी।

दयागिरि—भाईए यह भी नहीं होता कि मंदिर को यों ही निराधार छोड़कर चला जाऊँए फिर न जाने कब लौटूँए तब तक तो यहाँ घास जम जाएगा।

सूरदास—तो जब तुम आप ही अभी माया में फँसे हुए होए तो मेरा उध्दार क्या करोगेघ्

दयागिरि—नहींए अब जल्दी ही चलूँगा। जरा पूजा के लिए फूल लेता आऊँ।

दयागिरि चले गए तो सूरदास फिर सोच में पड़ा—संसार की भी क्या लीला है कि होम करते हाथ जलते हैं। मैं तो नेकी करने गया थाए उसका यह फल मिला। मुहल्लेवालों को विश्वास आ गया। बुरी बातों पर लोगों को कितनी जल्दी विश्वास आ जाता है! मगर नेकी—बदी कभी छिपी नहीं रहती। कभी—न—कभी तो असली बात मालूम हो ही जाएगी। हार जीत तो जिंदगानी के साथ लगी हुई हैए कभी जीतूँगाए तो कभी हारूँगाए इसकी चिंता ही क्याघ् अभी कल बड़े—बड़ों से जीता थाए आज जीत में भी हार गया। यह तो खेल में हुआ ही करता है। वह बेचारी सुभागी कहाँ जाएगीघ् मुहल्लेवाले तो अब उसे यहाँ रहने न देंगेए और रहेगी किसके आधार परघ् कोई अपना तो हो। मैके में भी कोई नहीं है। जवान औरत अकेली कहीं रह भी नहीं सकती। जमाना खराब आया हुआ हैए उसकी आबरू कैसे बचेगीघ् भैरो को कितना चाहती हैघ् समझती थी कि मैं उसे मारने गया हूँय उसे सावधान रहने के लिए कितना जोर दे रही थी! वह तो इतना प्रेम करती हैए और भैरों का कभी मुँह ही सीधा नहीं होताए अभागिनी है और क्या। कोई दूसरा आदमी होताए तो उसके चरन धो—धोकर पीताय पर भैरों को जब देखोए उस पर तलवार ही खींचे रहता है। मैं कहीं चला गयाए तो उसका कोई पुछत्तार भी न रहेगा। मुहल्ले के लोग उसकी छीछालेदर होते देखेंगेए और हँसेंगे! कहीं—न—कहीं डूब मरेगीए कहाँ तक संतोष करेगी। इस अॉंखोंवाले अंधो भैरों को तनिक भी खयाल नहीं कि मैं इसे निकाल दँगाए तो कहाँ जाएगी। कल को मुसलमान या किरिसतान हो जाएगीए तो सारे शहर में हलचल पड़ जाएगीय पर अभी उसके आदमी को कोई समझानेवाला नहीं। कहीं भरतीवालों के हाथ पड़ गईए तो पता भी न लगेगा कि कहाँ गई। सभी लोग जानकर अनजान बनते हैं।

वह यही सोचता—विचारता सड़क की ओर चला गया कि सुभागी आकर बोली—सूरेए मैं कहाँ रहूँगीघ्

सूरदास ने कृत्रिाम उदासीनता से कहा—मैं क्या जानूँए कहाँ रहोगी! अभी तू ही तो भैरों से कह रही थी कि लाठी लेकर जाओ। तू क्या यह समझती थी कि मैं भैरों को मारने गया हूँघ्

सुभागी—हाँए सूरेए झूठ क्यों बोलूँघ् मुझे यह खटका तो हुआ था।

सूरदास—जब तेरी समझ में मैं इतना बुरा हूँए तो फिर मुझसे क्यों बोलती हैघ् अगर वह लाठी लेकर आता और मुझे मारने लगताए तो तू तमासा देखती और हँसतीए क्यों तुझसे तो भैरों ही अच्छा कि लाठी—लबेद लेकर नहीं आया। जब तूने मुझसे बैर ठान रखा हैए तो मैं तुझसे क्यों न बैर ठानूँघ्

सुभागी—(रोती हुई) सूरेए तुम भी ऐसा कहोगेए तो यहाँ कौन हैए जिसकी आड़ में मैं छिन—भर भी बैठूँगी। उसने अभी मारा हैए मगर पेट नहीं भराए कह रहा है कि जाकर पुलिस में लिखाए देता हूँ। मेरे कपड़े—लत्तो सब बाहर फेंक दिए हैं। इस झोंपड़ी के सिवा अब मुझे और कहीं सरन नहीं।

सूरदास—मुझे भी अपने साथ मुहल्ले से निकलवाएगी क्याघ्

सुभागी—तुम जहाँ जाओगेए मैं तुम्हारे साथ चलूँगी।

सूरदास—तब तो तू मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक न रखेगी। सब यही कहेंगे कि अंधा उसे बहकाकर ले गया।

सुभागी—तुम तो बदनामी से बच जाओगेए लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगीघ् है कोई मुहल्ले में ऐसाए जो किसी की इज्जत—आबरू जाते देखेए तो उसकी बाँह पकड़ लेघ् यहाँ तो एक टुकड़ा रोटी भी माँगूँए तो न मिले। तुम्हारे सिवा अब मेरे और कोई नहीं है। पहले मैं तुम्हें आदमी समझती थीए अब देवता समझती हूँ। चाहो तो रहने दोय नहीं तो कह दोए कहीं मुँह में कालिख लगाकर जा मरूँ।

सूरदास ने देर तक चिंता में मग्न रहने के बाद कहा—सुभागीए तू आप समझदार हैए जैसा जी आएए कर। मुझे तेरा खिलाना—पहनाना भारी नहीं है। अभी शहर में इतना मान है कि जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगाए वह नाहीं न करेगा। लेकिन मेरा मन कहता है कि तेरे यहाँ रहने से कल्याण न होगा। हम दोनों ही बदनाम हो जाएँगे। मैं तुझे अपनी बहन समझता हूँए लेकिन अंधा संसार तो किसी की नीयत नहीं देखता। अभी तूने देखाए लोग कैसी—कैसी बातें करते रहे। पहले भी गाली उठ चुकी है। जब तू खुल्लमखुल्ला मेरे घर में रहेगीए तब तो अनरथ ही हो जाएगा। लोग गरदन काटने पर उतारू हो जाएँगे। बताए क्या करूँघ्

सुभागी—जो चाहो करोए पर मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।

सूरदास—यही तेरी मरजीए तो यही सही। मैं सोच रहा थाए कहीं चला जाऊँ। न अॉंखों देखूँगाए न पीर होगीय लेकिन तेरी बिपत देखकर अब जाने की इच्छा नहीं होती। आए पड़ी रह। जैसी कुछ सिर पर आएगी देखी जाएगी। तुझे मँझधार में छोड़ देने से बदनाम होना अच्छा है।

यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोंपड़ी में आ बैठी। देखाए तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधार—उधार फैली हुई थी। कहीं लुटीया औंधाी पड़ी थीए कहीं घड़े लुढ़़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थीए जमीन पर मानो धूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिए थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोंपड़े की सफाई करती रही। शाम को वही घर जो श्बिन घरनी घर भूत का डेराश् को चरितार्थ कर रहा थाए साफ—सुथराए लिपा—पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों को रहने के लिए जी ललचाए। भैरों तो अपनी दूकान में चला गया थाए सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संधया समय लौटाए तो सुभागी ने थोड़ा—सा चबेना उसे जल—पान करने को दियाए लुटीया में पानी लाकर रख दिया और अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन—भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा—मैं कितना अभागा हूँ। काशए यह मेरी स्त्राी होतीए तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरों ने इसे घर से निकाल ही दियाय मैं रख लूँए तो इसमें कौन—सी बुराई है! इससे कहूँ कैसेए न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधा हूँए तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगीघ् मुझसे इसे प्रेम न होताए तो मेरी इतना सेवा क्यों करतीघ्

मनुष्य—मात्रा कोए जीव—मात्रा कोए प्रेम की लालसा रहती है। भोग—लिप्सु प्राणियों में यह वासना का प्रकट रूप हैए सरल हृदयहीन प्राणियों में शांति—भोग का।

सुभागी ने सूरदास की पोटली खोलीए तो उसमें गेहूँ का आटा निकलाए थोड़ा—सा चावलए कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटीयाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।

सूरदास—मिठुआ कहाँ हैघ्

सुभागी—क्या जानूँए कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया थाए मुझे देखकर चला गया।

सूरदास—तुझसे सरमाता होगा। देखए मैं उसे बुलाए लाता हूँ।

यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहताए घर में जाकर दाना निकाल लाताए भुनवाकर खाताय आज सारे दिन भूखों मरा। इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटीयाँ रख दीं और मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम थाए केवल दो रोटीयाँ बन सकी थीं।

सूरदास ने कहा—मिट्ठूए और रोटी लोगेघ्

मिटठ्‌—मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।

सूरदास—तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।

यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटीयाँ मिट्ठू को दे दीं। सुभागी क्रुध्द होकर मिट्ठू से बोली—दिन—भर साँड की तरह फिरते होए कहीं मजूरी क्यों नहीं करतेघ् इसी चक्कीघर में काम करोए तो पाँच—छरू आने रोज मिलें।

सूरदास—अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगाए तो कलेजा टूट जाएगा!

सुभागी—मजूरों के लड़कों का कलेज इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैंए किसी का कलेजा नहीं टूटता।

सूरदास—जब उसका जी चाहेगाए आप काम करेगा।

सुभागी—जिसे बिना हाथ—पैर हिलाए खाने को मिल जाएए उसकी बला काम करने जाती है।

सूरदास—ऊँहए मुझे कौन किसी रिन—धान का सोच है। माँगकर लाता हूँए खाता हूँं। जिस दिन पौरुख न चलेगाए उस दिन देखी जाएगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँघ्

सुभागी—मैं इसे काम पर भेजूँगी। देखूँए कैसे नहीं जाता। यह मुटरमरदी है कि अंधा माँगे और अॉंखवाले मुसंडे बैठे खाएँ। सुनते हो मिट्ठूए कल से काम करना पड़ेगा।

मिट्ठू—तेरे कहने से न जाऊँगाय दादा कहेंगे तो जाऊँगा।

सुभागी—मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता हैघ् इतना नहीं सूझता कि अंधा आदमी तो माँगकर लाता हैए और मैं चौन से खाता हूँ। जनम—भर कुमार ही बने रहोगेघ्

मिट्ठू—तुझसे क्या मतलबए मेरा जी चाहेगाए जाऊँगाए न जी चाहेगाए न जाऊँगा।

इसी तरह दोनों में देर तक वाद—विवाद हुआए यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चौके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनायाए पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधा ही भोजन करके उठ गया।

जब वह लेटाए तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्रा उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थीए न वह सुषमाए न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरम्भ हुआए बिस्मिल्लाह ही गलत हुईए तो आगे कौन जानेए क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँए लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँघ् जब मर जाऊँगाए तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगीए वैसी झेलेगा।

वह अंकुरए वह नन्ही—सी आकांक्षाए जो संधया समय उसके हृदय में उगी थीए इस ताप के झोंके से जल गईए अंकुर सूख गया।

सुभागी को नई चिंता सवार हुई—मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँघ् मैं कुछ उसकी लौंडी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धोऊँए उसका खाना पकाऊँ और वह मटर—गस करे। मुझे भी कोई बिठाकर न खिलाएगा। मैं खाऊँ ही क्योंघ् जब सब काम करेंगेए तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!

प्रातरूकाल जब वह झोंपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकलीए तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली—क्यों रीए आज रात तू यहीं रही थी क्याघ्

सुभागी ने कहा—हाँ रही तोए फिर!

जमुनी—अपना घर नहीं था।

सुभागी—अब लात खाने की बूता नहीं है।

जमुनी—तो तू दो—चार सिर कटाकर तब चौन लेगीघ् इस अंधो की भी मत मारी गई है कि जान—बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरों गला काट लेनेवाले आदमी हैं। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा हैए चली जा घर।

सुभागी—उस घर में तो अब पाँव न रखूँगीए चाहे कोई मार डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए की बाँह पकड़ लीय और दूसरा यहाँ कौन हैघ्

जमुनी—जिस घर में कोई मेहरिया नहींए वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।

सुभागी—जानती हूँए पर किसके घर जाऊँघ् तुम्हारे घर आऊँए रहने दोगीघ् जो कुछ करने को कहोगीए करूँगीए गोबर पाथूँगीए भैंसों को घास—चारा दूँगीए पानी डालूँगीए तुम्हारा आटा पिसूँगी। रखोगीघ्

जमुनी—न बाबाए यहाँ कौन बैठे—बिठाए रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भीए उस पर बद्दू भी बनूँ।

सुभागी—रोज गाली—मार खाया करूँघ्

जमुनी—अपना मरद हैए मारता ही हैए तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता हैघ्

सुभागी—क्यों बहुत बढ़़—बढ़़कर बात करती हो जमुनी! मिल गया है बैलए जिस कल चाहती होए बैठाती हो। रात—दिन डंडा लिए सिर पर सवार रहताए तो देखती कि कैसे घर में रहती। अभी उस दिन दूधा में पानी मिलाने के लिए मारने उठा थाए तो चादर लेकर मैके भागी जाती थी। दूसरों को उपदेश करना सहज नहीं है। जब अपने सिर पड़ती हैए तो अॉंखें खुल जाती हैं।

यह कहती हुई सुभागी कुएँ पर पानी भरने चली गई। यहाँ भी उसने टीकाकारों को ऐसा ही अक्खड़ जवाब दिया। पानी लाकर बर्तन धोयेए चौका लगाया और सूरदास को सड़क पर पहुँचाने चली गई। अब तक वह लाठी से टटोलता हुआ अकेले ही चला जाता थाए लेकिन सुभागी से यह न देखा गया। अंधा आदमी हैए कहीं गिर पड़े तोए लड़के ही दिक करते हैं। मैं बैठी ही तो हूँ। उससे फिर किसी ने कुछ न पूछा। यह स्थिर हो गया कि सूरदास ने उसे घर डाल लिया। अब व्यंग्यए निंदाए उपहास की गुंजाइश न थी। हाँए सूरदास सबकी नजरों में गिर गया। लोग कहते—रुपये न लौटा देताए तो क्या करता। डर होगा कि सुभागी एक दिन भैरों से कह ही देगीए मैं पहले ही से क्यों न चौकन्ना हो जाऊँ। मगर सुभागी क्यों अपने घर से रुपये उड़ा ले गईघ् वाह! इसमें आश्चर्य की कौन—सी बात हैघ् भैरों उसे रुपये—पैसे नहीं देता। मालकिन तो बुढ़़िया है। सोचा होगाए रुपये उड़ा लूँए मेरे पास कुछ पूँजी तो हो जाएगीए अपने पास कहाँ। कौन जानेए दोनों में पहले ही से साठ—गाँठ रही हो। सूरे को भला आदमी समझकर उसके पास रख आई हो। या सूरदास ने रुपये उठवा लिए होंए फिर लौटा आया हो कि इस तरह मेरा भरम बना रहेगा। अंधो पेट के बड़े गहरे होते हैंए इन्हें बड़ी दूर की सूझती है।

इस भाँति कई दिनों तक गद्देबाजियाँ हुईं।

परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती। न उन्हें इतना अवकाश होता है कि इन बातों में सिर खपाएँए न इतनी बुध्दि ही कि इन गुत्थियों को सुलझाएँ। मनुष्य स्वभावतरू क्रियाशील होते हैंए उनमें विवेचन—शक्ति कहाँघ् सुभागी से बोलने—चालनेए उसके साथ उठने—बैठने में किसी को आपत्तिा न रहीय न कोई उससे कुछ पूछताए न आवाजें कसता। हाँए सूरदास की मान—प्रतिष्ठा गायब हो गई। पहले मुहल्ले—भर में उसकी धाक थीए लोगों को उसकी हैसियत से कहीं अधिक उस पर विश्वास था। उसका नाम अदब के साथ लिया जाता था। अब उसकी गणना भी सामान्य मनुष्यों में होने लगीए कोई विशेषता न रही।

किंतु भैरों के हृदय में सदैव यह काँटा खटका करता था। वह किसी भाँति इस सजीव अपमान का बदला लेना चाहता था। दूकान पर बहुत कम जाता। अफसरों से शिकायत भी की गई कि यह ठेकेदार दूकान नहीं खोलताए ताड़ी—सेवियों को निराश होकर जाना पड़ता है। मादक वस्तु—विभाग के कर्मचारियों ने भैरों को निकाल देने की धामकी भी दीय पर उसने कहाए मुझे दूकान का डर नहींए आप लोग जिसे चाहें रख लें। पर वहाँ कोई दूसरा पासी न मिला और अफसरों ने एक दूकान टूट जाने के भय से कोई सख्ती करनी उचित न समझी।

धाीरे—धाीरे भैरों की सूरदास ही से नहींए मुहल्ले—भर से अदावत हो गई। उसके विचार में मुहल्लेवालों का यह धार्म था कि मेरी हिमायत के लिए खड़े हो जाते और सूरे को कोई ऐसा दंड देते कि वह आजीवन याद रखता—ऐसे मुहल्ले में कोई क्या रहेए जहाँ न्याय और अन्याय एक ही भाव बिकते हैं। कुकर्मियों से कोई बोलता ही नहीं। सूरदास अकड़ता हुआ चला जाता है। यह चुड़ैल अॉंखों में काजल लगाए फिरा करती है। कोई इन दोनों के मुँह में कालिख नहीं लगाता। ऐसे गाँव में तो आग लगा देनी चाहिए। मगर किसी कारण उसकी क्रियात्मक शक्ति शिथिल पड़ गई थी। वह मार्ग में सुभागी को देख लेताए तो कतराकर निकल जाता। सूरदास को देखता तो ओठ चबाकर रह जाता। वार करने की हिम्मत न होती। वह अब कभी मंदिर में भजन गाने न जाताय मेलों—तमाशों से भी उसे अरुचि हो गईए नशे का चस्का आप—ही—आप छूट गया। अपमान की तीव्र वेदना निरंतर होती रहती। उसने सोचा थाए सुभागी मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएगीए मेरे कलंक का दाग मिट जाएगा। मगर वह अभी तक वहाँ उसकी छाती पर मूँग ही नहीं दल रही थीए बल्कि उसी पुरुष के साथ विलास कर रही थीए जो उसका प्रतिद्वंद्वी था। सबसे बढ़़कर दुरूख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का—सा व्यवहार करते थेए कोई उन्हें न रगेदता थाए न लताड़ता था। उसे अपना अपमान सामने बैठा मुँह चिढ़़ाता हुआ मालूम होता था। अब उसे गाली—गलौज से तस्कीन न हो सकती थी। वह इस फिक्र में था कि इन दोनों का काम तमाम कर दूँ। इस तरह मारूँ कि एड़ियाँ रगड़—रगड़कर मरेंए पानी की बूँद भी न मिले। लेकिन अकेला आदमी क्या कर सकता हैघ् चारों ओर निगाह दौड़ाताए पर कहीं से सहायता मिलने की आशा न दिखाई देती। मुहल्ले में ऐसे जीवट का कोई आदमी न था। सोचते—सोचते उसे खयाल आया कि अंधो ने चतारी के राजा साहब को बहुत बदनाम किया था। कारखानेवाले साहब को भी बदनाम करता फिरता था। इन्हीं लोगों से चलकर फरियाद करूँ। अंधो से दिल में तो दोनों खार खाते ही होंगेए छोटे के मुँह लगना अपनी मर्यादा के विरुध्द समझकर चुप रह गए होंगे। मैं जो सामने खड़ा हो जाऊँगाए तो मेरी आड़ से वे जरूर निशाना मारेंगे। बड़े आदमी हैंए वहाँ तक पहुँचना मुश्किल हैय लेकिन जो कहीं मेरी पहुँच हो गई और उन्होंने मेरी सुन लीए तो फिर इन बच्चा की ऐसी खबर लेंगे कि सारा अंधापन निकल जाएगा। (अंधोपन के सिवा यहाँ और रखा ही क्या था।)

कई दिनों तक वह इसी हैस—बैस में पड़ा रहा कि उन लोगों के पास कैसे पहुँचूँ। जाने की हिम्मत न पड़ती थी। कहीं उलटे मुझी को मार बैठेंए निकलवा दें तो और भी भद्द हो। आखिर एक दिन दिल मजबूत करके वह राजा साहब के मकान पर गयाए और साईस के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। साईस ने देखाए तो कर्कश कंठ से बोला—कौन हो! यहाँ क्या उचक्कों की तरह झाँक रहे होघ्

भैरों ने बड़ी दीनता से कहा—भैयाए डाँटो मतए गरीब—दुखी आदमी हूँ।

साईस—गरीब दुखियारे होए तो किसी सेठ—साहूकार के घर जातेए यहाँ क्या रखा हैघ्

भैरों—गरीब हूँए लेकिन भिखमंगा नहीं हूँ। इज्जत—आबरू सभी की होती है। तुम्हारी ही बिरादरी में कोई किसी की बहू—बेटी को लेकर निकल जाएए तो क्या उसे पंचाइत यों ही छोड़ देगीघ् कुछ—न—कुछ दंड देगी ही। पंचाइत न देगीए तो अदालत—कचहरी से तो कुछ होगा।

साईस जात का चमार थाए जहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ आए दिन होती रहती हैंए और बिरादरी को उनकी बदौलत नशा—पानी का सामान हाथ आता रहता है। उसके घर में नित्य यही चर्चा रहती थी। इन बातों में उसे जितनी दिलचस्पी थीए उतनी और किसी बात से न हो सकती थी। बोला—आओ बैठोए चिलम पियोए कौन भाई होघ्

भैरों—पासी हूँए यहीं पाँडेपुर में रहता हूँ।

वह साईस के पास जा बैठा और दोनों में सायँ—सायँ बातें होने लगींए मानो वहाँ कोई कान लगाए उनकी बातें सुन रहा हो। भैरों ने अपना सम्पूर्ण वृत्ताांत सुनाया और कमर से एक रुपया निकालकर साईस के हाथ में रखता हुआ बोला—भाईए कोई ऐसी जुगुत निकालो कि राजा साहब के कानों में यह बात पड़ जाए। फिर तो मैं अपना सब हाल आप ही कह लूँगा। तुम्हारी दया से बोलने—चालने में ऐसा बुध्दू नहीं हूँ। दारोगा से तो कभी डरा ही नहीं।

साईस को रौप्य मुद्रा के दर्शन हुएए तो मगन हो गया। आज सबेरे—सबेरे अच्छी बोहनी हुई। बोला—मैं राजा साहब से तुम्हारी इत्ताला कराए देता हूँ। बुलाहट होगीए तो चले जाना। राजा साहब को घमंड तो छू ही नहीं गया। मगर देखनाए बहुत देर न लगानाए नहीं तो मालिक चिढ़़ जाएँगे। बसए जो कुछ कहना होए साफ—साफ कह डालना। बड़े आदमियों को बातचीत करने की फुरसत नहीं रहती। मेरी तरह थोड़े ही हैं कि दिन—भर बैठे गप्पें लड़ाया करें।

यह कहकर वह चला गया। राजा साहब इस वक्त बाल बनवा रहे थेए जो उनका नित्य का नियम था। साईस ने पहुँचकर सलाम किया।

राजा—क्या कहते होघ् मेरे पास तलब के लिए मत आया करो।

साईस—नहीं हुजूरए तलब के लिए नहीं आया था। वह जो सूरदास पाँडेपुर में रहता है।

राजा—अच्छाए वह दुष्ट अंधा!

साईस—हाँ हुजूरए वह एक औरत को निकाल ले गया है।

राजा—अच्छा! उसे तो लोग कहते थेए बड़ा भला आदमी है। अब यह स्वाँग रचने लगा!

साईस—हाँ हुजूरए उसका आदमी फरियाद करने आया है। हूकुम होए तो लाऊँ।

राजा साहब ने सिर हिलाकर अनुमति दी और एक क्षण में भैरों दबकता हुआ आकर खड़ा हो गया।

राजा—तुम्हारी औरत हैघ्

भैरों—हाँ हुजूरए अभी कुछ दिन पहले तो मेरी ही थी!

राजा—पहले से कुछ आमद—रफ्त थीघ्

भैरों—होगी सरकारए मुझे मालूम नहीं।

राजा—लेकर कहाँ चला गयाघ्

भैरों—कहीं गया नहीं सरकारए अपने घर में है।

राजा—बड़ा ढ़ीठ है। गाँववाले कुछ नहीं बोलतेघ्

भैरों—कोई नहीं बोलताए हुजूर!

राजा—औरत को मारते बहुत होघ्

भैरों—सरकारए औरत से भूल—चूक होती हैए तो कौन नहीं मारताघ्

राजा—बहुत मारते हो कि कमघ्

भैरों—हुजूरए क्रोधा में यह विचार कहाँ रहता है।

राजा—कैसी औरत हैए सुंदरघ्

भैरों—हाँए हुजूरए देखने—सुनने में बुरी नहीं है।

राजा—समझ में नहीं आताए सुंदर स्त्राी ने अंधो को क्यों पसंद किया! ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने दाल में नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्राी को मारकर निकाल दिया हो और अंधो ने रख लिया होघ्

भैरों—सरकारए औरत मेरे रुपये चुराकर सूरदास को दे आई। सबेरे सूरदास रुपये लौटा गया। मैंने चकमा देकर पूछाए तो उसने चोर को भी बता दिया। इस बात पर मारता नए तो क्या करताघ्

राजा—और कुछ होए अंधा है दिल का साफ।

भैरों—हुजूरए नीयत का अच्छा नहीं।

यद्यपि महेंद्रकुमारसिंह बहुत न्यायशील थे और अपने कुत्सित मनोविचारों को प्रकट करने में बहुत सावधान रहते थे। ख्याति—प्रिय मनुष्य को प्रायरू अपनी वाणी पर पूर्ण अधिकार होता हैय पर वह सूरदास से इतने जले हुए थेए उसके हाथों इतनी मानसिक यातनाएँ पाई थीं कि इस समय अपने भावों को गुप्त न रख सके। बोले—अजीए उसने मुझे यहाँ इतना बदनाम किया कि घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। क्लार्क साहब ने जरा उसे मुँह क्या लगा लिया कि सिर चढ़़ गया। यों मैं किसी गरीब को सताना नहीं चाहताए लेकिन यह भी नहीं देख सकता कि वह भले आदमियों के बाल नोचे। इजलास तो मेरा ही हैए तुम उस पर दावा कर दो। गवाह मिल जाएँगे नघ्

भैरों—हुजूरए सारा मुहल्ला जानता है।

राजा—सबों को पेश करो। यहाँ लोग उसके भक्त हो गए हैं। समझते हैंए वह कोई ऋषि है। मैं उसकी कलई खोल देना चाहता हूँ। इतने दिनों बाद यह अवसर मेरे हाथ आया है। मैंने अगर अब तक किसी से नीचा देखाए तो इसी अंधो से। उस पर न पुलिस का जोर थाए न अदालत का। उसकी दीनता और दुर्बलता उसका कवच बनी हुई थी। यह मुकदमा उसके लिए वह गहरा गङ्‌ढ़ा होगाए जिसमें से वह निकल न सकेगा। मुझे उसकी ओर से शंका थीए पर एक बार जहाँ परदा खुला कि मैं निश्ंचित हुआ। विष के दाँत टूट जाने पर साँप से कौन डरता हैघ् हो सकेए तो जल्दी ही मुकदमा दायर कर दो।

किसी बड़े आदमी को रोते देखकर हमें उससे स्नेह हो जाता है। उसे प्रभुत्व से मंडित देखकर हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि वह भी मनुष्य है। हम उसे साधारण मानवीय दुर्बलताओं से रहित समझते हैं। वह हमारे लिए एक कुतूहल का विषय होता है। हम समझते हैंए वह न जाने क्या खाता होगाए न जाने क्या पीता होगाए न जाने क्या सोचता होगाए उसके दिल में सदैव ऊँचे—ऊँचे विचार आते होंगेए छोटी—छोटी बातों की ओर तो उसका धयान ही न जाता होगा—कुतूहल का परिष्कृत रूप ही आदर है। भैरों को राजा साहब के सम्मुख जाते हुए भय लगता थाए लेकिन अब उसे ज्ञात हुआ कि यह भी हमीं—जैसे मनुष्य हैं। मानो उसे आज एक नई बात मालूम हुई। जरा बेधाड़क होकर बोला—हुजूरए है तो अंधाए लेकिन बड़ा घमंडी है। आपने आगे तो किसी को समझता ही नहीं। मुहल्लेवाले जरा सूरदास—सूरदास कह देते हैंए तो बसए फूल उठता है। समझता हैए संसार में जो कुछ हूँए मैं ही हूँ। हुजूरए उसकी ऐसी सजा कर दें कि चक्की पीसते—पीसते दिन जाएँ। तब उसकी सेखी किरकिरी होगी।

राजा साहब ने त्योरी बदली। देखाए यह गँवार अब ज्यादा बहकने लगा। बोले—अच्छाए अब जाओ।

भैरों दिल में समझ रहा थाए मैंने राजा साहब को अपनी मुट्ठी में कर लिया। अगर उसे चले जाने का हुक्म न मिला होताए तो एक क्षण में उसका श्हुजूरश् श्आपश् हो जाता। संधया तक उसकी बातों का ताँता न टूटता। वह न जाने कितनी झूठी बातें गढ़़ता। पर—निंदा का मनुष्य की जिह्ना पर कभी इतना प्रभुत्व नहीं होताए जितना सम्पन्न पुरुषों के सम्मुख। न जानें क्यों हम उनकी कृपा—द्रष्टि के इतने अभिलाषी होते हैं! हम ऐसे मनुष्यों पर भीए जिनसे हमारा लेश मात्रा भी वैमनस्य नहीं हैए कटाक्ष करने लगते हैं। कोई स्वार्थ की इच्छा न रखते हुए भी हम उनका सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। उनका विश्वासपात्रा बनने की हमें एक अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा होती है। हमारी वाणी उस समय काबू से बाहर हो जाती है।

भैरों यहाँ से कुछ लज्जित होकर निकलाए पर उसे अब इसमें संदेह न था कि मनोकामना पूरी हो गई। घर आकर उसने बजरंगी से कहा—तुम्हें गवाही करनी पड़ेगी। निकल न जाना।

बजरंगी—कैसी गवाहीघ्

भैरों—यही मेरे मामले की। इस अंधो की हेकड़ी अब नहीं देखी जाती। इतने दिनों तक सबर किए बैठा रहा कि अब भी वह सुभागी को निकाल देए उसका जहाँ जी चाहेए चली जाएए मेरी अॉंखों के सामने से दूर हो जाए। पर देखता हूँए तो दिन—दिन उसकी पेंग बढ़़ती ही जाती है। अंधा छैला बना जाता है। महीनों देह पर पानी नहीं पड़ता थाए अब नित्य स्नान करता है। वह पानी लाती हैए उसकी धोती छाँटती हैए उसके सिर में तेल मलती है। यह ऍंधोर नहीं देखा जाता।

बजरंगी—ऍंधोर तो है हीए अॉंखों से देख रहा हूँ। सूरे को इतना छिछोरा न समझता था। पर मैं कहीं गवाही—साखी करने न जाऊँगा।

जमुनी—क्यों कचहरी में कोई तुम्हारे कान काट लेगाघ्

बजरंगी—अपना मन हैए नहीं जाते।

जमुनी—अच्छा तुम्हारा मन है! भैरोंए तुम मेरी गवाही लिखा दो। मैं चलकर गवाही दूँगी। साँच को अॉंच क्याघ्

बजरंगी—(हंसकर) तू कचहरी जाएगीघ्

जमुनी—क्या करूँगी जब मरदों की वहाँ जाते चूड़ियाँ मैली होती हैंए तो औरत ही जाएगी। किसी तरह उस कसबिन के मुँह में कालिख तो लगे।

बजरंगी—भैरोंए बात यह है कि सूरे ने बुराई जरूर कीए लेकिन तुम भी तो अनीत ही पर चलते थे। कोई अपने घर के आदमी को इतनी बेदरदी से नहीं मारता। फिर तुमने मारा ही नहींए मारकर निकाल भी दिया। जब गाय की पगहिया न रहेगी तो वह दूसरों के खेत में जाएगी ही। इसमें उसका क्या दोसघ्

जमुनी—तुम इन्हेंं बकने दो भैरोंए मैं तुम्हारी गवाही करूँगी।

बजरंगी—तू सोचती होगीए यह धामकी देने से मैं कचहरी जाऊँगाय यहाँ इतने बुध्दू नहीं हैं। औरए सच्ची बात तो यह है कि सूरे लाख बुरा होए मगर अब भी हम सबों से अच्छा है। रुपयों की थैली लौटा देना कोई छोटी बात नहीं।

जमुनी—बस चुप रहोए मैं तुम्हें खूब समझती हूँ। तुम भी जाकर चार गाल हँस—बोल आते हो नए क्या इतनी यारी भी न निभाओगे! सुभागी को सजा हो गईए तो तुम्हें भी तो नजर लड़ाने को कोई न रहेगा।

बजरंगी यह लांछन सुनकर तिलमिला उठा। जमुनी उसका आसन पहचानती थीए बोला—मुँह में कीड़े पड़ जाएँगे।

जमुनी—तो फिर गवाही देते क्यों कोर दबती हैघ्

बजरंगी—लिखा दो भैरोंए मेरा नामए यह चुडैल मुझे जीने न देगी। मैं अगर हारता हूँए तो इसी से। पीठ में अगर धूल लगाती हैए तो यह। नहीं तो यहाँ कभी किसी से दबकर नहीं चले। जाओए लिखा दो।

भैरों यहाँ से ठाकुरदीन के पास गया और वही प्रस्ताव किया। ठाकुरदीन ने कहा—हाँ—हाँए मैं गवाही करने को तैयार हूँ। मेरा नाम सबसे पहले लिखा दो। अंधो को देखकर मेरी तो अब अॉंखें फूटती हैं। अब मुझे मालूम हो गया कि उसे जरूर कोई सिध्दि हैय नहीं तो क्या सुभागी उसके पीछे यों दौड़ी—दौड़ी फिरती।

भैरों—चक्की पीसेेंए तो बचा को मालूम हो जाएगा।

ठाकुरदीन—ना भैयाए उसका अकबाल भारी हैए वह कभी चक्की न पीसेगाए वहाँ से भी बेदाग लौट आएगा। हाँए गवाही देना मेरा धारम हैए वह मैं दे दूँगा। जो आदमी सिध्दि से दूसरों को अनभल करेए उसकी गरदन काट लेनी चाहिए। न जाने क्यों भगवान्‌ संसार में चोरों और पापियों को जन्म देते हैं। यही समझ लो कि जब से मेरी चोरी हुईए कभी नींद—भर नहीं सोया। नित्य वही चिंता बनी रहती है। यही खटका लगा रहता है कि कहीं फिर न वही नौबत आ जाए। तुम तो एक हिसाब से मजे में रहे कि रुपये सब मिल गएए मैं तो कहीं का न रहा।

भैरों—तो तुम्हारी गवाही पक्की रहीघ्

ठाकुरदीन—हाँए एक बार नहींए सौ बार पक्की। अरेए मेरा बस चलताए तो इसे खोदकर गाड़ देता। यों मुझसे सीधा कोई नहीं हैए लेकिन दुष्टों के हक में मुझसे टेढ़़ा भी कोई नहीं है। इनको सजा दिलाने के लिए मैं झूठी गवाही देने को भी तैयार हूँ। मुझे तो अचरज होता है कि इस अंधो को क्या हो गया। कहाँ तो धारम—करम का इतना विचारए इतना परोपकारए इतना सदाचारए और कहाँ यह कुकर्म!

भैरों यहाँ से जगधार के पास गयाए जो अभी खांचा बेचकर लौटा था और धोती लेकर नहाने जा रहा था।

भैरों—तुम भी मेरे गवाह हो नघ्

जगधार—तुम हक—नाहक सूरे पर मुकदमा चला रहे हो। सूरे निरपराधा हैं।

भैरों—कसम खाओगेघ्

जगधार—हाँए जो कसम कहोए खा जाऊँ। तुमने सुभागी को अपने घर से निकाल दियाए सूरे ने उसे अपने घर में जगह दे दी। नहीं तो अब तक वह न जाने किस घाट लगी होती। जवान औरत हैए सुंदर हैए उसके सैकड़ों गाहक हैं। सूरे ने तो उसके साथ नेकी की कि उसे कहीं बहकने नहीं दिया। अगर तुम फिर उसे घर में लाकर रखना चाहोए और वह उसे आने न देए तुमसे लड़ने पर तैयार हो जाएए तब मैं कहूँगा कि उसका कसूर है। मैंने अपने कानों से उसे सुभागी को समझाते सुना है। वह आती ही नहींए तो बेचारा क्या करेघ्

भैरों समझ गया कि यह एक लोटे जल से प्रसन्न हो जानेवाले देवता नहींए इसे कुछ भेंट करनी पड़ेगी। उसकी लोभी प्रकृत्तिा से वह परिचित था।

बोला—भाईए मुआमला इज्जत का है। ऐसी उड़नझाइयाँ न बताओ। पड़ोसी का हक बहुत कुछ होता हैय पर मैं तुमसे बाहर नहीं हूँए जो कुछ दस—बीस कहोए हाजिर है। पर गवाही तुम्हें देनी पड़ेगी।

जगधार—भैरोंए मैं बहुत नीच हूँए लेकिन इतना नीच नहीं कि जान—सुनकर किसी भले आदमी को बेकसूर फँसाऊँ।

भैरों ने बिगड़कर कहा—तो क्या समझते हो कि तुम्हारे ही नाम खुदाई लिख गई हैघ् जिस बात को सारा गाँव कहेगाए उसे एक तुम न कहोगेए तो क्या बिगड़ जाएगाघ् टीव्ी के रोके अॉंधाी नहीं रुक सकती।

जगधार—तो भाईए उसे पीसकर पी जाओ। मैं कब कहता हूँ कि मैं उसे बचा लूँगा। हाँए मैं उसे पीसने में तुम्हारी मदद न करूँगा।

भैरों तो उधार गयाए इधार वही स्वार्थीए लोभीए र्‌ ईष्यालुए कुटील जगधार उसके गवाहों को फोड़ने का प्रयत्न करने लगा। उसे सूरदास से इतनी भक्ति न थीए जितनी भैरों सेर् ईष्या। भैरों अगर किसी सत्कर्म में भी उसकी सहायता माँगताए तो भी वह इतनी ही तत्परता से उसकी उपेक्षा करता।

उसने बजरंगी के पास जाकर कहा—क्यों बजरंगीए तुम भी भैरों की गवाही कर रहे होघ्

बजरंगी—हाँए जाता तो हूँ।

जगधार—तुमने अपनी अॉंखों कुछ देखा है।

बजरंगी—कैसी बातें करते होए रोज की देखता हूँए कोई बात छिपी थोड़े ही है।

जगधार—क्या देखते होघ् यही न कि सुभागी सूरदास के झोंपड़े में रहती हैघ् अगर कोई एक अनाथ औरत का पालन करेए तो बुराई हैघ् अंधो आदमी के जीवट का बखान तो न करोगे कि जो काम किसी से न हो सकाए वह उसने कर दिखायाए उलटे उससे और बैर साधाते हो। जानते होए सूरदास उसे घर से निकाल देगाए तो उसकी क्या गत होगीघ् मुहल्ले की आबरू पुतलीघर के मजदूरों के हाथ बिकेगी। देख लेना। मेरा कहना मानोए गवाही—साखी के फेर में न पड़ोए भलाई के बदले बुराई हो जाएगी। भैरों तो सुभागी से इसलिए जल रहा है कि उसने उसके चुराए हुए रुपये सूरदास को क्यों लौटा दिए। बसए सारी जलन इसी की है। हम बिना जाने—बूझे क्यों किसी की बुराई करेंघ् हाँए गवाही देने ही जाते होए तो पहले खूब पता लगा लो कि दोनों कैसे रहते हैं...

बजरंगी—(जमुनी की तरफ इशारा करके) इसी से पूछोए यही अंतरजामी हैए इसी ने मुझे मजबूर किया है।

जमुनी—हाँए किया तो हैए क्या अब भी दिल काँप रहा हैघ्

जगधार—अदालत में जाकर गवाही देना क्या तुमने हँसी समझ ली हैघ् गंगाजली उठानी पड़ती हैए तुलसी—जल लेना पड़ता हैए बेटे के सिर पर हाथ रखना पड़ता है। इसी से बाल—बच्चेवाले डरते हैं कि और कुछ!

जमुनी—सच कहोए ये सब कसमें भी खानी पड़ती हैंघ्

जगधार—बिना कसम खाए तो गवाही होती ही नहीं।

जमुनी—तो भैयाए बाज आई ऐसी गवाहों सेए कान पकड़ती हूँ। चूल्हे में जाए सूरा और भाड़ में जाए भैरोंए कोई बुरे दिन काम न आएगा। तुम रहने दो।

बजरंगी—सूरदास को लकड़पन से देख रहे हैंए ऐसी आदत तो उसमें न थी।

जगधार—न थीए न है और न होगी। उसकी बड़ाई नहीं करताए पर उसे लाख रुपये भी दोए तो बुराई में हाथ न डालेगा। कोई दूसरा होताए तो गया हुआ धान पाकर चुपके से रख लेताए किसी को कानोंकान खबर भी न होती। वह तो जाकर सब रुपये दे आया। उसकी सफाई तो इतने ही से हो जाती है।

बजरंगी को तोड़कर जगरधा ने ठाकुरदीन को घेरा। पूजा करके भोजन करने जा रहा था। जगधार की आवाज सुनकर बोला—बैठोए खाना खाकर आता हूँ।

जगधार—मेरी बात सुन लोए तो खाने बैठो। खाना कहीं भागा नहीं जाता है। तुम भी भैरों की गवाही देने जा रहे होघ्

ठाकुरदीन—हाँए जाता हूँ। भैरों ने न कहा होताए तो आप ही जाता। मुझसे यह अनीत नहीं देखी जाती। जमाना दूसरा हैए नहीं नवाबी होतीए तो ऐसे आदमी का सिर काट लिया जाता। किसी की बहू—बेटी को निकाल ले जाना कोई हँसी—ठट्ठा हैघ्

जगधार—जान पड़ता हैए देवतों की पूजा करते—करते तुम भी अंतरजामी हो गए हो। पूछता हूँए किस बात की गवाही दोगेघ्

ठाकुरदीन—कोई लुका—छिपी बात हैए सारा देस जानता है।

जगधार—सूरदास बड़ा गबरू जवान हैए इसी से सुंदरी का मन उस पर लोट—पोट हो गया होगाए या उसके घर रुपये—पैसेए गहने—जेवर के ढ़ेर लगे हुए हैंए इसी से औरत लोभ में पड़ गई होगी। भगवान्‌ को देखा नहींए लेकिन अकल से तो पहचानते हो। आखिर क्या देखकर सुभागी ने भैरों को छोड़ दिया और सूरे के घर पड़ गईघ्

ठाकुरदीन—कोई किसी के मन की बात क्या जानेए और औरत के मन की बात तो भगवान्‌ भी नहीं जानते। देवता लोग तक उससे त्रााह—त्रााह करते हैं!

जगधार—अच्छाए तो जाओए मगर यह कहे देता हूँ कि इसका फल भोगना पड़ेगा। किसी गरीब पर झूठा अपराधा लगाने से बड़ा दूसरा पाप नहीं होता।

ठाकुरदीन—झूठा अपराधा हैघ्

जगधार—झूठा हैए सरासर झूठाय रत्ताी—भर भी सच नहीं। बेकस की वह हाय पड़ेगी कि जिंदगानी भर याद करोगे। जो आदमी अपना गया हुआ धान पाकर लौटा देए वह इतना नीच नहीं हो सकता।

ठाकुरदीन—(हँसकर) यही तो अंधो की चाल है। कैसी दूर की सूझी है कि जो सुनेए चक्कर में आ जाए।

जगधार—मैंने जता दियाए आगे तुम जानोए तुम्हारा काम जाने। रखोगे सुभागी को अपने घर मेंघ् मैं उसे सूरे के घर से लिवाए लाता हूँए अगर फिर कभी सूरे को उससे बातें करते देखनाए तो जो चाहनाए सो करना। रखोगेघ्

ठाकुरदीन—मैं क्यों रखने लगा!

जगधार—तो अगर शिवजी ने संसार—भर का बिस माथे पर चढ़़ा लियाए तो क्या बुरा कियाघ् जिसके लिए कहीं ठिकाना नहीं थाए उसे सूरे ने अपने घर में जगह दी। इस नेकी की उसे यह सजा मिलनी चाहिएघ् यही न्याय हैघ् अगर तुम लोगों के दबाव में आकर सूरे ने सुभागी को घर से निकाल दिया और उसकी आबरू बिगड़ीए तो उसका पाप तुम्हारे सिर भी पड़ेगा। याद रखना।

ठाकुरदीन देवभीरु आत्मा थाए दुविधा में पड़ गया। जगधार ने आसन पहचानाए इसी ढ़ंग से दो—चार बातें और कीं। आखिर ठाकुरदीन गवाही देने से इनकार करने लगा। जगधार कीर् ईष्या किसी साधु के उपदेश का काम कर गई। संधया होते—होते भैरों को मालूम हो गया कि मुहल्ले में कोई गवाह न मिलेगा। दाँत पीसकर रह गया। चिराग जल रहे थे। बाजार की और दूकानें बंद हो रही थीं। ताड़ी की दूकान खोलने का समय आ रहा था। ग्राहक जमा होते जाते थे। बुढ़़िया चिखौने के लिए मटर के दालमोट और चटपटे पकौड़े बना रही थीए और भैरों द्वार पर बैठा हुआ जगधार कोए मुहल्लेवालों को और सारे संसार को चौपालियाँ सुना रहा था—सब—के—सब नामरदे हैंए अॉंख के अंधोए जभी यह दुरदसा हो रही है। कहते हैंए सूखा क्यों पड़ता हैए प्लेग क्यों आता हैए हैजा क्यों फैलता हैए जहाँ ऐसे—ऐसे बेईमानए पापीए दुष्ट बसेंगेए वहाँ और होगा ही क्या। भगवान इस देस को गारत क्यों नहीं कर देतेए यही अचरज है। खैरए जिंदगानी हैए तो हम और जगधार इसी जगह रहते हैंए देखी जाएगी।

क्रोधा के आवेश में अपनी नेकियाँ बहुत याद आती हैं। भैरों उन उपकारों का वर्णन करने लगाए जो उसने जगधार के साथ किए थे—इसकी घरवाली मर रही थी। किसी ने बता दियाए ताजी ताड़ी पिएए तो बच जाए। मुँह—ऍंधोरे पेड़ पर चढ़़ता था और ताजी ताड़ी उतारकर उस पिलाता था। कोई पाँच रुपये भी देताए तो उतने सबेरे पेड़ पर न चढ़़ता। मटकों ताड़ी पिला दी होगी। तमाखू पीना होता हैए तो यहीं आता है। रुपये—पैसे का काम लगता हैए तो मैं ही काम आता हूँए और मेरे साथ यह घाट! जमाना ही ऐसा है।

जगधार का घर मिला हुआ था। यह सब सुन रहा था और मुँह न खोलता था। वह सामने से वार करने में नहींए पीछे से वार करने में कुशल था।

इतने में मिल का एक मिस्त्राीए नीम—आस्तीन पहनेए कोयले की भभूत लगाए और कोयले ही का—सा रंगए हाथ में हथौड़ा लिएए चमरौधा जूता डाटेए आकर बोला—चलते हो दुकान पर कि इसी झंझट में पड़े रहोगेघ् देर हो रही हैए अभी साहब के बँगले पर जाना है।

भैरों—अजी जाओए तुम्हें दुकान की पड़ी हुई है। यहाँ ऐसा जी जल रहा है कि गाँव में आग लगा दूँ।

मिस्त्राी—क्या है क्याघ् किस बात पर बिगड़ रहे होए मैं भी सुनूँ।

भैरों ने संक्षिप्त रूप से सारी कथा सुना दी और गाँववालों की कायरता और असज्जनता का दुखड़ा रोने लगा।

मिस्त्राी—गाँववालों को मारो गोली। तुम्हें कितने गवाह चाहिएघ् जितने गवाह कहोए दे दूँए एक—दोए दस—बीस। भले आदमीए पहले ही क्यों न कहाघ् आज ही ठीक—ठाक किए देता हूँ। बसए सबों को भर—भर पेट पिला देना।

भैरों की बाँछेंं खिल गईंए बोला—ताड़ी की कौन बात हैए दूकान तुम्हारी हैए जितनी चाहोए पियोय पर जरा मोतबर गवाह दिलाना।

मिस्त्राी—अजीए कहो तो बाबू लोगों को हाजिर कर दूँ। बसए ऐसी पिला देना कि सब यहीं से गिरते हुए घर पहुँचें।

भैरों—अजीए कहो तो इतना पिला दूँ कि दो—चार लाशें उठ जाएँ।

यों बातें करते हुए दोनों दूकान पहुँचे। वहाँ 20—25 आदमीए जो इसी कारखाने के नौकर थेए बड़ी उत्कंठा से भैरों की राह देख रहे थे। भैरों ने तो पहुँचते ही ताड़ी नापनी शुरू कर कीए और इधार मिस्त्राी ने गवाहों को तैयार करना शुरू किया। कानों में बातें होने लगीं।

एक—मौका अच्छा है। अंधो के घर से निकलकर जाएगी कहाँ! भैरों अब उसे न रखेगा।

दूसरा—आखिर हमारे दिल—बहलाव का भी तो कोई सामान होना चाहिए।

तीसरा—भगवान्‌ ने आप ही भेज दिया। बिल्ली के भागों छींका टूटा।

इधार तो यह मिसकौट हो रही थीए उधार सुभागी सूरदास से कह रही थी—तुम्हारे ऊपर दावा हो रहा है।

सूरदास ने घबराकर पूछा—कैसा दावाघ्

सुभागी—मुझे भगा लाने का। गवाह ठीक किए जा रहे हैं। गाँव का तो कोई आदमी नहीं मिलाए लेकिन पुतलीघर के बहुत—से मजूरे तैयार हैं। मुझसे अभी जगधार कह रहे थेए पहले गाँव के सब आदमी गवाही देने जा रहे थे।

सूरदास—फिर रुक कैसे गएघ्

सुभागी—जगधार ने सबको समझा—बुझाकर रोक लिया।

सूरदास—जगधार बड़ा भलामानुस हैए मुझ पर बड़ी दया करता रहता है।

सुभागी—तो अब क्या होगाघ्

सूरदास—दावा करने देए डरने की कोई बात नहीं। तू यही कह देना कि मैं भैरों के साथ न रहूँगी। कोई कारन पूछेए तो साफ—साफ कर देनाए वह मुझे मारता है।

सुभागी—लेकिन इसमें तुम्हारी बदनामी होगी।

सूरदास—बदनामी की चिंता नहींए जब तक वह तुझे रखने को राजी न होगाए मैं तुझे जाने ही न दूँगा।

सुभागी—वह राजी भी होगाए तो उसके घर न जाऊँगी। वह मन का बड़ा मैला आदमी हैए इसकी कसर जरूर निकालेगा। तुम्हारे घर से भी चली जाऊँगी।

सूरदास—मेरे घर क्यों चली जाएगीघ् मैं तो तुझे नहीं निकालता।

सुभागी—मेरे कारन तुम्हारी कितनी जगहँसाई होगी। मुहल्लेवालों का तो मुझे कोई डर न था। मैं जानती थी कि किसी को तुम्हारे ऊपर संदेह न होगाए और होगा भीए तो छिन—भर में दूर हो जाएगा। लेकिन ये पुतलीघर के उजव्‌ मजूरे तुम्हें क्या जानें। भैरों के यहाँ सब—के—सब ताड़ी पीते हैं। वह उन्हें मिलाकर तुम्हारी आबरू बिगाड़ देगा। मैं यहाँ न रहूँगीए तो उसका कलेजा ठंडा हो जाएगा। बिस की गाँठ तो मैं हूँ।

सूरदास—जाएगी कहाँघ्

सुभागी—जहाँ उसके मुँह में कालिख लगा सकूँए जहाँ उसकी छाती पर मूँग दल सकूँ।

सूरदास—उसके मुँह मे कालिख लगेगीए तो मेरे मुँह में पहले ही न लग जाएगीए तू मेरी बहन ही तो हैघ्

सुभागी—नहींए मै तुम्हारी कोई नहीं हूँ। मुझे बहन—बेटी न बनाओ।

सूरदास—मैं कहे देता हूँए इस घर से न जाना।

सुभागी—मैं अब तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें बदनाम न करूँगी।

सूरदास—मुझे बदनामी कबूल हैए लेकिन जब तक यह न मालूम हो जाए कि तू कहाँ जाएगीए तब तक मैं तुझे जाने ही न दूँगा।

भैरों ने रात तो किसी तरह काटी। प्रातरूकाल कचहरी दौड़ा। वहाँ अभी द्वार बंद थेए मेहतर झाड़ई लगा रहे थेए अतएव वह एक वृक्ष के नीचे धयान लगाकर बैठ गया। नौ बजे से अमलेए बस्ते बगल में दबाएए आने लगे और भैरों दौड़—दौड़कर उन्हें सलाम करने लगा। ग्यारह बजे राजा साहब इजलास पर आए तो भैरों ने मुहर्रिर से लिखवाकर अपना इस्तगासा दायर कर दिया। संधया—समय घर आयाए तो बफरने लगा—अब देखता हूँए कौन माई का लाल इनकी हिमायत करता है। दोनों के मुँह में कालिख लगवाकर यहाँ से निकाल न दियाए तो बाप का नहीं।

पाँचवे दिन सूरदास और सुभागी के नाम सम्मन आ गया। तारीख पड़ गई। ज्यों—ज्यों पेशी का दिन निकट आता जाता थाए सुभागी के होश उड़े जाते थे। बार—बार सूरदास से उलझती—तुम्हीं यह सब करा रहे होए अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो और अपने साथ मुझे भी घसीट रहे हो। मुझे चले जाने दिया होताए तो कोई तुमसे क्यों बैर ठानताघ् वहाँ भरी कचहरी में जानाए सबके सामने खड़ी होनाए मुझे जहर ही—सा लग रहा है। मैं उसका मुँह न देखूँगीए चाहे अदालत मुझे मार ही डाले।

आखिर पेशी की नियत तिथि आ गई। मुहल्ले में इस मुकदमे की इतनी धूम थी कि लोगों ने अपने—अपने काम बंद कर दिए और अदालत में जा पहुँचे। मिल के श्रमजीवी सैकड़ों की संख्या में गए। शहर में सूरदास को कितने ही आदमी जान गए थे। उनकी द्रष्टि में सूरदास निरपराधा था। हजारों आदमी कुतूहल—वश अदालत में आए। प्रभु सेवक पहले ही पहुँच चुके थेए इंदु रानी और इंद्रदत्ता भी मुकदमा पेश होते—होते आ पहुँचे। अदालत में यों ही क्या कम भीड़ रहती हैए और स्त्राी का आना तो मंडप में वधू का आना है। अदालत में एक बारजा—सा लगा हुआ था। इजलास पर दो महाशय विराजमान थे—एक तो चतारी के राजा साहबए दूसरे एक मुसलमानए जिन्होंने योरपीय महासमर में रंगरूट भरती करने में बड़ा उत्साह दिखाया था। भैरों की तरफ से एक वकील भी था।

भैरों का बयान हुआ। गवाहों का बयान हुआ। तब उसके वकील ने उनसे अपना पक्ष—समर्थन करने के लिए जिरह की।

तब सूरदास का बयान हुआ। उसने कहा—मेरे साथ इधार कुछ दिनों से भैरों की घरवाली रहती है। मैं किसी को क्या खिलाऊँ—पिलाऊँगाए पालनेवाले भगवान्‌ है। वह मेरे घर में रहती है अगर भैरों उसे रखना चाहे और वह रहना चाहेए तो आज ही चली जाएए यही तो मैं चाहता हूँ। इसीलिए मैंने उसे अपने यहाँ रखा हैए नहीं तो न जाने कहाँ होती।

भैरों के वकील ने मुस्कराकर कहा—सूरदासए तुम बड़े उदार मालूम होते होय लेकिन युवती सुंदरियों के प्रति उदारता का कोई महत्तव नहीं रहता।

सूरदास—इसी से न यह मुकदमा चला है। मैंने कोई बुराई नहीं की। हाँए संसार जो चाहेए समझे। मैं तो भगवान को जानता हूँ। वही सबकी करनी को देखनेवाला है। अगर भैरों उसे अपने घर न रखेगा और न सरकार कोई ऐसी जगह बताइएगीए जहाँ यह औरत इज्जत—आबरू के साथ रह सकेए तो मैं उसे अपने घर से निकलने न दूँगा। वह निकलना भी चाहेगीए तो न जाने दूँगा। इसने तो जब से इस मुकदमे की खबर सुनी हैए यही कहा करती है कि मुझे जाने दोए पर मैं उसे जाने नहीं देता।

वकील—साफ—साफ क्यों नहीं कहते कि मैंने उसे रख लिया है।

सूरदास—हाँए रख लिया हैए जैसे भाई अपनी बहन को रख लेता हैए बाप बेटी को रख लेता है। अगर सरकार ने उसे जबरदस्ती मेरे घर से निकाल दियाए तो उसकी आबरू की जिम्मेदारी उसी के सिर होगी।

सुभागी का बयान हुआ—भैरों मुझे बेकसूर मारताए गालियाँ देता। मैं उसके साथ न रहँगी। सूरदास भला आदमी हैए इसीलिए उसके पास रहती हूँ। भैरों यह नहीं देख सकताय सूरदास के घर से मुझे निकालना चाहता है।

वकील—तू पहले भी सूरदास के घर जाती थीघ्

सुभागी—जभी अपने घर मार खाती थीए तभी जान बचाकर उसके घर भाग जाती थी। वह मेरे आड़े आ जाता था। मेरे कारन उसके घर में आग लगीए मार पड़ीए कौन—कौन—सी दुर्गत नहीं हुई। अदालत की कसर थीए वह भी पूरी हो गई।

राजा—भैरोंए तुम अपनी औरत रखोगेघ्

भैरों—हाँ सरकारए रखूँगा।

राजा—मारोगे तो नहींघ्

भैरों—कुचाल न चलेगीए तो क्यों मारूँगा।

राजा—सुभागीए तू अपने आदमी के घर क्यों नहीं जातीघ् वह तो कह रहा हैए न मारूँगा।

सुभागी—उस पर मुझे विश्वास नहीं। आज ही मार—मारकर बेहाल कर देगा।

वकील—हुजूरए मुआमला साफ हैए अब मजीद—सबूत की जरूरत नहीं रही। सूरदास पर जुर्म साबित हो गया।

अदालत ने फैसला सुना दिया—सूरदास पर 200 रु. जुर्माना और जुर्माना न अदा करेए तो छरू महीने की कड़ी कैद। सुभागी पर 100 रु. जुर्मानाए जुर्माना न दे सकने पर तीन महीने की कड़ी कैद। रुपये वसूल हों तो भैरों को दिए जाएँ।

दर्शकों में इस फैसले पर आलोचना होने लगी।

एक—मुझे तो सूरदास बेकसूर मालूम होता है।

दूसरा—सब राजा साहब की करामात है। सूरदास ने जमीन के बारे में उन्हें बदनाम किया था न। यह उसी की कसर निकाली गई है। ये हमारे यश—मान—भोगी लीडरों के कृत्य हैं।

तीसरा—औरत चरबाँक नहीं मालूम होतीघ्

चौथा—भरी अदालत में बातें कर रही हैए चरबाँक नहींए तो और क्या हैघ्

पाँचवाँ—वह तो यही कहती है कि मैं भैरों के पास न रहूँगी।

सहसा सूरदास ने उच्च स्वर में कहा—मैं इस फैसले की अपील करूँगा।

वकील—इस फैसले की अपील नहीं हो सकती।

सूरदास—मेरी अपील पंचों से होगी। एक आदमी के कहने से मैं अपराधाी नहीं हो सकताए चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी हो। हाकिम ने सजा दे दीए सजा काट लूँगाय पर पंचों का फैसला भी सुन लेना चाहता हूँ।

यह कहकर उसने दर्शकों की ओर मुँह फेरा और मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा—दुहाई है पंचोए आप इतने आदमी जमा हैं। आप लोगों ने भैरों और उसके गवाहों के बयान सुनेए मेरा और सुभागी का बयान सुनाए हाकिम का फैसला भी सुन लिया। आप लोगों से मेरी विनती है कि क्या आप भी मुझे अपराधाी समझते हैंघ् क्या आपको विश्वास आ गया कि मैंने सुभागी को बहकाया और अब अपनी स्त्राी बनाकर रखे हुए हूँघ् अगर आपको विश्वास आ गया हैए तो मैं इसी मैदान में सिर झुकाकर बैठता हूँए आप लोग मुझे पाँच—पाँच लात मारें। अगर मैं लात खाते—खाते मर भी जाऊँए तो मुझे दुरूख न होगा। ऐसे पापी का यही दंड है। कैद से क्या होगा! और अगर आपकी समझ में बेकसूर हूँए तो पुकारकर कह दीजिएए हम तुझे निरपराधा समझते हैं। फिर मैं कड़ी—से—कड़ी कैद भी हँसकर काट लूँगा।

अदालत के कमरे में सन्नाटा छा गया। राजा साहबए वकीलए अमलेए दर्शकए सब—के—सब चकित हो गए। किसी को होश न रहा कि इस समय क्या करना चाहिए। सिपाही दर्जनों थेए पर चित्रा—लिखित—से खड़े थे। परिस्थिति ने एक विचित्रा रूप धारण कर लिया थाए जिसकी अदालत के इतिहास में कोई उपमा न थी। शत्रु ने ऐसा छापा मारा था कि उससे प्रतिपक्षी सेना का पूर्व—निश्चित क्रम भंग हो गया।

सबसे पहले राजा साहब सँभले। हुक्म दियाए इसे बाहर ले जाओ। सिपाहियों ने दोनों अभियुक्तों को घेर लिया और अदालत के बाहर ले चले। हजारों दर्शक पीछे—पीछे चले।

कुछ दूर चलकर सूरदास जमीन पर बैठ गया और बोला—मैं पंचों का हुकुम सुनकर तभी आगे जाऊँगा।

अदालत के बाहर अदालत की मर्यादा भंग होने का भय न था। कई हजार कंठों से धवनि उठी—तुम बेकसूर होए हम सब तुम्हें बेकसूर समझते हैं।

इंद्रदत्ता—अदालत बेईमान है!

कई हजार आवाजों ने दुहराया—हाँए अदालत बेईमान है!

इंद्रदत्ता—अदालत नहींए दीनों की बलि—वेदी है।

कई हजार कंठों से प्रतिधवनि निकली—अमीरों के हाथ में अत्याचार का यंत्रा है!

चौकीदारों ने देखाए प्रतिक्षण भीड़ बढ़़ती और लोग उत्तोजित होते जाते हैंए तो लपककर एक बग्घीवाले को पकड़ा और दोनों को उसमें बैठाकर ले चले। लोगों ने कुछ दूर तक तो गाड़ी का पीछा कियाए उसके बाद अपने—अपने घर लौट गए।

इधार भैरों अपने गवाहों के साथ घर चलाए तो राह में अदालत के अरदली ने घेरा। उसे दो रुपये निकालकर दिए। दूकान में पहुँचते ही मटके खुल गए और ताड़ी के दौर चलने लगे। बुढ़़िया पकौड़ियाँ और पूरियाँ पकाने लगी।

एक बोला—भैरोंए यह बात ठीक नहींए तुम भी बैठोए पियो और पिलाओ। हम—तुम बद—बदकर पिएँ।

दूसरा—आज इतनी पिऊँगा कि चाहे यहीं ढ़ेर हो जाऊँ। भैरोंए यह कुल्हड़ भर—भरकर क्या देते होए हाँडी ही बढ़़ा दो।

भैरों—अजीए मटके में मुँह डाल दोए हाँडी—कुल्हड़ की क्या बिसात है! आज मुद्दई का सिर नीचा हुआ है।

तीसरा—दोनों हिरासत में पड़े रो रहे होंगे। मगर भईए सूरदास को सजा हो गईए तो क्याए वह है बेकसूर।

भैरों—आ गए तुम भी उसके धोखे में। इसी स्वाँग की तो वह रोटी खाता है। देखोए बात—की—बात में कैसा हजारों आदमियों का मन फेर दिया।

चौथा—उसे किसी देवता का इष्ट है।

भैरों—इष्ट तो तब जानें कि जेहल से निकल आए।

पहला—मैं बद कर कहता हूँए वह कल जरूर जेहल से निकल आएगा।

दूसरा—बुढ़़ियाए पकौड़ियाँ ला।

तीसरा—अबेए बहुत न पीए नहीं मर जाएगा। है कोई घर पर रोनेवालाघ्

चौथा—कुछ गाना होए उतारो ढ़ोल—मँजीरा।

सबां ने ढ़ोल—मँजीरा सँभाला और खडे होकर गाने लगे रू

छत्ताीसीए क्या नैना झमकावै!

थोड़ी देर में एक बुङ्‌ढ़ा मिस्त्राी उठकर नाचने लगा। बुढ़़िया से अब न रहा गया। उसने भी घूँघट निकाल लिया और नाचने लगी। शूद्रों में नृत्य और गान स्वाभाविक गुण हैंए सीखने की जरूरत नहीं। बुङ्‌ढ़ा और बुढ़़ियाए दोनों अश्लील भाव से कमर हिला—हिलाकर थिरकने लगे। उनके अंगों की चपलता आश्चर्यजनक थी।

भैरों—मुहल्लेवाले समझते थेए मुझे गवाह ही न मिलेंगे।

एक—सब गीदड़ हैंए गीदड़।

भैरों—चलोए जरा सबों के मुँह में कालिख लगा आएँ।

सब—के—सब चिल्ला उठे—हाँए हाँए नाच होता चले।

एक क्षण में जुलूस चला। सब—के—सब नाचते—गातेए ढ़ोल पीटतेए ऊलजलूल बकतेए हू—हा करतेए लड़खड़ाते हुए चले। पहले बजरंगी का घर मिला। यहाँ सब रुक गएए और गायारू

ग्वालिन की गैया हिरानीए तब दूधा मिलावै पानी।

रात ज्यादा भीग चुकी थीए बजरंगी के द्वार बंद थे। लोग यहाँ से ठाकुरदीन के द्वार पर पहुँचे और गाया रू

तमोलिन के नैना रसीलेए यारों से नजर मिलावै।

ठाकुरदीन भोजन कर रहा थाए पर डर के मारे बाहर न निकला। जुलूस आगे बढ़़ाए तो सूरदास की झोंपड़ी मिली।

भैरों बोला—बसए यहीं डट जाओ।

श्ढ़ोल ढ़ीली पड़ गई।

श्सेंकोए सेंकोय झोंपड़े में से फूस ले लो।श्

एक आदमी ने थोड़ा—सा फूस निकालाए दूसरे ने और ज्यादाए तीसरे ने एक बोझ खींच लिया। फिर क्या थाए नशे की सनक मशहूर ही हैए एक ने जलता हुआ फूस झोंपड़ी पर डाल दिया और बोला—होली हैए होली है! कई आदमियों ने कहा—होली हैए होली है!

भैरों—यारोए यह तुम लोग लोगों ने बुरा किया। भाग चलोए नहीं तो धार लिए जाओगे।

भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। सब—के—सब भागे।

उधार ज्वाला प्रचंड हुईए तो मुहल्ले के लोग दौड़ पड़े। लेकिन फूस की आग किसके वश की थी! झोंपड़ा जल रहा था और लोग खड़े दुरूख और क्रोधा की बातें कर रहे थे।

ठाकुरदीन—मैं तो भोजन पर बैठाए तभी सबों को आते देखा।

बजरंगी—ऐसा जी चाहता है कि जाकर भैरों को मारते—मारते बेदम कर दूँ।

जगधार—जब तक एक दफे अच्छी तरह मार न खा जाएगाए इसके सिर से भूत न उतरेगा।

बजरंगी—हाँए अब यही होगा। घिसुआए जरा लाठी तो निकाल ला। आज दो—चार खून हो जाएँगेए तभी आग बुझेगी!

जमुनी—तुम्हें क्या पड़ी हैए चलकर लेटो। जो जैसा करेगाए उसका फल आप भगवान्‌ से पाएगा।

बजरंगी—भगवान्‌ चाहे फल दें या न देंए पर मैं तो अब नहीं मानताए जैसे देह में आग लगी हुई है।

जगधार—आग लगने की बात ही है। ऐसे पापी का तो सिर काट लेना भी पाप नहीं।

ठाकुरदीन—जगधारए आग पर तेल छिड़कना अच्छी बात नहीं। अगर तुमको भैरों से बैर हैए तो आप जाकर उसे क्यों नहीं ललकारतेए दूसरों को क्या उकसाते होघ् यही चाहते हो कि ये दोनों लड़ मरें और मैं तमाशा देखूँ। हो बड़े नीच!

जगधार—अगर कोई बात कहना उकसाना हैए तो लोए चुप रहूँगा।

ठाकुरदीन—हाँए चुप रहना ही अच्छा है। तुम भी जाकर सोओ बजरंगी! भगवान्‌ आप पापी को दंड देंगे। उन्होंने तो रावन—जैसे प्रतापी को न छोड़ाए यह किस खेत की मूली है! यह ऍंधोर उनसे भी न देखा जाएगा।

बजरंगी—मारे घमंड के पागल हो गया है। चलो जगधारए जरा इन सबों से दो—दो बातें कर लें।

जगधार—न भैयाए मुझे साथ न ले जाओ। कौन जानेए वहाँ मार—पीट हो जाएए तो सारा इलजाम मेरे सिर जाए कि इसी ने लड़ा दिया। मैं तो आप झगड़े से कोसों दूर रहता हूँ।

इतने में मिठुआ दौड़ा हुआ आया। बजरंगी ने पूछा—कहाँ सोया था रेघ्

मिट्ठू—पंडाजी के दालान में तो। अरेए यह तो मेरी झोंपड़ी जल रही है! किसने आग लगाईघ्

ठाकुरदीन—इतनी देर में जागे हो। सुन नहीं रहे होए गाना—बजाना हो रहा हैघ्

मिट्ठू—भैरों ने लगाई है क्या! अच्छा बच्चाए समझूँगा।

जब लोग अपने—अपने घर लौट गएए तो मिठुआ धाीरे—धाीरे भैरों की दूकान की तरफ गया। महफिल उठ चुकी थी। ऍंधोरा छाया हुआ था। जाड़े की रातए पत्ताा तक न खड़कता था। दूकान के द्वार पर उपले जल रहे थे। ताड़ीखानों में आग कभी नहीं बुझतीए पारसी पुरोहित भी इतनी सावधानी से आग की रक्षा न करता होगा। मिठुआ ने एक जलता हुआ उपला उठाया और दूकान के छप्पर पर फेंक दिया। छप्पर में आग लग गईए तो मिठुआ बगटुट भागा और पंडाजी के दालान में मुँह ढ़ाँपकर सो रहाए मानो उसे कुछ खबर ही नहीं। जरा देर में ज्वाला प्रचंड हुईए सारा मुहल्ला आलोकित हो गयाए चिड़ियाँ वृक्षों पर से उड़—उड़कर भागने लगींए पेडो की डालें हिलने लगींए तालाब का पानी सुनहरा हो गया और बाँसों की गाँठें जोर—जोर से चिटकने लगीं। आधा घंटे तक लंकादहन होता रहाए पर यह सारा शोर वन्यरोदन के स—श था। दूकान बस्ती से हटकर थी। भैरों नशे में बेसुधा पड़ा थाए बुढ़़िया नाचते—नाचते थक गई थी। और कौन थाए जो इस वक्त आग बुझाने जाताघ् अग्नि ने निर्विघ्न अपना काम समाप्त किया। मटके टूट गएए ताड़ी बह गई। जब जरा आग ठंडी हुईए तो कई कुत्ताों ने आकर वहाँ विश्राम किया।

प्रातरूकाल भैरों उठाए तो दूकान सामने न दिखाई दी। दूकान और उसके घर के बीच के दो फरलाँग का अंतर थाए पर कोई वृक्ष न होने के कारण दूकान साफ नजर आती थी। उसे विस्मय हुआए दूकान कहाँ गई! जरा और आगे बढ़़ाए तो राख का ढ़ेर दिखाई दिया। पाँव—तले से मिट्टी निकल गई। दौड़ा। दूकान में ताड़ी के सिवा बिक्री के रुपये भी थे। ढ़ोल—मँजीरा भी वहीं रखा रहता था। प्रत्येक वस्तु जलकर राख हो गई। मुहल्ले के लोग उधार तालाब में मुँह—हाथ धोने जाएा करते थे। सब आ पहुँचे। दूकान सड़क पर थी। पथिक भी खड़े हो गए। मेला लग गया।

भैरों ने रोकर कहा—मैं तो मिट्टी में मिल गया।

ठाकुरदीन—भगवान्‌ की लीला है। उधार वह तमाशा दिखायाए इधार यह तमाशा दिखाया। धान्य हो महाराज!

बजरंगी—किसी मिस्त्राी की सरारत होगी। क्यों भैरोंए किसी से अदावत तो नहीं थीघ्

भैरों—अदावत सारे मुहल्ले से हैए किससे नहीं है। मैं जानता हूँए जिसकी यह बदमासी है। बँधावा न दियाए तो कहना। अभी एक को लिया हैए अब दूसरे की बारी है।

जगधार दूर ही से आनंद ले रहा था। निकट न आया कि कहीं भैरों कुछ कह बैठेए तो बात बढ़़ जाए। ऐसा हार्दिक आनंद उसे अपने जीवन में कभी न प्राप्त हुआ था।

इतने में मिल के कई मजदूर आ गए। काला मिस्त्राी बोला—भाईए कोई माने या न मानेए मैं तो यही कहूँगा कि अंधो को किसी का इष्ट है।

ठाकुरदीन—इष्ट क्यों नहीं है। मैं बराबर यही कहता आता हूँ। उससे जिसने बैर ठानाए उसने नीचा देखा।

भैरों—उसके इष्ट को मैं जानता हूँ। जरा थानेदार जा जाएँए तो बता दूँए कौन इष्ट है।

बजरंगी जलकर बोला—अपनी बेर कैसी सूझ रही है! क्या वह झोंपड़ा न थाए जिसमें पहले आग लगीघ् ईंट का जवाब पत्थर मिलता ही है। जो किसी के लिए गढ़़ा खोदेगाए उसके लिए कुअॉं तैयार है। क्या उस झोंपड़े में आग लगाते समय समझे थे कि सूरदास का कोई है ही नहींघ्

भैरों—उसके झोंपड़े में मैंने आग लगाईघ्

बजरंगी—और किसने लगाईघ्

भैरों—झूठे हो!

ठाकुरदीन—भैरोंए क्यों सीनाजोरी करते हो! तुमने लगाई या तुम्हारे किसी यार ने लगाईए एक ही बात है। भगवान ने उसका बदला चुका दियाए तो रोते क्यों होघ्

भैरों—सब किसी से समझ्रूगा।

ठाकुरदीन—यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है।

भैरों ओठ चबाता हुआ चला गया। मानव—चरित्रा कितना रहस्यमय है! हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं झिझकतेए किंतु जब दूसरो के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती हैए तो हमारा खून खौलने लगता है।

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अध्याय 32

सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चलेए तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी।

इंद्रदत्ता—तुम्हारा क्या विचार हैए सूरदास निर्दोष है या नहींघ्

प्रभु सेवक—सर्वथा निर्दोष। मैं तो आज उसकी साधुता पर कायल हो गया। फैसला सुनाने के वक्त तक मुझे विश्वास था कि अंधो ने जरूर इस औरत को बहकाया हैए मगर उसके अंतिम शब्दों ने जादू का—सा असर किया। मैं तो इस विषय पर एक कविता लिखने का विचार कर रहा हूँ।

इंद्रदत्ता—केवल कविता लिख डालने से काम न चलेगा। राजा साहब की पीठ में धूल लगानी पड़ेगी। उन्हें यह संतोष न होने देना चाहिए कि मैंने अंधो से चक्की पिसवाई। वह समझ रहे होंगे कि अंधा रुपये कहाँ से लाएगा। दोनों पर 300 रुपये जुर्माना हुआ हैए हमें किसी तरह से जुर्माना आज ही अदा करना चाहिए। सूरदास जेल से निकलेए तो सारे शहर में उसका जुलूस निकालना चाहिए। इसके लिए 200 रुपये की और जरूरत होगी। कुल 500 रुपये होंए तो काम चल जाए। बोलोए देते होघ्

प्रभु सेवक—जो उचित समझोए लिख लो।

इंद्रदत्ता—तुम 50 रुपये बिना कष्ट के दे सकते होघ्

प्रभु सेवक—और तुमने अपने नाम कितना लिखा हैघ्

इंद्रदत्ता—मेरी हैसियत 10 रुपये से अधिक देने की नहीं। रानी जाह्नवी से 100 रुपये ले लूँगा। कुँवर साहब ज्यादा नहींए तो 10 रुपये दे ही देंगे। जो कुछ कमी रह जाएगीए वह दूसरों से माँग ली जाएगी। सम्भव हैए डाक्टर गांगुली सब रुपये खुद ही दे देंए किसी से माँगना ही न पड़े।

प्रभु सेवक—सूरदास के मुहल्लेवालों से भी कुछ मिल जाएगा।

इंद्रदत्ता—उसे सारा शहर जानता हैए उसके नाम पर दो—चार हजार रुपये मिल सकते हैंय पर इस छोटी—सी रकम के लिए मैं दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहता।

यों बातें करते हुए दोनों आगे बढ़़े कि सहसा इंदु अपनी फिटन पर आती हुई दिखाई दी। इंद्रदत्ता को देखकर रुक गई और बोली—तुम कब लौटेघ् मेरे यहाँ नहीं आए!

इंद्रदत्ता—आप आकाश पर हैंए मैं पाताल में हूँए क्या बातें होंघ्

इंदु—आओए बैठ जाओए तुमसे बहुत—सी बातें करनी हैं।

इंद्रदत्ता फिटन पर जा बैठा। प्रभु सेवक ने जेब से 50 रुपये का एक नोट निकाला और चुपके से इंद्रदत्ता के हाथ में रखकर क्लब को चल दिए।

इंद्रदत्ता—अपने दोस्तों से भी कहना।

प्रभु सेवक—नहीं भाईए मैं इस काम का नहीं हूँ। मुझे माँगना नहीं आता! कोई देता भी होगाए तो मेरी सूरत देखकर मुट्ठी बंद कर लेगा।

इंद्रदत्ता—(इंदु से) आज तो यहाँ खूब तमाशा हुआ।

इंदु—मुझे तो ड्रामा का—सा आनंद मिला। सूरदास के विषय में तुम्हारा क्या खयाल हैघ्

इंद्रदत्ता—मुझे तो वह निष्कपटए सच्चाए सरल मनुष्य मालूम होता है।

इंदु—बस—बस यही मेरा भी विचार है। मैं समझती हूँए उसके साथ अन्याय हुआ। फैसला सुनाते वक्त तक मैं उसे अपराधाी समझती थीए पर उसकी अपील ने मेरे विचार में कायापलट कर दी। मैं अब तक उसे मक्कारए धूर्तए रँगा हुआ सियार समझती थी। उन दिनों उसने हम लोगों को कितना बदनाम किया! तभी से मुझे उससे घृणा हो गई थी। मैं उसे मजा चखाना चाहती थी। लेकिन आज ज्ञात हुआ कि मैंने उसके चरित्रा को समझने में भूल की। वह अपनी धुन का पक्काए निर्भीकए निरूस्पृहए सत्यनिष्ठ आदमी हैए किसी से दबना नहीं जानता।

इंद्रदत्ता—तो इस सहानुभूति को क्रिया के रूप में भी लाइएगाघ् हम लोग आपस में चंदा करके जुर्माना अदा कर देना चाहते हैं। आप भी इस सत्कार्य में योग देंगीघ्

इंदु ने मुस्कराकर कहा—मैं मौखिक सहानुभूति ही काफी समझती हूँ।

इंद्रदत्ता—आप ऐसा कहेंगीए तो मेरा यह विचार पुष्ट हो जाएगा कि हमारे रईसों में नैतिक बल नहीं रहा। हमारे राव—रईस हर एक उचित और अनुचित कार्य में अधिकारियों की सहायता करते रहते हैंए इसीलिए जनता का उन पर से विश्वास उठ गया है। वह उन्हें अपना मित्रा नहींए शत्रु समझती है। मैं नहीं चाहता कि आपकी गणना भी उन्हीं रईसों में हो। कम—से—कम मैंने आपको अब तक उन रईसों से अलग समझा है।

इंदु ने गम्भीर भाव से कहा—इंद्रदत्ताए मैं ऐसा क्यों कर रही हूँए इसका कारण तुम जानते हो। राजा साहब सुनेंगेए तो उन्हें कितना दुरूख होगा! मैं उनसे छिपकर कोई काम नहीं करना चाहती।

इंद्रदत्ता—राजा साहब से इस विषय में अभी मुझसे बातचीत नहीं हुई। लेकिन मुझे विश्वास है कि उनके भाव भी हमीं लोगों जैसे होंगे। उन्होंने इस वक्त कानूनी फैसला दिया है। सच्चा फैसला उनके हृदय ने किया होगा। कदाचित्‌ उनकी तरह न्यायपद पर बैठकर मैं भी वही फैसला करताए जो उन्होंने किया है। लेकिन वह मेरे ईमान का फैसला नहींए केवल कानून का विधान होता। मेरी उनसे घनिष्ठता नहीं हैए नहीं तो उनसे भी कुछ—न—कुछ ले मरता। उनके लिए भागने का कोई रास्ता नहीं था।

इंदु—सम्भव हैए राजा साहब के विषय में तुम्हारा अनुमान सत्य हो। मैं आज उनसे पूछूँगी।

इंद्रदत्ता—पूछिएए मुझे भय है कि राजा साहब इतनी आसानी से न खुलेंगे।

इंदु—तुम्हें भय हैए और मुझे विश्वास है। लेकिन यह जानती हूँ कि हमारे मनोभाव समान दशाओं में एक—से होते हैंय इसलिए आपको इंतजार के कष्ट में नहीं डालना चाहती। यह लीजिएए यह मेरी तुच्छ भेंट है।

यह कहकर इंदु ने एक सावरेन निकालकर इंद्रदत्ता को दे दिया।

इंद्रदत्ता—इसे लेते हुए शंका होती है।

इंदु—किस बात कीघ्

इंद्रदत्ता—कि कहीं राजा साहब के विचार कुछ और ही हों।

इंदु ने गर्व से सिर उठाकर कहा—इसकी कुछ परवा नहीं।

इंद्रदत्ता—हाँए इस वक्त आपने रानियों की—सी बात कही। यह सावरेन सूरदास की नैतिक विजय का स्मारक है। आपको अनेक धान्यवाद! अब मुझे आज्ञा दीजिए। अभी बहुत चक्कर लगाना है। जुर्माने के अतिरिक्त और जो कुछ मिल जाएए उसे अभी नहीं छोड़ना चाहता।

इंद्रदत्ता उतरकर जाना ही चाहते थे कि इंदु ने जेब से दूसरा सावरेन निकालकर कहा—यह लोए शायद इससे तुम्हारे चक्कर में कुछ कमी हो जाए।

इंद्रदत्ता ने सावरेन जेब में रखाए और खुश—खुश चले। लेकिन इंदु कुछ चिंतित—सी हो गई। उसे विचार आया—कहीं राजा साहब वास्तव में सूरदास को अपराधाी समझते होंए तो मुझे जरूर आड़े हाथों लेंगे। खैरए होगाए मैं इतना दबना भी नहीं चाहती। मेरार् कत्ताव्य है सत्कार्य में उनसे दबना। अगर कुविचार में पड़कर वह प्रजा पर अत्याचार करने लगेए तो मुझे उनसे मतभेद रखने का पूरा अधिकार है। बुरे कामों में उनसे दबना मनुष्य के पद से गिर जाना है। मैं पहले मनुष्य हूँय पत्नीए माताए बहिनए बेटी पीछे।

इंदु इन्हीं विचारों में मग्न थी कि मि. जॉन सेवक और उनकी स्त्राी मिल गई।

जॉन सेवक ने टोप उतारा। मिसेज सेवक बोलीं—हम लोग तो आप ही की तरफ जा रहे थे। इधार कई दिन से मुलाकात न हुई थी। जी लगा हुआ था। अच्छा हुआए राह में मिल गईं।

इंदु—जी नहींए मैं राह में नहीं मिली। यह देखिएए जाती हूँय आप जहाँ जाती हैंए वहीं जाइए।

जॉन सेवक—मैं तो हमेशा ब्वउचतवउपेम पसंद करता हूँय यह आगे पार्क आता है। आज बैंड भी होगाए वहीं जा बैठें।

इंदु—वह ब्वउचतवउपेम पक्षपात रहित तो नहीं हैए लेकिन खैर!

पार्क में तीनों आदमी उतरे और कुर्सियों पर जा बैठे। इंदु ने पूछा—सोफिया का कोई पत्रा आया थाघ्

मिसेज सेवक—मैंने तो समझ लिया कि वह मर गई। मि. क्लार्क जैसा आदमी उसे न मिलेगा। जब तक यहाँ रहीए टालमटोल करती रही। वहाँ जाकर विद्रोहियों से मिल बैठी। न जाने उसकी तकदीर में क्या है। क्लार्क से सम्बंधा न होने का दुरूख मुझे हमेशा रुलाता रहेगा।

जॉन सेवक—मैं तुमसे हजार बार कह चुकाए वह किसी से विवाह न करेगी। वह दाम्पत्य जीवन के लिए बनाई ही नहीं गई। वह आदर्शवादिनी है और आदर्शवादी सदैव आनंद के स्वप्न ही देखा करता हैए उसे आनंद की प्राप्ति नहीं होती। अगर कभी विवाह करेगी भीए तो कुँवर विनयसिंह से।

मिसेज सेवक—तुम मेरे सामने कुँवर विनयसिंह का नाम न लिया करो। क्षमा कीजिएगा रानी इंदुए मुझे ऐसे बेजोड़ और अस्वाभाविक विवाह पसंद नहीं।

जॉन सेवक—पर ऐसे बेजोड़ और अस्वाभाविक विवाह कभी—कभी हो जाते हैं।

मिसेज सेवक—मैं तुमसे कहे देती हूँए और रानी इंदुए आप गवाह रहिएगा कि सोफी की शादी कभी विनयसिंह से न होगी।

जॉन सेवक—आपका इस विषय में क्या विचार है रानी इंदुघ् दिल की बात कहिएगा।

इंदु—मैं समझती हूँए लेडी सेवक का अनुमान सत्य है। विनय को सोफी से कितना ही प्रेम होए पर वह माताजी की इतनी उपेक्षा न करेंगे। माताजी जैसी दुखी स्त्राी आज संसार में न होगी। ऐसा मालूम होता हैए उन्हें जीवन में अब कोई आशा ही नहीं रही। नित्य गुमसुम रहती हैं। अगर किसी ने भूलकर भी विनय का जिक्र छेड़ दियाए तो मारे क्रोधा के उनकी त्योरियाँ बदल जाती हैं। अपने कमरे से विनय का चित्रा उतरवा डाला है। उनके कमरे का द्वार बंद करा दिया हैए न कभी आप उसमें जाती हैंए न और किसी को जाने देती हैंए और मिस सोफिया का नाम ले लेना तो उन्हें चुटकी काट लेने के बराबर है। पिताजी को भी स्वयंसेवकों की संस्था से अब कोई प्रेम नहीं रहा। जातीय कामों से उन्हें कुछ अरुचि हो गई है। अहा! आज बहुत अच्छी साइत में घर से चली थी। वह डॉक्टर गांगुली चले आ रहे हैं। कहिएए डॉक्टर साहबए शिमले से कब लौटेघ्

गांगुली—सरदी पड़ने लगी। अब वहाँ से सब कोई कूच हो गया। हम तो अभी आपकी माताजी के पास गया। कुँवर विनयसिंह के हाल पर उनको बड़ा दुरूख है।

जॉन सेवक—अबकी तो आपने काउंसिल में धूम मचा दी।

गांगुली—हाँए अगर वहाँ भाषण करनाए प्रश्न करनाए बहस करना काम हैए तो आप हमारा जितना बड़ाई करना चाहता हैए करेय पर मैं उसे काम नहीं समझताए यह तो पानी चारना है। काम उसको कहना चाहिएए जिससे देश और जाति का कुछ उपकार हो। ऐसा तो हमने कोई काम नहीं किया। हमारा तो अब वहाँ मन नहीं लगता। पहले तो सब आदमी एक नहीं होताए और कभी हो ही गयाए तो गवर्नमेंट हमारा प्रस्ताव खारिज कर देता है। हमारा मेहनत खराब जाता है। यह तो लड़कों का खेल है। हमको नए कानून से बड़ी आशा थीए पर तीन—चार साल उसका अनुभव करके देख लिया कि इससे कुछ नहीं होता। हम जहाँ तब थाए वहीं अब भी है। मिलिटरी का खरच बढ़़ता जाता हैय उस पर कोई शंका प्रकट करेए तो सरकार बोलता हैए आपको ऐसा बात नहीं करना चाहिए। बजट बनाने लगता हैए तो हरएक आइटेम में दो—चार लाख ज्यादा लिख देता है। हम काउंसिल में जब जोर देता हैए तो हमारा बात रखने के लिए वही फालतू रुपया निकाल देता है। मेम्बर खुशी के मारे फूल जाता है—हम जीत गयाए हम जीत गया। पूछोए तुम क्या जीत गयाघ् तुम क्या जीतेगाघ् तुम्हारे पास जीतने का साधान ही नहीं हैए तुम कैसे जीत सकता हैघ् कभी हमारे बहुत जोर देने पर किफायत किया जाता हैए तो हमारे ही भाइयों का नुकसान होता है। जैसे अबकी हमने पुलिस विभाग में पाँच लाख काट दिया। मगर यह कमी बड़े—बड़े हाकिमों के भत्तो या तलब में नहीं किया गया। बिचारा चौकीदारए कांसटेबलए थानेदार का तलब घटावेगाए जगह तोड़ेगा। इससे अब किफायत का बात कहते हुए भी डर लगता है कि इससे हमारे ही भाइयों का गरदन कटता है। सारा काउंसिल जोर देता रहा कि बंगाल की बाढ़़ के सताए हुए आदमियों के सहातार्थ 20 लाख मंजूर किया जाएय सारा काउंसिल कहता रहा कि मि. क्लार्क का उदयपुर से बदली कर दिया जाएए पर सरकार ने मंजूर नहीं किया। काउंसिल कुछ नहीं कर सकता। एक पत्ती तक नहीं तोड़ सकता। आदमी काउंसिल को बना सकता हैए वही उसको बिगाड़ भी सकता है। भगवान्‌ जिलाता हैए तो भगवान ही मारता है। काउंसिल को सरकार बनाता है और वह सरकार के मुट्ठी में है। जब जाति द्वारा काउंसिल बनेगाए तब उससे देश का अकल्यान होगा। यह सब जानता हैए पर कुछ न करने से कुछ करते रहना अच्छा है। मरना भी मरना हैए और खाट पर पड़े रहना भी मरना हैय लेकिन एक अवस्था में कोई आशा नहीं रहताए दूसरी अवस्था में कुछ आशा रहता है। बसए इतना ही अंतर हैए और कुछ नहीं।

इंदु ने छेड़कर पूछा—जब आप जानते हैं कि वहाँ जाना व्यर्थ हैए तो क्यों जाते हैंघ् क्या आप बाहर रहकर कुछ नहीं कर सकतेघ्

गांगुली—(हँसकर) वही तो बात है इंदुरानीए हम खाट पर पड़ा हैए हिल नहीं सकताए बात नहीं कर सकताए खा नहीं सकताय लेकिन बाबाए यमराज को देखकर हम तो उठ भागेगाए रोएगा कि महाराजए कुछ दिन और रहने दो। हमारा जिंदगी काउंसिल में गुजर गयाए अब कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखाई देता।

इंदु—मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना बेहतर समझूँ। कम—से—कम यह तो आशा होगी कि कदाचित्‌ आनेवाला जीवन इससे अच्छा हो।

गांगुली—(हँसकर) हमको कोई कह दे कि मरकर तुम फिर इसी देश में आएगा और फिर काउंसिल में जा सकेगाए तो हम यमराज से बोलेगा—बाबाए जल्दी कर। पर ऐसा तो कहता नहीं।

जॉन सेवक—मेरा विचार है कि नये चुनाव में व्यापार—भवन की ओर से खड़ा हो जाऊँ।

गांगुली—आप किस दल में रहेगाघ्

जॉन सेवक—मेरा कोई न दल है और न होगा। मैं इसी विचार और उद्देश्य से जाऊँगा कि स्वदेशी व्यापार की रक्षा कर सकूँ। मैं प्रयत्न करूँगा कि विदेशी वस्तुओं पर बड़ी कठोरता से कर लगाया जाएए इस नीति का पालन किए बिना हमारा व्यापार कभी सफल न होगा।

गांगुली—इंग्लैंड को क्या करेगाघ्

जॉन सेवक—उसके साथ भी अन्य देशों का—सा व्यवहार होना चाहिए। मैं इंग्लैंड की व्यावसायिक दासता का घोर विरोधाी हूँ।

गांगुली—(घड़ी देखकर) बहुत अच्छी बात हैए आप खड़ा हो। अभी हमको यहाँ से अकेला जाना पड़ता है तब दो आदमी साथ—साथ जाएगा। अच्छाए अब जाता है। कई आदमियों से मिलना है।

डॉक्टर गांगुली के बाद जॉन सेवक ने घर की राह ली। इंदु मकान पर पहुँचीए तो राजा साहब बोले—तुम कहाँ रह गईंघ्

इंदु—रास्ते में डॉक्टर गांगुली और मि. जॉन सेवक मिल गएए बातें होने लगीं।

महेंद्र—गांगुली को साथ क्यों न लाईंघ्

इंदु—जल्दी में थे। आज तो इस अंधो ने कमाल कर दिया।

महेंद्र—एक ही धूर्त है। जो उसके स्वभाव से परिचित न होगाए जरूर धोखे में आ गया होगा। अपनी निर्दोषिता सिध्द करने के लिए इससे उत्ताम और कोई ढ़ंग धयान ही में नहीं आ सकता। इसे चमत्कार कहना चाहिए। मानना पड़ेगा कि उसे मानव चरित्रा का पूरा ज्ञान है। निरक्षर होकर भी आज उसने कितने ही शिक्षित और विचारशील आदमियों को अपना भक्त बना लिया। यहाँ लोग उसका जुर्माना अदा करने के लिए चंदा जमा कर रहे हैं। सुना हैए जुलूस भी निकालना चाहते हैं। पर मेरा —ढ़़ विश्वास है कि उसने उस औरत को बहकायाए और मुझे अफसोस है कि और कड़ी सजा क्यों न दी।

इंदु—तो आपने चंदा भी न दिया होगाघ्

महेंद्र—कभी—कभी तुम बेसिर—पैर की बातें करने लगती हो। चंदा कैसे देताए अपने मुँह में आप ही थप्पड़ मारता!

इंदु—लेकिन मैंने तो दिया है। मुझे...

महेंद्र—अगर तुमने दे दिया हैए तो बुरा किया है।

इंदु—मुझे यह क्या मालूम था कि...

महेंद्र—व्यर्थ बातें न बनाओ। अपना नाम गुप्त रखने को तो कह दिया हैघ्

इंदु—नहींए मैंने कुछ नहीं कहा।

महेंद्र—तो तुमसे ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न होगा। तुमने इंद्रदत्ता को रुपये दिए होंगे। इंद्रदत्ता यों बहुत विनयशील और सहृदय युवक हैए और मैं उसका दिल से आदर करता हूँ। लेकिन इस अवसर पर वह दूसरों से चंदा वसूल करने के लिए तुम्हारा नाम उछालता फिरेगा। जरा दिल से सोचोए लोग क्या समझेंगे। शोक है। अगर इस वक्त मैं दीवार से सिर नहीं टकरा लेताए तो समझ लो कि बड़े धौये से काम ले रहा हूँ। तुम्हारे हाथों मुझे सदैव अपमान ही मिलाए और तुम्हारा यह कार्य तो मेरे मुख पर कालिमा का चिद्द हैए जो कभी नहीं मिट सकता।

यह कहकर महेंद्रकुमार निराश होकर आरामकुर्सी पर लेट गए और छत की ओर ताकने लगे। उन्होंने दीवार से सिर न टकराने में चाहे असीम धौर्य से काम लिया या न लिया होए पर इंदु ने अपने मनोभावों को दबाने में असीम धौर्य से जरूर काम लिया। जी में आता था कह दूँए मैं आपकी गुलाम नहीं हूँए मुझे यह बात सम्भव ही नहीं मालूम होती थी कि कोई ऐसा प्राणी भी हो सकता हैए जिस पर ऐसी करुण अपील का कुछ असर न हो। मगर भय हुआ कि कहीं बात बढ़़ न जाए। उसने चाहा कि कमरे में चली जाऊँ और निर्दय प्रारब्धा कोए जिसने मेरी शांति में विघ्न डालने का ठेका—सा ले लिया हैए पैरों—तले कुचल डालूँ और दिखा दूँ कि धौर्य और सहनशीलता से प्रारब्धा के कठोरतम आघातों का प्रतिकार किया जा सकता हैए किंतु ज्यों ही वह द्वार की तरफ चली कि महेंद्रकुमार फिर तनकर बैठ गए और बोले—जाती कहाँ होए क्या मेरी सूरत से भी घृणा हो गईघ् मैं तुमसे बहुत सफाई से पूछना चाहता हूँ कि तुम इतनी निरंकुशता से क्यों काम करती होघ् मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि जिन बातों का सम्बंधा मुझसे होए वे मुझसे पूछे बिना न की जाएा करें। हाँए अपनी निजी बातों में तुम स्वाधाीन होय मगर तुम्हारे ऊपर मेरी अनुनय—विनय का कोई असर क्यों नहीं होताघ् क्या तुमने कसम खा ली है कि मुझे बदनाम करकेए मेरे सम्मान को धूल में मिलाकरए मेरी प्रतिष्ठा को पैरों से कुचलकर तभी दम लोगीघ्

इंदु ने गिड़गिड़ाकर कहा—ईश्वर के लिए इस वक्त मुझे कुछ कहने के लिए विवश न कीजिए। मुझसे भूल हुई या नहींए इस पर मैं बहस नहीं करना चाहतीए मैं माने लेती हूँ कि मुझसे भूल हुई और जरूर हुई। उसका प्रायश्चित्ता करने को तैयार हूँ। अगर अब भी आपका जी न भरा होए तो लीजिएए बैठी जाती हूँ। आप जितनी देर तक और जो कुछ चाहेंए कहेंय मैं सिर न उठाऊँगी।

मगर क्रोधा अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक—एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहींए वह मौन को सहन नहीं कर सकता। उसकी शक्ति अपार है। ऐसा कोई घातक—से—घातक शस्त्रा नहीं हैए जिससे बढ़़कर काट करने वाले यंत्रा उसकी शस्त्राशाला में न होयलेकिन मौन वह मंत्रा हैए जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है। मौन उसके लिए अजेय है। महेंद्रकुमार चिढ़़कर बोले—इसका यह आशय है कि मुझे बकवास का रोग हो गया है और कभी—कभी उसका दौरा हो जाएा करता हैघ्

इंदु—यह आप खुद कहते हैं।

इंदु से भूल हुई कि वह अपने वचन को निभा न सकी। क्रोधा को एक चाबुक और मिला। महेंद्र ने अॉंखें निकालकर कहा—यह मैं नहीं कहताए तुम कहती हो। आखिर बात क्या हैघ् मैं तुमसे जिज्ञासा—भाव से पूछ रहा हूँ कि तुम क्यों बार—बार वे ही काम करती होए जिनसे मेरी निंदा और जग—हँसाई होए मेरी मान—प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएए मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँघ् मैं जानता हूँए तुम जिद से ऐसा नहीं करतीं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँए तुम मेरे आदेशानुसार चलने का प्रयास भी करती हो। किंतु फिर भी जो यह अपवाद हो जाता हैए उसका क्या कारण हैघ् क्या यह बात तो नहीं कि पूर्वजन्म में हम और तुम एक दूसरे के शत्रु थेय या विधाता ने मेरी अभिलाषाओं और मंसूबों का सर्वनाश करने के लिए तुम्हें मेरे पल्ले बाँधा दिया हैघ् मैं बहुधा इसी विचार में पड़ा रहता हूँए पर कुछ रहस्य नहीं खुलता।

इंदु—मुझे गुप्त ज्ञान रखने का तो दावा नहीं है। हाँए अगर आपकी इच्छा होए तो मैं जाकर इंद्रदत्ता को ताकीद कर दूँ कि मेरा नाम न जाहिर होने पाए।

महेंद्र—क्या बच्चों की—सी बातें करती होय तुम्हें यह सोचना चाहिए था कि यह चंदा किस नीयत से जमा किया जा रहा है। इसका उद्देश्य है मेरे न्याय का अपमान करनाए मेरी ख्याति की जड़ खोदना। अगर मैं अपने सेवक की डाँट—फटकार करूँ और तुम उसकी पीठ पर हाथ फेरोए तो मैं इसके सिवा और क्या समझ सकता हूँ कि तुम मुझे कलंकित करना चाहती होघ् चंदा तो खैर होगा हीए मुझे उसके रोकने का अधिकार नहीं है—जब तुम्हारे ऊपर कोई वश नहीं हैए तो दूसरों का क्या कहना—लेकिन मैं जुलूस कदापि न निकलने दूँगा। मैं उसे अपने हुक्म से बंद कर दूँगा। और अगर लोगों को ज्यादा तत्पर देख्रूगाए तो सैनिक—सहायता लेने में भी संकोच न करूँगा।

इंदु—आप जो उचित समझेंए करेंय मुझसे ये सब बातें क्यों कहते हैंघ्

महेंद्र—तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम भी उस अंधो के भक्तों में हो। कौन कह सकता है कि तुमने उससे दीक्षा लेने का निश्चय नहीं किया है! आखिर रैदास भगत के चेले ऊँची जातों में भी तो हैंघ्

इंदु—मैं दीक्षा को मुक्ति का साधान नहीं समझती और शायद कभी दीक्षा न लूँगी। मगर हाँय आप चाहे जितना बुरा समझेंए दुर्भाग्यवश मुझे यह पूरा विश्वास हो गया है कि सूरदास निरपराधा है। अगर यही उसकी भक्ति हैए तो मैं अवश्य उसकी भक्त हूँ!

महेंद्र—तुम कल जुलूस में तो न जाओघ्

इंदु—जाना तो चाहती थीए पर अब आपकी खातिर से न जाऊँगी। अपने सिर पर नंगी तलवार लटकते नहीं देख सकती।

महेंद्‌र्—अच्छी बात हैए इसके लिए तुम्हें अनेक धान्यवाद!

इंदु अपने कमरे में जाकर लेट गई। उसका चित्ता बहुत खिन्न हो रहा था। वह देर तक राजा साहब की बातों पर विचार करती रहीए फिर आप—ही—आप बोली—भगवान्ए यह जीवन असह्य हो गया है। या तो तुम इनके हृदय को उदार कर दोए या मुझे संसार से उठा लो। इंद्रदत्ता इस वक्त न जाने कहाँ होगाघ् क्यों न उसके पास एक रुक्का भेज दूँ कि खबरदारए मेरा नाम जाहिर न होने पाए! मैंने इनसे नाहक कह दिया कि चंदा दिया। क्या जानती थी कि यह गुल खिलेगा!

उसने तुरंत घंटी बजाईए नौकर अंदर आकर खड़ा हो गया। इंदु ने रुक्का लिखा—प्रिय इंद्रए मेरे चंदे को किसी पर जाहिर मत करनाए नहीं तो मुझे बड़ा दुरूख होगा। मुझे बहुत विवश होकर ये शब्द लिखने पड़े हैं।

फिर रुक्के को नौकर को देकर बोली—इंद्रदत्ता बाबू का मकान जानता हैघ्

नौकर—होई तो कहूँ सहरै मँ नघ् पूछ लेबै!

इंदु—शहर में तो शायद उम्र—भर उनके घर का पता न लगे।

नौकर—आप चिट्ठी तो देंए पता तो हम लगाउबए लगी नए का कही!

इंदु—ताँगा ले लेनाए काम जल्दी का है।

नौकर—हमार गोड़ ताँगा से कम थोरे है। का हम कौनों ताँगा ससुर से कम चलित है!

इंदु—बाजार चौक से होते हुए मेरे घर तक जाना। बीस बिस्वे वह तुम्हें मेरे घर पर ही मिलेंगे। इंद्रदत्ता को देखा हैघ् पहचानता है नघ्

नौकर—जेहका एक बार देख लेईए ओहका जनम—भर न भूली। इंदर बाबू का तो सैकरन बेर देखा है।

इंदु—किसी को यह खत मत दिखाना।

नौकर—कोऊ देखी कइसए पहले औकी अॉंखि न फोरि डारबघ्

इंदु ने रुक्का दिया और नौकर चला गया। तब वह फिर लेट गई और वे ही बातें सोचने लगी—मेरा यह अपमान इन्हीं के कारण हो रहा है। इंद्र अपने दिल में क्या सोचेगा। यही न कि राजा साहब ने इसे डाँटा होगा। मानो मैं लौंडी हूँए जब चाहते हैं डाँट देते हैं। मुझे कोई काम करने की स्वाधाीनता नहीं है। उन्हें अख्तयार हैए जो चाहेंए करें। मैं उनके इशारों पर चलने के लिए मजबूर हूँ। कितनी अधोगति है!

यह सोचते ही वह तेजी से उठी और घंटी बजाई। लौंडी आकर खड़ी हो गई। इंदु बोली—देखए भीखा चला तो नहीं गयाघ् मैंने उसे एक रुक्का दिया है। जाकर उससे वह रुक्का माँग ला। अब न भेजूँगी। चला गया होए तो किसी को साइकिल पर दौड़ा देना। चौक की तरफ मिल जाएगा।

लौंडी चली गई और जरा देर में भीखा को लिए हुए आ पहुँची। भीख बोला—जो छिन—भर और न जाताए तो हम घरमा न मिलित।

इंदु—काम तो तुमने जुर्माने का किया है कि इतना जरूरी खत और अभी तक घर में पड़े रहे। लेकिन इस वक्त यही अच्छा हुआ। वह रुक्का अब न जाएगाए मुझे दो।

उसने रुक्का लेकर फाड़ डाला। तब आज का समाचार—पत्रा खोलकर देखने लगी। पहला ही शीर्षक था—श्शास्त्राीजी की महत्तवपूर्ण वक्तृताश्। इंदु ने पत्रा को नीचे डाल दिया—यह महाशय तो शैतान से ज्यादा प्रसिध्द हो गए। जहाँ देखोए वहीं शास्त्राी। ऐसे मनुष्य की योग्यता की चाहे जितनी प्रशंसा की जाएए पर उसका सम्मान नहीं किया जा सकता। शास्त्राीजी का नाम आते ही मुझे इसकी याद आ जाती है। जो आदमी जरा—जरा—से मतभेद पर सिर हो जाएए दाल में जरा—सा नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्राी को घर से निकाल देए जिसे दूसरों के मनोभावों का जरा भी लिहाज न होए जिसे जरा भी चिंता न हो कि मेरी बातों से किसी के दिल पर क्या असर होगाए वह भी कोई आदमी है! हो सकता है कि कल को कहने लगेंए अपने पिता से मिलने मत जाओ। मानोए मैं इनके हाथों बिक गई!

दूसरे दिन प्रातरूकाल उसने गाड़ी तैयार कराई और दुशाला ओढ़़कर घर से निकली। महेंद्रकुमार बाग में टहल रहे थे। यह उनका नित्य का नियम था। इंदु को जाते देखाए तो पूछा—इतने सबेरे कहाँघ्

इंदु ने दूसरी ओर ताकते हुए कहा—जाती हूँ आपकी आज्ञा का पालन करने। इंद्रदत्ता से रुपये वापस लूँगी।

महेंद्र—इंदुए सच कहता हूँए तुम मुझे पागल बना दोगी।

इंदु—आप मुझे कठपुतलियों की तरह नाचना चाहते हैं। कभी इधारए कभी उधारघ्

सहसा इंद्रदत्ता सामने से आते हुए दिखाई दिए। इंदु उनकी ओर लपककर चलीए मानो अभिवादन करने जा रही हैए और फाटक पर पहुँचकर बोली—इंद्रदत्ताए सच कहनाए तुमने किसी से मेरे चंदे की चर्चा तो नहीं कीघ्

इंद्रदत्ता सिटपिटा—सा गयाए जैसे कोई आदमी दुकानदार को पैसे की जगह रुपया दे आए। बोला—आपने मुझे मना तो नहीं किया थाघ्

इंदु—तुम झूठे होए मैंने मना किया था।

इंद्रदत्ता—इंदुरानीए मुझे खूब याद है कि आपने मना नहीं किया था। हाँए मुझे स्वयं बुध्दि से काम लेना चाहिए था। इतनी भूल जरूर मेरी है।

इंदु—(धाीरे से) तुम महेंद्र से इतना कह सकते हो कि मैंने इनकी चर्चा किसी से नहीं कीए मुझ पर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। बड़े नैतिक संकट में पड़ी हुई हूँ।

यह कहते—कहते इंदु की अॉंखें डबडबा आईं। इंद्रदत्ता वातावरण ताड़ गया! बोला—हाँए कह दूँगा—आपकी खातिर से।

एक क्षण में इंद्रदत्ता राजा के पास जा पहुँचा। इंदु घर में चली गई।

महेंद्रकुमार ने पूछा—कहिए महाशयए इस वक्त कैसे कष्ट कियाघ्

इंद्रदत्ता—मुझे तो कष्ट नहीं हुआए आपको कष्ट देने आया हूँ। क्षमा कीजिएगा। यद्यपि यह नियम—विरुध्द हैए पर मेरी आपसे प्रार्थना है कि सूरदास और सुभागी का जुर्मान आप इसी वक्त मुझसे ले लें और उन दोनों को रिहा करने का हुक्म दे दें। कचहरी अभी देर में खुलेगी। मैं इसे आपकी विशेष कृपा समझूँगा।

महेंद्रकुमार—हाँए नियम—विरुध्द तो हैए लेकिन तुम्हारा लिहाज करना पड़ता है। रुपये मुनीम को दे दोए मैं रिहाई का हुकम लिखे देता हूँ। कितने रुपये जमा किएघ्

इंद्रदत्ता—बसए शाम को चुने हुए सज्जनों के पास गया था। कोई पाँच सौ रुपये हो गए।

महेंद्रकुमार—तब तो तुम इस कला में निपुण हो। इंदुरानी का नाम देखकर न देनेवालों ने भी दिए होंगे।

इंद्रदत्ता—मैं इंदुरानी के नाम का इससे ज्यादा आदर करता हूँ। अगर उनका नाम दिखाताए तो पाँच सौ रुपये न लाताए पाँच हजार लाता।

महेंद्रकुमार—अगर यह सच हैए तो तुमने मेरी आबरू रख ली।

इंद्रदत्ता—मुझे आपसे एक याचना और करनी है। कुछ लोग सूरदास को इज्जत के साथ उनके घर पहुँचाना चाहते हैं। सम्भव हैए दो—चार सौ दर्शक जमा हो जाएँ। मैं आपसे इसका आज्ञा चाहता हूँ।

महेंद्रकुमार—जुलूस निकालने की आज्ञा नहीं दे सकता। शांति—भंग हो जाने की शंका है।

इंद्रदत्ता—मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि पत्ताा तक न हिलेगा।

महेंद्रकुमार—यह असम्भव है।

इंद्रदत्ता—मैं इसकी जमानत दे सकता हूँ।

महेंद्रकुमार—यह नहीं हो सकता।

इंद्रदत्ता समझ गया कि राजा साहब से अब ज्यादा आग्रह करना व्यर्थ है। जाकर मुनीम को रुपये दिए और ताँगे की ओर चला। सहसा राजा साहब ने पूछा—जुलूस तो न निकलेगा नघ्

इंद्रदत्ता—निकलेगा। मैं रोकना चाहूँए तो भी नहीं रोक सकता।

इंद्रदत्ता वहाँ से अपने मित्राों को सूचना देने के लिए चले। जुलूस का प्रबंधा करने में घंटों की देर लग गई। इधार उनके जाते ही राजा साहब ने जेल के दारोगा को टेलीफोन कर दिया कि सूरदास और सुभागी को छोड़ दिया जाए और उन्हें बंद गाड़ी में बैठाकर उनके घर पहुँचा दिया जाए। जब इंद्रदत्ता सवारीए बाजे आदि लिए हुए जेल पहुँचेए तो मालूम हुआए पिंजरा खाली हैए चिड़ियाँ उड़ गईं। हाथ मलकर रह गए। उन्हीं पाँवों पाँडेपुर चले। देखाए तो सूरदास एक नीम के नीचे राख के ढ़ेर के पास बैठा हुआ है। एक ओर सुभागी सिर झुकाए खड़ी है। इंद्रदत्ता को देखते ही जगधार और अन्य कई आदमी इधार—उधार से आकर जमा हो गए।

इंद्रदत्ता—सूरदासए तुमने तो बड़ी जल्दी की। वहाँ लोग तुम्हारा जुलूस निकालने की तैयारियाँ किए हुए थे। राजा साहब ने बाजी मार ली। अब बतलाओए वे रुपये क्या होंए जो जुलूस के खर्च के लिए जमा किए गए थेघ्

सूरदास—अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ चुपके से आ गयाए नहीं तो सहर—भर में घूमना पड़ता! जुलूस बड़े—बड़े आदमियों का निकालता है कि अंधो—भिखारियों काघ् आप लोगों ने जरीबाना देकर छुड़ा दियाए यही कौन कम धारम कियाघ्

इंद्रदत्ता—अच्छा बताओए ये रुपये क्या किए जाएँघ् तुम्हें दे दूँघ्

सूरदास—कितने रुपये होंगेघ्

इंद्रदत्ता—कोई तीन सौ होंगे।

सूरदास—बहुत हैं। इतने में भैरों की दूकान मजे में बन जाएगी।

जगधार को बुरा लगाए बोला—पहले अपनी झोंपड़ी की तो फिकर करो!

सूरदास—मैं इसी पेड़ के नीचे पड़ रहा करूँगाए या पंडाजी के दालान में।

जगधार—जिसकी दूकान जली हैए वह बनवाएगाए तुम्हें क्या चिंता हैघ्

सूरदास—जली तो है मेरे ही कारण!

जगधार—तुम्हारा घर भी तो जला हैघ्

सूरदास—यह भी बनेगाए लेकिन पीछे से। दूकान न बनीए तो भैरों को कितना घाटा होगा! मेरी भीख तो एक दिन भी बंद न होगी!

जगधार—बहुत सराहने से भी आदमी का मन बिगड़ जाता है। तुम्हारी भलमनसी को लोग बखान करने लगेए तो अब तुम सोचते होगे कि ऐसा काम करूँए जिसमें और बड़ाई हो। इस तरह दूसरों की ताली पर नाचना न चाहिए।

इंद्रदत्ता—सूरदासए तुम इन लोगों को बकने दोए तुम ज्ञानी होए ज्ञान—पक्ष को मत छोड़ो। ये रुपये पास रखे जाता हूँय जो इच्छा होए करना।

इंद्रदत्ता चला गयाए तो सुभागी ने सूरदास से कहा—उसकी दूकान बनवाने का नाम न लेना।

सूरदास—मेरे घर से पहले उसकी दूकान बनेगी। यह बदनामी सिर पर कौन ले कि सूरदास ने भैरों का घर जलवा दिया। मेरे मन में यह बात समा गई है कि हमीं में से किसी ने उसकी दूकान जलाई।

सुभागी—उससे तुम कितना ही दबोए पर वह तुम्हारा दुसमन ही बना रहेगा। कुत्तो की पूँछ कभी सीधाी नहीं होती।

सूरदास—तुम दोनों फिर एक हो जाओगेए तब तुझसे पूछँगा।

सुभागी—भगवान मार डालेंए पर उसका मुँह न दिखावें।

सूरदास—मैं कहे देता हूँए एक दिन तू भैरों के घर की देवी बनेगी।

सूरदास रुपये लिए हुए भैरों के घर की ओर चला। भैरों रपट करने जाना तो चाहता थाय पर शंका हो रही थी कि कहीं सूरदास की झोंपड़ी की भी बात चलीए तो क्या जवाब दँगा। बार—बार इरादा करके रुक जाता था। इतने में सूरदास को सामने आते देखाए तो हक्का—बक्का रह गया। विस्मित होकर बोला—अरेए क्या जरीबाना दे आया क्याघ्

बुढ़़िया बोली—बेटाए इसे जरूर किसी देवता का इष्ट हैए नहीं तो वहाँ से कैसे भाग आता!

सूरदास ने बढ़़कर कहा—भैरोंए मैं ईश्वर को बीच में डालकर कहता हूँए मुझे कुछ नहीं मालूम कि तुम्हारी दूकान किसने जलाई। तुम मुझे चाहे जितना नीच समझोय पर मेरी जानकारी में यह बात कभी न होने पाती। हाँए इतना कह सकता हूँ कि यह किसी मेरे हितू का काम है।

भैरों—पहले यह बताओ कि तुम छूट कैसे आएघ् मुझे तो यही बड़ा अचरज है।

सूरदास—भगवान्‌ की इच्छा। सहर के कुछ धार्मात्मा आदमियों ने आपस में चंदा करके मेरा जरीबाना भी दे दिया और कोई तीन सौ रुपये जो बच रहे हैंए मुझे दे गए हैं। मैं तुमसे यह कहने आया हूँ कि तुम ये रुपये लेकर अपनी दूकान बनवा लोए जिसमें तुम्हारा हरज न हो। मैं सब रुपये ले आया हूँ।

भैरों भौंचक्का होकर उसकी ओर ताकने लगाए जैसे कोई आदमी आकाश से मोतियों की वर्षा होते देखे। उसे शंका हो रही थी कि इन्हें बटोरूँ या नहींए इनमें कोई रहस्य तो नहीं हैए इनमें कोई जहरीला कीड़ा तो नहीं छिपा हुआ हैए कहीं इनको बटोरने से मुझ पर कोई आफत तो न आ जाएगी। उसके मन में प्रश्न उठाए यह अंधा सचमुच रुपये देने के लिए आया हैए या मुझे ताना दे रहा है। जरा इसका मन टटोलना चाहिएए बोला—तुम अपने रुपये रखोए यहाँ कोई रुपयों के भूखे नहीं हैं! प्यासों मरते भी होंए तो दुसमन के हाथ से पानी न पिएँ।

सूरदास—भैरोंए हमारी—तुम्हारी दुसमनी कैसीघ् मैं तो किसी को अपना दुसमन नहीं देखता। चार दिन की जिंदगानी के लिए क्या किसी से दुसमनी की जाए! तुमने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की। तुम्हारी जगह मैं होता और समझता कि तुम मेरी घरवाली को बहकाए लिए जाते होए तो मैं भी वहीं करताए जो तुमने किया। अपनी आबरू किसको प्यारी नहीं होतीघ् जिसे अपनी आबरू प्यारी न होए उसकी गिनती आदमियों में नहींए पशुओं में है। मैं तुमसे सच कहता हूँए तुम्हारे ही लिए मैंने ये रुपये लिएए नहीं तो मेरे लिए तो पेड़ की छाँह बहुत थी। मैं जानता हूँए अभी तुम्हें मेरे ऊपर संदेह हो रहा हैए लेकिन कभी—न—कभी तुम्हारा मन मेरी ओर से साफ हो जाएगा। ये रुपये लो और भगवान्‌ का नाम लेकर दूकान बनवाने में हाथ लगा दो। कम पड़ेंगेए तो जिस भगवान्‌ ने इतनी मदद की हैए वही भगवान्‌ और मदद भी करेंगे।

भैरों को इन वाक्यों में सहृदयता और सज्जनता की झलक दिखाई दी। सत्य विश्वासोत्पादक होता है। नरम होकर बोला—आओए बैठोए चिलम पियो। कुछ बातें होंए तो समझ में आए। तुम्हारे मन का भेद ही नहीं खुलता। दुसमन के साथ कोई भलाई नहीं करता। तुम मेरे साथ क्यों इतनी मेहरबानी करते होघ्

सूरदास—तुमने मेरे साथ कौन—सी दुसमनी कीघ् तुमने वही कियाए जो तुम्हारा धारम था! मैं रात—भर हिरासत में बैठा यही सोचता रहा कि तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हुए होए मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई नहीं कीए तो मुझे मालूम हुआ कि तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं कर रहे हो। यही तुम्हारा धारम है। औरत के पीछे तो खून हो जाता है। तुमने नालिस ही कर दीए तो कौन बुरा काम किया! बसए अब तुमसे मेरी यही विनती है कि जिस तरह कल भरी अदालत में पंचों ने मुझे निरपराधा कह दियाए उसी तरह तुम भी मेरी ओर से अपना मन साफ कर लो। मेरी इससे भी बड़ी दुर्गत होए अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई घाटा किया है। हाँए मुझसे एक ही बात नहीं हो सकती। मैं सुभागी को अपने घर से निकाल नहीं सकता। डरता हूँ कि कोई आड़ न रहेगीए तो न जाने उसकी क्या दसा हो। मेरे यहाँ रहेगीए तो कौन जानेए कभी तुम्हीं उसे फिर रख लो।

भैरों का मलिन हृदय इस आंतरिक निर्मलता से प्रतिबिम्बित हो गया। आज पहली बार उसे सूरदास की नेकनीयती पर विश्वास हुआ। सोचा—अगर इसका दिल साफ न होताए तो मुझसे ऐसी बातें क्यों करताघ् मेरा कोई डर तो इसे है नहीं। मैं जो कुछ कर सकता थाए कर चुका। इसके साथ तो सारा सहर है। सबों ने जरीबाना अदा कर दिया। ऊपर से कई सौ रुपए और दे गए। मुहल्ले में भी इसकी धाक फिर बैठ गई। चाहे तो बात—की—बात में मुझे बिगाड़ सकता है। नीयत साफ न होतीए तो अब सुभागी के साथ आराम से रहता। अंधा हैए अपाहिज हैए भीख माँगता हैय पर उसकी कितनी मरजाद हैए बड़े—बडे आदमी आव—भगत करते हैं! मैं कितना अधामए नीच आदमी हूँए पैसे के लिए रात—दिन दगा—फरेब करता रहता हूँ। कौन—सा पाप हैए जो मैंने नहीं किया! इस बेचारे का घर जलायाए एक बार नहींए दो बार इसके रुपये उठा ले गया। यह मेरे साथ नेकी ही करता चला आता है। सुभागी के बारे में मुझे सक—ही—सक था। अगर कुछ नीयत बद होतीए तो इसका हाथ किसने पकड़ा थाए सुभागी को खुले—खजाने रख लेता। अब तो अदालत—कचहरी का भी डर नहीं रहा। यह सोचता हुआ वह सूरदास के पास आकर बोला—सूरेए अब तक मैंने तुम्हारे साथ जो बुराई—भलाई कीए उसे माफ करो। आज से अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई करूँए तो भगवान मुझसे समझें। ये रुपये मुझे मत दोए मेरे पास रुपये हैं। ये भी तुम्हारे ही रुपये हैं। दूकान बनवा लूँगा। सुभागी पर भी मुझे अब कोई संदेह नहीं रहा। मैं भगवान्‌ को बीच में डालकर कहता हूँए अब मैं कभी उसे कोई कड़ी बात तक न कहूँगा। मैं अब तक धोखे में पड़ा हुआ था। सुभागी मेरे यहाँ आने पर वह तुम्हारी बात को नाहीं तो न करेगीघ्

सूरदास—राजी ही हैए बस उसे यही डर है कि तुम फिर मारने—पीटने लगोगे।

भैरों—सूरेए अब मैं उसे भी पहचान गया। मैं उसके जोग नहीं था। उसका ब्याह तो किसी धार्मात्मा आदमी से होना चाहिए था। (धाीरे से) आज तुमसे कहता हूँए पहली बार भी मैंने ही तुम्हारे घर में आग लगाई थी और तुम्हारे रुपये चुराए थे।

सूरदास—उन बातों को भूल जाओ भैरां! मुझे सब मालूम है। संसार में कौन हैए जो कहे कि मैं गंगाजल हूँ। जब बडे—बड़े साधु—संन्यासी माया—मोह में फँसे हुए हैंए तो हमारी—तुम्हारी क्या बात है! हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधाली करके कोई जीत ही जाएए तो क्या हाथ आएगाघ् खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहेय पर हार से घबराए नहींए ईमान को न छोड़े। जीतकर इतना न इतराए कि अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार—जीत तो जिंदगानी के साथ है। हाँए एक सलाह की बात कहता हूँ। तुम ताड़ी की दुकान छोड़कर कोई दूसरा रोजगार क्यों नहीं करतेघ्

भैरों—जो कहोए वह करूँ। यह रोजगार खराब है। रात—दिन जुआरीए चोरए बदमाश आदमियों का ही साथ रहता है। उन्हीं की बातें सुनोए उन्हीं के ढ़ंग सीखो। अब मुझे मालूम हो रहा है कि इसी रोजगार ने मुझे चौपट किया। बताओए क्या करूँघ्

सूरदास—लकड़ी का रोजगार क्यों नहीं कर लेतेघ् बुरा नहीं है। आजकल यहाँ परदेसी बहुत आएँगेए बिक्री भी अच्छी होगी। जहाँ ताड़ी की दूकान थीए वहीं एक बाड़ा बनवा दो और इन रुपयों से लकड़ी का काम करना शुरू कर दो।

भैरों—बहुत अच्छी बात है। मगर ये रुपये अपने ही पास रखो। मेरे मन का क्या ठिकाना!

रुपये पाकर कोई और बुराई न कर बैठूँ। मेरे—जैसे आदमी को तो कभी आधो पेट के सिवा भोजन न मिलना चाहिए। पैसे हाथ में आएए और सनक सवार हुई।

सूरदास—मेरे घर न द्वारए रखूँगा कहाँघ्

भैरों—इससे तुम अपना घर बनवा लो।

सूरदास—तुम्हें लकड़ी की दुकान से नफा होए तो बनवा देना।

भैरों—सुभागी को समझा दो।

सूरदास—समझा दूँगा।

सूरदास चला गया। भैरों घर गयाए तो बुढ़़िया बोली—तुझसे मेल करने आया था नघ्

भैरों—हाँए क्यों न मेल करेगाए मैं बड़ा लाट हूँ न! बुढ़़ापे में तुझे और कुछ नहीं सूझता। यह आदमी नहींए साधु है!

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अध्याय 33

फैक्टरी करीब—करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगीं। पहले तो मजदूर—मिस्त्राी आदि प्रायरू मिल के बरामदों ही में रहते थेए वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोतेय लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़़ गईए तो मुहल्ले में मकान ले—लेकर रहने लगे। पाँड़ेपुर छोटी—सी बस्ती तो थी हीए वहाँ इतने मकान कहाँ थेए नतीजा यह हुआ कि मुहल्लेवाले किराए के लालच से परदेशियों को अपने—अपने घरों में ठहराने लगे। कोई परदे की दीवार खिंचवा लेता थाए कोई खुद झोंपड़ा बनाकर उसमें रहने लगता और मकान भड़ैतों को दे देता। भैरों ने लकड़ी की दूकान खोल ली थी। वह अपनी माँ के साथ वहीं रहने लगाए अपना घर किराए पर दे दिया। ठाकुरदीन ने अपनी दुकान के सामने एक टट्टी लगाकर गुजर करना शुरू कियाए उसके घर में एक ओवरसियर आ डटे। जगधार सबसे लोभी थाए उसने सारा मकान उठा दिया और आप एक फूस के छप्पर में निर्वाह करने लगा। नायकराम के बरामदे में तो नित्य एक बरात ठहरती थी। यहाँ तक लोभ ने लोगों को घेरा कि बजरंगी ने भी मकान का एक हिस्सा उठा दिया। हाँए सूरदास ने किसी को नहीं टीकाया। वह अपने नए मकान मेंए जो इंदुरानी के गुप्त दान से बना थाए सुभागी के साथ रहता था। सुभागी अभी तक भैरों के साथ रहने पर राजी न हुई थी। हाँए भैरों की आमद—रफ्त अब सूरदास के घर अधिक रहती थी। कारखाने में अभी मशीनें न गड़ी थींए पर उसका फैलाव दिन—दिन बढ़़ता जाता था। सूरदास की बाकी पाँच बीघे जमीन भी उसी धारा के अनुसार मिल के अधिकार में आ गई। सूरदास ने सुनाए तो हाथ मलकर रह गया। पछताने लगा कि जॉन साहब ही से क्यों न सौदा कर लिया! पाँच हजार देते थे। अब बहुत मिलेंगेए दो—चार सौ रुपये मिल जाएँगे। अब कोई आंदोलन करना उसे व्यर्थ मालूम होता था। जब पहले ही कुछ न कर सकाए तो अबकी क्या कर लूँगा। पहले ही यह शंका थीए वह पूरी हो गई। दोपहर का समय था। सूरदास एक पेड़ के नीचे बैठा झपकियाँ ले रहा था कि इतने में तहसील के एक चपरासी ने आकर उसे पुकारा और एक सरकारी परवाना दिया। सूरदास समझ गया कि हो—न—हो जमीन ही का कुछ झगड़ा है। परवाना लिए हुए मिल में आया कि किसी बाबू से पढ़़वाए। मगर कचहरी की सुबोधा लिपि बाबुओं से क्या चलती! कोई कुछ बता न सका। हारकर लौट रहा था कि प्रभु सेवक ने देख लिया। तुरंत अपने कमरे में बुला लिया और परवाने को देखा। लिखा हुआ था—अपनी जमीन के मुआवजे के 1ए 000 रुपये तहसील में आकर ले जाओ। सूरदास—कुल एक हजार हैघ् प्रभु सेवक—हाँए इतना ही तो लिखा है। सूरदास—तो मैं रुपये लेने न जाऊँगा। साहब ने पाँच हजार देने कहे थेए उनके एक हजार रहेए घूस—घास में सौ—पचास और उड़ जाएँगे। सरकार का खजाना खाली हैए भर जाएगा। प्रभु सेवक—रुपये न लोगेए तो जब्त हो जाएँगे। यहाँ तो सरकार इसी ताक में रहती है कि किसी तरह प्रजा का धान उड़ा ले। कुछ टैक्स के बहाने सेए कुछ रोजगार के बहाने सेए कुछ किसी बहाने से हजम कर लेती है। सूरदास—गरीबों की चीज हैए तो बाजार—भाव से दाम देना चाहिए। एक तो जबरदस्ती जमीन ले लीए उस पर मनमाना दाम दे दिया। यह तो कोई न्याय नहीं है। प्रभु सेवक—सरकार यहाँ न्याय करने नहीं आई है भाईए राज्य करने आई है। न्याय करने से उसे कुछ मिलता हैघ् कोई समय वह थाए जब न्याय को राज्य की बुनियाद समझा जाता था। अब वह जमाना नहीं है। अब व्यापार का राज्य हैए और जो इस राज्य को स्वीकार न करेए उसके लिए तारों का निशाना मारनेवाली तोपें हैं। तुम क्या कर सकते होघ् दीवानी में मुकदमा दायर करोगेए वहाँ भी सरकार ही के नौकर—चाकर न्याय—पद पर बैठे हुए हैं। सूरदास—मैं कुछ न लूँगा। जब राजा ही अधार्म करने लगाए तो परजा कहाँ तक जान बचाती फिरेगीघ् प्रभु सेवक—इससे फायदा क्याघ् एक हजार मिलते हैंए ले लोय भागते भूत की लँगोटी ही भली। सहसा इंद्रदत्ता आ पहुँचे और बोले—प्रभुए आज डेरा कूच हैए राजपूताना जा रहा हूँ। प्रभु सेवक—व्यर्थ जाते हो। एक तो ऐसी सख्त गरमीए दूसरे वहाँ की दशा अब बड़ी भयानक हो रही है। नाहक कहीं फँस—फँसा जाओगे। इंद्रदत्ता—बसए एक बार विनयसिंह से मिलना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि उनके स्वभावए चरित्राए आचार—विचार में इतना परिवर्तनए नहीं रूपांतर कैसे हो गया। प्रभु सेवक—जरूर कोई—न—कोई रहस्य है। प्रलोभन में पड़नेवाला आदमी तो नहीं है। मैं तो उनका परम भक्त हूँ। अगर वह विचलित हुएए तो मैं समझ जाऊँगा कि धार्मनिष्ठा का संसार से लोप हो गया। इंद्रदत्ता—यह न कहो प्रभुए मानव—चरित्रा बहुत ही दुर्बोधा वस्तु है। मुझे तो विनय की काया—पलट पर इतना क्रोधा आता है कि पाऊँए तो गोली मार दूँ। हाँए संतोष इतना ही है कि उनके निकल जाने से इस संस्था पर कोई असर नहीं पड़ सकता। तुम्हें तो मालूम हैए हम लोगों ने बंगाल में प्राणियों के उध्दार के लिए कितना भगीरथ प्रयत्न किया। कई—कई दिन तक तो हम लोगों को दाना तक न मयस्सर होता था। सूरदास—भैयाए कौन लोग इस भाँति गरीबों का पालन करते हैंघ् इंद्रदत्ता—अरे सूरदास! तुम यहाँ कोने में खड़े हो! मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं। कहोए सब कुशल है नघ् सूरदास—सब भगवान्‌ की दया है। तुम अभी किन लोगों की बात कर रहे थेघ् इंद्रदत्ता—अपने ही साथियों की। कुँवर भरतसिंह ने कुछ जवान आदमियों को संगठित करके एक संगत बना दी हैए उसके खर्च के लिए थोड़ी—सी जमीन भी दान कर दी है। आजकल हम लोग कई सौ आदमी हैं। देश की यथाशक्ति सेवा करना ही हमारा परम धार्म और व्रत है। इस वक्त हममें से कुछ लोग तो राजपूताना गए हुए हैं और कुछ लोग पंजाब गए हुए हैंए जहाँ सरकारी फौज ने प्रजा पर गोलियाँ चला दी हैं। सूरदास—भैयाए यह तो बड़े पुन्न का काम है। ऐसे महात्मा लोगों के तो दरसन करने चाहिए। तो भैयाए तुम लोग चंदे भी उगाहते होगेघ् इंद्रदत्ता—हाँए जिसकी इच्छा होती हैए चंदा भी दे देता हैय लेकिन हम लोग खुद नहीं माँगते फिरते। सूरदास—मैं आप लोगों के साथ चलूँए तो आप मुझे रखेंगेघ् यहाँ पड़े—पड़े अपना पेट पालता हूँए आपके साथ रहूँगाए तो आदमी हो जाऊँगा। इंद्रदत्ता ने प्रभु सेवक से ऍंगरेजी में कहा—कितना भोला आदमी है। सेवा और त्याग की सदेह मूर्ति होने पर भी गरूर छू तक नहीं गयाए अपने सत्कार्य का कुछ मूल्य नहीं समझता। परोपकार इसके लिए कोई इच्छित कर्म नहीं रहाए इसके चरित्रा में मिल गया है। सूरदास ने फिर कहा—और कुछ तो न कर सकूँगाए अपढ़़ए गँवार ठहराए हाँए जिसके सरहाने बैठा दीजिएगाए पंखा झलता रहूँगाए पीठ पर जो कुछ लाद दीजिएगाए लिए फिरूँगा। इंद्रदत्ता—तुम सामान्य रीति से जो कुछ करते होए वह उससे कहीं बढ़़कर हैए जो हम लोग कभी—कभी विशेष अवसरों पर करते हैं। दुश्मन के साथ नेकी करना रोगियों की सेवा से छोटा काम नहीं है। सूरदास का मुख—मंडल खिल उठाए जैसे किसी कवि ने किसी रसिक से दाद पाई हो। बोला—भैयाए हमारी क्या बात चलाते होघ् जो आदमी पेट पालने के लिए भीख माँगेगाए वह पुन्न—धारम क्या करेगा! बुरा न मानोए तो एक बात कहूँ। छोटा मुँह बड़ी बात हैय लेकिन आपका हुकुम होए तो मुझे मावजे के जो रुपये मिले हैंए उन्हें आपकी संगत की भेंट कर दूँ। इंद्रदत्ता—कैसे रुपयेघ् प्रभु सेवक—इसकी कथा बड़ी लम्बी है। बसए इतना ही समझ लो कि पापा ने राजा महेंद्रकुमार की सहायता से इसकी जो जमीन ले ली थीए उसका एक हजार रुपया इसे मुआवजा दिया गया है। यह मिल उसी लूट के माल पर बन रही है। इंद्रदत्ता—तुमने अपने पापा को मना नहीं कियाघ् प्रभु सेवक—खुदा की कसमए मैं और सोफीए दोनों ही ने पापा को बहुत रोकाए पर तुम उनकी आदत जानते ही होए कोई धून सवार हो जाती हैए तो किसी की नहीं सुनते। इंद्रदत्ता—मैं तो अपने बाप से लड़ जाताए मिल बनती या भाड़ में जाती! ऐसी दशा में तुम्हारा कम—से—कम यहर् कत्ताव्य था कि मिल से बिलकुल अलग रहते। बाप की आज्ञा मानना पुत्रा का धार्म हैए यह मानता हूँय लेकिन जब बाप अन्याय करने लगेए तो लड़का उसका अनुगामी बनने के लिए बाधय नहीं। तुम्हारी रचनाओं में तो एक—एक शब्द से नैतिक विकास टपकता हैए ऐसी उड़ान भरते हो कि हरिश्चंद्र और हुसैन भी मात हो जाएँय मगर मालूम होता हैए तुम्हारी समस्त शक्ति शब्द योजना ही में उड़ जाती हैए क्रियाशीलता के लिए कुछ बाकी नहीं बचता यथार्थ तो यह है कि तुम अपनी रचनाओं की गर्द को भी नहीं पहुँचते। बसए जबान के शेर हो। सूरदासए हम लोग तुम—जैसे गरीबों से चंदा नहीं लेते। हमारे दाता धानी लोग हैं। सूरदास—भैयाय तुम न लोगेए तो कोई चोर ले जाएगा। मेरे पास रुपयों का काम ही क्या है। तुम्हारी दया से पेट—भर अन्न मिल ही जाता हैए रहने के लिए झोंपड़ी बन ही गई हैए और क्या चाहिए। किसी अच्छे काम में लग जाना इससे कहीं अच्छा है कि चोर उठा ले जाएँ। मेरे ऊपर इतनी दया करो। इंद्रदत्ता—अगर देना ही चाहते होए तो कोई कुअॉं खुदवा दो। बहुत दिनों तक तुम्हारा नाम रहेगा। सूरदास—भैयाए मुझे नाम की भूख नहीं। बहाने मत करोए ये रुपये लेकर अपनी संगत में दे दो। मेरे सिर से बोझ टल जाएगा। प्रभु सेवक—(अंग्रेजी में) मित्राए इसके रुपये ले लोए नहीं तो इसे चौन न आएगा। इस दयाशीलता को देवोपम कहना उसका अपमान करना है। मेरी तो कल्पना भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकती। ऐसे—ऐसे मनुष्य भी संसार में पड़े हुए हैं। एक हम हैं कि अपने भरे हुए थाल में से एक टुकड़ा उठाकर फेंक देते हैंए तो दूसरे दिन पत्राों में अपना नाम देखने को दौड़ते हैं। सम्पादक अगर उस समाचार को मोटे अक्षरों में प्रकाशित न करेए तो उसे गोली मार दें। पवित्रा आत्मा है! इंद्रदत्ता—सूरदासए अगर तुम्हारी यही इच्छा हैए तो मैं रुपये ले लूँगाए लेकिन इस शर्त पर कि तुम्हें जब कोई जरूरत होए हमें तुरंत सूचना देना। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि शीघ्र ही तुम्हारी कुटी भक्तों का तीर्थ बन जाएगीए और लोग तुम्हारे दर्शनों को आया करेंगे। सूरदास—तो मैं आज रुपये लाऊँगा। इंद्रदत्ता—अकेले न जानाए नहीं तो कचहरी के कुत्तो तुम्हें बहुत दिक करेंगे। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। सूरदास—अब एक अर्ज आपसे भी है साहब! आप पुतलीघर के मजूरों के लिए घर क्यों नहीं बनवा देतेघ् वे सारी बस्ती में फैले हुए हैं और रोज ऊधाम मचाते रहते हैं। हमारे मुहल्ले में किसी ने औरत को नहीं छेड़ा थाए न कभी इतनी चोरियाँ हुईंए न कभी इतने धाड़ल्ले से जुआ हुआए न शराबियों का ऐसा हुल्लड़ रहा। जब तक मजदूर लोग वहाँ काम पर नहीं आ जातेए औरतें घरों से पानी भरने नहीं निकलतीं। रात को इतना हुल्लड़ होता है कि नींद नहीं आती। किसी को समझाने जाओए तो लड़ने पर उतारू हो जाता है। यह कहकर सूरदास चुप हो गया और सोचने लगाए मैंने बात बहुत बढ़़ाकर तो नहीं कही! इंद्रदत्ता ने प्रभु सेवक को तिरस्कारपूर्ण लोचनों से देखकर कहा—भाईए यह तो अच्छी बात नहीं। अपने पापा से कहोए इसका जल्दी प्रबंधा करें। न जानेए तुम्हारे वे सब सिध्दांत क्या हो गए। बैठे—बैठे यह सारा माजरा देख रहे होए और कुछ करते—धारते नहीं। प्रभु सेवक—मुझे तो सिरे से इस काम से घृणा हैए मैं न इसे पसंद करता हूँ और न इसके योग्य हूँ। मेरे जीवन का सुख—स्वर्ग तो यही है कि किसी पहाड़ी के दामन में एक जलधारा के तट परए छोटी—सी झोंपड़ी बनाकर पड़ा रहूँ। न लोक की चिंता होए न परलोक की। न अपने नाम को कोई रोनेवाला होए न हँसनेवाला। यही मेरे जीवन का उच्चतम आदर्श है। पर इस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जिस संयम और उद्योग की जरूरत हैए उससे वंचित हूँ। खैरए सच्ची बात तो यह है कि इस तरफ मेरा धयान ही नहीं गया। मेरा तो यहाँ आना न आना दोनों बराबर हैं। केवल पापा के लिहाज से चला आता हूँ। अधिकांश समय यही सोचने में काटता हूँ कि क्योंकर इस कैद से रिहाई पाऊँ। आज ही पापा से कहूँगा। इंद्रदत्ता—हाँए आज ही कहना। तुम्हें संकोच होए तो मैं कह दूँघ् प्रभु सेवक—नहीं जीए इसमें क्या संकोच है। इससे तो मेरा रंग और जम जाएगा। पापा को खयाल होगाए अब इसका मन लगने लगाए कुछ इसने कहा तो! उन्हें तो मुझसे यही रोना है कि मैं किसी बात में बोलता ही नहीं। इंद्रदत्ता यहाँ से चले तो सूरदास बहुत दूर तक उनके साथ सेवा—समिति की बातें पूछता हुआ चला आया। जब इंद्रदत्ता ने बहुत आग्रह कियाए तो लौटा। इंद्रदत्ता वहीं सड़क पर खड़ा उस दुर्बलए दीन प्राणी को हवा के झोंके से लड़खड़ाते वृक्षों की छाँह में विलीन होते देखता रहा। शायद यह निश्चय करना चाहता था कि वह कोई देवता है या मनुष्य!

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अध्याय 34

प्रभु सेवक ने घर आते ही मकान का जिक्र छेड़ दिया। जान सेवक यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए कि अब इसने कारखाने की ओर धयान देना शुरू किया। बोले—हाँए मकानों का बनना बहुत जरूरी है। इंजीनियर से कहोए एक नक्शा बनाएँ। मैं प्रबंधाकारिणी समिति के सामने इस प्रस्ताव को रख्रूगा। कुलियों के लिए अलग—अलग मकान बनवाने की जरूरत नहीं। लम्बे—लम्बे बैरक बनवा दिए जाएँए ताकि एक—एक कमरे में 10—12 मजदूर रह सकें। प्रभु सेवक—लेकिन बहुत—से कुली ऐसे भी तो होंगेए जो बाल—बच्चों के साथ रहना चाहेंगेघ् मिसेज सेवक—कुलियों के बाल—बच्चों को वहाँ जगह दी जाएगी तो एक शहर आबाद हो जाएगा। तुम्हें उनसे काम लेना है कि उन्हें बसाना है! जैसे फौज के सिपाही रहते हैंए उसी तरह कुली भी रहेंगे। हाँए एक छोटा—सा चर्च जरूर होना चाहिए। पादरी के लिए एक मकान भी होना जरूरी है। ईश्वर सेवक—खुदा तुझे सलामत रखे बेटीए तेरी यह राय मुझे बहुत पसंद आई। कुलियों के लिए धार्मिक भोजन शारीरिक भोजन से कम आवश्यक नहीं। प्रभु मसीहए मुझे अपने दामन में छिपा। कितना सुंदर प्रस्ताव है! चित्ता प्रसन्न हो गया। वह दिन कब आएगाए जब कुलियों के हृदय मसीह के उपदेशों से तृप्त हो जाएँगे। जॉन सेवक—लेकिन यह तो विचार कीजिए कि मैं यह साम्प्रदायिक प्रस्ताव समिति के सम्मुख कैसे रख सकूँगाघ् मैं अकेला तो सब कुछ हूँ नहीं। अन्य मेम्बरों ने विरोधा कियाए तो उन्हें क्या जवाब दूँगाघ् मेरे सिवा समिति में और कोई क्रिश्चियन नहीं है। नहींए मैं इस प्रस्ताव को कदापि समिति के सामने न रख्रूगा। आप स्वयं समझ सकते हैं कि इस प्रस्ताव में कितना धार्मिक पक्षपात भरा हुआ है! मिसेज सेवक—जब कोई धार्मिक प्रश्न आता हैए तो तुम उसमें खामख्वाह मीन—मेख निकालने लगते हो! हिंदू—कुली तो तुरंत किसी वृक्ष के नीचे दो—चार ईंट—पत्थर रखकर जल चढ़़ाना शुरू कर देंगेए मुसलमान लोग भी खुले मैदान में नमाज पढ़़ लेंगेए तो फिर चर्च से किसी को क्या आपत्तिा हो सकती है! ईश्वर सेवक—प्रभु मसीहए मुझ पर अपनी दया—द्रष्टि कर। बाइबिल के उपदेश प्राणिमात्रा के लिए शांतिप्रिय हैं। उनके प्रचार में किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता और अगर एतराज हो भीए तो तुम इस दलील से उसे रद्द कर सकते हो कि राजा का धार्म भी राजा है। आखिर सरकार ने धार्म—प्रचार का विभाग खोला हैए तो कौन एतराज करता हैए और करे भी कौन उसे सुनता हैघ् मैं आज ही इस विषय को चर्च में पेश करूँगा और अधिकारियों को मजबूर करूँगा कि वे कम्पनी पर अपना दबाव डालें। मगर यह तुम्हारा काम हैए मेरा नहींय तुम्हें खुद इन बातों का खयाल होना चाहिए। न हुए मि. क्लार्क इस वक्त! मिसेज सेवक—वह होतेए तो कोई दिक्कत ही न होती। जॉन सेवक—मेरी समझ में नहीं आता कि मैं इस तजवीज को कैसे पेश करूँगा। अगर कम्पनी कोई मंदिर या मस्जिद बनवाने का निश्चय करतीए तो मैं भी चर्च बनवाने पर जोर देता। लेकिन जब तक और लोग अग्रसर न होंए मैं कुछ नहीं कर सकता और न करना उचित ही समझता हूँ। ईश्वर सेवक—हम औरों के पीछे—पीछे क्यों चलेंघ् हमारे हाथों में दीपक हैए कंधो पर लाठी हैए कमर में तलवार हैए पैरों में शक्ति हैए हम क्यों आगे न चलेंघ् क्यों दूसरों का मुँह देखेंघ् मि. जॉन सेवक ने पिता से और ज्यादा तर्क—वितर्क करना व्यर्थ समझा। भोजन के पश्चात्‌ वह आधाी रात तक प्रभु सेवक के साथ बैठे हुए भिन्न—भिन्न रूप से नक्शे बनाते—बिगाड़ते रहे—किधार की जमीन ली जाएए कितनी जमीन काफी होगीए कितना व्यय होगाए कितने मकान बनेंगे। प्रभु सेवक हाँ—हाँ करता जाता था। इन बातों में मन न लगता था। कभी समाचार—पत्रा देखने लगताए कभी कोई किताब उलटने—पलटने लगताए कभी उठकर बरामदे में चला जाता। लेकिन धून सूक्ष्मदर्शी नहीं होती। व्याख्याता अपनी वाणी के प्रवाह में यह कब देखता है कि श्रोताओं में कितनी की अॉंखें खुली हुई हैं। प्रभु सेवक को इस समय एक नया शीर्षक सूझा था और उस पर अपने रचना—कौशल की छटा दिखाने के लिए वह अधाीर हो रहा था। नई—नई उपमाएँए नई—नई सूक्तियाँ किसी जलधारा में बहकर आनेवाले फूलों के स—श उसके मस्तिष्क में दौड़ती चली आती थीं और वह उसका संचय करने के लिए उकता रहा थाय क्योंकि एक बार आकरए एक बार अपनी झलक दिखाकरए वे सदैव के लिए विलुप्त हो जाती है। बारह बजे तक इसी संकट में पड़ा रहा। न बैठते बनता थाए न उठते। यहाँ तक कि उसे झपकियाँ आने लगीं। जॉन सेवक ने भी अब विश्राम करना उचित समझा। लेकिन जब प्रभु सेवक पलंग पर गयाए तो निद्रा देवी रूठ चुकी थीं। कुछ देर तक तो उसने देवी को मनाने का प्रयत्न कियाए फिर दीपक के सामने बैठकर उसी विषय पर पद्य—रचना करने लगा। एक क्षण में वह किसी दूसरे ही जगत्‌ में था। वह ग्रामीणों की भाँति सराफे में पहुँचकर उसकी चमक—दमक पर लट्टई न हो जाता था। यद्यपि उस जगत्‌ की प्रत्येक वस्तु रसमयीए सुरभितए नेत्रा—मधूरए मनोहर मालूम होती थीए पर कितनी ही वस्तुओं को धयान से देखने पर ज्ञात होता था कि उन पर केवल सुनहरा आवरण चढ़़ा हैय वास्तव में वे या तो पुरानी हैंए अथवा कृत्रिाम! हाँए जब उसे वास्तव में कोई नया रत्न मिल जाता थाए तो उसकी मुखश्री प्रज्वलित हो जाती थी! रचयिता अपनी रचना का सबसे चतुर पारखी होता है। प्रभु सेवक की कल्पना कभी इतनी ऊँची न उड़ी थी। एक—एक पद्य लिखकर वह उसे स्वर में पढ़़ता और झूमता। जब कविता समाप्त हो गईए तो वह सोचने लगा—देखूँए इसका कवि—समाज कितना आदर करता है। सम्पादकों की प्रशंसा का तो कोई मूल्य नहीं। उनमें बहुत कम ऐसे हैंए जो कविता के मर्मज्ञ हों। किसी नएए अपरिचित कवि की सुंदर—से—सुंदर कविता स्वीकार न करेंगेए पुराने कवियों की सड़ी—गलीए खोगीर की भरतीए सब कुछ शिरोधार्य कर लेंगे। कवि मर्मज्ञ होते हुए भी कृपण होते हैं। छोटे—मोटे तुकबंदी करनेवालों की तारीफ भले ही कर देंय लेकिन जिसे अपना प्रतिद्वंद्वी समझते हैंए उसके नाम से कानों पर हाथ रख लेते हैं। कुँवर साहब तो जरूर फड़क जाएँगे। काशए विनय यहाँ होतेए तो मेरी कलम चूम लेते। कल कुँवर साहब से कहूँगा कि मेरा संग्रह प्रकाशित करा दीजिए। नवीन युग के कवियों में तो किसी का मुझसे टक्कर लेने का दावा हो नहीं सकताए और पुराने ढ़ंग के कवियों से मेरा कोई मुकाबला नहीं। मेरे और उनके क्षेत्रा अलग हैं। उनके यहाँ भाषा—लालित्य हैए पिंगल की कोई भूल नहींए खोजने पर भी कोई दोष न मिलेगाए लेकिन उपज का नाम नहींए मौलिकता का निशान नहींए वही चबाए हुए कौर चबाते हैंए विचारोत्कर्ष का पता नहीं होता। दस—बीस पद्य पढ़़ जाओ तो कहीं एक बात मिलती हैए यहाँ तक कि उपमाएँ भी वही पुरानी—धूरानीए जो प्राचीन कवियों ने बाँधा रखी हैं। मेरी भाषा इतनी मँजी हुई न होए लेकिन भरती के लिए मैंने एक पंक्ति भी नहीं लिखी। फायदा ही क्याघ् प्रातरूकाल वह मुँह—हाथ धोए कविता जेब में रखए बिना जलपान किए घर से चलाए तो जॉन सेवक ने पूछा—क्या जलपान न करोगेघ् इतने सबेरे कहाँ जाते होघ् प्रभु सेवक ने रुखाई से उत्तार दिया—जरा कुँवर साहब की तरफ जाता हूँ। जॉन सेवक—तो उनसे कल के प्रस्ताव के सम्बंधा में बातचीत करना। अगर वह सहमत हो जाएँए तो फिर किसी को विरोधा करने का साहस न होगा। मिसेज सेवक—वही चर्च के विषय में नघ् जॉन सेवक—अभी नहींए तुम्हें अपने चर्च ही की पड़ी हुई है। मैंने निश्चय किया है कि पाँड़ेपुर की बस्ती खाली करा ली जाए और वहीं कुलियों के मकान बनवाए जाएँ। उससे अच्छी वहाँ कोई दूसरी जगह नहीं नजर आती। प्रभु सेवक—रात को आपने उस बस्ती को लेने की चर्चा तो न की थी! जॉन सेवक—नहींए आओ जरा यह नक्शा देखो। बस्ती के बाहर किसी तरफ काफी काफी जमीन नहीं है। एक तरफ सरकारी पागलखाना हैए तो दूसरी रायसाहब का बागए तीसरी तरफ हमारी मिल। बस्ती के सिवा और जगह ही कहाँ हैघ् औरए बस्ती है ही कौन—सी बड़ी! मुश्किल से 15—20 या अधिक से अधिक 30 घर होंगे। उनका मुआवजा देकर जमीन लेने की क्यों न कोशिश की जाएघ् प्रभु सेवक—अगर बस्ती को उजाड़कर मजदूरों के लिए मकान बनवाने हैंए तो रहने ही दीजिएए किसी—न—किसी तरह गुजर तो हो ही रहा है। अगर ऐसी बस्तियों की रक्षा का विचार किया होताए तो आज यहाँ एक बंगला भी नजर न आता। ये बँगले ऊसर में नहीं बने हैं। प्रभु सेवक—मुझे ऐसे बँगले से झोंपड़ी ही पसंद हैए जिसके लिए कई गरीबों के घर गिराने पड़ें। मैं कुँवर साहब से इस विषय में कुछ न कहूँगा। आप खुद कहिएगा। जॉन सेवक—यह तुम्हारी अकर्मण्यता है। इसे संतोष और दया कहकर तुम्हें धोखे में न डालँगा। तुम जीवन की सुख—सामग्रियाँ तो चाहते होए लेकिन उन सामग्रियों के लिए जिन साधानों की जरूरत हैए उनसे दूर भागते हो। हमने तुम्हें क्रियात्मक रूप से कभी धान और विभव से घृणा करते नहीं देखा। तुम अच्छे से अच्छा मकानए अच्छे से अच्छा भोजनए अच्छे से अच्छे वस्त्रा चाहते होए लेकिन बिना हाथ—पैर हिलाए ही चाहते हो कि कोई तुम्हारे मुँह में शहद और शर्बत टपका दे। प्रभु सेवक—रस्म—रिवाज से विवश होकर मनुष्य को बहुधा अपनी आत्मा के विरुध्द आचरण करना पड़ता है। जॉन सेवक—जब सुख—भोग के लिए तुम रस्म—रिवाज से विवश हो जाते होए तो सुख—भोग के साधानों के लिए क्यों उन्हीं प्रथाओें से विवश नहीं होते! तुम मन और वचन से वर्तमान सामाजिक प्रणाली की कितनी ही उपेक्षा क्यों न करोए मुझे जरा भी आपत्तिा न होगी। तुम इस विषय पर व्याख्यान दोए कविताएँ लिखोए निबंधा रचोए मैं खुश होकर उन्हें पढ़़ईँगा औैर तुम्हारी प्रशंसा करूँगाय लेकिन कर्मक्षेत्रा में आकर उन भावों को उसी भाँति भूल जाओए जैसे अच्छे—से—अच्छे सूट पहनकर मोटर पर सैर करते समय तुम त्यागए संतोष और आत्मनिग्रह को भूल जाते हो। प्रभु सेवक और कितने ही विलास—भोगियों की भाँति सिध्दांत—रूप से जनवाद के कायल थे। जिन परिस्थितियों में उनका लालन—पालन हुआ थाए जिन संस्कारों से उनका मानसिक और आत्मिक विकास हुआ थाए उनसे मुक्त हो जाने के लिए जिस नैतिक साहस कीए उद्दंडता की जरूरत हैए उससे वह रहित थे। वह विचार—क्षेत्रा में त्याग के भावों को स्थान देकर प्रसन्न होते थे और उन पर गर्व करते थे। उन्हें शायद कभी सूझा ही न था कि इन भावों को व्यवहार रूप में भी लाया जा सकता है। वह इतने संयमशील न थे कि अपनी विलासिता को उन भावों पर बलिदान कर देते। साम्यवाद उनके लिए मनोरंजन का एक विषय थाए और बस। आज तक कभी किसी ने उनके आचरण की आलोचना न की थीए किसी ने उनको व्यंग्य का निशाना न बनाया थाए और मित्राों पर अपने विचार—स्वातंत्रय की धाक जमाने के लिए उनके विचार काफी थे। कुँवर भरतसिंह के संयम और विराग का उन पर इसलिए असर न होता था कि वह उन्हें उच्चतर श्रेणी के मनुष्य समझते थे। अशर्फियों की थैली मखमल की हो या खद्दर कीए अधिक अंतर नहीं। पिता के मुख से वह व्यंग्य सुनकर ऐसे तिलमिला उठेए मानो चाबुक पड़ गया हो। आग चाहे फूस को न जला सकेए लोहे की कील मिट्टी में चाहे न समा सकेए काँच चाहे पत्थर की चोट से न टूट सकेए व्यंग्य विरले ही कभी हृदय को प्रज्वलित करनेए उसमें चुभने और उसे चोट पहुँचाने में असफल होता हैए विशेष करके जब वह उस प्राणी के मुख से निकलेए जो हमारे जीवन को बना या बिगाड़ सकता है। प्रभु सेवक को मानो काली नागिन ने डस लियाए जिसके काटे को लहर भी नहीं आती। उनकी सोई हुई लज्जा जाग उठी। अपनी अधोगति का ज्ञान हुआ। कुँवर साहब के यहाँ जाने को तैयार थेए गाड़ी तैयार कराई थीय पर वहाँ न गए। आकर अपने कमरे में बैठ गए। उनकी अॉंखें भर आईंए इस वजह से नहीं कि मैं इतने दिनों तक भ्रम में पड़ा रहाए बल्कि इस खयाल से कि पिताजी को मेरा पालन—पोषण अखरता है—यह लताड़ पाकर मेरे लिए डूब मरने की बात होगीए अगर मैं उनका आश्रित बना रहूँ। मुझे स्वयं अपनी जीविका का प्रश्न हल करना चाहिए। इन्हें क्या मालूम नहीं था कि मैं प्रथाओं से विवश होकर ही इस विलास—वासना में पड़ा हुआ हूँघ् ऐसी दशा में इनका मुझे ताना देना घोर अन्याय है। इतने दिनों तक कृत्रिाम जीवन व्यतीत करके अब मेरे लिए अपना रूपांतर कर लेना असम्भव है। यही क्या कम है कि मेरे मन में ये विचार पैदा हुए। इन विचारों के रहते हुए कम—से—कम मैं औरों की भाँति स्वाथार्ंधा और धान—लोलुप तो नहीं हो सकता। लेकिन मैं व्यर्थ इतना खेद कर रहा हूँ। मुझे तो प्रसन्न होना चाहिए कि पापा ने वह काम कर दियाए जो सिध्दांत और विचार से न हुआ था। अब मुझे उनसे कुछ कहने—सुनने की जरूरत नहीं। उन्हें शायद मेरे जाने से दुरूख भी न होगा। उन्हें खूब मालूम हो गया कि मेरी जात से उनकी धान—तृष्णा तृप्त नहीं हो सकती। आज यहाँ से डेरा कूच हैए यही निश्चय है। चलकर कुँवर साहब से कहता हूँए मुझे भी स्वयं—सेवकों में ले लीजिए। कुछ दिनों उस जीवन का आनंद भी उठाऊँ। देखूँए मुझमें और भी कोई योग्यता हैए या केवल पद्य—रचना ही कर सकता हूँ। अब गिरिशृंगों की सैर करूँगाए देहातों में घूमूँगाए प्राकृतिक सौंदर्य की उपासना करूँगाए नित्य नया दानाए नया पानीए नई सैरए नए —श्य। इससे ज्यादा आनंदप्रद और कौन जीवन हो सकता है! कष्ट भी होंगे। धूप हैए वर्षा हैए सरदी हैए भयंकर जंतु हैंय पर कष्टों से मैं कभी भयभीत नहीं हुआ। उलझन तो मुझे गृहस्थी के झंझटों से होती है। यहाँ कितने अपमान सहने पड़ते हैं! रोटीयों के लिए दूसरों की गुलामी! अपनी इच्छाओं को पराधाीन बना देना! नौकर अपने स्वामी को देखकर कैसा दबक जाता हैए उसके मुख—मंडल पर कितनी दीनताए कितना भय छा जाता है! नए मैं अपनी स्वतंत्राता की अब से ज्यादा इज्जत करना सीखूँगा। दोपहर को जब घर के सब प्राणी पंखों के नीचे आराम से सोएए तो प्रभु सेवक ने चुपके से निकलकर कुँवर साहब के भवन का रास्ता लिया। पहले तो जी में आया कि कपड़े उतार दूँ और केवल एक कुरता पहनकर चला जाऊँ। पर इन फटे हालों घर से कभी न निकला था। वस्त्रा—परिवर्तन के लिए कदाचित्‌ विचार—परिवर्तन से भी अधिक नैतिक बल की जरूरत होती है। उसने केवल अपनी कविताओं की कापी ले ली और चल खड़ा हुआ। उसे जरा भी खेद न थाए जरा भी ग्लानि न थी। ऐसा खुश थाए मानो कैद से छूटा है—आप लोगों को अपनी दौलत मुबारक हो। पापा ने मुझे बिलकुल निर्लज्जए आत्मसम्मानहीनए विलास—लोलुप समझ रखा हैए तभी तो जरा—सी बात पर उबल पड़े। अब उन्हें मालूम हो जाएगा कि मैं बिलकुल मुर्दा नहीं हूँ। कुँवर साहब दोपहर को सोने के आदी नहीं थे। फर्श पर लेटे कुछ सोच रहे थे। प्रभु सेवक जाकर बैठ गए। कुँवर साहब ने कुछ न पूछाए कैसे आएए क्यों उदास होघ् आधा घंटे तक बैठे रहने के बाद भी प्रभु सेवक को उनसे अपने विषय में कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी। कोई भूमिका ही न सूझती। यह महाशय आज गुम—सुम क्यों हैंघ् क्या मेरी सूरत से ताड़ तो नहीं गए कि कुछ स्वार्थ लेकर आया हैघ् यों तो मुझे देखते ही खिल उठते थेए दौड़कर छाती से लगा लेते थेए आज मुखातिब ही नहीं होते। पर—मुखापेक्षी होने का यही दंड है। मैं भी घर से चलाए तो ठीक दोपहर कोए जब चिड़ियाँ तक घोंसले से नहीं निकलतीं। आना ही थाए तो शाम को आता। इस जलती हुई धूप में कोई गरज का बावला ही घर से निकल सकता है। खैरए यह पहला अनुभव है। वह निराश होकर चलने के लिए उठे तो भरतसिंह बोले—क्यों—क्योंए जल्दी क्या हैघ् या इसीलिए कि मैंने बातें नहीं कींघ् बातों की कमी नहीं हैय इतनी बातें तुमसे करनी हैं कि समझ में नहीं आताए शुरू क्यों कर करूँ! तुम्हारे विचार में विनय ने रियासत का पक्ष लेने में भूल कीघ् प्रभु सेवक ने द्विविधा में पड़कर कहा—इस पर भिन्न—भिन्न पहलुओं से विचार किया जा सकता है। कुँवर—इसका आशय यह है कि बुरा किया। उसकी माता का भी यही विचार है। वह तो इतनी चिढ़़ी हुई हैं कि उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहतीं। लेकिन मेरा विचार है कि उसने जिस नीति का अनुसरण किया हैए उस पर उसे लज्जित होने का कोई कारण नहीं। कदाचित्‌ उन दशाओं में मैं भी यही करता। सोफी से उसे प्रेम न होताए तो भी उस अवसर पर जनता ने जो विद्रोह कियाए वह उसके साम्यवाद के सिध्दांतों को हिला देने को काफी था। पर जब यह सिध्द है कि सोफिया का अनुराग उसके रोम—रोम में समाया हैए तो उसका आचरण क्षम्य ही नहींए सर्वथा स्तुत्य है। वह धार्म केवल जत्थेबंदी हैए जहाँ अपनी बिरादरी से बाहर विवाह करना वर्जित होए क्योंकि इससे उसकी क्षति होने का भय है। धार्म और ज्ञान दोनों एक हैं और इस द्रष्टि से संसार में केवल एक धार्म है। हिंदूए मुसलमानए ईसाईए यहूदीए बौध्द धार्म ये नहीं हैंए भिन्न—भिन्न स्वाथोर्ं के दल हैंए जिनसे हानि के सिवा आज तक किसी को लाभ नहीं हुआ। अगर विनय इतना भाग्यवान हो कि सोफिया को विवाह—सूत्रा में बाँधा सकेए तो कम—से—कम मुझे जरा भी आपत्तिा न होगी। प्रभु सेवक—मगर आप जानते हैंए इस विषय में रानीजी को जितना दुराग्रह हैए उतना ही मामा को भी है। कुँवर—इसका फल यह होगा कि दोनों का जीवन नष्ट हो जाएगा। ये दोनों अमूल्य रत्न धार्म के हाथों मिट्टी में मिल जाएँगे। प्रभु सेवक—मैं तो खुद इन झगड़ों से इतना तंग आ गया हूँ कि मैंने —ढ़़ संकल्प कर लिया हैए घर से अलग हो जाऊँ। घर के साम्प्रदायिक जलवायु और सामाजिक बंधानों से मेरी आत्मा दुर्बल हुई जा रही है। घर से निकल जाने के सिवा मुझे और कुछ नहीं सूझता। मुझे व्यवसाय से पहले ही बहुत प्रेम न थाए और अबए इतने दिनों के अनुभव के बाद तो मुझे उससे घृणा हो गई है। कुँवर—लेकिन व्यवसाय तो नई सभ्यता का सबसे बड़ा अंग हैए तुम्हें उससे क्या इतनी अरुचि हैघ् प्रभु सेवक—इसलिए कि यहाँ सफलता प्राप्त करने के लिए जितनी स्वार्थपरता और नर—हत्या की जरूरत हैए वह मुझसे नहीं हो सकती। मुझमें उतना उत्साह ही नहीं है। मैं स्वभावतरू एकांतप्रिय हूँ और जीवन—संग्राम में उससे अधिक नहीं पड़ना चाहता जितना मेरी कला के पूर्ण विकास और उसमें यथार्थता का समोवश करने के लिए काफी हो। कवि प्रायरू एकांतसेवी हुआ किए हैंए पर इससे उनकी कवित्व—कला में कोई दूषण नहीं आने पाया। सम्भव थाए वे जीवन का विस्तृत और पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करके अपनी कविता को और भी मार्मिक बना सकतेए लेकिन साथ ही यह शंका भी थी कि जीवन—संग्राम में प्रवृत्ता होने से उनकी कवि—कल्पना शिथिल हो जाती। होमर अंधा थाए सूर भी अंधा थाए मिल्टन भी अंधा थाए पर ये सभी साहित्य—गगन के उज्ज्वल नक्षत्रा हैंय तुलसीए वाल्मीकि आदि महाकवि संसार से अलगए कुटीयों में बसनेवाले प्राणी थेय पर कौन कह सकता है कि उनकी एकांतसेवा से उनकी कवित्व—कला दूषित हो गई! नहीं कह सकता कि भविष्य में मेरे विचार क्या होंगेए पर इस समय द्रव्योपासना से बेजार हो रहा हूँ। कुँवर—तुम तो इतने विरक्त कभी न थेए आखिर बात क्या हैघ् प्रभु सेवक ने झेंपते हुए कहा—अब तक जीवन के कुटील रहस्यों को न जानता था। पर अब देख रहा हूँ कि वास्तविक दशा उससे कहीं जटील हैए जितनी मैं समझता था। व्यवसाय कुछ नहीं हैए अगर नर—हत्या नहीं है। आदि से अंत तक मनुष्यों को पशु समझना और उनसे पशुवत्‌ व्यवहार करना इसका मूल सिध्दांत है। जो यह नहीं कर सकताए वह सफल व्यवसायी नहीं हो सकता। कारखाना अभी बनकर तैयार नहीं हुआए और भूमि—विस्तार की समस्या उपस्थित हो गई। मिस्त्रिायों और कारीगरों के लिए बस्ती में रहने की जगह नहीं है। मजदूरों की संख्या बढ़़ेगीए तब वहाँ निर्वाह ही न हो सकेगा। इसलिए पापा की राय है कि उसी कानूनी दफा के अनुसार पाँड़ेपुर पर भी अधिकार कर लिया जाए और वाशिंदों को मुआवजा देकर अलग कर दिया जाए। राजा महेंद्रकुमार की पापा से मित्राता है ही और वर्तमान जिलाधाीश मि. सेनापति रईसों से उतना ही मेल—जोल रखते हैं जितना मि. क्लार्क उनसे दूर रहते थे। पापा का प्रस्ताव बिना किसी कठिनाई के स्वीकृत हो जाएगा और मुहल्लेवाले जबरदस्ती निकाल दिए जाएँगे। मुझसे यह अत्याचार नहीं देखा जाता। मैं इसे रोक नहीं सकता हूँ कि उससे अलग रहूँ। कुँवर—तुम्हारे विचार में कम्पनी को नफा होगाघ् प्रभु सेवक—मैं समझता हूँए पहले ही साल 25 रुपये सैकड़े नफा होगा। कुँवर—तो क्या तुमने कारखाने से अलग होने का निश्चय कर लियाघ् प्रभु सेवक—पक्का निश्चय कर लिया। कुँवर—तुम्हारे पापा काम सँभाल सकेंगेघ् प्रभु सेवक—पापा ऐसे आधे दर्जन कारखानों को सँभाल सकते हैं। उनमें अद्‌भुत अधयवसाय है। जमीन का प्रस्ताव बहुत जल्दी कार्यकारिणी समिति के सामने आएगा। मेरी आपसे यह विनीत प्रार्थना है कि आप उसे स्वीकृत न होने दें। कुँवर—(मुस्कराकर) बुङ्‌ढ़ा आदमी इतनी आसानी से नई शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता। बूढ़़ा तोता पढ़़ना नहीं सीखता। मुझे तो इसमें कोई आपत्तिा नहीं नजर आती कि बस्तीवालों का मुआवजा देकर जमीन ले ली जाए। हाँए मुआवजा उचित होना चाहिए। जब तुम कारखाने से अलग ही हो रहे होए तो तुम्हें इन झगड़ों से क्या मतलबघ् ये तो दुनिया के धांधो हैंए होते आए हैं और होते जाएँगे। प्रभु सेवक—तो आप इस प्रस्ताव का विरोधा न करेंगेघ् कुँवर—मैं किसी ऐसे प्रस्ताव का विरोधा न करूँगाए जिससे कारखाने की हानि हो। कारखाने से मेरा स्वार्थ—सम्बंधा हैए मैं उसकी उन्नति में बाधाक नहीं हो सकता। हाँए तुम्हारा वहाँ से निकल आना मेरी समिति के लिए शुभ लक्षण है। तुम्हें मालूम हैए समिति के अधयक्ष डॉक्टर गांगुली हैंय पर कुछ वृध्दावस्था और काउंसिल के कामों में व्यस्त रहने के कारण वह इस भार से मुक्त होना चाहते हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम इस भार को ग्रहण करो। समिति इस समय मँझधार में हैए विनय के आचरण ने उसे एक भयंकर दशा में डाल दिया है। तुम्हें ईश्वर ने विद्याए बुध्दिए उत्साहए सब कुछ दिया है। तुम चाहोए तो समिति को उबार सकते होए और मुझे विश्वास हैए तुम मुझे निराश न करोगे। प्रभु सेवक की अॉंखें सजल हो गईं। वह अपने को इस सम्मान के योग्य न समझते थे। बोले—मैं इतना उत्तारदायित्व स्वीकार करने के योग्य नहीं हूँ। मुझे भय है कि मुझ—जैसा अनुभवहीनए आलसी प्रकृति का मनुष्य समिति की उन्नति नहीं कर सकता। यह आपकी कृपा है कि मुझे इस योग्य समझते हैं। मेरे लिए सफ ही काफी है। कुँवर साहब ने उत्साह बढ़़ाते हुए कहा—तुम जैसे आदमियों को सफ में रखूँ तो नायकों को कहाँ से लाऊँघ् मुझे विश्वास है कि कुछ दिनों डॉ. गांगुली के साथ रहकर तुम इस काम में निपुण हो जाओगे। सज्जन लोग सदैव अपनी क्षमता की अपेक्षा करते हैंए पर मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुममें अद्‌भुत विद्युत—शक्ति हैय उससे कहीं अधिकए जितनी तुम समझते हो। अरबी घोड़ा हल में नहीं चल सकताए उसके लिए मैदान चाहिए। तुम्हारी स्वतंत्रा आत्मा कारखाने में संकुचित हो रही थीए संसार के विस्तीर्ण क्षेत्रा में निकलकर उसके पर लग जाएँगे। मैंने विनय को इस पद के लिए चुन रखा थाए लेकिन उसकी वर्तमान दशा देखकर मुझे अब उस पर विश्वास नहीं रहा। मैं चाहता हूँए इस संस्था को ऐसी सुव्यवस्थित दशा में छोड़ जाऊँ कि यह निर्विघ्न अपना काम करती रहे। ऐसा न हुआए तो मैं शांति से प्राण भी न त्याग सकूँगा। तुम्हारे ऊपर मुझे भरोसा हैए क्योंकि तुम निरूस्वार्थ हो। प्रभुए मैंने अपने जीवन का बहुत दुरुपयोग किया है। अब पीछे फिरकर उस पर नजर डालता हूँए तो उसका कोई भाग ऐसा नहीं दिखाई देताए जिस पर गर्व कर सकूँ। एक मरुस्थल हैए जहाँ हरियाली का निशान नहीं। इस संस्था पर मेरे जीवन—पयर्ंत के दुष्कृत्यों का बोझ लदा हुआ है। यही मेरे प्रायश्चित्ता का साधान और मेरे मोक्ष का मार्ग है। मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा यही है कि मेरा सेवक—दल संसार में कुछ कर दिखाए। उसमें सेवा का अनुराग होए बलिदान का प्रेम होए जातीय गौरव का अभिमान हो। जब मैं ऐसे प्राणियों को देश के लिए प्राण—समर्पण करते देखता हूँए जिनके पास प्राण के सिवा और कुछ नहीं हैए तो मुझे अपने ऊपर रोना आता है कि मैंने सब कुछ रहते हुए भी कुछ न किया। मेरे लिए इससे घातक और कोई चोट नहीं है कि यह संस्था विफल मनोरथ हो। मैं इसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हूँ। मैंने दस लाख रुपये इस खाते में जमा कर दिए हैं और इच्छा है कि इस पर प्रतिवर्ष एक लाख और बढ़़ाता जाऊँ। इतने विशाल देश के लिए 100 सेवक बहुत कम हैं। कम—से—कम 500 आदमी होने चाहिए। अगर दस साल भी और जीवित रहाए तो शायद मेरी यह मनोकामना पूरी हो जाए। इंद्रदत्ता में सब गुण तो हैंए पर वह उद्दंड स्वभाव का आदमी है। इस कारण मेरा मन उस पर नहीं जमता। मैं तुमसे साग्रह... डॉक्टर गांगुली आ पहुँचेए और प्रभु सेवक को देखकर बोले—अच्छाए तुम यहाँ कुँवर साहब को मंत्रा दे रहा हैए तुम्हारा पापा महेंद्रकुमार को पट्टी पढ़़ा रहा है। पर मैंने साफ—साफ कह दिया कि ऐसा बात नहीं हो सकता। तुम्हारा मिल हैए उसका हानि—लाभ तुमको और तुम्हारे हिस्सेदार को होगाए गरीबों को क्यों उनके घर से निकालता हैय पर मेरी कोई नहीं सुनता। हम कड़वा बात कहता है नए वह काहे को अच्छा लगेगाघ् मैं काउंसिल में इस पर प्रश्न करूँगा। यह कोई बात नहीं है कि आप लोग अपना स्वार्थ के लिए दूसरों पर अन्याय करें। शहर का रईस लोग हमसे नाराज हो जाएगाए हमको परवाह नहीं है। हम तो वहाँ वही करेगाए जो हमारा आत्मा कहेगा। तुमको दूसरे किसिम का आदमी चाहिएए तो बाबा हमसे इस्तीफा ले लो। पर हम पाँडेपुर को उजड़ने न देगा। कुँवर—यह बेचारे तो खुद उस प्रस्ताव का विरोधा करते हैं। आज इसी बात पर पिता और पुत्रा में मनमुटाव भी हो गया है। यह घर से चले आए हैं और कारखाने से कोई सम्पर्क नहीं रखना चाहते। गांगुली—अच्छाए ऐसा बात है! बहुत अच्छा हुआ। ऐसा विचारवान्‌ लोग मील का काम नहीं कर सकता। ऐसा लोग मील में जाएगाए तो हम लोग कहाँ से आदमी लाएगाघ् प्रभुए हम बूढ़़ा हो गयाए कल मर जाएगा। तुम हमारा काम क्यों नहीं सँभालताघ् हमारा सेवक दल तुम्हारा रेस्पेक्ट करता है। तुम हमें इस भार से मुक्त कर सकता है। बुङ्‌ढ़ा आदमी और सब कुछ कर सकता हैए उत्साह तो उसके बस का बात नहीं! हम तुमको अब न छोड़ेगा। काउंसिल में इतना काम है कि हमको इस काम के लिए अवकाश ही नहीं मिलता। हम काउंसिल में न गया होताए तो उदयपुर में यह सब कुछ नहीं होने पाता। हम जाकर सबको शांत कर देता। तुम इतना विद्या पढ़़कर उसको धान कमाने में लगाएगाए छिरू—छिरू! प्रभु सेवक—मैं तो सेवकों में भरती होने के लिए घर से आया ही हूँए पर मैं उसका नायक होने के योग्य नहीं हूँं। यह पद आप ही को शोभा देता है। मुझे सिपाहियों ही में रहने दीजिए। मैं इसी को अपने लिए गौरव की बात समझूँगा। गांगुली—(हँसकर) हरू—हरू काम तो अयोग्य ही लोग करता है। योग्य आदमी काम नहीं करताए वह बस बातें करता है। योग्य आदमी का आशय है बातूनी आदमीए खाली बातए बातए जो जितना ही बात करता हैए उतना ही योग्य होता है। वह काम का ढ़ंग बता देगाय कहाँ कौन भूल हो गयाए यह बता देगाय पर काम नहीं कर सकता। हम ऐसा योग्य आदमी नहीं चाहता। यहाँ बातें करने का काम नहीं है। हम तो ऐसा आदमी चाहता हैए जो मोटा खाएए मोटा पहनेए गली—गलीए नगर—नगर दौड़ेए गरीबों का उपकार करेए कठिनाइयों में उनका मदद करे। तो कब से आएगाघ् प्रभु सेवक—मैं तो अभी से हाजिर हूँ। गांगुली—(मुस्कराकर) तो पहला लड़ाई तुमको अपने पापा से लड़ना पड़ेगा। प्रभु सेवक—मैं समझता हूँए पापा स्वयं इस प्रस्ताव को न उठाएँगे। गांगुली—नहीं—नहींए वह कभी अपना बात नहीं छोड़ेगा। हमको उससे युध्द करना पड़ेगा। तुमको उससे लड़ना पड़ेगा। हमारी संस्था न्याय को सर्वोपरि मानती हैए न्याय हमको माता—पिता सेए धान—दौलत सेए नाम और जस से प्यारा है। हम और सब कुछ छोड़ देगाए न्याय को न छोड़ेगाए यही हमारा व्रत है। तुमको खूब सोच—विचारकर तब यहाँ आना होगा। प्रभु सेवक—मैंने खूब सोच—विचार लिया है। गांगुली—नहीं—नहींए जल्दी नहीं हैए खूब सोच—विचार लोए यह तो अच्छा नहीं होगा कि एक बार आकर तुम फिर भाग जाए। प्रभु सेवक—अब मृत्यु ही मुझे इस संस्था से अलग कर सकती है। गांगुली—मि. जॉन सेवक तुमसे कहेगाए हम न्याय—अन्याय के झगड़े में नहीं पड़ताए तुम हमारा बेटा हैए हमारा आज्ञा पालन करना तुम्हारा धार्म हैए तो तुम क्या जवाब देगाघ् (हँसकर) मेरा बाप ऐसा कहताए तो मैं उससे कभी न कहता कि हम तुम्हारा बात न मानेगा। वह हमसे बोलाए तुम बैरिस्टर हो जाएए हम इंगलैंड चला गया। वहाँ से बैरिस्टर होकर आ गया। कई साल तक कचहरी जाकर पेपर पढ़़ा करता था। जब फादर का डेथ हो गया तो डॉक्टरी पढ़़ने लगा। पिता के सामने हमको यह कहने का हिम्मत नहीं हुआ कि हम कानून नहीं पढ़़ेगा। प्रभु सेवक—पिता का सम्मान करना दूसरी बात हैए सिध्दांत का पालन करना दूसरी बात। अगर आपके पिता कहते कि जाकर किसी के घर में आग लगा दोए तो आप आग लगा देतेघ् गांगुली—नहीं—नहींए कभी नहींए हम कभी आग न लगाताए चाहे पिताजी हमीं को क्यों न जला देता। लेकिन पिता ऐसी आज्ञा दे भी तो नहीं सकता। सहसा रानी जाह्नवी ने पदार्पण कियाए शोक और क्रोधा की मूर्तिए भौएँ झुकी हुईए माथा सिकुड़ा हुआए मानो स्नान करके पूजा करने जाते समय कुत्तो ने छू लिया हो। गांगुली को देखकर बोलीं—आपकी तबियत काउंसिल से नहीं थकतीए मैं तो जिंदगी से थक गई। जो कुछ चाहती हूँए वह नहीं होताय जो नहीं चाहतीए वही होता है। डॉक्टर साहबए सब कुछ सहा जाता हैए बेटे का कुत्सित व्यवहार नहीं सहा जाताए विशेषतरू ऐसे बेटे काए जिसके बनाने में लिए कोई बात उठा न रखी गई हो। दुष्ट जसंवतनगर के विद्रोह में मर गया होताए तो मुझे इतना दुरूख न होता। कुँवर साहब और ज्यादा न सुन सके। उठकर बाहर चले गए। रानी ने उसी धून में कहा—यह मेरा दुरूख क्या समझेंगे! इनका सारा जीवन भोग—विलास में बीता है। आत्मसेवा के सामने इन्होंने आदशोर्ं की चिंता नहीं की। अन्य रईसों की भाँति सुख—भोग में लिप्त रहे। मैंने तो विनय के लिए कठिन तप किया हैए उसे साथ लेकर महीनों पहाड़ो में पैदल चली हूँए केवल इसीलिए कि छुटपन से ही उसे कठिनाइयों का आदी बनाऊँ। उसके एक—एक शब्दए एक—एक काम को धयान से देख रही हूँ कि उसमें बुरे संस्कार न आ जाएँ। अगर वह कभी नौकर पर बिगड़ा हैए तो तुरंत उसे समझाया हैय कभी सत्य से मुँह मोड़ते देखाए तो तुरंत तिरस्कार किया। यह मेरी व्यथा क्यों जानेंगेघ् यह कहते—कहते रानी की निगाह प्रभु सेवक पर पड़ गईए जो कोने में खड़ा कुछ उलट—पलट रहा था। उनकी जबान बंद हो गई। आगे कुछ न कह सकीं। सोफिया के प्रति जो कठोर वचन मन में थेए वे मन ही में रह गए। केवल गांगुली से इतना बोलीं—श्जाते समय मुझसे मिल लीजिएगाश् और चली गईं।

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अध्याय 35

विनयसिंह आबादी में दाखिल हुएए तो सबेरा हो गया था। थोड़ी दूर चले थे कि एक बुढ़़िया लाठी टेकती सामने से आती हुई दिखाई दी। इन्हें देखकर बोली—बेटाए गरीब हूँ। बन पडेए तो कुछ दे दो। धारम होगा।

नायकराम—सवेरे राम—नाम नहीं लेतीए भीख माँगने चल खड़ी हुई। तुझे तो जैसे रात को नींद नहीं आई। माँगने को तो दिन—भर है।

बुढ़़िया—बेटाए दुखिया हूँ।

नायकराम—यहाँ कौन सुखिया है। रात—भर भूखों मरे। मासूक की घुड़कियाँ खाईं। पैर तो सीधो पड़ते नहींए तुम्हें कहाँ से पैसा देंघ्

बुढ़़िया—बेटाए धूप में मुझसे चला नहीं जाताए सिर में चक्कर आ जाता है। नई—नई विपत हैए भैयाए भगवान्‌ उस अधाम पापी विनयसिंह का बुरा करेए उसी के कारण बुढ़़ापे में यह दिन देखना पड़ाय नहीं तो बेटा दूकान करता थाए हम घर में रानी बनी बैठी रहती थींए नौकर—चाकर थेए कौन—सा सुख नहीं था। तुम परदेसी होए न जानते होगेए यहाँ दंगा हो गया था। मेरा लड़का दूकान से हिला तक नहींए पर उस निगोड़े विनयसिंह ने सहादत दे दी कि यह भी दंगे में मिला हुआ था। पुलिस हमारे ऊपर बहुत दिनों से दाँत लगाए थीए कोई दाँव न पाती थी। यह सहादत पाते ही दौड़ आ गईए लड़का पकड़ लिया गया और तीन साल की सजा हो गई। एक हजार जरीबाना हुआ। घर की बीस हजार की गृहस्थी तहस—नहस हो गई। घर में बहू हैए बच्चे हैंए इसी तरह माँग—जाँचकर उनको पालती—पोसती हूँ। न जाने उस कलमुँहे ने कब का बैर निकाला।

विनय ने जेब से एक रुपया निकालकर बुढ़़िया को दिया और आकाश की ओर देखकर ठंडी साँस ली। ऐसी मानसिक वेदना उन्हें कभी न हुई थी।

बुढ़़िया ने रुपया देखाए तो चौंक पड़ी। समझीए शायद भूल से दिया है। बोली—बेटाए यह तो रुपया है।

विनय ने अवरुध्द कंठ से कहा—हाँए ले जाओ। मैंने भूल से नहीं दिया है।

वृध्दा आशीर्वाद देती हुई चली गई। दोनों आदमी और आगे बढ़़े तो राह में एक कुअॉं मिला। उस पर पीपल का पेड़ था। एक छोटा—सा मंदिर भी बना हुआ था। नायकराम ने सोचाए यहीं हाथ—मुँह धो लें। दोनों आदमी कुएँ पर गएए तो देखा एक विप्र महाराज पीपल के नीचे बैठे पाठ कर रहे हैं। जब वह पाठ कर चुकेए तो विनय ने पूछा—आपको मालूम हैए सरदार नीलकंठ आजकल कहाँ हैंघ्

पंडितजी ने कर्कश कंठ से कहा—हम नहीं जानते।

विनय—पुलिस के मंत्राी तो होंगेघ्

पंडित—कह दियाए मैं नहीं जानता।

विनय—मि. क्लार्क तो दौरे पर होंगेघ्

पंडित—मैं कुछ नहीं जानता।

नायकराम—पूजा—पाठ में देस—दुनिया की सुधा ही नहीं!

पंडित—हाँए जब तक मनोकामना न पूरी हो जाएए तब तक मुझे किसी से कुछ सरोकार नहीं। सबेरे तुमने म्लेच्छों का नाम सुना दियाए न जाने दिन कैसे कटेगा।

नायकराम—वह कौन—सी मनोकामना हैघ्

पंडित—अपने अपमान का बदला।

नायकराम—किससेघ्

पंडित—उसका नाम न लूँगा। किसी बड़े रईस का लड़का है। काशी से दीनों की सहायता करने आया था। सैकड़ों घर उजाड़कर न जाने कहाँ चल दिया। उसी के निमित्ता यह अनुष्ठान कर रहा हूँ। यहाँ आधा नगर मेरा यजमान थाए सेठ—साहूकार मेरा आदर करते थे। विद्यार्थियों को पढ़़ाया करता था। बुराई यह थी कि नाजिम को सलाम करने न जाता था। अमलों की कोई बुराई देखताए तो मुँह पर खोलकर कह देता। इसी से सब कर्मचारी मुझसे जलते थे। पिछले दिनों जब यहाँ दंगा हुआए तो सबों ने उसी बनारस के गुंडे से मुझ पर राजद्रोह का अपराधा लगवा दिया। सजा हो गईए बेंत पड़ गएए जरीबाना हो गयाए मर्यादा मिट्टी में मिल गई। अब नगर में कोई द्वार पर खड़ा नहीं होने देता। निराश होकर देवी की शरण आया हूँ। पुरश्चरण का पाठ कर रहा हूँ। जिस दिन सुनूँगा कि उस हत्यारे पर देवी ने कोप कियाए उसी दिन मेरी तपस्या पूरी हो जाएगी। द्विज हूँए लड़ना—भिड़ना नहीं जानताए मेरे पास इसके सिवा और कौन—सा हथियार हैघ्

विनय किसी शराबखाने से निकलते हुए पकड़े जातेए तो भी इतने शमिर्ंदा न होते। उन्हें अब इस ब्राह्मण की सूरत याद आई। याद आया कि मैंने ही पुलिस की प्रेरणा से इसे पकड़ा दिया था। जेब से पाँच रुपये निकाले और पंडितजी से बोले—यह लीजिएए मेरी ओर से भी उस नर—पिशाच के प्रति मारण—मंत्रा का जाप कर दीजिएगा। उसने मेरा भी सर्वनाश किया है। मैं भी उसके खून का प्यासा हो रहा हूँ।

पंडित—महाराजए आपका भला होगा। शत्रु की देह में कीड़े न पड़ जावें तो कहिएगा कि कोई कहता था। कुत्ताों की मौत मरेगा। यहाँ सारा नगर उसका दुश्मन है। अब तक इसलिए उसकी जान बची कि पुलिस उसे घेरे रहती थी। मगर कब तकघ् जिस दिन अकेला घर से निकलाए उसी दिन देवी का उस पर कोप गिरा है। वह इसी राज्य में हैए कहीं बाहर नहीं गया हैए और न अब बचकर जा ही सकता है। काल उसके सिर पर खेल रहा है। इतने दीनों की हाय क्या निष्फल हो जाएगीघ्

जब यहाँ से और आगे चलेए तो विनय ने कहा—पंडाजीए जल्दी से एक मोटर ठीक कर लो। मुझे भय लग रहा है कि कोई मुझे पहचान न ले। अपने प्राणों का इतना भय मुझे कभी न हुआ था। अगर ऐसे ही दो—एक —श्य और सामने आएए तो शायद मैं आत्मघात कर लूँ। आह! मेरा कितना पतन हुआ है! और अब तक मैं यही समझ रहा था कि मुझसे कोई अनौचित्य नहीं हुआ। मैंने सेवा का व्रत लिया थाए घर से परोपकार करने चला था। खूब परोपकार किया! शायद ये लोग मुझे जीवन—पयर्ंत न भूलेंगे।

नायकराम—भैयाए भूल—चूक आदमी ही से होती है। अब उसका पछतावा न करो।

विनय—नायकरामए यह भूल—चूक नहीं हैए ईश्वरीय विधान हैय ऐसा ज्ञात होता है कि ईश्वर सद्व्रतधारियों की कठिन परीक्षा लिया करते हैं। सेवक का पद इन परीक्षाओं में सफल हुए बिना नहीं मिलता। मैं परीक्षा में गिर गयाए बुरी तरह गिर गया।

नायकराम का विचार था कि जरा जेल के दारोगा साहब का कुशल—समाचार पूछते चलेंय लेकिन मौका न देखा तो तुरंत मोटर—सर्विस के दफ्तर में गए। वहाँ मालूम हुआ कि दरबार ने सब मोटरों को एक सप्ताह के लिए रोक लिया है।

मिस्टर क्लार्क के कई मित्रा बाहर से शिकार खेलने आए हुए थे। अब क्या होघ् नायकराम को घोड़े पर चढ़़ना न आता था और विनय को यह उचित न मालूम होता था कि आप तो सवार होकर चलें और वह पाँव—पाँव।

नायकराम—भैयाए तुम सवार हो जाओए मेरी कौनए अभी अवसर पड़ जाएए तो दस कोस जा सकता हूँ।

विनय—तो मैं ही ऐसा कौन मरा जाता हूँ। अब रात की थकावट दूर हो गई।

दोनों आदमियों ने जलपान किया और उदयपुर चले। आज विनय ने जितनी बात कीए उतनी शायद और कभी न की थीए और वह भी नायकराम—जैसे लट्ठ गँवार से। सोफी की तीव्र आलोचना अब उन्हें सर्वथा न्याय—संगत जान पड़ती थी। बोले—पंडाजीए यह समझ लो कि अगर दरबार ने उन सब कैदियों को छोड़ न दियाए जो मेरी शहादत से फँसे हैंए तो मैं भी अपना मुँह किसी को न दिखाऊँगा। मेरे लिए यही एक आशा रह गई है। तुम घर जाकर माताजी से कह देना कि वह कितना दुखी और अपनी भूल पर कितना लज्जित था।

नायकराम—भैयाए तुम घर न जाओगेए तो मैं भी न जाऊँगा। अब तो जहाँ तुम होए वहीं मैं भी हूँ। जो कुछ बीतेगीए दोनों ही के सिरे बीतेगी।

विनय—बसए तुम्हारी यही बात बुरी मालूम होती है। तुम्हारा और मेरा कौन—सा साथ है। मैं पातकी हूँ। मुझे अपने पातकों का प्रायश्चित्ता करना है। तुम्हारे माथे पर तो कलंक नहीं है। तुम अपना जीवन क्यों नष्ट करोगेघ् मैंने अब तक सोफिया को न पहचाना था। आज मालूम हुआ कि उसका हृदय कितना विशाल है। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। हाँए शिकायत केवल इस बात की है कि उसने मुझे अपना न समझा। वह अगर समझती कि यह मेरे हैंए तो मेरी एक—एक बात क्यों पकड़तीए जरा—जरा—सी बातों पर क्यों गुप्तचरों की भाँति द्रष्टि रखती! वह यह जानती है कि मैं ठुकरा दूँगीए तो यह जान पर खेल जाएँगे। यह जानकर भी उसने मेरे साथ इतनी निर्दयता क्यों कीघ् वह यह क्यों भूल गई कि मनुष्य से भूलें होती ही हैं। सम्भव हैए अपना समझकर ही उसने मुझे यह कठोर दंड दिया हो। दूसरों की बुराइयों की हमें परवाह नहीं होतीए अपनों ही को बुरी राह चलते देखकर दंड दिया जाता है। मगर अपनों को दंड देते समय इसका तो धयान रखना चाहिए कि आत्मीयता का सूत्रा न टूटने पाए! यह सोचकर मुझे ऐसा मालूम होता है कि उसका दिल मुझसे सदैव के लिए फिर गया।

नायकराम—ईसाइन है न! किसी ऍंगरेज को गाँठेगी।

विनय—तुम बिलकुल बेहूदे होए बात करने की तमीज नहीं। मैं कहता हूँए वह अब उम्र—भर ब्रह्मचारिणी रहेगी। तुम उसे क्या जानोए बात समझो न बूझोए चट से कह उठेए किसी ऍंगरेज को गाँठेगी। मैं उसे कुछ—कुछ जानता हूँ। मेरे लिए उसने क्या—क्या नहीं कियाए क्या—क्या नहीं सहा। जब उसका प्रेम याद आता हैए तो कलेजे में ऐसी पीड़ा होती है कि कहीं पत्थरों से सिर टकराकर प्राण दे दूँ। अब वह अजेय हैए उसने अपने प्रेम का द्वार बंद कर लिया। मैंने उस जन्म में न जाने कौन—सी तपस्या की थीए जिसका सुफल इतने दिनों भोगा। अब कोई देवता बनकर भी उसके सामने आएए तो वह उसकी ओर अॉंख उठाकर भी न देखेगी। जन्म से ईसाइन भले ही होए पर संस्कारों सेए कमोर्ं से वह आर्य महिला है। मैंने उसे कहीं का न रखा। आप भी डूबाए उसे भी ले डूबा। अब तुम देखना कि रियासत को वह कैसा नाकों चने चबवाती है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति है कि आन—की—आन मे रियासत का निशान मिटा सकती है।

नायकराम—हाँए है तो ऐसी ही आफत की परकाला।

विनय—फिर वही मूर्खता की बात! मैं तुमसे कितनी बार कह चुका कि मेरे सामने उसका नाम इज्जत से लिया करो। मैं उसके विषय में किसी के मुख से एक भी अनुचित शब्द नहीं सुन सकता। वह अगर मुझे भालों से छेद देए तो भी उसके प्रति मेरे मन में उपेक्षा का भाव न आएगा। प्रेम में प्रतिकार नहीं होता। प्रेम अनंत क्षमाए अनंत उदारताए अनंत धौर्य से परिपूर्ण होता है।

यों बातें करते हुए दोनों ने दोपहर तक आधाी मंजिल काटी। दोपहर को आराम करने लगेए तो ऐसे सोए कि शाम हो गई। रात को वहीं ठहरना पड़ा। सराय मौजूद थीए विशेष कष्ट न हुआ। हाँए नायकराम को आज जिंदगी में पहली बार भंग न मिली और वह बहुत दुखी रहे। एक तोले भंग के लिए एक से दस रुपये तक देने को तैयार थेए पर आज भाग्य में उपास ही लिखा था। चारों ओर से हारकर वह सिर थाम कुएँ की जगत पर आ बैठेए मानो किसी घर के आदमी का दाह—क्रिया करके आए हों।

विनय ने कहा—ऐसा व्यसन क्यों करते हो कि एक दिन भी उसके बिना न रहा जाएघ् छोड़ो इसेए भले आदमीए व्यर्थ में प्राण दिए देते हो।

नायकराम—भैयाए इस जन्म में तो छूटती नहींए आगे की दैव जाने। यहाँ तो मरते समय भी एक गोला सिरहाने रखे लेंगेए वसीयत कर जाएँगे कि एक सेर भंग हमारी चिता में डाल देना। कोई पानी देनेवाला तो है नहींए लेकिन अगर कभी भगवान्‌ ने वह दिन दिखायाए तो लड़कों से कह दूँगा कि पिंड के साथ भंग का पिंडा भी जरूर देना। इसका मजा वही जानता हैए जो इसका सेवन करता है।

नायकराम को आज भोजन अच्छा न लगाए नींद न आईए देह टूटती रही। गुस्से में सरायवाले को खूब गालियाँ दीं। मारने दौड़े। बनिये को डाँटा कि साफ शक्कर क्यों न दी। हलवाई से उलझ पड़े कि मिठाइयाँ क्यों खराब दीं। देख तोए तेरी क्या गत बनाता हूँए चलकर सीधो सरदार साहब से कहता हूँ। बच्चा! दूकान न लुटवा दूँए तो कहना। जानते होए मेरा नाम नायकराम है। यहाँ तेल की गंधा से घिन है। हलवाई पैरों पड़ने लगाय पर उन्होंने एक न सुनी। यहाँ तक कि धामकाकर उससे 25 रुपये वसूल किए। किंतु चलते समय विनय ने रुपये वापस करा दिए। हाँए हलवाई को ताकीद कर दी कि ऐसी खराब मिठाइयाँ न बनाया करे और तेल की चीज के घी के दाम न लिया करे।

दूसरे दिन दोनों आदमी दस बजते—बजते उदयपुर पहुँच गए। पहला आदमी जो उन्हें दिखाई दियाए वह स्वयं सरदार साहब थे। वह टमटम पर बैठे हुए दरबार से आ रहे थे। विनय को देखते ही घोड़ा रोक दिया और पूछा—आप कहाँघ्

विनय ने कहा—यहीं तो आ रहा था।

सरदार—कोई मोटर न मिलाघ् हाँए न मिला होगा। तो टेलीफोन क्यों न कर दियाघ् यहाँ से सवारी भेज दी जाती। व्यर्थ इतना कष्ट उठाया।

विनय—मुझे पैदल चलने का अभ्यास हैए विशेष कष्ट नहीं हुआ। मैं आज आपसे मिलना चाहता हूँए और एकांत में। आप कब मिल सकेंगेघ्

सरदार—आपके लिए समय निश्चित करने की जरूरत नहीं। जब जी चाहेए चले आइएगाए बल्कि वहीं ठहरिएगा भी।

विनय—अच्छी बात है।

सरदार साहब ने घोड़ों को चाबुक लगाया और चल दिए। यह न हो सका कि विनय को भी बिठा लेतेए क्योंकि उनके साथ नायकराम को भी बैठाना पड़ता। विनयसिंह ने एक ताँगा किया और थोड़ी देर में सरदार साहब के मकान पर जा पहुँचे।

सरदार साहब ने पूछा—इधार कई दिनों से आपका कोई समाचार नहीं मिला। आपके साथ के और लोग कहाँ हैंघ् कुछ मिसेज क्लार्क का पता चलाघ्

विनय—साथ के आदमी तो पीछे हैंय लेकिन मिसेज क्लार्क का कहीं पता न चलाए सारा परिश्रम विफल हो गया। वीरपालसिंह की तो मैंने टोह लगा लीए उसका घर भी देख आया। पर मिसेज क्लार्क की खोज न मिली।

सरदार साहब ने विस्मित होकर कहा—यह आप क्या कह रहे हैंघ् मुझे जो सूचना मिली हैए वह तो यह कहती है कि आपसे मिसेज क्लार्क की मुलाकात हुई और अब मुझे आपसे होशियार रहना चाहिए। देखिएए मैं वह खत आपको दिखाता हूँ।

यह कहकर सरदार साहब मेज के पास गएए एक बादामी मोटे कागज पर लिखा हुआ खत उठा लाए और विनयसिंह के हाथ में रख दिया।

जीवन में यह पहला अवसर था कि विनय ने असत्य का आश्रय लिया था। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। बात क्योंकर निबाहेंए यह समझ में न आया। नायकराम भी फर्श पर बैठे हुए थे। समझ गए कि यह असमंजस में पड़े हुए हैं। झूठ बोलने और बातें बनाने में अभ्यस्त थे। बोले—कुँवर साहबए जरा मुझे दीजिएए किसका खत हैघ्

विनय—इंद्रदत्ता का।

नायकराम—ओहो! उस पगले का खत है! वही लौंडा नए जो सेवा समिति में आकर गाया करता थाघ् उसके माँ—बाप ने घर से निकाल दिया था। सरकारए पगला है। ऐसी ही ऊटपटाँग बात किया करता है।

सरदार—नहींए किसी पगले लौंडे की लेखन—शैली ऐसी नहीं हो सकती। बड़ा चतुर आदमी है। इसमें कोई संदेह नहीं। उसके पत्रा इधार कई दिनों से बराबर मेरे पास आ रहे हैं। कभी मुझको धामकाता हैए कभी नीति के उपदेश देता है। किंतु जो कुछ कहता हैए शिष्टाचार के साथ। एक भी अशिष्ट अथवा अनर्गल शब्द नहीं होता। अगर यह वही इंद्रदत्ता हैए जिसे आप जानते हैंए तो और भी आश्चर्य है। सम्भव हैए उसके नाम से कोई दूसरा आदमी पत्रा लिखता हो। यह कोई साधारण शिक्षा पाया हुआए आदमी नहीं मालूम होता।

विनयसिंह तो ऐसे सिटपिटा गएए जैसे कोई सेवक अपने स्वामी का संदूक खोलता हुआ पकड़ा जाए। मन में झुँझला रहे थे कि क्यों मैंने मिथ्या भाषण कियाघ् मुझे छिपाने की जरूरत ही क्या थीघ् लेकिन इंद्रदत्ता का इस पत्रा से क्या उद्देश्य हैघ् क्या मुझे बदनाम करना चाहता हैघ्

नायकराम—कोई दूसरा ही आदमी होगा। उसका मतलब यही है कि यहाँ के हाकिमों को कुँवर साहब से भड़का दे। क्यों भैयाए समिति में कोई विद्वान्‌ आदमी थाघ्

विनय—सभी विद्वान थेए उनमें मूर्ख कौन हैघ् इंद्रदत्ता भी उच्च कोटी की शिक्षा पाए हुए है। पर मुझे न मालूम था कि वह मुझसे इतना द्वेष रखता है।

यह कहकर विनय ने सरदार साहब को लज्जित नेत्राों से देखा। असत्य का रूप प्रतिक्षण भयंकर तथा मिथ्यांधाकार और भी सघन होता जाता था।

तब वह सकुचाते हुए बोले—सरदार साहबए क्षमा कीजिएगाए मैं आपसे झूठ बोल रहा था। इस पत्रा में जो कुछ लिखा हैए वह अक्षरशरू सत्य है। निरूसंदेह मेरी मुलाकात मिसेज क्लार्क से हुई। मैं इस घटना को आपसे गुप्त रखना चाहता थाए क्योंकि मैंने उन्हें इसका वचन दे दिया था। वह वहाँ बहुत आराम से हैंए यहाँ तक कि मेरे बहुत आग्रह करने पर भी मेरे साथ न आईं।

सरदार साहब ने बेपरवाही से कहा—राजनीति में वचन का बहुत महत्तव नहीं है। अब मुझे आपसे चौकन्ना रहना पड़ेगा। अगर इस पत्रा ने मुझे सारी बातों का परिचय न दे दिया होताए तो आपने तो मुझे मुगालता देने में कोई बात उठा न रखी थी। आप जानते हैंए हमें आजकल इस विषय में गवर्नमेंट से कितनी धामकियाँ मिल रही हैं या कहिए मिसेज क्लार्क के सकुशल लौट आने पर ही हमारी कारगुजारी निर्भर है। खैरए यह क्या बात हैघ् मिसेज क्लार्क आईं क्यों नहींघ् क्या बदमाशों ने उन्हें आने न दियाघ्

विनय—वीरपालसिंह तो बड़ी खुशी से उन्हें भेजना चाहता था। यही एक साधान हैए जिससे वह अपनी प्राणरक्षा कर सकता है। लेकिन वह खुद ही आने पर तैयार न हुईं।

सरदार—मिस्टर क्लार्क से नाराज तो नहीं हैंघ्

विनय—हो सकता है। जिस दिन विद्रोह हुआ थाए मिस्टर क्लार्क नशे में अचेत पड़े थेए शायद इसी कारण उनसे चिढ़़ गई हों। ठीक—ठीक कुछ नहीं कह सकता। हाँए उनसे भेंट होने से यह बात स्पष्ट हो गई कि हमने जसंवतनगरवालों का दमन करने में बहुत—सी बातें न्याय—विरुध्द कीं। हमें शंका थी कि विद्रोहियों ने मिसेज क्लार्क को या तो कैद कर रखा है या मार डाला है। इसी शंका पर हमने दमन—नीति का व्यवहार किया। सबको एक लाठी से हाँका। किंतु दो बातों में से एक भी सच न निकली। मिसेज क्लार्क जीवित हैं और प्रसन्न हैं। वह वहाँ से स्वयं नहीं आना चाहतीं। जसवंतनगरवाले अकारण ही हमारे कोप के भागी हुएए और मैं आपसे बड़े आग्रह से प्रार्थना करता हूँ कि उन गरीबों पर दया होनी चाहिए। सैकड़ां निरपराधियों की गर्दन पर छुरी फिर रही है।

सरदार साहब जान—बूझकर किसी पर अन्याय न करना चाहते थेए पर अन्याय कर चुकने के बाद अपनी भूल स्वीकार करने का उन्हें साहस न होता था। न्याय करना उतना कठिन नहीं हैए जितना अन्याय का शमन करना। सोफी के गुम हो जाने से उन्हें केवल गवर्नमेंट की वक्र द्रष्टि का भय था। पर सोफी का पता मिल जानाए समस्त देश के सामने अपनी अयोग्यता और नृशंसता का डंका पीटना था। मिस्टर क्लार्क को खुश करके गवर्नमेंट को खुश किया जा सकता थाए पर प्रजा की जबान इतनी आसानी से न बंद की जा सकती थी।

सरदार साहब ने कुछ सकुचाते हुए कहा—या तो मैं मान सकता हूँ क मिसेज क्लार्क जीवित हैं। लेकिन आप तो क्याए ब्रह्मा भी आकर कहें कि वह वहाँ प्रसन्न हैं और आना नहीं चाहतींए तो भी मैं स्वीकार न करूँगा। यह बच्चों की—सी बात है। किसी को अपने घर से अरुचि नहीं होती कि वह शत्रुओ के साथ साथ रहना पसंद करे। विद्रोहियों ने मिसेज क्लार्क को यह कहने के लिए मजबूर किया होगा। वे मिसेज क्लार्क को उस वक्त तक न छोड़ेंगेए जब तक हम सारे कैदियों को मुक्त न कर दें। यह विजेताओं की नीति है और मैं इसे नहीं मान सकता। मिसेज क्लार्क को कड़ी—से—कड़ी यातनाएँ दी जा रही हैंए और उन्होंने उन यातनाओं से बचने के लिए आपसे यह सिफारिश की हैए और कोई बात नहीं है।

विनय—मैं इस विचार से सहमत नहीं हो सकता। मिसेज क्लार्क बहुत प्रसन्न दिखाई देती थीं। पीड़ित हृदय कभी इतना निश्शंक नहीं हो सकता।

सरदार—यह आपकी अॉंखों का दोष है। अगर मिसेज क्लार्क स्वयं आकर मुझसे कहें कि मैं बड़े आराम से हूँए तो भी मुझे विश्वास न आएगा। आप नहीं जानतेए ये लोग किन सिध्दियों से स्वाधाीनता पर जान देनेवाले प्राण्0श्निायों पर भी आतंक जमा लेते हैंय यहाँ तक कि उनके पंजे से निकल आने पर भी कैदी उन्हीं की—सी कहता है और उन्हीं की—सी करता है। मैं एक जमाने में पुलिस की कर्मचारी था। आपसे सच कहता हूँए मैंने कितने ही राजनीतिक अभियोगों में बड़े—बड़े व्रतधारियों से ऐसे अपराधा स्वीकार करा दिएए जिनकी उन्होंने कल्पना तक न की थी। वीरपालसिंह इस विषय में हमसे कहीं चतुर है।

विनय—सरदार साहबए अगर थोड़ी देर के लिए मुझे यह विश्वास भी हो जाए कि मिसेज क्लार्क ने दबाव में आकर मुझसे ये बातें कही हैंए तो भी अब ठंडे हृदय से विचार करने पर मुझे ज्ञात हो रहा है कि इतनी निर्दयता से दमन न करना चाहिए था। अब उन अभियुक्तों पर कुछ रिआयत होनी चाहिए।

सरदार—रिआयत राजनीति में पराजय का सूचक है। अगर मैं यह भी मान लूँ कि मिसेज क्लार्क वहाँ आराम से हैं और स्वतंत्रा हैंए तथा हमने जसवंतनगरवालों पर घोर अत्याचार कियाए फिर भी मैं रिआयत करने को तैयार नहीं हूँ। रिआयत करना अपनी दुर्बलता और भ्रांति की घोषणा करना है। आप जानते हैंए रिआयत का परिणाम क्या होगाघ् विद्रोहियों के हौसले बढ़़ जाएँगेए उनके दिल में रियासत का भय जाता रहेगा और जब भय न रहा तो राज्य भी नहीं रह सकता। राज्य—व्यवस्था का आधार न्याय नहींए भय है। भय को आप निकाल दीजिएए और राज्य—विधवंस हो जाएगाए फिर अर्जुन की वीरता और युधिष्ठिर का न्याय भी उनकी रक्षा नहीं कर सकता। सौ—दो सौ निरपराधियों का जेल में रहनाए राज्य न रहने से कहीं अच्छा है। मगर मैं उन विद्रोहियों को निरपराधा क्योंकर मान लूँघ् कई हजार आदमियों का सशस्त्रा होकर एकत्रा हो जानाए यह सिध्द करता है कि वहाँ लोग विद्रोह करने के विचार से ही गए थे।

विनय—किंतु जो लोग उसमें सम्मिलित न थेए वे तो बेकसूर हैंघ्

सरदार—कदापि नहींए उनकार् कत्ताव्य था कि अधिकारियों को पहले ही से सचेत कर देते। एक चोर को किसी के घर में सेंधा लगाते देखकर घरवालों को जगाने की चेष्टा न करेंए तो आप स्वयं चोर की सहायता कर रहे हैं। उदासीनता बहुधा अपराधा से भी भयंकर होती है।

विनय—कम—से—कम इतना तो कीजिए कि जो लोग मेरी शहादत पर पकड़े गए हैंए उन्हें बरी कर दीजिए।

सरदार—असम्भव है।

विनय—मैं शासन—नीति के नाते नहींए दया और सौजन्य के नाते आपसे यह विनीत आग्रह करता हूँ।

सरदार—कह दिया भाईजानए कि यह असम्भव है। आप इसका परिणाम नहीं सोच रहे हैं।

विनय—लेकिन मेरी प्रार्थना को स्वीकार न करने का परिणाम भी अच्छा न होगा। आप समस्या को और जटील बना रहे हैं।

सरदार—मैं खुले विद्रोह से नहीं डरता। डरता हूँ केवल सेवकों सेय प्रजा के हितैषियों से और उनसे यहाँ की प्रजा का जी भर गया है। बहुत दिन बीत जाएँगेए इसके पहले कि प्रजा देश—सेवकों पर फिर विश्वास करे।

विनय—अगर इसी नियत से आपने मेरे हाथों प्रजा का अनिष्ट करायाए तो आपने मेरे साथ घोर विश्वासघात कियाए लेकिन मैं आपको सतर्क किए देता हूँ कि यदि आपने मेरा अनुरोधा न मानाए तो आप रियासत में ऐसा विप्लव मचा देंगेए जो रियासत की जड़ हिला देगा। मैं यहाँ से मिस्टर क्लार्क के पास जाता हूँ। उनसे भी यही अनुरोधा करूँगा और यदि वह भी न सुनेंगेए तो हिज हाइनेस की सेवा में यही प्रस्ताव उपस्थित करूँगा। अगर उन्होंने भी न सुनाए तो फिर इस रियासत का मुझसे बड़ा और कोई शत्रु न होगा।

यह कहकर विनयसिंह उठ खड़े हुए और नायकराम को साथ लेकर मिस्टर क्लार्क के बँगले पर जा पहुँचे। वह आज ही अपने शिकारी मित्राों को बिदा करके लौटे थे और इस समय विश्राम कर रहे थे। विनय ने अरदली से पूछाए तो मालूम हुआ कि साहब काम कर रहे हैं। विनय बाग में टहलने लगे। जब आधा घंटे तक साहब ने न बुलाया तो उठे और सीधो क्लार्क के कमरे में घुस गएए वह इन्हें देखते ही उठ बैठेए और बोले—आइए—आइएए आप ही की याद कर रहा था। कहिएए क्या समाचार हैघ् सोफिया का पता तो आप लगा ही आए होंगेघ्

विनय—जी हाँए लगा आया।

यह कहकर विनय ने क्लार्क से भी वही कथा कहीए जो सरदार साहब से कही थीए और वही अनुरोधा किया।

क्लार्क—मिस सोफी आपके साथ क्यों नहीं आईंघ्

विनय—यह तो मैं नहीं कह सकताए लेकिन वहाँ उन्हें कोई कष्ट नहीं है।

क्लार्क—तो फिर आपने नई खोज क्या कीघ् मैंने तो समझा थाए शायद आपके आने से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ेगा। यह देखिएए सोफिया का पत्रा है। आज ही आया है। इसे आपको दिखा तो नहीं सकताए पर इतना कह सकता हूँ कि वह इस वक्त मेरे सामने आ जाएए तो उस पर पिस्तौल चलाने में एक क्षण भी विलम्ब न करूँगा। अब मुझे मालूम हुआ कि धार्मपरायणता छल और कुटीलता का दूसरा नाम है। इसकी धार्म—निष्ठा ने मुझे बड़ा धोखा दिया। शायद कभी किसी ने इतना बड़ा धोखा न खाया होगा। मैंने समझा थाए धार्मिकता से सहृदयता उत्पन्न होती हैय पर यह मेरी भ्रांति थी। मैं इसकी धार्म—निष्ठा पर रीझ गया। मुझे इंग्लैंड की रँगीली युवतियों से निराशा हो गई थी। सोफिया का सरल स्वभाव और धार्मिक प्रवृत्तिा देखकर मैंने समझाए मुझे इच्छित वस्तु मिल गई। अपने समाज की उपेक्षा करके मैं उसके पास जाने—आने लगा और अंत में प्रोपोज किया। सोफिया ने स्वीकार तो कर लियाए पर कुछ दिनों तक विवाह को स्थगित रखना चाहा। मैं क्या जानता था कि उसके दिल में क्या हैघ् राजी को गया। उसी अवस्था में वह मेरे साथ यहाँ आईए बल्कि यों कहिए कि वही मुझे यहाँ लाई। दुनिया समझती हैए वह मेरी विवाहिता थीए कदापि नहीं। हमारी तो मँगनी भी न हुई थी। अब जाकर रहस्य खुला कि वह बोलशेविकों की एजेंट है। उसके एक—एक शब्द से उसकी बोलशेविक प्रवृत्तिा टपक रही है। प्रेम का स्वाँग भरकर वह ऍंगरेजों के आंतरिक भावों का ज्ञान प्राप्त करना चाहती थी। उसका यह उद्देश्य पूरा हो गया। मुझसे जो कुछ काम निकल सकता थाए वह निकालकर उसने मुझे दुतकार दिया। विनयसिंहए तुम नहीं अनुमान कर सकते कि मैं उससे कितना प्रेम करता था। इस अनुपम रूपराशि के नीचे इतनी घोर कुटीलता! मुझे धामकी दी है कि इतने दिनों में ऍंगरेजी समाज का मुझे जो कुछ अनुभव हुआ हैए उसे मैं भारतवासियों के विनोदार्थ प्रकाशित कर दूँगी। वह जो कुछ कहना चाहती हैए मैं स्वयं क्यों न बतला दूँघ् ऍंगरेज—जाति भारत का अनंत काल तक अपने साम्राज्य का अंग बनाए रखना चाहती है। कंजरवेटीव हो या लिबरलए रेडिकल हो या लेबरए नेशनलिस्ट हो या सोशलिस्टए इस विषय में सभी एक ही आदर्श का पालन करते हैं। सोफी के पहले मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि रेडिकल और लेबर नेताओं के धोखे में न आओ। कंजरवेटीव दल में और चाहे कितनी बुराइयाँ होंए वह निर्भीक हैए तीक्ष्ण सत्य से नहीं डरता। रेडिकल और लेबर अपने पवित्रा और उज्ज्वल सिध्दांतों का समर्थन करने के लिए ऐसी आशाप्रद बातें कह डालते हैंए जिनका व्यवहार में लाने का उन्हें साहस नहीं हो सकता। आधिपत्य त्याग करने की वस्तु नहीं है। संसार का इतिहास केवल इसी शब्दश्आधिपत्य—प्रेमश् पर समाप्त हो जाता है। मानव स्वभाव अब भी वही हैए जो सृष्टि के आदि में था। ऍंगरेज—जाति कभी त्याग के लिएए उच्च सिध्दांतों पर प्राण देने के लिए प्रसिध्द नहीं रही। हम सब—के—सब—मैं लेबर हूँ—साम्राज्यवादी हैं। अंतर केवल उस नीति में हैए जो भिन्न—भिन्न दल इस जाति पर आधिपत्य जमाए रखने के लिए ग्रहण करते हैं। कोई शासन का उपासक हैए कोई सहानुभूति काए कोई चिकनी—चुपड़ी बातों से काम निकालने का। बसए वास्तव में नीति कोई है ही नहींए केवल उद्देश्य हैए और वह यह कि क्योंकर हमारा आधिपत्य उत्तारोत्तार सु—ढ़़ हो। यही वह गुप्त रहस्य हैए जिसको प्रकट करने की मुझे धामकी दी गई है। यह पत्रा मुझे न मिला हाताए तो मेरी अॉंखों पर परदा पड़ा रहता और सोफी के लिए क्या कुछ न कर डालता। पर इस पत्रा ने मेरी अॉंखें खोल दीं और अब मैं आपकी सहायता नहीं कर सकताय बल्कि आपसे भी अनुरोधा करता हूँ कि इस बोलशेविक आंदोलन को शांत करने में रियासत की सहायता कीजिए। सोफी—जैसी चतुरए कार्यशीलए धून की पक्की युवती के हाथों में यह आंदोलन कितना भयंकर हो सकता हैए इसका अनुमान करना कठिन नहीं है।

विनय यहाँ से भी निराश होकर बाहर निकलेए तो सोचने लगेए अब महाराजा साहब के पास जाना व्यर्थ है। वह साफ कह देंगेए जब मंत्राी और एजेंट कुछ नहीं कर सकतेए तो मैं क्या कर सकता हूँ। लेकिन जी न मानाए ताँगेवाले को राजभवन की ओर चलने का हुक्म दिया।

नायकराम—क्या गिटपिट करता रहाघ् आया राह परघ्

विनय—यही राह पर आ जाताए तो महाराज साहब के पास क्यों चलतेघ्

नायकराम—हजार—दो हजार माँगता होए तो दे क्यों नहीं देतेघ् अफसर छोटे हों या बड़ेए लोभी होते हैं।

विनय—क्या पागलों की—सी बात करते हो! ऍंगरेज में अगर ये बुराइयाँ होतींए तो इस देश से ये लोग कब के सिधार गए होते। यों ऍंगरेज भी रिश्वत लेते हैंए देवता नहीं हैंए पहले—पहल ऍंगरेज यहाँ आए थेए वे तो पूरे डाकू थेए लेकिन अपने राज्य का अपकार करके ये लोग कभी अपना उपकार नहीं करते। रिश्वत भी लेंगेए तो उसी दशा मेंए जब राज्य को उससे कोई हानि न पहुँचे!

नायकराम चुप हो रहे। ताँगा राज—भवन की ओर जा रहा था। रास्ते में कई सड़केंए कई पाठशालाएँए कई चिकित्सालय मिले। इन सबों के नाम ऍंगरेजी थे। यहाँ तक एक पार्क मिलाए वह भी किसी ऍंगरेज एजेंट के नाम से अलंकृत था। ऐसा जान पड़ता थाए यह कोई भारतीय नगर नहींए ऍंगरेजों का शिविर है। ताँगा जब राजभवन के सामने पहुँचा तो विनयसिंह उतर पड़े और महाराजा के प्राइवेट सेक्रेटरी के पास गए। यह एक ऍंगरेज था। विनय से हाथ मिलाते हुए बोला—महाराजा साहब तो अभी पूजा पर है। ग्यारह बजे बैठा थाए चार बजे उठेगा। क्या आप लोग इतनी देर तक पूजा किया करता हैघ्

विनय—हमारे यहाँ ऐसे—ऐसे पूजा करनेवाले हैंए जो कई—कई दिन तक समाधि में मग्न रहते हैं। पूजा का वह भागए जिसमें परमात्मा या अन्य देवताओं से कल्याण की याचना की जाती हैए शीघ्र समाप्त हो जाता हैय लेकिन वह भागए जिसमें योग—क्रियाओं द्वारा आत्मशुध्दि की जाती हैए बहुत विशद होता है।

सेक्रेटरी—हम जिस राजा के साथ पहले थाए वह सबेरे से दो बजे तक पूजा करता थाए तब भोजन करता था और चार बजे सोता था। फिर नौ बजे पूजा पर बैठ जाता था और दो बजे रात को उठता था। वह एक घंटे के लिए सूर्यास्त के समय बाहर निकलता था। इतनी लम्बी पूजा मेरे विचार में अस्वाभाविक है। मैं समझता हूँ कि यह न तो उपासना हैए न आत्मशुध्दि की क्रियाए केवल एक प्रकार की अकर्मण्यता है।

विनय का चित्ता इस समय इतना व्यग्र हो रहा था कि उन्होंने इस कटाक्ष का कुछ उत्तार न दिया। सोचने लगे—अगर राजा साहब ने भी साफ जवाब दियाए तो मेरे लिए क्या करना उचित होगाघ् अभी इतने बेगुनाहों के खून से हाथ रँगे हुए हैंए कहीं सोफी ने गुप्त हत्याओं का अभिनय आरम्भ कियाए तो उसका खून भी मेरी ही गर्दन पर होगा। इस विचार से वह इतने व्याकुल हुए कि एक ठंडी साँस लेकर आराम—कुर्सी पर लेट गए और अॉंखें बंद कर लीं। यों वह नित्य संधया करते थेए पर आज पहली बार ईश्वर से दया—प्रार्थना की। रात—भर के जागेए दिन—भर के थके थे हीए एक झपकी आ गई। जब अॉंखें खुलींए तो चार बज चुके थे। सेक्रेटरी से पूछा—अब तो हिज हाइनेस पूजा पर से उठ गए होंगेघ्

सेक्रेटरी—आपने तो एक लम्बी नींद ले ली।

यह कहकर उसने टेलीफोन द्वारा कहा—कुँवर विनयसिंह हिज हाइनेस से मिलना चाहते हैं।

एक क्षण में जवाब आया—आने दो।

विनयसिंह महाराज के दीवाने—खाने में पहुँचे। वहाँ कोई सजावट न थीए केवल दीवारों पर देवताओं के चित्रा लटके हुए थे। कालीन के फर्श पर सफेद चादर बिछी हुई थी। महाराज साहब मसनद पर बैठे हुए थे। उनकी देह पर केवल एक रेशमी चादर थी और गले में एक तुलसी की माला। मुख से साधूता झलक रही थी। विनय को देखते ही बोले—आओ जीए बहुत दिन लगा दिए। मिस्टर क्लार्क की मेम का कुछ पता चलाघ्

विनय—जी हाँए वीरपालसिंह के घर हैए और बड़े आराम से है। वास्तव में अभी मिस्टर क्लार्क से उसका विवाह नहीं हुआ हैए केवल मँगनी हुई है। इनके पास आने पर राजी नहीं होती है। कहती हैए मैं यहीं बड़े आराम से हूँ और मुझे भी ऐसा ही ज्ञात होता है।

महाराज—हरि—हरि! यह तो तुमने विचित्रा बात सुनाई! इनके पास आती ही नहीं! समझ गयाए उन सबों ने वशीकरण कर दिया होगा। शिव—शिव! इनके पास आती ही नहीं।

विनय—अब विचार कीजिए कि वह तो जीवित हैए और सुखी है और यहाँ हम लोगों ने कितने ही निरपराधियों को जेल में डाल दियाए कितने ही घरों को बरबाद कर दिया और कितने ही को शारीरिक दंड दिए।

महाराजा—शिव—शिव! घोर अनर्थ हुआ।

विनय—भ्रम में हम लोगों ने गरीबो पर कैसे—कैसे अत्याचार किए कि उनकी याद ही से रोमांच हो आता है। महाराज बहुत उचित कहते हैंए घोर अनर्थ हुआ। ज्यों ही यह बात लोगों को मालूम हो जाएगीए जनता में हाहाकर मच जाएगा। इसलिए अब यही उचित है कि हम अपनी भूल स्वीकार कर लें और कैदियों को मुक्त कर दें।

महाराज—हरि—हरिए यह कैसे होगा बेटाघ् राजों से भी कहीं भूल होती है। शिव—शिव! राजा तो ईश्वर का अवतार है। हरि—हरि! वह एक बार जो कर देता हैए उसे फिर नहीं मिटा सकता। शिव—शिव! राजा का शब्द ब्रह्मलेख हैए वह नहीं मिट सकताए हरि—हरि!

विनय—अपनी भूल स्वीकार करने में जो गौरव हैए वह अन्याय को चिरायु रखने में नहीं। अधाीश्वरों के लिए क्षमा ही शोभा देती है। कैदियों को मुक्त करने की आज्ञा दी जाएए जुरमाने के रुपये लौटा दिए जाएँ और जिन्हें शारीरिक दंड दिए गए हैंए उन्हें धान देकर संतुष्ट किया जाए। इससे आपकी कीर्ति अमर हो जाएगीए लोग आपका यश गाएँगे और मुक्त कंठ से आशीर्वाद देंगे।

महाराज—शिव—शिव! बेटाए तुम राजनीति की चालें नहीं जानते। यहाँ एक कैदी भी छोड़ा गया और रियासत पर वज्र गिरा। सरकार कहेगीए मेम को न जाने किस नीयत से छिपाए हुए हैए कदाचित्‌ उस पर मोहित हैए तभी तो पहले दंड का स्वाँग भरकर अब विद्रोहियों को छोड़े देता है! शिव—शिव! रियासत धूल में मिल जाएगीए रसातल को चली जाएगी। कोई न पूछेगा कि यह सच है या झूठ। कहीं इस पर विचार न होगा। हरि—हरि! हमारी दशा साधारण अपराधियों से भी गई—बीती है। उन्हें तो सफाई देने का अवसर दिया जाता हैए न्यायालय में उन पर कोई धारा लगाई जाती है और उसी धारा के अनुसार दंड दिया जाता है। हमसे कौन सफाई लेता हैए हमारे लिए कौन—सा न्यायालय है! हरि—हरि! हमारे लिए न कोई कानून हैए न कोई धारा। जो अपराधा चाहाए लगा दियाय जो दंड चाहाए दे दिया। न कहीं अपील हैए न फरियाद। राजा विषय—प्रेमी कहलाते ही हैंए उन पर यह दोषारोपण होते कितनी देर लगती है। कहा जाएगाए तुमने क्लार्क की अति रूपवती मेम को अपने रनिवास में छिपा लिया और झूठमूठ उड़ा दिया कि वह गुम हो गईघ् हरि—हरि! शिव—शिव! सुनता हूँए बड़ी रूपवती स्त्राी हैए चाँद का टुकड़ा हैए अप्सरा है। बेटाए इस अवस्था में यह कलंक न लगाओ। वृध्दावस्था भी हमें ऐसे कुत्सित दोषों से बचा नहीं सकती। मशहूर हैए राजा लोग रसादि का सेवन करते हैंए इसलिए जीवन—पयर्ंत हृष्ट—पुष्ट बने रहते हैं। शिव—शिव! यह राज्य नहीं हैए अपने कमोर्ं का दंड है। नकटा जिया बुरे हवाल। शिव—शिव! अब कुछ नहीं हो सकता। सौ—पचास निर्दोष मनुष्यों का जेल में पड़ा रहना कोई असाधारण बात नहीं। वहाँ भी तो भोजन—वस्त्रा मिलता ही है। अब तो जेलखानों की दशा बहुत अच्छी है। नए—नए कुरते दिए जाते हैं। भोजन भी अच्छा दिया जाता है। हाँए तुम्हारी खातिर से इतना कर सकता हूँ कि जिन परिवारों का कोई रक्षक न रह गया होए अथवा जो जुरमाने के कारण दरिद्र हो गए होंए उन्हें गुप्त रीति से कुछ सहायता दे दी जाए। हरि—हरि! तुम अभी क्लार्क के पास तो नहीं गए थेघ्

विनय—गया थाए वहीं से तो आ रहा हूँ।

महाराजा—(घबराकर) उनसे तो यह नहीं कह दिया कि मेम साहब बड़े आराम से हैं और आने पर राजी नहीं हैघ्

विनय—यह भी कह दियाए छिपाने की कोई बात न थी। किसी भाँति उन्हें धौर्य तो हो।

महाराजा—(जाँघ पर हाथ पटककर) सर्वनाश कर दिया! हरि—हरि चौपट—नाश कर दिया। शिव—शिव! आग तो लगा दीए अब मेरे पास क्यों आए हो। शिव—शिव! क्लार्क कहेगाए कैदी कैद में आराम से हैए तो इसमें कुछ—न—कुछ रहस्य है। अवश्य कहेगा! ऐसा कहना स्वाभाविक भी है। मेरे अदिन आ गएए शिव—शिव ! मैं इस आक्षेप का क्या उत्तार दूँगा! भगवन्ए तुमने घोर संकट में डाल दिया। यह कहते हैं बचपन की बुध्दि! वहाँ न जाने कौन—सा शुभ समाचार कहने दौड़े थे। पहले प्रजा को भड़कायाए रियासत में आग लगाईए अब यह दूसरा आघात किया। मूर्ख! तुझे क्लार्क से कहना चाहिए थाए वहाँ मेम को नाना प्रकार के कष्ट दिए जा रहे हैंए अनेक यातनाएँ मिल रही हैं। ओह! शिव—शिव!

सहसा प्राइवेट सेक्रेटरी ने फोन में कहा—मिस्टर क्लार्क आ रहे हैं।

महाराजा ने खड़े होकर कहा—आ गया यमदूतए आ गया। कोई हैघ् कोट—पतलून लाओ। तुम जाओ विनयए चले जाओए रियासत से चले जाओ। फिर मुझे मुँह मत दिखाना। जल्दी पगड़ी लाओए यहाँ से उगालदान हटा दो।

विनय को आज राजा से घृणा हो गई। सोचाए इतना पतनए इतनी कायरता! यों राज्य करने से डूब मरना अच्छा है! वह बाहर निकलेए तो नायकराम ने पूछा—कैसी छनीघ्

विनय—इनकी तो मारे भय से आप ही जान निकली जाती है। ऐसा डरते हैंए मानो मिस्टर क्लार्क कोई शेर हैं और इन्हें आते—ही—आते खा जाएँगे। मुझसे तो इस दशा में एक दिन भी न रहा जाता।

नायकराम—भैयाए मेरी तो अब सलाह है कि घर लौट चलोए इस जंजाल में कब तक जान खपाओगेघ्

विनय ने सजल नयन होकर कहा—पंडाजीए कौन मुँह लेकर घर जाऊँघ् मैं अब घर जाने योग्य नहीं रहा। माताजी मेरा मुँह न देखेंगी। चला था जाति की सेवा करनेए जाता हूँ सैकड़ों परिवारों का सर्वनाश करके। मेरे लिए तो अब डूब मरने के सिवा और कुछ नहीं रहा। न घर का रहा न घाट का। मैं समझ गया नायकरामए मुझसे कुछ न होगाए मेरे हाथों किसी का उपकार न होगाए मैं विष बोने ही के लिए पैदा किया गया हूँयमैं सर्प हूँए जो काटने के सिवा और कुछ नहीं कर सकता। जिस पामर प्राणी को प्रांत—का—प्रांत गालियाँ दे रहा होए जिसके अहित के लिए अनुष्ठान किए जा रहे होंए उसे संसार पर भार—स्वरूप रहने का क्या अधिकार हैघ् आज मुझ पर कितने बेकसों की आहें पड़ रही हैं। मेरे कारण कितना अॉंसू बहा हैए उसमें मैं डूब सकता हूँ। मुझे जीवन से भय लग रहा है। जितना जिऊँगाए उतना ही अपने ऊपर पापों का भार बढ़़ाऊँगा। इस वक्त अगर अचानक मेरी मृत्यु हो जाएए तो समझ्रूए ईश्वर ने मुझे उबार लिया।

इस तरह ग्लानि में डूबे हुए विनय उस मकान में पहुँचेए जो रियासत की ओर से उन्हें ठहरने को मिला था। विनय को देखते ही नौकर—चाकर दौड़ेए कोई पानी खींचने लगाए कोई झाड़ई देने लगाए कोई बरतन धोने लगा। विनय ताँगे से उतरकर सीधो दीवानखाने में गए। अंदर कदम रखा ही था कि मेज पर बंद लिफाफा मिला। विनय का हृदय धाक—धाक करने लगा। यह रानी जाह्नवी का पत्रा था। लिफाफा खोलने की हिम्मत न पड़ी। कोई माता परदेश में पड़े हुए बीमार बेटे का तार पाकर इतनी शंकातुर न होती होगी। लिफाफा हाथ में लिए हुए सोचने लगे—इसमें मेरी भर्त्‌सना के सिवा और क्या होगाघ् इंद्रदत्ता ने जो कुछ कहा हैए वही तीव्र शब्दों में यहाँ दुहराया गया होगा। लिफाफा ज्यों—का—त्यों रख दिया और सोचने लगे—अब क्या करना चाहिएघ् क्यों न यहाँ बाजार में खड़े होकर जनता को सूचित कर दूँ कि दरबार तुम्हारे साथ यह अन्याय कर रहा हैघ् लेकिन इस समय पीड़ित जनता को सहायता की जरूरत हैए धान कहाँ से आएघ् पिताजी को लिखूँ कि आप इस समय मेरे पास जितने रुपये भेज सकेंए भेज दीजिएघ् रुपये आ जाएँए तो यहाँ अनाथों में बाँट दूँघ् नहींए सबसे पहले वायसराय से मिलूँ और यहाँ की यथार्थ स्थिति उनसे बयान करूँ। सम्भव हैए वह दरबार पर दबाव डालकर कैदियों को मुक्त करा दें। यही ठीक है। अब मुझे सब काम छोड़कर वाइसराय से मिलना चाहिए।

वह यात्राा की तैयारियाँ करने लगेए लेकिन रानीजी के पत्रा की यादए सिर पर लटकती हुई नंगी तलवार की भाँति उन्हें उद्विग्न कर रही थी। आखिर उनसे न रहा गयाए पत्रा खोलकर पढ़़ने लगे रू

विनयए आज से कई मास पहले मैं तुम्हारी माता होने पर गर्व करती थीए पर आज तुम्हें पुत्रा कहते हुए लज्जा से गड़ी जाती हूँ। तुम क्या थेए क्या हो गए! और अगर यही दशा रहीए तो अभी और न जानेए क्या हो जाओगे। अगर मैं जानती कि तुम इस भाँति मेरा सिर नीचा करोगेए तो आज तुम इस संसार में न होते। निर्दयी! इसीलिए तूने मेरी कोख में जन्म लिया था! इसीलिए मैंने तुझे अपना हृदय—रक्त पिला—पिलाकर पाला था! चित्राकार जब कोई चित्रा बनाते—बनाते देखता है कि इससे मेरे मन के भाव व्यक्त नहीं होतेए तो वह तुरंत उसे मिटा देता है। उसी भाँति मैं तुझे भी मिटा देना चाहती हूँ। मैंने ही तुम्हें रचा है। मैंने ही तुम्हें यह देह प्रदान की है। आत्मा कहीं से आई होए देह मेरी है। मैं उसे तुमसे वापस माँगती हूँ। अगर तुममें अब भी कुछ आत्मसम्मान हैए तो मेरी अमानत मुझे लौटा दो। तुम्हें जीवित देखकर मुझे दुरूख होता है। जिस काँटे से हृदय—वेदना हो रही हैए उसे निकाल सकूँए तो क्यों न निकाल दूँ! क्या तुम यह मेरी अंतिम अभिलाषा पूरी करोगे या अन्य अभिलाषाओं की भाँति इसे भी धूल में मिला दोगेघ् मैं अब भी तुम्हें इतना लज्जा—शून्य नहीं समझतीए नहीं तो मैं स्वयं आती और तुम्हारे मर्मस्थल से वह वस्तु निकाल लेतीए जो तुम्हारी कुमति का मूल है। क्या तुम्हेंं मालूम नहीं कि संसार में कोई ऐसी वस्तु भी हैए जो संतान से भी अधिक प्रिय होती हैघ् वह आत्मगौरव है। अगर तुम्हारे—जैसे मेरे सौ पुत्रा होतेए तो मैं उन सबों को उसकी रक्षा के लिए बलिदान कर देती। तुम समझते होगेए मैं क्रोधा से बावली हो गई हूँ। यह क्रोधा नहीं हैए अपनी आत्मवेदना का रोदन है। जिस माता की लेखनी से ऐसे निर्दय शब्द निकलेंए उसके शोकए नैराश्य और लज्जा का अनुमान तुम—जैसे दुर्बल प्राणी नहीं कर सकते। अब मैं और कुछ न लिखूँगी। तुम्हें समझाना व्यर्थ है। जब उम्र—भर की शिक्षा निष्फल हो गईए तो एक पत्रा की शिक्षा का क्या फल होगा! अब केवल दो इच्छाएँ हैं—ईश्वर से तो यह कि तुम—जैसी संतान सातवें वैरी को भी न देंए और तुमसे यह कि अपने जीवन की क्रूर लीला को समाप्त करो।

विनय यह पत्रा पढ़़कर रोए नहींए क्रुध्द नहीं हुएए ग्लानित भी नहीं हुए। उनके नेत्रा गर्वोत्तोजना से चमक उठेए मुख—मंडल पर आरक्त तेज की आभा दिखाई दीए जैसी किसी कवीश्वर के मुख से अपने पूर्वजों की वीरगाथा सुनकर मनचले राजपूत का मुख तमतमा उठे—माताए तुम्हें धान्य है। स्वर्ग में बैठी हुई वीर राजपूतानियों की वीर आत्माएँ तुम्हारी आदर्शवादिता पर गर्व करती होंगी। मैंने अब तक तुम्हारी अलौकिक वीरता का परिचय न पाया था। तुमने भारत की विदुषियों का मस्तक उन्नत कर दिया। देवी! मैं स्वयं अपने को तुम्हारा पुत्रा कहते हुए लज्जित हूँ! हाए मैं तुम्हारा पुत्रा कहलाने योग्य नहीं हूँ। तुम्हारे फैसले के आगे सिर झुकाता हूँ। अगर मेरे पास सौ जानें होतींए तो न सबों को तुम्हारे आत्मगौरव की रक्षा के लिए बलिदान कर देता। अभी इतना निर्लज्ज नहीं हुआ हूँ। लेकिन यों नहीं। मैं तुम्हें इतना संतोष देना चाहता हूँ कि तुम्हारा पुत्रा जीना नहीं जानताए पर मरना जानता है। अब विलम्ब क्योंघ् जीवन में जो कुछ न करना थाए वह सब कर चुका। उसके अंत का इससे उत्ताम और कौन अवसर मिलेगाघ् यह मस्तक केवल एक बार तुम्हारे चरणों पर तड़पेगा। सम्भव हैए अंतिम समय तुम्हारा पवित्रा आशीर्वाद पा जाऊँ। शायद तुम्हारे मुख से ये पावन शब्द निकल जाएँ कि श्मुझे तुझसे ऐसी ही आशा थीए तूने जीना न जानाए लेकिन मरना जानता है।श् यदि अंत समय भी तुम्हारे मुख से श्प्रिय पुत्राश्ए ये दो शब्द सुन सकाए तो मेरी आत्मा शांत हो जाएगीए और नरक में भी सुख का अनुभव करेगी। काश! ईश्वर ने पर दिए होतेए तो उड़कर तुम्हारे पास पहुँच जाता।

विनय ने बाहर की तरफ देखा। सूर्यदेव किसी लज्जित प्राणी की भाँति अपना कांतिहीन मुख पर्वतों की आड़ में छिपा चुके थे। नायकराम पल्थी मारे भंग घोट रहे थे। यह काम वह सेवकों से नहीं लेते थे। कहते—यह भी एक विद्या हैए कोई हल्दी—मसाला तो है नहीं कि जो चाहेए पीस दे। इसमें बुध्दि खर्च करनी पड़ती हैए तब जाकर बूटी बनती है। कल नागा भी हो गया। तन्मय होकर भंग पीसते और रामायण की दो—चार चौपाइयाँए जो याद थींए लय से गाते जाते थे। इतने में विनय ने बुलाया।

नायकराम—क्या है भैयाघ् आज मजेदार बूटी बन रही है। तुमने कभी काहे को पी होगी। आज थोड़ी—सी ले लेनाए सारी थकावट भाग जाएगी।

विनय—अच्छाए इस वक्त बूटी रहने दो। अम्माँजी का पत्रा आया हैए घर चलना हैए एक ताँगा ठीक कर लो।

नायकराम—भैयाए तुम्हारे तो सब काम उतावली के होते हैं। घर चलना हैए तो कल आराम से चलेंगे। बूटी छानकर रसोई बनाता हूँ। तुमने बहुत कशमीरी रसोइयों का बनाया हुआ खाना खाया होगाए आज जरा मेरे हाथ के भोजन का भी स्वाद लो।

विनय—अब घर पहुँचकर ही तुम्हारे हाथ के भोजन का स्वाद लूँगा।

नायकराम—माताजी ने बुलाया होगाघ्

विनय—हाँए बहुत जल्द।

नायकराम—अच्छाए बूटी तो तैयार हो जाए। गाड़ी तो नौ बजे रात को जाती है।

विनय—नौ बजने में देर नहीं है। सात तो बज ही गए होंगे।

नायकराम—जब तक असबाब बँधावाओए मैं जल्दी से बनाए लेता हूँ। तकदीर में इतना सुख भी नहीं लिखा है कि निश्ंचित होकर बूटी तो बनाता।

विनय—असबाब कुछ नहीं जाएगा। मैं घर से कोई असबाब लेकर नहीं आया था। यहाँ से चलते समय घर की कु़जी सरदार साहब को दे देनी होगी।

नायकराम—और यह सारा असबाबघ्

विनय—कह दिया कि मैं कुछ न ले जाऊँगा।

नायकराम—भैयाए तुम कुछ न लोए पर मैं तो यह दुशाला और यह संदूक जरूर लूँगा। जिधार से दुशाला ओढ़़कर निकल जाऊँगाए देखनेवाले लोट जाएँगे।

विनय—ऐसी घातक वस्तु लेकर क्या करोगेए जिसे देखकर ही सुथराव हो जाए। यहाँ की कोई चीज मत छूनाए जाओ।

नायकराम भाग्य को कोसते हुए घर से निकलेए तो घंटे—भर तक गाड़ी का किराया ठीक करते रहे। आखिर जब यह जटील समस्या किसी विधि न हल हुईए तो एक को जबरदस्ती पकड़ लाया। ताँगेवाला भुनभुनाता हुआ आया—सब हाकिम—ही—हाकिम तो हैंए मुदा जानवर के पेट को भी तो कुछ मिलना चाहिएय कोई माई का लाल यह नहीं सोचता कि दिन—भर तो बेगार में मरेगाए क्या आप खाएगाए क्या जानवर को खिलाएगाए क्या बाल—बच्चों को देगा। उस पर निखरनामा लिखकर गली—गली लटका दिया। बसए ताँगेवाले ही सबको लूटे खाते हैंए और तो जितने अमले—मुलाजिम हैंए सब दूधा के धोए हुए हैं। वकचा ढ़ो लेए भीख माँग खाएए मगर ताँगा कभी न चलाए।

ज्यों ही ताँगा द्वार पर आयाए विनय आकर बैठ गएए लेकिन नायकराम अपनी अधाघुटी बूटी क्योंकर छोड़तेघ् जल्दी—जल्दी रगड़ीए छानकर पीए तमाखू खाईए आईना के सामने खड़े होकर पगड़ी बाँधाीए आदमियों को राम—राम कहा और दुशाले को सचेष्ट नेत्राों से ताकते हुए बाहर निकले। ताँगा चला। सरदार साहब का घर रास्ते ही में था। वहाँ जाकर नायकराम ने कु़जी उनके द्वारपाल के हवाले की और आठ बजते—बजते स्टेशन पर पहुँच गए। नायकराम ने सोचाए राह में तो कुछ खाने को मिलेगा नहींए और गाड़ी पर भोजन करेंगे कैसेए दौड़कर पूरियाँ लींए पानी लाए और खाने बैठ गए। विनय ने कहाए मुझे अभी इच्छा नहीं है। वह खड़े गाड़ियों की समय—सूची देख रहे थे कि यह गाड़ी अजमेर कब पहुँचेगीए दिल्ली में कौन—सी गाड़ी मिलेगी। सहसा क्या देखते हैं कि एक बुढ़़ियार् आत्तानाद करते हुए चली आ रही है। दो—तीन आदमी उसे सँभाले हुए हैं। वह विनयसिंह के समीप आकर बैठ गई। विनय ने पूछाए तो मालूम हुआ कि इसका पुत्रा जसवंतनगर की जेल का दारोगा थाए उसे दिन—दहाड़े किसी ने मार डाला। अभी समाचार आया हैए और यह बेचारी शोकातुरा माता यहाँ से जसवंतनगर जा रही है। मोटरवाले किराया बहुत माँगते थेए इसलिए रेलगाड़ी से जाती है। रास्ते में उतरकर बैलगाड़ी कर लेगी। एक ही पुत्रा थाय बेचारी को बेटे का मुँह देखना भी न बदा था।

विनयसिंह को बड़ा दुरूख हुआ—दारोगा बड़ा सीधा—सादा आदमी था। कैदियों पर बड़ी दया किया करता था। उसके किसी को क्या दुश्मनी हो सकती थीघ् उन्हें तुरंत संदेह हुआ कि यह भी वीरपालसिंह के अनुयायियों की क्रूर लीला है। सोफी ने कोरी धामकी न दी थी। मालूम होता हैए उसने गुप्त हत्याओं के साधान एकत्रा कर लिए हैं। भगवान्ए मेरे दुष्कृत्यों का क्षेत्रा कितना विकसित है! इन हत्याओं का अपराधा मेरी गर्दन पर हैए सोफी की गर्दन पर नहीं। सोफिया जैसी करुणामयी विवेकशीलाए धार्मनिष्ठ रमणी मेरी ही दुर्बलता से प्रेरित होकर हत्या—मार्ग पर अग्रसर हुई है। ईश्वर! क्या अभी मेरी यातनाओं की मात्राा पूरी नहीं हुईघ् मैं फिर सोफिया के पास जाऊँगा और उसके चरणों पर सिर रखकर विनीत भाव से कहँगा—देवी! मैं अपने किए का दंड पा चुकाए अब यह लीला समाप्त कर दोए अन्यथा यहीं तुम्हारे सामने प्राण त्याग दूँगा! लेकिन सोफी को पाऊँ कहाँघ् कौन मुझे उस दुर्गम दुर्ग तक ले जाएगा।

जब गाड़ी आईए तो विनय ने वृध्दा को अपनी ही गाड़ी में बैठाया। नायकराम दूसरी गाड़ी में बैठेए क्योंकि विनय के सामने उन्हें मुसाफिरों से चुहल करने का मौका न मिलता। गाड़ी चली। आज पुलिस के सिपाही प्रत्येक स्टेशन पर टहलते हुए नजर आते थे। दरबार ने मुसाफिरों की रक्षा के लिए यह विशेष प्रबंधा किया था। किसी स्टेशन पर मुसाफिर सवार होते न नजर आते थे। विद्रोहियों ने कई जागीरदारों को लूट लिया था।

पाँचवें स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर एकाएक गाड़ी रुक गई। वहाँ कोई स्टेशन न था। लाइन के नीचे कई आदमियों की बातचीत सुनाई दी। फिर किसी ने विनय के कमरे का द्वार खोला। विनय ने पहले तो आगंतुक को रोकना चाहाए गाड़ी में बैठते ही उनका साम्यवाद स्वार्थ का रूप धारण कर लेता था। यह भी संदेह हुआ कि डाकू न होंए लेकिन निकट से देखाए तो किसी स्त्राी के हाथ थेए अलग हट गएए और एक क्षण में एक स्त्राी गाड़ी पर चढ़़ आई। विनय देखते ही पहचान गएए वह मिस सोफिया थी। उसके बैठते ही गाड़ी फिर चलने लगी।

सोफिया ने गाड़ी में आते ही विनय को देखाए तो चेहरे का रंग उड़ गया। जी में आयाए गाड़ी से उतर जाऊँ। पर वह चल चुकी थी। एक क्षण तक वह हतबुध्दि—सी खड़ी रहीए विनय के सामने उसकी अॉंखें न उठती थींए तब उसी वृध्दा के पास बैठ गई और खिड़की की ओर ताकने लगी। थोड़ी देर तक दोनों मौन बैठे रहेए किसी को बात करने की हिम्मत न पड़ती थी।

वृध्दा ने सोफी से पूछा—कहाँ जाओगी बेटीघ्

सोफिया—बड़ी दूर जाना है।

वृध्दा—यहाँ कहाँ से आ रही होघ्

सोफिया—यहाँ से थोड़ी दूर एक गाँव हैए वहीं से आती हूँ।

वृध्दा—तुमने गाड़ी खड़ी करा दी थी क्याघ्

सोफिया—स्टेशनों पर आजकल डाके पड़ रहे हैं। इसी से बीच में गाड़ी रुकवा दी।

वृध्दा—तुम्हारे साथ और कोई नहीं है क्याघ् अकेले कैसे जाओगीघ्

सोफिया—आदमी न होए ईश्वर तो है!

वृध्दा—ईश्वर है कि नहींए कौन जाने। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि संसार का करता—धारता कोई नहीं हैए तभी तो दिन—दहाड़े डाके पड़ते हैंए खून होते हैं। कल मेरे बेटे को डाकुओं ने मार डाला। (रोकर) गऊ थाए गऊ। कभी मुझे जवाब नहीं दिया। जेल के कैदी उसको असीस दिया करते थे। कभी भलेमानस को नहीं सताया। उस पर यह वज्र गिराए तो कैसे कहूँ कि ईश्वर है।

सोफिया—क्या जसवंतनगर के जेलर आपके बेटे थेघ्

वृध्दा—हाँ बेटीए यही एक लड़का थाए सो भगवान्‌ ने हर लिया।

यह कहकर वृध्दा सिसकने लगी। सोफिया का मुख किसी मरणासन्न रोगी के मुख की भाँति निष्प्रभ हो गया। जरा देर तक वह करुणा के आवेश को दबाए हुए खड़ी रही। तब खिड़की के बाहर सिर निकालकर फूट—फूटकर रोने लगी। उसका कुत्सित प्रतिकार नग्न रूप में उसके सामने खड़ा था।

सोफी आधा घंटे तक मुँह छिपाए रोती रहीए यहाँ तक कि वह स्टेशन आ गया जहाँ वृध्दा उतरना चाहती थी। जब वह उतरने लगीए तो विनय ने उसका असबाब उतारा और उसे सांत्वना देकर बिदा किया।

अभी विनय गाड़ी में बैठे भी न थे कि सोफी नीचे आकर वृध्दा के सम्मुख खड़ी हो गई और बोली—माताए तुम्हारे पुत्रा की हत्या करनेवाली मैं हूँ। जो दंड चाहोए दो! तुम्हारे सामने खड़ी हूँ।

वृध्दा ने विस्मित होकर कहा—क्या तू ही वह पिशाचिनी हैए जिसने दरबार से लड़ने के लिए डाकुओं को जमा किया हैघ् नहींए तू नहीं हो सकती। तू तो मुझे करुणा और दया की मूर्ति—सी दीखती है।

सोफी—हाँए माताए मैं वही पिशाचिनी हूँ।

वृध्दा—जैसा तूने किया वैसा तेरे आगे आएगा। मैं तुझे और क्या कहूँ। मेरी भाँति तेरे भी दिन रोते बीतें।

एंजिन ने सीटी दी। सोफी संज्ञा—शून्य—सी खड़ी रही। वहाँ से हिली तक नहीं। गाड़ी चल पड़ी। सोफी अब भी वहीं खड़ी थी। सहसा विनय गाड़ी से कूद पड़ेए सोफिया का हाथ पकड़कर गाड़ी में बैठा दिया और बड़ी मुश्किल से आप भी गाड़ी में चढ़़ गए। एक पलक भी विलम्ब होताए तो वहीं रह जाते।

सोफिया ने ग्लानि—भाव से कहा—विनयए तुम मेरा विश्वास करो या न करोय पर मैं सत्य कहती हूँ कि मैंने वीरपाल को एक हत्या की भी अनुमति नहीं दी। मैं उसकी घातक प्रवृत्तिा को रोकने का यथाशक्ति प्रयत्न करती रहीय पर यह दल इस प्रत्याघात की धून में उन्मत्ता हो रहा है। किसी ने मेरी न सुनी। यही कारण है कि मैं अब यहाँ से जा रही हूँ। मैंने उसे रात को अमर्ष की दशा में तुमसे न जाने क्या—क्या बातें कींए लेकिन ईश्वर ही जानते हैंए इसका मुझे कितना खेद और दुरूख है। शांत मन से विचार करने पर मुझे मालूम हो रहा है कि निरंतर दूसरों को मारने और दूसरों के हाथों मारे जाने के लिए आपत्काल में ही हम तत्पर हो सकते हैं। यह दशा स्थायी नहीं हो सकती। मनुष्य स्वभावतरू शांतिप्रिय होता है। फिर जब सरकार की दमननीति ने निर्बल प्रजा को प्रत्याघात पर आमादा कर दियाए तो क्या सबल सरकार और भी कठोर नीति का अवलम्बन न करेगीघ् लेकिन मैं तुमसे ऐसी बातें कर रही हूँए मानो तुम घर के आदमी हो। मैं भूल गई थी कि तुम राजभक्तों के दल में हो। पर इतनी दया करना कि मुझे पुलिस के हवाले न कर देना। पुलिस से बचने के लिए ही मैंने रास्ते में गाड़ी को रोककर सवार होने की व्यवस्था की। मुझे संशय है कि इस समय भी तुम मेरी ही तलाश में हो।

विनयसिंह की अॉंखें सजल हो गईं। खिन्न स्वर में बोले—सोफियाए तुम्हें अख्यितार है मुझे जितना नीच और पतित चाहोए समझोय मगर एक दिन आएगाए जब तुम्हें इन वाक्यों पर पछताना पड़ेगा और तुम समझोगी कि तुमने मेरे ऊपर कितना अन्याय किया है। लेकिन जरा शांत मन से विचार करोए क्या घर परए यहाँ आने के पहलेए मेरे पकड़े जाने की खबर पाकर तुमने भी वही नीति न धारण की थीघ् अंतर केवल इतना था कि मैंने दूसरों को बरबाद कियाए तुम अपने ही को बरबाद करने पर तैयार हो गईं। मैंने तुम्हारी नीति को क्षम्य समझाए वह आपध्दर्म था। तुमने मेरी नीति को अम्य समझा और कठोर—से—कठोर आघात जो तुम कर सकती थींए वह कर बैठीं। किंतु बात एक ही है! तुम्हें मुझको पुलिस की सहायता करते देखकर इतना शोकमय आश्चर्य न हुआ होगाए जितना मुझको तुम्हें मिस्टर क्लार्क के साथ देखकर हुआ। इस समय भी तुम उसी प्रतिहिंसक नीति का अवलम्बन कर रही होए या कम—से—कम मुझसे कर चुकी हो। इतने पर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती। तुम्हारी झिड़कियाँ सुनकर मुझे जितना मानसिक कष्ट हुआ और हो रहा हैए वही मेरे लिए असाधय था। उस पर तुमने इस समय और भी नमक छिड़क दिया। कभी तुम इस निर्दयता पर खून के अॉंसू बहाओगी। खैर।

यह कहते—कहते विनय का गला भर आया। फिर वह और कुछ न कह सके।

सोफिया ने अॉंखों में असीम अनुराग भरकर कहा—आओए अब हमारी—तुम्हारी मैत्राी हो जाए। मेरी उन बातों को क्षमा कर दो।

विनय ने कंठ—स्वर को सँभालकर कहा—मैं कुछ कहता हूँघ् अगर जी न भरा होए तो और जो चाहोए कह डालो। जब बुरे दिन आते हैंए तो कोई साथी नहीं होता। तुम्हारे यहाँ से आकर मैंने कैदियों को मुक्त करने के लिए अधिकारियों सेए मिस्टर क्लार्क सेए यहाँ तक कि महाराजा साहब से जितनी अनुनय—विनय कीए वह मेरा ही दिल जानता है। पर किसी ने मेरी बातें तक न सुनीं। चारों तरफ से निराश होना पड़ा।

सोफी—यह तो मैं जानती थी। इस वक्त कहाँ जा रहे होघ्

विनय—जहन्नुम में।

सोफी—मुझे भी लेते चलो।

विनय—तुम्हारे लिए स्वर्ग है।

एक क्षण बाद फिर बोले—घर जा रहा हूँ। अम्माँजी ने बुलाया है। मुझे देखने के लिए उत्सुक हैं।

सोफिया—इंद्रदत्ता तो कहते थेए तुमसे बहुत नाराज हैंघ्

विनय ने जेब से रानीजी का पत्रा निकालकर सोफी को दे दिया और दूसरी ओर ताकने लगे। कदाचित्‌ वह सोच रहे थे कि यह तो मुझसे इतनी खिंच रही हैए और मैं बरबस इसकी ओर दौड़ा जाता हूँ। सहसा सोफिया ने पत्रा फाड़कर खिड़की के बाहर फेंक दिया और प्रेमविह्नल होकर बोली—मैं तुम्हें न जाने दूँगी। ईश्वर जानता हैए न जाने दूँगी। तुम्हारे बदले मैं स्वयं रानीजी के पास जाऊँगी और उनसे कहूँगीए तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ...यह कहते—कहते उसकी आवाज फँस गई। उसने विनय के कंधो पर सिर रख दिया और फूट—फूटकर रोने लगी। आवाज हल्की हुईए तो फिर बोली—मुझसे वादा करो न कि न जाऊँगा। तुम नहीं जा सकते। धार्म और न्याय से नहीं जा सकते। बोलोए वादा करते होघ्

उन सजल नेत्राों में कितनी करुणाए कितनी याचनाए कितनी विनयए कितना आग्रह था!

विनय ने कहा—नहीं सोफीए मुझे जाने दो। तुम माताजी को खूब जानती हो। मैं न जाऊँगाए तो वह अपने दिल में मुझे निर्लज्जए बेहयाए कायर समझने लगेंगी और इस उद्विग्नता की दशा में न जाने क्या कर बैठें।

सोफिया—नहीं विनयए मुझ पर इतना जुल्म न करो। ईश्वर के लिए दया करो। मैं रानीजी के पास जाकर रोऊँगीए उनके पैरों पर गिरूँगी और उनके मन में तुम्हारे प्रति जो गुबार भरा हुआ हैए उसे अपने अॉंसुओं से धो दूँगी। मुझे दावा है कि मैं उनके पुत्रावात्सल्य को जागृत कर दूँगी। मैं उनके स्वभाव से परिचित हूँ। उनका हृदय दया का आगार है। जिस वक्त मैं उनके चरणों पर गिरकर कहूँगीए अम्माँए तुम्हारा बेटा मेरा मालिक हैए मेरे नाते उसे क्षमा कर दोए उस वक्त वह मुझे पैरों से ठुकराएँगी नहीं। वहाँ से झल्लाई हुई उठकर चली जाएँगीए लेकिन एक क्षण बाद मुझे बुलाएँगी और प्रेम से गले लगाएँगी। मैं उनसे तुम्हारी प्राण—भिक्षा माँगूँगीए फिर तुम्हें माँग लूँगी। माँ का हृदय कभी इतना कठोर नहीं हो सकता। वह यह पत्रा लिखकर शायद इस समय पछता रही होंगीए मना रही होंगी कि पत्रा न पहुँचा हो। बोलोए वादा करो।

ऐसे प्रेम से सनेए अनुराग में डूबे वाक्य विनय के कानों ने कभी न सुने थेए उन्हें अपना जीवन सार्थक मालूम होने लगा। आह! सोफी अब भी मुझे चाहती हैए उसने मुझे क्षमा कर दिया। वह जीवनए तो पहले मरुभूमि के समान निर्जनए निर्जलए निर्जीव थाए अब पशु—पक्षियोंए सलिल—धाराओं और पुष्प—लतादि से लहराने लगा। आनंद के कपाट खुल गए थे और उसके अंदर से मधूर गान की तानेंए विद्युद्दीपों की झलकए सुगंधित वायु की लपट बाहर आकर चित्ता को अनुरक्त करने लगी। विनयसिंह को इस सुरम्य —श्य ने मोहित कर लिया। जीवन के सुख जीवन के दुरूख हैं। विराग और आत्मग्लानि ही जीवन के रत्न हैं। हमारी पवित्रा कामनाएँए हमारी निर्मल सेवाएँए हमारी शुभ कल्पनाएँ विपत्तिा ही की भूमि में अंकुरित और पल्लवित होती हैं।

विनय ने विचलित होकर कहा—सोफीए अम्माँजी के पास एक बार मुझे जाने दो। मैं वादा करता हूँ कि जब तक वह फिर स्पष्ट रूप से न कहेंगी...

सोफिया ने विनय की गर्दन में बाँहें डालकर कहा—नहीं—नहींए मुझे तुम्हारे ऊपर भरोसा नहीं। तुम अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकते। तुममें साहस हैए आत्माभिमान हैए शील हैए सब कुछ हैए पर धौर्य नहीं। पहले मैं अपने लिए तुम्हें आवश्यक समझती थीए अब तुम्हारे लिए अपने को आवश्यक समझती हूँ। विनयए जमीन की तरफ क्यों ताकते होघ् मेरी ओर देखो। मैंने जो तुम्हें कटु वाक्य कहेए उन पर लज्जित हूँ। ईश्वर साक्षी हैए सच्चे दिल से पश्चात्तााप करती हूँ। उन बातों को भूल जाओ। प्रेम जितना ही आदर्शवादी होता हैए उतना ही क्षमाशील भी। बोलोए वादा करो। अगर तुम मुझसे गला छुड़ाकर चले जाओगेए तो फिर...तुम्हें सोफी फिर न मिलेगी।

विनय ने प्रेम—पुलकित होकर कहा—तुम्हारी इच्छा हैए तो न जाऊँगा।

सोफी—तो हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे।

विनय—नहीं पहले बनारस चलें। तुम अम्माँजी के पास जाना। अगर वह मुझे क्षमा कर देंगी...

सोफी—विनयए अभी बनारस मत चलो। कुछ दिन चित्ता को शांत होने दोए कुछ दिन मन को विश्राम लेने दो। फिर रानीजी का तुम पर क्या अधिकार हैघ् तुम मेरे होए समस्त नीतियों के अनुसारए जो ईश्वर ने और मनुष्य ने रची हैंए तुम मेरे हो। मैं रिआयत नहींए अपना स्वत्व चाहती हूँ। हम अगले स्टेशन पर उतर पड़ेंगे। इसके बाद सोचेंगेए हमें क्या करना हैए कहाँ जाना है।

विनय ने सकुचाते हुए कहा—जीवन का निर्वाह कैसे होगाघ् मेरे पास जो कुछ हैए वह नायकराम के पास है। वह किसी दूसरे डब्बे में है। अगर उसे खबर हो गईए तो वह भी हमारे साथ चलेगा।

सोफी—इसकी क्या चिंता। नायकराम को जाने दो। प्रेम जंगलों में भी सुखी रह सकता है।

ऍंधोरी रात में गाड़ी शैल और शिविर को चीरती चली जाती थी। बाहर दौड़ती हुई पर्वत—मालाओं के सिवा और कुछ न दिखाई देता था। विनय तारों की दौड़ देख रहे थेए सोफिया देख रही थी कि आस—पास कोई गाँव है या नहीं।

इतने में स्टेशन नजर आया। सोफी ने गाड़ी का द्वार खोल दिया और दोनों चुपके से उतर पड़ेए जैसे चिड़ियों का जोड़ा घोंसले से दाने की खोज में उड़ जाए। उन्हें इसकी चिंता नहीं कि आगे ब्याधा भी हैए हिंसक पक्षी भी हैंए किसान की गुलेल भी है। इस समय तो दोनों अपने विचारों में मग्न हैंए दाने से लहराते हुए खेतों की बहार देख रहे हैं। पर वहाँ तक पहुँचना भी उनके भाग्य में हैए यह कोई नहीं जानता।

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अध्याय 36

मिस्टर जॉन सेवक ने ताहिर अली की मेहनत और ईमानदारी से प्रसन्न होकर खालों पर कुछ कमीशन नियत कर दिया था। इससे अब उनकी आय अच्छी हो गई थीए जिससे मिल के मजदूरों पर उनका रोब थाए ओवरसियर और छोटे—छोटे क्लर्क उनका लिहाज करते थे। लेकिन आय—वृध्दि के साथ उनके व्यय में भी खासी वृध्दि हो गई थी। जब यहाँ अपने बराबर के लोग न थेय फटे जूतों पर ही बसर कर लिया करतेए खुद बाजार से सौदा—सुलफ लातेए कभी—कभी पानी भी खींच लेते थे। कोई हँसनेवाला न था। अब मिल के कर्मचारियों के सामने उन्हें ज्यादा शान से रहना पड़ता था और कोई मोटा काम अपने हाथ से करते हुए शर्म आती थी। इसलिए विवश होकर एक बुढ़़िया मामा रख ली थी। पान—इलायची आदि का खर्च कई गुना बढ़़ गया था। उस पर कभी—कभी दावत भी करनी पड़ती थी। अकेले रहनेवाले से कोई दावत की इच्छा नहीं करता। जानता हैए दावत फीकी होगी। लेकिन सकुटुम्ब रहनेवालों के लिए भागने का कोई द्वार नहीं रहता। किसी ने कहा—खाँ साहबए आज जरा जरदे पकवाइएए बहुत दिन हुएए रोटी—दाल खाते—खाते जबान मोटी पड़ गई। ताहिर अली को इसके जवाब में कहना ही पड़ता—हाँ—हाँए लीजिएए आज बनवाता हूँ। घर में एक ही स्त्राी होतीए तो उसकी बीमारी का बहाना करके टालतेए लेकिन यहाँ तो एक छोड़ तीन—तीन महिलाएँ थीं। फिर ताहिर अली रोटी के चोर न थे। दोस्तों के आतिथ्य में उन्हें आनंद आता था। सारांश यह कि शराफत के निबाह में उनकी बधिया बैठी जाती थी। बाजार में तो अब उनकी रत्ती—भर भी साख न रही थीए जमामार प्रसिध्द हो गए थेए कोई धोले की चीज को भी न पतियाताए इसलिए मित्राों से हथफेर रुपये लेकर काम चलाया करते। बाजारवालों ने निराश होकर तकाजा करना ही छोड़ दियाए समझ गए कि इसके पास है ही नहींए देगा कहाँ सेघ् लिपि—बध्द ऋण अमर होता है। वचन—बध्द ऋण निर्जीव और नश्वर। एक अरबी घोड़ा हैए जो एड़ नहीं सह सकताय या तो सवार का अंत कर देगा या अपना। दूसरा लद्दू टट्टू हैए जिसे उसके पैर नहींए कोड़े चलाते हैंय कोड़ा टूटा या सवार का हाथ रुकाए तो टट्टई बैठाए फिर नहीं उठ सकता।

लेकिन मित्राों के आतिथ्य—सत्कार ही तक रहताए तो शायद ताहिर अली किसी तरह खींच—तानकर दोनों चूल बराबर कर लेते। मुसीबत यह थी कि उनके छोटे भाई माहिर अली इन दिनों मुरादाबाद के पुलिस—ट्रेनिंग स्कूल में भरती हो गए थे। वेतन पाते ही उसका आधाए अॉंखें बंद करके मुरादाबाद भेज देना पड़ता था। ताहिर अली खर्च से डरते थेए पर उनकी दोनों माताओं ने उन्हें ताने देकर घर में रहना मुश्किल कर दिया। दोनों ही की यह हार्दिक लालसा थी कि माहिर अली पुलिस में जाए और दारोगा बने। बेचारे ताहिर अली महीनों तक हुक्काम के बँगलों की खाक छानते रहेय यहाँ जाए वहाँ जाय इन्हें डालीए उन्हें नजराना पेश करय इनकी सिफारिश करवाए उनकी चिट्ठी ला। बारे मिस्टर जॉन सेवक की सिफारिश काम कर गई। ये सब मोरचे तो पार हो गए। अंतिम मोरचा डॉक्टरी परीक्षा थी। यहाँ सिफारिश और खुशामद की गुजर न थी। 32 रुपये सिविल सर्जन के लिए 16 रुपये असिस्टैंट सर्जन के लिए और 8 रुपये क्लर्क तथा चपरासियों के लिएए कुल 56 रुपये जोड़ था। ये रुपये कहाँ से आएँघ् चारों ओर से निराश होकर ताहिर अली कुल्सूम के पाए आए और बोले—तुम्हारे पास कोई जेवर होए तो दे दोए मैं बहुत जल्द छुड़ा दूँगा। उसने तिनककर संदूक उनके सामने पटक दिया और कहा—यहाँ गहनों की हवस नहींए सब आस पूरी हो चुकी। रोटी—दाल मिलती जाएए यही गनीमत है। तुम्हारे गहने तुम्हारे सामने हैंए जो चाहोए करो। ताहिर अली कुछ देर तक शर्म से सिर न उठा सके। फिर संदूक की ओर देखा। ऐसी एक भी वस्तु न थीए जिससे इसकी चौथाई रकम मिल सकती। हाँए सब चीजों को कूड़ा कर देने पर काम चल सकता था। सकुचाते हुए सब चीजें निकालकर रूमाल में बाँधाी और बाहर आकर इस सोच में बैठे थे कि इन्हें क्योंकर ले जाऊँ कि इतने में मामा आई। ताहिर अली को सूझीए क्यों न इसकी मारफत रुपये मँगवाऊँ। मामाएँ इन कामों में निपुण होती हैं। धाीरे से बुलाकर उससे यह समस्या कही। बुढ़़िया ने कहा—मियाँए यह कौन—सी बड़ी बात हैए चीज तो रखनी हैए कौन किसी से खैरात माँगते हैं। मैं रुपये ला दूँगीए आप निसाखातिर रहें। गहनों की पोटली लेकर चलीए तो जैनब ने देखा। बुलाकर बोलीं—तू कहाँ लिए—लिए फिरेगीए मैं माहिर अली से रुपये मँगवाए देती हूँए उनका एक दोस्त साहूकारी का काम करता है। मामा ने पोटली उसे दे दीए दो घंटे बाद अपने पास से 56 रुपये निकालकर दे दिए। इस भाँति यह कठिन समस्या हल हुई। माहिर अली मुरादाबाद सिधारे और तब से वहीं पढ़़ रहे थे। वेतन का आधा भाग वहाँ निकल जाने के बाद शेष में घर का खर्च बड़ी मुश्किल से पूरा पड़ता। कभी—कभी उपवास करना पड़ जाता। उधार माहिर अली आधो पर ही संतोष न करते। कभी लिखतेए कपड़ों के लिए रुपये भेजिएय कभी टेनिस खेलने के लिए सूट की फरमाइश करते। ताहिर अली को कमीशन के रुपयों में से भी कुछ—न—कुछ वहाँ भेज देना पड़ता था।

एक दिन रात—भर उपवास करने के बाद प्रातरूकाल जैनब ने आकर कहा—आज रुपयों की कुछ फिक्र कीए या आज भी रोजा रहेगा।

ताहिर अली ने चिढ़़कर कहा—मैं अब कहाँ से लाऊँघ् तुम्हारे सामने कमीशन के रुपये मुरादाबाद भेज दिए थे। बार—बार लिखता हूँ कि किफायत से खर्च करोए मैं बहुत तंग हूँय लेकिन वह हजरत फरमाते हैंए यहाँ एक—एक लड़का घर से सैकड़ों मँगवाता है और बेदरेग खर्च करता हैए इससे ज्यादा किफायत मेरे लिए नहीं हो सकती। जब उधार का यह हाल हैए इधार का यह हालए तो रुपये कहाँ से लाऊँघ् दोस्तों में भी तो कोई ऐसा नहीं बचाए जिससे कुछ माँग सकूँ।

जैनब—सुनती हो रकियाए इनकी बातेंघ् लड़के को खर्च क्या दे रहे हैंए गोया मेरे ऊपर कोई एहसान कर रहे हैं। मुझे क्याए तुम उसे खर्च भेजो या बुलाओ। उसके वहाँ पढ़़ने से यहाँ पेट थोड़े ही भर जाएगा। तुम्हारा भाई हैए पढ़़ाओ या न पढ़़ाओए मुझ पर क्या एहसान!

ताहिर—तो तुम्ही बताओए रुपये कहाँ से लाऊँघ्

जैनब—मरदों के हजार हाथ होते हैं। तुम्हारे अब्बाजान दस ही रुपये पाते थे कि ज्यादाघ् 20 रुपये तो मरने के कुछ दिन पहले हो गए थे। आखिर कुनबे को पालते थे कि नहीं। कभी फाके की नौबत नहीं आई। मोटा—महीन दिन में दो बार जरूर मयस्सर हो जाता था। तुम्हारी तालीम हुईए शादी हुईए कपड़े—लत्तो भी आते थे। खुदा के करम से बिसात के मुआफिक गहने भी बनते थे। वह तो मुझसे कभी न पूछते थेए कहाँ से रुपये लाऊँघ् आखिर कहीं से लाते ही तो थे!

ताहिर—पुलिस के मुहकमे में हर तरह की गुंजाइश होती है। यहाँ क्या हैए गिनी बोटीयाँए नपा शोरबा।

जैनब—मैं तुम्हारी जगह होतीए तो दिखा देती कि इसी नौकरी में कैसे कंचन बरसता। सैकड़ों चमार हैं। क्या कहोए तो सब एक—एक गट्ठा लकड़ी न लाएँघ् सबों के यहाँ छान—छप्पर पर तरकारियाँ लगी होंगीघ् क्यों न तुड़वा मँगातेघ् खालों के दाम में भी कमी—बेशी करने का तुम्हें अख्तियार है। कोई यहाँ बैठा देख नहीं रहा है। दस के पौने दस लिख दोए तो क्या हरज होघ् रुपये की रसीदों पर ऍंगूठे का निशान ही न बनवाते होघ् निशान पुकारने जाता है कि मैं दस हूँ या पौने दसघ् फिर अब तुम्हारा एतबार जम गया। साहब को सुभा भी नहीं हो सकता। आखिर इस एतबार से कुछ अपना फायदा भी तो हो कि सारी जिंदगी दूसरों ही का पेट भरते रहोगेघ् इस वक्त भी तुम्हारी रोकड़ में सैकड़ों रुपये होंगे। जितनी जरूरत समझोए इस वक्त निकाल लो। जब हाथ में रुपये आएँए रख देना। रोज की आमदनी—खर्च का मीजान की मिलना चाहिए नघ् यह कौन—सी बड़ी बात हैघ् आज खाल का दाम न दियाए कल दियाए इसमें क्या तरद्दुद हैघ् चमार कहीं फरियाद करने न जाएगा। सभी ऐसा करते हैंए और इसी तरह दुनिया का काम चलता है। ईमान दुरुस्त रखना होए तो इंसान को चाहिए कि फकीर हो जाए।

रकिया—बहनए ईमान है कहाँए जमाने का काम तो इसी तरह चलता है।

ताहिर—भाईए जो लोग करते होंए वे जानेंए मेरी तो इन हथकंडों से रूह फना होती है। अमानत में हाथ नहीं लगा सकता। आखिर खुदा को भी तो मुँह दिखाना है। उसकी मरजी होए जिंदा रखे या मार डाले।

जैनब—वाह रे मरदुएए कुरबान जाऊँ तेरे ईमान पर। तेरा ईमान सलामत रहेए चाहे घर के आदमी भूखों मर जाएँ। तुम्हारी मंशा यही है कि सब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाएँ। बसए और कुछ नहीं। फिक्र तो आदमी को अपने बीवी—बच्चों की होती है। उनके लिए बाजार मौजूद है। फाका तो हमारे लिए है। उनका फाका तो महज दिखावा है।

ताहिर अली ने इस मिथ्या आक्षेप पर क्षुब्धा होकर कहा—क्यों जलाती होए अम्मी जान! खुदा गवाह हैए जो बच्चे के लिए धोले की भी कोई चीज ली हो। मेरी तो नीयत कभी ऐसी न थीए न हैए न होगीए यों तुम्हारी तबीयत हैए जो चाहो समझो।

रकिया—दोनों बच्चे रात—भर तड़पते रहेए श्अम्माँए रोटीए अम्माँ रोटी!श् पूछोए अम्माँ क्या आप रोटी हो जाए! तुम्हारे बच्चे और नहीं तो ओवरसियर के घर चले जाते हैंए वहाँ से कुछ—न—कुछ खा—पी आते हैं। यहाँ तो मेरी ही जान खाते हैं।

जैनब—अपने बाल—बच्चों को खिलाने—न—खिलाने का तुम्हें अख्तियार है। कोई तुम्हारा हिसाबिया तो है नहींए चाहे शीरमाल खिलाओ या भूखों रखो। हमारे बच्चों को तो घर की रूखी रोटीयों के सिवा और कहीं ठिकाना नहीं। यहाँ कोई वली नहीं हैए जो फाकों से जिंदा रहे। जाकर कुछ इंतजाम करो।

ताहिर अली बाहर आकर बड़ी देर घोर चिंता में खड़े रहे। आज पहली बार उन्होंने अमानत के रुपये को हाथ लगाने का दुस्साहस किया। पहले इधार—उधार देखाए कोई खड़ा हो नहीं हैए फिर बहुत धाीरे से लोहे का संदूक खोला। यों दिन में सैकड़ों बार वही संदूक खोलतेए बंद करते थेय पर इस वक्त उनके हाथ थर—थर काँप रहे थे। आखिर उन्होंने रुपये निकाल लिएए तब सेफ बंद किया। रुपये लाकर जैनब के सामने फेंक दिए और बिना कुछ कहे—सुने बाहर चले गए। दिल को यों समझाया—अगर खुदा को मंजूर होता कि मेरा ईमान सलामत रहेए तो क्यों इतने आदमियों का बोझ मेरे सिर पर डाल देता। यह बोझ सिर पर रखा थाए तो उसके उठाने की ताकत भी तो देनी चाहिए थी। मैं खुद फाके कर सकता हूँए पर दूसरों को तो मजबूर नहीं कर सकता। अगर इस मजबूरी की हालत में खुदा मुझे सजा के काबिल समझेए तो वह मुंसिफ नहीं है। इस दलील से उन्हें कुछ तस्कीन हुई। लेकिन मि. जॉन सेवक तो इस दलील से माननेवाले आदमी न थे। ताहिर अली सोचने लगेए कौन चमार सबसे मोटा हैए जिसे आज रुपये न दूँए तो चीं—चपड़ न करे। नहींए मोटे आदमी के रुपये रोकना मुनासिब नहींए मोटे आदमी निडर होते हैं। कौन जानेए किसी से कह ही बैठे। जो सबसे गरीबए सबसे सीधा होए उसी के रुपये रोकने चाहिए। इसमें कोई डर नहीं। चुपके से बुलाकर ऍंगूठे के निशान बनवा लूँगा। उसकी हिम्मत ही न पड़ेगी कि किसी से कहे। उस दिन से उन्हें जब जरूरत पड़तीए रोकड़ से रुपये निकाल लेतेए फिर रख देते। धाीरे—धाीरे रुपये पूरे कर देने की चिंता कम होने लगी। रोकड़ में रुपयों की कमी पड़ने लगी। दिल मजबूत होता गया। यहाँ तक कि छठा महीने जाते—जाते वह रोकड़ के पूरे डेढ़़ सौ रुपये खर्च कर चुके थे।

अब ताहिर अली को नित्य यही चिंता बनी रहती कि कहीं बात खुल न जाए। चमारों से लल्लो—चप्पो की बातें करते। कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहते थे कि रोकड़ में इन रुपयों का पता न चले। लेकिन बही—खाते में हेर—फेर करने की हिम्मत न पड़ती थी। घर में भी किसी से यह बात न कहते। बसए खुदा से यही दुआ करते थे कि माहिर अली आ जाए। उन्हें 100 रुपये महीना मिलेंगे। दो महीने में अदा कर दूँगा। इतने दिन साहब हिसाब की जाँच न करेंए तो बेड़ा पार है।

उन्होंने दिल में निश्चय कियाए अब कुछ ही होए और रुपये न निकालूँगा। लेकिन सातवें महीने में फिर 25 रुपये निकालने पड़ गए। अब माहिर अली का साल भी पूरा हो चला था। थोड़े ही दिनों की और कसर थी। सोचाए आखिर मुझे उसी की बदौलत तो यह जेरबारी हो रही है। ज्यों ही आयाए मैंने घर उसे सौंपा। कह दूँगाए भाईए इतने दिनों तक मैंने सँभाला। अपने से जो कुछ बन पड़ाए तुम्हारी तालीम में खर्च कियाए तुम्हारा रोजगार लगा दिया। अब कुछ दिनों के लिए मुझे इस फिक्र से नजात दो। उसके आने तक यह परदा ढ़का रह जाएए तो दुम झाड़कर निकल जाता। पहले यह ऐसी ही कोई जरूरत पड़ने पर साहब के पास जाते थे। अब दिन में एक बार जरूर मिलते। मुलाकातों से संदेह को शांत रखना चाहते थे। जिस चीज से टक्कर लगने का भय होता हैए उससे हम और भी चिमट जाते हैं! कुल्सूम उनसे बार—बार पूछती कि आजकल तुम इतने रुपये कहाँ पा जाते होघ् समझाती—देखोए नीयत न खराब करना। तकलीफ और तंगी से बसर करना इतना बुरा नहींए जितना खुदा के सामने गुनहगार बनना। लेकिन ताहिर अली इधार—उधार की बातें करके उसे बहला दिया करते थे।

एक दिन सुबह को ताहिर अली नमाज अदा करके दफ्तर में आए तो देखाए एक चमार खड़ा रो रहा है। पूछाए क्या बात हैघ् बोला—क्या बताऊँ खाँ साहबए रात घरवाली गुजर गई। अब उसका किरिया—करम करना हैए मेरा जो कुछ हिसाब होए दे दीजिएए दौड़ा हुआ आया हूँए कफन के रुपये भी पास नहीं हैं। ताहिर अली की तहवील में रुपये कम थे। कल स्टेशन से माल भेजा थाए महसूल देने में रुपये खर्च हो गए थे। आज साहब के सामने हिसाब पेश करके रुपये लानेवाले थे। इस चमार को कई खालों के दाम देने थे। कोई बहाना न कर सके। थोड़े—से रुपये लाकर उसे दिए।

चमार ने कहा—हुजूरए इतने में तो कफन भी पूरा न होगा। मरनेवाली अब फिर तो आएगी नहींए उसका किरिया—करम तो दिल खोलकर दूँ। मेरे जितने रुपये आते हैंए सब दे दीजिए। यहाँ तो जब तक दस बोतल दारू न होगीए लाश दरवज्जे से न उठेगी।

ताहिर अली ने कहा—इस वक्त रुपये नहीं हैंए फिर ले जाना।

चमार—वाह खाँ साहबए वाह! ऍंगूठे का निशान कराए तो महीनों हो गएय अब कहते हो फिर ले जाना। इस बखत न दोगेए तो क्या आकबत में दोगेघ् चाहिए तो यह था कि अपनी ओर से कुछ मदद करतेए उलटे मेरे ही रुपये बाकी रखते हो।

ताहिर अली कुछ रुपये और लाए। चमार ने सब रुपये जमीन पर पटक दिए और बोला—आप थूक से चुहिया जिलाते हैं! मैं आपसे उधार नहीं माँगता हूँए और आप यह कटूसी कर रहे हैंए जानो घर से दे रहे हों।

ताहिर अली ने कहा—इस वक्त इससे ज्यादा मुमकिन नहीं।

चमार था तो सीधाए पर उसे कुछ संदेह हो गयाए गर्म पड़ गया।

सहसा मिस्टर जॉन सेवक आ पहुँचे। आज झल्लाए हुए थे। प्रभु सेवक की उद्दंडता ने उन्हें अव्यवस्थित—सा कर दिया था। झमेला देखाए तो कठोर स्वर से बोले—इसके रुपये क्यों नहीं दे देतेघ् मैंने आपसे ताकीद कर दी थी कि सब आदमियों का हिसाब रोज साफ कर दिया कीजिए। आप क्यों बाकी रखते हैंघ् क्या आपकी तहवील में रुपये नहीं हैंघ्

ताहिर अली रुपये लाने चलेए तो कुछ ऐसे घबराए हुए थे कि साहब को तुरंत संदेह हो गया। रजिस्टर उठा लिया और हिसाब देखने लगे। हिसाब साफ था। इस चमार के रुपये अदा हो चुके थे। उसके ऍंगूठे का निशान मौजूद था। फिर यह बकाया कैसाघ् इतने में और कई चमार आ गए। इस चमार को रुपये लिए जाते देखाए तो समझेए आज हिसाब चुकता किया जा रहा है। बोले—सरकारए हमारा भी मिल जाए।

साहब ने रजिस्टर जमीन पर पटक दिया और डपटकर बोले—यह क्या गोलमाल हैघ् जब इनसे रसीद ली गईए तो इनके रुपये क्यों नहीं दिए गएघ्

ताहिर अली से और कुछ तो न बन पड़ाए साहब के पैरों पर गिर पड़े और रोने लगे। सेंधा में बैठकर घूरने के लिए बड़े घुटे हुए आदमी की जरूरत होती है।

चमारों ने परिस्थिति को ताड़कर कहा—सरकारए हमारा पिछला कुछ नहीं हैए हम तो आज के रुपये के लिए कहते थे। जरा देर हुईए माल रख गए थे। खाँ साहब उस बखत नमाज पढ़़ते थे।

साहब ने रजिस्टर उठाकर देखाए तो उन्हें किसी—किसी नाम के सामने एक हलका—सा चिद्द दिखाई दिया। समझ गएए हजरत ने ही ये रुपये उड़ाए हैं। एक चमार सेए जो बाजार से सिगरेट पीता आ रहा थाए पूछा—तेरा नाम क्या हैघ्

चमार—चुनकू।

साहब—तेरे कितने रुपये बाकी हैंघ्

कई चमारों ने उसे हाथ के इशारे से समझाया कि कह देए कुछ नहीं। चुनकू इशारा न समझा। बोला—17 रुपये पहले के थेए 9 रुपये आज के।

साहब ने अपनी नोटबुक पर उसका नाम टाँक लिया। ताहिर अली को कुछ कहा न सुनाए एक शब्द भी न बोले। जहाँ कानून से सजा मिल सकती थीए वहाँ डाँट—फटकार की जरूरत क्याघ् सब रजिस्टर उठाकर गाड़ी में रखेए दफ्तर में ताला बंद कियाए सेफ में दोहरे ताले लगाएए तालियाँ जेब में रखीं और फिटन पर सवार हो गए। ताहिर अली को इतनी हिम्मत भी न पड़ी कि कुछ अनुनय—विनय करें। वाणी ही शिथिल हो गई। स्तम्भित—से खड़े रह गए। चमारों के चौधारी ने दिलासा दिया—आप क्यों डरते हो खाँ साहबए आपका बाल तो बाँका होने न पाएगा। हम कह देंगेए अपने रुपये भर पाए हैं। क्यों रेए चुनकुआए निरा गँवार ही हैए इसारा भी नहीं समझताघ्

चुनकू ने लज्जित होकर कहा—चौधारीए भगवान्‌ जानेंए जो मैं जरा भी इशारा पा जाताए तो रुपये का नाम ही न लेता।

चौधारी—अपना बयान बदल देनाय कह देनाए मुझे जबानी हिसाब याद नहीं था।

चुनकू ने इसका कुछ जवाब न दिया। बयान बदलना साँप के मुँह में उँगली डालना था। ताहिर अली को इन बातों से जरा भी तस्कीन नहीं हुई। वह पछता रहे थे। इसलिए नहीं कि मैंने रुपये क्यों खर्च किएए बल्कि इसलिए कि नामों के सामने के निशान क्यों लगाए। अलग किसी कागज पर टाँक लेताए तो आज क्यों यह नौबत आतीघ् अब खुदा ही खैर करे। साहब मुआफ करनेवाली आदमी नहीं हैं। कुछ सूझ ही न पड़ता था कि क्या करें। हाथ—पाँव फूल गए थे।

चौधारी बोला—खाँ साहबए अब हाथ—पर—हाथ धारकर बैठने से काम न चलेगा। यह साहब बड़ा जल्लाद आदमी है। जल्दी रुपये जुटाइए। आपको याद हैए कुल कितने रुपये निकलते होंगेघ्

ताहिर—रुपयों की कोई फिक्र नहीं है जीए यहाँ तो दाग लग जाने का अफसोस है। क्या जानता था कि आज यह आफत आनेवाली हैए नहीं तो पहले से तैयार न हो जाता! जानते होए यहाँ कारखाने का एक—न—एक आदमी कर्ज माँगने को सिर पर सवार रहता है। किस—किससे हीला करूँघ् और फिर मुरौवत में हीला करने से भी तो काम नहीं चलता। रुपये निकालकर दे देता हूँ। यह उसी शराफत की सजा है। 150 रुपये से कम न निकलेंगेए बल्कि चाहे 200 रुपये हो गए हों।

चौधारी—भलाए सरकारी रकम इस तरह खरच की जाती है! आपने खरच की या किसी को उधार दे दीए बात एक ही है। वे लोग रुपये दे देंगेघ्

ताहिर—ऐसा खरा तो एक भी नहीं। कोई कहेगाए तनख्वाह मिलने पर दूँगा। कोई कुछ बहाना करेगा। समझ में नहीं आताए क्या करूँघ्

चौधारी—घर में तो रुपये होंगेघ्

ताहिर—होने को क्या दो—चार सौ रुपये न होंगेय लेकिन जानते होए औरत का रुपया जान के पीछे रहता है। खुदा को जो मंजूर हैए वह होगा।

यह कहकर ताहिर अली अपने दो—चार दोस्तों की तरफ चले कि शायद यह हाल सुनकर लोग मेरी कुछ मदद करेंए मगर कहीं न जाकर एक दरख्त के नीचे नमाज पढ़़ने लगे। किसी से मदद की उम्मीद न थी।

इधार चौधारी ने चमारों से कहा—भाइयोए हमारे मुंसीजी इस बखत तंग हैं। सब लोग थोड़ी—थोड़ी मदद करोए तो उनकी जान बच जाए। साहब अपने रुपये ही न लेंगे कि किसी की जान लेंगे! समझ लोए एक दिन नसा नहीं खाया।

चौधारी तो चमारों से रुपये बटोरने लगा। ताहिर अली के दोस्तों ने यह हाल सुनाए तो चुपके से दबक गए कि कहीं ताहिर अली कुछ माँग न बैठें। हाँए जब तीसरे पहर दारोगा ने आकर तहकीकात करनी शुरू की और ताहिर अली को हिरासत में ले लियाए तो लोग तमाशा देखने आ पहुँचे। घर में हाय—हाय मच गई। कुल्सूम ने जाकर जैनब से कहा—लीजिएए अब तो आपका अरमान निकला!

जैनब ने कहा—तुम मुझसे क्या बिगड़ती हो बेगम! अरमान निकले होंगे तो तुम्हारेए न निकले होंगे तो तुम्हारे। मैंने थोड़े ही कहा था कि जाकर किसी के घर में डाका मारो। गुलछर्रे तुमने उड़ाए होंगेए यहाँ तो रोटी—दाल के सिवा और किसी का कुछ नहीं जानते।

कुल्सूम के पास तो कफन को कौड़ी भी न थीए जैनब के पास रुपये थेए पर उसने दिल जलाना ही काफी समझा। कुल्सूम की इस समय ताहिर अली से सहानुभूति न थी। उसे उन पर क्रोधा आ रहा थाए जैसे किसी को अपने बच्चे को चाकू से उँगली काटते देखकर गुस्सा आए।

संधया हो रही थी। ताहिर अली के लिए दारोगा ने एक इक्का मँगवाया। उस पर चार कांस्टेबिल उन्हें लेकर बैठे। दारोगा जानता था कि यह माहिर अली के भाई हैंए कुछ लिहाज करता था। चलते वक्त बोलाए अगर आपको घर में किसी से कुछ कहना होए तो आप जा सकते हैं। औरतें घबरा रही होंगीए उन्हें जरा तस्कीन देते आइए। पर ताहिर अली ने कहाए मुझे किसी से कुछ नहीं कहना है। वह कुल्सूम को अपनी सूरत न दिखाना चाहते थेए जिसे उन्होंने जान—बूझकर गारत किया था और निराधार छोड़े जाते थे। कुल्सूम द्वार पर खड़ी थी। उनका क्रोधा प्रतिक्षण शोक की सूरत पकड़ता जाता थाए यहाँ तक कि जब इक्का चलाए तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बच्चे श्अब्बाए अब्बाश् कहते इक्के के पीछे दौड़े। दारोगा ने उन्हें एक—एक चवन्नी मिठाई खाने को देकर फुसला दिया। ताहिर अली तो उधार हिरासत में गएए इधार घड़ी रात जाते—जाते चमारों का चौधारी रुपये लेकर मिस्टर सेवक के पास पहुँचा। साहब बोले—ये रुपये तुम उनके घरवालों को दे दोए तो उनका गुजर हो जाए। मुआमला अब पुलिस के हाथ में हैए मैं कुछ नहीं कर सकता।

चौधारी—हुजूरए आदमी से खता हो ही जाती है। इतने दिनों तक आपकी चाकरी कीए हुजूर को उन पर कुछ दया करनी चाहिए। बड़ा भारी परिवार है सरकारए बाल—बच्चे भूखों मर जाएँगे।

जॉन सेवक—मैं यह सब जानता हूँए बेशक उनका खर्च बहुत था। इसीलिए मैंने माल पर कटौती दे दी थी। मैं जानता हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया हैए मजबूर होकर किया हैय लेकिन विष किसी भी नीयत से खाया जाएए विष ही का काम करेगाए कभी अमृत नहीं हो सकता। विश्वासघात विष से कम घातक नहीं होता। तुम ये रुपये जाकर उनके घरवालों को दे दो। मुझे खाँ साहब से कोई बिगाड़ नहीं हैए लेकिन अपने धार्म को नहीं छोड़ सकता। पाप को क्षमा करना पाप करना है।

चौधारी यहाँ से निराश होकर चला गया। दूसरे दिन अभियोग चला। ताहिर अली दोषी पाए गए। वह अपनी सफाई न पेश कर सके। छरू महीने की सजा हो गई।

जब ताहिर अली कांस्टेबिलों के साथ जेल की तरफ जा रहे थेए तो उन्हें माहिर अली ताँगे पर सवार आता हुआ दिखाई दिया। उनका हृदय गद्‌गद हो गया। अॉंखों से अॉंसू की झड़ी लग गई। समझेए माहिर मुझसे मिलने दौड़ा चला आता है। शायद आज ही आया हैए और आते—ही—आते यह खबर पाकर बेकरार हो गया है। जब ताँगा समीप आ गयाए तो वह चिल्लाकर रोने लगे। माहिर अली ने एक बार उन्हें देखाए लेकिन न सलाम—बंदगी कीए न ताँगा रोकाए न फिर इधार द्रष्टिपात कियाए मुँह फेर लियाए मानो देखा ही नहीं। ताँगा ताहिर अली की बगल से निकल गया। उनके मर्मस्थल पर एक सर्द आह निकली। एक बार फिर चिल्लाकर रोए। वह आनंद की धवनि थीए यह शोक का विलापय वे अॉंसू की बूँदे थींए ये खून की।

किंतु एक ही क्षण में उनकी आत्मवेदना शांत हो गई—माहिर ने मुझे देखा ही न होगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी जरूरी थीए लेकिन शायद वह किसी ख्याल में डूबा हुआ था। ऐसा होता भी तो है कि जब हम किसी खयाल में होते हैंए तो न सामने की चीजें दिखाई देती हैंए न करीब की बातें सुनाई देती हैं। यही सबब है। अच्छा ही हुआ कि उसने मुझे न देखाए नहीं तो इधार मुझे पदामत होतीए उधार उसे रंज होता।

उधार माहिर अली मकान पर पहुँचेए तो छोटे भाई आकर लिपट गए। ताहिर अली के दोनों बच्चे भी दौड़ेए और श्माहिर चाचा आएश् कहकर उछलने—कूदने लगे। कुल्सूम भी रोती हुई निकल आई। सलाम—बंदनी के पश्चात्‌ माहिर अपनी माता के पास गए। उसने उन्हें छाती से लगा लिया।

माहिर—तुम्हारा खत न जाताए तो अभी मैं थोड़े ही आता। इम्तहान के बाद ही तो वहाँ मजा आता हैए कभी मैचए कभी दावतए कभी सैरए कभी मुशायरे। भाई साहब को यह क्या हिमाकत सूझी!

जैनब—बेगम साहब की फरमाइशें कैसे पूरी होतीं! जेवर चाहिएए जरदा चाहिएए जरी चाहिएए कहाँ से आता! उस पर कहती हैंए तुम्हीं लोगों ने उन्हें मटीयामेट किया। पूछोए रोटी—दाल में ऐसा कौन—सा छप्पन टके का खर्च थाघ् महीनों सिर में तेल डालना नसीब न होता था। अपने पास से पैसे निकालोए तो पान खाओ। उस पर इतने ताने!

माहिर—मैंने तो स्टेशन से आते हुए उन्हें जेल जाते देखा। मैं तो शर्म के मारे कुछ न बोलाए बंदगी तक न की। आखिर लोग यही न कहते कि उनका भाई जेलखाने जा रहा है! मुँह फेरकर चला आया। भैया रो पड़े। मेरा दिल भी मसोस उठाए जी चाहता थाए उनके गले लिपट जाऊँयलेकिन शर्म आ गई। थानेदार कोई मामूली आदमी नहीं होता। उसका शुमार हुक्काम में होता है। इसका खयाल न करूँगाए तो बदनाम हो जाऊँगा।

जैनब—छरू महीने की सजा हुई है।

माहिर—जुर्म तो बड़ा थाए लेकिन शायद हाकिम ने रहम किया।

जैनब—तुम्हारे अब्बा का लिहाज किया होगाए नहीं तो तीन साल से कम के लिए न जाते।

माहिर—खानदान में दाग लगा दिया। बुजुगोर्ं की आबरू खाक में मिला दी।

जैनब—खुदा न करे कि कोई मर्द औरत का कलमा पढ़़े।

इतने में मामा नाश्ते के लिए मिठाइयाँ लाए। माहिर अली ने एक मिठाई जाहिर को दीए एक जाबिर को। इन दोनों ने जाकर साबिर और नसीमा को दिखाई। वे दोनों भी दौड़े। जैनब ने कहा—जाओए खेलते क्यों नहीं! क्या सिर पर डट गए! न जाने कहाँ के मरभुखे छोकरे हैं। इन सबों के मारे कोई चीज मुँह में डालनी मुश्किल है। बला की तरह सिर पर सवार हो जाते हैं। रात—दिन खाते ही रहते हैंए फिर भी जी नहीं भरता।

रकिया—छिछोरी माँ के बच्चे और क्या होंगे!

माहिर ने एक—एक मिठाई उन दोनों को भी दी। तब बोले—गुजर—बसर की क्या सूरत होगीघ् भाभी के पास तो रुपये होंगे नघ्

जैनब—होंगे क्यों नहीं! इन्हीं रुपयों के लिए तो खसम को जेल भेजा। देखती हूँए क्या इंतजाम करती हैं। यहाँ किसी को क्या गरज पड़ी है कि पूछने जाए।

माहिर—मुझे अभी न जाने कितने दिनों में जगह मिले। महीना—भर लग जाएए महीने लग जाएँ। तब तक मुझे दिक मत करना।

जैनब—तुम इसका गम न करो बेटा! वह अपना सँभालेंए हमारा भी खुदा हाफिज है। वह पुलाव खाकर सोएँगीए तो हमें भी रूखी रोटीयाँ मयस्सर हो ही जाएँगी।

जब शाम हो गईए तो जैनब ने मामा से कहा—जाकर बेगम साहब से पूछोए कुछ सौदा—सुल्फ आएगाए या आज मातम मनाया जाएगाघ्

मामा ने लौट आकर कहा—वह तो बैठी रो रही हैं। कहती हैंए जिसे भूख होए खाएए मुझे नहीं खाना है।

जैनब—देखा! यह तो मैं पहले ही कहती थी कि साफ जवाब मिलेगा। जानती है कि लड़का परदेस से आया हैए मगर पैसे न निकलेंगे। अपने और अपने बच्चों के लिए बाजार से खाना मँगवा लेगीए दूसरे खाएँ या मरेंए उसकी बला से। खैरए उन्हें उनके मीठे टुकड़े मुबारक रहेंए हमारा भी अल्लाह मालिक है।

कुल्सूम ने जब सुना था कि ताहिर अली को छरू महीने की सजा हो गईए तभी से उसकी अॉंखों में ऍंधोरा—सा छाया हुआ था। मामा का संदेशा सुनाए तो जल उठी। बोली—उनसे कह दोए पकाएँ—खाएँए यहाँ भूख नहीं है। बच्चों पर रहम आएए तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें।

मामा ने इसी वाक्य को अन्वय कियाए जिसने अर्थ का अनर्थ कर दिया।

रात के नौ बज गए। कुल्सूम देख रही थी कि चूल्हा गर्म है। मसाले की सुगंधा नाक में आ रही थीए बघार की आवाज भी सुनाई दे रही थीय लेकिन बड़ी देर तक कोई उसके बच्चों को बुलाने न आयाए तो वह बैन कर—करके रोने लगी। उसे मालूम हो गया कि घरवालों ने साथ छोड़ दिया और अब मैं अनाथ हूँए संसार में कोई मेरा नहीं। दोनों बच्चे रोते—रोते सो गए। उन्हीं के पैताने वह भी पड़ रही। भगवान्ए ये दो—दो बच्चेए पास फूटी कौड़ी नहींए घर के आदमियों का यह हालए यह नाव कैसे पार लगेगी!

माहिर अली भोजन करने बैठेए तो मामा से पूछा—भाभी ने भी कुछ बाजार से मँगवाया है कि नहीं।

जैनब—मामा से मँगवाएँगीए तो परदा न खुल जाएगाघ् खुदा के फजल से साबिर सयाना हुआ। गुपचुप सौदे वही लाता हैए और इतना घाघ है कि लाख फुसलाओए पर मुँह नहीं खोलता।

माहिर—पूछ लेना। ऐसा न हो कि हम लोग खाकर सोएँए और वह बेचारी रोजे से रह जाएँ।

जैनब—ऐसी अनीली नहीं हैए वह हम—जैसों को चरा लाएँ। हाँए पूछना मेरा फर्ज हैए पूछ लूँगी।

रकिया—सालन और रोटीए किस मुँह से खाएँगीए उन्हें तो जरदा—शीरमाल चाहिए।

दूसरे दिन सबेरे दोनों बच्चे बावर्चीखाने में गएए तो जैनब ने ऐसी कड़ी निगाहों से देखा कि दोनों रोते हुए लौट आए। अब कुल्सूम से न रहा गया। वह झल्लाकर उठी और बावर्चीखाने में जाकर मामा से बोली—तूने बच्चों को खाना क्यों नहीं दिया रेघ् क्या इतनी जल्दी काया—पलट हो गईघ् इसी घर के पीछे हम मिट्टी में मिल गए और मेरे लड़के तड़पेंए किसी को दर्द न आएघ्

मामा ने कहा—तो आप मुझसे क्या बिगड़ती हैंए मैं कौन होती हूँए जैसा हुकुम पाती हूँए वैसा करती हूँ।

जैनब अपने कमरे से बोली—तुम मिट्टी में मिल गईंए तो यहाँ किसने घर भर लिया। कल तक कुछ नाता निभा जाता थाए वह भी तुमने तोड़ दिया। बनिए के यहाँ से कर्ज जिंस आईए तो मुँह में दाना गया। सौ कोस से लड़का आयाए तुमने बात तक न पूछी। तुम्हारी नेकी कोई कहाँ तक गाए।

आज से कुल्सूम की रोटीयाँ के लाले पड़ गए। माहिर अली कभी दोनों भाइयों को लेकर नानबाई की दूकान से भोजन कर आतेए कभी किसी इष्ट—मित्रा के मेहमान हो जाते। जैनब और रकिया के लिए मामा चुपके—चुपके अपने घर से खाना बना लाती। घर में चूल्हा न जलता। नसीमा और साबिर प्रातरूकाल घर से निकल जाते। कोई कुछ दे देताए तो खा लेते। जैनब और रकिया की सूरत से ऐसे डरते थेए जैसे चूहा बिल्ली से। माहिर के पास भी न जाते। बच्चे शत्रु और मित्रा को खूब पहचानते हैं। अब वे प्यार के भूखे नहींए दया के भूखे थे। रही कुल्सूमए उसके लिए गम ही काफी था। वह सीना—पिरोना जानती थीए चाहती तो सिलाई करके अपना निर्वाह कर लेतीय पर जलन के मारे कुछ न करती थी। वह माहिर के मुँह में कालिख लगाना चाहती थीए चाहती थी कि दुनिया मेरी दशा को देखे और इन पर थूके। उसे अब ताहिर अली पर भी क्रोधा आता था—तुम इसी लायक थे कि जेल में पड़े—पड़े चक्की पीसो। अब अॉंखें खुलेंगी। तुम्हें दुनिया के हँसने की फिक्र थी। अब दुनिया किसी पर नहीं हँसती! लोग मजे से मीठे लुकमे उड़ाते और मीठी नींद सोते हैं। किसी को तो नहीं देखती कि झूठ भी इन मतलब के बंदों की फजीहत करे। किसी को गरज ही क्या पड़ी है कि किसी पर हँसे। लोग समझते होंगेए ऐसे कमसमझोंए लाज पर मरनेवालों की यही सजा है।

इस भाँति एक महीना गुजर गया। एक दिन सुभागी कुल्सूम के यहाँ साग—भाजी लेकर आई। वह अब यही काम करती थी। कुल्सूम की सूरत देखीए तो बोली बहूजीए तुम तो पहचानी ही नहीं जातीं। क्या कुढ़़—कुढ़़कर जान दे दोगीघ् बिपत तो पड़ ही गई हैए कुढ़़ने से क्या होगाघ् मसल हैए अॉंधाी आएए बैठ गँवाए। तुम न रहोगी तो बच्चों को कौन पालेगाघ् दुनिया कितनी जल्दी अंधाी हो जाती है। बेचारे खाँ साहब इन्हीं लोगों के लिए मरते थे। अब कोई बात भी नहीं पूछता। घर—घर यही चर्चा हो रही है कि इन लोगों को ऐसा न करना चाहिए था। भगवान्‌ को क्या मुँह दिखाएँगे।

कुल्सूम—अब तो भाड़ लीपकर हाथ काला हो गया।

सुभागी—बहूए कोई मुँह पर न कहेए लेकिन सब थुड़ी—थुड़ी करते हैं। बेचारे नन्हे—नन्हे बालक मारे—मारे फिरते हैंए देखकर कलेजा फट जाता है। कल तो चौधारी ने माहिर मियाँ को खूब आड़े हाथों लिया था।

कुल्सूम को इन बातों से बड़ी तस्कीन हुई। दुनिया इन लोगों को थूकती तो हैए इनकी निंदा तो करती हैए इन बेहयाओं को लाज ही न होए तो कोई क्या करे। बोली—किस बात परघ्

सुभागी कुछ जवाब न देने पाई थी कि बाहर से चौधारी ने पुकारा। सुभागी ने जाकर पूछा—क्या कहते होघ्

चौधारी—बहूजी से कुछ कहना है। जरा परदे की आड़ में खड़ी हो जाएँ।

दोपहर क समय था। घर में सन्नाटा छाया हुआ था। जैनब और रकिया किसी औलिया के मजार पर शीरनी चढ़़ाने गई थीं। कुल्सूम परदे की आड़ में आकर खड़ी हो गई।

चौधारी—बहूजीए कई दिनों से आना चाहता थाए पर मौका न मिलता था। जब आताए तो माहिर मियाँ को बैठे देखकर लौट जाता। कल माहिर मियाँ मुझसे कहने लगेए तुमने भैया की मदद के लिए जो रुपये जमा किए थेए वे मुझे दे दोए भाभी ने माँगे हैं। मैंने कहाए जब तक बहूजी से खुद न पूछ लूँगाए आपको न दूँगा। इस पर बहुत बिगड़े। कच्ची—पक्की मुँह से निकालने लगे—समझ लूँगाए बड़े घर भिजवा दूँगा। मैंने कहाए जाइए समझ लीजिएगा। तो अब आपका क्या हुक्म हैघ् ये सब रुपये अभी मेरे पास रखे हुए हैंए आपको दे दूँ नघ् मुझे तो आज मालूम हुआ कि वे लोग आपके साथ दगा कर गए!

कुल्सूम ने कहा—खुदा तुम्हें इस नेकी का सबब देगा। मगर ये रुपये जिसके होंए उन्हें लौटा दो। मुझे इनकी जरूरत नहीं है।

चौधारी—कोई न लौटाएगा।

कुल्सूम—तो तुम्हीं अपने पास रखो।

चौधारी—आप लेतीं क्यों नहींघ् हम कोई औसान थोड़े ही जताते हैं। खाँ साहब की बदौलत बहुत कुछ कमाया हैए दूसरा मुंसी होताए तो हजारों रुपये नजर ले लेता। यह उन्हीं की नजर समझी जाए।

चौधारी ने बहुत आग्रह कियाए पर कुल्सूम ने रुपये न लिए। वह माहिर अली को दिखाना चाहती थी कि जिन रुपयों के लिए तुम कुत्ताों की भाँति लपकते थेए उन्हीं रुपयों को मैंने पैर से ठुकरा दिया। मैं लाख गई—गुजरी हँए फिर भी मुझमें कुछ गैरत बाकी हैए तुम मर्द होकर बेहयाई पर कमर बाँधो हुए हो।

चौधारी यहाँ से चलाए तो सुभागी से बोला—यही बड़े आदमियों की बातें हैं। चाहे टुकड़े—टुकडे उड़ जाएँए मुदा किसी के सामने हाथ न पसारेंगी। ऐसा न होताए तो छोटे—बड़े में फर्क ही क्या रहता। धान से बड़ाई नहीं होतीए धारम से होती है।

इन रुपयों को लौटाकर कुल्सूम का मस्तक गर्व से उन्नत हो गया। आज उसे पहली बार ताहिर अली पर अभिमान हुआ—यह इज्जत है कि पीठ—पीछे दुनिया बड़ाई करती रहे। उस बेइज्जती से तो मर जाना ही अच्छा कि छोटे—छोटे आदमी मुँह पर लताड़ सुनाएँ। कोई लाख उनके एहसान को मिटाएए पर दुनिया तो इंसाफ करती है! रोज ही तो अमले सजा पाते रहते हैं। कोई तो उनके बाल—बच्चों की बात नहीं पूछतायबल्कि उलटे और लोग ताने देते हैं। आज उनकी नेकनामी ने मेरा सिर ऊँचा कर दिया।

सुभागी ने कहा—बहूजीए बहुत औरतें देखींए लेकिन तुम—जैसी धाीरजवाली विरली ही कोई होगी। भगवान्‌ तुम्हारा संकट हरें।

वह चलने लगीए तो कई अमरूद बच्चों के लिए रख दिए।

कुल्सूम ने कहा—मेरे पास पैसे नहीं हैं।

सुभागी मुस्कराकर चली गई।

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अध्याय 37

प्रभु सेवक बड़े उत्साही आदमी थे। उनके हाथ से सेवक—दल में एक नई सजीवता का संचार हुआ। संख्या दिन—दिन बढ़़ने लगी। जो लोग शिथिल और उदासीन हो रहे थेए फिर नए जोश से काम करने लगे। प्रभु सेवक की सज्जनता और सहृदयता सभी को मोहित कर लेती थी। इसके साथ ही अब उनके चरित्रा में वहर् कत्ताव्यनिष्ठा दिखाई देती थीए जिसकी उन्हें स्वयं आशा न थी। सेवक—दल में प्रायरू सभी लोग शिक्षित थेए सभी विचारशील। वे कार्य को अग्रसर करने के लिए किसी नए विधान की आयोजना करना चाहते थे। वह अशिक्षित सिपाहियों की सेना न थीए जो नायक की आज्ञा को तौलती हैए तर्क—वितर्क करती हैए और जब तक कायल न हो जाएए उसे मानने को तैयार नहीं होती। प्रभु सेवक ने बड़ी बुध्दिमत्ताा से इस दुस्तर कार्य को निभाना शुरू किया।

अब तक इस संस्था का कार्य क्षेत्रा सामाजिक था। मेलों—ठेलों में यात्रिायों की सहायताए बाढ़़—बूड़े में पीड़ितों का उध्दारए सूखे—झूरे में विपत्तिा के मारे हुओं का कष्ट—निवारणए ये ही इनके मुख्य विषय थे। प्रभुसेवक ने इसका कार्य—क्षेत्रा विस्तृत कर दियाए इसको राजनीतिक रूप दे दिया। यद्यपि उन्होंने कोई नया प्रस्ताव न कियाए किसी परिवर्तन की चर्चा तक न कीए पर धाीरे—धाीरे उनके असर से नए भावों का संचार होने लगा।

प्रभु सेवक बहुत सहृदय आदमी थेए पर किसी को गरीबों पर अत्याचार करते देखकर उनकी सहृदयता हिंसात्मक हो जाती थी।

किसी सिपाही को घसियारों की घास छीनते देखकर वह तुरंत घसियारों की ओर से लड़ने पर तैयार हो जाते थे। दैविक आघातों से जनता की रक्षा करना उन्हें निरर्थक—सा जान पड़ता था। सबलों के अत्याचार पर ही उनकी खास निगाह रहती थी। रिश्वतखोर कर्मचारियों परए जालिम जमींदारों परए स्वार्थी अधिकारियों पर वह सदैव ताक लगाए रहते थे। इसका फल यह हुआ कि थोड़े ही दिनों में इस संस्था की धाक बैठ गई। उसका दफ्तर निर्बलों और दुरूखित जनों का आश्रय बन गया। प्रभु सेवक निर्बलों को प्रतिकार के लिए उत्तोजित करते रहते थे। उनका कथन था कि जब तक जनता स्वयं अपनी रक्षा करना न सीखेगीए ईश्वर भी उसे अत्याचार से नहीं बचा सकता।

हमें सबसे पहले आत्मसम्मान की रक्षा करनी चाहिए। हम कायर और दब्बू हो गए हैंए अभिमान और हानि चुपके से सह लेते हैंए ऐसे प्राणियों को तो स्वर्ग में भी सुख नहीं प्राप्त हो सकता। जरूरत है कि हम निर्भीक और साहसी बनेंए संकटों का सामना करेंए मरना सीखें। जब तक हमें मरना न आएगाए जीना भी न आएगा। प्रभु सेवक के लिए दीनों की रक्षा करते हुए गोली का निशाना बन जाना इससे कहीं आसान था कि वह किसी रोगी के सिरहाने बैठ पंखा झलेए या अकाल—पीड़ितों को अन्न और द्रव्य बाँटता फिरे। उसके सहयोगियों को भी इस साहसिक सेवा में अधिक उत्साह था। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़़ जाना चाहते थे। उनका विचार था कि प्रजा में असंतोष उत्पन्न करना भी सेवकों का मुख्यर् कत्ताव्य है। इंद्रदत्ता इस सम्प्रदाय का अगुआ थाए और उसे शांत करने में प्रभु सेवक को बड़ी चतुराई से काम लेना पड़ता था।

लेकिन ज्यों—ज्यों सेवकों की कीर्ति फैलने लगीए उन पर अधिकारियों का संदेह भी बढ़़ने लगा। अब कुँवर साहब डरे कि कहीं सरकार इस संस्था का दमन न कर दे। कुछ दिनों में यह अफवाह भी गर्म हुई कि अधिकारी वर्ग में कुँवर साहब की रियासत जब्त करने का विचार किया जा रहा है। कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थेए पर यह अफवाह सुनकर उनका आसन भी डोल गया। वह ऐश्वर्य का सुख नहीं भोगना चाहते थेए लेकिन ऐश्वर्य की ममता का त्याग न कर सकते थे। उनको परोपकार में उससे कहीं अधिक आनंद आता थाए जितना भोग—विलास में। परोपकार में सम्मान थाए गौरव थाय वह सम्मान न रहाए तो जीने में मजा ही क्या रहेगा! वह प्रभु सेवक को बार—बार समझाते—भाईए जरा समझ—बूझकर काम करो। अधिकारियों से बचकर चलो। ऐसे काम करो ही क्यों जिनसे अधिकारियों को तुम्हारे ऊपर संदेह हो। तुम्हारे लिए परोपकार का क्षेत्रा क्या कम है कि राजनीति के झगड़े में पड़ो। लेकिन प्रभु सेवक उनके परामर्श की जरा भी परवा न करते—धामकी देते—इस्तीफा दे दूँगा। हमें अधिकारियों की क्या परवा! वे जो चाहते हैंए करते हैंए हमसे कुछ नहीं पूछतेए फिर हम क्यों उनका रुख देखकर काम करेंघ् हम अपने निश्चित मार्ग से विचलित न होंगे। अधिकारियों की जो इच्छा होए करें। आत्मसम्मान खोकर संस्था को जीवित ही रखाए तो क्या! उनका रुख देकर काम करने का आशय तो यही है कि हम खाएँए मुकदमे लड़ेंए एक दूसरे का बुरा चेतें और पड़े—पड़े सोएँ। हमारे और शासकों के उद्देश्यों में परस्पर विरोधा है। जहाँ हमारा हित हैए वहीं उनको शंका हैए और ऐसी दशा में उनका संशय स्वाभाविक है। अगर हम लोग इस भाँति डरते रहेंगेए तो हमारा होना—न—होना दोनों बराबर है।

एक दिन दोनों आदमियों में वाद—विवाद की नौबत आ गई। बंदोबस्त के अफसरों ने किसी प्रांत में भूमि—कर में मनमानी वृध्दि कर दी थी। काउंसिलोंए समाचार—पत्राों और राजनीतिक सभाओ में इस वृध्दि का विरोधा किया जा रहा थाए पर कर—विभाग पर कुछ असर न होता था। प्रभु सेवक की राय थीए हमें जाकर असामियों से कहना चाहिए कि साल—भर तक जमीन परती पड़ी रहने दें। कुँवर साहब कहते थे कि यह तो खुल्लम—खुल्ला अधिकारियों से रार मोल लेना है।

प्रभु सेवक—अगर आप इतना डर रहे हैंए तो उचित है कि आप इस संस्था को उसके हाल पर छोड़ दें। आप दो नौकाओं पर बैठकर नदी पार करना चाहते हैंए यह असम्भव है। मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास न थाए और अब तो निराशा—सी हो गई है।

कुँवर—तुम मेरी गिनती रईसों में क्यों करते होए जब तुम्हें मालूम है कि मुझे रियासत की परवा नहीं। लेकिन कोई काम धान के बगैर तो नहीं चल सकता। मैं नहीं चाहता कि अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं की भाँति इस संस्था को भी धानाभाव के कारण हम टूटते देखें।

प्रभु सेवक—मैं बड़ी—से—बड़ी जाएदाद को भी सिध्दांत के लिए बलिदान कर देने में दरेग न करूँगा।

कुँवर—मैं भी न करताए यदि जाएदाद मेरी होती। लेकिन यह जाएदाद मेरे वारिसों की हैए और मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनकी इच्छा के बगैर उनकी जाएदाद की उत्तार—क्रिया कर दूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरे कमोर्ं का फल मेरी संतान को भोगना पड़े।

प्रभु सेवक—यह रईसों की पुरानी दलील है। वे अपनी वैभव—भक्ति को इसी परदे की आड़ में छिपाया करते हैं। अगर आपको भय है कि हमारे कामों से आपकी जाएदाद को हानि पहुँचेगीए तो बेहतर है कि आप इस संस्था से अलग हो जाएँ।

कुँवर साहब ने चिंतित स्वर में कहा—प्रभुए तुम्हें मालूम नहीं है कि इस संस्था की जड़ अभी कितनी कमजोर है! मुझे भय है कि यह अधिकारियों को तीव्र द्रष्टि को एक क्षण भी सहन नहीं कर सकती। मेरा और तुम्हारा उद्देश्य एक ही हैय मैं भी वही चाहता हूँए जो तुम चाहते हो। लेकिन मैं बूढ़़ा हूँए मंद गति से चलना चाहता हूँय तुम जवान होए दौड़ना चाहते हो। मैं भी शासकों का कृपापात्रा नहीं बनना चाहता। मैं बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ कि हमारा भाग्य हमारे हाथ में हैए अपने कल्याण के लिए जो कुछ करेंगेए दूसरों से सहानुभूति या सहायता की आशा रखना व्यर्थ है। किंतु कम—से—कम हमारी संस्था को जीवित तो रहना चाहिए। मैं इसे अधिकारियों के संदेह की भेंट करके उसका अंतिम संस्कार नहीं करना चाहता।

प्रभु सेवक ने कुछ उत्तार न दिया। बात बढ़़ जाने का भय था। मन में निश्चय किया कि अगर कुँवर साहब ने ज्यादा चीं—चपड़ कीए तो उन्हें इस संस्था से अलग कर देंगे। धान का प्रश्न इतना जटील नहीं है कि उसके लिए संस्था के मर्मस्थल पर आघात किया जाए। इंद्रदत्ता ने भी यही सलाह दी—कुँवर साहब को पृथक्‌ कर देना चाहिए। हम औषधियाँ बाँटने और अकाल—पीड़ित प्रांतों में मवेशियों का चारा ढ़ोने के लिए नहीं हैं। है वह भी हमारा कामए इससे हमें इनकार नहींए लेकिन मैं उसे इतना गुरु नहीं समझता। यह विधवंस का समय हैए निर्माण का समय तो पीछे आएगा। प्लेगए दुर्भिक्ष और बाढ़़ से दुनिया कभी वीरान नहीं हुई और न होगी।

क्रमशरू यहाँ तक नौबत आ पहुँची कि अब कितनी ही महत्तव की बातों में ये दोनों आदमी कुँवर साहब से परामर्श तक न लेतेए बैठकर आपस ही में निश्चय कर लेते। चारों तरफ से अत्याचारों के वृत्ताांत नित्य दफ्तर में आते रहते थे। कहीं—कहीं तो लोग इस संस्था की सहायता प्राप्त करने के लिए बड़ी—बड़ी रकमें देने पर तैयार हो जाते थे। इससे यह विश्वास होता जाता था कि संस्था पैरों पर खड़ी हो सकती हैए उसे किसी स्थायी कोष की आवश्यकता नहीं। यदि उत्साही कार्यकर्ता होंए तो कभी धानाभाव नहीं हो सकता। ज्यों—ज्यों यह बात सिध्द होती जाती थीए कुँवर साहब का आधिपत्य लोगों को अप्रिय प्रतीत होता जाता था।

प्रभु सेवक की रचनाएँ इन दिनों क्रांतिकारी भावों से परिपूर्ण होती थीं। राष्ट्रीयताए द्वंद्वए संघर्ष के भाव प्रत्येक छंद से टपकते थे। उसनेश्नौकाश् नाम की एक ऐसी कविता लिखीए जिसे कविता—सागर का अनुपम रत्न कहना अनुचित न होगा। लोग पढ़़ते थे और सिर धूनते थे। पहले ही पद्य में यात्राी ने पूछा था—क्यों माँझीए नौका डूबेगी या पार लगेगीघ् माँझी ने उत्तार दिया था—यात्राीए नौका डूबेगीय क्योंकि तुम्हारे मन में यह शंका इसी कारण हुई है। कोई ऐसी सभाए सम्मेलनए परिषद्‌ न थीए जहाँ यह कविता न पढ़़ी गई हो। साहित्य जगत्‌ में हलचल—सी मच गई।

सेवक—दल पर प्रभु सेवक का प्रभुत्व दिन—दिन बढ़़ता जाता था। प्रायरू सभी सदस्यों को अब उन पर श्रध्दा हो गई थीए सभी प्राणपण से उनके आदेशों पर चलने को तैयार रहते थे। सब—के—सब एक रंग में रँगे हुए थेए राष्ट्रीयता के मद में चूरए न धान की चिंताए न घर—बार की फिक्रए रूखा—सूखा खानेवालेए मोटा पहननेवालेए जमीन पर सोकर रात काट देते थेए घर की जरूरत न थीए कभी—कभी वृक्ष के नीचे पडे रहतेए कभी किसी झोंपड़े में। हाँए उनके हृदयों में उच्च और पवित्रा देशोपासना हिलोरें ले रही थी!

समस्त देश में संस्था की सुव्यवस्था की चर्चा हो रही थी। प्रभु सेवक देश के सर्व सम्मानितए सर्वजन—प्रिय नेताओं में थे। इतनी अल्पावस्था में यह कीर्ति! लोगों को आश्चर्य होता था। जगह—जगह से राष्ट्रीय सभाओं ने उन्हें आमंत्रिात करना शुरू किया। जहाँ जातेए लोग उनका भाषण सुनकर मुग्धा हो जाते थे।

पूना में राष्ट्रीय सभा का उत्सव था। प्रभु सेवक को निमंत्राण मिला। तुरंत इंद्रदत्ता को अपना कार्यभार सौंपा और दक्षिण के प्रदेशों में भ्रमण करने का इरादा करके चले। पूना में उनके स्वागत की खूब तैयारियाँ की गई थीं। यह नगर सेवक—दल का एक केंद्र भी थाए और यहाँ का नायक एक बड़े जीवट का आदमी थाए जिसने बर्लिन में इंजीनियरी की उपाधि प्राप्त की थी और तीन वर्ष के लिए इस दल में सम्मिलित हो गया था। उसका नगर में बड़ा प्रभाव था। वह अपने दल के सदस्यों के लिए स्टेशन पर खड़ा था। प्रभु सेवक का हृदय यह समारोह देखकर प्रफुल्लित हो गया। उसके मन ने कहा—यह मेरे नेतृत्व का प्रभाव है। यह उत्साहए यह निर्भीकताए यह जागृति इनमें कहाँ थीघ् मैंने ही इसका संचार किया। अब आशा होती है कि जिंदा रहाए तो कुछ—न—कुछ कर दिखाऊँगा। हा अभिमान!

संधया समय विशाल पंडाल में जब वह मंच पर खड़े हुएए तो कई हजार श्रोताओं को अपनी ओर श्रध्दापूर्ण नेत्राों से ताकते देखकर उनका हृदय पुलकित हो उठा। गैलरी में योरपियन महिलाएँ भी उपस्थित थीं। प्रांत के गवर्नर महोदय भी आए हुए थे। जिसकी कलम में यह जादू हैए उसकी वाणी में क्या कुछ चमत्कार न होगाए सब यही देखना चाहते थे।

प्रभु सेवक का व्याख्यान शुरू हुआ। किसी को उनका परिचय कराने की जरूरत न थी। राजनीति की दार्शनिक मीमांसा करने लगे। राजनीति क्या हैघ् उसकी आवश्यकता क्यों हैघ् उसके पालन का क्या विधान हैघ् किन दशाओं में उसकी अवज्ञा करना प्रजा का धार्म हो जाता हैघ् उसके गुण—दोष क्या हैंघ् उन्होंने बड़ी विद्वता और अत्यंत निर्भीकता के साथ इन प्रश्नों की व्याख्या की। ऐसे जटील और गहन विषय को अगर कोई सरलए बोधागम्य और मनोरंजक बना सकता थाए तो वह प्रभु सेवक थे। लेकिन राजनीति भी संसार की उन महत्तवपूर्ण वस्तुओं में हैए जो विश्लेषण और विवेचना की अॉंच नहीं सह सकती। उसका विवेचन उसके लिए घातक हैए उस पर अज्ञान का परदा रहना ही अच्छा है। प्रभु सेवक ने परदा उठा दिया—सेनाओं की कतारें अॉंखों से अ—श्य हो गईंए न्यायालय के विशाल भवन जमीन पर गिर पड़ेए प्रभुत्व और ऐश्वर्य के चिद्द मिटने लगेए सामने मोटे और उज्ज्वल अक्षरों में लिखा था—सर्वोत्ताम राजनीति राजनीति का अंत है। लेकिन ज्यों ही उनके मुख से ये शब्द निकले—हमारा देश राजनीति शून्य है। परवशता और आज्ञाकारिता में सीमाओ का अंतर है। त्यों ही सामने से पिस्तौल छूटने की आवाज आईए और गोली प्रभु सेवक के कान के पास से निकलकर पीछे की ओर दीवार में लगी। रात का समय थाय कुछ पता न चलाए किसने यह आघात किया। संदेह हुआए किसी योरपियन की शरारत है। लोग गैलरियों की ओर दौडे। सहसा प्रभु सेवक ने उच्च स्वर में कहा—मैं उस प्राणी को क्षमा करता हूँए जिसने मुझ पर आघात किया है। उसका जी चाहेए तो वह फिर मुझ पर निशाना मार सकता है। मेरा पक्ष लेकर किसी को इसका प्रतिकार करने का अधिकार नहीं है। मैं अपने विचारों का प्रचार करने आया हूँए आघातों का प्रत्याघात करने नहीं।

एक ओर से आवाज आई—यह राजनीति की आवश्यकता का उज्ज्वल प्रमाण है।

सभा उठ गई। योरपियन लोग पीछे के द्वार से निकल गए। बाहर सशस्त्रा पुलिस आ पहुँची थी।

दूसरे दिन संधया को प्रभु सेवक के नाम तार आया—सेवक—दल की प्रबंधा—कारिणी समिति आपके व्याख्यान को नापा करती हैए और अनुरोधा करती है कि आप लौट आएँए वरना यह आपके व्याख्यानों की उत्तारदायी न होगी।

प्रभु सेवक ने तार के कागज को फाड़कर टुकड़े—टुकड़े कर डाला और उसे पैरों से कुचलते हुए आप—ही—आप बोले—धूर्तए कायरए रँगा हुआ सियार। राष्ट्रीयता का दम भरता हैए जाति की सेवा करेगा! एक व्याख्यान ने कायापलट कर दी। उँगली में लहू लगाकर शहीदों में नाम लिखाना चाहता है। जाति—सेवा को बच्चों का खेल समझ रखा है। यह बच्चों का खेल नहीं हैए साँप के मुँह में उँगली डालना हैए शेर से पंजा लेना है। यदि अपने प्राण और अपनी सम्पत्तिा इतनी प्यारी हैए तो यह स्वाँग क्यों भरते होघ् जाओए तुम—जैसे देशभक्तों के बगैर देश की कोई हानि नहीं।

उन्होंने उसी वक्त तार का जवाब दिया—मैं प्रबंधा—कारिणी समिति के अधाीन रहना अपने लिए अपमानजनक समझता हूँ। मेरा उससे कोई सम्बंधा नहीं।

आधा घंटे बाद दूसरा पत्रा आया। इस पर सरकार की मुहर थी रू

माई डियर सेवकए

मैं नहीं कह सकता कि कल आपका व्याख्यान सुनकर मुझे कितना लाभ और आनंद प्राप्त हुआ। मैं यह अत्युक्ति के भाव से नहीं कहता कि राजनीति की ऐसी विद्वतापूर्ण और तात्तिवक मीमांसा आज तक मैंने कहीं नहीं सुनी थी। नियमों ने मेरी जबान बंद कर रखी हैए लेकिन मैं आपके भावों और विचारों का आदर करता हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह दिन जल्द आएए जब हम राजनीति का मर्म समझें और उसके सर्वोच्च सिध्दांतों का पालन कर सकें। केवल एक ही ऐसा व्यक्ति हैए जिसे आपकी स्पष्ट बात असह्य हुईए और मुझे बड़े दुरूख और लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि वह व्यक्ति योरपियन है। मैं योरपियन समाज की ओर से इस कायरतापूर्ण और अमानुषिक आघात पर शोक और घृणा प्रकट करता हूँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि समस्त योरपियन समाज को आपसे हार्दिक सहानुभूति है। यदि मैं उस नर—पिशाच का पता लगाने में सफल हुआ (उसका कल से पता नहीं है)ए तो आपको इसकी सूचना देने में मुझसे अधिक आनंद और किसी को न होगा।

आपका

एफ. विल्सन

प्रभु सेवक ने इस पत्रा को दुबारा पढ़़ा। उनके हृदय में गुदगुदी—सी होने लगी। बड़ी सावधानी से उसे अपने संदूक में रख दिया। कोई और वहाँ होताए तो जरूर पढ़़कर सुनाते। वह गर्वोन्मत्ता होकर कमरे में टहलने लगे। यह है जीवित जातियों की उदारताए विशाल—हृदयताए गुणग्राहकता! उन्होंने स्वाधाीनता का आनंद उठाया है। स्वाधाीनता के लिए बलिदान किए हैंए और इसका महत्तव जानते हैं। जिसका समस्त जीवन खुशामद और मुखापेक्षा में गुजरा होए वह स्वाधाीनता का महत्तव क्या समझ सकता है! मरने के दिन सिर पर आ जाते हैंए तो हम कितने ईश्वर—भक्त बन जाते हैं। भरतसिंह भी उसी तरफ गए होतेए अब तक राम—नाम का जाप करते होतेए वह तो विनय ने इधार फेर लिया। यह उन्हीं का प्रभाव था। विनयए इस अवसर पर तुम्हारी जरूरत हैए बड़ी जरूरत हैए तुम कहाँ होघ् आकर देखोए तुम्हारी बोई हुई खेती का क्या हाल है! उसके रक्षक उसके भक्षक बने जा रहे हैं।

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अध्याय 38

सोफिया और विनय रात—भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गएए जो भीलों की एक छोटी—सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया थाए पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाला मीठा राग गाता हुआ बहता था। भीलों के छोटे—छोटे झोंपड़ेए जिन पर बेलें फैली हुई थींए अप्सराओं के खिलौनों की भाँति सुंदर लगते थे। जब तक कुछ निश्चय न हो जाए कि क्या करना हैए कहाँ जाना हैए कहाँ रहना हैए तब तक उन्होंने उसी गाँव में निवास करने का इरादा किया। एक झोंपड़े में जगह भी आसानी से मिल गई। भीलों का आतिथ्य प्रसिध्द हैए और ये दोनों प्राणी भूख—प्यासए गरमी—सरदी सहने में अभ्यस्त थे। जो कुछ मोटा—झोटा मयस्सर हुआए खा लियाए चाय और मक्खनए मुरब्बे और मेवों का चस्का न था। सरल और सात्तिवक जीवन उनका आदर्श था। यहाँ उन्हें कोई कष्ट न हुआ। इस झोंपड़ें में केवल एक भीलनी रहती थी। उसका लड़का कहीं फौज में नौकर था। बुढ़़िया इन लोगों की सेवा—टहल सहर्ष कर देती। यहाँ इन लोगों ने मशहूर किया कि हम दिल्ली के रहनेवाले हैंए जल—वायु बदलने आए हैं। गाँव के लोग उनका बड़ा अदब और लिहाज करते थे।

किंतु इतना एकांत और इतनी स्वाधाीनता होने पर भी दोनों एक दूसरे से बहुत कम मिलते। दोनों न जाने क्यों सशंक रहते थे। उनमें मनोमालिन्य न थाए दोनों प्रेम में डूबे हुए थे। दोनों उद्विग्न थेए दोनों विकलए दोनों अधाीरए किंतु नैतिक बंधानों की —ढ़़ता उन्हें मिलने न देती। सात्तिवक धार्म—निरूपण ने सोफिया को साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर दिया था। उसकी द्रष्टि में भिन्न—भिन्न मत केवल एक ही सत्य के भिन्न—भिन्न नाम थे। उसे अब किसी से द्वेष न थाए किसी से विरोधा न था। जिस अशांति ने कई महीनों तक उसके धार्म—सिध्दांतों को कुंठित कर रखा थाए वह विलुप्त हो गई थी। अब प्राणिमात्रा उसके लिए अपना था। और यद्यपि विनय के विचार इतने उदार न थेए संसार की र्प्रेम—ममता उनके लिए एक दार्शनिक वाद से अधिक मूल्य न रखती थीय किंतु सोफिया की उदारता के सामने उनकी परंपरागत समाज—व्यवस्थाएँ मुँह छिपाती फिरती थी। वास्तव में दोनों का आत्मिक संयोग हो चुका थाए और भौतिक संयोग में भी कोई वास्तविक बाधा न थी। किंतु यह सब होते हुए भी वे दोनों पृथक्‌ रहतेए एकांत में साथ कभी न बैठते। उन्हें अब अपने ही से शंका होती थी! वचन का काल समाप्त हो चुका थाए लेख का समय आ गया था। वचन से जबान नहीं कटती। लेख से हाथ कट जाता है।

लेकिन लेख से हाथ चाहे कट जाएए इसके बिना कोई बात पक्की नहीं होती। थोड़ा—सा मतभेदए जरा—सा असंयम समझौते को रद्द कर सकता है। इसलिए दोनों ही अनिश्चित दशा का अंत कर देना चाहते थे। कैसे करें यह समझ में नहीं आता था। कौन इस प्रसंग को छेडेघ् कदाचित्‌ बातों में कोई आपत्तिा खड़ी हो जाए। सोफिया के लिए विनय का सामीप्य काफी था। वह उन्हें नित्य अॉंखों से देखती थीए उनके हर्ष और अमर्ष में सम्मिलित होती थीए उन्हें अपना समझती थी। इससे अधिक वह कुछ न चाहती थी। विनय रोज आस—पास के देहातों में विचरने चले जाते थे। कोई स्त्राी उनसे अपने परदेसी पुत्रा या पति के नाम पत्रा लिखातीए कहीं रोगियों को दवा देतेए कहीं पारस्परिक कलहों मेंं मधयस्थ बनना पड़ता। भोर के गए पहर रात को लौटते। यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी। सोफिया चिराग जलाए उनकी बाट देखा करती। जब वह आ जातेए तो उनके हाथ—पैर धूलवाकर भोजन करातीए दिन—भर की कथा प्रेम से सुनती और तब दोनों अपनी—अपनी कोठरियों में सोने चले जाते। वहाँ विनय को अपना घास का बिछौना बिछा हुआ मिलता। सिरहाने पानी की हाँड़ी रखी होती। सोफिया इतने ही में संतुष्ट थी। अगर उसे विश्वास हो जाता कि मेरा सम्पूर्ण जीवन इसी भाँति कट जाएगाए तो वह अपना अहोभाग्य समझती। यही उसके जीवन का मधूर स्वप्न था। लेकिन विनय इतने धौर्यशीलए इतने विरागी न थे। उनको केवल आधयात्मिक संयोग से संतोष न होता था। सोफिया का अनुपम सौंदर्यए उसकी स्वर्गोपम वचन—माधूरीए उसका विलक्षण अंग—विन्यास उनकी शृंगारमयी कल्पना को विकल करता रहता था। उन्होंने कुचक्रों में पड़कर एक बार उसे खो दिया था। अब दुबारा उस परीक्षा में न पड़ना चाहते थे। जब तक इसकी सम्भावना उपस्थित थीए उनके चित्ता को कभी शांति न हो सकती थी।

ये लोग रेलवे स्टेशन के पते से अपने नाम पत्रा—पत्रिाकाएँए पुस्तकें आदि मँगा लिया करते थे। उनसे संसार की प्रगति का बोधा हो जाता था। भीलों से उनको कुछ प्रेम—सा हो गया था। यहाँ से कहीं और चले जाने की उन्हें इच्छा ही न होती थी। दोनों को शंका थी कि इस सुरक्षित स्थान से निकलकर हमारी न जाने क्या दशा हो जाएए न जाने हम किस भँवर में जा पड़ें। इस शांति—कुटीर को दोनों ही गनीमत समझते थे। सोफिया को विनय पर विश्वास था। वह अपनी आकर्षण—शक्ति से परिचित थी। विनय को सोफिया पर विश्वास न था। वह अपनी आकर्षण—शक्ति से अनभिज्ञ थे।

इस तरह एक साल गुजर गया। सोफिया विनय को जल—पान कराकर ऍंगीठी के सामने बैठी एक किताब देख रही थी। कभी मार्मिक स्थलों पर पेंसिल से — निशान करतीए कभी प्रश्नचिद्द बनातीए कहीं लकीर खींचती। विनय को शंका हो रही थी कि कहीं वह तल्लीनता प्रेम—शैथिल्य का लक्षण तो नहीं हैघ् पढ़़ने में ऐसी मग्न है कि ताकती तक नहीं। कपड़े पहनए बाहर जाना चाहते थे। ठंडी हवा चल रही थीं जाड़े के कपड़े थे ही नहीं। कम्बल काफी न था। अलसाकर ऍंगीठी के पास आए और माँची पर बैठ गए। सोफिया की अॉंखें किताब में गड़ी हुई थीं। विनय की लालसा—युक्त द्रष्टि अवसर पाकर निर्विघ्न रूप से उसके रूप—लावण्य की छटा देखने लगी। सहसा सोफिया ने सिर उठायाए तो विनय को सचेष्ट नेत्राों से अपनी ओर ताकते पाया। लजाकर अॉंखें नीची कर लीं और बोली—आज तो बड़ी सरदी हैए कहाँ जाओगे! बैठोए तुम्हें इस पुस्तक के कुछ भाग सुनाऊँ। बहुत ही सुपाठय पुस्तक है। यह कहकर उसने अॉंगन की ओर देखाए भीलनी गायब थी। शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी। अब दस बजे से पहले न आएगी। सोफिया कुछ चिंतित—सी हो गई।

विनय ने उत्सुकता के साथ कहा—नहीं सोफीए आज कहीं न जाऊँगा। तुमसे कुछ बातें करने को जी चाहता है। किताब बंद करके रख दो। तुम्हारे साथ रहकर भी तुमसे बातें करने को तरसता रहता हूँ।

यह कहकर उन्होंने सोफिया के हाथों से किताब छीन लेने की चेष्टा की। सोफिया किताब को —ढ़़ता से पकड़कर बोली—ठहरो—ठहरो! अब यही शरात मुझे अच्छी नहीं लगती। बैठोए इस फ्रेंच फिलॉसफर के विचार सुनाऊँ। देखो उसने कितनी विशाल हृदयता से धार्मिक निरूपण किया है।

विनय—नहींए आज दस मिनट के लिए तुम इस फिलॉसफर से अवकाश माँग लो और मेरी ये बातें सुन लोए जो किसी पिंजर—बध्दपक्षी की भाँति बाहर निकलने के लिए तड़फड़ा रही हैं। आखिर मेरे इस वनवास की कोई अवधि है या सदैव जीवन के सुख—स्वप्न ही देखता रहूँगाघ्

सोफिया—इस लेखक के विचार उस जवाब से कहीं मनोरंजक हैंए जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ। मुझे इन पर कई शंकाएँ हैं। सम्भव हैए विचार परिवर्तन से उनकी निवृत्तिा हो जाए।

विनय—नहींए यह किताब बंद करके रख दो। आज मैं सफर के लिए कमर कसकर आया हूँ। आज तुमसे वचन लिए बिना तुम्हारा दामन न छोड़ईँगा। क्या अब भी मेरी परीक्षा कर रही होघ्

सोफिया ने किताब बंद करके रख दी और प्रेम—गम्भीर भाव से बोली—मैंने तो अपने को तुम्हारे चरणों पर डाल दियाए अब और मुझसे क्या चाहते होघ्

विनय—अगर मैं देवता होताए तो तुम्हारी प्रेमोपासना से संतुष्ट हो जाताय लेकिन मैं भी तो इच्छाओं का दासए क्षुद्र मनुष्य हूँ। मैंने जो कुछ पाया हैए उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैं चाहता हूँए सब चाहता हूँ। क्या अब भी तुम मेरा आशय नहीं समझींघ् मैं पक्षी को अपनी मुँडेर पर बैठे देखकर संतुष्ट नहींए उसे अपने पिंजड़े में जाते देखना चाहता हूँ। क्या और भी स्पष्ट रूप से कहूँघ् मैं सर्वभोगी हूँए केवल सुगंधा से मेरी तृप्ति नहीं होती।

सोफिया—विनयए मुझे अभी विवश न करोए मैं तुम्हारी हूँ। मैं इस वक्त यह बात जितने शुध्द भाव और निष्कपट हृदय से कह रही हूँए उससे अधिक किसी मंदिर मेंए कलीसा में या हवन—कु़ड के सामने नहीं कह सकती। जिस समय मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया थाए उस समय भी तुम्हारी थी। लेकिन क्षमा करनाए मैं कभी ऐसा कर्म न करूँगीए जिससे तुम्हारा अपमानए तुम्हारी अप्रतिष्ठाए तुम्हारी निंदा हो। मेरा यह संयम अपने लिए नहींए तुम्हारे लिए है। आत्मिक मिलाप के लिए कोई बाधा नहीं होतीय पर सामाजिक संस्कारों के लिए अपने सम्बंधियों और समाज के नियमों की स्वीकृति अनिवार्य हैए अन्यथा वे लज्जास्पद हो जाते हैं। मेरी आत्मा मुझे कभी क्षमा न करेगीए अगर मेरे कारण तुम अपने माता—पिताए विशेषतरू अपनी पूज्य माता के कोप—भाजन बनोए और वे मेरे साथ तुम्हें भी कुल—कलंक समझने लगें। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि इस अवज्ञा के लिए रानीजी तुम्हें और विशेषकर मुझेए क्या दंड देंगी। वह सती हैंए देवी हैंए उनका क्रोधा न जाने क्या अनर्थ करे। मैं उनकी द्रष्टि में कितनी पतित हूँए इसका मुझे अनुभव हो चुका हैए और तुम्हें भी उन्होंने कठोर—से—कठोर दंड दे दियाए जो उनके वश में था। ऐसी दशा में जब उन्हें ज्ञात होगा कि मैं और तुम केवल प्रेम के सूत्रा में नहींए संस्कारों के सूत्रा में बँधो हुए हैंए तो आश्चर्य नहीं कि वह क्रोधावेश में आत्महत्या कर लें। सम्भव हैए इस समय तुम उन समस्त विघ्न—बाधाओं को अंगीकार करने को तैयार हो जाओय लेकिन मैं बाह्य संस्कारों को इतने महत्तव की वस्तु नहीं समझती।

विनय ने उदास होकर कहा—सोफीए इसका आशय इसके सिवा और क्या है कि मेरा जीवन सुख—स्वप्न देखने में ही कट जाए!

सोफी—नहीं विनयए मैं इतनी हताश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि कभी—न—कभी रानीजी से तुम्हारा और अपना अपराधा क्षमा करा लूँगीए और तब उनके आशीर्वादों के साथ हम दाम्पत्य—क्षेत्रा में प्रवेश करेंगे। रानीजी की कृपा और अकृपाए दोनों ही सीमागत रहती हैं। एक सीमा का अनुभव हम कर चुके। ईश्वर ने चाहाए तो दूसरी सीमा का भी जल्द अनुभव होगा। मैं तुमसे सविनय अनुरोधा करती हूँ कि अब इस प्रसंग को फिर मत उठानाए अन्यथा मुझे कोई दूसरा रक्षा—स्थान खोजना पड़ेगा।

विनय ने धाीरे से कहा—वह दिन कब आएगाए जब या तो अम्माँजी न होंगी या मैं न रहूँगा।

तब उन्होंने कम्बल ओढ़़ाए हाथ में लकड़ी ली और बाहर चले गएए जैसे कोई किसान महाजन की फटकार सुनकर उसके घर से बाहर निकले।

फिर पूर्ववत्‌ दिन कटने लगेए विनय बहुत मलिन और खिन्न रहते। यथासम्भव घर से बाहर ही विचरा करतेए आते भी तो भोजन करके चले जाते। कहीं जाना न होताए तो नदी के तट पर जा बैठते और घंटों जल—क्रीड़ा देखा करते। कभी कागज की नावें बनाकर उसमें तैराते और उनके पीछे—पीछे वहाँ तक जातेए जहाँ वे जल—मग्न हो जातीं। उन्हें अब भ्रम होने लगा था कि सोफिया को अब भी मुझ पर विश्वास नहीं है। वह मुझसे प्रेम करती हैए लेकिन मेरे नैतिक बल पर उसे संदेह है।

एक दिन वह नदी के किनारे बैठे हुए थे कि बुढ़़िया भीलनी पानी भरने आई। उन्हें वहाँ बैठे देखकर उसने घड़ा रख दिया और बोली—क्यों मालिकए तुम यहाँ अकेले क्यों बैठे होघ् घर में मालकिन घबराती न होंगीघ् मैं उन्हें बहुत रोते देखा करती हूँ। क्या तुमने उन्हेंं कुछ कहा हैघ् क्या बात हैघ् कभी तुम दोनों को बैठकर हँसते—बोलते नहीं देखतीघ्

विनय ने कहा—क्या करूँ माताए उन्हें यही तो बीमारी है कि मुझसे रूठी रहती हैं। बरसों से उन्हें यही बीमारी हो गई है।

भीलनी—तो बेटाए इसका उपाय मैं कर दूँगी। ऐसी जड़ी दे दूँ कि तुम्हारे बिना उन्हें छिन—भर भी चौन न आए।

विनय—क्या ऐसी जड़ी भी होती हैघ्

बुढ़़िया ने सरल विज्ञता से कहा—बेटाए जड़ियाँ तो ऐसी—ऐसी होती हैं कि चाहे आग बाँधा लोए पानी बाँधा लोए मुरदे को जिला दोए मुद्दई को घर बैठे मार डालो। हाँए जानना चाहिए। तुम्हारा भील बड़ा गुनी था। राजा के दरबार में आया—जाएा करता था। उसी ने मुझे दो—चार बूटीयाँ बता दी थीं। बेटाए एक—एक बूटी एक—एक लाख को सस्ती है।

विनय—तो मेरे पास इतने रुपये कहाँ हैघ्

भीलनी—नहीं बेटाए तुमसे मैं क्या लूँगी। तुम बिसुनाथपुरी के निवासी हो। तुम्हारे दरसन पा गईए यही मेरे लिए बहुत है। वहाँ जाकर मेरे लिए थोड़ा—सा गंगाजल भेज देना। बुढ़़िया तर जाएगी। तुमने मुझसे पहले न कहाए नहीं तो मैंने वह जड़ी तुम्हें दे दी होती। तुम्हारी अनबन देखकर मुझे बड़ा दुख होता है।

संधया समयए जब सोफिया बैठी भोजन बना रही थीए भीलनी ने एक जड़ी लाकर विनयसिंह को दी और बोली—बेटाए बड़े जतन से रखनाए लाख रुपये दोगेए तब भी न मिलेगी। अब तो यह विद्या ही उठ गई। इसको अपने लहू में पंद्रह दिन तक रोज भिगोकर सुखाओ। तब इसमें से एक—एक पत्ती काटकर मालकिन को धूनी दो। पंद्रह दिन के बाद जो बच रहेए वह उनके जूड़े में बाँधा दो। देखोए क्या होता है। भगवान्‌ चाहेंगेए तो तुम आप उनसे ऊबने लगोगे। वह परछाईं की भाँति तुम्हारे पीछे लगी रहेंगी। फिर उनसे विनय के कान में एक मंत्रा बतायाए जो कई निरर्थक शब्दों का संग्रह थाए और कहा कि जड़ी को लहू में डुबाते समय यह मंत्रा पाँच बार पढ़़कर जड़ी पर फूँक देना।

विनयसिंह मिथ्यावादी न थेय मंत्रा—तंत्रा पर उनका अणु—मात्रा भी विश्वास न था। लेकिन सुनी—सुनाई बातों से उन्हें यह मालूम था कि निम्न जातियों में ऐसे तांत्रिाक क्रियाओ का बड़ा प्रचार हैए और कभी—कभी इनका विस्मयजनक फल भी होता है। उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहींए अगर कुछ फल होता हैए तो वह मूखोर्ं के दुर्बल मस्तिष्क के कारण। शिक्षित परए जो प्रायरू शंकावादी होते हैंए जो ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करतेए भला इनका क्या असर हो सकता हैघ् तो भी उन्होंने यह सिध्दि प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्हें उससे किसी फल की आशा न थीए केवल उसकी परीक्षा लेना चाहते थे।

लेकिन कहीं सचमुच इस जड़ी में कुछ चमत्कार होए तो फिर क्या पूछना। इस कल्पना ही से उनका हृदय पुलकित हो उठा। सोफिया मेरी हो जाएगी। तब उसके प्रेम में और ही बात होगीघ्

ज्यों ही मंगल का दिन आयाए वह नदी पर गएए स्नान किया और चाकू से अपनी एक उँगली काटकर उसके रक्त में जड़ी को भिगोयाए और तब उसे एक ऊँची चट्टान पर पत्थरों से ढ़ंककर रख आए। पंद्रह दिन तक लगातार यही क्रिया करते रहे। ठंड ऐसी पड़ती थी कि हाथ—पाँव गले जाते थेए बरतनों में पानी जम जाता था। लेकिन विनय नित्य स्नान करने जाते। सोफिया ने उन्हें इतना कर्मनिष्ठ न देखा था। कहती—इतनी सबेरे न नहाओए कहीं सरदी न लग जाएए जंगली आदमी भी दिन—भर ऍंगीठी जलाए बैठे रहते हैंए बाहर मुँह नहीं निकाला जाताए जरा धूप निकल आने दिया करो। लेकिन विनय मुस्कराकर कह देतेए बीमार पड़ईँगाए तो कम—से—कम तुम मेरे पास बैठोगी तो। उनकी कई उँगलियों में घाव हो गएए पर वह इन घावों को छिपाए रहते थे।

इन दिनों विनय की द्रष्टि सोफिया की एक—एक बातए एक—एक गति पर लगी रहती थी। वह देखना चाहते थे कि मेरी क्रिया का कुछ असर हो रहा है या नहींए किंतुए कोई प्रत्यक्ष फल न दिखाई देता था। पंद्रहवें दिन जाकर उन्हें सोफिया के व्यवहार में कुछ थोड़ा—सा अंतर दिखाई पड़ा। शायद किसी और समय उनका इस ओर धयान भी न जाताए किंतु आजकल तो उनकी द्रष्टि बहुत सूक्ष्म हो गई थी। जब घर से बाहर जाने लगेए तो सोफिया अज्ञात भाव से निकल आई और कई फलार्ंग तक उनसे बातें करती हुई चली गई। जब विनय ने बहुत आग्रह कियाए तब लौटी। विनय ने समझाए यह उसी क्रिया का असर है।

आज से धूनी देने की क्रिया आरम्भ होती थी। विनय बहुत चिंतित थे—वह क्रिया क्योंकर पूरी होगी! अकेले सोफी के कमरे में जाना सभ्यताए सज्जनता और शिष्टता के विरुध्द है। कहीं सोफी जाग जाए और मुझे देख लेए तो मुझे कितना नीच समझेगी! कदाचित्‌ सदैव के लिए मुझसे घृणा करने लगे। न भी जागेय तो भी यह कौन—सी भलमंसी है कि कोई आदमी किसी युवती के कमरे में प्रवेश करे। न जाने किस दशा में लेटी होगी। सम्भव हैए केश खुले होंए वस्त्रा हट गया हो। उस समय मेरी मनोवृत्तिायाँ कितनी कुचेष्ट हो जाएँगी। मेरा कितना नैतिक पतन हो गया है!

सारे दिन वह इन्हीं अशांतिमय विचारों में पड़े रहेए लेकिन संधया होते ही वह कुम्हार के घर से एक कच्चा प्याला लाए और उसे हिफाजत से रख दिया। मानव—चरित्रा की एक विचित्राता यह है कि हम बहुधा ऐसे काम कर डालते हैंए जिन्हें करने की इच्छा हमें नहीं होती। कोई गुप्त प्रेरणा हमें इच्छा के विरुध्द ले जाती है।

आधाी रात हुईए तो विनय प्याली में आग और हाथ में वह रक्त—सिंचित जड़ी लिए हुए सोफी की कोठरी के द्वार पर आए। कम्बल का परदा पड़ा हुआ था। झोंपड़े में किवाड़ कहाँ! कम्बल के पास खड़े होकर कान लगाकर सुना। सोफी मीठी नींद सो रही थी। वह थर—थर काँपतेए पसीने से तरए अंदर घुसे। दीपक के मंद प्रकाश में सोफी निद्रा में मग्न लेटी हुई ऐसी मालूम होती थीए मानो मस्तिष्क में मधूर कल्पना विश्राम कर रही हो। विनय के हृदय पर आतंक—सा छा गया। कई मिनट तक मंत्रा—मुग्धा—से खड़े रहेए पर अपने को सँभाले हुएए मानो किसी देवी के मंदिर में हैं। उन्नत हृदयों में सौंदर्य उपासना—भाव को जागृत कर देता हैए वासनाएँ विश्रांत हो जाती हैं। विनय कुछ देर तक सोफी को भक्ति—भाव से देखते रहे। तब वह धाीरे—से बैठ गएए प्याली में जड़ी का एक टुकड़ा तोड़कर रख दिया और उसे सोफिया के सिरहाने की ओर खिसका दिया। एक क्षण में जड़ी की सुगंधा से सारा कमरा बस उठा। ऊद और अम्बर में वह सुगंधा कहाँघ् धूएँ में कुछ ऐसी उद्दीप्न—शक्ति थी कि विनय का चित्ता चंचल हो उठा। ज्यों ही धूअॉं बंद हुआए विनय ने प्याली से जड़ी की राख निकाल ली। भीलनी के आदेशानुसार उसे सोफिया पर छिड़क दिया और बाहर निकल आए। लेकन अपनी कोठरी में आकर वह घंटों बैठे पश्चात्तााप करते रहे। बार—बार अपने नैतिक भावों को चोट पहुँचाने की चेष्टा की। इस कृत्य को विश्वासघातए सतीत्व—हत्या कहकर मन में घृणा का संचार करना चाहा। सोते वक्त निश्चय किया कि बसए इस क्रिया का आज से अंत है। दूसरे दिन दिन—भर उनका हृदय खिन्नए मलिनए उद्विग्न रहा। ज्यों—ज्यों रात निकट आती थीए उन्हें शंका होती जाती थी कि कहीं मैं फिर यह क्रिया न करने लगूँ। दो—तीन भीलों को बुला लाए और उन्हें अपने पास सुलाया। भोजन करने में बड़ी देर कीए जिससे चारपाई पर पड़ते—ही—पड़ते नींद आ जाए। जब भोजन करके उठेए तो सोफी आकर उनके पास बैठ गई। यह पहला ही अवसर था कि वह रात को उनके पास बैठी बातें करती रही। आज के समाचार—पत्राों में प्रभु सेवक की पूना में दी हुई वक्तृता प्रकाशित हुई थी। सोफी ने इसे उच्च स्वर में पढ़़ा। गर्व से उनका सिर ऊँचा हो गयाए बोली—देखोए कितना विलासप्रिय आदमी थाए जिसे सदैव अच्छे वस्त्राों और अन्य सुख—सामग्रियों की धून सवार रहती थी। उसकी कितनी कायापलट हुई है। मैं समझती थीए इससे कभी कुछ न होगाए आत्मसेवन में ही इसका जीवन व्यतीत होगा। मानव—हृदय के रहस्य कितने दुर्बोधा होते हैं। उसका यह त्याग और अनुराग देखकर आश्चर्य होता है!

विनय—जब प्रभु सेवक इस संस्था के कर्णधार हो गएए तो मुझे कोई चिंता नहीं। डॉक्टर गांगुली उसे दवा बाँटनेवालों की मंडली बनाकर छोड़ते। पिताजी पर मेरा विश्वास नहींए और इंद्रदत्ता तो बिलकुल उजव्‌ है। प्रभु सेवक से ज्यादा योग्य पुरुष न मिल सकता था। वह यहाँ होतेए तो बलाएँ लेता। यह दैवी सहायता हैए और अब मुझे आशा होती है कि हमारी साधाना निष्फल न होगी।

भीलों के खर्राटों की आवाजें आने लगीं। सोफी चलने को उठीए तो उसने विनय को ऐसी चितवनों से देखाए जिसमें प्रेम के सिवा और भी कुछ था—आर्दर्र आकांक्षा झलक रही थी। एक आर्कषण थाए जिसने विनय को सिर से पैर तक हिला दिया। जब वह चली गईए तो उन्होंने एक पुस्तक उठा ली और पढ़़ने लगे। लेकिन ज्यों—ज्यों क्रिया का समय आता थाए उनका दिल बैठा जाता था। ऐसा जान पड़ता थाए जैसे कोई जबरदस्ती उन्हें ठेल रहा है। जब उन्हें यकीन हो गया कि सोफिया सो गई होगीए तो वह धाीरे से उठेए प्याली में आग ली और चले। आज वह कल से भी ज्यादा भयभीत हो रहे थे। एक बार जी में आया कि प्याली को पटक दूँ। लेकिन इसके एक ही क्षण बाद उन्होंने सोफी के कमरे में कदम रखा। आज उन्होंने अॉंखें ऊपर उठाई ही नहीं सिर नीचा किए धूनी सुलगाई और राख छिड़ककर चले आए। चलती बार उन्होंने सोफिया का मुखचंद्र देखा। ऐसा भासित हुआ कि वह मुस्करा रही है। कलेजा धाक से हो गया। सारे शरीर में सनसनी दौड़ गई। ईश्वर! अब लाज तुम्हारे हाथ में हैए इसने देख न लिया हो! विद्युतगति से अपनी कोठरी में आएए दीपक बुझा दिया और चारपाई पर गिर पड़े। घंटों कलेजा धाड़कता रहा।

इस भाँति पाँच दिनों तक विनय ने बड़ी कठिनाइयों से यह साधाना कीए और इतने ही दिनों में उन्हें सोफिया पर इसका असर साफ नजर आने लगा। यहाँ तक कि पाँचवें दिन वह दोपहर तक उसके साथ भीलों की झोंपड़ियों की सैर करती रही। उसके नेत्राों में गम्भीर चिंता की जगह अब एक लालसापूर्ण चंचलता झलकती थी और अधारों पर मधूर हास्य की आभा। आज रात को भोजन के उपरांत वह उनके पास बैठकर समाचार—पत्रा पढ़़ने लगी और पढ़़ते—पढ़़ते उसने अपना सिर विनय की गोद में रख दियाए और उनके हाथों को अपने हाथ में लेकर बोली—सच बताओ विनयए एक बात तुमसे पूछँए बताओगे नघ् सच बतानाए तुम यह तो नहीं चाहते कि यह बला सिर से टल जाएघ् मैं कहे देती हूँए जीते जी न टलूँगीए न तुम्हें छोड़ँईगीए तुम भी मुझसे भागकर नहीं जा सकते। किसी तरह न जाने दूँगी। जहाँ जाओगेए मैं भी चलूँगीए तुम्हारे गले का हार बनी रहूँगी।

यह कहते—कहते उसने विनय के हाथ छोड़ दिए और उनके गले में बाँहें डाल दीं।

विनय को ऐसा मालूम हुआ कि मेरे पैर उखड़ गए हैं और मैं लहरों में बहा जा रहा हूँ। एक विचित्रा आशंका से उनका हृदय काँप उठाए मानो उन्होंने खेल में सिंहनी को जगा दिया हो। उन्होंंने अज्ञात भाव से सोफी के कर—पाश से अपने को मुक्त कर लिया और बोले—सोफी!

सोफी चौंक पड़ीए मानो निद्रा में हो। फिर उठकर बैठ गई और बोली—मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि पूर्व—जन्म मेंए उससे पहले भी आदि से तुम्हारी हूँए कुछ स्वप्न—सा याद आता है कि हम और तुम नदी के किनारे एक झोंपड़े में रहते थे। सच!

विनय ने सशंक होकर कहा—तुम्हारा जी कैसा हैघ्

सोफी—मुझे कुछ हुआ थोड़े ही हैए मैं तो अपने पूर्वजन्म की बात याद कर रही हूँ। मुझे ऐसा याद आता है कि तुम मुझे झोंपड़ी में अकेली छोड़कर अपनी नाव पर कहीं परदेश चले गए और मैं नित्य नदी के तीर बैठी हुई तुम्हारी राह देखती थीए पर तुम न आते थे।

विनय—सोफिया मुझे भय हो रहा है कि तुम्हारा जी अच्छा नहीं है। रात बहुत हो गई हैए अब सो जाओ।

सोफी—मेरा तो आज यहाँ से जाने का जी नहीं चाहता। क्या तुम्हें नींद आ रही हैघ् तो सोओए मैं बैठी हूँ। जब तुम सो जाओगेए मैं चली जाऊँगी।

एक क्षण बाद फिर बोली—मुझे न जाने क्यों संशय हो रहा है कि तुम मुझे छोड़ जाओगे।

विनय—सोफीए अब हम अनंत काल तक अलग न होंगे।

सोफी—तुम इतने निर्दय नहीं होए मैं जानती हूँ। मैं रानीजी से न डरूँगीए साफ—साफ कह दूँगीए विनय मेरे हैं।

विनय की दशा उस भूखे आदमी की—सी थीए जिसके सामने परसी थाली रखी हुई होए क्षुधा से चित्ता व्याकुल हो रहा होए अॉंतें सिकुड़ी जाती होंए अॉंखों में ऍंधोरा छा रहा होय मगर थाली में हाथ न डाल सकता होए इसलिए कि पहले किसी देवता का भोग लगना है। उन्हें अब इसमें कोई संदेह न रहा था कि सोफी की व्याकुलता उसी क्रिया का फल है। उन्हें विस्मय होता था कि उस जड़ी में कौन—सी शक्ति है। वह अपने कृत्य पर लज्जित थेए और सबसे अधिक भयभीत थेए आत्मा से नहींए परमात्मा से नहींए सोफी से। जब सोफी को ज्ञात हो जाएगा—कभी—कभी तो यह नशा उतरेगा ही—तब वह मुझसे इसका कारण पूछेगी और मैं छिपा न सकूँगा। उस समय वह मुझे क्या कहेगी!

आखिर जब ऍंगीठी की आग ठंडी हो गई और सोफी को सरदी मालूम होने लगीए तो सोफी चली गई। क्रिया का समय भी आ पहुँचा। लेकिन आज विनय को साहस न हुआ। उन्हें उसकी परीक्षा ही करनी थीए परीक्षा हो गई और तांत्रिाक साधानों पर उन्हें हमेशा के लिए श्रध्दा हो गई।

सोफिया को चारपाई पर लेटते ही भ्रम हुआ कि रानी जाह्नवी सामने खड़ी ताक रही हैं। उसने कम्बल से सिर निकालकर देखा और तब अपनी मानसिक दुर्बलता पर झुँझलाकर सोचने लगी—आजकल मुझे क्या हो गया हैघ् मुझे क्यों भाँति—भाँति के संशय होते रहते हैंघ् क्यों नित्य अनिष्ट—शंका हृदय पर छाई रहती हैघ् जैसे मैं विचारहीन—सी हो गई हूँ। विनय आजकल क्यों मुझसे खिंचे हुए हैंघ् कदाचित्‌ वह डर रहे हैं कि रानीजी कहीं उन्हें शाप न दे दें अथवा आत्मघात न कर लें। इनकी बातों में पहले की उत्सुकताए प्रेमातुरता नहीं है। रानी मेरे जीवन का सर्वनाश किए देती हैं।

इन्हीं अशांतिमय विचारों में डूबी हुई वह सो गईए तो देखती क्या है कि वास्तव में रानीजी मेरे सामने खड़ी क्रोधोन्मत्ता नेत्राों से ताक रही हैं और कह रही हैं—विनय मेरा है। वह मेरा पुत्रा हैए उसे मैंने जन्म दिया हैए उसे मैंने पाला हैए तू क्यों उसे मेरे हाथों से छीने लेती हैघ् अगर तूने मुझसे उसे छीनाए मेरे कुल को कलंकित कियाए तो मैं तुम दोनों का इस तलवार से बधा कर दूँगी!

सोफी तलवार की चमक देखकर घबरा गई। चिल्ला उठी। नींद टूट गई। उसकी सारी देह तृणवत्‌ काँप रही थी। वह दिल मजबूत करके उठी और विनयसिंह की कोठरी में जाकर उसके सीने से चिपट गई। विनय की अॉंखें लग रही थीं चौंककर सिर उठाया।

सोफी—विनयए विनय जागोए मैं डर रही हूँ।

विनय तुरंत चारपाई से उतरकर खड़े हो गए और पूछा—क्या है सोफीघ्

सोफी—रानीजी को अभी—अभी मैंने अपने कमरे में देखा। अभी वहीं खड़ी हैं।

विनय—सोफीए शांत हो जाओ। तुमने कोई स्वप्न देखा है। डरने की कोई बात नहीं।

सोफी—स्वप्न नहीं था विनयए मैंने रानीजी को प्रत्यक्ष देखा।

विनय—वह यहाँ कैसे आ जाएँगीघ् हवा तो नहीं हैं!

सोफी—तुम इन बातों को नहीं जानते विनय! प्रत्येक प्राणी के दो शरीर होते हैं—एक स्थूलए दूसरा सूक्ष्म। दोनों अनुरूप होते हैंए अंतर केवल इतना ही है कि सूक्ष्म शरीर स्थूल में कहीं सूक्ष्म होता है। वह साधारण दशाओं में अ—श्य हैए लेकिन समाधि या निद्रावस्था में स्थूल शरीर का स्थानापन्न बन जाता है। रानीजी का सूक्ष्म शरीर अवश्य यहाँ है।

दोनों ने बैठकर रात काटी।

सोफिया को अब विनय के बिना क्षण—भर भी चौन नहीं आता। उसे केवल मानसिक अशांति न थीए ऐंद्रिक सुख—भोग के लिए भी उत्कंठित रहती। जिन विषयों की कल्पनामात्रा से उसे अरुचि थीए जिन बातों को याद करके ही उसके मुख पर लालिमा छा जातीए वे कल्पनाएँ और वे ही भावनाएँ अब नित्य उसके चित्ता पर आच्छादित रहतीं। उसे अपनी वासना—लिप्सा पर आश्चर्य होता था। किंतु जब वह विलास—कल्पना करते—करते उस क्षेत्रा में प्रविष्ट होतीए जो दाम्पत्य जीवन ही के लिए नियंत्रिात हैंए तो रानीजी की वही क्रोधा—तेज—पूर्ण मूर्ति उसके सम्मुख खड़ी हो जाती और वह चौंककर कमरे से निकल भागती। इस भाँति उसने दस—बारह दिन काटे। कृपाण के नीचे खड़े अभियोगी की दशा भी इतनी चिंताजनक न होगी!

एक दिन वह घबराई हुए विनय के पास आईए बोली—विनयए मैं बनारस जाऊँगी। मैं बड़े संकट में हूँ। रानीजी मुझे यहाँ चौन न लेने देंगी। अगर यहाँ रहीए तो शायद जीवन के हाथ धोना पड़ेए मुझ पर अवश्य कोई—न—कोई अनुष्ठान किया गया है। मैं इतनी अव्यवस्थित—चित्ता कभी न थी। मुझे स्वयं ऐसा मालूम होता है अब मैं वह हूँ ही नहींए कोई और ही हूँ। मैं जाकर रानीजी के पैरों पर गिरूँगी। उनसे अपना अपराधा क्षमा कराऊँगी और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें प्राप्त करूँगी। उनकी इच्छा के बगैर मैं तुम्हें नहीं पा सकती। और जबरदस्ती ले लूँए तो कुशल से न बीतेगी। विनयए मुझे स्वप्न में भी यह आशंका न थी कि मैं तुम्हारे लिए इतनी अधाीर हो जाऊँगी। मेरा हृदय कभी इतना दुर्बल और इतना मोहग्रस्त न था।

विनय ने चिंतित होकर कहा—सोफीए मुझे आशा है कि थोड़े दिनों में तुम्हारा चित्ता शांत हो जाएगा।

सोफी—नहीं विनयए कदापि नहीं। रानीजी ने तुम्हें एक महान्‌ उद्देश्य के लिए बलि कर रखा है। बलि—जीवन का उपभोग अनिष्टकारक होता है। मैं उनसे भिक्षा मागँगी।

विनय—तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।

सोफी—नहींए नहींए ईश्वर के लिए ऐसा मत कहो। मैं तुम्हें रानीजी के सामने न ले जाऊँगी। मुझे अकेले जाने दो।

विनय—इस दशा में मैं तुम्हें अकेले कभी न जाने दूँगा। अगर ऐसा ही हैए तो मैं तुम्हें वहाँ छोड़कर वापस आ जाऊँगा।

सोफी—वचन दो कि बिना मुझसे पूछे रानीजी के पास न जाओगे।

विनय—हाँए सोफीए यह स्वीकार है। वचन देता हँ।

सोफी—फिर भी दिल नहीं मानता। डर लगता हैए वहाँ तुम आवेश में आकर कहीं रानीजी के पास न चले जाओ। तुम यहीं क्यों नहीं रहतेघ् मैं तुम्हें नित्यप्रति पत्रा लिखा करूँगी और जल्द—से—जल्द लौट आऊँगी।

विनय ने उसे तस्कीन देने के लिए अकेले जाने की अनुमति दे दीए लेकिन उनका स्नेह—सिंचित हृदय यह कब मान सकता था कि सोफिया इस अव्यवस्थित दशा में इतनी लम्बी यात्राा करे। सोचाए उसकी निगाह बचाकर किसी दूसरे डब्बे में बैठ जाऊँगा। उन्हें लौटकर आने की बहुत कम आशा थी। भीलों ने सुनाए तो भाँति—भाँति के उपहार लेकर बिदा करने आए। मृग—चमोर्ंए बघनखों और नाना प्रकार की जड़ी—बूटीयों का ढ़ेर लग गया था। एक भील ने धानुष भेंट किया। सोफी और विनयए दोनों ही को इस स्थान से प्रेम हो गया था। निवासियों का सरलए स्वाभाविकए निष्कपट जीवन उन्हें ऐसा भा गया था कि उन लोगों को छोड़कर जाते हुए हार्दिक वेदना होती थी। भीलगण रो रहे थे और कह रहे थेए जल्द आनाए हमें भूल न जाना। बुढ़़िया भीलनी तो उन्हें छोड़ती ही न थी। सब—के—सब स्टेशन तक उन्हें पहुँचाने आए। लेकिन जब गाड़ी आई और वह बैठीए विनय से बिदा होने का समय आयाए तो वह विनय के गले लिपटकर रोने लगी। विनय चाहते थे कि निकल जाएँ और किसी दूसरे डब्बे में जा बैठेंए पर वह उन्हें छोड़ती ही न थी। मानो यह अंतिम वियोग है। जब गाड़ी ने सीटी दीए तो वह हृदय—वेदना से विकल होकर बोली—विनयए मुझसे इतने दिनों कैसे रहा जाएगाघ् रो—रोकर मर जाऊँगी। ईश्वरए मैं क्या करूँघ्

विनय—सोफीए घबराओ नहींए मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।

सोफी—नहींए नहींए ईश्वर के लिए नहीं। मैं अकेली ही जाऊँगी।

विनय गाड़ी में आकर बैठ गए। गाड़ी रवाना हो गई। जरा देर बाद सोफिया ने कहा—तुम न आतेए तो मैं शायद घर तक न पहुँचती। मुझे ऐसा ज्ञात हो रहा था कि प्राण निकले जा रहे हैं। सच बताना विनयए तुमने मुझ पर मोहिनी तो नहीं डाल दी हैघ् मैं इतनी अधाीर क्यों हो गई हूँघ्

विनय ने लज्जित होकर कहा—क्या जाने सोफीए मैंने एक क्रिया तो की है। नहीं कह सकता कि वह मोहनी थी या कुछ और!

सोफी—सचघ्

विनय—हाँए बिलकुल सच। मैं तुम्हारी प्रेम—शिथिलता से डर गया था कि कहीं तुम मुझे फिर से न परीक्षा में डालो।

सोफी ने विनय की गर्दन में हाथ डाल दिए और बोली—तुम बड़े छलिया हो। अपना जादू उतार लोए मुझे क्यों तड़पा रहे होघ्

विनय—क्या कहूँए उतारना नहीं सीखाए यही तो भूल हुई।

सोफी—तो मुझे भी वही मंत्रा क्यों नहीं सीखा देतेघ् न मैं उतार सकूँगीए न तुम उतार सकोगे। (एक क्षण बाद) लेकिन नहींए मैं तुम्हें संज्ञाहीन न बनाऊँगी। दो में से एक को तो होश में रहना चाहिए। दोनों मदमत्ता हो जाएँगेए तो अनर्थ हो जाएगाए अच्छाए बताओ कौन—सी क्रिया की थीघ्

विनय ने अपनी जेब से वह जड़ी निकालकर दिखाते हुए कहा—इसी की धूनी देता था।

सोफी—जब मैं सो जाती थीए तबघ्

विनय—(सकुचाते हुए) हाँए सोफीए तभी।

सोफी—तुम बड़े ढ़ीठ हो। अच्छाए अब यही जड़ी मुझे दे दो। तुम्हारा प्रेम शिथिल होते देखूँगीए तो मैं भी यही क्रिया करूँगी।

यह कहकर उसने जड़ी लेकर रख ली। थोड़ी देर बाद उसने पूछा—यह तो बताओए वहाँ तुम रहोगे कहाँघ् मैं रानीजी के पास तुम्हें न जाने दूँगी।

विनय—अब मेरा कोई मित्रा नहीं रहा। सभी मुझसे असंतुष्ट हो रहे होंगे। नायकराम के घर चला जाऊँगा। तुम वहीं आकर मुझसे मिल लिया करना। वह तो घर पहुँच ही गया होगा।

सोफिया—कहीं जाकर कह न दे!

विनय—नहींए मंदबुध्दि हैए पर विश्वासघाती नहीं है।

सोफिया—अच्छी बात है। देखेंए रानीजी से मुराद मिलती है या मौत!

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अध्याय 39

तीसरे दिन यात्राा समाप्त हो गईए तो संधया हो चुकी थी। सोफिया और विनय दोनों डरते हुए गाड़ी से उतरे कि कहीं किसी परिचित आदमी से भेंट न हो जाए। सोफिया ने सेवा—भवन (विनयसिंह के घर) चलने का विचार कियाय लेकिन आज वह बहुत कातर हो रही थी। रानीजी न जाने कैसे पेश आएँ। वह पछता रही थी कि नाहक यहाँ आईय न जाने कैसी पड़ेए कैसी न पड़े। अब उसे अपने ग्रामीण जीवन की याद आने लगी। कितनी शांति थीए कितना सरल जीवन थाए न कोई विघ्न थाए न बाधाय न किसी से द्वेष थाए न मत्सर। विनयसिंह उसे तस्कीन देते हुए बोले—दिल मजबूत रखनाए जरा भी मत डरनाए सच्ची घटनाएँ बयान करनाए बिलकुल सच्चीए तनिक भी अतिशयोक्ति न होए जरा भी खुशामद न हो। दया—प्रार्थना का एक शब्द भी मुख से मत निकालना। मैं बातों को घटा—बढ़़ाकर अपनी प्राण—रक्षा नहीं करना चाहता। न्याय और शुध्द न्याय चाहता हूँं यदि वह तुमसे अशिष्टता का व्यवहार करेंए कटु वचनों का प्रहार करने लगेंए तो तुम क्षण—भर भी मत ठहरना। प्रातरूकाल आकर मुझसे एक—एक बात कहना। या कहोए तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँघ्

सोफी उन्हें साथ लेकर चलने पर राजी न हुई। विनय तो पाँडेपुर की तरफ चलेए वह सेवा—भवन की ओर चली। ताँगेवाले ने कहा—मिस साहबए आप कहीं चली गई थीं क्याघ् बहुत दिनों बाद दिखलाई दीं। सोफी का कलेजा धाक—धाक करने लगा। बोली—तुमने मुझे कब देखाघ् मैं तो इस शहर में पहली बार आई हूँ।

ताँगेवाले ने कहा—आप ही—जैसी एक मिस साहब यहाँ सेवक साहब की बेटी भी थीं। मैंने समझाए आप ही होंगी।

सोफिया—मैं ईसाई नहीं हूँ।

जब वह सेवा—भवन के सामने पहुँचीए तो ताँगे से उतर पड़ी। वह रानीजी से मिलने के पहले अपने आने की कानोंकान भी खबर न होने देना चाहती थी। हाथ में अपना बैग लिए हुए डयोढ़़ी पर गई और दरबान से बोली—जाकर रानीजी से कहोए मिस सोफिया आपसे मिलना चाहती हैं।

दरबान उसे पहचानता ही था। उठकर सलाम किया और बोला—हुजूरए भीतर चलेंए इत्ताला क्या करनी है! बहुत दिनों बाद आपके दरसन हुए।

सोफिया—मैं बहुत अच्छी तरह खड़ी हूँ। तुम जाकर इत्तिाला तो दो।

दरबान—सरकारए उनका मिजाज आप जानती ही हैं। बिगड़ जाएँगी कि उन्हें साथ क्यों न लायाए इत्तिाला क्यों देने आयाघ्

सोफिया—मेरी खातिर से दो—चार बातेंं सुन लेना।

दरबार अंदर गयाए तो सोफिया का दिल इस तरह धाड़क रहा थाए जैसे कोई पत्ताा हिल रहा हो। मुख पर एक रंग आता थाए एक रंग जाता था। धाड़का लगा हुआ था—कहीं रानी साहब गुस्से में भरी वहीं से बिगड़ती हुई न आएँए यह कहला देंए चली जाए नहीं मिलती! बिना एक बार उनसे मिले तो मैं न जाऊँगीए चाहे वह हजार बार दुतकारें।

एक मिनट भी न गुजरने पाया था कि रानीजी एक शाल ओढ़़े हुए द्वार पर आ गईं और उससे टूटकर गले मिलीए जैसे माता ससुराल से आनेवाली बेटी को गले लगा ले। उनकी अॉंखों से अॉंसुओं की वर्षा होने लगी। अवरुध्द कंठ से बोली—तुम यहीं क्यों खड़ी हो गईं बेटीए अंदर क्यों न चली आईंघ् मैं तो नित्यप्रति तुम्हारी बाट जोहती रहती थी। तुमसे मिलने को जी तड़प—तड़पकर रह जाता था। मुझे आशा हो रही थी कि तुम आ रही होए पर तुम आती न थीं। कई बार यों ही स्टेशन तक गई कि शायद तुम्हें देख पाऊँ। ईश्वर से नित्य मनाती थी कि एक बार तुमसे मिला दे। चलोए भीतर चलो। मैंने तुम्हें जो दुर्वचन कहे थेए उन्हें भूल जाओ! (दरबान से) यह बैग उठा ले। महरी से कह देए मिस सोफिया का पुराना कमरा साफ कर दे। बेटीए तुम्हारे कमरे की ओर ताकने की हिम्मत नहीं पड़तीए दिल भर—भर आता है।

यह कहते हुए सोफिया का हाथ पकड़े अपने कमरे में आईं और उसे अपनी बगल में मसनद पर बैठाकर बोलीं—आज मेरी मनोकामना पूरी हो गई। तुमसे मिलने के लिए जी बहुत बेचौन था।

सोफिया का चिंता—पीड़ित हृदय इस निरपेक्षित स्नेह—बाहुल्य से विह्नल हो उठा। वह केवल इतना कह सकी—मुझे भी आपके दर्शनों की बड़ी अभिलाषा थी। आपसे दया—भिक्षा माँगने आई हूँ।

रानी—बेटीए तुम देवी होए मेरी बुध्दि पर परदा पड़ा था। मैंने तुम्हें पहचाना न था। मुझे मालूम है बेटीए सब सुन चुकी हूँ। तुम्हारी आत्मा इतनी पवित्रा हैए यह मुझे न मालूम था। आह! अगर पहले से जानती।

यह कहते—कहते रानीजी फूट—फूटकर रोने लगीं। जब चित्ता शांत हुआए तो फिर बोलीं—अगर पहले से जान गई होतीए तो आज इस घर को देखकर कलेजा ठंडा होता। आह! मैंने विनय के साथ घोर अन्याय किया। तुम्हें न मालूम होगा बेटीए जब तुमने...(सोचकर) वीरपालसिंह ही नाम थाघ् हाँए जब तुमने उसके घर पर रात के समय विनय का तिरस्कार कियाए तो वह लज्जित होकर रियासत के अधिकारियों के पास कैदियो पर दया करने के लिए दौड़ता रहा। दिन—दिन भर निराहार और निर्जल पड़ा रहताए रात—रात भर पड़ा रोया करताए कभी दीवान के पास जाताए कभी एजेंट के पासए कभी पुलिस के प्रधान कर्मचारी के पासए कभी महाराजा के पास। सबसे अनुनय—विनय करके हार गया। किसी ने न सुनी। कैदियों की दशा पर किसी को दया न आई। बेचारा विनय हताश होकर अपने डेरे पर आया। न जाने किस सोच में बैठा था कि मेरा पत्रा उसे मिला। हाय! (रोकर) सोफीए वह पत्रा नहीं थाय विष का प्याला थाए जिसे मैंने अपने हाथों उसे पिलायाय कटार थीए जिसे मैंने अपने हाथों उसकी गर्दन पर फेरा। मैंने लिखा थाए तुम इस योग्य नहीं हो कि मैं तुम्हें अपना पुत्रा समझ्रूए तुम मुझे अपनी सूरत न दिखाना। और भी न जाने कितनी कठोर बातें लिखी थीं। याद करती हूँए तो छाती फटने लगती है। यह पत्रा पाते ही वह बिना किसी से कुछ कहे—सुने नायकराम के साथ यहाँ आने के लिए तैयार हो गया। कई स्टेशनों तक नायकराम उसके साथ आए। पंडाजी को फिर नींद आ गई। और जब अॉंख खुलीए तो विनय का कहीं गाड़ी में पता न था। उन्होंने सारी गाड़ी तलाश की। फिर उदयपुर तक गए। रास्ते में एक—एक स्टेशन पर उतरकर पूछ—ताछ कीए पर कुछ पता न चला। बेटीए यह इस अभागिनी की राम—कथा है। मैं हत्यारिन हूँ! मुझसे बड़ी अभागिनी संसार में और कौन होगीघ् न जाने विनय का क्या हाल हुआय कुछ पता नहीं। उसमें बड़ा आत्माभिमान था बेटीए बात का बड़ा धानी था। मेरी बातें उसके दिल पर चोट कर गई। मेरे प्यारे लाल ने कभी सुख न पाया। उसका सारा जीवन तपस्या ही में कटा।

यह कहकर रानी फिर रोने लगीं। सोफी भी रो रही थी। पर दोनों के मनोभावों में कितना अंतर था! रानी के अॉंसू दुरूखय शोक और विषाद के थेए सोफी के अॉंसू हर्ष और उल्लास के।

एक कक्ष में रानीजी ने पूछा—क्यों बेटीए तुमने उसे जेल जाते देखा थाए तो बहुत दुबला हो गया थाघ्

सोफी—जी हाँए पहचाने न जाते थे।

रानी—उसने समझा विद्रोहियों ने तुम्हारे साथ न जाने क्या व्यवहार किया हो। बसए इस बात पर उसे जिद पड़ गई। आराम से बैठो बेटीए अब यही तुम्हारा घर है। अब मेरे लिए तुम्हीं विनय की प्रतिच्छाया हो। अब यह बताओए तुमने इतने दिनों कहाँ थींघ् इंद्रदत्ता तो कहता था कि तुम विनय का तिरस्कार करके तीन ही चार दिन बाद वहाँ से चली आई थीं। इतने दिनों कहाँ रहींघ् साल—भर से ऊपर तो हो गया होगा।

सोफिया का हृदय आनंद से गद्‌गद्‌ हो रहा था। जी में तो आया कि इसी वक्त सारा वृत्ताांत कह सुनाऊँए माता को शोकाग्नि शांत कर दूँ। पर भय हुआ कि कहीं इनका धार्माभिमान फिर न जागृत हो जाए। विनय की ओर से तो अब वह निश्ंचित हो गई थी। केवल अपने ही विषय में शंका थी। देवता को न पाकर हम पाषाण—प्रतिष्ठा करते हैं। देवता मिल गयाए तो पत्थर को कौन पूजेघ् बोली—क्या बताऊँए कहाँ थीघ् इधार—उधार भटकती फिरती थी। और शरण ही कहाँ थी! अपनी भूल पर पछताती और रोती थी। निराश होकर यहाँ चली आई।

रानी—तुम व्यर्थ इतने दिनों कष्ट उठाती रहीं। क्या यह घर तुम्हारा न थाघ् बुरा न मानना बेटीए तुमने विनय के साथ बड़ा अन्याय किया—उतना हीए जितना मैंने। तुम्हारी बात उसे और भी ज्यादा लगीय क्योंकि उसने जो कुछ किया थाए तुम्हारे ही हित के लिए किया था। मैं अपने प्रियतम के साथ इतनी निर्दयता कभी न कर सकती। अब तुम स्वयं अपनी भूल पर पछता रही होगी। हम दोनों ही अभिमानी हैं। आह! बेचारे विनय को कहीं सुख न मिला। तुम्हारा हृदय अत्यंत कठोर है। सोचोए अगर तुम्हें खबर मिलती कि विनय को डाकुओं ने पकड़कर मार डाला हैए तो तुम्हारी क्या दशा हो जातीघ् शायद तुम भी इतनी ही दया—शून्य हो जाती। यह मानवीय स्वभाव है। मगर अब पछताने से क्या होता है। मैं आप ही नित्य पछताया करती हूँ। अब तो वह काम सँभालना हैए जो उसे अपने जीवन में सबसे प्यारा था। तुमने उसके लिए बड़े कष्ट उठाएय अपमानए लज्जाए दंड सब कुछ झेला। अब उसका काम सँभालो। इसी को अपने जीवन का उद्देश्य समझो। तुम्हें क्या खबर होगीए कुछ दिनों तक प्रभु सेवक इस संस्था के व्यवस्थापक हो गए थे। काम करनेवाला होए तो ऐसा हो। थोड़े ही दिनों में उसने सारा मुल्क छान डाला और पूरे पाँच सौ वालेंटीयर जमा कर लिएए बड़े—बड़े शहरों में शाखाएँ खोल दींए बहुत—सा रुपया जमा कर लिया। मुझे इससे बड़ा आनंद मिलता था कि विनय ने जिस संस्था पर अपना जीवन बलिदान कर दियाए वह फल—फूल रही है। मगर ईश्वर को न जाने क्या मंजूर था। प्रभु सेवक और कुँवर साहब में अनबन हो गई। प्रभु सेवक उसे ठीक उसी मार्ग पर ले जा रहा थाए जिस पर विनय ले जाना चाहता था। कुँवर साहब और उनके परम मित्रा डॉ. गांगुली उसे दूसरे ही रास्ते पर ले जाना चाहते थे। आखिर प्रभु सेवक ने पद—त्याग कर दिया। तभी से संस्था डावाँडोल हो रही हैए जाने बचती है या जाती है। कुँवर साहब में एक विचित्रा परिवर्तन हो गया है। वह अब अधिकारियों से सशंक रहने लगे हैं। अफवाह थी कि गवर्नमेंट इनकी कुल जाएदाद जब्त करनेवाली है। अधिकारी मंडल के इस संशय को शांत करने के लिए उन्होंने प्रभु सेवक के कार्यक्रम से अपना विरोधा प्रकाशित करा दिया। यही अनबन का मुख्य कारण था। अभी दो महीने भी नहीं गुजरेए लेकिन शीराजा बिखर गया। सैकड़ों सेवक निराश होकर अपने काम—धांधो में लग गए। मुश्किल से दो सौ आदमी और होंगे। चलो बेटीए तुम्हारा कमरा साफ हो गया होगाए तुम्हारे भोजन का प्रबंधा करके तब इतमीनान से बातें करूँ। (महाराजिन से) इन्हें पहचानती है नघ् तब यह मेरी मेहमान थींए अब मेरी बहू हैं। जाए इनके लिए दो—चार नई चीजें बना ला। आह! आज विनय होता तो मैं अपने हाथो से इसे उसके गले लगा देतीए ब्याह रचाती। शास्त्राों में इसकी व्यवस्था है।

सोफिया की प्रबल इच्छा हुई कि रहस्य खोल दूँ। बात ओठों तक आई और रुक गई।

सहसा शोर मचा—लाला साहब आ गए! लाला साहब आ गए! भैया विनयसिंह आ गए! नौकर—चाकर चारों ओर से दौड़ेए लौडियाँ—महरियाँ काम छोड़—छोड़कर भागीं। एक क्षण में विनय ने कमरे में कदम रखा। रानी ने उसे सिर से पैर तक देखाए मानो निश्चय कर रही थीं कि मेरा ही विनय है या कोई औरय अथवा देखना चाहती थीं कि उस पर कोई आघात के चिद्द तो नहीं हैं। तब उठीं और बोलीं—बहुत दिनों में आए बेटा! आओए छाती से लगा लूँ। लेकिन विनय ने तुरंत उनके चरणों पर सिर रख दिया। रानीजी को अश्रु—प्रवाह में न कुछ सूझता था और न प्रेमावेश में कोई बात मुँह से निकलती थीए झुकी हुई विनय का सिर पकड़कर उठाने की चेष्टा कर रही थीं। भक्ति और वात्सल्य का कितना स्वर्गीय संयोग था।

लेकिन विनय को रानी की बातें न भूली थीं। माता को देखकर उसके दिल में जोश उठा कि इनके चरणों पर आत्मसमर्पण कर दूँ। एक विवशकारी उद्‌गार था प्राण दे देने के लिएए वहीं माता के चरणों पर जीवन का अंत कर देने के लिएए दिखा देने के लिए कि यद्यपि मैंने अपराधा किए हैंए पर सर्वथा लज्जाहीन नहीं हूँए जीना नहीं जानताए लेकिन मरना जानता हूँ। उसने इधार—उधार निगाह दौड़ाई। सामने ही दीवार पर तलवार लटक रही थी। वह कौंधाकर तलवार उतार लाया और उसे सर से खींचकर बोला—अम्माँए इस योग्य तो नहीं हूँ कि आपका पुत्रा कहलाऊँय लेकिन आपकी अंतिम आज्ञा शिरोधार्य कर अपनी सारी अपकीर्ति का प्रायश्चित्ता कर दिए देता हूँ। मुझे आशीर्वाद दीजिए।

सोफिया चिल्लाकर विनय से लिपट गई। जाह्नवी ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली—विनयए ईश्वर साक्षी हैए मैं तुम्हें कब का क्षमा कर चुकी। तलवार छोड़ दो। सोफीए तू इनके हाथ से तलवार छीन लेए मेरी मदद कर।

विनयसिंह की मुखाकृति तेजोमय हो रही थीए अॉंखे बीरबहूटी बनी हुई थीं। उसे अनुभव हो रहा था कि गर्दन पर तलवार मार लेना कितना सरल है। सोफिया ने दोनों हाथों से उसकी कलाई पकड़ ली और अश्रुपूरित लोचनों से ताकती हुई बोली—विनयए मुझ पर दया करो!

उसकी द्रष्टि इतनी करुणए इतनी दीन थी कि विनय का हृदय पसीज गया। मुट्ठी ढ़ीली पड़ गई। सोफिया ने तलवार लेकर खूँटी पर लटका दी। इतने में कुँवर भरतसिंह आकर खड़े हो गए और विनय को हृदय से लगाते हुए बोले—तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जातेए मुँछें कितनी बढ़़ गई हैं! इतने दुबले क्यों होघ् बीमार थे क्याघ्

विनय—जी नहींए बीमार तो नहीं था। ऐसा दुबला भी नहीं हूँ। अब माताजी के हाथो के पकवान खाकर मोटा हो जाऊँगा।

कुँवर—तुम दूर क्यों खड़ी हो सोफियाघ् आओए तुम्हें प्यार कर लूँ। रोज ही तुम्हारी याद आती थी। विनय बड़ा भाग्यशाली था कि तुम—जैसी रमणी पाई। संसार में तो मिलती नहींए स्वर्ग की मैं नहीं कहता। अच्छा संयोग है कि तुम दोनों एक ही दिन आए। बेटीए मैं तुमसे विनय की सिफारिश करता हूँ। तुमने इन्हें जो फटकार बताई थीए उसे सुनकर बेचारा नायकराम स्त्रिायों से इतना डर गया कि तय की कराई सगाई से इनकार कर गया। उम्र भर स्त्राी के लिए तरसता रहाए पर अब नाम भी नहीं लेता। कहता है—यह बेवफा जात होती है। भैया विनयसिंह ने जिसके लिए बदनामी सहीए जान पर खेलेए वही उनसे अॉंखें फेर ले! कान पकड़ेए अब तो मर जाऊँगाए पर ब्याह न करूँगा। अपना हाथ बढ़़ाओ विनय! सोफीए यह हाथ लोए तो मुझे इतमीनान हो जाए कि तुम्हारे दिल साफ हो गए। जाह्नवीए चलो हम लोग बाहर चलेंए इन्हें एक दूसरे को मनाने दो। इन्हें कितनी ही शिकायतें करनी होंगीए बातें करने के लिए विकल हो रहे होंगे। आज बड़ा शुभ दिन है।

जब एकांत हुआए तो सोफी ने पूछा—तुम इतनी जल्दी कैसे आ गएघ्

विनय ने सकुचाते हुए कहा—सोफीए मुझे वहाँ मुँह छिपाकर बैठते हुए शर्म आती थी। प्राण—भय से दबक जाना कायरों का काम है। माताजी की जो इच्छा होए वही सही। नायकराम कहता रहाए पहले मिस साहब को आने दोय लेकिन मुझसे न रहा गया।

सोफिया—खैरए अच्छा ही हुआए खूब आ गए। माताजी तुम्हारी चर्चा करके आठ—आठ अॉंसू रोती थी। उनका दिल तुम्हारी तरफ से साफ हो गया है।

विनय—तुम्हें तो कुछ नहीं कहाघ्

सोफिया—मुझसे तो ऐसा टूटकर गले मिलीं कि मैं चकित हो गई। यह उन्हीं कठोर वचनों का प्रभाव हैए जो मैंने तुम्हें कहे थे। माता आप चाहे पुत्रा को कितनी ही ताड़ना देए यह गवारा नहीं करती कि कोई दूसरा उसे कड़ी निगाह से भी देखे। मेरे अन्याय ने उनकी न्याय—भावना को जागृत कर दिया।

विनय—हम लोग बड़े शुभ मुहूर्त में चले थे।

सोफिया—हाँ विनयए अभी तक तो कुशल से बीती। आगे की ईश्वर जाने।

विनय—हम अपना दुरूख का हिस्सा भोग चुके।

सोफिया ने आशंकित स्वर से कहा—ईश्वर करेए ऐसा ही हो।

किंतु सोफिया के अंतस्तल में अनिष्ट—शंका का प्रतिबिंब दिखाई दे रहा था। वह उसे प्रकट न कर सकती थीए पर उसका चित्ता उदास था। सम्भव है कि जन्मगत धार्मिक संस्कारों से विमुख हो जाने का खेद इसका कारण हो अथवा वह इसे वह अतिवृष्टि समझ रही होए जो अनावृष्टि की सूचना देती है। कह नहीं सकतेए पर जब सोफी रात को भोजन करके सोईए तो उसका चित्ता किसी बोझ से दबा हुआ था।

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अध्याय 40

मिल के तैयार होने में अब बहुत थोड़ी कसर रह गई थी। बाहर से तम्बाकू की गाड़ियाँ लदी चली आती थीं। किसानों को तम्बाकू बोने के लिए दादनी दी जा रही थी। गवर्नर से मिल को खोलने की रस्म अदा करने के लिए प्रार्थना की गई थी और उन्होंने स्वीकार भी कर लिया था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। इसलिए निर्माण—कार्य को उस तिथि तक समाप्त करने के लिए बड़े उत्साह से काम किया जा रहा था। उस दिन तक कोई काम बाकी न रहना चाहिए। मजा तो जब आए कि दावत में इसी मिल का बना हुआ सिगार भी रखा जाए। मिस्टर जॉन सेवक सुबह से शाम तक इन्हीं तैयारियों में दत्ताचित्ता रहते थे। यहाँ तक कि रात को दुगुनी मजदूरी देकर काम कराया जा रहा था। मिल के आस—पास पक्के मकान बन चुके थे। सड़क के दोनों किनारों पर और निकट के खेतों में मजदूरों ने झोंपड़ियाँ डाल ली थीं। एक मील तक सड़क के दोनों ओर झोंपड़ियों की श्रेणियों ही नजर आती थीं। यहाँ बड़ी चहल—पहल रहती थी। दूकानदारों ने भी अपने—अपने छप्पर डाल लिए थे। पानए मिठाईए नाजए गुड़ए घीए सागए भाजी और मादक वस्तुओं की दूकानें खुल गई थीं। मालूम होता थाए कोई पैठ है।

मिल के परदेसी मजदूरए जिन्हें न बिरदारी का भय थाए न सम्बंधियों का लिहाजए दिन—भर तो मिल के काम करतेए रात को ताड़ी—शराब पीते। जुआ नित्य होता था। ऐसे स्थानों पर कुलटाएँ भी आ पहुँचती हैं। यहाँ भी एक छोटा—मोटा चकला आबाद हो गया था। पाँड़ेपुर का पुराना बाजार सर्द होता जाता था। मिठुआए घीसूए विद्याधार तीनों अकसर इधार सैर करने आते और जुआ खेलते। घीसू तो दूधा बेचने के बहाने आताए विद्याधार नौकरी खोजने के बहाने और मिठुआ केवल उन दोनों का साथ देने आया करता था। दस—ग्यारह बजे रात तक वहाँ बड़ी बहार रहती थी। कोई चाट खा रहा हैए कोई तम्बोली की दूकान के सामने खड़ा हैए कोई वेश्याओं से विनोद कर रहा है। अश्लील हास—परिहासए लज्जास्पद नेत्रा—कटाक्ष और कुवासनापूर्ण हाव—भाव का अविरल प्रवाह होता रहता था। पाँड़ेपुर में ये दिलचस्पियाँ कहाँघ् लड़कों की हिम्मत न पड़ती थी कि ताड़ी की दूकान के सामने खड़े होंए कहीं घर का कोई आदमी देख न ले। युवकों की मजाल न थी कि किसी स्त्राी को छेड़ेए कहीं मेरे घर जाकर कह न दे। सभी एक दूसरे से सम्बंधा रखते थे। यहाँ वे रुकावटें कहाँघ् प्रत्येक प्राणी स्वच्छंद था। उसे न किसी का भय थाए न संकोच। कोई किसी पर हँसनेवाला न था। तीनों ही युवकों को मना किया जाता थाए वहाँ न जाएा करोए जाओ भी तो अपना काम करके चले आया करोय किंतु जवानी दीवानी होती हैए कौन किसी की सुनता है। सबसे बुरी दशा बजरंगी की थी। घीसू नित्य रुपये—आठ आने उड़ा लिया करता। पूछने पर बिगड़कर कहताए क्या मैं चोर हूँघ्

एक दिन बजरंगी ने सूरदास से कहा—सूरेए लड़के बरबाद हुए जाते हैं। जब देखोए चकले ही में डटे रहते हैं। घिसुआ में चोरी की बान कभी न थी। अब ऐसा हथलपका हो गया है कि सौ जतन से पैसे रख दोए खोजकर निकाल लेता है।

जगधार सूरदास के पास बैठा हुआ था। ये बातें सुनकर बोला—मेरी भी वही दसा है भाई! विद्याधार को कितना पढ़़ाया—लिखायाए मिडिल तक खींच—खाँचकर ले गया। आप भूखा रहता थाए घर के लोग कपड़ों को तरसते थेए मगर उसके लिए किसी बात की कमी न थी। आशा थीए चार पैसे कमाएगाए मेरा बुढ़़ापा कट जाएगाए घर—बार सँभालेगाए बिरादरी में मरजाद बढ़़ाएगा। सो अब रोज वहाँ जाकर जुआ खेलता है। मुझसे बहाना करता है कि वहाँ एक बाबू के पास काम सीखने जाता हूँ। सुनता हूँए किसी औरत से उसकी आसनाई हो गई है। अभी पुतलीघर के कई मजदूर उसे खोजते हुए मेरे पास आए थे। उसे पा जाएँ तो मार—पीट करें। वे भी उसी औरत के आसना हैं। मैंने हाथ—पैरकर पकड़कर उनको बिदा किया। यह कारखाना क्या खुलाए हमारी तबाही आ गई! फायदा जरूर हैए चार पैसे की आमदनी है। पहले एक ही खोंचा न बिकता थाए अब तीन—तीन बिक जाते हैंए लेकिन ऐसा सोना किस काम काए जिससे कान फटे!

बजरंगी—अजीए जुआ ही खेलताए तब तक गनीमत थीए हमारा घीसू तो आवारा हो गया है। देखते नहीं होए सूरत कैसी बिगड़ गई है! कैसी देह निकल आई थी! मुझे पूरी आशा थी कि अब दंगल मारेगाए अखाड़े का कोई पट्ठा उसके जोड़ का नहीं हैए मगर जब से चकले की चाट पड़ गई हैए दिन—दिन घुलता जाता है। दादा को तुमने देखा था नघ् दस—पाँच कोस के इर्द—गिर्द कोई उनसे हाथ न मिला सकता था। चुटकी से सुपारी तोड़ देते थे। मैंने भी जवानी में कितने ही दंगल मारे। तुमने तो देखा ही थाए उस पंजाबी को कैसा मारा था कि पाँच सौ रुपये इनाम पाए और अखबारों में दूर—दूर तक नाम हो गया। कभी किसी माई के लाल ने मेरी पीठ में धूल नहीं लगाई। तो बात क्या थीघ् लँगोटे के सच्चे थे। मोंछें निकल आई थींए तब तक किसी औरत का मुँह न देखा था। ब्याह हो गयाए तब भी मेहनत—कसरत की धून में औरत का धयान ही न करते थे। उसी के बल पर अब भी दावा है कि दस—पाँच का सामना हो जाएए तो छक्के छुड़ा दूँए पर इस लौंड़े ने डोंगा डुबा दियाघ् घूरे उस्ताद कहते थे कि इसमें दम ही नहीं हैए जहाँ दो पकड़ हुएए बस भैंसे की तरह हाँफने लगता है।

सूरदास—मैं अंधा आदमी लौंडों के ये कौतुक क्या जानूँए पर सुभागी कहती है कि मिठुआ के ढ़ंग अच्छे नहीं हैं। जब से टेसन पर कुली हो गया हैए रुपये—आठ आने रोज कमाता हैए मुदा कसम ले लोए जो घर पर एक पैसा भी देता हो। भोजन मेरे सिर करता हैय जो कुछ पाता हैए नसे—पानी में उड़ा देता है।

जगधार—तुम भी झूठमूठ लाज ढ़ो रहे हो। निकाल क्यों नहीं देते घर सेघ् अपने सिर पड़ेगीए तो आटे—दाल का भाव मालूम होगा। अपना लड़का होए तो एक बात हैय भाई—भतीजे किसके होते हैंघ्

सूरदास—पाला तो लड़के ही की तरहए दिल ही नहीं मानता।

जगधार—अपना बनाने से थोड़े ही अपना हो जाएगा।

ठाकुरदीन भी आ गया था। जगधार की बात सुनकर बोला—भगवान्‌ ने क्या तुम्हारे करम में काँटे ही बोना लिखा हैए किसी का भी भला नहीं देख सकतेघ्

सूरदास—उसके मन में जो आएए करेए पर मेरे हाथों तो यह नहीं हो सकता कि मैं आप खाकर सोऊँ और उसकी बात न पूछँ।

ठाकुरदीन—कोई बात कहने के पहले सोच लेना चाहिए कि सुननेवाले को अच्छी लगेगी या बुरी। जिस लड़के को बालपन से पालाए और इस तरह पाला कि कोई अपने बेटे को भी न पालता होगाए उसे अब छोड़ दें।घ्

जमुनी—अब के कलजुगी लड़के जो कुछ न करें थोड़ा है। अभी दूधा के दाँत नहीं टूटेए सुभागी ने घीसू को गोद खेलाया हैए सो आज वह उसी से दिल्लगी करता है। छोटे—बड़े का लिहाज उठ गया। वह तो कहोए सुभागी की काठी अच्छी हैए नहीं बाल—बच्चे हुए होतेए तो घीसू से जेठे होते।

यहाँ तो ये बातें हो रही थींए उधार तीनों लौंडे नायकराम के दालान में बैठे हुए मंसूबे बाँधा रहे थे। घीसू ने कहा—सुभागी मारे डालती है। देखकर यही जी चाहता है कि गले लगा लें। सिर पर साग की टोकरी रखकर बल खाती हुई चलती हैए सो जान ले लेती है। बड़ी काफर है!

विद्याधार—तुम तो हो घामड़ए पढ़़े—लिखे तो हो नहींए बात क्या समझो। मासूक कभी अपने मुँह से थोड़े ही कहता है कि मैं राजी हूँ। उसकी अॉंखों से ताड़ जाना चाहिए। जितना ही बिगड़ेए उतनी ही दिल से राजी समझो। कुछ पढ़़े होते तो जानते कि औरतें कैसे नखरे करती हैं।

मिठुआ—पहले सुभागी मुझसे भी इसी तरह बिगड़ती थीए किसी तरह हत्थे ही न चढ़़ेए बात तक न सुनेय पर मैंने हिम्मत करके एक दिन कलाई पकड़ लीए और बोला—अब न छोड़ँईगाए चाहे मार ही डाल। मरना तो एक दिन है हीए तेरे ही हाथों मरूँगा। यों भी तो मर रहा हूँए तेरे हाथों मरूँगाए तो सिधो सरग जाऊँगा। पहले तो बिगड़कर गालियाँ देने लगीए फिर कहने लगी—छोड़ दोए कहीं कोई देख लेए तो गजब हो जाए। मैं तेरी बुआ लगती हूँ। पर मैंने एक न सुनी। बसए फिर क्या था। उसी दिन से आ गई चंगुल में।

मिठुआ अपनी प्रेम—विजय की कल्पित कथाएँ गढ़़ने में निपुण था। निरक्षर होने पर भी गप्पें मारने में उसने विद्याधार को मात कर दिया था। अपनी कल्पनाओं में कुछ ऐसा रंग भरता था कि मित्राों को उन गपोड़ों पर विश्वास आ जाता था। घीसू बोला—क्या करूँए मेरी तो हिम्मत ही नहीं पड़ती। डरता हूँए कहीं शोर मचा देए तो आफत आ जाए। तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ गई थीघ्

विद्याधार—तुम्हारा सिर जाहिल—जपाट तो हो। मासूक अपने आसिक को आजमाता है कि इसमें कुछ जीवट भी है कि यों ही छैला बना फिरता है। औरत उसी को प्यार करती हैए जो दिलावर होए निडर होए आग में कूद पड़े।

घीसू—तुम तैयार होघ्

विद्याधार—हाँए आज ही।

मिठुआ—मगर देख लेनाए दादा द्वार पर नीम के नीचे सोते हैं।

घीसू—इसका क्या डर। एक धाक्का दूँगाए दूर जाके गिरेगा।

तीनों मिस्कौट करतेए इस षडयंत्रा के दाँव—पेच सोचते हुएए कुली बाजार की तरफ चले गए। वहाँ तीनों ने शराब पीए दस—ग्यारह बजे रात तक बैठे गाना—बजाना सुनते रहे। मदिरालयों में स्वरहीन कानों के लिए संगीत की कभी कमी नहीं रहती। तीनों नशे में चूर होकर लौटेए तो घीसू बोला—सलाह पक्की है नघ् आज वारा—न्यारा हो जाएए चित पड़े या पट।

आधाी रात बीत चुकी थी। चौकीदार पहरा देकर जा चुका था। घीसू और विद्याधार सूरदास के द्वार पर आए।

घीसू—तुम आगे चलोए मैं यहाँ खड़ा हूँ।

विद्याधार—नहींए तुम जाओए तुम गँवार आदमी हो। कोई देख लेगाए तो बात भी न बना सकोगे।

नशे ने घीसू को आपे से बाहर कर रखा था। कुछ यह दिखाना भी मंजूर था कि तुम लोग मुझे जितना बोदा समझते होए उतना बोदा नहीं हूँ। झोंपड़ी में घुस ही तो पड़ाए और जाकर सुभागी की बाँह पकड़ ली। सुभागी चौंककर उठ बैठी और जोर से बोली—कौन हैघ् हट।

घीसू—चुप—चुपए मैं हूँ।

सुभागी—चोर—चोर! चोर—चोर!

सूरदास जागा। उठकर मड़ैया में जाना चाहता था कि किसी ने उसे पकड़ लिया। उसने डाँटकर पूछाए कौन हैघ् जब कुछ उत्तार न मिलाए तब उसने भी उस आदमी का हाथ पकड़ लिया और चिल्लाया—चोर! चोर! मुहल्ले के लोग ये आवाजें सुनते ही लाठियाँ लेकर निकल पड़े। बजरंगी ने पूछाए कहाँए गया कहाँघ् सुभागी बोलीए मैं पकड़े हुए हूँ। सूरदास ने कहाए एक को मैं पकड़े हुए हूँ। लोगों ने आकर देखाए तो भीतर सुभागी घीसू को पकड़े हुए हैए बाहर सूरदास विद्याधार को। मिठुआ नायकराम के द्वार पर खड़ा था। यह हुल्लड़ सुनते ही भाग खड़ा हुआ। एक क्षण में सारा मुहल्ला टूट पड़ा। चोर को पकड़ने के लिए बिरले ही निकलते हैंए पकड़े गए चोर पर पँचलतियाँ जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। लेकिन यहाँ आकर देखते हैंए तो न चोरए न चोर का भाईए बल्कि अपने ही मुहल्ले के लौंडे हैं।

एक स्त्राी बोली—यह जमाने की खूबी है कि गाँव—घर का विचार उठ गयाए किसकी आबरू बचेगी!

ठाकुरदीन—ऐसे लौंडों का सिर काट लेना चाहिए।

नायकराम—चुप रहो ठाकुरदीनए यह गुस्सा करने की बात नहींए रोने की बात है।

जगधार—बजरंगी जमुनी सिर झुकाए चुप खड़े थेए मुँह से बात न निकलती थी। बजरंगी को तो ऐसा क्रोधा आ रहा था कि घीसू का गला घोंट दे। यह जमाव और हलचल देखकर कई कांस्टेबिल भी आ पहुँचे। अच्छा शिकार फँसाए मुट्ठियाँ गरम होंगी। तुरंत दोनों युवकों की कलाइयाँ पकड़ लीं। जमुनी ने रोकर कहा—ये लौंडे मुँह में कालिख लगानेवाले हैं। अच्छा होगाए छरू—छरू महीने की सजा काट आएँगेए तब इनकी अॉंखें खुलेंगी। समझाते—समझाते हार गई कि बेटाए कुराह मत चलोए लेकिन कौन सुनता हैघ् अब जाके चक्की पीसो। इससे तो अच्छा था कि बाँझ ही रहती।

नायकराम—अच्छाए अब अपने—अपने घर जाते जाव। जमादारए लौंड़ें हैंए छोड़ दोए आओ चलें।

जमादार—ऐसा न कहो पंडाजीए कोतवाल साहब को मालूम हो जाएगाए तो समझेंगेए इन सबों ने ले—देकर छोड़ दिया होगा।

नायकराम—क्या कहते हो सूरेए अब ये लोग जाएँ नघ्

ठाकुरदीन—हाँए और क्या। लड़कों से भूल—चूक हो ही जाती है। काम तो बुरा कियाए पर अब जाने दोए जो हुआ सो हुआ।

सूरदास—मैं कौन होता हूँ कि जाने दूँ! जाने दें कोतवालए डिपटीए हाकिम लोग!

बजरंगी—सूरेए भगवान जानता हैए जान का डर न होताए तो इस दुष्ट को कच्चा ही चबा जाता।

सूरदास—अब तो हाकिम लोगों के हाथ में हैए छोड़ें चाहे सजा दें।

बजरंगी—तुम कुछ न करोए तो कुछ न होगा। जमादारों को हम मना लेंगे।

सूरदास—तो भैयाए साफ—साफ बात यह है कि मैं बिना सरकार में रपट किए न मानूँगाए चाहे सारा मुहल्ला मेरा दुसमन हो जाए।

बजरंगी—क्या यही होगा सूरदासघ् गाँव—घरए टोले—मुहल्ले का कुछ लिहाज न करोगेघ् लड़कों से भूल तो हो ही गईए अब उनकी जिंदगानी खराब करने से क्या मिलेगाघ्

जगधार—सुभागी ही कहाँ की देवी है! जब से भैरों ने छोड़ दियाए सारा मुहल्ला उसका रंग—ढ़ंग देख रहा है। बिना पहले की साँठ—गाँठ के कोई किसी के घर नहीं घुसता!

सूरदास—तो यह सब मुझसे क्या कहते हो भाईए सुभागी देवी होए चाहे हरजाई होए वह जानेए उसका काम जाने। मैंने अपने घर में चोरों को पकड़ा हैए इसकी थाने में जरूर इत्तिाला करूँगाए थानेवाले न सुनेंगेए तो हाकिम से कहूँगा। लड़के लड़कों की राह रहें तो लड़के हैंय सोहदों की राह चलेंए तो सोहदे हैं। बदमासों के और क्या सींगपूँछ होती हैघ्

बजरंगी—सूरेए कहे देता हूँए खून हो जाएगा।

सूरदास—तो क्या हो जाएगाघ् कौन कोई मेरे नाम को रोनेवाला बैठा हुआ हैघ्

नायकराम ने वहाँ ठहरना व्यर्थ समझा। क्यों नींद खराब करेंघ् चलने लगेए तो जगधार ने कहा—पंडाजीए तुम भी जाते होए यहाँ क्या होगाघ्

नायकराम ने जवाब दिया—भाईए सूरदास मानेगा नहींए चाहे लाख कहो। मैं भी तो कह चुकाए कहो और हाथ—पैर पड़ईँए पर होना—हवाना कुछ नहीं। घीसू और विद्या की तो बात ही क्याए मिठुआ भी होताए तो सूरे उसे भी न छोड़ता। जिद्दी आदमी है।

जगधार—ऐसा कहाँ का धान्नासेठ है कि अपने मन ही की करेगा। तुम चलोए जरा डाँटकर कहो तो।

नायकराम लौटकर सूरदास से बोले—सूरेए कभी—कभी गाँव—घर के साथ मुलाहजा भी करना पड़ता है। लड़कों की जिंदगानी खराब करके क्या पाओगेघ्

सूरदास—पंडाजीए तुम भी औरों की—सी कहने लगे! दुनिया में कहीं नियाव है कि नहींघ् क्या औरत की आबरू कुछ होती ही नहींघ् सुभागी गरीब हैए अबला हैए मजूरी करके अपना पेट पालती हैए इसलिए जो कोई चाहेए उसकी आबरू बिगाड़ देघ् जो चाहेए उसे हरजाई समझ लेघ्

सारा मुहल्ला एक हो गयाए यहाँ तक दोनों चौकीदार भी मुहल्लेवालों की—सी कहने लगे। एक बोला—औरत खुद हरजाई है।

दूसरा—मुहल्ले के आदमी चाहेंए तो खून पचा लेंए यह कौन—सा बड़ा जुर्म है।

पहला—सहादत ही न मिलेगीए तो जुर्म क्या साबित होगाघ्

सूरदास—सहादत तो जब न मिलेगीए जब मैं मर जाऊँगा। वह हरजाई हैघ्

चौकीदार—हरजाई तो है ही। एक बार नहींए सौ बार उसे बाजार में तरकारी बेचते और हँसते देखा है।

सूरदास—तो बाजार में तरकारी बेचना और हँसना हरजाइयों का काम हैघ्

चौकीदार—अरेए तो जाओगे तो थाने ही तक न! वहाँ भी तो हमीं से रपट करोगेघ्

नायकराम—अच्छी बात हैए इसे रपट करने दो। मैं देख लूँगा। दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं।

सूरदास—हाँ दारोगाजी के मन में जो आए करेंए दोस—पास उनके साथ हैं।

नायकराम—कहता हूँए मुहल्ले में न रहने पाओगे।

सूरदास—जब तक जीता हूँए तब तक तो रहूँगाए मरने के बाद देखी जाएगी।

कोई सूरदास को धामकाता थाए कोई समझाता था। वहाँ वही लोग रहे गए थेए जो इस मुआमले को दबा देना चाहते थे। जो लोग इसे आगे बढ़़ाने के पक्ष में थेए वे बजरंगी और नायकराम के भय से कुछ कह न सकने के कारण अपने—अपने घर चले गए थे। इन दोनों आदमियों से बैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी। पर सूरदास अपनी बात पर ऐसा अड़ा कि किसी भाँति मानता ही न था। अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो। हम लोग थानेदार ही को रोजी कर लेंग। दस—बीस रुपये से गम खाएँगे।

नायकराम—अरेए वही लाला थानेदार है नघ् उन्हें मैं चुटकी बजाते—बजाते गाँठ लूँगा। मेरी पुरानी जान—पहचान है।

जगधार—पंडाजीए मेरे पास तो रुपये भी नहीं हैंए मेरी जान कैसे बचेगीघ्

नायकराम—मैं भी तो परदेश से लौटा हूँ। हाथ खाली हैं। जाके कहीं रुपये की फिकिर करो।

जगधार—मैं सूरे को अपना हितू समझता था। जब कभी काम पड़ा हैए उसकी मदद की है। इसी के पीछे भैरों से दुश्मनी हुई। औरए अब भी यह मेरा न हुआ!

नायकराम—यह किसी का नहीं है। जाकर देखोए जहाँ से हो सकेए 25 रुपये तो ले ही आओ।

जगधार—भैयाए रुपये किससे माँगने जाऊँघ् कौन पतियाएगाघ्

नायकराम—अरेए विद्या की अम्माँ से कोई गहना ही माँग लो। इस बखत तो प्रान बचेंए फिर छुड़ा देना।

जगधार बहाने करने लगा—वह छल्ला तक न देगीय मैं मर भी जाऊँए तो कफन के लिए रुपये न निकालेगी। यह कहते—कहते वह रोने लगा। नायकराम को उस पर दया आ गई। रुपये देने का वचन दे दिया।

सूरदास प्रातरूकाल थाने की ओर चलाए तो बजरंगी ने कहा—सूरेए तुम्हारे सिर पर मौत खेल रही हैए जाओ।

जमुनी सूरे के पैरों से लिपट गई और रोती हुई बोली—सूरेए तुम हमारे बैरी हो जाओगेए यह कभी आसा न थी।

बजरंगी ने कहा—नीच हैए और क्या! हम इसको पालते ही चले आते हैं। भूखों कभी सोने नहीं दिया। बीमारी—आरामी में कभी साथ नहीं छोड़ा। जब कभी दूधा माँगने आयाए खाली हाथ नहीं जाने दिया। इस नेकी का यह बदला! सच कहा हैए अंधों में मुरौवत नहीं होती। एक पासिन के पीछे!

नायकराम पहले ही लपककर थाने जा पहुँचे और थानेदार से सारा वृत्ताांत सुनाकर कहा—पचास का डौल हैए कम न ज्यादा। रपट ही न लिखिए।

दारोगा ने कहा—पंडाजीए जब तुम बीच में पड़े हुए होए तो सौ—पचास की कोई बात नहींय लेकिन अंधो को मालूम हो जाएगा कि रपट नहीं लिखी गईए तो सीधा डिप्टी साहब के पास जा पहुँचेगा। फिर मेरी जान आफत में पड़ जाएगी। निहायत रूखा अफसर हैए पुलिस का तो जानी दुश्मन ही समझो। अंधा यों माननेवाला आसामी नहीं है। जब इसने चतारी के राजा साहब को नाकों चने चबवा दिएए तो दूसरों की कौन गिनती है! बसए यही हो सकता है कि जब मैं तफतीश करने आऊँए तो आप लोग किसी को शहादत न देने दें। अदम सबूत में मुआमला खारिज हो जाएगा। मैं इतना ही कर सकता हूँ कि शहादत के लिए किसी को दबाऊँगा नहींए गवाहों के बयान में भी कुछ काट—छाँट कर दूँगा।

दूसरे दिन संधया समय दारोगाजी तहकीकात करने आए। मुहल्ले के सब आदमी जमा हुएय मगर जिससे पूछोए यही कहता है—मुझे कुछ मालूम नहीं हैए मैं कुछ नहीं जानताए मैंने रात को किसी की श्चोर—चोरश् आवाज नहीं सुनीए मैंने किसी को सूरदास के द्वार पर नहीं देखाए मैं तो घर में द्वार बंद किए पड़ा सोता था। यहाँ तक कि ठाकुरदीन ने भी साफ कहा—साहबए मैं कुछ नहीं जानता। दारोगा ने सूरदास पर बिगड़कर कहा—झूठी रपट है बदमाश!

सूरदास—रपट झूठी नहीं हैए सच्ची है।

दारोगा—तेरे कहने से सच्ची मान लूँघ् कोई गवाह भी हैघ्

सूरदास ने मुहल्लेवालों को सम्बोधित करके कहा—यारोए सच्ची बात कहने से मत डरो। मेल—मुरौवत इसे नहीं कहते कि किसी औरत की आबरू बिगाड़ दी जाए और लोग उस पर परदा डाल दें। किसी के घर में चोरी हो जाए और लोग छिपा लें। अगर यही हाल रहाए तो समझ लो कि आबरू न बचेगी। भगवान्‌ ने सभी को बेटीयाँ दी हैंए कुछ उनका खियाल करो। औरत की आबरू कोई हँसी—खेल नहीं है। इसके पीछे सिर कट जाते हैंए लहू की नदी बह जाती है। मैं और किसी से नहीं पूछताए ठाकुरदीनए तुम्हें भगवान का भय हैए पहले तुम्हीं आए थेए तुमने यहाँ क्या देखाघ् क्या मैं और सुभागी दोनों घीसू और विद्याधार का हाथ पकड़े हुए थेघ् देखोए मुँहदेखी नहींए साथ कोई न जाएगा। जो कुछ देखा होए सच कह दो।

ठाकुरदीन धार्मभीरु प्राणी था। ये बातें सुनकर भयभीत हो गया और बोला—चोरी—डाके की बात तो मैं कुछ नहीं जानताए यही पहले भी कह चुकाए बात बदलनी नहीं आती। हाँए जब मैं आया तो तुम और सुभागी दोनों लड़कों को पकड़े चिल्ला रहे थे।

सूरदास—मैं उन दोनों को उनके घर से तो नहीं पकड़ लाया थाघ्

ठाकुरदीन—यह दैव जाने। हाँए श्चोर—चोरश् की आवाज मेरे कान में आई थी।

सूरदास—अच्छाए अब मैं तुमसे पूछता हूँ जमादारए तुम आए थे नघ् बोलोए यहाँ जमाव था कि नहींघ्

चौकीदार ने ठाकुरदीन को फूटते देखाए तो डरा कि कहीं अंधा दो—चार आदमियों को और फोड़ लेगाए तो हम झूठे पडेंगे। बोला—हाँए जमाव क्यों नहीं था!

सूरदास—घीसू को सुभागी पकड़े हुए थी कि नहींघ् विद्याधार को मैं पकड़े हुए था कि नहींघ्

चौकीदार—चोरी होते हमने नहीं देखी।

सूरदास—हम इन दोनों लड़कों को पक़्ड़े थे कि नहींघ्

चौकीदार—हाँए पकड़े तो थेए पर चोरी होते देखी नहींघ्

सूरदास—दारोगाजीए अभी शहादत मिली कि और दूँघ् यहाँ नंगे—लुच्चे नहीं बसतेए भलेमानसों ही की बस्ती है। कहिएए बजरंगी से कहला दूँयकहिएए खुद घीसू से कहला दूँघ् कोई झूठी बात न कहेगा। मुरौवत मुरौवत की जगह होती हैए मुहब्बत मुहब्बत की जगह है। मुरौवत और मुहब्बत के पीछे कोई अपना परलोक न बिगाड़ेगा।

बजरंगी ने देखाए अब लड़के की जान नहीं बचतीए तो अपना ईमान क्यों बिगाड़ेघ् दारोगा के सामने आकर खड़ा हो गया और बोला—दारोगाजीए सूरे जो बात कहते हैंए वह ठीक है। जिसने जैसी करनी की हैए वैसी भोगे। हम क्यों अपनी आकबत बिगाड़ेंघ् लड़का ऐसा नालायक न होताए तो आज मुँह में कालिख क्यों लगतीघ् अब उसका चलन ही बिगड़ गयाए तो मैं कहाँ तक बचाऊँगाघ् सजा भोगेगाए तो आप अॉंखें खुलेंगी।

हवा बदल गई। एक क्षण में साक्षियों का ताँता बँधा गया। दोनों अभियुक्त हिरासत में ले लिए गए। मुकदमा चलाए तीन—तीन महीने की सजा हो गई। बजरंगी और जगधार दोनों सूरदास के भक्त थे। नायकराम का यह काम था कि सब किसी से सूरदास के गुन गाया करें। अब ये तीनों उसके दुश्मन हो गए। दो बार पहले पहले भी वह अपने मुहल्ले का द्रोही बन चुका थाए पर उन दोनों अवसरों पर किसी को उसकी जात से इतना आघात न पहुँचा थाए अबकी तो उसने घोर अपराधा किया था। जमुनी जब सूरदास को देखतीए तो सौ काम छोड़कर उसे कोसती। सुभागी को घर से निकलना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि मिठुआ ने भी साथ छोड़ दिया। अब वह रात को भी स्टेशन पर ही रह जाता। अपने साथियों की दशा ने उसकी अॉंखें खोल दीं। नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दियाए चक्कर खाकर आते—जाते। बसए उसके सम्बंधियों में ले—देके एक भैरों रह गया। हाँए कभी—कभी दूसरों की निगाह बचाकर ठाकुरदीन कुशल—समाचार पूछ जाता। और तो और दयागिरि भी उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं लोग उसका मित्रा समझकर मेरी दक्षिणा—भिक्षा न बंद कर दें। सत्य के मित्रा कम होते हैंए शत्रुओं से कहीं कम।

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अध्याय 41

प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया थाए वह मि. जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहींए प्रभु सेवक की भाँति वह केवल बतलाए हुए मार्ग पर अॉंखें बंद करके चलने पर ही संतुष्ट न थेय उनकी निगाह आगे—पीछेए दाएँ—बाएँ भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती हैए जो उनकी द्रष्टि को सीमित कर देती है। वह किसी विषय पर स्वाधाीन होकर विस्तीर्ण द्रष्टि नहीं डाल सकतेए नियमए सिध्दांत और परम्परागत व्यवहार उनकी द्रष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधि ग्रंथों में खोजता हैय वह केवल निदान का दास हैए लक्षणों का गुलामय वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औषधि लुकमान के पास भी न थी। सहज बुध्दि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होतीए तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती हैए जरा—जरा—सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मंत्राी—भवन में बैठा हुआ सेना—मंत्राी सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक से पृथक हो जाने से मि. जॉन सेवक लेशमात्रा भी चिंतित नहीं हुए थे। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार—कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बहीखाते लिख सकते थेए उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एंजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी—कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थेए अब नियमानुसार और यथासमय जाते। बहुधा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर जाते। कभी रात को नौ—दस बजे जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बलबूते पर यह काम नहीं उठाया हैय कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धान—प्रेम का आधार संतान—प्रेम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंगए उनकी जीवन—धार का मुख्य—त था। संसार के और सभी धांधो इसके अंतर्गत थे।

मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्टे्रट से उन्होंने मेल—जोल पैदा कर लिया थाए चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्तवपूर्ण विजय की आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तोजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धूम से चल रही थीए लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधा थी। जॉन सेवक इसी उधोड़—बुन में पड़े रहते थे।

संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट—फेर हुआ कि विकट समस्या बिना विशेष उद्योग के हल हो गई। प्रभु सेवक के असहयोग ने वह काम कर दिखायाए जो कदाचित्‌ उनके सहयोग से भी न हो सकता था।

जब से सोफिया और विनयसिंह आ गए थेए सेवक—दल बड़ी उन्नति कर रहा था। उसकी राजनीति की गति दिन—दिन तीव्र और उग्र होती जाती थी। कुँवर साहब ने जितनी आसानी से पहली बार अधिकारियों की शंकाओं को शांत कर दिया थाए उतनी आसानी से अबकी बार न कर सके। समस्या कहीं विषम हो गई थी। प्रभु सेवक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना मुश्किल न थाए विनय को घर से निकाल देनाए उसे अधिकारियों की दया पर छोड़ देनाए कहीं मुश्किल था। इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थेए जाति—प्रेम में पगे हुएए स्वच्छंदए निरूस्पृह और विचारशील। उनको भोग—विलास के लिए किसी बड़ी जाएदाद की बिलकुल जरूरत न थी। किंतु प्रत्यक्ष रूप से अधिकारियों के कोपभाजन बनने के लिए वह तैयार न थे। वह अपना सर्वस्व जाति—हित के लिए दे सकते थेय किंतु इस तरह कि हित का साधान उनके हाथ में रहे। उनमें वह आत्मसमर्पण की क्षमता न थीए जो निष्काम और निरूस्वार्थ भाव से अपने को मिटा देती है। उन्हें विश्वास था कि हम आड़ में रहकर उससे कहीं अधिक उपयोगी बन सकते हैंए जितने सामने आकर। विनय का दूसरा ही मत था। वह कहता थाए हम जाएदाद के लिए अपनी आत्मिक स्वतंत्राता की हत्या क्यों करेंघ् हम जाएदाद के स्वामी बनकर रहेंगेए उसके दास बनकर नहीं। अगर सम्पत्तिा से निवृत्तिा न प्राप्त कर सकेए तो इस तपस्या का प्रयोजन ही क्याघ् यह तो गुनाहे बेलज्जत है। निवृत्तिा ही के लिए तो यह साधाना की जा रही है। कुँवर साहब इसका यह जवाब देते कि हम इस जाएदाद के स्वामी नहींए केवल रक्षक हैं। यह आनेवाली संतानों की धारोहर—मात्रा है। हमको क्या अधिकार है कि भावी संतान से वह सुख और सम्पत्तिा छीन लेंए जिसके वे वारिस होंगेघ् बहुत सम्भव हैए वे इतने आदर्शवादी न होंए या उन्हें परिस्थिति के बदल जाने से आत्मत्याग की जरूरत ही न रहे। यह भी सम्भव है कि उनमें वे स्वाभाविक गुण न होंए जिनके सामने सम्पत्तिा की कोई हस्ती नहीं। ऐसी ही युक्तियों से वह विनय का समाधान करने की विफल चेष्टा किया करते थे। वास्तव में बात यह थी कि जीवन—पयर्ंत ऐश्वर्य का सुख और सम्मान भोगने के पश्चात्‌ वह निवृत्तिा का यथार्थ आशय ही न ग्रहण कर सकते थे। वह संतान न चाहते थेए सम्पत्तिा के लिए संतान चाहते थे। जाएदाद के सामने संतान का स्थान गौण था। उन्हें अधिकारियों की खुशामद से घृणा थीए हुक्काम की हाँ में हाँ मिलना हेय समझते थेय किंतु हुक्काम की नजरों में गड़नाए उनके हृदय में खटकनाए इस हद तक कि वे शत्रुता पर तत्पर हो जाएँए उन्हें बेवकूफी मालूम होती थी। कुँवर साहब के हाथों में विनय को सीधाी राह पर लाने का एक ही उपाय थाए और वह यह कि सोफिया से उसका विवाह हो जाए। इस बेड़ी में जकड़कर उसकी उद्दंडता को वह शांत करना चाहते थेय लेकिन अब जो कुछ विलम्ब थाए वह सोफिया की ओर से। सोफिया को अब भी भय था कि यद्यपि रानी मुझ पर बड़ी कृपा—द्रष्टि रखती हैंए पर दिल से उन्हें यह सम्बंधा पसंद नहीं। उसका यह भय सर्वथा अकारण भी न था। रानी भी सोफिया से प्रेम कर सकती थीं और करती थींए उसका आदर कर सकती थीं और करती थींए पर अपनी वधू में वह त्याग और विचार की अपेक्षा लज्जाशीलताए सरलताए संकोच और कुल—प्रतिष्ठा को अधिक मूल्यवान समझती थींए संन्यासिनी वधू नहींए भोग करनेवाली वधू चाहती थीं। किंतु वह अपने हृदयगत भावों को भूलकर भी मुँह से न निकालती थीं। न ही वह इस विचार को मन में आने ही देना चाहती थींए इसे कृतघ्नता समझती थीं।

कुँवर साहब कई दिन तक इसी संकट में पड़े रहे। मि. जॉन सेवक से बातचीत किए बिना विवाह कैसे ठीक होताघ् आखिर एक दिन इच्छा न होने पर भी विवश होकर उनके पास गए। संधया हो गई थी। मि. जॉन सेवक अभी—अभी मिल से लौटे थे और मजदूरों के मकानों की स्कीम सामने रखे हुए कुछ सोच रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही उठे और बड़े तपाक से हाथ मिलाया।

कुँवर साहब कुर्सी पर बैठते हुए बोले—आप विनय और सोफिया के विवाह के विषय में क्या निश्चय करते हैंघ् आप मेरे मित्रा और सोफिया के पिता हैंए और दोनों ही नाते से मुझे आपसे यह कहने का अधिकार है कि अब इस काम में देर न कीजिए।

जॉन सेवक—मित्राता के नाते चाहे जो सेवा ले सकते हैंए लेकिन (गम्भीर भाव से) सोफिया के पिता के नाते मुझे कोई निश्चय करने का अधिकार नहीं। उसने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया। नहीं तो उसे इतने दिन यहाँ आए हो गएए क्या एक बार भी यहाँ तक न आतीघ् उसने हमसे यह अधिकार छीन लिया।

इतने में मिसेज सेवक भी आ गईं। पति की बातें सुनकर बोलीं—मैं तो मर जाऊँगीए लेकिन उसकी सूरत न देखूँगी। हमारा उससे अब कोई सम्बंधा न रहा।

कुँवर—आप लोग सोफिया पर अन्याय कर रहे हैं। जब से वह आई हैए एक दिन के लिए भी घर से नहीं निकली। इसका कारण केवल संकोच हैए और कुछ नहीं। शायद डरती है कि बाहर निकलूँए और किसी पुराने परिचित से साक्षात्‌ हो जाएए तो उससे क्या बात करूँगी। थोड़ी देर के लिए कल्पना कर लीजिए कि हममें से कोई भी उसकी जगह होताए तो उसके मन में कैसे भाव आते। इस विषय में वह क्षम्य है। मैं तो इसे अपना दुर्भाग्य समझ्रूगाए अगर आप लोग उससे विरक्त हो जाएँगे। अब विवाह में विलम्ब न होना चाहिए।

मिसेज सेवक—खुदा वह दिन न लाए! मेरे लिए तो वह मर गईए उसका फातेहा पढ़़ चुकीए उसके नाम को जितना रोना थाए रो चुकी!

कुँवर—यह ज्यादती आप लोग मेरे रियासत के साथ कर रहे हैं। विवाह एक ऐसा उपाय हैए जो विनय की उद्दंडता को शांत कर सकता है।

जॉन सेवक—मेरी तो सलाह है कि आप रियासत को कोर्ट अॉफ वार्ड्‌स के सिपुर्द कर दीजिए। गवर्नमेंट आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेगी और आपके प्रति उसका सारा संदेह शांत हो जाएगा। तब कुँवर विनयसिंह की राजनीतिक उद्दंडता का रियासत पर जरा भी असर न पड़ेगाय और यद्यपि इस समय आपको यह व्यवस्था बुरी मालूम होगीए लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके विचारों में प्रौढ़़ता आ जाएगीए तो वह आपके कृतज्ञ होंगे और आपको अपना सच्चा हितैषी समझेंगे। हाँए इतना निवेदन है कि इस काम में हाथ डालने से पहले आप अपने को खूब —ढ़़ कर लें। उस वक्त अगर आपकी ओर से जरा भी पसोपेश हुआए तो आपका सारा प्रयत्न विफल हो जाएगाए आप गवर्नमेंट के संदेह को शांत करने की जगह और भी उकसा देंगे।

कुँवर—मैं जाएदाद की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। मेरी इच्छा केवल इतनी है कि विनय को आर्थिक कष्ट न होने पाए। बसए अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता।

जॉन सेवक—आप प्रत्यक्ष रूप से तो कुँवर विनयसिंह के लिए व्यवस्था नहीं कर सकते। हाँए यह हो सकता है कि आप अपनी वृत्तिा में से जितना उचित समझेंए उन्हें दे दिया करें।

कुँवर—अच्छाए मान लीजिएए विनय इसी मार्ग पर और भी अग्रसर होते गएए तोघ्

जॉन सेवक—तो उन्हें रियासत पर कोई अधिकार न होगा।

कुँवर—लेकिन उनकी संतान को तो यह अधिकार रहेगाघ्

जॉन सेवक—अवश्य।

कुँवर—गवर्नमेंट स्पष्ट रूप से यह शर्त मंजूर कर लेगीघ्

जॉन सेवक—न मंजूर करने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता।

कुँवर—ऐसा तो न होगा कि विनय के कामों का फल उनकी संतान को भोगना पड़ेघ् सरकार रियासत को हमेशा के लिए जब्त कर लेघ् ऐसा दो—एक जगह हुआ है। बरार ही को देखिए।

जॉन सेवक—कोई खास बात पैदा हो जाएए तो नहीं कह सकतेय लेकिन सरकार की यह नीति कभी नहीं रही। बरार की बात जाने दीजिए। वह इतना बड़ा सूबा है कि किसी रियासत में उसका मिल जाना राजनीतिक कठिनाइयों का कारण हो सकता है।

कुँवर—तो मैं कल डॉक्टर गांगुली को शिमले से तार भेजकर बुलाए लेता हूँघ्

जॉन सेवक—आप चाहेंए तो बुला लें। मैं तो समझता हूँए यहीं से मसबिदा बनाकर उनके पास भेज दिया जाए या मैं स्वयं चला जाऊँ और सारी बातें आपकी इच्छानुसार तय कर आऊँ।

कुँवर साहब ने धान्यवाद दिया और घर चले गए। रात—भर वह इसी हैस—वैस में पड़े रहे कि विनय और जाह्नवी से इस निश्चय का समाचार कहूँ या न कहूँ। उनका जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्याघ् अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगाए तो और भी दिलेर हो जाएगा। अंत को उन्होंने यह निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहींए और विघ्न पड़ने की सम्भावना है। जब काम पूरा हो जाएगाए तो कहने—सुनने को काफी समय मिलेगा।

मिस्टर जॉन सेवक पैरों—तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना—पत्रा लिखवाया और कुँवर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गांगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गांगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसंद किया और खुद शिमले से आए। यहाँ क्ुँ़वर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रांतीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इसमें क्या आपत्तिा हो सकती थीए विशेषतरू ऐसी दशा में जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न थाघ् कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब—किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अंदर रियासत पर सरकारी अधिकार हो गया। कुँवर साहब लज्जा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलतेए घर में बहुत कम आतेए अॉंखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाए। जिस दिन सारी शतरे तय हो गईंए कुँवर साहब से न रहा गयाए विनयसिंह से बोले—रियासत पर तो सरकारी अधिकार हो गया।

विनय ने चौंककर पूछा—क्या जब्त हो गईघ्

कुँवर—नहींए मैंने कोर्ट अॉफ वार्ड्‌स के सिपुर्द कर दिया!

यह कहकर उन्होंने शतोर्ं का उल्लेख किया और विनीत भाव से बोले—क्षमा करनाए मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।

विनय—मुझे इसका बिलकुल दुरूख नहीं हैए लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की हैए जिसका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।

कुँवर—इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।

विनय—आपने यह निश्चय करने से पहले ही मुझसे सलाह ली होतीए तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक्‌ रहने का प्रतिज्ञापत्रा लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।

कुँवर—(सोचकर) उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधान थाघ्

विनय—तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना—जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकेंए तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहींए आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूँगा।

कुँवर साहब सजल नयन होकर बोले—विनयए मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहींए तुम्हारी सहानुभूति और दया का पात्रा होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँए केवल सामाजिक सेवक से हमारा उध्दार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजनाए जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न होए जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाएए संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा—क्षेत्रा में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धारण करेगी और इसका परिणाम यह होगा! मैंने सोचा थाए मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगाययह न जानता था कि इसके बदले मुझे अपना सर्वस्व—और अपना ही नहींए भावी संतान का सर्वस्व भी—होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान्‌ त्याग की सामर्थ्‌य नहीं।

विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में उन्हें कोई चिंता न थीए चिंता थी सेवक—दल के संचालन की। इसके लिए धान कहाँ से आएगाघ् उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैंए यह गुर न जानते थे। कम—से—कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धान एकत्रा करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धान—सम्पत्तिा इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवारए 60 हजार रुपये साल के लिए 12 लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक था। कुछ बुध्दि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धान थाए पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थीए क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।

तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्ताए दोनों रुपयों की चिंता में मग्न बैठे हुए थे सहसा सोफिया ने आकर कहा—मैं एक उपाय बताऊँघ्

इंद्रदत्ता—भिक्षा माँगने चलेंघ्

सोफिया—क्यों न एक ड्रामा खेला जाए! ऐक्टर हैं हीए कुछ परदे बनवा लिए जाएँए मैं भी परदे बनाने में मदद दूँगी।

विनय—सलाह तो अच्छी हैए लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।

सोफिया—नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगीए मैं परिचारिका का पार्ट लूँगी।

इंद्रदत्ता—अच्छाए कौन—सा नाटक खेला जाएघ् भट्टजी का श्दुर्गावतीश् नाटक।

विनय—मुझे तो श्प्रसादश् का श्अजातशत्रुश् बहुत पसंद है।

सोफिया—मुझे श्कर्बलाश् बहुत पसंद आया। वीर और करुणए दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।

इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था।

विनय—अच्छाए बताओए इसमें क्या होगाघ्

सोफिया—रुपये तो होंगे नहींए और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पाएगाघ् वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगाघ्

विनय—और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।

इंद्रदत्ता—कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।

विनय—तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थीघ्

इंद्रदत्ता—रुपये हो तोए तो बीमा न कराया होताघ्

विनय—मैं कहता हूँए रुपये हैंए चाहे शर्त बद लो।

इंद्रदत्ता—मेरे पास कुल पाँच रुपये हैंए पाँच—पाँच की बाजी है।

विनय—यह नहीं। अगर इसमें रुपये होंए तो मैं तुम्हारी गर्दन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुएए तो तुम मेरी गर्दन पर सवार होना। बोलोघ्

इंद्रदत्ता—मंजूर हैए खोलो लिफाफा।

लिफाफा खोला गयाए तो चेक निकला। पूरे दस हजार रुपये का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले—मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़़े हैं। आइएए लाइए गर्दन।

इंद्रदत्ता—ठहरो—ठहरोए गर्दन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़़ोए क्या लिखा हैए कहाँ हैंए क्या कर रहे हैंघ् लगे सवारी गाँठने।

विनय—जी नहींए यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गर्दन टूटे या रहेए इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले—पतले तो हो नहींए खासे देव तो बने हुए हो।

इंद्रदत्ता—भाईए आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा का था।

विनय—खैरए देर न कीजिएए गर्दन झुकाकर खड़े हो जाइए।

इंद्रदत्ता—सोफियाए मेरी रक्षा करो। तुम्हीं ने पहले कहा थाए इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।

सोफिया—मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानोए यह जानें। यह कहकर उसने खत शुरू किया—

प्रिय बंधूवरए मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्रा किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक—दल से मुझे अब भी वही प्रेम हैए जो पहले था। उसकी सेवा करना अपनार् कत्ताव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल समाचार जानने के लिए उत्सुक होंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य—चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के सिवा मैंने और किसी को इतना काव्य—रस—चतुर नहीं पाया। कितनी सजीव सहृदयता थी! गवर्नर महोदय की प्रेरणा से मैं यहाँ आयाए और जब से आया हूँए आतिथ्य का अविरल प्रवाह हो रहा है। वास्तव में जीवित राष्ट्र ही गुणियों का आदर करना जानते हैं। बड़े ही सहृदयए उदारए स्नेहशील प्राणी हैं। मुझे इस जाति से अब श्रध्दा हो गई हैए और मुझे विश्वास हो गया कि इस जाति के हाथों हमारा अहित कभी नहीं हो सकता। कल यूनिवर्सिटी की ओर से मुझे एक अभिनंदन—पत्रा दिया गया। साहित्य—सेवियों का ऐसा समारोह मैंने काहे को कभी देखा था! महिलाओं का स्नेह और सत्कार देखकर मैं मुग्धा हो गया। दो दिन पहले इंडिया—हाउस में भोज था। आज साहित्य—परिषद्‌ ने निमंत्रिात किया है। कल श्लिबरलश् एसोसिएशन दावत देगा। परसों पारसी समाज का नम्बर है। उसी दिन यूनियन क्लब की ओर से पार्टी दी जाएगी। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि मैं इतना जल्द बड़ा आदमी हो जाऊँगा। मैं ख्याति और सम्मान के निंदकों में नहीं हूँ। इसके सिवा गुणियों को और क्या पुरस्कार मिल सकता हैघ् मुझे कब मालूम हुआ कि मैं क्या करने के लिए संसार में आया हूँघ् मेरे जीवन का उद्देश्य क्या हैघ् अब तक भ्रम में पड़ा हुआ था। अब से मेरे जीवन का मिशन होगा प्राच्य और पाश्चात्य को प्रेम—सूत्रा में बाँधानाए पारस्परिक द्वंद्व को मिटाना और दोनों में समान भावों को जागृत करना। मैं यही व्रत धारण करूँगा। पूर्व ने किसी जमाने में पश्चिम को धार्म का मार्ग दिखाया थाय अब उसे प्रेम का शब्द सुनाएगाए प्रेम का पथ दिखाएगा। मेरी कविताओं का पहला संग्रह मैकमिलन कम्पनी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होगा। गवर्नर महोदय मेरी उन कविताओं की भूमिका लिखेंगे। इस संग्रह के लिए प्रकाशकों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए हैं। इच्छा तो यही थी कि ये सब रुपये अपनी प्यारी संस्था को भेंट करताय पर विचार हो रहा है कि अमेरिका की सैर भी करूँ। इसलिए इस समय जो कुछ भेजता हूँए उसे स्वीकार कीजिए। मैंने अपनेर् कत्ताव्य का पालन किया है। इसलिए धान्यवाद की आशा नहीं रखता। हाँए इतना निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ कि आपको सेवा के उच्चादशोर्ं का पालन करना चाहिएए और राजनीतिक परिस्थितियों से विरक्त होकर श्वसुधौव कुटुम्बकम्श् के प्रचार को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। मेरे व्याख्यानों की रिपोर्ट आपको यहाँ के समाचार—पत्राों में मिलेगी। आप देखेंगे कि मेरे राजनीतिक विचारों में कितना अंतर हो गया है। मैं अब स्वदेशी नहींए सर्वदेशीय हूँए अखिल संसार मेरा स्वदेश हैय प्राणिमात्रा से मेरा बंधूत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओ को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रार्थना कीजिए कि अमेरिका से सकुशल लौट आऊँ।

आपका सच्चा बंधू

प्रभु सेवक

सोफिया ने पत्रा मेज पर रख दिया और गम्भीर भाव से बोली—इसके दोनों ही अर्थ हो सकते हैंए आत्मिक उत्थान या पतन। मैं तो पतन ही समझती हूँ।

विनय—क्योंघ् उत्थान क्यों नहींघ्

सोफिया—इसलिए कि प्रभु सेवक की आत्मा शृंगारप्रिय है। वह कभी स्थिर चित्ता नहीं रहे। जो प्राणी सम्मान से इतना फूल उठता हैए वह उपेक्षा से इतना ही हताश भी हो जाएगा।

विनय—यह कोई बात नहीं। कदाचित्‌ मैं भी इसी तरह फूल उठता। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। यहाँ उनकी क्या कद्र हुईघ् मरते दम तक गुमनाम पड़े रहते।

इंद्रदत्ता—जब हमारे काम के नहीं रहेए तो प्रसिध्द हुआ करें। ऐसे विश्व—प्रेमियों से कभी किसी का उपकार न हुआ हैए न होगा। जिसमें अपना नहींए उसमें पराया क्या होगाघ्

सोफिया—सार्वदेशिकता हमारे कई कवियों को ले डूबीए इन्हें भी ले डूबेगी। इनका होनाए न होना हमारे लिए दोनों बराबर हैय बल्कि मुझे तो अब इनसे हानि पहुँचने की शंका है। मैं जाकर अभी इस पत्रा का जवाब लिखती हूँ।

यह कहते हुए सोफिया वह पत्रा हाथ में लिए हुए अपने कमरे में चली गई। विनय ने कहा—क्या करूँए रुपये वापस कर दूँ।

इंद्रदत्ता—रुपये क्यों वापस करोगेघ् उन्होंने कोई शर्त तो की नहीं है! मित्राोचित सलाह दी है और बहुत अच्छी सलाह दी हैं हमारा भी तो वही उद्देश्य है। अंतर केवल इतना है कि वह समता के बिना ही बंधूत्व का प्रचार करना चाहते हैंए हम बंधूत्व के लिए समता को आवश्यक समझते हैं।

विनय—यों क्यों नहीं कहते कि बंधूत्व समता पर ही स्थित हैघ्

इंद्रदत्ता—सोफिया देवी खूब खबर लेंगी।

विनय—अच्छाए अभी रुपये रखे लेता हूँए पीछे देखा जाएगा।

इंद्रदत्ता—दो—चार ऐसे ही मित्रा और मिल जाएँए तो हमारा काम चल निकले।

विनय—सोफिया का ड्रामा खेलने की सलाह कैसी हैघ्

इंद्रदत्ता—क्या पूछनाए उनका अभिनय देखकर लोग दंग रह जाएँगे।

विनय—तुम मेरी जगह होतेए तो उसे स्टेज पर लाना पसंद करतेघ्

इंद्रदत्ता—पेशा समझकर तो नहींए लेकिन परोपकार के लिए स्टेज पर लाने में शायद मुझे आपत्तिा न होगी।

विनय—तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा उदार हो। मैं तो इसे किसी हालत में पसंद न करूँगा। हाँए यह तो बताओए सोफिया आजकल कुछ उदास मालूम होती है! कल इसने मुझसे जो बातें कीए वे बहुत निराशाजनक थीं। उसको भय है कि उसी के कारण रियासत का यह हाल हुआ है। माताजी तो उस पर जान देती हैंए पर वह उनसे दूर भागती है। फिर वही आधयात्मिक बातें करती हैए जिनका आशय आज तक मेरी समझ में नहीं आया—मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी नहीं बनना चाहतीए मेरे लिए केवल तुम्हारी स्नेह—द्रष्टि काफी हैए और जाने क्या—क्या। और मेरा यह हाल है कि घंटे—भर भी उसे न देखूँए तो चित्ता विकल हो जाता है।

इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।

इंद्रदत्ता—आइएए इंदुरानीए आइए। आप ही का इंतजार था।

इंदु—झूठे होए मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थीए रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।

इंद्रदत्ता—तो मालूम होता हैए आप कुछ लाई हैं। लाइएए वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।

इंदु—मुझसे माँगते होघ् मेरा हाल जानकर भीघ् एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ हैघ् अम्माँजी तो अब राजी हैं नघ्

विनय—किसी की दिल की बात कोई क्या जाने।

इंदु—मैं तो समझती हूँ अम्माँजी राजी भी हो जाएँए तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दुरूख तो अवश्य होगाय लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।

विनय ने अॉंसू पीते हुए कहा—मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।

इंदु—सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धार्मसंकट में पड़ी हुई है। न तुम्हें निराश करना चाहती हैए न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम हैए वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्राी नहीं हैए केवल एक कल्पना है। भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते होए पर उसे अनुभव नहीं कर सकतेए उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावों को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्‌य ही नहीं। सोफिया वही कवि की अंतर्तम भावना है।

इंद्रदत्ता—और आपकी यह सब बातें भी कोरी कवि—कल्पना हैं। सोफिया न कवि—कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्यय न देवी है न देवता। न अप्सरा है न परी। जैसी अन्य स्त्रिायाँ होती हैंए वैसी ही एक स्त्राी वह भी हैए वही उसके भाव हैंए वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी कीए कोई भी ऐसी बात कीए जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैंघ् तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैंए तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम होए पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी। आप लोग वही चाहते हैंए जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखी है। आप लोग तैयारियाँ कीजिएए फिर उसकी ओर से आपत्तिा होए तो अलबत्ताा उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती हैए आप लोग स्वयं धूकुर—पुकुर कर रहे हैंए तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।

इंदु—ऐसा कहीं भूलकर भी न करनाए नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।

इतने में सोफिया वह पत्रा लिए हुए आती दिखाई दीए जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दीए और बोली—तुम लोगों को तो अभी खबर न होगीए मि. सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।

सोफिया ने इंदु को गले मिलते हुए पूछा—पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगेघ्

इंदु—अभी तुम्हें मालूम ही नहींघ् वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जाएगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।

इंद्रदत्ता—राजा साहब ने मंजूर कर लियाघ् इतनी जल्दी भूल गए। अबकी शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा।

इंदु—सरकार का आदेश थाए कैसे न मंजूर करते।

इंद्रदत्ता—साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्रा चला दिया।

इंदु—क्योंए इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिकार नहीं करा दियाघ् एक राजद्रोही राज को अपंग नहीं बना दियाघ् एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डालीघ् सरकार पर इतने एहसान करके यों ही छोड़ देतेघ् चतुर व्यवसायी न हुएए कोई राजा—ठाकुर हुए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कम्पनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।

विनय—राजा साहब को पद—त्याग कर देना चाहिए। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।

इंदु—कुछ सोच—समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुनाए पाँडेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।

इंद्रदत्ता—न होना चाहिए।

सोफिया—जरा चलकर देखना चाहिएए वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गएए तोघ् नहींए मैं न जाऊँगीए तुम्हीं लोग जाओ।

तीनों आदमी पाँड़ेपुर की तरफ चले।

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अध्याय 42

अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दियाए तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी—थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्याए आस—पास के गाँववाले भी दो—चार खोटी—खरी सुना जाते थे—माँगता तो है भीखए पर अपने को कितना लगाता हैघ् जरा चार भले आदमियों ने मुँह लगा लियाए तो घमंड के मारे पाँव धारती पर नहीं रखता। सूरदास को मारे शर्म के घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। इसका एक अच्छा फल यह हुआ कि बजरंगी और जगधार का क्रोधा शांत हो गया। बजरंगी ने सोचाए अब क्या मारूँ—पीटूँए उसके मुँह में तो यों ही कालिख लग गईय जगधार की अकेले इतनी हिम्मत कहाँ! दूसरा फल यह हुआ कि सुभागी फिर भैरों के घर जाने को राजी हो गई। उसे ज्ञात हो गया कि बिना किसी आड़ के मैं इन झोंकों से नहीं बच सकती। सूरदास की आड़ केवल टट्टी की आड़ थी।

एक दिन सूरदास बैठा हुआ दुनिया की हठधार्मी और अनीति का दुखड़ा रो रहा था कि सुभागी बोली—भैयाए तुम्हारे ऊपर मेरे कारन चारों ओर से बौछार पड़ रही हैए बजरंगी और जगधार दोनों मारने पर उतारू हैंए न हो तो मुझे भी अब मेरे घर पहुँचा दो। यही न होगाए मारे—पीटेगाए क्या करूँगीए सह लूँगीए इस बेआबरुई से तो बचूँगीघ्

भैरों तो पहले ही से मुँह फैलाए हुए थाए बहुत खुश हुआए आकर सुभागी को बड़े आदर से ले गया। सुभागी जाकर बुढ़़िया के पैरों पर गिर पड़ी और खूब रोई। बुढ़़िया ने उठाकर छाती से लगा लिया। बेचारी अब अॉंखों से माजूर हो गई थी। भैरों जब कहीं चला जाताए तो दूकान पर कोई बैठनेवाला न रहताए लोग ऍंधोरे में लकड़ी उठा ले जाते थे। खाना तो खैर किसी तरह बना लेती थीए किंतु इस नोच—खसोट का नुकसान न सहा जाता था। सुभागी घर की देखभाल तो करेगी! रहा भैरोंए उसके हृदय में अब छल—कपट का लेश भी न रहा था। सूरदास पर उसे इतनी श्रध्दा हो गई कि कदाचित्‌ किसी देवता पर भी न होगी अब वह अपनी पिछली बातों पर पछताता और मुक्त कंठ से सूरदास के गुण गाता था।

इतने दिनों तक सूरदास घर—बार की चिंताओं से मुक्त थाए पकी—पकाई रोटीयाँ मिल जाती थींए बरतन धूल जाते थेय घर में झाड़ई लग जाती थी। अब फिर वही पुरानी विपत्तिा सिर पर सवार हुई। मिठुआ अब स्टेशन ही पर रहता था। घीसू और विद्याधार के दंड से उसकी अॉंखें खुल गई थीं। कान पकड़ेए अब कभी जुआ और चरस के नगीच न जाऊँगा। बाजार से चबेना लेकर खाता और स्टेशन के बरामदे में पड़ा रहता था। कौन नित्य तीन—चार मील चले! जरा भी चिंता न थी कि सूरदास की कैसे निभती हैए अब मेरे हाथ—पाँव हुएए कुछ मेरा धार्म भी उसके प्रति है या नहींए आखिर किस दिन के लिए उसने मुझे अपने लड़के की भाँति पाला था। सूरदास कई बार खुद स्टेशन पर गयाए और उससे कहा कि साँझ को घर चला आया करए क्या अब भी भीख माँगूँघ् मगर उसकी बला सुनती थी। एक बार उसने साफ कह दियाए यहाँ मेरा गुजारा तो होता नहींए तुम्हारे लिए कहाँ से लाऊँघ् मेरे लिए तुमने कौन—सी बड़ी तपस्या की थीए एक टुकड़ा रोटी दे देते थेए कुत्तो को न दियाए मुझी को दे दिया। तुमसे मैं कहने गया था कि मुझे खिलाओ—पिलाओए छोड़ क्यों न दियाघ् जिन लड़कों के माँ—बाप नहीं होतेए वे सब क्या मर जाते हैंघ् जैसे तुम एक टुकड़ा दे देते थेए वैसे बहुत टुकड़े मिल जाते। इन बातों से सूरदास का दिल ऐसा टूटा कि फिर उससे घर आने को न कहा।

इधार सोफिया कई बार सूरदास से मिल चुकी थी। वह और तो कहीं न जातीए पर समय निकालकर सूरदास से अवश्य मिल जाती। ऐसे मौके से आती कि सेवकजी से सामना न होने पाए। जब आतीए सूरदास के लिए कोई—न—कोई सौगात जरूर लाती। उसने इंद्रदत्ता से उसका सारा वृत्ताांत सुना था। उसका अदालत में जनता से अपील करनाए चंदे के रुपये स्वयं न लेकर दूसरे को दे देनाए जमीन के रुपयेए जो सरकार से मिले थेए दान दे देना—तब से उसे उससे और भी भक्ति हो गई थी। गँवारों की धार्मपिपासा ईंट—पत्थर पूजने से शांत हो जाती हैए भद्रजनों की भक्ति सिध्द पुरुषों की सेवा से। उन्हें प्रत्येक दीवाना पूर्वजन्म का कोई ऋषि मालूम होता है। उसकी गालियाँ सुनते हैंए उसके जूठे बरतन धोते हैंए यहाँ तक कि उसके धूल—धूसरित पैरों को धोकर चरणामृत लेते हैं। उन्हें उसकी काया में कोई देवात्मा बैठी हुई मालूम होती है। सोफिया को सूरदास से कुछ ऐसी ही भक्ति हो गई थी। एक बार उसके लिए संतरे और सेब ले गई। सूरदास घर लायाए पर आप न खायाए मिठुआ की याद आईए उसकी कठोर बातें विस्मृत हो गईंए सबेरे उन्हें लिए स्टेशन गया और उसे दे आया। एक बार सोफी के साथ इंदु भी आई थी। सरदी के दिन थे। सूरदास खड़ा काँप रहा था। इंदु ने वह कम्बलए जो वह अपने पैरों पर डाले हुए थेए सूरदास को दे दिया। सूरदास को वह कम्बल ऐसा अच्छा मालूम हुआ कि खुद न ओढ़़ सका। मैं बुङ्‌ढ़ा भिखारीए यह कम्बल ओढ़़कर कहाँ जाऊँगाघ् कौन भीख देगाघ् रात को जमीन पर लेटूँए दिन—भर सड़क के किनारे खड़ा रहूँए मुझे यह कम्बल लेकर क्या करनाघ् जाकर मिठुआ को दे आया। इधार तो अब भी इतना प्रेम थाए उधार मिठुआ इतना स्वार्थी था कि खाने को भी न पूछता। सूरदास समझता कि लड़का हैए यही इसके खाने—पहनने के दिन हैं। मेरी खबर नहीं लेताए खुद तो आराम से खाता—पहनता है। अपना हैए तो कब न काम आएगा।

फागुन का महीना थाए संधया का समय। एक स्त्राी घास बेचकर जा रही थी। मजदूरों ने अभी—अभी काम से छुट्टी पाई थी। दिन भर चुपचाप चरखियों के सामने खड़े—खड़े उकता गए थेए विनोद के लिए उत्सुक हो रहे थे। घसियारिन को देखते ही उस पर अश्लील कबीरों की बौछार शुरू कर दी। सूरदास को यह बुरा मालूम हुआ।

बोला—यारोए क्यों अपनी जबान खराब करते होघ् वह बेचारी तो अपनी राह चली जाती हैए और तुम लोग उसका पीछा नहीं छोड़ते। वह भी तो किसी की बहू—बेटी होगी।

एक मजदूर बोला—भीख माँगो भीखए जो तुम्हारे करम में लिखा है। हम गाते हैंए तो तुम्हारी नानी क्यों मरती हैघ्

सूरदास—गाने को थोड़े ही कोई मने करता है।

मजदूर—तो हम क्या लाठी चलाते हैंघ्

सूरदास—उस औरत को छेड़ते क्यों होघ्

मजदूर—तो तुम्हें क्या बुरा लगता हैघ् तुम्हारी बहन है कि बेटीघ्

सूरदास—बेटी भी हैए बहन भी है। हमारी हुई तोए किसी दूसरे भाई की हुई तोघ्

उसके मुँह से वाक्य का अंतिम शब्द निकलने भी न पाया था कि मजदूर ने चुपके से जाकर उसकी टाँग पकड़कर खींच ली। बेचारा बेखबर खड़ा था। कंकड़ पर इतनी जोर से मुँह के बल गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गएए छाती में बड़ी चोट आईए ओठ कट गएए मरूच्छा—सी आ गई। पंद्रह—बीस मिनट तक वहीं अचेत पड़ा रहा। कोई मजदूर निकट भी न आयाए सब अपनी राह चले गए। संयोग से नायकराम उसी समय शहर से आ रहे थे। सूरदास को सड़क पर पड़े देखाए तो चकराए कि माजरा क्या हैए किसी ने मारा—पीटा तो नहींघ् बजरंगी के सिवा और किसमें इतना दम है। बुरा किया। कितना ही होए अपने धार्म का सच्चा है। दया आ गई। समीप आकर हिलायाए तो सूरदास को होश आयाए उठकर नायकराम का एक हाथ पकड़ लिया और दूसरे हाथ से लाठी टेकता हुआ चला।

नायकराम ने पूछा—किसी ने मारा है क्या सूरेए मुँह से लहू बह रहा हैघ्

सूरदास—नहीं भैयाए ठोकर खाकर गिर पड़ा था।

नायकराम—छिपाओ मतए अगर बजरंगी या जगधार ने मारा होए तो बता दो। दोनों को साल—साल भर के लिए भिजवा न दूँए तो ब्राह्मण नहीं।

सूरदास—नहीं भैयाए किसी ने नहीं माराए झूठ किसे लगा दूँघ्

नायकराम—मिलवालों में से तो किसी ने नहीं माराघ् ये सब राह—चलते आदमियों को बहुत छेड़ा करते हैं। कहता हूँए लुटवा दूँगाए इन झोंपड़ों में आग न लगा दूँए तो कहना। बताओए किसने यह काम कियाघ् तुम तो आज तक कभी ठोकर खाकर नहीं गिरे। सारी देह लहू से लथपथ हो गई हैं

सूरदास ने किसी का नाम न बतलाया। जानता था कि नायकराम क्रोधा में आ जाएगाए तो मरने—मारने को न डरेगा। घर पहुँचाए तो सारा मुहल्ला दौड़ा। हाय! हाय! किस मुद्दई ने बेचारे अंधो को मारा! देखो तोए मुँह कितना सूज आया है! लोगों ने सूरदास को बिछावन पर लिटा दिया। भैरों दौड़ाए बजरंगी ने आग जलाईए अफीम और तेल की मालिश होने लगी। सभी के दिल उसकी तरफ से नम पड़ गए। अकेला जगधार खुश थाए जमुनी से बोला—भगवान ने हमारा बदला लिया है। हम सबर कर गएए पर भगवान्‌ तो न्याय करनेवाले हैं।

जमुनी चिढ़़कर बोली—चुप भी रहोए आए हो बड़े न्याय की पूँछ बनके! बिपत में बैरी पर भी न हँसना चाहिएए वह हमारा बैरी नहीं है। सच बात के पीछे जान दे देगाए चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। आज हममे से कोई बीमार पड़ जाएए तो देखोए रात—की—रात बैठा रहता है कि नहीं। ऐसे आदमी से क्या बैर!

जगधार लज्जित हो गया।

पंद्रह दिन तक सूरदास घर से निकलने लायक न हुआ। कई दिन मुँह से खून आता रहा। सुभागी दिन—भर उसके पास बैठी रहती। भैरों रात को उसके पास सोता। जमुनी नूर के तड़के गरम दूधा लेकर आती और उसे अपने हाथों से पिला जाती। बजरंगी बाजार से दवाएँ लाता। अगर कोई उसे देखने न आयाए तो वह मिठुआ था। उसके पास तीन बार आदमी गयाए पर उसकी इतनी हिम्मत भी न हुई कि सेवा—शुश्रूषा के लिए नहींए तो कुशल—समाचार पूछने ही के लिए चला आता। डरता था कि जाऊँगा तो लोगों के कहने—सुनने से कुछ—न—कुछ देना ही पड़ेगा। उसे अब रुपये का चस्का लग गया था। सूरदास के मुँह से भी इतना निकल ही गया—दुनिया अपने मतलब की है। बाप नन्हा—सा छोड़कर मर गया। माँ—बेटे की परवस्ती कीए माँ मर गईए तो अपने लड़के की तरह पाला—पोसाए आप लड़कोरी बन गयाए उसकी नींद सोता थाए उसकी नींद जागता थाए आज चार पैसे कमाने लगाए तो बात भी नहीं पूछता। खैरए हमारे भी भगवान्‌ हैं। जहाँ रहेए सुखी रहे। उसकी नीयत उसके साथए मेरी नीयत मेरे साथ। उसे मेरी कलक न होए मुझे तो उसकी कलक है। मैं कैसे भूल जाऊँ कि मैंने लड़के की तरह उसको पाला है!

इधार तो सूरदास रोग—शय्या पर पड़ा हुआ थाए उधार पाँड़ेपुर का भाग्य—निर्णय हो रहा था। एक दिन प्रातरूकाल राजा महेंद्रकुमारए मि. जॉन सेवकए जाएदाद के तखमीने का अफसरए पुलिस के कुछ सिपाही और एक दारोगा पाँड़ेपुर आ पहुँचे। राजा साहब ने निवासियों को जमा करके समझाया—सरकार को एक खास सरकारी काम के लिए इस मुहल्ले की जरूरत है। उसने फैसला किया है कि तुम लोगों को उचित दाम देकर यह जमीन ले ली जाएए लाट साहब का हुक्म आ गया है। तखमीने के अफसर साहब इसी काम के लिए तैनात किए गए हैं। कल से उनका इजलास यहीं हुआ करेगा। आप सब मकानों की कीमत का तखमीना करेंगे ओर उसी के मुताबिक तुम्हें मुआवजा मिल जाएगा। तुम्हें जो कुछ अर्ज—मारूज करना होए आप ही से करना। आज से तीन महीने के अंदर तुम्हें अपने—अपने मकान खाली कर देने पड़ेंगेए मुआवजा पीछे मिलता रहेगा। जो आदमी इतने दिनों के अंदर मकान न खाली करेगाए उसके मुआवजे के रुपये जब्त कर लिए जाएँगे और वह जबरदस्ती घर से निकाल दिया जाएगा। अगर कोई रोक—टोक करेगाए तो पुलिस उसका चालान करेगीए उसको सजा हो जाएगी। सरकार तुम लोगों को बेवजह तकलीफ नहीं दे रही हैए उसको इस जमीन की सख्त जरूरत है। मैं सिर्फ सरकारी हुक्म की तामील कर रहा हूँ।

गाँववालों को पहले ही इसकी टोह मिल चुकी थी। किंतु इस ख्याल से मन को बोधा दे रहे थे कि कौन जानेए खबर ठीक है या नहीं। ज्यों—ज्यों विलम्ब होता थाए उनकी आलस्य—प्रिय आत्माएँ निश्चिंत होती जाती थीं। किसी को आशा थी कि हाकिमों से कह—सुनकर अपना घर बचा लूँगाए कोई कुछ दे—दिलाकर अपनी रक्षा करने की फिक्र कर रहा थाए कोई उज्रदारी करने का निश्चय किए हुए थाए कोई यह सोचकर शांत बैठा हुआ था कि न जाने क्या होगाए पहले से क्यों अपनी जान हलकान करेंए जब सिर पर पड़ेगीए तब देखी जाएगी। तिस पर भी आज जो लोगों ने सहसा यह हुक्म सुनाए तो मानो वज्राघात हो गया। सब—के—सब साथ हाथ बाँधाकर राजा साहब के सामने खड़े हो गए और कहने लगे—सरकारए यहाँ रहते हमारी कितनी पीढ़़ियाँ गुजर गईंए अब सरकार हमको निकाल देगीए तो कहाँ जाएँगेघ् दो—चार आदमी होंए तो कहीं घुस पड़ेंए मुहल्ले—का—मुहल्ला उजड़कर कहाँ जाएगाघ् सरकार जैसे हमें निकालती हैए वैसे कहीं ठिकाना भी बता दे।

राजा साहब बोले—मुझे स्वयं इस बात का बड़ा दुरूख है और मैंने तुम्हारी ओर से सरकार की सेवा में उज्र भी किया थाय मगर सरकार कहती हैए इस जमीन के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। मुझे तुम्हारे साथ सच्ची सहानुभूति हैए पर मजबूर हूँए कुछ नहीं कर सकताए सरकार का हुक्म हैए मानना पड़ेगा।

इसका जवाब देने की किसी को हिम्मत न पड़ती थी। लोग एक दूसरे को कुहनियों से ठेलते थे कि आगे बढ़़कर पूछोए मुआवजा किस हिसाब से मिलेगाय पर किसी के कदम न बढ़़ते थे। नायकराम यों तो बहुत चलते हुए आदमी थेए पर इस अवसर पर वह भी मौन साधो हुए खड़े थे। वह राजा साहब से कुछ कहना—सुनना व्यर्थ समझकर तखमीने के अफसर से तखमीने की दर में कुछ बेशी करा लेने की युक्ति सोच रहे थे। कुछ दे—दिलाकर उनसे काम निकालना ज्यादा सरल जान पड़ता था। इस विपत्तिा में सभी को सूरदास की याद आती थी। वह होताए तो जरूर हमारी ओर से अरज—बिनती करता। इतना गुरदा और किसी का नहीं हो सकता। कई आदमी लपके हुए सूरदास के पास गए और उससे समाचार कहा।

सूरदास ने कहा—और सब लोग तो हैं हीए मैं चलकर क्या कर लूँगा। नायकराम क्यों सामने नहीं आतेघ् यों तो बहुत गरजते हैंए अब क्यों मुँह नहीं खुलताघ् मुहल्ले ही में रोब दिखाने को हैघ्

ठाकुरदीन—सबकी देखी गई। सबके मुँह में दही जमा हुआ है। हाकिमों से बोलने को हिम्मत चाहिएए अकिल चाहिए।

शिवसेवक बनिया ने कहा—मेरे तो उनके सामने खड़े होते पैर थरथर काँपते हैं। न जाने कोई कैसे हाकिमों से बातें करता है। मुझे तो वह जरा डाँट देंए तो दम ही निकल जाए।

झींगुर तेली बोला—हाकिमों का बड़ा रोब होता है। उनके सामने तो अकिल ही खप्त हो जाती है।

सूरदास—मुझसे तो उठा ही नहीं जाता। चलना भी चाहूँए तो कैसे चलूँगा।

ठाकुरदीन—यह कौन मुश्किल काम है। हम लोग तुम्हें उठा ले चलेंगे।

सूरदास यों लाठी के सहारे घर से बाहर आने—जाने लगा थाए पर इस वक्त अनायास उसे कुछ मान करने की इच्छा हुई। कहने से धोबी गधो पर नहीं चढ़़ता।

सूरदास—भाईए करोगे सब जने अपने—अपने—अपने मन ही कीए मुझे क्यों नक्कू बनाते होघ् जो सबकी गत होगीए वही मेरी भी गत होगी। भगवान्‌ की जो मरजी हैए वह होगी।

ठाकुरदीन ने बहुत चिरौरी कीए पर सूरदास चलने पर राजी न हुआ। तब ठाकुरदीन को क्रोधा आ गया। बेलाग बात कहते थे। बोले—अच्छी बात हैए मत जाओ। क्या तुम समझते होए जहाँ मुर्गा न होगा वहाँ सबेरा ही न होगाघ् चार आदमी सराहने लगेए तो अब मिजाज ही नहीं मिलते। सच कहा हैए कौवा धोने से बगुला नहीं होता।

आठ बजते—बजते अधिकारी लोग बिदा हो गए। अब लोग नायकराम के घर आकर पंचायत करने लगे कि क्या किया जाए।

जमुनी—तुम लोग यों ही बकवास करते रहोगेए और किसी का किया कुछ न होगा। सूरदास के पास जाकर क्यों नहीं सलाह करतेघ् देखाए क्या कहता हैघ्

बजरंगी—तो जाती क्यों नहींए मुझी को ऐसी कौन—सी गरज पड़ी हुई हैघ्

जमुनी—तो फिर चलकर अपने—अपने घर बैठोए गपड़चौथ करने से क्या होना है।

भैरों—बजरंगीए यह हेकड़ी दिखाने का मौका नहीं है। सूरदास के पास सब जने मिलकर चलो। वह कोई—न—कोई राह जरूर निकालेगा।

ठाकुरदीन—मैं तो अब कभी उसके द्वार पर न जाऊँगा। इतना कह—सुनकर हार गयाए पर न उठा। अपने को लगाने लगा है।

जगधार—सूरदास क्या कोई देवता हैए हाकिम का हुकुम पलट देगाघ्

ठाकुरदीन—मैं तो गोद में उठा लाने को तैयार था।

बजरंगी—घमंड है घमंडए कि और लोग क्यों नहीं आए। गया क्यों नहीं हाकिमों के सामनेघ् ऐसा मर थोड़े ही रहा है!

जमुनी—कैसे आताघ् वह तो हाकिमों से बुरा बनेए यहाँ तुम लोग अपने—अपने मन की करने लगेए तो उसकी भद्द हो।

भैरों—ठीक तो कहती होए मुद्दई सुस्तए तो गवाह कैसे चुस्त होगा। पहले चलकर पूछोए उसकी सलाह क्या है। अगर मानने लायक होए तो मानोय न मानने लायक होए न मानो। हाँए एक बात जो तय हो जाएए उस पर टीकना पड़ेगा। यह नहीं कि कहा तो कुछए पीछे से निकल भागेए सरदार तो भरम में पड़ा रहे कि आदमी पीछे हैंए और आदमी अपने—अपने घर की राह लें।

बजरंगी—चलो पंडाजीए पूछ ही देखें।

नायकराम—वह कहेगाए बड़े साहब के पास चलोए वहाँ सुनाई न होए तो परागराज लाट साहब के पास चलो। है इतना बूताघ्

जगधार—भैया की बातए महाराजए यहाँ तो किसी का मुँह नहीं खुलाए लाट साहब के पास कौन जाता है!

जमुनी—एक बार चले क्यों नहीं जातेघ् देखो तोए क्या सलाह देता हैघ्

नायकराम—मैं तैयार हूँए चलो।

ठाकुरदीन—मैं न जाऊँगाए और जिसे जाना हो जाए।

जगधार—तो क्या हमीं को बड़ी गरज पड़ी हैघ्

बजरंगी—जो सबकी गत होतीए वही हमारी भी होगी।

घंटे—भर तक पंचायत हुईए पर सूरदास के पास कोई न गया। साझे की सुई ठेले पर लदती है। तू चलए मैं आता हूँए यही हुआए किया। फिर लोग अपने—अपने घर चले गए। संधया समय भैरों सूरदास के पास गया।

सूरदास ने पूछा—आज क्या हुआघ्

भैरों—हुआ क्याए घंटे—भर तक बकवास हुई। फिर लोग अपने—अपने घर चले गए।

सूरदास—कुछ तय न हुआ कि क्या किया जाएघ्

भैरों—निकाले जाएँगेए इसके सिवा और क्या होगा। क्यों सूरेए कोई न सुनेगाघ्

सूरदास—सुननेवाला भी वही हैए जो निकालनेवाला है। तीसरा होताए तब न सुनता।

भैरों—मेरी मरन है। हजारों मन लकड़ी हैए कहाँ ढ़ोकर ले जाऊँगाघ् कहाँ इतनी जमीन मिलेगी कि फिर टाल लगाऊँघ्

सूरदास—सभी की मरन है। बजरंगी ही को इतनी जमीन कहाँ मिली जाती है कि पंद्रह—बीस जानवर भी रहेंए आप भी रहें। मिलेगी भी तो इतना किराया देना पड़ेगा कि दिवाला निकल जाएगा। देखोए मिठुआ आज भी नहीं आया। मुझे मालूम हो जाए कि वह बीमार हैए तो छिन—भर न रुकूँए कुत्तो की भाँति दौड़ईँए चाहे वह मेरी बात भी न पूछे। जिनके लिए अपनी जिंदगी खराब कर दोए वे भी गाढ़़े समय पर मुँह फेर लेते हैं।

भैरों—अच्छाए तुम बताओए तुम क्या करोगेए तुमने भी कुछ सोचा हैघ्

सूरदास मेरी क्या पूछते होए जमीन थीए वह निकल ही गईय झोंपड़े के बहुत मिलेंगेए तो दो—चार रुपये मिल जाएँगे। मिले तो क्याए और न मिले तो क्याघ् जब तक कोई न बोलेगाए पड़ा रहूँगा। कोई हाथ पकड़कर निकाल देगाए बाहर जा बैठूँगा। वहाँ से उठा देगाए फिर आ बैठूँगा। जहाँ जन्म लिया हैए वहीं मरूँगा। अपनाए झोंपड़ा जीते—जी न छोड़ा जाएगा। मरने पर जो चाहेए ले ले। बाप—दादों की जमीन खो दीए अब इतनी निसानी रह गई हैए इसे न छोड़ईँगा। इसके साथ ही आप भी मर जाऊँगा।

भैरों—सूरेए इतना दम तो यहाँ किसी में नहीं।

सूरदास—इसी से तो मैंने किसी से कुछ कहा ही नहीं। भला सोचोए कितना अंधोर है कि हमए जो सत्तार पीढ़़ियों से यहाँ आबाद हैंए निकाल दिए जाएँ और दूसरे यहाँ आकर बस जाएँ। यह हमारा घर हैए किसी के कहने से नहीं छोड़ सकते। जबरदस्ती जो चाहेए निकाल देए न्याय से नहीं निकाल सकता। तुम्हारे हाथ में बल हैए तुम हमें मार सकते हो। हमारे हाथ में बल होताय तो हम तुम्हें मारते। यह तो कोई इंसाफ नहीं है। सरकार के हाथ में मारने का बल हैए हमारे हाथ में और कोई बल नहीं हैए तो मर जाने का बल तो है!

भैरों ने जाकर दूसरों से ये बातें कहीं। जगधार ने कहा—देखाए यह सलाह है! घर तो जाएगा हीए जान भी जाएगी।

ठाकुरदीन—यह सूरदास का किया होगा। आगे नाथ न पीछे पगहाए मर ही जाएगाए तो क्याघ् यहाँ मर जाएँए तो बाल—बच्चों को किसके सिर छोड़ेंघ्

बजरंगी—मरने के लिए कलेजा चाहिए। जब हम ही मर गएए तो घर लेकर क्या होगाघ्

नायकराम—ऐसे बहुत मरनेवाले देखे हैंए घर से निकला ही नहीं गयाए मरने चले हैं।

भैरों—उसकी न चलाओ पंडाजीए मन में आने की बात है।

दूसरे दिन से तखमीने के अफसर ने मिल के एक कमरे में इजलास करना शुरू किया। एक मुंशी मुहल्ले के निवासियों के नामए मकानों की हैसियतए पक्के हैं या कच्चेए पुराने हैं या नएए लम्बाईए चौड़ाई आदि की एक तालिका बनाने लगा। पटवारी और मुंशी घर—घर घूमने लगे। नायकराम मुखिया थे। उनका साथ रहना जरूरी था। इस वक्त सभी प्राणियों का भाग्य—निर्णय इसी त्रिामूर्ति के हाथों में था। नायकराम की चढ़़ बनी। दलाली करने लगे। लोगों से कहतेए निकलना तो पड़ेगा हीए अगर कुछ गम खाने से मुआवजा बढ़़ जाएए तो हरज ही क्या है। बैठे—बिठाएए मुट्ठी गर्म होती थीए तो क्यों छोड़ते! सारांश यह कि मकानों की हैसियत का आधार वह भेंट थीए जो इस त्रिामूर्ति को चढ़़ाई जाती थी। नायकराम टट्टी की आड़ से शिकार खेलते थे। यश भी कमाते थेए धान भी। भैरों का बड़ा मकान और सामने का मैदान सिमट गएए उनका क्षेत्राफल घट गयाए त्रिामूर्ति की वहाँ कुछ पूजा न हुई। जगधार का छोटा—सा मकान फैल गया। त्रिामूर्ति ने उसकी भेंट से प्रसन्न होकर रस्सियाँ ढ़ीली कर दींए क्षेत्राफल बढ़़ गया। ठाकुरदीन ने इन देवतों को प्रसन्न करने के बदले शिवजी को प्रसन्न करना ज्यादा आसान समझा। वहाँ एक लोटे जल के सिवा विशेष खर्च न था। दोनों वक्त पानी देने लगे। पर इस समय त्रिामूर्ति का दौरदौरा थाए शिवजी की एक न चली। त्रिामूर्ति ने उनके छोटेए पर पक्के घर को कच्चा सिध्द किया था। बजरंगी देवतों को प्रसन्न करना क्या जाने। उन्हें नाराज ही कर चुका थाए पर जमुनी ने अपनी सुबुध्दि से बिगड़ता हुआ काम बना लिया। मुंशीजी उसकी एक बछिया पर रीझ गएए उस पर दाँत लगाए। बजरंगी जानवरों को प्राण से भी प्रिय समझता थाए तिनक गया। नायकराम ने कहाए बजरंगी पछताओगे। बजरंगी ने कहाए चाहे एक कौड़ी मुआवजा न मिलेए पर बछिया न दूँगा। आखिर जमुनी नेए जो सौदे पटाने में बहुत कुशल थीए उसको एकांत में ले जाकर समझाया कि जानवरों के रहने का कहीं ठिकाना भी हैघ् कहाँ लिए—लिए फिरोगेघ् एक बछिया के देने से सौ रुपये का काम निकलता हैए तो क्यों नहीं निकालतेघ् ऐसी न—जाने कितनी बछिया पैदा होंगीए देकर सिर से बला टालो। उसके समझाने से अंत में बजरंगी भी राजी हो गया!

पंद्रह दिन तक त्रिामूर्ति का राज्य रहा। तखमीने के अफसर साहब बारह बजे घर से आतेए अपने कमरे में दो—चार सिगार पीतेए समाचार—पत्रा पढ़़तेए एक दो बजे घर चल देते। जब तालिका तैयार हो गईए तो अफसर साहब उसकी जाँच करने लगे। फिर निवासियों की बुलाहट हुई। अफसर ने सबके तखमीने पढ़़—पढ़़कर सुनाए। एक सिरे से धाँधाली थी। भैरों ने कहा—हुजूरए चलकर हमारा घर देख लेंए वह बड़ा है कि जगधार काघ् इनको मिले 400 रुपये और मुझे मिले 300 रुपये। इस हिसाब से मुझे 600 रुपये मिलना चाहिए।

ठाकुरदीन बिगड़ीदिल थे हीए साफ—साफ कह दिया—साहबए तखमीना किसी हिसाब से थोड़े ही बनाया गया है। जिसने मुँह मीठा कर दियाए उसकी चाँदी हो गईय जो भगवान्‌ के भरोसे बैठा रहाए उसकी बधिया बैठ गई। अब भी आप मौके पर चलकर जाँच नहीं करते कि ठीक—ठीक तखमीना हो जाएए गरीबों के गले रेत रहे हैं।

अफसर ने बिगड़कर कहा—तुम्हारे गाँव का मुखिया तो तुम्हारी तरफ से रख लिया गया था। उसकी सलाह से तखमीना किया गया है। अब कुछ नहीं हो सकता।

ठाकुरदीन—अपने कहलानेवाले तो और लूटते हैं।

अफसर—अब कुछ नहीं हो सकता।

सूरदास की झोंपड़ी का मुआवजा 1 रुपये रक्खा गया थाए नायकराम के घर के पूरे तीन हजार! लोगों ने कहा—यह है गाँव—घरवालों का हाल! ये हमारे सगे हैंए भाई का गला काटते हैं। उस पर घमंड यह कि हमें धान का लोभ नहीं। आखिर तो है पंडा ही नए जात्रिायों को ठगनेवाला! जभी तो यह हाल है। जरा—सा अख्तियार पाके अॉंखें फिर गईं। कहीं थानेदार होतेए तो किसी को घर में रहने न देते। इसी से कहा हैए गंजे के नह नहीं होते।

मिस्टर क्लार्क के बाद मि. सेनापति जिलाधाीश हो गए। सरकार का धान खर्च करते काँपते थे। पैसे की जगह धोले से काम निकालते थे। डरते रहते थे कि कहीं बदनाम न हो जाऊँ। उनमें यह आत्मविश्वास न थाए जो ऍंगरेज अफसरों में होता है। ऍंगरेजों पर पक्षपात का संदेह नहीं किया जा सकताए वे निर्भीक और स्वाधाीन होते हैं। मि. सेनापति को संदेह हुआ कि मुआवजे बड़ी नरमी से लिखे गए हैं। उन्होंने उसकी आधाी रकम काफी समझी। अब यह मिसिल प्रांतीय सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेजी गई। वहाँ फिर उसकी जाँच होने लगी। इस तरह तीन महीने की अवधि गुजर गईए और मि. जॉन सेवक पुलिस के सुपरिंटेंडेंटए दारोगा माहिर अली और मजदूरों के साथ मुहल्ले को खाली कराने के लिए आ पहुँचे। लोगों ने कहाए अभी तो हमको रुपये नहीं मिले। जॉन सेवक ने जवाब दियाए हमें तुम्हारे रुपयों से कोई मतलब नहींयरुपये जिससे मिलेंए उससे लो। हमें तो सरकार ने 1 मई को मुहल्ला खाली करा देने का वचन दिया हैए और अगर कोई कह दे कि आज 1 मई नहीं हैए तो हम लौट जाएँगे। अब लोगों में बड़ी खलबली पड़ीए सरकार की क्या नीयत हैघ् क्या मुआवजा दिए बिना ही हमें निकाल दिया जाएगाए घर का घर छोड़े और मुआवजा भी न मिले! यह तो बिना मौत मरे। रुपये मिल जातेए तो कहीं जमीन लेकर घर बनवातेए खाली हाथ कहाँ जाएँ। क्या घर में खजाना रखा हुआ है! एक तो रुपये के चार आने मिलने का हुक्म हुआए उसका भी यह हाल! न जाने सरकार की नीयत बदल गई कि बीचवाले खाये जाते हैं।

माहिर अली ने कहा—तुम लोगों को जो कुछ कहना—सुनना हैए जाकर हाकिम जिला से कहो। मकान आज खाली करा लिए जाएँगे।

बजरंगी—मकान कैसे खाली होंगेए कोई राहजनी है! जिस हाकिम का यह हुकुम हैए उसी हाकिम का तो यह हुकुम भी है।

माहिर—कहता हूँए सीधो से अपने बोरिए—बकचे लादो और चलते—फिरते नजर आओ। नाहक हमें गुस्सा क्यों दिलाते होघ् कहीं मि. हंटर को आ गया जोशए तो फिर तुम्हारी खैरियत नहीं।

नायकराम—दारोगाजीए दो—चार दिन की मुहलत दे दीजिए। रुपये मिलेंगे हीए ये बेचारे क्या बुरे कहते हैं कि बिना रुपये—पैसे कहाँ भटकते फिरें।

मि. जॉन सेवक तो सुपरिंटेंडेंट को साथ लेकर मिल की सैर करने चले गए थेए वहाँ चाय—पानी का प्रबंधा किया गया थाए माहिर अली की हुकूमत थी। बोले—पंडाजीए ये झाँसे दूसरों को देना। यहाँ तुम्हें बहुत दिनों से देख रहे हैं और तुम्हारी नस—नस पहचानते हैं। मकान आज और आज ही खाली होंगे।

सहसा एक ओर से दो बच्चे खेलते हुए आ गएए दोनों नंगे पाँव थेए फटे हुए कपड़े पहनेए पर प्रसन्न—वदन। माहिर अली को देखते ही चचा—चचा कहते हुए उसकी तरफ दौड़े। ये दोनों साबिर और नसीमा थे। कुल्सूम ने इसी मुहल्ले में एक छोटा—सा मकान एक रुपये किराए पर ले लिया था। गोदाम का मकान जॉन सेवक ने खाली करा लिया था। बेचारी इसी छोटे—से घर में पड़ी अपने मुसीबत के दिन काट रही थी। माहिर ने दोनों बच्चों को देखाए तो कुछ झेंपते हुए बोले—भाग जाओए भाग जाओए यहाँ क्या करने आएघ् दिल में शरमाए कि सब लोग कहते होंगेए ये इनके भतीजे हैंए और इतने फटेहालए यह उनकी खबर भी नहीं लेतेघ्

नायकराम ने दोनों बच्चों को दो—दो पैसे देकर कहा—जाओए मिठाई खानाए ये तुम्हारे चचा नहीं हैं।

नसीमा—हूँ! चचा तो हैंए क्या मैं पहचानती नहींघ्

नायकराम—चचा होतेए तो तुझे गोद में न उठा लेतेए मिठाइयाँ न मँगा देतेघ् तू भूल रही है।

माहिर अली ने क्रुध्द होकर कहा—पंडाजीए तुम्हें इन फिजूल बातों से क्या मतलबघ् मेरे भतीजे हों या न होंए तुमसे सरोकारघ् तुम किसी की निज की बातों में बोलनेवाले कौन होते होघ् भागो साबिरए नसीमा भागए नहीं तो सिपाही पकड़ लेगा।

दोनों बालकों ने अविश्वासपूर्ण नेत्राों से माहिर अली को देखा और भागे। रास्ते में नसीमा ने कहा—चचा ही—जैसे तो हैंए क्यों साबिरए चचा ही हैं नघ्

साबिर—नहीं तो और कौन हैंघ्

नसीमा—तो फिर हमें भगा क्यों दियाघ्

साबिर—जब अब्बा थेए तब न हम लोगों को प्यार करते थे! अब तो अब्बा नहीं हैंए तब तो अब्बा ही सबको खिलाते थे।

नसीमा—अम्माँ को भी तो अब अब्बा नहीं खिलाते। वह तो हम लोगों को पहले से ज्यादा प्यार करती हैं। पहले कभी पैसे न देती थींए अब तो पैसे भी देती हैं।

साबिर—वह तो हमारी अम्मा हैं न।

लड़के तो चले गएए इधार दारोगाजी ने सिपाहियों को हुक्म दिया—फेंक दो असबाब और मकान फौरन खाली करा लो। ये लोग लात के आदमी हैंए बातों से न मानेंगे।

दो कांस्टेबिल हुक्म पाते ही बजरंगी के घर में घुस गएए और बरतन निकाल—निकाल फेंकने लगे। बजरंगी बाहर लाल अॉंखें किए खड़ा ओठ चबा रहा था। जमुनी घर में इधार—उधार दौड़ती फिरती थीए कभी हाँड़ियाँ उठाकर बाहर लातीए कभी फेंके हुए बरतनों को समेटती। मुँह एक क्षण के लिए बंद न होता था—मूड़ी काटे कारखाना बनाने चले हैंए दुनिया को उजाड़कर अपना घर भरेंगे। भगवान्‌ भी ऐसे पापियों का संहार नहीं करतेए न—जाने कहाँ जाके सो गए हैं! हाय! हाय! घिसुआ की जोड़ी पटक—कर तोड़ डाली!

बजरंगी ने टूटी हुई जोड़ी उठा ली और एक सिपाही के पास जाकर बोला—जमादारए यह जोड़ी तोड़ डालने से तुम्हें क्या मिलाघ् साबित उठा ले जातेए तो भला किसी काम तो आती! कुशल है कि लाल पगड़ी बाँधो हुए होए नहीं तो आज...

उसके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि दोनों सिपाहियों ने उस पर डंडे चलाने शुरू किए। बजरंगी से अब जब्त न हो सकाए लपककर एक सिपाही की गर्दन एक हाथ से और दूसरे की गर्दन दूसरे हाथ से पकड़ लीए और इतनी जोर से दबाई कि दोनों की अॉंखें निकल आईं। जमुनी ने देखाए अब अनर्थ हुआ चाहता हैए तो रोती हुई बजरंगी के पास जाकर बोली—तुम्हें भगवान्‌ की कसम हैए जो किसी से लड़ाई करो। छोड़ो—छोड़ो! क्यों अपनी जान से बैर कर रहे हो!

बजरंगी—तू जा बैठ। फाँसी पा जाऊँए तो मैके चली जाना। मैं तो इन दोनों के प्राण ही लेकर छोड़ईँगा।

जमुनी—तुम्हें घीसू की कसमए तुम मेरा ही माँस खाओए जो इन दोनों को छोड़कर यहाँ से चले न जाओ।

बजरंगी ने दोनों सिपाहियों को छोड़ दियाए पर उसके हाथ से छूटना था कि वे दौड़े हुए माहिर अली के पास पहुँचेए और कई और सिपाहियों को लिए हुए फिर आए। पर बजरंगी को जमुनी पहले ही से टाल ले गई थी। सिपाहियों को शेर न मिलाए तो शेर की माँद को पीटने लगेए घर की सारी चीजें तोड़—फोड़ डालीं। जो अपने काम की चीज नजर आईए उस पर हाथ भी साफ किया। यही लीला दूसरे घरों में भी हो रही थी। चारों तरफ लूट मची हुई थी। किसी ने अंदर से घर के द्वार बंद कर लिएए कोई अपने बाल—बच्चों को लेकर पिछवाड़े से निकल भागा। सिपाहियों को मकान खाली कराने का हुक्म क्या मिलाए लूट मचाने का हुक्म मिल गया। किसी को अपने बरतन—भाँड़े समेटने की मुहलत भी न देते थे। नायकराम के घर पर भी धावा हुआ। माहिर अली स्वयं पाँच सिपाहियों को लेकर घुसे। देखाए तो वहाँ चिड़िया का पूत भी न थाए घर में झाड़ई फिरी हुई थीए एक टूटी हाँड़ी भी न मिली। सिपाहियों के हौसले मन ही में रह गए। सोचे थेए इस घर में खूब बढ़़—बढ़़कर हाथ मारेंगेए पर निराश और लज्जित होकर निकलना पड़ा। बात यह थी कि नायकराम ने पहले ही अपने घर की चीजें निकाल फेंकी थीं।

उधार सिपाहियों ने घरों के ताले तोड़ने शुरू किए। कहीं किसी पर मार पड़ती थीए कहीं कोई अपनी चीजें लिए भागा जाता था। चिल्ल—पों मची हुई थी। विचित्रा —श्य थाए मानो दिन—दहाड़े डाका पड़ रहा हो। सब लोग घरों से निकलकर या निकाले जाकर सड़क पर जमा होते जाते थे। ऐसे अवसरों पर प्रायरू उपद्रवकारियों का जमाव हो ही जाता है। लूट का प्रलोभन था हीए किसी को निवासियों से बैर थाए किसी को पुलिस से अदावत। प्रतिक्षण शंका होती थी कि कहीं शांति न भंग हो जाएए कहीं कोई हंगामा न मच जाए। माहिर अली ने जनसमुदाय की त्योरियाँ देखींए तो तुरंत एक सिपाही को पुलिस की छावनी की ओर दौड़ायाए और चार बजते—बजते सशस्त्रा पुलिस की एक टोली और आ पहुँची। कुमुक आते ही माहिर अली और भी दिलेर हो गए। हुक्म दिया—मार—मारकर सबों को भगा दो। लोग वहाँ क्यों खड़े हैंघ् भगा दो। जिस आदमी को यहाँ खड़े देखोए मारो। अब तक लोग अपने माल और असबाब समेटने में लगे हुए थे। मार भी पड़ती थीए चुपके से सह लेते थे। घर में अकेले कई सिपाहियों से कैसे भिड़तेघ् अब सब—के—सब एक जगह खड़े हो गए थे। उन्हें कुछ तो अपनी सामूहिक शक्ति का अनुभव हो रहा थाए उस पर नायकराम उकसाते जाते थेए यहाँ आएँ तो बिना मारे न छोड़नाए दो—चार के हाथ—पैर जब तक न टूटेंगेए ये सब न भागेंगे। बारूद भड़कनेवाली ही थी कि इतने में इंदु की मोटर पहुँचीए और उसमें से विनयए इंद्रदत्ता और इंदु उतर पड़े। देखाए तो कई हजार आदमियों का हुजूम था। कुछ मुहल्ले के निवासी थेए कुछ राह—चलते मुसाफिरए कुछ आस—पास के गाँवों के रहनेवालेए कुछ मिल के मजदूर। कोई केवल तमाशा देखने आया थाए कोई पड़ोसियों से सहानुभूति करने और इस उपद्रव कार् ईष्यापूर्ण आनंद उठाने। माहिर अली और उनके सिपाही उस उत्साह के साथए जो नीची प्रकृति के प्राणियों को दमन में होता हैए लोगों को सड़क पर से हटाने की चेष्टा कर रहे थेय पर भीड़ पीछे हटने के बदले और आगे ही बढ़़ती जाती थी।

विनय ने माहिर अली के पास जाकर कहा—दारोगाजीए क्या इन आदमियों को एक दिन की भी मुहलत नहीं मिल सकतीघ्

माहिर—मुहलत तो तीन महीने की थीए और अगर तीन साल की भी हो जाएए तो भी मकान खाली करने के वक्त यही हालत होगी। ये लोग सीधो से कभी न जाएँगे।

विनय—आप इतनी कृपा कर सकते हैं कि थोड़ी देर के लिए सिपाहियों को रोक लें। जब तक मैं सुपरिंटेंडेंट को यहाँ की हालत की खबर दे दूँघ्

माहिर—साहब तो यहीं हैं। मि. जॉन सेवक उन्हें मिल दिखाने ले गए थे। मालूम नहींए वहाँ से कहाँ चले गएए अब तक नहीं लौटे।

वास्तव में साहब बहादुर कहीं गए न थेए जॉन सेवक के साथ दफ्तर में बैठे आनंद से शराब पी रहे थे। दोनों ही आदमियों ने वास्तविक स्थिति को समझने में गलती की थी। उनका अनुमान था कि हमको देखकर लोग रोब में आ गए होंगे और मारे डर के आप—ही—आप भाग जाएँगे।

विनय साहब को खबर देने के लिए लपके हुए मिल की तरफ चलेए तो राजा साहब को मोटर पर आते हुए देखा। ठिठक गए। सोचाए जब यह आ गए हैंए तो साहब के पास जाने की क्या जरूरतए इन्हीं से चलकर कहूँ। लेकिन उनके सामने जाते हुए शर्म आती थी कि कहीं जनता ने इनका अपमान कियाए तो मैं क्या करूँगाए कहीं यह न समझ बैठें कि मैंने ही इन लोगों को उकसाया है। वह इसी द्विविधा में पड़े हुए थे कि राजा साहब की निगाह इंदु की मोटर पर गई। जल उठेय इंद्रदत्ता और विनय को देखाए ज्वर—सा चढ़़ आया—ये लोग यहाँ विराजमान हैंए फिर क्यों न दंगा हो। जहाँ ये महापुरुष होंगेए वहाँ जो कुछ नहो जाएए थोड़ा है। उन्हें क्रोधा बहुत कम आता थाए पर इस समय उनसे जब्त न हुआए विनय से बोले—यह सब आप ही की करामात मालूम होती है।

विनय ने शांत भाव से कहा—मैं तो अभी आया हूँ। सुपरिंटेंडेंट के पास जा ही रहा था कि आप दिखाई दिए।

राजा—खैरए अब तो आप इनके नेता हैंए इन्हें अपने किसी जादू—मंत्रा से हटाइएगा कि मुझे कोई दूसरा उपाय करना पड़ेगाघ्

विनय—इन लोगों को केवल इतनी शिकायत है कि अभी हमें मुआवजा नहीं मिलाए हम कहाँ जाएँए कैसे जमीन खरीदेंए कैसे नए मकान के सामान लें। आप अगर इन्हें कह करके तसल्ली दे देंए तो सब आप—ही—आप हट जाएँगे।

राजा—यह इन लोगों का बहाना है। वास्तव में ये लोग उपद्रव मचाना चाहते हैं।

विनय—अगर इन्हें मुआवजा दे दिया जाएए तो शायद कोई दूसरा उपाय न करना पड़े। राजा—आप छरू महीनेवाला रास्ता बताते हैंए मैं एक महीनेवाली राह चाहता हूँ।

विनय—उस राह में काँटे हैं।

राजा—इसकी कुछ चिंता नहीं। हमें काँटेवाली राह ही पसंद है।

विनय—इस समूह की दशा सूखे पुआल की—सी है।

राजा—अगर पुआल हमारा रास्ता रोकता हैए तो हम उसे जला देंगे।

सभी लोग भयातुर हो रहे थेए न जाने किस क्षण क्या हो जाएए फिर भी मनुष्यों का समूह किसी अज्ञात शक्ति के वशीभूत होकर राजा साहब की ओर बढ़़ा चला आता था। पुलिसवाले भी इधार—उधार से आकर मोटर के पास खड़े हो जाते थे। देखते—देखते उनके चारों ओर मनुष्यों की एक अथाहए अपार नदी लहर मारने लगीए मानो एक ही रेले में इन गिने—गिनाए आदमियों को निगल जाएगीए इस छोटे—से कगार को बहा ले जाएगी।

राजा महेंद्रकुमार यहाँ आग में तेल डालने नहींए उसे शांत करने आए थे। उनके पास दम—दम की खबरें पहुँच रही थीं। वह अपने उत्तारदायित्व का अनुभव करके बहुत चिंतित हो रहे थे। नैतिक रूप से तो उन पर कोई जिम्मेदारी न थी। जब प्रांतीय सरकार का दबाव पड़ाए तो वह कर ही क्या सकते थेघ् अगर पद—त्याग कर देतेए तो दूसरा आदमी आकर सरकारी आज्ञा का पालन करता। पाँड़ेपुरवालों के सिर से किसी दशा में भी यह विपत्तिा न टल सकती थीए लेकिन वह आदि से निरंतर यह प्रयत्न कर रहे थे कि मकान खाली कराने के पहले लोगों को मुआवजा दे दिया जाए। बार—बार याद दिलाते थे। ज्यों—ज्यों अंतिम तिथि आती जाती थीए उनकी शंकाए बढ़़ती जाती थीं। वह तो यहाँ तक चाहते थे कि निवासियों को कुछ रुपये पेशगी दे दिए जाएँए जिसमें वे पहले ही से अपना—अपना ठिकाना कर लें। पर किसी अज्ञात कारण से रुपये की स्वीकृति में विलम्ब हो रहा था। वह मि. सेनापति से बार—बार कहते कि आप मंजूरी की आशा पर अपने हुक्म से रुपये दिला देंय पर जिलाधाीश कानों पर हाथ रखते थे कि न जाने सरकार का क्या इरादा हैए मैं बिना हुक्म पाए कुछ नहीं कर सकता। जब आज भी मंजूरी न आईए तो राजा साहब ने तार द्वारा पूछा। दोपहर तक वह जवाब का इंतजार करते रहे। आखिर जब इस जमाव की खबर मिलीए तो घबराए। उसी वक्त दौड़े हुए जिलाधाीश के बँगले पर गए कि उनसे कुछ सलाह लें। उन्हें आशा थी कि वह स्वयं घटनास्थल पर जाने को तैयार होंगेयपर वहाँ जाकर देखाए तो साहब बीमार पड़े थे। बीमारी क्या थीए बीमारी का बहाना था। बदनामी से बचने का यही उपाय था। साहब राजा से बोले—मुझे खेद हैए मैं नहीं जा सकता। आप जाकर उपद्रव को शांत करने के लिए जो उचित समझेंए करें।

महेंद्रकुमार अब बहुत घबराएए अपनी जान किसी भाँति बचती न नजर आती थी। अगर कहीं रक्तपात हो गयाए तो मैं कहीं का न रहूँगा! सब कुछ मेरे ही सिर आएगी। पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं। आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत है! निरपराधा मारा जा रहा हूँ! मुझ पर कुछ ऐसा शनीचर सवार हुआ है कि जो कुछ करना चाहता हूँए उसके प्रतिकूल करता हूँए जैसे अपने ऊपर कोई अधिकार ही न रहा हो। इस जमीन के झमेले में पड़ना ही मेरे लिए जहर हो गया। तब से कुछ ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती चली आती हैंए जो मेरी महत्तवाकांक्षाओं का सर्वनाश किए देती हैं। यहाँ कीर्तिए नामए सम्मान को कौन रोयेए मुँह दिखाने के लाले पड़े हुए हैं!

यहाँ से निराश होकर वह फिर घर आए कि चलकर इंदु से राय लूँए देखूँए क्या कहती है। पर यहाँ इंदु न थी। पूछाए तो मालूम हुआ कि सैर करने गई हैं।

इस समय राजा साहब की दशा उस कृपण की—सी थीए जो अपनी अॉंखों से अपना धान लुटते देखता होए और इस भय से कि लोगों पर मेरे धानी होने का भेद खुल जाएगाए कुछ बोल न सकता हो। अचानक उन्हें एक बात सूझी—

क्यों न मुआवजे के रुपये अपने ही पास से दे दूँघ् रुपये कहीं जाते तो हैं नहीं। जब मंजूरी आ जाएगीए वापस ले लूँगा। दो—चार दिन का मुआमला हैए मेरी बात रह जाएगीए और जनता पर इसका कितना अच्छा असर पड़ेगा। कुल सत्तार हजार तो हैंए ही। और इसकी क्या जरूरत है कि सब रुपये आज ही दे दिए जाएँघ् कुछ आज दे दूँए कुछ कल दे दूँए तब तक मंजूरी आ ही जाएगी। जब लोगों को रुपये मिलने लगेंगे तो तस्कीन हो जाएगीए ण्यह भय न रहेगा कि कहीं सरकार रुपये जब्त न कर ले। खेद हैए मुझे पहले यह बात न सूझीए नहीं तो इतना झमेला ही क्यों होता। उन्होंने उसी वक्त इंपीरियल बैंक के नाम बीस हजार का चेक लिखा। देर बहुत हो गई थीए इसलिए बैंक के मैनेजर के नाम एक पत्रा भी लिखा दिया था कि रुपये देने में विलम्ब न कीजिएगाए नहीं तो शांति भंग हो जाने का भय है। बैंक से आदमी रुपये लेकर लौटा तो पाँच बज चुके थे। तुरंत मोटर पर सवार होकर पाँड़ेपुर आ पहुँचे। आए तो थे ऐसी शुभेच्छाओं सेए पर वहाँ विनय और इंदु को देखकर तैश आ गया। जी में आयाए लोगों से कह दूँए जिनके बूते पर उछल रहे होए उनसे रुपये लोए इधार सरकार को लिख दूँ कि लोग विद्रोह करने पर तैयार हैंए उनके रुपये जब्त कर लिए जाएँ। उसी क्रोधा में उन्होंने विनय से वे बातें कींए जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं। मगर जब उन्होंने देखा कि जन—समूह का रेला बढ़़ा चला आ रहा हैए लोगों के मुख आवेश—विकृत हो रहे हैंए सशस्त्रा पुलिस संगीनें चढ़़ाए हुए हैए और इधार—उधार दो—चार पत्थर भी चल रहे हैंए तो उनकी वही दशा हुईए जो भय में नशे की होती है। तुरंत मोटर पर खड़े हो गए और जोर से चिल्लाकर बोले—मित्राोए जरा शांत हो जाओ। यों दंगा करने से कुछ न होगा। मैं रुपये लाया हूँए अभी तुमको मुआवजा मिल जाएगा। सरकार ने अभी मंजूरी नहीं भेजी हैए लेकिन तुम्हारी इच्छा हो तो तुम मुझसे अपने रुपये ले सकते हो। इतनी—सी बात के वास्ते तुम्हारा यह दुराग्रह सर्वथा अनुचित है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा दोष नहीं हैए तुमने किसी के बहकाने से ही शरारत पर कमर बाँधाी है। लेकिन मैं तुम्हें उस विद्रोह—ज्वाला में न कूदने दूँगाए जो तुम्हारे शुभचिंतकों ने तैयार कर रक्खी है। यह लोए तुम्हारे रुपये हैं। सब आदमी बारी—बारी से आकर अपने नाम लिखाओए ऍंगूठे का निशान करोए रुपये लो और चुपके—चुपके घर जाओ।

एक आदमी ने कहा—घर तो आपने छीन लिए।

राजा—रुपयों से घर मिलने में देर न लगेगी। हमसे तुम्हारी जो कुछ सहायता हो सकेगीए वह उठा न रक्खेंगे। इस भीड़ को तुरंत हट जाना चाहिएए नहीं तो रुपये मिलने में देर होगी।

जो जन—समूह उमड़े हुए बादलों की तरह भयंकर और गम्भीर हो रहा थाए यह घोषणा सुनते ही रूई के गालों की भाँति फट गया। न जाने लोग कहाँ समा गए। केवल वे ही लोग रह गए जिन्हें रुपये पाने थे। सामयिक सुबुध्दि मँडलाती हुई विपत्तिा का कितनी सुगमता से निवारण कर सकती हैए इसका यह उज्ज्वल प्रमाण था। एक अनुचित शब्दए एक कठोर वाक्य अवस्था को असाधय बना देता।

पटवारी ने नामावली पढ़़नी शुरू की। राजा साहब अपने हाथों से रुपये बाँटने लगे। आसामी रुपये लेता थाए ऍंगूठे का निशान बनाता थाए और तब दो सिपाही उसके साथ कर दिए जाते थे कि जाकर मकान खाली करा लें।

रुपये पाकर लौटते हुए लोग यों बातें करते जाते थे रू

एक मुसलमान—यह राजा बड़ा मूजी हैय सरकार ने रुपये भेज दिए थेए पर दबाए बैठा था। हम लोग गरम न पड़तेए तो हजम कर जाता।

दूसरा—सोचा होगाए मकान खाली करा लूँए और रुपये सरकार को वापस करके सुर्खरू बन जाऊँ।

एक ब्राह्मण ने इसका विरोधा किया—क्या बकते हो! बेचारे ने रुपये अपने पास से दिए हैं।

तीसरा—तुम गौखे होए ये चालें क्या जानोए जाके पोथी पढ़़ो और पैसे ठगो।

चौथा—सबों ने पहले ही सलाह कर ली होगी। आपस में रुपये बाँट लेतेए हम लोग ठाठ ही पर रह जाते।

एक मुंशीजी बोले—इतना भी न करेंए तो सरकार कैसे खुश हो। इन्हें चाहिए था कि रिआया की तरफ से सरकार से लड़तेए मगर आप खुद ही खुशामदी टट्टू बने हुए हैं। सरकार का दबाव तो हीला है।

पाँचवाँ—तो यह समझ लोए हम लोग न आ जातेए तो बेचारों को कौड़ी भी न मिलती। घर से निकल जाने पर कौन देता है और कौन लेता है! बेचारे माँगने जातेए तो चपरासियों से मारकर निकलवा देते।

जनता की द्रष्टि में एक बार विश्वास खोकर फिर जमाना मुश्किल है। राजा साहब को जनता के दरबार से यह उपहार मिल रहा था।

संधया हो गई थी। चार ही पाँच असामियों को रुपये मिलने पाए थे कि ऍंधोरा हो गया। राजा साहब ने लैम्प की रोशनी में नौ बजे रात तक रुपये बाँटे। तब नायकराम ने कहा—सरकारए अब तो बहुत देर हुई। न होए कल पर उठा रखिए।

राजा साहब भी थक गए थेए जनता को भी अब रुपये मिलने में कोई बाधा न दीखती थीए काम कल के लिए स्थगत कर दिया गया। सशस्त्रा पुलिस ने वहीं डेरा जमाया कि कहीं फिर न लोग जमा हो जाएँ।

दूसरे दिन दस बजे फिर राजा साहब आएए विनय और इंद्रदत्ता भी कई सेवकों के साथ आ पहुँचे। नामावली खोली गई। सबसे पहले सूरदास की तलबी हुई। लाठी टेकता हुआ आकर राजा साहब के सामने खड़ा हो गया।

राजा साहब ने उसे सिर से पाँव तक देखा और बोले—तुम्हारे मकान का मुआवजा केवल एक रु. हैए यह लोए और घर खाली कर दो।

सूरदास—कैसा रुपयाघ्

राजा—अभी तुम्हें मालूम नहींए तुम्हारा मकान सरकार ने ले लिया है। यह उसी का मुआवजा है।

सूरदास—मैंने तो अपना मकान बेचने को किसी से नहीं कहा।

राजा—और लोग भी तो खाली कर रहे हैं।

सूरदास—जो लोग छोड़ने पर राजी होंए उन्हें दीजिए। मेरी झोंपड़ी रहने दीजिए। पड़ा रहूँगा और हुजूर का कल्यान मनाता रहूँगा।

राजा—यह तुम्हारी इच्छा की बात नहीं हैए सरकारी हुक्म है। सरकार को इस जमीन की जरूरत है। यह क्योंकर हो सकता है कि और मकान गिरा दिए जाएँए और तुम्हारा झोंपड़ा बना रहेघ्

सूरदास—सरकार के पास जमीन की क्या कमी है। सारा मुलुक पड़ा हुआ है। एक गरीब की झोंपड़ी छोड़ देने से उसका काम थोड़े ही रुक जाएगाघ्

राजा—व्यर्थ की हुज्जत करते होए यह रुपया लोए ऍंगूठे का निशान बनाओए और जाकर झोंपड़ी में से अपना सामान निकाल लो।

सूरदास—सरकार जमीन लेकर क्या करेगीघ् यहाँ कोई मंदिर बनेगाघ् कोई तालाब खुदेगाघ् कोई धारमशाला बनेगीघ् बताइए।

राजा—यह मैं कुछ नहीं जानता।

सूरदास—जानते क्यों नहींए दुनिया जानती हैए बच्चा—बच्चा जानता है। पुतलीघर के मजूरों के लिए घर बनेंगे। बनेंगेए तो उससे मेरा क्या फायदा होगा कि घर छोड़कर निकल जाऊँ! जो कुछ फायदा होगाए साहब को होगा। परजा की तो बरबादी ही है। ऐसे काम के लिए मैं अपना झोंपड़ा न छोड़ईँगा। हाँए कोई धारम का काम होताए तो सबसे पहले मैं अपना झोंपड़ा दे देता। इस तरह जबरदस्ती करने का आपको अख्तियार हैए सिपाहियों को हुक्म दे देंए फूस में आग लगते कितनी देर लगती हैघ् पर यह न्याय नहीं है। पुराने जमाने में एक राजा अपना बगीचा बनवाने लगाए तो एक बुढ़़िया की झोंपड़ी बीच में पड़ गई। राजा ने उसे बुलाकर कहाए तू यह झोंपड़ी मुझे दे देए जितने रुपये कहए तुझे दे दूँए जहाँ कहए तेरे लिए घर बनवा दूँ! बुढ़़िया ने कहाए मेरा झोंपड़ा रहने दीजिए। जब दुनिया देखेगी कि आपके बगीचे के एक कोने में बुढ़़िया की झोंपड़ी हैए तो आपके धारम और न्याय की बड़ाई करेगी। बगीचे की दीवार दस—पाँच हाथ टेढ़़ी हो जाएगीए पर इससे आपका नाम सदा के लिए अमर हो जाएगा। राजा ने बुढ़़िया की झोंपड़ी छोड़ दी। सरकार का धारम परजा को पालना है कि उसका घर उजाड़नाए उसको बरबाद करनाघ्

राजा साहब ने झुँझलाकर कहा—मैं तुमसे दलील करने नहीं आया हूँए सरकारी हुक्म की तामील करने आया हूँ।

सूरदास—हुजूरए मेरी मजाल है कि आपसे दलील कर सकूँ। मगर मुझे उजाड़िए मतए बाप—दादों की निशानी यही झोंपड़ी रह गई हैए इसे बनी रहने दीजिए।

राजा साहब को इतना अवकाश कहाँ था कि एक—एक असामी से घंटों वाद—विवाद करतेघ् उन्होंने दूसरे आदमी को बुलाने का हुक्म दिया।

इंद्रदत्ता ने देखा कि सूरदास अब भी वहीं खड़ा हैए हटने का नाम नहीं लेताए तो डरे कि राजा साहब कहीं उसे सिपाहियों से धाक्के देकर हटवा न दें। धाीरे से उसका हाथ पकड़कर अलग ले गए और बोले—सूरेए है तो अन्यायय मगर क्या करोगेए झोंपड़ी तो छोड़नी ही पड़ेगी। जो कुछ मिलता हैए ले लो। राजा साहब की बदनामी का डर हैए नहीं तो मैं तुमसे लेने को न कहता।

कई आदमियों ने इन लोगों को घेर लिया। ऐसे अवसरों पर लोगों की उत्सुकता बढ़़ी हुई होती है। क्या हुआघ् क्या हुआघ् क्या जवाब दियाघ् सभी इन प्रश्नों के जिज्ञासु होते हैं। सूरदास ने सजल नेत्राों से ताकते हुए आवेश—कम्पित कंठ से कहा—भैयाए तुम भी कहते हो कि रुपया ले लो! मुझे तो इस पुतलीघर ने पीस डाला। बाप—दादों की निशानी दस बीघे जमीन थीए वह पहले ही निकल गईए अब यह झोंपड़ी भी छीनी जा रही है। संसार इसी माया—मोह का नाम है। जब उससे मुक्त हो जाऊँगाए तो झोंपड़ी में रहने न आऊँगा। लेकिन जब तक जीता रहूँगाए अपना घर मुझसे न छोड़ा जाएगा। अपना घर हैए नहीं देते। हाँए जबरदस्ती जो चाहेए ले ले।

इंद्रदत्ता—जबरदस्ती कोई कर रहा है! कानून के अनुसार ही ये मकान खाली कराए जा रहे हैं। सरकार को अधिकार है कि वह किसी सरकारी काम के लिए जो मकान या जमीन चाहेए ले ले।

सूरदास—होगा कानूनए मैं तो एक धारम का कानून जानता हूँ। इस तरह जबरदस्ती करने के लिए जो कानून चाहेए बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़नेवाला तो है नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ—महाजन ही हैं।

इंद्रदत्ता ने राजा साहब के पास जाकर कहा—आप अंधो का मुआमला आज स्थगित कर देंए तो अच्छा हो। गँवार आदमीए बात नहीं समझताए बस अपनी ही गाए जाता है।

राजा ने सूरदास को कुपित नेत्राों से देखकर कहा—गँवार नहीं हैए छटा हुआ बदमाश है। हमें और तुम्हेंए दोनों ही को कानून पढ़़ा सकता है। है भिखारीए मगर टर्रा। मैं इसका झोंपड़ा गिरवाए देता हूँ।

इस वाक्य के अंतिम शब्द सूरदास के कानों में पड़ गए रू बोला—झोंपड़ा क्यों गिरवाइएगाघ् इससे तो यही अच्छा कि मुझे ही गोली मरवा दीजिए।

यह कहकर सूरदास लाठी टेकता हुआ वहाँ से चला गया। राजा साहब को उसकी धाृष्टता पर क्रोधा आ गया। ऐश्वर्य अपने को बड़ी मुश्किल से भूलता हैए विशेषतरू जब दूसरों के सामने उसका अपमान किया जाए। माहिर अली को बुलाकर कहा—इसकी झोंपड़ी अभी गिरा दो।

दारोगा माहिर अली चलेए निरूशस्त्रा पुलिस और सशस्त्रा पुलिस और मजदूरों का एक दल उनके साथ चलाए मानो किसी किले पर धावा करने जा रहे हैं। उनके पीछे—पीछे जनता का एक समूह भी चला। राजा ने इन आदमियों के तेवर देखेए तो होश उड़ गए। उपद्रव की आशंका हुई। झोंपड़े को गिराना इतना सरल न प्रतीत हुआए जितना उन्होंने समझा था। पछताए कि मैंने व्यर्थ माहिर अली को यह हुक्म दिया। जब मुहल्ला मैदान हो जाताए तो झोंपड़ा आप—ही—आप उजड़ जाताए सूरदास कोई भूत तो है नहीं कि अकेला उसमें पड़ा रहता। मैंने चिंउटी को तलवार से मारने की चेष्टा की! माहिर अली क्रोधाी आदमी हैए और इन आदमियों के रुख भी बदले हुए हैं। जनता क्रोधा में अपने को भूल जाती हैए मौत पर हँसती है। कहीं माहिर अली उतावली कर बैठाए तो निस्संदेह उपद्रव हो जाएगा। इसका सारा इलजाम मेरे सिर जाएगा। यह अंधा आप तो डूबा ही हुआ हैए मुझे भी डुबाए देता है। बुरी तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है। लेकिन इस समय वह हाकिम की हैसियत में थे। हुक्म को वापस न ले सकते थे। सरकार की आबरू में बट्टा लगने से कहीं ज्यादा भय अपनी आबरू में बट्टा लगने का था। अब यही एक उपाय था कि जनता को झोंपड़े की ओर न जाने दिया जाए। सुपरिंटेंडेंट अभी—अभी मिल से लौटा थाए और घोड़े पर सवार सिगार पी रहा था कि राजा साहब ने जाकर उससे कहा—इन आदमियों को रोकना चाहिए।

उसने कहा—जाने दीजिएए कोई हरज नहींए शिकार होगा।

श्भीषण हत्या होगी।श्

श्हम इसके लिए तैयार हैं।श्

विनय के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। न आगे जाते बनता थाए न पीछे। घोर आत्मवेदना का अनुभव करते हुए बोले—इंद्रए मैं बड़े संकट में हूँ।

इंद्रदत्ता ने कहा—इसमें क्या संदेह है।

जनता को काबू में रखना कठिन है।श्

श्आप जाइएए मैं देख लूँगा। आपका यहाँ रहना उचित नहीं।श्

श्तुम अकेले हो जाओगे!श्

श्कोई चिंता नहीं।श्

श्तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं चलतेघ् अब हम यहाँ रहकर क्या कर लेंगेए हम अपनेर् कत्ताव्य का पालन कर चुके।श्

श्आप जाइए। आपको जो संकट हैए वह मुझे नहीं। मुझे अपने किसी आत्मीय के मान—अपमान का कम भय नहीं।श्

विनय वहीं अशांत और निश्चल खड़े रहेए या यों कहो कि गड़े रहेए मानो कोई स्त्राी घर से निकाल दी गई हो। इंद्रदत्ता उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़़ेए तो जन—समूह उसी गली के मोड़ पर रुका हुआ थाए जो सूरदास के झोंपड़े की ओर जाती थी। गली के द्वार पर पाँच सिपाही सँगीनें चढ़़ाए खड़े थे। एक कदम आगे बढ़़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था। संगीनों की दीवार सामने खड़ी थी।

इंद्रदत्ता ने एक कुएँ की जगत पर खड़े होकर उच्च स्वर से कहा—भाइयोए सोच लोए तुम लोग क्या चाहते होघ् क्या इस झोंपड़ी के लिए पुलिस से लड़ोगेघ् अपना और अपने भाइयों का रक्त बहाओगेघ् इन दामों यह झोंपड़ी बहुत महँगी है। अगर उसे बचाना चाहते होए तो इन आदमियों ही से विनय करोए जो इस वक्त वरदी पहनेए संगीनें चढ़़ाए यमदूत हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं। और यद्यपि प्रकट रूप से वे तुम्हारे शत्रु हैंए पर उनमें एक भी ऐसा न होगाए जिसका हृदय तुम्हारे साथ न होए जो एक असहायए दुर्बलए अंधो की झोंपड़ी गिराने में अपनी दिलचस्पी समझता हो। इनमें सभी भले आदमी हैंए जिनके बाल—बच्चे हैंए जो थोड़े वेतन पर तुम्हारे जान—माल की रक्षा करने के लिए घर से आए हैं।

एक आदमी—हमारे जान—माल की रक्षा करते हैंए या सरकार के रोब—दाब कीघ्

इंद्रदत्ता—एक ही बात है। तुम्हारे जान—माल की रक्षा के लिए सरकार के रोब—दाब की रक्षा करनी परमावश्यक है। इन्हें जो वेतन मिलता हैए वह एक मजूर से भी कम हैण्ण्ण्।

एक प्रश्न—बग्घी—इक्केवालों से पैसे नहीं लेतेघ्

दूसरा प्रश्न—चोरियाँ नहीं करातेघ् जुआ नहीं खेलातेघ् घूस नहीं खातेघ्

इंद्रदत्ता—यह सब इसलिए होता है कि वेतन जितना मिलना चाहिएए उतना नहीं मिलता। ये भी हमारी और तुम्हारी भाँति मनुष्य हैंए इनमें भी दया और विवेक हैए ये भी दुर्बलों पर हाथ उठाना नीचता समझते हैं। जो कुछ करते हैंए मजबूर होकर। इन्हीं से कहोए अंधो पर तरस खाएँए उसकी झोंपड़ी बचाएँ। (सिपाहियों से) क्यों मित्राोए तुमसे इस दया की आशा रखेंघ् इन मनुष्यों पर क्या करोगेघ्

इंद्रदत्ता ने एक ओर जनता के मन में सिपाहियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा की और दूसरी ओर सिपाहियों की मनोगत दया को जागृत करने की। हवलदार संगीनों के पीछे खड़ा था। बोला—हमारी रोजी बचाकर और जो चाहे कीजिए। इधार से न जाइए।

इंद्रदत्ता—तो रोजी के लिए इतने प्राणियों का सर्वनाश कर दोगेघ् ये बेचारे भी तो एक दीन की रक्षा करने आए हैं। जो ईश्वर यहाँ तुम्हारा पालन करता हैए वह क्या किसी दूसरी जगह तुम्हें भूखों मारेगाघ् अरे! यह कौन पत्थर फेंकता हैघ् याद रखोए तुम लोग न्याय की रक्षा करने आए होए बलवा करने नहीं। ऐसे नीच आघातों से अपने को कलंकित न करो। मत हाथ उठाओए अगर तुम्हारे ऊपर गोलियों की बाढ़़ भी चले...।

इंद्रदत्ता को कुछ कहने का अवसर न मिला। सुपरिंटेंडेंट ने गली के मोड़ पर आदमियों का जमाव देखाए तो घोड़ा दौड़ाता उधार चला। इंद्रदत्ता की आवाज कानों में पड़ीए तो डाँटकर बोला—हटा दो इसको। इन सब आदमियों को अभी सामने से हटा दो। तुम सब आदमी अभी हट जाओए नहीं हम गोली मार देगा।

समूह जौ—भर भी न हटा।

श्अभी हट जाओए नहीं हम फायर कर देगा।श्

कोई आदमी अपनी जगह से न हिला।

सुपरिंटेंडेंट ने तीसरी बार आदमियों को हट जाने की आज्ञा दी।

समूह शांतए गंभीरए स्थिर रहा।

फायर करने की आज्ञा हुईए सिपाहियों ने बंदूकें हाथ में लीं। इतने में राजा साहब बदहवास आकर बोले लेकिन हुक्म हो चुका था। बाढ़़ चलीए बंदूकों के मुँह से धूँआ निकलाए धाँय—धाँय की रोमांचकारी धवनि निकली और कई चक्कर खाकर गिर पड़े। समूह की ओर से पत्थरों की बौछार होने लगी। दो—चार टहनियाँ गिर पड़ी थींए किंतु वृक्ष अभी तक खड़ा था।

फिर बंदूकें चलने की आज्ञा हुई। राजा साहब ने अबकी बहुत गिड़गिड़ाकर कहा किंतु आज्ञा मिल चुकी थीए दूसरी बाढ़़ चलीए फिर कई आदमी गिर पड़े। डालियाँ गिरींए लेकिन वृक्ष स्थिर खड़ा रहा।

तीसरी बार फायर करने की आज्ञा दी गई। राजा साहब ने सजल नयन होकर व्यथित कंठ से कहा! बाढ़़ चलीय कई आदमी गिरे और उनके साथ इंद्रदत्ता भी गिरे। गोली वक्षरूस्थल को चीरती हुई पार हो गई थी। वृक्ष का तना गिर गया!

समूह में भगदड़ पड़ गई। लोग गिरते—पड़तेए एक—दूसरे को कुचलतेए भाग खड़े हुए। कोई किसी पेड़ की आड़ में छिपाए कोई किसी घर में घुस गयाए कोई सड़क के किनारे की खाइयों में जा बैठाय पर अधिकांश लोग वहाँ से हटकर सड़क पर आ खड़े हुए।

नायकराम ने विनयसिंह से कहा—भैयाए क्या खड़े होए इंद्रदत्ता को गोली लग गई!

विनय अभी तक उदासीन भाव से खड़े थे। यह खबर पाते ही गोली—सी लग गई। बेतहाशा दौड़े और संगीनों के सामनेए गली के द्वार पर आकर खड़े हो गए। उन्हें देखते ही भागनेवाले सँभल गएय जो छिपे बैठे थेए निकल पड़े। जब ऐसे—ऐसे लोग मरने को तैयार हैंए जिनके लिए संसार में सुख—ही—सुख हैए तो फिर हम किस गिनती में हैं। यह विचार लोगों के मन में उठा। गिरती हुई दीवार फिर खड़ी हो गई। सुपरिंटेंडेंट ने दाँत पीसकर चौथी बार फायर का हुक्म दिया। लेकिन यह क्याघ् कोई सिपाही बंदूक नहीं चलाताए हवलदार ने बंदूक जमीन पर पटक दीए सिपाहियों ने भी उसके साथ ही अपनी—अपनी बंदूकें रख दीं। हवलदार बोला—हुजूर को अख्तियार हैए जो चाहें करेंय लेकिन अब हम लोग गोली नहीं चला सकते। हम भी मनुष्य हैंए हत्यारे नहीं।

ब्रॉउन—कोर्टमार्शल होगा।

हवलदार—हो जाए।

ब्रॉउन—नमकहराम लोग।

हवलदार—अपने भाइयों का गला काटने के लिए नहींए उनकी रक्षा करने के लिए नौकरी की थी।

यह कहकर सब—के—सब पीछे की ओर फिर गएए और सूरदास के झोंपड़े की तरफ चले। उनके साथ ही कई हजार आदमी जय—जयकार करते हुए चले। विनय उनके आगे—आगे थे। राजा साहब और ब्रॉउनए दोनों खोए हुए—से खड़े थे। उनकी अॉंखों के सामने एक ऐसी घटना घटीत हो रही थीए जो पुलिस के इतिहास में एक नूतन युग की सूचना दे रही थीए जो परम्परा के विरुध्दए मानव—प्रकृति के विरुध्दए नीति के विरुध्द थी। सरकार के वे पुराने सेवकए जिनमें से कितनों ही ने अपने जीवन का अधिकांश प्रजा का दमन करने ही में व्यतीत किया थाए यों अकड़ते हुए चले जाएँ! अपना सर्वस्वए यहाँ तक कि प्राणों को भी समर्पित करने को तैयार हो जाएँ। राजा साहब अब तक उत्तारदायित्व के भार से काँप रहे थेए अब यह भय हुआ कि कहीं ये लोग मुझ पर टूट न पड़ें। ब्रॉउन तो घोड़े पर सवार आदमियों को हंटर मार—मारकर भगाने की चेष्टा कर रहा था और राजा साहब अपने लिए छिपने की कोई जगह तलाश कर रहे थेए लेकिन किसी ने उनकी तरफ ताका भी नहीं। सब—के—सब विजय—घोष करते हुएए तरल वेग से सूरदास की झोंपड़ी की ओर दौड़े चले जाते थे। वहाँ पहुँचकर देखाए तो झोंपड़े के चारों तरफ सैकड़ों आदमी खड़े थे। माहिर अली अपने आदमियों के साथ नीम के वृक्ष के नीचे खड़े नई सशस्त्रा पुलिस की प्रतीक्षा कर रहे थेए हिम्मत न पड़ती थी कि इस व्यूह को चीरकर झोंपड़े के पास जाएँ। सबके आगे नायकराम कंधो पर लट्ठ रखे खड़े थे। इस व्यूह के मधय मेंए झोंपड़े के द्वार परए सूरदास सिर झुकाए बैठा हुआ थाए मानो धौर्यए आत्मबल और शांत तेज की सजी मूर्ति हो।

विनय को देखते ही नायकराम आकर बोला—भैयाए तुम अब कुछ चिंता मत करो! मैं यहाँ सँभाल लूँगा। इधार महीनों से सूरदास से मेरी अनबन थीए बोल—चाल तक बंद थाए पर आज उसका जीवट—जिगर देखकर दंग हो गया। एक अंधो अपाहिज में यह हियाव! हम लोग देखने ही को मिट्टी का यह बोझ लादे हुए हैं।

विनय—इंद्रदत्ता का मरना गजब हो गया।

नायकराम—भैयाए दिल न छोटा करोए भगवान्‌ की यही इच्छा होगी।

विनय—कितनी वीर—मृत्यु पाई है!

नायकराम—मैं तो खड़ा देखता ही थाए माथे पर सिकन तक नहीं आई।

विनय—मुझे क्या मालूम था कि आज यह नौबत आएगीए नहीं तो पहले खुद जाता। वह अकेले सेवा—दल का काम सँभाल सकते थेए मैं नहीं सँभाल सकता। कितना सहासमुख थाए कठिनाइयों को तो धयान में ही न लाते थेए आग में कूदने के लिए तैयार रहते थे। कुशल यही है कि अभी विवाह नहीं हुआ था।

नायकराम—घरवाले कितना जोर देते रहेए पर इन्होंने एक बार नहीं करके फिर हाँ न की।

विनय—एक युवती के प्राण बच गए।

नायकराम—कहाँ की बात भैयाए ब्याह हो गया होताए तो वह इस तरह बेधाड़क गोलियों के सामने जाते ही न। बेचारे माता—पिता का क्या हाल होगा!

विनय—रो—रोकर मर जाएँगे और क्या।

नायकराम—इतना अच्छा है कि कई भाई हैंए और घर के पोढ़़े हैं।

विनय—देखोए इन सिपाहियों की क्या गति होती है। कल तक फौज आ जाएगी। इन गरीबों की भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।

नायकराम—क्या फिकिर करोगे भैयाघ् उनका कोर्टमार्शल होगा। भागकर कहाँ जाएँगेघ्

विनय—यही तो उनसे कहना है कि भागें नहींए जो कुछ किया हैए उसका यश लेने से न डरें। हवलदार को फाँसी हो जाएगी।

यह कहते हुए दोनों आदमी झोंपड़े के पास आएए तो हवलदार बोला—कुँवर साहबए मेरा तो कोर्टमार्शल होगा हीए मेरे बाल—बच्चों की खबर लीजिएगा। यह कहते—कहते वह धाड़ मार—मार रोने लगा।

बहुत—से आदमी जमा हो गए और कहने लगे—कुँवर साहबए चंदा खोल दीजिए। हवलदार! तुम सच्चे सूरमा होए जो निर्बलों पर हाथ नहीं उठाते।

विनय—हवलदारए हमसे जो कुछ हो सकेगाए वह उठा न रखेंगे। आज तुमने हमारे मुख की लाली रख ली।

हवलदार—कुँवर साहबए मरने—जीने की चिंता नहींए मरना तो एक दिन होगा हीए अपने भाइयों की सेवा करते हुए मारे जाने से बढ़़कर और कौन मौत होगीघ् धान्य है आपकोए जो सुख—विलास त्यागे हुए अभागों की रक्षा कर रहे हैं।

विनय—तुम्हारे साथ के जो आदमी नौकरी चाहेंए उन्हें हमारे यहाँ जगह मिल सकती हैं।

हवलदार—देखिएए कौन बचता है और कौन मरता है।

राजा साहब ने अवसर पायाए तो मोटर पर बैठकर हवा हो गए। मि. ब्रॉउन सैनिक सहायता के विषय में जिलाधाीश से परामर्श करने चले गए। माहिर अली और उनके सिपाही वहाँ जमे रहे। ऍंधोरा हो गया थाए जनता भी एक—एक करके जाने लगी। सहसा सूरदास आकर बोला—कुँवरजी कहाँ हैंघ् धार्मावतारए हाथ—भर जमीन के लिए क्यों इतना झंझट करते होघ् मेरे कारन आज इतने आदमियों की जान गई। मैं क्या जानता था कि राई का परबत हो जाएगाए नहीं तो अपने हाथों से इस झोंपड़े में आग लगा देता और मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाता। मुझे क्या करना थाए जहाँ माँगताए वहीं पड़ा रहता। भैयाए मुझसे यह नहीं देखा जाता कि मेरी झोंपड़ी के पीछे कितने ही घर उजड़ जाएँ। जब मर जाऊँए तो जो जी में आएए करना।

विनय—तुम्हारी झोंपड़ी नहींए यह हमारा जातीय मंदिर है। हम इस पर फावड़े चलते देखकर शांत नहीं बैठे रह सकते।

सूरदास—पहले मेरी देह पर फावड़ा चल चुकेगाए तब घर पर फावड़ा चलेगा।

विनय—और अगर आग लगा देंघ्

सूरदास—तब तो मेरी चिता बनी—बनाई है। भैयाए मैं तुमसे और सब भाइयों से हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अगर मेरे कारन किसी माँ की गोद सुनी हुई या मेरी कोई बहन विधावा हुईए तो मैं इस झोंपड़े में आग लगाकर जल मरूँगा।

विनय ने नायकराम से कहा—अबघ्

नायकराम—बात का धानी हैय जो कहेगाए जरूर करेगा।

विनय—तो फिर अभी इसी तरह चलने दो। देखोए उधार से कल क्या गुल खिलता है। उनका इरादा देखकर हम लोग सोचेंगेए हमें क्या करना चाहिए। अब चलोए अपने वीरों की सद्‌गति करें। ये हमारी कौमी शहीद हैंए इनका जनाजा धूम से निकलना चाहिए।

नौ बजते—बजते नौ अर्थियाँ निकलीं और तीन जनाजे! आगे—आगे इंद्रदत्ता की अर्थी थीए पीछे—पीछे अन्य वीरों की। जनाजे कबरिस्तान की तरफ गए। अर्थियों के पीछे कोई दस हजार आदमी नंगे पाँवए सिर झुकाएए चले जाते थे। पग—पग पर समूह बढ़़ता जाता था। चारों ओर से लोग दौड़े चले आते थे। लेकिन किसी के मुख पर शोक या वेदना का चिद्द न थाए न किसी अॉंख में अॉंसू थेय न किसी कंठ सेर् आत्तानाद की धवनि निकलती थी। इसके प्रतिकूल लोगों के हृदय गर्व से फूले हुए थेए अॉंखों में स्वदेशाभिमान का मद भरा हुआ था। यदि इस समय रास्ते में तोपें चढ़़ा दी जातींए तो भी जनता के कदम पीछे न हटते। न कहीं शोक—धवनि थीए न विजयनाद थाए अलौकिक निरूस्तब्धाता थी—भावमयीए प्रवाहमयीए उल्लासमयी!

रास्ते में राजा महेंद्रकुमार का भवन मिला। राजा साहब छत पर खड़े यह —श्य देख रहे थे। द्वार पर सशस्त्रा रक्षकों का एक दल संगीन चढ़़ाए खड़ा था। ज्यों ही अर्थियाँ उनके द्वार के सामने से निकलींए एक रमणी अंदर से निकलकर जन—प्रवाह में मिल गई। यह इंदु थी। उस पर किसी की निगाह न पड़ी। उसके हाथों में गुलाब के फूलों की एक माला थीए जो उसने स्वयं गूँथी थी। वह यह हार लिए हुए आगे बढ़़ी और इंद्रदत्ता की अर्थी के पास जाकर अश्रुबिंदुओं के साथ उस पर चढ़़ा दिया। विनय ने देख लिया। बोले—इंदु!—इंदु ने उनकी ओर जल—पूरित लोचनों से देखाए और कुछ न बोलीए कुछ बोल न सकी।

गंगे! ऐसा प्रभावशाली —श्य कदाचित्‌ तुम्हारी अॉंखों ने भी न देखा होगा। तुमने बड़े—बड़े वीरों को भस्म का ढ़ेर होते देखा हैए जो शेरों का मुँह फेर सकते थेए बड़े—बड़े प्रतापी भूपति तुम्हारी अॉंखों के सामने राख में मिल गएए जिनके सिंहनाद से दिक्पाल थर्राते थेए बड़े—बड़े प्रभुत्वशाली योध्दा यहाँ चिताग्नि में समा गए। कोई यश और कीर्ति का उपासक थाए कोई राज्य—विस्तार काए कोई मत्सर—ममत्व का। कितने ज्ञानीए विरागीए योगीए पंडित तुम्हारी अॉंखों के सामने चितारूढ़़ हो गए। सच कहनाए कभी तुम्हारा हृदय इतना आनंद—पुलकित हुआ थाघ् कभी तुम्हारी तरंगों ने इस भाँति सिर उठाया थाघ् अपने लिए सभी मरते हैंए कोई इह—लोक के लिएए कोई परलोक के लिए। आज तुम्हारी गोद में वे लोग आ रहे हैंए जो निष्काम थेए जिन्होंने पवित्रा—विशुध्द न्याय की रक्षा के लिए अपने को बलिदान कर दिया!

औरए ऐसा मंगलमय शोक—समाज भी तुमने कभी देखाए जिसका एक—एक अंग भ्रातृ—प्रेमए स्वजाति—प्रेम और वीर—भक्ति से परिपूर्ण होघ्

रात—भर ज्वाला उठती रहीए मानो वीरात्माएँ अग्नि—विमान पर बैठी हुई स्वर्ग—लोक को जा रही हैं।

ऊषा—काल की स्वर्णमयी किरणें चिताओं से प्रेमालिंगन करने लगीं। यह सूर्यदेव का आशीर्वाद था।

लौटते समय तक केवल गिने—गिनाए लोग रह गए थे। महिलाएँ वीरगान करती हुई चली आती थीं। रानी जाह्नवी आगे—आगे थींए सोफीए इंदु और कई अन्य महिलाएँ पीछे। उनकी वीर—रस में डूबी हुई मधूर संगीत—धवनि प्रभात की आलोक—रश्मियों पर नृत्य कर रही थीए जैसे हृदय की तंत्रियों पर अनुराग नृत्य करता है।

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अध्याय 43

सोफिया के धार्मिक विचारए उसका आचार—व्यवहारए रहन—सहनए उसकी शिक्षा—दीक्षाए ये सभी बातें ऐसी थींए जिनसे एक हिंदू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया। सोफिया अभी तक हिंदू धार्म में विधिवत्‌ दीक्षित न हुई थीए पर उसका आचरण पूर्ण रीति से हिंदू धार्म और हिंदू समाज के अनुकूल था। इस विषय में अब जाह्नवी को लेश—मात्रा भी संदेह न था। उन्हें अब अगर संदेह थाए तो यह कि दाम्पत्य प्रेम में फँसकर विनय कहीं अपने उद्देश्य को न भूल बैठे। इस आंदोलन में नेतृत्व का भार लेकर विनय ने इस शंका को भी निर्मूल सिध्द कर दिया। रानीजी अब विवाह की तैयारियों में प्रवृत्ता हुईं। कुँवर साहब तो पहले ही से राजी थेए सोफिया की माता की रजामंदी आवश्यक थी। इंदु को कोई आपत्तिा हो ही न सकती थी। अन्य सम्बंधियों की इच्छा या अनिच्छा की उन्हें कोई चिंता न थी। अतएव रानीजी एक दिन मिस्टर सेवक के मकान पर गईं कि इस सम्बंधा को निश्चित कर लें। मिस्टर सेवक तो प्रसन्न हुएए पर मिसेज सेवक का मुँह न सीधा हुआ। उनकी द्रष्टि में एक योरपियन का जितना आदर थाए उतना किसी हिंदुस्तानी का न हो सकता थाए चाहे वह कितना ही प्रभुताशाली क्यों न हो। वह जानती थीं कि साधारण—से—साधारण योरपियन की प्रतिष्ठा यहाँ के बड़े—से—बड़े राजा से अधिक है। प्रभु सेवक ने योरप की राह लीए अब घर पर पत्रा तक न लिखते थे। सोफिया ने इधार यह रास्ता पकड़ा। जीवन की सारी अभिलाषाओं पर ओस पड़ गई। जाह्नवी के आग्रह पर क्रुध्द होकर बोलीं—खुशी सोफिया की चाहिएय जब वह खुश हैए तो मैं अनुमति दूँए या न दूँए एक ही बात है! माता हूँए संतान के प्रति मुँह से जब निकलेगीए शुभेच्छा ही निकलेगीए उसकी अनिष्ट—कामना नहीं कर सकतीय लेकिन क्षमा कीजिएगाए मैं विवाह—संस्कार में सम्मिलित न हो सकूँगी। मैं अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रही हूँ कि सोफिया को शाप नहीं देतीए नहीं तो ऐसी कुलकलंकिनी लड़की का तो मर जाना ही अच्छा हैए जो अपने धार्म से विमुख हो जाए।

रानीजी को और कुछ कहने का साहस न हुआ। घर आकर उन्होंने एक विद्वान्‌ पंडित बुलाकर सोफिया के धार्म और विवाह—संस्कार का मुहूर्त निश्चित कर डाला।

रानी जाह्नवी तो इन संस्कारों को धूमधाम से करने की तैयारियाँ कर रही थींए उधार पाँड़ेपुर का आंदोलन दिन—दिन भीषण होता था। मुआवजे के रुपये तो अब किसी के बाकी न थेए यद्यपि अभी तक मंजूरी न आई थीए और राजा महेंद्रकुमार को अपने पास से सभी असामियों को रुपये देने पड़े थेए पर इन खाली मकानों को गिराने के लिए मजदूर न मिलते थे। दुगनी—तिगुनी मजदूरी देने पर भी कोई मजदूर काम करने न आता था। अधिकारियों ने जिले के अन्य भागों से मजदूर बुलाएए पर जब वे आए और यहाँ की स्थिति देखीए तो रातों—रात भाग खड़े हुए। तब अधिकारियों ने सरकारी वकर्ंदाजों और तहसील के चपरासियों को बड़े—बड़े प्रलोभन देकर काम करने के लिए तैयार कियाए पर जब उनके सामने सैकड़ों युवकए जिनमें कितने ही ऊँचे कुलों के थेए हाथ बाँधाकर खड़े हो गए और विनय की कि भाइयोए ईश्वर के लिए फावड़े न चलाओए और अगर चलाना ही चाहते होए तो पहले हमारी गरदन पर चलाओए तो उन सबों की कायापलट हो गई। दूसरे दिन से वे लोग फिर काम पर न आए। विनय और उनके सहकारी सेवक आजकल इस सत्याग्रह को अग्रसर करने में व्यस्त रहते थे।

सूरदास सबेरे से संधया तक झोंपड़े के द्वार पर मूर्तिवत्‌ बैठा रहता। हवलदार और उसके सिपाहियों पर अदालत में अभियोग चल रहा था। घटनास्थल की रक्षा के लिए दूसरे जिले से सशस्त्रा पुलिस बुलाई गई थी। वे सिपाही संगीनें चढ़़ाए चौबीसों घंटे झोंपड़ी के सामनेवाले मैदान में टहलते रहते थे। शहर के हजार—दो—हजार आदमी आठों पहर मौजूद रहते। एक जाताए तो दूसरा आता। आने—जानेवालों का ताँता दिनभर न टूटता था। सेवक—दल भी नायकराम के खाली बरामदे में आसन जमाए रहता था कि न जाने कब क्या उपद्रव हो जाए। राजा महेंद्रकुमार और सुपरिंटेंडेंट पुलिस दिन में दो—दो बार अवश्य जाते थेए किंतु किसी कारण झोंपड़ा गिराने का हुक्म न देते थे। जनता की ओर से उपद्रव का इतना भय न थाए जितना पुलिस की अवाज्ञा का। हवलदार के व्यवहार से समस्त अधिकारियों के दिल में हौल समा गया था। प्रांतीय सरकार को यहाँ की स्थिति की प्रतिदिन सूचना दी जाती थी। सरकार ने भी आश्वासन दिया था कि शीघ्र ही गोरखों का एक रेजिमेंट भेजने का प्रबंधा किया जाएगा। अधिकारियों की आशा अब गोरखों ही पर अवलम्बित थीए जिनकी राजभक्ति पर उन्हें पूरा विश्वास था। विनय प्रायरू दिन—भर यहीं रहा करते थे। उनके और राजा साहब के बीच में अब नंगी तलवार का बीच था। वह विनय को देखतेए तो घृणा से मुँह फेर लेते। उनकी द्रष्टि में विनय सूत्राधार थाए सूरदास केवल कठपुतली।

रानी जाह्नवी ज्यों—ज्यों विवाह की तैयारियाँ करती थीं और संस्कारों की तिथि समीप आती जाती थीए सोफिया का हृदय एक अज्ञात भयए एक अव्यक्त शंकाए एक अनिष्ट चिंता से आच्छन्न होता जाता था। भय यह था कि कदाचित्‌ विवाह के पश्चात्‌ हमारा दाम्पत्य जीवन सुखमय न होए हम दोनों को एक दूसरे के चरित्रा—दोष ज्ञात होंए और हमारा जीवन दुरूखमय हो जाए। विनय की द्रष्टि में सोफी निर्विकारए निर्दोषए दिव्यए सर्वगुण—सम्पन्ना देवी थी। सोफी को विनय पर इतना विश्वास न था। उसके तात्तिवक विवेचन ने उसे मानव—चरित्रा की विषमताओं से अवगत कर दिया था। उसने बड़े—बड़े महात्माओंए ऋषियोंए मुनियोंए विद्वानोंए योगियों और ज्ञानियों कोए जो अपनी घोर तपस्याओं से वासनाओं का दमन कर चुके थेए संसार के चिकनेए पर काई से ढ़ँके हुए तल पर फिसलते देखा था। वह जानती थी कि यद्यपि संयमशील पुरुष बड़ी मुश्किल से फिसलते हैंए मगर जब एक बार फिसल गएए तो किसी तरह नहीं सँभल सकतेए उनकी कु़ठित वासनाएँए उनकी पिंजर—बध्द इच्छाएँए उनकी संयत प्रवृत्तिायाँ बड़े प्रबल वेग से प्रतिकूल दिशा की ओर चलती हैं। भूमि पर चलनेवाला मनुष्य गिरकर फिर उठ सकता हैए लेकिन आकाश में भ्रमण करनेवाला मनुष्य गिरेए तो उसे कौन रोकेगाए उसके लिए कोई आशा नहींए कोई उपाय नहीं। सोफिया को भय होता था कि कहीं मुझे भी यही अप्रिय अनुभव न होए कहीं वही स्थिति मेरे गले में न पड़ जाए। सम्भव हैए मुझमें कोई ऐसा दोष निकल आएए जो मुझे विनय की द्रष्टि में गिरा देए वह मेरा अनादर करने लगें। यह शंका सबसे प्रबलए सबसे निराशामय थी। आह! तब मेरी क्या दशा होगी! संसार में ऐसे कितने दम्पत्तिा हैं कि अगर उन्हें दूसरी बार चुनाव का अधिकार मिल जाएए तो अपने पहले चुनाव पर संतुष्ट रहेंघ्

सोफी निरंतर इन्हीं आशंकाओं में डूबी रहती थी। विनय बार—बार उसके पास आतेए उससे बातें करना चाहतेए पाँड़ेपुर की स्थिति के विषय में उससे सलाह लेना चाहतेए पर उसकी उदासीनता देखकर उन्हें कुछ कहने की इच्छा न होती।

चिंता रोग का मूल है। सोफी इतनी चिंताग्रस्त रहती कि दिन—दिन—भर कमरे से न निकलतीए भोजन भी बहुत सूक्ष्म करतीए कभी—कभी निराहार ही रह जाती। हृदय में एक दीपक—सा जलता रहता थाए पर किससे अपने मन की कहेघ् विनय से इस विषय में एक शब्द भी न कह सकती थी। जानती थी कि इसका परिणाम भयंकर होगा। नैराश्य की दशा में विनय न जाने क्या कर बैठें। अंत को उसकी कोमल प्रकृति इस मर्मदाह को सहन न कर सकी। पहले सिर में दर्द रहने लगाए धाीरे—धाीरे ज्वर का प्रकोप हो गया।

लेकिन रोग—शय्या पर गिरते ही सोफी को विनय से एक क्षण अलग रहना भी दुस्सह प्रतीत होने लगा। निर्बल मनुष्य को अपनी लकड़ी से भी अगाधा प्रेम हो जाता है। रुग्णावस्था में हमारा मन स्नेहापेक्षी हो जाता है। सोफियाए जो कई दिन पहले कमरे में विनय के आते ही बिल—सा खोजने लगती थी कि कहीं यह प्रेमालाप न करने लगेंए उनके तृषित नेत्राों सेए उनकी मधूर मुस्कान सेए उनके मृदु हास्य से थर—थर काँपती रहती थीए जैसे कोई रोगी उत्ताम पदाथोर्ं को सामने देखकर डरता हो कि मैं कुपथ्य न कर बैठूँए अब द्वार की ओर अनिमेष नेत्राों से विनय की बाट जोहा करती थी। वह चाहती कि यह अब कहीं न जाएँए मेरे पास ही बैठे रहें। विनय भी बहुधा उसके पास ही रहते। पाँड़ेपुर का भार अपने सहकारियों पर छोड़कर सोफिया की सेवा—शुश्रूषा में तत्पर हो गए। उनके बैठने से सोफी का चित्ता बहुत शांत हो जाता था। वह अपने दुर्बल हाथों को विनय की जाँघ पर रख देती और बालोचित आकांक्षा से उनके मुख की ओर ताकती। विनय को कहीं जाते देखतीए तो व्यग्र हो जाती और आग्रहपूर्ण नेत्राों से बैठने की याचना करती।

रानी जाह्नवी के व्यवहार में भी अब एक विशेष अंतर दिखाई देता था। स्पष्ट तो न कह सकतींए पर संकेतों से विनय को पाँड़ेपुर के सत्याग्रह में सम्मिलित होने से रोकती थीं। इंद्रदत्ता की हत्या ने उन्हें बहुत सशंक कर दिया था। उन्हें भय था कि उस हत्याकांड का अंतिम —श्य उससे कहीं भयंकर होगा। औरए सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था। सोफिया के पास बैठकर उससे सांत्वनाप्रद बातें करना और उसकी अनुरागपूर्ण बातें सुनना उन्हें अब बहुत अच्छा लगता था। सोफिया की गुप्त याचना ने प्रेमोद्‌गार को और भी प्रबल कर दिया। हम पहले मनुष्य होंए पीछे देशसेवक। देशानुराग के लिए हम अपने मानवीय भावों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह अस्वाभाविक है। निज पुत्रा की मृत्यु का शोक जाति पर पड़नेवाली विपत्तिा से कहीं अधिक होता है। निज शोक ममार्ंतक होता हैए जाति शोक निराशाजनकय निज शोक पर हम रोते हैंए जाति शोक पर चिंतित हो जाते हैं।

एक दिन प्रातरूकाल विनय डॉक्टर के यहाँ से दवा लेकर लौटे थे (सद्वैद्यों के होते हुए भी उनका विश्वास पाश्चात्य चिकित्सा ही पर अधिक था) कि कुँवर साहब ने उन्हें बुला भेजा। विनय इधार महीनों से उनसे मिलने न गए थे। परस्पर मनोमालिन्य—सा हो गया था। विनय ने सोफी को दवा पिलाई और तब कुँवर साहब से मिलने गए। वह अपने कमरे में टहल रहे थेए इन्हें देखकर बोले—तुम तो अब कभी आते ही नहींघ्

विनय ने उदासीन भाव से कहा—अवकाश नहीं मिलता। आपने कभी याद भी तो नहीं किया। मेरे आने से कदाचित्‌ आपका समय नष्ट होता है।

कुँवर साहब ने इस व्यंग की परवा न करके कहा—आज मुझे तुमसे एक महान्‌ संकट में राय लेनी हैए सावधान होकर बैठ जाओए इतनी जल्दी छुट्टी न होगी।

विनय—फरमाइएए मैं सुन रहा हूँ।

कुँवर साहब ने घोर असमंजस के भाव से कहा—गवर्नमेंट का आदेश है कि तुम्हारा नाम रियासत से...

यह कहते—कहते कुँवर साहब रो पड़े। जरा देर में करुणा का उद्वेग कम हुआए बोले—मेरी तुमसे विनीत याचना है कि तुम स्पष्ट रूप से अपने को सेवक—दल से पृथक कर लो और समाचार—पत्राों में इसी आशय की एक विज्ञप्ति प्रकाशित कर दो। तुमसे यह याचना करते हुए मुझे कितनी लज्जा और कितना दुरूख हो रहा हैए इसका अनुमान तुम्हारे सिवा और कोई नहीं कर सकताए पर परिस्थिति ने मुझे विवश कर दिया है। मैं तुमसे यह कदापि नहीं कहता कि किसी की खुशामद करोए किसी के सामने सिर झुकाओय नहींए मुझे स्वयं इससे घृणा थी और है। किंतु अपनी भू—सम्पत्तिा की रक्षा के लिए मेरे अनुरोधा को स्वीकार करो। मैंने समझा थाए रियासत को सरकार के हाथ में दे देना काफी होगा। किंतु अधिकारी लोग इसे काफी नहीं समझते। ऐसी दशा में मेरे लिए दो ही उपाय है—या तो तुम स्वयं इन आंदोलनों से पृथक्‌ हो जाओए या कम—से—कम उनमें प्रमुख भाग न लोए या मैं एक प्रतिज्ञा—पत्रा द्वारा तुम्हें रियासत से वंचित कर दूँ। भावी संतान के लिए इस सम्पत्तिा का सुरक्षित रहना परमावश्यक है तुम्हारे लिए पहला उपाय जितना कठिन हैए उतना ही कठिन मेरे लिए दूसरा उपाय है तुम इस विषय में क्या निश्चय करते होघ्

विनय ने गर्वान्वित भाव से कहा—मैं सम्पत्तिा को अपने पाँव की बेड़ी नहीं बनाना चाहता। अगर सम्पत्तिा हमारी है तो उसके लिए किसी शर्त की जरूरत नहींय अगर दूसरे की हैए और आपका अधिकार उसकी कृपा के अधाीन हैए तो मैं उसे सम्पत्तिा नहीं समझता। सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए सम्पत्तिा की जरूरत न हींए उसके लिए त्याग और सेवा काफी है।

भरतसिंह—बेटाए मैं इस समय तुम्हारे सामने सम्पत्तिा की विवेचना नहीं कर रहा हूँए उसे केवल क्रियात्मक द्रष्टि से देखना चाहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी अंश में सम्पत्तिा हमारी वास्तविक स्वाधाीनता में बाधाक होती हैए किंतु इसका उज्ज्वल पक्ष भी तो है—जीविका की चिंताओं से निवृत्तिा और आदर तथा सम्मान का वह स्थानए जिस पर पहुँचने के लिए असाधारण त्याग और सेवा की जरूरत होती हैए मगर जो यहाँ बिना किसी परिश्रम से आप—ही—आप मिल जाता है। मैं तुमसे केवल इतना चाहता हूँ कि तुम इस संस्था से प्रत्यक्ष रूप से कोई सम्बंधा न रखोए यों अप्रत्यक्ष रूप से उसकी जितनी सहायता करना चाहोए कर सकते हो। बसए अपने को कानून के पंजे से बचाए रहो।

विनय—अर्थात्‌ कोई समाचार—पत्रा भी पढ़़ूँए तो छिपकरए किवाड़ बंद करके कि किसी को कानों—कान खबर न हो। जिस काम के लिए परदे की जरूरत हैए चाहे उसका उद्देश्य कितना ही पवित्रा क्यों न होए वह अपमानजनक है। अधिक स्पष्ट शब्दों में मैं उसे चोरी कहने में भी कोई आपत्ति नहीं देखता। यह संशय और शंका से पूर्ण जीवन मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों कास कर देता है। मैं वचन और कर्म में इतनी स्वाधाीनता अनिवार्य समझता हूँए जो हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करे। इस विषय में मैं अपने विचार इससे स्पष्ट शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।

कुँवर साहब ने विनय को जलपूर्ण नेत्राों से देखा। उनमें कितनी उद्विग्नता भरी हुई थी! तब बोले—मेरी खातिर से इतना मान जाओ।

विनय—आपके चरणों पर अपने को न्योछावर कर सकता हूँए पर अपनी आत्मा की स्वाधाीनता की हत्या नहीं कर सकता।

विनय यह कहकर जाना ही चाहते थे कि कुँवर साहब ने पूछा तुम्हारे पास रुपये तो बिल्कुल न होंगेघ्

विनय—मुझे रुपये की फिक्र नहीं।

कुँवर—मेरी खातिर से—यह लेते जाओ।

उन्होंने नोटों का एक पुलिंदा विनय की तरफ बढ़़ा दिया। विनय इनकार न कर सके। कुँवर साहब पर उन्हें दया आ रही थी। जब वह नोट लेकर कमरे से चले गएए तो कुँवर साहब क्षोभ और निराशा से व्यथित होकर कुर्सी पर गिर पड़े। संसार उनकी द्रष्टि में ऍंधोरा हो गया।

विनय के आत्मसम्मान ने उन्हें रियासत का त्याग करने पर उद्यत तो कर दिया पर उनके सम्मुख अब एक नई समस्या उपस्थित हो गई। वह जीविका की चिंता थी। संस्था के विषय में तो विशेष चिंता न थीए उसका भार देश पर थाए और किसी जातीय कार्य के लिए भिक्षा माँगना लज्जा की बात नहीं। उन्हें इसका विश्वास हो गया था कि प्रयत्न किया जाएए तो इस काम के लिए स्थायी कोष जमा किया जा सकताए किंतु जीविका के लिए क्या होघ् कठिनाई यह थी कि जीविका उनके लिए केवल दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न थीए कुल—परम्परा की रक्षा भी उसमें शामिल थी। अब तक इस प्रश्न की गुरुता का उन्होंने अनुमान न किया था। मन में किसी इच्छा के उत्पन्न होने की देर रहती थी और वह पूरी हो जाती थी। अब जो अॉंखों के सामने यह प्रश्न अपना विशद रूप धारण करके आयाए तो वह घबरा उठे। सम्भव था कि अब भी कुछ काल तक माता—पिता का वात्सल्य उन्हें इस चिंता से मुक्त रखताए किंतु इस क्षणिक आधार पर जीवन—भवन का निर्माण तो नहीं किया जा सकता। फिर उनका आत्मगौरव यह कब स्वीकार कर सकता था कि अपनी सिध्दांत—प्रियता और आदर्श—भक्ति का प्रायश्चित्ता माता—पिता से कराएँघ् कुछ नहींए यह निर्लज्जता हैए निरी कायरता! मुझे कोई अधिकार नहीं कि अपने जीवन का भार माता—पिता पर रखूँ। उन्होंने इस मुलाकात की चर्चा माता से भी न कीए मन—ही—मन डूबने—उतराने लगे। औरए फिर अब अपनी ही चिंता न थीए सोफिया भी उनके जीवन का अंश बन चुकी थी। इसलिए यह चिंता और भी दाहक थी। माना कि सोफी मेरे साथ जीवन की बड़ी—से—बड़ी कठिनाई सहन कर लेगीए लेकिन क्या यह उचित है कि उसे प्रेम का यह कठोर दंड दिया जाएघ् उसके प्रेम को इतनी कठिन परीक्षा में डाला जाएघ् वह दिन—भर इन्हीं में मग्न रहे। यह विषय उन्हें असाधय—सा प्रतीत होता था। उनकी शिक्षा जीविका के प्रश्न पर लेशमात्रा भी धयान न दिया गया था। अभी थोड़े ही दिन पहले उनके लिए इस प्रश्न का अस्तित्व ही न था। वह स्वयं कठिनाइयों के अभ्यस्त थे। विचार किया था कि जीवन—पयर्ंत सेवा—व्रत का पालन करूँगा। किंतु सोफिया के कारण उनके सोचे हुए जीवन—क्रम में कायापलट हो गई थी। जिन वस्तुओं का पहले उनकी द्रष्टि में कोई मूल्य न थाए वे अब परमावश्यक जान पड़ती थीं। प्रेम को विलास—कल्पना ही से विशेष रुचि होती है वह दुरूख और दरिद्रता के स्वप्न नहीं देखता। विनय सोफिया को एक रानी की भाँति रखना चाहते थेए उसे जीवन की उन समस्त सुख—सामग्रियों से परिपूरित कर देना चाहते थेए जो विलास ने आविष्कृत की हैंय पर परिस्थितियाँ ऐसा रूप धारण करती थींए जिनसे वे उच्चाकांक्षाएँ मटीयामेट हुई जाती थीं। चारों ओर विपत्तिा और दरिद्रता का ही कंटकमय विस्तार दिखाई पड़ रहा था। इस मानसिक उद्वेग की दशा में वह कभी सोफी के पास आतेए कभी अपने कमरे में जातेए कुछ गुमसुमए उदासए मलिनमुखए निष्प्रभए उत्साहहीनए मानो कोई बड़ी मंजिल मारकर लौटे हों। पाँड़ेपुर से बड़ी भयप्रद सूचनाएँ आ रही थींए आज कमिश्नर आ गयाए आज गोरखों का रेजिमेंट आ पहुँचाए आज गोरखों ने मकानों को गिराना शुरू कियाए और लोगों के रोकने पर उन्हें पीटाए आज पुलिस ने सेवकों को गिरफ्तार करना शुरू कियाए दस सेवक पकड़ लिए गएए आज बीस पकड़े गएए आज हुक्म दिया गया है कि सड़क से सूरदास की झोंपड़ी तक काँटेदार तार लगा दिया जाएए कोई वहाँ जा ही नहीं सकता। विनय ये खबरें सुनते थे और किसी पंखहीन पक्षी की भाँति एक बार तड़पकर रह जाते थे।

इस भाँति एक सप्ताह बीत गया और सोफी का स्वास्थ्य सुधारने लगा। उसके पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि पाँव—पाँव बगीचे में टहलने चली जातीए भोजन में रुचि हो गईए मुखमंडल पर आरोग्य की कांति झलकने लगी। विनय की भक्तिपूर्ण सेवा ने उस पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। वे शंकाएँए जो उसके मन में पहले उठती रहती थींए शांत हो गई थीं। प्रेम के बंधान को सेवा ने और भी सु—ढ़़ कर दिया था। इस कृतज्ञता को वह शब्दों से नहींए आत्मसमर्पण से प्रकट करना चाहती थी। विनयसिंह को दुरूखी देखकर कहतीए तुम मेरे लिए इतने चिंतित क्यों होते होघ् मैं तुम्हारे ऐश्वर्य और सम्पत्तिा की भूखी नहीं हूँए जो मुझे तुम्हारी सेवा करने का अवसर न देगीए जो तुम्हें भावहीन बना देगी। इससे मुझे तुम्हारा गरीब रहना ज्यादा पसंद है। ज्यों—ज्यों उसकी तबीयत सँभलने लगीए उसे यह ख्याल आने लगा कि कहीं लोग मुझे बदनाम न करते हों कि इसी कारण विनय पाँड़ेपुर नहीं जातेए इस संग्राम में वह भाग नहीं लेतेए जो उनकार् कत्ताव्य हैए आग लगाकर दूर खड़े तमाशा देख रहे हैं। लेकिन यह ख्याल आने पर भी उसकी इच्छा न होती थी कि विनय वहाँ जाएँ।

एक दिन इंदु उसे देखने आई। बहुत खिन्न और विरक्त हो रही थी। उसे अब अपने पति से इतनी अश्रध्दा हो गई थी कि इधार हफ्तों से उसने उनसे बात तक न की थीए यहाँ तक कि अब वह खुले—खुले उनकी निंदा करने से भी न हिचकती थी। वह भी उससे न बोलते थे। बातों—बातों में विनय से बोली—उन्हें तो हाकिमों की खुशामद ने चौपट कियाए पिताजी को सम्पत्तिा—प्रेम ने चौपट कियाए क्या तुम्हें भी मोह चौपट कर देगाघ् क्यों सोफीए तुम इन्हें एक क्षण के लिए भी कैद से मुक्त नहीं करतींघ् अगर अभी से इनका यह हाल हैए तो विवाह हो जाने पर क्या होगा! तब तो यह कदाचित्‌ दीन—दुनिया कहीं के भी न होंगेय भौंरे की भाँति तुम्हारा प्रेम—रस—पान करने में उन्मत्ता रहेंगे।

सोफिया बड़ी लज्जित हुईए कुछ जवाब न दे सकी। उसकी यह शंका सत्य निकली कि विनय की उदासीनता का कारण मैं ही समझी जा रही हूँ।

लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि विनय अपनी सम्पत्तिा की रक्षा के विचार से मेरी बीमारी का बहाना लेकर इस संग्राम से पृथक्‌ रहना चाहते होंघ् यह कुत्सित्‌ भाव बलात्‌ उसके मन में उत्पन्न हुआ। वह इसे हृदय से निकाल देना चाहती थीए जैसे हम किसी घृणित वस्तु की ओर से मुँह फेर लेते हैं। लेकिन इस आक्षेप को अपने सिर से दूर करना आवश्यक था। झेंपते हुए बोली—मैंने तो कभी मना नहीं किया।

इंदु—मना करने के कई ढ़ंग हैं।

सोफिया—अच्छाए तो मैं आपके सामने कह रही हूँ कि मुझे इनके वहाँ जाने में कोई आपत्तिा नहीं हैए बल्कि इसे मैं अपने और इनके दोनों ही के लिए गौरव की बात समझती हूँ। अब मैं ईश्वर की दया और इनकी कृपा से अच्छी हो गई हूँए और इन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि इनके जाने से मुझे कोई कष्ट न होगा। मैं स्वयं दो—चार दिन में जाऊँगी।

इंदु ने विनय की ओर सहास नेत्राों से देखकर कहा—लोए अब तो तुम्हें कोई बाधा नहीं रहीघ् तुम्हारे वहाँ रहने से सब काम सुचारु रूप से होगाए और सम्भव है कि शीघ्र ही अधिकारियों को समझौता कर लेना पड़े। मैं नहीं चाहती कि उसका श्रेय किसी दूसरे आदमी के हाथ लगे।

लेकिन जब इस अंकुश का भी विनय पर कोई असर न हुआए तो सोफिया को विश्वास हो गया कि इस उदासीनता का कारण सम्पत्तिा—लालसा चाहे होए लेकिन प्रेम नहीं है। जब इन्हें मालूम है कि इनके पृथक्‌ रहने से मेरी निंदा हो रही हैए तो जानबूझकर क्यों मेरा उपहास करा रहे हैंघ् यह तो ऊँघते को ठेलने का बहाना हो गया। रोने को थे हीए अॉंखों में किरकिरी पड़ गई। मैं उनके पैर थोड़े ही पकड़े हुए हूँ। वह तो अब पाँड़ेपुर का नाम तक नहीं लेतेए मानो वहाँ कुछ हो ही नहीं रहा है। उसने स्पष्ट नहीं लेकिन सांकेतिक रीति से विनय को वहाँ जाने की प्रेरणा भी कीए लेकिन वह फिर टाल गए। वास्तव में बात यह थी कि इतने दिनों तक उदासीन रहने के पश्चात्‌ विनय अब वहाँ जाते हुए झेंपते थेए डरते थे कि कहीं मुझ पर लोग तालियाँ न बजाएँ कि डर के मारे छिपे बैठे रहे। उन्हें अब स्वयं पश्चात्तााप होता था कि मैं क्यों इतने दिनों तक मुँह छिपाए रहाए क्यों अपनी व्यक्तिगत चिंताओं को अपनेर् कत्ताव्य—मार्ग का काँटा बनने दियाघ् सोफी की अनुमति लेकर मैं जा सकता थाए वह कभी मुझे मना न करती। सोफी में एक बड़ा ऐब यह है कि मैं उसके हित के लिए भी जो काम करता हूँए उसे भी वह निर्दय आलोचक की द्रष्टि से ही देखती है। खुद चाहे प्रेम के वशर् कत्ताव्य की तृण—बराबर भी परवाह न करेए पर मैं आदर्श से जौ—भर नहीं टल सकता। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह मेरी दुर्बलताए मेरी भीरुता और मेरी अकर्मण्यता थी जिसने सोफिया की बीमारी को मेरे मुँह छिपाने का बहाना बना दियाए वरना मेरा स्थान तो सिपाहियों की प्रथम श्रेणी में था। वह चाहते थे कि कोई ऐसी बात पैदा हो जाए कि मैं इस झेंप को मिटा सकूँ—इस कालिख को धो सकूँ। कहीं दूसरे प्रांत से किसी भीषण दुर्घटना का समाचार आ जाएए और वहाँ अपनी लाज रखूँ। सोफिया को अब उनका आठों पहर अपने समीप रहना अच्छा न लगता। हम बीमारी में जिस लकड़ी के सहारे डोलते हैंए नीरोग हो जाने पर उसे छूते तक नहीं! माँ भी तो चाहती है कि बच्चा कुछ देर जाकर खेल आए। सोफी का हृदय अब भी विनय को अॉंखों से परे न जाने देना चाहता थाए उन्हें देखते ही उसका चेहरा फूल के समान खिल उठता थाए नेत्राों में प्रेम—मद छा जाता थाए पर विवेक—बुध्दि उसे तुरंत अपनेर् कत्ताव्य की याद दिला देती थी। वह सोचती थी कि जब विनय मेरे पास आएँ तो मैं निष्ठुर बन जाऊँए बोलूँ ही नहींए आप चले जाएँगेय लेकिन यह उसकी पवित्रा कामना थी। वह इतनी निर्दयए इतनी स्नेह—शून्य न हो सकती थी। भय होता थाए कहीं बुरा न मान जाएँ। कहीं यह न समझने लगें कि इसका चित्ता चंचल हैए यह स्वार्थपरायण हैए बीमारी में तो स्नेह की मूर्ति बनी हुई थीए अब मुझसे बोलते भी जबान दुखती है। सोफी! तेरा मन प्रेम में बसा हुआ हैए बुध्दि यश और कीर्ति में। और इन दोनों में निरंतर संघर्ष हो रहा है।

संग्राम को छिड़े हुए दो महीने हो गए। समस्या प्रतिदिन भीषण होती जाती थीए स्वयंसेवकों की पकड़—धाकड़ से संतुष्ट न होकर गोरखों ने अब उन्हें शारीरिक कष्ट देना शुरू कर दिया थाए अपमान भी करते थे और अपने अमानुषिक कृत्यों से उनको भयभीत कर देना चाहते थे। पर अंधो पर बंदूक चलाने या झोंपड़े में आग लगाने की हिम्मत न पड़ती थी। क्रांति का भय न थाए विद्रोह का भय न थाए भीषण—से—भीषण विद्रोह भी उनको आशंकित न कर सकता थाए भय था हत्याकांड काए न जाने कितने गरीब मर जाएँए न जाने कितना हाहाकार मच जाए! पाषाण हृदय भी एक बार रक्तप्रवाह से काँप उठता है।

सारे नगर मेंए गली—गली में घर—घर यही चर्चा होती रहती थी। नगरवासी रोज वहाँ पहुँच जाते थेए केवल तमाशा देखने नहींए बल्कि एक बार उस पर्ण—कुटी और उसके चक्षुहीन निवासी का दर्शन करने के लिए और अवसर पड़ने पर अपने से जो कुछ हो सकेए कर दिखाने के लिए। सेवकों की गिरफ्तारी से उनकी उत्सुकता और भी बढ़़ गई थी। आत्मसमर्पण की हवा—सी चल पड़ी थी।

तीसरा पहर था। एक आदमी डौंड़ी पीटता हुआ निकला। विनय ने नौकर को भेजा कि क्या बात है। उसने लौटकर कहाए सरकार का हुक्म हुआ कि आज से शहर का कोई आदमी पाँड़ेपुर न जाएए सरकार उसकी प्राण—रक्षा की जिम्मेदार न होगी।

विनय ने सचिंत भाव से कहा—आज कोई नया आघात होनेवाला है।

सोफिया—मालूम तो ऐसा ही होता है।

विनय—शायद सरकार ने इस संग्राम का अंत करने का निश्चय कर लिया है।

सोफिया—ऐसा ही जान पड़ता है।

विनय—भीषण रक्त—पात होगा!

सोफिया—अवश्य होगा।

सहसा एक वालंटीयर ने आकर विनय को नमस्कार किया और बोला—आज तो उधार का रास्ता बंद कर दिया गया है। मि. क्लार्क राजपूताना से जिलाधाीश की जगह आ गए हैं। मि. सेनापति मुअत्ताल कर दिए गए हैं।

विनय—अच्छा! मि. क्लार्क आ गए! कब आएघ्

सेवक—आज ही चार्ज लिया है। सुना जाता हैए उन्हें सरकार ने इसी कार्य के लिए विशेष रीति से यहाँ नियुक्त किया है।

विनय—तुम्हारे कितने आदमी वहाँ होंगेघ्

सेवक—कोई पचास होंगे।

विनय कुछ सोचने लगे। सेवक ने कई मिनट बाद पूछा—आप कोई विशेष आज्ञा देना चाहते हैंघ्

विनय ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा—बरबस आग में मत कूदनाय और यथा—साधय जनता को उस सड़क पर जाने से रोकना।

सेवक—आप भी आएँगेघ्

विनय ने कुछ खिन्न होकर कहा—देखा जाएगा।

सेवक के चले जाने के पश्चात्‌ विनय कुछ देर तक शोक—मग्न रहे। समस्या थीए जाऊँ या न जाऊँघ् दोनों पक्षों में तर्क—वितर्क होने लगा—मैं जाकर क्या कर लूँगाघ् अधिकारियों की जो इच्छा होगीए वह तो अवश्य ही करेंगे। अब समझौते की कोई आशा नहीं। लेकिन यह कितना अपमानजनक है कि न गर के लोग तो वहाँ जाने के लिए उत्सुक होंए और मैंए जिसने यह संग्राम छेड़ाए मुँह छिपाकर बैठा रहूँ। इस अवसर पर मेरा तटस्थ रहना मुझे जीवन—पयर्ंत के लिए कलंकित कर देगाए मेरी दशा महेंद्रकुमार से भी गई—बीती हो जाएगी। लोग समझेंगेए कायर है। एक प्रकार से मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत हो जाएगा।

लेकिन बहुत सम्भव हैए आज भी गोलियाँ चलें। अवश्य चलेंगी। कौन कह सकता हैए क्या होगाघ् सोफिया किसकी होकर रहेगीघ् आह! मैंने व्यर्थ जनता में यह भाव जगाया। अंधो का झोंपड़ा गिर गया होता और सारी कथा समाप्त हो जाती। मैंने ही सत्याग्रह का झंडा खड़ा कियाए नाग को जगायाए सिंह के मुँह में उँगली डाली।

उन्होंने अपने मन का तिरस्कार करते हुए सोचा—आज मैं इतना कायर क्यों हो गया हूँघ् क्या मैं मौत से डरता हूँघ् मौत से क्या डरघ् मरना तो एक दिन है ही। क्या मेरे मरने से देश सूना हो जाएगाघ् क्या मैं ही कर्णधार हूँघ् क्या कोई दूसरी वीर—प्रसू माता देश में है ही नहींघ्

सोफिया कुछ देर तक टकटकी लगाए उनके मुँह की ओर ताकती रही। अकस्मात्‌ वह उठ खड़ी हुई और बोली—मैं वहाँ जाती हूँ।

विनय ने भयातुर होकर कहा—आज वहाँ जाना दुस्साहस है। सुना नहींए सारे नाके बंद कर दिए गए हैंघ्

सोफिया—स्त्रिायों को कोई न रोकेगा।

विनय ने सोफिया का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत प्रेम—विनीत भाव से कहा—प्रियेए मेरा कहना मानोए आज मत जाओ। अच्छे रंग नहीं हैं। कोई अनिष्ट होने वाला है।

सोफिया—इसीलिए तो मैं जाना चाहती हूँ। औरों के लिए भय बाधाक न होए तो मेरे लिए भी क्यों होघ्

विनय—क्लार्क का आना बुरा हुआ।

सोफिया—इसीलिए मैं और जाना चाहती हूँ। मुझे विश्वास है कि मेरे सामने वह कोई पैशाचिक आचरण न कर सकेगा। इतनी सज्जनता अभी उसमें है।

यह कहकर सोफिया अपने कमरे में गई और अपना पुराना पिस्तौल सलूके की जेब में रखा। गाड़ी तैयार करने को पहले ही कह दिया था। वह बाहर निकलीए तो गाड़ी तैयार खड़ी थी। जाकर विनयसिंह के कमरे में झाँकाए वह वहाँ न थे। तब वह द्वार पर कुछ देर तक खड़ी रहीए एक अज्ञात शंका नेए किसी अमंगल के पूर्वाभास ने उसके हृदय को आंदोलित कर दिया। वह अपने कमरे में लौट जाना चाहती थी कि कुँवर साहब आते हुए दिखाई दिए। सोफी डरी कि यह कुछ पूछ न बैठेंए तुरंत गाड़ी में आ बैठी और कोचवान को तेज चलने का हुक्म दिया। लेकिन जब गाड़ी कुछ दूर निकल गईए तो वह सोचने लगी कि विनय कहाँ चले गएघ् कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वह मुझे जाने पर तत्पर देखकर मुझसे पहले ही चल दिए होंघ् उसे मनस्ताप होने लगा कि मैं नाहक यहाँ आने को तैयार हुई। विनय की आने की इच्छा न थी! वह मेरे ही आग्रह से आए हैं। ईश्वर! तुम उनकी रक्षा करना। क्लार्क उनसे जला हुआ है हीए कहीं उपद्रव न हो जाएघ् मैंने विनय को अकर्मण्य समझा। मेरी कितनी धाृष्टता है! यह दूसरा अवसर है कि मैंने उन पर मिथ्या दोषारोपण किया। मैं शायद अब तक उन्हें नहीं समझी। वह वीर आत्मा हैं। यह मेरी क्षुद्रता है कि उनके विषय में अकसर मुझे भ्रम हो जाता है। अगर मैं उनके मार्ग का कंटक न बनी होतीए तो उनका जीवन कितना निष्कलंकए कितना उज्ज्वल होताघ् मैं ही उनकी दुर्बलता हूँए मैं ही उनको कलंक लगाने वाली हूँ! ईश्वर करेए वह इधार न आए हों। उनका न आना ही अच्छा। यह कैसे मालूम हो कि यहाँ आए या नहीं! चलकर देख लूँ।

उधार विनयसिंह दफ्तर में जाकर सेवक—संस्था के आय—व्यय का हिसाब लिख रहे थे। उनका चित्ता बहुत उदास था। मुख पर नैराश्य छाया हुआ था। रह—रहकर अपने चारों ओर वेदनातुर द्रष्टि से देखते और फिर हिसाब लिखने लगते थे। न जाने वहाँ से लौटकर आना हो या न होए इसलिए हिसाब—किताब ठीक कर देना आवश्यक समझते थे। हिसाब पूरा करके उन्होंने प्रार्थना के भाव से ऊपर की ओर देखाय फिर बाहर निकलेए बाइसिकल उठाई और तेजी से चलेए इतने सतृष्ण नेत्राों से पीछे फिरकर भवनए उद्यान और विशाल वृक्षों को देखते जाते थेए मानो उन्हें फिर न देखेंगेए मानो यह उसका अंतिम दर्शन है। कुछ दूर आकर उन्होंने देखाए सोफिया चली जा रही है। अगर वह उससे मिल जातेए कदाचित्‌ सोफिया भी उनके साथ लौट पड़तीय पर उन्हें तो यह धुन सवार थी कि सोफिया के पहले वहाँ जा पहुँचूँ। मोड़ आते ही उन्होंने अपनी पैरगाड़ी को फेर दिया और दूसरा रास्ता पकड़ा। फल यह हुआ कि जब वह संग्राम—स्थल में पहुँचेए तो सोफिया अभी तक न आई थी। विनय ने देखाए गिरे हुए मकानों की जगह सैकड़ों छोलदारियाँ खड़ी हैं और उनके चारों ओर गोरखे खड़े चक्कर लगा रहे हैं। किसी की गति नहीं है कि अंदर प्रवेश कर सके। हजारों आदमी आस—पास खड़े हैंए मानो किसी विशाल अभिनय को देखने के लिए दर्शकगण वृत्तााकार खड़े हों। मधय में सूरदास का झोंपड़ा रंगमंच के समान स्थिर था। सूरदास झोंपड़े के सामने लाठी लिए खड़ा थाए मानो सूत्राधार नाटक का आरम्भ करने को खड़ा है। सब—के—सब सामने का —श्य देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि विनय की ओर किसी का धयान आकृष्ट नहीं हुआ। सेवक—दल के युवक झोंपड़े के सामने रातों—रात ही पहुँच गए थे। विनय ने निश्चय किया कि मैं भी वहीं जाकर खड़ा हो जाऊँ।

एकाएक किसी ने पीछे से उनका हाथ पकड़कर खींचा। उन्होंने चौंककर देखाए तो सोफिया थी। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। घबराई हुई आवाज से बोली—तुम क्यों आएघ्

विनय—तुम्हें अकेले क्योंकर छोड़ देताघ्

सोफिया—मुझे बड़ा भय लग रहा है। ये तोपें लगा दी गई हैं!

विनय ने तोपें न देखी थीं। वास्तव में तीन तोपें झोंपड़े की ओर मुँह किए हुए खड़ी थींए मानो रंगभूमि में दैत्यों ने प्रवेश किया हो।

विनय—शायद आज इस सत्याग्रह का अंत कर देने का निश्चय हुआ है।

सोफिया—मैं यहाँ नाहक आई। मुझे घर पहुँचा दो।

आज सोफिया को पहली बार प्रेम के दुर्बल पक्ष का अनुभव हुआ। विनय की रक्षा की चिंता में वह कभी इतनी भय—विकल न हुई थी। जानती थी कि विनय कार् कत्ताव्यए उनका गौरवए उनका श्रेय यहीं रहने में है। लेकिन यह जानते हुए भी उन्हें यहाँ से हटा ले जाना चाहती थी। अपने विषय में कोई चिंता न थी। अपने को वह बिलकुल भूल गई थी।

विनय—हाँए तुम्हारा यहाँ रहना जोखिम की बात है। मैंने पहले ही मना किया थाए तुमने न माना।

सोफिया विनय का हाथ पकड़कर गाड़ी पर बैठा देना चाहती थी कि सहसा इंदुरानी की मोटर आ गई। मोटर से उतरकर वह सोफिया के पास आईए बोली—क्यों सोफीए जाती हो क्याघ्

सोफिया ने बात बनाकर कहा—नहींए जाती नहीं हूँए जरा पीछे हट जाना चाहती हूँ।

सोफिया को इंदु का आना कभी इतना नागवार नहीं मालूम हुआ था। विनय को भी बुरा मालूम हुआ। बोले—तुम क्यों आईंघ्

इंदु—इसलिए कि तुम्हारे भाई साहब ने आज पत्रा द्वारा मुझे मना कर दिया था।

विनय—आज की स्थिति बहुत नाजुक है। हम लोगों के धौर्य और साहस की आज कठिनतम परीक्षा होगी।

इंदु—तुम्हारे भाई साहब ने तो उस पत्रा में यही बात लिखी थी।

विनय—क्लार्क को देखोए कितनी निर्दयता से लोगों को हंटर मार रहा है। किंतु कोई हटने का नाम भी नहीं लेता। जनता का संयम और धौर्य अब अंतिम बिंदु तक पहुँच गया है। कोई नहीं कह सकता कि कब क्या हो जाए।

साधारण जनता इतनी स्थिर चित्ता और —ढ़़ व्रत हो सकती हैए इसका आज विनय को अनुभव हुआ। प्रत्येक व्यक्ति प्राण हथेली पर लिए हुए मालूम होता था। इतने में नायकराम किसी ओर से आ गए और विनय को देखकर विस्मय से पूछा—आज तुम इधार कैसे भूल पड़े भैयाघ्

इस प्रश्न में कितना व्यंग्यए कितना तिरस्कारए कितना उपहास था! विनय ऐंठकर रह गए। बात टालकर बोले—क्लार्क बड़ा निर्दयी है!

नायकराम ने ऍंगोछा उठाकर अपनी पीठ विनय को दिखाई। गर्दन से कमर तक एक नीलीए रक्तमय रेखा खिंची हुई थीए मानो किसी नोकदार कील से खुरच लिया गया हो। विनय ने पूछा—यह घाव कैसे लगाघ्

नायकराम—अभी यह हंटर खाए चला आता हूँ। आज जीता बचाए तो समझूँगा। क्रोधा तो ऐसा आया कि टाँग पकड़कर नीचे घसीट लूँए लेकिन डरा कि कहीं गोली न चल जाएए तो नाहक सब आदमी भुन जाएँ। तुमने तो इधार आना ही छोड़ दिया। औरत का माया—जाल बड़ा कठिन है!

सोफिया ने इस कथन का अंतिम वाक्य सुन लिया। बोली—ईश्वर को धान्यवाद दो कि तुम इस जाल में नहीं फँसे।

सोफिया की चुटकी ने नायकराम को गुदगुदा दिया। सारा क्रोधा शांत हो गया। बोले—भैयाए मिस साहब को जवाब दो। मुझे मालूम तो हैए लेकिन कहते नहीं बनता। हाँए कैसेघ्

विनय—क्योंए तुम्हीं ने तो निश्चय किया था कि अब स्त्रिायों के नगीच न जाऊँगाए ये बड़ी बेवफा होती हैं। उसी दिन की बात हैए जब मैं सोफी की लताड़ सुनकर उदयपुर जा रहा था।

नायकराम—(लज्जित होकर) वाह भैयाए तुमने तो मेरे ही सिर झोंक दिया!

विनय—और क्या कहूँ! सच कहने में संकोचघ् खुश होंए तो मुसीबतय नाराज होंए तो मुसीबत।

नायकराम—बस भैयाए मेरे मन की बात कही। ठीक यही बात है। हर तरह मरदों ही पर मार। राजी होंए तो मुसीबतय नाराज होंए तो उससे भी बड़ी मुसीबत!

सोफिया—जब औरतें इतनी विपत्तिा हैंए तो पुरुष क्यों उसे अपने सिर मढ़़ते हैंघ् जिसे देखोए वही उसके पीछे दौड़ता है! क्या दुनिया के सभी पुरुष मूर्ख हैंए किसी को बुध्दि नहीं छू गईघ्

नायकराम—भैयाए मिस साहब ने मेरे सामने पत्थर लुढ़़का दिया। बात तो सच्ची है कि जब औरत इतनी बड़ी बिपत हैए तो लोग क्यों उसके पीछे हैरान रहते हैंघ् एक की दुर्दशा देखकर दूसरा क्यों नहीं सीखताघ् बोलो भैयाए है कुछ जवाबघ्

विनय—जवाब क्यों नहीं हैए एक तो तुम्हीं ने मेरी दुर्दशा से सीख लिया। तुम्हारी भाँति और भी कितने ही पड़े होंगे।

नायकराम—(हँसकर) भैयाए तुमने फिर मेरे ही सिर डाल दिया। यह तो कुछ ठीक जवाब न बन पड़ा।

विनय—ठीक वही हैए जो तुमने आते—ही—आते कहा था कि औरत का माया—जाल बड़ा कठिन है।

मनुष्य स्वभावतरू विनोदशील है। ऐसी विडम्बना में भी उसे हँसी सूझती हैए फाँसी पर चढ़़नेवाले मनुष्य भी हँसते देखे गए हैं। यहाँ ये ही बातें हो रही थीं कि मि. क्लार्क घोड़ा उछालतेए आदमियों को हटातेए कुचलते आ पहुँचे! सोफी पर निगाह पड़ी। तीर—सा लगा। टोपी उठाकर बोले—यह वही नाटक हैए या कोई दूसरा शुरू कर दियाघ्

नश्तर से भी तीव्रए पत्थर से भी कठोरए निर्दय वाक्य था। मि. क्लार्क ने अपने मनोगत नैराश्यए दुरूखए अविश्वास और क्रोधा को इन चार शब्दों में कूट—कूटकर भर दिया था।

सोफी ने तत्क्षण उत्तार दिया—नहींए बिलकुल नया। तब जो मित्रा थेए वे ही अब शत्रु हैं।

क्लार्क व्यंग्य समझकर तिलमिला उठे। बोले—यह तुम्हारा अन्याय है। मैं अपनी नीति से जौ—भर भी नहीं हटा।

सोफी—किसी को एक बार शरण देना और दूसरी बार उसी पर तलवार उठानाए क्या एक ही बात हैघ् जिस अंधो के लिए कल तुमने यहाँ के रईसों का विरोधा किया थाए बदनाम हुए थेए दंड भोगा थाए उसी अंधो की गरदन पर तलवार चलाने के लिए आज राजपूताने से दौड़ आए हो। क्या दोनों एक ही बात हैंघ्

क्लार्क—हाँ मिस सेवकए दोनों एक ही बात हैं। हम यहाँ शासन करने के लिए आते हैंए अपने मनोभावों और व्यक्तिगत विचारों का पालन करने के लिए नहीं। जहाज से उतरते ही हम अपने व्यक्तित्व को मिटा देते हैं। हमारा न्यायए हमारी सहृदयताए हमारी सदिच्छाए सबका एक ही अभीष्ट है। हमारा प्रथम और अंतिम उद्देश्य शासन करना है।

मि. क्लार्क का लक्ष्य सोफी की ओर इतना नहींए जितना विनय की ओर था। वह विनय को अलक्षित रूप से धामका रहे थे। खुले हुए शब्दों में उनका आशय यही था कि हम किसी के मित्रा नहीं हैंए हम यहाँ राज्य करने आए हैंए और जो हमारे कार्य में बाधाक होगाए उसे हम उखाड़ फेंकेंगे।

सोफी ने कहा—अन्यायपूर्ण शासनए शासन नहीं युध्द है।

क्लार्क—तुमने फावड़े को फावड़ा कह दिया। हममें इतनी सज्जनता है। अच्छाए मैं तुमसे फिर मिलूँगा।

यह कहकर उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई। सोफिया ने उच्च स्वर में कहा—नहींए कदापि न आनाय मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती।

आकाश मेघ—मंडित हो रहा था। संधया से पहले संधया हो गई थी। मि. क्लार्क अभी गए ही थे कि मि. जॉन सेवक की मोटर आ पहुँची। वह ज्यों ही मोटर से उतरे कि सैकड़ों आदमी उनकी तरफ लपके। जनता शासकों से दबती हैए उनकी शक्ति का ज्ञान उन पर अंकुश जमाता रहता है। जहाँ उस शक्ति का भय नहीं होताए वहीं वह आपे से बाहर हो जाती है। मि. सेवक शासकों के कृपापात्रा होने पर भी शासक नहीं थे। जान लेकर गोरखों की कैम्प की तरफ भागेए सिर पर पाँव रखकर दौड़ेय लेकिन ठोकर खाईए गिर पड़े। मि. क्लार्क ने घोड़े पर से उन्हें दौड़ते देखा था। उन्हें गिरते देखाए तो समझेए जनता ने उन पर आघात कर दिया। तुरंत गोरखों का एक दल उनकी रक्षा के निमित्ता भेजा। जनता ने भी उग्र रूप धारण किया—चूहे बिल्ली से लड़ने के लिए तैयार हुए। सूरदास अभी तक चुपचाप खड़ा था। यह हलचल सुनीए तो भयभीत होकर भैरों से बोलाए जो एक क्षण के लिए उसे न छोड़ता था—भैयाए तुम मुझे जरा अपने कंधो पर बैठा लोए एक बार और लोगों को समझा देखूँ। क्यों लोग यहाँ से हट नहीं जातेघ् सैकड़ों बार कह चुकाए कोई सुनता ही नहीं। कहीं गोली चल गईए तो आज उस दिन से भी अधिक खून—खच्चर हो जाएगा।

भैरों ने सूरदास को कंधो पर बैठा लिया। इस जन—समूह में उसका सिर बालिश्तभर ऊँचा हो गया। लोग इधार—उधार से उसकी बातें सुनने दौड़े। वीर—पूजा जनता का स्वाभाविक गुण है। ऐसा ज्ञात होता था कि कोई चक्षुहीन यूनानी देवता अपने उपासकों के बीच खड़ा है।

सूरदास ने अपनी तेजहीन अॉंखों से जन—समूह को देखकर कहा—भाइयोए आप लोग अपने—अपने घर जाएँ। आपसे हाथ जोड़कर कहता हूँए घर चले जाएँ। यहाँ जमा होकर हाकिमों को चिढ़़ाने से क्या फायदाघ् मेरी मौत आवेगीए तो आप लोग खड़े रहेंगेए और मैं मर जाऊँगा। मौत न आवेगीए तो मैं तोपों के मुँह से बचकर निकल आऊँगा। आप लोग वास्तव में मेरी सहायता करने नहीं आएए मुझसे दुसमनी करने आए हैं। हाकिमों के मन मेंए फौज के मन मेंए पुलिस के मन में जो दया और धारम का खयाल आताए उसे आप लोगों ने जमा होकर क्रोधा बना दिया है। मैं हाकिमों को दिखा देता कि एक अंधा आदमी एक फौज को कैसे पीछे हटा देता हैए तोप का मुँह कैसे बंद कर देता हैए तलवार की धार कैसे मोड़ देता है! मैं धारम के बल से लड़ना चाहता था...।

इसके आगे वह और कुछ न कह सका। मि. क्लार्क ने उसे खड़े होकर कुछ बोलते सुनाए तो समझेए अंधा जनता में उपद्रव मचाने के लिए प्रेरित कर रहा है। उनकी धारणा थी कि जब तक यह आत्मा जीवित रहेगीए अंगों की गति बंद न होगी। इसलिए आत्मा ही का नाश कर देना आवश्यक है। उद्‌गम को बंद कर दोए जल—प्रवाह बंद हो जाएगा। वह इसी ताक में लगे हुए थे कि इस विचार को कैसे कार्य—रूप में परिणत करेंय किंतु सूरदास के चारों तरफ नित्य आदमियों का जमघट रहता थाए क्लार्क को इच्छित अवसर न मिलता था। अब जो उसके सिर को ऊपर उठा देखाए तो उन्हें वह अवसर मिल गया—वह स्वर्णावसर थाए जिसके प्राप्त होने पर ही इस संग्राम का अंत हो सकता था। इसके पश्चात्‌ जो कुछ होगाए उसे वह जानते थे। जनता उत्तोजित होकर पत्थरों की वर्षा करेगीए घरों में आग लगाएगीए सरकारी दफ्तरों को लूटेगी। इन उपद्रवों को शांत करने के लिए उनके पास पर्याप्त शक्ति थी। मूल मंत्रा अंधो को समरस्थल से हटा देना था—यही जीवन का केंद्र हैए यही गति—संचालक सूत्रा है। उन्होंने जेब से पिस्तौल निकाली और सूरदास पर चला दिया। निशाना अचूक पड़ा। बाण ने लक्ष्य को बेधा दिया। गोली सूरदास के कंधो में लगीए सिर लटक गयाए रक्त—प्रवाह होने लगा। भैरों उसे सँभाल न सकाए वह भूमि पर गिर पड़ा। आत्मबल पशुबल का प्रतिकार न कर सका।

सोफिया ने मि. क्लार्क को जेब से पिस्तौल निकालते और सूरदास को लक्ष्य करते देखा था। उसको जमीन पर गिरते देखकर समझीए घातक ने अपना अभीष्ट पूरा कर लिया। फिटन पर खड़ी थीए नीचे कूद पड़ी और हत्याक्षेत्रा की ओर चलीए जैसे कोई माता अपने बालक को किसी आनेवाली गाड़ी की झपेट में देखकर दौड़े। विनय उसके पीछे—पीछे उसे रोकने के लिए दौड़ेए वह कहते जाते थे—सोफी! ईश्वर के लिए वहाँ न जाओए मुझ पर इतनी दया करो। देखोए गोरखे बंदूकें सँभाल रहे हैं। हाय! तुम नहीं मानतीं। यह कहकर उन्होंने सोफी का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। लेकिन सोफी ने एक झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर दौड़ी। उसे इस समय कुछ न सूझता थाय न गोलियों का भय थाए न संगीनों का। लोग उसे दौड़ते देखकर आप—ही—आप रास्ते से हटते जाते थे। गोरखों की दीवार सामने खड़ी थीए पर सोफी को देखकर वे भी हट गए। मि. क्लार्क ने पहले ही कड़ी ताकीद कर दी थी कि कोई सैनिक रमणियों से छेड़छाड़ न करे। विनय इस दीवार को न चीर सके। तरल वस्तु छिद्र के रास्ते निकल गई ठोस वस्तु न निकल सकी।

सोफी ने जाकर देखा तो सूरदास के कंधो से रक्त प्रवाहित हो रहा थाए अंग शिथिल पड़ गए थेए मुख विवर्ण हो रहा थाए पर अॉंखें खुली हुई थीं और उनमें से पूर्ण शांतिए संतोष और धौर्य की ज्योति निकल रही थीय क्षमा थीए क्रोधा या भय का नाम न था। सोफी ने तुरंत रूमाल निकालकर रक्त—प्रवाह को बंद किया और कम्पित स्वर में बोलीं—इन्हें अस्पताल भेजना चाहिए। अभी प्राण हैय सम्भव हैए बच जाएँ। भैरों ने उसे गोद में उठा लिया। सोफिया उसे अपनी गाड़ी तक लाईए उस पर सूरदास को लिटा दियाए आप गाड़ी पर बैठ गई और कोचवान को शफाखाने चलने का हुक्म दिया।

जनता नैराश्य और क्रोधा से उन्मत्ता हो गई। हम भी यहीं मर मिटेंगे। किसी को इतना होश न रहा कि यों मर मिटने से अपने सिवा किसी दूसरे की क्या हानि होगी। बालक मचलता हैए तो जानता है कि माता मेरी रक्षा करेगी। यहाँ कौन माता थीए जो इन मचलनेवालों की रक्षा करती! लेकिन क्रोधा में विचार—पट बंद हो जाता है। जनसमुदाय का वह अपार सागर उमड़ता हुआ गोरखों की ओर चला। सेवक—दल के युवक घबराए हुए इधार—उधार दौड़ते फिरते थेय लेकिन उनके समझाने का किसी पर असर न होता था। लोग दौड़—दौड़कर ईंट और कंकड़—पत्थर जमा कर रहे थे। ख्रडहरों में मलबे की क्या कमी! देखते—देखते जगह—जगह पत्थरों के ढ़ेर लग गए।

विनय ने देखाए अब अनर्थ हुआ चाहता है। आन—की—आन में सैकड़ों जानों पर बन आएगीए तुरंत एक गिरी हुई दीवार पर चढ़़कर बोले—मित्राोए यह क्रोधा का अवसर नहीं हैए प्रतिकार का अवसर नहीं हैए सत्य की विजय पर आनंद और उत्सव मनाने का अवसर है।

एक आदमी बोला—अरे! यह तो कुँवर विनयसिंह हैं।

दूसरा—वास्तव में आनंद मनाने का अवसर हैय उत्सव मनाइएए विवाह मुबारक!

तीसरा—जब मैदान साफ हो गयाए तो आप मुरदों की लाश पर अॉंसू बहाने के लिए पधारे हैं। जाइएए शयनागार में रंग उड़ाइए। यह कष्ट क्यों उठाते हैंघ्

विनय—हाँए यह उत्सव मनाने का अवसर है कि अब भी हमारी पतितए दलितए पीड़ित जाति में इतना विलक्षण आत्मबल है कि एक निस्सहायए अपंग नेत्राहीन भिखारी शक्ति—संपन्न अधिकारियों का इतनी वीरता से सामना कर सकता है।

एक आदमी ने व्यंग्य—भाव से कहा—एक बेकस अंधा जो कुछ कर सकता हैए वह राजे—राईस नहीं कर सकते।

दूसरा—राजभवन में जाकर शयन कीजिए। देर हो रही है। हम अभागों को मरने दीजिए।

तीसरा—सरकार से कितना पुरस्कार मिलनेवाला है।

चौथा—आप ही ने तो राजपूताने में दरबार का पक्ष लेकर प्रजा को आग में झोंक दिया था!

विनय—भाइयोए मेरी निंदा का समय फिर मिल जाएगा। यद्यपि मैं कुछ विशेष कारणों से इधर आपका साथ न दे सकाए लेकिन ईश्वर जानता हैए मेरी सहानुभूति आप ही के साथ थी। मैं एक क्षण के लिए आपकी तरफ से गाफिल न था!

एक आदमी—यारोए यहाँ खड़े क्या बकवास कर रहे होघ् कुछ दम हो तो चलोए कट मरें।

दूसरा—यह व्याख्यान झाड़ने का अवसर नहीं है। आज हमें यह दिखाना है कि हम न्याय के लिए कितनी वीरता से प्राण दे सकते हैं।

तीसरा—चलकर गोरखों के सामने खड़े हो जाओ। कोई कदम पीछे न हटाकेए वहीं अपनी लाशों का ढ़ेर लगा दो। बाल—बच्चों को ईश्वर पर छोड़ो।

चौथा—यह तो नहीं होता कि आगे बढ़़कर ललकारें कि कायरों का रक्त भी खौलने लगे। हमें समझाने चले हैंए मानो हम देखते नहीं कि सामने फौज बंदूकें भरे खड़ी है और एक बाढ़़ में कत्लेआम कर देगी।

पाँचवाँ—भाईए हम गरीबों की जान सस्ती होती है। रईसजादे होते तो हम भी दूर—दूर से खड़े तमाशा देखते।

छठा—इससे कहोए जाकर चुल्लू—भर पानी में डूब मरे। हमें इसके उपदेशों की जरूरत नहीं। उँगली में लहू लगाकर शहीद बनने चले हैं!

ये अपमानजनकए व्यंग्यपूर्णए कटु वाक्य विनय के उर—स्थल में बाण के स—श चुभ गए—हा हतभाग्य! मेरे जीवन—पयर्ंत के सेवानुरागए त्यागए संयम का यही फल है! अपना सर्वस्व देशसेवा की वेदी पर आहुति देकर रोटीयों को मोहताज होने का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का कलंक मेरे माथे से कभी न मिटेगाघ् वह भूल गए—मैं यहाँ जनता की रक्षा करने आया हूँए गोरखे सामने हैं। मैं यहाँ से हटाए और एक क्षण में पैशाचिक नर—हत्या होने लगेगी। मेरा मुख्यर् कत्ताव्य अंत समय तक इन्हें रोकते रहना है। कोई मुजाएका नहींए अगर इन्होंने ताने दिएए अपमान कियाए कलंक लगायाय दुर्वचन कहे। मैं अपराधाी हूँए अगर नहीं हूँए तो भी मुझे धौर्य से काम लेना चाहिए। ये सभी बातें वे भूल गए। नीति—चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है। जहाँ दबना चाहिएए वहाँ दब जाता हैय जहाँ गरम होना चाहिएए वहाँ गरम होता है। उसे मानापमान का हर्ष या दुरूख नहीं होता। उसकी द्रष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है। वह अविरल गति सेए अदम्य उत्साह से उसी ओर बढ़़ता हैय किंतु सरलए लज्जाशीलए निष्कपट आत्माएँ मेघों के समान होती हैंए जो अनुकूल वायु पाकर पृथ्वी को तृप्त कर देते हैं और प्रतिकूल वायु के वेग से छिन्न—भिन्न हो जाते हैं। नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ हैए आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव—सम्पन्न प्राणियों के लिए अपना चरित्रा—बल ही सर्वप्रधान है। वे अपने चरित्रा पर किए गए आघातों को सह नहीं सकते। वे अपनी निर्दोषिता सिध्द करने को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से कहीं अधिक महत्तवपूर्ण समझते हैं। विनय की सौम्य आकृति तेजस्वी हो गईए लोचन लाल हो गए। वह उन्मत्ताों की भाँति जनता का रास्ता रोककर खड़े हो गए और बोले—क्या आप देखना चाहते हैं कि रईसों के बेटे क्योंकर प्राण देते हैंघ् देखिए।

यह कहकर उन्होंने जेब से भरी हुई पिस्तौल निकाल लीए छाती में उसकी नली लगाई और जब तक लोग दौड़ेए भूमि पर गिर पड़े। लाश तड़पने लगी। हृदय की संचित अभिलाषाएँ रक्त की धार बनकर निकल गईं। उसी समय जल—वृष्टि होने लगी। मानो स्वर्गवासिनी आत्माएँ पुष्पवर्षा कर रही हों।

जीवन—सूत्रा कितना कोमल है! वह क्या पुष्प से कोमल नहींए जो वायु के झोंके सहता है और मुरझाता नहींघ् क्या वह लताओं से कोमल नहींए जो कठोर वृक्षों के झोंके सहती और लिपटी रहती हैंघ् वह क्या पानी के बबूलों से कोमल नहींए जो जल की तरंगों पर तैरते हैंए और टूटते नहींघ् संसार में और कौन—सी वस्तु इतनी कोमलए इतनी अस्थिरए इतनी सारहीन हैए जिससे एक व्यंग्यए एक कठोर शब्दए एक अन्योक्ति भी दारुणए असह्यए घातक है! औरए इस भित्तिा पर कितने विशालए कितने भव्यए कितने बृहदाकार भवनों का निर्माण किया जाता है!

जनता स्तम्भित हो गईए जैसे अॉंखों में ऍंधोरा छा जाए! उसका क्रोधावेश करुणा के रूप में बदल गया। चारों तरफ से दौड़—दौड़कर लोग आने लगेए विनय के दर्शनों से अपने नेत्राों को पवित्रा करने के लिएए उनकी लाश पर चार बूँद अॉंसू बहाने के लिए। जो द्रोही थाए स्वार्थी थाए काम—लिप्सा रखनेवाला थाए वह एक क्षण में देव—तुल्यए त्याग—मूर्तिए देश का प्याराए जनता की अॉंखों का तारा बना हुआ था। जो लोग गोरखों के समीप पहुँच गए थेए वे भी लौट आए। हजारों शोक—विह्नल नेत्राों से अश्रु—वृष्टि हो रही थीए जो मेघ की बूँदों से मिलकर पृथ्वी को तृप्त करती थीं। प्रत्येक हृदय शोक से विदीर्ण हो रहा थाए प्रत्येक हृदय अपना तिरस्कार कर रहा थाए पश्चात्तााप कर रहा था—आहए यह हमारे ही व्यंग्य—बाणों काए हमारे ही तीव्र वाक्य—शरों का पाप—कृत्य है। हमीं इसके घातक हैंए हमारे ही सिर यह हत्या है! हाय! कितनी वीर आत्माए कितना धौर्यशीलए कितना गम्भीरए कितना उन्नत—हृदयए कितना लज्जाशीलए कितना आत्माभिमानीए दीनों का कितना सच्चा सेवक और न्याय का कितना सच्चा उपासक थाए जिसने इतनी बड़ी रियासत को तृणवत्‌ समझा और हम पामरों ने उसकी हत्या कर डालीय उसे न पहचाना!

एक ने रोकर कहा—खुदा करेए मेरी जबान जल जाए। मैंने ही शादी पर मुबारकबादी का ताना मारा था।

दूसरा बोला—दोस्तोए इस लाश पर फिदा हो जाओए इस पर निसार हो जाओए इसके कदमों पर गिरकर मर जाओ।

यह कहकर उसने कमर से तलवार निकालीए गरदन पर चलाई और वहीं तड़पने लगा।

तीसरा सिर पीटता हुआ बोला—कितना तेजस्वी मुख—मंडल है! हाए मैं क्या जानता था कि मेरे व्यंग्य वज्र बन जाएँगे!

चौथा—हमारे हृदयों पर यह घाव सदैव हरा रहेगाए हम इस देवमूर्ति को कभी विस्मृत न कर सकेंगे। कितनी शूरता से प्राण त्याग दिएए जैसे कोई एक पैसा निकालकर किसी भिक्षुक के सामने फेंक दे। राजपुत्राों में ये ही गुण होते हैं। वे अगर जीना जानते हैंए तो मरना भी जानते हैं। रईस की यही पहचान है कि बात पर मर मिटे।

ऍंधोरा छाया था। पानी मूसलाधार बरस रहा था। कभी जरा देर के लिए बूँदें हलकी पड़ जातींए फिर जोरों से गिरने लगतींए जैसे कोई रोने वाला थककर जरा दम ले ले और फिर रोने लगे। पृथ्वी ने पानी में मुँह छिपा लिया थाए माता मुँह पर अंचल डाले रो रही थी। रह—रहकर टूटी हुई दीवारों के गिरने का धामाका होता थाए जैसे कोई धाम—धाम छाती पीट रहा हो। क्षण—क्षण बिजली कौंधाती थीए मानो आकाश के जीव चीत्कार कर रहे हों! दम—के—दम में चारों तरफ शोक—समाचार फैल गया। इंदु मि. जॉन सेवक के साथ थी। यह खबर पाते ही मरूच्छित होकर गिर पड़ी।

विनय के शव पर एक चादर तान दी गई थी। दीपकों के प्रकाश में उनका मुख अब भी पुष्प के समान विहसित था। देखनेवाले आते थेए रोते थेए और शोक—समाज में खड़े हो जाते थे। कोई—कोई फूलों की माला रख देता था। वीर पुरुष यों ही मरते हैं। अभिलाषाएँ उनके गले की जंजीर नहीं होतीं। उन्हें इसकी चिंता नहीं होती कि मेरे पीछे कौन हँसेगा और कौन रोएगा। उन्हें इसका भय नहीं होता कि मेरे बाद काम कौन सँभालेगा। यह सब संसार से चिमटनेवालों के बहाने हैं। वीर पुरुष मुक्तात्मा होते हैं। जब तक जीते हैंए निर्द्‌वंद्व जीते हैं। मरते हैंए तो निर्द्‌वंद्व मरते हैं।

इस शोक—वृत्ताांत को क्यों तूल देंय जब बेगानों की अॉंखों से अॉंसू और हृदय से आह निकल पड़ती थीए तो अपनों का कहना ही क्या! नायकराम सूरदास के साथ शफाखाने गए थे। लौटे ही थे कि यह —श्य देखा। एक लम्बी साँस खींचकर विनय के चरणों पर सिर रख दिया और बिलख—बिलखकर रोने लगे। जरा चित्ता शांत हुआए तो सोफी को खबर देने चलेए जो अभी शफाखाने ही में थी।

नायकराम रास्ते—भर दौड़ते हुए गएए पर सोफी के सामने पहुँचेए तो गला इतना फँस गया कि मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसकी ओर ताकते हुए सिसक—सिसककर रोने लगे। सोफी के हृदय में शूल—सा उठा। अभी नायकराम गए और उलटे पाँव लौट आए। जरूर कोई अमंगल सूचना है। पूछा—क्या पंडाजीय यह पूछते ही उसका कंठ भी रुँधा गया।

नायकराम की सिसकियाँर् आत्तानाद हो गईं। सोफी ने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया और आवेश—कम्पित कंठ से पूछा—क्या विनय...घ् यह कहते—कहते शोकातिरेक की दशा में शफाखाने से निकल पड़ी और पाँड़ेपुर की ओर चली। नायकराम आगे—आगे लालटेन दिखाते हुए चले। वर्षा ने जल—थल एक कर दिया था। सड़क के किनारे के वृक्षए जो पानी में खड़े थेए सड़क का चिद्द बता रहे थे। सोफी का शोक एक ही क्षण में आत्मग्लानि के रूप में बदल गया—हाय! मैं ही हत्यारिन हूँ। क्यों आकाश से वज्र गिरकर मुझे भस्म नहीं कर देताघ् क्यों कोई साँप जमीन से निकलकर मुझे डस नहीं लेताघ् क्यों पृथ्वी फटकर मुझे निगल नहीं जातीघ् हाय! आज मैं वहाँ न गई होतीए तो वह कदापि न जाते। मैं क्या जानती थी कि विधाता मुझे सर्वनाश की ओर लिए जाता है! मैं दिल में उन पर झुँझला रही थीए मुझे यह संदेह भी हो रहा था कि यह डरते हैं! आह! यह सब मेरे कारण हुआए मैं ही अपने सर्वनाश का कारण हूँ! मैं अपने हाथों लुट गई! हाय! मैं उनके प्रेम के आदर्श को न पहुँच सकी।

फिर उसके मन में विचार आया—कहीं खबर झूठी न हो। उन्हें चोट लगी हो और वह संज्ञा—शून्य हो गए हों। आह! काशए मैं एक बार उनके वचनामृत से अपने हृदय को पवित्रा कर लेती! नहीं—नहींए वह जीवित हैंए ईश्वर मुझ पर इतना अत्याचार नहीं कर सकता। मैंने कभी किसी प्राणी को दुरूख नहीं पहुँचायाए मैंने कभी उस पर अविश्वास नहीं कियाए फिर वह मुझे इतना वज्र दंड क्यों देगा!

जब सोफिया संग्राम—स्थल के समीप पहुँचीए तो उस पर भीषण भय छा गया। वह सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर बैठ गई। वहाँ कैसे जाऊँघ् कैसे उन्हें देखूँगीए कैसे उन्हें स्पर्श करूँगीघ् उनकी मरणावस्था का चित्रा उसकी अॉंखों के सामने खिंच गयाए उसकी मृत देह रक्त और धूल में लिपटी हुई भूमि पर पड़ी हुई थी। इसे उसने जीते—जागते देखा था। उसे इस जीर्णावस्था में वह कैसे देखेगी! उसे इस समय प्रबल आकांक्षा हुई कि वहाँ जाते ही मैं भी उनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूँ। अब संसार में मेरे लिए कौन—सा सुख है! हा! यह कठिन वियोग कैसे सहूँगी! मैंने अपने जीवन को नष्ट कर दियाए ऐसे नर—रत्न को धार्म की पैशाचिक क्रूरता पर बलिदान कर दिया।

यद्यपि वह जानती थी कि विनय का देहावसान हो गयाए फिर भी उसे भ्रांत आशा हो रही थी कि कौन जानेए वह केवल मरूच्छित हो गए हों! सहसा उसे पीछे से एक मोटरकार पानी को चीरती हुई आती दिखाई दी। उसके उज्ज्वल प्रकाश में फटा हुआ पानी ऐसा जान पड़ता थाए मानो दोनों ओर से जल—जंतु उस पर टूट रहे हों! वह निकट आकर रुक गई। रानी जाह्नवी थीं। सोफी को देखकर बोलीं—बेटी! तुम यहाँ क्यों बैठी होघ् आओए साथ चलो। क्या गाड़ी नहीं मिलीघ्

सोफी चिल्लाकर रानी के गले से लिपट गई। किंतु रानी की अॉंखों में अॉंसू न थेए मुख पर शोक का चिद्द न था। उनकी अॉंखों में गर्व का मद छाया हुआ थाए मुख पर विजय की आभा झलक रही थी! सोफी को गले से लगाती हुई बोलीं—क्यों रोती हो बेटीघ् विनय के लिएघ् वीरों की मृत्यु पर अॉंसू नहीं बहाए जातेए उत्सव के राग गाए जाते हैं। मेरे पास हीरे—जवाहिर होतेए तो उसकी लाश पर लुटा देती। मुझे उसके मरने का दुरूख नहीं है। दुरूख होताए अगर वह आज प्राण बचाकर भागता। यह तो मेरी चिर—संचित अभिलाषा थीए बहुत ही पुरानी। जब मैं युवती थी और वीर राजपूतों तथा राजपूतानियों के आत्मसमर्पण की कथाएँ पढ़़ा करती थीए उसी समय मेरे मन में यह कामना अंकुरित हुई थी कि ईश्वर मुझे भी कोई ऐसा ही पुत्रा देताए जो उन्हीं वीरों की भाँति मृत्यु से खेलताए जो अपना जीवन देश और जाति—हित के लिए हवन कर देताए जो अपने कुल का मुख उज्ज्वल करता। मेरी वह कामना पूरी हो गई। आज मैं एक वीर पुत्रा की जननी हूँ। क्यों रोती होघ् इससे उसकी आत्मा को क्लेश होगा। तुमने तो धार्म—ग्रंथ पढ़़े हैं। मनुष्य कभी मरता हैघ् जीव तो अमर है। उसे तो परमात्मा भी नहीं मार सकता। मृत्यु तो केवल पुनर्जीवन की सूचना हैए एक उच्चतर जीवन का मार्ग। विनय फिर संसार में आएगाए उसकी कीर्ति और भी फैलेगी। जिस मृत्यु पर घरवाले रोयेंए वह भी कोई मृत्यु है! वह तो एड़ियाँ रगड़ना है। वीर मृत्यु वही हैए जिस पर बेगाने रोयें और घरवाले आनंद मनाएँ। दिव्य मृत्यु जीवन से कहीं उत्ताम है। दिव्य जीवन में कलुषित मृत्यु की शंका रहती हैए दिव्य मृत्यु में यह संशय कहाँघ् कोई जीव दिव्य नहीं हैए जब तक उसका अंत भी दिव्य न हो। यह लोए पहुँच गए। कितनी प्रलयंकर वृष्टि हैए कैसा गहन अंधाकार! फिर भी सह—ों प्राणी उसके शव पर अश्रु—वर्षा कर रहे हैंए क्या यह रोने का अवसर हैघ्

मोटर रुकी। सोफिया और जाह्नवी को देखकर लोग इधार—उधार हट गए। इंदु दौड़कर माता से लिपट गई। हजारों अॉंखों से टप—टप अॉंसू गिरने लगे। जाह्नवी ने विनय का मस्तक अपनी गोद में लियाए उसे छाती से लगायाए उसका चुम्बन किया और शोक—सभा की ओर गर्व—युक्त नेत्राों से देखकर बोलीं—यह युवकए जिसने विनय पर अपने प्राण समर्पित कर दिएए विनय से बढ़़कर है। क्या कहाघ् मुसलमान है!र् कत्ताव्य के क्षेत्रा में हिंदू और मुसलमान का भेद नहींए दोनों एक ही नाव में बैठे हुए हैंय डूबेंगेए तो दोनों डूबेंगेय बचेंगे तो दोनों बचेंगे। मैं इस वीर आत्मा का यहीं मजार बनाऊँगी। शहीद के मजार को कौन खोदकर फेंक देगाए कौन इतना नीच अधार्म होगा! यह सच्चा शहीद था। तुम लोग क्यों रोते होघ् विनय के लिएघ् तुम लोगों में कितने ही युवक हैंए कितने ही बाल—बच्चों वाले हैं। युवकों से मैं कहूँगी—जाओए और विनय की भाँति प्राण देना सीखो। दुनिया केवल पेट पालने की जगह नहीं है। देश की अॉंखें तुम्हारी ओर लगी हुई हैंए तुम्हीं इसका बेड़ा पार लगाओगे। मत फँसो गृहस्थी के जंजाल मेंए जब तक देश का कुछ हित न कर लो। देखोए विनय कैसा हँस रहा है! जब बालक थाए उस समय की याद आती है। इसी भाँति हँसता था। कभी उसे रोते नहीं देखा। कितनी विलक्षण हँसी है! क्या इसने धान के लिए प्राण दिएघ् धान इसके घर में भरा हुआ थाए उसकी ओर कभी अॉंख उठाकर नहीं देखा। बरसों हो गएए पलंग पर नहीं सोयाए जूते नहीं पहनेए भर पेट भोजन नहीं किया। जरा देखोए उसके पैरों में कैसे घट्ठे पड़ गए हैं! विरागी थाए साधू थाए तुम लोग भी ऐसे ही साधू बन जाओ। बाल—बच्चोंवालों से मेरा निवेदन हैए अपने प्यारे बच्चों को चक्की का बैल न बनाओए गृहस्थी का गुलाम न बनाओ। ऐसी शिक्षा दो कि जिएँए किंतु जीवन के दास बनकर नहींए स्वामी बनकर। यही शिक्षा हैए जो इस वीर आत्मा ने तुम्हें दी है। जानते होए उसका विवाह होनेवाला था। यही प्यारी बालिका उसकी वधू बननेवाली थी। किसी ने ऐसा कमनीय सौंदर्यए ऐसा अलौकिक रूप—लावण्य देखा है! रानियाँ इसके आगे पानी भरें! विद्या में इसके सामने कोई पंडित मुँह नहीं खोल सकता। जिह्ना पर सरस्वती हैए घर का उजाला है। विनय को इससे कितना प्रेम थाए यह इसी से पूछो। लेकिन क्या हुआघ् जब अवसर आयाए उसने प्रेम के बंधान को कच्चे धागे की भाँति तोड़ दियाए उसे अपने मुख का कलंक नहीं बनायाए उस पर अपने आदर्श का बलिदान नहीं किया। प्यारो! पेट पर अपने यौवन कोए अपनी आत्मा कोए अपनी महत्तवाकांक्षाओं को मत कुर्बान करो। इंदु बेटीए क्यों रोती होघ् किसको ऐसा भाई मिला हैघ्

इंदु के अंतस्तल में बड़ी देर से एक ज्वाला—सी दहक रही थी। वह इन सारी वेदनाओं का मूल कारण अपने पति को समझती थी। अब तक ज्वाला उर—स्थल में थीए अब बाहर निकल पड़ी। यह धयान न रहा कि मैं इतने आदमियों के सामने क्या कहती हूँए औचित्य की ओर से अॉंखें बंद करके बोली—माताजीए इस हत्या का कलंक मेरे सिर है। मैं अब उस प्राणी का मुँह न देखूँगीए जिसने मेरे वीर भाई की जान लेकर छोड़ीए और वह केवल अपने स्वार्थ की सिध्दि के लिए।

रानी जाह्नवी ने तीव्र स्वर में कहा—क्या महेंद्र को कहती होघ् अगर फिर मेरे सामने मुँह से ऐसी बात निकालीए तो तेरा गला घोंट दूँगी। क्या तू उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखेगीघ् तू स्त्राी होकर चाहती है कि कोई तेरा हाथ न पकड़ेए वह पुरुष होकर क्यों न ऐसा चाहेंघ् वह संसार को क्यों तेरे ही नेत्राों से देखेंए क्या भगवान्‌ ने उन्हें अॉंखें नहीं दींघ् अपने हानि—लाभ का हिसाबदार तुझे क्यों बनाएँए क्या भगवान्‌ ने उन्हें बुध्दि नहीं दीघ् तेरी समझ मेंए मेरी समझ मेंए यहाँ जितने प्राणी खड़े हैंए उनकी समझ में यह मार्ग भयंकर हैए हिंसक जंतुओं से भरा हुआ है। इसका बुरा मानना क्याघ् अगर तुझे उनकी बातें पसंद नहीं आतींए तो कोशिश कर कि पसंद आएँ। वह तेरे पतिदेव हैंए तेरे लिए उनकी सेवा से उत्ताम और कोई पथ नहीं है।

दस बज गए थे। लोग कुँवर भरतसिंह की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब दस बजने की आवाज कानों में आईए तो रानी जाह्नवी ने कहा—उनकी राह अब मत देखोए वह न आएँगेए और न आ सकते हैं। वह उन पिताओं में हैंए जो पुत्रा के लिए जीते हैंए पुत्रा के लिए मरते हैंए और पुत्रा के लिए मंसूबे बाँधाते हैं। उनकी अॉंखों में ऍंधोरा छा गया होगाए सारा संसार सूना जान पड़ता होगाए अचेत पड़े होंगे। सम्भव हैए उनके प्राणांत हो गए हों। उनका धार्मए उनका कर्मए उनका जीवनए उनका मरणए उनका दीनए उनकी दुनियाए सब कुछ इसी पुत्रा—रत्न पर अवलम्बित था। अब वह निराधार हैंए उनके जीवन का कोई लक्ष्यए कोई अर्थ नहीं है। वह अब कदापि न आएँगेए आ ही नहीं सकते। चलोए विनय के साथ अपना अंतिमर् कत्ताव्य पूरा कर लूँय इन्हीं हाथों से उसे हिंडोले में झुलाया थाए इन्हीं हाथों से उसे चिता में बैठा दूँ। इन्हीं हाथों से उसे भोजन कराती थीए इन्हीं हाथों से गंगा—जल पिला दूँ।

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अध्याय 44

गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघटए गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुईए पग—पग पर फूलों की वर्षाए सेवक—दल का राष्ट्रीय संगीतए गंगा तक पहुँचते—पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नवी ने कहा—चलोए जरा सूरदास को देखते चलेंए न जाने मरा या बचाय सुनती हूँए घाव गहरा था।

सोफिया और जाह्नवीए दोनों शफाखाने गईंए तो देखाए सूरदास बरामदे में चारपाई पर लेटा हुआ हैए भैरों उसके पैताने खड़ा है और सुभागी सिरहाने बैठी पंखा झल रही है। जाह्नवी ने डॉक्टर से पूछा—इसकी दशा कैसी हैए बचने की कोई आशा हैघ्

डॉक्टर ने कहा—किसी दूसरे आदमी को यह जख्म लगा होताए तो अब तक मर चुका होता। इसकी सहन—शक्ति अद्‌भुत है। दूसरों को नश्तर लगाने के समय क्लोरोफार्म देना पड़ता हैए इसके कंधो में दो इंच गहरा और दो इंच चौड़ा नश्तर दिया गयाए पर इसने क्लोरोफार्म न लिया। गोली निकल आई हैए लेकिन बच जाएए तो कहें।

सोफिया को एक रात की दारुण शोक—वेदना ने इतना घुला दिया था कि पहचानना कठिन थाए मानो कोई फूल मुरझा गया हो। गति मंदए मुख उदासए नेत्रा बुझे हुएए मानो भूत— जगत्‌ में नहींए विचार—जगत्‌ में विचर रही है। अॉंखों को जितना रोना थाए रो चुकी थींए अब रोयाँ—रोयाँ रो रहा था। उसने सूरदास के समीप जाकर कहा—सूरदासए कैसा जी हैघ् रानी जाह्नवी आई हैं।

सूरदास—धान्य भाग। अच्छा हूँ।

जाह्नवी—पीड़ा बहुत हो रही हैघ्

सूरदास—कुछ कष्ट नहीं है। खेलते—खेलते गिर पड़ा हूँय चोट आ गई हैए अच्छा हो जाऊँगा। उधार क्या हुआए झोंपड़ी बची कि नहींघ्

सोफी—अभी तो नहीं गई हैए लेकिन शायद अब न रहे। हम तो विनय को गंगा की गोद में सौंपे चले आते हैं।

सूरदास ने क्षीण स्वर में कहा—भगवान्‌ की मरजीए वीरों का यही धारम है। जो गरीबों के लिए जान लड़ा देए वही सच्चा वीर है।

जाह्नवी—तुम साधू हो। ईश्वर से कहोए विनय का फिर इसी देश में जन्म हो।

सूरदास—ऐसा ही होगा माताजीए ऐसा ही होगा। अब महान्‌ पुरुष हमारे ही देश में जनम लेंगे। जहाँ अन्याय और अधारम होता हैए वहीं देवता लोग जाते हैं। उनके संस्कार उन्हें खींच ले जाते हैं। मेरा मन कह रहा है कि कोई महात्मा थोड़े ही दिनों में इस देश में जनम लेनेवाले हैं...!

डॉक्टर ने आकर कहा—रानीजीए मैं बहुत भेद के साथ आपसे प्रार्थना करता हूँ कि सूरदास से बातें न करेंए नहीं तो जोर पड़ने से इनकी दशा बिगड़ जाएगी। ऐसी हालत में सबसे बड़ा विचार यह होना चाहिए कि रोगी निर्बल न होने पाएए उसकी शक्ति क्षीण न हो।

अस्पताल के रोगियों और कर्मचारियों को ज्यों ही मालूम हुआ कि विनयसिंह की माताजी आई हैंए तो सब उनके दर्शनों को जमा हो गएए कितनों ही ने उनकी पद—रज माथे पर चढ़़ाई। यह सम्मान देखकर जाह्नवी का हृदय गर्व से प्रफुल्लित हो गया। विहसित मुख से सबों को आशीर्वाद देकर यहाँ से चलने लगींए तो सोफिया ने कहा—माताजीए आपकी आज्ञा होए तो मैं यहीं रह जाऊँ। सूरदास की दशा चिंताजनक जान पड़ती है। इसकी बातों में वह तत्तवज्ञान हैए जो मृत्यु की सूचना देता है। मैंने इसे होश में कभी आत्मज्ञान की ऐसी बातें करते नहीं सुना।

रानी ने सोफी को गले लगाकर सहर्ष ही आज्ञा दे दी। वास्तव में सोफिया सेवा—भवन जाना न चाहती थी। वहाँ की एक—एक वस्तुए वहाँ के फूल—पत्तोए यहाँ तक कि वहाँ की वायु भी विनय की याद दिलाएगी। जिस भवन में विनय के साथ रहीए उसी में विनय के बिना रहने का खयाल ही उसे तड़पाए देता था।

रानी चली गईए तो सोफिया एक मोढ़़ा डालकर सूरदास की चारपाई के पास बैठ गई। सूरदास की अॉंखें बंद थींए पर मुख पर मनोहर शांति छाई हुई थी। सोफिया को आज विदित हुआ कि चित्ता की शांति ही वास्तविक सौंदर्य है।

सोफी को वहाँ बैठे—बैठे सारा दिन गुजर गया। वह निर्जलए निराहारए मन मारे बैठी हुई सुखद स्मृतियों के स्वप्न देख रही थीए और जब अॉंखें भर आती थींए तो आड़ में जाकर रूमाल से अॉंसू पोंछ आती थी। उसे अब सबसे तीव्र वेदना यही थी कि मैंने विनय की कोई इच्छा पूरी नहीं कीए उनकी अभिलाषाओं को तृप्त न कियाए उन्हें वंचित रखा। उनके प्रेमानुराग की स्मृति उसके हृदय को ऐसा मसोसती थी कि वह विकल होकर तड़पने लगती थी।

संधया हो गई थी। सोफिया लैम्प के सामने बैठी हुई सूरदास को प्रभु मसीह का जीवन—वृत्ताांत सुना रही थी। सूरदास ऐसा तन्मय हो रहा थाए मानो उसे कोई कष्ट नहीं है। सहसा राजा महेंद्रकुमार आकर खड़े हो गए और सोफी की ओर हाथ बढ़़ा दिया। सोफिया ज्यों—की—त्यों बैठी रही। राजा साहब से हाथ मिलाने की चेष्टा न की।

सूरदास ने पूछा—कौन है मिस साहबघ्

सोफिया ने कहा—राजा महेंद्रकुमार हैं।

सूरदास ने आदर—भाव से उठना चाहाए पर सोफिया ने लिटा दिया और बोली—हिलो मतए नहीं तो घाव खुल जाएगा। आराम से पड़े रहो।

सूरदास—राजा साहब आए हैं। उनका इतना आदर भी न करूँघ् मेरे ऐसे भाग्य तो हुए। कुछ बैठने को हैघ्

सोफिया—हाँए कुर्सी पर बैठ गए।

राजा साहब ने पूछा—सूरदास कैसा जी हैघ्

सूरदास—भगवान्‌ की दया है।

राजा साहब जिन भावों को प्रकट करने यहाँ आए थेए वे सोफी के सामने उनके मुख से निकलते हुए सकुचा रहे थे। कुछ देर तक वे मौन रहेए अंत को बोले—सूरदासए मैं तुमसे अपनी भूलों की क्षमा माँगने आया हूँ। अगर मेरे वश की बात होतीए तो मैं आज अपने जीवन को तुम्हारे जीवन से बदल लेता।

सूरदास—सरकारए ऐसी बात न कहिएय आप राजा हैंए मैं रंक हूँ। आपने जो कुछ कियाए दूसरों की भलाई के विचार से किया। मैंने जो कुछ कियाए अपना धारम समझकर किया। मेरे कारन आपको अपजस हुआए कितने घर नास हुएए यहाँ तक कि इंद्रदत्ता और कुँवर विनयसिंह जैसे दो रतन जान से गए। पर अपना क्या बस है! हम तो खेल खेलते हैंए जीत—हार तो भगवान्‌ के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैंए करते हैंए बसए नीयत ठीक होनी चाहिए।

राजा—सूरदासए नीयत को कौन देखता है। मैंने सदैव प्रजा—हित ही पर निगाह रखीए पर आज सारे नगर में एक भी प्राणी ऐसा नहीं हैए जो मुझे खोटाए नीचए स्वार्थीए अधार्मीए पापिष्ठ न समझता हो। और तो क्याए मेरी सहधार्मिणी भी मुझसे घृणा कर रही है। ऐसी बातों से मन क्यों न विरक्त हो जाएघ् क्यों न संसार से घृणा हो जाएघ् मैं तो अब कहीं मुँह दिखाने—योग्य नहीं रहा।

सूरदास—इसकी चिंता न कीजिए। हानिए लाभए जीवनए मरनए जसए अपजस विधि के हाथ हैए हम तो खाली मैदान में खेलने के लिए बनाए गए हैं। सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैंए सभी चाहते हैं कि हमारी जीत होय लेकिन जीत एक ही की होती हैए तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैंघ् वे फिर खेलते हैंय फिर हार जाते हैंए तो फिर खेलते हैं। कभी—न—कभी उनकी जीत होती ही है। जो आपको आज बुरा समझ रहे हैंए वे कल आपके सामने सिर झुकाएँगे। हाँए नीयत ठीक रहनी चाहिए। मुझे क्या उनके घरवाले बुरा न कहते होंगेए जो मेरे कारन जान से गएघ् इंद्रदत्ता और कुँवर विनयसिंह—जैसे दो लालए जिनके हाथों संसार का इतना उपकार होता संसार से उठ गए। जस—अपजस भगवान्‌ के हाथ हैए हमारा यहाँ क्या बस हैघ्

राजा—आह सूरदासए तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कितनी विपत्तिा में पड़ा हुआ हूँ। तुम्हें बुरा कहनेवाले अगर दस—पाँच होंगेए तो तुम्हारा जस गानेवाले असंख्य हैंए यहाँ तक कि हुक्काम भी तुम्हारी —ढ़़ता और धौर्य का बखान कर रहे हैं। मैं तो दोनों ओर से गया। प्रजाद्रोही भी ठहरा और राजद्रोही भी। हुक्काम इस सारी दूरव्यवस्था का अपराधा मेरे ही सिर पर थोप रहे हैं। उनकी समझ में भी मैं अयोग्यए अदूरदर्शी और स्वार्थी हूँ। अब तो यही इच्छा होती है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं चला जाऊँ।

सूरदास—नहीं—नहींए राजा साहबए निराश होना खिलाड़ियों के धारम के विरुध्द है। अबकी हार हुईए तो फिर कभी जीत होगी।

राजा—मुझे तो विश्वास नहीं होता कि फिर कभी मेरा सम्मान होगा। मिस सेवकए आप मेरी दुर्बलता पर हँस रही होंगीए पर मैं बहुत दुखी हूँ।

सोफिया ने अविश्वास—भाव से कहा—जनता अत्यंत क्षमाशील होती है। अगर अब भी आप जनता को यह दिखा सकें कि इस दुर्घटना पर आपको दुरूख हैए तो कदाचित्‌ प्रजा आपका फिर सम्मान करे।

राजा ने अभी उत्तार न दिया था कि सूरदास बोल उठा—सरकारए नेकनामी और बदनामी बहुत आदमियों के हल्ला मचाने से नहीं होती। सच्ची नेकनामी अपने मन में होती है। अगर अपना मन बोले कि मैंने जो कुछ कियाए वही मुझे करना चाहिए थाए इसके सिवा कोई दूसरी बात करना मेरे लिए उचित न थाए तो वही नेकनामी है। अगर आपको इस मार—काट पर दुरूख हैए तो आपका धारम है कि लाट साहब से इसकी लिखा—पढ़़ी करें। वह न सुनेंए तो जो उनसे बड़ा हाकिम होए उससे कहें—सुनेंए और जब तक सरकार परजा के साथ न्याय न करेए दम न लें। लेकिन अगर आप समझते हैं कि जो कुछ आपने कियाए वही आपका धारम थाए स्वार्थ के लोभ से आपने कोई बात नहीं कीए तो आपको तनिक भी दुरूख न करना चाहिए।

सोफी ने पृथ्वी की ओर ताकते हुए कहा—राजपक्ष लेनेवालों के लिए यह सिध्द करना कठिन है कि वे स्वार्थ से मुक्त हैं।

राजा—मिस सेवकए मैं आपको सच्चे हृदय से विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने अधिकारियों के हाथों सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के लिए उनका पक्ष नहीं ग्रहण कियाए और पद का लोभ तो मुझे कभी रहा ही नहीं। मैं स्वयं नहीं कह सकता कि वह कौन—सी बात थीए जिसने मुझे सरकार की ओर खींचा। सम्भव हैए अनिष्ट का भय होए या केवल ठकुरसुहातीय पर मेरा कोई स्वार्थ नहीं था। सम्भव हैए मैं उस समाज की आलोचनाए उसके कुटील कटाक्ष और उसके व्यंग्य से डरा होऊँ। मैं स्वयं इसका निश्चय नहीं कर सकता। मेरी धारणा थी कि सरकार का कृपा—पात्रा बनकर प्रजा का जितना हित कर सकता हूँए उतना उसका द्वेषी बनकर नहीं कर सकता। पर आज मुझे मालूम हुआ कि वहाँ भलाई होने की जितनी आशा हैए उससे कहीं अधिक बुराई होने का भय है। यश और कीर्ति का मार्ग वही हैए जो सूरदास ने ग्रहण किया। सूरदासए आशीर्वाद दो कि ईश्वर मुझे सत्पथ पर चलने की शक्ति प्रदान करें।

आकाश पर बादल मंडरा रहे थे। सूरदास निद्रा में मग्न था। इतनी बातों से उसे थकावट आ गई थी। सुभागी एक टाट का टुकड़ा लिए आई और सूरदास के पैताने बिछाकर लेट रहीए शफाखाने के कर्मचारी चले गए। चारों ओर सन्नाटा छा गया।

सोफी गाड़ी का इंतजार कर रही थी—दस बजते होंगे। रानीजी शायद गाड़ी भेजना भूल गईं। उन्होंने शाम ही को गाड़ी भेजने का वादा किया था। कैसे जाऊँघ् क्या हरज हैए यहीं बैठी रहूँ। वहाँ रोने के सिवा और क्या करूँगी। आह! मैंने विनय का सर्वनाश कर दिया। मेरे ही कारण वह दो बारर् कत्ताव्य—मार्ग से विचलित हुएए मेरे ही कारण उनकी जान पर बनीघ् अब वह मोहिनी मूर्ति देखने को तरस जाऊँगी। जानती हूँ कि हमारा फिर संयोग होगाए लेकिन नहीं जानतीए कब! उसे वे दिन याद आएए जब भीलों के गाँव में इसी समय वह द्वार पर बैठी उनकी राह जोहा करती थी और वह कम्बल ओढ़़ेए नंगे सिरए नंगे पाँव हाथ में एक लकड़ी लिए आते थे और मुस्कराकर पूछते थेए मुझे देर तो नहीं हो गईघ् वह दिन याद आयाए जब राजपूताना जाते समय विनय ने उनकी ओर आतुरए किंतु निराश नेत्राों से देखा था। आह! वह दिन याद आयाए जब उसकी ओर ताकने के लिए रानीजी ने उन्हें तीव्र नेत्राों से देखा था और वह सिर झुकाए बाहर चले गए थे। सोफी शोक से विह्नल हो गई। जैसे हवा के झोंके धारती पर बैठी हुई धूल को उठा देते हैंए उसी प्रकार इस नीरव निशा ने उसकी स्मृतियों को जागृत कर दियाय सारा हृदय—क्षेत्रा स्मृतिमय हो गया। वह बेचौन हो गईए कुर्सी से उठकर टहलने लगी। जी न जाने क्या चाहता था—कहीं उड़ जाऊँए मर जाऊँए कहाँ तक मन को समझाऊँए कहाँ तक सब्र करूँ! अब न समझाऊँगीए रोऊँगीए तड़पूँगीए खूब जी भरकर! वहए जो मुझ पर प्राण देता थाए संसार से उठ जाएए और मैं अपने को समझाऊँ कि अब रोने से क्या होगाघ् मैं रोऊँगीए इतना रोऊँगी कि अॉंखें फूट जाएँगीए हृदय—रक्त अॉंखों के रास्ते निकलने लगेगाए कंठ बैठ जाएगा। अॉंखों को अब करना ही क्या है! वे क्या देखकर कृतार्थ होंगी! हृदय—रक्त अब प्रवाहित होकर क्या करेगा!

इतने में किसी की आहट सुनाई दी। मिठुआ और भैरों बरामदे में आए। मिठुआ ने सोफी को सलाम किया और सूरदास की चारपाई के पास जाकर खड़ा हो गया। सूरदास ने चौंककर पूछा—कौन हैए भैरोंघ्

मिठुआ—दादाए मैं हूँ।

सूरदास—बहुत अच्छे आए बेटाए तुमसे भेंट हो गई। इतनी देर क्यों हुईघ्

मिठुआ—क्या करूँ दादाए बड़े बाबू से साँझ से छुट्टी माँग रहा थाए मगर एक—न—एक काम लगा देते थे। डाउन नम्बर थ्री को निकालाए अप नम्बर वन को निकालाए फिर पारसल गाड़ी आईए उस पर माल लदवायाए डाउन नम्बर थर्टी को निकालकर तब आने पाया हूँ। इससे तो कुली थाए तभी अच्छा था कि जब जी चाहता थाए जाता थाय जब चाहता थाए आता थाय कोई रोकनेवाला न था। अब तो नहाने—खाने की फुरसत नहीं मिलतीए बाबू लोग इधार—उधार दौड़ाते रहते हैं। किसी को नौकर रखने की समाई तो है नहींए सेंत—मेंत में काम निकालते हैं।

सूरदास—मैं न बुलाताए तो तुम अब भी न आते। इतना भी नहीं सोचते कि अंधा आदमी हैए न जाने कैसे होगाए चलकर जरा हाल—चाल पूछता आऊँ। तुमको इसलिए बुलाया है कि मर जाऊँ तो मेरा किरिया—करम करनाए अपने हाथों से पिंडदान देनाए बिरादरी को भोज देना और हो सकेए तो गया कर आना। बोलोए इतना करोगेघ्

भैरों—भैयाए तुम इसकी चिंता मत करोए तुम्हारा किरिया—करम इतनी धूमधाम से होगा कि बिरादरी में कभी किसी का न हुआ होगा।

सूरदास—धूमधाम से नाम तो होगाए मगर मुझे पहुँचेगा तो वहीए जो मिठुआ देगा।

मिठुआ—दादाए मेरी नंगाझोली ले लोए जो मेरे पास धोला भी हो। खाने—भर को तो होता ही नहींए बचेगा क्याघ्

सूरदास—अरेए तो क्या तुम मेरा किरिया—करम भी न करोगेघ्

मिठुआ—कैसे करूँगा दादाए कुछ पल्ले—पास होए तब नघ्

सूरदास—तो तुमने यह आसरा भी तोड़ दिया। मेरे भाग में तुम्हारी कमाई न जीते—जी बदी थीए न मरने के पीछे।

मिठुआ—दादाए अब मुँह न खुलवाओए परदा ढ़ँका रहने दो। मुझे चौपट करके मरे जाते होय उस पर कहते होए मेरा किरिया—करम कर देनाए गया—पराग कर देना। हमारी दस बीघे मौरूसी जमीन थी कि नहींए उसका मुआवजा दो पैसाए चार पैसा कुछ तुमको मिला कि नहींए उसमें से मेरे हाथ क्या लगाघ् घर में भी मेरा कुछ हिस्सा होता है या नहींघ् हाकिमों से बैर न ठानतेए तो उस घर के सौ से कम न मिलते। पंडाजी ने कैसे पाँच हजार मार लिएघ् है उनका घर पाँच हजार काघ् दरवाजे पर मेरे हाथों के लगाए दो नीम के पेड़ थे। क्या वे पाँच—पाँच रुपये में भी महँगे थेघ् मुझे तो तुमने मटीयामेट कर दियाए कहीं का न रखा। दुनिया—भर के लिए अच्छे होगेए मेरी गरदन पर तो तुमने छुरी फेर दीए हलाल कर डाला। मुझे भी तो अभी ब्याह—सगाई करनी हैए घर—द्वार बनवाना है। किरिया—करम करने बैठूँए तो इसके लिए कहाँ से रुपये लाऊँगाघ् कमाई में तुम्हारे सक नहींए मगर कुछ उड़ायाए कुछ जलायाए और अब मुझे बिना छाँह के छोड़े चले जाते होए बैठने का ठिकाना भी नहीं। अब तक मैं चुप थाए नाबालिग था। अब तो मेरे भी हाथ—पाँव हुए। देखता हूँए मेरी जमीन का मुआवजा कैसे नहीं मिलता! साहब लखपती होंगेए अपने घर के होंगेए मेरा हिस्सा कैसे दबा लेंगेघ् घर में भी मेरा हिस्सा होता है। (झाँककर) मिस साहब फाटक पर खड़ी हैंए घर क्यों नहीं जातींघ् और सुन ही लेंगीए तो मुझे क्या डरघ् साहब ने सीधो से दियाए तो दियाय नहीं तो फिर मेरे मन में भी जो आएगाए करूँगा। एक से दो जानें तो होंगी नहींयमगर हाँए उन्हें भी मालूम हो जाएगा कि किसी का हक छीन लेना दिल्लगी नहीं है!

सूरदास भौंचक्का—सा रह गया। उसे स्वप्न में भी न सूझा था कि मिठुआ के मुँह से मुझे कभी ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ेंगी। उसे अत्यंत दुरूख हुआए विशेष इसलिए कि ये बातें उस समय कही गई थींए जब वह शांति और सांत्वना का भूखा था। जब यह आकांक्षा थी कि मेरे आत्मीय जन मेरे पास बैठे हुए मेरे कष्ट—निवारण का उपाय करते होते। यही समय होता हैए जब मनुष्य को अपना कीर्ति—गान सुनने की इच्छा होती हैए जब उसका जीर्ण हृदय बालकों की भाँति गोद में बैठने के लिएए प्यार के लिएए मान के लिएए शुश्रूषा के लिए ललचाता है। जिसे उसने बाल्यावस्था से बेटे की तरह पालाए जिसके लिए उसने न जाने क्या—क्या कष्ट सहेए वह अंत समय आकर उससे अपने हिस्से का दावा कर रहा था! अॉंखों से अॉंसू निकल आए। बोला—बेटाए मेरी भूल थी कि तुमसे किरिया—करम करने को कहा। तुम कुछ मत करना। चाहे मैं पिंडदान और जल के बिना रह जाऊँए पर यह उससे कहीं अच्छा है कि तुम साहब से अपना मुआवजा माँगो। मैं नहीं जानता था कि तुम इतना कानून पढ़़ गए होए नहीं पैसे—पैसे का हिसाब लिखता जाता।

मिठुआ—मैं अपने मुआवजे का दावा जरूर करूँगा। चाहे साहब देंए चाहे सरकार देय चाहे काला चोर देए मुझे तो अपने रुपये से काम है।

सूरदास—हाँ सरकार भले ही दे देय साहब से कोई मतलब नहीं।

मिठुआ—मैं तो साहब से लूँगाए वह चाहे जिससे दिलाएँ। न दिलाएँगेए तो जो कुछ मुझसे हो सकेगाए करूँगा। साहब कुछ लाट तो हैं नहीं। मेरी जाएदाद उन्हें हजम न होने पाएगी। तुमको उसका क्या कलक था। सोचा होगाए कौन मेरा बेटा बैठा हुआ हैए चुपके से बैठे रहे। मैं चुपके बैठनेवाला नहीं हूँ।

सूरदास—मिट्ठूए क्यों मेरा दिल दुखाते होघ् उस जमीन के लिए मैंने कौन—सी बात उठा रखी! घर के लिए तो प्राण तक दे दिए। अब और मेरे किए क्या हो सकता थाघ् लेकिन भला बताओ तोए तुम साहब से कैसे रुपये ले लोगेघ् अदालत में तो तुम उनसे ले नहीं सकतेए रुपयेवाले हैंए और अदालत रुपयेवालों की है। हारेंगे भीए तो तुम्हें बिगाड़ देंगे। फिर तुम्हारी जमीन सरकार ने जापते से ली हैय तुम्हारा दावा साहब पर चलेगा कैसेघ्

मिठुआ—यह सब पढ़़े बैठा हूँ। लगा दूँगा आगए सारा गोदाम जलकर राख हो जाएगा। (धाीरे से) बम—गोले बनाना जानता हूँ। एक गोला रख दूँगाए तो पुतलीघर में आग लग जाएगी। मेरा कोई क्या कर लेगा!

सूरदास—भैरोंए सुनते हो इसकी बातेंए जरा तुम्हीं समझाओ।

भैरों—मैं तो रास्ते—भर समझाता आ रहा हूँय सुनता ही नहीं।

सूरदास—तो फिर मैं साहब से कह दूँगा कि इससे होशियार रहें।

मिठुआ—तुमको गऊ मारने की हत्या लगेए अगर तुम साहब या किसी और से इस बात की चरचा तक करो। अगर मैं पकड़ गयाए तो तुम्हीं को उसका पाप लगेगा। जीते—जी मेरा बुरा चेताए मरने के बाद काँट बोना चाहते होघ् तुम्हारा मुँह देखना पाप है।

यह कहकर मिठुआ क्रोधा से भरा हुआ चला गया! भैरों रोकता ही रहाए पर उसने न माना। सूरदास आधा घंटे तक मरूच्छावस्था में पड़ा रहा। इस आघात का घाव गोली से भी घातक था। मिठुआ की कुटीलताए उसके परिणाम का भयए अपना उत्तारदायित्वए साहब को सचेत कर देने कार् कत्ताव्यए यह पहाड़—सी कसमए निकलने का कहीं रास्ता नहींए चारों ओर से बँधा हुआ इसी असमंजस में पड़ा हुआ था कि मिस्टर जॉन सेवक आए। सोफिया भी उनके साथ फाटक से चली। सोफी ने दूर ही से कहा—सूरदासए पापा तुमसे मिलने आए हैं। वास्तव में मिस्टर सेवक सूरदास से मिलने नहीं आए थेए सोफी से समवेदना प्रकट करने का शिष्टाचार करना था। दिन—भर अवकाश न मिला। मिल से नौ बजे चलेए तो याद आईए सेवा—भवन गएए वहाँ मालूम हुआ कि सोफिया शफाखाने में हैए गाड़ी इधार फेर दी। सोफिया रानी जाह्नवी की गाड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे धयान भी न था कि पापा आते होंगे। उन्हें देखकर रोने लगी। पापा को मुझसे प्रेम हैए इसका उसे हमेशा विश्वास रहाए और यह बात यथार्थ थी। मिस्टर सेवक को सोफिया की याद आती रहती थी। व्यवसाय में व्यस्त रहने पर भी सोफिया की तरफ से वह निश्चिंत न थे। अपनी पत्नी से मजबूर थेए जिसका उनके ऊपर पूरा आधिपत्य था। सोफी को रोते देखकर दयार्द्र हो गएए गले से लगा लिया और तस्कीन देने लगे। उन्हें बार—बार यह कारखाना खोलने पर अफसोस होता थाए जो असाधय रोग की भाँति उनके गले पड़ गया था। इसके कारण पारिवारिक शांति में विघ्न पड़ाए सारा कुनबा तीन—तेरह हो गयाए शहर में बदनामी हुईए सारा सम्मान मिट्टी में मिल गयाए घर के हजारों रुपये खर्च हो गए और अभी तक नफे की कोई आशा नहीं। अब कारीगर और कुली भी काम छोड़—छोड़कर अपने घर भाग जा रहे थे। उधार शहर और प्रांत में इस कारखाने के विरुध्द आंदोलन किया जा रहा था। प्रभुसेवक का गृहत्याग दीपक की भाँति हृदय को जलाता रहता था। न जाने खुदा को क्या मंजूर था।

मिस्टर सेवक कोई आधा घंटे तक सोफिया से अपनी विपत्तिा कथा कहते रहे। अंत में बोले—सोफीए तुम्हारी मामा को यह सम्बंधा पसंद न थाए पर मुझे कोई आपत्तिा न थी। कुँवर विनयसिंह जैसा पुत्रा या दामाद पाकर ऐसा कौन हैए जो अपने को भाग्यवान्‌ न समझता। धार्म—विरुध्द होने की मुझे जरा भी परवा न थी। धार्म हमारी रक्षा और कल्याण के लिए है। अगर वह हमारी आत्मा को शांति और देह को सुख नहीं प्रदान कर सकताए तो मैं उसे पुराने कोट की भाँति उतार फेंकना पसंद करूँगा। जो धार्म हमारी आत्मा का बंधान हो जाएय उससे जितनी जल्द हम अपना गला छुड़ा लेंए उतना ही अच्छा। मुझे हमेशा इसका दुरूख रहेगा कि परोक्ष या अपरोक्ष रीति से मैं तुम्हारा द्रोही हुआ। अगर मुझे जरा भी मालूम होता कि यह विवाद इतना भयंकर हो जाएगा और इसका इतना भीषण परिणाम होगाए तो मैं उस गाँव पर कब्जा करने का नाम भी न लेता। मैंने समझा था कि गाँववाले कुछ विरोधा करेंगेए लेकिन धामकाने से ठीक हो जाएँगे। यह न जानता था कि समर ठन जाएगा। और उसमें मेरी ही पराजय होगी। यह क्या बात है सोफीए कि आज रानी जाह्नवी ने मुझसे बड़ी शिष्टता और विनय का व्यवहार कियाघ् मैं तो चाहता था कि बाहर ही से तुम्हें बुला लूँए लेकिन दरबान ने रानीजी से कह दिया और वह तुरंत बाहर निकल आईं। मैं लज्जा और ग्लानि से गड़ा जाता था और वह हँस—हँसकर बातें कर रही थीं। बड़ा विशाल हृदय है। पहले का—सा गरूर नाम को न था। सोफीए विनयसिंह की अकाल मृत्यु पर किसे दुरूख न होगाय पर उनके आत्मसमर्पण ने सैकड़ों जान बचा लींए नहीं तो जनता आग में कूदने को तैयार थी। घोर अनर्थ हो जाता। मि. क्लार्क ने सूरदास पर गोली तो चला दी थीए पर जनता का रुख देखकर सहमे जाते थे कि न जाने क्या हो। वीरात्मा पुरुष थाए बड़ा ही दिलेर!

इस प्रकार सोफिया को परितोष देने के बाद मि. सेवक ने उससे घर चलने के लिए आग्रह किया। सोफिया ने टालकर कहा—पापाए इस समय मुझे क्षमा कीजिएए सूरदास की हालत बहुत नाजुक है। मेरे रहने से डॉक्टर और अन्य कर्मचारी विशेष धयान देते हैं। मैं न रहूँगीए तो कोई उसे पूछेगा भी नहीं। आइएए जरा देखिए। आपको आश्चर्य होगा कि इस हालत में भी वह कितना चौतन्य है और कितनी अकलमंदी की बातें करता है! मुझे तो वह मानव—देह में कोई फरिश्ता मालूम होता है।

सेवक—मेरे जाने से उसे रंज तो न होगाघ्

सोफिया—कदापि नहींए पापाए इसका विचार ही मन में न लाइए। उसके हृदय में द्वेष और मालिन्य की गंधा तक नहीं है।

दोनों प्राणी सूरदास के पास गएए तो वह मनस्ताप से विकल हो रहा था। मि. सेवक बोले—सूरदासए कैसी तबीयत हैघ्

सूरदास—साहबए सलाम। बहुत अच्छा हूँ। मेरे धान्य भाग। मैं मरते—मरते बड़ा आदमी हो जाऊँगा।

सेवक—नहीं—नहीं सूरदासए ऐसी बातें न करोए तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे।

सूरदास—(हँसकर) अब जीकर क्या करूँगाघ् इस समय मरूँगाए तो बैकुठ पाऊँगाए फिर न जाने क्या हो। जैसे खेत कटने का एक समय हैए उसी तरह मरने का भी एक समय होता है। पक जाने पर खेत न कटेए तो नाज सड़ जाएगाए मेरी भी वही दशा होगी। मैं भी कई आदमियों को जानता हूँए जो आज से दस बरस पहले मरतेए तो लोग उनका जस गातेए आज उनकी निंदा हो रही है।

सेवक—मेरे हाथों तुम्हारा बड़ा अहित हुआ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।

सूरदास—मेरा तो आपने कोई अहित नहीं कियाए मुझसे और आपसे दुसमनी ही कौन—सी थीघ् हम और आप आमने—सामने की पालियों में खेले। आपने भरसक जोर लगायाए मैंने भी भरसक जोर लगाया। जिसको जीतना थाए जीताय जिसको हारना थाए हारा। खिलाड़ियों में बैर नहीं होता। खेल में रोते तो लड़कों को भी लाज आती है। खेल में चोट लग जाएए चाहे जान निकल जाएय पर बैर—भाव न आना चाहिए। मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है।

सेवक—सूरदासए अगर इस तत्तव कोए जीवन के इस रहस्य कोए मैं भी तुम्हारी भाँति समझ सकताए तो आज यह नौबत न आती। मुझे याद हैए तुमने एक बार मेरे कारखाने को आग से बचाया था। मैं तुम्हारी जगह होताए तो शायद आग में और तेल डाल देता। तुम इस संग्राम में निपुण हो सूरदासए मैं तुम्हारे आगे निरा बालक हूँ। लोकमत के अनुसार मैं जीता और तुम हारेए पर मैं जीतकर भी दुखी हूँए तुम हारकर भी सुखी हो। तुम्हारे नाम की पूजा हो रही हैए मेरी प्रतिमा बनाकर लोग जला रहे हैं। मैं धानए मानए प्रतिष्ठा रखते हुए भी तुमसे सम्मुख होकर न लड़ सका। सरकार की आड़ से लड़ा। मुझे जब अवसर मिलाए मैंने तुम्हारे ऊपर कुटील आघात किया। इसका मुझे खेद है।

मरणासन्न मनुष्य का वे लोग भी स्वच्छंद होकर कीर्ति—गान करते हैंए जिनका जीवन उससे बैर साधाने में ही कटा होय क्योंकि अब उससे किसी हानि की शंका नहीं होती। सूरदास ने उदार भाव से कहा—नहीं साहबए आपने मेरे साथ कोई अन्याय नहीं किया। धूर्तता तो निर्बलों का हथियार है। बलवान कभी नीच नहीं होता।

सेवक—हाँ सूरदासए होना वही चाहिएए जो तुम कहते होय पर ऐसा होता नहीं। मैंने नीति का कभी पालन नहीं किया। मैं संसार को क्रीड़ा—क्षेत्रा नहींए संग्राम—क्षेत्रा समझता रहाए और युध्द में छलए कपटए गुप्त आघात सभी कुछ किया जाता है। धार्मयुध्द के दिन अब नहीं रहे।

सूरदास ने इसका कुछ उत्तार न दिया। वह सोच रहा था कि मिठुआ की बात साहब से कह दूँ या नहीं। उसने कड़ी कसम रखाई है। पर कह देना ही उचित है। लौंडा हठी और कुचाली हैए उस पर घीसू का साथए कोई—न—कोई अनीति अवश्य करेगा। कसम रखा देने से तो मुझे हत्या लगती नहीं। कहीं कुछ नटखटी कर बैठा तो साहब समझेंगेए अंधो ने मरने के बाद भी बैर निभाया। बोला—साहबए आपसे एक बात कहना चाहता हूँ।

सेवक—कहोए शौक से कहो।

सूरदास ने संक्षिप्त रूप से मिठुआ की अनर्गल बातें मि. सेवक से कह सुनाई और अंत में बोला—मेरी आपसे इतनी ही बिनती है कि उस पर कड़ी निगाह रखिएगा। अगर अवसर पा गया तो चूकनेवाला नहीं है। तब आपको भी उस पर क्रोधा आ ही जाएगाए और आप उसे दंड देने का उपाय सोचेंगे। मैं इन दोनों बातों में से एक भी नहीं चाहता।

सेवक अन्य धानी पुरुषों की भाँति बदमाशों से बहुत डरते थेए सशंक होकर बोले—सूरदासए तुमने मुझे होशियार कर दियाए इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझमें और तुममें यही अंतर है। मैं तुम्हें कभी यों सचेत न करता। किसी दूसरे के हाथों तुम्हारी गरदन कटते देखकर भी कदाचित्‌ मेरे मन में दया न आती। कसाई भी सदय और निर्दय हो सकते हैं। हम लोग द्वेष में निर्दय कसाइयों से भी बढ़़ जाते हैं। (सोफिया से ऍंगरेजी में) बड़ा सत्यप्रिय आदमी है। कदाचित्‌ संसार ऐसे आदमियों के रहने का स्थान नहीं है। मुझे एक छिपे हुए शत्रु से बचाना अपनार् कत्ताव्य समझता है। यह तो भतीजा हैय किंतु पुत्रा की बात होतीए तो भी मुझे अवश्य सतर्क कर देता।

सोफिया—मुझे तो अब विश्वास होता है कि शिक्षा धूतोर्ं की स्रष्टा हैए प्रकृति सत्पुरुषों की।

जॉन सेवक को यह बात कुछ रुचिकर न लगी। शिक्षा की इतनी निंदा उन्हें असह्य थी। बोले—सूरदासए मेरे योग्य कोई और सेवा हो तो बताओ।

सूरदास—कहने की हिम्मत नहीं पड़ती।

सेवक—नहीं—नहींए जो कुछ कहना चाहते होए निस्संकोच होकर कहो।

सूरदास—ताहिर अली को फिर नौकर रख लीजिएगा। उनके बाल—बच्चे बड़े कष्ट में हैं।

सेवक—सूरदासए मुझे अत्यंत खेद है कि मैं तुम्हारे आदेश का पालन न कर सकूँगा। किसी नीयत के बुरे आदमी को आश्रय देना मेरे नियम के विरुध्द है। मुझे तुम्हारी बात न मानने का बहुत खेद हैय पर यह मेरे जीवन का एक प्रधान सिध्दांत हैए और उसे तोड़ नहीं सकता।

सूरदास—दया कभी नियम—विरुध्द नहीं होती।

सेवक—मैं इतना कर सकता हूँ कि ताहिर अली के बाल—बच्चों का पालन—पोषण करता रहूँ। लेकिन उसे नौकर न रखूँगा।

सूरदास—जैसी आपकी इच्छा। किसी तरह उन गरीबों की परवस्ती होनी चाहिए।

अभी ये बातें हो रही थीं कि रानी जाह्नवी की मोटर आ पहुँची। रानी उतरकर सोफिया के पास आईं और बोलीं—बेटीए क्षमा करनाए मुझे बड़ी देर हो गई। तुम घबराईं तो नहींघ् भिक्षुकों को भोजन कराकर यहाँ आने को घर से निकलीए तो कुँवर साहब आ गए। बातों—बातों में उनसे झड़प हो गई। बुढ़़ापे में मनुष्य क्यों इतना मायांधा हो जाता हैए यह मेरी समझ में नहीं आता। क्यों मि. सेवकए आपका क्या अनुभव हैघ्

सेवक—मैंने दोनों ही प्रकार के चरित्रा देखे हैं। अगर प्रभु धान को तृण समझता हैए तो पिताजी को फीकी चायए सादी चपातियाँ और धूँधाली रोशनी पसंद है। इसके प्रतिकूल डॉ. गांगुली हैं कि जिनकी आमदनी खर्च के लिए काफी नहीं होती और राजा महेंद्रकुमार सिंहए जिनके यहाँ धोले तक का हिसाब लिखा जाता है।

यों बातें करते हुए लोग मोटरों की तरफ चले। मि. सेवक तो अपने बँगले पर गएय सोफिया रानी के साथ सेवा—भवन गई।

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अध्याय 45

पाँड़ेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धूअॉं छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के ख्रडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन में दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर में शायद ही कोई ऐसा आदमी होगाए जो इन दो—तीन दिनों में यहाँ एक बार न आया हो। यह स्थान अब मुसलमानों का शहीदगाह और हिंदुओं की तपोभूमि के स—श हो गया था। जहाँ विनयसिंह ने अपनी जीवन—लीला समाप्त की थीए वहाँ लोग आतेए तो पैर से जूते उतार देते! कुछ भक्तों ने वहाँ पत्रा—पुष्प भी चढ़़ा रखे थे। यहाँ की मुख्य वस्तु सूरदास के झोंपड़े के चिह्न थे। फूस के ढ़ेर अभी तक पड़े हुए थे। लोग यहाँ आकर घंटों खड़े रहते और सैनिकों को क्रोधा तथा घृणा की द्रष्टि से देखते। इन पिशाचों ने हमारा मानमर्दन किया और अभी तक डटे हुए हैं। अब न जानेए क्या करना चाहते हैं। बजरंगीए ठाकुरदीनए नायकरामए जगधार आदि अब भी अपना अधिकांश समय यहीं विचरने में व्यतीत करते थे। घर की याद भूलते—भूलते ही भूलती है। कोई अपनी भूली—भटकी चीजें खोजने आताए कोई पत्थर या लकड़ी खरीदनेए और बच्चों को तो अपने घरों का चिह्न देखने ही में आनंद आता था। एक पूछताए अच्छा बताओए हमारा घर कहाँ थाघ् दूसरा कहताए वह जहाँ कुत्ताा लेटा हुआ है। तीसरा कहताए जीए कहीं हो नघ् वहाँ तो बेचू का घर था। देखते नहींए यह अमरूद का पेड़ उसी के अॉंगन में था। दूकानदार आदि भी यहीं शाम—सबेरे आते और घंटों सिर झुकाए बैठे रहतेए जैसे घरवाले मृत देह के चारोें ओर जमा हो जाते हैं! यह मेरा अॉंगन थाए यह मेरा दालान थाए यहीं बैठकर तो मैं बही लिखा करता थाए अरे मेरी घी की हाँड़ी पड़ी हुई हैए कुत्ताों ने मुँह डाल दिया होगाए नहीं तो लेते चलते। कई साल की हाँडी थी। अरे! मेरा पुराना जूता पड़ा हुआ है। पानी में फूलकर कितना बड़ा हो गया है! दो—चार सज्जन भी थेए जो अपने बाप—दादों के गाड़े हुए रुपये खोजने आते थे। जल्दी में उन्हें घर खोदने का अवकाश न मिला था। दादा बंगाल की सारी कमाई अपने सिरहाने गाड़कर मर गएए कभी उसका पता न बताया। कैसी ही गरमी पड़ेए कितने ही मच्छर काटेंए वह अपनी कोठरी ही में सोते थे। पिताजी खोदते—खोदते रह गए। डरते थे कि कहीं शोर न मच जाए। जल्दी क्या हैए घर में ही तो हैए जब जी चाहेगाए निकाल लेंगेए मैं यही सोचता रहा। क्या जानता था कि यह आफत आनेवाली हैए नहीं तो पहले ही से खोद न लिया होता! अब कहाँ पता मिलता हैए जिसके भाग्य का होगाए वह पाएगा। संधया हो गई थी। नायकरामए बजरंगी और उनके अन्य मित्रा आकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए। नायकराम—कहो बजरंगीए कहीं कोई घर मिलाघ् बजरंगी—घर नहींए पत्थर मिला। सहर में रहूँए तो इतना किराया कहाँ से लाऊँए घास—चारा कहाँ मिलेघ् इतनी जगह कहाँ मिली जाती हैघ् हाँए औरों की भाँति दूधा में पानी मिलाने लगूँए तो गुजर हो सकती हैय लेकिन यह करम उम्र—भर नहीं कियाए तो अब क्या करूँगा। दिहात में रहता हूँए तो घर बनवाना पड़ता हैय जमींदार को नजर—नजराना न दोए तो जमीन न मिले। एक—एक बिस्वे के दो—दो सौ माँगते हैं। घर बनवाने को अलग हजार रुपये चाहिए। इतने रुपये कहाँ से लाऊँ। जितना मावजा मिला हैए उतने में तो एक कोठरी भी नहीं बन सकती। मैं तो सोचता हूँए जानवरों को बेच डालूँ और यहीं पुतलीघर में मजूरी करूँ। सब झगड़ा ही मिट जाए। तलब तो अच्छी मिलती है। और कहाँ—कहाँ ठिकाना ढ़ूँढ़़ते फिरेंघ् जगधार—यही तो मैं भी सोच रहा हूँए बना—बनाया मकान रहने को मिल जाएगाए पड़े रहेंगे। कहीं घर—बैठे खाने को तो मिलेगा नहीं! दिन—भर खोंचा लिए न फिरेए यहीं मजूरी की। ठाकुरदीन—तुम लोगों से मजूरी हो सकती हैए करोय मैं तो चाहे भूखों मर जाऊँए पर मजूरी नहीं कर सकता। मजूरी सूद्रों का काम हैए रोजगार करना बैसों का काम है। अपने हाथ अपना मरतबा क्यों खोएँए भगवान्‌ कहीं—न—कहीं ठिकाना लगाएँगे ही। यहाँ तो अब कोई मुझे सेंत—मेंत रहने को कहेए तो न रहूँ। बस्ती उजड़ जाती हैए तो भूतों का डेरा हो जाता है। देखते नहीं होए कैसा सियापा छाया हुआ हैए नहीं तो इस बेला यहाँ कितना गुलजार रहता था। नायकराम—मुझे क्या सलाह देते हो बजरंगीए दिहात में रहूँ कि सहर मेंघ् बजरंगी—भैयाए तुम्हारा दिहात में निबाह न होगा। कहीं पीछे हटना ही पड़ेगा। रोज सहर का आना—जाना ठहराए कितनी जहमत होगी। फिर तुम्हारे जात्राी तुम्हारे साथ दिहात में थोड़े ही जाएँगे। यहाँ से तो सहर इतना दूर नहीं थाए इसलिए सब चले आते थे। नायकराम—तुम्हारी क्या है सलाह जगधारघ् जगधार—भैयाए मैं तो सहर में रहने को न कहूँगा। खरच कितना बढ़़ जाएगाए मिट्टी भी मोल मिलेए पानी के भी दाम दो। चालीस—पचास का तो एक छोटा—सा मकान मिलेगा। तुम्हारे साथ नित्ता दस—बीस आदमी ठहरा चाहें। इसलिए बड़ा घर लेना पड़ेगा। उसका किराया सौ से नीचे न होगा। गायें—भैंसें रखोगेघ् जात्रिायों को कहाँ ठहराओगेघ् तुम्हें जितना मावजा मिला हैए उतने में तो इतनी जमीन भी न मिलेगीए घर बनवाने को कौन कहे। नायकराम—बोलो भाई बजरंगीए साल के 1200 रुपये किराये के कहाँ से आएँगेघ् क्या सारी कमाई किराए ही में खरच कर दूँगाघ् बजरंगी—जमीन तो दिहात में भी मोल लेनी पड़ेगीए सेंत तो मिलेगी नहीं। फिर कौन जानेए किस गाँव में जगह मिले। बहुत—से आस—पास के गाँव तो ऐसे भरे हुए हैं। कि वहाँ अब एक झोंपड़ी भी नहीं बन सकती। किसी के द्वार पर अॉंगन तक नहीं है। फिर मिल गईए तो मकान बनवाने के लिए सारा सामान सहर से ले आना पड़ेगा। उसमें कितना खरच पड़ेगाघ् नौ की लकड़ी नब्बे खरच। कच्चे मकान बनवाओगेए तो कितनी तकलीफ! टपकेए कीचड़ होए रोज मनों कूड़ा निकलेए सातवें दिन लीपने को चाहिएए तुम्हारे घर में कौन लीपनेवाला बैठा हुआ हैघ् तुम्हारा रहा कच्चे मकान में न रहा जाएगा। सहर में आने—जाने के लिए सवारी रखनी पड़ेगी। उसका खरच भी 50 रुपये से नीचे न होगा। तुम कच्चे मकान में तो कभी रहे नहीं। क्या जानो दीमकए कीड़े—मकोड़ेए सीलए पूरी छीछालेदर होती है। तुम सैरबीन आदमी ठहरे। पान—पत्तााए साग—भाजी दिहात में कहाँघ् मैं तो यही कहूँगा कि दिहात के एक की जगह सहर में दो खरच पड़ेंए तब भी तुम सहर ही में रहो। वहाँ हम लोगों से भी भेंट—मुलाकात हो जाएा करेगी। आखिर दूधा—दही लेकर सहर तो रोज जाना ही पड़ेगा। नायकराम—वाह बहादुरए वाह! तुम्हारा जोड़ तो भैरों थाए दूसरा कौन तुम्हारे सामने ठहर सकता हैघ् तुम्हारी बात मेरे मन में बैठ गई। बोलो जगधारए इसका कुछ जवाब देते हो तो दोए नहीं तो बजरंगी की डिग्री होती है। सौ रुपये किराया देना मंजूरए यह झंझट कौन सिर पर लेगा! जगधार—भैयाए तुम्हारी मरजी हैए तो सहर ही में चले जाओए मैं बजरंगी से लड़ाई थोड़े ही करता हूँ। पर दिहात दिहात ही हैए सहर सहर ही! सहर में पानी तक तो अच्छा नहीं मिलता। वही बम्बे का पानी पियोए धारम जाए और कुछ स्वाद भी न मिले! ठाकुरदीन—अंधा आगमजानी था। जानता था कि एक दिन यह पुतलीघर हम लोगों को बनवास देगाए जान तक गँवाईए पर अपनी जमीन दी। हम लोग इस किरंटे के चकमों में आकर उसका साथ न छोड़तेए तो साहब लाख सिर पटककर मर जातेए एक न चलती। नायकराम—अब उसके बचने की कोई आसा नहीं मालूम होती। आज मैं गया था। बुरा हाल था। कहते हैंए रात को होस में था। जॉन सेवक साहब और राजा साहब से देर तक बातें कींए मिठुआ से भी बातें कीं। सब लोग सोच रहे थेए अब बच जाएगा। सिविलसारजंट ने मुझसे खुद कहाए अंधो की जान का कोई खटका नहीं है। पर सूरदास यही कहता रहा कि आपको मेरी जो साँसत करनी हैए कर लीजिएए मैं बचूँगा नहीं। आज बोल—चाल बंद है। मिठुआ बड़ा कपूत निकल गया। उसी की कपूती ने अंधो की जान ली। दिल टूट गयाए नहीं तो अभी कुछ दिन और चलता। ऐसे बीर बिरले ही कहीं होते हैं। आदमी नहीं थाए देवता था। बजरंगी—सच कहते हो भैयाए आदमी नहीं थाए देवता था। ऐसा सेर आदमी कहीं नहीं देखा। सच्चाई के सामने किसी की परवा नहीं कीए चाहे कोई अपने घर का लाट ही क्यों न हो। घीसू के पीछे मैं उससे बिगड़ गया थाए पर अब जो सोचता हूँए तो मालूम होता है कि सूरदास ने कोई अन्याय नहीं किया। कोई बदमास हमारी ही बहू—बेटी को बुरी निगाह से देखेए तो बुरा लगेगा कि नहींघ् उसके खून के प्यासे हो जाएँगेए घात पाएँगेए तो सिर उतार लेंगे। अगर सूरे ने हमारे साथ वही बरताव कियाए तो क्या बुराई की! घीसू का चलन बिगड़ गया था। सजा न पा जाताए तो न जाने क्या ऍंधोर करता। ठाकुरदीन—अब तक या तो उसी की जान पर बन गई होतीए या दूसरों की। जगधार—चौधारीए घर—गाँव में इतनी सच्चाई नहीं बरती जाती। अगर सच्चाई से किसी का नुकसान होता होए तो उस पर परदा डाल दिया जाता है। सूरे में और सब बातें अच्छी थींए बस इतनी ही बुरी थी। ठाकुरदीन—देखो जगधारए सूरदास यहाँ नहीं हैए किसी के पीठ—पीछे निंदा नहीं करनी चाहिए। निंदा करनेवाले की तो बात ही क्याए सुननेवालों को भी पाप लगता है। न जाने पूरब जनम में कौन—सा पाप किया थाए सारा जमा—जथा चोर मूस ले गएए यह पाप अब न करूँगा। बजरंगी—हाँए जगधारए यह बात अच्छी नहीं। मेरे ऊपर भी तो वही पड़ी हैए जो तुम्हारे ऊपर पड़ीय लेकिन सूरदास की बदगोई नहीं सुन सकता। ठाकुरदीन—इनकी बहू—बेटी को कोई घूरताए तो ऐसी बातें न करते। जगधार—बहू—बेटी की बात और हैए हरजाइयों की बात और। ठाकुरदीन—बसए अब चुप ही रहना जगधार! तुम्हीं एक बार सुभागी की सफाई करते फिरते थेए आज हरजाई कहते हो। लाज भी नहीं आतीघ् नायकराम—यह आदत बहुत खराब है। बजरंगी—चाँद पर थूकने से थूक अपने ही मुँह पर पड़ता है। जगधार—अरेए तो मैं सूरे की निंदा थोड़े ही कर रहा हूँ। दिल दुखता हैए तो बात मुँह से निकल ही आती है। तुम्हीं सोचोए विद्याधार अब किस काम का रहाघ् पढ़़ाना—लिखाना सब मिट्टी में मिला कि नहींघ् अब न सरकार में नौकरी मिलेगीए न कोई दूसरा रखेगा। उसकी तो जिंदगानी खराब हो गई। बसय यही दुरूख हैए नहीं तो सूरदास का—सा आदमी कोई क्या होगा। नायकराम—हाँए इतना मैं भी मानता हूँ कि उसकी जिंदगानी खराब हो गई। जिस सच्चाई में किसी का अनभल होता होए उसका मुँह से न निकलना ही अच्छा। लेकिन सूरदास को सब कुछ माफ है। ठाकुरदीन—सूरदास ने इलम तो नहीं छीन लियाघ् जगधार—यह इलम किस काम काए जब नौकरी—चाकरी न कर सके। धारम की बात होतीए तो यों भी काम देती। यह विद्या हमारे किस काम आवेगीघ् नायकराम—अच्छाए यह बताओ कि सूरदास मर गएए तो गंगा नहाने चलोगे कि नहींघ् जगधार—गंगा नहाने क्यों नहीं चलूँगा! सबके पहले चलूँगा। कंधा तो आदमी बैरी को भी दे देता हैए सूरदास हमारे बैरी नहीं थे। जब उन्होंने मिठुआ को नहीं छोड़ाए जिसे बेटे की तरह पालाए तो दूसरों की बात ही क्या। मिठुआ क्याए वह अपने खास बेटे को न छोड़ते। नायकराम—चलोए देख आएँ। चारो आदमी सूरदास को देखने चले।

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अध्याय 46

चारों आदमी शफाखाने पहुँचेए तो नौ बज चुके थे। आकाश निद्रा में मग्नए अॉंखें बंद किए पड़ा हुआ थाए पर पृथ्वी जाग रही थी। भैरों खड़ा सूरदास को पंखा झल रहा था। लोगों को देखते ही उसकी अॉंखों से अॉंसू गिरने लगे। सिरहाने की ओर कुर्सी पर बैठी हुई सोफिया चिंताकुल नेत्राों से सूरदास को देख रही थी। सुभागी ऍंगीठी में आग बना रही थी कि थोड़ा—सा दूधा गर्म करके सूरदास को पिलाए। तीनों ही के मुख पर नैराश्य का चित्रा खिंचा हुआ था। चारों ओर वह निरूस्तब्धाता छाई हुई थीए जो मृत्यु का पूर्वाभास है।

सोफी ने कातर स्वर में कहा—पंडाजीए आज शोक की रात है। इनकी नाड़ी का कई—कई मिनटों तक पता नहीं चलता। शायद आज की रात मुश्किल से कटे। चेष्टा बदल गई।

भैरों—दोपहर से यही हाल हैय न कुछ बोलते हैंए न किसी को पहचानते हैं।

सोफी—डॉक्टर गांगुली आते होंगे। उनका तार आया था कि मैं आ रहा हूँ। यों तो मौत की दवा किसी के पास नहींय लेकिन सम्भव हैए डॉक्टर गांगुली के हाथों कुछ यश लिखा हो।

सुभागी—मैंने शाम को पुकारा थाए तो अॉंखें खोली थींय पर बोले कुछ नहीं।

ठाकुरदीन—बड़ा प्रतापी जीव था।

यही बातें हो रही थीं एक मोटर आई और कुँवर भरतसिंहए डॉक्टर गांगुली और रानी जाह्नवी उतर पड़ीं। गांगुली ने सूरदास के मुख की ओर देखा और निराशा की मुस्कराहट के साथ बोले—हमको दस मिनट का भी देर होताए तो इनका दर्शन भी न पाते। विमान आ चुका है। क्यों दूधा गरम करता है भाईए दूधा कौन पिएगाघ् यमराज तो दूधा पीने का मुहलत नहीं देता।

सोफिया ने सरल भाव से कहा—क्या अब कुछ नहीं हो सकता डॉक्टर साहबघ्

गांगुली—बहुत कुछ हो सकता है मिस सोफिया! हम यमराज को परास्त कर देगा। ऐसे प्राणियों का यथार्थ जीवन तो मृत्यु के पीछे ही होता हैए जब वह पंचभूतों के संस्कार से रहित हो जाता है। सूरदास अभी नहीं मरेगाए बहुत दिनों तक नहीं मरेगा। हम सब मर जाएगाए कोई कलए कोई परसोंय पर सूरदास तो अमर हो गयाए उसने तो काल को जीत लिया। अभी तक उसका जीवन पंचभूतों के संस्कार से सीमित था। अब वह प्रसारित होगाए समस्त प्रांत कोए समस्त देश को जागृति प्रदान करेगाए हमें कर्मण्यता काए वीरता का आदर्श बताएगा। यह सूरदास की मृत्यु नहीं है सोफीए यह उसकी जीवन—ज्योति का विकास है। हम तो ऐसा ही समझता है।

यह कहकर डॉक्टर गांगुली ने जेब से एक शीशी निकाली और उसमें से कई बूँदें सूरदास का मुँह खोलकर पिला दीं। तत्काल उसका असर दिखाई दिया। सूरदास के विवर्ण मुख—मंडल पर हलकी—हलकी सुरखी दौड़ गई। उसने अॉंखें खोल दींए इधार—उधार अनिमेष द्रष्टि से देखकर हँसा और ग्रामोफोन की—सी कृत्रिाम बैठी हुईए नीरस आवाज से बोला—बस—बसए अब मुझे क्यों मारते होघ् तुम जीतेए मैं हारा। यह बाजी तुम्हारे हाथ रहीए मुझसे खेलते नहीं बना। तुम मँजे हुए खिलाड़ी होए दम नहीं उखड़ताए खिलाड़ियों को मिलाकर खेलते हो और तुम्हारा उत्साह भी खूब है। हमारा दम उखड़ जाता हैए हाँफने लगते हैं और खिलाड़ियों को मिलाकर नहीं खेलतेए आपस में झगड़ते हैंए गाली—गलौजए मार—पीट करते हैंए कोई किसी की नहीं मानता। तुम खेलने में निपुण होए हम अनाड़ी हैं। बसए इतना ही फरक है। तालियाँ क्यों बजाते होए यह तो जीतनेवालों का धारम नहींघ् तुम्हारा धारम तो है हमारी पीठ ठोकना। हम हारेए तो क्याए मैदान से भागे तो नहींए रोये तो नहींए धाँधाली तो नहीं की। फिर खेलेंगेए जरा दम ले लेने दोए हार—हारकर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक—न—एक दिन हमारी जीत होगीए जरूर होगी।

डॉक्टर गांगुली इस अनर्गल कथन को अॉंखें बंद किए इस भाव से तन्मय होकर सुनते रहेए मानो ब्रह्म—वाक्य सुन रहे हों। तब भक्तिपूर्ण भाव से बोले—बड़ी विशाल आत्मा है। हमारे सारे पारस्परिकए सामाजिक—राजनीतिक जीवन की अत्यंत सुंदर विवेचना कर दी और थोड़े—से शब्दों में।

सोफी ने सूरदास से कहा—सूरदासए कुँवर साहब और रानीजी आए हुए हैं। कुछ कहना चाहते होघ्

सूरदास ने उन्मादपूर्ण उत्सुकता से कहा—हाँ—हाँ—हाँए बहुत कुछ कहना हैए कहाँ हैंघ् उनके चरणों की धूल मेरे माथे पर लगा दोए तर जाऊँय नहीं—नहींए मुझे उठाकर बैठा दोए खोल दो यह पट्टीए मैं खेल चुकाए अब मुझे मरहम—पट्टी नहीं चाहिए। रानी कौनए विनयसिंह की माता नघ् कुँवर साहब उनके पिता नघ् मुझे बैठा दोए उनके पैरों पर अॉंखें मलूँगा। मेरी अॉंखें खुल जाएँगी। मेरे सिर पर हाथ रखकर असीस दोए माताए अब मेरी जीत होगी। कहो! वहए सामने विनयसिंह और इंद्रदत्ता सिंहासन पर बैठे हुए मुझे बुला रहे हैं। उनके मुख पर कितना तेज है! मैं भी आता हूँ। यहाँ तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका। अब वहीं करूँगा। माता—पिताए भाई—बंदए सबको सूरदास का राम—रामए अब जाता हूँ। जो कुछ बना—बिगड़ा होए छमा करना।

रानी जाह्नवी ने आगे बढ़़करए भक्ति—विह्नल दशा मेंए सूरदास के पैरों पर सिर रख दिया और फूट—फूटकर रोने लगीं। सूरदास के पैर अश्रु—जल से भीग गए। कुँवर साहब ने अॉंखों पर रूमाल डाल लिया और खड़े—खड़े रोने लगे।

सूरदास की मुखश्री फिर मलिन हो गई। औषधि का असर मिट गया। ओठ नीले पड़ गए। हाथ—पाँव ठंडे हो गए।

नायकराम गंगाजल लाने दौड़े। जगधार ने सूरदास के समीप जाकर जोर से कहा—सूरदासए मैं हूँ जगधारए मेरा अपराधा क्षमा। यह कहते—कहते आवेग से उसका कंठ रुँधा गया।

सूरदास मुँह से कुछ न बोलाए दोनों हाथ जोड़ेए अॉंसू की दो बूँदें गालों पर बह आईंए और खिलाड़ी मैदान से चला गया।

क्षण—मात्रा में चारों तरफ खबर फैल गई। छोटे—बड़ेए अमीर—गरीबए स्त्राी—पुरुषए बूढ़़े—जवानए हजारों की संख्या में निकल पड़े। सब नंगे सिरए नंगे पैरए गले में ऍंगोछियाँ डाले शफाखाने के मैदान में एकत्रा हुए। जिसका कोई नहीं होताए उसके सब होते हैं। सारा शहर उमड़ा चला आता था। सब—के—सब इस खिलाड़ी को एक अॉंख देखना चाहते थेए जिसकी हार में भी जीत का गौरव था। कोई कहता थाए सिध्द थाय कोई कहता थाए वली थाय कोई देवता कहता थाय पर वह यथार्थ में खिलाड़ी था—वह खिलाड़ीय जिसके माथे पर कभी मैल नहीं आयाए जिसने कभी हिम्मत नहीं हारीए जिसने कभी कदम पीछे नहीं हटाए। जीताए तो प्रसन्नचित्ता रहाय हाराए तो प्रसन्नचित्ता रहाय हारा तो जीतनेवाले से कीना नहीं रखायजीता तो हारनेवाले पर तालियाँ नहीं बजाईं। जिसने खेल में सदैव नीति का पालन कियाए कभी धाँधाली नहीं कीए कभी द्वंद्वी पर छिपकर चोट नहीं की। भिखारी थाए अपंग थाए अंधा थाए दीन थाए कभी भर—पेट दाना नहीं नसीब हुआए कभी तन पर वस्त्रा पहनने को नहीं मिलायपर हृदय धौर्य और क्षमाए सत्य और साहस का अगाधा भंडार था। देह पर मांस न थाए पर हृदय में विनयए शील और सहानुभूति भरी हुई थी।

हाँए वह साधू न थाए महात्मा न थाए देवता न थाए फरिश्ता न था। एक क्षुद्रए शक्तिहीन प्राणी थाए चिंताओं और बाधाओं से घिरा हुआए जिसमें अवगुण भी थेए और गुण भी। गुण कम थेए अवगुण बहुत। क्रोधाए लोभए मोहए अहंकारए ये सभी दुर्गुण उसके चरित्रा में भरे हुए थेए गुण केवल एक था। किंतु ये सभी दुर्गुण उस पर गुण के सम्पर्क सेए नमक की खान में जाकर नमक हो जानेवाली वस्तुओं की भाँतिए देवगुणों का रूप धारण कर लेते थे—क्रोधा सत्क्रोधा हो जाता थाए लोभ सदानुरागए मोह सदुत्साह के रूप में प्रकट होता था और अहंकार आत्माभिमान के वेष में! और वह गुण क्या थाघ् न्याय—प्रेमए सत्य—भक्तिए परोपकारए दर्द या उसका जो नाम चाहेए रख लीजिए। अन्याय देखकर उससे न रहा जाता थाए अनीति उसके लिए असह्य थी।

मृत देह कितनी धूमधाम से निकलीए इसकी चर्चा करना व्यर्थ है। बाजे—गाजे न थेए हाथी—घोड़े न थेए पर अॉंसू बहानेवाली अॉंखों और कीर्ति—गान करनेवाले मुखों की कमी न थी। बड़ा समारोह था। सूरदास की सबसे बड़ी जीत यह थी कि शत्रुओं को भी उससे शत्रुता न थी। अगर शोक—समाज में सोफियाए गांगुलीए जाह्नवीए भरतसिंहए नायकरामए भैरों आदि थेए तो महेंद्रकुमार सिंहए जॉन सेवकए जगधार यहाँ तक कि मि. क्लार्क भी थे। चंदन की चिता बनाई गई थीए उस पर विजय—पताका लहरा रही थी। दाहक्रिया कौन करताघ् मिठुआ ठीक उसी अवसर पर रोता हुआ आ पहुँचा। सूरदास जीते—जी जो न कर पाया थाए मरकर किया!

इसी स्थान पर कई दिन पहले यही शोक——श्य दिखाई दिया था। अंतर केवल इतना था कि उस दिन लोगों के हृदय शोक से व्यथित थेए आज विजय—गर्व से परिपूर्ण। वह एक वीरात्मा की वीर मृत्यु थीए यह एक खिलाड़ी की अंतिम लीला। एक बार सूर्य की किरणें चिता पर पड़ींए उनमें गर्व की आभा थीए मानो आकाश से विजय—गान के स्वर आ रहे हैं।

लौटते समय मि. क्लार्क ने राजा महेंद्रकुमार से कहा—मुझे इसका अफसोस है कि मेरे हाथों से ऐसे अच्छे आदमी की हत्या हुई।

राजा साहब ने कुतूहल से कहा—सौभाग्य कहिएए दुर्भाग्य क्योंघ्

क्लार्क—नहीं राजा साहबए दुर्भाग्य ही है। हमें आप—जैसे मनुष्य से भय नहींए भय ऐसे ही मनुष्यों से हैए जो जनता के हृदय पर शासन कर सकते हैं। यह राज्य करने का प्रायश्चित्ता है कि इस देश में हम ऐसे आदमियों का वधा करते हैंए जिन्हें इंग्लैंड में हम देव—तुल्य समझते।

सोफिया इसी समय उनके पास से होकर निकली। यह वाक्य उसके कान में पड़ाए बोली—काशए ये शब्द आपके अंतरूकरण से निकले होते!

यह कहकर वह आगे बढ़़ गई। मि. क्लार्क यह व्यंग्य सुनकर बौखला गएए जब्त न कर सके। घोड़ा बढ़़ाकर बोले—यह तुम्हारे उस अन्याय का फल हैए जो तुमने मेरे साथ किया है।

सोफी आगे बढ़़ गई थी। ये शब्द उसके कान में न पड़े।

गगन—मंडल के पथिकए जो मेघ के आवरण से बाहर निकल आए थेए एक—एक करके बिदा हो रहे थे। शव के साथ जानेवाले भी एक—एक करके चले गए। पर सोफिया कहाँ जातीघ् इसी दुविधा में खड़ी थी कि इंदु मिल गई। सोफिया ने कहा—इंदुए जरा ठहरोए मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।

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अध्याय 47

संधया हो गई थी। मिल के मजदूर छुट्टी पा गए थे। आजकल दूनी मजदूरी देने पर भी बहुत थोड़े मजदूर काम करने आते थे। पाँड़ेपुर में सन्नाटा छाया हुआ था। वहाँ अब मकानों के भग्नावशेष के सिवा कुछ नजर न आता था। हाँए वृक्ष अभी तक ज्यों—के—त्यों खड़े थे। वह छोटा—सा नीम का वृक्ष अब सूरदास की झोंपड़ी का निशान बतलाता थाए फूस लोग बटोर ले गए थे। भूमि समतल की जा रही थी और कहीं—कहीं नए मकानों की दाग—बेल पड़ चुकी थी। केवल बस्ती के अंतिम भाग में एक छोटा—सा खपरैल का मकान अब तक आबाद थाए जैसे किसी परिवार के सब प्राणी मर गए होंए केवल एक जीर्ण—शीर्णए रोग—पीड़ितए बूढ़़ा नामलेवा रह गया हो। यही कुल्सूम का घर हैए जिसे अपने वचनानुसारए सूरदास की खातिर से मि. जॉन सेवक ने गिराने नहीं दिया है। द्वार पर नसीमा और साबिर खेल रहे हैं और ताहिर अली एक टूटी हुई खाट पर सिर झुकाए बैठे हुए हैं। ऐसा मालूम होता है कि महीनों से उनके बाल नहीं बने। शरीर दुर्बल हैए चेहरा मुरझाया हुआए अॉंखें बाहर को निकल आई हैं। सिर के बाल भी खिचड़ी हो गए हैं। कारावास के कष्टों और घर की चिंताओं ने कमर तोड़ दी है। काल—गति ने उन पर बरसों का काम महीनों में कर डाला है। उनके अपने कपड़ेए जो जेल से छूटते समय वापस मिले हैंए उतारे के मालूम होते हैं। प्रातरूकाल वह नैनी जेल से आए हैं और अपने घर की दुर्दशा ने उन्हें इतना क्षुब्धा कर रखा है कि बाल बनवाने तक की इच्छा नहीं होती। उनके अॉंसू नहीं थमतेए बहुत मन को समझाने पर भी न हीं थमते। इस समय भी उनकी अॉंखों में अॉंसू भरे हुए हैं। उन्हें रह—रहकर माहिर अली पर क्रोधा आता है और वह एक लम्बी साँस खींचकर रह जाते हैं। वे कष्ट याद आ रहे हैंए जो उन्होंने खानदान के लिए सहर्ष झेले थे—वे सारी तकलीफेंए सारी कुरबानियाँए सारी तपस्याएँ बेकार हो गईं। क्या इसी दिन के लिए मैंने इतनी मुसीबतें झेली थींघ् इसी दिन के लिए अपने खून से खानदान के पेड़ को सींचा थाघ् यही कड़घवे फल खाने के लिएघ् आखिर मैं जेल ही क्यों गया थाघ् मेरी आमदनी मेरे बाल—बच्चों की परवरिश के लिए काफी थी। मैंने जान दी खानदान के लिए। अब्बा ने मेरे सिर जो बोझ रख दिया थाए वही मेरी तबाही का सबब हुआ। गजब खुदा का। मुझ पर यह सितम! मुझ पर यह कहर! मैंने कभी नए जूते नहीं पहनेए बरसों कपड़े में थिगलियाँ लगा—लगाकर दिन काटेए बच्चे मिठाइयों को तरस—तरसकर रह जाते थेए बीबी को सिर के लिए तेल भी मयस्सर न होता थाए चूड़ियाँ पहनना नसीब न थाए हमने फाके किएए जेवर और कपड़ों की कौन कहेए ईद के दिन भी बच्चों को नए कपड़े न मिलते थेए कभी इतना हौसला न हुआ कि बीबी के लिए एक लोहे का छल्ला बनवाता! उलटे उसके सारे गहने बेच—बेचकर खिला दिए। इस सारी तपस्या का यह नतीजा! और वह भी मेरी गैरहाजिरी में। मेरे बच्चे इस तरह घर से निकाल दिए गएए गोया किसी गैर के बच्चे हैंए मेरी बीबी को रो—रोकर दिन काटने पड़ेए कोई अॉंसू पोंछनेवाला भी नहीं हुआए और मैंने इसी लौंडे के लिए गबन किया थाघ् इसी के लिए अमानत की रकम उड़ाई थी! क्या मैं मर गया थाघ् अगर वे लोग मेरे बाल—बच्चों को अच्छी तरह इज्जत—आबरू के साथ रखतेए तो क्या मैं ऐसा गया—गुजरा था कि उनके एहसान का बोझ उतारने की कोशिश न करता! न दूधा—घी खिलातेए न तंजेब—अध्दी पहनातेए रूखी रोटीयाँ ही देतेए गजी—गाढ़़ा ही पहनातेय पर घर में तो रखते! वे रुपयों के पान खा जाते होंगेए और यहाँ मेरी बीबी को सिलाई करके अपना गुजर—बसर करना पड़ा। उन सबों से तो जॉन सेवक ही अच्छेए जिन्होंने रहने का मकान तो न गिरवायाए मदद करने के लिए आए तो।

कुल्सूम ने ये विपत्तिा के दिन सिलाई करके काटे थे। देहात की स्त्रिायाँ उसके यहाँ अपने कुरतियाँए बच्चों के लिए टोप और कुरते सिलातीं। कोई पैसे दे जातींए कोई अनाज। उसे भोजन—वस्त्रा का कष्ट न था। ताहिर अली अपनी समृध्दि के दिनों में भी इससे ज्यादा सुख न दे सके थे। अंतर केवल यह था कि तब सिर पर अपना पति थाए अब सिर पर कोई न था। इस आश्रयहीनता ने विपत्तिा को और भी असह्य बना दिया था। अंधाकार में निर्जनता और भी भयप्रद हो जाती है।

ताहिर अली सिर झुकाए शोक—मग्न बैठे थे कि कुल्सूम ने द्वार पर आकर कहा—शाम हो गई और अभी तक कुछ नहीं खाया। चलोए खाना ठंडा हुआ जाता है।

ताहिर अली ने सामने के ख्रडहरों की ओर ताकते हुए कहा—माहिर थाने ही में रहते हैं या कहीं और मकान लिया हैघ्

कुल्सूम—मुझे क्या खबरए यहाँ तब से झूठों भी तो नहीं आए। जब ये मकान खाली करवाए जा रहे थेए तब एक दिन सिपाहियों को लेकर आए थे। नसीमा और साबिर चचा—चचा कह के दौड़ेए पर दोनों को दुतकार दिया।

ताहिर—हाँए क्यों न दुताकरतेए उनके कौन होते थे!

कुल्सूम—चलोए दो लुकमे खा लो।

ताहिर—माहिर मियाँ से मिले बगैर मुझे दाना—पानी हराम है।

कुल्सूम—मिल लेनाए कहीं भागे जाते हैं।

ताहिर—जब तक जी—भर उनसे बात न कर लूँगाए दिल को तस्कीन न होगी।

कुल्सूम—खुदा उन्हें खुश रखेए हमारी भी तो किसी तरह कट ही गई। खुदा ने किसी—न—किसी हीले से रोजी पहुँचा तो दी। तुम सलामत रहोगेए तो हमारी फिर आराम से गुजरेगीए और पहले से ज्यादा अच्छी तरह। दो को खिलाकर खायँगे। उन लोगों ने जो कुछ कियाए उसका सबाब और अजाब उनको खुदा से मिलेगा।

ताहिर—खुदा ही इंसाफ करताए तो हमारी यह हालत क्यों होतीघ् उसने इंसाफ करना छोड़ दिया।

इतने में एक बुढ़़िया सिर पर टोकरी रखे आकर खड़ी हो गई और बोली—बहूए लड़कों के लिए भुट्टे लाई हूँए क्या तुम्हारे मियाँ आ गएघ्

कुल्सूम बुढ़़िया के साथ कोठरी में चली गई। उसके कुछ कपड़े सिए थे। दोनों में इधार—उधार की बातें होने लगीं।

ऍंधोरी रात नदी की लहरों की भाँति पूर्व दिशा से दौड़ी चली आती थी। वे ख्रडहर ऐसे भयानक मालूम होने लगेए मानो कोई कबरिस्तान है। नसीमा और साबिरए दोनों आकर ताहिर अली की गोद में बैठ गए।

नसीमा ने पूछा—अब्बाए अब तो हमें छोड़कर न जाओगेघ्

साबिर—अब जाएँगेए तो मैं इन्हें पकड़ लूँगा। देखेंए कैसे चले जाते हैं।

ताहिर—मैं तो तुम्हारे लिए मिठाइयाँ भी नहीं लाया।

नसीमा—तुम तो हमारे अब्बाजान हो। तुम नहीं थेए तो चचा ने हमें अपने पास से भगा दिया था।

साबिर—पंडाजी ने हमें पैसे दिए थेए याद है न नसीमाघ्

नसीमा—और सूरदास की झोंपड़ी में हम—तुम जाकर बैठेए तो उसने हमें गुड़ खाने को दिया था। मुझे गोद में उठाकर प्यार करता था।

साबिर—उस बेचारे को एक साहब ने गोली मार दी अब्बा! मर गया।

नसीमा—यहाँ पलटन आई थी अब्बाए हम लोग मारे डर के घर से न निकलते थेए क्यों साबिरघ्

साबिर—निकलतेए तो पलटनवाले पकड़ न ले जाते!

बच्चे तो बाप की गोद में बैठकर चहक रहे थेय किंतु पिता का धयान उनकी ओर न था। वह माहिर अली से मिलने के लिए विकल हो रहे थेए अब अवसर पायाए तो बच्चों से मिठाई लाने का बहाना करके चल खड़े हुए! थाने पर पहुँचकर पूछाए तो मालूम हुआ कि दारोगाजी अपने मित्राों के साथ बँगले में विराजमान हैं। ताहिर अली बँगले की तरफ चले! वह फूस का अठकोना झोंपड़ा थाए लताओं और बेलों से सजा हुआ। माहिर अली ने बरसात में सोने और मित्राों के साथ विहार करने के लिए इसे बनवाया था। चारों तरफ से हवा जाती थी। ताहिर अली ने समीप जाकर देखाए तो कई भद्र पुरुष मसनद लगाए बैठे हुए थे। बीच में पीकदान रखा हुआ था। खमीरा तम्बाकू धूअॉंधार उड़ रहा था। एक तश्तरी में पान—इलायची रखे हुए थे। दो चौकीदार खड़े पंखा झल रहे थे। इस वक्त ताश की बाजी हो रही थी। बीच—बीच में चुहल भी हो जाती थी। ताहिर अली की छाती पर साँप लोटने लगा। यहाँ ये जलसे हो रहे हैंए यह ऐश का बाजार गर्म हैए और एक मैं हूँ कि कहीं बैठने का ठिकाना नहींए रोटीयों के लाले पड़े हैं। यहाँ जितना पान—तम्बाकू में उड़ जाता होगाए उतने में मेरे बाल—बच्चों की परवरिश हो जाती। मारे क्रोधा के ओठ चबाने लगे। खून खौलने लगा। बेधाड़क मित्रा—समाज में घुस गए और क्रोधा तथा ग्लानि से उन्मत्ता होकर बोले—श्श्माहिर! मुझे पहचानते होए कौन हूँघ् गौर से देख लो। बढ़़े हुए बालों और फटे हुए कपड़ों ने मेरी सूरत इतनी नहीं बदल डाली है कि पहचाना न जा सकूँ। बदहाली सूरत को नहीं बदल सकती। दोस्तोए आप लोग शायद न जानते होंगेए मैं इस बेवफाए दगाबाजए कमीने आदमी का भाई हूँ। इसके लिए मैंने क्या—क्या तकलीफें उठाईंए यह मेरा खुदा जानता है। मैंने अपने बच्चों कोए अपने कुनबे कोए अपनी जात को इसके लिए मिटा दियाए इसकी माँ और इसके भाइयों के लिए मैंने वह सब कुछ सहाए जो कोई इंसान कह सकता है। इसी की जरूरतें पूरी करने के लिएए इसके शौक और तालीम का खर्च पूरा करने के लिए मैंने कर्ज लिएए अपने आका की अमानत में खयानत की और जेल की सजा काटी। इन तमाम नेकियों का यह इनाम है कि इस भले आदमी ने मेरे बाल—बच्चों की बात भी न पूछी। यह उसी दिन मुरादाबाद से आयाए जिस दिन मुझे सजा हुई थी। मैंने इसे ताँगे पर आते देखाए मेरी अॉंखों में अॉंसू छलक आएए मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा कि मेरा भाई अभी आकर मुझे दिलासा देगा और खानदान को सँभालेगा। पर यह एहसान—फरामोश आदमी सीधा चला गयाए मेरी तरफ ताका तक नहींए मुँह फेर लिया। उसके दो—चार दिन बाद यह अपने भाइयों के साथ यहाँ चला आयाए मेरे बच्चों को वहीं वीराने में छोड़ दिया। यहाँ मजलिस सजी हुई हैए ऐश हो रहा हैए और वहाँ मेरे ऍंधोरे घर में चिराग—बत्ती का भी ठिकाना नहीं। खुदा अगर मुंसिफ होताए तो इसके सिर पर उसका कहर बिजली बनकर गिरता। लेकिन उसने इंसाफ करना छोड़ दिया। आप लोग इस जालिम से पूछिए कि क्या मैं इसी सूलूक और बेदरदी के लायक थाए क्या इसी दिन के लिए मैंने फकीरों की—सी जिंदगी बसर की थीघ् इसको शरमिंदा कीजिएए इसके मुँह में कालिख लगाइएए इसके मुँह पर थूकिए। नहींए आप लोग इसके दोस्त हैंए मुरौवत के सबब इंसाफ न कर सकेंगे। अब मुझी को इंसाफ करना पड़ेगा। खुदा गवाह है और खुद इसका दिल गवाह है कि आज तक मैंने इसे कभी तेज निगाह से भी नहीं देखाए इसे खिलाकर खुद भूखों रहाए इसे पहनाकर खुद नंगा रहा। मुझे याद नहीं आता कि मैंने कब नए जूते पहने थेए कब नए कपड़े बनवाए थेए इसके उतारों ही पर मेरी बसर होती थी। ऐसे जालिम पर अगर खुदा का अजाब नहीं गिरताए तो इसका सबब यही है कि खुदा ने इंसाफ करना छोड़ दिया।

ताहिर अली ने जलप्रवाह के वेग से अपने मनोद्‌गार प्रकट किए और इसके पहले कि माहिर अली कुछ जवाब देंए या सोच सकें कि क्या जवाब दूँए या ताहिर अली को रोकने की चेष्टा करेंए उन्होंने झपटकर कलमदान उठा लियाए उसकी स्याही निकाल ली और माहिर अली की गरदन जोर से पकड़कर स्याही मुँह पर पोत दीए तब तीन बार उन्हें झुक—झुककर सलाम किया और अंत में यह कहकर वहीं बैठ गए—मेरे अरमान निकल गएए मैंने आज से समझ लिया कि तुम मर गए और तुमने तो मुझे पहले ही से मरा हुआ समझ लिया है। बसए हमारे दरमियान इतना ही नाता था। आज यह भी टूट गया। मैं अपनी सारी तकलीफों का सिला और इनाम पा गया। अब तुम्हें अख्तियार हैए मुझे गिरफ्तार करोए मारो—पीटोए जलील करो। मैं यहाँ मरने ही आया हूँए जिंदगी से जी भर गयाए दुनिया रहने की जगह नहींए यहाँ इतनी दगा हैए इतनी बेवफाई हैए इतना हसद हैए इतना कीना है कि यहाँ जिंदा रहकर कभी खुशी नहीं मयस्सर हो सकती।

माहिर अली स्तम्भित—से बैठे रहे। पर उनके एक मित्रा ने कहा—मान लीजिएए इन्होंने बेवफाई की...

ताहिर अली बोले—मान क्या लूँ साहबए भुगत रहा हूँए रो रहा हूँए मानने की बात नहीं है।

मित्रा ने कहा—मुझसे गलती हुईए इन्होंने जरूर बेवफाई कीय लेकिन आप बुजुर्ग हैंए यह हरकत शराफत से बईद है कि किसी को सरे मजलिस बुरा—भला कहा जाए और उसके मुँह में कालिख लगा दी जाए।

दूसरे मित्रा बोले—शराफत से बईद ही नहीं हैए पागलपन हैए ऐसे आदमी को पागलखाने में बंद कर देना चाहिए।

ताहिर—जानता हूँए शराफत से बईद हैय लेकिन मैं शरीफ नहीं हूँए पागल हूँए दीवाना हूँए शराफत अॉंसू बनकर अॉंखों से बह गई। जिसके बच्चे गलियों मेंए दूकानों पर भीख माँगते होंए जिसकी बीवी पड़ोसियों का आटा पीसकर अपना गुजर करेए जिसकी कोई खबर लेनेवाला न होए जिसके रहने का घर न होए जिसके पहनने को कपड़े न होंए वह शरीफ नहीं हो सकताए और न वही आदमी शरीफ हो सकता हैए जिसकी बेरहमी के हाथों मेरी यह दुर्गत हुई। अपने जेल से लौटनेवाले भाई को देखकर मुँह फेर लेना अगर शराफत हैए तो यह भी शराफत है। क्यों मियाँ माहिरए बोलते क्यों नहींघ् याद हैए तुम नई अचकन पहनते थेए और जब तुम उतारकर फेंक दिया करते थेए तो मैं पहन लेता था! याद हैए तुम्हारे फटे जूते गठवाकर मैं पहना करता था! याद हैए मेरा मुशाहरा कुल 25 रुपये माहवार थाए और वह सब—का—सब मैं तुम्हें मुरादाबाद भेज दिया करता था! याद हैए जरा मेरी तरफ देखो तुम्हारे तम्बाकू का खर्च मेरे बाल—बच्चों के लिए काफी हो सकता था। नहींए तुम सब कुछ भूल गए। अच्छी बात हैए भूल जाओए न मैं तुम्हारा भाई हूँए न तुम मेरे भाई हो। मेरी सारी तकलीफों का मुआवजा यही स्याही हैए जो तुम्हारे मुँह पर लगी हुई है। लोए रुखसतए अब तुम फिर यह सूरत न देखोगेए अब हिसाब के दिन तुम्हारा दामन न पकडँर्ऌगा। तुम्हारे ऊपर मेरा कोई हक नहीं है।

यह कहकर ताहिर अली उठ खड़े हुए और उसी ऍंधोरे में जिधार से आए थेए उधार चले गएए जैसे हवा का एक झोंका आए और निकल जाए। माहिर अली ने बड़ी देर बाद सिर उठाया और फौरन साबुन से मुँह धोकर तौलिए से साफ किया। तब आईने में मुँह देखकर बोले—आप लोग गवाह रहेंए मैं इनको इस हरकत का मजा चखाऊँगा।

एक मित्रा—अजीए जाने भी दीजिएए मुझे तो दीवाने—से मालूम होते हैं।

दूसरे मित्रा—दीवाने नहींए तो और क्या हैंए यह भी कोई समझदारों का काम है भला!

माहिर अली—हमेशा से बीवी के गुलाम रहेय जिस तरफ चाहती हैए नाक पकड़कर घुमा देती है। आप लोगों से खानगी दुखड़े क्या रोऊँए मेरे भाइयों की और माँ की मेरी भावज के हाथों जो दुर्गत हुई हैए वह किसी दुश्मन की भी न हो। कभी बिला रोये दाना न नसीब होता था। मेरी अलबत्ताा यह जरा खातिर करते थे। आप समझते रहे होंगे कि इसके साथ जरा जाहिरदारी कर दोए बसए जिंदगी—भर के लिए मेरा गुलाम हो जाएगा। ऐसी औरत के साथ निबाह क्योंकर होता। यह हजरत तो जेल में थेए वहाँ उसने हम लोगों को फाके कराने शुरू किए। मैं खाली हाथए बड़ी मुसीबत में पड़ा। वह तो कहिएए दवा—दविश करने से यह जगह मिल गईए नहीं तो खुदा ही जानता हैए हम लोगों की क्या हालत होतीघ् हम नेहार मुँह दिन—के—दिन बैठे रहते थेए वहाँ मिठाइयाँ मँगा—मँगाकर खाई जाती थीं। मैं हमेशा से इनका अदब करता रहाए यह उसी का इनाम हैए जो आपने दिया है। आप लोगों ने देखाए मैंने इतनी जिल्लत गवारा कीय पर सिर तक नहीं उठायाए जबान नहीं खोली ए नहींए एक धाक्का देताए तो बीसों लुढ़़कनियाँ खाते। अब भी दावा कर दूँए तो हजरत बँधो—बँधो फिरेंए लेकिन तब दुनिया यही कहेगी कि बड़े भाई को जलील किया।

एक मित्रा—जाने भी दो म्याँए घरों में ऐसे झगड़े होते ही रहते हैं। बेहयाओं की बला दरए मरदों के लिए शर्म नहीं है। लाओए ताश उठाओए अब तक तो एक बाजी हो गई होती।

माहिर अली—कसम कलामेशरीफ कीए अम्माँजान ने अपने पास के दो हजार रुपये इन लोगों को खिला दिएए नहीं तो 25 रुपये में यह बेचारे क्या खाकर सारे कुनबे का खर्च सँभालते।

एक कांस्टेबिल—हुजूरए घर—गिरस्ती में ऐसा हुआ ही करता है। जाने दीजिए जो हुआए सो हुआए वह बड़े हैंए आप छोटे हैंए दुनिया उन्हीं को थूकेगीए आपकी बड़ाई होगी।

एक मित्रा—कैसा शेर—सा लपका हुआ आयाए और कलमदान से स्याही निकालकर मल ही तो दी। मानता हूँ।

माहिर अली—हजरतए इस वक्त दिल न जलाइएए कसम खुदा कीए बड़ा मलाल है।

ताहिर अली यहाँ से चलेए तो उनकी गति में वह व्यग्रता न थी। दिल में पछता रहे थे कि नाहक अपनी शराफत में बट्टा लगाया। घर आएए तो कुल्सूम ने पूछा—कहाँ गायब हो गए थेघ् राह देखते—देखते अॉंखें थक गईं। बच्चे रोकर सो गए कि अब्बा फिर चले गए।

ताहिर अली—जरा माहिर अली से मिलने गया था।

कुल्सूम—इसकी ऐसी क्या जल्दी थी! कल मिल लेते। तुम्हें यों फटेहाल देखकर शरमाए तो न होंगेघ्

ताहिर अली—मैंने उसे वह लताड़ सुनाई कि उम्र—भर न भूलेगा। जबान तक न खुली। उसी गुस्से में मैंने उसके मुँह में कालिख भी लगा दी।

कुल्सूम का मुख मलिन हो गया। बोली—तुमने बड़ी नादानी का काम किया। कोई इतना जामे से बाहर हो जाता है! यह कालिख तुमने उनके मुँह में नहीं लगाईए अपने मुँह पर लगाई हैए तुम्हारे जिंदगी—भर के किए—धारे पर स्याही फिर गई। तुमने अपनी सारी नेकियों को मटीयामेट कर दिया। आखिर यह तुम्हें सूझी क्याघ् तुम तो इतने गुस्सेवर कभी न थे। इतना सब्र न हो सका कि अपने भाई ही थेए उनकी परवरिश कीए तो कौन—सी हातिम की कब्र पर लात मारी। छी—छी! इंसान किसी गैर के साथ भी नेकी करता हैए तो दरिया में डाल देता हैए यह नहीं कि कर्ज वसूल करता फिरे। तुमने जो कुछ कियाए खुदा की राह में कियाए अपना फर्ज समझकर किया। कर्ज नहीं दिया था कि सूद के साथ वापस ले लो! कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहेए न रखा। अभी दुनिया उनको हँसती थीए देहातिनियाँ भी उनको कोसने दे जाती थीं। अब लोग तुम्हें हँसेंगे। दुनिया हँसे या न हँसेए इसकी परवा नहीं। अब तक खुदा और रसूल की नजरों में यह खतावार थेए अब तुम खतावार हो।

ताहिर अली ने लज्जित होकर कहा—हिमाकत हो तो गईए मगर मैं तो बिल्कुल पागल हो गया था।

कुल्सूम—भरी महफिल में उन्होंने सिर तक न उठायाए फिर भी तुम्हें गैरत न आईघ् मैं तो कहूँगीए तुमसे कहीं शरीफ वही हैंए नहीं तुम्हारी आबरू उतार लेना उनके लिए क्या मुश्किल था!

ताहिर अली—अब यही खौफ है कि कहीं मुझ पर दावा न कर दे।

कुल्सूम—उनमें तुमसे ज्यादा इंसानियत है।

कुल्सूम ने इतना लज्जित किया कि ताहिर अली रो पड़े और देर तक रोते रहे। फिर बहुत मनाने पर खाने उठे और खा—पीकर सोए।

तीन दिन तक तो वे इसी कोठरी में पड़े रहे। कुछ बुध्दि काम न करती थी कि कहाँ जाएँए क्या करेंए क्योंकर जीवन का निर्वाह हो। चौथे दिन धार से नौकरी तलाश करने निकलेए मगर कहीं कोई सूरत न निकली। सहसा उन्हें सूझी कि क्यों न जिल्दबंदी का काम करूँय जेलखाने में वह यह काम सीख गए थे। इरादा पक्का हो गया। कुल्सूम ने भी पसंद किया। बला से थोड़ा मिलेगाए किसी के गुलाम तो न रहोगे। सनद की जरूरत नौकरी के लिए ही हैए जेल भुगतनेवालों की कहीं गुजर नहीं। व्यवसाय करनेवालों के लिए किसी सनद की जरूरत नहींए उनका काम ही उनकी सनद है। चौथे दिन ताहिर अली ने यह मकान छोड़ दिया और शहर के दूसरे मुहल्ले में एक छोटा—सा मकान लेकर जिल्दबंदी का काम करने लगे।

उनकी बनाई हुई जिल्दें बहुत सुंदर और सु—ढ़़ होती हैं। काम की कमी नहीं हैए सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलती। उन्होंने अब दो—तीन जिल्दबंद नौकर रख लिए हैंए और शाम तक दो—तीन रुपये की मजदूरी कर लेते हैं। इतने समृध्द वह कभी न थे।

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अध्याय 48

काशी के म्युनिसिपल बोर्ड में भिन्न—भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों के लोग मौजूद थे। एकवाद से लेकर जनसत्ताावाद तक सभी विचारों के कुछ—न—कुछ आदमी थे। अभी तक धान का प्राधान्य नहीं थाए महाजनों और रईसों का राज्य था। जनसत्ताा के अनुयाई शक्तिहीन थे। उन्हें सिर उठाने का साहस न होता था। राजा महेंद्रकुमार की ऐसी धाक बँधाी हुई थी कि कोई उनका विरोधा न कर सकता था। पर पाँड़ेपुर के सत्याग्रह ने जनसत्ताावादियों में एक नई संगठन—शक्ति पैदा कर दी। उस दुर्घटना का सारा इलजाम राजा साहब के सिर मढ़़ा जाने लगा। यह आंदोलन शुरू हुआ कि उन पर अविश्वास का प्रस्ताव उपस्थित किया जाए। दिन—दिन आंदोलन जोर पकड़ने लगा। लोकमतवादियों ने निश्चय कर लिया कि वर्तमान व्यवस्था का अंत कर देना चाहिएए जिसके द्वारा जनता को इतनी विपत्तिा सहनी पड़ी। राजा साहब के लिए यह कठिन परीक्षा का अवसर था। एक ओर तो अधिकारी लोग उनसे असंतुष्ट थे दूसरी ओर यह विरोधाी दल उठ खड़ा हुआ। बड़ी मुश्किल में पड़े। उन्होंने लोकवादियों की सहायता से विरोधियों का प्रतिकार करने को ठानी थी। उनके राजनीतिक विचारों में भी कुछ परिवर्तन हो गया था। वह अब जनता को साथ लेकर म्युनिसिपैलिटी का शासन करना चाहते थे। पर अब क्या होघ् इस प्रस्ताव को रोकने के लिए उद्योग करने लगे। लोकमतवाद के प्रमुख नेताओं से मिलेए उन्हें बहुत कुछ आश्वासन दिया कि भविष्य में उनकी इच्छा के विरुध्द कोई काम न करेंगेए इधार अपने दल को भी संगठित करने लगे। जनतावादियों को वह सदैव नीची निगाह से देखा करते थे। पर अब मजबूर होकर उन्हीं की खुशामद करनी पड़ी। वह जानते थे कि बोर्ड में यह प्रस्ताव आ गयाए तो उसका स्वीकृत हो जाना निश्चित है। खुद दौड़ते थेए अपने मित्राों को दौड़ाते थे कि किसी उपाय से यह बला सिर से टल जाएए किंतु पाँड़ेपुर के निवासियों का शहर में रोते फिरना उनके सारे यत्नों को विफल कर देता था। लोग पूछते थेए हमें क्योंकर विश्वास हो कि ऐसी ही निरंकुशता का व्यवहार न करेंगे। सूरदास हमारे नगर का रत्न थाए कुँवर विनयसिंह और इंद्रदत्ता मानव—समाज के रत्न थे। उनका खून किसके सिर पर हैघ्

अंत में यह प्रस्ताव नियमित रूप से बोर्ड में आ ही गया। उस दिन प्रातरूकाल से म्युनिसिपल बोर्ड के मैदान में लोगों का जमाव होने लगा। यहाँ तक कि दोपहर होते—होते 10—20 हजार आदमी एकत्रा हो गए। एक बजे प्रस्ताव पेश हुआ। राजा साहब ने खड़े होकर बड़े करुणोत्पादक शब्दों में अपनी सफाई दीय सिध्द किया कि मैं विवश थाए इस दशा में मेरी जगह पर कोई दूसरा आदमी होताए तो वह भी वही करताए जो मैंने कियाए इसके सिवा अन्य कोई मार्ग न था। उनके अंतिम शब्द ये थे—मैं पद—लोलुप नहीं हूँए सम्मान—लोलुप नहीं हूँए केवल आपकी सेवा का लोलुप हूँए अब और भी ज्यादाए इसलिए कि मुझे प्रायश्चित्ता करना हैए जो इस पद से अलग होकर मैं न कर सकूँगाए वह साधान ही मेरे हाथ से निकल जाएगा। सूरदास का मैं उतना ही भक्त हूँए जितना और कोई व्यक्ति हो सकता है। आप लोगों को शायद मालूम नहीं है कि मैंने शफाखाने में जाकर उनसे क्षमा—प्रार्थना की थीए और सच्चे हृदय से खेद प्रकट किया था। सूरदास का ही आदेश था कि मैं अपने पद पर स्थिर रहूँए नहीं तो मैंने पहले ही पद—त्याग करने का निश्चय कर लिया था। कुँवर विनयसिंह की अकाल मृत्यु का जितना दुरूख मुझे हैए उतना उनके माता—पिता को छोड़कर किसी को नहीं हो सकता। वह मेरे भाई थे। उनकी मृत्यु ने मेरे हृदय पर वह घाव कर दिया हैए जो जीवन—पयर्ंत न भरेगा। इंद्रदत्ता से भी मेरी घनिष्ठ मैत्राी थी। क्या मैं इतना अधामए इतना कुटीलए इतना नीचए इतना पामर हूँ कि अपने हाथों अपने भाई और अपने मित्रा की गर्दन पर छुरी चलाताघ् यह आक्षेप सर्वथा अन्यायपूर्ण हैए यह मेरे जले पर नमक छिड़कना है। मैं अपनी आत्मा के सामनेए परमात्मा के सामने निर्दोष हूँ। मैं आपको अपनी सेवाओं की याद नहीं दिलाना चाहताए वह स्वयंसिध्द है। आप लोग जानते हैंए मैंने आपकी सेवा में अपना कितना समय लगाया हैए कितना परिश्रमए कितना अनवरत उद्योग किया है! मैं रिआयत नहीं चाहताए केवल न्याय चाहता हूँ।

वक्तृता बड़ी प्रभावशाली थीए पर जनवादियों को अपने निश्चय से न डिगा सकी। पंद्रह मिनट में बहुमत से प्रस्ताव स्वीकृत हो गया और राजा साहब ने भी तत्क्षण पद—त्याग की सूचना दे दी।

जब वह सभा—भवन से बाहर निकलेए तो जनता नेए जिन्हें उनका व्याख्यान सुनने का अवसर न मिला थाए उन पर इतनी फब्तियाँ उड़ाईंए इतनी तालियाँ बजाईं कि बेचारे बड़ी मुश्किल से अपनी मोटर तक पहुँच सके। पुलिस ने चौकसी न की होतीए तो अवश्य दंगा हो जाता। राजा साहब ने एक बार पीछे फिरकर सभा—भवन को सजल नेत्राों से देखा और चले गए। कीर्ति—लाभ उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य थाए और उसका यह निराशापूर्ण परिणाम हुआ। सारी उम्र की कमाई पर पानी फिर गयाए सारा यशए सारा गौरवए सारी कीर्ति जनता के क्रोधा—प्रवाह में बह गई।

राजा साहब वहाँ से जले हुए घर आएए तो देखा कि इंदु और सोफिया दोनों बैठी बातें कर रही हैं। उन्हें देखते ही इंदु बोली—मिस सोफिया सूरदास की प्रतिमा के लिए चंदा जमा कर रही हैं। आप भी तो उसकी वीरता पर मुग्धा हो गए थेए कितना दीजिएगाघ्

सोफी—इंदुरानी ने 1000 रुपया प्रदान किया हैए और इसके दुगने से कम देना आपको शोभा न देगा।

महेंद्रकुमार ने त्योरियाँ चढ़़ाकर कहा—मैं इसका जवाब सोचकर दूँगा।

सोफी—फिर कब आऊँघ्

महेंद्रकुमार ने ऊपरी मन से कहा—आपके आने की जरूरत नहीं हैए मैं स्वयं भेज दूँगा।

सोफिया ने उनके मुख की ओर देखाए तो त्योरियाँ चढ़़ी हुई थीं। उठकर चली गई। तब राजा साहब इंदु से बोले—तुम मुझसे बिना पूछे क्यों ऐसा काम करती होए जिससे मेरा सरासर अपमान होता हैघ् मैं तुम्हें कितनी बार समझाकर हार गया। आज उसी अंधो की बदौलत मुझे मुँह की खानी पड़ीए बोर्ड ने मुझ पर अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दियाए और उसी की प्रतिमा के लिए तुमने चंदा दिया और मुझे भी देने को कह रही हो!

इंदु—मुझे क्या खबर थी कि बोर्ड में क्या हो रहा है। आपने भी तो कहा था कि उस प्रस्ताव के पास होने की सम्भावना नहीं है।

राजा—कुछ नहींए तुम मेरा अपमान करना चाहती हो।

इंदु—आप उस दिन सूरदास का गुण—गान कर रहे थे। मैंने समझाए चंदे में कोई हरज नहीं है। मैं किसी के मन के रहस्य थोड़े ही जानती हूँ। आखिर वह प्रस्ताव पास क्योंकर हो गयाघ्

राजा—अब मैं यह क्या जानूँए क्योंकर पास हो गया। इतना जानता हूँ कि पास हो गया। सदैव सभी काम अपनी इच्छा या आशा के अनुकूल ही तो नहीं हुआ करते। जिन लोगों पर मेरा पूरा विश्वास थाए उन्हीं ने अवसर पर दगा दीए बोर्ड में आए ही नहीं। मैं इतना सहिष्णु नहीं हूँ कि जिसके कारण मेरा अपमान होए उसी की पूजा करूँ। मैं यथाशक्ति इस प्रतिमा—आंदोलन को सफल न होने दूँगा। बदनामी तो हो ही रही हैए और होए इसकी परवा नहीं। मैं सरकार को ऐसा भर दूँगा कि मूर्ति खड़ी न होने पाएगी। देश का हित करने की शक्ति अब चाहे न होए पर अहित करने की हैए और दिन—दिन बढ़़ती जाएगी। तुम भी अपना चंदा वापस कर लो।

इंदु—(विस्मित होकर) दिए हुए रुपये वापस कर लूँघ्

राजा—हाँए इसमें कोई हरज नहीं।

इंदु—आपको कोई हरज न मालूम होता होए मेरी तो इसमें सरासर हेठी है।

राजा—जिस तरह तुम्हें मेरे अपमान की परवा नहींए उसी तरह यदि मैं भी तुम्हारी हेठी की परवा न करूँए तो कोई अन्याय न होगा।

इंदु—मैं आपसे रुपये तो नहीं माँगतीघ्

बात—पर—बात निकलने लगीए विवाद की नौबत पहुँचीए फिर व्यंग्य की बारी आईए और एक क्षण में दुर्वचनों का प्रहार होने लगा। अपने—अपने विचार में दोनो ही सत्य पर थेए इसलिए कोई न दबता था।

राजा साहब ने कहा—न जाने वह कौन दिन होगा कि तुमसे मेरा गला छूटेगा। मौत के सिवा शायद अब कहीं ठिकाना नहीं है।

इंदु—आपको अपनी कीर्ति और सम्मान मुबारक रहे। मेरा भी ईश्वर मालिक है। मैं भी जिंदगी से तंग आ गई। कहाँ तक लौंडी बनूँ अब हद हो गई।

राजा—तुम मेरी लौंडी बनोगी! वे दूसरी सती स्त्रिायाँ होती हैंए जो अपने पुरुषों पर प्राण दे देती हैं। तुम्हारा बस चलेए तो मुझे विष दे दोए और दे ही रही होए इससे बढ़़कर और क्या होगा!

इंदु—यह विष क्यों उगलते होघ् साफ—साफ क्यों नहीं कहते कि मेरे घर से निकल जा। मैं जानती हूँए आपको मेरा रहना अखरता है। आज से नहींए बहुत दिनों से जानती हूँ। उसी दिन जान गई थीए जब मैंने एक महरी को अपनी नई साड़ी दे दी थी और आपने महाभारत मचाया था। उसी दिन समझ गई थी कि यह बेल मुढ़़े चढ़़ने की नहीं। जितने दिन यहाँ रहीए कभी आपने यह न समझने दिया कि यह मेरा घर है। पैसे—पैसे का हिसाब देकर भी पिंड नहीं छूटा। शायद आप समझते होंगे कि यह मेरे ही रुपये को अपना कहकर मनमाना खर्च करती हैए और यहाँ आपकी एक धोला छूने की कसम खाती हूँ। आपके साथ विवाह हुआ हैए कुछ आत्मा नहीं बेची है।

महेंद्र ने ओठ चबाकर कहा—भगवान्‌ सब दुरूख देए बुरे का संग न दे। मौत भले ही दे दे। तुम—जैसी स्त्राी का गला घोंट देना भी धार्म—विरुध्द नहीं। इस राज्य की कुशल मनाओ कि चौन कर रही हो। अपना राज्य होताए तो यह कैंची की तरह चलनेवाली जबान तालू से खींच ली जाती।

इंदु—अच्छाए अब चुप रहिएए बहुत हो गया। मैं आपकी गालियाँ सुनने नहीं आई हूँए यह लीजिए अपना घरए खूब टाँगें फैलाकर सोइए।

राजा—जाओए किसी तरह अपना पौरा तो ले जाओ। बिल्ली बख्शेए चूहा अकेला ही भला!

इंदु ने दबी जबान से कहा—यहाँ कौन तुम्हारे लिए दीवाना हो रहा है!

राजा ने क्रोधोन्मत्ता होकर कहा—गालियाँ दे रही है! जबान खींच लूँगा।

इंदु जाने के लिए द्वार तक आई थी। यह धामकी सुनकर फिर लौट पड़ी और सिंहनी की भाँति बफरकर बोली—इस भरोसे न रहिएगा। भाई मर गया हैए तो क्या गुड़ का बाप कोल्हू तैयार है। सिर के बाल न बचेंगे। ऐसे ही भले होतेए तो दुनिया में इतना अपयश कैसे कमाते।

यह कहकर इंदु अपने कमरे में आई। उन चीजों को समेटाए जो उसे मैके में मिली थीं। वे सब चीजें अलग कर दींए जो यहाँ की थीं। शोक न थाए दुरूख न थाए एक ज्वाला थीए जो उसके कोमल शरीर में विष की भाँति व्याप्त हो रही थी। मुँह लाल थाए अॉंखें लाल थींए नाक लाल थीए रोम—रोम से चिनगारियाँ—सी निकल रही थीं। अपमान आग्नेय वस्तु है।

अपनी सब चीजें सँभालकर इंदु ने अपनी निजी गाड़ी तैयार करने की आज्ञा दी। जब तक गाड़ी तैयार होती रहीए वह बरामदे में टहलती रही। ज्यों ही फाटक पर घोड़ों की टाप सुनाई दीए वह आकर गाड़ी में बैठ गईए पीछे फिरकर भी न देखा। जिस घर की वह रानी थीए जिसको वह अपना समझती थीए जिसमें जरा—सा कूड़ा पड़ा रहने पर नौकरों के सिर हो जाती थीए उसी घर से इस तरह निकल गईए जैसे देह से प्राण निकल जाता है—उसी देह से जिसकी वह सदैव रक्षा करता थाए जिसके जरा—जरा—से कष्ट से स्वयं विकल हो जाता था। किसी से कुछ न कहाए न किसी की हिम्मत पड़ी कि उससे कुछ पूछे। उसके चले जाने के बाद महराजिन ने जाकर महेंद्र से कहा—सरकारए रानी बहू जाने कहाँ चली जा रही हैं!

महेंद्र ने उसकी ओर तीव्र नेत्राों से देखकर कहा—जाने दो।

महराजिन—सरकारए संदूक और संदूकचे लिए जाती हैं।

महेंद्र—कह दियाए जाने दो।

महराजिन—सरकारए रूठी हुई मालूम होती हैं। अभी दूर न गई होंगीए आप मना लें।

महेंद्र—मेरा सिर मत खा।

इंदु लदी—फँदी सेवा—भवन पहुँचीए तो जाह्नवी ने कहा—तुम लड़कर आ रही हो क्योंघ्

इंदु—कोई अपने घर में नहीं रहने देताए तो क्या जबरदस्ती हैघ्

जाह्नवी—सोफिया ने आते—ही—आते मुझसे कहा थाए आज कुशल नहीं है।

इंदु—मैं लौंडी बनकर नहीं रह सकती।

जाह्नवी—तुमने उनसे बिना पूछे चंदा क्यों लिखाघ्

इंदु—मैंने किसी के हाथों अपनी आत्मा नहीं बेची है।

जाह्नवी—जो स्त्राी अपने पुरुष का अपमान करती हैए उसे लोक—परलोक कहीं शांति नहीं मिल सकती!

इंदु—क्या आप चाहती हैं कि यहाँ से भी चली जाऊँघ् मेरे घाव पर नमक न छिड़कें।

जाह्नवी—पछताओगीए और क्या। समझाते—समझाते हार गईए पर तुमने अपना हठ न छोड़ा।

इंदु यहाँ से उठकर सोफिया के कमरे में चली गई। माता की बातें उसे जहर—सी लगीं।

यह विवाद दाम्पत्य क्षेत्रा से निकलकर राजनीतिक क्षेत्रा में अवतरित हुआ। महेंद्रकुमार उधार एड़ी—चोटी का जोर लगाकर इस आंदोलन का विरोधा कर रहे थेए लोगों को चंदा देने से रोकते थेए प्रांतीय सरकार को उत्तोजित करते थेए इधार इंदु सोफिया के साथ चंदे वसूल करने में तत्पर थी। मि. क्लार्क अभी तक दिल में राजा से द्वेष रखते थेए अपना अपमान भूले न थेए उन्होंने जनता के इस आंदोलन में हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत न समझीए जिसका फल यह हुआ कि राजा साहब की एक न चली। धाड़ाधाड़ चंदे वसूल होने लगे। एक महीने में एक लाख से अधिक वसूल हो गया। किसी पर किसी तरह का दबाव न थाए किसी से कोई सिफारिश न करता था। वह दोनों रमणियों के सदुद्योग ही का चमत्कार थाय नहीं शहीदों की वीरता की विभूति थी। जिनकी याद में अब भी लोग रोया करते थे। लोग स्वयं आकर देते थेए अपनी हैसियत से ज्यादा। मि. जॉन सेवक ने भी स्वेच्छा से एक हजार रुपये दिएए इंदु ने अपना चंदा एक हजार तो दिया हीए अपने कई बहुमूल्य आभूषण भी दे डालेए जो बीस हजार के बिके। राजा साहब की छाती पर साँप लोटता रहता। पहले अलक्षित रूप से विरोधा करते थेए फिर प्रत्यक्ष रूप से दुराग्रह करने लगे। गवर्नर के पास स्वयं गएए रईसों को भड़काया। सब कुछ कियाय पर जो होना थाए वह होकर रहा।

छरू महीने गुजर गए। सूरदास की प्रतिमा बनकर आ गई। पूना के एक प्रसिध्द मूर्तिकार ने सेवा—भाव से इसे रचा। पाँड़ेपुर में उसे स्थापित करने का प्रस्ताव था। जॉन सेवक ने सहर्ष आज्ञा दे दी। जहाँ सूरदास का झोंपड़ा थाए वहीं मूर्ति का स्थापन हुआ। कीर्तिमानों की कीर्ति को अमर करने के लिए मनुष्य के पास और कौन—सा साधान हैघ् अशोक की मूर्ति भी तो उसके शिला—लेखों ही से अमर है। वाल्मीकि और व्यासए होमर और फिरदौसीए सबको तो नहीं मिलते।

पाँड़ेपुर में बड़ा समारोह था। नगर—निवासी अपने—अपने काम छोड़कर इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। रानी जाह्नवी ने करुण कंठ और सजल नेत्राों से मूर्ति को प्रतिष्ठित किया। इसके बाद देर तक संकीर्तन होता रहा। फिर नेताओं के प्रभावशाली व्याख्यान हुएए पहलवानों ने अपने—अपने करतब दिखाए। संधया समय प्रीति—भोज हुआए छूत और अछूत साथ बैठकर एक ही पंक्ति में खा रहे थे। यह सूरदास की सबसे बड़ी विजय थी। रात को एक नाटक—मंडली ने श्सूरदासश् नाम का नाटक खेलाए जिसमें सूरदास ही के चरित्रा का चित्राण किया गया था। प्रभुसेवक ने इंग्लैंड से यह नाटक रचकर इसी अवसर के लिए भेजा था। बारह बजते—बजते उत्सव समाप्त हुआ। लोग अपने—अपने घर सिधारे। वहाँ सन्नाटा छा गया।

चाँदनी छिटकी हुई थीए और शुभ्र ज्योत्सना में सूरदास की मूर्ति एक हाथ से लाठी टेकती हुई और दूसरा हाथ किसी अ—श्य दाता के सामने फैलाए खड़ी थी—वही दुर्बल शरीर थाए हँसलियाँ निकली हुईए कमर टेढ़़ीए मुख पर दीनता और सरलता छाई हुईए साक्षात्‌ सूरदास मालूम होता था। अंतर केवल इतना था कि वह चलता थाए वह अचल थीय वह सबोल थाए यह अबोल थीय और मूर्तिकार ने यहाँ वह वात्सल्य अंकित कर दिया थाए जिसका मूल में पता न था। बसए ऐसा मालूम होता थाए मानो कोई स्वर्ग—लोक का भिक्षुक देवताओं से संसार के कल्याण का वरदान माँग रहा है।

आधाी रात बीत चुकी थी। एक आदमी साइकिल पर सवार मूर्ति के समीप आया। उसके हाथ में कोई यंत्रा था। उसने क्षण—भर तक मूर्ति को सिर से पाँव तक देखाए और तब उसी यंत्रा से मूर्ति पर आघात किया। सड़ाक की आवाज सुनाई दी और मूर्ति धामाके के साथ भूमि पर आ गिरी और उसी मनुष्य परए जिसने उसे तोड़ा था। वह कदाचित्‌ दूसरा आघात करनेवाला थाए इतने में मूर्ति गिर पड़ीए भाग न सकाए मूर्ति के नीचे दब गया।

प्रातरूकाल लोगों ने देखाए तो राजा महेंद्रकुमार सिंह थे। सारे नगर में खबर फैल गई कि राजा साहब ने सूरदास की मूर्ति तोड़ डाली और खुद उसी के नीचे दब गए। जब तक जिएए सूरदास के साथ वैर—भाव रखाए मरने के बाद भी द्वेष करना न छोड़ा। ऐसेर् ईष्यालु मनुष्य भी होते हैं! ईश्वर ने उसका फल भी तत्काल ही दे दिया। जब तक जिएए सूरदास से नीचा देखाय मरे भीए तो उसी के नीचे दबकर। जाति का द्रोहीए दुश्मनए दम्भीए दगाबाज और इनसे भी कठोर शब्दों में उनकी चर्चा हुई।

कारीगरों ने फिर मसालों से मूर्ति के पैर जोड़े और उसे खड़ा किया। लेकिन उस आघात के चिह्न अभी तक पैरों पर बने हुए हैं और मुख भी विकृत हो गया है।

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अध्याय 49

इधर सूरदास के स्मारक के लिए चंदा जमा किया जा रहा थाए उधार कुलियों के टोले में शिलान्यास की तैयारियाँ हो रही थीं। नगर के गण्यमान्य पुरुष निमंत्रिात हुए थे। प्रांत के गवर्नर से शिला—स्थापना की प्रार्थना की गई थी। एक गार्डन पार्टी होनेवाली थी। गवर्नर महोदय को अभिनंदन—पत्रा दिया जानेवाला था। मिसेज सेवक दिलोजान से तैयारियाँ कर रही थीं। बँगले की सफाई और सजावट हो रही थी। तोरण आदि बनाए जा रहे थे। ऍंगरेजी बैंड बुलाया गया था। मि. क्लार्क ने सरकारी कर्मचारियों को मिसेज सेवक की सहायता करने का हुक्म दे दिया थाए और स्वयं चारों तरफ दौड़ते फिरते थे।

मिसेज सेवक के हृदय में अब एक नई आशा अंकुरित हुई थी। कदाचित्‌ विनयसिंह की मृत्यु सोफिया को मि. क्लार्क की ओर आकर्षित कर देए इसलिए वह मि. क्लार्क की और भी खातिर कर रही थीं। सोफिया को स्वयं जाकर साथ लाने का निश्चय कर चुकी थीं—जैसे बनेगाए वैसे लाऊँगीए खुशी से न आएगीए जबरदस्ती लाऊँगीए रोऊँगीए पैरों पड़ईँगी और बिना साथ लाए उसका गला न छोड़ईँगी।

मि. जॉन सेवक कम्पनी का वार्षिक विवरण तैयार करने में दत्ताचित्ता थे। गत साल के नफे की सूचना देने के लिए उन्होंने यही अवसर पसंद किया। यद्यपि यथार्थ लाभ बहुत कम हुआ थाए किंतु आय—व्यय में इच्छापूर्वक उलटफेर करके वह आशातीत लाभ दिखाना चाहते थेए जिसमें कम्पनी के हिस्सों की दर चढ़़ जाए और लोग हिस्सों पर टूट पड़ें। इधार के घाटे को वह इस चाल से पूरा करना चाहते थे। लेखकों को रात—रात—भर काम करना पड़ता था और स्वयं मि. सेवक हिसाबों की तैयारी में उससे कहीं ज्यादा परिश्रम करते थेए जितना उत्सव की तैयारियों में।

किंतु मि. ईश्वर सेवक को ये तैयारियाँए जिन्हें वह अपव्यय कहते थेए एक अॉंख न भाती थीं। वह बार—बार झुँझलाते थेए बेचारे वृध्द आदमी को सुबह से शाम तक सिर—मगजन करते गुजरता था। कभी बेटे पर झल्लातेए कभी बहू परए कभी कर्मचारियों परए कभी सेवकों पर—यह पाँच मन बर्फ की क्या जरूरत हैए क्या लोग इसमें नहाएँगेघ् मन—भर काफी था। काम तो आधो मन ही में चल सकता था। इतनी शराब की क्या जरूरतघ् कोई परनाला बहाना है या मेहमानों को पिलाकर उनके प्राण लेने हैंघ् इससे क्या फायदा कि लोग पी—पीकर बदमस्त हो जाएँ और आपस में जूती—पैजार होने लगेघ् लगा दो घर मे आग या मुझी को जहर दे दोय न जिंदा रहूँगाए न जलन होगी। प्रभु मसीहघ् मुझे अपने दामन में ले। इस अनर्थ का कोई ठिकाना हैए फौजी बैंड की क्या जरूरतघ् क्या गवर्नर कोई बच्चा हैए जो बाजार सुनकर खुश होगा या शहर के रईस बाजे के भूखे हैंघ् आतिशबाजियाँ क्या होंगीघ् गजब खुदा काए क्या एक सिरे से सब भंग खा गए हैंघ् यह गवर्नर का स्वागत है या बच्चों का खेलघ् पटाखे और छछूंदरें किसको खुश करेंगीघ् मानाए पटाखे और छूछूंदरें न होंगीए ऍंगरेजी आतिशबाजियाँ होंगीए मगर क्या गवर्नर ने आतिशबाजियाँ नहीं देखी हैंघ् ऊटपटांग काम करने से क्या मतलबघ् किसी गरीब का घर जल जाएए कोई और दुर्घटना हो जाएए तो लेने के देने पड़ें। हिंदुस्तानी रईसों के लिए फल—मेवे और मुरब्बेए मिठाइयाँ मँगाने की जरूरतघ् वे ऐसे भुक्खड़ नहीं होते। उनके लिए एक—एक सिगरेट काफी थी। हाँए पान—इलायची का प्रबंधा और कर दिया जाता। वे यहाँ कोई दावत खाने तो आएँगे नहींए कम्पनी का वार्षिक विवरण सुनने आएँगे। अरेए ओ खानसामाए सुअरए ऐसा न हो कि मैं तेरा सिर तोड़कर रख दूँ। जो—जो वह पगली (मिसेज सेवक) कहती हैए वही करता है। मुझे भी कुछ बुध्दि है या नहींघ् जानता हैए आजकल 4 रुपये सेर अंगूर मिलते हैं। इनकी बिलकुल जरूरत नहीं। खबरदारए जो यहाँ अंगूर आए! सारांश यह कि कई दिनों तक निरंतर बक—बकए झक—झक से उनका चित्ता कुछ अव्यवस्थित—सा हो रहा था। कोई उनकी सुनता न थाए सब अपने—अपने मन की करते थे। जब वह बकते—बकते थक जातेए तो उठकर बाग में चले जाते। लेकिन थोड़ी ही देर में फिर घबराकर आ पहुँचते और पूर्ववत्‌ लोगों पर वाक्यप्रहार करने लगते। यहाँ तक कि उत्सव के एक सप्ताह पहले जब मि. जॉन सेवक ने प्रस्ताव किया कि घर के सब नौकरों और कारखाने के चपरासियों को एल्गिन मिल की बनी हुई वर्दियाँ दी जाएँए तो मि. ईश्वर सेवक ने मारे क्रोधा के वह इंजीलए जिसे वह हाथ में लिए प्रकट रूप से ऐनक की सहायता सेए पर वस्तुतरू स्मरण से पढ़़ रहे थेए अपने सिर पर पटक ली और बोले—या खुदाए मुझे इस जंजाल से निकाल। सिर दीवार के समीप थाए यह धाक्का लगाए तो दीवार से टकरा गया। 90 वर्ष की अवस्थाए जर्जर शरीरए वह तो कहोए पुरानी हव्यिाँ थीं कि काम देती जाती थींए अचेत हो गए। मस्तिष्क इस आघात को सहन न कर सकाए अॉंखें निकल आईंए ओठ खुल गए और जब तक लोग डॉक्टर को बुलाएँए उनके प्राण—पखेरू उड़ गए! ईश्वर ने उनकी अंतिम विनय स्वीकार कर लीए इस जंजाल से निकाल दिया! निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनकी मृत्यु का क्या कारण थाए यह आघात या गृहदाहघ्

सोफिया ने यह शोक—समाचार सुनाए तो मान जाता रहा। अपने घर में अब अगर किसी को उससे प्रेम थाए तो वह ईश्वर सेवक ही थे। उनके प्रति उसे भी श्रध्दा थी। तुरंत मातमी वस्त्रा धारण किए और घर गई। मिसेज सेवक दौड़कर उससे गले मिली और माँ—बेटी मृत देह के पास खूब रोईं।

रात को जब मातमी दावत समाप्त हो गई और लोग अपने—अपने घर गएए तो मिसेज सेवक ने सोफिया से कहा—बेटीए तुम अपना घर रहते हुए दूसरी जगह रहती होए क्या यह हमारे लिए लज्जा और दुरूख की बात नहींघ् यहाँ अब तुम्हारे सिवा और कौन वली—वारिस है! प्रभु का अब क्या ठिकानाए घर आए या न आए। अब तो जो कुछ होए तुम्हीं हो। हमने अगर कभी कड़ी बात कही होगीए तो तुम्हारे ही भले की कही होगी। कुछ तुम्हारी दुश्मन तो हूँ नहीं। अब अपने घर में रहो। यों आने—जाने के लिए कोई रोक नहीं हैए रानी साहब से भी मिल आया करोए पर रहना यहीं चाहिए। खुदा ने और तो सब अरमान पूरे कर दिएए तुम्हारा विवाह भी हो जाताए तो निश्ंचित हो जाती। प्रभु जब आताए देखी जाती। इतने दिनों का मातम थोड़ा नहीं होताए अब दिन गँवाना अच्छा नहीं। मेरी अभिलाषा है कि अबकी तुम्हारा विवाह हो जाएए और गर्मियों में हम सब दो—तीन महीने के लिए मंसूरी चलें।

सोफी ने कहा—जैसी आपकी इच्छाए कर लूँगी।

माँ—और क्या बेटीए जमाना सदा एक—सा नहीं रहताए हमारी जिंदगी का क्या भरोसा। तुम्हारे बड़े पापा यह अभिलाषा लिए ही सिधार गए। तो मैं तैयारी करूँघ्

सोफिया—कह तो रही हूँ।

माँ—तुम्हारे पापा सुनकर फूले न समाएँगे। कुँवर विनयसिंह की मैं निंदा नहीं करतीए बड़ा जवाँमर्द आदमी थाय पर बेटीए अपनी धार्मवालों में करने की बात ही और है।

सोफिया—हाँए और क्या।

माँ—तो अब रानी जाह्नवी के यहाँ न जाओगी नघ्

सोफिया—जी नहींए न जाऊँगी।

माँ—आदमियों से कह दूँए तुम्हारी चीजें उठा लाएँघ्

सोफिया—कल रानीजी आप ही भेज देंगी।

मिसेज सेवक खुश—खुश दावत का कमरा साफ कराने गईं।

मि. क्लार्क अभी वहीं थे। उन्हें यह शुभ सूचना दी। सुनकर फड़क उठे। बाँछें खिल गईं। दौड़े हुए सोफिया के पास आ गए और बोले—सोफीए तुमने मुझे जिंदा कर दिया। अहा! मैं कितना भाग्यवान हूँ! मगर तुम एक बार अपने मुँह से यह मेरे सामने कह दो। तुम अपना वादा पूरा करोगीघ्

सोफिया—करूँगी।

और भी बहुत—से आदमी मौजूद थेए इसलिए मि. क्लार्क सोफिया का आलिंगन न कर सके। मूँछों पर ताव देतेए हवाई किले बनातेए मनमोदक खाते घर गए।

प्रातरूकाल सोफिया का अपने कमरे में पता न था! पूछ—ताछ होने लगी। माली ने कहा—मैंने उन्हें जाते तो नहीं देखाए पर जब यहाँ सब लोग सो गए थेए तो एक बार फाटक के खुलने की आवाज आई थी। लोगों ने समझाए कुँवर भरतसिंह के यहाँ गई होगी। तुरंत एक आदमी दौड़ाया गया। लेकिन वहाँ भी पता न चला। बड़ी खलबली मचीए कहाँ गई!

जॉन सेवक—तुमने रात को कुछ कहा—सुना तो नहीं थाघ्

मिसेज सेवक—रात को तो विवाह की बातचीत होती रही। मुझसे तैयारियाँ करने के लिए भी कहा। खुश—खुश सोई।

जॉन सेवक—तुम्हारी समझ का फर्क था। उसने तो अपने मन का भाव प्रकट कर दिया। तुमको जता दिया कि कल मैं न रहूँगी। जानती होए विवाह से उसका आशय क्या थाघ् आत्मसमर्पण। अब विनय से उसका विवाह होगाय यहाँ जो न हो सकाए वह स्वर्ग में होगा। मैंने तुमसे पहले ही कह दिया थाए वह किसी से विवाह न करेगी। तुमने रात को विवाह की बातचीत छेड़कर उसे भयभीत कर दिया। जो बात कुछ दिनों में होतीए वह आज ही हो गई। अब जितना रोना होए रो लोय मैं तो पहले ही रो चुका हूँ।

इतने में रानी जाह्नवी आईं। अॉंखें रोते—रोते बीरबहूटी हो रही थीं। उन्होंने एक पत्रा मि. सेवक के हाथ में रख दिया और एक कुर्सी पर बैठकर मुँह ढ़ाँप रोने लगीं।

यह सोफिया का पत्रा थाए अभी डाकिया दे गया था। लिखा था—पूज्य माताजीए आपकी सोफिया आज संसार से बिदा होती है। जब विनय न रहेए तो यहाँ मैं किसके लिए रहूँघ् इतने दिनों मन को धौर्य देने की चेष्टा करती रही। समझती थीए पुस्तकोंए में अपनी शोक—स्मृतियों को डूबा दूँगी और अपना जीवन सेवा—धार्म का पालन करने में सार्थक करूँगी। किंतु मेरा प्यारा विनय मुझे बुला रहा है। मेरे बिना उसे वहाँ एक क्षण चौन नहीं है। उससे मिलने जाती हूँ। यह भौतिक आवरण मेरे मार्ग में बाधाक हैए इसलिए इसे यहीं छोड़े जाती हूँए गंगा की गोद में इसे सौंपे देती हूँ। मेरा हृदय पुलकित हो रहा हैए पैर उड़े जा रहे हैंए आनंद से रोम—रोम प्रमुदित हैए अब शीघ्र ही मुझे विनय के दर्शन होंगे। आप मेरे लिए दुरूख न कीजिएगाए मेरी खोज का व्यर्थ प्रयत्न न कीजिएगा। कारणए जब तक यह पत्रा आपके हाथों में पहुँचेगाए सोफिया का सिर विनय के चरणों पर होगा। मुझे प्रबल शक्ति खींचे लिए जा रही है और बेड़ियाँ आप—ही—आप टूटी जा रही हैं।

मामा और पापा को कह दीजिएगाए सोफी का विवाह हो गयाए अब उसकी चिंता न करें।

पत्रा समाप्त होते ही मिसेज सेवक उन्मादिनी की भाँति कर्कश स्वर से बोलीं—तुम्हीं विष की गाँठ होए मेरे जीवन का सर्वनाश करनेवालीए मेरी जड़ों में कुल्हाड़ी मारनेवालीए मेरी अभिलाषाओं को पैरों से कुचलनेवालीए मेरा मान—मर्दन करनेवाली काली नागिन तुम्हीं हो। तुम्हीं ने अपनी मधूर वाणी सेए अपने छल—प्रपंच सेए अपने कूट—मंत्राों से मेरी सरला सोफी को मोहित कर लिया और अंत को उसका सर्वनाश कर दिया। यह तुम्हीं लोगों के प्रलोभन और उत्तोजना का फल है कि मेरा लड़का आज न जाने कहाँ और किस दशा में है और मेरी लड़की का यह हाल हुआ। तुमने मेरे सारे मंसूबे खाक में मिला दिए।

वह उसी क्रोधा—प्रवाह में न जाने और क्या—क्या कहतीं कि मि. जॉन सेवक उनका हाथ पकड़कर वहाँ से खींच ले गए। रानी जाह्नवी ने इस अपमानसूचकए कटु शब्दों का कुछ भी उत्तार न दियाए मिसेज सेवक को सहवेदना—पूर्ण नेत्राों से देखती रहीं और तब बिना कुछ कहे—सुने वहाँ से उठकर चली गईं।

मिसेज सेवक की महत्तवाकांक्षाओं पर तुषार पड़ गया। उस दिन से फिर उन्हें किसी ने गिरजाघर जाते नहीं देखाए वह फिर गाउन और हैट पहने हुए न दिखाई दींए फिर योरपियन क्लब में नहीं गईं और फिर ऍंगरेजी दावतों में सम्मिलित नहीं हुईं। दूसरे दिन प्रातरूकाल पादरी पिम और मि. क्लार्क मातमपुरसी करने आए। मिसेज सेवक ने दोनों को वह फटकार सुनाई कि अपना—सा मुँह लेकर चले गए। सारांश यह कि उसी दिन उनकी बुध्दि भ्रष्ट हो गईए मस्तिष्क इतने कठोराघात को सहन न कर सका। वह अभी तक जीवित हैंए पर दशा अत्यंत करुण है। आदमियों की सूरत से घृणा हो गई हैए कभी हँसती हैंए कभी रोती हैंए कभी नाचती हैंए कभी गाती हैं। कोई समीप आता हैए तो दाँतों काटने दौड़ती हैं।

रहे मिस्टर जॉन सेवक। वह निराशामय धौर्य के साथ प्रातरूकाल से संधया तक अपने व्यावसायिक धांधों में रत रहते हैं। उन्हें अब संसार में कोई अभिलाषा नहीं हैए कोई इच्छा नहीं हैए धान से उन्हें निस्वार्थ प्रेम हैए कुछ वही अनुरागए जो भक्तों को अपने उपास्य से होता हैए धान उनके लिए किसी लक्ष्य का साधान नहीं हैए स्वयं लक्ष्य है। न दिन समझते हैंए न रात। कारोबार दिन—दिन बढ़़ता जाता है। लाभ दिन—दिन बढ़़ता है या नहींए इसमें संदेह है। देश में गली—गलीए दूकान—दूकानए इस कारखाने के सिगार और सिगरेट की रेल—पेल है। वह अब पटने में एक तम्बाकू की मिल खोलने की आयोजन कर रहे हैंए क्योंकि बिहार प्रांत में तम्बाकू कसरत से पैदा होती है। उनकी धानकामना विद्या—व्यसन की भाँति तृप्त नहीं होती।

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अध्याय 50

कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगुना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं। उनके रोम—रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृध्दावस्था की आलस्यप्रियता यौवन—काल की कर्मण्यता में परिणत हो गई। कमर बाँधी और सेवक—दल का संचालन अपने हाथ में लिया। रनिवास छोड़ दियाए कर्म—क्षेत्रा में उतर आईं और इतने जोश से काम करने लगीं कि सेवक—दल को जो उन्नति कभी न प्राप्त हुई थीए वह अब हुई। दान का इतना बाहुल्य कभी न थाए और न सेवकों की संख्या ही इतनी अधिक थी। उनकी सेवा का क्षेत्रा भी इतना विस्तीर्ण न था। उनके पास निज का जितना धान थाए वह सेवक—दल को अर्पित कर दियाए यहाँ तक कि अपने लिए एक आभूषण भी न रखा। तपस्विनी का वेश धारण करके दिखा दिया कि अवसर पड़ने पर स्त्रियाँ कितनी कर्मशील हो सकती हैं।

डॉक्टर गांगुली का आशावाद भी अंत में अपने नग्न रूप में दिखाई दिया। उन्हें विदित हुआ कि वर्तमान अवस्था में आशावाद आत्मवंचना के सिवार और कुछ नहीं है। उन्होंने कौंसिल में मि. क्लार्क के विरुध्द बड़ा शोर मचायाए पर यह अरण्य—रोदन सिध्द हुआ। महीनों का वाद—विवादए प्रश्नों का निरंतर प्रवाहए सब व्यर्थ हुआ। वह गवर्नमेंट को मि. क्लार्क का तिरस्कार करने पर मजबूर न कर सके। इसके प्रतिकूल मि. क्लार्क की पद—वृध्दि हो गई। इस पर डॉक्टर साहब इतने झल्लाए कि आपे में न रह सके। वहीं भरी सभा में गवर्नर को खूब खरी—खरी सुनाईंए यहाँ तक कि सभा के प्रधान ने उनसे बैठ जाने को कहा। इस पर वह और अधिक गर्म हुए और प्रधान की भी खबर ली। उन पर पक्षपात का दोषारोपण किया। प्रधान ने तब उनको सभा—भवन से चले जाने का हुक्म दिया और पुलिस को बुलाने की धामकी दी। मगर डॉक्टर साहब का क्रोधा इस पर भी शांत न हुआ। वह उत्तोजित होकर बोले—आप पशु—बल से मुझे चुप कराना चाहते हैंए इसलिए कि आपमें धार्म और न्याय का बल नहीं है। आज मेरे दिल से यह विश्वास उठ गयाए जो गत चालीस वषोर्ं से जमा हुआ था कि गवर्नमेंट हमारे ऊपर न्यायबल से शासन करना चाहती है। आज उस न्याय—बल की कलई खुल गईए हमारी अॉंखों से पर्दा उठ गया और हम गवर्नमेंट को उसके नग्नए आवरणहीन रूप में देख रहे हैं। अब हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि केवल हमको पीसकर तेल निकालने के लिएए हमारा अस्तित्व मिटाने के लिएए हमारी सभ्यता और हमारे मनुष्यत्व की हत्या करने के लिए हमको अनंत काल तक चक्की का बैल बनाए रखने के लिए हमारे ऊपर राज्य किया जा रहा है। अब तक जो कोई मुझसे ऐसी बातें कहता थाए मैं उससे लड़ने पर तत्पर हो जाता थाए मैं रिपनए ह्यूम और बेसेंट आदि की कीर्ति का उल्लेख करके उसे निरुत्तार करने की चेष्टा करता था। पर अब विदित हो गया कि उद्देश्य सबका एक ही हैए केवल साधानों में अंतर है।

वह और न बोलने पाए। पुलिस का एक साजेर्ंट उन्हें सभा—भवन से निकाल ले गया। अन्य सभासद भी उठकर सभा—भवन से चले गए। पहले तो लोगों को भय था कि गवर्नमेंट डॉक्टर गांगुली पर अभियोग चलाएगीए पर कदाचित्‌ व्यवस्थाकारों को उनकी वृध्दावस्था पर दया आ गईए विशेष इसलिए कि डॉक्टर महोदय ने उसी दिन घर आते ही अपना त्याग—पत्र भेज दिया। वह उसी दिन वहाँ से रवाना हो गए और तीसरे दिन कुँवर भरतसिंह से आ मिले। कुँवर साहब ने कहा—तुम तो इतने गुस्सेवर न थेए यह तुम्हें क्या हो गयाघ्

गांगुली—हो क्या गया! वही हो गयाए जो आज से चालीस वर्ष पहले होना चाहिए था। अब हम भी आपका साथी हो गया। अब हम दोनों सेवक—दल का काम खूब उत्साह से करेगा।

कुँवर—नहीं डॉक्टर साहबए मुझे खेद है कि मैं आपका साथ न दे सकूँगा। मुझमें वह उत्साह नहीं रहा। विनय के साथ सब चला गया। जाह्नवी अलबत्ताा आपकी सहायता करेंगी। अगर अब तक कुछ संदेह थाए तो आपके निर्वासन ने उसे दूर कर दिया कि अधिकारी—वर्ग सेवक—दल से सशंक है और यदि मैं उससे अलग न रहा तो मुझे अपनी जाएदाद से हाथ धोना पड़ेगा। अब यह निश्चय है कि हमारे भाग्य में दासता ही लिखी हुई है...

गांगुली—यह आपको कैसे निश्चय हुआघ्

कुँवर—परिस्थितियों को देखकरए और क्या। जब यह निश्चय है कि हम सदैव गुलाम ही रहेंगेए तो मैं आपकी जाएदाद क्यों हाथ से खोऊँघ् जाएदाद बची रहेगीए तो हम इस दीनावस्था में भी अपने दुखी भाइयों के कुछ काम आ सकेंगे। अगर वह भी निकल गईए तो हमारे दोनों हाथ कट जाएँगे। हम रोनेवालों के अॉंसू भी न पोंछ सकेंगे।

गांगुली—आह! तो कुँवर विनयसिंह का मृत्यु भी आपके इस बेड़ी को नहीं तोड़ सका। हम समझा थाए आप निर्द्‌वंद्व हो गया होगा। पर देखता हैए तो यह बेड़ी ज्यों—का—त्यों आपके पैरों में पड़ा हुआ है। अब आपको विदित हुआ होगा कि हम क्यों सम्पत्तिाशाली पुरुषों पर भरोसा नहीं करता। वे तो अपनी सम्पत्तिा का गुलाम हैं। वे कभी सत्य के समर में नहीं आ सकते। जो सिपाही सोने की ईंट गर्दन मे बाँधाकर लड़ने चलेए वह कभी नहीं लड़ सकते। उसको तो अपने ईंट की चिंता लगा रहेगा। जब तक हम लोग ममता का परित्याग नहीं करेगाए हमारा उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा। अभी हमको कुछ भ्रम थाए पर वह भी मिट गया कि सम्पत्तिाशाली मनुष्य हमारा मदद करने के बदले उलटा हमको नुकसान पहुँचाएगा। पहले आप निराशावादी थाए अब आप सम्पत्तिवादी हो गया।

यह कहकर डॉक्टर गांगुली विमन हो यहाँ से उठे और जाह्नवी के पास आएए तो देखा कि वह कहीं जाने को तैयार बैठी हैं। इन्हें देखते ही विहसित मुख से इनका अभिवादन करती हुई बोली—अब तो आप भी मेरे सहकारी हो गए। मैं जानती थी कि एक—न—एक दिन हम लोग आपको अवश्य खींच लेंगे। जिनमें आत्मसम्मान का भाव जीवित हैए उनके लिए वहाँ स्थान नहीं है। वहाँ उन्हीं के लिए स्थान हैए जो या तो स्वार्थ—भक्त हैं अथवा अपने को धोखा देने में निपुण। अभी यहाँ दो—एक दिन विश्राम कीजिएगा। मैं तो आज की गाड़ी से पंजाब जा रही हूँ।

गांगुली—विश्राम करने का समय तो अब निकट आ गया हैए उसका क्या जल्दी है। अब अनंत विश्राम करेगा। हम भी आपके साथ चलेगा।

जाह्नवी—क्या कहेंए बेचारी सोफिया न हुईए नहीं तो उससे बड़ी सहायता मिलती।

गांगुली—हमको तो उसका समाचार वहीं मिला था। उसका जीवन अब कष्टमय होता। उसका अंत हो गयाए बहुत अच्छा हुआ। प्रणय—वंचित होकर वह कभी सुखी नहीं रह सकता। कुछ भी होए वह सती थीय और सती नारियों का यही धार्म है। रानी इंदु तो आराम से है नघ्

जाह्नवी—वह तो महेंद्रकुमार से पहले ही रूठकर चली आई थी। अब यहीं रहती है। वह भी तो मेरे साथ चल रही है। उसने अपनी रियासत के सुप्रबंधा के लिए एक ट्रस्ट बनाना निश्चय किया हैए जिसके प्रधान आप होंगे। उसे रियासत से कोई सम्पर्क न रहेगा।

इतने में इंदु आ गई और डॉक्टर गांगुली को देखते ही उन्हें प्रणाम करके बोली— आप स्वयं आ गएए मेरा तो विचार था कि पंजाब होते हुए आपकी सेवा में भी जाऊँ।

डॉक्टर गांगुली ने कुछ भोजन किया और संधया समय तीनों आदमी यहाँ से रवाना हो गए। तीनों के हृदय में एक ही ज्वाला थाए एक ही लगन। तीनों का ईश्वर पर पूर्ण विश्वास था।

कुँवर भरतसिंह अब फिर विलासमय जीवन व्यतीत कर रहे हैंए फिर वही सैर और शिकार हैए वही अमीरों के चोंचलेए वही रईसों के आडम्बरए वही ठाट—बाट। उनके धार्मिक विश्वास की जडें उखड़ गई हैं। इस जीवन से परे अब उनके लिए अनंत शून्य और अनंत आकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। लोक असार हैए परलोक भी असार हैए जब तक जिंदगी हैए हँस—खेलकर काट दो। मरने के पीछे क्या होगाए कौन जानता है। संसार सदा इसी भाँति रहा है और इसी भाँति रहेगा। उसकी सुव्यवस्था न किसी से हुई है न होगी। बड़े—बड़े ज्ञानीए बड़े—बड़े तत्तववेत्ताए ऋषि—मुनि मर गए और कोई इस रहस्य का पार न पा सका। हम जीव मात्रा हैं और हमारा काम केवल जीना है। देश—भक्तिए विश्व—भक्तिए सेवाए परोपकारए यह सब ढ़कोसला है। अब उनके नैराश्य—व्यथित हृदय को इन्हीं विचारों से शांति मिलती है।

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