कुछ कहने पे तूफान उठा लेती है दुनिया ....
ये दुनिया इतनी बड़ी नहीं कि मुट्ठी में न समा सके ....?
आप की वाणी इतनी सरल –सहज हो कि हरदम, ‘सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय’ की भाषा बोले | आजकल अनुवादक लोगो की भीड़ है |
बिना मिर्च-मसाला लगाए भी अनुवाद की अनंत गुंजाइश रहती है | आप संसार में छा जाने लायक कोई काम तो करें, कीर्ती का पताका दूर से नजर आने लगेगा |
पहले जमाने में अपनी मनवाने की एक ही भाषा होती थी | तलवार-भाले के साथ चंद विश्वासपात्रो को ले के निकल जाओ, लोग लाइन से झुकते चले जाते थे | वे सोचते भी न थे कि कौन आया, कौन गया | वे तलवार को बहुत सम्मान देते थे |
“दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुन गाओ’ वाला ज़माना था |
प्रभु के गुण, गाने देने में किसको एतराज होता भला ....? वे लोग परवाह नही करते थे कि कौन राम को भज रहा है, कौन रोजे में सजदा किए है, कौन बाइबिल में प्रभ इशु के वचनों को सुन –सुना रहा है | ये वो ज़माना था जब इलेक्शन नहीं होते थे | कोई इलेक्शन करवाने वाला मुहकमा नहीं होता था |
जिनको भी हुकूमत करने की इच्छा होती थी वही ‘शेर’ बन के जितनी दूर तक टहलना होता था टहल आया करता था|
आजकल अपनी तरफ, लोकतंत्र का हर पांच साल में, “हेप्पी बर्थ डे” मनाने का जो सिलसिला चालु हुआ है, वो दिन-ब दिन खर्चीला और तू-तू, मै-मै स्टाइल के ‘लुगी डांस’ में समाप्त होने जैसा, हो गया है |
आपने कभी सोचा है......? लोकतंत्र की राह, ”बहुत कठिन डगर पनघट की” स्टाइल का ‘टफ’ हो गया है|
ज़रा उन महिलाओं की सोचे जो पनघट से जल भरने मटकियां ले के जाया करती थी... |
कोलतार का जन्म, चूँकि कोई घोटाला नहीं हुआ था, इसलिए हो नही पाया था, और शायद इसी कारण कोई भी सड़क या सडकें डामर रोड वाली सड़क उन दिनों, नही कही जाती थी | बहरहाल, कच्ची पगडंडी नुमा सड़के, पनिहारिनो को मुहया थी | नदी, तालाब, पोखर, कुओ के पानी में कोई अवगुण बताने वाला पत्रकार नहीं पैदा हुआ था, अत; वो सब पानी बिना पीलिया-भय के पीने के काबिल हुआ करता था | मवेशी धोते चरवाहे से सुख-दुःख बतियाती वे महिलायें, बिलकुल बाजू से पानी भर के निकल जाया करती थी |
पनघट के रास्ते में कष्ट था तो बस, छिछोरे कन्हैय्या नुमा लौंडो का | हरामी स्साले महीने में एक या दो तो, छिप-छिपा के फोड ही देते थे| कभी सामने आते तो उनको नानी याद दिलवा देते |
गाव में न पंचायत थी न मंनरेगा | जरूरत भी कहाँ होती थी ..? खेत से अनाज, घर की बाड़ी से शाक-भाजी का मिलना बस ६५काफी होता था | राशन के लिए लंबी-लम्बी लाइन नही लगती थी उन दिनों.. |
एक अध्याय जैसे समाप्त हो गया ....| आज मीडिया है .....?
ये मीडिया, बहुत कुछ हमारी बुआ की याद दिला देते है | उनके पेट में क्या खलबली होती थी कि किसी से भी सुनी बात घंटे –आध घंटे उनके पेट में रह जाए तो बवाल आ जाता था | पूरे गाँव में ढिढोरा पीट लेने के बाद शांत होती थी | बाहर दोनों पार्टी, एक जिनके बारे में कहा गया, दूसरे जिनको सुन के दूसरों से नमक-मिर्च लगा के सुनाया, कलह-कुहराम होते रहता था | बुआ अपनी तर्क क्षमता प्रदशित कर दोनों को शांत करती, यानी बोलने का मतलब ये नहीं वो था, , , , , |
आज मीडिया का रोल यूँ है कि उम्मीदवार ने जैसे ही कुछ कहा, शाम को प्रेम टाइम में, ये चार लोगों के पेनल बिठा के, पोस्ट-मार्टम, छिछा-लेदर में लग जाती है | इसमें ‘छी और छा’ के साथ-साथ ‘लेदर’ उतारने का काम बखूबी होता है |
किसी ने कहा लोग अय्याशी करते हैं, इसलिए महंगाई बढ़ रही है, हमारी पार्टी सत्ता में आई तो हम अय्याशी के खिलाफ कानून बना के निपटेंगे |
किसी ने अगर कह दिया, कि वो ‘नीची’ राजनीति कर रहे है, तो अगले ने उसे जातिगत टिप्पणी से जोड़ के हल्ला बोल दिया |
एक फिल्मी प्रसंग याद कर लें यहाँ, होता यूँ है कि फ़िल्म पड़ौसन में हीरो गाना सीखने, गुरु किशोर कुमार के संपर्क में आते हैं | गुरु दो-चार अन्य शिष्यों की मौजूदगी में कहते हैं, बागाडू, ज़रा एक-आध गाने का गा के नमूना तो बताओ ……? हीरो, बेहूदे और कुछ ऊँची आवाज में शुरू हो जाता है लिस पर किशोर जी कहते हैं, बांगडू, ज़रा नीचे ....नीचे से रे........
हीरो तत्काल, उची आसंदी से उतर के नीचे बैठ के अलाप लेने लगता है....... | किशोर जी उनके अलाप लेने के तरीके से चौक जाते हैं |
हीरो सुर को नीची करने की बजाय, खुद नीचे बेसुरे राग के साथे अलाप लगाते मिले| गुरु ने बंठाधार वाला माथा ठोक लिया|
वहाँ अज्ञानता थी, भोलापन था| यहाँ चालाकी, चतुराई और पालिटिक्स है...... | अपनी- अपनी बारी को सब भुनाने में लगे हैं, जिसे जो हाथ लग जाए .....?
कोई राम-राज की बात कह रहा तो, कोई अजान सुनते ही भाईजान को याद कर रहा है |
सब अपने –अपने में मस्त, मगर बोलने से चूक नहीं रहे | मार-काट की भाषा, वादों का हुजूम, उसने ये दिया, तो मेरी तरफ से, उसके बावजूद ये भी रख |
बिना योजना वाले लोग हैं, जो सामने है, वही लुटाने को तैयार | जीतने के बाद सरकारी खजाना भले दो दिन चले, हमे क्या ....?
“सेवन-बाई सेवन” वालों ने यही किया, दुनिया-भर के वादे किए, बटुआ खोल देखा तो धरती खिसकती दिखी | भाग लिए ...|
हर रोज नए किस्से, नई कवायदें, नया रोग, नई नस्ल, नया आतंक ....| इलेक्शन खत्म होते तक डिक्शनरी में शब्दों के कई मायने बदल जायेंगे | किसी शब्द, भाव, वाक्यांश या मुहावरे के, ”बिटवीन द लाइन” क्या क्या अर्थ हो सकते हैं बताया जा सकता है | नोट में जैसे संज्ञा, विशेषण, क्रिया के अलावा ये भी लिखा जा सकता है .चुनाब भावार्थ ....|
आगे दुनिया बहुत पडी है | इस देश में कई इलेक्शन आयेगे ....मगर आज जरूरत इस बात की है कि लोकतंत्र की रक्षा या, इसके चलाने वालों के चाल-चलन और चरित्र, पर लंबी बहस की जाए |
खतरा सामने है, ड्राइविंग सीट पे जो बैठे, आहिस्ता चले, सबको ले के चले, धीमे चले ....? कहते हैं दुर्घटना से देर भली .....|
ज्यादा क्या कहें, कुछ कहने पे तूफान उठा लेती है दुनिया .......?