ख्वाबो के पैरहन
संतोष श्रीवास्तव
प्रमिला वर्मा
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पार्ट — 1
चूल्हे के सामने बैठी ताहिरा धीमे—धीमे रोती हुई नाक सुड़कती जाती और दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछती जाती। अंगारों पर रोटी करारी हो रही थी। खटीया पर फूफी अल्यूमीनियम की रकाबी में रखी लहसुन की चटनी चाटती जा रही थी— श्अरीए रोटी जल रही है..... दे अब। रोती ही जाएगी क्याघ्श्
ताहिरा ने आँखें पोंछीं और रोटी की राख झाड़ फूफी को पकड़ा दी.....बसए आखिरी दो लोई बची है। फूफी हमेशा अंत में खाती हैंए जब सब खा चुकते हैं। यों भी घर में रहता ही कहाँ है कुछ..... रोज का कुआँ खोदनाए रोज का पानी पीना। तभी दड़बे से निकलकर दो मुर्गियाँ लड़ने लगीं और उनमें से एक उड़ती हुई फूफी की रकाबी पर लद्द से गिर पड़ी।
श्सत्यानाश हो करमजलियों का.....सारा खाना बेकार कर दिया।श् फूफी ने रकाबी पटक दी और उसी खटीया पर चित्त लेट गई।
ताहिरा अपना दुख भूल गई। फूफी भूखी रहें यह दुख अधिक तीखा था। पिछले दो दिनों से वह हर पल रोई है। हर पल अपने नसीब पर हँसने और रोने को जी चाहा है.....कैसी विकट स्थिति हो गई। हाथ पसारे सुख और किर्च—किर्च होता ख्वाब। ख्वाब जो जन्नत और परीजादियों से भी ज्यादा हसीन है और जिसमें उसे अपनी हर धड़कन पर सौ—सौ ताजमहल नजर आते हैं। खुदा उसे ही क्यों ये दिन दिखा रहा है। आँखों का ज्वार कितनी बार उमड़ा है.....कितनी बार आहों की गर्म छुअन से होंठ पपड़ाये हैं। कोई कांधा होता और वह सिर टीका कर रो लेती।
मुर्गियाँ फिर फड़फड़ाईं। उसने कोने में टीकी लकड़ी उठाई और हुश—हुश करती मुर्गियों को दड़बे में बंद कर आई.....दड़बे क्या थेए आँगन में रखे लकड़ी के खोखे थे। भाई जान ने उन पर लोहे की जाली ठोक दी थी जो ऊपर—नीचे सरकती थी। इन्हीं में मुर्गियाँ रहती थीं। कुल जमा छः। थी तो दो दर्जनए पर पिछले हफ्ते जाने किस रोग में सबकी सब मर गईं। बस छः बचीं। मुर्गियों को बंद कर उसने बाकी की दो लोइयाँ बेलीं और अंगारों पर रखकर फूफी के पास आई। वे दुपट्टे से मुँह ढ़ँके लेटी थीं।
श्फूफी! उठो.....खा लो।श्
श्जाने देए अब है ही क्या जो खाऊँ.....खुदा ने जमाने भर की गरीबी हमारे ही दुपट्टे में बाँधी है।श्
ताहिरा खुद ही कौर बना—बना कर फूफी को खिलाने लगी। लहसुन की चटनीए ज्वार की गरम रोटीयाँ उर ताहिरा का प्यार.....फूफी में जान—सी आ गई। वे ताहिरा को निहारने लगीं। गोरा सुतवाँ चेहराए बड़ी—बड़ी पलकें.....सुन्दर भरे—भरे से गुलाबी होंठ.....नाजुक—सी गर्दन— ष्या अल्लाह! इतना नूरए इतना शबाब इस झोपड़ी में क्यों सकेला तूनेघ् इस शबाब को छुपाने लायक हमारे दुपट्टे का हौसला कहाँघ्ष्
एका—एक फूफी के दिमाग में बिजली तड़प उठी.....खिरचा कियाए फिर आठ दस कुल्ले किये और भाभी के सिरहाने से पानदान उठाकर पान लगाने लगीं। भाई—जान खा—पीकर तखत पर सो रहे थे और उनके पांयते भाभी सिकुड़ी हुई लेटी थीं। ताहिरा ने चूल्हा ठंडा कर पोताए बर्तन माँजे और चटाई बिछाकर लेट गई। फूफी के सरौता चलाने की आवाज से भाईजान ने करवट बदली।
श्जाग रहे हो क्या भाईजान! ऐ भाभी.....! जाने कैसे आप लोग आराम से सो रहे हैंघ् मेरे दिल में तो हौल—सा उठ रहा है।श्
श्सोये कहाँ हैं रन्नी बीए जो तुम सोच्च रही हो वही हम भी सोच रहे हैं। नींद—चौन सब उड़ गया।श् भाभीजान ने उठते हुए कहा।
भाईजान भी तकिये पर सीधे हो गये। हवा तेज चली तो गोबर से लिपा कच्चा आँगन नीम के पीले पत्तों के साथ चरमरा उठा।
श्भाईजानए हम लोगों के घर इत्ता अच्छाए अमीर खानदान का रिश्ता आया हैए क्या आपको इसमें खुदा की मरजी नजर नहीं आतीघ्श्
श्हाँए ण्ण्ण्ण्ण्चूल्हे की क में मिला दो लौंडिया कोए ऐसी भी क्या अमीरी देखनाघ्श् भाभीजान ने कहा।
श्अयए ण्ण्ण्ण्ण्हयए ण्ण्ण्ण्ण्ऐसी क्या बात है भाभीजान जो खार खा रही होघ् अपनी औकात भी तो देखो.....खाने के लाले पड़े रहते हैं.....उधर ताहिरा राज करेगी। दुबईए मस्कत व्यापार फैला है। नामी—गिरामी लोग हैं। हमारी किस्मत जो अपनी बच्ची पसंद आई वरना.....श्
श्रहने भी दो रन्नी बीए व्यापार तो तुमने देखा पर क्या उम्र भी देखीघ् सिर पर बैठी दो—दो सौतनें देखींघ् पूरे पचास का है और हमारी बिटीया सत्रह की।श् भाभीजान ने कहा।
भाईजान उठ बैठे। श्पान तो दो रन्नी.....अपनेई फैसले किये जा रही हो तुम दोनोंए ये समय बहस का नहीं सोचने का है।श्
श्वोई तो मैं कह रही हूँ.....भाभी तो बस सोचें न समझें.....कह दें जो मूँ में आई।श् कहती फूफी पान लगाने लगीं।
श्क्यों न बोलूँघ् अम्मा हूँ उसकीघ् देख सुनकर मक्खी निगल लूँघ्श्
अबकी बोलने की बारी भाईजान की थी पर वे चुप लगा गये। गरीबी और भुखमरी को देखते हुए वे शायद इस रिश्ते को मन ही मन कबूल कर चुके हैं। वे सोच रहे थे सत्रह साल की ताहिरा अनुकूल वर से ब्याह दी गई तो भी क्या वे शादी का खर्च उठा पायेंगेघ् किसके सामने झोली फैलायेंगेघ् दोनों बेटे हर महीने माल—असबाब लेकर घर से चलते हैं और फुटपाथ पर दुकान लगाकर माल बेचते हैं। वापस लौटकर फिर वही मेहनत.....। रात—दिन कुटाई—पिसाई.....कागज को भिगोनाए मथनाए फिर तैयार मिट्टी को खिलौनों के साँचे में भर कर आँगन में लाइन से सूखने रखना। औरतें उन्हें रंग—बिरंगा रूप देती हैं। किन्तु अब यह धन्धा चलता नहीं। बाजार में मिट्टी के खिलौनों की माँग नहीं है। अब तो प्लास्टिक के एक से एक खिलौने चले हैं कि देखकर बड़ों का भी मन एक बार बचपन की ओर लौटने को करता है। टीन के चाबी वाले खिलौने भी चल पड़े हैं.....सभी जगह तेजी और हड़बड़ाहट है। मिट्टी के खिलौनों को पूछता कौन हैघ् नहीं तोए क्या शान थी इनकीघ् तरह—तरह के जानवरों का साँचा है उनके पास। पेपरए फूस कूटकर मिलीए खूब रौंदी चिकनी मिट्टी को साँचों में भरकर जब दोनों बेटे मिट्टी को आकार देते हैं तो देखते ही देखते चिड़ियाघर साकार होने लगता है। शेरए भालूए तोताए मैनाए कुत्ताए बिल्ली.....बहुओं के हाथ में हुनर था.....एकदम असली लगते जानवरए ऐसा रंग लगाती उन पर। इन खिलौनों से ही पता चलता था उनका खानदान.....। बाबा तो अपने नाम के आगे अपना धंधा जोड़कर चलतेए ष्सज्जाद अली खिलौने वाला।ष् आज के जमाने में अब पीढ़़ियों पहले का नाम मौजूँ लगता हैघ् अब तो रेशमवालाए दारूवालाए ऊँटवालाए जरीवाल.....मुए सरनेम हुआ करे हैंए तब की बात ही और थी.....। हाट में उनकी जगह रिजर्व रहती। हर हाट में तखत पर तरह—तरह के खिलौने सजाये जाते.....इतने बिकते कि शाम तक आये बच्चे निराश घर वापस जाते। अब भी भाई जान के बेटेए नूरा और शकूरा मेलेए हाट में खिलौने बेचने जाते हैं.....खासकर दिवालीए दशहरा और ईद के दिनों में अच्छी बिक्री हो जाती हैए तब घर में जश्न सा मनता है.....सबके लिए कपड़े बनवाये जाते हैं..... हंडिया में पूरा दो किलो मीट पकता हैए गेहूँ की रोटीयाँ बनती हैं। कभी इच्छा हुई तो शीरकुरमा भी बन जाता है.....खासकर तब जब भाईजान बाजार से लौटते हुए खोपरे की भेली और चिरौंजी ले आते हैं। बाकी समय फिर वही ढ़ाक के तीन पात। कुढ़़न और निराशा में जिन्दगी गुजर रही है।
यह मकान भी अब गिरने को है। वैसे इसे मकान कहना भी मकान का मजाक उड़ाना है। मकान में सिर्फ एक बड़ा कमरा और रसोई घर है। जब दोनों बेटों की शादी हुई तब बड़े कमरे के आगे एक कमरा और बनाया गया। कच्चाए खपरैल वाला। जिसमें बाँस के ऊपर टाट का एक पर्दा डालकर कमरे का विभाजन कर दिया गया। एक तरफ नूरा और उसकी बीवी जमीला सोते थे और दूसरी तरफ शकूरा अपनी बीवी सादिया के साथ पड़ा रहता। अपने में मस्तए दीन दुनिया का होश नहीं। जो बिका उससे पाँच—छैरू महीने पेट—अधपेट रह गुजर ही जायेंगेए सो अभी से क्या बिसूरना.....ए काहे की चिन्ता परेशानीघ्ण्ण्ण्ण्ण् नतीजा यह हुआ कि बेरोक टोक बच्चे पैदा करती गईं जमीला और सादिया। यूँ भी गरीबों की आस ही इसी में कि जितने हाथ उतनी अधिक कमाईए पर किसी ने यह न सोचा कि उन हाथों को परिश्रमी बनाने के लिए खुराक चाहिए जिसका कोई इंतजाम नहीं। नूराए शकूरा मिट्टी कूटने के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं पाये। भाईजान रेडीमेड कपड़े फुटपाथ पर बेचकर बारह लोगों की गृहस्थी घसीट रहे थे। फूफी सिलाईए बुनाई—कढ़़ाईए गोटा—सलमा—सितारे टाँक कर चाय—नाश्ते का इंतजाम कर लेती थी। दिनभर उँगलियों में सुई दबी रहती। कभी शादी का जोड़ा तैयार हो रहा है तो कभी ईद—बकरीद के कपड़े.....अब तो उनकी कशीदाकारी के चर्चे बड़ी कॉलोनियों में भी होने लगे हैं। अमीरजादियों के सलवार—कुर्ते और साड़ियों पर कढ़़ाई करने का अॉर्डर भी मिलने लगाए पर हो कहाँ पाता है उतना। तबीयत नासाज रहती है। कुछ न कुछ लगा ही रहता है शरीर से। कभी खाँसीए कभी जोड़ों का दर्द.....कभी सिरदर्द। आँखें भी कमजोर हो गई हैं। चश्मे की जरुरत है पर आज—कल में टाल देती हैं फूफी। अपने ऊपर तो खर्च करना जानती ही नहीं वे। अल्लाह ने न जाने क्यों दुनिया में भेजा उन्हेंघ् न पति का सुख देखा न औलाद का। कम उम्र में विधवा हो भाई की छाती पर आ बैठीं। खुदा उम्रदराज करे भाईजान को। चेहरे पर शिकन तक नहीं आये कभी। जैसे ताहिराए नूराए शकूरा वैसी ही लाड़ली फूफी हैं उनकी। भाभीजान भी कुछ नहीं कहतीं.....भले ही छप्पर फूस का है पर लहजा—लिहाज उच्च घराने जैसा है। बातों में सलीकाए आपस में प्यार मुहब्बत.....एकता.....यही सब देखकर और ताहिरा की खूबसूरती देखकर ही तो डायमंड व्यापारी भरत शाह ने शाह जी तक उनके खानदान की चर्चा भेज दी थी।
भरत शाह के घर फूफी के कशीदा किये कपड़ों की बड़ी माँग थी। सालों से जा रही हैं फूफी उनके घर.....कितनी चादरेंए साड़ियाँए गिलाफए कमीजें काढ़़—काढ़़ कर फूफी ने दी हैं उन्हें.....। आज उन्हीं के द्वारा सुझाया गया आलीशान रिश्ता आया है ताहिरा के लिए। भाईजान बड़े पशोपेश में थे सो एक ट्रक ड्राइवर के हाथ संदेश भेजकर नूरा—शकूरा को वापस बुलवा लिया था। माल बेचे बगैर वे वापस लौट आये थे। दो दिन हो गये रिश्ता आयेए कल तक उत्तर देना है। सभी सोच रहे थेए इतने बड़े घर से रिश्ता आना न जाने किस पुण्य का सबाब था। सभी को लग रहा था कि ताहिरा के कारण ही उनकी जिन्दगी सँवरने वाली है। शकूरा ने तो दुबई जाने का ख्वाब भी देख डाला था। लेकिन भाभीजान अड़ी बैठी थीं।
श्जरा ताहिरा की सूरत तो देखोए लगता है शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया है। अरे! सत्रह बरस की जान क्या समझती नहीं कि उसे बच्चा पैदा करने की मशीन बना कर भेजा जा रहा है।श्
वे अपनी भारी आवाज में चीख—सी रही थीं। कोई कुछ सुनने को तैयार न था। बसए एक तरफ ताहिरा थी जो चुपचाप रोये जा रही थीए दूसरी तरफ पूरा परिवार दोनों बेटेए बहुएँए फूफी.....। केवल भाभीजान रिश्ते के खिलाफ थीं और भाईजान चुप थे। इंतजार कर रहे थे कि फैसला अपने आप हो जाये।
शाम हो रही थी। ढ़लती धूप की किरणें खपरों से छन—छन कर कमरे के भीतर आ रही थीं। सुबह तो खैर—गुजर ही जाती पर दोपहर की धूप में तपिश रहती। जब हवा नम होती तो अच्छा लगता वरना इस तपिश में सब बेचौन से रहते.....शाम को अधिक। सुबह और शाम मिट्टी छानने का काम किया जाता। दोपहर की कड़ी धूप में दोनों बेटे और भाईजान साँचों में से खिलौने निकालते। सूखने पर रंग—रोगन किया जाता था। बरसात में तो इस घर का और भी बुरा हाल हो जाता था। तब यह कमरा देहात की तलैया का रूप धारण कर लेता था। हर साल वे लोग कमरे की सीलिंग पक्की कराने की सोचते और हर साल बात टल जाती। अब जबकि इतने अमीर घराने से रिश्ता आया है और भरपूर आर्थिक मदद मिलने का भी वादा है तो पूरा परिवार अपने—अपने ढ़ंग से सोच रहा है। बस फूफी ही जानती हैं कि ताहिरा को इस रिश्ते से इंकार क्यों हैघ् शाम घिरती आ रही है.....अँधेरे के विस्तार में प्रश्न उछल रहा है.....ष्कल उत्तर देना है.....कल उत्तर देना है।ष्
ताहिरा की इंकारी परए नूरा—शकूरा क्रोध से बरस चुके थे। जमीला और सादिया मन ही मन सास और ताहिरा को कोसती टाट के पर्दे के पीछे अपने कोनों में दुबक गई थीं। भाभीजान तखत पर पड़ीए लम्बी—लम्बी साँसें भर रही थीं। कभी बौखलाकर उठ बैठतीं और जल्दी—जल्दी पंखा झलने लगतीं। फूफी ही बात को सम्हाल सकती हैं। सभी जानते हैंए फूफी को खुद भी इच्छा थी कि ताहिरा अमीर खानदान में ब्याह दी जाये। अपनी सैंतालीस वर्ष की जिन्दगी में उन्होंने कभी अच्छे दिन नहीं देखे थे। चौदह वर्ष की थीं तभी उनका निकाह पैंतीस वर्षीय दुहिजवें मर्द से कर दिया गया था। डेढ़़—दो साल वे पति के साथ रहीं और रात—दिन औलाद न होने के गुनाह के कारण प्रताड़ित की गईं। शराब की लत से लीवर फेल हो जाने और शरीर का बुखार दिमाग तक पहुँच जाने के कारण उनके पति की मृत्यु हो गई। भाईजान उन्हें हमेशा के लिये अपने घर ले आये। तबसे आज तक वे लगातार तीस बरसों से यहाँ रह रही हैं। आते ही उन्होंने घर का काम ऐसा सम्हाला कि भाभीजान तो तखत से नीचे उतरी ही नहीं। भाभीजान ही नहींए बल्कि पूरे घर के लिये फूफी जरुरत बन गईं। वे हैं भी इतनी होशियार और समझदार कि सब उनका लोहा मानते हैं। मुहल्ले भर की खोजखबर रखती हैं वे। कभी वे भाईजान पर बोझा नहीं बनीं। आधी—आधी रात तक कपड़ों पर कशीदा काढ़़तींए तिल्लेए गोटेए मुकेशए सलमा—सितारे टाँकने का काम करतीं। इतनी मेहनत में भी कभी अच्छा खाने पहनने की सुध नहीं रही। लेकिन दूसरों के लिये अच्छा करने की चाह थी। भाईजान के परिवार को फूफी अपने रोएँ—रोएँ से चाहती थीं और क्यों न हो ऐसाघ्ण्ण्ण्ण्ण्ढ़हते—टूटते किनारे को थामा था भाईजान ने वरना फूफी की जिन्दगी की नदी तो कबकी जमीन में समा जाती। रह जाती चिटकती तलहटी की ढ़ूह। फूफी अपनी जिन्दगी का मतलब तलाशते—तलाशते स्वयं बेमतलब हो उठी हैं। भाईजान के झुके कंधों पर रखा खानदान का बोझ फूफी को रुला डालता। भरत शाह के जरिये आई रिश्ते की बात ने इसीलिए तो फूफी को मथ डाला था। ऐसा नहीं कि ताहिरा से प्यार नहींए यह भी नहीं कि उसे जानबूझकर आग में झोंक रही हैं वे.....। अरेए आग कैसीघ् हर औरत माँ बनती है.....चाहे ताहिरा—सी नाजुक हो या भाभीजान—सी अक्खड़। फिर भरापूरा खानदानए ऐश—आराम के साधन। मर्द का क्या उमर देखना.....और तीन शादियाँ तो इस्लाम में जायज हैं। वजह है न इसकीए औलाद का न होना। शाह जी के इतनी बड़ी मिल्कियत का वारिस नहींए इसीलिये तो इस शादी का प्रस्ताव है। वो तो कहो फूफी की बदौलत उस घर तक पहुँच हुईए वरना गरीबों को पूछता कौन हैघ्
सबकी नजर फूफी पर लगी थी। इस संकट से वे ही उबार सकती हैं। या तो शाह जी को सीधी इंकारी या ताहिरा की रजामंदी.....। ताहिरा राजी हो जाये तो भाभी भी मान जायेंगी। फूफी ने हिम्मत बटोरी और चटाई पर लेटी ताहिरा को हलके से हिलाया— श्ताहिरा! सुन तो जरा बेटी।श्
ताहिरा कुनमुनाई— श्ऊँ.....सोने दो न फूफी.....अभी तो लेटी हूँ।श्
श्चल! ज्यादा बहाने मत बना। रोई ही है सुबह से और कहती है अभी सोई है। चल नीम की छाँव में चलते हैं। तोते बैठे हैं डालों पर.....देखेगी नहीं।श्
फूफी नन्ही बच्ची—सा बहलाकर ताहिरा को आँगन में ले आईं। भाभीजान ने अपनी बात चलती न ।।देख मुँह पर दुपट्टा लपेटा और तखत पर लुढ़़क गईं। भाईजान उठकर बाहर चल दिये। फूफी ने दड़बों से टीकी खटीया नीम की छाँव में बिछा दी। पतझड़ का मौसम था। नीम के पत्तेए सड़क के किनारे लगे आम—जामुन आदि पेड़ों के पीले पत्ते भी झरकर हवा में उड़ते और आँगन में बिछ जाते। सुबह—शाम आँगन झाड़ना पड़ता। फूफी के लिये तो यही आँगन बैठक और शयनकक्ष है। अंदर बहुएँ—भाभीजानए फूफी ने कभी दखल नहीं दिया उनकी आजादी में। जब बरसात आतीए वे छोटेसे बरामदे में अपनी खटीया डाल लेतीं। आँगन जहाँ खतम होता है वहाँ ढ़लान पर चौड़ी खाई—सी है। खाई में झाड़—झँखाड़ उगा है.....। दो—तीन शीकाकाई के काँटेदार दरख्त हैं। फूफी हरी—हरी शीकाकाई की फलियाँ तोड़कर आँगन में सुखातीं। घर की सभी औरतें उसी शीकाकाई से सिर धोती थीं। शीकाकाई से धुले ताहिरा के रेशमी बालों वाला सिर उन्होंने अपनी गोद में समेटा और प्यार से चुम्बन लिया। आँख की सीध में नीम की झुकी डाल पर दो तोते बैठे थे। कोई और दिन होता तो ताहिरा मस्ती में भरकर सीटी बजाते हुए तोतों से बात करती— ष्मियाँ मिट्ठूए मियाँ मिट्ठूष् किन्तु आज जबान खुश्क थी। उसने भर नजर फूफी को देखा। चकित आँखों में प्रश्न हैं.....या उठते बवंडर का आभास.....ष्फूफी तुम जानकार तो हो।ष्
श्बेटीए तू कहेगी तभी मुझे पता चलेगा क्याघ् अरी पगलीए मैं तो तेरी हर साँस से वाकिफ हूँ.....। बताए वह कल का छोकरा फैयाज क्या सुख देगा तुझेघ्श्
ताहिरा ने चौंककर फूफी को देखा—श्तुम तो सचमुच फूफी.....श्
श्हाँए सब जानती हूँ मैंए मेरे जिगर के टुकड़े। टूटे—फूटे घर में रहता है फैयाज.....। बी. ए. की परीक्षा की तैयारी कर रहा है.....। तुझसे छुप—छुप कर मिलता है। कभी चर्च के पीछे की करौंदे की झाड़ियों के पास.....कभी मंदिर की ढ़लान पर।श्
ताहिरा की आँखें विस्फारित हो उठीं। उसने फूफी के गले में बाहें डाल दीं और बेतहाशा चिपक गई।
श्अरी मेरी मुनियाएण्ण्ण्ण्ण्इस उमर में सही—गलत की पहचान थोड़ी रहती है.....। तू क्या सोचती है बी. ए. करते ही उसकी किस्मत खुल जायेगीघ् उधर गाँव में उसकी बहनए अम्मीए अब्बू सब आस लगाये बैठे हैं। ऐसे क्या सुरखाब के पर लग जायेंगे उसमें कि वह तुझे रानी बनाकर रखेगाघ्श्
श्फूफीए मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ। और कुछ सोचा नहीं कभी।श्
श्नहीं सोचा तो अब सोच। होश में आ। जिन्दगी को परे रखकर नहींए सामने रखकर सोच।श्
ताहिरा जो छोटी—छोटी हिचकियों के साथ रोने लगी थीए अचंभित हो उठी। फूफी को इतना सब मालूम है फैयाज के बारे में और वह सोचती थी कि उसका बड़ा रहस्यमय प्यार है। लेकिन एहतियात के बावजूद कुछ छुपा न था फूफी से। ताहिरा जानती थी अब्बू शायद निकाह के लिये राजी हो भी जायें पर अम्मी नहीं। उनके उसूलों से घर की ईंटें तक काँपती थीं। अगर उनको पता चल गया हो तोघ्
श्फूफी तुमने अम्मी को कुछ बताया तो नहींघ्श्
श्अरे नहीं! पागल हुई है क्याघ् तू मेरी बेटी हैए तेरी शिकायत करूँगीघ्श्
ताहिरा फूफी से लिपटकर जार—जार रो पड़ी। फूफी समझ चुकी थीं कि उनका चलाया तीर सही मर्म पर लगा है। ताहिरा शाह जी का रिश्ता मान जायेगी। वे उसका सिर सहलाती रहीं।
आँसू थमे तो ताहिरा ने अपनी हिरनी—सी आँखें फूफी के चेहरे पर टीका दीं— श्लेकिन फूफीजानए उनकी तो पहले ही दो बीवियाँ हैंघ् मुझे डर लगता है फूफीए इतने बड़े मर्द से।श्
श्ताहिरा.....मेरी गुड़ियाए तुझे ऐसे तो न भेज देंगे। पहले सारी तहकीकात करेंगे। मैं खुद जाकर सब देख आऊँगी। जँचेगा तो हाँ कहूँगी। कोई जबरदस्ती थोड़े ही है।श् पल भर खामोशी छाई रही। डाल पर बैठे तोतों ने पंख फड़फड़ाये और घर के पिछवाड़े को घनी अमराई की ओर उड़ गये। फूफी उठींए ताहिरा के गालों को आँचल से पोंछाए फिर चुम्बन लिया और बोलीं— श्चल! अदरक वाली चाय पिलाती हूँ तुझे।श्
ताहिरा समझ चुकी थी कि दोनों भाई जानए तेज—तर्रार भाभियों और अम्मी के आगे उसकी एक नहीं चलेगी। यदि गलती से भी फैयाज का नाम अम्मी के सामने रख दिया तो वे उसे फाड़कर रख देंगी। फिर उसका साथ ही कौन देगा। थोड़ी रही सही आशा फूफी से थी वह भी जाती रही।
फूफी चाय बनाने चली गई थीं। अँधेरा पूरी तरह फैल चुका था.....मानो यह अँधेरा आने वाले कल का प्रतीक था जब उसके साथ फैयाज नहीं होगाए प्यार से शराबोर उसका वजूद नहीं होगा।.....न कहीं पत्तों की खड़कन होगीए न हवा का शोर।.....मानो डाल के तमाम तोतों की गर्दन मरोड़ दी जायेंगी। अमराई में आम नहीं फलेंगे और.....और.....।
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पार्ट — 2
उदास ताहिरा अँधेरे में भी पेड़ के नीचे बैठी रही। बीच—बीच में आँखें भर आतीं। फैयाज का मुस्कुराता चेहरा आँखों के समक्ष डोल जाता। उसने कभी भी फैयाज को निराश नहीं देखा था। जब भी फैयाज से मिली थी यही पाया था कि फैयाज में गहरी महत्वाकांक्षा है। बावजूद सारी जिम्मेदारियों के वह घबराया नहीं है। वह कहता था बहन की जिम्मेदारी पूरी करने के बाद शादी करेगाए और एक सुंदर गृहस्थी की कल्पना से ताहिरा आँखें मूँद लेती थी। हमउम्र युवकों से फैयाज एकदम अलग था। हाँए उसने फैयाज को असाधारण ही समझा था। भावनाओं की अनुभूति है उसमेंए मुहब्बत उसके लिए खुदा की इबादत है। ताहिरा फिर फफक पड़ी। अब जबकि इस रिश्ते को कोई स्वीकारना तो दूर सुनेगा भी नहीं.....क्या जवाब देगी फैयाज को.....घ् कि उसकी ताहिरा झूठी थी.....बेवफा थीए कि मुहब्बत को सोने की तराजू में तोल दिया। ढ़ेर—ढ़ेर सूखे पत्ते झरकर उसके घने रेशमी बालों में अटक गए थेए जिंदगी पतझड़ के मौसम के समान दिखाई देने लगी। दो सौतनें और एक बूढ़़ा पति.....और औलाद के लिए हलाल की जाती वह.....। उसे महसूस हुआ मानो गर्दन पर धीमे—धीमे छुरी चलाकर कोई हलाल कर रहा है। चारों तरफ रक्त फैल रहा है वह चीख पड़ने को हुई ही कि भीतर से अम्मी की आवाज सुनाई दीए श्अरी ताहिरा.....कब तक बाहर अँधेरे में बैठी रोती रहेगी अपने फूटे नसीब को.....चल अंदर आए दिया बाती हो चुकी है।श्
श्यूँ न कहो भाभीएश् रन्नी बी चहकींए श्लौंडिया को गर्त में डालने तो हम जा नहीं रहे हैं। अरे फूटे नसीब उसके दुश्मनों केए वह तो राजरानी की तरह सोने के झूले पर झूलेगी।श्
श्हुंहश् भाभी ने मुँह बनाया।
ताहिरा अंदर आई और एक लोटा पानी लेकर बाहर निकल गई। मुँह पर पानी के छींटे मारेए तब भी आँखों में जलन होती रही। चुनरी से मुँह पोंछा और चौके में घुस गई। देखा कि सभी बच्चे प्लेट में चाय डाले लाइन से बैठे थे और हाथ में ज्वार की रोटीयाँ थीं। तोड़—तोड़ करए चाय में डुबाकर वे रोटीयाँ खा रहे थे। रोटी का चूरा नीचे गिर रहा था। फूफी ने उसकी तरफ एक प्याला चाय सरका दी। ताहिरा चुपचाप चाय पीती रही। तामचीनी के प्लेट—कप की परत उधड़ गई थी। अंदर से एल्यूमीनियम झाँक रहा था। बच्चे हँसते खिलखिलाते चाय और रोटी खा रहे थे।
श्कैसी मातमी सूरत बनाए बैठी है। मानो हम इसे आग में झौंके दे रहे हैं।श् चाय सुड़कती जमीला ने कहा और चौके से बाहर निकल गई।
जितनी देर ताहिरा बाहर अकेली बैठी थी उतनी देर में ही फूफी का लड़के वाले के घर जाने का प्रोग्राम बन चुका था। उसने सुनाए फूफी कह रही थीं— श्तो भाईजानए हम सुबह की ही बस से निकले जाते हैंए परसों शाम की वापिसी हो जाएगी।श् किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। रन्नी बी तखत पर लेट गईं। भाईजान ने तहमत पर कमीज चढ़़ाईए पैरों में चप्पलें डालीं और फटर—फटर करते हुए सड़क पर निकल गये।
भाभीजान को गैस का जो दौरा पड़ा तो हाय—हाय करने लगीं। जम्हाई पर जम्हाई उन्हें आ रही थी और पेट फूलता जा रहा था। रन्नी बी उठ बैठीं और ताहिरा से चूल्हे पर तवा गरम करके लाने को कहा।
श्हाय! मुझे मौत क्यों नहीं आ जातीए ऐ मेरे परवर दिगार! ऐसी जिंदगी से तो मौत भली।श् हमेशा की तरह भाभी खुदा से मौत माँग रही थीं और छटपटा रही थीं।
श्अबए दीया—बाती के समय ऐसे शब्द न बोलो भाभीए जब खुदा ने रहमत का हाथ उठाया है तो मरें तुम्हारे दुश्मनश् रन्नी बी बोलीं।
श्अरे क्या खाक रहमतए फूल जैसी बच्ची को बूढ़़े के गले बाँध दोए चाँदी के सिक्के बटोर लोए इसमें खुदा की क्या रहमत।श् भाभी जान के गालों पर आँसुओं की धार बहने लगी। तभी ताहिरा चिमटे से पकड़कर गरम तवा ले आई। रन्नी बी ने दो फटी बनियान लीं और उनको तहकरए तवे पर रख गर्म करए भाभी जान का पेट सेंकने लगीं। पाँच मिनिट बाद भाभी जान के चेहरे पर राहत नजर आई तभी ताहिरा हींग का एक टुकड़ा अम्मी के मुँह में रख गई। उन्होंने आँसू पोंछ लिए और बड़ी बेचारगी से रन्नी बी की तरफ देखा। मानो आँखें कह रही थीं कि इस औरत को जिंदगी में क्या मिलाघ् फिर भी इस घर पर जान देने पर भी कभी मलाल न करेगी। उन्होंने आँखें मूँद लीं।
रात दस बजे खाना बना। चौका धुएँ से भर गया था। दोनों बहुएँ बड़बड़ा रही थीं कि गीली लकड़ियाँ कैसे जलेघ् उधर नूरा भूख से व्याकुल चीख रहा था कि लकड़ियाँ गीली कैसे हुईंघ् सभी ने ज्वार की रोटीयाँए भाजीए प्याज और हरी मिर्च के साथ खाईंए बच्चे तो शाम को ही चाय के साथ रोटी खा चुके थे और सो रहे थे। ताहिरा गुमसुम—सी छोटे—छोटे कौर तोड़ रही थी और मुँह में रख रही थी। फूफी ने जब उसे टहोका दिया तो वह खाने लगी।
श्अरी ताहिरा ऊँघ रही है क्याघ् खाती क्यों नहींघ्श्
भाईजान सुबह की बस पर रन्नी को बिठा आए। इस सारे नाटक में वे खामोश थे और चाह रहे थे कि सारा फैसला रन्नी के द्वारा ही हो ले। उनसे कितनी छोटी थीं रन्नी लेकिन उसके फैसले के आगे भाई जान क्याए सभी खामोश हो जाते थे। भाभी भी ना नुकुर करके अंततः उन्हीं का फैसला मानती थीं। इसमें रन्नी का क्या स्वार्थ थाघ् भाईजान सोच रहे थे। इस घर के बच्चे उसके बच्चे थे। इस घर से अलग रन्नी का अस्तित्व ही कहाँ थाघ् जितना वह कमाती थी सब इसी घर पर खर्च करती रही। नूरा और शकूरा के ब्याह पर रन्नी ने ही चाँदी के जेवरों का सेट दिया था। तब वे कितने हैरान हो गए थे। दोनों की शादी पर दुल्हनों के लिए साटन के जोड़े भी उन्हीं के बनाए थे और सारी—सारी रात जागकर तिल्लेए मुकेश की बारीक कशीदाकारी की थी। भाईजान को याद आया कि रन्नी की शादी पर क्या आया था ससुराल सेघ् एक मुचा—गुमचा सा नकली रेशम का जोड़ाए शायद पहली औरत का होगाए क्योंकि उसके किनारे उधड़े और तिल्ले—गोटेए टूटे—फटे थे। हाथ के चाँदी के कड़े जिनकी पॉलिश भी फीकी पड़ चुकी थी। कैसे अब्बू ने किसी की न सुनी थी और एक दुहिजवेंए फटे हाल घर में अपनी इकलौती बेटी सौंप दी थी। तब रन्नी कचनार की कली की तरह मासूम और खूबसूरत थी। चंपा जैसा रंगए घने रेशमी बालए औसत कद.....और जब दो साल बाद वह इस घर में वापिस आई तो.....। आँखें भर आईं भाई जान की। उन्हीं पर गई है ताहिरा.....बस कद थोड़ा—सा ऊँचा है।
श्क्या सोचने लगेघ्श् ताहिरा की अम्मी ने पान का बीड़ा उनकी ओर बढ़़ाते हुए कहा।कुछ
श्कुछ भी तो नहींए जो करना है रन्नी ही करेगीएश् इतना बोलकर वे फिर बाहर निकल गए। मानो किसी से आँख मिलाने से अपने आप को असमर्थ पा रहे हों। सच ही तो हैए यह गृहस्थी उन्हीं की हैए यह बगिया उन्हीं ने तो संवारी है और आज अपनी बगिया के सबसे कोमल फूल को वे पतझड़ के हाथों सौंपने जा रहे हैं। भले ही वे सबके समक्ष चुप हैंए लेकिन मन में कहीं यह लालसा भी है कि ताहिरा वहीँ ब्याही जाए। क्या वे कभी अपने पुरुषार्थ के चलते ताहिरा का हाथ किसी अन्य जगह दे पायेंगेघ् फिर आश्वासन भी तो ऐसा आया कि ताहिरा उस घर में जाएगी तो नूरा—शकूरा का व्यापार बढ़़िया हो जाएगा। उनके दो जवान बेटे भी तो घर में कोई खुशहाली न ला सके। बसए वही दादा के जमाने से चला आ रहा धंधा कर रहे हैं। दादा के समय से ही घर में खिलौने बनने लगे। उससे पहले तो उन्हें खिलौने लाकर दिये जाते थे और दादा जी ही खिलौनों को अन्य व्यापारियों को देते थे। न बाजार का झंझट न हाट—बाजार में ले जाकर बेचने का। सब काम आसान था। न जाने कब स्थिति बिगड़ने लगी थी और फिर शुरू हुआ था घर में ही खिलौने बनाने का सिलसिला। .....उन्हें आशा थी कि रन्नी निश्चय ही कोई उचित समझौता करके लौटेगी। बीच—बीच में वे निर्लिप्त से हो जाते पर कहीं बेचौनी भी थी। चौबीस घंटे.....फिर फैसले की घड़ी.....। फूल जैसी बच्ची को साँझ के हवाले करना और अपने घर में सूर्योदय की किरण का झाँकना.....सिर्फ चौबीस घंटों में।
सभी धड़कते हृदय से फूफी के लौटने का इंतजार कर रहे थे। नूरा और शकूरा तो हर आहट पर चौंक पड़ते थे। अलबत्ता अम्मी तखत पर लेटी अपनी बच्ची के लिए सोच रही थीं।
सत्रह बरस की ताहिरा.....। बिल्कुल यही उमर थी उनकी जब अब्बू ने उनकी शादी तय की थी और पलक झपकते वे इस घर में थीं। न सोचने का मौका मिला न समझने का। हाथों की मेंहदी फीकी भी नहीं पड़ी थी तभी से खिलौनों की मिट्टी सान रही हैं। तब सास—ससुर और रन्नी बी ही थे घर में। सास उनसे असंतुष्ट ही रहती थीं। सास का मानना था कि यदि घर में बहू के मुबारक कदम पड़ेंए तो घर की काया—पलट हो जाती है। यहाँ तो वही ढ़ाक के तीन पात.....। वही गरीबी। सुबह पाँच बजे से उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती थी और रात दस बजे जब वे बिस्तर पर जातीं थीं तब भी सास झुँझलाती थीं— ष्मैं तो सोच रही थी कि अब मेरे घुटनों की मालिश करने आएगीए अभी से घुस गई कमरे मेंए लानत है ऐसी जवानी को.....।ष् उन्हें अपने दिन याद आयेए जब वे सास के पैर दबाकर और उनसे इजाजत लेकर ही अपने कमरे में जाती थीं। लेकिन वे यह भूल जाती थीं कि उन्हें तब इतने काम नहीं करने पड़ते थे। घरेलू कामों को लगभग उन्होंने तिलांजलि ही दे दी थी.....। वे स्वतंत्रता की लड़ाई के दिन थे.....। तब भी रन्नी बी बातों को सम्हालती थीं— ष्लाओ अम्मीए हम मल देते हैं तुम्हारे घुटनों कोए क्या भाभी को आराम नहीं चाहिए।ष्
अम्मी झटक देती थीं रन्नी का हाथ— ष्जा अपनी सास के गोड़—घुटने मलियो.....मुझे दोजख में न भेज.....अब अपनी लड़की से घुटने मलवाऊँगी।ष्
बड़बड़ाहट सुनकर वे बिस्तर से उठने लगतीं तभी पति पकड़कर खींच लेते ष्अब थक कर मरना है क्याए सुबह से तो खट रही हो।ष्
पति का उस समय का चेहरा याद करके वे आँखें बंद कर लेती हैं। कपड़ों से आती मिट्टी की सौंधी गंध में वे दोनों डूब जाते। सास की बड़बड़ाहटए कमरतोड़ काम और गरीबी में वे इसी पुरुष के सहारे ही तो जी सकी हैंए जो उन्हें बेइंतहा चाहता है।
शादी के पहले ही साल नूरा हुआ। दो बरस बाद शकूरा और फिर आठ—नौ बरस बाद ताहिरा। रन्नी बी कहती थीं— ष्है तो पेट की पोंछन.....पर इतनी सुन्दर.....राजरानी बनेगी।ष् और सच ही उसे राजरानी बनाने ही गई हैं रन्नी बी।
शाम ढ़ल रही थी। शकूरा फूफी की राह ताकता घर से निकल चुका था और ताहिरा पेड़ के नीचे झड़ते पत्तों के बीच बैठी थी। अभी दो दिन पहले तक ताहिरा बच्चों के साथ निकल जाती थी और चिलबिल के चिरौंजी भरे दानों वाली पत्तियाँ चुनरी भर बटोर लाती थी। फिर सभी बच्चों के बीच बैठकर पत्तों को चुरमुराकर चिरौंजी जैसे दाने निकालती और गिनकर पाँच—पाँच चिरौंजी बच्चों के सामने रखती जाती। फिर पाँच अब्बू के लिए एक डिब्बी मेंए पाँच अम्मी के लिएए पाँच फूफी के लिए। बच्चे खुश थे। डिब्बियाँ भी भर जाती थीं। दो दिनों में ही ताहिरा के चेहरे पर अवसाद की छाया देखी जा सकती थी। चेहरा मुरझा गया था। आँचल चिलबिल की पत्तियों से भर गया था। परन्तु किसी ने चिरौंजी निकालने को पत्तियाँ नहीं बटोरी थीं।
दूरए फूफी के साथ शकूरा रिक्शा में आता दिखा तो सभी चौंक पड़े। एक बड़ा ट्रंक रिक्शा में रखा थाए एक बड़ा बैग फूफी के कंधे पर लटक रहा था।
श्तो रिश्ता तय कर ही आई रन्नी बीएश् अम्मी बड़बड़ा उठींए नूरा भागकर बाहर गया और फूफी के कंधे से बैग उतारकर ले आया। दोनों बहुएँ तखत के पास आकर बैठ गईं। अम्मी पान लगाने लगीं। सभी के हृदय उछल रहे थे। बच्चे खेलने गये थे। भाईजान फूफी के प्रवेश करते ही उठकर तखत पर बैठ गये। फूफी ने मुस्कुराकर सबकी तरफ देखाए और चेहरे का पसीना पोंछने लगीं।
श्तोए कर आईं रन्नी बी तुम बूढ़़े दामाद का फैसलाघ्श् अम्मी ने कहा।
तभी जमीला ने पानी का गिलास फूफी के आगे बढ़़ा दिया। फूफी एक साँस में पानी पी गईंए कहा— श्अब ऐसा न कहो भाभीए जब रिश्ता कर ही आए तो बूढ़़ा—बूढ़़ा न कहो।श्
अम्मी ने पान का बीड़ा भाईजान की तरफ बढ़़ायाए एक रन्नी बी की तरफ और फिर अपने मुँह के अंदर बीड़ा ठेल दिया।
फूफी ने बीड़ा मुँह में रखा। नूराए शकूरा और दोनों बहुएँ बेसब्री से फूफी की ओर देख रहे थे। ट्रंक और बैग में क्या है इसकी भी उत्सुकता थी। फूफी ने अपने कुर्ते के अंदर हाथ डाला। कपड़े की थैली निकालीए धागा खींचा और चाभी निकाली। ट्रंक खुला और उनकी आँखें ताहिरा को ढ़ूँढ़ने लगीं।
श्अरेए बिटीया कहाँ हैघ्श्
श्बाहर बैठी हैए उदासश् अम्मी ने कहा।
श्अब लोए और सुनो.....उदासी की क्या बातघ्श् जोर से उन्होंने आवाज दीए श्ताहिरा!.....ओ ताहिरा.....। अब तो आए हैं उसके दिन हीरे—मोती में खेलने के और तुम कहती हो भाभी कि उदास बैठी है।श् एक बड़ा—सा पैकेट उन्होंने ट्रंक से बाहर निकाला। श्यह दुल्हन के लिये भेजा है गुलनार बेगम ने।श्
श्यह गुलनार बेगम कौन हैघ्श् अम्मी ने पूछा।
श्शाहजी की बड़ी आपा हैं। समझोए इन्हीं ने पाला—पोसा है शाहजी को। करीब १७ वर्ष बड़ी हैं शाहजी से। छोटी—सी उम्र में विधवा होकर वापिस अपने वालिद के पास चली आईं। अपनी अम्मी की मृत्यु के बाद इन्होंने न केवल घर सँभाला बल्कि अपने वालिद का सारा व्यापारए हवेलीए रिश्तेदारए नौकर—चाकर सभी सँभाले। शाहजी के वालिद तो अपनी बीवी की अचानक मौत से समझो अर्धविक्षिप्त से हो गये थे न औलाद का होश.....न ही व्यापार का। इन गुलनार बेगम ने दूर देशों में फैला व्यापार ऐसा सँभाला कि सबने दाँतों तले उँगली दबा ली। फिर शाहजी उन्हीं की गोद में पले—बढ़़े। अपनी आपा पर न्यौछावर। उन्हें शौक है तो बस चाँद—सितारों का। बड़ी—सी दूरबीन छत पर लगी हैए उसी में डूबे रहते हैं। यूँ कारोबार भी देखते रहेए लेकिन जबसे शहनाज बेगम आईं तो इतनी होशियार कि गुलनार आपा ने कारोबार उन्हें समझा दिया। वैसे गुलनार आपा और शहनाज बेगम का हुक्म चलता है वहाँ। शाहजी तो इतने सीधे हैं कि न कुछ माँगते हैंए न चाहते हैं।श्
श्तो सौतन की चलेगी वहाँए है नघ्श् अम्मी ने कहा।
फूफी ने आँखें तरेरीए मानो कह रही हों कि रिश्ता हो जाने के बाद अब यह ओछी बातें क्योंघ् फूफी ने पैकेट खोला। कीमखाब का जोड़ा झाँका.....बहुओं की आँखें फटी की फटी रह गईं। खूबसूरत फालसाई रंग का कीमखाब का जोड़ा.....। एक रानी कलर का रेशम का जोड़ा तथा तीन दुबई की साटन के जोड़े।
श्पाँच सूटए इतने खूबसूरतश् जमीला बुदबुदाईए श्अरे! अभी तो देखती चलोए अरबए दुबई और नैरोबी के कपड़े हैंएश् एक सेट सोने काए एक चाँदी काए एक कुंदन का तथा एक मोती का सेट और हीरे के कंगनए जब फूफी ने तखत पर फैलाए तो सबके दिल की धड़कन रुक गई। एक बारगी तो अम्मी भी हैरान रह गईं। इतने ऐश्वर्य की कल्पना तो किसी ने न की थी। भाईजान अभी भी निर्लिप्त बने तखत पर बैठे थे और ताहिरा सिर झुकाए सभी चीजों से बेखबर अपने पैरों के नख से गोबर लिपा फर्श कुरेद रही थी। अभी बैग खुलना बाकी था। ट्रंक में और भी पैकेट थेए परन्तु फूफी ने ट्रंक का ढ़क्कन बंद कर दिया और बताने लगींए श्वे लोग खानदानी रईस हैं भाईजानए उनके पुरखों का कारोबार दुबईए अरब और अफ्रीका में होता है। उनकी अमीरी का जो आलम है उसका बयाँ मैं नहीं कर सकतीए शाहजी का नाम शेख असलम हैए उन्हें सब शाहजी ही कहते हैं। वे ही उस शानदार हवेली और व्यापार के अकेले वारिस हैं। उम्र तो उनकी पचास के आसपास है पर पैंतीस—छत्तीस से ज्यादा के नहीं दिखते।श्
श्भईए अमीरों से तो उम्र भी खौफ खाती हैएश् जमीला ने कहा।
श्और रन्नी बीए दोनों बड़ी बीबियाँघ्श् अब तक एमी इस रिश्ते के लिये अपने को तैयार कर चुकी थीं तभी तो उनकी आवाज अब संयत थी।
श्अरे कुछ न पूछो भाभीए बड़ी तो समझो शाहजी की उम्र की हैए दो बरस छोटी होगी। वह तो कह रही थी कि ताहिरा की इस घर में बड़ी इज्जत होगीए आप फिकर न करें। हमें तो बस घर का एक चराग चाहिए। घर भी ऐसा भाईजान.....एकदम किले जैसा।श्
श्किले जैसाघ्श् सादिया हैरत से चीख पड़ी थीं।
श्हाँ रानीए किले जैसाएश् अब फूफी आलथी—पालथी मारकर तखत पर बैठ गईं।
श्लाओ भाभीए एक बीड़ा और दो।श् भाभी ने पान लगाया और फिर से फूफी और भाईजान की तरफ बीड़ा बढ़़ाया। एक बीड़ा उन्होंने स्वयं खाया। फूफी पान चबाने लगींए उत्तेजना से उनसे बोला नहीं जा रहा था। पीक के कुछ छींटे उनके कुर्ते पर आएए कुछ उनके गोरे—मुखड़े पर छिटक गए और कुछ होंठों के किनारों पर आकर ठहर गए। उन्होंने चुन्नी के छोर से मुँह साफ किया और फिर बताने लगीं— श्जब मैं फाटक से हवेली के अंदर गई तो हैरान रह गई। मुझसे दस गुना बड़ा तो लोहे का फाटक था। दरबान खड़े थे बंदूक लिए। दरबान ने छोटी—सी कोठरी में जाकर फोन कियाए मेरे आने की इत्तला दी। फिर बड़े अदब से मुझे अंदर ले जाया गया। घर की बैठक मानो.....किसी बादशाह का दरबार.....। एक बड़ा हॉलए लाखों का झूमरए सलाखेंए मोतियों के पर्देए भूसा भरे शेरए चीतेए हिरन के शरीर टंगे थे। काले शीशम से बना फर्नीचरए फर्श पर ईरानी कालीनए सब तरफ शानो—शौकत का नजारा। झीने पर्दे के पीछे बैठी थीं गुलनार आपाए उनके बाजू में शहनाज बेगम.....दो दासियाँ दोनों ओर खड़ी थीं। मुझे बिठाया। पहले तो पानी के साथ दो गुलाब—जामुन दिये खाने कोए फिर तिपाई पर लाकर शर्बतए ढ़ेरों मिठाईयाँए नमकीनए फल और काजू—पिस्तेए बादाम दिये। शहनाज बेगम नक्काशीदार चाँदी के पानदान से पान लगाती रहींएश् फिर जैसे रन्नी बी को कुछ याद आया उन्होंने ट्रंक खोला और एक चाँदी का पानदान निकालकर भाभी की ओर बढ़़ायाए श्यह खासतौर से तुम्हारे लिये भेजा है गुलनार बेगम नेएश् फूफी की कहानी पर विराम आ गया क्योंकि उन्होंने देखा कि सभी की नजरें उस ट्रंक पर हैं जिसमें अभी भी कुछ पैकेट हैं। सभी उस तिलिस्म के खुलने का इंतजार कर रहे थे। उन्होंने एक रेशम का गुलाबी सूट भाभी की ओर फेंका।
श्हाँ! भाभी मैंने कह दिया कि मेरी भाभी जान खूब सुंदर हैंएश् तो उन्होंने कहा कि तब तो यह गुलाबी सूट खूब फबेगा उन पर। भाभी शरमा गईंए आँखों की कोरों से भाईजान की ओर देखाए भाईजान की आँखें खपरों की टूटी—फूटी छत की ओर थीं। भाभी पुनः फूफी की ओर देखने लगीं। उन्होंने एक नोटों की गड्डी निकाली और भाईजान की ओर बढ़़ा दी— श्पूरे पचास हजार हैंए इसी में निकाह होगा ताहिरा का।श् सब चुप खड़े थेए नूरा सोच रहा था कि उन लोगों ने इतने रुपये आज तक नहीं देखे। फूफी ने बहुओं के लिए रेशम के सूटए पैरों की पायलेंए नूरा—शकूरा के लिए सूट और भाईजान के लिए रेशम का कुर्ता—पाजामा निकाले। भाभीए भाईजान के लिए एक—एक अँगूठीए बच्चों के लिए कपड़ेए ढ़ेरों मिठाईयाँए मेवे। पूरा कमरा सौगात से भर गया था।
श्और तुम्हारे लिये रन्नी बीएश् भाभी ने पूछा। फूफी ने कोसे का एक क्रीम कलर का सलवार—सूट निकाला और फिर शांत हो गईंए श्यह मेरे लिए है।श्
श्तोए रन्नी तुम ष्हाँष् कर आईंघ्श् भाईजान ने इतनी देर बाद मौन तोड़ा।
श्लोए और सुनो भाईजान की बात.....इतना माल असबाब ष्हाँष् के बाद ही तो देवेंगे न वे। खुदा छप्परफाड़ के दे और हम ना कर दे।श्
सभी ने सिर हिलायाए पुनः फूफी बोलीं— श्तो मुख्तसर बात यह है भाईजान कि यह तीसरी शादी औलाद की खातिर है। शाहजी बड़े शरीफ इंसान हैं। नजरें उठाकर बातें नहीं कीं। सब बातचीत गुलनार बेगम ने ही की। वे तो सिंहासन जैसे सोफे पर बैठे अपनी हीरेए मोतीए पन्ने की अँगूठियों से खेलते रहे। बाल तो जरूर खिचड़ी हैंए लेकिन एकदम सफेद नहीं। अब भला पचास की उमर भी क्या उमर होती है! और फिर मर्द की उमर.....भला कौन देखता हैघ् अमीरी की काया है। उठें तो नौकर आगे बढ़़कर जूते सामने कर देंए तब पहनें।श्
श्हाँ! भईए बस आखिरी बातश् उन्होंने उठते हुए कहाए श्इस निकाह के बाद इस घर में गरीबी नहीं रह जाएगी यह वादा किया है गुलनार बेगम ने और भाभी मैंने तो कह दिया कि ताहिरा मेरी बेटी है मैं उसके साथ यहाँ आकर रहूँगी ताकि वह घबराए नहीं इस माहौल से।श्
श्आखिर भाभीए हमारी और उनकी औकात में जमीन—आसमान का फर्क तो है ही न!श्
श्यह तुमने अच्छा किया रन्नी बीए वरना हमारी फूल जैसी बच्ची उस हवेली में घबरा जाती।श् अब फूफी थक चुकी थींए वे तखत पर लेट गईं और कुछ ही मिनटों में गहरी नींद में सो गईं। अम्मी ने गहने और कपड़े ट्रंक में रखेए उसी में रुपये रखे और ताला बंद करके अपनी छोटी कोठरी में रख दिया।
दूसरे दिन से घर में ब्याह की तैयारियाँ होने लगींए सर्वप्रथम कौन—सा मंगल कार्यालय बुक होगा इस पर नूरा—शकूरा में विवाद उठ खड़ा हुआ। भाई जान ने कहा कि वे आज ही जाकर शहर के कार्यालय का किराया आदि पता करेंगे तभी कुछ तय हो सकेगा। सादिया की सहेली घर—घर जाकर मेंहदी लगाने का काम करती थीं। सादिया पर यह काम सौंपा गया कि वह अपनी सहेली को बुला लाएगी। यूँ तो रन्नी भी बारीक मेंहदी लगाती थीं कि क्या कोई ब्यूटी पार्लर वाली लगाएगीए लेकिन ऐसे मुबारक मौके पर सुहाग के कार्य में हाथ लगाना नहीं चाहती थीं। दुल्हन का श्रृंगार अच्छे से होना चाहिए तो जमीला ने ब्यूटी पार्लर जाने की सलाह दी। अम्मी राजी नहीं हुईं।
श्नहींए यहीं आकर हमारी ताहिरा का वे लोग मेकअप कर जायेंगीए ताहिरा कहीं नहीं जाएगी।श्
भाईजान मंगल कार्यालय बुक कराने चल दिये और जमीला ष्अजंता ब्यूटी पार्लरष् चल दी। उसके साथ पड़ोस की आपा भी गई। घर में किसी को सुध नहीं थी.....सब शादी की ही चर्चा में मगन थे। जमीला ने लौटकर बताया कि शेफाली निकाह के दिन आएगी और घर में ही दुल्हन का श्रृंगार करेगी।
इन सारी बातों से अलगए ताहिरा बाहर नीम के पेड़ के नीचे अँधेरे में बैठी थीए उसे लग रहा था कि उसे अब शीघ्र ही हलाल करने ले जाया जाएगा.....। लगाए गरदन पर छुरी चल रही है और रक्त की धार कुरते पर रेंग रही है। एक लाल चींटी ने उसकी गरदन पर काटा था। दर्द को वह महसूस कर रही थीए उसने गरदन पर हाथ लगाया तो वहाँ रक्त नहीं था बल्कि तीखी जलन थीए नीम की घनीए काली छाया ने उसके मन के अँधेरों को और बढ़़ा दिया। वह रो पड़ी।
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पार्ट — 3
जैसे कुर्बानी से पहले बकरे को हार—मालाए तिलक से सजाया जाता है ताहिरा को भी सजाया जा रहा था। पिछली रात मेंहदी की रस्म हुई थी। गोरे पाँवों तथा हाथों में कलाइयों तक बारीक मेंहदी लगाने ब्यूटी पार्लर से लड़की बुलाई गई थी। मंगल कार्यालय और कार्यालय के ऊपर बने फ्लैट में पूरा घर शादी के माल—असबाब सहित मेंहदी की रात से ही आ गया था। जमीलाए सादिया के लिये तो जैसे जश्न—सा था सब.....। और क्यों न होए उनकी इकलौती ननद की शादी थी.....। वह भी आलीशान घराने में। उनके चेहरे पर अभिमान झलक रहा था। बच्चों के लिये तिलिस्म—सा रुपहला और रंगीन थे यह सब। वे नये कपड़ों में लकदक थे। नूरा के दोनों बेटे जुबेर और कैसर और शकूरा के हैदर और नन्हा बबूशा शाहजादे बने घूम रहे थे। रुखसाना ने अपने अब्बूए नूरा से जिद्द करके लहँगा मँगवाया थाए सो वह लहँगा—चोली में बड़ी ठसकेदार दिख रही थी। केवल कुढ़़ रही थी भाभीजान! कितने जतन से पाला था उन्होंने ताहिरा को। बेटों से ही भरे खानदान में ताहिरा खुदा की नेमत बनकर आई थी। बचपन में उसके रूप को निखारने में कोई कोताही नहीं बरती गई। घर में तंगी के बावजूद भी वे जौ का आटा और दही जुटा ही लेतीं ताकि रंग गिरे न और उसकी ना—नुकुर के बावजूद वे जौ का उबटन थोप ही देतीं उसके चेहरे पर। आज उसी रूप को सौंप रही हैं एक बूढ़़ेए औलाद की चाहत से झुके अमीर को। क्या जाने बेटी नर्म रेशमी गद्दों पर चौन से सो पायेगीघ् भाईजान अपनी मजबूरी के हाथों लुटे—ठगे सारे कार्यक्रम में शरीक थे.....। खामोशी का घेरा तोड़ पाने में असमर्थ। बसए केवल फूफी मनोयोग से हर कामए हर बंदोबस्त में जुटी थीं। अपने लुटेए वीरान अतीत के कड़वे अनुभवों से चौकन्नी। कहीं उनकी बच्ची पर वह सब न गुजरे जो उन पर गुजरा।
ताहिरा खूब समझती थी। उसे किसी से शिकायत न थी.....। शिकायत थी तो परवरदिगार से.....। अल्लाह! फैयाज को क्यों न इतना अमीर बनाया कि वह उसके दोनों भाइयों का भविष्य सँवार पाताघ् तब अब्बू को चिन्ता न होती किसी बात कीए तब उनकी गरीबी मजाक न बनतीए तब ताहिरा जीते जी काठ की गुड़िया न बनतीघ् तब फैयाज होता और ताहिरा होती और ढ़ेरों नरमए गुदगुदेए रंगीले फूलों के बीच उनकी जिन्दगी होती। परसों जब सभी माल असबाब बाँध रहे थे तो वह चुपके से अपने घर के पीछे की अमराई से निकल लोहे की फैक्ट्री के दाहिनी तरफ वाले चर्च की सड़क तक निकल आई थी। चर्च के पीछे लालए पीले कनेर और दूधिया तगड़ के पेड़ों का घना साया थाए करौंदे की झाड़ियाँ थीं। काफी देर वह उस सूने माहौल में टहलती रही। वीरान चर्च में इक्का—दुक्का भक्त आतेए चले जाते। अचानक चर्च की घंटीयाँ टुनटुनाईं थीं। दूर साईकल पर फैयाज आता दिखा था। वह बेतहाशा भावुक हो लगभग चीख—सी पड़ी थी.....। चर्च के पिछवाड़ेए लाल ईंटों वाली दीवार से साईकल टीका फैयाज ने ताहिरा को बाँहों में भर लिया था और दोनों कनेरए तगड़ के साये में दुबक गये थे।
ष्अब क्या होगा फैयाजघ् कल हम लोग यहाँ से मंगल कार्यालय के फ्लैट में चले जायेंगे।ष्
फैयाज ने ताहिरा का गोल मासूम चेहरा हथेलियों में भर लिया था— ष्तुम मेरी ही हो ताहिराए ये दुनियाबी बंधन हमें जुदा नहीं कर सकते।ष्ष्
ष्फैयाज.....मेरा दिल डूब रहा हैए मैं पागल हो जाऊँगीए होश खो दूँगी।ष्
ष्जरा धीरज से काम लोए मैं ता—उम्र तुम्हारे इंतजार में गुजार दूँगा.....। मैं मान लूँगा कि हमने एक मिशन सोचा थाए कई जिन्दगियों को सँवारने का मिशन। हम जुदा कहाँ हुए ताहिराए हम तो अपने मिशन की कामयाबी के लिये आगे बढ़़ रहे हैं। यह बात दीगर है कि वह कामयाबी हमारी पूरी उम्र माँग रही है।ष्
ताहिरा ने हौले से फैयाज के कंधों पर सिर टीका दिया। ताहिरा के लिये मुहब्बत इबादत है और वह इबादत में झुकी जा रही थी। जानती थी फैयाज आम यूवकों—सा नहीं है। उनका प्यार पाक और अल्लाह की इबादत जैसा है।
ष्जानती हो ताहिराए कितने—कितनों ने कुर्बानियाँ दी हैं अपने लक्ष्य की खातिर। हमारी संस्कृति में रचा—बसा है त्याग.....कर दो त्याग ताहिरा.....हमारे त्याग से सुखी होने दो औरों को।ष् ताहिरा ने देखा.....फैयाज के होंठ काँपे और उसकी आँखों से दो बूँदें उसकी माँग पर चू पड़ी। भरीए डबडबाई आँखों से ताहिरा मुस्कुरा पड़ी। उसने उन बूँदों को अपनी माँग में मोती—सा सजा लिया और फैयाज के कदमों को चूम लिया था। फैयाज को लगा.....अभी—अभी बयार गुलाब की पंखुड़ियाँ बाग से चुरा लाई है और उसके कदमों पर बिखेर गई हैं.....। नीम बेहोश उसने ताहिरा के गालए होंठए माथा चुम्बनों से सराबोर कर दिये और बस इतना कहा था— ष्जाओ ताहिरा.....फैयाज तुम्हारा कयामत तक इंतजार करेगा.....उसके दिल में केवल तुम हो और तुम्हीं रहोगी। आज मैं अपने प्यार की मलिका को उसके मिशन की कामयाबी की दुआएँ देता हूँ.....खुदा तुम्हारे कदमों को कभी न डगमगाये।ष् और धीरे से ताहिरा की बाँह छुड़ा उसने साईकल सँभाली और चल दिया। ताहिरा विस्फारित सी ओझल होते फैयाज को सूनी सड़क पर देखती रही थी। सहसा उसे लगा क्षितिज पर अभी—अभी सूरज डूबा है और शाम की स्याह चादर खुलने लगी है। थके—हारे पंछी घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। सागर का पानी उसके घायल ख्वाबों के रिसते खून से रक्तिम हो उठा है और पतझड़ के सूखे पत्ते उसके पाँवों के नीचे चीत्कार कर उठे हैं। लुटीए ठगी—सी वह चर्च के मुख्य दरवाजे तक चली आई थी। दरवाजे से अंदर झाँकाए चर्च के बीचों—बीच माता मरियम की पत्थर की आदमकद मूर्ति के सामने दो मोमबत्तियाँ अंतिम लौ दे रही थीं। मोमबत्ती लगभग जल चुकी थी और पिघला मोम बर्फीले नन्हे ग्लेशियर—सा पसरा था। वह मूर्ति के कदमों में देर तक बैठी रही। माता मरियम गवाह हैं उसके प्यार की। उसने कभी फैयाज से अलहदा कुछ सोचा नहीं। उसके दिल में केवल फैयाज है.....यह चर्च उनकी मोहब्बत की इबादतगाह है। इस चर्च के पिछवाड़े लगे करौंदेए कनेर और तगड़ उनकी पाक मोहब्बत के रखवाले हैं जिनके साये में सिमटकर उन दोनों ने कितने तो ख्वाब रचे थे। अब उन ख्वाबों का कमनीयए सुंदर घर टूट गया और वह उसके खंडहर से कंकड़—पत्थर चुन अपनी लाचार जिन्दगी को पनाह देने के लिये घर बना रही है। माता मरियम.....तुम गवाह रहना इस बात की। ताहिरा ने बेवफाई नहीं की। बेवफाई की है गरीबी ने। और वह फूट—फूट कर रो पड़ी। वक्त मानो रुक—सा गया। शाम भी सहम गई.....देर तक माहौल में उदासी छायी रही। जब दिल की आँधी थमी तो ताहिरा आहिस्ता—आहिस्ता उठ खड़ी हुईए देखाए मोमबत्तियाँ जल चुकी थीं और बाहर काले आसमान में तारे टीमटीमा रहे थे।
उबटन से ताहिरा का चम्पई रंग गुलाबी सुरूर से ओत—प्रोत था। शेफाली ने उसके चेहरे के पोर—पोर को अपने कुशल हाथों से सौंदर्य का खजाना बना दिया था। उसे भारी कामदार रेशम का जोड़ा पहनाया गया। अंग—अंग भारी गहनों से लद गये। बड़ी—बड़ी कजरारी आँखेंए भावनाओं का जल छलकाने लगींए मानो आँखें नहीं झील हों और काजल की कोरें झील के दो किनारे.....। मोहल्ले की उसकी सखियाँ उसे सजे—धजे तख्त पर बिठा गईं.....। ताहिरा देखती रही और सोचती रही.....। शाहजी ने उसके नाम का सेहरा बाँधा होगाए बाहर शमियाने में शोर तारी था.....फिर मौलवी जी आये.....मेहर की रकम पढ़़ी और निकाह कबूल करवाने की इबादत उसे सुनाई। वह डूबती चली गई.....मानो फैयाज खड़ा है सेहरा बाँधे.....मानो उसके कान फैयाज के होठों की गुदगुदी से तपने लगे हैं। न जाने कब निकाह की रस्म अदा हो गईए ताहिराए होश में कहाँ थीघ् फूफी ने उसे कबूतरी—सा छाती से चिपटा लिया— श्अल्लाहए तुझे बुरी नजर से बचाये। हमेशा खुश तंदरुस्त रहे मेरी बिटीया।श्
उसने अधमुँदी आँखों से फूफी की ओर देखा और उनकी गोद में फफक पड़ी। फूफी भी रो पड़ीं। उनके दिल में भी तूफान छिड़ा था पर वे बर्दाश्त करना खूब जानती थीं। वक्त बड़ा नाजुक था। ताहिरा को सँभालना था ताकि वह फैयाज की मुहब्बत भूल सकेए ताकि वह शाहजी का घर रोशन कर सके। खुदा के सजदे में फूफी के हाथ उठे— श्या अल्लाह! मेरी बच्ची को ताकत दे हालात से मुकाबला करने की।श्
शामियाने में चंद लोग ही बैठे थे। न शाहजी ज्यादा बाराती लाये थेए न भाईजान ने ही सबको न्यौता था। बेहद खास को ही बुलाया था। बड़े—बड़े देगचों में बिरयानीए कबाब—कोफ्तेए शाही टुकड़ेए शीरखुरमा और बालूशाहियाँ रखी थीं। आने वालों पर गुलाब का इत्र नूरा और शकूरा छिड़क रहे थे। भाभीजान इन्तजाम में मुब्तिला भाईजान का साथ दे रही थीं लेकिन पूरी जिम्मेवारी सिर्फ फूफी उठा रही थीं। यूँ तो उनके घर की पहली शादी नहीं थी यहए बल्कि आखिरी थी। पर ताहिरा की शादी औकात से ज्यादा थी। आदमी अपनी ताकत से सब कुछ कर सकता है पर दूसरों से पाई ताकत मन में जोश नहीं भर पाती। भाईजान जब नूरा—शकूरा को मिट्टी रौंदतेए कूटतेए मसलते देखते तो सोचते कुछ नया कर गुजरने की चाहत में उनकी जिन्दगी कितनी बार रौंदी—मसली गईए कितनी बार गढ़़ी—रंगी गई.....कितनी बार आँच में पकी। पंद्रह वर्ष के थे तभी से गृहस्थी की गाड़ी ढ़ो रहे हैं। पहले वालिद कीए अब अपनी.....पर लगता हैए बस ढ़ोते ही ढ़ोते रहे उनके हाथए किसी को कुछ देने के लिये रत्ती भर भी सुख नहीं जुटा पाये। रन्नी को दिया दुहाजू पति.....अब्बू की जिद्द पर मजबूर से झुके रहे और अब ताहिरा। तब तो बड़ी आसानी से अब्बू को दोष दे दिया था भाईजान ने.....अब किसे देंघ् खुद कोघ् गरीबी कोघ् या लाचारी कोघ् वे तो ताहिरा के लिये तिहाजू पति लाये हैं..... भाईजान रो पड़े।
गुलाब के फूलों से सजी कार में ताहिरा रोती—सुबकती अपने दूल्हे के साथ बैठ गई। पीछे की दो कारों में मेहमान और फूफी। फूफी ने भी आज श्रृंगार किया था। रेशमी साड़ीए ब्लाउज.....घने बालों की लम्बी चोटी.....कानों में कर्णफूल और सुतवाँ नाक में मोती की लौंग। ताहिरा फूफी के सादगी भरे सौंदर्य पर मर मिटी थी। कभी ढ़ंग से क्यों नहीं रहतीं फूफी.....कितनी प्यारी लग रही हैं। बाजू में उनका मुरादाबादी पानदान धरा था। शाहजी के घर तक का रास्ता आठ घंटों का था और वे इस बीच कई बार पान खा—खिला चुकी थीं। कार में बैठे मेहमान फूफी के हाथों लगे पान की चर्चा कर रहे थे— श्वाह भई.....रेहाना बेगम पान बड़ा लजीज लगाती हैं।श्
फूफी कब चुप रहने वाली— श्मियाँए पान के स्वाद में ही तो लगाने वालों की नीयत छुपी रहती है। आप भले कत्था खास कानपुर का मँगाये पर पान तभी भाता है जब नीयत साफ हों।श्
श्वजा फरमाया बेगम.....रजवाड़ों में तो पान दोस्ती का प्रतीक माना जाता था।श्
श्और जो दुश्मनी निभानी होघ्श्
श्तो पान में जहर मिला दो.....दुश्मन खतम।श्
श्मियाँ बचना।श् और कहकहे।
फूफी ने कहकहों के बीच अपनी रेशमी साड़ी का कामदार आँचल सिर पर यूँ समेटा कि कहीं मुगालते में डूबे मेहमान उनकी गरीबी का पैबन्द न देख लें। बरसात में टपकते घर और दड़बे में कैद मुर्गियों की याद फूफी ने परे ढ़केल दी। कार रुकी तो सभी मेहमान बातचीत करते घर के अंदर चले गये। ताहिरा का स्वागत फूलों की वर्षा से हुआ। चमकते ग्रेनाइट के फर्श पर काफी दूर तक कालीन बिछा था। ताहिरा हौले—हौले डग भरती अंदर के हॉल जैसे विशाल कमरे में लाई गई और रेशमी गद्दों के तख्त पर बैठा दी गई। घर की औरतों ने उसे घेर लिया। हॉल के दूसरी तरफ एक और बड़ा—सा हॉल था जहाँ दावत का इंतजाम था.....मेजों पर खाना सजाकर रखा गया था। पानए आइस्क्रीम आदि का भी इंतजाम था। ताहिरा को जिन औरतों ने घेर रखा थाए उनमें से एक कालीन पर बैठकर ढ़ोलक बजाने लगी। दूसरीए धानी रंग के कपड़ों वालीए ढ़ोलक की थाप पर झूम—झूम कर नाचने लगी। एक बूढ़़ी—सी औरत उठी और नाचने वाली के सिर के चारों ओर सौ का नोट गोल घुमा दरवाजे की देहरी पर बैठी नाइन की गोद में डाल दिया। फूफी संपूर्ण माहौल से अपरिचित थीं। किसी ने किसी का परिचय नहीं कराया था फिर भी उन्होंने अनुमान लगाया कि बुजुर्ग रिश्तेदार हैं। फूफी भी उठींए पर्स से पचास का नोट और एक सिक्का निकाला और नाचती हुई लड़की के न्यौछावर कर दिया। नाइन बुदबुदाई— श्दुल्हन की फूफी ने इक्यावन दिये मालकन।श् और हाथ में पकड़ा नोट लहराकर सबको दिखाया।
श्अरी चुप रह! न मौका देखे न वक्त.....। मरीए कितना ठूँसेगी अपनी जेब मेंए कभी भरती हो नहीं।श् बड़ी बेगम ने उसे डपटा और हँसती हुई फूफी से मुखातिब हुईं— श्रेहाना बेगमए आप खा लीजिएए थकी होंगीए बाजू के कमरे में आपके रहने का इंतजाम करवा दिया है.....लेकिन पहले आप गुलनार आपा से मिल लें।श्
उनकी बात खत्म भी नहीं हो पाई थी कि गुलनार आपा हॉल में दाखिल हुईं। मुस्कुरा कर फूफी की ओर देखा फिर ताहिरा की ओर जो लम्बे घूँघट में चेहरा छुपाये थी। फूफी ने सलाम किया तो वे ताहिरा की ओर बढ़़ती बोलीं— श्कैसी हैं रेहाना बेगमघ्श् और बगैर जवाब का इंतजार किये ताहिरा के नजदीक पहुँच गईं। फूफी उठींए जानती थीं कि गुलनार आपा शाहजी की माँ समान हैं। उनका त्यागए उनकी शखि्सयत दोनों से वाकिफ फूफी।
श्उठो ताहिरा.....सलाम करो आपा को।श् फूफी ने ताहिरा को उठाते हुए कहा।
ताहिरा खड़ी हो गईए झुककर श्सलाम वालेकुमश् कहा।
गुलनार आपा ने उसे गले से लगाकर असीसें दीं। घूँघट उलटकर देर तक देखती रहींए फिर माथे का चुम्बन लेते हुए उसके गले में अपनी मुट्ठी में दबी डिबिया से चेन निकालकर पहना दी।
श्तुम्हारी मुँह दिखाई छोटी बेगम।श्
ताहिरा ने फिर सलाम किया। गुलनार आपा रुकी नहींए सारे माहौल पर उड़ती—सी नजर डाल सबसे अनुरोध—सा किया कि अब सब खाना खा लें और चली गईं।
नाइन के मजाक से बुझी फूफी गुलनार आपा के आने से थोड़ी खुश तो हुई थीं फिर भी अन्दर बेचौनी महसूस कर रही थीं। उन्हें शहनाज बेगम उर्फ बड़ी बेगम के तेवर अच्छे नहीं लगे। मानो पूरे घर पर उनका रुतबा छाया था।
हर चीजए हर शैए हर पलए हर इन्सान शहनाज बेगम के रुख से तलबगार.....। उनकी हाँ पत्थर की लकीर। वैसे पूरी कोठी का कामकाज गुलनार आपा के हाथों ही सम्पन्न होता था लेकिन उनसे भी जिद्द करके अपनी मर्जी मनवा लेती थीं शहनाज बेगम। ताहिरा तो इस रुतबे में दबकर रह जायेगी। यह क्या हो गया उनके हाथों.....फूल—सी बच्ची और ये रिश्तेदारघ् बाहर हॉल में मदोर्ं की जमात दावत उड़ा रही थीए कुछ मनचले शाहजी को छेड़ रहे थे— श्अरे शाहजी! सत्रह का सिन और कली सा वजूद! सँभाल कर रखना नई बेगम को!श्
श्आदत है शाहजी कोए तुम क्या सिखा रहे होघ् भूल गये तीसरी है। खाये—खेले हैं शाहजीए कोई नौसिखिये तो नहींएश् किसी दूसरे ने कहा।
फूफी का सवार्ंग सिहर उठा। दौड़ती हुई ताहिरा के पास गईं और उसकी झुकी गर्दन उठाते हुए बोलीं— श्शरबत पियेगी बेटीघ्श्
ताहिरा ने नहीं में सिर हिलाया। तब तक धानी जोड़े वाली ताहिरा की थाली परोस लाई थी— श्हम खिलायें चाचीजान! अपने हाथ सेघ्श्
ताहिरा घूँघट में सिमट गई।
श्आप शर्माती बहुत हैं चाचीजान! लीजिए मुँह खोलिए।श्
इस उम्र की तो उसकी ननद होनी थी। यहाँ वह यौवन तो जरूर लाई पर ढ़लती उम्र के साये में यौवन कितना टीकेगा समझ नहीं पाई। उपवन के फूलों का निखार सुबह की शबनमी ताजगी में ही अच्छा लगता है। ढ़लती साँझ में फूलों को कौन देखता है भला.....घ् सूँघी जाती हैं तो बस खुशबू।
श्तुम्हारा नाम क्या है बेटीघ्श् फूफी ने माहौल को हलका बनाने की गरज से पूछा।
श्निकहत! आप मुझे निक्की कह सकती हैं।श्
श्तुम भी मुझे फूफी कहना और ताहिरा को ताहिरा बेगम।श्
श्वाह! ये तो चाची हैं मेरी!श्
श्अब सखी बना लो न! तुम्हें हमराज बना ये सुख—दुख में हलकी हो लेगी।श्
श्गुलनार फूफीजान तो कुछ न कहेंगी पर बड़ी चाची ने सुन लिया तो.....घ्श्
फूफी चिढ़़ गईंए बात—बात में क्या शहनाज!.....आखिर ताहिरा भी तो उतने ही अधिकार से घर में आई है जितनी शहनाजघ् और अल्लाह ने चाहा और बेटा हो गया तब भी क्या शहनाज का भय यूँ ही बरपा रहेगाघ्
श्एक बात कहूँ फूफीघ् यहाँ सब बड़ी चाची के हुक्म से चलता है। चाचा क्या पहनेंगेए क्या खायेंगेए कहाँ जायेंगेए कहाँ बैठेंगे सब उनके हुक्म से। लगता है तारों की गिनती भी चाचा उनके हुक्म से ही करते हैं। मेरी अम्मी तो कहती हैं कि चाचा उनकी मुट्ठी के जिन्न हैं। जब मुट्ठी रगड़ी जिन्न सामने।श्
इतनी देर से चुप बैठी ताहिरा खिलखिला पड़ी। निकहत भी हँसने लगी। फूफी के कानों में घूँघरू बजने लगे। अब ताहिरा थोड़ा खुली थी। वह धीरे—धीरे निकहत के साथ खाने लगी। फूफी तृप्त थीं। सुबह से बच्ची ने कुछ खाया नहींए कैसी कुम्हला गई है।
श्आप तारे गिनने की बात कर रही थीं कि आपके चाचा तारे गिनते हैं।श्
मुँह में निवाला था लेकिन ताहिरा की बात सुन निकहत को ऐसी जोर की हँसी छूटी कि ठसकी लगी। उसने जल्दी से पानी पिया और बोली—
श्चाचीजान! सब समझ जायेंगी आपए आज तो पहला दिन है आपका। मालूम हैए चाचा को नक्षत्र वि।ा में बहुत इंटरेस्ट है। दिन रात नक्षत्रों की दुनिया में खोये रहते हैं। ऊपर छत पर बहुत बड़ी दूरबीन रखी हैए काले कपड़े से ढ़की। वहीँ बरसाती से लगा उनका कमरा है। कमरे में बस एक बड़ी गोल मेज और तीन—चार कुर्सियाँ। मेज पर कागज बिखरे रहते हैं। उन्हें समेटीयेगा नहीं वरना चाचा बहुत नाराज होंगे।श्
फूफीए ताज्जुब से बोलती हुई निकहत का चेहरा देख रही थीं। शाहजी खोजी भी हैंए नक्षत्र वि।ा के जानकार! एक नये पक्ष से परिचय हुआ उनका। पर यह परिचय! तभी दरवाजे के परदे की घंटीयाँ टुनटुनाईं और जो औरत दाखिल हुई उसे निकहत ने— श्सलाम छोटी चाचीएश् कहकर पुकारा। फूफी समझ गईं ये शाहजी की छोटी बेगम हैं। उन्होंने ताहिरा को इशारा किया तो ताहिरा उठकर खड़ी हुई और झुककर सलाम किया मिलने की रस्म पूरी हुई तो छोटी बेगम जो अब मँझली बन चुकी थीं बोलीं— श्तो तुम्हें भी हलाल करने लाई हैं गुलनार आपा! किस्मत से तुम माँ बन गईं तब भी और न बनीं तब भी रहोगी तुम तिरस्कृत ही क्योंकि बड़ी ही उनकी असल बीबी है। हम तो मशीन बनाकर लाये गये थे। नहीं चले तो शाहजी ने मुझे छः—सात महीने में ही ऐसा छोड़ा कि आज तक पलटकर नहीं देखा। हरामजादी! खुद तो बाँझ है और मुझे भी बाँझ सिद्ध कर दिया। अरे! मेरी मौसी को तो शादी के साल भर बाद गर्भ ठहरा था। आजकल तो एक—दो साल वैसे भी एहतियात बरतते हैंए मौज—मजा करते हैं। यहाँ तो सात ही महीनों में दुत्कार दिये गये। अब देखेंए तुम्हारा क्या होता हैघ्श् छोटी बेगम के एक—एक शब्द से नफरत टपक रही थी। चोट खाई नागिन—सी फुफकार छोड़ए छोटी बेगम पास रखे सोफे पर बैठ गई। उनकी आँखों में दर्द की परछाईयाँ तैर रही थीं और हाथ घुटनों को सहला रहे थे।
श्आपको तकलीफ है बेगमघ्श्
श्हाँए रेहाना बेगम.....गठिया तोड़े डाल रहा है। आज शांताबाई को भी बड़ी ने काम में उलझा रखा है।श् फिर फूफी की सवालिया नजरें देख बोलीं— श्शांताबाई हमारी देखभाल के लिये रखी गई है। गठिया से भरा शरीर और तनहा जिन्दगीए कोई तो साथी चाहिए न। मुझे तो ताज्जुब है आप पर! कैसे राजी हो गईं इस बेटी की उम्र की लड़की को शाहजी से ब्याहनेघ् कितने हजार दिये आपके घर कोघ्श्
फूफी सहम गई। क्या बक रही है येघ् लगता है यह यहाँ की परम्परा ही है लड़की वालों को रुपये देने की।
श्तुम्हें कितने दिये थे मँझली बेगमघ् लाई तो तुम भी गई थीं मकसद से हीघ्श् फूफी ने तल्खी से कहा।
श्जानती हूँ बेगमए आपको बुरा लगाए मेरी मंशा आपको दुखी करने की न थी वरन मैं तो इस फूल—सी ताहिरा के नसीब पर दुखी हूँ। जुही की कली टपकी भैरोनाथ के मंदिर में।श्
श्जितना नसीब में होता है उतना ही मिलता है। मैं चाहती हूँ मँझली बेगमए तुम ताहिरा को अपने आँचल में समेट लो। अपने जिगर का टुकड़ा तुम्हें सौंप रही हूँ।श्
श्आप मुझे बेगम न कहें। आपके लिये जैसी ताहिरा वैसी मैं.....मुझे अख्तरी कहें और फिर आप तो यहाँ रहेंगी ही।श्
श्मैं कौन—सा ताउम्र रहूँगी। ताहिरा रच—बस जाये इस घर में। मन लग जाये उसकाए चल दूँगी। रहेगी तो तुम्हीं लोगों के साथ न!श्
अख्तरी दर्द की वजह से आह भरती उठी और ताहिरा का घूँघट उलट निहारने लगी। होंठों ही होंठों में हँसी दोनों। ताहिरा शर्म—लिहाज से.....अख्तरी उसके रूप सौंदर्य से। कहाँ बुढ़़ौती में कदम रखे शाहजी और कहाँ यह यौवन की कली। जब अख्तरी ब्याहकर आई थी तब शाहजी इतने बुजुर्ग नहीं दिखते थे.....अब होते जा रहे हैं। बड़ी के आँचल में दुबके शाहजी की मर्दानगी भस्म हो रही है। ताहिरा अख्तरी की बहन होती तो क्या वह बर्दाश्त करतीघ् उससे सचमुच बर्दाश्त नहीं हुआ। आँखें डबडबा आईं। फूफी ने अख्तरी के बारे में बड़ा गलत सोचा थाए वह बड़ी रहमदिल और नेक इंसान निकली। वैसे भले ही इस्लाम में चार शादियाँ कबूल हैं पर अपना सुहाग बँटते दिल टूटता है।
कमरे में सन्नाटा—सा फैल गया। दावत के कहकहे भी धीरे—धीरे कम होते गये थे। खिड़की से बाहर बगीचा था शायदए फूफी का ध्यान अब गया उधर। लॉन था लचीली घास का.....गोल ईंट की क्यारी में बीचोंबीच पॉपी के सतरंगे फूल खिले थे जो क्रिसमस ट्री की टहनियों में लटकेए जलते बुझते लट्टुओं की रोशनी में साफ दिख रहे थे। पूरे चाँद की रात थी। आकाश में केवल चाँद था और साफ निरभ्र विस्तार। ठंडी हवा के झोंके में फूफी की पलकें मुँदने लगी थीं पर तभी ताहिरा को देखने आठ—दस औरतों का झुंड कमरे में आया। फूफी ने देखा शांताबाई आकर अख्तरी को ले गई थी और निकहत भी जा चुकी थी। औरतें घूँघट में से ताहिरा का मुखड़ा देख नेग दस्तूर अदा कर रही थीं। किसी ने फूफी के हाथ में चाँदी की सुरमेदानी लाल कागज में लिपटी रखी तो फूफी ने हाथ खींच लिया— श्मैं दुल्हन के मायके से हूँ।श्
श्मायके सेघ् दुल्हन की फूफी हैंघ् हाँए बड़ी बेगम ने बताया तो था कि दुल्हन की फूफी साथ रहेंगी। ठीक तो है.....दुल्हन को यहाँ के रीतिरिवाज समझायेगा कौनघ्ण्ण्ण्ण्ण्ये नेग.....हाँए निकहत को बुलाओ.....उसी ने सब हिसाब रखा है। निकहतऽऽ.....निकहत.....आओ भईए दुल्हन को अकेला क्यों छोड़ रखा हैघ्श्
ढ़ेरों वाक्य। ढ़ेरों आवाज कि उन्हीं आवाजों में निकहत की मिश्री जैसी आवाज घुली— श्आईऽऽ.....बसए लो आ गई। अरेए आपाजान हैं.....क्या आपा जानए आप ही ये ड्यूटी कर देती न।श्
चिड़िया—सी चहकती निकहत आई और नेग दस्तूर अपने दुपट्टे में समेटे ताहिरा के कान मरण फुसफुसाई— श्बाथरूम तो नहीं जाना.....कब से बैठी हैं आपघ् अंदर चलकर थोड़ा आराम कर लीजिए।श्
ताहिरा की जान में जान आई। सोचा फूफी से भी पूछ ले पर सबके सामने दुल्हन का मुँह खोलना ठीक न था। ताहिरा निकहत के साथ अंदर चली गई।
श्यह आपका कमरा है चाचीजान! लेकिन अभी प्रवेश निषेध। इसमें आपका प्रवेश चाचाजान के साथ होगा.....रात के बारह बजे।श् और ठी—ठी कर हँस पड़ी निकहत। ताहिरा कमरे की एक झलक ही देख पाईए निकहत उसे दूसरे कमरे में ले आई।
श्मैं आपके लिए चाय लाती हूँ। तब तक आप फ्रेश हो लें।श् निकहत के जाते ही उसने दरवाजा बंद किया और सिर पर ओढ़़ी भारी चुनरी उतारकर पलंग पर रख दी। बाथरूम में जाकर उसका मन हुआ नहा ले पर मुँह हाथ धोकर ही बाहर निकल आई। क्या पता कोई दरवाजा ही भड़भड़ाने लगे और हुआ भी वही। गुलनार आपा अपनी चचाजाद बहन अजरा के साथ कमरे में आ गईं। उसने झट से चुनरी सिर पर ओढ़़ ली। अजरा के हाथ में एक पैकेट था।
श्भाभीजान आदाब! मैं आपकी ननद हूँ अजरा।श्
ताहिरा ने सलाम किया। तभी निकहत चाय लेकर आ गई। श्ताहिरा बेगमए तुम चाय पीकर तैयार हो जाओ.....यह सूट पहन लो। तुम्हेंए तुम्हारे ससुर ने मुँह दिखाई के लिये बुलाया है।श् गुलनार आपा ने कहा और अपनी मुस्कुराहट बिखेरती चली गईं।
श्लीजिए खाला चाय!श् निकहत ने एक प्याला अजरा की तरफ बढ़़ाया।
श्हाँए चाय की तो तलब लगी है और भाभीजान का श्रृंगार भी करना है। निकहत तुम जरा अंदर मेहमानों की देखभाल में जुटो। इधर मैं सँभालती हूँ।श्
श्जी अच्छा!श् निकहत के जाते ही अजरा पलंग पर बैठ गई— श्आपकी फूफी से मिलकर आ रही हूँ। वल्लाहए क्या शखि्सयत है। वैसे आप भी कुछ कम नहीं भाभीजान।श्
ताहिरा शरमा गई। श्रृंगार करते हुए उसने अजरा से अपने ससुर के बारे में सुना।
श्बड़े अब्बा सालों से बीमार पड़े हैंए असल में बीमारी उनके शरीर में दबे पाँव तभी प्रवेश कर गई थी जब बड़ी अम्मी नहीं रहीं। बहुत चाहते थे बड़े अब्बू उन्हें। फिर गुलनार आपा के संग घटा हादसा। शादी के साल भर बाद ही आपा विधवा हो गईं। बड़े अब्बू पर ऐसी बिजली गिरी कि तबसे खाट ही पकड़ ली। अब तो नब्बे साल के हो गये। चालीस साल से बीमारी झेल रहे हैं। डॉक्टरए वै। सबको दिखाया पर दिल से टूटा इंसान कभी ठीक होता है।श्
ताहिरा सिहर उठी। दिल तो फैयाज का भी टूटा है। या अल्लाह सलामत रखना उसे। ताहिरा के दिल ने दुआ माँगी और आँसू की परत जो आँखों में झलक आई थी अजरा से छुपा गयी।
अजरा ने गजब का श्रृंगार किया था ताहिरा का। मरून शरारेए कुर्ते और ओढ़़नी में वह किसी शहजादी से कम नहीं लग रही थी। गुलनार आपाए अजराए निकहत और फूफी के साथ ताहिरा ससुर जी को आदाब करने गई। वे बड़े से आबनूसी पलंग पर गावतकियों के सहारे बैठे थे। उसके आदाब के जवाब में उन्होंने अपना हाथ ताहिरा के सिर की तरफ बढ़़ाया— श्आबाद रहो दुल्हन बेगम! इस घर को खुशियों से भर दो। खुदा तुम्हारी कोख को बरकत दे। यह हवेली सूनी है बेगमए पोतों के बिना।श्
फिर पास खड़े एक लड़के के हाथ में रखी चाँदी की तश्तरी से सोने की कंठी उठाई— श्यह तुम्हारी सास की है.....इसे पहनने का हक सिर्फ तुम्हें है क्योंकि तुम मेरी बूढ़़ी आँखों में वो चिराग रोशन करोगी जिसके लिये यह कोठी लालायित है। मुझे उम्मीद ही नहीं भरोसा भी है। लोए निकहत.....पहना दो अपनी चाची को।श्
निकहत ने ताहिरा के दुपट्टे के अंदर गले में कंठी पहना दी। गला वैसे ही चेनए नेकलेस से भरा था। इतने जेवरों में ताहिरा घबरा उठी थी फिर भी जब्त किये रही।
ताहिरा की सेज सजाने में अजरा का खास हाथ था। यूँ तो कोठी में नहीं—नहीं करके भी कई मेहमान जुट ही आये थे सो नौजवान लड़कियों ने ताहिरा का कमरा अरेबियन नाइट सा सजा दिया। फूलए सुगंधए ठंडी चाँदनी—सी चंद्रिका वाली वि।ुत् जोत.....जैसे सुनसान प्रकृति ने बसंत को अपने आगोश में दबोच लिया हो। ताहिरा कमरे में ले जाई जा रही थी। फूफी ने उसकी बलाएँ लीं और कान में धीरे से मंत्र फूँकेए फुसफुसाई— श्इम्तहान का वक्त है तुम्हारा.....यह वक्त तुम्हें राजसिंहासन पर बैठा सकता है या पाँव की उतारी हुई जूती बना सकता है। दिल तुम्हें जीतना है शाहजी का।श्
ताहिरा पत्ते पर पड़ी बूँद सी थरथरा रही थी। यूँ वह काफी साहसी और जहनी लड़की थी पर इस वक्त मानो हौसले पस्त हो रहे थे। घड़ियाँ बीत गईंए फूफी के कान हर आहट पर चौकन्ने हो जाते। रात बारह बजे तक शाहजी शहनाज बेगम के कमरे में रहे। शहनाज की खिलखिलाहट दूर—दूर तक फैले सन्नाटे में समंदर के शोर—सी प्रतीत होती। बारह बजे शाहजी ने धीरे से ताहिरा का कमरा खोला। ताहिरा उठकर खड़ी हो गई। कमर तक झुकी और मिश्री जैसी आवाज में बोली— श्आदाब!श्
शाहजी ने आगे बढ़़कर उसे बाँहों में भर लिया और कानों के पास फुसफुसाये— श्आदाब.....मेरी नन्ही बेगम।श्
ताहिरा शर्मो लिहाज से दोहरी हुई जा रही थी।
श्जरा कलाई इधर तो लाइए।श्
ताहिरा ने अपना कंगनए चूड़ियों से भरा बायाँ हाथ आगे बढ़़ाया। शाहजी ने चूड़ियाँ पीछे सरकाईं और कलाई पर हाथ में पकड़ी बेशकीमती घड़ी पहना दी— श्हमारी तरफ से मुँह दिखाई में।श् और उसका घूँघट उलट कर बाँहों में भर लिया— श्जानती हैं बेगम.....इस बेशुमार दौलत के बीच भी हम कितने अकेलेए कितने तन्हा हैंघ्श्
ताहिरा खामोश रही। शाहजी उसके साथ पलंग पर टीक कर बैठ गये। गुलाब की कलियाँ जो सेज
पर बिखरी थींए धीरे—धीरे अपनी पंखुड़ियाँ खोल रही थीं। चाँदनी जैसी रोशनी में ताहिरा सकुचायी—सी घुटनों में गड़ी जा रही थी।
श्आप इतना शरमायेंगी तो हम अपने दिल का हाल बयान कैसे करेंगेघ्श्
उन्होंने ताहिरा की कमर में हाथ डालकर अपने करीब खींच लिया और उसके सिर को अपने सीने से चिपटा के चेहरे की रग—रग छूने लगे। ताहिरा सिहर उठी। वह शाहजी के दिल की धुक—धुक साफ सुन रही थी।
श्हम बहुत उम्मीदों से आपको लाये हैं। बसए हमें एक चिराग दे दो बेगम! एक हमारा नामलेवा।श्
और हाथ बढ़़ाकर बत्ती बुझा दी फिर ताहिरा को आहिस्ता से पनी बगल में लिटा लिया। ताहिरा का मन तड़प उठा.....यह उसकी सुहागरात है जिसकी कल्पना हर लड़की के दिल में प्यार—रोमांस की शक्ल में खुदी रहती है। जब नवविवाहिता जोड़े एक दूसरे में समाये रहते हैं.....उन्हें दुनिया का होश नहीं रहता और हवा का दखल भी बर्दाश्त नहीं होता। लेकिन यहाँ.....मात्र मकसद के लिये उसका इस्तेमाल किया जा रहा है। सुहागरात न रहकर मकसद की रात बन गई है। शौहर उससे दान माँग रहे हैं.....पुत्रदान.....। उनके मन में न उसके जज्बातों की कद्र है न कमसिनी की। .....ष्ओह फैयाज! मेरे फैयाज! तुमने मुझे दानवीर क्यों बना दिया तो मात्र मुहब्बत का एक शगूफा थीष् कि उसके कान में फैयाज फुसफुसाया— ष्जब्त करो ताहिरा.....मैं तुम्हें हारने नहीं दूँगा.....मैं तुम्हारी हार देख नहीं सकता।ष् और ताहिरा बुत बन गई। शाहजी उसके बदन पर हाथ फेरते रहे.....ताहिरा बुत बनी रही.....शाहजी उसके होंठों को चूमते रहे.....ताहिरा बुत बनी रही.....बुत बनी रही। इंसान तो प्यार की तपिश चाहता हैए समर्पण की कशिश चाहता है.....और इसका एक कतरा भी तो शाहजी उसे नहीं दे पा रहे थे।
फिजा में नीरव निशा अपनी मादकता का कहर बरपा रही थी। फूफी बेचौन थीं.....न जाने ताहिरा इम्तहान में पास हुई अथवा.....।
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पार्ट — 4
धूप कमरे में आ चुकी थी। निकहत फूफी को झंझोड़ रही थी श्उठिए फूफी जान.....देखिए कितना दिन चढ़़ आया है।श्
फूफी घबराकर उठ बैठीं.....। रात कब तक जागती रहींए याद नहीं.....। शाहजी को ताहिरा के कमरे में दाखिल होते देखा था.....। फिर यादों के झंझावात में कितनी ही देर वे जागती रहीं थीं.....। न जाने कितनी बातों को लेकर वे रोई थीं.....। गालों पर आँसू सूख गए थेए शायद रोते—रोते सोई होंगी।
या अल्लाह! ऐसे तो वे कभी नहीं सोईंघ् भाईजान के घर में तो पाँच बजे से ही काम शुरू हो जाते थेए न जाने कैसे वह इतना सोती रही। निकहत उन्हें जगाकर भाग गई थी। अपना छोटा—सा फूलदार ट्रंक खोला और ताहिरा के ससुराल के भेजे रेशम के थान से बना सूट निकाला और गुसलखाने में घुस गईं।
गुसलखाने में मौजूद आदमकद आईना देखकर वे खुद ही शरमा गईं। कहीं इस तरह खुद को निहारते नग्न हुआ जाता है! महसूस करती रहीं कि आईने की आँखें हैं जो उन्हें घूर रही हैं।.....उन्होंने अपनी गोरीए गदबदी देह को तौलिए में छुपा लिया..... लेकिन आईना तो उन्हें लगातार देखे जा रहा था.....। हारकर उन्होंने उतारे हुए कपड़े आईने पर डाल दिए और फिर निश्चिन्त होकर नहाने लगींए गुसलखाने से निकलीं तो कमरे में शांताबाई खड़ी थीए श्चाय लाई हूँ।श्
श्रख दो।श्
श्कैसी हो बुआ.....यहाँ कैसा लग रहा हैघ्श्
श्अच्छा लग रहा हैए शांता बाई।श्
शांता बाई नजदीक खिसक आईए श्भूखी शेरनी—सी डोल रही हैं बड़ी बेगम हवेली में.....। जानती हो बुआ क्योंघ्श्
उन्होंने हैरत से शांताबाई की ओर देखा और ष्नहींष् में सिर हिला दिया।
श्तुम्हारी भतीजी और शाहजी सोए पड़े हैं अभी तक.....इसीलिए.....। इस हवेली की रीत है सभी एक साथ नौ बजे नाश्ता लेते हैं बड़े हॉल में।.....नौ कभी का बज गयाश् कहती हुई शांता बाई चली गई।
फूफी सहम गईंए पहली ही रात है।.....लड़की को क्या पता रीति—रिवाज का.....। लेकिन अभी तक सोना नहीं था.....। शाहजी भले ही सोएँए वे मर्द जात हैं.....। निकहत से बाकी बातें पूछेंगीए कि इस घर के और क्या रीति—रिवाज हैं। चाय पी ही रही थी कि शांता बाईए एक बड़ी ट्रे में मीठाए नमकीनए दूध का गिलासए खूबसूरती से कटे फल जिनमें एक—एक काँटा चुभोया हुआ थाए लेकर आ गई।
श्बुआजीए बड़ी बेगम ने भिजवाया है। अब अपने कमरे में ही नाश्ता कर लें.....ए हॉल से नाश्ता हटा दिया गया है.....।श् बहुत राज की बात हो ऐसे बताया शांताबाई ने और वहीँ बैठ गई।
श्फूल गई हैं बड़की बेगम.....अब जानो कि पहली रात हैए कितना जागे होंगेए कौन जाने.....। हर समय कुढ़़ती है परमेसवरी।श्
श्ये परमेसवरी कौन हैंघ्श्
श्अरे वही बड़कीए और कौनघ्श्
फूफी चुप ही रहींए समझ गईं कि कोई हिकारत भरा शब्द ही होगाए श्पहली बार जब मैं आई थी शांताबाईए तो तुम्हें अख्तरी बेगम के साथ ही देखा था.....कल भी तुम ही साथ थीं उनके।श्
श्हाँ! मुझे उनके लिए ही रखा गया है। वैसे मेरे बाबा और उनके बाप भी इस खानदान के नौकर रहे हैं। मैं इस हवेली के पिछवाड़े बनी खोली में पैदा हुईए पच्चीस बरस की हूँ.....। छोटी थी तब ही शाहजी की पहली शादी हुई थी.....। लेकिन उस पहली से मुझे कोई लगाव नहीं। मुझे तरस आता है बुआ जीए इस मँझली बेगम पर.....बेचारी.....बीमार.....।श्
श्हाँ! बता रही थीं गठिया हैश् फूफी ने कहा। श्अरे चलना—फिरना तक मुश्किल है। अब तो बगैर किसी के सहारे के चल भी नहीं पातीं। आईं थीं जब.....देखतीं.....लेकिन इस बड़ी बेगम ने कुछ महीने भी संग—साथ नहीं रहने दिया शाहजी के।
श्क्योंए ऐसी क्या बात हुईघ्श्
श्अब क्या बताएँघ् हम भीए हमारा जी भी हौल खाता है। तुम्हीं बताओ बुआ.....क्या महीने भर साथ सोने में हमल रह जाएए यह जरूरी है.....घ् यह बाँझ है कहकर शाहजी को अपने पास घसीट लिया.....तबसे शाहजी ने पलटकर मँझली बेगम की ओर देखा नहीं.....। हम तो जानते थे ऐसा होगा। गुलनार आपा तो गऊ हैं.....बहुत भली.....। पर ये बड़की.....बहुत सयानी हैं। उसी का हुक्म चले है हवेली में.....जो चाहती हैं होता है।श् फिर बाहर झाँकते हुए खुसखुसाकर बोली— श्शाहजी उसके इशारे पर नाचे हैं.....अब देखना ये तीसरी आई है न तुम्हारी भतीजी.....फिर चौथी आएगी।श्
श्ऐसा न कहो शांताबाई।श् फूफी थरथरा उठींए श्खुदा ने चाहा तो ताहिरा की गोद जल्दी ही भरेगी।श्
श्हाँ! भगवान करे ऐसा ही हो.....। कहाँ इत्ती—सीए फूल—सी बच्ची और सिर पर बैठी सौतनेंएश् ऐसा ही तो कहा था भाभीजान ने भीए वे सचमुच घबरा गई थींए श्जानती हो बुआ जीए अख्तरी बेगम भी बस ऐसे ही गरीब घर की हैं।.....सच कहूँघ् बड़की खरीदकर ही लाई थी उसे। ढ़ेर रूपया दिया था अख्तरी बेगम के बाप को। चार लड़कियाँ जो बैठी थीं ब्याहनेए तभी तो उसके बाप मान गए। अब देखती हैं न आप कि कैसे कूड़े—कचरे जैसा डाल रखा है.....। अरे खाने—पहनने को मिल जाए तो जिंदगी पूरी हो जाती है क्याघ् औरत को चाहिए.....मर्द का प्रेम.....कलेजे से लगकर सोना.....। फिर जिंदगी कूड़ा नहीं है क्या उसकीघ्ण्ण्ण्ण्ण्जब अख्तरी बेगम रोती हैं बुआए ण्ण्ण्ण्ण्तो मैं भी उनके साथ रोती हूँ.....। उनके हाथ पैरों की मालिश करती हूँ..... देखा नहीं तुमने बुआ.....हाथ की उँगलियाँ कैसी टेढ़़ी—टेढ़़ी हो गई हैं। यह उमर तो खेलने खाने की थीए राज करने की थी। कोई रात दिन रोएगा तो रोग तो लगेगा ही.....। जानती हो बुआए इसी हवेली के पिछवाड़े मेरी अम्मा ब्याह कर आईं थीं। बताती थीं कि शाहजी की माँ बहुत नेक औरत थीं। उन्हीं का दान—धर्म है जो इस घर में माया ही माया है। शाहजी भी बहुत नेक इन्सान हैं। वैसी ही गुलनार आपा। इत्ते बड़े दुख में भी होश नहीं खोया उन्होंने। सदा दूसरों की मदद ही की है। तभी तो मँझली और अब तुम्हारी भतीजी गरीब घर से लाए हैं। इस एबन के आने से मानो यह शाप लग गया कि औलाद का मुँह देखना दूभर हो गया। सात कक्षा पढ़़ी हूँ मैं बुआ.....। सब जानती समझती हूँ.....फिर मेरे मर्द ने भी यहीं नौकरी कर ली.....। इस घर की नस—नस मैं जानती हूँ।श्
श्अरे! शांताबाईए तू यहाँ काहे बैठी हैए उधर बड़ी चाची जान तुझे ढ़ूँढ़ रही हैंएश् निकहत आते ही बरजने लगीए श्अरे फूफीजानए आपने नाश्ता नहीं कियाघ्श्
श्हाँ करूँगी!श्
फूफी ने बाल खोले और पोंछने लगीं.....पानी की बूँदें उनके सूट को भिगोने लगीं। श्लाइए फूफीजानए आज हम आपकी चोटी गूँथ दें।श् निकहत ने फूफी के बालों को तौलिए से सुखाया और मोटे दाँतों के कंघे से बाल सुलझाने लगींए श्कैसे रेशम जैसे बाल हैं आपके फूफी!श्
श्नहीं तोश् फूफी की तंद्रा भंग हुईए आज दूसरा ही दिन है इस घर में.....। पहली सुबहए कितनी सारी बातें मालूम हो गईं।.....कहाँ ला पटका है उन्होंने अपनी बच्ची कोघ् कहीं यह गलत हुआ है तो कैसे मुँह दिखाएँगी भाईजान कोए भाभी कोघ् श्चढ़़ा आईं बलि छोकरी कीश् भाभी सामने खड़ी कह रही थीं।
श्नहीं तो.....श् वे चौंक पड़ीं। श्क्या नहीं तो फूफी.....ए क्या सोच रही हैंघ् देखिए चोटी ह गई। अच्छाए आप बड़ी चची से बड़ी हैं या छोटीघ् आपका एक भी बाल सफेद नहीं और बड़ी चाची व चचा जान बालों को रंगते हैं। खैर चचाजान को तो कोई फिक्र नहीं जब बड़ी चची जबरदस्ती बैठाती हैं तो रंग लेते हैंए परन्तु बड़ी चची का तो एक भी सफेद बाल कभी दूसरों को नहीं दिख सकता। मालूम है फूफी जानए हमारी अम्मी बताती हैं कि गुलनार आपा बालों में मेंहदी लगाती थीं। मेंहदी के घोल में नील भी डालती हैंए नील डालने से बालों में आबनूसी चमक और रंग आ जाता है। उनके लिए नील का पाउडर खासतौर से ईरान से आता था। यहाँ के तो सभी नील पाउडर में कैमिकल मिलाया जाता हैए सो बाहर से आता था। गुलनार आपा ने सदा सिल्क की प्लेन साड़ी पहनीए हल्के—हल्के गहने.....। अम्मी कहती थीं कि बिचारी ने कैसे सारी जिंदगी तन्हा काट दी.....। लेकिन इसका असर कभी चचा पर नहीं आया। चचा जान को बचपन से तारों में गहरी दिलचस्पी थी सो आपा ने इसी शौक को आगे बढ़़ाया और चचा जान ने कितनी तो रिसर्च किएए नए तारों पर.....पूरा आसमान छान दिया उन्होंने।श्
ष्बड़ी बोलती है छोकरीए लेकिन है बहुत प्यारीष् फूफी ने सोचाए श्चलें फूफी जान छोटी चची के पास.....वे नहाकर आ गई होंगी।श्
श्हाँ चलो।श्
ताहिरा के कमरे में जब वे दोनों पहुँची तो देखा कि एक लड़की ताहिरा की चोटी गूँथ रही हैए एक फूलों की वेणी लिए खड़ी है। फूफी पास जाकर खड़ी हो गईंएश्बैठिए फूफीजानश् निकहत ने कहा। वे पलंग के पायताने बैठ गईं। चोटी गूँथकर वेणी लगाईं और सफेद जुही के फूलों की माला भी चोटी में लटका दी। तभी अजरा ने कमरे में प्रवेश कियाए श्तुम लोगों को तो न जाने कितनी देर लगती है हर काम मेंए अभी चोटी ही गूँथी हैएश् बड़बड़ाते हुए उसने सोने के कंगन मुमताज के हाथ में पकड़ा दिये श्लोए जल्दी गहने पहनाओ।श् सोने के सेट को पहनाकरए फिर मोतियों की लम्बी माला ताहिरा के गले में पहनाई गई। ताहिरा का रूप देखकर फूफी ने मन ही मन उसकी बलाएँ लीं। श्खुदा! किसी की नजर न लगे मेरी बच्ची को।श्
ताहिरा ने फूफी को अपनी ओर देखते पाया तो शरमा गई। दोनों लड़कियाँ जब ताहिरा को सजा चुकीं तो चली गईं।
श्फूफीए ये दोनों लड़कियाँ बड़ी चची की खिदमत में रहती हैं एक का नाम अस्माँ हैए जो वेणी लिए खड़ी थी वह मुमताज है। वैसे इस घर में बहुत नौकर हैंए बड़ी चची कहती है कि अस्माँए मुमताज ही तेरी छोटी चची की देखरेख करेंगीएश् एक साँस में निकहत ने सब बता दिया।
श्आपके लिए नाश्ता लाती हूँ छोटी चचीए आज तो यहीं खा लीजियेए कल से समय पर बड़े हॉल में पहुँचना पड़ेगा।श् श्निकहत के जाते ही फूफी ने ताहिरा से कहा— श्बेटीए तुम इतनी देर से क्यों सोकर उठीए औरत जात हो.....क्या इतनी देर तक सोना ठीक हैघ् चाहे सारी रात जागो पर उठना अलस्सुबह ही हैए समझीए तेरी बड़ी सौतन कुढ़़ी बैठी हैं।श्
श्वह क्यों फूफीघ्श् भोलेपन से ताहिरा ने पूछा।
श्नाश्ते का नियम है यहाँए सभी बड़े हॉल में एक साथ नाश्ता करते हैंए कल से सुबह नौ बजे से पहले तैयार हो जाया करो।श्
श्जी फूफी।श्
एक सप्ताह बीत चुका है। मेहमान सारे विदा हो चुके हैं। शादी की अस्तव्यस्तता के बाद मानो जिन्दगी लीक पर आ गई है। घर की ढ़ेरों बातें शांता बाई और निकहत से पता चल चुकी हैं। फूफी भी टोह में रहती हैं कि कहाँ क्या हो रहा है उन्हें पता चलता जाए। वे अख्तरी बेगम के कमरे में भी बैठ आतीं। शहनाज बेगम के कमरे में भी जातीं। लेकिन उन्हें सबसे अच्छा लगता गुलनार आपा का कमरा। एकदम सादगी—पूर्ण। तमाम वैभव से परेए अछूता कमरा। पूरे कमरे में तमाखू रंग का बिछा कालीनए उस पर जहाज जैसा एक बड़ा पलंग। शनील का सादा चादरए गाव तकिये और उसी रंग के खिड़की—दरवाजे पर टंगे पर्दे। गुलदस्ते में हमेशा ही सफेद गुलाब.....मानो उनकी एकांकी और उदास जिंदगी का प्रतीक। शेल्फ में उर्दू की कुछ किताबेंए कुछ रिसालेए मेज पर दूधिया रोशनी का एक टेबिल लैम्प और काले शीशम की लकड़ी से बनी आराम—कुर्सी। कमरा एकदम शांत.....बात करते भी डर लगता.....। मानो शोर से कमरा कुम्हला जाएगा। इसी के विपरीत था शहनाज बेगम का कमरा जिसमें रंगबिरंगी काँचे थीं। झाड़फानूसए शोख पर्देए शोख रंग की चादर.....और बड़े—बड़े गुलदस्तेए पेंटींग्जए मक्का—मदीना का सुनहला रेखाचित्र.....बड़ी—बड़ी अलमारियाँ।
फूफी कभी—कभी बगीचे में टहलती रहतींए बीचों—बीच बने फव्वारे पर जाकर रंग बदलते पानी के बुलबुलों को देखतीं। निकहत दबे स्वर में बताती है कि बड़ी चचीजान नियम कायदों में बहुत सख्त हैंए वे तो चचाजान को भी कुछ न कुछ कहती रहती हैंए परन्तु वे कुछ नहीं बोलते। निकहत सारे दिन छोटी चची की गुहार लगाए रहतीए अब तो उसे ताहिरा के पास बैठे रहना ही अच्छा लगता था।
दुपहर ठीक एक बजे बड़े हॉल में दूध—सा सफेद दस्तरख्वान बिछा दिया जाता। गाव तकिये रखे जाते। बावजूद सारे आधुनिक उपकरणों के नीचे खाने का सिलसिला बरसों से चला आ रहा था। गुलनार आपा को छोड़कर सभी समय पर खाना खाने हॉल में आ जाते थे। इस घर के नियमों में एक नियम यह भी शामिल था कि चाहे कोई नाराज हो या खुशए सभी को हॉल में आना ही है। सर्वप्रथम शाहजी निवाला तोड़ते फिर सभी ष्बिस्मिल्लाहष् करके खाना खाते। बिमारी से पहले शाहजी के वालिद यहीं हॉल में आकर खाना खाते थे। लम्बी बीमारी और चल—फिर न सकने के कारण अब वे कमरे में ही खाते हैं। उनके साथ गुलनार आपा खाती हैं। बड़े—बड़े डोंगों में सब्जियाँए पुलावए सलादए मिठाई आदि रहता। अख्तरी बेगम को शांताबाई थामे हुए आतीं। कभी दर्द बढ़़ने पर वे कमरे में ही खाना मंगवा लेती थीं। उम्र दराज अब्दुल्ला बावर्ची की जवानी इसी हवेली में थी। वह इस घर के हर व्यक्ति की रूचि—अरुचि का ध्यान रखता था। अस्मां और मुमताज भाग—भागकर खाना परोसतीं.....गरम—गरम चपाती लातीं।
मुमताज के हाथ से शाहजी ने डोंगा ले लिया और बगल में बैठी ताहिरा को परोसा। शाहजी के दूसरी तरफ शहनाज बेगम बैठती थीं। ताहिरा ने भर नजर शाहजी को देखा और शरमा गई। शाहजी की आँखों में ताहिरा के लिए मुहब्बत का अथाह समंदर लहरें लेता दिखा। कभी ताहिरा निर्लिप्त—सी बैठी रहतीए कभी—कभी हौले से मुस्कुरा देती.....। लेकिन फूफी ने स्पष्ट जाना है कि ताहिरा कहीं खो भी जाती है। क्या लड़की अभी भी फैयाज को ही याद करती हैघ् यदि नहींए तो शाहजी की मुहब्बत भरी निगाहों का मुस्कुरा कर स्वागत क्यों नहीं करतीघ् फूफी के दिल में एक टीस उठती है.....।
मुहब्बत! हाँ उन्होंने भी तो की थी मुहब्बत। मुहब्बत की टीस बड़ी गहरी होती है। वे वेदना से देखती हैं ताहिरा की ओर.....एकाएक चौंक पड़ती हैं। सामने बैठी अख्तरी बेगम मुस्कुरा रही हैं। शाहजी ताहिरा की खाली कटोरी में रबड़ी परोसे जा रहे हैं और ताहिरा सिर हिलाकर मना कर रही है। शाहजी रबड़ी से भरी चम्मच ताहिरा के मुँह तक ले गएए तभी झमक कर शहनाज बेगम उठ खड़ी हुईं और हाथ धोने के लिए वॉशबेसिन की ओर बढ़ीं। यह क्याघ् सभी चौंक गये। शाहजी के उठे बगैर तो कोई दस्तरख्वान से उठता नहीं! अख्तरी बेगम व्यंग्य से मुस्कुरा रही थीं। कोई तो है जो बड़ी को पछाड़ने आई है। महसूस हुआ फूफी को कि मौसम में गर्माहट आ गई है। एकाएक शहनाज बेगम को अपने एकछत्र साम्राज्य में किसी का दखल नजर आया। बगैर किसी ओर देखे शहनाज अपने कमरे में चली गईं। हमेशा खिलखिलाते हुए शाहजी के मुँह में पान का बीड़ा खिलाने वाली शहनाज बेगम ने अपने कमरे से शाहजी के लिए पान भिजवाया। निकहत ने हैरत से फूफी की ओर देखाए मानो कह रही हो कि बस अब तूफान आने ही वाला है। शाहजी उसी समय बड़ी बेगम के कमरे में प्रविष्ट हुए।
ताहिरा अपने कमरे में अकेली लेटी थीए निकहत ने खबर दी थी कि आज चचाजान बड़ी चची के कमरे में सोयेंगे।
श्तुम्हें कैसे पता निकहतघ्श् फूफी ने बेजान आवाज से पूछाए श्चचाजान बड़ी चची का खूब ध्यान रखते हैं। उनके चेहरे पर उदासी की एक लकीर नहीं देख सकते। जब भी बड़ी चची नाराज हुई हैंए चचा जान यूँ ही पीछे—पीछे डोले हैं।श्
फूफी रात भर जागती रहींए हवेली के भेद परत—दर—परत खुल रहे थे। एक चम्मच रबड़ी मुँह में खिलाना आफत बन गया था। रात को वे ताहिरा को देखने गई थीं। घुटनों को सीने से लगाए वह सो रही थी। कितनी मासूम है ताहिराए सोचती रहीं वे। साँसों के उतार चढ़़ाव से बालों की वेणी हिल रही थी। यह लड़की जो उनके एक बार कहने मात्र से दो सौतनों के नीचे इस घर में आने को तैयार हो गई थी.....। जाने कितने अपराध बोध से ग्रस्त हो जाती हैं वे। आज शादी हुए आठ दिन हुए हैंए और बच्ची अकेली सो रही है.....। क्या गलती हुई उनसे वे एक पति भी इस लड़की को ऐसा न दे पाईंए जो सिर्फ उसका होता।.....अभी तो वह बच्ची ही हैए और उसमें विरोध करने की शक्ति भी नहींए वरना क्या कोई लड़की सिर पर बैठी सौतनों को बर्दाश्त कर सकती थीघ् क्या कभी ताहिरा उन्हें माफ कर पाएगीघ् सोचते हुए उन्होंने ताहिरा को चादर ओढ़़ा दीए वह कुनमुनाई और चादर को सीने तक खींच कर पाँव पसार लिए।
फूफी वापिस लौटीं तो जागती ही रहीं। ताहिरा का ऐसा खिला रूप.....भला कौन उससे शादी को इन्कार कर सकता था। भाभी तो इस निकाह के लिए जरा भर तैयार ही नहीं थीं। नूरा—शकूरा और उनकी दुल्हनें तो सिर्फ रूपया ही देख रहे थे।
क्या करें वेघ् नहीं! इस लड़की को उसके सम्पूर्ण हक वे दिलवाकर ही रहेंगी। हम गरीब हैं तो क्या! शाहजी को कोई अमीर घराने की तो मिलती नहींए उम्र और दो—दो औरतें पहले से तैनात देखकर कौन अमीर घराना अपनी बेटी ब्याहता इनसेघ् इस्लाम में चार—शादियाँ जायज हैं.....लेकिन वे किन्ही खास परिस्थितियों में।.....अब मुसलमान इतने दकियानूस भी नहीं रहे कि वही पुराना ढ़ोल पीटते रहें। हर कोई औलाद का सुख चाहता है। अब ये सब बातें किताबी हैंए वे उठकर बैठ गईं। साँस घुट रही थी। नींद कोसों दूर थी.....क्या कहें शहनाज बेगम से कि शाहजी सिर्फ ताहिरा के हैं.....क्यों दिल में उफान उठ रहा हैघ् जितना हक शाहजी पर ताहिरा का है उतना ही शहनाज बेगम का.....फिर वे उनके कमरे में सोए हैंए तो क्यों वे उद्विग्न हैंघ् यह तो होगा ही। बँटा—बँटा प्यार और बँटी—बँटी चाहतें। हमेशा यह सहना होगा ताहिरा को.....हमेशा.....हमेशा। सुबह की पहली किरन भी धरती पर नहीं आई होगी तभी फूफी की आँख लगी और निकहत जगाने पहुँच गई।
फिर वही दिनचर्या शुरू थी। ताहिरा नहाकर तैयार थी और अस्माँ उसे सजा रही थी। फूफी भी तैयार होकर ताहिरा के कमरे में पहुँच गईं और ताहिरा के साथ—साथ नाश्ते के लिए बड़े हॉल में।
शहनाज बेगम कुछ अधिक चहक रही थीं। विदेशी साटन का गुलाबी कुर्ता और शरारा पहने थीं। हाथ में जड़ाऊ कंगनए वैसा ही हारए कान में झूलते बुंदेए भर—भर हाथ में गुलाबी चूड़ियाँ.....। शहनाज बेगम ने मानो हिकारत से दोनों छोटी बेगमों की ओर देखाए कि देखो इस उम्र में भी दम—खम रखती हूँ अपने पति को लुभाए रखने का।
शाहजी ने चोर नजरों से ताहिरा की ओर देखा और निगाहें झुका लीं.....जैसे अपराधी हों। ताहिरा हमेशा की तरह चुप और खोई—खोई बल्कि उदास भी। उससे कुछ खाया नहीं जा रहा था और वह एक—एक निवाला टूँग रही थी। कोई किसी से कुछ नहीं कह रहा था। बस शहनाज बेगम ही बोल रही थीं— श्आज ही जाना है हमें रामप्रसाद जी की तरफ। इस बार फिर से आमों का ठेका चाह रहे हैं। देखा है न हमारा आमों का बगीचाए बौर से लदा पड़ा हैए इस बार दुगुनी फसल होगी।श् शाहजी अनमनस्क से ष्हूँष् ष्हाँष् किये जा रहे थेए सारा कुछ बोलकर शहनाज बेगम बोलीं— श्अरी मुमताज! यादव जी आए नहींघ्श्
श्आ गए हैं बड़ी बेगम।श्
श्उन्हें नाश्ता दे आए और सुनए गाड़ी तैयार करने को कहना। मैं अभी रामप्रसाद जी की तरफ जाऊँगी। आप मेरे साथ चल रहे हैं शाहजीघ्श्
श्नहीं बेगमए आप ही तो सदा ठेका देती आ रही हैं। आप हो जाइए। मुझे काम है।श्
नाश्ते पर से सभी उठेए ताहिरा अदब से शहनाज बेगम के समक्ष झुकी और हमेशा की तरह अपने कमरे में जाने की इजाजत माँगी। कनखियों से शाहजी की ओर देखा और अस्मां के साथ अपने कमरे की ओर चल पड़ी।
श्देखिए! रेहाना बेगमए मैं तो अभी जा रही हूँ। आज गुलनार आपा भी शाहजी के साथ कारखाना जायेंगी। आज ही अरब देश से हमारा माल आ रहा है। सो शाहजी शायद दुपहर के खाने पर नहीं अ सकेंगे। आप अब्दुल्ला से कहकर अपनी देख—रेख में खाना बनवा लीजियेगा। अख्तरी बेगम तो किसी काम की नहीं हैं।.....ध्यान रखिएगाए शाहजी सलीका पसंद हैं। ड्राइवर के हाथ शाहजी और आपा का खाना भिजवा दीजिएगा। हमें भी लौटते में शाम हो जाएगीए आप सब दुपहर का खाना खा लें।श्
तखत पर रखी चाँदी की बड़ी—सी ट्रे में ढ़ेरों पान लगाकर शहनाज बेगम रख रही थीं। मुमताज जल्दी—जल्दी चाँदी के डिब्बों में पान के बीड़ा बनाकर रखती जा रही थी। एक पान का डिब्बा शाहजी के ड्राइवर मामू को देती हुई वे बोलीं— श्ठीक पौन बजे आकर खाना ले जाना। एक बजे शाहजी खाना खाते हैं।श् हर बार शहनाज बेगम एक ही बात को बोलती थीं जबकि सभी को मालूम था कि शाहजी एक बजे खाना खाते हैं।श्
श्अरी अस्मांए कहाँ मर गईघ्श् वे चिल्ला रही थींए श्कहाँ हैं मेरी जूतियाँघ्श् अस्मां भागकर कपड़ों के रंग की सुनहले तारों से बुनी उनकी जूतियाँ ले आई और उन्हें पहनाने लगी। मुमताज उन्हें बुरका पहनाने लगी। अस्मां ने पान का डिब्बाए पानी की बोतल कार में रखी और बड़ी बेगम के बाजू में जा बैठी। कार चल दी।
निकहत ने जोरों से साँस लीए और हँस पड़ीए श्कहीं भी जाती हैं चाची तो ऐसे ही तूफान मचा देती हैं।श् और फिर वह भाग गई ताहिरा के कमरे की तरफ।
देर रात शाहजी के साथ शहनाज बेगम ने खिलखिलाते हुए प्रवेश किया। निकहत के कहने से सभी ने खाना खा लिया था। शाहजी फिर बड़ी बेगम के कमरे में चले गए थे। फूफी ताहिरा के पास लेटी थीं। आज ताहिरा बहुत संजीदा थीए देह भी उसकी गरम हो रही थी। ष्शायद बुखार आएगाएष् सोचा फूफी ने और अपना हाथ ताहिरा के माथे पर रख दिया। श्आप छोटी चाची के पास ही सो जाइए फूफीश् निकहत आकर कह गई थी।
फूफी धीमे—धीमे ताहिरा को थपकियाँ देने लगींए ताहिरा सो गई। रात उसने पानी माँगा तो उन्होंने देखा कि उसे तेज बुखार है। अब किसे जगाएँ वे इतनी रात कोघ् वे सुबह होने का इंतजार करने लगीं। रात को कई बार ताहिरा जागी और फूफी भी जागींए यूँ भी इस घर की राजनीति को देखकर उनकी नींद उड़ ही गई थी। रोज ही वे देर तक जागती थींए लेकिन आज रात तो वे जागती ही रही। बुखार से या कैसे ताहिरा की आँखों में बार—बार आँसू आ जाते थे।
सुबह फूफी उठ गईंए लेकिन ताहिरा सोती रही। फूफी ने जगाया भी नहींए जब ताहिरा की नींद खुली तो फिर देर हो चुकी थी।
निकहत को बड़ी बेगम ने भेजा कि ताहिरा को बुला लाओ। ताहिरा बिना नहाए लेटी थीए निकहत के कहने से उठी और झटपट मुँह—हाथ धो आई। तैयार होते फिर आधा घंटा लगाए और जब वह हॉल में पहुँची तब तक शहनाज बेगम गुस्से से भर चुकी थीं।
ताहिरा को आया देखकर तुरन्त फूफी के समक्ष जा खड़ी हुईंए श्देखिये रेहाना बेगमए ताहिरा को इस घर के तौर—तरीके मालूम होते जा रहे हैंए फिर इस देर का मतलबघ्श् फूफी खामोश खड़ी रहींए मुँह कड़वाहट से कसैला हो गयाए बहुत कुछ कहना चाहा.....पर चुप रहीं। दस्तरख्वान पर बैठते हुए शाहजी ने शांत स्वर में कहा— श्ऐसे नाराज नहीं होइए बेगमए अभी नई हैं छोटी बेगमए धीमे—धीमे सब समझ जायेंगी।श् शहनाज बेगम पुनः भड़कीं— श्कल से समय पर अ जाएँ ताहिरा.....ताहिरा के समय से घर नहीं चलेगाए उन्हें इस घर के अनुसार चलना होगा। डब.....डब.....ताहिरा की आँखें भर आईंए बुखार से चेहरा लाल हो रहा था। चाहकर भी फूफी नहीं बता पाईं कि ताहिरा रात भर बुखार में तपती रही थी।
दिन भर ताहिरा उदासए गुमसुम—सी पलंग पर टीकी बैठी रही। निकहत आईए फूफी आईए लेकिन उसने किसी से बात नहीं की। यदि फूफी न होतीं यहाँ तोघ् कौन था देखने वालाघ् तेज बुखार में वह रोने लगी। कहाँ थीं खुशियाँघ् क्या इसी को कहते हैं जीवनघ् भाइयों की खुशियों के लिये जिबह होती वह। एक उम्रदराज व्यक्ति से निकाहए अम्मी की उम्र की सौतनें। यूँ भी उसके अंदर किसी का विरोध करने की क्षमता ही कहाँ थीघ् फूफी से कितनी उम्मीदें थी उसकीए फूफी ही उसके जज्बातों को समझ सकती थीं.....लेकिन उन्होंने भी ऐन समय कुछ न समझने का दिखावा किया। आँखों से आँसू बह चले और गालों पर लुढ़़कने लगे।.....सामने फैयाज खड़ा था.....वह आखिरी मुलाकात.....। देह तो कर्त्तव्य की बेदी पर बलि चढ़़ चुकी लेकिन दिल वह कभी किसी को नहीं देगी.....। वह तो फैयाज का है और रहेगा। इस पर मनमानी नहीं चल सकती। एक चीज तो उसकी है जिस पर सिर्फ उसका अधिकार है।.....सारे अरमानए सब कुछ गरीबी में स्वाहा हो गए.....दिल फैयाज को दिया है.....उसका है.....रहेगा। मुझे क्या मिलाघ् मैं क्यों मन पर दूसरों का हक मानूँघ् नहींए यह पाप नहीं है..... कतई पाप नहीं है.....क्या मेरे साथ पाप नै हुआघ् सब कुछ जानते हुए मुझे इधर नहीं ब्याह दिया गयाघ् मुस्लिम मजहब में तो लड़की की भी अनुमति निकाह के समय ली जाती है। तब वह फैयाज की जुदाई के आँसू बहा रही थी.....सिसकी को उसकी ष्हाँष् समझा गया और कहा गया कि श्निकाह कबूल कर लिया है।श् वह बेसाख्ता रो पड़ीए दोनों घुटनों के बीच सिर घुसाए वह सिसक रही थीए तभी पीठ पर वात्सल्य भरा हाथ पड़ा।
श्नहींए मेरे बच्चेए रोते नहीं हैंश् फूफी ने उतनी ही वेदना से कहाए उनका हृदय दुख और पीड़ा से काँप रहा था।
श्मैं तेरा दुख समझती हूँ मेरी बच्चीए लेकिन अब तो यही है तेरा घरए औरत का दूसरा नाम है सहन करनाए तुझे भी यह सब सहन करना ही होगा।श्
श्फूफीश् बहुत कुछ कहना चाहा ताहिरा ने लेकिन चुप रही और उनकी गोद में सिर डालकर फफक कर रो पड़ी— श्फूफीए मुझे अम्मी के पास जाना है।श्
श्हाँ! बेटीए जरूर चलेंगेए लेकिन यहाँ के रीति रिवाजों के अनुसार।.....जब शाहजी का हुक्म होगा तभी जायेंगेएश् वे बहुत देर तक ताहिरा की पीठ सहलाती रहीं।
श्फूफीए फैयाज में क्या बुराई थीघ् वह गरीब थाए सिर्फ यही नए लेकिन होता तो मेरा ही!.....बँटा—बँटा तो नहीं न।श् ताहिरा को फिर बुखार आ गया थाए वह बड़बड़ा रही थी.....फूफी काँप उठीं.....अनर्थ न कर बेटीए दीवारों के भी कान होते हैं.....उसका यहाँ नाम न लेए कभी उसका यहाँ नाम न लेना बेटी।
शाम गहरा चुकी थी और रात का साया शाम को अपने आगोश में दबोच रहा थाए फूफी ताहिरा को अपने से लिपटाए बैठी थीं। एक की जिंदगी के सारे सुनहले वर्ष दुखए अपमानए तिरस्कार जिल्लतों में बीते थेए और यह ताहिरा ष्उस घरष् की दूसरी लड़की। नहींए वे ताहिरा को कतई उदास न होने देंगी.....उसे उसके हकए प्यारए सभी कुछ इस खानदान में मिलके रहेंगेए बार—बार अख्तरी बेगम का चेहरा सामने आ रहा था— ष्कितने में खरीद लाई बड़ी इस फूल जैसी बच्ची कोघ्ष् श्नहीं ऽऽऽऽऽश् चीख पड़ने को दिल हुआ उनका।
ष्फिर कभी शाहजी ने मँझली बेगम की तरफ रुख नहीं कियाष् शांताबाई के शब्द कोड़े की तरह लगेए ष्अरे कोई महीने भर में किसी के हमल ठहर जाता हैए क्या यह जरूरी हैघ्ष्
निकहत भागती हुई आईए श्आप दोनों दादाजान के कमरे में फौरन पहुँच जाएँएश् कहती हुई तुरन्त लौट गई। ष्या खुदा.....कुछ अनर्थ तो नहीं हो गयाएष् फूफी ने सोचा अभी तो मेरी बच्ची के मुबारक कदम पड़े हैं इस घर में। सारी कडुवाहट से मेरी बच्ची को बचाना खुदा! .....उन्होंने ताहिरा को झटपट खड़ा किया और दोनों वालिद साहब के कमरे की तरफ चल पड़ीं।
वालिद साहब के कमरे में डॉक्टरए नर्सए मौजूद थे। उन्हें मुँह पर अॉक्सीजन का मास्क लगाया गया थाए और बोतल से ग्लूकोज उन्हें चढ़़ाया जा रहा था। शाहजी पास ही खड़े थे। शहनाज बेगम और गुलनार आपा सोफेनुमा कुर्सियों पर बैठीं थींए अख्तरी बेगम दीवार से टीकी खड़ी थीं। ताहिरा भी जाकर दीवार से टीककर खड़ी हो गई। बुखार की कमजोरी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थीए टाँगें काँप रही थीं उसकी। मुमताज ने कुर्सी फूफी की ओर सरका दीए वे शहनाज बेगम के पास खामोश बैठ गईं। नौकरए नौकरानियों और दोनों ड्राइवरों का जमघट था वहाँ। फूफी खुदा से दुआ कर रही थीं.....कुछ अनर्थ न हो वरना ताहिरा को अपशकुनी माना जाएगा। हालाँकि वालिद साहब की उम्र ही ऐसी थी.....लेकिन कौन मानेगा इसेघ्
अख्तरी बेगम अधिक देर खड़ी या बैठी न रहने की वजह से लौट गईंए तो शहनाज बेगम बड़बड़ाने लगीं— श्सब नाटक हैए दिन भर पड़ी ही तो रहती हैं अख्तरी बेगम और काम ही क्या हैघ् इधर वालिद साहब की जान पर बनी हैए उन्हें आराम की सूझ रही है।श्
शाहजी ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया। वे स्वयं दूसरी कुर्सी पर बैठ गए उनके पीछे ताहिरा भी बैठ गई।
करीब तीन घंटे की भाग दौड़ के पश्चात् डॉक्टर ने कहा कि अब वालिद साहब खतरे से बाहर हैं। फूफी ने खुदा का शुक्रिया अदा किया। नर्स और अस्मां को वहीँ छोड़कर सभी लौट गए। शहनाज बेगम ने बड़ी बेबाकी से शाहजी का हाथ पकड़ा और अपने कमरे की तरफ बढ़़ गईंएण्ण्ण्ण्ण्ण्फूफी को हैरानी हुई.....ताहिरा थके कदमों से अपने कमरे की तरफ लौट गई।
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पार्ट — 5
फूफी को ताहिरा के कदमों की चाप देर तक टकोरती रही। जेहन में उस चाप की टकोर से वेदना उठी।.....मन अपराधी हो स्वयं से गवाही माँगने लगा— ष्क्यों किया रन्नी तूने ऐसाघ् क्यों खानदान की बलिदेवी पर बेटी की कुर्बानी दे दीघ् अँधे न देखें तो खुदा उन्हें माफ करता है पर तू तो आँख होते अंधी हो गई थी।ष्
फूफी की आँखें डबडबा आईं। बेशुमार आँसू ओढ़़नी पर चू पड़े। उनकी जिन्दगी हो मानो कुर्बानियों की दास्तान हैए आहों का जलजलाए उम्मीदों की टूटन है। रोते—रोते वे तकिये में मुँह गड़ा कर लेट गईं। धीरे—धीरे अतीत दस्तक देने लगा।
चौदह साल की उम्र में फूफी उर्फ रेहाना ब्याह दी गई थी। फिर वह सुहागरात जिसकी चिर स्मृति के नाम पर कुछ भी नहीं।.....पति.....छै फीट का पैंतीस दुहिजवाँ। रेहाना ने बस गुड़ियों से खेलना बंद ही किया था।.....उसके बाबाए सज्जाद अली खिलौने वाला शहर के नामी मशहूर व्यक्ति थे। पीढ़़ियों से यह रोजगार चला आ रहा था। अच्छा खाता—पीता घराना थाए शहर में साख थी। अब्बू के भी औलाद के नाम पर बस वह और भाईजान। बच्चे तो आठ हुए पर बाकी जन्मते ही खुदा को प्यारे हो गये। बड़ी मुश्किलों सेए पीर—दरगाह की मंनतों से वह और भाईजान बच पाये। फिर अचानक बाबा चल बसे।
अब्बू बाबा से बहुत लगाव रखते थेए मृत्यु का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाये।.....तबीयत उचाट—सी हो गई उनकी हर काम से। इकलौते थे सो बाबा के बेहद लाड़ले। बाबा ने उन्हें मानो चिड़िया की तरह अपने मुलायम परों में रखकर पाला था। ठीक भी तो है कितनी मुश्किलों से अब्बू का जन्म हुआ था। जाने कितने पीरए दरगाहए मजारें बाबा ने मंनतों से लाद दी थीं। मजहबी कट्टरता के बावजूद वे औलाद की खातिर चामुंडा देवी और चर्च में भी फूल चढ़़ाकर माथा नवा आये थे।
जिस समय अब्बू का जन्म हुआ बाबा ने मोहल्ले भर में मोतीचूर के लड्डू बँटवाये थे और अड़ोस—पड़ोस के बच्चों को मुफ्त में खिलौने बाँटे थे। बाबा ने अब्बू का नाम रखा बरकत अली। भाईजान ने ही रेहाना को बताया था कि अब्बू के जन्म लेते ही बाबा का व्यापार खूब चमका था। शहर के प्रतिष्ठित मोहल्ले में बाबा ने घर बनवाया था और खूब शान से रहते थे। अब्बू उनके लिये बरकत ही तो थे। उन दिनों बाबा के ऊपर लक्ष्मी की कृपा—ष्टि थी। खिलौनों की माँग इतनी कि कर्मचारी रखने पड़े थे। शहर के ऐन बाजार में उनकी दुकान थी। बाबा दुकान में मुब्तिला रहते। इधर अब्बू दादी की छत्रछाया में लढ़़ियाते रहते। सुबह से शाम तक दिन का हर घंटा अब्बू के लिये। जूसए मेवेए हलवाए मिठाई के इंतजाम में ही जुटी रहतीं दादी। घर में मदरसा से मौलवी साहब अलिफ—बे सिखाने आने लगे। तेज दिमाग था अब्बू का। छोटी—सी उम्र में ही कुरान की आयतें सुना देते मौलवी साहब को। बेटे की तेजबुद्धि देख बाबा ने सोचा— ष्इसे नाहक मिट्टीए रंग—रोगन की दुनिया में क्यों घसीटूँष् सो अब्बू बाकायदा स्कूल जाने लगे। घर में एक चितकबरी गाय भी आ गईए हुकुम था कि इसी गाय का दूध पिलाकर बरकत अली स्कूल भेजे जायें।
लेकिन बाबा की इच्छा धरी की धरी रह गयी। अब्बू पढ़़ न सके। दोस्तों की संगत में अपनी जिम्मेवारियाँ भूल गये। उनका स्कूल शहर के हरे—भरे इलाके में थाए जाने के लिए यूँ तो इक्का रोज दरवाजे पर आ जाताए पर बरकत अली इक्के वाले को उस जगह से विदा कर देते जहाँ से अमराई शुरू होती थी। पूरी अमराई यार—दोस्तों के साथ चलकर पार होती। आमों के मौसम में कहाँ का स्कूल और कहाँ की पढ़़ाईघ्ण्ण्ण्ण्ण्बस्ता फेंक सरपट पेड़ पर और कच्चे आमों की जमकर खिलाई। दिनभर मटरगश्तीए गुल्ली—डंडा और कबड्डी से अमराई में हड़कंप मचाये रखते। एक घंटे वाला पीपल का चबूतरा भी था उस अमराई में..... मशहूर था कि उस पीपल में भूत है। रात के सन्नाटे में पीपल से घंटे बजने जैसी ध्वनि पैदा होती है। कोई डर के मारे उसके नजदीक नहीं जाता था। बरकत जब अपने दोस्तों के साथ वहाँ से गुजरते तो हनुमान चालीसा की चौपाइयों को बोलते जातेए जो उनके दोस्त महेश ने उन्हें सिखा दी थीं। आँखें मुँदी होतीं और दिमाग में घंटे बजते रहते। स्कूल में अनुपस्थित रहने का दंड था एक आना प्रतिदिन और दस बेंत। एक दिन मास्टर ने ऐसी जोरों की बेंत मारी कि उन्हें रात को बुखार आ गया। खबर उड़ गई कि बरकत अली पर घंटे वाले पीपल के भूत का साया है। आखिर उस पेड़ के पास से रोज जो गुजरते.....! भूत भी उस खूँख्वार अंग्रेज अफसर का जो रोज अमराई से अपने शानदार घोड़े पर गुजरता था। सूट—बूट से लैसए चुस्त—दुरुस्त अंग्रेज अमराई से पाँच कोस की दूरी पर गन्ने के खेतों की ओर जाता था और दिनभर भारतीय मजदूरों की पीठ पर कोड़े बरसाता काम कराता था। गन्ने के खेतों से लगी शक्कर मिल थी। इस मिल के आस—पास के लगभग दो मील चौरस इलाके में दीवाली के दिनों मड़ई भरती थी। आसपास के गाँवों से किसान मजदूर अपनी चीजें बेचने आते। बिजली का झूलाए गन्ने का मशीन से निकालाए बरफ डालाए झागदार मीठा रस और औंटाये हुए दूध का ताजा खोवा जो तेंदू के पत्तों में रखकर बेचा जाता थाए इस मड़ई का खास आकर्षण था। रंगीए छपी सींगों में कौड़ीए मूँगाए मोती मढ़़े गाय लिये ग्वाले आते और जमकर नाचते। इनका नाच देखने अंग्रेज खासतौर से आते। ग्वालों के संग ग्वालिनें भी नाचतीं.....प्रिंटदार छींट की साड़ीए फुग्गेदार बाहों का ब्लाउज और गोरे गालों पर गुदा गुदना जो चिड़ी की छाप का था। जो ठुमक—ठुमक कर सबसे अच्छा नाच रही थीए उस ग्वालिन पर अंग्रेज अफसर का दिल आ गया। इसी पीपल के पेड़ के नीचे एक बार मौका देख अंग्रेज अफसर ने उस ग्वालिन को दबोच लिया था और उसका फुग्गेदार ब्लाउज फाड़ डाला था। ग्वालिन गठीले शरीर की ताकतवर महिला थी। उसने चारे के गठ्ठर में खुसा हँसिया निकाला और उस अंग्रेज को पटक कर उसका गला काट डाला। फिर अपनी खुली छातियों पर आँचल ढ़ँका और फूट—फूट कर रोती घर लौट गई। उस अंग्रेज का क्रिया कर्म भी नहीं हुआ।.....लाश सड़—सड़ कर चील कौओं का भोज बनती रही। वही अंग्रेज भूत बनकर पीपल पर रहता है उर घंटा बजा—बजाकर लोगों को बताना चाहता है कि उसका कत्ल हुआए उसकी लाश तक ठिकाने नहीं लगाईं गई। सो बरकत अली पर इसी भूत का साया था तभी तो बुखार चढ़़ा।
ष्कितनी बार कहा तुमसे कि इक्का स्कूल तक भिजवाया करो।ष् बाबा दादी पर गरजे थे।
ष्मैं तो इक्के वाले को स्कूल तक छोड़ने को ही कहती हूँ। यही बीच में उतर जाये तो मैं क्या करूँघ्ष्
ष्लाहौल विलाकूवत! एक बच्चे पर बस नहीं तुम्हाराए वो तो खुदा ने एक ही दियाए दर्जन भर देता तो क्या करतींघ्श्
बाबा देर तक बड़बड़ाते रहे। बरकत अली की पढ़़ाई छुड़ा दी गईए अब वे दुकान पर बैठकर गल्ला सँभालते। खिलौनों की पैकिंग उन्हीं की देख—रेख में होती। सारा माल अहमदाबादए सूरतए बड़ौदाए कलकत्ता के बाजारों में भेजा जाता। अंग्रेज बहादुरों के घर में सज्जाद अली खिलौने वाला के यहाँ की चिड़ियों की जमात की खूब माँग थी। लेकिन बरकत का मन धंधे में भी नहीं लगा। कभी पैकिंग में कागज की कतरनें कम ठूँसी जातीं तो खिलौने मुकाम तक पहुँचते—पहुँचते टूट जाते।.....गल्ले में हिसाब गड़बड़ा जाताए नफे की जगह नुकसान हो जाता। बाबा को चिन्ता सताने लगीए उनके बाद क्या होगाघ् किसी ने सलाह दीए शादी कर दो जिम्मेवारी सिर पर आयेगी तो सब ठीक हो जायेगा।
थोक कपड़ों के व्यापारी लियाकत अली की खूबसूरत—निपुण—इकलौती लड़की से इकलौते बरकत अली ब्याह दिये गये। शादी क्या थीए हफ्तों का जश्न था। बाबा ने दिल खोलकर खर्च किया। कलकत्ते के सुनारों से गहनों का सेट बनवायाए सूरत से असली चाँदी की जरी का शराराए ओढ़़नीए कुरता—पूरा जोड़ा सेरों वजन का.....क्या बात थी उस जमाने की!.....बाबा के कारोबार से बाजार में उनकी खास पहचान थी। शामियाने में थाल के थाल दही में डूबे बड़े भेजे जा रहे थे। बड़े—बड़े रकाब में फीरनियों की परइयाँ और गुलगुलों से भरी डलियें गुलाबी नैपकिन से ढ़ँककर भेजी गईं। तुख्मे बालंगा के शरबत के लिये बर्फ की सिलें रखवायी गईं। हर आगन्तुक पर केवड़े और चंदन के इत्र की बौछारए जूहीए चमेली के गजरों की भरमार। कई अंग्रेज भी आये। बाबा का मेलजोल था उनसे।
नई दुल्हन घर आई कि तभी हादसा हो गया। बाबा को पुलिस पकड़कर ले गई। दुकान के तलघर में बम बनाने का मसाला पेटीयों में भरा मिलाए हथियार मिलेए कुछ गुप्त नक्शे भी। दादी रोते—रोते बेहोश हो गईं। दादी के भाई चुप कराते रहे ष्मत रो बाजीए क्रान्ति की आग पूरे देश में फैली है। सबने प्रण लिया है देश को आजाद कराने का। मौका पड़ा तो हम भी जेल जायेंगे।ष्
ष्अरेए मुझसे तो बताते कुछए मुझे तो सुराग ही नहीं मिला।ष्
ष्ये सब बातें बताने की थोड़ी होती हैं.....खैरए छोड़ोए तुम जरा होशियार रहनाए पुलिस किसी भी वक्त आ सकती है।ष्
माहौल संजीदा हो गया था। शादी की खुशियाँ कपूर सी उड़ गईं। दादी घर बैठकर आँसू बहाने वालों में से न थींए सीधी पहुँच गईं जेल। सींखचों के पार खड़े बाबा से पूछा— ष्बोलिये मेरे लिए क्या हुक्म हैघ्ष्
ष्बसए बेटे—बहू की सुरक्षा! मेरा चमन उजड़ने न देनाए बड़ी मंनतों के बाद पाया है ये सुख।ष्
बाबा की आँखें डबडबा आईं थीं। देर तक लोहे के सींखचों में उनके हाथ पर अपना हाथ धरे दादी मूर्ति—सी खड़ी रहीं। आँखें जुबान बन गई थीं। मौसम भी गीला—गीला—सा था। पहरे पर तैनात कांस्टेबल ने डंडा ठोंककर हाँक लगाई थी— ष्मिलने का समय खतम।ष्
बाबा छैरू महीने बाद जेल से छूटे थे। इधर बहू के पैर भारी थेए उधर दुकान बैठती जा रही थी। कर्मचारी क्रांतिकारी बन गये थे। खिलौनों की पेटीयाँ बमों की पेटीयाँ बन गई थीं। मिट्टीए भूसेए गत्तों की जगह अब बारूद में मसाला मिलाने का काम शुरू था। जो जमापूँजी थी सो निकाल—निकाल कर काम चलता रहा। भाईजान के जन्म लेते ही देश में क्रान्ति की लपटें उठने लगी थीं। बाबा तीन बार जेल गये थे.....दादी ने सब सँभाला.....क्रान्तिकारियों के खेमों में दादी भेष बदलकर खाना पहुँचातीं। रात—रात भर बैठकर रोटीयाँ सेंकती फिर पैकेट बनते। हर पैकेट में छैरू छैरू रोटीयाँए भुनी सब्जीए आम के अचार की एक फाँक। बाबा को गर्व था दादी पर।
कहते कुछ नहीं पर दादी के चेहरे की हर शिकन बाबा की चिन्ता का सबब बन जाती। बाबा के सिर पर देशभक्ति का जुनून चढ़़ा था जिस पर वे अपना तनए मनए धन लगा चुके थे। बसए दादी की चिन्ता सताये जाती। बरकत अली के लिये घरए धन—दौलतए दुकान सब थी। सँभालना उन्हें था। बहू के पैर दोबारा भारी थे। इधर क्रान्ति की सरगर्मी बढ़़ती जा रही थीए आये दिन गिरफ्तारियाँ होतीं। क्रान्तिकारियों को पकड़—पकड़कर फाँसी पर लटकाया जाताए गाँधी जी के अहिंसक दल पर हिंसा बरसती। सब—कुछ उलट—पलट गया था। जोश ऐसा कि जिससे जो बन पड़ाए किया। उस वक्त का दिया चाँदी का एक तार भी मूल्य रखता था। दादी ने तो अपनी पूरी जिन्दगी बलिदान कर दी। खुलकर सामने तो नहीं आईं पर बाबा की रीढ़़ की हड्डी बनी रहीं। रेहाना जन्मी तब तक देश आजाद हो चुका था। लेकिन बाबा टूट चुके थेए शक्ति जवाब दे गई..... धन खतम हो गया।.....देश को सँभलने में समय लग रहा था.....जिन—जिन ने कुर्बानियाँ दीं सभी के घरों का यही हाल था। बाबा ने खाट पकड़ ली—अब क्या होगाघ् इलाज के पैसे कहाँ से आयेंगेघ् दादी मायूसी से बोलीं।
ष्मेरा बेटा है नए इलाज करायेगा मेरा।ष्
दादी ठंडी आह भरती—कहाँ है बेटे में दम खमए जो कमाये। इधर उसके बच्चे बड़े हो रहे हैंए घर का खर्च बढ़़ रहा है। उधर दुकान से लागत तक वसूल नहीं होती। वे मन ही मन सोचतीं।
फिर भी बरकत अली ने इलाज में कसर नहीं छोड़ी। वै।ए हकीमए ओझाए डॉक्टर सबको आजमाया। बाबा के पेट में पानी भर गया था। इतने सालों तक आजादी की लड़ाई में उन्होंने दिन में दो घंटे भी गहरी नींद नहीं ली थीए नतीजा लीवर खराब। कुछ भी हजम न होता। जो खाते सब निकल जाता। शरीर कमजोर होता गया। वै। ने संतरे का रस देने को कहा पर उतने पैसे भी न जुड़ते कि संतरे मँगाये जायें। बाबा ने आजादी भी दिलाईए धन भी कमाया.....घर की बगिया भी फलने—फूलने वाली बनाई पर बरकत अली को वे अपनी कामयाबी का हुनर न दे सके।
वह अपने भाईजान के साथ बाबा के आगे पीछे गुड़िया—सी डोलती रहती। कभी उन्हें शहद में घोलकर अपनी नन्हीं उँगलियों से दवा चटातीए कभी मूँग की उबली दालए चम्मच से पिलाती। दादी बिसूरने लगतीं। बहू से कहतीं— ष्कभी तुम्हारे ससुर ने गोश्त के बिना निवाला नहीं तोड़ा। मेवों की मिठाईयाँ हर वक्त घर में मौजूद रहतीं। केशर डली बिरयानी आड़े दूसरे बनती। सस्ते के जमाने की बात है.....उनका एक पान का बीड़ा दो रुपये में लगता था। कलकत्ते का मीठा पत्ता खास उनके लिये मँगवाया जाता था। आज मूँग का पानी तक पेट में नहीं ठहरता।ष्
उस दिन रह—रहकर बरसात हो रही थी। सुबह से बेमौसम काली घटाएँ आसमान पर लदी थीं। दादी ने बाबा की फतोईं निकालए झटककर उन्हें पहना दी थीए ऊनी कनटोपा भी। उतरते जाड़ों की साँझ थी। गुरसी में अँगारे रखकर बाबा की खाट के पास रख दिये गए थे। वै। की दवा खतम थी सो बरकत अली दवा लेने गये थे। धीरे—धीरे बाबा ने आँखें खोली थीं— बरकत की अम्मी.....कहाँ हो तुमघ्
ष्आपके पास ही तो हूँ। बोलिएए क्या चाहिएए पानी दूँघ्ष्
ष्नहीं अपना हाथ दो.....मैं अकेलापन महसूस कर रहा हूँ। घुटन—सी हो रही हैए लगता है बाहर हवा नहीं चल रही है।ष्
ष्चल तो रही है.....खूब भीगीए ठंडी हवा चल रही है।ष्
दादी ने ऊनी धुस्सा भी ओढ़़ा दिया उन्हें.....दो चार दहकते अँगारे और डलवा दिये गुरसी में। पूछने लगींए ष्चाय बनवा दूँ बहू सेघ्ष्
ष्नहीं.....कुछ नहीं.....रन्नी कहाँ है और बड़े साहबजादे कहाँ हैं हमारेघ् ये बाहर क्रान्तिकारियों की भीड़ क्यों लगी हैघ् क्या तुमने आज खाने के पैकेट नहीं भिजवाये उन्हेंघ् बरकत की अम्मी.....मेरे महेश को फाँसी दे दी अंग्रेजों ने। मेरा दोस्त महेश.....ओह लाश देखतीं तो सीना दहल जाता। आँखें कौड़ी सी बाहर निकल आई थीं.....गले में फंदा धँस गया था.....कल ही तो दफनाया हमने उसे। मुझे जाना है.....मेरा कोट.....शेरवानी ले आओ.....टोपी बदल दो मेरी.....कल जमीन में गिर गई थी।ष् कहते—कहते बाबा चुप हो गये थे। तभी बरकत अली दवा लेकर आ गये। बाबा उन्हीं की ओर देख रहे थे.....दादी विस्फरितए अवाक थीं.....लेकिन बाबा शान्त.....सब कुछ खतम। बरकत अली पछाड़ खाकर गिरे और फर्श से सिर कूटने लगे अपना। दादी अपना गम भूल गईं। बेटे के बिलखने ने उन्हें सहमा दिया था। भाई जान और रेहाना अब्बू से चिपके बिलख रहे थे। सारे घर पर मातम छा गया।
बाबा के बाद अब्बू ने सबसे बड़ी भूल की घर बेचने की। दुकान में माल खरीदने के लिये रुपये चाहिए थे। बाबा थे तो अब्बू निश्चिंत थे। अब चिन्ता ही चिन्ता.....कुल मिलाकर पाँच लोगों का खर्च। करने—धरने वाले वे अकेले। दुकान में कर्मचारी मालिक को ढ़ीला देख मनमानी करने लगे। गल्ले में हिसाब का ओर—छोर न था। कहाँ का रूपया निकाल कहाँ डाला गया कोई जवाब नहीं। कर्ज बढ़़ता गया। मुफ्त में कौन पहुँचाता खिलौनेघ् लिहाजाए घर बेचकर अब्बू किनारी बाजार के पिछवाड़ेए दो मंजिले मकानों की बखरी में नीचे के मकान में किराये से रहने लगे। कारखाने से खिलौने मँगाने की अब औकात न थी। लिहाजाए घर के आँगन में ही मिट्टी सनने लगी। कच्चे खिलौने सूखते—पकते.....दादी और अम्मी रंग—रोगन लगाने में दुपहरिया बिता देतीं। रेहाना और भाईजान को घर पर मौलवी पढ़़ाने आते पर भाईजान अब्बू के कारण ज्यादा नहीं पढ़़ पाये। मामूजान ने उन्हें अपने कपडे के व्यापार में साझीदार बना लिया और छोटी—सी उमर में ही वे घर के खर्चे में हाथ बँटाने लगे। रेहाना के लिये भी अब मौलवी जी न आते। वह भी सखी—सहेलियों से दूर खिलौनों की दुनिया में अकेली डूबी रहती। खिलौनों के काम से निपट वह अकेली बैठी गुड़ियों से खेलती रहती। बाहरी दुनिया का उसे रत्ती भर भी ज्ञान न था। अम्मी झिड़कतीं भी।
ष्अरी.....गैया—सी भोली बनी रहेगी तो जिन्दगी कैसे पार होगीघ्ष्
ष्खिलौने बनाती तो हूँ अम्मी। भाईजान की दुपल्ली टोपी भी क्रोशिये से बुन देती हूँ।ष्
ष्बस.....ए हो गई टोपी—खिलौनों में जिन्दगी पार। कुछ शऊर सीख। दुपट्टा तक ठीक से लेना नहीं आता।ष् रेहाना खिलखिला पड़तीए श्लोए ले लिया ठीक सेए अब खुश!श्
रेहाना को तेरहवाँ साल लगा और दादी अपने अच्छे दिनों की याद में खोई अल्लाह को प्यारी हो गईं। अम्मी के ऊपर पूरी गृहस्थी का बोझ आ गया। अब्बू सहमे से रहते। अपनी आँखों जिस शान—शौकत को उन्होंने देखा हैए जिस लाड़—प्यार से पीला—बढ़़ेए उसका नामोनिशान न था। कमर तोड़ मेहनत थी और व्यापार में निराशा थी। अब्बू ऊब चुके थेए टूट चुके थे। रेहाना की चिन्ता खाये जाती। लड़की जवान हो रही थी और घर में कंगाली छायी थी। भाईजान के लिये भी रिश्ता आ गया था पहले रेहाना को निपटाना था। लिहाजा आनन—फानन में दुकान के ही एक कर्मचारी द्वारा सुझाये रेहाना से दुगने से भी अधिक बड़ी उम्र के एक क्लर्क से रेहाना का निकाह पढ़़वा दिया गया। शादी भी क्या थी.....जन्मदिन पार्टी जैसी.....घर के आगे ही मेन सड़क पर हरे रंग की कनातें लगाकर कुर्सियाँ डाल दी गई थीं। नुक्कड़ पर बड़ी—सी भट्टी सुलगाकर बिरयानी और शीरकोरमा पकाया गया था। बहुत बड़े अल्यूमीनियम के देगचे में गुलाब का शरबत था सबके लिये। शाम निकाह पढ़़ा गयाए रात तक्क मेहमान आते रहे। उसी रात दो बजे के लगभग रेहाना बिदा कर दी गई। सिल्क का नकाब ओढ़़ाकर जो कि उनके परिवार में पहली बार खरीदा गया था। बाबा ने अपने खानदानए अपनी कौम से बगावत करके कभी दादी को नकाब न ओढ़़ने दिया। उन्होंने दादी को अपने बराबर का दर्जा दिया था। उनकी —ष्टि में नकाब औरत की काबलियत को छुपाता है जिससे कि शायद मर्दजात को डर हो। अम्मी ने भी कभी नकाब नहीं पहना लेकिन रेहाना को पहनना पड़ा क्योंकि उसके ससुराल की माँग थी। नकाब ओढ़़ना रेहाना के लिये अद्भुत घटना थीए उसके लिये तो शादी भी अद्भुत घटना थी। चूँकि वह सहेलियों में पली बढ़़ी न थी सो शादी का अर्थ भी न जानती थी।
छोटे से दो कमरों वाले घर में वह बिदा होकर आई। सारे दिन मुँह—दिखाई की रस्म चलती रही। रात को मेहमानों को बिदा कर रेहाना की सास ने दिन भर पलथी मारे बैठीए थकीए सोने के लिये बेचौन रेहाना से कड़क लहजे में कहा— ष्खाना खाकर कपडे बदल लो बहूए वो कुठरिया में तुम्हारा बिस्तर है.....चली जाना।ष्
बिस्तर के नाम पर उसमें शक्ति आ गई। लेकिन यह क्याए अभी खा—पीकरए नकाब उतारकर वह आराम से लेटी ही थी कि उसका पति कमरे में दाखिल हो गया। उसके आते ही शराब का भभका भी कुठरिया में फैल गया। उसने दरवाजे की कुंडी चढ़़ाई और रेहाना पर भरभराकर गिर पड़ा। रेहाना चीख पड़ी। उसने पूरी ताकत से अपने को छुड़ाया और कोने में खड़ी होकर रोने लगी। ऐसा तो कभी उसके साथ सलूक नहीं हुआ.....अब्बू ने उसे कैसे जानवर के घर भेज दिया। नींद—वींद सब उड़ गई। पति ने उसे फिर अपनी ओर घसीटा और उसके कुरते में अपना हाथ डाल दिया। अपने उरोजों पर लोहे जैसे वजन से वह तड़प उठी और कसकर एक झापड़ पति के गाल पर रसीद कर दिया। रेहाना वैवाहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ थी.....और फिर यह वहशी सलूकघ् बेहद गुस्सा आया उसे। पूरी ताकत से उसने पति को ढ़केला था। शराब से मदहोश वह वहीँ बड़बड़ाते हुए सो गया। रेहाना खटीया की पट्टी पर सिर रखे फूट—फूट कर रोती रही। दर्दए दुख की चुभन झेलते कब सुबह हुई पता ही न चला। नींद खुलते ही रेहाना हड़बड़ाकर कुठरिया से बाहर आई। सास नाहा धोकर नमाज पढ़़ रही थी। रेहाना के चेहरे ने सब कुछ बयाँ कर दिया।.....बेटा शराब में अभी तक बेसुध सो रहा था। सास ने रेहाना के हाथों की कलाइयों को इतनी जोर से पकड़ा कि उँगलियों के निशान उभर आये— ष्यह नखरा यहाँ नहीं चलेगा।.....कोई नया—नया दूल्हा बना है मेरा बेटा जो तुम्हारे नखरे उठायेगाघ् तुमसे ज्यादा सुन्दर थी पहलीए उसे भी अपनी उँगलियों पर नचाता था वह।ष् रेहाना को यह तो पता चल गया था कि वह दूसरी बीवी हैए पहली प्रसव पीड़ा में मर गई थी। वह कुछ बोली नहींए चुपचाप चौके में जाकर चूल्हा फूँकने लगी। अब्बूए अम्मी की याद सताने लगी। मन हुआए भाग जाये यहाँ से। अगले महीने भाईजान की शादी है। क्या वह यहाँ मरती खपती रहेगीए उधर कुछ तो तैयारी में हाथ बँटाना होगा।
रात फिर वही कांड। वैसा ही आक्रामक रूप पति काए अबकी बार तो पूरा कुर्ता ही फाड़ डाला था उसके वजनी हाथों ने। रेहाना बिलबिला पड़ी थी। अपने को छुड़ाने के चक्कर में गिरते—गिरते बची थी। लगातार इंकार से पति ने दो—चार हाथ रसीद कर दिये और बड़बड़ाते हुए सो गया— श्साली! घोड़ी जैसी बिदकती है। झाँसी की रानी बनी हैए हाथ पैर दिखाती है। अरेए ब्याह कर लाया हूँए कोई भगाकर तो लाया नहीं हूँ।श्
रेहाना अवाक थी। कहाँ भूल हो गई उससेघ् बढ़़िया रोटी—सालन पकाया था उसने।.....थाली परोसकर दीए बिस्तर बिछायाए सिरहाने पानी रखा.....आखिर उसका पति चाहता क्या है उससेघ् रेहाना को शादी का अर्थ तक पता न था।.....एकांकी जीवन में वह खिलौनों के संसार में पली थीए फिर किसी ने सिखाया भी नहीं कुछ। पति अनुभवी था सो यह समझ ही नहीं पाया कि रेहाना सेक्स शब्द से अपरिचित है। बात सास के कान तक पहुँची। उन्होंने शाम को नहाने जा रही रेहाना के सब कपड़े बाथरूम की खूँटी से गायब कर दिये। रेहाना नहाकर बाहर निकले कैसेघ् सास तो घर का बाहरी दरवाजा बन्द कर चबूतरे पर जाकर बैठ गई थी। इधर रेहाना ने चुपके से आहट लीए फिर तौलिया लपेट कोठरी की ओर दौड़ गई.....जहाँ पहले से ही पति महोदय विराजमान थे। पति ने झपटकर तौलिया खींच लिया और उसे नंगी पलंग पर पटककर उसकी चीखों को घोंट दिया। दर्दए पीड़ा में छटपटाती रेहाना बेहोश सी होने लगी। अपरिपक्व मन में पति के इस बलात्कार से सदमा—सा लगा। चादर खूण से रंग गई थी। रेहाना के सामने जीवन का एक नया पक्ष प्रगट हुआ पति के अमानुषिक बलात्कार द्वारा! वह तृप्त हुआए सिगरेट सुलगाये खटीया से टीका बैठा था। रेहाना धीरे—धीरे उठी.....। आश्चर्य! खूँटी के कपड़े खटीया के पैताने रखे थे और सास चौके में चाय की पतीली चूल्हे पर चढ़़ा रही थी।
ष्चादर बदल लो.....ष् हलके से आलिंगन में लेते वह बोला— ष्क्यों इतना हाथ—पैर चलाती हैघ् मेरी बीवी है न तूघ्ष्
रेहाना को सब कुछ समझ में आ गया था.....अब विरोध न था.....पर कहीं दबी—ढ़ँकी नफरत जरूर थी उस शख्स से जो उसका पति था। संसार में क्या इंसानियत कुछ नहींघ् क्या उसके पति को उसकी कम उम्र और मासूमियत का ज्ञान नहींघ् उसे अपनी सास से भी परहेज था जो औरत की शक्ल में स्वार्थ का भंडार थी.....जो दयाए प्रेम से परेए मात्र अपने शौहर के वंश को चलाने में मुब्तिला थी। फिर चाहे उसका बेटा औरत के साथ बलात्कार करे या उसे मारे धमकाये।
बाबा की लाड़ली रन्नी अब पूर्ण औरत बन चुकी थी। बहुत वहशी तरीके से उसे औरत बनाया गया था जिसमें उसकी सास और पति दोनों का हाथ था। फिर भी रन्नी काम में जुटी रहती। सुबह से रात तक घर—गृहस्थी के काम करती। रात को चौके का काम निपटाए सास के पैरों की मालिश करती। सर में तेल ठोंकती। फिर पति के पैर दबातीए बालों में चंपी करती.....वह सिगरेटए शराब पीता रहताए रन्नी के हाथों बना भुना गोश्त खाता रहता और नशे में धुत रन्नी के कमसिन शरीर से अपने शौहर होने का हक वसूलता और सो जाता। कभी—कभी बात बेबात रन्नी मार भी खाती। पति की भीए सास की भी। पर वह सब कुछ खामोशी से बर्दाश्त कर लेती।
भाईजान की शादी भी सादगी से सम्पन्न हुई। भाभी दहेज—दायजा काफी ले आई थीं। भाईजान ने रेडीमेड कपड़ों की दुकान मामूजान की मदद से अपनी खिलौनों की दुकान के बाजू में ही खोल ली थी। खिलौनों की दुकान की तो कुर्की निकल आई थी। बाबा के जमाने का कर्ज पटा नहीं था लिहाजाए घर तो बेचना पड़ा था ही अब दुकान की भी नीलामी हो गई थी। अब वे अपने किराये के मकान में ही अॉर्डर लेकर खिलौने भेजते रहे। लेकिन बाजार मेंए खिलौनों की दुनिया मेंए नया मोड़ आया था। चाबी वाले प्लास्टिकए रबर और लकड़ी के खिलौनों की भरमार थी। एक से बढ़़कर एक नये खिलौने.....अब इन मिट्टी के कमजोर खिलौनों को पूछता कौनघ्
इसी तरह साल गुजरते गये। भाईजान गरीब से गरीब होते गये। अब्बू के लिये सब कुछ बर्दाश्त के बाहर था। पहले बाबा गयेए फिर घर बिकाए दुकान नीलामी चढ़़ी.....फूल—सी बेटी रन्नी नर्क में डूबी और अब खिलौनों के व्यापार का दिवालिया। एक रात जो सोये तो सुबह उठे ही नहीं। अम्मी जगाने आईं.....हिला—हिलाकर थक गईं पर बेजान मिट्टी में कैसी हलचलघ् उनकी चीख दूर खेतों में पके गेहूँ की बालियों को कँपा गई।.....होली नजदीक थीए घर—घर पकवान बन रहे थे। ऐसे में बरकत अली के घर का मातम सभी को सहमा गया था। वैसे इस घर से सभी को हमदर्दी थी। रन्नी को भी उसका पति मय पेटी बक्से के छोड़ गया था। अम्मी ने सोचा था रस्म अदायगी तक रहेगी रन्नीए शायद इसीलिये कपड़ों का बक्सा साथ आया है। उन्हें क्या मालूम था कि बाँझ करार दिये जाने पर उसकी थुक्का—फजीहत हुई थी। सास के सारे प्रयास व्यर्थ गये थे। झाड़ा—फूँका गया थाए गंडे—ताबीज बाँधे गये थे.....पर बेअसर था सब। महीने भर बाद भाईजान ने रन्नी से कहा— ष्ससुराल नईं जायेगी रन्नीघ्ष्
ष्नहीं भाईजान! उस नर्क में मुझे दोबारा न घसीटो। मेरी जिन्दगी में कुछ भी शेष नहीं रहा.....महज शराबए लात घूँसों के।ष्
ष्क्या! वे लोग तुझे मारते हैंघ् आखिर क्योंघ्ष्
रन्नी होंठ काटकर रह गई.....जो बर्दाश्त किया है वह बयाँ से बाहर है और जो भविष्य है वह सोच से परे.....
ष्भाईजानए मैं यहीं कुछ न कुछ करके पेट पाल लूँगीए आप पर बोझ नहीं बनूँगी।ष्
एक झन्नाटेदार झापड़ गाल पर पड़ा— ष्कमअक्ल! भाई से जुदा समझती है अपने कोघ् अपना पेट पालेगी! अरेए पहले मुझे कब्र में सुला दे फिर कमाने जाना।ष्
रन्नी दौड़कर भाईजान के सीने से लग गई और फूट—फूट कर रोने लगी। भाभी अलग सुबकने लगीं। उनकी तबीयत वैसे भी ठीक नहीं थी.....उम्मीदों से थीं.....आजकल में दिन गुजर रहे थे। अम्मी तस्बीह गिनने लगीं— ष्या अल्लाह! रहम कर।ष्
रन्नी शर्मिन्दगी से भर उठी। गरीब सहीए पर उनके कुनबे में कितनी मोहब्बत है आपस मेंए सब एक दूसरे का मुँह देख कर जीते हैं। भाईजानए भाभी और खासकर अम्मी के समझाने पर रन्नी ने ससुराल जाने को मन कड़ा कर लिया। औरत का भी क्या मुकद्दर बनाया है खुदा ने.....सब कुछ जब्त करने का हैरत भरा माद्दा।
भारी मन लिये रेहाना ससुराल लौटी। सास का वही रूटीन रहता। सुबह से शाम तक औलाद न होने के जुर्म में उसे कोसती। वह कोल्हू का बैल बनी शौहर की गृहस्थी का जुआ सिर पर रखे चकरघिन्नी बनी रहती। देशी दारु की घिनौनी बदबूए शरीर पर पत्थर से वजन को हर रात सहना। हर रात माथे की जरा—सी शिकन पर पीठए गाल पर उँगलियों के निशान उभार दिये जाते। रन्नी थक चुकी थीए टूट चुकी थी। वह मरना चाहती थी। उसे अपने जीवन से घृणा हो चुकी थी। उसके मन में कोई इच्छा शेष न थी। न उसे पड़ोसी बहू—बेटीयों के हाथों पर रची मेंहदी के बूटे मोहतेए न त्यौहार—दावत में पहनी उनकी गोटेए जरीए किरन लगी सिल्क की साड़ियाँ। न शादी—ब्याह में बन्ना—बन्नी के गीत रुचतेए न ईद की ईदी के लिये लालायित रहती। हाँए बस! रमजान के चालीस दिन का उसे इंतजार रहता। वह चालीस दिन के कड़े रोजे रखती और बड़ी एहतियात से रहती। लेकिन ईद उसे उदास कर जाती।
रेहाना को अच्छी तरह याद है वह रमजान का दसवाँ रोजा थाए फजर की नमाज के लिये उसने सिर पर दुपट्टा बाँधा ही था कि सास की चीख ने दिल दहला दिया था। चीख उसकी कुठरिया से आ रही थी जहाँ खून की उल्टी में उसका शराबी पति लिथड़ा पड़ा था। रात उसने पूरी बोतल बिना पानी मिलाये पी थी और रोजेदार रन्नी की पिटाई की थी कि ष्उसे धोखा हुआ जो वह निपूती ब्याह लाया।ष्
रन्नी ने दिल पर काबू किया। पति के कपड़े बदलेए हाथ मुँह पोंछा। वह लोथड़े—सा उसके हाथों में हिलता—डुलता रहा। सास डॉक्टर बुला लाई। जाँच हुईए देर तक जाँच होती रही और डॉक्टर ने बड़े रहम से रन्नी को देखा— ष्मुझे अफसोस है.....इनका लीवर फेल हो गया है और शरीर का बुखार दिमाग तक पहुँच गया है। खुदा को याद करिये।ष् रन्नी न रोईए न चीखी। दो घंटे तक डॉक्टर पति के शरीर में जान रोकने की कोशिश करता रहाए पर सब बेकार.....रात बारह बजे पति ने अंतिम साँस ली। रन्नी की जिन्दगी का यह एक बड़ा हादसा था पर वह इसे हादसा नहीं मानती। जहाँ से सुख का एक क्षण भी नसीब न हुआ हो उसके बिछुड़ने पर हादसा कैसाघ् बल्कि उसकी रूह को छुटकारा मिल गया था। समाज की नजरों में वह विधवा थीए पर अपनी नजरों में एक ऐसी संतुष्टि जैसी पिंजड़े से छूटे पंछी को मिलती है।
सास खुद विधवा थी पर उसके विधवा होने पर उसे कोसती— ष्करमजलीए मेरा बेटा लील गई। एक दिन भी सुख न दिया मेरे जिगर के टुकड़े को। एक चूहे का बच्चा तक नहीं जना निपूती ने।ष्
रन्नी की आँखें काली घटा बनी जा रही थीं।.....उस रात दो घटनाएँ एक साथ हुईं। इधर सास ने उसे रखने से इंकार किया ही थाए उधर भाईजान की साईकल दरवाजे पर आकर रुकी। रन्नी दौड़कर लिपट गई उनसे और फूट—फूट कर रो पड़ी। भाईजान कुछ न बोले। रन्नी ने कपड़े समेटे और भाईजान के बुलाये रिक्शे पर बैठ गई। सास बाहर नहीं निकली। जिस दहलीज पर एक दिन दुल्हन बनकर उतरी थी आज उसी दहलीज से बेवा बनकर विदा हो रही है रन्नी।
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पार्ट — 6
नूरा कहता है कि वह फूफी का बेटा है। रन्नी को भी नूरा से कुछ अधिक ही प्यार है। वषोर्ं बाद सूने घर में किलकारियाँ गूँजी थीं। रन्नी की खुशी का तो कहना ही क्याघ् उसने अपनी पुरानी रेशमी साड़ी में रुई भरकरए महीन काथा वर्क के डोरे डाले। इतनी प्यारी नन्ही सी रजाई बनाई थी कि खिलौने बनाते अम्मी मुस्कुरा पड़ी थीं।
ष्रन्नी की बच्चे की साध मानो हुलसकर सामने आई थीष् लेकिन दूसरे ही पल अम्मी उदास भी हो गई— ष्या अल्लाह! मेरी रन्नी को निपूता रखने का सबबघ् क्या हमसे कोई गुनाह हुआघ्ष् कुछ रोज पहले अम्मी के कानों तक यह खबर फुसफुसाहट बनकर पहुँची थी कि रन्नी का पति नपुंसक थाए औलाद पैदा करने लायक न था। अम्मी अचंभे से अवाक थीं.....उन्हें तो यही पता था कि रन्नी के पति की पहली बीवी प्रसव पीड़ा में मरी थी।
ष्अरेए सब धोखाधड़ी की बातें हैं आपा जान! कहाँ की जचकी! पहली मरी खाँसते—खाँसते तपेदिक से.....दहेज के भूखे थे माँ—बेटे दोनों।ष् खबर लाने वाली अम्मी की सहेली फातिमा बी ने कहा तो अम्मी के कलेजे को सुकून मिला। यूँ भी उनका कलेजा कबूतर जैसा बात—बात में सहम जाता था। अपनी आँखों खानदान की तबाही देखी थीए मौतें देखी थीं। छटाक भर का कलेजा कहाँ तक ताकत बटोरता जो सुकून बाँटती सबको.....।
ष्छोड़ो बी! पोते की मुबारकबाद लो! जैसेई खबर मिली हम तो दौड़े आये.....।ष्
ष्अरे दुल्हन.....बेटे को ले आओ.....खाला आईं हैं तुम्हारीएष् अम्मी ने आवाज दीए तब तक रन्नी रकाबी में बताशे और चाय का कप ले आई।
ष्लो बीए मूँ मीठा करो।.....ष्
ष्ऐ लोए बताशे से टरका रही हो।.....हम तो फीरनीए शीर—कोरमे की उम्मीद किये बैठे थे।ष् फातिमा बी ने रन्नी की तरफ एक आँख मिचकाते हुए जुमला कसा।
ष्अय हड़बड़ाती क्यों होए तसल्ली रखोएण्ण्ण्ण्ण्पोते के आगे फीरनीए शीर—कोरमा क्या चीज!ष्
नूरा को गोद में लेकर भाभी सिर पर पल्लू डालकर आईं। गुलाबी किनारेदार आँचल से ढ़ँकी और अफ्शां से भरी उनकी माँग नूर बिखेर रही थीए फातिमा बी ने दुआएँ दीं ष्जीती रहोए आबाद रहो।ष् और लम्बी कुर्ती की जेब से चाँदी का एक सिक्का टटोल कर नूरे को नजर किया। अम्मी गद्गद् हो गईं। फातिमा बी हंसोड़ तबीयत की इंसान थीं.....बताशे चाय की मिठास से तंग आ फिर फिरकी ली— ष्मूँ खुजाने लगा मिठास से.....नमकीन नहीं मँगवाओगीघ्ष्
ष्लोए खाली पेट चली आईं पोता देखनेघ् ऐ रन्नीए बरनी में मसाले वाली मूंगफलियाँ तो देखए ले आ रकाबी में रख अपनी खाला के लिए।ष् दोनों हँस पड़ीं। अम्मी ने पानदान खींचकर पान की गिलौरियाँ लगानी शुरू कर दीं।
नूरा के दस महीने का होते—होते भाभी के पेट में शकूरा आ गया। रन्नी तो नूरा के लालन—पालन में अपने सब दर्द भूल चुकी थी। नूरा की हँसी उसके लिए जन्नत के ख्वाब सा—श थी.....उसका रोनाए किलकना सब उसे विभिन्न मनोभावों से भर देता। और फिर शकूरा के पैदा होते ही मानो नूरा रन्नी की झोली में आ गिरा। भूल गईं रन्नी कि नूरा भाई की औलाद है। नूरा भी अपनी फूफी का लम्बा कुरता पकड़कर घिसटता रहता। एक लकड़ी की बनी गाड़ी भाईजान खरीदकर लाये पर नूरा उसको पकड़कर चलता तब भी ष्धम्मष् से गिर पड़ता। मारे फिकर के रन्नी को रात भर नींद नहीं आती। आँखें बंद करती तो नूरा के नन्हे—नन्हे पाँव आँखों में आ जाते। पौने दो साल का बच्चा और चल नहीं पा रहा। अम्मी के साथ वे नूरा को लेकर हकीम के पास गईं। शहद में दवा चटातीं और दवाई वाले तेल से रोज उसके पैरों की दो बार मालिश करतीं। ऐसा नहीं था कि वे सिर्फ नूरा पर अपनी जान लुटातींए शकूरा भी उनको उतना ही प्रिय थाए लेकिन नूरा की देखभाल करते उन्हें शकूरा के लिए समय नहीं मिल पाता। इधर भाभी जान शकूरा की परवरिश में जुटी रहतीं। रन्नी की अथाह मेहनतए दुआ काम आई। नूरा के पैरों में शक्ति आई और वह खड़ा होने लगा। रन्नी छुपकर खुशी में रो पड़ी। देखते—देखते शकूरा के साथ नूरा भी दौड़ने लगा। दोनों भाईए सुंदर—सजीलेए आँगन में निम्बोलियाँ बटोरते और कभी मुँह में रख लेते तो कड़वाहट से रोने लगते। इधर नूरा दौड़ा उधर अम्मी जान आँगन में गिरींए तो फिर उठी नहीं। हकीम का इलाज चलाए रन्नी जी—जान से अम्मी की सेवा—टहल में लग गई। मालिश के तेल से पैरों की मालिश करतीए फिटकरी के पानी में पैर सेंकतीए लेकिन उम्र दराज बदन चलने लायक नहीं हुआ। न जाने अम्मी को कौन—सा रोग लग गया कि हकीम साहब भी निदान नहीं कर पा रहे थे। हर तीसरे दिन दवा बदली जाती। रन्नी अपने हाथों से शहद में दवा चटाती तो अम्मी बच्चों जैसा बिलखने लगतीं ष्रहने दो रन्नीए अब यह शरीर अच्छा न होगा। मैं तुम्हारे अब्बा का पास जाऊँगी। वहाँ अल्लाह भी होंगे उनसे जवाब तलब करूँगी कि मेरी रन्नी की झोली में खुशियाँ डालना क्यों भूल गयाघ्ष्
रन्नी रोने लगी— ष्अम्मी एक तुम ही तो हो.....ऐसा न कहोए औलाद के सिर पर माँ—बाप का साया बना रहे। अम्मी चुप हो जाओ।ष्ण्ण्ण्ण्ण्दोनों रोती रहींए अम्मी अपने दुपट्टे सेए रन्नी अपने दुपट्टे से एक दूसरे के आँसू पोंछती रहीं।
अँधेरा घिर आया था और सांय—सांय हवा चल रही थी। नीम का पेड़ हवा में आधा झुका जा रहा था। खिड़की—दरवाजे बंद करने के बावजूद भी पूरा घर मिट्टी—धूल से भर गया था। अम्मी खाँस रहीं थींए खाँसी का मानो अटैक आ गया था। भाईजान घर में नहीं थेए रन्नी घबरा रही थीए अम्मी की पीठ सहला रही थीए घबराहट में उन्होंने रात की दवा शाम को ही अम्मी को चटा दी। बिजली कड़कीए तूफानी बारिश शुरू हो गई और इधर अम्मी को फिर खाँसी का दौरा पड़ा। नूरा—शकूरा भाभी—जान की गोद में सिर छिपाए नींद में उनींदे हो रहे थे।
ष्क्या करूँ भाभीए कब आयेंगे भाईजानघ्ण्ण्ण्ण्ण्हकीम साहब को बुलाना होगाए अम्मी की हालत बिगड़ती ही जा रही है।ष्
ष्कहीं बारिश में फँस गए होंगे वरना सरेशाम तो घर आ जाते हैंएष् भाभी भी कम चिन्तित नहीं थीं।
ष्रन्नीएष् अम्मी ने मिचमिचाती आँखों से उसकी ओर देखाए ष्बेटाए तेरी भारी फिकर लेकर जाऊँगी। क्या कोई नहीं है ऐसा मर्द जो मेरी जवान बेवा लड़की का हाथ थाम लेए सोने जैसी मेरी बेटी।.....ष् अम्मी ने रन्नी का हाथ पकड़ लिया और बिलखने लगीं। ऐसा कभी नहीं हुआ था। कभी अम्मी इतनी कमजोर नहीं पड़ी। छुप—छुप करए पोटली बगल में छुपाकर स्वतंत्रता सेनानियों को खाना पहुँचाती रहींए क्या वैसी बहादुर अम्मी इतनी कमजोर हो सकती हैंघ् अब्बू की मौत उन्होंने आँखों के सामने देखी थीए धन को विदा होते देखा थाए फिर अम्मी रन्नी के लिए इतना क्यों रो रही हैंघ्
अम्मी मानो अपनी बेटी के दिल के भावों को ताड़ गईं।
ष्बेटाए औलाद से बढ़़कर कोई नहीं होताए औलाद की पीड़ाए माँ—बाप की पीड़ा होती है।ष् रन्नी हैरान थीए यूँ कैसे जान गईं अम्मी उसके दिल की उथल—पुथल। फिर बिजली कड़की और अम्मी के हाथ ने रन्नी का हाथ छोड़ दिया। रन्नी चीख पड़ी.....ष्भाभी.....भाईजान.....।ष्
एकदम तभी दरवाजा खटका।.....रन्नी ने दरवाजा खोला तो भाईजान भीगे खड़े थेए वह लिपट गई भाईजान से।
ष्देखो तो भाई जानए अम्मी.....।ष्ण्ण्ण्ण्ण्भाईजान को देखते ही उसके सब्र का बाँध टूट गया। वह बिलखकर रो पड़ी।
ष्क्या हुआ अम्मी कोघ्ष् वह भागे अम्मी के पास। हाथ टटोलाए शरीर में गरमाई महसूस हुई। वे वैसे ही भागे हकीम जी को लिवाने। दरवाजे से निकलते ही जोरों से बिजली कड़की मानो आसमान फट गया हो भाभी चीखीं—ष्मेरे परवरदिगार रहम कर.....वे बाहर गए हैं.....रहम कर.....ष् वे भी रो पड़ीं। रन्नी को कुछ नहीं सूझा वह अम्मी की पीठ मलने लगी। अम्मी कुनमुनाईंए आँखें खोलीं। ऊपर—छप्पर की तरफ देखते हुए बुदबुदाईं—ष्आ रही हूँ। कितने साल हो गए तुम्हें बाट जोहते।ष् जबान लड़खड़ाने लगीए दो बार हिचकी आई और अम्मी ने असीम शांति से आँखें बंद कीं। बिलकुल उसी समय नीम की मोटी शाख टूटकर पेड़ से झूल गई। फिर बिजली कड़कीए ऐसा लगा कहीं दूर बिजली गिरी है। उन्हें क्या मालूम था बिजली उनके घर पर ही गिरी हैघ् दरवाजा खटकाए भाईजान हकीम साहब को लेकर आए थे। भाभी टाट के पर्दे की ओट हो गईं। हकीम साहब ने नब्ज टटोलीए फिर हाथ छोड़ दिया। सिर हिलाया और रन्नी दहाड़ कर रो पड़ी।
भाईजान ने बहन को बाँहों में समेट लिया। बहन का हृदयविदारक रोना देखकर वे अपना दुख भूल गएए दीवाल से सटाकर रन्नी को बिठा दिया। जब हकीम साहब को लेकर भाईजान बाहर निकले तब उन्होंने देखा आसमान साफ थाए और रह—रहकर बिना आवाज के बिजली चमक जाती थी।
भाभीजान में गजब की फुर्ती आ गई। सामने के कमरे का सारा सामान उन्होंने उठाकर अंदर रख दिया। कमरा एकदम खाली किया। उसमें चादर दरियाँ बिछा दीं। आस—पड़ोस के लोग आने लगे। अम्मी को उठाकर बाहर के कमरे में लाया गया। अम्मी को देखकर एक बार फिर रन्नी चीखकर रोई और उनसे लिपट गई। बड़ी मुश्किल से भाईजान ने अम्मी की देह से रन्नी को अलग किया।
सुबह—सुबह अम्मी की सहेली फातिमा बी आ पहुँची। छाती पर दोहत्तड़ मार कर रोईंए फिर रन्नी को लिपटा लिया।.....ष्खालाष्।
ष्हाँ बेटीए तेरा दुख लेकर गई है तेरी अम्मी।ष्
दोनों फूट—फूट कर रोती रहीं। औरतें अंदर कमरे में बैठ गईं थीं और मदोर्ं को खड़े होने की जगह नहीं थी। बाहर पानी भरा था और नीम की डाली टूटने से चारों ओर नीम की लकड़ियाँए पत्तियाँए डंडियाँ बिखरी पड़ी थीं। सारा घर कीचड़ से भरा जा रहा था। जब अम्मी की अंतिम यात्रा शुरू हुई तब हवा में नमी और ठंडक थी। बरसों हो गए थे उन लोगों को इस मुहल्ले में रहतेए सारी गली इकट्ठी थीए भीड़ से भरी हुई थी। रन्नी दूर तक अम्मी के जनाजे के साथ दौड़ी।.....गली के छोटे—छोटे लड़कों ने अपनी रन्नी आपाए अपनी रन्नी फूफी को हाथों से पकड़ लिया और फिर उन्हें घर ले आए।
आँगन झाड़ते रन्नी रो रही थी। कैसा कहर बरपा था उस रातघ् नहीं वे अब इस घर में नहीं रहेंगी। हर कोने में अम्मी की याद हैए हवा में गूँजती उनकी आवाज है। बदल देंगे वे लोग इस घर को।.....भाईजान से जब रन्नी ने कहा तो वे हैरत से बहन की ओर देखते रहे।
वह सोच रही थी क्यों इंसान यादों से दूर भागता हैघ् क्या यादें इतनी डरावनी होती हैंघ्ण्ण्ण्ण्ण्अभी तो अम्मी मरी हैंए फिर उनकी यादें मरेंगी। शनैरू शनैरू उनकी एक—एक चीज तितर—बितर होगीए सामान बाँटा जाएगा और फिर सम्पूर्ण रूप से अम्मी मर जायेंगी। वह दोनों घुटनों के बीच मुँह छुपाकर रो पड़ी। एक नन्हा—सा दुलार भरा हाथ उसकी पीठ सहला रहा था। वह चौंक पड़ी देखा नूरा का नन्हा हाथ उसकी पीठ पर था। सामने भाईजान खड़े थेए बोले—ष्सँभालो रन्नी अपने कोए जाने वाला वापिस नहीं आताए हम शीघ्र ही यह मकान छोड़ देंगेएण्ण्ण्ण्ण्दसवाँ कर लें।ष्
रन्नी चौंक उठीएण्ण्ण्ण्ण्हफ्ता भर हो गया अम्मी को गये और उसे होश नहीं कि नूरा कहाँ हैघ् शकूरा कहाँ हैघ् उसने जोरों से नूरा को भींच लिया। शकूरा भी दौड़ता आया और उसकी गोद में बैठ गया। शकूरा को गोद में लियाए नूरा की उँगली पकड़ी और घर के अंदर चली गई। भाईजान ने देखा कि आज सातवें दिन बहन ने बच्चों की तरफ देखा है। आज रात उसने खाना भी खाया।.....रन्नी की देह पीलीपड़ गई थीए कब किसने उसे दो—चार निवाले खिलाया होगा याद नहीं।
अम्मी का सामान समेटते हुए वह रोए जा रही थी। चादरेंए तकियाए कथड़ीए चारपाई जमादार को दे दिया गया था। कथड़ी में अभी भी अम्मी की गंध थीए वह रो पड़ी। बड़े ड्रम में चौके का सामान भर दिया गया थाए बाकी सामान अलग—अलग बक्सों में। दूसरे मकान में जाने के बाद अम्मी की यादें भी मानो दूर कहीं विलुप्त हो जायेंगी। भाईजान ने बताया था शहर से चार किलोमीटर दूर मकान है। आसपास कोई बस्ती नहीं हैए पीछे कई सौ एकड़ में फैला हुआ आम का बगीचा है। पड़ोस में एक पेट्रोल पंप है। सामने सड़क पार खेत ही खेत हैंए जिनमें उड़द मूँग और चावल की खेती होती हैए सब्जियाँ उगाई जाती हैं। खेतों को पार करो तो साफ पानी का पहाड़ी नाला है। एक बड़े मकान की नींव खुदी पड़ी है और वहीँ पर पेट्रोल पंप के मालिक अहमदभाई का ईंटों का भट्टा है। दिनभर मजदूर रहते हैं और शाम ढ़लते ही वहाँ खामोशी छा जाती है। मजदूर भी रोज नहीं आतेए अॉर्डर पर ही ईंट बनाई जाती है। पेट्रोल पंप से लगा एक छोटा—सा क्वॉर्टर है जहाँ पेट्रोल पंप और जमीन की देख रेख के लिए जाकिर भाई परिवार समेत रहते हैं। उनकी दो लड़कियाँ हैं—बड़ी सज्जो पाँच साल कीए छुटकी तीन साल की। जाकिर भाई की पत्नी ने अपने क्वॉर्टर के पिछवाड़े खूब सब्जी लगाई है और उसी की देख—भाल में उसका सारा दिन निकल जाता है।
रन्नी को मकान बेहद पसंद आया था। गली की तमाम भीड़भाड़ और गंदगी से राहत मिली थी। खुले आसमान के नीचे रन्नी खिल उठी थी। यहाँ खिलौनों के लिए भरपूर मिट्टी उपलब्ध थी। सामने खेत और पीछे अमराई देखकर उसका मन मचल उठा। उसी दिन वह जाकिर भाई की पत्नी के साथ पहाड़ी नाले तक हो आई। घंटों पानी में पैर डाले वे डूबते सूरज को देखती रहींए डूबते सूरज की लालिमा उसके गोरे गालों को गुलाबी बना गई। जाकिर भाई की पत्नी ने निहारा— ष्इतना सौन्दर्यए और इतने गरीब खानदान मेंष् लौटते हुए उसने ढ़ेरों पीलेए सफेद फूल तोड़े। हाथ में गुच्छा लिये अहाते में प्रवेश किया कि देखा एक तीस—पैंतीस वर्ष के आसपास का खूबसूरत नौजवान उन्हें चाहत की निगाह से देख रहा है। वह अकबका गई। हाथ से फूलों का गुच्छा गिर गया। नाक और माथे पर पसीना चुहचुहा आया। वह भागी और सीधे घर के अंदर। .....कैसी अनुभूति हुई कि बड़ी देर तक सामान्य ही नहीं हुई।.....उसने भाभी से कहा कि चाय बना लोए और नूरा—शकूरा को पास बुलाकर प्यार करती रही। हाथ काँपते रहे और आँखों के समक्ष वही नौजवान।.....चाय आई तो वह जल्दी से पी गईए भाभी उसकी असामान्य हरकत आश्चर्य से देखती रह गईं।
सुबह भाई जान और वह खुदी हुई नींव के पास जा पहुँचे और मिट्टी ढ़ोते रहे। दुपहर के समय मिट्टी छानकर सानी गईए और फिर तीनों मिलकर साँचों में गुड्डेए गुड़ियाए तोताए चिड़ियाए हठी घोड़ा बनाने लगे। जाकिर भाई की पत्नी को बड़ा मजा आया। उसने पहली बार खिलौने बनते देखे थेए वह भी साँचा उठाकर बनाने लगी। खिलौने ७२ घंटे सूखते थेए फिर उन पर रंगबिरंगा पॉलिश किया जाता था।
शाम को फिर रन्नी जाकिर भाई की पत्नीए जिसे अब वह आपा कहने लगी थीए के साथ निकली। लेकिन खेतों के पार न जाकर आमों की अमराई देखने निकली। वह आमों की ऐसी अमराई देखकर हैरान रह गई। कतार से आम के पेड़ खड़े थे। मानो सैनिक कवायद कर रहे हों। जहाँ तक निगाह जाती थी आम ही आम। वह उमंग से दौड़ने लगीए दुपट्टा उड़ रहा था। जवानी की सारी उमंगें उसके भीतर अंगड़ाई ले रही थी। आपा पीछे छूट गई थीं। वह दौड़ रही थीए अचानक दुपट्टा उड़ा और एक पेड़ की डाल पर जाकर अटक गया।.....वह हँसती—खिलखिलाती उचक—उचक कर दुपट्टा उतारने की कोशिश करने लगी। किसी को सामने पाकर वह अचकचा उठी। वहीए कल वाला नौजवान सामने था।
ष्लाइएए मैं उतर देता हूँ आपका दुपट्टा।ष् उसने कहाए वह चुपचाप खड़ी रह गई। वह उचका और दुपट्टा उसके हाथ में था। धीरे से वह उसके नजदीक आयाए दुपट्टा ओढ़़ाते हुए कहा—ष्फुरसत में गढ़़ा है आपको खुदा ने.....बेहद खूबसूरत हैं आप।ष् वह मुड़कर चला गया।
वह ठिठकी खड़ी रही।.....तभी आपा हाँफती हुई उसके पास पहुँचीए और दूर जाते हुए उस पुरुष को देखते हुए बोली—ष्यूसुफ हैं यहए अहमद भाई के बड़े बेटे। पेट्रोल पंपए ईंट का भट्टाए आमों की अमराईए तुम्हारा मकान और ये खेतए सब कुछ इन्हीं का है। इनके घर के सभी लोग बेहद अच्छे हैं। यूसुफ भाई की पत्नी का दो बरस पहले इंतकाल हो गया। सुनते हैं उसी औरत की यादों में जिन्दगी बिता रहे हैं।.....बहुत मुहब्बत करते थे अपनी बीवी को।.....बसए एक बेटा है जो पाँच वर्ष का है। अहमद भाई ने लाख कहाए एक से एक रिश्ते सामने लाए पर वे ना करते हैं। ये लोग तीन भाई हैं.....सबसे बड़े यही हैं।ष्
रात में लेटी तो यादों में युसूफ खड़े थे दुपट्टा लियेए वह शरमा गई।.....न जाने क्या—क्या सोचती रही।.....कोई किसी को इतनी मुहब्बत कर सकता है कि उसी के लिए जिन्दगी गुजार देघ् उसने क्या पायाघ् मुहब्बतघ् अट्टहास करने को मन हुआ। क्या होती है मुहब्बत—एक शराबी पुरुष जो सदैव लात—जूतों से बात करता था।.....जिसकी मुहब्बत सिर्फ रात के अँधेरों में ष्रेहानाष् का शरीर था। पसीने से सराबोरए हाँफताएण्ण्ण्ण्ण्शराब की गंध और छोटी—सी उम्र में कुचली—मसली जाती वह। क्यों समर्पित होती है स्त्रीघ्ण्ण्ण्ण्ण्बस इसीलिए कि वह शौहर हैघ्ण्ण्ण्ण्ण्अनिच्छा सेए कुंठा से.....शोषित होती रही वह। जिस व्यक्ति ने कभी उसे मुहब्बत से देखा तक नहीं।
ष्बहुत खूबसूरत हैं आप।ष्
उसने उठकर लाइट जलाईए पीली रोशनी कमरे में फैल गई। आईना उठाकर देखाए सत्ताइस साल की उम्र में पहली बार किसी ने उसकी खूबसूरती को देखा थाए सराहा था। आईना देखते वह शरमा उठीए दुपट्टा उठाकर अपना शरीर ढ़ँक लिया और खामोश लेट गई। गड्डमड्ड हो रहे थे चेहरे। वह बेवा थी। सामने पति का चेहराए पीछे से झाँकता युसूफ का चेहरा। ष्नहीं रेहानाए नहीं तुम बेवा हो।.....क्या सोच रही होघ्ष्ण्ण्ण्ण्ण्क्यों ष्मुहब्बतष् की परिभाषा ढ़ूँढ़ रही होघ् तुम्हारी किस्मत में अब कुछ नहीं। वह खामोश रोती रहीए हजार बार निर्णय लिया कि वह इस तरफ नहीं सोचेगीए लेकिन सुबह उठी तो फिर वही हालत थी। ष्बहुत खूबसूरत हैं आप।ष्
नूराए शकूरा को नहला कर वह खुद नहाई। खाना बनाया और ननद—भाभी दोनों बैठ गईं खिलौनों में रंग भरने। सामने अहाते में खिलौने बिखरे पड़े थे। टीन के डिब्बों में घुले हुए रंग थे और सधे हुए हाथ।..... दोनों रंग लगाती जा रही थींए अभी आँखें बनेंगी.....नाक को शेड दिया जाएगा। बाल बनेंगेए सुनहरी रंग से चूड़ियाँ पहनाई जाएँगीए और जेवर। रेहाना को चूड़ियों का बेहद शौक थाए छोटी थी तभी अम्मी से जिद करती—ष्अम्मीए हरी लाल चूड़ियाँ पहनूँगीए भर—भर हाथ।ष् अम्मी भी हमेशा उसे चूड़ियाँ खरीद कर देतींए लाल सुनहरी चूड़ियों से नन्हे—नन्हे हाथ खनकते रहते। ससुराल गई तब अम्मी ने हरी चूड़ियाँ भर—भर हाथ पहनवा दींए और चूड़ी का एक बक्सा रखा जिसमें अनेक रंगों की चूड़ियाँ थीं। कितनी ही बारए जब शौहर ने उसकी पिटाई की तो चूड़ियाँ ही टूटती रहीं।.....सब कुछ वह बर्दाश्त कर सकती थी लेकिन चूड़ियों का टूटना नहीं।..... पीठ पर झारे से पड़े नील के निशान होते लेकिन चूड़ियों के टूटने से कलाई पर चुभते निशान उसे ज्यादा उद्वेलित करते। लम्बे—लम्बे रेशम से बालए वह ढ़ीली सी एक चोटी करती और चोटी आगे ही रखती।.....पहनावा कितना ही सादा हो वह हमेशा खूबसूरत दिखती। सास जो काली—मोटी—पहाड़ की मानिद थीए अपनी दुल्हन को देखकर खुश होने के बजाय जलती रहतीए ष्लानत है ऐसी खूबसूरती परए बाँझ औरतष्ण्ण्ण्ण्ण्सास हमेशा जली—कटी सुनाया करती।
ष्भाभी कड़ी धूप हैए शाम को रंग का काम करेंघ्ष्
ष्हाँ! ठीक हैए तुम जाओए मैं हाथ का काम करके उठूँगीएष् वह अंदर आई तो देखा नूरा—शकूरा झगड़ रहे थे। एक बार पंडित काका ने कहा था—ष्बेटी! नूरा—शकूरा की जोड़ी राम—लक्ष्मन की लगती है।ष् उस दिन वे पहने भी थे पीले रंग की शर्टए जिस पर स्वयं रन्नी ने सुनहरे धागों से कढ़़ाई की थी। सचमुच आज दोनों को देखकर उसे वैसा ही लगा। गोरा रंगए तांबई बालए बेहद प्यारे दोनों बच्चे। कोई नहीं बता सकता कि कौन छोटा है और कौन बड़ाघ् उसने दोनों के हाथ छुड़ाए और अपने कमरे में लेकर आ गई। ट्रंक खोला और हल्का फिरोजी सूट निकाला। थोड़े से कोयले डालकर प्रेस गरम होने रख दी। प्रेस के अंगारे चिटखने लगे..... इधर रन्नी का मन। बरसों बाद सूट निकाला था। दोनों बच्चे भागे और अपनी भी शर्ट ले आए। रन्नी ने मुस्कुराते हुए शर्ट भी प्रेस किया।
शाम होने पर उसने वही सूट पहनाए अपने लम्बे बालों को सुलझाया और एक ढ़ीली चोटी गूँथी। आईने के सामने खड़ी हुई तो हैरत से अपने को देखने लगी।
पिछले छैरू सात बरसों में तो शायद ही उसने इस ढ़ंग से आईना देखा हो। सिर्फ कंघी—चोटी करते समय माँग निकालने के लिए आईना देखा करती थी। सूनी कलाइयों पर भर—भर हाथ फिरोजी चूड़ियाँ पहनने को दिल मचला। नंगा गला। ष्क्या हो गया हैए रेहाना तुम्हेंघ्ष् वह अपने आपसे पूछने लगी। पैरों में चप्पल डालीं और जाकिर भाई के घर की ओर चल पड़ी।
आपा के साथ वह रोज नाले परए आम की अमराई या दूर खेतों में घूमने जाती थी। आपा ने उसे भरपूर नजर देखा तो वह सकुचा गई। दोनों बाहर निकलींए तभी कार आकर रुकी। आपा बोल पड़ीं—ष्युसूफ भाई आए हैं।ष् उसके तलवे पसीज उठे। माथे पर पसीने की बूँदें आ गईं। सामान्य होने में वक्त लगा। पहाड़ी नाले की ओर जाते हुए ढ़लवाँ रास्ता शुरू हो गया था। उसने चप्पलें हाथ में लीं और खिलखिलाती दौड़ पड़ी। दूर—दूर तक पीले फूलों की झाड़ियाँ थीं। वह झाड़ियों के बीच में जाकर छुप गई।.....आपा मोटी थींए साँस फूलने लगीए वे पीछे—पीछे लुढ़़कती आ रही थीं। जब तक वे रेहाना के पास आतीं उससे पहले उन्होंने देखा कि सज्जो दौड़ती आ रही हैए आते ही उसने कहा—ष्चलो अम्मीए अब्बू बुलाते हैं जरूरी काम है।ष् रन्नी ने सुना तो उदास हो गईए लेकिन फिर निर्णय लिया कि अकेली ही नाले किनारे बैठेगी। आपा सज्जो के साथ लौट गईं।
पहाड़ी नाला कल—कल बह रहा था। उसने पैरों को पानी में डाला और बैठ गई। सामने पहाड़ थेए पेड़ थे। दूर—दूर तक कोई बस्ती नहींए पंछी घर लौट रहे थे। कैसी होती है जिंदगी पंछियों की.....इतना सा पेट और दिन भर सिर्फ खाने की मशक्कत फिर शाम को अपने बसेरे की ओर लौट जाना। सभी का एक नीड़ होता है जहाँ वह पहुँचकर आराम की साँस लेता है। एक वह है जिसे कोई नीड़ मिला ही नहींए मिला भी तो ऐसा जहाँ से वह शौहर के इंतकाल के बाद खदेड़ दी गई। यहं भाई—जान और भाभी बहुत अच्छे हैं.....वरना वह आज कहाँ होतीघ्
पक्षियों के लौटना और सामने पहाड़ की ओट में सूरज छुपने का —श्य वह आँखों में भर भी नहीं पाई कि कंधों पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ।.....वह चौंकी.....पलटकर देखा तो युसूफ खड़े थे। वह हड़बड़ा गईए दुपट्टे को सिर पर ओढ़़ा और उठने को हुई। यूसुफ ने उसे बैठे रहने का इशारा किया और उसके बाजू में आकर बैठ गए।
ष्रेहानाष्
ष्जीष् वह सकुचा उठी ष्मैं घर जाऊँगीए सूरज भी अब डूबने को है अँधेरा हो जाएगा फिर.....।ष्
ष्इतना डरती हो सूरज के डूबने सेघ्ष्
ष्जीष् वह नासमझ हो उठी।
यूसुफ ने उसके कंधे पर हाथ रखाए दूसरे हाथ से उसकी ठोड़ी को पकड़ते हुए चेहरा अपनी तरफ घुमाया। डूबते सूरज की लाल रोशनी में रेहाना का चेहरा सुरमई दिख रहा था।.....बाल ढ़लती सूर्य की किरणों में सुनहरे.....और आँखें कत्थई रंग की।
ष्सुभानअल्लाह! इतनी खूबसूरती!ष्
रेहाना ने आँखें बंद कर लींए यूसुफ ने झुककर सोनो पलकों को चूम लियाए एक सिहरन से काँप उठी वह। यूसुफ के होंठ फिसलेए हाथ मचले और क्षणों में वह युसूफ की बाँहों में समा गई।
सूरज कब डूबा पता ही नहीं चला।
ष्रेहानाष्
ष्जीष्
ष्मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँए मुझे पता ही नहीं चला कबघ् लेकिन यह एक नाम ष्रेहानाष् तो बरसों से मेरा पीछा करता रहा था। तब बीवी का इंतकाल नहीं हुआ थाए तब से.....जब भी कोई नॉवेल पढ़़ताए कोई कहानी तो यह नाम मुझे बार—बार उद्वेलित करता। तुम क्या कहोगी इसे महज एक इत्तफाक या.....ष्
रेहाना उठने को हुईए दुपट्टा सँभाला।.....यूसुफ ने हाथ पकड़ लियाए आँखों में बेपनाह मुहब्बत भरकर कहा—ष्रेहानाए तुम मुझसे मुहब्बत करती होघ्ष् उसने आँखें झुका लीं।
अत्यन्त संजीदा स्वर में बोली—ष्मेरे बारे में कितना जानते हैं आपघ्ष्
ष्क्या फर्क पड़ता हैघ् तुम्हारा शौहर नहीं रहाए लेकिन इसमें तुम्हारा तो दोष नहीं। तुमने कौन—सा सुख पाया उससेघ्ष् रेहाना हैरान नजरों से यूसुफ को देखती रह गई। यूसुफ ने रेहाना की सूनी कलाइयाँ पकड़ लीं—ष्अगर इन कलाइयों में मेरे नाम की अनेक चूड़ियाँ होतींघ्ष्
ष्जीए मेरे लिए यह सब सोचना पाप है।ष्
ढ़लवाँ पगडंडी पर वह तितली की तरह उड़ गई। लगभग दौड़ती हुई घर पहुँची। भाभी ने उसका चेहरा देखा तो हैरान रह गई।
ष्कब से आई फातिमा खाला बैठी हैंए कहाँ गईं थी तुम रन्नी बी।ष् भाभी ने शिकायती लहजे में कहा।
ष्आदाब खाला!ष्
ष्जीती रहो बेटी।ष् ऊपर से नीचे तक खाला ने एक मुग्ध —ष्टि डाली रन्नी पर। खुदा ने बेपनाह खूबसूरती दी हैए लेकिन किस्मतघ् एक ठंडी आह भरी खाला ने।
ष्मैं चाय बनाती हूँ खालाए आप बैठिए।ष्
ष्अरीए बैठिए नहींए आज मैं यहीं रहूँगी। खाना बना लो। जल्दी सेए जल्दी खाने की आदत है।ष्
ष्जानती हूँए खालाए अम्मी भी तो जल्दी ही खाती थीं।ष्
ष्हाँ बेटीए अब उम्र हो गई हैए जल्दी खाओ तो पेट ठीक रहता है।ष् भाभी नूरा—शकूरा को दूध में रोटी मोड़ कर खिलाती रहींए रेहाना चौके में घुस गई। सभी साथ खाने बैठे। खाला की चारपाई उसके कमरे में ही डाल दी गई। दोनों लेट गईं और रात देर तक बातें करती रहीं। खाला अम्मी की याद करते—करते रो पड़ीं।
ष्कितना कहती थी मैं तुम्हारी अम्मी से दूसरा निकाह कर दोए अरे कोई ऐसा थोड़े ही है कि में अच्छे इंसान हैं ही नहीं। माना कि मजहब में औरत का दूसरा निकाह जरा कठिन है पर।.....अरेए बच्चा वाला कोई दुहिजवां लड़का मिल ही जाता। कितने मैंने सुझाए लेकिन तेरी अम्मी चुप ही रहीं।ष्
ष्खाला! मेरा मन नहीं मानता था। अम्मी तो इसी फिकर को लेकर गई हैं।ष्
यह खाला ही थीं.....जिन्होंने कहा था रेहाना हल्के—हल्के रंगों के रंगीन कपड़े पहनेगी।
ष्आज फिरोजी जोड़े में तू कितनी खिल रही थीघ् रेहानाए क्या ऐसी जिन्दगी कट जाएगी तेरीघ् कब तक भाई के द्वारे पड़ी रहोगीघ्ष् खाला रोने लगी।
खाला यूँ तो अम्मी की सहेली थीं परन्तु इस घर से इतनी जुड़ी थीं कि सभी को अपने बच्चों की तरह समझती थींए कभी रेहाना ने भी नहीं महसूसा कि फातिमा खाला उनकी सगी नहीं। कैसे होते हैं सगे रिश्ते.....घ् जहाँ घर से निकाल दी जाती हो और कैसे होते हैं पराए जो तुम्हें सुखी देखने के लिए रोते हैं।
आज की रात भी उसका मन मचलता रहा।.....वह तो खाला आ गईं थीं वरना भाभी उससे जरूर पूछतीं। दो—तीन दिन से भाभी उसका असंतुलित व्यवहार महसूस क्र रही थीं। भागकर खिलौनों में रंग भरने लगनाए नूरा—शकूरा को गोद में उठा लेनाए बार—बार ट्रंक खोलकर कपड़ों को उलटना—पलटनाए वरना यही रेहाना कभी शादी—ब्याह तक के मौकों पर अच्छे कपड़ों में नहीं दिखी।
ष्अम्मी! औरत दो घर होते हुए भी बेघर क्यों होती है।ष् एक रात अम्मी की बगल में लेटी रन्नी ने पूछा था। अम्मी रोने लगी थीं। कहाँ से सुखों की पोटली उठाकर लाएँ और रेहाना के हाथ में पकड़ा दें। फिर अम्मी के सीने में मुँह छुपाकर वह खूब रोई थीए बिलख—बिलखकर। खाला के खर्राटे गूँजने लगे थे। अपने होंठए पलकोंए गले—माथे पर युसूफ के होंठों की गर्माई अभी भी वह महसूस कर रही थी। एक नाम था रेहाना.....जिसने मुझे हमेशा उद्वेलित किया। रेहाना! रेहाना!! रेहाना!!! मुहब्बत की उमंगों ने उसके शरीर में अंगड़ाई ली।
घर के सामने लगा था चिलबिल का विशाल दरख्त। फिर कुछ दूर पर पीपल और बरगद। मकान के दोनों ओर थी शिकाकाई और रीठे की झाड़ीए गेट के पास आंवले का विशाल दरख्त। पेट्रोल पंप के ऊपर छाया था जामुन का दरख्तए घनी शाखाओं से छनकर आती थी सुबह की नरम धूप। एक ओर पड़ी थी बिना पहियों वाली जमीन में धँसी पुरानी कार जिस पर भाभी बच्चों के छोटे—छोटे कपड़े सूखने डाल देती थीं। सुबह की नरम धूप में चाय के साथ टोस्ट खाकर खालाजान विदा हुईं और उन्हीं के साथ भाईजान भी बाजार की ओर चले गए। भाभी और रन्नी खिलौनों को अंतिम टच देने बैठ गई। दुपहर तक खिलौने सूख जायेंगेए फिर उन्हें पैक किया जाएगा। बड़े—बड़े थैलों में खिलौने पैक करके भाईजान माल ले जायेंगे। इस तरह करीब तीन महीनों का माल भेजा जाएगा।
कार के हॉर्न की आवाज सुनकर रन्नी के हाथ काँप गये। चाहकर भी मुड़कर नहीं देख पाई। विलावजह कार का हॉर्न दो बार बजा। भाभीजान अपनी ननद के चेहरे को निहारने लगीं। क्या कुछ था भाभी की आँखों मेंए कौन—सा मौन प्रश्न कि वह पसीने से नहा उठीए भाभी और हैरत में पद गई।
ष्क्या हुआ रन्नीघ् तबियत कुछ अच्छी नहीं दिखतीघ्ष् उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
ष्जाओए थोड़े ही तो खिलौने बचे हैं मैं कर लूँगीए शायद नींद पूरी नहीं हुई तुम्हारीघ् खाला जान ने सोने नहीं दिया होगा वे बहुत बातूनी हैं।ष्
रन्नी चुपचाप उठ गई। अपने कमरे में पहुँची और धीमे से खिड़की से बाहर झाँका तो देखा कि यूसुफ पेट्रोल पंप के पास खड़े इधर ही टकटकी लगाकर देख रहे हैं। आँखें मिलीं.....वह घबरा उठी.....चुपचाप पर्दा खींच दिया।
कुछ देर बाद साजिदा ने आकर एक लिफाफा उसके हाथ में पकड़ाया।
ष्क्या है यह सज्जोघ्ष्
ष्मालूम नहींए छोटे मालिक ने आपको देने को कहा है।ष्
उसने लिफाफा खोलाए काली स्याही से खूबसूरत लिखावट में कुछ शेर थेए कुछ गजलें थीं। गजलों की लिखाई तो बरसों पुरानी लगती थी।.....कागज भी ऐसे मानो धूल झाड़कर लाए गए हों।.....और यह क्याघ् वह चौंक पड़ीए रेहाना.....रेहाना.....कितनी ही जगह यह नाम थाए उर्दू मेंए हिन्दी में। हैरान हो उठी वहए ऐसा इत्तफाक। इस एक नाम से कैसे जुड़े युसूफ। कई बार वह उन पन्नों को पढ़़ गईए फिर तहाकर तकिए के नीचे रख दिया। खिड़की से झाँका तो देखा यूसुफ कार में बैठ रहे थे। उसने इतना भर पर्दा सरकाया कि एक आँख से देख सके। लेकिन न जाने क्यों उसे लगा कि कार में बैठे यूसुफ ने उसकी एक आँख ही झाँकते हुए पकड़ ली है। वह अपने को सम्हाल नहीं पाईए तभी नूरा ने उसका कुर्ता पकड़कर खींचा। वह बुरी तरह चौंक पड़ी। पलटकर नूरा को गोद में उठायाए फिर झाँकाए कार जा चुकी थी।
आमों में बौर आ चुके थे। शाम को आपा के साथ रन्नी जब अमराई की ओर घूमने जाती तो आम के बौरों की महक उसके नथुनों में घुस जातीए आपा कहतीं—ष्बसए अब अमराई ठेके पर दे दी जाएगी। यहाँ ठेकेदार का नौकर अपनी छोटी—सी खोली बनाएगा। पिछले साल तो इतनी हवा चलीए तूफान आया कि अहमद भाई का भारी नुकसान हुआ।.....ठेके पर देने से पहले ही नन्हे—नन्हे आम गिर गए। कितने तो हम बटोरकर लाए। सूखने डाल दिएए पर उनमें कुछ नहीं निकलाए अमकरियाँ भी नहीं निकलीं।ष् तूफान के नाम से उसे वह रात याद आ गई जब अम्मी का इंतकाल हुआ था.....वह भरी आँखों से आसमान में छाए उस छोटे से बादल का टुकड़ा देखने लगीए मानो उसमें अम्मी का चेहरा नजर आ जाएगा। आसमान में बादल सफेद रुई के गले से छितरे हुए थे। डूबते सूरज की सुरमई आभा चारों तरफ फैली हुई थी। जब वह घर से निकली थी तब खुश—खुश थी और अब बेहद उदासी ने उसे घेर लिया था। ष्आपा आज लौट चलते हैंए कहीं दिल नहीं लग रहा।ष् आपा ने रन्नी का उदास चेहरा देखा और स्वीकृति में सिर हिला दिया।
लौटी तो भाईजान आ चुके थे और मूढ़़े पर बैठे चाय पी रहे थे। खिलौनों की पैकिंग का सामान और थैले सामने रखे थे। सारे खिलौने भाभी ही उठाकर बरामदे में ले आईं थीं। पीली रोशनी उदासी की तरह चारों तरफ पसरी पड़ी थी। वह सचमुच उदास थी। भाभी के हाथों की चूड़ियों की बोझिल आवाज उसे और थका रही थी। साल हो रहा था अम्मी को गुजरे।.....वह चुपचाप चौके में चली गई और खाना बनाने की तैयारी करने लगी।
रात को मद्धिम पीली रोशनी में हरेए लालए केसरी दुपट्टों में वह मुकेश का काम करतीए बारीक सुनहरे जाल कुतोर्ं पर काढ़़ती और शादी—ब्याह के जोड़े तैयार करती। गोटेए किनारीए मुकेशए सलमा—सितारे काढ़़ने का काम वह कई वषोर्ं से कर रही थी। अब शहर से दूर यह घर था तो भाईजान ही लाकर काम देते और पूरा होने पर ग्राहकों तक पहुँचा आते। कुतोर्ं पर सुनहरी जाली का काम वह इतना बारीक करती कि दूर—दूर से कार पर बैठकर अमीर घरों की सेठानियाँ उसके पास आतीं। जब उन सेठानियों ने यह सुना कि रेहाना बेगम इधर रहने लगी हैंए तो सेठानियों की कार इधर भी आने लगी और धीमे—धीमे रन्नी के पास अपने आप काम आने लगा। वह कभी अपने भाई पर बोझ नहीं बनीए बल्कि इन कामों से जो कमाई होती वह भाभी के हाथ पर रख देती। जब से वह अपने ससुराल से लौटी थी तब से उसके सामने जिन्दगी के कोई मायने नहीं रह गए थे। रात भी वैसी हीए जैसा दिन। भाभीजान के हाथ से सारा काम लेकर उसने भाभी को इतना आराम पहुँचाया कि उन्हें रन्नी का आना खला ही नहींए बल्कि अब भाभीजान रन्नी के बगैर अधूरी ही थीं। रात देर तक भाभी और भाईजान मिलकर खिलौने पैक करते रहते और वह उसी मद्धिम पीली रोशनी में बैठी कढ़़ाई करती रहती। तीन जोड़े आए थे जो जल्द ही पहुँचाने थे।
मन न जाने क्यों उखड़ा हुआ था। देर रात भाईजान ने थकान महसूस की और सोने चले गएए वह भी उठ गई। चारपाई पर लेटकर उसने तकिए के नीचे से लिफाफा निकालाए और उसमें अपने आपको ढ़ूँढ़ती रही। रेहाना.....रेहाना.....बहुत उदासी का आलम हैए रेहाना.....तुम कहाँ होघ् आश्चर्य होता रहा.....यूसुफ किसे पुकारते थेए क्यों रेहाना नाम की लड़की को वे खोजते थेघ्ण्ण्ण्ण्ण्बार—बार वह आश्चर्य में पड़ जाती। देर रात तक उसे नींद नहीं आई। गालों पर आँसू ढ़ुलकते रहे। क्यों थका देती है जिन्दगी इतनाघ् पता नहीं कब नींद लगी थीए सुबह आँख खुली तो धूप बरामदे में पसरी पड़ी थी। ऐसा तो कभी नहीं हुआए ण्ण्ण्ण्ण्कभी वह इतनी देर सोई नहीं। सुबह—सुबह वह खेतों के पास जाती थी और उड़द—मूँग की पत्तियों पर पड़ी ओस की बूँदों को हथेलियों में समेट लेती। जब से वह इस मकान में आई है आश्चर्य करने लगी है अपने आप पर कि उसे प्रकृति से इतना प्यार था। न उससे सूर्योदय छोड़ा जाता न ही सूर्यास्त। मानो सूरज को मुट्ठी में पकड़े रखना चाहती हो। रात की पढ़़ी वह पंक्ति याद हो आई—बहुत रह लिए अँधेरों में अब रोशनी की तरफ जाने को जी चाहता है। क्या उसके अन्दर भी यही ललक नहीं पैदा हो रही थी। क्यों सूरज को मुट्ठी में दबोचने का उसका जी चाहता हैघ् क्यों अंधकार से उसे खौफ लगता हैघ्
भाईजान ने कहा कि आज उसकी भाभी भी उनके साथ बाजार जायेंगी। जब भी भाईजान खिलौने लेकर बाजार जाते तो चौबीस घंटों में लौटते थे। इस बार भाभी को रमजान ईद के लिए खरीदी करनी थी अतः तय हुआ कि नूरा साथ जाएगा और शकूरा इधर रन्नी के पास रुकेगा। उसने शकूरा का हाथ पकड़ा और घर के आगे एक ओर लगी शीकाकाई तोड़ने लगी। कल भाभी पेड़ के नीचे से रीठे तो बीन लाईं थीं। आज उसे सिर धोना था तो वह शीकाकाई तोड़ने झाड़ियों में चली गई थी। शकूरा झुक—झुककर फल्लियाँ इकट्ठा करता जा रहा था। तभी कार का हॉर्न बजा और उसने पलकें उठाईं तो सामने यूसुफ खड़े थे। वह चंचल हो उठीए मुस्कुराई और दुपट्टा सम्हालने लगी। दुपट्टा झाड़ियों में उलझ गयाए तेज हवा में उसके रेशमी बाल उड़—उड़कर मुँह पर छाने लगे। यूसुफ नजदीक आए और शीकाकाई की कँटीली झाड़ियों में उलझा उसका दुपट्टा निकालने लगे।.....दोनों के हाथ उलझ गए। वह शरमा उठी।
ष्रेहाना।ष्
ष्जीष्
ष्शाम को अमराई में आओगी।ष्
ष्जीए आज तो घर पर ही रहना पड़ेगा। भाईजानए भाभी और नूरा आज खिलौने देने बाजार जा रहे हैं।.....ष्
ष्मैं आऊँघ्ष्
वह निरुत्तर यूसुफ की तरफ देखती रहीए आँखों में एक मौन निमंत्रण थाए पलकें झुक गईं। वह यूसुफ की आँखों का सामना नहीं कर पाती। कितनी अथाह मुहब्बत दिखती है उनकी आँखों में!
शिकाकाईए रीठे उबालने उसने रख दिए। एक टीफिन में सब्जी पराठे बनाकर तीनों के लिए रख दिए।
न जाने कितना इंतजार था कि यूसुफ आयेंगेए लेकिन दिल धक—धक कर रहा था। रन्नी ने सिर धोयाए बरामदे में खड़े होकर अपने रेशमी बालों को सुलझाया और हल्का गुलाबी चिकन का सूट निकाला और पहन लिया।.....आईने में देखा तो दोनों गालों में गुलाबी आभा सूट के ही रंग की छाई थी। अपने आप से ही रन्नी शरमा उठी।
आज नदी पार हाट का दिन था। जाकिर भाईए उनकी पत्नी और दोनों बच्चे जाते थे। हफ्ते भर का सामान—सुलुफ लेकर वे रात तक लौटते थे। पेट्रोल पंप पर कोई नहीं था। जाकिर भाई परिवार सहित जा चुके थे। शकूरा बरामदे में पड़ी दरी पर सो रहा था। वह वहीँ पर बैठकर कुर्ते में सुनहरी जाल काढ़़ने लगी। पिछले कई दिनों से बंदर की एक फौज इस तरफ आ गई थी। इस फौज का एक बड़ा बंदर घर की औरतों को खूब सताता था। और जैसे ही भाईजान या जाकिर भाई या अन्य किसी पुरुष को देखता तो पेड़—दर—पेड़ छलांग लगाता भाग जाता। कितनी ही बार भाभी ने डर कर पूरा मंडा आटा उसके समक्ष फेंका थाए रोटीयाँ फेंकी थींए आपा तो कितनी बार चीखती—चिल्लाती आतीं और भाभी पर भरभरा कर गिर जातीं। रन्नी ने बन्दर के डर से दरवाजा बंद कर लिया था। बरामदे में लोहे की जाली लगी थी।
दोपहर कब बीत गई पता ही नहीं चला। बैठे—बैठे उसकी पीठ दुखने लगी। वह वहीँ शकूरा के पास बरामदे में बिछी दरी पर लेट गई। लोहे की जाली से शाम की हल्की धूप छनकर भीतर आ रही थी। रन्नी को झपकी लग गई। अचानक ही उसे सुनाई पड़ा कि दरवाजे पर खट—खट हो रही है। वह उठ बैठीए शायद आपा होंए लेकिन आपा तो जाकिर भाई के साथ चली गई थीं। हड़बड़ाकर उठी तो देखा जाली के दूसरी तरफ यूसुफ खड़े थे।
उसने अजीब—सी घबराहट में दरवाजा खोला। वे भीतर आ गए।
ष्अकेली होघ्ष्
ष्जीए सभी बाजार गए हैंए खिलौनों की सप्लाई देने। यह शकूरा ही है जो नहीं गया।ष् उसने लेटे हुए शकूरा की तरफ इशारा करते हुए कहा—
ष्बैठने को भी नहीं कहोगीघ्ष् यूसुफ अभी तक भीतर आकर दरवाजे पर ही खड़े थे। वह फिर हड़बड़ा गईए उनके सामने से हटी और कहा—ष्जी आइए।ष् यूसुफ अन्दर आए। तखत पर साफ—सुथराए हल्का—नीला रन्नी के हाथ का काढ़़ा हुआ चादर बिछा था। दो गाँव तकिये रखे थेए लकड़ी के बिना हाथ की दो टूटी कुर्सियाँ। कुल मिलाकर यही बैठक थी इस घर की। भाईजान के कमरे से वह टेबिलफेन उठा लाई और तिपाई पर रखकर चला दिया। भारी खड़—खड़ाहट के साथ पंखा चला फिर खड़खड़ाहट थम गई। पंखे ने गति पकड़ ली थी। घुमते पंखे की हवा में उसके बाल उड़ने लगे।
ष्आपका लिफाफा दे दूँघ्ष् वह उठने लगी।
ष्रहने दोए जल्दी क्या है।ष् उन्होंने हाथ पकड़कर रन्नी को अपनी तरफ खींचा और आलिंगन बद्ध कर लिया। यूसुफ के चौड़े सीने में रन्नी समा गई। यूसुफ की पकड़ ढ़ीली नहीं हुई।.....एक भरपूर चुम्बन होठों का लिया और फिर सारे जिस्म पर चुम्बनों की बौछार कर दी। यूसुफ की पकड़ ढ़ीली हुई तो वह उठकर खड़ी हो गई।
ष्मैं चाय बनाती हूँ।ष्
वह चौके में जाकर स्टोव जलाने लगी। दिल धक—धक कर रहा था। अभी की आ जाएए भाईजान या आपाघ् यूसुफ चौके के सामने आकर खड़े हो गए। उसने दो प्याली चाय बनाईए थोड़े बिस्कुट निकालेए एक ट्रे में रखा और बैठक में आ गई। दोनों ने चाय पी। यूसुफ अपने घर की बातें बताते रहे।
इस बीच शकूरा उठ गया। रन्नी ने दूध गरम कियाए दो रोटी उसमें मीड़ी और शकूरा को खिलाया। घर खाली देखकर शकूरा फिर सो गया। नूरा होता तो वह जागा रहता और दोनों खेलते। यूसुफ के बहुत मना करने पर भी रन्नी ने अंडे की भुर्जी बनाईए टमाटर—प्याज का सलाद और पराठे। भाईजानए भाभी को डिब्बे में दी गई सब्जी भी थोड़ी रखी थीए यह सब लेकर वह उस कमरे में आ गई जहाँ यूसुफ बैठे थे। रन्नी शर्मायी—शर्मायी हो रही थी। यूसुफ ने जब उसे पराठे और भुर्जी का एक निवाला खिलाया तो वह सिर से पाँव तक पसीने—पसीने हो उठी। दोनों ने एक ही प्लेट में खाना खाया। बाहर गाढ़़ा अँधेरा था। कभी कोई जुगनू चमक जाता था। पेड़ों की कतार प्रेत की तरह खड़ी नजर आ रही थी।
ष्मुझे अब जाना चाहिएए कार भी मैं दूर खड़ी करके आया हूँ तुम्हारे घर के सामने खड़ी करता तो अच्छा नहीं लगता।ष् यूसुफ उठकर खड़े हो गए।
वह भी खड़ी हो गई। यूसुफ ने उसे पुनः आलिंगन—बद्ध किया। होठों का चुम्बन लिया और फिर धीमे—धीमे हाथ फिसले। वह मंत्रमुग्ध सी यूसुफ के हाथों में ढ़ीली पड़ती गई। यूसुफ ने रन्नी को तखत पर बैठा दिया। दोनों की साँसें तेज चलने लगी थीं। यूसुफ के हाथ आगे बढ़़ेए कोई विरोध था नहीं। यह समर्पण की बेला थीए रन्नी समर्पित होती जा रही थी। नंगे स्तनों के बीच यूसुफ ने एक दीर्घ चुम्बन लिया।.....कब दोनों एक हो गएए कब क्या हुआघ् मानो एक स्वप्न था। रेहाना का गोरा माँसल बदन यूसुफ की बाँहों में कैद था। पूरे बदन पर एक —ष्टि डालकर यूसुफ ने पुनः रन्नी को लिप्त लिया। ष्कितनी खूबसूरत हो तुमए रेहानाए खुदा ने तुम्हें खासतौर पर गढ़़ा हो।ष् रन्नी शरमा गई। आँखें बंद कर लीं। साँसों का ज्वार तो थमा था लेकिन आकुलता कम नहीं हुई थी।.....यूसुफ तो पागलों की भाँति चूमे जा रहे थे। पत्तों पर खड़—खड़ हुईए दोनों की देह अलग हुई। जाकिर भाई के मकान की बिजली जली। यूसुफ ने धीमे से दरवाजा खोलाए रेहाना की ठोड़ी ऊपर करके पलकों का पुनः चुम्बन लिया और अँधेरे में खो गए।
वह मंत्रमुग्ध—सी शकूरा के पास आकर लेट गई। उसने आँखें बंद कर लीं।.....बरसों बादए नहीं शायद पहली बारए उसने देह को देह की तरह जाना। क्या यूसुफ मुझसे निकाह करेंगेघ्
दूसरे दिन ग्यारह बजे ही यूसुफ पेट्रोल पम्प पर आ गए। आज ईंट का भट्टा भी लगना था और ठेकेदार भी आम के पेड़ों का निरीक्षण करने आया था। बीच—बीच में उसकी नजरें यूसुफ से मिल जातीं। वह शरमा कर निगाहें झुका लेती। यूसुफ अपने पाँच वर्षीय बेटे को साथ लाए थे जो भागकर उसके पास आ गया। शकूरा और यूसुफ का बेटा आपस में खेलने लगे। वहह वहीँ बैठकर कुर्ते की कढ़़ाई का काम पूरा कर रही थी। दोपहर को भाईजान वापिस आए। रिक्शे में घर की जरूरतों का सामान थैलों में भरा था। आते ही मीट का पैकेट भाईजान ने रन्नी के हाथों में पकड़ा दिया। भाभी ने फीरनी खरीदी थीए लड्डू और नमकीन भी था। रन्नी ने एक—एक लड्डू नूरा और शकूरा को पकड़ा दिया। नूरा अपनी फूफी को बाजार की बातें बताता रहा।
ष्रन्नी बेगमए कल कोई आया थाघ्ष् भाभीजान ने पूछाए वह चौंक पड़ीएण्ण्ण्ण्ण्बल्कि थरथरा उठीए ष्क्योंघ्ष्
ष्नहींए ऐसे ही पूछा.....कमरे का पंखा बैठक में जो रखा है।ष्
भाभी इस बार नूरा—शकूरा के लिए कपड़े खरीद कर लाई थीं। ईद पर भाभी ने मीट पकायाए और रन्नी ने दूध मेवे की खीर बनाई। भाईजान ने बताया—ष्इस बार सारे खिलौने हाथों—हाथ बिक गए और टूटे—फूटे भी नहीं।ष्
ष्भाभी को साथ ले गए थे न आपए इसलिएष् दोनों मुस्कुराने लगे। भाभी नूरा—शकूरा को लेकर आपा के घर पर बैठी थीं। भाईजान शहर की ओर गए थेए सज्जो ने आकर एक पैकेट रन्नी के हाथ में पकड़ाया और कहा—ष्छोटे मालिक ने दिया है।ष् उसने पैकेट लियाए अंदर कमरे में आईए खोलकर देखा तो उसमें एक छोटी—सी डिब्बी थी। डिब्बी में सोने में जड़ी हीरे की अँगूठी थी। डिब्बी खुलते ही हीरे ने अपनी किरणें उसके चेहरे पर फेंकी।
ष्इतना महँगा तोहफा।ष् वह मन ही मन बुदबुदा उठी। श्कैसे इसको कबूल करूँघ्ष् काले खूबसूरत हफोर्ं में लिखा था। ष्रेहाना के लिए बहुत प्यार से।ष् उसने अँगूठी पहन लीए बाहर खिड़की से झाँका तो कार के पास यूसुफ खड़े थे। यूसुफ ने स्वीकृति में आँखें बंद कीं.....फिर खोलीं.....मानो कह रहे हों कि तोहफा स्वीकार किया अथवा नहींघ्
दूर से भाभी आती दिखीं तो रन्नी ने अँगूठी उतारी और डिब्बी में रख दी। भाभी के हाथों में दो बड़े मिठाई के डिब्बे थे। एक में काजू की मिठाई और दूसरा डिब्बा मेवों से भरा था।
ष्नूराए शकूरा के लिए यूसुफ भाई ने भिजवाया है।ष् भाभी ने कहा।
रात भाईजान के आने पर भाभी ने मिठाई तथा मेवे उन्हें खाने को दिए कहा—ष्छोटे मालिक बहुत बड़े दिल के हैं। भलाए इतने मेवे—मिठाई कोई देता हैए लेकिन उनके पिता अहमद भाई तो सुनते हैं एक पैसा गाँठ से नहीं खर्च करतेएष् भाईजान चुपचाप खाते रहे।
आजकल नूराए शकूरा को भाभी अपनी ननद के पास ही सुला देती थींए ष्मुएए रात भर जागते रहते हैं।ष् भाभी ने कहा तो रन्नी अपनी भाभी को छेड़ने लगी।
अचानक ही रन्नी को उल्टी जैसा लगने लगाए सिर भी चकरा रहा था। वह भागकर पीछे आँगन में पहुँची। अँधेरा पसरा पड़ा था। जोर—जोर से उबकाइयाँ लेते वह उल्टी करने लगी। भाभी दौड़कर आ गई। ष्अरे! क्या हुआ रन्नीए अरे! कुछ तो बोलो।ष् उसके मुँह से बोल भी नहीं फूट रहे थे। उल्टियाँ हो रही थीं और तेज चक्कर आ रहा था। वह भाभी की बाँहों में सम्हलने को हुई पर फिर तेज चक्कर ने जकड़ लिया। अँधेरे में खड़े काले दैत्याकार पेड़ गोल—गोल घूमने लगे थे। भाभी ने लाकर चारपाई पर लिटाया और माथासहलाती रहीं। रन्नी आँखें बंद करके लेटी रही। अब उसे कुछ अच्छा लग रहा था।
इधरए पिछले महीने से भाभी को भी उल्टियाँ आ रही थीं। और उन्होंने बताया था कि वे फिर उम्मीदों से हैं। खबर सुनकर रन्नी अपनी भाभी से लिपट गई थी।
ष्मेरी अच्छी भाभी.....इस बार दोनों भाइयों को एक बहना दे दो.....लड़की के बगैर घर अधूरा लगता है।ष् भाभी मुस्कुरा पड़ी थीं। रन्नी भी मुस्कुरा पड़ीए उसके पेट में भी एक जान थी उसने धीमे से अपने पेट पर हाथ रखाए कोमल स्पर्श कियाए यूसुफ बेतरह याद आए।
सुबह रन्नी को फिर उल्टियाँ हुई थीं। जी घबरा रहा था। भाई जान चिन्तित हो उठेए पत्नी से कहा—ष्रन्नी को अस्पताल ले जाओए कहीं मिठाई तो ज्यादा नहीं खा गई।.....अपच हो गया होगा।ष् लेकिन भाभी अपनी ननद को जानती थीं। उसे मिठाई कहाँ इतनी पसंद थीए उनका माथा ठनक रहा था। वे चारपाई पर लेटी अपनी ननद के पास गईंए कहा—ष्रन्नीए मैं दो बच्चों की माँ हूँ। बरसों बाद इस घर में फिर तीसरा आने को है। एक ब्याहता औरत से बात छिपती नहीं। मैंने रात गद्दे के नीचे वह अँगूठी देखी थीए क्या तुम पेट से होघ्ण्ण्ण्ण्ण्बताओ रन्नी.....।ष्
रन्नी भाभी की बाँहों में बिलख पड़ी।
घर में कुहराम मच गया। भाभी ने तो बात समझाकर भाईजान को बताई थी। लेकिन वे तो गुस्से से काँप रहे थे। भाभी ने शांत स्वर में कहा—ष्समस्या का कुछ तो समाधान निकालना होगाघ्ष् लेकिन उन्होंने कोने में टीकी छड़ी निकाली और पहुँच गए अपनी बहन के सामने। भाभी दौड़ी—ष्हाथ नहीं लगाना फूल—सी बच्ची को।ष् भाईजान ने कभी रन्नी को डाँटा तक नहीं था। आज उनके हाथ में छड़ी देखकर रन्नी थरथरा उठी। भाईजान गरजे—ष्बस नाम बता दो उसकाए मैं खून पी जाऊँगा।ष् वे रन्नी की ओर लपकते तो भाभी बीच में आ जातीं। बच्चे सहमकर बिस्तर में घुस गए और चादर से मुँह ढ़ांप लिया। बच्चे भी बड़े हो रहे थे और उन लोगों ने आज तक अब्बू का यह रूप नहीं देखा था। रन्नी अपनी भाभी की बाँहों में बिलख रही थीए लेकिन उसने अपना मुँह नहीं खोला। रोते—रोते वह सफेद पड़ गई थीए मानो किसी ने शरीर का सारा खून ही निचोड़ लिया। रात यूँ ही आँखों में कटी। भाभी को डर था कि कहीं रन्नी कुछ कर न बैठे। दोनों बच्चों को रन्नी के पास ही उन्होंने सुला दिया था। वे दोनों रात—भर जागते रहे। अँगूठी की डिब्बी में रखी उस पर्ची से स्पष्ट नहीं होता था कि किसने भेजा हैए फिर भी वे समझ गयीं कि यह छोटे मालिक ही हैं। आजकल उनका पेट्रोल पंप पर आना भी बहुत बढ़़ गया था। इधर रन्नी भी रोज ही कभी नाले की ओरए कभी अमराई में घूमने जाती थी। जब भी वह लौटती उसका व्यवहार भाभी को विचलित करता रहा था। लेकिन उन्होंने कभी रन्नी से कुछ पूछा नहीं था। भाभी चाहती थीं कि रन्नी खुश रहे। उन्हें लगता थाए इधर जंगलए खेतए पहाड़ए पेड़ और नाले में रन्नी का मन रमता हैए वह खुश रहती है।
सुबह—सुबह भाभी जब चाय बनाकर वहाँ पहुँची तो देखा रन्नी दोनों घुटनों में मुँह छुपाए रो रही है। भाभी ने लाड़ से उसके सिर पर हाथ फेरा और चाय पीने के लिए कहाए लेकिन रन्नी इन्कार ही करती रही। ष्यूसुफ ही हैं न रन्नीघ्ष् भाभी ने पूछा।
वह कुछ नहीं बोलीए भाभी ने रकाबी में चाय उंडेलीए ष्देखोए ऐसे में खाली पेट नहीं रहते.....चाय पिओ।ष्
भाभी ने भाईजान को इस बात के लिए मना लिया था कि वे रन्नी को लेकर अपने मायके जायेंगी। वहाँ नानी के पास नूराए शकूरा को छोड़कर कुछ बहाना बनाकर वह रन्नी को लेकर आगे उस गाँव में जाएगी जहाँ निर्जन एकान्त में नदी पारए जो बुढ़़िया रहती हैए वह अनुभवी है। कितनी ही औरतोंए लड़कियों का अवैध हमल गिरा चुकी हैं। वह एक सुरक्षित स्थान थाए कभी किसी को कुछ पता नहीं चलेगा।
बड़े बस अड्डे पर निस्तेज पीली पड़ी रेहाना खड़ी थी। भाईजान और भाभी अलग खड़े थे। नूरा—शकूरा ट्रंक पर चढ़़े बैठे थे। नानी के घर जाने के नाम से खुश थे।
बस को आने में आधा घंटा बाकी थाए तमाम वर्जनाओं से बँधी रेहाना अपना जी मिचलाना रोक रही थी। ऊँगलियों पर जो दिन गिने थे भाभी नेए उसके हिसाब से दोनों ही साढ़़े तीन महीने के पेट से थीं। भाभी का पेट पहले ही से काफी निकला हुआ था अतः लगता था कि हमल छरू महीने का है जबकि रन्नी के पेट से कुछ भी पता नहीं चलता था।
दूर खड़ी एक औरत गरम—गरम पकौड़ियाँ चटनी के साथ खा रही थी और मिर्च लगने से सी—सी करती जा रही थी। पास ही खड़ा उसका पति उसे लाड़ और चाहत से देख रहा था। रन्नी ने देखा कि शायद वह पूरे दिनों से है। कितना अभिमान भरा अहसास होता है औरत के लिए मातृत्व सुखघ्ण्ण्ण्ण्ण्एक सम्पूर्ण मानव को जन्म देना.....उस में निहायत तुम्हारा एक पुरुष का साथ होना.....तुम्हारा रक्षक.....तुम्हें सामाजिक मान्यताए इज्जत देने वाला। और एक तुम हो रेहाना! पेट में एक ऐसे व्यक्ति का हमल जिसमें सामाजिक साहसहीनता हैए जो नाम न दे सकेए जो सम्बन्धों को साहस से विश्लेषित न कर सके।
बस आ गई थी। रन्नी भाभी के साथ असहाय—सी बस में चढ़़ी थी कातर नेत्रों से भाईजान को निहारते हुए कि अब भी भाईजान उसे जाने से मना कर दें।.....उसकी झोली में इतने सुख आ गिरें कि वह माँ बनेए हाथों में चूड़ियाँ पहने और अपने बच्चे के पीछे भागते—भागते तमाम सुखों को हथेलियों में पकड़ सके। लेकिन भाईजान उससे ज्यादा निरीह और असहाय नजर आ रहे थे। रन्नी जानती थी कि भाईजान अहमद भाई के घर गए थेए और तबसे लगातार चुप थे। बस चल पड़ी थी। खिड़की के पास बैठकर उसने सिर पीछे टीका लिया। शकूरा गोद में बैठा ऊँघ रहा था। उसकी आँखों में रात तैर रही थी। अंधकार था..... भागते काले दैत्याकार पेड़ थेए ण्ण्ण्ण्ण्अँधेरे में डूबे पहाड़ थे। सम्पूर्ण जीवन की निर्जनता उसके समक्ष फैली पड़ी थी। जा रही है तो पेट में फूल खिला हुआ हैए और जब लौटेगी तो बंजर धरती के समान। मानो यहाँ कोई हरियाली थी ही नहीं तो फूल कहाँ से खिलता। जीवन का एक सत्य—असत्य में परिवर्तित हो जाएगा। आँखों से आँसू बहने लगे। कितना रोओगी तुम रेहानाघ् सामने रेहाना ही तो खड़ी थी। जब जिन्दगी में कुछ भी बाकी नहीं रहता हैए और तुम मर भी नहीं सकते तो एक चेहरा भागती बस के साथ भाग रहा था और रह—रहकर ओझल हो जाता था। फिर भागता था फिर सामने आता थाए ष्यूसुफ क्यों सताते हो मुझेघ्ष्
खिड़की से सिर टीकाकर उसने आँखें मूँद लीं। कब नींद आई होगी पता नहीं चलाए जब नींद खुली तो भाभीजान के मायके वाले गाँव में बस खड़ी थी। नूरा के मामू लेने आए थे और सामने ही खड़े थे। वे रन्नी को देखकर खुश हो गए। ष्चलोए अच्छा हैए तुम आ गई रेहानाए ननद—भौजाई एक दूसरे के बिना कहाँ रह पाती हैंघ्ष्
लेकिन घर पहुँचकर नूरा की नानी ने जो सिर से पैर तक निहारा कि वह समूची काँप उठी। अनुभवी आँखों ने क्या अंदाजा लगाया होगा यह रन्नी नहीं जानती पर उन्होंने कुछ कहा नहींए बस भीतर चली गई।
दूसरे ही दिन सुबह फिर बस का सफर शुरू हुआ और आठ घंटे बाद बस ने जिस जगह पहुँचाया उसे देखकर यदि और दिन होते तो निश्चय ही वह पगला गई होती। प्राकृतिक सौंदर्य से भरी वह जगह थी। जिस तालाब के किनारे दोनों ने चलना शुरू किया थाए उस में कुमुदनी के फूल लगे थे। जो अपनी लम्बी गर्दन में बैंगनी आभा के फूल समेटे थे। तालाब के बाद पगडंडी शुरू हुई थी और थोड़ी दूर जाकर एक उथली नदीए जिसकी तलहटी के पत्थर साफ नजर आ रहे थे और पानी एकदम ठंडा और बेहद साफ था। दोनों ने नदी के पानी में मुँह धोया। उस शांत वातावरण में दोनों कुछ देर बैठी रहींए फिर चलना प्रारम्भ किया। ऊँचाई परए पहाड़ी पर एक मकान दिखाई दे रहा था जिसके सामने एक काली बकरी बँधी थी और उसका छोटा—सा मेमना। रन्नी का दिल उदास और भयभीत था। अब वे लोग उस मकान के नजदीक पहुँच रहे थे। मुर्गियों को उनके दड़बों में खदेड़ती ष्हेय—हेयष् करती स्त्री को देखते ही रन्नी भयभीत हो उठी। काले चकत्तों से भरी दुबली देहए सफेद बालए पॉकेट लगा लम्बा छींटे का ब्लाउजए बगैर पेटीकोट की मोटी धोती।.....रन्नी को लगाए मानो वह जिबह करने ले जाई जा रही हो। अभी उसकी गर्दन एक पत्थर पर रखी जाएगी और एक लम्बा तेज छुरा उसकी गर्दन को धड़ से अलग कर देगा। ष्आओ बीष् कर्कश भद्दी आवाज में वह बोली।
भाभी ने रन्नी का हाथ पकड़ा और एक चिकनी चट्टान पर बैठते हुए कहा—ष्सलाम वाले कुम बड़ी आपा।ष् उसी कर्कश आवाज ने ध्यान से रन्नी को देखते हुए कहा—ष्अस्सलाम वालेकुम.....ष्
सूरज डूब चुका थाए और उसकी लालिमा क्षितिज में फैल रही थी। डूबते सूरज की लालिमा में रन्नी की गर्दन पर था एक चुम्बन। यूसुफ! देखो तुम्हारी मुहब्बत की निशानी को मिटाने आई हूँए यूसुफ—बुदबुदा उठी वह। देखोए मुहब्बत के जिन मोहक क्षणों में तुमने मुझे माँ बनने का गौरव प्रदान किया आज उसी गौरव का गला घोंट रही हूँ। हाँ! यह मेरी मर्जी नहीं है.....हम समाज के अंग हैंए और यह सामाजिक मर्यादा का प्रश्न है।
भाभी ने रन्नी का हाथ दबाया तो वह चौंक पड़ी। फिसलते क्षणों को पकड़ना कितना कठिन था! मुर्गियाँ दड़बे में बंद हो चुकी थीं और क्षितिज में फैली लालिमा शनैरू शनैरू खतम हो रही थी। थोड़ी ही देर में अंधकार के दैत्य ने इस खूबसूरत जगह को अपनी गिरफ्त में ले लिया। आपाए दोनों को लेकर उस घर में दाखिल हो गई। रन्नी को लेकर वह भीतर के कमरे में गईए कुछ ही देर में रेहाना की एक चीख उभरी और वह काली स्त्री गुस्से से बाहर निकली—
ष्नहीं हो सकता बीए हमाल बड़ा हो चुका है। लगता हैए चार महीने पूरे होने में दस—बारह रोज होंगेए तुम लोग कब सुध लेते हो.....यही कि जब इच्छा हो चले आएए बड़ी आपा तो है।ष्
ष्नहींए बड़ी आपा कुछ तो करिएष्ण्ण्ण्ण्ण्भाभीजान घिघिया रही थी।
ष्पूरे तीन सौ लगेंगेए सारी रात लग जाएगी। लड़की चीखेगी—चिल्लायेगी सो अलगए सम्हालना मुश्किल होगाएष् बड़ी लापरवाही से कहकर बड़ी आपा पान लगाने लगीं। एक बीड़ा भाभीजान की तरफ बढ़़ाकर बोली—ष्मंजूर हो तो कहोए इस तरह के केस में मैंने तीन—तीन हजार तक लिए हैं। एक हिन्दुआनी अपनी लड़की को लेकर आई थीए साल भर पहले। लड़की कुल १४ साल की। घर के ही किसी नौकर ने उसे दबोचा था। उसने साल भर का राशन घर में भर दिया थाए तीन हजार अलग दिए।.....फिर जाते हुए यह बकरी भी खरीदवा दी। मैं जो काम नहीं कर सकतीए हाथ नहीं धरतीए तुम गरीब होए इज्जत की खातिर यहाँ तक चलकर आई होए तुम भी पेट से होए बोलो जल्दीए तीन सौ से एक पैसा कम नहीं।ष्
भाभीजान मुंडी हिला देती हैंए रन्नी आकर भाभी के पास बैठ गई।
ष्भाभीए मुझसे सहन नहीं होगाए मैं इतनी तकलीफ बर्दाश्त नहीं कर सकतीए घर लौट चलो।ष् भाभी ने धीमे से रन्नी का हाथ दबाया और अस्फुट स्वर में कहा—ष्सहना ही होगा रन्नीए ण्ण्ण्ण्ण्सहना ही होगा।.....औरत के हिस्से में सिर्फ सहना ही लिखा है खुदा नेए सो सहो।ष्
अन्दर की कोठरी में बिछी चटाई पर रेहाना को लिटाया गयाए कोठरी में अजीब—सी गंध पैबिस्त थी। रन्नी को उबकाई आ रही थी। हड्डीनुमा शक्ल की जड़ें आले में रखी थींए पूरी कोठरी में आले ही आले थे। जिनमें जड़ी—बूटीयाँ और शीशियाँ घुसी हुई थीं। लालटेन की पीली नीम रोशनी कोठरी को भयानक बना रही थी। पास ही एक नरदा बना था जहाँ पानी से भरी बाल्टी और एल्यूमीनियम का गन्दगी का परत चढ़़ा लोटा रखा था।
बाहर की कोठरी उससे भी छोटी थी जिसमें काला पड़ गया मिट्टी का चूल्हा बना था। ढ़ेर सारी राख बाजू में रखी थी। कुछ काली अधजली लकड़ियाँए जूठे बर्तन.....डिब्बे पिटारियाँ और तमाम छोटी—छोटी डिब्बियाँ। आपा ने चूल्हे में लकड़ियाँ झोंकी और मिट्टी के तेल से भरा एक पतीला जला दिया। उसी गंदे हाथों से एल्यूमीनियम का पतीला चढ़़ा दिया। पतीला पहले से गंदा था उसमें पानी डालकर कुछ देसी औषधियाँए नीम की डंडियाँ डालकर रख दिया। जब काढ़़ा उबलने लगा तो पूरी कोठरी में अजीब—सी कसैली गंध फैल गई।
तामचीनी के मग में काढ़़ा छनती हुई बड़ी आपा बड़बड़ाने लगीं—ष्ये मर्द—जात मजे लेता हैए बड़े—बड़े वादे करता हैए कसमें खाता हैए और सारे दुःख बाद में औरत की झोली में आ गिरते हैं। गालियाँ और जलालत मिलती है सिर्फ औरत को.....अरे इन्सान हैं दोनों। ऐसे—ऐसे केस आते हैं कि तुम सुनकर हैरान हो जाओगी बी.....लेकिन हमें क्याघ् न हम नाम पूछते न पता ठिकाना।.....हम तो हैं अकेली जान.....एक पैर कबर में लटका हुआ। लेकिन जीने के लिए पैसा तो चाहिए न।.....चालीस साल से यही काम कर रही हूँ।..... पहले विधवा सास भी साथ थीए सात साल पहले मर गई।.....उसी ने सिखाया यह सब। अपनी कोई औलाद नहीं।.....आते ही विधवा हो गई मैं।.....अब दूसरों की औलादें छीनती हूँ।ष् एक गहरी साँस ली बड़ी आपा ने..... ष्पता नहीं कितना और पाप कराएगा खुदा मुझसेघ् कितनी जानें और लेगा मेरे द्वाराघ्ण्ण्ण्ण्ण्फिर भी लोग बड़ी आशा से यहाँ आते हैं कि बड़ी आपा सब सम्हाल लेंगी। हाँ! लेकिन परवरदिगार की मेहरबानी है कि आज तक कोई केस बिगड़ा नहीं!.....रोती हुई आई लड़कियाँ राहत की साँस लेते हुए जाती हैं।ष्
ष्बस बड़ी आपाए हमारी बिटीया को भी फारिग करा दोए बड़ी मेहरबानी होगी। अल्लाह उम्र—दराज करेगा।ष् भाभी लगभग घिघियाती हुई बोलीं।
ष्अरे छोड़ो बीए अब क्या उम्र की। सत्तर साल जी लीए और कितना जिऊँगीघ् आज की रात छोकरी को खाना नहीं देना हैए तुम कुछ साथ लाई हो या दो रोटीयाँ तुम्हारे लिए भी डाल लूँ।ष्
ष्नहींए मैं तो कुछ नहीं लाईए पर खाऊँगी भी नहीं। कुछ भी इच्छा नहीं है बड़ी आपा।ष्
ष्अरेए क्यों न खाओगीघ् भूखा पेट ऐंठेगा नहीं क्याघ् चौथा महीना होगाए है न.....घ्ष्
ष्हाँए चौथा ही है।ष्
पेट की तरफ देखकर बड़ी आपा बोलीं—ष्लड़की है। आगे—बेटे हैंए कि सभी लड़कियाँ हैंघ्ष्
ष्दो बेटे हैं।ष्
ष्खुदा का शुक्र है। वरना बेटे के लिए बेटीयाँ जनते जाओए न कोई शरीर की परवाह करने वाला न कोई देखने वाला।ष्
बड़ी आपा ने रेहाना को काढ़़ा दियाए इससे तकलीफ ज्यादा पता नहीं चलेगीए नींद भी आ जाएगी। रन्नी काढ़़ा पीकर अन्दर की कोठरी में बिछी चटाई पर लेट गई। सिर घूमने लगा। लम्बा सफर बस का..... और सुबह की दो रोटीयाँ खाई हुईं। रास्ते में एक कप चाय पी थी बस। आपा ने रेहाना की सलवार उतरवाई और गर्भाशय को खींच—खींच कर उसके मुँह पर एक जड़ी लगा दी.....। रेहाना चीखी.....ष्भाभीजान.....ष्
ष्अभी से मत चीखो.....चुपचाप सो जाओएष् बड़ी आपा ने रन्नी की ओर देखकर आँखें तरेरीं।
कुछ ही देर में वह गहरी नींद सो गई। बड़ी आपा ने चूल्हे पर रोटीयाँ सेंकीए अंडे की भुर्जी बनाई। दोनों खाने बैठीं पर भाभी से निवाला निगलना कठिन हो रहा था। बड़ी आपा समझ गईं—ष्देखो बीए मैं खाने की जिद न करतीए मैं तुम्हारा दुःख समझ रही हूँ। लेकिन तुम पेट से होए ऐसे में खाना जरूरी है। उसकी बच्चेदानी में मैंने जड़ी लगा दी हैए दो—तीन घंटे में वह फूल जाएगी।.....बच्चेदानी का मुँह खुल जाएगा और फिर सब कुछ आसान हो जाएगा।ष्
भाभी सुनकर थरथरा गईं।
ष्देखोए मैं किसी से कुछ पूछती नहीं हूँ। लेकिन दाई से पेट छुपता नहीं है। लड़की पच्चीस—छब्बीस साल की दिख रही हैए फिर हमल क्यों गिरा रही होघ्ष्
ष्विधवा है।ष् भाभीजान रो पड़ी। बड़ी आपा हैरानी से भाभीजान की तरफ देखती रह गईं।
चूल्हा बुझ गया थाए जली गीली लकड़ी की गंध बाकी थी। वहीँ बिछी चटाई पर भाभी लेट गई। एक मैला चीकट काला तकिया लाकर बड़ी आपा ने भाभी को दे दिया। फिर कोठरी के अन्दर वह घुस गई और किवाड़ बंद हो गए।
अभी भाभीजान को झपकी ही आई होगी कि अन्दर से रन्नी के चीखने की आवाजें आने लगीं। वे उठकर बैठ गई। घबराहट से पसीने—पसीने हो उठीं। किवाड़ों की झिरी से पीली मद्धिम रोशनी बाहर आ रही थी। रन्नी की बढ़़ती चीखों से घबराकर भाभीजान ने दरवाजा खटखटाया। बड़ी आपा ने दरवाजा खोला..... उन्होंने देखा कि अर्धनग्न रन्नी चटाई पर पड़ी छटपटा रही थी।
ष्मुझे अन्दर आने दो।ष् उन्होंने दरवाजे पर हाथ अड़ा दिए।
ष्पागल न बनो बीए मुझे अपना काम करने दो। पहले ही कहा थाए सारी रात लगेगी। बच्चा जनवाने में उतनी तकलीफ नहीं होती जितना गिराने में।ष् बड़ी आपा ने कहकर दरवाजा बन्द कर लिया।
अन्दर से चीखने की आवाज आती रहीए ष्भाभीजान.....मुझे बचा लोएण्ण्ण्ण्ण्भाभीजान।.....ष् और इधर बन्द दरवाजे से चिपकी बैठी भाभी थरथर काँप रही थीं। अन्दर रूह कंपा देने वाली चिल्लाहटेंए चीखें थीं।
ष्मेरे परवरदिगारए लड़की पर रहम कर। मेरे अल्लाहए मेरे मौला रहमकरए रहम कर।ष् वे बिलख—बिलखकर रोने लगीं। उन्होंने दरवाजे पर सिर पटकाए ष्तू रहम करेगा या नहींए या मैं सिर पटक—पटककर अपनी जान दे दूँएष् एक लम्बा समय बीत गया। वे हिचक—हिचककर रो रही थीं। अन्दर से केवल कराहने की आवाज आ रही थी। बाहर कुछ मुर्गियाँ कुड़कुड़ाई और मुर्गे ने बांग दी। बकरी के गले की घंटीयाँ बज उठींए सुबह हो गई थीए लेकिन धुँधलका ही था। जानवर जगने को कुनमुना रहे थे। फिर एक चीख सुनाई दी और एकदम शांति छा गई। भाभी जान घबराहट में उठ खड़ी हुईंए दरवाजा खुलाए बाल बिखेरे बड़ी आपा सामने खड़ी थीं। ष्अपनी पूरी जिन्दगी दाँव पर लगा दी बीए वरना आज छोकरी बचती नहीं। मेरी जिन्दगी पर दाग लगते—लगते रह गया।.....अल्लाह बहुत मेहरबान हैए सब कुछ ठीक हो गया। जिस्म में जान बची रहे तो सेहत तो बन ही जाती है। तुम्हारी ननद ने उल्टी और पाखाना भी कर दिया।.....सब सरल समझते हैंए बस यही बुड्ढी सब ठीक कर देगी।.....किसी को पता है कि यह बुड्ढी जान पर खेल जाती है।ष् उन्होंने चटाई उठाकर बाहर फेंक दी—ष्गंदबला धोओए माँस के लोथड़े गाड़ो.....कितने कामए खून साफ करोए देखो तो भलाएष् उसने तसले में माँस का खून भरा लोथड़ा दिखाते हुए कहा—ष्अपने इतने साल के अनुभव से बताती हूँए कि बेटा था।.....कैसे हो तुम लोगघ्ण्ण्ण्ण्ण्अरेए इस छोकरी का निकाह न पढ़़वा देते उस लम्पट के साथघ्ण्ण्ण्ण्ण्वो तो मस्त जान छुटाकर भाग लिया इधर इसकी जान पर बन आई।ष्
बड़ी आपा ने तसला उठायाए तो भाभीजान सिहर उठीं। तुरन्त अपने पेट पर हाथ फेरा। बड़ी आपा कोठरी से बाहर निकल गई। भाभी ने भीतर झाँका रन्नी अर्धबेहोशी की हालत में पड़ी थी। खून से कुरता सना था। कोठरी में भयानक दुगर्ंध थी—ष्लोए मैं चारपाई डाले देती हूँ। सुबह की कुनकुनी नर्म धूप में लड़की को लिटा दो।ष्
भाभी ने रन्नी को सहारा दियाए और बाहर ले आईं। रन्नी बाहर खरहरी खाट पर लेट गई। ष्बड़ी आपा तकियाघ्ष्
ष्नए तकिया नहींए बल्कि पैरों के नीचे तकिया लगा दो।ष् बड़ी आपा वही काला चीकट तकिया उठा लाईंए ष्बड़ा खून बहा हैए लड़की बड़ी जीवट वाली है। रोई चिल्लाई भी नहींए बस सहती रही।ष्
भाभी ने दुलार से अपनी ननद को देखाए गोरे मुँह पर पसीने की बूँदें जमा थीं। सूरज की सुनहली आभा रन्नी के पैरों को छू रही थी। बाल धूप में चमक रहे थे। भाभीजान देखती रह गईय इतनी पीड़ा में भी इतना सौन्दर्य! जब खुदा ने रन्नी को गढ़़ा होगा तब क्या उसकी किस्मत गढ़़ना भूल गए थे।
चारपाई के चारों ओर मुर्गियाँ कुड़कुड़ा रही थी। कमरा धोकर बड़ी आपा नीचे नदी की ओर जाने लगींए ष्तुम अपनी ननद के कपड़े धो लाओए चटाई भी धो देना। अब मैं कितना करूँघ्ष्
ष्यहाँ कोई आता—जाता नहींए कपड़े भी यहीं बदलवा दो। आज दिन भर तुम लोग नहीं जा सकतीं। शाम को सात बजे आखिरी बस जाएगी। उसी से चल देना। सारे दिन यह आराम करेगी। अभी घंटे भर में बकरी को चराने एक लड़का आएगाए उसे पैसे दे देना। दूध मँगवा लो। पाव रोटीए नीचे ठेले पर भजिया भी मिलती है। न तुम खुद भूखी रहो न लड़की को रखो। अब मुझसे चूल्हा न फुंकेगा। सत्तर साल की काया। रात भर में मैं भी थक चुकी हूँ। अब मैं नहाकरए चाय पीकर सोऊँगी।ष् कहते हुए बड़ी आपा नदी की ओर उतर गईं।
भाभी ने रन्नी के कपड़े बदलवाएए मुँह हाथ धुलवायाए एक ही रात में सफेद निस्तेज पड़ गई थी रन्नी। कपड़े बदलकर रन्नी सो गईए उठने पर पैर काँपे थे। भाभी नीचे कपड़े धोने चली गई। खुद भी नहाया और आकर कपड़े काली चट्टान पर सुखा दिए। लड़के से दूधए पाव भजिया मँगवाए। बड़ी जिद से रन्नी को खिलायाए बड़ी आपा ने और भाभी ने भी खाया। बड़ी आपा की ओर भाभी ने देखा—ष्काम ही ऐसा है जो रुखा बोलती हैंए वैसे दिल की बुरी नहीं हैं बड़ी आपा।ष् सोचा भाभी नेए और चारपाई को पेड़ की छाया तले घसीटकर पास ही नीचे चटाई बिछाकर वह स्वयं भी गहरी नींद में सो गईं।
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पार्ट — 7
ज्यों फेन से सराबोर समंदर की लहर हुलसकर तट तक जाती है और सब कुछ समर्पित कर बौखलाई—सी लौट आती हैए रन्नी भी लौट आई। यूसुफ और अपने प्यार की निशानी को खुरच—खुरच कर निकलवा तो दिया पर मन से क्या खुरचने के दाग गएघ् क्यों रन्नी के साथ ही ऐसा होता आया हैघ् हर ओर शिकस्तए जिन्दगी की हर बाजी शह और मात से लबरेजघ्ण्ण्ण्ण्ण्कहीं तो अल्लाह एक किरण रोशनी की उसे भी सौंपताघ्
जाकिर भाई के घर से चाबी लेकर रन्नी ने घर का दरवाजा खोला। नूरा साथ आया था। भाभी जचकी के लिए वहीँ रुक गई थीं। भाईजान भी अपने धंधे के सिलसिले में बाजार चले जाते थे सुबह ही। नूरा जिद्द कर रहा था—ष्फूफीए तुम बाद में नहाओए पहले मुझे खाने को दो।ष्
ष्रास्ते भर तो खाता आया हैए थोड़ा चौन तो लेने दे नूरा बेटे। पहले रास्ते के कपड़े उतारए जाकर नहाए तब खा।ष् रन्नी ने अटैची खोलते हुए कहा। तभी सज्जो कटोरदान में रवे का हलवा लिए ठुमकती हुई आई—ष्फूफीए जे अम्मी ने भेजा है।ष्
वह पलटकर जाने ही वाली थी कि रन्नी ने रोका—ष्सज्जोए थोड़ी देर बैठए मैं जरा नहा लूँ।ष्
ष्अच्छा फूफी।ष् कहकर सज्जो नूरा के खिलौनों के पास बैठ गई। रन्नी ने जल्दी से नूरा के कपड़े बदलवाकर मुँह हाथ धुलाया.....। फिर रन्नी खुद भी नहाई.....कपड़े बाल्टी में भरकर रख दिए कि थोड़ा सुस्ता लेंए तब धोयें। इतनी देर में नूरा ने आधा हलवा चट कर लिया था। रन्नी उसका मुँह देखकर बेसाख्ता हँस पड़ी। सज्जो भी हँस पड़ी। रन्नी ने डलिया से शकरपारे और मठरी निकालकर सज्जो को दिए कि जाकर आपा को देना और मेरा सलाम कहना।
दालए चावल पकाकरए नूरा को खिला—पिलाकरए रन्नी ने खुद के लिए भी परोसा लेकिन तबीयत उचट गई। जो कुछ भी हुआ वह रन्नी के लिए हादसा था। खुरचने की पीड़ा टीस रही थी। बार—बार मन में सवाल उठ रहा था कि आखिर उसे क्या हक था अपनी कोख में अकुँआये शिशु को मारने काघ्ण्ण्ण्ण्ण्इस समाज में कहीं जब किसी का खून होता है तो मारने वाला खूनी कहलाता है। क्या वह स्वयं खूनी नहीं और क्या ऐसा करना इसलिए जायज था कि वह नाजायज संतान को कोख में पाल रही थीघ् रन्नी की आँखें भर आईंए खाया नहीं गया। वह उठी और तख्त पर चित्त लेट गई। मन में विचारों का बवंडर उठा था। तभी खिड़की से दिखती अमराई में यूसुफ खड़े नजर आये। उधर से पुकार की खामोश कोशिश रन्नी के पैरों को खींचने लगी। पलटकर देखाए नूरा सो रहा था और भाईजान के आने में अभी काफी वक्त था। रन्नी ने दुपट्टा सिर पर डाला और दरवाजे को सरकाकर यूसुफ की ओर बढ़़ी।.....वक्त का तकाजाए खानदान की इज्जत और उसका अपना कर्त्तव्य रन्नी के पैर को पीछे घसीट रहे थे और प्यार आगे की ओर। आखिर प्यार की विजय हुई। रन्नी यूसुफ के गले से लिपटकर रो पड़ी। ष्सब कुछ खतम हो गया यूसुफए सब कुछ।ष्
ष्जानता हूँ रेहानाए तब से मैं भी तो कतरा—कतरा जिया हूँ।.....पर हम कर ही क्या सकते हैंए बेड़ियाँ जो पड़ी हैं पैरों में।ष् यूसुफ ने रेहाना की पलकों के आँसू अपने होठों में पिरो लिए।
ष्इसका कोई हल नहींघ्ष्
ष्हल है। मैं आज ही अब्बूजान से बात करूँगा। सब कुछ बता दूँगा उन्हेंए मुझे उम्मीद है वे इंकार नहीं करेंगे।ष्
रन्नी यूसुफ के सीने में मुँह गड़ाये थी। आम के पीले पत्ते मानो आशीर्वाद बन टपक पड़े। रेहाना ने सिहर कर सिर उठाया—ष्वे मान जायेंगेघ्ष्
ष्मुझे कोशिश करने दो रेहानाए मन छोटा न करना। तुम्हीं तो मेरी हिम्मत हो। तुम्हें हारा हुआ देखए मैं भी पस्त हो जाता हूँ।ष् रन्नी आश्वस्त हुईए दोनों धीरे—धीरे अमराई में चहलकदमी करने लगे। रन्नी ने सारा वाकया कह सुनायाए वो पीड़ा के दर्दए वो अँधेरा सीलन—भरा कमराए वो सिसकियाँए सब कुछ हूबहू।
ष्बस करो रेहाना.....अब और न कहोए तुमने बहुत सहा है।ष्
जाने कब शाम चुपके से अमराई में उतर आई। रन्नी यूसुफ से जुदा हुई तो टीटहरी की आवाज से अमराई गूँज उठी। जाकिर भाई पेट्रोल पम्प के सामने खड़े ट्रकों में डीजल भर रहे थे। यूसुफ ने चुपचाप अपनी कार स्टार्ट की और सुरमई शाम में गुम हो गए।
भाईजान के लौटने का वक्त। घर में तरकारियाँ थीं नहीं और भाईजान को चाहिए रोटी तरकारी। रन्नी ने सिल पर एक कटोरी खसखस पीसी और हरी मिचेर्ं डालकर पका लीं।.....भाईजान आयेंगे तो फुलके उतार देगी। नूरा अपने आप में मस्त खेल रहा था। यूँ भी वह अब समझदार हो गया है। शकूरा का बड़ा भाई जो है। फिर बहन भी आने वाली है। भाभी के लड़की ही हो यह रन्नी की दिली तमंना है। कम से कम घर में पायल—चूड़ी तो बजे। रन्नी इस घर की बेटी होकर भी इस सुख से महरूम है। मन फिर पिघलने लगाए भीतरी परतें कसमसाने लगीं। रन्नी ने अपने पर काबू किया। नमाज का वक्त हो चला था। उसने बरामदे में रखे घड़े से लोटा भर पानी लेकर वजू किया और जॉनमाज बिछाकर नमाज पढ़़ने लगी। सिजदा कियाए तभी भाईजान आ गए। थैलों में सब्जी तरकारी भरे। अंडेए पाव सभी कुछ। आते ही नूरा को प्यार किया। रन्नी को भर नजर देखा। रन्नी निगाहें न मिला सकी। चौके में जाकर फुलके सेंकने लगी। भाईजान कपड़े बदलकर हाथ—मुँह धोकर तख्त पर बैठ गए। तख्त पर नमदा बिछा था। यह नमदा अम्मी ने उस समय खरीदा था जब रन्नी का ब्याह हुआ था। भाईजान नूरा से पूछ रहे थे कि शकूरा कैसा है और उसकी अम्मी कैसी हैंए कब लौटेंगी और यह कि दिन भर फूफी को तंग तो नहीं करता रहा वहघ्
तब तक रन्नी थाली में फुलकेए हरी मिर्च का अचारए मठरियाँए लड्डू और खसखस ले आई। नमदे पर अखबार बिछा थाली रख दी। रन्नी तखत के दूसरे छोर पर बैठ गई। अब क्या करेघ् किस तरह बात शुरू करेघ् रन्नी खाते हुए भाईजान को देखती रही। चेहरा मलिन—सा लगा। आखिर हिम्मत की—ष्और फुलका ला दूँ भाईजानघ्ष्
वे चौंके—ष्ऊँऽऽएष् और नहीं में सिर हिलाया। अन्तिम कौर खाकर हाथ धोने बरामदे की ओर बढ़़े फिर नूरा को आवाज दी—ष्बेटाए थोड़ा पानी और दे जा।ष् रन्नी हाहाकार कर उठी। भाईजान कुछ कहते क्यों नहींए क्यों अबोला साध रखा हैघ् क्या माफ नहीं करेंगे उसेघ् क्या अपनी जान से ज्यादा अजीज बहन को अबोला साध जिबह कर डालेंगेघ् टूटे मन से रन्नी ने जूठी थाली उठाईए चौके का काम निपटाया। मन चिन्दी—चिन्दी हो उठा था।.....कैसे जोड़े इस घर के अपनापे कोघ् यूसुफ ने समय माँगा है। वह क्या करेघ् कहाँ जायेघ्
काम निपटाकर वह लौटीए भाईजान अपने पेट पर नूरा को लिटाएए खटीया पर लेटे थे। रन्नी का धीरज जवाब दे गया। वह सिरहाने गई और भाईजान से लिपट गई—ष्भाईजानघ् नाराज हैं अभी तकघ्ष्
ष्नहीं रन्नीए नाराज तुमसे नहीं अपनी मजबूरी से हूँ। मैं तुम्हारे लिए कुछ न कर सका और मेरी उम्र ढ़लती रही।ष्
ष्अल्लाह आपको उम्रदराज करे। मेरे गुनाहों की सजा आप क्यों भोगेंघ् मेरे लिए मत घुलिए भाईजानए मैं तो हूँ ही बदकिस्मत।ष्
भाईजान ने पेट से नूरा को उताराए रेहाना को चिपटा लिया और पीठ पर थपकियाँ देते रहे। उनकी आँखों से आँसुओं के दो बूँद रन्नी के पीठ पर आ गिरे।
रेहाना घर के कामों में जुटी रहती। वही रवैयाए भाईजान सुबह चले जातेए ढ़लती साँझ लौटते। नूरा पेट्रोल पंप के पास खेलता रहता और रेहाना की टकटकी डामर की सड़क पर चिलबिल के झाड़ के नीचे लगी रहती क्योंकि यूसुफ वहीँ कार खड़ी करते थे। चार दिन हो गएए वह जगह सूनी पड़ी है। जो कुछ हुआ वह न भूलने वाली थी। बेमेल विवाह के कारण रन्नी के मन की दम तोड़ती आकांक्षा पल्लवित भी हुई तो रिवाजों की आँधियों ने उसे कुचल डाला और वह बेबस मूक गाय सी बिटर—बिटर देखती रह गई। लेकिन यूसुफ की आस ने रन्नी को टूटने न दिया। यूसुफ अपने अब्बू—अम्मी से बात करेंगे और यकीं है कि कामयाब होंगेए लेकिन वह भाईजान—भाभी से कैसे कहेगीघ् क्या सोचेंगे भाईजानघ् विधवा विवाह क्या मुमकिन हैघ् आज तक उनके खानदान में जो नहीं हुआ उसे करने की रेहाना ने कैसे हिम्मत कीघ् और क्या भाईजान समाज की उबलती निगाहों का सामना कर पायेंगेघ् उफ! क्यों वह यूसुफ की तरफ झुकीघ् मर जाने देती अपने अरमानों कोए तन कोए मन को।
धूप आँगन से सरककर बरामदे की दीवारों पर आ गईए रेहाना ने बाल सुलझाने को चोटी खोली ही थी कि सज्जो दौड़ती हुई आई और एक लिफाफा पकड़ा कर यह जाए वह जा। जब तक वह सम्हलतीए सोचतीए यूसुफ की कार धूल का गुबार छोड़ती ओझल हो गई थी। रेहाना का हृदय काँप उठाए बिना मिले ही चले गए यूसुफ। कहीं कुछ गड़बड़.....नहीं.....नहीं.....या अल्लाह रहम कर। धड़कते दिल से लिफाफा खोला और मुढ़़िया पर बैठकर पढ़़ने लगी।
मेरी रेहानाए
किस मुँह से तुम्हें अपनी कहूँघ् तुम्हारे लिए मैं कुछ नहीं कर सका। जी चाहता हैए इस समाज के थोथे उसूलों की बेड़ियों को काट डालूँ और तुम्हें ले उडूँ। यकीन मानोए चार दिनों से अब्बू को मना रहा हूँ। वे कुछ सुनना नहीं चाहते। लखपति खानदान के वारिस हैंए दौलत दरवाजे पर हाथ बाँधे खड़ी रहती है। अपने लिए बहू भी ऐसी ही चाहते हैं। उनका कहना है कि खानदानी धन—दौलत और रुतबे का मेल हो तो शादी संभव है। आखिर समाज में मुँह उठाकर जीना है न! उन्हें अपने बेटे की खुशियों से सरोकार नहींए उन्हें धन चाहिए जो उनके अपार कोष को और समृद्ध कर दे। उन्हें हैसियत चाहिएए जो उनके रुतबे को और मजबूत कर दे। किसी की खुशियों से न तो कोष भरता हैए न हैसियत मिलती है। रेहानाए यह समाज धन को पूजता है इंसान की काबलियत संस्कार और त्याग को नहीं।.....जो त्याग तुम्हारे बाबा—दादी ने मुल्क के लिए किया। तुम लोगों की गरीबी की वजह वही त्याग है न! लेकिन यह समाज ऐसे त्याग को नहीं सोचता। भूल गए हैं लोग कि उन्हें कैसे आजादी मिलीए आजाद हिन्दुस्तान में उनकी आजाद साँसों की वजह क्या हैघ् जी चाहता है नेस्तनाबूद कर दूँ इस कृतघ्नता को। और! मैं कितना गयागुजरा हो गया। लानत है मुझ पर। रेहानाए मेरी जान! मेरी साँस। तुम यूसुफ की हो और रहोगी लेकिन उस यूसुफ का तुम करोगी क्या जिसे उसके जन्मदाता तक नहीं चाहते। जिसे उसके वालिद ने दौलत के तराजू में रखकर तौलना चाहा। नहीं रेहानाए ऐसे लाचारए बुजदिल यूसुफ का तुम्हारे पास कोई काम नहीं।.....तुम खुदा की बनाई बेशकीमती आत्मा हो। कोमलए सच्ची और मोहब्बत से भरी। मैं तुम्हारे लायक नहीं इसीलिए तुमसे मिलने की मुझमें ताब नहीं। मैं अपने बेटे को लेकर जुमे के रोज दुबई जा रहा हूँ। छोड़ रहा हूँ अपना मुल्कए अपना वतन जहाँ रेहाना हैए अब्बू—अम्मी हैं। सबको छोड़करए सबसे जुदा होकर जा रहा हूँ लेकिन तुम्हारा एहसास मेरे साथ जायेगा जो ता—उम्र मेरा सहारा रहेगा। खुदा की कसमए यूसुफ का घर अब नहीं बसेगा। हो सके तो मुझे भूल जानाए माफ करना मेरी रेहाना।
हमेशा के लिए
सिर्फ तुम्हारा यूसुफ
झन्न.....रेहाना के दिल की किचेर्ं चहुँ ओर बिखर गईं। उस पर पाँव रखता उसका एहसास लहूलुहान हो गया। रेहाना रोई नहींए जड़ हो गई। विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा भी हो सकता है पर सच तो सच है। आँखों पर परदा डाल लेने से सब कुछ ढ़ँक तो नहीं जाता। रेहाना उठीए पत्र को तहाकर तकिये की खोल में घुसेड़ दिया। याद आई ब्याह की रातए पति के द्वारा बलात्कार की रात.....पीटे जाने की घटनाएँए आरी—सी चलती किचकिचाती सास की बातें.....घर लौटना.....भाईजानए अम्मी का समझाकर वापस भेजना और सूनी कोख के लिए लानत—मलामत सहना और फिर पति की मौत। रेहाना को एक—एक हादसा याद है। याद है हर पल.....हादसों की मजार बना उसका अस्तित्व! फिर भी जीने को मजबूर वह। यूसुफ.....यूसुफए तुम क्यों मिले बिना लौट गए। मौत की सजा सुनाने से पहले मिल तो लेतेए मेरी अंतिम इच्छा तो पूछ लेते। नहीं यूसुफ.....डरो मत.....मरूँगी नहीं मैं.....लेकिन क्या साँस चलते रहने को तुम जिन्दगी मानते होघ्
रेहाना पँखनुची गौरेया—सी तखत पर बैठ गई। नूरा खेलते—खेलते आया—ष्फूफीए कुछ दो नए भूख लगी है।ष् लेकिन अगले ही पल उसे पसीने में तर देखकर पानी ले आया—ष्लोए पानी पी लो।ष्
रेहाना ने नूरा की मासूम आँखों को देखा और उसके हाथ में थमे गिलास को। नूरा ने गिलास उसके होंठों से लगाया तो रेहाना ढ़ह पड़ी। नन्हे नूरा को चिपटाकर छाती से उठती रुलाई गों—गों की आवाज में ज्वालामुखी—सी फट पड़ी। नूरा अवाक। फूफी को रोता देखए वह भी रोने लगा। माजरा कुछ समझ में नहीं आया उसकेए बस रोता रहा। रो—रोकर थक चुकी रेहाना को हरारत—सी महसूस हो रही थी। वहीँ तखत पर लेट गई। चूल्हा ठंडा पड़ा रहा। भाईजान ने जब साईकल टीकाई रेहाना को बुखार चढ़़ चुका था। हाथ—पैर धोकर भाई नजदीक आये—ष्क्या हुआ रन्नीघ् तबीयत खराब है क्याघ् कुछ पकाया भी नहींघ्ष्
ष्फूफी रो रही थीं अब्बू।ष् नन्हा नूरा चुप न रह सका—ष्खूब रोईं फूफी।ष् भाईजान द्रवित हो उठे—ष्क्यों अपनी जान हलकान किए होघ् जो हो चुकाए भूल जाओ मेरी गुड़िया।ष्
भाईजान गाँव वाली दुर्घटना का ही कयास लगा रहे थे। अच्छा हैए इस नई घटना को वह अपनी छाती में ही घोंट लेगी। अपनी जान से प्यारे भाईजान को भनक तक न होने देगी।
रात को भाईजान ने खिचड़ी पकाई। वै। की दवा शहद में चटाकर उन्होंने रेहाना को खिचड़ी खिलाकर सुला दिया। उसके टीसते जख्मों पर इतना मरहम काफी था। कम—से—कम भाईजान—भाभी को लेकर वह भाग्यशाली है।
सूरज तप रहा था। सुबह से ही तेज धूप थी। बीच—बीच में धूल—गर्द भरी हवाएँ चलने लगतीं। मुट्ठी भर भी छाँह नहीं थीए न आँगन मेंए न बरामदे में। चलो तो चप्पल पहने पाँव भी जलने लगते थे। रेहाना ने चप्पलें उतार दीं और आँगन में यूँ चलने लगी जैसे पाँवों में मेंहदी लगी हो। चलते—चलते तलवे झुलस गएए छाले पड़ गए। वह खिलौनों की मिट्टी—सी सीझती रही। जब पसीने और गर्म जमीं में खूब अच्छी तरह सीझ गई तो उसने अपने मन को कूट डाला और एक नई मूरत गढ़़ ली अपनी। अब इस मूरत को कोई आँच नहीं पिघला सकती। किसी का प्यार नहीं डिगा सकता। अब रेहाना मात्र भाईजान की बहन और नूरा—शकूरा की फूफी है। अब उसने ऐसा वज्र मन में गढ़़ लिया है जो उसे खंड—खंड कर चुका है। एक टुकड़ा बहन का भाईजान के लिएए एक टुकड़ा ननद का भाभी के लिए और एक टुकड़ा फूफी का नूरा—शकूरा के लिए.....बस। वज्रास्त्र का काम समाप्त और उसका दामन रीता। रेहाना फूल—सी हलकी हो उठी।
असर की नमाज का वक्त था। वह कमरे में लौटीए दाल भिगोकरए बटुए में अधन का पानी चढ़़ा दिया। वजू कियाए नमाज अता की और रात का खाना बनाने में मुब्तिला हो गई। बाहर आपा उसे आवाज दे रही थीं—ष्रेहाना.....इतनी गर्मी में अन्दर क्या कर रही होघ् चलो ढ़लान तक घूम के आते हैं। शीकाकाई भी तोड़ लायेंगे।ष्
ष्लेकिन आपा! भाईजान आते ही खाना माँगते हैं और अभी रोटी बनानी बाकी हैं।ष्
ष्रोटी आकर बना लीजो। भाईजान दो घंटे से पहले तो आने से रहे। मुझे भी तो पकानी है रोटी।ष्
ष्आपा.....हँडिया में शीकाकाई पड़ी है.....तुम्हारे बालों लायक हो जायेगी। कल चलेंगे। आज जी नहीं कर रहा।ष् रेहाना ने आपा के लिए दीवार से टीकी खटीया बिछाई और अन्दर जाकर शीकाकाई निकाल लाईए साथ में चार—छह रीठे भी। आपा ने पुड़िया लेकर पैताने रख दी और बड़े राज भरे स्वर में बोलीं—ष्सुना तुमने। अपने यूसुफ मियाँ दुबई जा रहे हैं।ष्
ष्अच्छा ऽऽष् रेहाना ने आँखें फैलाईं—ष्कबघ्ष्
ष्लो सुनो.....इतनी भोली न बनोए हमें सब पता है।ष्
रेहाना चौंकी। जब दरवाजे के परदे में पैबन्द लगा हो तो सबकी निगाहें वहीँ गड़ी नजर आती हैं।
ष्क्या पता है आपाघ्ष्
ष्लोए सुनो इनकी बातें। अरेए तुम क्या जानती नहीं कि यूसुफ मियाँ दुबई जा रहे हैंघ् कित्ती बार तो अमराई में बातें की हैं तुमने.....हमें तो इसलिए खल रहा है कि गाहे—बगाहे सज्जो और छुटकी के लिए मिठाई—मेवा भिजवा देते थे। ईद पर तो नई नकोर फ्रॉकें सिलवा दी थीं। कभी घीए कभी शक्करए गुड़ए सेंवईए रवा की सौगातें मिलना तो मामूली बात थी। अब कहाँ से मिलेगा सब कुछए जब देने वाला ही जा रहा है।ष्
ष्कोई किसी को नहीं देता आपा। सब अपने—अपने भाग्य का खाते हैं।ष् कहकर रेहाना ने बरामदे से झाँकते अमराई के पेड़ों पर नजरें टीका दीं। नहींए अब कहीं कोई हलचल नहीं.....रेहाना मर चुकी थीए और रन्नी अब अपनी पूर्ण गरिमा से विराजमान थी।
आम की डालियाँ गदराये आमों से भर चुकी थीं—ष्ठेका दे दिया आमों काघ्ष्
ष्कब काए इस बार मिट्ठन को दिया है। त्यौरस साल जिसे दिया था वही मिट्ठनए महा चालू इंसान है।ष्
आपा ने अपने खास लहजे में मिट्ठन की पूरी कहानी कह डाली। रेहाना को कहाँ मन था सब सुनने काघ् अल्लाहए सज्जो को खुश रखे जो ऐन बीच में आवाज देकर आपा को बुला लिया वरना चूल्हे की आग भी ठंडी हो जाती और आपा खिसकने का नाम न लेतीं।
मई—जून के लू के दिन। अमराई के बीचोंबीच मिट्ठन का झोपड़ा। सुबह—शाम चूल्हा सुलगता तो धुआँ और लपट रन्नी के चौके की खिड़की तक दिखाई देते। कभी—कभी धुएँ का गुबार खिड़की तक चला आता। रन्नी की आँखें धुँधुआ जातीं। मिट्ठन रोज पेड़ से टपकेए सुग्गा खाये आमों को झोले में भर नूरा को पकड़ा जाता। रन्नी अच्छी—अच्छी फाँकें छाँटकर कभी मीठी लौंजी बनातीए कभी गुड़म्माए कभी राई का पानी वाला अचार। पना और चटनी तो रोज ही बनते।
आम पकने लायक होने लगे तो उनकी उतराई शुरू हो गई। बड़े—बड़े लकड़ी के खोखों में पुआल बिछाकर आम जमाये जाते और ट्रकों में लादे जाते। दिनभर का शोर! कभी खोखों को दुरुस्त करने के लिए हथौड़े का शोर तो कभी ट्रकों का।.....एक दिन भिनसारे से खूब उमड़—घुमड़कर बादल आसमान में छा गए। बिजली कड़कने लगी। रन्नी ने टूटी कार पर सुखाई मूँग की बड़ियाँ और आलू—चिप्स बटोरे ही थे कि झमाझम बरसात शुरू हो गई। चिप्स और बड़ी का चादर ले जाते—ले जाते भीग गया। मिट्टी की सौंधी खुशबू उठने लगी। नूरा अपनी शर्ट उतार कर आँगन में कूद—कूदकर नहाने लगा। उसके गले और पीठ पर घमौरियाँ निकल आई थीं। रन्नी ने ही तो बताया था कि बरसात की पहली बूँदों में नहाने से घमौरियाँ खतम हो जाती हैं—ष्फूफी आओए तुम भी नहा लो। तुम्हें नहीं हैं घमौरियाँ।ष्
रन्नी हँस दी—ष्शरीर कहीं का।ष्
अब रन्नी को दूसरी चिन्ता सताने लगी। घर अंग्रेजी खपरों का और पहली बरसात ने ही घोषणा कर दी कि कहाँ—कहाँ से पानी टपकेगा। भाईजान को कहे कैसेघ् उधर भाभी पूरे दिनों से। तबीयत भी ठीक नहीं उनकी। लिखा है नमक एकदम बंद कर रखा हैए पैरों में सूजन आ गई है और ब्लड प्रेशर भी नॉर्मल नहीं। भाईजान कह रहे थे थोड़ा रूपया भेज दें तो वहाँ सुभीता हो जायेगा। वैसे भी मंदी का सीजन है यह। बारिश में खिलौने बनानाए सुखानाए बेचना सभी में रिस्क। उस दिन की अचानक आई बरसात में आँगन में पड़ी चिकनी मिट्टी काफी बह गई थी। जो खिलौने पहले के थोड़े बहुत रखे हैं उन्हें शहर या गाँव तक ले जाने की समस्या। बारिश में वैसे भी मड़ईए हाट भरते नहीं। रन्नी ने मुकेशए सलमाए सितारे का काम माँगना शुरू कर दिया। दोपहर को झटपट काम निपटाए नूरा की उँगली पकड़ वह छाता लेकर चल बिल्डिंगों की ओर। धीरे—धीरे काम मिलने लगा। अब दोपहर व्यस्तता में बीतने लगी। रन्नी का मन भी लगा रहता। नूरा स्कूल चला जाताए ण्ण्ण्ण्ण्वह अकेली रह जाती। चार दिन में बनने वाली साड़ी दो दिन में बनने लगी। कभी आपा आकर बैठ जातीं तो जरूर काम में सुस्ती आ जाती। हफ्ते भर बाद रन्नी ने बिस्किट के टीन के छोटे से डिब्बे में रखे रुपये भाईजान के सामने रखे—श्भाईजानए खपरे ठीक करा लीजिए।श्
भाईजान बे आईने—सी शफ्फाक अपनी बहन को निहारा। कुछ न दे सके वे और वह न्यौछावर हुई जा रही है उनके लिए। भावनाओं के आवेग से ठोड़ी काँपने लगी। मर्दजातए अपनी कमजोरी पी गए। डिब्बे में रखे रुपिये गिनने लगे। चेहरे पर रौनक—सी आई—ष्रन्नीए तूने तो खासी कमाई कर लीघ्ष्
रन्नी हँस पड़ी। मानोए क्यारी में लगी चूही खिल पड़ी हो। बहुत दिनों बाद देखी भाईजान ने उसकी हँसी। वे निहाल हो गए। ष्आज तो हम गुलगुले खायेंगेए सौंफ डले।ष्
नूरा नीचे बोरा बिछाकर बैठा स्लेट पर गणित कर रहा था।
ष्हाँ फूफीजान.....हो जाये।ष्
रन्नी को जैसे साँसों की सौगात मिल गई। जड़ जिस्म में जान—सी आ गई। अक्सर ऐसा होता है। कभी—कभी छोटी—छोटी खुशियाँ बहार बन जाती हैं और जीवन से उदासी पूछ जाती है।
उस बार सबने छककर गुलगुले और भजिये खाये। गाढ़़ी चाय पी और अरसे बाद बिस्तरों पर लेटकर भी बतियाते रहे।
दूसरे दिन दोपहर तक खपरे आ गए। छानी दुरुस्त होने लगी। अमराई सूनी पड़ी थीए मिट्ठन का झोपड़ा भी खामोश था। आम उतार लिए गए थे। ट्रकों का शोर भी कम हो गया था। बादलों ने बड़ी मेहरबानी की दिन—भर बरसे नहीं और छानी छा दी गई। न जाने क्यों आमों के टूट जाने से रन्नी उदास हो गई थी। चौके की खिड़की से दिखती चहल—पहल में मन रमता रहता था। खास कर जब मिट्ठन लम्बा बाँस लेकर सुग्गों को उड़ाता था। वह धोती पहने हमेशा खरेरी खटीया पर लेटा रहता था। रन्नी सोचतीए कोई इतना फुरसत में कैसे पड़ा रहता हैघ् जी नहीं अकुलाताघ्
जुलाई में खबर मिली कि भाभी को बिटीया हुई है। रन्नी पगला गई। बिटीया ही तो चाहती थी वह.....और अल्लाह ने सुन ली उसकी। नूरा—शकूरा को बहन मिल गई और उसे गुड़िया। भाईजान के आते ही जब रन्नी ने चहककर यह सूचना दी तो भाईजान ने साइकिल वापस मोड़ ली। आधे घंटे बाद लौटे तो गरमागरम गुलाबजामुन लिए। रन्नी ने एक गुलाबजामुन भाईजान के मुँह में खिलाया और कहा—ष्बसए अब भाभी को ले आइये। अब उनके बिना रहा नहीं जाता।ष्
भाईजान ने भी दूसरा गुलाबजामुन रन्नी के मुँह में धरा—ष्अगली जुमेरात को जा रहा हूँ न। चार गुलाबजामुन जाकिर भाई के यहाँ भी पहुँचा दो।ष्
ष्सिर्फ गुलाबजामुन ही क्योंए हलवा भी घोंटे देती हूँ। भाईजान आप खुद देकर आइए। इस समय जाकिर भाई घर पर ही होंगे।ष्
जब भाईजान जाकिर भाई के यहाँ चले गएए रन्नी भाभी की बिटीया का नाम सोचने लगी। तभी कानों में कोई बुदबुदाया—ष्अगर तेरा गर्भ न गिराया जाता तो इस वक्त तू भी माँ होती।ष्
माँ! रन्नी ने हिकारत से अपने पेट पर नजर डाली। यह लफ्ज मेरे लिए नहीं बना। अल्लाह यह लफ्ज मेरे माथे पर लिखना भूल गए। वह सब कुछ तो भूल गई थीए भूल जाना चाहा था फिर क्योंकर यह दोबारा याद आया। दबा गई थी रेहाना को वह कब्र मेंए मुट्ठियाँ भर—भर मिट्टी डाली थी उस पर। फिर क्यों कसमसाई रेहानाघ् इस बार खंजर घोंप देगी अपनी अंगड़ाई पर।.....नेस्तनाबूद कर देगी इस वहशी सोच को। अंगारा छू गया था ठोस हुए मन को। थोड़ा पिघलाए आँखें डबडबाईए रगड़कर पोंछी रन्नी ने और फिर सब भस्म।
भाभी गुड़िया—सी बिटीया को लिए जब रिक्शा से उतरींए रन्नी के पैर थिरक उठे। दौड़कर चूम लिया। मुख क्या था मानो चाँद का लघुरूप रन्नी की बाँहों में था। भाभी ने रन्नी को गले से लगा लिया—ष्कैसी हो रन्नी बीघ्ष्
ष्ठीक हूँ भाभीजान। शुक्रगुजार हूँ तुम्हारीए तुमने हमें चाँद—सी बेटी दी। इसका नाम रखूँगी ताहिराए मेरी चाँद—सी ताहिरा।ष्
भाभी मुस्कुरा पड़ीं। रन्नी ने कमरे में रखे बक्से को खोला और सुन्दर सलमा सितारा टँकी फ्रॉक निकाली—पीलेए हरे साटन की।
ष्वाह! कब बनाई तुमनेघ्ष्
ष्जब बिल्डिंग से काम मिलाए काढ़़ने—टाँकने का।ष् कहकर रन्नी ने ताहिरा को नहलायाए पीले साटन की फ्रॉक पहनाईए आँखों में काजल डाला और उसे पालने में लिटा दिया। तब तक औरतें आने लगी थीं। रन्नी ने बैठक में ही दरी बिछा ली थी। आपा ढ़ोलक और मजीरा ले आई थीं। एक पीतल के लोटे में दो अठन्नियाँ ढ़ोलक के पास ही रख दी गई। फातिमा खालाए अभी इस उमर में भी बड़ा अच्छा लोटा बजाती हैं। नूरा—शकूरा को लाल कागज में चार—चार बताशे बाँधने का काम सौंपा गया। रन्नी ने बड़े घड़े में गुलाब का शरबत तैयार किया जिसे कुल्हड़ में भरकर नूरा—शकूरा बाँटेंगे। भाभी अवाक! इतना इंतजाम।
ष्रन्नी बी.....तुमने तो हंगामा मचा डाला।ष्
ष्और क्या.....बेटी जो मिली है हमें.....कोई मजाक है।ष्
शाम का चार बजा होगा कि तभी ढ़ोलक पर पहली थाप पड़ी और अमराई सोहर के गीतों में गूँज उठी। फिर तो सात बजे तक गीत गाये जाते रहे। सज्जो ने लहँगा पहना था और ठुमक—ठुमक कर नाच रही थी। गाने के लिए आई हुई औरतों में भी कई सज्जो की उमर की थीं। थोड़ी ना—नुकुर के बादए सज्जो की देखा—सीखी वे भी उठकर कूल्हे मटकाने लगीं। बीच में थोड़ी देर ढ़ोलक रुकी। मीठी बूँदी से भरा थाल आयाए शरबत बाँटा गया.....फिर गाना शुरू। रन्नी ने भाभी को मुढ़़िया पर बैठा रखा थाए उन्हें हिलने न दिया। वे उन्नाबी गरारे—कुरते में बड़ी निखरी—निखरीए प्यारी—सी लग रही थीं। बीच—बीच में उनकी आँखें भर आतींए ण्ण्ण्ण्ण् शायद रन्नी की बदनसीबी परए ण्ण्ण्ण्ण्शायद उसके उल्लास पर। अल्लाह ने आँखें भी खूब बनाईं जिनमें खुशी में भी आँसू उमड़ आते हैं और गम में भी।
रातए सात—साढ़़े सात बजे महफिल रुखसत हुई। सबने ताहिरा को कुछ न कुछ तोहफा दिया। रुपयेए खिलौने और कपड़े। मुसी हुई दरी पर कुछ मुरझाये मोगरे के फूल पड़े थे। ये फूल घर आई बहुओं की चोटीयों में गुंथे गजरे से टपके थे। दरी भाईजान ने उठाई। भाभी ने फूल समेटे।.....आपा की लाई ढ़ोलक खूँटी पर टाँग दी गई। मजीरे भी। और रन्नी सौगातों का हिसाब लिखने बैठ गई। जिसने जो दिया हैए वापिस भी तो करना पड़ेगा नेग—दस्तूर के जरिए।
रात मेंए भाभी भाईजान के पास जाने से पहले रन्नी के पास थोड़ी देर के लिए आकर बैठीं। बच्चे सो गए थे।.....भाईजान भी शायद सो गए होंगेए थक जाते हैं बेचारे गृहस्थी का जुआ ढ़ोते—ढ़ोते। ष्रन्नी बी! फिर यूसुफ से मुलाकात हुईघ्ष्
रन्नी कसमसाईए इस कहानी को वह खत्म कर चुकी है पर भाभी उसके एक—एक पल की हिस्सेदार हैं। सुने बिना उन्हें चौन नहीं पड़ेगा। रन्नी ने सब कुछ बतायाए तकिये के गिलाफ में रखी चिट्ठी भी पढ़़ाई और बौराई—सी बोली—ष्सब खत्म हो गया भाभी।ष्
भाभीजान की संवेदना निरूशब्द झरती रही। कलेजा टूक—टूक हो गया। कैसेए कहाँ से अपनी इस कोमलए पवित्रए विशाल हृदय वाली रन्नी के लिए सुख बटोरेंघ् आदमी बुरा हो तो लानत—मलामत से किस्सा खतम करेंए पर इस रन्नी का क्या करें जो सिर से पैर तक सिर्फ अच्छाई से भरी है। भाभीजान ने रन्नी को गले से लगा लिया। इस कंधे की रन्नी को पाँच महीनों से तलाश थी। अब मिलाए रन्नी सूख चुकी है अब तो।.....फिर भीए सूखी नदी में मेघ बरसें तो पानी की एक धार फूट ही पड़ती है। देर तक रन्नी और भाभीजान सुबकती रहीं। भाभी ने उठकर रन्नी को पानी पिलायाए तौलिये से चेहरा पोंछा और बिल्कुल अम्मी की तरह थपकाकर सुलाने लगीं। उठीं तब जब ताहिरा जागकर रोने लगी थी।
रन्नी फिर जी उठी थी। ताहिरा का पूरा काम अपने जिम्मे ले लिय था। भाभी केवल दूध पिलाती थीं और चौका सम्हालती थीं। रन्नी खुश थी। बार—बार रोमांचित हो जाती। यूँ तो जिन्दगी जीने के और भी कई तरीके हैं पर रन्नी को जीने का सबब मिल गया था। आखिर अपने को मार देने से क्या पृथ्वी अपनी धुरी पर नहीं घूमेगीघ् क्या सूरज नहीं निकलेगाघ् क्या चाँद नहीं उगेगाघ् क्या सागर की लहरें जेठ की दुपहरी से तपकरए भाप बनकर बादल बनने के लिए नहीं उड़ेंगीघ् क्या बादल नहीं बरसेंगेघ् क्या नदियाँ नहीं बहेंगीघ्ण्ण्ण्ण्ण्और जब यह सब होता रहेगा तो मन का जजबा भी अपने लिए कोई एक किनारा ढ़ूँढ़ ही सकता है। रन्नी को भी किनारा मिल गया। यूसुफ के उसके जीवन में पदार्पण करने से आज तक की यात्रा को किनारा मिल गया। रन्नी खुश है.....कभी अपने भीतर उठते ममत्व सेए कभी ताहिरा के कोमल हाथों की छुअन से। रन्नी खुश है कि जीवन में उसने आदशोर्ं को नहीं पछाड़ा.....भाईजानए भाभीजान को दुख नहीं दिया। कभी तन्हा रातों में वह निराश होकर अन्धाधुन्ध भागी भी है। इस घर के प्रेम व्यवहार की पकड़ अधिक मजबूत है जो रन्नी को भटकने नहीं देती।
रन्नी सारा अतीत भुला देना चाहती है। पीछे से टेरती आवाजों को न सुनने के लिए उसने कानों पर हथेलियाँ रख ली हैं और आँखें मूँद ली हैं। बड़ा हौसला है रन्नी मेंए वरना वारदातों ने उसे पस्त करने में कोई कसर न छोड़ी थी।
जाकिर भाई ने ही बताया था कि यूसुफ मियाँ ने दुबई में अपना अलग कारोबार शुरू कर दिया है और बेटे को तालीम के लिए उच्च दर्जे के स्कूल में भर्ती किया है। रन्नी नहीं सुनना चाहती कुछ भी..... इसीलिए अब जाकिर भाई के यहाँ जाना भी कम कर दिया है और जब आपा फुरसत के पलों में आकर बैठती हैं तो वह भाभीजान को उनके साथ बैठाकर ताहिरा को कंधे से लगा थपकाने लगती है। टहल—टहलकर गुनगुनाने लगती है—श्सो जा राजकुमारीए सो जा।श्
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पार्ट — 8
रन्नी लौट तो आई थी अपने अतीत को छोड़कर लेकिन क्या कभी अतीत को बिसरा पाईघ् चहुँओर बिखरे अपने दिल की किचोर्ं पर लहूलुहान पैरों को रखती वह भाईजान के बच्चों को बड़ा करने में जुट गई। उम्र बीतती गई लेकिन उसके पाँव आज भी लहूलुहान हैं। और जब वह अपने पाँवों को सहलाती तो पीछे चुपके से आकर अतीत बैठ जाता। कभी भाभी जान उसकी पीठ सहलाकर समय को पीछे धकेल देतींए और वह उनके बच्चों की मुस्कुराहट में खो जाती।
दसवीं से अधिक न नूरा पढ़़ पाया और न ही शकूरा। नूरा लगातार फेल होता रहा और शकूरा जब उसके साथ इम्तहान में बैठा तो न जाने कैसे नूरा पास हो गया और शकूरा फेल। भाईजान समझ गए कि दोनों ही पढ़़ने में कमजोर हैं। पिछले तीन साल सेए नूरा खिलौने के धन्धे में हाथ तो बँटा ही रहा था। भाईजान कहते—ष्थोड़ा धंधा जैम जाए तब इन दोनों का निकाह एक साथ करवा देंगे। खर्च भी ज्यादा नहीं आएगा।ष् लेकिन नूरा—शकूरा की लगातार नाकामयाबी देख भाभीजान का दिल हौल खाता था। बेटों से ही तो आस रहती हैए इधर तो दोनों नकारे।.....अगर खिलौनों का धंधा न होता तो क्या करते दोनोंघ्
ताहिरा छोटी—छोटी पायजेब पहनेए ठुमक—ठुमक कर चलती कब बड़ी हो रही थी पता ही नहीं चल रहा था।
ष्नामुराद! ऐसी कमसिन और दूध जैसी उजली हैए न जाने किस घर को रौशन करेगीघ्ष् एक दिन बुदबुदाकर रन्नी ने कहा तो भाभीजान तुरन्त बोल पड़ी—ष्बिल्कुल तं पर गई है रन्नी बी—सूरतए सीरतए सभी में।ष्
ष्न भाभीजानए मुझ मनहूस का एक रोयां भीए खुदा न करेए उस पर पड़ेएष् कहते—कहते रन्नी उदास हो गई।
ष्ऐसा न कहो रन्नी बीए हाथ की लकीरें तो खुदा के घर से लिखकर आती हैंए लेकिन तुम्हारे जैसा दिल कोई पा सकता हैघ्ष् भाभीजान ने कहा।
ष्मेरी ताहिरा का निकाह देखना कैसे राजघराने में होगा।ष् रन्नी चमकती आँखों से ताहिरा को देखती रही। मानोए खुदा से सिजदा कर रही हो कि जो खुशियाँ तू मेरी झोली में डालना भूल गया उन खुशियों में मिलाकर दुगना सुख ताहिरा की झोली में डालना।
ष्क्या पता ताहिरा के नसीब में क्या हैघ्ष् ठंडी साँस भर कर भाभीजान बोली।
रन्नी जानती है भाभी का दिल। निरन्तर गरीबी और अभाव ही देखा है इस औरत ने और भाईजान गृहस्थी की गाड़ी खींचते—खींचते असमय ही बुढ़़ा गए। बाल खिचड़ीए देह में ताकत नहींए अब तो साईकिल चलाते भी हाँफ जाते हैं। लड़के अपने आप किसी काम का बोझ उठाने को तैयार नहीं। जाकिर भाई के घर बिजली आये दो साल हो गए हैं। भाईजान के पास इतनी रकम कभी एक मुश्त जमा नहीं हो पाई कि बिजली का कनेक्शन ले सकें। लम्बा तार डालकर एक बल्ब का कनेक्शन जाकिर भाई के यहाँ से ले लिया है। जिसमें बैठकर रन्नी गोटे—तिल्लेए सितारे का काम करती है। जब कभी रन्नी सोचती कि अब बिजली लायक पैसे जुड़ ही जायेंगे तभी कोई अन्य जरूरी खर्चए आकर खड़ा हो जाता।.....कभी खिलौनों के रंग और कभी किसी की बीमारी.....घर टूटता ही जा रहा था। जिस भाभी ने कभी मुँह न खोला था अब वही दोनों बेटों पर चिल्लाती रहतीं—नूरा! तू अब्बू का हाथ बँटा और शकूरा कोई नौकरी तलाश कर। कुछ तो घर की गाड़ी खिंचेगी। नूरा अपने अब्बू के साथ काम समझने लग गया। बाजारए हाटए गाँव की मड़ई में खिलौने ले जाने लगा।.....परन्तु शकूरा कोई नौकरी न तलाश पाया। ष्दसवीं पास को नौकरी भी क्या मिलेगीघ् चपरासी गिरी नघ्ष् भाई जान कहते तो भाभी रो पड़तीं—ष्अरे नामुरादोंए जरा अपने खानदान को देखोएण्ण्ण्ण्ण्तुम्हारे दादाजी क्या थेघ् खानदान टूटता है तो आने वाली औलाद सम्हाल लेती है। लेकिन ये निकम्मे तो क्या सम्हाल पाएँगेघ् इनको और इनके बीवी—बच्चों को का हमें ही पेट भरना पड़ेगा।ष् ताहिरा को मदरसा तक अब्बू साईकिल पर छोड़ने जाते। कभी वह अकेली ही घर वापिस आ जाती। फूफी समझाती कि संग—सहेलियों के साथ लौटा कर। यूँ अकेले आना अच्छा नहीं। कभी शकूरा लिवा लाता। जब सहेलियों के साथ लौटती तो रास्ते में झड़बेरी के बेर तोड़ती। विलायती इमली बटोरती। और तब तक फूफी आकर रास्ते में खड़ी हो जाती। ताहिरा के लौटने में देर हो तो उनका हृदय धक—धक करने लगता था। ताहिरा हर कक्षा में अव्वल आ रही थी। अब्बू का कलेजा गज भर फैल जाता। यह लड़की ही शायद घर के दलिदर दूर करेए वे सोचते..... लेकिन अगले ही क्षण उनका दिल तर्क कर उठताए ष्लड़की जात हैए क्या नौकरी करवायेंगे वेघ्ण्ण्ण्ण्ण्नहीं कभी नहीं। लेकिन घर—वर तो अच्छा ही मिलेगा।ष्
ताहिरा आठवीं में पहुँच गई थी। रन्नी ने तीन—चार गाढ़़े रंग के सलवार—सूट उसके लिए सिल दिए थे। ओढ़़नी को चारों तरफ लपेटकरए सिर ढ़ँककर स्कूल जाती। नाते—रिश्तेदार ताहिरा की बेपनाह खूबसूरती देखकर अन्दर ही अन्दर जले—कुढ़़े रहते। किस हूर को देखकर जना था इसकी माँ ने.....वे सोचते।
रन्नी डरती थीए जैसे ही ताहिरा नहाकर आतीए वे उसे आईना भी न देखने देती। पकड़कर उसके घने—लम्बे बालों में तेल चुपड़ देतीं और खींच—खींच कर चोटी कर देती। फिर आँखों में सुरमा लगा देती। रन्नी स्वयं आईना बन जाती। आँखों में बेपनाह प्यार भरकर उसे स्कूल भेज देती। आँखों से ओझल होते तक वे सड़क के किनारे खड़ी रहती। याद आता हल्का गुलाबी सूटए जिसे पहनकर जब वह खाला के घर जाती तो अम्मा हैरत से देखती रह जाती थीं। आज वैसी ही हैरानगी ताहिरा को देखकर उसकी आँखों में तैरती है। फिर से अतीत उसकी आँखों में तैर जाता। एक ऐसी ही खूबसूरत—सी लड़की जिसने ख्वाब देखना भी शुरू नहीं किया था कि एक जल्लाद की झोली में जा गिरी थी। नहीं! अब तो टूटे सपनों का कोई दर्द भी नहीं था। सचमुचघ् क्या सचमुच दर्द नहीं थाघ् हाँ! रेहाना को तो वह दफना आई थी फिर क्यों वह यदा—कदा सिर उठाने लगती हैघ् न आम की अमराई सूखी हैए न सूरज का डूबना रुका हैए न पीले फूलों की घाटीयाँ सूखी हैं। हाँए फूलों की झाड़ियाँ कुछ और ही घनी और फूलदार हो उठी हैं। वही खेत हैंएण्ण्ण्ण्ण्शिकाकाई की घनी होती झाड़ियाँ हैं। अमरुद और मुनगे के पेड़ अलबत्ता मोटे हो गए हैं। पहाड़ी नाला कुछ और गहरा हो गया है। पानी और निर्झरए साफ—पाक। आमों का ठेका वही मिट्ठन लेता आ रहा हैए अलबत्ता बूढ़़ा हो गया है। अब लाठी लेकर सुग्गों को उसके बेटे उड़ाते हैं। वह खटीया पर पड़ा टर्राता रहता है। क्या सचमुच कुछ नहीं बदला थाघ् लेकिन रन्नी तो टूटे ख्वाबों को कंधों पर ढ़ोते—ढ़ोते थक गई थीए कब्र से उठकर चाहें जब रेहाना उसके सामने खड़ी हो जाती थी और अट्टहास करने लगती थी.....रन्नी! तुम कैसे भुलोगी मुझेघ् वक्त घाव तो देता है लेकिन घाव की टीस क्या कभी उठती नहीं.....घ् बोलो रन्नीए बोलो.....।
नहीं! समय तो निश्चय ही बदला था। पेट्रोल पंप पर खासी भीड़ रहती है। बसों का आना—जाना काफी बढ़़ गया है। सामने की सड़क अब और चौड़ी हो गई है। चिलबिल का दरख्त खूब ऊँचा और अनेक शाखाओं को फोड़ता विशाल बन चुका है। अब चिलबिल में से चिरौंजीए ताहिरा निकालती है और तमाखू की खाली डिब्बी चिरौंजी से भर लेती है। घने होते पेड़ों पर बंदरों का उत्पात बढ़़ गया है। कितनी बार तो भाभी ने सना आटा अथवा बनी हुई रोटीयाँ बन्दरों को दे डाली हैं। बंदर पान के बने बीड़े उठा लेते हैंए और पेड़ पर बैठकर खाते हैं। तमाखू उन्हें लग जाती है तो झूमते हैंए ऊँघते हैं। हाँ! कहीं कुछ भी तो नहीं ठहरता है। बस उम्र बढ़़ती जाती है। रन्नी नहीं चाहती कि वह दफन की हुई रेहाना को टटोले। वह अमराई में अकेली ही घूमती रहती है.....लेकिन अब कभी उसका दुपट्टा किसी शाख से नहीं उलझता। अपने ही कदमों की आहट से वह चौंक उठती हैए पीछे पलटकर देखती हैए नहीं! कोई भी तो नहीं। साल पर साल गुजरते गए..... रन्नी के दिल के टुकड़े फिर क्या जुड़ पायेघ् कभी—कभी झाड़ियों के पास यूँ महसूस होता कि यूसुफ खड़े हैंए अभी आगे बढ़़कर लिपटा लेंगे। धड़कते हृदय से झाड़ियों के पास वह बढ़़ी.....लेकिन नहींए यहाँ तो कोई नहीं है। केवल रन्नी है और उसका अकेलापन है। जब कभी यूँ रोना चाहा हैए ताहिरा की नन्ही बाँहें उसे घेर लेती हैं। हाँ! वह समय बड़ा कठिन होता है जब रेहाना कब्र में से अंगड़ाई लेती उठ खड़ी होती है। उसे वापिस कब्र में सुलाने में बहुत पीड़ा झेलनी पड़ती है। बरसों बाद भी अतीत ज्यों का त्यों सामने आकर खड़ा हो जाता है। यूसुफ के साथ रहने की बरसों पहले की आकांक्षा।.....काश! यूसुफ अपने आप कोई फैसला लेते।..... एक मर्द की तरह उसका हाथ पकड़कर कहते—चलो रेहानाए मुझे किसी की परवाह नहीं। परन्तु उन्होंने तो ऐसा मुँह चुराया कि कभी पलटकर नहीं देखा।.....सही कि फिर यूसुफ ने अपना घर नहीं बसाया। बावजूद अथाह मुहब्बत के रन्नी का मुँह कड़वाहट से कसैला हो जाता है.....क्या कहेंगे इसेघ् कायर पुरुष!!!
भाईजान ने साईकिल दीवार से टीकाई और आते ही कहाए ष्नूरा के लिए रिश्ता आया है। जानती हो कहाँ सेघ् अरेए वही अपने पुराने मुहल्ले के उस्मान भाई टेलर की बड़ी बिटीया का। याद हैए खेलते थे नूरा और जमीला अपने घर की गलियों में।ष्
ष्पहले हाथ—मुँह धो लोए फिर इत्मीनान से बताना।ष् भाभीजान ने कहा।
ष्हाँ! हाँ!ष् वे पैरों पर पानी डालते हैंए कुल्ला करते हैंए और मुँह धोकर तखत पर बैठ जाते हैं। ताहिरा उन्हें तौलिया थमाती है और फिर चाय बनाने के लिए स्टोव में पंप भरने लगती है। चरों तरफ कैरोसीन की तीखी गंध फैल जाती है।
ष्कैसी दिखती होगीए वह छटांक भर की जमीलाघ्ष् रन्नी ने पूछा।
ष्अरे! वहीँ तो गया था। उस्मान भाई जबरदस्ती घर लिवा ले गए। सामने ही बैठी थीए बहुत अच्छी दिखने लगी है। रंग भी साफ हो गया है। पहले से ही नूरा को लेकर घर में गुफ्तगूँ हुई होगी तभी तो मुझे देखते ही अन्दर भाग गई। उस्मान भाई की वालिदा और उनकी बीवी सभी सामने आ बैठेए और झोली फैलाकर नूरा को माँगाए क्या कहता मैंघ्ष्
ष्अरे! हाँ कर दी होगीए और क्याघ् मैं तुम्हें जानती नहींघ्ष् भाभीजान बोलीं।
वे मुस्कुरा पड़े। सच्ची तो ष्हाँष् कर दी उन्होंने। शगुन के रुपयेए मिठाई का डिब्बाए बी निकलवाते हैं वे साईकिल के कैरियर से। ताहिरा ने आगे बढ़़कर मिठाई का डिब्बा खोला। नूरा चुपचाप बैठा डिब्बों में खिलौने भर रहा था। शकूरा ने उसे छेड़ा तो वह मुस्कुरा पड़ा। नूरा की आँखों के सामने छोटी—सी जमीला दौड़ने लगती है।
ष्नूरा की पढ़़ाईए उसका काम—धन्धा. घर की.....हालत को देखते हुए उस्मान टेलर की बेटी ही इस घर के लिए उपयुक्त है।ष् रन्नी ने कहा—ष्निभा जायेगी जमीला इस घर में।ष्
और एक दिन नूरा चल पड़ा दूल्हा बनकरए जमीला को ब्याहने। घर मेहमानों से भर गया था। पुराने मुहल्ले के कुछ पड़ोसी भी इधर आ गए थे कि वे तो लड़के वालों की तरफ से शामिल होंगे। शादी के गीत ढ़ोलक पर गाए जा रहे थे। रन्नी बार—बार नूरा की नजर उतार रही थी। कुछ भी हो पंडित काका सच ही कहते हैं.....राम—लछमन की जोड़ी दिखती है नूरा—शकूरा की। रन्नी न्यौछावर हुई जा रही थी नूरा पर। स्टोर की चाभी उसी के हाथों में है। स्टोर में चार दिन पहले बने लड्डूए शकरपारेए नमकीन भरे हैं। हर दो घंटे बाद आपा चाय बना लेती हैं। हर आने वाले मेहमान के आगे नाश्ते की प्लेट रखी जाती है। घर आए मेहमानों के लिए उम्दा कीमा—मटर बनाया गयाए और मीठे में लड्डू तो हैं ही। जब बारात लौटेगी तब क्या—क्या बनेगा इसकी भी लिस्ट रन्नी ने तैयार कर ली है। रन्नी ने रात—रात भर जागकर दुल्हन के लिए जोड़े तैयार किए हैं। गोटाए मुकेश टाँकना कोई इतना सरल काम तो नहीं। आँखों के आगे नन्ही—सी जमीला आकर खड़ी हो जाती है फूफी! फूफी चिल्लाती हुई.....और अब ये सलवार—कुर्ते—शराराए गरारा। या खुदा! कितने वर्ष बीत गए। भाभी ने अपनी चूड़ियाँ तुड़वाकर दुल्हन के लिए गहने तैयार करवाये हैं। रन्नी ने कपड़ों के लाजवाब चार जोड़े तैयार किए हैं। फातिमा खाला चाँदी के कंगन लेकर आई हैं और पड़ोस की आपा चाँदी की चेन और डमरू आकार का लॉकेट। भाभी जान गदगद हो उठीं—ष्लो! दुल्हन तो सोने—चाँदी से लद गई। कहाँ! हमें लगता था कि कुछ हो पाएगा या नहीं।ष्
मेंहदी की रात घर में हड़कंप मचा था। आपा ने नूरा को पकड़ लिया और मेंहदी लगाई। फातिमा खाला चिल्ला रही थीं—आरी लड़कियों पहले मेंहदी की रस्म हो लेने दो फिर नाचना। लेकिन कोई मान ही नहीं रहा था। सज्जो दूल्हे की पोशाक में सजकर खड़ी थी और ताहिरा दुल्हन बनी थी। ढ़ोलक की थाप परए फिल्मी तर्ज का नाच शुरू हुआ। सज्जो और ताहिरा को देखकर सब ठठा कर हँस पड़े। दूसरी औरतें भी नाचने लगीं। किसी ने रन्नी का हाथ पकड़कर नाचने को उठाया तो रन्नी अपना वैधव्य भूलकर ऐसी नाची कि सभी हैरान।
जमीला को लेकर बारात लौटी। नेग—दस्तूर करते काफी रात हो आई। अब रन्नी को याद आया कि जमीला को तो ढ़ंग से देखा तक नहींए वे जाकर उसकी मुट्ठी में कुछ रुपये दबाती बोलीं—ष्अरे! जरा—सी मेरी बिटीया इत्ती बड़ी हो गईए लेकिन आँखें वही बचपन वाली।.....ष् रन्नी ने ममत्व से भरकर जमीला को खींचकर लिपटा लिया। जमीला को मानो अम्मी मिल गईं।.....वह भी अपनी प्यारी फूफी से लिपट गई।
धीमे—धीमे रिश्तेदार लौटने लगे। नूरा खुश था और काम में कुछ अधिक ही ध्यान दे रहा था।
एक दिन भाईजान बहुत बड़ा टोकरा साईकिल में लटकाये हुए आए ष्मुर्गियों के चूजे हैं। अब शकूरा मुर्गियाँ पालेगाए मैंने अहमद भाई से पूछ लिया है हम यहाँ कच्चा दड़बा बना सकते हैं।ष्
शकूरा खूब खुश हो गया। चलोए खिलौनों की झंझट से मुक्ति मिली। उसका कभी मन ही नहीं लगा था खिलौने के धंधे में। कई बार वह अब्बू के साथ प्रोग्राम बना चुका था कि ढ़ेरों मुर्गियाँ पालेगा और अंडों का धंधा खड़ा करेगा। गेस्ट हाउस और होटलों में अंडे पहुँचायेगा।
दूसरे दिन से ही नूराए शकूरा और भाईजान ने दड़बा बनाने का कार्य शुरू कर दिया। तीसरे रोज ऐसा दड़बा बनकर तैयार हो गया कि सभी देखकर हैरान रह गए। जाकिर भाई और आपा ने तो खूब तारीफ की। जाकिर भाई बोले—ष्भाईजान! मैं हैरान हूँ। ऐसा लगता हैए आपने कहीं से ट्रेनिंग ली है और फिर यह दड़बा बनाया है।ष् दड़बे की दीवाल पर लोहे की जाली लगाई गई। मुर्गियों के बैठने की जगहए दड़बा धोने के लिए नाली। करीब पाँच सौ मुर्गियाँ तो रह सकती हैं इस दड़बे मेंए भाईजान ने जाकिर भाई को बताया। दड़बा सूखने में दो—तीन दिन लगे उसके बाद उसमें मुर्गियों के चूजे डाले गए। शकूरा बड़ी शिद्दत से मुर्गियों के धंधे में रम गया।
जमीला पेट से है और शकूरा के ब्याह की बातें घर में चलने लगी।
जिस गाँव की मड़ई में पिछली बार भाईजान और नूरा खिलौने बेचने गए थेए उसी गाँव की लड़की है सादियाए ष्देखने में ठीक ठाक है।ष् भाईजान बताते हैं शकूरा ने लड़की को कई बार देखा भी है। एक दिनए सादिया के वालिद और बड़े भाई आकर बात पक्की कर गए। नूरा के निकाह में चंद बर्तन और नूरा के लिए नई साईकिल मिलीए लेकिन सादिया के वालिद कुछ लम्बी लिस्ट थमा गए। साईकिलए रेडियोए बर्तनए कपड़ों के थानए कुर्सियाँ और भी छोटी—मोटी चीजें। भाईजान चिन्ता करने लगे कि नूरा को तो छोटा कमरा दे दिया है.....अब शकूरा को कौन—सा देंगे। बाहर के बरामदे में एक ओर लकड़ी से ठोक—पीटकर शकूरा के लिए कमरा तैयार करवाया भाईजान ने। नये पर्दे रन्नी ने सी दिए। इस बीचए पैसे जोड़कर रन्नी ने चाँदी का सेट दुल्हन के लिए खरीद लिया था। इस बार मेले में और गाँव की मड़ई में खिलौनों की अच्छी बिक्री हुई थी। मुर्गियों के अंडे भी अच्छे—खासे हो रहे थे। घर में फिर ब्याह की तैयारियाँ होने लगीं।
भाभी कहने लगीं—ष्शायद छोटी दुल्हन के मुबारक कदम हैंए जो पहले से ही सब अच्छा हो रहा है।ष् सारी जिन्दगी दूसरों के ब्याह के जोड़ों में सलमा—सितारे टाँकती रही है रन्नी। अब फिर रन्नी ने छोटी दुल्हन के चार सूट तैयार किये। ताहिरा उन्हीं के पास बैठी चुनरियों में गोटा टाँक रही थी। ब्याह से तीन दिन पहले घर मेहमानों से भर गया। भाभीजान के भाई—भावज भी गाँव में आए थे। फातिमा खाला अम्मी की जगह थीं। जमीला पूरे दिनों से थी और उसका चलना—फिरना मुश्किल हो रहा था। फिर भी चौके का भार वही सम्हाले थी।
सादिया को विदा कराके जब बारात वापिस आई तो सामने का बरामदा सामानों से भर गया। भाभी—जान खूब खुश थीं अपने कपड़े और शॉल देखकर। जमीला के घर से छोटी दुल्हन के लिए चाँदी का गहनों का सेट और शकूरा के लिए कपड़े आये थे। सभी खुश थेए क्योंकि एक तो किसी की कोई अपेक्षा नहीं थी और दूसरे सभी के लिए कुछ न कुछ तोहफे शकूरा के ससुराल से आये ही थे। आपा और जमीला ने मिलकर शकूरा का कमरा सजा दिया था। रिश्ते की बहनेंए भाभियाँ हँसी—ठिठोली करते हुए सादिया को कमरे में छोड़ आई थीं।
सादिया को आए सातवाँ दिन था जब जमीला ने बेटे को जन्म दिया। घर आबाद हो रहा था। फातिमा खालाए मुहल्ले भर की औरतों के साथ बैठकर ढ़ोलक बजाकरए सोहर के गीत गाने लगी। रह—रहकर उनकी आँखें भर आती थीं—ष्जब नूरा का जन्म हुआ था और जब शकूरा पैदा हुआ था रन्नी की अम्मी कितनी खुश थीं पोतों को देख—देखकर।ष् रह—रहकर उनकी आँखें छलक जाती थीं। तब फातिमा खाला इतनी बूढ़़ी नहीं थीं.....तब भी उन्होंने ढ़ोलक पर सोहर के गीत गाये थे। आज भी वे ढ़ोलक बजा रही हैं। साँस फूलती है। वही गीत मोहल्ले की औरतें उठा लेती हैं।.....रन्नी की आँखों में अतीत झाँकता है। जब वह ब्याही गई थीए ससुराल में न गीत हुए थे न ही ढ़ोलक बजी थी। ष्हुंह! दूसरी शादी में क्या हो—हल्लाष् सास चिढ़़ती ही रहती थी। रन्नी की आँखों में फातिमा खाला न जाने क्या पढ़़ लेती हैं.....झुर्रीदार हाथ आगे बढ़़ाती हैंए और रन्नी को पास खींचकर चिपटा लेती हैं.....दो बूँद आँसू दोनों की आँखों की कोरों में अटक जाते हैं।
जमीला फिर पेट से हैए सादिया के भी पूरे दिन हैं। शकूरा अपने मुर्गी के दड़बे में मशगूल रहता है। नूराए भाईजानए भाभी और रन्नी खिलौनों के रंग रोगन में लगे रहते। ईद नजदीक आ रही थी। सभी के नये कपड़े बनने थे। जचकी का खर्च अलग.....रन्नी देर रात तक कपड़ों का काम करती रहती। घर की सिलाई अलग और मुकेशए गोटे—तिल्ले का काम अलग। रन्नी इतनी मेहनत कर रही हैए देखकर भाईजान गदगद हो जाते हैं। वे सोचते कि बगैर रन्नी के क्या वे इस घर की गाड़ी खींच पातेघ् दिन भर सब जुटकर खिलौनों में रंग भरते। भाभीजान चिल्लाती रहतीं—ष्रन्नीबीए तुम थोड़ा आराम कर लो वरना बीमार पड़ जाओगी।ष् लेकिन रन्नी सुनती कहाँ थी। ताहिरा को रन्नी ने अपने जैसा ही मेहनती बनाया है। भारी से भारी काम करके भी उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती थी।
जाकिर भाईए सज्जो का निकाह कराने पूरे परिवार सहित गाँव गये हैं। पीतल के पम्प वाले स्टोव्ह की छोटी—सी दुकान है लड़के की। दो कमरों का खुद का घर। आपा बहुत खुश थीं.....ष्दो वक्त की रोटी और सर छुपाने की छतए अल्लाह इतनी ही दे—दे तो जिन्दगी आराम से कट जाती है।ष्
इतने कामों के बीच भी रन्नी देख रही थी ताहिरा का बदला—बदला सा व्यवहार और चेहरे की ओजस्वी गुलाबी रंगत। एक साईकिल सामने से घंटी बजाती निकलती हैं और ताहिरा भागकर खिड़की पर आ जाती। काँप उठी रन्नी.....यूसुफघ् यूसुफ की कार जब सामने आकर खड़ी होती थी तो ऐसे ही झाँकती थीं दो आँखें पर्दे के पीछे से.....।
ईद के दिन सुबह—सुबह फातिमा खाला आ गईं। साथ में अपने पोते को भी लाई! ताहिरा अपनी सहेलियों से मिलने का बहाना करके फैयाज से मिलने चली गई। न जाने कैसे रन्नी को यह बात पता चल गई और वह चौकन्नी हो उठी। पता लगाना होगा यह फैयाज कौन हैघ् कैसा हैघ् और कहाँ रहता हैघ् दिन भर उसका काम में मन नहीं लगा। समय की मार ने रन्नी को कठोर अवश्य बना दिया थाए पर भीतर की संवेदना मरी नहीं थी। पहले पता लगायेगीए फिर ताहिरा से कुछ पूछेगी। लेकिन दिमाग आश्वस्त नहीं हो पा रहा था। कदम बहकते कितनी देर लगती हैघ् क्या भाईजान को यही सब देखना बदा हैघ्
ईद पर बहुत हंगामा रहा। ईद के हफ्ते भर बाद सादिया को बेटा हुआ। भाभीजान तो मानो पगला ही गई। खुशियों का पारावार नहीं था। अपनी अनुभवी आँखों से उन्होंने देखकर घोषणा कर दी थी कि जमीला को फिर बेटा होगा। अपने दोनों पोतों के नाम उन्होंने जुबेर और कैसर रखे। नूरा के बेटे का जुबेर और शकूरा के बेटे का कैसर। उन्हें फुरसत ही कहाँ थी कि वह अब कुछ देख पाती। कभी इस पोते को गोद में लिए घूम रही हैं कभी उस पोते की मालिश। इधर रन्नी लगातार ताहिरा को लेकर चिन्तित थी। भाभीजान को मालूम होगाए बस कोसना शुरू कर देगी। रन्नी अपनी फूल जैसी बच्ची का निर्णय स्वयं लेगी।
रन्नी पता लगाती हैए फैयाज इंटर में पढ़़ रहा है। हैदराबाद का रहने वाला है। वहीँ उसकी दो बहनें और अब्बू—अम्मी रहते हैं। बेहद गरीब घर है उसका। फैयाज इधर ही हाइवे पर अपने मामू और मामी के साथ रहता है। धीमे—धीमे और परतें खुलती हैंए तो उन्हें पता चलता है कि स्कूल से लौटते कभी—कभी फैयाज और ताहिरा साथ घर तक आते हैं।
जमीला ने दूसरे बेटे को जन्म दियाए भाभीजान अपने तीनों पोतों में व्यस्त हो गई। पोतों के जन्म से वे अपने खानदान में गर्विता हो गई थीं।
घर का खर्च लगातार बढ़़ता ही जा रहा था। भाईजान लगातार शरीर से थकते ही जा रहे थे। एक दिन सुबह—सुबहए शकूरा जब अंडे इकट्ठे करने दड़बे में घुसा तो चीख उठाए आधे से ज्यादा मुर्गियाँ मरी पड़ी थीं और बाकी मरणासन्न थीं। भाईजानए नूराए सभी लोग दड़बे की ओर दौड़े। शकूरा तो रो ही पड़ा। एक अच्छाए जमा कारोबार धूल चाटता नजर आ रहा था। मुर्गियों को बीमारी लग चुकी थी। दुपहर होते—होते सारे दड़बे में मौत का सन्नाटा पसरा पड़ा था।
रोज का खर्च जो अंडे की आय से होता था वह मुँह बाए खड़ा था। अब दूधए बच्चों के लिए फलए सब्जी सब कहाँ से आयेगाघ् कुछ रूपया उधर लेकरए व घर की सारी जमा पूँजी निकालकर भाईजान एक बार फिर मुर्गियाँ लाए थे। लेकिन एक डेढ़़ हफ्ते में वे मुर्गियाँ फिर बीमारी की शिकार हो गईं और अंतिम जमा पूँजी का यूँ बर्बाद होना शकूरा से देखा नहीं गया। उसने लाठी उठाकर दड़बा तोड़ डाला.....सादिया ने हाथ पकड़ा तो पहली बार उसने अपनी बीवी पर हाथ उठाया।
घर एक बार फिर टूटने की कगार पर खड़ा था। रात होते—होते शकूरा को तेज बुखार चढ़़ गया। सारा घर काँप उठा.....यह कैसी नजर लग गई शकूरा को। बदहवास से भाईजान सादिया के वालिद के पास भागे और कुछ रुपये माँग लाए। महीना भर लग गया शकूरा को अच्छा होने में। शकूरा धीरे—धीरे वापिस खिलौनों के व्यापार में आ गया। खिलौनों के धंधे में रोज के खर्च तो निकल नहीं सकते थे। मेलों इत्यादि पर खिलौनों की माँग उतनी नहीं रह गई थी। घर में ग्यारह लोगों का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। भाभीजान की बड़बड़ाहट चालू रहती थी।
भाईजान तख्त पर लेटकर एकटक छत निहारा करतेए शरीर अशक्त हो रहा थाए खपरों से छनकर आती धूप तखत पर सीधी पड़ती तो वे करवट ले लेते।.....फिर दूसरी करवट। घर तो निरन्तर टूटता ही रहाए वे कुछ न कर पाए। न एक रेशा सुख अपनी लाड़ली बहन को दिया न ही अपनी बीवी को।.....
पुरुष के आँसू बहते नहीं हैंए लेकिन आँखों का समुन्दर रन्नी देख लेती है।.....इकलौता भाई और उसके हिस्से में आई सिर्फ जलालतघ् किन अपराधों की सजा हमें मिल रही हैघ् वह खुदा से पूछती।
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पार्ट — 9
अब्दुल्ला ने खूब मन लगाकर सींक कबाब बनाये थे। साथ में प्याज के बारीक लच्छे और टमाटर की सॉस! शाहजी को मीठी सॉस पसंद न थी सो शहनाज बेगम अपने हाथों चटपटी स्पेशल सॉस बनाती थीं। धीरे—धीरे ताहिरा कोठी के संस्कारों की अभ्यस्त हो चुकी थी। हालाँकिए प्रतिदिन वह शाहजी के इंतजार में अपने को सँवारती थी लेकिन कभी सूनी उदास शामें भी गुजर जातीं तो उसे बुरा नहीं लगता। वह जानती थीए शाहजी का पहला हक बड़ी बेगम का है। वह यह भी जानती थी कि उसकी उदासी फूफी को तोड़ देती है.....। अपनी जान से प्यारी फूफी के लिए वह कयामत तक दुखों को झेल सकती है फिर यह तो बड़ी मामूली—सी बात है।
अब्दुल्ला ने चाँदी की तश्तरियों में कबाबए केतली में चाय लाकर हॉल में खाने की मेज पर रख दिए। साथ में काजू—पिस्ता रोल और दूध में डूबी अंजीरें भी। धीरे—धीरे शाम की चाय के लिए सभी कुर्सियों पर जुटने लगे। बड़ी बेगम के हुक्म से हॉल में रखे रिकॉर्डर पर गालिब की चुनिंदा गजलों का रिकॉर्ड लगा दिया गया। माहौल बड़ा खुशगवार लग रहा था। साँझ झुक आई थी और खिड़की के पार दिखता बगीचा सिंदूरी रंग में नहा उठा था।
ताहिरा कत्थई रंग के सूट में खूब फब रही थी। चेहरे पर नई दुल्हन की रौनक बरकरार थीए अलबत्ता हाथों की मेंहदी थोड़ी फीकी पड़ गई थी। शाहजी अ गए थे। आते ही पहला सवाल अब्दुल्ला से—श्अब्बू और आपा का नाश्ता भिजवा दियाघ्श्
ष्जी।श् अब्दुल्ला ने सबकी प्लेटें लगाते हुए कहा। हालाँकिए सवाल बेमानी था क्योंकि यह सारी जिम्मेदारी शहनाज बेगम की थी। शाहजी ने कबाब का टुकड़ा मुँह में डाला और ताहिरा की तरफ देखाए कुछ यूँ कि—श्तुम भी खाओ।श्
किन्तु बड़ी बेगम शुरू करेंए फूफी शुरू करें तभी तो वह भी शुरू करे और बड़ी बेगम थी कि अस्मां और मुमताज को निर्देश दे रही थीं कि कल चालीस किलो उड़द पिसवा लो और पापड़ की खार यादवजी को भेजकर बाजार से मँगवा लो। पापड़ का काम निपटे तो सौंठए गरम मसाला कुटे। फिर अचारों का नम्बर आये।
श्पहले नाश्ता तो कर लीजिए बेगम साहिबा।श् शाहजी के कहने पर बड़ी बेगम ने उनकी ओर अजीब नजरों से देखा—श्ओह! ताहिरा अब तक बैठी हैए लाना मुमताज कबाब की प्लेट इधर.....!श्
ताहिरा का मन बुझ गया। सारे कबाब ठंडे हो चुके थे। शाहजी नाश्ता समाप्त करके नैपकिन से मुँह पोंछ रहे थे। ताहिरा ने बेमन से दो कबाब टूँगे और चाय पीकर बड़ी बेगम से आज्ञा ली—श्मैं चलूँघ्श्
श्हाँ जाओ.....खाया तो कुछ नहीं तुमनेघ् खाने—पीने के मामले में बेफिक्र रहा करो। न खाने से सेहत खराब अपनी ही होती हैए दूसरों का कुछ नहीं बिगड़ता।श् और ऊपर से नीचे तक ताहिरा के छलकते यौवन को घूरकर वे फिर अस्मां की तरफ मुखातिब हो गई।
फूफी ने तखत पर बैठे—बैठे पान की गिलौरियाँ बनाईं और शाहजी की ओर बढ़़ा दीं। मन खिन्न हो गया कि ताहिरा क्यों उठ गई अचानक। बच्ची मन मसोसती रह जाती हैए मन का कर नहीं पाती। दिखाई देता है उन्हें सब पर लाचारी जुबाँ खामोश कर देती है। फूफी अनमनी—सी उठ गईंए हाथ में पकड़ी गिलौरी गाल में दबा ली और ताहिरा के कमरे की ओर बढ़़ी पर सहसा ठिठककर उन्होंने रास्ता बदल दिया। शाहजी पान चबाते ताहिरा के कमरे की ओर जा रहे थे। ताज्जुब भी हुआए शाहजी इस वक्त यहाँ! यह वक्त तो उनका तनहाई में सुस्ताने का होता है और घंटे भर बाद छत पर जाने का होता है। जब रात अपनी काली ओढ़़नी में सितारे सजाये फिजा में उतर आती है.....जब घटता—बढ़़ता चाँद आसमान में होता हैए तब शाहजी की आँखें अपनी बड़ी—सी दूरबीन पर टीक जाती हैं और इस तनहा आलम से शाहजी दूर तब होते हैं जब रात के खाने की गुहार होती है। लेकिन आजघ् फूफी मुस्कुराई और अपने कमरे की ओर बढ़़ ली।
ताहिरा पलंग पर बैठी पत्रिका के पन्ने पलट रही थी। शाहजी को देखा तो हुलसकर उठी। शाहजी ने उसे बाँहों में दबोच लिया—श्उठ क्यों आईघ्श्
श्यूँ हीए कुछ खास नहीं।श्
श्शुक्र है! हमने समझा कि हमसे कोई गुस्ताखी हो गई जो बेगम साहिबा के तेवर बदल गए।श्
शाहजी जूते उतारकर पलंग पर अधलेटे से हो गए। ताहिरा ने ए. सी. अॉन किया और उनके पास बैठते हुए कहा—श्चलिये न! कहीं घूम आते हैं।श्
श्इस वक्तघ्श् शाहजी ने इसरार किया। श्इस वक्त तो बस तुम्हारे पहलू में बैठने की तमंना है। थके दिल को आराम दे दोए अपने नाजुक हाथ इधर टीका लो.....श्
श्रहने दीजिए! न चलने का बड़ा दिलचस्प बहाना खोजा आपने। पता हैए हम गाते भी हैंघ्श्
श्अच्छा! तो सुनाइए।श्
श्ऊँहू.....ऐसे थोड़ी! गाने की हमारी अपनी शतेर्ं हैं। नदी का किनारा होए फिजा में सन्नाटा हो और नदी के जल में तारों का अक्स हो।श्
शाहजी ने करवट लेकर पलंग में ताहिरा के लिए भी जगह कर दी और बेताब हो उस पर झुक आए—श्तारों का अक्स भी दिखा देंगे जानेमन.....श् और उसके होठों पर शाहजी ने अपने होंठ टीका दिए। बगीचे से गुजरती फूलों की खुशबू से रची—बसी हवा इस मिलन की गवाह बन गई।
शाम गहरा गई थी। साढ़़े सात बजे होंगे जब शाहजी ने अपने पहलू में दुबकी ताहिरा को हिलाया—श्चलिये बेगम.....तारों का अक्स नहीं देखेंगीघ्श्
ताहिरा के कदमों में बिजली—सी गति आ गई। पल भर में ही दोनों छत पर पहुँच गए। शाहजी ने दूरबीन पर पड़ा काला कपड़ा हटाया। लम्बी—चौड़ी छत पर रखी एकांकी दूरबीन का विशाल आकार ताहिरा ने पहली बार देखा। शाहजी ने फोकस मिलाया और दूरबीन के काँच पर ताहिरा की आँखें झुका दीं.....सारा आकाश एक विशालए भव्य सागर की तरह ताहिरा की आँखों के आगे तिर गया।.....चहुँ ओर तारे.....बड़े—बड़े तारेए नक्षत्रए चमकते लुपडुप करते.....आँख के दायरे में और कुछ नहीं.....मात्र काला—अंतहीन फैलाव ताहिरा डर गई। दूरबीन से सिर हटा उसने शाहजी का हाथ कसकर पकड़ लिया—
श्क्या हुआघ्श्
श्हमें डर लगता है।श् ताहिरा के स्वरों में मासूमियत थी।
श्लोए हमारा हाथ पकड़े—पकड़े देखो। केतकीए अरुन्धतीए सप्तर्षिए ध्रुव.....। जैसे—जैसे रात बीतेगी गुरुए शनिए मंगल सब दिखेंगे। शनि इतना सुन्दर दिखता है जैसे हीरे जड़ी अँगूठी हो। गुरु में तीन रंग दिखते हैं—नारंगीए पीलाए हरा। केतकी के तारों का झुंड सवालिया निशान—सा दिखता है। जब राशियाँ निकलती हैं तो आसमान से नूर—सा टपकता है। सब राशियाँ तुम पहचान सकती हो। वृश्चिकए तुलाए कन्याए सिंह। आज रात यहीं बितायेंगेए सारे ग्रहए नक्षत्रए राशि तुम्हें दिखायेंगे। तुम देखना आसमान का शबाबए एक—एक ग्रह नक्षत्र का शबाबए ढ़ेरों रंगए दूधिया आकाशगंगाएँए एक नया तजुर्बा होगा तुम्हें।श्
ताहिरा मंत्रमुग्ध—सी सुनती रही.....सुनती रही और रात बीतती रही। काफी रात गए शाहजी छत से उतरे। कोठी में सन्नाटा था। सभी के कमरे अँधेरे के आगोश में थे। शाहजी सीधे ताहिरा के कमरे में आ गए। कमरे में घुसते ही उन्हें लगा मानो बाहर की दीवार से लगा एक बेचौन—सा साया अभी—अभी शहनाज बेगम के कमरे की तरफ गया है। उन्होंने चोर नजरों से ताहिरा की तरफ देखा पर उसके चेहरे पर खुशी की कैफियत थी। बिना दखल दिए शाहजी सोफे पर बैठ गए। खाना निकहत ले आई और कमरे में एक ओर रखे सुन्दरए नक्काशीदार टेबल पर रख दिया। चाँदी की सुराही में गुलाबजल की महक में बसा शीतल जल और चाँदी की ही रकाबी में सौंफए इलायचीए मिश्री के टुकड़ेए सिंकी बादाम।
श्आइये चचीजानए ण्ण्ण्ण्ण्गरमागरम सूप और मटर पुलाव खाइए।श्
श्तुम भी आओ निकहतए आज साथ ही खायेंगे।श् ताहिरा चुनरी सम्हालती शाहजी के बगलगीर हो गई। निकहत हँसते हुए शब—ए—दावत में शरीक हो गई। ताहिरा का दिल खिला पड़ा था। मानो आहिस्ते से कोई चिन्गारी बारूद को छू गई हो। निकहत मंद—मंद मुस्कुरा रही थी। ताहिरा ने शाहजी की ओर शरमाकर देखा फिर खिड़की के पार नजरें टीका दींए खिड़की पर बादामी परदे लगे थे। उस पार देखना नामुमकिन—सा था।
ताहिरा के कमरे की सजावट इंटीरियर डेकोरेटर की योजनानुसार हुई थी। फर्नीचरए पलंगए ड्रेसिंग टेबलए गलीचाए सोफासेटए आतिशदान मानो ताहिरा की खूबसूरती के हिसाब से रचे गए हों। कोने में रखा बड़ा कलर टी. वी.ए बाजू में फोन.....मानोए दुनिया सिमटकर ताहिरा के कमरे में आ गई थी। ताहिरा की इच्छा थीए घनी डालियों वाले दो आदमकद पेड़ दरवाजे के दोनों ओर लम्बी काली सुराहियों में सजाये जायें। बात शाहजी तक पहुँची और पेड़ों के गमले दूसरे दिन आ गए। ताहिरा खुली प्रकृति की गोद में पली थी। चिड़ियाँए तोतों के बीच बचपन गुजरा था। शाहजी ने रंग—बिरंगी चिड़ियों के कई जोड़े खरीदवा दिएए एक तोता भी आ गया। बगीचे की ओर खुलती बरामदे में छत की रेलिंग के हुकों में चिड़ियों और तोतों के पिंजड़े लटका दिए गए। चिड़ियों से शायद अख्तरी बेगम को भी लगाव था सो शांताबाई देखरेख के लिए उनके हुक्म से मुकर्रर की गई। चिड़ियाँ सुबह—सवेरे अपनी चहचहाहट से ताहिरा को जगा देतीं। ताहिरा बगीचे के ओस भीगे लॉन पर चहलकदमी करती। चमेली की लतर को सूँघती और दबे पाँव फूफी के कमरे में घुस जाती। अलस्सुबह शाहजी उठ जाते और बड़ी बेगम के कमरे का रुख कर लेते। यूँ तोए इन दिनों ताहिरा पर उनकी विशेष कृपा थीए लगभग हर रात उसके कमरे में गुजारते। शाम के बाद करीब बारह बजे तक छत परए फिर खाना। लेकिन ताहिरा को ताज्जुब है कि शाहजी कभी भूलकर भी मँझली बेगम से नहीं मिलते। यह कैसा बंधन हैए जहाँ सिर्फ रुसवाई हैए आखिर ब्याहता तो वे भी हैंघ् फिर बीमार भी हैंए सहानुभूति होनी चाहिए उनसे। इस विशाल कोठी में वे छिटकी हुई बालू—सी पड़ी हैं। कभी कोई पूछता है उन्हेंघ् कम—से—कम शाहजी को तो पूछना चाहिए। कोख तो बड़ी बेगम की भी नहीं भरीए फिर मँझली के साथ यह सौतेला बर्ताव क्योंघ् कोख अगर उसकी भी नहीं भरी तो एक दिन वह भी किसी शांताबाई के हाथों सौंप दी जायेगी क्याघ् और क्या शाहजी उसे भी पलटकर नहीं देखेंगेघ् वह हवा में सरो के पेड़—सी काँप उठी। दौड़कर फूफी के पास गई और उनसे लिपट गई। फूफी नींद की गफलत में थींए चौंक पड़ीं।
श्क्या हुआ बेटीघ्श्
श्मुझे अपनी गोद में छुपा लो फूफी।श्
श्क्योंघ् फिर कुछ वाहियात सोचने लगी पगली। अल्लाह पर भरोसा रख। शाहजी का रुझान तेरी ओर बढ़़ता ही जा रहा है इसे टूटने न देना।श् फूफी ने ताहिरा का सिर सहलाते हुए कहा।
श्फूफीए डरती हूँए मेरा भी हश्र खिन अख्तरी बेगम जैसा.....श् फूफी तमक उठीं—ष्क्या कुफ्र बकती है बेवकूफए उसके खोटे नसीब से अपने को क्यों जोड़ती हैघ्ष्
फिर उनकी आवाज धीमी पड़ गई—श्अख्तरी के लिए मन में बड़ा हौल—सा उठता है। इतनी बड़ी कोठी में भी वह बदनसीबी से घिरी हैए एक औलाद न होना क्या इतना बड़ा अपराध होता हैघ्श् और ताहिरा की ओर देख आसमान की ओर हाथ फैला मन ही मन दुआ माँगने लगीं—ष्मेरी बच्ची को औलाद का मुँह दिखा दे मेरे मौला।ष्
गौरेयों ने चहकना शुरू किया और इधर कोठी भी चहल—पहल से भर गई। बड़ी बेगम चाय—नाश्ते के बाद सीधा भंडारघर गईं और अब्दुल्ला को दोपहर के भोजन का सामान निकालकर देने लगीं। घीए चावलए आटाए दालए मसाले सभी कुछ। सब्जियाँ तक तौल—तौलकर दी जातीं। काजूए बादामए पिस्ते कटोरियों से नापे जाते। सुबह शाकाहारी भोजन ही बनता। शाम को चिकनए मटन पकता नियम से। करीब पच्चीस—तीस आदमियों का खाना रोज बनता। पूरा भंडार बड़ी बेगम सम्हालती वरना नौकरों के हाथ सौंपे तो कोठी का दिवालिया ही निकल जाए। गुलनार आपा इस मामले में कभी दखल नहीं देतीं। आखिर गृहस्थी शहनाज बेगम की ही तो है।
आज पापड़ बनेंगे। कोठी के छत पर कनातें तान दी गई हैं। शाहजी की दूरबीन बहुत एहतियात से छत की बरसाती में रख दी गई है। वहीँ बेलने वालियाँ बैठेंगीए कनातों के नीचे। शाम होते—होते चालीस किलो मूँग—उड़द के पापड़ ऐसे बिल जाते हैं मानो खेल हो। दस बजे बेलने वालियाँ आ गईंए लगभग बीस थीं। सबको दो—दो किलो पापड़ का आटाए तेल पकड़ा दिया गया। चौकीए बेलन वे खुद लातीं। दोपहर को उन्हें रोटी—सब्जी खाने को दी जाती और दो टाइम चाय। चाय के साथ मठरी या शकरपारे। बीच—बीच में घर के नौकर छत के चक्कर लगा रहे थे.....बेलनेवालियों का क्या भरोसाघ् धोती के पल्लू में लोइयाँ बाँध लें तोघ् पिछले साल मुमताज ने पकड़ी थी एक चोरनी। क्या लानत—मलामत की थी बड़ी बेगम ने। बड़ी बेगम अजमेर की है इसीलिए उनके रहन—सहनए खान—पान में राजस्थानी छुअन है। पापड़ों का शौक भी शायद इसीलिए अधिक है। वे अपने इस शौक को बाँटकर तृप्त होती हैं।
सूरज डूबते—डूबते पापड़ बिल गए और अब्दुल्ला तथा कैलाश ने मिलकर पाँच—पाँच किलो पापड़ के कनस्तर तैयार कर लिए। एक कनस्तर निकहत के घर जायेगा। निकहत के अम्मी—अब्बा वैसे ही मुफलिसी में दिन गुजार रहे हैं। निकहत को मिलाकर तीन बहनें और तीन भाई। किसी का भी निकाह नहीं हुआ अभी। इसीलिए तो गुलनार आपा निकहत को अपने पास रखती हैं। वह प्राइवेट बी. ए. कर रही है। दूसरा कनस्तर अजरा के घर जायेगा। अजरा के लिए शाहजी का घर ही उसका मायका है। सारी सौगातें यहीं से भेजी जाती हैं। चाहे ईद हो या बकरीद। एक फूफी के लिए हिफाजत से रख दिया गया। अगले जुमे के दिन वे भाईजान के घर जाने वाली हैं। एक मँझली के मायके पहुँचाया जायेगाए शेष कनस्तर भंडार घर के रैक पर जमा दिए गएए साल भर के लिए।
पूरा हफ्ता व्यस्तता में बीता। तरह—तरह के अचार। बड़े—बड़े मर्तबानों के मुँह कपड़ों से बाँध कर हर जगह भेजे जाने के लिए तैयार किए गए। मूँगए उड़द की बड़ियाँ बनीं। चावल की कुरैरीए साबूदाना के सेव और पापड़। ताहिरा तो देखती रह गई। बड़ी बेगम हैं या कारखाना। कैसे पल के पल मनों अचारए बड़ियाँ बनके तैयार। मजाल है जो कहीं कमी—बेसी हो। सबसे ज्यादा तो सेवईयाँ बनीं। मशीन पर बारीक धागे के धागे निकाल—निकालकर तखत पर बिछा दिए जाते।
हफ्ते भर में सब तैयार होकर पैक कर दिया गया और सभी मर्तबानोंए कनस्तरों पर नामों का लेबल भी लग गया। अबए यादवजी का काम था इन सबको तयशुदा जगहों पर पहुँचाना। तो उसकी भी तैयारी नहीं। फूफी ने यादवजी के लिए बाबा जर्दा डालकरए पान की गिलौरियों से मचिया भर दीं। पानी का कूल जग रखा गया। थर्मस में चाय। नाश्ते और खाने का सामान अलग। तब जाकर यादवजी रवाना हुए। फूफी के हिस्से के अचारए पापड़ वगैरह भंडार घर में ही रखवा दिए गए। अगले जुमे के रोज गाड़ी उन्हें छोड़ने जायेगी ही सो पहुँचा दिए जायेंगे।
शहनाज बेगम के हाथों में कुछ ऐसा सबाब था कि खानदान का हर शख्स उनकी नजर में रहता। यह सिलसिला सैलून से चला आ रहा था। वे सबके लिए सामान भेजा करतीं। ताहिरा को वे सौत कम अम्मी जैसी अधिक लगतीं। अम्मी जैसा रुतबाए सोचए समझए कोठी पर एक छत्र अधिकार.....ताहिरा तो बच्ची—सी हो उठी थी।
यादवजी बदायूँ माल पहुँचाने चले गए। दिन ढ़ल गया। दरख्तों की बाँस—सी लम्बी छायाएँ धरती पर उतर आईं.....चिड़ियाँ घोसलों में लौटने लगी.....प्रकृति का काम भी मानो खतम.....आराम की तैयारी। फूफी के सर में तेल ठोंककर ताहिर उठी ही थी कि शांताबाई के पेट में दर्द शुरू हो गया। जैसे—तैसे करके मँझली बेगम बमुश्किल हॉल के दीवान पर बैठी ही थीं कि शांताबाई दर्द से ऐंठने लगी। मँझली बेगम ने कमर में खुँसे बटुए से दवा निकाली—श्यह नामुराद ऐसे ही बिलबिलाती रहती है।श्
फूफी ने जल्दी से उसकी नाभि टटोली.....श्बेगमए इसकी तो नाभि उखड़ी है। जरा तेल तो मँगवाइये।श्
अस्माँ कटोरी में गरम तेल लेकर आई ही थी कि शाहजी की गाड़ी आकर गेट पर रुकी। गेट खुलने की आवाज के साथ ही बड़ी बेगम नमूदार—श्रेहाना बीए शांताबाई को अन्दर के कमरे में ले जाइए.....शाहजी आ गए हैं।श्
शांताबाई अस्माँ के सहारे हॉल से लगे कमरे में आ गई। उसे तख्त पर लिटाए फूफी तेल मलने लगीं तो शांता बाई तड़प उठी—श्हे भगवान! अरेए अब नहीं सहा जाता।श्
उसकी कराह पर मँझली बेगम ने रोक लगा दी—श्ऐए चुप! हॉल में शाहजी तीन—चार लोगों के साथ आये हैं। लगता हैए बिजनेस के कुछ नये लोग हैं। अब हम तो यहाँ कैद हो गये क्योंकि उनकी बैठक चलेगी दो—तीन घंटे।श्
श्मैं चाय ले आऊँ आपके लिएघ्श् अस्मां ने पूछा तो मँझली बेगम ने इंकारी में हिलाकर सिर पीछे टीका लिया। कुछ भी खाने—पीने का मन नहीं है। सुबह से ही तबीयत बेचौन—सी लगती है।
तेल मलते फूफी के हाथ रुक गए। वे गौर से शांताबाई को देखने लगीं। तीन महीने से साये की तरह मँझली बेगम के साथ है शांताबाई। पिछवाड़ेए अपने क्वॉर्टर में चूल्हा सुलगाने तक नहीं जा पाई थी। यूँ खाना तो कोठी से ही मिलता है सबको पर कभी—कभी ससुर नरसिंघा की जिद्द पर खिचड़ी शांताबाई ही पकाती थीए क्वॉर्टर में। नरसिंघा पेट का रोगी है। गैस की तकलीफ हैए साँस फूल जाती है। ऐसे में कोठी का घीए मेवेए मसाले वाला खाना भरी पड़ जाता है। तब शांताबाई खिचड़ी पका देती है और छाछ बिलो देती है। लेकिन तीन महीने से पलभर को भी मँझली बेगम ने क्वॉर्टर नहीं जाने दिया उसे.....उनकी गठिया से टेढ़़ी उँगलियाँ जानलेवा दर्द से पीड़ित रहीं। हर घड़ी मालिश.....हर घड़ी हौले—हौले सहलाना। तब!
श्शांताबाई.....यह क्याघ्श्
श्बुआश् शांता बाई फुसफुसाई.....श्बुआए मुझे मार डालो।श्
कमरे में कुछ भी पूछना मुनासिब न था। फूफी ने उसे उठने का संकेत करए मँझली बेगम से कहा—श्इसे आपके कमरे में लिटा आते हैं। शाहजी को बातों में खलल पड़ रहा होगा।श्
मँझली बेगम पलंग पर चित्त लेटी थीं और अस्मां उनके बालों में कंघी फेर रही थी। फूफी शांता बाई को कंधे का सहारा देकर बगीचे की ओर खुलने वाली लम्बी खिड़की से कुदा कर मँझली बेगम के कमरे में ले आईं।
श्अब बता।श्
शांताबाई फूट—फूटकर रो पड़ी। रोती रही और कोठी का भीतरी मंजर फूफी के आगे तिलिस्म—सा खुलता गया। मँझली बेगम की नींद लगते हीए फर्श पर लेटी शांताबाई को गहराती रात में कमरे में घुसकर चुपके से जाफर ने दबोच लिया। पहली बार तो अपनी भारी हथेली उसके होंठों पर रख उसने शांताबाई का ब्लाउज खोल डाला था। वह चीखकर भी नहीं चीख पाई थी। मँझली बेगम दवाई की गफलत में थीं और कोठी पर अपार भरोसा रखने वाले उसके ससुर और पति क्वॉर्टर में सो रहे थे। घंटे भर बादए जाफर जब जाने लगा तो चुपके से उसके कान में फुसफुसाया था—ष्किसी से कहना मत वरना फँसेगी तू हीए मैं तो साफ मुकर जाऊँगा।ष्
शांताबाई कबूतरी—सी सहम उठी थी। भरपूर यौवन भी काल बन जाता है औरत के लिए। उसके सिले होठों ने जाफर को बढ़़ावा दिया। वह हर दूसरे—तीसरे दिन शांताबाई के पास आने लगा और.....फूफी ने सिर थाम लिया—ष्उफ.....या अल्लाहए क्यों बनाई औरत तूनेघ् क्या सिर्फ खिलौनाघ् जैसे कि माटी की वह बचपन से बनाती आ रही है रंग रोगन भर के!श्
श्अब मैं क्या करूँघ् बुआए मेरा मरद तो मुझे कच्चा चबा जायेगा।श् शांताबाई सिसक पड़ी।
श्मैं तो यहाँ किसी को नहीं जानती शांताबाई। तू ही हमल गिराने का बंदोबस्त कर। अभी दूसरा ही महीना है ज्यादा तकलीफ नहीं होगी।श् फूफी ने सलाह दी।
श्कहाँ जाऊँ मैंघ्ण्ण्ण्ण्ण्बेगम को पल—भर भी मैंने छोड़ा और खबर कपूर की तरह पूरी हवेली में उड़ जायेगी।श्
श्अभी तो आराम करए मैं कुछ उपाय सोचती हूँ।श् कहकर फूफी तेजी से कमरे से बाहर हो गई। ज्यादा रुकीं तो नाहक शक पड़ जायेगा।
दूरए क्षितिज परए सूरज अंतिम साँसें ले रहा था।.....बस अँधियारा पसरने ही वाला है। अगले महीने से रमजान का महीना लग जायेगा और वह अगले जुमे को भाईजान के घर जा रही है। रोजे शुरू होने से पहले शांताबाई को छुटकारा मिल जाये। तौबा.....तौबा.....यह कैसी इबादत! पाक काम शुरू करने के पहले दिमाग में नापाकियत घुसी जा रही है। लेकिन शांताबाई का घर भी तो उजड़ने से बाख जायेगाए यह तो सबाब हुआ न! और फिर जिस जुर्म से किसी की जिन्दगी बचेए जुर्म—जुर्म नहीं कहलाता।
कोठी में रोजमर्रा के काम बदस्तूर चलते रहे और इसी बीच ताहिरा ने बताया कि शाहजीए बड़ी बेगम और वह ख्वाजा साहब की दरगाह में मंनत का डोरा बाँधने मीरपुर जा रहे हैं—श्चार दिन वहाँ रहना होगा फूफी!.....आने—जाने में ही दो दिन निकल जायेंगे। एक दिन इबादत में और एक दिन यहाँ के प्रसिद्ध राष्ट्रीय उ।ान की सैर में।श्
फूफी ने लाड़ से ताहिरा को देखा। जानती थीं डोरा औलाद के लिए बाँधा जा रहा है। अल्लाह पाप का घड़ा तो जल्दी भरता है और सीधी राह औलाद भेजने में कसामुसी करता है। नमाज का वक्त ह चला था। फूफी ने गुसलखाने में जाकर वजू किया और तख्त पर कीमखाव बिछाकर नमाज पढ़़ने लगी। नमाज खतम कर दुआ माँगी—श्या अल्लाहए मेरी बच्ची को नामुराद न करना।श्
दूसरे दिनए सुबह—सुबह बड़ी कार में सफर का सामान लादा जाने लगा। ताहिरा ने नहा—धोकर हल्के सूती कपड़े पहनेए हल्के जेवर भी। यही गुलनार आपा का हुक्म था। सफर में जितनी सादगी रखोए बेहतर है। जाने से पहले गुलनार आपा ने शगुन किया। फूफी ने भी कियाए बलायें लीं। जब कार कोठी के गेट को पार कर सागौन और आम के दरख्तों से घिरी सड़क पर दौड़ने लगी तो फूफी ने नम आँखें पोंछी। कहने को तीन ही गए थेए पर कोठी में सन्नाटा खिंच गया था। न जाने फूफी को क्या हुआ कि पूरी कोठीए कोठी का हर कमरा घूम—घूम कर वे मानो कुछ तलाशने—सी लगीं। शायद ताहिरा का सुखए शायद उस चिराग की लौ जो तीन—तीन बेगमों के रहते अभी तक भी कोठी को रोशन न कर सकी और उधर शांताबाई का अनचाहा गर्भ.....। खुदा भी कैसे—कैसे मंजर दिखाता है। कहीं ये खुदा की तरफ से किया इशारा तो नहीं कि वे शांताबाई को इस दोजख से छुटकारा दिलायें वरना अचानक शाहजी का मय फेमिली जाना। उतने दिनों गुलनार आपा का सुबह—शाम तक कारोबार सम्हालनाए शाहजी के बदले में दफ्तर देखना।.....मँझली बेगम और वालिद साहब का वजूद तो केवल उनके कमरों तक ही रहता है।.....और पलक झपकते ही फूफी दौड़ पड़ीं शांताबाई की तरफ।
शांताबाई अख्तरी बेगम को गुसल करा रही थी। फूफी कुर्सी पर बैठ गई और पास हीए बड़े से चाँदी के कटोरे में भरे मेवे मुट्ठी में भरए जल्दी—जल्दी चुभलाने लगीं। अख्तरी बेगम अच्छे नाक—नक्श की थीं पर बीमारी और शाहजी की उपेक्षा ने उन्हें मुरझा डाला था।
श्अरेए रेहाना बी.....खैरियत तो हैघ्श्
श्अल्लाह की मेहरबानी बेगम। आज आपकी तबीयत में सुधार लग रहा है। शांताबाई भी फुरसत से है.....सभी मीरपुर गए हैं।श्
श्हाँए बड़ी बेगम ताहिरा को चौन कहाँ लेने देगीघ् फूल—सी बच्चीए हँसने—खाने के दिन। आई थी बेचारी नमाज बख्शवानेए गले पड़ गए रोजे।श्ण्ण्ण्ण्ण्अख्तरी पलंग से टीककरए पैर फैलाकर बैठ गई। कंधे पर लहराते बालों से बूँद—बूँद पानी पलंग की नक्काशीदार टेक पर टपकने लगा।
श्तोए आज शांताबाई को घुमा लायेंघ् सुपर मार्केट जाना है हमें। अगले हफ्ते भाईजान के पास जा रही हैं। थोड़ी खरीदी करनी थी।श् फूफी ने बहाना पहले से सोच लिया था।
श्हाँए हाँए शांता भी ऊब गई होगी हमारी बीमारी से। ले जाइएए जो यह कहे इसे भी दिलवा दीजिएगा।श् अख्तरी बेगम ने कहा। शांताबाई से अलमारी में से अपना पर्स निकलवाया और सौ—सौ के दस—बीस नोट फूफी के हाथों में दबा दिए—श्आपको कम न पड़ेंए और हाँए जाफर से कहें गाड़ी निकालेए गाड़ी से ही जाइयेगा।श्
फूफी अंगड़ाई लेती उठीं—श्नहीं मँझली बेगमए आज तो गाड़ी की बंदिश नहीं चलेगीए पूरा तफरीह का इरादा है।श्
अख्तरी बेगम ने फूफी के सलोने मुखड़े पर नजर डाली—श्खुदा खैर करेए इरादे तो नेक हैं।श्
फूफी हँसती हुई तैयार होने चली गईं। आज अस्माँ ने कमरे में ही नाश्ता लगा दिया था। खा—पीकर फूफी शांताबाई को लेकर पैदल ही कोठी से बाहर निकल आईं। देखा गुलनार आपा की कार गेट के बाहर जा रही थी। गुलनार आपा क्रीम कलर की सिल्क की साड़ी पहनेए बड़ा—सा जूड़ा बाँधे और धूप का चश्मा लगाये बेहद रूआबदार दिख रही थीं। जाफर गैराज में अख्तरी बेगम की गाड़ी साफ कर रहा था। शांताबाई को फूफी के साथ पैदल जाते देख उनकी तरफ दौड़ा—श्हुजूरए गाड़ी निकालेंघ्श्
फूफी ने तमककर जाफर की तरफ देखा मानो उसकी कारगुजारी पर अभी उसे धूल चटा देंगी। बेहया! अब भी शांताबाई को घूरे जा रहा है। फूफी ने रूआबदार आवाज में कहा—श्नहीं।श् और तेजी से सड़क पर उतर आईं। अरसे बाद सड़क पर चल रही थीं वे। धूप के चकत्ते दरख्तों से छनकर सड़क पर चित्रकारी से कर रहे थे। हवा भी हलकी—हलकी थी। कुछ दूर चलने पर रिक्शे की घंटी सुन वे ठिठकीं—श्आओ शांताबाई रिक्शा कर लें।श्
शांताबाई नहीं जानती थी कि फूफी उसे कहाँ ले जा रही है। उसका जन्म कोठी के पिछवाड़े क्वॉर्टर में हुआ था और तब से आजए पच्चीस वर्ष की अवस्था तक उसने कोठी के अतिरिक्त कुछ जाना नहीं था। मालूम तो फूफी को भी नहीं था कि उन्हें कहाँ जाना है पर यकीन था कि सही जगह ही पहुँचेगी।
रिक्शे पर बैठते ही उन्होंने रिक्शा वाले से किसी अच्छी लेडी डॉक्टर के क्लीनिक ले चलने को कहा—श्हम नये हैं भैयाए तुम्हीं ले चलो।श्
श्माँ जी.....इधर अरोरा क्लीनिक बड़ा फेमस हैए वहीँ चलेंघ्श् और अनुमति मिलते ही रिक्शा वाले ने दस मिनिट में क्लीनिक पहुँचा दिया। सुबह का वक्त थाए क्लीनिक में अधिक भीड़ न थी। उनका नम्बर जल्दी आ गया। डॉ. अरोरा अधेड़ उम्र की अनुभवी महिला थीं। शांताबाई को देखते ही ताड़ गईं कि मामला नाजुक है—श्काम तो घंटे भर का है पर फीस पाँच सौ लगेगी।श्
फूफी ने रजामंदी दे दी। शांताबाई ने छलछलाती आँखों से फूफी की ओर देखाए मानो कह रही हो ष्तुम इंसान नहींए देवी हो देवी।ष्
फूफी एक नहीं बल्कि दो घंटे क्लीनिक में बैठी रहीं। एबॉर्शन तो आधे घंटे में हो गया था लेकिन शांताबाई को नॉर्मल होने में वक्त लगा। वक्त भी फूफी से कैसे=कैसे काम कराता है। कभी ग्लानि से भरे तो कभी खुशी से भरे.....लेकिन अपने लिए नहींए अपनी जिन्दगी कुछ नहीं। रन्नी मानो वह बयार है जो सुगंध और शीतलता से भरी है और सुगंध और शीतलता सँजोकर नहीं रखी जातीए बाँटी जाती है। रन्नी बँट रही हैए रन्नी का पल—पल बँट रहा है। रन्नी के खजाने में समय का पंसाखरा है पर अपने लिए एक पल भी नहीं है।
शांताबाई अब प्रफुल्लित दिख रही थी। फूफी ने बाहर निकलकर सबसे पहले उसे नारियल पिलायाए फिर टैक्सी करके सुपर मार्केट गईं। शांताबाई के लिए ही साड़ी पेटीकोट खरीदा फूफी नेए अपने लिए कुछ नहीं। कुछ खरीदना भी न था।
श्मैंए आपको कभी नहीं भूल सकती बुआ।श् लौटते हुए शांताबाई की आँखें भर उठी।
श्तुम मेरे लिए ताहिरा समान होए बेटी! मैं मालिक और नौकरों में भेद नहीं करती। सब खुदा के बंदे हैं।श्
शांताबाई को फूफी तुलसी का पौधा लगी जिसे खाद की जरुरत है न देखभाल की लेकिन जिसके फूलए पत्तेए जड़ए तना सब दूसरों के हित के लिए उपयोग में आते हैं और जिसके पत्ते के बिना भगवान का प्रसाद अधूरा है। मन ही मन उसने फूफी को नमन किया। कोठी आ चुकी थी।
चार दिन तक फूफी सोचती रहीं.....सोचती रहीं और समय की धारा बहती रही। हर औरत बर्दाश्त का भंडार हैए सहन करने की खदान.....या शायद तकदीर का व्यंग्य। फूफी खुद व्यंग्य बनकर ही तो जी रही है। अचानक जागी आँखों वे ख्वाब—सा देखने लगती हैं—कोई बड़ी गहरीए चौड़ीए काली लहरों से भरी नदी है जिसमें रन्नी बही जा रही है। नदी का ओर—छोर नहीं। लहरें उमड़—घुमड़ आती हैं कि दूर एक कश्ती नजर आती है। कश्ती है या बरेजा। बरेजे पर गद्देदार कुर्सीए कुर्सी पर अधलेटा कद्दावर जिस्मए वह अपने तगड़े हाथों से रन्नी को बरेजे में खींच लेता है। रन्नी की साँसें घुट जाती हैं। पुरुष की आदिम भूख उसे पीस डालती है। लहरें शांत हो गई हैं पर रन्नी का बरेजा डूब रहा है। अतल गहराई मेंए तेजी से.....। फूफी पसीना—पसीना हो उठती है। यह कैसा ख्वाब थाए माजी को टकोरताए तकदीर की यंत्रणाओं को उभारता। शायद इसीलिएए फूफी को अकेलेपन से डर लगता है। सन्नाटा होते ही फूफी की रन्नी जाग पड़ती है क्योंकि फूफी ने जंगल होना चाहा था। पुरुष बीज को अपनी उर्वरा शक्ति से पल्लवित करना चाहा था। चाहा थाए एक बिरवा फूटे और वे जंगल बन जायें पर हरियाली उनकी हो न सकी और वे भटकन बनकर रह गईं।
निकहत ने लाइट जलाई तो फूफी ने नीममुँदी पलकें उठाईं। कमरा दूधिया रोशनी से नहा रहा था—श्फूफीजान उठियेए माशा अल्लाह तारों भरी रात का मंजर न देखियेगाघ् फूफी उठ बैठीं। खिड़की के परदे निकहत ने सरका दिए थे। बगीचे से फूलों की सुगंध फूफी तक बह आई—श्क्या वक्त हुआ निकहतघ्श्
श्नमाज का वक्त तो निकल गया। आप इतनी मीठी नींद में थीं कि हमसे जगाया न गया।श्
श्तब पाप की भागी तुम।श् फूफी ने हँसकर कहा।
श्मंजूरए लेकिन किसी संत ने कहा है कि मीठी और गहरी नींद से जगाना सबसे बड़ा पाप है।श् निकहत कब चूकने वाली थी—श्तो फूफीजानए सबाब हमने ले लिया। अब आप चाय पीजिये और चलकर अब्दुल्ला को बता दीजिए कि क्या पकेगाघ्श्
श्आज मँझली बेगम से पूछो निकहतए कभी—कभी उन्हें भी इस घर की बेगम होने का रुतबा दो।श्
श्सही फरमाया आपने।श् कहकर फूफी के लिए कप में चाय उड़ेली और मँझली बेगम के कमरे की ओर भाग ली।
फूफी चाय पीकरए तरोताजा होकर जब कमरे से बाहर आईं तो बावर्चीखाने की चहल—पहल सुन उस ओर मुद गईं। ताज्जुब! मँझली बेगम मुढ़़िया पर बैठी अब्दुल्ला को निर्देश दिए जा रही थीं। बीच—बीच में बिना सहारा लिए उठतीं और ग्रेनाइट के प्लेटफॉर्म पर थालियों में खाना पकाने के सामान की मिकदार निकालने लगतीं। फूफी को आता देख वे चहकीं—श्आइये रेहाना बीए देखिये इतनी केसरए जर्दा पुलाव के लिए काफी है न! और सुनो अब्दुल्लाए पुलाव तमाम खड़े गरम मसाले से बघारा जायेगा। टमाटर का गाढ़़ा सूप बनेगा और ब्रेड के टुकड़े खूब कुरकुरे तलकर डाले जायेंगे उसमें। रेहाना बीए आप अपनी पसंद बताइए। कीमा मटर गुलनार आपा की पसंद की बनवा रही हूँ। अब्बाजान के लिए उबली तरकारियाँ अलग बनी हैं।श्
फूफी तो गश खाकर गिर जातीं अगर चौखट का सहारा न लेतीं। यह अख्तरी बेगम को हुआ क्याघ् महीनों बिस्तर के इर्द—गिर्द सिमटी जिन्दगी में बहार कैसेघ् कहाँ गया उनके गठिया का दर्दघ् कहाँ है उनकी लाठी शांताबाईघ् बिना सहारे तो वे कुल्ला तक न करती थीं और फूफी तन्मय चलती—फिरती निर्देश देती मँझली बेगम को देखती रह गईं। तो इस घर को पंगु किया है शहनाज बेगम नेए जो स्वयं औलाद वाली न हुई परन्तु बेऔलाद मँझली बेगम को कोंच—कोंच कर जड़ बना डाला था। या शायद मँझली बेगम की गरीबी अभिशाप बन गई हो क्योंकि शहनाज बेगम तो लखपति घराने की बेटी थीं इसलिए सब पर हावी रही हों। मँझली बेगमए निकहत और अब ताहिराए तो क्या ताहिरा की कोख न भरी तो वह भी ऐसी ही लँगड़ी जिन्दगी जियेगीघ् गरीबी का संकोच उसे भी खुलकर जीने न देगाघ् शायद वह भी शहनाज बेगम के हुक्म से कोठी के किसी कोने में लाचार बनाकर पटक दी जाये। तौबा.....तौबा.....जीभ काट ली फूफी ने। लानत है ऐसे सोच पर।
तुरन्त फूफी ने मँझली बेगम की खुशी में शामिल होने के लिए कदम बढ़़ाए। तय था कि उनको बीमार करार दिया गया है वरना अपनी गृहस्थी सम्हालने की ताब है उनमें।
चौथे दिन ताहिरा लौट आईए थकी—सी। साँवली पड़ गई थी वह। आते ही फूफी से लिपट गई—श्फूफीए खूब घूमे हम तो। जंगल में हठी पर बैठकर सैर करते रहेए ढ़ेर सारे जानवर देखे।श्
फूफी ने ताहिरा का माथा चूमा और उसे आराम करने को कहए हॉल में आ गईं।
श्सलाम वालेकुम बेगम।श्
श्वालेकुम सलाम। लोए रेहाना बीए दरगाह का प्रसाद लो और दुआ करो कि जल्दी इस घर में चिराग रोशन हो।श् शहनाज बेगम ने प्रसाद का पैकेट उनकी ओर बढ़़ा दिया।
श्आमीन।श् कहकर उन्होंने पैकेट से चिरौंजी दाने और गुलाब की पँखुड़ी मुँह में डाल सिजदा किया फिर दीवान पर बैठ शहनाज बेगम से सफर के किस्से सुनने लगीं। मीरपुर जाने का उनका भी मन था पर ताहिरा के आनन्द में खलल न पड़े इसलिए खामोश रहीं। वैसे भी कुछ दिनों के बाद जाना ही है उन्हें।
चिड़िया के पंख—सा उड़ता—तैरता जुमे का दिन आ गया। फूफी खुशी—उदासी दोनों के आलम से ऊहापोह थीं। ताहिरा को अकेले छोड़ना दहशत—सी भरता था उधर मन में भाईजानए भाभी से महीनों बाद मिलने की खुशी। शादी के बाद मात्र दो दिनों के लिए वे पैर फेरने के निमित्त ताहिरा को लेकर गईं थीं। गुलनार आपा का हुक्म थाए जब तक ताहिरा के वाल्दैन अपनी हैसियत न सुधार लेंए आना—जाना जरा मुश्किल है। शाहजी का ऊँचे तबके में उठना—बैठना है।
शहनाज बेगम ने भाईजानए भाभी और सादिया—जमीला के लिए ईद की बेहतरीन सौगातें लाकर रख दीं। बच्चों के लिए मिठाईयाँए फूलए मेवेए कपड़े। पापड़ए अचारए बड़ियाँ आदि सभी कुछ। बताशों का थालए खास ईद के दिन बनाने के लिए सेवईयाँ दीं। एक रेशमी बटुए में भाभीजान के लिए एक सौ एक चाँदी के सिक्के। मानोए बेटी बिदा हो रही हो। बसए ऐसे ही लोक व्यवहार की बात और मुक्तहस्त दानए उन्हें कोठी की मलिका के सिंहासन पर आसीन किये हैं। सबका कद छोटा पड़ जाता है उनके आगे।
ताहिरा ने भाभीजान के नाम चिट्ठी लिखी और अपनी तरफ से अपने भतीजे—भतीजियों के लिए ईदी में देने की सौगातें दीं—श्फूफीए ईद होते ही लौट आनाए हम उँगलियों पर दिन गिनेंगे।श्
फूफी ने ताहिरा को अपने आगोश में लेकर देर तक समझाया कि पहली ईद है उसकी यहाँ। किस तरह पेश आनाए क्या—क्या करनाए वगैरह.....। फूफी का सामान शहनाज बेगम की कार में भर दिया गया। जब वे लौटेंगी तब तक ताहिरा की कार भी आ जायेगीए शाहजी ईद पर उसे कार भेंट कर रहे हैं। फिर आना—जाना उसी में होगा।
फूफी ने सबसे बिदा ली। अपना पान दान सम्हाला और कार में आ बैठीं। यादवजी कार चला रहे थे कोठी के गेट से पार होते—होतेए विदा देती लोगों की भीड़ में अलग—थलग शांताबाई का चेहरा नजर आया। मुड़ते—मुड़ते फूफी ने देखा कि शांता बाई ने साड़ी के आँचल से अपनी आँखें पोंछी हैं।
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पार्ट — 10
श्अरे! नूरा शकूरा देखो तो तुम्हारी फूफी आई हैंएश् भाभीजान ने कार से उतरते रन्नी बी को देखा और चिल्ला पड़ीं। जब तक नूरा घर से निकल पाता रन्नी बी आ गईं थीं। यादव जी कार की डिक्की से सामान निकाल रहे थे। भाभीजान आगे बढ़़ी और लिपटकर रो पड़ीं। दोनों ही रो रही थीं। नूरा आगे बढ़़ाए फूफी से लिपट गया उसकी भी आँखें भर आई थीं। बहुएँ निकल आईं और फूफी को आदाब करके लिपट गईं।
श्खैरियत से हैं रन्नी बीघ्श् अब जाकर भाभीजान के मुँह से बोल निकला।
श्हाँ! देखती हो न.....खैरियत ही खैरियत हैए लेकिन ताहिरा न आ सकी।श् सबके पूछने के पहले ही उन्होंने बोल दिया।
यादव जी सामान लाकर बरामदे में रख रहे थे। रन्नी बी ने घर के भीतर प्रवेश किया तो भौंचक्की रह गईं। घर का काया पलट हो गया था। बैठक की दीवार नीले रंग कीए मैचिंग के बड़े फूलदार पर्देए बेंत की कुर्सियाँए सोफेए काँच का बड़ा—सा टेबल बीचों बीच। बड़े—से शोकेस में सजे खिलौनेए एक ओर लम्बा टेबल लैम्प। फर्श पर बिछा कालीन और दीवार पर लगी बड़ी—सी खान—ए—काबा की तस्वीर। तस्वीर के ऊपर कढ़़ाई द्वारा लिखा हुआ ष्या अल्लाहष् और दायें—बाएँ ष्या मोहम्मदष् और ष्या अलीष् के फ्रेम किए हुए तुगटे! दूसरी दीवार पर अब्बू—अम्मी की फ्रेम की हुई बड़ी फोटो। कुल मिलाकर एक सुन्दर—सीए सजी—धजी बैठक। रन्नी बी ने सुख और चौन की साँस लीए यादव जी के सामने यह तो होगा कि हम कोई गए गुजरे घर के नहीं हैं।
रन्नी बी गाव तकिये से टीककर तखत पर बैठ गई। सभी बेहद खुश थे। सादिया चाय बना रही थी। सभी के चेहरे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। आखिर इतने दिनों के बादए फूफी जो आई थीं।
श्कहाँ हैं हमारे चारों साहब जादेए और हमारे भाईजानघ्श्
श्बच्चे अपने दादा के साथ बाजार गए हैं। ईद नजदीक है सो बच्चों की कुछ फरमाईशें थींए वे साथ लेकर गए हैं।श् भाभीजान बोलीं।
फिर सड़क की ओर देखते हुए कहा—श्सौ साल की उम्र हो तुम्हारे भाईजान की.....वे आ गए हैं।श् भाभीजान बोलीं।
घर के सामने कार खड़ी देखकर भाईजान समझ गए कि रन्नी और ताहिरा आई हैं। इधर रन्नी दौड़ीं भाईजान की तरफ और उधर उतनी ही उतावली से बच्चे और भाईजान घर की तरफ आए। भाई—बहन लिपट गएए रन्नी रो पड़ी। दोनों लिपटे—लिपटे घर में आए। मेज पर चाय—नाश्ता लग चुका था। बाहरए बरामदे में बैठे यादव जी चाय—नाश्ता कर रहे थे। तीनों बच्चे अपनी फूफी से लिपटे थे। हाँए बच्चे भी अपने अब्बा की तरह उन्हें फूफी ही कहते थे।
श्ताहिरा क्यों नहीं आईघ्श् भाई जान ने सब जगह सरसरी निगाह डालते हुए पूछा।
श्ईद ससुराल की ही करनी थीए ऐसा गुलनार आपा का हुक्म था।श्
भाईजान ने एक लम्बी साँस भरी और सोफे पर बैठ गए।
रन्नी ने देखा कि आर्थिक सुख के बावजूद भाईजान के चेहरे पर कोई सुकून नजर नहीं आता। रन्नी ने बैग में से मिठाई और नमकीन के डिब्बे निकाले। बच्चे मिठाई देखकर उचकने लगे। सभी ने चाय पी और नाश्ता किया। भाईजान ने चाय पी और बड़ी मुश्किल से एक नन्हा—सा टुकड़ा मिठाई का मुँह में रखा।
श्हाथ—मुँह धो लो ननद रानीए फिर आराम करो।श् भाभीजान ने कहा।
रन्नी ने अटैची से कपड़े निकाले और अन्दर गई।
श्जनवरी की ठंड हैए गरम पानी ले लो। नहाना नहींए हाथ पैर धोकर कपड़े बदल लो रन्नी बी।श्
श्हाँ! कपड़े बदलकर थोड़ा लेटूँगीए कार में भी आठ घंटे लग गए। अब भाभीए शरीर भी तो थक गया है।श्
पूरा घर चम—चमा रहा था। चौके में स्टील की अलमारी थीए उसमें करीने से बर्तन सजे थे। एक ओर बड़ा पेलमेट जिस पर अलार्म घड़ीए पानदानए ताले—चाभीए सभी जरुरत का सामान और फोन। पेलमेट के अन्दर से बोन चायना का डिनर सेट और टी सेट झाँक रहा था। चाँदी—जैसी धातु की ट्रेए वैसा ही मेवों का कटोराए फ्रिज और जरुरत का सारा सामान था।
गुसलखाने में साफ सुथरी बाल्टीए मगए गीजरए प्लास्टिक की चौकी। हर तरफ आधुनिकता के दर्शन हो रहे थे। उन्होंने गीजर अॉन किया और एड़ियाँ रगड़ने चौकी पर बैठ गई। याद आयाए कुछ महीने पहले इसी गुसलखाने में बैठने को थी ईंटए टूटा ताम—चीनी का मगए टपकती बाल्टी जिन पर कपड़े की चिंदियाँ फँसाई गई थीं ताकि पानी बह न जाए। वे चुपचाप मुँह—हाथ धोती रहीं। कपड़े बदले और बाहर निकलीं तो नूरा हाथ पकड़कर स्टोर में ले गया।
श्देखिये फूफीश् सफेद रोशनी से कमरा जगमगा रहा था। वहाँ रखे थे फर के बने हुए जानवरए पीतल के मुरादाबादी सजावटी चीजेंए वॉल हैंगिंगए महँगे झाड़—फानूस।
श्यह क्या बेटा!श् रन्नी बी हैरत से देख रही थीं।
श्अब हम लोग यही बेचते हैं फूफी। मिट्टी का काम एकदम बंद है। बाजार में इन चीजों की खासी डिमांड है। अब हमने शहर के बीच में एक शोरूम खोला है। आज जुम्मा हैए दुकान बन्द रहती हैए सो हम घर में दिख रहे हैं। वरना सुबह नौ बजे हम दोनों चले जाते हैं। दुपहर को घर आते हैं और तीन बजे फिर दुकान खोलते हैं तो रात सवा आठ बजे के लगभग घर आते हैं। सब कुछ अच्छा चल रहा है फूफीए अब हमने अब्बू को कहा है कि वे आराम करें और पोतों के साथ खेलें।श् नूरा लगातार बोलता ही जा रहा था।
श्हाँ! बेटाए ण्ण्ण्ण्ण्भाईजान के अब आराम के दिन हैंए उन्होंने जिन्दगी में बहुत दुख उठाए हैं।श् रन्नी ने कहा।
शाहजी की तरफ से इतनी सारी मदद की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। वे हैरत से इधर—उधर देख रही थीं। तभी भाभीजान वहाँ आ गईं।
श्क्या देख रही हो रन्नी बीघ् इतना वैभव नघ् अरे यह तो ताहिरा की कुर्बानी का कमाल है।श्
रन्नी चौंक पड़ी श्ऐसा न कहो भाभीए ताहिरा बहुत खुश है उस घर में।श्
श्जानती हूँए खुश ही होगी। क्या मैं नहीं समझती कि सिर पर बैठी हैं दो सौतनें और उम्रदराज शौहर। मेरी बेटी दाँव पर लगी हैए तुम्हीं बताओ रन्नी बी.....क्या यह सारा सुख हमने उसी के कारण नहीं पायाघ्श् भाभीजान की आँखों से आँसू बह निकले।
न जाने कैसी घबराहट हुई रन्नी को कि वे पसीने से नहा उठीं। दौड़कर भाभी से लिपट गई और फिर रो पड़ी।
श्हमें माफ कर दो भाभीजानए ण्ण्ण्ण्ण्श् रन्नी रन्नी अपराध भाव से भर उठीए श्ताहिरा का सुख औलाद होने में ही है। उसके लिए दुआ करो कि जल्द ही खुदा उसे उस हवेली का चिराग दे दे।श्
रन्नी आकर तखत पर बैठ गई। सामने भाईजान बैठे बच्चों को पढ़़ा रहे थे। रुखसाना उनकी गोद में बैठी अभी तक सो रही थी। रन्नी ने देखा भाईजान दुबले हो गए हैंए दाढ़़ी भी बढ़़ी हुई है थोड़ी—थोड़ी। बीमार दिख रहे हैं। चेहरे पर उदासी है। अब जबकि घर आर्थिक रूप से सु—ढ़़ हो चुका हैए बेटी अमीर घर में ब्याह चुके हैंए फिर यह उदासी क्योंघ् ज्यादा सोच भी न पाई रन्नी कि रुखसाना पीछे लग गई।
श्बोलो न फूफी! हमारे लिए आप क्या लाईंए बोलो न फूफी।श्ण्ण्ण्ण्ण्चौंक उठी रन्नीए श्लो! मैं तो भूल गई। अरेए सभी के लिए कुछ न कुछ भेजा है शहनाज बेगम ने।श् उन्होंने अटैची घसीटी और सभी के लिए अलग—अलग तोहफे निकालने लगीं। बरामदे में रखे बड़ीए पापड़ए आलू—चिप्स के कनस्तर अन्दर मँगवाएए आचार का मर्तबान और सभी कुछ भाभीजान के हवाले किया।
श्इस मामले में तो शहनाज बेगम की जितनी तारीफ की जाए कम है। सबके घर उन्हीं के द्वारा भेजी जाती हैं सौगातें—साल भर का यह आचार पापड़। और काम इतने करीने का कि सभी देखकर दंग रह जाते हैं।श्
ताहिरा ने अपनी अम्मी और अब्बू के लिएए खास वर्क लगे पान भेजे थे। भाभीजान खूब खुश हो गईं। सभी अपने—अपने पैकेट खोलकर देखने लगे। भाभीजान बोलीं—श्अभी कोई नए कपड़े नहीं पहनेगाए सभी ईद के लिए रख लोए जो सिलवाए हैं वह सुबह पहन लेना और ये शमा कोश् ण्ण्ण्ण्ण्ण्रुखसाना नहीं मानी अपनी फ्रॉक पर नई फ्रॉक चढ़़ाकर खड़ी हो गई। फ्रॉक इतनी लम्बी थी कि उसे देखकर सभी हँस पड़े। रन्नी बी ने उसे चिपटाकर चूम लिया।
भाभी पास आकर बैठ गईं। रन्नी ने धीमे से पूछा—श्क्या चिन्ता खाए जा रही है भाईजान कोघ् स्वस्थ नहीं दिखतेघ्श्
श्हाँ रन्नी बेगम! उन्हें ताहिरा की चिन्ता सताती है। सिर पर बैठी उसकी सौतनों से घबराहट होती है। वे कहते हैं कि अपनी बच्ची के साथ न्याय नहीं कर पायेए उसको हमउम्र शौहर भी नहीं दे पाये। अक्सर वे बुदबुदाते हैं कि ष्उन्होंने अपनी बच्ची का सौदा किया है।ष् उनका जमीर गवारा नहीं करता कि शाहजी की मदद को स्वीकारें। रन्नी बीए तुम्हारे भाईजान बहुत खुद्दार हैंए कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। जानती तो होए जब मैं इस घर में ब्याह कर आई थी उन्होंने जहेज लेने से भी इंकार किया था। मैं जो कुछ साथ लाई उसके लिए मेरे मामू ने कहा था कि यह तो हम अपनी लड़की को दे रहे हैं।श् रन्नी अपने भाई के प्रति गर्व से भर उठी। इतनी गरीबी और जिल्लतों में भी भाईजान ने अपने आदर्श खोखले नहीं होने दिए थे। आखिर हैं तो वे उन दादा के बेटे जिन्होंने कभी समझौता नहीं कियाए जब अंग्रेज अफसर की गाड़ी घंटों दादाजी के घर के सामने खड़ी रहती थीए कि वे दादाजी को अच्छा पद और नौकरी देना चाहते थे। हाँ! दादाजी को कोई प्रलोभन नहीं डिगा सका।
श्इधरए नूराए शकूरा की दुल्हनें भी जब—तब लड़ती रहती हैं। जमीला तो इस घर को अपना मानकर कुर्बान हुई जाती है। सीधी भी हैए बचपन से जानती—समझती आई है इस घर को। लेकिन सादिया तेज—तर्रार हैए वह न छोटा देखती है न बड़ा।श् भाभीजान ने कहा।
चौंक उठी रन्नी। वे तो कहाँ पहुँच जाती हैंए सोचते—सोचते। बोलीं—श्भाईजान क्या कहते हैंघ्श्
श्वे क्या कहेंगेए चुप ही रहते हैं। यह घर टूट जाएगा।श्
श्यही समय का तकाजा है भाभी।श् कहते—कहते गावतकिए से टीककर रन्नी लेट गई।
सुबह जमीला ने यादव जी को रास्ते के लिए खाना बनाकर दिया। यादव जी विदा लेकर रवाना हुए। उसी दिन दोपहर को खबर पाकर फातिमा खाला घर आ गईं थीं।
श्आदाब खाला।श् रन्नी ने कहा।
श्जीती रही बेटीए खुदा उम्र दराज करे। बेटी ताहिरा कहाँ हैघ्श्
श्ताहिरा नहीं आईए ईद के समय गुलनार आपा ने आने नहीं दिया।श्
श्लो! और सुनोए ऐसा कैसा खानदान कि मुई छोकरी को ऐन ईद पर भी न भेजें।श्
श्ऐसा नहीं है खालाए शाहजी चाहते हैं ईद के अवसर पर ताहिरा उनके पास हो। उनकी चचीजात बहन भी दुबई से आने वाली है। वह भी सिर्फ एक हफ्ते को।श्
श्आप रोजे से हो खालाघ्श्
श्न! अब मुझसे नहीं रहा जाता बेटी। बहूए बेटा और घर में सभी हैं रोजे से।श्
रन्नी हैरत में पड़ गई। अम्मी और खाला दोनों नमाज—रोजे की कितनी पाबंद रही हैं! और दोनों ही फातेहा दरूद पर आस्था रखने वाली। कुरान की आयतें तो मानो खाला को रटी पड़ी थीं।
हाँ! सचमुच शरीर नहीं चलता होगा। इधर घर में सभी रोजे रखते हैंए एक सिर्फ रन्नी नहीं रखती।..... और नूरा ने कभी रोजे नहीं रखे। रन्नी ने भी अभी—अभी रोजे रखने छोड़े हैं। पहले तो रन्नी रोजे की बहुत पाबंद थीए लेकिन अब चुकती जा रही है।
श्रेहानाए तुम कब तक यूँ बेटी के घर पड़ी रहोगीघ्श्
जानती तो हैं खालाए ताहिरा के घर का हाल। श्मासूम बच्ची हैए उस घर के तौर—तरीके सब सीखने में वह कहीं अकेली न पड़ जाएए सो टीकी हुई हूँ।श् कहते—कहते रन्नी को एक निरर्थक अहसास घेर लेता है।
श्सो तो ठीक है रेहानाए लेकिन क्या अच्छा लगे है कि तुम महीनों वहाँ पड़ी रहोघ्श् खाला जान ने कहा।
श्हाँ! खालाए अच्छा तो मुझे भी नहीं लग रहा हैएश् कहते—कहते रन्नी अपने आपको बेतरह टूटा महसूस करने लगी। वहाँ रहना उसे अपराध भाव से भरे दे रहा था। इस तरह उन्होंने कभी सोचा नहीं थाए बस समय के अनुसार चल रही थी। लेकिन उसे महसूस हुआ कि चारों ओर अट्टहास करते चेहरे बढ़़ रहे हैंए ण्ण्ण्ण्ण्हा! हा! हा! हा!.....
श्बसए एक ही काम रह गया हैए ताहिरा की गोद भरे और मेरा काम खतम!श्
श्लो!श् कहते हुए हँस पड़ीं खाला। श्देख रही हो दुल्हनए जैसे गोद भरने में यही जोर लगाएगी।श् भाभीजान भी हँस पड़ीं। लेकिन रन्नी के होंठों पर हँसी के साथ इन वाक्यों से भीतर तक छेदती गहरी उदासी भी थी।
श्लीजिए खाला जानए पहले ताहिरा के ससुराल की काजू बादाम की बर्फी खाइए फिर यह पान.....श् भाभी ने डिब्बा सरकाते हुए कहा—श्ताहिरा ने खास बनारसी पान लगवा कर भेजे हैं।श्
रन्नी की उदासी गई नहींए वह उठ बैठीए ण्ण्ण्ण्ण्सामने से आपा आती दिखीं।
रन्नी दौड़कर आपा से लिपट गई। दोनों ओर की खैरियत पूछी गई। आपा ने बताया कि कल वे अपने चचाजात भाई के घर पर थीं। वहीँ रोजा खोला गया। आज अभी ही आई हैंए और सीधे यहीं आ गईं। ईद पर शायद सज्जो भी आयेगी। ढ़ेरों बातें होती रहीं। रन्नी ने बाहर ही कुर्सियाँ मँगवा लींए दोनों बैठ गईं। बार—बार आपा के दिमाग में आता रहा कि यूसुफ की बीमारी की खबर रेहाना को दे देंए लेकिन खामोश ही रहीं। नहीं आज नहींए लेकिन बताना तो होगा ही। शाम होने वाली थीए इफ्तारी का वक्त हो रहा था। आपा उठ गई। रन्नी भी भीतर आ गई। भाभीजानए भाईजानए दोनों दुल्हनेंए शकूरा सभी रोजे पर थे। खाना बन चुका था। सादिया ने गोश्त और सालन बनाया था। जमीला फुलके बना रही थी। सभी ने नमाज अता की। छुहारे और खजूर खाकर रोजा खोला और फिर खाना खाने बैठ गए।
भाईजान सोने चले गए। नूराए शकूरा भी अपने—अपने कमरों में चले गए। बाहर के कमरे में रन्नी तखत पर लेट गई। वहीँ बाजू में खाला के लिए लोहे का पलंग लगा दिया गया। भाभी वहीँ सोफे पर बैठ गईंए तीनों ने फिर एक—एक पान खाया। श्पान बहुत खुशबूदार हैंए रेहाना।श् खाला बोलीं।
श्हाँ! इत्ते खुशबूदार पान तो मैंने भी अरसे से नहीं खाए।श्
आपा से बातचीत करने के बाद भी रन्नी की उदासी दूर नहीं हुई। शाहजी की हवेली आँखों के समक्ष आती रही। बोली—श्खाला! शाहजी के घर में तो मँझली बेगम का बड़ा बुरा हाल हैए हवेली के एक कोने में पड़ी रहती हैं वे। कोई पूछने वाला नहीं हैए बस एक मराठिन शांताबाई उनकी देखरेख को रखी गई है।श् कहते हुए रन्नी की आँखों के आगे शांताबाई का निरीह चेहरा घूम गया और उनके चलते वक्त उसकी डबडबाई इसा ही होता है हुई आँखें।
श्मेरा जी बहुत खौल खाता है खालाए बसए ताहिरा उस घर को एक चिराग दे दे सो उसकी हैसियत पुख्ता।श्
श्अयए हयए कोई साल तो गुजर नहीं गया ताहिरा के निकाह को जो सब हड़बड़ा गए हैं।श् खालाजान बोलीं।
श्लेकिन खालाए हवेली में तो खुसुर—फुसुर चालू हो गई है। गुलनार आपा को तो एकदम जल्दी है। शहनाज बेगम क्या कम हैं कान भरने को। मैं तो चाहती हूँ खाला कि शाहजी हमारी ताहिरा को सदा पलकों पर बिठाए रखें। मैं इसीलिए तो वहाँ डटी हूँ कि कहीं सात—आठ महीनों में ही ताहिरा को बाँझ करार देकर पीछे कुछ गड़बड़ न हो जाए।श्
भाभीजान ने गहरी साँस भरी और कहा—श्इसी बात से तो हम और तुम्हारे भाईजान खौफ खाए रहते हैं।श्
श्अजी खौफ कैसाघ् हमारी ताहिरा जरूर उस हवेली को चिराग देगी। देखनाए लिख लो मेरी बात।श् कहते हुए खाला ने करवट ली और आँखें मूँद लीं।श् श्सो जाओ रन्नी बीए हम भी चलते हैंए तुम्हारे भाईजान भी जगे पड़े रहते हैंए चिन्ता ही चिन्ता रहती है उन्हेंश् कहते हुए भाभीजान लाइट बुझाती हुई चली गईं। कमरे में नाइट बल्ब की नीली रोशनी फैली थी।.....रन्नी को तो स्याह अँधेरे में भी मुश्किल से नींद आती है। उसने उठकर नीली रोशनी का बल्ब अॉफ किया और आकर तखत पर लेट गई। ऐसा ही होता है आधी—आधी रात तक वे जागती रहती हैं। खुदा ने सुख दिया तो वह भी शतोर्ं पर!.....जहाँ भाईजान ताहिरा को लेकर स्वयं को अपराधी महसूस करते हैंए वहीँ भाईजान और भाभी के समक्ष वे अपराधी हो उठती हैं। उन्होंने तो इस घर की खातिरए ताहिरा के सुख के खातिर ऐसा सब किया था।.....उसे क्या मालूम था कि सबको सुखी देखने की खातिर वह स्वयं कटघरे में खड़ी हो जायेगी।
सुबह पौने चार बजे सहरी के वक्त.....मस्जिद से अजान की आवाज खामोश अँधेरे में तैर रही थी। घर में सभी उठ गए थे। सादिया और जमीला ने तो पूरा खाना तैयार क्र लिया था। रन्नी शायद सोई ही नहींए और यदि सोई भी तो उसे सोने जैसा लगा ही नहीं। खाला गहरी नींद में सो रही थीं। रन्नी ने करवट बदली।
सहरी करके सभी सो चुके थे। रन्नी जब उठी तो तीन चार घंटे की नींद हो चुकी थी और उसे हल्का महसूस हो रहा था। तब तक खाला भी मुँह—हाथ धो आई थीं। रन्नी ने जाकर चाय बनाई और काँच के दो गिलासों में भर लाई। खाला खाली पेट चाय नहीं पीतींए इसीलिए दो काजू की बर्फी भी साथ रख लाई। जब तक उन दोनों ने चाय पीए भाभीजान भी उठ आई थीं और अलसाई—सी सोफे पर बैठ गईं।
श्एक बात कहूँ बेटीघ्श् खालाजान ने रन्नी की तरफ देखते हुए कहा। श्कहिए खाला।श्
श्बेटी! हैदराबाद में एक बाबा हैं। अपनी मुराद लेकर जो भी जाता हैए पूरी होती है। तुम ताहिरा को लेकर वहाँ चली जाओ। तुम कहो तो अगली बार नूरा के हाथ पता भिजवा दूँ।श्
श्हाँ! रन्नी बीए सुना तो मैंने भी है। उनके हाथों में बड़ा शफाक है। ताबीज बाँधते हैंए और कार्य सिद्धि हो जाती है। उन्हें गोरे बाबा कहते हैं।श् भाभीजान ने कहा।
श्हाँ! दुल्हनए वे गोरे बाबा ही हैंए मैं तो नाम ही भूल गई थी। तुमने कहा तो याद आ गया।श् खाला ने कहा।
श्ठीक हैए आप पता दे देना। मैं नूरा को आपके घर भेज दूँगी। लेकिन खाला शाहजी जाने दें तब नघ्श् रन्नी बाद का वाक्य फुसफुसाते हुए बोली।
श्अरे! क्यों न जाने देंगेए खानदान को आगे बढ़़ाने के लिए तीसरी शादी तो कर सकते हैंए हैदराबाद न जाने देंगेघ् और पीर—फकीर के पास जाने को कोई मना नहीं करता रेहाना। अब वोए अकबर बादशाह नहीं गए थे क्याए नंगे पैर चलते हुए चिश्ती की दरगाह पर।श्
रन्नी के दिमाग में ऊहापोह मच गई। उसे लगा कि भागकर ताहिरा को साथ ले और हैदराबाद पहुँच जाए।
श्तुम्हारे शौहर की तबीयत कुछ नासाज लगती है दुल्हनश् खाला ने भाभी की तरफ मुखातिब होकर कहा। सामने आकर भाईजान बैठ गए थे। वे सचमुच बीमार से दिख रहे थे। दाढ़़ी भी बढ़़ आई थी।
श्रोजे के वक्त वे कुछ ऐसे ही दिखने लगते हैं खाला। तबीयत ठीक हैए बस चिन्ता करते हैं।ष् भाभी जान ने कहा।
श्लोए और सुनोए अब काहे की चिन्ताघ् लड़की अमीर घर में है। दोनों बेटे अच्छा धंधा कर रहे हैं। अब क्याघ्श् खाला ने कहा।
किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। तभी फोन वाले आ गए। छरू महीने से फोन बुक किया थाए बीच में आकर वायरिंग करके फोन का डिब्बा रख गए थे। आज आए हैं कनेक्शन देने।
भाभीजान खुश हो गईंए कहने लगीं—श्हमारी ननद के मुबारक कदम हैंए आते ही फोन लग गया।श्
खाला मुस्कुरा कर भाभी की तरफ देखने लगीं। दोनों ननद—भौजाई में अपार प्रेम हैए ऐसा तो देखने—सुनने में नहीं आता कहीं पर।
श्मुबारक कदम और वह भी मेरेघ् भाभी तो कुछ भी कह देती हैं। मनहूस के मुबारक कदम.....श् कहती हुई रन्नी उठ गई।
भाईजान टेलीफोन वालों के साथ व्यस्त हो उठेए टेलीफोन कर्मचारी फोन का कनेक्शन देकरए पोल पर चढ़़कर बात कर रहे थे।
श्मैं तो चलूँगी दुल्हन।श् खाला ने कहा।
श्नहींए खाना खाकर ही जाना। बल्कि अब ईद करके ही जाना। देखिएए रन्नी बी भी आई हुई हैं। अब अम्मी के जाने के बाद तो आप ही उनकी जगह हो.....ष् भाभीजान ने कहा।
श्हाँए रुक ही जाती मैं तो दुल्हन।श् गद्गद होते हुए खाला ने कहा—श्लेकिन इधरए शाहीन की दुल्हन के भी पूरे दिन हैं। तबीयत उसकी अच्छी नहीं रहती है।श् शाहीन खाला का बड़ा पोता हैए नूरा की ही उम्र का है।
भाभीजान उठकर भीतर गईं। बादामी रंग का सूट का कपड़ाए वैसी ही चुनरी लेकर आईं। एक मिठाई का डिब्बाए एक थैले में बड़ीए पापड़ए चिप्स और अचार का छोटा मर्तबान लाकर कहाए श्हमारी तरफ से खालाए ईद की सौगात।श् भरी आँखों से खाला ने कहाए श्आज तुम्हारी अम्मी जीवित होतीं तबघ्श् फिर एक खामोशी पसर गई सबके बीच।
फोन की लाइन चालू हुई तो रन्नी ने ताहिरा का फोन बुक कर दिया। आधे घंटे में ही लाइन मिल गईए और फिर सारे घर ने ताहिरा से बात की। रन्नी ने शाहजी और शहनाज बेगमए गुलनार आपा से भी बात की। शाहजी तो आग्रह कर रहे थे कि वह शीघ्र लौट आए। ताहिरा ने बताया कि ईद पर उसकी कार आने वाली है। रन्नी ने ताहिरा के सुख की बात सुनकर आँखें मूँद लीं और खुदा का शुक्रिया अदा किया। देर तक फिर ताहिरा की और हवेली की ही चर्चा चलती रही।
बच्चों के लिए और रन्नी के लिए चाय बनी। दोनों बहुएँ फिर चौके में पहुँच गईं।
रन्नी को बहुत देर तक चुप देखकर भाभीजान ने कहाए श्क्या सोचने लगीं रन्नी बीघ्श्
श्नहीं! कुछ भी तो नहीं।श्
श्तुम दोनों हैदराबाद चली ही जाओ रन्नी बीए वहाँ फैयाज भी है।श् भाभी ने कहा तो रन्नी चौंक उठी।
श्आप जानती हैं फैयाज को भाभीघ्श्
श्लोए दाई से क्या पेट छुपता हैए ताहिरा की खामोश आँखों ने सब कह डाला था।श्
तड़प उठी रन्नी। तो भाभी जानती थीं सब कुछ फिर रोका क्यों नहीं उसको शाहजी के साथ रिश्ता करने कोघ्ण्ण्ण्ण्ण्भीतर ही भीतर कहीं वे भी फैयाज की गरीबी को तो.....।
श्फैयाज के साथ इंसाफ नहीं हुआ है रन्नी बी। सुना हैए वह हैदराबाद में किसी नौकरी में लगा हुआ है। तुम जब जाओगी तो उससे मिल लेना।श्
बड़ी देर तक दोनों के बीच खामोशी तैरती रही। खिड़की से दिखा कि आपा अपना गेट घसीटकर बंद कर रही हैं।
श्तुम ठीक कहती हो भाभी न ताहिरा के साथ इंसाफ हुआ है न फैयाज के साथ। अब सोचती हूँ तो लगता है सच में यह निकाह बेमेल था। वह तो इस घर में औरत की देह में कोई फरिश्ता पैदा हुई जो हम सबको सुख देकर यूँ विदा हो गई। मुँह पर ष्उफष् तक न लाई।श्
श्रन्नी बीए यूँ तो हर औरत एक फरिश्ते के रूप में ही पैदा होती हैए यदि उसे उस ढ़ंग से देखा जाए तो।श् भाभीजान ने अपनी लाड़ली ननद को स्नेह से देखते हुए कहा।
रन्नी कुछ अकबका गई। फिर पूछा—श्हाँ! फैयाज का पता कहाँ मिलेगाघ्श्
श्मेरे पास हैश् भाभीजान ने कहाए श्जाते समय हमसे मिलने आया थाए तब ही पता ले लिया था।श्
श्क्या गुफ्तगूँ चल रही है ननद—भौजाई कीघ्श् भीतर घुसते हुए आपा ने कहा।
श्अरेए काहे की गुफ्तगूँ! हमारी ननद रानी तो कुछ भी सोचा करे है।श्
श्आपा! सज्जो और उसका बेटा कैसा हैघ्श् रन्नी ने पूछा।
श्अरेए ठीक है। खूब दुबला गई है सज्जो।श् वे दोनों को देखकर आई हैं। श्सास ने जचकी के बाद कुछ खिलाया—पिलाया नहीं। दूध भी नहीं बनता है। यहाँ से मैं गोंद के लड्डू और पंजीरी बनाकर ले गई थीए सो उसके कमरे में छुपाकर रख दी। दिख जाये तो सास खाने न देगी।श्
श्सास ऐसा क्यों करती हैघ् रन्नी ने पूछा।
श्अरेए सज्जो का शौहर पीता भी खूब है। कान का कच्चा है। अपनी अम्मा से चुगलियाँ सुनता है और फिर बीवी को पीटता है।श् भाभीजान ने बताया।
सुनकर पीड़ा से भर उठी रन्नी। अतीत झाँक गयाए औरत का यह हाल हर जगह है।
श्अब छुटकी की बात चल रही है। लड़के के पास चार सिलाई मशीनें हैं। सिलाई खूब मिलती है। घर का सबसे बड़ा लड़का हैए सुखी रहेगी छुटकी।श् आपा ने कहा।
श्देखो आपाए अब देख—सुनकर निकाह करनाए लड़की को टरका न देनाए क्या सज्जो के समय खुद तुम्हारी सगी खाला ने नहीं बताया था कि उस लड़के की माँ अच्छी नहीं है। लड़का उसके कितने कहे में हैघ् पर तुम लोग माने कहाँघ् अरे हम नहीं कहते कि माँ की बात नहीं सुनोए पर अपना दिल दिमाग भी तो खुला रखो।श् रन्नी ने कहा।
श्हाँ! वो क्या कहे हैं रेहाना बेगम कि दूध का जला छाछ भी फूँक—फूँक कर पीता हैए सो अब छुटकी के बारे में तो खूब सोच—विचार होगाए तब ही करेंगे।श् उठते हुए आपा बोली।
श्अब तुम जाकिर भाई और अपने लिए यहीं से गोश्त ले जानाए फुलके डाल लेना। अब कहाँ जाकर बनाओगी।श् कहते हुए भाभीजान उठ गईं।
थोड़ी देर वहाँ खामोशी छायी रही। फिर एक ठंडी साँस भरकर आपा बोली—श्यूसुफ भाई की याद हैए रेहाना बेगमघ्श् रन्नी चौंक पड़ी। जिसकी याद में आज तक वह जीती आई है उसी से ऐसा सवालघ् वह हैरत से आपा को देखने लगी।
श्अहमद भाई दुबई गए हैंए यूसुफ भाई को देखने।श्
श्क्योंए क्या हुआ उन्हेंघ्श्
श्बहुत बीमार हैंए खबर आई थी सो गए हैं। बीमारी—ऊमारी का तो हमें पता नहींए बस येई सुना है। अहमद भाई के चचाजात भाई आजकल आते हैं पेट्रोल पंप परए वही देखरेख कर रहे हैं इधर की।श्
बाकी के सारे शब्द रन्नी की आँखों के आँसुओं में डूब गए। बस एक इबारत उसकी आँखों के समक्ष टँगी रह गई—श्यूसुफ बीमार हैं।श् रन्नी उठकर बाहर टहलने लगी।
छुहारेए सूखा नारियल और मिठाई प्लेट में रखकर जमीला आती दिखी। हाथ में एक डिब्बा था। डिब्बा और प्लेट लेकर आपा चली गई। रन्नी के तो जैसे रुलाई का बाँध टूट रहा था।
भाभी बाहर आते तक समझ गईं। ये सज्जो की अम्मी के पेट में कुछ नहीं पचताए ण्ण्ण्ण्ण्अब हो गई ईद.....रन्नी की उदासी और खामोशी से खूब डरती हैं भाभीजान। श्सब अंट—शंट कहती हैं जाकिर भाई की दुल्हनए ऐसी कोई पुख्ता खबर नहीं। मैंने खुद यूसुफ के चचा से बात की थीए कुछ जरूरी टेस्ट वगैरह हुए थे। बस दो दिन अस्पताल में भर्ती रहकर यूसुफ घर लौट आए। तुम नाहक परेशान हो रही हो।श् रन्नी का रोया—रोया सा चेहरा देखकर भाभीजान बोलीं।
रन्नी हैरत से भाभी को देखती रही। कैसे दिल की बात जान लेती हैं भाभीघ् श्चलो हाथ—मुँह धो लोए रोजा खुलने का वक्त हो गया।श् भाभीजान ने पुनः कहा। दूर मस्जिद से अजान की आवाज फैलने लगी। रन्नी हाथ—मुँह धोकरए चुनरी सिर पर बाँधकर नमाज पढ़़ने बैठ चुकी थी।
रात ऐसे बीतीए मानो किसी ने शरीर का सारा खून निचोड़ लिया हो। अपने आप को टटोलती रही रन्नी.....कि सारे फर्ज निबाहते कभी ऐसा भी क्षण आया हो कि उसने यूसुफ को याद न किया हो..... ष्तुम काहे पड़ी हो रेहाना वहाँघ्ष् खाला के शब्द कानों में गूँजे। और जब वह मकसद भी पूरा हो जाएगा तो रन्नी तुम क्या करोगीघ् बगैर मकसद क्या जी सकोगीघ् निरुद्देश्यए निरर्थक जीवनघ् रोती रही वह और बीमार यूसुफ सामने आते रहे। बार—बार कल्पना में सामने आते रहे। काश! एक बार कोई कहता कि चलो रेहाना यूसुफ ने बुलाया है।
ताहिरा का फोन आयाए उसने बताया कि पिछली रात को मेंहदी का बड़ा जोरदार प्रोग्राम चला। उसकी कोहनी तक खूब गाढ़़ी मेंहदी रचाई गई। कोठी भी खूब सजाई गई है। मथुरा से खास तौर से मिठाई शहनाज बेगम ने मँगवाई है। वे बताती हैं कि मिठाई तो हमेशा मथुरा से ही आती हैए और वह भी हवाई जहाज से। अरे फूफीए हमारे लिए शाहजी ने एक सोने का जड़ाऊ सेट भी खरीदा है। ताहिरा खूब खुश थी और कोठी के सारे हाल फोन पर सुना रही थी। उन दोनों की लम्बी बातचीत चली। ताहिरा का आग्रह था कि अब वे ईद ाइ बाद लौट आए। वह उनके बगैर अधूरी है। रन्नी मुस्कुराने लगी। कब तक ताहिरा उनकी उँगली पकड़कर चलेगीघ् ताहिरा ने बताया कि अभी तक नई कार नहीं आई हैए कुछ समय और लगेगा।
दूसरे दिन ईद पर रन्नी ने सभी बच्चों को रुपये बाँटे। छुटकी भी आकर ईदी ले गई। भाईजान ने अपनी बहन को लिप्त लिया। सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ फेरा और हाथ में एक पचास का नोट रखा। रन्नी की आँखें भर आईं।
श्यह निखालिस मेरी कमाई के रुपये हैं।श् भाईजान ने कहा—श्ताहिरा की ससुराल के नहीं।श् बहुत जब्त करने के बावजूद भाईजान उदास हो उठे। घर में हड़कम्प मचा था। कोई मिठाई खा रहा था कोई सेंवई। बच्चों के पॉकेट में उनकी दादी ने मेवे इहर दिए थे।
दूसरे दिन जाकिर भाईए भाईजान से ईद मिलने आए। ईद पर नहीं आ पाये थेए उसका उन्होंने अफसोस जाहिर किया। चायए नमकीन मिठाई लाकर सादिया रख गई। जाकिर भाई ने बातों—बातों में भाईजान को बताया कि यूसुफ भाई फिर अस्पताल में भर्ती हैंए फिर कुछ टेस्ट वगैरह होने हैं। सामने बैठी रन्नी का कलेजा किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा। वह उठकरए बाहर बरामदे में बैठ गई। चारों तरफ अंधकार फैला थाए आज स्ट्रीट लाइट भी नहीं जली थीं। ऐसा अक्सर होता था। बाहर ट्रकए बस और कारों की लाइट बरामदे की जाली से भीतर आती और रन्नी के आँसू उस रोशनी से चमक उठते। न जाने कब भाभीजान आकर पीछे खड़ी हो गई थीं।
श्यूँ जी हलकान न करो रन्नी बीए हारी—बीमारी पर किसी का क्या जोर। उठोए मैं चाय बनाती हूँ तुम हाथ मुँह धो लो।श्
नहींए वह अन्दर तो बैठ ही नहीं पाएगी। उसे अँधेरे में ही रहना अच्छा लग रहा था। हाथ—मुँह धोकर फिर आकर बरामदे में ही बैठ गई। भाभी दो कप बहै ले आईं। दोनों अँधेरे में बैठी रहीं। वषोर्ं से देखती आ रही थीं भाभीजान रन्नी का यह रूप। एक रन्नी थी जो अपने फजोर्ं के प्रति कृत—संकल्प और उसके भीतर की रेहानाए जिसकी जिंदगी में थे सिर्फ अँधेरे। यदि कहीं से रोशनी की कोई किरन आती भी तो रेहाना के समक्ष अनेक शतेर्ं रख दी जातीं।
भाभी उठने लगीं तो रन्नी ने उन्हें खींचकर लिपटा लिया और सीने से लगकर बिलख—बिलखकर रोने लगी। भाभी के भी आँसू गिरे। उसी रात रन्नी ने शाहजी को फोन किया कि गाड़ी भेज देंए वे लौटना चाहती हैं। ताहिरा तो फूफी के आने की खबर सुनकर उछल पड़ी। एकदम शाहजी के हाथों से मानो उसने फोन छीन ही लिया और फूफी को हवेली के किस्से सुनाने लगी।
कार आ गई थी। रन्नी विदा होने लगी तो एक बार फिर भाभीजान ने हैदराबाद जाने और फैयाज से मिलने की याद दिलाई।
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पार्ट — 11
रेहाना बी जब से भाईजान के घर से लौटी हैंए अजब हाल है उनके दिल का। लगता हैए पानी पर बिछी शैवाल—सा सब कुछ थिर गया है। भटकन खत्म हैए जीवन की बैलगाड़ी पगडण्डियाँ नाप रही है हौले—हौले और जिसके हर मोड़ पर यूसुफ का बीमार चेहरा अटका है। न सही संग—साथए न सही प्यार का अंजाम लेकिन खुदायाए यूसुफ तंदरुस्त तो रहें। उनकी खैरियत ही रेहाना की जिन्दगी हैए वरना साँस लेना बेकार। अब देखो वक्त का बदलाव—उधर भाईजान व्यवस्थितए व्यापार खूब अच्छा चल रहा है। नूराए शकूरा भी खानदानी कहलाने लगे। भाभी गहनों से लादी—तुपी अपनी गृहस्थी में मस्त और रेहाना! कुए की दीवार से सटकर ऊपर आती पानी से भरी बाल्टी—सी छलकती। कुए की घिर्री में जीवन डोर लिपट गई है और बाल्टी अधबीच में लटकी रुकी है। इस कुए तक कोई नहीं आताए यह कुआँ हरियाली के महासमुद्र में गुँथा—सा पड़ा है। आदमजात तो क्याए कोई जानवर तक इस कुए के पानी से अपनी प्यास नहीं बुझाता। एक निकृष्टए निरर्थक एहसास। रन्नी कुनमुना उठती हैए बाल्टी छलकने लगती है।
अँधेरा घिर आया है। कोठी के सभी लोग न जाने कहाँए कोने—आतड़ में छुपे से हैं। शहनाज बेगम और शाहजी तो ताहिरा को लेकर बाजार गए हैं। ताहिरा की नई गाड़ी जो शाहजी ने उसे ईद के मौके पर भेंट देने को कहा थाए आज आने वाली है। ईद के वक्त न आ सकी गाड़ी। ताहिरा के भाग्य पर रन्नी का सीना गर्व से फूल उठता है पर शहनाज बेगम और अख्तरी बेगम की सूनी कोख उनके अन्दर दहशत भी भर देती है। तब लगता हैए ताहिरा दाँव पर लगी है जिसके एवज में भाईजान की चरमराती गृहस्थी को सम्हालतेए सुखए खुशियाँ और ऐश बख्शते शाहजी के हाथ हैं। औरत सदियों से दाँव पर लगाई जाती रही है चाहे द्रोपदी हो चाहे ताहिरा। जितना ज्ञान था उतना सोच डाला था रन्नी ने.....आगे मानो तमाम प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए।
कोठी के गेट पर एक साथ दो गाड़ियों का शोर सुनए निकहतए अस्माँए मुमताज सभी बरामदे की ओर दौड़ीं। चॉकलेटी रंग की ताहिरा की खूबसूरत सुजूकी गाड़ी गेंदे के फूलों की माला पहने कोठी के अन्दर प्रवेश कर रही थी। गैराज के नजदीक गाड़ी रुकी। प्रफुल्लित ताहिरा और शहनाज बेगम उतरीं। आगे की सीट पर से शाहजी और एक नया चेहरा। लम्बा कदए भरी काठीए नीली जींस पर सफेद टी शर्ट। रन्नी ने दुपट्टा सम्हाला। परिचय शहनाज बेगम ने कराया—श्रेहाना बीए इनसे मिलोए हमारे चचाजात भाई शाहबाज खानए दुबई से आये हैं और शाहबाजए ये हैं ताहिरा की फूफी रेहाना।श्
शाहबाज ने आदाब किया और सरसरी निगाह से रन्नी का सर से पाँव तक मुआयना किया। रन्नी संकोच से गड़ गई। सब हॉल में आकर आराम से बैठ गए। मेहमाननवाजी में मुस्तैद निकहत शरबत बना लाई। गुलाब की खुशबू से महकताए बर्फ के टुकड़ों से सजा शरबत नाजुक ग्लासों में खूब सज रहा था। शरबत के दौरान शाहबाज ने बताया—श्अम्मी ने मंनत माँगी थी कि मेरा बिजनेस दुबई में खूब चमक जाये तो हिन्दुस्तान में मस्जिद बनवायेंगीए उसी सिलसिले में मैं यहाँ आया हूँ।श्
श्वरना न आते।श् शहनाज बेगम तपाक से बोलीं।
श्ऐसी बात नहीं है आपा! बरसों हो गए यहाँ आयेए आप सबों से मिलना भी तो था। फिर आपके खतों में ताहिरा का लाजवाब जिक्रए कैसे रुकता दुबई मेंघ्श्
श्ऐ शाहबाजए मुँह दिखाई निकालो पहले। यूँ ही दुल्हन देख लोगेघ्श्
श्दुल्हन कहाँ आपाघ् आपके रिश्ते से तो वे भी बहन हुईं हमारी।श्
श्कंजूस! बहाने खूब गढ़़ते हो। बिजनेस मैन जो ठहरे।श् शाहबाज हँसता हुआ फुर्ती से उठा। अटैची खोली और पाँच तोले का सोने का बिस्किट शहनाज बेगम के हाथों में रख दिया—श्यह लो आपाए दुल्हन की मुँह दिखाई।श्
अब तक रन्नी खामोश बैठी थी। माहौल की सहजता ने उसके मन का संकोच दूर कर दिया। अस्मां मटर के समोसे और गरमागरम सूजी का हलवा बना लाई। बड़ी—सी केतली में इलायची की खुशबू वाली गाढ़़ी चाय। अदरकए लहसुन की चटनी ने समाँ बाँध दिया। देर रात तकए समवेत कहकहे कोठी को गुँजाते रहे। रन्नी की उदासी कोसों दूर छिटक गई और उसकी जगह चहल—पहल भरा सोता बह निकला।
दूसरे दिनए सुबह से ही घर में शादी जैसा उत्सव महसूस हो रहा था। शायद शहनाज बेगम ने मस्जिद के लिए पहले से जमीन मुकर्रर कर ली थी। हॉल में घंटों की माथापच्ची से एक बड़ा नक्शा तैयार हुआ और शाहबाज तथा शाहजी ताहिरा की नई नवेली गाड़ी ले उड़नछू हो गए।
शहनाज बेगम ठीक लंच के टाइम पर फोन करतीं—श्शाहजी! आपने खाया कुछघ् लाहौल विलाकूवत। आपको अपनी तंदरुस्ती का जरा—सा खयाल नहीं।श् और फोन पटक सीधे बावर्चीखाने में। घंटे भर बाद वे खुद ही बड़े से टीफिन कैरियर में खानाए थर्मस में चायए फलों की डलिया और आठ—दस मिनरल वॉटर की बोतलें लिए गाड़ी में जा बैठतीं। पीछे—पीछे रन्नी पान की गिलौरियों से भरा डिब्बा लिए दौड़तीं। यह दस्तूर आठ—दस दिन चला। और जब मस्जिद के लिए ईंटों की जड़ाई शुरू हो गईए दीवारों पर बेल बूटे खुदने लगे तब जाकर सबको चौन पड़ा। कारीगरों का कहना थाए महीने भर में मस्जिद बनकर तैयार हो जायेगी। गुलनार आपा हफ्ते भर के व्यापारिक दौरे से आज ही लौटी थींए खास इसी दिन के लिए मस्जिद बनने की इब्तिदा का काम रोका गया था। अलस्सुबह गुलनार आपा लौटीं और ऐन दुपहरी मस्जिद के लिए पहली ईंट रखी गई। शहनाज बेगम ने छुहारे बाँटे। ये छुहारे कोई मामूली छुहारे न थेए शाहबाज की अम्मी जब हज के लिए गई थीं तब वहाँ से खजूर और छुहारे लाई थीं। रन्नी की भी बड़ी इच्छा थी कि वो भी जियारत पर जाये और रसूल की सुनहली दाढ़़ी के बालों का दीदार करे पर अभी तक वह सुनहला दिन नहीं आया था। उसने छुहारों को बड़ी श्रद्धा से माथे से लगाया और खाया।
रन्नी नेए दबे पाँव आती मदिर शाम के धुँधलके में अपने को छुपाने की खातिरए सिलेटी रंग का सूट पहना और लॉन की घास पर चहलकदमी करने लगी। न जानेए क्या हो जाता है उसेघ् शाम होते ही मन डूबने लगता हैए घबराहट बढ़़ने लगती है। शायद आफताब का गुम होना उसे बर्दाश्त नहीं। दूर क्षितिज पर सुरमई आसमान का गहराता काला रंग और उसमें धीरे—धीरे गुम होता आफताब। पश्चिम की सारी कुदरत गहरा जाती है। पंछी घोंसलों में लौट पड़ते हैं। दिवस के अवसान की कालिमा मन के भीतर कचोट जाती है। बड़ा अजीब द्वन्द्व—सा उठता है मन में। उसे लगता हैए मानो वह ऐसे सूने खेतों से गुजर रही है जहाँ उसके एहसास के नुकीले ठूँठ मुँह बाये खड़े हैं और उसके तलुवों को लहूलुहान किये डाल रहे हैं। रन्नी ने घबराकर आँखें मूँद लीं। पलभर को लगा कोई पास आकर खड़ा हुआ है। किसी के बदन की हरकत बिल्कुल करीब है श्कौनघ्श्
श्मैंए ण्ण्ण्ण्ण्शाहबाजए रेहानाजीए आप यहाँघ् इस अँधेरे मेंघ्श्
रन्नी अचकचा गई—श्जीए ण्ण्ण्ण्ण्यूँ ही।श्
श्लगता हैए आपको नेचर से मुहब्बत हैए ण्ण्ण्ण्ण्तभी तो ठंडी हवा में भी आप बगैर गरम कपड़े के.....।श्
रन्नी ने दुपट्टा गले के चारों ओर लपेट लिया। शाहबाज के याद दिलाने पर हलकी—सी झुरझुरी भी लगीए अभी तक कैलाश ने कोठी के गेट के दोनों ओर लगे लाइट के हंडे भी नहीं जलाये थे। सहन अँधेरे की गिरफ्त में था।
श्आइयेए इस बैंच पर थोड़ी देर बैठें।श् कहते हुए शाहबाज ने तपाक से रन्नी का हाथ पकड़ लिया। रन्नी सिहर उठी पर हाथ छुड़ाया नहीं। बड़ी मुलामियत से हाथ उसकी हथेली में दिए—दिए बैंच तक आईं..... बैठीं.....हथेली जब गिरफ्त से छूटी टी नम हो उठी थी।
श्रेहानाजीए ण्ण्ण्ण्ण्मेरी बीवी का इंतकाल हुए दो साल बीत गए।श्
श्ओह! कैसेघ्श्
श्कैंसर से। लगातार चौदह बरसों तक वह मेरे संघर्ष के दिनों में मेरे साथ रही और जब सुख का समय आया तो चल दी। एक बेटी है मेरीए तेरह साल की। बेहद शरीर और जहीन। अम्मी के पास ही रहती है।श्
श्तब तो आपको दूसरा निकाह कर लेना चाहिए था। किया क्यों नहीं अब तकघ्श्
श्आप जो अब मिली।श् कहकर शाहबाज ठहाका मारकर हँस पड़ा।
गेट के हंडे जल उठेए जिसके दूधिया उजाले में जुही की लतरें.....लॉन.....फूलों की क्यारियाँ और गेट से कोठी का रास्ता तक नहा उठा। फूलों की खुशबू बढ़़ती ठंड के साथ चहुँ ओर फैल गई। रन्नी के गाल आरक्त हो उठे। फिर रुका न गया। ठंड के बहाने वह अपने कमरे में आकर पलंग पर कटे पेड़—सी गिर पड़ी। चेहरा दुपट्टे में छुपा लिया—ष्अल्लाह! यह कैसा मजाक किया शाहबाज ने। क्यों कियाघ् या तुम मेरा इम्तहान लेना चाह रहे होघ् कि अपने तनहा जीवन में मैं यूसुफ की जगह किसे दे सकती हूँघ् किसी को नहीं.....किसी को नहीं।ष्
तकरीबन दो घंटे बाद ताहिरा कमरे में आई—श्फूफीए क्या हुआघ् तबीयत तो ठीक हैघ्श्
फूफी ने अपने दिल की कैफियत ताहिरा से छुपाने की कोशिश की—श्यूँ ही.....नींद सी आ रही थी।श्
श्सरेशाम!श् ताहिरा ने ताज्जुब से फूफी को देखा—श्और असर की नमाज! आज भूल गईंघ् अब तो मगरिब की नमाज का वक्त हुआ चाहता है।श्
श्या अल्लाह!श् फूफी घबरा उठीं। वजू किया और जाँनमाज बिछाकर नमाज अता करने लगीं। ताहिरा ने भी वैसा ही किया। नमाज के बाद ताहिरा फूफी के करीब आ बैठी और धीरे—धीरे उनके बाल सहलाने लगी।
फूफी की जिन्दगी में यही एक सच्चा वक्त हैए यही मौजूदगीए उसकी अपनी ताहिरा कीय जिसे घुटनों चलाते—चलाते सुहाग की सेज तक पहुँचाया है। इस बच्ची के लिए वे कुछ भी कर सकती हैं। ताहिरा की एक लट उसके माथे पर झूल आई थी। बहुत प्यार से उस लट को पीछे करते हुए जब उन्होंने ताहिरा को देखा तो खयाल आयाए ऐसी ही होगी शाहबाज की बेटी। कह रहा था बड़ी शरारती और होशियार है। उसकी अपनी ताहिरा कुछ कम तो नहीं। अगर भाईजान के पास पैसे होते तो क्या वे ताहिरा को पढ़़ाते नहींघ् केवल स्कूल की पढ़़ाई कराके ही नहीं रह जाते। यह धन की कमी ही तो ताहिरा को इस कोठी तक खींच लाई। ताहिरा के साथ वे भी पतंग में बँधी डोर—सी खींचती चली आईं। कैसा मोह है यहघ् क्यों हैं वे यहाँघ् कैसी फिजूल—सी जिन्दगी जी रही हैं रेहाना बी!
श्फूफीए क्या सोचने लगींघ् आप अम्मीए अब्बू के पास इतने दिन रह आईंए मुझे तो जाने को नहीं मिलता। मैं रोज अम्मी को ख्वाब में देखती हूँ। देखती हूँ कि न जाने किसने मुर्गियों के दड़बे खोल डाले हैं और सारी मुर्गियाँ आजाद होकर भाग रही हैं। आगे—आगे मुर्गियाँ.....पीछे.....पीछे अम्मी। लेकिन दड़बा टूटे तो अरसा हो गया फिर यह ख्वाब फूफी।श्
श्नहीं मेरी बेटीए अब इस जलालत से छुटकारा मिल गया है। अब न मुर्गियाँ हैं न दड़बे। एक शानदार घर है तुम्हारी अम्मी काए शानदार बिजनेस है तुम्हारे अब्बू का! यह सब तुम्हारी बदौलत मेरी बच्ची।श्
ताहिरा गंभीर हो गईएधीरे—धीरे उसने फूफी की गोद में अपना सिर रख दियाए कुछ पल खामोशी रही। बाहर बगीचे में से कुछ चिटखने जैसी आवाज आई।
श्फूफी.....फैयाज से मिलीं आपघ्श्
रन्नी चौंकीए यह क्या सूझा ताहिरा कोघ्
श्ताहिराघ्श् उन्होंने उसका चेहरा दोनों हाथों से भर लिया—श्बता.....क्या तकलीफ है तुझे यहाँघ्श्
श्क्यों फूफीए क्या तकलीफ में ही याद करूँगी उसेघ् मैंने उसे प्यार किया है फूफीए मैं उसे भूल नहीं पाती।श्
सहसा फूफी उठ खड़ी हुईंए उनकी आवाज की मुलामियत उड़न छू हो गई।
श्ऐ ताहिराए दोबारा नाम न लेना फैयाज का। अब तू शाहजी की सुहागन हैए और सब भुला दे। यही हकीकत हैए यही जिन्दगी है।श् और तेजी से वे पानदान के टेबल तक पहुँची। पान लगायाए सुपारी की छालियाँ काँपते हाथों से कतरीं कि अँगूठा चिर गयाए खून चुहचुहा आया। फूफी ने सिसकारी तक नहीं भरी पर ताहिरा ने देख लिया था। दौड़कर उनका अँगूठा मुँह में रखए जो फूफी की ओर देखा तो फूफी पिघलने लगीं। ताहिरा की अॉंखें डबडबा आईं थीं—श्फूफीए मुझे माफ कर दो।श्
उन्होंने ताहिरा को अपने सीने में छुपा लिया।
शहनाज बेगम को बुखार ने जकड़ लिया था। इन दिनों मस्जिद के सिलसिले में जिन्दगी अस्तव्यस्त—सी हो गई थी। सुबह का नाश्ता दोपहर का होताए दोपहर का खाना शाम को। रात को दो—दो बजे तक नक्शे बनतेए बेल—बूटों के डिजाइन ढ़ूँढ़े जाते। नींद पूरी न होने से शहनाज बेगम बीमार पड़ गईं। उनके बीमार पड़ते ही घर का ढ़ाँचा चरमरा—सा गया। अख्तरी बेगम अपने शरीर से तंगए ताहिरा गैरतजुर्बेकार। बची फूफी.....सो लाजिमी है उन पर सारी जवाबदारी आ गई। कभी वे अब्दुल्ला को बावर्चीखाने में निर्देश दे रही होतीं तो शाहबाज आ जाता—
श्रेहाना जीए हम कुछ हेल्प करेंघ्श्
श्नहींए नहींए सब हो गया। हम तो यूँ ही जायजा ले रहे हैंए करता तो अब्दुल्ला ही है सब कुछ।श्
श्रोज तो आप अब्दुल्ला के हाथ का खाती हैंए आज मैं आपको मशरूम गोभी बनाकर खिलाऊँगाए उँगलियाँ चाटती रह जायेंगी।श्
रन्नी मना नहीं कर पाई। फौरन नौकर को बाजार दौड़ायाए मशरूम और गोभी लाने। तब तक शाहबाज के निर्देशन में अब्दुल्ला ने मसाले तैयार कर लिए।
श्मैं बड़ा ही शरारती हूँ रेहाना जीए वही असर मेरी बेटी पर आया है। मेरा बचपन लखनऊ में गुजरा। वहाँ अब्बा पोस्टमास्टर जनरल थे। मुहर्रम के दिन मुहल्ले भर के बच्चे ताजिए के चारों ओर रंगीन छड़ी लेकर कूदते थे। मेरे गले में अम्मी गंडा—ताबीज बाँध देती। कमर में छोटी—छोटी चाँदी की घंटीयाँ बाँधती जो टुन—टुन आवाज करतीं।श्
रन्नी हँस पड़ीए अब्दुल्ला भी हँसने लगा। नौकर सामान ले आया था। भूनते मसाले की सुगंध फैलने लगी।
श्लाइएए मैं भूनती हूँएश् रन्नी ने शाहबाज के हाथों से झारा लेना चाहा।
श्अरे नहींए आप बस पास खड़ी रहिएए हौसला मिलता है। हाँए तो घंटीयाँ बाँधकर उन बच्चों के साथ मैं भी कूदता था। धीरे—धीरे ताजिए कर्बला की ओर जाते। उफए क्या नजारा रहता था। दिन भर उछलकूदए तमाशाए ढ़ेरों मिठाईयाँ। कर्बला से लौटकर वो पैर दुखते कि पूछो मत। पिंडलियाँ सूज जातीं। गरम पानी की सिंकाई चलती साथ—साथ अम्मी की डाँट भी। अब वो बात कहाँघ् जमाना बदल गया है।श्
सब्जी तैयार हो चुकी थी। शाहबाज का चेहरा भी यादों में खोया बुझ सा गया था। रन्नी अचकचा गई—श्चलियेए हॉल में चलकर बैठते हैं।श्
शाहबाज रन्नी के साथ आज्ञाकारी बच्चे—सा हॉल में आ गया जहाँ निकहत क्रोशिये पर थालीपोश बुन रही थी।
रन्नी ने छेड़ा—श्देखिये शाहबाज जीए पढ़़ना—लिखना छोड़ शादी की तैयारी में जुटी है निकहत।श्
श्धत्श् निकहत ने उँगली में लिपटा डोरा खोल डाला।
श्ब्याह का तो अब हमारा भी दिल हो आया है।श् शाहबाज दीवान पर आराम से बैठ गया था। निकहत शरमाती हुई कब की कमरे से रफूचक्कर हो गई थी।
श्दिल है तो रोकिये नहीं।श् रन्नी ने लापरवाही से कहा। अचानक शाहबाज की आवाज रन्नी को लरजती हुई सी लगी। श्रेहाना जी.....आप मुझे बहुत पसंद आई हैं।श्
रेहाना का पोर—पोर सन्न रह गया। यह क्या सुन रही है वहघ् भान तो कुछ—कुछ हुआ था उसे शाहबाज के यूँ उसके आगे—पीछे डोलने से। जब से वह आया है रन्नी के संग—संग लगा रहता है। कभी कपड़ों की तारीफ करताए कभी आँखों कीए तो कभी दाँतों की। रन्नी के चेहरे पर सबसे आकर्षक उसके गुलाबी अधर थे और उनके बीच से झाँकते अनार के दानों से दाँतए जिन्हें पान खाने के बावजूद भी रन्नी साफ रखती। रन्नी ने महसूस कियाए वह मरी नहीं हैए उसके अन्दर के बहते जल पर शैवाल जम गई है पर हिलोरें बदस्तूर जारी हैंए जो मौका पड़ते ही शैवाल को छिटका देती हैं। ताज्जुब है उसका दिल अभी तक जवाँ हैए अभी तक शब्दों की हरारत उसे छू पाने में समर्थ है.....अभी तक.....।
गुलनार आपा ने डॉक्टर बुला लिया था। आज उनके अब्बाजान की तबीयत भी कुछ ज्यादा नासाज थी। रात भर गुलनार आपा सोई नहीं थीं। ऐसा अक्सर हो जाता था। अब्बाजान का गिरता हुआ स्वास्थ्य कोठी के लोगों की आदत बन चुकी थी लेकिन गुलनार आपा के लिए तनाव की वजह। क्योंकि वह यह मानती थीं कि कोठी के लिए गुलनार आपा का वजूद तब तक है जब तक अब्बाजान जिन्दा हैं। निकहत प्लेट में जो खाना परोस कर ले आई थी वह भी ढ़ँका रखा रहा था। इधर शहनाज बेगम भी बीमार थीं।
डॉक्टर आ चुके थे। पीछे—पीछे दवाईयों का बैग लिए कैलाश। संग—संग शाहजी। शहनाज बेगम का बुखार अब उतर चुका थाए कमजोरी बाकी थी। शाहबाज और रन्नी उन्हीं के कमरे में थे।
श्डॉक्टर साहब! चलने—फिरने की इजाजत दे दीजिएए जरूरी काम रुके पड़े हैं।श् शहनाज बेगम ने तकिये के सहारे उठते हुए कहा।
श्नहींए अभी नहीं। दो दिन का आराम जरूरी है। यूँ भी चुनाव के दिन करीब हैए शहर भर में चुनाव की सरगर्मी हैए ऐसे में अपने जरूरी काम मुल्तवी रखिए।श्
डॉ. अग्रवाल ने सीरिंज में इंजेक्शन भरा। तब तक ताहिरा ओवल्टीन बना लाई।
श्लीजिएए ओवल्टीन पीजिए शाहबेगम। आपको इतने टेंशन की क्या जरुरतघ् टेंशन तो मुझे हैए पार्टी के लिए रात—दिन एक कर रहा हूँ।श्
श्कौन—सी पार्टी के हैं आप डॉ. अग्रवाल।श् शाहजी ने पूछा।
श्हम तो बी.जे.पी. के हैं। सही मायनों में देश को सम्हालने का दम बी. जे. पी. में ही है। कांग्रेस तो गई अब।श्
श्जरा सम्हलकर डॉ. शाहजी कांग्रेस के हैं।श् ओवल्टीन पीते हुए शहनाज बेगम बोलीं।
श्अच्छा.....क्या मस्जिद के लिए जमीन भी कांग्रेस से पास कराई है शाहजी नेघ्श्
श्नहीं डॉ. साहबए यह तो हमारी निजी जमीन है। पहले हम इसी शहर में रहते थे। तभी अब्बाजान ने कुछ प्लॉट खरीद लिए थे।श् शाहबाज ने कहा।
श्ओहए आई सीए तो बेगम मस्जिद बनवाने की आप सबको बधाई।श् और डॉक्टर अब्बाजान के कमरे की ओर चल दिए।
उनके रुखसत होते ही चुनावों पर चर्चा चल पड़ी। शहनाज बेगम कभी भी वोट देने नहीं जातीं लेकिन शाहजी चुनाव के दिन सुबह—सुबह पहला काम वोट देने का ही करते हैं। यह उनके कर्तव्यों की फेहरिस्त में शामिल है। चुनाव के दरमियान लगातार टी.वी. चलता रहता है। तमाम अखबार—रिसाले खरीदे जाते हैं। चुनाव का रिजल्ट गेस किया जाता है। कुछ यूँ घर का आलम रहता है जैसे चुनाव में खुद शाहजी खड़े हुए हों। कभी—कभी कहते भी हैं शाहजी—श्अगर बिजनेस में नहीं होतेए तो हम राजनीति में होते।श्
शहनाज बेगम चिढ़़ जाती हैं उनकी इस बात से—श्कोई दम है राजनीति मेंघ् कोई भी पार्टी सच्ची हैए जिसके होकर रहोघ् अरेए कोई पार्टी ज्वाइन करो तो उस पार्टी की तमाम गंदगी भी ओढ़़ लो। वो दिन गए जब नेता देश के होकर जीते थेए अब कुर्सी के होकर जीते हैं।श्
श्ठीक है बेगम.....स्ट्रेन मत डालोए बीमार हो। हम जरा अब्बाजान की मिजाजपुर्सी करके आते हैं। बड़े शर्मिन्दा हैं कि आपा को अकेले ही सब देखना पड़ता है।श्
श्आपा तो मिसाल हैं जो अपने लिए नहीं जीतीं। आप और अब्बाजान किस्मत वाले हैं जो आपा जैसी बहनए बेटी मिली।श् शाहजी ने शहनाज बेगम की इस तारीफ पर उन्हें लाड़ से देखा और ताहिरा से कहते गए कि खाना लगवायें। आज थकान हैए जल्दी सोने का मूड है।
शाहजी के इतना कहते ही भगदड़ मच गई। दस्तरखान पलक झपकते ही सज गया। शहनाज बेगम भी काँखते हुए आईं.....थोड़ा बहुत चखाए गोभी मशरूम की तारीफ हुई। शाहजी ने कहा—श्मियाँ शाहबाजए शादी कर लोए बीवी को खुश रखोगे।श् शाहबाज की निगाहें रेहाना की ओर उठीं। रेहाना सकपका गईं। जल्दी—जल्दी ट्रे में रखी पुडिंग की कटोरियाँ सर्व करने लगी। शाहबाज ने उसे अजीब पशोपेश में डाल दिया है। साफ नजर आता है कि अगर वे जरा—सा इशारा करें—तो शाहबाज निकाह कर ले पर यूसुफ के बाद मन टुकड़े—टुकड़े हो गया है जो किसी भी तरह जुड़ता नहीं। हर इंसान बुजदिलए फरेबी नजर आता है। रन्नी तड़प उठी—यह सोचकर कि यूसुफ भी तो दुबई चला गया और शाहबाज दुबई से आया है। यह दुबई क्यों उनकी जाना का दुश्मन हो गया जो गाहे बगाहे उन्हें टौंचता रहता है। कभी एहसास को बुलंदियों पर पहुँचाकरए कभी एकदम धूल में मिलाकर। नहींए अब वे दुबई के हाथों नहीं ठगी जायेंगीए हरगिज नहीं। उन्होंने बेबाक नजर शाहबाज पर डाली और शाहजी के उठते ही खुद भी उठ गईं। हाथ मुँह धोकर रोजमर्रा की तरह पान लगाने लगींए ताहिरा पास बैठी पान में लौंग इलायची डालती गई।
लेकिन शाम होते—होते शाहबाज ने बगीचे में रन्नी को अकेली पा कह ही डाला। रन्नी अपने कमरे से असर की नमाज पढ़़कर निकली थीं और हाथों में तस्बीह के दाने की माला थी। उनके चेहरे पर गजब का नूर था जो उनके पाक दिल का गवाह था।
श्रेहाना जीए क्या आप मेरी उजड़ी दुनिया बसा सकती हैंए मुझसे निकाह करकेघ्श् आप कहें तो मैं आज ही आपा को यह खबर दे दूँ। मस्जिद चार—पाँच दिन में बनकर तैयार हो जायेगी। मेरी वापसी सोलह तारीख की हैए आप कहें तो.....श्
रन्नी ने माला अपनी कलाई में झूलते छोटे—से हरे मखमली बटुवे में रखी और इत्मीनान से बैंच पर पहलू बदला—श्शाहबाज जी.....आपने मेरी राय तो जानी नहीं और निकाह की हद तक पहुँच गएघ् आप नहीं जानते कि मेरा दिल कितना चूर—चूर हुआ पड़ा है जिसे कुदरत की न तो कोई फिजां बहला सकती न आप जैसे मुहब्बत भरे दिलों के लफ्ज ही। मैं मर चुकी हूँ शाहबाज जी.....अब इसमें कहाँ से धड़कनें आयेंगीघ्श् और रन्नी की आँखों में पानी की हलकी—सी परत तैर आई जिसमें शाहबाज की प्रार्थना करती शक्ल झलकने लगी। रन्नी ने आँखें बन्द कर लीं।
श्मैं आपके दिल के हर जख्म को भर दूँगा। मुझे पता हैए उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते हुए खुदा का हर बंदा सौ बार ठगा जाता हैए सौ बार ठोकरें खाता हैए जिन्दगी के तल्ख तजुबोर्ं को झेलता है। मैं भी उसमें शामिल हूँ रेहाना जी।श्
माहौल गंभीर हो उठाए हवा के जोर से पत्ता भी खड़कता तो दोनों चौंक पड़ते—श्मेरी बीवी कैंसर से तड़प—तड़पकर मर गई। मैं पल—पल उसे मरते देखता रहा। उसका खूबसूरत चेहरा राख में तब्दील होता गयाए बेरौनक हो गयाए बाल सारे झड़ गए और मैं कुछ न कर सका। रेहाना जीए मेरी बीवी मुझे पागलपन की हद तक प्यार करती थीए मैं भी उसेघ् उसी ने तो मुझे हुक्म दिया है कि मैं आपके संग बाकी का जीवन बिताऊँ।श्
रन्नी चौंक पड़ी—श्उसने हुक्म दियाघ्श्
श्हाँए ण्ण्ण्ण्ण्आप नहीं जानतींए वह आज भी मेरे तसव्वुर में मौजूद हैए मुझे किसी भी उलझन में देखती है तो झट उसका उपाय बता देती है। असल में वह मुझे उलझन में देख ही नहीं सकती।श्
रन्नी ने बड़ी बारीकी से शाहबाज को देखा। नहींए वहाँ यूसुफ जैसी बुजदिली न थीए ण्ण्ण्ण्ण्एक पाकीजगी थी। जो आज भी अपनी दिवंगत बीवी को नहीं भूला। वह किसी को भी कैसे धोखा दे सकता हैघ् तो क्याघ् नहींए नहीं.....अब यह शोभा न देगा। लोग क्या कहेंगेघ् भाईजानए भाभीए ताहिरा और फिर शाहजी का खानदान। नहीं.....जलने दो रन्नी को अगरबत्ती की तरह धीरे—धीरे.....कौन देखता है अगरबत्ती का रफ्ता—रफ्ता राख होनाघ् सभी उसकी खुशबू का ही तो लुत्फ लेते हैं।
श्अम्मी की मंनत थी यहाँ मस्जिद बनाने कीए जानती हैं क्योंघ्श् बीवी के इंतकाल के बाद मैं होश गँवा बैठा था। रात—रात भर जागताए शराब पीता। कारोबार ठप्प होता जा रहा था। न किसी से मिलता न कोई ताल्लुक रखता। अम्मी न होतीं तो मेरी बेटी भी मेरे पागलपन में शहीद हो जाती। तब अम्मी ने मेरे अच्छे होनेए अच्छी—सी जिन्दगी बसर करने की मंनत माँगी थी। सब कुछ तो सँवर गया पर दिल का जो कोना खाली पड़ा हैए उसका क्या करूँघ्श्
श्शाहबाजए मुझे बताइएए मैं आपके लिए क्या करूँघ् काश! मैं वह कर पाती जो आप कह रहे हैं। लेकिन मैं मजबूर हूँए मुझे माफ करिए।श् कहते—कहते रन्नी की आवाज भीग गई। उन्होंने दोनों हाथों में अपना चेहरा छुपा लिया। शाहबाज की हिम्मत बढ़़ी। बगीचा सुरमई अँधेरे में डूब रहा था। चहुँ ओर सन्नाटा था। शाहबाज पास सरका और उसने रन्नी का चेहरा अपने सीने में छुपा लिया—श्आ जाओ रेहानाए इस दिल में समा जाओ। इसका खालीपन भर दो। मैं तुम्हें ताउम्र यहाँ से हिलने न दूँगा।श्
कुछ पल तो रन्नी वैसी ही रही फिर आहिस्ता से अलग.....खड़ी हुई। एक बार चारों ओर देखाए कहीं कोई हलचल न थी अलबत्ता लिली के सफेद फूल हवा में मुस्कुरा रहे थे।
श्चलियेए अन्दर चलेंए शाहजी आते होंगे। हम न मिलेंगे तो परेशान हो जायेंगे। शाहबाजए आप जानते हैं रेहाना की इस कोठी में हैसियतघ् इन लोगों ने मुझे अपने खानदान का मान लिया है। मैं कोठी का एक हिस्सा बन गई हूँ।श्
मायूसी से शाहबाज ने रन्नी के साथ कोठी की ओर कदम बढ़़ा तो दिए लेकिन दिल में जैसे जूनून—सा चढ़़ गया था। सीधा पहुँचा शहनाज आपा के कमरे में।
श्कैसी तबीयत है आपाए इधर क्यों लेती हैंघ् चलिए हॉल में बैठते हैंए आपका दिल भी बहलेगा।श्
शहनाज बेगम भी ऊब चुकी थींए शाहबाज का सहारा ले उठीं—श्थे कहाँ अब तक तुमघ्श्
श्अपनी तकदीर को मोड़ देना चाह रहा था पर नाकामयाबी हाथ लगी।श्
श्मतलबघ्श्
शाहबाजए शहनाज बेगम को धीरे—धीरे हॉल तक ले आया जहाँ रेहाना सोफे पर आँख बन्द किए सर टीकाये बैठी थीं। शाहबाज ने शहनाज बेगम को दीवान पर गाव तकियों के सहारे बिठा दिया और खुद उनके पैरों के पास बैठ गया—श्आपाए मैं रेहाना जी से निकाह करना चाहता था पर.....।श्
एकाएक शहनाज बेगम ने पैर समेट लिए—श्क्या!.....यह तुम क्या कह रहे हो शाहबाजघ् क्या रेहाना बेगम के लिए यह मुनासिब होगाघ्श् सारी बातें रेहाना के कानों में पिघलते सीसे—सी पड़ीं। शहनाज बेगम के तल्ख शब्द उनके दिल में तल्खी घोलते रहे—श्नहींए शाहबाज.....यह इरादा दिल से निकाल दोए यह मुमकिन नहीं।.....रेहाना बेगम कोभी ऐसा सोचना तक नहीं चाहिए। अरे! औरत का खानदान होता हैए भाई भावज होते हैं.....अब उनका मान—सम्मान हमसे भी तो जुड़ गया है।श्
रन्नी तड़प उठी। क्योंए उम्रदराज शाहजी के लिए आप कमसिन ताहिरा को चुन सकती हैंए तीन—तीन शादियाँ हो सकती हैं उनकीघ् और रन्नी को इतना भी हक नहीं कि अपनी जिन्दगी खुशहाल कर सकेघ् दिल हुआ शाहबाज से कह दें कि वे निकाह के लिए तैयार हैं। पाँव में पड़ी बेड़ियाँ उन्हें ऐसा कहने से रोकती रहीं। वे धीरे—धीरे उठीं और अपने कमरे में आ गईं। खुद को बिस्तर के हवाले करना था कि इतनी देर से रोका बाँध टूट गयाए न जाने कब तक आँखें बरसती रहींए किसी ने न जाना।
सुबह रन्नी गर्विता होकर जागीए गालों पर बहकर सूख गए आँसुओं की चुभन बरकरार थी। यह चुभन दिल तक उतर गई। शहनाज बेगम को किसने हक दिया उसकी जिन्दगी का फैसला करने काघ् हाँ या ना वे स्वयं करेंगी। इस मामले में उन्हें किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं। जिन्दगी उनकी अपनी है। अकेले ढ़ोयी है अब तक। किसी पर अपने ददोर्ंगम जाहिर नहीं किएए किसी को शामिल भी नहीं किया अपनी पीड़ा में। फिर उनके लिए फैसला करने वाला भी कोई न हो। केवल भाईजान और भाभी.....बस उन्हीं का हक है इसका। उन्होंने ही उनकी डूबती कश्ती को सहारा दिया था जब वे विधवा हुई थींए जब यूसुफ के नाजायज बच्चे की माँ बनने वाली थीं। शायद रन्नी ने इतना ही सबाब लूटा है कि भाईजानए भाभी उसे मिले.....वरना।
मस्जिद से अजान की आवाज दूर—दूर तक सन्नाटे में गूँज रही थी—श्अल्लाहो अकबर अल्ला.....श् रन्नी ने भी रूटीन निभाते हुए फजर की नमाज अता की और देर तक आँख मूँदे बैठी रही.....। जब कोठी चहल—पहल से आबाद होने लगी तो वह उठीए नहायाए गीले बालों को पीठ पर लापरवाही से झटक दिया। पानी की बूँदें मोती बनकर फर्श पर बिखरती रहीं। बाहर जाड़ों की धूप ने घास पर गिरी शबनम की बूँदें सोख ली थीं और अपनी फतह पर इतराती खिड़की से अनधिकार प्रवेश कर चुकी थी। रन्नी ने हलकी गरमाई में दुपट्टे की जगह शॉल ओढ़़ लिया।
श्सलाम फूफी।श् ताहिरा की मीठी आवाज रन्नी को हल्का—सा सेंक दे गई।
श्खुश रहोए आबाद रहो।श् और बाँहें फैलाकर ताहिरा को अपने आगोश में लेए उसका माथा चूम लिया।
ताहिरा को देखकर ऐसा क्यों नहीं लगता कि वह इस घर की दुल्हन है। दुल्हन का रुतबा होता हैए डोली में आना और जनाजे में विदा होना। हमेशा ऐसा ही क्यों एहसास रहता है जैसे वे दोनों यहाँ कोई मकसद से आई हैं। मकसद केवल इतना कि शाहजी को वारिस दें और बदले में भाईजान के खानदान की खुशियाँ लें। आखिर कैसे इस एहसास से छुटकारा पायेंघ् कैसे मान लें कि यह घर ताहिरा का ही है। घर की हर बेशकीमती चीजए यहाँ तक कि शाहजी तक उसी के हैंघ् यह तो तय है कि ताहिरा के साथ नाइंसाफी हुई है लेकिन खुदा की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता। तब क्या शाहबाज का प्रस्ताव! उसमें भी खुदा की मर्जी हैघ् ओह.....अल्लाह! मेरी सोच को अंजाम दो.....मैं भटक रही हूँ।
श्फूफी.....आह उदासी क्योंघ् रात ठीक से नींद तो आई न।श्
श्बाकायदा.....अब तेरी फूफी को कुछ नही सालता बेटी.....देखए मैंने गुसल भी कर लियाए नमाज भी पढ़़ ली।श्
तभी निकहत वहाँ आ गई—श्सलाम फूफीजान! चाय यहीं ले आऊँ या हॉल में चलेंगीघ्श्
श्चलोए वहीँ चलते हैं।श्
तीनों हॉल में आ गए। जहाँ पहले से ही शाहजी और शहनाज बेगम बैठे थे। आज तो मँझली बेगम भी दीवान पर बैठी मिलीं। कुछ यूँ मानो कचहरी लग चुकी है और मुवक्किल का इंतजार है।
श्आइए रेहाना बेगम.....अस्मां चाय निकालो।श्
शहनाज बेगम ने हुक्म दिया। पहले से बेहतर लग रही थी उनकी तबीयत। फिर भी रन्नी ने फर्ज पूरा किया—श्अब कैसी तबीयत है बेगमघ्श्
श्बेहतर.....अब्बाजान भी बावजूद जाड़े के इत्मीनान की नींद सोये। डॉ. अग्रवाल की दवाई जादुई असर करती है। आप सुनाइए.....नींद अच्छी आईघ्श्
श्या सोचती रहीं शाहबाज के बारे मेंघ्श् शाहजी ने चुटकी ली।
सब मुस्कुरा पड़े। रन्नी का चेहरा शर्म से तमतमा आया। तो बात शाहजी तक पहुँच गई। चलो अच्छा ही है.....आखिर उन्हें पता तो होना ही था। रन्नी ने आवाज को काबू में किया और बड़े आत्मविश्वास से बोलीं—
श्पहल शाहबाज ने ही की थी शाहजीए और जिन हालातों से वे गुजर रहे हैंए ऐसा सोचना नामुमकिन तो नहीं। मेरी बात दीगर है। मुझे निकाह करना होता तो क्या मैं इतने बरस इंतजार करतीघ् आप शायद मुझे ठीक से समझ नहीं पाये। मुझे किसी की परवाह नहीं। जो मेरा जमीर कहता है मैं वही करती हूँ। मेरी सोच में कभी किसी की दखलंदाजी नहीं रही। अभी भी चाहूँ तो निकाह कर सकती हूँ शाहबाज से। लेकिन अब इस सबसे दिल उचट गया। अब ये बातें आकर्षित नहीं करतीं। अब मैं अपनी उम्र का बकाया खुदा के बंदों की खिदमत में गुजारना चाहती हूँए अपने लिए एक साँस भी जीने की ख्वाइश नहीं है।श्
हॉल में सन्नाटा छा गया। देर तक कोई कुछ न बोला। केवल चाय की चुस्कियाँ सन्नाटे को तोड़ती रहीं। और तभी शाहबाज उनींदी आँखें लिए आया—श्गुडमॉनिर्ंग एवरीबॉडी।श् दरवाजे पर से ही जोर से बोला और आकर सोफे पर बैठ गया। सबने खामोशी से हाथ माथे तक ले जाकर उसके गुडमॉनिर्ंग का जवाब दिया। अस्मां ने चाय की प्याली उसके आगे छोटी—सी तिपाई पर रख दी। शाहबाज ने माहौल की गंभीरता भाँपते हुए कहा—श्क्या हुआघ् कोई गंभीर बातघ्श्
श्बात तुम्हारे निकाह की चल रही थी शाहबाज.....रेहाना बेगम को निकाह से सख्त ऐतराज है।श्
शहनाज बेगम के ये लफ्ज रन्नी के लिए ढ़ेरों सुकून उँडेल गए। फतह उसकी हुई। उसने भरपूर नजरों से शहनाज बेगम को देखा। फिर वे पल भर भी वहाँ रुक न सकी। चाय खतम कीए मँझली का हालचाल पूछा और गर्वीली चाल से अपने कमरे की ओर चल दी।
मस्जिद बनकर तैयार थी। कोठी में जैसे हंगामा—सा बरपा था। तीनों बेगमों की कारें धो—पोंछकर चमकाई गई थीं। सभी औरतें नहा—धोकर रेशमी कपड़ों में लकदक नजर आ रही थीं। मस्जिद में मर्द ही नमाज अता करेंगे लेकिन कोठी की तमाम औरतें तो मस्जिद के दीदार के लिए बेचौन थीं। हफ्तों जिन बेलबूटों को नक्शों में देखती आई थींए मस्जिद के जिस परिसर के लिए बेलाए चमेली की लतर और चंपा तथा बोगनवेलिया के खास पेड़ शाहबाज ने खरीदे थेए मस्जिद की छत पर लटकाने के लिए बड़ा—सा झूमर खरीदा गया था और फर्श पर बिछाने के लिए रंगबिरंगी चटाईयाँ.....यह सब देखने की लालसा थी उन्हें। ताहिराए शहनाज बेगम और शाहजीए निकहत समेत एक कार में बैठेए दूसरी में शाहबाजए रन्नीए अस्मां और मुमताज। तीसरी गाड़ी में मँझली बेगमए गुलनार आपा और शांताबाई। कैलाश और एक नर्स अब्बाजान की खिदमत के लिए कोठी में तैनात किए गए। ताहिरा की कार चलाने के लिए नया ड्राइवर मुकर्रर किया गया था डिसूजा। मझोले कद और चालीस की उम्र का बड़ा ही हँसमुख व्यक्ति था डिसूजा। अब्बाजान के ढ़ेरों आशीर्वाद के बाद कारों का कारवाँ चल पड़ा। तभी अब्दुल्ला दौड़ा—दौड़ा आया। आज सुबह से शहनाज बेगम ने खासए नवाबी ढ़ंग का खाना पकाने का हुक्म दिया था उसे—ष्बैंगन का रायताए शीरमालए शामी कबाबए पुलावए मीठा—नमकीन दोनों तरह का अलग—अलगए गोश्त के शोरबे में खूब लाल तली हुई मुलायम अरबी और रुमाली रोटीयाँ।ष् इसी बाबत वह देर तकए कार की खिड़की से लगा शहनाज बेगम से कुछ पूछता रहा। शाहजी भी बेहद खुश मूड में थे—श्बेगम अचारए चटनी और आम का वर्क लगा मुरब्बा भी होगा न दस्तरखान पर।श्
श्मियाँ.....आपके लिए हम कोताही करेंगेघ् जान हाजिर है।श्
शहनाज बेगम की इस बात पर ताहिरा दुपट्टे में मुँह छुपाकर हँसने लगी। कारें चल पड़ीं। लगभग घंटे भर का सफर था। शहर से दूर जंगलों का रास्ता। खेतए आमों के झुरमुटए केले के बगीचेए दोनों ओर छिटपुट मकानए छोटी—छोटी देवी—देवताओं का मड़ियाए मड़िया में टीमटीमाता कलशए लंगूरए गिलहरियाँ। अचानकए सीट पर धीरे—धीरे हाथ बढ़़ाकर शाहबाज ने रन्नी का हाथ पकड़ लिया। रन्नी ने छुड़ाना चाहा पर गिरफ्त कसती गई। शाहबाज के मजबूत हाथों में रन्नी की मुलायम हथेलियाँ मसली जाती रहीं। विरोध भी ठंडा पड़ गया। रन्नी ने धीरे—धीरे सीट के सिरहाने सर टीका लिया। शाहबाज ने भी वैसा ही किया। फिर धीरे से उसके कान में फुसफुसाया श्मैं कयामत तक तुम्हारा इंतजार करूँगा रेहाना।श्
रन्नी पानी में डूबती चली गई। अथाह जल.....कहीं पैर टीकाने का ठौर नहीं। जरा—सा हाथ पैर चलाती तो पानी में लतरें सेवार उसके कदमों में गुत्थमगुत्था हो जातीं। वह साँस लेने को मुँह सतह पर निकालना चाहती पर न सतह है न तलहटी। यह कैसी जलराशि हैघ् यह कैसी गहराई हैघ् गहराई में नीचे की ओर जाती एक अँधेरी गुफा.....जो पूरी ताकत से उसे अपनी ओर खींच रही है। गुफा की पत्थरी दीवारों पर मकड़ी के तमाम जले.....जालों में फँसी उसके माजी की यादें कीड़ों—सी कुलबुला रही हैं। कहाँ जाये वहघ् गुफा का कोई छोर नहीं.....उजाले की कोई किरन नहीं.....बसए एक बदहवास सच्चाई.....जहाँ उसकी परछाईं भी उसका साथ छोड़ चुकी है।
कार झटके से रुक गई—ष्उठो रेहानाए मुकाम आ गया।ष् रन्नी आँखें मलती हुई उठी। दिल से एक सूखी सिसकी उठी जो होंठों तक आकर बिला गई। सामने हरी—भरी धरती पर खूबसूरत गुंबद वाली मस्जिद बनकर तैयार खड़ी थी। लोगों का हुजूम जंगल में मंगल सिद्ध हो रहा था। कोठी के नौकरों ने मिलकर ऊँची टीलेनुमा जगह पर मखमली चादर बिछा दीए रेशमी पोटलियों में खास अरब के छुहारे और खजूर बँधे थे। रन्नीए शहनाज बेगम और गुलनार आपा की बगल में बैठ गई। मँझली कोठी से लाई कुर्सी पर बैठी। ताहिराए निकहत ढ़लान पर दुबक कर बैठ गईं। ढ़लवाँ रास्ता पीले बैंगनी फूलों से सजा थाए हरी—हरी दूब मखमल—सा आभास देती। मस्जिद की दाईं ओर पत्थर के चबूतरे पर बड़े—बड़े घड़ों में शरबत तैयार हो रहा था। कुछ मौकापरस्त खोमचेवाले रेवड़ियाँए गजकए फूलमाला अगरबत्तियों के खोमचे सजाये खड़े थे। क्या नजारा थाघ् मुँह अँधेरे निकले थे सब और अब नई नवेली मस्जिद में पहली बार नमाज की शुरुआत जोहर की नमाज से हुई। शहनाज बेगम गद्गद् हो उठीं। दुपट्टा फैला हुआ दुआ माँगी.....ष्या अल्लाहए शाहबाज को दुल्हन और शाहजी को बेटा नसीब हो।ष्
नमाज के बाद छुहारेए खजूर बाँटे गए। शरबत पिलाया गया.....खश की खुशबू से पगा पुरलुत्फ शरबत और लौंग—इलायची डली चाँदी के वर्क लगी मगही पान की गिलौरियाँ। जश्न—सा हो गया वहाँ। जितने मुँहए मस्जिद की उतनी ही तारीफ। रन्नी ने शाहबाज को बधाई दी और काफिला कोठी की ओर लौट पड़ा जहाँ अब्दुल्ला ने नवाबी दस्तरखान सजाकर तैयार रखा था।
शाम तक रन्नी थक कर चूर हो गई थी। सुबह से जुटी थी। यों काम कुछ न था पर हर काम को होते देखते रहना भी थका डालता है। रन्नी अपने कमरे में पहुँचते ही बिस्तर पर ढ़ेर हो गई।
खतम। यह रात भी खतम। अरसे से जिस चीज का इंतजार था वह जश्न भी खतम। रन्नी ने बहुत चाहा था कि किसी घटनाए किसी एहसास में अपने दिल को शामिल नहीं करेगी। लेकिन दिल केए मानो दो हिस्से हो गए। एक पूरी तरह आजाद.....किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहींए किसी के पीछे पागल नहीं.....अपनी सोच से करने पर उतारू। और दूसरा विवशए लाचारए घुटन भरे प्रताड़ित अतीत से टीसताए लुटी मुहब्बत के दर्द को झेलता और अब शाहबाज की ओर रफ्ता—रफ्ता बढ़़ता। क्या करे वहघ् इन भावनाओं के थपेड़ों को दिल के कौन से भाग से टकराने देघ्
श्फूफीए आज सोलह तारीख है। आज रातए शायद तीन बजे की फ्लाइट है शाहबाज भाईजान कीए आप चलेंगी रुखसत करनेघ्श्
यह ताहिरा थी। ओहए तो रुखसत होने का वक्त आ गया। लगभग महीने भर की दिमागी जद्दोजहद को विराम लगाने का वक्त आ गयाघ् रन्नी हड़बड़ाकर उठीए अपना बक्सा खोला और बक्से की तलहटी से प्लास्टिक की थैली निकाली। इसमें महीन मलमल के करीब दर्जन भर मर्दाने रुमाल थे जिनके कोनों पर उन्होंने कशीदाकारी की थी। इनमें से सबसे सुन्दर छः रुमाल निकालकरए उन्होंने उन पर गरम आयरन फेरी.....गुलाब का परफ्यूम छिड़का और एक आकर्षक पारदर्शी प्लास्टिक के चौकोर डिब्बे में उन्हें सहेज कर रख दिया। बाकी के छः बक्से की तलहटी में फिर से रख दिए। बक्सा बन्द करते—करते उनकी उँगलियाँ अपने ब्याह के दुपट्टे से जा टकराईं जो था तो मामूली जॉर्जेट का किरन गोटा टँकाए लेकिन उनके लिए वह बहुत खास था। इसे ही ओढ़़कर वे चंद महीनों के लिए सुहागन बनी थीं। धीरे—धीरे उनकी उँगलियाँ दुपट्टे को सहलाने लगीं। उन्हें लगाए सुहाग के लाल जोड़े से सजी वे दुपट्टा ओढ़़े बैठी हैं—चारों ओर चहल—पहल है। कोई एक खूबसूरत नटखट लड़की उन्हें घेरे औरतों के बीच ठुमक—ठुमक कर नाच रही हैए उनकी कोहनी तक मेंहदी रची हुई है और यह क्या!.....सामने सेहरा बाँधे शाहबाज! ओहए यह क्या सोच डाला रन्नी ने। ये हसरतें उड़ान क्यों भरने लगींघ् कम—से—कम उड़ने से पहले अपने पर तो तौल लेने थे उन्हें।
सारे दिन रन्नी उदास रही। शाहबाज उनसे बात करने के लिए उनके आसपास मँडराता रहा पर उन्होंने जानबूझकर स्थिति टाली। आखिर रुखसत होने के घंटे भर पहले शाहबाज ने उन्हें पकड़ लिया—श्क्यों बाख रही हो रेहाना मुझसेघ् आखिर मेरा कसूर क्या हैघ्श् रन्नी के होंठ काँपे—श्शाहबाजए मुझे भूल जानाए इसी में हम दोनों की भलाई है। मैं दुआ माँगती हूँए मुझे और न तोड़ो।श्
रन्नी की आवाज भर आई। शाहबाज ने उस दर्द को महसूस कियाए शायद कुछ समझा भी—श्ठीक है रेहानाए मैं अपने दिल पर पत्थर रख लूँगा। लेकिन एक बात याद रखनाए शाहबाज दोबारा निकाह नहीं करेगा।श्
श्नहींए ऽऽश् रन्नी तड़प उठी—श्नहीं शाहबाज नहीं.....।श्
क्षोभए पीड़ा और एहसास से बिलबिलाती रन्नी वाक्य पूरा नहीं कर पाई.....सभी हॉल में आ गए थे और नौकर शाहबाज का सामान कार की डिक्की में रखने के लिए ले जा रहे थे। इन्टरनेशनल एयरपोर्ट जाने में करीब चार घंटे लगेंगेए ट्रेफिक की वजह से। इसलिए अभी निकलना ठीक है.....जिन्हें पहुँचाने जाना थाए वे तैयार थे। शाहजीए ताहिर और निकहतए रन्नी नहीं जायेंगीए उन्होंने तबीयत के अनमने होने का बहाना किया। शाहबाज रुखसत हो रहा है। शहनाज बेगम विदाई की रस्म निभा रही हैं। नौकर हाथ बाँधे खड़े हैं.....शाहबाज ने नौकरों की मुट्ठियाँ रुपयों से भर दी हैं। फिर वह रन्नी के नजदीक आया। रन्नी ने रुमालों का डिब्बा आगे बढ़़ाया—श्जानता हूँए रुमाल हैं इसमेंघ् जानती हो रेहानाघ् अंग्रेज किसी को रुमाल तोहफे में नहीं देतेए उनकी मान्यता है कि तोहफा देने और लेने वाले हमेशा के लिए बिछुड़ जाते हैं। मुझे हमेशा के लिए रुखसत कर रही हो न रेहानाघ्श् रन्नी हथेलियों में चेहरा छुपाकर फुसफुसाई—श्खुदा हाफिज शाहबाज.....रेहाना का आपको सलामए रेहाना मर कर भी आपके लिए दुआ माँगेगी। बाकी मिलन और जुदाई तो ऊपर वाले के हाथों में हैं।श्
श्खुदा हाफिज।श् और झटके से मुड़कर शाहबाज कार में आ बैठा.....पल भर में कार कोठी के बाहर थी। रह गई माहौल में केवल धूलए कार के पहियों से उठी धूल।
क्यों जुड़ जाती है वहघ् क्यों जीने लगती है किसी के साथघ् क्यों आत्मीयताए अपनत्व जाग उठता हैघ् जबकि कहीं कुछ नहीं है। है तो केवल टीसों के मुँह बाये गड्ढे जिन्हें ढ़ँकतेए तोपते अरसा लग गया और जब यह एहसास हो गया कि गड्ढे ढ़ँक गए हैं तो सहसा ही किसी के आगमन की चोट ने फिर गड्ढों का मुँह खोल दिया। फिर टीसने लगा सब कुछ। फिर रिसने लगे घाव।
रन्नी ने घबराकर चारों ओर देखाए सिवा सन्नाटे के वहाँ कुछ न था।
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पार्ट — 12
हाय मेरे परवरदिगार! यह कैसी खुसर—पुसर सुन रही हैं वेघ् अभी तो ताहिरा के निकाह को साल भर भी नहीं हुआए जब शांताबाई ने उन्हें बताया कि ताहिरा भी अभी तक.....। हाँ शहनाज बेगम और बड़ी आपा कह रही थींए अभी तक ताहिरा के कुछ अता—पता नहींए क्या यह भी.....घ् वे काँप उठी थीं। अभी तो निरी बच्ची है ताहिराए इतनी जल्दी क्या हैघ् शहनाज बेगम व्यंग्य से मुस्कुराती हैंए ताहिरा बच्ची हैए लेकिन शाहजी की तो उम्र बढ़़ रही है। जो भी हैए जल्दी ही हो जाना चाहिए। शांताबाई कहती हैए श्बहुत घाघ है बड़ी बेगम।.....अन्दर—अन्दर तो यही चाह रही है कि ताहिरा भी बाँझ करार दे दी जाये और ऊपर—ऊपर शाहजी की हिमायती बनती है कि देखो इस घर के चिराग के लिए मैंने क्या नहीं कियाए दो सौतनें सिर पर बिठा लीं।श्
श्बसए और न कहो शांताबाईए ताहिरा बाँझ नहींए मेरी बच्ची जरूर माँ बनेगी।श् फिर उनसे वहाँ खड़े न रहा गयाए लौट आईं। आकर पलंग पर लेट गईं। सिर दर्द से भारी हो रहा था। आजकल ऐसा ही होता हैए जरा—सी बात उनके हृदय की धड़कन को बढ़़ा देता है और सिर दर्द से भारी हो जाता है। निकहत चाय की गुहार लगाती आईए श्उठिये फूफी जानए चाय लीजिए।श् वे चुपचाप उठ बैठीं। चाय पी लेकिन फिर भी सर दर्द से भारी ही रहा।
श्जरा ताहिरा को भेज देए सिर पर बाम मल देगी।श् निकहत ने कहा—श्लाइये मैं बाम मल देती हूँ।श् उन्होंने मना कर दियाए श्नहीं निकहतए मुझे ताहिरा से कुछ बात भी करनी है।श् थोड़ी देर बाद ताहिरा बाम की शीशी लेकर दौड़ती हुई आई।
श्क्या हुआ फूफीघ्श्
वे भीगी आँखों से ताहिरा को देखती रहीं। शाम का धुँधलका उनके सीने में उतर रहा था।
श्ऐसे क्या देख रही हैं फूफीघ्श्
वे कुछ क्षण चुप रहीं फिर बोलीं—श्ताहिराए तुझे ऐसा तो नहीं लगता कि शाहजी बूढ़़े हैंघ्श्
श्अब यह सोचकर क्या होगा फूफीघ्श्
ताहिरा ने अपनी फूफी का सिर गोद में लिया और बाम मलने लगी।
वे जो जानना चाहती हैंए कैसे पूछें इस लड़की से। कैसे जानें कि शाहजी से वह संतुष्ट हैंए अथवा नहींघ् कोई उपाय नहींए वे निरुपाय—सी आँखें बंद किए पड़ी रहीं। ताहिरा धीमे—धीमे बाम मलती रही। कब उनकी आँखें लगी पता ही नहीं चला। कब ताहिरा धीमे से उनका सिर गोदी से उठाकर तकिये पर रखकर चल दी यह भी उन्हें पता नहीं चला।
या अल्लाह! कैसा खौफनाक ख्वाब था वह! वह काँप रही थीं! देह पसीने से भीगी थीए पूरे कमरे में अँधेरा फैला हुआ था।.....उनके भीतर भी पोर—पोर में अँधेरा फैलता जा रहा था।.....नहीं! ऐसा नहीं हो सकता!—वे लोहे की सलाँखेंए उनके पीछे ताहिरा। ताहिरा हवेली के तलघर में डाल दी गई हैए वह सीखचों से दोनों हाथ निकालकर पानी माँग रही हैए रोटी माँग रही है। वे निरुपाय हैं क्या करेंघ् शहनाज बेगम अट्टहास कर रही हैं। हम तो इसे लाए ही इसीलिए थे कि हवेली में चिराग जलाने वाला पैदा करेगी। और यह.....इसका यही हश्र होना थाए हुआ। उधर हवेली से बाहर खदेड़ी जातीं वे। भाईजान का सम्पूर्ण व्यापार छिन गया है और फिर वे वापिस साईकिल पर घूम रहे हैं।
ष्नहींए मैं ऐसा होने नहीं दूँगी।ष् —ढ़़ संकल्प करए वे उठ बैठीं। ख्वाब के असर ने उनको समूचा जकड़ लिया था। वे उदास बैठी थीं। कभी टी.वी. खोलतींए कभी बंद करतीं।
श्कैसी हैं फूफी जानघ्श् ताहिरा और निकहत ने एक साथ कमरे में प्रवेश किया। श्और चाय बना लाऊँए फूफीघ्श् निकहत ने पूछा।
श्नहींए अब ठीक हूँ। थोड़ा मुँह—हाथ धो लूँ तो अच्छा लगेगा।श्
श्हाँ! मुँह—हाथ धो लीजिए। मैं तेल ठोंककर आपकी चोटी गूँथ देती हूँ। आपको अच्छा लगेगा।श्
श्फूफीए आपको शहनाज बेगम ने भी याद फर्माया है।श्
श्क्योंघ्श्
श्मालूम नहीं।श् चुलबुली निकहत उन्हें खूब प्यार करने लगी थी। तेल लगाकर वह उनकी चोटी गूँथती। कभी—कभीए किस्से कहानियाँ पढ़़कर सुनाया करती और अपनी अम्मी तथा अब्बू के मजेदार किस्से सुनाया करती।
श्फूफीए मैं लौट जाऊँगीए तो आपकी बहुत याद आएगी मुझे।श्
श्तू भला क्यों जाएगी यहाँ सेघ्श्
श्क्योंए मेरी अम्मी और अब्बा मुझे नहीं बुलायेंगे क्याघ्श्
रन्नी उठींए फ्रेश हुईंए कपड़े बदले और निकहत से बालों में तेल डलवाकर चोटी करवाई।
दुपहर का ख्वाबए शांताबाई की बातें और फिर शहनाज बेगम का बुलावाए क्या हवेली को चौन नहीं है कि किसी को मोहलत तो दे कि वह कुछ सोचे—समझेंघ्
श्आइये! आइयेए रेहाना बेगमश् शहनाज बेगम अपने जहाज जैसे बड़े—से पलंग पर बैठी पान लगा रही थीं। वहीँ आराम कुर्सी पर ग्ल्नार आपा भी बैठी थीं।
श्अभी शाहजी शहर की ओर गए हैंए तो सोचा आपको बुलवाकर बातें की जायें।श्
श्हाँ! हाँ! कहिये शहनाज बेगमए कोई खास बात जरूर है जो इस तरह बुला भेजा।श्
श्मैं कह रही थी रेहाना बेगमए न हो किसी डॉक्टर को दिखा दें ताहिरा को।श्
श्डॉक्टर कोघ् क्यों भलाघ्श्
सामने टी.वी. चल रहा था।.....मैं समय हूँ.....कालचक्र.....कितने ही राज्यों के विध्वंस और फलने—फूलने का चश्मदीद गवाह.....।
श्आपने कुछ कहा नहीं रेहाना बेगमघ्श्
श्हाँ! हाँ! डॉक्टर को दिखा देते हैंए उसमें हर्ज ही क्या हैघ् वैसे शहनाज बेगमए ताहिरा अभी बच्ची हैए इतनी जल्दी क्या हैघ्श्
जोरों से हँस पड़ीं शहनाज बेगमए ण्ण्ण्ण्ण्वही खौफनाक ख्वाब वाली हँसीए हँसते हुए कहा—श्अरे बेगम! आप भी जानती हैंए कि जैसे ही मर्द का हाथ लगता हैए लड़की बच्ची नहीं रहतीए बड़ी हो जाती है। आप जानती हैं कि ताहिरा को जल्दी न हो लेकिन इस हवेली को तो जल्दी है। आपसे तो हमने पहले ही कहा था कि यह निकाह औलाद के लिए ही है। यूँ शाहजी को क्या जरुरत थी इस उम्र में निकाह करने कीघ्श्
टी.वी. पर भीष्म पितामह माता सत्यवती से कह रहे थे—ष्जिस धर्म का अनुष्ठान करने से भरतवंश की वृद्धि होए उसके लिए किसी ब्राह्मण को धन देकर महल में बुलाइये माते।ष् वह ध्यान से टी. वी. पर चलते महाभारत को देखने लगीं। महाभारत की कथा उन्हें मालूम थी। उनके अब्बू महाभारत की कथाएँ सुनाया करते थे और दोनों बच्चे ध्यान से सुना करते थे। अब्बू में थी एक विद्वत्ता कि उनके बच्चे हर धर्म की जानकारी रखें।
शहनाज बेगम बातें कर रही थींए ण्ण्ण्ण्ण्और वे खोई हुई थीं अपने आप में। हृदय में अँधेरा तारी था। वे वहाँ से उठ आईं और अपने कमरे में आकर लेट गईं। लाइट भी नहीं जलाई। अँधेरा मानो उन्हें धीमे—धीमे निगल जाएगाए उनसे कुछ भी छुपा नहीं था। डॉक्टर को दिखाने से फायदाघ् क्या शाहजी में कोई खोट.....नहीं! ऐसा कौन कह सकता हैघ् क्या दोनों बड़ी बेगम बाँझ थींघ् मँझली बेगम ने कहा था—ष्उन्हें कब डॉक्टर को दिखाया गयाघ् बस दो—चार महीनों में ही बाँझ करार दे दिया गया। फिर शाहजी कभी उनके पास तक नहीं आए।ष्
क्या जवाब देंगी वे भाईजान कोघ् भाभीजान इस निकाह के सख्त खिलाफ थीं। उन्होंने ही भाईजान की गृहस्थी को सँवारने के लिए इस रिश्ते की मंजूरी जबरदस्ती कराई थी। उनके दिमाग में एक के बाद एक प्रश्न उठ रहे थे। उन्होंने ताहिरा के द्वारा अपने भाईए भावज और उनके दोनों बेटों का सुख देखा था। कितनी ही मेहनत के बाद भाईजान और उनके दोनों बेटों को दो जून की रोटी के अलावा कुछ मयस्सर नहीं था। ताहिरा और फैयाज का प्रेम प्रसंग.....फैयाज भी उसी गरीबी की राह पर.....क्या दे पाता वह ताहिरा कोघ् गरीबीए मुफलिसीए जैसे उन्हें मिला थाघ् टाट के पर्दे और सीलन भरा एक कमराघ् किसी को कानों—कान खबर भी नहीं हुई और ताहिरा इस निकाह के लिए मान गई थी। हृदय में यदि कहीं फैयाज की याद भी होगी तो समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। वे जानती थींए क्या उनके घाव नहीं भर गएघ्
घावघ् क्या सचमुच भर गएघ्ण्ण्ण्ण्ण्उन्होंने एक लम्बी साँस ली।
यूँ अपनी तर्ज पर जीती आईं थीं वे.....लेकिन यहाँ वे ताहिरा के ससुराल में थीं। ताहिरा की जिन्दगी दाँव पर लगी है। ष्हमने तो औलाद की खातिर यह निकाह मंजूर किया था वरना क्या शाहजी की उम्र थी निकाह की.....घ्ष् सारे वाक्य शूल की तरह चुभ रहे थे। वे अब सूर्यास्त से घबराने लगी थीं। सूर्यास्त होगाए रात घिरेगी और काला अँधेरा उन्हें जकड़ लेगा। दूसरा दिन फिर किसी नई चिन्ता से शुरू होगा। उन्हें भरपूर विश्वास था कि ताहिरा जिस बलि की वेदी पर जिबह हुई हैए खुदा उसकी कुर्बानी को तरजीह देगा। लेकिन यहाँ तो जिबह भी हुए और चखने वाले को स्वाद भी न आया। ताहिरा के निकाह का मतलब था केवल औलाद। इस घर में ऐसा कुछ तो अतिरिक्त नहीं मिला था ताहिरा को। दौलत थीए इसलिए मिली.....आराम थाए इसलिए मिला। यहाँ के तो नौकरों को भी जो आराम हैंए वह उन्हें इससे पहले नसीब न था। उन्हें भाईजान की वे निरीह आँखें याद थींए जब सूखी ज्वार की रोटी के निवाले वे खालिस शोरबे में डुबोकर खाते थे। शोरबे में डूबे दो—तीन कतरे वे नूरा—शकूरा के लिए निकलवा देते थे। याद है उन्हें गरीबी के वे दुःख—भरे दिनए जब सिर्फ रात को खाना पकता था। बच्चे भूख में अधिक खाते थे और भाभीजान लकड़ियों के कड़वे धुएँ से भरी आँखों में आँसू छलछला कर देखती थीए अभी तो रन्नी बी को खिलाना है। खुद तो वे भूखी रह लेंगी पर रन्नी बीघ् वो धुएँ की कड़वाहट से गीली हुई आँखें थीं या कुछ न कर पाने की असहायता से निरीह आँखेंघ् परथन की एक रोटी बेल वे तवे पर डाल देती थीं। ष्लो रन्नी बीए तवे पर की रोटी उतारकर खा लोए मेरा तो पेट बड़ा दुख रहा है।ष् क्या सचमुच उनका पेट दुख रहा होता था कि अपनी लाड़ली ननद को खिला देने का आग्रहघ् टुकड़ों—टुकड़ों में जिन्दगी की जद्दोजहद देखी है उन्होंने। तेरह साल की ताहिरा स्कूल से कपड़े में बाँधी गई रोटी वापिस ले आती है कि शाम को चाय के साथ उसके दोनों भाई रोटी खा लेंगे।.....भाईजान असहाय आँखों से खपरैल की छत को निहारतेए जिनके टूटे टुकड़ों से तीखी धूप छनकर घर में घुसती थी।.....कुछ न कर पाने की असहायता.....रेशा—रेशा उन्होंने भोगा है दुःखों को। समय से पहले बड़े होते बच्चों को देखा है। भाईजान की बीमारी और खाँसी सुनी है।.....और तब उन्होंने ताहिरा के लिए फैसला लिया था। यूँ सुना थाए कितनी ही औरतें घर के सुखए भाई—पिता के जीवन के लिए कुर्बान हो जाती थीं। क्या हुआ यदि ताहिरा के कारण घर को सुख मयस्सर हो गयाघ् औरत का नाम ही है सहनाए कुर्बानी देना। लेकिन आज ताहिरा सुखी भी तो है।.....उसके कोमल पंख उन्होंने कुतर डाले थे।.....लेकिन सबके सुख के लिए.....और आज वे इस घर में पड़ी हैं तो ताहिरा के लिए.....क्या उनकी खुद्दारी उन्हें इस तरह पड़े रहने पर धिक्कारती नहींघ् वे तो कभी भाईजान पर भी बोझ नहीं बनीं..... ष्हाँ! बस ताहिरा की गोद भर जाए.....मैं रुखसत ले लूँगी यहाँ से.....कहाँ जाऊँगीघ्ष् ण्ण्ण्ण्ण्सब कुछ अनिर्णीत ही है। फिर एक निकृष्ठए निरर्थक अहसास उन्हें घेर लेता है। यह गहरा पानी आगे बढ़़ने ही नहीं देता। काई और फैले शैवाल पैरों को बाँध लेते हैं और वे गले भर पानी में अकबकाती हैं। कितनी ही बार उन्होंने साँस लेने को हाथ—पाँव मारे हैं.....लेकिन साँस घुट—घुट जाती है। वे पानी में डूब जाती हैंए फिर उथलाकर बाहर आ जाती हैं। यूसुफ..... शाहबाज.....एक समाज से डरा व्यक्तिए दूसरा समाज को चुनौती देता सा उन्हें बाँधने को व्याकुल। फिर वही निर्णय कि तुम नहींए तो कभी भी और कोई नहीं.....और वे हमेशा की तरह अनिर्णीत। काश! भाईजान सामने आ जाते और उसका हाथ शाहबाज के हाथों में सौंपकर कहते—ष्नहीं! रेहाना बहुत सह लिया.....और नहींए आखिर तुम्हें भी तो जीने का हक है।ष् लेकिन बाजी तो हर बार उनके हाथ से छूट जाती रहीए और उनके हाथ रीते के रीते रह गए। माना कि शाहबाज को इंकारी उनकी अपनी दी हुई थीए लेकिन कहीं हृदय में यह आकांक्षा भी थी कि कोई कह दे.....कोई उनके आँचल में खुशियाँ डाल दे।
सुबह हीए शहनाज बेगम ने कहला भेजा कि ताहिरा को लेडी डॉक्टर के पास ले जाना है। रेहाना बेगम और ताहिरा दस बजे तक तैयार होकर निकल जायेंए साढ़़े दस बजे का अपॉइन्टमेंट ले लिया है। उनका दिल धड़—धड़ धड़कने लगा.....ताहिरा का चेकअप होगा.....कहीं वह सचमुच बाँझ करार न दे दी जाएघ् मेरे खुदा! रहमकरए एक बार तो अपने रहमोकरम के तले हम लोगों को ले ले। ताहिरा सजी—संवरी आकर उनके सामने बैठ गई। वे उससे नजरें चुराती रहीं।
श्क्या बात है फूफीए ण्ण्ण्ण्ण्आप तो कुछ बोल ही नहीं रहींघ्श्
श्नहीं! बेटाए ण्ण्ण्ण्ण्तबीयत कुछ अच्छी नहीं लग रही।श्
श्तो जाना रद्द कीजिये नए इतना भी क्या जरूरी है।श्
श्नहींए चलेंगे। शाहजी गये क्याघ्श्
श्जीश्
चलोए इस इम्तहान को और पास कर लें उन्होंने सोचा और हवेली से बाहर आईं। पोर्च में ताहिरा की गाड़ी खड़ी थी। डिसूजा हुक्म के इंतजार में ड्राइवर की सीट पर बैठा था।
वे दोनों पीछे की सीट पर बैठ गई। रन्नी ने सिर पीछे टीका लिया। हवा के साथ विचार आते रहेए जाते रहे। क्या पता डॉक्टर क्या कहेघ्ण्ण्ण्ण्ण्भाभीजान को भी ताहिरा की चिन्ता है। खाला ने भी कहा था कि हैदराबाद चली जाओ। बाबा ताबीज बाँधते हैंए काम हो जाता हैए कितनों की गोद हरी हुई हैए कितनों के ब्यौपार जमे हैं। चलते समय भी भाभीजान ने कहा था—न होए एक बार तुम हैदराबाद जरूर चली जाओ। देखोए औलाद की खातिर तो शाहजी वहाँ जाने देंगे। फैयाज से भी मिल लेनाए वहीँ हैदराबाद मन है। बाबा!..... फैयाज.....फैयाज.....बाबा। एक झटके से गाड़ी रुकीए बाहर झाँका तो देखाए किसी हिन्दू की शवयात्रा थीए वे कार से उतरकर खड़ी हो गईं.....ताहिरा बैठी रह गई। मालूम नहींए किसने बताया था कि आप यदि कुछ सोच रहे हों.....और यदि शवयात्रा दिख जाये तो वह कार्य पूरा होता है। एक तरफ मातम हैए तो दूसरी तरफ कार्य पूरा हो जाने की राहत।
वापिस कार में बैठते हुए उन्होंने कहा—श्हमारे अब्बू ने सिखाया था कि मरे हुए व्यक्ति की इज्जत के लिए हमेशा खड़े हो जाना चाहिएए भले ही आप उसे पहचानते होंए अथवा नहीं। यदि आप किसी वाहन में बैठे हों तो वाहन रोककर खड़े होना चाहिए।श्
ऐसा लगाए डिसूजा खिसिया गया। और ताहिरा बोल पड़ी—श्मुझे तो मालूम है फूफी.....लेकिन इस तरफ भीड़ थी। मैं कैसे उतरतीघ्श्
श्हाँ! ठीक हैए चलिए डिसूजा जी।श्
लेडी डॉक्टर के साथ ताहिरा बाहर आई। श्सब ठीक है बेगमए खुदा ने चाहा तो शीघ्र ही माँ बनेगी छोटी बहू बेगम। घबराने की कोई बात नहीं हैए मन से दुश्चिन्ताओं को निकाल दीजिए। सब ठीक है।श् डॉक्टर ने कहा।
श्शुक्रिया डॉक्टर! आपने तो सारा खौफ मेरे दिल से निकाल दिया।श्
श्जानती हूँ बेगम आपकी फिक्र। मैं तो पिछले बीस सालों से बड़ी आपा और शाहजी के घर की मेम्बर जैसी हूँ। अप दिल में हौसला रखियेए खुदा आपकी मुराद और हवेली को वारिस अवश्य देगा।श्
रास्ते—भर वे चुप बैठी रहींए बावजूद ठंडी हवा केए उनके भीतर कुछ उफनता रहा। क्या करें कि ताहिरा की गोद हरी हो जाएघ् दिलासाएँ उन्हें अच्छी नहीं लगतींए दिलासाओं ने उन्हें कुछ नहीं दिया।.....भोगती ही रहीं और जिन्दगी से जूझती रहीं। हमेशा जिन्दगी उनसे रूठकर भागती रही। शिकस्त खाती रहीं.....और जूझती रहीं। लेकिन यह शिकस्त तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाएँगी। हैदराबाद जाना ही है। दुआ से बढ़़कर कोई दवा नहीं। हो सकता है बाबा का चमत्कार हो जाएए फैयाज से भी मिलना हो जाएगा। फैयाज.....उनके दिमाग में बिजली कौंधी। महाभारत के —श्य सामने आ गए। भीष्म और सत्यवती की सलाह से महल में वेदव्यास बुलाये जाते हैं। सत्यवती उनसे कहती हैं—ष्पुत्रए अपने स्वर्गवासी भाई की कुलवृद्धि के लिएए भीष्म के अनुरोध और मेरी आज्ञा सेए प्रजा तथा भरतवंश की रक्षा के लिए तुम विचित्रवीर्य की दोनों पत्नियों के गर्भ से अनुरूप पुत्र उत्पन्न करोष्—पुत्र..३ हैदराबाद..३ बाबा..३ फैयाज.....। वे काँप उठींए मेरे मौला.....क्या सोच डाला उन्होंनेघ्ण्ण्ण्ण्ण्फैयाज!.....फैयाज!! खैर! वे बाबा के पास जायेंगी। हो सकता हैए कुछ चमत्कार हो जाएघ् क्यों उनके दिमाग में ष्हैदराबादष् आ रहा हैघ् क्या यह भाग्य का इशारा हैए कि जाओ कामयाबी मिलेगीघ् कार गेट के अन्दर प्रविष्ट हो रही थीए और उनके विचारों ने आकार ग्रहण कर लिया था।
भीतर घुसते हुए उनमें एक अनोखा आत्मविश्वास आ चुका था। सारा शरीर हल्का लग रहा था। सामने शहनाज बेगम खड़ी थीं। आँखों में प्रश्न तैर रहे थे।
श्डॉक्टर ने कहा हैए सब ठीक है।श्
श्हाँ! हम डॉक्टर से कुछ देर पहले पूछ चुके हैं।श्
उन्होंने फिर भी शहनाज बेगम की आँखों में प्रश्न देखे। क्या पूछना चाह रही हैंघ् वे बेपरवाही से अपने कमरे में चली गईं। थोड़ी देर बाद शांताबाई ने आकर कहा—श्मँझली बेगम ने आपको याद किया है।श्
श्हाँए थोड़ा सुस्ता लूँए फिर आऊँगी। कैसी हैं मँझली बेगमघ्श्
श्ठीक हैंए आज घुटनों में दर्द कुछ ज्यादा हैए वरना वे ही आतीं।श्
श्नहींए वे तकलीफ न करेंए मैं आधे घंटे में आती हूँ।श्
श्क्या लेंगी फूफी जानए आज शहनाज चाची ने बेल का शर्बत बनवाया हैए लेकर आऊँघ् आज अस्माँ भी आने वाली है।श्
श्क्यों अस्माँ कहाँ थी इतने महीनेघ् मैंने तो ताहिरा के निकाह के समय ही देखा था। और हाँए जा ले आ शर्बतए लेकिन बर्फ कम डालना।श्
श्जी फूफी ठीक हैए अभी लाती हूँ। अस्माँ गई थी निकाह की खातिर। लेकिन मंगनी टूट गईए उसका मामा बड़ा जल्लाद है। अस्माँ के अब्बा का इंतकाल हो चुका है। मामा अस्माँ को और उसकी अम्मी को खूब मारता है। अस्माँ की अम्मी कहती हैं कि यहाँ मरने से तो अच्छा है कि हवेली में काम करे। रुपये भी जुड़ जाते हैं। अस्माँ वहाँ दिन भर काम करती है और मामा—मामी की मार और ताने सहती है। सगाई भी उसके जल्लाद मामा ने ही तोड़ी। वह दूल्हे मियाँ से रुपये चाहता था। अस्माँ की अम्मी ने ऐसा करने से मना किया तो सगाई भी तोड़ी और दोनों माँ—बेटी को खूब पीटा भी।श् कहकर शांताबाई बेल का शर्बत लाने चली गई।
शर्बत पीकरए वे मँझली बेगम के कमरे की तरफ चलीं। मँझली बेगम लेटी हुईं थींए देखकर उठने लगीं। शांताबाई ने उन्हें सहारा दिया और पलंग से टीकाकर बैठा दिया।
श्आदाब! रेहाना बेगम।श्
श्खुदा सलामत रखें।श्
मँझली बेगम ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी। श्बद्दुआ क्यों देती हैं रेहाना बेगमघ् अब तो यह शरीर ढ़ोया नहीं जाता। नफरत हो चली है ऐसी अमीरी से। जानती हैं रेहाना बेगमए पहले गुलनार आपा ही इस हवेली का सारा कारोबार सम्हालती थींए लेकिन जबसे उन्होंने देखा कि उतनी ही मुस्तैदी से शहनाज बेगम व्यापार को समझ रही हैं तो वे आराम में आ गईं।श्
श्देखती तो अभी भी हैं गुलनार आपा ही सब कुछ।श्
श्नहींए वो बात नहींए जो पहले थी। गुलनार आपा ने व्यापार की सारी बारीकियाँ शहनाज बेगम को समझा दींए नहीं तो क्या कुछ होता उनसेघ् अरे इंटर पास तो हम भी हैंए लेकिन हमें तो.....। अब बरसों हो गएए बड़ी ही सारा हिसाब—किताब सम्हाल रही है। हवेली पर उनकी हुकूमत है। शाहजी का स्वभाव तो आप भी अब तक समझ गई होंगी। सीधे हैंए एकदम सरलए बच्चों जैसे। जैसा गुलनार आपा और बड़ी कहती हैंए वैसा ही वे करते हैं। न जाने मुझसे दोनों को क्यों नफरत है। यही नफरत शाहजी को मेरे पास फटकने नहीं देती।श् दीर्घ निश्वास लेकर चुप हो गईं मँझली बेगम।
श्जाने दो अख्तरी बेगमए जिन्दगी में नसीबों का फल भुगतना ही होता है।श्
श्हाँए शायद यही सच हो। मुझे मेरे नसीबों का फल भुगतना पड़ रहा है।श्
कितनी ही बार रेहाना बेगम हवेली की इन सब बातों को सुन चुकी हैं। जानती हैं कि शाहजी गुलनार आपा और शहनाज बेगम के कहने में हैं। शाहजी को तो मानो किसी चीज से लगाव है ही नहीं.....छत पर लगी बड़ी दूरबीन.....तारेए नक्षत्र और उनकी गणना.....और उन्हीं में उनका डूबे रहना। व्यापार से अलग यह उनका ऐसा शौक हैए जिसमें वे घंटों डूबे रहे हैं।
श्शांताबाई ने बताया कि आप ताहिरा को लेकर आज डॉक्टर के पास गईं थीं।श् फिर स्वतः बुदबुदाईं—श्वही होगी बेसमय की शहनाईए कि ताहिरा कब गर्भवती होगीघ् अब और सुनो बीए यह क्या अपने हाथ में है। लेकिन रेहाना बेगमए मुझे तो बड़ी दया आती है। अरेए जरा—सी बच्ची हैए खेलने—खाने के दिन हैंए लेकिन धीरज कहाँ है उन्हेंघ् दो—चार महीने बीतेंगेए फिर किसी गरीब की छोकरी को सोने के निवाले दिखाते ले आयेंगे हवेली में। अरेए लड़कियों की कोई कमी है क्या हमारे देश मेंघ्श्
रन्नी बी सिहर उठीं—श्ऐसा न कहिये मँझली बेगमए मैं ताहिरा को लेकर हैदराबाद जाऊँगी। जानती हैं नए वहाँ एक पीर—बाबा हैं।.....कितनी ही सूनी गोद हरी हुई हैं।.....इस हवेली को एक चिराग दे देंए शाहनूर बाबा है।श्
अख्तरी बेगम चौंकी—श्अरे! हैदराबाद के गोरे बाबा की तो आप बात नहीं कर रहींघ्श्
श्हाँ! वही तो।श्
श्लोए और सुनो! गोरे बाबा को तो पीर शाहनूर बाबा का आशीर्वाद प्राप्त है। मेरी चचीजान ने कितना कहा थाए बड़ा नाम है उन बाबा का। कोई खाली हाथ नहीं लौटा वहाँ सेए लेकिन मुझे कहाँ जाने को मिलाए दोनों ने नहीं जाने दिया।श्
श्लेकिन मैं तो जाऊँगी ताहिरा को लेकरए सोच लिया है।श्
श्खुदा ने चाहा तो ताहिरा की गोद अवश्य भरेगी। रेहाना बेगमए मेरे दिल में ताहिरा के प्रति मुहब्बत और दया दोनों है। लेकिन गोरे बाबा कोई विपरीत काम नहीं करते।श्
श्विपरीतए कैसाघ्श् रन्नी बी को भी जिज्ञासा हो आई थी।
श्जैसे कि किसी का शौहर दूसरी औरत के पास जावे तो उस औरत को मारने—मूरने का काम।श्
देर तक कमरे में खामोशी पसरी रही। रन्नी बी सोचती रही कि कोई अपने सुखों की तलाश में इतनाए हद दर्जे तकए नीचे भी गिरता होगाघ् मँझली बेगम की साँसें उनके सीने का दर्द उंडेल रही थीं। रन्नी बी किसी उधेड़बुन में लगातार मुब्तिला थीं। वे हैदराबाद जाने की बात आज ही ताहिरा द्वारा शाहजी से करवाना चाह रही थीं। इधर वे शहनाज बेगम और गुलनार आपा से बात कर लेंगी।
जब वे अख्तरी बेगम के पास से उठीं तो उनका विश्वास डगमगा रहा था.....पिछले दिनों देखा ख्वाब उन्हें डरा रहा था।
दूसरे दिन ताहिरा ने कहा—श्फूफीए मैंने शाहजी से बात की थीए वे कहते हैं कि आपा से इजाजत लेकर जाओ। क्या हैदराबाद चलेंगी फूफीघ्श्
श्मैं और अस्मां भी चलेंगी।श् निकहत ने कमरे में घुसते हुए कहा।
श्अरेए तुम लोग मुझे फजीहत में न डालोए वैसे भी मैं तंग हो रही हूँ।श्
श्अरेए फूफी जान हमारे चलने से आप क्यों तंग होंगी।श् अस्मां ने कहा।
श्नहींए मैं ताहिरा के साथ अकेले जाना चाहती हूँए मुझे बख्शो।श् रन्नी बी ने कहा।
श्हाँए जाइये फूफी जानए आपकी बिटीया तो ताहिरा ही हैए हम थोड़े ही हैं।श् निकहत ने मुँह फुलाकर कहा।
श्ऐसी बात नहीं है बेटीए हम किसी खास मकसद के लिए जा रहे हैं। हमें खामोशी चाहिएए और तुम तीनों मिलकर हुल्लड़ मचाओगी।श्
रन्नी बी बिल्कुल नहीं चाहती थीं कि घर का अन्य सदस्य साथ चलेए वे बाबा के पास तो जा रही थींए मन में और भी कई ख्याल आ—जा रहे थे।
श्जब शाहजी ने ष्हाँष् कह दिया तोए समझो रेहाना बेगमए हम सभी की रजामंदी है।श् गुलनार आपा बोलीं।
श्आप जरूर जाइये रेहाना बेगमए जो भी इंतजाम कराना है करवा लीजिये। बल्कि किसी को साथ ले जाना हो तो कहिये।श् शहनाज बेगम बोलीं। श्नहींए हम ताहिरा के साथ जायेंगे बस।श् रन्नी बी प्रसन्नता से बोलीं। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि हैदराबाद जाने के लिए इतनी जल्दी सब रजामंद हो जायेंगे।
तीसरे ही दिन वे ताहिरा को लेकर हैदराबाद रवाना हुईं। फोन करके शाहजी ने होटल में कमरा बुक करवा दिया थाए लेकिन रन्नी बी ने सोच लिया था कि उस होटल में नहीं रुकेंगी। ऐसी जगह रुकेंगी जहाँ शाहजी का कोई जानने—पहचानने वाला न हो। वे नहीं चाहती थीं कि कहीं जाएँ—आएँ भी तो पूरी खबर शाहजी को मिलती रहे। वे फैयाज से भी मिलना चाहती थींए इस यात्रा का मकसद भी था। निकहत और अस्माँ ने मिलकर ताहिरा का सूटकेस पैक कर दिया था। एक डलिया में मेवेए मिठाई और नमकीन पैक कर दिया गया था। रन्नी बी के पास रूपया दे दिया गया था। शाहजी ने अलग से नोटों की गड्डी ताहिरा के सूटकेस में रखवा दी थी।
हैदराबाद स्टेशन पर उतरकर उन्होंने अच्छी—सी होटल में जाना तय किया। टैक्सी वाला ही उन दोनों को बढ़़िया होटल में ले गया।
होटल का सजा कमरा देखकर ताहिरा खुश हो गई। श्लेकिन फूफीए शाहजी ने तो दूसरा होटल बुक किया थाघ्श् उसने कहा।
श्जानती हो ताहिराए मैंने तुम्हें बतलाया नहींए इसी शहर में फैयाज भी हैए क्या उससे मिलना नहीं चाहोगीघ्श्
ताहिरा हैरत से उनकी ओर देखने लगी। फैयाज की याद ने उसके जख्म फिर हरे कर दिए। वह डबडबाई आँखों से दूसरी ओर देखने लगी।
श्जानती हूँ बेटीए तुम्हारा प्यार कुचला गया है। मैं इतनी निर्मोही नहीं हूँ। तुम्हारी अम्मी ने बताया थाए फैयाज हैदराबाद में है। तभी मैंने सोच लिया था तुम्हें मिलवाने ले जाऊँगी।श्
श्अब क्या फायदा फूफी जानघ्श् दीर्घ निःश्वास लेकर ताहिरा ने कहा।
उन्होंने देखा कि फैयाज के प्यार का सोता ताहिरा के भीतर सूखा नहीं है। श्नहीं! बेटी फैयाज गरीब है। यहींए हैदराबाद में किसी मामूली नौकरी में लगा है। उसकी बहन भी बैठी है अभी तकए निकाह नहीं हुआ। क्या तुम उसकी थोड़ी मदद नहीं कर सकतींघ्श् ताहिरा हैरत से उनकी ओर देखने लगीए यह क्या हो गया है फूफी कोए कहाँ उन्होंने शादी के वक्त उसे धमकाया कि फैयाज का नाम भी होठों पर न लाए। और अब स्वयं.....। वे फूफी के उन तिलिस्मों से परिचित नहीं थी जो फूफी के अन्दर धीमे—धीमे खुलते जा रहे थे।
श्और जो शाहजी को पता चला तोए फूफीघ्श्
श्नहीं बेटीए कुछ पता नहीं चलेगा। तू फैयाज की मदद करके उस बेवफाई से मुक्त हो जायेगी जो तूने उससे की है।श्
श्लेकिन क्या फैयाज मानेगाघ्श्
श्यह तुझ पर ही बेटी। मैं तुझे सम्पूर्ण छूट देती हूँ कि तू इस हैदराबाद में पाँच—सात दिन फैयाज के साथ जी ले।श्
कहाँ तक चौंकेगी ताहिराघ् ठीक ही तो कह रही हैं फूफी। पलटकर अपने लबों पर कभी फैयाज का नाम नहीं लाई। अपने वालिद की उम्र के शौहर के साथ क्या कभी उसे फैयाज की याद नहीं आईए वह अपने आपसे पूछ रही थी। देखाए फूफी ने होटल में एक कमरा फैयाज के नाम का बुक करायाए फिर फोन किया तो पता चला वह अपनी वालिदा की बीमारी में गाँव गया हैए दो रोज में लौटेगा। होटल के रिसेप्शन से कमरे तक आते उनके पाँव शिथिल हो रहे थेए अगर पाँच—सात दिन फैयाज नहीं लौटा तोघ् रात को उन्होंने शहनाज बेगम को भी फोन कर दिया कि वे दोनों ठीक—ठाक पहुँच गई हैं।
बचपन की आँखों में कितने सुहाने ख्वाब होते हैंए ऐसे ही ख्वाब कभी उनकी आँखों में थे। .....अल्ला—ताला ने ऐसी सजा दी कि वे अपनी जिन्दगी को लेकर कभी मुस्कुरा तक नहीं सकीं। क्यों यूसुफ आकर गाहे—बगाहे उनकी तनहाइयों में खड़े हो जाते हैं। कतरा—कतराए रेशा—रेशा उन्होंने मुहब्बत की थी यूसुफ से। शाहबाज ने जरूर वक्ती तौर पर शायद उनका हाथ थामना चाहा था। सिर्फ एक बारए न जाने क्यों इच्छा हुई थी कि काशए भाईजान सामने अ जाते और उनके आँचल में खुशियाँ डाल देते! तब वे शायद यूसुफ की याद दिल में लिए शाहबाज खान के साथ विदा हो जातीं।.....फिर वही आलम था.....खौफनाक ख्वाब उनका पीछा नहीं छोड़ता थाए अतीत उनके साथ भयावह सच की तरह चिपका था और वे पाती थीं कि तमाम यकीन के बावजूद कहीं वे इतनी तनहां हैं कि भाई—भावज भी उनका साथ नहीं देंगे। उनकी छाती फटने लगी। आज भाईए भावज उनसे कैफियत—सी माँगते खड़े थेए ष्तुम्हारी ही तो जिद थी रन्नी कि ताहिरा उस हवेली की बहू बनेए तो भुगतो अब।ष्
श्नहीं!ष् उनकी चीख घुटकर रह गई। बगल के बिस्तर पर मासूम ताहिरा गहरी नींद में सो रही थी। उसकी भी आँखों में फैयाज को लेकर कितने हसीन ख्वाब होंगेघ् क्या किया यह तुमने रेहानाघ् यह कैसी बलि चढ़़ाई तुमने अपनी बच्ची कीए वे आर्त्तनाद कर उठींए देर तक रोती रहींए ताहिरा गहरी नींद में सोती रही। पता नहीं कितने बजे सोई होंगीए लेकिन जब उठी तो दिन का ग्यारह बज रहा थाए ताहिरा आराम कुर्सी पर बैठी उपन्यास पढ़़ने में मग्न थी।
श्फूफीए कितना सोईं आपघ् मैं तो बिलकुल उकता गई।श्
श्हाँ बेटीए रात नींद नहीं आई। तुम चाय मंगवा लोए तब तक मैं नहाकर आती हूँ।श्
वे नहाकर बाहर निकलीं तो देखाए मेज पर आलू के पराठेए कटलेटए मक्खनए सॉसए अॉमलेट और चाय रखी थी।
श्लोए तुमने इतना कुछ मंगवा लिया। अब खाना क्या खाक खायेंगेघ्श्
श्खाना नहीं खायेंगे फूफीए यही खाकर अब हम घूमने चलेंगे।श्
श्नहींए मैं अकेली ही बाबा के पास जा रही हूँ। तुम यहींए कमरे में रहना।श्
लोभान और अगरबत्ती की सुगंध से पूरा कमरा भरा था। एक बड़ेए सफेद गद्दे पर गोरे बाबा बैठे थे। पास ही पीतल का चमकदार लोटा रखा था। तरह—तरह के मोतियों की माला पास ही लटकी थी। धागे की रीलए छोटी—बड़ी सूईयाँ तथा फूलों की माला रखी थी। एक जगह मिट्टी के सकोरे में भभूत रखी थी। गद्दे पर फारसी—उर्दू की किताबेंए बने हुए ताबीजेंए गंडेए नक्शे आदि रखे थे। बाबा नाम पढ़़ते जाते थे और एक तरफ बैठे हुए लोगों को ताबीजए नक्शे थमाते जा रहे थे। बाबा के सामने औरतों का हुजूम लगा था। एक ओर मर्द बैठे थे। सभी धीमे स्वर में बाबा से बात कर रहे थेए औरतें और पुरुष एक—एक करके आगे की ओर खिसकते जा रहे थे।
वे अन्दर गईंए और दूर से ही झुककर बाबा को आदाब किया। अपार श्रद्धा से वे भर उठींए उन्होंने देखा कि भव्य व्यक्तित्व वालेए बेहद गोरेए सफेद लम्बे बाल और सफेद दाढ़़ी वाले बाबा सफेद पाजामाए कमीज और बंडी पहने बैठे हैं। बैठने से लग रहा है कि उनकी ऊँचाई भी अच्छी—खासी होगी।
श्कितना महँगा केसर हो गयाए यह आप देखो।.....पूरा नक्शाए ताबीज के अन्दर कागज की इबारत का एक—एक हर्फ हम केसर से लिखते हैं। एक नक्शा बनाने में ढ़ाई से तीन घंटे लग जाते हैं। फिर आप लोग कहते हो कि इतना महँगा हैघ् काम कराते को लाखों का और सौ रूपया देने में जान जाती हैघ्श् बाबा सामने बैठे आदमी से कह रहे थे। वह आदमी खिसियानी हँसी हँसता नक्शा सम्हाल रहा था।
लोग फिर खिसके आगे की ओर।
श्लो और सुनोए इनकी बकरी गुम हो गई हैए अब हम बकरी का पता लगाये कि किधर गई।श् बाबा बोलेए औरत शायद कोई मराठी थीए लांग वाली धोतीए चांदी के गहने पहने हुईए माथे पर एक रुपये के सिक्के के बराबर का टीका लगाए हुए।
श्बाबा! हमारी तो वही कमाई है।श् औरत फिर घिघियाई। सब हँस पड़े। बाबा को औरत पर गुस्सा आ गया।
श्पीछे जाकर बैठोए बाद में देखेंगे।श् घंटा भर हो चुका थाए वहाँ बैठे—बैठे। रन्नी बी नहीं चाहती थीं कि वे किसी के सामने कुछ बोले। वे चाह रही थीं कि बाबा के समक्ष वे अकेली ही हों। उनके समक्ष फलों और नारियल का ढ़ेर लगा थाए चिरौंजी और मिठाई भी रखी थीं। वे सबको नारियलए चिरौंजी बाँट रहे थे। रन्नी बी देख रही थीं कि बाबा के समक्ष चीजों का कोई मोह नहीं है।
घंटे—डेढ़़ घंटे में बाबा ने कई पान खाये थे। चाय कई कप पी थी और बीच—बीच में टोंटीदार लोटे से पानी लेकर कुल्ला भी कर रहे थे।
बाबा ने एक बार नजरें उठाकर रन्नी बी की तरफ देखा तो वे थोड़ा घबरा गईं। वातावरण में अब लोभान की सुगंध और सन्नाटा था।
एक औरत काफी देर से पीछे बैठी थीए वह आगे बढ़़ी और अपने बैग से काजूए बादाम के बड़े—बड़े पैकेट निकाले और गद्दे पर रख दिये। उसने अपना बुरका पलटा तोए वे चौंक पड़ीं। बुरके वाली औरत की देह सफेद संगमरमर जैसी थी। ठोस सोने के गहनों से लदी हुई.....इतनी समृद्धता में कैसी परेशानी जो यहाँ आना पड़ाघ्
बाबा ने उन्हें देखा तो चीख पड़े—श्आप फिर आ गईं बेगमघ् मैंने कहा था नए मैं गलत काम नहीं करता। तुम क्या चाहती हों कि तुम्हारा शौहर जिस औरत के पास जाता हैए उस औरत को मैं मार दूँघ् नहींए कभी नहींए मुझे भी एक दिन खुदा के सामने हाजिर होना है।श् फिर वे सबकी तरफ मुखातिब होकर बोले—श्एक—एक ताबीज और नक्शा बनाने में कितने मंत्रों को पढ़़ना पड़ता हैए देखो! अपनी सारी ताकत लगानी पड़ती है। ये पैर देखो.....कैसे फट गए हैंए यह सब गर्मी और मंत्रों की शक्ति.....जो ताबीजों में भरी जाती हैए आप जा सकती हैं बेगम।श्
श्बाबाए मैं आपकी खिदमत में पूरी दौलत लुटाने को तैयार हूँए लेकिन मुझे मेरा शौहर वापिस दिला दीजिए।श् औरत बाबा के चरणों में लोटने लगी। बाबा उठकर खड़े हो गएए श्उठिये बेगमए मैं कोशिश करूँगा। उधर जाते तो आपके शौहर को कई बरस हो चुके हैंए क्या आप नहीं जानतीं कि उस औरत के हक में यह बुरा होगाघ् कहाँ जाएगी वह औरतघ्श् बाबा ने कहा।
श्मैं कहाँ जाऊँ बाबाघ् शौहर के बगैर हवेली काट खाने को दौड़ती है।श्
रन्नी बी को लगाए बाबा के सामने मँझली बेगम बैठी है। फिर बाद में ताहिरा ऐसी हीघ् नहींए वे काँप उठीं। ऐसा क्यों सोचती हैं वेघ् वह औरत गई नहीं थी। बुरके से मुँह ढ़क कर एक ओर खिसक गई। बीच—बीच में उसके रोने का स्वर उभर आता था। सामने चार—पाँच हिन्दू औरतें दिख रही थीं। बाबा ने रन्नी बी को इशारा कियाए श्आप आइये बेगमए कहीं दूर से आई लगती हैं।श्
श्जी बाबा।श् उन्होंने पुनः बाबा को आदाब किया।
श्ये औरतें तो रोज अपना दुखड़ा लिए चली आती हैं। शौहर इनसे सम्हलते नहीं हैं। घर आए शौहर से तो लड़—लड़कर उसकी जान निकाल देती हैंए फिर वह किसी दूसरी के चक्कर में फँस ही जाएगा। अरेए मुहब्बत करना सीखो।श्
बाबा ने उन औरतों को पीछे खिसका दियाए ढ़ेर सारी अगरबत्तियाँ जलाकर अगरबत्ती दान में खोंसने लगे। पूरा कमरा गुलाब की सुगंध से भर गया। श्बोलिये बेगमघ्श् बाबा ने अगरबत्ती खोंसते हुए कहा।
श्बाबाए बहुत आस से हम लोग उतनी दूर से आईं हैंए मेरी भतीजी औलाद की ही खातिर उस घर की तीसरी बहू बनी। शाहजी की दोनों बेगमें औलाद से मरहूम हैंए बाबा।श् कहते—कहते रन्नी बी की आँखों में आँसू झलमला गए।
बाबा ने उन्हें भर नजर देखा। शाहजी के बारे में आवश्यक जानकारी ली और एक कागज पर जोड़—गुणा—भाग करने लगे।
श्नामुमकिन!श् बाबा ने चश्मा उतारते हुए कहा—श्घर की औरतों में कोई कमी—खामी दिखाई नहीं देती।.....नहींए उन्हें औलाद नहीं हो सकती। तीन नहींए सौ निकाह कर लेंए तब भी नहीं। वे इस लायक ही नहीं हैं।श् बाबा ने कागज को उठाकर फाड़ दिया। रन्नी बी ष्सन्नष् रह गईं। उनके गालों पर आँसू बह रहे थे। बाबा देर तक उनकी ओर देखते रहे। सहसा वे खड़े होकर बोले—श्जाइये बेगम यहाँ सेए तुरन्त बाहर.....आपके दिल में जो हैए वह गुनाह है। आप पाकस्थान पर बैठकर पाप सोचती हैंएश् बाबा उत्तेजित हो उठे। रन्नी बी थरथराते पाँवों से उठीए सिसकती हुई औरत ने तुरन्त बुरका पलटा और हैरत से रन्नी बी की ओर देखने लगीए कई जोड़ी आँखें रन्नी बी के चेहरे पर चिपक गईं। झुककरए बाबा की कदमबोसी करने के बाद रन्नी बी निकलींए तो लगा कि पीठ में छेद हो गए हैं उन कई जोड़ी आँखों से।
कमरे से बाहर निकलीं तो देखाए सामने की हौद से पानी छलक रहा है। कहा जाता है कि चाहे सूख पड़े या घनघोर बारिश हो इस हौद का पानी न तो बहता हैए न ही सूखता है। उन्होंने चुल्लू में पानी लेकर मुँह धोयाए थोड़ा—सा श्रद्धा के साथ मुँह में डाला। इस हौद का पानी मुँह में डालने के लिए दूर—दूर से लोग आते हैं। वे टैक्सी लेकर होटल वापस लौटी। ताहिरा सोई नहीं थीए फूफी का उदास चेहरा देखकर वह घबरा गई—श्चाय मंगवाऊँ फूफीघ्श्
उन्होंने इशारे से मना किया और भरभराकर बिस्तर पर गिरकरए फूट—फूटकर रोने लगीं। ताहिरा पूछती रही कि क्या हुआ लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया। अपने कलेजे से ताहिरा के सिर को चिपकाये रहीं। मानो ताहिरा को अब फाँसी होने जा रही हो। ताहिरा भी रोने लगी।
श्कल चलेंगे बेटेए चारमीनारए दरगाहए गोलकुंडा वगैरह घूमने।श् थोड़ी देर चुप रहकर वह बोलीं—श्दो—तीन दिन हम सिर्फ घूमेंगेए फिर फैयाज आ जायेगाए उससे मिलकर हम तुम्हारे अब्बू और अम्मी के पास चलेंगे।श्
श्सच फूफीश् ताहिरा खुश हो गई। दो बार फूफी अब्बूए अम्मी के पास हो आई थींए लेकिन उसका जाना नहीं हुआ था। एक दिन के लिए गई थीए ऐसा क्या जानाघ्
रात पलकों में ही बीती। बाबा का लताड़ना याद आयाए यदि यह पाप भी है तो भी वे इसे करेंगी। ताहिरा को उस घर में तिरस्कृत नहीं होने देंगी। कुफ्र के दिन उन्हें ही तो जवाब देना पड़ेगा उस परवरदिगार को जिसने कभी उनकी झोली में सुख का एक कतरा नहीं डाला।
ताहिरा बैठी टी. वी. देख रही थी। वे पलंग पर तकिए के सहारे बैठीं गहन सोच में मुब्तिला थीं। हाँए मैं दोजखी बनूँगी ताहिरा के लिए। मैं एक—एक सवाल का जवाब माँगूंगी खुदा से और उनके एक—एक सवाल का उत्तर भी दूँगी। अगर ताहिरा को औलाद नहीं होनी थी तो क्यों हमें जन्नत दिखाईघ् हम तो अपने पैबंदों में जी रहे थे। क्यों हमारे सामने जन्नत के दरवाजे खोलेघ् ताहिरा ऊँघ रही थी। फिर वह खिसकी और सो गई। उन्होंने टी. वी. बंद करए ताहिरा को चादर ओढ़़ायाए बत्ती बंद कीए परन्तु खुद तकिए के सहारे अधलेटी बैठी सोचती रहीं।—कैसी हैबतनाक रात है यह। दोनों के मिजाज में कितना फर्क था। यूसुफ खामोश और गमगीन से रहते थे। पुरुष होते हुए भी समाजए परिवार से लड़ने की हिम्मत नहीं थी उनमें। वे अपने ही घर से डरे हुए थे तो समाज से क्या लड़तेघ् लेकिन वह तो आज भी यूसुफ की याद में कतरा—कतरा डूबी हैं। क्या उनका जख्म भर पाया थाघ् फिर किस हक से तुमने ताहिरा की आँखों के ख्वाब छीने थेघ् औरत हर पल क्यों अपराध बोध में डूबी रहती हैघ् यदि फैयाज के साथ निकाह को रजामंदी वह दे देतीं तोघ् तो फिर यह अपराध बोध कि ताहिरा को गरीबीए मुफलिसी में ढ़केल दिया। ताहिरा मासूम थी लेकिन वह तो न थींए और यदि फैयाज नहीं.....तो भी अपराध बोध। दूसरी तरफ थे शाहबाज खानए निहायत बातूनी। बातों—बातों में कह—कहेए खुले दिल—दिमाग केए अपने फैसले स्वयं करने वाले। अपनी नाकामयाब जिन्दगी के कितने ही आँसू उनकी आँखों में तैरते हैंए लब थरथराते हैं। यदि यूसुफ उस समय अपने अब्बू से कह पातेए तो उनकी जिंदगी के पृष्ठ जो अब आँसुओं में भीगे रहते हैंए तब शायद उन्हें जिन्दगी दे जाते। कितने साल बीत गए लेकिन आज भी उनके जीवन के करीब रहते हैं यूसुफ। हाथ बढ़़ाया और उस अहसास को छू लिया। आज वे सोचती हैं कि यूसुफ ने ऐसा क्यों कियाघ् क्या वे अपनी जिंदगी का अहम फैसला स्वयं नहीं कर सकते थेघ् जबकि वे स्वयं एक बच्चे के जिम्मेदार पिता थे। सब जानते—बूझते किस मंजर में छोड़ा था उन्हें कि न वे रो सकती थींए न हँस सकती थीं। जिस औरत को बाँझ करार देकर प्रताड़ित किया जाता थाए वही औरत माँ बनी थी.....अगर आज वह औलाद होती तोघ् ताहिरा की हम उम्र होती। उनका घर होता और होते यूसुफ साथ और.....आँखों से फिर आँसू बहने लगे। ष्यूसुफ.....यूसुफ.....तुम कहाँ हो यूसुफ.....घ्ष् आजए अठारह वर्ष बाद वे यूसुफ को कैसे पुकार रही थीं। क्या यूसुफ भी उन्हें ऐसे ही याद करते होंगेघ् अब तो उनका बेटा भी बीस—इक्कीस बरस का होगाए आपा ने तो उन्हें यही बताया था कि यूसुफ ने दूसरे निकाह से मना कर दिया थाए भाभीजान को भी उड़ती—उड़ती खबर मिली थी कि युसूफ ने कहा था—ष्कि जब दुबारा निकाह का मन हुआ तो अब्बू माने नहीं और वे रेहाना के अतिरिक्त किसी के साथ रह नहीं सकते। एक दो बार और बीच—बीच में खबर मिली थी कि यूसुफ बीमार हैं.....। तब वे तड़पीं थींए और चाहा था कि यूसुफ की तीमारदारी के लिए कोई उन्हें जाने को कह दे।
कैसे रीते—रीते बरस गुजर गए उनकी हथेलियों से और चारों तरफ एक भयानक शून्य उपस्थित हो गया। आज क्योंए इतने बरस बाद अपनी पिछली जिंदगी इस तरह सामने आकर उन्हें सता रही है। अब उनकी जिंदगी में सिर्फ खलिश है।.....ऐसा नहीं था कि वे कुछ भी भूली थीं। भुलाने की कोशिश में उलझती गईं थीं। लगभग प्रत्येक रात ऐसी ही बीतती थीए और उनके अन्दर एक खालीपन समाता जा रहा था। क्या उन्हें अपनी उम्र का अकेलापन सता रहा थाए या बुढ़़ापे की दस्तक उन्हें भयभीत कर रही थीघ् भाई—भावज और भतीजों की बेहतर आर्थिक हालतए ताहिरा की शानो—शौकतए इस सब में वे कहाँ थींघ् क्या सचमुच उन्होंने इस सबके बीच कुछ चाहा थाघ् क्या उन्होंने आने वाले वक्त के लिए कुछ रखा थाघ् न रूपयाए ना ही सोना—चाँदी। नहींए उन्होंने अपने लिए तो कुछ चाहा ही नहीं। आज वे अपना सलीब अपने कंधों पर लिए घूम रही हैं। भाईजान के अपने दर्द हैंए लेकिन फिर भी आर्थिक रूप से अब वे लोग सशक्त तो हैंए भतीजे व्यापार में चमक रहे थे।.....कहीं तो वे ही निमित्त थींए इन सब बातों की। और ताहिराए ताहिरा उस हवेली को एक चराग दे दे। बसए तब उनका रोल खत्मए कहाँ जायेंगी वेघ् मानो वे पैदा ही हुईं थीं इसलिए। खुद्दार रन्नी बीए कभी किसी पर बोझ नहीं बनीं। जहाँ रहींए ताकत से अधिक काम सम्हालाए और इतना तो कमाया ही कि खुद जी सकने का अभिमान रख सकें। फिर! अब क्यों इतनी विचलित हो रही हैंघ्ण्ण्ण्ण्ण्मानो वे विशाल समुद्र में एक जहाज की मानिंद डोल रही हैं। जिसे दिशाओं का ज्ञान नहीं हो पा रहा हैए लगता है उनका कुतुबनुमा कहीं खो गया है। दिग्भ्रमित—सी वे चंचल लहरों में बहती जा रही हैं। कभी अहसास होता है कि पानी ठहरा हुआ हैए पैरों में शैवाल लिपटे जा रहे हैं। और कभी पानी इतना गहरा कि वे डूबी जा रही हैंए तो कभी चंचल लहरें उन्हें बहा ले जा रही हैं। वे घबरा उठीं। कमरे में एयरकंडीशन्ड के बावजूदए वे पसीने से नहा रही थीं। जाकरखिड़की खोल दीए पर्दे सरका दिएए ठंडी हवा का झोंका उन्हें दुलरा गया। यही क्षितिजए यही आकाशए यही तारेए तुम भी तो देखते होगे यूसुफघ् कहीं तुम्हें भी यह आकाश तो छूता ही होगाघ् यूसुफए देखो मैं आज भी तुम्हारी वह अँगूठी पहने हूँए आज भी। अब तुम कभी नहीं कहोगे यूसुफ कि ष्फिरोजी सूट तुम पर खूब फबता है रेहानाए और ये तुम्हारे घने रेशम जैसे लम्बे—लम्बे बाल.....।ष् जानते हो यूसुफए फिर मैंने कभी वह फिरोजी सूट नहीं पहनाए बालों की परवाह नहीं की। देखते हो न यूसुफए मैं कितनी टूट गई हूँए जर्रा—जर्रा.....रेशा—रेशा। ऐसा क्यों लगता है यूसुफ कि लम्हा—लम्हा मौत करीब आती जा रही हैघ् युसूफ! इस निरुद्देश्य जिंदगी का क्या करूँघ् बस इतनी मोहलत दे दे खुदा कि ताहिरा का संसार आबाद होते देख लूँ।
वे निराश और हताश—सी खड़ी थींए खिड़की का जंगला पकड़े हुए। और खिड़की के पार नीरव रात्रि पसरी पड़ी थी।
सुबह—सुबह फोन की घंटी बजी। वे चौंक पड़ींए यहाँए इतनी सुबह कौन फोन करेगाघ्ण्ण्ण्ण्ण्रिसीवर उठायाए फैयाज बोल रहा था। ओह! वे पुलक उठींए आवाज संयत कीए बोलीं—श्फैयाजए कैसे हो बेटेघ् मैं ताहिरा की फूफी बोल रही हूँ।श्
श्सलाम वालेकुम फूफीजान।श्
श्जीते रहो बेटा.....मैं ताहिरा को उठाती हूँ।श्
श्जी! यहाँ अॉफिस में आपने फोन किया होगा। कल रात मेरे दोस्त ने मुझे खबर दी। आप जान सकती हैं फूफीजान कि रात मैं सो नहीं सका। सुबह का इंतजार भी तरीके से नहीं कर सका।श्
श्जान सकती हूँ बेटेए बस तुम होटल आ जाओए और बेटे जब तक हम हैदराबाद में हैंए हमारे साथ ही रहना होगा समझेघ्श्
श्जीए लेकिन मेरा अॉफिस.....श्
श्लेकिन—वेकिन कुछ नहींएण्ण्ण्ण्ण्अपनी फूफी की आईटीआई—सी बात भी नहीं रखोगेघ्श्
श्जीए मैं आ रहा हूँएश् फैयाज ने फोन रख दिया। बातचीत सुनकर ताहिरा उठ बैठी थीए फूफी ने बताया कि फैयाज आ रहा है तो सुनकर ताहिरा का चेहरा खुशी और लाज से भर उठा।
रन्नी बी खुश थींए आज उन लोगों को आए तीसरा दिन था। खुदा का शुक्र मनाया उन्होंने कि फैयाज आ गया। उनके कमरे के बाजू वाला कमरा फैयाज के लिए बुक था। वे रिसेप्शन पर जाकर खबर कर आईं कि उस कमरे के गेस्ट आ रहे हैंए साफ—सफाई करवा दें। ताहिरा नहाकर निकली तो वे नहाने चली गईं। वे नहाकर गीले बालों को तौलिये में लपेट ही रही थीं कि रूम की घंटी बजी। उन्होंने गुसलखाने से बाहर निकलकर ताहिरा को इशारा किया। ताहिरा उठीए सिर पल्लू से ढ़ंका। जब तक वह दरवाजे तक पहुँची.....वे जान—बूझकर उस छोटी—सी लॉबी में खड़ी रहीं। कुछ समय बाद लौटीं तो देखाए दोनों आमने—सामने खड़े मंत्र मुग्ध से एक दूसरे को देख रहे हैं। ताहिरा की आँखों से आँसू बह रहे हैं.....फैयाज सचमुच अच्छा दिख रहा थाए शायद उन्होंने आज गौर किया था कि फैयाज सचमुच सुन्दर है। ताहिरा के लायक ही।
श्अरे बच्चोंए इस तरह खड़े ही रहोगे या बैठोगे भीघ्श्
फैयाज बैठ गया। ताहिरा दुपट्टे से अपने आँसू पोंछती रही।
रन्नी बी ने इंटरकॉम से चाय—नाश्ते का अॉर्डर दिया। पलटकर देखा तो पाया कि फैयाज बेपनाह मुहब्बत से ताहिरा को अपलक देख रहा था। उनके जमीर ने उन्हें लताड़ा यह क्या किया तुमने रेहानाघ् कैसे मासूम दिलों के साथ तुमने खेलाघ् क्या मुहब्बत का दर्द तुमसे अछूता था जो तुमने ऐसा कियाघ् उनकी भी आँखें छलक पड़ीं।
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पार्ट — 13
हस्तिनापुर लड़खड़ा रहा है। वंश—बेल सूख—सी रही है कि माता सत्यवती हड़बड़ा गईं। विचित्रवीर्य की दोनों विधवा पत्नियाँए लड़खड़ाते हस्तिनापुर के रथ के मात्र दो पहिए हैं। चालक हो तो रथ चले। भीष्म और माता सत्यवती के आग्रह पर वेदव्यास का आगमन और विधवा पुत्र—वधुओं का बारी—बारी से गर्भवती होना..... कर्णधार मिल गया। वंश—बेल पल्लवित होने लगी। चकराई रन्नी की पलकों पर ढ़ीठ तितली—सा बैठा यह ख्वाब चुनौती बनता जा रहा था। बार—बार उपजते अपराध बोध पर यह पुरातन सत्य हावी था.....और अधिक वे सोच पातीं कि दरवाजे की घंटी बजी। वे चौंकी।
श्मैं देखता हूँ फूफीएश् कहता हुआ फैयाज आगे बढ़़ा और दरवाजा खोल दिया। वेटर थाए ताजे पानी का जग और स्वच्छ धुले ग्लासों को ट्रे में सजाये।
श्हाँए रख दो यहाँ और सुनो चार कप भिजवा दो.....बस।श् कुछ सोच कर फैयाज की ओर मुड़ीं—श्नाश्ता तो लोगे नघ् सुनो भाईए कुछ सैण्डविचेज भी भिजवा देना।श्
वेटर के जाने के बाद रेहाना फैयाज से बोलीं—श्बेटाए हमारा मूड तो मोती खरीदने का हैए यहाँ के मोती तो जगप्रसिद्ध हैं। ताहिरा को तो शॉपिंग बिल्कुल भी पसंद नहींए घबराती है भीड़ से।श्
ताहिरा ने शिकायती नजरों से फूफी को देखाए कुछ यूँ कि हम कब घबराते हैं भीड़ से! फूफी आप भी.....लेकिन फिर मुस्कुराने लगी। उसने गौर से फैयाज को देखा। भरपूर मर्दाना व्यक्तित्वए लम्बा कदए ताँबई गालों पर दाढ़़ी जो करीने से तराशी गई थी। ऐश कलर की कमीज और काली जींस पर वह बहुत ही भला लग रहा था। फैयाज की खूबसूरती तो सदा से उसे लुभाती रही। अब उसमें आई गंभीरता उसे और आकर्षक बना रही थी। अचानक ताहिरा को महसूस हुआ जैसे फूफी उसे ही देखे जा रही हैंए वह हड़बड़ा उठी। वेटर चाय—नाश्ता ले आया था। रन्नी भी तैयार थीए जल्दी—जल्दी सैंडविच खाई और चाय पीकर उठ गई—श्हम चलते हैं। ताहिराए तुम्हारे लिए मोती का पूरा सेट लाना है नघ् या मोती ही वजन कराके ले आऊँए घर लौटकर बनवा लेना मनपसंद सेटघ्श् श्अब जैसा आप ठीक समझेए मुझे कुछ खास तजुर्बा नहीं है इन बातों का। पर फूफी अपने लिए भी मोती का कुछ लानाए यूँ ही मत चली आना सबके लिए खरीदकर।श् रन्नी ने लाड़ से ताहिरा के माथे को चूम लिया और मन ही मन बुदबुदाईं—ष्खुदाए खुशियाँ बख्शे।ष् और तेजी से दरवाजे से निकल गईंए लेकिन कुछ पल बाद फिर लौटीं—श्बेटा फैयाजए मुझे आने में देर हो तो घबराना नहीं। असल मेंए जानी—पहचानी जगह तो है नहींए ढ़ूँढ़ना पड़ेगा सब।श्
दोनों मुस्कुरा दिए। फूफी के जाते ही कमरे में खामोशी छा गई। दोनों अपनी—अपनी जगह जड़ए मूक। खिड़की से आती हवा शब्द बन गई। वह परदों से टकराती तो सरसराहट गूँजती। ज्यों पतझड़ के सूखे पत्ते सरसरा रहे हों.....मानोए अभी—अभी फैयाज चर्च के पिछवाड़ेए पीले कनेर और दूधिया तगड़ के पेड़ों की घनी छाया में मिला हो। अभी—अभी दोनों बाँहों में समाये हों और अभी—अभी फैयाज ने धीरे—से ताहिरा को बाँह छुड़ाए अपनी साईकल सम्हाली हो और ओझल होने की हद तक वह विस्फरित नजरों से उसे सूनी सड़क पर जाता देखती रही हो। वे थके—बोझिल कदमए एक हाथ में थामा हुआ साईकल का हैंडलए पश्चिम में डूबते सूरज की सिन्दूरी झलक और पैरों के नीचे पतझड़ के सूखे—चरमराते पत्ते। बीच में है दस महीनों का लम्बा अन्तराल। इन दस महीनों में ताहिरा दस बार मरीए दस बार जिन्दा हुई। हर बार वह फैयाज को पाने के लिए मानो जन्म लेती रही और हर बार शाहजी को पाकर मर जाती। चाहे वह अपने मन को कितना भी टटोले पर वहाँ न शाहजी हैं न उनकी समृद्धि। उसका सुख तो फैयाज की बाँहों में है। भले ही मुफलिसी हो। भले ही अंगारों पर फूलती रोटी पर चुपड़ने को घी न हो। पर उसके नजदीक फैयाज तो हैए उसका प्यार तो है। उसका खूबसूरत मर्दाना जवान व्यक्तित्व तो हैए जिस पर वह सौ जान से फिदा है। अचानक ताहिरा चमत्कृत हो उठीए ओह! उसने तो सोचा था अम्मी—अब्बू के सुख के लिए उसने अपने को बलि चढ़़ाकर अपने प्यार को भुला दिया है। पर कहाँए ण्ण्ण्ण्ण्कहाँ भूली है वह सब कुछघ् आज भी तो सब शिद्दत से उसके दिल में घर किये हैं।
श्ताहिराए कहाँ खो गईघ् कुछ बेचौन—सी नजर आ रही होघ्श्
श्हाँ फैयाजए यह बेचौनी तुम्हें खोकर दोबारा पा लेने की चाह पैदा कर रही है।श् ताहिरा आहिस्ते से बोली।
श्इधर आओए मेरे पास।श्
ताहिरा मंत्र बद्ध—सी उठी और फैयाज के बाजू में पलंग पर बैठ गई।
श्ताहिराए मेरी आँखों में देखो। यहाँ तुम ही तुम हो। हम खोये कहाँ हैंघ् मैंने तुमसे वादा किया थाए इन आँखों में सिर्फ तुम ही रहोगी और तुम हो। हम तो एक मिशन पूरा करने को जुदा हुए थे। मिशन ने त्याग माँगाए हमने दिया। हमने त्याग कियाए जुदा तो नहीं हुए न।श्
श्फैयाज.....श् ताहिरा फुसफुसाती हुई बढ़़ती बेल—सी फैयाज से लिपटती गई। फैयाज के हाथ खुले.....। ताहिरा पराई हो चुकी थी। पराया शब्द उसे निहायत दकियानूसी लगा। यह तो मात्र सामाजिक परम्पराओं के बंधन मात्र हैं। जहाँ दो दिल मिलते हैं वहाँ खुदा वास करता है.....ष्ढ़ूँढ़हिं हौं तो पल में मिलिहौंए सब साँसन की साँस में।ष् हाँए उसने ताहिरा की साँसों में खुदा को पा लिया है।
श्फैयाजए दस महीने मुझे दस युग से क्यों लग रहे हैंघ् क्यों ऐसा लग रहा हैए जैसे कितना कुछ जी लिया मैंने बगैर तुम्हारे। वह ऐशो—आरामए हमारी खिदमत में तैनात दासियाँए कोठी की अपनी दुनियाए मानो एक पूरा संसार हो। वहाँ कूटनीति हैए राजनीति हैए एक दूसरे को हराने और खुदा को ऊँचा सिद्ध करने की कोशिश है। वहाँ क्यों नहीं मिट्टी के चूल्हे जलते और क्यों नहीं सबका साझा सालन पकताघ् प्यार और त्याग के शोरबे वाला।श्
श्अरेए तुम तो दार्शनिक हो गई ताहिरा।श्
ताहिरा खिलखिला पड़ी—श्शरीर कहीं केए मैं कितना कुछ बताने जा रही थी और तुमने टोक दिया।श्
श्छोड़ोए मुझे कोठी का रहस्य नहीं जानना।श् उसने ताहिरा की नाक दबाते हुए कहा—श्चलोए तैयार हो जाओए तुम्हें नागार्जुन डैम घुमा लाते हैं। वहाँ का म्यूजियम देखोगी तो दंग रह जाओगी।श्
श्तैयार तो हूँ। अभीए तुम्हारे आने के पहलेए तो नहाकर तैयार हुई हैं।श्
फैयाज ने जूते के फीते कसेए जेब से कंघा निकालकर बाल सँवारता बोला—श्दरअसल यह फर्क करना मुश्किल है कि तुम कब तैयार हो और कब तैयार नहीं हो। मालिका की बात तो कुछ और है।श्
श्पिटोगे मेरे हाथ से।श् ताहिरा ने धमकाया और पर्स झुलाती बाहर निकल आई। रिसेप्शन में चाबी जमा की। फूफी के नाम मैसेज छोड़ा और दोनों सड़क पर निकल आये। फैयाज ने हाथ दिखाकर टैक्सी रोकी। टैक्सी वाले की सवालिया नजरें उठींए तो फैयाज ने कहा—श्घुमा दो यार हैदराबाद शहरए बीच में कहीं खाना खायेंगेए और दो—ढ़ाई बजे तक लेक पर छोड़ देना। नागार्जुन म्यूजियम जाना है।श्
मीटर डाउन होते ही टैक्सी हवा से बातें करने लगी। ताहिरा सीट पर बैठकर सम्हल ही रही थी कि टैक्सी के झटके से वह फैयाज पर लगभग गिर—सी पड़ी—श्मियाँए घूमने निकले हैं यारए आप इतनी फुर्ती में क्यों हैंघ्श्
टैक्सी वाला खिसिया गया। धीरे—धीरे खिड़की के दोनों ओर हैदराबाद शहर साकार होने लगा। मुस्लिम स्थापत्यए चौड़ी—सँकरी सड़केंए दुपल्ली टोपी और बुरके में मर्द—औरतए भागते स्कूटरए ठेलों में बिकता सामान कि चार मीनार की सड़क आ गई। चारों दिशाओं में आकाश चूमती चार मीनारें। सुन्दर कारीगरी का बेहतरीन नमूना।
श्फैयाजए हैदराबाद में सबसे बढ़़िया जगह कौन—सी हैघ्श्
श्गोलकुंडाए और नागार्जुन म्यूजियम। गोलकुंडा तो फूफी के साथ चलेंगे। कितने दिन हो तुम यहाँघ्श्
श्ता उम्र।श्
फैयाज झेंप गया—श्मेरा मतलब था आप कितने दिन हैदराबाद घूमेंगीए जानेमनघ्श्
श्यह फूफी को पता है फैयाजए मैं अपने आप में कहाँ हूँघ् सारे निर्णय शाहजी और बड़ी बेगम के। एक—एक मिनिट का हिसाब। जानते होए शाहजी ने हमारे लिए फाइव स्टार होटल बुक किया थाए हम वहाँ नहीं रहे। इस थ्री स्टार होटल में रुकने की वजह फूफी को फोन पर बतानी पड़ी कि यहाँ से बाबा की मजार पास पड़ती है।श्
श्बाबा की मजारघ्श्
श्हाँ.....कोई बाबा हैं यहाँए पहुँचे हुए फकीर। सबके दुख—दर्द अपनी दुआओं से दूर करते हैं।श्
अब फैयाज ने ताहिरा की आँखों में झाँका—श्तुम्हें क्या दुख—दर्द हैए हमसे छुपाना नहींघ्श्
ताहिरा सतर्क हो गई। होठों पर कोई नाजायज जुमला न आ बैठे। उसने अपनी नजरें सड़क की ओर उठाईं—श्कोई दुख—दर्द नहींए फूफी को बाबा—फकीरों की दरगाह में जाने काए उनकी संगत में बैठने का शौक है। जानते तो हो फूफी त्याग की मूर्ति है। अपने लिए एक साँस भी नहीं जीती।श् फैयाजए फूफी की जिन्दगी के प्रत्येक उतार—चढ़़ाव से परिचित था। वह यह भी जानता था कि फूफी पाँच वक्त की नमाज पढ़़ने वालीए खुदा की इबादत में हमेशा झुकी एक मजहबी महिला हैं। किन्तु उनके इस रूप से उसका परिचय पहली बार हुआ। वह ताज्जुब से बोला—श्फूफी पीर—फकीरों की संगत पसंद करती हैं यह मुझे पता नहीं था।श् फिर एक—एक शब्द पर जोर देते हुए बोला—श्ताहिराए ये कौन से बाबा हैंघ्ण्ण्ण्ण्ण्जिनके लिए फूफी हैदराबाद तक दौड़ी चली आईंए हम तो इनसे वाकिफ नहीं हैं।श्
श्इसलिए कि आप बाबाओं की संगत के शौकीन नहीं हैंए खैरए इस वक्त आप हमारी संगत पर ध्यान दीजिए। हमें भूख लग आई है कहीं रुकवाइये टैक्सी।श्
श्जीए जो हुकुम मलिका।श्
टैक्सी एक शानदार होटल के पोर्च में पार्क की गई। फैयाज ने टैक्सी वाले को सौ का नोट देते हुए कहा—श्अप भी लंच ले लीजिए कहींए घंटे भर में लौट आइए।श्
ताहिरा फैयाज की माली हालत से वाकिफ थी। उसने जबरदस्ती फैयाज के पर्स में कुछ नोट रख दिये। होटल मेंए वे स्पेशल केबिन में बैठे। ताहिरा की जिद्द थी कि फैयाज अपनी पसन्द का खाना अॉर्डर करे और फैयाज इस पशोपेश में कि क्या मँगाये जो ताहिरा तृप्त हो सके। बहरहालए खाना आया और बातों में मशगुल दोनों आहिस्ता—आहिस्ता खाते रहे। खाने के बाद ताहिरा ने कोल्ड कॉफी विद आइस्क्रीम मँगवाई। स्वाद लाजवाब था—श्खाना लज्जतदार थाए है न फैयाज।श्
श्अबए हमें कहाँ होश हैघ् हम अपने में हैं कहाँघ्श्
श्फिरऽऽऽश् ताहिरा खिलखिला पड़ी। अचानक उसके सामने शाहजी का चेहरा घूम गया। ढ़लती उम्रए गंभीर चेहरा। दिल खुश कर देने वाली बातों की जगह मात्र एक चाहत—औलाद की चाहत। वे जब भी उसको देखते उसके बदन में अपनी औलाद का अंकुर तलाशते। उनका काम ही था तलाशना। कोठी की लम्बी—चौड़ी छत पर उनकी विशाल दूरबीन रखी रहती। उसी दूरबीन पर निगाहें टीकाये शाहजी खगोल मंडल क सूक्ष्म से सूक्ष्म हिस्सा तलाशते रहते। उसी दूरबीन पर उसने न जाने कितने नक्षत्र देखे थे। रोहिणीए मघाए रेवतीए अश्विनीए कृत्तिकाए पुष्य.....। सुन्दर चमकते तारों के पुंज.....आकाशगंगायें। शाहजी तन्मय होकर ताहिरा को बताते रहते और यदि बीच में बड़ी बेगम आ जातीं तो उनकी ओर मुखातिब हो जाते। शाहजी का यही रुख तो ताहिरा बर्दाश्त नहीं कर पाती। आखिर वह भी उनकी ब्याहता हैघ् जितना हक बड़ी बेगम का हैए उतना ही ताहिरा का भी तोघ् फिर शाहजी ऐसा क्यों करते हैंघ् मानो वे बड़ी बेगम की मुट्ठी में बंद जिन होंए मुट्ठी खुली खिदमत में हाजिर। ताहिरा को अपने इस बचकाने खयाल पर हँसी आ गई।
श्क्या हुआघ् हम भी तो सुने.....आप मंद—मंद मुस्कुरा क्यों रही हैंघ्श्
श्कुछ नहींए उठिये अबए वरना म्यूजियम नहीं देख पायेंगे।श् कहती हुई ताहिरा ने प्लेट में रखे बिल के नीचे पाँच सौ का नोट दबा दिया और चुटकी भर सौंफ मुँह में डालकर उठ गई। टैक्सी वाला खा—पीकर उनके इंतजार में खड़ा था। टैक्सी झील की सड़क पर दौड़ने लगी। सड़क के दोनों ओरए थोड़े—थोड़े फासले पर पत्थर की निहायत सजीव खूबसूरत मूर्तियाँ थीं। हरी—भरी सड़क बड़ी राहत देने वाली थी। वे झील के नजदीक उतरे और मोटरबोट में बैठकर झील पार करने लगे। झील के बीचोंबीच गौतम बुद्ध की विशाल मूर्ति (लगभग अठारह फीट) थी जो अपने आप में स्थापत्य का अद्भुत नमूना थी। गौतम बुद्ध के चेहरे की मुस्कुराहटए संसार के सारे रहस्य जान लेने की तृप्तिए फैयाज को बड़ी भली लगी। वह ताहिरा का हाथ पकड़करए भागती मोटरबोट के नजदीक बनती मिटती लहरों को छूने की कोशिश करने लगा—
श्कुछ लोग जन्म ही लेते हैं दूसरों के लिए।श्
श्जैसेघ्श्
श्जैसे महत्मा बुद्धए जैसे ईसा मसीहए जैसे फूफी।श्
ताहिरा गद्गद् हो गई—श्हाँ.....ए मेरी फूफी सचमुच मसीहा हैं। उनकी अपनी जिन्दगी में तो मात्र रेत के ढ़ूह हैं जहाँ न हरियाली उगती हैए न पानी ठहरता हैए न जिन्दगी मुस्कुराती है।श्
दोनों उदास हो गए थे। थोड़ी देर बाद मोटरबोट नागार्जुन गाँव के किनारे आ लगी। वहाँ से नागार्जुन म्यूजियम तक का रास्ता सड़क से नहीं बल्कि एक लम्बे उ।ान से होकर जाता था। उ।ान में तरह—तरह के पेड़—पौधेए कैक्टस लगे थे। विशाल उ।ान का जर्रा पुष्पित—पल्लवित था। वे ढ़लान से उतरते हुए मिट्टी भरे रास्ते को पार करने लगे। कहीं—कहीं इक्का—दुक्का शरबत के ठेले और पॉपकॉर्न तथा तले पापड़ों की लम्बी टोकरियाँ सम्हाले लड़के खड़े थे। म्यूजियम के नजदीक पहुँचते ही ताहिरा हैरत से भर उठी। बर्फी बराबर ईंटों से बना म्यूजियम का मॉडल अद्भुत कारीगरी और सौन्दर्य का अकूत भंडार था। वह देर तक ठिठकी नागार्जुन के समय का साकार रूप देखती रही। नागार्जुन ने अमृत की खोज की थी। वह बहुत विद्वान और जिज्ञासु व्यक्ति था। उसके कायोर्ं पर आधारित म्यूजियम में शिवए पार्वतीए बुद्ध की भी मूर्तियाँ थीं.....विशाल म्यूजियम के दोनों ओर हरी—भरी घास के लॉन थे जिन पर घूमने आये परिवारों के बच्चे खेल रहे थे। किलकारी मारते बच्चों को देर तक ताहिरा देखती रही.....देखती रही और कल्पनाएँ साकार करती रही। किन्तु किसी भी कल्पित —श्य में एक भी बच्चा शाहजी की उँगली थामे नजर नहीं आया। नजर आया तो बस फैयाज और उनके बीच में दोनों की उँगली पकड़े एक गोराए गदबदा शिशु.....। उसने विचारों को झटका दिया। यह कैसी कल्पना थीघ् क्या शाहजी का वजूदए फैयाज के वजूद के आगे डगमगा रहा थाघ् क्या वह उनके साथ हुए निकाह की पाकीजगी पर सवाल खड़े करना चाहती हैघ् आखिर इस कल्पना का सबब क्या थाघ्
और वे लौट पड़े। शाम घिर आई थी। आकाश में तारों का काफिला टीमकने लगा था। पूर्व दिशा आलोक से भरने लगी थीए शायद चाँद उगने वाला हो। आज जुमा हैए फूफी इस वक्त मगरिब की नमाज की तैयारी में होंगी। लौटते हुए दोनों ने फूफी के लिए काली मिर्च की भुजिया खरीदी। बारीक सेंव की यह भुजिया फूफी को चाय के संग बहुत पसंद है। कुछ फल खरीदे और हैदराबादी पान के बीड़े बँधवाये।
टैक्सी का बिल और टीप अदा करए दोनों होटल के कमरे में आ गए। २०७ नम्बर का कमरा ताहिरा का था और २०८ फैयाज का। फैयाज अपने कमरे में फ्रेश होने चला गया। फूफी ने अकेली दाखिल होती ताहिरा की ओर नजरें उठाईं।
श्बड़ा मजा आया फूफीए हमने लगभग आधा हैदराबाद तो घूम ही लिया। मोटर बोट से नागार्जुन म्यूजियम भी देख आये।श्
ताहिरा आते ही पलंग पर सीधी लेट गई।
श्अच्छा कियाए तुम खुश तो हो न ताहिराघ्श्
श्बहुतश् वह मानो नशे में बोली।
फूफी मुस्कुरायी। फिर उन्होंने अलग—अलग पैकिटों में बँधे मोती दिखाये। शाहजी की दोनों बेगमों के अलग—अलग पैकेटए असली बेशकीमती मोती।
श्फूफीए आपने अम्मीजान के लिए मोती नहीं लिएघ्श्
श्लिए हैंए लिए हैंए उन्हें भूलूँगी भलाघ् ले देखए चार चूड़ियाँ और एक गले की लड़ तो बन ही जायेगी इनसे।श् फूफी ने एक छोटा पैकेट उसे दिखाया। ताहिरा ने सब पैकेट खोल—खोल कर देखेए गिने और तुनककर बैठ गई—
श्अब क्या हुआघ्श्
श्होगा क्याघ् फूफी की कंजूसी पर रोने को मन कर रहा है।श्
श्हायए भूल गई क्या मैं किसी के लिए मोती खरीदनाघ्श्
वह तुनक कर खड़ी हो गई—श्जी हाँए भूली हैं आपघ् और जान—बूझकर भूली हैंघ् कब तक भूलेंगी फूफीए अपने आप कोघ् और आखिर क्योंघ्श् फूफी उदास हो गईं। ताहिरा का मकसद उनके दिल के तार छेड़ना न थाए पर जो इस वक्त खुद मुहब्बत के लबालब सरोवर में आकंठ डूबी है उसे फूफी काए उनका यह रवैया क्योंकर पसंद आयेगाघ् मतवालीए मदिर हवा का धर्म ही होता है हर मुँदी कली को खिलानाए मादक स्पर्श देना। फूल के खिलने में ही हवा की सुवास जो निर्भर है। आखिर पेड़ के पत्तेए शाखाएँ और फूल ही तो हवा के चलने का आभास देते हैं। फूफी कुछ कह न पाईं। उन्होंने सभी पैकिटों को प्लास्टिक की बड़ी थैली में डाला और अटैची में रख दी।
फैयाज तरोताजा होकर आ गया था। फूफी उससे देर तक बतियाती रहीं। तब तक ताहिरा ने दिन भर की थकान शॉवर लेकर उतारी। उसके आरक्त गाल मानो फैयाज की नजदीकी की गवाही दे रहे थे। फूफी ने नजरें उसके चेहरे से हटा लीं—ष्कयामत है यह लड़की तो।ष् मन ही मन सोचती वे उठीं—ष्चलोए नीचे हॉल में चलकरए डिनर लेते हैं। जल्दी सो जायेंगे तो कल गोलकुंडा के किले को देखने में मजा आयेगा। मैंने टैक्सी तय कर ली है.....वह चर्च भी घुमायेगा देखने लायक चर्च है यहाँ का।ष्
हॉल में धीमा आलोक था और अॉर्केस्ट्रा पर अफ्रीकी धुन धीमी—धीमी बज रही थी। पूरे हॉल की सजावट गाढ़़े कत्थई फर्नीचरए जाली की आदमकद दीवारों से की गई थीए जो सरकाई जा सकती थीं। हर एक जाली के पीछे हरे भरे पौधों के गमले थे जिनकी हरियाली जाली से फूटी पड़ रही थी। पूरा माहौल रूमानी था। फूफी अपने सामने बैठे ताहिरा और फैयाज को तब तक देखती रहीं जब तक अॉर्डर लेने बैरा नहीं आ गया। फैयाज ने मटन कोरमा और बिरयानी मँगवाई लेकिन पहले वेजीटेबल सूप। काशए ताहिरा का शौहर होता फैयाज! क्या खूब जोड़ी जमती दोनों की। सूप आ गया.....ओहए क्या—क्या सोच डालती हैं रन्नी बी।.....अबए जो नहीं हो सकता उसके लिए मन तड़पता है। पहले जो हो सकता था उसके दिल गवाही नहीं देता था। कैसा विरोधाभास है वक्त काए वक्त क्यों किसी का नहीं होताघ्ण्ण्ण्ण्ण्वक्त समय.....—मैं समय—चक्र हूँ और समस्त घटनाएँ मेरे आसपास घटीत होती रहती हैं। सदियाँ गुजर जाती हैंए साम्राज्य समाप्त हो जाते हैंए मैं कभी नहीं रुकता। रंग—बिरंगे चक्र—अर्धचक्र में समाहित होती धरतीए आकाशए चंद्रए तारेए सौरमंडल। श्लोक गूँजता है—कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.....।
हाँए वे भी फल की चिंता नहीं करेंगीए कर्म करेंगी। कर्म में हविश सामग्री बने वे.....क्षण—क्षण होम होती रहें वे।
श्फूफीजानए सूप ठंडा हो रहा है।श् फैयाज के टोकने पर फूफी सम्हलीए बोलीं—श्बहुत गरम पिया नहीं जाताए ण्ण्ण्ण्ण्मुँह जल जाता है।श् और चम्मच से घूँट भरकर बोलीं—श्अच्छा हैए वाह।श्
डिनर समाप्त करए सौंफ चबाते जब वे तीनों रिसेप्शन की ओर जाने लगे तो होटल का एक बॉय अदब से उनके सामने झुका—श्मैडमए पर्ल एन्ड संदल एग्जिवीशन लगी है बाजू के रूम मेंए ण्ण्ण्ण्ण्देखना चाहेंगीघ्श् फूफी निंदासी हो रही थीं—श्जरूर देखेंगेए लेकिन कलए आज हम थक हुए हैंए क्यों ताहिराश् ताहिरा ने हामी में सिर हिलाते हुए कहा—श्जीए फूफीजान।श्
फैयाज अपने कमरे में चला गया। वे दोनों अपने कमरे में आ गईं। कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेटते हुए फूफी बोलीं—श्लाइट बुझे दो ताहिराए बड़ी जोर की नींद आ रही है।श्
धीरे—धीरे रात गुजरने लगी। होटल सन्नाटे की गिरफ्त में था। ताहिरा आँखें मूँदे सोने का बहाना करतीए लेटी रही। जब तय जाना कि फूफी सो गई होंगी तो आहिस्ता से उठी। सिर पर दुपट्टा लिया और धीरे से दरवाजा खोला। पुनः फूफी की ओर नजरें डालकर आहट ली। फूफी के सोने का पक्का यकीन होते ही वह दबे पाँव २०८ नम्बर की ओर बढ़़ ली। फैयाज का दरवाजा खुला हुआ था। अन्दर होते ही लैच लग गयाए अभी पलटी ही थी कि फैयाज ने उसे बाँहों में थाम लिया और फुसफुसाया—श्इतनी देर क्यों की आने मेंघ्श्
श्क्या करूँ.....फूफी के सोने का इंतजार तो करना ही पड़ा न।श्
श्ओह ताहिराए यहाँ हाथ रखो।श्
उसने ताहिरा का हाथ अपने दिल पर रखा जो तेजी से धड़क रहा था—श्ताहिरा मैं पागल हो जाऊँगा। मैं सिर्फ तुमसे मोहब्बत करता हूँए मुझ पर सिर्फ तुम्हारा हक है और कोई छू भी नहीं सकताश् कहते—कहते ताहिरा के पंखुड़ी से मुलायम होंठों पर अपने होंठ रख दिए। ताहिरा ने आँखें मूँद लीं और बुदबुदाई—श्मैं भी तो तुम्हारी हूँ.....बस तुम्हारी।श् और जवाब में उसने भी फैयाज को चूम लिया और सिहर उठी। फिर तो कई चुम्बन कमरे की फिजा में तैरने लगे। फैयाज ने ताहिरा के चिकनेए संगमरमरी और उघड़े हुए कंधों पर अपना सिर टीका लिया। ताहिरा ने उसके घने बालों में अपनी नाक रखकर खुशबू ली। एक जवान और मोहब्बत से भरी खुशबू। धीरे—धीरे ताहिरा भी बेकाबू होने लगी। फैयाज के हाथों की गरमी से ताहिरा का शमा—सा बदन पिघलने लगा। मानो इतने अरसे से जो कुछ जमा थाए आज पिघल जाने को बेताब था। मानो सदियाँ ठिठक गईंए पहर थम गये। मानो अब तक अक्षता थी ताहिराए आज फैयाज ने मोहब्बत का धर्म निबाहा। ताहिरा सम्पूर्ण हो गई। शायद यही क्षितिज का रहस्य हैए धरतीए आकाश का एक होना। ताहिरा और फैयाज एक दूसरे में समा गए.....बूँद—बूँद तृप्त होकर दोनों एक दूसरे की बाँहों में ही सो गए। कमरे में बस घड़ी की टीक—टीक के साथ दोनों के दिलों की धड़कनों की आवाज थी। बहुत देर बाद दोनों ने जाना कि उनके गले प्यास से चिपक—से गए हैं। फैयाज उठाए पहले ताहिरा को पानी दिया फिर उसी ग्लास में खुद भी पी लिया। मद्धम रोशनी में ताहिरा का बदन संगमरमर—सा दिखाई दे रहा था। फैयाज ने उसके गले से लेकर पैरों तक हाथ फेरा—श्तुम हूर हो ताहिरा और मैं सबसे नसीबदार इंसान।श् ताहिरा शरमाकर उसके गले से लग गई। ताहिरा ने अपने कपड़े पहने और एक बार फिर फैयाज के आलिंगन में बँधते हुए बोलीं—श्आज मैंने संसार की मोहकता को जाना।श्
श्फिर दार्शनिकए मेरी मलिका थोड़ा सो जाओ जाकर। दिन भर घूमना है।श्
ताहिरा खिलखिलाती हुई कमरे से बाहर हो ली। अपने कमरे का दरवाजा धीरे से खोलाए बिना आहट किए बाथरूम की ओर बढ़़ गई। उसने आईने में स्वयं को निहारा। गालों पर प्यार का आलता फैला थाए आँखों में खुमारीए अंग—अंग में हल्की—सी टीस। आज वह सुहागन हो गई। मानो दस महीने से चले आ रहे नाटक का आज पटाक्षेप हुआ है। आज वह फैयाज की दुलहिन हैए और कुछ नहीं सूझ रहाए सब कुछ भूला देना चाहती है वह। ष्हे मेरे परवरदिगारए तेरा लाख—लाख शुकर है जो तूने मुझे ये घड़ियाँ बख्शीं जब मैंने अपने प्रियतम को पा लिया। मैं इन घड़ियों पर सौ जान से निछावर हूँ।ष्
ताहिरा अपने बिस्तर पर लेट ही रही थी कि फूफी ने करवट बदली—श्अरेए सुबह हो गई क्याघ् ताहिराए नींद ठीक से आई न बेटीघ्श्
ताहिरा ने धड़कता दिल थामा—श्आप तो खूब सोईं फूफीए करवट भी न बदली एक बार भी।श्
श्हाँ बेटीए आज जमकर नींद आई।श् और मुस्कुराकर अँगड़ाई लेती हुई उठ गईं। फजर की नमाज का वक्त हो रहा था। फूफी ने ब्रश कियाए गुसल कियाए चादर को तहाकर जानमाज बनाया और घुटने टेक दिए। मन ही मन बुदबुदाईं—ष्अल्लाहए इस वक्त की जिम्मेदार मैं हूँए जो सजा दोगे मंजूर है पर मेरी बच्ची को बख्शना। उसने कोई कसूर नहीं कियाए बढ़़ावा मैंने दिया हैए मैं कसूरवार हूँ।ष्
नमाज के बाद उन्होंने तस्बीह के दानों की माला पलकों से छुआई और माला जपने लगीं।
घंटे भर बाद ताहिरा उठी—श्फूफीए चाय।श् फूफी ने वेटर को बुलाने के लिए घंटी का बटन दबाया—श्तुम झटपट तैयार हो जाओ। दस बजे तक टैक्सी आ जायेगी। तब तक मैं फैयाज को उठाती हूँ।श्
उन्होंने इन्टरकॉम लगाया। सोते हुए फैयाज की उनींदी—सी आवाज थी—श्आदाब फूफी जान।श्
श्जीते रहो मेरे बच्चे। उठोए तैयार हो जाओ जल्दी से। नाश्ता मैं यहीं मँगवा रही हूँ। दस बजे टैक्सी आ जायेगी।श्
श्जी फूफीजानए मैं अभी आया।श्
टैक्सी वक्त पर आ गई। फूफी ने रिसेप्शनिस्ट से पाँच छः बिसलरी वॉटर की बोतलें टैक्सी में रखवाईं और खुद आगे की सीट पर ड्राइवर की बगल में बैठ गईं। फैयाज और ताहिरा पीछे बैठे। बैठते ही फैयाज ने ताहिरा की ओर देखकर चुम्बन की मुद्रा में होंठ सिकोड़े। ताहिरा ने नजरों से धमकाया और टैक्सी सड़क पर दौड़ने लगी। करीब बीस मिनट के सफर के बाद टैक्सी जहाँ रुकी वह रोमन कला का मशहूर चर्च था। बड़ी सधी हुई भीड़ए और खामोशी। ईसा मसीह का इतिहास पन्ना दर पन्ना उनके सामने खुलने लगा। सूली पर टँगे त्याग और बलिदान की मूर्ति ईसा के कदमों पर एक बारगी सिर नवा लेने को मन करता है। भारी मन से वे बाहर निकले और गोलकुंडा चल पड़े। शहर से बाहरए सड़क के दोनों ओर घने पेड़ और चट्टानें थीं। ऐसा लग रहा था मानो सदियाँ पीछे खिसक गई हैं और वो जमाना आ गया है जब आबादी कम थी। जंगल और पहाड़ थे और राजाओंए नवाबों का युग था। ताहिरा शाहजादी थीए फैयाज शाहजादा दोनों शिकार पर जा रहे हैंए कुलाँचे भरता हिरन सामने हैए निशाना साधा ही है कि श्कुछ खाओगेघ्श्
तंद्रा टूटी। फूफी गोद में नमकीन के पैकेटों से भरी प्लास्टिक की थैली रखे बैठी थीं।
श्हाँए भूख तो लग आई।श् फैयाज ने कहा। टैक्सी सड़क के किनारे रोक दी गई थी। आम के पेड़ों पर तोते बैठे थे। फिजा में जंगल का तीखापन महक रहा था। सब नमकीनए फल आदि खाने लगे। फूफी ने ड्राइवर को भी खिलाया। तीन बजे तक वे किले में पहुँच गए। पत्थरों से बना किला किसी समय समृद्धि का प्रतीक था। कोहिनूर हीरा यहीं से मिला था। अब यह बीते समय का मूक साक्षी है। दीवारों की संधियों से घास उग आई है। कहीं ढ़ही दीवारें हैए भुरभुरी मिट्टी हैए कहीं सीढ़़ियाँ—बुर्ज। प्रवेशद्वार के एक विशेष खम्भे को थपथपाओ तो तबले की ध्वनि गूँजती है। वहीँ खड़े होकर ताली बजाओ तो किले के परली तरफ के बुर्ज में उसकी गूँज सुनाई देती है। शाम को साउंड एण्ड लाइट शो था। वे टीकट लेकर उजड़े किले के प्रांगण में बैठ गए और लालए पीलीए हरीए दूधिया लाइट के साथ ओमपुरी के स्वर में गोलकुंडा का इतिहास साकार होने लगा। पायल की आवाजए जूतों की चरमराहटए फौज के भागने की आवाजए पानी का छलछलए बिजली की कड़कड़ाहटए नदी में बाढ़़ए घोड़े की टापेंए हँसीए खिलखिलाहट और इन आवाजों के घटनास्थलों पर रोशनी का प्रभाव। ताहिरा ने घबराकर फैयाज का हाथ थाम लिया। सचमुच बड़ा जीवन्त और पुरअसर था वह शो।
जब वे होटल में लौटे तो शाहजी का मैसेज था। फूफी ने फौरन फोन मिलाया। शाहजी ने लौटने की तारीख पूछी। श्जीए अभी हफ्ता भर और लग जायेगा। रोज सुबह झाड़—फूँक हो रही है। ताबीज बनने में तीन चार दिन लगेंगे।.....जी अच्छा। लो ताहिराए बात करो।श्
ताहिरा घबरा—सी गई। वह तो फैयाज की मोहब्बत में शाहजी को भूल—सी गई थी।
श्कैसी हो छोटी बेगमघ्श् शाहजी के स्वर उसके कानों में गूँजे। श्भईए कब आओगीघ् सूनी लगती है कोठी आपके बिना.....वैसे काम पूरा करके ही लौटना.....कोई तकलीफ हो तो फोन करना।श्
श्जी अच्छा।श् बस इतना ही कह पाई ताहिरा कि लाइन कट गई। ताहिरा ने राहत की साँस लीए उसकी जबान तो मूक हो गई थी।
ताहिरा को फूफी की इस बात पर ज्यादा आश्चर्य हो रहा है। रोज सुबह—शाम झाड़—फूँक हो रही है। क्यों कहा फूफी ने ऐसाघ् दो दिन से फूफी बाबा के पास भी नहीं गईंए आखिर उनका मकसद क्या हैघ् क्या सचमुच उसके लिए ताबीज बन रहा हैघ् एक दिन भी तो फूफी उसे बाबा के पास नहीं ले गईंघ् गोरे बाबा की चौखट से लौटकर क्यों रोई थीं फूफीघ् क्या कह डाला था बाबा ने उनसेघ् जरूर बाबा ने फूफी का दिल दुखाया हैए उल्टा—सीधा कहा है कुछ। वो चाहे बाबा हों या पहुँचे हुए फकीरए अगर सचमुच उनकी बात से फूफी का दिल दुखा है तो वह कभी बाबा को माफ नहीं करेगीए कभी उनका दीदार नहीं करेगी। उसके लिए फूफी से बढ़़कर कुछ नहींए कोई नहीं।
कमरे में लौटकर उसने फूफी की गोद में सिर झुका दिया—श्फूफीजानए बताइएए आप आठ—दस दिन क्यों रुकना चाहती हैंघ् मेरी झाड़—फूँक तो नहीं हो रहीए फिर आपने शाहजी से.....श्
फूफी ने ताहिरा के होंठों पर हथेली रख दी—श्वह सब तो शाहजी को यूँ ही बताया था। तुम सिकन्दराबाद नहीं घूमोगीघ् कितना कुछ है हैदराबादए सिकन्दराबाद में घूमने का। जिन्दगी में पहली बार तो घूमने निकली हो और लौटने की इतनी जल्दीघ् फिर ताबीज बन रहा है तुम्हाराए वक्त लगेगा उसमें।श् कहकर उन्होंने ताहिरा से नजरें चुरानी चाहीं पर दिल की कैफियत चेहरे पर उभर आई। वे ताहिरा का सिर सहलाती रहीं—श्लौटकर तो फिर कोठी की सिमटी दुनिया में ही जीना है तुम्हें। कुछ दिन अपने लिए जियो बेटीए वक्त बार—बार नहीं मिलता।श्
और रन्नी को शिद्दत से यूसुफ याद आ गए। यूसुफ ने गहराई से उनके दिल में जगह बना ली है जिसे शाहबाज भी डिगा नहीं पाया। रोज सुबह होती हैए रोज शाम ढ़लती है। साँस—साँस जीती उम्र सरकती जा रही है पर यूसुफ जहाँ के तहाँ हैंए उसी तरह। उनके दिलए होशोहवास पर कब्जा किए हुए। आँखों के आगे उनका चेहरा जरा भी धूमिल नहीं हुआ वरना ऐसा हो जाता हैए वक्त गुजर जाने पर यादें और चेहरे धुँधले पड़ जाते हैं पर यूसुफ को लेकर ऐसा नहीं हुआ। वे आज भी उनके दिल में जिन्दा है।
रात फिर ताहिरा दबे पाँव फैयाज के कमरे में चली गई। वे आहट लेती रहीं। खिड़की से झाँकते टुकड़ा भर आसमान में तारे टीमटीमा रहे थे। उन्होंने आँखें मूँदी तो नींद आ गई। कितना फर्क है कल की रात और आज की रात में। कल उन्हें ताहिरा के फैयाज के कमरे में जाने का इन्तजार था और आज इत्मीनान है। मुँदी पलकों पर एक संतुष्टि पसरी है। जो सोचकर आई थींए बिना कुछ कहे—सुने अपने आप हो रहा है वह सब। खुदा की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कताए शायद इसी में उनकी मर्जी हो। कौन जानता है उसकी खुदाई कोघ् उसका किया सुनाई नहीं देताए दिखाई देता है।
फूफी की नींद खुली तो उस टुकड़ा भर आसमान में शुक्रतारा चमक रहा थाए ताहिरा आकर लेट गई थीए सुबह के चार बज चुके थे। फूफी ने करवट बदलकर सोने की कोशिश की पर बेकार। बाबा के लफ्ज कानों में गूँजने लगे—ष्आपके दिल में जो है वह गुनाह है। आप पाक जगह पर बैठकर पाप सोचती हैं।ष् पाक जगह! अल्लाह का बनाया कोई जर्रा नापाक भी है क्याघ् यह निर्णय लेने वाला इंसान कौन होता है कि कौन—सी जगह पाक है कौन—सी नापाकघ् ये सब इंसान के अपने हित में बनाये कानून हैं जिन्हें मजहब की संज्ञा दे दी गई। क्या कोई पांडुए धृतराष्ट्र और विदुर को नाजायज औलाद कहेगाघ् क्या कोई वेदव्यास के कर्म को गुनाह कहेगाघ् क्या कोई सत्यवती के विचार को नापाक कहेगाघ् नहींए दूसरों की भलाई के लिए किया गया काम कभी नाजायज नहीं होताए गैरमजहबी नहीं होता। तसल्ली से उठीं और नमाज की तैयारी करने लगीं।
फूफी ने हैदराबादए सिकन्दराबाद घुमाने की पूरी जिम्मेवारी फैयाज को दे रखी थी। एक दिन सालारजंग म्यूजियम तो दूसरे दिन कुतुबशाहीए मक्का मस्जिदए तीसरे दिन बिरला मंदिरए बिरला प्लेनेटेरियमए बागए बगीचेए बाजारए लेकए बोटींग और दस दिन गुजर गए। फैयाज और ताहिरा एक दूसरे में इतना खो गए थे कि उन्हें मौजूदा जिन्दगी ही असल जिन्दगी नजर आने लगी थी। मुहब्बत से भरे पाक दिल.....वे क्या जाने कि वक्त कितना क्रूर है। आज उनके मिलन की अंतिम रात है और कल वापिसी की टीकट। रात का पहला प्रहरए ताहिरा फुसफुसाई—श्हम कल चले जायेंगे फैयाजए फिर न जाने कब मिलना होघ्श्
श्खुदा पर विश्वास रखो ताहिराए हम जल्दी ही मिलेंगे और मिलते रहेंगे।श् फैयाज ताहिरा के बाल सहला रहा था।
श्यह सब कैसे हुआ फैयाजघ् मैं शाहजी की ब्याहताए क्या जवाब दूँगी उन्हेंघ् फैयाजए मुझसे गुनाह हुआए खुदा मुझे कभी माफ नहीं करेगा। ब्याहता के शरीर पर तो केवल शौहर का हक होता है।श्
फैयाज ने उसका चेहरा दोनों हथेलियों में भरकर अपनी ओर घुमाया—श्और मेराघ् मेरा हक नहीं है क्या तुम परघ् जानती हो ताहिराए शौहर से प्रियतम का ओहदा बड़ा होता है। शाहजी से पहले तुम मेरी थी। मैंने तुमसे मोहब्बत की है जो इन्सान के लिए खुदा की दी हुई सबसे महान नियामत है। मोहब्बत में ही खुदा का वास है और जहाँ खुदा हैए वहाँ पाप और गुनाह जैसे लफ्ज बेमानी हैं।श्
ताहिरा फिर भी विचलित थी—श्फैयाजए तुम क्या ऐसे ही रहोगेघ् देखोए शाहजी ने तीन—तीन शादियाँ कीं।श् श्उन्होंने मोहब्बत जो नहीं की। ताहिराए इतना तय मानो कि फैयाज न कभी दूसरी औरत को हाथ लगायेगाए न शादी करेगा। आज खुदा को हाजिर नाजिर जानकर तुमसे ये वादा रहा।श्
ताहिरा की आँखें डबडबा आईंए वह फैयाज से कसकर लिपट गई।
ताहिरा कमरे में लौटी और आते ही फूफी से लिपट कर रो पड़ी।
श्क्या हुआ.....ताहिरा.....क्या हुआ बेटीघ्श् फूफी चौंककर उठ बैठी थी और उसे रोता देख ताज्जुब से भर गई थीं।
श्फूफीए मुझसे गुनाह हुआ। मैं.....मैं फूफी फैयाज के साथ.....।श् फूफी ने उसके होंठों पर हथेली रख दी—श्तुमने कोई गुनाह नहीं किया। तुमने वह किया जिसमें अल्लाह का हुक्म था। मन से सब बातें निकाल दो। गुनाह तो वह है जिससे किसी के मन को चोट पहुँचेए किसी का दिल टूटेए किसी का कत्ल होए किसी की मिल्कियत को छीना गया हो। तुमने इनमें से कुछ नहीं किया तो गुनाह कैसाघ्श्
अब चौंकने की बारी ताहिरा की थी। वह फूफी के चेहरे के आसपास एक नूर देख रही थी। अचानक उसकी हथेलियाँ इबादत के लिए उठीं। यह फूफी के रूप में बैठा कोई खुदा का फरिश्ता हैए कोई मसीहा। यह मामूली इंसान नहीं.....विवेकए त्याग और उपकार का अवतार है यह शखि्सयत। वह अदब से उठी और फूफी की कदमबोसी करने लगी। उसकी आँखों से दो बूँद आँसू टपके और फूफी के कदम जज्बात और इबादत से तरबतर हो गए।
सामान बँध चुका था। फूफी ने बाजार से लाकर गंडेए ताबीज ताहिरा के गले और बाँहों में बाँध दिए थे। गोरे बाबा की बैठक पर वे दुबारा नहीं गईं।
श्तो जाने की तैयारी हो गई फूफी जानघ्श् फैयाज ने अन्दर दाखिल होते हुए पुछा।
श्आओ बेटाए बैठो। देखोए हम तुम्हें कुछ देना चाहते हैंए इंकार न करना। असल में हम देने वाले कौन होते हैंए सब अल्लाह की मर्जी से होता हैए उनका दिया है सब।श् कहते हुए फूफी उठींए पर्स खोला और एक चेक उसकी ओर बढ़़ाया श्यह तुम्हारी बहन के निकाह के लिए हमारी ओर से तोहफा।श्
फैयाज ने हाथ बढ़़ाकर चेक लिया और रकम देखकर चौंक पड़ा—श्पच्चीस हजार!! फूफीजान इतनाघ्श्
श्रख लो चेक बेटेए कुछ मत सोचना इस बारे में। तुम भी तो मेरे बेटे जैसे हो। खुदा ने मुझे बेटे को जन्म नहीं देने दिया पर तुम्हारे रूप में बेटा दे दिया।श्
श्फूफीजान! आप सचमुच महान हैं।श् और फैयाज फूफी के आलिंगन में बँध गया। फूफी ने उसके गालए माथा चूमा और उसकी बलिष्ठ बाँहों में सचमुच माँ के समान समा गई। ताहिरा की आँखें भर आईं। यह मिलन अपूर्व था.....जिसकी कोई मिसाल नहीं। फैयाज सचमुच पाक दिल का नेक इंसान था.....हालात ने उन्हें झुका दिया था वरना ताहिरा से फैयाज का निकाह.....
डोर बेल बजीए वेटर था। फूफी ने हल्के—फुल्के नाश्ते की जगह ब्रंच मँगवा लिया था। तीन घंटे में वे घर पहुँच जायेंगी। फ्लाइट को अभी दो घंटे बाकी हैंए इतना खाना काफी है।
ब्रंच लेकरए फूफी ने रिसेप्शन में आकर होटल का बिल चुकता कियाए टैक्सी आ चुकी थी। फैयाज ने ताहिरा का हाथ पकड़ा और एकांत कमरे में उसका अंतिम चुम्बन लिया—श्अलविदाए मेरी ताहिराए खुदा ने चाहा तो हम दोबारा मिलेंगे।श्
श्अल्लाह! इस सोच को बरकत दे। फैयाजए यह मेरा शरीर जा रहा है शाहजी के पास। मेरा दिल और दिल की हर धड़कन तुम्हारे पास हैए तुम्हारी है।श्
श्चलो ताहिराए फैयाज.....सामान लद गया।श्
फूफी ने आवाज दी। फैयाज का एक बैग भर थाए जिसे वह हवाई अड्डे से लौटते हुए लेता जायेगा क्योंकि उसका कमरा इस होटल के नजदीक ही है सो बैग उसने रिसेप्शन में रखवा दिया। फूफी तमाम वेटर्स को टीप देकर टैक्सी में आ बैठीं।
टैक्सी एयरपोर्ट जाने के लिए होटल का पोर्च पार करने लगी कि ताहिरा ने देखाए गमलों के पासए सीढ़़ियों पर खड़े वेटर्स उन्हें सलामी ठोक रहे हैं। वह मुस्कुराई और उसे आठवीं कक्षा में पढ़़ी संस्कृत की सूक्ति याद आई—ष्धननैव बलम् लोके।ष्
हवाई अड्डे की सभी औपचारिकताएँ पूरी करके फूफीए ताहिरा और फैयाज के साथ कुर्सी पर बैठी ही थीं और कोल्डड्रिंक का अॉर्डर दिया ही था कि फ्लाइट रेडी होने की घोषणा हुई।
श्अच्छा फैयाजए हम कुछ दिनों बाद भाईजान के पास जायेंगेए अगर आ सको तो मिलना हो जाये।श्
श्मुश्किल है फूफीजानए ताहिरा के निकाह के बाद मैं वह शहर हमेशा के लिए छोड़ चुका हूँ। वालदेन गाँव में हैंए तो वहाँ जाने का कोई सबब भी तो नहीं.....।श्
फूफी ने ठंडी आह भरी—हकीकत में उनसे जुल्म तो हुआ है इन बच्चों पर। वरना.....।
श्फैयाजए अलविदा.....।श्
श्अलविदा ताहिराए अपने को सम्हालना। फूफीजान खुदा हाफिजए मेरी गुस्ताखियों को माफ करना।श्
फैयाज की नजरें झुकी थीं और आवाज भारी। फूफी की आँखें भी छलछला आईं.....श्मेरा बेटा कोई गुस्ताखी नहीं कर सकता।श् और उन्होंने उसका सिर चूमते हुए उसे गले से लगा लिया। ताहिराए फूफी के लिहाज में संकोच से भरीए खड़ी रही। फैयाज ने बढ़़कर हाथ मिलाया। दोनों हवाई जहाज की ओर बढ़़ गईं। जहाज की सीढ़़ियों तक तो फैयाज उन्हें देख पायाए हाथ भी मिलाया लेकिन फौरन ही चेहरा घुमाकर कुर्सी पर बैठ गया और रुमाल में मुँह छुपाकर फूट—फूटकर रो पड़ा। ऐसा क्यों है दुनिया का दस्तूर कि जिसे चाहो उसके लिए हमेशा आँसू ही बहाना पड़ता हैघ् क्यों मोहब्बत परवान नहीं चढ़़तीघ् और जब तक फैयाज अपने दिल पर काबू पाताए हवाई जहाज एक कर्कश आवाज के साथ किसी परिन्दे—सा डैने फैलाये आकाश में उड़ रहा था। ताहिरा ने लाख चाहा पर फिर फैयाज की सूरत नजर नहीं आई। उसने आँखें मूँद लीं और आँसुओं को अपने दुपट्टे में समेटने लगी।
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पार्ट — 14
फूफी ने कसकर ताहिरा का हाथ पकड़ा। यह हाथ आश्वस्ति का थाए दिलासा का था। ताहिरा फफककर रो पड़ी। उन्होंने कुछ देर ताहिरा को रो लेने दियाए फिर उसे अपने से चिपटा लिया। श्ताहिराए जिन्दगी इतनी सरल होती तो जिन्दगी का मजा ही क्या रह जाताघ् हैए नघ्श्
ताहिरा भौंचक्की—सी फूफी को देखती रही। खिड़की के बाहर बादल तैर रहे थे और रेहाना की आँखों में विशाल समुद्र।.....जब यूसुफ दुबई चले गए थे एकदम निर्मोही होकरए तब उन्होंने क्या इतना ही विशाल समुन्दर आँखों में नहीं समोया थाघ् जुदाई का दुःखए मोहब्बत का अहसास उनसे अधिक कौन समझ सकता थाघ् दोनों के बीच खामोशी पसरी पड़ी थी और बीच—बीच में ताहिरा की दबी सिसकियाँ रेहाना को विचलित किये हुए थी। धीमे—धीमे उन्होंने आँखें बंद कीं और सिर सीट से टीका लिया। कुछ देर यूँ ही टीकी बैठी रहीं कि लगा उन्हें किसी ने पुकारा हो.....रेहाना!! और फिर पलकों पर हल्का चुम्बन.....चौंक पड़ीं वे। घबराकर आँखें खोलीं तो देखा कहीं कोई नहीं। दिमाग में एक भयंकर शून्यता का अहसास थाए लेकिन वे दावे से कह सकती थीं कि यह आवाज यूसुफ की थी। कहीं यूसुफ उन्हें शिद्दत से याद तो नहीं कर रहेघ्ण्ण्ण्ण्ण्फिर यह आवाजघ् यह पलकों पर होंठों का अहसास.....मेरे परवरदिगारए क्यों कलेजा हौल खा रहा हैघ्
ष्यूसुफए तुम ठीक तो हो नघ् देखोए अठ्ठारह वषोर्ं बाद भी आज तुम्हारी रेहाना तुम्हें वैसे ही याद कर रही है।.....वैसे ही आँखों में समुन्दर भरे हैं जैसे जब तुम बगैर जताए भाग गए थे। हाँए मैंने तुम्हें कहा था नपुन्सक पुरुष.....क्योंकि मेरे लिए एक पुरुष के मायने उसकी जबानए उसकी गैरत थीए ना कि उसकी बेगैरतीए उसका पलायन। तुम पुरुष होकर कैसे पीछे हट गए थे यूसुफघ्ष्
जिस अहसास को उन्होंने अभी—अभी अपनी पलकों पर महसूस किया था उसे वे खो देना नहीं चाहती थीं। उन्होंने पुनः पलकें बन्द कीं!.....लेकिन आँखों का समुन्दर.....घ् समुन्दर बहा तो बह चला। उन्होंने आँखें नहीं खोलीं। गाल चिपचिपा उठे। जब आँखें खोलीं तो देखाए ताहिरा लाल—लाल आँखों से उन्हीं की ओर देख रही थीए तो क्या ताहिरा भी रो रही थीघ् दोनों के अपने—अपने दुःख थेए जुदाई का गम था। लेकिन कहाँ क्या बदला थाघ् रेहाना के आगे ढ़ेरों प्रश्नचिह्न लगे थे। पीढ़़ियाँ दर पीढ़़ियाँ गुजरती रहती हैं लेकिन प्रेम का यही हश्र होता रहता है। रेहाना के समक्ष था जिन्दगी का एक निरर्थक अहसास।.....मानो फर्ज पूरा हुआ ही चाहता है। फिर क्या होगाघ् वे अपने अतीत की पोटली से अपने भोगे क्षणों को बिथूनने लगीं। उनमें काँटे ही काँटे थेए हाथ लहूलुहान हो गया। उन्होंने हाथ वापिस खींचा.....तभी उस लहूलुहान हथेली पर ताहिरा के नरम नाजुक हाथों की गर्माई उन्होंने महसूस की।
क्यों रोती हैं अकेले में फूफीए कौन—सा दुःख उन्हें तोड़े दे रहा हैघ् कहीं वे फैयाज और उसे एक न होने देने के दुःख में अपने को गुनाहगार तो नहीं समझती हैंघ् ताहिरा खूब समझती हैए अब.....इसमें फूफी को क्या मिलाघ् फूफी ने तो उसी का सुख चाहा था।.....फैयाज की टूटी आर्थिक स्थिति में और क्या चाह सकती थीं फूफी.....घ् उसने पुनः फूफी का हाथ दबाया.....तसल्ली सेए मानो कह रही हो जो हुआ फूफीजान वह खुदा की मर्जी थीए भूल जाइए सब।
श्फूफीए आपने तो कहा था कि हैदराबाद से अम्मी—अब्बू के पास जायेंगे।श्
श्नहीं बेटीए वह ठीक नहीं होताए वहाँ शाहजी का हुक्म था जल्दी लौटने का। हम चलेंगे न जल्दी ही वहाँए पहले शाहजी से चलकर मिल तो लो।श्
ताहिरा खामोश हो गई। फूफी का कोई निर्णय कभी गलत नहीं होता।
विमान परिचारिका की उद्घोषणा सुनकर फूफी ने एक गहरी साँस ली। हम तो पहुँच भी गए और समय का पता ही नहीं चला।
एरोड्रम से दोनों बाहर आईं तो सामने शहनाज बेगम को यादवजी के साथ खड़े पाया। शाहजी कहाँ हैंघ् क्यों नहीं आए लेनेघ् ताहिरा मुरझा गई। कई प्रश्न ताहिरा की जुबान पर आते—आते रुक गए। फूफी शहनाज बेगम से लिपट गई।
श्बड़े दिन लगा दिए रेहाना बेगमघ्श्
ताहिरा ने उन्हें आदाब किया और एक ओर खड़ी हो गई। शहनाज बेगम ने उसे ऊपर से नीचे तक गहरी नजरों से देखाए फिरए कैफियत देती—सी बोलीं—श्शाहजी फार्म हाऊस गए हैंए वहीँ कुछ फॉरेनर्स आकर रुके हैंए मीटींग है आज उन लोगों की।श्
ताहिरा हवेली पहुँचने तक बिल्कुल खामोश रही। फूफी समझ नहीं पाईं कि उसे शाहजी के लेने न आने का दुःख हैए अथवा फैयाज से दूर चले आने का।.....जैसे ही कार हवेली में दाखिल हुईए सामने गुलनार आपा को खड़े पाया। ताहिरा ने झुककर उन्हें आदाब किया और लिपट गई। उन्होंने ताहिरा का माथा चूमा और फूफी की ओर बढ़़ी। अस्मां और मुमताज भीतर से भागती हुई आईं और ताहिरा से लिपट गईं।
श्सचमुचए आपके बगैर हवेली में कितना सूनापन लगता था।श् अस्मां ने कहा।
यादव जी ने डिक्की से सामान उतारा और वरांडे में रख दिया। अस्मांए मुमताज अटैची उठाकर अन्दर जाने लगीं। फूफी ने अपनी अटैची हॉल में ही रुकवा ली। ताहिरा बैठी नहींए अपने कमरे में चली गई। अस्मां चाय—नाश्ता लाने अन्दर चली गई। थोड़ी देर में शाहजी का फोन आया। मुमताज ताहिरा की गुहार लगाती उसके कमरे में चली आई। ताहिरा खामोश अपने पलंग पर लेटी थी। आँखें ऊपर घूमते पंखे की ओर स्थिर। ताहिरा स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि यकायक उसे इतनी उदासी ने क्यों घेरा हैघ् क्या कोई अपराध बोध उसके अन्दर तारी हो रहा हैए या इतनी आजाद जिन्दगी से यूँ चले आने का गमघ् वह उठकर हॉल में आई तो देखाए सामने मेज पर चाय—नाश्ता रखा है और फूफी अपनी अटैची खोले बैठी मोती दिखा रही हैं सबको.....।
शाहजी ने एरोड्रम न आने के लिए खेद प्रगट किया और शाम को भी देर से लौटेंगे ऐसा बताया। उसने हूँ! हूँ! करके फोन रख दिया। जाने लगी तो अस्मां ने आवाज लगाई—श्ताहिरा आपा.....चाय तो पी लीजिए।श्
ताहिरा आकर सोफे पर बैठ गईए सिर्फ चाय पी और गुमसुम—सी बैठी रही। सुबह होटल में नहा ही लिया था। पचपन मिनिट के सफर में यहाँ पहुँच गईं थींए दुबारा कपड़े बदलने की भी जरुरत नहीं थी।
फूफी कह रही थीं—श्ये कालेए चमकीले मोती शहनाज बेगम के लिए। उनके गोरे—गोरे बदन पर खूब खिलेंगे। शहनाज बेगम मुस्कुराई भी और शर्माई भी। और यह सफेद मोतीए नन्हे—नन्हे सेए जैसे जौ के सच्चे दाने होंए आप सोने में बनवायेंगी तो कहर बरपा हो जायेगाए जब आपके जिस्म में सजेंगे।.....हाथ में काले मोती की माला और शनील के बटुए में मोती लिए शहनाज बेगम बैठी रहीं। यह कंगनए सफेद मोती की गुलनार आपा के लिए। अख्तरी बेगम के लिए बेशकीमती कत्थई पत्थरों और मोतियों में सजा सेट और अस्मांए मुमताजए शांताबाई के लिए भी इमीटेटेड ज्वेलरी। सब कुछ देने के बादए जब गुलनार आपा ने बाबा के यहाँ की बातें जाननी चाहीं तो शहनाज बेगम के इशारे से अस्मां और मुमताज वहाँ से चली गईं। फूफी बोलीं—श्बाबा की चौखट के तो रंग ही निराले हैं। हवाई जहाज जैसी लम्बी—लम्बी कारें उनकी चौखट पर खड़ी रहती हैं। क्या मुसलमानए क्या हिन्दूए सिक्खए ईसाई सारी कौमें उन्हें मानती हैं। बाबा के पास से कोई खाली हाथ नहीं लौटता। जिनके औलाद नहीं थी उनका तो भारी हुज्जूम था। पहले तो हम अकेले गएए फिर ताहिरा को ले गए।श्
ताहिरा चौंकीए श्अरे! फूफी!श् कहते—कहते रुक गई। झूठ बोलने की जरुरत क्यों पड़ी फूफी को। हम कब गए बाबा की चौखट परघ् ताहिरा की उदासी और बढ़़ गई।
फूफी ने बैठे—बैठे ढ़ेर सारी कहानियाँ गढ़़ डालींए हर दिन की कैफियत दे डाली। फिर गंडे—ताबीज दिखाएए जो न जाने उन्होंने कब खरीद लिए थे। श्इसे जुमेरात को बाँधना है.....तो इसे जुम्मे के दिनए नमाज के बाद तकिए के नीचे रखना है। एक ताबीज तो स्वयं बाबा ने ताहिरा के कान में फूँक मारकर बाँधा।श् फूफी कह रही थीं और ताहिरा आँख फाड़े फूफी का यह रूप देख रही थी.....जबकि यह ताबीज कल सुबह होटल के कमरे में फूफी ने उसे बाँधा था।
ताहिरा का सिर भारी हो गया। वह उठकर अपने कमरे में अ गई। उदासी इतनी बढ़़ी कि वह तकिये में मुँह गड़ाकर रोने लगी। फूफी का यह कौन—सा रूप सामने थाघ् फूफी को मसीहा मानने वाली ताहिराए आज क्या देख रही थीघ् होटल में बिताए एक—एक पलए किताब के पन्ने की तरह उसके समक्ष खुल रहे थे। तो क्या सब कुछ सोच समझ कर.....। लगता है दिमाग की नसें फट जाएँगी। कई काले—काले दैत्य लम्बे—लम्बे नाखून बढ़़ाए उसकी ओर बढ़़ते आ रहे थे। वह चीख पड़ने को हुई.....क्या उसने अपने शौहर को धोखा नहीं दिया हैघ् दगा किया है उसने.....। लेकिन फूफी ने तो कहा था कि—ष्बगैर खुदा की मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता।ष् अब क्या होगाघ् अम्मी तो कहा करती थींए शौहर खुदा का भेजा बंदा हैए जो औरत की हिफाजत करता है। औरत उसके साए तले एक बेल की तरह बढ़़ती जाती है। शौहर से दगा करो तो दोजख की आग में जलना पड़ता है।.....यह मुझसे क्या हुआघ् या खुदाए ण्ण्ण्ण्ण्यह मैंने क्या कियाघ् वह रो पड़ी। तभी उसकी पीठ को ममता भरा स्पर्श मिला। वह इस स्पर्श को पहचानती थी.....इस छुअन को पहचानती थी।
श्फूफी!श् कहते हुए वह लिपट गई। फूफी ने भले ही उसे पैदा न किया होए लेकिन ताहिरा के एक—एक खयालात से वे परिचित थीं।
श्ताहिरा!श् उन्होंने उसके मुलायम काले घने बालों पर हाथ फेरा। ताहिरा ने आँसू भरा चेहरा उठाकर उन्हें देखा और पुनः लिपटकर रो पड़ी।
श्जानती हूँ बेटाए तू किस स्थिति को झेल रही है। तेरी फूफी ने आज पहली बार झूठ बोला है। तू बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। बेटाए इतने दिन रहने की कोई कैफियत तो देनी होगी नघ् फिर फैयाज के साथ जो कुछ हुआ.....बेटाए इसकी कानों कान खबर कभी किसी को न हो। न यहाँए न तेरे अब्बू के घर में। तुम जानती हो न हम औरतें हैंए और औरत की कोई नहीं सुनता। इसीलिए चुप ही रहना बेटा। कभी भी अपने हृदय में गुनाह को जन्म न देना। मोहब्बत एक पाक और नायाब तोहफा है खुदा की इबादत का। तूने अपनी मोहब्बत को जिया है। वह गुनाह नहींए बेटाए मैं हूँ न तुम्हारे साथ। सब खुदा की मर्जी से होता है। अपने दिल और दिमाग से खौफ निकाल दोए और वैसे ही जियो जैसे थीं हैदराबाद जाने से पहले। कुछ दिन बाद हम तुम्हारे अब्बू—अम्मी के पास चलेंगे।श् वे ताहिरा को दुलार से थपथपाती रहीं और रोती रहीं। ताहिरा के दिल का मंथन क्या उनके हृदय में भी झंझावात नहीं मचाए थाघ्
वे उठकर अपने कमरे में आ गईं। ताहिरा मालूम नहीं सोई थी अथवा आँखें बंद किए लेटी थीए लेकिन इस समय ताहिरा को अकेले छोड़ना ही उन्हें ठीक लगा।
अपने कमरे में आकरए वे कटे पेड़ की तरह भरभरा कर बिस्तर पर गिर पड़ीं। कैसी कठिन घड़ी थी उनके समक्षए ताहर सभी कुछ समझ गई है.....उनका झूठ बोलना और फैयाज का बुलाया जाना.....भरपूर छूट।
अब वे भी रो रही थींए असहाय—सी। रह—रहकर वह ख्वाब भी सामने आता था जब लोहे के सींखचों से हाथ बाहर कर ताहिरा रोटी माँग रही थी। हाँए उन्होंने चाहा था कि ताहिरा इस हवेली में पराजित न हो। जब ओखली में सिर दिया था तो.....। नहींए वे किसी का क्रूर अट्टहास नहीं सुनेगी। उन्हें पूरा यकीन था कि ताहिरा इस जंग को जीतेगी। फिर अपराध बोध क्योंघ् क्या वंश की रक्षा के लिए हिन्दू धर्म में नियोग नहीं हुआघ्ण्ण्ण्ण्ण्वेदव्यास ऋषि का आगमन और सत्यवती की आज्ञा.....इसमें कहाँ था अपराध बोधघ् नहींए उन्होंने कोई अपराध नहीं किया है। वे बिस्तर पर उठकर बैठ गई। बेचौनी में दो तीन बार कमरे के चक्कर लगायेए फिर पलंग पर लेट गईं। कमरा घूमता—सा लगा। आजकल यह क्या होता जा रहा हैघ् रात को बिस्तरे पर आने तक इतनी थकान हो जाती है कि फिर उठकर पानी तक नहीं पी पातीं। हैदराबाद जाने से पहले भी ऐसा होता रहा था। लगता हैए शरीर से कुछ निचुड़ता—सा जा रहा है। चारों तरफ कितना कुछ बिखरता जा रहा हैघ् अपने फजोर्ं से मुक्ति पाती जा रही हैं। घंटों आँखें मूँदकर लेटे हुए भी वे थक जाती हैंए और जब उनका बिखराव सम्हाल सकने की सीमा भी तोड़ डालता है और हर आकृति अजीब—अजीब नकाबों में आँखों के अँधेरे में नाचने लगती है तो वे घबरा जाती हैं। अँधेरे में ही वे दोनों खिड़कियाँ खोल देती हैं और जंगले से सिर टीकाकरए दूर आकाश में सूर्यास्त की कल्पना करने लगती हैं। सूर्यास्त के नाम से ही वे पहुँच जाती हैंए अठ्ठारह साल पीछे। हाँ! ऐसे ही सूर्यास्त का तो पीछा किया था उन्होंने यूसुफ के साथ मिलकर। फिर ऐसी बिखरीं कि अपनी परछाईं को भी तरसने लगीं। सूरज में रहने वाली उन परछाइयों को उन्होंने फिर कभी नहीं देखा। कोशिश भी नहीं की। याद नहीं कि फिर कभी सूरज का डूबता गोला उन्होंने नाले के उस पार देखा भी होगा। सूरज तो हमेशा निकलाए निकलता रहेगा पर फिर उनको अपनी परछाईं भी कभी नजर नहीं आई। हाँ तबए तब उतरी थीं आँखों में नीलीए सुनहरी रोशनियाँ जो बड़ी—बड़ी काली चट्टानों के पार दफन हो गई थीं। हाँए वे चीखती रही थीं सारी रातए पर उनकी चीख और दर्द का कोई गवाह नहीं। उन्होंने भी चाहा था कोई एक जो उन्हें ममता से ष्माँष् पुकारे। लेकिन वे काली—काली चट्टानेंए टूटे पत्तों से भरी हवा की नन्ही—नन्ही लहरियाँए पत्तों का मौन विषादए उन्होंने ऐसा इस तरह कई बार देखा है। लेकिन सोचोए जब जीवन के कुछ लम्हे बिल्कुल इनके नजदीक बीतते हैं और धूल—कीचड़ में लिथड़ कर खतम हुए पत्तों के निशान भी बाकी नहीं रहते तबघ् कैसा लगता है तबघ् जैसे इस तरह टूटना और मिटना लम्बी मुद्दत से वे देख रही हैं। वे सुनती हैं अपना नामए सूरज के डूबते लाल गोले की सुनहरी आभा में ष्रेहानाष्। फिर गर्दन पर चुम्बनए चौंक पड़ीं वे। किसने पुकाराघ् यहाँ तो खिड़की के पार बियाबान घुप्प अँधेरा है। फिर यह डूबता सूरजघ् किसने पुकारा मुझेघ् यूसुफए तुमनेघ् देखो तुम्हारी रेहाना किस तरह बरसों से यूँ ही अँधेरे में खड़ी है। चारों तरफ अंधकार है। कहाँ है मेरा वजूदघ् यूसुफ क्यों इतने दूर चले गए तुम मुझसेघ् क्योंघ् क्योंघ् क्या जिन्दगी का यही मतलब थाघ् तुमने किसको सजा दी यूसुफए अपने कोए मुझे या अपने अब्बू कोघ् शायद तीनों को। औरत तो पुरुष के उजियारों में जीती है यूसुफए तुमने क्यों छीना मुझसे यह उजियाराघ् ण्ण्ण्ण्ण्तुम्हारे जाने के बाद यूसुफ मैं सिर्फ अपने फर्ज से बँधी रहीए फिर जी नहीं सकी। यूसुफए हर दिन मेरा जन्म होता रहा.....और हर दिन मैं मरती रही। और अब तो जीने का कोई बहाना भी नहीं रहा।.....ताहिरा जरूर गर्भवती होगी। एक मकसद था जो पूरा होगा। उधर दोनों बेटे.....भाईजानए भाभी सुख से हैं। अब तुम कहाँ जाओगी रेहानाघ् प्रेम तो भाईजान के पास दोनों बाँहें पसारे खड़ा हैए लेकिन क्या तुम यूँ निरर्थक निरुद्देश्य जिन्दगी जी पाओगीघ् सीने में जलन हो रही थी। कितनी देर हो गई थी उन्हें यूँ खड़े—खड़े जंगला पकड़े हथेलियाँ लाल हो गईं थीं। दूसरी बार तुमने मुझे यूँ पुकारा यूसुफ! उस दिन हवाई जहाज में और आज।.....क्यों सताते हो यूसुफघ्
कुछ कहूँ अपने आप से तो सिर्फ दोहराना होगा। कितनी बार यह सब सोचा है। क्या तुमने कभी मेरे बारे में जानने की कोशिश की है यूसुफघ्ण्ण्ण्ण्ण्चेहरे पर जाने कैसी दर्द की परछाईयाँ उभरने लगीं। सचमुच आजकल कैसी होती जा रही है रेहाना ष्सचष् सचमुच भयंकर होता है और उसे सहना एक जानलेवा स्थिति। काली चट्टानें उनकी ओर सरकती आ रही हैं। उनका दम फूलने लगाए ण्ण्ण्ण्ण्खिड़की के जंगले हाथ से फिसले और वे पसीने—पसीने हो उठीं।
वे बिस्तर पर लेट गईं। इतनी भीड़ में भी वे अकेली थींघ्ण्ण्ण्ण्ण्सिर्फ भाईजान जानते हैं कि वे अपना अकेलापनए दर्द—तकलीफ को बड़ी आसानी से छुपा जाती हैं। क्या भाईजान तमाम सुख पाकर उन्हें सुखी दिखेघ् हाँए तब उन्होंने चाहा था कि उनके आँचल में भाईजान सुख डाल दें। कहें किए रेहाना तुम भी जवान हो तुम्हारे दिल में भी चाहत हैए उमंग हैए जी लो। लेकिन कुछ नहीं हुआ। भाईजान चाहकर भी कुछ न कर पाए। वहाँ गरीबी—अमीरी की दीवार थी। हाँ! सचमुच उन्होंने भी चाहा था फूलों में छा जानाए हरियाली में समा जाना। और मिला क्याघ्ण्ण्ण्ण्ण्उनका सवार्ंग कीचड़ में लिथड़ गया।
कमरे की छत पर घूमता पंखा थाए खिड़की से आती तेज हवा थी लेकिन उनका दम घुट रहा था। उनके चारों तरफ क्या थाघ् सिवा खलिश के। सपने यूँ फूटे मानो पानी से भरे नन्हे—नन्हे गुब्बारे। और अकेलेपन को किससे कहेंए किस रूप में कहेंघ् कोई समझेगा क्या कि भरे—पूरे परिवार में भी वे कितनी अकेली हैंघ् साथी तो उन्हें बहुत ही प्यारा मिला था.....लेकिन गरीबी के भयानक काँटे उन्हें आगे न बढ़़ने देने पर मजबूर कर गए। अब तो सिर्फ कदमों के निशाँ बाकी हैं।
सामने फिर ताहिरा खड़ी हो गई। आपने—आपने ही फूफी.....यह पाप.....। नहींए पाप नहीं है बच्चे.....। कैसे समझाएँ वे अपने मन को। यह सचमुच पाप है तो इसकी सजा मुझे ही देना खुदा। तो क्या हस्तिनापुर का अंत इसलिए हुआ कि.....नहींए अंत कहाँ हुआ थाघ् वह तो आपसी बैर में मारा गया। मैंने तो इस हस्तिनापुर को बचाने की मामूली कोशिश की है। हाँए मैं गुनाहगार हूँ.....। लेकिन एक परिवार यदि खुश रहता है तो यह गुनाह कैसाघ् मेरे परवरदिगारए मेरे मौला मैं सजा पाने को तैयार हूँ। मुझे बुला लो अल्लाहए अब तो मैंने सारी सीमाएँ पार कर लीं। जिन्दगी का कोई मकसद भी नहीं रहा.....। वे घबरा उठीं। अकेलापनए निरुद्देश्य जीवन.....। यूसुफए देखो तो मेरा कौन—सा अंग बचा है जो तुम्हारी साधना में न तपा होघ् हमें तो खुदा ने इसलिए इस पृथ्वी पर भेजा था कि हम सुख भोगेंए सुख से जियें और खुदा की इबादत करें। फिर यह कतरा—कतरा लुटते सुखों का मंजर हमें क्यों दिखाए क्यों मिलाघ्ण्ण्ण्ण्ण्
श्आप सू रही थीं फूफीजान गहरी नींद मेंए इसलिए मैं वापिस लौट गई। मैं चाय लेकर आई थीए शाम साढ़़े चार बजे।श् अँधेरे कमरे में अस्मां का स्वर गूँजा। वे झटपट उठ बैठीं। शाम का धुंधलका कमरे में पैबिस्त हो रहा था।
श्आपको अख्तरी बेगम ने याद फर्माया है।श् कहते हुए उसने बिजली क बटन अॉन कर दिया।
श्नहींए रहने दे अस्मांए अँधेरा अच्छा लग रहा है। तू चाय ले आ।श् जब तक अस्मां चाय लेकर आई वे हाथ—मुँह धोकर बैठी थीं। तभी शांताबाई आकर कमरे में बैठ गई।
श्आजकल बड़ा दर्द उठा है मँझली बेगम को। कोई देखने वाला नहीं है। मैंने ही उबलते गरम पानी में अजवायन छोड़ी और ऊपर जाली ढ़ककर कपड़ा गर्म किया और उनके घुटनेए टखनेए कोहनीए उँगलियाँ सेंकी। एक बार तो शाहजी आकर देख जाते न! कैसे देखेघ् वह बड़ी आने दे तब न!.....अरेए यह भी कोई जिन्दगी हुईघ् ऐसी जिन्दगी तो भगवान दुश्मनों को भी न दे। जब आप लोगों में ज्यादा शादी का चलन है बुआ जीए तो सबको बराबर का हक क्यों नहीं देते आप लोगघ्श्
श्शांताबाईए हक तो बराबर का देते हैं।.....अब इसमें कोई क्या करे कि घर में क्या और कैसा माहौल है। खैर छोड़ोए अब कैसी हैं अख्तरी बेगमघ्श्
श्लेटी हैंए आपको याद किया है। बुआ जीए कहती हैं मैं कैसे आऊँ मिलनेए चला—फिरा नहीं जाता। छोटी को देखने का मन लगा है।श्
श्हाँ! हम चलते हैंए जरा ताहिरा तैयार हो ले। शाहजी भी आते होंगे।श्
उनके मुँह से इतना निकला ही था कि सामने ताहिरा खड़ी थी। उन्कोने ताहिरा की तरफ देखा और मानो जम गईं। इतना अनुपम सौन्दर्य। अनुराग से भरी ताहिरा सामने खड़ी थी। सफेद शरारा—कुर्ताए सुनहरे काम की वैसी ही दूधिया चुनरीए शरारे पर मुकेश टँके हुए और हैदराबाद से लाया हुआ सफेद मोती का सेट। बालों में सफेद फूलों का लम्बा गजरा। नाक में हीरे की लौंग चमचमा रही थी। कितनी ही बारए ताहिरा का ऐसा रूप देखकर शहनाज बेगम का सिंहासन डोला था। बेबात को वे सबके ऊपर चिड़चिड़ाई थीं। क्या वे समझती नहीं थीं। अपनी तरफ फूफी को यूँ देखता पाकर ताहिरा शरमा गई।
श्फूफी जानए चायश् अस्मां ट्रे में चाय लेकर खड़ी थीए वे चौंकी श्हाँ! रख दो।श्
श्आप भी लीजिएए ताहिरा आपाश् अस्मां ने कहाए श्नहीं! मैंने पी ली।श्
श्लोए शांताबाई तुम पी लो।श्
श्हमें तो चाय खूब पसंद हैएश् कहते हुए शांताबाई ने चाय का प्याला लिया और जल्दी—जल्दी चाय सुड़कने लगी।
श्ताहिराए बैठो बेटाए अपनी मँझली आपा बेगम को आदाब करने चलना हैए उनको गठिया की बहुत तकलीफ उठी है।श्
श्अच्छाश् ताहिरा एक ओर बैठ गई।
चाय पीकर फूफी उठींए बालों में कंघा कियाए चुनरी संभाली और ताहिरा तथा शांताबाई के साथ पिछवाड़े बने कमरों की ओर चल पड़ीं। अख्तरी बेगम के कमरों की तरफ जाते हुए रास्ते में नृत्य का बड़ा हॉल पड़ता थाए जहाँ कभी महफिलें जमा करती थी। शाहजी के दादाजी शहर की सबसे खूबसूरत कमसिन और पप्रसिद्ध नृत्यांगना को बुलाकर इस हॉल में महफिल जमाते थे। शराब के दौर चलते थे और दादाजी के चमचों से हॉल भरा रहता था। फिर खाने का दौर चलता था जिसमें इतने तरह के व्यंजन होते थे कि लोग देखकर हैरान रह जाते। गुलनार आपा ने ही एक बार रन्नी बी को बताया था—ष्रेहाना बेगमए हमारी दादी अम्मां तो बेहद खफा रहतीं। रात गुजर जाएए दादाजी आने का नाम न लें। फिर दादी हफ्तों के लिए बोलचाल बंद कर देतीं। लेकिन दादी अम्मां कभी जमकर लड़ न पातींए डरती थीं। बहुत रौब था दादाजी का। जब दादाजी कारोबार से लौटते तो घर के नौकर हाथ बाँधे खड़े रहते। क्या पताए वे क्या फरमाएँघ्ण्ण्ण्ण्ण्सभी उनसे थर—थर काँपते थे। बाद में शराब बढ़़ती ही गईए यहाँ तक कि दिन को भी लेने लगे। बाद में ऐसी हालत हो गईए कि उनके हाथ काँपते थेए कलम तक नहीं पकड़ पाते थे। कारोबार की बागडोर दादी अम्मां ने संभाल ली।ष् ण्ण्ण्ण्ण्फिर शहनाज बेगम की तरफ हँसते हुए देखा था उन्होंनेए और कहा था ष्इस खानदान का कारोबार तो औरतें ही देखती आईं हैं। एक हमारे शाहजी हैंए दीन दुनिया का होश नहींए एकदम मासूम।..... हमारी शहनाज बेगम जैसी होशियारए हौसला परस्त औरत न होती तो क्या मुझसे यह सब अकेले सम्हलताघ् क्या मजाल रेहाना बेगम कि एक आम का बगीचा भी इनकी नजर से रह जाए। सब काम समय पर करती हैं ये। अरब देशों तक फैले व्यापार को संभालना क्या सरल काम है।ष् रन्नी बी देखती हैं कि गुलनार आपा शहनाज बेगम को कितनी अहमियत देती हैं। यूँ कहें कि अब शहनाज बेगम की खबरस्टाम्प हैं गुलनार आपाए और शाहजी मुट्ठी में कैद। इतने भोले कि बीवी और बहन ने चाहा तो दो शादियाँ कर लीं। बीवी ने चाहा तो फिर मँझली की तरफ नहीं गए।.....ष्अरे रेहाना बेगमष् बताया गुलनार आपा ने ष्इस नाचघर में ईरान का कालीन बिछा था।.....लंदन से झाड़फानूस आया था जिसकी कीमत उस जमाने में एक लाख रुपये थी। पूरा हॉल उस झाड़फानूस से जगमगा जाता था।ष् जब पहली बार रन्नी बी उस हॉल में गुलनार आपा के साथ गईं थीं तो उन्हें घूँघरूओं की झंकार.....और शराब के प्याले टकराये जाने की आवाज सुनाई दी थीए और फिर दादीए अम्मां की हिचकियाँ। ष्नहीं! पहले तो खूब रोती थीं दादी अम्मांए ऐसा बताते थे सब लोगए ण्ण्ण्ण्ण्बाद में दादी ने व्यापार में ऐसा दिल लगाया कि लोग हैरान.....घर में ही मौलवी से पढ़़ी दादीए व्यापार में इतनी तेज थीं कि व्यापार के सारे समझौते.....सब कुछ अच्छे से सम्हाल लिया।ष् कितने किस्से थे इस हवेली के.....
वे कमरे में दाखिल हुईं तो देखा दर्द से पीली पड़ी मँझली बेगमए पलंग से टीकी बैठी हैं। ताहिरा दौड़कर उनसे लिपट गई। उन्होंने ताहिरा को भर आँखों देखा और मुस्कुरा पड़ीं—श्कैसी हैं हमारी छोटी बेगमघ्श्
श्बहुत अच्छीए मँझली आपा.....श्
रन्नी बी ने आदाब किया और उनके हाल चाल पूछे। उनके हाथों में मोतियों का सेट रखा तो दर्द और दुःख से काँप गईं अख्तरी बेगम। श्अब क्या मोतीए क्या हीरे रेहाना बेगमघ् जब शौहर ही पास होकर दूर कर दिया गया हो तो औरत के लिए हीरे—मोती का क्या मूल्यघ् अब ये मोती मेरी कब्र पर रख देना।श् आहत अभिमान से भर उठीं मँझली बेगम श्देखती हैं न रेहाना बेगमए मर भी जाऊँ तो कोई देखने वाला नहीं.....श्
श्मरे आपके दुश्मन अख्तरी बेगमए ऐसा क्यों कहती हैं आपघ्श्
मँझली बेगम ने गहरी साँस ली। मोतियों के सेट का डिब्बा एक ओर रख दिया और डबडबायी आँखों से एक ओर देखने लगीं।
फूफी माहौल को हल्का बनाने की गरज से गोरे बाबा की चौखट के किस्से सुनाने लगीं। बकरी गुम हो जाने का किस्सा सुनाया तो दर्द में भी मँझली बेगम हँस पड़ीं।
श्मुझे बहुत इच्छा थी उनके पास जाने की।श् गहरी साँस लेकर अख्तरी बेगम ने कहा। उनकी आँखों में मजबूरी और हताशा फैल गई। फूफी ने शाहनूर मियाँ के दरबार की चिरौंजी और गुलाब की पंखुड़ियाँ अख्तरी बेगम को दीं। उन्होंने चिरौंजी मुँह में डालकरए पंखुड़ियों को माथे से छुआया। तभी उन्हें घुटनों में टीस उठी और कराहकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं। ताहिरा ने घुटनों पर हाथ रखा और दबाने लगी। उन्होंने आँखें खोल दीं। स्नेहिल और अपनत्व से भरा स्पर्श पा उनकी आँखें डबडबा आईंए श्न छोटी बेगमए पाप में मत डालो.....शांताबाई तो दबाती है नघ्श् उन्होंने ताहिरा का हाथ पकड़ लियाए फिर कहा—श्खुदा से माँगूँगी कि अगले जन्म में तुम्हें मेरी बेटी बनाकर भेजे।श् फिर बुदबुदायी—श्सौत शब्द बड़ा घिनौना लगता है।श् कमरे में खामोशी छा गई। कार की आवाज से ताहिरा उठ खड़ी हुई.....
श्हम जाते हैं मँझली आपाए शायद शाहजी आ गएघ्श् वह सलाम करके भागी। मँझली बेगम की आवाज कानों में पड़ी—श्जाओ जल्दी.....वरना बड़ी खफा होगी कि शाहजी के स्वागत में ताहिरा वहाँ मौजूद न थी।श्
कार से शाहजी के उतरने से पहले ताहिरा बरांडे में खड़ी थी। शाहजी कार से उतरे और ताहिरा को अपलक देखते रहे। श्आदाब छोटी बेगम। कैसी हैंए मिजाज कैसे हैंघ् कितने दिन लग दिएए क्या हमारी याद नहीं आईघ्श् ताहिर अचकचा गई। उसने झुककर आदाब किया.....श्जी अच्छी हूँश् यादघ् क्या झूठ बोले ताहिरा कि सचमुच उसने उन दिनों एक बार भी शाहजी को याद नहीं किया। सिर्फ अपनी मुहब्बत को जिया है।
श्अरे! खामोश कैसे हैं छोटी बेगमघ् और खूबसूरती तो देखिएए कमाल की नजर आ रही हैं। क्या हैदराबाद का कमाल हैघ्ण्ण्ण्ण्ण्श्
श्जी.....श् शरमा गई ताहिरा। उन्होंने कंधों पर हाथ रखकर ताहिरा को अपने से लिपटा लियाए और वैसे ही हॉल में प्रवेश किया। सामने शहनाज बेगम को देखकर तुरन्त हाथ हटा लिया और मुस्कुरा कर सोफे पर बैठ गए।
श्आज हम एकदम थक गए। पचास लाख की डील थीए साठ पेपर्स टाइप करवाए।श्
श्सब ठीक हो गया नघ्ण्ण्ण्ण्ण्श् शहनाज बेगम ने पूछा।
श्हाँए सब ठीक हो गया। पुराने पेपर्स पर अब्बा हुजूर के दस्तखत थेए वहाँ भी नए दस्तखत डलवाए। अब आप भी दस्तखत कर देए दस्तखत आपके होंगे। हम पेपर्स ले आए हैं। आज पार्टीए वहीँए फार्महाऊस पर ठहरेगी। कल पेपर्स एक्सचेन्ज होंगे और फिर रात की फ्लाईट है उन लोगों की। अब अब्बा हुजूर तो दस्तखत करने की हालत में हैं नहींए सो मजिस्ट्रेट को बुलाकर यहीं पर अब्बा हुजूर के सामने हम दोनों के दस्तखत होंगे। कल ग्यारह बजे मजिस्ट्रेट तशरीफ लायेंगे।श्
श्अच्छा! चलिएए सब ठीक हो गया। वषोर्ं पुरानी पार्टी हैए मुझे तो लग रहा था कि अब्बा हुजूर की बीमारी के कारण ये वेन्डर न हमारे हाथ से निकल जाएँ। वरना.....श्
ताहिरा को अपना बैठना निरर्थक—सा लगाए जिस उत्साह से वह बाहर भागी थीए वह क्षीण पड़ गया। उठकर जाने लगी तो शाहजी जैसे उस माहौल में लौटे।
श्अरे! आप कहाँ चलीं छोटी बेगमघ् बैठिए।श्
श्जी! मैं चाय.....श् ताहिरा ने कहा।
श्चायघ् यह क्या नई बातघ् चाय अस्मांए मुमताज कोई भी ले आएगी।श् शहनाज बेगम की आवाज में सख्त झिड़की थी।
श्आप बैठिए।श् शाहजी ने फिर कहा। तभी फूफी गुलनार आपा के साथ ड्राइंग रूम में दाखिल हुईं। शाहजी उठकर खड़े हो गएए उनके साथ ताहिरा भी।
श्आइए फूफीजानए आदाब। कैसी हैं आपघ्श्
गुलनार आपा आकर सोफे पर बैठीं तब शाहजी और ताहिरा भी बैठ गए।
श्हाँ! तो कैसी रहीए आप दोनों की हैदराबाद की टी्रपघ् कहाँ—कहाँ घूमीं हमारी छोटी बेगमघ्ण्ण्ण्ण्ण्हम तो काम में यूँ मुब्तिला रहे कि आपको कहीं लेकर जा भी नहीं सके।श्
ताहिरा खामोश रही और फूफी संक्षिप्त में हैदराबाद के हाल सुनाती रहीं।
रात मेंए शाहजी ने ताहिरा को अपने से लिपटा लिया। ताहिरा फिर भी बुझी—बुझी—सी रही। इतनी धन—दौलत के बाद आदमी और—और की क्यों लालसा रखता हैघ् मैं दस दिन पश्चात् लौटी हूँ और सिर्फ बिजनेस की ही बातेंघ्ण्ण्ण्ण्ण्लाखों की डीलए बाग—बगीचेए जमीन। कुवैतए दुबईए अरब देश—बस यही बातें।.....न जाने क्यों ताहिरा शाहजी की बाँहों में लिपटी फैयाज को याद करने लगी। जहाँ सिर्फ मोहब्बत थीए मुहब्बत का ऐसा वृत्त जिसके भीतर दोनों समोए थे। उमंग—उमंगकर आलोड़ित—समर्पित होती वह और अपनी बलिष्ठ युवा बाँहों में भींचता फैयाज। फर्क तो है नघ्ण्ण्ण्ण्ण्यहाँ बाँहों में समर्पिता का कोई मूल्य नहीं। पैसा है तो वह लाई गईए और भी आ जायेंगी। ऐसे ही बंद कमरों में शाहजी उनके शरीर में अपने चिराग को टटोलेंगे। रोटीयों का मूल्य ये लोग कभी समझ ही नहीं सकते।
श्तबियत नासाज है बेगम कीघ्श् शाहजी ने उसे हैरत से देखते हुए पूछा।
श्जीए ऐसा कुछ नहींएश् वह अनमनी हो उठी।
श्फिरए आज हमारे प्रति यह बेरुखी क्योंघ्श्
श्जीए बिल्कुल नहींए अम्मी—अब्बू याद आ रहे हैं। पूरे दस महीने हो गए। एक ही बार चंद घंटों के लिए गई थी। आप इजाजत दें तो एक बार देख आएँ।श्
श्जरूर जाइए बेगम साहिबए ण्ण्ण्ण्ण्कल ही हम आपा से बात करते हैं। अब थोड़ा तो इधर मुखातिब होइए.....आपका यह बंदा कितना तड़पा है पूरे दस दिन.....आपके दीदार कोए आपकी मुहब्बत को।श् शाहजी ने कसकर ताहिरा को पकड़ लिया।
ताहिरा ने अपने आपको शाहजी की बाँहों में छोड़ दिया। वे उसके अनावृत्त बदन को चूमते हुए बुदबुदाते रहे श्गजब का हुस्न है आपमें बेगम। मैं तो बस मजनूँ बन गयाए आपके पीछे.....सचमुच बेगम.....।श्
थोड़ी ही देर में शाहजी थककर लेट गए और फिर उनकी नाक बजने लगी।.....हो गई मुहब्बतघ् ताहिरा सोचने लगी। वह इसलिए तो यहाँ लाई गई है। अरे! ताहिरा तुम क्या—क्या सोचती होघ् क्यों तुलना करती हो किसी सेघ् अब यही तुम्हारा घर है। यहीं सब कुछ.....। मन क्यों विचलित होता है मेरे खुदाघ्ण्ण्ण्ण्ण्अब फैयाज क्या सिर्फ एक याद बनकर रहेगाघ् कभी और भी उसकी मुहब्बत परवान चढ़़ेगीघ् सोचते—सोचते ताहिरा सो गई। सुबह नींद खुली तो उसने चुपचाप कपड़े उठाए और पहनने लगी। शाहजी कुनमुनाए और फिर उसके हाथ से कपड़े छीन लिए—श्क्या गजब करती हैं बेगमघ् हमारी बेताबी का कुछ अंदाजा है आपकोघ्श्
गुलनार आपा के कमरे में फूफी पहले से ही बैठी थीं। शहनाज बेगम भी बैठी थीं। गुलनार आपा के पैरों के तलुओं में अस्मां तेल ठोंक रही थी। ताहिरा ने आदाब किया और एक ओर खड़ी हो गई।
श्अरेए बैठो ताहिरा।श् शहनाज बेगम ने कहा।
ताहिरा दूर पलंग पर सिकुड़कर बैठ गई। वह गुलनार आपा के समक्ष अपने आपको सिकुड़ा—सिमटा ही पाती है।
श्शाहजी कह रहे थेए तुम मायके जाना चाहती होघ्श् गुलनार आपा बोलीं।
श्जीए बहुत मन लगा है अब्बू—अम्मी में।श्
श्सो तो ठीक है ताहिराए लेकिन तुम हैदराबाद गईंएण्ण्ण्ण्ण्शगुन बँधवा कर आई। ताबीज लाईए उनका एक खास समय होता है। इस समय तुम्हारा जाना उचित नहीं। कम से कम एक महीना उसके असर की बाट जोहनी होगीए फिर चली जाना। क्योंए ठीक है न रेहाना बेगमघ्श् शहनाज बेगम ने बोलते हुए फूफी की ओर देखा।
श्बिलकुलए दुरुस्त फर्माया आपने।.....बेटा ताहिराए हम इतनी दूर गएए बाबा के आशीर्वाद और उनकी दुआ को यूँ फिजूल न करो। तुम्हारी बड़ी आपा ठीक कह रही हैंए ण्ण्ण्ण्ण्महीना भर कहीं नहीं जाना है।श् फूफी ने कहाए ताहिरा हैरत से फूफी की ओर देखने लगी। आँखें भर आईं। थोड़ी देर वहाँ बैठी रही और फिर उठकर अपने कमरे में चली आई।
ताहिरा उदासी में डूबती जा रही थी। उँगलियों पर दिन गिनतीए मानो अब अब्बू के पास जाएगी तो वहाँ फैयाज मिलेगा। वह समझ नहीं पाती थी कि फूफी ने उसकी सोयी हुई मुहब्बत को उकसा कर अच्छा किया हैए या बुरा किया है। वह दो पार्टी के बीच झूल रही थी। हर दिन शाहजी उसके कमरे में आते और चंद बातों के पश्चात् देह से देह का सिलसिला शुरू हो जाता। मानो बाँहों और कलाइयों में बंधे इन गंडे—ताबीजों का हिसाब ले रहा हो कोई। शाहजी या पूरी हवेली। अब बचे हैं केवल पन्द्रह दिनए फिर वह अब्बू अम्मी के पास जाएगी। अपने चहुँ ओर फैली वैभव से निर्लिप्त—सीए ताहिरा फैयाज के बारे में सोचती। कभी फूफी के निर्णयों पर आक्रोश होताए कभी दया से भर उठती। काश! उस दौरान फूफी साथ देतीं तो आज वह फैयाज की बाँहों में होती। न सही वैभवए निहायत अपना तो कोई होता। यूँ टुकड़ों में बँटा शौहर और शौहर का मतलब केवल देह.....। शायद ही उसे याद हो कि शाहजी के साथ वह इन दस महीनों में कभी यूँ ही बातें करती सोयी होघ् नहींए शाहजी का कमरे में आने का मतलब ही था कि वह अब भोगी जाएगी। कभी दिल में तूफान उठता तो अपने मायके का सुख देखकर वह उस बवंडर को गहरे में दबा देती। ऐसी इच्छा होती कि चीख—चीखकर कहे ष्मत ढ़ूँढ़ो मेरे जिस्म में हवेली के चिराग को.....मैं तो फैयाज की हूँए फैयाज की रहूँगी।ष् फिर ग्ल्नार आपाए शहनाज बेगमए शाहजी उसे रुखसत करेंगे और वह फैयाज की बाँहों में समा जाएगी। किन पलड़ों पर वह झूल रही हैघ् एक ओर शाहजी उसके शौहरए और दूसरी और उसकी मुहब्बत। आँखें बंद करती है तो फैयाज सामने होता है। आँखें खोलती है तो शाहजी सामने होते हैं।
शाम का समय थाए वह अपने कमरे में पलंग से टीकी बैठी अस्मां के साथ रेशम के धागों को पुट्ठे में लपेट रही थी। गुलनार आपा ने ये रेशम के धागे के लच्छे कुवैत से मँगाए थे। उन्होंने कहा था—ष्अस्मां बहुत बारीक कश्मीरी कढ़़ाई करती हैए इससे अपनी साड़ी कढ़़वाना।ष् पलंग पर हल्के गुलाबी रंग की रेशम की साड़ी पड़ी थीए जिस पर कढ़़ाई होनी थी। अचानक ताहिरा का सिर चकराया और हाथ से रेशम की लच्छियाँ छूट गईं। मुँह पर हाथ रखे वह गुसलखाने की तरफ भागी। रोकते—रोकते कै हो गई। अस्मां भागकर गिलास में पानी ले आई। ताहिरा ने कुल्ला किया और आकर लेट गई लेकिन फिर उसकी तबियत घबराई और वह भागी तो गुसलखाने के दरवाजे पर ही उल्टी हो गई। उसने गुसलखाने का दरवाजा पकड़ा और दीवाल से टीक गई। सिर चकरा रहा था। वह काँपने लगी। अस्मां ने उसे अपने कंधे से टीकाकर पलंग तक पहुँचाया। अस्मां फूफीजान के कमरे की तरफ भागी। फूफी जानमाज बिछाकर मगरिब की नमाज के बाद सजदे कर रही थीं। वह घबराई—सी खड़ी रही और चिल्लाकर कहा—श्फूफीजानए ताहिरा आपा उल्टी कर रही हैं उनकी तबियत बहुत खराब है।श् फूफी ने उत्सुकता भरी नजर अस्मां पर डाली। जांनमाज को तह कियाए और ताहिरा के कमरे की ओर चल पड़ी। ताहिरा अब शांत—सी तकिए के सहारे अधलेटी—सी थी।
श्क्या हुआ बेटीघ्श् बेहद घबराहट में उन्होंने पूछा।
श्पता नहीं फूफीए चक्कर आ रहे हैं। जी मिचला रहा हैए और दो बार कै हो चुकी है।श् उठते हुए ताहिरा बोलीए फूफी का दिल जोर—जोर से धड़कने लगा। मानो उछलकर बाहर आ जाएगा। उन्होंने अस्मां को नींबू—शर्बत बनाकर लाने को कहना चाहा लेकिन अस्मां तो कब की वहाँ से जा चुकी थी। मानो क्षणांश में ही सब कुछ घटीत हो गया। फूफी स्वयं शर्बत बना लाने के लिए कमरे से बाहर निकलीं तो देखाए सामने से शहनाज बेगम अस्मां के साथ आ रही थीं।
श्क्या हुआ ताहिरा कोघ्श्
श्पता नहींए कै हुई हैए जी मिचला रहा है। मैं शर्बत बना कर लाती हूँ।श् फूफी ने कहा।
श्नहीं! शर्बत अस्मां बनाकर लाएगी। आप ताहिरा के पास बैठेए मैं डॉक्टर को फोन करती हूँएश् कहती हुई शहनाज बेगम एकदम पलटकर चल दीं।
ताहिरा शर्बत पीकरए कटोरी में बर्फ के टुकड़े रखकर चूस रही थी। अब उसका जी अच्छा लग रहा था। फूफी का हृदय अब सामान्य था। लेकिन मन में यह आशा —ढ़़ हो चुकी थी कि डॉक्टर भी आकर वही बतायेंगी जो वह सोच रही हैं। उनका सोचना सही निकला। कमरे के बाहर फूफीए अस्मांए मुमताज खड़े थे। अंदर डॉक्टर जाँच कर रही थी। पन्द्रह मिनिट के बाद जब डॉक्टर मुस्कुराती हुई बाहर निकली तब तक शहनाज बेगम गुलनार आपा के साथ आ चुकी थीं।
श्मुबारक हो गुलनार आपाए आपकी छोटी बहू बेगम उम्मीदों से हैं।श् डॉक्टर ने कहा। गुलनार आपा खुशी से चीख पड़ीं श्रेहाना बेगमए बधाई हो।श् और फूफी से लिपटकर रो पड़ीं। फूफी की आँखों से भी खुशी के आँसू बहने लगे। शहनाज बेगम ने भी दोनों को बधाई दी। वे मुस्कुरा पड़ीं। वे डॉक्टर का हाथ पकड़कर हॉल में आ गईं। क्या सचमुच वे विश्वास करें कि ताहिरा माँ बनने वाली हैघ् डॉक्टर को बिठाकर वे गुलनार आपा को बुलाने जा रही थीं कि गुलनार आपा ने हॉल में प्रवेश किया। मानो किसी को किसी बात का होश ही नहीं था। सभी अपने—अपने ढ़ंग से खुशियाँ जाहिर कर रहे थे। डॉक्टर ने दवाईयाँ लिखकर दीं। गुलनार आपा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।.....चल फिर सकती है ताहिरा कि बेडरेस्ट पर रहेगीघ् क्या खाएगीए क्या नहींघ्ण्ण्ण्ण्ण्क्या—क्या करना होगाघ् डॉक्टर मुस्कुरा कर सब बता रही थी। डॉक्टर को मालूम था कि इस विशाल हवेली मेंए अपार धन—दौलत के बीच बस इसी एक बात का इंतजार था सबको।
फूफी दौड़कर ताहिरा से लिपट गईं। वे रो रही थीं और ताहिरा को चूमती जा रही थीं। श्मेरी बेटीए तूने यह जंग जीत ली।.....तू माँ बनने वाली है। हाँ बेटीए सच। डॉक्टर बेगम अभी कहकर गई हैं। देख तू उठना नहींए चलना नहीं.....मैं हूँ नाश् वे रो रही थीं। जिस खुदा को वे बेमुरौव्वत समझने जा रही थीं अब उसी की इबादत में वे घुटने टेके बैठी थीं।
शाहजी को फोन करके तुरन्त आने के लिए गुलनार आपा ने कहा। इस उम्र में भी उनके पैरों में गजब की फुर्ती आ गई मानो अपने भाई की इस खुशी में उन्होंने अपनी उम्र बरसों पीछे छोड़ दी हो। वे शाहजी का बेसब्री से इंतजार करने लगीं।
ताहिरा को मुमताज खास तरीके से तैयार करने लगी। वह दो उल्टियों के पश्चात् ही मुर्झायी—सी दिखने लगी थी। फिर भी भीतर से वह बहुत उल्लासित थी। इतने दिनों की उदासी दूर हो गई और वह बड़ी शिद्दत से शाहजी का इंतजार करने लगी। उसके कपड़े बदलवाकर मुमताज ने उसकी चोटी गूँथी।.....सुवासित फूलों की माला चोटी में लगायी और आँखों में सुरमा लगाकरए कपड़ों के रंग की चूड़ियाँ ताहिरा की कलाइयों में चढ़़ाने लगी। अस्मां ने आकर कहा कि शाहजी आ गए हैं। ताहिरा उठने लगी फिर यह सोचकर कि वह शाहजी से अकेले में मिलेगी पुनः पलंग पर बैठ गई।
शाहजी ने जैसे ही हॉल में प्रवेश कियाए गुलनार आपा दौड़ीं और उनसे लिपट गईं। शाहजी हक्का—बक्का खड़े। गुलनार आपा की आँखों में खुशी के आँसू छलक रहे थे। आवाज गले में घुल रही थी। तभी श्मुबारक होश् कहती हुई शहनाज बेगम आगे बढ़़ीं और गुलनार आपा को खींच लिया। गुलनार आपा पुनः अपने भाई से लिपटीं और बड़ी मुश्किल से कह पाईं—श्खुदा ने हमारी दुआ कुबूल कर ली शाहजीए ताहिरा उम्मीदों से है।श्
शाहजी इतने जोर से चौंके मानो कहीं तेज बिजली कड़की हो फिर मुस्कुरा पड़े और ताहिरा के कमरे की ओर तेज कदमों से भागे। गुलनार आपा बैठ गई और रुमाल से आँसू पोंछने लगीं। शहनाज बेगम खड़ी ही रह गईंए शायद पहली बारए इन बीस बरसों में पहली बार ऐसा हुआ कि शाहजी उनकी तरफ मुखातिब हुए बगैर निकल गए हों। लेकिन उनके दिल में फिलहाल कोई मलाल पैदा नहीं हुआ क्योंकि हवेली में इससे बढ़़कर खुशी की बात शायद कोई दूसरी नहीं थी।
ताहिरा ने शाहजी को देखा तो उठकर खड़ी हो गई। उसने देखाए शाहजी की आँखों में जमाने भर की मुहब्बत हिलोरें ले रही हैए वह सब कुछ भूल गई और उमगकर शाहजी की बाँहों में समा गई। देखा उसने एक पुरुष की आंखों में आँसूए वे ताहिरा को बेतहाशा चूम रहे थे। फिर माथे का चुम्बन लेते हुए उन्होंने आँखें मूँद लीं और कहा—श्बेगम! आप मेरे लिए बेशकीमती हीरा साबित हुईंए आपने हवेली को वह सौगात बख्शी है कि यह हवेली सदियों आपकी शुक्रगुजार रहेगी। आपने इस हवेली का इतिहास रचा है बेगम।श् आज पहली बार ताहिरा को महसूस हुआ कि उसका शौहर सचमुच उसे बेइन्तहा प्यार करता है।
शाहजी ने ताहिरा को कंधों से पकड़ा और साथ लिए हुए हॉल की तरफ बढ़़ने लगे। श्धीरे चलें छोटी बेगमए अब आपको अपना खास खयाल रखना है।श् मानो आज शाहजी को किसी की फिक्र ही नहीं थी। ताहिरा को थामे जब वे हॉल में दाखिल हुए तो ताहिरा ने देखाए गुलनार आपाए शहनाज बेगमए फूफी सभी वहाँ बैठी हुई हैं। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि शहनाज बेगम के सामने शाहजी ने ताहिरा का हाथ भी थामा हो। यदि शहनाज बेगम अचानक सामने आ जातीं तो वे हाथ छोड़ देते और एक सामान्य दूरी बनाए रखते। लेकिन आज वे ताहिरा को कंधों से थामे हॉल में दाखिल हुए। ताहिरा लाज से दुहरी हो गई। उसके गाल अनुराग से तप्त हो गए। फूफी ने असीम सुख से आँखें मूँद लींए और जब आँखें खोलीं तो देखाए शाहजी के बाजू में ताहिरा बगलगीर थी। इस एक —श्य को सच में बदलता देखने के लिए फूफी ने मानो दस महीने दस सदियों की तरह बिताये थे। अब उनके हृदय में कोई खौफ नहीं था। ताहिरा की स्थिति इस हवेली में सु—ढ़़ हो चुकी थी।
श्आपा! क्या जश्न मनाएँ जो आज का दिन और दिनों से अलग दिखाई देघ्श् शाहजी ने गुलनार आपा से पूछा।
श्शाहजी! जश्न के तौर पर हम आलीशान डिनर तैयार करवायेंगेए लेकिन अभी सबको बुलाकर ऐसा कोई फंक्शन नहीं करेंगे। नजर लग जाती है। हम सातवें महीने ऐसा फंक्शन करेंगे कि हवेली जगमगा उठेगी।श् गुलनार आपा ने कहा। श्ठीक है।श् शाहजी ने गुलनार आपा की इस बात का समर्थन किया।
श्ताहिराए डॉक्टर नगमा दवाएँए टॉनिक लिखकर गईं हैं। तुम उछलोगीए कूदोगी नहींए अधिकतर आराम करोगी। सुबह उठकर बगीचे में टहलना है। इमली नहीं खाना है बल्कि नींबू की फाँकें और फल बहुत खाना है।श् फिर अस्मां की ओर देखकर कहा—श्ताहिरा को सुबह छुहारे के साथ उबला दूध देना है। साथ में कच्चा नारियल का टुकड़ा और मिश्री। इससे बच्चा चाँद जैसा सुन्दर होगा।श् ताहिरा बैठी लगातार शरमा रही थी। रह—रहकर उसके गाल गुलाबी हो जातेए वह नीचे नजरें गड़ाए हुई थी।
श्कल सुबह अब्बा हुजूर से आशीर्वाद लेने चलना है।श् कहती हुई गुलनार आपा अपने कमरे में चली गईं।
अब्बा हुजूर से ढ़ेरों असीसें लेकर जन ताहिरा लौटी तो उसके हाथ में एक छोटी—सी डिब्बी थीए जिसमें अब्बा हुजूर द्वारा दिया बेशकीमती हीरा था जिसे उन्होंने इस मुबारक मौके पर ताहिरा को दिया था। रात में ही गुलनार आपा को याद आया था कि शहनाज बेगम से निकाह के दौरान यह हीरा अब्बा हुजूर ने एक बड़ी हीरों की प्रदर्शनी से खरीदा थाए कि वे इसे अपने पोते की पैदाइश पर देंगे। वह हीरा बीस वषोर्ं से गुलनार आपा की अलमारी में भूला—बिसरा पड़ा थाए जिसे उन्होंने याद दिलाकर अब्बा हुजूर के द्वारा ताहिरा को दिलवाया था।
सभी ने उत्सुकता से ताहिरा की मुट्ठी में दबी डिब्बी देखी और हीरा देखकर अस्मां—मुमताज तो लगभग चीख ही पड़ीं। इतना बड़ा हीरा उन्होंने पहली बार देखा था। शांताबाई का सहारा लेकर अख्तरी बेगम भी ताहिरा के कमरे तक आईं और उसे लिपटाकरए ढ़ेरों आशीर्वाद दिए।
सभी आकर हॉल में बैठ गए। गुलनार आपा बोलीं—श्अब ताहिरा मायके जा सकती है। शबरात नजदीक है। शबरात की खुशियों के साथ यह खुशी भी उसे मायके में मनाने दो।श्
श्वजा फरमाया आपा आपनेए मैं आज ही डिसूजा को गाड़ी तैयार करने के लिए कहती हूँ।श् कहकर शहनाज बेगम हॉल से बाहर चली गईं।
ताहिरा उठकर उस कमरे में आईए जहाँ पहले से फूफी बैठी हुई थीं। उसने हीरे की डिब्बी उनकी गोद में डाल दी और गोद में ही सर रखकर अपनी आँखें मूँद लीं। शायद खुशी सेए शायद फैयाज की याद से।
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पार्ट — 15
शबेरात को कुल चार दिन बाकी थे। सूजीए मेवेए घीए शक्कर आदि खरीदकर जमीला के साथ भाभीजान लदी फँदी घर पहुँची तो फाटक के पास कार खड़ी देखए खुशी की लहर उनके सिर से पाँव तक दौड़ गई—श्रन्नी बी आई हैं।श्
सामान हॉल में रखा जा चुका था। पहले रन्नी बी फिर ताहिरा भाभीजान से लिपटकर रोये जा रही थीं। शादी के बाद बस पैर फेरने दो दिन के लिए आई थी ताहिराए तब से उसकी सूरत देखने को तरस गईं वे। गुजरे महीने उन्हें बरसों से लगे—श्कितनी छोटी—सी सूरत निकल आई है मेरी बच्ची की।श्
श्अरे भाभीए खुशियाँ मनाओए खुशियाँ। ताहिरा तुम्हें नानी बनाने वाली है।श्
श्या अल्लाहए तू सबका रखवाला।श् कहती भाभीजान ने दुआ के लिए हाथ फैलाये। अन्दर से सादिया चहकती आई और मिश्री का टुकड़ा ताहिरा के मुँह में रखकर बोली—श्मुबारक हो बीबी जान। अल्लाह ने मुबारक घड़ी दिखाई। तुम्हारी गोद में भी अब किलकारियाँ गूँजेंगी।श्
सारा घर खुशियों की फुलझड़ियों से जगमगा रहा था। शबेरात के लिए खरीदा गया सामान दोनों बहुएँ आज ही पका रही थीं। घी और सूजी की सुगंध से कमरा गमक रहा था। ताहिरा पूरे घर के न जाने कितने चक्कर लगा चुकी थी। कमरे वही थेए दालानए चौकाए वरांडा सब कुछ वही पर शाहजी यहाँ भी छाये थे। घर की इंच—इंच जमीन उनकी समृद्धि का ऐलान कर रही थी। ताहिरा ने पिछवाड़े अमराई को भरपूर निहारा। न जाने कहाँ से आकर दो—तीन मोर अमराई में टहल रहे थे। कभी अपने पंख पसार लेतेए कभी घास में कुछ चुगने लगते। तभी सज्जो और छुटकी आ गईं—श्सलाम आपा।श्
श्अरे छुटकीए सज्जो आ तो इधर।श् ताहिरा दोनों को लेकर तखत पर बैठी फूफीजान के पास आई। फूफी ने सज्जो के गाल चूमकर कहा—श्मियाँ कैसा है तुम्हाराघ् क्या तुम भी शबरात के लिए आई होघ् और बेटाघ्श्
सज्जो शरमा गई—श्घर में अब्बा खिला रहे हैं उसे।श्
श्नाना जो बन गए भाई और नानीजान कहाँ हैघ्श्
श्यहाँ।श् कहती हुईं आपा कमरे में दाखिल हुईं—श्कैसी हो रेहानाबीघ् कोठी के सुख में हमें भूल गईंघ् अरेए ताहिरा भी आई हैए तभी मैं कहूँ कि गाड़ी गेट पर क्यूँ खड़ी हैघ्श्
श्गाड़ी तो गेट पर खड़ी होगी न आपाघ् शाहजी की बेगम जो आई हैं और फिर उम्मीदों से भी तो हैं।श्
श्अच्छा! यह तो बड़ी खुशखबरी सुनाई तुमने। पर ऐसी भी क्या जल्दी थीए अभी तो साल भर भी पूरा नहीं हुआ।श्
श्अब टोको न बीबीए जो हुआ अल्लाह की मर्जी से हुआ। लो तुम तो हलवा खाओ।श् भाभीजान ने हलवे की प्लेट आपा के सामने रख दी।
लेकिन फूफी का मन कचोटने लगा। सच ही तो हैए ताहिरा के खेलने—खाने के दिन हैं। अभी से बाल—बच्चे की झँझटघ् लेकिन वह तो इसी शर्त पर ब्याही गई थी कि जल्द से जल्द कोठी में चिराग रोशन करेगी। खुदा क्या कभी माफ करेगा उन्हें। लोग अनजाने में गुनाह कर बैठते हैंए वह तो जानबूझकर ताहिरा को गुनाह के रास्ते ले गईं। ताहिरा के जिस प्रेम के पल्लवित होने में खुद उन्होंने रोड़ा अटकाया थाए उसी प्रेम की भीख ले वे शाहजी का घर भरने चलीं। क्योंघ् क्या भाईजान से बेपनाह मोहब्बत की वजह से या ताहिरा को शहनाज बेगम और मँझली बेगम के सामने मात न खानी पड़ेघ्ण्ण्ण्ण्ण्वह इन दोनों से बढ़़ चढ़़कर रहे कोठी मेंए या गुलनार आपा की लाड़ली कहलाने की ललक मेंघ् नहींए यह ठीक नहीं हुआ। गुनाह का सहारा लेकर उन्होंने किला फतह करना चाहा हैए अपनी रूह को बेचौन किया हैए ताहिरा की भावनाओं से खिलवाड़ किया है.....। लेकिन उनकी मंशा में खोट नहीं है इतना वे दावे से कह सकती हैं। उनका एक गुनाहए एक साथ दो घरों को खुशहाली बख्श रहा हैए तो यह क्या कम खुशी की बात हैघ्
फूफी की कलाइयों में पड़ी सोने की चूड़ियों को आपा धीरे—धीरे आगे पीछे सरका रही थीं। हॉल में और कोई न था। एक खामोशी—सी दरोदीवार को जकड़े थी। शाम आहिस्ता—आहिस्ता पहाड़ों के पीछे सूरज को छुपाकर उतर रही थी। अँधेरा पसरने को था कि रन्नी की कलाइयों पर आपा की पकड़ गहरी हो गई—श्रेहानाए दुबई से खबर आई हैए यूसुफ मियाँ काफी बीमार हैं।श्
श्क्योंए क्या हुआघ्श्
श्खबर तो तीन माह पुरानी हैए मिली अब। सज्जो के अब्बा को यूसुफ मियाँ के वालिद ने बताया था कि कैंसर है उन्हेंए दो अॉपरेशन तो हो चुके अब तक।श्
श्कैंसर! य अल्लाहएश् रन्नी विस्फरित आँखों से आपा को देखने लगी। एक हौल—सा उठा कलेजे में—श्अपा.....इतना भयानक रोग!श् सहसा पूरे शरीर में ठंडा पसीना चुहचुहा आया। साँस फूलने लगीए बैठ नहीं पाईंए लेट गईं। लेटते ही भाभीजान को पुकारा। आपा घबरा गईं—श्क्या हुआ रेहानाबीए अरे भाभीजानए देखिए तो।श्
कमरे में शोर बरपाँ था। दोनों बहुएँ रन्नी के तलवे रगड़ रही थीं और ताहिरा सिरहाने बैठी रोये जा रही थी—श्फूफीए फूफीजान.....क्या हुआ आपकोघ् बताती क्यों नहींघ्श्
आपा अपराधी—सी खड़ी थींए भाभी की निगाहें उठीं मानो कहना चाहती हों—ष्तुमने बता दिया सबघ्ष् आपा उन आँखों का सामना नहीं कर पाईं—श्मैं डॉक्टर बुलवाती हूँए पेट्रोल पंप पर सज्जो के अब्बा तो होंगे।श्
आधे घंटे में डॉक्टर आये। तब तक भाईजान और नूरा—शकूरा भी आ गए थे। डॉक्टर ने दवा दी। बतायाए डिप्रेशन और हाई ब्लड प्रेशर हैए जरा खयाल रखें।
भाईजान देर तक सिरहाने बैठेए अपनी गुड़िया—सी प्यारी बहन का सिर सहलाते रहे। ताहिरा के आने की खुशी मायूसी में बदलती—सी लगी। फिर भी सबने अपने आपको सम्हालाए ताहिरा को महसूस न होने दिया कुछ।.....अब्बू से लिपट पहले तो खूब रोई ताहिरा फिर धीरे—धीरे सम्हली। रन्नी हिम्मत कर उठी.....दिल भांय—भांय—सा कर उठा। आह! ये दिन भी दिखाना था खुदायाए लेकिन अपने मनहूस नसीब को इन बच्चों पर क्यों हावी होने देंघ् घर भरा—पूरा था। नूराए शकूराए बहुएँ.....क्यों सबको अपने नसीब के काले परदे में समेट लेंघ्ण्ण्ण्ण्ण्क्षणभर में दिल चट्टान—सा बना रन्नी उठी—श्अरे बीबियोंए दस्तरखान तो सजाओए महीनों बाद इस घर में तुम्हारी ननद के रूप में रौनक आई है।श्
बहुओं में होड़ लग गई। कोई बिरयानी की देगची ला रही थीए कोई कोफ्तों की। भाभीजान पापड़ तल—तलकर निथरने के लिए परात में टीकाती जा रही थीं। रुखसाना अपने छोटे—छोटे हाथों से प्याज के छल्ले काट रही थी। रन्नी ने चौन की साँस ली। तखत से उठना चाहा पर कमजोरी—सी लगी। भाईजान सहारा देकर बाथरूम तक ले आयेए उन्होंने ठंडे पानी से मुँह धोयाए कपड़े बदले और बालों का जुड़ा बाँधकर कमरे में आ गईं।
श्थोड़ा खा लो.....रन्नी बी।श्
श्हाँ जरूर.....हम कोई बीमार थोड़ी हैं।श् और बड़ी हिम्मत से वे कुर्सी पर बैठकर बिरयानी खाने लगीं। सब खुश हो बतियाते हुए खाते रहे। तभी शाहजी का फोन आ गया। रन्नी ने मना किया कि ताहिरा को उनकी तबीयत के बारे में न बतायें।
खा—पीकरए ताहिरा भाभियों के संग बातें करती उनके कमरे में ही सो गई। रन्नी के बाजू में भाभीजान का पलंग था। थोड़ी देर खानदानी चर्चा चलाती रही फिर भाभीजान बोलीं—श्अब सो जाओ रन्नी बीए यूँ भी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं।श्
लेकिन रन्नी की आँखों में नींद कहाँघ् दिल कहाँ से कहाँ पहुँच गया। यूसुफ के संग बिताये एक—एक पल बड़ी बेरहमी से याद आते रहे। यही दिल था जो यूसुफ से पहली मुलाकात में घड़ी की टीक—टीक—सा धड़कता महसूस हो रहा था। यही तखतए हाँ.....यहींए यहीं बैठे थे यूसुफ.....और यहीं सम्पूर्ण समर्पण का वह एकांकी क्षण। मनो रन्नी होश में न थी। बदन के एक—एक हिस्से पर यूसुफ के हाथों का स्पर्श अब भी ज्यों का त्यों है। मदहोश करती साँसों का आना—जाना कनपटीए सीने उर बालों पर मानो अब भी मौजूद है। शर्मए उतावलीए कशिश.....रेशे—रेशे से सुख की बौछार.....कैसी तो हो गई थी रन्नी। वैसा सुख न पहले था न बाद में कभी मिला। या शायद रन्नी ने ही यूसुफ की गैरमौजूदगी में पाना नहीं चाहा। और अबघ् यूसुफ वहाँ मौत से लड़ रहे हैं। रन्नी को इस बात की तसल्ली है कि उसका महबूब केवल उसका है। कायरए डरपोक हैए पर ईमानदार भी तो है। उसी ईमानदारी ने तो शाहबाज के बढ़़ते कदम रोके थे और उसने मान लिया था कि नसीब में लिखे एक कतरा सुख की एवज में पूरा समुन्दर नहीं मिल जाता। उसे तसल्ली थी कि यूसुफ उसके हैं पर खुदा इस तसल्ली को क्यों छीन लेना चाहता हैघ् क्यों उसकी वनवास की अवधि में वनों को ही उजाड़ डालना चाहता हैघ् उफ! यूसुफ इस दुनिया में नहीं रहेंगे यह कल्पना ही सौ—सौ एटम बमों—सी मारक है। अचानक रन्नी के सीने में फिर हौल—सा उठा। मानो दिल तेजी से उछल रहा होए शरीर की नसें फट जाना चाहती हों। उसने घबराकर भाभीजान को उठाना चाहा पर नहींए क्यों उनकी नींद में खलल डालेए वैसे भी इतनी बड़ी गृहस्थी की जिम्मेदारी उन्हें थका डालती होगी। नाइट बल्ब की नीली रोशनी में भाभी का सुकून से भरा चेहरा देखए वह धीमे से मुस्कुराई लेकिन दर्द की आरी चेहरे के आरपार हो गई। रन्नी दर्द से निढ़ाल अपना आपा खोती गई।
भिनसारेए जा भाभी की नींद खुली तो बावजूद पंखे के उन्होंने रन्नी के चेहरे पर पसीने की बूँदें देखीं। गफलत में रन्नी के होंठ हल्के से सिकुड़ गए थे और पलकों के किनारों से आँखें मानो झाँक—सी रही थीं। वे घबरा गईं। बहुएँ उठ गईं थीं और बबूशा दूध के लिए रो रहा था। भाभी भागती हुई भाईजान के पास गईंए झँझोड़कर उठाया—श्देखिये तोए रन्नी बी कैसी तो हो रही हैं।श्
श्क्या हुआघ्श्
झपटकर भाईजान रन्नी के पास आ गए—श्रन्नीए क्या हुआ रन्नीघ्श्
रन्नी ने चौंककर आँखें खोलीं। सामने भाईजान को खड़ा देखकर उठना चाहा पर दोनों कोहनियाँ दर्द से भर उठीं। रन्नी दोनों को घबराया देखकर लफ्जों को ठेलती हुई बोली—श्रात ब्लड प्रेशर फिर बढ़़ गया थाए फिकर न करेंए ठीक हो जायेगा।श्
भाईजान ने डपट दिया—श्फिकर न करेंए रन्नी तुम फिजूल की बातें मत किया करोघ् मैं डॉक्टर को फोन करता हूँए शायद अस्पताल में भरती करना पड़े।श्
अब तक सभी जग गए थे। ताहिरा की मायके आने की खुशी काफूर थी और इस बात को लेकर रन्नी कल से अपने को सौ बार कोस चुकी थी। भाभी जानती थी उनकी तबीयत क्यों बिगड़ी। काशए सज्जो की अम्मी कल न आती और अगर आतीं भी तो अपना मुँह बंद रखतीं। वे तो पिछली बार रन्नी के आने पर भी यह बात छुपा गई थीं। जबकि उन्हें तीन महीने पहले ही यूसुफ की बीमारी का पता चल गया था।
रन्नी ने बस चाय के साथ एक बिस्किट खाया और ताहिरा की कार में ही अस्पताल चली गईं। बहुत जिद्द की ताहिरा ने साथ जाने की पर भाईजान ने मना कर दिया—श्हम लोग हैं न वहाँ। तुम्हारी अम्मी वहीँ रहेंगी। तुम अपने भाई—भाभियों के साथ कुछ दिन रहो।श्
ताहिरा की आँखें छलछला आईं। हर वक्त साये—सी लगी रहने वाली फूफी कैसी निचुड़ गई हैं और वह तकलीफ में उनके साथ नहीं। कैसी मजबूरी हैए कल रात शाहजी ने फोन पर ही उसका बीस दिनों के लिए मायके रहना मुकर्रर कर दिया था और इतना वह जानती है कि ग्रह—नक्षत्रों को खोजते—पढ़़ते शाहजी का हुकुम उसके लिए पत्थर की लकीर है। वे खुद कुछ नहीं कहेंगे पर गुलनार आपा और बड़ी बेगम के उलाहनों में उसका वजूद पत्ते—सा काँप उठेगा। काले दुपट्टे से घिरा फूफी का गोरा मुखड़ा देर तक कार की खिड़की से ताहिरा को ही निहारता रहा। जब सड़क का मोड़ आया तो शायद फूफी ने अम्मी के कंधे पर सिर टीका लिया होगा क्योंकि खिड़की सूनी थी.....सूनी थी वह सड़क जहाँ से अभी—अभी कार गुजरी थी.....खामोश थे सड़क के दोनों ओर खड़े नीम और जामुन के पेड़.....न वहाँ तोतों का चहकना था न हवा की जुम्बिश। ताहिरा मुड़ी और अपनी बड़ी भाभी से लिपटकर रो पड़ी। जमीला उसे अन्दर ले आई—श्तसल्ली रखो ताहिरा बीबीए फूफीजान सही सलामत घर लौटेंगी। अल्लाह उनका साया हम पर बरकरार रखे।श्
ताहिरा का कहीं मन नहीं लग रहा था। बबूशाए रुखसाना से कितना मन बहलायेए जी भी शांत न था। चौके में मसाला भुनने की खुशबू से उसे उल्टियाँ आने लगीं। जमीला ने होंठों की मुस्कराहट दुपट्टे से दबाए उसे नींबू की फाँकें चूसने को दीं। तभी अब्बू का फोन आया—श्ताहिराए बेटाए घबराने की कोई बात नहीं है। तुम्हारी फूफी चौबीस घंटे ही रहेंगी अस्पताल में। ब्लड प्रेशर हाई है.....दवाई और फल खाकर अभी सो रही है.....हम शाम तक लौटेंगेए खाना बाहर खा लेंगे।श्
ताहिरा ने चौन की साँस ली.....। मन ही मन दुआ माँगी—ष्या अल्लाहए फूफी बिल्कुल अच्छी हो जायेंए हम मिलकर शबेरात मनायें। मैं दरगाह में चादर चढ़़ाऊँगी।ष्
नूरा के हाथ ताहिरा ने जबरदस्ती अब्बू के लिए टीफिन भेज दिया। बाहर का खाना उन्हें हजम नहीं होता। कहने को घर में सुकून हैए धन हैए नूरा—शकूरा बाल—बच्चों वाले हैंए कमा—खा रहे हैं पर अब्बू घुलते जा रहे हैं। शायद उनके मन में यह गाँठ हो कि जो बहन उनके लिए कुर्बान हो गई वे उसके लिए कुछ कर नहीं पायेए उसने दुनियाबी सुख भोगा ही नहीं। न तन काए न मन का। न शौहर मिलाए न घर मिला.....न जाने किन गुनाहों की सजा भोगी उसने। या शायद गुनाह किसी और के होंए सजा उसने माँग ली हो।
शाम को अब्बू थकेए टूटे—से घर लौटे। अम्मी अस्पताल में ही फूफी के संग रह गई थीं और शकूरा उनके लिए जरूरी असबाब और खाना ले जाने वाला था। अब्बू ने पचास का नोट उसकी ओर बढ़़ाया—श्मुसम्बियाँ ले जाना थोड़ी.....एकदम कमजोर—सी लगी रन्नी मुझे।श् दोनों आँखों की कोरों को अँगूठे से दबा बैठ गए। ताहिरा गुलाब का शर्बत बना लाई। रकाबी में वर्क लगे पेठे के दो टुकड़े थे—श्अब्बूए थोड़ा शर्बत पी लीजिए।श्
अब्बू ने अँगूठा हटा ताहिरा को निहाराए उनकी आँखें छलक उठी थीं।
श्कुछ छुपाइयेगा नहीं अब्बूए बताइये फूफी कैसी हैंघ्श्
अब्बू सचेत हुए—श्अरे इसमें छुपाना क्याघ् फूफी तुम्हारी एकदम ठीक है। मैं तो सोच रहा था कि वे बीमार पड़ी क्योंघ् क्या वजह थीए अच्छी भली तो थीं कल।श् और पेठे का एक टुकड़ा खाकरए उन्होंने शर्बत पी लिया।
ताहिरा के लिए भी उनकी बीमारी सवाल बन गई। लगातार दस महीनों तक शाहजी की कोठी में हर व्यक्ति की आँखें ताहिरा पर ही लगी थीं कि मानो वह ऐसी मुर्गी है जो निश्चित समय पर अण्डा दे देगी और जब इस इंतजार का अंत आया तो सब्र की मूर्ति फूफी क्यों निढ़ाल हो गईंघ् ताहिरा मायके आई थी अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए। यह कोई मामूली खुशी नहीं हैए यह शाहजी के बरसों के इंतजार का फल है। कोठी खुशए शाहजी खुशए उनकी बेगमें और आपा खुशए इधर अब्बू—अम्मी भी खुशए पर फूफी की खुशी में किसका ग्रहण लग गयाघ् ताहिरा की सोच जरा—सी ठहरी.....हाँ.....कल आपाजान आई थीं और तभी से फूफी को कुछ हो गया। कहीं आपाजान ने कुछ कर तो नहीं दिया उन परघ् अरे नहींए फूफी का कोई दुश्मन नहीं। फूफी तो वो शखि्सयत हैए जिसे सब चाहते हैंए सब इज्जत करते हैं.....फिरघ्
दूसरे दिन सुबह फूफी लौट आईं। मानो उनके चेहरे ने तूफान को झेलकर अब शांति ओढ़़ ली है। ताहिरा की जान में जान आई। भाईजान शाने से पकड़े उनको अन्दर पलंग तक ले आये। नूरा ने मानो फूल—सा उठा लिया उन्हें और पलंग पर लिटा दिया—श्अरेए ठीक हूँ अब मैं।श्
हॉल में सब लोग जुड़ गए थे। बड़ा सुकून भरा माहौल था। भाभीजान ने नहाया और फिर चाय—नाश्ते के बाद पानदान लेकर बैठ गईं और लगीं बहुओं से पूछने—श्कल शबेरात हैए ताहिरा आई हैए क्या—क्या करने वाली हो तुम लोगघ्श्
तभी बन्नो के साथ में नायन और मिरासिन भी आ गईं थीं। श्लोए तुम लोगों के जमघट की और कमी थी।श्
बन्नो जल्दी—जल्दी पोंछा लेकर हॉल चमकाने लगी—श्क्यों हम न आयें.....बिटीया मायके आई हैए ऊपर से डबल खुशी.....लाओ हमारा नेग—दस्तूर।श्
श्मिलेगाए नेग—दस्तूर भी मिलेगा। नायनए अब तुम आ ही गई हो तो रन्नी बी के बाल धो दो। अभी—अभी अस्पताल से लौटी हैं।श्
श्हायए क्या हुआ बी कोघ् अल्लाए खैरियत तो हैघ्श्
नायन ने सिर से पैर तक रन्नी बी को ताका तो भाभीजान हँस पड़ी—श्घूरो मतए हाथ पैर हिलाओ। तब मिलेगा नेग—दस्तूर।श्
नायन खिल—खिल हँसती हुई रन्नी को गुसलखाने की ओर ले चली। बन्नो पूरा घर चमकाने में लग गई। जब से दोनों बहुएँ बाल—बच्चे वाली हुई हैंए बन्नो ही झाड़ू—पोंछाए बर्तनए कपड़े करती है। पर नागे बहुत करती है।
श्दो दिन बाद तशरीफ लाई हैं महारानी।श् जमीला के कहने पर ताहिरा ने टेक दिया—श्आप लगाम रखिये भाभीजान उस परए वरना सिर ही चढ़़ती जायेगी।श्
श्कौन मूँ लगे उसके। पटाखा है पूरी। अभी तो तुम लोगों के लिहाज से चुप है वरना.....श्
गुसलखाने से नहा धोकर निकली रन्नी ने ताहिरा और जमीला की बातें सुन ली थींए इधर नायन की चर्खी अलग चल रही थी। नेग—दस्तूर की लालच में वह भाईजान और भाभी की शान में कसीदे पढ़़ रही थी। घंटे—डेढ़़ घंटे में बन्नो का काम निपट गया तो भाभीजान ने नायनए मिरासिन को रुपये और पुराने कपड़े देकर विदा कर दिया। शकूरा सोफे पर आराम से बैठा नाखून काट रहा था।
श्आप भी अम्मीए इतना देने की क्या जरुरत थी दोनों कोघ्श्
श्सबाब मिलता है बेटे। इन्हीं की दुआएँ काम आती हैं।श्
श्अब कौन समझायेघ् लुटाइए।श्
भाईजान ने आँखें तरेरकर शकूरा को देखा—श्शकूरेऽऽ.....अपनी अम्मी से ऐसा कहा जाता हैघ्श्
शकूरा चिढ़़कर उठ गया—श्माफ करें अम्मी।श्
रन्नी आँखें मूँद कर सोफे पर बैठ गई। पास में ताहिरा थी।
श्ताहिरा पीर मोहम्मद का उर्स भरने वाला है.....इस बार सब चलेंगेए हम चादर चढ़़ायेंगे वहाँ.....बेले के फूलों से बनी बरफी की काटवाली चादर। दो हफ्ते बाकी हैं उर्स के।श् भाईजान ने माहौल बदलने की गरज से कहा तो रन्नी समझ गईए जरूर भाईजान ने उसकी सलामती की दुआ माँगते हुए चादर चढ़़ाने की बात की होगी। उसने बहुत ही लाड़ से भाईजान को देखा।
श्भाईजानए वहाँ तो कव्वाली भी होती है हर साल। देगें भी चढ़़ती हैं।श्
श्अरेए उर्स की रौनक पूछो मत। पूरा शहर उमड़ पड़ता है। मैदान दुल्हन—सा सज जाता है।श्
श्अब्बू हम जरूर चलेंगे.....कब से उर्स में नहीं गए।श् ताहिरा ने खुश होकर कहा पर चेहरे पर मलिनता थी। फूफी की बीमारी ने ताहिरा को कहीं गहरे टकोरा था। इसे मातृत्व की पीड़ा समझए रन्नी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे भर नजर देखा। जिस मकसद में वे महीनों से मुब्तिला थीं कि चाहे कुछ हो कोठी को ताहिरा के जरिये औलाद दिलानी है.....सो पूरा हुआ। लेकिन अबघ् सन्नाटा है चहुँ ओर! जिन्दगी वीरान—सी लगती है.....अब करने को कुछ है ही नहीं। भाईजान—भाभी चौन और संतुष्टि भरे दिन बिता रहे हैं.....घर चहल—पहल से भरा है। अब नूराए शकूरा के बच्चे बड़े होंगेए बहुएँ सासें बनेंगी और जिन्दगी की गाड़ी चलती जायेगी लेकिन रन्नी की जिन्दगी का शिकारा बेंत की झाड़ियों में उलझा है सो उलझा है। न पीछे सरकता है न आगे बढ़़ता है। हर छोर पर सन्नाटा और आर—पार दिल को भेदती साँसें। क्या करें इन साँसों काघ् कैसे चुकता करेंघ् अल्लाह! मेरी इन साँसों को मेरे महबूब को दे दो। वो भी तो जिन्दगी से शिकस्त खाये लाचारए बीमारए तनहा है। कैंसर जैसे भयानक रोग ने उसके शरीर को छलनी कर दिया होगा। उफ! कैसा भयानक होता है इस रोग में मौत का इंतजार। कीमोथेरेपी के इंजेक्शनए सिर के बालों का झड़नाए शरीर के पोर—पोर में भयानक दर्द। रन्नी ने दुपट्टा मुँह पर ओढ़़ लिया और खामोश आँखें आँसू बहाने लगीं। गालों पर आँसू की लकीरें गुदगुदी—सी पैदा करने लगीं। उन्होंने दुपट्टे से रगड़कर चेहरा पोंछा—श्लेटूँगी थोड़ा।श् और खुद ही तखत पर आ लेट गईं। चेहरा तकिये में गड़ा लिया।
उर्स तक नहीं रुक पाई ताहिरा। फूफी की तबीयत की चिन्ता से उसकी खुद की तबीयत बिगड़ गई और जब शाहजी ने फोन पर यह खबर सुनी तो तुरन्त उसे नूरा के साथ भिजवाने के लिए भाईजान से आग्रह किया। तबीयत तो किसी की न थी कि ताहिरा जाये पर वक्त की नजाकत थीए भेजना पड़ा।
ताहिरा बिदा हो रही थी। भाभीजान ने मिठाईए मेवों और फलों की डलिया कार की डिक्की में रखवा दी। अचारए सिवैयांए पापड़ए बड़ियाँ भर—भर कनस्तर रखवाये। ताहिरा के लिए पटोला सिल्क की साड़ी और मोती जड़ी सोने की अँगूठीए शाहजी के लिए सफारी सूटए गुलनार आपा के लिए पशमीने का कीमती शॉल और दोनों बेगमों के लिए साड़ियाँ अटैची में बंद कर दीं। ताहिरा को सौगात देने का यह पहला मौका था—श्बेटीए हम इस लायक नहीं कि शाहजी को कुछ दे पायें.....हमारी तरफ से माफी माँग लेना।श्
श्अम्मी।श् ताहिरा उनके गले लगकर फूट—फूटकर रो पड़ी—श्अम्मीए फूफी की तबीयत.....श्
वाक्य अधूरा रह गया। भाभीजान ने ताहिरा कस चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया—श्पगलीए हम पर विश्वास नहीं।श् ताहिरा की चिंतित आवाज से फूफी का दिल भर आया.....उन्होंने ताहिरा को खींचकर चिपटा लिया।
श्फूफी.....हम आपके बिना कैसे रहेंगेघ्श्
फूफी भी रो पड़ीं—श्मेरी गुड़ियाए अब तू घर—द्वार वाली हुई.....मैं क्या तुमसे चिपकी रहूँगीघ् पर एक बात याद रखना ताहिरा.....किसी भी बात को लेकर मन में मलाल मत लानाए तुम शाहजी की दुल्हन हो।श् और एकदम कान के पास फुसफुसायीं—श्तुमने कोई गुनाह नहीं कियाए तुम बेकसूर हो ताहिरा।श्
ताहिरा हुमग कर रो पड़ी। भाईजान ने उसे अपने पासए अपने आगोश में लियाए माथा चूमा और कार की ओर बढ़़ गए। दोनों भाभियाँ भी ननद की गले लगीं। कार के स्टार्ट होते ही फूफी बुक्का फाड़कर रो पड़ी। मानो ताहिरा पहली बार बिदा हो रही है।
ताहिरा की बिदाई के बाद रन्नी टूटती गई। अच्छी भली आई थीं लेकिन अब हर दिन उनकी बीमारी के बढ़़ने का ऐलान करते गुजरता था। डॉक्टर का तीन चार दिन के अंतराल से आना जरूरी हो गया। दवाएँए टॉनिकए फल.....लेकिन वजन घटता चला जा रहा था। आपा का हर दिन इंतजार रहता। पेट्रोल पम्प तो रोज खुलता है। जाकिर भाई की भाईजान से दुआ सलाम भी होती है फिर आपा कहाँ गुल हो गईं। सज्जो तो ताहिरा की बिदाई के एक दिन पहले ही ससुराल चली गई थी। अब किस काम में मुब्तिला हैं आपा। कयास लगाया.....तबीयत नासाज होगी.....उन्होंने रुखसाना को आपा को बुला लाने भेजा। रुखसाना देर से लौटी..... उसकी फ्रॉक के घेरे में इमलियाँ भरी थीं।
श्अच्छा तो आप इमलियाँ बटोर रही थींघ्श्
रुखसाना घबरा गई—श्खाला गेंहूँ बीनकर आयेंगी।श् और फौरन नौ—दो ग्यारह। रन्नी हँस पड़ीए दीवार पर टँगी घड़ी में से एक चिड़िया फुदक कर बाहर आई और टन्न—टन्न पाँच के घंटे बज गए। चिड़िया अन्दरए खिड़की बंद। असर की नमाज का वक्त था। मुश्किलें कितनी भी क्यों न आयेंए भले ही अल्लाह ने उनके नसीब में कुछ नहीं लिखाए फिर भी रन्नी पाँचों वक्त की नमाज बदस्तूर पढ़़ती हैं। उन्होंने दुपट्टा गले में लपेटा और तखत से नीचे उतर कर नमाज अता करने लगीं।
हॉल के दरवाजे शीशे जड़े थे और हमेशा खुले रहते थे.....अन्दर के कमरे बहुओं में बँटे थे। तखत पर भाभीजान बैठती थीं और पूरे घर को अपनी बुजुर्गियत की सुरक्षा में सँजोये रहती थीं। तखत के सामने भाईजान की कुर्सी थी.....लम्बी आरामकुर्सी जिस पर वे शाम को बैठते। तख्त से लगे टेबिल पर चमकता हुआ पीतल का पानदान रखा रहता। बन्नो उसे रोज इमली से चमकाती थी। तख्त पर सुन्दर कश्मीरी नमदा बिछा था और दीवार से लगे दो गावतकिये। जब से रेहाना आई थीं इसी तखत पर सोती—बैठतीं। भाभी सामने वाले पलंग पर बैठतीं। दाहिनी बाजूए जमीन पर कालीन बिछाकर सोफे रखे थे और बीच में काँच जड़ा बड़ा—सा टेबिल। आपा आईं तो तखत के कोने पर बैठ गईं—श्कैसी हो रेहानाघ् क्या हो गया है तुम्हेंघ्श्
रन्नी फीकी हँसी हँस दीं—श्तुम तो आपा भूल ही गईं हमेंघ्श् आपा ने चूड़ियाँ छनकाईं और सरसरी नजर हॉल में घुमाईए फिर आहिस्ते से फुसफुसाईं—श्हम क्यों भूलेंगे.....तुम्हारी भाभी ने जो मना किया आने को।श्
रन्नी सन्न रह गई—श्भाभी ने मना कियाघ् क्या कहती हो आपाघ्श्
श्अल्लाह झूठ न बुलाये.....हम छोटे सरकार की खबर जो देते हैं तुम्हें। तुम ही कहोए इसमें छुपाने जैसी बात क्याघ् क्या बीमार नहीं होता कोईघ्श्
रन्नी का गुस्सा काफूर हो गया। भाभी के प्रति सिजदे में सिर झुक गया। कैसी बेमिसाल हैं भाभी। उसकी रूह को तकलीफ न हो ऐसे मौके टरकाती रहती हैं। पर रन्नी के लिए यूसुफ मियाँ का हवाला जानना बहुत जरूरी है।
श्कहो आपा.....कोई ताजा खबर है क्याघ्श्
श्है न! अगले जुमे फिर अॉपरेशन है.....अहमदभाई जा रहे हैं दुबई। सज्जो के अब्बा से कल ही तो मिले थे। कह रहे थेए जाने किन गुनाहों की सजा भुगत रहे हैं यूसुफ। न जाने किसके दुखते दिल की हाय है।श्
रन्नी ने ठंडी साँस भरी.....नहीं उन्होंने केवल कायर कहा है यूसुफ कोए कोसा कभी नहीं.....अल्लाह जानता हैए वे हमेशा दुआ ही करती रहीं यूसुफ की सलामती की। अपने महबूब को कौन कोसेगा भला।
श्इधर तीन—चार महीनों से ईंट का कारोबार भी बंद है। अहमद भाईए अस्सी के आसपास तो होंगे। गजब का जिगर हैए हाथ—पैर सलामतए नजर सलामतए सत्तर से कम ही लगे हैं मुझे तो। आते हैं कभी—कभी। शबरात के दिन तो आये थेए नेग—दस्तूर दे गये। इधर चहल—पहल देखकर पूछा था कि कौन आया है। तुम्हारे आने की सुनकर चुपचाप मकान निहारते रहे और बिना कुछ कहे चले गए। अब कहें भी क्याघ् यूसुफ मियाँ की ऐसी हालत! बाकी के दोनों लड़के अपने घर द्वार में मस्त। कारोबार चले भी तो क्याघ् यूसुफ मियाँ का बेटा आजकल अमेरिका में है.....पढ़़ाई कर रहा था वहाँ.....वहीँ अपना कारोबार शुरू कर दिया है और अहमद भाई बता रहे थे कि वहीँ की मेम ब्याह ली है।श्
रन्नी बी सुनती रहीं.....मानो फिल्म देख रही हों जिसके नायक यूसुफ हैं और नायिका कोई नहीं..... सब जानते हैं कि उन्होंने अपनी बीवी की याद में शादी नहीं की पर यह तो रेहाना ही जानती है कि हकीकत क्या हैघ् आपा से तफसील से पूरी दास्तान सुनए रन्नी गाव तकिये से टीक गईंए मन—ही—मन एक आह सी निकली—
आपा ने पानदान खोला—श्पान खाओगी रेहानाघ्श्
श्लगा दो।श्
श्आज भाभीजान नजर नहीं आ रहींघ्श्
श्यहीं तो थींए असर की नमाज के वक्त। भाभी ऽऽऽ।श्
रेहाना ने पुकारा तो भाभीजान फौरन आ गईंए घबराई—सी लगीं। आजकल ऐसा ही होता है। रन्नी की पुकार उन्हें घबरा देती हैए तबीयत न बिगड़ गई हो।
श्ओहो! आपा बैठी हैंघ् लो भईए इधर तो पान लग रहे हैं। थोड़ा सबर करे आपा.....चाय ला रही है सादिया।श्
श्लोए रख दिए बीड़े। नेकी और पूछ—पूछ। चाय की तो कब से तलब लगी थी।श्
श्अब तुम छुटकी का निकाह कर डालो आपा। फुरसत हो जाओगी।श्
श्अब देखोए बात तो चल रही है। दूसरी जगह लड़का देखा है। पढ़़ा—लिखा है.....फर्नीचर बनाने का कारोबार है। ऐन चौक पर बड़ी—सी दुकान है। दो भाई हैंए तीन बहनें। बहनें ब्याहने को बैठी हैं। बड़े भाई की शादी हो गईए बच्चे हैं दो। वालिदा नहीं है। पिछले जाड़ों में अल्लाह को प्यारी हो गईं। दुकान दोनों भाई मिलकर चलाते हैं और वालिद लकवा से बेजान बरामदे में पड़े रहते हैं।श्
श्ऐसा न कहो आपा। अल्लाह सबको राहत बख्शे। तो अब सोच कैसीघ् कर डालो न निकाहघ्श्
सादिया चाय ले आई। भाईजान वाली कुर्सी पर भाभी बैठ गईं। शाम ढ़ल रही थी। अँधेरा बढ़़ता जा रहा था। आपा ने चाय पीए पान का बीड़ा उठाकर गाल में दबाया और खड़ी हो गईं—श्पड़ी न रहा करो रेहानाए चलोगी—फिरोगी तो तबीयत सुधरेगीए कल चली आना उस तरफ।श्
रन्नी मुस्कुरा दीं—श्आऊँगी आपा। पड़ी क्यों रहूँगीघ्श्
आपा को छोड़ने रन्नी बरामदे तक आई। सड़क के उस पार घने दरख्तों के ऊपर आसमान में हँसिया—सा टँगा चाँद अँधेरे को छीलने की कोशिश कर रहा था।
रात के खाने से निपटए सब नींद को बेताब हो रहे थे कि तभी ताहिरा का फोन आयाए भाईजान ने उठाया। बताया कि शाहजी ने दो दिनों के लिए नूरा को रोक लिया है फिर फोन पर फूफी की बुलाहट—श्कैसी हैं फूफीजानघ् तबीयत सम्हालियेगा। शादी के दस महीने बाद पहली बार आपके बगैर कोठी में रहना पड़ रहा है।श्
श्आदत डालनी पड़ेगी मेरी गुड़िया.....फूफी क्या हमेशा समधियाने में पड़ी रहेगीघ् औरए शाहजी कैसे हैंघ्श्
श्छत पर दूरबीनों के आगोश में। अभी तो नूरा भाईजान के संग जम रही है बैठक। लगता है आज पूरा आसमान घुमा देंगे उन्हें।श् काफी देर फोन पर बातचीत होती रही। भाईजान तो सोने चले गए थे। भाभी पलंग पर लेटी जमीला से पिंडलियाँ मसलवा रही थीं। दुल्हन हाथ कम चलातीए हिलती ज्यादा थी। रन्नी हँस पड़ींए यूँ भी ताहिरा के फोन से मन बदल गया था।
भाईजान ने पीर मोहम्मद के उर्स के लिए करीम फूल वाले को अॉर्डर दे दिया था चादर बनाने का। गुलाबए मोगराए बेला के फूलों की सुन्दर—सी चादर बननी तय हुई। करीम ने कुछ रुपये एडवांस लिया और सलाम करता चला गया।
श्तुम्हें चलना है रन्नी।श्
श्मैंए अकेलीघ् पूरा कुनबा नहीं जायेगा उर्स देखने।श्
श्सब जायेंगे पर हमारे साथ तुम और तुम्हारी भाभी जायेंगे। बाकी अपनी—अपनी बेगमों के साथ जायेंगे। हम बूढ़़ों के साथ उन्हें क्या मजा आयेगाघ् उनका आकर्षण तो सजी—धजी दुकानें और नाश्ता पानी हैं।श्
अभी भाईजान ने दुकान जाने के लिए साईकल गेट से बाहर निकाली ही थी कि जमीला—सादिया में न जाने किस बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया। पहले धीरे—धीरेए फिर जोर—जोर से दोनों झगड़ने लगीं। भाभी खामोश—सी कुर्सी पर बैठी थीं। रन्नी ने घर में काफी तब्दीली महसूस की। दस महीने वह घर से कटी—सी रही थीए इस बीच जब भी आईंए मेहमानों—सी खातिरदारी हुई। बहुएँ दस महीनों में कितनी बदल गई हैं। उस दिन नायन मिरासिन को देने की बात पर शकूरा के तेवर देखेए आज बहुओं के।
श्भाभीए माजरा क्या हैघ्श्
श्रोज की झंझट है यहए जमीला तो फिर भी सबर क्र लेती है पर सादिया तो.....उफ!श् भाभी ने दुखी दिल से कहा।
श्तेज मिजाज की है छोटी दुल्हनए शकूरा भी तेज मिजाज है। दोनों में से एक को सब्र करना चाहिए वरना गृहस्थी कैसे चलेगीघ्श्
श्तुम गृहस्थी चलने की बात कहती होघ् शकूरा तो जिद्द किये है कि दुकान से उसका हिस्सा अलग कर दो.....नए मोहल्ले में मकान भी देख आया हैए कहता है वहीँ रहेगा।श्
रन्नी को ठेस—सी लगी। अभी घर के हालात सुधरे जुमा—जुमा चार रोज हुए हैं और अभी से नीयत बदलने लगी। शकूरा है भी ऐबी.....बचपन से ही उसकी लालच और अपने वाल्देन की परवाह न करना दिखाई देता था। नूरा समझदार है। अपनी अम्मी—अब्बू पर जान छिड़कता है.....दोनों के चेहरे की एक भी शिकन उसे बेचौन करने को काफी है.....अपनी जिम्मेदारियों का बोध है उसेए वही बात उसकी दुल्हन में है। नूरा ने उसे सिखाया है और फिर मर्द जैसा व्यवहार करता है औरतें वैसा ही तो सीख लेती हैं।
झगड़े का अंत हुआ बड़ी दुल्हन के रोने से। सादिया तो झल्लातीए पैर पटकती अपने कमरे में गई और धड़ाम से दरवाजा बंद कर लिया। रन्नी धीरे—धीरे जमीला के पास गईए उसके सिर पर हाथ फिराया—श्मत रो दुल्हन।श्
सहानुभूति पा वह उनसे लिपट गई और तेजी से रो पड़ी—श्जरा—जरा—सी बात पर झगड़ती है फूफीजानए आप अम्मी से कह दीजियेए हमारा काम बाँट दें। सुबह का नाश्ताए खाना मैं सम्हाल लूँगीए शाम का वह। उसे मेरे साथ हाथ बँटाना जरा भी पसंद नहीं।श्
श्सन ठीक हो जायेगा दुल्हन। सबर कर लो। तुम तो बड़ी होए समझदार हो।श् रन्नी ने तसल्ली दी और रुखसाना से अम्मी के लिए पानी लाने को कहा।
उर्स के मेले में न नूरा का परिवार गया न शकूरा का। चादर चढ़़ाकर भाईजान तो कव्वाली की महफिल में बैठ गएए उन दोनों को रिक्शा कर दिया। रन्नी का मन कुछ भी खरीदने का न था पर भाभी ने बच्चों के लिए मिठाई और बहुओं के लिए चूड़ियाँ खरीद लीं। छोटे—छोटेए रंग—बिरंगे पारदर्शी काँच के जानवरए पक्षी भी खरीदे जिन्हें वे हॉल की अलमारी में सजाना चाहती थीं।
सामान देखकर जमीला ने तो शुक्रिया कहा पर सादिया गाल फुलाये बैठी रही। रन्नी ने सोचाए वह भाईजान से कहेगी कि शकूरा को अलग हो जाने दो। इसमें हर्ज ही क्या हैघ् जिन्दगी में चौन जरूरी है। नया मोहल्ला मुसलमानों की बस्ती हैए कम से कम बच्चे अपना मजहब तो सीखेंगे। शकूरा की दुल्हन सादिया में कहाँ इतना शऊर है। उन्होंने तो एक वक्त की नमाज तक पढ़़ते नहीं देखा उसे। भाभी चश्मा चढ़़ाये भाईजान की कमीज में बटन टाँक रही थीं—श्लाओ भाभीजानए मैं टाँक दूँ।श्
श्तुम आराम करोए रन्नी बी। वैसे भी तबीयत नासाज है तुम्हारी। तुम्हारे बारे में सोचकर मन में हौल—सा उठता है। सब कुछ पाकरए सब कुछ छिन गया तुमसे।श्
रन्नी समझ गई। भाभी का इशारा यूसुफ और उसकी अजन्मी औलाद से है। पहले की बात होती तो रन्नी —ढ़़ता से कह देती कि भाभीए आप कायरों की बात मत करिये पर अबए अब तो मौत की दस्तक हो चुकी है। देखा जाये तो अब छिन रहा है सब कुछ। रन्नी उदास हो गईं—
श्भाभीजानए उन बातों को छेड़ने से क्या फायदाघ्श्
श्सच कहती हो रन्नी बीए यूसुफ अपने किए की सजा भुगत रहे हैं। अल्लाह सब देखता हैए उसकी लाठी में आवाज नहीं होती।श्
श्नहीं भाभीए ऐसा न कहिए उनके लिएए बस दुआ कीजिए। अल्लाह ये दिन किसी को न दिखाये।श्
रन्नी को ताज्जुब थाए सदा मुँह बंद रखने वाली भाभीजान आज इस विषय में खुलकर बात कर रही हैं। सालों गुजर गए। भाभीजान और उन्हें एक साथ ही तो हमल ठहरा था। रन्नी सब कुछ याद कर सिहर उठींए वो कतरा—कतरा हमल का गिरनाए आज भी रोंगटे खड़े कर देता है।
श्अहमद मियाँ की सेहत भी गिरती जा रही है। कारोबार ठंडा पड़ा है। ईंट के भट्टे तो दो साल से सुलगे ही नहीं। मुझे क्या पता नहीं है कुछ। पर मुझे क्याए जो जैसा करेगाए वैसा भरेगा। क्या मिला अहमद मियाँ को बेटे की चाहत पर रोक लगाने सेघ् बसी दुबारा गृहस्थी उसकीघ् सारी उमर अकेले गुजारी यूसुफ ने। मुझे तो रन्नी बीए यूसुफ मियाँ पर भी दया आती है। माँ—बाप को कुछ तो बच्चों की मर्जी का कर ही डालना चाहिए।श्
रन्नी का दिल चीत्कार कर उठा। वह दिल ही दिल में बुदबुदाई बस करो भाभी.....अब और कहोगी तो मैं रो पडूँगी।
दिल में वही गोला—सा अटकने लगा। कोहनियाँ फटने लगीं। चक्कर—सा आने लगा। रन्नी घबरा गई।
श्भाभी जरा उस पत्ते में से एक टीकिया निकाल दोए अचानक फिर वैसा ही लग रहा है।श्
भाभी ने फुर्ती से टीकिया देकर रन्नी को लिटा दिया और झुँझला पड़ी—श्तुमसे तो कुछ कहना ही गुनाह है। फौरन तबीयत पर ले आती हो बात को। लोए तौबा करी मैंने तो।श् रन्नी भाभीजान की इस अदा पर तकलीफ में भी मुस्कुराई। भाभी उसके लिए चाय बनाने चली गईं। रन्नी तकलीफ में डूबी यूसुफ तक पहुँच गई।
यूसुफ पलंग पर लेटे हैं। एकदम दुबले और कांतिहीन। शरीर में उठने तक की ताकत नहीं। नर्स कुरता बदलना चाहती है। एक बाँह उठाती है कि यूसुफ दर्द से बिलबिला जाते हैं। आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं उनके। सुनहला आभास देते कोमल बाल सारे झड़ चुके हैं। रन्नी दौड़कर उनकी बाँहों में समा जाती है। यूसुफ कहते कुछ नहीं बस उसे बिटर—बिटर ताके जाते हैं। उनमें इतना भी दम नहीं कि उसे अपने आलिंगन में बाँधें। बस अपनी एक उँगली उठाकर उसके होंठों पर फिराते हैं मानो अपना गुनाह कबूल कर रहे हैं। यूसुफ में हिम्मत होती तो आज रन्नी का अपना घर होता। ताहिरा बराबर बेटा होता.....वह बीवीए अम्मी बनी संतुष्ट होती पर उनकी कायरता ने रन्नी को जीते जी दफन कर दिया। रन्नी की सारी उमंगें चकनाचूर हो गईं। अब रन्नी में बचा ही क्या है.....साँस है तो कर्त्तव्य भी निभ रहा है। साँस टूटी और कुछ बाकी न रहेगा.....न जाने क्यों पैदा हुई वह। निरर्थकए निरुद्देश्य.....धरती का बोझ बढ़़ाने और भाईजान—भाभी को फिकर में डालने.....यूसुफ भी उसी के नाम की माला जपते तनहा जिन्दगी गुजार रहे हैं.....मौत की आहट मिल चुकी है.....जाने कब प्राण—पखेरू उड़ जायें.....यूसुफ के या रन्नी के।
श्रन्नी बीए सो गईं क्याघ् चाय पी लो।श्
रन्नी ने करवट बदली और आहिस्ता से उठी। फिर दीवार का सहारा ले गाव तकिये से टीक कर बैठ गईं। भाभी ने प्याला हाथ में पकड़ा दिया। प्याला हल्का—सा काँपा पर रन्नी ने हाथ की गिरफ्त मजबूत कर ली और घूँट—घूँट ची सुड़कती रही।
रन्नी की सलाह पर भाईजान ने गौर किया और शकूरा को नया मोहल्ला में शिफ्ट होने की रजामंदी दे दी। दुकान के भी दो हिस्से हो गए। कम से कम अब रोज—ब—रोज के झगड़े—टंटों से तो निजात मिली। शकूरा और उसकी दुल्हन भी खुश। छाँट—छाँट कर जहेज में आया सामान निकाला जाने लगा बल्कि भाभी खुद ही ला—लाकर बरामदे में रखती गईं। जमीला चुपचाप चौके में रोटीयाँ सेंक रही थी। रन्नी ने सादिया को पास बुलाया—श्देखो दुल्हनए खानदान की इज्जत तुम्हारे हाथों में है। उधर नयी जगह उल्टी—सीधी मत कह देना। औरत वही जो हर बात ढ़क—तोप कर रखे।श्
श्आप निशाखातिर रहिये फूफी जान.....हम कुछ थोड़ी बतायेंगे।श् सादिया ने चहककर कहा।
श्तुमसे यही उम्मीद थी। भाईजानए भाभी ने जिगर काट—काटकर बच्चों को पाला है। यूँ समझोए शकूरा के रूप में उनका आधा दिल तुम्हारे साथ है।श्
बच्चे तैयार हो चुके थे। टेम्पो भी आ गया था। शकूरा अपने साथ दो मजदूर ले आया था। सामान टेम्पो में बिस्मिल्लाह करके चढ़़ाया गया तो भाभी रो पड़ीं—श्मैंने घर का बँटवारा नहीं चाहा था.....श्
भाईजान और रन्नी ने उन्हें तसल्ली दी। जमीला ने रात का खाना कटोरदान में भरकर सादिया को दिया कि जाकर सामान वगैरह जमाओगी तब तक बच्चे भूखे हो जायेंगे। अचानक भावनाओं का वेग उमड़ा और सादियाए जमीला के गले लगकर फूट—फूटकर रो पड़ी—श्हमारी गलतियों को दिल में न लाइयेगाए यह तो महज घरों का अलगाव हैए दिल से तो हम यहीं रहेंगे।श् माहौल भारी हो उठा था। शकूरा की इच्छा थी कि फूफी साथ चलें और अपने पाक कदमों से उनके आशियाने को जन्नत बना दें पर फूफी की तबीयत। भाईजान भी पशोपेश में। फिर बात यूँ निपटी कि अगले जुमे सब नया मोहल्ला आ जायेंगे और पूरा दिनए पूरी रात साथ गुजारेंगे।
टेम्पो स्टार्ट हुआ। भाभीजान अब भी रोये जा रही थीं और जमीला अपराध से अन्दर कमरे में खड़ी थी। श्कमाल हैए ऐसे रो रही हो जैसे बेटी बिदा हुई हो। अरेए इसी शहर में तो हैं तुम्हारे साहबजादे। जरा उन पर भी गृहस्थी का बोझ पड़ने दो।श्
भाईजान ने भाभी को मीठी झिड़की देते हुए जमीला से ठंडा पानी लाने कहा। झिड़की उसे भी मिली—श्तुम क्यों बुरा—सा मुँह बनाये खड़ी हो.....रन्नीए समझाओ भई। भाई—भाई क्या अलग नहीं होतेघ्श्
लेकिन भाईजान की तमाम कोशिशों के बावजूद भी माहौल सम्हलने में हफ्ता—डेढ़़ हफ्ता लग गया। ताहिरा को पता लगा तो अम्मी को फोन किया। अम्मी बताती रहीं—श्तुम्हारी छोटी भाभी के लच्छन ही ऐसे थे। खानदान को लेकर चलना हर एक के बस की बात नहीं।श्
इस बात को सुनकर भाईजान भड़क गए—श्अपने बेटे को दोष नहीं देगीघ् पाई—पाई का हिसाब रखता था बड़े भाई कीए यह कोई बात हुईघ् नूरा का जीना हराम कर दिया था।श्
भाभी घबरा गईंए झट से फोन रन्नी को थमा दिया।
श्सलाम फूफीजानए आपसे लड़ाई करनी पड़ेगी। हर घड़ी तबीयत बिगाड़ लेती हैं। हमारे बिना आपका ये हाल हो रहा है और आपके बिना हम.....श्
श्क्योंघ् क्या हुआ मेरी बिटीया कोघ्श् रन्नी ने बेहद लाड़ से पूछा।
श्पाँवों में सूजन आ गई है। डॉक्टर ने नमक बंद करवा दिया है। गुलनार आपा भीगे बादामों को पीस दूध में पिलाती हैंए सुबह—सुबह। साथ में भीगे नारियल का टुकड़ा भी चबाना पड़ता है।श्
श्तसल्ली हुई बेटी। तुम्हारा तो खास खयाल रखा जायेगाए मुझे पता है।श्
श्इधर तो बात जंगल में आग की तरह फैल गई है। कल हिजड़े आये थे नाचनेए घंटे भर तक नाचते रहे। खूब नेग ले गए आपा सेए अब्दुल्ला ने तो चाय भी बनाकर पिलाई सबको।श्
रोज का नियम था। ताहिरा कोठी की हर बात फोन पर रन्नी को सुना देती। रन्नी को लगता मानो वे खुद कोठी में ही हों और आँखों के सामने नजारा हो रहा हो। कोठी के हर इन्सान से लगाव—सा हो गया था उन्हें। तब क्या कोठी की खातिर वे गुनाहों के दलदल में फँसीघ् जाने क्यों रन्नी अपने गुनाह का सबब ढ़ूँढ़ती हैं। वजह शायद यही हो ताहिरा का सर दोनों बेगमों के सामने न झुके। भाईजानए भाभी की तंगहाली दूर हो और सबसे बढ़़कर अपने गुनाह को कर्म की संज्ञा देना। मानो महाभारत की सत्यवती आज भी उनके दरम्यान है। सत्यवती ने कुल को विनाश से रोकने के लिएए प्रजा की रक्षा के लिए वेदव्यास से अम्बिकाए अम्बालिका को गर्भवती बनाने का आग्रह किया था। रन्नी ने भी वही किया। जब दीन—मजहब में नियोग पाप नहीं तो वह कैसे गुनाहगार हुईघ् लेकिन फिर भी रन्नी दोजख की आग झेलने को तैयार है.....। अगर गुनाह है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिएए या शायद मिल रही है। यूसुफ की बीमारी के रूप मेंए खुद की बीमारी के रूप में.....वरना चाहा तो रन्नी ने यही था कि एक रात ऐसे सोयें कि सुबह उठे ही नहींए पर ऐसी पाक मौत कहाँ मयस्सर हैघ्
रन्नी की बीमारी जड़ें जमाती जा रही थी। हाई ब्लड प्रेशर और डिप्रेशन हमेशा रहने लगा जिसकी वजह से दूसरे छोटे—मोटे रोग भी उभर आये। अब उनसे ज्यादा चला नहीं जाता था। तख्त पर पड़ी रहती थीं। कभी आपा आकर जबरदस्ती अपने साथ अमराई की सैर करा लातीं। अमराई के चप्पे—चप्पे में यूसुफ की यादें बसी थीं। जहाँ ईंट का भट्टा था अब वहाँ कुछ कालाए मटमैला—सा जमीन का टुकड़ा भर बचा था। जिस पर टूटी ईंटों के टुकड़े और चूरे बिखरे थे। चूहों ने बिल बना लिये थे वहाँए कुछ जंगली झाड़ियाँ भी उग आई थीं किन्तु भट्टे की पहचान अब भी मौजूद थी। कई दिनों से पेट्रोल पम्प भी नहीं खुला था। जाकिर मियाँ अपने गाँव गए थे.....आपा नहीं जा पाई थीं क्योंकि घर सूना कैसे छोड़ेंघ् हाँए यह खबर जरूर थी कि अहमदभाई दुबई जाकर खुद भी बीमार पड़ गए थे।
श्बेटे का सदमा होता तो भारी है। खुदा किसी को ये दिन न दिखाये।श्
फिर रन्नी के चेहरे की ओर देखाए घबरा गईं.....कहीं फिर ब्लड प्रेशर न बढ़़ जाये। बात बदलने की गरज से बोलीं—श्छुटकी की बात पक्की हो गई है। उसी सिलसिले में उसके अब्बा गाँव गए हैं.....शायद अगले महीने निकाह की तारीख निकल आये।श्
श्अच्छा! मुबारक हो.....तुमने क्या तैयारी की आपा निकाह कीघ् जोड़े सिलने दे दिये।श्
श्अभी कहाँघ् हो जायेगा सबए जरा रुपयों का इंतजाम हो जाये। अहमद मियाँ होते तो माँग लेते उनसे। उनके बाकी दोनों बेटे एकदम खडूस। एक पाई भी निकलवा लो तो जाने। हाँए उनकी वालिदा रहमदिल हैंए लेकिन उन्हें पता चले तब न।श् रन्नी को शकूरा याद आ गया। हर खानदान में एक न एक डिठौना तो होता ही है।
श्ताहिरा का छठवाँ महीना चल रहा है न।श्
श्छठवाँ! रन्नी लड़खड़ा—सी गईं। वकत का पहिया चल नहीं रहाए रपट रहा है। ज्यों रास्ता फिसलन भरा हो.....इस पहिये से लगी दो कजरारी आँखें हैं। रन्नी कितना तो काजल पोत देती थीं ताहिरा की आँखों में जब वह नन्ही—सी थी।
श्चलो बीए घर आ गया। न जाने कहाँ खो जाती हो चलते—चलते।श्
ऐसा ही होता आजकल। जाहिराना तौर पर वे ऐसी दिखाई देती है मानो तबीयत सम्हाल गई है पर अन्दर—ही—अन्दर हड्डियों की झंझर बाकी बची है। चमड़ी अपनी रौनकखोती जा रही है। इस बीच वक्त ने तेजी से करवट बदली है ताहिरा का छँटवा पूरा होने को हैए एक बार रन्नी की तबीयत के बहाने वह शांताबाई के संग आई थी। बुझ—सी गई है लड़की। पेट मटके—सा फूला.....पैरों में सूजन। जमीला ने तराजू ढ़ाँककर खुलवाया था तो लड़के की बरकत निकली। सब खुश थे.....यही तो चाहिए था शाहजी के खानदान को। ताहिरा चार दिन रहीए शर्म के मारे भाईजान के सामने नहीं आई। शांताबाई उन चार दिनों में बस रन्नी की तीमारदारी करती रही। सिर में तेल ठोंकतीए हाथ पैर दबाती.....मालिश भी कर देती। यह सब रन्नी की उन नौ—दस महीनों की कमाई है जो कोठी में गुजारे हैं उन्होंने।
एक रूटीन—सा बन गया था। वही फीकी उदास सुबह.....वही निराशा भरी शाम.....वही पूनम.....वही अमावस। रन्नी के दिन एक बहाव में बहते चले गए और देखते ही देखते ढ़ाई महीने गुजर गए। आज पाँच तारीख हैंए डॉक्टर ने पच्चीस तारीख बताई है ताहिरा की जचकी की.....। तो रेहाना बेगमए काम पूरा हो गया तुम्हारा। मानो कोई कानों में फुसफुसाया। रन्नी ने अँधेरे में खुली खिड़की पर नजरें जमा दीं।
दस दिन बाद छुटकी का निकाह था। जाकिर मियाँ ने अपनी औकात से बढ़़कर खर्च किया। आपा खुद आकर रन्नी को लिवा ले गईं। गद्देदार मूढ़़े पर बैठाया। पाँव चौकी पर रखे। दो दिन से रन्नी की तबीयत ज्यादा ही खराब थी। कल तो सारी रात आँखों में कटी पर आपा का आग्रहए जैसी भी थींए वे शादी में शामिल हुईं। छुटकी के ससुराल से चूड़ियों का डिब्बा आयाए पीसी मेंहदी से भरी परातए मिठाई के झाबेए मोगरे की कलियाँए लाल गुलाब के हार। कनाते तन गई थीं और बावर्ची भट्टी सुलगाकर दावत की तैयारी कर रहे थे। शामियानों पर झूमरें लटक रही थीं। लाउड स्पीकर पर लताए रफी के गीत गूँज रहे थे। आपा चूड़ियाँ खनकाती इधर से उधर डोल रही थी। लड़कियाँ शादी के गीत गाते हुए नाच रही थीं। तभी पेट्रोल पंप के सामने आकर कार रुकी। किसी ने आपा को खबर किया—श्अहमदभाई की कार।श् आपा दौड़कर दरवाजे तक आईं तो देखा ड्राइवर डिक्की में से सामान उतार रहा है और आगे सीट पर अहमदभाई की बेगम बैठी हैं। रन्नी मूढ़़े से उठकर धीरे—धीरे दरवाजे तक आई.....कार की खिड़की में से एक श्यामल चेहरा उन्हीं की ओर ताक रहा थाए वे सहम गई.....या अल्लाह! यूसुफ की वालिदा।
आपा और जाकिर भाई तो दौड़ गए थे कार की ओरए ड्राइवर सामान के पैकेट उठाये उन्हीं की ओर आ रहा थाए छुटकी के लिए सौगातें थीं उनमें। वे एकदम हड़बड़ा गईं लेकिन फौरन ही सम्हलकर सज्जो को बुलाया—श्शरबतए मिठाई लाओ इनके लिएए एक ट्रे उधर भी भिजवा दो कार के पास।श्
श्क्या खबर है यूसुफ मियाँ कीघ्श् उन्होंने ड्राइवर के सलाम का जवाब देते हुए पूछा।
श्क्या बतायेंघ् ईश्वर मालिक हैए उसकी जैसी मर्जी।श्
वे घबरा गईंए चेहरे का पसीना दुपट्टे से पोंछने लगीं।
श्यूसुफ साहब का तीसरा अॉपरेशन होने वाला है। इस अॉपरेशन के बाद के ७२ घंटे उनकी जिन्दगी के दिन बढ़़ा भी सकते हैं और खतम भी। दुबई से मालिक का फोन आया था कि जाकिर भाई के यहाँ शादी में सौगातें भिजवाओ। यहाँ से सीधे एयरपोर्ट जा रहे हैं। मालकिन आज रात ही दुबई के लिए रवाना हो रहे हैं। साथ में छोटे मालिक (यूसुफ के चचाजान) भी जा रहे हैं।श्
कार के पास खड़े जाकिर भाई और आपा का चेहरा उतरता गया। सज्जो की भेजी शरबत और मिठाई की ट्रे ज्यों की त्यों वापिस आ गई। मूढ़़े तक आते—आते रन्नी का पैर काँच के गिलास से टकरायाए गिलास टूट गयाए किचेर्ं रन्नी के दिल में बिखर गईं। कार स्टार्ट होने की आवाज के साथ ही रन्नी के अन्दर कुछ उबलता चला गया। जैसे खून शिराओं को तिड़का कर बाहर निकलना चाह रहा हो।
श्क्या हुआघ् अरेए जल्दी पानी लाओए पंखाए जरा इस तरफ घुमाओ। अरे लौंडियोंए दौड़कर भाभीजान को बुला लाओ।श्
पलभर में भाभीए भाईजान हाजिर। वे भी शादी में शामिल होने बस घर से निकल ही रहे थे कि गेट पर ही खबर मिल गई। तब तक नूरा ने डॉक्टर को फोन कर दिया और बाँहों में सहमी कबूतरी—सीए अपनी जान से प्यारी फूफी को उठाये तखत तक ले आया। सब सहमे से खड़े थे। डॉक्टर आये और रन्नी का हाल देख उन्हें अस्पताल में भरती करने की सलाह देकर चले गए। पर्ची पर लिख गए कि ष्अगर ले जाना मुश्किल हो तो एम्बुलेंस बुलवा लीजिए।श् लेकिन नूरा को चौन कहाँए टैक्सी रुकवाई और झटपट फूफी को उसमें बिठाल अपनी गोद में उनका सिर ले लिया।
टैक्सी ने तेजी से अस्पताल का रुख किया।
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पार्ट — 16
अस्पताल का केजुअलिटी वार्ड। रात भरए रन्नी को साँस की तकलीफ रही। आधी रात के लगभग अॉक्सीजन लगाना पड़ा। बाहर भाईजान और नूरा बैठे रहे। भाभी को घर भेज दिया था स्वयं भाईजान ने। भाईजान ऐसे दिख रहे थे मानो उनके शरीर से किसी ने रक्त की एक—एक बूँद निचोड़ ली होए जैसे बीमार उनकी बहन नहीं वे स्वयं हैं। रन्नी को यह पहला मेजर हार्ट अटैक था.....इतना जबरदस्त कि.....। शायद बर्दाश्त की अद्भुत शक्ति है रन्नी के अन्दर। अस्पताल ले जाई जाती रन्नी बस टुकुर—टुकुर भाईजान की तरफ देख रही थी। भाईजान को स्पष्ट महसूस हो गया था कि रन्नी के भीतर जीने की चाहत नहीं रही है। जब तक इन्सान के भीतर जीने की चाहत हो वह रोगों से लड़ता रहता हैए और जिस दिन चाहत खत्म हो.....तब वह भी खत्म हो जाता है।
एकदम सुबह डॉक्टर ने आकर बताया था कि अब मरीज की हालत में सुधार हैए वे अब देर तक सोयेंगीए इसलिए आप लोग घर जा सकते हैंए हम हैं ही यहाँ। भाईजान ने अपनी लाड़ली बहन को काँच के दरवाजे से झाँक कर देखाए उन्होंने इत्मीनान की साँस ली और नूरा के पीछे स्कूटर पर बैठकर घर चले गए।
रन्नी की जब आँख खुली तब तक अॉक्सीजन सिलेन्डर उनके पास से हटा दिया गया था। कमरे में कोई नहीं थाए दवाईयों की गंध और ठंडक थी। उसका दिमाग एकदम शून्य हो रहा थाए साँस फिर तेज चलने लगी थी। कल शाम की घटना उसे कतरा—कतरा याद थी।—ब्याह के गाने रुक गए थे। ढ़ोलक रुकी थी और उस बेहोशी के आलम में नूरा ने उसे सबके बीच से उठाया था। एक बार फिर वह अपने ही समक्ष अपराधी बनी खड़ी थी। निकाह का जो माहौल था वह तो बिगड़ा न! न भाईजान और न भाभी कोई भी शादी में नहीं शरीक हो पाएए हर घटना के बाद वह अपराधी हो उठती है। अब जीने का मकसद भी क्या रहा.....घ् ष्लेकिन तुम यूँ मुझे अकेला छोड़कर नहीं जा सकते यूसुफष्ण्ण्ण्ण्ण्वह बुदबुदायी.....आँखों से आँसू ढ़लके और गालों पर बह चलेए थोड़ी—सी आहट से वह चौंक पड़ी। इतनी भी शरीर में शक्ति नहीं थी कि आँसू भी पोंछ सके। सिस्टर अन्दर आईए ब्लड प्रेशर देखा और चार्ट भरने लगीए बोली—श्रोता क्यों हैए बिल्कुल ठीक हो जाएगा।श् फिर कंधे पर हाथ रखकर बोली—श्एकदम दुरुस्त.....गॉड को प्रेयर करने का।श् वह मुश्किल से मुस्कुरा पाई और पूछा—श्बाहर कोई बैठे हैं क्याघ्श्
श्नो तुम्हारा ब्रदर बैठा थाए कितना तो वरी करता था तुम्हारे लिएए रात भर सोया नहीं। साथ में शायद उसका सन भी थाए दोनों रात भर आईज क्लोज नहीं कियाए एकदम जागता रहा। फिर अरली मॉनिर्ंग डॉक्टर ने दोनों को जाने बोला।श् डॉक्टर भी आकर थोड़ी देर में देख गए। डॉक्टर ने कहा—श्कम्पलीट बेड रेस्ट करना है आपको। सिस्टर ने उसको स्पंज किया। बेड की चादरए तकिए का गिलाफ बदलाए दाँतों में ब्रश कराया और फिर पलंग का सिरहाना ऊँचा करके चली गई। जागते और सोते हुए डेढ़़—दो घंटे बीत गए। कभी आँख लगतीए कभी खुल जाती। जब आँख खुली तो देखा हाथ में बैग लटकाए भाभी अन्दर आ रही थीं।
श्कैसी हो ननद रानीए लोए तुम्हारे लिए मुसम्मी का ताजा रस अभी—अभी निकलवा कर ला रही हूँ। लेकिन तुम पहले कॉफी पी लोए दो बिस्किट भी खा सकती हो। बाहर डॉक्टर मिले थे—श्इंशा अल्लाए खतरा टल गया हैए अब तुम ठीक हो।श्
वह कठिनाई से मुस्कुराईए कुछ भी खाने से इन्कार में सिर हिलाया पर भाभीजान देख नहीं पाई। वह थर्मस से कॉफी उड़ेलती रहीं। कप में कॉफी डालकर बिस्कुट जबरदस्ती मुँह में डाल दिया। बिस्कुट चुभला भी नहीं पाई कि फिर साँस तेज चलने लगी।
भाभीजान ने गहरी नजरों से रन्नी की ओर देखा। मानो शरीर में खून ही न हो।
श्कोई खबर आई दुबई सेघ्श् कठिनाई से तेज साँसों के बीच रन्नी ने पूछा।
श्नए रात ही तो बीती है रन्नीए आज तो यूसुफ भाई की वालिदा दुबई जायेंगी शायद।श् फिर एकदम बात पलटकर बोलीं—श्आज सुबह ही फोन आया था शाहजी काए दर्द शुरू हो गए हैंए ताहिरा को अस्पताल ले गए हैं। देखना बेटा ही होगा। बेटा वक्त से पहले ही आ जाता है।श्
रन्नी मुस्कुरा दीए कॉफी पीकर आँखें मूँद लीं। भाभीजान की मीठी झिड़की सुनाई पड़ीं—श्यूँ किसी के लिए अपने प्राण ताजे नहीं जाते रन्नी बेगमए खुदा जो करता हैए सब उसके आस्माँ तले होता है। हम कौन होते हैं दुख और सुख मनाने वाले। तुम ठीक हो जाओ रन्नीए नूरा—शकूरा ताहिरा के घर जाना चाहते हैं। उन्हें भी लगा है कि कब ताहिरा के जचकी हों और कब वे जाएँ।श्
श्मैं कहाँ कुछ सोच रही हूँ भाभीए सब कुछ तो उस परवर—दिगार पर छोड़ ही दिया है।श्
श्लेकिन तुम चाहोगीए तभी तो अच्छी होओगी। तुमने तो जैसे कसम ही खा ली है कि अपनी तरफ से हिम्मत रखोगी ही नहीं।श् फिर फुसफुसाकर जैसे अपने आप से बोलीं—श्ये आपा भी जान की दुश्मन बनी हैए न वक्त देखती हैं न तबीयत।श् रन्नी ने अंतिम वाक्य सुना। आपा छुपाएँगी भी क्योंघ् उन्हें क्या पता है कि रन्नी यूँ पोर—पोर आज तक यूसुफ के प्यार में डूबी है। एक अॉपरेशन और.....फिर जिन्दगी का फैसला होगा। उधर क्या यूसुफ भी नहीं चाहते जीनाएण्ण्ण्ण्ण्रह—रहकर यूसुफ का चेहरा सामने घूम जाता।
भाभी खामोशी से रन्नी का माथा सहलाती रहीं। प्यार और अपनत्व भरे स्पर्श को महसूसते रन्नी रो पड़ी। फिर अटक—अटककर बोली—श्भाभी.....यूसुफ का तीसरा अॉपरेशन.....फिर जिन्दगी का फैसला.....।श्
श्खुदा कारसाज है रन्नी बी.....इस तरह हौसला—पस्त न हो.....कोई न कोई सबील निकल ही आएगा.....। अब बरसों हो गए रन्नीए क्या तुम्हारी खोज खबर ली यूसुफ भाई ने। और इधर तुम जान देने पर तुली होए देखो उधर शाहजी की हवेली खुशियों के इंतजार में सजी संवरी खड़ी हैए और इधर तुम.....!श्
रन्नी कैसे बताए भाभी को.....इतने वषोर्ं में सैंकड़ों बार आपा ने बताया होगा उसे कि यूसुफ भाई की वालिदा के खतों में यूसुफ भाई उसका कितना जिक्र करते हैं। यहाँ तक बताया यूसुफ भाई की वालिदा ने कि उन्हें नहीं मालूम था कि यूसुफ इतना जिद्दी निकलेगा। आपा तो अक्सर अहमद भाई की कोठी में जाती ही रही हैं। और कुछ न कुछ काम करके कमाती ही रही हैं। लेकिन उसने कभी भाभी को यह बात नहीं बताईं।
श्न भाभीए ताहिरा को मेरे बारे में मत बतानाए वह बर्दाश्त कैसे करेगी।श् बोलते हुए हाँफने लगी रन्नी।श् डॉक्टर ने कम्पलीट बेड रेस्ट बताया हैए तो यह मुसम्मी का रस पी लोए और सो जाओ।श्
श्नहींए अभी तो कॉफी पी हैए मैं कुछ न लूँगी।श्
उसने आँखें बंद कर लीं और जैसे नींद आ गई हो ऐसे सिर टीका लिया।
भाभी उठकर बाहर चली गईंए बाहर शकूरा और उसकी पत्नी सादिया आते दिखेए भाभीजान दोनों को लेकर अस्पताल के बगीचे में जाकर बैठ गईं।
रन्नी की नींद खुली तो देखा कमरे में सभी मौजूद हैंए नूराए शकूराए भाईजानए भाभी और सादिया। रन्नी मुस्कुराई। भाईजान ने उसके माथे पर हाथ रखाए कुछ बोले नहीं। मानो दुनिया जहान की खामोशी और उदासी उनके भीतर पैबिस्त हो गई थी।
भाईजान अपने आपको गुनाहगार क्यों महसूस करते हैंघ् रन्नी सोचने लगी। ताहिरा सुखी तो है। फिर किस्मत से बड़ा कुछ नहीं होता। उसकी किस्मत में कुछ भी तो नहीं था इसलिए कुछ नहीं मिलाए फिर गुनाहगार भाईजान कैसेघ्
श्छुटकी का निकाह ठीक—ठाक निपट गया नघ्श् रन्नी ने पूछा।
श्हाँ! बहुत अच्छे सेए जमीला तो बच्चों के साथ वहीँ थी।श्
भाईजान कमरे में एक ओर कुर्सी पर बैठ गए। भाभी ने थर्मस से मुसम्मी का जूस निकालाए ग्लूकोज मिलाया और जबरदस्ती रन्नी को पिलाने लगीं। रन्नी की आँखें भर आईं। दोनों ने एक दूसरे को देखाए पीड़ा समझी और फिर भाभी की आँखें भी भर आईं।
घंटे भर तक सभी बैठे रहे। भाभी छुटकी की शादी की बातें बताती रहीं। जो जमीला ने बताई होंगी। फिर ताहिरा की बातें चलती रहीं। रन्नी से अधिक बोला नहीं गया। श्तुम दोनों घर चले जाओ अबश् रन्नी ने शकूरा और उसकी पत्नी से कहा—श्नूराए तुम भी भाईजान को लेकर जाओए उन्हें आराम करना चाहिएए मैं अब ठीक हूँ।श् भाईजान ने भर नजर अपनी बहन को देखा मानो कह रहे हों कि ष्क्यों झूठ बोलती हो रन्नीए तुम्हें क्या मैं जानता समझता नहींए सदैव तुमने अपने दुःख दर्द हमसे छिपाए।ष्
रन्नी ने नजरें नीचे कर लीं। मानो सब कुछ समझ गई हो कि भाईजान कहना क्या चाहते हैं।
लेकिन वे गए नहींए नूराए शकूरा और उसकी पत्नी चले गए। भाभीजान कुर्सी पर ही सो गईं। भाईजान दूसरे पलंग पर सो गए।
रात को नूरा मुसम्मी का रसए कॉफीए एक पतली—सी रोटी और लौकी की बगैर मिर्च मसाले की सब्जी फूफी के लिए और अपनी अम्मीए अब्बू के लिए टीफिन में खाना लेकर आया। उस दिन शकूरा अपने परिवार के साथ घर पर ही रुका। उधर ताहिरा फिर अस्पताल में भर्ती थीए हवेली से शाहजी फोन पर हाल—चाल बता रहे थेए और इधर फूफी की चिन्ता। वे लोग इसीलिए नूरा के पास रुके थे कि कब कौन—सी जरुरत आ पड़े।
रन्नी ने कुछ नहीं खाया। कॉफी भी जबरदस्ती भाभी ने पिलाई। भाईजान ने भाभी को घर भेज दिया। स्वयं खाना खाकर पलंग पर लेट गए। भाभी का बिलकुल सुबह आना तय हुआ। यूँ अस्पताल में किसी का रुकना अनिवार्य नहीं थाए परन्तु अकेले छोड़ने का भाईजानए भाभी किसी का भी मन गवारा नहीं कर रहा था।
श्आज तीसरे ताहिरा को घर वापिस भेज दिया गया था। डॉक्टर ने कहा है कि नॉर्मल जचकी की राह देखेंगेए जब सब कुछ नॉर्मल हैए और दर्द ठीक से नहीं आ रहे हैंए तो थोड़ा वक्त और इंतजार किया जा सकता है।श् भाभी आकर बता रही थीं।
रन्नी चिन्तित हो उठीए भाभी बोलीं—श्कभी—कभी ऐसा होता हैए चिन्ता की कोई बात नहीं।श्
रन्नी की हालत में कुछ भी सुधार नहीं हुआ। डॉक्टर कहते हैंए मरीज को खुद भी हिम्मत रखनी चाहिए। मरीज हिम्मत हारेंगेए तो हम कैसे इलाज करेंगेए लेकिन भाईजान समझते हैं कि रन्नी के अन्दर जीने की चाहत शेष नहीं हैए वरना जितनी हिम्मत रन्नी के अन्दर हैए उतनी किसी के अन्दर हो ही नहीं सकती। रन्नी लगातार सोचती रहीए अब हवेली में उसकी जरुरत नहीं। भाईजान के फलते—फूलते खानदान में उसके लिए इंच भर जगह नहीं। कहीं कोई छत खुदा ने उसके लिए बनाई ही नहीं। सारे फर्ज खतम हो रहे हैं उधर यूसुफ जिन्दगी की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं। किसके लिए जिए वहघ् जब भी अकेली होती.....आँखें भरी होतीं। लगता मन भर का पत्थर दिल पर रखा है। कभी उस बोझ से हाँफने लगती। कभी शाहबाज सामने आतेए शायद हाँ! हो सकता था यदि हवेली के लोग उसके साथ जबरदस्ती करते तो वह निर्णय ले भी लेती.....यूसुफ की याद दिल में रखे। लेकिन वह शहनाज बेगम का रुख जान गई थी। छिरूए मेहरबानी के गस्से तो उससे कभी चबाए नहीं गए.....और फिर इस उम्र में। उसने कभी किसी के रहमो—करम पर जीना सीखा नहींए हमेशा खुद्दारी की जिन्दगी जी है। और अबए जब सारे मकसद खतम हो चुके हैं.....जिन्दगी का फायदाघ् गुनाह भी हुए उससेए लेकिन उन गुनाहों के पीछे कहीं कोई मकसद भी रहा.....सोचते—सोचते आँख लग गई। रात फिर अचानक सीने में दर्द उठाए वह चिल्ला उठीए भाईजानए फिर उसे कुछ याद नहीं। नीम बेहोशी में देखा कि डॉक्टरए नर्स खड़े हैंए पाँवों के पास भाईजान खड़े हैं। घड़ी की टीक—टीक थी अथवा दिल के धड़कनों की टीक—टीकए वह समझ नहीं पाई। पसीने से बाल भीगे थेए डॉक्टर कह रहे थे माइल्ड अटैक है।
हाँ! उसने सुना थाए डॉक्टर कह रहे थे भाईजान से कि मरीज को कोई गहरा सदमा लगा है। यदि कोई देश के बाहर हो तो बुलवा लें। भाईजान बाहर चले गए थे। रिसेप्शन से उन्होंने घर फोन किया और कहा कि नूरा या शकूरा अपनी अम्मी को अभी अस्पताल छोड़ जाएँ।
रात को तकरीबन तीन—साढ़़े तीन बजे का वक्त थाए रन्नी ने आँखें खोलींए देखाए भाभी कुर्सी पर बैठी थीं। भाईजान को नजरों ने ढ़ूँढ़ा परन्तु वे दिखे नहीं। होंठ पपड़ा गए थेए प्यास लगी थी। उसे महसूस हुआ बाहर तेज आँधी उर बारिश है। बिजली रह—रहकर चमक रही है। अम्मी को खाँसी का दौरा पड़ा है। कहाँ हो भाईजान तुम.....इतनी बारिश में दवा कैसे लाऊँ.....रन्नी चीखी.....भाईऽऽऽ जान.....अम्मी.....उसी समय पेड़ की शाख टूटीए चरमराकर नीचे गिरी और अम्मी ने दम तोड़ा.....वह बिलख रही थी.....भाई जान.....अम्मी। भाईजान ने ममत्व भरा हाथ उन पर रखा.....बूढ़़ी थकी आँखों ने जान लिया कि रन्नी उनकी बहन.....अब बस.....वह फिर आँखें बंद कर लेती हैं।
भाभी धीमे से एक चम्मच मुसम्मी का रस मुँह में डालती हैं। वह इंकार में सिर हिलाती है और आँखें मूँदे करवट बदल लेती है। भाभीए भाईजान थके—हारे से कमरे से बाहर हो लेते हैं। काली चट्टानें उसके पास से सरक रही हैं.....वह सूरज का गोला पकड़ने दौड़ रही है। गुलमोहर के पेड़ के नीचे वह खड़ी हैए और उसके लाल फूल टपक रहे हैं। हालाँकि छाया अच्छी है और धूप ने पत्तियों और टहनियों से चू कर सड़क के इस किनारे अच्छी जाली काढ़़ दी है। भाईजानए इस साल गर्मी बला की पड़ेगी देखनाए वह बुदबुदा उठती है। सामने आमों की अमराई है। उसकी चुनरी अटक गई है और एक दिव्य पुरुष ने उसकी चुनरी शाख से उतारकर दे दी है। कौन है वह दिव्य पुरुषए यूसुफए आम में बौर आ गई है। उसने गहरी साँस ली। धौंकनी जितनी तेज चलेगी भट्टी उतनी ही धधकेगी.....वह वह हाँफने लगी। भाई जान भागकर अंदर आए.....श्क्या हुआ रन्नीघ्श्
श्भाई जान.....देखोए आँधी में कितने आम गिरे हैंए बटोर लाऊँश् वह कहती है।
भाभी की अॉंखें डबडबा आईं। उन्होंने माथे पर हाथ रखा और निरुपाय—सी खड़ी हो गईं। डॉक्टर कहते हैं.....अक्सर ऐसा होता है.....कोई पुरानी घटना बहुत हांट करती है।.....भाभी अपने शौहर से लाख छुपाएँ लेकिन क्या भाईजान नहीं जानते कि यूसुफ की बीमारी और उसका मौत की तरफ बढ़़ना रन्नी नहीं जानती.....क्या उसके हार्ट अटैक की वजह यूसुफ नहीं हैघ् वे अपनी पत्नी के कंधों पर हाथ रखे उन्हें बाहर ले आए। बाहर नूरा चाय का थर्मस लिए खड़ा था.....भाईजान कुछ नहीं कहते.....लेकिन मन में लगातार संशय है।
श्भाभीए जानती हो शाहबाज खान मुझसे निकाह करना चाहते थे।श् अपनी टूटती आवाज में रन्नी ने कहाए भाभी चौंक पड़ीं.....हाथ का दबाव सिर पर बढ़़ गयाए श्लेकिन मैं यूसुफ को कभी भुला नहीं पाई.....भाभीए सिर्फ मेरे ष्हाँष् की देर थी और सुख मेरे आँचल में भर जाते। लेकिन यूसुफए मैंने तो उन्हें हर वक्तए हर क्षण चाहा हैए उनसे अलग तो मैंने कभी कुछ सोचा नहीं। और भाभी मैं तो ताहिरा का घर—संसार बसाने गई थी.....अपना भविष्य सँवारने नहीं।श् भाभी ने अपनी ननद को हैरत से निहारा। यूँ तो शाहबाज की बातें कई बार ताहिरा और रन्नी ने बताई थीं परन्तु यह तो एकदम नई बात थी। कितना दुःख सहेगी यह औरत.....भाभी जान ने सोचा। किसी को कभी शायद इल्म भी नहीं होगा कि इसके सीने में कितने समुद्र हाहाकार कर रहे हैं। सदा दूसरों के लिए जीने वाली इस औरत को कोई जान सकेगा कि इसे भी कभी घर बसाने की इच्छा हुई होगीए कि इसके सीने में भी अरमान होंगे। कि इसने भी यूसुफ के रूप में एक ऐसे पुरुष की कल्पना की थी जो उसका सम्पूर्ण होगाए उसके सुख—दुःख का साथी। कैसे इसके अरमान कुचले। स्वयं यूसुफ ही गुनाहगार हैघ् और अहमद भाईघ् उन्हें क्या मिला.....क्या वे यूसुफ का दुबारा घर बसा पाएघ्
श्हाँ! भाभीए कुछ सेकेन्डों को यह अहसास मेरे जेहन में आया था कि मुझे भी एक छत मिलती..... जिसके नीचे मैं रहती.....जो निहायत अपनी होती। लेकिन यह अहसास उसी क्षण का था फिर यूसुफ का चेहरा सामने थाए बस इतना ही भाभी.....इतना हीश् कहते हुए रन्नी हाँफने लगी। श्दो बिस्किट खा लो रन्नी और कॉफी पी लोए फिर आराम से सोना। बस कुछ सोचो मत।श्
रन्नी ने ष्नहींष् में सिर हिलाया और आँखें मूँद लीं। दस मिनिट बाद वह फिर हाँफने लगी। भाभीजान समझ रही थीं उस अहसास को जो रन्नी को भीतर—भीतर से खोखला कर रहा था।.....शायद जिन्दगी में पहली बार रन्नी ने इस ढ़ंग से कहा होगा.....श्निहायत अपनी छत.....श् जबरदस्ती उठाकर भाभी ने रन्नी को कॉफी पिलाई और दो बिस्किट खिलाएए थोड़ी देर वह पलंग से टीकी सोती रही फिर नीचे खिसक कर गहरी नींद में सो गई।
गुलमोहर के मुरझाए लाल फूल पड़े हैं। उसकी आँखों में नीलीए सुनहली आकृतियाँ नाच रही हैं। कोई उसे.....माँ कहकर पुकार रहा है। उसके सामने काली चट्टानें हैंए और ढ़ेर सारे झाड़। झाड़ों के परे दूर पहाड़ों की रेखा उसे बहुत भली लग रही है। कहाँ है उसका चेहराघ् वह उसका चेहरा क्यों नहीं देख पा रही हैए शायद देख भी नहीं पाएगी.....। बस उसे लग रहा है कि अट्ठारह वर्ष का खूबसूरत नौजवान लड़का उसके पास स्टूल पर बैठा है.....। वह उसके साथ खड़ी होकर सूर्यास्त देख रही है। विशाल झील के किनारे का सूर्यास्त.....ष्गड़पष् से सूरज झील में डूबता है और अंधकार छा जाता है.....। काली चट्टानें हाथ बढ़़ाती हैं और उस खूबसूरत लड़के को पकड़कर निगलना चाहती हैं.....। एक काली भयानक औरतए काले तसले में उसके बेटे के टुकड़े का अंश लिए खड़ी है.....और हँस रही है। उसके पीले दाँत उसे डरा रहे हैं। वह चीख उठी श्भाईजानए देखो तो.....।श् भाभी भागकर अन्दर आईं। क्या हुआ रन्नीघ् क्या कोई खौफनाक ख्वाब देखाघ्श्
वह आँखें खोल देती है.....श्खौफनाक भी था भाभीए खूबसूरत भी.....। बेटा देखा मैंने अपना.....और फिर उन काली चट्टानों ने मेरे बेटे को ऐसा निगला कि.....। क्या तुमने देखा था भाभीघ्श्
श्कुछ न सोचो मेरी प्यारी ननद रानीए वह सचमुच एक खौफनाक ख्वाब था जिसे बीते बरसों गुजर गए।श्
श्कल रात ही खबर आई हैए अब ताहिरा को दर्द आ रहे हैं।श्
पीड़ा में भी मुस्कुरा उठी रन्नी.....श्देखना बेटा होगा.....मैं रहूँ न रहूँ.....तुम अच्छी—अच्छी सौगातें भिजवाना उन्हें। और हाँए भाभीए यह मेरी ऊँगली की हीरे की अँगूठी ताहिरा के बेटे को दे देनाए मेरी तरफ से.....श्
श्तुम खुद दे देना रन्नी बीए अपने हाथों सेए जब ताहिरा अपनी औलाद को यहाँ लेकर आएगी। तब.....हम बड़ा जश्न मनाएँगे.....श्
वह मुस्कुरा उठी—श्भाभीजानए मेरे पास वक्त कहाँ हैघ् बस ये चंद घंटे।श्
भाभी ने उसे उठाकर पलंग से टीकाकर बिठा दिया। वह घूँट—घूँट कॉफी पीने लगी।
श्मैंने तुम्हारे भाईजान को घर भेज दिया हैए सोने के लिए.....सारी रात वे जागे हैं।श्
रन्नी उनकी तरफ चुपचाप देखती रही। कुछ कहना चाहा पर चुप रही।
श्ऊटपटांग मत सोचा करो रन्नी। चाहत जगाओ अपने में। अच्छी होकर घर चलोए देखती नहीं अपने भाईजान की हालतए उनके प्राण तुम्हीं में अटके हैं। वे टूट रहे हैं रन्नी।श् भाभीजान फफककर रो पड़ीं। रन्नी ने उनका हाथ दबायाए कुछ कहा नहीं पीड़ा से मुँह मलिन हो गया।
दोपहर को नूरा अपनी पत्नी के साथ टीफिन लेकर आयाए फूफी को उठाकर उसकी पत्नी ने दाल में डुबोकर रोटी का ऊपर का पतला हिस्सा खिलाया। फिर मुसम्मी का जूस पिलाकर लिटा दियाए रन्नी सोई नहीं.....लगातार ताहिरा सामने आती रही।
श्फोन किया थाए ताहिरा का क्या हाल हैघ्श् उसने नूरा से पूछा।
श्हाँ! शाहजी ने बताया था कि ग्लूकोज चढ़़ाया जा रहा है। शायदए अॉपरेशन से डिलीवरी होगीए ऐसा डॉक्टर ने कहा है।श्
श्शाम को फिर फोन करना।श् रन्नी ने कहा।
श्फूफी दोनों तरफ से लगातार फोन किए जा रहे हैंए आप फिकर न करें।श्
उसने फिर आँखें बंद कर लीं। नींद का नामोनिशान नहीं था। शायद सारी रात और दूसरे दिन देर तक सो ली थी इसीलिए वह ताहिरा की सेहत के लिए दुआ करने लगी। सुबहए बिलकुल सुबहए यूसुफ उसके सामने आकर खड़े हो गए थे। नहींए वह गलत हो ही नहीं सकतीए जानती है कि यूसुफ उसे लगातार याद कर रहे हैं। आँखें खोलकर देखा था उसने.....और फिर वह रो भी नहीं सकी.....फटी आँखों से देखती रही.....यूसुफ ही थेए भ्रम नहीं था उसका। और वह थी अंतिम बिदाई.....आँखें बंद की थीं उसने और फिर साँस तेज चलने लगी थी। कितना रो सकती है आखिर वह.....यही तो देखना चाहती थीं न आँखें। सिस्टर ने आकर शायद उसे फिर नींद का ही इंजेक्शन दिया थाए वह देर तक सोती रही थी।
शाम को आपा सज्जो के साथ आईं। रन्नी ने आँखें बंद कीं और फिर खोली तो आँसुओं से भरी थींए यही देखने आईं हैं न आपा.....कि रन्नी जीवित हैघ्
भाभी ने कहा—श्अच्छी आई तुमए अब थोड़ा बैठो रन्नी बी के पासए मैं घर देख सुन आऊँए तुम्हारे भाईजान के साथ वापिस आऊँगीए नहा भी लेती तो अच्छा लगता।श् कहते हुए भाभी जाने लगींए नूरा और जमीला अपनी अम्मी के साथ घर चले गए।
रन्नी ने आपा की ओर देखा। आँखें लाल थीं उसकी.....फिर भी चेहरे पर एक दुःखभरी मुस्कान। मानो बुझते दिये की लौ कुछ हवा पा जाए यूँ.....।
श्यूसुफ नहीं रहे न आपाघ्श्
आपा आश्चर्य से उसकी ओर ताकने लगींए ण्ण्ण्ण्ण्श्आज सुबहए पाँच बजे के लगभग.....है न.....श् आपा उसे ताकती ही रह गईंए मानो तुम्हें कैसे पता चला ऐसे ताकती रह गईं.....क्या कहें.....रेहाना बेगम जो अपने आप सब कुछ जान चुकी हैंए उनसे कैसा छिपानाघ्
आपा ने स्वीकृति में सिर हिलायाए श्खबर आ गई है.....सुबह का ही समय बताया थाए वही समय रहा होगा।श्
रन्नी बिलख उठी.....। इतनी तेज रुलाई कि सज्जो भाग कर आ गई.....। वह पसीने से तरबतर..... श्वे मुझसे मिलने आए थे आपा.....एकदम सुबह।श् ण्ण्ण्ण्ण्रन्नी चीख उठीए आपा फिर हैरत से रेहाना को देखती रहीं। हृदय की भट्टी तेज धधक उठी.....सारे कोयले चुक गए थे.....। डॉक्टर भागे.....दूसरा मेजर हार्ट अटैक आ गया। .....रन्नी बुदबुदाई.....। श्पॉट..... पॉट.....श् सिस्टर पॉट लेकर दौड़ी.....सज्जो भागी फोन करने..... सामने शकूरा और सादिया आते दिखे। सज्जो रोने लगी....भाईजान फूफी की हालत गम्भीर हैए घर फोन करो। शकूरा फोन करने दौड़ा और उसकी पत्नी फूफी की ओर। डॉक्टर ने दरवाजा बंद कर लियाए बाहर आपाए सज्जो और शकूरा तथा सादिया खड़े थेए आधे घंटे में भाईजान और भाभी आ पहुँचेए आपा भाभी के कंधों पर सिर रखकर रो पड़ीं।
श्खुदा गवाह है नूरा की अम्मी.....मैंने कुछ नहीं बतायाए वे खुद बोलीं कि यूसुफ नहीं रहे.....वे अल—सुबह उनसे मिलने आए थे.....और मैं सब कुछ सुनते हुए भुच्च बनी बैठी रह गई।श् भाभी ने आपा के कंधे थपथपा दिएए कोई भी दिलासा व्यर्थ था। रन्नी जीना ही नहीं चाहती थीं। ये उनसे छुपा नहीं रह गया था।
करीब दो घंटे के अथक प्रयास और हार्ट को बिजली के करंट से पुनः वकिर्ंग में वापिस लाकर वे रेहाना बेगम को मौत से बचा पाए।
डॉक्टर बाहर आए। कहा—श्मरीज को की जबरदस्त सदमा लगा हैए यदि तीसरा हार्ट अटैक इतनी जल्दी आ गया जैसे अटैक आ रहे हैंए उसको देखते हुए तो हमारे लिए मुश्किल होगा.....। कोई एक दो जने रुक जाएँए बाकी घर चले जाएँ।.....वे अब काफी देर सोएँगी।श्
भाईजान जाने के लिए तैयार नहीं हुएए भाभी भी रुकीं। बाकी सभी चले गए। रात दस बजे वह जागी। भाईजान ने आकर उसके बालों में हाथ फेराए उसने भर नजर भाईजान को देखा फिर आँखें मूँद लीं। भाभी ने कॉफी देने का डॉक्टर से पूछ लिया था लेकिन उसने मना कर दियाए भाभी का हाथ कसकर थामे रही फिर छोड़ दिया।
वह जाग रही थी। कमरे में आरामकुर्सी पर टीके भाईजान बैठे थे। भाभी भी वहीँ थकी—सी बैठी थीं। रन्नी को हलका—हलका दर्द फिर महसूस हो रहा था। बाँया हाथ भी दुख रहा था.....सिर भी भारी था। लेकिन वह कुछ बोली नहींए आँखें बंद किए लेटी रही.....
कौन हैघ् क्या हैघ् सामने क्षितिज का विस्तार है। उसने तय कर लिया है कि अभी अगर सूरज कहीं नजर आ गया तो इतनी सारी सुनहली रोशनी अपनी आँखों में भर लेगी कि बाकी के सफर में अँधेरों का सामना न करना पड़े।.....तो तुम चल दिए यूसुफए अपनी रेहाना को यूँ रोता बिलखता छोड़कर.....
बाहर चिलबिल के पेड़ के नीचे खटीया पड़ी है जिस पर वह लेटी है.....दूर आकाश में एक अकेली चील— अपने पंख पसारे तैर रही है। वह सूरज को ढ़ूँढ़कर अपनी आँखों में सुनहली आभा भर लेना चाहती है.....उसे चील का इस तरह तैरते देखना बड़ा अच्छा लगता था.....अम्मी उसे यूँ देखते देखकर कहती थीं—ष्तुझे उड़ने की बड़ी तमंना है न रन्नीए देखना तू खूब ऊँची उठेगी। तू.....स्कूल की प्रिन्सिपल बनेगी।ष् लेकिन वह पढ़़ नहीं पाई.....। समय के आगे छली जाती रही.....। अम्मी असहाय हो उठीं.....। अम्मी मैं उड़ना चाहती हूँ.....। लेकिन वह चील भी नहीं है अब कहीं.....आकाश बिल्कुल वीरान पड़ा है.....तारे चाँद कुछ भी तो नहीं.....सूरज को पकड़ने की तमंना कब की दफन हो चुकी। कितनी निर्दय रात है यह.....अम्मी ने कितना चाहा कि उसका घर पुनः बसे.....उनमें अंतिम साँस तक कितनी हसरत बाकी थीं।
एक अनंत शून्य में वह कैद होती जा रही थी। हाथों की उँगलियों के पोर—पोर जलने लगेए इच्छा हुई कि ठंडे पानी में हाथ डुबो देए और फिर देखे कि क्या मन ठंडक और जलन दोनों का एक साथ अहसास कर सकेगा.....। डर भी लगा कि अगर उँगलियाँ डुबोते ही सारा पानी भाफ बनकर उड़ गया तोघ् अचानक ढ़ेर—सी आम के बौर की खुशबू आ रही है। मिट्ठन डंडा लेकर तोते उड़ा रहा है। यूसुफ ने उसके रेशमी बालों में मोगरे के फूल टाँक दिए हैं और उसने शरमाकर अपनी काली—कजरारी आँखें धीमे—धीमे युसूफ के सीने पर टीका दी हैं। आम के बौर की सारी खुशबू उसके मन—प्राणों में भर गई है। यूसुफ ने उसे लिपटा लिया है। डूबते सूरज की सुनहली आभा से उसके रेशम से बाल और सुनहले चमक रहे हैं।
कितना खुशगवार लगता है यदि सफर में मनचाहा साथी साथ हो। महज चलते भर जाना और मंजिल की आशा रखना.....। आशा भी कितनी प्यारी चीज है.....। अब्बू कहते थे कि पेंडोरा ने जब अपने महबूब के जिद करने पर देवदूत की चेतावनी भुलाकर वह काला रहस्यमय संदूक खोल डाला था और दुनिया के तमाम दुःख दर्द उसमें से बाहर रेंग आए थे तब एकाएक बूढ़़ी हो आई पेंडोरा और उसके महबूब ने उस संदूक में निराश निगाहों से झाँका थाए दुनिया के सारे दुःखदर्द के नीचे संदूक के तल पर एक बेहद खूबसूरत चीज भी थी वह ष्आशाष् थी। पेंडोरा और उसका महबूब अपने—अपने नए बुढ़़ापे के दर्दनाक अनुभव के बावजूद भी आशा का सौम्य मुस्कुराता चेहरा देखकर आनन्द से विभोर हो उठे थे। भूल गए थे कि दुःख दर्द कैसे रेंगे थे।
उसकी आशा भी आशा की तरह सौम्य और खूबसूरत थी। अक्सर भ्रम होता था कि चाँदनी में घुलकर वह खुद चाँदनी बन जाए। नहीं वह चाँदनी कहाँ बनीघ् वह तो अमावस्या का अँधेरा बन गई। यूसुफ की बाँहों में भरकर जब जिन्दगी जीना चाहती तो उन्हें मिला बियाबान काला अँधेरा.....काले अँधेरे के पार डूबता सूरज.....सूरज ष्गड़पष् से डूब गया। यह पहली बार हुआ कि उन्होंने सूरज को झील में पूरा डूबते देखा। चारों तरफ स्याह अंधकार फैल चुका था। सारी झील अपनी विशाल लहरों समेत फैल गई थी। वह झील के किनारे खड़ी थी और लहरों ने उसे कमर तक घेर लिया था। झील में समुद्र जैसी लहरें उठ रही थीं। वह झील की दूरी आँखों से नाप रही थी और रह—रहकर किनारे पर देख रही थीए जहाँ उन्होंने बहुत बड़ा रेत का एक किला बनाया था.....। किला नहींए घर.....। और जो अधूरा था। वह साँस रोके उन इठलाती लहरों के झील में वापिस मिल जाने की राह देख रही थीए ताकि किनारे पर बह आए उस खजाने को बटोरकर अपना बालू का गहर सजा सके। अम्मी भी वहाँ खड़ी थीं.....। फिर अम्मी गायब हो गईं.....सिर्फ यूसुफ खड़े थे और उसे जोर—जोर से आवाज दे रहे थे। उसने उस अधबने घर की ओर देखा जहाँ एक लड़की घुटने के बल बैठी उसे देख रही थी। वह लड़की को पहचानने की कोशिश करने लगी। लड़की के हाथ में थे रेत से निकाली शंखए सीपियाँ और चमकीले पत्थर.....। उसकी आँखें सफेद सीप—सी थीं और भूरे रेशमी बाल.....। छींट की फ्रॉक पर भूरे बाल बिखरे हुए थे। बारिश तेज आई थी और बालू का घर ढ़ह गया था.....। लड़की बिलख पड़ी थी.....। झील का पानी बढ़़ता जा रहा था और उसके कमरे की दीवार से टकराकर सिर धुन रहा था। ऐसा लगा उसे कि झील की लहरें अपना सारा खजाना उससे वापिस माँग रही हैं। वे बारीक शंखए सीपियाँ..... जो उस लड़की ने रेत से बटोरे थे। वह सब शंखए सीपियाँ और रंगीन चमकीले पत्थरए वह सब वापिस लेने आया था.....। लड़की सब कुछ छिन जाने के दुःख से बिलखने लगी। बारिश थम गई थीए झील का पानी वापिस लौट गया और जब उसने सुबह उस जगह जाकर अपना घर तलाशा तो वहाँ रेत के निशां भी बाकी नहीं थे.....। वह छींट की फ्रॉक वाली लड़की भी नहीं थीए ण्ण्ण्ण्ण्कोई नहीं था.....। दर्द की टीस से उसने करवट बदली।
श्भाभी क्या बाहर बारिश हो रही हैघ्श्
श्नहीं तोए आसमान साफ हैए बारिश के तो दिन भी नहीं हैंए कैसा धुला आसमान दिख रहा है.....बस तारे चमक रहे हैं।श्
श्लेकिन मैंने तो अभी काला स्याह आसमान देखा।श्
श्सो जाओ रन्नी बी.....तुम्हें आराम की जरुरत है।श्
एक—डेढ़़ घंटे वह सोईए रात फिर बेचौनी ने घेरा.....तेज दर्द हुआ सीने में और फिर डॉक्टर्स की भागम भाग.....।
शकूरा दौड़ता हुआ आया था। उसके चेहरे से खुशी टपक रही थी।
श्अम्मी फोन आया है। ताहिरा को बेटा हुआ है। सिजेरियन डिलीवरी करनी पड़ीए दोनों एकदम ठीक हैं। शाहजी ने बताया कि हवेली दुल्हन की तरह सजायी है.....शैम्पेन खुली है.....वह और नूरा भी आ जाएँ।श्
भाभी ने दोनों हाथ इबादत में उठाए। हृदय से बच्चे को आशीर्वाद दिया.....उधर डॉक्टर ने आकर कहा कि मरीज की हालत सीरियस होती जा रही है।
शकूरा का चेहरा उतर गया। उसने तो सोचा था कि यदि फूफी अच्छी होंगी तो वह और नूरा ताहिरा के पास जायेंगे.....लेकिन फूफी तो और सीरियस हो गईं।
रात डेढ़़ बजे तक रन्नी सोती रही। बीच—बीच में जागी भी तो लगा जैसे सारा शरीर शून्य हो चुका है। कहीं कुछ बाकी नहीं बचा है। छींट की फ्रॉक वाली लड़की फिर नजरों के सामने तैर गई। मासूम बच्ची..... जिसने एक घर चाहा था.....अपना घर.....फिर बच्चा और तुम्हें यूसुफ.....। अजीब—सा लग रहा था उसे.....फिर लगा वह तो अपनी उमर भी नहीं जी पाई.....। वह तो बस कर्त्तव्य पालन ही करती रही। सबको सुखी देखना चाहा.....। मौत के ख्याल ने उसके अन्दर ऐसी चाहत जगाई कि उसने मुस्कुराकर आँखें खोल दीं.....। अब उसे अंधकार से कोई डर नहीं लग रहा था.....। अट्ठारह बरसों में पहली बार सूरज डूबा था.....और उसके चारों तरफ अंधकार फैला था। नहीं अब कहीं कुछ नहीं रह गया है.....कहीं भीए किसी भी अधिकार से उसके जीने का मतलब क्या हैघ् अपनी चवालीस मील लम्बी जिन्दगी की वह समीक्षा कर रही थी। उसे जागते देख सिस्टर ने भाभी को अन्दर भेजा।
भाभी अन्दर आईं और मुस्कुरा पड़ीं—श्अब तुम ठीक हो जाओगी ननद रानी.....गोद में खिलाओगी..... नाती को.....ताहिरा के बेटा हुआ है। हवेली में जश्न हो रहा है.....।श् वह मुस्कुरा पड़ीए दोनों हाथ उठाए इबादत में.....मेरे खुदा। मानो वे इसी खबर को सुनने के लिए रुकी हुई थी। मेरे परवरदिगारए मेरी रुखसत की घड़ी हैए यदि ये गुनाह था तो इसकी सजा मुझे ही देनाए मेरी लाड़ली बच्ची ताहिरा को नहीं। मुझे मुआफ करनाए मैंने तो महज अपना फर्ज निभाया है.....। उसे जोरों की ठसकी लगी। मानो साँस की नली में कुछ अटका हो.....आँखें फटी रह गईं और भाभीजान की गोदी में उनकी लाड़ली ननद का सफेद हीरे की अँगूठी वाला बेजान हाथ आ गिरा.....।
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