Parabhav - 15 in Hindi Fiction Stories by Madhudeep books and stories PDF | पराभव - भाग 15

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पराभव - भाग 15

पराभव

मधुदीप

भाग - पन्द्रह

"आपको मालूम है...आज हमारे मुन्ना की तीसरी वर्षगाँठ है |" मनोरमा ने कृष्ण को गोद में लेते हुए कहा |

"होगी!" उपेक्षा से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"आप आज मुन्ना को क्या लाकर देंगे?"

"तुम ही कुछ लाकर दे दो |"

"मैं ही क्यों?"

"तुम्हारा इस पर अधिकार है |"

"और तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है?"

"मेरा अधिकार!" कुछ सोचते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा, "तुम्हीं बताओ, मेरा इस पर क्या अधिकार है?"

"तुम इसके पिता हो |"

"लेकिन असली नहीं |"

"आपको ऐसी बातें मुन्ना के सामने नहीं कहनी चाहिए | अब वह समझने लगा है |"

"तुम मुझे सच कहने से मना कर रही हो!"

"ढोल लेकर सब को सुना दो कि आप बच्चे के पिता नहीं हैं | सारे समाज को बता दो कि यह बच्चा आपका नहीं है |" क्रोध से मनोरमा ने कहा |

"मैं न भी कहूँगा तो भी दुनिया एक दिन इस बात को अवश्य जान जाएगी | मैं इस बालक को सहन नहीं कर सकता |"

"इसे पैदा करने की आज्ञा आपने ही दी थी |"

"अपनी उसी भूल पर तो पछता रहा हूँ | जी चाहता है कि या तो इस घर को छोड़कर भाग जाऊँ या आत्महत्या कर लूँ |"

"यहाँ पर माँ का सहारा था, वह हमें छोड़कर चली गई | गाँव में पिताजी अब बूढ़े हो गए हैं | मैं किसके सहारे रहूँगी?"

"इस बच्चे के बाप के सहारे!" क्रोध और व्यंग्य से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"यह जानते हुए भी कि मैंने सिर्फ आपकी आज्ञा का पालन किया था, आप मुझे अपमानित कर रहा हैं!" रोष से मनोरमा ने कहा |

"अपमानित!" श्रद्धा बाबू के स्वर में घृणा उमड़ आई, "जी तो चाहता है कि तुम्हारा और बच्चे का गला घोंट दूँ |" कहकर बिना एक पल वहाँ रुके वह बाहर निकल गया |

कुष्ण को गोद में लिए खड़ी मनोरमा सन्न रह गई | उसने सच्चे दिल से प्रार्थना की कि हे भगवान! उसे उठा ले | कृष्ण उसकी गोद से उतरकर बाहर चला गया मगर वह कितनी ही देर वहाँ खड़ी सिसकती रही |

कुछ देर पश्चात् जब कृष्ण बाहर से आया तो मनोरमा वहीँ खड़ी सिसक रही थी |

"मम्मी, तुम क्यों रो रही हो | तुम्हें किसने मारा है?" माँ को रोते हुए देखकर उसने बाल-सुलभता से कहा |

"किसी ने नहीं बेटा, मेरी किस्मत ने ही मुझे मारा है |" मनोरमा कह उठी |

"किस्मत कहाँ रहती है मम्मी!"

"ऊपर रहती है बेटा!" मनोरमा ने कहते हुए कृष्ण को प्यार से अपने पास खींचकर गोद में ले लिया |

"मैं ऊपर जाकर किस्मत को खूब मारूँगा मम्मी |" कृष्ण ने कहा तो मनोरमा ने उसे अपने से भींच लिया | उसकी आँखें फिर बरसने को हो उठीं, मगर वह उन्हें किसी तरह रोकी हुई उठकर कमरे में चली गई |

खाना बनाने का समय हो रहा था | अँगीठी लगाकर उसने बाहर रख दी और स्वयं सब्जी काटने लगी | जितनी देर में उसने सब्जी काटी, अँगीठी आ गई और उसने भगोने में सब्जी छोंक दी |

आता गूंधते हुए वह अपने विचारों में इस तरह खो गई थी कि उसे अपने आस-पास का भी कुछ पता न था |

कृष्ण उसके पास ही रबर की गेंद से खेल रहा था | अचानक उसकी चीख सुनकर वह उठ खड़ी हुई | कृष्ण जलती हुई अँगीठी पर गिर गया था | अँगीठी और भगोना एक ओर को लुढ़के पड़े थे और बालक की चीख सारे कमरे में फैल रही थी | मनोरमा ने भागकर कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया |

बालक की चीख सुनकर आस-पड़ोस के घरों से कई स्त्रियाँ वहाँ आ गई | कृष्ण का एक हाथ सब्जी गिरने से जल गया था | मनोरमा ने उसके हाथ पर मेहँदी घोलकर लगा दी मगर वह जलन से बिलबिलाता रहा |

काम का समय था, इसलिए सभी स्त्रियाँ मनोरमा को धैर्य देती हुई शीघ्र ही वहाँ से चली गई |

मनोरमा ने कृष्ण को बिस्तर पर लिटा दिया था | उसका मन पहले ही भारी था, रुके हुए आँसू फिर बह निकले | आँसू बहते रहे और वह बच्चे को दुलारती रही, पुचकारती रही |

"मनोरमा...|" द्वार पर पति की पुकार सुनकर वह दरवाजा खोलने को उठी | उसने दरवाजा खोला तो लड़खड़ाते पाँवों से श्रद्धा बाबू ने कमरे में प्रवेश किया | नशे के कारण उसके पाँव डगमगा रहे थे | मनोरमा ने आगे बढ़कर उसे सहारा दिया तो शराब की दुर्गन्ध से उसका दम घुटने लगा | उसके लिए पति का शराब पीना कोई नई बात नहीं रह गई थी | पहली बार जब उसका पति शराब पीकर घर लौटा था तो उसे कितनी ग्लानी हुई थी | उस समय उसे आश्चर्य भी हुआ था कि क्या उस जैसा आदर्श व्यक्ति इस सीमा तक गिर सकता है! उस समय तो उसने विरोध भी किया था परन्तु अब तो उसमें विरोध करने का साहस भी नहीं रह गया था |

अन्दर आकर श्रद्धा बाबू जूतों सहित ही बिस्तर पर लेट गया | नशे के कारण उसकी आँखें बोझिल हो रही थीं |

"आज कृष्ण जल गया है |" मनोरमा ने कहा |

"कुल का दीपक है, जलेगा नहीं तो रोशनी कैसे होगी |" लड़खड़ाती हुई आवाज में श्रद्धा बाबू ने अपने मन का जहर उगल दिया |

पति की बात ने मनोरमा पर विष-बुझे तीर का काम किया था तो भी वह सहन कर गई |

"उसे एक बार उठकर देख तो लो |"

"मैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूँ |"

"आपको इस बच्चे से इतनी नफरत क्यों है?" मनोरमा स्वयं पर और अधिक संयम न रख कह उठी |

"तुम अच्छी तरह जानती हो कि मुझे बच्चे से नफरत क्यों है? मैं इस कृष्ण के लिए कंस हूँ...यह मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेगा |"

"पागल हो गए हो क्या, यह बड़ा होकर हमारा सहारा बनेगा |"

"मुझे किसी दुसरे के सहारे की आवश्यकता नहीं है |"

"लेकिन कृष्ण तो पराया नहीं, अपना है |"

"नहीं, यह हमारा कोई नहीं है |"

"नहीं...|" मनोरमा चीख उठी..."आपका न सही, लेकिन मैंने तो इसे अपनी कोख से जन्म दिया है | मैं इसकी माँ हूँ, मैं इसे अपने से अलग नहीं कर सकती |"

"नहीं कर सकती तो स्वयं उसका इलाज करो, मुझसे कहने की क्या आवश्यकता है |" कहकर श्रद्धा बाबू चुप हो गया |

मनोरमा ने भी चुप होना ही उपयुक्त समझा क्योंकि वह भी नहीं चाहती थी कि विवाद बढ़े |

"खाना लाओ |" कुछ देर बाद कठोर आवाज में श्रद्धा बाबू ने कहा |

"कृष्ण का हाथ जल गया था इसलिए आज खाना नहीं बन सका |"

सुनकर श्रद्धा बाबू का क्रोध भड़क उठा | पलंग से उठकर गुस्से से पत्नी को अपनी ओर खींचते हुए उसने कहा, "क्यों नहीं बना खाना?"

"अभी बना देती हूँ |" मनोरमा पति का क्रोध देखकर काँप उठी |

"इस हराम की औलाद के लिए आज तुमने अपने पति के लिए खाना भी नहीं बनाया |" श्रद्धा बाबू क्रोध में बक रहा था, "हरामजादी, मैं आज तुझे जिन्दा नहीं छोडूँगा |" कहते हुए उसने पत्नी पर लात और मुक्कों की बौछार कर दी |

मनोरमा चुपचाप पिटती रही | उफ्फ् तक भी उसके मुँह से न निकली | कोई प्रतिरोध न होने पर श्रद्धा बाबू भी झुँझला उठा |

"इससे तो होटल ही अच्छा |" कहते हुए वह बाहर निकल गया |

"मत जाओ...मैं अभी खाना बना देती हूँ |" मनोरमा ने कहते हुए उसे रोकना चाहा मगर वह तो बिना सुने वहाँ से जा चुका था | मनोरमा वहीँ फर्श पर पड़ी सिसकती रही |