अमीर बाप की बेटी
क़ैस जौनपुरी
पता नहीं क्यूँ अमीर घर की लड़कियों को ग़रीब लड़के ही पसन्द आते हैं. अब अपनी सना को ही देख लीजिए. अपने अब्बू की गाड़ी में बैठके घूमती थी. पीछे वाली सीट पे बैठी-बैठी वो पूरा शहर देख चुकी थी, मगर उसे कुछ पसन्द नहीं आया. उसके अब्बू उसे अच्छी से अच्छी दुकान में ले जाते, मगर उसे कुछ नहीं भाता था. पता नहीं उसे क्या चाहिए था?
उसके अब्बू के पास ढेर सारी दौलत थी. और उसके पास बड़े महँगे-महँगे खिलौने थे. मगर वो अपने खिलौनों से बोर हो चुकी थी. उसे मज़ा नहीं आता था. उसके खिलौने, वो जहाँ बैठा देती, वहीँ बैठे रहते थे. उसने अपने अब्बू से एक दिन बड़े प्यार से शिकायत की थी, “अब्बू! ये खिलौने हिलते-डुलते क्यूँ नहीं? जहाँ बैठा दो, वहीँ बैठे रहते हैं. आलसी कहीं के!”
और उसके अब्बू को हँसी आ गयी थी ये सुनके. “तो हमारी सना को हिलने-डुलने वाले खिलौने चाहिएँ, हाँ?” उसके अब्बू कोशिश करते थे कि सना को किसी बात की तकलीफ़ न हो. उसकी अम्मी नहीं थीं ना.
इसलिये उसके अब्बू उसकी हर पसन्द-नापसन्द का ख़याल ख़ुद ही रखते थे. इसलिये उन्होंने सना के लिये कुछ हिलने-डुलने वाले खिलौने भी ला दिये. मगर सना दौड़ती हुई आयी और कहा, “ये क्या अब्बू! पहले वाले खिलौने तो पूरे आलसी थे, अब जो आप लाये हैं, वो आधे आलसी हैं. मेरे पास से दूर जाते हैं मगर वहीँ रुक जाते हैं, मेरे पास लौट के नहीं आते.”
उसके अब्बू ने मुस्कुरा के कहा, “कोई बात नहीं, हम अपनी सना के लिये अब ऐसा खिलौना लाएँगे जो लौटके आपके पास भी आएगा.” फिर वो ले आये रिमोट से चलने वाले कुछ खिलौने, जिनसे सना कुछ दिन तो ख़ुश रही, मगर फिर शिकायत करने चली आयी, “अब्बू! ये खिलौने तो और भी ख़राब हैं. जब तक बटन न दबाओ, हरकत ही नहीं करते. क्या कोई ऐसा खिलौना नहीं आता, जो बिना बटन दबाये हरकत करे?”
उसके अब्बू को समझ में आ गया कि उसे कैसा खिलौना चाहिए. उन्होंने कहा, “अभी आप बहुत छोटी हैं, थोड़ी बड़ी हो जाएँ तो हम आपकी शादी कर देंगे. फिर आपका शौहर, वैसे ही हरकत करेगा, जैसे आप चाहेंगी.” उसके अब्बू उसे चिढ़ाते थे. वो मुँह फुलाके अपने अब्बू से भी नाराज़ हो जाती थी, और कहती थी, “आपको पता है, आप मेरी शादी की बात करते हुए बिलकुल अच्छे नहीं लगते. जाइए हम आपसे बात नहीं करते.”
सना मुँह फुलाके पिछली सीट पे बैठी हुई थी. आठ साल की उमर में भी ग़ुस्सा उसकी नाक पे रहता था. उसके अब्बू उसे आज मना के थक चुके थे. और इसी चक्कर में उनकी गाड़ी पंक्चर भी हो गयी थी. उसके अब्बू ने उसे फिर चिढ़ाया, “थोड़ा ग़ुस्सा कम करो सना. देखो, गाड़ी पंक्चर कर दी तुम्हारे ग़ुस्से ने.”
सना को ये मज़ाक़ बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा था. उसके अब्बू गाड़ी का पंक्चर ठीक करवाने के लिये एक मिकैनिक की दुकान पे रुके. सना का मुँह अब भी वैसे ही फुला हुआ था.
तभी जैसे रबड़ को खींच के काफ़ी देर रखा जाए, और फिर धीरे-धीरे ढीला छोड़ा जाए, तो रबड़ ढीला हो जाता है, जैसे रबड़ को आराम मिल गया हो, वैसे ही सना का खिंचा हुआ चेहरा, धीरे-धीरे ढीला हो गया. उसकी आँखों में मुस्कुराहट आ गयी थी. कुछ देख लिया था उसके मन ने, जिसने उसके चेहरे पे रौनक़ ला दी थी. जो काम महँगे-महँगे खिलौने न कर सके, वो मिकैनिक की दुकान पे काम करने वाले एक दस साल के मिकैनिक ने कर दिया.
सना देख रही थी कि किस तरह एक बच्चा, जो उसकी ही उम्र के आसपास का दिख रहा है, अपने काम में इतना माहिर है. उसके अब्बू की गाड़ी का पंक्चर वही ठीक कर रहा था.
उसने देखते ही देखते झट से पंक्चर ठीक कर दिया था. और अब वो उसके अब्बू से अपने काम के पैसे ले रहा था. उसके माथे पे पसीना था. सना को उसका चमकता हुआ माथा बहुत अच्छा लगा. उसका चेहरा जैसे खिल सा गया हो.
वो उस मिकैनिक को देख, मुस्कुरा रही थी तभी गाड़ी आगे बढ़ गयी. उसके अब्बू ने गाड़ी स्टार्ट कर दी थी और उन्हें कुछ पता भी नहीं चला कि उनकी गाड़ी के पंक्चर के साथ-साथ सना का ग़ुस्सा भी ठीक हो गया है.
मगर वो उस छोटे से मिकैनिक को ठीक से देख नहीं पायी थी. जाते हुए भी वो गाड़ी से बाहर देख रही थी. उस मिकैनिक ने भी सना को देखा. वो सोच रहा था, “क्या आराम की ज़िन्दगी है.”
अगले दिन. वो मिकैनिक अपने काम में मगन था, तभी उसने एक मीठी सी आवाज़ सुनी, “ए मिकैनिक!” वो एक पहिये की तीलियाँ कस रहा था. वो अपने माथे का पसीना पोछते हुए पलट के देखता है, तो देखता है कि वही लड़की खड़ी है, जो कल गाड़ी में बैठी थी.
मिकैनिक फिर अपने काम में लग गया. उसे पहिया जल्दी से कसके तैयार करना था. और धूप उसके चेहरे पे ही पड़ रही थी, जिससे उसके माथे पे बार-बार पोछने के बावजूद पसीना आ जा रहा था.
“तुम्हारा नाम क्या है छोटे मिकैनिक?”
उसने पलट के देखा. उस लड़की के सवाल में उसे बस एक ही लफ़्ज़ अच्छा लगा था, ‘छोटे’.
“आपको क्या ठीक करवाना है?” कहते हुए वो वापस तीलियाँ कसने लगा. उसने देखा कि ये लड़की तो कुछ ज़्यादा ही हिम्मती लग रही है. वो उसके सामने रखे एक बड़े से टायर पे आके बैठ गयी. उसने देखा कि उसके कपड़े रेशमी सिल्क के हैं.
“आपके कपड़े गन्दे हो जाएँगे…” उसे उसका नाम नहीं पता था, इसलिये वो इतना कहके रुक गया.
“सना नाम है हमारा. वैसे अब्बू मुझे सना ही कहते हैं.” उसने अपने सूट के घेरे को समेटते हुए कहा.
“मुझसे कुछ काम है सना?” उसने पहिए की तीलियाँ कसते हुए ही पूछा.
“एक नाम पूछा था, वो तो तुमने बताया नहीं.” सना यहाँ भी शिकायत करने लगी.
“आपने कहा तो, ‘छोटे मिकैनिक’.” उसने बस यूँ ही कह दिया.
“नहीं, मुझे अपना नाम बताओ. मिकैनिक तो तुम हो. वैसे इतना अच्छा काम कैसे सीखा तुमने?”
“नाम सलीम है, और सीखा कुछ नहीं है. बस करता गया, सीखता गया.” सलीम ने देखा कि सना को पसीना होने लगा है. धूप तेज़ है. सना ने अपने माथे का पसीना पोछते हुए कहा, “इतनी धूप में तुम कैसे काम करते हो? तुम्हें दिक़्क़त नहीं होती?”
“दिक़्क़त तो होती है मैडम. लेकिन क्या करें. हमारी क़िस्मत में आराम लिख दिया जाए, तो आपलोगों की गाड़ियों के पंक्चर कौन ठीक करेगा?”
“ये तुम मुझे मैडम क्यूँ कह रहे हो? मेरा नाम है, सना. अच्छा नहीं लगा तुम्हें?”
सलीम हँस देता है. सना को सलीम हँसता हुआ पहली बार दिखा था. उसे अच्छा लगा.
“हमारे लिये हर अमीर बस ‘साहब’ और ‘मैडम’ होता है.”
सना ने वहीँ पास में पड़ी रिंच उठा ली. “मैं तुम्हारी मैडम नहीं हूँ. आइन्दा मुझे मैडम कहा, तो इसी से मारूँगी.” सलीम को उसका बचपना अच्छा लगा. और इस तरह दोनों में दोस्ती हो गयी.
अब सना, सलीम से मिलने आती तो घर से कुछ खाने के लिये भी लाती. सलीम उसे दुकान के पीछे, पेड़ के नीचे बिठा देता, जिससे उसे धूप न लगे. दोनों ख़ूब बातें करते. खेलते.
बीच में अगर सलीम को कुछ काम आ जाता, तो वो सना को अपने कुछ औज़ार दे देता. सना को सलीम के औज़ार बहुत पसन्द थे. वो उन्हें उठा के देखती. बीच में सलीम को किसी औज़ार की ज़रूरत पड़ती, तो वो आके सना के हाथ से छीन लेता था. फिर सना झूठमूठ का ग़ुस्सा हो जाती, तो सलीम अपनी जेब से एक नट निकाल के उसे दे देता.
सना ने इस तरह झूठमूठ का ग़ुस्सा दिखा-दिखाके ढेर सारे नट इकट्ठा कर लिये थे. उसके बदले उसने सलीम को ढेर सारे कंचे दिये थे, और अपने सारे खिलौने भी, धीरे-धीरे सलीम को दे दिये थे. सलीम की दुकान में सना के खिलौने और सना के कमरे में सलीम के नट बिखरे रहते थे. दोनों कब बड़े हो गये, किसी को पता ही नहीं चला. उनकी दोस्ती एक अनकहे प्यार में बदल में चुकी थी. ये बात दोनों जानते थे, मगर दोनों इस बात से अनजान थे.
कई साल बीत गये. अब सना के अब्बू उसके लिये रिश्ता ढूँढ़ने लगे. सना ने मना किया तो उसके अब्बू ने पूछा, "क्यूँ नहीं करनी तुम्हें शादी? शादी तो सबको करनी होती है."
"मुझे नहीं करनी, बस. आप मेरे अब्बू होके मेरी इतनी सी बात नहीं मान सकते?" सना अपने अब्बू को मनाना जानती थी. लेकिन उसके अब्बू भी कम नहीं थे. बचपन से उसकी हर हरकत को बड़े क़रीब से देखा था उन्होंने. वो जानते थे कि, “सना का दिमाग़ कहीं और लगा हुआ है, नहीं तो किसी बात के लिये वो इस तरह मना नहीं करती है.” उन्होंने सना के कमरे में जाके देखा, सबकुछ अपनी जगह था. बस, उसके खिलौने नहीं दिख रहे थे.
और अगले दिन, जब सना सलीम के साथ, उसकी दुकान के पीछे, पेड़ के नीचे बैठी खेल रही थी, तभी उसके अब्बू की गाड़ी सलीम की दुकान के पास रुकी. उनकी गाड़ी फिर से पंक्चर हो गयी थी. दुकान पे किसी को न पाके उन्होंने हॉर्न बजाया तो अन्दर से सलीम बाहर आया. उसने सना के अब्बू को पहचान लिया.
अब सलीम को तो जैसे साँप सूँघ गया. तभी उसके पीछे से सना की आवाज़ आयी, "सलीम, जल्दी आओ. मैं तुम्हारे लिये कुछ लायी हूँ.” ये आवाज़ सना के अब्बू ने भी सुनी. उन्होंने आवाज़ की तरफ़ नज़र दौड़ायी. सना तो नहीं दिखी, मगर उसके खिलौने सलीम की दुकान के अन्दर दिखायी दे गये.
अब सारा माजरा उनकी समझ में आ गया. सलीम के चेहरे से भी साफ़ ज़ाहिर था कि वो रंगे हाथों पकड़ा गया है. उसे ऐसा लगा जैसे उसे अभी-अभी कोई गड़ा हुआ ख़ज़ाना मिला हो और उसने ख़ज़ाने को जैसे ही उठाया हो, तभी ख़ज़ाने का मालिक आ गया हो. सलीम को सना अपने हाथों से छूटती हुई मालूम हुई.
मगर उसकी हैरत और बढ़ गयी, जब सना के अब्बू ने उससे कुछ नहीं कहा और हर बात से अनजान बने रहे. सलीम ने पंक्चर ठीक किया. सना के अब्बू ने उसे हमेशा की तरह पैसे दिये. सलीम पैसे लेते हुए आज तक हिचकिचाया नहीं था. मगर आज जैसे वो पैसे लेना नहीं चाह रहा हो. वो बस उसके अब्बू को देख रहा था, जैसे पूछना चाह रहा हो कि, “अब आप सना को मुझसे छीन तो नहीं लेंगे ना?”
सना के अब्बू ने पैसे देने के लिये बढ़ाया हुआ हाथ वैसे ही रखा था. सलीम भी उनके हाथ में रखे पैसों को बस देख रहा था. तभी सना के अब्बू ने कहा, “सना को मत बताना कि मैं आया था.” इतना कहके उन्होंने सलीम के हाथ में ज़बर्दस्ती पैसे पकड़ा दिये. सलीम कुछ न कह सका. वो सना के अब्बू की गाड़ी को दूर जाते हुए देखता रहा. उसे ऐसा लग रहा था जैसे सना ने गाड़ी का रूप ले लिया हो और उससे दूर भागी जा रही हो.
“सलीम के बच्चे! कहाँ रह गये तुम?” तभी सना ने सलीम का ध्यान भंग किया. वो ख़ुद देखने के लिये बाहर आ गयी थी कि सलीम इतनी देर क्यूँ लगा रहा है? एक पंक्चर ठीक करने में तो उसे दो मिनट लगते हैं. सना ने सलीम को जो जी में आया, सुनाया.
“तुम्हें पता भी है? मैं तुमसे कुछ कहने वाली थी आज.” सलीम ने मुस्कुरा के सारी बात भुला दी. जैसे वो तैयार हो गया था, सना को खोने के लिये. वैसे भी सना की दोस्ती अब ख़तम होने वाली थी. उसकी औक़ात ही क्या थी कि एक रईस बाप की बेटी से दोस्ती करता.
“लाओ, अब मेरा ग़ुस्सा शान्त करो.” सना ने अपना हाथ सलीम की तरफ बढ़ा दिया. सना भी जानती थी कि वो क्या माँग रही है और सलीम भी. सलीम ने अपनी जेब में हाथ डाला. आज उसकी जेब में एक भी नट नहीं था. इन दस सालों की दोस्ती में ऐसा पहली बार हुआ था. सलीम ने हमेशा सना के लिये नट अपनी जेब में रखे थे. आज उसके अपने नट ने भी उसे उसकी ग़रीबी का अहसास करा दिया. तभी पता नहीं क्यूँ सना को अचानक बड़ी घबराहट महसूस हुई और वो सलीम के सीने से लिपट गयी.
“सलीम! मैं तुमसे प्यार करने लगी हूँ. तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे ना?” आज पहली बार दोनों में प्यार की बात हुई थी. सलीम तो कह भी नहीं पाया था. उस दिन जब सना घर लौटी तो उसके सारे सपने चूर-चूर हो गये. उसके अब्बू ने उसे अब सलीम के पास जाने से मना कर दिया.
“छोटी सी बच्ची थी सना, जब उसने पहली बार सलीम को देखा था. आज वो इतनी बड़ी हो गयी कि सलीम को लेके भाग गयी?”
गराज में बैठी सना, यही सोच रही थी कि, “लोग मेरे बारे में क्या सोच रहे होंगे?”
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