Parabhav - 13 in Hindi Fiction Stories by Madhudeep books and stories PDF | पराभव - भाग 13

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पराभव - भाग 13

पराभव

मधुदीप

भाग - तेरह

दो दिन पश्चात् ही श्रद्धा बाबू अपनी पत्नी मनोरमा सहित शहर पहुँच गया | जिस समय गाड़ी स्टेशन पर पहुँची, उस समय दोपहर के दो बज रहे थे | श्रद्धा बाबू ने रंजन को अपने शहर आने की सुचना न दी थी, इसलिए उसका घर पर मिलने का प्रश्न ही न था | रंजन के माँ-बाप गाँव में रहते थे और शादी उसने अभी तक की ही नहीं थी | शहर में वह अकेला ही रहता था और श्रद्धा बाबू जानते थे कि इस समय घर पर ताला बन्द होगा, इसलिए वह अपनी पत्नी सहित रंजन के कार्यालय पर जा पहुँचा |

"हेलो रंजन!" श्रद्धा बाबू जब ऊपर कार्यालय में पहुँचा तो रंजन फाइल पर झुका हुआ कुछ लिख रहा था |

"श्रद्धा भाई आप?" फाइल पर से दृष्टि उठाते हुए उसने चौंककर कहा |

"तुम्हारी भाभी भी आई हैं |" श्रद्धा बाबू ने कहा |

"कहाँ हैं?" रंजन एकाएक उसे आया देखकर चकित रह गया था और बिना सूचना दिए पत्नी सहित इस तरह अचानक आ जाने की तो उसने कल्पना भी न की थी |

"नीचे कैन्टीन में बैठी है |"

"ओह! ऊपर क्यों नहीं ले आए?"

"जाना तो नीचे ही था |" श्रद्धा बाबू ने हँसते हुए कहा, "चलो उठो, नीचे कैन्टीन में ही चलते हैं |"

रंजन बिना कुछ बोले अपनी फाइल को बन्द कर और उसे पेपर-वेट के नीचे दबाकर उठ खड़ा हुआ |

कुछ देर को दोनों ने खड़े होकर लिफ्ट की प्रतीक्षा की मगर उसे ऊपर न आता देख सीढ़ियों की राह से नीचे उतारने लगे |

दोनों कैन्टीन में पहुँचे तो मनोरमा एक कोने में लगी मेज के साथ कुर्सी पर बैठी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी |

"नमस्ते भाभी!"

"नमस्ते!" रंजन की नमस्ते कर संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वह फिर चुप हो गई |

श्रद्धा बाबू और रंजन दोनों ही उस मेज के पास पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए | रंजन अब भी उनके इस तरह एकाएक चले आने का कारण सोच रहा था | इसी मध्य कैटिन का नौकर आर्डर लेने के लिए आया तो उसने उसे चाय के साथ-साथ बर्फी और समोसों का भी आर्डर दे दिया |

नौकर चाय और अन्य सामान रख गया तो तीनों खामोशी के साथ चाय पीने लगे | रंजन सोच रहा था कि श्रद्धा बाबू ही शायद अपने इस तरह अचानक चले आने का कारण बता दे और श्रद्धा बाबू यदि कारण बताता भी तो क्या?

"तुम घर चल रहे हो?" चाय समाप्त करके श्रद्धा बाबू ने रंजन से पूछा |

"आप घर की चाबी ले जाओ, मैं आवश्यक कार्य निपटाकर जल्दी ही आने की कोशिश करूँगा |" कहते हुए रंजन ने जेब से चाबियाँ निकालकर श्रद्धा बाबू को दे दीं |

नौकर अभी पैसे लेने नहीं आया था, इसलिए तीनों चाय समाप्त करने के उपरान्त भी वहीँ बैठे थे |

"तुम्हारे इस तरह अचानक आ जाने से मुझे खुशी तो हुई है मगर साथ ही हैरानी भी |" रंजन स्वयं पर और अधिक नियंत्रण न रखकर पूछ बैठा, "क्या इस तरह अचानक आने के पीछे कोई विशेष कारण है?"

"हाँ रंजन |" श्रद्धा बाबू ने सिर्फ इतना ही कहा |

"क्या?" रंजन पूछ बैठा |

"जल्दी क्या है, घर आओगे तो आराम से बातें करेंगे |" रंजन को उत्सुकता में घिरे छोड़ श्रद्धा बाबू उठ खड़ा हुआ | उसके साथ ही मनोरमा भी चलने के लिए उठ खड़ी हुई | रंजन ने भी उनके साथ उठकर काउंटर पर ही बिल का भुगतान किया और दोनों के साथ कार्यालय के दरवाजे पर आ गया |

"शाम को जल्दी आना रंजन |" वहाँ से चलने के लिए आगे बढ़ते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"जरुर...|" रंजन सिर्फ इतना ही कह पाया था कि श्रद्धा बाबू मनोरमा को लिए वहाँ से चल दिया |

रंजन कुछ देर तक वहाँ खड़ा उन्हें जाते हुए देखते रहा और फिर अपने कार्यालय को जाने के लिए सीढ़ियों की ओर बढ़ गया |

रंजन को कार्यालय में छोड़कर श्रद्धा बाबू पत्नी सहित उसके घर पर आ गया | चार बज रहे थे, छः बजे से पूर्व रंजन की वहाँ पहुँचने की आशा कम ही थी | श्रद्धा बाबू पत्नी सहित उसके कमरे में बैठा यही सोच रहा था कि वह रंजन से इस विषय में कैसे बात करेगा? सोचते-सोचते दो घंटे कब बीत गए, इसका उसे पता भी न चला | रंजन ने आकर पुकारा तो उसकी विचार-शृन्खला भंग हुई | रंजन कार्यालय से आते हुए थैले में शाम के खाने के लिए सब्जी व अन्य सामान ले आया था | मनोरमा ने आगे बढ़कर उससे थैला ले लिया और बिना कुछ बोले रसोईघर की ओर चल दी |

कपड़े बदलकर रंजन श्रद्धा बाबू के पास ही बैठ गया | उधर रसोई में मनोरमा ने खाना बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी |

"माचिस है क्या?" उसने रसोई में से पुकार कर कहा तो रंजन उठकर रसोई में आ गया |

"खाना मैं बना लूँगा भाभी |" रंजन ने कहा |

"मेरे हाथ का बना अच्छा नहीं लगेगा क्या?" मनोरमा ने हँसते हुए कहा |

रंजन ने बिना कुछ बोले माचिस निकालकर मनोरमा को दे दी और उठकर कमरे में श्रद्धा बाबू के पास आ गया |

श्रद्धा बाबू अभी भी अपने विचारों में घिरा बैठा था |

"क्या बात है श्रद्धा भाई! बहुत चिन्तित लग रहे हो?" उसे इस तरह सोच में डूबे हुए देखकर रंजन ने पूछा |

"हाँ रंजन! क्या बताऊँ भाई, एक बहुत बड़े संकट में फँस गया हूँ |" उदास स्वर में श्रद्धा बाबू ने कहा |

"आप जैसे आदमी के लिए कौन-सा संकट हो सकता है |" आश्चर्य से रंजन ने कहा |

"रंजन भईया, संकट तो किसी पर भी आ सकता है | मैं तो एक कमजोर आदमी हूँ, भगवान राम ने भी 14 वर्ष तक जंगल की यातनाएँ सहन की थीं |" गम्भीरता से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"क्या मैं इस संकट में आपके काम नहीं आ सकता?" उसे दुखी देखकर रंजन ने पूछा |

"तुम्हारी सहायता लेने के लिए ही तो तुम्हारे पास आया हूँ |" कहते हुए श्रद्धा बाबू अन्दर-ही-अन्दर टूट रहा था |

"मुझे आज्ञा करो |" रंजन भी गम्भीर हो गया था |

"हमें एक बच्चा चाहिए रंजन |"

"बच्चा!" आश्चर्य से रंजन ने पूछा |

"हाँ|"

"अनाथ आश्रम से?"

"नहीं रंजन, मुझे मनोरमा से बच्चा चाहिए |"

"लेकिन?"

"मैं जानता हूँ कि तुम क्या सोच रहे हो | डॉक्टर अपना पूरा प्रयास कर चुका है… अब मुझे अपने से कोई आशा नहीं है |"

"फिर...!"

"मैं नियोग में विश्वास करता हूँ रंजन |"

"नियोग...|" सुनकर रंजन भी हतप्रभ रह गया | उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था | वह सोच नहीं पा रहा था कि एकाएक यह क्या घटित हो रहा है | स्वामी दयानन्द के विचारों से वह अनजान नहीं था लेकिन आज के समाज में तो वह इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था | इस समाज में तो नियोग प्रथा का प्रचलन बिलकुल ही नहीं था और न ही आज का समाज इस प्रथा को मान्यता दे सकता था | श्रद्धा बाबू जैसे सामाजिक और व्यावहारिक व्यक्ति के मुख से यह सुनकर तो उसे और भी अधिक आश्चर्य हुआ था |

"आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई |" रंजन कह उठा |

"मैं बहुत ही साफ कह रहा हूँ रंजन | नियोग तुम जानते हो |"

"मैं जानता तो हूँ श्रद्धा भाई, मगर आपने शायद यह नहीं सोचा कि न तो आज के समाज में इसका प्रचलन है और न ही यह समाज ऐसे सम्बन्ध को मान्यता देता है |" कुछ सोचते हुए रंजन ने अपना मत व्यक्त किया |

"समाज के समक्ष शोर मचाने की आवश्यकता ही क्या है?"

"मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता |" इसके सिवा रंजन कुछ न कह सका | वह विश्वास नहीं कर पा रहा था कि कोई आदमी उसके सामने बैठा बातें कर रहा है | वह चकित था कि एक पति कैसे यह सब-कुछ कह रहा है | वह सोच उठा था कि या तो श्रद्धा बाबू अपने आदर्श के कारण बहुत ऊँचा उठ गया है या फिर वह कठिनाई से बौखला गया है |

"मैं इसी काम के लिए तुम्हारे पा आया हूँ |" कहते हुए श्रद्धा बाबू की आवाज दर्द में डूब गई |

"मेरे पास...!" गहन आश्चर्य से रंजन के मुँह से निकला और उसे लगा जैसे एक भारी बोझ उसके कन्धों पर आ पड़ा हो | वह विस्मित-सा श्रद्धा बाबू के मुँह को ताकने लगा |

इसी समय मनोरमा दो थालियों में खाना लिए वहाँ आ गई | दोनों को गम्भीर बैठे देख वह समझ गई कि उसके पति ने रंजन को उनके यहाँ आने का कारण बता दिया है | उन दोनों में से किसी से भी बोलने अथवा दृष्टि मिलाने का उसका साहस नहीं हो रहा था |

"खाना खा लें |" इतना कहते हुए वह थालियों को मेज पर रखकर दृष्टि झुकाए हुए चुपचाप रसोई में चली गई |

दोनों ही चुपचाप खाना खाने लगे थे | रंजन अपने ही विचारों में भटका हुआ था | एक ओर उसकी मित्रता थी, जिसने विश्वास करके उसे चुना था और दूसरी ओर उसके संस्कार |

"यह ठीक नहीं है |" एकाएक रंजन कह उठा |

"क्या?"

"आप बहुत जल्दबाजी में यह कदम उठा रहे हो श्रद्धा भाई |"

"नहीं रंजन, मैंने सब-कुछ सोचकर ही यह निर्णय लिया है |" शान्त स्वर में श्रद्धा बाबू ने कहा |

"कहीं ऐसा न हो श्रद्धा बाबू कि आप इस आदर्श को न निभा पाओ और इसका फल मनोरमा भाभी को भुगतना पड़े |" रंजन ने एक व्यवहारिक बात कही |

"नहीं रंजन, मैंने स्वयं को इसके लिए तैयार कर लिया है |"

"कहीं इससे हमारी दोस्ती ही समाप्त न हो जाए | मैं किसी भी मूल्य पर आपकी दोस्ती खोना नहीं चाहता |"

"नहीं रंजन, यह तो हमारी दोस्ती की बहुत ही मजबूत कड़ी होगी | मैं तुम्हारे पास दोस्ती का ही विश्वास लेकर आया हूँ |" इस बात को कहते हुए श्रद्धा बाबू ने अपने ह्रदय में काँटों की चुभन अनुभव की |

"आपने मुझे दुविधा में डाल दिया है श्रद्धा भाई |"

"मैं तुमसे भीख माँग रहा हूँ रंजन! दोस्ती के लिए मुझे यह भीख दे दो |" कहते हुए दृष्टि बिना मिलाए ही श्रद्धा बाबू खाना समाप्त कर उठ खड़ा हुआ | रंजन भी खाना समाप्त कर चुका था | श्रद्धा बाबू बाहर नल पर हाथ धो रहा था | रंजन तौलिया लेकर स्वयं भी हाथ धोने के लिए पहुँच गया |

श्रद्धा बाबू ने कुल्ला करके हाथ पोंछने के लिए रंजन से तौलिया ले लिया | हाथ पोंछकर वह कमरे के दरवाजे पर आकर जूते पहनने लगा |

"रंजन, मुझे किसी से मिलने जाना है | देर भी हो जाए तो चिन्ता न करना |" जूतों के तश्मे बाँधते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"कब तक लौटोगे?"

"शायद रात को न लौट सकूँ |" कुछ सोचते हुए उसने कहा और बिना एक पल रुके वहाँ से चल दिया |

रंजन भी उसे रोक न सका | वह उसका तात्पर्य समझ गया था | लेकिन अब...अब वह स्वयं में घुटन और बेचैनी-सी अनुभव कर रहा था | वह सोच रहा था कि श्रद्धा बाबू उसे किस उलझन में डाल गया |

कमरे में बैठे, सोचते हुए उसे मनोरमा के अपने पास आने का आभास हो गया था परन्तु उसकी ओर देखने अथवा बोलने का वह साहस नहीं कर पा रहा था | अपने संस्कारों के कारण उसे लग रहा था कि जो कुछ उससे करवाया जा रहा है वह पाप है मगर मित्रता के बंधन में बँधा वह इससे इन्कार भी तो नहीं कर सका था |

"वे कहाँ गए...?" पूछते हुए मनोरमा ने वह मौन तोड़ा |

"किसी से मिलने गया है |" रंजन बड़ी कठिनाई से कह पाया |

"कब तक लौटेंगे?"

"शायद आज न आए |" कहने के साथ ही रंजन का ह्रदय उमड़ आया था |

"तुम रो रहे हो रंजन?"

"भाभी..|" दबी हुई रुलाई जोर से उभर आई और वह बच्चों की भाँती बिलख उठा |

"तुम लोगों में मुझे किस संकट में डाल दिया भाभी |" कुछ देर बाद स्वयं को संयत करते हुए रंजन ने कहा |

"क्या यह सब तुम्हें बहुत बुरा लग रहा है रंजन?" मनोरमा ने पूछा |

"श्रद्धा भाई ने दोस्ती की ऐसी परीक्षा ली है भाभी, जिसे मैं जीवनभर नहीं भुला पाउँगा |"

"रंजन...|"

"हाँ भाभी! मैं तो मर्द हूँ, किसी तरह सहन कर रहा हूँ मगर तुमने एक स्त्री होते हुए इसे कैसे स्वीकार कर लिया?"

"शायद स्त्री होने के कारण ही मैंने सब-कुछ सहन कर लिया है | मुझे एक बहू और पत्नी का कर्तव्य भी तो निभाना है |"

"भाभी मुझे भय है कि कहीं मैं तुम दोनों की घृणा का पात्र न बन जाऊँ |"

"यह भय तो मुझे भी है मगर फिर भी मुझे अपना कर्तव्य निभाना पड़ रहा है | पति की खुशी ही तो मेरा धर्म है और मैं इसी धर्म का पालन कर रही हूँ |"

"तुम महान् हो भाभी!" रंजन कह उठा |

"नहीं रंजन, मैं सिर्फ एक निरीह नारी हूँ | तुम मर्द हो, तुम्हें समाज कुछ नहीं कहेगा मगर इसके बाद यदि वे मुझसे घृणा करने लगे तो मेरा सारा जीवन ही नष्ट हो जाएगा |" कहते हुए मनोरमा सुबक उठी और उनकी आँखों से आँसू बह निकले |

रंजन से मनोरमा के आँसू सहन नहीं हो रहे थे | वह बार-बार हाथ बढ़ाकर उन्हें पोंछ देना चाहता था मगर इसके लिए वह साहस नहीं जुटा पाया | मनोरमा की आँखों से आँसू बहते रहे और वह यूँ ही बुत बना बैठा रहा |

कुछ देर पश्चात् मनोरमा उठकर रसोई में चली गई | वहाँ का काम निबटाकर जब वह वापस कमरे में लौटी तो ग्यारह बज रहे थे | मनोरमा के कमरे में प्रवेश करते ही दोनों की नजरें मिलीं मगर एक-दूसरे का सामना न कर सकने पर स्वयं ही झुक गईं |

रंजन ने उठकर बिजली बन्द कर दी तो कमरा अन्धकार से भर गया | रोशनी में एक-दूसरे की ओर देखने का साहस दोनों में से कोई भी नहीं कर पा रहा था, मगर अन्धकार में दोनों ही अपने-अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए एक-दूसरे के समीप चले गए |

दो दिन से श्रद्धा बाबू रंजन के घर नहीं लौटा था | ये दो दिन उसने इधर से उधर भटकते हुए व्यतीत कर दिए थे | सारा दिन वह पार्क सिनेमा या इधर से उधर घूमते हुए गुजारता और रात्रि को धर्मशाला की कोठरी में जाकर सो जाता | एक-एक पल उसे काटना भारी हो रहा था |

उसका मस्तिष्क मनोरमा और रंजन में ही भटक रहा था | वह बार-बार सोचता कि वापस लौटकर वह उन दोनों का सामना कैसे कर सकेगा | परेशानियों ने उसे विचलित कर दिया था | मानसिक क्लेश ने उसे शारीरिक रूप से भी तोड़कर रख दिया था | इस दो दिनों में उसे न नहाने की सुध थी और न खाने की | दो दिन और दो रात उसने दो साल की यातनाएँ झेल कर कटी थीं |

इन दो दिनों में उसका मन कई बार घर लौटकर मनोरमा से मिलने को किया | वह कई बार उस गली तक भी गया मगर हर बार उसके पाँव गली के बाहर से लौट आए |

आज तीन रातों से वह सो नहीं पाया था | आँखें दर्द कर रही थी और शरीर जल रहा था | सुबह वह स्वयं में उठने की शक्ति भी अनुभव नहीं कर पा रहा था | किसी तरह साहस और निश्चय कर उसने लौटकर रंजन का दरवाजा खटखटा दिया |

रंजन कार्यालय जा चुका था | मनोरमा ने आकर दरवाजा खोला | पति को सामने पाकर वह चौंक उठी | तीन दिन से वह उनकी प्रतीक्षा कर रही थी और अब वे लौटे थे तो इस हाल में | बढ़ी हुए दाढ़ी, मैले कपड़े, लाल सूजी हुई आँखें और कमजोर शरीर |

"यह आपको क्या हो गया है |" मनोरमा कह उठी |

"मुझे कुछ नहीं हुआ है मनोरमा!" दृष्टि झुकाए हुए श्रद्धा बाबू ने कहा | वह स्वयं को बहुत ही कमजोर महसूस कर रहा था | एक बार उसका मन हुआ कि वह मनोरमा से पूछे कि क्या काम हो गया?" मगर वह पूछ न सका |

पत्नी का सहारा लेकर श्रद्धा बाबू अन्दर कमरे में आ गया | पत्नी सामने बैठी थी मगर वह उससे आँखें चुरा रहा था जैसे कि उससे कोई अपराध हुआ हो |

"चलो मनोरमा गाँव लौट चलें |" कुछ देर पश्चात् उसने कहा |

"रंजन को आ जाने दो |"

मनोरमा ने स्वाभाविक रूप से कहा था मगर श्रद्धा बाबू को यह सुनकर धक्का-सा लगा | उसका दिल हुआ कि पत्नी से पूछे-"क्या तीन दिन में रंजन से इतना अधिक प्यार हो गया है?" मगर वह चुप ही रहा |

"नहीं मनोरमा, हमें अभी वापस लौटना है | मकान को ताला लगाकर चाबी उसके आफिस में दे देंगे |" श्रद्धा बाबू ने आदेश भरी तेज आवाज में कहा |

कुछ ही दे में मनोरमा ने अपने कपड़े अटैची में रखे और श्रद्धा बाबू के साथ चल दी |

रंजन को उसकी चाबी सौंप कर श्रद्धा बाबू ने कार्यालय से बाहर आकर रिक्शा ली और पत्नी के साथ बैठकर स्टेशन की ओर चल दिया | दोनों के मस्तिष्क में विचारों का द्वन्द्व-सा मच रहा था मगर दोनों ही चुप थे | साथ-साथ बैठे दोनों ही अनुभव कर रहे थे कि हल्का-सा अपनापन कहीं खो अवश्य गया है |