Dohara Dard in Hindi Biography by Lakshmi Narayan Panna books and stories PDF | दोहरा दर्द

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दोहरा दर्द

दोहरा दर्द

एक आत्मकथा

( हम अक्सर ही लोग जीवन में बहुत से कष्टों का सामना करते हैं । कभी कभी तो लगता है जिंदगी ही व्यर्थ है । हर व्यक्ति अपने जीवन के कुछ पहलुओं में फिल्मों के नायक की तरह होता है । हमें स्कूल के दिनों में पढ़ाया जाता था किसी का अपमान नही करना चाहिए किसी को दुःख नही पहुंचना चाहिए, झूठ नही बोलना चाहिए और चोरी करना, किसी को धोखा देना पाप है । अच्छे कर्म करने चाहिए इससे एक अच्छे समाज का निर्माण होगा । माता पिता भगवान का रूप होते हैं, उनकी सेवा से बढ़कर कोई पूजा नही, उनके आशीर्वाद से बड़ा कोई प्रसाद नही । कुछ बच्चे हैं जो अपने गुरु की बातों को अपने जीवन का मूल समझ लेते हैं । लेकिन असल जिंदगी में कुछ और ही चल रहा होता है । कदम कदम पर झूठ, धोखा, चोरी, घमण्ड, और अपमान है । मैं भी स्कूल में सिखाई गई बातों को ही आधार मानता था । इसलिए जीवन की सच्चाई से अनजान धोखा खाता गया । यह पुस्तक मेरे जीवन की एक अनमोल कृति है क्योंकि इस पुस्तक के माध्यम से आज मैं उस दर्द की व्याख्या करने जा रहा हूँ जिसे वर्षों से मैंने सहा है । कई बार यह दर्द मैंने उन्हें बताना चाहा जिन्हें समझता था कि शायद मेरी मदद कर सकें लेकिन सत्य को समझना तब कठिन हो जाता है जब असत्य धनी हो । धन का अभाव सत्य को कमजोर कर देता है । यही कारण रहा कि मेरा दर्द समझने के लिए कोई अपना नही मिला । कोई नही मिला जो मेरे दर्द के कारण को समझ सके । मेरे पिता जी कहते थे बेटा भगवान पर भरोसा रखो । वे तो भगवान पर बहुत भरोसा रखते थे पर क्या हुआ उनको भी तो यह वेदना सहनी पड़ी, महज मेरे लिए । आखिरकार इस दर्द से हारकर पिता जी ने तो आंखें बंद कर लीं और न जाने किस जहान में गए । मैं तो उन्हें बहुत प्रेम करता था फिर क्यों अन्त समय ओ मुझसे कुछ नही कह पाए, किसका डर था ? …..)

दर्द तो वह अनुभव है जो सबको होता है । आज तक कोई भी इससे बचा नही परन्तु हर दर्द का कारण होता है । दर्द का परिणाम है दुःख, कारण पता होने पर दर्द खत्म किया जा सकता है । इसप्रकार दुःख भी खत्म हो जाता है । तथागत बुद्ध ने कहा है “दुःख है दुःख का कारण है और उसका निवारण भी है” ।

फिर भी दुःख के कई प्रकार हैं । दुःख यदि धन अभाव का है तो कुछ नही, दुःख यदि पुत्र अभाव का है तो भी कुछ नही, कुछ भी दुःख नही की आपका कोई सम्मान नही करता । इस बात का दुःख भी बहुत छोटा है कि कोई आपको प्यार नही करता । उस दुःख के आगे सारे दुःख छोटे हैं जो अधिकार की मानसिकता से जन्म लेते हैं और एक छद्म प्रेम बन कर उभरते हैं । बहुत से लोग यह दर्द झेल रहे हैं परन्तु कहने की हिम्मत नही करते क्योंकि या तो उनके दर्द को सुनने वाले नही होते या उन्हें डर लगता है कि सुनकर लोग खिल्ली उड़ाने के सिवाय कुछ नही करेंगें । कविवर रहीम जी लिखते हैं

“रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राख्यो गोय ।

सुनि इठलैहैं लोग सब बाँटि न लेहैं कोय।।“

दर्द कैसा भी हो तकलीफ तो देता ही है । सोंचिए तब कितना दर्द होता होगा जब आपको जन्म देने वाली, पालन-पोषण करने वाली, आपकी हर तकलीफ में रोने वाली, अपना पेट काटकर आपका पेट भरने वाली माँ भूखी हो ? आपके पास धन का अभाव न हो, आपके घर में भोजन की कमी न हो और आप अपनी माँ को भूखा देखना भी नही चाहते । फिर भी माँ को भूखा सोना पड़े इसलिए कि आप जिसे प्रेम करते हैं वह असल में आपके धन के लिए आपसे प्रेम का नाटक करे और पीठ पीछे आपकी माँ झगड़ा करे उन्हें और आपसे कहने पर खाना पानी देना बंद कर दे । कुछ यही कहानी है मेरे जीवन की, मेरे दर्द की । मैं मजबूर हूँ कि मैं उन्हें नही छोड़ सकता जो मुझे पिता कहते हैं जो मुझ पर भरोसा करते हैं कि पापा हैं तो उन्हें कुछ नही होगा । और वे उसे नही छोड़ सकते जिसको वे माँ कहते हैं । वे मुझे भी प्रेम करते हैं परन्तु मेरे दर्द को समझने की उनमें समझ नही है । आज जब उनकी माँ मेरी माँ की दुश्मन बनी है । तब मेरे सामने एक दोहरा दर्द हैं कि अगर मैं माँ को साथ रखूं तो बच्चों की माँ को कहाँ रखूं की मेरी माँ सकून से रह सके । बीबी चाहती है कि मेरी माँ उसके साथ न रहे । अपनी माँ को कैसे छोड़ दूं जब उसने मुझे नही छोड़ा । बीबी को छोड़ दूं तो बच्चों का क्या होगा ? एक तरफ मेरी माँ की ममता है एक तरफ मेरा पितृत्व । मैं किस पथ को चुनूँ दोनों के बीच इस प्रकार फंस चुका हूँ कि जैसे जल में पड़े जाल में मछली फंसी छटपटा रही हो जल परन्तु मृत्यु सामने खड़ी है । पंख हैं परन्तु तैरने की स्वतंत्रता नही । मुझे तो मृत्यु भी इस बन्धन से मुक्त नही कर सकती क्योंकि पिता जी एक ओर बच्चों की परवरिस और दूसरी ओर मां की देखभाल की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ गए हैं । जब कभी मैं भूखा सो जाता तो पिताजी जगा कर आधी नींद में मुझे अपने हाथ से खाना खिलाते । माँ तो मुझे खिलाए बगैर कभी खाना खाती ही नही थी । जब कभी मैं नाराज हो जाता और खाना नही खाता तो माँ भी नही खाती । अंत में मुझे माँ पिताजी के लिए खाना ही पड़ता था । आज मुझे नींद नही आ रही है भूख भी नही लग रही है । दो दिन हो गए अजीब सी बेचैनी है जब से फोन पर माँ का रोना सुना है । उस दिन भी माँ से जब बात की तो उसने रुंधे स्वर से पूछा बेटा खाना खाया या नही । अपनी माँ की आवाज की हल्की सी थरथराहट भी पहचान लेता हूँ । मैने पूछा क्या हुआ, क्यों रो रही हो ? वह कह रही थी मैं घर में नही रहूंगी । मैं समझ गया माँ भूखी है । धन्य है माँ जिसे अपनी भूख से ज्यादा मेरी फिक्र है । उसने कहा कुछ नही हुआ तुम समय पर खाना खाते रहना । मैं उसके शरीर से जन्मा हूँ । मुझे कैसे नही पता होगा कि उसे कौन सा दुःख है । धिक्कार है उस सन्तान पर जो अपनी मां का दर्द न समझ सके ।

जब माँ भूखी है तो मैं कैसे खा सकता हूँ । पता नही अब कितने दिन उसे यह दुःख झेलना पड़ेगा । यह आज की बात नही साल के हर महीने में कुछ दिन ऐसे ही कटते हैं मेरे और मेरी माँ के । जब मैं उसके पास था तो इस दुःख को हम दोनों एक दूसरे को दिलासा देते हुए काट लेते थे । लेकिन आज मैं उससे बहुत दूर हूँ न जाने कैसी होगी मेरी माँ ।

व्यक्ति अपना दुःख अपने जीवन साथी से साझा कर पाता है लेकिन यहां तो जीवन साथी ही जीवन के प्रत्येक कष्ट का कारण है । फिर किससे कहूँ अपना दर्द ? इसलिए इस दर्द को अब तक सहेज कर रखा और आज इसे अमर कर देना चाहता हूँ । मेरा दर्द आज का नही, दर्द की दास्तां शुरू होती है इस प्रकार.....

मेरे पिता लखनऊ के एक छोटे से गाँव में रहते थे । जमीन जायदाद अधिक न थी और पहले के समय में फसलों की पैदावार भी न थी । इस कारण गरीबी हर किसान की दुश्मन बनी हुई थी । उसी दुश्मनी का शिकार मेरे पिताजी भी थे । कहा जाता है कोई कितना भी गरीब क्यों न हो अगर परिवार साथ हो तो हर मुश्किल आसान हो जाती है । मेरे पिता ने मेहनत मजदूर करके परिवार को दो वक्त की रोटी तो खिला ही लेते थे क्योंकि मेरी माँ उनके साथ थी । मेरी माँ ने भी पिताजी के साथ खेतों में बराबर काम किया गरीबी चरमराने लगी उसकी हिम्मत जबाब देने लगी । मगर गरीबी कहाँ हारने वाली उसके तो बहुत साथी हैं जैसे छल, कपट, धोखा, लालच, ईर्ष्या आदि । मेरे पिताजी बड़ी मेहनत करके इतना कमा लेते की परिवार भूखा न सोये । लेकिन एक दिन एक पतरावल ( नहर सिंचाई वसूल करने वाला ) आया उसने पिताजी को एक पर्ची देते हुए कहा कि आपकी सींच आई है, इसे जमा करना है । पिताजी ने कहा मैं तो पिछले महीने ही सींच जमा की है तो कैसे ? पतरावल ने कहा मैं कुछ नही जानता पैसे जमा करो और अंगूठा लगाओ । पिताजी ने कई लोगों से पूछा कि पढ़ कर बता दें क्या मेरे नाम की पर्ची है । जो पढ़े-लिखे लोग थे सबने कहा हां तुम्हारे नाम की ही पर्ची है । यहाँ तक उस व्यक्ति ने भी धोखा दिया जो उनका अपना भाई था, जिसे उन्होंने ही मेहनत मजदूरी करके पढ़ाया था कि एक दिन जब कहीं पढ़ने लिखने की बात आएगी तो कोई तो होगा जो पढ़ कर बता पायेगा की क्या सही है और क्या गलत ।

सिंचाई की पर्ची की कीमत थी लगभग 100 रुपये जो उस वक़्त के हिसाब से आज के 10,000 रुपयों के बराबर राशि थी इतने पैसे पिताजी के पास न थे । इसलिए उन्होंने कुछ दिन की मोहलत मांगी । जैसे तैसे उधर व कर्ज लेकर पिता जी ने वह राशि चुकाई और पर्ची रख ली । एक दिन उनके पहचान के मित्र आये जो कुछ पढ़े लिखे थे, उन्हें पिताजी ने वह पर्ची दिखाकर पूँछा तो पता चला वह सिंचाई तो पड़ोस के गावँ के किसी ठाकुर की जमीन की थी । उस जमीन को मेरे छोटे चाचा बटाई जोतते थे । अब पिताजी को सारा खेल समझ आ गया । उन्हें समझ आ गया कि उनके भाई ने भी उनसे छल किया दूसरे भाई के लिए क्योंकि पिताजी बड़े होने के नाते कभी कभार किसी गलती पर सबको फटकार भी लगा देते थे । इसलिए उनके भाई मन ही मन उनसे नफरत करते थे । फिर भी पिताजी ने किसी को कुछ नही कहा बस मेरी माँ से इतना कहा कि मैं गरीब हूँ, अनपढ़ हूँ । इसलिए आज मेरे साथ इन लोगों ने धोखा किया, मैं अब जान चुका हूँ कि मेरे भाई मेरा साथ नही देंगें । अपने भाइयों को छोड़ नही सकता लेकिन उनके सामने एक ऐसा इंसान खड़ा कर दूंगा जिसको धोखा देना आसान नही होगा । उन्होंने कहा मैं अपने बेटे को इतना पढ़ाऊंगा की पूरी पंचायत में कोई उसके बराबर न हो । कोई उसे धोखा न दे सके इसके लिए चाहे “मुझे अपनी हड्डियां ही क्यों न बेंचनी पड़ें” । मैं उस वक़्त बहुत छोटा था परन्तु मेरे पिताजी का संकल्प दृढ़ था । जब मैं पढ़ने जाने लायक हुआ तो उन्होंने मुझे स्कूल भेजना प्रारम्भ किया । मेरे पिताजी रोज बस इतना ही कहते थे बेटा घर का कोई काम भले न करना लेकिन तुन्हें पढ़ना है ।

उनका रोज यही कहना मेरे लिए उत्प्रेरक का कार्य करता था । मैं पढ़ता तो था परन्तु पुस्तको का अभाव था और ग्रामीण स्कूलों में पढ़ाई भी ठीक से नही होती थी । जब पिताजी को मेरी पढ़ाई से सन्तुष्टि नही हुई तो उन्होंने मुझे लखनऊ में दीदी के घर भेज दिया । वहां जीजा जी ने मेरा एडमीशन कसैला गाँव के प्रथमिक विद्द्यालय में करवा दिया । यहां गांव के विद्द्यालय की अपेक्षा पढ़ाई ठीक थी मैं भी मन लगा कर पढता रहा । बस एक बात का दुःख रहता था जब किसी दूसरे बच्चे को शाम होते अपने पापा के आने का इंतजार करते देखता और जब उसके पापा आते वह खुश होता । जिसके कारण मुझे मेरे मम्मी पापा बहुत याद आते थे । मैं कभी-कभी रोना चाहता लेकिन नही रोता था क्योंकि पिताजी ने कहा था । कि बेटा ठीक से पढ़ना रोना नही अगर तुम दुखी होंगे तो हमको भी कष्ट होगा । मैंने तो उनसे वादा किया था कि आपका सपना पूरा करूंगा । फिर भी बचपन हरकते करने से बाज कहाँ आता । एक कहावत है “बालक बन्दर एक स्वभाऊ, जहां बैठें तहँ करें उपाऊ” ।

खेल-खेल में अक्सर ही दूसरे बच्चों से झगड़ा हो जाता था । मेरी दीदी मुझे ही दोष देकर डाँटती-फटकारती थीं क्योंकि ओ नही चाहती थीं कि कोई उनके भाई की वजह से जीजा जी के पास शिकायत लेकर आए । लेकिन मैं तो ठहरा बच्चा मुझे क्या पता कि मुझे डाँटने के पीछे मेरी दीदी का मेरे प्रति अथाह प्रेम था । ओ नही चाहती थी कि रोज-रोज शिकायत सुनकर जीजाजी मुझे कुछ कहें । कुछ समय बाद मेरे जीजाजी मेरी छोटी बहन को भी अपने घर पढ़ने के लिए ले आएं । हम दोनों भाई बहन वहीं पढ़ने लगे । एक दिन खेल-खेल में मेरी वजह से एक लड़के को काँच का टुकड़ा लग गया तब दीदी ने मेरी पिटाई कर दी उस दिन तो मैंने ठान लिया कि अब यहां नही रहूँगा । गरमी की छुट्टियों में घर आया एक से डेढ़ महीने माँ पिताजी के साथ रहने का अवसर मिला । उन दिनों मैं बहुत खुश था । धीरे-धीरे गर्मी की छुट्टियां खत्म हो गईं । जीजाजी बुलाने आए, लेकिन मैंने जाने से इनकार कर दिया । खैर जीजाजी समझा बुझाकर ले गए, वहाँ एक दो दिन बाद दूसरे बच्चे हँसी उड़ाने लगें की तुम तो कहते थे नही आऊँगा अपने घर पर पढूंगा कहाँ गया तुम्हारा घर । मुझे अपना घर अपने घर की आजादी खींचने लगी । मैंने उस रात खाना नही खाया जीजाजी, दीदी समझाते रहे । लेकिन मैंने तो घर की जिद ठान ली थी, मुझे रोता देख छोटी बहन भी रोने लगी । मजबूरन जीजाजी को अगले दिन ही मुझे व मेरी बहन घर ले जाना पड़ा । वहाँ पहले जिस प्राथमिक विद्द्यालय में पढ़ता था उससे कक्षा पाँच की मार्कसीट बनवाकर कक्षा छः में प्रवेश ले लिया । बहन का दाखिला भी एक प्राथमिक विद्द्यालय में करवा दिया । कुछ वर्ष अच्छे स्कूल में पढ़ने से मेरी नीव मजबूत हो चुकी थी इसलिए आगे की पढ़ाई में कोई दिक्कत नही थी । बहन को मैं ही पढा देता था । धीरे-धीरे समय बीतता गया हम दोनों भाई बहन हँसते खेलते और पढ़ाई करते लेकिन पिताजी और माँ उम्र की सीढ़ी चढ़ते जा रहे थे । पिताजी मेरी माँ से उम्र में अधिक बड़े थे इसलिए उनके ऊपर उम्र का प्रभाव ज्यादा दिखने लगा था । मेरी कक्षा आठ तक पढ़ाई पूरी हो रही थी अब समस्या यह हुई कि इससे आगे की पढ़ाई के लिए नजदीक में कोई अच्छा विद्द्यालय नही था । मेरे पिताजी का सपना तो मुझे पूरा ही करना था । अब इतना छोटा भी नही था कि अपना वादा भूल जाऊँ । मुझे याद था पिताजी से किया हुआ वह वादा जो मैंने बचपन में उनसे किया था, कि मैं आपका सपना जरूर पूरा करूंगा । इस पंचायत का सबसे ज्यादा पढा लिखा इंसान बनकर दिखा दूँगा । इसके लिए जरूरी था कि आगे की पढ़ाई किसी अच्छे विद्द्यालय से की जाय । मैंने अबकी बार जीजाजी से खुद कहा कि मैं आपके घर रहकर पढ़ना चाहता हूँ । जीजाजी तैयार हो गए । लखनऊ जाकर मैंने राजकीय इण्टर कॉलेज निशातगंज में कक्षा नौ में विज्ञान वर्ग से दाखिला ले लिया । उसी दौरान मेरे गाँव में अचानक एक दिन आग लग गई । आग की लपटें इतनी भीषण थीं कि लोगों को अपना जरूरी सामान भी बचना मुश्किल हो गया । जैसे तैसे लोगों ने अपने पशुओं और बाल-बच्चों की जान बचाकर भाग निकले । अग्नि शमन सेना पूरे चौबीस घण्टों के बाद उस आग पर काबू पा सकी । आग तो शान्त हो चुकी थी लेकिन उस आग का क्या जो लोगों के पेट में लगी थी । खाने-पीने का सारा सामान जलकर खाक हो चुका था । लोग सिर्फ पानी पीकर पेट की आग बुझा रहे थे । उसी भीड़ में मेरी माँ पिता और छोटी बहन भी थी । भूखी प्यासी आँखे बस अपने जले हुए आशियाने को निहारतीं फिर आँशुओं में बह जाते सारे ख्वाब । लकड़ी और मिट्टी की बनी छतें राख का ढेर बन चुकीं थीं । गाँव का लगभग हर व्यक्ति बेघर हो चुका था । मैं इन सब से अनजान अपनी परीक्षा की तैयारी कर रहा था । अगले दिन सुबह किसी ने कहा नारायणपुर गांव में आग लग गई थी सारे घर जल गए । मैं परेशान हो गया एक बार तो मुझे लगा कि क्या हुआ होगा मेरे माता-पिता और बहन का कैसे होंगें फिर जीजाजी ने समझा-बुझाकर शान्त किया । जीजाजी कहने लगे तुम परीक्षा देने जाओ मैं घर जाता हूँ । उस दिन मुझे जो डर लगा था आज फिर लग रहा है । क्योंकि अब आग मेरे गाँव में नही मेरे घर में लगी है । आग भी ऐसी जो पानी से बुझाई नही जा सकती । कोई अग्नि शमन इस पर असर नही करता कई साल गुजर गए है इस आग को सहते-सहते । इस आग में मेरे पिताजी जल कर खाक हो चुके हैं । अब तो इसकी लपटें और बढ़ रही हैं । मुझे डर लग रहा है क्योंकि अब तो मेरी माँ और बूढ़ी हो चुकी है कैसे बचेगी इन लपटों से जो उसके ही घर में उठ रही हैं । मैं इसलिए डर रहा हूँ कि पिता के बाद अब माँ को नही खोना चाहता ।

सन 1999 में लगी आग का सामना करने के लिए पूरा गाँव पूरा परिवार था । सबने एक दूसरे की मदद की लोगों ने अपना आशियाना फिर से खड़ाकर लिया क्योंकि वहां एकता की ताकत थी । कोई किसी को देखकर हँसने वाला नही था सब दुखिया थें सभी लुटे हुए थे । इसलिए धीरे-धीरे सबने मेहनत करके उस नुकसान को पूरा कर लिया और एक बार फिर से जीवन सामान्य हो गया । परन्तु समय हमेशा चलता ही रहता है और इसी के साथ बढ़ती है उम्र । मेरे पिताजी उम्र की सीढ़ियां चढ़ते हुए बुढ़ापे की ओर बढ़ रहे थे । और हम दोनों भाई बहन जवानी की ओर कदम बढ़ा रहे थे । जिम्मेदारियां बढ़ रहीं थीं बचपन के खिलौने हाथों की पकड़ से दूर होते जा रहे थे । मैं लखनऊ में ही रहता था अब तो घर आने का समय भी कम मिलता था क्योंकि पढ़ाई का कोर्स बढ़ गया था । फिर भी मैं गर्मी की छुट्टियों और तीज त्योहारों में घर जरूर आता था । मेरी एक दीदी बाराबंकी जिले के एक गांव में रहती हैं जीजाजी फोटिग्राफर हैं इसलिए उनके भी अधिक समय नही मिलता था । रक्षाबंधन के दिन तो मैं लखनऊ में बड़ी दीदी से राखी बंधाकर बाराबंकी वाली दीदी के घर जाता, फिर साम तक अपने घर जाकर छोटी बहन से राखी बंधवाता था । सभी खुश थे पिताजी को तो अपना सपना पूरा होते दिख रहा था ।

मैंने इण्टर की पढ़ाई पूरी करके कन्या कुब्ज वोकेशनल महाविद्द्यालय (k.k.v ) में बायोलॉजी वर्ग से प्रवेश लिया । चूँकि बायोलॉजी वर्ग से इण्टर था और चिकित्सा शास्त्र की उपाधि लेने की यह अधिमानी अर्हता थी, इसलिए स्नातक के साथ मैं मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने लगा । एक तरफ स्नातक की पढ़ाई का खर्च दूसरी तरफ मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी का खर्च । अब कुछ एक किताबों से काम नही चलता था । अधिक किताबें खरीदने के लिए पैसे कम पड़ते थे । मैंने ट्यूशन के साथ कुछ और करने का मन बनाया लेकिन समस्या थी कि पढ़ाई के लिए समय कब निकलेगा । फिर मुझे पता चला कि हर महीने पोलियो खुराक पिलाने के लिए कुछ समाजिक वर्कर रखे जाते हैं । मेरे एक मित्र जल्द ही चिकित्सक बने थे उनकी महानगर के एक सरकारी अस्पताल में पहचान थी बस उनके माध्यम से मुझे पोलियो ड्रॉप पिलाने का काम मिल गया । हर महीने कुछ दिन काम करके किताबों के लिए पैसे बना लेता था । इससे लगभग हफ्ते भर की पढ़ाई का तो नुकसान होता था परन्तु पढ़ने के लिए किताबें भी तो जरूरी थीं । पिताजी बूढ़े हो रहे थे अब उनसे पहले जितना काम नही होता था खेत-खलिहान का ज्यादातर काम माँ ही करती थी । आर्थिक स्थिति कमजोर हो रही थी फिर भी मेरे माता-पिता गरीबी का शीना चीर रहे थे । मेडिकल की पहली परीक्षा में मैं आयुर्वेद में प्रवेश भर के अंक प्राप्त करने में कामयाब था । मेरा सपना आयुर्वेद नही था, मेरे चिकित्सक मित्र भी कहते थे कि अगर तुमने सुविधाओं के अभाव में यह मुकाम पाया है तो तुम्हे M.B.B.S. जरूर मिलेगा । जरूरत है थोड़ी और तैयारी की । मुझे भी ज्यादा जल्दी नही थी क्योंकि अभी B.Sc. चल ही रहा था । मुझे किसी कोचिंग की जरूरत नही थी बस जरूरत थी कुछ और किताबों की । परन्तु गरीबी टांग पकड़ कर खींच रही थी । मैं पिताजी से पैसे के लिए कह नही सकता था क्योंकि मैं जानता था कि उनके पास पैसे नही हैं । पिताजी मुझसे कहते जरूर थे कि कोई दिक्कत होगी तो बताना । फिर भी मैं नही कह पाता था क्योंकि मुझे आज भी याद है वह दिन जब मैंने एक छोटी सी किताब के लिए पिताजी से जिद की तो उन्हीने कहा बेटा मेरे पास अभी पैसे नही हैं अगर जरूरी न हो तो बाद में ले लेना । इस बात पर मैंने कहा पापा अगर आपके पास पैसे नही हैं तो रोज बीड़ी तमाखू कैसे लाते हो । यह बात मेरे पिता को लग गई उन्होंने 50 किलो धान बोरी में भर कर दे दिए कहने लगे जाओ बेटा ले लो जो किताब लेना चाहते हो । जब मैं धान बेचने गया तब पता चला कि जो अनाज मेरे पिताजी इतनी मेहनत करके कमाते हैं वह कितना सस्ता है । फिर भी मेरे पिताजी इसे इतना कीमती समझते हैं इतनी कम कीमत में तो मेरा घर खाली हो जाएगा । अगर मैं इतना खर्च करूं तो पूरा साल खाने के लिए अनाज कम हो जाएगा । मैं सोचने लगा फिर क्यों मेरे पिताजी ने मुझे इतना अनाज दे दिया जरूर मेरे पिता के पास पैसे नही थे । वे बातों से मुझे बल देते थे ताकि मैं कमजोर न पडूँ गरीबी मेरी पढ़ाई की बाधक न बन सके । खैर मैं धान तो बेंच चुका था लेकिन किताब नही खरीदी । घर वापस आया तो पिताजी पूछने लगे । मैंने कहा पिताजी इतना सस्ता है अनाज तो कैसे खर्च चलता है, मेरी समझ मे आ गया कि आपके पास अगर पैसे होते तो इतनी मेहनत से पैदा किया हुआ अनाज न देते इसलिए मैंने किताब नही ली । तब मेरे पिता ने कहा बेटा तुम्हे पढ़ाने के लिए चाहे हड्डियां तक बिक जाएं मैं तुम्हे पढ़ाना चाहता हूं, मेरा इतना काम कर देना । मैं समझ गया अपने पिता की वेदना और प्रण किया कि पिताजी का सपना पूरा करके ही रहूँगा, साथ ही अब कभी पिताजी को परेशान नही होने दूँगा । मैंने सोंच लिया था कि अब पिताजी को कभी यह अहसास नही होने दूँगा की वे गरीब हैं । फिर भी पिता तो पिता होता है वे इस बात से अनजान न थे कि मुझे पैसों की कमी की वजह से पढ़ाई में दिक्कत होती है । वे यह भी जानते थे कि जीजाजी की नौकरी भी स्थायी नही है इसलिए उनके पास भी इतने पैसे नही हैं कि मेरी पढ़ाई का खर्च उठा सकें इसलिए जो भी पैदा करते उसका एक बड़ा हिस्सा जीजाजी के यहाँ ही भेजते थे ताकि उनको भोजन का खर्च न करना पड़े । खुद तो कम अनाज में काम चलाते । कभी बीमार पड़ते तो बिना दवाई के दो चार दिन में ठीक होते लेकिन किसी को पता नही चलने देते की वे परेशान हैं ।

तब फिर मैं कैसे उनको और परेशान कर सकता था उनका ही अंश हुआ मैं भी उनकी तकलीफों से अनजान नही था । मैं भी उनके लिए कुछ करना चाहता था फिर भी उनसे किया हुआ वादा सर्वोपरि था । अब वादा पूरा होने में ज्यादा वक्त नही था बस गरीबी जोर लगा रही थी । मुझे भरमाने का पूरा जाल बुन रही थी । इधर मैं पोलियो अभियान से धीरे धीरे करके किताबों का खर्च भी जमा कर रहा था । ट्यूशन आदि करके कुछ और जरूरतें भी पूरी कर रहा था । मेरी B.Sc. की पढ़ाई भी पूरी होने वाली थी । अब तो मैंने ठान लिया था कि बस मेडिकल की तैयारी जम कर करूंगा और पढ़ाई पूरी होते ही क्लीनिक खोल दूँगा । मुझे विश्वास होने लगा था अब गरीबी को जीत लूंगा । B.Sc. की पढ़ाई पूरी हुई और समय आ गया पूरी शिद्दत से मेडिकल की तैयारी करने का । समय तो पर्याप्त था लेकिन घर की आर्थिक हालत दिन ब दिन खराब हो रही थी पिताजी कमजोर हो रहे थे माँ पर भी उम्र हावी होने लगी । छोटी बहन की पढ़ाई लिखाई का खर्च बढ़ रहा था । वह बड़ी भी तो हो रही थी उसके व्याह का भी तो इंतजाम करना था । इसलिए समय अधिक न था, मुझे जल्द ही कुछ करना था । आर्थिक स्थिति इतनी डगमगाने लगी कि मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा । दर्द की यह कहानी सिर्फ एक लक्ष्मी नारायण व उसके पिता पन्ना लाल की नही है । ऐसे कई लोग हैं इस दर्द को झेल चुके हैं और कुछ झेल रहे हैं । फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ तो परिस्थितियों से समझौता करके दर्द सहते रहते हैं, कुछ संघर्ष करते हैं । संघर्ष की हर कहानी में सिर्फ तकलीफें ही नही होतीं कुछ मोहब्बत भरे पल भी होते हैं । मेरी कहानी में भी वे पल आएं । मैंने भी जाना मोहब्बत क्या है ? लेकिन तकलीफों की दास्तान इतनी लम्बी है कि मोहब्बत के पल कुछ एक सेकंड भर लगते हैं । मुझे याद है जब पोलियो अभियान के पहले दिन मैं बूथ पर पहुंचा । कुछ देर बाद सुपरवाइजर साहब के साथ ओ आई जिसने मुझे मोहब्बत का ऐहसास करा दिया । मुझे याद है वह गुलाबी लिवाज जो उसकी सुंदरता को निखार प्रदान कर रहा था । उसे देखकर एक पल तो मुझे लगा कि बहुत आमिर घर की और बहुत पढ़ी-लिखी लड़की है । मैंने सोंचा शायद कोई मेडिकल स्टूडेंट होगी । बाद में पता चला कि वह भी पोलियो अभियान में काम करने आई है । उस दिन उसकी ड्यूटी मेरे ही बूथ पर थी । कुछ देर साथ रहने के बाद हमारी अच्छी बनने लगी । लगभग एक सप्ताह साथ मे काम करते करते हम एक-दूसरे को ठीक से समझने भी लगे । लेकिन इतना आसान भी नही होता है अपनी मोहब्बत का इकरार करना । दोस्ती तो किसी से भी हो सकती है । क्योंकि दोस्ती दौलत नही देखती । सिर्फ दोस्ती ही तो है जो कभी भी कहीं भी काम आती है । जब सब साथ छोड़ देते हैं तब दोस्त साथ देते हैं । इसलिए मैं मोहब्बत का इकरार करके दोस्ती नही खोना चाहता था । फिर भी इतना समझ लीजिए

“मोहब्बत छिपती नही छुपाने से ।

ओ पहचान लेती है मुस्कराने से ।।“

उसको एहसास हो गया था मेरी मोहब्बत का और मैं भी समझ रहा था कि वह भी चाहने लगी है । एक दिन मैंने कहा ही दिया कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है । उसने यह कहकर टाल दिया कि जिंदगी सिर्फ प्यार से नही चलती । मैं जानती हूँ कि तुम एक अच्छे इंसान हो, हैंडसम हो पढ़े लिखे हो । लेकिन जिंदगी जीने के लिए पैसा बहुत जरूरी है । तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो । मैं समझ गया मेरी गरीबी प्यार से कहीं ज्यादा ताकतवर है । मुझे सबसे पहले इससे निबटना होगा । मैं अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाना चाहता था फिर भी प्यार रह रह कर परेशान करता था । वह भी मुझे मन ही मन प्यार तो करती थी पर डरती थी गरीबी से । वह मुझे प्यार करती थी तभी तो दिन में एक बार मुलाकात जरूर करती थी । पहले मैं उसके प्यार को नही समझ सका जब वह कहती थी पढ़ाई पर ध्यान दो और कुछ बन जाओ ।

दूसरी तरफ नियति अपना खेल खेल रही थी जिससे मैं अनजान था । मुझे तो पता भी नही था क्या होने वाला है मेरी जिंदगी में ……

To be continued……

(शेष भाग -2 में पढ़ें)