गोदान
प्रेमचंद
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भाग 1
होरीराम ने दोनों बैलों को सानी—पानी दे कर अपनी स्त्री धनिया से कहा — गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। जरा मेरी लाठी दे दे। धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथ कर आई थी। बोली — अरेए कुछ रस—पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या हैघ् होरी ने अपने झुर्रियों से भरे हुए माथे को सिकोड़ कर कहा — तुझे रस—पानी की पड़ी हैए मुझे यह चिंता है कि अबेर हो गई तो मालिक से भेंट न होगी। असनान—पूजा करने लगेंगेए तो घंटों बैठे बीत जायगा। श्इसी से तो कहती हूँए कुछ जलपान कर लो और आज न जाओगे तो कौन हरज होगा! अभी तो परसों गए थे।श्
श्तू जो बात नहीं समझतीए उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते—जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई हैए नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गए। गाँव में इतने आदमी तो हैंए किस पर बेदखली नहीं आईए किस पर कुड़की नहीं आई। जब दूसरे के पाँवों—तले अपनी गर्दन दबी हुई हैए तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुसल है।श्
धनिया इतनी व्यवहार—कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने जमींदार के खेत जोते हैंए तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी खुशामद क्यों करेंए उसके तलवे क्यों सहलाएँ। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर—ब्योंत करोए कितना ही पेट—तन काटोए चाहे एक—एक कौड़ी को दाँत से पकड़ोय मगर लगान का बेबाक होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थीए और इस विषय पर स्त्री—पुरुष में आए दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छरू संतानों में अब केवल तीन जिंदा हैंए एक लड़का गोबर कोई सोलह साल काए और दो लड़कियाँ सोना और रूपाए बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गए। उसका मन आज भी कहता थाए अगर उनकी दवा—दवाई होती तो वे बच जातेय पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो थाय पर सारे बाल पक गए थेए चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं। सारी देह ढ़ल गई थीए वह सुंदर गेहुँआँ रंग सँवला गया थाए और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिंता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीर्णावस्था ने उसके आत्मसम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटीयाँ भी न मिलेंए उसके लिए इतनी खुशामद क्योंघ् इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता थाए और दो—चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्ञान होता था।
उसने परास्त हो कर होरी की लाठीए मिरजईए जूतेए पगड़ी और तमाखू का बटुआ ला कर सामने पटक दिए।
होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा — क्या ससुराल जाना हैए जो पाँचों पोसाक लाई हैघ् ससुराल में भी तो कोई जवान साली—सलहज नहीं बैठी हैए जिसे जा कर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवलेए पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा — ऐसे ही बड़े सजीले जवान हो कि साली—सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जाएँगी।
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा — तो क्या तू समझती हैए मैं बूढ़़ा हो गयाघ् अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
श्जा कर सीसे में मुँह देखो। तुम—जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध—घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहींए पाठे होंगे। तुम्हारी दसा देख—देख कर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान यह बुढ़़ापा कैसे कटेगाघ् किसके द्वार पर भीख माँगेंगेघ्श्
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में झुलस गई। लकड़ी सँभलता हुआ बोला — साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पाएगी धनियाए इसके पहले ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया — अच्छा रहने दोए मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहेए तो लगते हो कोसने।
होरी कंधों पर लाठी रख कर घर से निकलाए तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा—भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाए हुए हृदय में आतंकमय कंपन—सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के संपूर्ण तप और व्रत से अपने पति को अभय—दान दे रही थी। उसके अंतरूकरण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह—सा निकल कर होरी को अपने अंदर छिपाए लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण थाए जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भीए मानो झटका दे कर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा। बल्कि यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना—शक्ति आ गई थी। काना कहने से काने को जो दुरूख होता हैए वह क्या दो आँखों वाले आदमी को हो सकता हैघ्
होरी कदम बढ़़ाए चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा — भगवान कहीं गौं से बरखा कर दे और डाँड़ी भी सुभीते से रहेए तो एक गाय जरूर लेगा। देसी गाएँ तो न दूध देंए न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहींए वह पछाईं गाय लेगा। उसकी खूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार—पाँच सेर दूध होगाघ् गोबर दूध के लिए तरस—तरस रह जाता है। इस उमिर में न खाया—पियाए तो फिर कब खाएगाघ् साल—भर भी दूध पी लेए तो देखने लायक हो जाए। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे—सबेरे गऊ के दर्सन हो जायँ तो क्या कहना! न जाने कब यह साध पूरी होगीए कब वह सुभ दिन आएगा!
हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्नए सबसे बड़ी साध थी। बैंक के सूद से चौन करने या जमीन खरीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें—से हृदय में कैसे समातीं !
जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकल कर आकाश पर छाई हुई लालिमा को अपने रजत—प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़़ रहा था और हवा में गरमी आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करने वाले किसान उसे देख कर राम—राम करते और सम्मान—भाव से चिलम पीने का निमंत्रण देते थेय पर होरी को इतना अवकाश कहाँ थाघ् उसके अंदर बैठी हुई सम्मान—लालसा ऐसा आदर पा कर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों से मिलते—जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैंए नहीं उसे कौन पूछता— पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्याघ् यह कम आदर नहीं है कि तीन—तीनए चार—चार हल वाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं।
अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़ कर एक खलेटी में आ गया थाए जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नजर आती थी। आस—पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस उमस में भी यहाँ की हवा में कुछ ताजगी और ठंडक थी। होरी ने दो—तीन साँसें जोर से लीं। उसके जी में आयाए कुछ देर यहीं बैठ जाए। दिन—भर तो लू—लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रकम देते थेय पर ईश्वर भला करे रायसाहब का कि उन्होंने साफ कह दियाए यह जमीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गई है और किसी दाम पर भी न उठाई जायगी। कोई स्वार्थी जमींदार होताए तो कहता गाएँ जायँ भाड़ मेंए हमें रुपए मिलते हैंए क्यों छोड़ेंय पर रायसाहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पालेए वह भी कोई आदमी हैघ्
सहसा उसने देखाए भोला अपनी गाय लिए इसी तरफ चला आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध—मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी—कभी किसानों के हाथ गाएँ बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया। अगर भोला वह आगे वाली गाय उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे—पीछे देता रहेगा। वह जानता थाए घर में रुपए नहीं हैं। अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सकाय बिसेसर साह का देना भी बाकी हैए जिस पर आने रुपए का सूद चढ़़ रहा हैए लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती हैए वह निर्लज्जता जो तकाजेए गाली और मार से भी भयभीत नहीं होतीए उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आंदोलित कर रही थीए उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जा कर बोला — राम—राम भोला भाईए कहो क्या रंग—ढ़ंग हैंघ् सुना अबकी मेले से नई गाएँ लाए होघ्
भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी — हाँए दो बछिएँ और दो गाएँ लाया। पहलेवाली गाएँ सब सूख गई थी। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुजर कैसे होघ्
होरी ने आगे वाली गाय के पुट्टे पर हाथ रख कर कहा — दुधार तो मालूम होती है। कितने में लीघ्
भोला ने शान जमाई — अबकी बाजार तेज रहा महतोए इसके अस्सी रुपए देने पड़े। आँखें निकल गईं। तीस—तीस रुपए तो दोनों कलोरों के दिए। तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है।
श्बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाईए लेकिन फिर लाए भी तो वह माल कि यहाँ दस—पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं।श्
भोला पर नशा चढ़़ने लगा। बोला — रायसाहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के पचास—पचास रुपएए लेकिन हमने न दिए। भगवान ने चाहा तो सौ रुपए इसी ब्यान में पीट लूँगा।
श्इसमें क्या संदेह है भाई। मालिक क्या खा के लेंगेघ् नजराने में मिल जायए तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुर्दा है कि अंजुली—भर रुपए तकदीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गऊओं की इतनी सेवा करते हो! हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न होए तो कितनी लज्जा की बात है। साल—के—साल बीत जाते हैंए गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार—बार कहती हैए भोला भैया से क्यों नहीं कहतेघ् मैं कह देता हूँए कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती हैए ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगेए नीची आँखें करके कभी सिर नहीं उठाते।श्
भोला पर जो नशा चढ़़ रहा थाए उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला — आदमी वही हैए जो दूसरों की बहू—बेटी को अपनी बहू—बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताकेए उसे गोली मार देना चाहिए।
श्यह तुमने लाख रुपए की बात कह दी भाई! बस सज्जन वहीए जो दूसरों की आबरू समझे।श्
श्जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती हैए उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ—पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतोए कोई एक लोटा पानी देने वाला भी नहीं।श्
गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गई थी। यह होरी जानता थाए लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध हैए वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आँखों में सजल हो गई थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक—बुद्धि सजग हो गई।
श्पुरानी मसल झूठी थोड़े है — बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई क्यों नहीं ठीक कर लेतेघ्श्
श्ताक में हूँ महतोए पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ—पचास खरच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान की इच्छा।श्
श्अब मैं भी फिराक में रहूँगा। भगवान चाहेंगेए तो जल्दी घर बस जायगा।श्
श्बसए यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया! घर में खाने को भगवान का दिया बहुत है। चार पसेरी रोज दूध हो जाता हैए लेकिन किस काम काघ्श्
श्मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन—चार साल हुएए उसका आदमी उसे छोड़ कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुजारा कर रही है। बाल—बच्चा भी कोई नहीं। देखने—सुनने में अच्छी है। बसए लच्छमी समझ लो।श्
भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है! बोला — अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी होए तो चलो एक दिन देख आएँ।
श्मैं ठीक—ठाक करके तब तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है।श्
श्जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की — इस कबरी पर मन ललचाया होए तो ले लो।श्
श्यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबाएँ। जैसे इतने दिन बीते हैंए वैसे और भी बीत जाएँगे।श्
श्तुम तो ऐसी बातें करते हो होरीए जैसे हम—तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओए दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रहीए वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थीए तुम अस्सी रुपए ही देना देना। जाओ।श्
श्लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादाए समझ लो।श्
श्तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाईघ्श्
होरी की छाती गज—भर की हो गई। अस्सी रुपए में गाय महँगी न थी। ऐसा अच्छा डील—डौलए दोनों जून में छरू—सात सेर दूधए सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक—एक बाछा सौ—सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की सोभा बढ़़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थेय लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गईए तो साल—दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुईए तो होरी का क्या बिगड़ता है! यही तो होगाए भोला बार—बार तगादा करने आएगाए बिगड़ेगाए गालियाँ देगाय लेकिन होरी को इसकी ज्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल न था। अब भी लेन—देन में उसके लिए लिखा—पढ़़ी होने और न होने में कोई अंतर न था। सूखे—बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भीरु बनाए रहती थीं। ईश्वर का रुद्र रूप सदैव उसके सामने रहता थाय पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ—सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन—रात करता रहता था। घर में दो—चार रुपए पड़े रहने पर भी महाजन के सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रूई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था और यहाँ तो केवल स्वार्थ न थाए थोड़ा—सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जायए तो कोई दोष—पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा — ले जाओ महतोए तुम भी क्या याद करोगे। ब्याते ही छरू सेर दूध लेना। चलोए मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझ कर रास्ते में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँए मालिक नब्बे रुपए देते थेए पर उनके यहाँ गऊओें की क्या कदर। मुझसे ले कर किसी हाकिम—हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलबघ् वह तो खून चूसना—भर जानते हैं। जब तक दूध देतीए रखतेए फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़तीए कौन जाने। रूपया ही सब कुछ नहीं है भैयाए कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खा कर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगेए प्यार करोगेए चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैयाए घर में चंगुल—भर भी भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाजार में निकल गए। सोचा थाए महाजन से कुछ ले कर भूसा ले लेंगेय लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलाएँए यही चिंता मारे डालती है। चुटकी—चुटकी भर खिलाऊँए तो मन—भर रोज का खरच है। भगवान ही पार लगाएँ तो लगे।
होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा — तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा — हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला ने माथा ठोक कर कहा — इसीलिए नहीं कहा — भैया कि सबसे अपना दुरूख क्यों रोऊँय बाँटता कोई नहींए हँसते सब हैं। जो गाएँ सूख गई हैंए उनका गम नहींए पत्ती—सत्ती खिला कर जिला लूँगाय लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सकेए तो दस—बीस रुपए भूसे के लिए दे दो।
किसान पक्का स्वार्थी होता हैए इसमें संदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैंए भाव—ताव में भी वह चौकस होता हैए ब्याज की एक—एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता हैए जब तक पक्का विश्वास न हो जायए वह किसी के फुसलाने में नहीं आताए लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैंए उन्हें जनता खाती हैए खेती में अनाज होता हैए वह संसार के काम आता हैय गाय के थन में दूध होता हैए वह खुद पीने नहीं जातीए दूसरे ही पीते हैंए मेघों से वर्षा होती हैए उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थानघ् होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।
भोला की संकट—कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गई। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला — रुपए तो दादा मेरे पास नहीं हैं। हाँए थोड़ा—सा भूसा बचा हैए वह तुम्हें दूँगा। चल कर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगेए और मैं लूँगा! मेरे हाथ न कट जाएँगेघ्
भोला ने आर्द्र कंठ से कहा — तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे। तुम्हारे पास भी ऐसा कौन—सा बहुत—सा भूसा रखा है।
श्नहीं दादाए अबकी भूसा अच्छा हो गया था।श्
श्मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।श्
श्तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होताए तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई न करेए तो काम कैसे चले!श्
श्मुदा यह गाय तो लेते जाओ।श्
श्अभी नहीं दादाए फिर ले लूँगा।श्
श्तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना।श्
होरी ने दुरूखित स्वर में कहा — दाम—कौड़ी की इसमें कौन बात है दादाए मैं एक—दो जून तुम्हारे घर खा लूँ तो तुम मुझसे दाम माँगोगेघ्
श्लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीघ्
श्भगवान कोई—न—कोई सबील निकालेंगे ही। आसाढ़़ सिर पर है। कड़वी बो लूँगा।श्
श्मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा होए आ कर ले जाना।श्
श्किसी भाई का लिलाम पर चढ़़ा हुआ बैल लेने में जो पाप हैए वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है।श्
होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होतीए तो वह खुशी से गाय ले कर घर की राह लेता। भोला जब नकद रुपए नहीं माँगताए तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा हैए बल्कि इसका कुछ और आशय हैय लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे कदम नहीं उठाताए वही दशा होरी की थी। संकट की चीज लेना पाप हैए यह बात जन्म—जन्मांतरों से उसकी आत्मा का अंश बन गई थी।
भोला ने गदगद कंठ से कहा — तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिएघ्
होरी ने जवाब दिया — अभी मैं रायसाहब की ड्योढ़़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी—भर में लौटूँगाए तभी किसी को भेजना।
भोला की आँखों में आँसू भर आए। बोला — तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा — उस बात को भूल न जाना।
होरी आगे बढ़़ाए तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआए दस—पाँच मन भूसा चला जायगाए बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायगा तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान करेंए मुझे कोई मेहरिया मिल जाए। फिर तो कोई बात ही नहीं।
उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ातीए सिर हिलातीए मस्तानीए मंद—गति से झूमती चली जाती थीए जैसे बांदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिनए जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बँधेगी!
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भाग 2
सेमरी और बेलारी दोनों अवध—प्रांत के गाँव हैं। जिले का नाम बताने की कोई जरूरत नहीं। होरी बेलारी में रहता हैए रायसाहब अमरपाल सिंह सेमरी में। दोनों गाँवों में केवल पाँच मील का अंतर है। पिछले सत्याग्रह—संग्राम में रायसाहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेंबरी छोड़ कर जेल चले गए थे। तब से उनके इलाके के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गई थी। यह नहीं कि उनके इलाके में असामियों के साथ कोई खास रियायत की जाती होए या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम होए मगर यह सारी बदनामी मुख्तारों के सिर जाती थी। रायसाहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के गुलाम थे। जाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया हैए वैसा ही होगा। रायसाहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थीए इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ—भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़़ गया था। असामियों से वह हँस कर बोल लेते थे। यही क्या कम हैघ् सिंह का काम तो शिकार करना हैय अगर वह गरजने और गुर्राने के बदले मीठी बोली बोल सकताए तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता।
रायसाहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल—जोल बनाए रखते थे। उनकी नजरें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थेए ड्रामा के शौकीनए अच्छे वक्ता थेए अच्छे लेखकए अच्छे निशानेबाज। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थेय मगर दूसरी शादी न की थी। हँस बोल कर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे।
होरी ड्योढ़़ी पर पहुँचा तो देखाए जेठ के दशहरे के अवसर पर होने वाले धनुष—यज्ञ की बड़ी जोरों से तैयारियाँ हो रही हैं! कहीं रंग—मंच बन रहा थाए कहीं मंडपए कहीं मेहमानों का आतिथ्य—गृहए कहीं दुकानदारों के लिए दूकानें। धूप तेज हो गई थीए पर रायसाहब खुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से संपत्ति के साथ—साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पाई थी और धनुष—यज्ञ को नाटक का रूप दे कर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार—दोस्तए हाकिम—हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे और दो—तीन दिन इलाके में बड़ी चहल—पहल रहती थी। रायसाहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे। दरजनों चचेरे भाईए कई सगे भाईए बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृंदावन में रहते थे। भक्ति—रस के कितने ही कवित्त रच डाले थे और समय—समय पर उन्हें छपवा कर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा थेए जो राम के परम भक्त थे और फारसी—भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबक वजीफे बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की जरूरत न थी।
होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा रायसाहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले — अरे! तू आ गया होरीए मैं तो तुझे बुलवाने वाला था। देखए अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पडेगा। समझ गया नए जिस वक्त श्री जानकी जी मंदिर में पूजा करने जाती हैंए उसी वक्त तू एक गुलदस्ता लिए खड़ा रहेगा और जानकी जी को भेंट करेगाए गलती न करना और देखए असामियों से ताकीद करके यह कह देना कि सब—के—सब शगुन करने आएँ। मेरे साथ कोठी में आए तुझसे कुछ बातें करनी हैं।
वह आगे—आगे कोठी की ओर चलेए होरी पीछे—पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुर्सी पर बैठ गए और होरी को जमीन पर बैठने का इशारा करके बोले — समझ गयाए मैंने क्या कहा — कारकुन को तो जो कुछ करना हैए वह करेगा हीए लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता हैए कारकुन की नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच—सात दिनों में बीस हजार का प्रबंध करना है। कैसे होगाए समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगेए मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँघ् न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भीए तो तुम्हारी हँसी मैं बर्दाशत कर सकता हूँ। नहीं सह सकता उनकी हँसीए जो अपने बराबर के हैंए क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या व्यंग और जलन है। और वे क्यों न हँसेंगेघ् मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँए दिल खोल करए तालियाँ बजा कर। संपत्ति और सहृदयता में बैर है। हम भी दान देते हैंए धर्म करते हैं। लेकिन जानते होए क्योंघ् केवल अपने बराबर वालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार हैए विशुदध अहंकार। हममें से किसी पर डिगरी हो जायए कुर्की आ जायए बकाया मालगुजारी की इल्लत में हवालात हो जायए किसी का जवान बेटा मर जायए किसी की विधवा बहू निकल जायए किसी के घर में आग लग जायए कोई किसी वेश्या के हाथों उल्लू बन जायए या अपने असामियों के हाथों पिट जायए तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगेए बगलें बजाएँगेए मानों सारे संसार की संपदा मिल गई है और मिलेंगे तो इतने प्रेम सेए जैसे हमारे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार हैं। अरेए और तो औरए हमारे चचेरेए फुफुरेए ममेरेए मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैंए कविता कर रहे हैंए और जुए खेल रहे हैंए शराबें पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैंए वह भी मुझसे जलते हैंए आज मर जाऊँ तो घी के चिराग जलाएँ। मेरे दुरूख को दुरूख समझने वाला कोई नहीं। उनकी नजरों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर रोता हूँए तो दुरूख की हँसी उड़ाता हूँ। मैं अगर बीमार होता हूँए तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़़ाताए तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता हैए अगर ब्याह कर लूँए तो वह विलासांधता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूँए तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करताए तो अरसिक हूँय ऐयाशी करने लगूँए तो फिर कहना ही क्या! इन लोगों ने मुझे भोग—विलास में फँसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अंधा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लेंए और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देख कर भी कुछ न देखूँ। सब कुछ जान कर भी गधा बना रहूँ।
रायसाहब ने गाड़ी को आगे बढ़़ाने के लिए दो बीड़े पान खाए और होरी के मुँह की ओर ताकने लगेए जैसे उसके मनोभावों को पढ़़ना चाहते हों।
होरी ने साहस बटोर कहा — हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैंए पर जान पड़ता हैए बड़े आदमियों में भी उनकी कमी नहीं है।
रायसाहब ने मुँह पान से भर कर कहा — तुम हमें बड़ा आदमी समझते होघ् हमारे नाम बड़े हैंए पर दर्शन थोड़े। गरीबों में अगर ईर्ष्या या बैर हैए तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और बैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन लेए तो उसके गले में उँगली डाल कर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ देंए तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और बैर केवल आनंद के लिए है। हम इतने बड़े आदमी हो गए हैं कि हमें नीचता और कुटीलता में ही निरूस्वार्थ और परम आनंद मिलता है। हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गए हैंए जब हमें दूसरों के रोने पर हँसी आती है। इसे तुम छोटी साधना मत समझो। जब इतना बड़ा कुटुंब हैए तो कोई—न—कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही। और बड़े आदमियों के रोग भी बड़े होते हैं। वह बड़ा आदमी ही क्याए जिसे कोई छोटा रोग हो। मामूली ज्वर भी आ जायए तो हमें सरसाम की दवा दी जाती हैय मामूली गुंसी भी निकल आएए तो वह जहरबाद बन जाती है। अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाए जा रहे हैंए मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा हैए भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता। उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुंडली का विचार कर रहे हैं और तंत्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं। राजा साहब को यमराज के मुँह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है। वैद्य और डॉक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब इनके सिर में दर्द हो और कब उनके घर में सोने की वर्षा हो। और ए रुपए तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किए जाते हैंए भाले की नोंक पर। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालताय मगर नहीं आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगतीए वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है। हम जौ—जौ और अंगुल—अंगुल और पोर—पोर भस्म हो रहे हैं। उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस कीए हुक्काम कीए अदालत कीए वकीलों की शरण लेते हैं और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं। दुनिया समझती हैए हम बड़े सुखी हैं। हमारे पास इलाकेए महलए सवारियाँए नौकर—चाकरए कर्जए वेश्याएँए क्या नहीं हैंए लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहींए अभिमान नहींए वह और चाहे कुछ होए आदमी नहीं है। जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती होए जिसके दुरूख पर सब हँसें और रोने वाला कोई न होए जिसकी चोटी दूसरों के पैरों की नीचे दबी होए जो भोग—विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया होए जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का खून चूसता होए मैं उसे सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है। साहब शिकार खेलने आएँ या दौरे परए मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ। उनकी भौंहों पर शिकन पड़ी और हमारे प्राण सूखे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम क्या नहीं करतेय मगर वह पचड़ा सुनाने लगूँ तो शायद तुम्हें विश्वास न आए। डालियों और रिश्वतों तक तो खैर गनीमत हैए हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं। मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया हैए हमें अपने पुरुषार्थ पर लेश मात्र भी विश्वास नहींए केवल अफसरों के सामने दुम हिला—हिला कर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपने प्रजा पर आतंक जमाना ही हमारा उद्यम है। पिछलगुओं की खुशामदों ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिजाज बना दिया है कि हममें शीलए विनय और सेवा का लोप हो गया है। मैं तो कभी—कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाके छीन कर हमें अपने रोजी के लिए मेहनत करना सिखा देए तो हमारे साथ महान उपकार करेए और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी। हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता। लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जाने वाली है। मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ। ईश्वर वह दिन जल्द लाए। वह हमारे उद्धार का दिन होगा। हम परिस्थितियों के शिकार बने हुए हैं। यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक संपत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगीए जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगाए हम मानवता का वह पद न पा सकेंगेए जिस पर पहुँचना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
रायसाहब ने फिर गिलौरी—दान निकाला और कई गिलौरियाँ निकाल कर मुँह में भर लीं। कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आ कर कहा — सरकारए बेगारों ने काम करने से इनकार कर दिया है। कहते हैंए जब तक हमें खाने को न मिलेगाए हम काम न करेंगे। हमने धमकायाए तो सब काम छोड़ कर अलग हो गए।
रायसाहब के माथे पर बल पड़ गए। आँखें निकाल कर बोले — चलोए मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ। जब कभी खाने को नहीं दियाए तो आज यह नई बात क्योंघ् एक आने रोज के हिसाब से मजूरी मिलेगीए जो हमेशा मिलती रही हैय और इस मजूरी पर काम करना होगाए सीधे करें या टेढ़़े।
फिर होरी की ओर देख कर बोले — तुम अब जाओ होरीए अपने तैयारी करो। जो बात मैंने कही हैए उसका खयाल रखना। तुम्हारे गाँव से मुझे कम—से—कम पाँच सौ की आशा है।
रायसाहब झल्लाते हुए चले गए। होरी ने मन में सोचाए अभी यह कैसी—कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गए!
सूर्य सिर पर आ गया था। उसके तेज से अभिभूत हो कर वृक्ष ने अपना पसार समेट लिया था। आकाश पर मटीयाली गर्द छाई हुई थी और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी।
होरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगुन के रुपए कहाँ से आएँगेए यही चिंता उसके सिर पर सवार थी।
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भाग 3
होरी अपने गाँव के समीप पहुँचाए तो देखाए अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रहीं थीए बगुले उठ रहे थेए भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दी हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैंघ् क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैंघ् वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्ला कर बोला — आता क्यों नहीं गोबरए क्या काम ही करता रहेगाघ् दोपहर ढ़ल गईए कुछ सूझता है कि नहींघ्
उसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिए। गोबर साँवलाए लंबाए इकहरा युवक थाए जिसे इस काम में रूचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असंतोष और विद्रोह था। वह इसलिए काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता थाए उसे खाने—पीने की कोई फिक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जाशील कुमारी थीए साँवलीए सुडौलए प्रसन्न और चपल। गाढ़़े की लाल साड़ीए जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थीए उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई—सी थीए और उसे प्रौढ़़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच—छरू साल की छोकरी थीए मैलीए सिर पर बालों का एक घोंसला—सा बना हुआए एक लंगोटी कमर में बाँधेए बहुत ही ढ़ीठ और रोनी।
रूपा ने होरी की टाँगो में लिपट कर कहा — काका! देखोए मैंने एक ढ़ेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती हैए जा पेड़ तले बैठ। ढ़ेले न तोड़े जाएँगे काकाए तो मिट्टी कैसे बराबर होगीघ्
होरी ने उसे गोद में उठा प्यार करते हुए कहा — तूने बहुत अच्छा किया बेटीए चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाए रहने के बाद गोबर बोला — यह तुम रोज—रोज मालिकों की खुशामद करने क्यों जाते होघ् बाकी न चुके तो प्यादा आ कर गालियाँ सुनाता हैए बेगार देनी ही पड़ती हैए नजर—नजराना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!
इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थेए लेकिन लड़के के इस विद्रोह—भाव को दबाना जरूरी था। बोला — सलामी करने न जायँए तो रहें कहाँघ् भगवान ने जब गुलाम बना दिया हैए तो अपना क्या बस हैघ् यह इसी सलामी की बरकत हैए कि द्वार पर मँड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा । घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा थाए जिस पर कारिंदों ने दो रुपए डाँड़ ले लिए थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदीए कारिंदा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नजर देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँए पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहोए तब जा कर मालिक को खबर होती है। कभी बाहर निकलते हैंए कभी कहला देते हैं कि फुरसत नहीं हैं।
गोबर ने कटाक्ष किया — बड़े आदमियों की हाँ—में—हाँ मिलाने में कुछ—न—कुछ आनंद तो मिलता ही हैए नहीं लोग मेंबरी के लिए क्यों खड़े होंघ्
जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटाए अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता थाय पर अब मालूम हुआ कि हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई हैए अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।श्
पिता पर अपना क्रोध उतार कर गोबर कुछ शांत हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखाए रूपा बाप की गोद में चढ़़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँट कर बोली — अब गोद से उतर कर पाँव—पाँव क्यों नहीं चलतीए क्या पाँव टूट गए हैंघ्
रूपा ने बाप की गर्दन में हाथ डाल कर ढ़िठाई से कहा — न उतरेंगे जाओ। काकाए बहन हमको रोज चिढ़़ाती है कि तू रूपा हैए मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो।
होरी ने सोना को बनावटी रोष से देख कर कहा — तू इसे क्यों चिढ़़ाती है सोनियाए सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न होए तो रुपए कहाँ से बनेंए बताघ्
सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया — सोना न हो तो मोहर कैसे बनेए नथुनिया कहाँ से आएँए कंठा कैसे बनेघ्
गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला — तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता हैए रूपा तो उजला होता हैए जैसे सूरज।
सोना बोली — शादी—ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती हैए उजली साड़ी कोई नहीं पहनता।
रूपा इस दलील से परास्त हो गई। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।
होरी को एक नई युक्ति सूझ गई। बोला — सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम गरीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैंए गेहूँ को चमारय इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैंए जौ हम लोग खाते हैं।
सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त हो कर बोली — तुम सब जने एक ओर हो गएए नहीं रुपिया को रुला कर छोड़ती।
रूपा ने उँगली मटका कर कहा — ए रामए सोना चमार—ए रामए सोना चमार।
इस विजय का उसे इतना आनंद हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। जमीन पर कूद पड़ी और उछल—उछल कर यही रट लगाने लगी — रूपा राजाए सोना चमार — रूपा राजाए सोना चमार!
ए लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट हो कर बोली — आज इतनी देर क्यों की गोबरघ् काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।
फिर पति से गर्म हो कर कहा — तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गए। खेत कहीं भागा जाता था!
द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक—एक कलसा पानी सिर पर ऊँड़ेलाए रूपा को नहलाया और भोजन करने गए। जौ की रोटीयाँ थींए पर गेहूँ—जैसी सफेद और चिकनी। अरहर की दाल थीए जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईर्ष्या—भरी आँखों से देखाए मानो कह रही थीए वाह रे दुलार!
धनिया ने पूछा — मालिक से क्या बातचीत हुईघ्
होरी ने लोटा—भर पानी चढ़़ाते हुए कहा — यही तहसील—वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैंए बड़े आदमी बहुत सुखी होंगेए लेकिन सच पूछो तो वह हमसे भी ज्यादा दुरूखी हैं। हमें पेट ही की चिंता हैए उन्हें हजारों चिंताएँ घेरे रहती हैं।
रायसाहब ने और क्या—क्या कहा थाए वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का खुलासा—मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।
गोबर ने व्यंग्य किया — तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते। हम अपने खेतए बैलए हलए कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदलाघ् यह सब धूर्तता हैए निरी मोटमरदी। जिसे दुरूख होता हैए वह दरजनों मोटरें नहीं रखताए महलों में नहीं रहताए हलवा—पूरी नहीं खाता और न नाच—रंग में लिप्त रहता है। मजे से राज का सुख भोग रहे हैंए उस पर दुरूखी हैं!
होरी ने झुँझला कर कहा — अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगेघ् हमीं को खेती से क्या मिलता हैघ् एक आने नफरी की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर हैए वह भी हमसे अच्छा खाता—पहनता हैए लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ देंए तो और करें क्याघ् नौकरी कहीं मिलती हैघ् फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद हैए वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह जमींदारों का हाल भी समझ लो। उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैंए हाकिमों को रसद पहुँचाओए उनकी सलामी करोए अमलों को खुस करो। तारीख पर मालगुजारी न चुका देंए तो हवालात हो जायए कुड़की आ जाए। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो—चार गालियाँ—घुड़कियाँ ही तो मिल कर रह जाती हैं।
गोबर ने प्रतिवाद किया — यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने—दाने को मुहताज हैंए देह पर साबित कपड़े नहीं हैंए चोटी का पसीना एड़ी तक आता हैए तब भी गुजर नहीं होता। उन्हें क्याए मजे से गद्दी—मसनद लगाए बैठे हैंए सैकड़ों नौकर—चाकर हैंए हजारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते होंय पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन ले कर आदमी और क्या करता हैघ्
श्तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैंघ्श्
श्भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है।श्
श्यह बात नहीं है बेटाए छोटे—बड़े भगवान के घर से बन कर आते हैं। संपत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किए हैंए उनका आनंद भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचाए तो भोगें क्याघ्श्
श्यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी हैए वह गरीबों को कुचल कर बड़ा आदमी बन जाता है।श्
श्यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज भगवान का भजन करते हैं।श्
श्किसके बल पर यह भजन—भाव और दान—धरम होता हैय
श्अपने बल पर।श्
श्नहींए किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसेघ् इसीलिए दान—धरम करना पड़ता हैए भगवान का भजन भी इसीलिए होता है। भूखे—नंगे रह कर भगवान का भजन करेंए तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को देए तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जाए।श्
होरी ने हार कर कहा — अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाईए तुम तो भगवान की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।
तीसरे पहर गोबर कुदाल ले कर चलाए तो होरी ने कहा — जरा ठहर जाओ बेटाए हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा—सा भूसा निकाल कर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।
गोबर ने अवज्ञा—भरी आँखों से देख कर कहा — हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।
श्बेचता नहीं हूँ भाईए यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में हैए उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।श्
श्हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।श्
श्दे तो रहा थाए पर हमने ली ही नहीं।श्
श्धनिया मटक कर बोली — गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू—भर दूध तो भेजा नहींए गाय दे देगा!
होरी ने कसम खाई — नहींए जवानी कसमए अपने पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग हैए भूसा—चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेच कर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचाए संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ। थोड़ा—सा भूसा दिए देता हूँए कुछ रुपए हाथ आ जाएँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा—थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की हैए मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।
गोबर ने आड़े हाथों लिया — तुम्हारा यही धरमात्मापन तो तुम्हारी दुरगत कर रहा है। साफ—साफ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय हैए हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें और गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जाएँगेए वह हम धीरे—धीरे दे देंगे।
होरी रहस्यमय ढ़ंग से मुस्कराया — मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत—मेंत में हाथ आ जाए। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी हैए बस! दो—चार मन भूसा तो खाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।
गोबर ने तिरस्कार किया — तो तुम अब सबकी सगाई ठीक करते फिरोगेघ्
धनिया ने तीखी आँखों से देखा — अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोला—भोली किसी का करज नहीं खाया है।
होरी ने अपने सफाई दी — अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय तो इसमें कौन—सी बुराई हैघ्
गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिलकुल नहीं भाता था।
धनिया ने सिर हिला कर कहा — जो उनका घर बसाएगाए वह अस्सी रुपए की गाय ले कर चुप न होगा। एक थैली गिनवाएगा।
होरी ने पुचारा दिया — यह मैं जानता हूँय लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता हैए तेरा बखान ही करता है — ऐसी लक्ष्मी हैए ऐसी सलीकेदार है।
धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मन भाए मुड़िया हिलाए वाले भाव से बोली — मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँए अपना बखान धरे रहें।
होरी ने स्नेह—भरी मुस्कान के साथ कहा — मैंने तो कह दियाए भैयाए वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देतीए गालियों से बात करती हैए लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहींए लक्ष्मी है। बात यह है कि उसकी घरवाली जबान की बड़ी तेज थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा—भागा फिरता था। कहता थाए जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँए उस दिन कुछ—न—कुछ जरूर हाथ लगता है। मैंने कहा — तुम्हारे हाथ लगता होगाए यहाँ तो रोज देखते हैंए कभी पैसे से भेंट नहीं होती।
श्तुम्हारे भाग ही खोटे हैंए तो मैं क्या करूँ।श्
श्लगा अपने घरवाली की बुराई करने — भिखारी को भीख तक नहीं देती थीए झाड़ू ले कर मारने दौड़ती थीए लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी।श्
श्मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ। मुझे देख कर जल उठती थी।श्
श्भोला बड़ा गमखोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो जहर खा मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोलाए पर राम—राम पहले ही करते हैं।श्
श्तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ तो क्या होता हैघ्श्
श्उस दिन भगवान कहीं—न—कहीं से कुछ भेज देते हैं।य
श्बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आई हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के खरबूजे उधार खा डाले। उधार मिल जायए फिर उन्हें चिंता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।श्
श्अरे भोला रोते काहे को हैंघ्श्
गोबर आ कर बोला — भोला दादा आ पहुँचे। मन—दो—मन भूसा हैए वह उन्हें दे दोए फिर उनकी सगाई ढ़ूँढ़ने निकलो!
धनिया ने समझाया — आदमी द्वार पर बैठा हैए उसके लिए खाट—वाट तो डाल नहीं दीए ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमनसी सीखो। कलसा ले जाओए पानी भर कर रख दोए हाथ—मुँह धोएँए कुछ रस—पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।
होरी बोला — रस—वस का काम नहीं हैए कौन कोई पाहुने हैं।
धनिया बिगड़ी — पाहुने और कैसे होते हैं। रोज—रोज तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते हैंघ् इतनी दूर से धूप—घाम में आए हैंए प्यास लगी ही होगी। रुपियाए देख डब्बे में तमाखू है कि नहींए गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़ कर एक पैसे की तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले।
भोला की आज जितनी खातिर हुईए और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दीए सोना रस घोल लाईए रूपा तमाखू भर लाई। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी।
भोला ने चिलम हाथ में ले कर कहा — अच्छी घरनी घर में आ जायए तो समझ लो लक्ष्मी आ गई। वही जानती हैए छोटे—बड़े का आदर—सत्कार कैसे करना चाहिए।
धनिया के हृदय में उल्लास का कंपन हो रहा था। चिंता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमलए शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।
होरी जब भोला का खाँचा उठा कर भूसा लाने अंदर चलाए तो धनिया भी पीछे—पीछे चली। होरी ने कहा — जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूँजे से माँग लिया होगा। मन—भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिएए तो दो मन निकल जाएँगे।
धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली — या तो किसी को नेवता न दोए और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल—पत्र लेने थोड़े ही आए हैं कि चँगेरी ले कर चलते। देते ही होए तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लायाघ् अकेले कहाँ तक ढ़ोएगाघ् जान निकल जायगी।
श्तीन खाँचे तो मेरे दिए न दिए जाएँगे।श्
श्तब क्या एक खाँचा दे कर टालोगेघ् गोबर से कह दोए अपना खाँचा भर कर उनके साथ चला जाए।श्
श्गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।श्
श्एक दिन न गोड़ने से ऊख सूख न जायगी।श्
श्यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान के दिए दो—दो बेटे हैं।श्
श्न होंगे घर पर। दूध ले कर बाजार गए होंगे।श्
श्यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद देए लदा देए लादने वाला साथ कर दे।श्
श्अच्छा भाईए कोई मत जाए। मैं पहुँचा दूँगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।श्
श्और तीन खाँचे उन्हें दे दूँए तो अपने बैल क्या खाएँगेघ्श्
श्यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न होए तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।श्
श्मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती हैए अपना घर उठा कर नहीं दे दिया जाता!श्
श्अभी जमींदार का प्यादा आ जायए तो अपने सिर पर भूसा लाद कर पहुँचाओगे तुमए तुम्हारा लड़काए लड़की सब। और वहाँ साइत मन—दो—मन लकड़ी भी गाड़नी पड़े।श्
श्जमींदार की बात और है।श्
श्हाँए वह डंडे के जोर से काम लेता है न।श्
श्उसके खेत नहीं जोततेघ्श्
श्खेत जोतते हैंए तो लगान नहीं देतेघ्श्
श्अच्छा भाईए जान न खाए हम दोनों चले जाएँगे। कहाँ—से—कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहींए या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।श्
तीनों खाँचे भूसे से भर दिए गए। गोबर कुढ़़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में जरा भी विश्वास न था। वह समझता थाए यह जहाँ जाते हैंए वहीं कुछ—न—कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरीए वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब—उतरा रहा था।
होरी और गोबर मिल कर एक खाँचा बाहर लाए। भोला ने तुरंत अपने—अंगौछे का बींड़ बना कर सिर पर रखते हुए कहा — मैं इसे रख कर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूँगा।
होरी बोला — एक नहींए अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें न आना पड़ेगा। मैं और गोबर एक—एक खाँचा ले कर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।
भोला स्तंभित हो गया। होरी उसे अपना भाईए बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआए जिसने मानों उसके संपूर्ण जीवन को हरा कर दिया।
तीनों भूसा ले कर चलेए तो राह में बातें होने लगीं।
भोला ने पूछा — दसहरा आ रहा हैए मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगीघ्
श्हाँए तंबू—सामियाना गड़ गया है। अबकी लीला में मैं भी काम करूँगा रायसाहब ने कहा हैए तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।श्
श्मालिक तुमसे बहुत खुश हैं।श्
श्उनकी दया है।श्
एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा — सगुन करने के लिए रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया हैघ् माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।
होरी ने मुँह का पसीना पोंछ कर कहा — उसी की चिंता तो मारे डालती है दादा — अनाज तो सब—का—सब खलिहान में ही तुल गया। जमींदार ने अपना लियाए महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातों—रात ढ़ो कर छिपा दिया थाए नहीं तिनका भी न बचता। जमींदार तो एक ही हैए मगर महाजन तीन—तीन हैंए सहुआइन अलग और मँगरू अलग और दातादीन पंडित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। जमींदार के भी आधे रुपए बाकी पड़ गए। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिए तो काम चला। सब तरह किफायत करके देख लिया भैयाए कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसीलिए हुआ है कि अपना रक्त बहाएँ और बड़ों का घर भरें। मूल का दुगुना सूद भर चुकाए पर मूल ज्यों—का—त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैंए सादी—गमी मेंए तीरथ—बरत में हाथ बाँध कर खरच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। रायसाहब ने बेटे के ब्याह में बीस हजार लुटा दिए। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के करिया—करम में पाँच हजार लगाए। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसे ही मरजाद तो सबकी है।
भोला ने करुण भाव से कहा — बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाईघ्
श्आदमी तो हम भी हैं।श्
श्कौन कहता है कि हम—तुम आदमी हैं। हममें आदमियत है कहींघ् आदमी वह हैए जिनके पास धन हैए अख्तियार हैए इलम है। हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उस पर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़़े तो कोई जागा कैसे करेए प्रेम तो संसार से उठ गया।श्
बूढ़़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुरूखों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने—अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाएए होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रख कर पानी पीने के लिए बैठ गए। गोबर ने बनिए से लोटा और गगरा माँगा और पानी खींचने लगा।
भोला ने सहृदयता से पूछा — अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।
होरी आर्द्र कंठ से बोला — कुछ न पूछो दादाए यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ मेरे जीते—जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपने जवानी धूल में मिला दीए वही मेरे मुद्दई हो गए और झगड़े की जड़ क्या थीघ् यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछोए घर देखने वाला भी कोई चाहिए कि नहीं — लेना—देनाए धरना—उठानाए सँभालना—सहेजनाए यह कौन करे— फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थीए झाड़ू—बुहारूए रसोईए चौका—बरतनए लड़कों की देखभाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था — जब से अलगौझा हुआ हैए दोनों घरों में एक जून रोटी पकती हैए नहीं सबको दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खाएँ चार दफेए तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुरगत हुई हैए वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी देवरानियों के फटे—पुराने कपड़े पहन कर दिन काटती थी। अपने खुद भूखी सो रही होगीए लेकिन बहुओं के जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपने देह गहने के नाम कच्चा धागा भी न थाए देवरानियों के लिए दो—दो चार—चार गहने बनवा दिए। सोने के न सहीए चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गए। मेरे सिर से बला टली।
भोला ने एक लोटा पानी चढ़़ा कर कहा — यही हाल घर—घर है भैया! भाइयों की बात ही क्याए यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देख कर मुँह नहीं बंद कर सकता। तुम जुआ खेलोगेए चरस पीओगेए गाँजे के दम लगाओगेए मगर आए किसके घर सेघ् खरच करना चाहते हो तो कमाओए मगर कमाई तो किसी से न होगी। खरच दिल खोल कर करेंगे। जेठा कामता सौदा ले कर बाजार जायगा तो आधे पैसे गायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी हैए वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढ़ोल—मजीरा ले कर बैठ गए। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना—बजाना ऐब नहींए लेकिन यह सब काम फुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करोए आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिरए सानी—पानी मैं करूँए गाय—भैंस मैं दुहूँए दूध ले कर बाजार मैं जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल हैए सोने की हँसियाए जिसे न उगलते बनता हैए न निगलते। लड़की है झुनियाए वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आए थे। कितना अच्छा घर—बार था। उसका आदमी बंबई में दूध की दुकान करता था। उन दिनों वहाँ हिंदू—मुसलमानों में दंगा हुआए तो किसी ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहींए जा कर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूँगाए मगर वह राजी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात—दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। बिपत की मारी यहाँ आईए यहाँ भी चौन नहीं।
इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटाए मगर बहुत गुलजार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी—सी चरनी थीए जिस पर दस—बारह गाएँ—भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा—सा तख्त पड़ा थाए जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढ़ोलक लटक रही थीए किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थीए जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुर्खी थी। मालूम होता थाए अभी रो कर उठी है। उसके माँसलए स्वस्थए सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल थाए कपोल फूले हुएए आँखें छोटी और भीतर धँसी हुईए माथा पतला पर वक्ष का उभार और गात का वह गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।
भोला को देखते ही उसने लपक कर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाए और झुनिया से बोले — पहले एक चिलम भर लाए फिर थोड़ा—सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा लाए मैं खींच दूँ। होरी महतो को पहचानती है नघ्
फिर होरी से बोला — घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है — श्नाटन खेती बहुरियन घरश्। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जब से इनकी माँ मरी हैए जैसे घर की बरक्कत ही उठ गई। बहुएँ आटा पाथ लेती हैंय पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँए मुँह चलाना खूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब—के—सब आलसी हैंए कामचोर। जब तक जीता हूँए इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगाए तो आप सिर पर हाथ धर कर रोएँगे। लड़की भी वैसी ही। छोटा—सा अढ़़ौना भी करेगीए तो भुन—भुना कर। मैं तो सह लेता हूँए खसम थोड़े ही सहेगा।
झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलमए दूसरे में रस का लोटा लिए बड़ी फुर्ती से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा ले कर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़़ा कर झेंपते हुए कहा — तुम रहने दोए मैं भरे लाता हूँ।
झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जा कर मुस्कराती हुई बोली — तुम हमारे मेहमान हो। कहोगेए एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।
श्मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।श्
श्पड़ोसी साल—भर में एक बार भी सूरत न दिखाएए तो मेहमान ही है।श्
श्रोज—रोज आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।
झुनिया हँस कर तिरछी नजरों से देखती हुई बोली — वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बार आओगेए ठंडा पानी दूँगी। पंद्रहवें दिन आओगेए चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगेए खाली बैठने को माची दूँगी। रोज—रोज आओगेए कुछ न पाओगे।
श्दरसन तो दोगीघ्श्
श्दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।श्
यह कहते—कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गई। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिंत थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न थाए इसलिए वह उस द्वार को सदैव बंद रखती है। कभी—कभी घर के सूनेपन से उकता कर वह द्वार खोलती हैय पर किसी को आते देख कर भयभीत हो कर दोनों पट भेड़ लेती है।
गोबर ने कलसा भर कर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पी कर लौटे। भोला ने कहा — कल तुम आ कर गाय ले जाना गोबरए इस बखत तो सानी खा रही है।
गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थीं और मन—ही—मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुंदर और सुडौल हैए इसकी उसने कल्पना भी न की थी।
होरी ने लोभ को रोक कर कहा — मँगवा लूँगाए जल्दी क्या हैघ्
श्तुम्हें जल्दी न होए हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देख कर तुम्हें वह बात याद रहेगी।श्
श्उसकी मुझे बड़ी फिकर है दादा!श्
श्तो कल गोबर को भेज देना।श्
दोनों ने अपने—अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़़े। दोनों इतने प्रसन्न थेए मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपने चिरसंचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष थाए और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गई थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।
अवसर पा कर उसने पीछे की ओर देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थीए मत्त आशा की भाँति अधीर चंचल।
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भाग 4
होरी को रात—भर नींद नहीं आई। नीम के पेड़—तले अपने बाँस की खाट पर पड़ा बार—बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगीए लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नजर लगा देते हैं। कभी—कभी तो ऐसा टोना—टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती — लात मारती है। नहींए बाहर बाँधना ठीक नहीं। और बाहर नाँद भी कौन गाड़ने देगाघ् कारिंदा साहब नजर के लिए मुँह फैलाएँगे। छोटी—छोटी बात के लिए रायसाहब के पास फरियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिंदे के सामने मेरी सुनता कौन हैघ् उनसे कुछ कहूँए तो कारिंदा दुसमन हो जाए। जल में रह कर मगर से बैर करना बुड़बकपन है। भीतर ही बाँधूंगा। आँगन है तो छोटा—साय लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर—भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देख कर कैसी ललचाती रहती है। अब पिए जितना चाहे। कभी—कभी दो—चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिंदा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और भोला के रुपए भी दे देना चाहिए। सगाई के ढ़कोसले में उसे क्यों डालूँ। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करेए उससे दगा करना नीचता है। अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर दे दीए नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगाघ् अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँए तो भोला को ढ़ाढ़़स हो जाए। धनिया से नाहक बता दिया। चुपके से गाय ला कर बाँध देता तो चकरा जाती। लगती पूछनेए किसकी गाय हैघ् कहाँ से लाए होघ् खूब दिक करके तब बताताए लेकिन जब पेट में बात पचे भी। कभी दो—चार पैसे ऊपर से आ जाते हैए उनको भी तो नहीं छिपा सकता। और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिंता रहती हैय अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैंए तो फिर नखड़े बघारने लगे। गोबर जरा आलसी हैए नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी—वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होताघ् मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगातेए कभी खेत में खाद फेंकते। मैं पड़ा सोता रहता। कभी जगा देतेए तो मैं बिगड़ जाता और घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ—बाप के सामने भी जिंदगी का थोड़ा—सा सुख न भोगेंगेए तो फिर जब अपने सिर पड़ गई तो क्या भोगेंगेघ् दादा के मरते ही क्या मैंने घर नहीं सँभाल लियाघ् सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बर्बाद कर देगाए लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला बदला कि लोग देखते रह गए। सोभा और हीरा अलग ही हो गएए नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग—अलग चलते हैं। सबए समय का फेर है। धनिया का क्या दोष थाघ् बेचारी जब से घर में आईए कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्माँ को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दियाए देवरानियों से काम करने को कहती थीए तो क्या बुरा करती थीघ् आखिर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिए। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता तब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थीए अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधीए गमखोरए निर्छल न होतीए तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैंए कहीं भीख माँगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए मरोए वही जान का दुसमन हो जाता है।
होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जागने लगा। नहींए कहके तो यही सोया था कि मैं अँधरे ही चला जाऊँगा। जा कर नाँद तो गाड़ दूँए लेकिन नहींए जब तक गाय द्वार पर न आ जायए नाँद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गए या और किसी कारण से गाय न दीए तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगाए चले थे गाय लेने! पट्ठे ने इतनी फुर्ती से नाँद गाड़ दीए मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिकए लेकिन जब लड़के सयाने हो गएए तो बाप की कौन चलती हैघ् कामता और जंगी अकड़ जायँ तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगेघ् कभी नहीं।
सहसा गोबर चौंक कर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला — अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नाँद गाड़ दी दादाघ्
होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देख कर और मन में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलताए तो कैसा पट्ठा हो जाताए बोला — नहींए अभी नहीं गाड़ी। सोचाए कहीं न मिलेए तो नाहक भद्द हो।
गोबर ने त्योरी चढ़़ा कर कहा — मिलेगी क्यों नहींघ्
श्उनके मन में कोई चोर पैठ जायघ्श्
श्चोर पैठे या डायए गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी।श्
गोबर ने और कुछ न कहा — लाठी कंधों पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ अपना कलेजा ठंडा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिए। सत्रहवाँ लग गयाय मगर करे कैसेघ् कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गयाए घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैंए पर घर की दसा देख कर मुँह फीका करके चले जाते हैं। दो—एक राजी भी हुएए तो रुपए माँगते हैं। दो—तीन सौ लड़की का दाम चुकाए और इतना ही ऊपर से खरच करेए तब जा कर ब्याह हो। कहाँ से आवें इतने रुपएघ् रास खलिहान में तुल जाती है। खाने—भर को भी नहीं बचता। ब्याह कहाँ से होघ् और अब तो सोना ब्याहने योग्य हो गई। लड़के का ब्याह न हुआ न सही। लड़की का ब्याह न हुआए तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी हैए पीछे देखी जायगी ।
एक आदमी ने आ कर राम—राम किया और पूछा — तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतोघ्
होरी ने देखाए दमड़ी बँसोर सामने खड़ा हैए नाटाए कालाए खूब मोटाए चौड़ा मुँहए बड़ी—बड़ी मूँछेंए लाल आँखेंए कमर में बाँस काटने की कटार खोंसे हुए। साल में एक—दो बार आ कर चिकेंए कुर्सियाँए मोढ़ेए टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस काट ले जाता था।
होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बँधी। चौधरी को ले जा कर अपने तीनों कोठियाँ दिखाईए मोल—भाव किया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास बाँसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे। होरी ने उसे चिलम पिलाईए जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला — मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जातेए लेकिन तुम घर के आदमी होए तुमसे क्या मोल—भाव करता। तुम्हारा वह लड़काए जिसकी सगाई हुई थीए अभी परदेस से लौटा कि नहींघ्
चौधरी ने चिलम का दम लगा कर खाँसते हुए कहा — उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो! जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गई। बड़ी नाकिस जात है महतोए किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खाए जो चाहे पहनए मेरी नाक न कटवाए मुदा कौन सुनता हैघ् औरत को भगवान सब कुछ देए रूप न देए नहीं तो वह काबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बँट गई होंगीघ्
होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला — सब कुछ बँट गया चौधरी ! जिनको लड़कों की तरह पाला—पोसाए वह अब बराबर के हिस्सेदार हैंए लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपने नीयत नहीं है। इधर तुमसे रुपए मिलेंगेए उधर दोनों भाइयों को बाँट दूँगा। चार दिन की जिंदगी में क्यों किसी से छल—कपट करूँघ् नहीं कह दूँ कि बीस रुपए सैकड़े में बेचे हैं तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है।
व्यवहार में हम श्भाईश् के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करेंए लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता हैए वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती।
होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआए जो भिक्षा माँगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है।
चौधरी ने होरी का आसन पा कर चाबुक जमाया — हमारा तुम्हारा पुराना भाई—चारा हैए महतोए ऐसी बात है भलाए लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता हैए तो किसी लालच से। बीस रुपए नहींए मैं पंद्रह रुपए कहूँगाए लेकिन जो बीस रुपए के दाम लो।
होरी ने खिसिया कर कहा — तुम तो चौधरी अंधेर करते होए बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस जाते हैंघ्
श्ऐसे क्याए इससे अच्छे बाँस जाते हैं दस रुपए परए हाँए दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बाँस का नहीं हैए सहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता हैए जितनी देर वहाँ जाने में लगेगीए उतनी देर में तो दो—चार रुपए का काम हो जायगा।श्
सौदा पट गया। चौधरी ने मिर्जई उतार कर छान पर रख दी और बाँस काटने लगा।
ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा—बहू कलेवा ले कर कुएँ पर जा रही थी। चौधरी को बाँस काटते देख कर घूँघट के अंदर से बोली — कौन बाँस काटता हैघ् यहाँ बाँस न कटेंगे।
चौधरी ने हाथ रोक कर कहा — बाँस मोल लिए हैंए पंद्रह रुपए सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं।
हीरा—बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गई थी। हीरा कभी—कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकीए लेकिन अपना पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता थाए लेकिन चलता था उसी के इशारों परए उस घोड़े की भाँतिए जो कभी—कभी स्वामी को लात मार कर भी उसी के आसन के नीचे चलता है।
कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली — पंद्रह रुपए में हमारे बाँस न जाएँगे।
चौधरी औरत जात से इस विषय में बातचीत करना नीति—विरुद्ध समझते थे। बोले — जा कर अपने आदमी को भेज दो। जो कुछ कहना होए आ कर कहें।
हीरा—बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढ़ल गई थी। बनाव—सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थीए लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न थाए सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आतेघ् इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखा कर कठोर और शुष्क बना दिया थाए जिस पर एक बार गावड़ा भी उचट जाता था।
समीप आ कर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली — आदमी को क्यों भेज दूँघ् जो कुछ कहना होए मुझसे कहो नघ् मैंने कह दियाए मेरे बाँस न कटेंगे।
चौधरी हाथ छुड़ाता था और पुन्नी बार—बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा—पाई होती रही। अंत में चौधरी ने उसे जोर से पीछे ढ़केल दिया। पुन्नी धक्का खा कर गिर पड़ीए मगर फिर संभली और पाँव से तल्ली निकाल कर चौधरी के सिरए मुँहए पीठ पर अंधाधुंध जमाने लगी। बँसोर हो कर उसे ढ़केल देघ् उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का दे कर नारी जाति पर बल का प्रयोग करके गच्चा खा चुका था। खड़े—खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी।
पुन्नी का रोना सुन कर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देख कर और जोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझाए चौधरी ने पुनिया को मारा है। खून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बाधा को तोड़ता हुआए सब कुछ अपने अंदर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को जोर से एक लात जमा कर बोला — अब अपना भला चाहते हो चौधरीए तो यहाँ से चले जाओए नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या हैघ् तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ।
चौधरी कसमें खा—खा कर अपने सफाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फुले हुए गाल आँसुओं से भीग गए। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गँवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठाएगाघ्
होरी ने अविश्वास करके कहा — आँखों में धूल मत झोंको चौधरीए तुमने कुछ कहा नहींए तो बहू झूठ—मूठ रोती हैघ् रुपए की गरमी हैए तो वह निकाल दी जायगीए अलग हैं तो क्या हुआए है तो एक खून। कोई तिरछी आँख से देखे तो आँख निकाल लें।
पुन्नी चंडी बनी हुई थी। गला गाड़ कर बोली — तूने मुझे धक्का दे कर गिरा नहीं दियाघ् खा जा अपने बेटे की कसम।
हीरा को खबर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औंगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डीलए गठा हुआ शरीरए आँखें कौड़ी की तरह निकल आई थीं और गर्दन की नसें तन गई थींए मगर उसे चौधरी पर क्रोध न थाए क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ीघ् क्यों उसकी इज्जत मिट्टी में मिला दी। बँसोर से लड़ने—झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन थाघ् उसे जा कर हीरा से समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझताए करता। वह उससे लड़ने क्यों गईघ् उसका बस होताए तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुँह खोल कर बातें करेए यह उसे असह्य था। वह खुद जितना उद्दंड थाए पुनिया को उतना ही शांत रखना चाहता था। जब भैया ने पंद्रह रुपए में सौदा कर लियाए तो यह बीच में कूदने वाली कौन।
आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने—हरामजादीए तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे—छोटे आदमियों से लड़ती फिरती हैए किसकी पगड़ी नीची होती है बता! (एक लात और जमा कर) हम तो वहाँ कलेऊ की बाट देख रहे हैंए तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेसर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया। खोद कर गाड़ दूँगा।
पुन्नी हाय—हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी। श्तेरी मिट्टी उठेए तुझे हैजा हो जायए तुझे मरी आवेंए देवी मैया तुझे लील जायँए तुझे इन्फ्लूएँजा हो जाए। भगवान करेए तू कोढ़़ी हो जाए। हाथ—पाँव कट—कट गिरें।श्
और गालियाँ तो हीरा खड़ा—खड़ा सुनता रहाए लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गई। हैजाए मरी आदि में कोई विशेष कष्ट न था। इधर बीमार पड़ेए उधर विदा हो गएए लेकिन कोढ़़! यह घिनौनी मौतए और उससे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठाए दाँत पीसता हुआ पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़ कर फिर उसका सिर जमीन पर रगड़ता हुआ बोला — हाथ—पाँव कट कर गिर जाएँगे तो मैं तुझे ले कर चाटूँगा। तू ही मेरे बाल—बच्चों को पालेगीघ् ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलाएगीघ् तू तो दूसरा भतार करके किनारे खड़ी हो जायगी।
चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गई। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा — हीरा महतोए अब जाने दोए बहुत हुआ। क्या हुआए बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान ने यह दिन तो दिखाया।
हीरा ने चौधरी को डाँटा — तुम चुप रहो चौधरीए नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरतजात इसी तरह बहकती है। आज को तुमसे लड़ गईए कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानुस होए हँस कर टाल गएए दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दियाए तो कितनी आबरू रह जायगीए बताओ।
इस खयाल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़ कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला — अरेए हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीस कर पी जाओगेघ्
हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे—सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेताए लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देख कर बोला — अब खड़े क्या ताकते होघ् जा कर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पंद्रह रुपए सैकड़े में तय है।
कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमक कर उठी और अपना सिर पीट कर बोली — लगा दे घर में आगए मुझे क्या करना है! भाग फूट गया कि तुझ जैसे कसाई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग।
उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा — वहाँ कहाँ जाती हैए चल कुएँ परए नहीं खून पी जाऊँगा।
पुनिया के पाँव रूक गए। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठा कर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे—पीछे चला।
होरी ने कहा — अब फिर मार—धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है।
धनिया ने द्वार पर आ कर हाँक लगाई — तुम वहाँ खड़े—खड़े क्या तमासा देख रहे होघ् कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही सिच्छा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूँघट की आड़ में डाढ़़ीजार कहा थाए भूल गए। बहुरिया हो कर पराए मरदों से लड़ेगीए तो डाँटी न जायगी।
होरी द्वार पर आ कर नटखटपन के साथ बोला — और जो मैं इसी तरह तुझे मारूँघ्
श्क्या कभी मारा नहीं हैए जो मारने की साध बनी हुई है।श्
श्इतनी बेदरदी से मारताए तो तू घर छोड़ कर भाग जाती! पुनिया बड़ी गमखोर है।श्
श्ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने खाली मारना सीखाए दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ।
श्अच्छा रहने देए बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ—रूठ नैहर भागती थी। जब महीनों खुसामद करता थाए तब जा कर आती थी।श्
श्जब अपने गरज सताती थीए तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे।श्
श्इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ।श्
वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपने गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता हैए क्षण—क्षण पर बगुले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती हैए शीतल और शांतए जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन—भर की यात्रा का वृत्तांत करते और सुनते हैं तटस्थ भाव सेए मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैंए जहाँ नीचे का जन—रव हम तक नहीं पहुँचता।
धनिया ने आँखों में रस भर कर कहा — चलो—चलोए बड़े बखान करने वाले! जरा—सा कोई काम बिगड़ जायए तो गरदन पर सवार हो जाते हो।
होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा — लेए अब यही तेरी बेइंसाफी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछए मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा थाघ्
धनिया ने बात बदल कर कहा — देखोए गोबर गाय ले कर आता है कि खाली हाथ।
चौधरी ने पसीने में लथपथ आ कर कहा — महतोए चल कर बाँस गिन लो। कल ठेला ला कर उठा ले जाऊँगा।
होरी ने बाँस गिनने की जरूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी काट ही लेगाए तो क्या। रोज ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दर्जनों बाँस काट ले जाते हैं।
चौधरी ने साढ़़े सात रुपए निकाल कर उसके हाथ में रख दिए। होरी ने गिनकर कहा — और निकालो। हिसाब से ढ़ाई और होते हैं।
चौधरी ने बेमुरौवती से कहा — पंद्रह रुपए में तय हुए हैं कि नहींघ्
श्पंद्रह रुपए में नहींए बीस रुपए में।श्
श्हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पंद्रह रुपए कहे थे। कहो तो बुला लाऊँघ्श्
श्तय तो बीस रुपए में ही हुए थे चौधरी ! अब तुम्हारी जीत हैए जो चाहो कहो। ढ़ाई रुपए निकलते हैंए तुम दो ही दे दो।श्
मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डरघ् होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहेए माथा ठोंक कर रह गया। बस इतना बोला — यह अच्छी बात नहीं हैए चौधरीए दो रुपए दबा कर राजा न हो जाओगे।
चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला — और तुम क्या भाइयों के थोड़े—से पैसे दबा कर राजा हो जाओगेघ् ढ़ाई रुपए पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थेए उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूँए तो सिर नीचा हो जाए।
होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गए। चौधरी तो रुपए सामने जमीन पर रख कर चला गयाए पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी हैए इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढ़ाई रुपए दे दिए होतेए तो वह खुशी से कितना फूल उठता। अपने चालाकी को सराहता कि बैठे—बैठाए ढ़ाई रुपए मिल गए। ठोकर खा कर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं।
धनिया अंदर चली गई थी। बाहर आई तो रुपए जमीन पर पड़े देखेए गिन कर बोली — और रुपए क्या हुएए दस न चाहिएघ्
होरी ने लंबा मुँह बना कर कहा — हीरा ने पंद्रह रुपए में दे दिएए तो मैं क्या करता।
श्हीरा पाँच रुपए में दे दे। हम नहीं देते इन दामों।श्
श्वहाँ मार—पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलताघ्श्
होरी ने अपने पराजय अपने मन में ही डाल लीए जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीत कर आप अपने धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैंए जीत में सब—कुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है।
धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे अवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर थाए पर आज बाजी उसके हाथ थी। हाथ मटका कर बोली — क्यों न होए भाई ने पंद्रह रुपए कह दिएए तो तुम कैसे टोकतेघ् अरेए राम—राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं! फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थीए तो भला तुम कैसे बोलते! उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट लेताए तो भी तुम्हें सुधा न होती।
होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुँझलाहट हुईए क्रोध आयाए खून खौलाए आँख जलीए दाँत पिसेए लेकिन बोला नहीं। चुपके—से कुदाल उठाई और ऊख गोड़ने चला।
धनिया ने कुदाल छीन कर कहा — क्या अभी सबेरा है जो ऊख गोड़ने चलेघ् सूरज देवता माथे पर आ गए। नहाने—धोने जाव। रोटी तैयार है।
होरी ने घुन्ना कर कहा — मुझे भूख नहीं है।
धनिया ने जले पर नोन छिड़का — हाँए काहे को भूख लगेगी! भाई ने बडे—बड़े लड्डू खिला दिए हैं न। भगवान ऐसे सपूत भाई सबको दें।
होरी बिगड़ा। और क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा थाघ् तू आज मार खाने पर लगी हुई है!
धनिया ने नकली विनय का नाटक करके कहा — क्या करूँए तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है।
श्तू घर में रहने देगी कि नहींघ्श्
श्घर तुम्हाराए मालिक तुमए मैं भला कौन होती हूँ तुम्हें घर से निकालने वालीघ्श्
होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुंद हो गई है। इन व्यंग्य—बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढ़ाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा ले कर नहाने चला गया। लौटा कोई आधा घंटे मेंए मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जा कर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी है न झुनिया। उसके साथ हँसी—दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दीए तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढ़ई देगा।
धनिया ने कहा — अब खड़े क्या होघ् गोबर साँझ को आएगा।
होरी ने और कुछ न कहा — कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे।
भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा।
रूपा रोती हुई आई। नंगे बदन एक लँगोटी लगाएए झबरे बाल इधर—उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गई। उसकी बड़ी बहिन सोना कहती है — गाय आएगीए तो उसका गोबर मैं पाथूँगी। रूपा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती है। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम हैघ् सोना रोटी पकाती हैए तो क्या रूपा बर्तन नहीं माँजतीघ् सोना पानी लाती हैए तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जातीघ् सोना तो कलसा भर कर इठलाती चली आती है। रस्सी समेट कर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती हैए तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जातीघ् फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगीघ् यह अन्याय रूपा कैसे सहेघ् होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध हो कर कहा — नहींए गाय का गोबर तू पार्थना! सोना गाय के पास आय तो भगा देना।
रूपा ने पिता के गले में हाथ डाल कर कहा — दूध भी मैं ही दुहूँगी।
श्हाँ—हाँए तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगाघ्श्
श्वह मेरी गाय होगी।श्
श्हाँए सोलहों आने तेरी।श्
रूपा प्रसन्न हो कर अपने विजय का शुभ समाचार पराजित सोना को सुनाने चली गई। गाय मेरी होगीए उसका दूध मैं दुहूँगीए उसका गोबर मैं पाथूँगीए तुझे कुछ न मिलेगा।
सोना उम्र से किशोरीए देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थीए जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता थाए बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़़ाएए कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लंबाए रूखाए किंतु प्रसन्न मुखए ठोड़ी नीचे को खिंची हुईए आँखों में एक प्रकार की तृप्तिए न केशों में तेलए न आँखों में काजलए न देह पर कोई आभूषणए जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबा कर बौना कर दिया हो।
सिर को एक झटका दे कर बोली — जाए तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुह कर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।
श्मैं दूध की हाँड़ी ताले में बंद करके रखूँगी।श्
श्मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी।श्
यह कहती हुई वह बाग की तरफ चल दी। आम गदरा गए थे। हवा के झोंकों से एकाध जमीन पर गिर पड़ते थेए लू के मारे चुचकेए पीलेए लेकिन बाल—वृंद उन्हें टपके समझ कर बाग को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करेए वह रूपा जरूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थीए रूपा के विवाह की कोई चर्चा नहीं करताए इसलिए वह स्वयं अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगाए क्या—क्या लाएगाए उसे कैसे रखेगाए उसे क्या खिलाएगाए क्या पहनाएगाए इसका वह बड़ा विशद वर्णन करतीए जिसे सुन कर कदाचित कोई बालक उससे विवाह करने पर राजी न होता।
साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगायाए सानी—खली दी और एक चिलम भर कर पीने लगा। इस फसल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी कोई तीन सौ कर्ज थाए जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़़ते जाते थे। मँगरू साह से आज पाँच साल हुएए बैल के लिए साठ रुपए लिए थेए उसमें साठ दे चुका थाए पर वह साठ रुपए ज्यों—के—त्यों बने हुए थे। दातादीन पंडित से तीस रुपए ले कर आलू बोए थे। आलू तो चोर खोद ले गएए और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गए थे। दुलारी विधवा सहुआइन थीए जो गाँव में नोनए तेलए तंबाकू की दुकान रखे हुए थी। बँटवारे के समय उससे चालीस रुपए ले कर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गए थेए क्योंकि आने रुपए का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाकी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रूपयों का भी कोई प्रबंध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गए। शगुन की समस्या हल हो जायगीए लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धोला भी हाथ में आ जायए तो गाँव में शोर मच जाता हैए और लेनदार चारों तरफ से नोचने लगते हैं। ये पाँच रुपए तो वह शगुन में देगाए चाहे कुछ हो जायए मगर अभी जिंदगी के दो बड़े—बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम खर्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आएँगेघ् कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा कर्ज न लेए जिसका आता होए उसका पाई—पाई चुका देए लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़़ता जायगा और एक दिन उसका घर—द्वार सब नीलाम हो जायगा उसके बाल—बच्चे निराश्रय हो कर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम—धंधों से छुट्टी पा कर चिलम पीने लगता थाए तो यह चिंता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थीए जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर संतोष था तो यही कि यह विपत्ति अकेले उसी के सिर न थी। प्रायरू सभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। सोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थेए मगर दोनों पर चार—चार सौ का बोझ लद गया था। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हजार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घरए भिखारी भीख भी नहीं पाताए लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन बचा हैघ्
सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आईं और एक साथ बोलीं — भैया गाय ला रहे हैं। आगे—आगे गायए पीछे—पीछे भैया हैं।
रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह खबर सुनाने की सुर्खरूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती हैए यह उससे कैसे सहा जाताघ्
उसने आगे बढ़़ कर कहा — पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा।
सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली — तूने भैया को कहाँ पहचानाघ् तू तो कहती थीए कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा — भैया हैं।
दोनों फिर बाग की तरफ दौड़ींए गाय का स्वागत करने के लिए।
धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबंध करने लगे। होरी बोला — चलोए जल्दी से नाँद गाड़ दें।
धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी। नहींए पहले थाली में थोड़ा—सा आटा और गुड़ घोल कर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जा कर नाँद गाड़ोए मैं घोलती हूँ।
श्कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढ़ूँढ़़ ले। उसके गले में बाँधेंगे।श्
श्सोना कहाँ गईघ् सहुआइन की दुकान से थोड़ा—सा काला डोरा मँगवा लोए गाय को नजर बहुत लगती है।श्
श्आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गई।श्
धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाए रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नई बाधा न लाएए यह शंका उसके निराश हृदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देख कर बोली — गाय के आने का आनंद तो तब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान के मन की बात है।
मानो वह भगवान को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनंद नहीं हुआ किर ईर्ष्यालु भगवान सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नई विपत्ति भेज दें।
वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिए बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर आ पहुँचा। होरी दौड़ कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़ कर गाय के गले में बाँध दिया।
होरी श्रद्धा—विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा थाए मानो साक्षात देवी जी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य—प्रताप से।
धनिया ने भयातुर हो कर कहा — खड़े क्या होए आँगन में नाँद गाड़ दो।
श्आँगन में जगह कहाँ हैघ्श्
श्बहुत जगह है।श्
श्मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँश्।
श्पागल न बनो। गाँव का हाल जान कर भी अनजान बनते होघ्श्
श्अरेए बित्ते—भर के आँगन में गाय कहाँ बाँधोगी भाईघ्श्
श्जो बात नहीं जानतेए उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार—भर की विद्दा तुम्हीं नहीं पढ़़े हो।श्
होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहींए सजीव संपत्ति थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़़ाना चाहता था। वह चाहता थाए लोग गाय को द्वार पर बँधी देख कर पूछें — यह किसका घर हैघ् लोग कहें — होरी महतो का। तभी लड़की वाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधीए तो कौन देखेगाघ् धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अंदर छिपा कर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकतीए तो शायद वह उसे बाहर न निकलने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता थाए लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने को तैयार हो गई। गोबरए सोना और रूपाए सारा घर होरी के पक्ष में थाए पर धनिया ने अकेले सबको परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्मविश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था।
मगर तमाशा कैसे रूक सकता थाघ् गाय डोली में बैठ कर तो आई न थी। कैसे संभव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुनाए सब काम छोड़ कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपए में आई है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगेए पचास—साठ रुपए में लाए होंगे। गाँव के इतिहास में पचास—साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आएए सौ के भी आएए लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रकम किसान क्या खा के खर्च करेगाघ् यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अंजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या हैए साक्षात देवी का रूप है। दर्शकों और आलोचकों का ताँता लगा हुआ थाए और होरी दौड़—दौड़ कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्रए इतना प्रसन्न—चित्त वह कभी न था।
सत्तर साल के बूढ़़े पंडित दातादीन लठिया टेकते हुए आए और पोपले मुँह से बोले — कहाँ हो होरीए तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें! सुनाए बड़ी सुंदर है।
होरी ने दौड़ कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनंद उठाता हुआए बड़े सम्मान से पंडितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपने पुरानी अनुभवी आँखों से देखाए सींगें देखींए थन देखाए पुट्टा देखा और घनी सफेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भर कर बोले — कोई दोष नहीं है बेटाए बाल—भौंरीए सब ठीक। भगवान चाहेंगेए तो तुम्हारे भाग खुल जाएँगेए ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाए। एक—एक बाछा सौ—सौ का होगा।
होरी ने आनंद के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा — सब आपका असीरबाद हैए दादा!
दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा — मेरा असीरबाद नहीं है बेटाए भगवान की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिएघ्
होरी ने बे—पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपने समृद्धि—प्रदर्शन का ऐसा अवसर पा कर वह कैसे छोड़े। टके की नई टोपी सिर पर रख कर जब हम अकड़ने लगते हैंए जरा देर के लिए किसी सवारी पर बैठ कर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैंए तो इतनी बड़ी विभूति पा कर क्यों न उसका दिमाग आसमान पर चढ़़ेघ् बोला — भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाएए पूरे चौकस।
अपने महाजन के सामने यह डींग मार कर होरी ने नादानी तो की थीए पर दातादीन के मुख पर असंतोष का कोई चिह्न न दिखाई दिया। इस कथन में कितना सत्य हैए यह उनकी उन बुझी आँखों से छिपा न रह सकाए जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।
प्रसन्न हो कर बोले — कोई हरज नहीं बेटाए कोई हरज नहीं। भगवान सब कल्याण करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमेंए बच्चे के लिए छोड़ कर।
धनिया ने तुरंत टोका — अरे नहीं महाराजए इतना दूध कहाँ। बुढ़़िया तो हो गई है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है।
दातादीन ने मर्म—भरी आँखों से देख कर उसकी सतर्कता को स्वीकार कियाए मानो कह रहे होंए गृहिणी का यही धर्म हैए सीटना मरदों का काम हैए उन्हें सीटने दो।श् फिर रहस्य—भरे स्वर में बोले — बाहर न बाँधनाए इतना कहे देते हैं।
धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखाए मानो कह रही हो। लोए अब तो मानोगे।
दातादीन से बोली — नहीं महाराजए बाहर क्या बाँधेगेए भगवान दें तो इसी आँगन में तीन गाएँ और बँधा सकती हैं।
सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आए तो सोभा और हीराए जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आ कर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गई। दोनों पुर ले कर लौट आए। इसी द्वार से निकलेए पर पूछा कुछ नहीं।
होरी ने डरते—डरते धनिया से कहा — न सोभा आयाए न हीरा। सुना न होगाघ्
धनिया बोली — तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।
श्तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान ने जब यह दिन दिखाया हैए तो हमें सिर झुका कर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुँह से अपने भलाई—बुराई सुनने की जितनी लालसा होती हैए बाहर वालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे होंए हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से—बखरे के लिए सभी लड़ते हैंए पर इससे खून थोड़े ही बँट जाता है। दोनों को बुला कर दिखा देना चाहिएए नहीं कहेंगे गाय लाएए हमसे कहाए तक नहीं।श्
धनिया ने नाक सिकोड़ कर कहा — मैंने तुमसे सौ बारए हजार बार कह दियाए मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करोए उनका नाम सुन कर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुनाए क्या उन्होंने न सुना होगाघ् कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आयाए उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थीए मगर आएँ कैसे घ् जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गई। छाती फटी जाती होगी।
दिया—बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जा कर देखाए तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गई। पैसे होते तो रूपा को भेजतीए उधार लाना थाए कुछ मुँह देखी कहेगीए कुछ लल्लो—चप्पो करेगीए तभी तो तेल उधार मिलेगा।
होरी ने रूपा को बुला कर प्यार से गोद में बैठाया और कहा — जरा जा कर देखए हीरा काका आ गए कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहनाए दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आएँए हाथ पकड़ कर खींच लाना।
रूपा ठुनक कर बोली — छोटी काकी मुझे डाँटती है।
श्काकी के पास क्या करने जायगी! फिर सोभा—बहू तो तुझे प्यार करती हैघ्श्
श्सोभा काका मुझे चिढ़़ाते हैंघ् मैं न कहूँगी।श्
श्क्या कहते हैंए बताघ्श्
श्चिढ़़ाते हैं।श्
श्क्या कह कर चिढ़़ाते हैंघ्श्
श्कहते हैंए तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जाए भून कर खा ले।श्
होरी के अंतस्तल में गुदगुदी हुई।
श्तू कहती नहींए पहले तुम खा लोए तो मैं खाऊँगी।श्
श्अम्माँ मने करती हैं। कहती हैंए उन लोगों के घर न जाया करो।श्
श्तू अम्माँ की बेटी है कि दादा कीघ्श्
रूपा ने उसके गले में हाथ डाल कर कहा — अम्माँ की और हँसने लगी।
श्तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपने थाली में न खिलाऊँगा।श्
घर में एक ही फूल की थाली थी। होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करेघ् हुमक कर बोली — अच्छाए तुम्हारी।
श्तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ काघ्
श्तुम्हारा।श्
श्तो जा कर हीरा और सोभा को खींच ला।श्
श्और जो अम्माँ बिगड़ेंघ्श्
श्अम्माँ से कहने कौन जायगा।श्
रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी—बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु हैए भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बंद थीए पर रूपा दोनों घरों में आती—जाती थी। बच्चों से क्या बैर।
लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गई। उसने पूछा — साँझ की बेला कहाँ जाती हैए चल घर।
रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी।
धनिया ने डाँटा — चल घरए किसी को बुलाने नहीं जाना है।
रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आई और होरी से बोली — मैंने तुमसे हजार बार कह दियाए मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर—करा दियाए तो मैं तुम्हें ले कर चाटूँगीघ् ऐसा ही बड़ा परेम हैए तो आप क्यों नहीं जातेघ् अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है।
होरी नाँद जमा रहा था। हाथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला — किस बात पर बिगड़ती है भाईघ् यह तो अच्छा नहीं लगता कि अंधे कूकुर की तरह हवा को भूँका करे।
धनिया को कुप्पी में तेल डालना था। इस समय झगड़ा न बढ़़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली।
पहर रात से ज्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गई थी। गाय मन मारे उदास बैठी थीए जैसे कोई वधू ससुराल आई हो। नाँद में मुँह तक न डालती थी। होरी और गोबर खा कर आधी—आधी रोटीयाँ उसके लिए लाएए पर उसने सूँघा तक नहीं। मगर यह कोई नई बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दुरूख होता है।
होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगाए तो फिर भाइयों की याद आई। नहींए आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय यह विभूति पा कर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया हैए तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आई होतीए तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगीए तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगाघ् ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुरा चेतेंए वह क्यों उनका बुरा चेतेघ् अपनी—अपनी करनी तो अपने—अपने साथ है।
उसने नारियल खाट के पाए से लगा कर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने—अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ हैए जो अपने चर्चा सुन कर टाल जायघ्
हीरा ने कहा — जब तक एक में थेए एक बकरी भी नहीं ली। अब पछाईं गाय ली जाती है। भाई का हक मार कर किसी को फलते—फूलते नहीं देखा।
सोभा बोला — यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा! भैया ने एक—एक पैसे का हिसाब दे दिया था। यह मैं कभी न मानूँगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।
श्तुम मानो चाहे न मानोए है यह पहले की कमाई।श्
श्अच्छाए तो यह रुपए कहाँ से आ गएघ् कहाँ से हुन बरस पड़ाघ् उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफन को कौड़ी नहीं और उनके घर नई गाय आती हैघ्श्
श्उधार लाए होंगे।श्
श्भोला उधार देने वाला आदमी नहीं है।श्
श्कुछ भी होए गाय है बड़ी सुंदर। गोबर लिए जाता थाए तो मैंने रास्ते में देखा।श्
श्बेईमानी का धन जैसे आता हैए वैसे ही जाता है। भगवान चाहेंगेए तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी।श्
होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसार कर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द—भरेए भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस—भाव उसमें किसी तरह नहीं टीक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठूँस कर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब देए लेकिन बात बढ़़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ हैए तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तंबाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास कियाए पर नींद न आई। बैलों के पास जा कर उन्हें सहलाने लगाए विष शांत न हुआ। दूसरी चिलम भरीए लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विष ने जैसे चेतना को आक्रांत कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती हैए जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बह कर वेगवान हो जाता हैए वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अंदर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज साँझ होते ही सो जाती थीए आज खड़ी गाय का मुँह सहला रही थी। होरी ने जा कर गाय को खूँटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक्त गाय को भोला के घर पहुँचाने का —ढ़़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर ले कर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं।
धनिया ने पूछा — कहाँ लिए जाते हो रात कोघ्
होरी ने एक पग बढ़़ा कर कहा — ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूँगा।
धनिया को विस्मय हुआए उठ कर सामने आ गई और बोली — लौटा क्यों दोगेघ् लौटाने के लिए ही लाए थेघ्
श्हाँए इसके लौटा देने में ही कुसल है।श्
श्क्यों बात क्या है — इतने अरमान से लाए और अब लौटाने जा रहे होघ् क्या भोला रुपए माँगते हैंघ्
श्नहींए भोला यहाँ कब आया।श्
श्तो फिर क्या बात हुई।श्
श्क्या करोगी पूछ करघ्श्
धनिया ने लपक कर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली — तुम्हें भाइयों का डर होए तो जा कर उनके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़़ती देख कर किसी की छाती फटती हैए तो फट जायए मुझे परवाह नहीं है।
होरी ने विनीत स्वर में कहा — धीरे—धीरे बोल महरानी! कोई सुनेए तो कहेए ये सब इतनी रात गए लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँए तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिए थे और भाइयों को धोखा दिया थाए यही रुपए अब निकल रहे हैं।श्
श्हीरा कहता होगाघ्श्
श्सारा गाँव कह रहा है। हीरा को क्यों बदनाम करूँ।श्
श्सारा गाँव नहीं कह रहा हैए अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जा कर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़ कर मरे थेघ् डाढ़़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गए। सारी जिंदगी मिट्टी में मिला दीए पाल—पोस कर संडा कियाए और अब हम बेईमान हैं। मैं कह देती हूँए अगर गाय घर के बाहर निकलीए तो अनर्थ हो जायगा। रख लिए हमने रुपएए दबा लिएए बीच खेत दबा लिए। डंके की चोट कहती हूँए मैंने हंडे भर असर्फियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना होए कर ले। क्यों न रुपए रख लेंघ् दो—दो संडों का ब्याह नहीं कियाए गौना नहीं कियाघ्श्
होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन लीए और गाय को खूँटे से बाँध कर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहाए पर वह बाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थाम कर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को खूब जानता था। बिगड़ती हैए तो चंडी बन जाती है। मारोए काटोए सुनेगी नहींए लेकिन हीरा भी तो एक ही गुस्सेवर हैए कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाए। नहींए हीरा इतना मूरख नहीं है। मैंने कहाँ—से—कहाँ यह आग लगा दी! उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेताए तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का कर्कश स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोबर की याद आई। बाहर लपक कर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। गजब हो गया। गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया खून हैए न जाने क्या कर बैठेए लेकिन होरी वहाँ कैसे जायघ् हीरा कहेगाए आप तो बोलते नहींए जा कर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गई। मालूम होता थाए कहीं आग लग गई हैए और लोग खाट से उठ—उठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं।
इतनी देर तक तो वह जब्त किए बैठा रहा। फिर न रहा गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़़ कर लड़ने गईघ् अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुँह पर बात न कहेए यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुन कर गम खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाजा हो। कहीं मार—पीट हो जाय तो थाना—पुलिस होए बँधे—बँधे फिरोए सबकी चिरौरी करोए अदालत की धूल फाँकोए खेती—बारी जहन्नुम में मिल जाए। उसका हीरा पर तो कोई बस न थाए मगर धनिया को तो वह जबरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगाए गालियाँ दे लेगीए एक—दो दिन रुठी रहेगीए थाना—पुलिस की नौबत तो न आएगी। जा कर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपने जीत हो रही हैए तो बोलने की कोई जरूरत नहींए हार हो रही हैए तो तुरंत कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गए हैं। पंडित दातादीनए लाला पटेश्वरीए दोनों ठाकुरए जो गाँव के करता—धरता थेए सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हल्का हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किए देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली—कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी।
वह गरज रही थी — तू हमें देख कर क्यों जलता हैघ् हमें देख कर क्यों तेरी छाती फटती हैघ् पाल—पोस कर जवान कर दियाए यह उसका इनाम हैघ् हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। ईख की छाँह भी न मिलती।
होरी को ये शब्द जरूरत से ज्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना—पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालता—पोसताघ् दुनिया में कहीं मुँह देखाने लायक रहताघ्
हीरा ने जवाब दिया — हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन—दिन भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन—दिन भर सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिए रोटी न देती थी। तेरी—जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़ कर जिंदगी तलख हो गई।
धनिया और भी तेज हुई — जबान सँभालए नहीं जीभ खींच लूँगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूँड़ी—काटेए टुकड़े—खोरए नमक—हराम।
दातादीन ने टोका — इतना कटु वचन क्यों कहती है धनियाघ् नारी का धरम है कि गम खाय। वह तो उजड्ड हैए क्यों उसके मुँह लगती हैघ्
लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया — बात का जवाब बात हैए गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला—पोसाए लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थीघ्
धनिया ने समझाए सब—के—सब मिल कर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गई — अच्छाए रहने दो लाला! मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गए। एक—एक की नस—नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँए वह फूल बरसा रहा हैए क्योंघ्
दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला — बाकी बड़ी गाल—दराज औरत है भाई! मरद के मुँह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती।
अगर हीरा इस समय जरा नर्म हो जाता तो उसकी जीत हो जातीए लेकिन ये गालियाँ सुन कर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देख कर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़ कर बोला — चली जा मेरे द्वार सेए नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़ कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन! बेटे का घमंड हो गया है। खून...
पाँसा पलट गया। होरी का खून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गई हो। आगे आ कर बोला — अच्छा बसए अब चुप हो जाओ हीराए अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ! जब मेरी पीठ में धूल लगती हैए तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।
चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कह — पटेश्वरी ने गुंडा बनायाए झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा — एक उद्धंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही—सही कसर भी पूरी कर दी।
हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाकी था।
धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली — सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते हो। यह भाई हैंए ऐसे भाई को मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला—पिला..........
होरी ने डाँटा — फिर क्यों बक—बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जातीघ्
धनिया जमीन पर बैठ गई और आर्त स्वर में बोली — अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। जरा इसकी मरदुमी देख लूँए कहाँ है गोबरघ् अब किस दिन काम आएगाघ् तू देख रहा है बेटाए तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं!
यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूँक—फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित—सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़ कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपट कर हीरा को इतने जोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली — कहाँ जाता हैए जूते मारए मार जूतेए देखूँ तेरी मरदुमी!
होरी ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।
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भाग 5
उधर गोबर खाना खा कर अहिराने में जा पहुँचा। आज झुनिया से उसकी बहुत—सी बातें हुई थीं। जब वह गाय ले कर चला थाए तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आई थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता! अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था। कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्म—भरी आँखों से देख कर कहा — अब तुम काहे को यहाँ कभी आओगेघ्
एक दिन पहले तक गोबर कुमार था। गाँव में जितनी युवतियाँ थींए वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियाँ। बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थीए भाभियाँ अलबत्ता कभी—कभी उससे ठिठोली किया करती थींए लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था। उनकी —ष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे। जब तक फल न लग जायँए उस पर ढ़ेले फेंकना व्यर्थ की बात थी। और किसी ओर से प्रोत्साहन न पा कर उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ था। झुनिया का वंचित मनए जिसे भाभियों के व्यंग और हास—विलास ने और भी लोलुप बना दिया थाए उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी पत्ता खड़कते ही किसी सोए हुए शिकारी जानवर की तरह यौवन जाग उठा।
गोबर ने आवरणहीन रसिकता के साथ कहा — अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आसा होए तो वह दिन—भर और रात—भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे।
झुनिया ने कटाक्ष करके कहा — तो यह कहोए तुम भी मतलब के यार हो।
गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल हो उठा। बोला — भूखा आदमी अगर हाथ फैलाए तो उसे क्षमा कर देना चाहिए।
झुनिया और गहरे पानी में उतरी — भिक्षुक जब तक दस द्वारे न जायए उसका पेट कैसे भरेगाघ् मैं ऐसे भिक्षुकों को मुँह नहीं लगाती। ऐसे तो गली—गली मिलते हैं। फिर भिक्षुक देता क्या हैए असीस! असीसों से तो किसी का पेट नहीं भरता।
मंद—बुद्धि गोबर झुनिया का आशय न समझ सका। झुनिया छोटी—सी थीए तभी से ग्राहकों के घर दूध ले कर जाया करती थी। ससुराल में उसे ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना पड़ता था। आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था। उसे तरह—तरह के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था। दो—चार रुपए उसके हाथ लग जाते थेए घड़ी—भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता थाए मगर यह आनंद जैसे मँगनी की चीज हो। उसमें टीकाव न थाए समर्पण न थाए अधिकार न था। वह ऐसा प्रेम चाहती थीए जिसके लिए वह जिए और मरेए जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहींए दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी। वह एक गृहस्थ की बालिका थीए जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की लगावटबाजियों ने कुचल नहीं पाया था।
गोबर ने कामना से उदीप्त मुख से कहा — भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जायए तो क्यों द्वार—द्वार घूमेघ्
झुनिया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका। कितना भोला हैए कुछ समझता ही नहीं।
श्भिक्षुक को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है। उसे तो चुटकी ही मिलेगी। सर्बस तो तभी पाओगेए जब अपना सर्बस दोगे।श्
श्मेरे पास क्या है झुनियाघ्श्
श्तुम्हारे पास कुछ नहीं हैघ् मैं तो समझती हूँए मेरे लिए तुम्हारे पास जो कुछ हैए वह बड़े—बड़े लखपतियों के पास नहीं है। तुम मुझसे भीख न माँग कर मुझे मोल ले सकते हो।श्
गोबर उसे चकित नेत्रों से देखने लगा।
झुनिया ने फिर कहा — और जानते होए दाम क्या देना होगाघ् मेरा हो कर रहना पड़ेगा। फिर किसी के सामने हाथ फैलाए देखूँगीए तो घर से निकाल दूँगी।
गोबर को जैसे अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित वस्तु मिल गई। एक विचित्र भयमिश्रित आनंद से उसका रोम—रोम पुलकित हो उठा। लेकिन यह कैसे होगाघ् झुनिया को रख लेए तो रखेली को ले कर घर में रहेगा कैसे। बिरादरी का झंझट जो है। सारा गाँव काँव—काँव करने लगेगा। सभी दुसमन हो जाएँगे। अम्माँ तो इसे घर में घुसने भी न देगी। लेकिन जब स्त्री हो कर यह नहीं डरतीए तो पुरुष हो कर वह क्यों डरेघ् बहुत होगाए लोग उसे अलग कर देंगे। वह अलग ही रहेगा। झुनिया जैसी औरत गाँव में दूसरी कौन हैघ् कितनी समझदारी की बातें करती है। क्या जानती नहीं कि मैं उसके जोग नहीं हूँए फिर भी मुझसे प्रेम करती है। मेरी होने को राजी है। गाँव वाले निकाल देंगेए तो क्या संसार में दूसरा गाँव ही नहीं हैघ् और गाँव क्यों छोड़ेघ् मातादीन ने चमारिन बैठी लीए तो किसी ने क्या कर लियाघ् दातादीन दाँत कटकटा कर रह गए। मातादीन ने इतना जरूर किया कि अपना धरम बचा लिया। अब भी बिना असनान—पूजा किए मुँह में पानी नहीं डालते। दोनों जून अपना भोजन आप पकाते हैं और अब तो अलग भोजन भी नहीं पकाते। दातादीन और वह साथ बैठ कर खाते हैं। झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख लीए उनका किसी ने क्या कर लियाघ् उनका जितना आदर—मान तब थाए उतना ही आज भी हैए बल्कि और बढ़़ गया। पहले नौकरी खोजते फिरते थे। अब उसके रुपए से महाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था हीए महाजनी का रोब भी जम गया। मगर फिर खयाल आयाए कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो। पहले इसकी ओर से निश्चिंत हो जाना आवश्यक था।
उसने पूछा — मन से कहती हो झूना कि खाली लालच दे रही होघ् मैं तो तुम्हारा हो चुकाए लेकिन तुम भी मेरी हो जाओगीघ्
श्तुम मेरे हो चुकेए कैसे जानूँघ्श्
श्तुम जान भी चाहोए तो दे दूँश्।
श्जान देने का अरथ भी समझते होश्
श्तुम समझा दो न।श्
श्जान देने का अरथ हैए साथ रह कर निबाह करना। एक बार हाथ पकड़ कर उमिर भर निबाह करते रहनाए चाहे दुनिया कुछ कहेए चाहे माँ—बापए भाई—बंदए घर—द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े। मुँह से जान देने वाले बहुतों को देख चुकी। भौरों की भाँति फूल का रस ले कर उड़ जाते हैं। तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगेघ्श्
गोबर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी। दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया। जैसे बिजली के तार पर हाथ पड़ गया हो। सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी। कितनी मुलायमए गुदगुदीए कोमल कलाई।
झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहींए मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। फिर एक क्षण के बाद गंभीर भाव से बोली — आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा हैए याद रखना।
श्खूब याद रखूँगा झूना और मरते दम तक निबाहूँगा।श्
झुनिया अविश्वास—भरी मुस्कान से बोली — इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठेए चिकने शब्दों में। अगर मन में कपट होए मुझे बता दो। सचेत हो जाऊँ। ऐसों को मन नहीं देती। उनसे तो खाली हँस—बोल लेने का नाता रखती हूँ। बरसों से दूध ले कर बाजार जाती हूँ। एक—से—एक बाबूए महाजनए ठाकुरए वकीलए अमलेए अफसर अपना रसियापन दिखा कर मुझे फँसा लेना चाहते हैं। कोई छाती पर हाथ रख कर कहता हैए झुनियाए तरसा मतए कोई मुझे रसीलीए नसीली चितवन से घूरता हैए मानो मारे प्रेम के बेहोस हो गया हैए कोई रूपया दिखाता हैए कोई गहने। सब मेरी गुलामी करने को तैयार रहते हैंए उमिर—भरए बल्कि उस जनम में भीए लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब—के—सब भौंरे रस ले कर उड़ जाने वाले। मैं भी उन्हें ललचाती हूँए तिरछी नजरों से देखती हूँए मुस्कराती हूँ। वह मुझे गधी बनाते हैंए मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ। मैं मर जाऊँए तो उनकी आँखों में आँसू न आएगा। वह मर जायँए तो मैं कहूँगीए अच्छा हुआए निगोड़ा मर गया। मैं तो जिसकी हो जाऊँगीए उसकी जनम—भर के लिए हो जाऊँगीए सुख मेंए दुरूख मेंए संपत मेंए विपत मेंए उसके साथ रहूँगी। हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हँसती—बोलती फिरूँ। न रुपए की भूखी हूँए न गहने—कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूँए जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ। एक पंडित जी बहुत तिलक—मुद्रा लगाते हैं। आधा सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गई थी। मुझे क्या मालूम और दिनों की तरह दूध लिए भीतर चली गई। वहाँ पुकारती हूँए बहूजीए बहूजी! कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूँ तो पंडित जी बाहर के किवाड़ बंद किए चले आ रहे हैं। मैं समझ गई इसकी नीयत खराब है। मैंने डाँट कर पूछा — तुमने किवाड़ क्यों बंद कर लिएघ् क्या बहूजी कहीं गई हैंघ् घर में सन्नाटा क्यों हैघ्
उसने कहा — वह एक नेवते में गई हैंए और मेरी ओर दो पग और बढ़़ आया।
मैंने कहा — तुम्हें दूध लेना हो तो लोए नहीं मैं जाती हूँ। बोला — आज तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी झूनी रानी! रोज—रोज कलेजे पर छुरी चला कर भाग जाती होए आज मेरे हाथ से न बचोगी। तुमसे सच कहती हूँए गोबरए मेरे रोएँ खड़े हो गए।
गोबर आवेश में आ कर बोला — मैं बचा को देख पाऊँए तो खोद कर जमीन में गाड़ दूँ। खून चूस लूँ। तुम मुझे दिखा तो देना।
सुनो तोए ऐसों का मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफी हूँ। मेरी छाती धक—धक करने लगी। यह कुछ बदमासी कर बैठेए तो क्या करूँगीघ् कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगाए लेकिन मन में यह निश्चय कर लिया था कि मेरी देह छुईए तो दूध की भरी हाँड़ी उसके मुँह पर पटक दूँगी। बला से चार—पाँच सेर दूध जायगा बचा को याद तो हो जायगा। कलेजा मजबूत करके बोली — इस फेर में न रहना पंडित जी! मैं अहीर के लड़की हूँ। मूँछ का एक—एक बाल नुचवा लूँगी। यही लिखा है तुम्हारे पोथी—पत्रों में कि दूसरों की बहू—बेटी को अपने घर में बंद करके बेइज्जत करो। इसीलिए तिलक—मुद्रा का जाल बिछाए बैठे होघ् लगा हाथ जोड़नेए पैरों पड़नेए एक प्रेमी का मन रख दोगीए तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा झूना रानी! कभी—कभी गरीबों पर दया किया करोए नहीं भगवान पूछेंगेए मैंने तुम्हें इतना रूप—धन दिया थाए तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं कियाए तो क्या जवाब दोगीघ् बोलेए मैं विप्र हूँए रूपय—पैसे का दान तो रोज ही पाता हूँए आज रूप का दान दे दो।
मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दियाए मैं पचास रुपए लूँगी। सच कहती हूँ गोबरए तुरंत कोठरी में गया और दस—दस के पाँच नोट निकाल कर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिए और द्वार की ओर चलीए तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी। सिर से पाँव तक सराबोर हो गया। चोट भी खूब लगी। सिर पकड़ कर बैठ गया और लगा हाय—हाय करने। मैंने देखाए अब यह कुछ नहीं कर सकताए तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोल कर भागी।
गोबर ठट्ठा मार कर बोला — बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक—मुद्रा भी धुल गई होगी। मूँछें भी क्यों न उखाड़ लींघ्
दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गई। उसकी घरवाली आ गई थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा — कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पंडित! लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा — अच्छा थूक कर चाटोए तो छोड़ दूँ। सिर जमीन पर रगड़ कर कहने लगा — अब मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है झूनाए यही समझ लो कि पंडिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गई। गोबर को उसकी दया बुरी लगी — यह तुमने क्या कियाघ् उसकी औरत से जा कर कह क्यों नहीं दियाघ् जूती से पीटती। ऐसे पाखंडियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उसकी सूरत दिखा दोए फिर देखनाए कैसी मरम्मत करता हूँ।
झुनिया ने उसके अर्द्ध—विकसित यौवन को देख कर कहा — तुम उसे न पाओगे। खास देव है। मुफ्त का माल उड़ाता है कि नहीं।
गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहताघ् डींग मार कर बोला — मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फौलाद की हड्डियाँ हैं। तीन सौ डंड रोज मारता हूँ। दूध—घी नहीं मिलताए नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता।
यह कह कर उसने छाती फैला कर दिखाई।
झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा — अच्छाए कभी दिखा दूँगी लेकिन वहाँ तो सभी एक—से हैंए तुम किस—किसकी मरम्मत करोगेघ् न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवानए सुंदर औरत देखी और बस लगे घूरनेए छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते हैंए ये तो निरे लंपट होते हैं। फिर मैं तो कोई सुंदरी नहीं हूँ...
गोबर ने आपत्ति कीए तुम! तुम्हें देख कर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में बिठा लें।
झुनिया ने उसकी पीठ में हलका—सा घूँसा जमाया — लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने । मैं जैसी कुछ हूँए वह मैं जानती हूँ। मगर लोगों को तो जवान मिल जाए। घड़ी—भर मन बहलाने को और क्या चाहिए। गुन तो आदमी उसमें देखता हैए जिसके साथ जनम—भर निबाह करना हो। सुनती भी हूँ और देखती भी हूँए आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है। जिस मुहल्ले में मेरी ससुराल हैए उसी में गपडू—गपडू नाम के कासमीरी रहते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके यहाँ पाँच—सेर दूध लगता था। उनकी तीन लड़कियाँ थीं। कोई बीस—बीसए पच्चीस—पच्चीस की होगी। एक—से—एक सुंदर। तीनों बड़े कॉलिज में पढ़़ने जाती थी। एक साइत कॉलिज में पढ़़ाती भी थी। तीन सौ का महीना पाती थी। सितार वह सब बजावेंए हरमुनियाँ वह सब बजावेंए नाचें वहए गावें वहए लेकिन ब्याह कोई न करती थी। राम जानेए वह किसी मरद को पसंद नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं को पसंद नहीं करता था। एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछाए तो हँस कर बोली — हम लोग यह रोग नहीं पालतेए मगर भीतर—ही—भीतर खूब गुलछर्रे उड़ाती थीं। जब देखूँए दो—चार लौंडे उनको घेरे हुए हैं। जो सबसे बड़ी थीए वह तो कोट—पतलून पहन कर घोड़े पर सवार हो कर मरदों के साथ सैर करने जाती थी। सारे सहर में उनकी लीला मशहूर थी। गपड़ू बाबू सिर नीचा किएए जैसे मुँह में कालिख—सी लगाए रहते थे। लड़कियों को डाँटते थेए समझाते थेए पर सब—की—सब खुल्लमखुल्ला कहती थीं — तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं है। हम अपने मन की रानी हैंए जो हमारी इच्छा होगीएवह हम करेंगे। बेचारा बाप जवान—जवान लड़कियों से क्या बोलेघ् मारने—बाँधने से रहाए डाँटने—डपटने से रहाए लेकिन भाईए बड़े आदमियों की बातें कौन चलावे। वह जो कुछ करेंए सब ठीक है। उन्हें तो बिरादरी और पंचायत का भी डर नहीं। मेरी समझ में तो यही नहीं आता कि किसी का रोज—रोज मन कैसे बदल जाता है। क्या आदमी गाय—बकरी से भी गया—बीता हो गयाघ् लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती भाई! मन को जैसा बनाओए वैसा बनता है। ऐसों को भी देखती हूँए जिन्हें रोज—रोज की दाल—रोटी के बाद कभी—कभी मुँह का सवाद बदलने के लिए हलवा—पूरी भी चाहिए। और ऐसों को भी देखती हूँए जिन्हें घर की रोटी—दाल देख कर ज्वर आता है। कुछ बेचारियाँ ऐसी भी हैंए जो अपने रोटी—दाल में ही मगन रहती हैं। हलवा—पूरी से उन्हें कोई मतलब नहीं। मेरी दोनों भावजों ही को देखो। हमारे भाई काने—कुबड़े नहीं हैंए दस जवानों में एक जवान हैंय लेकिन भावजों को नहीं भाते। उन्हें तो वह चाहिएए जो सोने की बालियाँ बनवाएए महीन साड़ियाँ लाएए रोज चाट खिलाए। बालियाँ और साड़ियाँ और मिठाइयाँ मुझे भी कम अच्छी नहीं लगतींए लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपने लाज बेचती फिरूँ तो भगवान इससे बचाएँ। एक के साथ मोटा—झोटा खा—पहन कर उमिर काट देनाए बस अपना तो यही राग है। बहुत करके तो मरद ही औरतों को बिगाड़ते हैं। जब मरद इधर—उधर ताक—झाँक करेगा तो औरत भी आँख लड़ाएगी। मरद दूसरी औरतों के पीछे दौड़ेगाए तो औरत भी जरूर मरदों के पीछे दौड़ेगी। मरद का हरजाईपन औरत को भी उतना ही बुरा लगता हैए जितना औरत का मरद को। यही समझ लो। मैंने तो अपने आदमी से साफ—साफ कह दिया थाए अगर तुम इधर—उधर लपकेए तो मेरी जो भी इच्छा होगीए वह करूँगी। यह चाहो कि तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने काबू में रखोए तो यह न होगाए तुम खुले—खजाने करते होए वह छिप कर करेगीए तुम उसे जला कर सुखी नहीं रह सकते।
गोबर के लिए यह एक नई दुनिया की बातें थीं। तन्मय हो कर सुन रहा था। कभी—कभी तो आप—ही—आप उसके पाँव रूक जातेए फिर सचेत हो कर चलने लगता। झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातें और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया। ऐसी रूपए गुणए ज्ञान की आगरी उसे मिल जायए तो धन्य भाग। फिर वह क्यों पंचायत और बिरादरी से डरेघ्
झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गयाए तो छाती पर हाथ रख कर जीभ दाँत से काटती हुई बोली — अरेए यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे होए मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ।
यह कह कर वह लौट पड़ी।
गोबर ने आग्रह करके कहा — एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलतीघ् अम्माँ भी तो देख लें।
झुनिया ने लज्जा से आँखें चुरा कर कहा — तुम्हारे घर यों न जाऊँगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गई। अच्छा बताओए अब कब आओगेघ् रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आनाए मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी।
श्और जो न मिलीघ्श्
श्तो लौट जाना।श्
श्तो फिर मैं न आऊँगा।श्
श्आना पड़ेगाए नहीं कहे देती हूँ।श्
श्तुम भी बचन दो कि मिलोगीघ्श्
श्मैं बचन नहीं देती।श्
श्तो मैं भी नहीं आता।श्
श्मेरी बला से!श्
झुनिया अँगूठा दिखा कर चल दी। प्रथम—मिलन में ही दोनों एक—दूसरे पर अपना—अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थीए वह आएगाए कैसे न आएगाघ् गोबर जानता थाए वह मिलेगीए कैसे न मिलेगीघ्
जब वह अकेला गाय को हाँकता हुआ चलाए तो ऐसा लगता थाए मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।
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भाग 6
जेठ की उदास और गर्म संध्या सेमरी की सड़कों और गलियों मेंए पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। रायसाहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटेए नीले साफे बाँधेए जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधेए मेहमानों और मुखियों का आदर—सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह—द्वार के सामने आ कर रूकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैंए उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक—पत्र श्बिजलीश् के यशस्वी संपादक हैंए जिन्हें देश—चिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट—पैंट में हैंए वह हैं तो वकीलए पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा—कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने में वकालत से कहीं ज्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैंए मिस्टर बी. मेहताए युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन रायसाहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव पर निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाके के असामी आएँगे और शगुन के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष—यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिए हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहनेए गुलाबी पगड़ी बाँधेए घुटने तक काछनी काछेए हाथ में एक खुरपी लिए और मुख पर पाउडर लगवाए राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा हैए मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है।
रायसाहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थेए गठा हुआ शरीरए तेजस्वी चेहराए ऊँचा माथाए गोरा रंगए जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी।
पंडित ओंकारनाथ ने पूछा — अबकी कौन—सा नाटक खेलने का विचार हैघ् मेरे रस की तो यहाँ वही एक वस्तु है।
रायसाहब ने तीनों सज्जनों को अपने रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा — पहले तो धनुष—यज्ञ होगाए उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लंबा कि शायद पाँच घंटों में भी खत्म न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डालाए जो दो घंटों में पूरा हो जायगा।
ओंकारनाथ को रायसाहब की रचना—शक्ति में बहुत संदेह था। उनका ख्याल था कि प्रतिभा तो गरीबों ही में चमकती है दीपक की भाँतिए जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथए जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेष्टा नहीं कीए पंडित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया।
मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थेए फिर भी रायसाहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले — नाटक कोई भी अच्छा हो सकता हैए अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा—से—अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़ कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतींए हमारी नाटयकला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेंबर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है।
दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थेए पर सिद्धांत की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थीए उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले— भईए मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँए हमारा जीवन हमारे सिद्धांतों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैंए उन्हें तरह—तरह की रियायत देना चाहते हैंए जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैंए बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैंए फिर भी आप जमींदार हैंए वैसे ही जमींदार जैसे हजारों और जमींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिएए तो पहले आप खुद शुरू करें — काश्तकारों को बगैर नजराने लिए पट्टे लिख देंए बेगार बंद कर देंए इजाफा लगान को तिलांजलि दे देंए चरावर जमीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं हैए जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की—सीए मगर जीवन है रईसों का—साए उतना ही विलासमयए उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।
रायसाहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गए और संपादक जी के मुँह में जैसे कालिख लग गई। वह खुद समष्टिवाद के पुजारी थेए पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे।
तंखा ने रायसाहब की वकालत की — मैं समझता हूँए रायसाहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार हैए अगर सभी जमींदार वैसे ही हो जायँए तो यह प्रश्न ही न रहे।
मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमाई — मानता हूँए आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव हैए मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता हैघ् गुड़ से मारने वाला जहर से मारने वाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँए हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करेंए नहीं हैंए तो बकना छोड़ दें। मैं नकली जिंदगी का विरोधी हूँ। अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुल कर खाओ। बुरा समझते होए तो मत खाओए यह तो मेरी समझ में आता हैए लेकिन अच्छा समझना और छिप कर खानाए यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भीए जो वास्तव में एक हैं।
रायसाहब सभा—चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले — आपका विचार बिलकुल ठीक है मेहता जी! आप जानते हैंए मैं आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँए लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैंए और आप एक पड़ाव को छोड़ कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव—जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँए जहाँ राजा ईश्वर है और जमींदार ईश्वर का मंत्र। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकाल कर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेच कर कन्याओं के विवाह में मदद देते थेए मगर उसी वक्त तकए जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहेए उन्हें अपना देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म थाए लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़ कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँए और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँए विचारों में उनसे आगे बढ़़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को यह रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगीए केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ देए तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाए। इसे आप कायरता कहेंगेए मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरों के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणिमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्थाए जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पिसें और खपें कभी सुखद नहीं हो सकती। पूंजी और शिक्षाए जिसे मैं पूंजी ही का एक रूप समझता हूँए इनका किला जितनी जल्द टूट जायए उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहींए उनके अफसर और नियोजक दस—दसए पाँच—पाँच हजार फटकारेंए यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम जमींदारों में कितनी विलासिताए कितना दुराचारए कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी हैए यह मैं खूब जानता हूँए लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की —ष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती—कीमती डालियाँ न देंए तो बागी समझे जायँए शान से न रहेंए तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा—सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैंए और अफसरों के पास फरियाद ले कर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहाए न पुरुषार्थ ही रह गया। बसए हमारी दशा उन बच्चों की—सी हैए जिन्हें चम्मच से दूध पिला कर पाला जाता हैए बाहर से मोटेए अंदर से दुर्बलए सत्वहीन और मोहताज।
मेहता ने ताली बजा कर कहा — हियरए हियर! आपकी जबान में जितनी बुद्धि हैए काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती। खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते।
ओंकारनाथ बोले — अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकताए मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की जरूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही जरूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैंए जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैंघ्
रायसाहब ने ऊपरी खेदए लेकिन भीतरी संतोष से संपादकजी को देखा और बोले — व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए संपादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं।
मिस्टर मेहता उसी ठंडे मन से बोले — नहीं—नहींए मैं इसे बुरा नहीं समझता। समाज व्यक्ति से ही बनता है। और व्यक्ति को भूल कर हम किसी व्यवस्था पर विचार नहीं कर सकते। मैं इसलिए इतना वेतन लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास नहीं है।
संपादक जी को अचंभा हुआ — अच्छाए तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक हैंघ्
श्मैं इस सिद्धांत का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे—बड़े हमेशा रहेंगेए और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव—जाति के सर्वनाश का कारण होगा।श्
कुश्ती का जोड़ बदल गया। रायसाहब किनारे खड़े हो गए। संपादक जी मैदान में उतरे — आप बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच—नीच का भेद मानते हैं।
श्जी हाँए मानता हूँ और बडे जोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैंए वह भी तो कोई नई चीज नहीं। कब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआए तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता प्रवर्तक थे। यूनान और रोम और सीरियाईए सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा कीए पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी।
श्आपकी बातें सुन कर मुझे आश्चर्य हो रहा है।श्
श्आश्चर्य अज्ञान का दूसरा नाम है।श्
श्मैं आपका कृतज्ञ हूँ! अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें।श्
श्जीए मैं इतना अहमक नहीं हूँए अच्छी रकम दिलवाइएए तो अलबत्ता।श्
श्आपने सिद्धांत ही ऐसा लिया है कि खुले खजाने पब्लिक को लूट सकते हैं।श्
श्मुझमें और आपमें अंतर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँए उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैंए करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि कोए चरित्र कोए रूप कोए प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे—बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े—बड़े धनकुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा हैए और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े—बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं हैघ् आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थीए अब भी करती है और हमेशा करेगी।श्
तश्तरी में पान आ गए थे। रायसाहब ने मेहमानों को पान और इलायची देते हुए कहा — बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त होए तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु—महात्माओं के सामने इसीलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैंए सम्मान भीए नेतृत्व भीए लेकिन संपत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता हैए लेकिन उसकी संपत्ति विष बोने के लिए उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। बुद्धि के बगैर किसी समाज का संचालन नहीं हो सकता। हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़ देना चाहते हैं।
दूसरी मोटर आ पहुँची और मिस्टर खन्ना उतरेए जो एक बैंक के मैनेजर और शक्कर मिल के मैनजिंग डाइरेक्टर हैं। दो देवियाँ भी उनके साथ थीं। रायसाहब ने दोनों देवियाँ को उतारा। वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत गंभीर और विचारशील—सी हैंए मिस्टर खन्ना की पत्नीए कामिनी खन्ना हैं। दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख—छवि पर हँसी फूटी पड़ती हैए मिस मालती हैं। आप इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़़ आई हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात प्रतिमा हैं। गात कोमलए पर चपलता कूट—कूट कर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहींए मेक—अप में प्रवीणए बला की हाजिर—जवाबए पुरुष—मनोविज्ञान की अच्छी जानकारए आमोद—प्रमोद को जीवन का तत्व समझने वालीए लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान हैए वहाँ प्रदर्शनए जहाँ हृदय का स्थान हैए वहाँ हाव—भावए मनोद्गारों पर कठोर निग्रहए जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप—सा हो गया हो।
आपने मिस्टर मेहता से हाथ मिलाते हुए कहा — सच कहती हूँए आप सूरत से ही फिलासफर मालूम होते हैं। इस नई रचना में तो आपने आत्मवादियों को उधेड़ कर रख दिया। पढ़़ते—पढ़़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि आपसे लड़ जाऊँ। फिलासफरों में सहृदयता क्यों गायब हो जाती हैघ्
मेहता झेंप गए। बिना ब्याहे थे और नवयुग की रमणियों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में खूब चहकते थेए मगर ज्यों ही कोई महिला आई और आपकी जबान बंद हुईए जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी।
मिस्टर खन्ना ने पूछा — फिलासफरों की सूरत में क्या खास बात होती है देवी जीघ्
मालती ने मेहता की ओर दया—भाव से देख कर कहा — मिस्टर मेहताए बुरा न मानें तो बतला दूँघ्
खन्ना मिस मालती के उपासकों में थे। जहाँ मिस मालती जायँए वहाँ खन्ना का पहुँचना लाजिम था। उनके आस—पास भौंरे की तरह मंडराते रहते थे। हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से अधिक से अधिक वही बोलेंए उनकी निगाह अधिक से अधिक उन्हीं पर रहे।
खन्ना ने आँख मार कर कहा — फिलासफर किसी की बात का बुरा नहीं मानते। उनकी यही सिफत है।
श्तो सुनिएए फिलासफर हमेशा मुर्दा—दिल होते हैंए जब देखिएए अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ ताकेंगेए मगर आपको देखेंगे नहींए आप उनसे बातें किए जायँए कुछ सुनेंगे नहींए जैसे शून्य में उड़ रहे हों।श्
सब लोगों ने कहकहा मारा। मिस्टर मेहता जैसे जमीन में गड़ गए।
श्आक्सफोर्ड में मेरे फिलासफी के प्रोफेसर हसबेंड थे!श्
खन्ना ने टोका — नाम तो निराला है।
श्जी हाँए और थे क्वाँरे...
श्मिस्टर मेहता भी तो क्वाँरे हैं...श्
श्यह रोग सभी फिलासफरों को होता है।श्
अब मेहता को अवसर मिला। बोले — आप भी तो इसी मरज में गिरफ्तार हैंघ्
श्मैंने प्रतिज्ञा की हैए कि किसी फिलासफर से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देख कर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके अॉफिस में चली जाती थीए तो आप ऐसे घबड़ा जातेए जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें खूब छेड़ा करते थेए बेचारे बड़े सरल—हृदय। कई हजार की आमदनी थीए पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबंध करती थी। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फिक्र ही न रहती थी। मिलने वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद करके लिखा—पढ़़ी करते थे। भोजन का समय आ जाताए तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जा कर किताब बंद कर देती थीए तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थी। एक दिन बहन ने किताब बंद करनी चाहीए तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन—भाई में जोर—आजमाई होने लगी। आखिर बहन उनकी पहिएदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लाई।श्
रायसाहब बोले — मगर मेहता साहब तो बड़े खुशमिजाज और मिलनसार हैंए नहीं इस हंगामे में क्यों आते।श्
श्तो आप फिलासफर न होंगे। जब अपने चिंताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता हैए तो विश्व की चिंता सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है।श्
उधर संपादक जी श्रीमती खन्ना से अपने आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे — बस यों समझिए श्रीमतीजीए कि संपादक का जीवन एक दीर्घ विलाप हैए जिसे सुन कर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सकेए न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर एक आंदोलन में वह सबसे आगे रहेए जेल जायए मार खाएए घर के माल—असबाब की कुर्की कराएए यह उसका धर्म समझा जाता हैए लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर एक विद्याए हर एक कला में पारंगत होना चाहिएए लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा—सा सौभाग्य मुझे मिल सकता हैए उससे मुझे क्यों वंचित रखती हैंघ्
मिसेज खन्ना को कविता लिखने का शौक था। इस नाते से संपादक जी कभी—कभी उनसे मिल आया करते थेए लेकिन घर के काम—धंधो में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थीं। सच बात तो यह है कि संपादक जी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।
क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहाघ्श्
संपादक जी उपेक्षा भाव से बोले — उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैंए जिनके अंदर कुछ दर्द हैए अनुराग हैए लगन हैए विचार है। जिन्होंने धन और भोग—विलास को जीवन का लक्ष्य बना लियाए वह क्या लिखेंगेघ्
कामिनी ने ईर्ष्या—मिश्रित विनोद से कहा — अगर आप उनसे कुछ लिखा सकेंए तो आपका प्रचार दुगुना हो जाए। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं हैए जो आपका ग्राहक न बन जाए।
श्अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होताए तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूँए तो लाखों कमा सकता हूँए लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा।श्
श्कम—से—कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए।श्
श्आपका नाम ग्राहकों में नहींए संरक्षकों में लिखूँगा।श्
श्संरक्षकों में रानियों—महारानियों को रखिएए जिनकी थोड़ी—सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज बना सकते हैं।श्
मेरी रानी—महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी—महारानी की हकीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक हैए वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।श्
कामिनी ने चुटकी ली — लेकिन मेरी खुशामद तो आप कर रहे हैं संपादक जी!
संपादक जी ने गंभीर हो कर श्रद्धापूर्ण स्वर में कहा — यह खुशामद नहीं है देवी जीए हृदय के सच्चे उद्गार हैं।
रायसाहब ने पुकारा — संपादक जीए जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं।
संपादक जी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आ कर खड़े हो गए! मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देख कर कहा — मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहेंए एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा — अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूँ तो अपने को भाग्यवान समझूँ।
ओंकारनाथ की बड़ी—बड़ी मूँछें खड़ी हो गईं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थेए लेकिन ललकार सुन कर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। —ढ़़ता—भरे स्वर में बोले — इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज्म (सभा) में अपना जिक्र तो आता हैए चाहे किसी तरह आए। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजिएगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं हैए जो इन धमकियों से डर जाए। उसकी कलम उसी वक्त विश्राम लेगीए जब उसकी जीवन—यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोद कर फेंक देने का जिम्मा लिया है।
मिस मालती ने और उकसाया — मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैंए तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम देंए तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील कीए उसकी खुशामद कीए अपने कठिनाइयों की कथा कहीए मगर कोई नतीजा न निकला। अब जरा अधिकारियों को भी आजमा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगेंए और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करतेए आपके द्वार के चक्कर लगाएँगे।
ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले — यही तो मैं नहीं कर सकता देवी जी! मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है और जीते—जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली—गली मिलेंगेए मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ।
श्मैं इसे दंभ कहती हूँ।श्
श्आपकी इच्छा।श्
श्धन की आपको परवा नहीं हैघ्श्
श्सिद्धांतों का खून करके नहीं।श्
श्तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैंघ् मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धांतवादीए पर अपने फायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको जरा भी खेद नहीं होताघ् आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।श्
ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बगलें झाँकते देख कर रायसाहब ने उनकी हिमायत की — तो आखिर आप क्या चाहती हैंघ् इधर से भी मारे जायँए उधर से भी मारे जायँए तो पत्र कैसे चलेघ्
मिस मालती ने दया करना न सीखा था।
श्पत्र नहीं चलता तो बंद कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मजबूर हैंए तो सिद्धांत का ढ़ोंग छोड़िए। मैं तो सिद्धांतवादी पत्रों को देख कर जल उठती हूँ। जी चाहता हैए दियासलाई दिखा दूँ। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकताए वह और चाहे जो कुछ होए सिद्धांतवादी नहीं है।श्
मेहता खिल उठा। थोड़ी देर पहले उन्होंने खुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी हैए केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा।
श्यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता हैए मक्कारी है।श्
मिस मालती प्रसन्नमुख से बोली — तो इस विषय में आप और मैं एक हैंए और मैं भी फिलासफर होने का दावा कर सकती हूँ।
खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले — आपका एक—एक अंग फिलासफी में डूबा हुआ है।
मालती ने उनकी लगाम खींची — अच्छाए आपको भी फिलासफी में दखल है। मैं तो समझती थीए आप बहुत पहले अपने फिलासफी को गंगा में डुबो बैठे। नहींए आप इतने बैंकों और कंपनियों के डाइरेक्टर न होते।
रायसाहब ने खन्ना को सँभाला — तो क्या आप समझती हैं कि फिलासफरों को हमेशा फाकेमस्त रहना चाहिएघ्
श्जी हाँश् फिलासफर अगर मोह पर विजय न पा सकेए तो फिलासफर कैसाघ्श्
श्इस लिहाज से तो शायद मिस्टर मेहता भी फिलासफर न ठहरें।श्
मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़़ा कर कहा — मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता हैए उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैंए आम भी उसी दशा में फलें—फूलें जिससे बबूल या ताड़घ् मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम हैए जिनसे मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए फलने—फूलने वाली चीज नहींए केवल साधन है। मुझे धन की बिलकुल इच्छा नहींए आप वह साधन जुटा देंए जिसमें मैं अपने जीवन को उपयोग कर सकूँ।
ओंकारनाथ समष्टिवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करतेघ्
इसी तरह हर एक मजदूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हजार महीने की जरूरत है।श्
अगर आप समझते हैं कि उस मजदूर के बगैर आपका काम नहीं चल सकताए तो आपको वह सुविधाएँ देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मजदूर थोड़ी—सी मजदूरी में कर देए तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मजदूर की खुशामद करें।श्
श्अगर मजदूरों के हाथ में अधिकार होताए तो मजदूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही जरूरी सुविधा हो जातीए जितनी फिलासफरों के लिए।
श्तो आप विश्वास मानिएए मैं उनसे ईर्ष्या न करता।श्
श्जब आपका जीवन सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक हैए तो आप शादी क्यों नहीं कर लेतेघ्श्
मेहता ने निरूसंकोच भाव से कहा — इसीलिए कि मैं समझता हूँए मुक्त भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता। विवाह तो आत्मा को और जीवन को पिंजरे में बंद कर देता है।
खन्ना ने इसका समर्थन किया — बंधन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं। नई थ्योरी है मुक्त भोग।
मालती ने चोटी पकड़ी — तो अब मिसेज खन्ना को तलाक के लिए तैयार रहना चाहिए।
श्तलाक का बिल तो हो।श्
श्शायद उसका पहला उपयोग आप ही करेंगेघ्श्
कामिनी ने मालती की ओर विष—भरी आँखों से देखा और मुँह सिकोड़ लियाए मानो कह रही है — खन्ना तुम्हें मुबारक रहेंए मुझे परवाह नहीं।
मालती ने मेहता की तरफ देख कर कहा — इस विषय में आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहताघ्
मेहता गंभीर हो गए। वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थेए तो जैसे अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।
श्विवाह को मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को हैए न स्त्री को। समझौता करने के पहले आप स्वाधीन हैंए समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं।श्
श्तो आप तलाक के विरोधी हैंए क्योंघ्श्
श्पक्का।श्
श्और मुक्त भोग वाला सिद्धांतघ्श्
श्वह उनके लिए हैए जो विवाह नहीं करना चाहते।श्
श्अपनी आत्मा का संपूर्ण विकास सभी चाहते हैंए फिर विवाह कौन करे और क्यों करेघ्श्
श्इसीलिए कि मुक्ति सभी चाहते हैंए पर ऐसे बहुत कम हैंए जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकेंश्।
श्आप श्रेष्ठ किसे समझते हैंए विवाहित जीवन को या अविवाहित जीवन कोघ्
श्समाज की —ष्टि से विवाहित जीवन कोए व्यक्ति की —ष्टि से अविवाहित जीवन को।श्
धनुष—यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष—यज्ञए एक से तीन तक प्रहसनए यह प्रोगाम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गई। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग—अलग प्रबंध था। खन्ना—परिवार के लिए दो कमरे रखे गए थे। और भी कितने ही मेहमान आ गए थे। सभी अपने—अपने कमरे में गए और कपड़े बदल—बदल कर भोजनालय में जमा हो गए। यहाँ छूत—छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वणोर्ं के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गए। और कामिनी खन्ना को सिरदर्द हो रहा थाए उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और माँस भी। इस उत्सव के लिए रायसाहब अच्छी किस्म की शराब खास तौर पर मँगवाते थेघ् खींची जाती थी दवा के नाम सेए पर होती थी खालिस शराब। माँस भी कई तरह के पकते थेए कोफतेए कबाब और पुलाव। मुर्गाए मुर्गियाँए बकराए हिरनए तीतरए मोर जिसे जो पसंद होए वह खाए।
भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा — संपादक जी कहाँ रह गएघ् किसी को भेजो रायसाहबए उन्हें पकड़ लाएँ।
रायसाहब ने कहा — वह वैष्णव हैंए उन्हें यहाँ बुला कर क्यों बेचारे का धर्म नष्ट करोगीघ् बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है।
अजी और कुछ न सहीए तमाशा तो रहेगा।श्
सहसा एक सज्जन को देख कर उसने पुकारा — आप भी तशरीफ रखते हैं मिर्जा खुर्शेदए यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी।
मिर्जा खुर्शेद गोरे—चिट्टे आदमी थेए भूरी—भूरी मूँछेंए नीली आँखेंए दोहरी देहए चाँद के बाल सफाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। कौंसिल के मेंबर थेए पर फलाहार समय खर्राटे लेते रहते थे। वोटींग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ से वोट देते थे। सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आए थेए मगर शराब खूब पीते थे। कहते थेए जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानतेए तो दीन के लिए क्यों जान दें। बड़े दिल्लगीबाजए बेफिकरे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाएए मगर शामत आई कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुकदमेबाजी हुई। जेल जाते—जाते बचे। चौबीस घंटे के अंदर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ थाए वहीं छोड़ाए और सिर्फ पचास हजार ले कर भाग खड़े हुए। बंबई में उनके एजेंट थे। सोचा थाए उनसे हिसाब—किताब कर लें और जो कुछ निकलेगाए उसी में जिंदगी काट देंगेए मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हजार भी ऐंठ लिए। निराश हो कर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात हुआ। महात्मा जी ने उन्हें सब्जबाग दिखा कर उनकी घड़ीए अंगूठियाँए रुपए सब उड़ा लिए। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाकात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दुकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दुकान थीए चार—पाँच सौ रोज की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुकेदार को नीचा दिखा कर कौंसिल में पहुँच गए।
अपने जगह पर बैठे—बैठे बोले — जी नहींए मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको खुद करना चाहिए। मजा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिला कर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आजमाइश है।
चारों तरफ से आवाजें आईं — हाँ—हाँए मिस मालतीए आज अपना कमाल दिखाइए। मालती ने मिर्जा को ललकारा — कुछ इनाम दोगेघ्
श्सौ रुपए की एक थैली।श्
श्हुश! सौ रुपए! लाख रुपए का धर्म बिगाडूँ सौ के लिए।श्
श्अच्छाए आप खुद अपनी फीस बताइए।श्
श्एक हजारए कौड़ी कम नहीं।श्
श्अच्छाए मंजूर।श्
श्जी नहींए ला कर मेहता जी के हाथ में रख दीजिए।श्
मिर्जा जी ने तुरंत सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े हो कर बोले— भाइयो! यह हम सब मरदों की इज्जत का मामला है। अगर मिस मालती की फरमाइश न पूरी हुईए तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। अगर मेरे पास रुपए होतेए तो मैं मिस मालती की एक—एक अदा पर एक—एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक के एक काले तिल पर समरकंद और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिए थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ होए सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे। आपको इल्म की कसमए माशूक की अदाओं की कसमए अपनी इज्जत की कसमए पीछे कदम न हटाइए। मरदों! रुपए खर्च हो जाएँगेए नाम हमेशा के लिए रह जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी सस्ता है। देखिएए लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मंत्र कैसे चलाती हैघ्
भाषण समाप्त करते ही मिर्जा जी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले।
मिर्जा ने मुँह फीका करके कहा — वाह खन्ना साहबए वाह! नाम बड़े दर्शन थोड़ेए इतनी कंपनियों के डाइरेक्टरए लाखों की आमदनी और आपके जेब में पाँच रुपए। लाहौल विला कूवत कहाँ हैं मेहताघ् आप जरा जा कर मिसेज खन्ना से कम—से कम सौ रुपए वसूल कर लाएँ।
खन्ना खिसिया कर बोले — अजीए उनके पास एक पैसा भी न होगा। कौन जानता था कि यहाँ आप तलाशी लेना शुरू करेंगेघ्
श्खैरए आप खामोश रहिए। हम अपनी तकदीर तो आजमा लें।श्
श्अच्छाए तो मैं जा कर उनसे पूछता हूँ।श्
श्जी नहींए आप यहाँ से हिल नहीं सकते। मिस्टर मेहताए आप फिलासफर हैंए मनोविज्ञान के पंडित। देखिएए अपनी भद न कराइएगा।श्
मेहता शराब पी कर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपक कर मिसेज खन्ना के पास गए और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाए लौट आए।
मिर्जा ने पूछा — अरेए क्या खाली हाथघ्
रायसाहब हँसे — काजी के घर चूहे भी सयाने।
मिर्जा ने कहा — हो बड़े खुशनसीब खन्नाए खुदा की कसम।
मेहता ने कहकहा मारा और जेब से सौ—सौ रुपए के पाँच नोट निकाले।
मिर्जा ने लपक कर उन्हें गले लगा लिया।
चारों तरफ से आवाजें आने लगीं — कमाल हैए मानता हूँ उस्तादए क्यों न होए फिलासफर ही जो ठहरे!
मिर्जा ने नोटों को आँखों से लगा कर कहा — भई मेहताए आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओए क्या जादू माराघ्
मेहता अकड़ करए लाल—लाल आँखों से ताकते हुए बोले — अजीए कुछ नहीं। ऐसा कौन—सा बड़ा काम था। जा कर पूछाए अंदर आऊँघ् बोलीं — आप हैं मेहता जीए आइए। मैंने अंदर जा कर कहा — वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। मिस मालती पाँच सौ रुपए हार गई हैं और अपने अंगूठी बेच रही हैं। अंगूठी एक हजार से कम की नहीं है। आपने तो देखा है। बस वही। आपके पास रुपए होंए तो पाँच सौ रुपए दे कर एक हजार की चीज ले लीजिए। ऐसा मौका फिर न मिलेगा। मिस मालती ने इस वक्त रुपए न दिएए तो बेदाग निकल जाएँगी। पीछे से कौन देता हैए शायद इसीलिए उन्होंने अंगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए किसके पास धरे होंगे। मुस्कराईं और चट अपने बटुवे से पाँच नोट निकाल कर दे दिएए और बोलीं — मैं बिना कुछ लिए घर से नहीं निकलती। न जाने कब क्या जरूरत पड़े।
खन्ना खिसिया कर बोले — जब हमारे प्रोफेसरों का यह हाल हैए तो यूनिवर्सिटी का ईश्वर ही मालिक है।
खुर्शेद ने घाव पर नमक छिड़का — अरेए तो ऐसी कौन—सी बड़ी रकम हैए जिसके लिए आपका दिल बैठा जाता है। खुदा झूठ न बुलवाए तो यह आपकी एक दिन की आमदनी है। समझ लीजिएगाए एक दिन बीमार पड़ गएए और जायगा भी तो मिस मालती ही के हाथ में। आपके दर्दे जिगर की दवा मिस मालती ही के पास तो है।
मालती ने ठोकर मारी — देखिए मिर्जा जीए तबेले में लतिआहुज अच्छी नहीं।
मिर्जा ने दुम हिलाई — कान पकड़ता हूँ देवी जी!
मिस्टर तंखा की तलाशी हुई। मुश्किल से दस रुपए निकलेए मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली। कई सज्जनों ने एक—एकए दो—दो रुपए खुद दिए। हिसाब जोड़ा गयाए तो तीन सौ की कमी थी। यह कमी रायसाहब ने उदारता के साथ पूरी कर दी।
संपादक जी ने मेवे और फल खाए थे और जरा कमर सीधी कर रहे थे कि रायसाहब ने जा कर कहा — आपको मिस मालती याद कर रही हैं।
खुश हो कर बोले — मिस मालती मुझे याद कर रही हैंए धन्य—भाग! रायसाहब के साथ ही हाल में आ विराजे।
उधर नौकरों ने मेजें साफ कर दी थीं। मालती ने आगे बढ़़ कर उनका स्वागत किया।
संपादक जी ने नम्रता दिखाई — बैठिएए तकल्लुफ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ।
मालती ने श्रद्धा—भरे स्वर में कहा — आप तकल्लुफ समझते होंगेए मैं समझती हूँए मैं अपना सम्मान बढ़़ा रही हूँए यों आप अपने को कुछ न समझें और आपको शोभा भी यही देता हैए लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैंए सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य—सेवा से भली—भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण काम किया हैए अभी चाहे लोग उसका मूल्य न समझेंए लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं है—मैं तो कहती हूँ वह समय आ गया है — जब हर एक नगर में आपके नाम की सड़कें बनेंगीए क्लब बनेंगेए टाऊनहालों में आपके चित्र लटकाए जाएँगे। इस वक्त जो थोड़ी बहुत जागृति हैए वह आप ही के महान उद्योगों का प्रसाद है। आपको यह जान कर आनंद होगा कि देश में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा हो गए हैंए जो आपके देहात—सुधर आंदोलन में आपका हाथ बँटाने को उत्सुक हैंए और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित रूप से किया जाय और एक देहात सुधार—संघ स्थापित किया जायए जिसके आप सभापति हों।
ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी—कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थेए लेकिन शिक्षित—समाज ने अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थेए इसलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वाथार्ंधता की शिकायत किया करते थेए और अपने पत्र में एक—एक को रगेदते थे। कलम तेज थीए वाणी कठोरए साफगोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थेए इसीलिए लोग उन्हें खाली ढ़ोल समझते थे। उसी समाज में आज उनका इतना सम्मान! कहाँ हैं आज श्स्वराजश् और श्स्वाधीन भारतश् और श्हंटरश् के संपादकए आ कर देखें और अपना कलेजा ठंडा करें। आज अवश्य ही देवताओं की उन पर कृपा—ष्टि है। सद्योग कभी निष्फल नहीं जाताए ॠषियों का वाक्य है। वह स्वयं अपने नजरों में उठ गए। कृतज्ञता से पुलकित हो कर बोले — देवी जीए आप तो मुझे काँटों में घसीट रही हैं। मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा कीए अपना कर्तव्य समझ कर की। मैं इस सम्मान को व्यक्ति का सम्मान नहींए उस उद्देश्य का सम्मान समझ रहा हूँए जिसके लिए मैंने अपना जीवन अर्पित कर दिया हैए लेकिन मेरा नम्र—निवेदन है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया जायए मैं पदों में विश्वास नहीं रखता। मैं तो सेवक हूँ और सेवा करना चाहता हूँ।
मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकतीघ् सभापति पंडित जी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखाई देता। जिसकी कलम में जादू हैए जिसकी जबान में जादू हैए जिसके व्यक्तित्व में जादू हैए वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह जमाना गयाए जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। संपादक जी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मंत्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक हजार का चंदा भी हो गया है और अभी तो सारा शहर और प्रांत पड़ा हुआ है। चार—पाँच लाख मिल जाना मामूली बात है।
ओंकारनाथ पर कुछ नशा—सा चढ़़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी—सी उठ रही थीए उसने गंभीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले — मगर यह आप समझ लेंए मिस मालतीए कि यह बड़ी जिम्मेदारी का काम है और आपको अपना बहुत समय देना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा—भवन में मुझे सबसे पहले मौजूद पाएँगी।
मिर्जा जी ने पुचारा दिया — आपका बड़े—से—बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना कर्ज अदा करने में कभी किसी से पीछे रहे।
मिस मालती ने देखाए शराब कुछ—कुछ असर करने लगी हैए तो और भी गंभीर बन कर बोलीं — अगर हम लोग इस काम की महानता न समझतेए तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुकेदार को सभापति बना कर धन खूब बटोर सकते हैंए और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैंए लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द—से—जल्द उसकी ग्राहक—संख्या को बीस हजार तक पहुँचा दिया जाए। प्रांत की सभी म्युनिसिपैलिटीयों और जिला बोर्डो के चेयरमैन हमारे मित्र हैं। कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान हैं। अगर हर एक ने पाँच—पाँच सौ प्रतियाँ भी ले लींए तो पचीस हजार प्रतियाँ तो आप यकीनी समझें। फिर रायसाहब और मिर्जा साहब की यह सलाह है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए श्बिजलीश् की एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जायए या कुछ वार्षिक सहायता स्वीकार की जाय और हमें पूरा विश्वास है कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा।
ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा — हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा।
मिर्जा खुर्शेद बोले — जरूर—जरूर!
श्उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी श्बिजलीश् का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता।श्
मिर्जा खुर्शेद ने कहा — अवश्य—अवश्य!
श्मैं गर्व नहीं करता। अभी गर्व करने का समय नहीं आयाए लेकिन मुझे इसका दावा है कि ग्राम्य—संगठन के लिए श्बिजलीश् ने जितना उद्योग किया है...श्
मिस्टर मेहता ने सुधारा — नहीं महाशयए तपस्या कहिए।
श्मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँए इसे तपस्या ही कहना चाहिएए बड़ी कठोर तपस्या। श्बिजलीश् ने जो तपस्या की हैए वह इस प्रांत के ही नहींए इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है।श्
मिर्जा खुर्शेद बोले — जरूर—जरूर!
मिस मालती ने एक पेग और दिया — हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह खाली होए उसके लिए आपको उम्मीदवार खड़ा किया जाए। आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी होगी। शेष सारा काम लोग कर लेंगे। आपको न खर्च से मतलबए न प्रोपेगेंडाए न दौड़—धूप से।
ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गई। गर्वपूर्ण नम्रता से बोले — मैं आप लोगों का सेवक हूँए मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए।
हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओें के सामने नाक रगड़ते—रगड़ते हार गए और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आपमें सच्चा पथ—प्रदर्शकए सच्चा गुरू पाया है। और इस शुभ दिन के आनंद में आज हमें एकमनए एकप्राण हो कर अपने अहंकार कोए अपने दंभ को तिलांजलि दे देनी चाहिए। हममें आज से कोई ब्राह्मण नहीं हैए कोई शूद्र नहीं हैए कोई हिंदू नहीं हैए कोई मुसलमान नहीं हैए कोई ऊँच नहीं हैए कोई नीच नहीं है। हम सब एक ही माता के बालकए एक ही गोद के खेलने वालेए एक ही थाली के खाने वाले भाई हैं। जो लोग भेद—भाव में विश्वास रखते हैंए जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैंए उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है। जिस सभा के सभापति पूज्य ओंकारनाथ जैसे विशाल—हृदय व्यक्ति होंए उस सभा में ऊँच—नीच काए खान—पान का और जाति—पाँति का भेद नहीं हो सकता। जो महानुभाव एकता में और राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते होंए वे कृपा करके यहाँ से उठ जायँ।
रायसाहब ने शंका की — मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान—पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीताए तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पडेगाघ्
मालती ने निर्मम स्वर में कहा — बेशक अलग हो जाना पड़ेगा। आप इस संघ में रह कर किसी तरह का भेद नहीं रख सकते।
मेहता जी ने घड़े को ठोंका — मुझे संदेह है कि हमारे सभापतिजी स्वयं खान—पान की एकता में विश्वास नहीं रखते हैं।
ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगेए नहीं यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा।
मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की —ष्टि से देख कर —ढ़़ता से कहा — आपका संदेह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासकए ऐसा उदारचेता पुरूषए ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जाजनक भेद को मान्य समझेगाघ् ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है।
ओंकारनाथ का मुख—मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और संतोष की आभा झलक पड़ी।
मालती ने उसी स्वर में कहा — और इससे भी अधिक उनकी पुरुष—भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पा कर वह कौन भद्र पुरुष होगाए जो इनकार कर दे — यह तो नारी—जाति का अपमान होगाए उस नारी—जाति काए जिसके नयन—बाणों से अपने हृदय को बिंधवाने की लालसा पुरुष—मात्र में होती हैए जिसकी अदाओं पर मर—मिटने के लिए बड़े—बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइएए बोतल और प्यालेए और दौर चलने दीजिए। इस महान अवसर परए किसी तरह की शंकाए किसी तरह की आपत्ति राष्ट्र—द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीएँगे।
बर्फए शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दियाए और उन्हें कुछ ऐसी जादू—भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठाए सारी वर्ण—श्रेष्ठता काफूर हो गई। मन ने कहा सारा आचार—विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र होए किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते होए तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर—चूर कर दोए लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं हैघ् परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप—दादों ने नहीं पी थीए न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था — उनकी जीविका पोथी—पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ सेए और पीते भी तो जाते कहाँघ् फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़़ते थेए कल का पानी न पीते थेए अंग्रेजी पढ़़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकतेए तो वह तुम्हें पीछे छोड़ कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिलेए तो शिरोधार्य करना चाहिए। जिस सौभाग्य के लिए बड़े—बड़े राजे तरसते हैंए वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैंघ्
उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुका कर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गए और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखाए मानो कह रहे होंए अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैंए मैं निरा पोंगा पंडित हूँ। अब तो मुझे दंभी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकतेघ्
हाल में ऐसा शोरगुल मचा कि कुछ न पूछोए जैसे पिटारे में बंद कहकहे निकल पड़े हों! वाह देवी जी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालतीए कमाल है। तोड़ दियाए नमक का कानून तोड़ दियाए धर्म का किला तोड़ दियाए नेम का घड़ा फोड़ दिया!
ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गई। मुस्करा कर बोले —
मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास हैए वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण—कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हजार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ।
कहकहों से हाल गूँज उठा।
संपादक जी का चेहरा फूल उठा थाए आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भर कर बोले — यह मिल मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पिएँ और उन्हें आशीर्वाद दें।
लोगों ने फिर अपने—अपने ग्लास खाली कर दिए।
उसी वक्त मिर्जा खुर्शेद ने एक माला ला कर संपादक जी के गले में डाल दी और बोले — सज्जनोंए फिदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक कसीदा कहा है। आप लोगों की इजाजत हो तो सुनाऊँ।
चारों तरफ से आवाजें आई — हाँ—हाँए जरूर सुनाइए।
ओंकारनाथ भंग तो आए दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया थाए मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मंथर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें खुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार हैए और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैंए मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैंए इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्रय न थाए जागृति का वह चक्कर थाए जिसमें साकार निराकार हो जाता है।
न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि कसीदा पढ़़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज पर हाथ पटक कर बोले — नहींए कदापि नहीं। यहाँ कोई कसीदा नईं ओगाए नईं ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सब को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नईं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नईं है।
मिर्जा ने हाथ जोड़ कर कहा — हुजूरए इस कसीदे में तो आपकी तारीफ की गई है।
संपादक जी ने लालए पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा — तुम हमारी तारीफ क्यों कीघ् क्यों कीघ् बोलोए क्यों हमारी तारीफ कीघ् हम किसी का नौकर नईं है। किसी के बाप का नौकर नईं हैए किसी साले का दिया नहीं खाते। हम खुद संपादक है। हम श्बिजलीश् का संपादक है। हम उसमें सबका तारीफ करेगा। देवी जीए हम तुम्हारा तारीफ नईं करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नईं है। हम सबका गुलाम है। हम आपका चरण—रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मीए हमारी सरस्वतीए हमारी राधा...
यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ झुके और मुँह के बल फर्श पर गिर पड़े। मिर्जा खुर्शेद ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटा कर वहीं जमीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जा कर बोले — राम—राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाजा निकालेंघ्
रायसाहब ने कहा — कल देखना कितना बिगड़ता है। एक—एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट हैए किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता हैए यह रहस्य है।
कई आदमियों ने संपादक जी को उठाया और ले जा कर उनके कमरे में लिटा दिया। उधर पंडाल में धनुष—यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफगान आ कर खड़ा हो गया। गोरा रंगए बड़ी—बड़ी मूँछेंए ऊँचा कदए चौड़ा सीनाए आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआए ढ़ीला नीचा कुरताए पैरों में शलवारए जरी के काम की सदरीए सिर पर पगड़ी और कुलाहए कंधों में चमड़े का बेग लटकाएए कंधों पर बंदूक रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरज कर बोला — खबरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा है। यहाँ का जो सरदार हैए वह अमारा आदमी को लूट लिया हैए उसका माल तुमको देना होगा। एक—एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदारए उसको बुलाओ!
रायसाहब ने सामने आ कर क्रोध—भरे स्वर में कहा — कैसी लूट! कैसा डाकाघ् यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ—साफ कहोए क्या मामला हैघ्
अफगान ने आँखें निकालीं और बंदूक का कुंदा जमीन पर पटक कर बोला — अमसे पूछता है कैसा लूटए कैसा डाकाघ् तुम लूटता हैए तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचीस जवान हैं। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हजार। वह तुम लूट लियाए और कहता हैए कैसा डाकाघ् अम बताएगाए कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नईं कर सकताए कुछ नईं कर सकता।
खन्ना ने अफगान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने जोर से डाँटा — कां जाता तुमघ् कोई कईं नईं जा सकताए नईं अम सबको कतल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नईं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नईं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देख कर भागता है। अमारा अपना कांसल हैए अम उसको खत लिख कर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नईं जाने देगा। तुम अमारा एक हजार रूपया लूट लिया। अमारा रूपया नईं देगाए तो अम किसी को जिंदा नईं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक के साथ शराब पीता है।
मिस मालती उसकी आँख बचा कर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज की तरह टूट कर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला — तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाएए नईं अम तुमको उठा ले जायगा अपने कोठी में जशन मनाएगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक हो गया। या तो अमको एक हजार अबी—अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नईं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस जिला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने कबीले का खान है। अमारे कबीला में दस हजार सिपाही हैं। अम काबुल के अमीर से लड़ सकता है। अंग्रेज सरकार अमको बीस हजार सालाना खिराज देता है। अगर तुम हमारा रूपया नईं देगाए तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक को उठा ले जायगा। खून करने में अमको लुतफ आता है। अम खून का दरिया बहा देगा।
मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गईं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट—चपेट के भय से एक—मंजिले बँगले में रहते थे। जीने पर चढ़़ना उनके लिए सूली पर चढ़़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। रायसाहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थेए लेकिन उसकी बंदूक को क्या करतेघ् उन्होंने जरा भी चीं—चपड़ किया और इसने बंदूक चलाई। हूश तो होते ही हैं यह सबए और निशाना भी इस सबों का कितना अचूक होता हैए अगर उसके हाथ में बंदूक न होतीए तो रायसाहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहींए दम—के—दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट—पाट कर रख देता।
आखिर उन्होंने दिल मजबूत किया और जान पर खेल कर बोले — हमने आपसे कह दिया कि हम चोर—डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेंबर हूँ और यह देवी जी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ और इज्जतदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल खबर नहींए आपके आदमियों को किसने लूटाघ् आप जा कर थाने में रपट कीजिए।
खान ने जमीन पर पैर पटकाए पैंतरे बदले और बंदूक को कंधों से उतार कर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा — मत बक—बक करो। काउंसिल का मेंबर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है (जमीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मजबूत हैए अमारा दिल मजबूत हैए अम खुदाताला के सिवा और किसी से नईं डरता। तुम अमारा रूपया नहीं देगाए तो अम (रायसाहब की तरफ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा।
अपने तरफ बंदूक की दोनाली देख कर रायसाहब झुक कर मेज के बराबर आ गए। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता हैए तुमने हमारे रुपए लूट लिए। न कुछ सुनता हैए न कुछ समझता हैए न किसी को बाहर आने—जाने देता है। नौकर—चाकरए सिपाही—प्यादेए सब धनुष—यज्ञ देखने में मग्न थे। जमींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम—चोर होते हैंए जब तक दस दफे न पुकारा जाताए बोलते ही नहींए और इस वक्त तो वे एक शुभ काम में लग हुए थे। धनुष—यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहींए भगवान की लीला थीए अगर एक आदमी भी इधर आ जाताए तो सिपाहियों को खबर हो जाती और दम भर में खान का सारा खानपन निकल जाताए दाढ़़ी के एक—एक बाल नुच जाते। कितना गुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का गमए न जीने की खुशी।
मिर्जा साहब से अंग्रेजी में बोले — अब क्या करना चाहिएघ्
मिर्जा साहब ने चकित नेत्रों से देखा — क्या बताऊँए कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आयाए नहीं मजा चखा देता।
खन्ना रोना मुँह बना कर बोले — कुछ रुपए दे कर किसी तरह इस बला को टालिए।
रायसाहब ने मालती की ओर देखा — देवी जीए अब आपकी क्या सलाह हैघ्
मालती का मुखमंडल तमतमा रहा था। बोलीं — होगा क्याए मेरी इतनी बेइज्जती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बीस मदोर्ं के होते एक उजड्ड पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के खून में जरा भी गरमी नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी हैघ् क्यों एक आदमी बाहर जा कर शोर नहीं मचाताघ् क्यों आप लोग उस पर झपट कर उसके हाथ से बंदूक नहीं छीन लेतेघ् बंदूक ही तो चलाएगाघ् चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगीघ् जाने दो।
मगर देवी जी मर जाने को जितना आसान समझती थींए और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान गुस्से में आ कर दस—पाँच फैर कर देए तो यहाँ सफाया हो जायगा। बहुत होगाए पुलिस उसे फाँसी सजा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े कबीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच—विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है — हमारे ऊपर उलटे मुकदमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जायए तो आश्चर्य नहींए कितने मजे से हँसी—मजाक हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनंद उठाते होते। इस शैतान ने आ कर एक नई विपत्ति खड़ी कर दीए और ऐसा जान पड़ता हैए बिना दो—एक खून किएए मानेगा भी नहीं।
खन्ना ने मालती को फटकारा — देवी जीए आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैंए मानो अपने प्राण रक्षा करना कोई पाप है। प्राण का मोह प्राणि—मात्र में होता है और हम लोगों में भी होए तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैंए यह देख कर मुझे खेद होता है। एक हजार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ्त के एक हजार हैंए उसे दे कर क्यों नहीं बिदा कर देतीं। आप खुद अपने बेइज्जती करा रही हैंए इसमें हमारा क्या दोषघ्
रायसाहब ने गर्म हो कर कहा — अगर इसने देवी जी को हाथ लगायाए तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगेए मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आखिर वह भी आदमी ही तो है।
मिर्जा साहब ने संदेह से सिर हिला कर कहा — रायसाहबए आप अभी तो इन सबों के मिजाज से वाकिफ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगाए तो फिर किसी को जिंदा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है।
मि. तंखा बेचारे आने वाले चुनाव की समस्या सुलझाने आए थे। दस—पाँच हजार का वारा—न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले — सबसे सरल उपाय वही हैए जो अभी खन्ना जी ने बतलाया। एक हजार की ही बात और रुपए मौजूद हैंए तो आप लोग क्यों इतना सोच—विचार कर रहे हैं।
मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार—भरी आँखों से देखा!
श्आप लोग इतने कायर हैंए यह मैं न समझती थी।श्
श्मैं भी यह न समझता था कि आपको रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ्त के !श्
श्जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैंए तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगेघ्श्
श्तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी।श्
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ—सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एकाएक गरज कर बोला — अम अब नइऊ मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा हैए तुम लोग कोई जवाब नईं देता। (जेब से सीटी निकाल कर) अम तुमको एक लमहा और देता हैए अगर तुम रूपया नईं देता तो अम सीटी बजायगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस!
फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भर कर उसने मिस मालती को देखा।
तुम अमारे साथ चलेगा दिलदार! अम तुम्हारे ऊपर फिदा हो जायगा। अपना जान तुम्हारे कदमों पर रख देगा। इतना आदमी तुम्हारा आशिक हैए मगर कोई सच्चा आशिक नईं है। सच्चा इश्क क्या हैए अम दिखा देगा। तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने सीने में खंजर चुभा सकता है।श्
मिर्जा ने घिघिया कर कहा — देवी जीए खुदा के लिए इस मूजी को रुपए दे दीजिए।
खन्ना ने हाथ जोड़ कर याचना की — हमारे ऊपर दया करो मिस मालती!
रायसाहब तन कर बोले — हरगिज नहीं। आज जो कुछ होना हैए हो जाने दीजिए। या तो हम खुद मर जाएँगेए या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक दे देंगे।
तंखा ने रायसाहब को डाँट बताई — शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ।
मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसा—प्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनंद आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुंगवों के बीच में रह कर उसके बर्बर प्रेम का आनंद उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़ए अनगढ़़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा थाए जैसे संगीत का आनंद उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े।
उन्होंने खान साहब के सामने जा कर निश्शंक भाव से कहा — तुम्हें रुपए नहीं मिलेंगे।
खान ने हाथ बढ़़ा कर कहा— तो अम तुमको लूट ले जायगा।
श्तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकते।श्
श्अम तुमको एक हजार आदमियों के बीच से ले जा सकता है।श्
श्तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा।श्
श्अम अपने माशूक के लिए अपने जिस्म का एक—एक बोटी नुचवा सकता है।श्
उसने मालती का हाथ पकड़ कर खींचा। उसी वक्त होरी ने कमरे में कदम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते—हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचाए मालिक अभी तक क्यों नहीं आएघ् वह भी तो आ कर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार—दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाए — वह अवसर खोज रहा थाए और ज्यों ही मुहलत मिलीए दौड़ा हुआ यहाँ आयाए मगर यहाँ का —श्य देख कर भौंचक्का—सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधेए थर—थर काँपतेए कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और खान मालती को अपने तरफ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक्त रायसाहब ने पुकारा— होरीए दौड़ कर जा और सिपाहियों को बुला लाए जल्द दौड़!
होरी पीछे मुड़ा था कि खान ने उसके सामने बंदूक तान कर डाँटा — कहाँ जाता हैघ् सुअर अम गोली मार देगा।
होरी गँवार था। लाल पगड़ी देख कर उसके प्राण निकल जाते थेए लेकिन मस्त सांड़ पर लाठी ले कर पिल पड़ता था। वह कायर न थाए मारना और मरना दोनों ही जानता थाए मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे—बँधे कौन फिरेए रिश्वत के रुपए कहाँ से लाएए बाल—बच्चों को किस पर छोड़ेय मगर जब मालिक ललकारते होंए तो फिर किसका डरघ् तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है।
उसने झपट कर खान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि खान चारों खाने चित्ता जमीन पर आ रहा और लगा पश्तो में गालियाँ देने। होरी उसकी छाती पर चढ़़ बैठा और जोर से दाढ़़ी पकड़ कर खींची। दाढ़़ी उसके हाथ में आ गई। खान ने तुरंत अपनी कुलाह उतार फेंकी और जोर मार कर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वाह!
लोगों ने चारों तरफ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगताए कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थीए न गर्वए चुपचाप खड़े थेए मानो कुछ हुआ ही नहीं।
मालती ने नकली रोष से कहा — आपने यह बहुरूपपन कहाँ सीखाघ् मेरा दिल अभी तक धड़—धड़ कर रहा है।
मेहता ने मुस्कराते हुए कहा — जरा इन भले आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा था। जो गुस्ताखी हुई होए उसे क्षमा कीजिएगा।
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भाग 7
यह अभिनय जब समाप्त हुआए तो उधर रंगशाला में धनुष—यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थीए मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गए और आदि से अंत तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मजा आ रहा था। बीच—बीच में तालियाँ बजाते थे और फिर कहोए फिर कहोश् का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। रायसाहब ने इस प्रहसन में एक मुकदमे बाज देहाती जमींदार का खाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन थाए मगर करुणा से भरा हुआ। नायक का बात—बात में कानून की धाराओं का उल्लेख करनाए पत्नी पर केवल इसलिए मुकदमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में जरा—सी देर कर दीए फिर वकीलों के नखरे और देहाती गवाहों की चालाकियाँ और झाँसेए पहले गवाही के लिए चट—पट तैयार हो जानाए मगर इजलास पर तलबी के समय खूब मनावन कराना और नाना प्रकार की गर्माइशें करके उल्लू बनानाए ये सभी —श्य देख कर लोग हँसी के मारे लोट जाते थे। सबसे सुंदर वह —श्य थाए जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार—बार भूलें करनाए वकील का बिगड़नाए फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों का समझाना और अंत में इजलास पर गवाहों का बदल जानाए ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक—एक मेडल देने की घोषणा की। रायसाहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। रायसाहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़ कर उनके गले लिपट गए और मुग्ध हो कर बोले — आपकी —ष्टि इतनी पैनी हैए इसका मुझे अनुमान न था।
दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग में भोजन बनेए खूब जल—क्रीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आवें। देहाती जीवन का आनंद उठाया जाए। जिन मेहमानों को विशेष काम थाए वह तो बिदा हो गएए केवल वे ही लोग बच रहेए जिनकी रायसाहब से घनिष्ठता थी। मिसेज खन्ना के सिर में दर्द थाए न जा सकींए और संपादक जी इस मंडली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेख—माला निकाल कर इनकी खबर लेने के विचार में मग्न थे। सब—के—सब छटे हुए गुंडे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूँछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा हैए इन्हें क्या खबर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा हैए इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग—विलास से काम है। यह मेहताए जो फिलासफर बना फिरता हैए उसे यही धुन है कि जीवन को संपूर्ण बनाओ। महीने में एक हजार मार लाते होए तुम्हें अख्तियार हैए जीवन को संपूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फिक्र दबाए डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे होए या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आएँ या अबकी घर का किराया किसके घर से आएगाए वह अपना जीवन कैसे संपूर्ण बनाए। छूटे सांड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते होए संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगीए जब क्रांति होगी और तुमसे कहा जायगा बचाए खेत में चल कर हल जोतो। तब देखेंए तुम्हारा जीवन कैसे संपूर्ण होता है। और वह जो है मालतीए जो बहत्तर घाटों का पानी पी कर भी मिस बनी फिरती है! शादी नहीं करेगीए इससे जीवन बंधन में पड़ जाता हैए और बंधन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बसए जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वंद्व विलास किए जाओ! सारे बंधन तोड़ दोए धर्म और समाज को गोली मारोए जीवन कर्तव्यों को पास न फटकने दोए बस तुम्हारा जीवन संपूर्ण हो गया। इससे ज्यादा आसान और क्या होगा! माँ—बाप से नहीं पटतीए उन्हें धता बताओए शादी मत करोए यह बंधन हैए बच्चे होंगेए यह मोहपाश हैए मगर टैक्स क्यों देते होघ् कानून भी तो बंधन हैए उसे क्यों नहीं तोड़तेघ् उससे क्यों कन्नी काटते होघ् जानते हो न कि कानून की जरा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जाएँगी। बसए वही बंधन तोड़ो जिसमें अपने भोग—लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बना कर पीटो और तीसमारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्योंए वह फुंकार भी मारेगा तो लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखोए तो दुम दबा कर भागो। यह तुम्हारा संपूर्ण जीवन है।
आठ बजे शिकार—पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला थाए बंदूक की आवाज से काँपते थेए लेकिन मिस मालती जा रही थींए वह कैसे रूक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाए। रायसाहब अपने इलाके में बहुत दिनों से नहीं गए थे। वहाँ का रंग—ढ़ंग देखना चाहते थे। कभी—कभी इलाके में आने—जाने से असामियों से एक संबंध भी तो हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकुन और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिर्जा खुर्शेद को जीवन के नए अनुभव प्राप्त करने का शौक थाए विशेषकर ऐसेए जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैसे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। रायसाहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्रीए रसोइयाए कहा — खिदमतगारए सब साथ चलेंए लेकिन मिस्टर मेहता ने इसका विरोध किया।
खन्ना ने कहा — आखिर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगेघ्
मेहता ने जवाब दिया — भोजन क्यों न करेंगेए लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर हम जिंदा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकाएगी और हम लोग खाएगें। देहातों में हाँड़ियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैंए और ईंधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।
मालती ने गिला किया — क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी कलाई इतने जोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।
श्काम तो हम लोग करेंगेए आप केवल बताती जाइएगा।श्
मिर्जा खुर्शेद बोले — अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगाए मैं सारा इंतजाम कर दूँगा। बात ही कौन—सी है। जंगल में हाँड़ी और बर्तन ढ़ूँढ़़ना हिमाकत है। हिरन का शिकार कीजिएए भूनिएए खाइए और वहीं दरख्त के साए में खर्राटे लीजिए।
यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थींए दूसरी खुद रायसाहब। कोई बीस—पच्चीस मील पर पहाड़ी प्रांत शुरू हो गया। दोनों तरफ ऊँची पर्वत—माला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़़ाई के बाद एकाएक ढ़ाल आ गया और मोटर वेग से नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नजर आयाए किसी रोगी की भाँति दुर्बलए निस्पंद। कगार पर एक घने वट वृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गईं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो—दो की टोली बने और शिकार खेल कर बारह बजे तक यहाँ आ जाए। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गईं। खन्ना मन में ऐंठ कर रह गए। जिस विचार से आए थेए उसमें जैसे पंचर हो गया। अगर जानतेए मालती दगा देगीए तो घर लौट जातेए लेकिन रायसाहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत—सी मुआमले की बातें करनी थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहे। उनकी टोली बनी—बनाई थी। तीनों टोलियाँ एक—एक तरफ चल दीं।
कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा — तुम तो चले ही जाते हो। जरा दम ले लेने दो।
मेहता मुस्कराए — अभी तो हम एक मील भी नहीं आए। अभी से थक गईंघ्
श्थकी नहींए लेकिन क्यों न जरा दम ले लो।श्
श्जब तक कोई शिकार हाथ न आ जायए हमें आराम करने का अधिकार नहीं।श्
श्मैं शिकार खेलने न आई थी।श्
मेहता ने अनजान बन कर कहा — अच्छाए यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आई थींघ्
श्अब तुमसे क्या बताऊँ।श्
हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नजर आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गए और निशाना बाँध कर गोली चलाई। निशाना खाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा — अबघ्
श्कुछ नहींए चलो फिर कोई शिकार मिलेगा।श्
दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने जरा रुक कर कहा — गरमी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओए इस वृक्ष के नीचे बैठ जायँ।
श्अभी नहीं। तुम बैठना चाहती होए तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता।श्
श्बड़े निर्दयी हो तुम। सच कहती हूँ।श्
श्जब तक कोई शिकार न मिल जायए मैं बैठ नहीं सकता।
श्तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओए रात तुमने मुझे इतना क्यों सतायाघ् मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद हैए तुमने मुझे क्या कहा था तुम हमारे साथ चलेगा दिलदारघ् मैं न जानती थीए तुम इतने शरीर हो। अच्छाए सच कहनाए तुम उस वक्त मुझे अपने साथ ले जातेघ्श्
मेहता ने कोई जवाब न दियाए मानो सुना ही नहीं।
दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूपए दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थक कर बैठ गई।
मेहता खड़े—खड़े बोले — अच्छी बात हैए तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा।
श्मुझे अकेले छोड़ कर चले जाओगेघ्श्
श्मैं जानता हूँए तुम अपने रक्षा कर सकती हो!श्
श्कैसे जानते होघ्श्
श्नए युग की देवियों की यही सिफत है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतींए उससे कंधा मिला कर चलना चाहती हैं।श्
मालती ने झेंपते हुए कहा — तुम कोरे फिलासफर हो मेहताए सच।
सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बंदूक चलाई। मोर उड़ गया।
मालती प्रसन्न हो कर बोली — बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।
मेहता ने बंदूक कंधों पर रख कर कहा — तुमने मुझे नहींए अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाताए तो मैं दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फौरन चलना पड़ेगा।
मालती उठ कर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली — फिलासफरों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा कियाए विवाह नहीं कियाए उस गरीब को मार ही डालते। मगर मैं यों न छोडूँगी। तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते।
मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़़े।
मालती सजल नेत्र हो कर बोली — मैं कहती हूँए मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी।
मेहता ने तेजी से कदम बढ़़ाए। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस कदम निकल गएए तो झुँझला कर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनंद न था।
समीप आ कर बोली— मैं तुम्हें इतना पशु न जानती थी।
श्मैं जो हिरन मारूँगाए उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा।श्
श्खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी।
श्कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।श्
एक चौड़ा नाला मुँह फैलाए बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों—सी लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं।
मालती ने प्रसन्न हो कर कहा — अब तो लौटना पड़ा।
श्क्यों उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।श्
श्धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी।श्
श्अच्छी बात है। तुम यहीं बैठोए मैं जाता हूँ।श्
श्हाँए आप जाइए। मुझे अपने जान से बैर नहीं है।श्
मेहता ने पानी में कदम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों—ज्यों आगे जाते थेए पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया।
मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली — पानी गहरा है। ठहर जाओए मैं भी आती हूँ।
श्नहीं—नहींए तुम फिसल जाओगी। धार तेज है।श्
श्कोई हरज नहींए मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़़नाए खबरदार।श्
मालती साड़ी ऊपर चढ़़ा कर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते—आते पानी उसकी कमर तक आ गया।
मेहता घबड़ाए। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले — तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।
मालती ने एक कदम और आगे बढ़़ कर कहा — होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ तो तुम्हारे पास ही मरूँगी।
मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज थी कि मालूम होता थाए कदम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया।
मालती ने नशीली आँखों में रोष भर कर कहा — मैंने तुम्हारे—जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिलकुल पत्थर हो। खैरए आज सता लोए जितना सताते बनेए मैं भी कभी समझूँगी।
मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बंदूक सँभालती हुई उनसे चिमट गई।
मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा — तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कंधों पर बिठाए लेता हूँ।
मालती ने भृकुटी टेढ़़ी करके कहा — तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी हैघ्
मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बंदूक कनपटी से कंधों पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठा कर कंधों पर बैठा लिया।
मालती अपने पुलक को छिपाती हुई बोली — अगर कोई देख लेघ्
श्भद्दा तो लगता है।श्
दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा — अच्छा बताओए मैं यहीं पानी में डूब जाऊँए तो तुम्हें रंज हो या न होघ् मैं तो समझती हूँए तुम्हें बिलकुल रंज न होगा।
मेहता ने आहत स्वर से कहा — तुम समझती होए मैं आदमी नहीं हूँघ्
श्मैं तो यही समझती हूँए क्यों छिपाऊँ।श्
श्सच कहती हो मालतीघ्श्
श्तुम क्या समझते होघ्श्
श्मैं! कभी बतलाऊँगा।श्
पानी मेहता की गर्दन तक आ गया। कहीं अगला कदम उठाते ही सिर तक न आ जाए। मालती का हृदय धक—धक करने लगा। बोली — मेहताए ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओए नहींए मैं पानी में कूद पडूँगी।
उस संकट में मालती को ईश्वर याद आयाए जिसका वह मजाक उड़ाया करती थी। जानती थीए ईश्वर कहीं बैठा नहीं हैए जो आ कर उन्हें उबार लेगाए लेकिन मन को जिस अवलंब और शक्ति की जरूरत थीए वह और कहाँ मिल सकती थीघ्
पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न हो कर कहा — अब तुम मुझे उतार दो।
श्नहीं—नहींए चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़़ा मिल जाए।श्
श्तुम समझते होगेए यह कितनी स्वार्थिन है।श्
श्मुझे इसकी मजदूरी दे देना।श्
मालती के मन में गुदगुदी हुई।
श्क्या मजदूरी लोगेघ्श्
श्यही कि जब तुम्हारे जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आएए तो मुझे बुला लेना।श्
किनारे आ गए। मालती ने रेत पर अपने साड़ी का पानी निचोड़ाए जूते का पानी निकालाए मुँह—हाथ धोयाए पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे।
उसने इस अनुभव का आनंद उठाते हुए कहा — यह दिन याद रहेगा।
मेहता ने पूछा — तुम बहुत डर रही थींघ्
श्पहले तो डरीए लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो।श्
मेहता ने गर्व से मालती को देखा — उनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।
श्मुझे यह सुन कर कितना आनंद आ रहा हैए तुम यह समझ सकोगी मालतीघ्श्
श्तुमने समझाया कबघ् उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते होए और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफत में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़ेए तो एक दिन न पटे।श्
मेहता मुस्कराए। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे।
श्तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मैं कहूँ कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँए तो तुम मुझसे विवाह करोगीघ्श्
श्ऐसे काठ—कठोर से कौन विवाह करेगा। रात—दिन जला कर मार डालोगे।श्
और मधुर नेत्रों से देखाए मानो कह रही हो — इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो।
मेहता ने जैसे सचेत हो कर कहा — तुम सच कहती हो मालती! मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं उसके अंतस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।
मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था।
उसने पूछा — अच्छा बताओए तुम कैसे प्रेम से संतुष्ट होगेघ्
श्बस यही कि जो मन में होए वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग—रूप और हाव—भाव और नाजो—अंदाज का मूल्य उतना ही हैए जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँए जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थो की मुझे जरूरत नहीं।श्
मालती ने होंठ सिकोड़ कर ऊपर को साँस खींचते हुए कहा — तुमसे कोई पेश न पाएगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओए मेरे विषय में तुम्हारा क्या खयाल हैघ्
मेहता ने नटखटपन से मुस्करा कर कहा — तुम सब कुछ कर सकती होए बुद्धिमती होए चतुर होए प्रतिभावान होए दयालु होए चंचल होए स्वाभिमानी होए त्याग कर सकती होए लेकिन प्रेम नहीं कर सकती।
मालती ने पैनी —ष्टि से ताक कर कहा — झूठे हो तुमए बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी—हृदय तक पहुँच जाते हो।
दोनों नाले के किनारे—किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थेए पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थीए न लौटने की। आज के सँभाषण में उसे एक ऐसा आनंद आ रहा थाए जो उसके लिए बिलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान मेंए एक चितवन मेंए एक रसीले वाक्य में उल्लू बना कर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोरए ठोसए पत्थर—सी भूमि मिल गई थीए जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोहे लेती थी।
धायँ की आवाज हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खा कर भी कुछ दूर उड़ीए फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी।
श्अबघ्श्
श्अभी जा कर लाता हूँ। जाती कहाँ है!श्
यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बंदूक किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगेए मगर आधा मील तक पूरा जोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी।
सहसा उन्होंने देखाए एक युवती किनारे की एक झोपड़ी से निकलीए चिड़िया को बहते देख कर साड़ी को जाँघों तक चढ़़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली — पानी से निकल आओ बाबूजीए तुम्हारी चिड़िया यह है।
मेहता युवती की चपलता और साहस देख कर मुग्ध हो गए। तुरंत किनारे की ओर हाथ चलाए और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए।
युवती का रंग था तो काला और वह भी गहराए कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़ए आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो—दो मोटी चूड़ियाँए सिर के बाल उलझे अलग—अलग। मुख—मंडल का कोई भाग ऐसा नहींए जिसे सुंदर या सुघड़ कहा जा सके। लेकिन उस स्वच्छए निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पल कर उसके अंग इतने सुडौलए सुगठित और स्वच्छंद हो गए थे कि यौवन का चित्र खीचने के लिए उससे सुंदर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।
मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा — तुम बड़े मौके से पहुँच गईंए नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता।
युवती ने प्रसन्नता से कहा — मैंने तुम्हें तैरते आते देखाए तो दौड़ी। सिकार खेलने आए होंगेघ्श्
श्हाँए आए तो थे शिकार ही खेलनेए मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।श्
श्तेंदुआ मारना चाहोए तो मैं उसका ठौर दिखा दूँ। रात को यहाँ रोज पानी पीने आता है। कभी—कभी दोपहर में भी आ जाता है।श्
फिर जरा सकुचा कर सिर झुकाए बोली — उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलोए मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप में कब तक खड़े रहोगेघ् कपड़े भी तो गीले हो गए हैं।
मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देख कर कहा — तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं।
उसने लापरवाही से कहा — ऊँह हमारा क्याए हम तो जंगल के हैं। दिन—दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैंए तुम थोड़े ही रह सकते हो।
लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गँवार।
श्तुम खाल ले कर क्या करोगीघ्श्
श्हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।श्
श्लेकिन दोपहरी यहाँ काटेंए तुम खिलाओगी क्याघ्श्
युवती ने लजाते हुए कहा — तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटीयाँ खाओए तो धरी हैं। चिड़िए का सालन पका दूँगी। तुम बताते जानाए जैसे बनाना हो। थोड़ा—सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगा कर भाग आईए तब से तेंदुआ उससे डरता है।
श्लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है।श्
श्तुम्हारी घरवाली होगीघ्श्
श्नहींए घरवाली तो अभी नहीं हैए जान—पहचान की है।श्
श्तो मैं दौड़ कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चल कर छाँह में बैठो।श्
श्नहीं—नहींए मैं बुला लाता हूँ।श्
तुम थक गए होगे। शहर के रहैयाए जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।श्
जब तक मेहता कुछ बोलेंए वह हवा हो गई। मेहता ऊपर चढ़़ कर पीपल की छाँह में बैठेए तो इस स्वच्छंद जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वत—माला दर्शन—तत्व की भाँति अगम्य और अनंत फैली हुईए मानो ज्ञान का विस्तार कर रही होए मानों आत्मा उस ज्ञान कोए उस प्रकाश कोए उस अगम्यता कोए उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा—सा मंदिर थाए जो उस अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचाए पर खोया हुआ—सा खड़ा थाए मानो वहाँ तक पर मार कर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता।
मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिए आ पहुँचीए एक वन—पुष्प की भाँति धूप में खिली हुईए दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप में मुरझाई और निर्जीव।
मालती ने बेदिली के साथ कहा — पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही हैए क्यों और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।
युवती दो बड़े—बड़े मटके उठा लाई और बोली — तुम जब तक यहीं बैठोए मैं अभी दौड़ कर पानी लाती हूँए फिर चूल्हा जला दूँगीए और मेरे हाथ का खाओए तो मैं एक छन में बाटीयाँ सेंक दूँगीए नहींए अपने आप सेंक लेना। हाँए गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दुकान भी नहीं है कि ला दूँ।
मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली — तुम यहाँ क्यों आ कर पड़ रहेघ्
मेहता ने चिढ़़ाते हुए कहा — एक दिन जरा जीवन का आनंद भी तो उठाओ। देखोए मक्के की रोटीयों में कितना स्वाद है।
मुझसे मक्के की रोटीयाँ खाई ही न जायँगीए और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हजम न होंगी। तुम्हारे साथ आ कर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते—भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ ला कर पटक दिया।श्
मेहता ने कपड़े उतार दिए थे और केवल एक नीला जांघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखाए तो उसके हाथ से मटके छीन लिए और कुएँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके ले कर चलते हुए उनकी माँसल और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग—भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहींए श्रद्धा के पात्र हो गए थे।
कुआँ बहुत गहरा थाए कोई साठ हाथए मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खींचते—खींचते शिथिल हो गए। युवती ने दौड़ कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली — तुमसे न खींचेगा। तुम जा कर खाट पर बैठोए मैं खींचे लेती हूँ।
मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मार कर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिएए आ कर झोपड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। युवती ने चटपट आग जलाईए लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटीयाँ बनाईं और चूल्हे में आग जला कर माँस चढ़़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़़ाई में दूध उबालने लगी।
और मालती भौंहें चढ़़ाएए खाट पर खिन्न—मन पड़ी इस तरह यह —श्य देख रही थीए मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो।
मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े हो करए युवती के गृह—कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले — मुझे भी तो कोई काम बताओए मैं क्या करूँघ्
युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा — तुम्हें कुछ नहीं करना हैए जा कर बाई के पास बैठोए बेचारी बहुत भूखी हैए दूध गरम हुआ जाता हैए उसे पिला देना।
उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह—रह कर उन्हें कनखियों से देख कर अपना काम करने लगती थी।
मालती ने पुकारा — तुम वहाँ क्यों खड़े होघ् मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता हैए जैसे गिर जायगा।
मेहता ने आ कर कहा — मालूम होता हैए धूप लग गई है।
श्मैं क्या जानती थीए तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो।श्
श्तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं हैघ्श्
श्क्या मैं किसी मरीज को देखने आ रही थीए जो दवा ले कर चलतीघ् मेरा एक दवाओं का बक्स हैए वह सेमरी में है! उफ! सिर फटा जाता है।श्
मेहता ने उसके सिर की ओर जमीन पर बैठ कर धीरे—धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बंद कर लीं।
युवती हाथों में आटा भरेए सिर के बाल बिखेरेए आँखें धुएँ से लाल और सजलए सारी देह पसीने में तरए जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा थाए आ कर खड़ी हो गई और मालती को आँखें बंद किए पड़ी देख कर बोली — बाई को क्या हो गया हैघ्
श्मेहता बोले— सिर में बड़ा दर्द है।
श्पूरे सिर में है कि आधे मेंघ्श्
श्आधे में बतलाती हैं।श्
श्दाईं ओर हैए कि बाईं ओरघ्श्
श्बाईं ओर।श्
श्मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिस कर लगाते ही अच्छा हो जायगा।श्
श्तुम इस धूप में कहाँ जाओगीघ्श्
युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जा कर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया—सी लग रही थी। मन में सोचा — इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़़ी चली जा रही है।
मालती ने आँखें खोल कर देखा — कहाँ गई वह कलूटी। गजब की काली हैए जैसे आबनूस का कुंदा हो। इसे भेज दोए रायसाहब से कह आएए कार यहाँ भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा।
श्कोई दवा लेने गई है। कहती हैए उससे आधा—सिर का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है।श्
इनकी दवाएँ इन्हीं को फायदा करती हैंए मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गए हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फरिश्ते।श्
मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था।
श्कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतींए तो तुम सचमुच देवी हो जातीं।श्
श्उसकी खूबियाँ उसे मुबारकए मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं।श्
श्तुम्हारी इच्छा होए तो मैं जा कर कार लाऊँए यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगीए मैं नहीं कह सकता।श्
श्उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देतेघ्श्
श्वह तो दवा लेने गई हैए फिर भोजन पकाएगी।श्
श्तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।श्
मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़़ कर कहा — इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा हैए वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखें फूट जायँ। मैं अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी—भर के मेहमान हैंए यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व—बंधुत्व और विश्व—प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँए केवल भाषण दे सकता हूँए वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार करती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो।
मालती ने उपहास भाव से कहा — बस—बसए वह देवी है। मैं मान गई। उसके वक्ष में उभार हैए नितंबों में भारीपन हैए देवी होने के लिए और क्या चाहिए।
मेहता तिलमिला उठे। तुरंत उठे और कपड़े पहनेए जो सूख गए थे। बंदूक उठाई और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी — तुम नहीं जा सकतेए मुझे अकेली छोड़ कर।
श्तब कौन जायगाघ्श्
श्वही तुम्हारी देवी।श्
मेहता हतबुद्धि—से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती हैए इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ।
वह दौड़ती—हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवतीए हाथ में एक झाड़ लिए हुए। समीप आ कर मेहता को कहीं जाने को तैयार देख कर बोली — मैं वह जड़ी खोज लाई। अभी घिस कर लगाती हूँए लेकिन तुम कहाँ जा रहे होघ् माँस तो पक गया होगाए मैं रोटीयाँ सेंक देती हूँ। दो—एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जायए तो चले जाना।
उसने निःसंकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता थाए इस गँवारिन के चरणों को चूम लें।
मालती ने कहा — अपने दवाई रहने दे। नदी के किनारेए बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहनाए कार यहाँ लाएँ। दौड़ी हुई जा।
युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लाईए उसका यह अनादर! इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँचीए तो न सहीए उसका मन रखने को ही जरा—सी लगवा लेतींए तो क्या होता।
उसने बूटी जमीन पर रख कर पूछा — तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाई जी। कहो तो रोटीयाँ सेंक कर रख दूँ। बाबूजी खाना खा लेंए तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटर वाले को बुला लाऊँगी।
वह झोपड़ी में गईए बुझी हुई आग फिर जलाई। देखा तो माँस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी—जल्दी रोटीयाँ सेंकीए दूध गर्म थाए उसे ठंडा किया और एक कटोरे में मालती के पास लाई। मालती ने कटोरे के भद्देपन पर मुँह बनायाय लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठ कर एक थाली में माँस और रोटीयाँ खाने लगे। युवती खड़ी पंख झल रही थी।
मालती ने युवती से कहा — उन्हें खाने दो। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जा कर गाड़ी ला।
युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आँखों से देखाए यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या हैघ् उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की—सी नम्रता और कृतज्ञता और याचना न दिखाई दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गँवारिन मनोभावों को पहचानने में चतुर थी। बोली — मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ बाई जी! तुम बड़ी होए अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ माँगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी।
मालती ने डाँटा — अच्छाए तूने गुस्ताखी पर कमर बाँधी! बताए तू किसके इलाके में रहती हैघ्
श्यह रायसाहब का इलाका है।श्
श्तो तुझे उन्हीं रायसाहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊँगी।श्
श्मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाई जी! कोई रानी—महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी पड़ेगी।श्
मेहता ने दो—चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले — वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूँ।
मालती भी खड़ी हो गई — उसे जाना पड़ेगा।
मेहता ने अंग्रेजी में कहा — उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़़ा नहीं रही हो मालती!
मालती ने फटकार बताई — ऐसी ही लौंडियाँ मदोर्ं को पसंद आती हैंए जिनमें और कोई गुण हो या न होए उनकी टहल दौड़—दौड़ कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा — वह देवियाँ हैंए शक्तियाँ हैंए विभूतियाँ हैं। मैं समझती थीए वह पुरुषत्व तुममें कम—से—कम नहीं हैए लेकिन अंदर सेए संस्कारों सेए तुम भी वही बर्बर हो।
मेहता मनोविज्ञान के पंडित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी मेंए जो इतनी मृदु—स्वभावए इतनी उदारए इतनी प्रसन्न—मुख थीए ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला!
बोले — कुछ भी कहोए मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार दे कर मैं अपने नजरों में नीच नहीं बन सकता।
मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे—से उठी और चलने को तैयार हो गई। उसने जल कर कहा — अच्छाए तो मैं ही जाती हूँए तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना।
मालती दो—तीन कदम चली गईए तो मेहता ने युवती से कहा — अब मुझे आज्ञा दो बहनए तुम्हारा यह नेहए तुम्हारी यह निरूस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी।
युवती ने दोनों हाथों सेए सजल नेत्र हो कर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अंदर चली गई।
दूसरी टोली रायसाहब और खन्ना की थी। रायसाहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाँटा थाए जो शायद आज ही के लिए बनवाया गया थाय क्योंकि खन्ना को असामियों के शिकार से इतनी फुर्सत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिंगनेए इकहरेए रूपवान आदमी थेए गेहुंआ रंगए बड़ी—बड़ी आँखेंए मुँह पर चेचक के दागए बातचीत में बड़े कुशल।
कुछ देर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का जिक्र छेड़ दियाए जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाए हुए थे।
बोले — यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है।
रायसाहब मेहता की इज्जत करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थेए पर खन्ना से लेन—देन का व्यवहार थाए कुछ स्वभाव से शांतिप्रिय भी थेए विरोध न कर सके। बोले — मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँघ् जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी कदम ही नहीं रखाए वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धांत अलापता हैए तो मुझे उस पर हँसी आती है। मजे से एक हजार माहवार फटकारते हैंए न जोरू न जाँताए न कोई चिंता न बाधाए वह दर्शन न बघारें तो कौन बघारे ! आप निर्द्वंद्व रह कर जीवन को संपूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाए।
श्मैंने सुनाए चरित्र का अच्छा नहीं है।श्
श्बेफिक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करोए तब पता चले।श्
श्मालती न जाने क्या देख कर उन पर लट्टू हुई जाती है।श्
श्मैं समझता हूँए वह केवल तुम्हें जला रही है।श्
मुझे वह क्या जलाएँगीए बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज्यादा नहीं समझता।श्
श्यह तो न कहो मिस्टर खन्नाए मिस मालती पर जान तो देते हो तुम।श्
श्यों तो मैं आपको भी यही इलजाम दे सकता हूँ।श्
श्मैं सचमुच खिलौना समझता हूँ। आप उन्हें प्रतिमा बनाए हुए हैं।श्
खन्ना ने जोर से कहकहा माराए हालाँकि हँसी की कोई बात न थी।
श्अगर एक लोटा जल चढ़़ा देने से वरदान मिल जायए तो क्या बुरा है।श्
अबकी रायसाहब ने जोर से कहकहा माराए जिसका कोई प्रयोजन न था।
श्तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगेए उतना ही वह आपसे दूर भागेंगी। जितना ही दूर भागिएगाए उतना ही आपकी ओर दौड़ेंगी।श्
श्तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था।श्
श्मेरी ओर! मैं उस रसिक—समाज से बिलकुल बाहर हूँ मिस्टर खन्नाए सच कहता हूँ। मुझमें जितनी बुद्धिए जितना बल हैए वह इस इलाके के प्रबंध में ही खर्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी हैंए सभी अपनी—अपनी धुन में मस्तए कोई उपासना मेंए कोई विषय—वासना में। कोऊ काहू में मगनए कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम हैए कर्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुकेदार भाई भोग—विलास करते हैंए यह मैं जानता हूँ। मगर वह लोग घर फूँक कर तमाशा देखते हैं। कर्ज का बोझ सिर पर लदा जा रहा हैए रोज डिगरियाँ हो रही हैं। जिससे लेते हैंए उसे देना नहीं जानतेए चारों तरफ बदनाम। मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना अच्छा समझता हूँ! मालूम नहींए किस संस्कार से मेरी आत्मा में जरा—सी जान बाकी रह गईए जो मुझे देश और समाज के बंधन में बाँधे हुए है। सत्याग्रह—आंदोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब—कबाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की जेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकुल नहीं। मुझे उसका गर्व है! मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझताए जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या यह अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूँ और अपने परिवारवालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊँए मगर क्या करूँघ् जिस व्यवस्था में पला और जियाए उससे घृणा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चर्खे में रात—दिन पड़ा हुआ हूँ कि किसी तरह इज्जत—आबरू बची रहेए और आत्मा की हत्या न होने पाए। ऐसा आदमी मिस मालती क्याए किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़ सकताए और पड़े तो उसका सर्वनाश ही समझिए। हाँए थोड़ा—सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है।श्
मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थेए संग्राम में आगे बढ़़ने वाले। दो बार जेल हो आए थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी—बड़ी तकलीफे झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहींए और श्एश् क्लास में रह कर भी श्सीश् क्लास की रोटीयाँ खाते रहेए हालाँकिए उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता थाए मगर रण—क्षेत्र में जाने वाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी—सी रसिकता लाजिमी थी। बोले — आप संन्यासी बन सकते हैंए मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूँए जो भोगी नहीं हैए वह संग्राम में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकताए उसके देश—प्रेम में मुझे विश्वास नहीं।
राय साहब मुस्कराए — आप मुझी पर आवाजें कसने लगे।
श्आवाज नहीं हैए तत्व की बात है।श्
श्शायद हो।श्
श्आप अपने दिल के अंदर पैठ कर देखिए तो पता चले।श्
श्मैंने तो पैठ कर देखा हैए और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँए वहाँ और चाहे जितनी बुराइयाँ होंए विषय की लालसा नहीं है।श्
श्तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिंतित हैंए इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेल कर रहूँगाए चाहे दुरूखांत ही क्यों न हो। वह मुझसे मजाक करती हैए दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं हैए लेकिन मैं हिम्मत हारने वाला मनुष्य नहीं हूँ। मैं अब तक उसका मिजाज नहीं समझ पाया। कहाँ निशाना ठीक बैठेगाए इसका निश्चय न कर सका। जिस दिन यह कुंजी मिल गईए बस फतह है।श्
श्लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाजी मार ले जायँ।श्
एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा थाए बड़ी सींगों वालाए बिलकुल काला। रायसाहब ने निशाना बाँधा। खन्ना ने रोका — क्यों हत्या करते हो यार बेचारा चर रहा हैए चरने दो। धूप तेज हो गई। आइए कहीं बैठ जायँ। आपसे कुछ बातें करनी हैं।
रायसाहब ने बंदूक चलाईए मगर हिरन भाग गया। बोले — एक शिकार मिला भी तो निशाना खाली गया।
श्एक हत्या से बचे।श्
श्हाँ कहिएए क्या कहने जा रहे थे।श्
श्आपके इलाके में ऊख होती हैघ्श्
श्बड़ी कसरत से।श्
श्तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइएघ् हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज्यादा नहींए एक हजार हिस्से खरीद लेंघ्श्
श्गजब कियाए मैं इतने रुपए कहाँ से लाऊँगाघ्श्
श्इतने नामी इलाकेदार और आपको रूपयों की कमी! कुल पचास हजार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी 25 फीसदी ही देना है।श्
श्नहीं भाई साहबए मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपए नहीं हैं।
श्रुपए जितने चाहेंए मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँए अभी आपने अपनी जिंदगी इंश्योर्ड न कराई होगी। मेरी कंपनी में एक अच्छी—सी पालिसी लीजिए। सौ—दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्टी रकम मिल जायगी — चालीस—पचास हजार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबंध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धांत पर काम करते हैं। दफ्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कंपनी चल कैसे रही हैं! और मेरी सलाह से थोड़ा—सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैंए सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूईए शक्करए गेहूँए रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा—न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैंए लेकिन वहीए जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवीए सुशिक्षित और दूरंदेश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम ही नहीं। बाजार का चढ़़ाव—उतार कोई आकस्मिक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है। एक बार उसे गौर से देख लीजिएए फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाए।श्
रायसाहब कंपनियों पर अविश्वास करते थेए दो—एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका थाए लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों के सामने बढ़़ते देखा था और उनकी कार्यक्षमता के कायल हो गए थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क थाए वह केवल न अपने अधयवसायए पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाहों की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ—प्रदर्शक हो जायँए तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जायघ् तरह—तरह के प्रश्न करते रहे।
सहसा एक देहाती एक बड़ी—सी टोकरी में कुछ जड़ेंए कुछ पत्तियाँए कुछ फूल लिएए जाता नजर आया।
खन्ना ने पूछा — अरेए क्या बेचता हैघ्
देहाती सकपका गया। डराए कहीं बेगार में न पकड़ जाए। बोला — कुछ तो नहीं मालिक यही घास—पात हैघ्श्
श्क्या करेगा इनकोघ्श्
श्बेचूँगा मालिक जड़ी—बूटी है।श्
श्कौन—कौन—सी जड़ी—बूटी हैए बताघ्श्
देहाती ने अपना औषधालय खोल कर दिखलाया। मामूली चीजें थींए जो जंगल के आदमी उखाड़ कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो—चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोयए कंघीए सहदेइयाए कुकरौंधोए धतूरे के बीजए मदार के फूलए करंजेए घुमची आदि। हर एक चीज दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उनके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप होए मंदाग्नि होए तिल्ली होए धड़कन होए शूल होए खाँसी होए एक खुराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैंए मालिक गठिया होए बाई हो...........
खन्ना ने दाम पूछा — उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रूपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। गरीब ने मुँह—माँगा दाम ही नहीं पायाए उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया।
रायसाहब ने पूछा — आप यह घास—पात ले कर क्या करेंगेघ्
खन्ना ने मुस्करा कर कहा — इनकी अशर्फियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम।
श्तो यारए वह मंत्र हमें भी सिखा दो।श्
श्हाँ—हाँए शौक से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू ला कर चढ़़ाइएए तब बतलाऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह—तरह के आदमियों से साबका पड़ता है। कुछ ऐसे लोग भी आते हैंए जो जड़ी—बूटीयों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फकीर की दी हुई बूटी हैए फिर आपकी खुशामद करेंगेए नाक रगड़ेंगेए और आप वह चीज उन्हें दे देंए तो हमेशा के लिए आपके ॠणी हो जाएँगे। एक रुपए में अगर दस—बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सकेए तो क्या बुरा हैघ् जरा से एहसान से बड़े—बड़े काम निकल जाते हैं।श्
रायसाहब ने कौतूहल से पूछा— मगर इन बूटीयों के गुण आपको याद कैसे रहेंगेघ्
खन्ना ने कहकहा मारा — आप भी रायसाहब! बड़े मजे की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो भी गुण चाहे बता दीजिएए वह आपकी लियाकत पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े—बड़े अफसरों को देखते हैंए और इन लंबी पूँछवाले विद्वानों कोए और इन रईसों कोए ये सब अंधविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति—शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूँए जो कुकरौंधो का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मजाक तो हमारे स्वामीजी खूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आएँगेए तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बगीचे में ठहरे हैंए रात—दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गई। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास हैए आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमंतर हो जाएँगी। आपको देखते ही आपका भूत—भविष्य सब कह सुनाएँगे। ऐसे प्रसन्न—मुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तोए यह है कि खुद इतने बड़े महात्मा हैंए मगर संन्यास और त्यागए मंदिर और मठए संप्रदाय और पंथीए इन सबको ढ़ोंग कहते हैंए पाखंड कहते हैं। रूढ़़ियों के बंधन को तोड़ो और मनुष्य बनोए देवता बनने का खयाल छोड़ो। देवता बन कर तुम मनुष्य न रहोगे।
रायसाहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास थाए जो प्रभुतावालों में आमतौर पर होता है। दुरूखी प्राणी को आत्मचेतन में जो शांति मिलती हैए उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जातेए मन में आताए संसार से मुँह मोड़ कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष की चिंता करें। संसार के बंधनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श थाए लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बंधनों को तोड़ने का और क्या उपाय हैघ्
श्लेकिन जब वह संन्यास को ढ़ोंग कहते हैंए तो खुद क्यों संन्यास लिया हैघ्श्
श्उन्होंने संन्यास कब लिया है साहबए वह तो कहते हैं — आदमी को अंत तक काम करते रहना चाहिए। विचार—स्वातंर्त्य उनके उपदेशों का तत्व है।श्
श्मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार—स्वातंत्रय का आशय क्या हैघ्श्
श्समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आयाए अबकी आइएए तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।श्
श्मिस मालती को उनसे मिलाया या नहींघ्श्
श्आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलाताघ्श्
वाक्य पूरा न हुआ था कि सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुन कर चौंक पड़े और प्राण—रक्षा की प्रेरणा से रायसाहब के पीछे आ गए। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मंद गति से सामने की ओर चला।
रायसाहब ने बंदूक उठाई और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा — यह क्या करते हैं आप — ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैंए। कहीं लौट पड़े तोघ्
श्लौट क्या पड़ेगाए वहीं ढ़ेर हो जायगा।श्
श्तो मुझे उस टीले पर चढ़़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूँ।श्
श्तब क्या शिकार खेलने चले थेघ्श्
श्शामत और क्या!श्
रायसाहब ने बंदूक नीचे कर ली।
श्बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।श्
श्मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।श्
श्एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।श्
श्आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा दीजिएए फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।श्
श्आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्नाए सच।श्
श्व्यर्थ में अपने जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है!श्
श्अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।श्
श्अकेलाघ्श्
श्रास्ता बिलकुल साफ है।श्
श्जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।श्
रायसाहब ने बहुत समझायाए मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आतीए तो वह चीख मार कर गिर पड़ते। बोटी—बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गए थे। रायसाहब को लाचार हो कर उनके साथ लौटना पड़ा।
जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आएए तो खन्ना के होश ठिकाने आए।
बोले — खतरे से नहीं डरताए लेकिन खतरे के मुँह में उँगली डालना हिमाकत है।
श्अजीए जाओ भी। जरा—सा तेंदुआ देख लियाए तो जान निकल गई।श्
श्मैं शिकार खेलना उस जमाने का संस्कार समझता हूँए जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़़ गई है।श्
श्मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूँगा।श्
श्मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।श्
श्अच्छाए तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश!श्
खन्ना ने गर्व से कहा — जी हाँए यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैंए लज्जा आपको आनी चाहिएए न कि मुझे। कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले— तो आप कब तक आएँगेघ् मैं चाहता हूँए आप पालिसी का फार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फार्म भी मौजूद हैं।
रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा — जरा सोच लेने दीजिए
श्इसमें सोचने की जरूरत नहीं।श्
तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा थाए न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता थाए उसमें जी—जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जातेए मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू—रियायत करना न जानते थे। बीच—बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन थाए कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंक कर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थेए लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखाई और यह हाथ धो कर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थेए न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे।
मिस्टर तंखा दाँव—पेंच के आदमी थेए सौदा पटाने मेंए मुआमला सुलझाने मेंए अड़ंगा लगाने मेंए बालू से तेल निकालने मेंए गला दबाने मेंए दुम झाड़ कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला देंए पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलानाए नई कंपनियाँ खोलनाए चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करनाए यही उनका व्यवसाय था। खास कर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़़े उम्मेदवार को खड़ा करतेए दिलोजान से उसका काम करते और दस—बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर थाए तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआए तो हिंदूसभा की ओर से काम करने लगेए मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईसए सभी हुक्कामए सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करेंए पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था।
मिर्जा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछ कर कहा — आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था।
वकील ने समर्थन किया — जी हाँए वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी।
थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी।
श्अबकी चुनाव में बड़े—बड़े गुल खिलेंगे! आपके लिए भी मुश्किल है।श्
मिर्जा विरक्त मन से बोले — अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा।
तंखा ने पूछा — क्योंघ्
श्मुफ्त की बकबक कौन करेघ् फायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा—सा काम और महीनों की बहस। हाँए जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहेए चाहे वह हिंदुस्तानी होए या अंग्रेजए इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता हैए उसे दस हजार आदमी मिल कर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देख कर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ। मेरा बस चलेए तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैंए वह व्यवहार में बड़े—बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य हैए और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता हैए जिसके पास रुपए हैं। रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े—बड़े पंडितए बड़े—बड़े मौलवीए बड़े—बड़े लिखने और बोलने वालेए जो अपने जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर देंए सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैंए मैंने तो इरादा कर लिया हैए अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा।श्
मिर्जा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करकेए कपड़े सी करए लड़कों को पढ़़ा कर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाहए और कहाँ आजकल के मंत्री और मिनिस्टरए पाँचए छरूए सातए आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमोक्रेसी!
हिरनों का झुंड चरता हुआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला—सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त धवनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े — बिलकुल बच्चों की तरह उछलतेए कूदतेए तालियाँ बजाते।
समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट—पट वृक्ष से उतर कर मिर्जा जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थीए उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आँखें पथरा गई थीं।
लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देख कर कहा — अच्छा पट्ठा थाए मन—भर से कम न होगा। हुकुम होए तो मैं उठा कर पहुँचा दूँघ्
मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुईए दीनए वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा—सा पत्ता भी खड़कताए तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल—बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा थाए मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लोए उसकी बोटीयाँ कर डालोए उसका कीमा बना डालोए उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण थाए जो आनंद थाए वह क्या इस निर्जीव शव में हैघ् कितनी सुंदर गठन थीए कितनी प्यारी आँखेंए कितनी मनोहर छवि! उसकी छलाँगें हृदय में आनंद की तंरगें पैदा कर देती थींए उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन—सा बिखेरती चलती थीए जैसे फूल सुगंध बिखेरता हैए लेकिन अब! उसे देख कर ग्लानि होती है।
लकड़हारे ने पूछा — कहाँ पहुँचाना होगा मालिकघ् मुझे भी दो—चार पैसे दे देना।
मिर्जा जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले— अच्छाए उठा ले। कहाँ चलेगाघ्
श्जहाँ हुकुम हो मालिक।श्
श्नहींए जहाँ तेरी इच्छा होए वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ!श्
लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया।
श्अरे नहीं मालिकए हुजूर ने सिकार किया हैए तो हम कैसे खा लें।श्
श्नहीं—नहींए मैं खुशी से कहता हूँए तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर हैघ्श्
श्कोई आधा कोस होगा मालिक!श्
तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगाए तुम्हारे बाल—बच्चे कैसे खुश होते हैं।श्
श्ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आएए इस कड़ी धूप में सिकार कियाए मैं कैसे उठा ले जाऊँघ्श्
श्उठा उठाए देर न कर। मुझे मालूम हो गयाए तू भला आदमी है।श्
लकड़हारे ने डरते—डरते और रह—रह कर मिर्जा जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँए हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा हो कर बोला — मैं समझ गया मालिकए हुजूर ने इसकी हलाली नहीं की।
मिर्जा जी ने हँस कर कहा — बस—बसए तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल।
मिर्जा जी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहरए निर्जलए मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया हैए उसे फीका न करना चाहते थे।
लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठातेघ् कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या हैए लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखाए तो आ कर मिर्जा से बोले — आप उधर कहाँ जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गएघ्
मिर्जा ने अपराधी भाव से मुस्करा कर कहा — मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब जरा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न।
तंखा ने मिर्जा को कौतूहल की —ष्टि से देखा और बोले — आप अपने होश में हैं या नहींघ्
श्कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।श्
श्शिकार इसे क्यों दे दियाघ्श्
श्इसलिए कि उसे पा कर इसे जितनी खुशी होगीए मुझे या आपको न होगी।श्
तंखा खिसिया कर बोले — जाइए! सोचा थाए खूब कबाब उड़ाएँगेए सो आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया। खैरए रायसाहब और मेहता कुछ न कुछ लाएँगे ही। कोई गम नहीं। मैं इस इलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सहीए आपकी जैसी मर्जीए लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैंए उनसे इसकी अच्छी कीमत वसूल की जाए। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ! ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट तो सोलहों आने उनकी तरफ हैं हीए हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पब्लिक पर आपका जो असर हैए इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस—बीस हजार रुपए महज यह जाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं३नहीं मुझे अर्ज कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफिक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ से एक मेनिफेस्टो निकाल दूँगा और उसी शाम को आप मुझसे दस हजार नकद वसूल कर लीजिए।
मिर्जा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देख कर कहा — मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ।
मिस्टर तंखा ने जरा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।
श्मुझ पर जितनी लानत चाहें भेजेंए मगर रुपए पर लानत भेज कर आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं।श्
श्मैं ऐसी रकम को हराम समझता हूँ।श्
श्आप शरीयत के इतने पाबंद तो नहीं हैं।श्
श्लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबंद होने की जरूरत नहीं है।श्
श्तो इस मुआमले में क्या आप फैसला तब्दील नहीं कर सकतेघ्श्
श्जी नहीं।श्
श्अच्छी बात हैए इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कंपनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज नहीं हैघ् आपको कंपनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पड़ेगा। आप सिर्फ अपना नाम दे दीजिएगा।श्
श्जी नहींए मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कंपनियों का डाइरेक्टरए कई का मैनेजिंग एजेंटए कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँए दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किए जा सकते हैंए मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना खुदगरज बना देती हैए कितना ऐश—पसंदए कितना मक्कारए कितना बेगैरत।श्
वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जा जी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास थाए वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी सेए जो लक्ष्मी को ठोकर मारता होए उनका कोई मेल न हो सकता था।
लकड़हारा हिरन को कंधों पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा ने भी कदम बढ़़ायाए पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गए।
उन्होंने पुकारा — जरा सुनिएए मिर्जा जीए आप तो भागे जा रहे हैं।
मिर्जा जी ने बिना रूके हुए जवाब दिया — वह गरीब बोझ लिए इतनी तेजी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन ले कर भी उसके बराबर नहीं चल सकतेघ्
लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतार कर रख दिया था और दम लेने लगा था।
मिर्जा साहब ने आ कर पूछा — थक गएए क्योंघ्
लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा — बहुत भारी है सरकार!
श्तो लाओए कुछ दूर मैं ले चलूँ।श्
लकड़हारा हँसा। मिर्जा डील—डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे—ताजे थेए फिर भी वह दुबला—पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिर्जा जी पर जैसे चाबुक पड़ गया।
श्तुम हँसे क्योंघ् क्या तुम समझते होए मैं इसे नहीं उठा सकताघ्श्
लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी — सरकार आप बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम—जैसे मजूरों का ही काम है।
श्मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ!श्
श्इससे क्या होता है मालिक!श्
मिर्जा जी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़़ कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चलेए मगर मुश्किल से पचास कदम चले होंगे कि गर्दन फटने लगीए पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मजबूत किया और एक बीस कदम और चले। कंबख्त कहाँ रह गयाघ् जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। जरा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँए तो मजा आए। मशक की तरह जो फूले चलते हैंए जरा इसका मजा भी देखेंए लेकिन बोझा उतारें कैसेघ् दोनों अपने दिल में कहेंगेए बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास कदम में चीं बोल गए।
लकड़हारे ने चुटकी ली — कहो मालिकए कैसे रंग—ढ़ंग हैंघ् बहुत हलका है नघ्
मिर्जा जी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले — उतनी दूर तो ले ही जाऊँगाए जितनी दूर तुम लाए हो।
श्कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक।श्
श्तुम क्या समझते होए मैं यों ही फूला हुआ हूँ।श्
श्नहीं मालिकए अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न होंए वह चट्टान हैए उस पर उतार दीजिए।श्
श्मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।श्
श्मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।श्
मिर्जा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतार कर रख दिया। वकील साहब आ पहुँचे।
मिर्जा ने दाना फेंका — अब आपको भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब!
वकील साहब की नजरों में अब मिर्जा जी का कोई महत्व न था। बोले — मुआफ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।
श्बहुत भारी नहीं है सच।श्
श्अजीए रहने भी दीजिए!श्
श्आप अगर इसे सौ कदम ले चलेंए तो मैं वादा करता हूँए आप मेरे सामने जो तजवीज रखेंगेए उसे मंजूर कर लूँगा।श्
श्मैं इन चकमों में नहीं आता।श्
श्मैं चकमा नहीं दे रहा हूँए वल्लाह! आप जिस हलके से कहेंगेए खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगेए बैठ जाऊँगा। जिस कंपनी का डाइरेक्टरए मेंबरए मुनीमए कनवेसरए जो कुछ कहिएगाए बन जाऊँगा। बसए सौ कदम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती हैए जो मौका पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।श्
तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्जा अपने कौल के पक्के हैं। इसमें कोई संदेह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आखिर मिर्जा इतनी दूर ले ही आए। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़तेए अगर इनकार करते हैंए तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगाए चार—पाँच पंसेरी होगा। दो—चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए होंए तो थोड़ी—सी बीमारी सुख की वस्तु है।
श्सौ कदम की रही।श्
श्हाँए सौ कदम। मैं गिनता चलूँगा।श्
श्देखिएए निकल न जाइएगा।श्
श्निकल जाने वाले पर लानत भेजता हूँ।
तंखा ने जूते का फीता फिर से बाँधाए कोट उतार कर लकड़हारे को दियाए पतलून ऊपर चढ़़ायाए रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखाए मानो ओखली में सिर देने जा रहे हैं। फिर हिरन को उठा कर गर्दन पर रखने की चेष्टा की। दो—तीन बार जोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गईए पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गईए हाँफ उठे और लाश को जमीन पर पटकने वाले थे कि मिर्जा ने उन्हें सहारा दे कर आगे बढ़़ाया।
तंखा ने एक डग इस तरह उठायाए जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिर्जा ने बढ़़ावा दिया — शाबाश! मेरे शेरए वाह—वाह!
तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआए गर्दन टूटी जाती है।
श्मार लिया मैदान! शबाश! जीते रहो पट्ठे।श्
तंखा दो डग और बढ़़े। आँखें निकली पड़ती थीं।
श्बसए एक बार और जोर मारो दोस्त! सौ कदम की शर्त गलत। पचास कदम की ही रही।श्
वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुएए उनका हृदय—रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभए किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अंत में वह शहतीर भी जवाब दे गई। लोभी की कमर भी टूट गई। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिए पथरीली जमीन पर गिर पड़े।
मिर्जा ने तुरंत उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।
श्जोर तो यार तुमने खूब माराए लेकिन तकदीर के खोटे हो।श्
तंखा ने हाँफते हुए लंबी साँस खींच कर कहा — आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर।
मिर्जा ने हँसते हुए कहा — लेकिन भाईजानए मैं भी तो इतनी दूर उठा कर लाया ही था।
वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की — मुझे तो आपकी फर्माइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना थाए वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।
श्आपने मुआहदा कब पूरा कियाघ्श्
श्कोशिश तो जान तोड़ कर की।श्
श्इसकी सनद नहीं।श्
लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख—कूँख कर दस कदम इसे उठा लियाए तो यह न समझो कि पास हो गए। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँए कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुकदमे चाहे जितने बनाओ।
एक नाला मिलाए जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा—सा पाँच—छरू घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़ कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने— किसने मारा बापूघ् कैसे माराए कहाँ माराए कैसे गोली लगीए कहाँ लगीए इसी को क्यों लगीए और हिरनों को क्यों न लगीघ् लकड़हारा हूँ—हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्टा करने लगे।
सबसे छोटे बालक ने कहा — यह हमारा है।
उसकी बड़ी बहन नेए जो चौदह—पंद्रह साल की थीए मेहमानों की ओर देख कर छोटे भाई को डाँटा — चुपए नहीं सिपाही पकड़ ले जायगा।
मिर्जा ने लड़के को छेड़ा — तुम्हारा नहींए हमारा है।
बालक ने हिरन पर बैठ कर अपना कब्जा सिद्ध कर दिया और बोला — बापू तो लाए हैं।
बहन ने सिखाया — कह दे भैयाए तुम्हारा है।
इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नए भले आदमियों को देख कर जरा—सा घूँघट निकाल लिया और शरमाई कि उसकी साड़ी कितनी मैलीए कितनी फटीए कितनी उटंगी है। वह इस वेश में मेहमानों के सामने कैसे जायघ् और गए बिना काम नहीं चलता। पानी—वानी देना है।
अभी दोपहर होने में कुछ कसर थीए लेकिन मिर्जा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवाईए शिकार पकाए समीप के बाजार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे—बड़े स्त्री—पुरुष सबों ने दावत उड़ाई। मदोर्ं ने खूब शराब पी और मस्त हो कर शाम तक गाते रहे और मिर्जा जी बालकों के साथ बालकए शराबियों के साथ शराबीए बूढ़़ों के साथ बूढ़़ेए जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी ही देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया थाए मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उन पर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता थाए कोई उनकी राइफल कंधों पर रख कर अकड़ता हुआ चलता थाए कोई उनकी कलाई की घड़ी खोल कर अपने कलाई पर बाँध लेता था। मिर्जा ने खुद खूब देशी शराब पी और झूम—झूम कर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे।
जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव—भर के नर—नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आए। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन गरीबों के जीवन में शायद पहली बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। जरूर यह कोई राजा हैए नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे।
कुछ दूर चलने के बाद मिर्जा ने पीछे फिर कर देखा और बोले — बेचारे कितने खुश थे। काशए मेरी जिंदगी में ऐसे मौके रोज आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था।
तंखा ने बेरूखी के साथ कहा — आपके लिए मुबारक होगाए मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन—भर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने के बाद अपना—सा मुँह लिए लौटे जाते हैं।
मिर्जा ने निर्दयता से कहा — मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है।
दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचेए तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाए हुए थे। मालती विमन—सी अलग बैठी थीए जो नई बात थी। रायसाहब और खन्ना दोनों भूखे रह गए थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दुरूखी थे कि मिर्जा ने उनके साथ बेवफाई की। अकेले मिर्जा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।
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भाग 8
प्रातरूकाल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर माँ को बचा रहा था। बार—बार होरी का हाथ पकड़ कर पीछे ढ़केल देताए पर ज्यों ही धनिया के मुँह से कोई गाली निकल जातीए होरी अपने हाथ छुड़ा कर उसे दो—चार घूँसे और लात जमा देता। उसका बूढ़़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो। सारे गाँव में हलचल पड़ गई। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुँचे। सोभा लाठी टेकता आ खड़ा हुआ। दातादीन ने डाँटा — यह क्या है होरीए तुम बावले हो गए हो क्याघ् कोई इस तरह घर की लच्छमी पर हाथ छोड़ता है। तुम्हें तो यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गईघ्
होरी ने पालागन करके कहा — महाराजए तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ा कर तब दम लूँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँए उतना ही यह सिर चढ़़ती जाती है।
धनिया सजल क्रोध में बोली — महाराजए तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और इसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवा कर तब पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिला कर मार डाला। अब तो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँए तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपने जिंदगी चौपट कर दीए उसका यह इनाम दे रहा है।
होरी ने दाँत पीस कर और आँखें निकाल कर कहा — फिर वही बात मुँह से निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर खिलातेघ्
श्तू कसम खा जा कि तूने हीरा को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं देखाघ्श्
श्हाँए मैंने नहीं देखाए कसम खाता हूँ।श्
श्बेटे के माथे पर हाथ रखके कसम खा!श्
होरी ने गोबर के माथे पर काँपता हुआ हाथ रख कर काँपते हुए स्वर में कहा — मैं बेटे की कसम खाता हूँ कि मैंने हीरा को नाँद के पास नहीं देखा।
धनिया ने जमीन पर थूक कर कहा — थुड़ी है तेरी झुठाई पर। तूने खुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पच्छ में झूठ बोलता है। थुड़ी है! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाँका हुआए तो घर में आग लगा दूँगी। सारी गृहस्थी में आग लगा दूँगी। भगवानए आदमी मुँह से बात कह कर इतनी बेसरमी से मुकर जाता है।
होरी पाँव पटक कर बोला — धनियाए गुस्सा मत दिलाए नहीं बुरा होगा।
श्मार तो रहा हैए और मार ले। जोए तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मार कर तब पानी पिएगा। पापी ने मारते—मारते मेरा भुरकस निकाल लियाए फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मार कर समझता हैए मैं बड़ा वीर हूँ। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता हैए पापी कहीं काए हत्यारा!श्
फिर वह बैन कह कर रोने लगी — इस घर में आ कर उसने क्या नहीं झेलाए किस—किस तरह पेट—तन नहीं काटाए किस तरह एक—एक लत्ते को तरसीए किस तरह एक—एक पैसा प्राणों की तरह संचाए किस तरह घर—भर को खिला कर आप पानी पी कर सो रही। और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार। भगवान बैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुंठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोए हुए हैंघ्
जनमत धीरे—धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को संदेह नहीं रहा कि हीरा ने ही गाय को जहर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी कसम खाई हैए इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी कसम और उसके फलस्वरूप आने वाली विपत्ति की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डाँट बताईए तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया। सत्य ने विजय पाई।
दातादीन ने सोभा से पूछा — तुम कुछ जानते हो सोभाए क्या बात हुईघ्
सोभा जमीन पर लेटा हुआ बोला — मैं तो महाराजए आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी—कभी जा कर कुछ दे आते हैंए उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गए थे। किसने क्या कियाए मैं कुछ नहीं जानता। हाँए कल साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी माँगने गया था। कहता थाए एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।
धनिया इतनी शह पा कर बोली — पंडित दादाए वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी माँग कर लाया और कोई जड़ी खोद कर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ थाए उसी दिन से वह खार खाए बैठा था।
दातादीन बोले — यह बात साबित हो गईए तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करेए धरम तो बिना दंड दिए न रहेगा। चली तो जा रुपियाए हीरा को बुला ला। कहनाए पंडित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की हैए तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़़ कर कसम खाए।
धनिया बोली — महाराजए उसके कसम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी कसम खा लीए जो बड़ा धर्मात्मा बनता हैए तो हीरा का क्या विश्वासघ्
अब गोबर बोला — खा ले झूठी कसम। बंस का अंत हो जाए। बूढ़़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे!
रूपा एक क्षण में आ कर बोली — काका घर में नहीं हैंए पंडित दादा! काकी कहती हैंए कहीं चले गए हैं।
दातादीन ने लंबी दाढ़़ी फटकार कर कहा — तूने पूछा नहींए कहाँ चले गए हैंघ् घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोनाए भीतर तो नहीं बैठाघ्
धनिया ने टोका — उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार हैए न जाने क्या कर बैठे।
दातादीन ने खुद लकड़ी सँभाली और खबर लाए कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती हैए लुटीया—डोर और डंडा सब ले कर गए हैं। पुनिया ने पूछा भीए कहाँ जाते होए पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया।
धनिया शीतल हृदय से बोली — मुँह में कालिख लगा कर कहीं भागा होगा।
सोभा बोला — भाग के कहाँ जायगाघ् गंगा नहाने न चला गया हो।
धनिया ने शंका की — गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाताए और आजकल कोई परब भी तो नहीं हैघ्
इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा —ढ़़ हो गई।
आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी—पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो—दो चार—चार आदमी जगह—जगह जमा हो कर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गयाए अब जेहल जाना पड़ेगाए हत्या अलग लगेगी। बसए कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थीए कुछ कहा न सुनाए न जाने कहाँ चल दिए।
जो कुछ कसर रह गई थीए वह संध्या—समय हल्के के थानेदार ने आ कर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट कीए जैसा उसका कर्तव्य थाए और थानेदार साहब भलाए अपने कर्तव्य से कब चूकने वाले थेघ् अब गाँव वालों को भी उनका सेवा—सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीनए झिंगुरीसिंहए नोखेरामए उनके चारों प्यादेए मँगरू साह और लाला पटेश्वरीए सभी आ पहुँचे और दारोगा जी के सामने हाथ बाँध कर खड़े हो गए। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोगा के सामने आया। ऐसा डर रहा थाए जैसे फाँसी हो जायगी। धनिया को पीटते समय उसका एक—एक अंग गड़क रहा था। दारोगा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोगा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुँच गए। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरेए पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ थे। यकीन हो गयाए आज अच्छे का मुँह देख कर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता थाए इसे केवल एक घुड़की काफी है।
दारोगा ने पूछा — तुझे किस पर शुबहा हैघ्
होरी ने जमीन छुई और हाथ बाँध कर बोला — मेरा सुबहा किसी पर नही है सरकारए गाय अपने मौत से मरी है। बुड्ढी हो गई थी।
धनिया भी आ कर पीछे खड़ी थी। तुरंत बोली — गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगेए वह मान लेंगे। यहाँ जाँच—तहकियात करने आए हैं।
दारोगा जी ने पूछा — यह कौन औरत हैघ्
कई आदमियों ने दारोगा जी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़़ा—ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से संतोष दिया कि पहले मैं बोला — होरी की घरवाली है सरकार!
तो इसे बुलाओए मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीराघ्श्
विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा — वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार।
श्मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।श्
तलाशी! होरी की साँस तले—ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते—जीए उसके देखते यह तलाशी न होने पाएगीए और धनिया से अब उसका कोई संबंध नहीं। जहाँ चाहे जाए। जब वह उसकी इज्जत बिगाड़ने पर आ गई हैए तो उसके घर में कैसे रह सकती हैघ् जब गली—गली ठोकर खाएगीए तब पता चलेगा।
गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए कानाफूसी शुरू की।
दातादीन ने गंजा सिर हिला कर कहा — यह सब कमाने के ढ़ंग हैं। पूछोए हीरा के घर में क्या रखा हैघ्
पटेश्वरीलाल बहुत लंबे थेय पर लंबे हो कर भी बेवकूफ न थे। अपना लंबाए काला मुँह और लंबा करके बोले — और यहाँ आया है किसलिएए और जब आया हैए बिना कुछ लिए दिए गया कब है।
झिंगुरीसिंह ने होरी को बुला कर कान में कहा — निकालोए जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा।
दारोगा जी ने अब जरा गरज कर कहा — मैं हीरा के घर की तलाशी लूँगा।
होरी के मुख का रंग उड़ गया थाए जैसे देह का सारा रक्त सूख गया हो। तलाशी उसके घर हुई तोए उसके भाई के घर हुई तोए एक ही बात है। हीरा अलग सहीए पर दुनिया तो जानती हैए वह उसका भाई हैए मगर इस वक्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पास रुपए होतेए तो इसी वक्त पचास रुपए ला कर दारोगा जी के चरणों पर रख देता और कहता — सरकारए मेरी इज्जत अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो जहर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो—चार रुपए पड़े होंए पर वह चुड़ैल भला क्यों देने लगीघ् मृत्यु—दंड पाए हुए आदमी की भाँति सिर झुकाएए अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा।
दातादीन ने होरी को सचेत किया — अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी! रुपए की कोई जुगत करो।
होरी दीन स्वर में बोला — अब मैं क्या अरज करूँ महाराज! अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी हैए और किस मुँह से माँगूँए लेकिन इस संकट से उबार लो। जीता रहाए तो कौड़ी—कौड़ी चुका दूँगा। मैं मर भी जाऊँ तो गोबर तो है ही।
नेताओं में सलाह होने लगी। दारोगा जी को क्या भेंट किया जायघ् दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया। झिंगुरीसिंह के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न होगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष में थे। और होरी के लिए सौ और पचास में कोई अंतर न था। इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल जाए। पूजा चाहे कितनी ही चढ़़ानी पड़े। मरे को मन—भर लकड़ी से जलाओए या दस मन सेए उसे क्या चिंता।
मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा गया। कोई डाका या कतल तो हुआ नहीं। केवल तलाशी हो रही है। इसके लिए बीस रुपए बहुत हैं।
नेताओं ने धिक्कारा — तो फिर दारोगा जी से बातचीत करना। हम लोग नगीच न जाएँगे। कौन घुड़कियाँ खाएघ्
होरी ने पटेश्वरी के पाँव पर अपना सिर रख दिया — भैयाए मेरा उद्धार करो। जब तक जिऊँगाए तुम्हारी ताबेदारी करूँगा।
दारोगा जी ने फिर अपने विशाल वक्ष और विशालतर उदर की पूरी शक्ति से कहा — कहाँ है हीरा का घरघ् मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।
पटेश्वरी ने आगे बढ़़ कर दारोगा जी के कान में कहा — तलाशी ले कर क्या करोगे हुजूरए उसका भाई आपकी ताबेदारी के लिए हाजिर है।
दोनों आदमी जरा अलग जा कर बातें करने लगे।
श्कैसा आदमी हैघ्श्
श्बहुत ही गरीब हुजूर! भोजन का ठिकाना भी नहीं।श्
श्सचघ्श्
श्हाँए हुजूरए ईमान से कहता हूँ।श्
श्अरेए तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं हैघ्श्
श्कहाँ की बात हुजूर! दस मिल जायँए तो हजार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।श्
दारोगा जी ने एक मिनट तक विचार करके कहा — तो फिर उसे सताने से क्या फायदाघ् मैं ऐसों को नहीं सताताए जो आप ही मर रहे हों।
पटेश्वरी ने देखाए निशाना और आगे जा पड़ा। बोले — नहीं हुजूरए ऐसा न कीजिएए नहीं फिर हम कहाँ जाएँगे। हमारे पास दूसरी और कौन—सी खेती हैघ्
श्तुम इलाके के पटवारी हो जीए कैसी बातें करते होघ्श्
श्जब ऐसा कोई अवसर आ जाता हैए तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैंए नहीं पटवारी को कौन पूछता हैघ्श्
श्अच्छा जाओए तीस रुपए दिलवा दोए बीस रुपए हमारे दस रुपए तुम्हारे।श्
श्चार मुखिया हैंए इसका खयाल कीजिए।श्
श्अच्छा आधे—आध पर रखोए जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।श्
पटेश्वरी ने झिंगुरी से कहा — झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलायाए अपने घर ले गएए तीस रुपए गिन कर उसके हवाले किए और एहसान से दबाते हुए बोले — आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुँह देख कर रुपए दे रहा हूँए तुम्हारी भलमंसी पर।
होरी ने रुपए लिए और अँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न—मुख आ कर दारोगा जी की ओर चला।
सहसा धनिया झपट कर आगे आई और अँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गई और सारे रुपए जमीन पर बिखर गए। नागिन की तरह फुंकार कर बोली — ये रुपए कहाँ लिए जा रहा हैए बताघ् भला चाहता हैए तो सब रुपए लौटा देए नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात—दिन मरें और दाने—दाने को तरसेंए लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली—भर रुपए ले कर चला है इज्जत बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत जिसके घर में चूहे लोटेंए वह भी इज्जत वाला है। दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले—ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गईए उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज्जत!
होरी खून का घूँट पी कर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गए। दारोगा का मुँह जरा—सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी।
होरी स्तंभित—सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दीए आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाए!
मगर दारोगा जी इतनी जल्दी हार मानने वाले न थे। खिसिया कर बोले — मुझे ऐसा मालूम होता हैए कि इस शैतान की खाला ने हीरा को फँसाने के लिए खुद गाय को जहर दे दिया।
धनिया हाथ मटका कर बोली — हाँए दे दिया। अपनी गाय थीए मार डालीए फिर किसी दूसरे का जानवर तो नहीं माराघ् तुम्हारे तहकियात में यही निकलता हैए तो यही लिखो। पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियाँ। देख लिया तुम्हारा न्याय और तुम्हारे अक्कल की दौड़। गरीबों का गला काटना दूसरी बात है। दूध का दूध और पानी का पानी करना दूसरी बात।
होरी आँखों से अंगारे बरसाता धनिया की ओर लपकाए पर गोबर सामने आ कर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला — अच्छा दादाए अब बहुत हुआ। पीछे हट जाओए नहीं मैं कहे देता हूँए मेरा मुँह न देखोगे। तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊँगा। ऐसा कपूत नहीं हूँ। यहीं गले में फाँसी लगा लूँगा।
होरी पीछे हट गया और धनिया शेर हो कर बोली — तू हट जा गोबरए देखूँ तो क्या करता है मेरा। दारोगा जी बैठे हैं। इसकी हिम्मत देखूँ। घर में तलासी होने से इसकी इज्जत जाती है। अपने मेहरिया को सारे गाँव के सामने लतियाने से इसकी इज्जत नहीं जाती! यही तो वीरों का धरम है। बड़ा वीर हैए तो किसी मरद से लड़। जिसकी बाँह पकड़ कर लायाए उसे मार कर बहादुर कहलाएगा। तू समझता होगाए मैं इसे रोटी—कपड़ा देता हूँ। आज से अपना घर सँभाल। देख तो इसी गाँव में तेरी छाती पर मूँग दल कर रहती हूँ कि नहींए और इससे अच्छा खाऊँ—पहनूँगी। इच्छा होए देख ले।
होरी परास्त हो गया। उसे ज्ञात हुआए स्त्री के सामने पुरुष कितना निर्बलए कितना निरुपाय है।
नेताओं ने रुपए चुन कर उठा लिए थे और दारोगा जी को वहाँ से चलने का इशारा कर रहे थे। धनिया ने एक ठोकर और जमाई — जिसके रुपए होंए ले जा कर उसे दे दो। हमें किसी से उधार नहीं लेना है। और जो देना हैए तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न दूँगीए चाहे मुझे हाकिम के इजलास तक ही चढ़़ना पड़े। हम बाकी चुकाने को पच्चीस रुपए माँगते थेए किसी ने न दिया। आज अंजुली—भर रुपए ठनाठन निकाल के दे दिए। मैं सब जानती हूँ। यहाँ तो बाँट—बखरा होने वाला थाए सभी के मुँह मीठे होते। ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैंए गरीबों का खून चूसने वाले। सूद—ब्याजए डेढ़़ी—सवाईए नजर—नजरानाए घूस—घास जैसे भीए गरीबों को लूटो। उस पर सुराज चाहिए। जेहल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम सेए न्याय से।
नेताओं के मुख में कालिख—सी लगी हुई थी। दारोगा जी के मुँह पर झाड़ू—सी फिरी हुई थी। इज्जत बचाने के लिए हीरा के घर की ओर चले।
रास्ते में दारोगा ने स्वीकार किया — औरत है बड़ी दिलेर!
पटेश्वरी बोले — दिलेर है हुजूरए कर्कशा है। ऐसी औरत को तो गोली मार दे।
श्तुम लोगों का काफिया तंग कर दिया उसने। चार—चार तो मिलते ही।श्
श्हुजूर के भी तो पंद्रह रुपए गए।श्
श्मेरे कहाँ जा सकते हैंघ् वह न देगाए गाँव के मुखिया देंगे और पंद्रह रुपए की जगह पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इंतजाम कीजिए।श्
पटेश्वरीलाल ने हँस कर कहा — हुजूर बड़े दिल्लगीबाज हैं।
दातादीन बोले — बड़े आदमियों के यही लक्षण हैं। ऐसे भाग्यवानों के दर्शन कहाँ होते हैंघ्
दारोगा जी ने कठोर स्वर में कहा — यह खुशामद फिर कीजिएगा। इस वक्त तो मुझे पचास रुपए दिलवाइएए नकदए और यह समझ लो कि आनाकानी कीए तो तुम चारों के घर की तलाशी लूँगा। बहुत मुमकिन है कि तुमने हीरा और होरी को फँसा कर उनसे सौ—पचास ऐंठने के लिए पाखंड रचा हो।
नेतागण अभी तक यही समझ रहे हैंए दारोगा जी विनोद कर रहे हैं।
झिंगुरीसिंह ने आँखें मार कर कहा — निकालो पचास रुपए पटवारी साहब!
नोखेराम ने उनका समर्थन किया — पटवारी साहब का इलाका है। उन्हें जरूर आपकी खातिर करनी चाहिए।
पंडित दातादीन की चौपाल आ गई। दारोगा जी एक चारपाई पर बैठ गए और बोले — तुम लोगों ने क्या निश्चय कियाघ् रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते होघ्
दातादीन ने आपत्ति की — मगर हुजूर........
श्मैं अगर—मगर कुछ नहीं सुनना चाहता।श्
झिंगुरीसिंह ने साहस किया — सरकारए यह तो सरासर...
श्मैं पंद्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपए न आए तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गंडासिंह को जानते होघ् उसका मारा पानी भी नहीं माँगता।श्
पटेश्वरीलाल ने तेज स्वर से कहा — आपको अख्तियार हैए तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी हैए काम कौन करेए पकड़ा कौन जाए।
श्मैंने पच्चीस साल थानेदारी की हैए जानते होघ्श्
श्लेकिन ऐसा अंधेर तो कभी नहीं हुआ।श्
श्तुमने अभी अंधेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूँघ् एक—एक को पाँच—पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बाएँ हाथ का खेल है। एक डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना!श्
चारों सज्जन चौपाल के अंदर जा कर विचार करने लगे।
फिर क्या हुआए किसी को मालूम नहीं। हाँए दारोगा जी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे और चारों सज्जनों के मुँह पर फटकार बरस रही थी।
दारोगा जी घोड़े पर सवार हो कर चलेए तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटेए इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों।
सहसा दातादीन बोले — मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ।
नोखेराम ने समर्थन किया — ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी — हराम की कमाई हराम में जायगी।
झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में संदेह हो गया था। भगवान न जाने कहाँ है कि यह अंधेर देख कर भी पापियों को दंड नहीं देते।
इस वक्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक थी।
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भाग 9
हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़—धूप हो सकीए कीय फिर हार कर बैठ रहा। खेती—बारी की भी फिक्र करना थी। अकेला आदमी क्या—क्या करताघ् और अब अपनी खेती से ज्यादा फिक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली हो कर और भी प्रचंड हो गई थी। होरी को अब उसकी खुशामद करते बीतती थी। हीरा थाए तो वह पुनिया को दबाए रहता था। उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुस न रह गया था। होरी की पट्टीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करताघ् और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे खूब दंड देती थी। खैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बकाया लगान वसूल करने की कोई सख्ती न कीए केवल थोड़ी—सी पूजा ले कर राजी हो गए। नहींए होरी अपने बकाया के साथ उसकी बकाया चुकाने के लिए भी कर्ज लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सकाए लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होतीघ् होरी ने पहर रात—रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी ही तो उसका रक्षक है! अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआए तो दुनिया उसी को तो हँसेगी। नतीजा यह हुआ कि होरी की खरीफ की फसल में बहुत थोड़ा अनाज मिलाए और पुनिया के बखार में धान रखने की जगह न रही।
होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की बोलचाल बंद थी। माँ—बेटे ने मिल कर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेसी बना हुआ था। दो नावों पर सवार होने वालों की जो दुर्गति होती हैए वही उसकी हो रही थी। गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहींए पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाकों में इस कांड की खूब चर्चा रही। यहाँ तक कि वह एक अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था —श्धनिया नाम है उसका जी। भवानी का इष्ट है उसे। दारोगा जी ने ज्यों ही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का सुमिरन किया। भवानी उसके सिर आ गई। फिर तो उसमें इतनी शक्ति आ गई कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोगा की मूँछें पकड़ कर उखाड़ लींए फिर उसकी छाती पर चढ़़ बैठी। दारोगा ने जब बहुत मानता कीए तब जा कर उसे छोड़ा।श् कुछ दिन तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गई थीए लेकिन गाँव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़़ गया था। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर वह मदोर्ं के भी कान काट सकती है।
मगर धीरे—धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती में लगे देख कर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गई थीए बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध—भावना की तुष्टि के लिए काफी था।
इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फस्ली बुखार फैला था ही। होरी उसके चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आयाए तो उसने सारी बकाया चुका ली। एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला हीए पर धनिया पर भी विजय पा गई। पति जब मर रहा हैए तो उससे कैसा बैरघ् ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहताए वह तो अपना पति है। लाख बुरा होए पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैंए सुख किया है तो उसी के साथए दुरूख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है या बुराए अपना है। दाढ़़ीजार ने मुझे सबके सामने माराए सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लियाए लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाए खा कर उठ जाता हैए डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूं।
होरी जब अच्छा हुआए तो पति—पत्नी में मेल हो गया था।
एक दिन धनिया ने कहा — तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गयाघ् मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही गुस्सा आएए मगर हाथ न उठाऊँगी।
होरी लजाता हुआ बोला — अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मुझे कितना दुरूख हुआ हैए वह मैं ही जानता हूँ।
और जो मैं भी क्रोध में डूब मरी होती!श्
तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहताघ् मेरी लहास भी तेरे साथ चिता पर जाती।श्
श्अच्छा चुप रहोए बेबात की बात मत करो।श्
श्गाय गई सो गईए मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गई। पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है।श्
श्इसीलिए तो कहते हैंए भगवान घर का बड़ा न बनाए। छोटों को कोई नहीं हँसता। नेकी—बदी सब बड़ों के सिर जाती है।श्
माघ के दिन थे। महावट लगी हुई थी। घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों की रातए दूसरे माघ की वर्षा। मौत का सा—सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तक न सूझता था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपने मँड़ैया में लेटा हुआ था। चाहता थाए शीत को भूल जाय और सो रहेए लेकिन तार—तार कंबल और गटी हुई मिर्जई और शीत के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा लाया थाए पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डाल कर और हाथों को जाँघों के बीच में दबा कर और कंबल में मुँह छिपा कर अपने ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था। पाँच साल हुएए यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा दी थीए वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिए थेए जिसके पीछे कितनी साँसत हुईए कितनी गालियाँ खानी पड़ीं। और यह कंबल उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता थाए जवानी में गोबर को ले कर इसी कंबल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़़ापे में आज वही बूढ़़ा कंबल उसका साथी हैए पर अब वह भोजन को चबाने वाला दाँत नहींए दुखने वाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को दे कर कभी कुछ बचा हो। और बैठे—बैठाए यह एक नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हँसेए करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता हैए उसकी सारी उपज घर में भर लेता है। एहसान तो क्या होगाए उलटा कलंक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करोए अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं हैं। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे सँभालनी ही पड़ेगीए चाहे हँस कर सँभाले या रो कर।
धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पच्चीस साल गुजर गएए उसे मारना और सारे गाँव के सामनेए मेरी नीचता थीए लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतरा कर निकल जाती हैए जैसे कभी की जान—पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती हैए तो सोना या रूपा से कहलाती है। देखता हूँए उसकी साड़ी फट गई हैए मगर कल मुझसे कहा भीए तो सोना की साड़ी के लिएए अपने साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो—एक महीने थेगलियाँ लगा कर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पैबंदों के बिलकुल कथरी हो गई है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूँघ् अगर मैं ही उसके मन की दो—चार बातें करता रहताए तो कौन छोटा हो जाताघ् यही तो होताए वह थोड़ा—सा अदरावन करातीए दो—चार लगने वाली बातें कहतीए तो क्या मुझे चोट लग जातीए लेकिन मैं बुड्ढा हो कर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहोए इस बीमारी ने आ कर उसे नर्म कर दियाए नहीं जाने कब तक मुँह फुलाए रहती।
और आज उन दोनों में जो बातें हुई थींए वह मानो भूखे का भोजन थीं। वह दिल से बोली थी और होरी गदगद हो गया था। उसके जी में आयाए उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे — मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाए लेता हूँए जितना चाहे मार लेए जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले।
सहसा उसे मँड़ैया के सामने चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। उसने कान लगा कर सुना। हाँए कोई है। पटवारी की लड़की होगीए चाहे पंडित की घरवाली हो। मटर उखाड़ने आई होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गाँव से अच्छा पहनते हैं। सारे गाँव से अच्छा खाते हैंए घर में हजारों रुपए गड़े हुए हैंए लेन—देन करते हैंए ड्योढ़़ी—सवाई चलाते हैंए घूस लेते हैंए दस्तूरी लेते हैंए एक—न—एक मामला खड़ा करके हमा—सुमा को पीसते ही रहते हैंए फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगाए वैसी ही संतान भी होगी। और आप नहीं आतेए औरतों को भेजते हैं। अभी उठ कर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाय! नीच कहने को नीच हैंए जो ऊँचे हैंए उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनताए आँखें देख कर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाईए जितना तेरा जी चाहे। समझ लेए मैं नहीं हूँ। बड़े आदमी अपने लाज न रखेंए छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है।
मगर नहींए यह तो धनिया है। पुकार रही है।
धनिया ने पुकारा — सो गए कि जागते होघ्
होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया। आज मालूम होता हैए देवी प्रसन्न हो गईए उसे वरदान देने आई हैंए इसके साथ ही इस बादल—बूँदी और जाड़े—पाले में इतनी रात गए उसका आना शंकाप्रद भी था। जरूर कोई—न—कोई बात हुई है।
बोला — ठंड के मारे नींद भी आती है — तू इस जाड़े—पाले में कैसे आईघ् सब कुसल तो हैघ्
श्हाँए सब कुसल है।श्
श्गोबर को भेज कर मुझे क्यों नहीं बुलवा लियाघ्श्
धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मँड़ैया में आ कर पुआल पर बैठती हुई बोली — गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दीए उसकी करनी क्या पूछते हो! जिस बात को डरती थीए वह हो कर रही।
श्क्या हुआघ् किसी से मार—पीट कर बैठाघ्श्
श्अब मैं क्या जानूँए क्या कर बैठाए चल कर पूछो उसी राँड़ सेघ्श्
श्किस राँड़ सेघ् क्या कहती है तू — बौरा तो नहीं गईघ्श्
श्हाँए बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगनी हो जाय!श्
होरी के मन में प्रकाश की एक लंबी रेखा ने प्रवेश किया।
श्साफ—साफ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही हैघ्श्
श्उसी झुनिया कोए और किसको!श्
श्तो झुनिया क्या यहाँ आई हैघ्श्
श्और कहाँ जातीए पूछता कौनघ्श्
श्गोबर क्या घर में नहीं हैघ्श्
श्गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है।श्
होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार—बार अहिराने जाते देख कर वह खटका था जरूरए मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही हैए इसमें कोई नई बात नहीं। मगर जिस रूई के गोले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देख कर केवल मुस्करा दिया थाए वह सारे आकाश में छा कर उसके मार्ग को इतना अंधकारमय बना देगाए यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लंपट! वह सरल गँवारए जिसे वह अभी बच्चा समझता था! लेकिन उसे भोज की चिंता न थीए पंचायत का भय न थाए झुनिया घर में कैसे रहेगीए इसकी चिंता भी उसे न थी। उसे चिंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील हैए अनाड़ी हैए आत्माभिमानी हैए कहीं कोई नादानी न कर बैठे।
घबड़ा कर बोला — झुनिया ने कुछ कहाघ् नहींए गोबर कहाँ गयाघ् उससे कह कर ही गया होगाघ्
धनिया झुँझला कर बोली — तुम्हारी अक्कल तो घास खा गई है। उसकी चहेती तो यहाँ बैठी हैए भाग कर जायगा कहाँघ् यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुँही झुनिया की चिंता है कि इसे क्या करूँघ् अपने घर में मैं तो छन—भर भी न रहने दूँगी। जिस दिन गाय लाने गया हैए उसी दिन दोनों में ताक—झाँक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खुलती। मगर जब पेट रह गयाए तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगीए कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ ले के कहाँ जायए कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गई कि मुझे यहाँ से ले चलोए नहीं मैं परान दे दूँगीए तो बोला — तू चल कर मेरे घर में रहए कोई कुछ न बोलेगाए मैं अम्माँ को मना लूँगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे—आगे आता रहाए फिर न जाने किधर सरक गया। यह खड़ी—खड़ी उसे पुकारती रही। जब रात भीग गई और वह न लौटाए भागी यहाँ चली आई। मैंने तो कह दियाए जैसा किया हैए उसका फल भोग। चुड़ैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब से बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती हैए अपने घर कौन मुँह ले कर जाऊँ। भगवान ऐसी संतान से तो बाँझ ही रखें तो अच्छा। सबेरा होते—होते सारे गाँव में काँव—काँव मच जायगी। ऐसा जी होता हैए माहुर खा लूँ। मैं तुमसे कहे देती हूँए मैं अपने घर में न रखूँगी। गोबर को रखना होए अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोलेए तो फिर या तो तुम्हीं रहोगेए या मैं ही रहूँगी।
होरी बोला — तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।
श्सब कुछ कह के हार गई। टलती ही नहीं। धरना दिए बैठी है।श्
श्अच्छा चलए देखूँ कैसे नहीं उठतीए घसीट कर बाहर निकाल दूँगा।श्
श्दाढ़़ीजार भोला सब कुछ देख रहा थाए पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं।श्
श्वह क्या जानता थाए इनके बीच क्या खिचड़ी पक रही है।श्
श्जानता क्यों नहीं थाघ् गोबर दिन—रात घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गईं थीं! सोचना चाहिए था नए कि यहाँ क्यों दौड़—दौड़ आता है।श्
श्चलए मैं झुनिया से पूछता हूँ न!श्
दोनों मँड़ैया से निकल कर गाँव की ओर चले। होरी ने कहा — पाँच घड़ी के ऊपर रात गई होगी।
धनिया बोली — हाँए और क्याए मगर कैसा सोता पड़ गया है! कोई चोर आएए तो सारे गाँव को मूस ले जाए।
श्चोर ऐसे गाँव में नहीं आते। धनियों के घर जाते हैं।श्
धनिया ने ठिठक कर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली — देखोए हल्ला न मचानाए नहीं सारा गाँव जाग उठेगा और बात फैल जायगी।
होरी ने कठोर स्वर में कहा — मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़ कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही हैए फिर आज ही क्यों न खुल जायघ् वह मेरे घर आई क्योंघ् जाय जहाँ गोबर है। उसके साथ कुकरम कियाए तो क्या हमसे पूछ कर किया थाघ्
धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे—से बोली — तुम उसका हाथ पकड़ोगे तो वह चिल्लाएगी।
श्तो चिल्लाया करे।श्
श्मुदा इतनी रात गएए अँधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँए यह तो सोचो।श्
श्जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा हैघ्श्
श्हाँए लेकिन इतनी रात गएए घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी हैए कहीं डर—डरा जायए तो और अगत हो। ऐसी दसा में कुछ करते—धरते भी तो नहीं बनता!श्
श्हमें क्या करना हैए मरे या जिए। जहाँ चाहे जाए। क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊँघ् मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा।
धनिया ने गंभीर चिंता से कहा — कालिख जो लगनी थीए वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते—जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।
श्गोबर ने नहींए डुबाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।श्
श्किसी ने डुबाईए अब तो डूब गई।श्
दोनों द्वार के सामने पहुँच गए। सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डाल कर कहा — देखोए तुम्हें मेरी सौंहए उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होतीए तो यह दिन ही क्यों आताघ्
होरी की आँखें आर्द्र हो गईं। धनिया का यह मातृ—स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिंता—जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत—यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत—यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नजर आईए जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य थाए जो सारे कलंकए सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परंपराओं को अपने अंदर समेटे लेता था।
दोनों ने द्वार पर आ कर किवाड़ों के दराज से अंदर झाँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मद्धम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखेए द्वार की ओर मुँह किएए अंधकार में उस आनंद को खोज रही थीए जो एक क्षण पहले अपने मोहिनी छवि दिखा कर विलीन हो गया था। वह आगत की मारीए व्यंग—बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थीए और उसे एक भवन मिल गया थाए जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थीए पर आज वह भवन अपना सारा सुख—विलास लिए अलादीन के राजमहल की भाँति गायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था।
एकाएक द्वार खुलते और होरी को आते देख कर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली — दादाए अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं हैए चाहे मारो चाहे काटोए लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत।
होरी ने झुक कर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार—भरे स्वर में कहा — डर मत बेटीए डर मत। तेरा घर हैए तेरा द्वार हैए तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी हैए वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते हैंए किसी बात की चिंता मत कर। हमारे रहतेए कोई तुझे तिरछी आँखों से न देख सकेगा। भोज—भात जो लगेगाए वह हम सब दे लेंगेए तू खातिर जमा रख।
झुनियाए सांत्वना पा कर और भी होरी के पैरों से चिमट गई और बोली — दादाए अब तुम्हीं मेरे बाप होए और अम्माँए तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दोए नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही खा जाएँगे।
धनिया अपने करुणा के आवेश को अब न रोक सकी। बोली — तू चल घर में बैठए मैं देख लूँगी काका और भैया को। संसार में उन्हीं का राज नहीं है। बहुत करेंगेए अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतार कर।
अभी जरा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुँहीए न जाने क्या—क्या कह डाला था। झाड़ू मार कर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेहए क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुनेए तो होरी के पाँव छोड़ कर धनिया के पाँव से लिपट गई और वही साध्वीए जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भर कर देखा भी न थाए इस पापिष्ठा को गले लगाएए उसके आँसू पोंछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को कोमल शब्दों से शांत कर रही थीए जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाए बैठी हो।
होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला—पिला दे और झुनिया से पूछा — क्यों बेटीए तुझे कुछ मालूम हैए गोबर किधर गया।
झुनिया ने सिसकते हुए कहा — मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर...यह कहते—कहते उसकी आवाज आँसुओं में डूब गई।
होरी अपने व्याकुलता न छिपा सका।
श्जब तूने आज उसे देखाए तो कुछ दुरूखी थाघ्श्
श्बातें तो हँस—हँस कर रहे थे। मन का हाल भगवान जाने।श्
श्तेरा मन क्या कहता हैए है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गयाघ्श्
श्मुझे तो शंका होती हैए कहीं बाहर चले गए हैं।श्
श्यही मेरा मन भी कहता हैए कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गईए तो वह निभानी पड़ती है। इस तरह भाग कर तो उसने हमारी जान आफत में डाल दी।श्
धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़ कर अंदर ले जाते हुए कहा — कायर कहीं का! जिसकी बाँह पकड़ीए उसका निबाह करना चाहिए कि मुँह में कालिख लगा कर भाग जाना चाहिए! अब जो आएए तो घर में पैठने न दूँ।
होरी वहीं पुआल पर लेटा। गोबर कहाँ गयाघ् यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मँडराने लगा।
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भाग 10
ऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचनी चाहिएए वह मची और महीनों तक मचती रही। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिए गोबर को खोजते फिरते थे। भोला ने कसम खाई कि अब न झुनिया का मुँह देखेंगे और न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थीए वह अब टूट गई। अब वह अपने गाय के दाम लेंगे और नकदए और इसमें विलंब हुआ तो होरी पर दावा करके उसका घर—द्वार नीलाम करा लेंगे। गाँव वालों ने होरी को जाति—बाहर कर दिया। कोई उसका हुक्का नहीं पीताए न उसके घर का पानी पीता है। पानी बंद कर देने की कुछ बातचीत थीए लेकिन धनिया का चंडी—रूप सब देख चुके थेए इसलिए किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको सुना—सुना कर कह दिया — किसी ने उसे पानी भरने से रोकाए तो उसका और अपना खून एक कर देगी। इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिए। सबसे दुखी है झुनियाए जिसके कारण यह सब उपद्रव हो रहा हैए और गोबर की कोई खोज—खबर न मिलनाए इस दुख को और भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाए घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचना मुश्किल हो जाए। दिन—भर घर के धंधे करती रहती है और जब अवसर पाती हैए रो लेती है। हरदम थर—थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे। अकेला भोजन तो नहीं पका सकतीए क्योंकि कोई उसके हाथ का खाएगा नहींए बाकी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री—पुरुष जमा हो जाते हैंए यही कुत्सा होने लगती है।
एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पंडित दातादीन मिल गए। धनिया ने सिर नीचा कर लिया और चाहती थी कि कतरा कर निकल जायए पर पंडित जी छेड़ने का अवसर पा कर कब चूकने वाले थेघ् छेड़ ही तो दिया — गोबर का कुछ सर—संदेस मिला कि नहीं धनियाघ् ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी।
धनिया के मन में स्वयं यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली — बुरे दिन आते हैंए बाबाए तो आदमी की मति फिर जाती हैए और क्या कहूँ।
दातादीन बोले — तुम्हें इस दुष्टा को घर में न रखना चाहिए था। दूध में मक्खी पड़ जाती हैए तो आदमी उसे निकाल कर फेंक देता है और दूध पी जाता है। सोचोए कितनी बदनामी और जग—हँसाई हो रही है। वह कुलटा घर में न रहतीए तो कुछ न होता। लड़कों से इस तरह की भूल—चूक होती रहती है। जब तक बिरादरी को भात न दोगेए बाम्हनों को भोज न दोगेए कैसे श्उद्धार होगाघ् उसे घर में न रखतेए तो कुछ न होता। होरी तो पागल है हीए तू कैसे धोखा खा गईघ्
दातादीन का लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ था। इसे सारा गाँव जानता थाए पर वह तिलक लगाता थाएपोथी—पत्रे बाँचता थाए कथा—भागवत कहता थाए धर्म—संस्कार कराता था। उसकी प्रतिष्ठा में जरा भी कमी न थी। वह नित्य स्नान—पूजा करके अपने पापों का प्रायश्चित कर लेता था। धनिया जानती थीए झुनिया को आश्रय देने ही से यह सारी विपत्ति आई है। उसे न जाने कैसे दया आ गईए नहीं उसी रात को झुनिया को निकाल देतीए तो क्यों इतना उपहास होताए लेकिन यह भय भी तो था कि तब उसके लिए नदी या कुआँ के सिवा और ठिकाना कहाँ थाघ् एक प्राण का मूल्य दे कर — एक नहीं दो प्राणों का — वह अपने मरजाद की रक्षा कैसे करतीघ् फिर झुनिया के गर्भ में जो बालक हैए वह धनिया ही के हृदय का टुकड़ा तो है। हँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले लेती! और फिर झुनिया की नम्रता और दीनता भी उसे निरस्त्र करती रहती थी। वह जली—भुनी बाहर से आतीए पर ज्यों ही झुनिया लोटे का पानी ला कर रख देती और उसके पाँव दबाने लगतीए उसका क्रोध पानी हो जाता। बेचारी अपनी लज्जा और दुरूख से आप दबी हुई हैए उसे और क्या दबाएए मरे को क्या मारेघ्
उसने तीव्र स्वर में कहा — हमको कुल—परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराजए कि उसके पीछे एक जीवन की हत्या कर डालते। ब्याहता न सहीए पर उसकी बाँह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुँह से निकाल देतीघ् वही काम बड़े—बड़े करते हैंए मुदा उनसे कोई नहीं बोलताए उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैंए उनकी मरजाद बिगड़ जाती है। नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगीए हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं।
दातादीन हार मानने वाले जीव न थे। वह इस गाँव के नारद थे। यहाँ की वहाँए वहाँ की यहाँए यही उनका व्यवसाय था। वह चोरी तो न करते थेए उसमें जान—जोखिम थाए पर चोरी के माल में हिस्सा बँटाने के समय अवश्य पहुँच जाते थे। कहीं पीठ में धूल न लगने देते थे। जमींदार को आज तक लगान की एक पाई न दी थीए कुर्की आतीए तो कुएँ में गिरने चलतेए नोखेराम के किए कुछ न बनताए मगर असामियों को सूद पर रुपए उधर देते थे। किसी स्त्री को आभूषण बनवाना हैए दातादीन उसकी सेवा के लिए हाजिर हैं। शादी—ब्याह तय करने में उन्हें बड़ा आनंद आता हैए यश भी मिलता हैए दक्षिणा भी मिलती है। बीमारी में दवा—दारू भी करते हैंए झाड़—फूँक भीए जैसी मरीज की इच्छा हो। और सभा—चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैंए बालकों में बालक और बूढ़़ों में बूढ़़े। चोर के भी मित्र हैं और साह के भी। गाँव में किसी को उन पर विश्वास नहीं हैए पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि लोग बार—बार धोखा खा कर भी उन्हीं की शरण जाते हैं।
सिर और दाढ़़ी हिला कर बोले — यह तू ठीक कहती है धनिया! धर्मात्मा लोगों का यही धरम हैए लेकिन लोक—रीति का निबाह तो करना ही पड़ता है।
इसी तरह एक दिन लाला पटेश्वरी ने होरी को छेड़ा। वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनतेए पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थेए सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक—दूसरे से लड़ा कर रकमें मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था! गरीबों को दस—दसए पाँच—पाँच कर्ज दे कर उन्होंने कई हजार की संपत्ति बना ली थी। फसल की चीजें असामियों से ले कर कचहरी और पुलिस के अमलों की भेंट करते रहते थे। इससे इलाके भर में उनकी अच्छी धाक थी। अगर कोई उनके हत्थे नहीं चढ़़ाए तो वह दारोगा गंडासिंह थेए जो हाल में इस इलाके में आए थे। परमार्थी भी थे। बुखार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँट कर यश कमाते थेए कोई बीमार—आराम होए तो उसकी कुशल पूछने अवश्य जाते थे। छोटे—मोटे झगड़े आपस में ही तय करा देते थे। शादी—ब्याह में अपने पालकीए कालीन और महफिल के सामान मँगनी दे कर लोगों का उबार कर देते थे। मौका पा कर न चूकते थेए पर जिसका खाते थेए उसका काम भी करते थे।
बोले — यह तुमने क्या रोग पाल लिया होरीघ्
होरी ने पीछे फिर कर पूछा — तुमने क्या कहाघ् लाला — मैंने सुना नहीं।
पटेश्वरी पीछे से कदम बढ़़ाते हुए बराबर आ कर बोले — यही कह रहा था कि धनिया के साथ क्या तुम्हारी बुद्धि भी घास खा गईघ् झुनिया को क्यों नहीं उसके बाप के घर भेज देतेए सेंत—मेंत में अपने हँसी करा रहे हो। न जाने किसका लड़का ले कर आ गई और तुमने घर में बैठा लिया। अभी तुम्हारी दो—दो लड़कियाँ ब्याहने को बैठी हुई हैंए सोचोए कैसे बेड़ा पार होगाघ्
होरी इस तरह की आलोचनाएँ और शुभकामनाएँ सुनते—सुनते तंग आ गया था। खिन्न हो कर बोला — यह सब मैं समझता हूँ लाला। लेकिन तुम्हीं बताओए मैं क्या करूँ! मैं झुनिया को निकाल दूँए तो भोला उसे रख लेंगेघ् अगर वह राजी होंए तो आज मैं उनके घर पहुँचा दूँ। अगर तुम उन्हें राजी कर दोए तो जनम—भर तुम्हारा औसान मानूँए मगर वहाँ तो उनके दोनों लड़के खून करने को उतारू हो रहे हैं। फिर मैं उसे कैसे निकाल दूँघ् एक तो नालायक आदमी मिला कि उसकी बाँह पकड़ कर दगा दे गया। मैं भी निकाल दूँगाए तो इस दसा में वह कहीं मेहनत—मजूरी भी तो न कर सकेगी। कहीं डूब—धँस मरी तो किसे अपराध लगेगा! रहा लड़कियों का ब्याहए सो भगवान मालिक है। जब उसका समय आएगाए कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा। लड़की तो हमारी बिरादरी में आज तक कभी कुँआरी नहीं रही। बिरादरी के डर से हत्यारे का काम नहीं कर सकता।
होरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा सिर झुका कर चलता और चार बातें गम खा लेता था। हीरा को छोड़ कर गाँव में कोई उसका अहित न चाहता थाए पर समाज इतना बड़ा अनर्थ कैसे सह ले! और उसकी मुटमर्दी तो देखो कि समझाने पर भी नहीं समझता। स्त्री—पुरुष दोनों जैसे समाज को चुनौती दे रहे हैं कि देखेंए कोई उनका क्या कर लेता है। तो समाज भी दिखा देगा कि उसकी मर्यादा तोड़ने वाले सुख की नींद नहीं सो सकते।
उसी रात को इस समस्या पर विचार करने के लिए गाँव के विधाताओं की बैठक हुई।
दातादीन बोले — मेरी आदत किसी की निंदा करने की नहीं है। संसार में क्या—क्या कुकर्म नहीं होताए अपने से क्या मतलबघ् मगर वह राँड़ धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गई। भाइयों का हिस्सा दबा कर हाथ में चार पैसे हो गएए तो अब कुपंथ के सिवा और क्या सूझेगीघ् नीच जातए जहाँ पेट—भर रोटी खाई और टेढ़़े चलेए इसी से तो सासतरों में कहा है! नीच जात लतियाए अच्छा।
पटेश्वरी ने नारियल का कश लगाते हुए कहा — यही तो इनमें बुराई है कि चार पैसे देखे और आँखें बदलीं। आज होरी ने ऐसी हेकड़ी जताई कि मैं अपना—सा मुँह ले कर रह गया। न जाने अपने को क्या समझता है! अब सोचोए इस अनीति का गाँव में क्या फल होगाघ् झुनिया को देख कर दूसरी विधवाओं का मन बढ़़ेगा कि नहींघ् आज भोला के घर में यह बात हुई। कल हमारे—तुम्हारे घर में भी होगी। समाज तो भय के बल से चलता है। आज समाज का आँकुस जाता रहेए फिर देखो संसार में क्या—क्या अनर्थ होने लगते हैं।
झिंगुरी सिंह दो स्त्रियों के पति थे। पहली स्त्री पाँच लड़के—लड़कियाँ छोड़ कर मरी थी। उस समय इनकी अवस्था पैंतालीस के लगभग थीए पर आपने दूसरा ब्याह किया और जब उससे कोई संतान न हुईए तो तीसरा ब्याह कर डाला। अब इनकी पचास की अवस्था थी और दो जवान पत्नियाँ घर में बैठी थीं। उन दोनों ही के विषय में तरह—तरह की बातें फैल रही थींए पर ठाकुर साहब के डर से कोई कुछ न कह सकता थाए और कहने का अवसर भी तो हो। पति की आड़ में सब कुछ जायज है। मुसीबत तो उसको हैए जिसे कोई आड़ नहीं। ठाकुर साहब स्त्रियों पर बड़ा कठोर शासन रखते थे और उन्हें घमंड था कि उनकी पत्नियों का घूँघट किसी ने न देखा होगा। मगर घूँघट की आड़ में क्या होता हैए उसकी उन्हें क्या खबरघ्
बोले — ऐसी औरत का तो सिर काट ले। होरी ने इस कुलटा को घर में रख कर समाज में विष बोया है। ऐसे आदमी को गाँव में रहने देना सारे गाँव को भ्रष्ट करना है। रायसाहब को इसकी सूचना देनी चाहिए। साफ—साफ कह देना चाहिएए अगर गाँव में यह अनीति चली तो किसी की आबरू सलामत न रहेगी।
पंडित नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा किसी राजा के दीवान थे। पर अपना सब कुछ भगवान के चरणों में भेंट करके साधु हो गए थे। इनके बाप ने भी राम—नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी वही भक्ति तरके में पाई थी। प्रातरूकाल पूजा पर बैठ जाते थे और दस बजे तक बैठे राम—नाम लिखा करते थेए मगर भगवान के सामने से उठते ही उनकी मानवता इस अवरोध से विकृत हो कर उनके मनए वचन और कर्म सभी को विषाक्त कर देती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान होता था। फूले हुए गालों में धँसी हुई आँखें निकाल कर बोले — इसमें रायसाहब से क्या पूछना है। मैं जो चाहूँए कर सकता हूँ। लगा दो सौ रुपए डाँड़। आप गाँव छोड़ कर भागेगा। इधर बेदखली भी दायर किए देता हूँ।
पटेश्वरी ने कहा — मगर लगान तो बेबाक कर चुका है।
झिंगुरीसिंह ने समर्थन किया — हाँए लगान के लिए ही तो हमसे तीस रुपए लिए हैं।
नोखेराम ने घमंड के साथ कहा — लेकिन अभी रसीद तो नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान बेबाक कर दियाघ्
सर्वसम्मति से यही तय हुआ कि होरी पर सौ रुपए तावान लगा दिया जाए। केवल एक दिन गाँव के आदमियों को बटोर कर उनकी मंजूरी ले लेने का अभिनय आवश्यक था। संभव थाए इसमें दस—पाँच दिन की देर हो जाती। पर आज ही रात को झुनिया के लड़का पैदा हो गया। और दूसरे ही दिन गाँव वालों की पंचायत बैठ गई। होरी और धनियाए दोनों अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए बुलाए गए। चौपाल में इतनी भीड़ थी कि कहीं तिल रखने की जगह न थी। पंचायत ने फैसला किया कि होरी पर सौ रुपए नकद और तीस मन अनाज डाँड़ लगाया जाए।
धनिया भरी सभा में रुँधे हुए कंठ से बोली — पंचोए गरीब को सता कर सुख न पाओगेए इतना समझ लेना। हम तो मिट जाएँगेए कौन जानेए इस गाँव में रहें या न रहेंए लेकिन मेरा सराप तुमको भी जरूर लगेगा। मुझसे इतना कड़ा जरीबाना इसलिए लिया जा रहा है कि मैंने अपने बहू को क्यों अपने घर में रखा। क्यों उसे घर से निकाल कर सड़क की भिखारिन नहीं बना दिया। यही न्याय है—ऐंघ्
पटेश्वरी बोले — वह तेरी बहू नहीं हैए हरजाई है।
होरी ने धनिया को डाँटा — तू क्यों बोलती है धनिया! पंच में परमेसर रहते हैं। उनका जो न्याय हैए वह सिर आँखों पर। अगर भगवान की यही इच्छा है कि हम गाँव छोड़ कर भाग जायँए तो हमारा क्या बस। पंचोए हमारे पास जो कुछ हैए वह अभी खलिहान में है। एक दाना भी घर में नहीं आयाए जितना चाहेए ले लो। सब लेना चाहोए सब ले लो। हमारा भगवान मालिक हैए जितनी कमी पड़ेए उसमें हमारे दोनों बैल ले लेना।
धनिया दाँत कटकटा कर बोली — मैं एक दाना न अनाज दूँगीए न कौड़ी डाँड़। जिसमें बूता होए चल कर मुझसे ले। अच्छी दिल्लगी है। सोचा होगाए डाँड़ के बहाने इसकी सब जैजात ले लो और नजराना ले कर दूसरों को दे दो। बाग—बगीचा बेच कर मजे से तर माल उड़ाओ। धनिया के जीते—जी यह नहीं होने काए और तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन में ही रहेगी। हमें नहीं रहना है बिरादरी में। बिरादरी में रह कर हमारी मुकुत न हो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते हैंए तब भी अपने पसीने की कमाई खाएँगे।
होरी ने उसके सामने हाथ जोड़ कर कहा — धनियाए तेरे पैरों पड़ता हूँए चुप रह। हम सब बिरादरी के चाकर हैंए उसके बाहर नहीं जा सकते। वह जो डाँड़ लगाती हैए उसे सिर झुका कर मंजूर कर। नकू बन कर जीने से तो गले में फाँसी लगा लेना अच्छा है। आज मर जायँए तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगाएगीघ् बिरादरी ही तारेगी तो तरेंगे। पंचोंए मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न होए अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा और कोई चीज हो। मैं बिरादरी से दगा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल—बच्चों पर दया आएए तो उनकी कुछ परवरिस करेंए नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है।
धनिया झल्ला कर वहाँ से चली गई और होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढ़ो—ढ़ो कर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढ़ेर करता रहा। बीस मन जौ थाए पाँच मन गेहूँ और इतना ही मटरए थोड़ा—सा चना और तेलहन भी था। अकेला आदमी और दो गृहस्थियों का बोझ। यह जो कुछ हुआए धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गई थी। दोनों ने सोचा थाए गेहूँ और तिलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा—थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम आएगा। लंगे—तंगे पाँच—छरू महीने कट जाएँगेए तब तक जुआरए मक्काए सांवाए धान के दिन आ जाएँगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गई। अनाज तो हाथ से गया हीए सौ रुपए की गठरी और सिर पर लद गई। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। और गोबर का क्या हाल हुआए भगवान जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा थाए तो ऐसा काम ही क्यों कियाघ् मगर होनहार कौन टाल सकता है! बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लाद कर अनाज ढ़ो रहा थाए मानो अपने हाथों से अपने कब्र खोद रहा हो। जमींदारए साहूकारए सरकारए किसका इतना रोब थाघ् कल बाल—बच्चे क्या खाएँगेए इसकी चिंता प्राणों को सोखे लेती थीए पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सर पर सवार आँकुस दिए जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी—ब्याहए मूँड़न—छेदनए जन्म—मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए हुए थी और उसकी नसें उसके रोम—रोम में बिंधी हुई थीं। बिरादरी से निकल कर उसका जीवन विश्रृंखल हो जायगाघ् तार—तार हो जायगा।
जब खलिहान में केवल डेढ़़—दो मन जौ रह गयाए तो धनिया ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली — अच्छा अब रहने दो। ढ़ो तो चुके बिरादरी की लाज! बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगेघ् मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था।
होरी ने अपना हाथ छुड़ा कर टोकरी में अनाज भरते हुए कहा — यह न होगाए पंचों की आँख बचा कर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जा कर सब—का—सब वहाँ ढ़ेर कर देता हूँ। फिर पंचों के मन में दया उपजेगीए तो कुछ मेरे बाल—बच्चों के लिए देंगेए नहीं भगवान मालिक है!
धनिया तिलमिला कर बोली — यह पंच नहीं हैंए राच्छस हैंए पक्के राच्छस! यह सब हमारी जगह—जमीन छीन कर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँए पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिसाचों से दया की आसा रखते होघ् सोचते होए दस—पाँच मन निकाल कर तुम्हें दे देंगे। मुँह धो रखो।
जब होरी ने न माना और टोकरी सिर पर रखने लगाए तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली — इसे तो मैं न ले जाने दूँगीए चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर—मर कर हमने कमायाए पहर रात—रात को सींचाए अगोराए इसलिए कि पंच लोग मूँछों पर ताव दे कर भोग लगाएँ और हमारे बच्चे दाने—दाने को तरसें! तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी अपने बच्चियों के साथ सती हुई हूँ। सीधे से टोकरी रख दोए नहीं आज सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूँ।
होरी सोच में पड़ गया। धनिया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल—बच्चों की कमाई छीन कर तावान देने का क्या अधिकार है। वह घर का स्वामी इसलिए है कि सबका पालन करेए इसलिए नहीं कि उनकी कमाई छीन कर बिरादरी की नजर में सुर्खई बने। टोकरी उसके हाथ से छूट गई। धीरे से बोला — तू ठीक कहती है धनिया! दूसरों के हिस्से पर मेरा कोई जोर नहीं है। जो कुछ बचा हैए वह ले जा। मैं जा कर पंचों से कहे देता हूँ।
धनिया अनाज की टोकरी घर में रख कर अपने लड़कियों के साथ पोते के जन्मोत्सव में गला फाड़—फाड़ कर सोहर गा रही थीए जिससे सारा गाँव सुन ले। आज यह पहला मौका था कि ऐसे शुभ अवसरों पर बिरादरी की कोई औरत न थी। सौर से झुनिया ने कहला भेजा थाए सोहर गाने का काम नहीं हैए लेकिन धनिया कब मानने लगी। अगर बिरादरी को उसकी परवा नहीं हैए तो वह भी बिरादरी की परवा नहीं करती।
उसी वक्त होरी अपने घर को अस्सी रुपए पर झिंगुरीसिंह के हाथ गिरों रख रहा था। डाँड़ के रुपए का इसके सिवा वह और कोई प्रबंध न कर सका था। बीस रुपए तो तेलहनए गेहूँ और मटर से मिल गए। शेष के लिए घर लिखना पड़ गया। नोखेराम तो चाहते थे कि बैल बिकवा लिए जायँए लेकिन पटेश्वरी और दातादीन ने इसका विरोध किया। बैल बिक गएए तो होरी खेती कैसे करेगाघ् बिरादरी उसकी जायदाद से रुपए वसूल करेए पर ऐसा तो न करे कि वह गाँव छोड़ कर भाग जाए। इस तरह बैल बच गए।
होरी रेहननामा लिख कर कोई ग्यारह बजे रात घर आयाए तो धनिया ने पूछा — इतनी रात तक वहाँ क्या करते रहेघ्
होरी ने जुलाहे का गुस्सा दाढ़़ी पर उतारते हुए कहा — करता क्या रहाए इस लौंडे की करनी भरता रहा। अभागा आप तो चिनगारी छोड़ कर भागाए आग मुझे बुझानी पड़ रही है। अस्सी रुपए में घर रेहन लिखना पड़ा। करता क्या! अब हुक्का खुल गया। बिरादरी ने अपराध क्षमा कर दिया।
धनिया ने होंठ चबा कर कहा — न हुक्का खुलताए तो हमारा क्या बिगड़ा जाता थाघ् चार—पाँच महीने नहीं किसी का हुक्का पियाए तो क्या छोटे हो गएघ् मैं कहती हूँए तुम इतने भोंदू क्यों होघ् मेरे सामने तो बड़े बुद्धिमान बनते होए बाहर तुम्हारा मुँह क्यों बंद हो जाता हैघ् ले—दे के बाप—दादों की निसानी एक घर बच रहा थाए आज तुमने उसका भी वारा—न्यारा का दिया। इसी तरह कल तीन—चार बीघे जमीन हैए इसे भी लिख देना और तब गली—गली भीख माँगना। मैं पूछती हूँए तुम्हारे मुँह में जीभ न थी कि उन पंचों से पूछतेए तुम कहाँ के बड़े धर्मात्मा होए जो दूसरों पर डाँड़ लगाते फिरते होए तुम्हारा तो मुँह देखना भी पाप है।
होरी ने डाँटा — चुप रहए बहुत बढ़़—चढ़़ न बोल। बिरादरी के चक्कर में अभी पड़ी नहीं हैए नहीं मुँह से बात न निकलती।
धनिया उत्तेजित हो गई — कौन—सा पाप किया हैए जिसके लिए बिरादरी से डरेंघ् किसी की चोरी की हैए किसी का माल काटा हैघ् मेहरिया रख लेना पाप नहीं हैए हाँए रख के छोड़ देना पाप है। आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है। उसके सीधेपन का फल यही होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं। आज उधर तुम्हारी वाह—वाह हो रही होगी कि बिरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग फूट गए थे कि तुम—जैसे मर्द से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न मिली।
श्मैं तेरे बाप के पाँव पड़ने गया थाघ् वही तुझे मेरे गले बाँध गया था!श्
श्पत्थर पड़ गया था उनकी अक्कल पर और उन्हें क्या कहूँघ् न जाने क्या देख कर लट्टू हो गए। ऐसे कोई बड़े सुंदर भी तो न थे तुम।श्
विवाद विनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गएए लाख रुपए का बालक तो मिल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आएए धनिया अलग झोपड़ी में सुखी रहेगी।
होरी ने पूछा — बच्चा किसको पड़ा हैघ्
धनिया ने प्रसन्न मुख हो कर जवाब दिया — बिलकुल गोबर को पड़ा है। सच!
श्रिस्ट—पुस्ट तो हैघ्श्
श्हाँए अच्छा है।श्
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भाग 11
रात को गोबर झुनिया के साथ चलाए तो ऐसा काँप रहा थाए जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गाँव में कुहराम मच जायगा लोग चारों ओर से कैसी हाय—हाय मचाएँगेए धनिया कितनी गालियाँ देगीए यह सोच—सोच कर उसके पाँव पीछे रह जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार दहाड़ेंगेए फिर शांत हो जाएँगे। डर था धनिया काए जहर खाने लगेगीए घर में आग लगाने लगेगी। नहींए इस वक्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता।
लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू ले कर मारने दौड़ीए तो वह बेचारी कहाँ जायगीघ् अपने घर तो लौट नहीं सकती। कहीं कुएँ में कूद पड़े या गले में फाँसी लगा लेए तो क्या होघ् उसने लंबी साँस ली। किसकी शरण लेघ्
मगर अम्माँ इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो—चार गालियाँ देंगी! लेकिन जब झुनिया उनके पाँव पकड़ कर रोने लगेगीए तो उन्हें जरूर दया आ जायगी। तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शांत हो जायगा तब वह एक दिन धीरे से आएगा और अम्माँ को मना लेगा। अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो—चार रुपए ले कर घर लौटेए तो फिर धनिया का मुँह बंद हो जायगा।
झुनिया बोली — मेरी छाती धक—धक कर रही है। मैं क्या जानती थीए तुम मेरे गले यह रोग मढ़़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आतेए न यह सब कुछ होता। तुम आगे—आगे जा कर जो कुछ कहना—सुनना होए कह—सुन लेना। मैं पीछे से जाऊँगी।
गोबर ने कहा — नहीं—नहींए पहले तुम जाना और कहनाए मैं बाजार से सौदा बेच कर घर जा रही थी। रात हो गई हैए अब कैसे जाऊँघ् तब तक मैं आ जाऊँगा।
झुनिया चिंतित मन से कहा — तुम्हारी अम्माँ बड़ी गुस्सैल हैं। मेरा तो जी काँपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूँगीघ्
गोबर ने धीरज दिलाया — अम्माँ की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहींए तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगाए मुझे कहेंगीए तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं।
गाँव समीप आ गया। गोबर ने ठिठक कर कहा — अब तुम जाओ।
झुनिया ने अनुरोध किया — तुम भी देर न करनाश्
श्नहीं—नहींए छन भर में आता हूँए तू चल तो।श्
श्मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है! तुम्हारे ऊपर क्रोध आता है।श्
श्तुम इतना डरती क्यों होघ् मैं तो आ ही रहा हूँ।श्
श्इससे तो कहीं अच्छा था कि किसी दूसरी जगह भाग चलते।श्
श्जब अपना घर है तो क्यों कहीं भागेंघ् तुम नाहक डर रही हो।श्
श्जल्दी से आओगे नघ्श्
श्हाँ—हाँए अभी आता हूँ।श्
श्मुझसे दगा तो नहीं कर रहे होघ् मुझे घर भेज कर आप कहीं चलते बनोघ्श्
श्इतना नीच नहीं हूँ झूना! जब तेरी बाँह पकड़ी हैए तो मरते दम तक निभाऊँगा।श्
झुनिया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दुविधा में पड़ा खड़ा रहा। फिर एकाएक सिर पर मँडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। कहीं सचमुच अम्माँ मारने दौड़ेंए तो क्या होघ् उसके पाँव जैसे धरती से चिमट गए। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा—सा बाग था। झुनिया की काली परछाईं धीरे—धीरे जाती हुई दीख रही थी। उसकी ज्ञानेंद्रियाँ बहुत तेज हो गई थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ीए जैसे अम्माँ झुनिया को गाली दे रही हैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थीए मानो सिर पर गड़ांसे का हाथ पड़ने वाला हो। देह का सारा रक्त सूख गया हो। एक क्षण के बाद उसने देखाए जैसे धनिया घर से निकल कर कहीं जा रही हो। दादा के पास जाती होगी। साइत दादा खा—पी कर मटर अगोरने चले गए हैं। वह मटर के खेत की ओर चला। जौ—गेहूँ के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा थाए मानो पीछे दौड़ आ रही है। वह है दादा की मँड़ैया। वह रूक गया और दबे पाँव आ कर मँड़ैया के पीछे बैठ गया। उसका अनुमान ठीक निकला। वह पहुँचा ही था कि धनिया की बोली सुनाई दी। ओह! गजब हो गया। अम्माँ इतनी कठोर हैं। एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती। और जो मैं सामने जा कर फटकार दूँ कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं हैए तो सारी सेखी निकल जाए। अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज हो गया। मैं जरा अदब करता हूँए उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा—पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान! अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता थाए इस विपत में जान फँसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्तए कायर और नीच समझ रही होगीए मगर उसे मार कैसे सकते हैंघ् घर से निकाल भी कैसे सकते हैंघ् क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं हैघ् अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठायाए तो आज महाभारत हो जायगा। माँ—बाप जब तक लड़कों की रक्षा करेंए तब तक माँ—बाप हैं। जब उनमें ममता ही नहीं हैए तो कैसे माँ—बाप !
होरी ज्यों ही मँड़ैया से निकलाए गोबर भी दबे पाँव धीरे—धीरे पीछे—पीछे चलाए लेकिन द्वार पर प्रकाश देख कर उसके पाँव बँध गए। उस प्रकाश—रेखा के अंदर वह पाँव नहीं रख सकता। वह अँधेरे में ही दीवार से चिमट कर खड़ा हो गया। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय! बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैंए और वह कुछ नहीं कर सकता। उसने खेल—खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थीए वह सारे खलिहान को भस्म कर देगीए यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आ कर कहे — हाँए मैंने चिनगारी फेंकी थी। जिन टीकौनों से उसने अपने मन को सँभाला थाए वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाए!
वह सौ कदम चलाए पर इस तरह जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थींए वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आईंए जब वह अपनी उन्मत्त उसाँसों मेंए अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकाल कर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे—से घोंसले में एकांत—जीवन काट रही थी। वहाँ नर का मत्त आग्रह न थाए न वह उदीप्त उल्लासए न शावकों की मीठी आवाजेंए मगर बहेलिए का जाल और छल भी तो वहाँ न था। गोबर ने उसके एकांत घोंसले में जा कर उसे कुछ आनंद पहुँचाया या नहींए कौन जानेए पर उसे विपत्ति में डाल ही दिया। वह सँभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़़ावा सुन कर पीछे लौट पड़ा।
उसने द्वार पर आ कर देखाए तो किवाड़ बंद हो गए थे। किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएँ बाहर निकल रही थीं। उसने एक दरार से अंदर झाँका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी — बेटीए तू चल कर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूँगी। जब तक हम जीते हैंए किसी बात की चिंता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों देख भी न सकेगा। गोबर गदगद हो गया। आज वह किसी लायक होताए तो दादा और अम्माँ को सोने से मढ़़ देता और कहता — अब तुम कुछ परवा न करोए आराम से बैठे खाओ और जितना दान—पुन्न करना चाहोए करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है। वह उसे जो आश्रय देना चाहता थाए वह मिल गया। झुनिया उसे दगाबाज समझती हैए तो समझे। वह तो अब तभी घर आएगाए जब वह पैसे के बल से सारे गाँव का मुँह बंद कर सके और दादा और अम्माँ उसे कुल का कलंक न समझ कर कुल का तिलक समझें। मन पर जितना ही गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अंतस्तल को मथ कर वह रत्न निकाल लियाए जो अभी तक छिपा पड़ा था। आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी। अब तक वह कम—से—कम काम करना और ज्यादा—से—ज्यादा खाना अपना हक समझता था। उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा कि घरवालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है। आज माता—पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया। जब धनिया और झुनिया भीतर चली गईंए तो वह होरी की उसी मँड़ैया में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बाँधने लगा।
शहर के बेलदारों को पाँच—छरू आने रोज मिलते हैंए यह उसने सुन रखा था। अगर उसे छरू आने रोज मिलें और वह एक आने में गुजर कर लेए तो पाँच आने रोज बच जायँ। महीने में दस रुपए होते हैंए और साल—भर में सवा सौ। वह सवा—सौ की थैली ले कर घर आएए तो किसकी मजाल हैए जो उसके सामने मुँह खोल सकेघ् यही दातादीन और यही पटेसरी आ कर उसकी हाँ में हाँ मिलाएँगे और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाए। दो—चार साल वह इसी तरह कमाता रहेए तो सारे घर का दलिद्दर मिट जाए। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती। अब वह अकेला सवा सौ कमाएगा। यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है। कहने दो। मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है। और सदा छरू आने थोड़े मिलेंगे। जैसे—जैसे वह काम में होशियार होगाए मजूरी भी तो बढ़़ेगी। तब वह दादा से कहेगाए अब तुम घर में बैठ कर भगवान का भजन करो। इस खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा हैघ् सबसे पहले वह एक पछाईं गाय लाएगाए जो चार—पाँच सेर दूध देगी और दादा से कहेगाए तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे तुम्हारा लोक भी बनेगाए परलोक भी।
और क्याए एक आने में उसका गुजर आराम से न होगाघ् घर—द्वार ले कर क्या करना हैघ् किसी के ओसारे में पड़ा रहेगा। सैकड़ों मंदिर हैंए धरमसाले हैं। और फिर जिसकी वह मजूरी करेगाए क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा। आटा रुपए का दस सेर आता है। एक आने में ढ़ाई पाव हुआ। एक आने का तो वह आटा ही खा जायगा। लकड़ीए दालए नमकए साग यह सब कहाँ से आएगाघ् दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिए। ओह! खाने की तो कुछ न पूछो। मुट्ठी—भर चने में भी काम चल सकता है। हलुवा और पूरी खा कर भी काम चल सकता है। जैसी कमाई हो। वह आधा सेर आटा खा कर दिन—भर मजे से काम कर सकता है। इधर—उधर से उपले चुन लिएए लकड़ी का काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले लीए कभी आलू। आलू भून कर भुरता बना लिया। यहाँ दिन काटना है कि चौन करना है। पत्तल पर आटा गूँधाए उपलों पर बाटीयाँ सेंकींए आलू भून कर भुरता बनाया और मजे से खा कर सो रहे। घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती हैए एक जून तो चबेना ही मिलता है। वहाँ भी एक जून चबेने पर काटेंगे।
उसे शंका हुईए अगर कभी मजूरी न मिलीए तो वह क्या करेगाघ् मगर मजूरी क्यों न मिलेगीघ् जब वह जी तोड़ कर काम करेगाए तो सौ आदमी उसे बुलाएँगे। काम सबको प्यारा होता हैए चाम नहीं प्यारा होता। यहाँ भी तो सूखा पड़ता हैए पाला गिरता हैए ऊख में दीमक लगते हैंए जौ में गेरूई लगती हैए सरसों में लाही लग जाती है। उसे रात को कोई काम मिल जायगा तो उसे भी न छोड़ेगा। दिन—भर मजूरी कीए रात कहीं चौकीदारी करलेगा। दो आने भी रात के काम में मिल जायँए तो चाँदी है। जब वह लौटेगाए तो सबके लिए साड़ियाँ लाएगा। झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायगा और दादा के लिए एक मुंड़ासा लाएगा।
इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गयाए लेकिन ठंड में नींद कहाँ! किसी तरह रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस ही तो है। साँझ तक पहुँच जायगा। गाँव का कौन आदमी वहाँ आता—जाता है और वह अपना ठिकाना ही क्यों लिखेगाए नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जाएँगे। उसे कुछ पछतावा थाए तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ—साफ कह दिया — अभी तू घर जाए मैं थोड़े दिनों में कुछ कमा कर लौटूँगाए लेकिन तब वह घर जाती ही क्योंघ् कहती — मैं भी तुम्हारे साथ लौटूँगी। उसे वह कहाँ—कहाँ बाँधे फिरताघ्
दिन चढ़़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पाँव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठ कर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डालेए वह अब नहीं चल सकताए लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झड़बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिए और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गाँव में गुड़ पकने की सुगंध आई। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जा कर लोटा—डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा — अरे भाईए क्या निराला ही पानी पियोगेघ् थोड़ा—सा मीठा खा लो। अबकी और चला लें कोल्हू और बना लें खाँड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगीए सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खाँड़ के भाव चीनी मिलेगीए तो हमारा गुड़ कौन लेगाघ् उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिंडियाँ ला कर दीं। गोबर ने गुड़ खायाए पानी पिया। तमाखू तो पीते होगेघ् गोबर ने बहाना किया — अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न हो कर कहा — बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है। एक बेर पकड़ लेए तो जिंदगी—भर नहीं छोड़ता।
इंजन को कोयला—पानी भी मिल गया। चाल तेज हुई। जाड़े के दिनए न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखाए एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किए बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो—चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गए थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन—नाटक होगा। युवती ने पति की ओर घूर कर कहा — मैं न जाऊँगीए न जाऊँगीए न जाऊँगी।
पुरुष ने जैसे अल्टिमेटम दिया — न जाएगीघ्
श्न जाऊँगी।श्
श्न जाएगीघ्श्
श्न जाऊँगी।श्
पुरुष ने उसके केश पकड़ कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गई।
पुरुष ने हार कर कहा — मैं फिर कहता हूँए उठ कर चल।
स्त्री ने उसी —ढ़़ता से कहा — मैं तेरे घर सात जलम न जाऊँगीए बोटी—बोटी काट डाल।
श्मैं तेरा गला काट लूँगा!श्
श्तो फाँसी पाओगे।श्
पुरुष ने उसके केश छोड़ दिए और सिर पर हाथ रख कर बैठ गया। पुरुषत्व अपने चरम सीमा तक पहुँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है।
एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त हो कर बोला — आखिर तू क्या चाहती हैघ्
युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली — मैं यही चाहती हूँए तू मुझे छोड़ दे।
श्कुछ मुँह से कहेगीए क्या बात हुईघ्श्
श्मेरे माई—बाप को कोई क्यों गाली देघ्श्
श्किसने गाली दीए तेरे माई—बाप कोघ्श्
श्जा कर अपने घर में पूछ।श्
श्चलेगी तभी तो पूछूँगाघ्श्
श्तू क्या पूछेगाघ् कुछ दम भी है। जा कर अम्माँ के आँचल में मुँह ढ़ाँक कर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँघ् एक रोटी खाती हूँए तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँघ् मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती!श्
राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा थाए मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी होती थी। एक—एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ तो बोला — भाईए मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिएए मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती।
पुरुष ने कौड़ी की—सी आँखें निकाल कर कहा — तुम कौन होघ्
गोबर ने निरूशंक भाव से कहा — मैं कोई हूँए लेकिन अनुचित बात देख कर सभी को बुरा लगता है।
पुरुष ने सिर हिला कर कहा — मालूम होता हैए अभी मेहरिया नहीं आईए तभी इतना दरद है!
श्मेहरिया आएगीए तो भी उसके झोटे पकड़ कर न खींचूँगा।श्
श्अच्छाए तो अपने राह लो। मेरी औरत हैए मैं उसे मारूँगाए काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने वाले। चले जाओ सीधे सेए यहाँ मत खड़े हो।श्
गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जायघ् सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहेए वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है।
पुरुष ने होंठ चबा कर कहा — तो तुम न जाओगेघ् आऊँघ्
गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार हो कर बोला— तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगाए जब मेरी इच्छा होगी।
श्तो मालूम होता हैए हाथ—पैर तुड़ा के जाओगेघ्श्
श्यह कौन जानता हैए किसके हाथ—पाँव टूटेंगे।श्
श्तो तुम न जाओगेघ्श्
श्ना।श्
पुरुष मुट्ठी बाँध कर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली — तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जीए अपने राह क्यों नहीं जातेघ् यहाँ कोई तमासा हैघ् हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता हैए कभी मैं उसे डाँटती हूँ। तुमसे मतलबघ्
गोबर यह धिक्कार पा कर चलता बना। दिल में कहा — यह औरत मार खाने ही लायक है।
गोबर आगे निकल गयाए तो युवती ने पति को डाँटा — तुम सबसे लड़ने क्यों लगते होघ् उसने कौन—सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गई। बुरा काम करोगेए तो दुनिया बुरा कहेगी हीए मगर है किसी भले घर का और अपने बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपने बहन के लिए नहीं ठीक कर लेतेघ्
पति ने संदेह के स्वर में कहा — क्या अब तक कुँआरा बैठा होगाघ्
श्तो पूछ ही क्यों न लोघ्श्
पुरुष ने दस कदम दौड़ कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझाए शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआए तभी ललकार रहा है। मार खाए बगैर न मानेगा। अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता हैए लेकिन आने दो।
लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थीए मैत्री का निमंत्रण था। उसने गाँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक—ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था।
कोदई ने मुस्करा कर कहा — हम दोनों में लड़ाई होते—होते बची। तुम चले आएए तो मैंने सोचाए तुमने ठीक ही कहा — मैं हक—नाहक तुमसे तन बैठा। कुछ खेती—बारी घर में होती है नघ्
गोबर ने बताया — उसके मौरूसी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है।
श्मैंने तुम्हें जो भला—बुरा कहा हैए उसकी माफी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है। औरत गुन—सहूर में लच्छमी हैए मुदा कभी—कभी न जाने कौन—सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओए माता पर मेरा क्या बस हैघ् जनम तो उन्हीं ने दिया हैए पाला—पोसा तो उन्होंने है। जब कोई बात होगीए तो मैं जो कुछ कहूँगाए लुगाई ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचोए मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँघ् हाँए मुझे उसके बाल पकड़ कर घसीटना न थाए लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिए काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती हैए माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचोए कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ! अपनी माँ सेघ् जिसने जनम दियाघ् यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाए।श्
गोबर को भी राय बदलनी पड़ी। बोला — माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता हैघ्
कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो—कोस जाते—जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं टीकना ही पड़ेगा।
गोबर ने विनोद किया — लुगाई मान गईघ्
श्न मानेगी तो क्या करेगी।श्
श्मुझे तो उसने ऐसी फटकार बताई कि मैं लजा गया।श्
श्वह खुद पछता रही है। चलोए जरा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप—माई की गाली क्यों देती है। हमारी भी बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगीए तो उससे सुना न जायगाघ् सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगीए तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठ कर चली जायए पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।श्
गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आएए जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गई थी। जरा—सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी।
कोदई ने मुस्करा कर कहा — यह तो आते ही न थे। कहते थेए ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँघ्
युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देख कर कहा — इतनी ही डाँट में डर गएघ् लुगाई आ जायगीए तब कहाँ भागोगेघ्
गाँव समीप ही था। गाँव क्या थाए पुरवा थाए दस—बारह घरों काए जिसमें आधे खपरैल के थेए आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँच कर खाट निकालीए उस पर एक दरी डाल दीए शर्बत बनाने को कहए चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत ले कर आई और गोबर को पानी का एक छींटा मार कर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़—छाड़ शुरू कर दे।
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भाग 12
गोबर अँधेरे ही मुँह उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका हैए इसलिए उससे कोई विवाह—संबंधी चर्चा नहीं की। उसके शील—स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुएए ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न हो कर आशीर्वाद दिया था। तुम बड़ी हो माता जीए पूज्य हो। पुत्र माता के रिन से सौ जनम ले कर भी उरिन नहीं हो सकताए लाख जनम ले कर भी उरिन नहीं हो सकता। करोड़ जनम ले कर भी नहीं...श्
बुढ़़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर गदगद हो गई। इसके बाद गोबर ने जो कुछ कहा — उसमें बुढ़़िया को अपना मंगल ही दिखाई दिया। वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर देए फिर रोगी उसके हाथों विष भी खुशी से पी लेगाघ् अब जैसे आज ही बहू घर से रूठ कर चली गईए तो किसकी हेठी हुई। बहू को कौन जानता हैघ् किसकी लड़की हैए किसकी नातिन हैए कौन जानता है। संभव हैए उसका बाप घसियारा ही रहा हो...।
बुढ़़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा — घसियारा तो है ही बेटाए पक्का घसियारा। सबेरे उसका मुँह देख लोए तो दिन—भर पानी न मिले।
गोबर बोला — तो ऐसे आदमी की क्या हँसी हो सकती है! हँसी हुई तुम्हारी और तुम्हारे आदमी की। जिसने पूछाए यही पूछा कि किसकी बहू हैघ् फिर यह अभी लड़की हैए अबोधए अल्हड़। नीच माता—पिता की लड़की हैए अच्छी कहाँ से बन जाय! तुमको तो बूढ़़े तोते को राम—नाम पढ़़ाना पड़ेगा। मारने से तो वह पढ़़ेगा नहींए उसे तो सहज स्नेह ही से पढ़़ाया जा सकता है। ताड़ना भी दोए लेकिन उसके मुँह मत लगो। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ताए तुम्हारा अपमान होता है।
जब गोबर चलने लगाए तो बुढ़़िया ने खाँड़ और सत्तू मिला कर उसे खाने को दिया। गाँव के और कई आदमी मजूरी की टोह में शहर जा रहे थे। बातचीत में रास्ता कट गया और नौ बजते—बजते सब लोग अमीनाबाद के बाजार में आ पहुँचे। गोबर हैरान थाए इतने आदमी नगर में कहाँ से आ गएघ् आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था।
उस दिन बाजार में चार—पाँच सौ मजदूरों से कम न थे। राज और बढ़़ई और लोहार और बेलदार और खाट बुनने वाले और टोकरी ढ़ोने वाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर यह जमघट देख कर निराश हो गया। इतने सारे मजदूरों को कहाँ काम मिला जाता है। और उसके हाथ तो कोई औजार भी नहीं है। कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता है। कोई उसे क्यों रखने लगाघ् बिना औजार के उसे कौन पूछेगाघ्
धीरे—धीरे एक—एक करके मजदूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश हो कर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़़े और निकम्मे बच रहे थेए जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई गम नहीं।
सहसा मिर्जा खुर्शेद ने मजदूरों के बीच में आ कर ऊँची आवाज से कहा — जिसको छरू आने रोज पर काम करना होए वह मेरे साथ आए। सबको छरू आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी।
दस—पाँच राजों और बढ़़इयों को छोड़ कर सब—के—सब उनके साथ चलने को तैयार हो गए। चार सौ फटे हालों की एक विशाल सेना सज गई। आगे मिर्जा थेए कंधों पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लंबी कतार थीए जैसे भेड़ें हों।
एक बूढ़़े ने मिर्जा से पूछा — कौन काम करना है मालिकघ्
मिर्जा ने जो काम बतलायाए उस पर सब और भी चकित हो गएघ् केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी हैए जो कबड्डी खेलने के छरू आना रोज दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पा कर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को संदेह होने लगाए कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जा कर कह देए कोई काम नहीं हैए तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाएए चाहे आँख मिचौनीए चाहे गुल्ली—डंडाए मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा!
गोबर ने डरते—डरते कहा — मालिकए हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ तो कुछ ले कर खा लूँ।
मिर्जा ने झट छरू आने पैसे उसके हाथ में रख दिए और ललकार कर बोले — मजूरी सबको चलते—चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिंता मत करो।
मिर्जा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी—सी जमीन ले रखी थी। मजूरों ने जा कर देखाए तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अंदर केवल एक छोटी—सी फूस की झोपड़ी थीए जिसमें तीन—चार कुर्सियाँ थींए एक मेज। थोड़ी—सी किताबें मेज पर रखी हुई थीं। झोपड़ी बेलों और लताओं से ढ़की हुई बहुत सुंदर लगती थी। अहाते में एक तरफ आम और नींबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थेए दूसरी तरफ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिर्जा ने सबको कतार में खड़ा करके पहले ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में संदेह न रहा।
गोबर पैसे पहले ही पा चुका थाए मिर्जा ने उसे बुला कर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठ कर रह गया। इन बुड्ढों को उठा—उठा कर पटकताए लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कब्ड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गए।
आज युगों के बाद इन जरा—ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिकतर तो ऐसे थेए जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गए घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा मिल जाता थाए खा कर पड़े रहते थे। प्रातरूकाल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरसए निरानंदए केवल एक ढ़र्रा मात्र हो गया था। आज तो एक यह अवसर मिलाए तो बूढ़़े भी जवान हो गए। अधमरे बूढ़़ेए ठठरियाँ लिएए मुँह में दाँत न पेट में आँतए जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़़ाए ताल ठोंक—ठोंक कर उछल रहे थेए मानो उन बूढ़़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गईए दो नायक बन गए। गोइयों का चुनाव होने लगा और बारह बजते—बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ॠतु है।
इधर अहाते के फाटक पर मिर्जा साहब तमाशाइयों को टीकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह कोई—न—कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा ले कर गरीबों को बाँट देना। इस बूढ़़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े—बड़े पोस्टर चिपकाए गए थेए नोटीस बाँटे गए थे। यह खेल अपने ढ़ंग का निराला होगाए बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़़े आज भी कैसे पोढ़़े हैंए जिन्हें यह देखना होए आएँ और अपने आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखाए वह पछताएगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टीकट दस रुपए से ले कर दो आने तक के थे। तीन बजते—बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हजार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुर्सियों और बेंचों का इंतजाम था। साधारण जनता के लिए साफ—सुथरी जमीन।
मिस मालतीए मेहताए खन्नाए तंखा और रायसाहब सभी विराजमान थे।
खेल शुरू हुआ तो मिर्जा ने मेहता से कहा — आइए डाक्टर साहबए एक गोईं हमारी और आपकी हो जाए।
मिस मालती बोलीं — फिलासफर का जोड़ फिलासफर ही से हो सकता है।
मिर्जा ने मूँछों पर ताव दे कर कहा — तो क्या आप समझती हैंए मैं फिलासफर नहीं हूँघ् मेरे पास पुछल्ला नहीं हैए लेकिन हूँ मैं फिलासफरए आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहता जी!
मालती ने पूछा — अच्छा बतलाइएए आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्टघ्
श्मैं दोनों हूँ।श्
श्यह क्यों करघ्श्
श्बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौका देखाए वैसा बन गया।श्
श्तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है।श्
श्जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआए और न कभी होगाए उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँए और लोग आँखें फोड़ कर और किताबें चाट कर जिस नतीजे पर पहुँचे हैंए वहाँ मैं यों ही पहुँच गया। आप बता सकती हैंए किसी फिलासफर ने अक्लीगद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया हैघ्श्
डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा — तो चलिएए हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न मानेए मैं आपको फिलासफर मानता हूँ।
मिर्जा ने खन्ना से पूछा — आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँघ्
मालती ने पुचारा दिया — हाँए हाँए इन्हें जरूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ।
खन्ना झेंपते हुए बोले — जी नहींए मुझे क्षमा कीजिए।
मिर्जा ने रायसाहब से पूछा — आपके लिए कोई जोड़ लाऊँघ्
रायसाहब बोले — मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का हैए मगर वह आज नजर ही नहीं आते।
मिर्जा और मेहता भी नंगी देहए केवल जांघिए पहने हुए मैदान में पहुँच गए। एक इधर दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया।
जनता बूढ़़े कुलेलों पर हँसती थीए तालियाँ बजाती थीए गालियाँ देती थीए ललकारती थीए बाजियाँ लगाती थी। वाह! जरा इन बूढ़़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैंए जैसे सबको मार कर ही लौटेंगे। अच्छाए दूसरी तरफ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हयियों में अभी बहुत जान है भाई। इन लोगों ने जितना घी खाया हैए उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैंए भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों—जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधर वाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना जोर मार रहा हैए मगर अब नहीं जा सकते बच्चा। एक को तीन लिपट गए। इस तरह लोग अपने दिलचस्पी जाहिर कर रहे थेए उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात—प्रतिघातए उछल—कूदए धर—पकड़ और उनके मरने—जीने में तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ से कहकहे पड़तेए कभी कोई अन्याय या धाँधली देख कर लोग छोड़ दोए छोड़ दोश् का गुल मचाते। कुछ लोग तैश में आ कर पाली की तरफ दौड़तेए लेकिन जो थोड़े—से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टीकट ले कर बैठे थेए उन्हें इस खेल में विशेष आनंद न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्व की बातें कर रहे थे।
खन्ना ने जिंजर का ग्लास खाली करके सिगार सुलगाया और रायसाहब से बोले — मैंने आपसे कह दियाए बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राजी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की हैए क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है।
रायसाहब ने मूँछों में मुस्कराहट को लपेट कर कहा — आपकी नीति में घर वालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिएघ्
श्यह आप क्या फरमा रहे हैंघ्श्
श्ठीक कह रहा हूँ। सूर्यप्रताप सिंह से आपने केवल सात फीसदी लिया हैए मुझसे नौ फीसदी माँग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैंए क्यों न हो!श्
खन्ना ने कहकहा माराए मानो यह कथन हँसने के ही योग्य था।
श्उन शतोर्ं पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूँगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी।श्
श्मैं भी अपने कोई जायदाद निकाल दूँगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फालतू जायदाद अलग कर दूँ। मेरी जैकसन रोड वाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा।श्
श्उस कोठी का सुभीते से निकलना जरा मुश्किल है। आप जानते हैंए वह जगह बस्ती से कितनी दूर हैए मगर खैरए देखूँगा। आप उसकी कीमत का क्या अंदाजा करते हैंघ्श्
रायसाहब ने एक लाख पच्चीस हजार बताए। पंद्रह बीघे जमीन भी तो है उसके साथ। खन्ना स्तंभित हो गए। बोले — आप आज से पंद्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं रायसाहब! आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गई है।
रायसाहब ने बुरा मान कर कहा — जी नहींए पद्रंह साल पहले उसकी कीमत डेढ़़ लाख थी।
श्मैं खरीदार की तलाश में रहूँगाए मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा आपसे।श्
श्औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्योंए क्या करोगे इतने रुपए ले करघ्श्
श्आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राजी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न खरीदेघ् अब बहुत थोड़े—से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पॉलिसी भी आपने न ली। आपमें टाल—मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल—मटोल हैए तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसी से कहते हैंए रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुकेदारों की रियासतें जब्त कर लूँ।श्
मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नहीं पड़ना चाहतीए पर तंखा आसानी से हार मानने वाले व्यक्ति न थे। आ कर कुहनियों के बल मेज पर टीक कर बोले — आप जरा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँए ऐसा मौका शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चंदा को आपके मुकाबले में रुपए में एक आना भी चांस नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायँए जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग—विलास के सिवा कुछ जाना ही नहींए जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझाए जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पार्टीयाँ हैंए जो वह गर्वनरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैंए उनके लिए इस कौंसिल में स्थान नहीं है। नई कौंसिल में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनाधिकारियों के हाथ में जाय।
मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा — लेकिन साहबए मेरे पास दस—बीस हजार एलेक्शन पर खर्च करने के लिए कहाँ हैंघ् रानी साहब तो दो—चार लाख खर्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हजार—पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैंए यह रकम भी हाथ से निकल जायगी।
श्पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं या नहींघ्श्
श्जाना तो चाहती हूँए मगर फ्री पास मिल जाय!श्
श्तो यह मेरा जिम्मा रहा। आपको फ्री पास मिल जायगा।श्
श्जी नहींए क्षमा कीजिए। मैं हार की जिल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक—एक वोट पर अशर्फी चढ़़ने लगेगीए तो शायद आप भी उधर वोट देंगे।श्
श्आपके खयाल में एलेक्शन महज रुपए से जीता जा सकता हैघ्श्
श्जी नहींए व्यक्ति भी एक चीज है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन—सेवा की हैघ् और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गई थीए उसी तरह जैसे रायसाहब और खन्ना गए थे। इस नई सभ्यता का आधार धन है। विद्या और सेवा और कुल जाति सब धन के सामने हेच हैं। कभी—कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैंए जब धन को आंदोलन के सामने नीचा देखना पड़ता हैए मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई गरीब औरत दवाखाने में आ जाती हैए तो घंटों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गईए तो द्वार तक जा कर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँए मानों साक्षात देवी हैं। मेरा और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैंए उनके लिए रानी साहब ही ज्यादा उपयुक्त हैं।
उधर मैदान में मेहता की टीम कमजोर पड़ती जाती थी। आधे से ज्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिर्जा इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे—अच्छों को चकित कर देते थे। और मिर्जा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थीए पहलवानों के भी और परियों के भी।
मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठ कर रायसाहब से बोली — मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है।
रायसाहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। रायसाहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बंधन से मुक्त कर दिया। उठ कर बोले — जी हाँए पिट तो रही है। मिर्जा पक्का खिलाड़ी है।
श्मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं।श्
श्इसमें काहे की भद्दघ् दिल्लगी ही तो है।श्
श्मेहता की तरफ से जो बाहर निकलता हैए वही मर जाता है।श्
एक क्षण के बाद उसने पूछा — क्या इस खेल में हाफटाइम नहीं होताघ्
खन्ना को शरारत सूझी। बोले — आप चले थे मिर्जा से मुकाबला करने। समझते थेए यह भी फिलॉसफी है।
श्मैं पूछती हूँए इस खेल में हाफटाइम नहीं होताघ्श्
खन्ना ने फिर चिढ़़ाया — अब खेल ही खतम हुआ जाता है। मजा आएगा तबए जब मिर्जा मेहता को दबोच कर रगड़ेंगे और मेहता साहब चीं बोलेंगे।
श्मैं तुमसे नहीं पूछती। रायसाहब से पूछती हूँ।श्
रायसाहब बोले — इस खेल में हाफटाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है।
श्अच्छाए मेहता का एक आदमी और मर गया।श्
खन्ना बोले — आप देखती रहिए। इसी तरह सब मर जाएँगे और आखिर में मेहता साहब भी मरेंगे।
मालती जल गई — आपकी तो हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की।
श्मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है।श्
श्टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ।श्
श्आपसे जीतने का दावा ही कब हैघ्श्
श्अगर दावा होए तो मैं तैयार हूँ।श्
मालती उन्हें फटकार बता कर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल खत्म कर दिया जाए। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैंए कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ भी अपनी न्यायप्रियता दिखा रहे हैं। अभी हार कर लौटेंगे तो चारों तरफ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ और होंगे और लोग कितने खुश हो रहे हैं।
ज्यों—ज्यों अंत समीप आता जाता थाए लोग अधीर होते जाते थे और पाली की तरफ बढ़़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा—सा बनाया गया थाए वह तोड़ दिया गया। स्वयं—सेवक रोकने की चेष्टा कर रहे थेए पर उस उत्सुकता के उन्माद में उनकी एक न चलती थी। यहाँ तक कि ज्वार अंतिम बिंदु तक आ पहुँचा और मेहता अकेले बच गए और अब उन्हें गूँगे का पार्ट खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन्हीं पर हैए अगर वह बच कर अपनी पाली में लौट आते हैंए तो उनका पक्ष बचता है। नहींए हार का सारा अपमान और लज्जा लिए हुए उन्हें लौटना पड़ता हैए वह दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को छू कर अपनी पाली में आएँगेए वह सब मर जाएँगे और उतने ही आदमी उनकी तरफ जी उठेंगे। सबकी आँखें मेहता को ओर लगी हुई थीं। वह मेहता चले। जनता ने चारों ओर से आ कर पाली को घेर लिया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मेहता कितने शांत भाव से शत्रुओं की ओर जा रहे हैं। उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबिबिंत हो जाती हैए किसी की गर्दन टेढ़़ी हुई जाती हैए कोई आगे को झुक पड़ता है। वातावरण गर्म हो गया। पारा ज्वाला—बिंदु पर आ पहुँचा है। मेहता शत्रु—दल में घुसे। दल पीछे हटता जाता है। उनका संगठन इतना —ढ़़ है कि मेहता की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा है। बहुतों को आशा थी कि मेहता कम—से—कम अपने पक्ष के दस—पाँच आदमियों को तो जिला ही लेंगेए वे निराश होते जा रहे हैं।
सहसा मिर्जा एक छलांग मारते हैं और मेहता की कमर पकड़ लेते हैं। मेहता अपने को छुड़ाने के लिए जोर मार रहे हैं। मिर्जा को पाली की तरफ खींचे लिए आ रहे हैं। लोग उन्मत्त हो जाते हैं। अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन खिलाड़ी हैए कौन तमाशाई। सब एक में गडमड हो गए हैं। मिर्जा और मेहता में मल्लयुद्द हो रहा है। मिर्जा के कई बुड्ढे मेहता की तरफ लपके और उनसे लिपट गए। मेहता जमीन पर चुपचाप पड़े हुए हैंए अगर वह किसी तरह खींच—खाँच कर दो हाथ और ले जायँए तो उनके पचासों आदमी जी उठते हैंए मगर एक वह इंच भी नहीं खिसक सकते। मिर्जा उनकी गर्दन पर बैठे हुए हैं। मेहता का मुख लाल हो रहा है। आँखें बीर—बहूटी बनी हुई हैं। पसीना टपक रहा हैए और मिर्जा अपने स्थूल शरीर का भार लिए उनकी पीठ पर हुमच रहे हैं।
मालती ने समीप जा कर उत्तेजित स्वर में कहा — मिर्जा खुर्शेदए यह फेयर नहीं है। बाजी ड्रान रही।
खुर्शेद ने मेहता की गर्दन पर एक घस्सा लगा कर कहा — जब तक यह श्चींश् न बोलेंगेए मैं हरगिज न छोड़ूँगा। क्यों नहीं श्चींश्श् बोलतेघ्
मालती और आगे बढ़़ी — श्चींश् बुलाने के लिए आप इतनी जबरदस्ती नहीं कर सकते।
मिर्जा ने मेहता की पीठ पर हुमच कर कहा — बेशक कर सकता हूँ। आप इनसे कह देंए श्चींश्श् बोलेंए मैं अभी उठा जाता हूँ।
मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा कीए पर मिर्जा ने उनकी गर्दन दबा दी।
मालती ने उनका हाथ पकड़ कर घसीटने की कोशिश करके कहा — यह खेल नहींए अदावत है।
श्अदावत ही सही।श्
श्आप न छोड़ेंगेघ्श्
उसी वक्त जैसे कोई भूकंप आ गया। मिर्जा साहब जमीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हजारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह कायापलट हुईए कोई समझ न सका।
मिर्जा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिए हुए शामियाने तक आए। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे — डाक्टर साहब ने बाजी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाजी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और दम और धैर्य का बखान कर रहे थे।
मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गई थीं। उन्हें एक—एक नारंगी दे कर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय—पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्जा एक ही मेज पर आमने—सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी।
मेहता ने कहा — मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है।
मिर्जा ने मालती की ओर देखा — अच्छा! यह बात थी। जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गए।
मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली — आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिर्जा जी! मुझे आज मालूम हुआ।
श्कुसूर इनका था। यह क्यों श्चींश् नहीं बोलते थेघ्श्
श्मैं तो श्चींश् न बोलताए चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।श्
कुछ देर मित्रों में गपशप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग विदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गई। केवल मेहता और मिर्जा रह गए। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनतेघ् गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे।
मिर्जा ने पूछा — शादी कब तक होगीघ्
मेहता ने अचंभे में आ कर पूछा — किसकीघ्
श्आपकी।श्
श्मेरी शादी। किसके साथ हो रही हैघ्श्
श्वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैंए गोया यह भी छिपाने की बात है।श्
श्नहीं—नहींए मैं सच कहता हूँए मुझे बिलकुल खबर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही हैघ्श्
श्और आप क्या समझते हैंए मिस मालती आपकी कंपेनियन बन कर रहेंगीघ्श्
मेहता गंभीर भाव से बोले — आपका खयाल बिलकुल गलत है मिर्जा जी! मिस मालती हसीन हैंए खुशमिजाज हैंए समझदार हैंए रोशनखयाल हैं और भी उनमें कितनी खूबियाँ हैंए लेकिन मैं अपने जीवन—संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँए वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति हैए जो अपनी बेजबानी सेए अपनी कुर्बानी सेए अपने को बिलकुल मिटा कर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगेए मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाताघ् औरत ही से क्यों इसकी आशा करता हैघ् मर्द में वह सामर्थ्य ही नहीं है। वह अपने को मिटाएगाए तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेज प्रधान जीव हैए और अहंकार में यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला हैए सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान हैए शांति—संपन्न हैए सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैंए तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैंए तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की ओरए जो सवार्ंश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नजरों में क्या है। संसार में जो कुछ सुंदर हैए उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँए मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आए। अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पण कर दूँगा।
मिर्जा ने सिर हिला कर कहा — ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले।
मेहता ने हाथ मार कर कहा — एक नहीं हजारोंए वरना दुनिया वीरान हो जाती।
श्ऐसी एक ही मिसाल दीजिए।श्
श्मिसेज खन्ना को ही ले लीजिए।श्
श्लेकिन खन्ना!श्
श्खन्ना अभागे हैंए जो हीरा पा कर काँच का टुकड़ा समझ रहे हैं। सोचिएए कितना त्याग है और उसके साथ ही कितना प्रेम है। खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके लिए रत्ती—भर भी स्थान नहीं हैए लेकिन आज खन्ना पर कोई आगत आ जायए तो वह अपने को उन पर न्योछावर कर देगी। खन्ना आज अंधे या कोढ़़ी हो जायँए तो भी उसकी वफादारी में फर्क न आएगा। अभी खन्ना उसकी कद्र नहीं कर रहे हैंए मगर आप देखेंगेए एक दिन यही खन्ना उसके चरण धो—धो कर पिएँगे। मैं ऐसी बीबी नहीं चाहताए जिससे मैं आइंस्टीन के सिद्धांत पर बहस कर सकूँए या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँए जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना देए अपने प्रेम और त्याग से।श्
खुर्शेद ने दाढ़़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा — आपका खयाल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जायए तो मैं भी शादी कर लूँए लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले।
मेहता ने हँस कर कहा — आप भी तलाश में रहिएए मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तकदीर जागे।
श्मगर मिस मालती आपको छोड़ने वाली नहीं। कहिए लिख दूँ।श्
श्ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँए ब्याह नहीं। ब्याह तो आत्मसमर्पण है।श्
श्अगर ब्याह आत्मसमर्पण है तो प्रेम क्या हैघ्श्
श्प्रेम जब आत्मसमर्पण का रूप लेता हैए तभी ब्याह हैए उसके पहले ऐयाशी है।श्
मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गए। शाम हो गई थी। मिर्जा ने जा कर देखाए तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिर्जा ने प्रसन्न हो कर कहा — जाओए अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगेघ्
गोबर ने कातर भाव से कहा — मैं कहीं नौकरी करना चाहता हूँ मालिक।
श्नौकरी करना हैए तो हम तुझे रख लेंगे।श्
श्कितना मिलेगा हुजूरघ्श्
श्जितना तू माँगे।श्
श्मैं क्या माँगूँ। आप जो चाहे दे दें।श्
श्हम तुम्हें पंद्रह रुपए देंगे और खूब कस कर काम लेंगे।श्
गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलेंए तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पंद्रह रुपए मिलेंए तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा।
बोला — मेरे लिए कोठरी मिल जायए वहीं पड़ा रहूँगा।
श्हाँ—हाँए जगह का इंतजाम मैं कर दूँगा। इसी झोंपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़े रहना।श्
गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया।
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भाग 13
होरी की फसल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटाए मगर जेठ लगते—लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच—पाँच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिलेए एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर—पेट न मिलेए आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससेघ् गाँव के छोटे—बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करेए तो किसकीघ् जेठ में अपना ही काम ढ़ेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थीए लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!
साँझ हो गई थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिलेए तो दूध कहाँ से निकलेघ् सोना परिस्थिति समझती थीए मगर रूपा क्या समझे। बार—बार रोटी—रोटी चिल्ला रही थी। दिन—भर तो कच्ची अमिया से जी बहलाए मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया थाए पर वह दुकान बंद करके पैंठ चली गई थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न कियाए लताड़ भी दी — उधार माँगने चले हैंए तीन साल से धेला सूद नहीं दियाए उस पर उधार दिए जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती हैए तो यही हाल होता है। भगवान से भी यह अनीति नहीं देखी जाती है। कारकुन की डाँट पड़ीए तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिए। मेरे रुपएए रुपए ही नहीं हैं और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।
वहाँ से रूआँसा हो कर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आई। रसोई के द्वार पर जा कर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली — आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभीजीघ् अब तो बेला हो गई।
जब से गोबर भागा थाए पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गई थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी — हत्याराए गऊ—हत्या करके भागा। मुँह में कालिख लगी हैए घर कैसे आएघ् और आए भी तो घर के अंदर पाँव न रखने दूँ। गऊ—हत्या करते इसे लाज भी न आई। बहुत अच्छा होताए पुलिस बाँध कर ले जाती और चक्की पिसवाती!
धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली — रोटी कहाँ से बनेए घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दियाए बाल—बच्चे मरें या जिएँ। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं।
पुनिया की फसल अच्छी हुई थीए और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी।
बोली — अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लियाघ् वह भी तो महतो ही की कमाई हैए कि किसी और कीघ् सुख के दिन आएँए तो लड़ लेनाए दुरूख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अंधी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होताए तो आज मुझे कहाँ सरन मिलतीघ्
वह उल्टे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गई। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे ला कर आँगन में रख दिए। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पाई थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी—सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई ला कर रख दी और बोली — चलोए मैं आग जलाए देती हूँ।
धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी—सी डलिया में चार—पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भर कर बोली — सब—का—सब उठा लाई कि घर में कुछ छोड़ाघ् कहीं भागा जाता थाघ्
आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में ले कर दुलारती हुई बोली — तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभी जी! पंद्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआए तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो—तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान मालिक है।
झुनिया ने आ कर आँचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चलीए रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रूकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर थाए फेन थाए शोर थाए गति की तीव्रता थीए वह अवरोध के हट जाने से शांत मधुर—ध्वनि के साथ समए धीमीए एक—रस धार में बहने लगा।
पुनिया बोली — महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थीघ्
धनिया ने कहा — बिरादरी में सुरखरू कैसे होतेघ्
श्भाभीए बुरा न मानो तोए एक बात कहूँघ्श्
श्कहए बुरा क्यों मानूँगीघ्श्
श्न कहूँगीए कहीं तुम बिगड़ने न लगोघ्श्
श्कहती हूँए कुछ न बोलूँगीए कह तो।श्
श्तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिए था!श्
श्तब क्या करतीघ् वह डूब मरती थी।श्
श्मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।श्
श्यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देतीए तो झाड़ू ले कर दौड़ती!श्
श्इतने खरच में तो गोबर का ब्याह हो जाता।श्
श्होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटाए भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता हैए मुझे सगाई नहीं करनीए मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिए फिरते हैं। हमारे कौन बैठा हैए जो उससे लड़े। इस सत्यानासी गाय ने आ कर घर चौपट कर दिया।श्
कुछ और बातें करके पुनिया आग ले कर चली गई। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आ कर बोला — पुनिया दिल की साफ है।
श्हीरा भी तो दिल का साफ थाघ्श्
धनिया ने अनाज तो रख लिया थाए पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा।
श्तू किसी का औसान नहीं मानतीए यही तुझमें बुराई है।श्
श्औसान क्यों मानूँघ् मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा हैघ् फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक—एक दाना भर दूँगी।श्
मगर पुनिया अपने जिठानी के मनोभाव समझ कर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब अनाज चुक जाताए मन—दो—मन दे जातीए मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई तो समस्या अत्यंत जटील हो गई। सावन का महीना आ गया था और बगुले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा—थोड़ा पानी मिलता थाए मगर उसके पीछे आए दिन लाठियाँ निकलती थीं। यहाँ तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह—जगह चोरियाँ होने लगींए डाके पड़ने लगे। सारे प्रांत में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वर्षा हो गई और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन! प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थेए मानो पानी नहींए अशर्फियाँ बरस रही हों। बटोर लोए जितना बटोरते बने। खेतों में जहाँ बगुले उठते थेए वहाँ हल चलने लगे। बालवृंद निकल—निकल कर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो! तालाब तो आधा भर गयाए और वहाँ से गड़हिया की तरफ दौड़े।
मगर अब कितना ही पानी बरसेए ऊख तो विदा हो गई। एक—एक हाथ की होके रह जायगीए मक्का और जुआर और कोदों से लगान थोड़े ही चुकेगाए महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हाँए गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया।
जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न मिलेए तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला — यही है तुम्हारा कौलघ् इसी मुँह से तुमने ऊख पेर कर मेरे रुपए देने का वादा किया थाघ् अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे हाथ में।
होरी जब अपने विपत्ति सुना कर और सब तरह से चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटाए तो उसने झुँझला कर कहा — तो महतोए इस बखत तो मेरे पास रुपए नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकता है। मैं कहाँ से लाऊँघ् दाने—दाने की तंगी हो रही है। बिस्वास न होए घर में आ कर देख लो। जो कुछ मिलेए उठा ले जाओ।
भोला ने निर्मम भाव से कहा — मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊँ और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपए हैं या नहीं। तुमने ऊख पेर कर रुपए देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब रुपए मेरे हवाले करो।
श्तो फिर जो कहोए वह करूँघ्श्
श्मैं क्या कहूँ घ्श्
श्मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूँ।श्
श्मैं तुम्हारे दोनों बैल खोल ले जाऊँगा।श्
होरी ने उसकी ओर विस्मय—भरी आँखों से देखाए मानो अपने कानों पर विश्वास न आया हो। फिर हतबुद्धि—सा सिर झुका कर रह गया। भोला क्या उसे भिखारी बना कर छोड़ देना चाहते हैंघ् दोनों बैल चले गएए तब तो उसके दोनों हाथ ही कट जाएँगे।
दीन स्वर में बोला — दोनों बैल ले लोगेए तो मेरा सर्वनास हो जायगा। अगर तुम्हारा धरम यही कहता हैए तो खोल ले जाओ।
श्तुम्हारे बनने—बिगड़ने की मुझे परवा नहीं है। मुझे अपने रुपए चाहिए।श्
और जो मैं कह दूँए मैंने रुपए दे दिएघ्श्
भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। होरी इतनी बड़ी बेइमानी कर सकता हैए यह संभव नहीं।
उग्र हो कर बोला — अगर तुम हाथ में गंगाजली ले कर कह दो कि मैंने रुपए दे दिएए तो सबर कर लूँगा।
श्कहने का मन तो चाहता हैए मरता क्या न करताए लेकिन कहूँगा नहीं।श्
श्तुम कह ही नहीं सकते।श्
श्हाँ भैयाए मैं नहीं कह सकता। हँसी कर रहा था।श्
एक क्षण तक वह दुविधा में पड़ा रहा। फिर बोला — तुम मुझसे इतना बैर क्यों पाल रहे हो भोला भाई! झुनिया मेरे घर में आ गईए तो मुझे कौन—सा सरग मिल गयाघ् लड़का अलग हाथ से गयाए दो सौ रूपया डाँड़ अलग भरना पड़ा। मैं तो कहीं का न रहा और अब तुम भी मेरी जड़ खोद रहे हो। भगवान जानते हैंए मुझे बिलकुल न मालूम था कि लौंडा क्या कर रहा है। मैं तो समझता थाए गाना सुनने जाता होगा। मुझे तो उस दिन पता चलाए जब आधी रात को झुनिया घर में आ गई। उस बखत मैं घर में न रखताए तो सोचोए कहाँ जातीघ् किसकी हो कर रहतीघ्
झुनिया बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह बातें सुन रही थी। बाप को अब वह बाप नहीं शत्रु समझती थी। डरीए कहीं होरी बैलों को दे न दें। जा कर रूपा से बोली — अम्माँ को जल्दी से बुला ला। कहनाए बड़ा काम हैए बिलम न करो।
धनिया खेत में गोबर फेंकने गई थीए बहू का संदेश सुनाए तो आ कर बोली — काहे बुलाया है बहूए मैं तो घबड़ा गई।
श्काका को तुमने देखा है नघ्श्
श्हाँ देखाए कसाई की तरह द्वार पर बैठा हुआ है। मैं तो बोली भी नहीं।श्
श्हमारे दोनों बैल माँग रहे हैंए दादा से।श्
धनिया के पेट की आँतें भीतर सिमट गईं।
श्दोनों बैल माँग रहे हैंघ्श्
श्हाँए कहते हैं या तो हमारे रुपए दोए या हम दोनों बैल खोल ले जाएँगे।श्
श्तेरे दादा ने क्या कहाघ्श्
श्उन्होंने कहा — तुम्हारा धरम कहता होए तो खोल ले जाओ।श्
श्तो खोल ले जायए लेकिन इसी द्वार पर आ कर भीख न माँगेए तो मेरे नाम पर थूक देना। हमारे लहू से उसकी छाती जुड़ाती होए तो जुड़ा ले।श्
वह इसी तैश में बाहर आ कर होरी से बोली — महतो दोनों बैल माँग रहे हैंए तो दे क्यों नहीं देतेघ् उनका पेट भरेए हमारे भगवान मालिक हैं। हमारे हाथ तो नहीं काट लेंगेघ् अब तक अपने मजूरी करते थेए अब दूसरों की मजूरी करेंगे। भगवान की मरजी होगीए तो फिर बैल—बधिए हो जाएँगेए और मजूरी ही करते रहेए तो कौन बुराई है। बूड़े—सूखे और पोत—लगान का बोझ न रहेगा। मैं न जानती थीए यह हमारे बैरी हैंए नहीं गाय ले कर अपने सिर पर विपत्ति क्यों लेती! उस निगोड़ी का पौरा जिस दिन से आयाए घर तहस—नहस हो गया।
भोला ने अब तक जिस शस्त्र को छिपा रखा थाए अब उसे निकालने का अवसर आ गया। उसे विश्वास हो गयाए बैलों के सिवा इन सबों के पास कोई अवलंब नहीं है। बैलों को बचाने के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार हो जाएँगे। अच्छे निशानेबाज की तरह मन को साध कर बोला — अगर तुम चाहते हो कि हमारी बेइज्जती हो और तुम चौन से बैठोए तो यह न होगा। तुम अपने सौ—दो—सौ को रोते हो। यहाँ लाख रुपए की आबरू बिगड़ गई। तुम्हारी कुसल इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा थाए वैसे ही घर से निकाल दोए फिर न हम बैल माँगेंगेए न गाय का दाम माँगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई हैए तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूँ। वह यहाँ रानी बनी बैठी रहेए और हम मुँह में कालिख लगाए उसके नाम को रोते रहेंए यह मैं नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी हैए मैंने उसे गोद में खिलाया हैए और भगवान साखी हैए मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझाए लेकिन आज उसे भीख माँगते और घूर पर दाने चुनते देख कर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप हो कर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया हैए तब सोचोए मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुँहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए होए यह मेरी छाती पर मूँग दलना नहीं तो और क्या है!
धनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा — तो महतोए मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते होए वह न होगी। सौ जनम न होगी। झुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते होए ले जाओए अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती होए तो जोड़ लोए पुरखों की आबरू बचती होए तो बचा लो। झुनिया से बुराई जरूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पाँव रखाए मैं झाड़ू ले कर मारने को उठी थीए लेकिन जब उसकी आँखों से झर—झर आँसू बहने लगेए तो मुझे उस पर दया आ गई। तुम अब बूढ़़े हो गए महतो! पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है।
भोला ने अपील—भरी आँखों से होरी को देखा — सुनते हो होरी इसकी बातें! अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिए न जाऊँगा।
होरी ने —ढ़़ता से कहा — ले जाओ।
श्फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गए!श्
श्नहीं रोऊँगा।श्
भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहनेए बच्चे को गोद में लिएए बाहर निकल आई और कंपित स्वर में बोली — काकाए लो मैं इस घर से निकल जाती हूँ और जैसी तुम्हारी मनोकामना हैए उसी तरह भीख माँग कर अपना और अपने बच्चे का पेट पालूँगीए और जब भीख भी न मिलेगीए तो कहीं डूब मरूँगी।
भोला खिसिया कर बोला — दूर हो मेरे सामने से। भगवान न करेए मुझे फिर तेरा मुँह देखना पड़े। कुलच्छिनीए कुल—कलंकनी कहीं की! अब तेरे लिए डूब मरना ही उचित है।
झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध थाए जो अपने को खा जाना चाहता हैए जिसमें हिंसा नहींए आत्मसमर्पण है। धरती इस वक्त मुँह खोल कर उसे निगल लेतीए तो वह कितना धन्य मानती। उसने आगे कदम उठाया।
लेकिन वह दो कदम भी न गई थी कि धनिया ने दौड़ कर उसे पकड़ लिया और हिंसा—भरे स्नेह से बोली — तू कहाँ जाती है बहूए चल घर में। यह तेरा घर हैए हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वहए जिसे अपने संतान से बैर हो। इस भले आदमी को मुँह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच! ले जाए बैलों का रकत पी....
झुनिया रोती हुई बोली — अम्माँए जब अपना बाप हो के मुझे धिक्कार रहा हैए तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दुरूख ही मिला। जब से आईए तुम्हारा घर मिट्टी में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखाए माँ भी न रखती। भगवान मुझे फिर जनम देंए तो तुम्हारी कोख से देंए यही मेरी अभिलाखा है।
धनिया उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली — यह तेरा बाप नहीं हैए तेरा बैरी हैए हत्यारा। माँ होतीए तो अलबत्ते उसे कलंक होता। ला सगाई। मेहरिया जूतों से न पीटेए तो कहना!
झुनिया सास के पीछे—पीछे घर में चली गई। उधर भोला ने जा कर दोनों बैलों को खूँटों से खोला और हाँकता हुआ घर चलाए जैसे किसी नेवते में जा कर पूरियों के बदले जूते पड़े होंघ् अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना चाहते हैं सबए न जाने कब का बैर निकाल रहे हैं। नहींए ऐसी लड़की को कौन भला आदमी अपने घर में रखेगाघ् सब—के—सब बेसरम हो गए हैं। लौंडे का कहीं ब्याह न होता था इसी से। और इस राँड़ झुनिया की ढ़िठाई देखो कि आ कर मेरे सामने खड़ी हो गई। दूसरी लड़की होतीए तो मुँह न दिखाती। आँखों का पानी मर गया है। सबके सब दुष्ट और मूरख भी हैं। समझते हैंए झुनिया अब हमारी हो गई। यह नहीं समझतेए जो अपने बाप के घर न रहीए वह किसी के घर नहीं रहेगी। समय खराब हैए नहीं बीच बाजार में इस चुड़ैल धनिया के झोंटे पकड़ कर घसीटता। मुझे कितनी गालियाँ देती थी।
फिर उसने दोनों बैलों को देखाए कितने तैयार हैं। अच्छी जोड़ी है। जहाँ चाहूँए सौ रुपए में बेच सकता हूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे हो जाएँगे।
अभी वह गाँव के बाहर भी न निकला था कि पीछे से दातादीनए पटेश्वरीए शोभा और दस—बीस आदमी और दौड़े आते दिखाई दिए! भोला का लहू सर्द हो गया। अब फोजदारी हुईए बैल भी छिन जाएँगेए मार भी पड़ेगी। वह रूक गया कमर कस कर। मरना ही है तो लड़ कर मरेगा।
दातादीन ने समीप आ कर कहा — यह तुमने क्या अनर्थ किया भोलाए ऐं! उसके बैल खोल लाएए वह कुछ बोला नहींए इसी से सेर हो गए। सब लोग अपने—अपने काम में लगे थेए किसी को खबर भी न हुई। होरी ने जरा—सा इशारा कर दिया होताए तो तुम्हारा एक—एक बाल नुच जाता। भला चाहते होए तो ले चलो बैलए जरा भी भलमंसी नहीं है तुममें।
पटेश्वरी बोले — यह उसके सीधेपन का फल है। तुम्हारे रुपए उस पर आते हैंए तो जा कर दीवानी में दावा करोए डिगरी कराओ। बैल खोल लाने का तुम्हें क्या अख्तियार हैघ् अभी फौजदारी में दावा कर दे तो बँधे—बँधे फिरो।
भोला ने दब कर कहा — तो लाला साहबए हम कुछ जबरदस्ती थोड़े ही खोल लाए। होरी ने खुद दिए।
पटेश्वरी ने भोला से कहा — तुम बैलों को लौटा दो भोला! किसान अपने बैल खुशी से देगाए कि इन्हें हल में जोतेगा।
भोला बैलों के सामने खड़ा हो गया — हमारे रुपए दिलवा दोए हमें बैलों को ले कर क्या करना हैघ्
श्हम बैल लिए जाते हैंए अपने रुपए के लिए दावा करो और नहीं तो मार कर गिरा दिए जाओगे। रुपए दिए थे नगद तुमनेघ् एक कुलच्छिनी गाय बेचारे के सिर मढ़़ दी और अब उसके बैल खोले लिए जाते हो।श्
भोला बैलों के सामने से न हटा। खड़ा रहा गुमसुमए —ढ़़ए मानो मर कर ही हटेगा। पटवारी से दलील करके वह कैसे पेश पाताघ्
दातादीन ने एक कदम आगे बढ़़ा कर अपने झुकी कमर को सीधा करके ललकारा — तुम सब खड़े ताकते क्या होए मार के भगा दो इसको। हमारे गाँव से बैल खोल ले जायगा।
बंशी बलिष्ठ युवक था। उसने भोला को जोर से धक्का दिया। भोला सँभल न सकाए गिर पड़ा। उठना चाहता था कि बंशी ने फिर एक घूँसा दिया।
होरी दौड़ता हुआ आ रहा था। भोला ने उसकी ओर दस कदम बढ़़ कर पूछा — ईमान से कहना होरी महतोए मैंने बैल जबरदस्ती खोल लिएघ्
दातादीन ने इसका भावार्थ किया — यह कहते हैं कि होरी ने अपने खुशी से बैल मुझे दे दिए। हमीं को उल्लू बनाते हैं!
होरी ने सकुचाते हुए कहा — यह मुझसे कहने लगे या तो झुनिया को घर से निकाल दोए या मेरे रुपए दोए नहीं तो मैं बैल खोल ले जाऊँगा। मैंने कहा — मैं बहू को तो न निकालूँगाए न मेरे पास रुपए हैंए अगर तुम्हारा धरम कहेए तो बैल खोल लो। बसए मैंने इनके धरम पर छोड़ दिया और इन्होंने बैल खोल लिए।
पटेश्वरी ने मुँह लटका कर कहा — जब तुमने धरम पर छोड़ दियाए तब काहे की जबरदस्ती। उसके धरम ने कहा — लिए जाता है। जाओ भैयाए बैल तुम्हारे हैं।
दातादीन ने समर्थन किया — हाँए जब धरम की बात आ गईए तो कोई क्या कहे। सब—के—सब होरी को तिरस्कार की आँखों से देखते परास्त हो कर लौट पड़े और विजयी भोला शान से गर्दन उठाए बैलों को ले चला।
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भाग 14
मालती बाहर से तितली हैए भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं हैए केवल गुड़ खा कर कौन जी सकता है! और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हँसती हैए इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकनाए इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती हैए या उसने निजत्व को अपने आँखों में इतना बढ़़ा लिया है कि जो कुछ करेए अपने ही लिए करे। नहींए वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हल्का हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थेए जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे—न्यारे करते थे। बड़े—बड़े जमींदारों और रईसों की जायदादें बिकवानाए उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिल कर तय करा देनाए यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम से कुछ मिलने की आशा होए वह उठा लेंगेए और किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस—बीस हजार उसी में मार लिए। यही दलाल जब छोटे—छोटे सौदे करते हैंए तो टाउट कहे जाते हैंए और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े—बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गर्वनरों की मेज पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ थीं! उनका विचार था कि तीनों को इंग्लैंड भेज कर शिक्षा के शिखर पर पहुँचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी खयाल था कि इंग्लैंड में शिक्षा पा कर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहाँ की जलवायु में बुद्धि को तेज कर देने की कोई शक्ति हैए मगर उनकी यह कामना एक—तिहाई से ज्यादा पूरी न हुई। मालती इंग्लैंड में ही थी कि उन पर फालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते—बैठते थे। जबान तो बिलकुल बंद ही हो गई। और जब जबान ही बंद हो गईए तो आमदनी भी बंद हो गई। जो कुछ थीए जबान ही की कमाई थी। कुछ बचा कर रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थीए और अनियमित खर्च थाए इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार—पाँच सौ रुपए में वह भोग—विलास और ठाठ—बाट तो क्या निभता! हाँए इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह जिंदगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहेंए लेकिन पिताजी को शराब—कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलताए तो एक महाजन से अपने बँगले पर प्रोनोट लिख कर हजार दो हजार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र थाए जिसने उनकी बदौलत लेन—देन में लाखों कमाए थेए और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न थाए उसके पचीस हजार चढ़़ चुके थेए और जब चाहताए कुर्की करा सकता थाए मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती हैए वह कौल में भी थी। तकाजे हुआ करेंए उन्हें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झुँझलाती रहती थीए लेकिन उसकी माता जो साक्षात देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी—जीवन का मुख्य हेतु समझती थींए उसे समझाती रहती थींए इसलिए गृह—युद्ध न होने पाता था।
संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गरमी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी।
मालती ने पूछा — माली क्या बिलकुल पानी नहीं देताघ्
मँझली बहन सरोज ने कहा — पड़ा—पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहोए तो बीस बहाने निकालने लगता है।
सरोज बी.ए में पढ़़ती थीए दुबली—सीए लंबीए पीलीए रूखीए कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहेए लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता।
सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता थाए वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद हैए वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी—सीए गर्वशीलए स्वस्थए चंचल आँखों वाली बालिका थीए जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली — दिन—भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैंए फुरसत ही कहाँ पाता है। मरने की छुट्टी तो मिलती नहींए पड़ा—पड़ा सोएगा।
सरोज ने डाँटा — दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं रीए झूठी कहीं की!
श्रोज भेजते हैंए रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुला कर पुछवा दूँघ्श्
श्पुछवाएगीए बुलाऊँघ्श्
मालती डरी। दोनों गुथ जायँगीए तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदल कर बोली — अच्छा खैरए होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण हुआ थाए सरोजघ्
सरोज ने नाक सिकोड़ कर कहा — हाँए हुआ तो थाए लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगेघ् संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटीयाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित हो कर बैठ गए। कुछ अजीब—से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुकू ने उनका खूब मजाक उड़ाया।
मालती ने कटाक्ष किया — लेडी हुकू नेघ् इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगाघ्
श्पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे थाघ् वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।श्
श्फिर उन्हें बुलाया ही क्योंघ् आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैंए उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी—सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैंए वही सत्य है। बहुत संभव हैए आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।श्
उसने फ्रांसए जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाए और कहा — शीघ्र ही वीमेन्स लीग की ओर से मेहता का भाषण होने वाला है।
सरोज को कौतूहल हुआ।
श्मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए।श्
श्अब भी कहती हूँए लेकिन दूसरे पक्ष वाले क्या कहते हैंए यह भी तो सुनना चाहिए। संभव हैए हमीं गलती पर हों।श्
यह लीग इस नगर की नई संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है। नगर की सभी शिक्षित महिलाएँ उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया थाए कि उनका खूब दंदाशिकन जवाब दिया जाए। मालती ही पर यह भार डाला गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियाँ और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियाँ अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुँचेए तो जान पड़ता थाए हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह! और वह उत्साह केवल मुख पर और आँखों में न था। आज सभी देवियाँ सोने और रेशम से लदी हुई थींए मानो किसी बारात में आई हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया गया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नए फैशन की साड़ी निकाली थीए नए काट के जंपर बनवाए थे। और रंग—रोगन और फूलों से खूब सजी हुई थीए मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थेए फिर भी देवियों के दिल काँप रहे थे। सत्य की एक चिनगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है।
सबसे पीछे की सफ में मिर्जा और खन्ना और संपादक जी भी विराज रहे थे। रायसाहब भाषण शुरू होने के बाद आए और पीछे खड़े हो गए।
मिर्जा ने कहा — आ जाइए आप भीए खड़े कब तक रहिएगाघ्
रायसाहब बोले — नहीं भाईए यहाँ मेरा दम घुटने लगेगा।
श्तो मैं खड़ा होता हूँ। आप बैठिए।श्
रायसाहब ने उनके कंधे दबाए — तकल्लुफ नहींए बैठे रहिए। मैं थक जाऊँगाए तो आपको उठा दूँगा और बैठ जाऊँगाए अच्छा मिस मालती सभानेत्री हुईं। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए।
खन्ना ने रोनी सूरत बना कर कहा — अब मिस्टर मेहता पर निगाह है। मैं तो गिर गया।
मिस्टर मेहता का भाषण शुरू हुआ —
श्देवियोए जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूँए तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैंए लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति श्देवताश् का व्यवहार करते सुना हैघ् उसे आप देवता कहेंए तो वह समझेगाए आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया हैए श्रद्धा हैए त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या हैघ् वह देवता नहींए लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता हैए संग्राम करता हैए कलह करता है...श्
तालियाँ बजीं। रायसाहब ने कहा — औरतों को खुश करने का इसने कितना अच्छा ढ़ंग निकाला।
श्बिजलीश् संपादक को बुरा लगा — कोई नई बात नहीं। मैं कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूँ।
मेहता आगे बढ़़े — इसलिए जब मैं देखता हूँए हमारी उन्नत विचारों वाली देवियाँ उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट हो कर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग हैए तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता।
मिसेज खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली।
खुर्शेद बोले — अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुँह पर।
श्बिजलीश् संपादक ने नाक सिकोड़ी — अब वह दिन लद गएए जब देवियाँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते जाओए आप तो देवी हैंए लक्ष्मी हैंए माता हैं।
मेहता आगे बढ़़े — स्त्री को पुरुष के रूप मेंए पुरुष के कर्म में रत देख कर मुझे उसी तरह वेदना होती हैए जैसे पुरुष को स्त्री के रूप मेंए स्त्री के कर्म करते देख कर। मुझे विश्वास हैए ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँए ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती।
खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी।
रायसाहब ने चुटकी ली — आप बहुत खुश हैं खन्ना जी!
खन्ना बोले — मालती मिलेंए तो पूछूँ। अब कहिए।
मेहता आगे बढ़़े — मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूँए उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव—मंदिर से हिंसा और कलह के दानव—क्षेत्र में आना चाहती हैंए तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में —ढ़़ हूँ। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीन कर और उसका रक्त बहा कर समझने लगाए उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पालाए उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बना कर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएँ उसके माथे पर केसर का तिलक लगा कर और उसे अपने असीसों का कवच पहना कर हिंसा—क्षेत्र में भेजती हैंए तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा—प्रवृत्ति दिन—दिन बढ़़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड हो कर समस्त संसार को रौंदतीए प्राणियों को कुचलतीए हरी—भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियोए मैं आपसे पूछता हूँए क्या आप इस दानवलीला में सहयोग दे करए इस संग्राम—क्षेत्र में उतर कर संसार का कल्याण करेंगीघ् मैं आपसे विनती करता हूँए नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिएए आप अपने धर्म का पालन किए जाइए।
खन्ना बोले — मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती।
रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया — मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं।
श्बिजलीश् संपादक बिगड़े — मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी—आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटाँग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरूष सेए पराक्रम सेए बुद्धि—बल सेए तेज से।
खुर्शेद ने कहा — अच्छाए सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगाघ्
मेहता का भाषण जारी था — देवियोए मैं उन लोगों में नहीं हूँए जो कहते हैंए स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैंए समान प्रवृत्तियाँ हैंए और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य हैए जो युग—युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढ़ँक लेना चाहता हैए जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढ़ँक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूँ कि आप इस जाल में न फँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ हैए जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ॠषियों का आश्रय ले कर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा हैए पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँए उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ।
तालियाँ बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गदगद हो कर कहा — मेहता वही कहते हैंए जो इनके दिल में है।
ओंकारनाथ ने टीका की — लेकिन बातें सभी पुरानी हैंए सड़ी हुई।
श्पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती हैए तो नई हो जाती है।श्
श्जो एक हजार रुपए हर महीने फटकार कर विलास में उड़ाता होए उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढ़ंग हैं।श्
खन्ना ने मालती की ओर देखा — यह क्यों फूली जा रही हैघ् इन्हें तो शरमाना चाहिए।
खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया — अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्नाए नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है।
खन्ना खिसिया कर बोले — मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फँसा कर छोड़ दी हैं।
रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आँख मार कर कहा — आजकल आप महिला—समाज की तरफ आते—जाते हैं। सच कहनाए कितना चंदा दियाघ्
खन्ना पर झेंप छा गई — मैं ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करताए जो कला का ढ़ोंग रच कर दुराचार फैलाते हैं।
मेहता का भाषण जारी था —
श्पुरुष कहता हैए जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैंए वह सब पुरुष थे। जितने बड़े—बड़े महात्मा हुए हैंए वह सब पुरुष थे। सभी योद्धाए सभी राजनीति के आचार्यए बड़े—बड़े नाविक सब कुछ पुरुष थेए लेकिन इन बड़ों—बड़ों के समूहों ने मिल कर किया क्याघ् महात्माओं और धर्म—प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या कियाए योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ीए राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैंए और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दीघ् पुरुषों की इस रची हुई संस्कृति में शांति कहाँ हैघ् सहयोग कहाँ हैघ्श्
ओंकारनाथ उठ कर जाने को हुए — विलासियों के मुँह से बड़ी—बड़ी बातें सुन कर मेरी देह भस्म हो जाती है।
खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़ कर बैठाया — आप भी संपादक जी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया हैए जिसके जी में जो आता हैए बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाते है चलिएए किस्सा खत्म। ऐसे—ऐसे बेशुमार मेहते आएँगे और चले जाएँगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन—सी बात हैघ्
श्असत्य सुन कर मुझसे सहा नहीं जाता।श्
रायसाहब ने उन्हें और चढ़़ाया — कुलटा के मुँह से सतियों की—सी बात सुन कर किसका जी न जलेगा!
ओंकारनाथ फिर बैठ गए। मेहता का भाषण जारी था..
श्मैं आपसे पूछता हूँए क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देख कर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़ कर चिड़ियों का शिकार करने लगेघ् और अगर वह शिकारी बन जाएए तो आप उसे बधाई देंगीघ् हंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं हैए उतने तेज चंगुल नहीं हैंए उतनी तेज आँखें नहीं हैंए उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियाँ लग जायँगीए फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहींए इसमें संदेह हैए मगर बाज बने या न बनेए वह हंस न रहेगा — वह हंस जो मोती चुगता है।श्
खुर्शेद ने टीका की — यह तो शायरों की—सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती हैए जैसेए नर बाज।
ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए — उस पर आप फिलॉसफर बनते हैंए इसी तर्क के बल पर।
खन्ना ने दिल का गुबार निकाला — फिलॉसफर नहीं फिलॉसफर की दुम हैं। फिलॉसफर वह है जो.....
ओंकारनाथ ने बात पूरी की — जो सत्य से जौ भर भी न टले।
खन्ना को यह समस्या—पूर्ति नहीं रूची — मैं सत्य—वत्य नहीं जानता। मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूँए जो फिलॉसफर हो सच्चा!
खुर्शेद ने दाद दी — फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाहए सुभानल्ला! फिलॉसफर वह हैए जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो!
मेहता आगे चले — मैं नहीं कहताए देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं हताए देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिकए लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहींए जिससे पुरुष ने संसार को हिंसाक्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्याऔर वही शक्ति आप भी ले लेंगीए तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहींए सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैंए वोटों से मानव—जाति का श्उद्धार होगाए या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने सेघ् इन नकलीए अप्राकृतिकए विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैंए जो आपको प्रकृति ने दिए हैंघ्
सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी — हमें वोट चाहिएए पुरुषों के बराबर।
और कई युवतियों ने हाँक लगाई — वोट! वोट!
ओंकारनाथ ने खड़े हो कर ऊँचे स्वर से कहा — नारी—जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो।
मालती ने मेज पर हाथ पटक कर कहा — शांत रहोए जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगेए उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा।
मेहता बोले — वोट नए युग का मायाजाल हैए मरीचिका हैए कलंक हैए धोखा हैए उसके चक्कर में पड़ कर आप न इधर की होंगीए न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैंए पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती हैए वहीं हमारा पालन होता हैए वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित हैए तो अपरिमित कौन—सा क्षेत्र हैघ् क्या वह संघर्षए जहाँ संगठित अपहरण हैघ् जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता हैए उसे छोड़ कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैंए जहाँ मनुष्य पीसा जाता हैए जहाँ उसका रक्त निकाला जाता हैघ्
मिर्जा ने टोका — पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है।
मेहता बोले — बेशकए पुरुषों ने अन्याय किया हैए लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइएए लेकिन अपने को मिटा कर नहीं।
मालती बोली — नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें।
मेहता ने उत्तर दिया — संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद हैए हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैंए जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिर कर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैंए इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैंए वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान—प्रदान होता आया हैए लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह—स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपने लज्जा और गरिमा कोए जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थीए चंचलता और आमोद—प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप काए या भरी हुई गोल बाँहों या अपने नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँए तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपने लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकती। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती हैघ्
रायसाहब ने तालियाँ बजाईं। हाल तालियों से गूँज उठाए जैसे पटाखों की लड़ियाँ छूट रही हों।
मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा — इसका जवाब तो आपके पास भी न होगाघ्
संपादक जी ने विरक्त मन से कहा — सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।
श्तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए!श्
श्जी नहींए अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढ़ूँढ़ निकालूँगाए श्बिजलीश् में देखिएगा।श्
श्इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करतेए सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।श्
रायसाहब ने आड़े हाथों लिया — इसी पर आपको अपने सत्य—प्रेम का अभिमान हैघ्
संपादक जी अविचल रहे — वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना हैए सत्य या असत्य का निराकरण नहीं।
श्तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैंघ्श्
श्मैं उन सभी लोगों का वकील हूँए जो निर्बल हैंए निस्सहाय हैंए पीड़ित हैं।श्
श्बड़े बेहया हो यार!श्
मेहता जी कह रहे थे — और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींच कर अपने बराबर बनाने के लिएए उन पुरुषों काए जो कायर हैंए जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं हैए जो स्वच्छंद काम—क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी—भरी खेती में मुँह डाल कर अपने कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षड्यंत्र सफल हो गया और देवियाँ तितलियाँ बन गईं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है। विशेष कर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेजी से चढ़़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्याग कर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं।
सरोज उत्तेजित हो कर बोली — हम पुरुषों से सलाह नहीं माँगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैंए तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी।
जोर से तालियाँ बजींए विशेष कर अगली पंक्तियों मेंए जहाँ महिलाएँ थीं।
मेहता ने जवाब दिया — जिसे तुम प्रेम कहती होए वह धोखा हैए उद्दीप्त लालसा का रूपए उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम हैए तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनंदए सच्ची शांति केवल सेवा—व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत हैए वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट हैए जो दंपति को जीवनपयर्ंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता हैए जिस पर बड़े—बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव हैए वहीं विवाह—विच्छेद हैए परित्याग हैए अविश्वास है। और आपके ऊपरए पुरुष—जीवन की नौका का कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहें तो नौका को आँधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी कीए तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जाएँगी।
भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद—ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति माँगीए मगर देर बहुत हो गई थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद दे कर सभा भंग कर दी। हाँए यह सूचना दे दी गई कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियाँ अपने विचार प्रकट करेंगी।
रायसाहब ने मेहता को बधाई दी — आपने मेरे मन की बातें कहीं मिस्टर मेहता। मैं आपके एक—एक शब्द से सहमत हूँ।
मालती हँसी — आप क्यों न बधाई देंगेए चोर—चोर मौसेरे भाई जो होते हैंए मगर यहाँ सारा उपदेश गरीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता हैघ् उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मर्यादा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता हैघ्
मेहता बोले — इसलिए कि वह बात समझती हैं।
खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी—बड़ी आँखों से देख कर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा — डाक्टर साहब के यह विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं।
मालती ने कटु हो कर पूछा — कौन से विचारघ्
श्यही सेवा और कर्तव्य आदि।श्
श्तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। तो कृपा करके अपने ताजे विचार बतलाइए। दंपति कैसे सुखी रह सकते हैंए इसका कोई ताजा नुस्खा आपके पास हैघ्श्
खन्ना खिसिया गए। बात कही मालती को खुश करने के लिएए और वह तिनक उठी। बोले — यह नुस्खा तो मेहता साहब को मालूम होगा।
श्डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके खयाल में वह सौ साल पुराना हैए तो नया नुस्खा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत—सी बातें हैंए जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकती। समाज में इस तरह की समस्याएँ हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी।
मिसेज खन्ना बरामदे में चली गई थीं। मेहता ने उनके पास जा कर प्रणाम करते हुए पूछा — मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय हैघ्
मिसेज खन्ना ने आँखें झुका कर कहा — अच्छा थाए बहुत अच्छाए मगर अभी आप अविवाहित हैंए तभी नारियाँ देवियाँ हैंए श्रेष्ठ हैंए कर्णधार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूँगीए अब नारियाँ क्या हैंघ् और विवाह आपको करना पड़ेगाए क्योंकि आप विवाह से मुँह चुराने वाले मदोर्ं को कायर कह चुके हैं।
मेहता हँसे — उसी के लिए तो जमीन तैयार कर रहा हूँ।
श्मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है।श्
श्शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठ कर आपसे नारी—धर्म सीखें।श्
श्वही स्वार्थी पुरुषों की बात! आपने पुरुष—कर्तव्य सीख लिया हैघ्श्
श्यही सोच रहा हूँ किससे सीखूँ।श्
श्मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं। श्
मेहता ने कहकहा मारा — नहींए मैं पुरुष—कर्तव्य भी आप ही से सीखूँगा।
श्अच्छी बात हैए मुझी से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और सारी जिम्मेदारी उसी पर हैए श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता हैए अगर उसमें इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह हैए इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।श्
मिर्जा साहब ने आ कर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले — मुबारक!
मेहता ने प्रश्न की आँखों से देखा — आपको मेरी तकरीर पसंद आईघ्
श्तकरीर तो खैर जैसी थी वैसी थीए मगर कामयाब खूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तकदीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुँह नहीं लगायाए वह आपका कलमा पढ़़ रही है।श्
मिसेज खन्ना दबी जबान से बोलीं — जब नशा ठहर जायए तो कहिए।
मेहता ने विरक्त भाव से कहा — मेरे जैसे किताब के कीड़ों को कौन औरत पसंद करेगी देवी जी! मैं तो पक्का आदर्शवादी हूँ।
मिसेज खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ जाते देखाए तो उधर चली गईं। मिर्जा भी बाहर निकल गए। मेहता ने मंच पर से अपने छड़ी उठाई और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आ कर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह—भरी आँखों से बोली — आप अभी नहीं जा सकते। चलिएए पापा से आपकी मुलाकात कराऊँ और आज वहीं खाना खाइए।
मेहता ने कान पर हाथ रख कर कहा — नहींए मुझे क्षमा कीजिए। वहाँ सरोज मेरी जान खा जायगी। मैं इन लड़कियों से बहुत घबराता हूँ।
श्नहीं—नहींए मैं जिम्मा लेती हूँए जो वह मुँह भी खोले।श्
श्अच्छाए आप चलिएए मैं थोड़ी देर में आऊँगा।श्
श्जी नहींए यह न होगा। मेरी कार सरोज ले कर चल दी। आप मुझे पहुँचाने तो चलेंगे ही।श्
दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली।
एक क्षण बाद मेहता ने पूछा — मैंने सुना हैए खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफरत हो गई। जो आदमी इतना निर्दयी होए उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहींघ्
मालती उद्विग्न हो कर बोली — ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती हैए यह आप भूले जाते हैं।
श्मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपने स्त्री को मारे।श्
श्चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान होघ्श्
श्हाँए कितनी ही।श्
श्तो आप एक नए किस्म के आदमी हैं।श्
श्अगर मर्द बदमिजाज हैए तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिएए क्योंघ्श्
श्स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती हैए पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।श्
श्तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है! मैं समझता हूँए तुम खन्ना को मुँह लगा कर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता हैए तुमसे उसे जितनी भक्ति हैए उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती होए मगर तुम उसकी सफाई दे कर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।श्
मालती उत्तेजित हो कर बोली — तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहतीए मगर अभी आपने गोविंदी देवी को पहचाना नहींघ् आपने उनकी भोली—भाली शांत मुद्रा देख कर समझ लियाए वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊँचा स्थान नहीं देना चाहती। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया हैए मुझ पर जैसे—जैसे आघात किए हैं वह बयान करूँए तो आप दंग रह जाएँगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए।
श्आखिर उन्हें आपसे जो इतना द्वेष हैए इसका कोई कारण तो होगाघ्श्
श्कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूमघ्श्
श्उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है — अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करेए तो मैं उसे गोली मार दूँगाए और उसे न मार सकूँगाए तो अपनी छाती में मार लूँगा। इसी तरह अगर मैं किसी स्त्री को अपनी और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूँए तो मेरी पत्नी को भी अधिकार है कि वह जो चाहेए करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति हैए जो हमने अपने बनैले पूर्वजों से पाई है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगेए लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृत्ति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूँ। इस विषय में मैं कानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा कानून है।श्
मालती ने तीव्र स्वर में पूछा — लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविंदी के बीच आना चाहती हूँघ् आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपने जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती।
मेहता ने अविश्वास—भरे स्वर में कहा — यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती! क्या आप सारी दुनिया को बेवकूफ समझती हैंघ् जो बात सभी समझ रहे हैंए अगर वही बात मिसेज खन्ना भी समझेंए तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता।
मालती ने तिनक कर कहा — दुनिया को दूसरों को बदनाम करने में मजा आता है। यह उसका स्वभाव है। मैं उसका स्वभाव कैसे बदल दूँए लेकिन यह व्यर्थ का कलंक हैं। हाँए मैं इतनी बेमुरौवत नहीं हूँ कि खन्ना को अपने पास आते देख कर दुतकार देती। मेरा काम ही ऐसा है कि मुझे सभी का स्वागत और सत्कार करना पड़ता है। अगर कोई इसका कुछ और अर्थ निकालता हैए तो वह..वह...
मालती का गला भर्रा गया और उसने मुँह फेर कर रूमाल से आँसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली — औरों के साथ तुम भी मुझे...मुझे...इसका दुख है.....मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी।
फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड हो कर बोली — आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं हैए अगर आप भी उन्हीं मदोर्ं में हैंए जो किसी स्त्री—पुरुष को साथ देख कर उँगली उठाए बिना नहीं रह सकतेए तो शौक से उठाइए। मुझे रत्ती—भर परवा नहीं। अगर कोई स्त्री आपके पास बार—बार किसी—न—किसी बहाने से आएए आपको अपना देवता समझेए हर एक बात में आपसे सलाह लेए आपके चरणों के नीचे आँखें बिछाएए आपको इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार होए तो मैं दावे से कह सकती हूँए आप उसकी उपेक्षा न करेंगे। अगर आप उसे ठुकरा सकते हैंए तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण ला कर रख देंए लेकिन मैं मानूँगी नहीं। मैं तो कहती हूँए उपेक्षा तो दूर रहीए ठुकराने की बात ही क्याए आप उस नारी के चरण धो—धो कर पिएँगेए और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़ कर कहती हूँए मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा।
मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा — शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूँ।
मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आएँगे तो मैं उन्हें दुरदुराऊँगी नहीं।श्
श्उनसे कहिएए अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आएँ।श्
श्मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है!श्
श्तो आप किसी की जबान नहीं बंद कर सकतीश्
मालती का बँगला आ गया। कार रूक गई। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाए चली गई। वह यह भी भूल गई कि उसने मेहता को भोजन की दावत दी है। वह एकांत में जा कर खूब रोना चाहती है। गोविंदी ने पहले भी आघात किए हैंए पर आज उसने जो आघात किया हैए वह बहुत गहराए बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है।
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भाग 15
रायसाहब को खबर मिली कि इलाके में एक वारदात हो गई है और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया हैए तो फोरन नोखेराम को बुला कर जवाब—तलब किया — क्यों उन्हें इसकी इत्तला नहीं दी गई। ऐसे नमकहराम और दगाबाज आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है।
नोखेराम ने इतनी गालियाँ खाईंए तो जरा गर्म हो कर बोले — मैं अकेला थोड़ा ही था। गाँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेताघ्
रायसाहब ने उनकी तोंद की तरफ भाले—जैसी नुकीली —ष्टि से देखा — मत बको जी। तुम्हें उसी वक्त कहना चाहिए थाए जब तक सरकार को इत्तला न हो जायए मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूँगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दखल देने का हक क्या हैघ् इस डाँड़—बाँध के सिवा इलाके में और कौन—सी आमदनी हैघ् वसूली सरकार के घर गई। बकाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊँघ् क्या खाऊँए तुम्हारा सिर। यह लाखों रुपए का खर्च कहाँ से आएघ् खेद है कि दो पुश्तों से कारिंदगीरी करने पर भी मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपए वसूल हुए थे होरी सेघ्
नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा — अस्सी रुपए।
श्नकदघ्श्
श्नकद उसके पास कहाँ थे हुजूर! कुछ अनाज दियाए बाकी में अपना घर लिख दिया।श्
रायसाहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़ कर होरी का पक्ष लिया — अच्छाए तो आपने और बगुलाभगत पंचों ने मिल कर मेरे एक मातबर असामी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूँए तुम लोगों को क्या हक था कि मेरे इलाके में मुझे इत्तिला दिए बगैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करतेघ् इसी बात पर अगर मैं चाहूँए तो आपकोए उस जालिए पटवारी और उस धूर्त पंडित को सात—सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूँ। आपने समझ लिया कि आप ही इलाके के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूँए आज शाम तक जुरमाने की पूरी रकम मेरे पास पहुँच जायए वरना बुरा होगा। मैं एक—एक से चक्की पिसवा कर छोडूँगा। जाइएए हाँए होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा।
नोखेराम ने दबी जबान से कहा — उसका लड़का तो गाँव छोड़ कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुईए उसी रात को भागा।
रायसाहब ने रोष से कहा — झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम हैए झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपने प्रेमिका को उसके घर से ला कर फिर खुद भाग जाए। अगर उसे भागना ही होताए तो वह उस लड़की को लाता क्योंघ् तुम लोगों की इसमें भी जरूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूब कर भी अपनी सफाई दोए तो मैं मानने का नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाताए तो क्या करता!
नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहेंए वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप खुद चल कर झूठ—सच की जाँच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता।
पंचों ने रायसाहब का फैसला सुनाए तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों—का—त्यों पड़ा थाए पर रुपए तो कब के गायब हो गए। होरी को मकान रेहन लिखा गया थाए पर उस मकान को देहात में कौन पूछता थाघ् जैसे हिंदू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी हैए और पति त्याग देए तो कहीं की नहीं रहतीए उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपए का हैए पर उसकी असली कीमत कुछ भी नहीं। और इधर रायसाहब बिना रुपए लिए मानने के नहीं। यही होरी जा कर रो आया होगा। पटेश्वरी लाल सबसे ज्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थेए पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक—दूसरे पर दोष रखता था। फिर खूब झगड़ा हुआ।
पटेश्वरी ने अपनी लंबी शंकाशील गर्दन हिला कर कहा — मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साध कर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगाए नौकरी से हाथ धोना पड़ेगाए मगर तुम लोगों को रुपए की पड़ी थी। निकालो बीस—बीस रुपए। अब भी कुशल है। कहीं रायसाहब ने रपट कर दीए तो सब जने बँधा जाओगे।
दातादीन ने ब्रह्म तेज दिखा कर कहा — मेरे पास बीस रुपए की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राह्मणों को भोज दिया गयाए होम हुआ। क्या इसमें कुछ खरच ही नहीं हुआघ् रायसाहब की हिम्मत है कि मुझे जेहल ले जायँ। ब्रह्म बन कर घर का घर मिटा दूँगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा।
झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह रायसाहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहींए पीटा नहींए कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायश्चित करना चाहता थाए तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकताए मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहाँ मजे से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपए से ज्यादा न थाए पर एक हजार साल की ऊपर की आमदनी थीए सैकड़ों आदमियों पर हुकूमतए चार—चार प्यादे हाजिरए बेगार में सारा काम हो जाता थाए थानेदार तक कुरसी देते थेए यह चौन उन्हें और कहाँ था। और पटेश्वरी तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहाँ जा सकते थे। दो—तीन दिन इसी चिंता में पड़े रहे कि कैसे इस विपत्ति से निकलें। आखिर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी—कभी कचहरी में उन्हें दैनिक श्बिजलीश् देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके संपादक की सेवा में भेज दिया जाय कि रायसाहब किस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैंए तो बचा को लेने के देने पड़ जायँ। नोखेराम भी सहमत हो गए। दोनों ने मिल कर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्टरी से भेज दिया।
संपादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरंत रायसाहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला हैए जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा नहीं होतीए पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिए हैं कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। क्या यह सच है कि रायसाहब ने अपने इलाके के एक आसामी से अस्सी रुपए तावान इसलिए वसूल किए कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया थाघ् संपादक का कर्तव्य उन्हें मजबूर करता है कि वह मुआमले की जाँच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें। रायसाहब इस विषय में जो कुछ कहना चाहेंए संपादक जी उसे भी प्रकाशित कर देंगे। संपादक जी दिल से चाहते हैं कि यह खबर गलत होए लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआए तो वह उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जाएँगे। मैत्री उन्हें कर्तव्य—पथ से नहीं हटा सकती।
रायसाहब ने यह सूचना पाईए तो सिर पीट लिया। पहले तो उनको ऐसी उत्तेजना हुई कि जा कर ओंकारनाथ को गिन कर पचास हंटर जमाएँ और कह देंए जहाँ वह पत्र छापनाए वहाँ यह समाचार भी छाप देनाए लेकिन इसका परिणाम सोच कर मन को शांत किया और तुरंत उनसे मिलने चले। अगर देर कीए और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दियाए तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी।
ओेंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए संपादकीय लेख लिखने की चिंता में बैठे हुए थेए पर मन पक्षी की भाँति उड़ा—उड़ा फिरता था। उनकी धर्मपत्नी ने रात उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थींए जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही थीं। उन्हें कोई दरिद्र कह लेए अभागा कह लेए बुद्धू कह लेए वह जरा भी बुरा न मानते थेए लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं हैए यह उनके लिए असहाय था। और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक हैघ् उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करेए तो उसका मुँह बंद कर दे। बेशक वह ऐसी खबरें नहीं छापतेए ऐसी टीप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफत आ जाए। फूँक—फूँक कर कदम रखते हैं। इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते हैंए मगर वह क्यों साँप के बिल में हाथ नहीं डालतेघ् इसीलिए तो कि उनके घर वालों को कष्ट न उठाने पड़ें। और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा हैघ् क्या अंधेर है! उनके पास रुपए नहीं हैंए तो बनारसी साड़ी कैसे मँगा देंघ् डाक्टरए सेठ और प्रोफेसर भाटीया और न जाने किस—किसकी स्त्रियाँ बनारसी साड़ी पहनती हैंए तो वह क्या करेंघ् क्यों उनकी पत्नी इन साड़ीवालियों को अपने खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करतीघ् उनकी खुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैंए तो मोटे से मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कोई कुछ आलोचना करेए तो उसका मुँह तोड़ जवाब देने को तैयार रहते हैं। उनकी पत्नी में क्यों वही आत्माभिमान नहीं हैघ् वह क्यों दूसरों का ठाट—बाट देख कर विचलित हो जाती हैघ् उसे समझना चाहिए कि वह एक देश—भक्त पुरुष की पत्नी है। देश—भक्त के पास अपने भक्ति के सिवा और क्या संपत्ति हैघ् इसी विषय को आज के अग्रलेख का विषय बनाने की कल्पना करते—करते उनका ध्यान रायसाहब के मुआमले की ओर जा पहुँचा। रायसाहब सूचना का क्या उत्तर देते हैंए यह देखना है। अगर वह अपनी सफाई देने में सफल हो जाते हैंए तब तो कोई बात नहींए लेकिन अगर वह यह समझें कि ओंकारनाथ दबावए भय या मुलाहजे में आ कर अपने कर्तव्य से मुँह फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है। इस सारे तप और साधना का पुरस्कार उन्हें इसके सिवा और क्या मिलता है कि अवसर पड़ने पर वह इन कानूनी डकैतों का भंडाफोड़ करें। उन्हें खूब मालूम है कि रायसाहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं। कौंसिल के मेंबर तो हैं ही। अधिकारियों में भी उनका काफी रूसूख है। वह चाहेंए तो उन पर झूठे मुकदमे चलवा सकते हैंए अपने गुंडों से राह चलते पिटवा सकते हैंए लेकिन ओंकार इन बातों से नहीं डरता। जब तक उसकी देह में प्राण हैए वह आततायियों की खबर लेता रहेगा।
सहसा मोटरकार की आवाज सुन कर वह चौंके। तुरंत कागज ले कर अपना लेख आरंभ कर दिया। और एक ही क्षण में रायसाहब ने उनके कमरे में कदम रखा।
ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत कियाए न कुशल—क्षेम पूछाए न कुरसी दी। उन्हें इस तरह देखाए मानो कोई मुलजिम उनकी अदालत में आया हो और रोब से मिले हुए स्वर में पूछा — आपको मेरा पुरजा मिल गया थाघ् मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य नहीं थाए मेरा कर्तव्य यह था कि स्वयं उसकी तहकीकात करताए लेकिन मुरौवत में सिद्धांतों की कुछ न कुछ हत्या करनी ही पड़ती है। क्या उस संवाद में कुछ सत्य हैघ्
रायसाहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर सके। हालाँकि अभी तक उन्हें जुरमाने के रुपए नहीं मिले थे और वह उनके पाने से साफ इनकार कर सकते थेए लेकिन वह देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर चलते हैं।
ओेंकारनाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा — तब तो मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मुझे इसका दुरूख है कि मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की आलोचना करनी पड़ रही हैए लेकिन कर्तव्य के आगे व्यक्ति कोई चीज नहीं। संपादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर सके तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई हक नहीं है।
रायसाहब कुरसी पर डट गए और पान की गिलौरियाँ मुँह में भर कर बोले — लेकिन यह आपके हक में अच्छा न होगा। मुझे जो कुछ होना हैए पीछे होगाए आपको तत्काल दंड मिल जायगा अगर आप मित्रों की परवाह नहीं करतेए तो मैं भी उसी कैंड़े का आदमी हूँ।
ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव धारण करके कहा — इसका तो मुझे कभी भय नहीं हुआ। जिस दिन मैंने पत्र—संपादन का भार लियाए उसी दिन प्राणों का मोह छोड़ दियाए और मेरे समीप एक संपादक की सबसे शानदार मौत यही है कि वह न्याय और सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर दे।
श्अच्छी बात है। मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूँ। मैं अब तक आपको मित्र समझता आया थाए मगर अब आप लड़ने ही पर तैयार हैंए तो लड़ाई ही सही। आखिर मैं आपके पत्र का पंचगुना चंदा क्यों देता हूँघ् केवल इसीलिए कि वह मेरा गुलाम बना रहे। मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है। आपके बनाने से नहीं बना हूँ। साधारण चंदा पंद्रह रूपया है। मैं पचहत्तर रूपया देता हूँए इसलिए कि आपका मुँह बंद रहे। जब आप घाटे का रोना रोते हैं और सहायता की अपील करते हैंए और ऐसी शायद ही कोई तिमाही जाती होए जब आपकी अपील न निकलती होए तो मैं ऐसे मौके पर आपकी कुछ—न—कुछ मदद कर देता हूँ। किसलिएघ् दीपावलीए दशहराए होली में आपके यहाँ बैना भेजता हूँए और साल में पच्चीस बार आपकी दावत करता हूँए किसलिएघ् आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ—साथ नहीं निभा सकते।श्
ओंकारनाथ उत्तेजित हो कर बोले — मैंने कभी रिश्वत नहीं ली।
रायसाहब ने फटकारा — अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या हैए जरा मुझे समझा दीजिए! क्या आप समझते हैंए आपको छोड़ कर और सभी गधे हैंए जो निरूस्वार्थ—भाव से आपका घाटा पूरा करते रहते हैंघ् निकालिए अपने बही और बतलाइएए अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका हैघ् मुझे विश्वास हैए हजारों की रकम निकलेगी। अगर आपको स्वदेशी—स्वदेशी चिल्ला कर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शरम नहीं आतीए तो मैं अपने असामियों से डाँड़ए तावान और जुर्माना लेते क्यों शरमाऊँघ् यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाए हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना—मरना हैए मुझसे बढ़़ कर दूसरा उनका हितेच्छु नहीं हो सकताए लेकिन मेरी गुजर कैसे होघ् अफसरों को दावतें कहाँ से दूँए सरकारी चंदे कहाँ से दूँ खानदान के सैकड़ों आदमियों की जरूरतें कैसे पूरी करूँघ् मेरे घर का क्या खर्च हैए यह शायद आप जानते हैंए तो क्या मेरे घर में रुपए फलते हैंघ् आएगा तो असामियों ही के घर से। आप समझते होंगेए जमींदार और ताल्लुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहींए अगर वह धर्मात्मा बन कर रहेंए तो उनका जिंदा रहना मुश्किल हो जाए। अफसरों को डालियाँ न देंए तो जेलखाना घर हो जाए। हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनंद का काम हैए लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फायदा उठाना चाहते हैंए उसी तरह और सभी हमें सोने की मुर्गी समझते हैं। आइए मेरे बँगले पर तो दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर से शाल—दुशाला लिए चला आ रहा हैए कोई इत्र और तंबाकू का एजेंट हैए कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं काए कोई जीवन बीमे काए कोई ग्रामोफोन लिए सिर पर सवार हैए कोई कुछ। चंदे वाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुखड़ा ले कर बैठ जाऊँघ् ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैंघ् आते हैं मुझे उल्लू बना कर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूँए तो तालियाँ पिटने लगें। हुक्काम को डालियाँ न दूँए तो बागी समझा जाऊँ। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे। कांग्रेस में शरीक हुआए उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ। काली किताब में नाम दर्ज हो गया। मेरे सिर पर कितना कर्ज हैए यह भी कभी आपने पूछा हैघ् अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा लेंए तो मेरे हाथ की यह अंगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगेए क्यों यह आडंबर पालते होघ् कहिएए सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूँए उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असंभव है। आपके पास जमीन नहींए जायदाद नहींए मर्यादा का झमेला नहींए आप निर्भीक हो सकते हैंए लेकिन आप भी दुम दबाए बैठे रहते हैं। आपको कुछ खबर हैए अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैंए कितने गरीबों का खून हो रहा हैए कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही हैं। है बूता लिखने काघ् सामग्री मैं देता हूँए प्रमाण सहित।
ओंकारनाथ कुछ नर्म हो कर बोले — जब कभी अवसर आया हैए मैंने कदम पीछे नहीं हटाया।
रायसाहब भी कुछ नर्म हुए — हाँए मैं स्वीकार करता हूँ कि दो—एक मौकों पर आपने जवाँमर्दी दिखाईए लेकिन आपकी निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही हैए प्रजा—हित की ओर नहीं। आँखें न निकालिए और न मुँह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आए हैंए उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इजाफा हुआ हैए अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे होंए तो आपकी खातिर करने को तैयार हूँ। रुपए न दूँगाए क्योंकि वह रिश्वत है। आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण बनवा दूँगा। है मंजूरघ् अब मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि आपको जो संवाद मिलाए वह गलत हैए मगर यह भी कह देना चाहता हूँ कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं भी असामियों से जुरमाना लेता हूँ और साल में दस—पाँच हजार रुपए मेरे हाथ लग जाते हैंए और अगर आप मेरे मुँह से यह कौर छीनना चाहेंगेए तो आप घाटे में रहेंगे। आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैंए मैं भी चाहता हूँ। इससे क्या फायदा कि आप न्याय और कर्तव्य का ढ़ोंग रच कर मुझे भी जेरबार करेंए खुद भी जेरबार हों। दिल की बात कहिए। मैं आपका बैरी नहीं हूँ। आपके साथ कितनी ही बार एक चौके में एक मेज पर खा चुका हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आप तकलीफ में हैं। आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी खराब है। हाँए अगर आपने हरिश्चंद्र बनने की कसम खा ली हैए तो आपकी खुशी। मैं चलता हूँ।
रायसाहब कुरसी से उठ खड़े हुए। ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़ कर संधि—भाव से कहा — नहीं—नहींए अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोजीशन साफ कर देना चाहता हूँ। आपने मेरे साथ जो सलूक किए हैंए उनके लिए मैं आपका अभारी हूँए लेकिन यहाँ सिद्धांत की बात आ गई है और आप तो जानते हैंए सिद्धांत प्राणों से भी प्यारे होते हैं।
रायसाहब कुरसी पर बैठ कर जरा मीठे स्वर में बोले — अच्छा भाईए जो चाहे लिखो। मैं तुम्हारे सिद्धांत को तोड़ना नहीं चाहता। और तो क्या होगाए बदनामी होगी। हाँए कहाँ तक नाम के पीछे मरूँ! कौन ऐसा ताल्लुकेदार हैए जो असामियों को थोड़ा—बहुत नहीं सताता घ् कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाए क्याघ् मैं इतना ही कर सकता हूँ कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगीए अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास हैए तो इस बार क्षमा कीजिए। किसी दूसरे संपादक से मैं इस तरह खुशामद नहीं करता। उसे सरे बाजार पिटवाताए लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती हैए इसलिए दबना ही पड़ेगा। यह समाचार—पत्रों का युग है। सरकार तक उनसे डरती हैए मेरी हस्ती क्या। आप जिसे चाहें बना दें। खैरए यह झगड़ा खत्म कीजिए। कहिएए आजकल पत्र की क्या दशा हैघ् कुछ ग्राहक बढ़़ेघ्
ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा — किसी न किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता। मैं इस तरफ धन और भोग की लालसा ले कर नहीं आया थाए इसलिए मुझे शिकायत नहीं है। मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किए जाता हूँ। राष्ट्र का कल्याण होए यही मेरी कामना है। एक व्यक्ति के सुख—दुरूख का कोई मूल्य नहीं है।
रायसाहब ने जरा और सहृदय हो कर कहा — यह सब ठीक है भाई साहबए लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना जरूरी है। आर्थिक चिंताओं में आप एकाग्रचित्त हो कर सेवा भी तो नहीं कर सकते। क्या ग्राहक—संख्या बिलकुल नहीं बढ़़ रही हैघ्
श्बात यह है कि मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं चाहताए अगर मैं भी आज सिनेमा—स्टारों के चित्र और चरित्र छापने लगूँ तो मेरे ग्राहक बढ़़ सकते हैंए लेकिन अपनी तो यह नीति नहीं! और भी कितने ही ऐसे हथकंडे हैंए जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता हैए लेकिन मैं उन्हें गर्हित समझता हूँ।श्
श्इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है। मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ। मालूम नहींए आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ्री पत्र जारी कर दीजिए। चंदा मैं दे दूँगा।श्
ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुका कर कहा — मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूँ। खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है। स्कूल और कालिजों और मंदिरों के लिए धन की कमी नहीं हैए पर आज तक एक भी ऐसा दानी न निकलाए जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देताए हालाँकि जन—शिक्षा का उद्देश्य जितने कम खर्च में पत्रों से पूरा हो सकता हैए और किसी तरह नहीं हो सकता। जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती हैए ऐसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगेए तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता हैए वह क्यों करना पड़ेघ् मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूँ।
रायसाहब बिदा हो गए। ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी। रायसाहब ने किसी तरह की शर्त न की थीए कोई बंधन न लगाया थाए पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पा कर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। परिस्थिति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था। प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाकी पड़ा हुआ था। कागज वाले के एक हजार से ऊपर आ रहे थेए यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा।
उनकी स्त्री गोमती ने आ कर विद्रोह के स्वर में कहा — क्या अभी भोजन का समय नहीं आयाए या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज जायए जगह से न उठोघ् कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहेघ्
ओंकारनाथ ने दुरूखी आँखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देख कर कभी—कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो—चार जली कटी सुना जाती थीए पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहींए अपने दुर्भाग्य के प्रति थाए और इसकी थोड़ी—सी आँच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देख कर मन में कुढ़़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बसए उन्हें थोड़ा—सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुँह देख कर पूछा — क्यों उदास होए पेट में कुछ गड़बड़ है क्याघ्
ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा — कौन उदास हैए मैंघ् मुझे तो आज जितनी खुशी हैए उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पंद्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान् का मुँह देखा था।
गोमती को विश्वास न आयाए बोली — झूठे होए तुम्हें पंद्रह सौ कहाँ मिल जाते हैंघ् पंद्रह रुपए कहोए मान लेती हूँ।
नहीं—नहींए तुम्हारे सिर की कसमए पंद्रह सौ मारे। अभी रायसाहब आए थे। सौ ग्राहकों का चंदा अपनी तरफ से देने का वचन दे गए हैं।श्
गोमती का चेहरा उतर गया— तो मिल चुके!
श्नहींए रायसाहब वादे के पक्के हैं।श्
श्मैंने किसी ताल्लुकेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुकेदार के नौकर थे। साल—साल भर तलब नहीं मिलती थी। उसे छोड़ कर दूसरे की नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़ेए तो मार कर भगा दिया। इनके वादों का कोई करार नहीं।श्
श्मैं आज ही बिल भेजता हूँ।श्
श्भेजा करो। कह देंगेए कल आना। कल अपने इलाके पर चले जाएँगे। तीन महीने में लौटेंगे।श्
ओंकारनाथ संशय में पड़ गए। ठीक तो हैए कहीं रायसाहब पीछे से मुकर गए तो वह क्या कर लेंगेघ् फिर भी दिल मजबूत करके कहा — ऐसा नहीं हो सकता। कम—से—कम रायसाहब को मैं इतना धोखेबाज नहीं समझता। मेरा उनके यहाँ कुछ बाकी नहीं है।
गोमती ने उसी संदेह के भाव से कहा — इसी से तो मैं तुम्हें बुद्धू कहती हूँ। जरा किसी ने सहानुभूति दिखाई और तुम फूल उठे। मोटे रईस हैं। इनके पेट में ऐसे कितने वादे हजम हो सकते हैं। जितने वादे करते हैंए अगर सब पूरा करने लगेंए तो भीख माँगने की नौबत आ जाए। मेरे गाँव के ठाकुर साहब तो दो—दोए तीन—तीन साल तक बनियों का हिसाब न करते थे। नौकरों का वेतन तो नाम के लिए देते थे। साल—भर काम लियाए जब नौकर ने वेतन माँगाए मार कर निकाल दिया। कई बार इसी नादिहंदी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गए। आखिर उन्होंने लड़कों को घर बुला लिया। एक बार रेल का टीकट भी उधार माँगा था। यह रायसाहब भी तो उन्हीं के भाईबंद हैं। चलोए भोजन करो और चक्की पीसोए जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है। यह समझ लो कि ये बड़े आदमी तुम्हें फटकारते रहेंए वही अच्छा है। यह तुम्हें एक पैसा देंगेए तो उसका चौगुना अपने असामियों से वसूल कर लेंगे। अभी उनके विषय में जो कुछ चाहते होए लिखते हो। तब तो ठकुरसोहाती ही करनी पड़ेगी।
पंडित जी भोजन कर रहे थेए पर कौर मुँह में फँसा हुआ जान पड़ता था। आखिर बिना दिल का बोझ हल्का किएए भोजन करना कठिन हो गया। बोले — अगर रुपए न दिएए तो ऐसी खबर लूँगा कि याद करेंगे। उनकी चोटी मेरे हाथ में है। गाँव के लोग झूठी खबर नहीं दे सकते। सच्ची खबर देते तो उनकी जान निकलती हैए झूठी खबर क्या देंगे। रायसाहब के खिलाफ एक रिपोर्ट मेरे पास आई है। छाप दूँए तो बचा को घर से निकलना मुश्किल हो जाए। मुझे वह खैरात नहीं दे रहे हैंए बड़े दबसट में पड़ कर इस राह पर आए हैं। पहले धमकियाँ दिखा रहे थे। जब देखाए इससे काम न चलेगाए तो यह चारा फेंका। मैंने भी सोचाए एक इनके ठीक हो जाने से तो देश से अन्याय मिटा जाता नहींए फिर क्यों न इस दान को स्वीकार कर लूँघ् मैं अपने आदर्श से गिर गया हूँ जरूरए लेकिन इतने पर भी रायसाहब ने दगा कीए तो मैं भी शठता पर उतर आऊँगा। जो गरीबों को लूटता हैए उसको लूटने के लिए अपनी आत्मा को बहुत समझाना न पड़ेगा।
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भाग 16
गाँव में खबर फैल गई कि रायसाहब ने पंचों को बुला कर खूब डाँटा और इन लोगों ने जितने रुपए वसूल किए थेए वह सब इनके पेट से निकाल लिए। वह तो इन लोगों को जेहल भेजवा रहे थेए लेकिन इन लोगों ने हाथ—पाँव जोड़ेए थूक कर चाटाए तब जाके उन्होंने छोड़ा। धनिया का कलेजा शीतल हो गयाए गाँव में घूम—घूम कर पंचों को लज्जित करती फिरती थी — आदमी न सुने गरीबों की पुकारए भगवान तो सुनते हैं। लोगों ने सोचा थाए इनसे डाँड़ ले कर मजे से फुलौड़ियाँ खाएँगे। भगवान ने ऐसा तमाचा लगाया कि फुलौड़ियाँ मुँह से निकल पड़ीं। एक—एक के दो—दो भरने पड़े। अब चाटो मेरा मकान ले कर।
मगर बैलों के बिना खेती कैसे होघ् गाँवों में बोआई शुरू हो गई। कार्तिक के महीने में किसान के बैल मर जायँए तो उसके दोनों हाथ कट जाते हैं। होरी के दोनों हाथ कट गए थे। और सब लोगों के खेतों में हल चल रहे थे। बीज डाले जा रहे थे। कहीं—कहीं गीत की तानें सुनाई देती थीं। होरी के खेत किसी अनाथ अबला के घर की भाँति सूने पड़े थे। पुनिया के पास भी गोई थीए सोभा के पास भी गोई थीए मगर उन्हें अपने खेतों की बुआई से कहाँ फुरसत कि होरी की बुआई करें। होरी दिन—भर इधर—उधर मारा—मारा फिरता था। कहीं इसके खेत में जा बैठताए कहीं उसकी बोआई करा देता। इस तरह कुछ अनाज मिल जाता। धनियाए रूपाए सोना सभी दूसरों की बोआई में लगी रहती थीं। जब तक बुआई रहीए पेट की रोटीयाँ मिलती गईंए विशेष कष्ट न हुआ। मानसिक वेदना तो अवश्य होती थीए पर खाने भर को मिल जाता था। रात को नित्य स्त्री—पुरुष में थोड़ी—सी लड़ाई हो जाती थी।
यहाँ तक कि कातिक का महीना बीत गया और गाँव में मजदूरी मिलनी भी कठिन हो गई। अब सारा दारमदार ऊख पर थाए जो खेतों में खड़ी थी।
रात का समय था। सर्दी खूब पड़ रही थी। होरी के घर में आज कुछ खाने को न था। दिन को तो थोड़ा—सा भुना हुआ मटर मिल गया थाए पर इस वक्त चूल्हा जलने का कोई डौल न था और रूपा भूख के मारे व्याकुल थी और द्वार पर कौड़े के सामने बैठी रो रही थी। घर में जब अनाज का एक दाना भी नहीं हैए तो क्या माँगेए क्या कहे!
जब भूख न सही गई तो वह आग माँगने के बहाने पुनिया के घर गई। पुनिया बाजरे की रोटीयाँ और बथुए का साग पका रही थी। सुगंध से रूपा के मुँह में पानी भर आया।
पुनिया ने पूछा — क्या अभी तेरे घर आग नहीं जलीए क्या रीघ्
रूपा ने दीनता से कहा — आज तो घर में कुछ था ही नहींए आग कहाँ से जलतीघ्
श्तो फिर आग काहे को माँगने आई हैघ्श्
श्दादा तमाखू पिएँगे।श्
पुनिया ने उपले की आग उसकी ओर फेंक दीए मगर रूपा ने आग उठाई नहीं और समीप जा कर बोली — तुम्हारी रोटीयाँ महक रही हैं काकी! मुझे बाजरे की रोटीयाँ बड़ी अच्छी लगती हैं।
पुनिया ने मुस्करा कर पूछा — खाएगीघ्
श्अम्माँ डाँटेंगी।श्
श्अम्माँ से कौन कहने जायगाघ्श्
रूपा ने पेट—भर रोटीयाँ खाईं और जूठे मुँह भागी हुई घर चली गई।
होरी मन—मारे बैठा था कि पंडित दातादीन ने जा कर पुकारा। होरी की छाती धड़कने लगी। क्या कोई नई विपत्ति आने वाली हैघ् आ कर उनके चरण छुए और कौड़े के सामने उनके लिए माँची रख दी।
दातादीन ने बैठते हुए अनुग्रह भाव से कहा — अबकी तो तुम्हारे खेत परती पड़ गए होरी! तुमने गाँव में किसी से कुछ कहा नहींए नहीं भोला की मजाल थी कि तुम्हारे द्वार से बैल खोल ले जाता। यहीं लहास गिर जाती। मैं तुमसे जनेऊ हाथ में ले कर कहता हूँ होरीए मैंने तुम्हारे ऊपर डाँड़ न लगाया था। धनिया मुझे नाहक बदनाम करती फिरती है। यह सब लाला पटेश्वरी और झिंगुरीसिंह की कारस्तानी है। मैं तो लोगों के कहने से पंचायत में बैठ भर गया था। वह लोग तो और कड़ा दंड लगा रहे थे। मैंने कह—सुन के कम करायाए मगर अब सब जने सिर पर हाथ धरे रो रहे हैं। समझे थेए यहाँ उन्हीं का राज है। यह न जानते थे कि गाँव का राजा कोई और है। तो अब अपने खेतों की बोआई का क्या इंतजाम कर रहे होघ्
श्होरी ने करुण—कंठ से कहा — क्या बताऊँ महाराजए परती रहेंगे।
श्परती रहेंगेघ् यह तो बड़ा अनर्थ होगा।श्
श्भगवान की यही इच्छा हैए तो अपना क्या बस।श्
श्मेरे देखते तुम्हारे खेत कैसे परती रहेंगेघ् कल मैं तुम्हारी बोआई करा दूँगा। अभी खेतों में कुछ तरी है। उपज दस दिन पीछे होगीए इसके सिवा और कोई बात नहीं। हमारा—तुम्हारा आधा साझा रहेगा। इसमें न तुम्हें कोई टोटा हैए न मुझे। मैंने आज बैठे—बैठे सोचाए तो चित्त बड़ा दुखी हुआ कि जुते—जुताए खेत परती रहे जाते हैं।श्
होरी सोच में पड़ गया। चौमासे—भर इन खेतों में खाद डालीए जोता और आज केवल बोआई के लिए आधी फसल देनी पड़ रही है। उस पर एहसान कैसा जता रहे हैंए लेकिन इससे तो अच्छा यही है कि खेत परती पड़ जायँ। और कुछ न मिलेगाए लगान तो निकल ही आएगा। नहींए अबकी बेबाकी न हुईए तो बेदखली आई धरी है।
उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
दातादीन प्रसन्न हो कर बोले — तो चलोए मैं अभी बीज तौल दूँए जिससे सबेरे का झंझट न रहे। रोटी तो खा ली है नघ्
होरी ने लजाते हुए आज घर में चूल्हा न जलने की कथा कही।
दातादीन ने मीठे उलाहने के भाव से कहा — अरे! तुम्हारे घर में चूल्हा नहीं जला और तुमने मुझसे कहा भी नहीं। हम तुम्हारे बैरी तो नहीं थे। इसी बात पर तुमसे मेरा जी कुढ़़ता है। अरे भले आदमीए इसमें लाज—सरम की कौन बात है! हम सब एक ही तो हैं। तुम सूद्र हुए तो क्याए हम बाम्हन हुए तो क्याए हैं तो सब एक ही घर के। दिन सबके बराबर नहीं जाते। कौन जानेए कल मेरे ही ऊपर कोई संकट आ पड़ेए तो मैं तुमसे अपना दुरूख न कहूँगा तो किससे कहूँगाघ् अच्छा जो हुआए चलोए बेंग ही के साथ तुम्हें मन—दो—मन अनाज खाने को भी तौल दूँगा।
आधा घंटे में होरी मन—भर जौ का टोकरा सिर पर रखे आया और घर की चक्की चलने लगी। धनिया रोती थी और सोना के साथ जौ पीसती थी। भगवान उसे किस कुकर्म का यह दंड दे रहे हैं!
दूसरे दिन से बोआई शुरू हुई। होरी का सारा परिवार इस तरह काम में जुटा हुआ थाए मानो सब कुछ अपना ही है। कई दिन के बाद सिंचाई भी इसी तरह हुई। दातादीन को सेंत—मेंत के मजूर मिल गए। अब कभी—कभी उनका लड़का मातादीन भी घर में आने लगा। जवान आदमी थाए बड़ा रसिक और बातचीत का मीठा। दातादीन जो कुछ छीन—झपट कर लाते थेए वह उसे भांग बूटी में उड़ाता था। एक चमारिन से उसकी आशनाई हो गई थीए इसलिए अभी तक ब्याह न हुआ था। वह रहती अलग थीए पर सारा गाँव यह रहस्य जानते हुए भी कुछ न बोल सकता था। हमारा धर्म है हमारा भोजन। भोजन पवित्र रहेए फिर हमारे धर्म पर कोई आँच नहीं आ सकती। रोटीयाँ ढ़ाल बन कर अधर्म से हमारी रक्षा करती हैं।
अब साझे की खेती होने से मातादीन को झुनिया से बातचीत करने का अवसर मिलने लगा। वह ऐसे दाँव से आताए जब घर में झुनिया के सिवा और कोई न होताए कभी किसी बहाने सेए कभी किसी बहाने से। झुनिया रूपवती न थीए लेकिन जवान थी और उसकी चमारिन प्रेमिका से अच्छी थी। कुछ दिन शहर में रह चुकी थीए पहनना—ओढ़़नाए बोलना—चालना जानती थी और लज्जाशील भी थीए जो स्त्री का सबसे बड़ा आकर्षण है। मातादीन कभी—कभी उसके बच्चे को गोद में उठा लेता और प्यार करता। झुनिया निहाल हो जाती थी।
एक दिन उसने झुनिया से कहा — तुम क्या देख कर गोबर के साथ आईं झूनाघ्
झुनिया ने लजाते हुए कहा — भाग खींच लाया महराजए और क्या कहूँ।
मातादीन दुरूखी मन से बोला — बड़ा बेवफा आदमी है। तुम जैसी लच्छमी को छोड़ कर न जाने कहाँ मारा—मारा फिर रहा है। चंचल सुभाव का आदमी हैए इसी से मुझे संका होती है कि कहीं और न फँस गया हो। ऐसे आदमियों को तो गोली मार देनी चाहिए। आदमी का धरम हैए जिसकी बाँह पकडेए उसे निभाए। यह क्या कि एक आदमी की जिंदगानी खराब कर दी और दूसरा घर ताकने लगे।
युवती रोने लगी। मातादीन ने इधर—उधर ताक कर उसका हाथ पकड़ लिया और समझाने लगा — तुम उसकी क्यों परवा करती हो झूनाए चला गयाए चला जाने दो। तुम्हारे लिए किस बात की कमी है — रूपया—पैसाए गहना—कपड़ाए जो चाहो मुझसे लो।
झुनिया ने धीरे से हाथ छुड़ा लिया और पीछे हट कर बोली — सब तुम्हारी दया है महराज! मैं तो कहीं की न रही। घर से भी गईए यहाँ से भी गई। न माया मिलीए न राम ही हाथ आए। दुनिया का रंग—ढ़ंग न जानती थी। इसकी मीठी—मीठी बातें सुन कर जाल में फँस गई।
मातादीन ने गोबर की बुराई करनी शुरू की — वह तो निरा लफंगा हैए घर का न घाट का। जब देखोए माँ—बाप से लड़ाई। कहीं पैसा पा जायए चट जुआ खेल डालेगाए चरस और गाँजे में उसकी जान बसती थीए सोहदों के साथ घूमनाए बहू—बेटीयों को छेड़नाए यही उसका काम था। थानेदार साहब बदमासी में उसका चालान करने वाले थेए हम लोगों ने बहुत खुसामद कीए तब जा कर छोड़ा। दूसरों के खेत—खलिहान से अनाज उड़ा लिया करता। कई बार तो खुद उसी ने पकड़ा थाए पर गाँव—घर का समझ कर छोड़ दिया।
सोना ने बाहर आ कर कहा — भाभीए अम्माँ ने कहा हैए अनाज निकाल कर धूप में डाल दोए नहीं चोकर बहुत निकलेगा। पंडित ने जैसे बखार में पानी डाल दिया हो।
मातादीन ने अपने सफाई दी — मालूम होता हैए तेरे घर में बरसात नहीं हुई। चौमासे में लकड़ी तक गीली हो जाती हैए अनाज तो अनाज ही है।
यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। सोना ने आ कर उसका खेल बिगाड़ दिया।
सोना ने झुनिया से पूछा — मातादीन क्या करने आए थेघ्
झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा — पगहिया माँग रहे थे। मैंने कह दियाए यहाँ पगहिया नहीं है।
श्यह सब बहाना है। बड़ा खराब आदमी है।श्
श्मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या खराबी है उसमेंघ्श्
श्तुम नहीं जानतीं — सिलिया चमारिन को रखे हुए है।श्
श्तो इसी से खराब आदमी हो गयाघ्श्
श्और काहे से आदमी खराब कहा जाता हैघ्श्
तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाए हैं। वह भी खराब आदमी हैंघ्श्
सोना ने इसका जवाब न दे कर कहा — मेरे घर में फिर कभी आएगाए तो दुतकार दूँगी।
श्और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जायघ्श्
श्सोना लजा गई — तुम तो भाभीए गाली देती हो।
श्क्योंए इसमें गाली की क्या बात हैघ्श्
श्मुझसे बोलेए तो मुँह झुलस दूँ।श्
तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा। गाँव में ऐसा सुंदरए सजीला जवान दूसरा कौन हैघ्श्
श्तो तुम चली जाओ उसके साथए सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो।श्
श्मैं क्यों चली जाऊँघ् मैं तो एक के साथ चली आई। अच्छा है या बुरा।श्
श्तो मैं भी जिसके साथ ब्याह होगाए उसके साथ चली जाऊँगीए अच्छा हो या बुरा।श्
श्और जो किसी बूढ़़े के साथ ब्याह हो गयाघ्श्
सोना हँसी — मैं उसके लिए नरम—नरम रोटीयाँ पकाऊँगीए उसकी दवाइयाँ कूटूँगी—छानूँगीए उसे हाथ पकड़ कर उठाऊँगीए जब मर जायगा तो मुँह ढ़ाँप कर रोऊँगी।
श्और जो किसी जवान के साथ हुआघ्श्
तब तुम्हारा सिरए हाँ नहीं तो!श्
श्अच्छा बताओए तुम्हें बूढ़़ा अच्छा लगता है कि जवान!श्
श्जो अपने को चाहेए वही जवान हैए न चाहे वही बूढ़़ा है।श्
श्दैव करेए तुम्हारा ब्याह किसी बूढ़़े से हो जायए तो देखूँए तुम उसे कैसे चाहती हो। तब मनाओगीए किसी तरह यह निगोड़ा मर जायए तो किसी जवान को ले कर बैठ जाऊँ।श्
श्मुझे तो उस बूढ़़े पर दया आए।श्
इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिंदे और दलाल गाँव—गाँव घूम कर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल थाए जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिंदा इस गाँव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव—ताव कियाए तो मालूम हुआए गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेर कर भी यही दाम मिलता हैए तो पेरने की मेहनत क्यों उठाई जायघ् सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया। अगर कुछ कम भी मिलेए तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा। किसी को बैल लेना थाए किसी को बाकी चुकाना थाए कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोई लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थीए इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगीए तो गुड़ लेगा ही कौनघ् सभी ने बयाने ले लिए। होरी को कम—से—कम सौ रुपए की आशा थी। इतने में एक मामूली गोई आ जायगीए लेकिन महाजनों को क्या करे! दातादीनए मँगरूए दुलारीए झिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगाए तो सौ रुपए सूद—भर को भी न होंगे। कोई ऐसी जुगत न सूझती थी कि ऊख के रुपए हाथ में आ जायँ और किसी को खबर न हो। जब बैल घर आ जाएँगेए तो कोई क्या कर लेगाघ् गाड़ी लदेगीए तो सारा गाँव देखेगा हीए तौल पर जो रुपए मिलेंगेए वह सबको मालूम हो जाएँगे। संभव हैए मँगरू और दातादीन हमारे साथ—साथ रहें। इधर रुपए मिलेए उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी।
शाम को गिरधर ने पूछा— तुम्हारी ऊख कब तक जायगी होरी काकाघ्
होरी ने झाँसा दिया — अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाईए तुम कब तक ले जाओगेघ्
गिरधर ने भी झाँसा दिया — अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका!
और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थेए किसी को किसी पर विश्वास न था। झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थेए और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने पाएँए नहीं वह सब—का—सब हजम कर जायगा। और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपए माँगने जायगा तो नया कागजए नया नजरानाए नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आ कर बोला — दादाए कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरीसिंह को हैजा हो जाए। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।
होरी ने मुस्करा कर कहा — क्योंए उसके बाल—बच्चे नहीं हैंघ्
श्उसके बाल—बच्चों को देखें कि अपने बाल—बच्चों को देखेंघ् वह तो दो—दो मेहरियों को आराम से रखता हैए यहाँ तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं। सारी जमा ले लेगा। एक पैसा भी घर न लाने देगा।श्
श्मेरी तो हालत और भी खराब है भाईए अगर रुपए हाथ से निकल गएए तो तबाह हो जाऊँगा। गोई के बिना तो काम न चलेगा।श्
अभी तो दो—तीन दिन ऊख ढ़ोते लगेंगे। ज्यों ही सारी ऊख पहुँच जायए जमादार से कहें कि भैया कुछ ले लेए मगर ऊख झटपट तौल देए दाम पीछे देना। इधर झिंगुरी से कह देंगेए अभी रुपए नहीं मिले।श्
होरी ने विचार करके कहा — झिंगुरीसिंह हमसे—तुमसे कई गुना चतुर है सोभा! जा कर मुनीम से मिलेगा और उसी से रुपए ले लेगा। हम—तुम ताकते रह जाएँगे। जिस खन्ना बाबू का मिल हैए उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है। दोनों एक हैं।
सोभा निराश हो कर बोला — न जाने इन महाजनों से कभी गला छूटेगा कि नहीं।
होरी बोला — इस जनम में तो कोई आसा नहीं है भाई! हम राज नहीं चाहतेए भोग—विलास नहीं चाहतेए खाली मोटा—झोटा पहननाए और मोटा—झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सकोता।
सोभा ने धूर्तता के साथ कहा — मैं तो दादाए इन सबों को अबकी चकमा दूँगा। जमादार को कुछ दे—दिला कर इस बात पर राजी कर लूँगा कि रुपए के लिए हमें खूब दौड़ाएँ। झिंगुरी कहाँ तक दौड़ेंगे।
होरी ने हँस कर कहा — यह सब कुछ न होगा भैया! कुसल इसी में है कि झिंगुरीसिंह के हाथ—पाँव जोड़ो। हम जाल में फँसे हुए हैं। जितना ही फड़फड़ाओगेए उतना ही और जकड़ते जाओगे।
तुम तो दादाए बूढ़़ों की—सी बातें कर रहे हो। कठघरे में फँसे बैठे रहना तो कायरता है। फंदा और जकड़ जाय बला सेए पर गला छुड़ाने के लिए जोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर—द्वार नीलाम करा लेंगेए करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपए न देए हमें भूखों मरने देए लातें खाने देए एक पैसा भी उधार न देए लेकिन पैसा वाले उधार न दें तो सूद कहाँ से पाएँघ् एक हमारे ऊपर दावा करता हैए तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपए उधार दे कर अपने जाल में फँसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपए लेने जाऊँगाए जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।
होरी का मन भी विचलित हुआ — हाँए यह ठीक है।
श्ऊख तुलवा देंगे। रुपए दाँव—घात देख कर ले आएँगे।श्
श्बस—बसए यही चाल चलो।श्
दूसरे दिन प्रातरूकाल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गँड़ासा ले कर पहुँचा। उधर से सोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनियाए झुनियाए कोनियाए सोना सभी खेत में जा पहुँचीं। कोई ऊख काटता थाए कोई छीलता थाए कोई पूले बाँधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखीए तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ से दुलारी दौड़ीए दूसरी तरफ से मँगरू साहए तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे। दुलारी हाथ—पाँव में मोटे—मोटे चाँदी के कड़े पहनेए कानों में सोने का झुमकाए आँखों में काजल लगाएए बूढ़़े यौवन को रंगे—रंगाए आ कर बोली — पहले मेरे रुपए दे दोए तब ऊख काटने दूँगी। मैं जितना गम खाती हूँए उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दियाए पचास तो मेरे सूद के होते हैं।
होरी ने घिघिया कर कहा — भाभीए ऊख काट लेने दोए इसके रुपए मिलते हैंए तो जितना हो सकेगाए तुमको भी दूँगा। न गाँव छोड़ कर भागा जाता हूँए न इतनी जल्दी मौत ही आई जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपए न देगीघ्
दुलारी ने उसके हाथ से गँड़ासा छीन कर कहा — नीयत इतनी खराब हो गई है तुम लोगों कीए तभी तो बरक्कत नहीं होती।
आज पाँच साल हुएए होरी ने दुलारी से तीस रुपए लिए थे। तीन साल में उसके सौ रुपए हो गएए तब स्टांप लिखा गया। दो साल में उस पर पचास रूपया सूद चढ़़ गया था।
होरी बोला — सहुआइनए नीयत तो कभी खराब नहीं कीए और भगवान चाहेंगेए तो पाई—पाई चुका दूँगा। हाँए आजकल तंग हो गया हूँए जो चाहे कह लो।
सहुआइन को जाते देर नहीं हुई कि मँगरू साह पहुँचे। काला रंगए तोंद कमर के नीचे लटकती हुईए दो बड़े—बड़े दाँत सामने जैसे काट खाने को निकले हुएए सिर पर टोपीए गले में चादरए उम्र अभी पचास से ज्यादा नहींए पर लाठी के सहारे चलते थे। गठिया का मरज हो गया था। खाँसी भी आती थी। लाठी टेक कर खड़े हो गए और होरी को डाँट बताई — पहले हमारे रुपए दे दो होरीए तब ऊख काटो। हमने रुपए उधार दिए थेए खैरात नहीं थे। तीन—तीन साल हो गएए न सूद न ब्याजए मगर यह न समझना कि तुम मेरे रुपए हजम कर जाओगे। मैं तुम्हारे मुर्दे से भी वसूल कर लूँगा।
सोभा मसखरा था। बोला — तब काहे को घबड़ाते हो साहजीए इनके मुर्दे ही से वसूल कर लेना। नहींए एक—दो साल के आगे—पीछे दोनों ही सरग में पहुँचोगे। वहीं भगवान के सामने अपना हिसाब चुका लेना।
मँगरू ने सोभा को बहुत बुरा—भला कहा — जमामारए बेईमान इत्यादि। लेने की बेर तो दुम हिलाते होए जब देने की बारी आती हैए तो गुर्राते हो। घर बिकवा लूँगाए बैल—बधिए नीलाम करा लूँगा।
सोभा ने फिर छेड़ा — अच्छाए ईमान से बताओ साहए कितने रुपए दिए थेए जिसके अब तीन सौ रुपए हो गए हैंघ्
श्जब तुम साल के साल सूद न दोगेए तो आप ही बढ़़ेंगे।श्
श्पहले—पहल कितने रुपए दिए थे तुमनेघ् पचास ही तो।श्
श्कितने दिन हुएए यह भी तो देख।श्
श्पाँच—छरू साल हुए होंगेघ्श्
श्दस साल हो गए पूरेए ग्यारहवाँ जा रहा है।श्
श्पचास रुपए के तीन सौ रुपए लेते तुम्हें जरा भी सरम नहीं आती।श्
श्सरम कैसीए रुपए दिए हैं कि खैरात माँगते हैं।श्
होरी ने इन्हें भी चिरौरी—विनती करके विदा किया। दातादीन ने होरी के साझे में खेती की थी। बीज दे कर आधी फसल ले लेंगे। इस वक्त कुछ छेड़—छाड़ करना नीति—विरुद्ध था। झिंगुरीसिंह ने मिल के मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह—सुन रखा था। उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख लदवा कर नाव पर पहुँचा रहे थे। नदी गाँव से आध मील पर थी। एक गाड़ी दिन—भर में सात—आठ चक्कर कर लेती थी। और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी। इस तरह किफायत पड़ती थी। इस सुविधा का इंतजाम करके झिंगुरीसिंह ने सारे इलाके को एहसान से दबा दिया था।
तौल शुरू होते ही झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा लिया। हर एक की ऊख तौलाते थेए दाम का पुरजा लेते थे। खजांची से रुपए वसूल करते थे और अपना पावना काट कर असामी को देते थे। असामी कितना ही रोएए चीखेए किसी की न सुनते थे। मालिक का यही हुक्म था। उनका क्या बस!
होरी को एक सौ बीस रुपए मिले! उसमें से झिंगुरीसिंह ने अपने पूरे रुपए सूद समेत काट कर कोई पचीस रुपए होरी के हवाले किए।
होरी ने रुपए की ओर उदासीन भाव से देख कर कहा — यह ले कर मैं क्या करूँगा ठाकुरए यह भी तुम्हीं ले लो। मेरी लिए मजूरी बहुत मिलेगी।
झिंगुरी ने पचीसों रुपए जमीन पर फेंक कर कहा — लो या फेंक दोए तुम्हारी खुसी। तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ खाईं और अभी रायसाहब सिर पर सवार हैं कि डाँड़ के रुपए अदा करो। तुम्हारी गरीबी पर दया करके इतने रुपए दिए देता हूँए नहीं एक धोला भी न देता। अगर रायसाहब ने सख्ती की तो उल्टे और घर से देने पड़ेंगे।
होरी ने धीरे से रुपए उठा लिए और बाहर निकला कि नोखेराम ने ललकारा। होरी ने जा कर पचीसों रुपए उनके हाथ पर रख दिएए और बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया। उसका सिर चक्कर खा रहा था।
सोभा को इतने ही रुपए मिले थे। वह बाहर निकलाए तो पटेश्वरी ने घेरा।
सोभा बरस पड़ा। बोला — मेरे पास रुपए नहीं हैंए तुम्हें जो कुछ करना होए कर लो।
पटेश्वरी ने गरम हो कर कहा — ऊख बेची है कि नहींघ्
श्हाँए बेची है।श्
श्तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेच कर रूपया दूँगा!श्
श्हाँए था तो।श्
श्फिर क्यों नहीं देते! और सब लोगों को दिए हैं कि नहींघ्श्
श्हाँए दिए हैं।श्
श्तो मुझे क्यों नहीं देतेघ्श्
श्मेरे पास अब जो कुछ बचा हैए वह बाल—बच्चों के लिए है।श्
पटेश्वरी ने बिगड़ कर कहा — तुम रुपए दोगेए सोभा और हाथ जोड़ कर और आज ही। हाँए अभी जितना चाहोए बहक लो। एक रपट में जाओगे छरू महीने कोए पूरे छरू महीने कोए न एक दिन बेसए न एक दिन कम। यह जो नित्य जुआ खेलते होए वह एक रपट में निकल जायगा। मैं जमींदार या महाजन का नौकर नहीं हूँए सरकार बहादुर का नौकर हूँए जिसका दुनिया—भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और जमींदार दोनों का मालिक है।
पटेश्वरीलाल आगे बढ़़ गए। सोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा — सोभाए इसके रुपए दे दो। समझ लोए ऊख में आग लग गई थी। मैंने भी यही सोच करए मन को समझाया है।
सोभा ने आहत कंठ से कहा — हाँए दे दूँगा दादा! न दूँगा तो जाऊँगा कहाँघ्
सामने से गिरधर ताड़ी पिए झूमता चला आ रहा था। दोनों को देख कर बोला — झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चबेना को भी एक पैसा न छोड़ा! हत्यारा कहीं का! रोयाए गिड़गिड़ायाए पर इस पापी को दया न आई।
शोभा ने कहा — ताड़ी तो पिए हुए होए उस पर कहते होए एक पैसा भी न छोड़ा।
गिरधर ने पेट दिखा कर कहा — साँझ हो गईए जो पानी की बूँद भी कंठ तले गई होए तो गो—माँस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचाए साल—भर पसीना गारा हैए तो एक दिन ताड़ी तो पी लूँए मगर सच कहता हूँए नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगाघ् हाँए झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझेंए खूब पिए हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काकाए बेबाकी हो गई। बीस लिएए उसके एक सौ साठ भरेए कुछ हद है!
होरी घर पहुँचाए तो रूपा पानी ले कर दौड़ीए सोना चिलम भर लाईए धनिया ने चबेना और नमक ला कर रख दिया और सभी आशा—भरी आँखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुँह—हाथ धोएए कैसे चबेना खाए। ऐसा लज्जित और ग्लानित थाए मानो हत्या करके आया हो।
धनिया ने पूछा — कितने की तौल हुईघ्
श्एक सौ बीस मिलेए पर सब वहीं लुट गएए धेला भी न बचा।श्
धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुँह नोंच ले। बोली — तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान ने क्यों रचाए कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी जिंदगी तलख हो गईए भगवान मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठा कर सारे रुपए बहनोइयों को दे दिए। अब और कौन आमदनी हैए जिससे गोई आएगीघ् हल में क्या मुझे जोतोगेए या आप जुतोगेघ् मैं कहती हूँए तुम बूढ़़े हुएए तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोई—भर के रुपए तो निकाल लेते! कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंड और किसी की देह पर लत्ता नहीं। ले जाओ सबको नदी में डुबा दो। सिसक—सिसक कर मरने से तो एक दिन मर जाना फिर भी अच्छा है। कब तक पुआल में घुस कर रात काटेंगे और पुआल में घुस भी लेंए तो पुआल खा कर रहा तो न जायगा। तुम्हारी इच्छा होए घास ही खाओए हमसे तो घास न खाई जायगी।
यह कहते—कहते वह मुस्करा पड़ी। इतनी देर में उसकी समझ में यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो जायए और अपने हाथ में रुपए हों और महाजन जानता हो कि इसके पास रुपए हैंए तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता है!
होरी सिर नीचा किए अपने भाग्य को रो रहा था। धनिया का मुस्कराना उसे न दिखाई दिया। बोला — मजूरी तो मिलेगी। मजूरी करके खाएँगे। धनिया ने पूछा — कहाँ है इस गाँव में मजूरीघ् और कौन मुँह ले कर मजूरी करोगेघ् महतो नहीं कहलाते!
होरी ने चिलम के कई कश लगा कर कहा — मजूरी करना कोई पाप नहीं। मजूर बन जायए तो किसान हो जाता है। किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता है। मजूरी करना भाग्य में न होता हो यह सब विपत क्यों आतीघ् क्यों गाय मरतीघ् क्यों लड़का नालायक निकल जाताघ्
धनिया ने बहू और बेटीयों की ओर देख कर कहा — तुम सब—की—सब क्यों घेरे खड़ी होए जा कर अपना—अपना काम देखो। वह और हैं जो हाट—बाजार से आते हैंए तो बाल—बच्चों के लिए दो—चार पैसे की कोई चीज लिए आते हैं। यहाँ तो यह लोभ लग रहा होगा कि रुपए तुड़ाएँ कैसेघ् एक कम न हो जायगा इसी से इनकी कमाई में बरक्कत नहीं होती। जो खरच करते हैंए उन्हें मिलता है। जो न खा सकेंए उन्हें रुपए मिलें ही क्योंघ् जमीन में गाड़ने के लिएघ्
होरी ने खिलखिला कर कहा — कहाँ है वह गाड़ी हुई थातीघ्
जहाँ रखी हैए वहीं होगी। रोना तो यही है कि यह जानते हुए भी पैसे के लिए मरते हो! चार पैसे की कोई चीज ला कर बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी में न पड़ जाते। झिंगुरी से तुम कह देते कि एक रूपया मुझे दे दोए नहीं मैं तुम्हें एक पैसा न दूँगाए जा कर अदालत में लेनाए तो वह जरूर दे देता।श्
होरी लज्जित हो गया। अगर वह झल्ला कर पचीसों रुपए नोखेराम को न दे देताए तो नोखे क्या कर लेतेघ् बहुत होता बकाया पर दो—चार आना सूद ले लेतेए मगर अब तो चूक हो गई।
झुनिया ने भीतर जा कर सोना से कहा — मुझे तो दादा पर बड़ी दया आती है। बेचारे दिन—भर के थके—माँदे घर आएए तो अम्माँ कोसने लगीं। महाजन गला दबाए थाए तो क्या करते बेचारे!
श्तो बैल कहाँ से आयँगेघ्श्
श्महाजन अपने रुपए चाहता है। उसे तुम्हारे घर के दुखड़ों से क्या मतलबघ्श्
अम्माँ वहाँ होतींए तो महाजन को मजा चखा देतीं। अभागा रो कर रह जाता।श्
झुनिया ने दिल्लगी की तो यहाँ रुपए की कौन कमी है — तुम महाजन से जरा हँस कर बोल दोए देखो सारे रुपए छोड़ देता है कि नहीं। सच कहती हूँए दादा का सारा दुख—दलिदर दूर हो जाए।
सोना ने दोनों हाथों से उसका मुँह दबा कर कहा — बसए चुप ही रहनाए नहीं कहे देती हूँ। अभी जा कर अम्माँ से मातादीन की सारी कलई खोल दूँ तो रोने लगो।
झुनिया ने पूछा — क्या कह दोगी अम्माँ सेघ् कहने को कोई बात भी हो। जब वह किसी बहाने से घर में आ जाते हैंए तो क्या कह दूँ कि निकल जाओए फिर मुझसे कुछ ले तो नहीं जातेघ् कुछ अपना ही दे जाते हैं। सिवाय मीठी—मीठी बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं पा सकते! और अपनी मीठी बातों को महँगे दामों पर बेचना भी मुझे आता है। मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ कि किसी के झाँसे में आ जाऊँ। हाँए जब जान जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहाँ किसी को रख लिया हैए तब की नहीं चलाती। तब मेरे ऊपर किसी का कोई बंधन न रहेगा। अभी तो मुझे विस्वास है कि वह मेरे हैं और मेरे कारन उन्हें गली—गली ठोकर खाना पड़ रहा है। हँसने—बोलने की बात न्यारी हैए पर मैं उनसे विस्वासघात न करूँगी। जो एक से दो का हुआए वह किसी का नहीं रहता।
सोभा ने आ कर होरी को पुकारा और पटेश्वरी के रुपए उसके हाथ में रख कर बोला — भैयाए तुम जा कर ये रुपए लाला को दे दोए मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो गया था।
होरी रुपए ले कर उठा ही था कि शंख की ध्वनि कानों में आई। गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह नाम के एक ठाकुर रहते थे। पल्टन में नौकर थे और कई दिन हुएए दस साल के बाद रजा ले कर आए थे। बगदादए अदनए सिंगापुरए बर्मा — चारों तरफ घूम चुके थे। अब ब्याह करने की धुन में थे। इसीलिए पूजा—पाठ करके ब्राह्मणों को प्रसन्न रखना चाहते थे।
होरी ने कहा — जान पड़ता हैए सातों अध्याय पूरे हो गए। आरती हो रही है।
सोभा बोला — हाँए जान तो पड़ता हैए चलो आरती ले लें।
होरी ने चिंतित भाव से कहा — तुम जाओए मैं थोड़ी देर में आता हूँ।
ध्यानसिंह जिस दिन आए थेए सबके घर सेर—सेर भर मिठाई बैना भेजी थी। होरी से जब कभी रास्ते में मिल जातेए कुशल पूछते। उनकी कथा में जा कर आरती में कुछ न देना अपमान की बात थी।
आरती का थाल उन्हीं के हाथ में होगा। उनके सामने होरी कैसे खाली हाथ आरती ले लेगा। इससे तो कहीं अच्छा है वह कथा में जाय ही नहीं। इतने आदमियों में उन्हें क्या याद आएगी कि होरी नहीं आया। कोई रजिस्टर लिए तो बैठा नहीं है कि कौन आयाए कौन नहीं आया। वह जा कर खाट पर लेट रहा।
मगर उसका हृदय मसोस—मसोस कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं है! तांबे का एक पैसा। आरती के पुण्य और माहात्म्य का उसे बिलकुल ध्यान था। बात थी केवल व्यवहार की। ठाकुरजी की आरती तो वह केवल श्रद्धा की भेंट दे कर ले सकता थाए लेकिन मर्यादा कैसे तोड़ेए सबकी आँखों में हेठा कैसे बने!
सहसा वह उठ बैठा। क्यों मर्यादा की गुलामी करेघ् मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य क्यों छोड़ेघ् लोग हँसेंगेए हँस लें। उसे परवा नहीं है। भगवान उसे कुकर्म से बचाए रखेंए और वह कुछ नहीं चाहता।
वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।
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भाग 17
खन्ना और गोविंदी में नहीं पटती। क्यों नहीं पटतीए यह बताना कठिन है। ज्योतिष के हिसाब से उनके ग्रहों में कोई विरोध हैए हालाँकि विवाह के समय ग्रह और नक्षत्र खूब मिला लिए गए थे। कामशास्त्र के हिसाब से इस अनबन का और कोई रहस्य हो सकता हैए और मनोविज्ञान वाले कुछ और ही कारण खोज सकते हैं। हम तो इतना ही जानते हैं कि उनमें नहीं पटती। खन्ना धनवान हैंए रसिक हैंए मिलनसार हैंए रूपवान हैंए अच्छे खासे—पढ़़े—लिखे हैं और नगर के विशिष्ट पुरुषों में हैं। गोविंदी अप्सरा न होए पर रूपवती अवश्य है। गेहुंआ रंगए लज्जाशील आँखेंए जो एक बार सामने उठ कर फिर झुक जाती हैंए कपोलों पर लाली न होए पर चिकनापन है। गात कोमलए अंगविन्यास सुडौलए गोल बाँहेए मुख पर एक प्रकार की अरुचिए जिसमें कुछ गर्व की झलक भी हैए मानो संसार के व्यवहार और व्यापार को हेय समझती है। खन्ना के पास विलास के ऊपरी साधनों की कमी नहींए अव्वल दरजे का बँगला हैए अव्वल दरजे का फर्नीचरए अव्वल दरजे की कार और अपार धन! पर गोविंदी की —ष्टि में जैसे इन चीजों का कोई मूल्य नहीं। इस खारे सागर में वह प्यासी पड़ी रहती है। बच्चों का लालन—पालन और गृहस्थी के छोटे—मोटे काम ही उसके लिए सब कुछ हैं। वह इनमें इतनी व्यस्त रहती है कि भोग की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता। आकर्षण क्या वस्तु है और कैसे उत्पन्न हो सकता हैए इसकी ओर उसने कभी विचार नहीं किया। वह पुरुष का खिलौना नहीं हैए न उसके भोग की वस्तुए फिर क्यों आकर्षक बनने की चेष्टा करेघ् अगर पुरुष उसका असली सौंदर्य देखने के लिए आँखें नहीं रखताए कामिनियों के पीछे मारा—मारा फिरता हैए तो वह उसका दुर्भाग्य है। वह उसी प्रेम और निष्ठा से पति की सेवा किए जाती हैए जैसे द्वेष और मोह—जैसी भावनाओं को उसने जीत लिया है। और यह अपार संपत्ति तो जैसे उसकी आत्मा को कुचलती रहती हैए दबाती रहती है। इन आडंबरों और पाखंडों से मुक्त होने के लिए उसका मन सदैव ललचाया करता है। अपनी सरल और स्वाभाविक जीवन में वह कितनी सुखी रह सकती थीए इसका वह नित्य स्वप्न देखती रहती है। तब क्यों मालती उसके मार्ग में आ कर बाधक हो जाती। क्यों वेश्याओं के मुजरे होतेए क्यों यह संदेह और बनावट और अशांति उसके जीवन—पथ में काँटा बनती! बहुत पहले जब वह बालिका—विद्यालय में पढ़़ती थीए उसे कविता का रोग लग गया थाए जहाँ दुरूख और वेदना ही जीवन का तत्व हैए संपत्ति और विलास तो केवल इसलिए है कि उसकी होली जलाई जायए जो मनुष्य को असत्य और अशांति की ओर ले जाता है। वह अब भी कभी—कभी कविता रचती थीए लेकिन सुनाए किसेघ् उसकी कविता केवल मन की तरंग या भावना की उड़ान न थीए उसके एक—एक शब्द में उसके जीवन की व्यथा और उसके आँसुओं की ठंडी जलन भरी होती थी! किसी ऐसे प्रदेश में जा बसने की लालसाए जहाँ वह पाखंडों और वासनाओं से दूर अपने शांत कुटीया में सरल आनंद का उपभोग करे। खन्ना उसकी कविताएँ देखतेए तो उनका मजाक उड़ाते और कभी—कभी फाड़ कर फेंक देते। और संपत्ति की यह दीवार दिन—दिन ऊँची होती जाती थी और दंपति को एक दूसरे से दूर और पृथक करती जाती थी। खन्ना अपने ग्राहकों के साथ जितना ही मीठा और नम्र थाए घर में उतना ही कटु और उद्दंड। अक्सर क्रोध में गोविंदी को अपशब्द कह बैठता। शिष्टता उसके लिए दुनिया को ठगने का एक साधन थीए मन का संस्कार नहीं। ऐसे अवसरों पर गोविंदी अपने एकांत कमरे में जा बैठती और रात की रात रोया करती और खन्ना दीवानखाने में मुजरे सुनता या क्लब में जा कर शराबें उड़ाता। लेकिन यह सब कुछ होने पर भी खन्ना उसके सर्वस्व थे। वह दलित और अपमानित हो कर भी खन्ना की लौंडी थी। उनसे लड़ेगीए जलेगीए रोएगीए पर रहेगी उन्हीं की। उनसे पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकती थी।
आज मिस्टर खन्ना किसी बुरे आदमी का मुँह देख कर उठे थे। सवेरे ही पत्र खोलाए तो उनके कई स्टाकों का दर गिर गया थाए जिसमें उन्हें कई हजार की हानि होती थी। शक्कर मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी थी और दंगा—फसाद करने पर आमादा थे। नफे की आशा से चाँदी खरीदी थीए मगर उसका दर आज और भी ज्यादा गिर गया था। रायसाहब से जो सौदा हो रहा था और जिसमें उन्हें खासे नफे की आशा थीए वह कुछ दिनों के लिए टलता हुआ जान पड़ता था। फिर रात को बहुत पी जाने के कारण इस वक्त सिर भारी था और देह टूट रही थी। उधर शोफर ने कार के इंजन में कुछ खराबी पैदा हो जाने की बात कही थी और लाहौर में उनके बैंक पर एक दीवानी मुकदमा दायर हो जाने का समाचार भी मिला था। बैठे मन में झुँझला रहे थे कि उसी वक्त गोविंदी ने आ कर कहा — भीष्म का ज्वर आज भी नहीं उतराए किसी डाक्टर को बुला दो।
भीष्म उनका सबसे छोटा पुत्र थाए और जन्म से ही दुर्बल होने के कारण उसे रोज एक—न—एक शिकायत बनी रहती थी। आज खाँसी हैए तो कल बुखारए कभी पसली चल रही हैए कभी हरे—पीले दस्त आ रहे हैं। दस महीने का हो गया थाए पर लगता थाए पाँच—छरू महीने का। खन्ना की धारणा हो गई थी कि यह लड़का बचेगा नहींए इसलिए उसकी ओर से उदासीन रहते थेए पर गोविंदी इसी कारण उसे और सब बच्चों से ज्यादा चाहती थी।
खन्ना ने पिता के स्नेह का भाव दिखाते हुए कहा — बच्चों को दवाओं का आदी बना देना ठीक नहींए और तुम्हें दवा पिलाने का मरज है। जरा कुछ हुआ और डाक्टर बुलाओ। एक रोज देखोए आज तीसरा ही दिन तो है। शायद आज आप—ही—आप उतर जाए।
गोविंदी ने आग्रह किया — तीन दिन से नहीं उतरा। घरेलू दवाएँ करके हार गई।
खन्ना ने पूछा — अच्छी बात हैए बुला देता हूँए किसे बुलाऊँघ्
श्बुला लो डाक्टर नाग को।श्
श्अच्छी बात हैए उन्हीं को बुलाती हूँए मगर यह समझ लो नाम हो जाने से ही कोई अच्छा डाक्टर नहीं हो जाता। नाग फीस चाहे जितनी चाहे ले लेंए उनकी दवा से किसी को अच्छा होते नहीं देखा। वह तो मरीजों को स्वर्ग भेजने के लिए मशहूर हैं।श्
श्तो जिसे चाहो बुला लोए मैंने तो नाग को इसलिए कहा था कि वह कई बार आ चुके हैं।श्
श्मिस मालती को क्यों न बुला लूँघ् फीस भी कम और बच्चों का हाल लेडी डाक्टर जैसा समझेगीए कोई मर्द डाक्टर नहीं समझ सकता।श्
गोविंदी ने जल कर कहा — मैं मिस मालती को डाक्टर नहीं समझती।
खन्ना ने भी तेज आँखों से देख कर कहा — तो वह इंग्लैंड घास खोदने गई थीए और हजारों आदमियों को आज जीवनदान दे रही हैए यह सब कुछ नहीं हैघ्
श्होगाए मुझे उन पर भरोसा नहीं है। वह मरदों के दिल का इलाज कर लें। और किसी की दवा उनके पास नहीं है।श्
बस ठन गई। खन्ना गरजने लगे। गोविंदी बरसने लगी। उनके बीच में मालती का नाम आ जाना मानो लड़ाई का अल्टिमेटम था।
खन्ना ने सारे कागजों को जमीन पर फेंक कर कहा — तुम्हारे साथ जिंदगी तलख हो गई।
गोविंदी ने नुकीले स्वर में कहा — तो मालती से ब्याह कर लो न! अभी क्या बिगड़ा हैए अगर वहाँ दाल गले।
श्तुम मुझे क्या समझती होघ्श्
श्यही कि मालती तुम—जैसों को अपना गुलाम बना कर रखना चाहती हैए पति बना कर नहीं।श्
श्तुम्हारी निगाह में मैं इतना जलील हूँघ्श्
और उन्होंने इसके विरुद्ध प्रमाण देना शुरू किया। मालती जितना उनका आदर करती हैए उतना शायद ही किसी का करती हो। रायसाहब और राजा साहब को मुँह तक नहीं लगातीए लेकिन उनसे एक दिन भी मुलाकात न होए तो शिकायत करती हैघ्
गोविंदी ने इन प्रमाणों को एक फूँक में उड़ा दिया — इसीलिए कि वह तुम्हें सबसे बड़ा आँखों का अंधा समझती हैए दूसरों को इतनी आसानी से बेवकूफ नहीं बना सकती।
खन्ना ने डींग मारी — वह चाहें तो आज मालती से विवाह कर सकते हैं। आजए अभीघ्
मगर गोविंदी को बिलकुल विश्वास नहीं — तुम सात जन्म नाक रगड़ोए तो भी वह तुमसे विवाह न करेगी। तुम उसके टट्टू होए तुम्हें घास खिलाएगीए कभी—कभी तुम्हारा मुँह सहलाएगीए तुम्हारे पुट्ठों पर हाथ फेरेगीए लेकिन इसीलिए कि तुम्हारे ऊपर सवारी गाँठे। तुम्हारे जैसे एक हजार बुद्धू उसकी जेब में हैं।
गोविंदी आज बहुत बढ़़ी जाती थी। मालूम होता हैए आज वह उनसे लड़ने पर तैयार हो कर आई है। डाक्टर के बुलाने का तो केवल बहाना था। खन्ना अपने योग्यता और दक्षता और पुरुषत्व पर इतना बड़ा आक्षेप कैसे सह सकते थे!
श्तुम्हारे खयाल में मैं बुद्धू और मूर्ख हूँए तो ये हजारों क्यों मेरे द्वार पर नाक रगड़ते हैंघ् कौन राजा या ताल्लुकेदार हैए जो मुझे दंडवत नहीं करताघ् सैकड़ों को उल्लू बना कर छोड़ दिया।श्
श्यही तो मालती की विशेषता है कि जो औरों को सीधे उस्तरे से मूँड़ता हैए उसे वह उल्टे छुरे से मूँड़ती है।श्
श्तुम मालती की चाहे जितनी बुराई करोए तुम उसकी पाँव की धूल भी नहीं हो।श्
श्मेरी —ष्टि में वह वेश्याओं से भी गई—बीती हैए क्योंकि वह परदे की आड़ से शिकार खेलती है।श्
दोनों ने अपने—अपने अग्निबाण छोड़ दिए। खन्ना ने गोविंदी को चाहे कोई दूसरी कठोर से कठोर बात कही होतीए उसे इतनी बुरी न लगतीए पर मालती से उसकी यह घृणित तुलना उसकी सहिष्णुता के लिए भी असह्य थी। गोविंदी ने भी खन्ना को चाहे जो कुछ कहा होताए वह इतने गर्म न होतेए लेकिन मालती का यह अपमान वह नहीं सह सकते। दोनों एक—दूसरे के कोमल स्थलों से परिचित थे। दोनों के निशाने ठीक बैठे और दोनों तिलमिला उठे। खन्ना की आँखें लाल हो गईं। गोविंदी का मुँह लाल हो गया। खन्ना आवेश में उठे और उसके दोनों कान पकड़ कर जोर से ऐंठे और तीन तमाचे लगा दिए। गोविंदी रोती हुई अंदर चली गई।
जरा देर में डाक्टर नाग आए और सिविल सर्जन मि. टाड आए और भिषगाचार्य नीलकंठ शास्त्री आएए पर गोविंदी बच्चे को लिए अपने कमरे में बैठी रही। किसने क्या कहाए क्या तशखीस कीए उसे कुछ मालूम नहीं। जिस विपत्ति की कल्पना वह कर रही थीए वह आज उसके सिर पर आ गई। खन्ना ने आज जैसे उससे नाता तोड़ लियाए जैसे उसे घर से खदेड़ कर द्वार बंद कर लिया। जो रूप का बाजार लगा कर बैठती हैए जिसकी परछाईं भी वह अपने ऊपर पड़ने नहीं देना चाहती वह३ उस पर परोक्ष रूप से शासन करेघ् यह न होगा। खन्ना उसके पति हैंए उन्हें उसको समझाने—बुझाने का अधिकार हैए उनकी मार को भी वह शिरोधार्य कर सकती हैय पर मालती का शासनघ् असंभव! मगर बच्चे का ज्वर जब तक शांत न हो जायए वह हिल नहीं सकती। आत्माभिमान को भी कर्तव्य के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।
दूसरे दिन बच्चे का ज्वर उतर गया था। गोविंदी ने एक ताँगा मँगवाया और घर से निकली। जहाँ उसका इतना अनादर हैए वहाँ अब वह नहीं रह सकती। आघात इतना कठोर था कि बच्चों का मोह भी टूट गया था। उनके प्रति उसका जो धर्म थाए उसे वह पूरा कर चुकी है। शेष जो कुछ हैए वह खन्ना का धर्म है। हाँए गोद के बालक को वह किसी तरह नहीं छोड़ सकती। वह उसकी जान के साथ है। और इस घर से वह केवल अपने प्राण ले कर निकलेगी। और कोई चीज उसकी नहीं है। इन्हें यह दावा है कि वह उसका पालन करते हैं। गोविंदी दिखा देगी कि वह उनके आश्रय से निकल कर भी जिंदा रह सकती है। तीनों बच्चे उस समय खेलने गए थे। गोविंदी का मन हुआए एक बार उन्हें प्यार कर लेए मगर वह कहीं भागी तो नहीं जाती। बच्चों को उससे प्रेम होगाए तो उसके पास आएँगेए उसके घर में खेलेंगे। वह जब जरूरत समझेगीए खुद बच्चों को देख जाया करेगी। केवल खन्ना का आश्रय नहीं लेना चाहती।
साँझ हो गई थी। पार्क में खूब रौनक थी। लोग हरी घास पर लेटे हवा का आनंद लूट रहे थे। गोविंदी हजरतगंज होती हुई चिड़ियाघर की तरफ मुड़ी ही थी कि कार पर मालती और खन्ना सामने से आते हुए दिखाई दिए। उसे मालूम हुआए खन्ना ने उसकी तरफ इशारा करके कुछ कहा — और मालती मुस्कराई। नहींए शायद यह उसका भ्रम हो। खन्ना मालती से उसकी निंदा न करेंगेए मगर कितनी बेशर्म है। सुना हैए इसकी अच्छी प्रैक्टिस हैए घर की भी संपन्न हैए फिर भी यों अपने को बेचती फिरती है। न जाने क्यों ब्याह नहीं कर लेतीए लेकिन उससे ब्याह करेगा ही कौनघ् नहींए यह बात नहीं। पुरुषों में ऐसे बहुत से गधे हैंए जो उसे पा कर अपने को धन्य मानेंगे। लेकिन मालती खुद तो किसी को पसंद करेघ् और ब्याह में कौन—सा सुख रखा हुआ हैघ् बहुत अच्छा करती हैए जो ब्याह नहीं करती। अभी सब उसके गुलाम हैं। तब वह एक की लौंड़ी हो कर रह जायगी। बहुत अच्छा कर रही है। अभी तो यह महाशय भी उसके तलवे चाटते हैंए कहीं इनसे ब्याह कर लेए तो उस पर शासन करने लगेंए मगर इनसे वह क्यों ब्याह करेगीघ् और समाज में दो—चार ऐसी स्त्रियाँ बनी रहेंए तो अच्छाए पुरुषों के कान तो गर्म करती रहें।
आज गोविंदी के मन में मालती के प्रति बड़ी सहानुभूति उत्पन्न हुई। वह मालती पर आक्षेप करके उसके साथ अन्याय कर रही है। क्या मेरी दशा को देख कर उसकी आँखें न खुलती होंगीघ् विवाहित जीवन की दुर्दशा आँखों देख कर अगर वह इस जाल में नहीं फँसतीए तो क्या बुरा करती है!
चिड़ियाघर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। गोविंदी ने ताँगा रोक दिया और बच्चे को लिए हरी दूब की तरफ चलीए मगर दो ही तीन कदम चली थी कि चप्पल पानी में डूब गए। अभी थोड़ी देर पहले लॉन सींचा गया था और घास के नीचे पानी बह रहा था। उस उतावली में उसने पीछे न फिर कर एक कदम और आगे रखा तो पाँव कीचड़ में सन गए। उसने पाँव की ओर देखा। अब यहाँ पाँव धोने के लिए पानी कहाँ से मिलेगाघ् उसकी सारी मनोव्यथा लुप्त हो गई। पाँव धो कर साफ करने की नई चिंता हुई। उसकी विचारधारा रूक गई। जब तक पाँव साफ न हो जायँए वह कुछ नहीं सोच सकती।
सहसा उसे एक लंबा पाइप घास में छिपा नजर आयाए जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जा कर पाँव धोएए चप्पल धोएए हाथ—मुँह धोयाए थोड़ा—सा पानी चुल्लू में ले कर पिया और पाइप के उस पार सूखी जमीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरंत आती है। कहीं वह यहीं बैठे—बैठे मर जायए तो क्या होघ् ताँगे वाला तुरंत जा कर खन्ना को खबर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगेए लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवनए जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहाने वाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आयाए जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंकू न हुए थे। तब उसे सास का बात—बात पर बिगड़ना बुरा लगता थाए आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला हुआ जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलार कर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहेए किसे परवा हैघ् एकाएक उसका मन उड़ कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होतीए तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न थाए स्नेह—भरी गोद तो थीए प्रेम—भरा अंचल तो थाए जिसमें मुँह डाल कर वह रो लेती। लेकिन नहींए वह रोएगी नहींए उस देवी को स्वर्ग में दुरूखी न बनाएगी। मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा से ज्यादा कर सकती थीए वह कर गई! मेरे कमोऊ की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोएघ् वह अब किसी के अधीन नहीं है। वह अपने गुजर—भर को कमा सकती है। वह कल ही गांधी—आश्रम से चीजें ले कर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात कीघ् यही तो होगाए लोग उँगली दिखा कर कहेंगे — वह जा रही है खन्ना की बीबी। लेकिन इस शहर में रहूँ ही क्योंघ् किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँए जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस—बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगीए फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमाएगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिजाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब खुद अपना पालन करूँगी।
सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक्त वह संपूर्ण एकांत चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थीए मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गए। उस पर बच्चा रोने लगा।
मेहता ने समीप आ कर विस्मय से पूछा — आप इस वक्त यहाँ कैसे आ गईंघ्
गोविंदी ने बालक को चुप कराते हुए कहा — उसी तरह जैसे आप आ गएघ्
मेहता ने मुस्करा कर कहा — मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ताए न घर का न घाट का। लाइएए मैं बच्चे को चुप करा दूँ।
श्आपने यह कला कब सीखीघ्श्
श्अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी।श्
श्अच्छा! परीक्षा के दिन करीब आ गएघ्श्
श्यह तो मेरी तैयारी पर है। जब तैयार हो जाऊँगाए बैठ जाऊँगा। छोटी—छोटी उपाधियों के लिए हम पढ़़—पढ़़ कर आँखें फोड़ लिया करते हैं। यह तो जीवन—व्यापार की परीक्षा है।श्
श्अच्छी बात हैए मैं भी देखूँगीए आप किस ग्रेड में पास होते हैं।श्
यह कहते हुए उसने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उन्होंने बच्चे को कई बार उछालाए तो वह चुप हो गया। बालकों की तरह डींग मार कर बोले — देखा आपनेए कैसा मंतर के जोर से चुप कर दिया। अब मैं भी कहीं से एक बच्चा लाऊँगा।
गोविंदी ने विनोद किया — बच्चा ही लाइएगाए या उसकी माँ भी।
मेहता ने विनोद—भरी निराशा से सिर हिला कर कहा — ऐसी औरत तो कहीं मिलती ही नहीं।
श्क्योंए मिस मालती नहीं हैंघ् सुंदरीए शिक्षिताए गुणवतीए मनोहारिणीए और आप क्या चाहते हैंघ्श्
श्मिस मालती में वह एक बात नहीं हैए जो मैं अपनी स्त्री में देखना चाहता हूँ।श्
गोविंदी ने इस कुत्सा का आनंद लेते हुए कहा — उसमें क्या बुराई हैए सुनूँ। भौंरे तो हमेशा घेरे रहते हैं। मैंने सुना हैए आजकल पुरुषों को ऐसी ही औरतें पसंद आती हैं।
मेहता ने बच्चे के हाथों से अपने मूँछों की रक्षा करते हुए कहा — मेरी स्त्री कुछ और ही ढ़ंग की होगी। वह ऐसी होगीए जिसकी मैं पूजा कर सकूँगा।
गोविंदी अपने हँसी न रोक सकी — तो आप स्त्री नहींए कोई प्रतिमा चाहते हैं। स्त्री तो ऐसी शायद ही कहीं मिले।
श्जी नहींए ऐसी एक देवी इसी शहर में है।श्
श्सच! मैं भी उसके दर्शन करतीए और उसी तरह बनने की चेष्टा करती।श्
श्आप उसे खूब जानती हैं। यह एक लखपती की पत्नी हैए पर विलास को तुच्छ समझती हैए जो उपेक्षा और अनादर सह कर भी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होतीए जो मातृत्व की वेदी पर अपने को बलिदान करती हैए जिसके लिए त्याग ही सबसे बड़ा अधिकार हैए और जो इस योग्य है कि उसकी प्रतिमा बना कर पूजी जाए।श्
गोविंदी के हृदय में आनंद का कंपन हुआ। समझ कर भी न समझने का अभिनय करते हुए बोली — ऐसी स्त्री की आप तारीफ करते हैं। मेरी समझ में तो वह दया के योग्य है।
मेहता ने आश्चर्य से कहा — दया के योग्य! आप उसका अपमान करती हैं। वह आदर्श नारी है और जो आदर्श नारी हो सकती हैए वही आदर्श पत्नी भी हो सकती है।
श्लेकिन वह आदर्श इस युग के लिए नहीं है।श्
श्वह आदर्श सनातन है और अमर है। मनुष्य उसे विकृत करके अपना सर्वनाश कर रहा है।
गोविंदी का अंतरूकरण खिला जा रहा था। ऐसी फुरेरियाँ वहाँ कभी न उठीं थीं। जितने आदमियों से उसका परिचय थाए उनमें मेहता का स्थान सबसे ऊँचा था। उनके मुख से यह प्रोत्साहन पा कर वह मतवाली हुई जा रही थी।
उसी नशे में बोली — तो चलिएए मुझे उनके दर्शन करा दीजिए।
मेहता ने बालक के कपोलों में मुँह छिपा कर कहा — वह तो यहीं बैठी हुई हैं।
श्कहाँए मैं तो नहीं देख रही हूँ।श्
श्मैं उसी देवी से बोल रहा हूँ।श्
गोविंदी ने जोर से कहकहा मारा — आपने आज मुझे बनाने की ठान लीए क्योंघ्
मेहता ने श्रद्धानत हो कर कहा — देवी जीए आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैंए और मुझसे ज्यादा अपने साथ। संसार में ऐसे बहुत कम प्राणी हैंए जिनके प्रति मेरे मन में श्रद्धा हो। उन्हीं में एक आप हैं। आपका धैर्य और त्याग और शील और प्रेम अनुपम है। मैं अपने जीवन में सबसे बड़े सुख की जो कल्पना कर सकता हूँए वह आप जैसी किसी देवी के चरणों की सेवा है। जिस नारीत्व को मैं आदर्श मानता हूँए आप उसकी सजीव प्रतिमा हैं।
गोविंदी की आँखों से आनंद के आँसू निकल पड़े। इस श्रद्धा—कवच को धारण करके वह किस विपत्ति का सामना न करेगीघ् उसके रोम—रोम में जैसे मृदु—संगीत की ध्वनि निकल पड़ी। उसने अपने रमणीत्व का उल्लास मन में दबा कर कहा — आप दार्शनिक क्यों हुए मेहता जी — आपको तो कवि होना चाहिए था।
मेहता सरलता से हँस कर बोले — क्या आप समझती हैंए बिना दार्शनिक हुए ही कोई कवि हो सकता हैघ् दर्शन तो केवल बीच की मंजिल है।
श्तो अभी आप कवित्व के रास्ते में हैंए लेकिन आप यह भी जानते हैंए कवि को संसार में कभी सुख नहीं मिलताघ्श्
श्जिसे संसार दुरूख कहता हैए वही कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्यए रूप और बलए विद्या और बुद्धिए ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लेंए कवि के लिए यहाँ जरा भी आकर्षण नहीं हैए उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगाए उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता हैए कवि उनमें लय हो जाता है। मैंने आपकी दो—चार कविताएँ पढ़़ी हैं और उनमें जितनी पुलकए जितना कंपनए जितनी मधुर व्यथाए जितना रुलाने वाला उन्माद पाया हैए वह मैं ही जानता हूँ। प्रकृति ने हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय किया है कि आप—जैसी कोई दूसरी देवी नहीं बनाई।
गोविंदी ने हसरत भरे स्वर में कहा — नहीं मेहता जीए यह आपका भ्रम है। ऐसी नारियाँ यहाँ आपको गली—गली में मिलेंगी और मैं तो उन सबसे गई—बीती हूँ। जो स्त्री अपने पुरुष को प्रसन्न न रख सकेए अपने को उसके मन की न बना सकेए वह भी कोई स्त्री हैघ् मैं तो कभी—कभी सोचती हूँ कि मालती से यह कला सीखूँ। जहाँ मैं असफल हूँए वहाँ वह सफल है। मैं अपनों को भी अपना नहीं बना सकतीए वह दूसरों को भी अपना बना लेती है। क्या यह उसके लिए श्रेय की बात नहींघ्
मेहता ने मुँह बना कर कहा — शराब अगर लोगों को पागल कर देती हैए तो इसीलिए उसे क्या पानी से अच्छा समझा जायए जो प्यास बुझाता हैए जिलाता हैए और शांत करता हैघ्
गोविंदी ने विनोद की शरण ले कर कहा — कुछ भी होए मैं तो यह देखती हूँ कि पानी मारा—मारा फिरता है और शराब के लिए घर—द्वार बिक जाते हैंए और शराब जितनी ही तेज और नशीली होए उतनी ही अच्छी। मैं तो सुनती हूँए आप भी शराब के उपासक हैंघ्
गोविंदी निराशा की उस दशा में पहुँच गई थीए जब आदमी को सत्य और धर्म में भी संदेह होने लगता हैए लेकिन मेहता का ध्यान उधर न गया। उनका ध्यान तो वाक्य के अंतिम भाग पर ही चिमट कर रह गया। अपने मद—सेवन पर उन्हें जितनी लज्जा और क्षोभ आज हुआए उतना बड़े—बड़े उपदेश सुन कर भी न हुआ था। तकोर्ं का उनके पास जवाब था और मुँह—तोड़ए लेकिन इस मीठी चुटकी का उन्हें कोई जवाब न सूझा। वह पछताए कि कहाँ उन्हें शराब की युक्ति सूझी। उन्होंने खुद मालती की शराब से उपमा दी थी। उनका वार अपने ही सिर पर पड़ा।
लज्जित हो कर बोले — हाँ देवी जीए मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें यह आसक्ति है। मैं अपने लिए उसकी जरूरत बतला कर और उसके विचारोतेजक गुणों के प्रमाण दे कर गुनाह का उज्र न करूँगाए जो गुनाह से भी बदतर है। आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि शराब की एक बूँद भी कंठ के नीचे न जाने दूँगा।
गोविंदी ने सन्नाटे में आ कर कहा — यह आपने क्या किया मेहता जी! मैं ईश्वर से कहती हूँए मेरा यह आशय न थाए मुझे इसका दुरूख है।
श्नहींए आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपने एक व्यक्ति का उद्धार कर दिया।श्
श्मैंने आपका उद्धार कर दिया। मैं तो खुद आपसे अपने उद्धार की याचना करने जा रही हूँ।श्
श्मुझसेघ् धन्य भाग।श्
गोविंदी ने करुण स्वर में कहा — हाँए आपके सिवा मुझे कोई ऐसा नहीं नजर आताए जिसे मैं अपनी कथा सुनाऊँ। देखिएए यह बात अपने ही तक रखिएगाए हालाँकि आपको यह याद दिलाने की जरूरत नहीं। मुझे अब अपना जीवन असह्य हो गया है। मुझसे अब तक जितनी तपस्या हो सकीए मैंने कीए लेकिन अब नहीं सहा जाता। मालती मेरा सर्वनाश किए डालती है। मैं अपने किसी शस्त्र से उस पर विजय नहीं पा सकती। आपका उस पर प्रभाव है। वह जितना आपका आदर करती हैए शायद और किसी मर्द का नहीं करती। अगर आप किसी तरह मुझे उसके पंजे से छुड़ा देंए तो मैं जन्म—भर आपकी ऋणी रहूँगी। उसके हाथों मेरा सौभाग्य लुटा जा रहा है। आप अगर मेरी रक्षा कर सकते हैंए तो कीजिए। मैं आज घर से यह इरादा करके चली थी कि फिर लौट कर न आऊँगी। मैंने बड़ा जोर मारा कि मोह के सारे बंधनों को तोड़ कर फेंक दूँए लेकिन औरत का हृदय बड़ा दुर्बल है मेहता जी! मोह उसका प्राण है। जीवन रहते मोह को तोड़ना उसके लिए असंभव है। मैंने आज तक अपनी व्यथा अपने मन में रखीए लेकिन आज मैं आपसे आँचल फैला कर भिक्षा माँगती हूँ। मालती से मेरा उद्धार कीजिए। मैं इस मायाविनी के हाथों मिटी जा रही हूँ।
उसका स्वर आँसुओं में डूब गया। वह फूट—फूट कर रोने लगी।
मेहता अपनी नजरों में कभी इतने ऊँचे न उठे थेए उस वक्त भी नहींए जब उनकी रचना को फ्रांस की एकाडमी ने शताब्दी की सबसे उत्तम कृति कह कर उन्हें बधाई दी थी। जिस प्रतिमा की वह सच्चे दिल से पूजा करते थेए जिसे मन में वह अपनी इष्टदेवी समझते थे और जीवन के असूझ प्रसंगों में जिससे आदेश पाने की आशा रखते थेए वह आज उनसे भिक्षा माँग रही थी। उन्हें अपने अंदर ऐसी शक्ति का अनुभव हुआ कि वह पर्वत को भी फाड़ सकते हैंए समुद्र को तैर कर पार कर सकते हैं। उन पर नशा—सा छा गयाए जैसे बालक काठ के घोड़े पर सवार हो कर समझ रहा होए वह हवा में उड़ रहा है। काम कितना असाध्य हैए इसकी सुधि न रही। अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या करनी पड़ेगीए बिलकुल खयाल न रहा। आश्वासन के स्वर में बोले — आप मालती की ओर से निश्चिंत रहें। वह आपके रास्ते से हट जायगी। मुझे न मालूम था कि आप उससे इतनी दुरूखी हैं। मेरी बुद्धि का दोषए आँखों का दोषए कल्पना का दोष। और क्या कहूँए वरना आपको इतनी वेदना क्यों सहनी पड़ती।
गोविंदी को शंका हुई। बोली — लेकिन सिंहनी से उसका शिकार छीनना आसान नहीं हैए यह समझ लीजिए।
मेहता ने —ढ़़ता से कहा — नारी हृदय धरती के समान हैए जिससे मिठास भी मिल सकती हैए कड़वापन भी। उसके अंदर पड़ने वाले बीज में जैसी शक्ति हो।
श्आप पछता रहे होंगेए कहाँ से आज इससे मुलाकात हो गई।श्
श्मैं अगर कहूँ कि मुझे आज ही जीवन का वास्तविक आनंद मिला हैए तो शायद आपको विश्वास न आए!श्
श्मैंने आपके सिर पर इतना बड़ा भार रख दिया।श्
मेहता ने श्रद्धा—मधुर स्वर में कहा — आप मुझे लज्जित कर रही हैं देवी जी! मैं कह चुकाए मैं आपका सेवक हूँ। आपके हित में मेरे प्राण भी निकल जाएँए तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। इसे कवियों का भावावेश न समझिएए यह मेरे जीवन का सत्य है। मेरे जीवन का क्या आदर्श हैए आपको यह बतला देने का मोह मुझसे नहीं रूक सकता। मैं प्रकृति का पुजारी हूँ और मनुष्य को उसके प्राकृतिक रूप में देखना चाहता हूँए जो प्रसन्न हो कर हँसता हैए दुरूखी हो कर रोता है और क्रोध में आ कर मार डालता है। जो दुरूख और सुख दोनों का दमन करते हैंए जो रोने को कमजोरी और हँसने को हल्कापन समझते हैंए उनसे मेरा कोई मेल नहीं। जीवन मेरे लिए आनंदमय क्रीड़ा हैए सरलए स्वच्छंदए जहाँ कुत्साए ईर्ष्या और जलन के लिए कोई स्थान नहीं। मैं भूत की चिंता नहीं करताए भविष्य की परवाह नहीं करता। मेरे लिए वर्तमान ही सब कुछ है। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती हैए भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवन की शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह और भी क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लादकरए रूढ़़ियों और विश्वासों और इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैंए उठने का नाम ही नहीं लेतेए वह सामर्थ्य ही नहीं रही। जो शक्तिए जो स्फूर्ति मानव—धर्म को पूरा करने में लगनी चाहिए थीए सहयोग मेंए भाई—चारे मेंए वह पुरानी अदावतों का बदला लेने और बाप—दादों का ॠण चुकाने की भेंट हो जाती है। और जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर हैए इस पर तो मुझे हँसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार की पराकाष्ठा हैए जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहाँ जीवन हैए क्रीड़ा हैए चहक हैए प्रेम हैए वहीं ईश्वर हैए और जीवन को सुखी बनाना ही उपासना हैए और मोक्ष है। ज्ञानी कहता हैए होंठों पर मुस्कराहट न आएए आँखों में आँसू न आए। मैं कहता हूँए अगर तुम हँस नहीं सकते और रो नहीं सकते तो तुम मनुष्य नहीं होए पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डालेए ज्ञान नहीं हैए कोल्हू है। मगर क्षमा कीजिएए मैं तो एक पूरी स्पीच ही दे गया। अब देर हो रही हैए चलिएए मैं आपको पहुँचा दूँ। बच्चा भी मेरी गोद में सो गया।
गोविंदी ने कहा — मैं तो ताँगा लाई हूँ।
श्ताँगे को यहीं से विदा कर देता हूँ।श्
मेहता ताँगे के पैसे चुका कर लौटेए तो गोविंदी ने कहा — लेकिन आप मुझे कहाँ ले जाएँगेघ्
मेहता ने चौंक कर पूछा — क्योंए आपके घर पहुँचा दूँगा।
श्वह मेरा घर नहीं है मेहता जी!श्
श्और क्या मिस्टर खन्ना का घर हैघ्श्
श्यह भी क्या पूछने की बात हैघ् अब वह घर मेरा नहीं रहा। जहाँ अपमान और धिक्कार मिलेए उसे मैं अपना घर नहीं कह सकतीए न समझ सकती हूँ।श्
मेहता ने दर्द—भरे स्वर मेंए जिसका एक—एक अक्षर उनके अंतरूकरण से निकल रहा थाए कहा — नहीं देवी जीए वह घर आपका हैए और सदैव रहेगा। उस घर की आपने सृष्टि की हैए उसके प्राणियों की सृष्टि की है। और प्राण जैसे देह का संचालन करता हैए उसी तरह आपने उसका संचालन किया है। प्राण निकल जायए तो देह की क्या गति होगीघ् मातृत्व महान गौरव का पद है देवी जी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिलाघ् माता का काम जीवन—दान देना है। जिसके हाथों में इतनी अतुल शक्ति हैए उसे इसकी क्या परवा कि कौन उससे रूठता हैए कौन बिगड़ता है। प्राण के बिना जैसे देह नहीं रह सकतीए उसी तरह प्राण का भी देह ही सबसे उपयुक्त स्थान है। मैं आपको धर्म और त्याग का क्या उपदेश दूँघ् आप तो उसकी सजीव प्रतिमा हैं। मैं तो यही कहूँगा कि.....
गोविंदी ने अधीर हो कर कहा — लेकिन मैं केवल माता ही तो नहीं हूँए नारी भी तो हूँघ्
मेहता ने एक मिनट तक मौन रहने के बाद कहा — हाँए हैंए लेकिन मैं समझता हूँ कि नारी केवल माता हैए और इसके उपरांत वह जो कुछ हैए वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र है। मातृत्व संसार की सबसे बड़ी साधनाए सबसे बड़ी तपस्याए सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है। एक शब्द में उसे लय कहूँगा — जीवन काए व्यक्तित्व का और नारीत्व का भी। आप मिस्टर खन्ना के विषय में इतना ही समझ लें कि वह अपने होश में नहीं हैं। वह जो कुछ कहते हैं या करते हैंए वह उन्माद की दशा में करते हैंए मगर यह उन्माद शांत होने में बहुत दिन न लगेंगेए और वह समय बहुत जल्द आएगाए जब वह आपको अपनी इष्टदेवी समझेंगे।
गोविंदी ने इसका कुछ जवाब न दिया। धीरे—धीरे कार की ओर चली। मेहता ने बढ़़ कर कार का द्वार खोल दिया। गोविंदी अंदर जा बैठी। कार चलीए मगर दोनों मौन थे।
गोविंदी जब अपने द्वार पर पहुँच कर कार से उतरीए तो बिजली के प्रकाश में मेहता ने देखाए उसकी आँखें सजल हैं।
बच्चे घर में से निकल आए और अम्माँ—अम्माँ कहते हुए माता से लिपट गए। गोविंदी के मुख पर मातृत्व की उज्ज्वल गौरवमयी ज्योति चमक उठी।
उसने मेहता से कहा — इस कष्ट के लिए आपको बहुत धन्यवाद। और सिर नीचा कर लिया। आँसू की एक बूँद उसके कपोल पर आ गिरी थी।
मेहता की आँखें भी सजल हो गईं — इस ऐश्वर्य और विलास के बीच में भी यह नारी—हृदय कितना दुखी है!
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भाग 18
मिर्जा खुर्शेद का हाता क्लब भी हैए कचहरी भीए अखाड़ा भी। दिन—भर जमघट लगा रहता है। मुहल्ले में अखाड़े के लिए कहीं जगह नहीं मिलती थी। मिर्जा ने एक छप्पर डलवा कर अखाड़ा बनवा दिया हैए वहाँ नित्य सौ—पचास लड़ंतिए आ जुटते हैं। मिर्जा जी भी उनके साथ जोर करते हैं। मुहल्ले की पंचायतें भी यहीं होती हैं। मियाँ—बीबी और सास—बहू और भाई—भाई के झगड़े—टंटे यही चुकाए जाते हैं। मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही केंद्र है और राजनीतिक आंदोलन का भी। आए दिन सभाएँ होती रहती हैं। यहीं स्वयंसेवक टीकते हैंए यहीं उनके प्रोग्राम बनते हैंए यहीं से नगर का राजनैतिक संचालन होता है। पिछले जलसे में मालती नगर—कांग्रेस—कमेटी की सभानेत्री चुन ली गई है। तब से इस स्थान की रौनक और भी बढ़़ गई।
गोबर को यहाँ रहते साल भर हो गया। अब वह सीधा—साधा ग्रामीण युवक नहीं है। उसने बहुत कुछ दुनिया देख ली और संसार का रंग—ढ़ंग भी कुछ—कुछ समझने लगा है। मूल में वह अब भी देहाती हैए पैसे को दाँत से पकड़ता हैए स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ताए और परिश्रम से जी नहीं चुराताए न कभी हिम्मत हारता हैए लेकिन शहर की हवा उसे भी लग गई है। उसने पहले महीने में तो केवल मजूरी की और आधा पेट खा कर थोड़े से रुपए बचा लिए। फिर वह कचालू और मटर और दही—बड़े के खोंचे लगाने लगा। इधर ज्यादा लाभ देखाए तो नौकरी छोड़ दी। गर्मियों में शर्बत और बरफ की दुकान भी खोल दी। लेन—देन में खरा थाए इसलिए उसकी साख जम गई। जाड़े आएए तो उसने शर्बत की दुकान उठा दी और गर्म चाय पिलाने लगा। अब उसकी रोजाना आमदनी ढ़ाई—तीन रुपए से कम नहीं है। उसने अंग्रेजी फैशन के बाल कटवा लिए हैंए महीन धोती और पंप—शू पहनता है। एक लाल ऊनी चादर खरीद ली और पान—सिगरेट का शौकीन हो गया है। सभाओं में आने—जाने से उसे कुछ—कुछ राजनीतिक ज्ञान भी हो चला है। राष्ट्र और वर्ग का अर्थ समझने लगा है। सामाजिक रूढ़़ियों की प्रतिष्ठा और लोक—निंदा का भय अब उसमें बहुत कम रह गया है। आए दिन की पंचायतों ने उसे निस्संकोच बना दिया है। जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से दूरए मुँह छिपाए पड़ा हुआ हैए उसी तरह कीए बल्कि उससे भी कहीं निंदास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती हैंए और कोई भागता नहीं। फिर वही क्यों इतना डरे और मुँह चुराए।
इतने दिनों में उसने एक पैसा भी घर नहीं भेजा। वह माता—पिता को रुपए—पैसे के मामले में इतना चतुर नहीं समझता। वे लोग तो रुपए पाते ही आकाश में उड़ने लगेंगे! दादा को तुरंत गया करने की और अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार हो जायगी। ऐसे व्यर्थ के कामों के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं। अब वह छोटा—मोटा महाजन है। पड़ोस के एक्केवालोंए गाड़ीवानों और धोबियों को सूद पर रुपए उधर देता है। इस दस—ग्यारह महीने में ही उसने अपनी मेहनत और किफायत और पुरुषार्थ से अपना स्थान बना लिया है और अब झुनिया को यहीं ला कर रखने की बात सोच रहा है।
तीसरे पहर का समय है। वह सड़क के नल पर नहा कर आया है और शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिर्जा खुर्शेद आ कर द्वार पर खड़े हो गए। गोबर अब उनका नौकर नहीं हैए पर अदब उसी तरह करता है और उनके लिए जान देने को तैयार रहता है। द्वार पर जा कर पूछा — क्या हुक्म है सरकारघ्
मिर्जा ने खड़े—खड़े कहा — तुम्हारे पास कुछ रुपए होंए तो दे दो। आज तीन दिन से बोतल खाली पड़ी हुई हैए जी बहुत बेचौन हो रहा है।
गोबर ने इसके पहले भी दो—तीन बार मिर्जा जी को रुपए दिए थेए पर अब तक वसूल न सका था। तकाजा करते डरता था और मिर्जा जी रुपए ले कर देना न जानते थे। उनके हाथ में रुपए टीकते ही न थे। इधर आएए उधर गायब। यह तो न कह सकाए मैं रुपए न दूँगा या मेरे पास रुपए नहीं हैंए शराब की निंदा करने लगा — आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते सरकारघ् क्या इसके पीने से कुछ फायदा होता हैघ्
मिर्जा जी ने कोठरी के अंदर आ कर खाट पर बैठते हुए कहा — तुम समझते होए मैं छोड़ना नहीं चाहता और शौक से पीता हूँ। मैं इसके बगैर जिंदा नहीं रह सकता। तुम अपने रूपयों के लिए न डरो। मैं एक—एक कौड़ी अदा कर दूँगा।
गोबर अविचलित रहा — मैं सच कहता हूँ मालिक! मेरे पास इस समय रुपए होते तो आपसे इनकार करताघ्
श्दो रुपए भी नहीं दे सकतेघ्श्
श्इस समय तो नहीं हैं।श्
मेरी अंगूठी गिरो रख लो।श्
गोबर का मन ललचा उठाए मगर बात कैसे बदलेघ्
बोला — यह आप क्या कहते हैं मालिकए रुपए होते तो आपको दे देताए अंगूठी की कौन बात थी।
मिर्जा ने अपने स्वर में बड़ा दीन आग्रह भर कर कहा — मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा गोबर! मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा है। इस शराब की बदौलत मैंने लाखों की हैसियत बिगाड़ दी और भिखारी हो गया। अब मुझे भी जिद पड़ गई है कि चाहे भीख ही माँगनी पड़ेए इसे छोड़ूँगा नहीं।
जब गोबर ने अबकी बार इनकार कियाए तो मिर्जा साहब निराश हो कर चले गए। शहर में उनके हजारों मिलने वाले थे। कितने ही उनकी बदौलत बन गए थे। कितनों ही की गाढ़़े समय पर मदद की थीए पर ऐसों से वह मिलना भी न पसंद करते थे। उन्हें ऐसे हजारों लटके मालूम थेए जिनसे वह समय—समय पर रूपयों के ढ़ेर लगा देते थेए पर पैसे की उनकी निगाह में कोई कद्र न थी। उनके हाथ में रुपए जैसे काटते थे। किसी—न—कसी बहाने उड़ा कर ही उनका चित्त शांत होता था।
गोबर आलू छीलने लगा। साल—भर के अंदर ही वह इतना काइयाँ हो गया था और पैसा जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता था। जिस कोठरी में रहता हैए वह मिर्जा साहब ने दी है। इस कोठरी और बरामदे का किराया बड़ी आसानी से पाँच रूपया मिल सकता है। गोबर लगभग साल—भर से उसमें रहता हैए लेकिन मिर्जा ने न कभी किराया माँगाए न उसने दिया। उन्हें शायद खयाल भी न था कि इस कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है।
थोड़ी देर में एक एक्केवाला रुपए माँगने आया। अलादीन नाम थाए सिर घुटा हुआए खिचड़ी दाढ़़ीए उसकी लड़की विदा हो रही थी। पाँच रुपए की उसे जरूरत थी। गोबर ने उसे एक आना रूपया सूद पर दे दिए।
अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा — भैयाए अब बाल—बच्चों को बुला लो। कब तक हाथ से ठोंकते रहोगे।
गोबर ने शहर के खर्च का रोना रोया — थोड़ी आमदनी में गृहस्थी कैसे चलेगीघ्
अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला — खरच अल्लाह देगा भैया! सोचोए कितना आराम मिलेगा। मैं तो कहता हूँए जितना तुम अकेले खरच करते होए उसी में गृहस्थी चल जायगी। औरत के हाथ में बड़ी बरक्कत होती है। खुदा कसमए जब मैं अकेला यहाँ रहता थाए तो चाहे कितना ही कमाऊँए खा—पी सब बराबर। बीड़ी—तमाखू को भी पैसा न रहता। उस पर हैरानी। थके—माँदे आओए तो घोड़े को खिलाओ और टहलाओ। फिर नानबाई की दुकान पर दौड़ो। नाक में दम आ गया। जब से घरवाली आ गई हैए उसी कमाई में उसकी रोटीयाँ भी निकल आती हैं और आराम भी मिलता है। आखिर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता है। जब जान खपा कर भी आराम न मिलाए तो जिंदगी ही गारत हो गई। मैं तो कहता हूँए तुम्हारी कमाई बढ़़ जायगी भैया! जितनी देर में आलू और मटर उबालते होए उतनी देर में दो—चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है। रात को लेटोगे तो घरवाली पाँव दबाएगी। सारी थकान मिट जायगी।
यह बात गोबर के मन में बैठ गई। जी उचाट हो गया। अब तो वह झुनिया को ला कर ही रहेगा। आलू चूल्हे पर चढ़़े रह गए और उसने घर चलने की तैयारी कर दीए मगर याद आया कि होली आ रही हैए इसलिए होली का सामान भी लेता चले। कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोल कर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती हैए वह उसमें भी सजग हो गई। आखिर इसी दिन के लिए तो कौड़ी—कौड़ी जोड़ रहा था। वह माँए बहनों और झुनिया सबके लिए एक—एक जोड़ी साड़ी ले जायगा। होरी के लिए एक धोती और एक चादर। सोना के लिए तेल की शीशी ले जायगा और एक जोड़ा चप्पल। रूपा के लिए एक जापानी गुड़िया और झुनिया के लिए एक पिटारीए जिसमें तेलए सिंदूर और आइना होगा। बच्चे के लिए टोप और फ्राकए जो बाजार में बना—बनाया मिलता है। उसने रुपए निकाले और बाजार चला। दोपहर तक सारी चीजें आ गईं। बिस्तर भी बँधा गयाए मुहल्ले वालों को खबर हो गईए गोबर घर जा रहा है। कई मर्द—औरतें उसे विदा करने आए। गोबर ने उन्हें अपना घर सौंपते हुए कहा — तुम्हीं लोगों पर छोड़े जाता हूँ। भगवान ने चाहा तो होली के दूसरे दिन लौटूँगा।
एक युवती ने मुस्करा कर कहा — मेहरिया को बिना लिए न आनाए नहीं घर में न घुसने पाओगे।
दूसरी प्रौढ़़ा ने शिक्षा दी — हाँए और क्याए बहुत दिनों तक चूल्हा फूँक चुके। ठिकाने से रोटी तो मिलेगी!
गोबर ने सबको राम—राम किया। हिंदू भी थेए मुसलमान भी थेए सभी में मित्रभाव थाए सब एक—दूसरे के दुरूख—दर्द के साथी थे। रोजा रखने वाले रोजा रखते थे। एकादशी रखने वाले एकादशी। कभी—कभी विनोद—भाव से एक—दूसरे पर छींटे भी उड़ा लेते थे। गोबर अलादीन की नमाज को उठा—बैठी कहताए अलादीन पीपल के नीचे स्थापित सैकड़ों छोटे—बड़े शिवलिंगों को बटखरे बनाताए लेकिन सांप्रदायिक द्वेष का नाम भी न था। गोबर घर जा रहा है। सब उसे हँसी—खुशी विदा करना चाहते हैं।
इतने में भूरे इक्का ले कर आ गया। अभी दिन—भर का धावामार कर आया था। खबर मिलीए गोबर जा रहा है। वैसे ही एक्का इधर फेर दिया। घोड़े ने आपत्ति की। उसे कई चाबुक लगाए। गोबर ने एक्के पर सामान रखाए एक्का बढ़़ाए पहुँचाने वाले गली के मोड़ तक पहुँचाने आएए तब गोबर ने सबको राम—राम किया और एक्के पर बैठ गया।
सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था। गोबर घर जाने की खुशी में मस्त था। भूरे उसे घर पहुँचाने की खुशी में मस्त था। और घोड़ा था पानीदार। उड़ा चला जा रहा था। बात की बात में स्टेशन आ गया।
गोबर ने प्रसन्न हो कर एक रूपया कमर से निकाल कर भूरे की तरफ बढ़़ा कर कहा — लोए घर वालों के लिए मिठाई लेते जाना।
भूरे ने कृतज्ञता—भरे तिरस्कार से उसकी ओर देखा — तुम मुझे गैर समझते हो भैया! एक दिन जरा एक्के पर बैठ गए तो मैं तुमसे इनाम लूँगा। जहाँ तुम्हारा पसीना गिरेए वहाँ खून गिराने को तैयार हूँ। इतना छोटा दिल नहीं पाया है। और ले भी लूँ तो घरवाली मुझे जीता न छोड़ेगीघ्
गोबर ने फिर कुछ न कहाए लज्जित हो कर अपना असबाब उतारा और टीकट लेने चल दिया।
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भाग 19
बाँट रहे थेए और कोयल आम की डालियों में छिपी हुई संगीत का गुप्त दान कर रही थी।
गाँवों में ऊख की बोआई लग गई थी। अभी धूप नहीं निकलीए पर होरी खेत में पहुँच गया। धनियाए सोनाए रूपाए तीनों तलैया से ऊख के भीगे हुए गट्ठे निकाल—निकाल कर खेत में ला रही हैंए और होरी गँड़ासे से ऊख के टुकड़े कर रहा है। अब वह दातादीन की मजूरी करने लगा है। अब वह किसान नहींए मजूर है। दातादीन से अब उसका पुरोहित—जजमान का नाता नहींए मालिक—मजदूर का नाता है।
दातादीन ने आ कर डाँटा — हाथ और फुरती से चलाओ होरी! इस तरह तो तुम दिन—भर में न काट सकोगे।
होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा — चला ही तो रहा हूँ महाराजए बैठा तो नहीं हूँ।
दातादीन मजूरों से रगड़ कर काम लेते थेए इसलिए उनके यहाँ कोई मजूर टीकता न था। होरी उनका स्वभाव जानता थाए पर जाता कहाँ।
पंडित उसके सामने खड़े हो कर बोले — चलाने—चलाने में भेद है। एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम तमामए दूसरा चलाना वह है कि दिन—भर में भी एक बोझ ऊख न कटे।
होरी ने विष का घूँट पी कर और जोर से हाथ चलाना शुरू किया। इधर महीनों से उसे पेट—भर भोजन न मिलता था। प्रायरू एक जून तो चबेने पर ही कटता था। दूसरे जून भी कभी आधा पेट भोजन मिलाए कभी कड़ाका हो गया। कितना चाहता था कि हाथ और जल्दी—जल्दी उठेए मगर हाथ जवाब दे रहा था। इस पर दातादीन सिर पर सवार थे। क्षण—भर दम ले लेने पाताए तो ताजा हो जाताए लेकिन दम कैसे लेघ् घुड़कियाँ पड़ने का भय था।
धनियाँ और दोनों लड़कियाँ ऊख के गट्ठे लिए गीली साड़ियों से लथपथए कीचड़ में सनी हुई आईंए और गट्ठे पटक कर दम मारने लगीं कि दातादीन ने डाँट बताई — यहाँ तमासा क्या देख रही है धनियाघ् जा अपना काम कर। पैसे सेंत में नहीं आते। पहर भर में तू एक खेप लाई है। इस हिसाब से तो दिन—भर में भी ऊख न ढ़ुल पाएगी।
धनिया ने त्योरी बदल कर कहा — क्या जरा दम भी न लेने दोगे महाराज! हम भी तो आदमी हैं। तुम्हारी मजूरी करने से बैल नहीं हो गए। जरा मूड़ पर एक गट्ठा लाद कर लाओ तो हाल मालूम हो।
दातादीन बिगड़ उठे — पैसे देते हैं काम करने के लिएए दम मारने के लिए नहीं। दम लेना हैए तो घर जा कर लो।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी ने फटकार बताई — तू जाती क्यों नहीं धनियाघ् क्यों हुज्जत कर रही हैघ्
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा — जा तो रही हूँए लेकिन चलते हुए बैल को औंगी न देना चाहिए।
दातादीन ने लाल आँखें निकाल लीं — जान पड़ता हैए अभी मिजाज ठंडा नहीं हुआ। जभी दाने—दाने को मोहताज हो।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी थी — तुम्हारे द्वार पर भीख माँगने तो नहीं जाती।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा — अगर यही हाल रहा तो भीख भी माँगोगी।
धनिया के पास जवाब तैयार थाए पर सोना उसे खींच कर तलैया की ओर ले गईए नहीं बात बढ़़ जातीए लेकिन आवाज की पहुँच के बाहर जा कर दिल की जलन निकाली — भीख माँगो तुमए जो भिखमंगों की जात हो। हम तो मजूर ठहरेए जहाँ काम करेंगेए वही चार पैसे पाएँगे।
सोना ने उसका तिरस्कार किया — अम्माँ जाने भी दो। तुम तो समय नहीं देखतींए बात—बात पर लड़ने बैठ जाती हो।
होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर गँड़ासा उठा—उठा कर ऊख के टुकड़ों के ढ़ेर करता जाता था। उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी। उसमें अलौकिक शक्ति आ गई थी। उसमें जो पीढ़़ियों का संचित पानी थाए वह इस समय जैसे भाप बन कर उसे यंत्र की—सी अंध—शक्ति प्रदान कर रहा था। उसकी आँखों में अँधेरा छाने लगा। सिर में फिरकी—सी चल रही थी। फिर भी उसके हाथ यंत्र की गति सेए बिना थकेए बिना रुकेए उठ रहे थे। उसकी देह से पसीने की धार निकल रही थीए मुँह से फिचकुर छूट रहा थाए और सिर में धम—धम का शब्द हो रहा थाए पर उस पर जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।
सहसा उसकी आँखों में निविड़ अंधकार छा गया। मालूम हुआए वह जमीन में धँसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा में शून्य में हाथ फैला दिए और अचेत हो गया। गँड़ासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुँह जमीन पर पड़ गया।
उसी वक्त धनिया ऊख का गट्ठा लिए आई। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था — मालिकए तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिएए जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा।
धनिया ऊख का गट्ठा पटक पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गईए और उसका सिर अपने जाँघ पर रख कर विलाप करने लगी — तुम मुझे छोड़ कर कहाँ जाते होघ् अरी सोनाए दौड़ कर पानी ला और जा कर सोभा से कह देए दादा बेहाल हैं। हाय भगवान! अब किसकी हो कर रहूँगीए कौन मुझे धनिया कह कर पुकारेगा।.....
लाला पटेश्वरी भागे हुए आए और स्नेह—भरी कठोरता से बोले — क्या करती है धनियाए होस सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गरमी से अचेत हो गए हैं। अभी होस आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी तो कैसे काम चलेगाघ्
धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिए और रोती हुई बोली — क्या करूँ लाला जीए जी नहीं मानता। भगवान ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गई। अब सबर नहीं होता। हाय रेए मेरा हीरा!
सोना पानी लाई। पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिए। कई आदमी अपने—अपने अँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गई थी। पटेश्वरी को भी चिंता हुईए पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे।
धनिया अधीर हो कर बोली — ऐसा कभी नहीं हुआ था। लालाए कभी नहीं।
पटेश्वरी ने पूछा — रात कुछ खाया थाघ्
धनिया बोली — हाँए रात रोटीयाँ पकाई थींए लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही हैए वह क्या तुमसे छिपा हैघ् महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँए जान रख कर काम करोए लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं।
सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नजरों से इधर—उधर ताका।
धनिया जैसे जी उठी। विह्वल हो कर उसके गले से लिपट कर बोली — अब कैसा जी है तुम्हाराघ् मेरे तो परान नहों में समा गए थे।
होरी ने कातर स्वर में कहा — अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था।
धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा — देह में दम तो है नहींए काम करते हो जान दे कर। लड़कों का भाग थाए नहीं तुम तो ले ही डूबे थे!
पटेश्वरी ने हँस कर कहा — धनिया तो रो—पीट रही थी।
होरी ने आतुरता से पूछा — सचमुच तू रोती थी धनियाघ्
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढ़केल कर कहा — इन्हें बकने दो तुम। पूछोए यह क्यों कागद छोड़ कर घर से दौड़े आए थेघ्
पटेश्वरी ने चिढ़़ाया — तुम्हें हीरा—हीरा कह कर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी।
होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा — पगली है और क्या! अब न जाने कौन—सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाए रखना चाहती है।
दो आदमी होरी को टीका कर घर लाए और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती हैए पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़ कर घर से गर्म दूध लायाए और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पी कर होरी में जैसे जान आ गई।
उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखाई दिया।
गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उसकी तरफ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे। रूपा ने कहा — भैया आएए भैया आएश्ए और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो—तीन कदम आगे बढ़़ीए पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गई। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गई।
गोबर ने माँ—बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठा कर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपने छाती से लगा कर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गई। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे—हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखेए उसका मुख देखेए उसका हृदय देखेए उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन—ओढ़़ कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता थाए गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देख कर मानो उसको जीवन के धूल—धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया हैए मगर होरी ने मुँह फेर लिया था।
गोबर ने पूछा — दादा को क्या हुआ हैए अम्माँघ्
धनिया घर का हाल कह कर उसे दुरूखी न करना चाहती थी। बोली — कुछ नहीं है बेटाए जरा सिर में दर्द है। चलोए कपड़े उतारोए हाथ—मुँह धोओ। कहाँ थे तुम इतने दिनघ् भलाए इस तरह कोई घर से भागता हैघ् और कभी एक चिट्ठी तक न भेजीघ् आज साल—भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते—देखते आँखें फूट गईं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आएगा और कब तुम्हें देखूँगी। कोई कहता थाए मिरच भाग गयाए कोई डमरा टापू बताता था। सुन—सुन कर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिनघ्
गोबर ने शरमाते हुए कहा — कहीं दूर नहीं गया था अम्माँए यहाँ लखनऊ में तो था।
श्और इतने नियरे रह कर भी कभी एक चिट्ठी न लिखीघ्श्
उधर सोना और रूपा भीतर गोबर का सामान खोल कर चीज का बाँट—बखरा करने में लगी हुई थींए लेकिन झुनिया दूर खड़ी थी। उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा है। गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार किया हैए आज वह उसका बदला लेगी। असामी को देख कर महाजन उससे वह रुपए वसूल करने को भी व्याकुल हो रहा हैए जो उसने बट्टेखाते में डाल दिए थे। बच्चा उन चीजों की ओर लपक रहा था और चाहता थाए सब—का—सब एक साथ मुँह में डाल लेए पर झुनिया उसे गोद से उतरने न देती थी।
सोना बोली — भैया तुम्हारे लिए ऐना—कंघी लाए हैं भाभी।
झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा — मुझे ऐना—कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।
रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली — ओ हो! यह तो चुन्नू की टोपी है। और उसे बच्चे के सिर पर रख दिया।
झुनिया ने टोपी उतार कर फेंक दी और सहसा गोबर को अंदर आते देख कर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में चली गई। गोबर ने देखाए सारा सामान खुला पड़ा है। उसका जी तो चाहता हैए पहले झुनिया से मिल कर अपना अपराध क्षमा कराएए लेकिन अंदर जाने का साहस नहीं होता। वहीं बैठ गया और चीजें निकाल—निकाल हर एक को देने लगा। मगर रूपा इसलिए फूल गई कि उसके लिए चप्पल क्यों नहीं आएए और सोना उसे चिढ़़ाने लगीए तू क्या करेगी चप्पल ले करए अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देख कर नहीं रोतेए तू मेरी चप्पल देख कर क्यों रोती हैघ् मिठाई बाँटने की जिम्मेदारी धनिया ने अपने ऊपर ली। इतने दिनों के बाद लड़का कुशल से घर आया है। वह गाँव—भर में बैना बटवाएगी। एक गुलाबजामुन रूपा के लिए ऊँट के मुँह में जीरे के समान था। वह चाहती थीए हाँडी उसके सामने रख दी जायए वह कूद—कूद खाय।
अब संदूक खुला और उसमें से साड़ियाँ निकलने लगीं। सभी किनारदारी थींए जैसी पटेश्वरी लाला के घर में पहनी जाती हैंए मगर हैं बड़ी हल्की। ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन चलेंगी। बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे पहनें। उनकी मेहरियों को बैठने और सोने के सिवा और कौन काम है! यहाँ तो खेत—खलिहान सभी कुछ है। अच्छा! होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक दुपट्टा भी है।
धनिया प्रसन्न हो कर बोली — यह तुमने बड़ा अच्छा काम किया बेटा! इनका दुपट्टा बिलकुल तार—तार हो गया था।
गोबर को उतनी देर में घर की परिस्थिति का अंदाज हो गया था। धनिया की साड़ी में कई पैबंद लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की धोती में चारों तरफ झालरें—सी लटक रही थीं। सभी के चेहरे रूखेए किसी की देह पर चिकनाहट नहीं। जिधर देखोए विपन्नता का साम्राज्य था।
लड़कियाँ तो साड़ियों में मगन थीं। धनिया को लड़के के लिए भोजन की चिंता हुई। घर में थोड़ा—सा जौ का आटा साँझ के लिए संच कर रखा हुआ था। इस वक्त तो चबेने पर कटती थीए मगर गोबर अब वह गोबर थोड़े ही है। उससे जौ का आटा खाया भी जायगाघ् परदेस में न जाने क्या—क्या खाता—पीता रहा होगा। जा कर दुलारी की दुकान से गेहूँ का आटाए चावल—घी उधार लाई। इधर महीनों से सहुआइन एक पैसे की चीज उधार न देती थीए पर आज उसने एक बार भी न पूछाए पैसे कब दोगी।
उसने पूछा — गोबर तो खूब कमा के आया है नघ्
धनिया बोली — अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी! अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न समझा। हाँए सबके लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है। तुम्हारे आसिरबाद से कुसल से लौट आयाए मेरे लिए तो यही बहुत है।
दुलारी ने असीस दिया — भगवान करेए जहाँ रहे कुसल से रहे। माँ—बाप को और क्या चाहिएए लड़का समझदार है। और छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। हमारे रुपए अभी न मिलेंए तो ब्याज तो दे दो। दिन—दिन बोझ बढ़़ ही तो रहा है।
इधर सोना चुन्नू को उसका फ्राक और टोप और जूता पहना कर राजा बना रही थी। बालक इन चीजों को पहनने से ज्यादा हाथ में ले कर खेलना पसंद करता था। अंदर गोबर और झुनिया के मान—मनौवल का अभिनय हो रहा था।
झुनिया ने तिरस्कार—भरी आँखों से देख कर कहा — मुझे ला कर यहाँ बैठा दिया। आप परदेस की राह ली। फिर न खोज न खबर ली कि मरती है या जीती है। साल—भर के बाद अब जा कर तुम्हारी नींद टूटी है। कितने बड़े कपटी हो तुम! मैं तो सोचती हूँ कि तुम मेरे पीछे—पीछे आ रहे हो और आप उड़ेए तो साल—भर के बाद लौटे। मरदों का विस्वास ही क्याए कहीं कोई और ताक ली होगीए सोचा होगाए एक घर के लिए है हीए एक बाहर के लिए भी हो जाए।
गोबर ने सफाई दी — झुनियाए मैं भगवान को साच्छी दे कर कहता हूँए जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो। लाज और डर के मारे घर से भागा जरूरए मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊँगाए इसीलिए आया हूँ। तेरे घर वाले तो बहुत बिगड़े होंगेघ्
श्दादा तो मेरी जान लेने पर ही उतारू थे।श्
श्सच!श्
श्तीनों जने यहाँ चढ़़ आए थे। अम्माँ ने ऐसा डाँटा कि मुँह ले कर रह गए। हाँए हमारे दोनों बैल खोल ले गए।श्
श्इतनी बड़ी जबर्दस्ती। और दादा कुछ बोले नहींघ्श्
दादा अकेले किस—किससे लड़ते। गाँव वाले तो नहीं ले जाने देते थेए लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गएए तो और लोग क्या करतेघ्श्
श्तो आजकल खेती—बारी कैसे हो रही हैघ्श्
श्खेती—बारी सब टूट गई। थोड़ी—सी पंडित महाराज के साझे में है। ऊख बोई ही नहीं गई।श्
गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपए थे। उसकी गरमी यों भी कम न थी। यह हाल सुन कर तो उसके बदन में आग ही लग गई।
बोला — तो फिर पहले मैं उन्हीं से जा कर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ। यह डाका हैए खुला हुआ डाका। तीन—तीन साल को चले जाएँगे तीनों। यों न देंगेए तो अदालत से लूँगा। सारा घमंड तोड़ दूँगा।
वह उसी आवेश में चला था कि झुनिया ने पकड़ लिया और बोली — तो चले जानाए अभी ऐसी क्या जल्दी हैघ् कुछ आराम कर लोए कुछ खा—पी लो। सारा दिन तो पड़ा है। यहाँ बड़ी—बड़ी पंचायत हुई। पंचायत ने अस्सी रुपए डाँड़ के लगाए। तीस मन अनाज ऊपर। उसी में तो और तबाही आ गई।
सोना बालक को कपड़े—जूते पहना कर लाई। कपड़े पहन कर वह जैसे सचमुच राजा हो गया था। गोबर ने उसे गोद में ले लियाए पर इस समय बालक के प्यार में उसे आनंद न आया। उसका रक्त खौल रहा था और कमर के रुपए आँच और तेज कर रहे थे। वह एक—एक से समझेगा। पंचों को उस पर डाँड़ लगाने का अधिकार क्या हैघ् कौन होता है कोई उसके बीच में बोलने वालाघ् उसने एक औरत रख लीए तो पंचों के बाप का क्या बिगाड़ाघ् अगर इसी बात पर वह फौजदारी में दावा कर देए तो लोगों के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जाएँ। सारी गृहस्थी तहस—नहस हो गई। क्या समझ लिया है उसे इन लोगों ने।
बच्चा उसकी गोद में जरा—सा मुस्करायाए फिर जोर से चीख उठाए जैसे कोई डरावनी चीज देख ली हो।
झुनिया ने बच्चे को उसकी गोद से ले लिया और बोली — अब जा कर नहा—धो लो। किस सोच में पड़ गएघ् यहाँ सबसे लड़ने लगोए तो एक दिन निबाह न हो। जिसके पास पैसे हैंए वही बड़ा आदमी हैए वही भला आदमी है। पैसे न होंए तो उस पर सभी रोब जमाते हैं।
श्मेरा गधापन था कि घर से भागाए नहीं देखताए कैसे कोई एक धेला डाँड़ लेता है।श्
श्शहर की हवा खा आए होए तभी ये बातें सूझने लगी हैंए नहीं घर से भागते ही क्यों!श्
श्यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊँ और पटेश्वरीए दातादीनए झिंगुरीए सब सालों को पीट कर गिरा दूँ और उनके पेट से रुपए निकाल लूँ।श्
श्रुपए की बहुत गरमी चढ़़ी है साइत। लाओ निकालोए देखूँए इतने दिन में क्या कमा लाए होघ्श्
उसने गोबर की कमर में हाथ लगाया। गोबर खड़ा हो कर बोला — अभी क्या कमायाए हाँए अब तुम चलोगीए तो कमाऊँगा। साल—भर तो सहर का रंग—ढ़ंग पहचानने ही में लग गया।
श्अम्माँ जाने देंगीए तब तोघ्श्
श्अम्माँ क्यों न जाने देंगीघ् उनसे मतलबघ्श्
श्वाह! मैं उनकी राजी बिना न जाऊँगी। तुम तो छोड़ कर चलते बने। और मेरा कौन था यहाँघ् वह अगर घर में न घुसने देतीं तो मैं कहाँ जातीघ् जब तक जीऊँगीए उनका जस गाऊँगी और तुम भी क्या परदेस ही करते रहोगेघ्श्
श्और यहाँ बैठ कर क्या करूँगाघ् कमाओ और मरोए इसके सिवा और यहाँ क्या रखा हैघ् थोड़ी—सी अक्कल हो और आदमी काम करने से न डरेए तो वहाँ भूखों नहीं मर सकता। यहाँ तो अक्कल कुछ काम नहीं करती। दादा क्यों मुँह फुलाए हुए हैंघ्श्
श्अपने भाग बखानो कि मुँह फुला कर छोड़ देते हैं। तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा किया था कि उस क्रोध में पा जातेए तो मुँह लाल कर देते।श्
श्तो तुम्हें भी खूब गालियाँ देते होंगेघ्श्
श्कभी नहींए भूल कर भी नहीं। अम्माँ तो पहले बिगड़ी थींए लेकिन दादा ने तो कभी कुछ नहीं कहा — जब बुलाते हैंए बडे प्यार से। मेरा सिर भी दुखता हैए तो बेचौन हो जाते हैं। अपने बाप को देखते तो मैं इन्हें देवता समझती हूँ। अम्माँ को समझाया करते हैंए बहू को कुछ न कहना। तुम्हारे ऊपर सैकड़ों बार बिगड़ चुके हैं कि इसे घर में बैठा कर आप न जाने कहाँ निकल गया। आजकल पैसे—पैसे की तंगी है। ऊख के रुपए बाहर ही बाहर उड़ गए। अब तो मजूरी करनी पड़ती है। आज बेचारे खेत में बेहोस हो गए। रोना—पीटना मच गया। तब से पड़े हैं।श्
मुँह—हाथ धो कर और खूब बाल बना कर गोबर गाँव की दिग्विजय करने निकला। दोनों चाचाओं के घर जा कर राम—राम कर आया। फिर और मित्रों से मिला। गाँव में कोई विशेष परिवर्तन न था। हाँए पटेश्वरी की नई बैठक बन गई थी और झिंगुरीसिंह ने दरवाजे पर नया कुआँ खुदवा लिया था। गोबर के मन में विद्रोह और भी ताल ठोंकने लगा। जिससे मिलाए उसने उसका आदर कियाए और युवकों ने तो उसे अपना हीरो बना लिया और उसके साथ लखनऊ जाने को तैयार हो गए। साल ही भर में वह क्या से क्या हो गया था।
सहसा झिंगुरीसिंह अपने कुएँ पर नहाते हुए मिल गएए गोबर निकलाए मगर सलाम न कियाए न बोला। वह ठाकुर को दिखा देना चाहता थाए मैं तुम्हें कुछ नहीं समझता।
झिंगुरीसिंह ने खुद ही पूछा — कब आए गोबरए मजे में तो रहेघ् कहीं नौकर थे लखनऊ मेंघ्
गोबर ने हेकड़ी के साथ कहा — लखनऊ गुलामी करने नहीं गया था। नौकरी है तो गुलामी। मैं व्यापार करता था।
ठाकुर ने कुतूहल—भरी आँखों से उसे सिर से पाँव तक देखा — कितना रोज पैदा करते थेघ्
गोबर ने छुरी को भाला बना कर उनके ऊपर चलाया — यही कोई ढ़ाई—तीन रुपए मिल जाते थे। कभी चटक गई तो चार भी मिल गए। इससे बेसी नहीं।
झिंगुरी बहुत नोच—खसोट करके भी पचीस—तीस से ज्यादा न कमा पाते थे। और यह गँवार लौंडा सौ रुपए कमाने लगा। उनका मस्तक नीचा हो गया। अब किस दावे से उस पर रोब जमा सकते थेघ् वर्ण में वह जरूर ऊँचे हैंए लेकिन वर्ण कौन देखता है। उससे स्पर्धा करने का यह अवसर नहींए अब तो उसकी चिरौरी करके उससे कुछ काम निकाला जा सकता है। बोले — इतनी कमाई कम नहीं है बेटाए जो खरच करते बने। गाँव में तो तीन आने भी नहीं मिलते। भवनिया (उनके जेठे पुत्र का नाम था) को भी कहीं कोई काम दिला दोए तो भेज दूँ। न पढ़़े न लिखेए एक न एक उपद्रव करता रहता है। कहीं मुनीमी खाली हो तो कहनाए नहीं साथ ही लेते जाना। तुम्हारा तो मित्र है। तलब थोड़ी होए कुछ गम नहीं। हाँए चार पैसे की ऊपर की गुंजाइस हो।
गोबर ने अभिमान भरी हँसी से कहा — यह ऊपरी आमदनी की चाट आदमी को खराब कर देती है ठाकुरए लेकिन हम लोगों की आदत कुछ ऐसी बिगड़ गई है कि जब तक बेईमानी न करेंए पेट ही नहीं भरता। लखनऊ में मुनीमी मिल सकती हैए लेकिन हर एक महाजन ईमानदार चौकस आदमी चाहता है। मैं भवानी को किसी के गले बाँध तो दूँए लेकिन पीछे इन्होंने कहीं हाथ लपकायाए तो वह तो मेरी गर्दन पकड़ेगा। संसार में इलम की कदर नहींए ईमान की कदर है।
यह तमाचा लगा कर गोबर आगे निकल गया। झिंगुरी मन में ऐंठ कर रह गए। लौंडा कितने घमंड की बातें करता हैए मानो धर्म का अवतार ही तो है।
इसी तरह गोबर ने दातादीन को भी रगड़ा। भोजन करने जा रहे थे। गोबर को देख कर प्रसन्न हो कर बोले — मजे में तो रहे गोबरघ् सुनाए वहाँ कोई अच्छी जगह पा गए हो। मातादीन को भी किसी हीले से लगा दो नघ् भंग पी कर पड़े रहने के सिवा यहाँ और कौन काम है!
गोबर ने बनाया — तुम्हारे घर में किस बात की कमी है महाराजए जिस जजमान के द्वार पर जा कर खड़े हो जाओए कुछ न कुछ मार ही लाओगे। जनम में लोए मरन में लोए सादी में लोए गमी में लोए खेती करते होए लेन—देन करते होए दलाली करते होए किसी से कुछ भूल—चूक हो जाएए तो डाँड़ लगा कर उसका घर लूट लेते हो। इतनी कमाई से पेट नहीं भरताघ् क्या करोगे बहुत—सा धन बटोर कर कि साथ ले जाने की कोई जुगुत निकाल ली हैघ्
दातादीन ने देखाए गोबर कितनी ढ़िठाई से बोल रहा हैए अदब और लिहाज जैसे भूल गया। अभी शायद नहीं जानता कि बाप मेरी गुलामी कर रहा है। सच हैए छोटी नदी को उमड़ते देर नहीं लगतीए मगर चेहरे पर मैल नहीं आने दिया। जैसे बड़े लोग बालकों से मूँछें उखड़वा कर भी हँसते हैंए उन्होंने भी इस फटकार को हँसी में लिया और विनोद—भाव से बोले — लखनऊ की हवा खा के तू बड़ा चंट हो गया है गोबर! लाए क्या कमा के लाया हैए कुछ निकाल। सच कहता हूँ गोबरए तुम्हारी बहुत याद आती थी। अब तो रहोगे कुछ दिनघ्
श्हाँए अभी तो रहूँगा कुछ दिन। उन पंचों पर दावा करना हैए जिन्होंने डाँड़ के बहाने मेरे डेढ़़ सौ रुपए हजम किए हैं। देखूँए कौन मेरा हुक्का—पानी बंद करता है और कैसे बिरादरी मुझे जात बाहर करती हैघ्श्
यह धमकी दे कर वह आगे बढ़़ा। उसकी हेकड़ी ने उसके युवक भक्तों को रोब में डाल दिया था।
एक ने कहा — कर दो नालिस गोबर भैया! बुड्ढा काला साँप है — जिसके काटे का मंतर नहीं। तुमने अच्छी डाँट बताई। पटवारी के कान भी जरा गरमा दो। बड़ा मुतगन्नी है दादा! बाप—बेटे में आग लगा देए भाई—भाई में आग लगा दे। कारिंदे से मिल कर असामियों का गला काटता है। अपने खेत पीछे जोतोए पहले उसके खेत जोत दो। अपनी सिंचाई पीछे करोए पहले उसकी सिंचाई कर दो।
गोबर ने मूँछों पर ताव दे कर कहा — मुझसे क्या कहते हो भाईए साल—भर में भूल थोड़े ही गया। यहाँ मुझे रहना ही नहीं हैए नहीं एक—एक को नचा कर छोड़ता। अबकी होली धूमधाम से मनाओ और होली का स्वाँग बना कर इन सबों को खूब भिगो—भिगो कर लगाओ।
होली का प्रोग्राम बनने लगा। खूब भंग घुटेए दूधिया भीए रंगीन भीए और रंगों के साथ कालिख भी बने और मुखियों के मुँह पर कालिख ही पोती जाए। होली में कोई बोल ही क्या सकता है! फिर स्वाँग निकले और पंचों की भद्द उड़ाई जाए। रुपए—पैसे की कोई चिंता नहीं। गोबर भाई कमा कर लाए हैं।
भोजन करके गोबर भोला से मिलने चला। जब तक अपनी जोड़ी ला कर अपने द्वार पर बाँध न देए उसे चौन नहीं। वह लड़ने—मरने को तैयार था।
होरी ने कातर स्वर में कहा — रार मत बढ़़ाओ बेटा! भोला गोई ले गएए भगवान उनका भला करेए लेकिन उनके रुपए तो आते ही थे।
गोबर ने उत्तेजित हो कर कहा — दादाए तुम बीच में मत बोलो। उनकी गाय पचास की थी। हमारी गोई डेढ़़ सौ में आई थी। तीन साल हमने जोती। फिर भी डेढ़़ सौ की थी ही। वह अपने रुपए के लिए दावा करतेए डिगरी करातेए या जो चाहते करतेए हमारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गएघ् और तुम्हें क्या कहूँघ् इधर गोई खो बैठेए उधर डेढ़़ सौ रुपए डाँड़ के भरे। यह है गऊ होने का फल । मेरे सामने जोड़ी ले जातेए तो देखता। तीनों को यहीं जमीन पर सुला देता। और पंचों से तो बात तक न करता। देखताए कौन मुझे बिरादरी से अलग करता हैए लेकिन तुम बैठे ताकते रहे।
होरी ने अपराधी की भाँति सिर झुका लियाए लेकिन धनिया यह अनीति कैसे देख सकती थीघ् बोली — बेटाए तुम भी अंधेर करते हो। हुक्का—पानी बंद हो जाताए तो गाँव में निर्वाह कैसे होताए जवान लड़की बैठी हैए उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है या नहींघ् मरने—जीने में आदमी बिरादरीघ्
गोबर ने बात काटी — हुक्का—पानी सब तो थाए बिरादरी में आदर भी थाए फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआघ् बोलो! इसलिए कि घर में रोटी न थी। रुपए हों तो न हुक्का—पानी का काम हैए न जात—बिरादरी का। दुनिया पैसे की हैए हुक्का—पानी कोई नहीं पूछता।
धनिया तो बच्चे का रोना सुन कर भीतर चली गई और गोबर भी घर से निकला। होरी बैठा सोच रहा था। लड़के की अकल जैसे खुल गई है। कैसी बेलाग बात कहता है। उसकी वक्र—बुद्धि ने होरी के धर्म और नीति को परास्त कर दिया था।
सहसा होरी ने उससे पूछा — मैं भी चला चलूँघ्
श्मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ दादाए डरो मत। मेरी ओर तो कानून हैए मैं क्यों लड़ाई करने लगाघ्श्
श्मैं भी चलूँ तो कोई हरज हैघ्श्
श्हाँए बड़ा हरज है। तुम बनी बात बिगड़ दोगे।श्
होरी चुप हो गया और गोबर चल दिया।
पाँच मिनट भी न हुए होंगे कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली और बोली — क्या गोबर चला गयाए अकेले — मैं कहती हूँए तुम्हें भगवान कभी बुद्धि देंगे या नहीं। भोला क्या सहज में गोई देगाघ् तीनों उस पर टूट पड़ेंगे बाज की तरह। भगवान ही कुसल करें। अब किससे कहूँए दौड़ कर गोबर को पकड़ लो। तुमसे तो मैं हार गई।
होरी ने कोने से डंडा उठाया और गोबर के पीछे दौड़ा। गाँव के बाहर आ कर उसने निगाह दौड़ाई। एक क्षीण—सी रेखा क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी। इतनी ही देर में गोबर इतनी दूर कैसे निकल गया। होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी। उसने क्यों गोबर को रोका नहींघ् अगर वह डाँट कर कह देताए भोला के घर मत जाओए तो गोबर कभी न जाता। और अब उससे दौड़ा भी तो नहीं जाता। वह हार कर वहीं बैठ गया और बोला — उसकी रच्छा करो महावीर स्वामी!
गोबर उस गाँव में पहुँचा तो देखाए कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे जुआ खेल रहे हैं। उसे देख कर लोगों ने समझाए पुलिस का सिपाही है। कौड़ियाँ समेट कर भागे कि सहसा जंगी ने उसे पहचान कर कहा — अरेए यह तो गोबरधन है।
गोबर ने देखाए जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाँक रहा है। बोला — डरोए मत जंगी भैयाए मैं हूँ। राम—राम आज ही आया हूँ। सोचाए चलूँ सबसे मिलता आऊँए फिर न जाने कब आना हो। मैं तो भैयाए तुम्हारे आसिरवाद से बड़े मजे में निकल गया। जिस राजा की नौकरी में हूँए उन्होंने मुझसे कहा — है कि एक—दो आदमी मिल जाएँ तो लेते आना। चौकीदारी के लिए चाहिए। मैंने कहा — सरकार ऐसे आदमी दूँगा कि चाहे जान चली जायए मैदान से हटने वाले नहींए इच्छा हो तो मेरे साथ चलो। अच्छी जगह है।
जंगी उसका ठाट—बाट देख कर रोब में आ गया। उसे कभी चमरौधे जूते भी मयस्सर न हुए थे। और गोबर चमाचम बूट पहने था। साफ—सुथरीए धारीदार कमीजए सँवारे हुए बालए पूरा बाबू साहब बना हुआ। फटे हाल गोबर और इस परिष्कृत गोबर में बड़ा अंतर था। हिंसा—भाव तो यों ही समय के प्रभाव से शांत हो गया था और बचा—खुचा अब शांत हो गया। जुआरी था हीए उस पर गाँजे की लत। और घर में बड़ी मुश्किल से पैसे मिलते थे। मुँह में पानी भर आया। बोला — चलूँगा क्यों नहींए यहाँ पड़ा—पड़ा मक्खी ही तो मार रहा हूँ। कै रुपए मिलेंगेघ्
गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से कहा — इसकी कुछ चिंता मत करो। सब कुछ अपने ही हाथ में है। जो चाहोगेए वह हो जायगा। हमने सोचाए जब घर में ही आदमी हैए तो बाहर क्यों जाएँघ्
जंगी ने उत्सुकता से पूछा — काम क्या करना पड़ेगाघ्
श्काम चाहे चौकीदारी करोए चाहे तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गए। आ कर मालिक से कह दियाए घर पर मिला ही नहींए चाहो तो रुपए—आठ आने रोज बना सकते हो।श्
श्रहने की जगह भी मिलती है।श्
श्जगह की कौन कमी — पूरा महल पड़ा है। पानी का नलए बिजली। किसी बात की कमी नहीं है। कामता हैं कि कहीं गए हैंघ्श्
श्दूध ले कर गए हैं। मुझे कोई बाजार नहीं जाने देता। कहते हैंए तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैयाए लेकिन दो पैसे रोज तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।श्
श्हाँ—हाँ बेखटके चलो। होली के बाद।श्
श्तो पक्की रही।श्
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक्त उसका गला सचमुच भर आया। बोला — काकाए मुझसे जो कुछ भूल—चूक हुईए उसे छमा करो।
भोला ने सुतली कातना बंद कर दिया और पथरीले स्वर में बोला — काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबरए कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगेए लेकिन अपने द्वार पर आए होए अब क्या कहूँ। जाओए जैसा मेरे साथ कियाए उसकी सजा भगवान देंगे। कब आएघ्
गोबर ने खूब नमक—मिर्च लगा कर अपने भाग्योदय का वृत्तांत कहा — और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक—न—एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगाए तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ देए अपना बोझ तो उठा लेगा।
गोबर ने कहा — नहीं काकाए भगवान ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल—दो—साल में आदमी बन जाएँगे।
श्हाँए जब इनसे रहते बने।श्
श्सिर पर आ पड़ती हैए तो आदमी आप सँभल जाता है।श्
श्तो कब तक जाने का विचार हैघ्श्
श्होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती—बारी का सिलसिला फिर जमा दूँए तो निश्चिंत हो जाऊँ।श्
श्होरी से कहोए अब बैठ के राम—राम करें।श्
श्कहता तो हूँए लेकिन जब उनसे बैठा जाए।श्
श्वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान—पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना।श्
श्एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूँगा। खाँसी रात को जोर करती है कि दिन कोघ्श्
श्नहीं बेटाए रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल होए तो मैं भी वहीं चल कर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता।श्
रोजगार का जो मजा तो वहाँ है काकाए यहाँ क्या होगाघ् यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच—छरू सेर के भाव से चाहो तो घड़ी में मनों दूध बेच लो।श्
जंगी गोबर के लिए दूधिया शर्बत बनाने चला गया था। भोला ने एकांत देख कर कहा — और भैयाए अब इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध ले कर जाता है। सानी—पानीए खोलना—बाँधना सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय—हाय करूँ। रोज लड़ाई—झगड़ा। किस—किसके पाँव सहलाऊँघ् खाँसी आती हैए रात को उठा नहीं जाताए पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गई हैए मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।
गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा — तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचोए नगद। कितने ही बड़े—बड़े अमीरों से मेरी जान—पहचान है। मन—भर दूध की निकासी का जिम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दुकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्बत पी कर कहा — तुम तो खाली साँझ—सबेरे चाय की दुकान पर बैठ जाओ काकाए तो एक रूपया कहीं नहीं गया है।
भोला ने एक मिनट के बाद संकोच—भरे भाव से कहा — क्रोध में बेटाए आदमी अंधा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोई खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती—बारी होती है।
श्मैंने तो एक नई गोई ठीक कर ली है काका!श्
श्नहीं—नहींए नई गोई ले कर क्या करोगेघ् इसे लेते जाओ।श्
श्तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूँगा।श्
श्रुपए कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटाए घर में ही तो हैं। बिरादरी का ढ़कोसला हैए नहीं तुममें और हममें कौन भेद हैघ् सच पूछो तो मुझे खुस होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में हैए और आराम से है। और मैं उसके खून का प्यासा बन गया था।श्
संध्या के समय गोबर यहाँ से चलाए तो गोई उसके साथ थी और दही की दो हाड़ियाँ लिए जंगी पीछे—पीछे आ रहा था।
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भाग 20
देहातों में साल के छरू महीने किसी न किसी उत्सव में ढ़ोल—मजीरा बजता रहता है। होली के एक महीना पहले से एक महीना बाद तक फाग उड़ती हैए असाढ़़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है और सावन—भादों में कजलियाँ होती हैं। कजलियों के बाद रामायण—गान होने लगता है। सेमरी भी अपवाद नहीं है। महाजन की धामकियाँ और कारिंदे की गोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं डाल सकती। घर में अनाज नहीं हैए देह पर कपड़े नहीं हैंए गाँठ में पैसे नहीं हैंए कोई परवा नहीं। जीवन की आनंदवृत्ति तो दबाई नहीं जा सकतीए हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता।
यों होली में गाने—बजाने का मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी। वहीं भंग बनती थीए वहीं रंग उड़ता थाए वहीं नाच होता था। इस उत्सव में कारिंदा साहब के दस—पाँच रुपए खर्च हो जाते थे। और किसमें यह सामर्थ्य थी कि अपने द्वार पर जलसा कराताघ्
लेकिन अबकी गोबर ने गाँव के नवयुवकों को अपने द्वार पर खींच लिया है और नोखेराम की चौपाल खाली पड़ी हुई है। गोबर के द्वार पर भंग घुट रही हैए पान के बीड़े लग रहे हैंए रंग घोला जा रहा हैए फर्श बिछा हुआ हैए गाना हो रहा हैए और चौपाल में सन्नाटा छाया हुआ है। भंग रखी हुई हैए पीसे कौनघ् ढ़ोल—मजीरा सब मौजूद हैए पर गाए कौनघ् जिसे देखोए गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला जा रहा हैए यहाँ भंग में गुलाबजल और केसर और बादाम की बहार है। हाँ—हाँए सेर—भर बादाम गोबर खुद लाया। पीते ही चोला तर हो जाता हैए आँखें खुल जाती हैं। खमीरा तमाखू लाया हैए खास बिसवाँ की! रंग में भी केवड़ा छोड़ा है। रुपए कमाना भी जानता है और खरच करना भी जानता है। गाड़ कर रख लोए तो कौन देखता हैघ् धन की यही शोभा है। और केवल भंग ही नहीं है। जितने गाने वाले हैंए सबका नेवता भी है। और गाँव में न नाचने वालों की कमी हैए न अभिनय करने वालों की। शोभा ही लंगड़ों की ऐसी नकल करता है कि क्या कोई करेगा और बोली की नकल करने में तो उसका सानी नहीं है। जिसकी बोली कहोए उसकी बोले — आदमी की भीए जानवर की भी। गिरधर नकल करने में बेजोड़ है। वकील की नकल वह करेए पटवारी की नकल वह करेए थानेदार कीए चपरासी कीए सेठ की — सभी की नकल कर सकता है। हाँए बेचारे के पास वैसा सामान नहीं हैए मगर अबकी गोबर ने उसके लिए सभी सामान मँगा दिया हैए और उसकी नकलें देखने जोग होंगी।
यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से ही तमाशा देखने वाले जमा होने लगे। आसपास के गाँवों से दर्शकों की टोलियाँ आने लगीं। दस बजते—बजते तीन—चार हजार आदमी जमा हो गए। और जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप भरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआए तो लोगों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। वही खल्वाट सिरए वही बड़ी मूँछेंए और वही तोंद! बैठे भोजन कर रहे हैं और पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही हैं।
ठाकुर ठकुराइन को रसिक नेत्रों से देख कर कहते हैं — अब भी तुम्हारे ऊपर वह जोबन है कि कोई जवान देख लेए तो तड़प जाए। और ठकुराइन फूल कर कहती हैंए जभी तो नई नवेली लाए!
श्उसे तो लाया हूँ तुम्हारी सेवा करने के लिए। वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगीघ्श्
छोटी बीबी यह वाक्य सुन लेती है और मुँह फुला कर चली जाती है।
दूसरे —श्य में ठाकुर खाट पर लेटे हैं और छोटी बहू मुँह फेरे हुए जमीन पर बैठी है। ठाकुर बार—बार उसका मुँह अपनी ओर फेरने की विफल चेष्टा करके कहते हैं — मुझसे क्यों रूठी हो मेरी लाड़लीघ्
श्तुम्हारी लाड़ली जहाँ होए वहाँ जाओ। मैं तो लौंडी हूँए दूसरों की सेवा—टहल करने के लिए आई हूँ।श्
तुम मेरी रानी हो। तुम्हारी सेवा—टहल करने के लिए वह बुढ़़िया है।श्
पहली ठकुराइन सुन लेती है और झाड़ू ले कर घर में घुसती हैं और कई झाड़ू उन पर जमाती हैं। ठाकुर साहब जान बचा कर भागते हैं।
फिर दूसरी नकल हुईए जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का दस्तावेज लिख कर पाँच रुपए दिएए शेष नजराने और तहरीर और दस्तूरी और ब्याज में काट लिए।
किसान आ कर ठाकुर के चरण पकड़ कर रोने लगता है। बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राजी होते हैं। जब कागज लिख जाता है और असामी के हाथ में पाँच रुपए रख दिए जाते हैं तो वह चकरा कर पूछता हैघ्
श्यह तो पाँच ही हैं मालिक!श्
श्पाँच नहींए दस हैं। घर जा कर गिनना।श्
श्नहीं सरकारए पाँच हैं।श्
श्एक रूपया नजराने का हुआ कि नहींघ्श्
श्हाँए सरकार!श्
श्एक तहरीर काघ्श्
श्हाँए सरकार!श्
श्एक कागद काघ्श्
श्हाँए सरकार।श्
श्एक दस्तूरी काघ्श्
श्हाँए सरकार!श्
श्एक सूद काघ्श्
श्हाँए सरकार!श्
श्पाँच नगदए दस हुए कि नहींघ्श्
श्हाँए सरकार! अब यह पाँचों मेरी ओर से रख लीजिए।श्
श्कैसा पागल हैघ्श्
श्नहीं सरकारए एक रूपया छोटी ठकुराइन का नजराना हैए एक रूपया बड़ी ठकुराइन का। एक रूपया ठकुराइन के पान खाने कोए एक बड़ी ठकुराइन के पान खाने को। बाकी बचा एकए वह आपकी करिया—करम के लिए।श्
इसी तरह नोखेराम और पटेश्वरी और दातादीन की — बारी—बारी से सबकी खबर ली गई। और फबतियों में चाहे कोई नयापन न होए और नकलें पुरानी होंए लेकिन गिरधारी का ढ़ंग ऐसा हास्यजनक थाए दर्शक इतने सरल हृदय थे कि बेबात की बात में भी हँसते थे। रात—भर भंड़ैती होती रही और सताए हुए दिलए कल्पना में प्रतिशोध पा कर प्रसन्न होते रहे। आखिरी नकल समाप्त हुईए तो कौवे बोल रहे थे।
सबेरा होते ही जिसे देखोए उसी की जबान पर वही रात के गानेए वही नकलए वही फिकरे। मुखिए तमाशा बन गए। जिधर निकलते हैंए उधर ही दो—चार लड़के पीछे लग जाते हैं और वही फिकरे कसते हैं। झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज आदमी थेए इसे दिल्लगी में लियाए मगर पटेश्वरी में चिढ़़ने की बुरी आदत थी। और पंडित दातादीन तो इतने तुनुक—मिजाज थे कि लड़ने पर तैयार हो जाते थे। वह सबसे सम्मान पाने के आदी थे। कारिंदा की तो बात ही क्याए रायसाहब तक उन्हें देखते ही सिर झुका देते थे। उनकी ऐसी हँसी उड़ाई जाय और अपने ही गाँव मेंघ् यह उनके लिए असहाय था। अगर उनमें ब्रह्मतेज होता तो इन दुष्टों को भस्म कर देते। ऐसा शाप देते कि सब—के—सब भस्म हो जातेए लेकिन इस कलियुग में शाप का असर ही जाता रहा। इसलिए उन्होंने कलियुग वाला हथियार निकाला। होरी के द्वार पर आए और आँखें निकाल कर बोले — क्या आज भी तुम काम करने न चलोगे होरीघ् अब तो तुम अच्छे हो गए। मेरा कितना हरज हो गयाए यह तुम नहीं सोचते।
गोबर देर में सोया था। अभी—अभी उठा था और आँखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि दातादीन की आवाज कान में पड़ी। पालागन करना तो दूर रहाए उलटे और हेकड़ी दिखा कर बोला — अब वह तुम्हारी मजूरी न करेंगे। हमें अपनी ऊख भी तो बोनी है।
दातादीन ने सुरती फाँकते हुए कहा — काम कैसे नहीं करेंगेघ् साल के बीच में काम नहीं छोड़ सकते। जेठ में छोड़ना हो छोड़ देंए करना हो करें। उसके पहले नहीं छोड़ सकते।
गोबर ने जम्हाई ले कर कहा — उन्होंने तुम्हारी गुलामी नहीं लिखी है। जब तक इच्छा थीए काम किया। अब नहीं इच्छाए नहीं करेंगे। इसमें कोई जबर्दस्ती नहीं कर सकता।
श्तो होरी काम नहीं करेंगेघ्श्
श्ना!श्
श्तो हमारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद होता है सौ रूपया। असल मिला कर दो सौ होते हैं। हमने समझा थाए तीन रुपए महीने सूद में कटते जाएँगेए लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं हैए तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। धन्ना सेठ बनते होए तो धन्ना सेठ का काम करो।
होरी ने दातादीन से कहा — तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ महाराजघ् लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है।
गोबर ने बाप को डाँटा — कैसी चाकरी और किसकी चाकरीघ् यहाँ कोई किसी का चाकर नहीं। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपए उधार दे दिए और उससे सूद में जिंदगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों! यह महाजनी नहीं हैए खून चूसना है।
श्तो रुपए दे दो भैयाए लड़ाई काहे कीए मैं आने रुपए ब्याज लेता हूँए तुम्हें गाँव—घर का समझ कर आधा आने रुपए पर दिया था।श्
श्हम तो एक रूपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लोए नहीं अदालत से ले लेना। एक रूपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता।श्
श्मालूम होता हैए रुपए की गरमी हो गई है।श्
श्गरमी उन्हें होती हैए जो एक के दस लेते हैं। हम तो मजूर हैं। हमारी गरमी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे खूब याद हैए तुमने बैल के लिए तीस रुपए दिए थे। उसके सौ हुए और अब सौ के दो सौ हो गए। इसी तरह तुम लोगों ने किसानों को लूट—लूट कर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ! कुछ हद है! कितने दिन हुए होंगे दादाघ्श्
होरी ने कातर कंठ से कहा — यही आठ—नौ साल हुए होंगे।
गोबर ने छाती पर हाथ रख कर कहा — नौ साल में तीस के दो सौ। एक रुपए के हिसाब से कितना होता हैघ्
उसने जमीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाते हुए कहा — दस साल में छत्तीस रुपए होते हैं। असल मिला कर छाछठ। उसके सत्तर रुपए ले लो। इससे बेसी मैं एक कौड़ी न दूँगा।
दातादीन ने होरी को बीच में डाल कर कहा — सुनते हो होरीए गोबर का फैसलाघ् मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर ले लूँ ए नहीं अदालत करूँ। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगाघ् और तुम बैठे सुन रहे होए मगर यह समझ लोए मैं ब्राह्मण हूँए मेरे रुपए हजम करके तुम चौन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपए भी छोड़ेए अदालत भी न जाऊँगाए जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूँए तो पूरे दो सौ रुपए ले कर दिखा दूँगाए और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बाँध कर दोगे।
दातादीन झल्लाए हुए लौट पड़े। गोबर अपनी जगह बैठा रहा। मगर होरी के पेट में धर्म की क्रांति मची हुई थी। अगर ठाकुर या बनिए के रुपए होतेए तो उसे ज्यादा चिंता न होतीए लेकिन ब्राह्मण के रुपए! उसकी एक पाई भी दब गईए तो हड्डी तोड़ कर निकलेगी। भगवान न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे। बंस में कोई चुल्लू—भर पानी देने वालाए घर में दिया जलाने वाला भी नहीं रहता। उसका धर्म—भीरु मन त्रस्त हो उठा। उसने दौड़ कर पंडित जी के चरण पकड़ लिए और आर्त स्वर में बोला — महराजए जब तक मैं जीता हूँए तुम्हारी एक—एक पाई चुकाऊँगा। लड़के की बातों पर मत जाओ। मामला तो हमारे—तुम्हारे बीच में हुआ है। वह कौन होता हैघ्
दातादीन जरा नरम पड़े — जरा इसकी जबर्दस्ती देखोए कहता हैए दो सौ रुपए के सत्तर लो या अदालत जाओ। अभी अदालत की हवा नहीं खाई हैए जभी। एक बार किसी के पाले पड़ जाएँगेए तो फिर यह ताव न रहेगा। चार दिन सहर में क्या रहेए तानासाह हो गए!
श्मैं तो कहता हूँ महाराजए मैं तुम्हारी एक—एक पाई चुकाऊँगा।श्
श्तो कल से हमारे यहाँ काम करने आना पड़ेगा।श्
श्अपनी ऊख बोना है महाराजए नहीं तुम्हारा ही काम करता।श्
दातादीन चले गए तो गोबर ने तिरस्कार की आँखों से देख कर कहा — गए थे देवता को मनाने। तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिजाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपए दिएए अब दो सौ रुपए लेगाए और डाँट ऊपर से बताएगा और तुमसे मजूरी कराएगा और काम कराते—कराते मार डालेगा।
होरी ने अपने विचार में सत्य का पक्ष ले कर कहा — नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटाए अपनी—अपनी करनी अपने साथ है। हमने जिस ब्याज पर रुपए लिएए वह तो देने ही पड़ेंगे। फिर ब्राह्मण ठहरे। इनका पैसा हमें पचेगाघ् ऐसा माल तो इन्हीं लोगों को पचता है।
गोबर ने त्योरियाँ चढ़़ाईं — नीति छोड़ने को कौन कह रहा हैघ् और कौन कह रहा है कि ब्राह्मण का पैसा दबा लोघ् मैं तो यह कहता हूँ कि इतना सूद नहीं देंगे। बैंक वाले बारह आने सूद लेते हैं। तुम एक रूपया ले लो। और क्या किसी को लूट लोगेघ्
श्उनका रोयाँ जो दुरूखी होगाघ्श्
श्हुआ करे। उनके दुरूखी होने के डर से हम बिल क्यों खोदेंघ्श्
श्बेटाए जब तक मैं जीता हूँए मुझे अपने रस्ते चलने दो। जब मैं मर जाऊँए तो तुम्हारी जो इच्छा होए वह करना।श्
श्तो फिर तुम्हीं देना। मैं तो अपने हाथों अपने पाँव में कुल्हाड़ी न मारूँगा। मेरा गधापन था कि तुम्हारे बीच में बोला — तुमने खाया हैए तुम भरो। मैं क्यों अपनी जान दूँघ्श्
यह कहता हुआ गोबर भीतर चला गया। झुनिया ने पूछा — आज सबेर—सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़ेघ्
गोबर ने सारा वृत्तांत कह सुनाया और अंत में बोला — इनके ऊपर रिन का बोझ इसी तरह बढ़़ता जायगा। मैं कहाँ तक भरूँगाघ् उन्होंने कमा—कमा कर दूसरों का घर भरा है। मैं क्यों उनकी खोदी हुई खंदक में गिरूँघ् इन्होंने मुझसे पूछ कर करज नहीं लिया। न मेरे लिए लिया। मैं उसका देनदार नहीं हूँ।
उधर मुखियों में गोबर को नीचा दिखाने के लिए षड़यंत्र रचा जा रहा था। यह लौंडा शिंकजे में न कसा गयाए तो गाँव में ऊधम मचा देगा। प्यादे से फर्जी हो गया है नए टेढ़़े तो चलेगा ही। जाने कहाँ से इतना कानून सीख आया हैघ् कहता हैए रुपए सैकड़े सूद से बेसी न दूँगा। लेना हो लोए नहीं अदालत जाओ। रात इसने सारे गाँव के लौंडों को बटोर कर कितना अनर्थ किया। लेकिन मुखियों में भी ईर्ष्या की कमी न थी। सभी अपने बराबर वालों के परिहास पर प्रसन्न थे। पटेश्वरी और नोखेराम में बातें हो रही थीं। पटेश्वरी ने कहा — मगर सबों को घर—घर की रत्ती—रत्ती का हाल मालूम है। झिंगुरीसिंह को तो सबों ने ऐसा रगेदा कि कुछ न पूछो। दोनों ठकुराइनों की बातें सुन—सुन कर लोग हँसी के मारे लोट गए।
नोखेराम ने ठट्टा मार कर कहा — मगर नकल सच्ची थी। मैंने कई बार उनकी छोटी बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों से हँसी करते देखा है।
श्और बड़ी रानी काजल और सेंदूर और महावर लगा कर जवान बनी रहती हैं।श्
श्दोनों में रात—दिन छिड़ी रहती है। झिंगुरी पक्का बेहया है। कोई दूसरा होता तो पागल हो जाता।श्
श्सुनाए तुम्हारी बड़ी भद्दी नकल की। चमरिया के घर में बंद करके पिटवाया।श्
मैं तो बचा पर बकाया लगान का दावा करके ठीक कर दूँगा। वह भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पड़ा था।श्
श्लगान तो उसने चुका दिया है नघ्श्
श्लेकिन रसीद तो मैंने नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान चुका दियाघ् और यहाँ कौन हिसाब—किताब देखता हैघ् आज ही प्यादा भेज कर बुलाता हूँ।श्
होरी और गोबर दोनों ऊख बोने के लिए खेत सींच रहे थे। अबकी ऊख की खेती होने की आशा तो थी नहींए इसलिए खेत परती पड़ा हुआ था। अब बैल आ गए हैंए तो ऊख क्यों न बोई जाए।
मगर दोनों जैसे छत्तीस बने हुए थे। न बोलते थेए न ताकते थे। होरी बैलों को हाँक रहा था और गोबर मोट ले रहा था। सोना और रूपा दोनों खेत में पानी दौड़ा रही थीं कि उनमें झगड़ा हो गया। विवाद का विषय यह था कि झिंगुरीसिंह की छोटी ठकुराइन पहले खुद खा कर पति को खिलाती हैं या पति को खिला कर तब खुद खाती है। सोना कहती थीए पहले वह खुद खाती है। रूपा का मत इसके प्रतिकूल था।
रूपा ने जिरह की — अगर वह पहले खाती हैए तो क्यों मोटी नहीं हैघ् ठाकुर क्यों मोटे हैंघ् अगर ठाकुर उन पर गिर पड़ेए तो ठकुराइन पिस जायँ।
सोना ने प्रतिवाद किया — तू समझती हैए अच्छा खाने से लोग मोटे हो जाते हैं। अच्छा खाने से लोग बलवान होते हैंए मोटे नहीं होते। मोटे होते हैं घास—पात खाने से।
श्तो ठकुराइन ठाकुर से बलवान हैंघ्श्
श्और क्या। अभी उस दिन दोनों में लड़ाई हुईए तो ठकुराइन ने ठाकुर को ऐसा ढ़केला कि उनके घुटने फूट गए।श्
श्तो तू भी पहले आप खा कर तब जीजा को खिलाएगीघ्श्
श्और क्या! श्
श्अम्माँ तो पहले दादा को खिलाती हैं।श्
श्तभी तो जब देखो तब दादा डाँट देते हैं। मैं बलवान हो कर अपने मरद को काबू में रखूँगी। तेरा मरद तुझे पीटेगाए तेरी हडी तोड़ कर रख देगा।श्
रूपा रूआँसी हो कर बोली — क्यों पीटेगाए मैं मार खाने का काम ही न करूँगी।
श्वह कुछ न सुनेगा। तूने जरा भी कुछ कहा — और वह मार चलेगा। मारते—मारते तेरी खाल उधेड़ लेगा।श्
रूपा ने बिगड़ कर सोना की साड़ी दाँतों से फाड़ने की चेष्टा की और असफल होने पर चुटकियाँ काटने लगी।
सोना ने और चिढ़़ाया — वह तेरी नाक भी काट लेगा।
इस पर रूपा ने बहन को दाँत से काट खाया। सोना की बाँह लहुआ गई। उसने रूपा को जोर से ढ़केल दिया। वह गिर पड़ी और उठ कर रोने लगी। सोना भी दाँतों के निशान देख कर रो पड़ी।
उन दोनों का चिल्लाना सुन कर गोबर गुस्से से भरा हुआ आया और दोनों को दो—दो घूँसे जड़ दिए। दोनों रोती हुई निकल कर घर चली दीं। सिंचाई का काम रूक गया। इस पर पिता—पुत्र में एक झड़प हो गई।
होरी ने पूछा — पानी कौन चलाएगाघ् दौड़े—दौड़े गएए दोनों को भगा आए। अब जा कर मना क्यों नहीं लातेघ्
श्तुम्हीं ने इन सबों को बिगाड़ रखा है।श्
श्इस तरह मारने से और निर्लज्ज हो जाएँगी।श्
श्दो जून खाना बंद कर दोए आप ठीक हो जायँ।श्
श्मैं उनका बाप हूँए कसाई नहीं हूँ।श्
पाँव में एक बार ठोकर लग जाने के बाद किसी कारण से बार—बार ठोकर लगती है और कभी—कभी अँगूठा पक जाता है और महीनों कष्ट देता है। पिता और पुत्र के सदभाव को आज उसी तरह की चोट लग गई थी और उस पर यह तीसरी चोट पड़ी।
गोबर ने घर जा कर झुनिया को खेत में पानी देने के लिए साथ लिया। झुनिया बच्चे को ले कर खेत में आ गई। धनिया और उसकी दोनों बेटीयाँ बैठी ताकती रहीं। माँ को भी गोबर की यह उद्दंडता बुरी लगती थी। रूपा को मारता तो वह बुरा न मानतीए मगर जवान लड़की को मारनाए यह उसके लिए असहाय था।
आज ही रात को गोबर ने लखनऊ लौट जाने का निश्चय कर लिया। यहाँ अब वह नहीं रह सकता। जब घर में उसकी कोई पूछ नहीं हैए तो वह क्यों रहे। वह लेन—देन के मामले में बोल नहीं सकता। लड़कियों को जरा मार दिया तो लोग ऐसे जामे के बाहर हो गएए मानो वह बाहर का आदमी है। तो इस सराय में वह न रहेगा।
दोनों भोजन करके बाहर आए थे कि नोखेराम के प्यादे ने आ कर कहा — चलोए कारिंदा साहब ने बुलाया है।
होरी ने गर्व से कहा — रात को क्यों बुलाते हैंए मैं तो बाकी दे चुका हूँ।
प्यादा बोला — मुझे तो तुम्हें बुलाने का हुक्म मिला है। जो कुछ अरज करना होए वहीं चल कर करना।
होरी की इच्छा न थीए मगर जाना पड़ा। गोबर विरक्त—सा बैठा रहा। आधा घंटे में होरी लौटा और चिलम भर कर पीने लगा। अब गोबर से न रहा गया। पूछा — किस मतलब से बुलाया थाघ्
होरी ने भर्राई हुई आवाज में कहा — मैंने पाई—पाई लगान चुका दिया। वह कहते हैंए तुम्हारे ऊपर दो साल का बाकी है। अभी उस दिन मैंने ऊख बेचीए तो पचीस रुपए वहीं उनको दे दिएए और आज वह दो साल का बाकी निकालते हैं। मैंने कह दियाए मैं एक धेला न दूँगा।
गोबर ने पूछा — तुम्हारे पास रसीद होगीघ्
श्रसीद कहाँ देते हैंघ्श्
श्तो तुम बिना रसीद लिए रुपए देते ही क्यों होघ्श्
श्मैं क्या जानता थाए यह लोग बेईमानी करेंगे। यह सब तुम्हारी करनी का फल है। तुमने रात को उनकी हँसी उड़ाईए यह उसी का दंड है। पानी में रह कर मगर से बैर नहीं किया जाता। सूद लगा कर सत्तर रुपए बाकी निकाल दिए। ये किसके घर से आएँगेघ्श्
गोबर ने सफाई देते हुए कहा — तुमने रसीद ले ली होती तो मैं लाख उनकी हँसी उड़ाताए तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकते। मेरी समझ में नहीं आता कि लेन—देन में तुम सावधानी से क्यों काम नहीं लेते। यों रसीद नहीं देतेए तो डाक से रूपया भेजो। यही तो होगाए एकाध रूपया महसूल पड़ जायगा। इस तरह की धाँधली तो न होगी।श्
श्तुमने यह आग न लगाई होतीए तो कुछ न होता। अब तो सभी मुखिया बिगड़े हुए हैं। बेदखली की धमकी दे रहे हैं। दैव जाने कैसे बेड़ा पार लगेगा!श्
श्मैं जा कर उनसे पूछता हूँ।श्
श्तुम जा कर और आग लगा दोगे।श्
श्अगर आग लगानी पड़ेगीए तो आग लगा दूँगा। यह बेदखली करते हैंए करें। मैं उनके हाथ में गंगाजली रख कर अदालत में कसम खिलाऊँगा। तुम दुम दबा कर बैठे रहो। मैं इसके पीछे जान लड़ा दूँगा। मैं किसी का एक पैसा दबाना नहीं चाहताए न अपना एक पैसा खोना चाहता हूँ।श्
वह उसी वक्त उठा और नोखेराम की चौपाल में जा पहुँचा। देखा तो सभी मुखिया लोगों का केबिनेट बैठा हुआ है। गोबर को देख कर सब—के—सब सतर्क हो गए। वातावरण में षड़यंत्र की—सी कुंठा भरी हुई थी।
गोबर ने उत्तेजित कंठ से पूछा — यह क्या बात है कारिंदा साहबए कि आपको दादा ने हाल तक का लगान चुकता कर दिया और आप अभी दो साल का बाकी निकाल रहे हैंघ् यह कैसा गोलमाल है।
नोखेराम ने मसनद पर लेट कर रोब दिखाते हुए कहा — जब तक होरी हैए मैं तुमसे लेन—देन की कोई बातचीत नहीं करना चाहता।
गोबर ने आहत स्वर में कहा — तो मैं घर में कुछ नहीं हूँघ्
श्तुम अपने घर में सब कुछ होगे। यहाँ तुम कुछ नहीं हो।श्
श्अच्छी बात हैए आप बेदखली दायर कीजिए। मैं अदालत में तुमसे गंगाजली उठवा कर रुपए दूँगाए इसी गाँव से एक सौ सहादतें दिला कर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे—सादे किसान हैंए कुछ बोलते नहींए तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू हैं। रायसाहब वहीं रहते हैंए जहाँ मैं रहता हूँ। गाँव के सब लोग उन्हें हौवा समझते होंगेए मैं नहीं समझता। रत्ती—रत्ती हाल कहूँगा और देखूँगाए तुम कैसे मुझसे दोबारा रुपए वसूल कर लेते हो।श्
उसकी वाणी में सत्य का बल था। डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूँगा हो जाता है। वही सीमेंटए जो ईंट पर चढ़़ कर पत्थर हो जाता हैए मिट्टी पर चढ़़ा दिया जाएए तो मिट्टी हो जायगा। गोबर की निर्भीक स्पष्टवादिता ने उस अनीति के बख्तर को बेध डालाए जिससे सज्जित हो कर नोखेराम की दुर्बल आत्मा अपने को शक्तिमान समझ रही थी।
नोखेराम ने जैसे कुछ याद करने का प्रयास करके कहा — तुम इतना गर्म क्यों हो रहे होए इसमें गर्म होने की कौन बात है। अगर होरी ने रुपए दिए हैंए तो कहीं—न—कहीं तो टाँके गए होंगे। मैं कल कागज निकाल कर देखूँगा। अब मुझे कुछ—कुछ याद आ रहा है कि शायद होरी ने रुपए दिए थे। तुम निसाखातिर रहोए अगर रुपए यहाँ आ गए हैंए तो कहीं जा नहीं सकते। तुम थोड़े—से रूपयों के लिए झूठ थोड़े ही बोलोगे और न मैं ही इन रूपयों से धनी हो जाऊँगा।
गोबर ने चौपाल से आ कर होरी को ऐसा लथाड़ा कि बेचारा स्वार्थ—भीरु बूढ़़ा रूआँसा हो गयाघ् तुम तो बच्चों से भी गए—बीते होए जो बिल्ली की म्याऊँ सुन कर चिल्ला उठते हैं। कहाँ—कहाँ तुम्हारी रच्छा करता फिरूँगा। मैं तुम्हें सत्तर रुपए दिए जाता हूँ। दातादीन ले तो दे कर भरपाई लिखा देना। इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दियाए तो फिर मुझसे एक पैसा भी न पाओगे। मैं परदेस में इसलिए नहीं पड़ा हूँ कि तुम अपने को लुटवाते रहो और मैं कमा—कमा कर भरता रहूँ। मैं कल चला जाऊँगाए लेकिन इतना कहे देता हूँए किसी से एक पैसा उधार मत लेना और किसी को कुछ मत देना। मँगरूए दुलारीए दातादीन — सभी से एक रूपया सैकड़े सूद कराना होगा।
धनिया भी खाना खा कर बाहर निकल आई थी। बोली — अभी क्यों जाते हो बेटाए दो—चार दिन और रह कर ऊख की बोनी करा लो और कुछ लेन—देन का हिसाब भी ठीक कर लोए तो जाना।
गोबर ने शान जमाते हुए कहा — मेरा दो—तीन रुपए रोज का घाटा हो रहा हैए यह भी समझती हो। यहाँ मैं बहुत—बहुत दो—चार आने की मजूरी ही तो करता हूँ और अबकी मैं झुनिया को भी लेता जाऊँगा। वहाँ मुझे खाने—पीने की बड़ी तकलीफ होती है।
धनिया ने डरते—डरते कहा — जैसे तुम्हारी इच्छाए लेकिन वहाँ वह कैसे अकेले घर सँभालेगीए कैसे बच्चे की देखभाल करेगीघ्श्
श्अब बच्चे को देखूँ कि अपना सुभीता देखूँए मुझसे चूल्हा नहीं फूँका जाता।
श्ले जाने को मैं नहीं रोकतीए लेकिन परदेस में बाल—बच्चों के साथ रहनाए न कोई आगे न पीछेए सोचो कितना झंझट है।श्
श्परदेस में संगी—साथी निकल ही आते हैं अम्माँए और यह तो स्वारथ का संसार है। जिसके साथ चार पैसे का गम खाओए वही अपना। खाली हाथ तो माँ—बाप भी नहीं पूछते।श्
धनिया कटाक्ष समझ गई। उसके सिर से पाँव तक आग लग गई। बोली — माँ—बाप को भी तुमने उन्हीं पैसे के यारों में समझ लियाघ्
श्आँखों देख रहा हूँ।श्
श्नहीं देख रहे होए माँ—बाप का मन इतना निठुर नहीं होता। हाँए लड़के अलबत्ता जहाँ चार पैसे कमाने लगे कि माँ—बाप से आँखें फेर लीं। इसी गाँव में एक—दो नहींए दस—बीस परतोख दे दूँ। माँ—बाप करज—कवाम लेते हैं किसके लिएघ् लड़के—लड़कियों ही के लिए कि अपने भोग—विलास के लिएघ्श्
श्क्या जाने तुमने किसके लिए करज लियाघ् मैंने तो एक पैसा भी नहीं जाना।श्
श्बिना पाले ही इतने बड़े हो गएघ्श्
श्पालने में तुम्हारा क्या लगाघ् जब तक बच्चा थाए दूध पिला दिया। फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया। जो सबने खायाए वही मैंने खाया। मेरे लिए दूध नहीं आता थाए मक्खन नहीं बँधा था। और अब तुम भी चाहती होए और दादा भी चाहते हैं कि मैं सारा करजा चुकाऊँए लगान दूँए लड़कियों का ब्याह करूँ। जैसे मेरी जिंदगी तुम्हारा देना भरने ही के लिए है। मेरे भी तो बाल—बच्चे हैंघ्
धनिया सन्नाटे में आ गई। एक क्षण में उसके जीवन का मृदु स्वप्न जैसे टूट गया। अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका दुरूख—दरिद्र सब दूर हो गया। जब से गोबर घर आयाए उसके मुख पर हास की एक छटा खिली रहती थी। उसकी वाणी में मृदुता और व्यवहारों में उदारता आ गई थी। भगवान ने उस पर दया की हैए तो उसे सिर झुका कर चलना चाहिए। भीतर की शांति बाहर सौजन्य बन गई थी। ये शब्द तपते हुए बालू की तरह हृदय पर पड़े और चने की भाँति सारे अरमान झुलस गए। उसका सारा घमंड चूर—चूर हो गया। इतना सुन लेने के बाद अब जीवन में क्या रस रह गयाघ् जिस नौका पर बैठ कर इस जीवन—सफर को पार करना चाहती थीए वह टूट गई थीए तो किस सुख के लिए जिए!
लेकिन नहीं! उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है। उसने कभी माँ की बात का जवाब नहीं दियाए कभी किसी बात के लिए जिद नहीं की। जो कुछ रूखा—सूखा मिल गयाए वही खा लेता था। वही भोला—भालाए शील—स्नेह का पुतला आज क्यों ऐसी दिल तोड़ने वाली बातें कर रहा हैघ् उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने कुछ नहीं कहा — माँ—बाप दोनों ही उसका मुँह जोहते रहते हैं। उसने खुद ही लेन—देन की बात चलाईए नहीं उससे कौन कहता है कि तू माँ—बाप का देना चुका। माँ—बाप के लिए यही क्या कम सुख है कि वह इज्जत—आबरू के साथ भलेमानसों की तरह कमाता—खाता है। उससे कुछ हो सकेए तो माँ—बाप की मदद कर दे। नहीं हो सकताए तो माँ—बाप उसका गला न दबाएँगे। झुनिया को ले जाना चाहता हैए खुसी से ले जाए। धनिया ने तो केवल उसकी भलाई के खयाल से कहा था कि झुनिया को वहाँ ले जाने से उसे जितना आराम मिलेगाए उससे कहीं ज्यादा झंझट बढ़़ जायगा। इसमें ऐसी कौन—सी लगने वाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा। हो न होए यह आग झुनिया की लगाई है। वही बैठे—बैठे उसे यह मंतर पढ़़ा रही है। यहाँ सौक—सिंगार करने को नहीं मिलताए घर का कुछ न कुछ काम भी करना ही पड़ता है। वहाँ रुपए—पैसे हाथ में आएँगेए मजे से चिकना खायगीए चिकना पहनेगी और टाँग फैला कर सोएगी। दो आदमियों की रोटी पकाने में क्या लगता हैए वहाँ तो पैसा चाहिए। सुनाए बाजार में पकी—पकाई रोटीयाँ मिल जाती हैं। यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया हैए सहर में कुछ दिन रह भी चुकी है। वहाँ का दाना—पानी मुँह लगा हुआ है। यहाँ कोई पूछता न था। यह भोंदू मिल गया। इसे फाँस लिया। जब यहाँ पाँच महीने का पेट ले कर आई थीए तब कैसी म्याँव—म्याँव करती थी। तब यहाँ सरन न मिली होतीए तो आज कहीं भीख माँगती होती। यह उसी नेकी का बदला है! इसी चुड़ैल के पीछे डाँड़ देना पड़ाए बिरादरी में बदनामी हुईए खेती टूट गईए सारी दुर्गत हो गई। और आज यह चुड़ैल जिस पत्तल में खाती हैए उसी में छेद कर रही है। पैसे देखेए तो आँख हो गई। तभी ऐंठी—ऐंठी फिरती हैए मिजाज नहीं मिलता। आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है न! इतने दिनों बात नहीं पूछीए तो सास का पाँव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी। डाइन उसके जीवन की निधि को उसके हाथ से छीन लेना चाहती है।
दुखित स्वर में बोली — यह मंतर तुम्हें कौन दे रहा है बेटाए तुम तो ऐसे न थे। माँ—बाप तुम्हारे ही हैंए बहनें तुम्हारी ही हैंए घर तुम्हारा ही है। यहाँ बाहर का कौन हैघ् और हम क्या बहुत दिन बैठे रहेंगेघ् घर की मरजाद बनाए रखोगेए तो तुम्हीं को सुख होगा। आदमी घरवालों ही के लिए धन कमाता है कि और किसी के लिएघ् अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता है। मैं न जानती थीए झुनिया नागिन बन कर हमीं को डसेगी।
गोबर ने तिनक कर कहा — अम्माँए मैं नादान नहीं हूँ कि झुनिया मुझे मंतर पढ़़ाएगी। तुम उसे नाहक कोस रही हो। तुम्हारी गिरस्ती का सारा बोझ मैं नहीं उठा सकता। मुझसे जो कुछ हो सकेगाए तुम्हारी मदद कर दूँगाए लेकिन अपने पाँवों में बेड़ियाँ नहीं डाल सकता।
झुनिया भी कोठरी से निकल कर बोली — अम्माँए जुलाहे का गुस्सा डाढ़़ी पर न उतारो। कोई बच्चा नहीं है कि मैं फोड़ लूँगी। अपना—अपना भला—बुरा सब समझते हैं। आदमी इसीलिए नहीं जनम लेता कि सारी उमर तपस्या करता रहे और एक दिन खाली हाथ मर जाए। सब जिंदगी का कुछ सुख चाहते हैंए सबकी लालसा होती है कि हाथ में चार पैसे हों।
धनिया ने दाँत पीस कर कहा — अच्छा झुनियाए बहुत गियान न बघार। अब तू भी अपना भला—बुरा सोचने जोग हो गई है। जब यहाँ आ कर मेरे पैरों पर सिर रक्खे रो रही थीए तब अपना भला—बुरा नहीं सूझा थाघ् उस घड़ी हम भी अपना भला—बुरा सोचने लगतेए तो आज तेरा कहीं पता न होता।
इसके बाद संग्राम छिड़ गया। ताने—मेहनेए गाली—गलौचए थुक्का—गजीहतए कोई बात न बची। गोबर भी बीच—बीच में डंक मारता जाता था। होरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन रहा था। सोना और रूपा आँगन में सिर झुकाए खड़ी थींए दुलारीए पुनिया और कई स्त्रियाँ बीच—बचाव करने आ पहुँची थीं। गर्जन के बीच में कभी—कभी बूँदें भी गिर जाती थीं। दोनों ही अपने—अपने भाग्य को रो रही थीं। दोनों ही ईश्वर को कोस रही थींए और दोनों अपनी—अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर रही थीं। झुनिया गड़े मुर्दे उखाड़ रही थी। आज उसे हीरा और सोभा से विशेष सहानुभूति हो गई थीए जिन्हें धनिया ने कहीं का न रखा था। धनिया की आज तक किसी से न पटी थीए तो झुनिया से कैसे पट सकती हैघ् धनिया अपनी सफाई देने की चेष्टा कर रही थीए लेकिन न जाने क्या बात थी कि जनमत झुनिया की ओर था। शायद इसलिए कि झुनिया संयम हाथ से न जाने देती थी और धनिया आपे से बाहर थी। शायद इसलिए भी कि झुनिया अब कमाऊ पुरुष की स्त्री थी और उसे प्रसन्न में रखने में ज्यादा मसलहत थी।
तब होरी ने आँगन में आ कर कहा — मैं तेरे पैरों पड़ता हूँ धनियाए चुप रह। मेरे मुँह में कालिख मत लगा। हाँए अभी मन न भरा हो तो और सुन।
धनिया फुंकार मार कर उधर दौड़ी — तुम भी मोटी डाल पकड़ने चले। मैं ही दोसी हूँ। यह तो मेरे ऊपर फूल बरसा रही हैघ्
संग्राम का क्षेत्र बदल गया।
श्जो छोटों के मुँह लगेए वह छोटा।श्
धनिया किस तर्क से झुनिया को छोटा मान लेघ्
होरी ने व्यथित कंठ से कहा — अच्छाए वह छोटी नहींए बड़ी सही। जो आदमी नहीं रहना चाहताए क्या उसे बाँध कर रखेगीघ् माँ—बाप का धरम हैए लड़के को पाल—पोस कर बड़ा कर देना। वह हम कर चुके। उनके हाथ—पाँव हो गए। अब तू क्या चाहती हैए वे दाना—चारा ला कर खिलाएँ। माँ—बाप का धरम सोलहों आना लड़कों के साथ है। लड़कों का माँ—बाप के साथ एक आना भी धरम नहीं है। जो जाता हैए उसे असीस दे कर विदा कर दे। हमारा भगवान मालिक है। जो कुछ भोगना बदा हैए भोगेंगेए चालीस सात सैंतालीस साल इसी तरह रोते—धोते कट गए। दस—पाँच साल हैंए वह भी यों ही कट जाएँगे।
उधर गोबर जाने की तैयारी कर रहा था। इस घर का पानी भी उसके लिए हराम है। माता हो कर जब उसे ऐेसी—ऐसी बातें कहेए तो अब वह उसका मुँह भी न देखेगा।
देखते ही देखते उसका बिस्तर बँधा गया। झुनिया ने भी चुँदरी पहन ली। चुन्नू भी टोप और फ्राक पहन कर राजा बन गया।
होरी ने आर्द्र कंठ से कहा — बेटाए तुमसे कुछ कहने का मुँह तो नहीं हैए लेकिन कलेजा नहीं मानता। क्या जरा जा कर अपनी अभागिनी माता के पाँव छू लोगेए तो कुछ बुरा होगाघ् जिस माता की कोख से जनम लिया और जिसका रकत पी कर पले होए उसके साथ इतना भी नहीं कर सकतेघ्
गोबर ने मुँह फेर कर कहा — मैं उसे अपनी माता नहीं समझता।
होरी ने आँखों में आँसू ला कर कहा — जैसी तुम्हारी इच्छा। जहाँ रहोए सुखी रहो।
झुनिया ने सास के पास जा कर उसके चरणों को आँचल से छुआ। धनिया के मुँह से आसीस का एक शब्द भी न निकला। उसने आँखें उठा कर देखा भी नहीं। गोबर बालक को गोद में लिए आगे—आगे था। झुनिया बिस्तर बगल में दबाए पीछे। एक चमार का लड़का संदूक लिए था। गाँव के कई स्त्री—पुरुष गोबर को पहुँचाने गाँव के बाहर तक आए।
और धनिया बैठी रो रही थीए जैसे कोई उसके हृदय को आरे से चीर रहा हो। उसका मातृत्व उस घर के समान हो रहा थाए जिसमें आग लग गई हो और सब कुछ भस्म हो गया हो। बैठ कर रोने के लिए भी स्थान न बचा हो।
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भाग 21
इधर कुछ दिनों से रायसाहब की कन्या के विवाह की बातचीत हो रही थी। उसके साथ ही एलेक्शन भी सिर पर आ पहुँचा थाए मगर इन सबों से आवश्यक उन्हें दीवानी में एक मुकदमा दायर करना थाए जिसकी कोर्ट—फीस ही पचास हजार होती थीए ऊपर के खर्च अलग। रायसाहब के साले जो अपनी रियासत के एकमात्र स्वामी थेए ऐन जवानी में मोटर लड़ जाने के कारण गत हो गए थेए और रायसाहब अपने कुमार पुत्र की ओर से उस रियासत पर अधिकार पाने के लिए कानून की शरण लेना चाहते थे। उनके चचेरे सालों ने रियासत पर कब्जा जमा लिया था और रायसाहब को उसमें से कोई हिस्सा देने पर तैयार न थे। रायसाहब ने बहुत चाहा कि आपस में समझौता हो जाए और उनके चचेरे साले मायल गुजारा ले कर हट जाएँए यहाँ तक कि वह उस रियासत की आधी आमदनी छोड़ने पर तैयार थेए मगर सालों ने किसी तरह का समझौता स्वीकार न कियाए और केवल लाठी के जोर से रियासत में तहसील—वसूल शुरू कर दी। रायसाहब को अदालत की शरण में जाने के सिवा कोई मार्ग न रहा। मुकदमे में लाखों का खर्च थाए मगर रियासत भी बीस लाख से कम की जायदाद न थी। वकीलों ने निश्चय रूप से कह दिया था कि आपकी शर्तिया डिगरी होगी। ऐसा मौका कौन छोड़ सकता थाघ् मुश्किल यही थी कि यह तीनों काम एक साथ आ पड़े थे और उन्हें किसी तरह टाला न जा सकता था। कन्या की अवस्था अठारह वर्ष की हो गई थी और केवल हाथ में रुपए न रहने के कारण अब तक उसका विवाह टलता जाता था। खर्च का अनुमान एक लाख का था। जिसके पास जातेए वही बड़ा—सा मुँह खोलताए मगर हाल में एक बड़ा अच्छा अवसर हाथ में आ गया था। कुँवर दिग्विजय सिंह की पत्नी यक्ष्मा की भेंट हो चुकी थीए और कुँवर साहब अपने उजड़े घर को जल्द से जल्द बसा लेना चाहते थे। सौदा भी वारे से तय हो गया और कहीं शिकार हाथ से निकल न जाएए इसलिए इसी लग्न में विवाह होना परमावश्यक था।
कुँवर साहब दुर्वासनाओं के भंडार थे। शराबए गाँजाए अफीमए मदकए चरसए ऐसा कोई नशा न थाए जो वह न करते हों। और ऐयाशी तो रईस की शोभा ही है। वह रईस ही क्याए जो ऐयाश न हो। धन का उपभोग और किया ही कैसे जायघ् मगर इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी वह ऐसे प्रतिभावान थे कि अच्छे—अच्छे विद्वान उनका लोहा मानते थे। संगीतए नाटयकलाए हस्तरेखाए ज्योतिषए योगए लाठीए कुश्तीए निशानेबाजी आदि कलाओं में अपना जोड़ न रखते थे। इसके साथ ही बड़े दबंग और निर्भीक थे। राष्ट्रीय आंदोलन में दिल खोल कर सहयोग देते थेए हाँ गुप्त रूप से। अधिकारियों से यह बात छिपी न थीए फिर भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी और साल में एक—दो बार गर्वनर साहब भी उनके मेहमान हो जाते थे। और अभी अवस्था तीस—बत्तीस से अधिक न थी और स्वास्थ्य तो ऐसा था कि अकेले एक बकरा खा कर हजम कर डालते थे। रायसाहब ने समझाए बिल्ली के भागों छींका टूटा। अभी कुँवर साहब षोडशी से निवृत्त भी न हुए थे कि रायसाहब ने बातचीत शुरू कर दी। कुँवर साहब के लिए विवाह केवल अपना प्रभाव और शक्ति बढ़़ाने का साधन था। रायसाहब कौंसिल के मेंबर थे हीए यों भी प्रभावशाली थे। राष्ट्रीय संग्राम में अपने त्याग का परिचय दे कर श्रद्धा के पात्र भी बन चुके थे। शादी तय होने में कोई बाधा न हो सकती थी। और वह तय हो गई।
रहा एलेक्शन। यह सोने की हँसिया थीए जिसे न उगलते बनता थाए न निगल। अब तक वह दो बार निर्वाचित हो चुके थे और दोनों ही बार उन पर एक—एक लाख की चपत पड़ी थीए मगर अबकी एक राजा साहब उसी इलाके से खड़े हो गए थे और डंके की चोट ऐलान कर दिया था कि चाहे हर एक वोटर को एक—एक हजार ही क्यों न देना पड़ेए चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी में मिल जायए मगर राय अमरपालसिंह को कौंसिल में न जाने दूँगा। और उन्हें अधिकारियों ने अपने सहायता का आश्वासन भी दे दिया था। रायसाहब विचारशील थेए चतुर थेए अपना नफा—नुकसान समझते थेए मगर राजपूत थे और पोतड़ों के रईस थे। वह चुनौती पा कर मैदान से कैसे हट जायँघ् यों इनसे राजा सूर्यप्रताप सिंह ने आ कर कहा होताए भाई साहबए आप दो बार कौंसिल में जा चुकेए अबकी मुझे जाने दीजिएए तो शायद रायसाहब ने उनका स्वागत किया होता। कौंसिल का मोह अब उन्हें न थाए लेकिन इस चुनौती के सामने ताल ठोकने के सिवा और कोई राह ही न थी। एक मसलहत और भी थी। मिस्टर तंखा ने उन्हें विश्वास दिया था कि आप खड़े हो जायँए पीछे राजा साहब से एक लाख की थैली ले कर बैठ जाइएगा। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि राजा साहब बड़ी खुशी से एक लाख दे देंगेए मेरी उनसे बातचीत हो चुकी हैए पर अब मालूम हुआए राजा साहब रायसाहब को परास्त करने का गौरव नहीं छोड़ना चाहते और इसका मुख्य कारण थाए रायसाहब की लड़की की शादी कुँवर साहब से ठीक होना। दो प्रभावशाली घरानों का संयोग वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक समझते थे। उधर रायसाहब को ससुराली जायदाद मिलने की भी आशा थी। राजा साहब के पहलू में यह काँटा भी बुरी तरह खटक रहा था। कहीं वह जायदाद इन्हें मिल गई — और कानून रायसाहब के पक्ष में था ही — तब तो राजा साहब का एक प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो जायगा इसलिए उनका धर्म था कि रायसाहब को कुचल डालें और उनकी प्रतिष्ठा धूल में मिला दें।
बेचारे रायसाहब बड़े संकट में पड़ गए थे। उन्हें यह संदेह होने लगा था कि केवल अपना मतलब निकालने के लिए मिस्टर तंखा ने उन्हें धोखा दिया। यह खबर मिली थी कि अब वह राजा साहब के पैरोकार हो गए हैं। यह रायसाहब के घाव पर नमक था। उन्होंने कई बार तंखा को बुलाया थाए मगर वह या तो घर पर मिलते ही न थेए या आने का वादा करके भूल जाते थे। आखिर खुद उनसे मिलने का इरादा करके वह उनके पास जा पहुँचे। संयोग से मिस्टर तंखा घर पर मिल गएए मगर रायसाहब को पूरे घंटे—भर उनकी प्रतीक्षा करनी पड़ी। यह वही मिस्टर तंखा हैंए जो रायसाहब के द्वार पर एक बार रोज हाजिरी दिया करते थे। आज इतना मिजाज हो गया है। जले बैठे थे। ज्यों ही मिस्टर तंखा सजे—सजाएए मुँह में सिगार दबाए कमरे में आए और हाथ बढ़़ाया कि रायसाहब ने बमगोला छोड़ दिया — मैं घंटे भर से यहाँ बैठा हुआ हूँ और आप निकलते—निकलते अब निकले हैं। मैं इसे अपने तौहीन समझता हूँ।
मिस्टर तंखा ने एक सोफे पर बैठ कर निश्चिंत भाव से धुआँ उड़ाते हुए कहा — मुझे इसका खेद है। मैं एक जरूरी काम में लगा था। आपको फोन करके मुझसे समय ठीक कर लेना चाहिए था।
आग में घी पड़ गयाए मगर रायसाहब ने क्रोध को दबाया। वह लड़ने न आए थे। इस अपमान को पी जाने का ही अवसर था। बोले — हाँए यह गलती हुई। आजकल आपको बहुत कम फुरसत रहती है शायद।
श्जी हाँए बहुत कमए वरना मैं अवश्य आता।श्
श्मैं उसी मुआमले के बारे में आपसे पूछने आया था। समझौते की तो कोई आशा नहीं मालूम होती। उधर तो जंग की तैयारियाँ बड़े जोरों से हो रही हैं।श्
श्राजा साहब को तो आप जानते ही हैंए झक्कड़ आदमी हैंए पूरे सनकी। कोई न कोई धुन उन पर सवार रहती है। आजकल यही धुन है कि रायसाहब को नीचा दिखा कर रहेंगे। और उन्हें जब एक धुन सवार हो जाती हैए तो फिर किसी की नहीं सुनतेए चाहे कितना ही नुकसान उठाना पड़े। कोई चालीस लाख का बोझ सिर पर हैए फिर भी वही दम—खम हैए वही अलल्ले—तलल्ले खर्च हैं। पैसे को तो कुछ समझते ही नहीं। नौकरों का वेतन छरू—छरू महीने से बाकी पड़ा हुआ हैए मगर हीरा—महल बन रहा है। संगमरमर का तो फर्श है। पच्चीकारी ऐसी हो रही है कि आँखें नहीं ठहरतीं। अफसरों के पास रोज डालियाँ जाती रहती हैं। सुना हैए कोई अंग्रेज मैनेजर रखने वाले हैं।श्
श्फिर आपने कैसे कह दिया था कि आप कोई समझौता करा देंगेघ्श्
श्मुझसे जो कुछ हो सकता थाए वह मैंने किया। इसके सिवा मैं और क्या कर सकता थाघ् अगर कोई व्यक्ति अपने दो—चार लाख रुपए फँसाने ही पर तुला हुआ होए तो मेरा क्या बसघ्श्
रायसाहब अब क्रोध न सँभाल सके — खास कर जब उन दो—चार लाख रुपए में से दस—बीस हजार आपके हत्थे चढ़़ने की भी आशा हो।
मिस्टर तंखा अब क्यों दबतेघ् बोले — रायसाहबए साफ—साफ न कहलवाइए। यहाँ न मैं संन्यासी हूँए न आप। हम सभी कुछ न कुछ कमाने ही निकले हैं। आँख के अंधों और गाँठ के पूरों की तलाश आपको भी उतनी ही हैए जितनी मुझको। आपसे मैंने खड़े होने का प्रस्ताव किया। आप एक लाख के लोभ से खड़े हो गएए अगर गोटी लाल हो जातीए तो आज आप एक लाख के स्वामी होते और बिना एक पाई कर्ज लिए कुँवर साहब से संबंध भी हो जाता और मुकदमा भी दायर हो जाताए मगर आपके दुर्भाग्य से वह चाल पट पड़ गई। जब आप ही ठाठ पर रह गएए तो मुझे क्या मिलता। आखिर मैंने झख मार कर उनकी पूँछ पकड़ी। किसी न किसी तरह यह वैतरणी तो पार करनी ही है।
रायसाहब को ऐसा आवेश आ रहा था कि इस दुष्ट को गोली मार दें। इसी बदमाश ने सब्ज बाग दिखा कर उन्हें खड़ा किया और अब अपनी सफाई दे रहा है। पीठ में धूल भी नहीं लगने देताए लेकिन परिस्थिति जबान बंद किए हुए थी।
श्तो अब आपके किए कुछ नहीं हो सकताघ्श्
श्ऐसा ही समझिए।श्
श्मैं पचास हजार पर भी समझौता करने को तैयार हूँ।श्
श्राजा साहब किसी तरह न मानेंगे।श्
श्पच्चीस हजार पर तो मान जाएँगेघ्श्
श्कोई आशा नहीं। वह साफ कह चुके हैं।श्
श्वह कह चुके हैं या आप कह रहे हैंघ्श्
श्आप मुझे झूठा समझते हैंघ्श्
रायसाहब ने विनम्र स्वर में कहा — मैं आपको झूठा नहीं समझताए लेकिन इतना जरूर समझता हूँ कि आप चाहतेए तो मुआमला हो जाता।श्
श्तो आपका खयाल हैए मैंने समझौता नहीं होने दियाघ्श्
श्नहींए यह मेरा मतलब नहीं है। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि आप चाहते तो काम हो जाता और मैं इस झमेले में न पड़ता।श्
मिस्टर तंखा ने घड़ी की तरफ देख कर कहा — तो रायसाहबए अगर आप साफ कहलाना चाहते हैंए तो सुनिए — अगर आपने दस हजार का चौक मेरे हाथ पर रख दिया होताए तो आज निश्चय एक लाख के स्वामी होते। आप शायद चाहते होंगेए जब आपको राजा साहब से रुपए मिल जातेए तो आप मुझे हजार—दो—हजार दे देते। तो मैं ऐसी कच्ची गोली नहीं खेलता। आप राजा साहब से रुपए ले कर तिजोरी में रखते और मुझे अँगूठा दिखा देते। फिर मैं आपका क्या बना लेता बतलाइएघ् कहीं नालिश—फरियाद भी तो नहीं कर सकता था।
रायसाहब ने आहत नेत्रों से देखा — आप मुझे इतना बेईमान समझते हैंघ्
तंखा ने कुरसी से उठते हुए कहा — इसे बेईमानी कौन समझता है! आजकल यही चतुराई है। कैसे दूसरों को उल्लू बनाया जा सकेए यही सफल नीति हैए और आप इसके आचार्य हैं।
रायसाहब ने मुट्ठी बाँध कर कहा — मैंघ्
श्जी हाँए आप! पहले चुनाव में मैंने जी—जान से आपकी पैरवी की। आपने बड़ी मुश्किल से रो—धो कर पाँच सौ रुपए दिएए दूसरे चुनाव में आपने एक सड़ी—सी टूटी—फूटी कार दे कर अपना गला छुड़ाया। दूध का जला छाछ भी फूँक—फूँक कर पीता है।श्
वह कमरे से निकल गए और कार लाने का हुक्म दिया।
रायसाहब का खून खौल रहा था। इस अशिष्टता की भी कोई हद है! एक तो घंटे—भर इंतजार कराया और अब इतनी बेमुरौवती से पेश आ कर उन्हें जबरदस्ती घर से निकाल रहा है। अगर उन्हें विश्वास होता कि वह मिस्टर तंखा को पटकनी दे सकते हैंए तो कभी न चूकतेए मगर तंखा डील—डौल में उनसे सवाए थे। जब मिस्टर तंखा ने हार्न बजायाए तो वह भी आ कर अपनी कार पर बैठे और सीधे मिस्टर खन्ना के पास पहुँचे।
नौ बज रहे थेए मगर खन्ना साहब अभी मीठी नींद का आनंद ले रहे थे। वह दो बजे रात के पहले कभी न सोते थे और नौ बजे तक सोना स्वाभाविक ही था। यहाँ भी रायसाहब को आधा घंटा बैठना पड़ाए इसीलिए जब कोई साढ़़े नौ बजे मिस्टर खन्ना मुस्कराते हुए निकले तो रायसाहब ने डाँट बताई—अच्छा! अब सरकार की नींद खुली है तो साढ़़े नौ बजे। रुपए जमा कर लिए हैं नए जभी बेफिक्री है। मेरी तरह ताल्लुकेदार होतेए तो अब तक आप भी किसी द्वार पर खड़े होते। बैठे—बैठे सिर में चक्कर आ जाता।
मिस्टर खन्ना ने सिगरेट—केस उनकी तरफ बढ़़ाते हुए प्रसन्न मुख से कहा — रात सोने में बड़ी देर हो गई। इस वक्त किधर से आ रहे हैं।
रायसाहब ने थोड़े शब्दों में अपनी सारी कठिनाइयाँ बयान कर दीं। दिल में खन्ना को गालियाँ देते थेए जो उनका सहपाठी हो कर भी सदैव उन्हें ठगने की फिक्र किया करता थाए मगर मुँह पर उसकी खुशामद करते थे।
खन्ना ने ऐसा भाव बनायाए मानो उन्हें बड़ी चिंता हो गई हैए बोले — मेरी तो सलाह हैए आप एलेक्शन को गोली मारेंए और अपने सालों पर मुकदमा दायर कर दें। रही शादीए वह तो तीन दिन का तमाशा है। उसके पीछे जेरबार होना मुनासिब नहीं। कुँवर साहब मेरे दोस्तों में हैंए लेन—देन का कोई सवाल न उठने पाएगा।
रायसाहब ने व्यंग करके कहा — आप यह भूल जाते हैं मिस्टर खन्ना कि मैं बैंकर नहींए ताल्लुकेदार हूँ। कुँवर साहब दहेज नहीं माँगतेए उन्हें ईश्वर ने सब कुछ दिया हैए लेकिन आप जानते हैंए यह मेरी अकेली लड़की है और उसकी माँ मर चुकी है। वह आज जिंदा होतीए तो शायद सारा घर लुटा कर भी उसे संतोष न होता। तब शायद मैं उसे हाथ रोक कर खर्च करने का आदेश देताए लेकिन अब तो मैं उसकी माँ भी हूँ और बाप भी हूँ। अगर मुझे अपने हृदय का रक्त निकाल कर भी देना पड़ेए तो मैं खुशी से दे दूँगा। इस विधुर—जीवन में मैंने संतान—प्रेम से ही अपनी आत्मा की प्यास बुझाई है। दोनों बच्चों के प्यार में ही अपने पत्नीव्रत का पालन किया है। मेरे लिए यह असंभव है कि इस शुभ अवसर पर अपने दिल के अरमान न निकालूँ। मैं अपने मन को तो समझा सकता हूँए पर जिसे मैं पत्नी का आदेश समझता हूँए उसे नहीं समझाया जा सकता। और एलेक्शन के मैदान से भागना भी मेरे लिए संभव नहीं है। मैं जानता हूँए मैं हारूँगा। राजा साहब से मेरा कोई मुकाबला नहींए लेकिन राजा साहब को इतना जरूर दिखा देना चाहता हूँ कि अमरपालसिंह नर्म चारा नहीं है।
श्और मुदकमा दायर करना तो आवश्यक ही हैघ्श्
श्उसी पर तो सारा दारोमदार है। अब आप बतलाइएए आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं!श्
श्मेरे डाइरेक्टरों का इस विषय में जो हुक्म हैए वह आप जानते ही हैं। और राजा साहब भी हमारे डाइरेक्टर हैंए यह भी आपको मालूम है। पिछला वसूल करने के लिए बार—बार ताकीद हो रही है। कोई नया मुआमला तो शायद ही हो सके।श्
रायसाहब ने मुँह लटका कर कहा — आप तो मेरा डोंगा ही डुबाए देते हैं मिस्टर खन्ना!
श्मेरे पास जो कुछ निज का हैए वह आपका हैए लेकिन बैंक के मुआमले में तो मुझे स्वामियों के आदेशों को मानना ही पड़ेगा।श्
श्अगर यह जायदाद हाथ आ गईए और मुझे इसकी पूरी आशा हैए तो पाई—पाई अदा कर दूँगा।श्
श्आप बतला सकते हैंए इस वक्त आप कितने पानी में हैंघ्श्
रायसाहब ने हिचकते हुए कहा — पाँच—छरू लाख समझिए। कुछ कम ही होंगे।
खन्ना ने अविश्वास के भाव से कहा — या तो आपको याद नहीं हैए या आप छिपा रहे हैं।
रायसाहब ने जोर दे कर कहा — जी नहींए मैं न भूला हूँए और न छिपा रहा हूँ। मेरी जायदाद इस वक्त कम—से—कम पचास लाख की है और ससुराल की जायदाद भी इससे कम नहीं है। इतनी जायदाद पर दस—पाँच लाख का बोझ कुछ नहीं के बराबर है।
श्लेकिन यह आप कैसे कह सकते हैं कि ससुराली जायदाद पर भी कर्ज नहीं हैघ्श्
श्जहाँ तक मुझे मालूम हैए वह जायदाद बे—दाग है।श्
श्और मुझे यह सूचना मिली है कि उस जायदाद पर दस लाख से कम का भार नहीं है। उस जायदाद पर तो अब कुछ मिलने से रहाए और आपकी जायदाद पर भी मेरे खयाल में दस लाख से कम देना नहीं है। और यह जायदाद अब पचास लाख की नहींए मुश्किल से पचीस लाख की है। इस दशा में कोई बैंक आपको कर्ज नहीं दे सकता। यों समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी के मुख पर खड़े हैं। एक हल्की—सी ठोकर आपको पाताल में पहुँचा सकती है। आपको इस मौके पर बहुत सँभल कर चलना चाहिए।श्
रायसाहब ने उनका हाथ अपनी तरफ खींच कर कहा — यह सब मैं खूब समझता हूँए मित्रवर! लेकिन जीवन की ट्रैजेडी और इसके सिवा क्या है कि आपकी आत्मा जो काम करना नहीं चाहतीए वही आपको करना पड़े। आपको इस मौके पर मेरे लिए कम—से—कम दो लाख का इंतजाम करना पड़ेगा।
खन्ना ने लंबी साँस ले कर कहा — माई गॉड। दो लाख। असंभवए बिलकुल असंभव!
श्मैं तुम्हारे द्वार पर सर पटक कर प्राण दे दूँगा खन्नाए इतना समझ लो। मैंने तुम्हारे ही भरोसे यह सारे प्रोग्राम बाँधे हैं। अगर तुमने निराश कर दियाए तो शायद मुझे जहर खा लेना पड़े। मैं सूर्यप्रतापसिंह के सामने घुटने नहीं टेक सकता। कन्या का विवाह अभी दो—चार महीने टल सकता है। मुकदमा दायर करने के लिए अभी काफी वक्त हैए लेकिन यह एलेक्शन सिर पर आ गया हैए और मुझे सबसे बड़ी फिक्र यही है।श्
खन्ना ने चकित हो कर कहा — तो आप एलेक्शन में दो लाख लगा देंगेघ्
श्एलेक्शन का सवाल नहीं है भाईए यह इज्जत का सवाल है। क्या आपकी राय में मेरी इज्जत दो लाख की भी नहीं है! मेरी सारी रियासत बिक जायए गम नहींए मगर सूर्यप्रताप सिंह को मैं आसानी से विजय न पाने दूँगा।श्
खन्ना ने एक मिनट तक धुआँ निकालने के बाद कहा — बैंक की जो स्थिति हैए वह मैंने आपके सामने रख दी। बैंक ने एक तरह से लेन—देन का काम बंद कर दिया है। मैं कोशिश करूँगा कि आपके साथ खास रिआयत की जायए लेकिन इनेपदमेे पे इनेपदमेे यह आप जानते हैं। मेरा कमीशन क्या रहेगाघ् मुझे आपके लिए खास तौर पर सिफारिश करनी पड़ेगी। राजा साहब का अन्य डाइरेक्टरों पर कितना प्रभाव हैए यह भी आप जानते हैं। मुझे उनके खिलाफ गुटबंदी करनी पड़ेगी। यों समझ लीजिए कि मेरी जिम्मेदारी पर ही मुआमला होगा।
रायसाहब का मुँह गिर गया। खन्ना उनके अंतरंग मित्रों में थे। साथ के पढ़़े हुएए साथ के बैठने वाले। और वह उनसे कमीशन की आशा रखते हैंए इतनी बेमुरव्वतीघ् आखिर वह जो इतने दिनों से खन्ना की खुशामद करते आते हैंए वह किस दिन के लिएघ् बाग में फल निकलेंए शाक—भाजी पैदा होए सबसे पहले खन्ना के पास डाली भेजते हैं। कोई उत्सव होए कोई जलसा होए सबसे पहले खन्ना को निमंत्रण देते हैं। उसका यह जवाब हैघ् उदास मन से बोले—आपकी जो इच्छा होए लेकिन मैं आपको भाई समझता था।
खन्ना ने कृतज्ञता के भाव से कहा — यह आपकी कृपा है। मैंने भी सदैव आपको अपना बड़ा भाई समझा है और अब भी समझता हूँ। कभी आपसे कोई पर्दा नहीं रखाए लेकिन व्यापार एक दूसरा ही क्षेत्र है। यहाँ कोई किसी का दोस्त नहींए कोई किसी का भाई नहीं। जिस तरह मैं भाई के नाते आपसे यह नहीं कह सकता कि मुझे दूसरों से ज्यादा कमीशन दीजिएए उसी तरह आपको भी मेरे कमीशन में रिआयत के लिए आग्रह न करना चाहिए। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँए कि मैं जितनी रिआयत आपके साथ कर सकता हूँए उतनी करूँगा। कल आप दफ्तर के वक्त आएँ और लिखा—पढ़़ी कर लें। बसए बिसनेज खत्म। आपने कुछ और सुना। मेहता साहब आजकल मालती पर बे—तरह रीझे हुए हैं। सारी फिलासफी निकल गई। दिन में एक—दो बार जरूर हाजिरी दे आते हैंए और शाम को अक्सर दोनों साथ—साथ सैर करने निकलते हैं। यह तो मेरी ही शान थी कि कभी मालती के द्वार पर सलामी करने न गया। शायद अब उसी की कसर निकाल रही है। कहाँ तो यह हाल था कि जो कुछ हैंए मिस्टर खन्ना हैं। कोई काम होताए तो खन्ना के पास दौड़ी आतीं। जब रूपयों की जरूरत पड़तीए तो खन्ना के नाम पुरजा आती। और कहाँ अब मुझे देख कर मुँह फेर लेती हैं। मैंने खास उन्हीं के लिए फ्रांस से एक घड़ी मँगवाई थी। बड़े शौक से ले कर गयाए मगर नहीं ली। अभी कल सेबों की डाली भेजी थी — काश्मीर से मँगवाए थे — वापस कर दी। मुझे तो आश्चर्य होता है कि आदमी कैसे इतनी जल्द बदल जाता है।
रायसाहब मन में तो उसकी बेकद्री पर खुश हुएए पर सहानुभूति दिखा कर बोले — अगर यह भी माने लें कि मेहता से उसका प्रेम हो गया हैए तो भी व्यवहार तोड़ने का कोई कारण नहीं है।
खन्ना व्यथित स्वर में बोले — यही तो रंज है भाई साहब! यह तो मैं शुरू से जानता थाए वह मेरे हाथ नहीं आ सकती। मैं आपसे सत्य कहता हूँए मैं कभी इस धोखे में नहीं पड़ा कि मालती को मुझसे प्रेम है। प्रेम—जैसी चीज उनसे मिल सकती हैए इसकी मैंने कभी आशा ही नहीं की। मैं तो केवल उनके रूप का पुजारी था। साँप में विष हैए यह जानते हुए भी हम उसे दूध पिलाते हैंए तोते से ज्यादा निठुर जीव और कौन होगाए लेकिन केवल उसके रूप और वाणी पर मुग्ध हो कर लोग उसे पालते हैं। और सोने के पिंजरे में रखते हैं। मेरे लिए भी मालती उसी तोते के समान थी। अफसोस यही है कि मैं पहले क्यों न चेत गयाघ् इसके पीछे मैंने अपने हजारों रुपए बरबाद कर दिए भाई साहब! जब उसका रूक्का पहुँचाए मैंने तुरंत रुपए भेजे। मेरी कार आज भी उसकी सवारी में है। उसके पीछे मैंने अपना घर चौपट कर दिया भाई साहब! हृदय में जितना रस थाए वह ऊसर की ओर इतने वेग से दौड़ा कि दूसरी तरफ का उद्यान बिलकुल सूखा रह गया। बरसों हो गएए मैंने गोविंदी से दिल खोल कर बात भी नहीं की। उसकी सेवा और स्नेह और त्याग से मुझे उसी तरह अरुचि हो गई थीए जैसे अजीर्ण के रोगी को मोहनभोग से हो जाती है। मालती मुझे उसी तरह नचाती थीए जैसे मदारी बंदर को नचाता है। और मैं खुशी से नाचता था। वह मेरा अपमान करती थी और मैं खुशी से हँसता था। वह मुझ पर शासन करती थी और मैं सिर झुकाता था। उसने मुझे कभी मुँह नहीं लगायाए यह मैं स्वीकार करता हूँ। उसने मुझे कभी प्रोत्साहन नहीं दियाए यह भी सत्य हैए फिर भी मैं पतंगे की भाँति उसके मुख—दीप पर प्राण देता था। और अब वह मुझसे शिष्टाचार का व्यवहार भी नहीं कर सकती। लेकिन भाई साहब! मैं कहे देता हूँ कि खन्ना चुप बैठने वाला आदमी नहीं है। उसके पुरजे मेरे पास सुरक्षित हैंए मैं उससे एक—एक पाई वसूल कर लूँगाए और डाक्टर मेहता को तो मैं लखनऊ से निकाल कर दम लूँगा। उनका रहना यहाँ असंभव कर दूँगाघ्
उसी वक्त हार्न की आवाज आई और एक क्षण में मिस्टर मेहता आ कर खड़े हो गए। गोरा चिट्टा रंगए स्वास्थ्य की लालिमा गालों पर चमकती हुईए नीची अचकनए चूड़ीदार पाजामाए सुनहरी ऐनक। सौम्यता के देवता—से लगते थे।
खन्ना ने उठ कर हाथ मिलाया — आइए मिस्टर मेहताए आप ही का जिक्र हो रहा था।
मेहता ने दोनों सज्जनों से हाथ मिला कर कहा — बड़ी अच्छी साइत में घर से चला था कि आप दोनों साहबों से एक ही जगह भेंट हो गई। आपने शायद पत्रों में देखा होगाए यहाँ महिलाओें के लिए व्यायामशाला का आयोजन हो रहा है। मिस मालती उस कमेटी की सभानेत्री हैं। अनुमान किया गया है कि शाला में दो लाख रुपए लगेंगे। नगर में उसकी कितनी जरूरत हैए यह आप लोग मुझसे ज्यादा जानते हैं। मैं चाहता हूँए आप दोनों साहबों का नाम सबसे ऊपर हो। मिस मालती खुद आने वाली थींए पर आज उनके फादर की तबियत अच्छी नहीं हैए इसलिए न आ सकीं।
उन्होंने चंदे की सूची रायसाहब के हाथ में रख दी। पहला नाम राजा सूर्यप्रताप सिंह का थाए जिसके सामने पाँच हजार रुपए की रकम थी। उसके बाद कुँवर दिग्विजय सिंह के तीन हजार रुपए थे। इसके बाद कई रकमें इतनी या इससे कुछ कम थीं। मालती ने पाँच सौ रुपए दिए थे और डाक्टर मेहता ने एक हजार रुपए।
रायसाहब ने अप्रतिभ हो कर कहा — कोई चालीस हजार तो आप लोगों ने फटकार लिए। मेहता ने गर्व से कहा — यह सब आप लोगों की दया है। और यह केवल तीनेक घंटों का परिश्रम है। राजा सूर्यप्रताप सिंह ने शायद ही किसी सार्वजनिक कार्य में भाग लिया होए पर आज तो उन्होंने बे—कहे—सुने चौक लिख दिया। देश में जागृति है। जनता किसी भी शुभ काम में सहयोग देने को तैयार है। केवल उसे विश्वास होना चाहिए कि उसके दान का सद्व्यय होगा। आपसे तो मुझे बड़ी आशा हैए मिस्टर खन्ना!
खन्ना ने उपेक्षा—भाव से कहा — मैं ऐसे फजूल के कामों में नहीं पड़ता। न जाने आप लोग पच्छिम की गुलामी में कहाँ तक जाएँगे। यों ही महिलाओं को घर से अरुचि हो रही है। व्यायाम की धुन सवार हो गईए तो वह कहीं की न रहेंगी। जो औरत घर का काम करती हैए उसके लिए किसी व्यायाम की जरूरत नहीं। और जो घर का कोई काम नहीं करती और केवल भोग—विलास में रत हैए उसके व्यायाम के लिए चंदा देना मैं अधर्म समझता हूँ।
मेहता जरा भी निरुत्साह न हुए — ऐसी दशा में मैं आपसे कुछ माँगूगा भी नहीं। जिस आयोजन में हमें विश्वास न होए उसमें किसी तरह की मदद देना वास्तव में अधर्म है। आप तो मिस्टर खन्ना से सहमत नहीं हैं रायसाहबघ्
रायसाहब गहरी चिंता में डूबे हुए थे। सूर्यप्रताप के पाँच हजार उन्हें हतोत्साह किए डालते थे। चौंक कर बोले — आपने मुझसे कुछ कहाघ्
श्मैंने कहा — आप तो इस आयोजन में सहयोग देना अधर्म नहीं समझतेघ्श्
श्जिस काम में आप शरीक हैंए वह धर्म है या अधर्मए इसकी मैं परवाह नहीं करता।श्
श्मैं चाहता हूँए आप खुद विचार करें और अगर आप इस आयोजन को समाज के लिए उपयोगी समझेंए तो उसमें सहयोग दें। मिस्टर खन्ना की नीति मुझे बहुत पसंद आई।श्
खन्ना बोले — मैं तो साफ कहता हूँ और इसीलिए बदनाम हूँ।
रायसाहब ने दुर्बल मुस्कान के साथ कहा — मुझमें तो विचार करने की शक्ति ही नहीं। सज्जनों के पीछे चलना ही मैं अपना धर्म समझता हूँ।
श्तो लिखिए कोई अच्छी रकम।श्
श्जो कहिएए वह लिख दूँ।श्
श्जो आपकी इच्छा।श्
श्आप जो कहिएए वह लिख दूँ।श्
श्तो दो हजार से कम क्या लिखिएगाघ्श्
रायसाहब ने आहत स्वर में कहा — आपकी निगाह में मेरी यही हैसियत हैघ्
उन्होंने कलम उठाया और अपना नाम लिख कर उसके सामने पाँच हजार लिख दिए। मेहता ने सूची उनके हाथ से ले लीए मगर उन्हें उतनी ग्लानि हुई कि रायसाहब को धन्यवाद देना भी भूल गए। रायसाहब को चंदे की सूची दिखा कर उन्होंने बड़ा अनर्थ कियाए यह शूल उन्हें व्यथित करने लगा।
मिस्टर खन्ना ने रायसाहब को दया और उपहास की —ष्टि से देखाए मानो कह रहे होंए कितने बड़े गधे हो तुम!
सहसा मेहता रायसाहब के गले लिपट गए और उन्मुक्त कंठ से बोले— ज्ीतमम बीममते वित त्ंप ेींपइए भ्पच भ्पच भ्नततीं!
खन्ना ने खिसिया कर कहा — यह लोग राजे—महाराजे ठहरेए यह इन कामों में दान न देंए तो कौन देघ्
मेहता बोले — मैं तो आपको राजाओं का राजा समझता हूँ। आप उन पर शासन करते हैं। उनकी चोटी आपके हाथ में है।
रायसाहब प्रसन्न हो गए — यह आपने बड़े मार्के की बात कही मेहता जी! हम नाम के राजा हैं। असली राजा तो हमारे बैंकर हैं।
मेहता ने खन्ना की खुशामद का पहलू अख्तियार किया — मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है खन्ना जी! आप अभी इस काम में नहीं शरीक होना चाहतेए न सहीए लेकिन कभी न कभी जरूर आएँगे। लक्ष्मीपतियों की बदौलत ही हमारी बड़ी—बड़ी संस्थाएँ चलती हैं। राष्ट्रीय आंदोलन को दो—तीन साल तक किसने इतनी धूम—धाम से चलाया। इतनी धर्मशाले और पाठशाले कौन बनवा रहा हैघ् आज संसार का शासन—सूत्र बैंकरों के हाथ में है। सरकारें उनके हाथ का खिलौना हैं। मैं भी आपसे निराश नहीं हूँ। जो व्यक्ति राष्ट्र के लिए जेल जा सकता हैए उसके लिए दो—चार हजार खर्च कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। हमने तय किया हैए इस शाला का बुनियादी पत्थर गोविंदी देवी के हाथों रखा जाए। हम दोनों शीघ्र ही गवर्नर साहब से भी मिलेंगे और मुझे विश्वास हैए हमें उनकी सहायता मिल जायगी। लेडी विलसन को महिला—आंदोलन से कितना प्रेम हैए आप जानते ही हैं। राजा साहब की और अन्य सज्जनों की भी राय थी कि लेडी विलसन से ही बुनियाद रखवाई जाएए लेकिन अंत में यह निश्चय हुआ कि यह शुभ कार्य किसी अपनी बहन के हाथों होना चाहिए। आप कम—से—कम उस अवसर पर आएँगे तो जरूरघ्
खन्ना ने उपहास किया — हाँए जब लार्ड विलसन आएँगे तो मेरा पहुँचना जरूरी ही है। इस तरह आप बहुत—से रईसों को फाँस लेंगे। आप लोगों को लटके खूब सूझते हैं। और हमारे रईस हैं भी इस लायक। उन्हें उल्लू बना कर ही मूँड़ा जा सकता है।
श्जब धन जरूरत से ज्यादा हो जाता हैए तो अपने लिए निकास का मार्ग खोजता है। यों न निकल पाएगा तो जुए में जायगाए घुड़दौड़ में जायगा ईंट—पत्थर में जायगा या ऐयाशी में जायगा।श्
ग्यारह का अमल था। खन्ना साहब के दफ्तर का समय आ गया। मेहता चले गए। रायसाहब भी उठे कि खन्ना ने उनका हाथ पकड़ बैठा लिया — नहींए आप जरा बैठिए। आप देख रहे हैंए मेहता ने मुझे इस बुरी तरह फूँका है कि निकलने को कोई रास्ता ही नहीं रहा। गोविंदी से बुनियाद का पत्थर रखवाएँगे। ऐसी दशा में मेरा अलग रहना हास्यास्पद है या नहींघ् गोविंदी कैसे राजी हो गईए मेरी समझ में नहीं आता और मालती ने कैसे उसे सहन कर लियाए यह समझना और भी कठिन है। आपका क्या खयाल हैए इसमें कोई रहस्य है या नहींघ्
रायसाहब ने आत्मीयता जताई — ऐसे मुआमले में स्त्री को हमेशा पुरुष से सलाह ले लेनी चाहिए!
खन्ना ने रायसाहब को धन्यवाद की आँखों से देखा — इन्हीं बातों पर गोविंदी से मेरा जी जलता हैए और उस पर मुझी को लोग बुरा कहते हैं। आप ही सोचिएए मुझे इन झगड़ों से क्या मतलबघ् इनमें तो वह पड़ेए जिसके पास फालतू रुपए हों फालतू समय हो और नाम की हवस हो। होना यही है कि दो—चार महाशय सेक्रेटरी और अंडर सेक्रेटरी और प्रधान और उपप्रधान बन कर अफसरों को दावतें देंगेए उनके कृपापात्र बनेंगे और यूनिवर्सिटी की छोकरियों को जमा करके बिहार करेंगे। व्यायाम तो केवल दिखाने के दाँत हैं। ऐसी संस्था में हमेशा यही होता है और यही होगा और उल्लू बनेंगे हमए और हमारे भाईए जो धनी कहलाते हैं और यह सब गोविंदी के कारण।
वह एक बार कुरसी से उठेए फिर बैठ गए। गोविंदी के प्रति उनका क्रोध प्रचंड होता जाता था। उन्होंने दोनों हाथ से सिर को सँभाल कर कहा — मैं नहीं समझताए मुझे क्या करना चाहिए।
रायसाहब ने ठकुरसोहाती की — कुछ नहींए आप गोविंदी देवी से साफ कह देंए तुम मेहता को इंकारी खत लिख दोए छुट्टी हुई। मैं तो लाग—डाँट में फँस गया। आप क्यों फँसेंघ्
खन्ना ने एक क्षण इस प्रस्ताव पर विचार करके कहा — लेकिन सोचिएए कितना मुश्किल काम है। लेडी विलसन से जिक्र आ चुका होगाए सारे शहर में खबर फैल गई होगी और शायद आज पत्रों में भी निकल जाए। यह सब मालती की शरारत है। उसी ने मुझे जिच करने का यह ढ़ंग निकाला है।
श्हाँए मालूम तो यही होता है।श्
श्वह मुझे जलील करना चाहती है।श्
श्आप शिलान्यास के दिन बाहर चले जाइएगा।श्
श्मुश्किल है रायसाहब! कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। उस दिन तो मुझे हैजा भी हो जाए तो वहाँ जाना पड़ेगा।श्
रायसाहब आशा बाँधे हुए कल आने का वादा करके ज्यों ही निकले कि खन्ना ने अंदर जा कर गोविंदी को आड़े हाथों लिया — तुमने इस व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार कियाघ्
गोविंदी कैसे कहे कि यह सम्मान पा कर वह मन में कितनी प्रसन्न हो रही थी। उस अवसर के लिए कितने मनोयोग से अपना भाषण लिख रही थी और कितनी ओजभरी कविता रची थी। उसने दिल में समझा थाए यह प्रस्ताव स्वीकार करके वह खन्ना को प्रसन्न कर देगी। उसका सम्मान तो उसके पति का ही सम्मान है। खन्ना को इसमें कोई आपत्ति हो सकती हैए इसकी उसने कल्पना भी न की थी। इधर कई दिन से पति को कुछ सदय देख कर उसका मन बढ़़ने लगा था। वह अपने भाषण सेए और अपनी कविता से लोगों को मुग्ध कर देने का स्वप्न देख रही थी।
यह प्रश्न सुना और खन्ना की मुद्रा देखीए तो उसकी छाती धक—धक करने लगी। अपराधी की भाँति बोली — डाक्टर मेहता ने आग्रह कियाए तो मैंने स्वीकार कर लिया।
श्डाक्टर मेहता तुम्हें कुएँ में गिरने को कहेंए तो शायद इतनी खुशी से न तैयार होगी!श्
गोविंदी की जबान बंद।
श्तुम्हें जब ईश्वर ने बुद्धि नहीं दीए तो क्यों मुझसे नहीं पूछ लियाघ् मेहता और मालती दोनों यह चाल चल कर मुझसे दो—चार हजार ऐंठने की फिक्र में हैं। और मैंने ठान लिया है कि कौड़ी भी न दूँगा। तुम आज ही मेहता को इनकारी खत लिख दो।श्
गोविंदी ने एक क्षण सोच कर कहा — तो तुम्हीं लिख दो न।
श्मैं क्यों लिखूँघ् बात की तुमनेए लिखूँ मैंघ्श्
श्डाक्टर साहब कारण पूछेंगेए तो क्या बताऊँगीघ्श्
श्बताना अपना सिर और क्या! मैं इस व्यभिचारशाला को एक धेला भी नहीं देना चाहता।श्
श्तो तुम्हें देने को कौन कहता हैघ्श्
खन्ना ने होंठ चबा कर कहा — कैसी बेसमझों की—सी बातें करती होघ् तुम वहाँ नींव रखोगी और कुछ दोगी नहींए तो संसार क्या कहेगाघ्
गोविंदी ने जैसे संगीन की नोक पर कहा — अच्छी बात हैए लिख दूँगी।
श्आज ही लिखना होगा।श्
श्कह तो दिया लिखूँगी।श्
खन्ना बाहर आए और डाक देखने लगे। उन्हें दफ्तर जाने में देर हो जाती थीए तो चपरासी घर पर ही डाक दे जाता था। शक्कर तेज हो गई। खन्ना का चेहरा खिल उठा। दूसरी चिट्टी खोली। ऊख की दर नियत करने के लिए जो कमेटी बैठी थीए उसने तय कर दिया कि ऐसा नियंत्रण नहीं किया जा सकता। धत तेरी की। वह पहले यही बात कर रहे थेए पर इस अग्निहोत्री ने गुल मचा कर जबरदस्ती कमेटी बैठाई। आखिर बचा के मुँह पर थप्पड़ लगा। यह मिल वालों और किसानों के बीच का मुआमला है। सरकार इसमें दखल देने वाली कौनघ्
सहसा मिस मालती कार से उतरीं। कमल की भाँति खिलीए दीपक की भाँति दमकतीए स्फूरती और उल्लास की प्रतिमा—सी—निश्शंकए निर्द्वंद्व मानो उसे विश्वास है कि संसार में उसके लिए आदर और सुख का द्वार खुला हुआ है। खन्ना ने बरामदे में आ कर अभिवादन किया।
मालती ने पूछा — क्या यहाँ मेहता आए थेघ्
श्हाँए आए तो थे।श्
श्कुछ कहा — कहाँ जा रहे हैंघ्श्
श्यह तो कुछ नहीं कहा।श्
श्जाने कहाँ डुबकी लगा गए। मैं चारों तरफ घूम आई। आपने व्यायामशाला के लिए कितना दियाघ्श्
खन्ना ने अपराधी—स्वर में कहा — मैंने अभी इस मुआमले को समझा ही नहीं।
मालती ने बड़ी—बड़ी आँखों से उन्हें तरेराए मानों सोच रही हो कि उन पर दया करे या रोष।
श्इसमें समझने की क्या बात थीए और समझ लेते आगे—पीछेए इस वक्त तो कुछ देने की बात थी। मैंने मेहता को ठेल कर यहाँ भेजा था। बेचारे डर रहे थे कि आप न जाने क्या जवाब दें। आपकी इस कंजूसी का क्या फल होगाए आप जानते हैंघ् यहाँ के व्यापारी समाज से कुछ न मिलेगा। आपने शायद मुझे अपमानित करने का निश्चय कर लिया है। सबकी सलाह थी कि लेडी विलसन बुनियाद रखें। मैंने गोविंदी देवी का पक्ष लिया और लड़ कर सबको राजी किया और अब आप फर्माते हैंए आपने इस मुआमले को समझा ही नहीं। आप बैंकिंग की गुत्थियाँ समझते हैंए पर इतनी मोटी बात आपकी समझ में न आई। इसका अर्थ इसके सिवा और कुछ नहीं हैए कि तुम मुझे लज्जित करना चाहते हो। अच्छी बात हैए यही सही।श्
मालती का मुख लाल हो गया। खन्ना घबराएए हेकड़ी जाती रहीए पर इसके साथ ही उन्हें यह भी मालूम हुआ कि अगर वह काँटों में फँस गए हैंए तो मालती दलदल में फँस गई हैए अगर उनकी थैलियों पर संकट आ पड़ा है तो मालती की प्रतिष्ठा पर संकट आ पड़ा हैए जो थैलियों से ज्यादा मूल्यवान है। तब उनका मन मालती की दुरवस्था का आनंद क्यों न उठाएघ् उन्होंने मालती को अरदब में डाल दिया था और यद्यपि वह उसे रूष्ट कर देने का साहस खो चुके थेए पर दो—चार खरी—खरी बातें कह सुनाने का अवसर पा कर छोड़ना न चाहते थे। यह भी दिखा देना चाहते थे कि मैं निरा भोंदू नहीं हूँ। उसका रास्ता रोक कर बोले — तुम मुझ पर इतनी कृपालु हो गई होए इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है मालती!
मालती ने भवें सिकोड़ कर कहा — मैं इसका आशय नहीं समझी!
श्क्या अब मेरे साथ तुम्हारा वही बर्ताव हैए जो कुछ दिन पहले थाघ्श्
श्मैं तो उसमें कोई अंतर नहीं देखती।श्
श्लेकिन मैं तो आकाश—पाताल का अंतर देखता हूँ।श्
श्अच्छा मान लोए तुम्हारा अनुमान ठीक हैए तो फिरघ् मैं तुमसे एक शुभ—कार्य में सहायता माँगने आई हूँए अपने व्यवहार की परीक्षा देने नहीं आई हूँ। और अगर तुम समझते होए कुछ चंदा दे कर तुम यश और धन्यवाद के सिवा और कुछ पा सकते होए तो तुम भ्रम में हो।श्
खन्ना परास्त हो गए। वह एक ऐसे संकरे कोने में फँस गए थेए जहाँ इधर—उधर हिलने का भी स्थान न था। क्या वह उससे यह कहने का साहस रखते हैं कि मैंने अब तक तुम्हारे ऊपर हजारों रुपए लुटा दिएए क्या उसका यही पुरस्कार हैघ् लज्जा से उनका मुँह छोटा—सा निकल आयाए जैसे सिकुड़ गया हो। झेंपते हुए बोले — मेरा आशय यह न था मालतीए तुम बिलकुल गलत समझीं।
मालती ने परिहास के स्वर में कहा — खुदा करेए मैंने गलत समझा होए क्योंकि अगर मैं उसे सच समझ लूँगी तो तुम्हारे साए से भी भागूँगी। मैं रूपवती हूँ। तुम भी मेरे अनेक चाहने वालों में से एक हो। वह मेरी कृपा थी कि जहाँ मैं औरों के उपहार लौटा देती थीए तुम्हारी सामान्य—से—सामान्य चीजें भी धन्यवाद के साथ स्वीकार कर लेती थीए और जरूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माँग लेती थी। अगर तुमने अपने धनोन्माद में इसका कोई दूसरा अर्थ निकाल लियाए तो मैं तुम्हें क्षमा करूँगी। यह पुरुष—प्रकृति है अपवाद नहींए मगर यह समझ लो कि धन ने आज तक किसी नारी के हृदय पर विजय नहीं पाईए और न कभी पाएगा।
खन्ना एक—एक शब्द पर मानो गज—गज भर नीचे धँसते जाते थे। अब और ज्यादा चोट सहने का उनमें जीवट न था। लज्जित हो कर बोले — मालतीए तुम्हारे पैरों पड़ता हूँए अब और जलील न करो। और न सही तो मित्र—भाव तो बना रहने दो।
यह कहते हुए उन्होंने दराज से चेकबुक निकाली और एक हजार लिख कर डरते—डरते मालती की तरफ बढ़़ाया।
मालती ने चौक ले कर निर्दय व्यंग किया — यह मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का चंदाघ्
खन्ना सजल आँखों से बोले — अब मेरी जान बख्शो मालतीए क्यों मेरे मुँह में कालिख पोत रही हो।
मालती ने जोर से कहकहा मारा — देखोए डाँट बताई और एक हजार रुपए भी वसूल किए। अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न करोगेघ्
श्कभी नहींए जीते जी कभी नहीं।श्
श्कान पकड़ो।श्
श्कान पकड़ता हूँए मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकांत में बैठ कर सोचने और रोने दो। तुमने आज मेरे जीवन का सारा आनंद३३..।श्
मालती और जोर से हँसी — देखोए तुम मेरा बहुत अपमान कर रहे हो और तुम जानते होए रूप अपमान नहीं सह सकता। मैंने तो तुम्हारे साथ भलाई की और तुम उसे बुराई समझ रहे हो।
खन्ना विद्रोह—भरी आँखों से देख कर बोले — तुमने मेरे साथ भलाई की है या उलटी छुरी से मेरा गला रेता हैघ्
श्क्योंए मैं तुम्हें लूट—लूट कर अपना घर भर रही थी। तुम उस लूट से बच गए।श्
श्क्यों घाव पर नमक छिड़क रही हो मालती! मैं भी आदमी हूँ।श्
मालती ने इस तरह खन्ना की ओर देखाए मानो निश्चय करना चाहती थी कि वह आदमी है या नहींघ्
श्अभी तो मुझे इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता।श्
श्तुम बिलकुल पहेली होए आज यह साबित हो गया।श्
श्हाँए तुम्हारे लिए पहेली हूँ और पहेली रहूँगी।श्
यह कहती हुई वह पक्षी की भाँति फुर्र से उड़ गई और खन्ना सिर पर हाथ रख कर सोचने लगेए यह लीला है या इसका सच्चा रूप।
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भाग 22
गोबर और झुनिया के जाने के बाद घर सुनसान रहने लगा । धनिया को बार—बार चुन्नू की याद आती रहती है । बच्चे की माँ तो झुनिया थीए पर उसका पालन धनिया ही करती थी। वही उसे उबटन मलतीए काजल लगातीए सुलाती और जब काम—काज से अवकाश मिलताए उसे प्यार करती। वात्सल्य का यह नशा ही उसकी विपत्ति को भुलाता रहता था। उसका भोला—भालाए मक्खन—सा मुँह देख कर वह अपनी सारी चिंता भूल जाती और स्नेहमय गर्व से उसका हृदय फूल उठता । वह जीवन का आधार अब न था । उसका सूना खटोला देख कर वह रो उठती। वह कवचए जो सारी चिंताओं और दुराशाओं से उसकी रक्षा करता थाए उससे छिन गया था। वह बार—बार सोचतीए उसने झुनिया के साथ ऐसी कौन—सी बुराई की थीए जिसका उसने यह दंड दिया। डाइन ने आ कर उसका सोने—सा घर मिट्टी में मिला दिया। गोबर ने तो कभी उसकी बात का जवाब भी न दिया था। इसी राँड़ ने उसे फोड़ा और वहाँ ले जा कर न जाने कौन—कौन—सा नाच नचाएगी। यहाँ ही वह बच्चे की कौन बहुत परवाह करती थी। उसे तो अपने मिस्सी—काजलए माँग—चोटी ही से छुट्टी नहीं मिलती। बच्चे की देखभाल क्या करेगीघ् बेचारा अकेला जमीन पर पड़ा रोता होगा। बेचारा एक दिन भी तो सुख से नहीं रहने पाता। कभी खाँसीए कभी दस्तए कभी कुछए कभी कुछ। यह सोच—सोच कर उसे झुनिया पर क्रोध आता। गोबर के लिए अब भी उसके मन में वही ममता थी। इसी चुड़ैल ने उसे कुछ खिला—पिला कर अपने बस में कर लिया। ऐसी मायाविनी न होतीए तो यह टोना ही कैसे करतीघ् कोई बात न पूछता था। भौजाइयों की लातें खाती थी। यह भुग्गा मिल गया तो आज रानी हो गई।
होरी ने चिढ़़ कर कहा — जब देखो तब झुनिया ही को दोस देती है। यह नहीं समझती कि अपना सोना खोटा तो सोनार का क्या दोषघ् गोबर उसे न ले जाता तो क्या आप—से—आप चली जातीघ् सहर का दाना—पानी लगने से लौंडे की आँखें बदल गईंए ऐसा क्यों नहीं समझ लेती।
धनिया गरज उठी — अच्छाए चुप रहो। तुम्हीं ने राँड़ को मूड़ पर चढ़़ा रखा थाए नहीं मैंने पहले ही दिन झाड़ू मार कर निकाल दिया होता।
खलिहान में डाठें जमा हो गई थीं। होरी बैलों को जुखर कर अनाज माँड़ने जा रहा था। पीछे मुँह फेर कर बोला — मान लेए बहू ने गोबर को फोड़ ही लियाए तो तू इतना कुढ़़ती क्यों हैघ् जो सारा जमाना करता हैए वही गोबर ने भी किया। अब उसके बाल—बच्चे हुए। मेरे बाल—बच्चों के लिए क्यों अपनी साँसत कराएए क्यों हमारे सिर का बोझ अपने सिर रखे!
श्तुम्हीं उपद्रव की जड़ हो।श्
श्तो मुझे भी निकाल दे। ले जा बैलों कोए अनाज माँड़। मैं हुक्का पीता हूँ।श्
श्तुम चल कर चक्की पीसोए मैं अनाज माँड़ूगी।श्
विनोद में दुरूख उड़ गया। वही उसकी दवा है। धनिया प्रसन्न हो कर रूपा के बाल गूँधने बैठ गईएजो बिलकुल उलझ कर रह गए थे और होरी खलिहान चला। रसिक बसंत सुगंध और प्रमोद और जीवन की विभूति लुटा रहा थाए दोनों हाथों से दिल खोल कर। कोयल आम की डालियों में छिपी अपने रसीलीए मधुरए आत्मस्पर्शी कूक से आशाओं को जगाती फिरती थी। महुए की डालियों पर मैनों की बारात—सी लगी बैठी थी। नीम और सिरस और करौंदे अपनी महक में नशा—सा घोल देते थे। होरी आमों के बाग में पहुँचा तो वृक्षों के नीचे तारे—से खिले थे। उसका व्यथितए निराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्फूरती में जैसे डूब गया। तरंग में आ कर गाने लगा —
श्हिया जरत रहत दिन—रैन।
आम की डरिया कोयल बोलेए
तनिक न आवत चौन।श्
सामने से दुलारी सहुआइनए गुलाबी साड़ी पहने चली आ रही थी। पाँव में मोटे चाँदी के कड़े थेए गले में मोटे सोने की हँसलीए चेहरा सूखा हुआए पर दिल हरा। एक समय थाए जब होरी खेत—खलिहान में उसे छेड़ा करता था। वह भाभी थीए होरी देवर थाय इस नाते दोनों में विनोद होता रहता था। जब से साहजी मर गएए दुलारी ने घर से निकलना छोड़ दिया। सारे दिन दुकान पर बैठी रहती थी और वहीं से सारे गाँव की खबर लगाती रहती थी। कहीं आपस में झगड़ा हो जायए सहुआइन वहाँ बीच—बचाव करने के लिए अवश्य पहुँचेगी। आने रुपए सूद से कम पर रुपए उधर न देती थी। और यद्यपि सूद के लोभ में मूल भी हाथ न आता था — जो रुपए लेताए खा कर बैठ रहता — मगर उसके ब्याज का दर ज्यों—का—त्यों बना रहता था। बेचारी कैसे वसूल करेघ् नालिश—फरियाद करने से रहीए थाना—पुलिस करने से रहीए केवल जीभ का बल थाए पर ज्यों—ज्यों उम्र के साथ जीभ की तेजी बढ़़ती जाती थीए उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी गालियों पर लोग हँस देते थे और मजाक में कहते — क्या करेगी रुपए ले कर काकीए साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। गरीब को खिला—पिला कर जितनी असीस मिल सकेए ले—ले। यही परलोक में काम आएगा। और दुलारी परलोक के नाम से जलती थी।
होरी ने छेड़ा — आज तो भाभीए तुम सचमुच जवान लगती हो।
सहुआइन मगन हो कर बोली — आज मंगल का दिन हैए नजर न लगा देना। इसी मारे मैं कुछ पहनती—ओढ़़ती नहीं। घर से निकलो तो सभी घूरने लगते हैंए जैसे कभी कोई मेहरिया देखी ही न हो। पटेश्वरी लाला की पुरानी बान अभी तक नहीं छूटी।
होरी ठिठक गयाए बड़ा मनोरंजक प्रसंग छिड़ गया था। बैल आगे निकल गए।
श्वह तो आजकल बड़े भगत हो गए हैं। देखती नहीं होए हर पूरनमासी को सत्यनारायन की कथा सुनते हैं और दोनों जून मंदिर में दर्सन करने जाते हैं।श्
श्ऐसे लंपट जितने होते हैंए सभी बूढ़़े हो कर भगत बन जाते हैं! कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है। पूछोए मैं अब बुढ़़िया हुईए मुझसे क्या हँसी।श्
श्तुम अभी बुढ़़िया कैसे हो गईं भाभीघ् मुझे तो अब भी.....श्
श्अच्छाए चुप ही रहनाए नहीं डेढ़़ सौ गाली दूँगी। लड़का परदेस कमाने लगाए एक दिन नेवता भी न खिलायाए सेंत—मेंत में भाभी बनाने को तैयार।श्
श्मुझसे कसम ले लो भाभीए जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ हो। न जाने क्या लायाए कहाँ खरच कियाए मुझे कुछ भी पता नहीं। बसए एक जोड़ा धोती और एक पगड़ी मेरे हाथ लगी।श्
श्अच्छा कमाने तो लगाए आज नहीं कल घर सँभालेगा ही। भगवान उसे सुखी रखे। हमारे रुपए भी थोड़ा—थोड़ा देते चलो। सूद ही तो बढ़़ रहा है।
श्तुम्हारी एक—एक पाई दूँगा भाभीए हाथ में पैसे आने दो। और खा ही जाएँगेए तो कोई बाहर के तो नहीं हैंए हैं तो तुम्हारे ही।श्
सहुआइन ऐसी विनोद—भरी चापलूसियों से निरस्त्र हो जाती थी। मुस्कराती हुई अपनी राह चली गई। होरी लपक कर बैलों के पास पहुँच गया और उन्हें पौर में डाल कर चक्कर देने लगा। सारे गाँव का यही एक खलिहान था। कहीं मँड़ाई हो रही थीए कोई अनाज ओसा रहा थाए कोई गल्ला तौल रहा था! नाई—बारीए बढ़़ईए लोहारए पुरोहितए भाटए भिखारीए सभी अपने—अपने जेवरे लेने के लिए जमा हो गए थे। एक पेड़ के नीचे झिंगुरीसिंह खाट पर बैठे अपने सवाई उगाह रहे थे। कई बनिए खड़े गल्ले का भाव—ताव कर रहे थे। सारे खलिहान में मंडी की सी रौनक थी। एक खटकिन बेर और मकोय बेच रही थी और एक खोंचे वाला तेल के सेब और जलेबियाँ लिए फिर रहा था। पंडित दातादीन भी होरी से अनाज बँटवाने के लिए आ पहुँचे थे और झिंगुरीसिंह के साथ खाट पर बैठे थे।
दातादीन ने सुरती मलते हुए कहा — कुछ सुनाए सरकार भी महाजनों से कह रही है कि सूद का दर घटा दोए नहीं डिगरी न मिलेगी।
झिंगुरी तमाखू फाँक कर बोले — पंडितए मैं तो एक बात जानता हूँ। तुम्हें गरज पड़ेगी तो सौ बार हमसे रुपए उधर लेने आओेगेए और हम जो ब्याज चाहेंगेए लेंगे। सरकार अगर असामियों को रुपए उधार देने का कोई बंदोबस्त न करेगीए तो हमें इस कानून से कुछ न होगा। हम दर कम लिखाएँगेए लेकिन एक सौ में पचीस पहले ही काट लेंगे। इसमें सरकार क्या कर सकती हैघ्
श्यह तो ठीक हैए लेकिन सरकार भी इन बातों को खूब समझती है। इसकी भी कोई रोक निकालेगीए देख लेना।श्
श्इसकी कोई रोक हो ही नहीं सकती।श्
श्अच्छाए अगर वह सर्त कर देए जब तक स्टांप पर गाँव के मुखिया या कारिंदा के दसखत न होंगेए वह पक्का न होगाए तब क्या करोगेघ्श्
श्असामी को सौ बार गरज होगीए मुखिया को हाथ—पाँव जोड़ के लाएगा और दसखत कराएगा। हम तो एक—चौथाई काट ही लेंगे।श्
श्और जो फँस जाओ। जाली हिसाब लिखा और गए चौदह साल को।श्
झिंगुरीसिंह जोर से हँसा — तुम क्या कहते हो पंडितए क्या तब संसार बदल जायगाघ् कानून और न्याय उसका हैए जिसके पास पैसा है। कानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करेए कोई जमींदार किसी कास्तकार के साथ सख्ती न करेए मगर होता क्या है। रोज ही देखते हो। जमींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़़ा हैए उससे न जमींदार बोलता हैए न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं। तुम्हारे ही ऊपर रायसाहब के पाँच सौ रुपए निकलते हैंए लेकिन नोखेराम में है इतनी हिम्मत कि तुमसे कुछ बोलेघ् वह जानते हैंए तुमसे मेल करने ही में उनका हित है। किस असामी में इतना बूता है कि रोज अदालत दौड़ेघ् सारा कारबार इसी तरह चला जायगा जैसे चल रहा है। कचहरी अदालत उसी के साथ हैए जिसके पास पैसा है। हम लोगों को घबड़ाने की कोई बात नहीं।
यह कह कर उन्होंने खलिहान का एक चक्कर लगाया और फिर आ कर खाट पर बैठते हुए बोले — हाँए मतई के ब्याह का क्या हुआघ् हमारी सलाह तो है कि उसका ब्याह कर डालो। अब तो बड़ी बदनामी हो रही है।
दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय थाए वह खूब समझते थे। गर्म हो कर बोले — पीठ पीछे आदमी जो चाहे बकेए हमारे मुँह पर कोई कुछ कहेए तो उसकी मूँछें उखाड़ लूँ। कोई हमारी तरह नेमी बन तो ले। कितनों को जानता हूँए जो कभी संध्या—बंदन नहीं करतेए न उन्हें धरम से मतलबए न करम सेए न कथा से मतलबए न पुरान से। वह भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं। हमारे ऊपर क्या हँसेगा कोईए जिसने अपने जीवन में एक एकादसी भी नागा नहीं कीए कभी बिना स्नान—पूजन किए मुँह में पानी नहीं डाला। नेम का निभाना कठिन है। कोई बता दे कि हमने कभी बाजार की कोई चीज खाई होए या किसी दूसरे के हाथ का पानी पिया होए तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। सिलिया हमारी चौखट नहीं लाँघने पातीए चौखटय बरतन—भाँड़े छूना तो दूसरी बात है। मैं यह नहीं कहता कि मतई यह बहुत अच्छा काम कर रहा हैए लेकिन जब एक बार बात हो गई तो यह पाजी का काम है कि औरत को छोड़ दे। मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूँए इसमें छिपाने की कोई बात नहीं। स्त्री—जाति पवित्र है।
दातादीन अपनी जवानी में स्वयं बड़े रसिया रह चुके थेए लेकिन अपने नेम—धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भाँति उन्हीं के पद—चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्व है पूजा—पाठए कथा—व्रत और चौका—चूल्हा। जब पिता—पुत्र दोनों ही मूल तत्व को पकड़े हुए हैंए तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ—भ्रष्ट कह सकेघ्
झिंगुरीसिंह ने कायल हो कर कहा — मैंने तो भाईए जो सुना थाए वह तुमसे कह दिया।
दातादीन ने महाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किए जाने की एक लंबी सूची पेश की और यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो संतान हुईए वह ब्राह्मण कहलाई और आजकल के जो ब्राह्मण हैंए वह उन्हीं संतानों की संतान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आई है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं।
झिंगुरीसिंह उनके पांडित्य पर मुग्ध हो कर बोले — तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी और सुकुल बने फिरते हैंघ्
श्समय—समय की परथा है और क्या! किसी में उतना तेज तो हो। बिस खा कर उसे पचाना तो चाहिए। वह सतजुग की बात थीए सतजुग के साथ गई। अब तो अपना निबाह बिरादरी के साथ मिल कर रहने में हैए मगर करूँ क्याए कोई लड़की वाला आता ही नहीं। तुमसे भी कहा औरों से भी कहा कोई नहीं सुनता तो मैं क्या लड़की बनाऊँघ्श्
झिंगुरीसिंह ने डाँटा — झूठ मत बोलो पंडितए मैं दो आदमियों को फाँस—फूँस कर लायाए मगर तुम मुँह फैलाने लगेए तो दोनों कान खड़े करके निकल भागे। आखिर किस बिरते पर हजार—पाँच सौ माँगते हो तुमघ् दस बीघे खेत और भीख के सिवा तुम्हारे पास और है क्याघ्
दातादीन के अभिमान को चोट लगी। दाढ़़ी पर हाथ फेर कर बोले — पास कुछ न सहीए मैं भीख ही माँगता हूँए लेकिन मैंने अपने लड़कियों के ब्याह में पाँच—पाँच सौ दिए हैंए फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगूँघ् किसी ने सेंत—मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होतीए तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात। तुम जजमानी को भीख समझोए मैं तो उसे जमींदारी समझता हूँए बंकघर। जमींदार मिट जायए बंकघर टूट जायए लेकिन जजमानी अंत तक बनी रहेगी। जब तक हिंदू—जाति रहेगी तब तक बाम्हन भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ—दो—सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गयाए तो चार—पाँच सौ मार लिया। कपड़ेए बरतनए भोजन अलग। कहीं—न—कहीं नित ही कार—परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक—दो थाल और दो—चार आने दक्षिणा के मिल ही जाते हैं। ऐसा चौन न जमींदारी में हैए न साहूकारी में। और फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता हैए उतना ब्राह्मण की कन्या से क्या होगाघ् वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगाए रोटीयाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। और मैं उसे रोटी के सिवा और क्या देता हूँघ् बहुत हुआए तो साल में एक धोती दे दी।
दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा थाए सिलिया पैरे से अनाज निकाल—निकाल कर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था।
सिलिया साँवली सलोनीए छरहरी बालिका थीए जो रूपवती न हो कर भी आकर्षक थी। उसके हास मेंए चितवन मेंए अंगों के विलास में हर्ष का उन्माद थाए जिससे उसकी बोटी—बोटी नाचती रहती थीए सिर से पाँव तक भूसे के अणुओं में सनीए पसीने से तरए सिर के बाल आधे खुलेए वह दौड़—दौड़ कर अनाज ओसा रही थीए मानो तन—मन से कोई खेल खेल रही हो।
मातादीन ने कहा — आज साँझ तक अनाज बाकी न रहे सिलिया! तू थक गई हो तो मैं आऊँघ्
सिलिया प्रसन्न मुख बोली — तुम काहे को आओगे पंडित! मैं संझा तक सब ओसा दूँगी।
श्अच्छाए तो मैं अनाज ढ़ो—ढ़ो कर रख आऊँ। तू अकेली क्या—क्या कर लेगीघ्श्
श्तुम घबड़ाते क्यों होए मैं ओसा दूँगीए ढ़ो कर रख भी आऊँगी। पहर रात तक यहाँ दाना भी न रहेगा।श्
दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दुकान से होली के दिन दो पैसे का गुलाबी रंग लाई थी। अभी तक पैसे न दिए थे। सिलिया के पास आ कर बोली — क्यों री सिलियाए महीना भर रंग लाए हो गयाए अभी तक पैसे नहीं दिएघ् माँगती हूँ तो मटक कर चली जाती है। आज मैं बिना पैसे लिए न जाऊँगी।
मातादीन चुपके—से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों ले कर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थीए और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आँख उठा कर देखा तो मातादीन वहाँ न था। बोली — चिल्लाओ मत सहुआइनए यह ले लोए दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगीघ् मैं मरी थोड़े ही जाती थी।
उसने अंदाज से कोई सेर—भर अनाज ढ़ेर में से निकाल कर सहुआइन के फैले हुए अंचल में डाल दिया। उसी वक्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अंचल पकड़ कर बोला — अनाज सीधे से रख दो सहुआइनए लूट नहीं है।
फिर उसने लाल आँखों से सिलिया को देख कर डाँटा — तूने अनाज क्यों दे दियाघ् किससे पूछ कर दियाघ् तू कौन होती है मेरा अनाज देने वालीघ्
सहुआइन ने अनाज ढ़ेर में डाल दिया और सिलिया हक्का—बक्का हो कर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ाए जिस डाल पर वह निश्चिंत बैठी हुई थीए वह टूट गई और अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है। खिसियाए हुए मुँह सेए आँखों में आँसू भर कर सहुआइन से बोली — तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो।
सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार—भरी आँखों से देखती हुई चली गई।
तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा — तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख्तियार नहीं हैघ्
मातादीन आँखें निकाल कर बोला — नहींए तुझे कोई अख्तियार नहीं है। काम करती हैए खाती है। जो तू चाहे कि खा भीए लुटा भीए तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता होए तो कहीं और जा कर काम करए मजूरों की कमी नहीं है। सेंत में काम नहीं लेतेए खाना—कपड़ा देते हैं।
सिलिया ने उस पक्षी की भाँतिए जिसे मालिक ने पर काट कर पिंजरे से निकाल दिया होए मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भर्त्सनाए यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षी की भाँति उसका मन फड़फड़ा रहा था और ऊँची डाल पर उन्मुक्त वायुमंडल में उड़ने की शक्ति न पा कर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता थाए चाहे उसे बेदानाए बेपानीए पिंजरे की तीलियों से सिर टकरा कर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थीए अब उसके लिए दूसरा कौन—सा ठौर है। वह ब्याहता न हो कर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थीए और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटेए उसे दूसरा आश्रय नहीं हैए दूसरा अवलंब नहीं है। उसे वह दिन याद आए — और अभी दो साल भी तो नहीं हुएघ् जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता थाए जब उसने जनेऊ हाथ में ले कर कहा था — सिलियाए जब तक दम में दम हैए तुझे ब्याहता की तरह रखूँगाए जब वह प्रेमातुर हो कर हार में और बाग में और नदी के तटए पर उसके पीछे—पीछे पागलों की भाँति फिरा करता था। और आज उसका यह निष्ठुर व्यवहार! मुट्ठी—भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया।
उसने कोई जवाब न दिया। कंठ में नमक के एक डले का—सा अनुभव करती हुई आहत हृदय और शिथिल हाथों से फिर काम करने लगी।
उसी वक्त उसकी माँए बापए दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आ कर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीन कर फेंक दी और गाली दे कर बोली — राँड़ए जब तुझे मजूरी ही करनी थीए तो घर की मजूरी छोड़ कर यहाँ क्या करने आई। जब बाँभन के साथ रहती हैए तो बाँभन की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवा कर भी चमारिन ही बनना थाए तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आई थी। चुल्लू—भर पानी में डूब नहीं मरती।
झिुंगरीसिंह और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों के बदले तेवर देख कर उन्हें शांत करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरीसिंह ने सिलिया के बाप से पूछा — क्या बात है चौधरीए किस बात का झगड़ा हैघ्
सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़़ा थाए कालाए दुबलाए सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआए पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला — झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुरए हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगेए या उनका और अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात हैए किसी—न—किसी के घर तो जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना हैए मगर उसे जो कोई भी रखेए हमारा हो कर रहे। तुम हमें बाँभन नहीं बना सकतेए मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें बाँभन बना दोए हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं हैए तो फिर तुम भी चमार बनो। हमारे साथ खाओए पिओए हमारे साथ उठो—बैठो। हमारी इज्जत लेते होए तो अपना धरम हमें दो।
दातादीन ने लाठी फटकार कर कहा — मुँह सँभाल कर बातें कर हरखुआ! तेरी बिटीया वह खड़ी हैए ले जा जहाँ चाहे। हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थीए मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है।
सिलिया की माँ उँगली चमका कर बोली — वाह—वाह पंडित! खूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गई होती और तुम इसी तरह की बातें करतेए तो देखती। हम चमार हैंए इसलिए हमारी कोई इज्जत ही नहीं। हम सिलिया को अकेले न ले जाएँगेए उसके साथ मातादीन को भी ले जाएँगेए जिसने उसकी इज्जत बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी—धरमी हो। उसके साथ सोओगेए लेकिन उसके हाथ का पानी न पियोगे! वही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती।
हरखू ने अपने साथियों को ललकारा — सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो।
इतना सुनना था कि दो चमारों ने लपक कर मातादीन के हाथ पकड़ लिएए तीसरे ने झपट कर उसका जनेऊ तोड़ डाला और इसके पहले कि दातादीन और झिंगुरीसिंह अपनी—अपनी लाठी सँभाल सकेंए दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी—सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। मातादीन ने दाँत जकड़ लिए। फिर भी वह घिनौनी वस्तु उसके होंठों में तो लग ही गई। उन्हें मतली हुई और मुँह अपने—आप खुल गया और हड्डी कंठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गएए पर आश्चर्य यह कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसंद था। वह गाँव की बहू—बेटीयों को घूरा करता थाए इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हाँए ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे।
होरी ने कहा — अच्छाए अब बहुत हुआ हरखू! भला चाहते होए तो यहाँ से चले जाओ।
हरखू ने निडरता से उत्तर दिया — तुम्हारे घर में लड़कियाँ हैं होरी महतोए इतना समझ लो। इसी तरह गाँव की मरजाद बिगड़ने लगीए तो किसी की आबरू न बचेगी।
एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पा कर आद्रमणकारियों ने वहाँ से टल जाना ही उचित समझा। जनमत बदलते देर नहीं लगती। उससे बचे रहना ही अच्छा है।
मातादीन कै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा — एक—एक को पाँच—पाँच साल के लिए न भेजवायाएतो कहना। पाँच—पाँच साल तक चक्की पिसवाऊँगा।
हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया — इसका यहाँ कोई गम नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैंघ् जहाँ काम करेंगेए वहीं आधा पेट दाना मिल जायगा।
मातादीन कै कर चुकने के बाद निर्जीव—सा जमीन पर लेट गयाए मानो कमर टूट गई होए मानो डूब मरने के लिए चुल्लू—भर पानी खोज रहा हो। जिस मर्यादा के बल पर उसकी रसिकता और घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता थाए वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहींए उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था। उसका धर्म इसी खान—पानए छूत—विचार पर टीका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ कट गई। अब वह लाख प्रायश्चित्त करेए लाख गोबर खाए और गंगाजल पिएए लाख दान—पुण्य और तीर्थ—व्रत करेए उसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता। अगर अकेले की बात होतीए तो छिपा ली जाती। यहाँ तो सबके सामने उसका धर्म लुटा। अब उसका सिर हमेशा के लिए नीचा हो गया। आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्नेहमयी माता भी उससे घृणा करेगी। और संसार से धर्म का ऐसा लोप हो गया कि इतने आदमी केवल खड़े तमाशा देखते रहे। किसी ने चूँ तक न की। एक क्षण पहले जो लोग उसे देखते ही पालागन करते थेए अब उसे देख कर मुँह फेर लेंगे। वह किसी मंदिर में भी न जा सकेगाए न किसी के बरतन—भाँड़े छू सकेगा। और यह सब हुआ इस अभागिन सिलिया के कारण।
सिलिया जहाँ अनाज ओसा रही थीए वहीं सिर झुकाए खड़ी थीए मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है। सहसा उसकी माँ ने आ कर डाँटा — खड़ी ताकती क्या हैघ् चल सीधे घरए नहीं बोटी—बोटी काट डालूँगी। बाप—दादा का नाम तो खूब उजागर कर चुकीए अब क्या करने पर लगी हैघ्
सिलिया मूर्तिवत खड़ी रही। माता—पिता और भाइयों पर उसे क्रोध आ रहा था। यह लोग क्यों उसके बीच में बोलते हैंघ् वह जैसे चाहती हैए रहती हैए दूसरों से क्या मतलबघ् कहते हैंए यहाँ तेरा अपमान होता हैए तब क्या कोई बाँभन उसका पकाया खा लेगाघ् उसके हाथ का पानी पी लेगाघ् अभी जरा देर पहले उसका मन मातादीन के निठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा थाए पर अपने घर वालों और बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया।
विद्रोह—भरे मन से बोली — मैं कहीं नहीं जाऊँगी। तू क्या यहाँ भी मुझे जीने न देगीघ्
बुढ़़िया कर्कश स्वर से बोली — तू न चलेगीघ्
श्नहीं।श्
श्चल सीधे से।श्
श्नहीं जाती।श्
तुरंत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया जमीन पर बैठ गई। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गईए पीठ और कमर की खाल छिल गईए पर वह जाने पर राजी न हुई।
तब हरखू ने लड़कों से कहा — अच्छाए अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गईए मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आई तो लहू पी जाऊँगा।
सिलिया जान पर खेल कर बोली — हाँए जब तुम्हारे द्वार पर आऊँए तो पी लेना।
बुढ़़िया ने क्रोध के उन्माद में सिलिया को कई लातें जमाईं और हरखू ने उसे हटा न दिया होताए तो शायद प्राण ही ले कर छोड़ती।
बुढ़़िया फिर झपटीए तो हरखू ने उसे धक्के दे कर पीछे हटाते हुए कहा — तू बड़ी हत्यारिन है कलिया! क्या उसे मार ही डालेगीघ्
सिलिया बाप के पैरों से लिपट कर बोली — मार डालो दादाए सब जने मिल कर मार डालो! हाय अम्माँए तुम इतनी निर्दयी होए इसीलिए दूध पिला कर पाला थाघ् सौर में ही क्यों न गला घोंट दियाघ् हाय! मेरे पीछे पंडित को भी तुमने भिरस्ट कर दिया। उसका धरम ले कर तुम्हें क्या मिलाघ् अब तो वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे न पूछेए रहूँगी तो उसी के साथ। वह मुझे चाहे भूखों रखेए चाहे मार डालेए पर उसकी इतनी साँसत कराके कैसे छोड़ दूँघ् मर जाऊँगीए पर हरजाई न बनूँगी। एक बार जिसने बाँह पकड़ लीए उसी की रहूँगी।
कलिया ने होठ चबा कर कहा — जाने दो राँड़ को। समझती हैए वह इसका निबाह करेगाए मगर आज ही मार कर भगा न दे तो मुँह न दिखाऊँ।
भाइयों को भी दया आ गई। सिलिया को वहीं छोड़ कर सब—के—सब चले गए। तब वह धीरे—से उठ कर लँगड़ातीए कराहतीए खलिहान में आ कर बैठ गई और अंचल में मुँह ढ़ाँप कर रोने लगी। दातादीन ने जुलाहे का गुस्सा डाढ़़ी पर उतारा — उनके साथ चली क्यों न गई सिलिया! अब क्या करवाने पर लगी हुई हैघ् मेरा सत्यानास कराके भी न पेट नहीं भराघ्
सिलिया ने आँसू—भरी आँखें ऊपर उठाईं। उनमें तेज की झलक थी।
श्उनके साथ क्यों जाऊँघ् जिसने बाँह पकड़ी हैए उसके साथ रहूँगी।श्
पंडितजी ने धमकी दी — मेरे घर में पाँव रखाए तो लातों से बात करूँगा।
सिलिया ने उद्दंडता से कहा — मुझे जहाँ वह रखेंगेए वहाँ रहूँगी। पेड़ तले रखेंए चाहे महल में रखें।
मातादीन संज्ञाहीन—सा बैठा था। दोपहर होने को आ रहा था। धूप पत्तियों से छन—छन कर उसके चेहरे पर पड़ रही थी। माथे से पसीना टपक रहा था। पर वह मौनए निस्पंद बैठा हुआ था।
सहसा जैसे उसने होश में आ कर कहा — मेरे लिए अब क्या कहते हो दादाघ्
दातादीन ने उसके सिर पर हाथ रख कर ढ़ाँड़स देते हुए कहा — तुम्हारे लिए अभी मैं क्या कहूँ बेटाघ् चल कर नहाओए खाओए फिर पंडितों की जैसी व्यवस्था होगीए वैसा किया जायगा। हाँए एक बात हैए सिलिया को त्यागना पड़ेगा।
मातादीन ने सिलिया की ओर रक्त—भरे नेत्रों से देखा — मैं अब उसका कभी मुँह न देखूँगाए लेकिन परासचित हो जाने पर फिर तो कोई दोस न रहेगाघ्
श्परासचित हो जाने पर कोई दोस—पाप नहीं रहता।श्
श्तो आज ही पंडितों के पास जाओ।श्
श्आज ही जाऊँगा बेटा!श्
श्लेकिन पंडित लोग कहें कि इसका परासचित नहीं हो सकताए तबघ्श्
श्उनकी जैसी इच्छा।श्
श्तो तुम मुझे घर से निकाल दोगेघ्श्
दातादीन ने पुत्र—स्नेह से विह्वल हो कर कहा — ऐसा कहीं हो सकता हैए बेटा! धन जायए धरम जायए लोक—मरजाद जायए पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता।
मातादीन ने लकड़ी उठाई और बाप के पीछे—पीछे घर चला। सिलिया भी उठी और लँगड़ाती हुई उसके पीछे हो ली।
मातादीन ने पीछे फिर कर निर्मम स्वर में कहा — मेरे साथ मत आ। मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। इतनी साँसत करवा के भी तेरा पेट नहीं भरता।
सिलिया ने धृष्टता के साथ उसका हाथ पकड़ कर कहा — वास्ता कैसे नहीं हैघ् इसी गाँव में तुमसे धनीए तुमसे सुंदरए तुमसे इज्जतदार लोग हैं। मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़तीघ् तुम्हारी यह दुरदसा ही आज क्यों हुईघ् जो रस्सी तुम्हारे गले पड़ गई हैए उसे तुम लाख चाहोए नहीं तोड़ सकते। और न मैं तुम्हें छोड़ कर कहीं जाऊँगी। मजूरी करूँगीए भीख माँगूँगीए लेकिन तुम्हें न छोडूँगी।
यह कहते हुए उसने मातादीन का हाथ छोड़ दिया और फिर खलिहान में जा कर अनाज ओसाने लगी। होरी अभी तक वहाँ अनाज माँड़ रहा था। धनिया उसे भोजन करने के लिए बुलाने आई थी। होरी ने बैलों को पैरे से बाहर निकाल कर एक पेड़ में बाँध दिया और सिलिया से बोला — तू भी जाए खा—पी आ सिलिया! धनिया यहाँ बैठी है। तेरी पीठ पर की साड़ी तो लहू से रंग गई है रे! कहीं घाव पक न जाए। तेरे घर वाले बड़े निरदयी हैं।
सिलिया ने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा — यहाँ निरदयी कौन नहीं हैए दादा! मैंने तो किसी को दयावान नहीं पाया।
श्क्या कहा पंडित नेघ्श्
श्कहते हैंए मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं।श्
श्अच्छा! ऐसा कहते हैं!श्
श्समझते होंगेए इस तरह अपने मुँह की लाली रख लेंगेए लेकिन जिस बात को दुनिया जानती हैए उसे कैसे छिपा लेंगेघ् मेरी रोटीयाँ भारी हैंए न दें। मेरे लिए क्याघ् मजूरी अब भी करती हूँए तब भी करूँगी। सोने को हाथ—भर जगह तुम्हीं से मागूँगी तो क्या तुम न दोगेघ्श्
धनिया दयार्द्र हो कर बोली — जगह की कौन कमी है बेटी — तू चल मेरे घर रह।
होरी ने कातर स्वर में कहा — बुलाती तो हैए लेकिन पंडित को जानती नहींघ्
धनिया ने निर्भीक स्वर में कहा — बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगेए और क्या करेंगे। कोई उसकी दबैल हूँघ् उसकी इज्जत लीए बिरादरी से निकलवायाए अब कहते हैंए मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि कसाई! यह उसकी नीयत का आज फल मिला है। पहले नहीं सोच लिया था। तब तो बिहार करते रहे। अब कहते हैंए मुझसे कोई वास्ता नहीं!श्
होरी के विचार में धनिया गलत कर रही थी। सिलिया के घर वालों ने मतई को कितना बेधरम कर दियाए यह कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मार कर ले जातेए चाहे दुलार कर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम कियाघ्
धनिया ने फटकार बताई — अच्छा रहने दोए बड़े न्यायी बनते हो। मरद—मरद सब एक होते हैं। इसको मतई ने बेधरम कियाए तब तो किसी को बुरा न लगा। अब जो मतई बेधरम हो गएए तो क्यों बुरा लगता है! क्या सिलिया का धरमए धरम ही नहींघ् रखी तो चमारिनए उस पर नेक—धरमी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने। ऐसे गुंडों की यही सजा है। तू चल सिलिया मेरे घर। न—जाने कैसे बेदरद माँ—बाप हैं कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे ले कर आती हूँ।
होरी घर चला गया और सिलिया धनिया के पैरों पर गिर कर रोने लगी।
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भाग 23
सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फिक्र में थाए पर हाथ खाली होने से कोई काबू न चलता था। मगर इस साल जैसे भी होए उसका विवाह कर देना ही चाहिएए चाहे कर्ज लेना पड़ेए चाहे खेत गिरों रखने पड़ें। और अकेले होरी की बात चलतीए तो दो साल पहले ही विवाह हो गया होता। वह किफायत से काम करना चाहता था। पर धनिया कहती थीए कितना ही हाथ बाँध कर खर्च करोए दो—ढ़ाई सौ लग जाएँगे। झुनिया के आ जाने से बिरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा हो गया था और बिना सौ—दो सौ दिए कोई कुलीन वर न मिल सकता था। पिछले साल चौती में कुछ मिला था तो पंडित दातादीन का आधा साझाए मगर पंडित जी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्यौरा बताया कि होरी के हाथ एक—चौथाई से ज्यादा अनाज न लगा। और लगान देना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फसल नष्ट हो गईए सन तो वर्षा अधिक होने और ऊख दीमक लग जाने के कारण। हाँए इस साल चौती अच्छी थी और ऊख भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद थाए दो सौ रुपए भी हाथ आ जायँए तो कन्या—ॠण से उसका उद्धार हो जाए। अगर गोबर सौ रुपए की मदद कर देए तो बाकी सौ रुपए होरी को आसानी से मिल जाएँगे। झिंगुरीसिंह और मँगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गए थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा हैए तो उनके रुपए मारे न जा सकते थे।
एक दिन होरी ने गोबर के पास दो—तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया।
मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थीए किसी तरह नहीं।
होरी ने झुँझला कर कहा — लेकिन काम कैसे चलेगाए यह बताघ्
धनिया सिर हिला कर बोली — मान लोए गोबर परदेस न गया होताए तब तुम क्या करतेघ् वही अब करो।
होरी की जबान बंद हो गई। एक क्षण बाद बोला — मैं तो तुझसे पूछता हूँ।
धनिया ने जान बचाई — यह सोचना मरदों का काम है।
होरी के पास जवाब तैयार था — मान लेए मैं न होताए तू ही अकेली रहतीए तब तू क्या करतीघ् वह कर।
धनिया ने तिरस्कार—भरी आँखों से देखा — तब मैं कुस—कन्या भी दे देती तो कोई हँसने वाला न था।
कुश—कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल थाए लेकिन कुल—मर्यादा कैसे छोड़ देघ् उसकी बहनों के विवाह में तीन—तीन सौ बराती द्वार पर आए थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच—तमाशाए बाजा—गाजाए हाथी—घोड़ेए सभी आए थे। आज भी बिरादरी में उसका नाम है। दस गाँव के आदमियों से उसका हेल—मेल है। कुश—कन्या दे कर वह किसे मुँह दिखाएगाघ् इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश—कन्या देघ् पेड़—पालो हैंए जमीन है और थोड़ी—सी साख भी हैए अगर वह एक बीघा भी बेच देए तो सौ मिल जायँए लेकिन किसान के लिए जमीन जान से भी प्यारी हैए कुल—मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही बीघे तो उसके पास हैए अगर एक बीघा बेच देए तो फिर खेती कैसे करेगाघ्
कई दिन इसी हैस—बैस में गुजरे। होरी कुछ फैसला न कर सका।
दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरीसिंहए पटेश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आए थे। तीनों अंग्रेजी पढ़़ते थे और यद्यपि तीनों बीस—बीस साल के हो गए थेए पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक—एक क्लास में दो—दोए तीन—तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत बिंदेसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलतेए भंग पीते और छैला बने घूमते। वे दिन में कई—कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलतेए उसी वक्त सोना भी किसी—न—किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थीए जो गोबर उसके लिए लाया था। यह सब तमाशा देख—देख कर होरी का खून सूखता जाता थाए मानों उसकी खेती चौपट करने के लिए आकाश में ओले वाले पीले बादल उठे चले आते हों।
एक दिन तीनों उसी कुएँ पर नहाने जा पहुँचेए जहाँ होरी ऊख सींचने के लिए पुर चला रहा था। सोना मोट ले रही थी। होरी का खून खौल उठा।
उसी साँझ को वह दुलारी सहुआइन के पास गया। सोचाए औरतों में दया होती हैए शायद इसका दिल पसीज जाय और कम सूद पर रुपए दे दे। मगर दुलारी अपना ही रोना ले बैठी। गाँव में ऐसा कोई घर न थाए जिस पर उसके कुछ रुपए न आते होंए यहाँ तक कि झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपए आते थेए लेकिन कोई देने का नाम न लेता था। बेचारी कहाँ से रुपए लाएघ्
होरी ने गिड़गिड़ा कर कहा — भाभीए बड़ा पुन्न होगा। तुम रुपए न दोगीए मेरे गले की फाँसी खोल दोगीए झिंगुरी और पटेसरी मेरे खेतों पर दाँत लगाए हुए हैं। मैं सोचता हूँए बाप—दादा की यही तो निसानी हैए यह निकल गईए तो जाऊँगा कहाँघ् एक सपूत वह होता है कि घर की संपत बढ़़ाता हैए मैं ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप—दादों की कमाई पर झाड़ू फेर दूँघ्
दुलारी ने कसम खाई — होरीए मैं ठाकुरजी के चरन छू कर कहती हूँ कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। जिसने लियाए वह देता नहींए तो मैं क्या करूँघ् तुम कोई गैर तो नहीं हो। सोना भी मेरी ही लड़की हैए लेकिन तुम्हीं बताओए मैं क्या करूँघ् तुम्हारा ही भाई हीरा है। बैल के लिए पचास रुपए लिए। उसका तो कहीं पता—ठिकाना नहींए उसकी घरवाली से माँगो तो लड़ने के लिए तैयार! सोभा भी देखने में बड़ा सीधा—सादा हैए लेकिन पैसा देना नहीं जानता। और असल बात तो यह है कि किसी के पास है ही नहींए दें कहाँ से! सबकी दशा देखती हूँए इसी मारे सबर कर जाती हूँ। लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैंए और क्याघ् खेती—बारी बेचने की मैं सलाह न दूँगी। कुछ नहीं हैए मरजाद तो है।
फिर कनफुसकियों में बोली — पटेसरी लाला का लौंडा तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर लगाया करता है। तीनों का वही हाल है। इनसे चौकस रहना। यह सहरी हो गएए गाँव का भाई—चारा क्या समझेंघ् लड़के गाँव में भी हैंए मगर उनमें कुछ लिहाज हैए कुछ अदब हैए कुछ डर है। ये सब तो छूटे साँड़ हैं। मेरी कौसल्या ससुराल से आई थीए मैंने इन सबों के ढ़ंग देख कर उसके ससुर को बुला कर विदा कर दिया। कोई कहाँ तक पहरा दे।
होरी को मुस्कराते देख कर उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा — हँसोगे होरीए तो मैं भी कुछ कह दूँगी। तुम क्या किसी से कम नटखट थेघ् दिन में पचीसों बार किसी—न—किसी बहाने मेरी दुकान पर आया करते थेए मगर मैंने कभी ताका तक नहीं।
होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा — यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी! मैं बिना कुछ रस पाए थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती हैए तभी दूसरी बार आँगन में आती है।
श्चल झूठे।श्
श्आँखों से न ताकती रही होए लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही थाए बल्कि बुलाता था।श्
अच्छा रहने दोए बड़े आए अंतरजामी बनके। तुम्हें बार—बार मँड़राते देखके मुझे दया आ जाती थीए नहीं तुम कोई ऐसे बाँके जवान न थे।श्
हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बंद हो गया। हुसेनी नमक ले कर चला गयाए तो दुलारी ने कहा — गोबर के पास क्यों नहीं चले जातेघ् देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाए।
होरी निराश मन से बोला — वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैंए तो उनकी आँखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार थाए लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरजी बिना चला जाऊँए तो घर में रहना अपाढ़़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।
दुलारी ने कटाक्ष करके कहा — तुम तो मेहरिया के जैसे गुलाम हो गए।
श्तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करताघ्श्
श्मेरी गुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होताए सच।श्
श्तो अब से क्या बिगड़ा हैए लिखा लो न। दो सौ में लिखता हूँए इन दामों महँगा नहीं हूँ।श्
श्तब धनिया से तो न बोलोगेघ्श्
श्नहींए कहो कसम खाऊँ।श्
श्और जो बोलेघ्श्
श्तो मेरी जीभ काट लेना।श्
श्अच्छा तो जाओए बर ठीक—ठाक करोए मैं रुपए दे दूँगी।श्
होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पाँव पकड़ लिए। भावावेश से मुँह बंद हो गया।
सहुआइन ने पाँव खींच कर कहा — अब यही सरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं साल—भर के भीतर अपने रुपए सूद—समेत कान पकड़ कर लूँगी। तुम तो व्यवहार के ऐसे सच्चे नहीं होय लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है। सुना पंडित तुमसे बहुत बिगड़े हुए हैं। कहते हैं इसे गाँव से निकाल कर नहीं छोड़ा तो बाँभन नहीं। तुम सिलिया को निकाल बाहर क्यों नहीं करतेघ् बैठे—बैठाए झगड़ा मोल ले लिया।
श्धनिया उसे रखे हुए हैए मैं क्या करूँघ्श्
श्सुना हैए पंडित कासी गए थे। वहाँ एक बड़ा नामी विद्वान् पंडित है। वह पाँच सौ माँगता है। तब परासचित कराएगा। भलाए पूछो ऐसा अंधेर कहीं हुआ है। जब धरम नष्ट हो गया तो एक नहींए हजार परासचित करोए इससे क्या होता है! तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न पिएगा। चाहे जितना परासचित करो।श्
होरी यहाँ से घर चलाए तो उसका दिल उछल रहा था। जीवन में ऐसा सुखद अनुभव उसे न हुआ था। रास्ते में सोभा के घर गया और सगाई ले कर चलने के लिए नेवता दे आया। फिर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गए। वहाँ से आ कर द्वार पर सगाई की तैयारियों की सलाह करने लगे।
धनिया ने बाहर आ कर कहा — पहर रात गईए अभी रोटी खाने की बेला नहीं आईघ् खा कर बैठो। गपड़चौथ करने को तो सारी रात पड़ी है।
होरी ने उसे भी परामर्श में शरीक होने का अनुरोध करते हुए कहा — इसी सहालग में लगन ठीक हुआ है। बताए क्या—क्या सामान लाना चाहिएघ् मुझे तो कुछ मालूम नहीं।
श्जब कुछ मालूम ही नहींए तो सलाह करने क्या बैठे होघ् रुपए—पैसे का डौल भी हुआ कि मन में मिठाई खा रहे होघ्श्
होरी ने गर्व से कहा — तुझे इससे क्या मतलबघ् तू इतना बता देए क्या—क्या सामान लाना होगाघ्
श्तो मैं ऐसी मन की मिठाई नहीं खाती।श्
श्तू इतना बता दे कि हमारी बहनों के ब्याह में क्या—क्या सामान आया थाघ्श्
श्पहले यह बता दोए रुपए मिल गए।श्
श्हाँ मिल गएए और नहीं क्या भंग खाई है!श्
श्तो पहले चल कर खा लो। फिर सलाह करेंगे।श्
मगर जब उसने सुना कि दुलारी से बातचीत हुई हैए तो नाक सिकोड़ कर बोली — उससे रुपए ले कर आज तक कोई उरिन हुआ हैघ् चुड़ैल कितना कस कर सूद लेती है!
श्लेकिन करता क्याघ् दूसरा देता कौन हैघ्श्
श्यह क्यों नहीं कहते कि इसी बहाने दो गाल हँसने—बोलने गया था। बूढ़़े हो गएए पर यह बान न गई।श्
श्तू तो धनियाए कभी—कभी बच्चों की—सी बातें करने लगती है। मेरे—जैसे फटे हालों से वह हँसे—बोलेगीघ् सीधे मुँह बात तो करती नहीं।श्
श्तुम—जैसों को छोड़ कर उसके पास और जायगा ही कौनघ्श्
श्उसके द्वार पर अच्छे—अच्छे नाक रगड़ते हैंए धनियाए तू क्या जाने। उसके पास लच्छमी है।श्
श्उसने जरा—सी हामी भर दीए तुम चारों ओर खुसखबरी ले कर दौड़े।श्
श्हामी नहीं भर दीए पक्का वादा किया है।श्
होरी रोटी खाने गया और सोभा अपने घर चला गया तो सोना सिलिया के साथ बाहर निकली। वह द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन रही थी। उसकी सगाई के लिए दो सौ रुपए दुलारी से उधार लिए जा रहे हैंए यह बात उसके पेट में इस तरह खलबली मचा रही थीए जैसे ताजा चूना पानी में पड़ गया हो। द्वार पर एक कुप्पी जल रही थीए जिससे ताक के ऊपर की दीवार काली पड़ गई थी। दोनों बैल नाँद में सानी खा रहे थे और कुत्ता जमीन पर टुकड़े के इंतजार में बैठा हुआ था। दोनों युवतियाँ बैलों की चरनी के पास आ कर खड़ी हो गईं।
सोना बोली — तूने कुछ सुनाघ् दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिए दो सौ रुपए उधार ले रहे हैं।
सिलिया घर का रत्ती—रत्ती हाल जानती थी। बोली — घर में पैसा नहीं हैए तो क्या करेंघ्
सोना ने सामने के काले वृक्षों की ओर ताकते हुए कहा — मैं ऐसा ब्याह नहीं करना चाहतीए जिससे माँ—बाप को कर्जा लेना पड़े। कहाँ से देंगे बेचारेए बता! पहले ही कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। दो सौ और ले लेंगेए तो बोझा और भारी होगा कि नहींघ्
श्बिना दान—दहेज के बड़े आदमियों का कहीं ब्याह होता है पगलीघ् बिना दहेज के तो कोई बूढ़़ा—ठेला ही मिलेगा। जायगी बूढ़़े के साथघ्श्
श्बूढ़़े के साथ क्यों जाऊँघ् भैया बूढ़़े थे जो झुनिया को ले आएघ् उन्हें किसने कै पैसे दहेज में दिए थेघ्श्
श्उसमें बाप—दादा का नाम डूबता है।श्
श्मैं तो सोनारी वालों से कह दूँगीए अगर तुमने एक पैसा भी दहेज लियाए तो मैं तुमसे ब्याह न करूँगी।श्
सोना का विवाह सोनारी के एक धनी किसान के लड़के से ठीक हुआ था।
श्और जो वह कह देए कि मैं क्या करूँए तुम्हारे बाप देते हैंए मेरे बाप लेते हैंए इसमें मेरा क्या अख्तियार हैघ्श्
सोना ने जिस अस्त्र को रामबाण समझा थाए अब मालूम हुआ कि वह बाँस की कैन है। हताश हो कर बोली — मैं एक बार उससे कहके देख लेना चाहती हूँए अगर उसने कह दियाए मेरा कोई अख्तियार नहीं हैए तो क्या गोमती यहाँ से बहुत दूर हैघ् डूब मरूँगी। माँ—बाप ने मर—मर के पाला—पोसा। उसका बदला क्या यही है कि उनके घर से जाने लगूँए तो उन्हें करजे से और लादती जाऊँघ् माँ—बाप को भगवान ने दिया होए तो खुसी से जितना चाहें लड़की को देंए मैं मना नहीं करतीए लेकिन जब वह पैसे—पैसे को तंग हो रहे हैंए आज महाजन नालिस करके लिल्लाम करा लेए तो कल मजूरी करनी पड़ेगीए तो कन्या का धरम यही है कि डूब मरे। घर की जमीन—जैजात तो बच जायगीए रोटी का सहारा तो रह जायगा। माँ—बाप चार दिन मेरे नाम को रो कर संतोष कर लेंगे। यह तो न होगा कि मेरा ब्याह करके उन्हें जनम—भर रोना पड़े। तीन—चार साल में दो सौ के दूने हो जाएँगेए दादा कहाँ से ला कर देंगेघ्
सिलिया को जान पड़ाए जैसे उसकी आँख में नई ज्योति आ गई है। आवेश में सोना को छाती से लगा कर बोली — तूने इतनी अक्कल कहाँ से सीख ली सोनाघ् देखने में तो तू बड़ी भोली—भाली है।
श्इसमें अक्कल की कौन बात है चुड़ैल! क्या मेरे आँखें नहीं हैं कि मैं पागल हूँघ् दो सौ मेरे ब्याह में लें। तीन—चार साल में वह दूना हो जाए। तब रुपिया के ब्याह में दो सौ और लें। जो कुछ खेती—बारी हैए सब लिलाम—तिलाम हो जायए और द्वार—द्वार पर भीख माँगते फिरें। यही नघ् इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं अपने जान दे दूँ। मुँह अँधेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना। मगर नहींए बुलाने का काम नहीं। मुझे उससे बोलते लाज आएगी! तू ही मेरा यह संदेसा कह देना। देख क्या जवाब देते हैं। कौन दूर हैघ् नदी के उस पार ही तो है। कभी—कभी ढ़ोर ले कर इधर आ जाता है। एक बार उसकी भैंस मेरे खेत में पड़ गई थीए तो मैंने उसे बहुत गालियाँ दी थींए हाथ जोड़ने लगा। हाँए यह तो बताए इधर मतई से तेरी भेंट नहीं हुईघ् सुनाए बाँभन लोग उन्हें बिरादरी में नहीं ले रहे हैं।
सिलिया ने हिकारत के साथ कहा — बिरादरी में क्यों न लेंगेए हाँए बूढ़़ा रुपए नहीं खरच करना चाहता। इसको पैसा मिल जायए तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टीक्कड़ लगाता है।
श्तू उसे छोड़ क्यों नहीं देतीघ् अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा।श्
श्हाँ रेए क्यों नहींए मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दुरदसा हुईए अब मैं उसे छोड़ दूँघ् अब वह चाहे पंडित बन जायए चाहे देवता बन जायए मेरे लिए तो वही मतई हैए जो मेरे पैरों पर सिर रगड़ा करता थाए और बाँभन भी हो जाय और बाँभनी से ब्याह भी कर लेए फिर भी जितनी उसकी सेवा मैंने की हैए वह कोई बाँभनी क्या करेगी! अभी मान—मरजाद के मोह में वह चाहे मुझे छोड़ देए लेकिन देख लेनाए फिर दौड़ा आएगा।श्
श्आ चुका अब। तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा जाए।श्
श्तो उसे बुलाने ही कौन जाता हैघ् अपना—अपना धरम अपने—अपने साथ है। वह अपना धरम तोड़ रहा हैए तो मैं अपना धरम क्यों तोडूँघ्श्
प्रातरूकाल सिलिया सोनारी की ओर चलीए लेकिन होरी ने रोक लिया। धनिया के सिर में दर्द था। उसकी जगह क्यारियों को बराना था। सिलिया इनकार न कर सकी। यहाँ से जब दोपहर को छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली।
इधर तीसरे पहर होरी फिर कुएँ पर चला तो सिलिया का पता न था। बिगड़ कर बोला — सिलिया कहाँ उड़ गईघ् रहती हैए रहती हैए न जाने किधर चल देती हैए जैसे किसी काम में जी ही नहीं लगता। तू जानती है सोनाए कहाँ गई हैघ्
सोना ने बहाना किया — मुझे तो कुछ मालूम नहीं। कहती थीए धोबिन के घर कपड़े लेने जाना हैए वहीं चली गई होगी।
धनिया ने खाट से उठ कर कहा — चलोए मैं क्यारी बराए देती हूँ। कौन उसे मजूरी देते हो जो बिगड़ रहे होघ्
श्हमारे घर में रहती नहीं हैघ् उसके पीछे सारे गाँव में बदनाम नहीं हो रहे हैंघ्श्
श्अच्छाए रहने दोए एक कोने में पड़ी हुई हैए तो उससे किराया लोगेघ्श्
श्एक कोने में नहीं पड़ी हुई हैए एक पूरी कोठरी लिए हुए है।श्
श्तो उस कोठरी का किराया होगा कोई पचास रुपए महीना।श्
श्उसका किराया एक पैसा नहीं। हमारे घर में रहती हैए जहाँ जाय पूछ कर जाए। आज आती है तो खबर लेता हूँ।श्
पुर चलने लगा। धनिया को होरी ने न आने दिया। रूपा क्यारी बराती थी और सोना मोट ले रही थी। रूपा गीली मिट्टी के चूल्हे और बरतन बना रही थीए और सोना सशंक आँखों से सोनारी की ओर ताक रही थी। शंका भी थीए आशा भी थीए शंका अधिक थीए आशा कम। सोचती थीए उन लोगों को रुपए मिल रहे हैंए तो क्यों छोड़ने लगेघ् जिनके पास पैसे हैंए वे तो पैसे पर और भी जान देते हैं। और गौरी महतो तो एक ही लालची हैं। मथुरा में दया हैए धरम हैए लेकिन बाप की जो इच्छा होगीए वही उसे माननी पड़ेगीए मगर सोना भी बचा को ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे। वह साफ कहेगीए जा कर किसी धनी की लड़की से ब्याह करए तुझ—जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह न होगा। कहीं गौरी महतो मान गएए तो वह उनके चरन धो—धो कर पिएगी। उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने बाप की भी न की होगी। और सिलिया को भर—पेट मिठाई खिलाएगी। गोबर ने उसे जो रूपया दिया थाए उसे वह अभी तक संचे हुए थी। इस मृदु कल्पना से उसकी आँखें चमक उठीं और कपोलों पर हल्की—सी लाली दौड़ गई।
मगर सिलिया अभी तक आई क्यों नहींघ् कौन बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा! वह आ रही हैए लेकिन बहुत धीरे—धीरे आती है। सोना का दिल बैठ गया। अभागे नहीं माने साइतए नहीं सिलिया दौड़ती आती। तो सोना से हो चुका ब्याह। मुँह धो रखो।
सिलिया आई जरूरए पर कुएँ पर न आ कर खेत में क्यारी बराने लगी। डर रही थीए होरी पूछेंगे कहाँ थी अब तकए तो क्या जवाब देगी। सोना ने यह दो घंटे का समय बड़ी मुश्किल से काटा। पर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया के पास पहुँची।
श्वहाँ जा कर तू मर गई थी क्या! ताकते—ताकते आँखें फूट गईं।श्
सिलिया को बुरा लगा — तो क्या मैं वहाँ सोती थीघ् इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही हो जाती है। अवसर देखना पड़ता है। मथुरा नदी की ओर ढ़ोर चराने गए थे। खोजती—खोजती उसके पास गई और तेरा संदेसा कहा — ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या कहूँ। मेरे पाँव पर गिर पड़ा और बोला — सिल्लोए मैंने जब से सुना है कि सोना मेरे घर में आ रही हैए तब से आँखों की नींद हर गई है। उसकी वह गालियाँ मुझे फल गईंए लेकिन काका को क्या करूँ — वह किसी की नहीं सुनते।
सोना ने टोका — तो न सुनें। सोना भी जिद्दिन है। जो कहा हैए वह कर दिखाएगी। फिर हाथ मलते रह जाएँगे।
श्बसए उसी छन ढ़ोरों को वहीं छोड़ए मुझे लिए हुए गौरी महतो के पास गया। महतो के चार पुर चलते हैं। कुआँ भी उन्हीं का है। दस बीघे का ऊख है। महतो को देखके मुझे हँसी आ गईए जैसे कोई घसियारा हो। हाँए भाग का बली है। बाप—बेटे में खूब कहा—सुनी हुई। गौरी महतो कहते थेए तुझसे क्या मतलबए मैं चाहे कुछ लूँ या न लूँए तू कौन होता है बोलने वालाघ् मथुरा कहता थाए तुमको लेना—देना हैए तो मेरा ब्याह मत करोए मैं अपना ब्याह जैसे चाहूँगाए कर लूँगा। बात बढ़़ गई और गौरी महतो ने पनहियाँ उतार कर मथुरा को खूब पीटा। कोई दूसरा लड़का इतनी मार खा कर बिगड़ खड़ा होता। मथुरा एक घूँसा भी जमा देताए तो महतो फिर न उठतेए मगर बेचारा पचासों जूते खा कर भी कुछ न बोला। आँखों में आँसू भरेए मेरी ओर गरीबों की तरह ताकता हुआ चला गया। तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे। सैकड़ों गालियाँ दींए मगर मैं क्यों सुनने लगी थीघ् मुझे उनका क्या डर थाघ् मैंने सफा कह दिया — महतोए दो—तीन सौ कोई भारी रकम नहीं हैए और होरी महतो इतने में बिक न जाएँगेए न तुम्हीं धनवान हो जाओगेए वह सब धन नाच—तमासे में ही उड़ जायगा। हाँए ऐसी बहू न पाओगे।
सोना ने सजल नेत्रों से पूछा — महतो इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगेघ्
सिलिया ने यह बात छिपा रक्खी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में न डालना चाहती थीए पर यह प्रश्न सुन कर संयम न रख सकी। बोली — वही गोबर भैया वाली बात थी। महतो ने कहा — आदमी जूठा तभी खाता हैए जब मीठा हो। कलंक चाँदी से ही धुलता है। इस पर मथुरा बोला — काकाए कौन घर कलंक से बचा हुआ हैघ् हाँए किसी का खुल गयाए किसी का छिपा हुआ है। गौरी महतो भी पहले एक चमारिन से फँसे थे। उससे दो लड़के भी हैं। मथुरा के मुँह से इतना निकलना था कि डोकरे पर जैसे भूत सवार हो गया। जितना लालची हैए उतना ही क्रोधी भी है। बिना लिए न मानेगा।
दोनों घर चलीं। सोना के सिर पर चरसाए रस्सा और जुए का भारी बोझ थाए पर इस समय वह उसे फूल से भी हल्का लग रहा था। उसके अंतस्तल में जैसे आनंद और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो। मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने खड़ी थीए और वह जैसे उसे अपने हृदय में बैठा कर उसके चरण आँसुओं से पखार रही थी। जैसे आकाश की देवियाँ उसे गोद में उठाएए आकाश में छाई हुई लालिमा में लिए चली जा रही हों।
उसी रात को सोना को बड़े जोर का ज्वर चढ़़ आया।
तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई के हाथ एक पत्र भेजा —
श्स्वस्ती श्री सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम—राम बाँचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थीए उस पर हमने सांत मन से विचार कियाए समझ में आया कि लेन—देन से वर और कन्या दोनों ही के घरवाले जेरबार होते हैं। जब हमारा—तुम्हारा संबंध हो गयाए तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे! तुम दान—दहेज की कोई फिकर मत करनाए हम तुमको सौगंध देते हैं। जो कुछ मोटा—महीन जुरेए बरातियों को खिला देना। हम वह भी न माँगेंगे। रसद का इंतजाम हमने कर लिया है। हाँए तुम खुसी—खुर्रमी से हमारी जो खातिर करोगे। वह सिर झुका कर स्वीकार करेंगे।श्
होरी ने पत्र पढ़़ा और दौड़े हुए भीतर जा कर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता थाए मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली — यह गौरी महतो की भलमनसी हैए लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निबाह करना है। संसार क्या कहेगा! रूपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल—मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगाए देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। माँ—बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं हैघ् नहींए लिखना क्या हैए चलोए मैं नाई से संदेसा कहलाए देती हूँ।
होरी हतबुद्धि—सा आँगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया मेंए जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थीए संदेशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और बिदाई दे कर विदा किया।
वह चला गया तो होरी ने कहा — यह तूने क्या कर डाला धनियाघ् तेरा मिजाज आज तक मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती हैए पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लोए कुछ देने—दिलाने का काम नहीं है और जब भगवान ने गौरी के भीतर बैठ कर यह पत्र लिखवायाए तो तूने कुल—मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान ही जाने।
धनिया बोली — मुँह देख कर बीड़ा दिया जाता हैए जानते हो कि नहींघ् तब गौरी अपने सान दिखाते थेए अब वह भलमनसी दिखा रहे हैं। ईंट का जवाब चाहे पत्थर होए लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नहीं है।
होरी ने नाक सिकोड़ कर कहा — तो दिखा अपनी भलमनसी। देखेंए कहाँ से रुपए लाती है।
धनिया आँखें चमका कर बोली — रुपए लाना मेरा काम नहींए तुम्हारा काम है।
श्मैं तो दुलारी से ही लूँगा।श्
श्ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही हैए तो क्या तालाब और क्या गंगाघ्श्
होरी बाहर आ कर चिलम पीने लगा। कितने मजे से गला छूटा जाता थाए लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जब देखोए उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दसा देख कर भी इसकी आँखें नहीं खुलतीं
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भाग 24
भोला इधर दूसरी सगाई लाए थे। औरत के बगैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थीए उन्हें हुक्का—पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ—से हो गए थे। बहुओं को घर के काम—धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा—सत्कार करतीं। इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गई थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गईए जिसके पति का देहांत हुए केवल तीन महीने हुए थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाए। जब तक सगाई न हुईए उसका घर खोद डाला।
अभी तक उसके घर में जो कुछ थाए बहुओं का था। जो चाहती थींए करती थींए जैसे चाहती थींए रहती थीं। जंगी जब से अपनी स्त्री को ले कर लखनऊ चला गया थाए कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पाँच—छरू महीनों में ही उसने तीस—चालीस रुपए अपने हाथ में कर लिए थे। सेर—आधा सेर दूध—दही चोरी से बेच लेती थी। अब स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियंत्रण बहू को बुरा लगता था और आए दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहाँ तक कि औरतों के पीछे भोला और कामता में भी कहा—सुनी हो गई। झगड़ा इतना बढ़़ा कि अलग्योझे की नौबत आ गई और यह रीति सनातन से चली आई है कि अलग्योझे के समय मार—पीट अवश्य हो। यहाँ भी उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाव थाए वह पिता के नाते थाए मगर नई स्त्री ला कर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक न रहा था। कम—से—कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटक कर कई लातें जमाईं और घर से निकाल दिया। घर की चीजें न छूने दीं। गाँव वालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नई सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्होंने किसी तरह एक पेड़ के नीचे काटीए सुबह होते ही नोखेराम के पास जा पहुँचे और अपनी फरियाद सुनाई। भोला का गाँव उन्हीं के इलाके में था और इलाके—भर के मालिक—मुखिया जो कुछ थेए वही थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आतीए पर उनके साथ एक चटपटीए रंगीली स्त्री देखी तो चटपट आश्रय देने पर राजी हो गए। जहाँ उनकी गाएँ बँधती थीए वहीं एक कोठरी रहने को दे दी। अपने जानवरों की देखभालए सानी—भूसे के लिए उन्हें एकाएक एक जानकार आदमी की जरूरत महसूस होने लगी। भोला को तीन रूपया महीना और सेर—भर रोजाना अनाज पर नौकर रख लिया।
नोखेराम नाटेए मोटेए खल्वाटए लंबी नाक और छोटी—छोटी आँखों वाले साँवले आदमी थे। बड़ा—सा पग्गड़ बाँधतेए नीचा कुरता पहनते और जाड़ों में लिहाग ओढ़़ कर बाहर आते—जाते थे। उन्हें तेल की मालिश कराने में बड़ा आनंद आता थाए इसलिए उनके कपड़े हमेशा मैलेए चीकट रहते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था। सात भाई और उनके बाल—बच्चे सभी उन्हीं पर आश्रित थे। उस पर स्वयं उनका लड़का नवें दरजे में अंग्रेजी पढ़़ता था और उसका बबुआई ठाठ निभाना कोई आसान काम न था। रायसाहब से उन्हें केवल बारह रुपए वेतन मिलता थाए मगर खर्च सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इसलिए असामी किसी तरह उनके चंगुल में फँस जाएए तो बिना उसे अच्छी तरह चूसे न छोड़ते थे। पहले छरू रुपए वेतन मिलता थाए तब असामियों से इतनी नोच—खसोट न करते थेए जब से बारह रुपए हो गए थेए तब से उनकी तृष्णा और भी बढ़़ गई थीए इसलिए रायसाहब उनकी तरक्की न करते थे।
गाँव में और तो सभी किसी—न—किसी रूप में उनका दबाव मानते थेए यहाँ तक कि दातादीन और झिंगुरीसिंह भी उनकी खुशामद करते थेए केवल पटेश्वरी उनसे ताल ठोकने को हमेशा तैयार रहते थे। नोखेराम को अगर यह जोम था कि हम ब्राह्मण हैं और कायस्थों को उँगली पर नचाते हैंए तो पटेश्वरी को भी घमंड था कि हम कायस्थ हैंए कलम के बादशाहए इस मैदान में कोई हमसे क्या बाजी ले जायगाघ् फिर वह जमींदार के नौकर नहींए सरकार के नौकर हैंए जिसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता। नोखेराम अगर एकादशी का व्रत रखते हैं और पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराते हैंए तो पटेश्वरी हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे और दस ब्राह्मणों को भोजन कराएँगे। जब से उनका जेठा लड़का सजावल हो गया थाए नोखेराम इस ताक में रहते थे कि उनका लड़का किसी तरह दसवाँ पास कर लेए तो उसे भी कहीं नकलनवीसी दिला दें। इसलिए हुक्काम के पास फसली सौगातें ले कर बराबर सलामी करते रहते थे। एक और बात में पटेश्वरी उनसे बढ़़े हुए थे। लोगों का खयाल था कि वह अपनी विधवा कहारिन को रखे हुए हैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में यह कसर पूरी करने का अवसर मिलता हुआ जान पड़ा।
भोला को ढ़ाढ़़स देते हुए बोले — तुम यहाँ आराम से रहो भोलाए किसी बात का खटका नहीं। जिस चीज की जरूरत होए हमसे आ कर कहो। तुम्हारी घरवाली हैए उसके लिए भी कोई न कोई काम निकल आएगा। बखारों में अनाज रखनाए निकालनाए पछोरनाए फटकना क्या थोड़ा काम हैघ्
भोला ने अरज की — सरकारए एक बार कामता को बुला कर पूछ लोए क्या बाप के साथ बेटे का यही सलूक होना चाहिएघ् घर हमने बनवायाए गाएँ—भैंसें हमने लीं। अब उसने सब कुछ हथिया लिया और हमें निकाल बाहर किया। यह अन्याय नहीं तो क्या हैघ् हमारे मालिक तो तुम्हीं हो। तुम्हारे दरबार में इसका फैसला होना चाहिए।
नोखेराम ने समझाया — भोलाए तुम उससे लड़ कर पेश न पाओगेए उसने जैसा किया हैए उसकी सजा उसे भगवान देंगे। बेईमानी करके कोई आज तक फलीभूत हुआ हैघ् संसार में अन्याय न होताए तो इसे नरक क्यों कहा जाताघ् यहाँ न्याय और धर्म को कौन पूछता हैघ् भगवान सब देखते हैं। संसार का रत्ती—रत्ती हाल जानते हैं। तुम्हारे मन में इस समय क्या बात हैए यह उनसे क्या छिपा हैघ् इसी से तो अंतरजामी कहलाते हैं। उनसे बच कर कोई कहाँ जायगाघ् तुम चुप होके बैठो। भगवान की इच्छा हुई तो यहाँ तुम उससे बुरे न रहोगे।
यहाँ से उठ कर भोला ने होरी के पास जा कर अपना दुखड़ा रोया। होरी ने अपने बीती सुनाई — लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई। मर—मर कर पालोए जवान होंए तो दुसमन हो जायँ। मेरे ही गोबर को देखो। माँ से लड़ कर गयाए और सालों हो गए। न चिट्ठीए न पत्तर। उसके लेखे तो माँ—बाप मर गए। बिटीया का विवाह सिर पर हैए लेकिन उससे कोई मतलब नहीं। खेत रेहन रख कर दो सौ रुपए लिए हैं। इज्जत—आबरू का निबाह तो करना ही होगा।
कामता ने बाप को निकाल बाहर तो कियाए लेकिन अब उसे मालूम होने लगा कि बुड्ढा कितना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठ कर सानी—पानी करनाए दूध दुहनाए फिर दूध ले कर बाजार जानाए वहाँ से आ कर फिर सानी—पानी करनाए फिर दूध दुहनाए एक पखवारे में उसका हुलिया बिगड़ गया। स्त्री—पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री ने कहा — मैं जान देने के लिए तुम्हारे घर नहीं आई हूँ। मेरी रोटी तुम्हें भारी होए तो मैं अपने घर चली जाऊँ। कामता डराए यह कहीं चली जाएए तो रोटी का ठिकाना भी न रहेए अपने हाथ से ठोकना पड़े। आखिर एक नौकर रखाए लेकिन उससे काम न चला। नौकर खली—भूसा चुरा—चुरा कर बेचने लगा। उसे अलग किया। फिर स्त्री—पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री रूठ कर मैके चली गई। कामता के हाथ—पाँव फूल गए। हार कर भोला के पास आया और चिरौरी करने लगा — दादाए मुझसे जो कुछ भूल—चूक हुई होए क्षमा करो। अब चल कर घर सँभालोए जैसे तुम रखोगेए वैसे ही रहूँगा।
भोला को यहाँ मजूरों की तरह रहना अखर रहा था। पहले महीने—दो—महीने उसकी जो खातिर हुईए वह अब न थी। नोखेराम कभी—कभी उससे चिलम भरने या चारपाई बिछाने को भी कहते थे। तब बेचारा भोला जहर का घूँट पी कर रह जाता था। अपने घर में लड़ाई—दंगा भी होए तो किसी की टहल तो न करनी पड़ेगी।
उसकी स्त्री नोहरी ने यह प्रस्ताव सुना तोए ऐंठ कर बोली — जहाँ से लात खा कर आएए वहाँ फिर जाओगेघ् तुम्हें लाज नहीं आती।
भोला ने कहा — तो यहीं कौन सिंहासन पर बैठा हुआ हूँघ्
नोहरी ने मटक कर कहा — तुम्हें जाना हो तो जाओए मैं नहीं जाती।
भोला जानता थाए नोहरी विरोध करेगी। इसका कारण भी वह कुछ—कुछ समझता थाए कुछ देखता भी थाए उसके यहाँ से भागने का एक कारण यह भी था। यहाँ उसकी कोई बात न पूछता थाए पर नोहरी की बड़ी खातिर होती थी। प्यादे और शहने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुन कर भोला को क्रोध आयाए लेकिन करता क्याघ् नोहरी को छोड़ कर चले जाने का साहस उसमें होताए तो नोहरी भी झख मार कर उसके पीछे—पीछे चली जाती। अकेले उसे यहाँ अपने आश्रय में रखने की हिम्मत नोखेराम में न थी। वह टट्टी की आड़ से शिकार खेलने वाले जीव थेए मगर नोहरी भोला के स्वभाव से परिचित हो चुकी थी।
भोला मिंनत करके बोला — देख नोहरीए दिक मत कर। अब तो वहाँ बहुएँ भी नहीं हैं। तेरे ही हाथ में सब कुछ रहेगा। यहाँ मजूरी करने से बिरादरी में कितनी बदनामी हो रही हैए यह सोच!
नोहरी ने ठेंगा दिखा कर कहा — तुम्हें जाना है जाओए मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ। तुम्हें बेटे की लातें प्यारी लगती होंगीए मुझे नहीं लगतीं। मैं अपनी मजदूरी में मगन हूँ।
भोला को रहना पड़ा और कामता अपनी स्त्री की खुशामद करके उसे मना लाया। इधर नोहरी के विषय में कनबतियाँ होती रहीं — नोहरी ने आज गुलाबी साड़ी पहनी है। अब क्या पूछना हैए चाहे रोज एक साड़ी पहने। सैयाँ भए कोतवालए अब डर काहे का। भोला की आँखें फूट गईं हैं क्याघ्
सोभा बड़ा हँसोड़ था। सारे गाँव का विदूषकए बल्कि नारद। हर एक बात की टोह लगाता रहता था। एक दिन नोहरी उसे घर में मिल गई। कुछ हँसी कर बैठा। नोहरी ने नोखेराम से जड़ दिया। सोभा की चौपाल में तलबी हुई और ऐसी डाँट पड़ी कि उम्र—भर न भूलेगा।
एक दिन लाला पटेश्वरीप्रसाद की शामत आ गई। गर्मियों के दिन थे। लाला बगीचे में आम तुड़वा रहे थे। नोहरी बनी—ठनी उधर से निकली। लाला ने पुकारा — नोहरी रानीए इधर आओए थोड़े से आम लेती जाओए बड़े मीठे हैं।
नोहरी को भ्रम हुआए लाला मेरा उपहास कर रहे हैं। उसे अब घमंड होने लगा था। वह चाहती थीए लोग उसे जमींदारिन समझें और उसका सम्मान करें। घमंडी आदमी प्रायरू शक्की हुआ करता है। और जब मन में चोर होए तो शक्कीपन और भी बढ़़ जाता है। वह मेरी ओर देख कर क्यों हँसाघ् सब लोग मुझे देख कर जलते क्यों हैंघ् मैं किसी से कुछ माँगने नहीं जाती। कौन बड़ी सतवंती है। जरा मेरे सामने आएए तो देखूँ। इतने दिनों में नोहरी गाँव के गुप्त रहस्यों से परिचित हो चुकी थी। यही लाला कहारिन को रखे हुए हैं और मुझे हँसते हैं। इन्हें कोई कुछ नहीं कहता। बड़े आदमी हैं न! नोहरी गरीब हैए जात की हेठी हैए इसलिए सभी उसका उपहास करते हैं। और जैसा बाप हैए वैसा ही बेटा। इन्हीं का रमेसरी तो सिलिया के पीछे पागल बना फिरता है। चमारियों पर तो गिद्ध की तरह टूटते हैंए उस पर दावा है कि हम ऊँचे हैं।
उसने वहीं खड़े हो कर कहा — तुम दानी कब से हो गए लाला! पाओ तो दूसरों की थाली की रोटी उड़ा जाओ। आज बड़े आमवाले हुए हैं। मुझसे छेड़ की तो अच्छा न होगाए कहे देती हूँ।
ओ हो! इस अहीरिन का इतना मिजाज। नोखेराम को क्या फाँस लियाए समझती हैए सारी दुनिया पर उसका राज है। बोले — तू तो ऐसी तिनक रही है नोहरीए जैसे अब किसी को गाँव में रहने न देगी। जरा जबान सँभाल कर बातें किया करए इतनी जल्द अपने को न भूल जा।
श्तो क्या तुम्हारे द्वार कभी भीख माँगने आई थीघ्श्
श्नोखेराम ने छाँह न दी होतीए तो भीख भी माँगती।श्
नोहरी को लाल मिर्च—सा लगा। जो कुछ मुँह में आयाए बका — दाढ़़ीजारए लंपटए मुँह—झौंसा और जाने क्या—क्या कहा और उसी क्रोध में भरी हुई कोठरी में गई और अपने बरतन—भाँड़े निकाल—निकाल कर बाहर रखने लगी।
नोखेराम ने सुना तो घबराए हुए आए और पूछा — यह क्या कर रही है नोहरीए कपड़े—लत्ते क्यों निकाल रही हैघ् किसी ने कुछ कहा है क्याघ्
नोहरी मदोर्ं को नचाने की कला जानती थी। अपने जीवन में उसने यही विद्या सीखी थी। नोखेराम पढ़़े—लिखे आदमी थे। कानून भी जानते थे। धर्म की पुस्तकें भी बहुत पढ़़ी थीं। बड़े—बड़े वकीलोंए बैरिस्टरों की जूतियाँ सीधी की थींए पर इस मूर्ख नोहरी के हाथ का खिलौना बने हुए थे। भौंहें सिकोड़ कर बोली — समय का फेर हैए यहाँ आ गईए लेकिन अपनी आबरू न गवाँऊँगी।
ब्राह्मण सतेज हो उठा। मूँछें खड़ी करके बोला — तेरी ओर जो ताकेए उसकी आँखें निकाल लूँ।
नोहरी ने लोहे को लाल करके घन जमाया — लाला पटेसरी जब देखो मुझसे बेबात की बात किया करते हैं। मैं हरजाई थोड़े ही हूँ कि कोई मुझे पैसे दिखाए। गाँव—भर में सभी औरतें तो हैंए कोई उनसे नहीं बोलता। जिसे देखोए मुझी को छेड़ता है।
नोखेराम के सिर पर भूत सवार हो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आँधी की तरह हरहराते हुए बाग में पहुँच कर लगे ललकारने — आ जा बड़ा मर्द है तो। मूँछें उखाड़ लूँगाए खोद कर गाड़ दूँगा! निकल आ सामने। अगर फिर कभी नोहरी को छेड़ा तो खून पी जाऊँगा। सारी पटवारगिरी निकाल दूँगा। जैसा खुद हैए वैसा ही दूसरों को समझता है। तू है किस घमंड मेंघ्
लाला पटेश्वरी सिर झुकाएए दम साधे जड़वत खड़े थे। जरा भी जबान खोली और शामत आ गई। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न हुआ था। एक बार लोगों ने उन्हें ताल के किनारे रात को घेर कर खूब पीटा थाए लेकिन गाँव में उसकी किसी को खबर न हुई थी। किसी के पास कोई प्रमाण न था। लेकिन आज तो सारे गाँव के सामने उनकी इज्जत उतर गई। कल जो औरत गाँव में आश्रय माँगती आई थीए आज सारे गाँव पर उसका आतंक था। अब किसकी हिम्मत हैए जो उसे छेड़ सकेघ् जब पटेश्वरी कुछ नहीं कर सकेए तो दूसरों की बिसात ही क्या!
अब नोहरी गाँव की रानी थी। उसे आते देख कर किसान लोग उसके रास्ते से हट जाते थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि उसकी थोड़ी—सी पूजा करके नोखेराम से बहुत काम निकल सकता है। किसी को बँटवारा कराना होए लगान के लिए मुहलत माँगनी होए मकान बनाने के लिए जमीन की जरूरत होए नोहरी की पूजा किए बगैर उसका काम सिद्ध नहीं हो सकता। कभी—कभी वह अच्छे—अच्छे असामियों को डाँट देती थी। असामी ही नहीं अब कारकुन साहब पर भी रोब जमाने लगी थी।
भोला उसका आश्रित बन कर न रहना चाहता था। औरत की कमाई खाने से ज्यादा अधम उसकी —ष्टि में दूसरा न था। उसे कुल तीन रुपए माहवार मिलते थेए वह भी उसके हाथ न लगते। नोहरी ऊपर ही ऊपर उड़ा लेती। उसे तमाखू पीने को धेला मयस्सर नहींए और नोहरी दो आने रोज के पान खा जाती थी। जिसे देखोए वही उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे चिलम भरवातेए लकड़ी कटवातेए बेचारा दिन—भर का हारा—थका आता और द्वार पर पेड़ के नीचे झिंलगे खाट पर पड़ा रहता। कोई एक लुटीया पानी देने वाला भी नहीं। दोपहर की बासी रोटीयाँ रात को खानी पड़तीं और वह भी नमक या पानी के साथ।
आखिर हार कर उसने घर जा कर कामता के साथ रहने का निश्चय किया। कुछ न होगाए एक टुकड़ा रोटी तो मिल ही जायगीए अपना घर तो है।
नोहरी बोली — मैं वहाँ किसी की गुलामी करने नहीं जाऊँगी।
भोला ने जी कड़ा करके कहा — तुम्हें जाने को तो मैं नहीं कहता। मैं तो अपने को कहता हूँ।
श्तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगेघ् कहते लाज नहीं आतीघ्श्
श्लाज तो घोल कर पी गया।श्
श्लेकिन मैंने तो अपनी लाज नहीं पी। तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते।श्
श्तू अपने मन की हैए तो मैं तेरी गुलामी क्यों करूँघ्श्
श्पंचायत करके मुँह में कालिख लगा दूँगीए इतना समझ लेना।श्
श्क्या अभी कुछ कम कालिख लगी हैघ् क्या अब भी मुझे धोखे में रखना चाहती हैघ्श्
श्तुम तो ऐसा ताव दिखा रहे होए जैसे मुझे रोज गहने ही तो गढ़़वाते हो। तो यहाँ नोहरी किसी का ताव सहने वाली नहीं है।श्
भोला झल्ला कर उठे और सिरहाने से लकड़ी उठा कर चले कि नोहरी ने लपक कर उनका पहुँचा पकड़ लिया। उसके बलिष्ठ पंजों से निकलना भोला के लिए मुश्किल था। चुपके से कैदी की तरह बैठ गए। एक जमाना थाए जब वह औरतों को अँगुलियों पर नचाया करते थेए आज वह एक औरत के करपाश में बँधे हुए हैं और किसी तरह निकल नहीं सकते। हाथ छुड़ाने की कोशिश करके वह परदा नहीं खोलना चाहते। अपने सीमा का अनुमान उन्हें हो गया है। मगर वह क्यों उससे निडर हो कर नहीं कह देते कि तू मेरे काम की नहीं हैए मैं तुझे त्यागता हूँ। पंचायत की धमकी देती है! पंचायत क्या कोई हौवा हैए अगर तुझे पंचायत का डर नहींए तो मैं क्यों पंचायत से डरूँघ्
लेकिन यह भाव शब्दों में आने का साहस न कर सकता था। नोहरी ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल दिया हो।
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भाग 25
लाला पटेश्वरी पटवारी—समुदाय के सद्गुणों के साक्षात अवतार थे। वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अपने दूसरे भाई की इंच भर भी जमीन दबा ले। न वह यही देख सकते थे कि असामी किसी महाजन के रुपए दबा ले। गाँव के समस्त प्राणियों के हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म था। समझौते या मेल—जोल में उनका विश्वास न थाए यह तो निर्जीविता के लक्षण हैं! वह तो संघर्ष के उपासक थेए जो जीवन का लक्षण है। आए दिन इस जीवन को उत्तेजना देने का प्रयास करते रहते थे। एक—न—एक गुलझड़ी छोड़ते रहते थे। मँगरू साह पर इन दिनों उनकी विशेष कृपा——ष्टि थी। मँगरू साह गाँव का सबसे धनी आदमी थाए पर स्थानीय राजनीति में बिलकुल भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका गाँव के बाहर थाए जहाँ उसने एक बागए एक कुआँ और एक छोटा—सा शिव—मंदिर बनवा लिया था। बाल—बच्चा कोई न थाए इसलिए लेन—देन भी कम कर दिया था और अधिकतर पूजा—पाठ में ही लगा रहता था। कितने ही असामियों ने उसके रुपए हजम कर लिए थेए पर उसने किसी पर न नालिश—फरियाद न की। होरी पर भी उसके सूद—ब्याज मिला कर कोई डेढ़़ सौ हो गए थेए मगर न होरी को ऋण चुकाने की कोई चिंता थी और न उसे वसूल करने की। दो—चार बार उसने तकाजा कियाए घुड़का—डाँटा भीए मगर होरी की दशा देख कर चुप हो बैठा। अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँव भर के ऊपर थी। कुछ नहीं तो उसके दो—ढ़ाई सौ सीधे हो जाएँगेए ऐसा लोगों का अनुमान था। पटेश्वरीप्रसाद ने मँगरू को सुझाया कि अगर इस वक्त होरी पर दावा कर दिया जायए तो सब रुपए वसूल हो जायँ। मँगरू इतना दयालु नहींए जितना आलसी था। झंझट में पड़ना न चाहता थाए मगर जब पटेश्वरी ने जिम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगाए न कोई दूसरा कष्ट होगाए बैठे—बिठाए उसकी डिगरी हो जायगीए तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दीए और अदालत—खर्च के लिए रुपए भी दे दिए।
होरी को खबर न थी कि क्या खिचड़ी पक रही है। कब दावा दायर हुआए कब डिगरी हुईए उसे बिलकुल पता न चला। कुर्कअमीन उसकी ऊख नीलाम करने आयाए तब उसे मालूम हुआ। सारा गाँव खेत के किनारे जमा हो गया। होरी मँगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियाँ देने लगी। उसकी सहज बुद्धि ने बता दिया कि पटेश्वरी ही की कारस्तानी हैए मगर मँगरू साह पूजा पर थेए मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी। उधर ऊख डेढ़़ सौ रुपए में नीलाम हो गई और बोली भी हो गई मँगरू साह ही के नाम। कोई दूसरा आदमी न बोल सका। दातादीन में भी धनिया की गालियाँ सुनने का साहस न था।
धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा — बैठे क्या होए जा कर पटवारी से पूछते क्यों नहींए यही धरम है तुम्हारा गाँव—घर के आदमियों के साथघ्
होरी ने दीनता से कहा — पूछने के लिए तूने मुँह भी रखा हो। तेरी गालियाँ क्या उन्होंने न सुनी होंगीघ्
श्जो गाली खाने का काम करेगाए उसे गालियाँ मिलेंगी ही।श्
श्तू गालियाँ भी देगी और भाई—चारा भी निभाएगी।श्
श्देखूँगीए मेरे खेत के नगीच कौन जाता हैघ्श्
श्मिल वाले आ कर काट ले जाएँगेए तू क्या करेगीए और मैं क्या करूँगाघ् गालियाँ दे कर अपने जीभ की खुजली चाहे मिटा ले।श्
श्मेरे जीते—जी कोई मेरा खेत काट ले जायगाघ्श्
श्हाँए तेरे और मेरे जीते—जी। सारा गाँव मिल कर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज मेरी नहींए मँगरू साह की है।श्
श्मँगरू साह ने मर—मर कर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थीघ्श्
श्वह सब तूने कियाए मगर अब वह चीजए मँगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैंघ्श्
ऊख तो गईए लेकिन उसके साथ ही एक नई समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने को तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए देघ् अभी उसके पहले ही के दो सौ रुपए पड़े हुए थे। सोचा थाए ऊख से पुराने रुपए मिल जाएँगेए तो नया हिसाब चलने लगेगा। उसकी नजर में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियाँ कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असंभव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जा कर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी—बिनती हो सकती थीए वह कर चुकाए मगर वह पत्थर की देवी जरा भी न पसीजी। उसने चलते—चलते हाथ बाँध कर कहा — दुलारीए मैं तुम्हारे रुपए ले कर भाग न जाऊँगा। न इतनी जल्द मरा ही जाता हूँ। खेत हैंए पेड़—पालो हैंए घर हैए जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जाएँगेए मेरी इज्जत जा रही हैए इसे सँभालो। मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया। अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकतीए तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।
होरी ने घर आ कर धनिया से कहा — अबघ्
धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला — यही तो तुम चाहते थे!
होरी ने जख्मी आँखों से देखा — मेरा ही दोस हैघ्
श्किसी का दोस होए हुई तुम्हारे मन की।श्
श्तेरी इच्छा है कि जमीन रेहन रख दूँघ्श्
श्जमीन रेहन रख दोगेए तो करोगे क्याघ्श्
श्मजूरीश्घ्
मगर जमीन दोनों को एक—सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आबरू अवलंबित थी। जिसके पास जमीन नहींए वह गृहस्थ नहींए मजूर है।
होरी ने कुछ जवाब न पा कर पूछा — तो क्या कहती हैघ्
धनिया ने आहत कंठ से कहा — कहना क्या है। गौरी बारात ले कर आयँगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी विदा कर देना। दुनिया हँसेगीए हँस ले। भगवान की यही इच्छा हैए कि हमारी नाक कटेए मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे!
सहसा नोहरी चुँदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने जरा—सा घूँघट—सा निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी।
धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा — आज किधर चलीं समधिनघ् आओए बैठो।
नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आ कर खड़ी हो गई।
धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देख कर कहा — आज इधर कैसे भूल पड़ींघ्
नोहरी ने कातर स्वर में कहा — ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आई। बिटीया का ब्याह कब तक हैघ्
धनिया संदिग्ध भाव से बोली — भगवान के अधीन हैए जब हो जाए।
श्मैंने तो सुनाए इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गई हैघ्श्
श्हाँए तिथि तो ठीक हो गई है।श्
श्मुझे भी नेवता देना।श्
श्तुम्हारी तो लड़की हैए नेवता कैसाघ्श्
श्दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगाघ् जरा मैं भी देखूँ।श्
धनिया असमंजस में पड़ीए क्या कहे। होरी ने उसे सँभाला — अभी तो कोई सामान नहीं मँगवाया हैए और सामान क्या करना हैए कुस—कन्या तो देना है।
नोहरी ने अविश्वास—भरी आँखों से देखा — कुस—कन्या क्यों दोगे महतोए पहली बेटी हैए दिल खोल कर करो।
होरी हँसाए मानो कह रहा होए तुम्हें चारों ओर हरा दिखाई देता होगाए यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है।
श्रुपए—पैसे की तंगी हैए क्या दिल खोल कर करूँ। तुमसे कौन परदा हैघ्श्
श्बेटा कमाता हैए तुम कमाते होए फिर भी रुपए—पैसे की तंगी किसे बिस्वास आएगाघ्श्
श्बेटा ही लायक होताए तो फिर काहे का रोना था। चिट्ठी—पत्तर तक भेजता नहींए रुपए क्या भेजेगाघ् यह दूसरा साल हैए एक चिट्ठी नहीं।श्
इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठर सिर पर लिएए यौवन को अपने अंचल से चुरातीए बालिका—सी सरलए आई और गट्ठा वहीं पटक कर अंदर चली गई।
नोहरी ने कहा — लड़की तो खूब सयानी हो गई है।
धनिया बोली — लड़की की बाढ़़ रेंड़ की बाढ़़ है। है अभी कै दिन की!
श्बर तो ठीक हो गया है नघ्श्
श्हाँए बर तो ठीक है। रुपए का बंदोबस्त हो गयाए तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे।श्
नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े—से रुपए जोड़े थेए वे उसके पेट में उछल रहे थे। अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपए दे देए तो कितना यश मिलेगा। सारे गाँव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित हो कर कहेंगेए नोहरी ने इतने रुपए दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर—घर उसका बखान करते फिरेंगे। गाँव में उसका मान—सम्मान कितना बढ़़ जायगा। वह ऊँगली दिखाने वालों का मुँह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत हैए जो उस पर हँसेए या उस पर आवाजें कसेघ् अभी सारा गाँव उसका दुश्मन है। तब सारा गाँव उसका हितैषी हो जायगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गई।
श्थोड़े—बहुत से काम चलता होए तो मुझसे ले लोए जब हाथ में रुपए आ जायँ तो दे देना।श्
होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहींए नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आँखों में विस्मय थाए कृतज्ञता थीए संदेह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं हैए जितना लोग समझते हैं।
नोहरी ने फिर कहा — तुम्हारी और हमारी इज्जत एक है। तुम्हारी हँसी हो तो क्या मेरी हँसी न होगीघ् कैसे भी हुआ होए पर अब तो तुम हमारे समधी हो।
होरी ने सकुचाते हुए कहा — तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैंए जब काम पड़ेगाए ले लेंगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता हैए मगर ऊपर से इंतजाम हो जायए तो घर के रुपए क्यों छुए।
धनिया ने अनुमोदन किया — हाँए और क्या!
नोहरी ने अपनापन जताया — जब घर में रुपए हैंए तो बाहर वालों के सामने हाथ क्यों फैलाओघ् सूद भी देना पड़ेगाए उस पर इस्टाम लिखोए गवाही कराओए दस्तूरी दोए खुसामद करो। हाँए मेरे रुपए में छूत लगी होए तो दूसरी बात है।
होरी ने सँभाला — नहींए नहीं नोहरीए जब घर में काम चल जायगा तो बाहर क्यों हाथ फैलाएँगेए लेकिन आपस वाली बात है। खेती—बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सकेए तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहींए लड़की तो तुम्हारी है।
श्मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है।श्
श्तो तुम्हीं से ले लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाएघ्श्
श्कितने रुपए चाहिएघ्श्
श्तुम कितने दे सकोगीघ्श्
श्सौ में काम चल जायगाघ्श्
होरी को लालच आया। भगवान ने छप्पर फाड़ कर रुपए दिए हैंए तो जितना ले सकेए उतना क्यों न ले।
श्सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा। जैसा हौसला हो।श्
श्मेरे पास कुल दो सौ रुपए हैंए वह मैं दे दूँगी।श्
श्तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में हैए मगर ठकुराइनए आज तुमसे कहता हूँए मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस जमाने में कौन किसकी मदद करता हैए और किसके पास है। तुमने मुझे डूबने से बचा लिया।श्
दिया—बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। जमीन ने नीली चादर ओढ़़ ली थी। धनिया अंदर जा कर अंगीठी लाई। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीलीए रंगीलीए कुलटा नोहरी उनके सामने वरदान—सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थीए कपोलों पर कितनी लज्जाए होंठों पर कितनी सत्प्रेरणा!
कुछ देर तक इधर—उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली — अब देर हो रही है। कल तुम आ कर रुपए ले लेना महतो!
श्चलोए मैं तुम्हें पहुँचा दूँ।श्
श्नहीं—नहींए तुम बैठोए मैं चली जाऊँगी।श्
श्जी तो चाहता हैए तुम्हें कंधों पर बैठा कर पहुँचाऊँ।श्
नोखेराम की चौपाल गाँव के दूसरे सिरे पर थीए और बाहर—बाहर जाने का रास्ता साफ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था।
नोहरी ने कहा — तनिक समझा देते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं। जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना हैए तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जायँ। और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाईए सबसे झगड़ा। जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकतेए मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती हैए तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हँसूँए न बोलूँए न कोई मेरी ओर ताकेए न हँसे। यह सब तो परदे में ही हो सकता है। पूछोए कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है तो मैं क्या करूँघ् उसकी आँखें तो नहीं फोड़ सकती। फिर मेल—मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं। जैसा समय देखोए वैसा व्यवहार करो। तुम्हारे घर हाथी झूमता थाए तो अब वह तुम्हारे किस काम काघ् अब तो तुम तीन रुपए के मजूर हो। मेरे घर सौ भैंसें लगती थींए लेकिन अब तो मजूरिन हूँए मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं। कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैंए कभी लखनऊ जा कर रहने की सोचते हैं। नाक में दम कर रखा है मेरे।
होरी ने ठकुरसुहाती की — यह भोला की सरासर नादानी है। बूढ़़े हुएए अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए। मैं समझा दूँगा।
श्तो सबेरे आ जानाए रुपए दे दूँगी।श्
श्कुछ लिखा—पढ़़ी.......।श्
श्तुम मेरे रुपए हजम न करोगेए मैं जानती हूँ।श्
उसका घर आ गया था। वह अंदर चली गई। होरी घर लौटा।
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भाग 26
गोबर को शहर आने पर मालूम हुआ कि जिस अड्डे पर वह अपना खोंचा ले कर बैठता थाए वहाँ एक दूसरा खोंचे वाला बैठने लगा है और गाहक अब गोबर को भूल गए हैं। वह घर भी अब उसे पिंजरे—सा लगता था। झुनिया उसमें अकेली बैठी रोया करती। लड़का दिन—भर आँगन में या द्वार पर खेलने का आदी था। यहाँ उसके खेलने को कोई जगह न थी। कहाँ जायघ् द्वार पर मुश्किल से एक गज का रास्ता था। दुगर्ंध उड़ा करती थी। गरमी में कहीं बाहर लेटने—बैठने को जगह नहीं। लड़का माँ को एक क्षण के लिए न छोड़ता था। और जब कुछ खेलने को न होए तो कुछ खाने और दूध पीने के सिवा वह और क्या करेघ् घर पर भी कभी धनिया खेलातीए कभी रूपाए कभी सोनाए कभी होरीए कभी पुनिया। यहाँ अकेली झुनिया थी और उसे घर का सारा काम करना पड़ता था।
और गोबर जवानी के नशे में मस्त था। उसकी अतृप्त लालसाएँ विषय—भोग के सफर में डूब जाना चाहती थीं। किसी काम में उसका मन न लगता। खोंचा ले कर जाताए तो घंटे—भर ही में लौट आता। मनोरंजन का कोई दूसरा सामान न था। पड़ोस के मजूर और इक्केवान रात—रात भर ताश और जुआ खेलते थे। पहले वह भी खूब खेलता थाए मगर अब उसके लिए केवल मनोरंजन थाए झुनिया के साथ हास—विलास। थोड़े ही दिनों में झुनिया इस जीवन से ऊब गई। वह चाहती थीए कहीं एकांत में जा कर बैठेए खूब निश्चिंत हो कर लेटे—सोएए मगर वह एकांत कहीं न मिलता। उसे अब गोबर पर गुस्सा आता। उसने शहर के जीवन का कितना मोहक चित्र खींचा थाए और यहाँ इस काल—कोठरी के सिवा और कुछ नहीं। बालक से भी उसे चिढ़़ होती थी। कभी—कभी वह उसे मार कर निकाल देती और अंदर से किवाड़ बंद कर लेती। बालक रोते—रोते बेदम हो जाता।
उस पर विपत्ति यह कि उसे दूसरा बच्चा पैदा होने वाला था। कोई आगे न पीछे। अक्सर सिर में दर्द हुआ करता। खाने से अरुचि हो गई थी। ऐसी तंद्रा होती थी कि कोने में चुपचाप पड़ी रहे। कोई उससे न बोले—चालेए मगर यहाँ गोबर का निष्ठुर प्रेम स्वागत के लिए द्वार खटखटाता रहता था। स्तन में दूध नाम को नहींए लेकिन लल्लू छाती पर सवार रहता था। देह के साथ उसका मन भी दुर्बल हो गया। वह जो संकल्प करतीए उसे थोड़े—से आग्रह पर तोड़ देती। वह लेटी रहती और लल्लू आ कर जबरदस्ती उसकी छाती पर बैठ जाता और स्तन मुँह में ले कर चबाने लगता। वह अब दो साल का हो गया था। बड़े तेज दाँत निकल आए थे। मुँह में दूध न जाताए तो वह क्रोध में आ कर स्तन में दाँत काट लेताए लेकिन झुनिया में अब इतनी शक्ति भी न थी कि उसे छाती पर से ढ़केल दे। उसे हरदम मौत सामने खड़ी नजर आती। पति और पुत्र किसी से भी उसे स्नेह न था। सभी अपने मतलब के यार हैं। बरसात के दिनों में जब लल्लू को दस्त आने लगे तो उसने दूध पीना छोड़ दियाए तो झुनिया को सिर से एक विपत्ति टल जाने का अनुभव हुआए लेकिन जब एक सप्ताह के बाद बालक मर गयाए तो उसकी स्मृति पुत्र—स्नेह से सजीव हो कर उसे रुलाने लगी।
और जब गोबर बालक के मरने के एक ही सप्ताह बाद फिर आग्रह करने लगाए तो उसने क्रोध में जल कर कहा — तुम कितने पशु हो!
झुनिया को अब लल्लू की स्मृति लल्लू से भी कहीं प्रिय थी। लल्लू जब तक सामने थाए वह उससे जितना सुख पाती थीए उससे कहीं ज्यादा कष्ट पाती थी। अब लल्लू उसके मन में आ बैठा थाए शांतए स्थिरए सुशीलए सुहास। उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनंद थाए जिसमें प्रत्यक्ष की काली छाया न थी। बाहर वाला लल्लू उसके भीतर वाले लल्लू का प्रतिबिंब मात्र था। प्रतिबिंब सामने न थाए जो असत्य थाए अस्थिर था। सत्य रूप तो उसके भीतर थाए उसकी आशाओं और शुभेच्छाओं से सजीव। दूध की जगह वह उसे अपना रक्त पिला—पिला कर पाल रही थी। उसे अब वह बंद कोठरीए और वह दुगर्ंधमयी वायु और वह दोनों जून धुएँ में जलनाए इन बातों का मानो ज्ञान ही न रहा। वह स्मृति उसके भीतर बैठी हुई जैसे उसे शक्ति प्रदान करती रहती। जीते—जी जो उसके जीवन का भार थाए मर कर उसके प्राणों में समा गया था। उसकी सारी ममता अंदर जा कर बाहर से उदासीन हो गई। गोबर देर में आता है या जल्दए रूचि से भोजन करता है या नहींए प्रसन्न है या उदासए इसकी अब उसे बिलकुल चिंता न थी। गोबर क्या कमाता है और कैसे खर्च करता हैए इसकी भी उसे परवा न थी। उसका जीवन जो कुछ थाए भीतर थाए बाहर वह केवल निर्जीव थी।
उसके शोक में भाग ले करए उसके अंतर्जीवन में पैठ करए गोबर उसके समीप जा सकता थाए उसके जीवन का अंग बन सकता थाए पर वह उसके बाह्य जीवन के सूखे तट पर आ कर ही प्यासा लौट जाता था।
एक दिन उसने रूखे स्वर में कहा — तो लल्लू के नाम को कब तक रोए जायगी! चार—पाँच महीने तो हो गए।
झुनिया ने ठंडी साँस ले कर कहा — तुम मेरा दुरूख नहीं समझ सकते। अपना काम देखो। मैं जैसी हूँए वैसी पड़ी रहने दो।
श्तेरे रोते रहने से लल्लू लौट आएगाघ्श्
झुनिया के पास कोई जवाब न था। वह उठ कर पतीली में कचालू के लिए आलू उबालने लगी। गोबर को ऐसा पाषाण—हृदय उसने न समझा था।
इस बेदर्दी ने उसके लल्लू को उसके मन में और भी सजग कर दिया। लल्लू उसी का हैए उसमें किसी का साझा नहींए किसी का हिस्सा नहीं। अभी तक लल्लू किसी अंश में उसके हृदय के बाहर भी थाए गोबर के हृदय में भी उसकी कुछ ज्योति थी। अब वह संपूर्ण रूप से उसका था।
गोबर ने खोंचे से निराश हो कर शक्कर के मिल में नौकरी कर ली थी। मिस्टर खन्ना ने पहले मिल से प्रोत्साहित हो कर हाल में यह दूसरा मिल खोल दिया था। गोबर को वहाँ बड़े सबेरे जाना पड़ताए और दिन—भर के बाद जब वह दिया—जले घर लौटताए तो उसकी देह में जरा भी जान न रहती थी। घर पर भी उसे इससे कम मेहनत न करनी पड़ती थीए लेकिन वहाँ उसे जरा भी थकन न होती थी। बीच—बीच में वह हँस—बोल भी लेता था। फिर उस खुले मैदान मेंए उन्मुक्त आकाश के नीचेए जैसे उसकी क्षति पूरी हो जाती थी। वहाँ उसकी देह चाहे जितना काम करेए मन स्वच्छंद रहता था। यहाँ देह की उतनी मेहनत न होने पर भी जैसे उस कोलाहलए उस गति और तूफानी शोर का उस पर बोझ—सा लदा रहता था। यह शंका भी बनी रहती थी कि न जाने कब डाँट पड़ जाए। सभी श्रमिकों की यही दशा थी। सभी ताड़ी या शराब में अपने दैहिक थकन और मानसिक अवसाद को डुबाया करते थे। गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा। घर आता तो नशे में चूरए और पहर रात गए। और आ कर कोई—न—कोई बहाना खोज कर झुनिया को गालियाँ देताए घर से निकालने लगता और कभी—कभी पीट भी देता।
झुनिया को अब यह शंका होने लगी कि वह रखेली हैए इसी से उसका यह अपमान हो रहा है। ब्याहता होतीए तो गोबर की मजाल थी कि उसके साथ यह बर्ताव करता। बिरादरी उसे दंड देतीए हुक्का—पानी बंद कर देती। उसने कितनी बड़ी भूल की कि इस कपटी के साथ घर से निकल भागी। सारी दुनिया में हँसी भी हुई और हाथ कुछ न आया। वह गोबर को अपना दुश्मन समझने लगी। न उसके खाने—पीने की परवा करतीए न अपने खाने—पीने की। जब गोबर उसे मारताए तो उसे ऐसा क्रोध आता कि गोबर का गला छुरे से रेत डाले। गर्भ ज्यों—ज्यों पूरा होता जाता हैए उसकी चिंता बढ़़ती जाती है। इस घर में तो उसकी मरन हो जायगी। कौन उसकी देखभाल करेगाए कौन उसे सँभालेगाघ् और जो गोबर इसी तरह मारता—पीटता रहाए तब तो उसका जीवन नरक ही हो जायगा।
एक दिन वह बंबे पर पानी भरने गईए तो पड़ोस की एक स्त्री ने पूछा — कै महीने है रेघ्
झुनिया ने लजा कर कहा — क्या जाने दीदीए मैंने तो गिना—गिनाया नहीं है।
दोहरी देह कीए काली—कलूटीए नाटीए कुरूपाए बड़े—बड़े स्तनों वाली स्त्री थी। उसका पति एक्का हाँकता था और वह खुद लकड़ी की दुकान करती थी। झुनिया कई बार उसकी दुकान से लकड़ी लाई थी। इतना ही परिचय था।
मुस्करा कर बोली — मुझे तो जान पड़ता हैए दिन पूरे हो गए हैं। आज ही कल में होगा। कोई दाई—वाई ठीक कर ली हैघ्
झुनिया ने भयातुर स्वर में कहा — मैं तो यहाँ किसी को नहीं जानती।
श्तेरा मर्दुआ कैसा हैए जो कान में तेल डाले बैठा हैघ्श्
श्उन्हें मेरी क्या फिकर!श्
श्हाँए देख तो रही हूँ। तुम तो सौर में बैठोगीए कोई करने—धरने वाला चाहिए कि नहींघ् सास—ननदए देवरानी—जेठानीए कोई है कि नहींघ् किसी को बुला लेना था।श्
श्मेरे लिए सब मर गए।श्
वह पानी ला कर जूठे बरतन माँजने लगीए तो प्रसव की शंका से हृदय में धड़कनें हो रही थीं। सोचने लगी — कैसे क्या होगा भगवानघ् उँह! यही तो होगाए मर जाऊँगीए अच्छा हैए जंजाल से छूट जाऊँगी।
शाम को उसके पेट में दर्द होने लगा। समझ गई विपत्ति की घड़ी आ पहुँची। पेट को एक हाथ से पकड़े हुए पसीने से तर उसने चूल्हा जलायाए खिचड़ी डाली और दर्द से व्याकुल हो कर वहीं जमीन पर लेट रही। कोई दस बजे रात को गोबर आयाए ताड़ी की दुगर्ंध उड़ाता हुआ। लटपटाती हुई जबान से ऊटपटाँग बक रहा था — मुझे किसी की परवा नहीं है। जिसे सौ दफे गरज होए रहेए नहीं चला जाए। मैं किसी का ताव नहीं सह सकता। अपने माँ—बाप का ताव नहीं सहाए जिनने जनम दिया। तब दूसरों का ताव क्यों सहूँघ् जमादार आँखें दिखाता है। यहाँ किसी की धौंस सहने वाले नहीं हैं। लोगों ने पकड़ न लिया होताए तो खून पी जाताए खून! कल देखूँगा बचा को। फाँसी ही तो होगी। दिखा दूँगा कि मर्द कैसे मरते हैं। हँसता हुआए अकड़ता हुआए मूँछों पर ताव देता हुआ फाँसी के तख्ते पर जाऊँए तो सही। औरत की जात! कितनी बेवफा होती है। खिचड़ी डाल दी और टाँग पसार कर सो रही। कोई खाय या न खायए उसकी बला से। आप मजे से फुलके उड़ाती हैए मेरे लिए खिचड़ी! अच्छा सता ले जितना सताते बनेए तुझे भगवान सताएँगे। जो न्याय करते हैं।
उसने झुनिया को जगाया नहीं। कुछ बोला भी नहीं। चुपके से खिचड़ी थाली में निकाली और दो—चार कौर निगल कर बरामदे में लेट रहा। पिछले पहर उसे सर्दी लगी। कोठरी से कंबल लेने गया तो झुनिया के कराहने की आवाज सुनी। नशा उतर चुका था। पूछा — कैसा जी है झुनिया! कहीं दरद है क्या।
श्हाँए पेट में जोर से दरद हो रहा हैघ्श्
श्तूने पहले क्यों नहीं कहा अब इस बखत कहाँ जाऊँघ्श्
श्किससे कहतीघ्श्
श्मैं मर गया था क्याघ्श्
श्तुम्हें मेरे मरने—जीने की क्या चिंताघ्श्
गोबर घबरायाए कहाँ दाई खोजने जायघ् इस वक्त वह आने ही क्यों लगीघ् घर में कुछ है भी तो नहीं। चुड़ैल ने पहले बता दिया होता तो किसी से दो—चार रुपए माँग लाता। इन्हीं हाथों में सौ—पचास रुपए हरदम पड़े रहते थेए चार आदमी खुसामद करते थे। इस कुलच्छनी के आते ही जैसे लच्छमी रूठ गई। टके—टके को मुहताज हो गया।
सहसा किसी ने पुकारा — यह क्या तुम्हारी घरवाली कराह रही हैघ् दरद तो नहीं हो रहा हैघ्
यह वही मोटी औरत थीए जिससे आज झुनिया की बातचीत हुई थी। घोड़े को दाना खिलाने उठी थी। झुनिया का कराहना सुन कर पूछने आ गई थी।
गोबर ने बरामदे में जा कर कहा — पेट में दरद है। छटपटा रही है। यहाँ कोई दाई मिलेगीघ्
श्वह तो मैं आज उसे देख कर ही समझ गई थी। दाई कच्ची सराय में रहती है। लपक कर बुला लाओ। कहनाए जल्दी चल। तब तक मैं यहीं बैठी हूँ।श्
श्मैंने तो कच्ची सराय नहीं देखीए किधर हैघ्श्
श्अच्छाए तुम उसे पंखा झलते रहोए मैं बुलाए लाती हूँ। यही कहते हैंए अनाड़ी आदमी किसी काम का नहीं। पूरा पेट और दाई की खबर नहीं।श्
यह कहती हुई वह चल दी। इसके मुँह पर तो लोग इसे चुहिया कहते हैंए यही इसका नाम थाए लेकिन पीठ पीछे मोटल्ली कहा — करते थे। किसी को मोटल्ली कहते सुन लेती थीए तो उसके सात पुरखों तक चढ़़ जाती थी।
गोबर को बैठे दस मिनट भी न हुए होंगे कि वह लौट आई और बोली — अब संसार में गरीबों का कैसे निबाह होगा। राँड़ कहती हैए पाँच रुपए लूँगीघ्तब चलूँगी। और आठ आने रोज। बारहवें दिन एक साड़ी। मैंने कहा — तेरा मुँह झुलस दूँ। तू जा चूल्हे में! मैं देख लूँगी। बारह बच्चों की माँ यों ही नहीं हो गई हूँ। तुम बाहर आ जाओ गोबरधनए मैं सब कर लूँगी। बखत पड़ने पर आदमी ही आदमी के काम आता है। चार बच्चे जना लिए तो दाई बन बैठी!
वह झुनिया के पास जा बैठी और उसका सिर अपनी जाँघ पर रख कर उसका पेट सहलाती हुई बोली — मैं तो आज तुझे देखते ही समझ गई थी। सच पूछोए तो इसी धड़के में आज मुझे नींद नहीं आई। यहाँ तेरा कौन सगा बैठा हैघ्
झुनिया ने दर्द से दाँत जमा कर सी करते हुए कहा — अब न बचूँगी! दीदी! हाय मैं तो भगवान से माँगने न गई थी। एक को पाला—पोसा। उसे तुमने छीन लियाए तो फिर इसका कौन काम थाघ् मैं मर जाऊँ माताए तो तुम बच्चे पर दया करना। उसे पाल—पोस देना। भगवान तुम्हारा भला करेंगे।
चुहिया स्नेह से उसके केश सुलझाती हुई बोली — धीरज धर बेटीए धीरज धर। अभी छन—भर में कष्ट कटा जाता है। तूने भी तो जैसे चुप्पी साध ली थी। इसमें किस बात की लाज! मुझे बता दिया होताए तो मैं मौलवी साहब के पास से ताबीज ला देती। वही मिर्जा जी जो इस हाते में रहते हैं।
इसके बाद झुनिया को कुछ होश न रहा। नौ बजे सुबह उसे होश आयाए तो उसने देखाए चुहिया शिुश को लिए बैठी है और वह साफ साड़ी पहने लेटी हुई है। ऐसी कमजोरी थीए मानो देह में रक्त का नाम न हो।
चुहिया रोज सबेरे आ कर झुनिया के लिए हरीरा और हलवा पका जाती और दिन में भी कई बार आ कर बच्चे को उबटन मल जाती और ऊपर का दूध पिला जाती। आज चौथा दिन थाए पर झुनिया के स्तनों में दूध न उतरता था। शिशु रो—रो कर गला गाड़े लेता थाए क्योंकि ऊपर का दूध उसे पचता न था। एक छन को भी चुप न होता था। चुहिया अपना स्तन उसके मुँह में देती। बच्चा एक क्षण चूसताए पर जब दूध न निकलताए तो फिर चीखने लगता। जब चौथे दिन साँझ तक झुनिया के दूध न उतराए तो चुहिया घबराई। बच्चा सूखता चला जाता था। नखास में एक पेंशनर डाक्टर रहते थे। चुहिया उन्हें ले आई। डाक्टर ने देख—भाल कर कहा — इसकी देह में खून तो है ही नहींए दूध कहाँ से आएघ् समस्या जटील हो गई। देह में खून लाने के लिए महीनों पुष्टिकारक दवाएँ खानी पड़ेंगीए तब कहीं दूध उतरेगा। तब तक तो इस माँस के लोथड़े का ही काम तमाम हो जायगा।
पहर रात हो गई थी। गोबर ताड़ी पिए ओसारे में पड़ा हुआ था। चुहिया बच्चे को चुप कराने के लिए उसके मुँह में अपने छाती डाले हुए थी कि सहसा उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी छाती में दूध आ गया है। प्रसन्न हो कर बोली — ले झुनियाए अब तेरा बच्चा जी जायगाए मेरे दूध आ गया।
झुनिया ने चकित हो कर कहा — तुम्हें दूध आ गयाघ्
श्नहीं रीए सच।श्
श्मैं तो नहीं पतियाती।श्
श्देख ले!श्
उसने अपना स्तन दबा कर दिखाया। दूध की धार फूट निकली।
झुनिया ने पूछा — तुम्हारी छोटी बिटीया तो आठ साल से कम की नहीं है।
श्हाँ आठवाँ हैए लेकिन मुझे दूध बहुत होता था।श्
श्इधर तो तुम्हें कोई बाल—बच्चा नहीं हुआ।श्
श्वही लड़की पेट—पोछनी थी। छाती बिलकुल सूख गई थीए लेकिन भगवान की लीला हैए और क्या!श्
अब से चुहिया चार—पाँच बार आ कर बच्चे को दूध पिला जाती। बच्चा पैदा तो हुआ था दुर्बलए लेकिन चुहिया का स्वस्थ दूध पी कर गदराया जाता था। एक दिन चुहिया नदी स्नान करने चली गई। बच्चा भूख के मारे छटपटाने लगा। चुहिया दस बजे लौटीए तो झुनिया बच्चे को कंधों से लगाए झुला रही थी और बच्चा रोए जाता था। चुहिया ने बच्चे को उसकी गोद से ले कर दूध पिला देना चाहाए पर झुनिया ने उसे झिड़क कर कहा — रहने दो। अभागा मर जायए वही अच्छा। किसी का एहसान तो न लेना पड़े।
चुहिया गिड़गिड़ाने लगी। झुनिया ने बड़े अदरावन के बाद बच्चा उसकी गोद में दिया।
लेकिन झुनिया और गोबर में अब भी न पटती थी। झुनिया के मन में बैठ गया था कि यह पक्का मतलबीए बेदर्द आदमी हैए मुझे केवल भोग की वस्तु समझता है। चाहे मैं मरूँ या जिऊँए उसकी इच्छा पूरी किए जाऊँए उसे बिलकुल गम नहीं। सोचता होगाए यह मर जायगी तो दूसरी लाऊँगाए लेकिन मुँह धो रखें बच्चू! मैं ही ऐसी अल्हड़ थी कि तुम्हारे फंदे में आ गई। तब तो पैरों पर सिर रखे देता था। यहाँ आते ही न जाने क्यों जैसे इसका मिजाज ही बदल गया। जाड़ा आ गया थाए पर न ओढ़़नए न बिछावन। रोटी—दाल से जो दो—चार रुपए बचतेए ताड़ी में उड़ जाते। एक पुराना लिहाफ था। दोनों उसी में सोते थेए लेकिन फिर भी उनमें सौ कोस का अंतर था। दोनों एक ही करवट में रात काट देते।
गोबर का जी शिशु को गोद में ले कर खेलाने के लिए तरस कर रह जाता था। कभी—कभी वह रात को उठ कर उसका प्यारा मुखड़ा देख लिया करता थाए लेकिन झुनिया की ओर से उसका मन खिंचता था। झुनिया भी उससे बात न करतीए न उसकी कुछ सेवा ही करती और दोनों के बीच में यह मालिन्य समय के साथ लोहे के मोर्चे की भाँति गहराए —ढ़़ और कठोर होता जाता था। दोनों एक—दूसरे की बातों का उल्टा ही अर्थ निकालतेए वही जिससे आपस का द्वेष और भड़के। और कई दिनों तक एक—एक वाक्य को मन में पाले रहते और उसे अपना रक्त पिला—पिला कर एक—दूसरे पर झपट पड़ने के लिए तैयार रहतेए जैसे शिकारी कुत्ते हों।
उधर गोबर के कारखाने में भी आए दिन एक—न—एक हंगामा उठता रहता था। अबकी बजट में शक्कर पर डयूटी लगी थी। मिल के मालिकों को मजूरी घटाने का अच्छा बहाना मिल गया। डयूटी से अगर पाँच की हानि थीए तो मजूरी घटा देने से दस का लाभ था। इधर महीनों से इस मिल में भी यही मसला छिड़ा हुआ था। मजूरों का संघ हड़ताल करने को तैयार बैठा हुआ था। इधर मजूरी घटी और उधर हड़ताल हुई। उसे मजूरी में धेले की कटौती भी स्वीकार न थी। जब उस तेजी के दिनों में मजूरी में एक धेले की भी बढ़़ती नहीं हुईए तो अब वह घाटे में क्यों साथ दे।
मिर्जा खुर्शेद संघ के सभापति और पंडित ओंकारनाथ श्बिजलीश् संपादकए मंत्री थे। दोनों ऐसी हड़ताल कराने पर तुले हुए थे कि मिल—मालिकों को कुछ दिन याद रहे। मजूरों को भी ऐसी हड़ताल से क्षति पहुँचेगीए यहाँ तक कि हजारों आदमी रोटीयों को भी मोहताज हो जाएँगेए इस पहलू की ओर उनकी निगाह बिलकुल न थी। और गोबर हड़तालियों में सबसे आगे था। उद्दंड स्वभाव का था हीए ललकारने की जरूरत थी। फिर वह मारने—मरने को न डरता था। एक दिन झुनिया ने उसे जी कड़ा करके समझाया भी — तुम बाल—बच्चे वाले आदमी होए तुम्हारा इस तरह आग में कूदना अच्छा नहीं। इस पर गोबर बिगड़ उठा — तू कौन होती है मेरे बीच में बोलने वालीघ् मैं तुझसे सलाह नहीं पूछता। बात बढ़़ गई और गोबर ने झुनिया को खूब पीटा। चुहिया ने आ कर झुनिया को छुड़ाया और गोबर को डाँटने लगी। गोबर के सिर पर शैतान सवार था। लाल—लाल आँखें निकाल कर बोला — तुम मेरे घर में मत आया करो चुहियाए तुम्हारे आने का कुछ काम नहीं।
चुहिया ने व्यंग के साथ कहा — तुम्हारे घर में न आऊँगीए तो मेरी रोटीयाँ कैसे चलेंगी! यहीं से माँग—जाँच कर ले जाती हूँए तब तवा गर्म होता है! मैं न होती लालाए तो यह बीबी आज तुम्हारी लातें खाने के लिए बैठी न होती।
गोबर घूँसा तान कर बोला — मैंने कह दियाए मेरे घर में न आया करो। तुम्हीं ने इस चुड़ैल का मिजाज आसमान पर चढ़़ा दिया है।
चुहिया वहीं डटी हुई निरूशंक खड़ी थीए बोली—अच्छाए अब चुप रहना गोबर! बेचारी अधमरी लड़कोरी औरत को मार कर तुमने कोई बड़ी जवाँमर्दी का काम नहीं किया है। तुम उसके लिए क्या करते हो कि तुम्हारी मार सहेघ् एक रोटी खिला देते हो इसलिएघ् अपने भाग बखानो कि ऐसी गऊ औरत पा गए हो। दूसरी होतीए तो तुम्हारे मुँह में झाड़ू मार कर निकल गई होती।
मुहल्ले के लोग जमा हो गए और चारों ओर से गोबर पर फटकारें पड़ने लगीं। वही लोगए जो अपने घरों में अपनी स्त्रियों को रोज पीटते थेए इस वक्त न्याय और दया के पुतले बने हुए थे। चुहिया और शेर हो गई और फरियाद करने लगी — डाढ़़ीजार कहता हैए मेरे घर न आया करो। बीबी—बच्चा रखने चला हैए यह नहीं जानता कि बीबी—बच्चों को पालना बड़े गुर्दे का काम है। इससे पूछोए मैं न होती तो आज यह बच्चाए जो बछड़े की तरह कुलेलें कर रहा हैए कहाँ होताघ् औरत को मार कर जवानी दिखाता है। मैं न हुई तेरी बीबीए नहीं यही जूती उठा कर मुँह पर तड़ातड़ जमाती और कोठरी में ढ़केल कर बाहर से किवाड़ बंद कर देती। दाने को तरस जाते।
गोबर झल्लाया हुआ अपने काम पर चला गया। चुहिया औरत न हो कर मर्द होतीए तो मजा चखा देता। औरत के मुँह क्या लगे।
मिल में असंतोष के बादल घने होते जा रहे थे। मजदूर श्बिजलीश् की प्रतियाँ जेब में लिए फिरते और जरा भी अवकाश पातेए तो दो—तीन मजदूर मिल कर उसे पढ़़ने लगते। पत्र की बिक्री खूब बढ़़ रही थी। मजदूरों के नेता श्बिजलीश् कार्यालय में आधी रात तक बैठे हड़ताल की स्कीमें बनाया करते और प्रातरूकाल जब पत्र में यह समाचार मोटे—मोटे अक्षरों में छपताए तो जनता टूट पड़ती और पत्र की कापियाँ दूने—तिगुने दाम पर बिक जातीं। उधर कंपनी के डायरेक्टर भी अपने घात में बैठे हुए थे। हड़ताल हो जाने में ही उनका हित था। आदमियों की कमी तो है नहीं। बेकारी बढ़़ी हुई हैए इसके आधे वेतन पर ऐसे आदमी आसानी से मिल सकते हैं। माल की तैयारी में एकदम आधी बचत हो जायगी। दस—पाँच दिन काम का हरज होगाए कुछ परवाह नहीं। आखिर यही निश्चय हो गया कि मजूरी में कमी का ऐलान कर दिया जाए। दिन और समय नियत कर लिया गयाए पुलिस को सूचना दे दी गई। मजूरों को कानोंकान खबर न थी। वे अपने घात में थे। उसी वक्त हड़ताल करना चाहते थेए जब गोदाम में बहुत थोड़ा माल रह जाय और माँग की तेजी हो।
एकाएक एक दिन जब मजूर लोग शाम को छुट्टी पा कर चलने लगेए तो डायरेक्टरों का ऐलान सुना दिया गया। उसी वक्त पुलिस आ गई। मजूरों को अपनी इच्छा के विरुद्ध उसी वक्त हड़ताल करनी पड़ीए जब गोदाम में इतना माल भरा हुआ था कि बहुत तेज माँग होने पर भी छरू महीने से पहले न उठ सकता था।
मिर्जा खुर्शेद ने यह बात सुनीए तो मुस्कराएए जैसे कोई मनस्वी योद्धा अपने शत्रु के रण—कौशल पर मुग्ध हो गया हो। एक क्षण विचारों में डूबे रहने के बाद बोले — अच्छी बात है। अगर डायरेक्टरों की यही इच्छा हैए तो यही सही। हालतें उनके मुआफिक हैंए लेकिन हमें न्याय का बल है। वह लोग नए आदमी रख कर अपना काम चलाना चाहते हैं। हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें एक भी नया आदमी न मिले। यही हमारी फतह होगी।
श्बिजलीश् कार्यालय में उसी वक्त खतरे की मीटींग हुईए कार्यकारिणी समिति का भी संगठन हुआए पदाधिकारियों का चुनाव हुआ और आठ बजे रात को मजूरों का लंबा जुलूस निकला। दस बजे रात को कल का सारा प्रोग्राम तय किया गया और यह ताकीद कर दी गई कि किसी तरह का दंगा—फसाद न होने पाए।
मगर सारी कोशिश बेकार हुईं। हड़तालियों ने नए मजूरों का टीड्डी—दल मिल के द्वार पर खड़ा देखाए तो इनकी हिंसा—वृत्ति काबू से बाहर हो गई। सोचा थाए सौ—सौए पचास—पचास आदमी रोज भर्ती के लिए आएँगे। उन्हें समझा—बुझा कर या धमका कर भगा देंगे। हड़तालियों की संख्या देख कर नए लोग आप ही भयभीत हो जाएँगेए मगर यहाँ तो नक्शा ही कुछ और थाए अगर यह सारे आदमी भर्ती हो गएए तो हड़तालियों के लिए समझौते की कोई आशा ही न थी। तय हुआ कि नए आदमियों को मिल में जाने ही न दिया जाए। बल—प्रयोग के सिवा और कोई उपाय न था। नया दल भी लड़ने—मरने पर तैयार था। उनमें अधिकांश ऐसे भुखमरे थेए जो इस अवसर को किसी तरह भी न छोड़ना चाहते थे। भूखों मर जाने से या अपने बाल—बच्चों को भूखों मरते देखने से तो यह कहीं अच्छा था कि इस परिस्थिति में लड़ कर मरें। दोनों दलों में फौजदारी हो गई। श्बिजलीश् संपादक तो भाग खड़े हुए। बेचारे मिर्जा जी पिट गए और उनकी रक्षा करते हुए गोबर भी बुरी तरह घायल हो गया। मिर्जा जी पहलवान आदमी थे और मंजे हुए फिकैतए अपने ऊपर कोई गहरा वार न पड़ने दिया। गोबर गँवार था। पूरा लट्ठ मारना जानता थाए पर अपनी रक्षा करना न जानता थाए जो लड़ाई में मारने से ज्यादा महत्व की बात है। उसके एक हाथ की हड्डी टूट गईए सिर खुल गया और अंत में वह वहीं ढ़ेर हो गया। कंधों पर अनगिनती लाठियाँ पड़ी थींए जिससे उसका एक—एक अंग चूर हो गया था। हड़तालियों ने उसे गिरते देखाए तो भाग खड़े हुए। केवल दस—बारह जँचे हुए आदमी मिर्जा को घेर कर खड़े रहे। नए आदमी विजय—पताका उड़ाते हुए मिल में दाखिल हुए और पराजित हड़ताली अपने हताहतों को उठा—उठा कर अस्पताल पहुँचाने लगेए मगर अस्पताल में इतने आदमियों के लिए जगह न थी। मिर्जा जी तो ले लिए गए। गोबर की मरहम—पट्टी करके उसके घर पहुँचा दिया गया।
झुनिया ने गोबर की वह चेष्टाहीन लोथ देखीए तो उसका नारीत्व जाग उठा। अब तक उसने उसे सबल के रूप में देखा थाए जो उस पर शासन करता थाए डाँटता थाए मारता था। आज वह अपंग थाए निस्सहाय थाए दयनीय था। झुनिया ने खाट पर झुक कर आँसू—भरी आँखों से गोबर को देखा और घर की दशा का खयाल करके उसे गोबर पर एक ईर्ष्यामय क्रोध आया। गोबर जानता था कि घर में एक पैसा नहीं है। वह यह भी जानता था कि कहीं से एक पैसा मिलने की आशा नहीं है। यह जानते हुए भी उसके बार—बार समझाने पर भीए उसने यह विपत्ति अपने ऊपर ली। उसने कितनी बार कहा था तुम इस झगड़े में न पड़ो। आग लगाने वाले आग लगा कर अलग हो जाएँगेए जायगी गरीबो के सिरय लेकिन वह कब उसकी सुनने लगा था! वह तो उसकी बैरिन थी। मित्र तो वह लोग थेए जो अब मजे से मोटरों में घूम रहे हैं। उस क्रोध में एक प्रकार की तुष्टि थीए जैसे हम उन बच्चों को कुरसी से गिर पड़ते देख करए जो बार—बार मना करने पर खड़े होने से बाज न आते थेए चिल्ला उठते हैं। अच्छा हुआए बहुत अच्छाए तुम्हारा सिर क्यों न दो हो गया!
लेकिन एक ही क्षण में गोबर का करुण क्रंदन सुन कर उसकी सारी संज्ञा सिहर उठी। व्यथा में डूबे हुए यह शब्द उसके मुँह से निकले — हाय—हाय! सारी देह भुरकुस हो गई। सबों को तनिक भी दया न आई।
वह उसी तरह बड़ी देर तक गोबर का मुँह देखती रही। वह क्षीण होती हुई आशा से जीवन का कोई लक्षण पा लेना चाहती थी। और प्रतिक्षण उसका धैर्य अस्त होने वाले सूर्य की भाँति डूबता जाता थाए और भविष्य में अंधकार उसे अपने अंदर समेटे लेता था।
सहसा चुहिया ने आ कर पुकारा — गोबर का क्या हाल हैए बहू! मैंने तो अभी सुना। दुकान से दौड़ी आई हूँ।
झुनिया के रुके हुए आँसू उबल पड़ेए कुछ बोल न सकी। भयभीत आँखों से चुहिया की ओर देखा।
चुहिया ने गोबर का मुँह देखाए उसकी छाती पर हाथ रखाए और आश्वासन—भरे स्वर में बोली — यह चार दिन में अच्छे हो जाएँगे। घबड़ा मत। कुशल हुई। तेरा सोहाग बलवान था। कई आदमी उसी दंगे में मर गए। घर में कुछ रुपए—पैसे हैंघ्
झुनिया ने लज्जा से सिर हिला दिया।
श्मैं लाए देती हूँ। थोड़ा—सा दूध ला कर गरम कर ले।श्
झुनिया ने उसके पाँव पकड़ कर कहा — दीदीए तुम्हीं मेरी माता हो। मेरा दूसरा कोई नहीं है।
जाड़ों की उदास संध्या आज और भी उदास मालूम हो रही थी। झुनिया ने चूल्हा जलाया और दूध उबालने लगी। चुहिया बरामदे में बच्चे को लिए खिला रही थी।
सहसा झुनिया भारी कंठ से बोली — मैं बड़ी अभागिन हूँ दीदी! मेरे मन में ऐसा आ रहा हैए जैसे मेरे ही कारण इनकी यह दसा हुई है। जी कुढ़़ता है तब मन दुरूखी होता ही हैए फिर गालियाँ भी निकलती हैंए सराप भी निकलता है। कौन जाने मेरी गालियों.........
इसके आगे वह कुछ न कह सकी। आवाज आँसुओं के रेले में बह गई। चुहिया ने अंचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा — कैसी बातें सोचती है बेटी! यह तेरे सिंदूर का भाग है कि यह बच गए। मगर हाँए इतना है कि आपस में लड़ाई होए तो मुँह से चाहे जितना बक लेए मन में कीना न पाले। बीज अंदर पड़ाए तो अँखुआ निकले बिना नहीं रहता।
झुनिया ने कंपन—भरे स्वर में पूछा — अब मैं क्या करूँ दीदीघ्
चुहिया ने ढ़ाढ़़स दिया — कुछ नहीं बेटी! भगवान का नाम ले। वही गरीबों की रक्षा करते हैं।
उसी समय गोबर ने आँखें खोली और झुनिया को सामने देख कर याचना भाव से क्षीण स्वर में बोला — आज बहुत चोट खा गया झुनिया! मैं किसी से कुछ नहीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। कहा—सुना माफ कर! तुझे सताया थाए उसी का यह फल मिला। थोड़ी देर का और मेहमान हूँ। अब न बचूँगा। मारे दरद के सारी देह फटी जाती है।
चुहिया ने अंदर आ कर कहा — चुपचाप पड़े रहो। बोलो—चालो नहीं। मरोगे नहींए इसका मेरा जुम्मा।
गोबर के मुख पर आशा की रेखा झलक पड़ी। बोला — सच कहती होए मैं मरूँगा नहींघ्
श्हाँए नहीं मरोगे। तुम्हें हुआ क्या हैघ् जरा सिर में चोट आ गई है और हाथ की हड्डी उतर गई है। ऐसी चोटें मरदों को रोज ही लगा करती हैं। इन चोटों से कोई नहीं मरता।श्
श्अब मैं झुनिया को कभी न मारूँगा।श्
श्डरते होगे कि कहीं झुनिया तुम्हें न मारे।
श्वह मारेगी भीए तो कुछ न बोलूँगा।
श्अच्छे होने पर भूल जाओगे।श्
श्नहीं दीदीए कभी न भूलूँगा।
गोबर इस समय बच्चों—सी बातें किया करता। दस—पाँच मिनट अचेत—सा पड़ा रहता। उसका मन न जाने कहाँ—कहाँ उड़ता फिरता। कभी देखताए वह नदी में डूबा जा रहा हैए और झुनिया उसे बचाने के लिए नदी में चली आ रही है। कभी देखताए कोई दैत्य उसकी छाती पर सवार है और झुनिया की शक्ल में कोई देवी उसकी रक्षा कर रही है। और बार—बार चौंक कर पूछता — मैं मरूँगा तो नहीं झुनियाघ्
तीन दिन उसकी यही दशा रही और झुनिया ने रात को जाग कर और दिन को उसके सामने खड़े रह कर जैसे मौत से उसकी रक्षा की। बच्चे को चुहिया सँभाले रहती। चौथे दिन झुनिया एक्का लाई और सबों ने गोबर को उस पर लाद कर अस्पताल पहुँचाया। वहाँ से लौट कर गोबर को मालूम हुआ कि अब वह सचमुच बच जायगा। उसने आँखों में आँसू भर कर कहा — मुझे क्षमा कर दो झुन्ना!
इन तीन—चार दिनों में चुहिया के तीन—चार रुपए खर्च हो गए थेए और अब झुनिया को उससे कुछ लेते संकोच होता था। वह भी कोई मालदार तो थी नहीं। लकड़ी की बिक्री के रुपए झुनिया को दे देती। आखिर झुनिया ने कुछ काम करने का विचार किया। अभी गोबर को अच्छे होने में महीनों लगेंगे। खाने—पीने को भी चाहिएए दवा—दाई को भी चाहिए। वह कुछ काम करके खाने—भर को तो ले ही आएगी। बचपन से उसने गऊओं का पालना और घास छीलना सीखा था। यहाँ गउएँ कहाँ थींघ् हाँए वह घास छील सकती थी। मुहल्ले के कितने ही स्त्री—पुरुष बराबर शहर के बाहर घास छीलने जाते थे और आठ—दस आने कमा लेते थे। वह प्रातरूकाल गोबर का हाथ—मुँह धुला कर और बच्चे को उसे सौंप कर घास छीलने निकल जाती और तीसरे पहर तक भूखी—प्यासी घास छीलती रहती। फिर उसे मंडी में ले जा कर बेचती और शाम को घर आती। रात को भी वह गोबर की नींद सोती और गोबर की नींद जागतीए मगर इतना कठोर श्रम करने पर भी उसका मन ऐसा प्रसन्न रहताए मानो झूले पर बैठी गा रही हैए रास्ते—भर साथ की स्त्रियों और पुरुषों से चुहल और विनोद करती जाती। घास छीलते समय भी सबों में हँसी—दिल्लगी होती रहती। न किस्मत का रोनाए न मुसीबत का गिला। जीवन की सार्थकता मेंए अपनों के लिए कठिन से कठिन त्याग मेंए और स्वाधीन सेवा में जो उल्लास हैए उसकी ज्योति एक—एक अंग पर चमकती रहती। बच्चा अपने पैरों पर खड़ा हो कर जैसे तालियाँ बजा—बजा कर खुश होता हैए उसी आनंद का वह अनुभव कर रही थीए मानो उसके प्राणों में आनंद का कोई सोता खुल गया हो। और मन स्वस्थ होए तो देह कैसे अस्वस्थ रहे! उस एक महीने में जैसे उसका कायाकल्प हो गया हो। उसके अंगों में अब शिथिलता नहींए चपलता हैए लचक हैए सुकुमारता है। मुख पर पीलापन नहीं रहाए खून की गुलाबी चमक है। उसका यौवन जो इस बंद कोठरी में पड़े—पड़े अपमान और कलह से कुंठित हो गया थाए वह मानो ताजी हवा और प्रकाश पा कर लहलहा उठा है। अब उसे किसी बात पर क्रोध नहीं आता। बच्चे के जरा—सा रोने पर जो वह झुँझला उठती थीए अब जैसे उसके धैर्य और प्रेम का अंत ही न था।
इसके खिलाफ गोबर अच्छा होते जाने पर भी कुछ उदास रहता था। जब हम अपने किसी प्रियजन पर अत्याचार करते हैंए और जब विपत्ति आ पड़ने पर हममें इतनी शक्ति आ जाती है कि उसकी तीव्र व्यथा का अनुभव करेंए तो इससे हमारी आत्मा में जागृति का उदय हो जाता हैए और हम उस बेजा व्यवहार का प्रायश्चित करने के लिए तैयार हो जाते हैं। गोबर उसी प्रायश्चित के लिए व्याकुल हो रहा था। अब उसके जीवन का रूप बिलकुल दूसरा होगाए जिसमें कटुता की जगह मृदुता होगीए अभिमान की जगह नम्रता। उसे अब ज्ञात हुआ कि सेवा करने का अवसर बड़े सौभाग्य से मिलता हैए और वह इस अवसर को कभी न भूलेगा।
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भाग 27
मिस्टर खन्ना को मजूरों की यह हड़ताल बिलकुल बेजा मालूम होती थी। उन्होंने हमेशा जनता के साथ मिले रहने की कोशिश की थी। वह अपने को जनता का ही आदमी समझते थे। पिछले कौमी आंदोलन में उन्होंने बड़ा जोश दिखाया था। जिले के प्रमुख नेता रहे थेए दो बार जेल गए थे और कई हजार का नुकसान उठाया था। अब भी वह मजूरों की शिकायतें सुनने को तैयार रहते थेए लेकिन यह तो नहीं हो सकता कि वह शक्कर मिल के हिस्सेदारों के हित का विचार न करें। अपना स्वार्थ त्यागने को वह तैयार हो सकते थेए अगर उनकी ऊँची मनोवृत्तियों को स्पर्श किया जाताए लेकिन हिस्सेदारों के स्वार्थ की रक्षा न करनाए यह तो अधर्म था। यह तो व्यापार हैए कोई सदाव्रत नहीं कि सब कुछ मजूरों को ही बाँट दिया जाए। हिस्सेदारों को यह विश्वास दिला कर रुपए लिए गए थे कि इस काम में पंद्रह—बीस सैकड़े का लाभ है। अगर उन्हें दस सैकड़ा भी न मिलेए तो वे डायरेक्टरों को और विशेषकर मिस्टर खन्ना को धोखेबाज ही तो समझेंगे और फिर अपना वेतन वह कैसे कम कर सकते थेघ् और कंपनियों को देखते उन्होंने अपना वेतन कम रखा था। केवल एक हजार रूपया महीना लेते थे। कुछ कमीशन भी मिल जाता थाए मगर वह इतना लेते थेए तो मिल का संचालन भी करते थे। मजूर केवल हाथ से काम करते हैं। डायरेक्टर अपनी बुद्धि सेए विद्या सेए प्रतिभा सेए प्रभाव से काम करता है। दोनों शक्तियों का मोल बराबर तो नहीं हो सकता। मजूरों को यह संतोष क्यों नहीं होता कि मंदी का समय है और चारों तरफ बेकारी फैली रहने के कारण आदमी सस्ते हो गए हैं। उन्हें तो एक की जगह पौन भी मिलेए तो संतुष्ट रहना चाहिए था। और सच पूछो तो वे संतुष्ट हैं। उनका कोई कसूर नहीं। वे तो मूर्ख हैंए बछिया के ताऊ! शरारत तो ओंकारनाथ और मिर्जा खुर्शेद की है। यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैंए केवल थोड़े—से पैसे और यश के लोभ में पड़ कर। यह नहीं सोचते कि उनकी दिल्लगी से कितने घर तबाह हो जाएँगे। ओंकारनाथ का पत्र नहीं चलता तो बेचारे खन्ना क्या करें! और आज उनके पत्र के एक लाख ग्राहक हो जायँए और उससे उन्हें पाँच लाख का लाभ होने लगेए तो क्या वह केवल अपने गुजारे—भर को ले कर शेष कार्यकर्ताओं में बाँट देंगेघ् कहाँ की बात! और वह त्यागी मिर्जा खुर्शेद भी तो एक दिन लखपति थे। हजारों मजूर उनके नौकर थे। तो क्या वह अपने गुजारे—भर को ले कर सब कुछ मजूरों में बाँट देते थेघ् वह उसी गुजारे की रकम में यूरोपियन छोकरियों के साथ विहार करते थे। बड़े—बड़े अफसरों के साथ दावतें उड़ाते थेए हजारों रुपए महीने की शराब पी जाते थे और हर साल फ्रांस और स्विटजरलैंड की सैर करते थे। आज मजूरों की दशा पर उनका कलेजा फटता है।
इन दोनों नेताओें की तो खन्ना को परवाह न थी। उनकी नियत की सफाई में पूरा संदेह था। न रायसाहब की ही उन्हें परवाह थीए जो हमेशा खन्ना की हाँ—में—हाँ मिलाया करते थे और उनके हर एक कदम का समर्थन कर दिया करते थे। अपने परिचितों में केवल एक ही ऐसा व्यक्ति थाए जिसके निष्पक्ष विचार पर खन्ना जी को पूरा भरोसा था और वह डाक्टर मेहता थे। जब से उन्होंने मालती से घनिष्ठता बढ़़ानी शुरू की थीए खन्ना की नजरों में उनकी इज्जत बहुत कम हो गई थी। मालती बरसों खन्ना की हृदयेश्वरी रह चुकी थीए पर उसे उन्होंने सदैव खिलौना समझा था। इसमें संदेह नहीं कि वह खिलौना उन्हें बहुत प्रिय था। उसके खो जानेए या टूट जानेए या छिन जाने पर वह खूब रोते और वह रोए थेए लेकिन थी वह खिलौना ही। उन्हें कभी मालती पर विश्वास न हुआ। वह कभी उनके ऊपरी विलास—आवरण को छेद कर उनके अंतरूकरण तक न पहुँच सकी थी। वह अगर खुद खन्ना से विवाह का प्रस्ताव करतीए तो वह स्वीकार न करते। कोई बहाना करके टाल देते। अन्य कितने ही प्राणियों की भाँति खन्ना का जीवन भी दोहरा या दो—रुखी था। एक ओर वह त्याग और जन—सेवा और उपकार के भक्त थेए तो दूसरी ओर स्वार्थ और विलास और प्रभुता के। कौन उनका असली रुख थाए यह कहना कठिन है। कदाचित उनकी आत्मा का उत्तम आधा सेवा और सहृदयता से बना हुआ थाए मद्धिम आधा स्वार्थ और विलास से। पर इस उत्तम और मद्धिम में बराबर संघर्ष होता रहता था। और मद्धिम ही अपने उद्दंडता और हठ के कारण सौम्य और शांत उत्तम पर गालिब आता था। उसे मद्धिम मालती की ओर झुकता थाए उत्तम मेहता की ओरए लेकिन वह उत्तम अब मद्धिम के साथ एक हो गया था। उनकी समझ में न आता था कि मेहता—जैसा आदर्शवादी व्यक्ति मालती—जैसी चंचलए विलासिनी रमणी पर कैसे आसक्त हो गया! वह बहुत प्रयास करने पर भी मेहता को वासनाओं का शिकार न स्थिर कर सकते थे और कभी—कभी उन्हें यह संदेह भी होने लगता था कि मालती का कोई दूसरा रूप भी हैए जिसे वह न देख सके या जिसे देखने की उनमें क्षमता न थी।
पक्ष और विपक्ष के सभी पहलुओं पर विचार करके उन्होंने यही नतीजा निकाला कि इस परिस्थिति में मेहता ही से उन्हें प्रकाश मिल सकता है।
डाक्टर मेहता को काम करने का नशा था। आधी रात को सोते थे और घड़ी रात रहे उठ जाते थे। कैसा भी काम होए उसके लिए वह कहीं—न—कहीं से समय निकाल लेते थे। हाकी खेलना हो या यूनिवर्सिटी डिबेटए ग्राम्य संगठन हो या किसी शादी का नवेदए सभी कामों के लिए उनके पास लगन थी और समय था। वह पत्रों में लेख भी लिखते थे और कई साल से एक वृह्द दर्शन—ग्रंथ लिख रहे थेए जो अब समाप्त होने वाला था। इस वक्त भी वह एक वैज्ञानिक खेल ही खेल रहे थे। अपने बगीचे में बैठे हुए पौधों पर विद्युत—संचार क्रिया की परीक्षा कर रहे थे। उन्होंने हाल में एक विद्वान—परिषद में यह सिद्ध किया था कि फसलें बिजली के जोर से बहुत थोड़े समय में पैदा की जा सकती हैंए उनकी पैदावार बढ़़ाई जा सकती है और बेफसल की चीजें भी उपजाई जा सकती हैं। आजकल सबेरे के दो—तीन घंटे वह इन्हीं परीक्षाओं में लगाया करते थे।
मिस्टर खन्ना की कथा सुन कर उन्होंने कठोर मुद्रा से उनकी ओर देख कर कहा — क्या यह जरूरी था कि डयूटी लग जाने से मजूरों का वेतन घटा दिया जायघ् आपको सरकार से शिकायत करनी चाहिए थी। अगर सरकार ने नहीं सुनाए तो उसका दंड मजूरों को क्यों दिया जायघ् क्या आपका विचार है कि मजूरों को इतनी मजूरी दी जाती है कि उसमें चौथाई कम कर देने से मजूरों को कष्ट नहीं होगाघ् आपके मजूर बिलों में रहते हैं — गंदे बदबूदार बिलों में — जहाँ आप एक मिनट भी रह जायँए तो आपको कै हो जाए। कपड़े जो पहनते हैंए उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे। खाना जो वह खाते हैंए वह आपका कुत्ता भी न खाएगा। मैंने उनके जीवन में भाग लिया है। आप उनकी रोटीयाँ छीन कर अपने हिस्सेदारों का पेट भरना चाहते हैंघ्
खन्ना ने अधीर हो कर कहा — लेकिन हमारे सभी हिस्सेदार तो धनी नहीं हैं। कितनों ही ने अपना सर्वस्व इसी मिल की भेंट कर दिया है और इसके नफे के सिवा उनके जीवन का कोई आधार नहीं है।
मेहता ने इस भाव से जवाब दियाए जैसे इस दलील का उनकी नजरों में कोई मूल्य नहीं है — जो आदमी किसी व्यापार में हिस्सा लेता हैए वह इतना दरिद्र नहीं होता कि उसके नफे ही को जीवन का आधार समझे। हो सकता है कि नफा कम मिलने पर उसे अपना एक नौकर कम कर देना पड़े या उसके मक्खन और फलों का बिल कम हो जायए लेकिन वह नंगा या भूखा न रहेगा। जो अपनी जान खपाते हैंए उनका हक उन लोगों से ज्यादा हैए जो केवल रूपया लगाते हैं।
यही बात पंडित ओंकारनाथ ने कही थी। मिर्जा खुर्शेद ने भी यही सलाह दी थी। यहाँ तक कि गोविंदी ने भी मजूरों ही का पक्ष लिया थाए पर खन्ना जी ने उन लोगों की परवा न की थीए लेकिन मेहता के मुँह से वही बात सुन कर वह प्रभावित हो गए। ओंकारनाथ को वह स्वार्थी समझते थेए मिर्जा खुर्शेद को गैरजिम्मेदार और गोविंदी को अयोग्य। मेहता की बात में चरित्रए अधययन और सद्भाव की शक्ति थी।
सहसा मेहता ने पूछा — आपने अपनी देवी जी से भी इस विषय में राय लीघ्
खन्ना ने सकुचाते हुए कहा — हाँ पूछा था।
श्उनकी क्या राय थीघ्श्
श्वही जो आपकी है।श्
श्मुझे यही आशा थी। और आप उस विदुषी को अयोग्य समझते हैं।श्
उसी वक्त मालती आ पहुँची और खन्ना को देख कर बोली — अच्छाए आप विराज रहे हैं — मैंने मेहता जी की आज दावत की है। सभी चीजें अपने हाथ से पकाई हैं। आपको भी नेवता देती हूँ। गोविंदी देवी से आपका यह अपराध क्षमा करा दूँगी।
खन्ना को कौतूहल हुआ। अब मालती अपने हाथों से खाना पकाने लगी हैघ् मालतीए वही मालतीए जो खुद कभी अपने जूते न पहनती थीए जो खुद कभी बिजली का बटन तक न दबाती थीए विलास और विनोद ही जिसका जीवन था!
मुस्कराकर कहा — अगर आपने पकाया है तो जरूर आऊँगा। मैं तो कभी सोच ही न सकता था कि आप पाक—कला में भी निपुण हैं।
मालती निरूसंकोच भाव से बोली — इन्होंने मार—मार कर वैद्य बना दिया। इनका हुक्म कैसे टाल देतीघ् पुरुष देवता ठहरे!
खन्ना ने इस व्यंग्य का आनंद ले कर मेहता की ओर आँखें मारते हुए कहा — पुरुष तो आपके लिए इतने सम्मान की वस्तु न थी।
मालती झेंपी नहीं। इस संकेत का आशय समझ कर जोश—भरे स्वर में बोली — लेकिन अब हो गई हूँए इसलिए कि मैंने पुरुष का जो रूप अपने परिचितों की परिधि में देखा थाए उससे यह कहीं सुंदर है। पुरुष इतना सुंदरए इतना कोमल हृदय....
मेहता ने मालती की ओर दीन—भाव से देखा और बोले — नहीं मालतीए मुझ पर दया करोए नहीं मैं यहाँ से भाग जाऊँगा।
इन दिनों जो कोई मालती से मिलता वह उससे मेहता की तारीफो के पुल बाँध देतीए जैसे कोई नवदीक्षित अपने नए विश्वासों का ढ़िंढ़ोरा पीटता फिरे। सुरूचि का ध्यान भी उसे न रहता। और बेचारे मेहता दिल में कट कर रह जाते थे। वह कड़ी और कड़वी आलोचना तो बड़े शौक से सुनते थेए लेकिन अपनी तारीफ सुन कर जैसे बेवकूफ बन जाते थेए मुँह जरा—सा निकल आता थाए जैसे कोई फबती कसी गई हो। और मालती उन औरतों में न थीए जो भीतर रह सके। वह बाहर ही रह सकती थीए पहले भी और अब भीए व्यवहार में भीए विचार में भी। मन में कुछ रखना वह न जानती थी। जैसे एक अच्छी साड़ी पा कर वह उसे पहनने के लिए अधीर हो जाती थीए उसी तरह मन में कोई सुंदर भाव आएए तो वह उसे प्रकट किए बिना चौन न पाती थी।
मालती ने और समीप आ कर उनकी पीठ पर हाथ रख कर मानो उनकी रक्षा करते हुए कहा — अच्छा भागो नहींए अब कुछ न कहूँगी। मालूम होता हैए तुम्हें अपने निंदा ज्यादा पसंद है। तो निंदा ही सुनो — खन्ना जीए यह महाशय मुझ पर अपने प्रेम का जाल......
शक्कर—मिल की चिमनी यहाँ से साफ नजर आती थी। खन्ना ने उसकी तरफ देखा। वह चिमनी खन्ना के कीर्ति स्तंभ की भाँति आकाश में सिर उठाए खड़ी थी। खन्ना की आँखों में अभिमान चमक उठा। इसी वक्त उन्हें मिल के दफ्तर में जाना है। वहाँ डायरेक्टरों की एक अजेर्ंट मीटींग करनी होगी और इस परिस्थिति को उन्हें समझाना होगा और इस समस्या को हल करने का उपाय भी बतलाना होगा।
मगर चिमनी के पास यह धुआँ कहाँ से उठ रहा हैघ् देखते—देखते सारा आकाश बैलून की भाँति धुएँ से भर गया। सबों ने सशंक हो कर उधर देखा। कहीं आग तो नहीं लग गईघ् आग ही मालूम होती है।
सहसा सामने सड़क पर हजारों आदमी मिल की तरफ दौड़े जाते नजर आए। खन्ना ने खड़े हो कर जोर से पूछा — तुम लोग कहाँ दौड़े जा रहे होघ्
एक आदमी ने रूक कर कहा — अजीए शक्कर—मिल में आग लग गई। आप देख नहीं रहे हैंघ्
खन्ना ने मेहता की ओर देखा और मेहता ने खन्ना की ओर। मालती दौड़ी हुई बँगले में गई और अपने जूते पहन आई। अफसोस और शिकायत करने का अवसर न था। किसी के मुँह से एक बात न निकली। खतरे में हमारी चेतना अंतर्मुखी हो जाती है। खन्ना की कार खड़ी ही थी। तीनों आदमी घबराए हुए आ कर बैठे और मिल की तरफ भागे। चौरास्ते पर पहुँचे तो देखाए सारा शहर मिल की ओर उमड़ा चला आ रहा है। आग में आदमियों को खींचने का जादू हैए कार आगे न बढ़़ सकी।
मेहता ने पूछा — आग—बीमा तो करा लिया था न!
खन्ना ने लंबी साँस खींच कर कहा — कहाँ भाईए अभी तो लिखा—पढ़़ी हो रही थी। क्या जानता थाए यह आफत आने वाली है।
कार वहीं राम—आसरे छोड़ दी गई और तीनों आदमी भीड़ चीरते हुए मिल के सामने जा पहुँचे। देखा तो अग्नि का एक सागर आकाश में उमड़ रहा था। अग्नि की उन्मत्त लहरें एक—पर—एकए दाँत पीसती थींए जीभ लपलपाती थींए जैसे आकाश को भी निगल जाएँगी। उस अग्नि समुद्र के नीचे ऐसा धुआँ छाया थाए मानो सावन की घटा कालिख में नहा कर नीचे उतर आई हो। उसके ऊपर जैसे आग का थरथराता हुआए उबलता हुआ हिमाचल खड़ा था। हाते में लाखों आदमियों की भीड़ थीए पुलिस भी थीए फायर ब्रिगेड भीए सेवा समितियों के सेवक भीए पर सब—के—सब आग की भीषणता से मानो शिथिल हो गए हों। फायर ब्रिगेड के छींटे उस अग्नि—सफर में जा कर जैसे बुझ जाते थे। ईंटें जल रही थींए लोहे के गार्डर जल रहे थे और पिघली हुई शक्कर के परनाले चारों तरफ बह रहे थे। और तो औरए जमीन से भी ज्वाला निकल रही थी।
दूर से तो मेहता और खन्ना को यह आश्चर्य हो रहा था कि इतने आदमी खड़े तमाशा क्यों देख रहे हैंए आग बुझाने में मदद क्यों नहीं करतेए मगर अब इन्हें भी ज्ञात हुआ कि तमाशा देखने के सिवा और कुछ करना अपने वश से बाहर है। मिल की दीवारों से पचास गज के अंदर जाना जान—जोखिम था। ईंट और पत्थर के टुकड़े चटाक—चटाक टूट कर उछल रहे थे। कभी—कभी हवा का रुख इधर हो जाता थाए तो भगदड़ पड़ जाती थी।
ये तीनों आदमी भीड़ के पीछे खड़े थे। कुछ समझ में न आता थाए क्या करें। आखिर आग लगी कैसे! और इतनी जल्द फैल कैसे गईघ् क्या पहले किसी ने देखा ही नहींघ् या देख कर भी बुझाने का प्रयास न कियाघ् इस तरह के प्रश्न सभी के मन में उठ रहे थेए मगर वहाँ पूछे किससेए मिल के कर्मचारी होंगे तो जरूरए लेकिन उस भीड़ में उनका पता मिलना कठिन था।
सहसा हवा का इतना तेज झोंका आया कि आग की लपटें नीची हो कर इधर लपकींए जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो। लोग सिर पर पाँव रख कर भागे। एक—दूसरे पर गिरतेए रेलतेए जैसे कोई शेर झपटा आता हो। अग्नि—ज्वालाएँ जैसे सजीव हो गई थींए सचेष्ट भीए जैसे कोई शेषनाग अपने सहस्र मुख से आग फुंकार रहा हो। कितने ही आदमी तो इस रेले में कुचल गए। खन्ना मुँह के बल गिर पड़ेए मालती को मेहता जी दोनों हाथों से पकड़े हुए थेए नहीं जरूर कुचल गई होतीघ् तीनों आदमी हाते की दीवार के पास एक इमली के पेड़ के नीचे आ कर रूके। खन्ना एक प्रकार की चेतना—शून्य तन्मयता से मिल की चिमनी की ओर टकटकी लगाए खड़े थे।
मेहता ने पूछा — आपको ज्यादा चोट तो नहीं आईघ्
खन्ना ने कोई जवाब न दिया। उसी तरफ ताकते रहे। उनकी आँखों में वह शून्यता थीए जो विक्षिप्तता का लक्षण है।
मेहता ने उनका हाथ पकड़ कर फिर पूछा — हम लोग यहाँ व्यर्थ खड़े हैं। मुझे भय होता हैए आपको चोट ज्यादा आ गई है। आइएए लौट चलें।
खन्ना ने उनकी तरफ देखा और जैसे सनक कर बोले — जिनकी यह हरकत हैए उन्हें मैं खूब जानता हूँ। अगर उन्हें इसी में संतोष मिलता हैए तो भगवान उनका भला करें। मुझे कुछ परवा नहींए कुछ परवा नहींए कुछ परवा नहीं! मैं आज चाहूँए तो ऐसी नई मिल खड़ी कर सकता हूँ। जी हाँए बिलकुल नई मिल खड़ी कर सकता हूँ। ये लोग मुझे क्या समझते हैंघ् मिल ने मुझे नहीं बनायाए मैंने मिल को बनाया। और मैं फिर बना सकता हूँए मगर जिनकी यह हरकत हैए उन्हें मैं खाक में मिला दूँगा। मुझे सब मालूम हैए रत्ती—रत्ती मालूम है।
मेहता ने उनका चेहरा और उनकी चेष्टा देखी और घबरा कर बोले — चलिएए आपको घर पहुँचा दूँ। आपकी तबीयत अच्छी नहीं है।
खन्ना ने कहकहा मार कर कहा — मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। इसलिए कि मिल जल गई। ऐसी मिलें मैं चुटकियों में खोल सकता हूँ। मेरा नाम खन्ना हैए चंद्रप्रकाश खन्ना! मैंने अपना सब कुछ इस मिल में लगा दिया। पहली मिल में हमने बीस प्रतिशत नफा दिया। मैंने प्रोत्साहित हो कर यह मिल खोली। इसमें आधे रुपए मेरे हैं। मैंने बैंक के दो लाख इस मिल में लगा दिए। मैं एक घंटा नहींए आधा घंटा पहले दस लाख का आदमी था। जी हाँए दसए मगर इस वक्त फाकेमस्त हूँ — नहीं दिवालिया हूँ! मुझे बैंक को दो लाख देना है। जिस मकान में रहता हूँए वह अब मेरा नहीं है। जिस बर्तन में खाता हूँए वह भी अब मेरा नहीं! बैंक से मैं निकाल दिया जाऊँगा। जिस खन्ना को देख कर लोग जलते थेए वह खन्ना अब धूल में मिल गया है। समाज में अब मेरा कोई स्थान नहीं हैए मेरे मित्र मुझे अपने विश्वास का पात्र नहींए दया का पात्र समझेंगे। मेरे शत्रु मुझसे जलेंगे नहींए मुझ पर हँसेंगे। आप नहीं जानते मिस्टर मेहताए मैंने अपने सिद्धांतों की कितनी हत्या की है। कितनी रिश्वतें दी हैंए कितनी रिश्वतें ली हैं। किसानों की ऊख तौलने के लिए कैसे आदमी रखेए कैसे नकली बाट रखे। क्या कीजिएगाए यह सब सुन करए लेकिन खन्ना अपनी यह दुर्दशा कराने के लिए क्यों जिंदा रहेघ् जो कुछ होना है होए दुनिया जितना चाहे हँसेए मित्र लोग जितना चाहें अफसोस करेंए लोग जितनी गालियाँ देना चाहेंए दें। खन्ना अपनी आँखों से देखने और अपने कानों से सुनने के लिए जीता न रहेगा। वह बेहया नहीं हैए बेगैरत नहीं है!
यह कहते—कहते खन्ना दोनों हाथों से सिर पीट कर जोर—जोर से रोने लगे।
मेहता ने उन्हें छाती से लगा कर दुखित स्वर में कहा — खन्ना जीए जरा धीरज से काम लीजिए। आप समझदार हो कर दिल इतना छोटा करते हैं। दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता हैए वह उसका सम्मान नहींए उसकी दौलत का सम्मान है। आप निर्धन रह कर भी मित्रों के विश्वासपात्र रह सकते हैं और शत्रुओं के भीए बल्कि तब कोई आपका शत्रु रहेगा ही नहीं। आइएए घर चलें। जरा आराम कर लेने से आपका चित्त शांत हो जायगा।
खन्ना ने कोई जवाब न दिया। तीनों आदमी चौरास्ते पर आए। कार खड़ी थी। दस मिनट में खन्ना की कोठी पर पहुँच गए।
खन्ना ने उतर कर शांत स्वर में कहा — कार आप ले जायँ। अब मुझे इसकी जरूरत नहीं है।
मालती और मेहता भी उतर पड़े। मालती ने कहा — तुम चल कर आराम से लेटोए हम बैठे गप—शप करेंगे। घर जाने की तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।
खन्ना ने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा और करुण—कंठ से बोले — मुझसे जो अपराधए हुए हैंए उन्हें क्षमा कर देना मालती! तुम और मेहताए बस तुम्हारे सिवा संसार में मेरा कोई नहीं है। मुझे आशा हैए तुम मुझे अपनी नजरों से न गिराओगी। शायद दस—पाँच दिन में यह कोठी भी छोड़नी पडे। किस्मत ने कैसा धोखा दिया!
मेहता ने कहा — मैं आपसे सच कहता हूँ खन्ना जीए आज मेरी नजरों में आपकी जो इज्जत हैए वह कभी न थी।
तीनों आदमी कमरे में दाखिल हुए। द्वार खुलने की आहट पाते ही गोविंदी भीतर से आ कर बोली — क्या आप लोग वहीं से आ रहे हैंघ् महराज तो बड़ी बुरी खबर लाया है।
खन्ना के मन में ऐसा प्रबलए न रुकने वालाए तूफानी आवेग उठा कि गोविंदी के चरणों पर गिर पड़ें और उन्हें आँसुओं से धो दें। भारी गले से बोले — हाँ प्रिएए हम तबाह हो गए।
उनकी निर्जीवए निराश आहत आत्मा सांत्वना के लिए विकल हो रही थीए सच्ची स्नेह में डूबी हुई सांत्वना के लिए — उस रोगी की भाँतिए जो जीवन—सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर आशा—भरी आँखों से ताक रहा हो। वही गोविंदी जिस पर उन्होंने हमेशा जुल्म कियाए जिसका हमेशा अपमान कियाए जिससे हमेशा बेवफाई कीए जिसे सदैव जीवन का भार समझाए जिसकी मृत्यु की सदैव कामना करते रहेए वही इस समय जैसे अंचल में आशीर्वाद और मंगल और अभय लिए उन पर वार रही थीए जैसे उन चरणों में ही उसके जीवन का स्वर्ग होए जैसे वह उनके अभागे मस्तक पर हाथ रख कर ही उनकी प्राणहीन धमनियों में फिर रक्त का संचार कर देगी। मन की इस दुर्बल दशा मेंए घोर विपत्ति मेंए मानो वह उन्हें कंठ से लगा लेने के लिए खड़ी थी। नौका पर बैठे हुए जल—विहार करते समय हम जिन चट्टानों को घातक समझते हैंए और चाहते हैं कि कोई इन्हें खोद कर फेंक देताए उन्हीं सेए नौका टूट जाने परए हम चिमट जाते हैं।
गोविंदी ने उन्हें एक सोफा पर बैठा दिया और स्नेह—कोमल स्वर में बोली — तो तुम इतना दिल छोटा क्यों करते होघ् धन के लिएए जो सारे पापों की जड़ है! उस धन से हमें क्या सुख थाघ् सबेरे से आधी रात तक एक—न—एक झंझट—आत्मा का सर्वनाश! लड़के तुमसे बात करने को तरस जाते थेए तुम्हें संबंधियों को पत्र लिखने तक की फुर्सत न मिलती थी। क्या बड़ी इज्जत थीघ् हाँए थीए क्योंकि दुनिया आजकल धन की पूजा करती है और हमेशा करती चली आई है। उसे तुमसे कोई प्रयोजन नहीं। जब तक तुम्हारे पास लक्ष्मी हैए तुम्हारे सामने पूँछ हिलाएगी। कल उतनी ही भक्ति से दूसरों के द्वार पर सिजदे करेगी। तुम्हारी तरफ ताकेगी भी नहीं। सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते। वह देखते हैंए तुम क्या होए अगर तुममें सच्चाई हैए न्याय हैए त्याग हैए पुरुषार्थ हैए तो वे तुम्हारी पूजा करेंगे। नहीं तुम्हें समाज का लुटेरा समझ कर मुँह फेर लेंगेए बल्कि तुम्हारे दुश्मन हो जाएँगे। मैं गलत तो नहीं कहती मेहता जीघ्
मेहता ने मानों स्वर्ग—स्वप्न से चौंक कर कहा — गलतघ् आप वही कह रही हैंए जो संसार के महान पुरुषों ने जीवन का तात्विक अनुभव करने के बाद कहा है। जीवन का सच्चा आधार यही है।
गोविंदी ने मेहता को संबोधित करके कहा — धनी कौन होता हैए इसका कोई विचार नहीं करता। वही जो अपने कौशल से दूसरों को बेवकूफ बना सकता हैघ्
खन्ना ने बात काट कर कहा — नहीं गोविंदीए धन कमाने के लिए अपने में संस्कार चाहिए। केवल कौशल से धन नहीं मिलता। इसके लिए भी त्याग और तपस्या करनी पड़ती है। शायद इतनी साधना में ईश्वर भी मिल जाए। हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है।
गोविंदी ने विपक्षी न बन कर मधयस्थ भाव से कहा — मैं मानती हूँ कि धन के लिए थोड़ी तपस्या नहीं करनी पड़तीए लेकिन फिर भी हमने उसे जीवन में जितने महत्व की वस्तु समझ रखा हैए उतना महत्व उसमें नहीं है। मैं तो खुश हूँ कि तुम्हारे सिर से यह बोझ टला। अब तुम्हारे लड़के आदमी होंगेए स्वार्थ और अभिमान के पुतले नहीं। जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में हैंए उनको लूटने में नहीं। बुरा न माननाए अब तक तुम्हारे जीवन का अर्थ था आत्मसेवाए भोग और विलास। दैव ने तुम्हें उस साधन से वंचित करके तुम्हारे ज्यादा ऊँचे और पवित्र जीवन का रास्ता खोल दिया है। यह सिद्धि प्राप्त करने में अगर कुछ कष्ट भी होए तो उसका स्वागत करो। तुम इसे विपत्ति समझते ही क्यों होघ् क्यों नहीं समझतेए तुम्हें अन्याय से लड़ने का अवसर मिला है। मेरे विचार में तो पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं श्रेष्ठ है। धन खो कर अगर हम अपने आत्मा को पा सकेंए तो यह कोई महँगा सौदा नहीं है। न्याय के सैनिक बन कर लड़ने में जो गौरवए जो उल्लास हैए क्या उसे इतनी जल्द भूल गएघ्
श्गोविंदी के पीलेए सूखे मुख पर तेज की ऐसी चमक थीए मानो उसमें कोई विलक्षण शक्ति आ गई होए मानो उसकी सारी मूक साधना प्रगल्भ हो उठी हो।
मेहता उसकी ओर भक्तिपूर्ण नेत्रों से ताक रहे थेए खन्ना सिर झुकाए इसे दैवी प्रेरणा समझने की चेष्टा कर रहे थे और मालती मन में लज्जित थी। गोविंदी के विचार इतने ऊँचेए उसका हृदय इतना विशाल और उसका जीवन इतना उज्ज्वल है।
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भाग 28
नोहरी उन औरतों में न थीए जो नेकी करके दरिया में डाल देती हैं। उसने नेकी की हैए तो उसका खूब ढ़िंढ़ोरा पीटेगी और उससे जितना यश मिल सकता हैए उससे कुछ ज्यादा ही पाने के लिए हाथ—पाँव मारेगी। ऐसे आदमी को यश के बदले अपयश और बदनामी ही मिलती है। नेकी न करना बदनामी की बात नहीं। अपनी इच्छा नहीं हैए या सामर्थ्य नहीं है। इसके लिए कोई हमें बुरा नहीं कह सकता। मगर जब हम नेकी करके उसका एहसान जताने लगते हैंए तो वही जिसके साथ हमने नेकी की थीए हमारा शत्रु हो जाता हैए और हमारे एहसान को मिटा देना चाहता है। वही नेकी अगर करने वाले के दिल में रहेए तो नेकी हैए बाहर निकल आए तो बदी है। नोहरी चारों ओर कहती फिरती थी — बेचारा होरी बड़ी मुसीबत में था। बेटी के ब्याह के लिए जमीन रेहन रख रहा था। मैंने उसकी यह दसा देखीए तो मुझे दया आई। धनिया से तो जी जलता थाए वह राँड़ तो मारे घमंड के धरती पर पाँव ही नहीं रखती। बेचारा होरी चिंता से घुला जाता था। मैंने सोचाए इस संकट में इसकी कुछ मदद कर दूँ। आखिर आदमी ही तो आदमी के काम आता है। और होरी तो अब कोई गैर नहीं हैए मानो चाहे न मानोए वह हमारे नातेदार हो चुके। रुपए निकाल कर दे दिएए नहीं लड़की अब तक बैठी रहती।
धनिया भला यह जीट कब सुनने लगी थी। रुपए खैरात दिए थेघ् बड़ी खैरात देने वाली। सूद महाजन भी लेगाए तुम भी लोगी। एहसान काहे का! दूसरों को देतीए सूद की जगह मूल भी गायब हो जाताए हमने लिया हैए तो हाथ में रुपए आते ही नाक पर रख देंगे। हमीं थे कि तुम्हारे घर का बिस उठाके पी गएए और कभी मुँह पर नहीं लाए। कोई यहाँ द्वार पर नहीं खड़ा होने देता था। हमने तुम्हारा मरजाद बना लियाए तुम्हारे मुँह की लाली रख ली।
रात के दस बज गए थे। सावन की अंधेरी घटा छाई थी। सारे गाँव में अंधकार था। होरी ने भोजन करके तमाखू पिया और सोने जा रहा था कि भोला आ कर खड़ा हो गया।
होरी ने पूछा — कैसे चले भोला महतो! जब इसी गाँव में रहना है तो क्यों अलग छोटा—सा घर नहीं बना लेतेघ् गाँव में लोग कैसी—कैसी कुत्सा उड़ाया करते हैंए क्या यह तुम्हें अच्छा लगता हैघ् बुरा न माननाए तुमसे संबंध हो गया हैए इसलिए तुम्हारी बदनामी नहीं सुनी जातीए नहीं मुझे क्या करना था।
धनिया उसी समय लोटे में पानी ले कर होरी के सिरहाने रखने आई। सुन कर बोली — दूसरा मरद होताए तो ऐसी औरत का सिर काट लेता।
होरी ने डाँटा — क्यों बे—बात की बात करती है। पानी रख दे और जा सो। आज तू ही कुराह चलने लगेए तो मैं तेरा सिर काट लूँगाघ् काटने देगीघ्
धनिया उसे पानी का एक छींटा मार कर बोली — कुराह चले तुम्हारी बहनए मैं क्यों कुराह चलने लगी। मैं तो दुनिया की बात कहती हूँए तुम मुझे गालियाँ देने लगे। अब मुँह मीठा हो गया होगा। औरत चाहे जिस रास्ते जायए मरद टुकुर—टुकुर देखता रहे। ऐसे मरद को मैं मरद नहीं कहती।
होरी दिल में कटा जाता था। भोला उससे अपना दुख—दर्द कहने आया होगा। वह उल्टे उसी पर टूट पड़ी। जरा गर्म हो कर बोला — तू जो सारे दिन अपने ही मन की किया करती हैए तो मैं तेरा क्या बिगाड़ लेता हूँघ् कुछ कहता हूँ तो काटने दौड़ती है। यही सोच।
धनिया ने लल्लो—चप्पो करना न सीखा थाए बोली — औरत घी का घड़ा लुढ़़का देए घर में आग लगा देए मरद सह लेगाए लेकिन उसका कुराह चलना कोई मरद न सहेगा।
भोला दुखित स्वर में बोला — तू बहुत ठीक कहती है धनिया। बेसक मुझे उसका सिर काट लेना चाहिए थाए लेकिन अब उतना पौरुख तो नहीं रहा। तू चल कर समझा देए मैं सब कुछ करके हार गया।
श्जब औरत को बस में रखने का बूता न थाए तो सगाई क्यों की थीघ् इसी छीछालेदर के लिएघ् क्या सोचते थेए वह आ कर तुम्हारे पैर दबाएगीए तुम्हें चिलम भर—भर पिलाएगी और जब तुम बीमार पड़ोगेए तो तुम्हारी सेवा करेगीघ् तो ऐसा वही औरत कर सकती हैए जिसने तुम्हारे साथ जवानी का सुख उठाया हो। मेरी समझ में यही नहीं आता कि तुम उसे देख कर लट्टू कैसे हो गए! कुछ देखभाल तो कर लिया होता कि किस स्वभाव की हैए किस रंग—ढ़ंग की है। तुम तो भूखे सियार की तरह टूट पड़े। अब तो तुम्हारा धरम यही है कि गँड़ासे से उसका सिर काट लो। फाँसी ही तो पाओगे। फाँसी इस छीछालेदर से अच्छी।श्
भोला के खून में कुछ स्फूर्ति आई। बोला — तो तुम्हारी यही सलाह हैघ्
धनिया बोली — हाँए मेरी यही सलाह है। अब सौ—पचास बरस तो जीओगे नहीं। समझ लेनाए इतनी ही उमिर थी।
होरी ने अब की जोर से फटकारा — चुप रहए बड़ी आई है वहाँ से सतवंती बनके। जबरदस्ती चिड़िया तक तो पिंजड़े में रहती नहींए आदमी क्या रहेगाघ् तुम उसे छोड़ दो भोला और समझ लोए मर गईए और जा कर अपने बाल—बच्चों में आराम से रहो। दो रोटी खाओ और राम का नाम लो। जवानी के सुख अब गए। वह औरत चंचल हैए बदनामी और जलन के सिवा तुम उससे कोई सुख न पाओगे।
भोला नोहरी को छोड़ देए असंभव! नोहरी इस समय भी उसकी ओर रोष—भरी आँखों से तरेरती हुई जान पड़ती थीए लेकिन नहींए भोला अब उसे छोड़ ही देगा। जैसा कर रही हैए उसका फल भोगे।
आँखों में आँसू आ गए। बोला — होरी भैयाए इस औरत के पीछे मेरी जितनी साँसत हो रही हैए मैं ही जानता हूँ। इसी के पीछे कामता से मेरी लड़ाई हुई। बुढ़़ापे में यह दाग भी लगना थाए वह लग गया। मुझे रोज ताना देती है कि तुम्हारी तो लड़की निकल गई। मेरी लड़की निकल गईए चाहे भाग गईए लेकिन अपने आदमी के साथ पड़ी तो हैए उसके सुख—दुरूख की साथिन तो है। इसकी तरह तो मैंने औरत ही नहीं देखी। दूसरों के साथ तो हँसती हैए मुझे देखा तो कुप्पे—सा मुँह फुला लिया। मैं गरीब आदमी ठहराए तीन—चार आने रोज की मजूरी करता हूँ। दूध—दहीए माँस—मछलीए रबड़ी—मलाई कहाँ से लाऊँ!
भोला यहाँ से प्रतिज्ञा करके अपने घर गए। अब बेटों के साथ रहेंगेए बहुत धक्के खा चुकेए लेकिन दूसरे दिन प्रातरूकाल होरी ने देखाए तो भोला दुलारी सहुआइन की दुकान से तमाखू लिए जा रहे थे।
होरी ने पुकारना उचित न समझा। आसक्ति में आदमी अपने बस में नहीं रहता! वहाँ से आ कर धनिया से बोला — भोला तो अभी वहीं है। नोहरी ने सचमुच इन पर कोई जादू कर दिया है।
धनिया ने नाक सिकोड़ कर कहा — जैसी बेहया वह हैए वैसा ही बेहया यह। ऐसे मरद को तो चुल्लू—भर पानी में डूब मरना चाहिए। अब वह सेखी न जाने कहाँ गई। झुनिया यहाँ आईए तो उसके पीछे डंडा लिए फिर रहे थे। इज्जत बिगड़ी जाती थी। अब इज्जत नहीं बिगड़ती!
होरी को भोला पर दया आ रही थी। बेचारा इस कुलटा के फेर में पड़ कर अपनी जिंदगी बरबाद किए डालता है। छोड़ कर जाय भीए तो कैसेघ् स्त्री को इस तरह छोड़ कर जाना क्या सहज हैघ् यह चुड़ैल उसे वहाँ भी तो चौन से न बैठने देगी! कहीं पंचायत करेगीए कहीं रोटी—कपड़े का दावा करेगी। अभी तो गाँव ही के लोग जानते हैं। किसी को कुछ कहते संकोच होता है। कनफुसकियाँ करके ही रह जाते हैं। तब तो दुनिया भी भोला ही को बुरा कहेगी। लोग यही तो कहेंगेए कि जब मर्द ने छोड़ दियाए तो बेचारी अबला क्या करेघ् मर्द बुरा होए तो औरत की गर्दन काट लेगा। औरत बुरी होए तो मर्द के मुँह में कालिख लगा देगी।
इसके दो महीने बाद एक दिन गाँव में यह खबर फैली कि नोहरी ने मारे जूतों के भोला की चाँद गंजी कर दी।
वर्षा समाप्त हो गई थी और रबी बोने की तैयारियाँ हो रही थीं। होरी की ऊख तो नीलाम हो गई थी। ऊख के बीज के लिए उसे रुपए न मिले और ऊख न बोई गई। उधर दाहिना बैल भी बैठाऊ हो गया था और एक नए बैल के बिना काम न चल सकता था। पुनिया का एक बैल नाले में गिर कर मर गया थाए तब से और भी अड़चन पड़ गई थी। एक दिन पुनिया के खेत में हल जाताए एक दिन होरी के खेत में। खेतों की जुताई जैसी होनी चाहिएए वैसी न हो पाती थी।
होरी हल ले कर खेत में गयाए मगर भोला की चिंता बनी हुई थी। उसने अपने जीवन में कभी यह न सुना था कि किसी स्त्री ने अपने पति को जूते से मारा हो। जूतों से क्याए थप्पड़ या घूँसे से मारने की भी कोई घटना उसे याद न आती थीए और आज नोहरी ने भोला को जूतों से पीटा और सब लोग तमाशा देखते रहे। इस औरत से कैसे उस अभागे का गला छूटे! अब तो भोला को कहीं डूब ही मरना चाहिए। जब जिंदगी में बदनामी और दुरदसा के सिवा और कुछ न होए तो आदमी का मर जाना ही अच्छा। कौन भोला के नाम को रोने वाला बैठा है! बेटे चाहे किरिया—करम कर देंए लेकिन लोक—लाज के बसए आँसू किसी की आँख में न आएगा। तिरसना के बस में पड़ कर आदमी इस तरह अपनी जिंदगी चौपट करता है। जब कोई रोने वाला ही नहींए तो फिर जिंदगी का क्या मोह और मरने से क्या डरना!
एक यह नोहरी है और यह एक चमारिन है सिलिया! देखने—सुनने में उससे लाख दरजे अच्छी। चाहे दो को खिला कर खाए और राधिका बनी घूमेए लेकिन मजूरी करती हैए भूखों मरती है और मतई के नाम पर बैठी हैए और वह निर्दयी बात भी नहीं पूछता। कौन जानेए धनिया मर गई होतीए तो आज होरी की भी यही दशा होती। उसकी मौत की कल्पना ही से होरी को रोमांच हो उठा। धनिया की मूर्ति मानसिक नेत्रों के सामने आ कर खड़ी हो गई! सेवा और त्याग की देवी! जबान की तेजए पर मोम—जैसा हृदयए पैसे—पैसे के पीछे प्राण देने वालीए पर मर्यादा—रक्षा के लिए अपना सर्वस्व होम कर देने को तैयार। जवानी में वह कम रूपवती न थी। नोहरी उसके सामने क्या हैघ् चलती थीए तो रानी—सी लगती थी। जो देखता थाए देखता ही रह जाता था। यही पटेश्वरी और झिंगुरी तब जवान थे। दोनों धनिया को देख कर छाती पर हाथ रख लेते थे। द्वार के सौ—सौ चक्कर लगाते थे। होरी उनकी ताक में रहता थाए मगर छेड़ने का कोई बहाना न पाता थाए उन दिनों घर में खाने—पीने की बड़ी तंगी थी। पाला पड़ गया था और खेतों में भूसा तक न हुआ था। लोग झड़बेरियाँ खा—खा कर दिन काटते थे। होरी को कहत के कैंप में काम करने जाना पड़ता था। छरू पैसे रोज मिलते थे। धनिया घर में अकेली ही रहती थीए कभी किसी ने उसे किसी छैला की ओर ताकते नहीं देखा। पटेश्वरी ने एक बार कुछ छेड़ की थी। उसका ऐसा मुँहतोड़ जवाब दिया कि अब तक नहीं भूले।
सहसा उसने मातादीन को अपनी ओर आते देखा। कसाई कहीं काए कैसा तिलक लगाए हैए मानो भगवान का असली भगत है। रंगा हुआ सियार। ऐसे ब्राह्मन को पालागन कौन करे।
मातादीन ने समीप आ कर कहा — तुम्हारा दाहिना तो बूढ़़ा हो गया होरीए अबकी सिंचाई में न ठहरेगा। कोई पाँच साल हुए होंगे इसे लाएघ्
होरी ने दाएँ बैल की पीठ पर हाथ रख कर कहा — कैसा पाँचवाँए यह आठवाँ चल रहा है भाई! जी तो चाहता हैए इसे पिंसिन दे दूँए लेकिन किसान और किसान के बैल इनको जमराज ही पिंसिन देंए तो मिले। इसकी गर्दन पर जुआ रखते मेरा मन कचोटता है। बेचारा सोचता होगाए अब भी छुट्टी नहींए अब क्या मेरा हाड़ जोतेगाघ् लेकिन अपना कोई काबू नहीं। तुम कैसे चलेघ् अब तो जी अच्छा हैघ्
मातादीन इधर एक महीने से मलेरिया ज्वर में पड़ा रहा था। एक दिन तो उसकी नाड़ी छूट गई थी। चारपाई से नीचे उतार दिया गया था। तब से उसके मन में यह प्रेरणा हुई थी कि सिलिया के साथ अत्याचार करने का उसे यह दंड मिला है। जब उसने सिलिया को घर से निकालाए तब वह गर्भवती थी। उसे तनिक भी दया न आई। पूरा गर्भ ले कर भी वह मजूरी करती रही। अगर धनिया ने उस पर दया न की होती तो मर गई होती। कैसी—कैसी मुसीबतें झेल कर जी रही है! मजूरी भी तो इस दशा में नहीं कर सकती। अब लज्जित और द्रवित हो कर वह सिलिया को होरी के हस्ते दो रुपए देने आया हैए अगर होरी उसे वह रुपए दे देए तो वह उसका बहुत उपकार मानेगा।
होरी ने कहा — तुम्हीं जा कर क्यों नहीं दे देतेघ्
मातादीन ने दीन भाव से कहा — मुझे उसके पास मत भेजो होरी महतो! कौन—सा मुँह ले कर जाऊँघ् डर भी लग रहा है कि मुझे देख कर कहीं फटकार न सुनाने लगे। तुम मुझ पर इतनी दया करो। अभी मुझसे चला नहीं जाताए लेकिन इसी रुपए के लिए एक जजमान के पास कोस—भर दौड़ा गया था। अपनी करनी का फल बहुत भोग चुका। इस बम्हनई का बोझ अब नहीं उठाए उठता। लुक—छिप कर चाहे जितने कुकरम करोए कोई नहीं बोलता। परतच्छ कुछ नहीं कर सकतेए नहीं कुल में कलंक लग जायगा। तुम उसे समझा देना दादाए कि मेरा अपराध क्षमा कर दे। यह धरम का बंधन बड़ा कड़ा होता है। जिस समाज में जनमे और पलेए उसकी मरजादा का पालन तो करना ही पड़ता है। और किसी जाति का धरम बिगड़ जायए उसे कोई विशेष हानि नहीं होतीए ब्राह्मन का धरम बिगड़ जायए तो वह कहीं का नहीं रहता। उसका धरम ही उसके पूरवजों की कमाई है। उसी की वह रोटी खाता है। इस परासचित के पीछे हमारे तीन सौ बिगड़ गए। तो जब बेधरम हो कर ही रहना हैए तो फिर जो कुछ करना हैए परतच्छ करूँगा। समाज के नाते आदमी का अगर कुछ धरम हैए तो मनुष्य के नाते भी तो उसका कुछ धरम है। समाज—धरम पालने से समाज आदर करता हैए मगर मनुष्य—धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है।
संध्या समय जब होरी ने सिलिया को डरते—डरते रुपए दिएए तो वह जैसे अपनी तपस्या का वरदान पा गई। दुरूख का भार तो वह अकेली उठा सकती थी। सुख का भार तो अकेले नहीं उठता। किसे यह खुशखबरी सुनाएघ् धनिया से वह अपने दिल की बातें नहीं कह सकती। गाँव में और कोई प्राणी नहींए जिससे उसकी घनिष्ठता हो। उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। सोना ही उसकी सहेली थी। सिलिया उससे मिलने के लिए आतुर हो गई। रात—भर कैसे सब्र करेघ् मन में एक आँधी—सी उठ रही थी। अब वह अनाथ नहीं है। मातादीन ने उसकी बाँह फिर पकड़ ली। जीवन—पथ में उसके सामने अब अंधेरीए विकराल मुख वाली खाई नहीं हैए लहलहाता हुआ हरा—भरा मैदान हैए जिसमें झरने गा रहे हैं और हिरन कुलेलें कर रहे हैं। उसका रूठा हुआ स्नेह आज उन्मत्त हो गया है। मातादीन को उसने मन में कितना पानी पी—पी कर कोसा था। अब वह उनसे क्षमादान माँगेगी। उससे सचमुच बड़ी भूल हुई कि उसने उनको सारे गाँव के सामने अपमानित किया। वह तो चमारिन है जाति की हेठीए उसका क्या बिगड़ा। आज दस—बीस लगा कर बिरादरी को रोटी दे देए फिर बिरादरी में ले ली जायगी। उस बेचारे का तो सदा के लिए धरम नास हो गया। वह मरजाद अब उन्हें फिर नहीं मिल सकता। वह क्रोध में कितनी अंधी हो गई थी कि सबसे उनके प्रेम का ढ़िंढ़ोरा पीटती फिरी। उनका तो धरम भिरष्ट हो गया थाए उन्हें तो क्रोध था हीए उसके सिर पर क्यों भूत सवार हो गयाघ् वह अपने ही घर चली जातीए तो कौन बुराई हो जातीघ् घर में उसे कोई बाँध तो न लेता। देस मातादीन की पूजा इसीलिए तो करता है कि वह नेम—धरम से रहते हैं। वही धरम नष्ट हो गयाए तो वह क्यों न उसके खून के प्यासे हो जातेघ्
जरा देर पहले तक उसकी नजर में सारा दोष मातादीन का था और अब सारा दोष अपना था। सहृदयता ने सहृदयता पैदा की। उसने बच्चे को छाती से लगा कर खूब प्यार किया। अब उसे देख कर लज्जा और ग्लानि नहीं होती। वह अब केवल उसकी दया का पात्र नहीं। वह अब उसके संपूर्ण मातृस्नेह और गर्व का अधिकारी है।
कातिक की रूपहली चाँदनी प्रकृति पर मधुर संगीत की भाँति छाई थी। सिलिया घर से निकली। वह सोना के पास जा कर यह सुख—संवाद सुनाएगी। अब उससे नहीं रहा जाता। अभी तो साँझ हुई है। डोंगी मिल जायगी। वह कदम बढ़़ाती हुई चली। नदी पर आ कर देखाए तो डोंगी उस पार थी। और माँझी का कहीं पता नहीं। चाँद घुल कर जैसे नदी में बहा जा रहा था। वह एक क्षण खड़ी सोचती रही। फिर नदी में घुस पड़ी। नदी में कुछ ऐसा ज्यादा पानी तो क्या होगा! उस उल्लास के सागर के सामने वह नदी क्या चीज थीघ् पानी पहले तो घुटनों तक थाए फिर कमर तक आया और फिर अंत में गर्दन तक पहुँच गया। सिलिया डरीए कहीं डूब न जाए। कहीं कोई गढ़़ा न पड़ जायए पर उसने जान पर खेल कर पाँव आगे बढ़़ाया। अब वह मझधार में है। मौत उसके सामने नाच रही हैए मगर वह घबड़ाई नहीं है। उसे तैरना आता है। लड़कपन में इसी नदी में वह कितनी बार तैर चुकी है। खड़े—खड़े नदी को पार भी कर चुकी है। फिर भी उसका कलेजा धक—धक कर रहा हैए मगर पानी कम होने लगा। अब कोई भय नहीं। उसने जल्दी—जल्दी नदी पार की और किनारे पहुँच कर अपने कपड़े का पानी निचोड़ा और शीत से काँपती आगे बढ़़ी। चारों तरफ सन्नाटा था। गीदड़ों की आवाज भी न सुनाई पड़ती थीए और सोना से मिलने की मधुर कल्पना उसे उड़ाए लिए जाती थी।
मगर उस गाँव में पहुँच कर उसे सोना के घर जाते संकोच होने लगा। मथुरा क्या कहेगाघ् उसके घरवाले क्या कहेंगेघ् सोना भी बिगड़ेगी कि इतनी रात गए तू क्यों आई। देहातों में दिन—भर के थके—माँदे किसान सरेशाम ही से सो जाते हैं। सारे गाँव में सोता पड़ गया था। मथुरा के घर के द्वार बंद थे। सिलिया किवाड़ न खुलवा सकी। लोग उसे इस भेष में देख कर क्या कहेंगेघ् वहीं द्वार पर अलाव में अभी आग चमक रही थी। सिलिया अपने कपड़े सेंकने लगी। सहसा किवाड़ खुला और मथुरा ने बाहर निकल कर पुकारा — अरे! कौन बैठा है अलाव के पासघ्
सिलिया ने जल्दी से अंचल सिर पर खींच लिया और समीप आ कर बोली — मैं हूँए सिलिया।
सिलिया! इतनी रात गए कैसे आईघ् वहाँ तो सब कुसल हैघ्श्
श्हाँए सब कुसल है। जी घबड़ा रहा था। सोचाए चलूँए सबसे भेंट करती आऊँ। दिन को तो छुट्टी ही नहीं मिलती।श्
श्तो क्या नदी थहा कर आई हैघ्श्
श्और कैसे आती! पानी कम था।श्
मथुरा उसे अंदर ले गया। बरोठे में अँधेरा था। उसने सिलिया का हाथ पकड़ कर अपने ओर खींचा। सिलिया ने झटके से हाथ छुड़ा लिया। और रोब से बोली — देखो मथुराए छेड़ोगे तो मैं सोना से कह दूँगी। तुम मेरे छोटे बहनोई होए यह समझ लो। मालूम होता हैए सोना से मन नहीं पटता।
मथुरा ने उसकी कमर में हाथ डाल कर कहा — तुम बहुत निठुर हो सिल्लोघ् इस बखत कौन देखता हैघ्
क्या मैं सोना से सुंदर हूँघ् अपने भाग नहीं बखानते कि ऐसी इंदर की परी पा गए। अब भौंरा बनने का मन चला है। उससे कह दूँ तो तुम्हारा मुँह न देखे।श्
मथुरा लंपट नहीं थाए सोना से उसे प्रेम भी था। इस वक्त अँधेरा और एकांत और सिलिया का यौवन देख कर उसका मन चंचल हो उठा था। यह तंबीह पा कर होश में आ गया। सिलिया को छोड़ता हुए बोला — तुम्हारे पैरों में पड़ता हूँ सिल्लोए उससे न कहना। अभी जो सजा चाहोए दे लो।
सिल्लो को उस पर दया आ गई। धीरे से उसके मुँह पर चपत जमा कर बोली — इसकी सजा यही है कि फिर मुझसे ऐसी सरारत न करनाए न और किसी से करनाए नहीं सोना तुम्हारे हाथ से निकल जायगी।
श्मैं कसम खाता हूँ सिल्लोए अब कभी ऐसा न होगा।श्
उसकी आवाज में याचना थी। सिल्लो का मन आंदोलित होने लगा। उसकी दया सरस होने लगी।
श्और जो करोघ्श्
श्तो तुम जो चाहना करना।श्
सिल्लो का मुँह उसके मुँह के पास आ गया थाए और दोनों की साँस और आवाज और देह में कंपन हो रहा था। सहसा सोना ने पुकारा — किससे बातें करते हो वहाँघ्
सिल्लो पीछे हट गई। मथुरा आगे बढ़़ कर आँगन में आ गया और बोला — सिल्लो तुम्हारे गाँव से आई है।
सिल्लो भी पीछे—पीछे आ कर आँगन में खड़ी हो गई। उसने देखाए सोना यहाँ कितने आराम से रहती है। ओसारी में खाट है। उस पर सुजनी का नर्म बिस्तर बिछा हुआ हैए बिलकुल वैसा हीए जैसा मातादीन की चारपाई पर बिछा रहता था। तकिया भी हैए लिहाफ भी है। खाट के नीचे लोटे में पानी रखा हुआ है। आँगन में ज्योत्स्ना ने आइना—सा बिछा रखा है। एक कोने में तुलसी का चबूतरा हैए दूसरी ओर जुआर के ठेठों के कई बोझ दीवार से लगा कर रखे हैं। बीच में पुआलों के गट्ठे हैं। समीप ही ओखल हैए जिसके पास कुटा हुआ धान पड़ा हुआ है। खपरैल पर लौकी की बेल चढ़़ी हुई है और कई लौकियाँ ऊपर चमक रही हैं। दूसरी ओर की ओसारी में एक गाय बँधी हुई है। इस खंड में मथुरा और सोना सोते हैं। और लोग दूसरे खंड में होंगे। सिलिया ने सोचाए सोना का जीवन कितना सुखी है।
सोना उठ कर आँगन में आ गई थीए मगर सिल्लो से टूट कर गले नहीं मिली। सिल्लो ने समझाए शायद मथुरा के खड़े रहने के कारण सोना संकोच कर रही है। या कौन जानेए उसे अब अभिमान हो गया होघ् सिल्लो चमारिन से गले मिलने में अपना अपमान समझती हो। उसका सारा उत्साह ठंडा हो गया। इस मिलन से हर्ष के बदले उसे ईष्या हुई। सोना का रंग कितना खुल गया हैए और देह कैसी कंचन की तरह निखर आई है। गठन भी सुडौल हो गया है। मुख पर गृहिणीत्व की गरिमा के साथ युवती की सहास छवि भी है। सिल्लो एक क्षण के लिए जैसे मंत्र—मुग्ध—सी खड़ी ताकती रह गई। यह वही सोना हैए जो सूखी—सी देह लिएए झोंटे खोले इधर—उधर दौड़ा करती थी। महीनों सिर में तेल न पड़ता था। फटे चिथड़े लपेटे फिरती थी। आज अपने घर की रानी है। गले में हँसुली और हुमेल हैए कानों में करनफूल और सोने की बालियाँए हाथों में चाँदी के चूड़े और कंगन। आँखों में काजल हैए माँग में सेंदुर। सिलिया के जीवन का स्वर्ग यहीं थाए और सोना को वहाँ देख कर वह प्रसन्न न हुई। इसे कितना घमंड हो गया है! कहाँ सिलिया के गले में बाँहे डाल घास छीलने जाती थीए और आज सीधे ताकती भी नहीं। उसने सोचा थाए सोना उसके गले लिपट कर जरा—सा रोएगीए उसे आदर से बैठाएगीए उसे खाना खिलाएगीए और गाँव और घर की सैकड़ों बातें पूछेगी और अपने नए जीवन के अनुभव बयान करेगी — सोहागरात और मधुर मिलन की बातें होंगी। और सोना के मुँह में दही जमा हुआ है। वह यहाँ आ कर पछताई।
आखिर सोना ने रूखे स्वर में पूछा — इतनी रात को कैसे चलींए सिल्लोघ्
सिल्लो ने आँसुओं को रोकने की चेष्टा करके कहा — तुमसे मिलने को बहुत जी चाहता था। इतने दिन हो गएए भेंट करने चली आई।
सोना का स्वर और कठोर हुआ — लेकिन आदमी किसी के घर जाता हैए तो दिन को कि इतनी रात गएघ्
वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग रहा था। वह समय उसकी प्रेम—क्रीड़ा और हास—विलास का थाए सिल्लो ने उसमें बाधक हो कर जैसे उसके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली थी।
सिल्लो निरूसंज्ञ—सी भूमि की ओर ताक रही थी। धरती क्यों नहीं फट जाती कि वह उसमें समा जाए। इतना अपमान! उसने अपने इतने ही जीवन में बहुत अपमान सहा थाए बहुत दुर्दशा देखी थीए लेकिन आज यह फांस जिस तरह उसके अंतरूकरण में चुभ गईए वैसी कभी कोई बात न चुभी थी। गुड़ घर के अंदर मटकों में बंद रखा होए तो कितना ही मूसलाधार पानी बरसेए कोई हानि नहीं होतीए पर जिस वक्त वह धूप में सूखने के लिए बाहर फैलाया गया होए उस वक्त तो पानी का एक छींटा भी उसका सर्वनाश कर देगा। सिलिया के अंतरूकरण की सारी कोमल भावनाएँ इस वक्त मुँह खोले बैठी थीं कि आकाश से अमृत—वर्षा होगी। बरसा क्याए अमृत के बदले विषए और सिलिया के रोम—रोम में दौड़ गया। सर्प—दंश के समान लहरें आईं। घर में उपवास करे सो रहना और बात हैए लेकिन पंगत से उठा दिया जाना तो डूब मरने की बात है। सिलिया को यहाँ एक क्षण ठहरना भी असहाय हो गयाए जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो। वह कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या हैए यह वह भाँप रही थी। वह बांबी में बैठा हुआ साँप कहीं बाहर न निकल आएए इसके पहले ही वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी। कैसे भागेए क्या बहाना करेघ् उसके प्राण क्यों नहीं निकल जाते!
मथुरा ने भंडारे की कुंजी उठा ली थी कि सिलिया के जलपान के लिए कुछ निकाल लाएए कर्तव्यविमूढ़़—सा खड़ा था। इधर सिल्लो की साँस टँगी हुई थीए मानो सिर पर तलवार लटक रही हो।
सोना की —ष्टि में सबसे बड़ा पाप किसी पुरुष का पर—स्त्री और स्त्री का पर—पुरुष की ओर ताकना था। इस अपराध के लिए उसके यहाँ कोई क्षमा न थी। चोरीए हत्याए जालए कोई अपराध इतना भीषण न था। हँसी—दिल्लगी को वह बुरा न समझती थीए अगर खुले हुए रूप में होए लुके—छिपे की हँसी—दिल्लगी को भी वह हेय समझती थीए छुटपन से ही वह बहुत—सी रीति की बातें जानने और समझने लगी थी। होरी को जब कभी हाट से घर आने में देर हो जाती थी और धनिया को पता लग जाता था कि वह दुलारी सहुआइन की दुकान पर गया थाए चाहे तंबाखू लेने ही क्यों न गया होए तो वह कई—कई दिन तक होरी से बोलती न थी और न घर का काम करती थी। एक बार इसी बात पर वह अपने नैहर भाग गई थी। यह भावना सोना में और तीव्र हो गई थी। जब तक उसका विवाह न हुआ थाए यह भावना उतनी बलवान न थीए पर विवाह हो जाने के बाद तो उसने व्रत का रूप धारण कर लिया था। ऐसे स्त्री—पुरुषों की अगर खाल भी खींच ली जातीए तो उसे दया न आती। प्रेम के लिए दांपत्य के बाहर उसकी —ष्टि में कोई स्थान न था। स्त्री—पुरुष का एक—दूसरे के साथ जो कर्तव्य हैए इसी को वह प्रेम समझती थी। फिर सिल्लो से उसका बहन का नाता था। सिल्लो को वह प्यार करती थीए उस पर विश्वास करती थी। वही सिल्लो आज उससे विश्वासघात कर रही है। मथुरा और सिल्लो में अवश्य ही पहले से साँठ—गाँठ होगी। मथुरा उससे नदी के किनारे खेतों में मिलता होगा। और आज वह इतनी रात गए नदी पार करके इसीलिए आई है। अगर उसने इन दोनों की बातें न सुन ली होतींए तो उसे खबर तक न होती। मथुरा ने प्रेम—मिलन के लिए यही अवसर सबसे अच्छा समझा होगा। घर में सन्नाटा जो है। उसका हृदय सब कुछ जानने के लिए विकल हो रहा था। वह सारा रहस्य जान लेना चाहती थीए जिससे अपनी रक्षा के लिए कोई विधान सोच सके। और यह मथुरा यहाँ क्यों खड़ा हैघ् क्या वह उसे कुछ बोलने भी न देगाघ्
उसने रोष से कहा — तुम बाहर क्यों नहीं जातेए या यहीं पहरा देते रहोगेघ्
मथुरा बिना कुछ कहे बाहर चला गया। उसके प्राण सूखे जाते थे कि कहीं सिल्लो सब कुछ न कह डाले।
और सिल्लो के प्राण सूखे जाते थे कि अब वह लटकती हुई तलवार सिर पर गिरा चाहती है।
तब सोना ने बड़े गंभीर स्वर में सिल्लो से पूछा — देखो सिल्लोए मुझसे साफ—साफ बता दोए नहीं मैं तुम्हारे सामनेए यहीं अपने गर्दन पर गँड़ासा मार लूँगी। फिर तुम मेरी सौत बन कर राज करना। देखोए गँड़ासा वह सामने पड़ा है। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती।
उसने लपक कर सामने आँगन में से गँड़ासा उठा लिया और उसे हाथ में लिएए फिर बोली — यह मत समझना कि मैं खाली धमकी दे रही हूँ। क्रोध में मैं क्या कर बैठूँए नहीं कह सकती। साफ—साफ बता दो।
सिलिया काँप उठी। एक—एक शब्द उसके मुँह से निकल पड़ाए मानो ग्रामोगोन में भरी हुई आवाज हो। वह एक शब्द भी न छिपा सकीए सोना के चेहरे पर भीषण संकल्प खेल रहा थाए मानो खून सवार हो।
सोना ने उसकी ओर बरछी की—सी चुभने वाली आँखों से देखा और मानो कटार का आघात करती हुई बोली — ठीक—ठीक कहती होघ्
श्बिलकुल ठीक। अपने बच्चे की कसम।श्
श्कुछ छिपाया तो नहींघ्श्
श्अगर मैंने रत्ती—भर छिपाया हो तो आँखें फूट जाएँ।श्
श्तुमने उस पापी को लात क्यों नहीं मारीघ् उसे दाँत क्यों नहीं काट लियाघ् उसका खून क्यों नहीं पी लियाए चिल्लाई क्यों नहींघ्श्
सिल्लो क्या जवाब दे।
सोना ने उन्मादिनी की भाँति अंगारे की—सी आँखें निकाल कर कहा — बोलती क्यों नहींघ् क्यों तूने उसकी नाक दाँतों से नहीं काट लीघ् क्यों नहीं दोनों हाथों से उसका गला दबा दियाघ् तब मैं तेरे चरणों पर सिर झुकाती। अब तो तुम मेरी आँखों में हरजाई होए निरी बेसवा! अगर यही करना थाए तो मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही हैए क्यों किसी को ले कर बैठ नहीं जातीए क्यों अपने घर नहीं चली गईघ् यही तो तेरे घर वाले चाहते थे। तू उपले और घास ले कर बाजार जातीए वहाँ से रुपए लाती और तेरा बाप बैठाए उसी रुपए की ताड़ी पीता। फिर क्यों उस ब्राह्मन का अपमान करायाघ् क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगायाघ् क्यों सतवंती बनी बैठो होघ् जब अकेले नहीं रहा जाताए तो किसी से सगाई क्यों नहीं कर लेती! क्यों नदी—तालाब में डूब नहीं मरतीघ् क्यों दूसरों के जीवन में बिस घोलती हैघ् आज मैं तुझसे कह देती हूँ कि अगर इस तरह की बात फिर हुई और मुझे पता लगाए तो तीनों में से एक भी जीते न रहेंगे। बसए अब मुँह में कालिख लगा कर जाओ। आज से मेरे और तुम्हारे बीच में कोई नाता नहीं रहा।
सिल्लो धीरे से उठी और सँभल कर खड़ी हुई। जान पड़ाए उसकी कमर टूट गई है। एक क्षण साहस बटोरती रहीए किंतु अपने सफाई में कुछ सूझ न पड़ा। आँखों के सामने अँधेरा थाए सिर में चक्करए कंठ सूख रहा थाए और सारी देह सुन्न हो गई थीए मानो रोम—छिद्रों से प्राण उड़े जा रहे हों। एक—एक पग इस तरह रखती हुईए मानो सामने गड्ढा हैए तब बाहर आई और नदी की ओर चली।
द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला — इस वक्त कहाँ जाती हो सिल्लोघ्
सिल्लो ने कोई जवाब न दिया। मथुरा ने भी फिर कुछ न पूछा।
वही रुपहली चाँदनी अब भी छाई हुई थी। नदी की लहरें अब भी चाँद की किरणों में नहा रही थीं। और सिल्लो विक्षिप्त—सी स्वप्न—छाया की भाँति नदी में चली जा रही थी।
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भाग 29
मिल करीब—करीब पूरी जल चुकी हैए लेकिन उसी मिल को फिर से खड़ा करना होगा। मिस्टर खन्ना ने अपनी सारी कोशिशें इसके लिए लगा दी हैं। मजदूरों की हड़ताल जारी हैए मगर अब उससे मिल—मालिकों को कोई विशेष हानि नहीं है। नए आदमी कम वेतन पर मिल गए हैं और जी तोड़ कर काम करते हैंए क्योंकि उनमें सभी ऐसे हैंए जिन्होंने बेकारी के कष्ट भोग लिए हैं और अब अपना बस चलते ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते जिससे उनकी जीविका में बाधा पड़े। चाहे जितना काम लोए चाहे जितनी कम छुट्टियाँ दोए उन्हें कोई शिकायत नहीं। सिर झुकाए बैलों की तरह काम में लगे रहते हैं। घुड़कियाँए गालियाँए यहाँ तक कि डंडों की मार भी उनमें ग्लानि नहीं पैदा करतीए और अब पुराने मजदूरों के लिए इसके सिवा कोई मार्ग नहीं रह गया है कि वह इसी घटी हुई मजूरी पर काम करने आएँ और खन्ना साहब की खुशामद करें। पंडित ओंकारनाथ पर तो उन्हें अब रत्ती—भर भी विश्वास नहीं है। उन्हें वे अकेले—दुकेले पाएँ तो शायद उनकी बुरी गत बनाएँए पर पंडितजी बहुत बचे हुए रहते हैं। चिराग जलने के बाद अपने कार्यालय से बाहर नहीं निकलते और अफसरों की खुशामद करने लगे हैं। मिर्जा खुर्शेद की धाक अब भी ज्यों—की—त्यों हैंए लेकिन मिर्जा जी इन बेचारों का कष्ट और उसके निवारण का अपने पास कोई उपाय न देख कर दिल से चाहते हैं कि सब—के—सब बहाल हो जायँए मगर इसके साथ ही नए आदमियों के कष्ट का खयाल करके जिज्ञासुओं से यही कह दिया करते हैं कि जैसी इच्छा होए वैसा करो।
मिस्टर खन्ना ने पुराने आदमियों को फिर नौकरी के लिए इच्छुक देखाए तो और भी अकड़ गएए हालाँकि वह मन से चाहते थे कि इस वेतन पर पुराने आदमी नयों से कहीं अच्छे हैं। नए आदमी अपना सारा जोर लगा कर भी पुराने आदमियों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदमियों में अधिकांश तो बचपन से ही मिल में काम करने के अभ्यस्त थे और खूब मँजे हुए। नए आदमियों में अधिकतर देहातों के दुरूखी किसान थेए जिन्हें खुली हवा और मैदान में पुराने जमाने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। मिल के अंदर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज चलने वाले पुजोर्ं से उन्हें भय लगता था।
आखिर जब पुराने आदमी खूब परास्त हो गएए तब खन्ना उन्हें बहाल करने पर राजी हुएए मगर नए आदमी इससे भी कम वेतन पर भी काम करने के लिए तैयार थे और अब डायरेक्टरों के सामने यह सवाल आया कि वह पुरानों को बहाल करें या नयों को रहने दें। डायरेक्टरों में आधे तो नए आदमियों का वेतन घटा कर रखने के पक्ष में थेए आधों की यह धारणा थी कि पुराने आदमियों को हाल के वेतन पर रख लिया जाए। थोड़े—से रुपए ज्यादा खर्च होंगे जरूरए मगर काम उससे कहीं ज्यादा होगा। खन्ना मिल के प्राण थेए एक तरह से सर्वेसर्वा। डायरेक्टर तो उनके हाथ की कठपुतलियाँ थे। निश्चय खन्ना ही के हाथों में था और वह अपने मित्रों से नहींए शत्रुओं से भी इस विषय में सलाह ले रहे थे। सबसे पहले तो उन्होने गोविंदी की सलाह ली। जब से मालती की ओर से उन्हें निराशा हो गई थी और गोविंदी को मालूम हो गया था कि मेहता जैसा विद्वान और अनुभवी और ज्ञानी आदमी मेरा कितना सम्मान करता है और मुझसे किस प्रकार की साधना की आशा रखता हैए तब से दंपति में स्नेह फिर जाग उठा था। स्नेह न कहोए मगर साहचर्य तो था ही। आपस में वह जलन और अशांति न थी। बीच की दीवार टूट गई थी।
मालती के रंग—ढ़ंग की भी कायापलट होती जाती थी। मेहता का जीवन अब तक स्वाध्याय और चिंतन में गुजरा थाए और सब कुछ पढ़़ चुकने के बाद और आत्मवाद और अनात्मवाद की खूब छान—बीन कर लेने पर वह इसी तत्व पर पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा—मार्ग हैए चाहे उसे कर्मयोग ही कहोए वही जीवन को सार्थक कर सकता हैए वही जीवन को ऊँचा और पवित्र बना सकता है। किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका विश्वास न था। यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न करते थेए इसलिए कि इस विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर करना वह अपने लिए असंभव समझते थेए पर यह धारणा उनके मन में —ढ़़ हो गई थी कि प्राणियों के जन्म—मरणए सुख—दुरूखए पाप—पुण्य में कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। उनका खयाल था कि मनुष्य ने अपने अहंकार में अपने को इतना महान बना लिया है कि उसके हर एक काम की प्रेरणा ईश्वर की ओर से होती है। इसी तरह वह टीड्डियाँ भी ईश्वर को उत्तरदायी ठहराती होंगीए जो अपने मार्ग में समुद्र आ जाने पर अरबों की संख्या में नष्ट हो जाती हैं। मगर ईश्वर के यह विधान इतने अज्ञेय हैं कि मनुष्य की समझ में नहीं आतेए तो उन्हें मानने से ही मनुष्य को क्या संतोष मिल सकता है। ईश्वर की कल्पना का एक ही उद्देश्य उनकी समझ में आता था और वह था मानव—जीवन की एकता। एकात्मवाद या सर्वात्मवाद या अहिंसा—तत्व को वह आध्यात्मिक —ष्टि से नहींए भौतिक —ष्टि से ही देखते थेए यद्यपि इन तत्वों का इतिहास के किसी काल में भी आधिपत्य नहीं रहाए फिर भी मनुष्य—जाति के सांस्कृतिक विकास में उनका स्थान बड़े महत्व का है। मानव—समाज की एकता में मेहता का —ढ़़ विश्वास थाए मगर इस विश्वास के लिए उन्हें ईश्वर—तत्व के मानने की जरूरत न मालूम होती थी। उनका मानव—प्रेम इस आधार पर अवलंबित न था कि प्राणि—मात्र में एक आत्मा का निवास है। द्वैत और अद्वैत व्यावहारिक महत्व के सिवा वह और कोई उपयोग न समझते थेए और वह व्यावहारिक महत्व उनके लिए मानव—जाति को एक दूसरे के समीप लानाए आपस के भेद—भाव को मिटाना और भ्रातृ—भाव को —ढ़़ करना ही था। यह एकताए यह अभिन्नता उनकी आत्मा में इस तरह जम गई थी कि उनके लिए किसी आध्यात्मिक आधार की स्रृष्टि उनकी —ष्टि में व्यर्थ थी और एक बार इस तत्व को पा कर वह शांत न बैठ सकते थे। स्वार्थ से अलग अधिक—से—अधिक काम करना उनके लिए आवश्यक हो गया था। इसके बगैर उनका चित्त शांत न हो सकता था। यशए लाभ या कर्तव्य पालन के भाव उनके मन में आते ही न थे। इनकी तुच्छता ही उन्हें इनसे बचाने के लिए काफी थी। सेवा ही अब उनका स्वार्थ होती जाती थी। और उनकी इस उदार वृत्ति का असर अज्ञात रूप से मालती पर भी पड़ता जाता था। अब तक जितने मर्द उसे मिलेए सभी ने उसकी विलास वृत्ति को ही उकसाया। उसकी त्याग वृत्ति दिन—दिन क्षीण होती जाती थीए पर मेहता के संसर्ग में आ कर उसकी त्याग—भावना सजग हो उठी थी। सभी मनस्वी प्राणियों में यह भावना छिपी रहती है और प्रकाश पा कर चमक उठती है। आदमी अगर धन या नाम के पीछे पड़ा हैए तो समझ लो कि अभी तक वह किसी परिष्कृत आत्मा के संपर्क में नहीं आया। मालती अब अक्सर गरीबों के घर बिना फीस लिए ही मरीजों को देखने चली जाती थी। मरीजों के साथ उसके व्यवहार में मृदुता आ गई थी। हाँए अभी तक वह शौक—सिंगार से अपना मन न हटा सकती थी। रंग और पाउडर का त्याग उसे अपने आंतरिक परिवर्तनों से भी कहीं ज्यादा कठिन जान पड़ता था।
इधर कभी—कभी दोनों देहातों की ओर चले जाते थे और किसानों के साथ दो—चार घंटे रह करए कभी—कभी उनके झोंपड़ों में रात काटकरए और उन्हीं का—सा भोजन करकेए अपने को धन्य समझते थे। एक दिन वह सेमरी तक पहुँच गए और घूमते—घामते बेलारी जा निकले। होरी द्वार पर बैठा चिलम पी रहा था कि मालती और मेहता आ कर खड़े हो गए। मेहता ने होरी को देखते ही पहचान लिया और बोला — यही तुम्हारा गाँव हैघ् याद हैए हम लोग रायसाहब के यहाँ आए थे और तुम धनुषयज्ञ की लीला में माली बने थे।
होरी की स्मृति जाग उठी। पहचाना और पटेश्वरी के घर की ओर कुरसियाँ लाने चला।
मेहता ने कहा — कुरसियों का कोई काम नहीं। हम लोग इसी खाट पर बैठे जाते हैं। यहाँ कुरसी पर बैठने नहींए तुमसे कुछ सीखने आए हैं।
दोनों खाट पर बैठे। होरी हतबुद्धि—सा खड़ा था। इन लोगों की क्या खातिर करे! बड़े—बड़े आदमी हैं। उनकी खातिर करने लायक उसके पास है ही क्याघ्
आखिर उसने पूछा — पानी लाऊँघ्
मेहता ने कहा — हाँए प्यास तो लगी है।
श्कुछ मीठा भी लेता आऊँघ्श्
श्लाओए अगर घर में हो।श्
होरी घर में मीठा और पानी लेने गया। तब तक गाँव के बालकों ने आ कर इन दोनों आदमियों को घेर लिया और लगे निरखनेए मानो चिड़ियाघर के अनोखे जंतु आ गए हों।
सिल्लो बच्चे को लिए किसी काम से चली जा रही थी। इन दोनों आदमियों को देख कर कौतूहलवश ठिठक गई।
मालती ने आ कर उसके बच्चे को गोद में ले लिया और प्यार करती हुई बोली — कितने दिनों का हैघ्
सिल्लो को ठीक न मालूम था। एक दूसरी औरत ने बताया — कोई साल—भर का होगाए क्यों रीघ्
सिल्लो ने समर्थन किया।
मालती ने विनोद कियाए प्यारा बच्चा है। इसे हमें दे दो।
सिल्लो ने गर्व से फूल कर कहा — आप ही का तो है।
श्लो मैं इसे ले जाऊँघ्श्
श्ले जाइए। आपके साथ रह कर आदमी हो जायगा।श्
गाँव की और महिलाएँ आ गईं और मालती को होरी के घर में ले गईं। यहाँ मरदों के सामने मालती से वार्तालाप करने का अवसर उन्हें न मिलता। मालती ने देखाए खाट बिछी हैए और उस पर एक दरी पड़ी हुई हैए जो पटेश्वरी के घर से माँग कर आई थीए मालती जा कर बैठी। संतान—रक्षा और शिशु—पालन की बातें होने लगीं। औरतें मन लगा कर सुनती रहीं।
धनिया ने कहा — यहाँ यह सब सफाई और संजम कैसे होगा सरकार! भोजन तक का ठिकाना तो है नहीं।
मालती ने समझाया — सफाई में कुछ खर्च नहीं। केवल थोड़ी—सी मेहनत और होशियारी से काम चल सकता है।
दुलारी सहुआइन ने पूछा — यह सारी बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं सरकारए आपका तो अभी ब्याह ही नहीं हुआघ्
मालती ने मुस्करा कर पूछा — तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरा ब्याह नहीं हुआ है।श्
सभी स्त्रियाँ मुँह फेर कर मुस्कराईं। पुनिया बोली—भलाए यह भी छिपा रहता हैए मिस साहबए मुँह देखते ही पता चल जाता है।
मालती ने झेंपते हुए कहा — इसलिए ब्याह नहीं किया कि आप लोगों की सेवा कैसे करती!
सबने एक स्वर में कहा — धन्य हो सरकारए धन्य हो।
सिलिया मालती के पाँव दबाने लगी — सरकार कितनी दूर से आई हैंए थक गई होंगी।
मालती ने पाँव खींच कर कहा — नहीं—नहींए मैं थकी नहीं हूँ। मैं तो हवागाड़ी पर आई हूँ। मैं चाहती हूँए आप लोग अपने बच्चे लाएँए तो मैं उन्हें देख कर आप लोगों को बताऊँ कि आप इन्हें कैसे तंदुरुस्त और नीरोग रख सकती हैं।
जरा देर में बीस—पच्चीस बच्चे आ गए। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आँखें उठी थींए उनकी आँखों में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दुर्बल थेए जिसका कारण थाए माता—पिता को भोजन अच्छा न मिलना। मालती को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि बहुत कम घरों में दूध होता था। घी के तो सालों दर्शन नहीं होते।
मालती ने यहाँ भी उन्हें भोजन करने का महत्व समझायाए जैसा वह सभी गाँवों में किया करती थी। उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा भोजन क्यों नहीं करतेघ् उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ जाता था। क्या तुम्हारा जन्म इसलिए हुआ है कि तुम मर—मर कर कमाओ और जो कुछ पैदा होए उसे खा न सकोघ् जहाँ दो—चार बैलों के लिए भोजन हैए एक—दो गाय—भैसों के लिए चारा नहीं हैघ् क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझ कर उसे केवल प्राण—रक्षा की वस्तु समझते हैंघ् क्यों सरकार से नहीं कहते कि नाम—मात्र के ब्याज पर रुपए दे कर उन्हें सूदखोर महाजनों के पंजे से बचाएघ् उसने जिस किसी से पूछाए यही मालूम हुआ कि उनकी कमाई का बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। बँटवारे का मरज भी बढ़़ता जाता था। आपस में इतना वैमनस्य था कि शायद ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों। उनकी इस दुर्दशा का कारण बहुत कुछ उनकी संकीर्णता और स्वार्थपरता थी। मालती इन्हीं विषयों पर महिलाओं से बातें करती रही। उनकी श्रद्धा देख—देख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल हो रही थी। इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था! आज उसके वह रेशमी कपड़ेए जिन पर जरी का काम थाए और वह गंध से महकता हुआ शरीरए और वह पाउडर से अलंकृत मुख—मंडलए उसे लज्जित करने लगा। उसकी कलाई पर बँधी सोने की घड़ी जैसे अपने अपलक नेत्रों से उसे घूर रही थी। उसके गले में चमकता हुआ जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट रहा था। इन त्याग और श्रद्धा की देवियों के सामने वह अपनी —ष्टि में नीची लग रही थी। वह इन ग्रामीणों से बहुत—सी बातें ज्यादा जानती थीए समय की गति ज्यादा पहचानती थीए लेकिन जिन परिस्थितियों में ये गरीबिनें जीवन को सार्थक कर रही हैंए उनमें क्या वह एक दिन भी रह सकती हैघ् जिनमें अहंकार का नाम नहींए दिन—भर काम करती हैंए उपवास करती हैंए रोती हैंए फिर भी इतनी प्रसन्न—मुख! दूसरे उनके लिए इतने अपने हो गए हैं कि अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। उनका अपनापन अपने लड़कों मेंए अपने पति मेंए अपने संबंधियों में है। इस भावना की रक्षा करते हुए इसी भावना का क्षेत्र और बढ़़ा कर भावी नारीत्व का आदर्श निर्माण होगा। जागृत देवियों में इसकी जगह आत्म—सेवन का जो भाव आ बैठा है सब कुछ अपने लिएए अपने भोग—विलास के लिए उससे तो यह सुषुप्तावस्था ही अच्छी। पुरुष निर्दयी हैए मानाए लेकिन है तो इन्हीं माताओं का बेटा। क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता कीए स्त्री—जाति की पूजा करताघ् इसीलिए कि माता को यह शिक्षा देनी नहीं आतीए इसीलिए कि उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़ गयाए उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो गया।
नहींए अपने को मिटाने से काम न चलेगा। नारी को समाज—कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगीए उसी तरह जैसे इन किसानों को अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ त्याग करना पड़ेगा।
संध्या हो गई थी। मालती को औरतें अब तक घेरे हुए थीं। उसकी बातों से जैसे उन्हें तृप्ति ही न होती थी। कई औरतों ने उससे रात को यहीं रहने का आग्रह किया। मालती को भी उसका सरल स्नेह ऐसा प्यारा लगा कि उसने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। रात को औरतें उसे अपना गाना सुनाएँगी। मालती ने भी प्रत्येक घर में जा—जा कर उनकी दशा से परिचय प्राप्त करने में अपने समय का सदुपयोग किया। उसकी निष्कपट सद्भावना और सहानुभूति उन गंवारिनों के लिए देवी के वरदान से कम न थी।
उधर मेहता साहब खाट पर आसन जमाए किसानों की कुश्ती देख रहे थे। पछता रहे थेए मिर्जा जी को क्यों न साथ ले लियाए नहीं उनका भी एक जोड़ हो जाता। उन्हें आश्चर्य हो रहा थाए ऐसे प्रौढ़़ और निरीह बालकों के साथ शिक्षित कहलाने वाले लोग कैसे निर्दयी हो जाते हैं। अज्ञान की भाँति ज्ञान भी सरलए निष्कपट और सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है। मानवता में उसका विश्वास इतना —ढ़़ए इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषिक समझने लगता है। वह यह भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों की निरीहता का जवाब सदैव पंजे और दाँतों से दिया है। वह अपना एक आदर्श—संसार बना कर उसको आदर्श मानवता से आबाद करता है और उसी में मग्न रहता है। यथार्थता कितनी अगम्यए कितनी दुर्बोधए कितनी अप्राकृतिक हैए उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। मेहता जी इस समय इन गँवारों के बीच में बैठे हुए इसी प्रश्न को हल कर रहे थे कि इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों हैघ् वह इस सत्य से आँखें मिलाने का साहस न कर सकते थे कि इनका देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है। काशए ये आदमी ज्यादा और देवता कम होतेए तो यों न ठुकराए जाते। देश में कुछ भी होए क्रांति ही क्यों न आ जायए इनसे कोई मतलब नहीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आए उसके सामने सिर झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुँच गई हैए जिसे कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश हो कर अब अपने अंदर ही टाँगे तोड़ कर बैठ गई है। उनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गई है।
संध्या हो गई थी। जो लोग अब तक खेतों में काम कर रहे थेए वे दौड़े चले आ रहे थे। उसी समय मेहता ने मालती को गाँव की कई औरतों के साथ इस तरह तल्लीन हो कर एक बच्चे को गोद में लिए देखाए मानो वह भी उन्हीं में से एक है। मेहता का हृदय आनंद से गदगद हो उठा। मालती ने एक प्रकार से अपने को मेहता पर अर्पण कर दिया था। इस विषय में मेहता को अब कोई संदेह न थाए मगर अभी तक उनके हृदय में मालती के प्रति वह उत्कट भावना जागृत न हुई थीए जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव करना उनके लिए हास्यजनक था। मालती बिना बुलाए मेहमान की भाँति उनके द्वार पर आ कर खड़ी हो गई थीए और मेहता ने उसका स्वागत किया था। इसमें प्रेम का भाव न थाए केवल पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन्हें इस योग्य समझती है कि उन पर अपनी कृपा——ष्टि फेरेए तो मेहता उसकी इस कृपा को अस्वीकार न कर सकते थे। इसके साथ ही वह मालती को गोविंदी के रास्ते से हटा देना चाहते थे और वह जानते थेए मालती जब तक आगे पाँव न जमा लेगीए वह पिछला पाँव न उठाएगी। वह जानते थेए मालती के साथ छल करके वह अपनी नीचता का परिचय दे रहे हैं। इसके लिए उनकी आत्मा उन्हें बराबर धिक्कारती रही थीए मगर ज्यों—ज्यों वह मालती को निकट से देखते थेए उनके मन में आकर्षण बढ़़ता जाता था। रूप का आकर्षण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। यह गुण का आकर्षण था। वह यह जानते थेए जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैंए केवल एक बंधन में बँध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता हैए वह तो रूप की आसक्ति—मात्र हैए जिसका कोई टीकाव नहींए मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के खराद पर चढ़़ेगाए उसमें खरादे जाने की क्षमता है भी या नहीं। सभी पत्थर तो खराद पर चढ़़ कर सुंदर मूर्तियाँ नहीं बन जाते। इतने दिनों में मालती ने उनके हृदय के भिन्न—भिन्न भागों में अपनी रश्मियाँ डाली थींए पर अभी तक वे केंद्रित हो कर उस ज्वाला के रूप में न फूट पड़ी थींए जिससे उनका सारा अंतस्तल प्रज्ज्वलित हो जाता। आज मालती ने ग्रामीणों में मिल कर और सारे भेद—भाव मिटा कर इन रश्मियों को मानो केंद्रित कर दिया। और आज पहली बार मेहता को मालती से एकात्मता का अनुभव हुआ। ज्यों ही मालती गाँव का चक्कर लगा कर लौटीए उन्होंने उसे साथ ले कर नदी की ओर प्रस्थान किया। रात यहीं काटने का निश्चय हो गया। मालती का कलेजा आज न जाने क्यों धक—धक करने लगा। मेहता के मुख पर आज उसे एक विचित्र ज्योति और इच्छा झलकती हुई नजर आई।
नदी के किनारे चाँदी का फर्श बिछा हुआ था और नदी रत्न—जटीत आभूषण पहने मीठे स्वरों में गातीए चाँद को और तारों को और सिर झुकाए नींद में माते वृक्षों को अपना नृत्य दिखा रही थी। मेहता प्रकृति की उस मादक शोभा से जैसे मस्त हो गए। जैसे उनका बालपन अपने सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया हो। बालू पर कई कुलाटें मारीं। फिर दौड़े हुए नदी में जा कर घुटनों तक पानी में खड़े हो गए।
मालती ने कहा — पानी में न खड़े हो। कहीं ठंड न लग जाए।
मेहता ने पानी उछाल कर कहा — मेरा तो जी चाहता हैए नदी के उस पार तैर कर चला जाऊँ।
श्नहीं—नहींए पानी से निकल आओ। मैं न जाने दूँगी।श्
श्तुम मेरे साथ न चलोगी उस सूनी बस्ती मेंए जहाँ स्वप्नों का राज्य हैघ्श्
श्मुझे तो तैरना नहीं आता।श्
श्अच्छाए आओए एक नाव बनाएँए और उस पर बैठ कर चलें।श्
वह बाहर निकल आए। आस—पास बड़ी दूर तक झाऊ का जंगल खड़ा था। मेहता ने जेब से चाकू निकाला और बहुत—सी टहनियाँ काट कर जमा कीं। कगार पर सरपत के जूटे खड़े थे। ऊपर चढ़़ कर सरपत का एक गट्ठा काट लाए और वहीं बालू के फर्श पर बैठ कर सरपत की रस्सी बटने लगे। ऐसे प्रसन्न थेए मानो स्वर्गारोहण की तैयारी कर रहे हैं। कई बार उँगलियाँ चिर गईंए खून निकला। मालती बिगड़ रही थीए बार—बार गाँव लौट चलने के लिए आग्रह कर रही थीए पर उन्हें कोई परवाह न थी। वही बालकों का—सा उल्लास थाए वही अल्हड़पनए वही हठ। दर्शन और विज्ञान सभी इस प्रवाह में बह गए थे।
रस्सी तैयार हो गई। झाऊ का बड़ा—सा तख्ता बन गयाए टहनियाँ दोनों सिरों पर रस्सी से जोड़ दी गई थीं। उसके छिद्रों में झाऊ की टहनियाँ भर दी गईंए जिससे पानी ऊपर न आए। नौका तैयार हो गई। रात और भी स्वप्निल हो गई थी।
मेहता ने नौका को पानी में डाल कर मालती का हाथ पकड़ कर कहा — आओए बैठो।
मालती ने सशंक हो कर कहा — दो आदमियों का बोझ सँभाल लेगीघ्
मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के साथ कहा — जिस तरी पर बैठे हम लोग जीवन—यात्रा कर रहे हैंए वह तो इससे कहीं निस्सार है मालतीघ् क्या डर रही होघ्
श्डर किस बात काए जब तुम साथ हो।श्
श्सच कहती होघ्श्
श्अब तक मैंने बगैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूँ।श्
दोनों उस झाऊ के तख्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख्ता डगमगाता हुआ पानी में चला।
मालती ने मन को इस तख्ते से हटाने के लिए पूछा — तुम हो हमेशा शहरों में रहेए गाँव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गयाघ् मैं तो ऐसा तख्ता कभी न बना सकती।
मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देख कर कहा — शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन—सा आ जाता हैए नस—नस में स्फूर्ति दौड़ने लगती है। एक—एक पक्षीए एक—एक पशुए जैसे मुझे आनंद का निमंत्रण देता हुआ जान पड़ता हैए मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनंद मुझे और कहीं नहीं मिलता मालतीए संगीत के रुलानेवाले स्वरों में भी नहींए दर्शन की ऊँची उड़ानों में भी नहीं। जैसे ये सब मेरे अपने सगे हों। प्रकृति के बीच आ कर मैं जैसे अपने—आपको पा जाता हूँए जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाए।
तख्ता डगमगाताए कभी तिरछाए कभी सीधाए कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था।
सहसा मालती ने कातर—कंठ से पूछा — और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आतीघ्
मेहता ने उसका हाथ पकड़ कर कहा — आती होए बार—बार आती होए सुगंध के एक झोंके की तरहए कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अ—श्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बाँध लूँए पर हाथ खुले रह जाते हैं। और तुम गायब हो जाती हो।
मालती ने उन्माद की दशा में कहा — लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचाघ् समझना चाहाघ्
श्हाँ मालतीए बहुत सोचाए बार—बार सोचा।श्
श्तो क्या मालूम हुआघ्श्
श्यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूँए वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं हैए केवल एक छोटी—सी शांत कुटीया हैए लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए।श्
मालती ने अपना हाथ छुड़ा कर जैसे मान करते हुए कहा — यह झूठा आक्षेप है। तुमने सदैव मुझे परीक्षा की आँखों से देखाए कभी प्रेम की आँखों से नहीं। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि नारी परीक्षा नहीं चाहतीए प्रेम चाहती है। परीक्षा गुणों को अवगुणए सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीज हैए प्रेम अवगुणों को गुण बनाता हैए असुंदर को सुंदर! मैंने तुमसे प्रेम कियाए मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि तुममें कोई बुराई भी हैए मगर तुमने मेरी परीक्षा की और तुम मुझे अस्थिरए चंचल और जाने क्या—क्या समझ कर मुझसे हमेशा दूर भागते रहे। नहींए मैं जो कुछ कहना चाहती हूँए वह मुझे कह लेने दो। मैं क्यों अस्थिर और चंचल हूँघ् इसलिए कि मुझे वह प्रेम नहीं मिलाए जो मुझे स्थिर और अचंचल बनाता। अगर तुमने मेरे सामने उसी तरह आत्मसमर्पण किया होताए जैसे मैंने तुम्हारे सामने किया हैए तो तुम आज मुझ पर यह आक्षेप न रखते।
मेहता ने मालती के मान का आनंद उठाते हुए कहा — तुमने मेरी परीक्षा कभी नहीं कीघ् सच कहती होघ्
श्कभी नहीं।श्
श्तो तुमने गलती की।श्
श्मैं इसकी परवा नहीं करती।श्
श्भावुकता में न आओ मालती! प्रेम देने के पहले हम सब परीक्षा करते हैं और तुमने कीए चाहे अप्रत्यक्ष रूप से ही की हो। मैं आज तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि पहले मैंने तुम्हें उसी तरह देखाए जैसे रोज ही हजारों देवियों को देखा करता हूँए केवल विनोद के भाव से। अगर मैं गलती नहीं करताए तो तुमने भी मुझे मनोरंजन के लिए एक नया खिलौना समझा।श्
मालती ने टोका — गलत कहते हो। मैंने कभी तुम्हें इस नजर से नहीं देखा। मैंने पहले ही दिन तुम्हें अपना देव बना कर अपने हृदय३
मेहता बात काट कर बोले — फिर वही भावुकता। मुझे ऐसे महत्व के विषय में भावुकता पसंद नहींए अगर तुमने पहले ही दिन से मुझे इस कृपा के योग्य समझा तो इसका यही कारण हो सकता हैए कि मैं रूप भरने में तुमसे ज्यादा कुशल हूँए वरना जहाँ तक मैंने नारियों का स्वभाव देखा हैए वह प्रेम के विषय में काफी छान—बीन करती हैं। पहले भी तो स्वयंवर से पुरुषों की परीक्षा होती थीघ् वह मनोवृत्ति अब भी मौजूद हैए चाहे उसका रूप कुछ बदल गया हो। मैंने तब से बराबर यही कोशिश की है कि अपने को संपूर्ण रूप से तुम्हारे सामने रख दूँ और उसके साथ ही तुम्हारी आत्मा तक भी पहुँच जाऊँ। और मैं ज्यों—ज्यों तुम्हारे अंतस्तल की गहराई में उतरा हूँए मुझे रत्न ही मिले हैं। मैं विनोद के लिए आया और आज उपासक बना हुआ हूँ। तुमने मेरे भीतर क्या पायाए यह मुझे मालूम नहीं।
नदी का दूसरा किनारा आ गया। दोनों उतर कर उसी बालू के फर्श पर जा बैठे और मेहता फिर उसी प्रवाह में बोले — और आज मैं यहाँ वही पूछने के लिए तुम्हें लाया हूँघ्
मालती ने काँपते हुए स्वर में कहा — क्या अभी तुम्हें मुझसे यह पूछने की जरूरत बाकी हैघ्
श्हाँए इसलिए कि मैं आज तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगाए जो शायद अभी तक तुमने नहीं देखा और जिसे मैंने भी छिपाया है। अच्छाए मान लोए मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफाई करूँ तो तुम मुझे क्या सजा दोगीघ्श्
मालती ने उनकी ओर चकित हो कर देखा। इसका आशय उसकी समझ में न आया।
श्ऐसा प्रश्न क्यों करते होघ्श्
श्मेरे लिए यह बड़े महत्व की बात है।श्
श्मैं इसकी संभावना नहीं समझती।श्
श्संसार में कुछ भी असंभव नहीं है। बड़े—से—बड़ा महात्मा भी एक क्षण में पतित हो सकता है।श्
श्मैं उसका कारण खोजूँगी और उसे दूर करूँगी।
श्मान लोए मेरी आदत न छूटे।श्
श्फिर मैं नहीं कह सकतीए क्या करूँगी। शायद विष खा कर सो रहूँ।श्
श्लेकिन यदि तुम मुझसे ही प्रश्न करोए तो मैं उसका दूसरा जवाब दूँगा।श्
मालती ने सशंक हो कर पूछा — बतलाओ!
मेहता ने —ढ़़ता के साथ कहा — मैं पहले तुम्हारा प्राणांत कर दूँगाए फिर अपना।
मालती ने जोर से कहकहा मारा और सिर से पाँव तक सिहर उठी। उसकी हँसी केवल उसकी सिहरन को छिपाने का आवरण थी।
मेहता ने पूछा — तुम हँसी क्योंघ्
श्इसीलिए कि तुम तो ऐेसे हिंसावादी नहीं जान पड़ते।श्
श्नहीं मालतीए इस विषय में मैं पूरा पशु हूँ और उस पर लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता। आध्यात्मिक प्रेम और त्यागमय प्रेम और निरूस्वार्थ प्रेमए जिसमें आदमी अपने को मिटा कर केवल प्रेमिका के लिए जीता हैए उसके आनंद से आनंदित होता है और उसके चरणों पर अपना आत्मसमर्पण कर देता हैए ये मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम—कथाएँ पढ़़ी हैंए जहाँ प्रेमी ने प्रेमिका के नए प्रेमियों के लिए अपनी जान दे दी हैए मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता हूँए सेवा कह सकता हूँए प्रेम कभी नहीं। प्रेम सीधी—सादी गऊ नहींए खूँख्वार शेर हैए जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।श्
मालती ने उनकी आँखों में आँखें डाल कर कहा — अगर प्रेम खूँख्वार शेर है तो मैं उससे दूर ही रहूँगी। मैंने तो उसे गाय ही समझ रखा था। मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूँ। वह देह की वस्तु नहींए आत्मा की वस्तु है। संदेह का वहाँ जरा भी स्थान नहीं और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है। वह संपूर्ण आत्म—समर्पण है। उसके मंदिर में तुम परीक्षक बन कर नहींए उपासक बन कर ही वरदान पा सकते हो।
वह उठ कर खड़ी हो गई और तेजी से नदी की तरफ चलीए मानो उसने अपना खोया हुआ मार्ग पा लिया हो। ऐसी स्फूर्ति का उसे कभी अनुभव न हुआ। उसने स्वतंत्र जीवन में भी अपने में एक दुर्बलता पाई थीए जो उसे सदैव आंदोलित करती रहती थीए सदैव अस्थिर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा करता थाए जिसके बल पर टीक सकेए संसार का सामना कर सके। अपने में उसे यह शक्ति न मिलती थी। बुद्धि और चरित्र की शक्ति देख कर वह उसकी ओर लालायित हो कर जाती थी। पानी की भाँति हर एक पात्र का रूप धारण कर लेती थी। उसका अपना कोई रूप न था।
उसकी मनोवृत्ति अभी तक किसी परीक्षार्थी छात्रा की—सी थी। छात्रा को पुस्तकों से प्रेम हो सकता है और हो जाता हैए लेकिन वह पुस्तक के उन्हीं भागों पर ज्यादा ध्यान देता हैए जो परीक्षा में आ सकते हैं। उसकी पहली गरज परीक्षा में सफल होना है। ज्ञानार्जन इसके बाद है। अगर उसे मालूम हो जाय कि परीक्षक बड़ा दयालु है या अंधा है और छात्रों को यों ही पास कर दिया करता हैए तो शायद वह पुस्तकों की ओर आँख उठा कर भी न देखे। मालती जो कुछ करती थीए मेहता को प्रसन्न करने के लिए। उसका मतलब थाए मेहता का प्रेम और विश्वास प्राप्त करनाए उसके मनोराज्य की रानी बन जानाए लेकिन उसी छात्रा की तरह अपनी योग्यता का विश्वास जमा कर। लियाकत आ जाने से परीक्षक आप—ही—आप उससे संतुष्ट हो जायगाए इतना धैर्य उसे न था।
मगर आज मेहता ने जैसे उसे ठुकरा कर उसकी आत्म—शक्ति को जगा दिया। मेहता को जब से उसने पहली बार देखा थाए तभी से उसका मन उनकी ओर झुका था। उसे वह अपने परिचितों में सबसे समर्थ जान पड़े। उसके परिष्कृत जीवन में बुद्धि की प्रखरता और विचारों की —ढ़़ता ही सबसे ऊँची वस्तु थी। धन और ऐश्वर्य को तो वह केवल खिलौना समझती थीए जिसे खेल कर लड़के तोड़—फोड़ डालते हैं। रूप में भी अब उसके लिए विशेष आकर्षण न था। यद्यपि कुरूपता के लिए घृणा थी। उसको तो अब बुद्धि—शक्ति ही अपने ओर झुका सकती थीए जिसके आश्रय में उसमें आत्म—विश्वास जगेए अपने विकास की प्रेरणा मिलेए अपने में शक्ति का संचार होए अपने जीवन की सार्थकता का ज्ञान हो। मेहता के बुद्धिबल और तेजस्विता ने उसके ऊपर अपने मुहर लगा दी और तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी। जिस प्रेरक—शक्ति की उसे जरूरत थीए वह मिल गई थी और अज्ञात रूप से उसे गति और शक्ति दे रही थी। जीवन का नया आदर्श जो उसके सामने आ गया थाए वह अपने को उसके समीप पहुँचाने की चेष्टा करती हुई और सफलता का अनुभव करती हुई उस दिन की कल्पना कर रही थीए जब वह और मेहता एकात्म हो जाएँगे और यह कल्पना उसे और भी —ढ़़ और निष्ठावान बना रही थी।
मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक ला कर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखाए जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिरा कर भौतिक धरातल तक पहुँचा दिया गया थाए जहाँ संदेह और ईर्ष्या और भोग का राज हैए तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थीए उसे एक धक्का—सा लगाए मानो कोई शिष्य अपने गुरू को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखाए मेहता की बुद्धि—प्रखरता प्रेम—तत्व को पशुता की ओर खींचे लिए जाती है और उसके देवत्व की ओर से आँखें बंद किए लेती हैए और यह देख कर उसका दिल बैठ गया।
मेहता ने कुछ लज्जित हो कर कहा — आओए कुछ देर और बैठें।
मालती बोली — नहींए अब लौटना चाहिए। देर हो रही है।
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भाग 30
रायसाहब का सितारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गए थे। कन्या की शादी धूम—धाम से हो गई थीए मुकदमा जीत गए थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थेए होम मेंबर भी हो गए थे। चारों ओर से बधाइयाँ मिल रही थीं। तारों का ताँता लगा हुआ था। इस मुकदमे को जीत कर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न थाए मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गई थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। कर्ज की मात्रा बहुत बढ़़ गई थी। मगर अब रायसाहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नई मिलकियत का एक छोटा—सा टुकड़ा बेच कर कर्ज से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊँची—से—ऊँची कल्पना उन्होंने की थीए उससे कहीं ऊँचे जा पहुँचे थे। अभी तक उनका बँगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीतालए मंसूरी और शिमला — तीनों स्थानों में एक—एक बँगला बनवाना लाजिम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जायँए तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बँगले में ठहरें। जब सूर्यप्रताप सिंह के बँगले इन सभी स्थानों में थेए तो रायसाहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बँगले न हों। संयोग से बँगले बनवाने की जहमत न उठानी पड़ी। बने—बनाए बँगले सस्ते दामों में मिल गए। हर एक बँगले के लिए मालीए चौकीदारए कारिंदाए खानसामा आदि भी रख लिए गए थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज मैजेस्टी के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गई। अब उनकी महत्वाकांक्षा संपूर्ण रूप से संतुष्ट हो गई। उस दिन खूब जश्न मनाया गया और इतनी शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रेकार्ड टूट गए। जिस वक्त हिज एक्सेलेन्सी गवर्नर ने उन्हें पदवी प्रदान कीए गर्व के साथ राज—भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन में उठी कि उनका एक—एक रोम उससे प्लावित हो उठा। यह है जीवन! नहींए विद्रोहियों के फेर में पड़ कर व्यर्थ बदनामी लीए जेल गए और अफसरों की नजरों से गिर गए। जिस डी.एस.पी. ने उन्हें पिछली बार गिरफ्तार किया थाए इस वक्त वह उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था और शायद अपने अपराध के लिए क्षमा माँग रहा था।
मगर जीवन की सबसे बड़ी विजय उन्हें उस वक्त हुईए जब उनके पुरानेए परास्त शत्रु सूर्यप्रताप सिंह ने उनके बड़े लड़के रुद्रपालसिंह से अपनी कन्या से विवाह का संदेशा भेजा। रायसाहब को न मुकदमा जीतने की इतनी खुशी हुई थीए न मिनिस्टर होने की। वह सारी बातें कल्पना में आती थींए मगर यह बात तो आशातीत ही नहींए कल्पनातीत थी। वही सूर्यप्रताप सिंह जो अभी कई महीने तक उन्हें अपने कुत्ते से भी नीचा समझता थाए वह आज उनके लड़के से अपनी लड़की का विवाह करना चाहता था! कितनी असंभव बात! रुद्रपाल इस समय एम.ए में पढ़़ता थाए बड़ा निर्भीकए पक्का आदर्शवादीए अपने ऊपर भरोसा रखने वालाए अभिमानीए रसिक और आलसी युवक थाए जिसे अपने पिता की यह धन और मानलिप्सा बुरी लगती थी।
रायसाहब इस समय नैनीताल में थे। यह संदेशा पा कर फूल उठे। यद्यपि वह विवाह के विषय में लड़के पर किसी तरह का दबाव डालना न चाहते थेए पर इसका उन्हें विश्वास था कि वह जो कुछ निश्चय कर लेंगेए उसमें रुद्रपाल को कोई आपत्ति न होगी और राजा सूर्यप्रताप सिंह से नाता हो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कि रुद्रपाल का सहमत न होना खयाल में भी न आ सकता था। उन्होंने तुरंत राजा साहब को बात दे दी और उसी वक्त रुद्रपाल को फोन किया।
रुद्रपाल ने जवाब दिया — मुझे स्वीकार नहीं।
रायसाहब को अपने जीवन में न कभी इतनी निराशा हुई थीए न इतना क्रोध आया थाए पूछा — कोई वजहघ्
श्समय आने पर मालूम हो जायगा।श्
श्मैं अभी जानना चाहता हूँ।श्
श्मैं नहीं बतलाना चाहता।श्
श्तुम्हें मेरा हुक्म मानना पड़ेगा।श्
जिस बात को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करतीए उसे मैं आपके हुक्म से नहीं मान सकता।श्
रायसाहब ने बड़ी नम्रता से समझाया — बेटाए तुम आदर्शवाद के पीछे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह संबंध समाज में तुम्हारा स्थान कितना ऊँचा कर देगाए कुछ तुमने सोचा हैघ् इसे ईश्वर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दरिद्र कन्या भी मुझे मिलतीए तो मैं अपने भाग्य को सराहताए यह तो राजा सूर्यप्रताप की कन्या हैए जो हमारे सिरमौर हैं। मैं उसे रोज देखता हूँ। तुमने भी देखा होगा। रूपए गुणए शीलए स्वभाव में ऐसी युवती मैंने आज तक नहीं देखी। मैं तो चार दिन का और मेहमान हूँ। तुम्हारे सामने जीवन पड़ा है। मैं तुम्हारे ऊपर दबाव नहीं डालना चाहता। तुम जानते होए विवाह के विषय में मेरे विचार कितने उदार हैंए लेकिन मेरा यह भी तो धर्म है कि अगर तुम्हें गलती करते देखूँए तो चेतावनी दे दूँ।
रुद्रपाल ने इसका जवाब दिया — मैं इस विषय में बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ। अब कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।
रायसाहब को लड़के की जड़ता पर फिर क्रोध आ गया। गरज कर बोले — मालूम होता हैए तुम्हारा सिर फिर गया है। आ कर मुझसे मिलो। विलंब न करना। मैं राजा साहब को जबान दे चुका हूँ।
रुद्रपाल ने जवाब दिया — खेद हैए अभी मुझे अवकाश नहीं है।
दूसरे दिन रायसाहब खुद आ गए। दोनों अपने—अपने शस्त्रों से सजे हुए तैयार खड़े थे। एक ओर संपूर्ण जीवन का मँजा हुआ अनुभव थाए समझौतों से भरा हुआए दूसरी ओर कच्चा आदर्शवाद थाए जिद्दी एउद्धंदड और निर्मम।
रायसाहब ने सीधे मर्म पर आघात किया — मैं जानना चाहता हूँए वह कौन लड़की है।
रुद्रपाल ने अचल भाव से कहा — अगर आप इतने उत्सुक हैंए तो सुनिए। वह मालती देवी की बहन सरोज है।
रायसाहब आहत हो कर गिर पड़े — अच्छाए वह!
श्आपने तो सरोज को देखा होगाघ्श्
श्खूब देखा है। तुमने राजकुमारी को देखा है या नहींघ्श्
श्जी हाँए खूब देखा है।श्
श्फिर भीघ्श्
श्मैं रूप को कोई चीज नहीं समझता।श्
श्तुम्हारी अक्ल पर मुझे अफसोस आता है। मालती को जानते होए कैसी औरत हैघ् उसकी बहन क्या कुछ और होगीघ्श्
रुद्रपाल ने त्योरी चढ़़ा कर कहा — मैं इस विषय में आपसे और कुछ नहीं कहना चाहताए मगर मेरी शादी होगीए तो सरोज से।श्
श्मेरे जीते जी कभी नहीं हो सकती।श्
श्तो आपके बाद होगी।श्
श्अच्छाए तुम्हारे यह इरादे हैं।श्
और रायसाहब की आँखें सजल हो गईं। जैसे सारा जीवन उजड़ गया हो। मिनिस्ट्री और इलाका और पदवीए सब जैसे बासी फूलों की तरह नीरसए निरानंद हो गए हों। जीवन की सारी साधना व्यर्थ हो गई। उनकी स्त्री का जब देहांत हुआ थाए तो उनकी उम्र छत्तीस साल से ज्यादा न थी। वह विवाह कर सकते थेए और भोग—विलास का आनंद उठा सकते थे। सभी उनसे विवाह करने के लिए आग्रह कर रहे थेए मगर उन्होंने इन बालकों का मुँह देखा और विधुर जीवन की साधना स्वीकार कर ली। इन्हीं लड़कों पर अपने जीवन का सारा भोग—विलास न्योछावर कर दिया। आज तक अपने हृदय का सारा स्नेह इन्हीं लड़कों को देते चले आए हैंए और आज यह लड़का इतनी निष्ठुरता से बातें कर रहा हैए मानो उनसे कोई नाता नहीं। फिर वह क्यों जायदाद और सम्मान और अधिकार के लिए जान देंघ् इन्हीं लड़कों ही के लिए तो वह सब कुछ कर रहे थेए जब लड़कों को उनका जरा भी लिहाज नहींए तो वह क्यों यह तपस्या करेंघ् उन्हें कौन संसार में बहुत दिन रहना है। उन्हें भी आराम से पड़े रहना आता है। उनके और हजारों भाई मूँछों पर ताव दे कर जीवन का भोग करते हैं और मस्त घूमते हैं। फिर वह भी क्यों न भोग—विलास में पड़े रहेंघ् उन्हें इस वक्त याद न रहा कि वह जो तपस्या कर रहे हैंए वह लड़कों के लिए नहींए बल्कि अपने लिएए केवल यश के लिए नहींए बल्कि इसलिए कि वह कर्मशील हैं और उन्हें जीवित रहने के लिए इसकी जरूरत है। वह विलासी और अकर्मण्य बन कर अपनी आत्मा को संतुष्ट नहीं रख सकते। उन्हें मालूम नहींए कि कुछ लोगों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वे विलास का अपाहिजपन स्वीकार ही नहीं कर सकते। वे अपने जिगर का खून पीने ही के लिए बने हैं और मरते दम तक पिए जाएँगे ।
मगर इस चोट की प्रतिक्रिया भी तुरंत हुई। हम जिनके लिए त्याग करते हैंए उनसे किसी बदले की आशा न रख कर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैंए चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए होए यद्यपि उस हित को हम इतना अपना लेते हैं कि वह उनका न हो कर हमारा हो जाता है। त्याग की मात्रा जितनी ही ज्यादा होती हैए यह शासन—भावना भी उतनी ही प्रबल होती है और जब सहसा हमें विद्रोह का सामना करना पड़ता हैए तो हम क्षुब्ध हो उठते हैंए और वह त्याग जैसे प्रतिहिंसा का रूप ले लेता है। रायसाहब को यह जिद पड़ गई कि रुद्रपाल का विवाह सरोज के साथ न होने पाएए चाहे इसके लिए उन्हें पुलिस की मदद क्यों न लेनी पड़ेए नीति की हत्या क्यों न करनी पड़े।
उन्होंने जैसे तलवार खींच कर कहा — हाँए मेरे बाद ही होगी और अभी उसे बहुत दिन हैं।
रुद्रपाल ने जैसे गोली चला दी — ईश्वर करेए आप अमर हों! सरोज से मेरा विवाह हो चुका।
श्झूठ।श्
श्बिलकुल नहींए प्रमाण—पत्र मौजूद है।श्
रायसाहब आहत हो कर गिर पड़े। इतनी सतृष्ण हिंसा की आँखों से उन्होंने कभी किसी शत्रु को न देखा था। शत्रु अधिक—से—अधिक उनके स्वार्थ पर आघात कर सकता था या देह पर या सम्मान परए पर यह आघात तो उस मर्मस्थल पर थाए जहाँ जीवन की संपूर्ण प्रेरणा संचित थी। एक आँधी थीए जिसने उनका जीवन जड़ से उखाड़ दिया। अब वह सर्वथा अपंग है। पुलिस की सारी शक्ति हाथ में रहते हुए भी अपंग है। बल प्रयोग उनका अंतिम शस्त्र था। वह शस्त्र उनके हाथ से निकल चुका था। रुद्रपाल बालिग हैए सरोज भी बालिग है और रुद्रपाल अपनी रियासत का मालिक है। उनका उस पर कोई दबाव नहीं। आह! अगर जानतेए यह लौंडा यों विद्रोह करेगाए तो इस रियासत के लिए लड़ते ही क्योंघ् इस मुकदमेबाजी के पीछे दो—ढ़ाई लाख बिगड़ गए। जीवन ही नष्ट हो गया। अब तो उनकी लाज इसी तरह बचेगी कि इस लौंडे की खुशामद करते रहेंए उन्होंने जरा बाधा दी और इज्जत धूल में मिली। वह अपने जीवन का बलिदान करके भी अब स्वामी नहीं हैं। ओह! सारा जीवन नष्ट हो गया। सारा जीवन!
रुद्रपाल चला गया था। रायसाहब ने कार मँगवाई और मेहता से मिलने चले। मेहता अगर चाहें तो मालती को समझा सकते हैं। सरोज भी उनकी अवहेलना न करेगीए अगर दस—बीस हजार रुपए बल खाने से भी विवाह रूक जाएए तो वह देने को तैयार थे। उन्हें उस स्वार्थ के नशे में यह बिलकुल खयाल न रहा कि वह मेहता के पास ऐसा प्रस्ताव ले कर जा रहे हैंए जिस पर मेहता की हमदर्दी कभी उनके साथ न होगी।
मेहता ने सारा वृत्तांत सुन कर उन्हें बनाना शुरू किया। गंभीर मुँह बना कर बोले — यह तो आपकी प्रतिष्ठा का सवाल है।
रायसाहब भाँप न सके। उछल कर बोले — जी हाँए केवल प्रतिष्ठा का। राजा सूर्यप्रताप सिंह को तो आप जानते हैं—
श्मैंने उनकी लड़की को भी देखा है। सरोज उसके पाँव की धूल भी नहीं है।श्
श्मगर इस लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया है।श्
श्तो मारिए गोलीए आपको क्या करना है। वही पछताएगा।श्
श्ओह! यही तो नहीं देखा जाता मेहता जी! मिलती हुई प्रतिष्ठा नहीं छोड़ी जाती। मैं इस प्रतिष्ठा पर अपनी आधी रियासत कुर्बान करने को तैयार हूँ। आप मालतीदेवी को समझा देंए तो काम बन जाए। इधर से इनकार हो जायए तो रुद्रपाल सिर पीट कर रह जायगा और यह नशा दस—पाँच दिन में आप उतर जायगा। यह प्रेम—व्रेम कुछ नहींएकेवल सनक है।
श्लेकिन मालती बिना कुछ रिश्वत लिए मानेगी नहीं।श्
श्आप जो कुछ कहिएए मैं उसे दूँगा। वह चाहे तो मैं उसे यहीं के डफरिन हास्पिटल का इंचार्ज बना दूँ।श्
श्मान लीजिएए वह आपको चाहे तो आप राजी होंगे। जब से आपको मिनिस्ट्री मिली हैए आपके विषय में उसकी राय जरूर बदल गई होगी।श्
रायसाहब ने मेहता के चेहरे की तरफ देखा। उस पर मुस्कराहट की रेखा नजर आई। समझ गए। व्यथित स्वर में बोले — आपको भी मुझसे मजाक करने का यही अवसर मिला। मैं आपके पास इसलिए आया था कि मुझे यकीन था कि आप मेरी हालत पर विचार करेंगेए मुझे उचित राय देंगे। और आप मुझे बनाने लगे। जिसके दाँत नहीं दुखेए वह दाँतों का दर्द क्या जाने!
मेहता ने गंभीर स्वर में कहा — क्षमा कीजिएगाए आप ऐसा प्रश्न ही ले कर आए कि उस पर गंभीर विचार करना मैं हास्यास्पद समझता हूँ। आप अपनी शादी के जिम्मेदार हो सकते हैं।लड़के की शादी का दायित्व आप क्यों अपने ऊपर लेते हैंए खास कर जब आपका लड़का बालिग है और अपना नफा—नुकसान समझता है। कम—से—कम मैं तो शादी जैसे महत्व के मुआमले में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता। प्रतिष्ठा धन से होती तो राजा साहब उस नंगे बाबा के सामने घंटों गुलामों की तरह हाथ बाँधे खड़े न रहते। मालूम नहीं कहाँ तक सही हैए पर राजा साहब अपने इलाके के दारोगा तक को सलाम करते हैंए इसे आप प्रतिष्ठा कहते हैंघ् लखनऊ में आप किसी दुकानदारए किसी अहलकारए किसी राहगीर से पूछिएए उनका नाम सुन कर गालियाँ ही देगा। इसी को आप प्रतिष्ठा कहते हैंघ् जा कर आराम से बैठिए। सरोज से अच्छी वधू आपको बड़ी मुश्किल से मिलेगी।
रायसाहब ने आपत्ति के भाव से कहा — बहन तो मालती ही की है।
मेहता ने गर्म हो कर कहा — मालती की बहन होना क्या अपमान की बात हैघ् मालती को आपने जाना नहींए और न जानने की परवा की। मैंने भी यही समझा थाए लेकिन अब मालूम हुआ कि वह आग में पड़ कर चमकने वाली सच्ची धातु है। वह उन वीरों में हैए जो अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते हैंए तलवार घुमाते नहीं चलते। आपको मालूम हैए खन्ना की आजकल क्या दशा हैघ्
रायसाहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिला कर कहा — सुन चुका हूँए और बार—बार इच्छा हुई कि उससे मिलूँए लेकिन फुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।
श्जी हाँ। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निर्वाह कर रहे हैं। उस पर गोविंदी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दियाए उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया। अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है — वही मालतीए जो किसी राजा—रईस से पाँच सौ फीस पा कर भी रात—भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया हुआ थाए मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देख कर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगाए हालाँकि आप जानते हैंए मैं घोर जड़वादी हूँ। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ हैए इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिएए इसी बहाने मैं भी चला चलूँगाश्
रायसाहब ने संदिग्ध भाव से कहा — जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सकेए तो मालती देवी क्या समझेगीए मुफ्त में शमिर्ंदगी होगीए मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की जरूरत क्यों! मैं तो समझता थाए आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।
मेहता ने हसरत—भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया — वह बातें अब स्वप्न हो गई। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फुरसत भी नहीं रहती। दो—चार बार गयाए मगर मुझे मालूम हुआए मुझसे मिल कर वह कुछ खुश नहीं हुईंए तब से जाते झेंपता हूँ। हाँए खूब याद आयाए आज महिला—व्यायामशाला का जलसा हैए आप चलेंगेघ्
रायसाहब ने बेदिली के साथ कहा — जी नहींए मुझे फुर्सत नहीं है। मुझे तो यह चिंता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूँगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूँ।
यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मंद गति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आए थेए वह और भी जटील हो गई। अंधकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आ कर उन्हें विदा किया।
रायसाहब सीधे अपने बँगले पर आए और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी और उनका मुँह भी न देखना चाहते थेए लेकिन इस वक्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थीए जो और कुछ न कर सकेए पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरंत बुला लिया।
तंखा पाँव दबाते हुएए रोनी सूरत लिए कमरे में दाखिल हुए और जमीन पर झुक कर सलाम करते हुए बोले — मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गए! हुजूर का मिजाज तो अच्छा है।
इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा मेंए और अपने पिछले व्यवहार को बिलकुल भूलकरए रायसाहब का यशोगान आरंभ किया — ऐसी होम—मेंबरी कोई क्या करेगाए जिधर देखिए हुजूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।
रायसाहब मन में सोच रहे थेए यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त हैए अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहने वालाए परले सिरे का बेवगा और निर्लज्जए मगर उन्हें उन पर क्रोध न आयाए दया आई। पूछा — आजकल आप क्या कर रहे हैंघ्
श्कुछ नहीं हुजूरए बेकार बैठा हूँ। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाजिर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूँ हुजूर! राजा सूर्यप्रताप सिंह को तो हुजूर जानते हैंए अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक दिन आपकी निंदा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा — बस कीजिए महाराजए रायसाहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निंदा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गए। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। साफ कह दियाए आप कितना ही ठाठ—बाट दिखाएँए पर रायसाहब की जो इज्जत हैए वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाठ से नहीं होतीए लियाकत से होती है। आपमें जो लियाकत हैए वह तो दुनिया जानती है।
रायसाहब ने अभिनय किया — आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।
तंखा ने अकड़ कर कहा — मैं तो हुजूर साफ कहता हूँए किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुजूर के कदमों को पकड़े हुए हूँए तो किसी से क्यों डरूँ। हुजूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिएए हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैंए उनकी छाती पर साँप लोट रहा है। मेरी सारी—की—सारी मजदूरी साफ डकार गए। देना तो जानते ही नहीं हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन—दहाड़े औरतों को....
कार की आवाज आई और राजा सूर्यप्रताप सिंह उतरे। रायसाहब ने कमरे से निकल कर उनका स्वागत किया और सम्मान के बोझ से नत हो कर बोले — मैं तो आपकी सेवा में आने वाला ही था।
यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रताप सिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य!
मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहाँ! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गई हैघ् उन्होंने रायसाहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा थाए मगर नहींए राजा साहब यहाँ मिलने के लिए आ भले ही गए होंए मगर दिलों में जो जलन हैए वह तो कुम्हार के आँवे की तरह इस ऊपर की लेप—थोप से बुझने वाली नहीं।
राजा साहब ने सिगार जलाते हुए तंखा की ओर कठोर आँखों से देख कर कहा — तुमने तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा! मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिए और होटल वालों को एक पाई न दीए वह मेरा सिर खा रहे हैं। मैं इसे विश्वासघात समझता हूँ। मैं चाहूँ तो अभी तुम्हें पुलिस में दे सकता हूँ।
यह कहते हुए उन्होंने रायसाहब को संबोधित करके कहा — ऐसा बेईमान आदमी मैंने नहीं देखा रायसाहब! मैं सत्य कहता हूँए मैं भी आपके मुकाबले में न खड़ा होता। मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिए। बँगला खरीद लिया साहबए कार रख ली। एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है। पूरे रईस बन गए और अब दगाबाजी शुरू की है। रईसों की शान निभाने के लिए रियासत चाहिए। आपकी सियासत अपने दोस्तों की आँखों में धूल झोंकना है।
रायसाहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की आँखों से देखा और बोले — आप चुप क्यों हैं मिस्टर तंखाए कुछ जवाब दीजिए। राजा साहब ने तो आपका सारा मेहनताना दबा लिया था। है इसका कोई जवाब आपके पासघ् अब कृपा करके यहाँ से चले जाइए और खबरदारए फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा। दो भले आदमियों में लड़ाई लगा कर अपना उल्लू सीधा करना बेपूंजी का रोजगार हैए मगर इसका घाटा और नफा दोनों ही जान—जोखिम हैए समझ लीजिए।
तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न उठाया। धीरे से चले गए। जैसे कोई चोर कुत्ता मालिक के अंदर आ जाने पर दबकर निकल जाए।
जब वह चले गएए तो राजा साहब ने पूछा — मेरी बुराई करता होगाघ्
श्जी हाँए मगर मैंने भी खूब बनाया।श्
श्शैतान है।श्
श्पूरा।श्
श्बाप—बेटे में लड़ाई करवा देए मियाँ—बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फन में उस्ताद है। खैरए आज बेचारे को अच्छा सबक मिल गया।श्
इसके बाद रुद्रपाल के विवाह के बातचीत शुरू हुई। रायसाहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा रहा हो। कहाँ छिप जायँ। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहाए मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। रायसाहब को अपने तरफ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गई।
उन्होंने पूछा — आपको इसकी क्यों कर खबर हुईघ्
श्अभी—अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा हैए जो उसने मुझे दे दिया।श्
श्आजकल के लड़कों में और तो कोई खूबी नजर नहीं आतीए बस स्वच्छंदता की सनक सवार है।श्
श्सनक तो है हीए मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा गायब कर दूँगा कि कहीं पता न लगेगा। दस—पाँच दिन में यह सनक ठंडी हो जायगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं!श्
रायसाहब काँप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आई थीए लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक—से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। रायसाहब ने उसे ऊपरी वस्त्रों से ढ़ँक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को रायसाहब छोड़ न सके।
जैसे लज्जित हो कर बोले — लेकिन यह बीसवीं सदी हैए बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगीए मैं नहीं कह सकताए लेकिन मानवता की —ष्टि सेघ्
राजा साहब ने बात काट कर कहा — आप मानवता लिए फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज भी मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहींए राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों होतींघ् पंचायतों से झगड़े न तय हो जातेघ् जब तक मनुष्य रहेगाए उसकी पशुता भी रहेगी।
छोटी—मोटी बहस छिड़ गई और वह विवाद के रूप में आ कर अंत में वितंडा बन गई और राजा साहब नाराज हो कर चले गए। दूसरे दिन रायसाहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंग्लैंड की राह ली। अब उनमें पिता—पुत्र का नाता न थाए प्रतिद्वंद्वी हो गए थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ से रायसाहब पर हिसाब—फहमी का दावा किया। रायसाहब पर दस लाख की डिगरी हो गई। उन्हें डिगरी का इतना दुरूख न हुआए जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़़ कर दुरूख थाए जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दुरूख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दगा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।
मगर अभी शायद उनके दुरूख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थीए वह लड़की और दामाद के संबंध—विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिंदू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेजबान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दियाए उसके साथ चली गईए लेकिन स्त्री—पुरुष में प्रेम न था। दिग्विजय सिंह ऐयाश भी थेए शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़़ा—लिखा भी थाए मगर बड़ा मगरूरए अपने कुल—प्रतिष्ठा की डींग मारने वालाए स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गाँव की नीच जाति की बहू—बेटीयों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थीए जिनकी खुशामदों ने उसे और भी खुशामदपसंद बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़़—पढ़़ कर उसकी आँखें खुलने लगी थीं। वह जनाना क्लब में आने—जाने लगी। वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की महिलाएँ आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीन ता और नारी—जागृति की खूब चर्चा होती थीए जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियाँ थींए जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थीए जो नई शिक्षा पाने के कारण पुरानी मर्यादाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियाँ भी थींए जो डिग्रियाँ ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझ कर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलताना थींए जो विलायत से बार—एट—ला हो कर आई थीं और यहाँ परदानशीन महिलाओं को कानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर गुजारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुजारे की मीनाक्षी को जरूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थीं मगर वह दिग्विजय सिंह के मुख में कालिख लगा कर यहाँ से जाना चाहती थी। दिग्विजय सिंह ने उस पर उल्टा बदचलनी का आक्षेप लगाया। रायसाहब ने इस कलह को शांत करने की भरसक बहुत चेष्टा कीए पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजय सिंह का दावा खारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुजारे की डिगरी पाईए मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थीए और समष्टिवादी आंदोलन में प्रमुख भाग लेती थीए पर वह जलन शांत न होती थी।
एक दिन वह क्रोध में आ कर हंटर लिए दिग्विजय सिंह के बँगले पर पहुँची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भाँति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुँच कर तहलका मचा दिया। हंटर खा—खा कर लोग इधर—उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टीकते — जब दिग्विजय सिंह अकेले रह गएए तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किए और इतना मारा कि कुँवर साहब बेदम हो गए। वेश्या अभी तक कोने में दुबकी खड़ी थी। अब उसका नंबर आया। मीनाक्षी हंटर तान कर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उनके पैरों पर गिर पड़ी और रो कर बोली — दुलहिन जीए आज आप मेरी जान बख्श दें। मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी। मैं निरपराध हूँ।
मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देख कर कहा — हाँए तू निरपराध है। जानती है नए मैं कौन हूँ। चली जाए अब कभी यहाँ न आना। हम स्त्रियाँ भोग—विलास की चीजें हैं हीए तेरा कोई दोष नहीं।
वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रख कर आवेश में कहा — परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थीए वैसा ही पाया।
श्सुखी रहने से तुम्हारा क्या आशय हैघ्श्
श्आप जो समझें महारानी जी।श्
श्नहींए तुम बताओ।श्
वेश्या के प्राण नखों में समा गए। कहाँ से कहाँ आशीर्वाद देने चली। जान बच गई थीए चुपके अपनी राह लेनी चाहिए थीए दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचेघ्
डरती—डरती बोली — हुजूर का एकबाल बढ़़ेए मरतबा बढ़़ेए नाम बढ़़े।
मीनाक्षी मुस्कराई — हाँए ठीक है।
वह आ कर अपनी कार में बैठीए हाकिम—जिला के बँगले पर पहुँच कर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आई। तब से स्त्री—पुरुष दोनों एक—दूसरे के खून के प्यासे थे। दिग्विजय सिंह रिवाल्वर लिए उसकी ताक में फिरा करते थे और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिए रहती थी। और रायसाहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया थाए उसे अपनी जिंदगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश हो कर उनकी आत्मा अंतर्मुखी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बंद हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुकाए जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़़ कर सत्य था। जिस नई जायदाद के आसरे पर कर्ज लिए थेए वह जायदाद कर्ज की पुरौती किए बिना ही हाथ से निकल गई थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्ट्री से जरूर अच्छी रकम मिलती थीए मगर वह सारी की सारी उस पद की मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और रायसाहब को अपना राजसी ठाठ निभाने के लिए वही आसामियों पर इजाफा और बेदखली और नजराना लेना पड़ता थाए जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थीए लेकिन अपनी जरूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शांति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थेए पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच—तान में उन्हें अपमानए ग्लानि और अशांति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शांति नहींए तो देह कैसे स्वस्थ रहतीघ् निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थेए पर उनके लिए वही मूँग की दाल और फूलके थे। अपने और भाइयों को देखते थेए जो उनसे भी ज्यादा मकरूज अपमानित और शोकग्रस्त थेए जिनके भोग—विलास मेंए ठाठ—बाट में किसी तरह की कमी न थी। मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊँचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। परपीड़ाए मक्कारीए निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुकेदारी की शोभा और रोब—दाब का नाम दे कर अपनी आत्मा को संतुष्ट कर सकते थेए और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।
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भाग 31
मिर्जा खुर्शेद ने अस्पताल से निकल कर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिंत बैठना उनके स्वभाव में न था। यह काम क्या थाघ् नगर की वेश्याओं की एक नाटक—मंडली बनाना। अपने अच्छे दिनों में उन्होंने खूब ऐयाशी की थी और इन दिनों अस्पताल के एकांत में घावों की पीड़ाएँ सहते—सहते उनकी आत्मा निष्ठावान हो गई थी। उस जीवन की याद करके उन्हें गहरी मनोव्यथा होती थीए उस वक्त अगर उन्हें समझ होतीए तो वह प्राणियों का कितना उपकार कर सकते थेए कितनों के शोक और दरिद्रता का भार हल्का कर सकते थेए मगर वह धन उन्होंने ऐयाशी में उड़ाया। यह कोई नया आविष्कार नहीं है कि संकटों में ही हमारी आत्मा को जागृति मिलती है। बुढ़़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर दुरूखी नहीं होताघ् काशए वह समय ज्ञान या शक्ति के संचय में लगाया होताए सुकृतियों का कोष भर लिया होताए तो आज चित्त को कितनी शांति मिलती। वहीं उन्हें इसका वेदनामय अनुभव हुआ कि संसार में कोई अपना नहींए कोई उनकी मौत पर आँसू बहाने वाला नहीं। उन्हें रह—रह कर जीवन की एक पुरानी घटना याद आती थी। बसरे के गाँव में जब वह कैंप में मलेरिया से ग्रस्त पड़े थेए एक ग्रामीण बाला ने उनकी तीमारदारी कितने आत्म—समर्पण से की थी। अच्छे हो जाने पर जब उन्होंने रुपए और आभूषणों से उसके एहसानों का बदला देना चाहा थाए तो उसने किस तरह आँखों में आँसू भर कर सिर नीचा कर लिया था और उन उपहारों को लेने से इनकार कर दिया था। इन नसोर्ं की शुश्रूषा में नियम हैए व्यवस्था हैए सच्चाई हैए मगर वह प्रेम कहाँए वह तन्मयता कहाँए जो उस बाला की अभ्यासहीनए अल्हड़ सेवाओं में थीघ् वह अनुरागमूर्ति कब की उनके दिल से मिट चुकी थी। वह उससे फिर आने का वादा करके कभी उसके पास न गए। विलास के उन्माद में कभी उसकी याद ही न आई। आई भी तो उसमें केवल दया थीए प्रेम न था। मालूम नहींए उस बाला पर क्या गुजरीघ् मगर आजकल उसकी वह आतुरए नम्रए शांतए सरल मुद्रा बराबर उनकी आँखों के सामने फिरा करती थी। काशए उससे विवाह कर लिया होता तो आज जीवन में कितना रस होता! और उसके प्रति अन्याय के दुरूख ने उस संपूर्ण वर्ग को उनकी सेवा और सहानुभूति का पात्र बना दिया। जब तक नदी बाढ़़ पर थीए उसके गंदलेए तेजए फेनिल प्रवाह में प्रकाश की किरणें बिखर कर रह जाती थीं। अब प्रवाह स्थिर और शांत हो गया था और रश्मियाँ उसकी तह तक पहुँच रही थीं।
मिर्जा साहब बसंत की इस शीतल संध्या में अपने झोंपड़े के बरामदे में दो वारांगनाओं के साथ बैठे कुछ बातचीत कर रहे थे कि मिस्टर मेहता पहुँचे। मिर्जा ने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और बोले — मैं तो आपकी खातिरदारी का सामान लिए आपकी राह देख रहा हूँ।
दोनों सुंदरियाँ मुस्कराईं। मेहता कट गए।
मिर्जा ने दोनों औरतों को वहाँ से चले जाने का संकेत किया और मेहता को मसनद पर बैठाते हुए बोले — मैं तो खुद आपके पास आने वाला था। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मैं जो काम करने जा रहा हूँए वह आपकी मदद के बगैर पूरा न होगा। आप सिर्फ मेरी पीठ पर हाथ रख दीजिए और ललकारते जाइए — हाँ मिर्जाए बढ़़े चल पत्ते!
मेहता ने हँस कर कहा — आप जिस काम में हाथ लगाएँगेए उसमें हम जैसे किताबी कीड़ों की जरूरत न होगी। आपकी उम्र मुझसे ज्यादा है। दुनिया भी आपने खूब देखी है और छोटे—छोटे आदमियों पर अपना असर डाल सकने की जो शक्ति आप में हैए वह मुझमें होतीए तो मैंने खुदा जाने क्या किया होता।
मिर्जा साहब ने थोड़े—से शब्दों में अपनी नई स्कीम उनसे बयान की। उनकी धारणा थी कि रूप के बाजार में वही स्त्रियाँ आती हैंए जिन्हें या तो अपने घर में किसी कारण से सम्मानपूर्ण आश्रय नहीं मिलताए या जो आर्थिक कष्टों से मजबूर हो जाती हैं और अगर यह दोनों प्रश्न हल कर दिए जाएँए तो बहुत कम औरतें इस भाँति पतित हों।
मेहता ने अन्य विचारवान सज्जनों की भाँति इस प्रश्न पर काफी विचार किया था और उनका खयाल था कि मुख्यतरू मन के संस्कार और भोग—लालसा ही औरतों को इस ओर खींचती है। इसी बात पर दोनों मित्रों में बहस छिड़ गई। दोनों अपने—अपने पक्ष पर अड़ गए।
मेहता ने मुट्ठी बाँध कर हवा में पटकते हुए कहा — आपने इस प्रश्न पर ठंडे दिल से गौर नहीं किया। रोजी के लिए और बहुत से जरिए हैं। मगर ऐश की भूख रोटीयों से नहीं जाती। उसके लिए दुनिया के अच्छे—से—अच्छे पदार्थ चाहिए। जब तक समाज की व्यवस्था ऊपर से नीचे तक बदल न डाली जायए इस तरह की मंडली से कोई फायदा न होगा।
मिर्जा ने मूँछें खड़ी की — और मैं कहता हूँ कि यह महज रोजी का सवाल हैं। हाँए यह सवाल सभी आदमियों के लिए एक—सा नहीं है। मजदूर के लिए वह महज आटे—दाल और एक फूस की झोपड़ी का सवाल है। एक वकील के लिए वह एक कार और बँगले और खिदमतगारों का सवाल है। आदमी महज रोटी नहीं चाहता और भी बहुत—सी चीजें चाहता है। अगर औरतों के सामने भी वह प्रश्न तरह—तरह की सूरतों में आता है तो उनका क्या कसूर हैघ्
डाक्टर मेहता अगर जरा गौर करतेए तो उन्हें मालूम होता कि उनमें और मिर्जा में कोई भेद नहींए केवल शब्दों का हेर—गेर हैए पर बहस की गरमी में गौर करने का धैर्य कहाघ् गर्म हो कर बोले — मुआफ कीजिएए मिर्जा साहबए जब तक दुनिया में दौलत वाले रहेंगेए वेश्याएँ भी रहेंगी। आपकी मंडली अगर सफल भी हो जाएए हालाँकि मुझे उसमें बहुत संदेह हैए तो आप दस—पाँच औरतों से ज्यादा उनमें कभी न ले सकेंगेए और वह भी थोड़े दिनों के लिए। सभी औरतों में नाटय करने की शक्ति नहीं होतीए उसी तरह जैसे सभी आदमी कवि नहीं हो सकते। और यह भी मान लें कि वेश्याएँ आपकी मंडली में स्थायी रूप से टीक जायँगीए तो भी बाजार में उनकी जगह खाली न रहेगी। जड़ पर जब तक कुल्हाड़े न चलेंगेए पत्तियाँ तोड़ने से कोई नतीजा नहीं। दौलत वालों में कभी—कभी ऐसे लोगों निकल आते हैंए जो सब कुछ त्याग कर खुदा की याद में जा बैठते हैंए मगर दौलत का राज्य बदस्तूर कायम है। उसमें जरा भी कमजोरी नहीं आने पाई।
मिर्जा को मेहता की हठधर्मी पर दुरूख हुआ। इतना पढ़़ा—लिखा विचारवान आदमी इस तरह की बातें करे! समाज की व्यवस्था क्या आसानी से बदल जायगीघ् वह तो सदियों का मुआमला है। तब तक क्या यह अनर्थ होने दिया जायघ् उसकी रोकथाम न की जायए इन अबलाओं को मदोर्ं की लिप्सा का शिकार होने दिया जायघ् क्यों न शेर को पिंजरे में बंद कर दिया जाए कि वह दाँत और नाखून होते हुए भी किसी को हानि न पहुँचा सके। क्या उस वक्त तक चुपचाप बैठा रहा जाएए जब तक शेर अहिंसा का व्रत न ले लेघ् दौलत वाले और जिस तरह चाहें अपनी दौलत उड़ाएँ मिर्जा जी को गम नहीं। शराब में डूब जाएँए कारों की माला गले में डाल लेंए किले बनवाएँए धर्मशाले और मस्जिदें खड़ी करेंए उन्हें कोई परवा नहीं। अबलाओं की जिंदगी न खराब करें। यह मिर्जा जी नहीं देख सकते। वह रूप के बाजार को ऐसा खाली कर देंगे कि दौलत वालों की अशर्फियों पर कोई थूकनेवाला भी न मिले। क्या जिन दिनों शराब की दूकानों की पिकेटींग होती थीए अच्छे—अच्छे शराबी पानी पी—पी कर दिल की आग नहीं बुझाते थेघ्
मेहता ने मिर्जा की बेवकूफी पर हँस कर कहा — आपको मालूम होना चाहिए कि दुनिया में ऐसे मुल्क भी हैंए जहाँ वेश्याएँ नहीं हैं। मगर अमीरों की दौलत वहाँ भी दिलचस्पियों के सामान पैदा कर लेती है।
मिर्जा जी भी मेहता की जड़ता पर हँसे — जानता हूँ मेहरबानए जानता हूँ। आपकी दुआ से दुनिया देख चुका हूँए मगर यह हिंदुस्तान हैए यूरोप नहीं है।
श्इंसान का स्वभाव सारी दुनिया में एक—सा है।श्
श्मगर यह भी मालूम रहे कि हर एक कौम में एक ऐसी चीज है जिसे उसकी आत्मा कह सकते हैं। असमत (सतीत्व) हिंदुस्तानी तहजीब की आत्मा है।श्
श्अपने मुँह मियाँ—मिट्ठू बन लीजिए।श्
श्दौलत की आप इतनी बुराई करते हैंए फिर भी खन्ना की हिमायत करते नहीं थकते। कहिएगा!श्
मेहता का तेज विदा हो गया। नम्र भाव से बोले — मैंने खन्ना की हिमायत उस वक्त की हैए जब वह दौलत के पंजे से छूट गए हैंए और आजकल आप उनकी हालत देखें तो आपको दया आएगी। और मैं क्या हिमायत करूँगाए जिसे अपनी किताबों और विद्यालय से छुट्टी नहींए ज्यादा—से—ज्यादा सूखी हमदर्दी ही तो कर सकता हूँ। हिमायत की है मिस मालती ने कि खन्ना को बचा लिया। इंसान के दिल की गहराइयों में त्याग और कुर्बानी में कितनी ताकत छिपी होती हैए इसका मुझे अब तक तजरबा न हुआ था। आप भी एक दिन खन्ना से मिल आइए। फूला न समाएगा। इस वक्त उन्हें जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत हैए वह हमदर्दी है।
मिर्जा ने जैसे अपनी इच्छा के विरुद्ध कहा — आप कहते हैंए तो जाऊँगा। आपके साथ जहन्नुम में जाने में भी मुझे उज्र नहींए मगर मिस मालती से तो आपकी शादी होने वाली थी। बड़ी गर्म खबर थी।
मेहता ने झेंपते हुए कहा — तपस्या कर रहा हूँ। देखिएए कब वरदान मिले।
श्अजीए वह तो आप पर मरती थी।श्
श्मुझे भी यही वहम हुआ थाए मगर जब मैंने हाथ बढ़़ा कर उसे पकड़ना चाहा तो देखाए वह आसमान पर जा बैठी है। उस ऊँचाई तक तो क्या मैं पहुँचूँगाए आरजू—मिंनत कर रहा हूँ कि नीचे आ जाए। आजकल तो वह मुझसे बोलती भी नहीं।श्
यह कहते हुए मेहता जोर से रोती हुई हँसी हँसे और उठ खड़े हुए।
मिर्जा ने पूछा — अब फिर कब मुलाकात होगीघ्
श्अबकी आपको तकलीफ करनी पड़ेगी। खन्ना के पास जाइएगा जरूर।श्
श्जाऊँगा।श्
मिर्जा ने खिड़की से मेहता को जाते देखा। चाल में वह तेजी न थीए जैसे किसी चिंता में डूबे हों।
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भाग 32
डाक्टर मेहता परीक्षक से परीक्षार्थी हो गए हैं। मालती से दूर—दूर रह कर उन्हें ऐसी शंका होने लगी है कि उसे खो न बैठें। कई महीनों से मालती उनके पास न आई थी और जब वह विकल हो कर उसके घर गएए तो मुलाकात न हुई। जिन दिनों रुद्रपाल और सरोज का प्रेमकांड चलता रहाए तब तो मालती उनकी सलाह लेने प्रायरू एक—दो बार रोज आती थीए पर जब से दोनों इंग्लैंड चले गए थेए उसका आना—जाना बंद हो गया था। घर पर भी वह मुश्किल से मिलती। ऐसा मालूम होता थाए जैसे वह उनसे बचती हैए जैसे बलपूर्वक अपने मन को उनकी ओर से हटा लेना चाहती है। जिस पुस्तक में वह इन दिनों लगे हुए थेए वह आगे बढ़़ने से इनकार कर रही थीए जैसे उनका मनोयोग लुप्त हो गया हो। गृह—प्रबंध में तो वह कभी बहुत कुशल न थे। सब मिला कर एक हजार रुपए से अधिक महीने में कमा लेते थेए मगर बचत एक धेले की भी न होती थी। रोटी—दाल खाने के सिवा और उनके हाथ कुछ न था। तकल्लुफ अगर कुछ था तो वह उनकी कार थीए जिसे वह खुद ड्राइव करते थे। कुछ रुपए किताबों में उड़ जाते थेए कुछ चंदों मेंए कुछ गरीब छात्रों की परवरिश में और अपने बाग की सजावट मेंए जिससे उन्हें इश्क—सा था। तरह—तरह के पौधो और वनस्पतियाँ विदेशों से महँगे दामों मँगाना और उनको पालनाए यही उनका मानसिक चटोरापन था या इसे दिमागी ऐयाशी कहेंए मगर इधर कई महीनों से उस बगीचे की ओर से भी वह कुछ विरक्त—से हो रहे थे और घर का इंतजाम और भी बदतर हो गया था। खाते दो फुलके और खर्च हो जाते सौ से ऊपर! अचकन पुरानी हो गई थीए मगर इसी पर उन्होंने कड़ाके का जाड़ा काट दिया। नई अचकन सिलवाने की तौफीक न हुई। कभी—कभी बिना घी की दाल खा कर उठना पड़ता। कब घी का कनस्तर मँगाया थाए इसकी उन्हें याद ही न थीए और महाराज से पूछें भी तो कैसेघ् वह समझेगा नहीं कि उस पर अविश्वास किया जा रहा हैघ् आखिर एक दिन जब तीन निराशाओं के बाद चौथी बार मालती से मुलाकात हुई और उसने इनकी यह हालत देखीए तो उससे न रहा गया। बोली — तुम क्या अबकी जाड़ा यों ही काट दोगेघ् यह अचकन पहनते तुम्हें शर्म नहीं आतीघ्
मालती उनकी पत्नी न हो कर भी उनके इतने समीप थी कि यह प्रश्न उसने उसी सहज भाव से कियाए जैसे अपने किसी आत्मीय से करती।
मेहता ने बिना झेंपे हुए कहा — क्या करूँ मालतीए पैसा तो बचता ही नहीं।
मालती को अचरज हुआ — तुम एक हजार से ज्यादा कमाते होए और तुम्हारे पास अपने कपड़े बनवाने को भी पैसे नहींघ् मेरी आमदनी कभी चार सौ से ज्यादा न थीए लेकिन मैं उसी में सारी गृहस्थी चलाती हूँ और बचा लेती हूँ। आखिर तुम क्या करते होघ्
श्मैं एक पैसा भी फालतू नहीं खर्च करता। मुझे कोई ऐसा शौक भी नहीं है।श्
श्अच्छाए मुझसे रुपए ले जाओ और एक जोड़ी अचकन बनवा लो।श्
श्मेहता ने लज्जित हो कर कहा — अबकी बनवा लूँगा। सच कहता हूँ!
श्अब आप यहाँ आएँ तो आदमी बन कर आएँ।श्
श्यह तो बड़ी कड़ी शर्त है।श्
श्कड़ी सही। तुम जैसों के साथ बिना कड़ाई किए काम नहीं चलता।श्
मगर वहाँ तो संदूक खाली था और किसी दुकान पर बे—पैसे जाने का साहस न पड़ता था। मालती के घर जायँ तो कौन मुँह ले करघ् दिल में तड़प—तड़प कर रह जाते थे। एक दिन नई विपत्ति आ पड़ी। इधर कई महीने से मकान का किराया नहीं दिया था। पचहत्तर रुपए माहवार बढ़़ते जाते थे। मकानदार नेए जब बहुत तकाजे करने पर भी रुपए वसूल न कर पाएए तो नोटीस दे दीए मगर नोटीस रुपए गढ़़ने का कोई जंतर तो है नहीं। नोटीस की तारीख निकल गई और रुपए न पहुँचे। तब मकानदार ने मजबूर हो कर नालिश कर दी। वह जानता थाए मेहता जी बड़े सज्जन और परोपकारी पुरुष हैं लेकिन इससे ज्यादा भलमनसी वह क्या करता कि छरू महीने सब्र किए बैठा रहा। मेहता ने किसी तरह की पैरवी न कीए एकतरफा डिगरी हो गईए मकानदार ने तुरंत डिगरी जारी कराई और कुर्क अमीन मेहता साहब के पास पूर्व सूचना देने आयाए क्योंकि उसका लड़का यूनिवर्सिटी में पढ़़ता था और उसे मेहता कुछ वजीफा भी देते थे। संयोग से उस वक्त मालती भी बैठी थी।
बोली — कैसी कुर्की हैघ् किस बात कीघ्
अमीन ने कहा — वही किराए की डिगरी जो हुई थीए मैंने कहा — हुजूर को इत्तला दे दूँ। चार—पाँच सौ का मामला हैए कौन—सी बड़ी रकम है। दस दिन में भी रुपए दे दीजिएए तो कोई हरज नहीं। मैं महाजन को दस दिन तक उलझाए रहूँगा।
जब अमीन चला गया तो मालती ने तिरस्कार—भरे स्वर में पूछा — अब यहाँ तक नौबत पहुँच गई। मुझे आश्चर्य होता है कि तुम इतने मोटे—मोटे ग्रंथ कैसे लिखते हो! मकान का किराया छरू—छरू महीने से बाकी पड़ा है और तुम्हें खबर नहींघ्
मेहता लज्जा से सिर झुका कर बोले — खबर क्यों नहीं हैए लेकिन रुपए बचते ही नहीं। मैं एक पैसा भी व्यर्थ नहीं खर्च करता।
श्कोई हिसाब—किताब भी लिखते होघ्श्
श्हिसाब क्यों नहीं रखता। जो कुछ पाता हूँए वह सब दर्ज करता जाता हूँए नहीं इनकमटैक्स वाले जिंदा न छोड़ें।श्
श्और जो कुछ खर्च करते हो वहघ्श्
श्उसका तो कोई हिसाब नहीं रखता।श्
श्क्योंघ्श्
श्कौन लिखेएबोझ—सा लगता है।श्
श्और यह पोथे कैसे लिख डालते होघ्श्
श्उसमें तो विशेष कुछ नहीं करना पड़ता। कलम ले कर बैठ जाता हूँ। हर वक्त खर्च का खाता तो खोल कर नहीं बैठता।श्
श्तो रुपए कैसे अदा करोगेघ्श्
श्किसी से कर्ज ले लूँगा। तुम्हारे पास हो तो दे दो।श्
श्मैं तो एक शर्त पर दे सकती हूँ। तुम्हारी आमदनी सब मेरे हाथों में आए और खर्च भी मेरे हाथों से हो।श्
मेहता प्रसन्न हो कर बोले — वाहए अगर यह भार ले लोए तो क्या कहनाए मूसलों ढ़ोल बजाऊँ।
मालती ने डिगरी के रुपए चुका दिए और दूसरे ही दिन मेहता को वह बँगला खाली करने पर मजबूर किया। अपने बँगले में उसने उनके लिए दो बड़े—बड़े कमरे दे दिए। उनके भोजन आदि का प्रबंध भी अपने ही गृहस्थी में कर दिया। मेहता के पास सामान तो ज्यादा न थाए मगर किताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गए। अपना बगीचा छोड़ने का उन्हें जरूर कलक हुआए लेकिन मालती ने अपना पूरा अहाता उनके लिए छोड़ दिया कि जो फूल—पत्तियाँ चाहें लगाएँ।
मेहता तो निश्चिंत हो गएय लेकिन मालती को उनकी आय—व्यय पर नियंत्रण करने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। उसने देखाए आय तो एक हजार से ज्यादा हैय मगर वह सारी की सारी गुप्तदान में उड़ जाती है। बीस—पच्चीस लड़के उन्हीं से वजीफा पा कर विद्यालय में पढ़़ रहे थे। विधवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस खर्च में कैसे कमी करेए यह उसे न सूझता था। सारा दोष उसी के सिर मढ़़ा जायगाए सारा अपयश उसी के हिस्से पड़ेगा। कभी मेहता पर झुँझलातीए कभी अपने ऊपरए कभी प्रार्थियों के ऊपर जो एक सरलए उदार प्राणी पर अपना भार रखते जरा भी न सकुचाते थे। यह देख कर और झुँझलाहट होती थी कि इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र ही न थे। एक दिन उसने मेहता को आड़े हाथों लिया।
मेहता ने उसका आक्षेप सुन कर निश्चिंत भाव से कहा — तुम्हें अख्तियार हैए जिसे चाहे दोए चाहे न दो। मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं। हाँए जवाब भी तुम्हीं को देना पड़ेगा।
मालती ने चिढ़़ कर कहा — हाँए और क्याए यश तो तुम लोए अपयश मेरे सिर मढ़़ो। मैं नहीं समझतीए तुम किस तर्क से इस दान—प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य—जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ्तखोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया हैए उतना अन्याय ने भी न किया होगाए बल्कि मेरे खयाल में अन्याय ने मनुष्य—जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है।
मेहता ने स्वीकार किया — मेरा भी यही खयाल है।
श्तुम्हारा यह खयाल नहीं है।श्
श्नहीं मालतीए मैं सच कहता हूँ।श्
श्तो विचार और व्यवहार में इतना भेद क्योंघ्श्
मालती ने तीसरे महीने बहुतों को निराश किया। किसी को साफ जवाब दियाए किसी से मजबूरी जताईए किसी की फजीहत की।
मिस्टर मेहता का बजट तो धीरे—धीरे ठीक हो गयाए मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्लानि हुई। मालती ने जब तीसरे महीने में तीन सौ बचत दिखाईए तब वह उससे कुछ बोले नहींए मगर उनकी —ष्टि में उसका गौरव कुछ कम अवश्य हो गया। नारी में दान और त्याग होना चाहिए। उसकी यही सबसे बड़ी विभूति है। इसी आधार पर समाज का भवन खड़ा है। वणिक—बुद्धि को वह आवश्यक बुराई ही समझते थे।
जिस दिन मेहता की अचकनें बन कर आईं और नई घड़ी आईए वह संकोच के मारे कई दिन बाहर न निकले। आत्म—सेवा से बड़ा उनकी नजर में दूसरा अपराध न था।
मगर रहस्य की बात यह थी कि मालती उनको तो लेखे—ड्योढ़़े में कस कर बाँधना चाहती थी। उनके धन—दान के द्वार बंद कर देना चाहती थीए पर खुद जीवन—दान देने में अपने समय और सदाश्यता को दोनों हाथों से लुटाती थी। अमीरों के घर तो वह बिना फीस लिए न जाती थीए लेकिन गरीबों को मुफ्त देखती थीए मुफ्त दवा भी देती थी। दोनों में अंतर इतना ही थाए कि मालती घर की भी थी और बाहर की भीए मेहता केवल बाहर के थेए घर उनके लिए न था। निजत्व दोनों मिटाना चाहते थे। मेहता का रास्ता साफ था। उन पर अपनी जात के सिवा और कोई जिम्मेदारी न थी। मालती का रास्ता कठिन थाए उस पर दायित्व थाए बंधन थाए जिसे वह तोड़ न सकती थीए न तोड़ना चाहती थी। उस बंधन में ही उसे जीवन की प्रेरणा मिलती थी। उसे अब मेहता को समीप से देख कर यह अनुभव हो रहा था कि वह खुले जंगल में विचरने वाले जीव को पिंजरे में बंद नहीं कर सकती। और बंद कर देगीए तो वह काटने और नोचने दौड़ेगा। पिंजरे में सब तरह का सुख मिलने पर भी उसके प्राण सदैव जंगल के लिए ही तड़पते रहेंगे। मेहता के लिए घरबारी दुनिया एक अनजानी दुनिया थीए जिसकी रीति—नीति से वह परिचित न थे।
उन्होंने संसार को बाहर से देखा था और उसे मक्र और फरेब से ही भरा समझते थे। जिधर देखते थेए उधर ही बुराइयाँ नजर आती थींए मगर समाज में जब गहराई में जा कर देखाए तो उन्हें मालूम हुआ कि इन बुराइयों के नीचे त्याग भी हैए प्रेम भी हैए साहस भी हैए धैर्य भी हैए मगर यह भी देखा कि वह विभूतियाँ हैं तो जरूरए पर दुर्लभ हैंए और इस शंका और संदेह में जब मालती का अंधकार से निकलता हुआ देवी—रूप उन्हें नजर आयाए तब वह उसकी ओर उतावलेपन के साथए सारा धैर्य खो कर टूटे और चाहा कि उसे ऐसे जतन से छिपा कर रखें कि किसी दूसरे की आँख भी उस पर न पड़े। यह ध्यान न रहा कि यह मोह ही विनाश की जड़ है। प्रेम जैसी निर्मम वस्तु क्या भय से बाँध कर रखी जा सकती हैघ् वह तो पूरा विश्वास चाहती हैए पूरी स्वाधीनता चाहती हैए पूरी जिम्मेदारी चाहती है। उसके पल्लवित होने की शक्ति उसके अंदर है। उसे प्रकाश और क्षेत्र मिलना चाहिए। वह कोई दीवार नहीं हैए जिस पर ऊपर से ईंटें रखी जाती हैं। उसमें तो प्राण हैंए फैलने की असीम शक्ति है।
जब से मेहता इस बँगले में आए हैंए उन्हें मालती से दिन में कई बार मिलने का अवसर मिलता है। उनके मित्र समझते हैंए यह उनके विवाह की तैयारी है। केवल रस्म अदा करने की देर है। मेहता भी यही स्वप्न देखते रहते हैं। अगर मालती ने उन्हें सदा के लिए ठुकरा दिया होताए तो क्यों उन पर इतना स्नेह रखतीघ् शायद वह उन्हें सोचने का अवसर दे रही हैए और वह खूब सोच कर इसी निश्चय पर पहुँचे हैं कि मालती के बिना वह आधे हैं। वही उन्हें पूर्णता की ओर ले जा सकती है। बाहर से वह विलासिनी हैए भीतर से वही मनोवृत्ति शक्ति का केंद्र हैए मगर परिस्थिति बदल गई है। तब मालती प्यासी थीए अब मेहता प्यास से विकल हैं। और एक बार जवाब पा जाने के बाद उन्हें उस प्रश्न पर मालती से कुछ कहने का साहस नहीं होताए यद्यपि उनके मन में अब संदेह का लेश नहीं रहा। मालती को समीप से देख कर उनका आकर्षण बढ़़ता ही जाता है। दूर से पुस्तक के जो अक्षर लिपे—पुते लगते थेए समीप से वह स्पष्ट हो गए हैंए उनमें अर्थ हैए संदेश है।
इधर मालती ने अपने बाग के लिए गोबर को माली रख लिया था। एक दिन वह किसी मरीज को देख कर आ रही थी कि रास्ते में पैट्रोल न रहा। वह खुद ड्राइव कर रही थी। फिक्र हुई पैट्रोल कहाँ से आएघ् रात के नौ बज गए थे और माघ का जाड़ा पड़ रहा था। सड़कों पर सन्नाटा हो गया था। कोई ऐसा आदमी नजर न आता थाए जो कार को ढ़केल कर पैट्रोल की दुकान तक ले जाए। बार—बार नौकर पर झुँझला रही थी। हरामखोर कहीं काए बेखबर पड़ा रहता है।
संयोग से गोबर उधर से आ निकला। मालती को देख कर उसने हालत समझ ली और गाड़ी को दो फरलांग ठेल कर पैट्रोल की दुकान तक लाया।
मालती ने प्रसन्न हो कर पूछा — नौकरी करोगेघ्
गोबर ने धन्यवाद के साथ स्वीकार किया। पंद्रह रुपए वेतन तय हुआ। माली का काम उसे पसंद था। यही काम उसने किया था और उसमें मँजा हुआ था। मिल की मजदूरी में वेतन ज्यादा मिलता थाए पर उस काम से उसे उलझन होती थी।
दूसरे दिन गोबर ने मालती के यहाँ काम करना शुरू कर दिया। उसे रहने को एक कोठरी भी मिल गई। झुनिया भी आ गई। मालती बाग में आती तो झुनिया का बालक धूल—मिट्टी में खेलता फिरता। एक दिन मालती ने उसे एक मिठाई दे दी। बच्चा उस दिन से परच गया। उसे देखते ही उसके पीछे लग जाता और जब तक मिठाई न ले लेताए उसका पीछा न छोड़ता।
एक दिन मालती बाग में आई तो बालक न दिखाई दिया। झुनिया से पूछा तो मालूम हुआ बच्चे को ज्वर आ गया है।
मालती ने घबरा कर कहा — ज्वर आ गया। तो मेरे पास क्यों नहीं लाईघ् चल देखूँ।
बालक खटोले पर ज्वर में अचेत पड़ा था। खपरैल की उस कोठरी में इतनी सीलनए इतना अँधेराए और इस ठंड के दिनों में भी इतने मच्छर कि मालती एक मिनट भी वहाँ न ठहर सकीए तुरंत आ कर थर्मामीटर लिया और फिर जा कर देखाए एक सौ चार था! मालती को भय हुआए कहीं चेचक न हो। बच्चे को अभी तक टीका नहीं लगा था। और अगर इस सीली कोठरी में रहाए तो भय थाए कहीं ज्वर और न बढ़़ जाए।
सहसा बालक ने आँखें खोल दीं और मालती को खड़ी पा कर करुण नेत्रों से उसकी ओर देखा और उसकी गोद के लिए हाथ फैलाए। मालती ने उसे गोद में उठा लिया और थपकियाँ देने लगी।
बालक मालती की गोद में आ कर जैसे किसी बड़े सुख का अनुभव करने लगा। अपनी जलती हुई उँगलियों से उसके गले की मोतियों की माला पकड़ कर अपनी ओर खींचने लगा। मालती ने नेकलेस उतार कर उसके गले में डाल दी। बालक की स्वार्थी प्रकृति इस दशा में भी सजग थी। नेकलेस पा कर अब उसे मालती की गोद में रहने की कोई ऐसी जरूरत न रही। यहाँ उसके छिन जाने का भय था। झुनिया की गोद इस समय ज्यादा सुरक्षित थी।
मालती ने खिले हुए मन से कहा — बड़ा चालाक है। चीज ले कर कैसा भागा!
झुनिया ने कहा — दे दो बेटाए मेम साहब का है।
बालक ने हार को दोनों हाथों से पकड़ लिया और माँ की ओर रोष से देखा।
मालती बोली — तुम पहने रहो बच्चाए मैं माँगती नहीं हूँ।
उसी वक्त बँगले में आ कर उसने अपना बैठक का कमरा खाली कर दिया और उसी वक्त झुनिया उस नए कमरे में डट गई।
मंगल ने उस स्वर्ग को कौतूहल—भरी आँखों से देखा। छत में पंखा थाए रंगीन बल्ब थेए दीवारो पर तस्वीरें थीं। देर तक उन चीजों को टकटकी लगाए देखता रहा। मालती ने बड़े प्यार से पुकारा — मंगल !
मंगल ने मुस्करा कर उसकी ओर देखाए जैसे कह रहा हो — आज तो हँसा नहीं जाता मेम साहब! क्या करूँ। आपसे कुछ हो सके तो कीजिए।
मालती ने झुनिया को बहुत—सी बातें समझाईं और चलते—चलते पूछा — तेरे घर में कोई दूसरी औरत होए तो गोबर से कह देए दो—चार दिन के लिए बुला लावे। मुझे चेचक का डर है। कितनी दूर है तेरा घरघ्
झुनिया ने अपने गाँव का नाम और घर का पता बताया। अंदाज से अट्ठारह—बीस कोस होंगे।
मालती को बेलारी याद था। बोली — वही गाँव तो नहींए जिसके पच्छिम तरफ आधा मील पर नदी हैघ्
श्हाँ—हाँ मेम साहबए वही गाँव है। आपको कैसे मालूमघ्श्
श्एक बार हम लोग उस गाँव में गए थे। होरी के घर ठहरे थे। तू उसे जानती हैघ्श्
श्वह तो मेरे ससुर हैं मेम साहब! मेरी सास भी मिली होंगीघ्श्
श्हाँ—हाँए बड़ी समझदार औरत मालूम होती थी। मुझसे खूब बातें करती रही। तो गोबर को भेज देए अपने माँ को बुला लाए।श्
श्वह उन्हें बुलाने नहीं जाएँगे।श्
श्क्योंघ्श्
श्कुछ ऐसा ही कारन है।श्
झुनिया को अपने घर का चौका—बरतनए झाड़ू—बुहाईए रोटी—पानी सभी कुछ करना पड़ता। दिन को तो दोनों चना—चबेना खा कर रह जाते। रात को जब मालती आ जातीए तो झुनिया अपना खाना पकाती और मालती बच्चे के पास बैठती। वह बार—बार चाहती कि बच्चे के पास बैठेए लेकिन मालती उसे न आने देती। रात को बच्चे का ज्वर तेज हो जाता और वह बेचौन हो कर दोनों हाथ ऊपर उठा लेता। मालती उसे गोद में ले कर घंटों कमरे में टहलती। चौथे दिन उसे चेचक निकल आई। मालती ने सारे घर को टीका लगायाए खुद को टीका लगवायाए मेहता को भी लगाया। गोबरए झुनियाए महराजए कोई न बचा। पहले दिन तो दाने छोटे थे और अलग—अलग थे। जान पड़ता थाए छोटी माता है। दूसरे दिन दाने जैसे खिल उठे और अंगूर के दानों के बराबर हो गए और फिर कई—कई दाने मिल कर बड़े—बड़े आंवले जैसे हो गए। मंगल जलन और खुजली और पीड़ा से बेचौन हो कर करुण स्वर में कराहता और दीनए असहाय नेत्रों से मालती की ओर देखता। उसका कराहना भी प्रौढ़़ों का—सा थाए और —ष्टि में भी प्रौढ़़ता थीए जैसे वह एकाएक जवान हो गया हो। इस असहाय वेदना ने मानो उसके अबोध शिशुपन को मिटा डाला हो। उसकी शिशु—बुद्धि मानो सज्ञान हो कर समझ रही थी कि मालती ही के जतन से वह अच्छा हो सकता है। मालती ज्यों ही किसी काम से चली जातीए वह रोने लगता। मालती के आते ही चुप हो जाता। रात को उसकी बेचौनी बढ़़ जाती और मालती को प्रायरू सारी रात बैठना पड़ जाताए मगर वह न कभी झुँझलातीए न चिढ़़ती। हाँए झुनिया पर उसे कभी—कभी अवश्य क्रोध आताए क्योंकि वह अज्ञान के कारण जो न करना चाहिएए वह कर बैठती। गोबर और झुनिया दोनों की आस्था झाड़—फूँक में अधिक थीए पर यहाँ उसको कोई अवसर न मिलता। उस पर झुनिया दो बच्चे की माँ हो कर बच्चे का पालन करना न जानती थी। मंगल दिक करताए तो उसे डाँटती—कोसती। जरा—सा भी अवकाश पातीए तो जमीन पर सो जाती और सबेरे से पहले न उठतीए और गोबर तो उस कमरे में आते जैसे डरता था। मालती वहाँ बैठी हैए कैसे जायघ् झुनिया से बच्चे का हाल—हवाल पूछ लेता और खा कर पड़ रहता। उस चोट के बाद वह पूरा स्वस्थ न हो पाया था। थोड़ा—सा काम करके भी थक जाता था। उन दिनों जब झुनिया घास बेचती थी और वह आराम से पड़ा रहता थाए तो वह कुछ हरा हो गया थाए मगर इधर कई महीने बोझ ढ़ोने और चूने—गारे का काम करने से उसकी दशा गिर गई थी। उस पर यहाँ काम बहुत था। सारे बाग को पानी निकाल कर सींचनाए क्यारियों को गोड़नाए घास छीलनाए गायों को चारा—पानी देना और दुहना। और जो मालिक इतना दयालु होए उसके काम में काम—चोरी कैसे करेघ् यह एहसान उसे एक क्षण भी आराम से न बैठने देताए और तब मेहता खुद खुरपी ले कर घंटों बाग में काम करते तो वह कैसे आराम करताघ् वह खुद सूखता जाता थाए पर बाग हरा हो रहा था।
मिस्टर मेहता को भी बालक से स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद में ले कर उनकी मूँछें उखड़वा दी थीं। दुष्ट ने मूँछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आँखों में आँसू भर आए थे।
मेहता ने बिगड़ कर कहा था — बड़ा शैतान लौंडा है।
मालती ने उन्हें डाँटा था — तुम मूँछें साफ क्यों नहीं कर लेतेघ्
श्मेरी मूँछें मुझे प्राणों से प्रिय हैं।श्
श्अबकी पकड़ लेगाए तो उखाड़ कर ही छोड़ेगा।श्
श्तो मैं इसके कान भी उखाड़ लूँगा।श्
मंगल को उनकी मूँछें उखाड़ने में कोई खास मजा आया था। वह खूब खिल—खिला कर हँस रहा था और मूँछों को और जोर से खींचा थाए मगर मेहता को भी शायद मूँछें उखड़वाने में मजा आया थाए क्योंकि वह प्रायरू दो—तीन बार रोज उससे अपने मूँछों की रस्साकशी करा लिया करते थे।
इधर जब से मंगल को चेचक निकल आई थीए मेहता को भी बड़ी चिंता हो गई थी। अक्सर कमरे में जा कर मंगल को व्यथित आँखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़—धूप से वह अच्छा हो जाताए तो पृथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगातेए रुपए खर्च करने से अच्छा होताए तो चाहे भीख ही माँगना पड़ताए वह उसे अच्छा करके ही रहतेए लेकिन यहाँ कोई बस न था। उसे छूते भी उनके हाथ काँपते थे। कहीं उसके आंवले न टूट जाय। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती हैए कंधों पर उठा कर कमरे में टहलाती है और कितने स्नेह से उसे बहला कर दूध पिलाती है। यह वात्सल्य मालती को उनकी —ष्टि में न जाने कितना ऊँचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं हैए माता भी है और ऐसी—वैसी माता भी नहींए सच्चे अर्थो में देवी और माता और जीवन देने वालीए जो पराए बालक को भी अपना सकती हैए जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग—अंग से मातापन फूटा पड़ता थाए मानो यही उसका यथार्थ रूप हो। यह हाव—भावए यह शौक—सिंगार उसके मातापन के आवरण—मात्र होंए जिसमें उस विभूति की रक्षा होती रहे।
रात का एक बज गया था। मंगल का रोना सुन कर मेहता चौंक पड़े। सोचाए बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगीए इस वक्त उसे उठने में कितना कष्ट होगाए अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूँ। तुरंत उठ कर उस कमरे के द्वार पर आए और शीशे से अंदर झाँका। मालती बच्चे को गोद में लिए बैठी थी और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा थाए या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थीए थपकती थीए तस्वीरें दिखाती थीए गोद में ले कर टहलती थीए पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्यए यह अदम्य मातृ—भाव देख कर उनकी आँखें सजल हो गईं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अंदर जा कर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अंतस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा — प्रिएए मेरे स्वर्ग की देवीए मेरी रानीए डालिर्ंग...
और उसी प्रेमोन्माद में उन्होंने पुकारा — मालतीए जरा द्वार खोल दो।
मालती ने आ कर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा।
मेहता ने पूछा — क्या झुनिया नहीं उठीघ् यह तो बहुत रो रहा है।
मेहता ने संवेदना—भरे स्वर में कहा — आज आठवाँ दिन हैए पीड़ा अधिक होगी। इसी से।
श्तो लाओए मैं कुछ देर टहला दूँए तुम थक गई होगी।श्
मालती ने मुस्करा कर कहा — तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा।
बात सच थीए मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता हैघ् मेहता ने जिद करके कहा — तुमने मुझे इतना हल्का समझ लिया हैघ्
मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अंतर्ज्ञान होता हैए उसने उसे बता दियाए अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नहींए पुरुष है और पुरुष गुस्सेवर होता है और निर्दयी भी होता है और चारपाई पर लेटा करए या बाहर अँधेरे में सुला कर दूर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा।
मेहता ने विजय—गर्व से कहा — देखाए कैसा चुप कर दिया !
मालती ने विनोद किया — हाँए तुम इस कला में भी कुशल हो। कहाँ सीखीघ्
श्तुमसे।श्
श्मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।श्
मेहता ने लज्जित हो कर कहा — मालतीए मैं तुमसे हाथ जोड़ कर कहता हूँए मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में कितना पछताया हूँए कितना लज्जित हुआ हूँए कितना दुरूखी हुआ हूँए शायद तुम इसका अंदाज न कर सको।
मालती ने सरल भाव से कहा — मैं तो भूल गईए सच कहती हूँ।
श्मुझे कैसे विश्वास आएघ्श्
श्उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैंए एक साथ खाते हैंए हँसते हैंए बोलते हैं।श्
श्क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगीघ्श्
उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दियाए जहाँ वह दुबक कर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आँखों से देखाए जैसे उसकी अनुमति पर उनका सब कुछ टीका हुआ हो।
मालती ने आर्द्र हो कर कहा — तुम जानते होए तुमसे ज्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नहीं है। मैंने बहुत दिन हुएए अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ—प्रदर्शक होए मेरे देवता होए मेरे गुरू हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की जरूरत नहींए मुझे केवल संकेत कर देने की जरूरत है। जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न थाए भोग और आत्म—सेवा ही मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आ कर उसे प्रेरणा दीए स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहसान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की तट वाली तुम्हारी बातें गाँठ बाँध लीं। दुरूख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझाए जो कोई दूसरा पुरुष समझताए जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्व मेरे ऊपर हैए यह मैं जानती हूँए लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पा कर भी मैं वही बनी रहूँगीए ऐसा समझ कर तुमने मेरे साथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूँए यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पा कर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने के लिए काफी है। यह मेरी पूर्णता है।
यह कहते—कहते मालती के मन में ऐसा अनुराग उठा कि मेहता के सीने से लिपट जाए। भीतर की भावनाएँ बाहर आ कर मानो सत्य हो गई थीं। उसका रोम—रोम पुलकित हो उठा। जिस आनंद को उसने दुर्लभ समझ रखा थाए वह इतना सुलभए इतना समीप है! और हृदय का वह आह्लाद मुख पर आ कर उसे ऐसी शोभा देने लगा कि मेहता को उसमें देवत्व की आभा दिखी। यह नारी हैए या मंगल कीए पवित्रता की और त्याग की प्रतिमा!
उसी वक्त झुनिया जाग कर उठ बैठी और मेहता अपने कमरे में चले गए और फिर दो सप्ताह तक मालती से कुछ बातचीत करने का अवसर उन्हें न मिला। मालती कभी उनसे एकांत में न मिलती। मालती के वह शब्द उनके हृदय में गूँजते रहते। उनमें कितनी सांत्वना थीए कितनी विनय थीए कितना नशा था!
दो सप्ताह में मंगल अच्छा हो गया। हाँए मुँह पर चेचक के दाग न भर सके। उस दिन मालती ने आस—पास के लड़कों को भरपेट मिठाई खिलाई और जो मनौतियाँ कर रखी थींए वह भी पूरी की। इस त्याग के जीवन में कितना आनंद हैए इसका अब उसे अनुभव हो रहा था। झुनिया और गोबर का हर्ष मानो उसके भीतर प्रतिबिंबित हो रहा था। दूसरों के कष्ट निवारण में उसने जिस सुख और उल्लास का अनुभव कियाए वह कभी भोग—विलास के जीवन में न किया था। वह लालसा अब उन फूलों की भाँति क्षीण हो गई थीए जिसमें फल लग रहे हों। अब वह उस दर्जे से आगे निकल चुकी थीए जब मनुष्य स्थूल आनंद को परम सुख मानता है। यह आनंद अब उसे तुच्छ पतन की ओर ले जाने वालाए कुछ हल्काए बल्कि वीभत्स—सा लगता था। उसे बड़े बँगले में रहने का क्या आनंदए जब उसके आस—पास मिट्टी के झोंपड़े मानो विलाप कर रहे हों। कार पर चढ़़ कर अब उसे गर्व नहीं होता। मंगल जैसे अबोध बालक ने उसके जीवन में कितना प्रकाश डाल दियाए उसके सामने सच्चे आनंद का द्वार—सा खोल दिया।
एक दिन मेहता के सिर में जोर का दर्द हो रहा था। वह आँखें बंद किए चारपाई पर पड़े तड़प रहे थे कि मालती ने आ कर उनके सिर पर हाथ रख कर पूछा — कब से यह दर्द हो रहा हैघ्
मेहता को ऐसा जान पड़ाए उन कोमल हाथों ने जैसे सारा दर्द खींच लिया। उठ कर बैठ गए और बोले — दर्द तो दोपहर से ही हो रहा था और ऐसा सिर—दर्द मुझे आज तक नहीं हुआ थाए मगर तुम्हारे हाथ रखते ही सिर ऐसा हल्का हो गया हैए मानो दर्द था ही नहीं। तुम्हारे हाथों में यह सिद्धि है।
मालती ने उन्हें कोई दवा ला कर खाने को दे दी और आराम से लेट रहने की ताकीद करके तुरंत कमरे से निकल जाने को हुई।
मेहता ने आग्रह करके कहा — जरा दो मिनट बैठोगी नहींघ्
मालती ने द्वार पर से पीछे फिर कर कहा — इस वक्त बातें करोगे तो शायद फिर दर्द होने लगे। आराम से लेटे रहो। आजकल मैं तुम्हें हमेशा कुछ—न—कुछ पढ़़ते या लिखते देखती हूँ। दो—चार दिन लिखना—पढ़़ना छोड़ दो।
श्तुम एक मिनट बैठोगी नहींघ्श्
श्मुझे एक मरीज को देखने जाना है।श्
श्अच्छी बात हैए जाओ।श्
मेहता के मुख पर कुछ ऐसी उदासी छा गई कि मालती लौट पड़ी और सामने आ कर बोली — अच्छाए कहो क्या कहते होघ्
मेहता ने विमन हो कर कहा — कोई खास बात नहीं है। यही कह रहा था कि इतनी रात गए किस मरीज को देखने जाओगीघ्
श्वही रायसाहब की लड़की है। उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी। अब कुछ सँभल गई है।श्
उसके जाते ही मेहता फिर लेट रहे। कुछ समझ में नहीं आया कि मालती के हाथ रखते ही दर्द क्यों शांत हो गया। अवश्य ही उसमें कोई सिद्धि है और यह उसकी तपस्या काए उसकी कर्मण्य मानवता का ही वरदान है। मालती नारीत्व के उस ऊँचे आदर्श पर पहुँच गई थीए जहाँ वह प्रकाश के एक नक्षत्र—सी नजर आती थी। अब वह प्रेम की वस्तु नहींए श्रद्धा की वस्तु थी। अब वह दुर्लभ हो गई थी और दुर्लभता मनस्वी आत्माओं के लिए उद्योग का मंत्र है। मेहता प्रेम में जिस सुख की कल्पना कर रहे थेए उसे श्रद्धा ने और भी गहराए और भी स्फूर्तिय बना दिया। प्रेम में कुछ मान भी होता हैए कुछ ममत्व भी। श्रद्धा तो अपने को मिटा डालती है और अपने मिट जाने को ही अपना इष्ट बना लेती है। प्रेम अधिकार करना चाहता हैए जो कुछ देता हैए उसके बदले में कुछ चाहता भी है। श्रद्धा का चरम आनंद अपना समर्पण हैए जिसमें अहम्मंयता का ध्वंस हो जाता है।
मेहता का वृह्त ग्रंथ समाप्त हो गया थाए जिसे वह तीन साल से लिख रहे थे और जिसमें उन्होंने संसार के सभी दर्शन—तत्वों का समंवय किया था। यह ग्रंथ उन्होंने मालती को समर्पित कियाए और जिस दिन उसकी प्रतियाँ इंग्लैंड से आईं और उन्होंने एक प्रति मालती को भेंट कीए वह उसे अपने नाम से समर्पित देख कर विस्मित भी हुई और दुरूखी भी।
उसने कहा — यह तुमने क्या कियाघ् मैं तो अपने को इस योग्य नहीं समझती।
मेहता ने गर्व के साथ कहा — लेकिन मैं तो समझता हूँ। यह तो कोई चीज नहीं। मेरे तो अगर सौ प्राण होतेए तो वह तुम्हारे चरणों में न्योछावर कर देता।
श्मुझ पर! जिसने स्वार्थ—सेवा के सिवा कुछ जाना ही नहीं।श्
श्तुम्हारे त्याग का टुकड़ा भी मैं पा जाताए तो अपने को धन्य समझता। तुम देवी हो।श्
श्पत्थर कीए इतना और क्यों नहीं कहतेघ्श्
श्त्याग कीए मंगल कीए पवित्रता की।श्
श्तब तुमने मुझे खूब समझा! मैं और त्याग! मैं तुमसे सच कहती हूँए सेवा या त्याग का भाव कभी मेरे मन में नहीं आया। जो कुछ करती हूँए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वार्थ के लिए करती हूँ। मैं गाती इसलिए नहीं कि त्याग करती हूँए या अपने गीतों से दुखी आत्माओं को सांत्वना देती हूँए बल्कि केवल इसलिए कि उससे मेरा मन प्रसन्न होता है। इसी तरह दवा—दाई भी गरीबों को दे देती हूँए केवल अपने मन को प्रसन्न करने के लिए। शायद मन का अहंकार इसमें सुख मानता है। तुम मुझे ख्वाहमख्वाह देवी बनाए डालते हो। अब तो इतनी कसर रह गई है कि धूप—दीप ले कर मेरी पूजा करो!श्
मेहता ने कातर स्वर में कहा — वह तो मैं बरसों से कर रहा हूँ मालतीए और उस वक्त तक करता जाऊँगाए जब तक वरदान न मिलेगा।
मालती ने चुटकी ली — तो वरदान पा जाने के बाद शायद देवी को मंदिर से निकाल फेंको।
मेहता सँभल कर बोले — तब तो मेरी अलग सत्ता ही न रहेगीए उपासक उपास्य में लय हो जायगा।
मालती ने गंभीर हो कर कहा — नहीं मेहताए मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूँ और अंत में मैंने यह तय किया है कि मित्र बन कर रहना स्त्री—पुरुष बन कर रहने से कहीं सुख कर है। तुम मुझसे प्रेम करते होए मुझ पर विश्वास करते होए और मुझे भरोसा है कि आज अवसर आ पड़े तो तुम मेरी रक्षा प्राणों से करोगे। तुममें मैंने अपना पथ—प्रदर्शक ही नहींए अपना रक्षक भी पाया है। मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँए तुम पर विश्वास करती हूँए और तुम्हारे लिए कोई ऐसा त्याग नहीं हैए जो मैं न कर सकूँ। और परमात्मा से मेरी यही विनय है कि वह जीवन—पयर्ंत मुझे इसी मार्ग पर —ढ़़ रखे। हमारी पूर्णता के लिएए हमारी आत्मा के विकास के लिएए और क्या चाहिएघ् अपनी छोटी—सी गृहस्थी बना करए हमारी आत्माओं को छोटे—से पिजड़े में बंद करकेए अपने दुरूख—सुख को अपने ही तक रख करए क्या हम असीम के निकट पहुँच सकते हैंघ् वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा। कुछ विरले प्राणी ऐसे भी हैंए जो पैरों में यह बेड़ियाँ डाल कर भी विकास के पथ पर चल सकते हैं और चल रहे हैं। यह भी जानती हूँ कि पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम और त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्व हैए लेकिन मैं अपनी आत्मा को उतना —ढ़़ नहीं पाती। जब तक ममत्व नहीं हैए अपनापन नहीं हैए तब तक जीवन का मोह नहीं हैए स्वार्थ का जोर नहीं है। जिस दिन मन में मोह आसक्त हुआ और हम बंधन में पड़ेए उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जायगा नई—नई जिम्मेदारियाँ आ जायँगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगने लगेंगी। तुम्हारे जैसे विचारवान्ए प्रतिभाशाली मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बंद नहीं करना चाहती। अभी तक तुम्हारा जीवन यज्ञ थाए जिसमें स्वार्थ के लिए बहुत थोड़ा स्थान था। मैं उसको नीचे की ओर न ले जाऊँगी। संसार को तुम जैसे साधकों की जरूरत हैए जो अपनेपन को इतना फैला दें कि सारा संसार अपना हो जाए। संसार में अन्याय कीए आतंक कीए भय की दुहाई मची हुई है। अंधविश्वास काए कपट—धर्म काए स्वार्थ का प्रकोप छाया हुआ है। तुमने वह आर्त पुकार सुनी है। तुम भी न सुनोगेए तो सुनने वाले कहाँ से आएँगेघ् और असत्य प्राणियों की तरह तुम भी उसकी ओर से अपने कान नहीं बंद कर सकते। तुम्हें वह जीवन भार हो जायगा। अपनी विद्या और बुद्धि कोए अपनी जागी हुई मानवता को और भी उत्साह और जोर के साथ उसी रास्ते पर ले जाओ। मैं भी तुम्हारे पीछे—पीछे चलूँगी। अपने जीवन के साथ मेरा जीवन भी सार्थक कर दो। मेरा तुमसे यही आग्रह है। अगर तुम्हारा मन सांसारिकता की ओर लपकता हैए तब भी मैं अपना काबू चलते तुम्हें उधर से हटाऊँगी और ईश्वर न करे कि मैं असफल हो जाऊँए लेकिन तब मैं तुम्हारा साथ दो बूँद आँसू गिरा कर छोड़ दूँगीए और कह नहीं सकतीए मेरा क्या अंत होगाए किस घाट लगूँगीए पर चाहे वह कोई घाट होए इस बंधन का घाट न होगा। बोलोए मुझे क्या आदेश देते होघ्
मेहता सिर झुकाए सुनते रहे। एक—एक शब्द मानो उनके भीतर की आँखें इस तरह खोले देता थाए जैसी अब तक कभी न खुली थीं। वह भावनाएँ जो अब तक उनके सामने स्वप्न—चित्रों की तरह आईं थींए अब जीवन सत्य बन कर स्पंदित हो गई थीं। वह अपने रोम—रोम में प्रकाश और उत्कर्ष का अनुभव कर रहे थे। जीवन के महान संकल्पों के सम्मुख हमारा बालपन हमारी आँखों में फिर जाता है। मेहता की आँखों में मधुर बाल—स्मृतियाँ सजीव हो उठीए जब वह अपने विधवा माता की गोद में बैठ कर महान सुख का अनुभव किया करते थे। कहाँ है वह माताए आए और देखे अपने बालक की इस सुकीर्ति को। मुझे आशीर्वाद दो। तुम्हारा वह जिद्दी बालक आज एक नया जन्म ले रहा है।
उन्होंने मालती के चरण दोनों हाथों से पकड़ लिए और काँपते हुए स्वर में बोले — तुम्हारा आदेश स्वीकार है मालती!
और दोनों एकांत हो कर प्रगाढ़़ आलिंगन में बँध गए। दोनों की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी।
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भाग 33
सिलिया का बालक अब दो साल का हो रहा था और सारे गाँव में दौड़ लगाता था। अपने साथ वह एक विचित्र भाषा लाया थाए और उसी में बोलता थाए चाहे कोई समझे या न समझे। उसकी भाषा में टए ल और घ की कसरत थी और सए र आदि वर्ण गायब थे। उस भाषा में रोटी का नाम था ओटीए दूध का तूतए साफ का छाग और कौड़ी का तौली। जानवरों की बोलियों की ऐसी नकल करता है कि हँसते—हँसते लोगों के पेट में बल पड़ जाता है। किसी ने पूछा — रामूए कुत्ता कैसे बोलता हैघ् रामू गंभीर भाव से कहता — भों—भोंए और काटने दौड़ता। बिल्ली कैसे बोले — और रामू म्याँव—म्याँव करके आँखें निकाल कर ताकता और पंजों से नोचता। बड़ा मस्त लड़का था। जब देखो खेलने में मगन रहताए न खाने की सुधि थीए न पीने की। गोद से उसे चिढ़़ थी। उसके सबसे सुख के क्षण वह होतेए जब द्वार पर नीम के नीचे मनों धूल बटोर कर उसमें लोटताए सिर पर चढ़़ाताए उसकी ढ़ेरियाँ लगाताए घरौंदे बनाता। अपनी उम्र के लड़कों से उसकी एक क्षण न पटती। शायद उन्हें अपने साथ खेलने के योग्य न समझता था।
कोई पूछता — तुम्हारा नाम क्या हैघ्
चटपट कहता — लामू।
श्तुम्हारे बाप का क्या नाम हैघ्श्
श्मातादीन।श्
श्और तुम्हारी माँ काघ्श्
श्छिलिया।श्
श्और दातादीन कौन हैघ्श्
श्वह अमाला छाला है।श्
न जाने किसने दातादीन से उसका यह नाता बता दिया था।
रामू और रूपा में खूब पटती थी। वह रूपा का खिलौना था। उसे उबटन मलतीए काजल लगातीए नहलातीए बाल सँवारतीए अपने हाथों कौर बना—बना कर खिलातीए और कभी—कभी उसे गोद में लिए रात को सो जाती। धनिया डाँटतीए तू सब कुछ छुआछूत किए देती हैए मगर वह किसी की न सुनती। चीथड़े की गुड़ियों ने उसे माता बनना सिखाया था। वह मातृ—भावना जीता—जागता बालक पा कर अब गुड़ियों से संतुष्ट न हो सकती थी।
होरी के घर के पिछवाड़े जहाँ किसी जमाने में उसकी बरदौर थीए उसी के खंडहर में सिलिया अपना एक फूस का झोंपड़ा डाल कर रहने लगी थी। होरी के घर में उम्र तो नहीं कट सकती थी।
मातादीन को कई सौ रुपए खर्च करने के बाद अंत में काशी के पंडितों ने फिर से ब्राह्मण बना दिया था। उस दिन बड़ा भारी होम हुआए बहुत—से ब्राह्मणों ने भोजन किया और बहुत से मंत्र और श्लोक पढ़़े गए। मातादीन को शुद्द गोबर और गोमूत्र खाना—पीना पड़ा। गोबर से उसका मन पवित्र हो गया। मूत्र से उसकी आत्मा में अशुचिता के कीटाणु मर गए।
लेकिन एक तरह से इस प्रायश्चित ने उसे सचमुच पवित्र कर दिया। होम के प्रचंड अग्निकुंड में उसकी मानवता निखर गई और होम की ज्वाला के प्रकाश से उसने धर्म—स्तंभों को अच्छी तरह परख लिया। उस दिन से उसे धर्म के नाम से चिढ़़ हो गई। उसने जनेऊ उतार फेंका और पुरोहिती को गंगा में डुबा आया। अब वह पक्का खेतिहर था। उसने यह भी देखा कि यद्दपि विद्वानों ने उसका ब्राह्मणत्व स्वीकार कर लियाए लेकिन जनता अब भी उसके हाथ का पानी नहीं पीतीए उससे मुहूर्त पूछती हैए साइत और लग्न का विचार करवाती हैए उसे पर्व के दिन दान भी दे देती हैए पर उससे अपने बरतन नहीं छुलाती।
जिस दिन सिलिया के बालक का जन्म हुआए उसने दूनी मात्रा में भंग पीए और गर्व से जैसे उसकी छाती तन गई और उँगलियाँ बार—बार मूँछों पर पड़ने लगीं। बच्चा कैसा होगाघ् उसी के जैसाघ् कैसे देखेघ् उसका मन मसोस कर रह गया।
तीसरे दिन उसे रूपा खेत में मिली। उसने पूछा — रुपियाए तूने सिलिया का लड़का देखाघ्
रुपिया बोली — देखा क्यों नहीं! लाल—लाल हैए खूब मोटाए बड़ी—बड़ी आँखें हैंए सिर में झबराले बाल हैंए टुकुर—टुकुर ताकता है।
मातादीन के हृदय में जैसे वह बालक आ बैठा थाए और हाथ—पाँव फेंक रहा था। उसकी आँखों में नशा—सा छा गया। उसने उस किशोरी रूपा को गोद में उठा लियाए फिर कंधों पर बिठा लियाए फिर उतार कर उसके कपोलों को चूम लिया।
रूपा बाल सँभालती हुई ढ़ीठ हो कर बोली — चलोए मैं तुमको दूर से दिखा दूँ। ओसारे में ही तो है। सिलिया बहन न जाने क्यों हरदम रोती रहती है।
मातादीन ने मुँह फेर लिया। उसकी आँखें सजल हो आई थीं और होंठ काँप रहे थे।
उस रात को जब सारा गाँव सो गया और पेड़ अंधकार में डूब गएए तो वह सिलिया के द्वार पर आया और संपूर्ण प्राणों से बालक का रोना सुनाए जिसमें सारी दुनिया का संगीतए आनंद और माधुर्य भरा हुआ था।
सिलिया बच्चे को होरी के घर में खटोले पर सुला कर मजूरी करने चली जाती। मातादीन किसी—न—किसी बहाने से होरी के घर आता और कनखियों से बच्चे को देख कर अपना कलेजा और आँखें और प्राण शीतल करता।
धनिया मुस्करा कर कहती — लजाते क्यों होए गोद में ले लोए प्यार करोए कैसा काठ का कलेजा है तुम्हारा! बिलकुल तुमको पड़ा है।
मातादीन एक—दो रुपए सिलिया के लिए फेंक कर बाहर निकल आता। बालक के साथ उसकी आत्मा भी बढ़़ रही थीए खिल रही थीए चमक रही थी। अब उसके जीवन का भी एक उद्देश्य थाए एक व्रत था। उसमें संयम आ गयाए गंभीरता आ गईए दायित्व आ गया।
एक दिन रामू खटोले पर लेटा हुआ था। धनिया कहीं गई थी। रूपा भी लड़कों का शोर सुन कर खेलने चली गई। घर अकेला था। उसी वक्त मातादीन पहुँचा। बालक नीले आकाश की ओर देख—देख हाथ—पाँव फेंक रहा थाए हुमक रहा था—जीवन के उस उल्लास के साथ जो अभी उसमें ताजा था। मातादीन को देख कर वह हँस पड़ा। मातादीन स्नेह—विव्हल हो गया। उसने बालक को उठा कर छाती से लगा लिया। उसकी सारी देह और हृदय और प्राण रोमाँचित हो उठेए मानो पानी की लहरों में प्रकाश की रेखाएँ काँप रही हों। बच्चे की गहरीए निर्मलए अथाहए मोद—भरी आँखों में जैसे उसको जीवन का सत्य मिल गया। उसे एक प्रकार का भय—सा लगाए मानो वह —ष्टि उसके हृदय में चुभी जाती हो — वह कितना अपवित्र हैए ईश्वर का वह प्रसाद कैसे छू सकता हैघ् उसने बालक को सशंक मन के साथ फिर लिटा दिया। उसी वक्त रूपा बाहर से आ गई और वह बाहर निकल गया।
एक दिन खूब ओले गिरे। सिलिया घास ले कर बाजार गई हुई थी। रूपा अपने खेल में मगन थी। रामू अब बैठने लगा था। कुछ—कुछ बकवाँ चलने भी लगा था। उसने जो आँगन में बिनौले बिछे देखेए तो समझा बताशे फैले हुए हैं। कई उठा कर खाए और आँगन में खूब खेला। रात को उसे ज्वर आ गया। दूसरे दिन निमोनिया हो गया। तीसरे दिन संध्या समय सिलिया की गोद में ही बालक के प्राण निकल गए।
लेकिन बालक मर कर भी सिलिया के जीवन का केंद्र बना रहा। उसकी छाती में दूध का उबाल—सा आता और आँचल भीग जाता। उसी क्षण आँखों से आँसू भी निकल पड़ते। पहले सब कामों से छुट्टी पा कर रात को जब वह रामू को हिए से लगा कर स्तन उसके मुँह में दे देतीए तो मानो उसके प्राणों में बालक की स्फुर्ति भर जाती। तब वह प्यारे—प्यारे गीत गातीए मीठे—मीठे स्वप्न देखती और नए—नए संसार रचतीए जिसका राजा रामू होता। अब सब कामों से छुट्टी पा कर वह अपनी सूनी झोपड़ी में रोती थी और उसके प्राण तड़पते थेए उड़ जाने के लिए उस लोक मेंए जहाँ उसका लाल इस समय भी खेल रहा होगा। सारा गाँव उसके दुरूख में शरीक था। रामू कितना चोंचाल थाए जो कोई बुलाताए उसी की गोद में चला जाता। मर कर और पहुँच से बाहर हो कर वह और भी प्रिय हो गया थाए उसकी छाया उससे कहीं सुंदरए कहीं चोंचालए कहीं लुभावनी थी।
मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिए जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गयाए जो एक मील का पाट छोड़ कर पतली—सी धार में समा गई थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह जरा भी नहीं लजायाए जरा भी नहीं झिझका।
और किसी ने कुछ कहा भी नहींए बल्कि सभी ने उसके साहस और —ढ़़ता की तारीफ की।
होरी ने कहा — यही मरद का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ीए उसे क्या छोड़ना!
धनिया ने आँखें नचा कर कहा — मत बखान करोए जी जलता है। यह मरद हैघ् मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थीए तब क्या दूध पीता था कि सिलिया बांभनी हो गई थीघ्
एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। संध्या हो गई थी। पूर्णमासी का चाँद विहँसता—सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुन कर टोकरी में रख लिए थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गई और दर्द—भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। आँचल दूध से भीग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रूदन का आनंद लेने लगी।
सहसा किसी की आहट पा कर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आ कर सामने खड़ा हो गया और बोला — कब तक रोए जायगी सिलियाघ् रोने से वह फिर तो न आ जायगा।
और यह कहते—कहते वह खुद रो पड़ा।
सिलिया के कंठ में आए हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गए। आवाज सँभाल कर बोली — तुम आज इधर कैसे आ गएघ्
मातादीन कातर हो कर बोला — इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखाए चला आया।
श्तुम तो उसे खेला भी न पाए।श्
श्नहीं सिलियाए एक दिन खेलाया था।श्
श्सचघ्श्
श्सच!श्
श्मैं कहाँ थीघ्श्
श्तू बाजार गई थीघ्श्
श्तुम्हारी गोद में रोया नहींघ्श्
श्नहीं सिलियाए हँसता था।श्
श्सचघ्श्
श्सच!श्
श्बसए एक ही दिन खेलायाघ्श्
श्हाँए एक ही दिनए मगर देखने रोज आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।श्
श्तुम्हीं को पड़ा था।श्
श्मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।श्
सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ—साथ चला।
सिलिया ने कहा — मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।
श्धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।श्
श्सचघ्श्
श्हाँ सच। जब मिलती थीए समझाने लगती थी।श्
गाँव के समीप आ कर सिलिया ने कहा — अच्छाए अब इधर से अपने घर जाओ। कहीं पंडित देख न लें।
मातादीन ने गर्दन उठा कर कहा — मैं अब किसी से नहीं डरता।
श्घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगेघ्श्
श्मैंने अपना घर बना लिया है।श्
श्सचघ्श्
श्हाँए सच।श्
श्कहाँए मैंने तो नहीं देखा।श्
श्चल तो दिखाता हूँ।श्
दोनों और आगे बढ़़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जा कर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला — यही मेरा घर है।
सिलिया ने अविश्वासए क्षमाए व्यंग और दुरूख भरे स्वर में कहा — यह तो सिलिया चमारिन का घर है।
मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा — यह मेरी देवी का मंदिर है।
सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली — मंदिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेल कर चले जाओगे!
मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कंपित स्वर में कहा — नहीं सिलियाए जब तक प्राण हैए तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा!
श्झूठ कहते हो।श्
श्नहींए मैं तेरे चरण छू कर कहता हूँ। सुनाए पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डाँटा।श्
श्तुमसे किसने कहाघ्श्
श्भुनेसरी आप ही कहता था।श्
श्सचघ्श्
श्हाँए सच।श्
सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा थाए दूसरी ओर चूल्हा थाए जहाँ दो—तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे—धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वहीं सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी—सी खटोली जैसे रो रही थीए और उसी के पास दो—तीन मिट्टी के हाथी—घोड़े अंग—भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देखभाल करताघ् मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक—सी उठ रही थीए जी चाहता थाए खूब रोए।
सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर पूछा — तुम्हें कभी मेरी याद आती थीघ्
मातादीन ने उसका हाथ पकड़ कर हृदय से लगा कर कहा — तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी।
श्मेरा तो तुमसे जी जलता था।श्
श्और दया नहीं आती थीघ्श्
श्कभी नहीं।श्
श्तो भुनेसरीघ्श्
श्अच्छाए गाली मत दो। मैं डर रही हूँए कि गाँव वाले क्या कहेंगे।श्
श्जो भले आदमी हैंए वह कहेंगेए यही इसका धरम था। जो बुरे हैंए उनकी मैं परवा नहीं करता।श्
श्और तुम्हारा खाना कौन पकाएगाघ्श्
श्मेरी रानीए सिलिया।श्
श्तो बांभन कैसे रहोगेघ्श्
श्मैं बांभन नहींए चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पालेए वही बांभन हैए जो धरम से मुँह मोड़ेए वही चमार है।श्
सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दीं।
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भाग 34
होरी की दशा दिन—दिन गिरती ही जाती थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुईए पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थीए मगर अब वह उस अंतिम दशा को पहुँच गया थाए जब उसमें आत्मविश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकताए तो भी कुछ आँसू पुँछतेए मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ीए अधर्म भी कमायाए कोई ऐसी बुराई न थीए जिसमें वह पड़ा न होए पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुईए और भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही होते चले गएए यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया थाए झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी।
हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इस तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहेए बदनाम हुआए मजूरी कीए पर किले को हाथ से न जाने दियाए मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पंडित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जायगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान की इच्छा! रायसाहब को क्या दोष देघ् असामियों ही से उनका भी गुजर है। इसी गाँव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही हैए आवे। औरों की जो दशा होगीए वही उसकी भी होगी। भाग्य में सुख बदा होताए तो लड़का यों हाथ से निकल जाताघ्
साँझ हो गई थी। वह इसी चिंता में डूबा बैठा था कि पंडित दातादीन ने आ कर कहा — क्या हुआ होरीए तुम्हारी बेदखली के बारे मेंघ् इन दिनों नोखेराम से मेरी बोलचाल बंद है। कुछ पता नहीं। सुनाए तारीख को पंद्रह दिन और रह गए हैं।
होरी ने उनके लिए खाट डाल कर कहा — वह मालिक हैंए जो चाहे करेंए मेरे पास रुपए होते तो यह दुर्दसा क्यों होती। खाया नहींए उड़ाया नहींए लेकिन उपज ही न हो और जो हो भीए वह कौड़ियों के मोल बिकेए तो किसान क्या करेघ्
श्लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगाघ् बाप—दादों की इतनी ही निसानी बच रही है। वह निकल गईए तो कहाँ रहोगेघ्श्
श्भगवान की मरजी हैए मेरा क्या बसघ्श्
श्एक उपाय हैए जो तुम करो।श्
होरी को जैसे अभय—दान मिल गया। उनके पाँव पकड़ कर बोला — बड़ा धरम होगा महराजए तुम्हारे सिवा मेरा कौन हैघ् मैं तो निरास हो गया था।
श्निरास होने की कोई बात नहीं। बसए इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता हैए दुरूख में कुछ और। सुख में आदमी दान देता हैए मगर दुरूख में भीख तक माँगता है। उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है। सरीर अच्छा रहता हैए तो हम बिना असनान—पूजा किए मुँह में पानी भी नहीं डालतेए लेकिन बीमार हो जाते हैंए तो बिना नहाए—धोएए कपड़े पहनेए खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं। उस समय का यही धरम है। यहाँ हममें—तुममें कितना भेद हैए लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता। ऊँचे—नीचे सभी एक पंगत में बैठ कर खाते हैं। आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सबरी के जूठे फल खाए थेए बालि का छिप कर बध किया था। जब संकट में बड़े—बड़ों की मर्जादा टूट जाती हैए तो हमारी—तुम्हारी कौन बात हैघ् रामसेवक महतो को तो जानते हो नघ्श्
होरी ने निरूत्साह हो कर कहा — हाँए जानता क्यों नहीं।
श्मेरा जजमान है। बड़ा अच्छा जमाना है उसका। खेती अलगए लेन—देन अलग। ऐसे रोबदाब का आदमी ही नहीं देखा! कई महीने हुए उनकी औरत मर गई है। संतान कोई नहीं। अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहोए तो मैं उसे राजी कर लूँ। मेरी बात वह कभी न टालेगा। लड़की सयानी हो गई है और जमाना बुरा है। कहीं कोई बात हो जायए तो मुँह में कालिख लग जाए। यह बड़ा अच्छा औसर है। लड़की का ब्याह भी हो जायगा और तुम्हारे खेत भी बच जाएँगे। सारे खरच—बरच से बचे जाते हो।श्
रामसेवक होरी से दो ही चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था। कहाँ फूल—सी रूपा और कहाँ वह बूढ़़ा ठूँठ! जीवन में होरी ने बड़ी—बड़ी चोट सही थींए मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐेसे दिन आ गए हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इनकार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया।
दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा — तो क्या कहते होघ्
होरी ने साफ जवाब न दिया। बोला — सोच कर कहूँगा।
श्इसमें सोचने की क्या बात हैघ्श्
श्धनिया से भी तो पूछ लूँ।श्
श्तुम राजी हो कि नहींघ्श्
श्जरा सोच लेने दो महाराज! आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।श्
श्पाँच—छरू दिन के अंदर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न होए तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाए।श्
दातादीन चले गए। होरी की ओर से उन्हें कोई अंदेशा न था। अंदेशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लंबी है। चाहे मिट जायए मरजाद न छोड़गी। मगर होरी हाँ कर ले तो वह रो—धो कर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।
धनिया ने आ कर पूछा — पंडित क्यों आए थेघ्
श्कुछ नहींए यही बेदखली की बातचीत थी।श्
श्आँसू पोंछने आए होंगे। यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें।श्
श्माँगने का मुँह भी तो नहीं।श्
श्तो यहाँ आते ही क्यों हैंघ्श्
श्रुपिया की सगाई की बात भी थी।श्
श्किससेघ्श्
श्रामसेवक को जानती हैघ् उन्हीं से।श्
श्मैंने उन्हें कब देखाए हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़़ा होगा।श्
श्बूढ़़ा नहीं है। हाँ अधेड़ है।श्
श्तुमने पंडित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।श्
श्फटकारा नहींए लेकिन इनकार कर दिया। कहते थेए ब्याह भी बिना खरच—बरच के हो जायगा और खेत भी बच जाएँगे।श्
श्साफ—साफ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे। कैसे इस बूढ़़े का हियाव पड़ाघ्श्
लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार करताए उतना ही उसका दुराग्रह कम होता जाता था। कुल—मर्यादा की लाज उसे कम न थीए लेकिन जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया होए वह खाद्य—अखाद्य की परवाह कब करता हैघ् दातादीन के सामने होरी ने कुछ ऐसा भाव प्रकट किया थाए जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकताए मगर भीतर से वह पिघल गया था। उम्र की ऐसी कोई बात नहीं। मरना—जीना तकदीर के हाथ है। बूढ़़े बैठे रहते हैंए जवान चले जाते हैं। रूपा के भाग्य में सुख लिखा हैए तो वहाँ भी सुख उठाएगीए दुरूख लिखा हैए तो कहीं भी सुख नहीं पा सकती। और लड़की बेचने की तो कोई बात ही नहीं। होरी उससे जो कुछ लेगाए उधार लेगा और हाथ में रुपए आते ही चुका देगा। इसमें शर्म या अपमान की कोई बात ही नहीं है। बेशकए उसमें समाई होतीए तो रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करताए दहेज भी देताए बरात के खिलाने—पिलाने में भी खूब दिल खोल कर खर्च करताए मगर जब ईश्वर ने उसे इस लायक नहीं बनायाए तो कुश—कन्या के सिवा और वह क्या कर सकता हैघ् लोग हँसेंगेए लेकिन जो लोग खाली हँसते हैंए और कोई मदद नहीं करतेए उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे। मुश्किल यही है कि धनिया न राजी होगी। गधी तो है ही। वही पुरानी लाज ढ़ोए जायगी। यह कुल—प्रतिष्ठा के पालने का समय नहींए अपनी जान बचाने का अवसर है। ऐसी ही बड़ी लाज वाली हैए तो लाएए पाँच सौ निकाले। कहाँ धरे हैंघ्
दो दिन गुजर गए और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न हुई। हाँए दोनों सांकेतिक भाषा में बातें करते थे।
धनिया कहती — वर—कन्या जोड़ के होंए तभी ब्याह का आनंद है।
होरी जवाब देता — ब्याह आनंद का नाम नहीं है पगलीए यह तो तपस्या है।
श्चलो तपस्या हैघ्श्
श्हाँए मैं कहता जो हूँ। भगवान आदमी को जिस दसा में डाल देंए उसमें सुखी रहना तपस्या नहींए तो और क्या हैघ्श्
दूसरे दिन धनिया ने वैवाहिक आनंद का दूसरा पहलू सोच निकाला। घर में जब तक सास—ससुरए देवरानियाँ—जेठानियाँ न होंए तो ससुराल का सुख ही क्याघ् कुछ दिन तो लड़की बहुरिया बनने का सुख पाए।
होरी ने कहा — वह वैवाहिक—जीवन का सुख नहींए दंड है।
धनिया तिनक उठी — तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं। अकेली बहू घर में कैसे रहेगीए न कोई आगे न कोई पीछे।
होरी बोला — तू तो इस घर में आई तो एक नहींए दो—दो देवर थेए सास थीए ससुर था। तूने कौन—सा सुख उठा लियाए बताघ्
श्क्या सभी घरों में ऐसे ही प्राणी होते हैं।श्
श्और नहीं तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैंघ् अकेली तो बहू! उस पर हुकूमत करने वाला सारा घर। बेचारी किस—किसको खुस करे। जिसका हुक्म न मानेए वही बैरी। सबसे भला अकेला।श्
फिर भी बात यहीं तक रह गईए मगर धनिया का पल्ला हल्का होता जाता था। चौथे दिन रामसेवक महतो खुद आ पहुँचे। कलां—रास घोड़े पर सवारए साथ एक नाई और एक खिदमतगारए जैसे कोई बड़ा जमींदार हो। उम्र चालीस से ऊपर थीए बाल खिचड़ी हो गए थेए पर चेहरे पर तेज थाए देह गठी हुई। होरी उनके सामने बिलकुल बूढ़़ा लगता था। किसी मुकदमे की पैरवी करने जा रहे थे। यहाँ जरा दोपहरी काट लेना चाहते हैं। धूप कितनी तेज हैए और कितने जोरों की लू चल रही है। होरी सहुआइन की दुकान से गेहूँ का आटा और घी लाया। पूरियाँ बनीं। तीनों मेहमानों ने खाया। दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे। बातें होने लगीं।
दातादीन ने पूछा — कैसा मुकदमा है महतोघ्
रामसेवक ने शान जमाते हुए कहा — मुकदमा तो एक न एक लगा ही रहता है महराज! संसार में गऊ बनने से काम नहीं चलता। जितना दबोए उतना ही लोग दबाते हैं। थाना—पुलिसए कचहरी—अदालत सब हैं हमारी रच्छा के लिएए लेकिन रच्छा कोई नहीं करता। चारों तरफ लूट है। जो गरीब हैए बेकस हैए उसकी गर्दन काटने के लिए सभी तैयार रहते हैं। भगवान न करेए कोई बेईमानी करे। यह बड़ा पाप हैए लेकिन अपने हक और न्याय के लिए न लड़ना उससे भी बड़ा पाप है। तुम्हीं सोचोए आदमी कहाँ तक दबेघ् यहाँ तो जो किसान हैए वह सबका नरम चारा है। पटवारी को नजराना और दस्तूरी न देए तो गाँव में रहना मुश्किल। जमींदार के चपरासी और कारिंदों का पेट न भरे तो निबाह न हो। थानेदार और कानिसटीबिल तो जैसे उसके दामाद हैं। जब उनका दौरा गाँव में हो जायए किसानों का धरम हैए वह उनका आदर—सत्कार करेंए नजर—नयाज देंए नहीं एक रपोट में गाँव का गाँव बँधा जाए। कभी कानूनगो आते हैंए कभी तहसीलदारए कभी डिप्टीए कभी जंटए कभी कलट्टरए कभी कमिसनर। किसान को उनके सामने हाथ बाँधे हाजिर रहना चाहिए। उनके लिए रसद—चारेए अंडे—मुर्गीए दूध—घी का इंतजाम करना चाहिए। तुम्हारे सिर भी तो वही बीत रही है महराज । एक—न—एक हाकिम रोज नए—नए बढ़़ते जाते हैं। एक डाक्टर कुओं में दवाई डालने के लिए आने लगा है। एक दूसरा डाक्टर कभी—कभी आ कर ढ़ोरों को देखता हैए लड़कों का इम्तहान लेने वाला इसपिट्टर हैए न जाने किस—किस महकमे के अफसर हैंए नहर के अलगए जंगल के अलगए ताड़ी—सराब के अलगए गाँव—सुधार के अलगए खेती—विभाग के अलगए कहाँ तक गिनाऊँघ् पादड़ी आ जाता हैए तो उसे भी रसद देना पड़ता हैए नहीं सिकायत कर दे। और जो कहो कि इतने महकमों और इतने अफसरों से किसान का कुछ उपकार होता होए तो नाम को नहीं। अभी जमींदार ने गाँव पर हल पीछे दो—दो रुपए चंदा लगाया। किसी बड़े अफसर की दावत की थी। किसानों ने देने से इनकार कर दिया। बस उसने सारे गाँव पर जाफा कर दिया। हाकिम भी जमींदार ही का पच्छ करते हैं। यह नहीं सोचते कि किसान भी आदमी हैए उसके भी बाल—बच्चे हैंए उसकी भी इज्जत—आबरू है। और यह सब हमारे दब्बूपन का फल है। मैंने गाँव—भर में डोंडी पिटवा दी कि कोई भी बेसी लगान न दो और न खेत छोड़ोए हमको कोई कायल कर देए तो हम जाफा देने को तैयार हैंए लेकिन जो तुम चाहो कि बेमुँह के किसानों को पीस कर पी जायँ तो यह न होगा। गाँववालों ने मेरी बात मान लीए और सबने जाफा देने से इनकार कर दिया। जमींदार ने देखाए सारा गाँव एक हो गया है तो लाचार हो गया। खेत बेदखल भी कर देए तो जोते कौन — इस जमाने में जब तक कड़े न पड़ोए कोई नहीं सुनता। बिना रोए तो बालक भी माँ से दूध नहीं पाता।
रामसेवक तीसरे पहर चला गया और धनिया और होरी पर न मिटने वाला असर छोड़ गया। दातादीन का मंत्र जाग गया।
उन्होंने पूछा — अब क्या कहते हो होरीघ्
होरी ने धनिया की ओर इशारा करके कहा — इससे पूछो।
श्हम तुम दोनों से पूछते हैं।श्
धनिया बोली — उमिर तो ज्यादा हैए लेकिन तुम लोगों की राय हैए तो मुझे भी मंजूर है। तकदीर में जो लिखा होगाए वह तो आगे आएगा हीए मगर आदमी अच्छा है।
और होरी को तो रामसेवक पर वह विश्वास हो गया थाए जो दुर्बलों को जीवट वाले आदमियों पर होता है। वह शेखचिल्ली के—से मंसूबे बाँधने लगा था। ऐसा आदमी उसका हाथ पकड़ लेए तो बेड़ा पार है।
विवाह का मुहूर्त ठीक हो गया। गोबर को भी बुलाना होगा। अपनी तरफ से लिख दोए आने न आने का उसे अख्तियार है। यह कहने को तो मुँह न रहे कि तुमने मुझे बुलाया कब थाघ् सोना को भी बुलाना होगा।
धनिया ने कहा — गोबर तो ऐसा नहीं थाए लेकिन जब झुनिया आने दे। परदेस जा कर ऐसा भूल गया कि न चिट्ठी न पत्री। न जाने कैसे हैं। यह कहते—कहते उसकी आँखें सजल हो गईं।
गोबर को खत मिलाए तो चलने को तैयार हो गया। झुनिया को जाना अच्छा तो न लगता थाए पर इस अवसर पर कुछ कह न सकी। बहन के ब्याह में भाई का न जाना कैसे संभव है! सोना के ब्याह में न जाने का कलंक क्या कम हैघ्
गोबर आर्द्र कंठ से बोला — माँ—बाप से खिंचे रहना कोई अच्छी बात नहीं है। अब हमारे हाथ—पाँव हैंए उनसे खिंच लेंए चाहे लड़ लेंए लेकिन जन्म तो उन्हीं ने दियाए पाल—पोस कर जवान तो उन्हीं ने कियाए अब वह हमें चार बात भी कहेंए तो हमें गम खाना चाहिए। इधर मुझे बार—बार अम्माँ—दादा की याद आया करती है। उस बखत मुझे न जाने क्यों उन पर गुस्सा आ गया। तेरे कारन माँ—बाप को भी छोड़ना पड़ा।
झुनिया तिनक उठी — मेरे सिर पर यह पाप न लगाओए हाँ! तुम्हीं को लड़ने की सूझी थी। मैं तो अम्माँ के पास इतने दिन रहीए कभी साँस तक न लिया।
श्लड़ाई तेरे कारन हुई।श्
श्अच्छाए मेरे ही कारन सही। मैंने भी तो तुम्हारे लिए अपना घर—बार छोड़ दिया।श्
श्तेरे घर में कौन तुझे प्यार करता था — भाई बिगड़ते थेए भावजें जलाती थीं। भोला जो तुझे पा जातेए तो कच्ची ही खा जाते।श्
श्तुम्हारे ही कारन।श्
श्अबकी जब तक रहेंए इस तरह रहें कि उन्हें भी जिंदगानी का कुछ सुख मिलेए उनकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करें। दादा इतने अच्छे हैं कि कभी मुझे डाँटा तक नहीं। अम्माँ ने कई बार मारा हैए लेकिन जब मारती थींए तब कुछ—न—कुछ खाने को दे देती थीं। मारतीं थींए पर जब तक मुझे हँसा न लेंए उन्हें चौन न आता था।श्
दोनों ने मालती से जिक्र किया। मालती ने छुट्टी ही नहीं दीए कन्या के उपहार के लिए एक चर्खा और हाथों का कंगन भी दिया। वह खुद जाना चाहती थीए लेकिन कई ऐसे मरीज उसके इलाज में थेए जिन्हें एक दिन के लिए भी न छोड़ सकती थी। हाँए शादी के दिन आने का वादा किया और बच्चे के लिए खिलौनों का ढ़ेर लगा दिया। उसे बार—बार चूमती थी और प्यार करती थीए मानो सब कुछ पेशगी ले लेना चाहती है और बच्चा उसके प्यार की बिलकुल परवा न करके घर चलने के लिए खुश था — उस घर के लिएए जिसको उसने देखा तक न था। उसकी बाल—कल्पना में घर स्वर्ग से भी बढ़़ कर कोई चीज थी।
गोबर ने घर पहुँच कर उसकी दशा देखीए तो ऐसा निराश हुआ कि इसी वक्त यहाँ से लौट जाए। घर का एक हिस्सा गिरने—गिरने को हो गया था। द्वार पर केवल एक बैल बँधा हुआ थाए वह भी नीमजान। धनिया और होरी दोनों फूले न समाएए लेकिन गोबर का जी उचाट था। अब इस घर के सँभलने की क्या आशा है! वह गुलामी करता हैए लेकिन भरपेट खाता तो है। केवल एक ही मालिक का तो नौकर है। यहाँ तो जिसे देखोए वही रोब जमाता है। गुलामी हैए पर सूखी। मेहनत करके अनाज पैदा करो और जो रुपए मिलेंए वह दूसरों को दे दो। आप बैठे राम—राम करो। दादा ही का कलेजा है कि यह सब सहते हैं। उससे तो एक दिन न सहा जाए। औरए यह दशा कुछ होरी ही की न थी। सारे गाँव पर यह विपत्ति थी। ऐसा एक आदमी भी नहींए जिसकी रोनी सूरत न होए मानो उनके प्राणों की जगह वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों की तरह नचा रही हो। चलते—फिरते थेए काम करते थेए पिसते थेए घुटते थेए इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा हैए न कोई उमंगए जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो।
जेठ के दिन हैंए अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद हैए मगर किसी के चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुल कर महाजनों और कारिंदों की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा हैए वह भी दूसरों का है। भविष्य अंधकार की भाँति उनके सामने है। उसमें उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता। उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गई हैं। द्वार पर मनों कूड़ा जमा हैए दुगर्ंध उड़ रही हैए मगर उनकी नाक में न गंध हैए न आँखों में ज्योति। सरेशाम से द्वार पर गीदड़ रोने लगते हैंए मगर किसी को गम नहीं। सामने जो कुछ मोटा—झोटा आ जाता हैए वह खा लेते हैंए उसी तरह जैसे इंजिन कोयला खा लेता है। उनके बैल चूनी—चोकर के बगैर नाँद में मुँह नहीं डालतेए मगर उन्हें केवल पेट में कुछ डालने को चाहिए। स्वाद से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। उनकी रसना मर चुकी है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है। उनसे धेले—धेले के लिए बेईमानी करवा लोए मुट्ठी—भर अनाज के लिए लाठियाँ चलवा लो। पतन की वह इंतहा हैए जब आदमी शर्म और इज्जत को भी भूल जाता है।
लड़कपन से गोबर ने गाँवों की यही दशा देखी थी और उसका आदी हो चुका थाए पर आज चार साल के बाद उसने जैसे एक नई दुनिया देखी। भले आदमियों के साथ रहने से उसकी बुद्धि कुछ जाग उठी हैए उसने राजनैतिक जलसों में पीछे खड़े हो कर भाषण सुने हैं और उनसे अंग—अंग में बिंधा है। उसने सुना है और समझा है कि अपना भाग्य खुद बनाना होगाए अपनी बुद्धि और साहस से इन आगतों पर विजय पाना होगा। कोई देवताए कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न आएगी। और उसमें गहरी संवेदना सजग हो उठी है। अब उसमें वह पहले की उद्दंडता और गरूर नहीं है। वह नम्र और उद्योगशील हो गया है। जिस दशा में पड़े हुए होए उसे स्वार्थ और लोभ के वश हो कर और क्यों बिगाड़ते होघ् दुरूख ने तुम्हें एक सूत्र में बाँध दिया है। बंधुत्व के इस दैवी बंधन को क्यों अपने तुच्छ स्वाथोर्ं से तोड़े डालते होघ् उस बंधन को एकता का बंधन बना लो। इस तरह के भावों ने उसकी मानवता को पंख—से लगा दिए हैं। संसार का ऊँच—नीच देख लेने के बाद निष्कपट मनुष्यों में जो उदारता आ जाती हैए वह अब मानो आकाश में उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रही है। होरी को अब वह कोई काम करते देखता हैए तो उसे हटा कर खुद करने लगता हैए जैसे पिछले दुर्व्यवहार का प्रायश्चित करना चाहता हो। कहता हैए दादा तुम अब कोई चिंता मत करोए सारा भार मुझ पर छोड़ दोए मैं अब हर महीने खर्च भेजूँगा। इतने दिन तो मरते—खपते रहेए कुछ दिन तो आराम कर लो। मुझे धिक्कार है कि मेरे रहते तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़े। और होरी के रोम—रोम से बेटे के लिए आशीर्वाद निकल जाता है। उसे अपनी जीर्ण देह में दैवी स्फुर्ति का अनुभव होता है। वह इस समय अपने कर्ज का ब्योरा कह कर उसकी उठती जवानी पर चिंता की बिजली क्यों गिराएघ् वह आराम से खाए—पीएए जिंदगी का सुख उठाए। मरने—खपने के लिए वह तैयार है। यही उसका जीवन है। राम—राम जप कर वह जी भी तो नहीं सकता। उसे तो फावड़ा और कुदाल चाहिए। राम—नाम की माला गेर कर उसका चित्त न शांत होगा।
गोबर ने कहा — कहो तो मैं सबसे किस्त बँधवा लूँ और हर महीने—महीने देता जाऊँ। सब मिल कर कितना होगाघ्
होरी ने सिर हिला कर कहा — नहीं बेटाए तुम काहे को तकलीफ उठाओगे। तुम्हीं को कौन बहुत मिलते हैं! मैं सब देख लूँगा! जमाना इसी तरह थोड़े ही रहेगा। रूपा चली जाती है। अब कर्ज ही चुकाना तो है। तुम कोई चिंता मत करना। खाने—पीने का संजम रखना। अभी देह बना लोगेए तो सदा आराम से रहोगे। मेरी कौनय मुझे तो मरने—खपने की आदत पड़ गई है। अभी मैं तुम्हें खेती में नहीं जोतना चाहता बेटाघ् मालिक अच्छा मिल गया है। उसकी कुछ दिन सेवा कर लोगेए तो आदमी बन जाओगे! वह तो यहाँ आ चुकी हैं। साक्षात देवी हैं।
श्ब्याह के दिन फिर आने को कहा है।श्
श्हमारे सिर—आँखों पर आएँ। ऐसे भले आदमियों के साथ रहने से चाहे पैसे कम भी मिलेंए लेकिन ज्ञान बढ़़ता है और आँखें खुलती हैं।श्
उसी वक्त पंडित दातादीन ने होरी को इशारे से बुलाया और दूर ले जा कर कमर से सौ—सौ के दो नोट निकालते हुए बोले — तुमने मेरी सलाह मान लीए बड़ा अच्छा किया। दोनों काम बन गए। कन्या से भी उरिन हो गए और बाप—दादों की निशानी भी बच गई। मुझसे जो कुछ हो सकाए मैंने तुम्हारे लिए कर दियाए अब तुम जानोए तुम्हारा काम जाने।
होरी ने रुपए लिए तो उसका हाथ काँप रहा थाए उसका सिर ऊपर न उठ सका। मुँह से एक शब्द न निकलाए जैसे अपमान के अथाह गढ़़े में गिर पड़ा है और गिरता चला जाता है। आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ है कि मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया गया है और जो आता हैए उसके मुँह पर थूक देता है। वह चिल्ला—चिल्ला कर कह रहा हैए भाइयोए मैं दया का पात्र हूँ। मैंने नहीं जानाए जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती हैए इस देह को चीर कर देखोए इसमें कितना प्राण रह गया हैघ्कितना जख्मों से चूरए कितना ठोकरों से कुचला हुआघ् उससे पूछोए कभी तूने विश्राम के दर्शन किएए कभी तू छाँह में बैठा — उस पर यह अपमान! और वह अब भी जीता हैए कायरए लोभीए अधम। उसका सारा विश्वास जो अगाध हो कर स्थूल और अंधा हो गया थाए मानो टूक—टूक उड़ गया है।
दातादीन ने कहा — तो मैं जाता हूँ। न होए तुम इसी बखत नोखेराम के पास चले जाओ।
होरी दीनता से बोला — चला जाऊँगा महराज! मगर मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ है।
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भाग 35
दो दिन तक गाँव में खूब धूमधाम रही। बाजे बजेए गाना—बजाना हुआ और रूपा रो—धो कर बिदा हो गईए मगर होरी को किसी ने घर से निकलते न देखा। ऐसा छिपा बैठा थाए जैसे मुँह में कालिख लगी हो। मालती के आ जाने से चहल—पहल और बढ़़ गई। दूसरे गाँव की स्त्रियाँ भी आ गईं।
गोबर ने अपने शील—स्नेह से सारे गाँव को मुग्ध कर लिया है। ऐसा कोई घर न थाए जहाँ वह अपने मीठे व्यवहार की याद न छोड़ आया हो। भोला तो उसके पैरों पर गिर पड़े। उनकी स्त्री ने उसको पान खिलाए और एक रूपया बिदाई दी और उसका लखनऊ का पता भी पूछा। कभी लखनऊ आएगी तो उससे जरूर मिलेगी। अपने रुपए की उससे कोई चर्चा न की।
तीसरे दिन जब गोबर चलने लगाए तो होरी ने धनिया के सामने आँखों में आँसू भर कर वह अपराध स्वीकार कियाए जो कई दिन से उसकी आत्मा को मथ रहा थाए और रो कर बोला — बेटाए मैंने इस जमीन के मोह से पाप की गठरी सिर पर लादी। न जाने भगवान मुझे इसका क्या दंड देंगे।
गोबर जरा भी गर्म न हुआए किसी प्रकार का रोष उसके मुँह पर न था। श्रद्धाभाव से बोला — इसमें अपराध की कोई बात नहीं है दादा! हाँए रामसेवक के रुपए अदा कर देना चाहिए। आखिर तुम क्या करतेघ् मैं किसी लायक नहींए तुम्हारी खेती में उपज नहींए करज कहीं मिल नहीं सकताए एक महीने के लिए भी घर में भोजन नहीं। ऐसी दसा में तुम और कर ही क्या सकते थेघ् जैजात न बचाते तो रहते कहाँघ् जब आदमी का कोई बस नहीं चलताए तो अपने को तकदीर पर ही छोड़ देता है। न जाने यह धाँधली कब तक चलती रहेगीघ् जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहींए उसके लिए मरजाद और इज्जत सब ढ़ोंग है। औरों की तरह तुमने भी दूसरों का गला दबाया होताए उनकी जमा मारी होतीए तो तुम भी भले आदमी होते। तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ाए यह उसी का दंड है। तुम्हारी जगह मैं होताए या तो जेहल में होता या फाँसी पा गया होता। मुझसे यह कभी बरदास न होता कि मैं कमा—कमा कर सबका घर भरूँ और आप अपने बाल—बच्चों के साथ मुँह में जाली लगाए बैठा रहूँ।
धनिया बहू को उसके साथ भेजने को राजी न हुई। झुनिया का मन भी अभी कुछ दिन यहाँ रहने का था। तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाए।
दूसरे दिन प्रातरूकाल गोबर सबसे विदा हो कर लखनऊ चला। होरी उसे गाँव के बाहर तक पहुँचाने आया। गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी न हुआ था। जब गोबर उसके चरणों पर झुकाए तो होरी रो पड़ाए मानो फिर उसे पुत्र के दर्शन न होंगे। उसकी आत्मा में उल्लास थाए गर्व थाए संकल्प था। पुत्र से यह श्रद्धा और स्नेह पा कर वह तेजवान हो गया हैए विशाल हो गया है। कई दिन पहले उस पर जो अवसाद—सा छा गया थाए एक अंधकार—साए जहाँ वह अपना मार्ग भूला जाता थाए वहाँ अब उत्साह है और प्रकाश है।
रूपा अपने ससुराल में खुश थी। जिस दशा में उसका बालपन बीता थाए उसमें पैसा सबसे कीमती चीज था। मन में कितनी साधे थींए जो मन ही में घुट—घुट कर रह गई थीं। वह अब उन्हें पूरा कर रही थी और रामसेवक अधेड़ हो कर भी जवान हो गया था। रूपा के लिए वह पति थाए उसके जवानए अधेड़ या बूढ़़े होने से उसकी नारी—भावना में कोई अंतर न आ सकता था। उसकी यह भावना पति के रंग—रूप या उम्र पर आश्रित न थीए उसकी बुनियाद इससे बहुत गहरी थीए शाश्वत परंपराओं की तह मेंए जो केवल किसी भूकंप से ही हिल सकती थी। उसका यौवन अपने ही में मस्त थाए वह अपने ही लिए अपना बनाव—सिंगार करती थी और आप ही खुश होती थी। रामसेवक के लिए उसका दूसरा रूप था। तब वह गृहिणी बन जाती थीए घर के काम—काज में लगी हुई। अपनी जवानी दिखा कर उसे लज्जा या चिंता में न डालना चाहती थी। किसी तरह की अपूर्णता का भाव उसके मन में न आता था। अनाज से भरे हुए बखार और गाँव की सिवान तक फैले हुए खेत और द्वार पर ढ़ोरों की कतारें और किसी प्रकार की अपूर्णता को उसके अंदर आने ही न देती थीं।
और उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी अपने घर वालों को खुश देखना। उनकी गरीबी कैसे दूर कर देघ् उस गाय की याद अभी तक उसके दिल में हरी थीए जो मेहमान की तरह आई थी और सबको रोता छोड़ कर चली गई थी। वह स्मृति इतने दिनों के बाद और भी मृदु हो गई थी। अभी उसका निजत्व इस नए घर में न जम पाया था। वही पुराना घर उसका अपना घर था। वहीं के लोग अपने आत्मीय थेए उन्हीं का दुरूख उसका दुरूख और उन्हीं का सुख उसका सुख था। इस द्वार पर ढ़ोरों का एक रेवड़ देख कर उसे वह हर्ष न हो सकता थाए जो अपने द्वार पर एक गाय देख कर होता। उसके दादा की यह लालसा कभी पूरी न हुई थी। जिस दिन वह गाय आई थीए उन्हें कितना उछाह हुआ था। जैसे आकाश से कोई देवी आ गई हो। तब से फिर उन्हें इतनी समाई ही न हुई कि दूसरी गाय लातेए पर वह जानती थीए आज भी वह लालसा होरी के मन में उतनी ही सजग है। अबकी वह जायगीए तो साथ वह धौरी गाय जरूर लेती जायगी। नहींए अपने आदमी के हाथ क्यों न भेजवा दे। रामसेवक से पूछने की देर थी। मंजूरी हो गईए और दूसरे दिन एक अहीर के मारफत रूपा ने गाय भेज दी। अहीर से कहा — दादा से कह देनाए मंगल के दूध पीने के लिए भेजी है। होरी भी गाय लेने की फिक्र में था। यों अभी उसे गाय की कोई जल्दी न थीए मगर मंगल यहीं है और वह बिना दूध के कैसे रह सकता है! रुपए मिलते ही वह सबसे पहले गाय लेगा। मंगल अब केवल उसका पोता नहीं हैए केवल गोबर का बेटा नहीं हैए मालती देवी का खिलौना भी है। उसका लालन—पालन उसी तरह का होना चाहिए।
मगर रुपए कहाँ से आएँघ् संयोग से उसी दिन एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में कंकड़ की खुदाई शुरू की। होरी ने सुना तो चट—पट वहाँ जा पहुँचाए और आठ आने रोज पर खुदाई करने लगाए अगर यह काम दो महीने भी टीक गया तो गाय भर को रुपए मिल जाएँगे। दिन—भर लू और धूप में काम करने के बाद वह घर आताए तो बिलकुल मरा हुआए लेकिन अवसाद का नाम नहीं। उसी उत्साह से दूसरे दिन फिर काम करने जाता। रात को भी खाना खा कर ढ़िबरी के सामने बैठ जाता और सुतली कातता। कहीं बारह—एक बजे सोने जाता। धनिया भी पगला गई थीए उसे इतनी मेहनत करने से रोकने के बदले खुद उसके साथ बैठी—बैठी सुतली कातती। गाय तो लेनी ही हैए रामसेवक के रुपए भी तो अदा करने हैं। गोबर कह गया है। उसे बड़ी चिंता है।
रात के बारह बज गए थे। दोनों बैठे सुतली कात रहे थे। धनिया ने कहा — तुम्हें नींद आती हो तो जाके सो रहो। भोरे फिर तो काम करना है।
होरी ने आसमान की ओर देखा — चला जाऊँगा। अभी तो दस बजे होंगे। तू जाए सो रह।
मैं तो दोपहर को छन—भर पौढ़़ रहती हूँ।श्
श्मैं भी चबेना करके पेड़ के नीचे सो लेता हूँ।श्
श्बड़ी लू लगती होगी।श्
श्लू क्या लगेगीघ् अच्छी छाँह है।श्
श्मैं डरती हूँए कहीं तुम बीमार न पड़ जाओ।श्
श्चलय बीमार वह पड़ते हैंए जिन्हें बीमार पड़ने की फुरसत होती है। यहाँ तो यह धुन है कि अबकी गोबर आयए तो रामसेवक के आधे रुपए जमा रहें। कुछ वह भी लायगा। बसए इस साल इस रिन से गला छूट जायए तो दूसरी जिंदगी हो।श्
श्गोबर की अबकी बड़ी याद आती हैए कितना सुशील हो गया है।श्
श्चलती बेर पैरों पर गिर पड़ा।श्
श्मंगल वहाँ से आया तो कितना तैयार था। यहाँ आ कर कितना दुबला हो गया है।श्
श्वहाँ दूधए मक्खनए क्या नहीं पाता थाघ् यहाँ रोटी मिल जायए वही बहुत है। ठीकेदार से रुपए मिले और गाय लाया।श्
श्गाय तो कभी आ गई होतीए लेकिन तुम जब कहना मानो। अपनी खेती तो सँभाले न सँभलती थीए पुनिया का भार भी अपने सिर ले लिया।श्
श्क्या करताए अपना धरम भी तो कुछ है। हीरा ने नालायकी की तो उसके बाल—बच्चों को सँभालने वाला तो कोई चाहिए ही था। कौन था मेरे सिवा बताघ् मैं न मदद करताए तो आज उनकी क्या गति होतीए सोच। इतना सब करने पर भी तो मंगरू ने उस पर नालिस कर ही दी।श्
श्रुपए गाड़ कर रखेगी तो क्या नालिस न होगीघ्श्
श्क्या बकती है। खेती से पेट चल जायए यही बहुत है। गाड़ कर कोई क्या रखेगा।श्
श्हीरा तो जैसे संसार से ही चला गया।श्
श्मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगाए कभी न कभी जरूर।श्
दोनों सोए। होरी अँधेरे मुँह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा हैए बाल बढ़़े हुएए कपड़े तार—तारए मुँह सूखा हुआए देह में रक्त और माँस का नाम नहींए जैसे कद भी छोटा हो गया है। दौड़ कर होरी के कदमों पर गिर पड़ा।
होरी ने उसे छाती से लगा कर कहा — तुम तो बिलकुल घुल गए हीरा! कब आएघ् आज तुम्हारी बार—बार याद आ रही थी। बीमार हो क्याघ्
आज उसकी आँखों में वह हीरा न थाए जिसने उसकी जिंदगी तल्ख कर दी थीए बल्कि वह हीरा थाए जो बे—माँ—बाप का छोटा—सा बालक था। बीच के ये पच्चीस—तीस साल जैसे मिट गएए उनका कोई चिह्न भी नहीं था।
हीरा ने कुछ जवाब न दिया। खड़ा रो रहा था।
होरी ने उसका हाथ पकड़ कर गदगद कंठ से कहा — क्यों रोते हो भैयाए आदमी से भूल—चूक होती ही है। कहाँ रहा इतने दिनघ्
हीरा कातर स्वर में बोला — कहाँ बताऊँ दादा! बसए यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थेए बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी हैए हरदमए सोते—जागतेए कभी आँखों से ओझल न होती। मैं पागल हो गया और पाँच साल पागलखाने में रहा। आज वहाँ से निकले छरू महीने हुए। माँगता—खाता फिरता रहा। यहाँ आने की हिम्मत ही न पड़ती थी। संसार को कौन मुँह दिखाऊँगाघ् आखिर जी न माना। कलेजा मजबूत करके चला आया। तुमने बाल—बच्चों को...
होरी ने बात काटी — तुम नाहक भागे। अरेए दारोगा को दस—पाँच दे कर मामला रफे—दफे करा दिया जाता और होता क्याघ्
श्तुम से जीते—जी उरिन न हूँगा दादा!श्
श्मैं कोई गैर थोड़े ही हूँ भैया!श्
होरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकटए सारी निराशाएँए मानो उसके चरणों पर लोट रही थीं। कौन कहता हैए जीवन—संग्राम में वह हारा है। यह उल्लासए यह गर्वए यह पुलक क्या हार के लक्षण हैंघ् इन्हीं हारों में उसकी विजय है। उसके टूटे—फूटे अस्त्र उसकी विजय पताकाएँ हैं। उसकी छाती फूल उठी है। मुख पर तेज आ गया है। हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सफलता मूर्तिमान हो गई है। उसके बखार में सौ—दो सौ मन अनाज भरा होताए उसकी हाँडी में हजार—पाँच सौ गड़े होतेए पर उससे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता थाघ्
हीरा ने उसे सिर पर पाँव तक देख कर कहा — तुम भी तो बहुत दुबले हो गए दादा!
होरी ने हँस कर कहा — तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन हैंघ् मोटे वह होते हैंए जिन्हें न रिन की सोच होती हैए न इज्जत की। इस जमाने में मोटा होना बेहयाई है। सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है। ऐसे मोटेपन में क्या सुखघ् सुख तो जब है कि सभी मोटे होंए सोभा से भेंट हुई।
श्उससे तो रात ही भेंट हो गई थी। तुमने तो अपनों को भी पालाए जो तुमसे बैर करते थेए उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाए बैठे हो। उसने तो खेती—बारी सब बेच—बाच डाली और अब भगवान ही जानेए उसका निबाह कैसे होगाघ्श्
आज होरी खुदाई करने चलाए तो देह भारी थी। रात की थकन दूर न हो पाई थीए पर उसके कदम तेज थे और चाल में निर्द्वंदता की अकड़ थी।
आज दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते—होते तो आग बरस रही थी। होरी कंकड़ के झौवे उठा—उठा कर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी हुईए तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकन उसे कभी न हुई थी। उसके पाँव तक न उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा रही थी। उसने न स्नान ही किया न चबेनाए उसी थकन में अपना अँगोछा बिछा कर एक पेड़ के नीचे सो रहाए मगर प्यास के मारे कंठ सूखा जाता है। खाली पेट पानी पीना ठीक नहीं। उसने प्यास को रोकने की चेष्टा कीए लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़़ती जाती थीए न रहा गया। एक मजदूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था। होरी ने उठ कर एक लोटा पानी खींच कर पिया और फिर आ कर लेट रहाए मगर आधा घंटे में उसे कै हो गई और चेहरे पर मुर्दनी—सी छा गई।
उस मजदूर ने कहा — कैसा जी है होरी भैयाघ्
होरी के सिर में चक्कर आ रहा था। बोला — कुछ नहींए अच्छा हूँ।
यह कहते—कहते उसे फिर कै हुई और हाथ—पाँव ठंडे होने लगे। यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा हैघ् आँखों के सामने जैसे अँधेरा छाया जाता है। उसकी आँखें बंद हो गईं और जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव हो—हो कर हृदय—पट पर आने लगींए लेकिन बेक्रमए आगे की पीछेए पीछे की आगेए स्वप्न—चित्रों की भाँति बेमेलए विकृत और असंबद्धए वह सुखद बालपन आयाए जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ की गोद में सोता था। फिर देखाए जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर —श्य बदलाए धनिया दुलहिन बनी हुईए लाल चुंदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने आयाए बिलकुल कामधेनु—सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गई और....
उसी मजदूर ने पुकारा — दोपहरी ढ़ल गई होरीए चलो झौवा उठाओ।
होरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस—किस लोक में उड़ रहे थे। उसकी देह जल रही थीए हाथ—पाँव ठंडे हो रहे थे। लू लग गई थी।
उसके घर आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुँची। सोभा और हीरा पीछे—पीछे खटोले की डोली बना कर ला रहे थे।
धनिया ने होरी की देह छुईए तो उसका कलेजा सन से हो गया। मुख कांतिहीन हो गया था।
काँपती हुई आवाज से बोली — कैसा जी है तुम्हाराघ् होरी ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला — तुम आ गए गोबरघ् मैंने मंगल के लिए गाय ले ली है। वह खड़ी हैए देखो।
धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पाँव आते भी देखा थाए आँधी की तरह आते भी देखा था। उसके सामने सास मरीए ससुर मराए अपने दो बालक मरेए गाँव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का—सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टीका हुआ थाए जैसे खिसका जा रहा थाए लेकिन नहींए यह धैर्य का समय हैए उसकी शंका निर्मूल हैए लू लग गई हैए उसी से अचेत हो गए हैं।
उमड़ते हुए आँसुओं को रोक कर बोली — मेरी ओर देखोए मैं हूँए क्या मुझे नहीं पहचानतेघ्
होरी की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गई थीए आग दहकने वाली थी। धुआँ शांत हो गया था। धनिया को दीन आँखों से देखाए दोनो कोनों से आँसू की दो बूँदें ढ़ुलक पड़ीं। क्षीण स्वर में बोला — मेरा कहा सुना माफ करना धनिया! अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गई। अब तो यहाँ के रुपए करिया करम में जाएँगे। रो मत धनियाए अब कब तक जिलाएगीघ् सब दुर्दसा तो हो गई। अब मरने दे।
और उसकी आँखें फिर बंद हो गईं। उसी वक्त हीरा और सोभा डोली ले कर पहुँच गए। होरी को उठा कर डोली में लिटाया और गाँव की ओर चले।
गाँव में यह खबर हवा की तरह फैल गई। सारा गाँव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता थाए सब कुछ समझता थाए पर जबान बंद हो गई थी। हाँए उसकी आँखों से बहते हुए आँसू बतला रहे थेए कि मोह का बंधन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ाए उसी के दुरूख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाए हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में हैए जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सकेए उन अधूरे मंसूबों में हैए जिन्हें हम पूरा न कर सके।
मगर सब कुछ समझ कर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आँखों से आँसू गिर रहे थेए मगर यंत्र की भाँति दौड़—दौड़ कर कभी आम भून कर पना बनातीए कभी होरी की देह में भूसी की मालिश करती। क्या करेए पैसे नहीं हैंए नहीं किसी को भेज कर डाक्टर बुलाती।
हीरा ने रोते हुए कहा — भाभी दिल कड़ा करो। गोदान करा दोए दादा चले।
धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करेघ् अपने पति के प्रति उसका जो धर्म हैए क्या यह उसको बताना पड़ेगाघ् जो जीवन का संगी थाए उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म हैघ्
और कई आवाजें आईं — हाँए गोदान करा दोए अब यही समय है।
धनिया यंत्र की भाँति उठीए आज जो सुतली बेची थीए उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रख कर सामने खड़े मातादीन से बोली — महराजए घर में न गाय हैए न बछियाए न पैसा। यही पैसे हैंए यही इनका गोदान है।
और पछाड़ खा कर गिर पड़ी।
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