Parabhav - 5 in Hindi Fiction Stories by Madhudeep books and stories PDF | पराभव - भाग 5

Featured Books
Categories
Share

पराभव - भाग 5

पराभव

मधुदीप

भाग - पाँच

समय किसी तीव्र गति रेलगाड़ी की भाँती तेजी से भागता जा रहा था | श्रद्धा बाबू के विवाह को पाँच वर्ष व्यतीत हो चुके थे | सब सुख-सुविधाओं से पूर्ण घर भी बिना बच्चों की किलकारियों के सूना-सूना-सा लगता था | मनोरमा की गोद खाली थी और श्रद्धा बाबू के कान बच्चे की तुतलाहट भरी आवाज सुनने को तरस रहे थे | उसके जीवन में किसी तरह का अभाव न था | विद्यालय दिन-प्रतिदिन प्रगति कर रहा था | आर्य समाज संस्थान और श्रद्धा बाबू के सहयोग और परिश्रम का ही फल था जो की विद्यालय को शीघ्र ही माध्यमिक स्तर तक किए जाने की योजना बन रही थी | सभी ओर से निश्चिन्त श्रद्धा बाबू का मस्तिक सिर्फ एक अभाव पर केन्द्रित हो गया था | सुबह-शाम परिवार के तीनों ही प्राणी प्रभु से इस अभाव की पूर्ति की प्रार्थना करते थे |

प्रातः के ग्यारह बज रहे थे | मनोरमा रसोई से निवृत होकर बर्तन साफ कर रही थी | उसकी सास बाहर के कमरे में बैठी चर्खा कात रही थी |

"श्रद्धा की माँ, निर्मला को लड़का हुआ है |" बाहर से आई नाईन की आवाज सुनकर श्रद्धा की माँ के हाथ चर्खे पर ठहर गए | एक पल को चर्खे की घर्र...घर्र बन्द हो गई |

"बड़ी खुशी हुई...उसे बधाई हो |" बुझे-से मन से मनोरमा की सास ने कहा था | नाईन यह सन्देश सुनकर गली में आगे बढ़ गई थी | अब माया देवी का मन भी चर्खे में न लगा और वह चर्खा उठाकर आँगन में आ गई |

"एल साल भी पूरा नहीं हुआ निर्मला की शादी को और लड़का भी हो गया | हमारे ही भाग्य खोटे हैं | श्रद्धा की शादी को पाँच वर्ष हो गए लेकिन ये बूढ़ी आँखें एक बच्चे का मुँह देखने को तरस रही हैं | मैंने कितने चाव से श्रद्धा की शादी की थी | एक ही तो बेटा है मेरा लेकिन लगता है जैसे अब वंश की बेल सूखकर रहेगी |" कुढ़ते हुए माया देवी ने कहा | अप्राप्ति का दुःख और पीड़ा उसकी आवाज में घुल गई थी |

मनोरमा ने भी सास की बात सुनी और उसकी आँखों से दो आँसू लुढ़ककर राख में समा गए |

सास को कन्धों पर शाल डालकर अपनी ओर आते देखकर मनोरमा ने अपनी साड़ी के पल्लू को आँसुओं को पोंछ लिया |

"बहू, हाथ धोकर मेरे साथ चल |"

"कहाँ माँजी!" मनोरमा ने उत्सुकता से पूछा |

"पण्डित गोपालदास के पास | मैंने उससे बात की थी | बहुत अच्छी दवा करता है | न जाने कितनी औरतों को उसकी दवा से फायदा हो चुका है | भगवान ने चाहा तो तेरी भी गोद भर जाएगी |"

सास की बात मनोरमा को अच्छी न लगी | वह पण्डित गोपालदास के विषय में अच्छी तरह जानती थी | पण्डितजी ने किसी तरह की कोई डाक्टरी विद्या न पढ़ी थी | अपने अधकचरे-से ज्ञान के बल पर वह गाँव के अनपढ़ स्त्री-पुरुषों को मूर्ख बनाता था | यदि कभी भाग्य से किसी पर उसकी दवा काम कर जाती तो वह व्यक्ति उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देता और कोई यदि उसकी अज्ञान के कारण दम तोड़ देता तो पण्डितजी कह देते...यह तो प्रभु की इच्छा थी | यही स्थिति उन स्त्रियों की भी थी जो सन्तान सुख से वंचित थीं | इस गाँव में पण्डित गोपालदास ही तो सब मर्जों के अचूक वैध थे |

पढ़ी-लिखी मनोरमा इस ढोंग को कैसे स्वीकार करती | वह अपनी सास के समक्ष इन सब बातों का विरोध करना चाहती थी, मगर उसके सामने कुछ भी कह सकना उसके लिए आसान न था | इससे पूर्व इसी तरह जब उसने अपने सास के साथ जाने का विरोध किया था तो उसे सास की गालियाँ खाने को मिली थीं | उस दिन उसकी सास उसे पास के गाँव में एक पण्डित के पास ले जाना चाहती थी | तभी से उसकी सास उससे रुष्ट भी रहने लगी थी |

आज भी मनोरमा अपनी सास के साथ पण्डित गोपालदास के यहाँ नहीं जाना चाहती थी | स्वयं श्रद्धा बाबू इन अन्ध-विश्वासों के पक्ष में न था और उसने मनोरमा से भी इन सब बातों के लिए मना कर दिया था | किसी तरह साहस बटोरकर मनोरमा ने अपनी सास के साथ पण्डित जी के यहाँ जाने से मना कर दिया |

"माँजी, उन्होंने कोई दवा लेने से मना किया है |" डरते-डरते मनोरमा ने कहा |

यह सुनकर सास गरज उठी, "तुम दोनों की तो बुद्धि भ्रष्ट हो गई है | पाँच वर्ष हो गए इन्तजार करते-करते, लेकिन अब मैं तुम्हारी बिलकुल नहीं सुनूँगी | तुम्हें नहीं लेकिन मुझे तो वंश चलाने के लिए औलाद चाहिए |"

"माँजी कल चल पड़ेंगे |" मनोरमा ने टालने के लिए कहा |

"नहीं! कल-कल में तुमने पाँच वर्ष बिता दिए हैं | मैं सब समझती हूँ, तेरा ही मन औलाद पैदा करने को नहीं है | तूने ही मेरे बेटे को भी बहका दिया है | कितनी औरतें हैं जो स्वयं अपना इलाज करवा लेती हैं और किसी को खबर भी नहीं होने देतीं | कान खोलकर सुन ले, यदि इस घर में रहना है तो जैसा मैं कहूँ वही करना पड़ेगा | चल उठ, जल्दी से तैयार हो जा |" सास ने अपना फैसला सुनाते हुए ऊँची आवाज में कहा |

अपमान और क्रोध से मनोरमा की आँखें बरस उठने को आतुर थीं लेकिन उसने सारे दर्द को अपने ह्रदय में दबा लिया | वह अपनी वेदना इस समय किसे सुनाती? चुपचाप उठकर वह कपड़े बदलने के लिए कमरे में चल दी | कमरे में जाकर कपड़े बदलते हुए वह स्वयं पर संयम न रख सकी तो आँसुओं की लकीरें उसके गालों पर बह आईं | आज उसकी सास ने उस पर जो आक्षेप लगाया था, उसने उसे हिलाकर रख दिया था | कौन स्त्री ऐसी है जो पाँच वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी सन्तान की कामना न करे |

कपड़े बदल, अपने आँसुओं को पोंछ वह चुपचाप अपनी सास के साथ चल दी |

संध्या के समय श्रद्धा बाबू खाना खाने के पश्चात् टहलने को निकल गया | मनोरमा आज दिन में हुई घटना उन्हें बता देना चाहती थी | रात्रि के नौ बजे के बाद श्रद्धा बाबू लौटा और खामोश-सा पलंग पर लेट गया |

घर का कार्य समाप्त करने के बाद मनोरमा भी पति के कमरे मैं आ गई थी | उचित अवसर देखकर उसने पति के पाँवों के समीप बैठते हुए कहा, "माँजी मुझे पण्डित गोपालदास से दवाई दिलाकर लाई हैं |"

"किस चीज की दवाई?" आश्चर्य से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"माँजी समझती हैं कि मुझमें कोई कमी है |"

"बकवास!" श्रद्धा बाबू ने तेजी से कहा, "लेकिन तुम गई क्यों थीं?"

"दवाई ले आई हो लेकिन खाने की कोई आवश्यकता नहीं है |"

"लेकिन माँजी तो मुझे अपने सामने बिठाकर खिलाती हैं |"

"तो मैं क्या करूँ? तुम्हारी इच्छा है तो खा लो|" कुछ रूखेपन से और झुँझलाकर श्रद्धा बाबू ने कहा |

"खा लूँ...?" आश्चर्य और दुख से मनोरमा ने कहा |

"मैं कुछ नहीं जानता | जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो |" कहते हुए श्रद्धा बाबू पीठ फिराकर लेट गया |

मनोरमा अपने पति के शब्दों के वज्र प्रहार से एकदम टूट गई | उसका मन चाह रहा था कि वह बिलख-बिलखकर अपने पति से पूछे कि उसका क्या दोष है जो वे भी उसकी उपेक्षा कर रहे हैं | कुछ न कह पाई वह, सिर्फ आँसू बह-बहकर मन की व्यथा को धोते रहे |

दूसरी ओर पीठ फिराकर लेते हुए श्रद्धा बाबू का मन भी शान्त न था | उसके मस्तिष्क में भी एक द्वन्द्व-सा मचा हुआ था |

अब तक के अपने जीवन में श्रद्धा बाबू को आज पहली बार विद्यालय में आत्महीनता का शिकार होना पड़ा था | उसे पहली बार एहसास हुआ था कि उसके जीवन में कहीं कोई भारी कमी शेष है |

आज उसने एक छात्र को चोरी के अपराध में दण्ड दिया था | वह छात्र रोता हुआ अपने घर पहुँच गया | घर से उसकी माँ ने आकर श्रद्धा बाबू से कहा था, "अपनी औलाद होती तो जानते कि बच्चों का प्यार क्या होता है | कितनी बुरी तरह बच्चे को मारा है, हमें ऐसे मास्टर से अपने बच्चों को नहीं पढ़ाना | इससे अच्छा तो हम सरकारी स्कूल में भेज देंगे | वहाँ मास्टर आस-औलाद वाले तो हैं...कम से कम बच्चों का दर्द तो महसूस करते हैं |"

सभी छात्रों के सामने उस स्त्री ने उसका अपमान कर दिया था | जो आक्षेप उसने उस पर किया था, उसने उसे गूँगा बना दिया था | शोर सुनकर अन्य अध्यापक भी वहाँ एकत्रित हो गए थे | श्रद्धा बाबू को उस समय महसूस हो रहा था जैसे वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति उस पर आक्षेप कर रहा हो | न जाने कैसे वह इस अपमान को झेल पाया था |

इस घटना के पश्चात् वह किसी घंटी में भी बच्चों को नहीं पढ़ा पाया | जिन छात्र-छात्राओं के लिए उसने अपने जीवन की समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया था, उन्हीं की भलाई सोचते हुए आज उसे अपमान का सामना करना पड़ा था | उसने इस क्षेत्र को एक विशेष उद्देश्य सामने रखकर चुना था, अन्यथा वह अपनी प्रतिभा के कारण कोई भी अन्य नौकरी प्राप्त कर सकता था | बचपन से ही उसने सरकारी विद्यालयों की अव्यवस्था को देखा था और होश सम्भालने पर उसने यह निश्चय कर लिया था कि वह अपने जीवन में एक आदर्श विद्यालय की स्थापना अवश्य ही करेगा | अपनी इसी इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने मास्टरजी के साथ मिलकर इस विद्यालय की स्थापना की थी | अब यधपि वह इस स्कूल में मुख्य अध्यापक की हैसियत से नौकरी कर रहा था मगर उसने कभी भी स्वयं को विद्यालय से अलग अनुभव न किया था | विद्यालय की मैनेजिंग कमेटी भी उसे पूरा आदर देती थी |

अपने जीवन की हर इच्छा को अधूरी रखकर भी वह बच्चों के विकास की ओर ध्यान देता था, परन्तु आज एक पल को उसे अपने निर्णय के औचित्य पर सन्देह होने लगा | आज वह रविन्द्रनाथजी की उस उक्ति को महसूस कर रहा था कि एक अध्यापक को दीपक के समान अपना तन जलाकर प्रकाश फैलाना पड़ता है |

विद्यालय में घटी इस घटना का दर्द समेटे ही वह घर चला आया था | आज खाना भी वह अच्छी तरह से न खा पाया था | अधुरा-सा खाना खाकर वह उसी बेचैनी में घुमने निकल गया था | वह किसी तरह भी इस अपमान को सहन नहीं कर पा रहा था | घर वापस लौटने पर जब पत्नी ने भी इसी विषय पर चर्चा चलाई तो उसे स्वाभाविक रूप से क्रोध आ गया था |

पति के पाँवों के समीप बैठी मनोरमा अभी भी सुबक रही थी | सास द्वारा किए गए अपमानजनक व्यवहार को वह पति के समक्ष बताकर उनसे प्यार और सहानुभूति की कामना करती थी, परन्तु जब पति से भी उसे क्रोध और उपेक्षा मिली तो उसका मन टूट गया |

कुछ देर पश्चात् श्रद्धा बाबू का क्रोध समाप्त हुआ तो वह अपने व्यवहार पर सोचने लगा | उसे पत्नी के प्रति अपना व्यवहार बहुत ही अनुचित जान पड़ा | अपमान और पीड़ा की वह समस्या तो उन दोनों के साझे की थी | इसमें इस बेचारी का क्या दोष है जो वह उस पर क्रोध कर बैठा |

"मनोरमा...!" प्यार से उन्होंने पत्नी को पुकारा |

मनोरमा कुछ न बोल सकी | सिर झुकाए वह यूँ ही आँखों से आँसू गिराती रही |

पत्नी की स्थिति देखकर श्रद्धा बाबू का मन द्रवित हो उठा | उसने उसकी बाँह पकड़कर स्वयं पर खींच लिया तो वह निर्जीव-सी उस पर खिंच आई |

"मनोरमा...|"

प्यार का आलम्बन पाकर आँसू और हिचकियों का वेग और अधिक बढ़ गया |

"ऐसा न करो मनोरमा! ऐसा न करो...मुझे दुख होता है |" उसे अपने वक्ष से सटाते हुए श्रद्धा ने कहा |

मनोरमा अपने पति के वक्ष से चिपट गई थी | श्रद्धा बाबू ने एक पल को उसे स्वयं से अलग करके उसके आँसू पोंछ देने चाहे लेकिन मनोरमा दृढ़ता से उस वक्ष से लगी अपने मन को हल्का करती रही |

"मैंने तुम्हारे साथ बहुत अनुचित व्यवहार किया है मनोरमा! मुझे क्षमा...|"

"नहीं...|" मनोरमा ने अपना हाथ पति के मुँह पर रख दिया, "ऐसा कहकर मुझे पाप की भागी न बनाओ स्वामी!"

"मैं क्या करूँ मनोरमा! मैं क्या करूँ! तुम्हीं बताओ, क्या मैं अपूर्ण पुरुष हूँ?" व्यथित ह्रदय से श्रद्धा बाबू ने पूछा |

"नहीं...नहीं, ऐसा कभी न सोचना |" मनोरमा फिर अपने पति के पाँवों के समीप बैठ कर उन्हें दबाने लगी, "मुझ में ही कहीं कोई कमी है...मैं ही आपका वंश चलाने में असमर्थ हूँ |"

"कहीं न कहीं, कोई न कोई कमी तो अवश्य है |" कहकर श्रद्धा बाबू ने के आह भरी |

"आप मेरी एक बात मानेंगे |" अपना हाथ रोकते हुए मनोरमा ने पूछा |

"कहो!"

"हमें अपना वंश चलाने को बच्चा चाहिए |"

"हाँ, चाहिए तो!"

"आप दूसरी शादी कर लो |" मनोरमा ने एक झटके से अनचाही बात को किसी तरह कह ही दिया |

"मनोरमा...|" श्रद्धा बाबू सुनकर चीख उठा, "क्या तुम मुझे इतना स्वार्थी समझती हो कि मैं एक बच्चे के लिए तुमसे तुम्हारी खुशियाँ छीन लूँगा |"

"मैं दासी बनकर शेष जीवन आपकी सेवा में गुजार लूँगी |"

"नहीं मनोरमा नहीं! ऐसी बातें कहकर मेरा मन दुखी न करो |" श्रद्धा बाबू की आवाज काँप उठी |

"मैंने आपकी खुशी के लिए ही ऐसा कहा था स्वामी |"

"तुम शायद पाँच वर्ष में भी यह नहीं समझी हो कि मेरी खुशी किसमें है |" कहते हुए एकबार फिर श्रद्धा बाबू ने पत्नी को अपने समीप खींच लिया |

यह तो मनोरमा को भी मन से स्वीकार न था कि उसका पति दूसरा विवाह करे | शायद एक त्याग की भावना में बहकर अपने पति की खुशी के लिए उसने यह सब कह दिया था | अपने पति का स्वयं के प्रति प्यार देखकर वह उनके और भी समीप पहुँच गई |

श्रद्धा बाबू खोया-खोया सा देर तक पत्नी के बालों को सहलाता रहा |