Khavabo ke pairhan - 13 in Hindi Fiction Stories by Santosh Srivastav books and stories PDF | ख्वाबो के पैरहन - 13

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ख्वाबो के पैरहन - 13

ख्वाबो के पैरहन

पार्ट - 13

हस्तिनापुर लड़खड़ा रहा है| वंश-बेल सूख-सी रही है कि माता सत्यवती हड़बड़ा गईं| विचित्रवीर्य की दोनों विधवा पत्नियाँ, लड़खड़ाते हस्तिनापुर के रथ के मात्र दो पहिए हैं| चालक हो तो रथ चले| भीष्म और माता सत्यवती के आग्रह पर वेदव्यास का आगमन और विधवा पुत्र-वधुओं का बारी-बारी से गर्भवती होना..... कर्णधार मिल गया| वंश-बेल पल्लवित होने लगी| चकराई रन्नी की पलकों पर ढीठ तितली-सा बैठा यह ख़्वाब चुनौती बनता जा रहा था| बार-बार उपजते अपराध बोध पर यह पुरातन सत्य हावी था.....और अधिक वे सोच पातीं कि दरवाज़े की घंटी बजी| वे चौंकी|

“मैं देखता हूँ फूफी,” कहता हुआ फैयाज़ आगे बढ़ा और दरवाज़ा खोल दिया| वेटर था, ताज़े पानी का जग और स्वच्छ धुले ग्लासों को ट्रे में सजाये|

“हाँ, रख दो यहाँ और सुनो चार कप भिजवा दो.....बस|” कुछ सोच कर फैयाज़ की ओर मुड़ीं-“नाश्ता तो लोगे न? सुनो भाई, कुछ सैण्डविचेज़ भी भिजवा देना|”

वेटर के जाने के बाद रेहाना फैयाज़ से बोलीं-“बेटा, हमारा मूड तो मोती खरीदने का है, यहाँ के मोती तो जगप्रसिद्ध हैं| ताहिरा को तो शॉपिंग बिल्कुल भी पसंद नहीं, घबराती है भीड़ से|”

ताहिरा ने शिकायती नज़रों से फूफी को देखा, कुछ यूँ कि हम कब घबराते हैं भीड़ से! फूफी आप भी.....लेकिन फिर मुस्कुराने लगी| उसने ग़ौर से फैयाज़ को देखा| भरपूर मर्दाना व्यक्तित्व, लम्बा क़द, ताँबई गालों पर दाढ़ी जो क़रीने से तराशी गई थी| ऐश कलर की कमीज़ और काली जींस पर वह बहुत ही भला लग रहा था| फैयाज़ की खूबसूरती तो सदा से उसे लुभाती रही| अब उसमें आई गंभीरता उसे और आकर्षक बना रही थी| अचानक ताहिरा को महसूस हुआ जैसे फूफी उसे ही देखे जा रही हैं, वह हड़बड़ा उठी| वेटर चाय-नाश्ता ले आया था| रन्नी भी तैयार थी, जल्दी-जल्दी सैंडविच खाई और चाय पीकर उठ गई-“हम चलते हैं| ताहिरा, तुम्हारे लिए मोती का पूरा सेट लाना है न? या मोती ही वज़न कराके ले आऊँ, घर लौटकर बनवा लेना मनपसंद सेट?” “अब जैसा आप ठीक समझे, मुझे कुछ ख़ास तजुर्बा नहीं है इन बातों का| पर फूफी अपने लिए भी मोती का कुछ लाना, यूँ ही मत चली आना सबके लिए ख़रीदकर|” रन्नी ने लाड़ से ताहिरा के माथे को चूम लिया और मन ही मन बुदबुदाईं-‘खुदा, खुशियाँ बख़्शे|’ और तेज़ी से दरवाज़े से निकल गईं, लेकिन कुछ पल बाद फिर लौटीं-“बेटा फैयाज़, मुझे आने में देर हो तो घबराना नहीं| असल में, जानी-पहचानी जगह तो है नहीं, ढूँढना पड़ेगा सब|”

दोनों मुस्कुरा दिए| फूफी के जाते ही कमरे में ख़ामोशी छा गई| दोनों अपनी-अपनी जगह जड़, मूक| खिड़की से आती हवा शब्द बन गई| वह परदों से टकराती तो सरसराहट गूँजती| ज्यों पतझड़ के सूखे पत्ते सरसरा रहे हों.....मानो, अभी-अभी फैयाज़ चर्च के पिछवाड़े, पीले कनेर और दूधिया तगड़ के पेड़ों की घनी छाया में मिला हो| अभी-अभी दोनों बाँहों में समाये हों और अभी-अभी फैयाज़ ने धीरे-से ताहिरा को बाँह छुड़ा, अपनी साईकल सम्हाली हो और ओझल होने की हद तक वह विस्फ़रित नज़रों से उसे सूनी सड़क पर जाता देखती रही हो| वे थके-बोझिल क़दम, एक हाथ में थामा हुआ साईकल का हैंडल, पश्चिम में डूबते सूरज की सिन्दूरी झलक और पैरों के नीचे पतझड़ के सूखे-चरमराते पत्ते| बीच में है दस महीनों का लम्बा अन्तराल| इन दस महीनों में ताहिरा दस बार मरी, दस बार ज़िन्दा हुई| हर बार वह फैयाज़ को पाने के लिए मानो जन्म लेती रही और हर बार शाहजी को पाकर मर जाती| चाहे वह अपने मन को कितना भी टटोले पर वहाँ न शाहजी हैं न उनकी समृद्धि| उसका सुख तो फैयाज़ की बाँहों में है| भले ही मुफ़लिसी हो| भले ही अंगारों पर फूलती रोटी पर चुपड़ने को घी न हो| पर उसके नज़दीक़ फैयाज़ तो है, उसका प्यार तो है| उसका खूबसूरत मर्दाना जवान व्यक्तित्व तो है, जिस पर वह सौ जान से फिदा है| अचानक ताहिरा चमत्कृत हो उठी, ओह! उसने तो सोचा था अम्मी-अब्बू के सुख के लिए उसने अपने को बलि चढ़ाकर अपने प्यार को भुला दिया है| पर कहाँ, .....कहाँ भूली है वह सब कुछ? आज भी तो सब शिद्दत से उसके दिल में घर किये हैं|

“ताहिरा, कहाँ खो गई? कुछ बेचैन-सी नज़र आ रही हो?”

“हाँ फैयाज़, यह बेचैनी तुम्हें खोकर दोबारा पा लेने की चाह पैदा कर रही है|” ताहिरा आहिस्ते से बोली|

“इधर आओ, मेरे पास|”

ताहिरा मंत्र बद्ध-सी उठी और फैयाज़ के बाजू में पलंग पर बैठ गई|

“ताहिरा, मेरी आँखों में देखो| यहाँ तुम ही तुम हो| हम खोये कहाँ हैं? मैंने तुमसे वादा किया था, इन आँखों में सिर्फ तुम ही रहोगी और तुम हो| हम तो एक मिशन पूरा करने को जुदा हुए थे| मिशन ने त्याग माँगा, हमने दिया| हमने त्याग किया, जुदा तो नहीं हुए न|”

“फैयाज़.....” ताहिरा फुसफुसाती हुई बढ़ती बेल-सी फ़ैयाज़ से लिपटती गई| फ़ैयाज़ के हाथ खुले.....| ताहिरा पराई हो चुकी थी| पराया शब्द उसे निहायत दक़ियानूसी लगा| यह तो मात्र सामाजिक परम्पराओं के बंधन मात्र हैं| जहाँ दो दिल मिलते हैं वहाँ खुदा वास करता है.....‘ढूँढहिं हौं तो पल में मिलिहौं, सब साँसन की साँस में|’ हाँ, उसने ताहिरा की साँसों में खुदा को पा लिया है|

“फैयाज़, दस महीने मुझे दस युग से क्यों लग रहे हैं? क्यों ऐसा लग रहा है, जैसे कितना कुछ जी लिया मैंने बग़ैर तुम्हारे| वह ऐशो-आराम, हमारी ख़िदमत में तैनात दासियाँ, कोठी की अपनी दुनिया, मानो एक पूरा संसार हो| वहाँ कूटनीति है, राजनीति है, एक दूसरे को हराने और खुदा को ऊँचा सिद्ध करने की कोशिश है| वहाँ क्यों नहीं मिट्टी के चूल्हे जलते और क्यों नहीं सबका साझा सालन पकता? प्यार और त्याग के शोरबे वाला|”

“अरे, तुम तो दार्शनिक हो गई ताहिरा|”

ताहिरा खिलखिला पड़ी-“शरीर कहीं के, मैं कितना कुछ बताने जा रही थी और तुमने टोक दिया|”

“छोड़ो, मुझे कोठी का रहस्य नहीं जानना|” उसने ताहिरा की नाक दबाते हुए कहा-“चलो, तैयार हो जाओ, तुम्हें नागार्जुन डैम घुमा लाते हैं| वहाँ का म्यूज़ियम देखोगी तो दंग रह जाओगी|”

“तैयार तो हूँ| अभी, तुम्हारे आने के पहले, तो नहाकर तैयार हुई हैं|”

फैयाज़ ने जूते के फीते कसे, जेब से कंघा निकालकर बाल सँवारता बोला-“दरअसल यह फ़र्क करना मुश्किल है कि तुम कब तैयार हो और कब तैयार नहीं हो| मालिका की बात तो कुछ और है|”

“पिटोगे मेरे हाथ से|” ताहिरा ने धमकाया और पर्स झुलाती बाहर निकल आई| रिसेप्शन में चाबी जमा की| फूफी के नाम मैसेज छोड़ा और दोनों सड़क पर निकल आये| फैयाज़ ने हाथ दिखाकर टैक्सी रोकी| टैक्सी वाले की सवालिया नज़रें उठीं, तो फ़ैयाज़ ने कहा-“घुमा दो यार हैदराबाद शहर, बीच में कहीं खाना खायेंगे, और दो-ढाई बजे तक लेक पर छोड़ देना| नागार्जुन म्यूज़ियम जाना है|”

मीटर डाउन होते ही टैक्सी हवा से बातें करने लगी| ताहिरा सीट पर बैठकर सम्हल ही रही थी कि टैक्सी के झटके से वह फ़ैयाज़ पर लगभग गिर-सी पड़ी-“मियाँ, घूमने निकले हैं यार, आप इतनी फुर्ती में क्यों हैं?”

टैक्सी वाला खिसिया गया| धीरे-धीरे खिड़की के दोनों ओर हैदराबाद शहर साकार होने लगा| मुस्लिम स्थापत्य, चौड़ी-सँकरी सड़कें, दुपल्ली टोपी और बुरके में मर्द-औरत, भागते स्कूटर, ठेलों में बिकता सामान कि चार मीनार की सड़क आ गई| चारों दिशाओं में आकाश चूमती चार मीनारें| सुन्दर कारीगरी का बेहतरीन नमूना|

“फ़ैयाज़, हैदराबाद में सबसे बढ़िया जगह कौन-सी है?”

“गोलकुंडा, और नागार्जुन म्यूज़ियम| गोलकुंडा तो फूफी के साथ चलेंगे| कितने दिन हो तुम यहाँ?”

“ता उम्र|”

फ़ैयाज़ झेंप गया-“मेरा मतलब था आप कितने दिन हैदराबाद घूमेंगी, जानेमन?”

“यह फूफी को पता है फैयाज़, मैं अपने आप में कहाँ हूँ? सारे निर्णय शाहजी और बड़ी बेग़म के| एक-एक मिनिट का हिसाब| जानते हो, शाहजी ने हमारे लिए फाइव स्टार होटल बुक किया था, हम वहाँ नहीं रहे| इस थ्री स्टार होटल में रुकने की वजह फूफी को फोन पर बतानी पड़ी कि यहाँ से बाबा की मजार पास पड़ती है|”

“बाबा की मजार?”

“हाँ.....कोई बाबा हैं यहाँ, पहुँचे हुए फ़कीर| सबके दुख-दर्द अपनी दुआओं से दूर करते हैं|”

अब फ़ैयाज़ ने ताहिरा की आँखों में झाँका-“तुम्हें क्या दुख-दर्द है, हमसे छुपाना नहीं?”

ताहिरा सतर्क हो गई| होठों पर कोई नाजायज़ जुमला न आ बैठे| उसने अपनी नज़रें सड़क की ओर उठाईं-“कोई दुख-दर्द नहीं, फूफी को बाबा-फ़कीरों की दरगाह में जाने का, उनकी संगत में बैठने का शौक है| जानते तो हो फूफी त्याग की मूर्ति है| अपने लिए एक साँस भी नहीं जीती|” फैयाज़, फूफी की ज़िन्दगी के प्रत्येक उतार-चढ़ाव से परिचित था| वह यह भी जानता था कि फूफी पाँच वक़्त की नमाज़ पढ़ने वाली, खुदा की इबादत में हमेशा झुकी एक मज़हबी महिला हैं| किन्तु उनके इस रूप से उसका परिचय पहली बार हुआ| वह ताज्जुब से बोला-“फूफी पीर-फ़क़ीरों की संगत पसंद करती हैं यह मुझे पता नहीं था|” फिर एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए बोला-“ताहिरा, ये कौन से बाबा हैं?.....जिनके लिए फूफी हैदराबाद तक दौड़ी चली आईं, हम तो इनसे वाक़िफ़ नहीं हैं|”

“इसलिए कि आप बाबाओं की संगत के शौकीन नहीं हैं, ख़ैर, इस वक्त आप हमारी संगत पर ध्यान दीजिए| हमें भूख लग आई है कहीं रुकवाइये टैक्सी|”

“जी, जो हुकुम मलिका|”

टैक्सी एक शानदार होटल के पोर्च में पार्क की गई| फैयाज़ ने टैक्सी वाले को सौ का नोट देते हुए कहा-“अप भी लंच ले लीजिए कहीं, घंटे भर में लौट आइए|”

ताहिरा फ़ैयाज़ की माली हालत से वाक़िफ़ थी| उसने ज़बरदस्ती फैयाज़ के पर्स में कुछ नोट रख दिये| होटल में, वे स्पेशल केबिन में बैठे| ताहिरा की ज़िद्द थी कि फ़ैयाज़ अपनी पसन्द का खाना ऑर्डर करे और फैयाज़ इस पशोपेश में कि क्या मँगाये जो ताहिरा तृप्त हो सके| बहरहाल, खाना आया और बातों में मशगुल दोनों आहिस्ता-आहिस्ता खाते रहे| ख़ाने के बाद ताहिरा ने कोल्ड कॉफ़ी विद आइस्क्रीम मँगवाई| स्वाद लाजवाब था-“खाना लज्ज़तदार था, है न फैयाज़|”

“अब, हमें कहाँ होश है? हम अपने में हैं कहाँ?”

“फिरऽऽऽ” ताहिरा खिलखिला पड़ी| अचानक उसके सामने शाहजी का चेहरा घूम गया| ढलती उम्र, गंभीर चेहरा| दिल खुश कर देने वाली बातों की जगह मात्र एक चाहत-औलाद की चाहत| वे जब भी उसको देखते उसके बदन में अपनी औलाद का अंकुर तलाशते| उनका काम ही था तलाशना| कोठी की लम्बी-चौड़ी छत पर उनकी विशाल दूरबीन रखी रहती| उसी दूरबीन पर निगाहें टिकाये शाहजी खगोल मंडल क सूक्ष्म से सूक्ष्म हिस्सा तलाशते रहते| उसी दूरबीन पर उसने न जाने कितने नक्षत्र देखे थे| रोहिणी, मघा, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, पुष्य.....| सुन्दर चमकते तारों के पुंज.....आकाशगंगायें| शाहजी तन्मय होकर ताहिरा को बताते रहते और यदि बीच में बड़ी बेगम आ जातीं तो उनकी ओर मुख़ातिब हो जाते| शाहजी का यही रुख़ तो ताहिरा बर्दाश्त नहीं कर पाती| आख़िर वह भी उनकी ब्याहता है? जितना हक़ बड़ी बेगम का है, उतना ही ताहिरा का भी तो? फिर शाहजी ऐसा क्यों करते हैं? मानो वे बड़ी बेगम की मुट्ठी में बंद जिन हों, मुट्ठी खुली ख़िदमत में हाज़िर| ताहिरा को अपने इस बचकाने ख़याल पर हँसी आ गई|

“क्या हुआ? हम भी तो सुने.....आप मंद-मंद मुस्कुरा क्यों रही हैं?”

“कुछ नहीं, उठिये अब, वरना म्यूज़ियम नहीं देख पायेंगे|” कहती हुई ताहिरा ने प्लेट में रखे बिल के नीचे पाँच सौ का नोट दबा दिया और चुटकी भर सौंफ़ मुँह में डालकर उठ गई| टैक्सी वाला खा-पीकर उनके इंतज़ार में खड़ा था| टैक्सी झील की सड़क पर दौड़ने लगी| सड़क के दोनों ओर, थोड़े-थोड़े फासले पर पत्थर की निहायत सजीव खूबसूरत मूर्तियाँ थीं| हरी-भरी सड़क बड़ी राहत देने वाली थी| वे झील के नज़दीक उतरे और मोटरबोट में बैठकर झील पार करने लगे| झील के बीचोंबीच गौतम बुद्ध की विशाल मूर्ति (लगभग अठारह फीट) थी जो अपने आप में स्थापत्य का अद्भुत नमूना थी| गौतम बुद्ध के चेहरे की मुस्कुराहट, संसार के सारे रहस्य जान लेने की तृप्ति, फ़ैयाज़ को बड़ी भली लगी| वह ताहिरा का हाथ पकड़कर, भागती मोटरबोट के नज़दीक बनती मिटती लहरों को छूने की कोशिश करने लगा-

“कुछ लोग जन्म ही लेते हैं दूसरों के लिए|”

“जैसे?”

“जैसे महत्मा बुद्ध, जैसे ईसा मसीह, जैसे फूफी|”

ताहिरा गद्गद् हो गई-“हाँ....., मेरी फूफी सचमुच मसीहा हैं| उनकी अपनी ज़िन्दगी में तो मात्र रेत के ढूह हैं जहाँ न हरियाली उगती है, न पानी ठहरता है, न ज़िन्दगी मुस्कुराती है|”

दोनों उदास हो गए थे| थोड़ी देर बाद मोटरबोट नागार्जुन गाँव के किनारे आ लगी| वहाँ से नागार्जुन म्यूज़ियम तक का रास्ता सड़क से नहीं बल्कि एक लम्बे उद्यान से होकर जाता था| उद्यान में तरह-तरह के पेड़-पौधे, कैक्टस लगे थे| विशाल उद्यान का ज़र्रा पुष्पित-पल्लवित था| वे ढलान से उतरते हुए मिट्टी भरे रास्ते को पार करने लगे| कहीं-कहीं इक्का-दुक्का शरबत के ठेले और पॉपकॉर्न तथा तले पापड़ों की लम्बी टोकरियाँ सम्हाले लड़के खड़े थे| म्यूज़ियम के नज़दीक पहुँचते ही ताहिरा हैरत से भर उठी| बर्फी बराबर ईंटों से बना म्यूज़ियम का मॉडल अद्भुत कारीगरी और सौन्दर्य का अकूत भंडार था| वह देर तक ठिठकी नागार्जुन के समय का साकार रूप देखती रही| नागार्जुन ने अमृत की खोज की थी| वह बहुत विद्वान और जिज्ञासु व्यक्ति था| उसके कार्यों पर आधारित म्यूज़ियम में शिव, पार्वती, बुद्ध की भी मूर्तियाँ थीं.....विशाल म्यूज़ियम के दोनों ओर हरी-भरी घास के लॉन थे जिन पर घूमने आये परिवारों के बच्चे खेल रहे थे| किलकारी मारते बच्चों को देर तक ताहिरा देखती रही.....देखती रही और कल्पनाएँ साकार करती रही| किन्तु किसी भी कल्पित दृश्य में एक भी बच्चा शाहजी की उँगली थामे नज़र नहीं आया| नज़र आया तो बस फ़ैयाज़ और उनके बीच में दोनों की उँगली पकड़े एक गोरा, गदबदा शिशु.....| उसने विचारों को झटका दिया| यह कैसी कल्पना थी? क्या शाहजी का वजूद, फ़ैयाज़ के वजूद के आगे डगमगा रहा था? क्या वह उनके साथ हुए निक़ाह की पाकीज़गी पर सवाल खड़े करना चाहती है? आख़िर इस कल्पना का सबब क्या था?

और वे लौट पड़े| शाम घिर आई थी| आकाश में तारों का काफ़िला टिमकने लगा था| पूर्व दिशा आलोक से भरने लगी थी, शायद चाँद उगने वाला हो| आज जुमा है, फूफी इस वक़्त मग़रिब की नमाज़ की तैयारी में होंगी| लौटते हुए दोनों ने फूफी के लिए काली मिर्च की भुजिया ख़रीदी| बारीक सेंव की यह भुजिया फूफी को चाय के संग बहुत पसंद है| कुछ फल खरीदे और हैदराबादी पान के बीड़े बँधवाये|

टैक्सी का बिल और टिप अदा कर, दोनों होटल के कमरे में आ गए| २०७ नम्बर का कमरा ताहिरा का था और २०८ फैयाज़ का| फैयाज़ अपने कमरे में फ्रेश होने चला गया| फूफी ने अकेली दाख़िल होती ताहिरा की ओर नज़रें उठाईं|

“बड़ा मज़ा आया फूफी, हमने लगभग आधा हैदराबाद तो घूम ही लिया| मोटर बोट से नागार्जुन म्यूज़ियम भी देख आये|”

ताहिरा आते ही पलंग पर सीधी लेट गई|

“अच्छा किया, तुम खुश तो हो न ताहिरा?”

“बहुत” वह मानो नशे में बोली|

फूफी मुस्कुरायी| फिर उन्होंने अलग-अलग पैकिटों में बँधे मोती दिखाये| शाहजी की दोनों बेग़मों के अलग-अलग पैकेट, असली बेशकीमती मोती|

“फूफी, आपने अम्मीजान के लिए मोती नहीं लिए?”

“लिए हैं, लिए हैं, उन्हें भूलूँगी भला? ले देख, चार चूड़ियाँ और एक गले की लड़ तो बन ही जायेगी इनसे|” फूफी ने एक छोटा पैकेट उसे दिखाया| ताहिरा ने सब पैकेट खोल-खोल कर देखे, गिने और तुनककर बैठ गई-

“अब क्या हुआ?”

“होगा क्या? फूफी की कंजूसी पर रोने को मन कर रहा है|”

“हाय, भूल गई क्या मैं किसी के लिए मोती ख़रीदना?”

वह तुनक कर खड़ी हो गई-“जी हाँ, भूली हैं आप? और जान-बूझकर भूली हैं? कब तक भूलेंगी फूफी, अपने आप को? और आख़िर क्यों?” फूफी उदास हो गईं| ताहिरा का मक़सद उनके दिल के तार छेड़ना न था, पर जो इस वक़्त खुद मुहब्बत के लबालब सरोवर में आकंठ डूबी है उसे फूफी का, उनका यह रवैया क्योंकर पसंद आयेगा? मतवाली, मदिर हवा का धर्म ही होता है हर मुँदी कली को खिलाना, मादक स्पर्श देना| फूल के खिलने में ही हवा की सुवास जो निर्भर है| आख़िर पेड़ के पत्ते, शाखाएँ और फूल ही तो हवा के चलने का आभास देते हैं| फूफी कुछ कह न पाईं| उन्होंने सभी पैकिटों को प्लास्टिक की बड़ी थैली में डाला और अटैची में रख दी|

फैयाज़ तरोताज़ा होकर आ गया था| फूफी उससे देर तक बतियाती रहीं| तब तक ताहिरा ने दिन भर की थकान शॉवर लेकर उतारी| उसके आरक्त गाल मानो फैयाज़ की नज़दीकी की गवाही दे रहे थे| फूफी ने नज़रें उसके चेहरे से हटा लीं-‘क़यामत है यह लड़की तो|’ मन ही मन सोचती वे उठीं-‘चलो, नीचे हॉल में चलकर, डिनर लेते हैं| जल्दी सो जायेंगे तो कल गोलकुंडा के किले को देखने में मज़ा आयेगा| मैंने टैक्सी तय कर ली है.....वह चर्च भी घुमायेगा देखने लायक चर्च है यहाँ का|"

हॉल में धीमा आलोक था और ऑर्केस्ट्रा पर अफ़्रीकी धुन धीमी-धीमी बज रही थी| पूरे हॉल की सजावट गाढ़े कत्थई फर्नीचर, जाली की आदमकद दीवारों से की गई थी, जो सरकाई जा सकती थीं| हर एक जाली के पीछे हरे भरे पौधों के गमले थे जिनकी हरियाली जाली से फूटी पड़ रही थी| पूरा माहौल रूमानी था| फूफी अपने सामने बैठे ताहिरा और फैयाज़ को तब तक देखती रहीं जब तक ऑर्डर लेने बैरा नहीं आ गया| फ़ैयाज़ ने मटन कोरमा और बिरयानी मँगवाई लेकिन पहले वेजीटेबल सूप| काश, ताहिरा का शौहर होता फ़ैयाज़! क्या खूब जोड़ी जमती दोनों की| सूप आ गया.....ओह, क्या-क्या सोच डालती हैं रन्नी बी|.....अब, जो नहीं हो सकता उसके लिए मन तड़पता है| पहले जो हो सकता था उसके दिल गवाही नहीं देता था| कैसा विरोधाभास है वक़्त का, वक़्त क्यों किसी का नहीं होता?.....वक़्त समय.....-मैं समय-चक्र हूँ और समस्त घटनाएँ मेरे आसपास घटित होती रहती हैं| सदियाँ गुज़र जाती हैं, साम्राज्य समाप्त हो जाते हैं, मैं कभी नहीं रुकता| रंग-बिरंगे चक्र-अर्धचक्र में समाहित होती धरती, आकाश, चंद्र, तारे, सौरमंडल| श्लोक गूँजता है-कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.....|

हाँ, वे भी फल की चिंता नहीं करेंगी, कर्म करेंगी| कर्म में हविश सामग्री बने वे.....क्षण-क्षण होम होती रहें वे|

“फूफीजान, सूप ठंडा हो रहा है|” फैयाज़ के टोकने पर फूफी सम्हली, बोलीं-“बहुत गरम पिया नहीं जाता, .....मुँह जल जाता है|” और चम्मच से घूँट भरकर बोलीं-“अच्छा है, वाह|”

डिनर समाप्त कर, सौंफ़ चबाते जब वे तीनों रिसेप्शन की ओर जाने लगे तो होटल का एक बॉय अदब से उनके सामने झुका-“मैडम, पर्ल एन्ड संदल एग्ज़िवीशन लगी है बाजू के रूम में, .....देखना चाहेंगी?” फूफी निंदासी हो रही थीं-“ज़रूर देखेंगे, लेकिन कल, आज हम थक हुए हैं, क्यों ताहिरा” ताहिरा ने हामी में सिर हिलाते हुए कहा-“जी, फूफीजान|”

फ़ैयाज़ अपने कमरे में चला गया| वे दोनों अपने कमरे में आ गईं| कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेटते हुए फूफ़ी बोलीं-“लाइट बुझे दो ताहिरा, बड़ी ज़ोर की नींद आ रही है|”

धीरे-धीरे रात गुज़रने लगी| होटल सन्नाटे की गिरफ़्त में था| ताहिरा आँखें मूँदे सोने का बहाना करती, लेटी रही| जब तय जाना कि फूफी सो गई होंगी तो आहिस्ता से उठी| सिर पर दुपट्टा लिया और धीरे से दरवाज़ा खोला| पुनः फूफी की ओर नज़रें डालकर आहट ली| फूफी के सोने का पक्का यकीन होते ही वह दबे पाँव २०८ नम्बर की ओर बढ़ ली| फ़ैयाज़ का दरवाज़ा खुला हुआ था| अन्दर होते ही लैच लग गया, अभी पलटी ही थी कि फ़ैयाज़ ने उसे बाँहों में थाम लिया और फुसफुसाया-“इतनी देर क्यों की आने में?”

“क्या करूँ.....फूफी के सोने का इंतज़ार तो करना ही पड़ा न|”

“ओह ताहिरा, यहाँ हाथ रखो|”

उसने ताहिरा का हाथ अपने दिल पर रखा जो तेज़ी से धड़क रहा था-“ताहिरा मैं पागल हो जाऊँगा| मैं सिर्फ तुमसे मोहब्बत करता हूँ, मुझ पर सिर्फ़ तुम्हारा हक़ है और कोई छू भी नहीं सकता” कहते-कहते ताहिरा के पंखुड़ी से मुलायम होंठों पर अपने होंठ रख दिए| ताहिरा ने आँखें मूँद लीं और बुदबुदाई-“मैं भी तो तुम्हारी हूँ.....बस तुम्हारी|” और जवाब में उसने भी फ़ैयाज़ को चूम लिया और सिहर उठी| फिर तो कई चुम्बन कमरे की फ़िज़ा में तैरने लगे| फ़ैयाज़ ने ताहिरा के चिकने, संगमरमरी और उघड़े हुए कंधों पर अपना सिर टिका लिया| ताहिरा ने उसके घने बालों में अपनी नाक रखकर खुशबू ली| एक जवान और मोहब्बत से भरी खुशबू| धीरे-धीरे ताहिरा भी बेकाबू होने लगी| फ़ैयाज़ के हाथों की गरमी से ताहिरा का शमा-सा बदन पिघलने लगा| मानो इतने अरसे से जो कुछ जमा था, आज पिघल जाने को बेताब था| मानो सदियाँ ठिठक गईं, पहर थम गये| मानो अब तक अक्षता थी ताहिरा, आज फ़ैयाज़ ने मोहब्बत का धर्म निबाहा| ताहिरा सम्पूर्ण हो गई| शायद यही क्षितिज का रहस्य है, धरती, आकाश का एक होना| ताहिरा और फ़ैयाज़ एक दूसरे में समा गए.....बूँद-बूँद तृप्त होकर दोनों एक दूसरे की बाँहों में ही सो गए| कमरे में बस घड़ी की टिक-टिक के साथ दोनों के दिलों की धड़कनों की आवाज़ थी| बहुत देर बाद दोनों ने जाना कि उनके गले प्यास से चिपक-से गए हैं| फ़ैयाज़ उठा, पहले ताहिरा को पानी दिया फिर उसी ग्लास में खुद भी पी लिया| मद्धम रोशनी में ताहिरा का बदन संगमरमर-सा दिखाई दे रहा था| फ़ैयाज़ ने उसके गले से लेकर पैरों तक हाथ फेरा-“तुम हूर हो ताहिरा और मैं सबसे नसीबदार इंसान|” ताहिरा शरमाकर उसके गले से लग गई| ताहिरा ने अपने कपड़े पहने और एक बार फिर फ़ैयाज़ के आलिंगन में बँधते हुए बोलीं-“आज मैंने संसार की मोहकता को जाना|”

“फिर दार्शनिक, मेरी मलिका थोड़ा सो जाओ जाकर| दिन भर घूमना है|”

ताहिरा खिलखिलाती हुई कमरे से बाहर हो ली| अपने कमरे का दरवाज़ा धीरे से खोला, बिना आहट किए बाथरूम की ओर बढ़ गई| उसने आईने में स्वयं को निहारा| गालों पर प्यार का आलता फैला था, आँखों में खुमारी, अंग-अंग में हल्की-सी टीस| आज वह सुहागन हो गई| मानो दस महीने से चले आ रहे नाटक का आज पटाक्षेप हुआ है| आज वह फ़ैयाज़ की दुलहिन है, और कुछ नहीं सूझ रहा, सब कुछ भूला देना चाहती है वह| ‘हे मेरे परवरदिगार, तेरा लाख-लाख शुकर है जो तूने मुझे ये घड़ियाँ बख़्शीं जब मैंने अपने प्रियतम को पा लिया| मैं इन घड़ियों पर सौ जान से निछावर हूँ|’

ताहिरा अपने बिस्तर पर लेट ही रही थी कि फूफी ने करवट बदली-“अरे, सुबह हो गई क्या? ताहिरा, नींद ठीक से आई न बेटी?”

ताहिरा ने धड़कता दिल थामा-“आप तो खूब सोईं फूफी, करवट भी न बदली एक बार भी|”

“हाँ बेटी, आज जमकर नींद आई|” और मुस्कुराकर अँगड़ाई लेती हुई उठ गईं| फ़ज़र की नमाज़ का वक़्त हो रहा था| फूफी ने ब्रश किया, गुसल किया, चादर को तहाकर जानमाज़ बनाया और घुटने टेक दिए| मन ही मन बुदबुदाईं-‘अल्लाह, इस वक़्त की जिम्मेदार मैं हूँ, जो सज़ा दोगे मंजूर है पर मेरी बच्ची को बख़्शना| उसने कोई कसूर नहीं किया, बढ़ावा मैंने दिया है, मैं कसूरवार हूँ|’

नमाज के बाद उन्होंने तस्बीह के दानों की माला पलकों से छुआई और माला जपने लगीं|

घंटे भर बाद ताहिरा उठी-“फूफी, चाय|” फूफी ने वेटर को बुलाने के लिए घंटी का बटन दबाया-“तुम झटपट तैयार हो जाओ| दस बजे तक टैक्सी आ जायेगी| तब तक मैं फ़ैयाज़ को उठाती हूँ|”

उन्होंने इन्टरकॉम लगाया| सोते हुए फ़ैयाज़ की उनींदी-सी आवाज़ थी-“आदाब फूफी जान|”

“जीते रहो मेरे बच्चे| उठो, तैयार हो जाओ जल्दी से| नाश्ता मैं यहीं मँगवा रही हूँ| दस बजे टैक्सी आ जायेगी|”

“जी फूफीजान, मैं अभी आया|”

टैक्सी वक़्त पर आ गई| फूफी ने रिसेप्शनिस्ट से पाँच छः बिसलरी वॉटर की बोतलें टैक्सी में रखवाईं और खुद आगे की सीट पर ड्राइवर की बगल में बैठ गईं| फ़ैयाज़ और ताहिरा पीछे बैठे| बैठते ही फ़ैयाज़ ने ताहिरा की ओर देखकर चुम्बन की मुद्रा में होंठ सिकोड़े| ताहिरा ने नज़रों से धमकाया और टैक्सी सड़क पर दौड़ने लगी| क़रीब बीस मिनट के सफ़र के बाद टैक्सी जहाँ रुकी वह रोमन कला का मशहूर चर्च था| बड़ी सधी हुई भीड़, और ख़ामोशी| ईसा मसीह का इतिहास पन्ना दर पन्ना उनके सामने खुलने लगा| सूली पर टँगे त्याग और बलिदान की मूर्ति ईसा के कदमों पर एक बारग़ी सिर नवा लेने को मन करता है| भारी मन से वे बाहर निकले और गोलकुंडा चल पड़े| शहर से बाहर, सड़क के दोनों ओर घने पेड़ और चट्टानें थीं| ऐसा लग रहा था मानो सदियाँ पीछे खिसक गई हैं और वो ज़माना आ गया है जब आबादी कम थी| जंगल और पहाड़ थे और राजाओं, नवाबों का युग था| ताहिरा शाहज़ादी थी, फ़ैयाज़ शाहज़ादा दोनों शिकार पर जा रहे हैं, कुलाँचे भरता हिरन सामने है, निशाना साधा ही है कि “कुछ खाओगे?”

तंद्रा टूटी| फूफी गोद में नमकीन के पैकेटों से भरी प्लास्टिक की थैली रखे बैठी थीं|

“हाँ, भूख तो लग आई|” फ़ैयाज़ ने कहा| टैक्सी सड़क के किनारे रोक दी गई थी| आम के पेड़ों पर तोते बैठे थे| फ़िज़ा में जंगल का तीखापन महक रहा था| सब नमकीन, फल आदि खाने लगे| फूफी ने ड्राइवर को भी खिलाया| तीन बजे तक वे किले में पहुँच गए| पत्थरों से बना किला किसी समय समृद्धि का प्रतीक था| कोहिनूर हीरा यहीं से मिला था| अब यह बीते समय का मूक साक्षी है| दीवारों की संधियों से घास उग आई है| कहीं ढही दीवारें है, भुरभुरी मिट्टी है, कहीं सीढ़ियाँ-बुर्ज| प्रवेशद्वार के एक विशेष खम्भे को थपथपाओ तो तबले की ध्वनि गूँजती है| वहीँ खड़े होकर ताली बजाओ तो किले के परली तरफ के बुर्ज में उसकी गूँज सुनाई देती है| शाम को साउंड एण्ड लाइट शो था| वे टिकट लेकर उजड़े किले के प्रांगण में बैठ गए और लाल, पीली, हरी, दूधिया लाइट के साथ ओमपुरी के स्वर में गोलकुंडा का इतिहास साकार होने लगा| पायल की आवाज़, जूतों की चरमराहट, फौज के भागने की आवाज़, पानी का छलछल, बिजली की कड़कड़ाहट, नदी में बाढ़, घोड़े की टापें, हँसी, खिलखिलाहट और इन आवाज़ों के घटनास्थलों पर रोशनी का प्रभाव| ताहिरा ने घबराकर फ़ैयाज़ का हाथ थाम लिया| सचमुच बड़ा जीवन्त और पुरअसर था वह शो|

जब वे होटल में लौटे तो शाहजी का मैसेज था| फूफी ने फौरन फोन मिलाया| शाहजी ने लौटने की तारीख़ पूछी| “जी, अभी हफ़्ता भर और लग जायेगा| रोज़ सुबह झाड़-फूँक हो रही है| ताबीज बनने में तीन चार दिन लगेंगे|.....जी अच्छा| लो ताहिरा, बात करो|”

ताहिरा घबरा-सी गई| वह तो फ़ैयाज़ की मोहब्बत में शाहजी को भूल-सी गई थी|

“कैसी हो छोटी बेगम?” शाहजी के स्वर उसके कानों में गूँजे| “भई, कब आओगी? सूनी लगती है कोठी आपके बिना.....वैसे काम पूरा करके ही लौटना.....कोई तक़लीफ़ हो तो फोन करना|”

“जी अच्छा|” बस इतना ही कह पाई ताहिरा कि लाइन कट गई| ताहिरा ने राहत की साँस ली, उसकी जबान तो मूक हो गई थी|

ताहिरा को फूफी की इस बात पर ज्यादा आश्चर्य हो रहा है| रोज़ सुबह-शाम झाड़-फूँक हो रही है| क्यों कहा फूफी ने ऐसा? दो दिन से फूफी बाबा के पास भी नहीं गईं, आख़िर उनका मक़सद क्या है? क्या सचमुच उसके लिए ताबीज बन रहा है? एक दिन भी तो फूफी उसे बाबा के पास नहीं ले गईं? गोरे बाबा की चौखट से लौटकर क्यों रोई थीं फूफी? क्या कह डाला था बाबा ने उनसे? ज़रूर बाबा ने फूफी का दिल दुखाया है, उल्टा-सीधा कहा है कुछ| वो चाहे बाबा हों या पहुँचे हुए फकीर, अगर सचमुच उनकी बात से फूफी का दिल दुखा है तो वह कभी बाबा को माफ़ नहीं करेगी, कभी उनका दीदार नहीं करेगी| उसके लिए फूफी से बढ़कर कुछ नहीं, कोई नहीं|

कमरे में लौटकर उसने फूफी की गोद में सिर झुका दिया-“फूफीजान, बताइए, आप आठ-दस दिन क्यों रुकना चाहती हैं? मेरी झाड़-फूँक तो नहीं हो रही, फिर आपने शाहजी से.....”

फूफी ने ताहिरा के होंठों पर हथेली रख दी-“वह सब तो शाहजी को यूँ ही बताया था| तुम सिकन्दराबाद नहीं घूमोगी? कितना कुछ है हैदराबाद, सिकन्दराबाद में घूमने का| ज़िन्दगी में पहली बार तो घूमने निकली हो और लौटने की इतनी जल्दी? फिर ताबीज बन रहा है तुम्हारा, वक़्त लगेगा उसमें|” कहकर उन्होंने ताहिरा से नज़रें चुरानी चाहीं पर दिल की कैफियत चेहरे पर उभर आई| वे ताहिरा का सिर सहलाती रहीं-“लौटकर तो फिर कोठी की सिमटी दुनिया में ही जीना है तुम्हें| कुछ दिन अपने लिए जियो बेटी, वक़्त बार-बार नहीं मिलता|”

और रन्नी को शिद्दत से यूसुफ याद आ गए| यूसुफ़ ने गहराई से उनके दिल में जगह बना ली है जिसे शाहबाज़ भी डिगा नहीं पाया| रोज़ सुबह होती है, रोज़ शाम ढलती है| साँस-साँस जीती उम्र सरकती जा रही है पर यूसुफ़ जहाँ के तहाँ हैं, उसी तरह| उनके दिल, होशोहवास पर कब्ज़ा किए हुए| आँखों के आगे उनका चेहरा ज़रा भी धूमिल नहीं हुआ वरना ऐसा हो जाता है, वक़्त गुज़र जाने पर यादें और चेहरे धुँधले पड़ जाते हैं पर यूसुफ़ को लेकर ऐसा नहीं हुआ| वे आज भी उनके दिल में ज़िन्दा है|

रात फिर ताहिरा दबे पाँव फ़ैयाज़ के कमरे में चली गई| वे आहट लेती रहीं| खिड़की से झाँकते टुकड़ा भर आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे| उन्होंने आँखें मूँदी तो नींद आ गई| कितना फ़र्क़ है कल की रात और आज की रात में| कल उन्हें ताहिरा के फ़ैयाज़ के कमरे में जाने का इन्तज़ार था और आज इत्मीनान है| मुँदी पलकों पर एक संतुष्टि पसरी है| जो सोचकर आई थीं, बिना कुछ कहे-सुने अपने आप हो रहा है वह सब| खुदा की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता, शायद इसी में उनकी मर्ज़ी हो| कौन जानता है उसकी ख़ुदाई को? उसका किया सुनाई नहीं देता, दिखाई देता है|

फूफी की नींद खुली तो उस टुकड़ा भर आसमान में शुक्रतारा चमक रहा था, ताहिरा आकर लेट गई थी, सुबह के चार बज चुके थे| फूफी ने करवट बदलकर सोने की कोशिश की पर बेकार| बाबा के लफ़्ज़ कानों में गूँजने लगे-‘आपके दिल में जो है वह गुनाह है| आप पाक़ जगह पर बैठकर पाप सोचती हैं|’ पाक जगह! अल्लाह का बनाया कोई ज़र्रा नापाक़ भी है क्या? यह निर्णय लेने वाला इंसान कौन होता है कि कौन-सी जगह पाक़ है कौन-सी नापाक़? ये सब इंसान के अपने हित में बनाये क़ानून हैं जिन्हें मज़हब की संज्ञा दे दी गई| क्या कोई पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर को नाजायज औलाद कहेगा? क्या कोई वेदव्यास के कर्म को गुनाह कहेगा? क्या कोई सत्यवती के विचार को नापाक़ कहेगा? नहीं, दूसरों की भलाई के लिए किया गया काम कभी नाजायज़ नहीं होता, ग़ैरमज़हबी नहीं होता| तसल्ली से उठीं और नमाज़ की तैयारी करने लगीं|

फूफी ने हैदराबाद, सिकन्दराबाद घुमाने की पूरी ज़िम्मेवारी फैयाज़ को दे रखी थी| एक दिन सालारजंग म्यूज़ियम तो दूसरे दिन कुतुबशाही, मक्का मस्जिद, तीसरे दिन बिरला मंदिर, बिरला प्लेनेटेरियम, बाग़, बगीचे, बाज़ार, लेक, बोटिंग और दस दिन गुज़र गए| फ़ैयाज़ और ताहिरा एक दूसरे में इतना खो गए थे कि उन्हें मौजूदा ज़िन्दगी ही असल ज़िन्दगी नज़र आने लगी थी| मुहब्बत से भरे पाक़ दिल.....वे क्या जाने कि वक़्त कितना क्रूर है| आज उनके मिलन की अंतिम रात है और कल वापिसी की टिकट| रात का पहला प्रहर, ताहिरा फुसफुसाई-“हम कल चले जायेंगे फैयाज़, फिर न जाने कब मिलना हो?”

“ख़ुदा पर विश्वास रखो ताहिरा, हम जल्दी ही मिलेंगे और मिलते रहेंगे|” फैयाज़ ताहिरा के बाल सहला रहा था|

“यह सब कैसे हुआ फ़ैयाज़? मैं शाहजी की ब्याहता, क्या जवाब दूँगी उन्हें? फ़ैयाज़, मुझसे गुनाह हुआ, खुदा मुझे कभी माफ नहीं करेगा| ब्याहता के शरीर पर तो केवल शौहर का हक़ होता है|”

फ़ैयाज़ ने उसका चेहरा दोनों हथेलियों में भरकर अपनी ओर घुमाया-“और मेरा? मेरा हक़ नहीं है क्या तुम पर? जानती हो ताहिरा, शौहर से प्रियतम का ओहदा बड़ा होता है| शाहजी से पहले तुम मेरी थी| मैंने तुमसे मोहब्बत की है जो इन्सान के लिए खुदा की दी हुई सबसे महान नियामत है| मोहब्बत में ही खुदा का वास है और जहाँ खुदा है, वहाँ पाप और गुनाह जैसे लफ़्ज़ बेमानी हैं|”

ताहिरा फिर भी विचलित थी-“फ़ैयाज़, तुम क्या ऐसे ही रहोगे? देखो, शाहजी ने तीन-तीन शादियाँ कीं|” “उन्होंने मोहब्बत जो नहीं की| ताहिरा, इतना तय मानो कि फैयाज़ न कभी दूसरी औरत को हाथ लगायेगा, न शादी करेगा| आज खुदा को हाज़िर नाज़िर जानकर तुमसे ये वादा रहा|”

ताहिरा की आँखें डबडबा आईं, वह फ़ैयाज़ से कसकर लिपट गई|

ताहिरा कमरे में लौटी और आते ही फूफी से लिपट कर रो पड़ी|

“क्या हुआ.....ताहिरा.....क्या हुआ बेटी?” फूफी चौंककर उठ बैठी थी और उसे रोता देख ताज्जुब से भर गई थीं|

“फूफी, मुझसे गुनाह हुआ| मैं.....मैं फूफी फ़ैयाज़ के साथ.....|” फूफी ने उसके होंठों पर हथेली रख दी-“तुमने कोई गुनाह नहीं किया| तुमने वह किया जिसमें अल्लाह का हुक़्म था| मन से सब बातें निकाल दो| गुनाह तो वह है जिससे किसी के मन को चोट पहुँचे, किसी का दिल टूटे, किसी का क़त्ल हो, किसी की मिल्कियत को छीना गया हो| तुमने इनमें से कुछ नहीं किया तो गुनाह कैसा?”

अब चौंकने की बारी ताहिरा की थी| वह फूफी के चेहरे के आसपास एक नूर देख रही थी| अचानक उसकी हथेलियाँ इबादत के लिए उठीं| यह फूफी के रूप में बैठा कोई खुदा का फ़रिश्ता है, कोई मसीहा| यह मामूली इंसान नहीं.....विवेक, त्याग और उपकार का अवतार है यह शख़्सियत| वह अदब से उठी और फूफी की कदमबोसी करने लगी| उसकी आँखों से दो बूँद आँसू टपके और फूफी के क़दम जज़्बात और इबादत से तरबतर हो गए|

सामान बँध चुका था| फूफी ने बाज़ार से लाकर गंडे, ताबीज़ ताहिरा के गले और बाँहों में बाँध दिए थे| गोरे बाबा की बैठक पर वे दुबारा नहीं गईं|

“तो जाने की तैयारी हो गई फूफी जान?” फ़ैयाज़ ने अन्दर दाख़िल होते हुए पुछा|

“आओ बेटा, बैठो| देखो, हम तुम्हें कुछ देना चाहते हैं, इंकार न करना| असल में हम देने वाले कौन होते हैं, सब अल्लाह की मर्ज़ी से होता है, उनका दिया है सब|” कहते हुए फूफी उठीं, पर्स खोला और एक चेक उसकी ओर बढ़ाया “यह तुम्हारी बहन के निक़ाह के लिए हमारी ओर से तोहफ़ा|”

फ़ैयाज़ ने हाथ बढ़ाकर चेक लिया और रक़म देखकर चौंक पड़ा-“पच्चीस हज़ार!! फूफीजान इतना?”

“रख लो चेक बेटे, कुछ मत सोचना इस बारे में| तुम भी तो मेरे बेटे जैसे हो| ख़ुदा ने मुझे बेटे को जन्म नहीं देने दिया पर तुम्हारे रूप में बेटा दे दिया|”

“फूफीजान! आप सचमुच महान हैं|” और फ़ैयाज़ फूफी के आलिंगन में बँध गया| फूफी ने उसके गाल, माथा चूमा और उसकी बलिष्ठ बाँहों में सचमुच माँ के समान समा गई| ताहिरा की आँखें भर आईं| यह मिलन अपूर्व था.....जिसकी कोई मिसाल नहीं| फ़ैयाज़ सचमुच पाक़ दिल का नेक इंसान था.....हालात ने उन्हें झुका दिया था वरना ताहिरा से फैयाज़ का निक़ाह.....

डोर बेल बजी, वेटर था| फूफी ने हल्के-फुल्के नाश्ते की जगह ब्रंच मँगवा लिया था| तीन घंटे में वे घर पहुँच जायेंगी| फ़्लाइट को अभी दो घंटे बाकी हैं, इतना खाना क़ाफी है|

ब्रंच लेकर, फूफी ने रिसेप्शन में आकर होटल का बिल चुकता किया, टैक्सी आ चुकी थी| फ़ैयाज़ ने ताहिरा का हाथ पकड़ा और एकांत कमरे में उसका अंतिम चुम्बन लिया-“अलविदा, मेरी ताहिरा, ख़ुदा ने चाहा तो हम दोबारा मिलेंगे|”

“अल्लाह! इस सोच को बरकत दे| फैयाज़, यह मेरा शरीर जा रहा है शाहजी के पास| मेरा दिल और दिल की हर धड़कन तुम्हारे पास है, तुम्हारी है|”

“चलो ताहिरा, फ़ैयाज़.....सामान लद गया|”

फूफी ने आवाज़ दी| फ़ैयाज़ का एक बैग भर था, जिसे वह हवाई अड्डे से लौटते हुए लेता जायेगा क्योंकि उसका कमरा इस होटल के नज़दीक ही है सो बैग उसने रिसेप्शन में रखवा दिया| फूफी तमाम वेटर्स को टिप देकर टैक्सी में आ बैठीं|

टैक्सी एयरपोर्ट जाने के लिए होटल का पोर्च पार करने लगी कि ताहिरा ने देखा, गमलों के पास, सीढ़ियों पर खड़े वेटर्स उन्हें सलामी ठोक रहे हैं| वह मुस्कुराई और उसे आठवीं कक्षा में पढ़ी संस्कृत की सूक्ति याद आई-‘धननैव बलम् लोके|’

हवाई अड्डे की सभी औपचारिकताएँ पूरी करके फूफी, ताहिरा और फ़ैयाज़ के साथ कुर्सी पर बैठी ही थीं और कोल्डड्रिंक का ऑर्डर दिया ही था कि फ़्लाइट रेडी होने की घोषणा हुई|

“अच्छा फैयाज, हम कुछ दिनों बाद भाईजान के पास जायेंगे, अगर आ सको तो मिलना हो जाये|”

“मुश्किल है फूफीजान, ताहिरा के निक़ाह के बाद मैं वह शहर हमेशा के लिए छोड़ चुका हूँ| वालदेन गाँव में हैं, तो वहाँ जाने का कोई सबब भी तो नहीं.....|”

फूफी ने ठंडी आह भरी-हकीक़त में उनसे ज़ुल्म तो हुआ है इन बच्चों पर| वरना.....|

“फ़ैयाज, अलविदा.....|”

“अलविदा ताहिरा, अपने को सम्हालना| फूफीजान खुदा हाफ़िज, मेरी गुस्ताख़ियों को माफ़ करना|”

फ़ैयाज़ की नज़रें झुकी थीं और आवाज़ भारी| फूफी की आँखें भी छलछला आईं.....“मेरा बेटा कोई गुस्ताख़ी नहीं कर सकता|” और उन्होंने उसका सिर चूमते हुए उसे गले से लगा लिया| ताहिरा, फूफी के लिहाज़ में संकोच से भरी, खड़ी रही| फ़ैयाज़ ने बढ़कर हाथ मिलाया| दोनों हवाई जहाज़ की ओर बढ़ गईं| जहाज की सीढ़ियों तक तो फ़ैयाज उन्हें देख पाया, हाथ भी मिलाया लेकिन फ़ौरन ही चेहरा घुमाकर कुर्सी पर बैठ गया और रुमाल में मुँह छुपाकर फूट-फूटकर रो पड़ा| ऐसा क्यों है दुनिया का दस्तूर कि जिसे चाहो उसके लिए हमेशा आँसू ही बहाना पड़ता है? क्यों मोहब्बत परवान नहीं चढ़ती? और जब तक फ़ैयाज़ अपने दिल पर काबू पाता, हवाई जहाज एक कर्कश आवाज़ के साथ किसी परिन्दे-सा डैने फैलाये आकाश में उड़ रहा था| ताहिरा ने लाख चाहा पर फिर फ़ैयाज़ की सूरत नज़र नहीं आई| उसने आँखें मूँद लीं और आँसुओं को अपने दुपट्टे में समेटने लगी|