Nana Nani Stories (Part - 3) in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | नाना नानी की कहानियाँ (भाग - ३)

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नाना नानी की कहानियाँ (भाग - ३)


नाना-नानी

की

कहानियाँ

भाग - ३

-ः लेखक :-

वर्षा जयरथ

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अनुक्रमणिका

•नाग देवता

•भाट और राक्षस

•बहुओं की शिक्षा

•राक्षसी की कथा

•बाणासुर की मृत्यु

•चमत्कारी पथ्थर

•बुराई छिपती नहीं

•खोपडी की करामात

•चरित्र की शक्ति

१ नाग देवता

बहुत समय पहले की बात है कि किन्नौर जिले में बरूआ नाम का एक गाँव था। बरूआ गाँव में पानी की बहुत कमी थी। गाँव से काफी दूर एख नदी बहती थी। लोगों का वहीं से पानी लाना पड़ता था। उसी गाँव के एक युवक के साथ णिग्मापोती ना की एक लड़की का विवाह धूमधाम से सम्प्पन्न हुआ। उसके मायके में पानी, लकड़ी और घास किसी भी चीज की कोई कमी न थी। पर विवाह के पश्चात्‌ ससुराल में जब उसे दूर नदी से पानी लाना पड़ता तो उसे बड़ा कष्ट होता था वह जब भी ससुराल के मायके जाती तो अपने पिता को बताती कि बरूआ गाँव में पानी की बहुत दिककत है। अतः दूर नदी से उसे पानी लाना पड़ता है, जो उसको बडा़ कष्ट दायक लगता है। जब पिता को उसके दुख के बारे में पता चला तो एक बार जब वह मायके से ससुराल जा रही थी, उसके पिता ने उसे एक टोकरी दी और कहा कि तुम इस टोकरी को रास्ते में मत खोलना। जब तुम ससुराल पहुँच जाओगी, तब धूप दिखाकर इसे खोलना। ऐसा करने से तुम्हारे घर में ही पानी निकल आयेगा। और तुम्हें पानी लेने दूर नदी पर नहीं जाना पडे़गा। पर इस बात का विशेष ध्यान रखना कि टोकरी रास्ते में मत खोलना घर पहूँचकर ही इसे खोलना।

मानव स्वभाव होता है कि जिस काम को उसे करने के लिए मना किया जाता है, उसके मन में उसके प्रति उत्सुकता के भाव तीव्र हो जाते हैं। णिग्मापोती जब आधे रास्त में पहुँची तो उसने सोचा कि मेरे पिता ने इस टोकी में एसा क्या रखा है? जरा देखूँ तो सही। उत्सुकतावश उसने जैसे ही टोकरी का ढककन खोला, उसमें से एख साँ का बच्चा निकला। बाहर निकलते ही वह जमीन में घुस गया। तुरंत ही वहाँ पानी की एक धारा निकल आयी। णिग्मापोती के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सायंकाल को जब वह घर पहुँची तो उसने धूपबत्ती जलाकर टोकरी की पूजा की और फिर उसे खोला। उसमें से फिर एक साँप का बच्चा निकला और उसके निचले कमरे में चला गया। दूसरे दिन णिग्मापोती क्या देखती है कि उस कमरे में पानी का स्त्रोत फूट पडा़ है। उसकी खुशी का पारावार न रहा। अब उसे पानी लाने के लिए दूर नदी पर नहीं जाना पड़ता था। उसी गाँव में एक बुढिंया भी रहती थी। णिग्मापोती प्रतिदिन उसी के साथ पानी लाने नदी किनारे जाती थी। जब बहुत दिनों तक वह उसके साथ नहीं गई तो उसने सोचा कि ऐसी क्या बात हो गई जो वह नहीं आयी, सो वह उसके घर जा पहुँची। वहाँ जाकर उसने देखा कि णिग्मापोती के घर के निचले कमरे में तो पानी का स्त्रोत है। यह देखकर बुढ़िया को को बडी़ ईर्ष्या हुई। उसने णिग्मापोती को उल्टी पट्‌टी पढा़ई और बोली कि घर के अंदर पानी निकलना ठीक नहीं होता है। यहाँ पर एक नाग निकलेना। तुम उसका सिर काट देना। इसके बाद सब ठीक हो जाएगा।

णिग्मापोती अकल की कच्ची थी। उसे बुढ़िया की बात समझ में आ गई। उसे लगा कि बुढ़िया उसका भला चाहती है। वह बुढ़िया की जलन व ईर्ष्या को न समझ सकी। उसने बुढ़िया के कहे अनुसार कमरे का दरवाजा बंद कर दिया। उसे कमरे के दरवाजे से साँप के कई सिर निकले। वह कुल्हाडी़ से इन सिरों को काटती गई। धीरे-धीरे वहाँ इन सिरों का ढेर लग गया। जहाँ पर पानी का स्त्रोत फूटा था, वहाँ तो खून का एक तालाब ही बन गया। उन अनगिनत सिरों ने एक लंबे व बडे़ विशालकाय अजगर का रूप धारण कर लिया और धीरे-धीरे वह वहाँ से आगे जाने लगा। वह जमीन में छिपना चाहता था। उसने छिपने के लिए जमीन मैं, चट्‌टानों के नीचेस, पहाड़ की गुफाओं मे स्थान ढूँढा़, परन्तु उसका विशाल शरीर कहीं भी न समा सका। वहाँ पर देवदार का एक विशाल वृक्ष भी था। अजगर उस वृक्ष से लिपट गया, परन्तु उसकी आधी लम्बाई से ही वह पेड़ भर गया वहाँ से कुछ दूरी पर एक गांव था, जिसका नाम सापनी था। उस गाँव में एक बहुत बडा़ किला था। उस गाँव में और तीसरी को सापनी गाँव में रखवा दो। लोग उनकी पूजा करेंगे और लाभान्वित होंगे। तभी गड़रिये की आँख खुल गई। उसने देवताओं के आदेशानुसार प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम स्नान किया, फिर तीनों मूर्तियों को कच्चे दूध से स्नान करवाया। उनकी धूप-दीप जलाकर पूजा-अर्चना की, फिर वह रौहडू के पेखा नामक गाँव में एक मूर्ति लेकर गया। लोगों को उसने अपने स्वप्न के बारे में बताया और वहीड एक मंदिर में उसने मूर्ति स्थापित कर दी। उसके बाद कन्नोर के बरुआ और सापनी गाँवों में जाकर उसने शेष दो मूर्तियों को भी देवताओं की आज्ञानुसार स्थापित किया। लोग वहाँ उनकी पूजा करने लगे। इन गाँवों में आज भी नाग देवता के मंदिर विद्यमान हैं परंतु इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि वे सोने की मूर्तियाँ उन मंदिरों में अब भी हैं या नहीं।

२ भाट और राक्षस

पुराने समय की बात है। एक गाँव था, उसका नाम धारमोर था। उसी गाँव में कौर भाट नाम का एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ निवास करता था। उस गाँव में ब्राह्मण अधिक थे, उसलिए वह ब्राह्मणों का गाँव कहलाता था। कौर भाट गाँव के लोगों के पशु चराया करता था सुबह-सुबह वह प्रतिदिन लोगों के घरों मे जाता,उनके पशुओं को खोलकर जंगल में ले जाता। पूरे दिन पशु जंगल में चरते , शाम को उन्हें हाँककर वह घर ले आता उसकी रोज की यही दिनचर्या थी। उसकी आधी आयु यही काम करते-करते बीत गई। मेहनताने के रूप में गाँव वाले उसे फसल आने पर पाँच-पाँच मुट्‌ठी अनाज देते थे। उसी अनाज से कौर भाट व उसकी पत्नी की गुजर-बसर होती थी, क्योंकि यही उसकी आमदनी थी। किन्तु यह अन्न दोनों के लिए पर्याप्त नहीं हो पाता था इसलिए उन्हें बडी़ निर्धनता में जीवन बिताना पड़ता था। उन्हें भरपेट भोजन भी नहीं मिल पाता था। दो वकत की रोटी के भी लाले पडें रहेते थे वैसे तो उसके पास पूँजी के नाम पर कुछ पुश्तैनी खेत थे, जो उसके बाप-दादा की जीवन भर की कमाई थे, पर उन खेतों में पत्थर ही पत्थर थे वे बंजर थे। कडी़ मेहनत करने पर भी उनमें कुछ फसल पैदा नहीं हो पाती थी। कई वर्षो से यूँ ही पडे़-पडे़ खेत बिलकुल बंजर हो गए थे।

जब फसल पककर तैयार हो गई तो उसे काटने का मौसम आ गया। लोगों ने फसल काटकर घर पहुँचा दी। अब कौर भाट को मेहनताना देने का भी समय आ गया था। अतः सहने पाँच-पाँच मुट्‌ठी अनाज उसे दे दिया। एक दिन शाम के समय साठी मुट्‌ठी गेहूँ थैली में बाँधकर वह नदी के किनारे एक घराट में पीसने के लिए ले गया। उसने घराट की कूल को खोला, पर घराट चला ही नहीं कौर भाट ने घराट की जाँच-पड़ताल की, उसे कहीं भी कोई कमी न दिखायी दी। उसने फिर घराट चलाने का प्रयास किया, पर घराट चलने का नाम ही नहीं ले रहा था। वह परेशान हो उठी, क्योंकि इससे पहले ऐसा कभी न हुआ था। फिर वह न ीचे वाले कमरें में गया, जहाँ पानी के बल से लकड़ी का चरखा चलता था। जैसे ही उसने उस पर नजर डाली, घराट तुरंत चल पडा़। वह ऊपर आ गया, पर जैसे ही वह ऊपर आया घराट चलना बंद हो गया। वह फिर नीचे गया तो घराट चल पडा़। ऊपर आते फिर बंद हो गया। कौर भाट की समझ में न हीं आ रहा था कि आखिर माजरा क्या है? बहुत देर तक यही क्रम चलता रहा। धीरे-धीरे आधी रात बीत गई। अनाज को पीसना भी जरूरी था, क्योंकि घर में खाने को कुछ भी न था। इस गड़बड़ से कौर भाट तंग आ चुका था। उसने समझ लिया कि कोई भूत-प्रेत उसकी परीक्षा ले रहा है। अब वह बहुत थक भी गया था। क्रोधित होकर उसने अदृश्य व्यकित को ललकारा और कहा कि तुम जो भी हो, सामने आओ, इस तरह छुपकर मुझे परेशान कर रहे हो। यह तो तुम्हारी कायरता है। तुम कोन हो? सामने आओ और अपनी ताकत को आजमाओ।

उसके इतना कहते ही एक विशालकाय राक्षस उसके सामने आकर खडा़ हो गया। जैसे ही कौर भाट ने उसे देखा, उसने बडे़ जोर से एक मुकका उस राक्षस की छाती पर मारा। कौर भाट के मुकका। मारते ही वह राक्षस जमीन पर गिर पडा़ और पीडा़ क कारण जोर-जोर से दहाड़ने लगा। उसके जमीन पर गिरते ही कौर भाट उसकी छाती पर चढ़ गया और बराबर घूँसों से उस राक्षस पर प्रहार करता रहा। राक्षस को बेहद तकलीफ हो रही थी, अंत में राक्षस ने हाथ जोड़कर कहा- “मुझे क्षमा करदो, मेरी जान बख्श दो, इसके बदले में तुम जो भी वरदान मुझसे माँगोगे, वही तुम्हें दूँगा।

उसके ऐसा आश्वासन दे ने पर कौर भाट उसकी छाती से नीचे उतर गया। जब वह घराट के अंदर गया तो उसने देखा कि उन साठ मुट्‌ठी गेहुँ से कई गुना अधिक आटा पिसकर तैयार हो गया था। उसके सामने अब यह समस्या थी कि वह आटे को घर किस प्रकार लेकर जाए। उसने राक्षस से कहा कि इस काम में उसे राक्षस की मदद चाहिए। राक्षस ने सारा आटा फूँक मारकर अपने मुँह में ले लिया। कौर भाट समझा कि राक्षस सारा आटा खा गया है, उसने राक्षस के मुँह पर फिर जोर से घूँसा मारा, घूँसा रखते ही उसने सारा आटा वापिस उगल दिया। फिर वह कौर भाट से बोला-“मुझे मत मारो, मुझे जोभी काम तुम बताओगे मैं करुँगा। यह आट मैं अपने मुँह में रखकर आपके घर पहुँचा देता हूँ। फिर तुम मुझे छोड़ देना। मैं भविष्य में फिर कभी आपके नही सताऊँगा।।

कौर भाट बोला-“तुम्हें अब मेरी नोकरी करनी पडे़गी। तुम्हे मेरा दास बनकर रहना होगा।” राक्षस चुपचाप कहना मान गया। उसने सारा आटा अपने मुँह में डाल लिया और कौर भाट के घर ले जाकर एक कोने में ढेर लगा दिया। राक्षस ने कौर भाट से कहा-“मैं तुम्हारी नौकरी अवश्य करूँगा पर मेरी भी एक शर्त है, तुम कभी भी मुझे खाने को ऐसा भोजन मत देना जिसमें घी पडा़ हो या घी की बास भी उस खाने में आती हो।”

भाट ने राक्षस की बात मान ली। उस दिन के बाद से राक्षस कौर भाट का दास बन गय। अब कौर भाट ने उसे अपने पुश्तैनी खेतों से पत्थर निकालने का काम सौंपा। राक्षस के लिए तो वह चुटकियों का काम था। उसने एक ही रात में सारे खेतों के पत्थर निकालकर दूर फेंक दिए और खेतों में खुदाई करके उन्हें पत्थरों से बिलकुल खाली कर दिया। इतना सब होने के बाद भाट ने कहा-“इन खेतों में धान की रोपाई करनी है परंतु यहाँ पर पानी की व्यवस्था नहीं है।” राक्षस बोला कि घबराने की कोई बात नहीं है। मैं पास की नदी से खेतों तक एक नहर खोद देता हूँ, जिससे पानी खेतों तक पहुँच जाएगा और फसल सूखी नहीं रहेगी दूसरी रात उसने यही काम किया। जब पानी खेंतो तक पहुँच गया तो उसने वहाँ तीसरी रात को धान की रोपाई कर डाली धीरे-धीरे कौर भाट के बंजर पडे़ खेतों मे धान लहलहाने लगे। भाट ने गाँव के लोगों के पशुओ को चराने का काम छोड़ दिया। अब उसके पास अपनी घर-गृहस्थी के कामों की कमी न थी। राक्षस प्रतिदिन रात को आता और उसके ढेर सारे काम निबटा जाता। भाट रोज गाँव के बाहर एक चट्‌टान के नीचे लकडी़ की बडी़ परात में ढेर सारा खाना रख आता। जब रात होती, सब सो जाते तब राक्षस आता, भरपेट खाना खाता और चला जाता।

आसोज का महीना था। एक दिन भाट किसी काम से बाहर चला गया। घर में भाट की पत्नी थी। उस दिन खेंतो में लहलहाते धान की कटाई होनी थी। अतः राक्षस खेतों का धान काटकर घर ले आया। भाट की पत्नी ने जब धान देखा तो बड़ी पसन्न हुई। खुश होकर उसने खूब सारा घी डालकर हलवा बनाया और रोज की तरह ही गाँव के बाहर चट्‌टा के नीचे एक लकडी़ की बड़ी परात में भरकर रख आयी। राक्षस रात को वहाँ आया, उसे बड़ी जोर से भूख लगी थी, लेकीन जैसे ही उसे घी की बास आयी वह तुरंत वहाँ से भाग गया। अगले दिन भाट घर लौटा । उसने अपनी पत्नी से पूछा कि क्या तुम राक्षस को खाना दे आयी थीं, तो पत्नी ने उसे सारी बात बतायी कि कल तो राक्षस सारा धन काटकर ले आया, इसलिए मैने उसके लिए खूब घी डालकर हलवा बनाया था और वही परात मैं डालकर गाँव के बाहर रख आयी। भाट ने जैसे ही यह सुना, उसे बडा़ ही अफसोस हुआ, किन्तु उसकी पत्नी अब गलती कर चुकी थी। अब हो भी क्या सकता था।

दूसरी रात को राक्षस भाट के घर आया और बोला, तुमने शर्त का पालन नहीं किया, उसे तोड़ दिया है। अतः मैं तुम्हारे घर नहीं रह सकता हूँ। किन्तु एक पाप मुझसे भी हुआ है कि मैंने तुम्हारी पत्नी के बनाए हुए भोजन का तिरस्कार किया है, अतः इसे लिए मुझे प्रायश्चित करना होगा प्रायश्चित-स्वरूप मै यज्ञ का आयोजन करूँगा। आप मेरे साथ चलिये और सात दिन तक मेरे घर पर यज्ञ कीजिए। कौर भाट ने राक्षस के यहाँ यज्ञ-हवन व पूजा-पाठ करता रहा। सातवें दिन यज्ञ के अनुष्ठान के पश्चात्‌ राक्षस ने भाट को बढ़िया-बढ़िया व स्वादिष्ट पकवान खिलाये और दक्षिणा-स्वरूप कौई चीज उसकी पोटली में बाँध दी। पर उसने भाट को यह नहीं बताया कि पोटली मैं क्या है? भाट खुशी-खुशी घर चल पडा़। उसे रास्ते मे जिज्ञसा हुई कि आखिर राक्षस ने उसकी पोटली में एसा क्या बांधा है? उसने उत्सुकतावश पोटली खोली तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसमें मांस के बडे़-बडे़ टुकडे थे। भाट ने जब उन्हें देखा तो उसे बडी़ घृणा हुई। उसने पोटली को खोला और उन टुकडों़ को एक चट्‌टान पर फेंक दिया। उस समय खनखनाहट की आवाझ आई, पर भाट ने उस और ध्यान न दिया।

घर पहुँचने पर उसने तुरंग्त स्नान किया और जिस धोती में मांस के टुकडे़ बँधे थे, उसे एक पत्थर पर पछाड़कर धोने लगा। तभी धोती में चिपका हुआ एक मांस का टुकडा़ पत्थर पर गिरा और गिरते ही उसकी आँखे हैरानी से फटी रह गई। भाट ने वह टुकडा़ उठा लिया और भागा-भागा उस स्थान पर पहुँचा जहाँ उसने मांस के दूसरे टुकडो़ं को फेका था। परंतु बहुत खोज की, पर उसे कुछ न मिला। हाँ, जिस चट्‌टान पर उसने वे टुकडे़ फेंक थे चट्‌टान का वह स्थान सोने जैसा हो गया था। भाट ने उसे खुरचने की बहुत कोशिश की, परंतु सोने का एक कण भी वहाँ से न निकला। कहा जाता है कि धारभौर नामक गाँव, जिसमें भाट रहता था, वहाँ से आधे मील की दूरी पर अभी भी वह चट्‌टान है। उसकी सतह का कुछ हिस्सा सोने के रंग का है। उस पर सोने की परत है; परंतु लाख प्रयत्न करने पर भी उसमें से सोने का एक कण भी नहीं निकलता। लोग उसे देखकर ही संतोष कर लेते हैं।

३ बहुओं की शिक्षा

कोट कहलूर में एक गाँव था। विलासपुर का पुराना नाम कहलूर था। उस गाँव में एक सेठ रहता था, उसके चार बेचे थे। चारों बेटे शादीशुदा थे। घर में चार वहुएँ भी थीं। जब सेठ वृद्ध हुआ तो उसकी धर्म-कर्म में रूचि बढ़ने लगी। उसने एक दिन सेठानी से कहा कि अब हम बूढे़ हो गए हैं। घर-व्यापार बहू-बेटों ने भली प्रकार संभाल लिया है। अब हमें घर-व्यापार का मोह छोड़कर किसी तीर्थ-स्थान पर चले जाना चाहिये ताकि अंत समय में हमारी मुकित हो जाए।

यह सुनकर सेठानी ने भी सेठ की हाँ-में-हाँ मिलायी और बोलीे-“पर एक बात है। तुम्हारा कहना तो ठीक है पर घर की चाबियां किसको सौंपेगे? कहीं ऐसा न हो कि तीर्थयात्रा पर जाने के बाद बहुएँ घर बर्बाद कर दें। पहले मैं इनकी योग्यचा की परीक्षा ले लूँ। इस काम में एक साल लग जाएगा। उसके बाद हम घर की जिम्मेदारी बहुओ तो सौंपकर चले जाएँगे।”

इसके बाद सेठानी ने चारों बहुओं को बुलाया और हर एक को एक-एक मुट्‌ठी तिल दिए। उससे कहा कि ये तिल तुम्हें दे रही हूँ तुम इन्हें अपने पास रखना, जब मैं माँगू तब दे देना।

तिल लेकर चारों बहुएँ वहाँ से चली गईं। सबने सोचा कि जरूर इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य है। सबसे बडी़ बहू ने सोचा कि एक मुट्‌ठी तिल हैं, इन्हें खूब सँभालकर रख देती हूँ, जब सास माँगेगी तब निकालकर दे दूँगी। दूसरी बहू ने सोचा कि इन मुट्‌ठी भर तिलों को कहाँ सँभालूँगी, इन्हें सँभालकर रखना कठिन काम है। क्यों न ये तिल फेंत दूँ, जब सास माँगेगी तो घर के तिलों में से निकालकर दे दूँगी। घर के तिलों और इनमें क्या अंतर है? यह सोचकर उसने व तिल बाहर फेंक दिए। तीसरी बहू ने सोचा कि इन तिलों को कहाँ सँभालकर रखूँ। ये सोचकर उसने तिल मुँह में डाले और उन्हें चबा गई। उसने भी यही सोचा कि जब सास माँगेगी तब घर के तिलो में से दे दूँगी, उन्हें क्या पता चलेगा।

चौथी बहू कुछ ज्यादा ही समझदार थी। उसने सोचा कि सास ने सबको एक-एक मुट्‌ठी तिल दिए हैें और सबसे इन्हें सँभालकर रखने को कहा है ताकि वे उन्हें वापस ले सकें। सो अव्शय ही इसमें कोई रहस्य है। बिना वजह के ऐसा नहीं कर सकती थीं। अतः वह सोचने लगी कि कया करना चाहिए? उस दिन उसका भाई उसके घर आया था। अतः उसने व तिल अपने भाई को दे दिए और कहा-“तुम इन तिलों को ले जाकर किसी खेत में बो देना और जब फसल उग जाए तो तिलों को एकत्र कर सँभालकर रख लेना।”

धीरे-धीरे पूरा एक साल बीत गया। सास ने चारों बहूओं को अपने पास बुलाया और उन्हें याद दिलाया कि एक वर्ष पूर्व मैंने तुम्हें एक-एक मुट्‌ठी तिल दिए थे, अब मुजे वापस चाहिए। सबसे बडी़ बहू घर के अंदर गई और तिलों की पोटली निकालकर ले आयी। उसने वे तिल सास को थमा दिए। दूसरी व तीसरी बहू ने भी यही किया। उन्होंने घर से तिल निकालकर सास को दे दिए। इस पर दोनों ने सास को सच्ची बात बतायी। दूसरी बहू बोली कि मैंने तिल फेंक दिए थे और तीसरी बहू बोली कि मैने तिल खा लिये थे। अब चौथी और सबसे छोटी बहू की बारी आयी। उसने अपनी सास से कहा- “मां जी! आप दो दिन का समय दें, उसके बाद मैं आपके दिए तिल आपके सामने प्रस्तुत करूगी।” सास ने अपनी सहमति दे दी। उसी दिन उसने अपने भाई को संदेश भेजा कि जो तिल मैंने तुम्हें दिए थे, उन तिलों की फसल लेकर तुम मेरी ससुराल आ जाओ। अगले ही दिन उसका भाई एक थैला लेकर उसकी ससुराल पहुँच गया। वह थैला तिलों से भरा हुआ था। सबसे छोटी बहू ने पूरी कहान ी बतायी कि उसने वे मुट्‌ठी भर तिल अपने भाई को दे दिए थे और खेत में बोने को कह दिया था। ये थैले में भरे हूए तिल उन्हीं तिलो की फसल हैं। सास ने जब यह सुना तो वह बेहद प्रसन्न हूई।

इसके बाद उसने घर की सबसे बडी़ बहू को, जिसने वर्ष भर तिंलो को सँभालकर रखा था, घर का धन संभालने को दे दिया। उसको विश्वास हो गया था कि यह बहू चीजें सँभालकर रखती है। अतः धन को भी वह घर में सुरक्षित रखेगी। दूसरी बहू, जिसने तिलों को फेंक दिया था, उसे घर की साफ-सफाई की जिम्मेदारी सौंपी, क्योकि उसका स्वभाव सफाई रखने का था और वह कोई भी निरर्थक चीज घर में नही रखेगी। तीसरी बहू, जिसने तिलों को खा लिया था, उसे चूल्हे-चौके का काम सौंपा। उसे खाने-पीने का शौक था। अतः खाने-पीने का प्रबन्ध वह भली प्रकार कर लेगी। अब सबसे छोटी बहू की बारी थी। उसने घर की चाहियाँ उसे सौंप दी और घर की देखभाल की जिम्मेदारी उसे दे दी, क्योंकि वह जान चुकी थी कि उसकी छोटी बहू अत्यन्त प्रतिभावना और बहू जिस कार्य में दक्ष थी, उसे वह काम सौंपकर उसने चै न की साँस ली। अब वह निश्चिंत हो चुकी थी। फिर सेठ के साथ उसने वानप्रस्थ किया और तीर्थयात्रा पर चली गई। अपने बुद्धि और चातुर्य के बलबूते उसने सही निर्णय लेकर उचित हाथों में गृहस्थी की बागडोर सौंप दी।

४ राक्षसी की कथा

प्राचिन काल की बात है। किन्नौर के पंगी गाँव में एक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम लोक जोम था। राजा-रानी के बेटा व एक बेटी थी। पुत्री का नाम हीना डण्डूब था और पुत्री का नाम लाटिसे जोम। राजा रोज सुबह-सुबह सैर करने जाया करता था। एक बार रानी बहुत बीमार हूई। राजा ने उसका बहूत इलाज करवाया, पर रानी ठीक नहीं हुई। उसकी हालत बिगडंती चली गई और वह परलोक सिधार गई।

अपने नियम के अनुसार राजा एक दिन सुबह-सुबह सैर करने जा रहा था। जंगल में उसे एक बहुत सुंदर लड़की दिखायी दी, जो वास्तव में एक राक्षसी थी। राजा उसकी असलियत नहीं जानता था। जब राजा ने उसे देखा तो वह उस पर मोहित हो गया और उसने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखाँ उसने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वह राजा की रानी बनकर महल में आ गई। राजा और वह सुखपूर्वक जीवन बिताने लगे। पर अचानक वह बीमार पड़ गई। एक दिन राजा जब धूमकर आया तो उसने देखा कि वह जोर-जोर से कराह रही थी। राजा को बडा़ दुख हुआ, उसने उससे पूछा कि तुम किस प्रकार ठीक हो सकती हो? मैं राजवैध को बुलाकर तुम्हारा बढ़िया-से-बढ़िया इलाज करवाऊँगा। इस पर वह राक्षसी बोली- “मेरा तो अंत समय निकट आ गया है। अब तो मेरे जीवन के कुछ ही दिन शेष बचे हैं। अतः कोई फायदा नहीं है।” राजा को बडी़ चिंतो हा गई। राजा को चिंतित देखकर वह बोली-“सपने मुझे देवी-देवताओं ने दर्शन दिए थे और बताया था कि तुम्हारा इलाज आसान नहीं है। मैठीक तो हो सकती हूँ, पर उपाय बडा़ कठिन है।” राजा बोला-“कुछ भी हो, मैं तुम्हारे प्राण बचाऊँगा । मुझे उपाय बताओ।” वह बोली-“मैं तभी ठीत गो सकती हूँ, जब मुझे तुम्हारे बेटे और बेटी का कलेजा खाने को मिले।” राजा उससे बेहद प्रेम करता था। अतः उसकी बात मान ली और बोला-“मैं वैसा ही करूँगा जैसा तुम कहोगी, पर मैं तुम्हे मरने नहीं दूँगा।”

राजा एक दिन हीना डण्डूब और लाटीसे जोम को दूर जंगल में एक झील के किनारे ले गया और वहाँ उन्हें मारना चाहा। वह उनको मारने ही वाला था कि झील में से उन बच्चों की स्वर्गवासी माँ आधा शरीर साँप का और आधा स्त्री का धारण किये निकली और राजा को बुरा-भला कहने लगी। उसने एक कुत्ते का कलेजा राजा की ओर फेंका और बोली-“जा! उस राक्षसी को खिला देना और मेरे बच्चों को छोड़ दे।” इतना कहकर वह अदृश्य हो गई। राजा कुत्ते का वह कलेजा लेकर घर आ गया। उसने वह कलेजा उस राक्षसी को दे दिया। उसे खाकर वह ठीक भी हो गई। हीना डण्डूब और लाटीसे जोम रोते-पीटते जंगल में भटकते रहे, पर आखिरकार उन्हें रास्त मिल गया और शाम होते-होते में भटकते रहे, पर आखिरकार उन्हें रास्त मिल गया और शाम होते-होते वे महल में पहुँच गए। राक्षसी उन्हें देखकर दंग रह गई। वह समझ गई कि राजा ने उसके साथ धोखा किया है। राक्षसी को संतोष नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद उसने फिर बीमार होने का बहाना किया। वह राजा से बोली कि तुमने पहली बार मेरे साथ धोखा किया था। अबकी बार तुम जल्लादों से इन दोनों का कलेजा निकलवाकर मुझे दो, तभी मैं पूरी तरह ठीक होऊँगी। राजा ने एक जल्लाद के साठ उन दोनों को दूर एक जंगल में भेज दिया और जल्लाद से कहा कि इनका कलेजा निकालकर ले आओ। जल्लाद उन दोनों का जंगल में ले गया, पर उस उन पर दया आ गई। उसने दोनों बच्चों से कहा कि तुम कहीं भी चले जाओ, लौटकर महल में मत आना, क्योंकि तुम्हारी सौतेली माँ तुम्हें मरवाना चाहती है। तुम्हारे पिता ने ही मुझे तुम्हें मारने का आदेश दिया है। पर मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता। अतः तुम उस पंगी राजा के यहाँ लौटकर मत आना।

जल्लाद कुत्ते का कलेजा लेकर महल में लौट आया। राक्षसी ने उसे खा लिया और फिर से नाटक किया कि वह पूरी तरह ठीक हो गई है। हीन डण्डूब और लाटिसे, जो जंगल में घूमते-भटकते रहे। आखिरकार उन्हें जंगल में एक कुटिया दिखायी दी। इस कुटिया में राक्षसी की बडी़ बहन रहती थी। दोनों को बडे़ जोर-से प्यास लगी थी। उन्होंने उस राक्षसी बुढ़िया से पानी माँगा। इस पर वह बोली कि मेरे यहाँ पानी नहीं है, तुम जंगल से ले आओ। उसने एक छेदवाला लोटा उन्हें दे दिया छेदवाला लोटा लेकर लाटिसे जोम जंगल में पानी की खोज में चली गई। हीना डण्डूब वहीं राक्षसी के पास ही रहा। तभी किसी राज्य का मंत्री वहाँ आ पहुँचा। वह आखेट करने जंगल में निकला था। उसने उस बुढ़िया राक्षसी से कहा कि यह बालक मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। तुम इसे मुझे दे दो। यह जंगल में रहने योग्य नहीं है। राक्षसी ने धन लेकर उस बालक को मंत्री के हवाले कर दिया।

लाटिसे जोम जंगल में पानी की तलाश कर रही थी। बहुत दूर जाकर उसे पानी मिला। उसने पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई और लोटे में पानी भरा। पर छेद में से पानी बार-बार बाहर निकल जाता था। आखिर उसे एक युकित सूझी, उसने छेद्‌ में अंगुली रखकर अपने भाई के लिए थोडा़ पानी लोटे में भरा और झोंपडी़ में ले आयी। वहाँ आकर उसे अपना भाई न मिला तो वह रोने लगी। राक्षसी उसे पुचकारने के बजाए डाँटने लगी और डंडा दिखाकर बोली कि तू यहाँ से भाग जा। लाटीसे जोम भटकती हुई पास के किसी नगर में पहुँच गई, वहाँ खूब चहल-पहल और रौनक थी। नगर को को खुब सजाया था। यह वही नगर था जहाँ का मंत्री राक्षसी से हीना डण्डूब को माँगकर ले आया था।

इस नगर में आज नये राजा का चुनाव होना था। पहला राजा मृत्यु का ग्रास बन चुका था और अस्थायी रूप से राज-काज मंत्री ही चला रहा था। राजा का चुनाव एक बडी़ सभा में हाथी के द्वारा होना था। हाथी की सूँड़ में फूलों की माला दी जानी थी। वह हाथी जिसके गले में इस माला को डालेगा वही इस नगरी का राजा माना जाएगा। नगर के बाहर नर-नारी, बालके-बृद्ध सब एकत्रित हुए। मंत्री के साथ हीना डण्डूब भी इस सभा में तमाशा देखने लगा। हाथी अपनी सूँड़ में माला लेकर चारों ओर से लोगों ने करतल ध्वनि की। हीना डण्डूब के पास पहुँचा तो वह वहीं रूककर खडा़ हो गया और फिर धीरे से उसने माला को डण्डूब के गले में डाल दिया। चारों ओर से लोगों ने करतल ध्वनि की। हीना डण्डूब की जय-जयकार होने लगी। वह अब इस नगरी का राजा बन गया था। डण्डूब ने आज्ञा दी कि राजकोष से गरीबों और भिखारियों को उदारतापूर्वक दान दिया जाए।

तुरंत ही डण्डूब की आज्ञा का पालन किया गया। दान देनेे वाले कर्मचारी थोडी़ देर बाद डण्डूब के पास पहुँच े और उसे बताया कि उन्होंने सबको जी भरकर दान दिया है ओर सबने प्रसन्नतापूर्वक उसे ग्रहण किया है। पर भीड़ में से एक ल़ड़की ऐसी भी है जिसने दान लेने से मना कर दिया और वह बराबर रो रही है। उसकी सिसकियाँ थम नहीं ले रही है। डण्डूब ने आज्ञा दी कि उसे मेरे सामने लाया जाए। तुरंत बी लड़की को उसके सामने लाया गया। वह लड़की और कोई नहीं लाटीसे जोम ही थी। उसे देखते ही डण्डूब मारे खुशी के उछल पडा़। उसने आगे बढ़कर अपनी बहन को गले से लगा लिया। उसकी आँखो से भी आँसू बह निकले। अपने साथ ही उसने अपनी बहन को भी सिंहासन पर बैठाया। दोना बहुत दिनों तक उस नगरी पर शासन करते रहे।

एक बार हीना डण्डूब को अपने पिता और घर की याद आयी। वह एक छोटी-सी सेना लेकर पंगी की ओर चल पडा़। कशंग कण्डे को पार करके हीना डण्डूब की सेना पंगी पहुँची। वहाँ जाकर उसने देखा कि गाँव के बाहर नर-कंकालों के ढेर लगे थे। राक्षसी ने एक-एक करके जंगी गाँव में संहार किया था। वह राजा को भी खा गई थी कुछ बूढे़ लोग बचे थे, पर वे इस आदमखोर राक्षसी से भयभीत रहते थे। हीना डण्डूब ने सेना को आज्ञा दी कि वह महल में डेरा डाल दे। उसकी सेना ने ऐसा ही किया। वह स्वयं महल के भीतर गया और राक्षसी को खींचकर बाहर ले आया। डण्डूब ने एक मोटे रस्से से उसके गले को बाँध दिया। सेना ने उस रस्सो को पकड़कर इस प्रकार खींचा कि राक्षसी चीत्कार करती हूई मर गई। उसके बाद वहाँ के लोगों ने चैन की साँस ली। हीना डण्डूब ने पंगी गाँव को अपने राज्य की राजधानी बनाया और दोनों बहन-भाई शांतिपूर्वक कई वर्षो तक राज्य करते रहे पर पंगी गाँव के पुराने लोग आज भी इस आदमखोर राक्षसी के अत्याचार की दुखद स्मृति को नहीं भुला सके हैं।

५ बाणासुर की मृत्यु

यह बात तब की है जब द्वापर युग का अंत होने बाला था। उन युग में रामपुर बुशहर में बाणासुर का राज्य था। वह एक शकितशाली असुर शासके था। उसकी राजधानी शोणितपुर में (वर्तमान सरहान) थी। बाणासुर की दो रानियाँ थीं- विरमादेवी और बनावती। बनावती निस्संतान थी। विरमादेवी के तीन पुत्र और दो कन्याएँ थीं। कन्याओं का नाम चण्डिका और उषादेवी था। पाँचों बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध बाणासुर ने अपनी देखरेख में किया। उषा देवी ने छोटी ही आयु में चारों वेदों और सभी वेदांगों को अध्ययन पूर्ण कर लिया। वह बहुत ही प्रखर बुद्धि की कन्या थी। जब वह सयानी हुई तो बहुत गंभीर और विचारवान हो गई।

एक रात उसने एक स्वप्न देखाँ उस स्वप्न में उसने एक सुंदर नवयुवक को देखाँ उषा उसे देखकर मंत्रमुग्ध-सी हो गई। जब उसकी नींद खुली तो उस नवयुवक को देखने के लिए वह आतुर हो उठी। परंतु यह तो एक स्वप्न ही था। उसने बहुत प्रयास किया कि उस स्वप्न को भुला दे, पर वह उसमें विफल रही। सारे दिन वह अनमनी-सी रहती उसके अनमनेपन का कारण पूछा। उसने अपने स्वप्न को सारी बात चित्रलेखा को सुनायी। चित्रलेखा उसकी परम सखी थी। उसने उसे आश्वासन दिया कि मैं उस नवयुवक को अवश्य खोज लाऊँगी। चित्रलेखा अपनी दैवीय शकित से उडी़ और उत्तराखण्ड के सुन्दर नवयुवकों के चित्र बनाकर लायी तथा अपनी सखी उषा को दिखाये परंतु उन चित्रों को देखकर उचा ने बताया कि इन चित्रों में कोई भी ऐसा नवयुवक नहीं है जो उसके स्वप्न के नवयुवक से मिलता-जुलता हो। उषा ने चित्रलेखा के सामने उस नवयुवक का नख-शिख वर्णन किया। उसकी मुखाकृतिस रेग-रूप का ब्योरा दिया। चित्रलेखा फिर उस युवक की खोज में निकल पडी़।

इस बार वह अपनी रखी के सपनों के राजकुमार को ढूँढ़ने के लिए शोणितपुर से दक्षिणापथ की ओर उडी़ । कई नगरों और गाँवों में खोज करती हुई अंत में वह मथुरा नगरी में पहुँची। वहाँ महलों में उसे उषा के द्वारा बताये हुए नवयुवक की आकृति वाला व्यकित पलंग पर सोया दिखायी दिया। उषा ने अपने योगबल से इस युवक को पलंग सहित उठा लिया और आकाश मार्ग से उत्तरापथ में शोणितपुर ला पहुँचाया। उषा उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई। वह युवक मथुरा के राजा प्रद्युम्न का पुत्र अनिरूद्ध था।

जब महल में प्रद्युम्न ने अपने पुत्र को नहीं देखा तो उसकी खोज के लिए चारों दिशाओं में अपनी सेना भेजी। अंत में बहुत खोजबीन के बाद उसे पता लगा कि उसका बेटा अनिरूद्ध उत्तराखण्ड में राजा बाणासुर के यहाँ बन्दी है। प्रद्युम्न ने एक बडी़ सेना के साथ बाणासुर पर आक्रमण कर दिया। घमासन युद्ध हुआ। अंक में बाणासुर की हार हुई और वह मारा गया।

उधर उषा ने चित्रलेखा को वचन दिया था कि यदि वह उसके स्वप्न के युवक को खोजकर लाएगी तो शोणितपुर का राज्य उसे दे देगी और कलियुग में उसकी पूजा की जाएगी। बाणासुर की मृत्यु के पश्चात्‌ उषा और अनिरुद्ध का विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ। दोनों ने दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जीवनयापन किया। शोणितपुर का राज्य चित्रलेखा को मिला, जो आज भी भीमाकाली के नाम से प्रसिद्ध है। भीमाकाली का मंदिर सरहान में स्थित है और उसकी पूजा होती है। सरहान से आगे नचार में उषा का मन्दिर है।

६ चम्तकारी पत्थर

सुदूर उत्तर में एक बस्ती थी। वहाँ एक प्रसिद्ध गुंपा (बौद्ध मंदिर) थी। यहाँ कई भिक्षु थे, जो तीर्थयात्रियों से भीख माँगकर अपना गुजारा करते थे। लकवा डण्डुप भी एख गरीब भिखारी बालक था। वह अनाथ था। भीख माँगकर वह अपना जीवन-यापन करता था और रात को अन्य भिखारियों के साथ गुफा में सो जाता था। इसी प्रकार दिन बीत रहे थे। एक दिन वह गुंपा से दूर जंगल घुम रहा था कि उसे अचानक एक चमकदार पत्थर मिला। यह पत्थर बहुत ही सुंदर और रंगदार था। डण्डुप को वह पत्थर बहुत ही अच्छा लगा। वह अपने चीथडो़ में उसे बाँधकर गुंपा में ले आया। रात होने पर इस पत्थर से निकलने वाली चमक से गुंपा जगमगने लगी। जब अन्य सबने यह देखा तो उन्हें बडा़ आश्चर्य हुआ। धीरे-धीरे चारों ओर यह बात फैल गई। आसपास के लोगों को यह पता चल गया कि भिखमंगे लकवा डण्डुप के पास एक आश्चर्यजनक पत्थर है। यहाँ तक कि वहाँ के राजा के कानों में भी यह बात पहुँच गई।

वास्तव में वह कोई साधारण पत्थर नहीं था। वह एक मणि थी। राजा ने लकवा डण्डुप से वह पत्थर मँगवाया। राजा भी उसकी चमक देखकर हैरान रह गया। बहुत-सा धन देकर राजा ने वह पत्थर (मणि) स्वयं रख लिया। राजा ने यह मणि अपनी पटरानी डोलमा के हार में जड़वा दी। एक दिन रानी बगीचे में टहल रही थी। पेड़ पर एक चिड़ियों का जोडा़ बैठा था और आपस में बातें कर रहा था। चिड़िया ने कहा- “रानी डोलमा ने अपने गले में जो हार पहना है, उसमॆं एक बहुमुल्य मणि जडी़ है। संसार में एक मणि और भी है जो बिल्कुल इसके ही जैसी है। यदि वह मणि भी रानी के हार में होती तो रानी बहुत सुंदर दिखायी देती।” इस पर दूसरी चिड़िया ने कहा- “वह दूसरी मणि कहाँ मिलेगी?” तो पहली चिड़िया ने उत्तर दिया-“जहाँ पर पहली मणि मिली थी वहीं दूसरी मणि भी मिलेगी।”

रानी पक्षियों की बोली समझती थी। उसने महल में आकर राजा को सारी बात बतायी और राजा से आग्रह किया कि दूसरी मणि की खोज करवायी जाए। रानी दूसरी मणि प्राप्त करने े लिए बहुत लालयित हो गई थी। राजा ने अपने राज्य में इस बात की मुनादी पिटवा दी कि जो भी इस मणि को ढूंढ लाएगा, उसे मनचाहा धन दिया जाएगा।

लकवा डण्डुप अब सयाना हो गया था। राजा के द्वारा दिए गए धन से उसने व्यापार आरम्भ कर दिया था। वह अब एक धनी व्यकित था। धीरे-धीरे कई महिने बीत गई, परंतु कोई भी उस मणि को खोजकर राजा के पास न पहुँचा। रानी उस मणि को प्राप्त करने के लिए बहुत व्याकुल थी। यहाँ तक कि इस चिंता में वह रोगिणी हो गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया। राजा ने दूर-दूर से वैद्य-हकीम बुलबाए। उसका इलाज करवाया, पर रान ी ठीक न हुई। उसका शरीर दुर्बल होता जा रहा था। अनेक यत्न करने पर भी उसे स्वास्थ्यलाभ न हुआ। राजा ने अपने बूढे़ मंत्री से सलाह-मशविरा किया तो उसने सलाह दी कि जब रानी को दूसरी मणि मिलेगी, तभी रानी को स्वास्थ्य लाभ होगा अन्यथा उनकी जान को खतरा है। राजा ने सोचा कि यह काम लकवा डण्डुप के अतिरिकत कोई नहीं कर सकता। अतः उसने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि डण्डुप की तलाश की जाए। कुछ दिंनो की तलाश के सामने प्रस्तुत कर दिया राजा ने डण्डुप से कहा कि दूसरी मणि की खोज तुम्हीं कर सकते हो? इसके लिए तुम्हें मनचाहा धन दिया जाएगा। एक महीने के अंदर-अंदर तुम्हें कहीं से भी उस मणि को ढूँढ़कर लाना होगा अन्यथा अपने प्राणों से हाथ धोना पडे़गा। तुम्हें मृत्युदंड दिया जाएगा। यह सुनकर लकवा डण्डुप सन्न रह गया। वह राजा से कुछ कहना चाहता था पर राजा ने उसकी एक न सुनी। वह बोला-“ मैं और सुनना नही चाहता। मणि मिलने पर सारा राजकोष तुम्हारे लिए खुला है और न मिलने पर प्राणदण्ड।”

डण्डुप के तो मानो प्राण ही सूख गए थे। मुँह लटकाकर बाहर निकला। उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब हो गया था. एक दिन जंगल में वह उस और चल पडा़, जहाँ पहली मणि मिली थी। वहाँ उसे दूसरी मणि कहीं दिखाई न दी। वह एक चट्‌टान पर जाकर बैठ गया और चिंता में डूब गया कि अब क्या होगा? अचानक उसके पैरों के नीचे की मिट्‌टी खिसकने लगी। उसने देखा कि नीचे कटे हुए पत्थरों की सीढ़ियाँ हैं। उसे बडी़ हैरानी हुई। वह उन सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। बहुत नीचे उतरने पर उसके देखा कि एक बहुत सुंदर उपवन है और उसके बीचोबीच एक मकान है, उसके सब दरवाजे खुले हैं पर वहाँ पर कौई व्यकित नहीं है। वह सर्वथा निर्जन है। डण्डुप मकान के अंदर चला गया। वहाँ एक चारपाई पर एक सुंदर लड़की लेटी थी, पर वह लड़की अंधी थी। डण्डुप ने हिम्मत करके उससे पूछा कि वह कौन है और यहाँ इस प्रकार क्यों पडी़ है? उसने बताया कि यहाँ एक राक्षस रहता है, वह उसकी बंदी बनाकर यहाँ ले आया है। राक्षस ने उस लड़की की आँखे निकालकर अपने पास रख ली हैं ताकि वह भाग न सके। वास्तव में वह कोई साधारण लड़की नहीं थी अपितु एक राजकुमारी थी। उसने बताया कि राक्षस दिन में तो कहीं चला जाता है पर रात के समय यहीं पर आ जाता है।

डण्डुप ने उसे अपनी पूरी कहानी बतायी और बताया कि वह मणि की खोज में यहाँ तक आया है। मणि का मिलना नितांत आवश्यक है। तब राजकुमारी ने कहा कि वह मणि राक्षस के गले में है। राक्षस उसे हमेशा अपने गले में पहने रहता है, क्योंकि इस मणि में उसके प्राण बसे हैं। यदि मणि उसके गले से निकाल ली जाएगी तो राक्षस मर जाएगा। पर अब तुम यहाँ से चले जाओ क्योंकि राक्षस यहाँ आ गया तो वह तुम्हें मारकर खा जाएगा।

डण्डुप ने कहा कि यदि मैं मणि नहीं ले गया तो राजा के हाथों मरना पडे़गा। मेरे तो एक तरफ कुआँ है और दूसरी तरफ खाई। मरना तो है ही, अतः प्रयास करने में क्या हर्ज है. मैं यहीं रहूँगा और राक्षस को मारकर उससे मणि ले लूँगा। लड़की बोली-“राक्षस बहुत बलवान है। तुम उसे नहीं मार सकते, इसलिए तुम यहाँ से चले जाओ।” पर डण्डुप ने उसकी एक न सुनी। वह उस मकान के अंदर एक कोने में छुप गया। रात के समय जब राक्षस वहाँ आया तो आते ही बोला कि मुझे यहाँ आदमी की गंध आ रही है। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता डण्डुप अचानक उस पर टूट पडा़। उसने छुरे का प्रहार, उसके पेट पर किया जिससे राक्षस का पेट फट गया। वह जोर-जोर से चिंघाड़ने लगा और वह फर्श पर गिर गया। फर्श पर गिरते ही डण्डुप ने उसके गले से मणि खींच ली। मणि के गले से निकलने ही राक्षस के प्राण पखेरी उड़ गए। डण्डूप की खुशी का ठिकाना न रहा। राजकुमारी ने बताया कि मेरी आँखें निकालकर राक्षस ने एक डिबिया में रखी हैं और पास ही शीशी में अमृत रखा है। तुम उस डिबिया से आँखें निकालकर मिझे दे दो और मुझ पर अमृत छिड़क दो।

डण्डुप ने उसके कहे अनुसार वैसा ही किया। उसके एसा करते ही युवकी की आँखें ठीक हो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही दोनों वहाँ से भाग निकले। डण्डुप ने राजदरबार में पहुँचकर मणि राजा के सामने रख दी। मणि पाकर वह पूर्णतया स्वस्थ हो गई। राजा ने प्रसन्न होकर अपने राज्य का बहुत बडा़ भाग डण्डुप को दे दिया और इस प्रकार सुखपुर्वक जीवन बिताते-बिताते इन्हें कई वर्ष बीत गए। रानी काफी वृद्ध हो चली थी। एक दिन वह परलोक सिधार गई। उसके मरने के बाद राजा ने दो मणियों वाला वह हार डण्डुप की पत्नी को दे दिया। डण्डुप और उसकी पत्नी बहुत खुश हुए। दोनों सौ वर्षो तक जीवित रहे। उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र ग्यालदेन ने उस राज्य पर राज किया। आज भी लोग डण्डुप की बहादुरी की कहानी कहते-सुनते हैं।

७ बुराई छिपती नहीं

पुराने समय की बात है। चम्पा नगरी में एक विद्वान राजा राज्य करता था। उसके दरबार में कई विद्वान थे। राजा बडा़ दानी था। उसने यह नियम बना रखा था कि जो कोई विद्वान नया श्लोक बनाकर दरबार में सुनाएगा, उसको ईनाम दिया जाएगा।

दूर-दुर से पण्डित श्लोक बनाकर लाते और अपनी योग्यता के अनुसार राजा से पारितोषिक प्राप्त करते। राजा के राज्य में एक निर्धन ब्राह्मण भी रहता था। बडीं़ ही कठिनाई से वह अपने परिवार का जीवन-निर्वाह करता था। यजमानों से जो कुछ भी दान-दक्षिणा में उसे, मिलता, उसी से अपनी स्त्री व तीन बच्चों का भरण-पोषण किया करता था। कई बार भरपेट रुखा-सुखा भोजन भी उन्हें प्राप्त न होता था और उन्हें भूखे ही सोना पड़ जाता था। एक दिन ब्राह्मणी ने अपने पति से कहा कि तुम भी कोई नया श्लोक बनाओ और उदार व दयालु राजा से ईनाम प्राप्त करो । कभी तो भरपेट मनचाहा भोजन प्राप्त हो।

ब्राह्मण ने कहा- ‘‘मैं इतना विद्वान कहाँ हूँ। मैं नये-नये श्लोक बनाने में समर्थ नहीॆं हूँ। दरबार में तो एक से एक विद्वान पण्डित हैं। वे मेरी हँसी उडा़एँगे।’’ ब्राह्मणी ने कहा- ‘‘एक बार जाकर तो देखो। इस प्रकार हाथ पर हाथ रखकर बैठने से कुछ नहीं होगा। तुम्हें कुछ-न-कुछ प्रयास तो करना ही होगा। एक बार जाने में कोई हर्ज नहीं है। वापिस ही तो आओगे, जाकर देखो तो सही।’’

ब्राह्मणी के बार-बार आग्रह करने पर एक दिन ब्राह्मण प्रातः भगवान का नाम लेकर चल पडा़। ब्राह्मणी ने तीन सूखी रोटियाँ रास्ते के लिए बाँधकर ब्राह्मण को दे दीं। दोपहर को जब ब्राह्मण को भूख लगी तो जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर वह रोटी खाने लगा। तभी एक कौआ भी वहाँ आ गया और पास के एक पेड़ की टहनी पर बैठकर अपनी चोंच को टहनी पर घिसने लगा। यह कौवे का स्वभाव है। ब्राह्मण ने जब उसे ऐसा करते देखा तो वह कुछ सोचने लगा और उसके मुख से अचानक यह कवित्त निकला-

लपट झपट क्या करे, जो चोंच को दिए पान।

तेरे मन में जो है, मैंने खुब लिया हे जान ।।

इस कवित्त को ब्राह्मण बार-बार दोहराता रहा। यह उसकी जुबान पर चढ़ गया और उसे कंठस्थ हो गया। सारे रास्ते वह यही गुनगुनाता रहा। दूसरे दिन वह राजदरबार में पहुँच गया, वहाँ पहुँचकर जब राजा ने उसे उसका श्लोक सुनाने को कहा तो सब पण्डित और अन्य दरबारी खिलखिलाकर हँस पडे़। ब्राह्मण अपना-सा मुँह लेकर वापस अपने घर की ओर चल पडा़। उसको बडा़ ही पश्चात्ताप हुआ कि मैंने अपनी हँसी करवायी।

राजा ने विनोद भाव से वह श्लोक अपने कमरे की दीवार पर टाँग दिया। उधर राजा का मंत्री बडा़ ही नीच और लालची था। वह स्वयं गद्‌दी पर अधिकार करना चाहता था। इसके लिए वह कई दिनोॆं से नाना प्रक्रा के षड्‌यंत्र रच रहा था। अंत में उसने राजा के नाई से साँठ-गाँठ की और यह निश्चित हुआ कि नाई जब राजा की हजामत बनायेगा, तो वह उस्तरे से राजा का ग ला काट देगा। राजा के मरने के बाद मंत्री तो राजा बन जाएगा और नाई उसका मंत्री बनेगा।

अगले दिन नाई राजा की हजामत करने के लिए राजमहल में गया। हजामत बनाने के बहाने से राजा को मौत के घाट उतारने के लिए वह उस्तरे को पत्थर पर घिसकर तेज करने लगा। राजा अपनी धुन में मगन होकर उस ब्राह्मण के श्लोक को, जो दीवार पर टँगा था, गुनगुना रहा था-

लपट झपट क्या करे, जो चोंच को दिए पान ।

तेरे मन में जो है, मैंने खुब लिया है जान ।।

नाई के मन में तो चोर था उसने जब राजा को ऐसा कहते सुना तो उसके हाथ से उस्तरा छुट गया। वह राजा के पैरों पर गिर पडा़ और हाथ जोडंकर गिड़गिडाने लगा-‘‘ महारा! मुझे क्षमा करो, मेरे प्राण बचाओ, मैॆं बिलकुल निर्दोष हुँ, लोभी मंत्री के बहकावे में आ गया था उसके कहने पर ही मैं यह कुकूत्य करने चला था । मेंरी कोई गलती नहीँ है। मेरा अपराध बस इतना है कि मैं मंत्री की बातों में आ गया और भला-बुरा न पहचान सका।’’ ऐसा कहकर वह थर-थर काँपने लगा।

राजा कुछ भी न समझ पाया कि नाई ऐसा क्यों कह रहा हे? उसने नाई से सबकुछ साफ-साफ बताने को कहा। इसके बाद नाई ने षड्‌यत्र्ां की बात राजा को सुना दी। राजा को बडा़ ही आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह मंत्री पर बहुत विश्वार करता था। उसने नाई को तो क्षमा कर दिया, पर उससे परविरा सहित देश न किाला दे दिया। राजा ने मंत्री को जेल में डलवा दिया और उसे मृत्युदंड की सजा सुनायी। तीन दिन बाद भरे दरबार में उसे षड्‌यंत्र रचने के लिए फाँसी पर लटका दिया गया। राजा को समझ आ गया कि यह इस श्लोक की ही करामात थी जो उसके प्राण बच सके। इस श्लोक की रचना करने वाले ब्राह्मण की खोज को गई। उसने अपने सेवकों को हुक्म दिया कि वह ब्राह्मण जहाँ भी मिले उसे दरबार में पेश किया जाए। आखिरकार ब्राह्मण मिल गया, उसे दरबार में लाया गया। वह बहुत डरा हुआ था डर के मारे वह थर-थर काँप रहा था। पर दरबार में आते ही राजा ने उसे आसन पर बिठाया और कहा- ‘‘डरने की कोई बात नहीं है। तुम तो सम्मान व ईनाम दोनों के हकदार हो, क्योंकि तुम्हारे श्लोक के कारण ही मुझे नवजीवन मिला है, अन्यथा मैं मंत्री व नाई के षड्‌यंत्र का शिकार हो गया होता। आप ब्राह्मण देवता हैं। ये बहुमूल्य रत्न व धन आपको ईनाम-स्वरूप दिया जाता है और आपको दरबार मैं मंत्री पद पर नियकत करता हूँ। आज से आपकी पत्नी व तीनों बच्चे यहीं महल में रहेंगे। आप अपने परिवार को यहीं ले आइए। और कल से ही मंत्री पद का भार सँभाल लीजिए।’’ ब्राह्मण के हर्ष का पारावार न रहा। उसका भाग्य जाग चुका था। वह श्लोक जिसके कारण उसे अपमानित व लज्जित होना पडा़ था, आज गर्व का विषय बन गया था। उसने ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद दिया और अपनी पत्नी व बच्चों के साथ सुखपुर्वक महल में रहते हुए मंत्री पद की जिम्मेदारी कि निर्वाह करने लगा।

८ खोपडी़ की करामात

एक पहाड़ था। वह बहुत बडा़ व ऊँचा था। उसकी तलहटी में एक गाँव बसा था, जिसमें कोलियों का परिवार रहा करता था। इसके किनारे एक नदी बहती थी। नदी के किनारे-किनारे लोगों के खेत थे। एक दिन बेलू नाम का एक कोली नदी के किनारे वाले खेत में हल चलाने गया। उसने बैलों की जोडी़ खोलकर चराने को छोड़ दी और स्वयं नदी के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठकर चिलम पीने लगा। इतने में नदी से एक आवाज आयी।

कोली उस आवाज को सुनकर चौंक गया। आवाज ने उसे संबोधित करते हुए कहा कि ‘तेरा इन खेतों में हल चलाना व्यर्थ हेै, क्योंकि इस साल वर्षा नहीं होगी तू इस निष्फल काम को छोड़ दे ओर अपने घर चला जा। खेतों में हल चलाने और बीज बोने का कोई लाभ नहींं है।’ यह सुनकर कोली अचम्भे में पड़ गया। उसने कौतूहलवश पूछा कि तू कौन है, साम़ने आकर बात कर।

इस पर उस आवाज ने कहा कि मैं सामने नहीं आ सकता यह मेंरी मजबूरी है। तुम मेरा कहना मानो। जिन्होंने अपने खेत बो दिये हैं। देख लेना, वे भी पछतायेंगे। इस वर्ष उन्हें कोई फसल नहीं मिलेगी।

कोली कुछ समय तक सोचता रहा कि क्या करूँ? अंत में उसने वह मेरी भलाई करना चाहता है। मुझे उसकी आज्ञा का पालन करना ही चाहिए। उसने हल को कंधे पर उठाया और बैलों को घर की औंर हाँक दिया। जब वह घर पहुँचा तो उसकी पत्नी ने पूछा कि इतनी जल्दी क्यों आ गए? तब उसने पूरी बात पत्नी को बताई. पत्नी बोली कि आपको खेत जोत लेना चाहिए था। हम पूरे साल क्या खाएँगे ? कोली ने कहा कि देवता की आज्ञा के विरुद्ध मैं कैसे चलता? यदि देवता क्रोधित हो जाता तो पता नहीं क्या-क्या नुकसान पहुँचाता, इसलिए मैंने तो नदी के देवता की आज्ञा का पालन किया है।

कोली का खेत खाली ही रहा। उस वर्ष खूब बारिशः महीने में लोगों के खेत फसल से भर गए और लहलहाने लगे। बेलू कोली के खेत में केवल घस ही उगी। वह फिर नदी के किनारे गया और पेड़ के नीचे बैठककर चिलम पीने लगा। वह अपने आपको कोस रहा था और अपनी गलती पर पछता रहा था। वह बहुत परेशान था और सोच रहा था कि अब पूरा वर्ष कैसे बीतेगा? लोगों के घर अन्न से भर जाएँगे और मेरा परिवार भूखा मरेगा । मुझे लोगों से भीख माँगनी पडे़गी।

यही सोचते-सोचते भविष्य की चिंता में उसको आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। इतने में नदी से किसी के बडी़ जोर से हँसने व खिलखलाने की आवाज आयी। बेलू को क्रोध आ गया। वह गुस्से से बोला- ‘‘तू वही आवाज है न जिसने मुझे खेतों में हल चलाने व बीज बोने से मना किया था। अब जोर-जोर से क्यों हँस रही हे। तूने मेरा सर्वनाथ कर दिया है. लोगों के खेत तो फसल से लबालब भरे हैं ओर मेरे खेत में केवल घास है। तूने मुझे धोखा क्यों दिया?’’ यह कहकर वह जोर-जोर से रोने लगा।

नदी से फिर हँसने की आवाज आयी। उसने कहा-‘‘तू एसा एक ही है जिसका मैने घर बर्बाद कर दिया है। जब मैं जीवित था तो पता नहीं कितनों के घर उजाडे़ थे।’’

बेलू ने कहा-‘‘ तू यह बता कि तू कौन हे?’’ उस आवाज ने कहा- ‘‘मैं गरदावर (कानूनगो) की खोपडीं हूँ। ’’

यह सुनकर बेलू नदी में उस तरफ गया जहाँ से यह आवाज आ रही थी। बेलू ने देखा, सचमुच एक चट्‌टान के नीचे पानी के एक खोपडी़ पडी़ थी। उसने पत्थर मार-मारकर उस खोपडी़ को चकनाचूर कर दिया। उस दिन के बाद उसने फिर कभी वह आवाज नहीं सुनी। बेलू ने वह वर्ष तो जैसे-तैसे करके बिताया, पर अगले वर्ष उसने खूब मेहनत की, जिससे उसके खेतों में भी फसल लहलहा उठी।

९ चरित्र की शक्ति

देवद्वार नामक नगर में एक ब्राह्मण रहता था। वह बहुत ही सदाचारी और अतिथि-वत्सल था। वह ईश्वर की भकितमें रमा रहता था। उसकी दिली इच्छा थी कि वह रमणीय वनों और दूर-दूर तक फैले सुन्दर स्थानोें के दर्शन करे। उसकी यह इच्छा पूरी हुई उसके अतिथि सत्कार की वजह से। एक दिन उसके घर एक अतिथि आया वह बहुत विद्वान था। मणि-मन्त्रादि विद्याएँ उसे भली प्रकार आती थीं। इन विद्याओं के प्रभाव से वह बिना किसी थकान के प्रतिदिन हजारों योजन चल लेता था।

इस अतिथि के सत्कार में ब्रह्मण ने कोई कसर न छोडी़ थी। भोजनोपरान्त बातें आरम्भ हुईं। इन्हीं बातों के बीच उस अतिथि ने बताया कि वह एक से एक सुन्दर वन, पर्वत, नगर आदि धूम चुका है। उसने अनेकों नदियों और तीर्थस्थानों के विषय में भी बताया।

ब्राह्मण बडी़ तन्मयता से उसकी बातें सुन रहा था। सुनकर उसे आश्चर्य भी हो रहा था। ब्राह्मण ने उसके बातें सुन रहा था। सुनकर उसे आश्चर्य भी हो रहा था। ब्राह्मण ने उसके सामने अपनी इच्छा प्रकट की। वह बोला- ‘‘हे महानुभा! मेरे मन में पृथ्वी भ्रमण की कामना है। मैं भी इस पृथ्वी की सुन्दरता को देखना चाहता हूँ।’’

वह व्यकित मुस्कुराकर बोला-‘‘हे ब्राह्मण देवता! आपने जो मेरा सत्कार किया, जिस प्रेम से मुझे अपने यहाँ आश्रय दिया, उसने मेरा मन जीत लिया है। मैं आपसे बहुत प्रसन्न हुँ। चूँकि यह मेरे वश में है, इसलिए मैं आपकि यह इच्छा अवश्य पुरी करूँगा।’’ कहकर उसने अपने झोले से एक छोटी सी सन्दुकची निकाली। उसमें अजीब-सी गंध वाला दिव्य लेप था। लेप को ब्राह्मण की ओर बढा़ते हुए वह बोला- ‘‘यह लीजिए। इस लेप को पैरों पर लगाकर आप जहाँ तक चाहें जा सकते हैँ।’’

सर्वप्रथम ब्राह्मण की इच्छा हिमालय पर्वत देखने की हुई। अतः वह लेप लगाकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया। ब्राह्मण ब्रह्मचारी था। प्रातः-सायं अग्निहोत्र, देव पूजा आदि उसके नित्यकर्म थे। जिन्हें वह किसी भी सूरत में त्यागता नहीं था।

उसने सोचा कि इस लेप को लगाकर मैं कितना भी चल सकता हूँ। अतः हिमालय की रमणीयता देखकर संध्या पूर्व वापस लौट आऊँगा। फिर क्या था। ब्राह्मण हिमालय पर पहुँच गया। वहाँ के मन को मोह लेने वाले अति सुन्दर पर्वत शिखरों को पैदल ही इधार-से-उधार घूम-घूमकर देखता रहा। किन्तु वह यह भूल गया कि उसके पैरों में लेप लगा है, जिससे उसे इतनी तीव्रगति से चलने की शकित मिली है। बर्फ पर चलने के कारण उसके पैरों का लेप छूट गया। किन्तु उसे इस बात का तनिक भी आभास न हुआ। उसे तो बस यह ध्यान था कि उसकी वह इच्छा, जिसे उसने कब से मन में दबाए था, आज पूरी हो रही है। आज वह स्वयं को धन्य मान रहा था और मन-ही-मन उस आगुन्तुक को धान्यवाद दे रहा था, जिसके कारण उसे यह अवसर प्राप्त हुआ। आधा दिन उसका यूँ ही घूमते-घूमते व्यतीत हो गया। फिर उसने सोचा कि अब मुझे वापस लौटना चाहिए। किन्तु उसे आभास हुआ कि उसके पैरों में वो तीव्र गति अब नहीं है, जिसके कारण वह हजारों योजन चलकर यहाँ तक आया था।

उसे विचार आया कि जब वह मनोहर शिखरों का आनन्द ले रहा था तब बर्फ पर चलने से उसके पैरों का लेप हट गया। उसे बहुत चिन्ता हुई अब वह अपने घर किस प्रकार पहुँचेगा। एक तो इतनी अधिक दूरी ऊपर से पहाडों़ का ऊँचा-नीचा रास्ता। इस प्रकार तो न जाने कितना समय लग जायेगा। अब मेरे नित्यकर्म छूट जाएँगे । इस प्रकार के विचारो. में उलझा वह आगे बढा़ चला जा रहा था। अचानक उसने देखा कि दूर से एक अति सुन्दर स्त्री, जो-अमूल्य वस्त्र आभूषण धारण किये थी, उसकी और बढी़ चली आ रही थी। निकट आने पर ब्राह्मण ससम्मान बोला-‘‘देवी, मैं एक ब्राह्मण हुँ। देवद्वार नगर से इस रमणीक स्थान को देखकर इसका आनन्द लेने आया हूँ। किन्तु दुर्भाग्य से मेरे पैरों का वह दिव्य लेप हट गया है, जिसे लगाकर मैं हजारों योजन की दूरी तय कर सकता था। कृपया मुझे कोई एसा उपाय बाताइये, जिससे संध्या पूर्व मैं अपने घर लौट सकूँ। अन्यथा मैं अपने नित्य कर्मो से वंचित रह जाऊँगा।’’

स्त्री बोली-‘‘सुनो ब्राह्मण, मैं एक अप्सरा हुँ। आपको देखकर मेरा वन विह्वल हो उठा है। अपनी यवावस्था को नित्यकर्मों में क्यों गँवाना चाहते हो। हम जिस स्थान का आनन्द उठाने के लिए स्वर्ग से आते हैं। तुम उस की रमणीयता को छोड़कर जाना चाहते हो? नहीं, ऐसा न करो। देखो मैं तन-मन और धन से परिपूर्ण तुम्हें समर्पित होना चाहती हुँ। मेरी इस इच्छा का सम्मान करो। मुझे स्वीकार कर लो। यहाँ से न जाओ। इस भूमि पर तुम्हें चिरतारूण्य प्राप्त होगा। कभी बुढा़पा न आयेगा। तुम्हें देखकर मेरे मन में तुम्हारे प्रति कामांकुर फूटने लगे हैं। मेरी इच्छा की पूर्ति करो। यही़ रहो, यहाँ से कहीं न जाओ।’’ कहते-कहते वह अप्सरा ब्राह्मण को अंकपाश में भरने की चेष्टा करने लगी।

तभी ब्राह्मण ने उसे स्वयं से दूर किया। उसे एक ओर झटकते हुए ब्राह्मण बोलाृ-‘‘निर्लज्ज, परे हट! तू जिस मंशा से मेरे निकट आ रही है, मेरा वैसा कोई भाव नहीं है। मेरी देह को स्पर्श करने की चेष्टा भी मत करना। तेरी इच्छा मेेरे द्वारा कभी पूरी नहीं होगी। जा, इसके लिए अपन ी ही जैसी प्रकृति वाले पुरुष को ढूँढ़। तू जिन नित्यकर्मों को व्यर्थ समझ रही है। उन्हीं में इस विश्व को धारण करने की साम्थर्य है। हमारे इस संसार मैं धर्म व्याप्त है। उसकी रक्षा करना हमारा धर्म है। मैं उस भूमि पर एक क्षण नहीं रहना चाहता जहाँ मेरे धार्म का ही लोप हो जाए। भले ही यहाँ अमरता ही क्यों न मिले। अब तू मुझे व्यर्थ की बातों में न उलझा। मैं सभी अपने घर पहुँचना चाहता हूँ।

यह सुनते ही वह पुनः बोली-‘‘ नहीं, तुम एसा नहीं कर सकते। मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ। तुम मुझे इस प्रकार त्याग नहीं सकते। यह धर्म के विपरीत है। धर्म का पालन करते हुए तुम उसकी अवहेलना किस प्रकार कर सकते हो। मुझ शरणार्थी पर कृपा करो। अब मैं तुम्हारा विरह न सह सकूँगी। तुम्हारा बिछोह मेरे प्राण हर लेना । न जाने मेरे मन में तुम्हारे प्रति कैसा अनुराग उत्पन्न हो गया है। जो तुमसे अलग होने की कल्पना मात्र से ही मेरे मन को सहस्त्र शलभेदन जैसी वेदना दे रहा है।’’

‘‘यदि सच में तुम्हारे मन में मेरे प्रति एसा कोई भाव है, जिसे प्रेम की संज्ञा दी जा सकती है, तो उसका सम्मान करते हुए मेरे हितार्थ कोई एसा उपाय सुझाओ, जिससे मेरी मनोइच्छा पूर्ण हो और मैं अति शीघ्र अपने घर जा सकूँ।

परन्तु वह तो मानो अपना आपा खो चुकी थी। उसने ब्राह्मण की किसी बात पर ध्यान न दिया। वह बस यही चाहती थी कि किसी प्रकार वह ब्राह्मण उससे प्रसन्न होकर उसे स्वीकारी कर ले।

ब्राह्मण स्वयं को रोक न सका। उसे क्रोधा आ गया। क्रोधावेश में वह बोला-‘‘ मैं पहले ही कह चुका हूँ, मुझसे तेरा मंतव्य सिद्व होने वाला नहीं। अतः मुज पर तेरी किसी बात का कोई प्रभाव नहीं होगा। भले ही तू कितना भी प्रयास कर, मैं कभी तुझे स्पर्श नहीं करूँगा।

इतना सुनते ही उसके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। वह इतनी अधिक दुखी थी कि उसके मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे।

लेकिन ब्राह्मण को इस सबके कोई सरोकार न था। वह अभी भी उसे धिककार रहा था-‘‘एक बात अच्छी तरह समझ ले, तेरे ये आँसू मेरा ह्यदय नहीं पिघला सकते। न ही तेरी ये बातें मुझे मेरे धर्म मार्ग से विचलित कर सकती हैं।’’ इतना कहकर ब्राह्मण एक ओक चल दिया। वह रोती-विलाप करती रही किन्तु ब्राह्मण ने उसकी ओर देखा तक नहीं।

ब्राह्मण पहले ही परेशान था। अब उस अप्सरा की बातों ने उसके लाख समझाने, धिक्कारने एवं अनेक प्रकार के अपशब्दों से प्रताड़ित करने पर भी उस अप्सरा ने उसका पीछा नहीं छोडा।

अंत में ब्राह्मण ने दाहिने हाथ के चुल्लू में जल लेकर गार्हपत्य अग्नि का धयान किया। मन-ही-मन प्रार्थना की-‘हे भगवन्‌! यह सारा जगत जीवन देने वाला है। यदि मैेंने आज तक सच्चे ह्दय से विधि पूर्वक पूजा की हो तथा इसमें किसी भी परिस्थिति में किसी काल में इससे विमुख न हुआ हूँ, यदि आज तक मैंने अपने ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्णतः पालन किया हो तो आज भी मैं संध्या पूर्वं अपने घर पहुँचकर संध्या काल की अग्निहोत्र करूँ।

आज उसका सदाचार, उसकी अतिथि सेवा और सबसे बढ़कर उसका ब्रह्मचर्य उसके काम आया।

आचमन करते ही उसके शरीर से एक तेज पुंज निकलने लगा। यह गार्हपत्य अग्नि की कृपा थी। जिसने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर उसकी देह में प्रवेश किया जिसे देखकर अप्सरा स्तब्ध रह गयी उसकी आँखों के सामने वह ब्राह्मण, जिसे उसके अनेकानेक प्रकार की अनुनय-विनय करके रोकने की कोशिश की थी। अपनी राह चला जा रहा था और वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी खडीं़ उसे देखती रह गयी।

अगले ही पर ब्रह्मण ने स्वयं को अपने आवास स्थल पर पाया।

इससे सिद्ध होता है कि ईश्वर उसी की सहायता करते है जो अपने चरित्र की रक्षा करते हैं। किसी भी परिस्थिति में जो अपने चरित्र से नहीं डिगता। ?