Nana Nani Stories (Part - 2) in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | नाना नानी की कहानियाँ (भाग - २)

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नाना नानी की कहानियाँ (भाग - २)

नाना-नानी

की

कहानियाँ

भाग - २

-ः लेखक :-

वर्षा जयरथ

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अनुक्रमणिका

•दहलीज की सिल

•जिन्न से छुटकाा

•दर्जी की बकरी

•फसल का हिस्सा

•चमत्कार

•बदला

•चतुर नुरुद्दीन

•बिल्ली र्मांसी

•बाबा बालकनाथ

१ दहलीज की सिल

कश्मीर में तीन मंजिला, चार मंजिला मकान होते है । मकान का मुख्य द्वार या प्रवेश द्वार जमीन से एक फुट से लेकर तीन फुट तक ऊँचा होता है । अतः ईस द्वार तक पहुँचने के लिए दो-तीन सीढियाँ बनी होती है, जो पत्थर, ईंट और गारे की बनाई जाती है । उन पर समतल पत्थर के सिल बिछे रहते है ।

यह सीढी काश्मीरी भाषा में ‘ब्रांद’ कहलाती हे और पत्थर की सिल को ‘कन्य’ कह जाता है । इस तरह ‘ब्रांद कन्य’ को दहलीज की सील’ कहा जाएगा । ब्रांच कन्य के आधार प ही एक कश्मीरी मुहावरा बना है- भ्रांद कन्य दरउन सान्य अर्थात्‌ दहलीज की सिल का दुढ होना । इस मुहावरे से संबंधित एक कहानी है -

पुराने समय की बात है, काश्मीर के एक भाग पर एक राजा राज्य करता था । पहले यही होता था, हर एक नगर पर अलग-अलग राजा शासन करते थे ।

नगर चाहे छोटा हो या बडा, वह राज्य कहलाता था । इस राजा का एक ही बेटा था । बेटा अत्यन्त गुणवान और बुद्धिमान था । जब वह जवान हो गया तो राजा को उसके विवाह की चिंता सताने लगी । यूँ तो पास-पडोस और दूर-दराज के सभी राज्यों के राजा अपनी पुत्रियों का रिश्ता राजपुत्र के लिए भेज रहे थे, पर राजा किसी के भी संदेश का उत्तर नहीं देते थे. कारण के राजकुमार विवाह के लिये हामी नहीं भरता था ।

राजा जब भी उससे विवाह करने का आग्रह करते, वह यही कहता - “पिताजी ! विवाह तो में अवश्य करुँगा पर एसी भी क्या जल्दी है? अभी तो बहुत समय है । कुछ सोच-विचार के बाद ही विवाह कार निर्णय लेंगे । आप चिंतित न हो।”

जब काफी समय तक पडोसी राजाओ के पैगाम ईसी प्रकार आते रहे, तब राजा बहुत परेशान हो गया । उसने राजकुमार को अपने पास बुलाया और साफ-साफ बात करने को कहाँ उसने राजकुमार को समझाया- “बेटा! तुम अब नौजवान हो । विवाह करने की यही उम्र होती है । अमुक देश के राजाने अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ करने की गर्ज निमन्त्रण भेजा था । में अपने आप जाकर राजकुमारी को देख आया हूँ । देखने में वह रुपवती तो है ही, साथ ही गुणवती भी है । यदि तुम्हारी सहमति हो तो में उन्हें सुचित करके शुभ घडी और मुहुर्त निकलवाकर तुम्हारा विवाह रचाऊँ ।”

राजकुमार ने अपने पिता की बात सुनकर बोला- “पिताजी ! आपका कहना बिल्कुल सही है । में आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार हूँ । आपका हुकम सिर-आँखो पर है । पर जिस लडकी के लिए आप कह रहे हैं, उसे में ठीक तरह से परखना चाहता हूँ । यदि वह लडकी मेरी कसौटी पर खरी उतरेगी तो उसे अपनी बीवी अवश्य बनाऊँगा । किन्तु यदि वह कोई राजकुमारी न होकर गरीब भी होगी तो भी मेैं उसे अपनी रानी बना लूंगा । शर्त यह है कि वह मेरी कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए ।

समय बडा बलवान है । वह कभी भी एक-सा नहीं रहता पति-पत्नी का संबंध जीवन भर के लिए होत है । दोनों ही जीवनरुपी गाडी के दो पहिए है । यदि किसी भी प्रकार एक पहिया न्यून या अधिक हो तो गाडी नहीं चल सकती । अतः अपनी जीवनसंगिनी का चुनाव में भली प्रकार सोच-समझकर और परखकर करना चाहता हूँ । यदि आपको स्वीकार्य हो तो मैं अपनी जीवनसंगिनी की खोज करने के लिए देश-देशान्तर का भ्रमण करने को निकलूँ, किन्तु यह बात एक रहस्य ही रहनी चाहिए । इस बारे में आप किसी से कुछ भी न कहें ।”

राजा को अपने पुत्र की बात समझ में आ गई । उसने खुश होकर सहर्ष जाने की आज्ञा दे दी और आशीर्वाद देते हुए कहा- “इश्वर तुम्हारी मनोकामना पूरी करे । वह लडकी जिसे तुम पसन्द करोगे, मुझे भी सहर्ष स्वीकार होगी । तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है ।”

पिता की आज्ञा पाकर राजकुमार दूसरे दिन प्रातःकाल उठा और राजसी वस्त्र उतार दिए । एक साधारण बनकर वह महल से बाहर निकल पडा । उसे चलते-चलते काफी देर हो गई थी । सूर्य चढ आया था, वह एक चश्मे पर जा पहुँचा ।

एक चिनार के वृक्ष के नीचे रुककर कुछ देर उसने विश्राम किया और थकान दूर करके वह फिर आगे बढा। धीरे-धीरे दोपहर हो गई । उसे रास्ते में एक अधेड उम्र का पथिक मिला, दोनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया । उस अधेड उम्र के व्यक्तिने राजकुमार से पूछा- “आप कौन, कहाँ से आये है और कहाँ जा रहे है?”

राजकुमार ने उत्तर दिया- “मेरा नाम लक्ष्मीपति है । मैं दूर देश से आया हूँ । एक घुमक्कड हूँ । घूम-घूमकर अपना भाग्य परख रहा हूँ । दिन-भर घूमता रहता हूँ । रात होने पर ठहर जाता हूँ । कई वर्षो पहले ही मैंने घर छोड दिया था । यहि मेरा परिचय है । अब आप अपना परिचय दें । यह बताने की कृपा करें कि आपका नाम ख्या है ? और आप कौन से शहर के निवासी है?”

उस अजनबी ने उत्तर दिया, “मेरा नाम सुधाकर है । यहाँ से लगभग दस मील की दूरी पर एक छोटासा गाँव है, में वहीं पर रहता हूँ । शहर में किसी काम से आया था । अब घर वापस जा रहा हूँ । घर में मेरी एकमात्र पुत्री रहेती है । इस समय वह बिलकुल अकेली है और मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी । आपसे निवेदन है कि रात बहुत जल्दी होने वाली है । अतः मेरे साथ मेरे घर चलिये । आज रात वहीं रुककर विश्राम कीजिए ।” राजकुमारने उत्तर दिया- “में तो एक घुमक्कड हूँ, जहाँ भी भाग्य ले जाएगा वहीं चला जाऊँगा । आप आग्रह कर रहे हैं तो आपके साथ ही चलता हूँ ।” यह कहकर दोनों एक साथ चल दिए ।

वे दोनों कुछ ही दूर चले थे कि सामने एक पहाडी आयी । दोनों उस पर चढने लगे । राजकुमार बोला- “महोदय! मुझे तो बडी थकावट महसूस हो रही है । कृपया कुछ सहारा दीजिए।” सुधारक ने जब ये शब्द सुने तो झटपट एक पेड के पास गया उसकी एक टहनी को तोडकर राजकुमार के हाथ में देकर बोला- “ये लो सहारा और हिम्मत मत हारो । लकडी के सहारे सफर अच्छा कट जाएगा ।”

लक्ष्मीपति ने लकडी तो हा थमें पकड ली फिर बोला- “महोदय । आप तो बडे ही भोले है । यह लकडी पथ का सहार ानहीं होती चलिए, पहले में ही आपको सहारा देता हूँ और एक कहानी सुनाता हूँ ।”

एसा कहकर उसने सुधाकर को एक कहानी सुनाना प्रारम्भ कर दिया । बातों ही बातों मे समय का पता ही न चला और दोनें बिना थकान महसूस किए उस पहाडी को पार कर गए । पहाडी पार करते ही सामने एक गाँव था । उस गाँव की और इशारा करके सुधारक बोल- “यह जो गाँव दिखायी दे रहा है । बस इससे कुछ ही मील दूर हमारा गाँव है । आशा है, सायकंकल होते होते हम अपने गाँव पहुँच जाएँगे ।”

बातें करते-करते दोनों गाँव की गलियों से गुजर रहे थे । उन्हें देखकर गाँव के लोगो ने उनसे कोई बातचीत न की और ईधर-उधर मुँह फेर लिये । यह देखकर लक्ष्मीपति गाँव से बाहर आते ही बोला- “वाह-वाह! कितना सुंदर श्मशान था वहा ।”

सुधाकर यह सुनते ही ठिठक गया और बोला- “अरे ! क्या बात करते हो? साहब, यह श्मशान नहीं, एक बडा गाँव है । किसी ने सुन लिया तो क्या करेगा?”

“आपको गाँव लगता होगा, पर मुझे तो यह श्मशान ही लगता है।” राजकुमार ने उत्तर दिया चलते-चलते वे एक श्मशान पर पहुँचे । वहाँ पर एक कुटिया थी । दोनों पथिकों को वहाँ से गुजरते देखकर एक आदमी कुटिया से बाहर आया और आवाज देकर बोला- “मित्रो ! आप कहाँ से आ रहे है ओर आपको कहाँ जाना है ? चलते-चलते आप थक गए होंगे । अतः कुछ देर विश्राम कर लीजिए । थोडा खा-पीकर फिर आगे जायेगा । अभी तो दिन बाकी है ।”

यह कहकर आदमी उन्हें कुटिया के अंदर ले गया उनको कुछ खिलाया-पिलाया । दोनों ने वहाँ कुछ देर विश्राम किया, फिर वे आगे की और चले ।

जब वे वहाँ से आगे बढे तो राजकुमार बोला- “वाह! कैसा सुन्दर नगर था? जी चाह रहा था कि वहाँ कुछ देर और रुकूँ । यह नगर सचमुच प्रशंसा के योग्य है।”

सुधाकर राजकुमार के शब्द सुनकर कुछ बोला तो नहीं, पर सोचने लगा । यह आदमी पागल जैसा लगता तो नहीं, पर हाँ मूर्ख जरुर है । नगर को श्मशान और श्मशान को नगर बताता है । बडा ही विचित्र है यह आदमी । मन-ही-मन वह सोचता रहा पर लक्ष्मीपति से कुछ न बोला । अब दोनों आगे चले । शाम हो चुकी थी, दोनों ही सुधाकर के घर के पास पहुँच चुके थे । सुधाकर ने लक्ष्मीपति से वहाँ रुकने को कहा और बोला, “हमारे यहाँ आपके रुकने से हमें आतिथ्य का सौभाग्य प्राप्त होगा ।”

राजकुमार हँसकर बोला- “यदि आप चाहते है कि में आपके घर रुकूँ तो आपकी इच्छा मुझे स्वीकार है । पर आप पहले घर में जाकर यह मालूम कीजिए कि क्या आपकी “ब्रांद की कन्य” मजबूत है ।” यह बात सुधाकर की समझ से परे थी । वह घर के अंदर गया और अपनी बेटी, जिसका नाम लक्ष्मी था, से बोला- “बाहर एक आदमी खडा है, जो मेरे साथ आया है । मुझे वह कुछ अजीब-सा लगता है । उसने नगर को श्मशान और श्मशान को नगर बताया और अब मैंने उसे घर के भीतर आने को निमंत्रण दिया तो पूछता है कि क्या आपकी भ्रांद की कन्य मजबूत है।”

सुधाकर की पुत्री लक्ष्मी अत्यन्त ही बुद्धिमान व गुणवान थी । लक्ष्मीपती का प्रश्न् सुनकर वह मुस्कुराने लगी और बोली- “पिताजी आप उसे अतिथि से जाकर कहिए कि हाँ, हमारी दहलीज का पत्थर मजबूत है । आप अंदर आइए ।”

बाहर जाकर उसने राजकुमार से कहा- “हाँ, हमारी दहलीज का पत्थर मजबुत है। आप अन्दर आ जाइए ।”

राजकुमार सुधाकर का उत्तर सुनकर मन-ही-मन कुछ सोचते-सोचते भीतर आ गया । उसने देखआ कि सुधाकर का घर साफ-सुथरा तथा व्यवस्थित है । घर में घुसते ही सुधाकर की पुत्री ने उत्तम ढंग से उनका आतिथ्य किया । सबसे पहले वह दोनों के लिए शीतल जल ले आई । उन्हें साफ-सुथरे आसन पर बैठाया । फिर चाय और कुलचे से उनकी भूख का निवारण किया । थोडी देर बाद वह रसोई में स्वयं साग-भात पकाने के लिए चली गई ।

मौक पाकर एकान्त में राजकुमार सुधाकर से बोला- “महोदय! अन्दर आने पर मेरे प्रश्ऩ का उत्तर आपको किसने बताया था?” सुधाकर हँसकर बोला- “आपकी पेंचदार बातें मेरी समझ के बिल्कुल परे है। मेरी पुत्री ने ही मुझे वह उत्तर देने को कहा था । क्या करुँ? बेचारी बिन माँ की बच्ची है । बचपन में ही इसकी माँ परलोक सिभर गई थी । गरीब की बेटी है । गरीबी के चलते सुयोग्य वर न मिल पाने के कारण इसका विवाह करने में असमर्थ हूँ । बडा ही चिंतित रहता हूँ । यह मेरी सबसे बडी समस्या है ।”

खाना तैयार हो चुका था । लक्ष्मी ने आदरपूर्वक खाना परोस दिया । बार-बार आग्रह करके खाना खिलाया और अतिथि के सम्मुख खडी होकर बार-बार पूछती रही कि आपके लिए और क्या लाऊँ? राजकुमार का मन लक्ष्मी के आतिथ्य और व्यवहार ने मोह लिया था । उसकी निपुणता, कार्य-कौशल, गृह व्यवस्था और वाक्पटुता देखकर राजकुमार ने मन-ही-मन निर्णय ले लिया थआ कि मैं इसी को अपनी पत्नी बनाऊँगा । रसोई के काम से निवृत्त होकर लक्ष्मीने दोनों के सोने के लिए बिछौने लगा दिए । राजकुमार लक्ष्मी के मोहपाश में पूरी तरह बँध चुका था । चतुर होने के साथ-साथ वह रुपवती भी थी । चुतराई और रुपलावण्य दोनों का अदभुत संगम थी वह । जब वह बिस्तर बिछा चुकी तब राजकुमार उससे बोला- “लक्ष्मी जी! तुम्हारे पिता तो हमारी बातों को समझ नहीं पाए । पर हमें प्रसन्नता है कि आपने हमारे प्रश्न्न का उत्तर देकर हमारी उलझन को दूर कर दिया ।”

लक्ष्मीे ने अपने पिता से कहा कि आप वे प्रश्ऩ बताईए, जो लक्ष्मीबति ने मार्ग में आपसे पूछे थे । सुधाकर ने उसे वे प्रश्न् बता दिए । लक्ष्मी प्रश्ऩ शुनकर मुश्कुराने लगी । उसने उनका उत्तर इस प्रकार दिया -

पिताजी जब अतिथि ने मार्ग में आपसे सहारा माँगा था, आपको कोई कहानी प्रारम्भ करनी चाहिए थी । आपने उसके हाथ में लकडी थमा दी । लकडी तो बुढापे का सहारा होती है । पथ का सहारा तो कथा-कहानी होती है ।

और इन्होंने नगर को श्मशान इसलिए बताया, क्योंकि वहाँ के लोगो को इतनी भी अकल नहीं है कि पथिको को अन्न-जल देकर उनकी सेवा करे । जहाँ आपको कोई अन्न-जल को न पूछे वह स्थान स्मशान नहीं तो और क्या है ?

शमशान को नगर बताने का आशय भी यही था । वहाँ आपको आतिथ्य प्रदान किया गया । आपको बटोही समझकर आपको खाने-पीने को पूछा गया और विश्राम करने को कहा गया ।

और इनका यह प्रश्न् कि क्या आपकी दहलीज का पत्थर दढ है, का तात्पर्य है कि आपकी घर-गृहस्थी की मालकिन क्या बुद्धिमान है? क्या वह अतिथि-सत्कार के धर्म को समझती है?

अपने प्रश्ऩो के सटीक उत्तर पाकर राजकुमार बडा ही प्रसन्न हुआ । उसने सोचा कि जिस प्रकार की जीवनसंगिनी की खोज में मै निकला था, वह मुझे मिल गई है । मुझे अब इसके पिता से स्पष्ट बात कर लेनी चाहिए । यही सोचकर उसने सुधाकर से कहा- “आदरणीय महोदय! यथा नाम तथा गुण, आपकी पुत्री सचमुच ही लक्ष्मी का रुप है । मैं अपने इसके साथ विवाह करना चाहता हूँ, ताकि इससे विवाह करके मैं भी अपने नाम के अनुसार लक्ष्मीपति बन जाऊं । यदि आपकी सहमति मिल जाए तो यह कार्य सम्पन्न हो सकेगा।” फिर सुधाकर को यह भी बता दिया कि वह अमुक देेश का राजकुमार है और अपनी इच्छा से अपनी जीवनसांगिनी खोजने निकला था जो आज उसे मिल गई है ।

सुधाकर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी । वह भला राजकुमार का प्रस्ताव कैसे ठुकरा सकता था । घर बैठे-बिठाये उसे एक सुयोग्य वर मिल रहा था उसने कहा- “राजकुमार! मेरी कन्या बडी ही भाग्यशाली है जो इसे आप जैसा सुयोग्य वर मिलेगा परंतु आप जानते ही है कि हम बहुत निर्धन है । यही दुविधा की बात है, कहाँ आप और कहाँ हम ! धऱती और ाकाश का मेल किस प्रकरा संभव है?”

राजकुमारने कहा- “आप बिल्कुल भी चिंतित न हों । यह कोई दुविधा का विषय नहीं है । शायद आपने मेरी बात को ध्यानपूर्वक नहीं सुना मुझे जो भी लडकी पसंद आएगी, वही मेरी जीवनसंगिनी बनेगी और मेरी पसंद मेरे पिताजी को भी स्वीकार्य होगी । आप धन-दौलत के मामले में भले ही गरीब हों पर आपकी पुत्री तो रुप और गुणों में बहुत धनवान है । रुप और गुण में वह किसी भी प्रकार निर्धन नहीं है । अतः इस बात को किसी भी प्रकार आप अपने मन में न लाएँ।”

सुधाकर की सहमति पाकर राजकुमार बडा प्रसन्न हुआ । उस रात वह वहीं रहा । प्रातः काल होने पर वह अपने पिता के घर लौट आया । उसने अपने पिता को पूरी बात बता दी । राजा भी यह जानकर बडा ही प्रसन्न हु कि आखिर उसके पुत्र ने अपनी पत्नी का चुनाव कर लिया है । उन्होने शुभ मुहूर्त निकलावकर सुधाकर को खबर भेज दी । नगर को सजाया जाने लगा । खूब खुशियाँ मनायी जाने लगी और फिर शुफ घडी में राजकुमार बारात लेकर लक्ष्मी के घर जा पहुँचा । खुब धुमधाम से दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ । राजकुमार लक्ष्मी को अपनी रानी बनाकर महलों में ले आया ।

इस प्रकार वह गरीब किन्तु गुणवान लडकी उस देश की रानी बन गई । वर्षों तक उन्होने सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया ।

२ जिन्न से छुटकारा

एक ईलाका करनाव नाम से मशहूर है । यह एक दुर्गम पहाडी इलाका था । यहाँ के गाँव पर दूर-दूर पहाडी टीलों पर बसे हुए थे । एक बार की बात है, एक वर्ष वहाँ खूब हिमपात हुआ । उमपात इतना अधिक था कि लोग अपने घरों से भी नहीं निकल पाये और अपने-अपने घरों मे कैद हो गए थे । मस्जिद में लोग नमाझ पढने भी नहीं जा सकते थे, यहाँ तक कि पीर साहब ने भी इसे त्याग ही दिया था । कई दिनों तक कोई भी मस्जिद में नहीं गया । ईस कारण वहाँ सायंकाल में दीया भी नहीं जलाया जा सका । खुदा का घर भी प्रकाश से वंचित रहाः हिमपात बहुत जारों से हुआ । इस कारण मस्जिद को छत टूट गई और मस्जिद के अन्दर ही एक कमरे में गिर गई । मस्जिद को इस प्रकार उजाड देखकर एक जिन्न ने उसमें अपना डेरा डाल दिय और वहाँ रहने लगा ।

हेमन्त ऋतु जाने को थी और वसन्त ऋतु आने वाली थी । गाँववालों ने सोचा कि बर्फ के पिधलने पर मस्जिद की छत की मरम्मत करवा दी जाएगी । यही सोचकर चंदा जमा किया और किसी प्रकार मस्जिद के भीतर जाकर एक दिन छत की गिरी हुई कडियाँ उठवाकर उन्हें साफ किया । दूसरे दिन उन्होंने एक बढई को बुलवाया और उसे कडियाँ लगाने का काम सोंप दिया । बढई ने छत लगाने का काम शुरु कर दिया । किन्तु यह क्या ? वह अभी आधी छत ही लगा पाया था कि उसका पाँव फिसल गया और धडाम से नीचे आ गिरा । उसकी टाँग टूट गई । उसे चारपाई पर डाल घर लाया गया । वहाँ से उसे अस्पताल ले जाया गया और उसका इलाज शुरु कर दिया गया । दूसरे बढई को बुलाया गया । फिर दूसरे बढई ने छत का काम तो पूरा कर दिया लेकिन घर आकर वह बीमार पड गया । रात-भर पागलों की तरह बकवास करता रहा । उसका व्यवहार बिल्कुल अजीब तरह हो गया । यह देखकर उसके बीवी-बच्चे बडे परेशान हुए । उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे?

बहुत सोच-विचार करने के बाद इस निर्णय पर पहुँचे कि सुबह होने पर पीर साहब के पास ले जाएँ । सुबह हुई, उसकी बीवी रोते-धोते पीर साहब के पास पहुँची । सारी बात बतायी और उन्हें घर ले आयी । पीर साहब ने बढई की दशा देखी तो बोले- “अरे ! इस पर तो जिन्न सवार हो गया है । मुझे तो जन्तर-मन्तर, झाड-फूँक कुछ नहीं आता । तुम एसा करो, कुछ दूरी पर चौकी बलगाँव है । उसके पास एक छोटी-सी कुटिया है । उसमे जादू-टोला, जिन्न-प्रेत, भूत- चुडैल उतारने वाला एक मौलवी रहता है । जाओ और उसे ले आओ । वह इसका इलाज कर देगा तो यह ठीक हो जाएगा।”

गाँव के लोगों ने जब पीर साहब की बात सुनी तो उन्होंने सलाह-मशविरा किया कि मौलवी को बुला लिया जाए । एक आदमी को मौलवी को बुला लाने के लिए भेज दिया । शाम होते-होते वह उसे अपने साथ लेकर गाँव लौट आया । मौलवी साहब ने बढई का परीक्षण किया और बोले कि जहाँ तक मेरी जानकारी है और अनुभव है, भाईयो, इस पर तो जिन्न सवार हो गया है । पीर साहब ठीक कह रहे है। मुझे अभी तुरंत इसका ईलाज करना होगा । अभी पता चल जाएगा कि यह आफत इसे कहाँ से आ चिपटी और क्यों?” यह कहकर मौलवी साहब ने कुछ काले तिल, लाल मिर्च के बीज और दकते हुए अंगारो से भरी हुई काँगडी मँगवायी । जब सारी सामग्री आ गई तो उसे बढई के सामने रखा, फिर अपनी जेब से चाकु निकाला न जाने कौन से मंत्रो का उच्चारण किया और रोगी के सामने उसे फर्श पर गाड दिया । फिर उसने मुठ्ठी भर तिल और लाल मिर्चों के बीज कुछ मंत्र पढकर दहकते हुए कोयलों पर डाले । कोयलों पर डालते ही तीखा धुआँ निकलने लगा, फिर इस तीखे धुएँ वाली काँगडी को रोगी की नाक की सीध में ले जाकर पूछने लगा- “अबे ओ भले आदमी । झटपट भता तू कौन है ? कहाँ से आया है और इस बेचारे को क्यों सुता रहा है ? इसने तेरा क्या बिगाडा है?”

रोगी को जब मिर्चो का धुआँ नाक में लगा तो वह बडा छटपटाया पर अंत में बोला- “में जिन्न हूँ । में रहता था. वाँ मैने अपना निवसा बना रखा था । इस पर बढई ने ठक-ठक करके मेरे सिर में कील ठोक दी है, इसने एसा क्यों किया?”

मौलवी साहब चिल्लाकर बोले- “इसे छोड दे, नहीं तो तेरा बडा बुरा हाल बनाऊँगा । कल आँगन की दीवार पर हम खिचडी रखेंगे, तू उसे खाकर खुश हो जाना, पर इस बेचारे को छोड देना । “यह सुनकर जिन्न ने हामी भर दी तो वह बढई सचमुच ही स्वस्थ हो गया । गाँव वालों ने मौलवी साहब को नजराना देकर विदा कर दिया ।

जब सब लोगों को यह बात पता चल गई कि मस्जिद में जिन्न का बसेरा है तो इस समस्या का निदान करने के लिए उन्हाोंने एक पंचायत बुलायी और सोच-विचार करने लगे कि कैसे इस बिन बुलाई आफत से छुटकारा पाया जाए । बहुत देर तक यूँ ही सोच-विचार होता रहा, पर जिन्न को भगाने का कोई हल न निकला । आखिरकार, यह निर्णय लिया गया कि जिन्न को इसी मस्जिद में रहने दिया जाए और गाँव के लिए नई मस्जिद बनाई जाए ।

वहाँ पर रहमान नाम का एक आदमी भी था । उसने बडे-बूढों का यह फेसला सुना तो बोला- “भाइयें! हम इनसान है । खुदा ने हमें अकल दी है और अभी प्राणियों का सरताज बनाया है । क्या यह बात शोभा देती है कि हम एक जिन्न से हार मान लें । हम यदि अक्ल से काम लें तो उसे मार भगा सकते है । यदि आपकी सहायता और अनुमति हो तो मैं उसे मार भगा सकते हैं । यदि आपकी सहायता और अनुभति हो तो में उसे यहाँ से जाने पर मजबूर कर दूँगा । वह यहाँ से एसे भागेगा जैसे गधे के सिर से सींग ।” “पंचायत में एकत्रित सभी लोगों ने एक स्वर से सहमति जतायी और बोले- “रहमान । इसमें अनुमति की क्या आवश्यकता है, तू तो गाँववालो की भलाई की ही बात करता है । रहा सवाल सहायता का, तो हम सब खुशी-खुशी तुम्हारे साथ हैं । पर यह बात ध्यान में रखना कि जिन्न तुम्हें किसी प्रकार का नुकसान न पहुँचा दे । तुम जिन्न से कही पिट न जाओ।”

रहमान ने दिन-भर खेत पर काम किया और उसके बाद सीधा घर आया । वहाँ उसने लकडी का एक समतल टुकडा लिया और उसमें दोनों ओर इस प्रकार कीलें गाडीं, जिनकी तीखी नोक दोनो ओर से उभर आई । उसके बाद उसने एक लोटे में कांजी भरी, हाथ में एक हथौडा लिया और यह कीलों वाली लकडी लेकर मस्जिद की और चल दिया । रात का समय था, चालो ओर धुप्प अँधेरा छाया था । मस्जिद के अन्दर जिन्न विराजमान था । जब उसने रमान को को देखा तो उसकी बांछे खिल गई । उसके मन में विचार आया- “लो, आज तो एक शिकार अपने आप ही मेरे जाल में फांसने आ रहा है । आज तो मौज रहेगी दावत खाने को मिलेगी ।

जब वह यह सब सोच ही रहा था, रहमान भीतर आ गया । भीतर आते ही उसने मुस्कुराकर पूछा - “चाचा जी ! प्रणाम, कहिए क्या हाल-चाल है? सब कुछ ठीक-ठाक तो है न?” जिन्न मन-ही-मन सोचने लगा कि यह तो बिल्कुल ही अलग किस्म का आदमी है । इससे तो बिल्कुल और ही ढंग से बात करनी होगी । कुछ सोचकर वह बोला- “आशीर्वाद भतीजे । आओ, भीतर आओ, यहाँ आकर मेरे पास बैठो । रहमान झटपट निडर होकर उसके पास बैठो । “चाचा जी ! चाची जी कहाँ है? उनसे बात किए हुए बहुत दिन हो गए । उनका स्वास्थ्य कैसा है ? उनके हालचाल तो ठीक है?”

जिन्न यह सब सुनने के लिए तैयार न था । वह एकदम सकते में आ गया । फिर कुछ क्षण बाद बोला- “हाँ हाँ, चाची तो बिल्कुल ठीक है, पर यह तो बता कि तू मेरी सेवा करेगा ?” रहमान ने तुरंत उत्तर दिया-“वा चाचा जी ! आप भी अजीब है। कैसी गैरो वाली बात करे हैं । आपकी सेवा करना तो मेरा धर्म है और भला में आया ही किसलिए हूँ । यहा आने का मेरा एक ही तो मकसद है और वह है आपकी सेवा करना आप हुकम कीजिए और बताइये, क्या आज्ञा है?”

जिन्न बोला- “में औंधा होकर अर्थात्‌ उल्टा हो कर लेट जाता हूँ. पहले मेरी मुट्ठी चापी कर दो, फिर अपने नाखूनों से मेरी पीठ खुजा दो ताकि मुझे जल्दी और आराम से नींद आ जैए ।” यह कहकर वह एक भीमकाय शव की भाँति मुँह के बल फर्श पर लेट गया ।”

कहा जाता है कि जिन्नो की अक्ल तो मोटी होती ही है उनकी चमडी भी बहुत मोटी होती है और गेंडे की खाल से भी ज्यादा सख्त होती हे । एसी चमडी पर एक आदमी के नाखून भला क्या असर कर सकते है? जिन्न ने उसके साथ यह एक भयंकर दाँव खेला था । उसने पहले भी इसी दाँव के सहारे कइ लोगो को मौत के घाट उतारा था । वह उनसे अपनी कमर खुरचने को कहता था । जब वे उसकी कमर खुरच-खुरचकर थक जाते और जिन्न की चमडी पर कोई असर न होता तो क्रोध में आकर वह उन्हें भयंकर सजा देता था । परन्तु रहमान तो पूरी तैयारी करके आया था । उसने हाथ में हथोडा लिया और उससे जिन्न की टाँगे, पीठ, बाजु आदि जोर-जोर से ठोकता गया। अब वह रहमान को भी जिन्न-भूत समझने लगा । फिर वह बोला- “अच्छा बेटा । अब तुम मेरी पीठ खुरच दो। रहमान ने अब वह पैनी नोंकदार कीलों वाली लकडी़ हाथ में ली और उससे दबा-दबाकर जिन्न की पीठ पर छेद बनाने लगा। उसकी पीठ से लहू बहने लगा, पर इससे उसे बडा़ आननद आया। आज पहली बार ऐसा लगा है मानो किसी ने ठीक से कमर खुजाई है। अब जरा जोर-जोर से मेरी टाँगो को भी खुरच दो। रहमान उसकी टाँगो पर कील चुभोता रहा। जिन्न के मुँह से वाह-वाह के शब्द फुटते गए और वह अपने दाँ-पेंच चलाना बिल्कुल भूल गया।

रहमान भी मन-ही-मन बडा़ खुश था कि चलो धीरे-धीरे वह अपनी योजना मे सफल हो रहा है। उसने दबा-दबाकर कीलों वाली उसे लकडी़ से जिन्न की पी पर गहरे घाव बनाने शुरू कर दिए। अब जिन्न को पीडा़ होने लगी तो वह जोर से चिल्लाया-‘‘ अरे भतीजे! जरा धीरे-धीर खरुच। हाय-हाय! न जाने क्यों अब तो मेरी पीठ दुखने लगी है। अब तो इसका कुछ-न-कछ उपाय करना ही पडे़गा।’’

रहमान ने यह सुना तो वह झटपट बोला- ‘‘अरे चाचा! घबराने की क्या बात है, पीठ पर अभी मरहम मल देता हूँ। मिनटों में दर्द दूर हो जाएगा।’’ यह कहककर उसने कांजी भरा लोटा उसकी पीठ पर उल्टा कर दिया। उसका पानी जिन्न की पीठ पर रगड़-रगड़कर मला। कांजी के पानी ने उसके जखमं में और भी जलन और दर्द पैदा कर दिया। वह पीडा़ से छटपटाने लगा और तड़प-तड़पकर इधर-उधर दौड़ने लगा। वह बुरी तरह कराह रहा था। रहमान ने आव देखा न ताव, वह दोनों हाथों से हथौडे़ और कीलों वाली लकडीं से वार करता रहा। जिन्न बोला- ‘‘हाय मरा, अरे भतीे यह तुने क्या किया? हाय मरा! अब क्या होगा?’’ यह कहकर खूब उछल-कूद मचाने लगा। रहमान भी बिना कुछ देखे निरंतर वार करता रहा। फिर उसने जिन्न को आज्ञा देते हुए कहा- ‘‘अरे नीच! बोल तू हमारी मस्जिद में क्यों आया? तू यहाँ से भागेगा कि नहीं। मैं तेरा सत्यानाश करके ही दम लूँगा। बडा़ आया जिन्न बनकर, चला है मस्जिद पर कब्ज करने कभी तुने ख्वाब में भी रहमान को देखा था क्या?’’

जिन्‌ अब तक बेहद परेशान हो चुका था। वह जोर-जोर से रो रहा था और उछल-कूद मचा रहा था। उसने हाथ जोड़कर कहा- ‘भतीजे! मुझे तो तुम माफ कर दो। मैं यहाँ से भाग रहा हूँ। अब मैं ेयहाँ नहीं रहूँगा। तुम्हारी मार से मैं परेशान हो गया हूँ। कोई रास्ता ही दिखाई नहीं दे रहा है वरना कभी का भाग गया होता।’’ यह सुनकर रहमान ने उसे मस्जिद का रास्ता दिखाया औऱ बोला- ‘‘जा, भाग जा इस रास्ते से।’’ वह जिन्न रोता-कराहता वहाँ से भाग खडा़ हुआ। सुबह हो चली थी। रहमान बरी तरह थक गया था। वह अपने घर लौट गया और थकान दूर करने के लिए सो गया।

सुबह हुई तो सारे गाँववाले रहमान के घर आ धमके। उन्होंने रात भर मस्जिद से जिन्न के रोने-कराहने की आवाजें सुनी थीं अतः उन्हें शंका हो रही थी और उत्सुकता भी कि रात में क्या हुआ ? जब उन्होंने घर आकर देखा कि रहमान ठीक-ठीक है, सकुशल है तो उन्होंने चैन की साँस ली। रहमान विश्राम कर रहा था। उन्होंने उसे जगाया एक वीर योद्धा की भाँति कंधो पर उठाकर वे उसे गाँव की चौपाल तक ले आये। उन्होंने उसे वीरों का-सा आदर दिया। उन्होंने पूछा कि कैसे उसने इतना बडा़ कारनामा कर दिखाया, तब रहमान ने उन्हे आपबीती सुनायी और बताया कि उसने जिन्न को हराकर अपनी बुध्धि-कौशल के द्वारा वहाँ से भगा दिया है। अब सब फिर से मस्जिद में जाकर नमाज पढ़ सकते हैं और अल्लाह ताला से फरियाद कर सकते हैं। सभी गाँववालों ने उसकी बुद्धि और साहस की सराहना की। गाँव के नम्बरदार ने घोषणा की कि वह अपनी बेटी का निकाह करेगा। सभी लोग बेहद प्रसन्न थे कि चलो गाँव को जिन्न से छुटकारा तो मिला। खुशी-खुशी सब अपने घर चले गए।

इधर तो खुशियाँ मनाई जा रही थीं और उधर जिन्न रोता-चिखता, चिल्लाता हुआ अपनी बिरादरी के लोगों के बीच जा पहुँचा। उसने सबको आपबीती सुनायी। उसकी कहानी सुनकर सब हैरान भी हुए और हतोत्साहित भी। सबके सब बहुत डर चुके थे। भयभीत होकर उन्होंने फैसल किया कि हम सभी यहाँ से चले जाएँगे। आपस में वे लोग बातचीत कर रहे थे। तभी एक जिन्न, जो एक आँख से काना था, बोला- ‘‘हाय-हाय! बडे़ ही शर्म की बात है। हमारे बुरे दिन आ गए हैं जो अब हमें जिन्न होकर भी आदमजात से डरना पड़ रहा है। बडी बुरी बात है, तुम सब एक बात अच्छी तरह समझ लो। मेरी बात बडे़ ध्यान से सुनो और इस पर गौर फरमाओ कि हम डरे नहीं कि हमारा नामोनिशान ही मिट जाएगा। कितीन कायरता की बात है के जिन्न होकर भी हम आदमियों से हार मान बैठे हैं। हमें चाहिए कि हम अपना अस्तित्व सुरक्षित रखने के लिए उसे मनुष्यों से बदला लें। उनका डटकर मुकाबला करें और उन्हें यह बात जता दें कि आज भी हम उनसे अधिक शक्तिशाली है।’’ फिर वह उश पीड़ित जिन्न की और मुखातिब होकर बोला-‘‘ अबे ओ गधे! मूर्ख कहीं के! तू तो बडा़ ही कायर निकला जो गीदडो़ं की तरह डरकर वहाँ से भाग आया अब यह बता कि तू उस छेकरे को पहचान तो लेगा या नहीं?’’

‘‘हाँ-हाँ, पहचान लूँगा, उसने तो मेरी जान ही निकाल दी। हाय-हाय बडा़ दर्द हो रहा है।’’ कराहते हुए वह जिन्न बोला। आप रात होने की प्रतिक्षा करें, मैं बता दूँगा कि वह चालाक लडका कौन-सा है। काने जिन्न से अन्य सभी जिन्नों ने कहा कि ठीक है, रात को हम सभी यहीँ पर इकट्‌ठा होकर एक साथ उस गाँव पर धावा बोलेंगे। फिर उस छोकरे को पकड़कर कच्चा ही चबा जाएँगे। उसके बाद आगे की पूरी योजना बनाकर सभी जिन्न अलग-अलग दिशाओं में चले गए।

जैसे ही रात गहराने लगी। चारों ओर अँधेरा छाने लगा। अपनी योजना के मुताबिक वे सभी एक नियत स्थान पर एकत्रित हो गए। एक साथ जुटकर सभी गाँव की ओर चले। वहाँ पहुँचकर उन्होंने आँधी के वेग से गाँव पर आक्रमण कर दिया। उनका नेतृत्व वही काना जिन्न कर रहा था। उनका गाँववालों पर टुटना था कि चारों और त्राहि-त्राहि मच गई। चीख-पुकार की आवाजें आने लगीं। सभी जिन्न मिलकर गाँववालों को डराने-धमकाने लगे- ‘‘अरे ओ मनुष्यो! उस दुष्ट को हमारे हवाले कर दो वरना हम सर्वनाश कर देंगे। सबका नामोनिशान मिटा देंगे। अभी तुमने हमारा गुस्सा देखा ही कहाँ है? जब तुम सब पर कहर टूटेगा, तुम्हें तभी पता चलेगा।’’

गाँवाले जिन्नों के इस अप्रत्याशित हमले से घबरा गए। वे डर के मारे काँपने लगे। हर आधमी को अपनी जान बचाने की फिक्र थी। वे जिन्नों के आगे गिड़गिडा़ने लगे-‘‘साहब! आप मालिक हैं। लेकिन मैं वह आदमी नहीं हूँ जिसने आपके साथे को मारा है। वह कोई और होगा। मैें तो उसे जानता भी नहीं।’’ इस प्रकार ेकहकर सब अपनी-अपनी जान की गुहार लगाने लगे। रहमान बेचारा बिल्कुल अकेला पड़ चुका था। उसने सोचा, अब इस आफत से मुझे अकेले ही टककर लेनी पडे़गी। परेशानी में घबराने से काम न चलेगा। अतः उसने मन-ही-मन एक योजना बनाई और उस पर अमल करने का निश्चय किया। उसने एक बडा़-सा बोरा लुया उसमें कोयलो की राख और पिसी मिर्चे भर दीं। उसे अपने कंधे पर रखाँ हाथ में छोटी-सी ‘तुम्बकनारी’ ली और तेजी से एख ऊँचे सफेदे के पेड़ पर चढ़ गया। उसे यह बात भली प्रकार मालूम थी कि जिन्न पेड़ पर नहीं चढ़ पाते हैं। पूरी तैयारी के साथ अफने शस्त्रों से लैस होकर वह पेड़ की एख मजबूज डाल पर जा बैठा। वहाँ बैठकर उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ उस काने जिन्न को ललकारा- ‘‘ओ बदबख्त काने! किसे ढूँढ़ता है तू? क्या अपनी मौत ढुँढ रहा है? मैं तो यहाँ हूँ ऊपर पेड़ पर। मैं वही हूँ जुससे तू डरकर भाग गया था। मैने ही तूझे नीचा दिखाया था। बोला क्या बिगाड़ लेगा मेरा? क्या करने का इरादा है तेरा?’’ जब काने जिन्न ने यह ललकार सुनी तो वह उधर की और ही लपका। जब उसने देखा कि रहमान तो पेड़ के ऊपर बैठा है तो उसने अपने साथियों से प्रश्न किया-अरे! यह तो पेड़ के ऊपर बैठा है, अब क्या कर?

इस पर जिन्न बोले-‘‘चलो, ऐसा करते हैं कि तुम नीचे खड़े हो जाओ। हम सब एक के ऊपर एक, एक-दुसरे के कंधो पर पाँव रखकर खड़े हो जाते हैं। सबसे नीेचे तुम, तुम्हारे कंधों पर दूसरा, उसके कंधो पर तीसरा, उस प्रकार चौथा, पाँचवाँ आदि। हम सभी अपने-अपने शरीरों से एख मीनार बना लेते हैं। फिर पेड़ पर पहुँचकर इसे एकदम पकड़ लेंगे।’’

जब रहमान ने यह ब ात सुनी तो वह समझ गया कि जिन्न तो निरे मूर्ख होते हैं। इनके पास दिमाग नहीं होता। मैं नाहक ही डर रहा था। कि यदि इन्होंने पेड़ को ही जड़ से उखाड़ दिया तो मेरी खैर नहीं। पर यह विचार तो इनके मन में आया ही नहीं। सचमुच, बडे़ बेवकूफ हैं ये लोग! अल्लाह ही मेरा रहीम और करीम है। अल्लाह का ही भरोसा है। देखते हैं क्या होता है?

उधर काना जिन्न पेड़ के तने से सटकर खडा़ हो गया। उसके कंधो पर एक जिन्न चढ़ गया। फिर दुसरा, फिर तीसरा। इस प्रकार वे सभी मिलकर मीनार बनाने में जुट गए। गाँव के लोग तमाशा देख रहे थे। घरों में दुबककर घरों की खिड़कियों से झाँक रहे थे और कानाफूसी कर रहे थे कि बस अब तो रहमान गया। अब ये जिन्न इसे पकड़ लेंगे और उसकी बोटी-बोटी करके खा जाएँगे। इसने तो जानबूझकर यह आफत मोल ले ली। बडा़ चला था बहादुर बनने, अब पता चलेगा कि जिन्‌नात से पंगा लेने का क्या अंजाम होता है। लोग न जाने क्या-क्या अनुमान लगा रहे थे।

उधर रहमान ने जब देखा कि जिन्न उस तक पहुँचने ही वाले हैं उसने तुम्बकनारी को बजाना शुरु किया और साथ ही बोरे का मुँह खोलकर उसमें से मिर्चे मिली हुई राख की नीचे जिन्नो की आँखो में फेंकता गया। उन पर बोरी में से राख ऐसे गिरती गई मानो उन पर भयंकर जल प्रपात गिर रह हो। रहमान ऊँचे स्वर में गा रहा था-

मेरी तुम्बकनारी की देखो करामात जी।

कैसे लाती है गगन से राख की बाढ़ जी।

झोंक-झोंक कर मिर्चे मैने सबको जकडा़।

सबसे निचले काने मैने तुझे ही पकडा़ ।।

सचमुच उसने सबसे नीचे वाले काने जिन्न पर सबसे पहले वार किया। मिर्चो वाली राख आँख में पड़ते ही वह तिलमिला उठा। वह अपनी आँखे मलता हुआ वहाँ से भागा। उसके भागते ही सारे जिन्न चीखते-चिल्लाते और आँखों को मलते हुए धडा़म से एख के बाद एक नीचे गिरे।। जिसे जिधर भी रास्ता मिला वह उस और भाग। उसके भागते ही सारे जिन्न चीखते-चिल्लाते और आँखों को मलते हुए धडा़म से एक के बाद एक नीचे गिरे। जिसे जिधर भी र्स्ता मिला वह उस और आग खड़ा हुआ। रहमान पेड़ पर बैठा-बैठा राख नीचे गीराता रहा और जोर-जोर से गाता रहा-

निचले काने तुझे ही पकडा़।

तुझे ही पकडा़ ओ काने ।।

वह काना जिन्न रोता-भागता जा रहा था और बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर देखता जा रहा था कि कहीं रहमान उसका पीछा तो नहीं कर रहा है। जब जिन्न आँखें से ओझल हो गए तब गाँववाले भी अपने-अपने घरों से बाहर निकल आए और रहमान भी पेड़ से नीचे उतर आया इस प्रकार वह गाँव जिन्नो के आक्रमण से सदा के लिए मुकत हो गया सभी गाँववाले रहमान की बुद्धि की सराहना करते न थकते। वे कहते-‘‘सचमुच, बुद्धि में ही बल है। मूर्ख में भला बल कहाँ?’’

उसके बाद एक दिन शुभ मुहूर्त में रहमान दूल्हा बना। गाँव के नम्बरदार की बेटी के साथ उसका विवाह धूमधाम से सम्पन्न हुआ। गाँववालों ने उसे ढेर सारे उपहार दिए। उसे आशीर्वाद व शुभ कामनाएँ देकर उसके सुखी वैवाहिक जीवन की प्रार्थना की। प्यारी-सी दुल्हन घर में आयी। रहमान जैसा पति पाकर वह भी स्वयं को भग्यशाली मान रही थी दोनों का जीवन हँसी-खुशी बीतने लगा। गाँव के लोग एक बार फिर शांतिपुर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। रहमान अब सबकी आखों का तारा बन गया था। जब भी कोई व्यकित कुछ काम करता तो वह रहमान से सलाह लेना न भूलता था। अकल की ताकर शरीर की ताकत से अधिक बडी़ होती है। यही उस कहानी का सार है.

३ दर्जी की बकरी

एक गाँव में एक दर्जी रहा करता था। उसने एक बकरी पाल रखी थी। वह बकरी जर्जी से बातें करती थी। दर्जी के तीन बेटे थे। बेटे जब बडे़ हो गए तो दर्जी ने उनसे कहा कि तुम बकरी को मैदान में ले जाकर चरा लाया करो। उन्होंने अपने पिता की आज्ञानुसार बकरी को चराने ले जाना शुरू कर दिया। बकरी दिन-भर चरती और भरपेट खाती थी, शाम को जब वह घर लौटती तो दर्जी उससे बातें करता और उसे पुचकारकर उसके उसके हाल-चाल पूछता तो वह उसके बेटों की उससे बुराई कर देती और कहती-“ आपके बेटे तो बडे़ खराब हैं, मेरा ध्यान ही नहीं रखते। मुझे तो मैदान में ले जाकर बस एक खूँटे से बाँध देते हैं और खुद खेलने जग जाते हैँ। मैं तो भूखी ही रहती हूँ।”

दर्जी रोज बकरी से यही बात सुनता। कुछ दिनों तक तो वह टालता रहा, पर जब रोज-रोज की यही बात हो गई तो एक दिन उसने अपने बेटों को बुलाया। उन्हें खूब डाँटा-डपटा और बोला-“तुम सब तो बडे़ ही निकम्मे हो। मेरे घर से निकल जाओ।” लड़के तो बेकसूर थे, अतः पिता की डाँट-डपट को वे बर्दाश्त न कर सके। उन्‌होंने पिता का घर छोड़ दिया। जब वे घर से चले गए तब दर्जी को पता चला कि बकरी झूठ बोल रही थी। उसे बकरी की धूर्तता का पता चल गया। वह बहुत पछताया, पर अब क्या हो सकता था? उसे अपने निर्दोष बेटों पर बहुत तरस आया। वह रोज अपने बेटों के घर वापस लौटने की राह देखने लगा।

अब दर्जी के तीनों का हाल सुनिये। तीनों पुत्रों को घर से दूर अलग-अलग स्थानों पर नौकरी मिल गई। वे बडी़ ही मेहनत और लगन से काम करते थे। उनके मालिक उनके काम से बडे़ खुश थे। सबसे बडा़ लड़का लकड़ी का साजो-सामान बनाने वाले एख व्यकित के यहाँ नौकर हो गया। दूसरे लड़के को उसी नगर में एक पनचककी वाले के यहाँ नौकरी मिल गई। तीसरे बेटे को एक दुकानदार के यहाँ काम मिल गया।

इस प्रकार नौकरी करते-करते काफी समय व्यतीत हो गया। दोनों बडे़ भाइयों को घर की और पिता की याद सता रही थी। आखिरकार जब उनसे नहीं रहा गया तो उन्होंने घर वापस लौटने का फैसला कर लिया। दोनों ने अपने-अपने मालिकों से बात की और उन्हें भी इस बात पर राजी कर लिया कि वे अब अपने घर चले जाँएगे। बडा़ भाई जब नौकरी छोड़कर अपने घर जाने को तैयार हुआ तब उसके मालिक ने उसे एक छोटी-सी मेज देकर कहा-“बेटा! यह चमत्कारी मेज है। तुम इस मेज से जिस प्रकार का भी भोजन माँगोगे, तुम्हें इस पर तैयार मिलेगा।’

दूसरे भाई को पनचककी वाले ने एक गधा उपहारस्वरूप दिया औऱ कहा-“यदि तुम यहाँ से जाना ही चाहते हो तो जाओ। अपने साथ इस गधे को भी ले जाओ। जब भी तुम इस गधे से कहोगे कि मुझे मोहरें दो, तभी यह गधा अपने मुँह से मुहरें उगलने लगेगा। जब तक तुम ‘बस करो’ न कहोगे तब तक यह मोहरें उगलता ही रहेगा।”

दोनों भाइयों ने अपने-अपने मालिकों से विदा ली। अपने-अपने उपहार लेकर वे घर की ओर चल दिए। शाम होते-होते वे एक गाँव में पहुँचे। रात-भर आराम करने के लिए वे एक सराय में रुके। सराय वाला बडा़ ही दुष्ट व्यकित था। बातें बनाने में वह बडा माहिर था। उसने उन के बारे में भी बातों-ही-बातों में उसने जानकारी हासिल कर ली। जब उसे पता चला कि यह मेज और गधा तो बडा़ ही करामाती है। उसके मन में लालच आ गया, उसने उन्हें हथियाने की सोची। जब दोनों भाई गहरी नींद में सो रहे थे, उसने हु-बहू वैसी ही दूसरी लकड़ी की मेज लाकर वहाँ रख दी और उसी शकल का गधा भी वहाँ लाकर खूँटे से बाँध दिया। सुबह हुई दोनों भाइयों को जरा भी ेगुमान न था कि सरायवाले ने उनके साथ छल किया है। वे इन नकली चीजों को लेकर घर की ओर चल दिए

दोनों जब घर पहुँचे तो पिता उन्हें देखकर बहुत खुश हुआ। उन्हें भी अपनी पिता से मिलकर बहुत अच्छा लगा। दोनों ने अपने पिता को आपबीती कंह सुनायी, फिर उन्होंने अपने-अपने उपहारों के बारे में पिता को बताया। यह सुनकर पिता और भी प्रसन्न हुआ कि जिन बेटों को उसने नालायक समझा था, वास्व में वे कितने लायक हैं। उसने इच्छा जाहिर की कि इन उपहारों की विशेषता को परख लिया जाए। किन्तु वे यह देखकर हैरान रह गए कि वे तो साधारण उपहार थे। पिता ने जब यह सब देखा तो वह अपने बेटों पर बहुत नाराज हुआ। उसे लगा कि उसके बेटे उसके साथ मसखरी कर रहे हैं। बेटों ने पिता को बहुत समझाया पर उसकी शंका दूर न हुई। उसने अपने बेटों को बहुत समझाया पर उसकी शंका दूर न हुई। उसने अपने बेटों को बहुत भला-बुरा कहा कि तुम अब भी पहले जैसे ही हो। तुममं तो जरा भी परविर्तन नहीं आया है। बेटे बेचारे बडे़ दुखी हुए वे जान चुके थे कि उनके साथ धोखा हुआ है, पर कुछ कर भी तो नहीं सकते थे। उन्होंने अपने तीसरे और सबसे छोटे भाई को आपबीती लिख भेजी और उसे ताकीद दी कि जब तुम घर आओ तो सरायवाले से सतक रहना, क्योंकि वह बडा़ ही धूर्त है और उससे यह भी कहा कि यदि संभव हो सके तो चुराये हुए दोनों असली उपहार भी प्राप्त करने की कोशिश करना।

तीसरे भाई को जब अपने बड़ें भाइयों का पत्र मिला तो उसे बडा़ दुख हुआ। उसने सरायवेल को सबक सिखाने की सोची। वह अपने मालिक के पास गया और बोला- “साहब! मैं बहुत दिनों से घर नहीं गया हूँ। मुझे अपने पिता और भाईयों की याद सता रही है। कृपया मुझे कुछ दिनों की छुट्‌टी देने के कृपा करें।” मालिक ने सहर्ष इजाजत दे दी। मालिक ने उसे भी एक थैला उपहारस्वरूप दिया और कहा-“यह थैला लो कभी विपत्ति पड़ने पर यह तुम्हारी सहायता करेगा। इसकी विशेषता है कि जब भी तुम्हें जरूरत पडे़ तब तुम कहना-‘रससीये जकड़ और डण्डे मार।’ तुम्हारे एसा कहते ही एक रस्सी निकलेगी, वह तम्हारे दुश्मन को जकड़ लेगी और उसमें से एक डण्डा भी निकल आयेगा, जो उसकी खोपडी़ पर प्रहार करने लगेगा।”

उपहार पाकर और मालिक से विदा लेकर वह तीसरा दर्जी पुत्र घर की और चल पडा़। रात बिताने के लिए वह उसी सराय में जा पहुँचा, जहाँ पहले उसके दोनों भाई रुके थे। उसने थैले को खूब सँभालकर रखा और यह जताया मानो उसमें खूब माल भरा हो। सरायवाला बेईमान तो था ही, साथ ही धूर्त भी था। उसके मन में फिर लालच आ गया । उसने थैले को चुराने का विचार बनाया। दर्जी पुत्र ने उस थैले कों सँभालकर अपने तकिये के नीचे रख लिया और सोने का उपक्रम करने लगा आधी रात होने पर सराय मालिक ने सोचा कि अब राहगीर सो गया होगा। अतः थैले का धन चुराने के इरादे से वह वहाँ दबे पाँव आया दर्जी पुत्र तो ताक में आँखें बंद किये लेटा था। जैसे ही सरायवाले ने उसके तकिये के नीचे से थैला निकाला वह बोला- ‘रस्सीये जकड़ और डण्डें मार।’ उसके यह कहने भर की देर थी कि सचमुच ही थैले में से एक रस्सी निकली और बाहर निकलते ही उसने सरायवाले को चारों ओर से जकड़ लिया। उसके बाद थैले से एक डण्डा भी निकला और खूब उछल-उछलकर सरायवाले की खोपडी़ पर बरसने लगा सरायवाला यह देखकर भौंचक रह गया। वह जोर-जोर से रोने और चिल्लाने लगा-“ अरे भाई! मेरा क्या कुसूर है? मैंने तुम्हारा क्या बिगाडा़ है? मुझे माफ करो हाय मरा! हाय मरा!”

दर्जी पुत्र चुपचाप खडा़ तमाशा देखता रहा। जब डण्डे ने सराय मालिक को खूब अच्छी तरह मार-मारकर लहूलुहान कर दिया, तब दर्जी पुत्र बोला, “बदमाश कहीं के! मुझसे पुछता है मेरा कुसूर क्या है? क्या तु खुद नहीं जानता कि तूने मेरे भाइयों के साथ कितना बडा़ धोखा किया है, जो असली और चमत्कारी उपहारों के स्थान पर नकली चीजें रख दी। जब तक तू वे चीजें मुझे नहीं लौटायेगा, तब तक ये डण्डा इसी प्रकार तेरी पिटाई करता रहेगा। पहले तू मेरे भाइयों से हथियाया हुआ माल लौटाने का वायदा कर तब मैं रस्सी और डण्डे को थैले के अन्दर जाने की आज्ञा दूँगा।”

लहूलुहान सरायवाले ने उस दोनों चीजें लौटाने का वायदा किया और मँगवाकर उसे लौटा दीं। दर्जी पुत्र दो नों चीजों को लेकर खुशी-खुशी घर लौटा।

जब वह घर पहुँचा तो अपने बिछुडे़ पिता और भाइयों से मिलकर बडा़ कि प्रसन्न हुआ। तीनों बेटों ने अपने पिता के साथ मिलकर खुब दावत उडा़ई। उन्होंने मेज से अनेक प्रकार के व्यंजन मँगाये और मिल-बैठकर सबने साथ-साथ खाये। पिता को भी अपने पुत्रों की सफलता पर बडा़ गर्व हुआ। उसे भी अब बकरी की धूर्तता का पता चल चुका था। बकरी ने जब फिर से चारों को साथ-साथ देखा तो वह रात के समय घर से भाग गई। तीनों करामाती चीजों के साथ बाप-बेटे बडे़ ही सुखपूर्वक जीवन बिताने लगे। पिता ने फिर कभी अपने बेटों को निकम्मा नहीं कहा। वे उपहार उनके जीवन के लिए वरदान बन गए। उन्होंने बिछुडे़ भाइयों व पिता को फि से मिला दिया।

४ फसल का हस्सिा

बहुत पुरानी बात है। पहाडी़ इलाके में एक गाँव था। वह गाँव जंगलों के मध्य था और उन जंगलों में देवदार और चीड़ के पेड़ बहुत अधिक संख्या में थे। उसी गाँव में एख नौजवान रहता था, उसकान नाम नबीरा था। अपनी उम्र के लोगों मे और गाँव के लोगों के बीच नबीरा बुद्धिमान समझा जाता था। लोग उसकी चतुराई व योग्यता के कायल थे। इसीलिए लोगों ने उसका नाम ‘नबीरा चालाक’ रख दिया था। कैसी भी कठिन-से-कठिन परिस्थिति हो या। जटिल-से-जटिल समस्या, वह सबका निदान खोज ही लेता था। इसीलिए वह सबका प्यारा और गाँववोलं की आखों का तारा बन गया था।

नबीरा के माता-पिता कई वर्षो पूर्व ही स्वर्गवासी हो चुके थे। उसका पालन-पोषण उसके चाचा-चाची ने किया था। चाचा-चाची की एक बेटी थी, वह उनकी इकलौती संतान थी। उसका नाम रहमत था। रहमत बडी़ ही नेकदिल और सुशील लड़की थी। वह बडी़ दयालु भी थी, इसीलिए गाँव में सब उसे बहुत प्यार करते थे। गाँव की बडी़-बूढ़ियाँ उसकी प्रशंसा करते न थकती थीं। वह गाँववालों के लिए एक उदाहरण बन गई थी। औरतें अपनी बहू-बेटियों को उसका अनुकरण करने को कहती और बोलतीं-“कहाँ तुम और कहाँ वह गरीबी में पली बडी़ रहमत।!” वह सचमुच खुदा की रहमत है। भगवान एसी बेटी सबको दे। जिस घर जाएगी उसका घर रोशन कर देगी।’

एक दिन रहमत ने पित ने उसका विवाब नबीरा से कर दिया और अब वे अपना अलग घर बसाकर रहने लगे। इस परिवार के पास अपनी कोई जमीन न थी। ये लोग जमीदारों के खेतों में मजदूरी किया करते थे और उसी से अपनी गुजर-बसर किया करते थे। जमींदार उन्हें बँटाई पर खेतों में काम करने देते थे। उपज की लगभग एख तिहाई फसल ही उन्हें पारिश्रमिक के रूप में दी जाती थी। ेचाहे वह खेतों में कितना भी खून-पसीना एक क्यों न कर ले? बाकी की फसल व घास जमींदार स्वयं ले जाते थे। दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद भी नबीरा दो वकत की रोटी बड़ी मुश्किलसे जुटा पाता था। रहमत आदत की तो अच्छी थी, ही उसमें एक गुण और भी था। वह चरखा कातने में माहिर थी। वह ऊन का बहुत महीन तार निकाल सकती थी। इसलिए जिस भी जमींदार को अपनी लोई तैयार करवाने के लिए ऊन कतवानी होती वह रहमत से ही यह काम करवाता था। उसे अपने इस हुनर के बदले अच्छे दाम भी मिलते थे। इस प्रकार दिन-रात कठिन मेहनत करके वे दोनों किसी प्रकार कुछ पैसा जोड़ने में सफल हो गए।

शाम का समय था। एक दिन रहमत गाँव के पोखर पर पानी लेने गई। उसने वहाँ पर दो घडे़ पानी के भरे । फिर उन घडो़ं को एख के ऊपर एक रखाँ वहाँ एक दूसरी औरत भी थी। रहमत ने उससे विनती करते हुए कहा-“बहन! जरा ये दोनों घडे़ं मेरे सिर पर रखने में मेरी मदद कर दो। अल्लाह तुम्हारा भला करेगा। तुम्हारे थोडा़-सा सहारा लगाने से मेरे काम बन जाएगा।” उस औरत ने सहारे देकर उन घडो़ं को उसके सिर पर रखवा दिया। फिर न मालूम उसके दिमाग में क्या आया कि रहमत से बोली-“देखो, आज तो मैंने तुम्हें सहारा देकर तुम्हारी मदद कर दी पर खबरदार! आगे कभी मुझसे ऐसा न कहना।”

यह बात सुनकर नम्रतापूर्वक बोली-“क्यों बहन! क्या बात है? यदि अज्ञानतावश मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे क्षमा कर दें। यह सनकर वह औरत नाक-भौं चढा़कर बोली-‘तू मुझे बहन बनाएगी। अरी, तू अपनी औकात तो दिख। तू मुझे अपनी बहन कब से समझने लगी। तू ठहरी एक मजदूर की बीवी और मैं हूँ एक जमींदार की बेटी और बहु क्या तू मेरी बहन बनने योग्य है? कहाँ तू और कहाँ मैं? खबरदार जो आगे से फिर कभी मुझे बहन कहा।”

रहमत ने चुपचाप सारी बातें सुनीं और शांत स्वभाव से मुस्कराकर उत्तर दिया-“बैगम साहिबा! आप बिल्कुल ठिक फरमा रही हैं. भूल मेरी ही थी, जो आपको बहन बुला बैठी। आईदा एैसी गलती फिर कभी न होगाी। मैं क्षमा चाहती हूँ। आज का मेरा गुनाह माफ करें।” उस औरत से माफी माँगने के बाद रहमत का मन बुझ-सा गया। वह मन-ही-मन सोचने लगी कि भगवान ने इस धरती पर मुझ भाग्यवहीन को पैदा ही क्यों किया? इस जमीन को खुदा ने सिर्फ पैसेवालों के लिए ही बनाया है, हमारे लिए नहीं। कष्ट सहने के लिए सिर्फ गरीब हैं और मौज उडा़ने के लिए अमीर। हे खुदा! ये तेरा कैसा न्याय है? मन में ऐसा सोचते-सोचते विचारों में मग्न होकर वह मकान के सहन में आयी, वहाँ भेडो़ं का भुसी खिलाने लगी। विचारों में वह इस कदर खोई हुई थी कि वहाँ उसने अपने पति नबीरा को भी न देखाँ नबीरा ने उससे कहा- “क्या बात है? तुम कुछ परेशान लगती हो? रोज की तरह तुमने आज मेरी ओर देखा तक नहीं। क्या सोच रही हो? सच-सच बताओ, किस बात की चिंता है? सब खेरियत तो? तुम तो बडी़ परेशान लग रही हो?”

रहमत ने मुस्कराकर उत्तर दिया-“नही-नहीं, ऐसी कोई भी बात नहीं हैं। पता नहीं आपको ऐसा क्यों लगा? चिंता की कोई बात नहीं है। तो न मालूम क्या सोच रही थी, जो आपकी और ध्यान नहीं गया। आप थके-हारे आए हैं, विश्राम कीजिए। मेैं आपके लिए चाय बनाकर लागी हूँ” वह रसोई में जाकर समावार में कोयले डालकर चाय बनाने लगी, पर उसकी आँखों में आँसू भरे थे। मन बोझिल था। नबीरा ने जब यह देखा तो वह उसकी मनःसिथ्ति भाँप गया और बोला-“बाँटने से दुःख हल्का हो जाता है। क्यो क्या बात है?” नबीरा के आग्रहपूर्वक पूछने पर रहमत ने उसे सारी बात कह सुनायी। उसके आँसुओ. की धारा वह निकली। वह बोली-“हम मजदूर हैं, गरीब है, इसीलिए उसने हमें कुत्ते की तरह दुत्कार दिया। यदि हम भी पैसें वाले होते तो क्या वह ऐसा करती? शायद अल्लाह की यही इच्छा है। हन उसकी इच्छा को अपना सिर झुकाकर सहर्ष स्वीकार करते हैं।”

यह सुनकर नबीरा मन-ही-मन बडा़ दुखी हुआ, पर रहमत को खश करने के लिए उसे झुठी तसल्ली देता हुआ बोला-“ बस इतनी सी बात थी तुम इसके लिए उतना परेशान हो गई कि अपनी आँखों में मोतियों को जमा कर लिया। मैं आज और अभी यह प्रण करता हूँ कि मजदूर से एक दिन जमीन का मालिक बनकर दिखाऊँगा।

रहमत ने कहा-‘अच्छा! जरा यह तो बताओ कि जमीन खरीदने के लिए पैसे कहाँ से लाओगे? है इतनी रकम तुम्हारे पास? घर में तो केवल पाँच रुपये हैं और वह भी मुसीबत पड़ने पर काम आएँगे, यह सोचकर सँभालकर रखे हैं।”

“क्या तुम्हें मेरे फावडे और भुजाओं की शकित पर विश्वास नहीं है, जो ऐसी बातें कह रही हो? मैं अपने आप खेत तैयार करूँगा।” रहमत ने फिर प्रश्न-“क्या ये पैसे वाले मगरमच्छ तुम्हें जमीन लेने देंगे?” उसकी बात सुनकर नबीरा हँसने लगा और बोला-“रहमत तुम बडी ही भोली हो। क्या तुम्‌हें मेंरी बुद्धि पर विश्वास नहीं है? तुम भी अब अपनी कस लो क्योंकि बंजर जमीन पर तुम भी तो मेरे साथ काम करोगी। अब सारे किस्से छोड़ दो और एक प्याली गरमागरम चाय मुझे पिला दो ताकि मेरी थकान दूर हो जाए।”

उस रात नबीरा चैन से नहीं सो पाया नींद तो मानो उसकी आँखों से कोसों दूर थी। सोचते-सोचते सुबह हो गई। मुर्गे ने बाँग दी। वह उठा, नहायो-धोया और मस्जिद जाकर नमाज पढी़ और घर लौट आया। घर आकर बीवी से बोला-“अभी लौटकर आता हूँ।” यह कहकर वह कघर से चला गया। घर से वह सीधा गाँव के पटवारखाने पर पहुँचा। वहाँ पटवारी बैठा था। नबीरा ने उसे अपने दिल की बात बतायी। पटवारी को नबीरा हमेशा खुश रखता था। उसने जब नबीरा की बात सुनी तो बोला-“अरे नबीरा! मैं बहुत दिनों से यह बात सोच रहा था कि तुझे एक सलाह दूँ कि तुू खुद ही बंजर भूमि को तोड़कर नवतोड़ जमीन का मालिक क्यों नहीं बनता? अब तो तू खुद ही मेरे पास आ गया है। मैं जाँच-पड़ताल करके शाम तक तुझे बता दूँगा। कि कौन-सी बंजर जमीन को तू नवतोड़ बना ले। शाम को खाना खाने के बाद तू मेरे पास आ जाना, तब हम फुर्सत में बेैठकर बात कर लेंगे।”

पटवारी से सलाह-मशविरा करके नबीरा अपने घर लौट आया। उसे देखते ही रहमत उसके लिए चाय ले आई। अपनी चाय देखकर वह रहमत से बोला कि तू भी अपनी चाय यहीं ले आ और समावार भी यहीं रख ले। अब मुझे यह बता दे कि यदि अगले साल तू अपनी खूद की जमीन का अनाज खाएगी तो पीरे दस्तगीर की चाय कितने लोंगो को पिलाएगी। रहमत बोली-“इस खुशी में मैं पूरे गाँव को चाय पिलाऊँगी।” बातें करते-करते दोनों ने चाय पी और अपने-अपने काम में जुट गए। रहमत को चूल्हे-चौके का काम था तथा साथ ही ऊन की कताई भी करनी थी और नबीरा को खेत पर जाना था।

शाम होने पर खाना खाकर नबीरा पटवारी से मिलने गया। उपहारस्वरुप वह श्वेत मधु का एख प्याला पटवारी के लिए ले गया ताकि उसका मुँह मीठा करवा सके। उसने सबसे पहले पटवारी से दुआ सलाम की। उसे सौगात में शहद का प्याला भेंट किया। फिर पटवारी के पास बैठकर बात करने लगा। पटवारी ने कहा-“नबीरा! मैंने तुम्हारे लिए जमीन देखी है। उस बंजर जमीन को आबाद करने के कागज भी तैयार कर दिए हैं। उन पर अपना अँगूठा लगा दो। सरकार का नजराना कल ही पेश कर देना ताकि मैं उसे खजाने में जमा करी दूँ। नजराना भी मैंने केवल तीन ही रुपये का लगाया है। नबीरा, लेकिन एक बात है, उस जमीन पर झाड़-झंखाड़ बहुत उगे हुए हैं। वह उनस पडी़ है। तुझे बड़ी मेहनत करनी पडे़गी।” नबीरा ने हामी भरदी। पटवारी ने सरकारी कागज निकाले और उन पर नबीरा के अँगूठे लगवा लिये। फिर बोला-“ले! तेराकाम तो हो दया, पर तू अभी से किसी से भी कुछ न कहिये। फागुन के महीन में जब बर्फ पिघलनी शुरू हो जाएगी। तुझे मैं सबके सामने उस जमीन के टुकडें का मालिक बना दुूँगा। एक बात ध्यान रखियो कि किसी कोभी कानो-कान खबर न होने पाए। खबरदार! बडे़ जमीदोरं को पता चला तो बुरा होगा।”

सारी बातें समझाकर उसने नबीरा के विदा कर दिया। नबीरा खुशी-खुशी घर लौट आया। उसने रहमत को भी पूरी बात बतायी। रहमत के तो मानो पंख ही निकल आए थे दोनों बडी़ ही बेसब्री से फागुन मास की प्रतीक्षा करने लगे।

शिवरात्रि का पर्व आ पहुँचा था। बर्फ पिघलने लगी थी। खेत जोतने का मौसम आ गया था। पटवारी ने उस बंजर जमीन के टुकडे़ पर सारे गाँव वालों को बुलाया और फिर सरकारी हुकम सुनाते हुए नबीरा को उस पड़ती जमीन का मालिक घोषित कर दिया। अगले ही दिन नबीरा ने अपने मित्रों कबीर, रहीम,रहमान, सलीम को निमत्रण दिया कि खेत को साफ-सुथरा बनाने में वे उसकी मदद करें। सभी मित्र खुशी-खुशी अपने फावडे़-औजार आदि लेकर वहाँ आ गए और उसकी सहायता में जुट गए। दो-चार दिन तक लगातार काम करके उन्होंने घरती को साफ कर दिया और खेती योग्य बना दिया। कुछ दिनों तक नबीरा रोज खेत पर जाकर कठोर परिश्रम करता रहा। वह मुँह अँधेरे खेत पर जाता और सायंकाल घर लौटता। एक दिन की बात है कि जब शाम को वह घर लौट रहा था तब एक अजीब घटना घटी। उसके सामने न मालूम कहाँ से अँधेरे में एक मोटी-सी मुर्गी अपने साथ अनगिनत बच्चों को लये कुड़-कुड़ करती हुई आई और उसका रास्ता रोक लिया। नबीरा को घर जाने को देर हो रही थी। अतः वह उसे हटाने लगा। उसने उसे हटाने के बहुत यत्न किये, पर वह रास्ते से न हट। जिस और रास्ता नबीरा जाने के लिए लेता वह तुरंत उधर ही पहुँच जाती। थोडी देर तक वो यही चलता रहा। नबीरा बहुत परेशान हो गया कि आखिर वह करे तो क्या? वह इसी ऊहापोह में था कि अचानक उसने देखा, सामने न तो मुर्गी है न चूजे, उसके बदले उसका रास्ता रोके हुए भेड़-बकरियों का रेवड़ खडा़ है। भेड़-बकरियों जोर-जोर से मिमिया रही थीं। वह जिधर से भी निकलने की कोशिश करता, वे उधर ही पहुँच जातीं। आखिरकार उबड़-खाबड़ जमीन से गुजरता काँटेदार झाडियों में से होता हुआ नबीरा पहाडी़ रासतों से गुजरने लगा। वहाँ भी उस रेवड़ ने उसका पीछा न छोडा़। उसके कपडे़ फट चुके थे। इती देर में कुछ बटोही (यात्री) हाथों में लशिवुडुर (मशाल) लिये उधर की और आते दिखाई दिए। उस रोशनी तो देखते ही वे भेड़ न जाने कहाँ गायब हो गई! जब वे यात्री उसके पास पहुँचे तो उन्होंने उससे पूछा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो और इतने बदहवास क्यों हो? तो उसने बताया कि वह घर के रास्ते से दूर जंगल की ओर भटक गया था। किसी प्रकार खुदा-खुदा करके वह घर पहुँचा और चैन की साँस ली। वह सोचता रहा कि जो कुछ आज उसने द्‌खा वह क्या था? एक सपना, भ्रम या फिर निश्चित रुप से किसी भूत-प्रेत या जिन्न की लीला थी।

अगले दिन रोज की भाँति वह फिर खेत पर गया। शाम को लौटते समय उसने क्या देखा कि एक भीमकाय, काला भयानक आदमी उसका रास्ता रोककर खडा़ हो गया। नबीरा को लगा कि जैसे कोई भूत सामने आ गया हो, उसने झटपट अपनी जेब से चाकू निकाला। विस्मिल्लाह कहकर उस चाकू को उसने जमीन में गाड़ दिया और बैठ गया। उसके ऐसा करते ही वह विशालकाय व्यकित एक साधारण कद वाले व्यकित जैसा हो गया और गुर्राकर बोला- “ ओ आदमजात! यदि आज तेरे पास चाकू न होता तो मैं तुझे मौत के घाट उतार देता। क्या तू जानता है कि मैं कौन हूँ? मैं इस जगह का मालिक हूँ। मैं जिन्‌न हूँ, तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम मेरी जगह में फसल उगाओ।”

उसकी यह बात सुनकर नबीरा डर दया पर ऊपर से उसने यह दिखाया कि वह बहुत बहादुर है, उससे नहीं डरता। वह हँसते हुए विनम्रतापूर्वक बोला-“माफ कीजिए जिन्न साहब! जमीन तो जुताई करके फसल उगाने के लिए ही बनी है, पड़ती रखने के लिए नहीं इसलिए यदि मैं इस बंजर जमीन पर मेहनत करके फसल उगा लूँ तो क्या कोई गुनाह हो जाएगा।” नबीरा ने मन-ही-मन योजना बना ली थी कि अब वह जिन्न से नहीं डरेगा। उसके इस प्रश्न पर जिन्न बोला-“नहीं, गुनाह तो नहीं होगा पर आदमजात तू खुद ही सोच, जमीन तो मेरी है। तुझे इस पर जुताई करके फसल उगाने से पहले मेरे से हिस्सा-बँटाई मुकर्रर करनी होगी।’

नबीरा ने द्‌खा कि कुछ-कुछ बात बन रही है, अतः उसने कहा- “हुजूर! मरा गुनाह माफ करो। मैं जन्म ,े ही काश्तकार हूँ और सारी उम्र मुझे काश्तकारी ही करनी है। इसलिए अब आफ खुशी-खुशी मुझे इस जमीन का काश्तकार बना दिजिए। मैं सारी उम्र आपकी गुलामी करूँगा। बस आप मुझ पर अपनी कृपादृष्टि बनाये रखना। मैं तो आपका दास हूँ। आप आका हैं मेरे।” जिन्न की बुद्धि मोटी होती है। नबीरा ने जब उकी इस प्रकार खुशामद की तो जिन्न खुश हो गया और बोला-“चलो, तुम्हें आज से ही मैंने इस जमीन का काश्तकार बना दिया। पर फसल की हिस्सा-बँटाई तो तुम्हें मुकर्रर करनी ही पडे़गी। दो-तिहाई फसल पर मेरा अधिकार बनता है, पर चलो तुम आधी उपज ही देना।” नबीरा ने कहा- “ठीक है।” उसने अपनी बुद्धि और चातुर्य से जिन्न को अपनी सही मेरे मालिक। मेरे आका, पर यह तो बताओ कि फसल का कौन सा भाग आप आधा लेंगे। ऊपर वाला या फिर निचे वाला? मैं भला नीचे का भाग क्यों लूँगा, मैं तो उपर वाला भाग लूँगा। जिन्न ने उत्तर दिया।

“ठिक है हुजूर मुझे आपका शर्त मंजूर है। आपका हुकम सर आँखों पर अब तो मुझे घर जाने की इजाजत दे दीजिए।” नबीरा ने अच्छा जाओ” इतना कहकर जिन्न वहाँ से गायब हो गया और नबीरा घर लौट आया। उसने अपनी बीवी को कुछ भी न बताय क्योंकि वह जानता चाहता था कि औरतों का दिल कमजोर होता है। ेअब नबीरा ने जमीन को फसल बोने योग्य बना दिया था। अतः उसने उसमें शलगम और मूली बो दीं। उसने खूब मन लगाकर नलाई आदि की। खाद-पानी प्रचुर मात्रा में दिया और समय आने पर चारों ेऔर हरियाली छा गई। ऐसा लग रहा था मनो किसी ने हरे रंग मखमली चादर खेत में बिछा दी हो। यह देखकर नबीरा बेहद खुश हुआ। आज उसकी मेहनत रंग ले आयी थी जो फसल के रूप में खेत में लहलहा रही थी। एक दिन शाम को जिन्न फिर मनुष्य के वेश में नबीरा के पास आया और बोला-“ अरे ओ काश्तकार! फसल तो तैयार हो गई है। कब काटेगा तू इसे?”

नबीरा ने उत्तर दिया- “मालिक! फसल को मैं कल सुबह के समय काटूँगा। आप बस इतना बता दीजिए कि आप अपना हिस्सा लेने किस समय आएँगे?” तुम मेरा हिस्सा ढेर लगाकर यहीं रख देना। मैं खुद आकर ले जाऊँगा फिर उसे बाजार में बेच दूँगा।” यह कहकर जिन्न वहाँ से गायब हो गया।

नबीरा ने सुबह के समय खेत में जाकर जमीन के नीचे वाले के अपे हिस्से के मूी शलगम अलग करलिए और जमीन के उपर के पत्तों का अम्बार एक ओर लगा दिया। जिन्न अपनी फसल का ढेर कंध पर लादा और नबीरा के साथ बाजार में बेचने को बैठ गया। उसने मनुष्य का रूप धारण कर रखा था। ताजे-ताजे मूली-शलगम तुरंत बिक गए और नबीरा को अच्छी-खासी रकम मिल गई। वह हँसते-हँसते घर लौट आया। जिन्न पत्तों का ढेर लिए बैठा रहा। किसी ने भी उन्हें नहीं खरीदा। लोग उसे पत्तों के साथ बैठें देखकर उसे पत्तों के साथ बैठे देखकर हँसते और सामने से गुजर जाते। देर शाम तक जब उसके पत्तों का मोल किसी ने न किया तो जिन्न जल-भुन गया। उसने पत्तों को वहीं नाले में फेंक दिया और लौट गया।

अगली बार नबीरा फिर खेत को जोतने पहुँचा तो वह जिन्न फिर वहाँ आ धमका और बोला- “ आ मनुष्य! तुने पिछली बार मेरे साथ धोखा किया। असली फसल तो खुद रख लीं और मुझे वे पत्ते दे दिए जिन्हें खरीदने को कोई भी तैयार न हुआ।” नबीरा ने कहा- “मालिक! आप खुद बताइये, मेरी क्या गलती है? मैने तो पहले ही आपसे पुछा था कि आप फसल का कौन-सा हिस्सा लेंगे? आपके हुकम का पालम मैंने किया। यदि आपका माल नहीं बिका तो मेरा क्या दोष?” यह सुनकर जिन्न बोला- “चलो अब तो जो हुआ सो हुआ। पर अबकी बार मैं फसल का नीचे वाला हिस्सा लूँगा। यदि मंजूर हो तो खेत जोतो वरना नहीं।” नहीरा ने तुंरत हामी भर ली और बोला-“मुझे आपकी हर शर्त मंजूर है। बस आप खुश रहीए।” नबीरा खेत में हल चलाने लगा। जब खेत तैयार हो गया तो उसने उसमें अबकीं बार गेहुँ बो दिए। कुछ दिनों बाद फसल पककर तैयार हो गई। गेहूँ की सुनहली बालियाँ पूरे खेत में लहलहाने ेलगीं। जिन्न फिर वहाँ आ धमका और बोला-“बस अब जल्दी बताओ यह फसल कब काटोगे?”

नबीरा ने पहले की ही तरब सुबह फसल काटने का वादा किया पर उसने यह भी कहा कि मालिक इस बार आप खुद वहाँ पर उपस्थित रहिएगा और अपना हिस्सा ले लीजिएगाष क्योंकि मैं यह नहीं चाहता कि आप मुझे बेईमान समझें। अगले दिन नबीरा दराँती लेकर खेत में पहुँच गया उसने फसल काटनी शरू की ही थी कि जिन्न भी वहाँ पहुँच गया नबीरा लगातार अपनी कटाई के काम में लगा रहा। उसने बडी़ सफाई और होशियारी से गेहूँ की लहलहाती सुनहली बालियों को काटकर एक स्थान पर ढेर लगा दिया। फिर उसने जडो़ और डंठलो को काटकर दूसरे स्थान पर एकत्रित कर दिया। नबीरा ने अपनी फसल का ऊपर वाला हिस्सा लिया और उन्हें बाजार में बेचने के लिए ले गया। जिन्न ने भी ऐसा ही किया । पर भला गेहुँ की डंठलों और जडों़ को कौन खरीदता? जिन्न को यह देखकर बडा़ क्रोध आया कि नबीरा को तो अपने हिस्से के बड़े अच्छे दाम मिल गए और तुरंत बिक भी गया, पर जिन्न के साथ बिल्कुल उल्टा ही हुआ। वह मारे गुस्से के आग-बबूला हो गया और बोला-“यह छोकरा बार-बार मुझे मुर्ख बनाता है। मुझे अब पता चल गया है कि फसल का ऊपरी और नीचिला दोनों ही हिस्से मूल्यवान होते हैं। अबकी बार देखता हूँ ये मेरा कैसे बुद्धु बनाता है?” इस प्रकार उसने अगली बार फसल के दोनों ही भाग लेने का निश्चय किया।

अबकी बार नबीरा जब हल लेकर खेत में पहुँचा तो जिन्न वहाँ पहले से ही मोैजूद था। उसने कहा-“इस बार मैं फसल का उपरी व निचला दोनों हिस्से लूँगा। तुम्हें मंजूर हो तो खेत जोतो।” नबीरा ने कहा-“मुझे आपको हर शर्त मंजूर है। आपका हुकम सिर आँखों पर।” जिन्न अपनी बात मनवाकर वहाँ से चला गया। नबीरा ने अपनी अक्लमंदी का परिचय देते हुए अबकी बार खेत में मकका बोई। उसने फसल की खूब देखभाल की। खेत में खाद-पानी समय से दिया, इसलिए उसकी फसल खूब बढ़िया हो गई। फसल काटने के समय जिन्न भी वहाँ आ गया। नबीरा ने अपनी बीवी व दोस्तों की मदद से बडी़ ही चतुराई से मक्का के भट्‌टे काटे और ढे लगा लिया। फिर अपनी फसल ले चुकने के बाद के भट्‌टे काटे और ढेर लगा लिया। फिर अपनी फसल ले चुकने के बाद उसने जिन्न से कहा-“ आपका ऊपर वाला व नीचे वाला दोनों भाग शेष हैं आप इन्हें ले लें।” उसने मक्का के पौधों को जडों़ सहित उखाड़कर एक भारी ढेर लगवा दिया।

एक व्यापारी तभी वहाँ आया। जब उसने मोटे-मोटे ताजे भट्‌टे देखे तो उसकी अच्छी कीमत लगाकर उन्हें खरीद लिया। जिन्न ने उससे कहा कि इस बार मेरी फसल भी अच्छी है, तुम ले लो, तो वह हँसने लगा और बोला-“अरे, इस कूडे़ को तो तुम मुफत में दोगे तब भी न लूँगा।” ऐसा कहकर जिन्न का उपहास उडा़ता हुआ वह वहाँ से चला गया।

खेत पर अब केवल जिन्न व नबीरा रह गए थे। जिन्न तो मागो गुस्से से पागल-सा हो गया था। वह बोला-“अरे कमीने आदमी! तुझे मै नहीं छोडूँगा। तुने बार-बार मुझे धोखा दिया है। तू बहुत बुरा आदमी है। आज तेरी खैर नहीं।” अब नबीरा में भी हिम्मत आ चुकी थी। अपनी दराँती उसे दिखाते हुए बोला-“तेरा सिर मैं इस दराँती से काट दूँगा। तू खुद को बहुत बलशाली और अकलमंद समझता है, पर तू नुफट मूर्ख है। मूर्ख क्या मूर्खो का राजा है तु। तूने कभी ‘कुजिन’ का नाम सुना है। मैं वही कुजिन हुँ। मुझसे टकराने की हिम्मत मत करना वरना मुँह की खाएगा। उसकी बातें सुनकर जिन्न घबराकर बोला-“कुजिन! यह कोन-सी आफत होती है?” “क्या कहा कुजिन, कुजिन?” हाँ, हाँ मेैं कुजिन हुँ। अब तू इस नाम को कभी मत भूलना और फिर कभी मुझसे पंगा लिया तो तेरी खेर नहीं सँभाल ले अपना बोरीया-बिस्तर और भाग जा यहाँ से। दोबारा यहाँ दिखाई भी मत देना, नहीं तो मुझसे बुरा कोई न होगा।” नबीरा उसे धमकाते हुए बोला।

जिन्न का पूरा शरीर काँपने लगा था। वह हर बार नबीरा से मात खा जाता था। वह बोला- “अरे कुजिन! मुझे माफ कर दे। मैं तो चला यहाँ से। अभ कभी मेरी सूरत भी यहाँ दिखाई नहीं देगी। मुझे माफ कर दे।” ऐसा कहकर जिन्न वहाँ से भाग गया। उसके जाने के बाद नबीरा ने चैन की साँस ली, फिर नबीरा और उसकी पत्नी हँसी-खुशी अपना जीवन व्यतीत करने लगे। अपनी बुद्धि-कौशल और चातुर्य से नबीरा जमीन का मालिक बन गया और उसके दिन सुख से गुजरने लगे। इस कहानी के आधार पर कश्मीरी मुहावरा (जिन से कोजिन) ‘जिन को कुजिन टकरा’ बना है।

५ चम्तकार

प्राचीन काल की बात है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में सूर्यवंशी कत्यूरी राजा राज करते थे। यह एक शकितशाली और धर्मनिष्ठ राजवंश था। इस राजवंश ने अनेक स्थानों पर नौले (बावडी) जलाशय, धर्मशाला, विद्यापीठ आदि बनवाए तथा अनेक स्थानों पर स्तंभ आदि भी स्थापित करवाए। लगभग दस-बारह पीढ़ियों तक सुदृढ़ साम्राज्य चलाने के बाद इस शकितशाली राजवंश की शकित धीरे-धीरे घटने लगी। इसके वंशज राजमद में इतने डूब गए कि वे केवल एशो-आराम करते और जनता पर तरह-तरह के अत्याचार करके कर वसूलते।

चूँकि पहले राजवंश दयालु, ज्ञानी, न्यायकारी और धर्मनिष्ठ रहे, इसलेए इनके बिखरते राजपरिवार में भी इसकी परंपरा मौजूद थी। विशेष रुपे से रानियों ने उस परंपरा को बनाये रखा था। लड़खडाते राजवंश पर एक साथ कई विपत्तियाँ आ पडी़ थीं। चन्द्रवंशी राजाओं ने आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। अकर्मण्य और अत्याचारी राजनेताओं से जनता तंग आ चुकी थी, केवल रनिवास पर ही उनीकी श्रद्धा थी। इस बीच कत्यूरी साम्राज्य पर रोहिल्लों ने हमला बोल दिया। राजा प्रीतमदेव के राज्यकाल में जब रोहिल्लों ने आक्रमण कर दिया तो चारों ओर खलबली मच गई। एसी अफवाह फैल गई कि रोहिल्ले राजमहल में भी प्रवेश करके लूटपाट कर सकते हैं और रनिवास में भी उपद्रव मचा सकते हैं। इस पर महारानी जियारानी बहुत चिंतित हो गई। वह पतिव्रता, धर्मनिष्ठ, परोपकारी और जनभावनाओं का आदर करने वाली थी, किन्तु इस विपत्ति की घडी़ में वह भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे अपने सतीत्व व धर्म की रक्षा करे। उन्होंने सोचा कि यदि उनका अपहरण कर लिया गया तो पूरा राज्य बदनाम हो जाएगा और रही-सही इज्जत भी मिट्‌टी में मिल जाएगी. अंततः उसने निर्णय लिया कि येन केन प्रकारेण राजमहल से बाहर निकल जाने में ही भलाई है।

वह चुपचाप महल से निकल गई। उसने सोचा-नदी के किनारे चित्रशिला शमशान के पास चट्‌टानों की कंदराओं में छिप जाए। उसने स्नान किया, भगवान शंकर के मंदिर में गई और उसके बाद पास की विशाल शिला पर बैठकर ईश्वर की आराधना की। उसके बाद वह अंतर्धान हो गई। उधर रोहिल्लों ने जब महल पर धावा बोला को उन्होंने रानी को वहाँ नहीं पाया। उन्हें पता चला कि रानी तो वहाँ से जा चुकी है। इस पर सेना की टुकडी़ रानी की खोज में निकल पडी़। पूछते-पूछते वे चित्रशिला के श्मशान तक पहुँचे। वहाँ उन्होंने देखा कि पत्थर की शिला पर रानी का घाघरा रखा हुआ है। वे बडे़ खुश हुए कि आखिरकार उन्होंने रानी को खोज ही निकाल । सरदार ने आदेश दिया कि रानी को घाघरे सहित कब्जे में कर लिया जाए। कुछ सैनिकों ने उस शिला को चारों ओर से घेर लिया और जब घाघरा उठाने लगे तो उन्हें लगा कि वह घाघरा नहीं पत्थर है। उन्होंने फिर ठीक से देखा तो लगा कि घाघरा ही है, क्योंकि महल के कर्मचारियों तथा रास्ते के लोगों ने उसी प्रकार का घाघरा पहने हए रानी को जाते हुए देखा था। सैनिकों ने पुनः उसे उठाना चाहा तो वह फिर पत्थर की तरह लगा। इस प्रकार देखने में घाघरा और छुने में पत्थर लग रहा था। सैनिक यह चमत्कार देखकर विस्मित हो गए और निराश होकर लौट आये। लोग इस घटना को रानी के सतीत्व, पतिव्रत धर्म व धर्मनिष्ठा का प्रमाण मानने लगे। आज भी जनमानस में यही धारणा है। लोग आज भी बडी़ निष्ठा से इस पत्थर की पूजा करते हैं।

६ बदला

बहुत समय पहले की बात है। पंजाब में एक छोटा-सा गाँव था। गाँव के बाहर एक पीपल का हरा-भरा पेड़ था। इस पेड़ पर तोते और तोतो का छोटा-सा घोंसला था। तोते-तोती के दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे। बच्चे अभी बहुत छोटे थे। कुछ दिन पहले ही उन्होंने इस संसार में जन्म लिया था। उनके तो अभी पंख भी नहीं निकले थे, इसलिए वे उड़ नहीं पाते थे। जैसे ही सुबह का सूरज आँखे खोलता, उनका पिता भोजन की तलाश में घोंसलें से निकल जाता साँज होते-होते वह घर लौट आता और साथ में लाता मीठे-मीठे फल, हरी-हरी सब्जियाँ और गेहूँ के और साथ में लाता मीठे-मीठे फल, हरी-हरी सब्जियाँ और गेहूँ के मोटे-मोटे दाने। इसके बाद वे चारों मिल-बैठकर आनंद के साथ खाते और सो जाते। तोती दिन-भर घोंसले में रहकर शत्रुओं से अपने बच्चों की रक्षा करती और कभी-कभी वह उन्हेंं उड़ना भी सिखाती।

इस प्रकार उनके दिन सुख-चैन से बीत रहे थे। आमों का मौसम आ गया था। पेडों़ पर आम और जामुन के पके मीठे-मीठे फल लद गए थे। पेड़ तो मानो रसीले फलों के बोझ से झुक से गए थे। आम और जामुन दोनों ही तोते के प्रिय फल थे। लेकिन घोंसले के पास आम और जामुन का एक भी पेड़ न था। एक दिन तोता घोंसले से बाहर पंख फैलाकर नीले आकाश में उड़ता चला गया। अचानक उसने एक बहुत बडा़ बाग देखा, जिसमें आम और जामुन से लदे असंख्य पेड़ थे। उसने उड़ना बंद कर दिया और उस बाग में उतर गया। वहाँ उसने काले-काले पके जामुन और पके हुए सिंदूरी आम देखे। तोते के मुँह में पानी आ गया। वहाँ बैठकर उसने जी भरकर फल खाये। उसे लगा कि आज तो उसकी दावत हो गई। जब उसका पेट खूब भर गया तो उसे तोती और बच्चों की याद आयी। उसने देखा-सूरज डूबने को था और साँझ होने वाली थी। धीरे-धीरे अँधेरा घिरने को था। उसने कुछ जामुन और आम तोडे़ और घर की ओर उड़ चला। जब वह घर पहुँचा तो उसने पाया कि उसे आज काफी देर हो गई है। तोती और बच्चे उसकी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे होंगे। जब उन्होंने इतने बढिय़ा फल देखे तो वे बडे़ ही खुश हुए। उन्होंने जी भरकर फल खाए। फिर जब वे भोजन कर चुके तो उन्होंने तोते से पूछा कि इतने बढ़िया फल आखिरकार वह लाया कहाँ से?

यह सुनकर तोते ने पश्चिम दिशा की ओर इशारा किया और बताया कि वहाँ दूर पहाड़ियों के पीछे एक गाँव में बाग है। उसी बाग में आम और जामुन के अनेक पेड़ हैं। वहीं से मैं ये फल लाया हूँ।

तोते का उत्तर सुनकर तोती के तो होश फाख्ता हो गए। वह डर के मारे पीली पड़ गई और थर-थर काँपने लगी। यह देखकर तोता भी घबरा गया। उसने तोती से उसके डर का कारण पूछा। तोती ने रोना प्रारम्भ कर दिया।

वह बोली कि उस गाँव में बडे़ दुष्ट जाट रहते हैं। उन्होंने मेरे पिता को धोखे से जाल में फँसा लिया था। फिर उसे पिंजरे में बंद कर दिया था। पिंजरे में ही उसने तड़प-तड़पकर अपने प्राण त्याग दिए थे।

तोते ने लापरवाही से अपनी पत्नी की बात सुनी और हँसने लगा फिर व्यंग्य करते हुए बोला कि तेरा पिता तो लालची था, इसीलिए जाल में फँसा, पर मैं लालची नहीं हूँ। मैं तो बडी़ ही समझदारी से काम लेता हुँ। जब तक ठीक प्रकार देखभाल न लूँ, तब तक नीचे उतरना ही नहीं। तोते का पेट खूब भरा हुआ था।

वह थक भी गया था। अतः उसे जम्हाइयाँ आने लगी थीं। इतना कहकर वह गहरी नींद में सो गया।

दूसरे दिन जब सुबह हुई तो फिर तोते को आम और जामुन के मीठे फलों का स्वाद याद आने लगा। वह उस बाग की ओर उड़ चला तोती जो सुबह उठकर घोंसले के तिनके सँवार रही थी और बच्चों की देखभाल कर रही थी। तोते को घोंसले में न पाकर चिंतित हो उठी। उसने पीछे मुड़कर देखा तो तोता आकाश में उडा़ जा रहा था। वह चिंतित होकर तोते के पीछे-पीछे उड़ी और जोर से चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगी-

तोतया मन मोतया ओस पिंड न जा।

ओस पिंड दे जट बरे लैंदे फाइयां पा।।

अर्थात्‌ मेरे मन को मोहने वाले तोते! तू उस गाँव ती ओर मत जा। उस गाँव के जाट बहुत बुरे हैं। वे तुझे कैद कर लेंगे।

तोते की बुद्धि तो भ्रष्ट हो चुकी थी। उसे तोती की बात बडी़ बुरी लगी। उसे क्रोध आ गया। उसने घूमकर कहा-

तोतिये मन मोतिये, मैं ज्यूँदा मैं जागदा।

यूँ जल घर, मैं आवंदा ।।

अर्थात्‌ ऐ मेरे मन को मोहने वाली तोती! मैं अभी जीता जागता हूँ। इसलिए तू घर चल मैं आ रहा हूँ.

तोती ने फिर एक बार तोते से वापिस घर लौट आने की विनती की, पर तोते ने क्रोधित होकर फिर वही उत्तर दिया। आखिरकार बेबस होकर तोती घोंसले में वापिस लौट आयी।

तोता उड़ते-उड़ते बगीचे में पहुँच गया। तोते ने जब आम व जामुन देखे तो उसकी लार टपकने लगी। उस दिन वहाँ के जाटों ने पूरे बगीचे में हरे-हरे पत्तों के रंग का हरा जाल बिछा रखा था। तोते ने आव देखा न ताव, झटपट फलों पर झपड पडा़। जैसे ही उसके पाँव पेड़ के पत्तों पर लगे, उसके तो होश ही फाख्ता हो गए। उसे लगा मानो किसी ने उसके पंजो को कसकर पकड़ लिया है। उसने नीचे झुककर देखा तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। उसके पंजे हरे रंग के जाल में फँस चुके थे। वह जोर-जोर से अपने पंखों को फड़फडा़ने लगा। खूब उछलने-कूदने लगा परन्तु उसने जितना जोर लगाया, वह उतना ही उलझता चला गया। जब वह थकाकर चूर हो गया तो निराश होकर चुपचाप बैठ गया।

पेड़ के नीचे बैठे जाड उसकी उछलकूद और मूर्खता देखकर हँसते-हँसते लोटपोट हो रहे थे। एक जाट उठा, उसने तोते को कसकर पकडा़ और लोके के एक मजबूत पिंदरे में बंद कर दिया। तोते ने अपनी पूरी ताकत लगाकर पिंजरे को लेकर उड़ना चाहा, पर पिंजरा टस-से-मस न हुआ। फिर उसने अपनी चोंच के प्रहार से सींखचों को काटना चाहा, पर उसकी नन्ही और कोमल चोंच उन सींखचो का कुछ भी न बिगाड़ सकी। तोते को रह-रहकर तोती के शब्द-

तोतया मन मोतया ओस पिंड न जा।

ओस पिंड दे जट बरे लैंदे फाइयां पा।।

याद आ रहे थे। उसे अपने छोटे-छोटे बच्चों की भी याद सता रही थी। साँझ के समय उसके दोनों बच्चे घोंचले में पत्तों की ओट से झाँक-झाँककर उसकी बाट देखते थे। वही दृश्य बार-बार उसकी आँखों के आगे नाच रहा था। अचानक उसका मन भारी हो गया और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसकी यह दशा देखकर जाट खिलखिलाकर हँसने लगा। तोता उसके सामने गिड़गिडा़कर रहम की भीख माँगने लगा, बोला-“जाट भाई ! मुझे छोड़ दो। तुम्हारा बडा़ उपकार होगा

न्यानी मारी तोती ते निकके-निकके दो बोट।

रा मेरी ने बेखदे पत्तयां दी ओ औटा ।।

मेरी छोटी-सी तोती है और छोटे-छोटे से दो बच्चे हैं। मेरे बच्चे पत्तियों की ओट से मेरी राह देख रहे होंगे।।”

जाट ने जोर-से ठहाका लगाया और वहाँ से चला गया।

धीरे-धीरे रात हो गई। तोती के मन की बेचैनी बढ़ने लगी। बच्चे भी भूख से बिलबिलाने लगे थे। तोते के मन की बेचैनी बढ़ने लगी। बच्चे भी भूख से बिलबिलाने लगे थे। तोते के इंतजार में वे आँखे बिछाए उसकी बाट जोह रहे थे। धीरे-धीरे रात काली और काली हो गई। अँधेरा गहरा गया। राह देखते-देखते बच्चे तो भूखे ही सो गए, परन्तु तोती की आँखों में नींद कहाँ? वह रात-भर जागती रही। सुबह वही हुआ है जिसका उसे अंदेशा था। उसके प्यारे तोते को दुष्ट जाटों ने धोखे से जाल में फँसाकर लोहे के पिंजरे में डाल दिया है। तभी उसने देखा कि तोतों का एक झुंड उसी गाँव की ओर उडा़ जा रहा है। तोती झटपट उड़कर उन तोतों के पास पहुँची और दुखी स्वर में रोते-रोते उसने तोत के मुखिया से कहा-

मैं ओनूं बरज रही, हटक रही, राजे खेत न जा।

ओस पिंड दे जट बुरे, लैंदे फाइयां पा ।।

मैं उस (तोते) को मना कर रही थी कि ऐ राजा! उस खेत में मत जाना, क्योंकि उस खेत के जाट बहुत बुरे हैं। वे पकड़कर कैद कर लेते हैं।

वह तोत सब तोतों का राजा था। जब उसने तोती का करूण क्रन्दन सुना तो उसने रोने का कारण पूछा- “बता तोती! तू इतनी दुखी क्यों है?” तोती ने पूरी कहानी तोतों के राजा को कह सुनाई सारी कहानी सुनकर उसे बडा़ क्रोध आया। उसने तोती का छुडा़तक उसके पास ले आयेगा।

फिर तोतों के सरदार ने सलाह-मंत्रणा करने के लिए एक सभा बुलाई, जिसमें उसने सभी किस्म के पक्षियों को बुलाया। उसने तोते की पूरी कहानी उन्हें बताई। उन्होंने जब सारी बातें सुनी तो उन्हें क्रोध और दुख दोनों ही हुए। सबने मिलकर यह फैसला किया कि जैसे भी हो, हम सब एक होकर जाटों के विरुद्ध युद्ध छेड़ देंगे। उनकी भेडो़ं, बकरियों व बच्चों को उठा लिया जाएगा। सबकी सलाह व मशविरे के अनुसार युद्ध के लिए एक भारी सेना तैयार की गई और चील को उस सेना का सेनापति नियुकत किया गया।

दूसरे दिन सुबह सवेरे ही नदाडे़ गूँजने लगे और सारे पक्षियों की सेना ने उस गाँव की ओर कूछ कर दिया। सब पक्षियों के एक साथ उड़ने के कारण आकाश में अँधेरा छा गया। सूर्य की किरणों का पृथ्वी पर आना बंद हो गया। जाटों ने जब यह देखा तो उन्हें भी सारा माजरा समझने में देर न लगी। सब कुछ समझने के बाद उन्होंने भी युद्ध की रणभेरी बजा दी। ढोल बजने लगे। सारे जाट आनन-फानन में एक जगह इकट्‌ठे हो गए। उन्होंने आस-पास के गाँव के जाटों को भी बुला लिया। सबने हाथों में तीर-कमान थाम रखे थे। इतने में तोती नीचे उतरी और बोली-

छड़ दे जट्टा मेरा माही ।

नहीं ते शामत तेरी आई।।

ऐ जाट! तू मेरा तोता छोड़ दे,

नहीं तो मेरी शामत आ जाएगी।

जाटों ने जब तोती की पुकार सुनी तो वे खिलखिलाकर हँसने लगे। तोती तीन बार आकाश से नीचे उतरी और जाटों को चेतावनी दी, पर जाटों ने एक न सुनी। उन्होंने तोते को नहीं छोडा़। इस पर सारे पक्षियों ने एक साथ बडी़ तेजी से जाटों पर हमला बोल दिया। एसा लगा मानो बडी़ तेज आँधी आ गई हो। जाटों ने एक साथ तीर चला दिए। हजारों पक्षी घायल होकर फड़फडा़ते हुए जमीन पर आग् गिरे। पक्षियों ने फिर हमला किया। जाटों ने उनके आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब दिया। पक्षी धायल हो-होकर धरती पर गिरने लगे। पक्षियोम ने जितनी बार भी हलमा किया। हर बार मुँह की खाई। शाम हो गई, बराबर हमले चलते रहे। पर जाटों का तनिक भी नुकसान न हुआ। अगले दिन भी इसी प्रकार दोनों पक्षों की ओर से आक्रमण हुए पर जाटों का कुछ भी न बिगडा़। पक्षियों की हार हुई। दो दिन बीत चुके थे, तीसरे दिन पक्षियों ने सोचा अब बस एक बार और हमला करके देख लिया जाए। हमले से पहले रात को उन्होंने फिर से एक सभा बुलाई और इस सभा का सभापति उन्होंने उल्‌लु को चुना। उल्लु ने दोनों दिनों के हमले की कहानी को गंभीरतापूर्वक सुना और बोला- “यदि कल की लडा़ई का सेनापति तुम मुझे बना दोगे तो हम यह लडा़ई जरूर जीत जाएँगे। हमारे पक्षी बहुत संख्या में मारे चुके हैं। अब और नुकसान बर्दाश्त करना हमारे वश की बात नहीं है।” पक्षी हारे हुए तो थे ही उनका मनोबल गिर रहा था। ऐसी दशा में उन्होंने उल्लु की बात मानकर उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उल्लु ने कहा कि मैं एक उपसेनपति भी बनाना चाहता हूँ। सबने एक स्वर में कहा कि चील को उपसेनापति बनाया जाए। परन्तु उल्लू ने तुरन्त असहमति जतायी और बोला-“ कल की सेना का उपसेनापति मधुमक्खी होगी।” सारे पक्षी असमंजस में पड गई। उन्होंने शहद की मक्खी की तरफ देखा और खिलखिलाकर हँसने लगे। चील कुछ अपसमानित-सा महसूस कर रही थी। अतः बोली- “यदि मैं बीट कर दूँ तो वे उसके नीचे दबकर मर जाएँ।” यह सुनकर सारे पक्षी मधमक्खी को चिढा़ने लगी। परन्तु उल्लू ने सबको डाँटकर कहा कि मैं तुम्हारा सेनापति हूँ, अतः तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करना ही होगा। यही तुम्हारा कर्तव्य है। यह सुनकर सब चुप हो गए।

सुबह होने पर पक्षियों की सेना युद्ध के लिए चली। उधर जाट भी तैयार बैठे थे। तोती बाग में पहुँचकर आकाश से उतरी। उसके पीछे-पीछे मधुमक्खियों का एक झुंड भी था तोती ने चिल्लाकर कहा-

छड़ दे जट्‌टा मेरा माही।

नहीं ते तेरी शामत आई।।

जाटों ने कोई उत्तर न दिया। फिर पलक झपकते ही शहद की मक्खियों के टोले ने उन पर हमला बोल दिया। जाट इस हलमे के लिए तैयार नहीं थे। एक-एक जाट को दस-दस मधुमक्खियाँ लिपट गई। दर्द के मारे जाटों का बुरा हाल हो गया। वे बिलबिलाने लगे। उनके हाथों से तीर-कमान छूट-छूटकर नीचे गिरने लगे। देखते-ही-देखते पाँसा पलट गया। जाट बेहाल होकर इधर-उधर भागने लगे। अब सारे पक्षी नीचे उतर आये और जाटों के खेतों, बागो, घरो ओर बगीचो पर झपट पडे़। कुछ ही पलों में जाटों ने हाथ जोड़ दिए। वे परेशान होकर कहने लगे-

रब ही दे दे असी दुहाई।

लै जा तोतिये अपना माही।।

हम ईश्वर की दुहाई देते हैं। ऐ तोती! तू अपना तोता ले जा। यब बात तोती सुनकर बहुत खुश हुई। जाटों ने तोते को आजाद कर दिया तोते की आँखोम में खुशी के आँसू थे। उसने सभी पक्षियों का ध्यवाद दिया। सक्षी पक्षी खुशी से चिल्लाने लगे। आजाद होकर तोतने अपने पर फैलाये और तोती के साथ अपने बच्चों के पास उड़ चला। घोंसले में पहुँचकर उसने बच्चों को गले लगाया और तोती से उसका कहना न मानने पर क्षमा माँगी और सब एक बार फिर प्रेमपूर्वक रहने लगे।

७ चतुर नुरुद्‌दीन

नुरुद्‌दीन एक व्यापारी था। वह ईरान का निवासी था और बडा़ डी चतुर था, साथ ही मेहनती भी। अपनी सूझबूझ, लगन और मेहनत से उसने अपार धन कमाया था। नरुद्‌दीन के एक बेटा था। वह भी व्यापार में बहुत कुशल था। अपने पिता के समान उसे भी व्यापार में काफी रुचि थी। वह निर्भीक और वींर था।

एक बार हसन के मन में विचार आया कि कियूँ न किसी दूर-दराज के देश जाकर उनके साथ व्यापार किया जाए। मन में विचार आते ही हसन ने अपने पिता को यह बात बताई। पिता ने उसे सहर्ष अनुमति दे दी। उसने हसन को अपना आशीर्वाद भी दिया और कहा कि विपत्ति पड़ने पर मनुष्य के तीन मित्र होते है,-परिश्रम, साहस और सहनशीलता इन तीनों का साथ मनुष्य को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। मनुष्य की असली परीक्षा विपत्ति के समय ही होती है। जो व्यकित विपत्ति बहुत ऊँचाइयों पर पहुँचता है। जो व्यकित आलसी, कायर और कामचोर होता है, वह अने जीवन में कभी सफल नहीं होता। व्यकित को परिश्रमी होना के साथ-साथ साहसी व सहनशील भी होना चाहिए और क्रोध पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, क्योंकि क्रोध मनुष्य का सबसे बडा़ शत्रु है। पिता की सीख को हसन ने अपने मन में सहेजकर रख लिया।

दूसरे दिन से ही हसन ने अपनी यात्री पारम्भ कर दी। उसके सहयोगियों व पिता ने यात्रा का पूर्ण प्रबन्ध कर दिया था ताकि उसे सफर में कोई परेशानी न हो। अपने पिता के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद लेने के बाद वहे विदेश रवाना हो गया।

हसन को गए अभी थोडें दिन बीते थे कि नरुद्‌दीन को रोग ने घेर लिया। वह बीमार पड़ गया। उसका बेहतर-से-बेहतर उलाज करवाया गया पर कोई फायदा न हुआ। हकींमों की लाख कोशिशों के बाद भी उसकी बिमारी बढ़ती ही गई और उन्होंने उसे लाइलाज धोषित कर दिया। मृत्यु को सन्निकट देखकर नरुद्‌दीन के मन में रह-रहकर विचार उठने लगे कि आखिर मेंरी सम्पति का क्या होगा, जो मैंने इतने कष्टों को सहकर एकत्र की थी। वह संसार को अच्छी तरह जानता था। वह सोच रहा था कि उसके मरते ही उसके नौकर-चाकर व संगे-संबंधी उसकी सम्पत्ति को हड़प कर जाएँगे। वह बेहद चिंतित था।

एक दिन शाम के समय उसकी हालत ज्यादा बिगड़ गई। उसकी साँस थम-थमकर चल रही थी। उसका दम उखड़ रहा था। अचानक उसे जोर-जोर से खाँसी आने लगी और हल्की-सी मूर्च्छा आ गई। एकाएक उसने महसूस किय कि कोई उसे जोर-जोर से झिंजोड़ रहा है। उसने बडी़ कठिनाई से अपनी आँखे खोलीं, तो देखा कि उसका ही एक दास उसके गले से मोतियों की माला निकालने का प्रयत्न कर रहा था।

यह देखकर वह सकते में आ गया। अचानक उसे एक उपाय सूझा। उसने अपनी आँखें बंद करली और ऐसा जाहिर किया मानो कुछ हुआ ही न हो और उसने कुछ करने की ठानी कुछ देर आँखें बंद रखने के बाद उसने आँखे खोली और अपने दोस्तों, सगे-सबंधियों और दास-दासियों को बुलवा भेजा। शीघ्र ही सब उसकी रोग शय्या के निकट आ पहुँचे। नरुद्‌दीन ने कहा- “मित्रों! अब मेरा अंत समय निकट आ गया है। मौत मेरी आँखों ेके सामने नाच रही है। मैं जानता हूँ कि अब मैं और नहीं जी पाऊँगा। पर मरने से पहले मैं अपनी अंतिम दो इच्छाओं को पूरा होते हुए देखना चाहता हूँ।”

सबसे पहले उसने अपने एक बूढे़ और पुराने दास की ओर निगाह उठाई। उसका यह दास बहुत बुद्धिमान व स्वामीभकत था। उसने कहा-“इल्मुद्‌दीन, तुम ही वह व्यकित हो जिसके कारण मैं इतना धनवान बन सका। वास्तव में तुम मेरे दास नहीं मित्र हो। इसलिए आज मैं तुम्हें अपनी दासता से आजाद करता हूँ।” फिर नरुद्‌दीन ने अपने उस दास की और देखा जो उसके गले से मोतियों की माला निकालने का प्रयास कर रहा था, पर सफल नहीं हो पाया था। नरुद्‌दीन उस दास से बोला-“ हिम्मत खाँ! आज मैं अल्लाह को हाजिर-नाजिर जानकर यह घोषणा करता हूँ कि मेरी सारी सम्पति के मालिक तुम बनोगे, लेकिन मेरी एक शर्त है।” हिम्मत खाँ की तो बाँछें खिल गई। उसे लगा कि नरुद्‌दीन पागल हो गया है। झटपट बोचा-“जल्दी बताओ मेरे आका! आपकी हर शर्त मंजूर है मुझे।” नरुद्‌दीन ने कहा कि जब मेरा पुत्र हसन लौटे तो कोई भी एक चीज, जो वह तुमसे माँगेगा, तो तुम उसे तुरंत दे दोगे इनकार नहीं करोगे।”

हिम्मत खाँ ने खुशी-खुशी यह शर्त स्वीकार कर ली। उसने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि पल भर में उसका भाग्य बदल जाएगा मारे खुशी के उसके धरती पर पैर ही नहीं पड़ रहे थे। अगले ही दिन भोर के समय नरुद्‌दीनके प्राण पखेरू उड़ गय। धीरे-धीरे इस घटना को तीन वर्ष बीत गए। अब हिम्मक खाँ एख जाना-माना व्यापारी था। उसके पास धन-दौलत और शोहरत की कोई कमी न थी। सैकडों़ दास-दासियाँ उसके आगे-पीछे धूमते थे। उसके महल मैं सुख-सुविध का हर साजो-सामान था। वह राजाओं जैसा जीवन व्यतीत करता था महल के बाहर हथिारबंद सिपाहियों का पहरा रहता था। बिना आज्ञा के किसी का भी महल में प्रवेश वर्जित था। पक्षी भी वहाँ पर नहीं मार सकता था। उसकी तो जैसे लाटरी ही खुल गई थी।

एक दिन एक व्यकित वहाँ आया। उसने कपडे़ फटे व पुराने थे। वह बहुत ही निर्धन प्रतीत हो रहा था। वह वहाँ आकर महल के द्वार पर खडा़ हो गया। जैसे ही वह आगे बढ़ने लगा, पहरेदारों ने रोक लिया और कड़ककर पूछा-“तुम कौन हो और कयों जाना चाहते हो? यहीं ठहरो, पहले हमारे सवालों का जवाब दो।”

वह व्यकित बोला- “मैं अमीर नुरूद्‌दीन का बेटा हूँ। मेरा नाम हसन है। मैं व्यापार में धन कमाने के उद्‌देश्य से विदेश गया हुआ था। पर हाय री किस्मत ! भाग्य ने मुझे धोखा दे दिया। मुझे बहुत घाटा हो गया। जो कुछ भी मेरे पास था वह सब खत्म हो गया। किस्मत ने मेरा साथ नहीं दिया। अब मेैं भिखारी बनकर लौटा हूँ। मुझे अंदर जाने दो। मेरे पिता को बुलाओ। मैं उनसे मिलता चाहता हूँ।” “ तुम्हारे पिता को मरे हुए तीन वर्ष हो गए हैं वह अब इस दुनिया में नहीं हैं। यह महल अब हिम्मत खाँ का है।” यह कहकर पहरेदारों ने उसे वहाँ से भगा दिना चाहा

हसन यह सुनकर हकका-बकका रह गया। उस पर तो मानो बिजली टूट पडी़। उसकी आँखो से आँसू बह निकले। वह अपना-सा मुँह लेकर लौट पडा़। उसने सोचा-क्यूँ न अपने नाते-रिश्तेदारों व सगे-संबंधियो के पास जाकर मदद माँगूँ। लेकिन जब वह उनके पास पहुँचा तो सबने उसे टका-सा जवाब दिया कि इस मामले में वे उसकी किसी भी प्रकार की मदद नहीं कर सकते। अंत में उसने बादशाह के पास जाकर फरियाद की। वह बादशाह के पास गया और सारा किस्सा कह सुनाया बादशाह ने हिम्मत खाँ को दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया हिम्मत खां महँगे व भड़कीले कपडो़ में सज-धजकर दरबार मैं उपस्थित हुआ।

दूसरी और फटे-चिथडे़ कपडो़ में लिपटा हुआ हसन सि झुकाए खडा़ था। बादशाह ने हिम्मत खाँ से पूरा माजरा पूछा। उसने भारी-भरकर आवाज में कहा-“बादशाह सलामत! हसन के पिता अपनी सारी सन्पति, धन-दौलत, मकान, ऊट-घोडे़ सब कुछ मुझे सौंप गए है। कानूनी तौर पर इन सब पर अब मेरा मालिकाना हक है। हसन के पिताने उस समय मेरे सामने यह शर्त रखी थी कि कोई भी एक चीज जो हसन मुजसे माँगेगा, वह मुझे उसे देनी पडे़गी। वह शर्त मैंने उस समय सबके सामने मंजूर की थी। मैं आज भी अपने वायदे पर कायम हू। हसन जो भी एक चीज मुझसे लेना चाहे, ले सकता है, मैं उसे इनकार नहीं करूँगा। वह एक चीज हसन चाहे तो यहाँ दरबार में आपके सामने भी माँग सकता है।”

सारे दरबार मैं सन्नाटा छा गया। हिम्मत खाँ ने बड़ी ही कुटिल दृष्टि से हसन को देखा और मुस्कराते हुए बोला-“हसन, तुम कोई भी एक चीज मुझसे माँग सकते हो। एक घोडा़ माँग लो, एक मकान माँग लो, अच्छा तो एक अशरफी माँग लो। इतना कहकर जोर-जोर से हँसने लगा।”

हसन ने जब यह सुना तो उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। उसकी आँखों में आसू छलक आए। वह बेहद लज्जित हो चुका था। उसने अपना सिर नीचा कर लिया और धीरे-धीरे बिना कुछ माँगे वह दरबार से बाहर जाने लगा। बादशाह भी कुछ न कह सके।

सहसा किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखाँ ममत्व भरा स्पर्श पाकर हसन रुक गया। उसने आँखे उपर उठायी तो देखा उसके सामने उल्मुद्‌दीन खडा़ था। इल्मुद्‌दीन उसके पिता का पुराना दास था। यह वही दास था जिसे उसके पिता ने मरते वकत दासता से मुक्त कर दिया था। इल्मुद्‌दीन ने मुस्कराते हुए कहा-“बेटा! दुखी मत हो। तुम्हारे पिता निश्चय ही बडे़ बुद्धिमान और दयालु थे। मैं उनका दास अवश्य था पर उन्होंने सदा मुझे अपना मित्र समझा, इसीलिए मरने से पहले वह मुझे आजाद कर गए। तुम उनके बेेटे हो, इसलिए मेरे पुत्र के सम्मान हो, यदि मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सका तो यह मेरा सौभाग्य होगा। यदि तुम अपनी जगह मुझे एक चीज माँगने की आज्ञा दो तो मैं इस लालची और निर्दयी दुष्ट हिम्मत खाँ को मजा चखा दूँगा।”

हसन को तो जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया है। उसने कृतज्ञतापूर्वक कहा-“आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करुँगा।” विचार-विमर्श के बाद दोनों दरबा में पहुँचे। बादशाह सलामत को फिर से सिर झुकाकर सलाम किया और बैठ गई। इल्मुद्‌दीन ने बादशाह से आज्ञा ली और बाला-“बादाह सलामत! यदि आप आज्ञा दें तो हसन के बदलि हिम्मत खाँ से मेैं एक चीज माँग सकता हूँ।”

बादशाह सलामत की इजाजत पाकर इल्मुद्‌दीन उठा और बोला-“तो ठीक है, मैं सिर्फ एक चीज माँगता हूँ और वह है एक दास और दास के रूप मैं मूझे सिर्फ हिम्मत खाँ चाहिए। मैं इसे ही दास के रुप मैं चाहता हूँ।।”

यह सुनते ही सारे दरबार मैं सनसनी फैल गई। हिम्मत खाँ का चेहरा जो अभी तक सूरज की तरह चमक रहा था, बुझे हुए अंगारे की तरह निस्तेज हो गयाः क्योंकि दास प्रथा के अनुसार दास का तन-मन-धन सबकुछ उसका नहीं रहता, स्वामी का हो जाता है। उस पर तो जैसे वज्रपात हो गया। पिंजरे में बंद शेर के समान वह जोर-जोर से दहाड़ने लगा। सारे लोग उसकी यह दुर्दशा देखकर हँस रहे थे। उसकी एक न सुनी गई। वह शर्त हार चुका था। सभी लोग इल्मद्‌दीन की बुद्धीमत्ता के कायल हो गए।

हिम्मत खाँ को दासों के वस्त्र पहना दिए गए। उसकी आँखो में आँसू थे। मारे गुस्से के वह काँप रहा था इल्मुद्‌ दीन ने हसन से कहा-“बेटा! देखी तुमने अपने पिता की बुद्धिमानी, यदि अपने हाथों से तुम्हारे पिता इसे यह सम्पत्ति न सौंपकर जाते तो यह हड़प लेता। तीन वर्षो तक इसने इस सम्पति को अपनी सम्पति समझकर रक्षा की। खुदा का लाख-लाख शुक्र है कि तुम्हारा धन तुम्हें वापिस मुल गया।”

हसन सबकुछ देखकर चुप था। उसकी आँखो से आनंद के आँसू बह रहे थे। उसे आज अपने पिता की बहुत याद आ रही थी और इल्मुद्‌दीन उसे किसी फरिश्ते जैसा नगर आ रहा था।

८ बिल्ली मौसी

एक घना जंगल था। उस जंगल में एक बिल्ली रहती थी बड़ी ही चतुर और चालाक। जंगल में रहने वाले सभी जीव उसे बिल्ली मौसी कहकर पुकारते थे। बिल्ली के छोटे-छोटे चार बच्चे भी थे, जिन्हें वह बडे़ ही प्यार से पालती थी।

एक दिन खूब तेज हवा चली। आकाश में बादल घिर आए। ऐसा लगता था जैसे जमकर बरसात होगी। बिल्ली समझ गई, बरसात का मौसम आने वाला है। अतः पानी से बचने के लिए घर बनाना होगा। वह चिंतित हो उठी। उसे अपने से ज्यादा चिॆता अपने नन्हे-नन्हे बच्चों की थी। वह तरकीब समझ में नहीं आया, जिससे वह घर बनाकर अपने को और अपने बच्चें को वर्षा से बचा पाती।

कुछ दिन बाद फिर आकाश में काले-काले हादल आ गए। बादल जोर-जोर से गरज रहे थे। बिल्ली को ऐसा लग रहा था जैसे बादल उसे चेतावनी देने के लिए आते हैं और कहते हैं कि तुमने अभी तक कोई इंतजाम क्यों नहीं किया? देखना मैं फिर आऊँगा और जमकर बरसूँगा। तुम जल्दी ही कुछ करो। पर उसकी समझ में कुछ नहीं आता था। एक रात बिल्ली सो रही थी। बादल उमड़-घुमड़ रहे थे। तभी उसने एक सपना देखा कि एक किसान सरकण्डों से भरी गाडी़ लेकर आय़ा है और बिल्‌ली से कह रहा है कि मौसी उठो, मैं सरकण्डे ले आया हूँ, तुम घर बनाने की तैयारी शुरू कर दो।

सुबह होने पर बिल्ली उठी। उसे रात का सपना अभी भी याद था। उसे लगे रहा था कि उसका सपना सच हो जाएगा। वह सड़क के बीचोबीच आकर बैठ गई। तभी उसने देखा कि एक किसान सरकंडो से भरी बैलगाडी़ लेकर सचमुच सामने से आ रहा है। बिल्ली को अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ, पर जब किसान उससे रास्ते में से हटने के लिए बार-बार कहने लगा तब उसे यकीन हुआ कि यह सपना नहीं सच है। वह किसान से बोली-“मैं तो रास्ते से तब हटूँगी जब कुम मुझे सरकंडे दोगे।” किसान बोला-“तुम सरकंडे लेकर क्या करोगी? बिलली बोली-“मिझे तो घर बनाने के लिए सरकंडे चाहिए। हरसात सर पर है। छोटे-छोटे बच्चे हैं।” किसान ने उसकी बात को गम्भीरता से नहीं लिया और बोला- “बिल्ली मौसी! रास्ते से हट जाओ वरना दबाकर मर जाओगी।” पर बिल्ली टस-से-मस न हुई। हारकर किसान गाडी़ से नीचे उतरा और बोला-“ठीक है, तुम्हें जितने सरकंडे चाहिए, ले सकती हो।” बिल्ली तो चालाक थी ही, आनन-फानन में थोडे़-थोडे़ करके उसके मारे सरकंडे उठाकर ले गई। किसान देखता ही रह गया।

बिल्ली ने उन सरकंडों से दिन-रात एक करके एक बडी़-सी झो़पडी़ बनाई। झोंपडी़ तो तैयार है गई, पर उसे पोतने के लिए गुड़ की आवश्यकता थी। बिल्ली ने फिर पहले वाली तरकीब अपनायी सुबह-सुबह सड़क के बीचोबीच जा बैठी। थोडी़ ही देर में उसने क्या देखा कि सामने से गुड़ की भरी एक बैलगाडी़ आ रही है। बिल्ली को रास्ते में बैठा देखकर गाडी़वान बोला-“सामने से हट जा। क्या मरने का इरादा है?” बिल्ली बोली-“गुड़ दोगे तो हटूँगी। वह व्यकित बोला-“तू गुड़ का आखिर करेगी क्या?” बिल्ली बोली- “मैने झोपडी़ बनाई है, उसे लीपने के लिए मुझे गुड़ चाहिए।” वह व्यकित हो-हो करके हँसने लगा और बोला-“अच्छा तो यह बात है जितना चाहे उतना गुड़ ले लो।” बिल्ली ढेर सारा गुड़ घर ले आई। पूरी झोंपडी़ को लीप-पोतकर उसने खूब सुंदर बना दिया। गुड़ की मोटी पर्त उसने झोंपडी़ पर चढा़कर उसे मजबूत बना डाला। फिर अपने बच्चों के साथ उसमें मजे से रहने लगी।

बरसात आयी और चली गई। झोंपडी के कारण बिल्ली व उसके बच्चों को कोई परेशानी न हुई। उनके दिन आराम से कटे। जंगल में फिर चहल-पहल शुरु हो गई थी। बिल्ली भी शिकार की खोज में झोंपडी़ से बाहर निकली। बच्चे झोंपडी़ में ही थे। तभी एक हाथी झूमता हिआ वहाँ आ निकला। बस, उसने अपनी मस्ती में आव देखा न ताव, बिल्ली की झोपडी़ को जोर से धक्का मारा झोंपडी़ भरभराकर जमीन पर गिर पडी़। बच्चे म्याऊँ- म्याऊँ करते हुए बाहर की ओेक दौडे़। भगवान का शुक्र था कि चारों की जान बच गई। हाथी ने इन्हें अपनी सूँड से उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया और जंगल के बीचोबीच स्थित एक खूब ऊँचे पेड़ पर चारों को टाँग दिया। बच्चे शोक मचाते रहे जब थक गए तब चुप हो गए।

शाम होने पर बिल्ली खाने का प्रबन्ध कर घर लोटी तो झोंपडी़ की जगह उसे सरकंडो का ढेर मिला । उसकी तो जान ही निकल गई बच्चे भी वहाँ नहीं थे। वह घबराकर इधर-उधर दौड़ने लगी। पर बच्चों का कोई सुराग उसे नहीं मिला। तभी उसने गौर से देखा कि वहाँ आस-पास हाथी के पाँवो के निशान थे। सारा माजरा उसकी समझ में आ गया अपने अपने मन को ढाँढ़से बँधाया और हाथी को ढूँढ़ निकालने व उससे टककर ले ने का निश्चय किया।

वह हाथी को ढूँढ़ने निकल पडी़। अपनी धुन में चली जा रही थी कि रास्ते में खरगोश मिला। वह बोला-“बिल्ली मोसी! राम-राम, कहाँ जा रही हो? चेहरा तो बडा़ उतरा हुआ है, बहुत परेशान नजर आ रही हो। क्या बात है?” बिल्ली परेशान तो थी ही। उसने सारी बात बता दी। सारी बातें सुनकर खरगोश को भी दया आ गई। वह बोला-“मौसा! कहो तो मैं भी साथ चलूँ ?” बिल्ली ने कहा-“एक से भले दो तुम भी मेरे साथ चलो। ’ दोनों हाथी से मुकाबला करने चले पड़े। रास्ते में लोमडी मिली। दोनों को तेजी से भागते देखा तो उससे न रहा गया और पूछने लगी-“किधर जा रही हो, मौसी?” “हाथी से लड़ने के लए।” बिल्ली ने उत्तर दिया। “क्या बात? ऐसा कयों?” उसने फिर पूछा। “वह मेरे बच्चों की उठाकर ले गया और उसने मेरी झोपडी़ भी तोड़ दी है।” अच्छा यह बात है तो मौसी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। सब मिलकर उसका मुकाबला करेगे और बच्चों को वापिस ले आएँगे”, वह बोली। बिल्ली ने लोमडी़ की ओर देखा और अपनी स्वीकृति दे दी। इसी प्रकार उसे रास्ते में हिरण, मोर, चील, बाज, तोता, कुत्ता, कौआ, बतख, हंस, सरस, उनके पशु-पक्षी मिलें। सब हाथी से लड़ने के लिए उसके साथ हो लिए। थोडी़ ही दूर चले थे कि उसे एख चींटी मिली, बोली- ‘बिल्ली मौसी! इतनी बडी़ फौज लेकर कहाँ जा रही हो?” बिल्ली ने उसे भी बही उत्तर दिया और पूरी बात समझायी। चींटी बोली-“मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी और वकत पड़ने पर तुम्हारे काम आऊणगी।” बिल्लीा को हँसी आ गई और बोली-“अपनी औकात तो देख, भला तू कया कर सकेगी? हाथी ने एक फँक भी मार दी तो तू ऊपर उड़ जाएगी।” चींटी बोली-“मौसी! मिझे छोटा मत समझो। मैं बडे़ से बडा़ कमाल कर सकती हूँ।” ऐसा कहकर वह भी सबके साथ चल पडी़। पूरी फौज के साथ बिल्ली मौसी जैसे ही तालाब के किनारे पहुँची, उसने देखा कि हाथी एक पेड़ की डाल से पत्ते खा रहा था। बस, उसे देखते ही पूरी फौज हाथी पर टूट पडी़। हाथीडे़ जोर से चिंघाडा़ और जोर से अपन ी सूँड़ घमाई। बस फिर क्या था? कुछ पशु-पक्षी तो डरकर भाग गए और कुछ उसके पैरों के नीचे आकर दब गए। चारों ओर हा-हाकार मच गया हाथी ने बिल्ली को अपनी सूँड़ में लपेटकर उठा लिया और गेंद म्की तरह उछालने लगा। हवा में ऊपक उछालने के कारण बिल्ली के प्राण गले में अटके हुए थे, पर वह कर भी क्या सकती थी।?

इतनी ही देर में चींटी हाथी के पिछले पाँव से चिपट गई और धीरे-धीरे रेंगती हुई उसकी पीठ पर पहुँची, फिर उसके सिर पर पहुँच गई। बडी़ होशीयारी से काम लेते हुए चिंटी धीरे-धीरे कदम बढा़कर दुबके-दुबके चलकर सूँड़ के बीच में घुस गई। अंदर जाकर उसने आव देखा न ताव, बडे़ जोर से हाथी को काट लिया। हाथी के तो होश गुम हो गए। एक पल में उसकी सारी मस्ती हवा हो गई। दर्द के मारे वह बिलबिलाने लगा। चींटी ने उसका पीछा नहीं छोडा़ और बोली-“बिल्ली मौसी के बच्चों को छोड़ते हो या नहीं?” हाथी ने क ोई जवाब नहीं दिया तो चींटी ने फिर जोर से काट लिया। हाथी जोर से चिंघाडा़-“छोड़ता हूँ, छोड़ता हूँ। पहले तू मेरा पीछा तो छोड़।” ऐसा कहकर उसने एक-एक करके चारों बच्चों को पेड़ से नीचे उतार दिया। बच्चे म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए माँ से लिपट गए। बिल्ली मौसी की आँखो में खुशी के आँसू उमड़ आए। तभी धीरे-धीरे रेंगती हुई चींटी भी वहाँ आ पहुँची। बिल्ली मौसी उसका धन्यवाद करते हुए नहीं थक रही थी। अपने बिछुडे. हुए बच्चों को पाकर वह फूली नहीं समा रही थी। उसे आज एहसास हो गया था कि चींटी छोटी जरूर है पर उसने बहुत बडा़ काम कर दिया। कद से छोटा होने पर किसी का महत्त्व कम नहीं हो जाता। आज वह यह बात जान चुकी थी। अब उसे एक बार फिर झोंपडी़ बनाने की चिंता सताने लगी थी।

९ बाबा बालकनाथ

एशिवालिक की ऊँची-ऊँची पहाड़ियों में एक घना जंगल था। उसके आस-पास कुछ गाँव थे। गाँव में रहने वाले लोग अपने पशुओं को उन जंगलों में चराया करते थे। उन्हीं गाँवों में से एक गाँव में एक बूढी़ कुम्हारिन रहती थी, उसका नाम चंद्रा था। वह बिल्कुल अकेली थी। खेती-बाडी़ और पशु-पालन ही उसकी आजीविका के साधन थे। उसके दिन चैन से कट रहे थे। एक दिन की बात है कि एक की बात है कि एक बालक उसके द्वार पर आया। वह शायद रास्ता भटक गया था। वृद्धा ने सोचा कि शायद कोई गरीब अनाथ बालक है। मेरे द्वार पर आया है तो मुझे इसे आश्रय देना चाहिए। उसने सोचा-मैं सारे दिन अकेली रहती हूँ। दोनों को एक-दुसरे का सहारा हो जाएगा। यह बालक भी पर जाएगा और मेरे भी दिन कट जाएँगे। मैं तो अब बुढी़ हो चली हूँ। जंगल में जाया नहीं जाता नहीं जाता। यह मेरे पशुओं को जंगल में चरा लाया करेगा और खेती-बाडी़ में भी मेरा हाथ बँटा देगा। यही सोचकर उसने उसे अपने घर में रख लिया। यह बालक उस दिन से चंद्रा के घर पर ही रहने लगा। धीरे-धीरे उसका नाम बालकनाथ पड़ गया।

बूढी़ कम्हारिन चंद्रा रोज सुबह उठती। खाने में मकका की रोटियाँ बनाती, उसमें से दो रोटियाँ और एक गिलास छाछ बालक नाथ को देती और कहती कि जाओ जंगल में पशुओं को चरा लाओ । वह रोज पशुओं को लेकर जंगल जाता। उसके साथ और भी ग्वाले होते थे। पर उसे अकेले रहना ही अधिक पसॆद था। उसकी रोज की यही दिनचर्या थी। वह सुबह जाता और सांझ को घर वापस आता। जंगल में एक बहुत बडा़ वट (बड़) का वृक्ष था। जब पशु चरने लगते, बालकनाथ इसी वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यानमग्न हो जाता। सायंकाल ही उसकी ध्यानमुद्रा टूटती। उसके पशु जंगल में भटकते रहते। कोई बार वे आस-पास के खेतों में घुसकर खड़ी फसल को नुकसान पहुँचाते। कुछ दिन तक लोग सहन करते रहा। जब यही क्रम रोज का बन गया, तब वे परेशान और क्रोधित होकर चंद्रा के पास पहुँचे। उन्होंने बालकनाथ की शिकायत करते हुए कहा कि तूने कैसा ग्वाला रखा है? यह तो सारे दिन आँखें मूँदकर पेड़ के नीचे बैठा रहता है। पशुओं का बिलकुल ध्यान नहीं रखता। उनकी देखभाल भी नहीं करता। वे हमारे खेतों में घुसकर फसल को भारी नुकसान पहुँचा रहे हैं। तुम इस लड़के को समजाओ।

बालकनाथ जब शाम को घर लौटा तो वृद्धा ने उसे खूब भला-बूरा कहा और डाँटते हुए बौली-“तू तो मुफत की रोटियाँ तोड़ रहा है। क्या तुझे इसीलिए रोटियाँ खिलाती हूँ कि तू सारा दिन आराम फरमाए, पशु दूसरों की फसल बर्बाद करें और मैं उनके उलाहने सुनूँ। तेरे कारण आज मूझे लोगों की खरी-खोटी सुननी पडी़। इससे तो मैं अकेली ही भली थी। मैं ताने सुन-सुनकर परेशान हो गई हूँ।”

बालकनाथ चुपचाप सबकुछ सुनता रहा। जब बृद्धा चुप हो गई तब शांत भाव से बोला-“कौन कहता है कि पशुओं ने फसलों को बर्बाद कर दिया है। चलो मेरे साथ और दिखाओ किस-किस की फसल को मेरे पशुओं ने रौंदा है?” गाँववाले जब उन खेतों में पहुँचे जिन्हें बालकनाथ के पशुओं ने चरा था, तो वे द्‌खकर हैरान हो गए कि वहाँ खूब फसलें लहलहा रही थीं। कोई भी नुकसान नहीं हुआ था। इसके बाद वे दूसरे, तीसरे, चौथे सभी खेतों में पहुँचे तो यह देखकर उन्हें बडा़ अचम्भा हुआ कि खेत हरी-भरी फसलों से भरे थे। सभी आश्चर्यचकित नेत्रों से उस बालक को देख रहे थे।

उसके बाद बालकनाथ ने जमीन में दो स्थानों पर चिमटा गाडा़ तो एक स्थान पर मकका की रोटियाँ और दुसरे स्थान पर छाछ निकला। वह चंद्रा की ओर मुड़कर बोला-“माँ, ये ले अपनी रोटियाँ और छाछ।” सारी रोटियाँ और छाछ जमीन में गडे़ हुए थे। कुम्हारिन चंद्रा जान चुकी थी कि यह कोई साधारण बालक नहीं है। ग्लानि और पश्चात्ताप से उसकी आँखों से आँसू बह निकले। हाथ जोड़कर वह उस बालक से क्षमा-याचना करने लगी। सबने प्रत्यक्ष अपनी आँखों से बालक का चमत्कार देखा और श्रद्धा से नतमस्तक हो गए। उन्हें लगा कि यह बालक भगवान का साक्षात्‌ अवतार है।एक दूसरी किंवदन्ती यह भी है कि वह बालक उस वृद्धा कुम्हारिन का हाथ पकड़कर उसी पेड़ के पास ले गया जहाँ वह ध्यानमग्न हुआ करता था। वहाँ चन्द्रा ने देखा कि सारी रोटियाँ पेड़ पर टँगी थी और उस वृक्ष की खोह में छाछ भरी थी।

यह स्थान अब प्रसिद्ध ‘दयोट तीर्थ’ है जो कि एक सिद्ध तीर्थ है। यहाँ पर बाबा बालकनाथ का मंदिर है। दूर-दूर से यात्री बाबा बालकनाथ के दर्शन करने व आशीर्वाद लेने के लिए वहाँ जाते हैं। आज भी वोह उनरे चमक्रारों की चर्चा करते हैं।