Nana Nani Stories (Part - 1) in Hindi Short Stories by MB (Official) books and stories PDF | नाना नानी की कहानियाँ (भाग - १)

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नाना नानी की कहानियाँ (भाग - १)


नाना-नानी

की

कहानियाँ

भाग - १

-ः लेखक :-

वर्षा जयरथ

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अनुक्रमणिका

•र्पांच शिक्षार्एं

•उपकार का ईनाम

•अनोखी शर्त

•चश्मों का राजा

•घमंडी रानी

•धूर्त दखेश का अंत

•बादशाह का न्याय

•मुरुस्थल की मछलिर्यां

•बुद्धिमान वजीर पुत्र

१पाँच शिक्षाएँ

बहुत पुरानी बात है, चार मित्र थे। एक बार वे चारों यात्रा पर निकले। सब ने निश्चय किया कि हममें से प्रत्येक एक कहानी सुनायेगा ताकि रास्ते की थकान दूर हो और सफर भी कट जाए। प्रत्येक ने यही किया। जब चारों की कहानियों का भण्डार खत्म हुआ तब उनमें एक और यात्री आ मिला। चारों ने उस नवागंतुक से भी कहानी सुनाने को कहाँ उसने कहा कि दोस्तो! मैं एक एसी कहानी सुनाऊँगा जिससे तुम्हें पाँच कहानियाँ प्राप्त होंगी, किन्तु शर्त यह है कि मैं अपनी बातें बेचता हूं । इन पाँच बातों के बदले तुम्हें मुझे पाँच सौ रुपये कीमत अदा करनी होगी । यदि शर्त मंजूर हो तो रकम दे दो और कहानी सुन लो ।

चारों ने कहा कि यह रकम तो बहुत ज्यादा है, फिर भी हम चारों में से प्रत्येक तुम्हें सौ-सौ रुपये देगा। यदि तुम राजी हो तो हमें अपनी कहानी सुना दो। आगंतुक तैयार हो गया । चारों ने चार सौ रुपये एकत्रित किये और उसे दे दिए । अब कहानी नहीं वरन्‌ पाँच सूत्र या शिक्षाएँ है और अक्षरशः यथार्थ एवं सत्य है, यदि तुमने अपने जीवन में इन पर अमल किया तो निश्चित ही ये तुम्हारे लिए सोने और मोती की समान होंगी, लो सुनो-

१. पहली शिक्षा यह है कि धन-दौलत सफर में काम आती है ।

२. सच्चा मित्र विपत्ति में भी साथ नहीं छोडता और सच्चा ही बना रहता है ।

३. विपत्ति पडने पर अपने सगे-संबंधियो पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए ।

४. बीवी या पत्नी तब तक ही वफादार है जब तक पति के पास रहे ।

५. अंतिम और पाँचवीं शिक्षा, वही व्यक्ति किक्रमादित्य की पुत्री को पा सकेगा जो निद्रा पर विजय प्राप्त कर लेगा ।

तो भाइयो ! यही हैं वे पाँच शिक्षाएँ। भगवान तुम्हारा भला करे, अब तुम आगे अपनी यात्रा पर जाओ ।

यह सुनकर उन चारों को उस पर बडा क्रोध आया । वे कहने लगे कि तू तो बहुत बडा ठग निकला, तू बडा ही दुष्ट है । हमारे रुपये लौटा दे, नहीं तो तेरी खैर नहीं । जब बात बहुत बढ गइ तो उन्होंने निश्चय किया कि वे राजा के पास जाकर न्याय माँगेंगे । वे चारों राजा के पास पहुँचे और न्याय की गुहार लगाइ।

राजा ने उनकी बात सुनी और उस आदमी से पूछा- “अब तुम्हें अपनी सफाइ में क्या कहना है ?”

उस आदमीने हाथ जोडकर उत्तर दिया- “राजन्‌ । मैंने पाँच उत्तम सूत्र इन्हें बताये हैं । इनमे से एक को भी झूठा साबित नहीं किया जा सकता । यदि आप इन सूत्रों को जानन चाहते हैं तो मैं आपको भी बता सकता हूँ । शर्त यह है कि आपको पाँच सौ रुपये देने होंगे । इनसे तो मैंने चार सौ रुपये ही लिए हैं, फिर भी ये मुझे बुरा-भला कह रहे हैं ओर आपके पास ले आये हैं ।”

राजा ने मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो गइ थी । उसने सोच, अवश्य ही कोई अच्छी बात होगी । राजा ने अपने कोषाध्यक्ष को पाँच सो रुपये लाने की आज्ञा दी । रुपए कथाकार के हाथ में रखे और बोला- “अब तुम हमें वे पाँच सूत्र बताओ।”

उसने फिर से उन्हीं पाँच सूत्रो को राजा के सामने दोहराया और चुप हो गया । कुछ देर तक दरबार में सन्नाटा छाया रहा । राजा सोचता रहा कि सुनने में तो ये बडी मुर्खतापूर्ण बातें लगती हैं, पर आजमाकर देखते हैं, इसमे दर्ज ही क्या हैं ?

कुछ दिनों बाद राजाने रानी को उसने मायके भेज दिया और यह घोषणा की कि वे एक गोपनीय यात्रा पर प्रस्थान कर रहैं । अँधेरे में एक रात राजाने भिखारियों के वस्त्र पहने और महल से निकल पडा । उसने कथाकार की शिक्षा के अनुसार अपनी कमरबंध में सात बहुमूल्य रत्ऩ छिपाकर रख लिये ।

भिखारियों के वेश धारण किए राजा घूमते-फिरते अपनी बहन के दरवाजे पर पहुँचा और उससे प्रार्थना की कि वह उसे सिर छिपाने के लिए जगह और खाने के लिए भोजन दे । राजा की बहन एक राजा की पत्नी थी, अतः जब उसने अपने भाइ की दुर्दशा देखी तो उसे बडा आश्चर्य हुआ और बोली- “तुम अपना सत्यानाश कर चुके हो, अब एसी स्थिति में क्या मुझे भी बरबाद करने के लिए आये हो ? अपनी ससुराल वालो के सामने तुम मुझे लज्जित मत करो और जल्दी-से- जल्दी यहाँ से चले जाओ ।”

फकीर के वेशधारी राजा ने अपनी बहन से विनती की और गिडंगिडाने लगा कि तुम तो मेरी माँ जाई बहन हो, मेरे हाल पर तरस खाओ । मैं बहुत भुखा हूँ, यदि घर में नहीं रखना चाहती हो तो धर्मशाला में ही मेरे रहने का इंतजाम करवा दो और मेरे लिए भोजन भेज दो । जिस थाल में तुम मेरे लिए खाना भेजोगी उस था पर दया के सबूत के रुप में अपनी मुहर अवश्य लगा देना । यह कहकर राजा वहाँ से चला गया ।

बहन ने भाई के लिए खाना भेज दिया । राजा ने वह खाना पक्षिओं को डाल दिया । एक गड्डा खोदकर थाल वहाँ दबा दिया और अपनी आगे की यात्रा प्रारंभ कर दी ।

इसके दो दिन बाद राजा अपने पुराने मित्र के द्वार पर पहँचा । दरवाजे पर दस्तक दी तो अन्दर से उसका मित्र वाहर आया । बाहर आते ही उसने अपने मित्र को पहचान लिया । उसने बिना कुछ कहे - सुने राजा को अपने गले लगा लिया । उसे घर के अंदर ले जाकर स्ऩान करने के लिए अपने हाथों से पानी लाकर दिया ओर अपनी पोशाक में से एक नया जोडा लाकर उसे पहनने को दिया नाना प्रकार के स्वादु व्यंजन तैयार करवाए, प्रेम से भोजन करवाया । रात को नरम- नरम बिस्तर पर सुलाया । राजा की दशा देखकर वह मन-ही-मन दुखी होता रहा, पर उसने राजा से कुछ न कहाँ

दुसरे दिन प्रातः काल राजा उसने चलने की तैयारी । राजा के मित्र ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की, पर राजा नहीं माना । रास्ते में वह कथाकार की बातों पर मनन करता रहा और बोला- “यह सत्य है कि सच्चा मित्र दुख में भी साथ नहीं छोडतां ।”

उसके बाद राजा अपनी ससुराल पहुँचा रानी तो पहले से ही वहाँ रह रही थी । अपनी ससुराल में जाकर वह घुडसाल के रक्षक के पास नौैकर हो गया घुडसाल का रक्षक देखने में तो बहुत सुंदर था, पर दिल का बहुत काला था ।

राजा कुछ दिनों तक वहाँ नोकरी करता रहा । एक रात उसने देखा कि रानी उस तबेल के स्वामी के घर में आ रही थी । यह देखकर उसे बडी ठेस लगी । उसने अपना दिल पत्थर का बना लिया और कमरे के द्वार से कान लगाकर दोनों की प्रेम भरी बाते सुनने लगा । अब उससे रहा न गया, वह आपे से बहार हो गया हो गया और दरवाजा धकेलकर अन्दर घूस गया । रानी ने फकीर के वस्त्र पहने अपने पति राजा को पहचान लिया । दूसरे ही क्षण वह थर-थर काँपने लगी और अपने प्रेमी से बोली कि यह आदमी जो तुम्हारा नौकर है, वास्तव में मेरा पति है । तुम जल्दी से जल्लाद को बुलवाकर इसका सिर कटवा दो अन्यथा हम दोनों की खेर नहीं । हम दोनों ही मारे जाएँगे ।

तबेले के रक्षक ने जल्लाद को बुलाकर राजा को उसके हवाले कर दिया और कहा कि जंगल में ले इसका वध करो दो । राजा तो आखिर राजा ही था । उसने जल्लाद को इस बात पर राजी कर लिया कि वह छह जवाहर लेकर उसे छोड दे । जल्लाद छह बहुमूल्य रत्न लेकर राजा को छोड दिया । राजा वहाँ से चला गया और मन-ही-मन पाँच शिक्षाएँ देने वाले उस कथाकार की सराहना करता रहा, क्योंकिं उनमे से चार बातें अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई थीं । यदि उसके पास वे रत्न न होते तो आज वह अपनी जीवन रक्षा न कर पाता और कभी का परलोकवासी हो गया होता । जंगली जानवर उसके शव को रखा रहे होते । अब उस कथाकार की आखिरी शिक्षा बची थी कि जो निद्रा पर विजय पायेगा वही राजा विक्रमादित्य की पुत्री को पायेगा । अब बस राजा को यही यत्न करना बाकी था ।

एक तम्बे सफर के बाद वह राजा विक्रमादित्य के दरबार में जा पहुँचा उस समय उसने संन्यासियों के वस्त्र धारण किये हुए थे । वहाँ जाकर वह बोला - “महाराज! मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ और इसीलिए यहाँ आया हूँ । यदि मेरा विवाह उसके साथ हो गो तो मैं ये संन्यासियों के वस्त्र त्याग दुँगा ।”

उसकी बात सुनकर राजा विक्रमादित्य बहुत जोर से हँसा और व्यंग्य करते हुए बोला - “शायद तुम नहीं जानते कि तुम कितना बहा खतरा मोल ले रहे हो और जान की बाजी लगा रहे हो । दर्जनों राजा उसे पाने के लिए यहाँ आ चुके हैं अपनी जान गँवा चुके हैं । राजकुमारी के शयनकक्ष से उनका शव ही बाहर निकलता है, किन्तु इस पर भी यदि तुम अपनी किस्मत आजमाना चाहते हो तो मैं तैयार हूँ । यदि तुम जीवित बचे तो तुम्हारा विवाह राजकुमारी के साथ कर दिया जाएगा ।”

धीरे-धीरे रात क अंधेरा गहराने लगा । राजा को राजकुमारी के शनयकक्ष में जाने की अनुमति मिल गई । आधी रात तक वह तथा राजकुमारी बातें करते रहे, फरि राजकुमारी की पलकें बोझिल हो गई और उसे नींद आ गई । नींद तो राजा को भी बहुत जोर से आ रही थी, पर उसने प्रण किया कि वह राजकुमारी से विवाह अवश्य करेगा । अतः नींद ही क्या, हर बाधा को दूर करने के लिए उसने करम कस ली । अचानक उसे एक आवाज सुनाई पडी- खबरदार, होशियार!

यह सुनते ही राजा चौंक पडा । उसने बुद्धि का प्रयोग किया । अपने कपडे उतारे, उन्हें राजकुमारी के पास एसा बनाकर रख दिया मानो कोई आदमी सो रहा हो और कमरे के एक कोने में छिपकर खडा हो गया । उसने हाथो में तलवार पकड ली और एकटक पलंग की और ताकने लगा । उसने देखा कि धीरे-धीरे राजकुमारी के पंखुडियों जैसे होंठ खुले और फिर यह देखर राजा चौंक गया कि उसके मुँह से एक जहरीला साँप बाहर आया, उसने राजकुमारी के पास लेटे उस नकली आदमी में अपने जहरीले दाँत गडा दिए । अब तो राजा ने आव देखा न ताव, तलवार को जोरदार प्रहार उस सर्प पर करके उसका सिर काट डाला और शरीर के टुकडे-टुकडे कर डाले, फिर उसके सभी टुकडो को एकत्रित करके एक पोटली बनायी और पलंग के नीचे रख दी । अब अपनी थकान मिटाने के लिए राजा पलंग पर लेट गया ।

प्रातः काल होने पर पहरेदार नियम के अनुसार एक और शव निकालने के वहाँ आये । जैसे ही उन्होंने दरवाजा खटखटाया, राजा ने दरवाजा खोला, यह देखकर उनसे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि राजा जिंदा है । आनन-फानन में यह खबर पूरे महल में फैल गई । स्वयं राजा विक्रमादित्य उस कमरे में आया । वहाँ जाकर विक्रमादित्य ने संन्यासी वेशधारी राजा से रात की घटना को विवरण सुना पलंग के नीचे रखे सर्प को टुकडों को देखा और अपने भावी दामाद को गले लगाकर राजा बोला कि मैं आपका विवाह अपनी बेटी से करने के लिए तैयार हूँ । इस पर संन्यासी वेशधारी राजा ने कहा कि महाराज! अभी मुझे कुछ अधूरे कार्य पूरे करने हैं । उन्हें पूरा करते ही मैं आपकी पुत्री से विवाह करने आऊँगा । फिलहाल हम दोनों अपनी अँगूठियाँ बदल लेते हैं । यह कहकर उसने राजकुमारी को अपनी अँगुठी पहना दी । राजकुमारी ने भी उसे अपनी अँगुठी पहनाई । इसके बाद वह वहाँ से चल दिया ।

लम्बी यात्रा करके राजा अपने राजमहल पहुँचा । वहाँ से चल दिया । कार्य भार मंत्री को सौंप दिया और कुछ नौकर-चाकर अपने साथ लेकर चल पडा । सर्वप्रथम वह अपनी बहन के घर पहुँचा । बहन ने आज उसकी खूब खातिरदारी की । वह अपने साथ बहन की दी हुई थाली भी ले गया था । उसने बहन को थाली लौटाते हुए कहा कि यह तुम्हारी अमानत, मैंने सुरक्षित रख छोडी थी । थाल देखकर वह रो-रोकर माफी माँगने लगी और भाई के पैरों मे पड गई । उसके बाद वह अपनी उस मित्र के घर जा पहुँचा, जिसने उसकी सहायता की थी आ. आज भी उसका मित्र उसे देखकर बहुत खुश हुआ और उसे गले लगा लिया । वह बहुत खुश हुआ कि उसके मित्र को उसका राज्य वापस मिल गया । राजाने उससे आग्रह कि तुम भी मेरे साथ चलो । मित्र राजा का आग्रह नहीं टाल सका और राजा के काफिले के साथ चल पडा ।

अपने काफिले को साथ लेकर राजा अपनी ससुराल पहुँचा, जहाँ उसकी दुष्ट पत्नी रह रही थी । उसने अपनी पत्नी तथा अस्तबल के स्वामी के अवैध संबंधो की बात सबको सुनायी और उस बेवफा रानी को कारागार में डलवा दिया । इसके बाद एक शानदार बारात बाजे-गाजे, घोडे और हाथियों के साथ लेकर वह राजा विक्रमादित्य के महल की और चल पडा । बडी धूमधाम से राजकुमारी के साथ उसका विवाह हुआ, फिर वह स्वदेश लौट आया ।

इस प्रकार उस कथाकार की पाँचों शिक्षाएँ कसौटी पर खरी उतरीं । राजा उससे बहुत प्रभावित था । परिणामस्वरुप राजा ने उसे अपना दरबारी नियुक्त कर लिया ।

२ उपकार का ईनाम

वर्षों पुरानी बात है, एक गाँव में एक विधऴा रहती थी । उसका पति काफी धनवान था, अतः मृत्यु के पश्चात्‌ वह अपनी पत्नी के लिए काफी धन छोड गया था । परंतु वह विधऴा निस्संतान थी । उसका स्वभाव बडा ही दयालु था । जो कोई उसके पास आता, वह खाली हाथ नहीं जाता था । दीन-दुखियों, बीमारों, अपंग और असहायों की वह तन, मन, धन से सेवा किया करती थी । सिर्फ मनुष्यों का ही नहीं वरन्‌ पशु-पक्षियों का कष्ट दूर करने को भी वह हमेशा तत्पर रहती थी ।

एक दिन की बात है कि वह अपनी छोटी-सी बगिया में टहल रही थी । उसका एक पंख टूट गया था । दर्द से वह तडप रहा था और फडफडा रहा था । सर्दी के दिन थे, अतः सर्दी के कारण वह काँप भी रहा था । वह दयालु विधवा उसे उठाकर घर ले आयी, उसने उसे दूध पिलाया । जब वह कुछ स्वस्थ हुआ तो उसके टुटे पंख की मरहमपट्टी भी उस विधवा ने की, फिर कम्बल औढांकर उसे लिटा दिया पूरे एक माह तक वह पक्षी की सेवा करती रही । पुर्णत : स्वस्थ होने पर वह कमरे में उडने लगा । एक दिन उडकर विधवा के कंधे पर बैठा। उसने अपनी चोंच विधवा के गाल पर लगायी मानो उसका गाल चूमकर उसे धन्यवाद दे रहा हो । उसके बाद वह उडकर न जाने कहाँ चला गया ?

कई वर्ष बीत चुके थे । वह विधवा स्त्री सब बूढी हो चली थी और गरीब भी, क्योंकि उसके पास आमदनी का कोई साधन नहीं था। पति को छोडी हुई सम्पत्ति आखिर कितने दिन चलती । आखिरकार एक दिन एसा भी आया कि उसे रोटियों के लाले पड गए । वह फाके कर अपना जीवन बिताने लगी ।

एक बार शाम के समय वह अपनी बगिया में बैठी हुई थी । वह न मालम किन विचारों में डूबी हुई थी । उसी समय एक पक्षी उसके कंधे पर आकर बैठ गया । उसकी चोंत में एक बीज । यह वही पक्षी था जिसे उस विधवा ने जीवन-दान दिया था । वह कुछी देर उसके कंधे पर बैा रहा, उसने अपनी चोंच का बीज उसके सामने एसे फेंका मानो उसे उठाने को कह रहा हो । जैसे ही विधवा ने वह बीज उठाया, पक्षी वहाँ से उड गया । उस बीज को हाथ में लेकर वह मन-ही-मन हँसी फिर उसने उसे बगिया के एक किनारे पर बो दिया और फिर यह बात भूल गई ।

इसी प्रकार कुछ दिन बीत गए । एक दिन एक यात्री उसके द्वार पर आया । वह भूखा था । उसने विधवा से खाना खिलाने की प्रार्थना की । विधवा स्वयं कई दिनों से भूखी थी । पर यह बात वह अतिथि को बताती कैसे ? अतिथि को भूखा लौटाना उसके लिए पाप था । अतः उसने पूरे आदरे के साथ उसे कमरे में बैठाया और यह सोचकर बगिया में गई के शायद कोई फल या सब्जी मिल जाए तो अतिथि का सत्कार करे । बगिया के कोने में जब उसने तरबूज की बेल उगी देखी तो वह हैरान रह गऊ । उसमें एक बडा सा तरबूज भी लगा हुआ था । उसने सोचा कि मैंने तो यह बेल कभी नहीं लगायी थी । पर तरबूज देखकर वह बडी प्रसन्न हुई-चलो अब अतिथि तो भूखा नहीं जाएगा । इसे ईश्वर की कृपा मानकर वह तरबूज को घर में ले आयी । तरबूज को उसने अतिथि के सामने रखकर दो टुकडे कर डाले यह क्या ? तरबूज के अन्दर से हीरे, मोती और सोने की मोहें छन-छन करती फर्श पर जा गिरीं । यह देखकर विधवा की आँखे आश्चर्य से फटी रही गई । उसे अपनी आँखो पर विश्वास ही नहीं हो रहा था । वह किकर्तव्यविमूठ होकर उस दौहलत के ढेर को देखती रही । यह देखकर वह अतिथि हँसने लगा और बोला- “हे दयालु और सज्जन महिला । इसमे हैरान होने की क्या बात हे । यह तुम्हारे द्वार किए गए उपकारो को ईनाम है ।” इतना कहकर वह अतिथि वहाँ से गायब हो गया । वह वृद्धा फिर से लोगों की भलाई मे जुट गइ गई ।

३अनोखी शर्त

प्राचीनकाल की बात है, काश्मीर के एक भाग का नाम संधिपत नगर था । वहँ एक राजा राज्य किया करता था । यह जगह अब जलमग्न हो गई है और इसका नाम अब वूलर झील पड गया है । राजा-रानी निस्संतान थे । रानी का नाम रत्नमाला था । पुत्र-प्राप्ति की कामना से दोनों नित्यप्रति साधु-सन्तो की सेवा करते थे । एक बार की बात है । एक जोगी उनके महल में आया । दोनो ने जोगी की खूब खातिरदारी की तथा अपने मन की इच्छा उसके सामने प्रकट की ।

जोगी ने कहा- “हो राजन्‌। आपको पुत्र तो प्राप्त हो सकता है पर एक शर्त है ।”

राजा-रानी दोनों एक साथ बोले - “कहिए, कौन-सी शर्त है ? हम उसे सुनना चाहते है।”

जोगी ने कहा- “शर्त कठिन है । शायद आप उसे स्वीकार न करे । मेरे आशीर्वाद के फलस्वरुप आपको जो पुत्र प्राप्त होगा, वह मात्र ग्यारह वर्षो तक ही आपके पास रहेगा । उसके बाद आपको उसे मुझे सौंपना होगा । यदि आपको यह शर्त मंजूर है तो बताइए ।”

शर्त सुनकर राजा-रानी दोनों ही कुछ देर तक एक-दूसरे का मुँह ताकते रहे, फिर बोले- “महाराजा। हमे आपकी शर्त मंजूर है क्योंकि हमे पुत्र अवश्य चाहिए, बेशक ग्यारह वर्षो तक ही वह हमारे साथ रहे” यह सुनकर उस जोगीने कहा- “आज से ठीक नो माह बाद तुम्हारे यहाँ पुत्र का जन्म होगा ।” यह आशीर्वाद देकर जोगी वहा से चला गया ।

समय बीतता गया । ठीक नौ माह बाद रानी ने एक सुन्दर व स्वस्थ बालक को जन्म दिया । नामकरण संस्कार के पश्चात्‌ उसका नाम अकनुंदन रखा गया । अकनंदुन बहुत ही मेधावी था । जब वह पाठशाला जाने लगा तो उसकी गिनती कक्षा के सबसे बुद्धिमान चात्रो में होने लगी । दिन, महीने और वर्ष बीतने लगे । अकनंदुन का ग्यारहवाँ जन्मदिन आ गया । उस दिन वह जोगी न मालूम कहाँ से फिर आ पहुँचा और राज-रानी से बोला- “अब मेरी शर्त पूरी करने का समय आ गया है, आप अकनंदुन को मेरे हवाले करी दीजिए ।” राजा-रानी का दिल तो बहुत दुखी हुआ पर शर्त अनुसार उन्होंने अकनुंदन को जोगी के हवाले कर दिया और कहा- “जोगी महाराज । यह आपकी अमानत है, जैसा आप कहेंगे वैा ही होगा ।” भारी मन से उन्होंने अकनंदुन को पाठशाला से बुलवाया और जोगी को सौंप दिया ।

उसे देखते ही जोगी अत्यन्त गंभीर हो गया और बोला- “देर किस बात की है, मुझे बहुत जोर की भूख लगी है । मैं इसका माँस खाना चाहता हूँ । आप इसका वध कीजिए, मांस को पकाइये और मुझे खिलाइये । जल्दी कीजिंए मुझे भूख सता रही है ।”

यह सुनकर राजा-रानी दोनों ही रोने लगे और बोले- “महाराज । यह कैसा अन्याय है, जो पुत्र हमे प्राणओं से भी अधिक प्रिय है, उसका वध हम कैसे कर सकते हैं ? “उन्होंने इस घृणित और क्रूर कर्म को टालने का भरपूर प्रयास किया, किन्तु जोगी टस-से मस नहीं हुआ और क्रोधित होते हुए बोला- “मुझे इसके अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं है । आप जल्दी कीजिए और इसका वध भी आप दोनों के ही हाथ होना जरुरी है।”

राजा-रानी ने रोते-रोते उस जोगी के कहने पर अकनुंदन का वध कर डाला । उसके मांस को रसोऊघर में पका कर तैयार किया गया । उन्होंने जोगी का बताया कि मांस तैयार है तो जोगी ने कहा- “देर किस बात की है, अब तुम इसे चार थालियो मों परोसो । एक मेरे लिए, दो तुम दोनों के लिए और चौथी अकनुंदन के लिए । चार थाल परोसे गए । तीनों अपने-अपने आसन पर बैठ गए । राजा-रानी के नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी । इतने में जोगी ने रानी से कहा- “रानी रत्नमाला, तुम उठो और खिडकी में से नित्य की भाँति अपने पुत्र को आवाज देकर खाने के लिए बुलाओ । जल्दी करो क्योंकि खाना ठंडा हो रहा हैं।”

रोती-विलाप करती रानी भारी मन से उठी, खिडकी की ओर गई औस उसने अकनदुंन का नाम पुकारा । उसके पुकारते ही नित्य की भांति सीढियों पर से आवाज आई- “आया माताजी” और देखते-ही- देखते अकनंदुन वहाँ उपस्थित हो गया राजा और रानी की खुशी का ठिकाना न रहा । उन्होंने आगे बढकर उसे गले से लगा लिया । पर यह क्या ? जब उन्होने पीछे मुडकर देखा तो वहाँ न तो जोगी था न और न ही परोसे गए थाल । पूरे महल में जोगी की तलाश की गई, पर उसका कोई अता-पता न था । जोगी को न पाकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। वह कहाँ से आया और कहाँ चला गया यह कोई न जान सका ।

अकनंदुन को फिर से पाकर राज-रानी की खुशी का ठिकाना न रहा । वे अत्यन्त हर्षित हुए ।

४चश्मों का राजा

हजारों साल पहेले की बात है, किसी के देश पर बलबीर नाम का राजा राज्य करता था। कश्मीर में ही एक गाँव था-बलपुर वहाँ एक गरीब ब्राह्मण रहता था । उसका नाम सिद्धराम था । उसकी पत्नी बहुत गुस्सैल और बदमिजाज थी । वह प्रतिदिन अपने पति से लडती - झगडती थी । उसे खरी - खोटी सुनाती थी । सिद्धराम रोज रोज की तू-तू मेैं-मैं थक चुका था । हमेशा की तरह एक दिन उसकी पत्नीने उसे खूब भला-बुरा कहाँ वह अब और न सह सका । उसने रात को खाना नहीं खाया और सारी रात भविष्य की चिंता व योजना बनाने में जागकर गुजरा दी ।

प्राप्तः काल होते ही पत्नी से बिना कुछ कहे वह घर से निकल पडा । चलते-चलते दोपहर हो गई थी । वह एक जंगल में पहुँचा । थकान के मारे उसका शरीर चकनाचूर हो रहा था । वह एक एसे स्थान पर पहुँचा जहाँ पानी का एक चश्मा था । कश्मीरी भाषा में चश्मे को ‘नाग’ कहा जाता है । उसे जोरो से भूख लगी थी । अतः भूख मिटाने के लिए उसने कुछ जंगली फल काए और पेट भरकर पानी पिया । रात भर जागने के कारण उसकी आँखे नींद से बोझिल हो चली थी । अतः पाँव पसारकर वह गहरी नींद में सो गया ।

काफी देर बाद उसकी आंख खुली । वह उठा और आगे चल पडा । काफी चलते-चलते कुछ ही दूरी पर उसने देखा कि पगडंडी के बीचोबीच एक जहरीला साँप पडा है । डर के मारे वह टिठक गया और ध्यानपूर्वक साँप को देखने लगा । उसने पाया कि साँप हिल-डुल नहीं रहा है । उसे लगा, शायद साँप मर चुका है और कुछ पास जाने पर उसने देखा कि साँप जख्मी होकर पडा है । किसी पक्षी ने उसे घायल कर दिया था । उसके शरीर पर ताजे जख्म दिखायी दे रहे थे, जिनमें से खून रिस रहा था । सिद्धराम के दिमाग में तेजी से एक विचार कौंधा, उसने उस जख्मी साँप को लकडी से उठाकर अपने थैले में बंद कर लिया और अपने घर लौट आया । घर पहुँचते ही उसकी बीवी शेरनी की तरह दहाडते हुए बोली- “मुर्ख और आलसी आदमी । इतना समय बेकार में कहाँ गँवाकर आया है ? अब पेट में चूहे कूद रहे होंगे तो घर की याद आ गई ।”

सिद्धराम ने उत्तर दिया- “ कभी तो मीठा बोला करो, हर समय जली-कटी सुनाती हो । मैं तो तुम्हारो लिए तोहफा लेने गया था । देखो तो कितनी सुन्दर उपहार लेकर आया हूँ ?” यह सुनकर पत्नी ने कहा “जरा देखु तो, क्या उपहार लेकर आये हो ?” यह कहकर उसने सिद्धराम के हाथ से थैला ले लिया और कमरे में घुसकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया । सिद्धराम बाहर खडा होकर धूर्त और फूहड बीवी के रोने-धोने की आवाज की प्रतीक्षा करता रहा । आज वह मन-ही-मन बडा प्रसन्न था कि मैं हाथ डालते ही साँप उसकी पत्नी को डस लेगा और उसे अपनी कर्कशा पत्नी से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा ।

किन्यु यह क्या? अन्दर से बीवी की हर्ष भरी पुकरा सुनकर वहा आश्चर्यचकित हो उठा । वह खुशी से फूली न समाती हई उसे आवाज दे रही थी- “अजी । अन्दर तो आइये, द्वार खोलकर तो देखिये, कितना सुन्दर बालक है ?” सिद्धराम यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया वह कमरे में गया, वहाँ उसने देखा के साँप का तो वहाँ नामोनिशान भी नहीें है । वहाँ तो एक अत्यन्त सुन्दर राजकुमार खडा है, जो उसकी बीवी की प्रशंसा के पुल बाँध रहा है और उसके गले में एक के बाद एक मोतियों की माला पहना रहा है ।

वास्तव में वह सर्प नागरजा था । बात यह थी कि वह जंगल में धूप का आनन्द लेने के लिए वहाँ आया था । इसी बीच एक राक्षस उकाब का रुप धारण कर वहाँ से उड रहा था । उसने सर्प के रुप में नागराज को पहचान लिया और झपट्टा मारकरा जख्मी कर डाला । उसी समय सिद्धराम वहाँ गया था और उसे उठाकर घर ले आया । अब नागराज लडके के वेश में सिद्धराम के घर पर ही रहने लगा दिन भर इधर-उधर भ्रमण करता और फिर शाम को वहाँ के राजा बलवीर के उद्यान में घुसकर फुलवारी का आनन्द लेता ।

एक दिन की बात है, वह शादी उद्यान के न्दर एक तख्त सो गया । उसकी आंख लगी ही थी कि उसके कानों में बालिकाओं के हँसने की आवाज पडी । आवाज सुनकर वह उठकर बैठ गया । इतने में राजा बलवीर की रजकुमारी, जिसका नाम ‘हीमाल’ था, अपनी सखियों के साथ वहाँ पहुँची । जैसे ही दोनों की नजरें चार हुई, वे एक-दूसरे को अपना दिल दे बैथे और एक-दूसरे से प्रेम करने लगे । कुछ क्षण वहाँ खडी रहने के बाद हीमाल अपनी सखियों के साथ महल में लौट गई, परन्तु वहाँ उसे चैन न मिला । उसने अपने दिल के हाथों मजबूर होकर अपनी सहेलियों को नागरजा को ढूंढने के लिए बाग में भेजा । पर इस बीच वह वहाँ से जा चुका था ।

इसके बाद तो हीमाल हँसना ही भूल गई । दिनोंदिन वह कृशकाय होती चली गई । उसे अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । सैर-सपाटा, खेल-कूद, खाना-पीना किसी में भी उसे रुचि नहीं थी । वह बहुत अति दुर्बल हो गई थी । उसकी सहेलियों ने उसके चितचोर की बहुत तलाश की, पर वह उन्हें कहीं न मिला । उधर नागरजा का भी यह हाल था, वह हीमाल की एक झलक पाने को तरसता रहा ।

राजा ने अपनी बेटी की जब यह दशा देखी तो उसे बडा दुखा हुआ । उसने एक विश्वासपात्र नौकर को यह पता लगाने का जिम्मा सौंपा कि हीमाल की इस दशा का कारण क्या है ? जब उसे पता चला कि हीमाल की इस दशा कारण कारण नागरजा है, तो उसने भी उसे बहुत ढूँढा, किन्तु सफल न हो सका । तब उसने सोचा कि राजकुमारी कु स्वयंवर रचाया जाए । यह खबर सुनकर उसका प्रेमी अवश्य आयेगा । उसने राजकुमारी हीमाल का स्वयंवर होगा । स्वयंवर के दिन दूर-दूर से राजकुमार आये पर हीमाल के मन को चुराने वाला ‘नागराज’ नहीं आया । राजा बलवीर का मन बहुत दुखी हुआ । आगंतुक सभी राजकुमारों को राजा ने सम्मानसहित विदा कर दिया । वह यह सोचने लगा कि उसकी बेटी पागल हो गई है और ईसका परिणाम यह है कि अब उम्र भर उसे अविवाहित ही रहना पडेगा ।

पर मनुष्य को कभी भी आशा का दामन नहीं छोडना चाहिए क्योंग्कि हर रात के बाद सुबर जरुर होती है । इसी प्रकार हीमाल के भाग्य ने भी करवट ली । वह एक दिन पालकी में बैठकर नगर भ्रमण करने निकली । दूर भीड में उसने अपने प्रेमी नागराज को देखाँ वह पालकी के कूदी और दौडकर नागरज के समीप जा पहुँची । अपनी मोतियों की माला उसने नागराज के गले में पहना दी । फिर उसे अपने पिता के पास ले गई और बताया कि यही उसका चितचोर है और इसे वह अपना पति मान चुकी है ।

राजा उससे मिलकर बहुत खुश हुआ । उसे लगा कि हीमाल की खुशियाँ लौट आयी हैं । उसने नागराज से उसका परिचय पूछा । फिर विधिपूर्वक दोनों का विवाह कराया । बहुत दिनों तक राज्य में खुशियाँ मनायी जाती रहीं । समय बीतने पर आखिरकार वह दिन भी आ पहुँचा जब नागराज को वापिस अपने निवास स्थान पाताललोक को जाना था । हीमाल की विदाई की घडी आ पहुँची थी । हीमाल और नागराज जब महल से विदा हुए तो राजा बलवीर की आँखो से प्रेम के आँसुओं की धारा बह निकली । नागराज हीमाल को उसी चश्मे के पास ले गया, जहाँ सिद्धराम ने उसे पाया था । वहाँ पर वे दोनों उसी चश्मे में कूदकर पाताललोक में उतर गए ।

नागराज की पहली पत्नी नाग जाति की ही थी । पाताललोक में जब उसने अपनी सौतन को देखा तो उसके हृदय में ईर्ष्या के भाव जाग उठे । वह मन-ही-मन उससे जलने लगी । वह पाताल लोक की पटरानी थी, अतः पूरे पाताललोक में उसका हुकम चलता था । उसने हीमाल के साथ बुरा व्यवहार करने में कोई कसर न छोडी । उसने नागपुत्रों को दूध पिलाने का काम हीमाल को सौंपा और बोली- ‘डरो मत, भूलोक की रानी । अब तुम प्रतिदिन नागपुत्रों को दूध पिलाया करना ।”

हीमाल प्रतिदिन यह कार्य करने लगी । दुर्भाग्यवश एक दिन जब अभी दूध उबल ही रहा था, न मालूम कैसे वह घंटी बज उठी, नागपुत्र दौडकर वहाँ आये और दूध पीना प्रराम्भ कर दिया दूध पीते ही उनका मुँह जल गया और उन्होंने रोना प्रारम्भ कर दिया । नागरानी यह देखकर अत्यन्त क्रोधित हुई । क्रोध में उसने हीमाल की जहाँ-तहाँ से डस लिया । हीमाल बेहोश होकर गिर गई । नागराज को जब यह बात पता चली तो वह दौडा-दौडा अपनी प्रिया के पास पहुँचा । उसने उसे अपनी भुजाओं में उठाया और भूलोक पर ले आया । उसने रानी का विभित्र प्रकार से उपचार किया और उसे स्वस्थ करे लिया । उसके बाद उसने बाद उसने एक बडे से पेड पर उसके लिए एक महल बनवाया और उसे वहीं रखाँ जब वह पूर्णतया स्वस्थ हो गई तो नागराज यह कहकर वहाँ से विदा हुआ- “प्रिये । अब तुम्हें यहीं रहना होगा । यहाँ हर प्रकार की सुख-सुविधा तुम्हें प्राप्त होगी । किन्तु अब तुम्हें मेरे साथ पाताललोक में रहने की इच्छा का पूर्ण त्याग करना होगा । में स्वयं ही तुम्हारे पास आता रहूँगा ।” हीमालने उसकी बात मान ली और वह उसी महल में रहने लगी ।

किन्तु इस तरह के जीवन से हीमाल जल्दी ही अब गई । वह बार-बार नागराज से आग्रह करने लगी कि अपने साथ पाताललोक में ले चले, किन्तु नागरजा उसे वापिस मौत के मुँह में नहीं ले जाना चाहता था, इसलिए वह हर बार उसे साथ ले जाने से मना कर देता । उसने हीमाल को यह भय दिखाया कि यदि वह पाताललोक जाने का हठ करेगी तो वह उसे त्याग देगा । एसा कहकर वह कुछ दिनों तक हीमाल को चुप रखने में सफल हो गया । परन्तु एक बार वह अपनी जिद पर अड गई । जब नागराज वापस जाने लगा तो वह उसके पीछे-पीछे दौडी । नागराज जब पाताललोक जाने के लिए चश्मे में कूदा तो वह भी उसी के पीछे कूद पीडी । उसने नागरजा को पकडने की बहुत कोशिश की, पर वह उसके सिर के कुछ ही बाल पकड पायी और वे बात उसके हाथ में ही रह गए । नागराज अपने महल में पहुँच गया ।

इसके बाद वह प्रेम दीवानी हीमाल पागल-सी हो गई और इधर-उधर भ्रमण करती रही । प्रत्येक से वह यही पूछती- “क्या आपने मेरे नागराज का देखा है ?” इसी वियोग में वह एक एक दिन परलोक सिधार गई और इस प्रकार हीमाल नागराज की प्रेमकहानी का बडा ही दुखद अन्त हुआ ।

५घमंडी रानी

बहुत समय पहले की बात है। एक बादशाह शिकार खेलने के लिए जंगल में गया । एक हिरण का पीछा करते-करते वह बहुत दूर निकल गया । अपनी राजधानी से बहुत दूर वह एक बाग में बहुँचा । उस बाग के लता-कुंजो के बीच उसे एक शहजादी दिखायी दी । जब बादशाह ने उसे देखा और मन-ही-मन सोचा कि यह है तो एक शहजादी, पर बडी घमंडी लगती है । उसका कहना सच ही था, क्योकिं उसने बादशाह की ओर नजर उठाकर भी न देखा था । बादशाह ने धीमी आवाज में कहा- “ईश्वर करे कि तुमसे कोई शहजादा विवाह करे और फिर उसके बाद इसी बाग में तुम्हें त्याग दे।”

धीमे स्वर में बोलने के बाद भी शहजादी ने उसके ये शब्द सुन लिये । वह बोली- “क्या ही अच्छा हो कि कोई तुमसे विवाह करके एसे पुत्र को जन्म दे जो तुम्हारी ही पुत्री से विवाह करे।” इतना कहकर उसने धमण्ड से अपने सिर को झटका दिया और वहाँ से चली गई ।

ये शब्द बादशाह के लिए असहनीय थे, किन्तु शहजादी की सुन्दरता और रुप-लावण्य ने उसे मोहित कर दिया । उसने मन-ही-मन प्रण किया कि वह इसे अपनी बीवी बनाकर ही रहेगा । इसके बाद बादशाह घोडे पर चढकर अपने महल लौट आया ।

महल में पहुँचकर उसने वजीर को बुलाया । उसे आज्ञा दी कि तुम अभी साकर उस शहजादी के पिता से मिलो और उनसे कहो कि कश्मीर का बादशाह आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता है । किसी भी प्रकार उस शहजादी से मेरा विवाह तय करना होगा ।

शहजादी का पिता एक छोटे से राज्य का राजा था । जब उसे पता चला कि बादशाह उसकी पुत्री से विवाह करना चाहता है, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । उसने तुन्रत अपने सहमति दे दी और विवाह का दिन भी निश्चित कर दिया । निश्चित दिन राजकुमारी का विवाह बडी शान-शौकत व धूमधाम से बादशाह के साथ हो गया और वह घमंडी शहजादी रानी बन गइ ।

राज्य में खूब खुशियाँ मनाई गई, जगह-जगह राग-रंग के महफिलें सजाई गई । पुरे राज्य में खुशियों का माहौल था। सभी प्रसन्न थे पर दुल्हा दुल्हन खुश न थे । बादशाह ने तो उसका धमंड चूर करने के लिए शादी की थी । बादशाह उस ब्याहकर लाया तो जरुर, पर उसने उसकी और आंख उठाकर भी न देखाँ वह महल के हरम में अकेली पडी रहती थी । बादशाह उसके कमरे में नहीं जाता था । शहजादी रो-धोकर अपने दिन काटने लगी । वह सारा दिन कुछ-न-कुछ सोचती रहती । एक दिन उसे बादशाह के साथ बाग में हुई पहली मुलाकात की कटु बातें याद आग ई । वह सोचने लगी - भविश्य में मेरा क्या होगा ?? उसने मन-ही-मन एक युक्ति सोची और उस पर अमल करने का प्रण किया ।

कुछी महीने बीतने पर उसने बादशाह से कहा कि आप मुझे मायके जाने की अनुमति दें, क्योंकि कुछ दिन के लिए मैं वहाँ जाना चाहती हूं । राजा ने सहर्ष अनुमति दे दी और उसकी बात मान ली । वह प्रसन्न होकर बोला - “अब तुम्हारा घमंड चूर-चूर हो जाएगा और किसी को देखकर अब तुम नाक-भों न चढाया करोगी।” वह शहजादी अपने पिता के घर चली गई । कुछ समय बाद वह यात्रा पर निकली, किन्तु उसको यात्रा पर जाने की बात बिल्कुल गुप्त रखी गई ।

इसी बीच उसका पति, जो बादशाह था, वह भी राजधानी से अपने देश के एक भाग के दौरे पर निकला । उसने एक सुहावने जंगल के निकट एक नदी तट पर अपना डेरा डाला । शाम के समय उसके सेवकों ने उसे सूचना दी कि एक पुर्कापोश महिला आपसे मिलना चाहती है । नौकर ने उसे यह भी बताया की बातचीत से वह धनी और सुशील तलगी है । यहीं आपके डेरे के निकट ही उसने डेरा डाला हुआ है । जब बादशाह ने उस स्त्री की प्रशंसा सुनी तो वह स्वयं ही उससे मिलने को उस्तुक हो उठा । परंतु उस स्त्री के मोहपाश में बंधकर वह उसका गुलाम हो गया न जाने कौन-सा जादू था जिसके वशीभूत होकर वह लगभग एक माह तक उसके साथ रहा । यह महिला उसकी परित्यक्ता रानी ही थी । एक माह बीतने पर उस औरने अपने देश लौट जाने की इच्छा प्रकट की । बादशाह नहीं चाहता था कि वह वहाँ से जाए । दुखी मन से उसने उसे जाने दिया । जाते समय प्रेम की निशानी के रुप में उन्होंने एक-दूसरे से अपनी अंँगुठियाँ बदल ली ।

शहजादी अपने पिता के घर लौच आयी । नौ माह बाद उसने एक पुत्र रत्न का जन्म दिया । उसने अपने माता-पिता को पूरी कहानी बता रखी थी । वे यह भली-भांति जानते थे कि उनकी पुत्री ने अपने पति को पाने के लिए ही यह स्वांग रचाया है । उन्होंने उसके पुत्र का नाम शबरंग रखाँ शबरंग ननिहाल में पलता रहा । कुछ वर्ष बीतने पर वह जवान हो गया । वह बडा ही होनहार था कुशाग्र बुद्धि का ाथा अपने सहपाठियों को वह हर क्षेत्र में मात देता था । पर उसकी माता अपने योजना के अनुसार उसे एक बडा चोर बनाना चाहती थी । चोरी के फन मे उसे माहिर बनाना चाहती थी । अतः उसने जहाँ-तहाँ से माहिर चोरों को बुलवाकर शबरंग को शिक्षा दिलवायी । उसे चोरी करने के फन में महारत हासिल हो गई । शबरंग तो एक अबोध बालक था । उसे चोरी के हथकंडे खिलवाड जैसे लगते थे । कुछ दिनों मे वह एक शातिर चोर बन गया और शैतान के भी कान कतरने लगा । अपने पुत्र की कुशलता और निपुळता को परख करने के लिए वह उसे एक पहाडी पर ले गई वहाँ एक बहुत ऊँची चट्टान पर एक उकाब का घोंसला था उसने शबरंग को वह घोंसला दिखाया और आज्ञा दी- “पुत्र शबरंग । उधर देखो, उकाब अपने अण्डों पर बैठी है । उसका एक अण्डा चुराकर ले आओ ।” माता की आज्ञा पाकर शबरंग ने अपने कपडे उतारे और केवल एक लँगोट पहनकर वह उस चट्टान पर चढने लगा । वह बिना कोई आहट किये उसके घोंसले तक पहुँचा और उसके नीच से एक अण्डा निकाल लाया । उकाब को पता भी न चला । अण्डा लेकर वह माता के पास पहुँचा तो माता की खुशी का ठिकाना न रहा । उसने पुत्र को बडे प्यार से गले लगाया और हजार बार उसे चूमा उसकी आँको से प्रेम के आँसू बह निकले । उसने बताया कि बेटे, तुम तो तख्त के वारिस हो । अब तुम अपने पिता के पास जाओ और नौकरी तलाश करो । नौैकर बनकर उनका मन मोहने का पूरा प्रयास करो, लेकिन यह बात याद रखना कि उन्हें पता न चले कि तुम उनके पुत्र हो । और जब तुम हर प्रकार से उनका मन जीत लोगे तो वह अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ करने को कहेंगे, तब तुम कहना कि मैं अपनी माता की आज्ञा के बिना कोई काम नहीं करता हूँ । तब तुम मुझे वहाँ बुला लेना ।

शबरंग ने माता की बातें ध्यान से सुनीं । माँ का आशीर्वाद लेकर वह अपने पिता के दरबार में पहुँच गया । उसने उनसे नौकरी की फरियाद की । सुन्दर होने के साथ-साथ वह चतुर और बुद्धिमान भी था । अतः जल्द ही राजा की नजरों मे चढ गया । उससे प्रसन्न होकर राजा ने उसे अपना निजी सेवक नियुक्त कर लिया । इस प्रकार वह हर समय राजा की नजरों के सामने लगा ।

लेकिन शबरंग दोहरी जिन्दगी जी रहा था । वह दिन-भर राजा की सेवा में रहता रात-भर अमीरों की धन-दौलत पर हाथ साफ करता था । पुलिस अधिकारीयों ने चोर का पता लगाने के हजारों प्रयत्ऩ किए किन्तु वे सफल न हो सके । एक दिन नगर के वरिष्ठ लोग एकत्र होकर राजा के दरबार में पहुँचे और दुहाई देते हुए बोले- “बादशाह सलातम ! अगर पुलिस चोर को पकडने में नाकामयाब रही तो हमारा सत्यानाश हो जाएगा । अतः शीध्र ही कोई एसा उपाय करें जिससे चोर का पता लगाया जा सके और चोरी का पर्दाफाश हो सके ।” बादशाह को यह सुनकर बडा क्रोध आया । उसने सभी पुलिस अधिकारियों को बुलाकर आज्ञा दी कि तुम स्वयं जाओ और चोर को पकडकर मेरे सामने उपस्थित करो वरना इसका परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहो ।

आधी रात के समय पुलिस का मुख्य अधिकारी स्वयं पहरा दे रहा था । गली-कूचों मे धूमते-फिरते उसने एक स्थान पर अंधेरे में एक आदमी की छाया देखी । छाया को देखते ही उसने रोब से डाँटकर पूछा- “रुको! कौन हो तुम? यहाँ क्या कर रहे हो? आधी रात का समय है, तुम यहाँ क्यों घूम रहे हो?” ऐसा कहकर उसने उसका हाथ पकड लिया। हाथ पकडकर वह उसे ऐसे स्थान पर ले गया जहाँ रोशनी थी । उसने देखा कि वह मर्द नहीं औरत है । यह देखकर वह हैरान रह गया । उसने डपटकर पूछा- “तुम इस समय यहाँ क्या कर रही थी?”

यह सुनकर वह और थर-थर काँपने लगी और बोली- “आप जिस चोर की तलाश कर रहे है, वह कुछ देर पहले ही यहाँ से गुजरा है । वह क्षण भर में शायद इसी रास्ते से लौट आये । मुझे तो बेहद डर लग रहा है ।” उस अधिकारीने यह सुनते ही उसे डाँटकर कहा- “चुप रह मूर्ख! मुझे कुछ सोचने दो मैं उस शातिर को पकडने की चाल सोच रहा हूँ वरना राजा मुझे दंडित करेंगे ।”

उस औरत ने धीमी आवाज में कहा- “यदि आप कहें तो में आपको एक सलाह दूँ। आप भेष बदलकर यहीं उसकी प्रतीक्षा कीजिए । आप ठीक समझें तो अपनी पोशक मेरी पोशाक से बदल लीजिए और एसा स्वांग रचिए मानो आप कुएँ से पानी भर रहे हैं । मेरे दिमाग में यही विचार आ रहा है सरकार ।”

पुलिस अधइकारी को उसकी बात जँच गई । उसने उसकी सलहा मान ली । उसने उस और के कपडे स्वयं पहन लिये और अपने कपडे उसे दे दिए । जब उसने कुएँ से पानी खींचना प्रारम्भ किया तो पानी कैसे खींचा जाता है, यह न जानने के कारण डोल उसे खींचने लगा और वह डोल के साथ कुएँ में अंदर की और लटक गया और सहायता के लिए चिल्लाने लगा । उस नकली औरत ने ठहाका मारकर हँसते हुए कहा- “सरकार ! अब आप सुबह तक एसे ही लटके रहिए । में तो यहाँ से जा रहा हूँ।” वह औरत कोई नहीं छद्‌मवेषधारी शहजादा शबरंग ही था ।

दूसरे दिन सुबह होने पर जब लोगों ने मुख्य पुलिस अधिकारी को इस हालत मे कुएँ में लटकते पाया तो उनके आश्चर्य व परेशानी का ठिकाना न रहा । आनन-फानन में यह बात सारे राज्य में फैल गई । लोग उसे देखने आये और चोर की चतुराई की सराहना करने लगे । जब बादशाह को पूरा वाकया पता चला तो उसे बडा क्रोध आया । उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे ? अब उसने वजीर को बुलाया और उसे आज्ञा दी कि तुम स्वयं जाओ और चोर को पकडकर लाओ, वरना तुम्हारी खैर नहीं । यह सुनकर वजीर को बुला तो बहुत लगा, क्योंकि रात-भर चौकीदारी करना उसे बिल्कुल पसंद न था । पर उसकी लाचारी थी, राजा का हुकम मानना उसकी मजबूरी थी । रात को घोडे पर सवार होकर पूरे शहर में धूम-धूमकर नगर की पहरेदारी करने लगा । एक जगह उसने देखा कि एक बुढियां बैठी चक्की पीस रही है । वजीरने उसके पास पहुँचकर बडे रोब से पूछा- “दादी माँ! रात बहुत हो रही है, तुम यहाँ क्या कर रही हो? कहीं तुमने उस चोर को तो नहीं देखा, जिसने पूरे नगर में उपद्रव मचा रखा है।”

बुढिया ने उत्तर दिया- “में न तो हाँ कह सकती हूं और न ही ना, क्योंकि आस-पास मैंने कुछ अजबी-अजीब सी आवाजें सुनी हैं । हो ही था । उसने वजीर को भी झांसा दिया । उसे बुढिया के कपडे पहनाकर वही चक्की पर बैठाकर स्वयं उसके कपडे पहनकर, वह उसी के घोडे पर चढकर वहाँ से चला गया । सुबह लोगों ने जब वजीर को बुढिय के फटे-पुराने कपडे पहने देखा तो नगर में उसका खूब मखौल उडा और चोर की चतुराई पर हा-हाकर भी ।

जब बादशाह को यह खबर मिलि तो वह आगबबूला हो उठा । उसने वजीर को बुलाया और खूब डाँट लगायी- “तुम सभी सचमुच नालायक हो । एक चोर को पकडना तो दूर, तुम खुद उसके झाँसे में आ गए । में इस नतीजे पर पहुँचा कि चोर तुम सबसे अधिक बुद्धिमान और चतुर है । यदि चोर स्वयं आकर मेरे सामने अपने को प्रकट कर दे तो मैं उसके साथ अपनी राजकुमारी का विवाह कर दूँगा । एसा मैंने निश्चय किया है ।

यह सुनकर सारे दरबार में सन्नाटा छा गया । किसी को कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं हुई । अंत में शबरंग आगे बढा और बोला- “बादशाह सलामत! क्यां सचमुच आप अपने इस प्रण को निभाएँगे?”

यह सुनकर बादशाह ने शबरंग को सिर से पाँव तक निहारा, फिर एक तीखी नजर उस पर डाली और बोला- “हाँ. मेरा यही प्रण है । मैं इसे अवश्य पूरा करुँगा ।”

शबरंग ने आगे बढकर कहा- “सरकार, वह चोर मैं ही हूँ। यदि सबूत चाहिए तो में हर व्यक्ति का माल आज ही लौटा दूँगा। आप समय निर्धारित कर दीजिए।” यह सुनकर सारे दरबारी मूर्तिवत खडे रह गए। सबका मुँह आश्चर्य से खुला-काखुला रह गया ।

बादशाह की तीखी निगाहेँ एकदम नरम हो गई, क्योंकि शबरंग पहले से ही उसकी निगाहों मे चढा हुआ था । वह पहले ही उसकी चतुराई व वाकपटुता का कायल था । उब तो उसकी बुद्धिमत्ता देखकर वह और भी मुग्ध हो गया। बादशाह ने कह- “में अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ करने को तैयार हूँ।” इस पर शबरंग बोला- “बादशाह सलामत ! मैं अपनी माता की आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं करत सकता ।” तब बादशाह ने कहा- “तुम उन्हें यहाँ दरबार में बुला लो और उनकी आज्ञा ले लो !”

शबरंग अपनी माता को दरबार में ले आया। उसकी माँ ने वह अंँगूठी बादशाह को दिखायी जो उसे विदा होते समय बादशाह ने दी थी । वह बोली- “सरकार, यह युवक जिसका नाम शबरंग है, आपका ही पुत्र है। में भी आपकी ब्याहता हूँ । अब आप ही बताइए, वह अपनी बहन से किस प्रकार विवाह कर सकता है। शुरु से अंत तक उसने अपनी पूरी कहानी बादशाह को सुना दी। बादशाह यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ कि शबरंग उसका ही पुत्र है । उसने अपनी बेगम व पुत्र को गले लगाया । महल में राग-रंग की महफिले सजाइ गई । शबरंग अब शहजादा शबरंग बन गया था । उसे शाही तख्त पर बैठाया गया और पूरे राज्य में खूब जश्ऩ मनाया गया ।

६धूत दरवेश का अन्त

एक समय की बात है, काश्मीर में एक दरवेश रहता था । वह नाममात्र को ही दरवश था । वास्तव में वह बड़ा ही दुष्ट और धूर्त था। लोगों की निगाह में वह एक फकीर था। वे उसे बडा़ नेक इनसान समझते थे और उसकी खूब खातिर किया करते थे। इस प्रकार उसने अपने बहुत से शिष्य बना लिये थे और दिन उसकी झोंपडी़ के बाहर लोगों की भीड़ लगी रहती थी।

एक दिन उसके पास एक शिष्य आया और बोला कि मिझे आपको अपने दिल की बात बतानी है। ऐसा कहकर उसने दरवेश के चरण छए और उससे प्रार्थना की कि गुरुदेव, आप जानते हैं कि मैं एक गरीब व्यकित हूँ। मेरी पुत्री विवाह के योग्य है पर मैं उसके विवाह का खर्च उठाने में असमर्थ हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि कया करुँ? कोई भी मुझ गरीब की पुत्री से विवाह करने को क्यों तैयार होगा ?

दरवेश ने उस गरीब शिष्य की यह बात सुनी तो चुप होकर कुछ देर युँ ही बैठा रहा मानो कुछ सोच रहा होस उसके बाद उसने उत्तर दिया-- ‘‘अल्लाह बडा़ ही रहमदिल है। वह अपने बंदो के कष्ट अवश्य दूर करता है। उस पर भरोसा रखो, वह तुम्हारे कष्ट अवश्य दूर करेगा और तुम्हारी समस्या का हल अवश्य मिल जाएगा। मैं कल ही तुम्हारी पुत्री के लिए अल्लाह से दुआ करुँगा।’’

दूसरे दिन वह दरवेस उश व्यकित के घर जा पहुँचा जब उसने और घरवालों ने दरवेश को वहाँ पाया तो उन्हें लगा कि उनका तो भाग्य ही चमक गया है। अब हमारा घर दरवेश के कदम पड़ने से पवित्र हो जाएगा और हमारे सारे कष्ट दूर हो जाएँगे। यह सोचकर घर के सब लोग बडे़ खुश थे। उन्होंने उसे बिठाने के लिए घर का एक मात्र फटा, पुराना कालीन बिछाया। उसे पीने के लिए शर्बत दिया गया और अच्छा भोजन कराया गया । पूरा घर दरवेश के आदर-सत्कार में जुट गया।

थोडी़ दर बाज परिवार के अन्य सदस्य व वह लड़की वहाँ से चले गए। तब दरवेश अपने शिष्य से बोला- ‘‘सुनो अजीज! तुम निर्धन अवश्य हो, लेकिन तुम्हारी पुत्री तो बहुत ही भाग्यशाली है और साथ ही अत्यन्त रुपवती भी। उसे उसके रूप व गुणों के योग्य सुन्दर व काबिल पति अवश्य मिलेगा। धबराओ नहीं, अल्लाह की माया अल्लाह ही जान सकते हैं। वह तुम पर अपनी रहमत की बरसात अवश्य करेगा। हम सांसरिक प्राणी हैं । हमें अल्लाह ताला पर पूरा यकीन रखना चाहिए। वह सबका भला करता हैं। कल रात ही मुझे अल्लाह ने सपने में दर्शन दिए हैं और मुझे आदेश भी दिया हैं। यदि तुम उस पर अमल करोगे तो सब ठीक हो जाएगा और तुम्हारी सब चिंताएँ दूर हो जाएग्ाँी। तुम ध्यान से सुनो। जैसा मैं कहता हूँ वैसा हि करो अपनें दिल को मजबूत बनाकर उस सर्वशक्तिमान पर अटल विश्वास करके उसके हुक्म की तामील करो। अपनी पुत्री को लकडी़ के एक बडे़ संदुक मैं बंद करके उस पर मुहरबंद ताला लगा दो, फिर शाम के समय उस संदूक को उठाकर नदी में बहा दो। इस प्रकार तुम्हारी पुत्री भाग्य के अनुसार पति के पास पहुँच जाएगी। तुम स्वयं रात भर जागकर एक कमरे में बंद होकर दुआ करना और किसी की एक न सुनना, यही तुम्हारी पुत्री का भाग्‌य हैं।’’ यह कहकर और आशीर्वाद देकर दरवेश वहाँ से चले गया।

वास्तविकता यह थी कि अपने गरीब शिष्य की लडंकी को देखकर दरवेश के मन में पाप आ गया था। वह कोई संत, फकीर या भद्र पुरुष न था। वह एक धूर्त और कामुक व्यकित था। उस सुंदर लड़की के प्रति उसके इरादे नेक नहीं थे।

उस गरीब की लडंकी का नाम फीतिमा था। वह बडी़ ही शीलवती और सुंदरी थी। दरवेश ने जब से उसे देखा था उसका मन उसके रूप और लावण्य पर मोहित हो गया था। उसने मन-ही-मन यह प्रण कर लिया था कि यह चाहे जैसे भी हो, वह उसे अपनी बीवी बनाकर ही रहेगा। इसीलिए उसने यह षड्‌यंत्र रचा था

शिष्य काो पूरी तरह अपने जाल मैं फँसाकर दरवेश जब उपनी कुटिया में फँसाकर दरवेश जब अपनी कुटिया में लौटा तो उसने अपने सभी शिष्यों को एकत्र किया और आज्ञा दी- ‘‘अजीजो! कल तुम्हें एक बहुत ही जरूरी काम करना होगा। कल शाम के समय एक लकडी़ का संदूक नदी में बहता हुआ हमारी कुटिया के पास पहुँचेगा। उसमें मैंने एक शैतान को बंद कर रखा है। तुम सभी पुलिया के पास एकत्र हो जाना और संदुक को वहाँ आनेे पर उसे उठाकर मेरे पास ले आना। मैं कुटिया का द्वार तथा खिड़कियाँ बंद करके उस शैतान को मारूँगा, पीटूँगा और स्वयं उससे निबट लूँगा। तुम सबी लोग कुटिया के पास खडें होकर ढोल-नगाडे़ बजातें रहना और रात भर ऊंचे स्वर में अल्लाह की प्रार्थना करते रहना। जब मैं शैतान को मारूँगा, तो वह रोयेगा, चिल्लायेगा और न मालूम किस-किस प्रकार से शोर मचायेगा। पर तुम उसकी इन बातों पर बिल्कुल भी ध्यान न देना। बस तुम्हें इतना ही करना है कि उसकी आवाज ढोल-नगाडो़ की आवाज में विलीन हो जाए। और हाँ, एक बात की किसी को कानोकान खबर नहीं होनी चाहिए। किसी से किसी भी तरह का कोई जिक्र नहींं होना चाहिए।’’

दूसरे दिन फातिमा का अंधविश्वासी पिता एक लकडी़ की संदूक ले आया। उसने दरवेश की आज्ञानुसार वैसा ही किया। फातिमा व परिवार के अन्य सदस्यों ने उसे ऐसा करने से बहुत रोका, पर उसने किसी की एक न सुनी। अपने गुरु कि आज्ञा का पालन करते हुए उसने शाम को फातिमा को नदी में बहा दिया। बेचारी अबोध फातिमा, जिसे उसके पिता ने संदूक मे बंद कर दिया था, नदी में बही जा रही थी।

परन्तु अल्लाह सचमुच अपने नेक बंदो की फरीयाद अवश्य सुनता है। सचमुच ही फातिमा का भाग्य सितारा चमक रहा था। वह जगह जहाँ उसके क्रुर पिता ने उसे बहाया था, वहाँ से कुछ ही दूर पर पेडों़ के झरमुट मैं एक शहजादा डेरा डालकर अपनी थकान दूर कर रहा था। असल में वह शिकार खेलने आया था । और थक्ककर चूर हो गया, तब उसने उस नदी के तट पर अपना डेरा डाल दिया था। जैसे ही उसकी नजर इस बहते हुए संदूक पर पडी़ उसने अपने नोकरों को हुकम दिया कि इस संदूक को उठाकर मेरे तंबू में ले आओ।

नौकरों ने उसकी आज्ञा का पालन किया। वे तैरकर नदी के बीचोबीच पहुँचे और संदूक को उठाकर अपने स्वामी के पास ले आए। उसका ताला तोड़कर उन्होनें उसका ढक्कन उठा दिया। पर यह क्या? ढक्कन खोलते ही उनकी आँखे आश्चर्य से खुली-की-खुली रह गई। उसके अंदर तो एक अनिंद्य सुंदरी थी। शहजादे ने जब उसे देखा तो बस देखता ही रह गया वह उस पर मोहित हो गया। उसने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की कि वह फातिमा से विवाह अवश्य करेगा। उसने फातिमा से पूछा कि वह संदूक के अन्दर कैसे पहुँची और उसे नदी में किसने बहााया? फातिमा ने रोते-रोते पूरी कहानी उसे बहायी कि किस प्रकार धूर्त के झाँसे में आकर उसक पिता ने यह सब किया। उसकी कहानी सुनकर शहजादे को आँखे भर आयीं और उसके मुँह से निकला-

‘‘फकीर के वेष में शैतान। दुष्ट कहीं का। उसे मैं मजा चखाकर ही रहूँगा। उसे उसकी करनी का फल अवश्य भुगतना पडे़गा।’’ उसने अपने नौकरों से कहकर एक खूँखार शिकारी कुत्ता मँगवाया और उसे उस संदूक में बंद करवाकर पुनः संदूक को नदी में बहाने की आज्ञा दी। सेवकों ने ऐसा ही किया। फातिमा की किस्मत अच्छी थी, उसके लिए तो उस दरदेश का कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हो गया था। थोडे़ समय बाद वह संदूक बहता-बहता पुलिया के निकट आया। वहाँ पर उस धूर्त दुरवेश के शिष्य पहले से ही तैनात थे। उन्होनें उस संदूक को नदी से निकाल लिया और उसे उठाकर दरवेश की कुटिया में ले आये दरवेश बडा़ ही प्रसन्न हुआ। उसने अपने चेलों से कहा कि अब तुम बाहर जाकर ढोल-नगाडे़ बजाना शुुरू कर दो। यह कहकर उसने कुटिया का दरवाजा बंद कर लिया। बाहर उसके शिष्यों ने शोर-शराबा मचाना शुरू कर दिया।

आप खुद ही समझ सकते हैं कि जब उस धूर्त दरवेश ने संदूक का दरवाजा संदुक का दरवाजा खोला होगा तो क्या हुआ होगा? संदुक का दरवाजा खुलते ही वह खुँखार शिकारी कुत्ता उस पर बिबली की तेजी से झपटा । उसने दरवेश को जमीन पर गिरा दिया और उसके कपडो़ के चीथडे़ा-चीथडे़ कर डाले। उसने दरवेश को अपनपैन े दाँतो से काट-काटकर जगह-जगह से लहुलुहान कर डाल। दरवेश जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसने वचाओ ृबचाओ कहकर आसमान सिर पर उठा लिया। परन्तु बाहर ढोल-नगाडो़ की आवाज में उसकी कौन सुनता? वह जितना अधिक चिल्लाता गया, बाहर भी उतना ही अधिक शोर बढ़ता गया। यह तो उस धूर्त की आज्ञा थी । वह अपने ही बनाये जाल में फँस गया था।

आखिरकार उसे अपनी बुरी करनी और पाप का हल भोगना पडा़। कुत्ते ने काट-काटकर उसकी दुर्दशा बना डाली और उसके टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। बुरे काम का नतीजा भी बुरा ही होता है। हमें इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है।

७बादशाह का न्याय

आज से पाँच सौ वर्ष पहले की बात है। किसी राज्य पर एक सुल्तान राज्य करता था। उसके नाम सुल्तान जैन-उल-आबदीन था। वह क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, सबको समान समझता था। वह एक मकान व्यकित था और उसकी विलक्षण बुद्धि और न्यायप्रियता के कारण लोग उसे ‘बड़शाह’ अर्थात्‌ ‘बडा़ बादशाह’ कहते थे । इसी नाम से वह आज भी प्रसिद्ध है।

उसके शासनकाल में ही एक कश्मीरी सरदार ने दो शादियाँ कीं। धीरे-धीरे समय बीतता गया। उसकी बीवी ने एक शिशु को जन्म दिया। घर में खुशियाँ मनायी गईं। किन्तु वह सुल्तान अपनी दुसरी बीवी के बच्चा होने पर भी पहली बीवी को अधिक आदर-सम्मान और प्यार देता रहा। इस पर उसकी दूसरी बीवी हमेशा कुढ़ती रहती थी । वह हर समय अपनी सौतन से बदला लेने और इस काँटे को हमेशा-हमेशा के लिए निकाल फेंकने की तदवीरें सोचती रहती थी।

एक रात उसने सौतियाा डाह के कारण, बदल की भावना में बहकर अपने ही पुत्रको गला घोंटकर मार डाला। सुल्तान घर से बाहर गया हुआ था। उस कुटिल औरत ने इसका आक्षेप सुल्तान की पहली बीवी अर्थात्‌ अपनी सौतन पर लगा दिया और जोर-जोर से रोना-धोना शुरू कर दिय-‘‘हाय रे! सौतन ने मेरे पुत्र की हत्या कर दी। हाय रे! मेरी तो किस्मत ही फूट गई, आदि-आदि।’’

जब आस-पडो़स के लोगों ने उसका रोना-धोना सुना तो वे सभी वहाँ एकत्रित हो गए। मरे हुए बच्चे को देखकर वे त्राहि-त्राहि करने लगे। उन्होंने पूछा कि इसकी मौत कैस हो गई? वह अपनी सौतन का नाम ले-लेकर उसे कोसती रही। भीड़ में से एक व्यकित बच्चे को उठाया और न्याय के लिए शहर काजी को पास जा पहुँचा। काजी नो आदेश दिया कि उस औरत को गिरफ्तार कर दरबार में हाजिर किया जाए। सरकारी कारिंदों ने उस बेचारी बेगुनाह औरत को काजी के सामने हाजिर किया। काजी ने पूछा, ‘‘ तुमने ऐेसा क्यों किया?’’ उस औरत ने अल्लाह ताला और कुराने करीम की कसमें उठाकर कहा, ‘‘हुजूर, मैने यह गुनाह नहीं किया है।’’ परंतु काजी साहब ने बिना कुछ सोचे-समझे उस बेचारी को कैदखाने में डलवा दिया। उगले दिन अदालत लगायी गई और काजी साहब ने इस मुकदमे को राजधानी के बडे़ काजी की अदालत में पेश करने की आज्ञा दी।

बडे़ काजी को अदालत में जब मकदमा पहुँचा तो उसे भी उस डायन स्त्री की बात पर विश्वास हो गया और उसने भी उस बेचारी निरपराध स्त्री को दोषी ठहराया। उसे सजा के रुप में मौत का फरमान सुनाया गया। अंतिम निर्णय के लिए उन्होंने अपना फरमान बादशाह सलामत के पास भेज दिया।

बादशाह के पास मुकदमा पेश किया गया तो उन्होंने उस मुद्‌दई औरत दरबार में हाजिंर होने का हुक्म दिया। जब वह वहाँ उपस्थित हुई तो बादशाह ने उसे एकांते में बुलाया और एक कोने में ले जाकर पूछा, ‘‘ सच-सच बता, तेरा बच्चा कैसे मरा है?’’

बह औरत तो बस सौतन के नाम की रट लगाये थी और यही उसने बादशाह के सामने भी कहाँ इस पर बाद बादशाह ने कहा, ‘‘ यदि तुम सच बोल रही हो, तो तुम्हें अपनी बात सिद्ध करनी होगी और इसके लिए यहीं पर तुम्हें अपने कपडे़ उतारकर निर्वस्त्र होना होगा और दरबार तथा शहर से गुजरते हुए अपने घर तक जाना होगा। कहो तुम्हें यह मंजूर है?

उस डायन के दिमाग पर तो बदले का जुनून हावी था । बिना कुछ सोचे-समझे उसने यह सब करने की हामी भर दी और बोली ‘‘बादशाह सलामत! मुझे आपकी शर्त मंजूर है।’’ यह कहकर वह अपने कपडे़ उतारने को तैयार हो गई। परंतु बादशाह ने उसे रोका और आज्ञा दी कि तुम मेरे पीछे-पीछे दरबार में आओ। इसके बाद दरबार में पहुँचकर बादशाह ने उस अपराधी औरत को पेश करने की आज्ञा दी। वह स्त्री लज्जा के कारण आँखे नीचे किए हुई थी। पसीना-पसीना होते हुए उसने दरबार में प्रवेश किया तो सुल्तान उसे भी एकांत में ले गया। कमरे के एक कोने में जाकर उसने वही प्रश्न इस औरत से भी किया, जो उसने उस दुष्ट स्त्री से किया था । सुल्तान की आज्ञा सुनकर वह शीलवान औरत थर-थर काँपने लगी। उसने रोना प्रारम्भ कर दिया और बोली, ‘‘ शाहनशाह! आप प्रजापालक हैं। मैं अल्लाताला को हाजिर-नाजिर जानकर कहती हुँ कि यह गुनाह मैंने नहीं किया है। इस प्रकार निर्वस्त्र होकर सबके सामने जाने के बडी़ सजा और क्या होगी। मैं इतनी निर्लज्ज नहीं हूँ। ईस आदेश का पालन करने की अपेक्षा मैं मौत का आलिंगन करने को तैयार हूँ, पर शर्मोहया और शील का दामन मैं कभी नहीं छोडूँगी। ऐसा कहकर उसने जोर-जोर से रोना आरम्भ कर दिया।

न्याय हो चुका था। बादशाह समझ चुके थे कि यह स्त्री निर्दोष है किन्तु इस बात को सबके सामने सिद्ध करना बाकी था। उन्होंने कहा, ‘‘बेटी, तुम निर्दोष हो, मैं यह जान चुका हूँ। तुम मेरे साथ दरबार में चलो।’’ बादशाह उसे दरबार में लेकर आये। वे तखत पर बैठे और आज्ञा दी- ‘‘यह औरत जिसे आप कातिल समझते हैं, बिल्कुल निर्दोष है। पुत्र की हत्या कर दी है।’’ फिर उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी कि इस दुष्ट औरत के तब तक कोडे़ लगाते रहो जब तक यह अपना गुनाह कबूल न कर ले।

बड़शाह के आदेश का तुरन्त पालन किया गया। दो सरकारी कारिंदों ने उस दुष्टा पर कोडे़ बरसाने प्रारम्भ कर दिए। कुछ समय तक तो वह अपनी बात पर अडी़ रही और यही रट लगाती रही कि उसने कुछ नहीं किया । पर अंत में उसने अपना गुनाह कबूल कर लिंया और सारी बात साफ-साफ बता दी। बडंशाह ने उसे कारगार में डालने की आज्ञा दी। वहाँ वह अपने दुष्कर्मो का दंड भोगने लगी।

सभी लोग बडंशाह के न्याय से बडे़ प्रसन्न हुए। बडंशाह की विलक्षण बुद्धि और न्यायप्रियता की सबने जी भरकर प्रशंसा की।

८मरुस्थल की मछलियाँ

किसी गाँव में एक किसान रहता था । उसका नाम रहमान था । वह बिल्कुल अकेला था, क्योंकि उसके माता-पिता मर चुके थे और माता-पिता की इकलौती संतान होने के कारण उसके कोई भाई-बहन नहीं था । वह दिन भर धान के खेत में काम करता था और सायंकाल हल-बैल लेकर घर लौटता था । उसने कुछ मुर्गे, एक गाय और एक कुत्ता पाल रखे थे । घर में ये ही उसके संगी-साथी थे । वह मुर्गे-मुगिंयों को दाना डालता, गाय को भूसा, घास और चारा खिलाता, कुत्ते को रोटी-दूध देता । शाम के समय भी वह व्यस्त रहता और फिर खा-पीकर गहरी नींद में सो जाता ।

धीरे-धीरे वह जवान हो गया । अब अपना अकेलापन उसे अखरने लगा था । वह अत्यन्त नेक स्वभाव का था । इस कारण उसके रिश्तेदार और मित्र उसे विवाह करने की सलाह देने लगे । वह सबको यही कहता कि विवाह तो ैं भी करना चाहता हूँ पर यदि बीवी झगडालू मिली तो मेरे जीवन का सुख-चैन छिन जाएगा और मेरा जीवन नर्क बन जाएगा ।

कुछ दिनों बाद उसके रिश्तेदारो ने छानबीन करके एक लडकी को पसंद किया, जो सचमुच बडी नरममिजाझ और सुशील थी । उसका नाम माहताब था । माहताब का अर्थ होता है - पूर्ण चन्द्र अर्थात्‌ पूरा चाँद । यथा नाम तथा गुण चन्द्रमा की ही भाति वह सुन्दर वह मृदु स्वभाव वाली थी । रहमान को भी माहताब पसंद आ गई । विवाह का दिन सुनिश्चित किया गया और उस नियत दिन माहताब और रहमान का निकाह सम्पन्न हो गया । माहताब रहमान के घर आ गई । सचमुच उसने बडी अच्छी तरह रहमान का घर संभाल लिया । दोनों अपनी वैवाहिक जिंदगी में बडे खुश थे । मियाँ-बीवी प्रेमपूर्वक और सुखपूर्वक जिंदगी बसर करने लगे । वे न तो कभी लडते-झगडते थे और न ही उनमें कभी तू-तू मैं-मैं होती थी । लोग उनका उदाहरण देते और कहते- “पत्ऩी-पति में प्रेम हो तो ऐसा । ऐसा सुखी घर भगवान सबको दे ।”

रहमान और माहताब लोगो के लिए प्रेरणास्त्रोत बन चुके थे । गाँव में ही नहीं वरन्‌ दूर-दूर तक उनका गृहस्थ जीवन आदर्श जीवन माना जाने लगा था । इस प्रकार उनका जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था । रहमान खेती करता, माहताब भी उसका हाथ बँटाती, धान कूटती, डंगरों (पशुओं) की देखभाल करती । शाम को जब उसका पति थक-हारकर घर आता तो वह गरम पानी से उसके पाँव धुलाती, पाँव दबाती और उसकी थकान दूर करती । उसके बाद दोनों एक साथ बैठकर शीरी-चाय (नमकीन चाय) और मक्की की रोटी खाते । रात को दस बजे के लगभग भात और करम का साग खाकर सुख की नींद सो जाते ।

एक दिन दोनों बैठे हुए नास्ता कर रहे थे । बैठे-बैठे न मालूम रहमान को क्या सुझी कि वह माहताब से बोला- ‘माहताब तुम्हें मानना पडेगा कि मर्द अधिक बुद्धिमान होता है उसका दर्जा स्त्री से बहुत बडा होता है ।’

माहताब ने जब यह सुना तो बोली, “आप बिल्कुल ठीक कहते है । मगर मर्द अपनी जगह है ओर औरत अपनी जगह दोनों की अपनी-अपनी महत्ता है । क्योंकि औरत को ज्यादा अक्लमंद कहा जाता है । अगर वह अपनी जिद पर अड जाए तो बुरे-से-बुरा कार्य करने में भी नहीं हिचकती । उसे ही सब लोग ‘मकरेजन’ अर्थात्‌ ‘औरत का फरेब’ नाम से पुकारते है ।” उसकी बात सुनकर रहमान बोला, “माहताब! यह मकरेजन क्या बला है? मेंने नाम तो कई बार सुना है पर यह होता क्या है? मेरे पल्ले कुछ नहीं पडता । तुम मुझे समझाओ आखिर यह है क्या ?”

मियाँ के आग्रह पर माहताब बोली, “प्यारे रहमान। इन बातों में क्या रखा है? ये सब बाते छोड दो । चलो, खाना खाते है।” एसा कहकर वह रसोईघर में गई, वहाँ एक त्रामी (ताँबे की बनी थाली) में पति के लिए भात परोस लायी और दूसरी में अपने लिए। दोनो थालियाँ लगाकर उसने दस्तरखान पर रखी । पति-पत्ऩी भात खाने लगे । रहमान को खाना खाते-खाते न जाने क्या सुझी कि फिर से मजाक में बोला, ‘अरे माहताब । जरा समझाओ तो, य मकरेजन क्या बला है?” माहताब ने उसकी बात को ठिठोली समझकर टाल दिया और बोली, “अच्छा, कल समझा दुँगी । आप खाना खाइये। मुझे भी काम करना है । घर में ढेरो काम पडा है । रहमान मान गया, पर उसके मन में यह बात घर कर गई कि मकरेजन के बारे में माहताब से पूछे बिना नहीं रहूँगा ।

कुछ दिन यूँ ही बीत गए । एक दिन अचानक फिर रहमान को जाने क्या सूझी कि वह माहताब से पूछ हैठा, “माजताब, तूने मुझे अभी तक नहीं समझाया कि मकरेजन क्या बला है ? तू आज मुझे बता ही दे । तू बात को टाल क्यों रही है ?

माहताब ने उसे फिर टालने कोशिश की, पर रहमान ने उसकी एक न चलने दी । रहमान की जिद देखर माहताबने सोचा कि अब तो दिल को कडा बनाकर इन्हें मकरेजन का अनुभव कराना ही होगा । मेरे पति बडे ही सीधे-सादे हैं । काफी देर तक वह सोचती रही । सोचते-सोचते उसने अपने दिमाग में एक योजना बना डाली और उस पर अमल करने का निश्चय किया । फिर वह अपने पति से बोली, “आप मुझे एक दिन की मोहलत दीजिएगा । कल शाम को जब आप खेत से लौटेंगे तब में समझाऊँगी कि मकरेजन क्या बला है ?”

दूसरे दिन जब रहमान खेत पर चला गया तो उसने घर का सारा काम निबटाया और हाथ में फावडा लेकर पास ही वुडर पर गई । वहाँ फावडे से खुदाई करके एक छोटा-सा ताल बनाया । घर से दो-तीन घडे पानी लाकर उसे भर दिया और कहीं से दो-चार जीवित मछलियाँ लाकर उन्हें उस नकली ताल में डाल दिया । एक मछली वह घर ले आयी । जब उसने देखा कि पति के घर लौटने का समय हो गया है तो वह मछली हाथ में लेकर उसे पकाने के लिए साफ करने लगी । तभी रहमान घर आ पहुँचा । जब उसने माहताब को मछली साफ करते देखा तो बोला, “वाह! आज तो मछली बन रही है । पर यह तो बताओ यह मछली आयी कहाँ से?”

यह सुनकर माहताब ने उत्तर दिया, “आयी कहाँ। से ? उधर वुडर से यह मछली लायी हूँ । रहमान आश्चर्यचकित होकर होला- “वाह ! वाह ! क्या खूब कही । “वुडर पर मछलियाँ उगती हैं क्या?” अब माहताब की बारी थी, बोली, “आपको कुछ पता तो रहता नहीं है । उधर वुडर पर एक छोटा-सा तालाब फूट पडा है । उसमें मछलियाँ भरी पडी है। यदि आपको यकीन नहीं आता तो चलो मैं आपको दिखला दूँ ।”

रहमान ने कहा, चलो दिखाओ, मुझे तो यकीन नहीं होता । माहताब ने मशाल ली और रहमान को लेकर वह वुडर पर पहुँच गई, जहाँ तालाब बना था । जब रहमानने सचमुच ही ताल और मछलियाँ देखीं तो वह हैरान रह गया । वह बेहद खुश था कि अब तो घर में मछली खाने को मिलेंगी । उसने माहताब का हाथ पकडा और उसे घर ले आया, बोला, “जल्दी खाना तो लाओ, बडी भूख लगी है।” कुछ देर बाद माहताब ने खाना परोसा । रहमान ने देखा कि उसमें तो मछली का नामोनिशान भी न था । कुछ देर तो रहमान चुप रहा । सोचा, शायद मेरी बीवी मुझे गरम-गरम मछली खिलाना चाहती है, पर जब उसकी तश्तरी में भात के मात्र दो-चार कौर ही बचे तो वह गुस्से में आकरा बोला, “ओ माहताब ! तुम रसोईघर में आखिर क्या रही हो? मछली कब लेकर आओगी ? क्या जब मैं सारा भात खा चुकूँगा?”

उसकी बात सुनकर माहताब दौडकर आयी और बोली, “मछली, कैसी मछली? कहाँ से आई मछली ? आप मछली लाये थे क्या?” यह सुनकर रहमान दंग रह गया कि उसकी बीवी आखिर एसा क्यों कह रही है ? फिर उसके मर्द होने के गर्व ने उसे क्रोधित होने पर मजबूर कर दिया और चिल्लाकर बोला, “माहतब । तू आज क्या बक रही है? तेरा दिमाग तो ठीक है ? शाम तो तू खुद ही कह रही थी कि तूने मछली पकायी है । जा-जा, जल्दी मछली लेकर आ और साथ में अपना खाना भी ले आ।”

अब माहताब से न रहा गया । वह बनावटी क्रोध करते हुए बोली, “क्या आज भाँग पीकर आये हो? तुम सचमुच बहुत ही बददिमाग हो। बहुत ही ऊलजलूल बाते करते हो, क्या तुम मछली लाये थे जो में पकाती, खाना खाकर सो जाओ ताकि तुम्हारा दिमाग ठंडा हो जाए।”

रहमान का पाराअब सातवें आसमान तक पहुँच चुका था । वह गुस्से में पागल-सा हो उठा । उसने माहताब को गालियाँ देना शुरु कर दिया और न जाने क्या-क्या बकता रहा, परंतु माहताब ने अब चुप्पी साध ली । वह चुपके से कहीं बाहर निकल गई । रहमान गालियाँ बकता रहा । थोडी देर बाद वह लौट आयी और घर के अंदर घूसते ही बोली, “या अल्लाह । मेरे नसीब में यह दिन भी देखना बाकी था। हाय ! हाय ! मेरे पति को जाने किसकी नजर लगइ गई? जाने आज ईन्हे क्या हो गया है ? अल्लाह तू ही रहम कर ।”

अब रहमान की सहनशक्ति जवाब दे चुकी थी । वह उठा और आंगन में रखे हुए धान कूटने के मूस को ले आया । उसे उसने दोनों हाथों से पकडा, गुस्से में अपनी बीवी की ओर लपका और चिल्लाकर बोला, “तो यह ले बदनीयत औरत! अपने बदनीयत का फल ।”

उसके यों लपकते ही माहताब खिडकी से कूदकर आँगन में आ गई और जोर-जोर से रोने लगी - “या अल्लाह ! अब तेरा ही आसरा है । तू रहम कर, यहाँ तो कोई हक हमसाया भी नहीं है जो इस जिन से मुझे बचाये ।” रहमान मूसल लिए उसके पीछे-पीछे दौड रहा थ और वह आगे-आगे भागी जा रही थी । इतनी ही देर में वहाँ हमसायों की एक अच्छी खासी भीड जमा हो गई । सभी बडे हैरान थे कि एक अच्छे-भले शरीफ जोडे को आज क्या हो गया है? इसी बीच हिम्मत करके एक बूढा व्यकक्ति आगे बढा, उसने रहमान के हाथ से मूसल खींच लिया और बोला, “बेटा रहमान! क्यां यही शरफत है? अपनी बीवी से इस तरह पेश आते है? तुम आज पशुओ जैसा बर्ताव क्यों कर रहे हो? आखिर इस झगडे का कारण क्या है?” यह कहे हुए उसने वह मूसल जमीन पर फेंक दिया इतनी देर में एक दूसरे सयाने व्यक्ति ने सबको जमीन पर बैठने को कहा और फिर वहाँ पर पंचायत शुरु हो गई । रहमान बोला, “भाइयो, आज अपनी आँखो सें मैंने इसे मछली पकाते देखा था, पर इसने मुझे केवल करम का साग औ भात खाने को दिया । जब मैंने मछली माँगी तो बराबर झुठ बोलती रही कि मिछली पकी ही कहाँ है?” पस इतनी सी बात है और कुछ नहीं । इस पर उस सयाने आदमीने माहताब से पूछा, “बेटी! रहमान जो कह रहा है, क्या वह सच है?”

माहताब बोली, “वाह चाचा! क्या कभी एसा हो सकता है कि मैं मछली पकाऊँ और अपने पति को न दूँ । पूरे मुहल्ले में आज तक किसी ने कभी मेरी ऊँची आवाज सुनी है? और आप खुद ही इनसे पूछिए कि क्या ते मछली लाये थे ?” यह सुनकर उस व्यक्ति ने रहमान से पूछा, “क्या तू मछली लाया था?”

“नहीं मैं तो मछळी नहीं लाया, पर यह खुद ही मछली लायी थी । इसने वह ताल (पोखऱा) भी मुझे दिखाया था जहाँ से यह मछळी पकडकर लायी थी । यदि आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं आ रहा है तो चलिए, मैं आपको वह जगह दिखा देता हूँ । असली झगडे की शुरुआत तो वहीं से हुई थी।”

यह सुनकर सभी लोग कहने लगे- “यह ठीक है । चलो तुम हमें वह पोखरा दिखाओ । हमने तो आज तक एसी बात ही नहीं सुनी कि आसपास कोई मछली वाला ताल भी है । चलो माहतबा । हमें चलकर वह जगह दिघाओ।”

माहताब थोडी आनाकानी करने के बाद मान गई । सभी लोग उस स्थान की और चल दिए । आगे-आगे रहमान और पीछे-पीछे सब लोग । रहमान उन्हें उसी वुडर पर ले गया तो उस बुढे किसान को कुछ शंका हुई । सोचने लगा-ये जरुर कोई ठिठोली है । पर इसका कारण क्या है? चलो आगे चलकर पता चलेगा । खैर, रहमान जब सबको लेकर उस स्थान पर पहुँचा तो यह देखकर हक्का-बक्का रह गया कि वहाँ न तो कोई ताल था और न ही कोई मछली । वहां तो समतल भूमि थी । अब रहमान की बोलती बंद हो गई थी । सब लोगो ने रहमान को खूब भला-बुरा कहा और अपने-अपने घर लौय आये । सभी रहमान को कोसने लगे । सब लोग माहताब की सराहना करते न थक रहे थे । रहमान को उन्होंने खूब नसीहते दीं और शान्तिपूर्वक जीवन बिताने की सलाह भी। रहमान तो गुमसुम होकर चुपचाप सबकी बातें सुनता रहा, इसके सिवा उसके पास कोई चारा भी तो नहीं था ।

अब उस बुढे सयाने आदमीने माहतबा को बुलाया और कहा, “बेटी ! अब तू ही सच-सच बता कि क्या बात है? यदि तू सब कुछ बता देगी तो सबका संशय दूर हो जाएगा। और रहमान, क्या मरुस्थल में भी कभी किसी को मछली मिली है । तुम बडे ही भोले हो। हाँ, तो बेटी अल्लाह को हाजिर-नाजिर जानकर सबकुछ सच-सच बता ताकि रहस्य से पर्दा उठ सके और सबको शान्ति मिले।”

उस बूढे व्यक्ति की बात सुनकर माहताब पहले तो मंद-मंद मुस्करायी फिर बोली, “चाचाजान! आपका अनुमान बिल्कुल सही है। वुडर पर क्या कभी मचळी मिल सकती है । पर मेरे पति बडे ही भोले और नासमझ है । ये जो भी कह रहे हैं वह बिल्कुल ठीक है। मैंने इन्हें वुडर पर ताल और मछलिया दिखायीं, जिन्हें वे सच समझ बैठे । ये बार-बार मुझसे मकरेजन का अर्थ समझाने की जिद कर रहे थे. मैंने ही यह स्वांग रचा थ और इन्हें वह समझाने की कोशिश की थी कि यदि औरत मकरेजन अर्थात्‌ फरेब पर उतर आए तो क्या नहीं कर सकती । इनके बारबार आग्रह करने पर ही मैंने यह सारा नाटक रचा ।”

सारी बातें सुनने के बात बूठा बोला, “क्यों बेटा रहमान । माहताब को भी कह रही है क्या यह सच है ?” रहमान बोली, “हाँ यह ठीक ही कह रही है।” अब माहताब बोली, “मेरे भोले-भाले पति, अब समझो मकरेजन का अर्थ? अब घरे के अंदर चलो और दोनें मिलकर मछली खायेंगे । अब आइंदा भी बेमतलब की बात पर वाद-विवाद मत करना।”

आसपास के सब लोगों ने चैन की साँस ली। दोनों मियाँ-बीवी हँसी-खुसी उठे, उन्होंने क्षमा माँगी और सबको विदा किया । प्रेम से बातें करते हुए दोनों घर में घुसे । रहमान ने तौबा की कि अब कभी भी इस तरह की बातें नहीं करेगा । इस कहानी के आधार पर कश्मीरी मुहवार ‘वुटर गाड’ बना है !

९बुद्धिमान वजीर पुत्र

एक बार की बात है । एक शहजादा और एक वजीर का पुत्र घनिष्ट मित्र थे । एक दिन जब शहजादा और वजीरपुत्र मिले तो शहजादा बोला, “मित्र! मैंने रात सपने में एक अभूतपूर्व सुन्दर शहजादी को देखा है । वह एक बहुत ही आलीशान और सुन्दर बगीचे में टहल रही थी । उस बगीचे में एक-से-एक सुन्दर और महकते हुए फूल थे । शहजादी उन फूलों से भी अधिक सुन्दर थी । उसने मेरी ओर अपनी एक नजर डाली, पर मुझसे कोई बात नहीं की । मेरे दोस्त! में तो उसका दीवाना हो गया हूँ। उसे अपना बनाने के लिए मैं तरस रहा हाूँ । में समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं क्या करुँ?”

वजीर का पुत्र शहजादे से उम्र में छोटा था तथापि वह उससे अधिक बुद्धिमान था । हर कठिनाई का हल किसी-न-ककिसी प्रकार निकाल ही लेता था । अपने मित्र की दशा उससे देखी नहीं जा रही थी । अतः बोला, “तुम यह बताओ कि क्या तुम्हें वह दिशा मालूम है, जहाँ तुमने उसे देखा था?”

शहजादा बोला, “वाह! यह भी कोई बात है । मुझे उस रास्ते का एक-एक मोड याद है । जिस रास्ते से में स्वप्ऩ में वहाँ पहुँचा था । में कुछ भी भूला नहीं हूँ ।” जब वजीरपुत्र ने यह बात सुनी तो बोला, “फिर चिंता करने की कोई बात नहीं है । हम उसका पता जरुर लगा लेंगे । मेरे दोस्त! तुम निश्चित रहो । हम दोनों कल प्रातः काल ही किसी को बताये बिना उसकी खोज में चल देंगे किसी-न-किसी प्रकार उसका पता लगा लेंगे ।”

दूसरे दिन सुबह-सुबह दोनों मित्र अपने-अपने घोडे पर सवार होकर शहर से बाहर निकल गए । शहजादा रास्ता बताता रहा और वजीरपुत्र उसके साथ-साथ चलता रहा । चलते-चलते उन्हें शाम हो गई । सायंकाल होने पर वे एक सुंदर नगर में जा पहुँचे । उस नगर में जगह-जगह सुन्दर उद्यान बने हुए थे । वे सडक पर आगे बढते चले गए, रास्ते में उन्हें शाही उद्यान मिला । घोडों से उतरकर उन्होने पहरदारों से निगाह बचाकर उस शाही उद्यान में किसी प्रकार प्रवेश कर लिया ।

शहजादी उस समय उद्यान में टहल रही थी । उसे देखकर शहजादा बहुत खुश हुआ । शहजादी की नजर ी शाहजाद पर पडी । उसने एक फूल लिया और लापरवाही से उसे सूंघने लगी । दोनों मित्रों को देखकर वह होले से मुस्करायी पर मुँह से कुछ ी नहीं बोली । शहजादा यह देखकर बेकरार हो गया । वह सुन्दर सा फूल, जो उसने अपने हाथ में लिया था, शहजादे की और फेंका, अपने सुनहरे बालो को झटका और हँसी-ठिठोली करती हुई वहा से चली गइ ।

उसके जाने के बाद वजीरपुत्र ने शहजादे से कहा कि अब यहाँ से चलो, पर शहजादा जाने को तैयार नहीं हुआ । वजीरपुत्र ने उसे समझाया और कहा कि तुम मुझ पर रोसा रखो, इस समय तो तुम यहाँ से चलो । एक दिन शहजादी को मैं तुम्हारे पास अवश्य लेकर आऊँग्गा । तुम्हे धैर्य रखना होगा, बाकी सब काम मेरा है । में तुम दोनों का मिलन अवश्य लेकर आऊँगा । तुम्हें धैर्य रखना होगा, बाकी सब काम मेरा है । में तुम दोनों का मिलन अवश्य कराऊँगा यह मेरा वादा है ।

दोनों मित्र उधान से निकलकर एक सराय में ठहरें । दूसरी सुबह वजीरपुत्र वहाँ से शहर गया । वहाँ जाकर उसने शाही नानवाई के यहाँ नोकरी कर ली और कुलचे बनाने प्रारम्भ कर दिए. उसने शहजादी के पास भेजे जाने वाले कुलचे बहुत ही बढिया और स्वादिष्ट बनाये । नानवाई इन कुलचो को लेकर शहजादी के पास पहुँची । शहजादी ने जब कुलचे देखे तो बडी प्रसरन्न हुई और बोली, “आज के कुलचे तो रोज आने बाने कुलचों से बिल्कुल अलग है । ये कुलचे ज्यादा ब्बिया हैं । पर दिया- “शहजादी साहिबा। आप बिल्कुल ठीक फरमा रही हैं । सच में ये कुलचे मेरे हाथ के बनाये हुए नहीं है । कल मेरे पास एक गरीब लडका आया था, उसे नौकरी की जरुरत थी, उस पर तरस खाकर मैंने उसे अपने यहाँ जगह दे दी है । ये कुलचे उसने सिर्फ आप ही के लिये बनाये हैं ।

शहजादी तो कुलचो के स्वाद में मगन हो चुकी थी । नानबाई से बोली कि जाओ उसे लेकर आओ और मेरे सामने हाजिर करो । में उस लडके से मिलना चाहती हूँ । जो इतने बढिया कुलचे बनाता है । नानबाई घर गयी और वजीरपुत्र को सारी बातें बताई । वजीरपुत्र ने नानबाई की पोशाक पहनी और शहजादी के सामने उपस्थित हुआ । शहजादी ने उससे एक के बाद एक ढेरो प्रश्न् पूछे । वजीरपुत्र ने बडी ही चतुराई से सभी प्रश्नें के उत्तर दिए । प्रश्ने के उत्तर देते-देते उसने सांकेतिक भाव में सब बात बता दी कि वह उस राजकुमार का दोस्त है, जो उसे उद्यान में मिला था । उसने यह भी बताया कि मेरा मित्र आपके दर्शन पने व आपसे मिलने के लिए तडप रहा है । मुझे इस बात का डर है कि वह कहीं आपके प्रेम में दीवाना होकर अपनी जान न खो बैठे । उसकी जिंदकी अब आपके हाथ में है । चाहें तो उसकी जान बचा सकती है । उसके लिए आपकी एक मुस्कुराहट ही काफी है।

शहजादी ने जब ये बातें सुनी तो उसके होंठो पर एक मुस्कान उभर आयी । वह नरमदिल तो थी ही, उसके मन में भी शहजादे के प्रति प्रेम जाग गया था । वह वजीरपुत्र की बात मानकर बोली, “अगर तुम्हारा मित्र मेरे दर्शनों का अभिलाषी है और दर्शनमात्र से वह स्वस्थ हो जाएगा तो आज आधी रात के समय में वहाँ पहुँचकर स्वयं उसे दर्शन दूँगी ।” वजीरपुत्र वहाँ से लौटकर शहजादे के पास आ गया । उसने उसे सारी बातें बतायीं तो शहजादे की खुशी का ठिकाना न रहा । वह आनन्द -विभोर हो उठा. किन्तु दुर्भाग्यवश आधी रात होते-होते उसकी आँख लग गई । वह गहरी नींद में सो गया । शहजादी उसके कमरे में आयी तो वह सो रहा था । जब सुबह उसकी आँख खुली तो चारों ओर धूप फैल चुकी थी । सूरज चढ आया था । वह आँखे मलते हुए जागा तो उसे यह बात याद आयी कि रात को तो शहजादी को आना था । उसकी आँखे भऱ आईँ । वह रोने लगा और रोते-रोते अपने मित्र के पास गया और बोला, “हाय-हाय! शहजादी तो बडी झुठी निकली, वह तो नहीं आयी । उसने तमसे झुठा वादा किया था।” वजीरपुत्र को इस बात पर विश्वास न हुआ । उसने शहजादे को समझा-बुझाकर शान्त किया । फिर उसने शहजादे की जेब में हाथ डाला तो उसमें एक रुमाल व खेलने की पाँच छोटी गोलियाँ निकली । रुमाल पर शहजादी का नाम लिखा था यह देखकर उसने सार सामान शहजादे को दिखाया और बोला, “तुम क्या कहते हो, शहजादी झुठी है ? देखो, वह तो आयी थी पर तुम गहरी नींद में सो रहे थे । वह तुम्हारी जेब में अपना नाम लिखा रुमाल रख गई और तुम्हारी जेब से तुम्हारा रुमाल निकालकर ले गई ।”

शहजादा बहुत पछताया । उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था । उसने कहा, “मित्र ! अब क्या होगा? यह गोलियाँ उसने मेरी जेब में क्यो रखी है?” वजीरपुत्र बोला, “दोस्त । तुम बडे ही भोले हो । ये गोलियों से खेलने योग्य हो । तुम्हारी उम्र अभी प्रेम करने की नहीं है ।”

शहजादा अब शहजादी के प्रेम में तडप रहा था, उसकी यह दशा देखकर वजीरपुत्र को उस पर दया आयी । वह बोला, “मित्र । तुम घबराओ मत, में एक बार फिर कोशिश करुँगा कि क्या हो सकता है? मुझे विश्वास है, वह एक दिन आपके पास अवश्य आयेगी, क्योंकि यदि उसे आपसे प्रेम न होता, तो वह अपना रुमाल आपके पास छोडकर न जाती ।”

नानबाई का वेश धारण करके अगले दिन वजीरपुत्र फिर से शहजादी के पास गया । उसने शहजादी की मित्रतें की और एक बार और सराय में अपने मित्र के पास आने को राजी कर लिया । उस रात मानो शहजादे की आँखो में नींद उड गई थी । वह जागता रहा । आधी रात के समय शहजादी उसके पास आई । सिर से पाँव तक वह सुंदरता की मूर्ति प्रतीत हो रही थी । दोनो प्रेमियों ने आपस में खूब बातें की । कब सुबह हो गई, पता ही न चल । पर भाग्य इन प्रेमियों के साथ न था । उसी समय वहाँ का वजीर उस कूचे से गुजर रहा था । शहजादी की हँसी सुनकर उसक मन शकित हो उठा और वह सराय के उस कमरे की खिडकी के पास गया । उसने झाँककर देखा कि अंदर तो शहजादी है । राजपुत्र को वहाँ देखकर वह क्रोध से काँपने लगा । वह सीधा शहजादी के पास पहुँच गया । उसने कडकती आवाज में पूछा कि यहाँ क्या खिचडी पक रही है ? उसने सिपाहियों को ईशारा किया उसका इशारा पाते हे सिपाहियो ने दोनों को पकड लिया और ले जाकर जेल में डाल दिया ।

सराय के मालिक ने वजीरपुत्र को खबर दी कि उसके मित्र और उसकी प्रेमिका को सिपाही पकडकर ले गए है । वह दुखी होकर हाथ मलने लगा । पर धैर्य धारण करके वह शहजादे को मुक्त कराने का उपाय सोचने लगा । प्रातःकाल होते ही उसने एक बुढिया का वेश बनाया और लाठी टेकते हुए जेल के दरवाजे तक जा पहुँचा । वह एक छोटी-सी टोकरी में अपने साथ कुलचे भी ले गया । जेल के दरवाजे पर पहेरदारोने उसे रोक लिया तो बुढिया वेशधारी वह वजीरपुत्र बोला, “बेटा ! इन दोनों गरीब लोगों को मैं यहाँ रोटी देने आयी हूँ । क्या तुम्हें उन पर जरा भी दया नहीं आती? मुझे उन्हें रोटी देने दो, तुम्हारी बडी मेहरबानी होगी ।” पहेरदारो को कैदियो पर तरस आ गया । उन्होंने बढिया को इन्दर जाने दिया । आनन-फानन में वह जेल की उस कोठरी में जा पहुँची जहाँ शहजादा वह शहजादी बंद थे । उसने अपना पहनावा शहजादी को पहनाय और तुरंत वाँ से चले जाने को कहाँ उसने स्वयं शाहजादी के कपडे पहन लिये। बढिया का वेश धारण कर शहजादी टोकर लेकर जेल से बाहर चली गई । वहाँ से वह सीधी महल के अपने कमरे में पहुँची और मन-ही-मन उसने ईश्वर का और उस बुद्धिमान वजीरपुत्र का धन्यवाद किया ।

दो-तीन घंटे बाद ही जेल मे वजीर अपनी मूँछो पर ताव देता हुआ आ पहुँचा । वह बादशाह को भी अपने साथ लाया था, ताकि बादशाह अपनी पुत्री की करतूतें देख लें. जेल में पहुँचकर बडे ही रोब से उसने शहजादी का रुप धारण किये वजीरपुत्र की और इशारा करके रेजा से कहा, “महाराजा ! देखिये वो रही हमारी शहजादी । बादशाह क्रोध से तमतमा रहा था । उसने आगे बढकर उसके मुख से पर्दा हाटा । बादशाह ने ध्यान से देखा तो उनके गुस्से का पारा और गढ गया और वजीर की और मुखातिब होकर बोले, “कमबख्त, तुम्हारी इतनी मजाल कि तुम हमारे खानदान का और हमारी बेटी का नाम बदनाम करो । तुम हमारे मुख पर कालिख पोतना चाहते हो?” राजा ने आव देखा न ताव, तलवार खींचकर एक ही वार में वजीर का सिर धड से अलग कर डाला । उसका धड वहीं गिरकर तडपने लगा ।

शहजादे और वजीरपुत्र को जेल से मुक्त कर दिया गया । दोनों वापिस उसी सराय में पहुँच गए जहाँ पहले रह रहे थे । उन्होंने शहजादी के बारे मे पता लगाया कि शीध्र ही उसका विवाह होने वाला है । जिस राजकुमार के साथ उसका विवाह होने जा रहा था , उसे वह बिल्कुल पसंद नहीं करती थी । किन्तु बादशाह ने उसकी बात न मानते हुए उसके साथ उसकी सगाई कर दी थी और उसी दिन से उसके विवाह की तैयारियाँ जोर-शोर से होने लगीं । पूरे राज्य को दुल्हन की तरह सजाया जाने लगा ।

वजीरपुत्र शहजादी से मिलने की तरकीप ढूँढने लगा । किन्तु वह सफल न हो सका । शहजादा भी बहुत परेशान था । उसे हर समय शहजादी की याद सताती थी । आखिरकार वजीरपुत्र ने शहजादे के साथ विचार कर एक तरकीब निकाल ली और दोनों ने उस पर अमल करने की सोची ।

विवाह की रात आ पहुँची । रात-भर शादी की रस्में चलती रही । सुबह होने पर विदाई की रस्म हुई । शहजादी के डोली कहारों ने उठा ली । चारो और शहनाई और नफीरी बज रही थी । खुशियाँ मनाई जा रही थी । बाराती नाच-गा रहे थे । बारात को चलते-चलते शाम हो गई थी । शाम को एक घने जंगल में नदी किनारे डेरा डाला । तम्बू गाडने आरम्भ कर दिए । मौका देखकर वजीरपुत्र शहजादी की डोली में घुस गया । उसने एक लम्बा-सा बुर्का पहने-पहने उस स्थान पर पहुँच गई जहाँ शहजादा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । दोनों घोडे पर सराव होकर वहाँ से अंधेरे में ही दूर निकल गए ।

वजीरपुत्र डोली में ही था, तभी शहजादी की ननद अपना मन बहलाने के लिए डोली में चली आई । वजीरपुत्र को वहाँ देखकर वह ठिठक गई किन्तु वजीरपुत्र वाकपट्टु तो था ही । उसमें वह हुनर था जो कि पत्थर का दिल भी पिधल जैए । उसने अपनी मीठी-मीठी बातों से शहजादी की ननद का मन मोह लिया । उसने उसे अपने वश में कर लिया । बाराती तंबू गाड चुके थे कि वजीरपुत्र ने उसे अपने साथ विवाहह करने को राजी कर लिया । अँधेरे का फायदा उठाकर वे दोनों भी वहाँ से भाग निकले । चलते-चलते वे उसी स्थान पर पहुँच गए जहाँ शहजादा शहजादी के साथ आराम फरमा रहा था । कुछ देर आरम करने के बाद वे रात भर चलते रहे और वापस अपने नगर पहुँच गए । उनके वापस लौट आने से नगर मे खुशियाँ मनाई जाने लगी । सभी नगरवासियों को जब पता चला कि शहजादा और वजीरपुत्र दोनों ही अपनी मर्जी से विवाह भी रचा लाये है तो उनकी खुशी दोगुनी हो गई । नगर में खूब जश्ऩ मनाये गए । शहजादा अपने मित्र वजीरपुत्र की बुद्धिमान का कायल हो गया । उसने उसे गले से लगाकर उसका धन्यवाद किया और ढेरों उपहार देकर अपनी कृतज्ञता जतायी । शहजादी की ननद भी वजीरपुत्र के साथ बेहद प्रसन्न थी । दोनों इसी प्रकार हँसी-खुशी दिन बिताने लगे ।