Chandragupt - 42 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 42

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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 42

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(पथ में साइवर्टियस और मेगास्थनीज)

साइवर्टियसः उसने तो हम लोगों को मुक्त कर दिया था, फिरअवरोध क्यों?

मेगास्थनीजः समस्त ग्रीक-शिविर बन्दी है। यह उनके मन्त्रीचाणक्य की चाल है। मालव और तक्षशिला की सेना हिरात के पथ मेंखड़ी है, लौटना असम्भव है।

साइवर्टियसः क्या चाणक्य! वह तो चन्द्रगुप्त से क्रुद्ध होकर कहींचला गया था न? राक्षस ने यही कहा था, क्या वह झुठा था

मेगास्थनीजः सब षड्‌यंत्र में मिले थे। शिविर को अरक्षितअवस्था में छोड़, बिना कहे सुवासिनी को लेकर खिसक गया। अभी भीन समझे। इधर चाणक्य ने आज मुझसे यह भी कहा है कि मुझएऔंटिगोनस के आक्रमण की भी सूचना मिली है।

(सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकसः क्या? औंटिगोनस!

मेगास्थनीजः हाँ सम्राट्‌, इस मर्म से अवगत होकर भारतीय कुछनियमों पर ही मैत्री किया चाहते हैं।

सिल्यूकसः तो क्या ग्रीक इतने कायर हैं! युद्ध होगा साइवर्टियस।हम सब को मरना होगा।

मेगास्थनीजः (पत्र देकर) इसे पढ़ लीजिए, सीरिया परऔंटिगोनस की चढ़ाई समीप है। आपको उस पूर्व-संचित और सुरक्षितसाम्राज्य को न गँवा देना चाहिए।

सिल्यूकसः (पत्र पढ़कर विषाद से) तो वे क्या चाहते हैं?

मेगास्थनीजः सम्राट्‌! सन्धि करने के लिए तो चन्द्रगुप्त प्रस्तुतहै, परन्तु नियम बड़े कड़े हैं। सिन्धु के पश्चिम के प्रदेश आर्यावर्त कीनैसर्गिक सीमा निषध पर्वत तक वे लोग चाहते हैं। और भी...

सिल्यूकसः चुप क्यों हो गये? कहो, चाहे वे शब्द कितने हीकटु हों, मैं उन्हें सुनना चाहता हूँ।

मेगास्थनीजः चाणक्य ने एक और भी अड़ंगा लगाया है। उसनेकहा है, सिकन्दर के साम्राज्य में जो भावी विप्लव है, वह मुझे भलीभाँतिअवगत है। पश्चिम का भविष्य रक्त-रंजित है, इसलिए यदि पूर्व मेंस्थायी शान्ति चाहते हो तो ग्रीक-सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त को अपना बन्धु बनालें।

सिल्यूकसः सो कैसे?

मेगास्थनीजः राजकुमारी कार्नेलिया का सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त से परिणयकरके।

सिल्यूकसः अधम! ग्रीक तुम इतने पतित हो!

मेगास्थनीजः क्षमा हो सम्राट्‌! वह ब्राह्मण कहता है कि आर्यावर्तकी सम्राज्ञी भी तो कार्नेलिया ही होगी।

साइवर्टियसः परन्तु राजकुमारी की भी सम्मति चाहिए।

सिल्यूकसः असम्भव! घोर अपमानजनक!

मेगास्थनीजः मैं क्षमा किया जाऊँ तो सम्राट्‌...! राजकुमारी काचन्द्रगुपत से पूर्व-परिचय भी है। कौन कह सकता है कि प्रणय अदृश्यसुनहली रश्मियों से एक-दूसरे को न खींच चुका हो। सम्राट्‌ सिकन्दर केअभियान का स्मरण कीजिए - मैं उस घटना को भूल नहीं गया हूँ।

सिल्यूकसः मेगास्थनीज! मैं यह जानता हूँ। कार्नेलिया ने इशयुदध में जितनी बाधाएँ उपस्थित कीं, वे सब इसकी साक्षी हैं कि उसकेमन में कोई भाव है, पूर्व-स्मृति है, फिर भी - फिर भी, न जाने क्यों!वह देखो, आ रही है! तुम लोग हट तो जाओ!

(साइवर्टियस और मेगास्थनीज का प्रस्थान और कार्नेलिया काप्रवेश)

कार्नेलियाः पिताजी!

सिल्यूकसः बेटा कार्नी!

कार्नेलियाः आप चिन्तित क्यों हैं?

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त को दण्ड कैसे दूँ? इसी की चिन्ता है।

कार्नेलियाः क्यों पिताजी, चन्द्रगुप्त ने क्या अपराध किया है?

सिल्यूकसः हैं! अभी बताना होगा कार्नेलिया! भयानक युद्ध होगा,इसमें चाहे दोनों का सर्वनाश हो जाय!

कार्नेलियाः युद्ध तो हो चुका। अब मेरी प्रार्थना आप सुनेंगेपिताजी! विश्राम लीजिए। चन्द्रगुप्त का तो कोई अपराध नहीं, क्षमाकीजिए पिताजी! (घुटने टेकती है।)

सिल्यूकसः (बनावटी क्रोध से) देखता हूँ कि, पिता को पराजितकरने वाले पर तुम्हारी असीम अनुकम्पा है।

कार्नेलियाः (रोती हुई) मैं स्वयं पराजित हूँ। मैंने अपराध कियाहै पिताजी! चलिए, इस भारत की सीमा से दूर ले चलिए, नहीं तो मैंपागल हो जाऊँगी।

सिल्यूकसः (उसे गले लगाकर) तब मैं जान गया कार्नी, तू सुखीहो बेटी! तुझे भारत की सीमा से दूर न जाना होगा - तूम भारत कीसम्राज्ञी होगी।

कार्नेलियाः पिताजी!

(प्रस्थान)