चन्द्रगुप्त
जयशंकर प्रसाद
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(शिविर का एक अंश)
(चिन्तित भाव से राक्षस का प्रवेश)
राक्षसः क्या होगा? आग लग गयी है, बुझ न सकेगी? तो मैंकहाँ रहूँगा? क्या हम सब ओर से गये?
सुवासिनीः (प्रवेश करके) सब ओर से गये राक्षस! समय रहतेतुम सचेत न हुए।
राक्षसः तुम कैसे सुवासिनी!
सुवासिनीः तुम्हें खोजते हुए बन्दी बनायी गी। अब उपाय क्याहै। चलोगे?
राक्षसः कहाँ सुवासिनी? इधर खाई, उधर पर्वत! कहाँ चलूँ?
सुवासिनीः मैं इस युद्ध-विप्लव से घबरा रही हूँ। वह देखो, रण-वाद्य बज रहे हैं। यह स्थान भी सुरक्षित नहीं। मुझे बचाओ राक्षस -
(भय का अभिनय करती है।)
राक्षसः (उसे आश्वासन देते हुए) मेरा कर्तव्य मुझे पुकार रहाहै। प्रिये, मैं रणक्षेत्र से भाग नहीं सकता, चन्द्रगुप्त के हाथों से प्राण देनेमें ही कल्याण है! किन्तु तुमको...
(इधर-उधर देखता है, रण-कोलाहल)
सुवासिनीः बचाओ!
राक्षसः (निःश्वास लेकर) अदृष्ट! दैव प्रतिकूल है। चलोसुवासिनी!
(दोनों का प्रस्थान)
(एकाकिनी कार्नेलिया का प्रवेश)
(रण-शब्द)
कार्नेलियाः यह क्या! पराजय न हुई होती तो शिविर परआक्रमण कैसे होता? (विचार करके) चिन्ता नहीं, ग्रीक-बालिका भी प्राणदेना जानती है। आत्म-सम्मान - ग्रीस का आत्म-सम्मान जिये! (छुरीनिकालती है) तो अन्तिम समय एक बार नाम लेने में कोई अपराध है?- चन्द्रगुप्त!
(विजयी चन्द्रगुप्त का प्रवेश)
चन्द्रगुप्तः यह क्या। (छुरी ले लेता है) राजकुमारी!
कार्नेलियाः निर्दयी हो चन्द्रगुप्त! मेरे बूढ़े पिता की हत्या कर चुकेहोंगे! सम्राट् हो जाने पर आँखें रक्त देखने की प्यासी हो जाती है न!
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! तुम्हारे पिता आ रहे हैं।
(सैनिकों के बीच में सिल्यूकस का प्रवेश)
कार्नेलियाः (हाथों में मुँह छिपाकर) आह! विजेता सिल्यूकस कोभी चन्द्रगपुत के हाथों से पराजित होना पड़ा।
सिल्यूकसः हाँ बेटी!
चन्द्रगुप्तः यवन-सम्राट्! आर्य कृतघ्न नहीं होते। आपको सुरक्षितस्थान पर पहुँचा देना ही मेरा कर्तव्य था। सिन्धु के इस पार अपने सेना-निवेश में आप हैं, मेरे बन्दी नहीं। मैं जाता हूँ।
सिल्यूकसः इतनी महानता!
चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! पिताजी को विश्राम की आवश्यकता है।फिर हम लोग मित्रों से समान मिल सकते हैं।
(चन्द्रगुप्त का सैनिकों के साथ प्रस्थान, कार्नेलिया उसे देखतीरहती है।)