Atithi devo bhav in Hindi Short Stories by vineet kumar srivastava books and stories PDF | अतिथि देवो भव

Featured Books
Categories
Share

अतिथि देवो भव

अतिथि देवो भव

आज लगभग बारह वर्ष बाद श्रीमान जी हमारे घर पधारे हैं | बढ़ी हुई दाढ़ी, खिचड़ी बाल, स्याह निस्तेज आँखें-कुल मिलाकर उनका व्यक्तित्व अब काफी बदल चुका है | व्यक्तित्व तो व्यक्तित्व अब उनके लगभग सभी तौर-तरीके बदलाव लिए हुए दिखे | अब उनकी आँखों में वह पहले वाली चंचलता नहीं रही और न ही बात करने के लहजे में वह पहले वाला सदाबहार बचकानापन ही मुझे नज़र आया | शायद इन बारह वर्षों में श्रीमान जी को ज़िंदगी ने काफी तौर-तरीके सिखा दिए थे | नहीं तो घर में प्रविष्ट होते ही उनकी खोजी आँखें कमरे के एक-एक कोने का सूक्ष्म-निरीक्षण करने से बाज नहीं आती थीं |

अरे, मैं अपने इन श्रीमान जी से आपका परिचय कराना तो भूल ही गया | हाँ, तो यह श्रीमान जी मेरे दूर के रिश्तेदार हैं | मेरे "लगे-लगाए" बहनोई और मैं इन श्रीमान जी का "साला" |

उन दिनों श्रीमान जी का नया-नया पाणिग्रहण संस्कार हुआ था | मेरी जिज्जी को उनके जैसी आदतों वाला ही पति-परमेश्वर मिला था | तातपर्य यह है कि जिज्जी और जीजा यानि जिज्जी और श्रीमान जी के उन सभी गुणों में समानता थी जो किसी भी रिश्तेदार को कष्ट पहुँचाने के लिए पर्याप्त थे | आखिर पंडित जी ने भी तो गुण मिलाने में कोई कसर कहाँ छोड़ी थी | उन्होंने तो वर एवं कन्या दोनों के थोक के भाव गुण मिलाए थे सो जिज्जी और जीजा जी की पटरी बैठना स्वाभाविक ही था | श्रीमान जी उन सभी "गुणों" से युक्त थे जो हमने जिज्जी में बचपन से देखे थे | बात-बात में दूसरों की बुराई कर जाना और वह भी इस ढंग से कि सामने वाले को तनिक भी आभास न हो कि बुराई की जा रही है | आए-दिन रिश्तेदारों के यहाँ कूच कर देना और फिर मेजबान की वो तिड़ी बुलाना कि मेजबान सदा के लिए मेहमाननवाजी भूल जाए और तौबा कर ले | मेजबान की शांत नाक में दम कर देना श्रीमान जी के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण गुणों में से ही एक अविस्मरणीय गुण था | कुल मिलाकर श्रीमान और श्रीमती जी की जोड़ी ऊपर वाले ने बिल्कुल हंड्रेड परसेंट फिट बनाई थी | यानि भूले-भटके अगर किसी एक से कुछ कमी रह जाए तो दूसरा उस कमी को हर हाल में पूरा कर ही देता |

श्रीमान जी के सिंगल से डबल होने के कुछ दिनों के बाद मेरी माता जी ने अपनी "ख़ास"आदत के चलते, जिसके कारण वह रिश्तेदारों में काफी अर्से से अपनी एक खास पहचान बनाए हुए थीं, श्रीमान जी को उनकी श्रीमती जी के साथ घर पर भोज के लिए बुलाया | इस महान कार्यक्रम के लिए रविवार का दिन नियत किया गया क्योंकि उस दिन श्रीमान जी की "छुट्टी" होती थी और इस कार्यक्रम के लिए रविवार से अच्छा दिन और हो भी क्या सकता था | सुबह के दस बज गए लेकिन श्रीमान जी का कोई अता-पता न था | बारह बजे और फिर दो बजने को आया लेकिन महामहिम पूज्य्नीय श्रीमान जी की कोई खबर न थी | हम सभी परेशान थे कि सब किये-धरे पर पानी न फिर जाए | किए पर पानी फिरने का कोई ग़म न था लेकिन जो "धरा" था उसके लिए चिंता होना स्वाभाविक था | माता जी ने सुबह से ही रसोई का कार्यभार ग्रहण कर लिया था | उनकी आज्ञा से उनकी सुविधा के लिए हमेशा की तरह गैस का चूल्हा रसोई की फर्श पर रख दिया गया था | माता जी के साथ हमारी दोनों बहिनों ने आज्ञाकारी बेटियों की तरह माताजी का सहभार संभाल लिया था |

खीर, कोफ्ता, मटरपनीर की सब्जी, गुलाबजामुन, दही-बड़े - सभी कुछ तैयार था, बस इन्तजार था तो श्रीमान जी का | लेकिन श्रीमान जी थे कि प्लेटफॉर्म पर चार घंटे देरी से भी नहीं पहुँचे थे | सहसा माताजी को जैसे कुछ ध्यान आया | फटाफट मुझसे तैयार होने को कहा गया | मैंने तैयार होते हुए माताजी से पूछा तो पता चला कि मुझे श्रीमान जी को लेने उनके घर जाना पड़ेगा |

"यह तो कोई बात नहीं हुई !" मैंने चिढ़कर कहा |

"यही तो बात होती है |" माँ ने गर्व से कहा - "अरे वह आदमी भी कोई आदमी है जिसमे मर्दों वाली कोई बात न हो | आख़िर वह दामाद है | ऐसे एक बार कह देने से कैसे आ जाएगा | बुलाने तो जाना ही पड़ेगा |"

"लो, इसमें क्या मर्दानगी हुई कि किसी ने बुलाया तो जनाब सौ नखरे दिखा रहे हैं |" मैंने झुंझलाकर कहा और फिर बात को आगे न बढ़ाते हुए पूज्य जीजाजी को सादर लिवाने प्रस्थान कर गया |

उन दिनों मोबाइल फोन नहीं होते थे और लैंडलाइन तो बस गिनती के ही थे | हमारे मोहल्ले में भी दो-तीन घर ही ऐसे थे जिनमें लैंडलाइन की सुविधा उपलब्ध थी | आज का समय होता तो बस मोबाइल से ही काम हो जाता | खैर, अनमने मन से मुझे उनके घर जाना ही पड़ा |

घर पहुँचा तो श्रीमान जी घर पर तैयार ही मिले | मेरे पहुँचते ही श्रीमान जी उठ खड़े हुए और घड़ी देखते हुए कमरे से बाहर आ गए | "ओह, तीन बज रहे हैं ! अरे भई, जल्दी करो | देखो, भानू हमें लेने आया है |"

"आती हूँ |" भीतर से जिज्जी की आवाज आई और कुछ ही क्षणों में वह पर्स लिए बाहर आ गईं | "चलिए जी, दरवाजा तो लॉक कर लीजिये |" जिज्जी ने कहा तो श्रीमान जी ने एक आज्ञाकारी पति की तरह दरवाजा बंद किया और मेरे साथ सड़क पर आ कर ऑटो के इन्तजार में खड़े हो गए | कुछ ही क्षणों में ऑटो भी आ गया और हम तीनों प्राणी अगले ही पल उस ऑटो में सवार थे | घर तक पहुँचने तक का सफ़र काफी मनोरंजक रहा | श्रीमान जी रह-रहकर बीच-बीच में उचक-उचककर जिज्जी को कुछ न कुछ दिखाते रहे और उन जगहों के संबंध में एक अच्छे गाइड की तरह बताते भी रहे | मैं सीट पर किनारे बैठा उस भविष्य को देखने का प्रयत्न करता रहा जो श्रीमान जी के मेरे घर पहुँचने के बाद घटित होने वाला था |

घर पर माता जी दोनों नव-दम्पतियों के स्वागत-सत्कार में दरवाजे पर ही खड़ी थीं | श्रीमान जी शायद माताजी को देखकर अति-भावुक हो उठे थे तभी तो ऑटो का किराया देना भूलकर अपनी पत्नी सहित माताजी के समक्ष जाकर करबद्ध खड़े हो गए | मैं जब तक उनसे किराए के संबंध में कुछ कहता तब तक श्रीमान जी सपत्नीक घर के भीतर प्रविष्ट हो चुके थे | मरता क्या न करता, ऑटो का किराया मुझे ही वहन करना पड़ा |

माताजी ने श्रीमान जी और जिज्जी को सर्वप्रथम रसगुल्लों का भोग लगाया तदुपरांत भोजन अदि का सुहाना दौर चला और अंत में श्रीमान जी को खीर का कटोरा दिया गया | श्रीमान जी ने चटखारे लेते हुए खीर को अपने श्री मुख में ग्रहण किया और हाथ झाड़-पोंछकर खड़े हो गए | "अब तो मैं कुछ देर आराम करना चाहूँगा |"

आदेश का तुरंत पालन हुआ | श्रीमान जी के लिए बेड पर नई चादर और तकिये का पहले से ही प्रबंध कर दिया गया था | श्रीमान जी ने एक अंगड़ाई ली और बेड पर चौड़े हो गए | माताजी और मेरी दोनों बहिनें जिज्जी के साथ भीतर कमरे में इधर-उधर की छानी-छप्पर उड़ाती रहीं | शाम को सात बजे श्रीमान जी की निद्रा टूटी | श्रीमान जी के जागते ही माँ का तीव्र स्वर मेरे कानों में पड़ा - " भानू देख, जीजाजी को किसी चीज की जरूरत तो नहीं है | " खैर, श्रीमान जी उठे और मुँह-हाथ धोकर पूरे घर में चहलकदमी करने लगे |

"यह सोफासेट कितने का लिया ? नया मालूम पड़ता है |"श्रीमान जी ने सोफे पर हाथ फेरते हुए पूछा |

"हाँ अभी पिछले महीने ही तो लिया है |"माँ ने प्रत्युत्तर में कहा |

"कितने का है बुआ जी ?"अब जिज्जी की बारी थी | एक आदर्श पत्नी होने के नाते पति के अधूरे रह गए प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना उन्होंने अपना परम धर्म समझा |

"पाँच हजार का है | "माँ ने कहा | "आजकल इससे कम का कहाँ रखा है |"

"टीवी में कलर तो बहुत साफ़ आ रहे हैं | कौन सा है ? ओनिडा ? भई ओनिडा तो वास्तव में खरा सोना है |

"लगता है भानू की शादी बिलकुल साधारण तरीके से करने का इरादा है |

श्रीमान जी घर की एक-एक चीज का बड़ी बारीकी से निरीक्षण करते और कभी-कभी तो हद ही हो जाती जब किसी वस्तु के इतिहास को खंगालने लगते | "भई, घड़ी तुम्हारी बड़ा करेक्ट टाइम बताती है | कौन सी है ? अच्छा टाइटन की है, तभी तो | काफी पहले की लगती है |"

अरे घड़ी तो होती ही है सही समय बताने के लिए | इसमें कौन सी नई बात थी कि हमारी घड़ी करेक्ट टाइम बताती थी | और फिर श्रीमान जी जो शुरू हुए तो फिर एक्सप्रेस की तरह चलते ही रहे | हम थे कि उनकी दकियानूसी बातों से बोर हो गए लेकिन इतना फायदा जरूर हुआ कि श्रीमान जी के इस "गुण" से हम अच्छी तरह परिचित हो चुके थे | ले-देकर जैसे-तैसे रात के लगभग दस बजे श्रीमान जी अपनी धर्मपत्नी को लेकर विदा हो गए | लेकिन जाते समय उनकी आँखों से "विछोह" का दुःख स्पष्ट रूप से झलक रहा था | हम जैसे मेजबान से बिछड़ने का दुःख किसे नहीं होगा | श्रीमान जी यहाँ की सुहानी यादें अपने अंतर्मन में समेटे विदा हो चुके थे |

समय का टायर घूमता रहा और होते-करते सात साल पंख लगाकर कब उड़ गए, इसका कुछ पता भी न चला | श्रीमान जी इन सात वर्षों में एक सुपुत्र और एक सुपुत्री के भाग्यशाली बाप बन चुके थे | बल्कि कहना तो यह चाहिए कि श्रीमान जी के भी बाप इस धरती का भार बढ़ाने के लिए अवतरित हो चुके थे |

एक दिन जब श्रीमान जी ने बाल-बच्चों और अपनी धर्मपत्नी सहित हमारे घर पर धावा बोला तो मुझे लगा कि जैसे आकाशवाणी में कोई कह रहा हो कि देख, तेरा सिर चाटने वाले तेरी ही रिश्तेदारी में पैदा हो चुके हैं | उन दिनों हम किराए के मकान से अपने नए घर में शिफ्ट कर गए थे और कुछ हद तक अमन-चैन से ज़िंदगी बसर कर रहे थे कि सहसा एक दिन श्रीमान जी का अपनी पूरी "पलटन"के साथ धमाकेदार आगमन हुआ | दरवाजे पर एक सौ बीस अंश की मुस्कान लिए श्रीमान जी अपनी धर्मपत्नी और दोनों नन्हे-मुन्नों के साथ खड़े थे | यहाँ आपको "पलटन" शब्द का प्रयोग कुछ-कुछ अटपटा अवश्य लग रहा होगा परन्तु इस शब्द का विराट अर्थ आगे स्पष्ट हो जाएगा |

हाँ, तो गेट खोलते ही श्रीमान जी के लाडले टिड्डी-दल की तरह लॉन में लगे फूलों पर टूट पड़े और देखते ही देखते लॉन को हिरोशिमा और नागासाकी बना डाला | मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले ही लॉन के सारे फूल ब्लैकबोर्ड पर लिखे अक्षरों की तरह मिटाए जा चुके थे | अभी घर के भीतर श्रीमान जी के आगमन की कोई खबर न पहुँची थी सो जब तक मैं भीतर जाता, श्रीमान जी के नौनिहाल अपना बिगुल बजाते हुए पवन-वेग से घर के भीतर प्रविष्ट हो गए और मैं श्रीमान जी और जिज्जी को लेकर भीतर आया तो देखता क्या हूँ कि दोनों बच्चे सोफों के ऊपर कूद-फांद कर रहे हैं | मैंने उन्हें डांटना चाहा परन्तु श्रीमान जी का लिहाज कर गया | सोंचा, अगर बच्चों को डांट दिया तो श्रीमान जी क्या सोंचेंगे कि आते ही बच्चों को डांट दिया | खैर, मन को कड़ा करने का मैंने भरसक प्रयास किया और काफी हद तक मैं अपने इस प्रयत्न में सफल भी हुआ | कहते हैं न कि पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं, सो उनके लाडलों ने अपने पाँव हमें अभी से ही दिखाने शुरू कर दिए थे |

"अरे ज्योत्स्ना, इन अचारियों में कौन सा अचार रखा है?" जिज्जी ने बड़ी दीदी से पूछा | "आम का अचार है जिज्जी, लो देखो, कैसा है ?" और बड़ी दीदी ने दो कलियाँ कटोरी में निकालकर जिज्जी को दे दीं |

"हम भी लेंगे, हम भी लेंगे " यह कहते हुए दोनों बच्चे उधर दौड़ आए और जब तक दीदी उन्हें अचार निकालकर देतीं, उन्होंने अपने हाथ आचारदानी में डाल दिए और पांच-छह कलियाँ निकालकर आंगन की तरफ दौड़ गए |

"मेरे बच्चों को तो अचार बेहद पसंद है |"जिज्जी ने चटखारे लेते हुए कहा |

"बच्चों को तो अचार वैसे भी पसंद होता है |" बड़ी दीदी बच्चों के व्यवहार से झुंझला उठी थीं परन्तु अपने मन की झुंझलाहट को उन्होंने भीतर ही दबा लिया |

श्रीमान जी क्या आए, घर में मेला सा लग गया | श्रीमान जी के आते ही माँ का स्वर मेरे कर्णपटल से टकराया - भानू, जा सामने वाली दुकान से कुछ मिठाई ले आ | "हम भी चलेंगे, भैया मामा |" बच्चों ने दौड़कर मेरे हाथ पकड़ लिए |

"हाँ-हाँ, इन्हें भी लिए जाओ | घूम आएंगे |" माँ के कहते ही दोनों खुश हो गए | शुक्र है भगवान् का कि बच्चों ने दुकान पर कोई उत्पात नहीं मचाया नहीं तो मुझे उनसे इस "शांत व्यवहार" की आशा ही न थी | शायद दुकानदार की घनी मूंछों और कड़कदार आवाज का ही प्रभाव था कि बच्चे दुकान पर अपनी हरकतें करने की गुस्ताख़ी नहीं कर सके |

चाय, नाश्ते के बीच में ही पता चला कि श्रीमान जी एक सप्ताह के लिए लिए लखनऊ घूमने आये हैं तो मुझे अपने पाँवों के नीचे की जमीन सरकती हुई महसूस हुई और ऐसा लगा कि जैसे आसमान मेरे ही सिर पर गिरने वाला है |

श्रीमान जी को रुके हुए चार दिन हो चुके थे और इन चार ही दिनों में श्रीमान जी के लाडलों ने हमें चारों धाम के दर्शन घर बैठे ही करा दिए थे | अभी हमें अपने "कष्टवास" के तीन दिन और काटने थे | हमने सोंचा, जहां चार दिन रो-धोकर बिता दिए, वहां तीन दिन और सही | किसी फिल्म के गीत की यह पंक्तियाँ "ज़िंदगी में गम भी मिलते हैं, पतझड़ आते ही रहते हैं |" हमें अनायास ही याद आ गईं | अब तो माताजी की भी सहनशक्ति ने जवाब देना शुरू कर दिया था | उन्हें भी अब श्रीमान जी के इस अजीबोगरीब व्यवहार से उकताहट होने लगी थी | दामाद का अर्थ यह तो नहीं कि आप ससुराल में हर किसी को अपना गुलाम समझें |

सुबह उठते ही श्रीमान जी की पीठ में जोर की जुम्बिश होती | "अरे भानू, जरा मेरी पीठ पर दो-चार घूंसे तो लगा |" इतना ही नहीं नहाने के पहले पीठ की मालिश करवाना भी श्रीमान जी नहीं भूलते | घर में चाहे हफ़्तों-महीनों हो जाते हों बिना मालिश के लेकिन ससुराल में जब मुफ़्त के लोग मिले हों तो फिर अपनी सेवा करवाने में हर्ज ही क्या है | "क्या बताऊँ, पीठ पर अपने आप मालिश करते नहीं बनती |" श्रीमान जी का तर्क होता |

शाम को श्रीमान जी बच्चों को लेकर घर के सामने के पार्क में चले जाते और वहाँ मोहल्ले के लोगों के साथ इधर-उधर की गपशप करके आधे-पौन घंटे में घर वापस आ जाते |

श्रीमानजी की नुक्ताचीनी करने की आदत ने अति विस्तृत रूप धारण कर लिया था | इस एक सप्ताह में श्रीमान जी हमारा भेजा चाट गए थे | जिस बात की हमें उनसे उम्मीद न थी, वह भी उन्होंने कर दिखाई थी |

एक दिन श्रीमानजी रसोई में पहुँच गए | "कौन सी सब्जी बना रही हो, भावना ?" छोटी दीदी से पूछा तो उन्होंने बता दिया -"बैंगन की |"

"बैंगन ! अरे बैंगन भी कोई खाने की चीज है ? भई मुझे तो बैंगन की सब्जी कतई पसंद नहीं | मेरे लिए तो तुम आलू-गोभी की सब्जी ही बना दो |"

"लेकिन जीजा जी ....खाना बन चुका है......अब...आलू-गोभी की सब्जी ?" छोटी दीदी खाना बनाते-बनाते थक चुकी थीं और यह भी नहीं कि पूज्य जिज्जी ही उनका हाथ बँटातीं | वह तो ऊपर छत पर सुबह की गुलाबी धूप सेंक रही थीं | बड़ी दीदी पढ़ाने के लिए अपने स्कूल सुबह सात बजे ही चली जाती थीं सो छोटी दीदी को ही घर का सारा काम करना पड़ता था | इसी से वह दोबारा सब्जी बनाने में आनाकानी कर रही थीं और वैसे भी गोभी तो बाजार से मँगवाना ही पड़ता |

"क्यों , क्या गोभी नहीं है ? ....अच्छा ....ऐसा करो, मेरे लिए कुछ भी बनाने को रहने दो | मैं आज बाहर ही खा लूँगा |" श्रीमान जी के नथुने फूल गए |

"लेकिन जीजाजी ..." छोटी दीदी उनके इस अप्रत्याशित व्यवहार से सकपका गईं |

"बस अब कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है | मैं होटल में ही खा लूँगा |"और श्रीमानजी बंदूक से छुटी गोली की तरह जो सुबह दस बजे बाहर निकले तो शाम को छह बजे ही घर वापस आए | बाद में पता चला कि श्रीमानजी होटल नहीं बल्कि अपने ही किसी मित्र के घर चले गए थे और वहीं खाना खाकर उन्होंने अपनी जेब हल्की होने से बचा ली थी |

रात में खाने में दाल बनी तो उसमे श्रीमान जी को आटा मिला होने का संदेह हुआ | "क्यों भावना, दाल में क्या आटा मिलाया है ?"

"नहीं जीजाजी, दाल ही गाढ़ी बनी है |" छोटी दीदी ने मन में कुढ़ते हुए मगर ऊपर से शांत भाव से उत्तर दिया |

श्रीमान जी के इस अप्रत्याशित प्रश्न पर घर के सभी सदस्य एक- दूसरे का मुँह देखने लगे | इस बार मैं भी चुप नहीं बैठा | मैंने मजाक करते हुए अपने मन की भड़ास निकाल ही दी - क्यों जिज्जी, जीजाजी की दाल को गाढ़ा करने के लिए आप क्या आटा मिलाती हो ?" मेरी इस बात पर श्रीमान जी का मुँह देखने लायक था |

श्रीमान जी को आए एक सप्ताह बीत चुका था | मैं उन सबके जाने के लिए ऑटो ले आया था | श्रीमान जी के रण-बाँकुरे चंचल और शरारती नज़रों से हम सबको देख रहे थे | जिज्जी तो माँ से गले मिलकर भावुक हो रही थीं | इस एक सप्ताह में हम सबके बीच तरह-तरह के अनुभवों ने हमें एक-दूसरे के कितना पास या दूर ला दिया था, यह तो हम अपने मन में ही समझ सकते थे | खैर, अभिवादन के आदान-प्रदान के बाद श्रीमान जी जिज्जी और बच्चों के साथ ऑटो में सवार हो गए और हम उनके ऑटो को जाते हुए तब तक देखते रहे जब तक कि वह हमारी आँखों से ओझल न हो गया |

श्रीमान जी को विदा करके जब हमने घर में क़दम रखा तब हमें लगा कि जैसे अचानक आया हुआ तूफ़ान थम चुका है | तूफ़ान का अब कहीं कोई अस्तित्व नज़र नहीं आ रहा था लेकिन तूफ़ान के दौरान हुई त्रासदी अब भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी | टूटे हुए फूलदान, सजावटी अलमारी का उजड़ा हुआ सिंगार, घर का अस्त-व्यस्त सामान, उजड़ा हुआ लॉन और बैट-बॉल खेलने के कारण बॉल के लगने से खिड़की का टूटा हुआ काँच.....यह सब कुछ गुजर चुके तूफ़ान की दास्तान बिना जुबान के ही बयान कर रहे थे |

और आज, लगभग बारह वर्षों के बाद श्रीमान जी हमारे घर फिर पधारे हैं लेकिन इस बार वह काफी-कुछ बदले हुए नज़र आए | उनके व्यवहार में अब काफी परिवर्तन आ चुका है | उनकी दूरबीननुमा आँखें अब साधारण लैंस बनकर रह गई हैं | कुरेद-कुरेदकर बात करने की उनकी शैली अब लुप्त हो चुकी है | इस बदलाव का कारण शायद ज़िंदगी के वे कटु-अनुभव ही हैं जिनके चलते हर इंसान को कभी न कभी ठोकर खानी ही पड़ती है | हमारी तरह और किसी ने उनकी आरती तो नहीं ही उतारी होगी, इस बात का हमें पूरा यकीन है | रिश्तों को अपनी सीमा में रहकर प्रेम और अपनेपन से निभाया जाए तो रिश्तो में शहद सी मिठास घुल जाती है अन्यथा वही रिश्ते नीम से कड़ुए प्रतीत होते हैं | अक्सर हम बड़े लोग भी बचकानी हरकतें कर बैठते हैं और उसका खामियाजा हमें अपने रिश्ते की बलि देकर चुकाना पड़ता है |

हमने भी सोंच लिया है कि इस वाक्य "अतिथि देवो भव " को एक सीमा तक ही स्वीकार करना चाहिए | इतना नहीं कि अतिथि आपकी चाँद गंजी कर दे और आप तब भी कहते रहें - "अतिथि देवो भव | अतिथि देवो भव "