Sanmarg me chalne ki salaah in Hindi Magazine by sushil yadav books and stories PDF | सन्मार्ग में चलने की सलाह

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सन्मार्ग में चलने की सलाह

सन्मार्ग में चलने की सलाह

सुशील यादव

जितनी मेरी उमर है लगभग उतने सालों से (चलिए ,दो एक कम कर लीजिए) मै चलने-चलाने के नाम पर एक ही रिकार्ड सुनते आया हूँ , सन्मार्ग में चलो, सन्मार्ग में चलो |

सन्मार्ग क्या होता है, शुरू-शुरू में मै समझा भी नहीं करता था|

सन्मार्ग के नाम पर शहर कि गलियों के ख़ाक छानता कि किसी एक रास्ते में इस नाम का बोर्ड लिखा होगा | मगर वो बात बचपन की नासमझी के सिवा कुछ न था |

हाँ, साफ–सुथरी गलियाँ, शहर के सिविल लाइन इलाके में दिख जाती | यहां शहर के सभ्रांत–जनो का निवास हुआ करता था | थोड़ा –बहुत इसे ही सन्मार्ग-टाइप समझ के, रोज एक चक्कर मार लिया करता |

इस चक्कर मारने के चक्कर में, सिविल लाइन्स के हर एक घर के नेमप्लेट, वहा रहने वालो के केरेक्टर -कुत्तों को जानने लग गया था |

जब कुछ बड़ा हुआ तो ये लगने लगा कि जिस रास्ते पर मै चल रहा हूँ वो किसी मायने में सन्मार्ग है ही नहीं | केवल साफ सुथरे रास्ते को सन्मार्ग का पर्यायवाची मान लेना सरासर गलत था |

जैसे-जैसे समझ बढ़ी हर राह गलत लाने लगा, यूँ महसूस होता कि हर रास्ता झूठा है, मिथ्या है, शार्टकट है | वो रास्ता जो आसान है, इसलिए भले ही किसी नाम से जाना जाए , सन्मार्ग–रोड जैसे नाम का ‘टायटल-याप्ता’ हो नहीं सकता |

उन दिनों स्वयं से ये तर्क भी करता था कि शायद कठिन रास्तों को सन्मार्ग माना जाता होगा ?

सब लोगों के चलने वाला सहज राह, कभी सन्मार्ग नहीं हो सकता | ये किताबी ज्ञान, सामान्य-जन के माफिक मन में भी जिस रस्ते आया उसका अंत मैंने किसी मंदिर के चौखट में होते देखा |

मैंने ये मह्सूस किया कि, इक्का-दुक्का जिस पगडंडी को इस जिद से पकड़ लें, कि चलो कहीं तो जा के रास्ता खुलेगा, या वे जो अक्सर, दाढ़ी के चार –छ:-दस इंच बढने तक, फकत घूमते रहते हैं, अपने –आप सन्मार्गी की श्रेणी में ले आते हैं |

मैंने ऐसा कभी, न देखा न सुना कि अमुक सन्मार्गी हुए और उधर ही मर –खप गए |

नहीं, सभी सन्मार्गी, बदले हुए छोले में वापस आते हैं |

वे अपना चेला बनाते हैं |

अपने गुरुत्व के गुरुत्वाकर्षण का बोध कराते हैं |

वे अब सम्मान पाने के लिए, जुलूस में भाग लेने के लिए, ‘अगुवा टाइप’ प्रमुख, सम्माननीय बन गए होते हैं|

वे बने हुए मंच पर, ज्ञान का पिटारा खोलने के उस्ताद - माहिर हो गए होते हैं|

वे गुमे हुए कुत्ते से लेकर, गड़े हुए धन का पता शर्तिया बता देने का दावा करते हैं |

वे आइन्सटाइन के ‘प्रकाश की गति’ से भी तेज गति से लोगो को ‘ब्रम्हान्ड’ की परिक्रमा करवा देते हैं | हर विज्ञान की पकड़ इन्ही के पास होती है | वे केंसर ,टी.बी.हार्ट, लंग, लीव्हर के पारखी होते हैं | इनके इलाज से मरीजो को स्वस्थ होते सुना जाता है |

लोग सन्मार्गी बनाए जाते हैं, ऐसी मेरी धारणा थी | ये भी सोचता था कि सन्मार्ग धारण करने में पाँव में कंकर –कांटे चुभते हैं, यहाँ शोर्टकट वाला कोई फार्मूला नहीं होता|

ऐसे महा-अवतारीयों के इंटरव्यू पढने- सुनने के लिए मै अक्सर, मेक्जीन-टी.व्ही खंगालते रहता हूँ |

स्कुल के दिनों से मै उत्पाती किस्म का था | बस्ता फ़ेंक के सीधे खेलने बच्चो के बीच जा घुसता |

हमें खिलाव, नहीं तो खेल बिगाड़ देंगे वाले तर्ज पर, अड जाते | हमे अड़ा देख, वे मजबूरन हमें, किसी दाम देने वाले, पाले की तरफ धकिया देते |

पिताजी को हमारे उछल-कूद की, दिन–भर की रिपोर्ट जाने कहाँ से मिल जाया करती, वे मेरे भविष्य को लेकर चिंतित दीखते | अम्मा के कहने पर, कि इनके कदम बहक रहे हैं, मुझे अच्छे से अच्छा जूता ला के देते, कि चलो, बेटा अच्छी संगत में अच्छे रास्ते चल निकलेगा |

मै उन जूतों को पहन के हप्ते –भर बाद मंदिर जाता और बिना जुते के वापस लौटना पडता, क्योकि कोई न कोई अच्छे जुते देख के अपना पैर घुसा ही दिया होता ?

साम्यवाद का तडका कहीं भीतर लगा था, सब साथ के बच्चे या तो नंगे पैर या स्लीपर –चप्पल वाले थे, उनके बीच मै मिस-फिट हो जाउंगा ? ये अटपटापन कहाँ चल पाएगा ? इस इच्छा के चलते जुते गंवाने का अफसोस कभी हुआ हो ऐसा नहीं लगा | सो अच्छी तरह, आदत ही नहीं बनी, जूता पहन के चलने की |

बिना जुता ‘पहने-खाए’ आदमी की औकात पता नहीं लगती ? अच्छे जुते पहने हैं, तो बड़े आदमी-अफसर हो सकने का गुमान होता है | ज्यादा जूते खाए हों तो आपके दुरुस्त हाजमे, अच्छी सहन शक्ति और पहुचे हुए ‘भाई’ होने का बयान किसी से पूछना नहीं पडता |

हमारे बगैर जूतों के पैर, हवाई चप्पल में अपना इम्प्रेशन कभी नहीं छोड़ पाई है , अक्सर शापिंग –माल, सिविल –लाइंसऔर राजपथ में, धकिया दिए जाते हैं |

किसी भी इंटरव्यु में हमारे दो-चार नम्बर, जूता-विहीन असंस्कृत, असभ्यता के नाम पर, यूं ही कट जाते रहे |

बिना जूतों के, मानो हम, बीच में फंसे त्रिशंकू हो गए |

कभी-कभी ये मलाल होता है कि पिताजी के दिए ‘जूतों’ को सर-माथे लगा के पहन लिए होते तो अवश्य ही कहीं, साहिबी कर रहे होते |

अगर जुता परहेजी ही थे, तो कम से कम ,चप्पल भी नहीं पहनते , नंगे पैर किसी पगडंडी पकड के घूम –घाम के लौट आए होते, तो यकीनन आज एक सन्मार्गी दढियल सिद्ध-पुरुष होते |

इस हालत में, कम से कम इतनी तो क्षमता होती कि, देश को सन्मार्ग की पटरी पर लाने का भुलावा देकर किसी ‘मरणासन्न-पार्टी’, को कुछ वोट बटोर के दे पाते ?