यह कहानी उन लोगों के अनुभव को साझा करती है जो बचपन से चुप रहने की आदत में रहे हैं। बीपीएल और ओबीसी वर्ग के छात्रों को स्कूल, हॉस्टल, खेल और राजनीति में अपनी बात कहने का अधिकार नहीं मिला। विरोध करने पर निकाले जाने का खतरा था और आंदोलनों में भाग लेने पर पुलिस की बर्बरता का सामना करना पड़ता था। लेखक अपनी जुबान को एक 'चपकन्हा ताले' के समान मानते हैं, जिसे किसी भी समय बंद किया जा सकता था। जब जुबान बंद हो जाती थी, तो वह केवल 'आका' के आदेश पर ही खुलती थी। उस समय की परंपरा यह थी कि वचन देने का मतलब था कि व्यक्ति अपनी जुबान को हमेशा के लिए बंद रखना। कहानी इस बात पर भी जोर देती है कि उस समय लोगों की आवाज को दबाना एक आम प्रथा थी। लेखक खुद को उस परंपरा की अंतिम पीढ़ी के रूप में देखते हैं, जहां समाज के ठेकेदार, माता-पिता, शिक्षक, अधिकारी और पुलिस ने उनकी आवाज को बंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अपनी तो ये आदत है
by sushil yadav in Hindi Magazine
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Description
हमारी जुबान को एक धमकी में कोई भी, किसी भी वक्त बंद करवा सकता था एक बार बंद हो जाने के बाद हमारी जुबान ,बंद करने वाले ‘आका’ की हो जाती थी आका जब तक न चाहे नही खुलती थी सैकड़ो राज को दफन करके रखने का उस जमाने जैसा प्रचलित ‘आर्ट.’ आज के लोगों को आता कहाँ है ये वो जमाना था कि किसी को जुबान दे दी का मतलब, मरते दम तक किसी से कुछ नहीं कहेंगे, टाइप का होता था
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