इंद्रधनुष सतरंगा

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हिलमिल मुहल्ले को लोग अजायब घर कहते हैं। इसलिए कि यहाँ जितने घर हैं, उतनी तरह के लोग हैं। अलग पहनावे, अलग खान-पान, अलग संस्कार, अलग बोली-बानी और अलग धर्म-वर्ण के। सचमुच, यह मुहल्ला और मुहल्लों से बिल्कुल अलग है। यहाँ के लोगों में प्रेम और अपनत्व का रंग बहुत गाढ़ा है। वे एक-दूसरे की ख़ैर-ख़बर रखते हैं ख़ुशियों में शामिल होते हैं दुख-तकलीफ में साथ देते हैं साथ उठते-बैठते हैं हँसी-मज़ाक़ करते हैं एक-दूसरे का हाथ बँटाते हैं।

Full Novel

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इंद्रधनुष सतरंगा - 1

हिलमिल मुहल्ले को लोग अजायब घर कहते हैं। इसलिए कि यहाँ जितने घर हैं, उतनी तरह के लोग हैं। पहनावे, अलग खान-पान, अलग संस्कार, अलग बोली-बानी और अलग धर्म-वर्ण के। सचमुच, यह मुहल्ला और मुहल्लों से बिल्कुल अलग है। यहाँ के लोगों में प्रेम और अपनत्व का रंग बहुत गाढ़ा है। वे एक-दूसरे की ख़ैर-ख़बर रखते हैं ख़ुशियों में शामिल होते हैं दुख-तकलीफ में साथ देते हैं साथ उठते-बैठते हैं हँसी-मज़ाक़ करते हैं एक-दूसरे का हाथ बँटाते हैं। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 2

जून की रात थी। हवा ठप थी। गर्मी से हाल-बेहाल हो रहा था। मौलाना रहमत अली दरवाजे़ खडे़ पसीना रहे थे। ‘‘ओफ्रफोह! आज की रात तो बड़ी मुश्किल से कटेगी--------’’ ‘‘हाँ, जी सही कहा,’’ पटेल बाबू जाते-जाते खडे़ हो गए, ‘‘अब तो बस एक गर्मी का ही मौसम रह गया है। बाक़ी तो सब नाम के हैं।’’ ‘‘कल टी0वी0 बता रहा था कि इस बार गर्मी ने पिछले पचास सालों का रिकार्ड तोड़ा है।’’ ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 3

‘‘अरे मौलाना साहब, कर्तार जी! सब आ जाओ, जल्दी!’’ एक दिन घोष बाबू ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे। आवाज़ सुनकर जिस हालत में था, वैसा ही निकल भागा। मौलाना साहब अलीगढ़ी पाजामे पर आधी बाँहोंवाली बनियान पहने स्कूटर धुलने में लगे थे। पटेल बाबू जालीदार बनियान और फूल छपी लुंगी पहने आराम फरमा रहे थे। कर्तार सिंह नहा-धोकर बाल सुखा रहे थे। गायकवाड़, मोबले, पुंतुलु आदि भी अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। पर घोष बाबू की आवाज़ सुनी तो काम छोड़कर सब दौड़े आए। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 4

शाम को जब सारे लोग पार्क में टहल रहे थे तो घोष बाबू ने कहा, ‘‘आज कितना सूना-सूना लग है।’’ ‘‘हाँ, सचमुच,’’ गायकवाड़ उदासी से बोले। ‘‘पंडित जी हम लोगों के बीच उठते-बैठते ही कितना थे? पर आज उनके न होने से कितनी कमी महसूस हो रही है।’’ पटेल बाबू बोले। ‘‘अरे यार, तुम सब कैसी बातें कर रहे हो? पंडित जी हमेशा के लिए थोड़े ही गए हैं, आ जाएँगे दो एक दिनों में।’’ घोष बाबू ने माहौल हल्का करने की कोशिश में कहा। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 5

आधी रात का वक़्त था। सारा मुहल्ला नींद में खोया हुआ था। चारों तरफ सन्नाटा था। अचानक कर्तार जी दरवाजे़ पर किसी ने दस्तक दी। कर्तार जी चौंक उठे। उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने घोष बाबू खड़े थे। उन्हें बड़ी हैरत हुई। ‘‘ओए की हो गिआ तुहानू? एनी रात नूँ?’’ कर्तार जी कभी-कभी जब हैरत में होते, या गुस्सा करते, तो ठेठ पंजाबी बोलने लगते थे। ‘‘पुंतुलु की तबीयत बहुत ख़राब है। उल्टियाँ बंद नहीं हो रहीं। जल्दी चलिए, अस्पताल ले चलते हैं। भगवान न करे कहीं कुछ ऐसा-वैसा---’’ ...Read More

6

इंद्रधनुष सतरंगा - 6

कर्तार जी को अगर कोई सोता हुआ देख ले तो उसे यह समझते देर नहीं लगेगी कि घोड़े बेचकर किसे कहते हैं। कर्तार जी वैसे तो शाँत प्रकृति के व्यक्ति हैं, पर जब सोते हैं तो सारा मुहल्ला सिर पर उठा लेते हैं। इतनी ज़ोर-ज़ोर खर्राटे भरते हैं कि अगल-बग़लवालों का सोना मुश्किल हो जाता है। सोते समय वह अपनी पगड़ी उतारकर किनारे रख देते हैं। लंबे-लंबे बाल खुलकर कंधों पर बिखरते हैं, तो लगता है जैसे पहाड़ पर साँझ का अंधेरा घिर आया हो। एक रात की बात है। कोई डेढ़-दो बजे का समय था। अमावस का आसमान एकदम साफ खुला हुआ था। तारे चंपा के फूलों की तरह बिखरे हुए थे। शाँत वातावरण में कर्तार जी के खर्राटे ऐसे गूँज रहे थे जैसे बियाबान में शेर की दहाड़। बीच-बीच में झींगुर उनसे होड़ लेने की कोशिश करते थे। पर वे भी बेचारे कब तक अपना गला बैठाते। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 7

जून ख़त्म होने को था। पर आसमान से जैसे आग बरस रही थी। बादलों का नामोनिशान तक न था। होती तो सूरज आग के गोले की तरह आ धमकता। किरणें तीर जैसी चुभने लगतीं। लोग गर्मी से त्रहि-त्रहि कर उठते। एक दिन कर्तार जी घर के पिछवाड़े बैठे कुछ बुदबुदा रहे थे। उसी समय मौलाना साहब वहाँ पहुँच गए। कर्तार जी को मगन देखकर वह एक ओर चुपचाप खड़े हो गए। कर्तार जी कपड़ों से बनी गुड्डा-गुडि़या लिए गुनगुना रहे थे-- ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 8

रात भर ख़ूब बारिश हुई। लू-धूप की तपी धरती हुलस उठी। पेड़-पौधों पर हरियाली लहलहा उठी। गड्ढे और डबरे हो उठे। मौसम सुहाना हो गया। आज जहाँ सब लोग घर में बैठे रिमझिम का आनंद उठा रहे थे, वहीं कर्तार जी घुटनों तक लंबा जाँघिया पहने आँगन में भर आया पानी बाल्टी भर-भर उलीच रहे थे। उनका आँगन तालाब बन गया था। कर्तार जी ने पगड़ी उतार रखी थी इसलिए उनके बड़े-बड़े बाल कंधों तक बिखर गए थे। एकाएक कोई देखता तो उन्हें पहचानना मुश्किल होता। वह बाल्टी भर-भरकर फेंकते जा रहे थे और बड़बड़ाते जा रहे थे। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 9

शुरू-शुरू में तो ऐसा लगता था कि इस साल सूखा पड़ जाएगा, पर बारिश होना शुरू हुई तो शहर चेरापूँजी बना डाला। आसमान जैसे बादलों के बोझ से झुक आया था। बारिश के तरसे लोग अब रोज़-रोज़ की बदली-बूँदी से ऊबने लगे थे। हफ्रता बीत चला था पर सूरज के दर्शन नहीं हुए थे। हर तरफ कीचड़-पानी की किचकिच फैली हुई थी। पानी थमा देखकर मौलाना साहब ने स्कूटर निकाला ही था कि ताक में बैठे मोबले दौड़े आए। ...Read More

10

इंद्रधनुष सतरंगा - 10

‘‘साहब, मेरा नाम बानी है। सोलह बरस की उम्र से यह काम कर रहा हूँ।’’ फेरीवाला कर्तार जी को रहा था। वह अधलेटे उसकी बात सुन रहे थे। ‘‘घर पर कौन-कौन है?’’ ‘‘पत्नी है। पाँच बच्चे हैं। एक बिटिया है। बस, उसके हाथ पीले करने की फिकर खाए रहती है। देखिए, ऊपरवाले की कृपा कब होती है। साहब, हम लोग तो ऊपरवाले के भरोसे ही जीते हैं।’’ फेरीवाला बताता जा रहा था और कनखियों से कर्तार जी पर उसका असर भी देखता जा रहा था। ...Read More

11

इंद्रधनुष सतरंगा - 11

‘‘साहब, यह देखिए, असली सूती क़ालीन। सबसे महँगा। विलायत में बड़ी क़ीमत में बिकता है।’’ बानी कर्तार जी को क़ालीन दिखा रहा था। ‘‘सचमुच, बड़ा सुंदर है!’’ कर्तार जी उसे छूकर देखते हुए बोले। ‘‘इसमें गुन भी बहुत हैं, साहब। जब इसे फर्श पर बिछाएँगे इसकी ख़ूबियाँ तब पता चलेंगी। हर मौसम में आरामदायक है--जाड़ा हो या गर्मी। रंग भी पक्का है। ऊनी क़ालीन दिखने में भले ही चमक-दमक वाले होते हैं, पर गर्मियों में तकलीप़फ़ देते हैं।’’ ...Read More

12

इंद्रधनुष सतरंगा - 12

दोपहर को मौलाना साहब जब लौटकर आए तो धरमू उनके तख़त पर पाँव पसारे सो रहा था। यह तख़त साहब की यह ख़ास आरामगाह थी। जाड़ा छोड़कर वह बाक़ी दिनों में यहीं लेटते थे। दो कमरों की संधि पर पड़े होने के कारण तख़त के दोनों तरफ दीवारें थीं। सामने आँगन की कच्ची ज़मीन पर नीम का पेड़ लगा था, जिसका साया पूरे बरामदे को ठंडा रखता था। तख़त के एक तरफ किताबें, रेडियो और सामने स्टूल पर पानी और ब्लड प्रेशर की दवाइयाँ रखी रहती थीं। नीचे सुराही, वजू़ का लोटा और चप्पलें होती थीं। ...Read More

13

इंद्रधनुष सतरंगा - 13

अगले दिन स्कूल से लौटते समय मौलाना साहब पंडित जी के दरवाज़े रुक गए। सोचा पंडित जी के हाल-चाल चलें। मन में यह भी था कि पंडित जी संकोची प्रवृत्ति के आदमी हैं, कहीं बरन के कारण परेशान न हो रहे हों। चलकर देख-भाल भी लें। मौलाना साहब का स्कूटर रुका तो बरन ने खिड़की खोलकर झाँका। दोनों की नज़रें मिलीं। उसने फिर खिड़की बंद कर ली। मौलाना साहब धूप में खड़े दरवाज़ा खुलने का इंतज़ार करते रहे। उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया नहीं। सोचा था बरन सूचना दे ही देगा, या ख़ुद आकर दरवाज़ा खोल देगा। पर जब खड़े-खड़े पाँच मिनट हो गए तो उन्होंने बढ़कर घंटी बजा दी। ...Read More

14

इंद्रधनुष सतरंगा - 14

बारिश अभी-अभी थमी थी। लेकिन बादल पानी का बोझ लिए आसमान में ऐसे डटे थे कि लगता था अब कि तब। बारिश थमी देख मोबले दौड़े आए। ‘‘मौलाना साहब, जल्दी निकल लीजिए, वर्ना बारिश फिर से शुरू हो जाएगी।’’ मौलाना साहब शेरवानी पहन रहे थे। आवाज़ सुनकर भी उन्होंने निगाहें नहीं उठाईं। बटन बंद करते हुए बोले, ‘‘हाँ, सही कहा। फौरन स्कूटर निकाल लो। आज तुम्हारे स्कूटर से चलेंगे।’’ ...Read More

15

इंद्रधनुष सतरंगा - 15

मुहल्ले की ख़ुशियों को जैसे ग्रहण लग गया। लोग हँसना-मुस्कराना भूल गए। हँसी-मज़ाक़, चुहल-ठिठोली जैसे बीते ज़माने की बात गई। लोग एक-दूसरे के सामने पड़ने से कतराने लगे। एक-दूसरे को देखकर राह बदल देते। हमेशा गुलज़ार रहने वाला मुहल्ला सुनसान हो गया। लोग दरवाजे़ बंद करके अपने आप में सिमट गए। दूसरों के सुख-दुख से आँखें फेर लीं। ...Read More

16

इंद्रधनुष सतरंगा - 16

‘‘घोष बाबू!’’ आतिश जी ने लगभग हाँफते हुए अंदर प्रवेश किया, ‘‘एक ज़रूरी काम से निकल रहा था, आपका आया तो भागा आया।’’ ‘‘क्यों, ऐसी क्या बात हो गई?’’ घोष बाबू ने पूछा। ‘‘अरे---भूल गए?’’ ‘‘क्या?’’ घोष बाबू ने दिमाग़ पर ज़ोर डालने की कोशिश की। ‘‘आज सत्ताइस तारीख़ है।’’ ‘‘तो---?’’ ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 17

मोबले का एक्सीडेंट हो गया। बुधवार के दिन चौक में बड़ी भीड़ रहती थी। उस दिन बुध-बाज़ार लगती थी। फुटपाथ पटरियों पर सस्ते सामानों की दूकानें सजती थीं। महँगाई के मारे लोग, एकदम उमड़ पड़ते थे। उस दिन भीड़ के डर से लोग गाडि़यों का रास्ता बदल देते थे। ग़लती से कोई मोटर-गाड़ीवाला भीड़ में फँस जाए तो इंच-इंच सरकने में उसे पसीने आ जाते थे। और भीड़ भी कैसी--औरतें, बच्चे, बूढ़े, कटोरा लिए भिखारी, बीच सड़क पर आराम फरमाती गाय। ...Read More

18

इंद्रधनुष सतरंगा - 18

मोबले शाम तक अस्पताल में रहे। उन्हें देखने कोई नहीं आया, अलावा आतिश जी के। उन्हें आधे घंटे बाद ख़बर हो गई थी। फौरन भागे आए। हालाँकि उन्हें अख़बार के लिए एक ज़रूरी रिपोर्ट तैयार करनी थी। समय भी कम था। लेकिन सुना तो रहा न गया। अपने सहायक को काम पकड़ाकर दौड़े आए। सोचा था मुहल्ले से कोई न कोई आ ही जाएगा। उसके आते ही वह लौट आएँगे। पर इसी प्रतीक्षा में दिन बीत गया और कोई न पहुँचा। ...Read More

19

इंद्रधनुष सतरंगा - 19

आतिश जी सोकर उठे तो बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। शरीर में स्फूर्ति और ताज़गी भरी हुई थी। से हुई नोंक-झोंक का तनाव मन से निकल चुका था। नहा-धोकर तैयार बाहर निकले तो मौलाना साहब से मिल आने का मन हुआ। मौलाना साहब के घर पहुँचे तो वह अपने ख़ास तख़त पर बैठे हुए थे। हमेशा आँखों पर चढ़ा रहने वाला चश्मा उतार रखा था। खंभे की टेक लगाए स्टूल पर धरमू बैठा था। दोनों लोग कुछ बातें कर रहे थे। उन्हें आता देख वे चुप हो गए। धरमू उठकर अंदर चला गया। ...Read More

20

इंद्रधनुष सतरंगा - 20

‘‘क्या हुआ पुंतुलु, भाई? इतना परेशान क्यों दिख रहे हैं?’’ आतिश जी ने खिड़की से झाँककर पूछा। ‘‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई नहीं है।’’ पुंतुलु मुस्कराने का असफल प्रयास करते हुए बोले। ‘‘कुछ बात तो ज़रूर है,’’ आतिश जी अंदर आ गए, ‘‘अभी जब इधर से निकला तो आपके हाथों में यह लिफाफा था और अब दस मिनट बाद वापस आ रहा हूँ तो भी यह आपके हाथों में लहरा रहा है। क्या है इस लिफाफे में?’’ ‘‘लो, खुद ही देख लो।’’ ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 21

पंडित जी को दोपहर में सोने की आदत नहीं थी। गर्मियों की अलस दोपहरी में जब मुहल्ले की गलियों खर्राटे गूँज रहेे होते तो पंडित जी किसी न किसी काम में जुटे होते। दोपहर में सोने से उन्हें सख़्त चिढ़ थी। गर्मियों में वह घड़ी भर के लिए लेट भी जाते थे, पर बारिश की उमस में सोना उनके लिए असंभव बात थी। एक दिन वह पुस्तकों की अलमारी साफ करने में जुटे हुए थे। तभी दरवाजे़ पर दस्तक हुई। धूल और पसीने से अँटे हुए पंडित जी ने अनमने ढंग से दरवाज़ा खोला तो सामने पोस्टमैन खड़ा था। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 22

बारिश के मौसम में यूँ तो आँधी नहीं आती, पर कभी-कभी पुरवाई पेड़-पौधों को ऐसा गुदगुदाती है कि वे लोट-लोट जाते हैं। ऐसे में अगर धूप की आस में कपड़े छत पर फैले हों तो उन्हें पतंग बनते देर नहीं लगती। गायकवाड़ के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। उन्होंने कपड़े धुलकर छत पर फैला रखे थे। शरारती हवा ने उन्हें उठाकर पटेल बाबू के आँगन में उछाल दिया। ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 23

कर्तार जी को दिल्ली जाना था। आतिश जी ने उनका रिज़र्वेशन करा दिया था। कर्तार जी एजेंसी के कामों से दिल्ली आया-जाया करते थे। उनकी यात्रएँ इतनी अचानक और हड़बड़ी भरी होती थीं कि रिज़र्वेशन करा पाना मुश्किल होता था। ज़्यादातर उन्हें सामान्य डिब्बे में ही यात्र करनी पड़ती थी। सामान्य डिब्बे आमतौर पर भीड़ से खचाखच भरे होते थे। तिल रखने की भी जगह नहीं होती थी। कर्तार जी को प्रायः उसी भीड़ में यात्र करनी पड़ती। कर्तार जी छः फिट के हट्टे-कट्टे आदमी थे। किसी को कसकर डपट दें तो वह ऐसे ही सीट छोड़कर खड़ा हो जाए। ...Read More

24

इंद्रधनुष सतरंगा - 24

मोबले का स्कूटर बिगड़ गया। सुबह-सुबह स्कूटर निकालकर चले ही थे कि मौलाना साहब के दरवाजे़ तक पहुँचते-पहुँचते वह ‘घुर्र-घुर्र’ बंद हो गया। स्कूटर अभी नया था। उसे ख़रीदे साल भर भी नहीं हुआ था। आमतौर पर वह एक किक में स्टार्ट हो जाता था, पर आज किक लगाते-लगाते मोबले हैरान हो गए । ...Read More

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इंद्रधनुष सतरंगा - 25 - Last Part

दो दिन बाद पंद्रह अगस्त था। आतिश जी पार्क में अकेले खड़े थे। बीती हुई यादें मन में उमड़-घुमड़ रही पहले पंद्रह अगस्त की तैयारियों में सभी लोग जुटते थे। पार्क की पूरी सपफ़ाई होती थी। बाउंड्री-वॉल तो थी नहीं, किनारों पर तिरछे-तिरछे ईंट गड़े हुए थे। उन्हें रंगा जाता था। किनारे-किनारे पड़ी पत्थर की बेंचों को पेंट किया जाता था। पूरे मैदान की सपफ़ाई होती थी। बारिश में उग आई बड़ी-बड़ी घास सापफ़ करके ज़मीन समतल की जाती थी। झंडा लगाने के लिए पार्क के बीचो-बीच एक ऊँचा चबूतरा-सा बना था। उसकी सफाई कर उसके आस-पास चूना डाला जाता था। ...Read More