‘‘सलोनी!’’ किवाड़ तो बन्द थे..., अन्दर कैसे घुस गई...! मैंने ही किये थे इन्हीं हथेलियों से .... तुम रोई थी... छटपटाई थी.... तड़फ कर कितना कुछ कह रही थी... आकुल तुम्हारी हिरनी आँखों की याचना... ‘‘...मुझे नहीं सुननी कोयल की कूक... जंगल की हिरनी से बहुत बहुत डर जाती हूँ.... बसंत की अमराई... फूलों की मादक गंध, भौंरो का गुनगुन फूलों पर बैठना, चूसना रस... फूल फूल पर इतराते इठलाते यह कमबख्त बसंत आता ही क्यों है, इस रेत के शहर में...’’ रचना बुदाबुदा रही है किससे बातें कर रही है - अपने आप से... अपने भीतर की उस रचना से जिसने सलोनी के जाने पर खुद को कई कोणों से सजा दी थी...
Full Novel
नदी बहती रही.... - 1
‘‘सलोनी!’’ किवाड़ तो बन्द थे..., अन्दर कैसे घुस गई...! मैंने ही किये थे इन्हीं हथेलियों से .... तुम रोई थी... थी.... तड़फ कर कितना कुछ कह रही थी... आकुल तुम्हारी हिरनी आँखों की याचना... ‘‘...मुझे नहीं सुननी कोयल की कूक... जंगल की हिरनी से बहुत बहुत डर जाती हूँ.... बसंत की अमराई... फूलों की मादक गंध, भौंरो का गुनगुन फूलों पर बैठना, चूसना रस... फूल फूल पर इतराते इठलाते यह कमबख्त बसंत आता ही क्यों है, इस रेत के शहर में...’’ रचना बुदाबुदा रही है किससे बातें कर रही है - अपने आप से... अपने भीतर की उस रचना से जिसने सलोनी के जाने पर खुद को कई कोणों से सजा दी थी... ...Read More
नदी बहती रही.... - 2
सलोनी-शेखर को एक साथ जाते देखती तो प्रश्नों के तीर मारती, उनके चेहरे की भाव भंगिमा देखकर रचना धीरे कहती दोनों बचपन से दोस्त हैं... इसीलिए शेखर सलोनी को लेने आता है... उसको आत्मग्लानि भी होती ‘‘उसे सफाई क्यों देनी पड़ती है गो कि शेखर-सलोनी मुजरिम हों... और ये जज...? तभी एक अदृश्य आवाज उसकी विचारधारा का गला घोंटने बढ़ती ’’आदिम सभ्यता की सीढ़ी पार चुके हैं हम... ...Read More