काँटों से खींच कर ये आँचल

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क्षितीज पर सिन्दूरी सांझ उतर रही थी और अंतस में जमा हुआ बहुत कुछ जैसे पिघलता जा रहा था. मन में जाग रही नयी-नयी ऊष्मा से दिलों दिमाग पर जमी बर्फ अब पिघल रही थी. एक ठंडापन जो पसरा हुआ था अंदर तक कहीं दिल की गहराइयों में, ओढ़ रखी थी जिसने बर्फ की दोहर, आज स्वत: मानों गलने लगी थी । ये कहानी है रिश्तों की वो भी उन रिश्तों की जिन्हें लोग यूँ ही बदनामकर रखते हैं। पर जो रिश्तों को छक कर जीना जानते/चाहते हैं, वे खुशी ढूँढ ही लेते है। एक सम वयी विमाता क्या कभी माँबन सकती है? पढ़िए सुंदर शब्द संयोजन कहानी

Full Novel

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 1

क्षितीज पर सिन्दूरी सांझ उतर रही थी और अंतस में जमा हुआ बहुत कुछ जैसे पिघलता जा रहा था. में जाग रही नयी-नयी ऊष्मा से दिलों दिमाग पर जमी बर्फ अब पिघल रही थी. एक ठंडापन जो पसरा हुआ था अंदर तक कहीं दिल की गहराइयों में, ओढ़ रखी थी जिसने बर्फ की दोहर, आज स्वत: मानों गलने लगी थी. ...Read More

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 2

कैसी उजड़ी चमन की मैं फूल थी. क्या अतीत रहा है मेरा क्या जीवन था, मानों तप्त रेगिस्थान में कैक्टस. निर्जन बियावान कंटीली निरुद्देशय जीवन. अकेला, बेसहारा, अनाथ मैं और अकेलापन मेरी साथी मेरी हमदर्द. शायद गोद में ही थी जब एक सड़क दुर्घटना में अपने पापा और भाई को मैंने खो दिया. माँ की साड़ी के तहों में छिपी मैं बिना खरोंच जिन्दा बच गयी. माँ कुछ महीनों कोमा में जिन्दा रहीं, शायद मुझे अपना जीवन रस पिलाने हेतु ही. ...Read More

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 3

“रेगिस्तान में उगे किसी कैक्टस की ही भांति मेरा जीवन शुष्क और कंटीला है. संभल कर रहना अनुभा कहीं कांटे तुम्हें भी जख्मी ना कर दें”, इन्होने कहा तो मैं चौंक गयी कि कैक्टस पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है. वे बोल रहे थें और मैं सोच रही थी कि इससे पहले किसने मुझसे इतनी आत्मीयता से बात किया होगा. उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और विनीत हो कह उठे, “मेरी बिखरी गृहस्थी को समेट लो, मैं अब थक गया हूँ तुम अब संभाल लो. सुलभा के जाने के बाद मैंने अपना तबादला उस जगह से करा लिया. नहीं थी मुझमें इतनी हिम्मत कि लोगो के सवालों के जवाब दूँ” ...Read More

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 4

कार में सारे रास्तें उसे अपनी बाहों में ही मैं भरी रही, मेरी गोद उसके अश्रुओं से सिक्त होते घर पहुँचते पहुँचते वह बहुत रों चुकी थी और शायद कई दिनों से उसके मन में काई लगी रिश्तों की सड़ांध, ढेर लगा संकुचित पड़ी थी जो दृग-द्वार से विदा लेने को उत्सुक थीं. घर पहुँचते-पहुँचते उसका पुलकित हो मुस्कुराना उसके पापा और मुझे दोनों को राहत दे गया. ...Read More

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 5

बैठा रहा गुमसुम सा बहुत देर तक, भोला मासूम सा सर झुकाए. बहुत देर बाद सर उठाया तो कहा, “एक मैंने महेश अंकल के सामने अपनी मम्मा को, ‘मम्मा’ बोल दिया था तो वह बहुत नाराज हुईं थीं.....”. अचानक याद आ गयी अपनी वो चचेरी बहन जो मुझसे सीधे मुहं बात नहीं करती थी. उसे भी ऐसे ही एक दिन पढ़ा रही थी कि चाचीजी ने आ कर किताब फ़ेंक दिया और कहा कि “खबरदार जो इस अभागी के साथ दुबारा सर जोड़े बैठे देखा”. आंसू मेरे भी टपक पड़े उन दोनों के साथ. ...Read More

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काँटों से खींच कर ये आँचल - 6

अब अपने आगे के नौ महीने के अज्ञातवास की भी हमें पूरी तयारी करनी थी. एक भी चूक दीक्षा गृहस्थी के लिए घातक होती. उसी रात को दीक्षा ने रविश को बताया कि वह मेरे साथ जल्द ही सिडनी, ऑस्ट्रेलिया जाने वाली है. वह पहले भी अपने पापा के साथ घूमने जा चुकी थी. संयोग से उसका पासपोर्ट उसके साथ ही था. उसने उसे बताया कि वह वीसा के सिलसिले में दिल्ली जा रही है. ...Read More