पगडण्डी विकास

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हाय दिल्ली की सर्दी कह कर ठंड से कुड़कुड़ाने वाले लोग अगर एक बार महोबा के रेलवे स्टेशन पर रात गुजार लें, तो निश्चित ही कहेंगे ‘हाय महोबा की सर्दी। इससे तो अच्छी है अपनी दिल्ली की सर्दी।’ महोबा स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक की बेंच पर बैठा मैं ठंड से कांप रहा था। दिल्ली में पांच साल रह कर मैं वहां की पांच सर्दियां झेल चुका था। किंतु इतनी ठंड मैंने वहां कभी महसूस नहीं की थी। ना ही उतना कोहरा उन पांच सालों में मैंने वहां कभी देखा था जितना कि इकत्तीस दिसंबर की रात को उस वक्त वहां देख रहा था।

Full Novel

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पगडण्डी विकास - 1

हाय दिल्ली की सर्दी कह कर ठंड से कुड़कुड़ाने वाले लोग अगर एक बार महोबा के रेलवे स्टेशन पर गुजार लें, तो निश्चित ही कहेंगे ‘हाय महोबा की सर्दी। इससे तो अच्छी है अपनी दिल्ली की सर्दी।’ महोबा स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक की बेंच पर बैठा मैं ठंड से कांप रहा था। दिल्ली में पांच साल रह कर मैं वहां की पांच सर्दियां झेल चुका था। किंतु इतनी ठंड मैंने वहां कभी महसूस नहीं की थी। ना ही उतना कोहरा उन पांच सालों में मैंने वहां कभी देखा था जितना कि इकत्तीस दिसंबर की रात को उस वक्त वहां देख रहा था। ...Read More

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पगडण्डी विकास - 2

उस की इस बात पर मैं हंस पडा़। इस बीच उसने अपना परिचय भी दिया था। अपना नाम धीरज बताया था। मैंने हंसते हुए ही कहा-‘धीरज जी मैं किसी पार्टी से कोई संबंध नहीं रखता। मुझे ये सारी पार्टियां और नेता सबके सब एक से लगते हैं। क्यों कि मैं यह मानता हूं कि ये जो भी करते हैं वह वोट के लिए करते हैं। उनकी पार्टी को वोट कैसे मिले, वो कैसे जीतें यही उनका मकसद होता है। बस फ़र्क इतना है कि कोई कम है कोई ज़्यादा। ...Read More

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पगडण्डी विकास - 3

मैं वापस आकर बैठा ही था कि एनाउंसर की आवाज़ फिर गूंजी, यात्री गण कृपया ध्यान दें। मेरे कान हो गए। ध्यान से सुनने लगा कि कितनी देर में आ रही है ट्रेन। मगर जो एनाउंस हुआ उससे मैंने खीझ कर सिर पीट लिया। ट्रेन लेट नहीं हुई थी। कैंसिल कर दी गई थी। यह सुन कर प्लेटफॉर्म पर जो गिने-चुने यात्री बैठे थे ठंड से सिकुड़े, उन सब में एक हलचल सी उत्पन्न हो गई। धीरज उठकर फिर वहीं पिच्च से थूक कर आया। और मुझसे पूछा- ...Read More