सन इकत्तीस के शुरू होने में सिर्फ़ रात के चंद बरफ़ाए हुए घंटे बाक़ी थे। वो लिहाफ़ में सर्दी की शिद्दत के बाइस काँप रहा था। पतलून और कोट समेत लेटा था, लेकिन इस के बावजूद सर्दी की लहरें उस की हडीयों तक पहुंच रही थीं। वो उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे की सबज़ रोशनी में जो सर्दी में इज़ाफ़ा कर रही थी, ज़ोर ज़ोर से टहलना शुरू कर दिया कि उस का दौरान ख़ून तेज़ होजाए। थोड़ी देर यूं चलने फिरने के बाद जब उस के जिस्म के अंदर थोड़ी सी हरारत पैदा होगई तो वो आराम कुर्सी पर बैठ गया और सिगरेट सुलगा कर अपने दिमाग़ को टटोलने लगा। उस का दिमाग़ चूँकि बिलकुल ख़ाली था, इस लिए उस की क़ुव्वत-ए-सामा बहुत तेज़ थी।
Full Novel
जान मोहम्मद
मेरे दोस्त जान मुहम्मद ने, जब मैं बीमार था मेरी बड़ी ख़िदमत की। मैं तीन महीने हस्पताल में रहा। दौरान में वो बाक़ायदा शाम को आता रहा बाअज़ औक़ात जब मेरे नौकर अलील होते तो वो रात को भी वहीं ठहरता ताकि मेरी ख़बरगीरी में कोई कोताही न हो। ...Read More
जानकी -
पूना में रेसों का मौसम शुरू होने वाला था कि पिशावर से अज़ीज़ ने लिखा कि मैं अपनी एक पहचान की औरत जानकी को तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, उस को या तो पूना में या बंबई में किसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़मत करा दो। तुम्हारी वाक़फ़ीयत काफ़ी है, उम्मीद है तुम्हें ज़्यादा दिक़्क़त नहीं होगी। ...Read More
जिस्म और रूह
मुजीब ने अचानक मुझ से सवाल क्या: “क्या तुम उस आदमी को जानते हो?” गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था दुनिया में ऐसे कई अश्ख़ास मौजूद हैं जो एक मिनट के अंदर अंदर लाखों और करोड़ों को ज़र्ब दे सकते हैं, इन की तक़सीम कर सकते हैं। आने पाई का हिसाब चशम-ए-ज़दन में आप को बता सकते हैं। ...Read More
जेंटिलमेनों का बुरश
ये ग़ालिबन आज से बीस बरस पीछे की बात है। मेरी उम्र यही कोई बाईस बरस के क़रीब होगी, शायद इस से दो बरस कम। क्योंकि तारीख़ों और सनों के मुआमले में मेरा हाफ़िज़ा बिलकुल सिफ़र है। मेरी दोस्ती का हल्क़ा उन नौ-जवान पर मुश्तमिल था जो उम्र में मुझ से काफ़ी बड़े थे। ...Read More
झुमके
सुनार की उंगलियां झुमकों को ब्रश से पॉलिश कर रही हैं झुमके चमकने लगते हैं सितार के पास ही आदमी बैठा है झुमकों की चमक देख कर उस की आँखें तमतमा उठती हैं बड़ी बेताबी से वो अपने हाथ उन झुमकों की तरफ़ बढ़ाता है और सुनार कहता है “बस अब रहने दो मुझे” सुनार अपने गाहक को अपनी टूटी हुई ऐनक में से देखता है और मुस्कुरा कर कहता है “छः महीने से अलमारी में बने पड़े थे आज आए हो तो कहते हो कि हाथों पर सरसों जमा दूँ” ...Read More
झूटी कहानी
कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उन को ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाओ डालती रही थीं। इस बेदारी की लहर ने कई अंजुमनें पैदा करदी थीं। होटल के बेरों की अंजुमन। हज्जामों की अंजुमन। क्लर्कों की अंजुमन। अख़बार में काम करने वाले सहाफ़ीयों की अंजुमन। हर अक़ल्लियत अपनी अंजुमन या तो बना चुकी थी या बना रही थी ताकि अपने हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त कर सके। ...Read More
टू टू
मैं सोच रहा था। दुनिया की सब से पहली औरत जब माँ बनी तो कायनात का रद्द-ए-अमल किया था? के सब से पहले मर्द ने किया आसमानों की तरफ़ तिमतिमाती आँखों से देख कर दुनिया की सब से पहली ज़बान में बड़े फ़ख़्र के साथ ये नहीं कहा था। “मैं भी ख़ालिक़ हूँ।” टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। मेरे आवारा ख़यालात का सिलसिला टूट गया। बालकनी से उठ कर मैं अंदर कमरे में आया। टेलीफ़ोन ज़िद्दी बच्चे की तरह चिल्लाए जा रहा था। टेलीफ़ोन बड़ी मुफ़ीद चीज़ है, मगर मुझे इस से नफ़रत है। इस लिए कि ये वक़्त बेवक़्त बजने लगता है....... चुनांचे बहुत ही बद-दिली से मैंने रीसीवर उठाया और नंबर बताया “फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन।” ...Read More
टेटवाल का कुत्ता
कई दिन से तरफ़ैन अपने अपने मोर्चे पर जमे हुए थे। दिन में इधर और उधर से दस बारह किए जाते जिन की आवाज़ के साथ कोई इंसानी चीख़ बुलंद नहीं होती थी। मौसम बहुत ख़ुशगवार था। हवा ख़ुद रो फूलों की महक में बसी हुई थी। पहाड़ीयों की ऊंचाइयों और ढलवानों पर जंग से बे-ख़बर क़ुदरत अपने मुक़र्ररा अश्ग़ाल में मसरूफ़ थी। परिंदे उसी तरह चहचहाते थे। फूल उसी तरह खिल रहे थे और शहद की सुस्त रो मक्खियां उसी पुराने ढंग से उन पर ऊँघ ऊँघ कर रस चूसती थीं। ...Read More
टेढ़ी लकीर
अगर सड़क सीधी हो......... बिलकुल सीधी तो इस पर उस के क़दम मनों भारी हो जाते थे। वो कहा था। ये ज़िंदगी के ख़िलाफ़ है। जो पेच दर पेच रास्तों से भरी है। जब हम दोनों बाहर सैर को निकलते तो इस दौरान में वो कभी सीधे रास्ते पर न चलता। उसे बाग़ का वो कोना बहुत पसंद था। जहां लहराती हुई रविशें बनी हुई थीं। ...Read More
टोबा टेक सिंह
बटवारे के दो तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़याल आया कि अख़्लाक़ी क़ैदियों की तरह का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुस्लमान पागल, हिंदोस्तान के पागल ख़ानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाये और जो हिंदू और सिख, पाकिस्तान के पागल ख़ानों में हैं उन्हें हिंदोस्तान के हवाले कर दिया जाये। ...Read More
ठंडा गोश्त
ईशर सिंह जूंही होटल के कमरे में दाख़िल हुआ। कुलवंत कौर पलंग पर से उठी। अपनी तेज़ तेज़ आँखों उस की तरफ़ घूर के देखा और दरवाज़े की चटख़्नी बंद करदी। रात के बारह बज चुके थे, शहर का मुज़ाफ़ात एक अजीब पुर-असरार ख़ामोशी में ग़र्क़ था। ...Read More
ड़रपोक
मैदान बिलकुल साफ़ था। मगर जावेद का ख़याल था कि म्युनिसिपल कमेटी की लालटैन जो दीवार में गढ़ी है। को घूर रही है। बार बार वह इस चौड़े सहन को जिस पर नानक शाही ईंटों का ऊंचा नीचा फ़र्श बना हुआ था, तय करके इस नुक्कड़ वाले मकान तक पहुंचने का इरादा करता जो दूसरी इमारतों से बिलकुल अलग थलग था। मगर ये लालटैन जो मस्नूई आँख की तरह हर तरफ़ टिकटिकी बांधे देख रही थी, उस के इरादे को मुतज़लज़ल कर देती और वो इस बड़ी मोरी के इस तरफ़ हट जाता जिस को फांद कर वो सहन को चंद क़दमों में तय कर सकता था....... सिर्फ़ चंद क़दमों में! ...Read More
डायरेक्टर कृपलानी
डायरैक्टर कृपलानी अपनी बुलन्द किरदारी और ख़ुश अतवारी की वजह से बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े एहतिराम की से देखा जाता था। बाअज़ लोग तो हैरत का इज़हार करते थे कि ऐसा नेक और पाकबाज़ आदमी फ़िल्म डायरेक्टर क्यों बन गया क्योंकि फ़िल्म का मैदान ऐसा है जहां जा-ब-जा गढ़े होते हैं अन-देखे गढ़े, बेशुमार दलदलें, जिन में आदमी एक दफ़ा फंसा तो उम्र भर बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता। ...Read More
डार्लिंग
ये उन दिनों का वाक़िया है। जब मशरिक़ी और मग़रिबी पंजाब में क़तल-ओ-ग़ारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म कई दिन से मूसलाधार बारिश होरही थी। वो आग जो इंजनों से न बुझ सकी थी। इस बारिश ने चंद घंटों ही में ठंडी करदी थी। लेकिन जानों पर बाक़ायदा हमले होरहे थे और जवान लड़कीयों की इस्मत बदस्तूर ग़ैर महफ़ूज़ थी। हट्टे कट्टे नौजवान लड़कों की टोलियां बाहर निकलती थीं और इधर उधर छापे मार कर डरी डुबकी और सहमी हुई लड़कीयां उठा कर ले जाती थीं। ...Read More
डॉक्टर शरोडकर
बंबई में डाक्टर शरोड कर का बहुत नाम था। इस लिए कि औरतों के अमराज़ का बेहतरीन मुआलिज था। के हाथ में शिफ़ा थी। उस का शिफ़ाख़ाना बहुत बड़ा था एक आलीशान इमारत की दो मंज़िलों में जिन में कई कमरे थे निचली मंज़िल के कमरे मुतवस्सित और निचले तबक़े की औरतों के लिए मख़सूस थे। बालाई मंज़िल के कमरे अमीर औरतों के लिए। एक लैबोरेटरी थी। उस के साथ ही कमपाउन्डर का कमरा। ऐक्स रे का कमरा अलाहिदा था। उस की माहाना आमदनी ढाई तीन हज़ार के क़रीब होगी। ...Read More
ढारस
हिंदू सभा कॉलिज के सामने जो ख़ूबसूरत शादी घर है इस में हमारे दोस्त बिशेशर नाथ की बरात ठहरी थी। तक़रीबन तीन साढ़े तीन सौ के क़रीब मेहमान थे जो अमृतसर और लाहौर की नामवर तवाइफ़ों का मुजरा सुनने के बाद इस वसी इमारत के मुख़्तलिफ़ कमरों में फ़र्श पर या चारपाइयों पर गहिरी नींद सो रहे थे। ...Read More
तक़ी कातिब
लखनऊ और वली के जाहिल और ख़ुद सर क़ातिबों से मेरा जी जला हुआ था। एक था उस को व बेजा पेश डालने की बुरी आदत थी। मौत को मूत और सोत को सूत बना देता था। मैंने बहुत समझाया मगर वो न समझा। उसको अपने अहल-ए-ज़बान होने का बहुत ज़ोअम था। मैंने जब भी उस को पेश के मुआमला में टोका उस ने अपनी दाढ़ी को ताव दे कर कहा। “मैं अहल-ए-ज़बान हूँ साहब....... इसके तीस सिपारों का हाफ़िज़ हूँ। एराब के मुआमला में आप मुझ से कुछ नहीं कह सकते।” ...Read More
राजू
सन इकत्तीस के शुरू होने में सिर्फ़ रात के चंद बरफ़ाए हुए घंटे बाक़ी थे। वो लिहाफ़ में सर्दी शिद्दत के बाइस काँप रहा था। पतलून और कोट समेत लेटा था, लेकिन इस के बावजूद सर्दी की लहरें उस की हडीयों तक पहुंच रही थीं। वो उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे की सबज़ रोशनी में जो सर्दी में इज़ाफ़ा कर रही थी, ज़ोर ज़ोर से टहलना शुरू कर दिया कि उस का दौरान ख़ून तेज़ होजाए। ...Read More
राम खेलावन
खटमल मारने के बाद में ट्रंक में पुराने काग़ज़ात देख रहा था कि सईद भाई जान की तस्वीर मिल मेज़ पर एक ख़ाली फ़्रेम पड़ा था....... मैंने इस तस्वीर से उस को पुर कर दिया और कुर्सी पर बैठ कर धोबी का इंतिज़ार करने लगा। हर इतवार को मुझे इसी तरह इंतिज़ार करना पड़ता था क्योंकि हफ़्ते की शाम को मेरे धुले हुए कपड़ों का स्टाक ख़त्म हो जाता था....... मुझे स्टाक तो नहीं कहना चाहिए इस लिए कि मुफ़्लिसी के उस ज़माने में मेरे सिर्फ़ इतने कपड़े थे जो बमुश्किल छः सात दिन तक मेरी वज़ादारी क़ायम रख सकते थे। ...Read More
रामेशगर
मेरे लिए ये फ़ैसला करना मुश्किल था आया परवेज़ मुझे पसंद है या नहीं। कुछ दिनों से में उस एक नॉवेल का बहुत चर्चा सुन रहा था। बूढ़े आदमी, जिन की ज़िंदगी का मक़सद दावतों में शिरकत करना है उस की बहुत तारीफ़ करते थे और बाअज़ औरतें जो अपने शौहरों से बिगड़ चुकी थीं इस बात की क़ाइल थीं कि वो नॉवेल मुसन्निफ़ की आइन्दा शानदार अदबी ज़िंदगी का पेश-ख़ैमा है। मैंने चंद रिव्यू पढ़े। जो क़तअन मुतज़ाद थे। बाअज़ नाक़िदों का ख़याल था कि मुसन्निफ़ ऐसा मेयारी नॉवेल लिख कर बेहतर नॉवेल निगारों की सफ़ में शामिल होगया है। ...Read More
रिश्वत
अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था अपने हम-उम्र लड़कों में सब से ज़्यादा ख़ुश-पोश माना जाता था एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिलकुल ख़स्ता हाल हो गया। उस ने बी ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की वो बहुत ख़ुश था उस के वालिद ख़ान बहादुर अताउल्लाह का इरादा था कि उसे आला तालीम के लिए विलायत भेजेंगे। पासपोर्ट ले लिया गया था सूट वग़ैरा भी बनवा लिए गए थे कि अचानक ख़ान बहादुर अताउल्लाह ने जो बहुत शरीफ़ आदमी थे, किसी दोस्त के कहने पर सट्टा खेलना शुरू कर दिया। ...Read More
लतीका रानी
वो ख़ूबसूरत नहीं थी। कोई ऐसी चीज़ उस की शक्ल-ओ-सूरत में नहीं थी जिसे पुर-कशिश कहा जा सके, लेकिन के बावजूद जब वो पहली बार फ़िल्म के पर्दे पर आई तो उस ने लोगों के दिल मोह लिए और ये लोग जो उसे फ़िल्म के पर्दे पर नन्ही मुन्नी अदाओं के साथ बड़े नर्म-ओ-नाज़ुक रूमानों में छोटी सी तितली के मानिंद इधर से उधर और उधर से इधर थिरकते देखते थे, समझते थे कि वो ख़ूबसूरत है। उस के चेहरे मुहरे और उस के नाज़ नख़रे में उन को ऐसी कशिश नज़र आती थी कि वो घंटों उस की रोशनी में मबहूत मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते थे। ...Read More
लाइसेंस
अब्बू कोचवान बड़ा छैल छबीला था। उस का ताँगा घोड़ा भी शहर में नंबर वन था। कभी मामूली सवारी बिठाता था। उस के लगे बंधे गाहक थे जिन से उस को रोज़ाना दस पंद्रह रुपय वसूल हो जाते थे जो अब्बू के लिए काफ़ी थे। दूसरे कोचवानों की तरह नशा पानी की उसे आदत नहीं थी। लेकिन साफ़ सुथरे कपड़े पहनने और हर वक़्त बांका बने रहने का उसे बेहद शौक़ था। ...Read More
लानत है ऐसी दवा पर
कामिनी के ब्याह को अभी एक साल भी न हुआ था कि उस का पति दिल के आरिज़े की से मर गया और अपनी सारी जायदाद उस के लिए छोड़ गया। कामिनी को बहुत सदमा पहुंचा, इस लिए कि वो जवानी ही में बेवा हो गई थी। उस की माँ अर्सा हुआ उस के बाप को दाग़-ए-मुफ़ारिक़त दे गई थी। अगर वो ज़िंदा होती तो कामिनी उस के पास जा कर ख़ूब रोती ताकि उसे दम दिलासा मिले। लेकिन उसे मजबूरन अपने बाप के पास जाना पड़ा जो काठियावाड़ में बहुत बड़ा कारोबारी आदमी था। ...Read More
लालटेन
मेरा क़ियाम “बटोत” में गो मुख़्तसर था। लेकिन गूनागूं रुहानी मसर्रतों से पुर। मैंने उस की सेहत अफ़्ज़ा मुक़ाम जितने दिन गुज़ारे हैं उन के हर लम्हा की याद मेरे ज़ेहन का एक जुज़्व बन के रह गई है। जो भुलाये न भूलेगी...... क्या दिन थे!..... बार-बार मेरे दिल की गहिराईयों से ये आवाज़ बुलंद होती है और मैं कई कई घंटे इस के ज़ेर-ए-असर बे-खु़द मदहोश रहता हूँ। किसी ने ठीक कहा है कि इंसान अपनी गुज़श्ता ज़िंदगी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करता है। इन दिनों मैं भी यही कर रहा हूँ यानी बीते हुए अय्याम की याद को अपनी मुज़्महिल रगों में ज़िंदगी बख़्श इंजैक्शन के तौर पर इस्तिमाल कर रहा हूँ। ...Read More
वह लड़की
सवा-चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उस बालकनी में आ कर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक साया-दार दरख़्त की छांव में आलती पालती मारे बैठी थी। ...Read More
वालिद साहब
तौफ़ीक़ जब शाम को कलब में आया तो परेशान सा था। दोबार हारने के बाद उस ने जमील से “लो भई मैं चला।” जमील ने तौफ़ीक़ के गोरे चिट्टे चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखा और कहा। “इतनी जल्दी?” ...Read More
हाफ़िज़ हुसैन दीन
हाफ़िज़ हुसैन दीन जो दोनों आँखों से अंधा था, ज़फ़र शाह के घर में आया। पटियाले का एक दोस्त अली था, जिस ने ज़फ़र शाह से उस का तआरुफ़ कराया। वो हाफ़िज़ साहिब से मिल कर बहुत मुतअस्सिर हुआ। गो उन की आँखें देखती नहीं थीं मगर ज़फ़र शाह ने यूं महसूस किया कि उस को एक नई बसारत मिल गई है। ज़फ़र शाह ज़ईफ़-उल-एतिका़द था। उस को पीरों फ़क़ीरों से बड़ी अक़ीदत थी। जब हाफ़िज़ हुसैन दीन उस के पास आया तो उस ने उस को अपने फ़्लैट के नीचे मोटर गिरज में ठहराया...... उस को वो वाईट हाऊस कहता था। ...Read More