कही से भी शुरू कर लीजिये आप को समझ पड़ जायेगी। ये कोई भी नकल के आधारत नहीं है, मै जिम्मेदारी लेता हुँ कि ये उपन्यास कुछ हट के है, जज्बात और भाबुक से बढ़ के कुछ जो रब करता है, हम हमेशा ही उसको खुश करने मे समाजिक रिश्तों को कयो भूल जाते है..... बस यही कहने का प्रयास किया है। इस मे और है एक तिलमिला ते जज्बात बस। शुरू होता है कुछ इस ढंग मे..... युसफ खान का एक छोटा सा घर शुरू होता है.... एक बड़े से कस्बे मे... उस मे छते है एक दूसरे घरो से जुडी हुई... कुछ खुली गलिया है, चौक है... मस्जिद है.. सोच रहे हो, किसी भी घरके चुबारे नहीं है... सोच रहे होंगे कयो नहीं है, मुझे मालूम नहीं है... एक छत पे कुछ लडके पतंग उड़ा रहे है... काफ़ी डोरे है.. कितने पतंग है... नीले आसमान मे उड़ रहे... हल्ला गुला है, चीखे है, कोई भाग रहा है.... कोई सोच रहा है.... कोई लूटने कि फ़ितरत मे उड़ते पतंग को पकड़ रहा है.... कोई पतंग कट रहा है, दूर से खडे लडके इशारे चीख रहे है।
मुक्त - भाग 1
-------- मुक्त ( भूमिका )कही से भी शुरू कर लीजिये आप को समझ पड़ जायेगी। ये कोई भी नकल आधारत नहीं है, मै जिम्मेदारी लेता हुँ कि ये उपन्यास कुछ हट के है, जज्बात और भाबुक से बढ़ के कुछ जो रब करता है, हम हमेशा ही उसको खुश करने मे समाजिक रिश्तों को कयो भूल जाते है..... बस यही कहने का प्रयास किया है। इस मे और है एक तिलमिला ते जज्बात बस।शुरू होता है कुछ इस ढंग मे.....युसफ खान का एक छोटा सा घर शुरू होता है.... एक बड़े से कस्बे मे... उस मे ...Read More