माउंट आबू के उस अंतिम छोर पर स्थित एक छोटे से आश्रम में अपने कमरे के बाहर लॉबी में एक कुर्सी पर बैठी आशी दूर अरावली के पर्वतों की शृंखला को न जाने कब से टकटकी लगाकर देख रही थी| शीतल वायु के वेग से नाचते नीचे के बड़े से बागीचे में रंग-बिरंगे फूलों का झूमना उसे किसी और ही दुनिया में खींचकर ले गया था| यह अक्सर होता ही रहता है उसके साथ ! बीते कल और आज में झूलता मन उसे कहाँ कभी चैन से रहने देता है| आशी माउंट आबू कैसे पहुंची होगी यह उसके जानने वालों के लिए एक आश्चर्यजनक गंभीर प्रश्न है| वैसे तो उससे कोई अधिक कुछ पूछ ही नहीं सकता लेकिन जो कोई भी पूछने का प्रयास करता भी है, उसे दो आँखें शून्य में न जाने कहाँ विचरती दिखाई देती हैं, पूछने वाले का साहस टूट जाता है और वह अपने प्रश्न का उत्तर बिना पाए ही वहाँ से हट जाता है|
New Episodes : : Every Tuesday & Thursday
शून्य से शून्य तक - भाग 1
माँ वीणापाणि को नमन जो साँसों की भाँति मन में विचारों की गंगा प्रवाहित करती हैं| ================ समर्पित उन क्षणों को जो न जाने कब एक-एक कर मेरे साथ जुडते चले गए ! ! स्नेही पाठक मित्रों से ! ! =============== हम कितना ही अपने आपको समझदार कह लें लेकिन कुछ बातें तभी समझ में आती हैँ जब ठोकर खाकर आगे बढ़ना होता है या उनको आना होता है यानि जीवन की गति ऐसी कि कब छलांगें लगाकर ऊपर पहुँच जाएं और कब जैसे पर्वत से नीचे छलांग लगा बैठें | माँ ने एक बार लिखा था – ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 2
2==== यह आश्रम केवल एक आश्रम ही नहीं किन्तु संत के कुछ गंभीर अनुयायियों ने इसे एक ‘रिसर्च सेंटर’ बना दिया था| संत का मौन के प्रति एक अलग विश्वास था| मौन रहकर जीवन की हर स्वाभाविक दशा, दिशा में स्वाभाविक गति से चलना ही उनका ध्येय था| जब मनुष्य दुनियावी संघर्षों से थक जाता है तब उसके पास गिने-चुने मार्ग होते हैं| या तो वह इसी प्रकार अंतिम क्षणों तक जूझता रहे और अपना सिर दीवार से टकराता रहे क्योंकि उसके पास संघर्ष होते हैं किन्तु उनमें से उसे कोई सकारात्मक राह दिखाई दे जाए तो अति सुंदर! ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 3
3==== सुहासिनी अपने जीवन की कोई न कोई घटना आशी को सुनाती रहती| आशी सुहास से कुछ ही बड़ी लेकिन न जाने कब उसे दीदी कहने लगी थी और उसने सहज रूप से स्वीकार भी लिया था| वर्ना अपने मूल स्वभाव के अनुरूप आशी किसी की कोई बात आसानी से स्वीकार ले, यह ज़रा कठिन ही था| जो कुछ भी उसके जीवन में हुआ था, उसके लिए औरों को दोषी ठहराने की आदत ने आशी को स्वयं का ही दुश्मन बना दिया था| कमरे की खूबसूरत बॉलकनी में लकड़ी की सादी लेकिन सुंदर कुर्सियाँ रखी रहतीं| जहाँ पर बैठकर ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 4
4=== वैसे तो दीनानाथ के महल से घर में सेवकों की फौज की कोई कमी नहीं थी परंतु उनकी बेटी आशी बड़ी मुश्किल से किसी के बस में आ पाती थी | लाड़-प्यार की अधिकता के कारण आशी बड़ी होने के साथ-साथ ज़िद्दी होती जा रही थी | यहाँ तककि वह अपनी ज़िद में घर के सेवकों से दुर्व्यवहार कर जाती | माँ-बाप कितना समझाते, धीरे से डाँटते भी पर उसकी ज़िद घर भर को सिर पर उठा लेती | आखिर में आशी को पार्क में घुमाने के लिए भेजा जाता | वहाँ वह दूसरे बच्चों और माधो के ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 5
5=== पर्वतों की शृंखला से सूर्य की ओजस्वी लालिमा आशी के गोरे मुखड़े पर पड़ रही थी और वह सी लॉबी में खड़ी एक महक का अनुभव कर रही थी| उसने देखा, पवन के झौंके के साथ रंग-बिरंगे पुष्प मुस्कुरा रहे हैं जैसे उससे बात कर रहे हैं| वह सोच ही रही थी कि सुहास हाथ में ट्रे लेकर उसके पीछे आ खड़ी हुई| “शुभ प्रभात आशी दीदी---”उसके चेहरे पर भी सूर्य की किरणों से भरी एक सजग मुस्कान पसरी हुई थी| “हाय, गुड मॉर्निंग, तुम कॉफ़ी क्यों ले आईं? रानी लाती है न रोज़----”आशी ने मुस्काकर सुहास से ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 6
6=== आशी ने अपने दादा जी का ज़माना देखा नहीं था लेकिन सब बातों का दुहराव इतना अधिक हुआ कि उसे सब बातें रट गईं थीं| बच्ची थी तबसे ही सब बातें सुनती आ रही थी और अब जब उसका जीवन एकाकी रह गया तब उसे उन सब बातों में से फिर गुज़रने का अहसास सा होने लगा| अपने जीवन की कथा केवल उसकी अपनी ही नहीं थी बल्कि दादा जी से उसकी यात्रा शुरू हुई थी जिसने उसके दिलोदिमाग में एक अलग ही जगह बनाई हुई थी| वह और कुछ कदम आगे चली---कभी दादा जी की स्मृति तो ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 7
7=== आशी ने लिखते-लिखते एक लंबी साँस भरी| इस समय वह कमरे में बैठी थी लेकिन खिड़की के पास व कुर्सी की व्यवस्था होने से खिड़की से अरावली की पहाड़ियाँ धीरे-धीरे धुंध की चपेट में दिखाई देने लगीं थीं| वह उठी, कमरे की बत्ती जलाई और बाहर बरामदे में आ खड़ी हुई| उसे कभी अपना बीता हुआ समय याद आता तो कभी बीते हुए वे क्षण जिनसे वह ही नहीं, न जाने कितने और जुड़े थे| वास्तव में दीनानाथ का वर्तमान व्यक्तित्व अब यही रह गया था | घुटन और एकाकीपन से भरा! समय-समय की बात होती है| कभी ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 8
8==== माता-पिता के कहने पर कि दीना अंकल के यहाँ चलें, बहनें घर पर ही रहकर एंजॉय करने की करतीं और कहतीं –“हम क्या करेंगे, आप लोग जाइए, वहाँ जाकर बोर ही होना–हाँ, मनु भैया को ज़रूर ले जाइएगा| हो सकता है आशी जी का मूड ठीक हो जाए--”वे हँसतीं| ”सब जानते थे कि दोनों माँओं ने आशी का विवाह मनु के साथ करने का स्वप्न बुन रखा था| “बेटा! तुम लोग जानते हो वो एक‘साइकिक पेशेंट’हो गई है| कारण भी तुम जानते ही हो| दीनानाथ अंकल तो तुम सबके ही प्यारे हैं न? उनकी हैल्थ भी तो आशी ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 9
9=== मिसेज़ सहगल यानि रीना आँटी के भाई की अच्छी खासी कंपनी चलती थी | इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट के काम में नाम था उनका! लेकिन उन्हें कोई भी ऐसा नहीं मिल पाया था जो उनका ‘राइट हैंड’बन पाता | लगभग चालीस-पैंतालीस लोगों की सहायता से शुरू किया गया काम आज हज़ार से भी ऊपर की रोजी-रोटी हो गया था| वे खूब मेहनत करते और सबसे मिलकर व्यवसाय की प्रगति कर रहे थे | पर---मिसेज़ सहगल के भाई अमर सहगल हमेशा अकेलापन महसूस करते थे | शायद इसका कारण उनका अविवाहित होना था | कितनी बार उनका घर बसाने की कोशिश की ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 10
10=== अचानक वह सब कुछ हो गया जिसकी किसी ने सपने में भी कल्पना तक नहीं की थी| मनु मामा की मृत्यु के पश्चात् भारत लौटना पड़ा और अपनी इतनी काबिलियत के बावज़ूद वह अभी तक भटक ही तो रहा है | कुछ ऐसा हाथ ही नहीं लग रहा था जिससे वह एक्शन ले सके | आखिर पूरा माहौल समझने में उसे कुछ समय तो लगेगा ही ---| “मनु साहब ! यहाँ के और विदेश के काम करने का ढंग बिलकुल अलग है–आप –” “कितना भी अलग क्यों न हो मि.बाटलीवाला, काम, काम ही होता है और मैं कोई ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 11
11 === जैसे जैसे आशी पीछे मुड़कर देखती, उसे गडमड तस्वीरें दिखाई देतीं जिनमें से उसे रास्ता निकालकर आगे होता लेकिन मनुष्य का मस्तिष्क एक सिरे पर तो टिका नहीं रहता, वह तो पल में यहाँ तो पल में कहीं और—वह आज फिर से पापा की तस्वीर देख रही थी---माधो सदा साथ ही बना रहता था उनके---- “थोड़ी सी कोशिश करें सरकार---हाँ –ऐसे—“”दीनानाथ को माधो आज जबरदस्ती कुर्सी से उठाकर लॉबी में चक्कर लगवा रहा था | “अरे माधो! नहीं चल जाता बेटा—” वे थकी हुई आवाज़ में बोले | “चला जाएगा, बिलकुल चला जाएगा| देखिए, आपके सामने जो ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 12
12=== दीनानाथ के सामने जब बीते हुए कल की परछाइयाँ घूमने लगती हैं तब वह अपने आप भी उन का एक टुकड़ा बन जाते हैं| टुकड़ों में बँटा हुआ जीवन, मजबूरी की साँसों को भरता हुआ उनका मन और शरीर मानो बिखरने लगता है| टूटने और बिखरने के क्रम में उनकी इच्छाशक्ति भी कमजोर होती जाती है| इतनी कमजोर कि उन्हें महसूस होता है कि उनकी साँस किसी कमज़ोर धागे से बँधी नहीं बल्कि अटकी हुई है--ज़रा सा छुआ भर नहीं कि छिटककर विलीन हो जाएगी और पहुँच जाएंगे अपनी सोनी के पास! पर कर्तव्य के मार्ग से हटकर ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 13
13=== लिखते-लिखते आशी के हाथ अचानक थम गए| माधो उससे बड़ा था, कितनी बार आशी को समझाया गया था उसे माधो भैया कहा करे लेकिन बड़ी कोशिशों के बावज़ूद भी उसे वह घर का सेवक ही लगता था| और सभी लोगों से उसका ज़्यादा मतलब नहीं पड़ता था| बस---महाराज जिन्हें सब महाराज ही कहकर पुकारते और अपनी सहायता के लिए वो जिसे लेकर आए थे वह छोटा था इसलिए सब उसे नाम से ही पुकारते| आशी ने लितनी बार माधो को अपने पिता को समझाते हुए सुना था कि कुछ भी कहें आशी बीबी का ध्यान रखें लेकिन आशी ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 14
14=== आशी को याद आ रही थी अपनी माँ और साथ ही वह बच्चा जो उसका भाई था लेकिन माँ को ले जाने आया था| गुज़री हुई गलियों को उकेरते हुए उसकी कलम काँप रही थी| उसके पिता उस दिन किसी और घटना को भी याद कर रहे थे जो उनके बचपन से बाबस्ता था| उस दिन फिर दीना जी को अपने बचपन का वह मनहूस दिन कुछ ऐसे याद आ गया मानो अचानक ही कोई तूफ़ान उनके घर में प्रवेश कर गया हो| यूँ भी यह तूफ़ान उनके घर में प्रवेश कर ही चुका था| सोनी और नवजात ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 15
15=== आशी को जैसे आज भी वही सब दिखाई दे रहा था| अपने बीते समय के बारे में याद यानि पीछे के पृष्ठों को पलटकर एक बार फिर से उसी दृश्य का पात्र बन जाना| इस समय लिखते हुए फिर से समय जैसे सहमते पैरों से उसके साथ खिंच आया था— उसने लोगों से अपना हाथ छुड़ाकर भागने का प्रयत्न किया तो मिसेज़ सहगल ने झपटकर उसे पकड़ लिया पर वह उन्हें एक धक्का देकर आगे भाग गई| लोगों ने उसे रोकने का बहुत प्रयास किया पर वह किसी के भी बस में नहीं आ सकी| हारकर उसे उसकी ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 16
16==== आशी के घर से बाहर निकलते ही महाराज और उसके पास खड़े हुए दूसरे सेवक ने लंबी साँस और मानो निर्जीव पुतले हिल-डुलकर अपनी जीवंतता का प्रमाण देने लगे| “बाप रे बाप ! ” सेवक ने महाराज की ओर देखकर कहा | “क्या हुआ था ? ” माधो ने पूछा| “अरे! कुछ होता है क्या? पता नहीं, हम लोग भी कैसे और क्यों पड़े हुए हैं इस घर में ! रोज़-रोज़ की जलालत—” महाराज बहुत सालों से इस परिवार के लोगों की भूख शांत करते आए थे, अब वो भी ऊबने लगे थे| “कैसी बातें करते हो महाराज ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 17
17=== दौड़ता-भागता जब माधो कमरे में पहुँचा तो दीनानाथ बाथरूम के बाहर खड़े थे | वह हड़बड़ा गया| “क्या मालिक ? ” “अरे! कुछ नहीं भाई ज़रा बाथरूम गया था| ” “पर—आपकी कुर्सी तो---”उसने दूर पलंग के पास पड़ी हुई कुर्सी की ओर इशारा करके आश्चर्य से पूछा| “हाँ, वो मेरी ही कुर्सी है | आश्चर्य क्यों हो रहा है? आज सोचा चलकर देखूँ वहाँ तक –और देखो सहारा भी नहीं ले रहा हूँ---” दीनानाथ बड़े सधे हुए कदमों से चलकर पलंग तक आ गए| माधो के चेहरे पर मानो खुशी की तरंगें उमड़ पड़ीं, आँखों में आँसु भर ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 18
18=== दीना जी को मानो विश्वास ही नहीं आ रहा था और माधो तो ऐसे आँख फाड़कर देख रहा मानो कोई भूत देख रहा हो| कभी इतनी जल्दी आती होगी आशी लॉंग-ड्राइव से? “मैं कोई भूत नहीं हूँ ---”आशी ने मौन तोड़ा | “हाँ—अं—आओ बेटा—बैठो–नाश्ता करो—” “नहीं, आप करिए नाश्ता| मेरा नाश्ता तो महाराज के बच्चे ने बर्बाद कर दिया---| ” “ऐसे नहीं कहते बेटा –” “पापा—आप मुझे ये बताइए, बुलाया क्यों था----? ” “क्यों, क्यों मैं अपनी बेटी को बुला नहीं सकता और मुझे तुमसे अपनी खुशी शेयर करने का हक नहीं है--? ” दीनानाथ धीरे से बोले ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 19
19 === एक लंबी–सी साँस ली उन्होंने | माधो को यह बहुत आश्चर्यजनक लग रहा था कि आशी इतनी लॉन्ग ड्राइव से लौट आई थी| उसका तुरंत कमरे में पहुंचना भी सुखद आश्चर्य की बात थी| पिता के बुलाने पर तुरंत आकर भी पिता के कमरे में पूछना कि उसे बुलाया क्यों गया था, सबके लिए आश्चर्य ही था| दीना को लगा मानो गलती से चाँद उनके कमरे की गली में मुड़ आया हो| आशी बिलकुल अपनी माँ का प्रतिरूप थी| बिलकुल वैसा ही गुलाबी रंगत लिए हुए खूबसूरत, नाज़ुक नैन-नक्श, लंबा-छरहरा शरीर और सौम्य चेहरा जिसे आशी ने ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 20
20=== उन्हें कभी-कभी डॉ. कुरूप की बात बिलकुल सही लगती | आशी का व्यवहार वे ऐसा ही देख रहे जैसा डॉ. कुरूप बताकर गए थे | उनके मन में जीने की इच्छाशक्ति जैसे समाप्त प्राय:होती जा रही थी| यह भी संभव था कि वे कुछ कर बैठते पर डॉ.सहगल और माधो के बार-बार समझाने, उनके घाव पर बार-बार मलहम लगाने और आशी के भविष्य को लेकर सोचने के बाद शायद उन्हें कहीं लगा था कि उन्हें बेटी के व्यवहार का बुरा न मानकर उसके लिए अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए | उन्हें लगा कि वे आशी को इस स्थिति ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 21
21=== आशी ने कितनी ही बातें अपने माता-पिता के मुँह से सुनीं थीं लेकिन वह उस समय छोटी थी| जी के ज़माने की बातें सुनना उसे अच्छा लगता, कई बातों से वह चकित भी हो जाती | उन दिनों ‘पिक्चर-हॉल’को थियेटर कहा जाता था| आशी के दादा सेठ अमरनाथ के अपने खुद के कई थिएटर्स थे| अँग्रेज़ मित्र अँग्रेज़ी फ़िल्म देखने की फ़रमाइश करते तो किसी भी थियेटर में अँग्रेज़ी फ़िल्म लगवा दी जाती| दो/चार बार तो अमरनाथ जी के साथ उनके ज़ोर देने पर सुमित्रा देवी उनके मित्रों के साथ फ़िल्म देखने चली भी गईं | पर अँग्रेज़ी ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 22
22=== दीनानाथ को आज इस उम्र तक यह घटना याद है जो उनके दिलोदिमाग की गलियों को पार करके जीवन के वर्तमान पर्दे पर चलचित्र की भाँति नाचने लगती है| अन्यथा वो कुछ छुट-पुट घटनाओं के अतिरिक्त पीछे की कुछ बातें नहीं सोच पाते| हाँ, अपने पिता की एक बात और उन्हें अच्छी तरह से याद है कि वे हर शनीवार को सबको बिरला मंदिर ले जाते थे| उस दिन वह दीना का अपना दिन होता, अपने माता-पिता के साथ ! वही उनका परिवार था जिसमें उन्हें खुशी मिलती थी | बस, उनके साथ एक ड्राइवर साथ होता था| ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 23
23=== एक दिन दीना जी लॉबी में अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे न जाने क्या सोच रहे थे | माधो किसी काम से गया हुआ था, वहीं कहीं | कुर्सी पर बैठे-बैठे उनकी झपकी लग गई और उनका अर्धचेतन मस्तिष्क न जाने कहाँ पहुँच गया| “मैंने नहीं कहा था कि----”उन्हें माँ सुमित्रा देवी की आवाज़ सुनाई दी | “क्या—क्या कहा था तुमने ? ” पिता अमरनाथ का स्वर था | “यही कि वो मरा क्वींस ---उसकी नज़र ठीक नहीं है -----पर मैं तो गँवार हूँ न, मेरी बात कौन सुनता है? गोरे-चिट्टे लोग ऊपर से ही तो गोरे होते हैं, ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 24
24=== दीनानाथ सोचने लगे कि जब इतने लंबे अरसे बाद भी वे अपनी माँ की छुटपुट घटनाओं को याद भी परेशान हो जाते हैं तो आशी का अपनी माँ को खो देना और उसके लिए तड़पते रहना कुछ अजीब तो नहीं था| बचपन में माँ को खो देना कोई छोटा हादसा तो होता नहीं है | न जाने क्यों अचानक उन्हें आशी से हमदर्दी होने लगी | कुछ भी कहो आशी उनकी बिटिया थी| आज न जाने कैसे अचानक आशी के मन में अपने पिता के प्रति भी कुछ हमदर्दी सी जागी| क्या ये कोई को-इन्सीडेंट था कि वह ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 25
25=== आशी कहाँ पुरानी स्मृतियों के जाल से निकल पा रही थी? उसे माँ-पापा के संवाद सुनाई देने लगे-- यह सब ठीक नहीं है---”उसने अपने पिता की आवाज़ सुनी थी| “क्या---क्या ठीक नहीं है ? ”सोनी पूछ रही थी | “सोनी ! तुम ही सोचो, पहले तो आशी के जन्म पर ही तुम कितनी मुश्किल से बची हो----जानती हो न कितना सीरियस केस हो गया था! यह तो भला हो डॉ.सहगल का कैसे फटाफट अपनी गाड़ी में डालकर तुम्हें अपनी दोस्त डॉ.झवेरी के यहाँ ले गए जहाँ ऑपरेशन से तुमने आशी को जन्म दिया| “ये बीती कहानी बार-बार क्यों ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 26
26=== जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, उसकी बुद्धि कुछ अधिक ही चलने लगी| उसकी माँ ने कंसीव करते समय एक भी बार एक कि अगर उन्हें कुछ हो गया तो उनकी छोटी सी बेटी का क्या होगा? एक भी बार अस्पताल जाते समय लगाया अपनी बेटी को अपने गले से ? लाड़ से पुचकारा उसे? एक भी बार बताया उसे कि अगर उसे अकेला रहना पड़े तो कैसे रहेगी? कैसे निकलेगी उस अंधे कूँए से जिसमें वे उसे सदा के लिए कैद कर गईं हैं! “नहीं—नहीं, सब स्वार्थी हैं---स--ब---”वह चिल्लाई और अपने हाथ में पकड़े हुए काँच के ग्लास ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 27
27 ==== आशी ने अपने सिर को एक झटका देकर यादों के गुबार से निकलने की कोशिश की| परंतु तो वह चिड़िया है जो एक डाली से उड़कर दूसरी डाली पर जाकर चीं चीं करने लगती है| उसकी मम्मी सोनी बताया करती थी कि’बड़े या ऊँचे वर्ग’ की महिलाओं की किटी पार्टियों में अक्सर इसी बात की चर्चा हुआ करती थी कि किसका पति, कहाँ से, क्या लाया है? जेवर, कपड़ा या जो भी कुछ पत्नी की डिमांड होती| सोनी के हाथ में नई डायमंड रिंग देखकर मिसेज़ आलूवलिया ने पूछा; “इस बार करवाचौथ पर रिंग ही लाए हैं ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 28
28=== आज न जाने कितने वर्षों के बाद उन्हें लग रहा था कि वे जीवित हैं | अपने आपको सधे हुए कदमों से चलते हुए दीनानाथ नाश्ते की मेज़ पर आकर बैठ गए| आज ऑफ़िस जाने से पहले वे नीचे डाइनिग टेबल पर नाश्ता करना चाहते थे| वे चाहते थे कि स्वयं नॉर्मल फ़ील करें और इतने वर्षों बाद नीचे के अपने घर में टहलना चाहते थे| घर के सभी नौकर कतार में आकर खड़े हो गए थे | सारा घर सुव्यवस्थित रूप में सजा था | अजीब सा हो उठा उनका मन, हल्का-फुल्का सा नाश्ता करके वे उठ ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 29
29=== आज वे बहुत दिनों बाद नीचे नाश्ता करने से पहले माँ के मंदिर में आए थे, “प्रसाद लो ने दीनानाथ के हाथ में प्रसाद रखा और ज्यों ही माँ के चरण स्पर्श करने के लिए झुके पैर पीछे की ओर हट गए| “क्या कर रहे हैं साब ---? ”माधो बुरी तरह बौखला गया था| दीना मानो नींद से जागे हों, ऐसे चौंक उठे| “ओह! ”उनकी आँखों से फिर गंगा-जमुना बहने लगीं| इतने दिनों के बाद नीचे उतरने पर बीच का समय मानो उन्हें भूल सा गया था| सब कुछ पुराने चलचित्र की भाँति उनके सामने से जैसे गुजरने ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 30
30=== शोफ़र ने गाड़ी के पीछे का दरवाज़ा खोलकर सेठ जी को बैठाकर दरवाज़ा बंद कर दिया| आगे का खोलकर माधो ने पहले अपना थैला गाड़ी में संभालकर रख दिया फिर अपने आप गाड़ी में समा गया| दूसरी ओर से ड्राइवर बैठकर गाड़ी बैक करने लगा | घर के नौकर और दरबान गेट पर हाथ बाँधे खड़े थे| लंबे समय के अंतराल के पश्चात् न जाने किस शुभ घड़ी में आज सेठ दीनानाथ जी की शेवरलेट गेट से निकलकर बंबई की सड़कों पर फिसल रही थी| सब कुछ वही, वैसा ही उनकी पसंद का, बिलकुल साफ़-सुथरा माहौल| कर्मचारियों के ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 31
31 कहाँ अमरावली पर्वत का नैसर्गिक सौन्दर्य और कहाँ महानगर की चकाचौंध वाला शहर ! यहाँ से महसूस होता धरती और आसमान एक-दूसरे के गले मिलने के लिए आतुर हों | प्रेम की प्रकृति ही ऐसी है जो अपने पास खींच ले जाती है, मन के भीतर सहजता से उतरती जाती है, एक ऐसी संवेदना से भर देती है जो मन की गहराइयों में उतरे बिना नहीं रहती | आज आशी इस नैसर्गिक सौन्दर्य में भीगने की कोशिश ज़रूर कर रही है किन्तु उसने कभी उस सुंदरता को अपने मन का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जो उसके चारों ओर ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 32
32==== आज भी आशी अभी तक ‘लेज़ी मूड’ में थी | कभी-कभी उसे अचानक ही रोना आने लगता था रोते-रोते उसकी आँखें भी बंद हो जातीं रोते-रोते आशी को एक झटका सा आया | माँ उसके आँसू पोंछ रही थी | “मेरी इतनी प्यारी बेटी---!” “प्यारी---!”आशी बिफरी | “प्यारी होती तो यूँ छोड़कर जातीं मुझे --? ” “जाना न जाना कहाँ अपने हाथ में होता है बेटा----”आशी के कानों में माँ की थकी, शिथिल सी आवाज़ न जाने कहाँ से आ रही थी ! आशी रोते-रोते इधर-उधर देखने लगी, शायद स्वप्न की सी स्थिति थी | “जाना न जाना ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 33
33==== अब दीना जी समय पर ऑफ़िस जाने लगे थे | कर्मचारियों को समझने, उनकी परेशानियों का समाधान निकालने उन्हें पहले जैसी रुचि होने लगी थी | उन्होंने एक लंबी साँस ली और महसूस किया कि वे जीवित हैं और जैसे तसल्ली का एक टुकड़ा उनके भीतर पसर गया | दरवाज़े पर नॉक हुई --- “प्लीज़ कम इन----”उन्होंने आँखें उठाकर देखा उनके चैंबर का दरवाज़ा खोलकर मि.केलकर खड़े थे | “सर!आपसे एक प्रोजेक्ट के बारे में डिस्कस करना चाहता था--- | ”वहीं खड़े-खड़े उन्होंने कहा | “क्यों भई, जब मैं नहीं था तब क्या करते थे? वैसे ही करिए ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 34
34=== आशी पन्नों पर पन्ने रंगती जा रही थी, अपने प्यार की स्मृति में वह कभी भी रो लेती, खुद उसके लिए भी आश्चर्यजनक था ! उसने खुद ही तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी थी या यह कह लें कि ज़िंदगी जो भी खेल खिलाती है, इंसान को खेलना ही पड़ता है | जब चीज़ें हाथ से फिसल जाती हैं तब उन्हें पकड़ना या थाम लेना कहाँ आसान होता है? मौन के बाद कभी समय मिलने पर सुहास ने कई बार आशी से कहा था कि भगवन् हमेशा कहते थे कि कुछ न करो, मौन रहकर जीवन के ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 35
35==== ‘कभी-कभी किसी छोटी सी बात को कहने में भी कितना सोचना पड़ता है, उसमें भी जब आशी जैसी हो | ’एक ज़माना वो होता था जिसमें हम अपने पिता से बात करते हुए कतराते थे और एक यह समय है कि आज पिता को बेटी से बात करने में संकोच हो रहा है, घबराहट हो रही है | ’वे मन ही मन उद्विग्न हो रहे थे, कैसे बात करें, उनका मुँह सूखा जा रहा था | दीनानाथ ने सूखे हुए गले को एक बार मेज़ पर रखे हुए ग्लास का कोस्टर उठाकर उसमें भरे पानी से गला तर ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 36
36=== आज फिर आशी लिखते-लिखते बाहर बॉलकनी में आ खड़ी हुई थी | सुहास कभी भी आकर उससे ज़िद लगती कि जितनी भी लिखी है वह अपनी कहानी उसे पढ़ दे लेकिन वह आशी थी, बता चुकी थी कि पूरी हो जाए तब ही पढ़ना---सुहास का मन मुरझा जाता | आज वह न जाने क्या कहने आई थी लेकिन आशी दीदी का अजीब स मूड देखकर वापिस चली गई | वास्तव में आशी उस दिन बहुत उदास थी | उस दिन की यादें उसका जैसे दम घोंट रही थीं----यह वह दिन था जब उन सब पर एक बार फिर ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 37
37==== अपने अतीत में विचरते हुए पूरी घटना को चित्रित करते हुए आशी के हाथ काँपने लगे | कैसा दिन था जिसे ज़िंदगी में कभी नहीं भुलाया जा सकता | इस परिवार का हिस्सा ही तो थे डॉ.सहगल !वह कैसा बिहेव करती रही थी उनके व आँटी के साथ !---- अस्पताल के बाहर बहुत भीड़ थी | डॉ.सहगल गरीबों का फ्री इलाज़ करने के लिए कई इलाकों में जाने-जाते थे | ये दोनों मित्र ही जब किसी की सहायता करने पर आते तब अपने बारे में तो कुछ सोचते ही नहीं थे | दोनों की पत्नियाँ उनका मज़ाक उड़ाया ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 38
38=== यह सब लिखते-लिखते आशी फूट-फूटकर रोने लगी थी | हर दिन इस समय वह या तो बाहर लॉबी आकर ढलते हुए सूरज की लालिमा को पर्वतों से नीचे पिघलते हुए देखने का आनंद लेती थी | गहरा गुलाबी आसमान जब तक सलेटी न हो जाता वह वहीं खड़ी पर्वत-श्रंखला की ओर टकटकी लगाए रहती | आज वह बाहर नहीं जा सकी | अपनी कलम एक ओर कागज़ों के बीच रखकर उसने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया और चुपचाप अपने बिस्तर पर आ लेटी | उसकी आँखों से आँसुओं का प्रवाह थमने का नाम ही नहीं ले रहा ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 39
39=== डॉ.सहगल के परिवार के साथ हुई इस दुर्घटना को लगभग अब एक माह हो गया था | दीना भी सहगल के घर बच्चों से मिलने हर दूसरे दिन जाते थे | उन्होंने देखा कि कई दिनों से कुक नहीं आ रहा था अत:माधो ने बच्चों के खाने-पीने के लिए एक अच्छे महाराज का इंतज़ाम कर दिया | दीना मनु के पास बैठते | डॉ.सहगल का इतना बड़ा दवाखाना था जिसमें कई असिस्टेंट डॉक्टर्स थे, कई बीमारियों के डॉक्टर्स थे और कई बीमारियों की सर्जरी भी की जाती थी | दवाखाना उन्हीं डॉक्टर्स के सहारे चल रहा था | ...Read More
शून्य से शून्य तक - भाग 40
40== कुछ दिनों बाद दीनानाथ ने देखा कि आशी ऑफ़िस जाकर अपने प्रॉजेक्ट पर काम करने लगी थी | तसल्ली सी हुई | उनकी निराशा अब एक बार फिर से आशा में परिवर्तित होती नज़र आ रही थी | मनु ने थोड़े दिनों में ही ‘एक्सपोर्ट डिपार्टमेंट’ संभाल लिया था | यह उसकी रुचि का विषय था और यही उसका विषय भी था | अत:काम संभालने में उसे कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी | काम तो संभल गया, उसके सहारे वह भी संभल रहा था | आशी से रोज़ मुलाकात होती ही थी | वह बचपन से उसका ...Read More