मुझे अपना यह नया उपन्यास " उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए " पाठकों को समर्पित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। मेरे इस उपन्यास का कथ्य यद्यपि समकालीन न होते हुए अब से लगभग चार दशक पूर्व का है, तथापि इसमें तत्कालीन कालखण्ड को चित्रित करने के साथ आज के समय की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक बदलावों को भी रेखांकित करने का प्रयास मैंने किया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का वह क्षेत्र जिसे सतही तौर पर देखने वाले पिछड़ा क्षेत्र मानते थे, मानते हैं। जब कि यथार्थ इसके विपरीत है। देश के अन्य भागो की भाँति यह क्षेत्र भी उस समय विकास की दौड़ में शामिल था। आज उसके विकास की कहानी किसी से छुपी नही है। उस समय इस क्षेत्र के गाँव कस्बों में, कस्बे छोटे-बड़े शहरों में तब्दील हो रहे थे। यह परिवर्तन मात्र भैतिक परिवर्तन नही था।
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उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 1
नीरजा हेमेन्द्र सम्मान -- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार, शिंगलू स्मृति सम्मान। रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार। सेवक साहित्यश्री सम्मान। हाशिये की आवाज़ कथा सम्मान। कथा साहित्य विभूषण सम्मान, अनन्य हिन्दी सहयोगी सम्मान आदि। हिन्दी की लगभग सभी अति प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ, बाल सुलभ रचनाएँ एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनाएँ आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित। हिन्दी समय, गद्य कोश, कविता कोश, मातृभारती, प्रतिलिपि, हस्ताक्षर, स्त्रीकाल, पुरवाई, साहित्य कुंज, रचनाकार, हिन्दी काव्य संकलन, साहित्य हंट, न्यूज बताओ डाॅट काॅम, हस्तक्षेप, नूतन कहानियाँ आदि वेब ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 2
भाग 2 घरों की कच्ची-पक्की छतों और मड़ईयों पर फैली लौकी, कद्दू, तुरई की बेलें पीले, श्वेत फूलों से जातीं। उस समय सब्जियों के छोटे बतिया ( फल ) खुशियों की सौगात लाते प्रतीत होते। इसका कारण ये कि ये था कि ये उपजें बहुत लोगों की रोटी-रोजगार से जुड़ी होतीं। विशेषकर छोटे कृषकों की। छतों व मडईयों पर उगी इन सब्जियों को बेचकर वे कुछ पैसे कमा लेते। सर्द ऋतु की गुनगुनी धूप में उपले पाथती औरतें कोई प्रेम गीत गुनगुना उठतीं। कभी-कभी विरह गीत भी.....और उनकी स्वरलहरियों से उदास वातावरण जीवन्त हो उठता। वसंत ऋतु की तो ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 3
भाग 3 इस वर्ष मैं दसवीं की व दीदी बारहवीं की परीक्षा दे रही थी। हम दोनों की इस बोर्ड की परीक्षायें थीं। मेरे मन में बोर्ड परीक्षा को लेकर थोड़ा डर था। मैं कहूँ तो थोड़ा नही मैं बोर्ड परीक्षा से बहुत डर रही थी। मन में हमेशा फेल हो जाने का भय बना रहता। इसीलिए मैं मन लगाकर पढ़ने के साथ-साथ पढ़ाई पर अधिक समय भी दे रही थी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता जैसे मुझे कुछ याद नही हो रहा है, न समझ में आ रहा है। ऐसा इसलिए था कि परीक्षा को लकर मेरे मन में ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 4
भाग 4 समय का पहिया अपनी गति से चलता जा रहा था। मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तथा दीदी ग्रेजुएशन के अन्तिम वर्ष में थी। मुझे दीदी के साथ रहना अच्छा लगता। एक घड़ी के लिए भी दीदी कहीं चली जाती तो मुझे अच्छा नही लगता। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती जा रही थी, दीदी के साथ मेरा जुडा़व बढ़ता ही जा रहा था। मैं दीदी के बिना रहने की कल्पना भी नही कर सकती थी। दीदी मेरा आर्दश थी, संबल थी। कुछ समय पश्चात् उस दिन...... दोपहर का समय था। हम सब भोजन करने के उपरान्त बैठे ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 5
भाग 5 उस समय के पडरौना से अब का पडरौना भिन्न हो चुका है। अब यहाँ उतनी कट्टरता से दिखाई नही देती। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के साथ चीजें परिवर्तित हो रही है। यहाँ के भी युवा अब बड़े शहरों के प्रबन्धन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियों में काम कर रहे हैं। सबसे बढ़कर अच्छी बात ये है कि जाति को अनदेखा करते हुए अपनी पसन्द के साथी से प्रेम विवाह भी कर रहे हैं। अब उस विवाह को घर वाले स्वीकार भी कर रहे हैं। आज दलितों का दक्खिनी ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 6
भाग 6 समय व्यतीत होता जा रहा था। दीदी का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था। उन्होंने स्नातकोत्तर की कक्षा प्रवेश ले लिया था। मेरा स्नातक पूरा होने वाला था। इन्द्रेश के चुनाव जीत जीने पर मेरे घर वालों की कोई प्रतिक्रिया न थी। हम सब जानते थे कि उसके चुनाव जीतने से ताऊजी के परिवार के लिए लोगांे के अहंकार व घंमड बढ़ने का एक और कारण मिला है। उनके दुव्र्यवहार, उनके लड़कों के घमंड में और वृद्धि होने जैसा है यह चुनाव। अब ताऊजी के दरवाजे पर लोगों की भीड़ हर वक्त लगी रहती थी। छोटी जगहों पर ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 7
भाग 7 यही तो हमारे समाज की परम्परा है। यही तो शिक्षा देता है हमारा समाज? हमारे माता- पिता तो बचपन से यही बात स्मरण कराते रहते हैं कि तुम लड़की हो, तुम्हें तोे व्याह कर एक दिन अपने घर जाना है। माता-पिता के घर को अपना घर मानने नही दिया जाता। बार-बार किसी नये दूसरे घर को अपना घर मानने की सीख दी जाती। जिस प्रकार जमीन पर लगे किसी पौधे को वहाँ से उखाड़कर किसी दूसरे स्थान पर, दूसरे वातावरण में लगा दिया जाये। बहुधा ऐसे पौधे मुरझा जाते हैं। कभी-कभी सूख भी जाते हैं। कुछ ऐसा ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 8
भाग 8 आज लगभग दो वर्षों के पश्चात् मैं माँ के घर आयी थी। अन्तराल पश्चात् आयी थी, अतः के कोने-कोने से परायेपन की गन्ध आ रही थी। यद्यपि घर में कुछ भी परिवर्तित नही हुआ था। फिर भी बहुत कुछ बदल गया था। मेरे मन में यह भाव रह-रह कर आता कि अब मेरा इस घर में कुछ नही है। यह एक पराया घर है, जहाँ मेरा कुछ भी नही है। हमारा समाज यही तो शिक्षा देता है कि विवाह पश्चात् ससुराल ही लड़की का घर हो जाता है और पीहर बेगाना। मैं परायी हो चुकी हूँ। माँ ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 9
भाग 9 " बिटिया तू कब ले रूकबू? " दादी ने मेरी ओर देखकर पूछा। " हम..? दो-चार दिन रूकेंगे दादी। " मैंने दादी से कहा। " ठीक बा। " दादी ने कहा। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। माँ को ऐसा लगा जैसे दादी अब जाने को तत्पर हो रही हैं। " खाना खा के र्जाइं अम्मा! " माँ ने आग्रह करते हुए दादी से कहा। " ठीक बा। का बनईबू बिटिया। तू त जनते बाडू कि हमारा एकौ दाँत नाही बा। " कह कर दादी मुस्करा पड़ीं। " आप जवन कहीं, बन जाई। " माँ ने कहा। " ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 10
भाग 10 वो मेरी सबसे अच्छी मित्र थी। कॉलेज के दिनों में हमारी मित्रता के चर्चे हुआ करते थे। अनिमा नाम था उसका। हँसमुख व मिलनसार स्वभाव की अनिमा प्रारम्भ में जब कॉलेज में आी थी तब मैं उससे तथा वो मुझसे बिलकुल भी बातें नही करते थे। न जाने कैसे व कब वो मेरी प्रिय मित्रों में शुमार हो गयी थी। बल्कि सबसे अच्छी मित्र बन गयी। तब वह स्पष्टवादी इतनी थी कि आपे इसी स्वभाव के कारण अक्सर उसका किसी न किसी से झगड़ा भी हो जाता था। किन्तु कॉलेज में मेरी व उसकी कभी भी अनबन ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 11
भाग 11 मेरा भाई नौकरी के लिए प्रयत्न कर रहा था। माँ ने बताया कि इन्द्रेश पुनः टिकट पाने लिए प्रयत्न कर रहा था। वो क्षेत्र में जनता को लुभाने, अपनी पहचान बनाने के लिए खूब घूम रहा है। वृद्धावस्था के कारण ताऊजी की सक्रियता कम हो गयी है। वो अपनी विधानसभा सीट को ख़ानदानी जाग़ीर बनाने के उद्देश्य से अब अपने बड़े पुत्र इन्द्रेश को टिकट दिला कर पुनः चुनाव लड़वाने की तैयारियो में हैं। इन्द्रेश व उसका अभिन्न मित्र राजेश्वर घर-घर जाकर दोनों हाथ जोड़कर जन-सम्पर्क कर जनता से वोट देने की अपील कर रहे हैं। लोग ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 12
भाग 12 इस समय मेरी सारी जद्दोजहद बच्चों का भविष्य बनाने व अपनी गृहस्थी बचाने के लिए थी। प्रेम आकर्षण मेरे जीवन से लुप्त हो गया था। माँ फोन करके बुलाती रहती। मैं मना कर देती। मेरी अस्वस्थता को देखते हुए अभय अब चाहते थे कि कभी-कभी मैं माँ के घर हो आऊँ। किन्तु अब मैं कहीं भी आना-जाना नही चाहती थी। माँ के घर मुझे न भेजने वाले अभय अब चाहते थे कि एक बार मैं माँ के घर अवश्य हो आऊँ। उनका सोचना था कि स्थान परिवर्तन होने से मेरे स्वास्थ्य में भी परिवर्तन आयेगा। मैं पूर्णतः ...Read More
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए - भाग 13
भाग 13 समय व्यतीत होता जा रहा था। आजकल मुझे माँ के घर की बहुत याद आ रही थी। से इन्द्रेश की अस्वस्थता के विषय में ज्ञात हुआ है तब से कुछ अधिक ही। अन्ततः मुझसे रहा नही गया और एक दिन का अवकाश लेकर मैं माँ के घर के लिए चल पड़ी। मुझे कुशीनगर से पडरौना जाते समय मार्ग में पड़ने वाले मनोरम दृश्य तथा वो मुख्य सड़क जो पडरौना छावनी की ओर जाती थी, जो चारों ओर हरियाली के साथ अपने भीतर असीम शान्ति समेटे हुए थी, मुझे सदा से आकर्षित करती थी। कदाचित् तथागत् की शान्ति ...Read More