सड़कछाप

(340)
  • 134.8k
  • 242
  • 52.6k

सर्दियों की सुबह, शीतलहर से समूचा उत्तर भारत कांप रहा था। चरिंद-परिन्द सब हल्कान थे कुदरत के इस कहर से। कई दिनों से सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिये थे । गांव कोहरे और धुँध की चादर में लिपटा हुआ था। बहुत दूर तक भी नजर गड़ाने पर पूरा सिवान मानों उतनी दूर तक ही सीमित था जितनी दूर तक आंखे कोहरे हो भेद सकती थीं। लल्लन शुक्ला की की मृत्यु के समाचार छन-छन के आ रहे थे। हाज़िर गवाह लोगों ने उनको अपने सामने ही दम तोड़ते देखा था, लेकिन फिर भी उनको हस्पताल ले गये थे लोग, थाना -पुलिस की भी कवायद होनी थी। रात हस्पताल में ही गुजरी और फिर वहां से पोस्टमार्टम के लिये रायबरेली ले जाया गया जो कि गांव के पास के हस्पताल से सात किलोमीटर दूर था। लाश तो थी, डॉक्टर भी था मगर मेहतर ने इतनी शराब पी ली थी कि वो बेसुध पड़ा था, दिन में भी इतनी धुंध और बदली छाई थी कि पचास फुट की आगे की चीजें दिखायी नहीं पड़ती थीं। मोर्चरी में बिजली नहीं थी, जनरेटर खराब पड़ा था, डॉक्टर ने बताया कि बिजली रात की पाली में आती है, रात के ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक ।

Full Novel

1

सड़कछाप - 1

सर्दियों की सुबह, शीतलहर से समूचा उत्तर भारत कांप रहा था। चरिंद-परिन्द सब हल्कान थे कुदरत के इस कहर कई दिनों से सूर्य देवता ने दर्शन नहीं दिये थे । गांव कोहरे और धुँध की चादर में लिपटा हुआ था। बहुत दूर तक भी नजर गड़ाने पर पूरा सिवान मानों उतनी दूर तक ही सीमित था जितनी दूर तक आंखे कोहरे हो भेद सकती थीं। लल्लन शुक्ला की की मृत्यु के समाचार छन-छन के आ रहे थे। हाज़िर गवाह लोगों ने उनको अपने सामने ही दम तोड़ते देखा था, लेकिन फिर भी उनको हस्पताल ले गये थे लोग, थाना -पुलिस की भी कवायद होनी थी। रात हस्पताल में ही गुजरी और फिर वहां से पोस्टमार्टम के लिये रायबरेली ले जाया गया जो कि गांव के पास के हस्पताल से सात किलोमीटर दूर था। लाश तो थी, डॉक्टर भी था मगर मेहतर ने इतनी शराब पी ली थी कि वो बेसुध पड़ा था, दिन में भी इतनी धुंध और बदली छाई थी कि पचास फुट की आगे की चीजें दिखायी नहीं पड़ती थीं। मोर्चरी में बिजली नहीं थी, जनरेटर खराब पड़ा था, डॉक्टर ने बताया कि बिजली रात की पाली में आती है, रात के ग्यारह बजे से सुबह सात बजे तक । ...Read More

2

सड़कछाप - 2

तेरहवीं होते ही सारे रिश्तेदार विदा हो गये। घर अपनी गति पर लौट आया । शुरू में लोगों को उत्साह था बदला लेने, मुकदमा करने का लेकिन भुर्रे क्या कोई मामूली बदमाश तो था नहीं कि पूरे शुकुल से दस लोग लाठी-डंडा लेकर जायें और उसको मारपीट आयें। अमरेश भी तेरहवीं के बाद अपने स्कूल जाने की जिद करने लगा जो एक कोस की दूरी पर था । सारे बच्चे इक्के से स्कूल जाते थे। गांव के ही बरसाती इक्केमान पन्द्रह-सोलह बच्चों को प्राइवेट स्कूल ले जाता फिर दोपहर में सबको लौटा लाता। गांव का बूढ़ा इक्केमान सभी बच्चों का बरसाती बाबा था, जो बहुत ज्यादा जिम्मेदारी से इन बच्चों को ले जाता और लाता था। गांव के लोगों का भी बरसाती से मन पार था। लेकिन अब समीकरण बदल चुका था। भुर्रे डाकू था, उसकी सोच और गुस्से का क्या भरोसा । क्या पता अभी वो और बदला लेना चाहता हो और फिर अमरेश पर भी हमला करे। ...Read More

3

सड़कछाप - 3

अमरेश की पढ़ाई ना के बराबर चल रही थी। दुख और संवेदना का समय बीत चुका था। लल्लन की बेशक एक स्थायी दुख था लेकिन उसकी मृत्यु से उपजी सहानुभूति अब समाप्त हो चुकी थी। जिंदगी की कड़वी सच्चाइयों से अब सामना था। जिंदगी के अभाव रोज के रोज डसते थे। पुलिस की रिपोर्ट भी मख़ौल उड़ाने में काफी कारगर थी। तो गालिबन अब मसला ये था कि लल्लन शुक्ला ने अपनी मौत को खुद दावत दी थी। उन्होंने लालच में मुखबिरी की और फिर हथियार लेकर भुर्रे से निपटने चले थे सो उन्हें उनका अंजाम मिला। ये भी खबर अब आम थी कि लल्लन शुक्ला पहले से पुलिस के मुखबिर थे। गांव उन्हें नचनिया पहले से कहता था ऊपर से मुखबिरी की बात ने मृत्यु के बाद भी उनके दोषों का बढ़ा दिया था। और जब दोषी खुद भगवान को प्यारा हो जाये तो पृथ्वी पर लोग उनके अपनों से इस बात का बदला ले रहा था। अमरेश और सरोजा के हिस्से में अब कोई सहानभूति ना थी। ...Read More

4

सड़कछाप - 4

अमरेश और उसकी माँ सरोजा अब लोकपाल तिवारी के घर आकर रहने लगे थे। सरोजा ने अपने हिस्से की बटाई दे दी थी। सरोजा हर महीने-दो महीने पर अपने ससुराल चली जाती और वहां की हाल-खबर ले आती। अमरेश फिर से अपने नाना के गांव इमलिया में प्राइवेट स्कूल में पढ़ने लगा। कुछ ही महीनों बाद उसकी दोनों मौसियों ने स्थायी डेरा जमा लिया अपने पति के साथ। सरोजा की दोनों बहनें प्रेमा और किरन पिता के घर डट गयीं। प्रेमा के पति का भी प्रकाश था और किरन के पति का नाम राजकुमार था। दोनों ही कहीं ना कहीं रोजी -रोटी के लिये हाथ-पांव मार रहे थे। लेकिन अमरेश के स्थायी रूप से इमिलिया रहने पर और लोकपाल तिवारी की अमरेश के प्रति बढ़ती सहानभूति और आसक्ति से दोनों दामाद बहुत आशंकित थे। ...Read More

5

सड़कछाप - 5

रामजस तिवारी आकर बैठे वो पूरे शुकुल से लौटे थे। गांव नहीं पहुंचे थे कि उन्हें ऐसी खबर मिल कि उनके पैरों के तले की जमीन खिसक गयी। इस खबर की पुष्टि उनके स्तर से हो पाना आसान नहीं था। जब रिश्तेदार ही नहीं रह गया तो रिश्ते की कैसी मर्यादा?इसलिये वो इमिलिया लौट आये। सरोजा पानी लेकर आयी उनका उतरा हुआ चेहरा देख कर उसे कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि चिंता और लोकपाल तिवारी का अब चोली-दामन का साथ हो चुका था। ...Read More

6

सड़कछाप - 6

एक रोज रामजस आये तो उनके हाथ मे बाज़ार की कई किस्म की साग-सब्ज़ियां थीं। उन्होंने सरोजा को पुकारा आयी तो रामजस ने कहा - ‘’ये सब ले जा खाना बना डाल, मीठा और खीर का भी इन्तेजाम कर ले, कुछ मेहमान आएंगे आज रात । ” सरोजा ने कहा “क्या जिज्जी, जीजा आएंगे” उसका मतलब उसके ननद-ननदोई से था ...Read More

7

सड़कछाप - 7

काफी देर बाद सरोजा के होशोहवास काबू में आये। उसे लगता था कि उसका सारा शरीर किसी ने आरी टुकड़े-टुकड़े कर दिया हो। पूरे बदन के पोर-पोर से बेपनाह दर्द उठ रहा था। पूरा मुंह नोचा-सूजा हुआ था। वक्ष पर नाखूनों से नोचे और दांत से काटे जाने की अनगिनत निशानियां मौजूद थीं। जननांगों से काफी खून गिरा था और रिस भी रहा था। तन के कपड़े फटे थे। वो बमुश्किल उठी और बाहर आयी। बाहर अभी भी अंधेरा और कोहरा था । रामजस वैसे ही बरामदे की फर्श पर पड़े थे। उसके घर का मुख्य दरवाजा बंद था। उसे घर के अंदर उसी रास्ते से जाना था जिस रास्ते से वो वापस आयी थी। वो बमुश्किल चलते हुऐ उस जगह पहुंची जहां उससे टार्च और छूरी छीनी गयी थी। टॉर्च जमीन पर जलती हुई ही पड़ी मिली। ...Read More

8

सड़कछाप - 8

विधाता किसी की सारी प्रार्थनाएं नहीं सुनता। ईश्वर ने भी सरोजा की आधी बात ही सुनी थी। लड़का निष्कंटक तो रामजस बच गए। अगले दिन सारे रिश्तेदारों की आमद हुई। सुरसता के घर से सारे लोग वापस आ चुके थे । साथ में सुरसता और उसके पति जगराम भी आये थे। लोकपाल तिवारी भी आये। रामजस को जो चोट आयी थी वो गहरी तो थी मगर गंभीर नहीं। थाना-पुलिस के डर से हनुमन्त उसे अस्पताल नहीं ले गया था। पास के बाज़ार के एक झोला छाप डॉक्टर के घर दिन भर भर्ती रखा। वहीं टांके लगवाये और दो-तीन बोतल ग्लूकोज चढ़ाकर शाम को घर भेज दिया। वो माथे पर पट्टी बांधे मगर चिन्तामुक्त थे। उनके थोड़े बहुत पैसे ही तो गये थे बाकी तो डाकू सब अपना माल ही ले गये थे। ...Read More

9

सड़कछाप - 9

अंधेरा हो गया तो तामशबीन छंट गये और तमाशाई थक गये थे। रामजस और अमरेश एक दूसरे को पकड़े रहे। जब हाथ को हाथ सूझना बंद हो गया तब मैना ने अपने घर से एक लालटेन जलाकर भेज दिया। बरामदे में हनुमन्त के बड़े बेटे अखिलेश्वर ने लालटेन लाकर टांग दिया। अखिलेश्वर को लोग अखिल के नाम से बुलाते थे वो अमरेश से सिर्फ दो महीने छोटा था और अपने छोटे भाई के साथ प्राइवेट शिशु मंदिर में पढ़ता था अपने छोटे भाई महेश्वर के साथ जिसे सब महेश बुलाते थे। सर्दी की रात बहुत बहुत जल्दी भयावाह लगने लगती है। ...Read More

10

सड़कछाप - 10

लड़ते-झगड़ते चाचा-भतीजा घर लौटे। उस रात खाना भी नहीं बना, रामजस चिलम फूंककर और अमरेश ने दालमोठ खाकर काटी। सुबह उठा तो दरवाजे पर आकर उसने देखा दोनों गायों का स्थान खाली था। उसे अपने नाना की बात याद आयी कि रामजस सब बेच डालेंगे और अंत में भूखा मारेंगे उसको । उसकी गायें भी गयीं और वो कल भूखा भी सोया। नाना तो बात ठीक कही थी मगर आदमी ठीक नहीं थे, झूठे थे इसीलिए तो दुबारा उसकी हाल-खबर नहीं ली। ...Read More

11

सड़कछाप - 11

आसफ अली रोड और नाका यही बुदबुदाता रहा वो रास्ते भर। उसकी आदत थी कि एक वक्त में एक को पकड़कर वो जीने-मरने को उतारू रहता था। दो रुपये पचहत्तर पैसे के टिकट को उसने जेब के बजाय उंगलियों में फंसा रखा था। बार-बार वो कंडक्टर से पूछता “आसफ अली का नाका आ गया, आसफ अली का नाका आ गया”। कंडक्टर उसको समझाता कि जब आयेगा तब मैं खुद बता दूंगा। फिर भी अमरेश बार -बार पूछता । वो आशंकित था कि कहीं वो नाका छूट गया तो आदमियों के इस महासमुद्र में वो अपने पहचान वालों को कहाँ ढूंढेगा। जरूरी नहीं कि उसे हर बार सरदारजी जैसे कोई देवता आदमी मिल जायें। ...Read More

12

सड़कछाप - 12

-डेढ़ महीने तक खाने -पीने के लिये अमरेश गुरूपाल पर आश्रित रहा, उसके बाद उसके फूफा जय नारायण दिल्ली आये गांव से। जय नारायण जब दिल्ली आये तो उन्हें नानमून की कारस्तानियों की इत्तला मिली। ये उनके लिये किसी अचंभे की बात नहीं थी क्योंकि गाँव में उनकी और नानमून को लेकर मुकदमेबाजी चल रही थी। ...Read More

13

सड़कछाप - 13

खतो-किताबत ने दिल्ली की भयावहता अमरेश के लिये कुछ कम कर दी थी। चचेरा ही सही कहने को उसका परिवार तो था, फ़िर परिवार तो किसी का बिल्कुल ही ठीक नहीं होता सो उसका भी नहीं था। उसके गाँव से जो चिट्ठियां आतीं तो वो उन्हे संभालकर रखता। भले ही उसके माँ-बाप नहीं थे मगर अब वो खुद को अनाथ नहीं महसूस करता था। ...Read More

14

सड़कछाप - 14

इस बार वो गाड़ी पर बैठा तो चेहरे पर चिंता का कोई लक्षण नहीं था अलबत्ता जेब में पैसे का एक महानगरीय आत्मविश्वास से वो लबरेज था। पैंट, शर्ट, चश्मा, रुमाल, हाथ में पॉकेट रेडियो, खिली रंगत उसके चेहरे पर आत्मविश्वास ला रही थी। रॉयबरेली स्टेशन पर जब वो उतरा तो उसने दाढ़ी बनवाई, मसाज कराया हालांकि उसके चेहरे पर कुछ खास दाढ़ी नहीं थी। उसने मिठाई खरीदी और फिर रिक्सा बुक कराके गांव पहुंचा। ...Read More

15

सड़कछाप - 15 New

अमरेश ने नींव की खुदाई शुरू कराके अपने नाना की शरण ली। उनसे पांच हजार की मदद मांगी और भी कहा कि ये मदद नहीं बल्कि उधार होगा और हालात माफिक होते ही वो इस रकम को लौटा देगा। उसकी मौसियों, मौसों के प्रखर विरोध के बावजूद लोकपाल तिवारी ने साहस करते हुए सबके सामने उसे दो हजार और अकेले में पांच सौ रुपये देते हुए कहा”इसे लौटाने की जरूरत नहीं है, जाओ अपना काम बनाओ, विजयी भव बेटा”। ज़िन्दगी पल-पल रंग बदल रही थी कल तक जिस नाना को लेकर उसके मन में तमाम कड़वाहट थी अब वही उसको एक बेबस बुजुर्ग नजर आने लगे। सत्यनारायण की पूजा करके उसने नींव पर ईंट जोड़कर घर के काम का श्रीगणेश कर दिया। ...Read More

16

सड़कछाप - 16

अमर बहुत व्यथित था कि कुत्ता उसका भाई औऱ कुत्ते का मल साफ करना उसका रोजगार। कल का सपना सुहा सुहाना था, सर, लेखक, लड़की जैसी नियामतें उसकी जिंदगी में दस्तक दे रही थीं मगर आज की वास्तविक जिंदगी बहुत बदरंग और बदबूदार। वो उच्च ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ और आज उसे रोजगार में क्या करना पड़ा?अमर सर से लेकर अमर नौकर तक का गोल घेरे का सफर ज़िन्दगी ने महज कुछ ही घंटों में तय कर लिया था। वो हालात पर बड़ी सावधानी से विचार करने लगा। पिछली बार की गल्तियां उसे हर्गिज़ नहीं दोहरानी थी जैसे कि अपनी दिल्ली की हाड़ तोड़ कमाई को उसने अपने गांव के मकान में लगाया था मकान मालिक और दूल्हा बनने के लिये। लेकिन ना तो वो गांव में मालिक बन सका, ना दूल्हा और अपनी जमा पूंजी भी गंवा बैठा था और जान के लाले पड़े सो अलग से। ...Read More

17

सड़कछाप - 17

बतरा को तब अमर की याद आयी जो तुनककर चला गया था कुत्ते का मल फेंकने की बात पर अपनी पन्द्रह दिनों की तनख्वाह भी नहीं ले गया था। बतरा को अमर जैसे ही खुद्दार और वफादार व्यक्ति की ज़रूरत थी भले ही वो ज्यादा पढ़ा-लिखा और होशियार ना हो। ...Read More

18

सड़कछाप - 18

सुबह अमर की आंख बहुत देर से खुली। जागते ही उसने शीशे की खिड़की से बाहर देखा तो अभी बहुत कोहरा था। उसने घड़ी में वक्त देखा तो साढ़े नौ बज रहे थे। कमरे में कोई नहीं था। कमरे का हीटर बुझा हुआ था मगर लाइट जली हुई थी। उसने इधर -उधर देखा, टोह ली। ना तो कोई ऊपर के किचेन में था और ना ही बाथरूम में। रात की पूरी घटना उसे याद हो आयी। उसका मन बड़ा अनमनयस्क हो रहा था। शरीर ने बेचैनी का सिग्नल दिया तो उसे याद आया कि उसे पेशाब लगी है और इसी लिये उसकी आँख खुली है शायद। ...Read More

19

सड़कछाप - 20

अमर कुछ घण्टे वहॉ बिताकर फिर अपने घर लौट आया। लेकिन अपना सब कुछ वहीं छोड़ आया था वो। ने उसे देखकर चैन की सांस ली। अमर को किसी दम चैन ना था। रेवती की बातें उसका कलेजा छलनी किये जा रही थीं। आज उसे अपनी माँ की भी याद आ रही थी, मोह के कारण नहीं, अपने न्याय-अन्याय की तुला पर वो माँ-बेटे के रिश्ते को तौलने लगा। अभी तक वो ये मानता रहा था कि उसकी माँ ने उसके साथ अन्याय किया लेकिन आज वो खुद को न्याय के कटघरे में खड़ा करके जिरह-बहस कर रहा था। ऐसा क्या था जिसकी वजह से उसकी माँ को ये कदम उठाना पड़ा। बड़ी देर तक माथापच्ची करने के बाद भी उसे उसकी मां का पक्ष समझ में नही आया। उसने निश्चय किया कि इन झंझावतों से निकलने के बाद वो अपनी माँ से मिलेगा। ...Read More

20

सड़कछाप - 19

अमर ने तन -पेट काट कर दिन रात जी तोड़ मेहनत करके और तमाम जोड़-तोड़ और उधारी के बदौलत प्लाट ले ही लिया। दुजाना के उसने कुछ पैसे रोक लिए क्योंकि उसे घर भी तो बनवाना था। दुजाना को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि जिस तरह का चलता-पुर्जा आदमी अमर बन चुका था, वैसे में उसे अमर जैसे लोगों से सम्बंध बनाये रखना काफी मुफीद हो सकता था। छोटे से प्लाट का बैनामा ना होने के बाद भी अमर ने उस पर ईंट, बालू गिरवा दिया । लेकिन अमर ये जानता था कि इतने बिल्डिंग मटेरियल से उसे छत नसीब नहीं होगी। उसे और पैसे जुटाने होंगे, कहाँ से लाये वो पैसे, दिल्ली में अधिकतम उधार वो ले चुका था। लेकिन मिस्री, मजदूर की मजदूरी तो उधार नहीं रह सकती। क्या करे वो? ...Read More