प्रथम सोपान-मंगलाचरण श्लोक : * वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि। मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥ भावार्थ:-अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ * भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥ भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥ * वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥ भावार्थ:-ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥ * सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ। वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥ भावार्थ:-श्री सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥ * उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्। सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्॥5॥ भावार्थ:-उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥
Full Novel
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 1
1 - बालकाण्ड (1) प्रथम सोपान-मंगलाचरणश्लोक : * वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥ भावार्थ:-अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, और मंगलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ * भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥2॥ भावार्थ:-श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥ * वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्।यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥ भावार्थ:-ज्ञानमय, नित्य, शंकर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 2
(2) संत-असंत वंदना* बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख देहीं॥2॥ भावार्थ:-अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)॥2॥ * उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 3
(3) कवि वंदना* चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने गुन ग्रामा॥2॥ भावार्थ:-मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है॥2॥ * जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥ भावार्थ:-जो बड़े बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 4
(4) श्री रामगुण और श्री रामचरित् की महिमा* मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥राम कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥ भावार्थ:-वे (श्री रामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरह से सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥2॥ * लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥3॥ भावार्थ:-लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 5
(5) मानस का रूप और माहात्म्यदोहा : * जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।अब सोइ कहउँ सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥ भावार्थ:-यह रामचरित मानस जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा मैं श्री उमा-महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ॥35॥ चौपाई : * संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥ भावार्थ:-श्री शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के अनुसार तो ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 6
(6) सती का भ्रम, श्री रामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद* रामकथा ससि किरन समाना। संत चकोर करहिं पाना॥ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥ भावार्थ:-श्री रामजी की कथा चंद्रमा की किरणों के समान है, जिसे संत रूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही संदेह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था॥4॥ दोहा : * कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥ भावार्थ:-अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 7
(7) सती का दक्ष यज्ञ में जानादोहा : * दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।नेवते सादर सुर जे पावत मख भाग॥60॥ भावार्थ:-दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रित किया॥60॥ चौपाई : * किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥ भावार्थ:-(दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजी को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले॥1॥ ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 8
(8) श्री रामजी का शिवजी से विवाह के लिए अनुरोधदोहा : * अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो निज नेहु।जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥ भावार्थ:-(फिर उन्होंने शिवजी से कहा-) हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥76॥ चौपाई : * कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥ भावार्थ:-शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 9
(9) रति को वरदानदोहा : * अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि निज मिलन प्रसंगु॥87॥ भावार्थ:-हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥87॥ चौपाई : * जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥ भावार्थ:-जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 11
(11) अवतार के हेतुसोरठा : * सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥120 ख॥ पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मंगलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुड़जी ने सुना था॥120 (ख)॥ * सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।सुनहु राम अवतार चरति परम सुंदर अनघ॥120 ग॥ भावार्थ:-वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्री रामचन्द्रजी के अवतार का परम सुंदर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥120(ग)॥ * हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥120 घ॥ ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 10
(10) शिवजी का विवाहदोहा : * मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ भावार्थ:-मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥100॥ चौपाई : * जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥ भावार्थ:-वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 12
(12) मनु-शतरूपा तप एवं वरदानदोहा : * सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।रामकथा कलि मल मंगल करनि सुहाइ॥141॥ भावार्थ:-हे मुनीश्वर भरद्वाज! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। श्री रामचन्द्रजी की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली, कल्याण करने वाली और बड़ी सुंदर है॥141॥ चौपाई : * स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥ भावार्थ:-स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 13
(13) प्रतापभानु की कथाचौपाई : * सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥बिस्व बिदित एक कैकय सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥ भावार्थ:-हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता (राज्य करता) था॥1॥ * धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥2॥ भावार्थ:-वह धर्म की धुरी को धारण करने वाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणों के ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 14
(14) रावणादि का जन्म, तपस्या और उनका ऐश्वर्य तथा अत्याचारदोहा : * भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।धूरि जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥175॥ भावार्थ:-(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरु पर्वत के समान (भारी और कुचल डालने वाली), पिता यम के समान (कालरूप) और रस्सी साँप के समान (काट खाने वाली) हो जाती है॥175॥ चौपाई: * काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥1॥ भावार्थ:-हे मुनि! सुनो, समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 15
(15) भगवान् का वरदानदोहा : * जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह॥186॥ और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई॥186॥ चौपाई : * जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥1॥ भावार्थ:-हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा॥1॥ * कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥ते दसरथ कौसल्या ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 16
(16) विश्वामित्र का राजा दशरथ से राम-लक्ष्मण को माँगना, ताड़का वधदोहा : * ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम रूप।भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥ भावार्थ:-जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥ चौपाई : * यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥ भावार्थ:-यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 17
(17) श्री राम-लक्ष्मण को देखकर जनकजी की प्रेम मुग्धतादोहा : * प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥ भावार्थ:-मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्गद् (प्रेमभरी) गंभीर वाणी से कहा- ॥215॥ चौपाई : * कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥ भावार्थ:-हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 18
(18) श्री सीताजी का पार्वती पूजन एवं वरदान प्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण संवाददोहा : * देखन मिस मृग बिहग तरु बहोरि बहोरि।निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥234॥ भावार्थ:-मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है। (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता है)॥234॥ चौपाई : * जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥ भावार्थ:-शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 19
(19) श्री सीताजी का यज्ञशाला में प्रवेशदोहा : * जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।चतुर सखीं सुंदर सकल चलीं िलवाइ॥246॥ भावार्थ:-तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं॥246॥ चौपाई : * सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदंबिका रूप गुन खानी॥उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अंग अनुरागीं॥1॥ भावार्थ:-रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे (काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात् वे जगत की स्त्रियों ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 20
(20) धनुषभंगदोहा : * राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥260॥ भावार्थ:-श्री रामजी सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम श्री रामजी ने सीताजी की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना॥260॥ चौपाई : * देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥1॥ भावार्थ:-उन्होंने जानकीजी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड़ दे, तो उसके मर जाने पर अमृत ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 21
(21) दशरथजी के पास जनकजी का दूत भेजना, अयोध्या से बारात का प्रस्थानदोहा : * तदपि जाइ तुम्ह करहु जथा बंस ब्यवहारु।बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥ भावार्थ:-तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो॥286॥ चौपाई : * दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥1॥ भावार्थ:-जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 22
(22) बारात का जनकपुर में आना और स्वागतादिचौपाई : * कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥भरे सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥ भावार्थ:-(दूध, शर्बत, ठंडाई, जल आदि से) भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुंदर बर्तन,॥1॥ * फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं॥भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥ भावार्थ:-उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुंदर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिए भेजीं। गहने, ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 23
(23) श्री सीता-राम विवाह, विदाईछन्द : * चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं।नवसप्त साजें सुंदरी सब मत्त गामिनीं॥कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं॥ भावार्थ:-सुंदर मंगल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी सुंदरियाँ सोलहों श्रृंगार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं। उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें भी लजा जाती हैं। पायजेब, पैंजनी और सुंदर कंकण ताल की गति पर बड़े सुंदर बज रहे हैं। दोहा : ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 24
(24) बारात का अयोध्या लौटना और अयोध्या में आनंद* चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥रामहि निरखि नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥4॥ भावार्थ:-डंका बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्ते के) गाँव के स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं॥4॥ दोहा : * बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥343॥ भावार्थ:-बीच-बीच में सुंदर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची॥343॥ चौपाई : *हने निसान पनव बर ...Read More
रामायण - अध्याय 1 - बालकाण्ड - भाग 25
(25) नवाह्नपारायण, तीसरा विश्राम चौपाई : * भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥देखि रामु सब सभा लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥1॥ भावार्थ:-राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए। श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई। (अर्थात सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिए मिट गए)॥1॥ * पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥2॥ भावार्थ:-फिर मुनि वशिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए। राजा ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 1
2 - अयोध्याकांड (1) द्वितीय सोपान-मंगलाचरण* यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तकेभाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्।सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवरः सर्वदाशर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभः श्री शंकरः पातु माम्॥1॥ भावार्थ:-जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कंठ में हलाहल विष और वक्षःस्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर, संहारकर्ता (या भक्तों के पापनाशक), सर्वव्यापक, कल्याण रूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें॥1॥ * प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा॥2॥ भावार्थ:-रघुकुल को आनंद देने वाले श्री रामचन्द्रजी के मुखारविंद ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 2
(2) सरस्वती का मन्थरा की बुद्धि फेरना, कैकेयी-मन्थरा संवाद, प्रजा में खुशीदोहा : * नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि॥12॥ भावार्थ:-मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं॥12॥ चौपाई : * दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू॥1॥ भावार्थ:-मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है? (उनसे) श्री रामचन्द्रजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसका ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 3
(3) दशरथ-कैकेयी संवाद और दशरथ शोक, सुमन्त्र का महल में जाना और वहाँ से लौटकर श्री रामजी को महल भेजनाछन्द : * केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥ भावार्थ:-'हे रानी! किसलिए रूठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 4
(4) श्री राम-कैकेयी संवाद* करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुखु सुना न काऊ॥तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूँछी बचन महतारी॥2॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का स्वभाव कोमल और करुणामय है। उन्होंने (अपने जीवन में) पहली बार यह दुःख देखा, इससे पहले कभी उन्होंने दुःख सुना भी न था। तो भी समय का विचार करके हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा-॥2॥ * मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होइ निवारन॥सुनहु राम सबु कारनु एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू॥3॥ भावार्थ:-हे माता! मुझे पिताजी के दुःख का कारण कहो, ताकि उसका निवारण हो ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 5
(5) श्री राम-कौसल्या संवाद* अति बिषाद बस लोग लोगाईं। गए मातु पहिं रामु गोसाईं॥मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा जनि राखै राऊ॥4॥ भावार्थ:-सभी पुरुष और स्त्रियाँ अत्यंत विषाद के वश हो रहे हैं। स्वामी श्री रामचंद्रजी माता कौसल्या के पास गए। उनका मुख प्रसन्न है और चित्त में चौगुना चाव (उत्साह) है। यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख न लें। (श्री रामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई मुझको ही राजतिलक क्यों होता है। अब माता कैकेयी की आज्ञा और पिता की मौन सम्मति पाकर वह सोच ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 6
(6) श्री राम-कौसल्या-सीता संवाद* कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी बिसरि जनि जाई॥3॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया। फिर माता के पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। (माता ने कहा-) बेटा! जल्दी लौटकर प्रजा के दुःख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाए!॥3॥ * फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥4॥ भावार्थ:-हे विधाता! क्या मेरी दशा भी फिर पलटेगी? क्या अपने नेत्रों से मैं इस मनोहर जोड़ी को फिर देख पाऊँगी? ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 7
(7) श्री राम-सीता-लक्ष्मण का वन गमन और नगर निवासियों को सोए छोड़कर आगे बढ़नादोहा : * सजि बन साजु सबु बनिता बंधु समेत।बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥79॥ भावार्थ:-वन का सब साज-सामान सजकर (वन के लिए आवश्यक वस्तुओं को साथ लेकर) श्री रामचन्द्रजी स्त्री (श्री सीताजी) और भाई (लक्ष्मणजी) सहित, ब्राह्मण और गुरु के चरणों की वंदना करके सबको अचेत करके चले॥79॥ चौपाई : * निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥1॥ भावार्थ:-राजमहल से निकलकर श्री रामचन्द्रजी वशिष्ठजी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 8
(8) लक्ष्मण-निषाद संवाद, श्री राम-सीता से सुमन्त्र का संवाद, सुमंत्र का लौटना* बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग रस सानी॥काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥ भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2॥ * जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥ भावार्थ:-संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 9
(9) प्रयाग पहुँचना, भरद्वाज संवाद, यमुनातीर निवासियों का प्रेमदोहा : * तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ।सखा सिय सहित बन गवनु कीन्ह रघुनाथ॥104॥ भावार्थ:-तब प्रभु श्री रघुनाथजी गणेशजी और शिवजी का स्मरण करके तथा गंगाजी को मस्तक नवाकर सखा निषादराज, छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन को चले॥104॥ चौपाई : * तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू॥प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई॥1॥ भावार्थ:-उस दिन पेड़ के नीचे निवास हुआ। लक्ष्मणजी और सखा गुह ने (विश्राम की) सब सुव्यवस्था कर दी। प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने सबेरे प्रातःकाल की सब क्रियाएँ ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 10
(10) श्री राम-वाल्मीकि संवाद* देखत बन सर सैल सुहाए। बालमीकि आश्रम प्रभु आए॥राम दीख मुनि बासु सुहावन। सुंदर गिरि जलु पावन॥3॥ भावार्थ:-सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि मुनि का निवास स्थान बहुत सुंदर है, जहाँ सुंदर पर्वत, वन और पवित्र जल है॥3॥ * सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले॥खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं॥4॥ भावार्थ:-सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं और मकरन्द रस में मस्त हुए भौंरे सुंदर गुंजार कर रहे हैं। बहुत ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 11
(11) सुमन्त्र का अयोध्या को लौटना और सर्वत्र शोक देखनादोहा : * भयउ निषादु बिषादबस देखत सचिव तुरंग।बोलि सुसेवक तब दिए सारथी संग॥143॥ भावार्थ:-मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर दिए॥143॥ चौपाई : * गुह सारथिहि फिरेउ पहुँचाई। बिरहु बिषादु बरनि नहिं जाई॥चले अवध लेइ रथहि निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा॥1॥ भावार्थ:-निषादराज गुह सारथी (सुमंत्रजी) को पहुँचाकर (विदा करके) लौटा। उसके विरह और दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले। (सुमंत्र और घोड़ों ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 12
(12) मुनि वशिष्ठ का भरतजी को बुलाने के लिए दूत भेजनादोहा : * तब बसिष्ठ मुनि समय सम कहि इतिहास।सोक नेवारेउ सबहि कर निज बिग्यान प्रकास॥156॥ भावार्थ:-तब वशिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया॥156॥ चौपाई : * तेल नावँ भरि नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अस भाषा॥धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि काहू॥1॥ भावार्थ:-वशिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसमें रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा- तुम लोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 13
(13) वशिष्ठ-भरत संवाद, श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारीदोहा : * तात हृदयँ धीरजु धरहु जो अवसर आजु।उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु॥169॥ भावार्थ:-(वशिष्ठजी ने कहा-) हे तात! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य के करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिए कहा॥169॥ चौपाई : * नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥1॥ भावार्थ:-वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 14
(14) अयोध्यावासियों सहित श्री भरत-शत्रुघ्न आदि का वनगमनदोहा : * जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।सनमुख जो राम पद करै न सहस सहाइ॥185॥ भावार्थ:-वह सम्पत्ति, घर, सुख, मित्र, माता, पिता, भाई जल जाए जो श्री रामजी के चरणों के सम्मुख होने में हँसते हुए (प्रसन्नतापूर्वक) सहायता न करे॥185॥ चौपाई : * घर घर साजहिं बाहन नाना। हरषु हृदयँ परभात पयाना॥भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू। नगरु बाजि गज भवन भँडारू॥1॥ भावार्थ:-घर-घर लोग अनेकों प्रकार की सवारियाँ सजा रहे हैं। हृदय में (बड़ा) हर्ष है कि सबेरे चलना है। भरतजी ने घर जाकर विचार किया कि नगर घोड़े, ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 15
(15) भरतजी का प्रयाग जाना और भरत-भरद्वाज संवाददोहा : * भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।कहत राम सिय सिय उमगि उमगि अनुराग॥203॥ भावार्थ:-प्रेम में उमँग-उमँगकर सीताराम-सीताराम कहते हुए भरतजी ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया॥203॥ चौपाई : * झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें॥भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू॥1॥ भावार्थ:-उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूँदें चमकती हों। भरतजी आज पैदल ही चलकर आए हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया॥1॥ * खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए॥सबिधि ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 16
(16) इंद्र-बृहस्पति संवाद* देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुँ पोचू॥गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहि भेंट न होई॥4॥ भावार्थ:-भरतजी के (इस प्रेम के) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया (कि कहीं इनके प्रेमवश श्री रामजी लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम बिगड़ जाए)। संसार भले के लिए भला और बुरे के लिए बुरा है (मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा ही दिखता है)। उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा- हे प्रभो! वही उपाय कीजिए जिससे श्री रामचंद्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो॥4॥ दोहा : * रामु सँकोची प्रेम ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 17
(17) श्री रामजी का लक्ष्मणजी को समझाना एवं भरतजी की महिमा कहना* सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सनमाने॥कही तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई॥3॥ भावार्थ:-देववाणी सुनकर लक्ष्मणजी सकुचा गए। श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने उनका आदर के साथ सम्मान किया (और कहा-) हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीति कही। हे भाई! राज्य का मद सबसे कठिन मद है॥3॥ * जो अचवँत नृप मातहिं तेई। नाहिन साधुसभा जेहिं सेई॥सुनहू लखन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा॥4॥ भावार्थ:-जिन्होंने साधुओं की सभा का सेवन (सत्संग) नहीं किया, वे ही राजा राजमद रूपी मदिरा का ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 18
(18) वनवासियों द्वारा भरतजी की मंडली का सत्कार, कैकेयी का पश्चातापदोहा : * सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजत बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहुरंग॥249॥ भावार्थ:-तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूज रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वैररहित होकर विहार कर रहे हैं॥249॥ चौपाई : * कोल किरात भिल्ल बनबासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी॥भरि भरि परन पुटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥1॥ भावार्थ:-कोल, किरात और भील आदि वन के रहने वाले लोग पवित्र, सुंदर एवं अमृत के समान स्वादिष्ट मधु (शहद) ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 19
(19) श्री राम-भरतादि का संवाददोहा : * भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि॥258॥ भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिए॥258॥ चौपाई : * गुर अनुरागु भरत पर देखी। राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी॥1॥ भावार्थ:-भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर-॥1॥ * बोले गुरु आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 20
(20) जनकजी का पहुँचना, कोल किरातादि की भेंट, सबका परस्पर मिलापदोहा : * प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि मिथिलेसु।सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु॥274॥ भावार्थ:-उस समय सब लोग प्रेम में मग्न हैं। इतने में ही मिथिलापति जनकजी को आते हुए सुनकर सूर्यकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी सभा सहित आदरपूर्वक जल्दी से उठ खड़े हुए॥274॥ चौपाई : * भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥1॥ भावार्थ:-भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में) चले। जनकजी ने ज्यों ही पर्वत ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 21
(21) जनक-सुनयना संवाद, भरतजी की महिमादोहा : * बार बार मिलि भेंटि सिय बिदा कीन्हि सनमानि।कही समय सिर भरत रानि सुबानि सयानि॥287॥ भावार्थ:-राजा-रानी ने बार-बार मिलकर और हृदय से लगाकर तथा सम्मान करके सीताजी को विदा किया। चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी में भरतजी की दशा का वर्णन किया॥287॥ चौपाई : * सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥ भावार्थ:-सोने में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रेम विह्वल होकर) ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 22
(22) श्री राम-भरत संवाददोहा : * राम सपथ सुनि मुनि जनकु सकुचे सभा समेत।सकल बिलोकत भरत मुखु बनइ न देत॥296॥ भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी की शपथ सुनकर सभा समेत मुनि और जनकजी सकुचा गए (स्तम्भित रह गए)। किसी से उत्तर देते नहीं बनता, सब लोग भरतजी का मुँह ताक रहे हैं॥296॥ चौपाई : * सभा सकुच बस भरत निहारी। राम बंधु धरि धीरजु भारी॥कुसमउ देखि सनेहु सँभारा। बढ़त बिंधि जिमि घटज निवारा॥1॥ भावार्थ:-भरतजी ने सभा को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरतजी) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय देखकर अपने (उमड़ते हुए) प्रेम को संभाला, जैसे बढ़ते हुए विन्ध्याचल को ...Read More
रामायण - अध्याय 2 - अयोध्याकांड - भाग 23
(23) भरतजी का तीर्थ जल स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमणदोहा : * अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।राखिअ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप॥309॥ भावार्थ:-तब अत्रिजी ने भरतजी से कहा- इस पर्वत के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पवित्र, अनुपम और अमृत जैसे तीर्थजल को उसी में स्थापित कर दीजिए॥309॥ चौपाई : * भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई॥सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू॥1॥ भावार्थ:-भरतजी ने अत्रिमुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिए और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित आप वहाँ गए, ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 1
3 - अरण्यकाण्ड (1) तृतीय सोपान-मंगलाचरणश्लोक : * मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददंवैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरंवंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥1॥ : धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र को आनंद देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के (विकसित करने वाले) सूर्य, पाप रूपी घोर अंधकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि (क्रिया) में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज (आत्मज) तथा कलंकनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ * सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुंदरंपाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितंसीतालक्ष्मणसंयुतं ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 2
(2) श्री रामजी का आगे प्रस्थान, विराध वध और शरभंग प्रसंगचौपाई : * मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। बनहि सुर नर मुनि ईसा॥आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥ भावार्थ : मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री रामजी वन को चले। आगे श्री रामजी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियों का सुंदर वेष बनाए अत्यन्त सुशोभित हैं॥1॥ * उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥ भावार्थ : दोनों के ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 3
(3) राम का दंडकवन प्रवेश, जटायु मिलन, पंचवटी निवास और श्री राम-लक्ष्मण संवाद* है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन तेहि नाऊँ॥दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥ भावार्थ : हे प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी है। हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥8॥ * बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई॥9॥ भावार्थ : हे रघुकुल के स्वामी! आप सब मुनियों पर दया करके वहीं निवास कीजिए। ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 4
(4) शूर्पणखा का रावण के निकट जाना, श्री सीताजी का अग्नि प्रवेश और माया सीता* धुआँ देखि खरदूषन केरा। सुपनखाँ रावन प्रेरा॥बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥ भावार्थ : खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥3॥ * करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥ ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 5
(5) श्री सीताहरण और श्री सीता विलाप* सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥जाकें डर सुर असुर निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥ भावार्थ : रावण सूना मौका देखकर यति (संन्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥ * सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥ भावार्थ : वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 6
(6) शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश और पम्पासर की ओर प्रस्थान* ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें पगु धारा॥सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥ भावार्थ : उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥3॥ * सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥ भावार्थ : कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और ...Read More
रामायण - अध्याय 3 - अरण्यकाण्ड - भाग 7
(7) नारद-राम संवाद* बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥ : भगवान् को विरहयुक्त देखकर नारदजी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। (उन्होंने विचार किया कि) मेरे ही शाप को स्वीकार करके श्री रामजी नाना प्रकार के दुःखों का भार सह रहे हैं (दुःख उठा रहे हैं)॥3॥ * सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥ भावार्थ : ऐसे (भक्त वत्सल) प्रभु को जाकर देखूँ। फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह विचार कर नारदजी हाथ में वीणा लिए ...Read More
रामायण - अध्याय 4 - किष्किंधाकाण्ड - भाग 1
4 - किष्किंधाकाण्ड (1) मंगलाचरणश्लोक : * कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौशोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौसीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि ॥1॥ भावार्थ : कुन्दपुष्प और नीलकमल के समान सुंदर गौर एवं श्यामवर्ण, अत्यंत बलवान्, विज्ञान के धाम, शोभा संपन्न, श्रेष्ठ धनुर्धर, वेदों के द्वारा वन्दित, गौ एवं ब्राह्मणों के समूह के प्रिय (अथवा प्रेमी), माया से मनुष्य रूप धारण किए हुए, श्रेष्ठ धर्म के लिए कवचस्वरूप, सबके हितकारी, श्री सीताजी की खोज में लगे हुए, पथिक रूप रघुकुल के श्रेष्ठ श्री रामजी और श्री लक्ष्मणजी दोनों भाई निश्चय ही हमें भक्तिप्रद हों ॥1॥ * ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययंश्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।संसारामयभेषजं सुखकरं ...Read More
रामायण - अध्याय 4 - किष्किंधाकाण्ड - भाग 2
(2) सुग्रीव का वैराग्य* कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा॥दुंदुभि अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए॥6॥ : सुग्रीव ने कहा- हे रघुवीर! सुनिए, बालि महान् बलवान् और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्री रामजी को दुंदुभि राक्षस की हड्डियाँ व ताल के वृक्ष दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने उन्हें बिना ही परिश्रम के (आसानी से) ढहा दिया। * देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती॥बार-बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा॥7॥ भावार्थ : श्री रामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये ...Read More
रामायण - अध्याय 4 - किष्किंधाकाण्ड - भाग 3
(3) वर्षा ऋतु वर्णनदोहा : * प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ॥12॥ : देवताओं ने पहले से ही उस पर्वत की एक गुफा को सुंदर बना (सजा) रखा था। उन्होंने सोच रखा था कि कृपा की खान श्री रामजी कुछ दिन यहाँ आकर निवास करेंगे॥12॥ चौपाई : * सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥ भावार्थ : सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, ...Read More
रामायण - अध्याय 4 - किष्किंधाकाण्ड - भाग 4
(4) सुग्रीव-राम संवाद और सीताजी की खोज के लिए बंदरों का प्रस्थानदोहा : * हरषि चले सुग्रीव तब अंगदादि साथ।रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ॥20॥ भावार्थ : तब अंगद आदि वानरों को साथ लेकर और श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मणजी को आगे करके (अर्थात् उनके पीछे-पीछे) सुग्रीव हर्षित होकर चले और जहाँ रघुनाथजी थे वहाँ आए॥20॥ चौपाई : * नाइ चरन सिरु कह कर जोरी॥ नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी॥अतिसय प्रबल देव तव माया॥ छूटइ राम करहु जौं दाया॥1॥ भावार्थ : श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर हाथ जोड़कर सुग्रीव ने कहा- हे नाथ! मुझे कुछ भी ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 1
5 - सुंदरकाण्ड (1) पंचम सोपान-मंगलाचरणश्लोक : * शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिंवन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भावार्थ : शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥ * नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीयेसत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मेकामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥ भावार्थ : हे रघुनाथजी! ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 2
(2) हनुमान्जी का अशोक वाटिका में सीताजी को देखकर दुःखी होना और रावण का सीताजी को भय दिखलाना* जुगुति सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई॥करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥ भावार्थ : विभीषणजी ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाईं। तब हनुमान्जी विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं॥3॥ * देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥ भावार्थ : ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 3
(3) हनुमान्जी द्वारा अशोक वाटिका विध्वंस, अक्षय कुमार वध और मेघनाद का हनुमान्जी को नागपाश में बाँधकर सभा में जानादोहा : * देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥ भावार्थ:-हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥ चौपाई : * चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥ भावार्थ:-वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 4
(4) लंका जलाने के बाद हनुमान्जी का सीताजी से विदा माँगना और चूड़ामणि पानादोहा : * पूँछ बुझाइ खोइ धरि लघु रूप बहोरि।जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥26॥ भावार्थ:-पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्जी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए॥26॥ चौपाई : * मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥ भावार्थ:-(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान्जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥1॥ ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 5
(5) श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ चलकर समुद्र तट पर पहुँचनादोहा : * कपिपति बेगि बोलाए जूथप जूथ।नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥ भावार्थ:-वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए। वानर-भालुओं के झुंड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥34॥ चौपाई : * प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥ भावार्थ:-वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 6
(6) विभीषण का भगवान् श्री रामजी की शरण के लिए प्रस्थान और शरण प्राप्तिदोहा : * रामु सत्यसंकल्प प्रभु कालबस तोरि।मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥41॥ भावार्थ:-श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण) तुम्हारी सभा काल के वश है। अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥41॥ चौपाई : * अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥ भावार्थ:-ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते ...Read More
रामायण - अध्याय 5 - सुंदरकाण्ड - भाग 7
(7) समुद्र पार करने के लिए विचार, रावणदूत शुक का आना और लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर लौटना* सुनु लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥ भावार्थ:-हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यंत अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥3॥ * कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥ भावार्थ:-विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 1
6 - लंकाकाण्ड (1) षष्ठ सोपान- मंगलाचरण श्लोक : * रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहंयोगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।मायातीतं सुरेशं ब्रह्मवृन्दैकदेवंवन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥1॥ भावार्थ : कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुंदर श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 2
(2) सुबेल पर श्री रामजी की झाँकी और चंद्रोदय वर्णनचौपाई : * इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित भीरा॥सिखर एक उतंग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥ भावार्थ : यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बड़ी भीड़ (बड़े समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर-॥1॥ * तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥ भावार्थ : वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 3
(3) अंगदजी का लंका जाना और रावण की सभा में अंगद-रावण संवादचौपाई : * इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा सब सचिव बोलाई॥कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥1॥ भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान् ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा-॥1॥ * सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥ भावार्थ:- हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 4
(4) रावण को पुनः मन्दोदरी का समझाना* साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।मंदोदरीं रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ॥35 ख॥ भावार्थ:- हो गई जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मन्दोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा-॥35 (ख)॥ चौपाई : * कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥ भावार्थ:- हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 5
(5) माल्यवान का रावण को समझानादोहा : * कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु बल बिचलाइ॥47॥ भावार्थ:- कुछ मारे गए, कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से शत्रुदल को विचलित करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे हैं॥47॥ चौपाई : * निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥1॥ भावार्थ:- रात हुई जानकर वानरों की चारों सेनाएँ (टुकड़ियाँ) वहाँ आईं, जहाँ कोसलपति श्री रामजी थे। श्री रामजी ने ज्यों ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 6
(6) भरतजी के बाण से हनुमान् का मूर्च्छित होना, भरत-हनुमान् संवाददोहा : *देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।बिनु सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥ भावार्थ:- भरतजी ने आकाश में अत्यंत विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होंने कान तक धनुष को खींचकर बिना फल का एक बाण मारा॥58॥ चौपाई : * परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥ भावार्थ:- बाण लगते ही हनुमान्जी 'राम, राम, रघुपति' का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रामनाम) ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 7
(7) मेघनाद का युद्ध, रामजी का लीला से नागपाश में बँधनादोहा : * मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास।गर्जेउ करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥ भावार्थ:-मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया॥72॥ चौपाई : * सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥ भावार्थ:- वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा॥1॥ * दस दिसि ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 8
(8) रावण का युद्ध के लिए प्रस्थान और श्री रामजी का विजयरथ तथा वानर-राक्षसों का युद्धदोहा : * ताहि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥ भावार्थ:- जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के बस हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शांति हो सकती है?॥78॥ चौपाई : * चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरंगिनी अनी बहु धारा॥बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥ भावार्थ:- राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरंगिणी सेना की बहुत सी Uटुकडि़याँ ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 9
(9) षष्ठ सोपान- रावण मूर्च्छा, रावण यज्ञ विध्वंस, राम-रावण युद्धदोहा : * देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।आवत कपिहि तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥ भावार्थ:- यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्जी कठोर वचन बोलते हुए दौड़े। हनुमान्जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यंत भयंकर घूँसे का प्रहार किया॥83॥ चौपाई: * जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥ भावार्थ:- हनुमान्जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्जी ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पड़ा जैसे ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 10
(10) षष्ठ सोपान- रावण का विभीषण पर शक्ति छोड़ना, रामजी का शक्ति को अपने ऊपर लेना, विभीषण-रावण युद्धदोहा : पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड॥93॥ भावार्थ:- फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो॥93॥ चौपाई : * आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा॥तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥ भावार्थ:- अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 11
(11) त्रिजटा-सीता संवादचौपाई : * तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥ भावार्थ:-उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बड़ा भय हुआ॥1॥ * मुख मलीन उपजी मन चिंता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥2॥ भावार्थ:- (उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई। तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं- हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 12
(12) मन्दोदरी-विलाप, रावण की अन्त्येष्टि क्रियाचौपाई : * पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥जुबति बृंद रोवत धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥ भावार्थ:- पति के सिर देखते ही मंदोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। स्त्रियाँ रोती हुई दौड़ीं और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥ * पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥2॥ भावार्थ:- पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की संभाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 13
(13) देवताओं की स्तुति, इंद्र की अमृत वर्षादोहा : * बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।गावहिं किंनर सुरबधू चढ़ीं बिमान॥109 क॥ भावार्थ:-देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डंके बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढ़ी अप्सराएँ नाचने लगीं॥109 (क)॥ * जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥109 ख॥ भावार्थ:-श्री जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी की अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार श्री रघुनाथजी की जय बोलने लगे॥109 (ख)॥ चौपाई : * तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥आए देव सदा ...Read More
रामायण - अध्याय 6 - लंकाकाण्ड - भाग 14
(14) विभीषण की प्रार्थना, श्री रामजी के द्वारा भरतजी की प्रेमदशा का वर्णन, शीघ्र अयोध्या पहुँचने का अनुरोधचौपाई : करि बिनती जब संभु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥ भावार्थ:-जब शिवजी विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले- हे शार्गं धनुष के धारण करने वाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए-॥1॥ * सकुल सदल प्रभु रावन मार्यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्यो॥दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥2॥ भावार्थ:-आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 1
7 - उत्तरकाण्ड (1) सप्तम सोपान-मंगलाचरण श्लोक : * केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नंशोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं।नौमीड्यं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्॥1। भावार्थ:-मोर के कण्ठ की आभा के समान (हरिताभ) नीलवर्ण, देवताओं में श्रेष्ठ, ब्राह्मण (भृगुजी) के चरणकमल के चिह्न से सुशोभित, शोभा से पूर्ण, पीताम्बरधारी, कमल नेत्र, सदा परम प्रसन्न, हाथों में बाण और धनुष धारण किए हुए, वानर समूह से युक्त भाई लक्ष्मणजी से सेवित, स्तुति किए जाने योग्य, श्री जानकीजी के पति, रघुकुल श्रेष्ठ, पुष्पक विमान पर सवार श्री रामचंद्रजी को मैं निरंतर नमस्कार करता हूँ॥1॥ * कोसलेन्द्रपदकन्जमंजुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ।जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृंगसंगिनौ॥2॥ भावार्थ:-कोसलपुरी के स्वामी श्री रामचंद्रजी के ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 2
(2) राम राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुतिचौपाई : * अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥राम कहा सेवकन्ह बुलाई। सखन्ह अन्हवावहु जाई॥1॥ भावार्थ:-अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी। श्री रामचंद्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ॥1॥ * सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥2॥ भावार्थ:-भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 3
(3) वानरों और निषाद की विदाईदोहा : * ब्रह्मानंद मगन कपि सब कें प्रभु पद प्रीति।जात न जाने दिवस गए मास षट बीति॥15॥ भावार्थ:-वानर सब ब्रह्मानंद में मग्न हैं। प्रभु के चरणों में सबका प्रेम है। उन्होंने दिन जाते जाने ही नहीं और (बात की बात में) छह महीने बीत गए॥15॥ चौपाई : * बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं। जिमि परद्रोह संत मन माहीं॥तब रघुपति सब सखा बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिरु नाए॥1॥ भावार्थ:-उन लोगों को अपने घर भूल ही गए। (जाग्रत की तो बात ही क्या) उन्हें स्वप्न में भी घर की सुध (याद) नहीं आती, जैसे संतों ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 4
(4) पुत्रोत्पति, अयोध्याजी की रमणीयता, सनकादिका आगमन और संवाददोहा : * ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।सोइ घन कर नर चरित उदार॥25॥ भावार्थ:-जो (बौद्धिक) ज्ञान, वाणी और इंद्रियों से परे और अजन्मा है तथा माया, मन और गुणों के परे है, वही सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रेष्ठ नरलीला करते हैं॥25॥ चौपाई : * प्रातकाल सरऊ करि मज्जन। बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन॥बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं। सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥1॥ भावार्थ:-प्रातःकाल सरयूजी में स्नान करके ब्राह्मणों और सज्जनों के साथ सभा में बैठते हैं। वशिष्ठजी वेद और पुराणों की कथाएँ वर्णन करते हैं और श्री रामजी सुनते हैं, यद्यपि ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 5
(5) हनुमान्जी के द्वारा भरतजी का प्रश्न और श्री रामजी का उपदेश* सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो होइ सकल भ्रम हानी॥अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥2॥ भावार्थ:-वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अंतरयामी प्रभु सब जान गए और पूछने लगे- कहो हनुमान्! क्या बात है?॥2॥ * जोरि पानि कह तब हनुमंता। सुनहु दीनदयाल भगवंता॥नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥3॥ भावार्थ:-तब हनुमान्जी हाथ जोड़कर बोले- हे दीनदयालु भगवान्! सुनिए। हे नाथ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मन ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 6
(6) श्री राम-वशिष्ठ संवाद, श्री रामजी का भाइयों सहित अमराई में जानाचौपाई : *एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ सुखधाम सुहाए॥अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥1॥ भावार्थ:-एक बार मुनि वशिष्ठजी वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम श्री रामजी थे। श्री रघुनाथजी ने उनका बहुत ही आदर-सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया॥1॥ * राम सुनहु मुनि कह कर जोरी। कृपासिंधु बिनती कछु मोरी॥देखि देखि आचरन तुम्हारा। होत मोह मम हृदयँ अपारा॥2॥ भावार्थ:-मुनि ने हाथ जोड़कर कहा- हे कृपासागर श्री रामजी! मेरी कुछ विनती सुनिए! आपके आचरणों (मनुष्योचित चरित्रों) को देख-देखकर मेरे हृदय में अपार मोह ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 7
(7) शिव-पार्वती संवाद, गरुड़ मोह, गरुड़जी का काकभुशुण्डि से रामकथा और राम महिमा सुननाचौपाई : * गिरिजा सुनहु बिसद कथा। मैं सब कही मोरि मति जथा॥राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरनै पारा॥1॥ भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, मैंने यह उज्ज्वल कथा, जैसी मेरी बुद्धि थी, वैसी पूरी कह डाली। श्री रामजी के चरित्र सौ करोड़ (अथवा) अपार हैं। श्रुति और शारदा भी उनका वर्णन नहीं कर सकते॥1॥ * राम अनंत अनंत गुनानी। जन्म कर्म अनंत नामानी॥जल सीकर महि रज गनि जाहीं। रघुपति चरित न बरनि सिराहीं॥2॥ भावार्थ:-भगवान् श्री राम अनंत हैं, उनके गुण अनंत हैं, ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 8
(8) काकभुशुण्डि का अपनी पूर्व जन्म कथा और कलि महिमा कहनाचौपाई : * सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति सुहाई।।जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥1॥ भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़जी! श्री रघुनाथजी की प्रभुता सुनिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी कथा कहता हूँ। हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥1॥ * राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥ताते नहिं कछु तुम्हहि दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥2॥ भावार्थ:-हे तात! आप श्री रामजी के कृपा पात्र हैं। श्री हरि के गुणों में आपकी प्रीति है, इसीलिए ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 9
(9) * तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव थाहा॥3॥ भावार्थ:-आप से लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाश में उड़ते हैं, किंतु आकाश का अंत कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात! श्री रघुनाजी की महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?॥3॥ * रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥4॥ भावार्थ:-श्री रामजी का अरबों कामदेवों के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इंद्रों के ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 10
(10) गुरुजी का अपमान एवं शिवजी के शाप की बात सुननासोरठा : * गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि मम।मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई॥105 ख॥ भावार्थ:-गुरुजी मेरे आचरण देखकर दुखित थे। वे मुझे नित्य ही भली-भाँति समझाते, पर (मैं कुछ भी नहीं समझता), उलटे मुझे अत्यंत क्रोध उत्पन्न होता। दंभी को कभी नीति अच्छी लगती है?॥105 (ख)॥ चौपाई : * एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥1॥ भावार्थ:-एक बार गुरुजी ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से (परमार्थ) नीति की शिक्षा दी ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 11
(11) काकभुशुण्डिजी का लोमशजी के पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पानादोहा : * गुर के बचन सुरति करि चरन मनु लाग।रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥110 क॥ भावार्थ:-गुरुजी के वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्री रामजी के चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथजी का यश गाता फिरता था॥110 (क)॥ * मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥110 ख॥ भावार्थ:-सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड़ की छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यंत ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 12
(12) ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक और भक्ति की महान् महिमा* भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।मुनि दुर्लभ बर पायउँ भजन प्रताप॥114 ख॥ भावार्थ:-मैं हठ करके भक्ति पक्ष पर अड़ा रहा, जिससे महर्षि लोमश ने मुझे शाप दिया, परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, वह वरदान मैंने पाया। भजन का प्रताप तो देखिए!॥114 (ख)॥ चौपाई : * जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं॥ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी॥1॥ भावार्थ:-जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम (साधन) ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - भाग 13
(13) गरुड़जी के सात प्रश्न तथा काकभुशुण्डि के उत्तरचौपाई : * पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जौं कृपाल मोहि ऊपर मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥ भावार्थ:-पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए॥1॥ * प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥2॥ भावार्थ:-हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और ...Read More
रामायण - अध्याय 7 - उत्तरकाण्ड - अंतिम भाग
(14) रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय और फलस्तुति* पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि॥सत संगति दुर्लभ निमिष दंड भरि एकउ बारा॥3॥ भावार्थ:-जो आपने मुझ से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजी के मन को प्रिय लगने वाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है॥3॥ * देखु गरु़ड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी॥सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन॥4॥ भावार्थ:-हे गरुड़जी! अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री रामजी के भजन का अधिकारी हूँ? पक्षियों में सबसे नीच ...Read More