आबू और वापसी यात्रा इतनी गहरी पैठ गई थी जे़हन में कि निकाले नहीं निकलती। वे थोडे़ से दिन पूरी उम्र पर छा गए थे। स्त्री-पुरुष मैत्री, जो प्राण-प्राणों में उतर जाने पर तुल जाय और प्यार कहलाये, ऐसा प्यार मुझे पहली बार हुआ था! ...अब तक तो देह सम्बंध एक भूख की तरह जिये थे। शौक़-शौक़ में ब्याह हुआ, उछाह-आवेग में बच्चे! स्त्री-पुरुष के बीच इसके अलावा और कोई ऐसी अदृश्य डोर भी है जो क्षण-क्षण, तिल-तिल बांधे रखती है, बिना गुज़रे इसका पता चलता नहीं। ना चाहते हुए भी बेचैनी के आलम में तीन-चार दिन बाद मैंने फोन मिलाया, कहा, ‘‘नौ बजे सेंट्रल लाइब्रेरी में मिलो।’’ मुलाकात छह-सात वर्ष पुरानी थी। पहले मैथ्स और इंग्लिश पढ़ाता था उसे। फिर केमिस्ट्री और बायोलॉजी पढ़ाने लगा। संयोग से उसके शैक्षिक उत्थान के साथ ही मैं भी इंटर कालेज से पी.जी. कालेज तक के अध्यापन सफर पर पहुंचा। जननेन्द्रियों के क्रियाकलाप समझाता तो उसकी बाडी की केमिस्ट्री बदल जाती थी। अन्य छात्राओं में ऐसा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता...। उसमें शुरू से ही कोई अलग-सी कैफियत थी, जो मेरी सायिकी में शरीक होती गई।
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चक्र - 7
घर खाने को दौड़ रहा था, क्योंकि खाली था। जिस पत्नी और बच्ची की अब से पहले कोई जरूरत न होती, लता की ओर से ठुकराए जाने पर मन अब उसी की रिक्तता महसूस कर रहा था। रात मुश्किल से कटी। मन इतना बेचैन कि कॉलेज भी नहीं गया। नौकरी छूटे तो छूट जाए, बस अब मरना सूझ रहा था। और तभी लगा कि एक जगह है, जहाँ चैन मिल सकता है। वही ब्रह्म-साधना आश्रम, जो उस शिविर के बाद शहर में स्थानीय इकाई के रूप में स्थापित हो गया है। सो, हारकर वहीं चला आया।कक्ष ...Read More
चक्र - 1
आबू और वापसी यात्रा इतनी गहरी पैठ गई थी जे़हन में कि निकाले नहीं निकलती। वे थोडे़ से दिन उम्र पर छा गए थे। स्त्री-पुरुष मैत्री, जो प्राण-प्राणों में उतर जाने पर तुल जाय और प्यार कहलाये, ऐसा प्यार मुझे पहली बार हुआ था! ...अब तक तो देह सम्बंध एक भूख की तरह जिये थे। शौक़-शौक़ में ब्याह हुआ, उछाह-आवेग में बच्चे! स्त्री-पुरुष के बीच इसके अलावा और कोई ऐसी अदृश्य डोर भी है जो क्षण-क्षण, तिल-तिल बांधे रखती है, बिना गुज़रे इसका पता चलता नहीं। ना चाहते हुए भी ...Read More
चक्र - 2
शाम का वक्त। ग्रुप सूर्यास्त देखने की हड़बड़ी में आगे निकल गया था। हम होटल से ही पिछड़ गए चाह कर भी पीछा नहीं कर पाए। मगर ‘सनसेट’ की तरफ पैदल ही काफी लोग जा रहे थे। आखिरश पूछते-पूछते पहुंच ही गए ‘सनसेट पाइंट' पर जहां का माहौल ही कुछ अलग था...। जगह-जगह सीढियां बनी हुई थीं। सब सैलानियों से भरी हुईं। रंग-बिरंगे वस्त्राभूषणों में सुसज्जित स्त्री-पुरुष और बच्चों का हुजूम देखकर ही बहुत अच्छा लग रहा था। अंततः हमने भी एक ऊंची-सी जगह तलाश कर ही ली! बड़ा सुंदर नजारा था। एक ...Read More
चक्र - 3
कई रोज बाद एक रोज लाइब्रेरी हाल से निकल कर अनजाने में ही हम उस बस में आ बैठे, उधर से निकलती थी, जिधर से निकलने पर बस की खिड़की से हमेशा दिखता था एक डाक बंगला। नदी किनारे टीले पर अकेली खड़ी इमारत। वह जैसे बुलाती थी। मगर कोई जाता नहीं था। मेरे जे़हन में अर्से से वही एक ऐसी जगह थी आसपास की जानी-पहचानी सारी जगहों में जहां हम जा सकते थे...।नदी-पुल पर बस टोलटैक्स गुमटी पर रुकी तो मैंने आंख के इशारे से कहा, ‘चलो, इसे भी देख लें!’वह हँसती ...Read More
चक्र - 4
एक दिन पता चला कि वह तो साध्वी बन गई है! परीक्षा भी नहीं दी!! घर छोड़ दिया!!! सुनकर कलेजा मुंह को आ गया। मुझे अक्सर अपनी स्थिति पर दया आती और हँसी। एक स्टूडेंट ने मुझे किस कदर नाथ लिया है। मैंने कितने स्टूडेंट्स निकाले...। यह तो सब जानते हैं कि शासकीय निकायों के मुकाबले निजी संस्थाओं का अमला बहुत तेजतर्रार, मेहनती और सजग होता है, क्योंकि उन्हें निरंतर संघर्ष करना है। निरंतर अपनी अनिवार्यता सिद्ध करनी है। निरंतर अपना होना साकार करना है...। मगर उसके आगे ...Read More
चक्र - 5
अगले दिन मैं प्रातःकाल ही शिविर में पहुंच गया। लता मुझे पाकर ऐसे खिल गई जैसे, सूर्य-रश्मि को पाकर थोड़ी देर बाद वह अपने तंबू से अपना सफेद झोला उठा लाई। जिसमें से उसने कम्पित हाथों से मुझे एक सफेद लिफाफा निकाल कर दे दिया। आशंकित मन मैं उसे, एक कोने में जाकर पढ़ने लगाः“फिर आई जुदाई की रात...मैं तुमसे जुदा होना नही चाहती! तुमको पा न सकी क्योंकि/यह मेरी खुदाई नही चाहती! मिलकर बिछुड़ना ही था इक दिन/तो यह मुलाकात क्यों हुई? उल्फत में ठोकरें थीं, दर्द ...Read More
चक्र - 6
वैराग्य के चक्कर में परीक्षा में न बैठ पाने के कारण ही लता इस वर्ष फिर फाइनल ईयर में कालेज का टूर इस बार नेपाल के लिए प्रस्तावित था। मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली थी। लता उत्साहित थी। मगर मैं निरुत्साहित। मैं उसके कारण ही इस टूर पर नहीं जाना चाहता था। मुझे भारी व्यवहारिक कठिनाई आ रही थी। निकट रहता तो सीमा टूटती। नहीं रहने पर मन टूटता। काश कोई ओझा, तांत्रिक या सिद्ध मिल जाता तो मैं इलाज करा लेता। पिछली बार एक साइकियाट्रिक को दिखाया तो उसने अव्वल ...Read More
चक्र - 8
घर पहुंचा तो, पता चला पत्नी बेटी को लेकर रात में ही लौट आई थी। मुझे देखते ही मुंह लिया, नहीं पूछा कि रात में कहां थे! बेटी ने भी ठीक से बात नहीं की, और मैं भी उन दोनों से नजरें बचाता रहा। समय से पहले तैयार होकर कॉलेज चला आया। और वह समय पर भी न आई तो बेचैनी होने लगी। मगर उसका क्या इलाज? अपना पीरियड ले जब दूसरी का रुख किया, गैलरी में वह आती दिखी। तसल्ली हुई मगर तिरस्कार-सा महसूस कर दिल में शूल उठने लगा। दिन भर ...Read More
चक्र - 9
लता के एक वाक्य ने ही मुझे बेटी के प्रति सजग कर दिया था। पत्नी दो दिन बाद लौटी मैंने सब कुछ जानना चाहा। लेकिन उसने औपचारिक हाँ-हूँ के सिवा विस्तार से ऐसा कुछ न बताया जिससे मुझे संतुष्टि हो जाती। तब मैंने फैसला कर लिया, खुद जाऊंगा! और जब टिकट करा लिया, जाने लगा तो उसने रोक लिया, कहा- 'आप जाकर क्या करेंगे? वह तो हॉस्टल में रह रही है।' मैंने कहा- 'क्यों नहीं करूंगा, मैं एक बार जाकर देखता हूं, प्रबंधन से बात करता हूं...' इस पर उसने सख्ती से कहा, ...Read More
चक्र - 10
मैं जाग चुका था, और फिर वह भी जागी तो नहा-धोकर वहां पहुंचे, जहां के लिए आये थे। मित्र अच्छा सत्कार किया। उन्होंने तो मुझे को-गाइड बनने का भी सम्मान दे दिया। लता पर रीझते यह भी कहा, "तुम्हें उपकार मानना चाहिए, इस छात्रा के कारण आज हमारी यारी रिन्यू हो गई। इसे उचित पुरस्कार देना," वे मेरी आंखों में देखते, अपने चुसे हुए से गालों से हँसे जो दाढ़ों में चिपक कर रह गए थे। उसके बाद वे डिपार्टमेंट के काम में लग गए। एचओडी जो ठहरे। हमलोग यूनिवर्सिटी सरीखा वह विशाल कॉलेज देख ...Read More