अपने साथ मेरा सफ़र

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मुझे अपने आरंभिक दिनों से ही ऐसा लगता था कि समाज के कुछ लोग मेरे मन पर बहुत असर डालते हैं। मैं ये कभी समझ नहीं पाता था कि किसी - किसी व्यक्ति से मैं इतना क्यों प्रभावित हो रहा हूं? मुझे उसने ऐसा क्या दे दिया है कि मैं मन ही मन उसके प्रति सम्मान से नतमस्तक हूं। क्या वह बहुत अमीर है? क्या वह बहुत बड़ा ओहदेदार है? क्या वह बहुत शक्तिशाली है? क्या वह बहुत खूबसूरत है? क्या वह बहुत बुजुर्ग या उम्रदराज़ है? आख़िर क्या वजह है कि उसने मुझ पर अपने व्यक्तित्व की छाप अनजाने ही छोड़ दी है। अपनी टीनएज में आते- आते अपनी नव विकसित बुद्धि के चलते धीरे - धीरे मुझे ये समझ में आने लगा कि मैं जिन लोगों से प्रभावित हो रहा हूं वो वस्तुतः "लेखक" हैं। उन्हें समाज में प्रतिष्ठित साहित्यकारों के रूप में पहचाना जाता है। वो चाहे किसी भी देश के हों, किसी भी जाति- समाज के हों, किसी भी धर्म के हों, किसी भी हैसियत के हों मेरे आकर्षण का केंद्र होते हैं। मुझे आहिस्ता आहिस्ता ये भी समझ में आने लगा कि ऐसा क्यों होता है!

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अपने साथ मेरा सफ़र - 1

मुझे अपने आरंभिक दिनों से ही ऐसा लगता था कि समाज के कुछ लोग मेरे मन पर बहुत असर हैं। मैं ये कभी समझ नहीं पाता था कि किसी - किसी व्यक्ति से मैं इतना क्यों प्रभावित हो रहा हूं? मुझे उसने ऐसा क्या दे दिया है कि मैं मन ही मन उसके प्रति सम्मान से नतमस्तक हूं। क्या वह बहुत अमीर है? क्या वह बहुत बड़ा ओहदेदार है? क्या वह बहुत शक्तिशाली है? क्या वह बहुत खूबसूरत है? क्या वह बहुत बुजुर्ग या उम्रदराज़ है? आख़िर क्या वजह है कि उसने मुझ पर अपने व्यक्तित्व की छाप अनजाने ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 2

दो. टीनएज बीतते ही ज़िंदगी की अपने पैरों पर चलने वाली दौड़ शुरू हो गई। एक आम इंसान की मैं भी रोटी, कपड़ा, मकान के लिए नौकरी, शादी और परिवार की जद्दोजहद में खो गया। अपनी रफ़्तार से चलते समय में दुआओं और श्रापों के हिसाब पीछे छूट गए और केवल इतना याद रहा कि अपनी जिम्मेदारियां पूरी की जाएं। अब आप मुझे एक लंबी कूद की अनुमति दीजिए। मैं समझाता हूं कि मेरा मतलब क्या है? दरअसल मैं अब आपसे 2014 की बात करना चाहता हूं। बीच का समय छोड़ दीजिए। यदि इस समय की किसी बात का ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 3

तीन. अपनी ऐसी समझ के चलते ही साहित्यकारों के प्रति एक आंतरिक अनुभूति मुझे भीतर से प्रेरित करती कि लेखक या साहित्यकार के प्रति हमें लगभग वही भाव रखना चाहिए जो प्रायः किसी बच्चे के लिए रखा जाता है। क्योंकि अबोध बालक केवल तभी भूखा होता है जब वो भूखा होता है। जिस समय कोई भूखा बच्चा हमें दिखता है तो पहले हम यही सोचते हैं कि इसका पेट भरे। कहीं से कुछ ऐसा मिले जो इसे खिलाया जा सके। उस समय हमारी प्राथमिकता में ऐसी बातें नहीं आतीं कि इस बच्चे के भोजन की कीमत कौन देगा? इस ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 4

चार. इस पृष्ठभूमि के साथ ही आपको एक और बात बताना भी ज़रूरी है। ये साहित्य को लेकर की वाली रिसर्च या शोध से संबंधित है। शैक्षणिक दायरों में मैं ये देखा करता था कि साहित्यकारों का काम उस व्यक्ति जैसा है जो अपने परिवार के लिए राशन पानी, अर्थात रोटी कपड़ा और मकान की व्यवस्था करता है। बस फ़र्क इतना सा ही है कि एक सामान्य आदमी जो काम केवल अपने परिवार के लिए करता है वही काम साहित्यकार या लेखक पूरे समाज के लिए कर रहे हैं। उनका जुटाया हुआ सामान सार्वजनिक होता है जो उसके लिए ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 5

पांच. इसका एकमात्र हल यही है कि जो कुछ लेखकों द्वारा लिखा जाए उसे पहले कुछ समय तक पाठकों लिए बाज़ार में छोड़ दिया जाए। लोग उसे पढ़ें। कुछ वर्ष के बाद या तो वो स्वतः ही लुप्त हो जायेगा अथवा उस पर चर्चा - प्रशंसाओं के माध्यम से वह और उभर कर साहित्य जगत में आ जायेगा। उस पर समीक्षा या आलोचनाएं लिखी जाएंगी, वो कहीं न कहीं पुरस्कृत होता दिखाई देगा अथवा अन्य किसी माध्यम से उभर कर आयेगा। तब ये देखा जाना चाहिए कि कौन से तत्व हैं जो उसे निरंतर बाज़ार में बनाए हुए हैं, ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 6

छः अपनी इसी सोच कर के चलते मेरा ध्यान पौराणिक, ऐतिहासिक तथा प्राचीन साहित्य से हटता चला गया। यहां कि मैंने वेद,पुराण,रामायण, महाभारत, गीता या पौराणिक पात्रों से संबंधित व्याख्याओं तथा विमर्शों को पढ़ना ही छोड़ दिया। मुझे ये कहने में आज कोई संकोच भी नहीं है कि इस साहित्य की बेड़ियों से मुक्ति पाए बिना साहित्य को आधुनिक या समकालीन जीवन से जोड़ा ही नहीं जा सकता। हम "साहित्य जीवन का दर्पण है" जैसे जुमलों को दोहराते रहते हैं किंतु साहित्य को अपनी सुविधा और प्रमाद के चलते जीवन से बहुत दूर घसीट ले गए हैं। हम इस ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 7

सात मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा कि मेरे कुछ और मित्रों व परिचितों का भी ऐसा ही मानना जैसा कि मैं सोच रहा था। अर्थात - 1. यदि कोई लेखक लिख रहा है तो उसे वर्षों बाद पढ़ने से बेहतर है कि उसे तत्काल तभी पढ़ा जाए। ये भावना बिल्कुल उस मां की तरह पवित्र और मासूम थी जो सोचती है कि उसका परिवार उसकी बनाई हुई रोटी गर्म - गर्म ही खा ले। यद्यपि इस बात को साहित्य लेखन से जोड़ कर देखने पर एक दुविधा यह भी आती है कि ताज़ा भोजन करते समय भोजन की ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 8

आठ इस सब से बढ़ कर साहित्यिक परिदृश्य को मैला किया उन तथाकथित साहित्यकारों ने जो साहित्य लेखन को में अपने व्यक्तित्व को उभार लाने का जरिया समझने लगे। वैसे इसमें कुछ गलत तो नहीं है। आप जन सरोकारों पर लिखेंगे तो लोग ध्यान देंगे ही। और अगर आप पर ध्यान दिया जाएगा तो आपका व्यक्तित्व सार्वजनिक होगा ही। लेकिन इस सामान्य सी प्रक्रिया में भी एक मैला तत्व ये आया कि अधिकांश लेखक राजनैतिक दलों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ कर खुलेआम किसी राजनैतिक दल को लाभ पहुंचाने वाली बातों का समावेश साहित्य में करते हुए दिखाई देने ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 9

नौ ये सोच और ऐसी तलाश की ख्वाहिश कोई आसान काम नहीं था। पहले तो अपने इरादे में गंभीर था। फिर काम का एक रोड मैप बनाना था। कम से कम एक छोटी सी टीम तैयार करनी थी जिसकी सोच में साम्य हो न हो, पर एक जिज्ञासा और निष्पक्षता हो। और एक दूसरे से निश्छल सहयोग करने की निस्वार्थ भावना हो। इस टीम में कैसे कौन लोग हों, ये सोचते हुए मुझे हमेशा ऐसा लगता था कि हम किसी को भी लाएं या आमंत्रित न करें। हम तो एक छोटे से टीले पर जा बैठें और चारों तरफ़ ...Read More

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अपने साथ मेरा सफ़र - 10

दस 2014 में पहले वर्ष हमने और कुछ भी विशेष न करके केवल कुछ ऐसे सशक्त रचनाकारों की सूची मीडिया पर डाली जो तन्मय होकर गंभीर लेखन कर रहे थे और उनमें अधिकांश काफ़ी उम्र दराज भी थे। ये पहली सूची हमने ब्लॉग्स पर और फेसबुक पर जारी की ओर इसे बाद में देश के कुछ विश्वविद्यालयों में भी भिजवा दिया गया। इस सूची को देश की साहित्य अकादमियों व हिंदी प्रचार प्रसार के अन्य प्रमुख संस्थानों से अलग ही रखा गया। इसे कहां भेजा गया और कहां इरादतन नहीं भेजा गया, और क्यों, मुझे लगता है कि इस ...Read More