1 तनी बंदूकों के साए तनी बंदूकों के साए हों, भय के अंधियारे छाए हों घड़ी-घड़ी आशंकाएं हों, चीत्कार करती दिशाएं हों ऐसे में मैंने बच्चों को चलते देखा हंसते देखा, गाते देखा झण्डों को लहराते देखा नारे कई लगाते देखा नारे कई लगाते देखा मुझे लगा कि भगत सिंह इनमें जिंदा है मेरे देश के ही थे सिपाही उनको घेरे डरपाते धमकाते उन पर आंख तरेरे और विकास के नारों के ही साथ आए उन नेता जी को देश धर्म की कसमें खाते नफरत की बदबू फैलाते खाली हाथों नौजवान लगते थे हिंसक देश धर्म को इनसे संकट शांति देश को देना चाही मरघट जैसी कर दी सबकी ऐसी तैसी बहुओं के सर से वस्त्रों का हुआ अपहरण कई दुशासन एक साथ मिल करते नर्तन वादों से टहलाते देखा स्वयं को ही झुठलाते देखा
Full Novel
सरल नहीं था यह काम - 1
सरल नहीं था यह काम 1 काव्य संग्रह स्वतंत्र कुमार सक्सेना सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़ डबरा (जिला-ग्वालियर) मध्यप्रदेश 9617392373 1 तनी बंदूकों के साए तनी बंदूकों के साए हों, भय के अंधियारे छाए हों घड़ी-घड़ी आशंकाएं हों, चीत्कार करती दिशाएं हों ऐसे में मैंने बच्चों को चलते देखा हंसते देखा, गाते देखा झण्डों को लहराते देखा नारे कई लगाते देखा नारे कई लगाते देखा मुझे लगा कि भगत सिंह इनमें जिंदा है मेरे देश के ही थे सिपाही उनको घेरे डरपाते धमकाते उन पर आंख तरेरे ...Read More
सरल नहीं था यह काम - 2
सरल नहीं था यह काम 2 काव्य संग्रह स्वतंत्र कुमार सक्सेना 11 अम्बेडकर दलितों में बनके रोशनी आया अम्बेडकर गौतम ही उतरे जैसे लगता नया वेश ध्र नफरत थी उपेक्षा थी थे अपमान भरे दंश लड़ता अकेला भीम था थे हर तरफ विषधर सपने में जो न सोचा था सच करके दिखाया हम सबको चलाया है उसने नई राह पर ये कारवॉं जो चल पड़ा रोका न जाएगा नई मंजिलों की ओर है मंजिल को पारकर हर जुल्म पर हर जब पर सदियों से है ...Read More
सरल नहीं था यह काम - 3
सरल नहीं था यह काम 3 काव्य संग्रह स्वतंत्र कुमार सक्सेना 19 सुपर वाइजर बन गये लाल दीन दयाल सुपर वाइजर बन गये लाल दीन दयाल फूल गये फुकना हुए लाल हो गये गाल हल्ला टीवी पर हुआ भारी मच गया शोर टारगेट पीछे रहा केस हो गये भारे अधिकारी खुश हुए और इनको मिला इनाम पद तो ऊंचा कर दिया मही बढाए दाम सेक्टर जो सबसे कठिन फौरन लिया संभाल कीचढ़ से लाथपथ हुए कांटों से बेहाल सुपर वाइजर बन गये लाल दीन दयाल दौड़ ...Read More
सरल नहीं था यह काम - 4
सरल नहीं था यह काम 4 काव्य संग्रह स्वतंत्र कुमार सक्सेना 26 बात कहने में बात कहने में ये थोड़ा डर लगें बोल तेरे मुझको तो मंतर लगे स्वप्न से सुन्दर थे उनके घर लगे रहने वाले थे मगर बेघर लगे खौफ ने जब ओठ पर ताले जड़े बोलती ऑंखों में सच के स्वर जगे देश में है शोर उन्नति का बहुत दिन पर दिन हालात क्यों बदतर लगे राम का है शोर भारी देश में जो मिले रावण का ही अनुचर लगे सज गये दिल्ली में उन सबके महल राम अपने घर ...Read More
सरल नहीं था यह काम - 5 - अंतिम भाग
सरल नहीं था यह काम 5 काव्य संग्रह स्वतंत्र कुमार सक्सेना 34 तीर के निशान वे बने तीर के निशान वे बने सर वे जो कमान न बने जो अनोखी राह को चुने भीड़ के समान न बने जाने कैसी कोशिशें थीं कि कोई भी निदान न बने आंधियां ही ऐसी कुछ चलीं फिर कोई वितान न तने शांति की जो बात कर रहे ओठ रक्त पान से सने जकड़े रहे बंधनों में जो पर न आसमान में तने तेरा ही गुणगान हे प्रभु खंजरों की ...Read More