हिम स्पर्श

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जब बर्फ की एक युवती मरुभूमि में एक युवक से मिलती है तो .. तो जो घटनाएँ घटती है , वह क्या है युवती तस्वीर पत्रकार है तो युवक चित्रकार। दोनों के बीच होते संघर्ष, करी के संघर्ष, विचारों के संघर्ष सब सामने आ जाए हैं। और जब युवती मुस्लिम हो तथा युवक जन्म से हिन्दू किन्तु नास्तिक हो तो पढे और अनुभव करें।

Full Novel

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हिम स्पर्श - 1

जब बर्फ की एक युवती मरुभूमि में एक युवक से मिलती है तो .. तो जो घटनाएँ घटती है वह क्या है युवती तस्वीर पत्रकार है तो युवक चित्रकार। दोनों के बीच होते संघर्ष, करी के संघर्ष, विचारों के संघर्ष सब सामने आ जाए हैं। और जब युवती मुस्लिम हो तथा युवक जन्म से हिन्दू किन्तु नास्तिक हो तो पढे और अनुभव करें। ...Read More

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हिम स्पर्श - 2

फरवरी का महिना कुछ क्षण पहले ही विदा ले चुका था। अंधेरी रात ने मार्च का स्वागत हिम की से किया। वह ग्रीष्म के आगमन की दस्तक का महिना था, किन्तु तेज हिम वर्षा हो रही थी। एक युवती अपने कक्ष में थी। पर्वत सुंदरी थी वह। आयु चोबिस वर्ष के आसपास। पाँच फिट छ: इंच की ऊंचाई, पतली सी, पारंपरिक पहाड़ी मुस्लिम लड़की के वस्त्र में थी वह। उसकी पीठ दिख रही थी। पीठ पर लंबे, काले, घने, खुले और सीधे बाल लहरा रहे थे। खुले बाल उड़ते थे और बार बार उसकी आँखों के सामने ...Read More

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हिम स्पर्श - 3

वफ़ाई ने घूमकर अपने नगर को देखा। पूरा नगर हिम की चादर में लपेटा हुआ था। पूरी तरह से था नगर। केवल श्वेत रंग, बाकी सभी रंग अद्रश्य हो गए थे। मकानों के मूल रंग हिम की श्वेत चादरों में कहीं छुप गए थे। लंबे क्षणों तक वह नगर को देखती रही। उसने अपनी आँखें क्षण भर बंध की और फिर खोल दी। उसने केमरे को निकाला और नगर की असंख्य तस्वीरें लेने लगी। कभी दूर से, कभी समीप से, कभी इस कोने से तो कभी उस कोने से, संभवित प्रत्येक कोने से तस्वीरें ली। एक विडियो उतारा। ...Read More

4

हिम स्पर्श - 4

वफ़ाई पर्वत को सब कुछ बताने लगी,”तीन दिन पहले, मैं अपने काम में व्यस्त थी तब ललित ने मुझे “वफ़ाई, तुम्हारे लिए एक महत्वपूर्ण अभियान है। इस दैनिक पत्र के तस्वीर विभाग की तुम प्रमुख हो, तुम सक्षम हो और ऊर्जा से भरपूर हो। मेरा विश्वास तुम पर है।“ ललित के अधरों पर स्मित था। ”कैसा अभियान है? क्या योजना है?”वफ़ाई उत्साहित हो गई। “तुम सदैव कुछ नया करती रहती हो। तुम्हारे अंदर कुछ विशेष बात है। तुम सामान्य सी लग रही बात को भी भिन्न एवं विशेष रूप से प्रस्तुत करती हो।“ “मेरे लिए यह केवल व्यवसाय ...Read More

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हिम स्पर्श - 5

वफ़ाई सावधानी से पहाड़ी मार्ग, जो अभी भी हिम से भरा था, पर जीप चला रही थी। मार्ग घुमावदार ढलान वाला था। हिम के कारण फिसलन भी थी। फिर भी वह अपने मार्ग पर चलती रही। पाँच घंटे की यात्रा के पश्चात वह सीधे और साफ मार्ग पर थी। आकाश साफ था, धूप निकल आई थी। हिम कहीं पीछे छूट गया था। हवा में उष्णता थी। उसे यह वातावरण अच्छा लगा। कोने की एक होटल पर वह रुकी। चाय के साथ थोड़ा कुछ खाना खाया। गरम चाय ने वफ़ाई में ताजगी भर दी, थकान कहीं दूर चली गई। ...Read More

6

हिम स्पर्श - 6

“उत्सव सम्पन्न हो गया। इसका अर्थ है कि लोग जा चुके हैं। लोगों के द्वारा बनाया गया कृत्रिम विश्व दिया गया है, जो केवल एक भ्रम था। मूल और वास्तविक वस्तुएं तो अभी भी है।“ वफ़ाई स्वयं से बातें करने लगी। इस प्रकार से एकांत को पराजित करने लगी। “कौन सी वस्तुएं वास्तविक है?” “यह मरुस्थल, गगन, पवन, रेत, सूर्य, चन्द्र, मरुस्थलके रूप, उसका आकार, यहाँ कि हवा......” “हाँ, यह सब तो है जो कभी निराश नहीं करते।“ “तो मैं यह सब जो वास्तविक है उसका आनंद लूँगी, अकेली। लोग नहीं है तो क्या हुआ?” “तो तुम्हें ...Read More

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हिम स्पर्श - 7

प्रथम कक्ष साधारण खंड जैसा था। प्रत्येक कोने में धूल, मिट्टी और मकड़ी के जाले फैले हुए थे। मकड़ी एक पारदर्शक किन्तु सशक्त दीवार रच दी थी। वफ़ाई वहीं रुक गई और पूरे कक्ष का निरीक्षण करने लगी, स्थल और स्थिति को समझने का प्रयास करने लगी। कक्ष के मध्य में टूटी हुई एक कुर्सी थी। अन्य कोई सामान नहीं था। कोने में एक झाड़ू, दो बाल्टियाँ, पुराने कपड़ों के कुछ टुकड़े, टूटे हुए चप्पल, पानी का खाली घड़ा, स्टील के दो प्याले, प्लास्टिक का बड़ा प्याला और तीन चम्मच। बस इतना सा सामान था। “यह ...Read More

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हिम स्पर्श - 8

वफ़ाई ने खींची हुई तसवीरों को केमरे में देखा। वह निराश हो गई। केमरे से बातें करने लगी, “जानु, यह क्या कर दिया? सभी तस्वीरें एक सी लगती है। मैं उसे हटा देती हूँ।“ वफ़ाई तसवीरों को हटाने लगी। दो चार तस्वीरें हटाने के बाद वफ़ाई ने अपना निर्णय बदल दिया। सभी तसवीरों को बचा के रख लिया। मरुभूमि की दूसरी रात भी वफ़ाई ने उसी घर में बिता दी। और दो दिवस वफ़ाई मरुभूमि में घूमती रही किन्तु पहले दो दिनों की भांति वह निराश ही रही। ना कोई मिला उसे ना कोई घटना घटी। तीसरी और चोथी रात्रि भी वफ़ाई ने उसी घर में बिताई। चार दिवस मरुभूमि में घूमने से जो अनुभव मिले उसे वफ़ाई लिखने लगी। ...Read More

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हिम स्पर्श - 9

9 जब वफ़ाई जागी तब प्रभात हो चुका था, सूरज अभी अभी निकला था। धूप की बाल किरनें कक्ष प्रवेश कर चुकी थी। प्रकाश मध्धम था। सूरज की किरणें दुर्बल सी थी। लगता था सूरज किसी के पीछे छुप गया था। वफ़ाई खुश हुई, कूदकर उठ गई। उसके साथ दो पहाड़ियाँ भी कूद पड़ी, उछल पड़ी। वह भूल गई थी कि रातभर वह अनावृत होकर सोई थी। वफ़ाई ने दोनों हाथों से दोनों पहाड़ियों को पकड़ा, स्थिर किया। वह खिड़की के समीप गई और बाहर फैले गगन को देखने लगी। तीन चार दिनों से जैसा साफ सूथरा ...Read More

10

हिम स्पर्श - 10

10 आठ मिनिट के पश्चात वफ़ाई उस स्थान पर पहुँच गई। जीप को एक कोने में छोडकर वह पंखी दिशा में चलने लगी। बारह से पन्द्रह पंखी थे वहाँ। वफ़ाई के पदध्वनि से वह सावध हो गए। दूर उड़ गए। वफ़ाई उसके पीछे चलने लगी, चलते चलते एक स्थान पर रुक गई। वहाँ रेत का बड़ा ढग था, जो पंद्रह बीस फिट ऊंचा और तीस चालीस फिट चौड़ा था। पंखी उस ढग के ऊपर से उड़ गए, ओझल हो गए। वफ़ाई ने उस ढग के पार भी उनका पीछा करना चाहा किन्तु नहीं कर पाई। रेत को पार ...Read More

11

हिम स्पर्श - 11

छत के कोने से वफ़ाई ने देखा कि एक युवक धरती की तरफ झुक कर कुछ कर रहा था। पर गिरे हुए रंग इधर उधर बिखरे हुए थे। भूमि पर पानी भी फैला हुआ था। वह युवक उस सब को समेटने का प्रयास कर रहा था। वफ़ाई वहाँ की प्रत्येक वस्तु को देखने लगी। एक चित्राधार, जो कि रंगो के समीप ही गिरा था, उस पर एक बड़ा सा केनवास जिसमें बादल और गगन का ताजा रचा चित्र था। वफ़ाई चित्र को ध्यान से देखने लगी। उसमें गगन था, बादल था। बादल का आकार साड़ी में सजी सुंदर यौवना ...Read More

12

हिम स्पर्श - 12

“और मैं जीत,” युवक ने अपना नाम बताया और फिर आदेश दिया,”वफ़ाई, अपना केमेरा ले लो अन्यथा मैं....” वह कुछ खोजने लगा। “श्रीमान जीत, मुझे मेरी सभी तस्वीरें भी चाहिए, तभी मैं मेरा केमेरा लूँगी।“ वफ़ाई ने जीत की आँखों में देखा, जीत ने भी वफ़ाई की आँखों में देखा। चारों आँखें क्रोधित थी। “तुम्हें अपना केमेरा वापिस चाहिए अथवा मैं उसे भी रख लूँ?” जीत ने पूछा। “श्रीमान जीत, तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि तसवीरों के बिना केमेरा मृत होता है। केमेरे में कोई जीवन नहीं होता। खींची हुई तस्वीरें उसे जीवंत करती हैं। मेरी खींची तस्वीरें ...Read More

13

हिम स्पर्श - 13

“दिखाओ तुमने कैसी तस्वीरें ली है।“जीत वफ़ाई की तरफ मुडा। वफ़ाई ने केमरा खोल दिया। तस्वीरें दिखने लगी.... जीत, उस पर केनवास, केनवास पर चित्र, चित्र में बादल, गगन के रंग, दूर क्षितिज में सूरज। चित्राधार के पीछे वास्तविक गगन एवं तस्वीर का गगन एक समान थे। यह बात अदभूत थी। तस्वीरें जीत को पसंद तो आई किन्तु वह प्रसन्न नहीं था। उसने फिर से वफ़ाई से केमरा खींचा और सारी तस्वीरें केमरे से हटा कर लेपटोप में डाल दी। वफ़ाई ने ना तो विरोध किया ना विद्रोह। वह बस देखती रही। उसने मन में कुछ योजना बना ली। ...Read More

14

हिम स्पर्श - 14

वफ़ाई सीधे मार्ग पर जीप चला रही थी। मार्ग अंधकार भरा था। गगन में अंधेरी रात का प्रभुत्व था। मार्ग को देखते जा रही थी। पहले तो यह मार्ग ज्ञात लग रहा था किन्तु धीरे धीरे वह अज्ञात सा लगने लगा। मरुभूमि भी अज्ञात लगने लगी। जो मरुभूमि को वह चार पाँच दिनों से जानती थी वह कोई भिन्न थी। यह कोई दूसरी भूमि थी। वफ़ाई ने संदेह के साथ स्वयं से पूछा,”वफ़ाई, तुम इस मरुभूमि को जानती हो?” “कुछ कह नहीं सकती। यह मरुभूमि, यह मार्ग और यह रात्री उस घर तक नहीं जाते जहां तुम जाना चाहती ...Read More

15

हिम स्पर्श - 15

जीत के मोबाइल की घंटी बजना खास और विरल घटना होती थी। घंटी सुनकर उसे विस्मया हुआ। उसने फोन “जीत, आपको इस समय फोन करने पर क्षमा चाहूँगा। किन्तु यह अति आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है।“ जीत ने कैप्टन सिंघ की आवाज सुनी। “जय हिन्द, कैप्टन सिंघ। कहिए क्या बात है?”जीत सावध हो गया। “काल रात एक युवती सेना के क्षेत्र में पाई गई। उसके पास एक जीप है जिसका पंजीकरण जम्मू कश्मीर से है। हमें संदेह है कि वह सिमा पार से आई कोई गुप्तचर है। पूछताछ पर उसने आपका नाम दिया। क्या आप उसे जानते हो?” “क्या वह ...Read More

16

हिम स्पर्श - 16

मरुभूमि मौन थी। हवा मौन बह रही थी, मौन गगन देख रहा था, बादल भी मौन यात्रा कर रहे रेत मौन पड़ी थी, मार्ग मौन थे, पंखी भी मौन उड़ रहे थे। सब कुछ मौन था, शांत था। केवल दोनों के मन अशांत थे। दोनों बात करना चाहते थे, एक दूसरे को जानना चाहते थे किन्तु कोई भी बात नहीं कर रहा था। दोनों प्रतीक्षा कर रहे थे कि सामनेवाला बात प्रारम्भ करे। दोनों मौन थे अत: दोनों अशांत थे। दोनों चित्र को बिना किसी उद्देश्य से देख रहे थे। चित्र शांत एवं मौन था। किन्तु चित्र में बसे आकार शांत नहीं थे, वह कुछ कह रहे थे। ...Read More

17

हिम स्पर्श - 17

मीठी हवा की एक धारा आई, वफ़ाई, जीत एवं सारे घर को स्पर्श करती हुई चली गई। दोनों को भाने लगी। “किन्तु तुमने मुंबई क्यों छोड़ा? सब कुछ तो सही हो रहा था। सफलता भी, नाम भी, सम्मान भी। सब कुछ तो ठीक था। तो फिर?” वफ़ाई ने प्रश्नों की धारा बहा दी। “मैं तुम्हारी जिज्ञासा को समझता हूँ। उचित समय पर मैं यह सब भी बता दूंगा।“ “समय के यह क्षण क्या उचित समय नहीं है? हम जिस समय में जीते हैं वह समय ही सदैव उचित समय होता है। मेरा आग्रह है कि तुम अभी सब कुछ ...Read More

18

हिम स्पर्श - 18

सूर्य अस्त होने को दौड़ रहा था। संध्या ने धरती पर प्रवेश कर लिया था। वफ़ाई ने गगन की देखा। उसे मन हुआ कि वह पंखी बन कर गगन में उड़ने लगे, मरुभूमि से कहीं दूर पर्वत पर चली जाय। वह उड़ने लगी, ऊपर, ऊपर खूब उपर; बादलों को स्पर्श करने लगी, गगन के खालीपन को अनुभव करने लगी। तारे उसके आसपास थे तो चन्द्रमाँ निकट था। उसने चंद्रमा को पकड़ना चाहा, दोनों हाथ फैलाये किन्तु चंद्रमा को पकड़ न सकी। “चंद्रमा, मैं तुम्हें अपने आलिंगन में लेना चाहती हूँ, किन्तु जितनी भी बार मैंने मेरे हाथ फैलाये, तुम ...Read More

19

हिम स्पर्श - 19

“जीत, एक और बात। प्रत्येक कलाकार विशेष होता है, प्रत्येक कला विशेष होती है। दो चित्रकार अथवा दो सर्जक भिन्न होते हैं, विशेष होते हैं। यदि दोनों एक सी कला को प्रस्तुत करेंगे तो भी वह भिन्न भिन्न रूप से और विशेष रूप से करेंगे। जैसे सब कुछ एक दूसरे से भिन्न और विशेष है, वैसे ही तस्वीर कला भी अन्य कला से भिन्न है।“ “किन्तु तस्वीर कला...’ “जीत, दो तसवीरकार भी भिन्न है, विशेष है। यदि एक ही क्षण पर एक ही द्र्श्य की तस्वीर को एक ही कोने से मैं और तुम लेते हैं तो भी दोनों भिन्न सर्जन होंगे। और तुम कहते हो...“ वफ़ाई अविरत रूप से बोलती रही। ...Read More

20

हिम स्पर्श - 20

वफ़ाई जागी, घड़ी में समय देखा। रात के तीन बज कर अड़तालीस मिनिट। वह उठ खड़ी ऊई। कक्ष से निकली। झूले पर जीत गहरी नींद में सोया था। “जीत, स्वप्नों के नगर में हो क्या?” वफ़ाई मन ही मन बोली। रात शीतल थी। देर रात्रि के चाँद की श्वेत चाँदनी से गगन तेजोमय था। दो तीन बादल गगन में घूम रहे थे। ठंडी पवन वफ़ाई को स्पर्श कर गई। वफ़ाई ने थोड़ा कंपन अनुभव किया। उसने दुपट्टे को लपेटा और कक्ष के अंदर चली गई। वफ़ाई ने जीत का लेपटोप चालू किया। जीत ने वफ़ाई के केमरे से जो ...Read More

21

हिम स्पर्श 21

चाँदनी के प्रकाश में वफ़ाई मार्ग पर बढ़े जा रही थी। मार्ग शांत और निर्जन था। केवल चलती जीप ध्वनि ही वहाँ था। यह कैसी मरुभूमि थी जहां दिवस के प्रकाश में भी मनुष्य नहीं मिलता और रात्रि अधिक निर्जन हो जाती है। ना रात्री थी ना दिवस था। रात्रि अपने अंतिम क्षणों में थी तो दिवस अभी नींद से जागा नहीं था। जीप धीरे धीरे चल रही थी। अश्रु भी वफ़ाई की आँखों से गालों तक की यात्रा धीरे धीरे कर रहे थे। जीप अविरत चल रही थी किन्तु अश्रु रुक रुक कर बह रहे थे। वफ़ाई ...Read More

22

हिम स्पर्श 22

वफ़ाई के जाने के पश्चात जीत व्याकुल था। वह झूले पर बैठ गया। वफ़ाई के साथ व्यतीत क्षणों के में खो गया। उसने एक एक क्षण को पकड़ना चाहा जो उसने वफ़ाई के साथ व्यतीत की थी। अपनी कल्पना में उसे पुन: जीने का प्रयास करने लगा, वह विफल रहा। उसने झूला छोड़ दिया, यहाँ से वहाँ घूमता रहा। झूले से चित्राधार तक, वहाँ से कक्ष में, कक्ष से घर के पीछे तक और पुन: झूले तक। हार कर जीत ने वफ़ाई के स्मरणों को भूलना चाहा, वह पुन: विफल हो गया। घर के प्रत्येक कोने में वफ़ाई की ...Read More

23

हिम स्पर्श 23

“वफ़ाई, तुम अधिक बोलती हो। क्या तुम चुप नहीं रह सकती?” जीत ने वफ़ाई के प्रति क्रोध से देखा। ने मीठे स्मित से जवाब दिया। पिछली रात से ही जीत ने मौन बना लिया था जो भोर होने पर भी बना हुआ था। वफ़ाई उसे बारंबार तोड़ रही थी। प्रत्येक बार जीत ने उसकी उपेक्षा की थी। पिछले पाँच घंटों में वफ़ाई ने सत्रहवीं बार मौन भंग करके दोनों के बीच टूटे हुए संबंध को जोड़ने का प्रयास किया था किन्तु जीत कोई रुचि नहीं दिखा रहा था। वफ़ाई हिम को पिघला ना सकी। तपति दोपहरी हो गई। ...Read More

24

हिम स्पर्श 24

जीत मौन तो था किन्तु अशांत था। जीवन के जिस अध्याय को मैं पीछे छोड़ चुका हूँ, जिसे छोड़ के पश्चात कभी याद नहीं किया, याद करना भी नहीं चाहता था किन्तु, वफ़ाई उसी अध्याय को पढ़ना चाहती है। तप्त मरुभूमि में सब संबंध, सब वार्ता, सभी स्मरण, सब कुछ भस्म कर दीया था मैंने। वफ़ाई, तुम मुझे स्मरणों की अग्नि में पुन: जला रही हो। तुम नहीं जानती की स्मरणों की अग्नि कितनी तीव्र होती है, कितनी घातक होती है। तो भाग जाओ इन स्मरणों से, बच निकलो उसकी अग्नि से। आज तक उसे याद नहीं किया तो ...Read More

25

हिम स्पर्श 25

जीत अभी भी गहरी नींद में सोया हुआ था। दिलशाद ने खिड़की खोल दी। एक पूरा टुकड़ा आकाश का का अतिक्रमण कर दिलशाद की आँखों में उमड़ गया जो अपने साथ बर्फीली हवा के टुकड़े भी लाया था। खिड़की के उस पार था पहाड़ों का जंगल। सूरज निकल आया था। पहाड़ों के ढलान पर जमी हिम पर यात्री अपने अपने आनंद में व्यस्त हो गए थे। मन तो करता है कि दौड़ जाऊँ हिम के बीच। पर यह जीत, अभी भी सो रहा है। मैं क्या करूँ? दिलशाद ने जीत को देखा। वह सो रहा था। दिलशाद ने अपनी इच्छा को भी सुला दिया। प्रतीक्षा करने लगी, जीत के जागने की। ...Read More

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हिम स्पर्श 26

जीत तथा दिलशाद मुंबई लौट आए। डॉ॰ नेल्सन ने पूरी तरह से जीत को जांचा, कई टेस्ट भी हुए। पहाड़ों पर आप की छुट्टियाँ कैसी रही? बड़ा आनंद आया होगा न? कुछ मुझे भी तो बताओ कि पहाड़ों पर हिम कैसा लगता है? मैं कभी गया नहीं उन पहाड़ों पर।”नेल्सन ने बात का दौर सांधा। नेल्सन के होठों पर मीठा सा स्मित था। वह स्मित मोहक भी था। उसमें कोई जादू अवश्य था, जो रोगी की पीड़ा हर लेता था। दिलशाद और जीत उस स्मित के सम्मोहन में पड गए। कुछ क्षण के लिए पीड़ा भूल गए, बर्फीली पहाड़ियों ...Read More

27

हिम स्पर्श 27

“जीत, मेरा पर्स वहीं टेबल पर ही रह गया। मैं अभी लेकर आई, तुम गाड़ी निकालो।“ दिलशाद ने कहा। दिलशाद नेल्सन के कक्ष की तरफ दौड़ी, अंदर घुसी। “मेरा पर्स मैं भूल गयी थी।“ वह टेबल पर पड़ी पर्स की तरफ बढ़ी, वह पर्स उठाती तब तक नेल्सन ने उसे उठा लिया। “भूल गयी थी अथवा...?” नेल्सन दिलशाद की समीप गया। वह दिलशाद के अत्यंत समीप था। दिलशाद को उसका सामीप्य पसंद आया। वह मन ही मन चाहने लगी कि नेल्सन उसे स्पर्श करे किन्तु उसने स्वयं को रोका। “मेरा पर्स?“ दिलशाद ने पर्स लेने के लिए हाथ आगे ...Read More

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हिम स्पर्श 28

संध्या होते ही दिलशाद नेल्सन के पास जाने निकली। दिलशाद के पैरों में कोई विशेष बात थी, नेल्सन से को उतावले थे वह। जीत ने उस चाल को भांप लिया, कुछ ना बोला, बस देखता रहा। दिलशाद चली गयी। जब वह नेल्सन के पास पहोंची, दो रोगी नेल्सन की प्रतीक्षा कर रहे थे। दिलशाद समय के बीतने की प्रतीक्षा करने लगी। नेल्सन को SMS कर के अपने आने की सूचना दे दी। नेल्सन ने शीघ्रता से दोनों को निपटा दिया। दिलशाद अंदर चली गई। यह पहला अवसर था कि दिलशाद अकेली ही नेल्सन से मिल रही थी, उसकी हॉस्पिटल ...Read More

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हिम स्पर्श 29

दिलशाद जब घर पहुंची तो जीत आँगन में झूले पर बैठा था। दिलशाद जीत के पास गई और उसके को चूमने के लिए झुकी। दिलशाद की ढीली छाती भी झूली। जीत ने उसे अनुभव किया। वह समझ गया कि दिलशाद की ब्रा अपने स्थान पर नहीं थी। दिलशाद कभी बिना ब्रा के घर से बाहर नहीं जाती। तो यह कैसे हुआ? सवाल जीत के मन में उठा, जवाब भी उसे ज्ञात था। दिलशाद अपनी ब्रा खो चुकी थी, जीत को भी। जीत कुछ नहीं बोला। रात भर सोचता रहा। रात भर स्वयं से संघर्ष करता रहा। भोर जब आई ...Read More

30

हिम स्पर्श 30

जीत सूर्योदय से पहले ही जाग गया। कुछ समय होस्पिटल में ही घूमता रहा। वह बाहर निकला और राज पर आ गया। मार्ग खाली से थे। केवल कुछ कोहरा था। चाय की एक दुकान खुली थी। वहाँ दो तीन लोग मध्धम ठंड का गरम चाय के साथ आनंद ले रहे थे। जीत ने भी चाय मँगवाई। चाय आई। वह चाय पीने लगा, धीरे धीरे। जैसे वह समय को रोकना चाहता हो। अपनी मृत्यु को दूर रखना चाहता हो। वह धीरे धीरे पीता रहा। एक कप चाय पीने में जीत को पूरे 26 मिनट लगे। इस बीच कई लोग चाय ...Read More

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हिम स्पर्श - 31

जीत की हथेली अनायास ही खुल गई। वह खुली हथेली को देखता रहा। उसे लगा जैसे उसकी बंध मुट्ठी कुछ फिसल गया हो, सरक गया हो, छुट गया हो। “क्या था जो अभी अभी हाथों से छूट गया?” जीत चारों दिशाओं में, ऊपर, नीचे, उसे खोजता रहा। किन्तु ना तो वह उसके हाथ आया ना वह समझ पाया कि जो छूट गया वह क्या था। जो छूट गया वह कहीं विलीन हो गया। जीत निराश हो गया। वफ़ाई मौन थी। जीत के मुख पर परिवर्तित होते रहे भावों को देख रही थी, उसे समझने का प्रयास कर रही ...Read More

32

हिम स्पर्श - 32

“गेलिना जी, यह मेरा सौभाग्य है कि आप यहाँ हो।“ जीत ने गेलिना का स्वागत किया। “यह तो मेरा है कि भारत जैसे अदभूत देश को देखने का मुझे अवसर मिला है. कच्छ प्रदेश को भी। वास्तव में भारत भ्रमण की मेरी योजना थी ही। तुम्हारा आमंत्रण मिला और मैं यहाँ दौड़ी चली आई।“गेलिना भी उत्साह से भरी थी। गेलिना झूले पर बैठ गई और जीत के घर को देखने लगी। वह मन ही मन बोली,”यहाँ से अथवा…” गेलिना झुले से उठी इधर उधर घूमी। दीवार के समीप, झूले से आठ दस फिट की दूरी पर एक स्थान पर ...Read More

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हिम स्पर्श - 33

“चौथे दिवस गेलिना भारत भ्रमण को चली गई, वहाँ से स्वीडन लौट गई।“ जीत ने कहा। वफ़ाई जीत को मन से सुन रही थी। जीत अभी भी गगन को देख रहा था, जैसे वह गेलिना के साथ व्यतीत हुए समय खंड में खोया था। “तुम कहना चाहते हो कि पैंसठ वर्ष की एक स्त्री स्वीडन से तुम्हें चित्रकला सीखाने आती है। तुम गेलिना से चित्रकला सीखते हो और वह लौट जाती है। क्षमा करना किन्तु मैं तुम्हारी इस बात का विश्वास नहीं कर सकती।“ वफ़ाई ने संदेह व्यक्त किया। “मैं सत्य कह रहा हूँ। वह स्वीडन से कच्छ आई ...Read More

34

हिम स्पर्श - 34

“जीत, चलो मैं मान लेती हूँ कि गेलिना यहाँ आई थी और उसने तुम्हें चित्रकला सिखाई।“ “हाँ, वह आई यहाँ, इस घर में। इस कक्ष में, इस मरुभूमि में वह आई थी। उसे झूला झूलना पसंद था। वह इस झूले पर झूलती थी। वहाँ, जहां अभी तुम बैठी हो वहीं वह बैठती थी। यह झूला उसे...।” “इस झूले पर? इस स्थान पर? कितना मधुर होगा वह समय?” वफ़ाई प्रसन्न हो गई। “हाँ, वह चार दिवस मधुर थे। वह समय अदभूत था।“ “किन्तु मेरा दूसरा निष्कर्ष अभी भी कह रहा है कि तुम मेरा चित्र बना सकते हो। बस, ...Read More

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हिम स्पर्श - 35

वफ़ाई के मन में दुविधा जन्मी। जीत क्यों उस व्यक्ति के शोक में इतना गहन डूब गया है जो से ना तो उसका कोई संबंध था ना ही वह उसके साथ अधिक समय तक रही थी? वफ़ाई इस प्रश्न का उत्तर पाने का व्यर्थ प्रयास करती रही। “जीत, तुम गेलिना की मृत्यु पर इतने गहन शोक में क्यों डूब गए हो? क्या संबंध था तुम्हारा उसके साथ?” अंतत: वफ़ाई ने धैर्य खोकर पुछ लिया। “वफ़ाई, वह तुम नहीं समझोगी। मैं स्वीकार करता हूँ कि गेलिना से मेरा कोई संबंध नहीं था। किन्तु, फिर भी किसी नाम, किसी व्याख्या, ...Read More

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हिम स्पर्श - 36

36 “जीत, आ जाओ सब तैयार है। यह केनवास तुम्हारी प्रतीक्षा में है।“ जीत ने केनवास को देखा। वह आमंत्रित कर रहा था। वह दो तीन कदम चला और रुक गया। उसने केनवास को फिर देखा। उसे अंदर से कोई रोक रहा था, वह आगे नहीं बढ़ सका। वफ़ाई ने जीत के कदमों को देखा और समझ गई की जीत बारह-तेरह कदमों का अंतर पार नहीं कर पा रहा है। वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ा और केनवास तक खींच लाई। जीत को पेंसिल हाथ में देते वफ़ाई ने कहा,” इस झूले का चित्र बनाने का प्रयास करो। उसे ...Read More

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हिम स्पर्श - 37

37 एक सुंदर प्रभात के प्रथम प्रहार ने सो रहे जीत को जगा दिया। वह झूले से उठा। गगन देखा। अभी भी थोड़ा अंधकार वहाँ रुका हुआ था। चंद्रमा स्मित कर रहा था। जीत ने चंद्रमा को स्मित दिया, जीत को अच्छा लगा। जीत ने चिंता नहीं की कि चंद्रमा ने उसके स्मित का क्या उत्तर दिया। वह सीधे चित्राधार के समीप गया और अपूर्ण रहे चित्र को पूरा करने में व्यसत हो गया। “क्या तुम अपूर्ण हो?” जीत ने चित्र को पूछा। “थोड़े से रंग भर दो मुझ में, मैं पूर्ण हो जाऊंगा।“ जीत उसमें रंग भरने लगा। ...Read More

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हिम स्पर्श - 38

38 “तुम मुझे चित्रकला कब सिखाओगे?” वफ़ाई ने पूछा। “वफ़ाई, मुझे विस्मय है कि तुम अभी भी चाहती हो।“ “मैं मेरा वचन पूर्ण करना चाहती हूँ।“ “तुम उतावली हो रही हो।” “कोई संदेह, जीत?” “जिस से तुम यहाँ से अति शीघ्र भाग सको।’ “मैं ना तो यहाँ से, ना ही तुम से भागने वाली हूँ।“ “तो इतनी अधीर क्यों हो? इतनी उतावली क्यों हो? तुम्हारे पास भी समय नहीं बचा क्या?” “मैं? नहीं तो? किन्तु मुझे ज्ञात है कि तुम्हारे पास समय नहीं बचा है।“ “मैं नहीं जानता।“ जीत ने गहरी सांस ली। “तुम भली भांति जानते हो, ...Read More

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हिम स्पर्श - 39

39 दो दिवस तक वफ़ाई अविरत रूप से चित्रकारी सीखती रही। अब वह गगन, बादल, पंखी आदि चित्र बनाने में सक्षम थी। किन्तु वह तूलिका से संतुष्ट नहीं थी क्यों कि वह वफ़ाई की इच्छानुसार रंग भरने में सहाय नहीं कर रही थी। तूलिका के ऊपर वफ़ाई का नियंत्रण अभी बाकी था। जीत ने भी अपनी कला में सुधार किया था। अब वह किसी भी पदार्थ जो उसकी आँखों के सामने हो उसका चित्र बना सकता था। वह सब चित्र अच्छे तो लगते थे किन्तु कुछ अभाव था जो चित्र को पूर्ण नहीं बना रहा था। जीत उस ...Read More

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हिम स्पर्श - 40

40 वफ़ाई चित्रकारी के अभ्यास में व्यस्त थी। जीत क्या करूँ क्या ना करूँ की दुविधा में झूले पर था। लाल, गुलाबी, नारंगी भाव जो जीत ने वफ़ाई के मुख पर देखे थे उसने जीत के मन पर नियंत्रण कर लिया था। जीत उस से मुक्त होने का प्रयास करता रहता, विफल होता रहा। स ...Read More

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हिम स्पर्श 41

41 “एक अपूर्ण कदम नामक चित्र मैं अभी रचने नहीं जा रही हूँ। तुम अपने पैर धरती रख सकते हो। अपूर्ण कदम पूर्ण कर सकते हो।“ वफ़ाई हंसने लगी। जीत ने अपूर्ण कदम पूर्ण किया। “जीत, नींबू रस लो।“ वफ़ाई ने नींबू रस का एक ग्लास भरे जीत को दिया और दूसरा अपने हाथ में लिए झूले पर बैठ गई। वफ़ाई धीरे धीरे झूलने लगी। आँखें बंध कर जीत दूर खड़ा रहा। दोनों नि:शब्द होकर रस पी रहे थे। वफ़ाई जीत को देख रही थी। “मैं इस मुद्रा का भी चित्र रचूँगी और उस का नाम होगा- अपूर्ण ...Read More

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हिम स्पर्श 42

42 एक दिवस और व्यतीत हो गया। चित्रकारी में अपनी अपनी प्रगति पर वफ़ाई तथा जीत संतुष्ट एक दूसरे की सहायता से, एक दूसरे के सानीध्य से चित्रकारी की नयी नयी रीति सीख रहे थे। कल से पवन भिन्न भाव से बह रहा था। प्रत्येक क्षण में जीवन, आनंद तथा सुख भरा था। आशा एवं उमंग से भरपूर था। वैसे कोई विशेष कारण नहीं था, किन्तु दोनों प्रसन्न थे। दोनों ने नींबू रस लिया, जो भिन्न रूप से मीठा था। नींबू रस एक कड़ी थी दोनों के बीच बिना शब्द कहे अपने मन के भावों को व्यक्त करने ...Read More

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हिम स्पर्श 43

43 “श्रीमान चित्रकार, नई भाषा के लिए धन्यवाद। इस के द्वारा सर्जित मौन के लिए भी धन्यवाद। मुझे भी पसंद है। किन्तु, कुछ बात मैं इस भाषा से व्यक्त नहीं कर पा रही हूँ। मुझे पुन: शब्दों के शरण में आना पड़ा है। तुम....।“ वफ़ाई बोलती रही। जीत शांत, स्थिर एवं शब्द विहीन था। उसने वफ़ाई के शब्दों पर ध्यान नहीं दिया। वफ़ाई जान गई कि जीत बात करना नहीं चाहता। “मौन का किल्ला जो हमने बनाया था, मैंने उसे अंशत: तोड़ दिया। मैं मेरी बात कह तो दूँ किन्तु कोई सुनना ही नहीं चाहता। मैं भी मौन हो ...Read More

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हिम स्पर्श 44

44 “मैं भूल गई थी कि तुम यहाँ हो, मेरे साथ। मैं कहीं विचारों में खो गई मैं भी कितनी मूर्ख हूँ?” वफ़ाई ने स्मित दिया, जीत ने भी। जीत ने तूलिका वहीं छोड़ दी, झूले पर जा कर बैठ गया। वफ़ाई को देखने लगा जो दूर खड़ी थी। वफ़ाई ने जीत को केनवास से झूले तक जाते देखा था। बात करने का समय आ गया है। अभी मैं जीत से बात कर सकती हूँ। लंबे समय तक मौन नहीं रह सकती मैं। वफ़ाई भी झूले के समीप गई। वह झूले पर बैठना चाहती थी किन्तु वफ़ाई ...Read More

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हिम स्पर्श 45

45 “हाय अल्लाह। मुझे आश्चर्य है कि मैं इन अनपेक्षित गलियों में कैसे भटक गई? मैं उद्देश्य भूल गई और अज्ञात-अनदेखे मार्ग पर चलती रही। जीत, मैं भी कितनी मूर्ख हूँ।“ “वफ़ाई, ज्ञात एवं पारंपरिक मार्ग पर चलने से तो अज्ञात–अनदेखे मार्ग पर चलना अच्छा है। इसका भी अपना सौन्दर्य है।“ “मुझे किसी नए मार्ग पर मत ले चलना। मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर दे दो कि मैं किसका चित्र बनाऊँ। शब्दों से खेले बिना मेरा मार्गदर्शन करो।“ “मुझे थोड़ा विचार करने दो।“ “अनुमति है। किन्तु अधिक समय मत लेना। और हाँ, इस जगत को छोडकर कहीं और ...Read More

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हिम स्पर्श 46

46 “वफ़ाई, मेरे पास एक योजना है। तुम्हें रुचि है इसे सुनने में?” जीत ने प्रभात में वफ़ाई से संवाद प्रारम्भ कर दिया। वफ़ाई ने अभी अभी प्रभात की नमाझ पूर्ण की थी। वह नींबू सूप बनाने में व्यस्त थी। वफ़ाई जागते ही मौन थी, शांत थी। जीत के शब्द वफ़ाई के लिए बात करने, उत्तर देने अथवा स्मित देने के लिए पर्याप्त नहीं थे। वफ़ाई मौन ही रही। जीत ने अपने शब्द फिर कहे, लगभग वफ़ाई के कान में। वफ़ाई का हृदय गति चूक गया, श्वास रुक गया और आँखें बंध हो गई। जीत पहली बार वफ़ाई ...Read More

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हिम स्पर्श 47

47 “गाँव को छोड़ने के पश्चात पहली बार किसी पर्वत को देख रही हूँ। हे काले पर्वत, अदभूत हो।“ वफ़ाई काले पर्वत से मोहित हो गई। वह किसी भिन्न जगत में चली गई। जीत ने उसे उस जगत में रहने दिया। “जीत, जीप की गति बढ़ाओ ना। मैं शीघ्र ही...।“ वफ़ाई लौट आई इस जगत में। “वफ़ाई, पर्वत पर पहोंचने से पहले पर्वत के प्रत्येक कण की अनुभूति तुम ले सको इसी लिए मैं जीप धीरे धीरे चला रहा हूँ।“ जीप धीरे धीरे पर्वत के निकट जा रही थी। पर्वत वफ़ाई में धीरे धीरे उतर रहा था। "जीत, ...Read More

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हिम स्पर्श 48

47 “गाँव को छोड़ने के पश्चात पहली बार किसी पर्वत को देख रही हूँ। हे काले पर्वत, अदभूत हो।“ वफ़ाई काले पर्वत से मोहित हो गई। वह किसी भिन्न जगत में चली गई। जीत ने उसे उस जगत में रहने दिया। “जीत, जीप की गति बढ़ाओ ना। मैं शीघ्र ही...।“ वफ़ाई लौट आई इस जगत में। “वफ़ाई, पर्वत पर पहोंचने से पहले पर्वत के प्रत्येक कण की अनुभूति तुम ले सको इसी लिए मैं जीप धीरे धीरे चला रहा हूँ।“ जीप धीरे धीरे पर्वत के निकट जा रही थी। पर्वत वफ़ाई में धीरे धीरे उतर रहा था। जीत, ...Read More

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हिम स्पर्श 49

49 “यह चोटी साढ़े चार सौ मिटर की ऊंचाई पर है। यह कच्छ का सर्वोच्च सूर्यास्त बिन्दु जीत बताने लगा। वफ़ाई ने उसके शब्द नहीं सुने। वह पर्वत के चारों तरफ देख रही थी। वह मुग्ध थी, मोहित थी। उसे अपने ही पर्वत जैसे तरंग अनुभव हो रहे थे। “हे पर्वत, मुझे यह कभी अपेक्षा नहीं थी कि सुनी मरुभूमि भी अपने अंदर इतना सौन्दर्य धारण कर के बैठी है।“ वफ़ाई ने दोनों हाथ छाती पर रख दिये तथा पर्वत को नमन किया। गगन स्वच्छ था। एक-दो छोटे सफ़ेद बादल भटक गये थे जो गगन में विचर रहे ...Read More

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हिम स्पर्श 50

50 रात के अंधकार में घर की भीत से परे देखते हुए जीत स्वयं से बातें कर रहा था। अंधकार है। क्या यह रात्री के कारण है? दिवस के प्रकाश में भी तो वहाँ....। वह अंधकार नहीं एकांत होता है। क्या अंतर है अंधकार तथा एकांत में? दोनों स्थिति में रंग एवं प्रकाश का कोई अर्थ नहीं होता। तुम उस बिन्दु को क्यों देखते हो जो एकांत से भरा है? अंधकार से भरा है? जहां सब कुछ स्थिर है? तो? कहाँ देखूँ? घर के अंदर, भीत के इस तरफ झाँको। जहां वफ़ाई है। जहां साथी है। जहां प्रकाश है। ...Read More

51

हिम स्पर्श - 51

51 नींद से उठकर वफ़ाई द्वार पर खड़ी हो गई। बाहर अभी भी रात्रि का साम्राज्य था। कुछ शांत था, स्थिर था। रात्रि धीरे धीरे गति कर रही थी। वफ़ाई ने झूले को देखा। जीत वहाँ बैठा था। “जीत सोया नहीं? अथवा जाग गया? ऐसा क्यों?” वफ़ाई मन ही मन बोली। वफ़ाई ने घड़ी देखि। रात्रि अधिक व्यतीत हो गई थी। आधी से अधिक रात्रि बीत चुकी है किन्तु जीत जाग क्यों रहा है? वह कोई गहन चिंतन में है अथवा चिंता में? कुछ क्षण मैं जीत को देखती हूँ। समझ में तो आए कि बात क्या है? ...Read More

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हिम स्पर्श- 52

52 “जीत, अभी ना जाओ। कुछ क्षण ओर बैठो मेरे समीप।“ वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ लिया। जीत वफ़ाई के हाथ को देखा, वफ़ाई के मुख के भावों को देखा तथा घात देकर अपना हाथ छुड़ा लिया। जीत दूर चला गया। वफ़ाई ने घात का अनुभव किया, स्वप्न से जाग गई। निंद्रा टूट गई। वफ़ाई ने आँखें खोल कर देखा। वह बंध कक्ष में अपनी शैया पर थी। कक्ष में चारों तरफ देखा। वहाँ झूला भी नहीं था, जीत भी नहीं था। प्रति दिन की भांति वह अकेली ही थी। वफ़ाई ने गहरी सांस ली, आँखें बंध कर ...Read More

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हिम स्पर्श- 53

53 “जीत, मेरे चित्र को देखो तो। देखो, मैंने आज कुछ नया किया है।“ वफ़ाई उत्साह से भरी थी। वफ़ाई के केनवास को देखने लगा। वफ़ाई झूले पर बैठ गई। जीत ने केनवास को ध्यान से देखा। केनवास खाली था, श्वेत था। उस पर किसी भी रंग का एक भी बिन्दु नहीं था। वह सूरज के किरणों की भांति श्वेत था, गगन की भांति खाली था। जीत ने पुन: केनवास को देखा यह निश्चित करने के लिए कि कहीं कुछ छुट तो नहीं गया। “नहीं, कुछ भी नहीं है यहाँ। केनवास पर एक रेखा भी नहीं है। एक बिन्दु ...Read More

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हिम स्पर्श- 54

54 “स्वप्न क्या होते हैं? कैसे दिखते हैं? उनका रंग कैसा होता है? कहाँ से वह आते हैं? क्यों हैं? कहाँ चले जाते हैं? वह अपने साथ क्या लाते हैं? हम से वह क्या छिन ले जाते हैं? यह स्वप्न, जैसे कोई पहेली हो। स्वप्न होते हैं किन्तु देखे नहीं जाते। उसे देखना हो तो बंध कर लो आँखें और यदि आँखें खुल गई तो वह उड़ जाते हैं। खुल्ली आँखों से उसे क्यों नहीं देख सकते? किसी वस्तु की भांति उसे अनुभव नहीं कर सकते। उसे स्पर्श नहीं कर सकते। उससे स्नेह नहीं कर सकते। उसे चूम नहीं ...Read More

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हिम स्पर्श 55

55 जीत वफ़ाई को देखता रहा। वह मार्ग पर दौड़ रही थी, जीत से दूर जा रही थी। जीत आँखों से ओझल हो गई, रेत से भरे मार्ग पर कहीं खो गई। समय रहते वफ़ाई लौट आई। जिस मार्ग से बावली बनकर वफ़ाई दौड गई थी, जीत अभी भी वहीं देख रहा था। बल्कि, जीत वफ़ाई के लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था। “मेरी प्रतीक्षा कर रहे हो तुम जीत, तुम ने मुझे मोह लिया। कितना अदभूत अनुभव होता है जब कोई तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हो। समय के कुछ क्षण व्यतीत होने पर भी जीत, तुम वहीं खड़े ...Read More

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हिम स्पर्श- 56

56 वफ़ाई लौट आई। झूले पर बैठ गई। एक स्वप्न, उस स्वप्न का चित्र जो जीत ने रचा था, को विचलित कर रहा था। स्वप्न तथा उस के चित्र के संकेतों को समझने का प्रयास कर रही थी। अपने विचारों से, अपने प्रश्नों से वफ़ाई संघर्ष कर रही थी। मुझे याद करना होगा मेरे स्वप्न के प्रथम क्षण से अंत तक। वफ़ाई के मन में पूरा स्वप्न पुनरावर्तित हो गया। इस स्वप्न एवं इस चित्र में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक ही है इसमें कोई संशय नहीं है। मुझे जीत के लौटने की प्रतिक्षा करनी होगी। जीत, स्वप्न ...Read More

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हिम स्पर्श- 57

57 अचानक जीत झूले से उठा और वफ़ाई की तरफ भागा। जाती हुई वफ़ाई के हाथ पीछे पकड़ लिए। वफ़ाई के बढ़ते चरण रुक गये। वफ़ाई का शरीर आगे तथा दोनों हाथ जीत के हाथो में पीछे की तरफ हो गए। जीत की ऐसी क्रिया वफ़ाई को अनपेक्षित थी। वह स्तब्ध हो गई। जीत के स्पर्श से वफ़ा ...Read More

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हिम स्पर्श- 58

58 वफ़ाई और जीत झूले पर थे, एक साथ, प्रथम बार, वास्तव में। दोनों एक दूसरे के समीप थे। “पिछले सात घंटों से हमने एक भी रेखा, एक भी बिन्दु चित्रित नहीं किया, जानते हो तुम जीत?” सात घंटों के मौन के पश्चात वफ़ाई ने कुछ शब्द कहे। “तो क्या हमने यह सात घंटे व्यर्थ नष्ट किए हैं?” जीत ने वफ़ाई को छेड़ा। “चित्र कला की द्रष्टि से कहें तो हाँ, हमने नष्ट किए हैं यह सात घंटे।“ वफ़ाई ने भी जीत को छेड़ा। वफ़ाई के अधरों पर नटखट स्मित था। जीत ने उत्तर में स्मित दिया। जीत ...Read More

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हिम स्पर्श- 59

59 “यह सुंदर तो है।“ जीत ने अभी अभी वफ़ाई का जो चित्र रचा था उसे देखकर वफ़ाई बोली। ने प्रतिक्रिया नहीं दी। “जीत, तुम यदि किसी यौवना को केनवास पर चित्रित करना चाहते हो तो तुम्हें अधिक प्रयास करना होगा, अधिक अभ्यास करना होगा।“ वफ़ाई ने तीन बार पलकें खोल बंध की। “कैसा प्रयास? कैसा अभ्यास?” “उतावले हो रहे हो तुम जीत। अब यह ना कहना कि तुम्हारे पास समय का अभाव है।“ वफ़ाई हंसी। यही सत्य है वफ़ाई, कि मेरे पास समय नहीं है। कैसे समझाऊँ मैं तुम्हें? जीत ने वफ़ाई को बोलने दिया। “एक सुंदर यौवना ...Read More

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हिम स्पर्श- 60

60 वफ़ाई झूले के निकट एक क्षण के लिए रुकी। झूले को पूरी शक्ति से धकेला और कूदकर झूले चढ़ गई, खड़ी हो गई। झूला गति में आ गया, वफ़ाई भी। वफ़ाई के दोनों हाथ पूरे खुले हुए थे, जो झूले के दोनों तरफ फैले सरिये को पकड़े हुए थे। जीत ने वफ़ाई को ऊपर से निचे तक देखा। सर पर तोलिया था जिस के अंदर उसके पूरे केश कैद थे। पानी की कुछ बूंदें गालों पर टपक रही थी। लहराते झूले के कारण कुछ बूंदों ने विद्रोह कर दिया और गालों को छोड़ कर हवा में उड़ने लगी, ...Read More

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हिम स्पर्श - 61

61 “क्या हुआ, जीत?” वफ़ाई जीत की तरफ दौड़ी, जीत का हाथ अपने हाथ में लिया, “जीत, तुम ठीक तो हो?” वफ़ाई के शब्द हवा में ही रह गये। जीत ने उसे नहीं सुना। जीत अभी भी हाँफ रहा था। उसे सांस लेने में कठिनाई हो रही थी। वफ़ाई को कुछ समज नहीं आया कि क्या हो रहा है? क्या किया जाय? दो चार क्षण वह सोचती रही, फिर दौड़कर पानी ले आई, जीत को पिलाने लगी, “थोड़ा पी लो। तुम थोड़ा विश्राम करो। मैं कहीं से किसी डॉक्टर को लेकर आती हूँ।“ जीत ने पानी पिया। पानी ...Read More

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हिम स्पर्श - - 62

62 द्वार पर वफ़ाई खड़ी थी। वह जीत को ही देख रही थी। जीत चौंक गया। कब वफ़ाई यहाँ खड़ी होगी? क्या वह मेरे अंदर चल रहे द्वंद को देख रही होगी? जीत ने अपने आप को देखा। उसके दोनों हाथों की मुट्ठी अभी भी बंध थी। दाहिना हाथ हवा में उठा हुआ था। एक विचित्र मुद्रा थी वह। जीत ने अपने उठे हुए हाथ को नीचे किया, हाथ की मुट्ठियाँ खोल दी, सीधा खड़ा हो गया। वफ़ाई को देखने लगा। उसकी आँखों में एक आभा थी, होठों पर स्मित था। भिन्न सी आभा, भिन्न सा स्मित! ...Read More

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हिम स्पर्श - 63

63 “उठो चलो, कहीं बाहर चलते है। कुछ अंतर साथ साथ चलते हैं।“ वफ़ाई ने कहा। “इस में कहाँ जाएँगे हम?” “क्यूँ? मरुभूमि में नहीं चल सकते क्या? चलने के लिए रास्ता ही तो चाहिए।“ “चरण भी तो चाहिए।” “चरण तो सब के पास होते हैं, उसे उठाने का साहस चाहिए श्रीमान।“ “यह साहस कहाँ से आता है?” “मैं तो चली, तुम आ जाओ मेरे पीछे पीछे।“ वफ़ाई चल पड़ी। “अरे, रुको। मैं भी...।” जीत पुकारता रहा, वफ़ाई चलती रही। जीत ने गति बढाई, वफ़ाई के साथ हो गया। दोनों साथ साथ चलते रहे। मरुभूमि खाली थी, मौन ...Read More

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हिम स्पर्श - 64

64 वफ़ाई के मन में कई योजनाएँ आकार ले रही थी। रोग तथा मृत्यु से अधिक मृत्यु भय और दिलशाद के द्वारा किया गया विश्वासघात जीत की समस्या है। जीत में जीवन अभी भी बाकी है। जीत अब जीना चाहता है। पहाड़ों पर जाना चाहता है। हीम से लड़ना चाहता है। उससे ही रोग की दवा भी चाहता है। तो तुम कुछ करो ना? मैं क्यूँ करूँ कुछ? इस क्यूँ का जवाब तो तुम भली भांति जानती ही हो। मुझ से क्यूँ पूछती हो? नहीं। बिलकुल नहीं जानती। तुम ही बताओ ना? देखो बता तो दूँ, किन्तु स्वीकार ...Read More

65

हिम स्पर्श - 65

65 मैं बार बार क्यूँ अकेला हो जाता हूँ? जब भी कोई मेरा साथी बन जाएगा ऐसी जागती है तब ही वह मुझसे बिछड़ जाता है। यह कैसा खेल है मेरे साथ, ए जिंदगी तेरा? किन्तु यह अकेलापन तो तुमने ही पसंद किया था। तुम ही तो चले आए थे इस मरुभूमि में। तो अब क्या हो गया? मेरे इस अकेलेपन को क्यूँ भंग कर देता है मेरा भाग्य? क्यूँ बार बार कोई आशा जगा कर चला जाता है? ना तो तुम अकेले हो और ना ही कोई तुम्हें छोड़ कर गया है। तो यह क्या है? ...Read More

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हिम स्पर्श - 66

66 संध्या ढलने को थी। समय, एक लंबी यात्रा करके सूरज को पश्चिम दिशा तरफ ले जा रहा था। ने आँखें खोली तब गगन के रंग बदल गए थे। स्वच्छ नीले गगन पर कहीं कहीं सफ़ेद हिम जैसे बादलों की टोली घूम रही थी। कोई पंखी दूर दूर उन बादलों को स्पर्श करने की अपेक्षा लिए ऊंचे, अधिक ऊंचे उड़ रहा था। जीत की द्रष्टि ने उस पंखी का पीछा किया। पंखी अत्यंत ऊपर तक जा पहुंचा, जीत की द्रष्टि भी। कुछ क्षण तक वह उस ऊंचे उड़ते पंखी को, भागते बादलों को, रंग बदलते गगन को देखता रहा। ...Read More

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हिम स्पर्श - 67

67 भोजन का समय हो गया। जीत प्रतीक्षा करने लगा कि अभी वफ़ाई कहेगी,”जीत, भोजन तैयार है। आ जाओ।“ प्रतीक्षा करता रहा। कोई आमंत्रण नहीं आया। अभी तक वफ़ाई ने पुकारा क्यूँ नहीं? वह नहीं पुकारेगी। क्यूँ? वफ़ाई होगी तो पुकारेगी ना? वह तो अब तक लौटी ही नहीं। नहीं लौटी? वह तो कहकर गई थी कि भोजन के समय से पहले वह लौट आएगी। भिजन साथ साथ कररेंगे। उसे अब तक तो लौट आना चाहिए था। किन्तु सत्य तो यही है कि वह अब तक लौटी नहीं है। वह लौट आएगी, अवश्य लौट आएगी। मैं प्रतीक्षा ...Read More

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हिम स्पर्श - 68

68 “तुम्हारे आने की, तुम्हारे पदचाप की ध्वनि सुनाई नहीं दी। जीप की ध्वनि भी नहीं सुनाई दी। मुझे ही नहीं रहा तुम्हारे आने का।“ जीत ने द्वार की तरफ देखा। जीप वहाँ खड़ी थी। “मैं कोई छुपते छुपाते नहीं आई। ना तो मेरे पदचाप मौन थे ना जीप की ध्वनि। कुछ भी असाधारण नहीं किया मैंने।“ “सब साधारण सा था तो फिर मैं ने कुछ भी सुना क्यूँ नहीं?” “जीत,जब हमारे अंदर कोलाहल हो तो बाहर की ध्वनि नहीं सुनाई देती। जब अंदर की ध्वनि तीव्र हो तब हमारे कान दूसरी किसी भी ध्वनि को नहीं पकड़ ...Read More

69

हिम स्पर्श - 69

69 अचानक जीत ने अपने हाथों को खींच लिया। वफ़ाई की प्रेम की लहरें ज्वाला में बदल गई। आग एक दरिया उभर आया जो धधक रहा था। वफ़ाई us आग में जलने लगी। वह चिख उठी, “जीत, मत जाओ, मुझे स्पर्श करो, मेरा हाथ पकड़ो, मेरे समीप आओ, मुझे आलिंगन दो, जीत।” वफ़ाई की चीख मरुभूमि की नि:शब्द रात्री में विलीन हो गई। वह फिर चीखी। चीख फिर से विलीन हो गई। वह तड़प उठी। उस अग्नि को वफ़ाई सह न सकी। वफ़ाई ने आँखें खोल दी। वह जीत को ढूँढने लगी। जीत कहीं नही दिखा। वफ़ाई ने गगन ...Read More

70

हिम स्पर्श - 70

70 “क्यूँ कि तुम एक मुस्लिम लड़की हो। तुम्हारा धर्म तुम्हें इस बात की अनुमति नहीं देता। पर बिंदी लगाना, श्रुंगार करना आदि तुम्हारे धर्म के विरूध्ध है। यह सब हिन्दू लड़कियों के लिए ही है। तुम इसे रहने दो।“ वफ़ाई सोच में पड गई। जीत सत्य कह रहा था। इस्लाम में यह अनुमति नहीं है। गहरी सांस लेकर वफ़ाई बोली, “यह सत्य है कि इस्लाम मुझे इस बात की मनाई करता है। किंतु यदि मैं बिंदी लगा लूँ तो कौनसी कयामत आ जाएगी?” “मैं नहीं जानता। मैं तो बस तुम्हारे धर्म का सम्मान करता हूँ और तुम्हें ...Read More

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हिम स्पर्श - 71

71 ललाट की उस बिंदी ने वफ़ाई के अंदर नया उन्माद जगा दिया। वफ़ाई विचलित हो गई, चंचल हो जीत ने वफ़ाई के उन्माद को, उस क्षण के उन्माद को परख लिया. उसने वफ़ाई को अपने आलिंगन में ले लिया। वफ़ाई ने दोनों हाथों से जीत को कसा। जीत ने भी वही किया। दोनों के बीच कोई अंतर नहीं रहा। दोनों इतने समीप थे कि हवा भी बीच में आने का साहस न कर पाई। दोनों ने एक दूसरे की आँखों में देखा। आँखों ने आँखों से कुछ बात कही, आँखों ने आँखों की बात सुनी, समजी और अधरों ...Read More

72

हिम स्पर्श - 72

72 “रुको। बस यहीं। यह जो चोटी दिख रही है न, बस यहीं पर। बस यहीं से जीवन जीना खो दिया था।” जीत ने हिम से ढँकी पहाड़ी की तरफ संकेत किया। “तो यह है वह पहाड़ी? क्या नाम होगा इसका?” वफ़ाई ने पहाड़ी की तरफ देखते देखते कहा। वह अभी भी पहाड़ी की ऊंचाई और फैले हुए हिम को देख रही थी। वफ़ाई को उस पहाड़ी ने चुंबक की भांति खींच रखा था। वह उसे देखती रही। “चोटियों के नाम नहीं हुआ करते। यहाँ इसे नंबर से जाना जाता है। तुम इस चोटी को इस तरह ...Read More

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हिम स्पर्श - 73

73 ”वफ़ाई, देखो आज सूरज नहीं निकला।“ “हाँ, पहाड़ियों पर दिवसों तक सूरज नहीं निकलता।“ “ऐसा क्यूँ होता है?” “यहाँ यह सामान्य बात है। अनेक बार सूरज संध्या के समय पर भी निकल आता है, जब वह डूबने वाला होता है।“ “तो क्या आज सूर्यास्त से पहले सूरज निकलेगा?” “मैं क्या जानुं? मैं थोड़े ही न सूरज की माँ हूँ?” “ओ सूरज की नानी। तुम भी...।“ “क्या?” “चलो छोड़ो यह सब। हम सूरज को प्रार्थना करते हैं। संभव है वह हमारी बात सुन ले।” “मुझे तो नहीं आती सूरज की कोई प्रार्थना, तुम्हें आती है?” वफ़ाई ने पीठ घूमा ...Read More

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हिम स्पर्श - 74

74 “जीत, कितना मनोहर है न यह द्रश्य? सूरज का इस तरह अस्त होना। चारों दिशाओं में हिम से पर्वत हो। नयनरमय घाटी हो। रंग बदलता सूरज हो।” वफ़ाई बोले जा रही थी। जीत ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। वह बस सूरज को, घाटी को और क्षितिज के रंगों को देखता रहा। वफ़ाई चिढ़ गई,“जीत, कुछ बोलो ना, कुछ कहो ना। तुम मेरी बात सुन रहे हो ना?” “शी...श....श..।” जीत ने वफ़ाई के अधरों पर उँगलियाँ रख दी। वफ़ाई मौन हो गई। जीत की भांति वह भी अस्त होते सूरज को देखती रही। धीरे धीरे सूरज और गहरी घाटी ...Read More

75

हिम स्पर्श - 75

75 “जीत, हम अपने लक्ष्य के निकट ही हैं।“ वफ़ाई ने जीत की तरफ देखा। जीत ने कोई उत्तर दिया। वह थोड़ा आगे जाकर रुक गया। “जीत, सुनो तो...। कुछ...।” “श...श...श...।” जीत ने वफ़ाई को रोका। जीत दूर कहीं देखने लगा। वफ़ाई भी उस दिशा में देखने लगी। वफ़ाई को कुछ समझ नहीं आया। उसने जीत की तरफ प्रश्नार्थ द्रष्टि से देखा। जीत ने दूर घाटी की तरफ हाथ का संकेत किया। वफ़ाई ने उस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित किया। “दूर पेड पर जमी हुई श्वेत हिम के बीच कुछ रंग दिखाई दे रहे हैं?” वफ़ाई ने उत्तर में ...Read More

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हिम स्पर्श - 76

76 “यह ऊंचाई अधिक होती है किसी भी मैदानी मनुष्यों के लिए। कैसा अनुभव हो रहा है यहाँ आकर?” इस अनुभव को शब्दों के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है?” “मैं नहीं जानती।“ “तो तुम जानती क्या हो?” “मैं जो जानती हूँ वह दिखाने जा रही हूँ तुम्हें।“ “क्या इससे भी अधिक सुंदर कोई नया अनुभव होना है? कहो क्या है वह?” “जोगी, ऋषि और सिध्ध पुरुष ऐसे ही स्थान पर रहते हैं यह तो सुना ही होगा, जीत।” “तो क्या हम किसी तपस्वी से मिलने जा रहे हैं?” “नहीं, तपस्वी नहीं। तपस्विनी को मिलने जा रहे हैं।“ वफ़ाई ...Read More

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हिम स्पर्श - 77

77 “नमस्ते। हमें आप अपना मित्र समझें। मैं याना और यह विक्टर।“ “नमस्ते। किन्तु...।” वफ़ाई ने प्रत्युत्तर दिया, किन्तु विस्मय से भरी थी। “आप हम पर विश्वास कर सकते हो। हम आपको कोई...।” विक्टर की बात सुनकर जीत ने कहा,”ठीक है मित्रों। किन्तु आप तो कहीं विदेश से आए लगते हो। यह हिन्दी?” “हमने सीख ली। हम जर्मनी से है। यह बातें तो होती ही रहेगी। क्या हम इस हिम को तोडने में आप की सहायता कर सकते हैं?” याना ने कहा। जीत ने उत्साह जताया,”वाह, यह तो बड़ी अच्छी बात कही आपने। वफ़ाई यह लोग...।” जीत ने वफ़ाई ...Read More

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हिम स्पर्श - 78

78 “आप? आप यहाँ कैसे?”वफ़ाई ने विस्मय प्रकट किया। वफ़ाई के शब्दों में आनंद भी था और भी। वह उस स्त्री की तरफ दौड़ी। “वफ़ाई आओ। आप सभी का मेरे आँगन में स्वागत है।“ उसने प्रसन्न स्मित से सब का स्वागत किया। “किन्तु यह जीत? इसकी यह स्थिति?” वफ़ाई उद्विग्न थी, चिंतित भी। “वफ़ाई, तुम निश्चिंत रहो। जीत को कुछ नहीं होगा।“ वह आगे बढ़ी। उसने आदेश दिया,“जीत को आप अपनी गोदी में सुला दो।“ विक्टर ने याना और वफ़ाई की गोदी में जीत को सुला दिया। “आप दोनों इसे जीत के हाथ और पाँव पर घिसो। और ...Read More

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हिम स्पर्श - 79

79 याना और विक्टर गुफा से बाहर की तरफ जाने लगे। गुफा को पार कर वह आगे लगे। दिशाओं की धारणा करते हुए उस दिशा में चलने लगे जहां से उन्होंने गुफा में प्रवेश किया था। दोनों कुछ समय तक चलते रहे किन्तु गुफा का वह मुख, जहां उन्होंने बरफ को काटा था, उन दोनों को दिखाई नहीं दिया। “अब तक तो वह प्रवेश स्थल आ जाना चाहिए था।“ याना ने संशय प्रकट कीया। “किंतु दूर दूर तक कहीं कोई संकेत ही नहीं मिल रहे है।“ “तुम अपना दिशा सूचक यंत्र निकालो। उसके सहारे हम उस स्थल ...Read More

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हिम स्पर्श - 80

80 विश्व की सभी TV चेनलों पर एक साथ अनेक कहानियाँ चलने लगी। एक, जीत और वफ़ाई की कहानी, में जीत और वफ़ाई कहाँ मिले, कैसे मिले और दोनों में किस स्थिति में कुछ ही दिवसों में प्रेम हो गया। दो, जीत तथा वफ़ाई ने बनाए अनेक चित्र और इन चित्रों की प्रदर्शनी, प्रदर्शनी का स्थल। यह सब बातें कला रसिकों में उत्कंठा जगा रही थी। अनेक जाने माने चित्रकार एवं चित्रों के सौदागर इस अनूठी प्रदर्शनी के लिए उत्सुक थे। तीन, हिम के पहाड़ों के बीच अकेली रहती एक स्त्री। उस स्त्री के आसपास लोगों द्वारा रचे गए ...Read More

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हिम स्पर्श - 81

81 “कहाँ है जीत?” आते ही डॉक्टर गिब्सन ने कहा। “आप यात्रा से आए हो। थकान भी थोड़ा विश्राम कर लो, पश्चात जीत को देख लेना।“ वफ़ाई ने कहा। “किसी भी डॉक्टर के लिए विश्राम से अधिक महत्वपूर्ण होता है रोगी का उपचार। चलिये, जीत से मिलाईये मुझे।“ “याना, वफ़ाई, आप दोनों डॉक्टर के साथ रहिए। विक्टर तुम डॉक्टर के साथियों के लिए उचित व्यवस्था करो।“ जोगन ने आदेश दिया। “जैसी आज्ञा।“ विक्टर ने कहा। “डॉक्टर, आप भी हिन्दी जानते हो?” वफ़ाई ने पूछा। “हिन्दी मेरी तीसरी मातृभाषा है।“ डॉक्टर ने स्मित करते कहा। “वह कैसे? तीसरी मातृभाषा ...Read More

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हिम स्पर्श - 82

82 “वफ़ाई।“ किसी ने वफ़ाई को पुकारा। विचारों से जागृत होकर वफ़ाई ने उस ध्वनि की दिशा द्रष्टि की। “तुम? बशीर तुम यहाँ?” वफ़ाई उठ खड़ी हो गई और बशीर की तरफ जाने लगी। अचानक ही उसके चरण रुक गए। वह वहीं रुक गई। “बशीर, यहाँ क्यों आए हो?” “वफ़ाई, तुमसे मिलने आया हूँ मैं।“ “क्यों? क्या कुछ भी बचा है अब?” “वफ़ाई...।“ “बशीर, तुम यहाँ से चले जाओ।“ “मेरी बात तो सुन लो।“ “तुम चले जाओ यहाँ से।“ “वफ़ाई। मेरी बात तो...।” “कुछ नहीं सुनना मुझे। तुम बस यहाँ से चले जाओ।“ बशीर चला गया। वफ़ाई आक्रंद ...Read More

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हिम स्पर्श - 83

83 प्रतीक्षा समाप्त हुई। डॉक्टर गिब्सन शस्त्रक्रिया कक्ष से बाहर आए। सभी की अधीर आँखें डॉक्टर की घूमी, अनेक प्रश्नार्थ लेकर। वफ़ाई के मन में विचार चल रहे थे, वह स्वयं से बातें करने लगी। मैं कोई अधीरता नहीं दिखाउंगी। कोई उत्सुकता नहीं दिखाउंगी। मैं अपने वचन का पालन करूंगी। मुझे डॉक्टर की आँखों के संकेत को पढ़ना होगा। मैं उसकी आँखों में देखती हूँ। डॉक्टर की आँखें भावशून्य क्यों है? उसमें कोई संकेत क्यों नहीं है? अथवा कोई संकेत है भी तो मैं उसे क्यों पढ़ नहीं पाती? मुझे यह आँखें दुविधा में डाल रही है। ...Read More

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हिम स्पर्श - 84

84 रात्रि व्यतीत हो गई। दुसरे दिवस भी प्रदर्शन चलता रहा। डॉक्टर गिब्सन तथा उसके साथी चित्रों आनंद लेते रहे, सबसे मिलते रहे। डॉक्टर वफ़ाई के समीप जा बैठे। “डॉक्टर, एक बात मेरे ध्यान पर आई है।“ “कहो वफ़ाई, क्या बात है?” “आप यहाँ इतने सारे व्यक्तियों से मिले। सभी ने इन चित्रों के विषय में आपसे चर्चा की। किन्तु किसी ने भी आपसे जीत की शस्त्रक्रिया का उल्लेख तक नहीं किया। किसी ने अभिनंदन भी नहीं दिये।“ “वफ़ाई। यह सब लोग यहाँ चित्र देखने आए हैं। मुझे तो यह भी संदेह है कि वास्तव में सब चित्र ...Read More

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हिम स्पर्श - 85

85 “जीत, क्या हुआ? तुम रुक क्यों गए? कहो जो कहना हो।“ वफ़ाई ने जीत से कहा। डॉक्टर नेल्सन....।“ जीत आगे नहीं बोल सका। जीत के मन में प्रेम तथा धृणा के मिश्रित भाव प्रकट हो गए। “क्यों याद कर रहे हो उन लोगों को?” “वफ़ाई, मैं उन्हें याद नहीं कर रहा हूँ, वो लोग यहाँ तक आ गए हैं।“ “कहाँ है? यहाँ कोई नहीं है हम दोनों के सिवा।“ “पीछे देखो, वफ़ाई।“ वफ़ाई पीछे घूमी। उसे एक स्त्री तथा एक पुरुष दिखाई दिये। यह तो वही दो व्यक्ति है जो सारे चित्र किसी भी मूल्य पर खरीदना ...Read More

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हिम स्पर्श - 86

86 “वफ़ाई, तुम यहाँ हो?” इन शब्दों ने मृत से चारों शरीरों में जीवन का संचार कर चारों ने ध्वनि की दिशा में देखा। दिलशाद, नेल्सन तथा जीत उस अपरिचित से व्यक्ति को देखते रहे, परिचय का कोई अंश खोजते रहे। वफ़ाई उन्हें देखकर विचलित हो गई। उसके मन में अनेक भाव उठने लगे, अनेक प्रश्न उठने लगे। वफ़ाई बहुत कुछ कहना चाहती थी, अंदर से खाली हो जाना चाहती थी किन्तु वह मौन रही। “वफ़ाई, चलो मेरे साथ। कुछ ही क्षणों में हमें लौटना है।“ उस युवक ने कहा। वफ़ाई के धैर्य का बांध टूट गया,”नहीं बशीर। ...Read More

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हिम स्पर्श - 87

वफ़ाई सावधानी से पहाड़ी मार्ग, जो अभी भी हिम से भरा था, पर जीप चला रही थी। मार्ग घुमावदार ढलान वाला था। हिम के कारण फिसलन भी थी। फिर भी वह अपने मार्ग पर चलती रही। पाँच घंटे की यात्रा के पश्चात वह सीधे और साफ मार्ग पर थी। आकाश साफ था, धूप निकल आई थी। हिम कहीं पीछे छूट गया था। हवा में उष्णता थी। उसे यह वातावरण अच्छा लगा। कोने की एक होटल पर वह रुकी। चाय के साथ थोड़ा कुछ खाना खाया। गरम चाय ने वफ़ाई में ताजगी भर दी, थकान कहीं दूर चली गई। वफ़ाई ...Read More