ये भी एक ज़िंदगी

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तमिलनाडु से महादेव और उनकी पत्नी पार्वती महाराष्ट्र के होशंगाबाद शहर में नौकरी के लिए आए । हिंदी ना जानने के कारण उन्हें बहुत परेशानी हुई । पार्वती अड़ोसी-पड़ोसी से बातें कैसे करें? भाषा की समस्या। पार्वती अकेली कैसे रहेगी? टूरिंग जॉब भी थी अतः पार्वती की छोटी बहन लाली को उनके साथ भेज दिया।

Full Novel

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ये भी एक ज़िंदगी - 1

अध्याय 1 तमिलनाडु से महादेव और उनकी पत्नी पार्वती महाराष्ट्र के होशंगाबाद शहर में नौकरी के लिए आए । ना जानने के कारण उन्हें बहुत परेशानी हुई । पार्वती अड़ोसी-पड़ोसी से बातें कैसे करें? भाषा की समस्या। पार्वती अकेली कैसे रहेगी? टूरिंग जॉब भी थी अतः पार्वती की छोटी बहन लाली को उनके साथ भेज दिया। महादेव जी अक्सर टूर पर ही रहते अतः दोनों बहनें ही साथ रहती थी। बाहर ठेले वाला कुछ बेचता तो छोटी बहन लाली जाकर क्या बोल रहा है और क्या चीज है देख कर आती और अपनी बहन को बताती तो उस चीज ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 2

अध्याय 2 एक दिन हमारे पिताजी भाइयों को बुला कर कुछ कह रहे थे और मेरे जाते ही चुप गए। मुझे तो यह बात बुरी लगी। मैं रोने लगी। पिताजी को मेरा रोना बिल्कुल पसंद नहीं। वे समझाने लगे "रेणुका तुम बहुत सीधी हो। तुम मेरी प्यारी बेटी हो मैं जानता हूं। आज कोई सज्जन आने वाले हैं। मैं उनसे मिलना नहीं चाहता। मैं इन्हें कह रहा था वह आए तो ‘मैं घर पर नहीं हूं कह देना।’ "पर रेणुका तुम तो सीधेपन में कह देती हमारे पापा ने ऐसा कहा है कि वह घर पर नहीं हैं ।"अब ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 3

अध्याय 3 उस जमाने में लड़का-लड़की दिखाने का रिवाज था। उस रिवाज के मुताबिक लड़के वाले मुझे देखने आ थे। मेरी नानी मुझे कुएं के पास पिछवाड़े में ले जाकर बार-बार समझाने लगी "देख रेणुका लड़के को देखकर तुम मना मत कर देना। तुम्हें पता हैं रेणुका वह कोने वाले घर की लड़की सीमा ने एक लड़के को देखकर मना कर दिया था और आज तक उसकी शादी नहीं हुई। ममता को तो तुम जानती ही हो रेणुका उसने भी लड़का काला है इसलिए मना कर दिया उसे उसके बाद और भी बुरा मिला।” मैं सिर्फ साढ़े अट्ठारह साल ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 4

अध्याय 4 मेरे पीहर में नल लगे हुए थे। गवर्नमेंट क्वार्टर्स थे। बाथरूम, रसोई और चौक सब में अलग-अलग यहां पर नहाने के लिए नमकीन पानी कुंए से खींच कर भरना पड़ता था। ताजा पानी पीने के लिए हेंडपंप को हाथ से चलाकर पानी निकालना पड़ता था। बहुत ताकत लगती थी। ऐसे काम मैंने कभी किया नहीं था। मैं चुप रहती कुछ नहीं बोलती मां-बाप को भी कह नहीं सकती। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे। मुझसे कुछ गलती हो जाती तो सासू मां पति से शिकायत करती तो वह कहते जो चप्पल पैर के लिए ठीक नहीं उसे ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 5

अध्याय 5 वहां मुझे रखने वाला भी कोई नहीं था। पर सासु मां ने मुझे पत्र लिखने के लिए ननद ने भी आते रहने को कहा। सब दिखावा मात्र था। खैर मुझे भोपाल ले आए । जितनी मुंह उतनी बातें। सारे मिलने जुलने वाले पूछने आ गए। मैं किसी के सामने गई नहीं। सब अम्मा से कुरेद-कुरेद कर पूछ रहे थे। अम्मा बहुत परेशान हो गई। मुझे तो सोने के लिए कह दिया । मैं तो चादर ओढ़ कर लेटी रही। एक हमारे खास पहचान की औरत थी उसने राय दी "रेणुका को डॉक्टर बनाओ।" मेरी अम्मा ने कहा ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 6

अध्याय 6 घर में आकर बताया घर वाले भी बड़े खुश हो गए। लड़का मुकेश स्वतंत्र विचारों का है। यहां पर खुश रहेगी। मुकेश को कह दिया हम सब तैयार हैं। मुकेश ने भी कह दिया मैं तैयार हूं। मैं एम.ए. फाइनल में थी। जवान लड़की के मन में लड्डू तो फूटते ही हैं। पापा मम्मी को लगा हम बेकार में इतने परेशान हो रहे थे हमें तो बहुत बढ़िया लड़का मिल गया। लड़के मुकेश को बुलवाया गया। आ जाइए शादी पक्का-वक्का कर देते हैं। मुकेश जी पधार तो गए। पर कोई भी बात सीधे तरह से कह नहीं ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 7

अध्याय 7 "आप आ गई हमें बहुत अच्छा लगा। अब आप गांव में मत जाना यही रहना हम लोगों अच्छा लगेगा ।" क्या जवाब दूं सोचूं इससे पहले पति मुकेश बोले "अजी यह पढ़ रही है ना? अभी थोड़े दिन में चली जाएगी। एग्जाम देकर आ जाएगी। गांव में भी तो रहना पड़ेगा।" मैं बेवकूफ जैसे हंस दी। यह क्या हो रहा है? मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आया। मैंने पहुंचने की कुशलता का पत्र मम्मी-पापा को भेज दिया था । इससे ज्यादा मैं और क्या करती। मुझे लगा कब मैं भोपाल जाऊं और सब कुछ मां ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 8

अध्याय 8 शाम को मेरे पति आते तो वे जो मकान बन रहा है उसे देखने जाते। वही जंगल था। सुनसान था। मुझे लोटा साथ में लेकर आने को कहते। मुझे उसको उठाकर लाना अच्छा नहीं लगता मैं थैले में रख कर ले जाती। अब मेरे ससुर जी पड़ोस की औरतों से कहते "मेरा बेटा खाने की चीजें लाता है उसे मेरी बहू थैले में ले जाकर जहां मकान बन रहा है वहां खाते है। मुझे नहीं देती।” जब उन लोगों ने यह बात मुझे कही तो मैंने उन्हें बताया "मैं थैले में लोटा लेकर जाती हूं। मुझे लौटे ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 9

अध्याय 9 किसी की चुगली करना या बुराई करना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। आप किसी के बारे में तो भी कह देंगे अरे हमें किसी से क्या लेना देना। तुम अपना काम करो। कोई आकर घंटों बैठकर उनसे बातें करता। उसके जाने के बाद मैं पूछती क्या कह रहा था? तो उनका जवाब होता "मैंने तो सुना ही नहीं। पता नहीं क्या बक रहा था। फालतू बातों पर मैं ध्यान नहीं देता।" ऐसी बहुत सारी खूबियां मुकेश जी में थी। जिससे मैं उनकी ओर आकर्षित होती चली गई। मुझे तो अफसर की चाह थी वह मुझे मिल चुका ...Read More

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ये भी एक ज़िंदगी - 10 - अंतिम भाग

अध्याय 10 मेरी बहू ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया। बहुत ही प्यारी बच्ची। मेरी जान उसमें थी। वह भी मुझे दादी-दादी कहकर मुझ पर जान देती थी। अच्छी होशियार बच्ची थी। मूलधन से ब्याज प्यारा होता है। मुझे भी बहुत प्यारी लगती थी । खैर इन सबके बीच में मेरे पति फिर बीमार हो गए। मेरे पति के पेट में एक बहुत बड़ी गांठ हो गई। टेस्ट में पता चला गांठ बहुत बड़ी है। एक टेस्ट में सही रिपोर्ट आई एक में कैंसर का डाउट हुआ। इतनी बड़ी गांठ थी कि पसलियों को तोड़कर गांठ को ...Read More