मैं तो ओढ चुनरिया

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कोई भूखा मंदिर इस उम्मीद में जाय कि उसे एक दो लड्डू या बूंदी मिल जाय तो रात आराम से निकल जाएगी और वहाँ से मिले मक्खन मलाई का दोना तो जो हालत उस भूख के मारे बंदे की होगी , बिल्कुल वैसी ही हालत इस समय मेरे माता पिता का थी । मागा था एक लड्डू । न सही लड्डू , मलाई का दोना तो मिला । शुक्र करते बार बार सिरजनहार का ।

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मैं तो ओढ चुनरिया - 1

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय एक कोई भूखा मंदिर इस उम्मीद में जाय कि एक दो लड्डू या बूंदी मिल जाय तो रात आराम से निकल जाएगी और वहाँ से मिले मक्खन मलाई का दोना तो जो हालत उस भूख के मारे बंदे की होगी , बिल्कुल वैसी ही हालत इस समय मेरे माता पिता का थी । मागा था एक लड्डू । न सही लड्डू , मलाई का दोना तो मिला । शुक्र करते बार बार सिरजनहार का । मेरे जन्म का स्वागत मेरे माँ – बाबा ने खुले दिल से किया था । करते ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 2

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय दो अगले दिन सूरज उगने से पहले मैं उठ बैठी तो माँ नींद भी खुल गयी । मेरे रोकर बताने पर भी माँ शायद समझ नहीं पाई थी , मेरा बिस्तर गीला हो गया था और मैं पैर पटककर सबको बुला रही थी । अम्मा ने दौङकर मुझे उठाया , मेरे कपङे बदलवाकर माँ को पकङा दिया । मुझे दूध पिलाते पिलाते माँ की नजर सतिए (स्वास्तिक) की चौकी पर रखी बही पर गयी । उसका वह पन्ना , रात में हवा के वेग से या किसी चमत्कार से पलट गया था ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 3

अध्याय तीन अगले छ: दिन सुख – शांति से बीत गये । सातवें दिन सुबह सुबह पूरा धोया - पोंछा गया । चादरें बदलकर नयी चादरें बिछा दी गयी । पुरानी धुलने के लिए डाल दी गयी । मुझे पहले तेल से नहलाया गया फिर दही और पानी से । नये कोरे कपङे में लपेट कर धूप में लिटा दिया गया । तब तक मुझे भूख लग आई थी । मैंने पुकारा – माँ । शायद यहाँ किसी को मेरी भाषा समझ नहीं आई । कहीं से कोई उत्तर नहीं मिला । मैंने ध्यान खींचने के लिए ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 4

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय चार आषाढ बीत गया। सावन आ गया । ढलते ही हवा में थोङी ठंडक घुलने लगी थी । कहीं आसपास ही बारिश हो रही होगी । माँ ने मुझे इतना कस कर तौलिए में लपेट लिया कि मेरा साँस घुटने लगा था । घबराहट के मारे मेरा बुरा हाल हो गया । मन कर रहा था कि यह तौलिया पैर मार - मारकर कहीं दूर फेंक दूँ और ये औरतें मुझे कपङों से लादती जा रही थी । मेरा हर विरोध बेकार हुआ जा रहा था । झाई ने मुझे ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 5

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय पाँच शाम होते ही दोनों मामा ,मां और दो संदूकों साथ रिक्शा में बैठकर हम सब चल पङे हैं । माँ ने मुझे दुपट्टे में छिपा रखा है । बाहर तरह तरह की आवाजें आ रही हैं और मैं इन्हें बिलकुल नहीं देख पा रही । यह अहसास मुझे उन दिनों की याद करवा रहा है ,जब मेरा जन्म नहीं हुआ था । माँ कहीं बाजार जाती , तब भी मैं सिर्फ सुन पाती थी । कुछ दिखाई नहीं देता था । तब मैं कितना डर जाती थी और पैर पटकती ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 6

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय छ: घर आते ही माँ ने सामान सम्हाल कर रखते शगुण में मिले पैसे गिने । कुल जमा तीन सौ रुपए हुए नोट और सिक्के मिलाकर । इतनी बङी रकम ! माँ पुलकित हो उठी । सगन काफी थे ,इसका अनुमान था उसे पर इतने निकलेंगे ऐसा तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था । पूरा दिन वह जोङतोङ और कतरव्योंत में लगी रही । क्या करे वह इतने रुपयों का । हैरान हो रहे हो न आप यह सब सुनकर । आज तो पैसे की कीमत ही नहीं है ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 7

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय सात साढे चार बजे के अंधेरे में बसअड्डे से निकली बस ने फगवाङा पार कर होशियारपुर की सङक पर पैर रखा , उधर सूरज ने अपने कंबल से थोङा सा मुँह बाहर निकाला । होशियारपुर पहुँचते ही सूरज अपनी रश्मि के साथ सैर पर चल पङा था । ड्राइवर ने बस एक ढाबे पर लगाई – भई दस मिनट रुकेंगे यहाँ । थोङी नींद की खुमारी उतार लें । तुम लोग भी मुँह हाथ धो लो । चाय पी लो पर सही दस मिनट में सीट पर बैठे मिलना । लोग आधे ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 8

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय आठ रात मंदिर से सटी एक धर्मशाला में बङे से में कटी । कोठारी ने दरियां झङवाकर बिछवा दी थी । रात को तुलाइयां और कंबल भी दे गया । लोग खुश हो गये ,- “ देखा महामाई सबकी फिकर खुद करती है । इन पंडित के मन में कैसे माया भर दी वरना आजकल कोई किसी की परवाह करता है क्या ? “ सोने जा रहे लोगों के बीच फिर से बातों का दौर चल पङा – लोग माता के चमत्कार की दंतकथाएं सुनाने लग पङे । यहीं ज्वालामुखी मंदिर ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 9

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय नौ टेढी मेढी पगडंडियों वाली सर्पाकार सङकें , जो ग्रामवधु तरह घूँघट में से झांक कर फिर दामन की ओट में हो जाती हैं । एक तरफ पहाङ , दूसरी ओर कई किलोमीटर गहरी खाइयाँ । हर तरफ हरियाली । आम और लीची के पेङ , लौकाट और अखरोट के पेङ । लहराती हुई मक्का की फसल । एक तरफ प्रकृति अपना मरकत का खजाना खोले मणियाँ बिखेर रही थी । दूसरी ओर गहरी खाई यमराज की सहेली लगती । जरा सी असावधानी से बस गहरी खाई में समा सकती थी ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 10

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय दस बुआ के जाने के दसवें दिन बुआ का पत्र । एक पोस्टकार्ड जिस पर लिखा कम गया था । काट पीट ज्यादा की गयी थी । हर लाईन लिखकर काट दी गयी थी । फिर आगे किसी फिल्म की कहानी लिखी थी और अंत में अनुरोध कि इस छोटी बच्ची का नाम सेवारानी नहीं सुलोचना या सुरैया ऐसे ही ढेरों सिने तारिकाओं के नाम थे और साथ ही ताकीद की गयी थी कि जल्दी जलदी मिलने के लिए बुलवा लिया करें । माँ कितनी देर तक उस पोस्टकार्ड को सीने ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 11

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 11 उस दिन के बाद से माँ और पिताजी के तनाव आ गया था । पिताजी का अहम उनको झुकने नहीं दे रहा था । माँ दोनों वक्त रोटी बनाती और चुपचाप थाली पिताजी के सामने रख देती । पिताजी चुपचाप रोटी खाते और काम पर चले जाते । माँ सारी रात मुझे आँचल में लिए रोती रहती । मैं उस दर्द को महसूस कर रही थी पर क्या करती ।कुछ करना चाहती थी ,पर एक दस महीने की बच्ची के मन की बात कौन सुनता । इसी माहौल में तीन ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 12

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 12 माँ ने हर खुली खिङकी और हर आधे खुले भिङे दरवाजे को श्रद्धा और प्यार से देखा और दोनों हाथ जोङ दिये । कुछ बूढी औरतें अपने घरों से बाहर आकर माँ से मिली । घूँधट निकाल कर दामाद को आशीष दी । मुझे गोद में लेने को हाथ बढाया पर मैं माँ से चिपक गयी थी । माँ ने सामान रिक्शा पर ही लदा रहने दिया और अन्दर अम्माजी के पास चली गयी । थोङी ही देर बाद अम्माजी नीचे उतरी और माँ का हाथ पकङे माथे तक घूँघट ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 13

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय - 13 सहारनपुर मुसलमानों का शहर । सहारनपुर शरणार्थियों का शहर । शहर के बीचोबीच मुसलमानों के मौहल्ले । और शहर से बाहर शरणार्थियों के कैंप । यहाँ सहारनपुर आकर मेरी दिनचर्या ही बदल गयी । सुबह बङे मामा अपने अखाङे जाने के लिए निकलते तो इधर से होकर ही निकलते । मेरी अठन्नी पक्की थी जो वे आते ही चुपचाप मेरी हथेली पर टिका देते । अगर मैं नहाकर नाश्ता कर चुकी होती तो अपने साइकिल के डंडे पर बिठाकर अपने अखाङे ले जाते । जहाँ एक लंबी दाढी और भगवा ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 14

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय - चौदह अभी तक आप पढ रहे थे , होने के बाद माँ की जिंदगी में व्यवस्था आने लगी थी कि अचानक पिताजी की नहर वाली नौकरी में छँटनी शुरु हो गयी । एक महीना तो जैसे तैसे निकल गया पर बकरे की माँ कब तक खैर मनाती । जिस दिन पगार मिली , उसी दिन काम पर से जवाब मिल गया । कुछ दिन जमा पुंजी से काम चला पर यह लंबे समय तक चलने वाला नहीं था इसलिए दम्पति ने फैसला किया कि एक बार फिर से सहारनपुर जाकर ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 15

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय पन्द्रह नियत समय पर सबने मिलकर बेबे को नहलाया । भगवा रंग के कपङे पहनाये , उन्हें पालथी मार कर बैठाया और उन्हे कहीं ले गये । मुझे समझ नहीं आ रहा था कि नानी कहीं चली गयी है तो ये सब इतना रो क्यों रहे हैं । जब उनका मन करेगा , वे लौट आयेंगी जैसे हम फरीदकोट जाते हैं फिर वापिस आ जाते हैं वैसे ही । फिर धीरे धीरे समझ आई कि बेबे अब नहीं आयेगी । वह भगवान के पास चली गयी है । ऊपर आसमान में ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 16

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय -16 पाठशाला में दो चीजें मुझे बहुत अच्छी लगती , तो तख्ती सुखाना । हम घर से एक तरफ वर्णमाला और दूसरी तरफ गिनती लिखकर लाते । बहनजी हर बच्चे को बुलाकर उसकी तख्ती देखती फिर तख्ती पोचने भेज देती और हम पाठशाला के इकलौते नल पर बैठे अपनी बारी का इंतजार करते । बारी मिलती तो इतना खुश होते मानो कारुं का खजाना मिल गया हो । फिर घिस घिस कर तख्ती साफ करते , फिर गचनी या मुलतानी मिट्टी से तख्ती पर लेप लगाते । इसके बाद तख्ती धूप ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 17

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय -17 पिताजी माँ की बात टाल गये । लेकिन माँ को सवार था इसलिए सुबह उठते ही उसने फिर से मकान बनाने की बात छेङी । पर पिताजी को काम पर जाना था और मुझे पढने सो बात बीच में ही रह गयी । समस्या पैसों की थी । मकान बनाना कोई गुङिया की शादी रचाना नहीं था । पर माँ की लगन का क्या करते । माँ मौके बेमौके मकान शुरु करने की बात ले बैठती । आखिर हार कर पिताजी नींव बनाने के लिए मान गये । माँ की खुशी का ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 18

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 18 कई दिन तक केसरादेई और उसकी कहानी मेरे दिमाग पर हावी रही । एक माँ अपने स्वार्थ के चलते किसी दूसरे की बेटी की जिंदगी बर्बाद कर सकती है । और एक तेरह साल की लङकी ने माँ बाप की इज्जत और धर्म के नाम पर अपनी पूरी जिंदगी लुटा दी बिना शिकवा शिकायत किये । कितना सहना पङा होगा उस तेरह साल की बच्ची को । फिर आदि होती चली गयी होगी इस जिंदगी की । एक दम गोरी चिट्टी रंगत में जैसे गुलाब और केसर का चूर्ण मिलाकर विधाता ने ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 19

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय -19 रजनी और रेखा से अगला घर था लाजवंती मामी का जिनके लङके और दो बेटियाँ थी । मामा की साईकिल के पंक्चर लगाने की दुकान थी बेहट बस अड्डे पर । तो बङे दोनों भाई भी हर छुट्टी वाले दिन दुकान पर चले जाते और दिनभर साईकिलों में पंक्चर लगाया करते । मामी को हर रोज कोई न कोई मारी लगी रहती तो बङी रानी घर को सारे काम करती । इतने बङे परिवार के कपङे दो कनस्तरों में उबालकर सिर पर लाद लाती रजबाहे पर और रजबाहे में लकङी का ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 20

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय बीस नींव की खुदाई शुरु हो गयी । दो मजदूर सुबह आठ ही आ जाते और मन लगाकर नींव की खुदाई करते । मैं स्कूल से लौटती तो माँ प्लाट में जाने के लिए तैयार मिलती । मुझे कपङे बदलवाकर वे मुझे लगभग घसीटते हुए तपती हुई सङक पर लगभग भागती हुई चलती । माथे से पसीना टपक रहा रहा होता । गरमी और धूप से मैं बेहाल हो जाती । प्यास से मेरा गला सूख रहा होता पर माँ तो अपनी ही धुन में चलती चली जाती । मैं रुआसी हो ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 21

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय इक्कीस बीस दिन की अनथक मेहनत के बाद नींव बन तैयार हो गयी । उस दिन हमने घर आकर पैसों की थैली निकाली और पैसे गिने । अभी भी उसमें पिचानवें रुपये पङे थे । माँ ने दो बार सिक्के गिने फिर मुझे गिनने को दिये । वाकयी पूरे पिचानवे रुपए बाकी थे यानि नींव और भरत का सारा काम सिर्फ चार सौ रुपये में निपट गया था । रात को रोटी खाने के बाद माँ ने वह थैली पिताजी के सामने रख दी । मैंने भी अपनी गुल्लक निकाली और ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 22

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय बाईस औरत की जिंदगी भी क्या है , दिन रात चूल्हे चौंके खपो । बाल बच्चे संभालो । रात में मन हो या न हो , थकान के मारे बदन बेशक दर्द कर रहा हो पर मरद का पहलू गरम करो । मरद का जब मन करे लाड लडाये और जब मन करे लातो घूस्सों से धुन कर रख दे । इस माधव नगर मौहल्ले की औरतें ऐसा ही अभिशप्त जीवन जीने को विवश थी । उस पर बात बेबात में घर भर के लोगों से गाली गलौज सुनना उनकी नियति थी ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 23

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय तैंतीस बचपन बचपन ही होता है । एकदम भोला और मासूम दुनिया जहान की फिक्रों से बेखबर । सीधा और सच्चा । इसकी बात यूँ याद आई कि मैं चौथी कक्षा में पढती थी । मेरी कक्षा में मेरे साथ तीस लङकियाँ और पढती थी । सब अलग अलग जातियों से । उसी कक्षा में चार कुम्हारों की लङकियाँ भी पढती थी । पुष्पा , शीला , दया और क्षमा । एक बार ये चारों लङकियाँ कक्षा से अनुपस्थित रहने लग गयी । एक दिन । दो दिन । तीन दिन । एक ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 24

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय चौबीस मरदप्रधान समाज में घर में एक मरद का होना अत्यावश्यक है वरना घर घर जैसा नहीं लगता । इसीलिए औरतों के लिए कोई आशीर्वाद नहीं बना । उनके हिस्से में जो भी आशीर्वाद आये , वे भी उन मर्दों के लिए हैं जिन पर वह औरतें आश्रित हैं । कुमारी लङकियों को आशीष मिलती है – तेरे भाई भतीजे बने रहें । और सुहागिनों को आशीष मिलती है – तेरा सुहाग बना रहे । दूधो नहाओ , पूतो फलो । सतपुत्री हो । भगवान सात बेटों की मीँ बनाये । पूतो ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 25

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय पच्चीस उन्हीं दिनों हमारे परिवार पर दुखों का पहाङ टूटा । बङे जी डाक विभाग में बङें बाबू हो गये थे । तार का कोर्स करके आने के बाद उनकी प्रमोशन तार क्लर्क के तौर पर हो गयी । उसके बाद उन्हें उपडाकघर का चार्ज देकर एक छोटे डाकखाने का प्रभारी बना दिया गया । अब वे सुबह साढे आठ बजे घर से जाते और देर रात गये वापिस आते । इन्हीं दिनों उनका ट्रांसफर बेहट हो गया । यह एक छोटा सा कस्बा था । मुस्लिम बहुल इलाका । छोटा सा ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 26

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 26 उम्मीद तो यह थी कि रात को दिये इंजैक्शन से भरपूर लेने के बाद मामाजी एकदम तरोताजा होकर उठेंगे और बिल्कुल ठीक हो जाएंगे पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । वे सुबह पाँच बजे दहाङते हुए उठे । उठते ही सामने रखी प्लेट मुक्का मार कर टेढी की फिर मोङकर तह कर दी । एक पीतल का तीन पाव दूधवाला गिलास तोङ दिया । फिर अपना पहना हुआ कुर्ता फाङा और भयानक हँसी हँसते हुए घर से बाहर दौङ गये । नानी और मामी ने शोर मचाया तो अङोस पङोस के ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 27

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय – सत्ताइस मामा का पागलपन थमने का नाम ही नहीं ले रहा । हर रोज वे अपने पागलपन में किसी को पकङ कर पीट देते । घर में तोङफोङ करते या फिर खुद को ही चोट पहुँचा लेते । इस बीच उन्होंने दो बार आत्महत्या की कोशिश भी की पर हर बार बचा लिये गये । बेचारी नानी और छोटे मामा , जहाँ भी कोई बताता , वहीं उन्हें ले जाते । कोई मंदिर , कोई गुरद्वारा , कोई मजार उन्होंने नहीं छोङा । हर रोज नया गंडा ताबीज उनके गले और ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 28

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 28 “ फिर उसने जंगल में जाकर पुकारा माँ “ ? , पुकारा न । अगले दिन मोहन ने जंगल में पहुँचते ही पुकारा – गोपाल भैया । कोई उत्तर नहीं मिला । उसने फिर पुकारा । मोहन लगातार गोपाल को पुकारता रहा । पेङ पौधे भी उसके साथ पुकारते – गोपाल भइया । पुकारते पुकारते उसका गला सूख गया तो भगवान प्रकट हुए । भाई मैं गाय चराने दूर निकल गया था । अभी किसी ने बताया कि तुम पुकार रहे हो तो दौङा चला आया । चलो तुम्हें पाठशाला पहुँचा ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 29

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 29 मैंने भी उस साल बारहवां साल पूरा कर लिया और तेरहवें साल में आ गयी थी । अब मैं नौवीं कक्षा में हो गयी थी । मैं मैडीकल विषय लेकर डाक्टर बनना चाहती थी पर नहीं बन सकी । उसके कई कारण थे – पहला कारण तो समाज था । तब तक समाज में लङकियाँ तभी तक पढती थी जब तक उनके लिए कोई योग्य दूल्हा नहीं मिलता था । पढाई ठीकठाक पढा लिखा वर पाने की गारंटी थी । जिस दिन कोई वर ठीक कर दिया जाता , उसी ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 30

अध्याय 30 मेरी क्लास में सबसे पीछे की सीट जो कक्षा के कमरे के एक कोने में रहती , हमेशा रिजर्व रहती थी । जहाँ बाकी सब लडकियाँ अपनी अपनी सीट के लिए भागती दौड़ती आती , लेट हो जाने पर अक्सर सीट छिन जाती , वहां वह कुर्सी हमेशा आने वाली का इन्तजार करती खाली पड़ी रहती । जब सब लड़कियां अपने बैग अपनी कुर्सी पर टिका कर प्रार्थना के लिए चली जाती , तब वह डरते डरते क्लास में आती । चुपके से कुर्सी पर बैठकर बस्ता गोद में लेती और पूरा दिन चुपचाप वहीं ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 31

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 31 अब स्याही और सोंफ की पुङिया बनाने का काम हो गया था पर टाफियों पर रैपर लपेटने काकाम बदस्तूर जारी था । कढाई के काम में मैंने महारत हासिल करली थी । कुछ कढाई मैंने पहले ही माँ से सीख ली थी बाकी मझली मामी ने सिखा दी । मामी की शेड इतनी खूबसूरत होती थी कि कोई यह न समझ पाता था कि कौन सा धागा कहाँ से शुरु होकर कहाँ खत्म हुआ । कई कई शेड के गुलाबी धागे लेकर वह गुलाब के फूल काढती कि देखने वाला ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 32

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 32 रातभर किताबें अलग अलग आकार प्रकार में मेरी आँखों सामने नाचती रही । ढेर की ढेर किताबें । जरा सा आँख लगती कि वे किताबें मेरे सामने नाचने लगती । मैं उन्हें पकङना चाहती तो वे गायब हो जाती । मैं उन्हें पकङने के लिए भाग दौङ करने में पसीना पसीना हो जाती तो मेरी नींद खुल जाती । सारी रात किताबों से मेरी आँखमिचोली चलती रही । इससे पहले माँ ने मुझे पाठ्यपुस्तकों के अलावा केवल व्रतकथा की पुस्तकें ही पकङाई थी जिनका पाठ मुझे पङोस की औरतों को ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 33

मैं तो ओढ चुनरिया 33 इस घटना के बाद दस बारह दिन शांति से बीत । एक दिन मैं क्लिनिक में बैठी जार से कफसिरप छोटी शीशियों में डाल रही थी । एक दिन की , तीन दिन की , पाँच दिन की खुराकें तैयार हो रही थी कि वह आदमी लपकता हुआ आ टपका – सुन , मेरी दवाई मिली ? हमारे यहाँ दिल की दवाई नहीं मिलती । तुम किसी स्पैस्टलिस्ट के पास जाकर दिखा आओ वरना तकलीफ बढ जाएगी तो मुश्किल में पङ जाओगे । वह कुछ अजीब तरीके से मुस्कराया – पर मुझे ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 34

मैं तो ओढ चुनरिया - 34 उस आदमीनुमा लङके का दिखाई देना तो बंद हो गया पर अपनी जगह कायम थे कि उस दिल के मरीज लङके ने किसी अच्छे डाक्टर को दिखाया या नहीं । उसे दिल की दवा मिली या नहीं । तभी किसी पङोसन के हार्ट अटैक से मरने की खबर मिली तो ये बेचैनी और बढ गयी । उन्हीं दिनों बाबी पिक्चर थियेटर में लगी । ऋषि और डिंपल के इश्क के चर्चे आम हो गये । अब सङकों पर लङके जोर जोर से मैं शायर तो नहीं और हम तुम इक कमरे ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 35

मैं तो ओढ चुनरिया अध्याय 35 कुरुक्षेत्र एक ऐतिहासिक , धार्मिक और सांस्कृतिक शहर है । वही जगह है, जहां भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। कौरवो और पांडवों के बीच हस्तिनापुर के राज सिंहासन की लड़ाई इसी जगह हुई थी, जिसे महाभारत के युद्ध के नाम से जाना जाता है। ब्रह्म कुंड को हिंदुओं द्वारा पवित्र माना जाता है और यह अविश्वसनीय रूप से सुंदर है। अल बरूनी के लेखन में इस पवित्र जलाशय का उल्लेख भी किया गया है। सूर्य ग्रहण पर यहां स्नान मेले में हजारों की भीड़ उमड़ती ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 36

मैं तो ओढ चुनरिया 36 हमारी गली में हमारे घर से चार घर छोङ कर थी मेरी सहेली संतोष । उसकी एक बहन थी कमली और एक भाई चंदन । उसके बाऊजी को मैं मामाजी कहती और माँ को मामी । मामाजी सीधे सादे सज्जन थे । सब्जी की रेहङी लगाते । जो भी बचता , उसी से घर का गुजारा चलता । तीनों भाई बहन पाँचवी तक पढे थे । उसके बाद पढने की गुंजाइश ही नहीं थी । दोनों बहने सलाइयां और ऊन या कोई तकिया लेकर माँ से नमूना सीखने आ जाती । ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 37

मैं तो ओढ चुनरिया 37 धीरे धीरे मेरी सारी सहेलियाँ शादी करवा कर अपनी ससुराल चली गयी और येन केन प्रकारेण अपनी ससुराल में सैट होने की कोशिश में लगी थी । यह वह समय था जब लङकियों की शादी पंद्रह साल से अट्ठारह साल के बीच कर दी जाती थी । वर का मात्र कुल गोत्र देखा जाता था या खानदान की प्रतिष्ठा । वर की आयु , आय या शिक्षा का कोई महत्त्व्र न था । यह मान लिया जाता था कि खानदानी लोग है । वहाँ लङकी को खाने पहनने की कोई कमी ...Read More

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मै तो ओढ चुनरिया - 38

मै तो ओढ चुनरिया 38 विजय दीदी की शादी के बाद सात महीने बीते होंगे कि उनसे साल छोटी मनोरमा जीजी की शादी भी तय हो गयी । परिवार बहुत अच्छा था और जीजाजी संस्कारी । शादी का मुहुर्त एक महीने बाद का ही निकला और एक सादे से समारोह के बाद यह जीजी भी दुल्हन बन कर अपनी ससुराल जा बसी । अब माँ को मेरी शादी की चिंता सताने लगी । वे अक्सर अपने भाइयों से मेरी शादी पर बात करती नजर आती । अक्सर वे किसी न किसी मामा के साथ भावी वर को ...Read More

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मै तो ओढ चुनरिया - 39

मैं तो ओढ चुनरिया 39 चाचाजी की सगाई ठीकठाक निपट गयी और हम सहारनपुर अपने घर लौट । अब शादी में दो महीने बाकी थे तो पिताजी जोरशोर से शादी की तैयारी में जुट गये । ये दो महीने तो नाचते गाते तैयारियाँ करते बीत गये । पिताजी इस शादी के लिए अतिरिक्त उत्साही थे । होते भी क्यों न आखिर इकलौते भाई की शादी की बात थी । माँ इन दिनों चिंता में डूबी नजर आती । पिताजी ने अपनी नौकरी छोङ दी थी । आजकल बाहर की बैठक में मरीज देखा करते । काम कोई ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 40

बड़ी मामी का मायके का परिवार भरा पूरा था । छ सात बहनें और चार भाई । तीन बहनों एक भाई की शादी हो चुकी थी । अभी तीन बहनें और तीन भाई कुंवारे थे । मामा की बीमारी में उनका हालचाल पूछने अक्सर भाई आते रहते थे । उनमें से राम भाई के साथ छोटे मामा की दोस्ती हो गई । ये राम मामा रेलवे में फर्स्ट क्लास के डिब्बे में कंडक्टर थे । हमेशा वर्दी में सजे रहते । छोटे मामा ने इन दिनों साबुन बनाने का कारखाना खोल रखा था । इस काम में मेहनत ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 41

मैं तो ओढ चुनरिया 41 इन मामी को पहली बार रसोई में हलवा बनाना था । सब मीठा खिला कर मीठे से जिंदगी की शुरूआत करनी थी । ये जैसे ही आटा भूनने बैठी तो आटा कहीं से जल गया , कहीं से कच्चा रह गया । घबरा कर जल्दी में पानी मिलाया तो आटे की गुठलियां बन गई । यह देख कर वे बुरी तरह से डर गई और जोर जोर से रोने लगी । उनके रोने की आवाज सुन कर मंझली मामी जो कमरे में बेटे को दूध पिला रही थी , वे दौङी आई ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 42

मैं तो ओढ चुनरिया 42 स्टेशन पर चाचाजी हमें साइकिल पर लेने आए हुए थे । पिता ने एक रिक्शा लिया । माँ पिताजी और मैं सामान के साथ रिक्शा पर बैठे । भाई चाचा जी के साथ साइकिल पर । टेढी मेढी तंग गलियों से होते हुए हम जैसे सारा शहर पार कर गये । ये चाचा जी हमें कहाँ लेकर जा रहे थे । अगर मैं दो तीन साल छोटी रही होती तो जरूर ताली बजाकर खिलखिला कर हँसती कि चाचा जी अपना घर भूल गये । हमारा घर तो गुरद्वारा बाजार में था । ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 43

मैं तो ओढ चुनरिया 43 इन्हीं व्यस्ताओं में पांच दिन बीत गये । छटे दिन चाचा जी को से पानी लाकर उबटन मल मल कर नहलाया गया । नये नकोर कपङे पहनाए गये । कंगना बंधा । सेहरा सजा । हाथ में तलवार पकङ कर वे राजा बन गये । घोङी पर बैठ कर वे गलियों में घूमे । आगे आगे बैंड बजता चला । गरीबों की इस बस्ती में ये सब कौतुहल की चीज थी । वे सब अपने घर के दरवाजे पर खङे अचरज से इस जुलूसनुमा बारात को जाते देख रहे थे । बैंड ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 44

सारे रास्ते माँ चुपचाप रही । बुलाने पर जितना पूछा जाए , उतना ही जवाब देती । न एक कम , न एक शब्द ज्यादा । वैसे भी वे कम ही खाती पीती थी घर से बाहर जाकर , केवल बहुत आवश्यक होने पर । पानी भी घूट घूंट ताकि सफर में झज्जर का पानी खत्म न हो जाए पर आज उन्होंने पानी का एक घूंट तक नहीं पीया । सोच में डूबी सीट से सिर टिकाए रही । भाई मेरी गोद में सोया रहा । मेरी पूरी रात जागोमीटी में बीती । कभी झपकी आ जाती , कभी ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 45

45 वह सारी रात मैंने तरह तरह की बातें सोचते हुए जाग कर निकाली । एक अजीब सा अहसास जो न दुखी होने देता था न खुश । मन में घबराहट अलग हो रही थी । बिल्कुल गुड्डे गुडिया के खेल की तरह लग रहा था । जैसे हम खेला करते थे । मेरी गुडिया है तू कल बारात लेकर आ जाना । घर में पङी मिठाई , नमकीन , कोई पकवान सभी सहेलियां ले आती और हम बाराती घराती कही बैठ कर वे सारा सामान खा लेते और अपने अपने खिलौने लेकर घर चले जाते । बिल्कुल उसी ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 46

46 चाचाजी की शादी सुख शांति से निपट गई और लगे हाथ मेरा भाग्य भी लिखा गया । जिंदगी से अपनी रफ्तार से चलने लगी थी । माँ भी अब धीरे धीरे सामान्य हो रही थी पर अब उनके सुर बदल गये थे । वे हर समय इस चिंता में रहती कि इतने बङे परिवार की मिलाई के इतने सारे कपङों का जुगाङ कैसे किया जाएगा । पिताजी तो पहले की तरह मस्त रहते पर चौबीस घंटे माँ चिंता में लीन रहती । हर आए गए के सामने एक ही बात । लङके के एक नानी , चार ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 47

मैं तो ओढ चुनरिया 47 इस तरह मेरी एम ए की पढाई का श्रीगणेश हो गया । बीच फूफाजी का खत आया कि स्नेह को एम ए में दाखिला दिला कर आपने अच्छा किया . मेरे भानजे ने भी कालेज में इवनिंग क्लास में एम ए इतिहास में दाखिला ले लिया है । पांच बजे दफ्तर से छूटता है तो साढे पांच बजे से कालेज जाता है । चलो दोनों की एम ए हो जाएगी । बाकी घर का काम अभी चल रहा है । तीन चार महीने अभी लगेंगे । पिताजी ने सुख की सांस ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 48

मैं तोोढ चुनरिया 48 माँ और मामी दोनों अपने अपने अहं में मस्त थी या शायद दोनों वाले की नाराजगी और गुस्से से डरती थी । अगर उन्होंने बात की तो सामने वाला पता नहीं किस तरह से प्रतिक्रिया दे । मजा यह दोनों ही बात करना चाहती थी पर शुरु कौन करे । इसी चक्कर में चार साल बीत गये । इस बीच बहुत कुछ बीत गया । नानी का घर तीन हिस्से हो गया । छोटे दोनों मामाओं ने अपने हिस्से बेच कर जवाहर पार्क में बेहटरोड पर दो सौ गज में बङा सा मकान ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 49

मैं तो ओढ चुनरिया 49 इस घटना की सूचना हमें मिली तो परिवार के सभी लोग हो गये । फौजी भाई साहब बेहद हँसमुख , जिंदादिल और मिलनसार व्यक्ति थे । सब को अपना बना लेने की कला उन्हें आती थी । जहाँ बैठते महफिल गुलजार हो जाती । हमेशा कोई न कोई बात सुनाते रहते । कई लोकगीत उन्हें याद थे जो वे पूरी शादी में जब तब सुनाते रहे थे । हमेशा हँसते और हँसाते रहते । चाचा की शादी में वे छाये रहे थे । भारत सरकार की नौकरी के चलते उन्हें ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 50

मैं तो ओढ चुनरिया 50 जैसे जैसे दिन बीत रहे थे , माँ की घबराहट बढती जा रही , ऊपर से पास पङोस के लोगों और रिश्तेदारों ने पूछना शुरु कर दिया था – शादी कब कर रहे हो ? पिताजी सहज भाव से कहते , भाई लङकी जितने दिन अपने पास रह ले , अच्छा है । एक बार शादी हो गई तो हमारे पास कहाँ रह पाएगी । जब मांगेंगे , फेरे कर देंगे । हमें क्या जल्दी है । पर माँ उन लोगों के जाने के बाद खीझ खीझ जाती । अक्सर पिताजी से ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 51

मैं तो ओढ चुनरिया 51 जैसे जैसे समय बीत रहा था , वैसे वैसे घर में तैयारियां हो थी पर गोद भराई का चढावा देख कर माँ का उत्साह बिल्कुल ठंडा पङ गया था । वे काम कर तो रही थी पर बेमन से । मामू हर रोज आजकल जल्दी आने लगे थे । वे हर रोज आते और पिताजी के सामने बैठ जाते । बीच बीच में कफ सीरप छोटी शीशियों में भरने लगते या फिर चुपचाप बैठे मुँह ताकते रहते । ये मामू जगत मामू थे । वैसे तो ये पिताजी के मामा थे पर ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 52

मैं तो ओढ चुनरिया 52 ये मामू मुझे बहुत प्यार करते थे । पिछले पंद्रह बीस से वे हमारे साथ रह रहे थे । हर रोज बर्फी और रबड़ी का दोना मेरे लिए आता रहा । हर साल जैसे ही नतीजे आते , वे हर रोज काम से लौटते ही पिताजी से पूछते – रवि आज पपले की किताबें नहीं खरीदी । इस बीच मजूरी के पैसे मिलते तो गत्ते , अबरी और किरमिच खरीद लाते । जिस दिन किताबें घर आती उनकी काम से छुट्टी हो जाती । माँ लाख कहती , काम पर ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 53

53 शादी से पाँच दिन पहले सात सुहागिने बुलाई गई । माँ ने उन सबकी कलाई में कलावा बांधा सबको किनारी गोटा जङे गुलाबी दुपट्टे ओढाए गए । अंत में पता चला , ये सब कुल मिला कर ग्यारह हो गई हैं । कोई न जी, हर समय ये सात न मिली तो इन ग्यारह में से मिला कर कोई सात तो मिल ही जाएंगी । उस दिन सबने सुहाग के गीत गाते हुए गेँहू धोए और धूप में सूखने डाले । सात मुट्ठी उङद की दाल भिगोई और सब पतासे लेकर बिदा हुई । अगले दिन ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 54

55 फेरों का मुहुर्त आ गया था । वर पक्ष के लिए वेदी की दाई ओर गद्दे बिछाए गए उस पर चादरे बिछाई गई । घर के लोगों के लिए बाईं ओर चादरें बिछी । सामने पंडित जी का आसन लगाया गया था । उसके ऐन सामने वर वधू के बैठने की व्यवस्था की गई थी । थोङी देर में ही वर पक्ष के लोग फेरों के लिए हाजिर हो गये । वर को हाथ पैर धुला कर आसन पर बैठाया गया । पंडित जी ने वर पूजा शुरु करवाई । पिताजी ने वर की पूजा की । ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 55

55 घर और शहर पीछे छूट गया था और एक नया शहर मेरा इंतजार कर रहा था या सीधे कहूँ तो शहर का मैं इंतजार कर रही थी । थोङी थोङी देर में कोई स्टेशन आता तो बराती वहाँ उतर जाते , चाय लेते और चुसकियाँ ले कर पीने लगते । कोई एक कप मेरे हाथ में थमा जाता । एक दो बार तो जैसे तैसे मैंने चाय पी ली पर उसके बाद तो गले से ही न उतरती । हे भगवान ये लोग कितनी चाय पीएंगे । गाङी अंबाला कैंट पहुँची तो इनकी नींद खुली – तू सोई ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 56

मैं तो ओढ चुनरिया 56 घर और शहर पीछे छूट गया था और एक नया शहर मेरा कर रहा था या सीधे सीधे कहूँ तो शहर का मैं इंतजार कर रही थी । थोङी थोङी देर में कोई स्टेशन आता तो बराती वहाँ उतर जाते , चाय लेते और चुसकियाँ ले कर पीने लगते । कोई एक कप मेरे हाथ में थमा जाता । एक दो बार तो जैसे तैसे मैंने चाय पी ली पर उसके बाद तो गले से ही न उतरती । हे भगवान ये लोग कितनी चाय पीएंगे । गाङी अंबाला कैंट पहुँची तो ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 57

मैं तो ओढ चुनरिया 57 खैर सासु जी बिना कुछ कहे भीतर चली गई और उनके पीछे जेठानी भी तो मैंने सुख की सांस ली । शुक्र है , गहरा कर आए बादल बिना बरसे लौट गये वरना काम तो हमने गरजदार बौछारों और बिजली गिरने का किया था जिसमें डूबना तय था । जब से होश संभाली थी तब से मौहल्ले और रिश्तेदारी की कई दुल्हिनों का गृहप्रवेश देखा था , हर जगह दूल्हा दुल्हन आकर द्वार पर प्रतीक्षा करते तब सास जेठानियां थाल कलश लिए आते । सौ तरह के रीति रिवाज निभाए जाते । ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 58

मैं तो ओढ चुनरिया 58 जेठानियाँ जैसा उन्होंने मुझे बताया था कि वे रिश्ते में मेरी जिठानी हैं , मुझे लड्डू खिलाकर थाली वहीं मेरे सामने रख कर एक बार गायब हुई तो दोबारा नजर नहीं आई ।। लड्डू और बालूशाही खाकर पेट को थोङी शांति मिली तो इतनी देर से रोकी हुई नींद सिर पर सवार हो गई । पता नहीं इस नये घर में मुझे सोना कहाँ है , किससे पूछूं , कोई दिखाई ही नहीं दे रहा । ये औरतें तो उस नये पैदा हुए बच्चे को घेरे होंगी । आखिर जब बैठ ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 59

मैं तो ओढ चुनरिया 59 एक तो नया शहर , ऊपर से नया घर , माहौल , नये लोग और इस तरह का अकेलापन । मन बुरी तरह से घबरा रहा था । कोई तो आए जिसकी आवाज कानों में सुनाई पङे । बैठ कर इंतजार करते करते मैं ऊंघने लगी थी और ये दीदी आने का नाम ही नहीं ले रही थी । सिर झटके खाने ही वाला था कि अचानक ये लपकते हुए आए और दरवाजे का कुंडा बंद । मैंने डरते डरते कहा – यहाँ दीदी अपना बिस्तर बिछा कर गई ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 60

मैं तो ओढ चुनरिया 60 कमरे में आकर मैंने बाल संवारे । मांग में सिंदूर लगाया । माथे सिंदूर की ही बिंदी लगाई और सिर ढक कर कुर्सी पर बैठ गई कि अब कोई चाय नाश्ते के लिए पूछने आएगा लेकिन आधे घंटे तक कोई नहीं आया । तब तक दिन निकल आया था ।दिन निकलने के साथ साथ पूरे घर में कानाफूसी शुरु हो गई । “ कैसी बेसहूरी बहु है । पहले ही दिन पहने हुए कपङे उतार कर गुसलखाने में फेंक दिए । कोई और धोने आएगा क्या ?” पूरे घर के लोग मुँह ढक ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 61

मैं तो ओढ चुनरिया 61 ग्यारह बजे से दोपहर हुई फिर शाम हो गई । पूरा दिन इंतजार करते बीत गया । धीरे धीरे अंधेरा छाने लगा । रात उतर आई पर अभी तक जरनैल का कोई पता न था । किससे पूछूं । कौन बताएगा । मन बुरी तरह से घबरा रहा था । रात की रोटी खाई जाने लगी । यहाँ इस घर में सात बजते बजते रोटी निपटा ली जाती है । सब रोटी खा कर दूध का गिलास पी पी कर सोने चले गये ।हमारे घर में पिताजी नौ बजे तक क्लीनिक पर ...Read More

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मैं तो ओढ चुनरिया - 62

मैं तो ओढ चुनरिया 62 पूरी रात मैं आज के घटनाक्रम पर विचार करती रही । बिना कसूर के मिली गालियां । फिर घड़ी मिल जाने पर खुशी । हमारे घर तो छोटी से छोटी चीज भी किसी के लिए आती तो वह दिन सबके लिए त्योहार का दिन होता । प्रसाद बनता । ठाकुर जी को भोग लगता । सब लोग मीठा खाते और खुश होते । पर यहाँ तो हर बात अलग थी । धिन निकलते ही मैंने अटैची में मैंने सिले अनसिले बहुत सारे कपड़े रख लिए । सोचा मायके में बैठ कर ...Read More