सायमा का घर जैसे-जैसे समीप आता जा रहा था, उसके मन-मस्तिष्क में विचारों का प्रवाह गतिमान होता जा रहा था। रेलवे स्टेशन के बाहर आ कर उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई। बसें, टैम्पों, आॅटो रिक्शे, गाडि़याँ, कोलाहल व भीड़। जिधर दृष्टि जाती उधर भागते लोग, भागता शहर। बाहर मची आपा-धापी का दृश्य देख कर पहले तो वह धबरा गई। पुनः मनोभावों पर नियंत्रण करते हुए वो साहस के साथ आगे बढ़ी। मनोभाव अनियंत्रित हों भी क्यों न? इस शहर में उसके हृदय का अंश अर्थात उसकी पुत्री सायमा जो रहती है। वैसे तो इससे पूर्व भी वह कई बार इस शहर में आ चुकी है किन्तु सायमा के विवाह के पश्चात् वह प्रथम बार इस शहर में आ रही है। स्टेशन से बाहर आ कर पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अर्तगत् वह अपने एक परिचित को फोन करके बुला लेती है। प्रथम बार अकेले वह सायमा के घर जाना नही चाहती। कोई तो हो साथ में सगे-संबन्धियों जैसा। उसका कोई नही है जो उसके साथ चल सके, उसके साथ खड़ा हो सके । इसी अभाव को पूर्ण करने के लिए उसने अपने एक परिचित् को अपने साथ चलने के लिए बुलाया है।
Full Novel
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 1
(स्त्री केन्द्रित कहानियाँ ) नीरजा हेमेन्द्र कहानी- 1 ’’ ...........किन्तु मैं हारूँगी नही ’’ सायमा का घर जैसे-जैसे समीप जा रहा था, उसके मन-मस्तिष्क में विचारों का प्रवाह गतिमान होता जा रहा था। रेलवे स्टेशन के बाहर आ कर उसने चारों ओर दृष्टि घुमाई। बसें, टैम्पों, आॅटो रिक्शे, गाडि़याँ, कोलाहल व भीड़। जिधर दृष्टि जाती उधर भागते लोग, भागता शहर। बाहर मची आपा-धापी का दृश्य देख कर पहले तो वह धबरा गई। पुनः मनोभावों पर नियंत्रण करते हुए वो साहस के साथ आगे बढ़ी। मनोभाव अनियंत्रित हों भी क्यों न? इस शहर में उसके हृदय का अंश अर्थात उसकी ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 2
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ कहानी 2- ’’ पहा़ड़ों पर नर्म धूप ’’ मेरी आँखें उसे ढूँढ रही थी। कहीं न पा कर मेरी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। न जाने क्यों? मैं उसे ठीक से जानता तक नही। उसे ठीक से जानना तो दूर, अभी उसका नाम तक नही जानता, फिर भी उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने कलाई घड़ी पर दृष्टि डाली, नौ बज रहे थे। मैं समय से आधे घंटे पूर्व ही कार्यालय आ गया था। कार्यालय के बाहरी कक्ष में जो कि स्टाफ रूम है, वहाँ बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा। इस समय एक-एक ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 3
कहानी -3- आदमकद दर्पण के सामने खड़ी हो कर वह स्वयं को ध्यानपूर्वक देख रही थी। उसने अपना चेहरा कोणों से घुमा-घुमा कर देखा। पुनः स्वयं को नख से शिख तक देखा। भरपूर दृष्टि व हर कोण से देखने के पश्चात् वह स्वयं पर मुग्ध होती हुई सोचने लगी , ’’ वह तो आज भी आज भी अत्यन्त आर्कषक लगती है। उसका आर्कषक लम्बा कद, गेंहुआँ रंग, तीखे नाक-नक्श, तथा इस उम्र में भी शारीरिक गठन में यथोचित् कटाव व लचीलापन! ’’ वह स्वयं से बातें करती हुई बुदबुदा उठी,’’ वाह, मोनिका चन्द्रवंशी! तुम तो आज भी गज़ब की ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 4
कहानी- 4- ’’ माँ ’’ बड़े ही उत्साह से वो मेरे पास आया तथा मेरे पैरों को छूने के झुक गया। कुछ ही क्षणों में मेरे दोनों हाथ उसके सिर के ऊपर आशीर्वाद की मुद्रा में थे। मुख से स्वतः निकल पड़ा, ’’खुश रहो मेरे बच्चे........जीते रहो। ’’ आशीर्वाद के इन शब्दों सुनकर वह सन्तुष्टि व गर्व के भाव के साथ मुझे देख कर मुस्कराने लगा। कुशल क्षेम पूछने के पश्चात् उसे भोजन के लिए कह कर मैं रसोई में जा कर उसके लिए खाना गरम करने लगी। मेरे पीछे-पीछे वह भी रसोई में आ गया। मुझे खाना गर्म ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 5
कहानी-- 5- ’’मैं पानी हूँ ’’ मुर्गे ने बांग दी है। भोर की बेला है। बस, सवेरा होनेे वाला कुछ ही देर में सूर्य अपनी प्रथम रश्मियाँ पूरी सृष्टि पर बिखेर देगा, किन्तु रात की परछाँइयाँ अब भी पूरे गाँव पर पसरी हैं। उध्र्वगामी रात्रि गहरी नही है। सब कुछ स्पष्ट दिख रहा है। सामने नीम का पेड़, गाँव के कच्चे-पक्के घर, फूस की दलान, कुआँ व कुएँ के इर्द-गिर्द बना पक्का चबूतरा, पीपल का पुराना पेड़ तथा पास में शिव जी का मंदिर । रज्जो के घर के सामने का पूरा दृश्य उसे स्पष्ट दिख रहा है। कच्ची ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 6
कहानी 6- ’’ अमलतास के फूल ’’ मैं ठीक समय पर बैंक में पहुँच कर अपने कार्य में व्यस्त गयी। व्यस्तता तो थी किन्तु हृदय आज कुछ विचलित और अशान्त-सा भी हो रहा है। मैं ये तो नही कह सकती कि ’’न जाने क्यों? ’’ आज हृदय के विचलित होने का जो कारण है उसे मैं समझ भी रही हूँ। प्रतिदिन की भाँति आज भी प्रसन्न मन से मैं कार्यालय आयी थी। बैंक आकर जब कुछ सहकर्मियों ने मुझे मेरे जन्मदिन की बधाई दी तब मुझे स्मरण हुआ कि आज मेरा जन्मदिवस है। जीवन के आपाधापी में मैं आज ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 7
कहानी-7- ’’ ये दुनिया है......मित्र ! ’’ एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् आज अकस्मात् कुसुम का फोन आया था, मुझे कुछ क्षण अवश्य लगे कुसुम को पहचानने में। किन्तु जब पहचान गयी तो कुसुम से ऐसे अपनत्व से बातंे होने लगीं जैसे हमारे बीच पन्द्रह वर्षों का अन्तराल ही न आया हो। मंै कुसुम से अब भी उसी बेफि़क्री व बेपरवाही व मस्ती के अन्दाज में बातें करना चाह रही थी जैसे हम वही पहले वाली युवा दिनों की स्कूल की सहेलियाँ हों तथा बातें करते समय फिर से वही बेसिरपैर की-सी बेवकूफियों वाली बातें करेंगी जिनका यर्थाथ से ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 8
’कहानी’ - 8- ’’ये वो प्रियम्बदा तो नही’’ मैं आॅटो के लिए खड़ी थी। पीछे से किसी ने कंधे हाथ रखा। मैं चैंक पड़ी। पलट कर देखा तो वो खड़ी थी। मैं उसे देखकर मुस्करा पड़ी। प्रत्युत्तर में वह भी मुस्कराती हुई बड़े ही अपनत्व से मेरा हाथ पकड़ कर खड़ी हो गयी और मेरा हालचाल पूछने लगी। मैंने भी उसका हाल पूछा और बातों का आदान-प्रदान होने लगा। उस दिन भी वह पूर्व की भाँति खूबसूरत लग रही थी। किन्तु इस खूबसूरत चेहरे के सौन्दर्य के पीछे छिपी उसकी पीड़ा मेरी दृष्टि से छुप न सकी। भले ही ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 9
कहानी--9- ’’ पीले पत्ते ’’ राजेश्वर की नींद तो न जाने कब की खुल चुकी थी। कदाचित् प्रातः चार पूर्व, किन्तु वह बिस्तर पर लेटे-लेटे बहुत देर तक यूँ ही करवटें बदलते रहे । चार बजे उठ कर बाथरूम भी हो आये। पानी भी पी लिया। खिड़की का पर्दा सरका कर देखा तो बाहर अँधेरा था। आ कर पुनः बिस्तर पर लेट गये। किन्तु नींद नही आ रही थी। विस्तर पर उन्हें कमरे के अन्धकार में भी खुली आँखों से जैसे सब कुछ दिख रहा था। कमरे में चलते पंखे, दीवारों पर टँगे कलैण्डर, दवाईयों की मेज, कोने मंे ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 10
कहानी -10- ’’ विमर्श आवश्यक नही ’’ जीवन के जो क्षण, दिन, माह, वर्ष, व्यतीत हो जाते हैं, वो नही हमारी स्मृतियों से भी मिट जाते। बीते समय क्यों हमारे एकान्त पलों में दस्तक देने लगते हैं, स्मृतियों के पन्ने खुलते जाते हंै पृष्ठ दर पृष्ठ................ .......... ’’ नताशा ! देखना बेटा, वरूण की दवा का समय होने वाला है।’’ अपने श्वसुर रामदीन के कहने से पूर्व ही नताशा वरूण की दवा देने के समय का पूरा ध्यान रखे हुए थी। वरूण को ठीक एक बजे खाना देना है। उससे पूर्व उसे दवा देनी है। खाना तैयार है। वह ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 11
कहानी-11’ ’’ये नही है तुम्हारी नियति ’’ बसंती अपना घर साफ करते-करते घर के सामने की गली को भी जा रही थी। यह काम उसका प्रतिदिन का है, झाड़ू लगाते-लगाते वह ’’अंकितवा......ओ....अंकितवा...’’ कह कर अपने बड़े लड़के को पुकारती जा रही थी। अंकित घर से थोड़ी दूर सामने पेड़ के नीचे मोहल्ले के लड़कों के साथ खेल रहा था। बसंती के चार बच्चे हैं। जिनमें दस वर्षीय अंकित सबसे बड़ा हैं। माँ के पुकारने के स्वर को सुन कर भी अंकित ने अनसुना कर दिया तथा पूर्ववत् खेलता रहा। झाड़ू लगाने के बाद बसंती ने उसकी तरफ पलट कर ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 12
कहानी 12 - ’’ समर्पण से कहीं आगे ’’ रेचल शनै-शनै सीढियाँ चढ़ती हुई छत पर आ गई। प्रातः नौ बज रहे थे। वह आज छत की साफ-सफाई करवाने के लिए ऊपर आयी है। मजदूर छत पर बेकार पड़ी वस्तुओं को एक तरफ हटा कर रख रहा था। वह उसे अनावश्यक पड़ी वस्तुओं हटाने तथा आवश्यक चीजों को सही स्थान पर रखने का निर्देश देती जा रही थी। । अगले माह रेचल की बड़ी पुत्री का व्याह है। विवाह की तैयारियों मे अजीत भी जी-जान से जुटा है। रेचल ने छत से चारों तरफ देखा। आज खुला आसमान कितना ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 13
कहानी-13- ’’ पगडंडियाँ ’’ नोरा ने स्टाफ रूम में आ कर मेज पर अपना पर्श रख दिया। तत्पश्चात् कुर्सी आराम से बैठते हुए गले में लिपटे ऊनी स्कार्फ को कस कर कानों के इर्द-गिर्द लपेट लिया। स्टाफ रूम की खिड़की के समीप रखी इस कुर्सी पर बैठना उसे अत्यन्त पसन्द है। आज कुर्सी खाली थी, अन्यथा कई बार कोई और इस कुर्सी पर बैठ जाता है तो उसे किसी अन्य स्थान पर बैठना पड़ जाता है। जो उसे पसन्द नही है। यहाँ बैठ कर खिड़की के बाहर देखना उसका पसंदीदा शगल है। आजकल इस खिड़की के दरवाजे बन्द रहते ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 14
कहानी -14 ’’ मुक्त कर दो मुझे ’’ वह तीव्र कदमों से कार्यालय की ओर बढ़ती जा रही थी। की जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ ही साथ उसे कार्यालय भी समय पर पहँुचना है। यदि वह अकेली होती तो अपने लिए खाने-पीने की व्यवस्था कहीं पर भी कर लेती। कुछ भी रूखा-सूखा खा कर जीवित रह लेती, किन्तु घर में माँ-पिताजी हैं। उनके लिए भी कुछ करना है। एक तो वृद्ध शरीर ऊपर से उम्र जनित बीमारियाँ। उनके खाने पीने की अलग से व्यवस्था कर उनके लिए दवा इत्यादि रख कर उन्हें समझा कर आने में उसे कभी- ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 15
कहानी- 15 ’बिब्बो’ बड़े शहरों को जहाँ बड़े-बड़े बंगले, बिल्डि़गें, चैड़ी साफ सुथरी सड़कें, माॅल्स,दुकाने, बड़े-बड़े कार्यालयों में कार्य अफसरों, बाबुओं व व्यापारियों का समूह बड़ा बनाता है, वहीं शहरों को बड़ा बनाने में यत्र-तत्र अवैध रूप से बसी झुग्गी-झोंपडि़यों व उनमें बसने वाले लोंगों का भी योगदान कम नहीं है। सही अर्थों में इन तबके के लोग ही बड़े शहरों के निर्माण कत्र्ता हैं। इन अवैध रूप से बसी बस्तियों में शहरों के आस-पास के गाँवों से आकर रहने वाले लोगों में बहुत से कुशल कारीगर हैं जो जीवन यापन के लिये अपनी झोपड़ी के कम स्थान में ...Read More
जी हाँ, मैं लेखिका हूँ - 16 - अंतिम भाग
कहानी -16- ’’ वो एक वामा हैं ’’ मोबाइल फोन की घंटी बजी। मैं उठ कर नम्बर देखती हूँ। नम्बर चन्दा चाची का है। आज लम्बे अरसे बाद उनका फोन आया है। मैं उत्सुकतावश तीव्र गति से फोन रिसीव करती हूँ। मेरे ’हैलो’ कहने के पश्चात् उधर से चन्दा चाची की आवाज आती है, ’’हलौ,....हलो......स्मृति बेटा ? ’’ हाँ, मैं स्मृति बोल रही हूँ। नमस्ते चाची।’’ प्रत्युत्तर में चाची कहती हैं ’’खुश रहो बेटा।’’ मे पुनः पूछती हूँ ’‘ कैसी हैं चाची ! सब ठीक तो है ? ’’ हाँ...हाँ....बेटा! यहाँ सब कुशल मंगल है।’’ चंदा चाची के इन ...Read More